Tuesday, November 3, 2015

GAYATRI MANTR गायत्री मंत्र

GAYATRI MANTR
गायत्री मंत्र
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
गायत्री को वेदों की जननी कहते हैं, क्योंकि वेद इसी से प्रकट हुए हैं।
स्मृतियों और शास्त्रों में गायत्री की बड़ी भारी महिमा है। गायत्री में स्वरूप, प्रार्थना और ध्यान :- इन तीनों में परमात्मा के ही होने से, इससे परमात्म तत्व की प्राप्ति होती है; इसीलिए यह भगवान् की विभूति है।
तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात् 
जो सविता हम लोगों की बुद्धि को प्रेरित करता है, सम्पूर्ण श्रुतियों में प्रसिद्ध उस द्योतमान जगत्स्रष्टा परमेश्वर के संभजनीय परब्रह्मात्मक तेज का हम लोग ध्यान करते हैं।[ऋग्वेद 3.62.10]
जो सविता देव हमारी बुद्धियों को सन्मार्ग में प्रेरित करते हैं, उन पूर्ण तेजस्वी, सर्व-प्रकाशक, सर्वदाता, सर्वज्ञाता, सर्वश्रेष्ठ, परमात्मा के उस दिव्य-महान पापों का पतन करने वाले, तेज को धारण करते हुए उसी का ध्यान करें।
Savita Dev inspire-direct our mind-intelligent towards the virtuous, righteous, pious way. We should meditate-concentrate in the creator of the universe aware of all, Almighty, destroyer of sins. 
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्। 
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः॥
गायी जाने वाली श्रुतियों में बृहत्साम और सब छन्दों में गायत्री छन्द मैं हूँ। बारह महीनों में मार्गशीष और छः ऋतुओं में बसन्त में हूँ।[श्रीमद्भगवद्गीता10.35] 
The Almighty asserted that HE is Brahat Sam among the lyrics-hymns which are heard, Gayatri Chhand (metre, poetic composition). HE is Marg Sheesh (period of November-December) among the 12 months and spring among the 6 seasons.
सामवेद में बृहत्साम नामक एक गीति है, जिसमें परमेश्वर की स्तुति इन्द्र रूप में की गई है और इसे  सर्वश्रेष्ठ-सर्वोत्कृष्ट माना गया। अतः यह परमात्मा की विभूति है। गायत्री को वेदों की जननी कहते हैं, क्योंकि वेद इसी से प्रकट हुए हैं। स्मृतियों और शास्त्रों में गायत्री की बड़ी भारी महिमा है। गायत्री में स्वरूप, प्रार्थना और ध्यान :- इन तीनों में परमात्मा के ही होने से, इससे परमात्म तत्व की प्राप्ति होती है; इसीलिए यह भगवान् की विभूति है। मार्गशीष को वर्षा से अन्न पैदा करने वाला महीना माना गया है। महाभारत-काल  में नव वर्ष मार्गशीष से ही प्रारम्भ होता था। इन विशेषताओं के कारण भगवान् ने इसे अपनी विभूति बताया है। बसन्त के महीने में वृक्ष, लता, पौधों पर नए फूल और पत्ते आते हैं। मौसम सुहावना रहता है। न ज्यादा सर्दी और न ही ज्यादा गर्मी। इन्हीं विशेषताओं से यह भगवान् की विभूति है। 
Sam Ved is considered to be Ultimate poetic-rhythmic composition, which contains Brahat Sam which is among the lyrics-hymns, which are Ultimate to be sung-heard for the purpose of worshiping God. The God has been prayed-worshipped in the form of Indr-the king of heaven, who in fact is an Ultimate form of the God himself. Gayatri is a Mantr which is considered to be the best and curing, among the prayers. Gayatri is the origin of the Veds-the source of all knowledge. It is the Ultimate form of the God, a prayer and tool for meditation. These three are the God's Ultimate form, prayer and meditation & provides-grants the gist of the Almighty. Marg Sheesh is the 10th month of Indian-Hindu calendar, combining the British, English, international calendar with the Hindu-Indian system being 10th month; meaning December. This is the period when normal food grains like wheat, grow without being irrigated specially, followed by rains & presence of sufficient moisture. This is followed by pleasant weather and cosy cold. These qualities make this month as one of Almighty's forms. Spring-Basant is the month, which comes after swear-biting cold, chill. The plants bear new leaves, flowers. Its neither cold nor hot. The weather is romantic-cupid, making it excellent among all the seasons. Therefore, November-December and Spring are the Ultimate forms of weather i.e., the God.
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम्भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात्॥ 
Om Bhoor Bhuvah Svah Tat Savitur Varenyam Bhargo Devasy Dheemahi Dhiyo Yo Nah Pracho Dayat. 
हे पृथ्वी, स्वर्ग और पाताल लोक के प्रकाशक! सबसे उत्तम, सूर्य की भाँति उज्जवल, कर्मों का उद्धार करने वाले, आत्म चिंतन और बुद्धि में धारण-ध्यान करने के योग्य परमात्मा, हमें शक्ति दें। 
Hey Almighty! The one who has to be meditated through intelligence, spreading radiance-lustre-brilliance to the three abodes :- The earth, The Heaven & The Nether world; shinning like the Sun, kindly grant me strength to liberate from the impact of deeds. 
उस प्राण स्वरूप, दुःख नाशक, सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पाप नाशक, देव स्वरूप परमात्मा को हम अंत:करण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करें। 
यह मंत्र ऋग्वेद में उद्धृत है। इसके ऋषि विश्वामित्र हैं और देवता सविता हैं। यह मंत्र विश्वामित्र के इस सूक्त के 18 मंत्रों मे केवल एक है। इसकी महिमा का अनुभव ऋषियों ने किया। संपूर्ण ऋग्वेद के 10 सहस्र मंत्रों में से इस मंत्र के अर्थ की गंभीर व्यंजना सबसे अधिक की गई। इस मंत्र में 24 अक्षर हैं। उनमें आठ आठ अक्षरों के तीन चरण हैं। इन अक्षरों से पहले तीन व्याहृतियाँ और उनसे पूर्व प्रणव या ओंकार को जोड़कर मंत्र का पूरा स्वरूप :: 
(1), ॐ, (2). भूर्भव: स्व: और (3). तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्। 
मंत्र के इस रूप को मनु ने सप्रणवा, सव्याहृतिका गायत्री कहा है और जप में इसी का विधान किया है। 
गायत्री एक ओर विराट् विश्व और दूसरी ओर मानव जीवन, एक ओर देवतत्व और दूसरी ओर भूततत्त्व, एक ओर मन और दूसरी ओर प्राण, एक ओर ज्ञान और दूसरी ओर कर्म के पारस्परिक संबंधों की पूरी व्याख्या कर देती है। इस मंत्र के देवता सविता हैं, सविता सूर्य की संज्ञा है, सूर्य के नाना रूप हैं, उनमें सविता वह रूप है जो समस्त देवों को प्रेरित करता है। जाग्रत् में सवितारूपी मन ही मानव की महती शक्ति है। जैसे सविता देव है, वैसे मन भी देव है।[देवं मन: ऋग्वेद 1.164.18] 
गायत्री मंत्र :: जिस प्रकार ओङ्कार क जप, श्रवण, भजन जातक के मन-मस्तिष्क को शान्त करता है, चिंताओं, मनोरोग, व्याधियों से मुक्त करता है उसी प्रकार गायत्री मंत्र सुख, सम्पत्ति, समृद्धि, ऐश्वर्य प्रदान करता है। santoshsuvichar.blogspot.com गायत्री मंत्र के 146 रूपों का संग्रह प्रस्तुत किया है। 
ॐ भू: भुव: स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम्भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात्॥
हे पृथ्वी, स्वर्ग और पाताल लोक के प्रकाशक! सबसे उत्तम, सूर्य की भाँति उज्जवल, कर्मों का उद्धार करने वाले, आत्म चिंतन और बुद्धि में धारण-ध्यान करने के योग्य परमात्मा, हमें शक्ति दें। 
उस प्राण स्वरूप, दुःख नाशक, सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पाप नाशक, देव स्वरूप परमात्मा को हम अंत:करण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करें।
जो सविता हम लोगों की बुद्धि को प्रेरित करता है, सम्पूर्ण श्रुतियों में प्रसिद्ध उस द्योतमान जगत्स्रष्टा परमेश्वर के संभजनीय परब्रह्मात्मक तेज का हम लोग ध्यान करते हैं।
जो सविता देव हमारी बुद्धियों को सन्मार्ग में प्रेरित करते हैं, उन पूर्ण तेजस्वी, सर्व-प्रकाशक, सर्वदाता, सर्वज्ञाता, सर्वश्रेष्ठ, परमात्मा के उस दिव्य-महान पापों का पतन करने वाले, तेज को धारण करते हुए उसी का ध्यान करें।
यह मंत्र ऋग्वेद में उद्धृत है। इसके ऋषि विश्वामित्र हैं और देवता सविता हैं। यह मंत्र विश्वामित्र के इस सूक्त के 18 मंत्रों मे केवल एक है। इसकी महिमा का अनुभव ऋषियों ने किया। संपूर्ण ऋग्वेद के 10 सहस्र मंत्रों में से इस मंत्र के अर्थ की गंभीर व्यंजना सबसे अधिक की गई। इस मंत्र में 24 अक्षर हैं। उनमें आठ-आठ अक्षरों के तीन चरण हैं।
इन अक्षरों से पहले तीन व्याहृतियाँ और उनसे पूर्व प्रणव या ओंकार को जोड़कर मंत्र का पूरा स्वरूप :- 
(1), ॐ, (2). भूर्भव: स्व: और (3). तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्। 
मंत्र के इस रूप को मनु ने सप्रणवा, सव्याहृतिका गायत्री कहा है और जप में इसी का विधान किया है। 
गायत्री एक ओर विराट् विश्व और दूसरी ओर मानव जीवन, एक ओर देवतत्व और दूसरी ओर भूत तत्त्व, एक ओर मन और दूसरी ओर प्राण, एक ओर ज्ञान और दूसरी ओर कर्म के पारस्परिक संबंधों की पूरी व्याख्या कर देती है। इस मंत्र के देवता सविता हैं, सविता सूर्य की संज्ञा है, सूर्य के नाना रूप हैं, उनमें सविता वह रूप है जो समस्त देवों को प्रेरित करता है। जाग्रत् में सविता रूपी मन ही मानव की महती शक्ति है। जैसे सविता देव है, वैसे मन भी देव है।[देवं मन: ऋग्वेद 1.164.18]
गायत्री के पूर्व में जो तीन व्याहृतियाँ हैं, वे भी सहेतुक हैं :-
"भू":- पृथ्वी लोक, ऋग्वेद, अग्नि, पार्थिव जगत् और जाग्रत् अवस्था का सूचक है। 
"भुव:" अंतरिक्ष लोक, यजुर्वेद, वायु देवता, प्राणात्मक जगत् और स्वप्नावस्था का सूचक है। 
"स्व:" द्युलोक, सामवेद, आदित्य देवता, मनोमय जगत् और सुषुप्ति अवस्था का सूचक है।
ॐ :: प्रणव; ओउम;
भूर :- मनुष्य को प्राण प्रदाण करने वाला, 
भुवः :- दुख़ों का नाश करने वाला,
स्वः :- सुख़ प्रदान करने वाला
गायत्रीमन्त्र :: 
सूर्य :: 
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। 
धियो यो नः प्रचोदयात्॥1
ॐ आदित्याय विद्महे सहस्रकिरणाय धीमहि। 
तन्नो भानुः प्रचोदयात्॥2
ॐ प्रभाकराय विद्महे दिवाकराय धीमहि। 
तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्॥3
ॐ अश्वध्वजाय विद्महे पाशहस्ताय धीमहि। 
तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्॥4
ॐ भास्कराय विद्महे महद्द्युतिकराय धीमहि। 
तन्न आदित्यः प्रचोदयात्॥5
ॐ आदित्याय विद्महे सहस्रकराय धीमहि। 
तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्॥6
ॐ भास्कराय विद्महे महातेजाय धीमहि। 
तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्॥7
ॐ भास्कराय विद्महे महाद्द्युतिकराय धीमहि। 
तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्॥8
चन्द्र ::
ॐ क्षीरपुत्राय विद्महे महाकालाय धीमहि तन्नश्चन्द्रः प्रचोदयात्॥9
ॐ क्षीरपुत्राय विद्महे अमृतत्वाय धीमहि तन्नश्चन्द्रः प्रचोदयात्॥10
ॐ निशाकराय विद्महे कलानाथाय धीमहि तन्नः सोमः प्रचोदयात्॥11
अङ्गारक, भौम, मङ्गल, कुज ::
ॐ वीरध्वजाय विद्महे विघ्नहस्ताय धीमहि तन्नो भौमः प्रचोदयात्॥12
ॐ अङ्गारकाय विद्महे भूमिपालाय धीमहि तन्नः कुजः प्रचोदयात्॥13
ॐ चित्रिपुत्राय विद्महे लोहिताङ्गाय धीमहि तन्नो भौमः प्रचोदयात्॥14
ॐ अङ्गारकाय विद्महे शक्तिहस्ताय धीमहि 
तन्नो भौमः प्रचोदयात्॥15
बुध :: 
ॐ गजध्वजाय विद्महे सुखहस्ताय धीमहि तन्नो बुधः प्रचोदयात्॥16
ॐ चन्द्रपुत्राय विद्महे रोहिणी प्रियाय धीमहि
 तन्नो बुधः प्रचोदयात्॥17
ॐ सौम्यरूपाय विद्महे वाणेशाय धीमहि तन्नो बुधः प्रचोदयात्॥18
गुरु ::
 ॐ वृषभध्वजाय विद्महे क्रुनिहस्ताय धीमहि
तन्नो गुरुः प्रचोदयात्॥19
ॐ सुराचार्याय विद्महे सुरश्रेष्ठाय धीमहि तन्नो गुरुः प्रचोदयात्॥20
शुक्र ::
 ॐ अश्वध्वजाय विद्महे धनुर्हस्ताय धीमहि तन्नः शुक्रः प्रचोदयात्॥21 
ॐ रजदाभाय विद्महे भृगुसुताय धीमहि तन्नः शुक्रः प्रचोदयात्॥22
ॐ भृगुसुताय विद्महे दिव्यदेहाय धीमहि तन्नः शुक्रः प्रचोदयात्॥23
शनीश्वर, शनैश्चर, शनी ::
ॐ काकध्वजाय विद्महे खड्गहस्ताय धीमहि 
तन्नो मन्दः प्रचोदयात्॥24
ॐ शनैश्चराय विद्महे सूर्यपुत्राय धीमहि तन्नो मन्दः प्रचोदयात्॥25
ॐ सूर्यपुत्राय विद्महे मृत्युरूपाय धीमहि तन्नः सौरिः प्रचोदयात्॥26
राहु ::
 ॐ नाकध्वजाय विद्महे पद्महस्ताय धीमहि तन्नो राहुः प्रचोदयात्॥27
ॐ शिरोरूपाय विद्महे अमृतेशाय धीमहि तन्नो राहुः प्रचोदयात्॥28॥
केतु ::
ॐ अश्वध्वजाय विद्महे शूलहस्ताय धीमहि तन्नः केतुः प्रचोदयात्॥29
ॐ चित्रवर्णाय विद्महे सर्परूपाय धीमहि तन्नः केतुः प्रचोदयात्॥30
ॐ गदाहस्ताय विद्महे अमृतेशाय धीमहि तन्नः केतुः प्रचोदयात्॥31
पृथ्वी ::
ॐ पृथ्वी देव्यै विद्महे सहस्रमर्त्यै च धीमहि
तन्नः पृथ्वी प्रचोदयात्॥32
ब्रह्मा ::
ॐ चतुर्मुखाय विद्महे हंसारूढाय धीमहि तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात्॥33
ॐ वेदात्मनाय विद्महे हिरण्यगर्भाय धीमहि तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात्॥34
ॐ चतुर्मुखाय विद्महे कमण्डलुधराय धीमहि
 तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात्॥35
ॐ परमेश्वराय विद्महे परमतत्त्वाय धीमहि तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात्॥36
विष्णु ::
ॐ त्रैलोक्यमोहनाय विद्महे कामदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु: प्रचोदयात्।
ॐ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्॥37
नारायण ::
ॐ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्॥38
 वेङ्कटेश्वर ::
ॐ निरञ्जनाय विद्महे निरपाशाय धीमहि
 तन्नः श्रीनिवासः प्रचोदयात्॥39
राम ::
ॐ रघुवंश्याय विद्महे सीतावल्लभाय धीमहि
तन्नो रामः प्रचोदयात्॥40
ॐ दाशरथाय विद्महे सीतावल्लभाय धीमहि
तन्नो रामः प्रचोदयात्॥41
ॐ भरताग्रजाय विद्महे सीतावल्लभाय धीमहि
तन्नो रामः प्रचोदयात्॥42
ॐ भरताग्रजाय विद्महे रघुनन्दनाय धीमहि
तन्नो रामः प्रचोदयात् ॥43
 कृष्ण ::
ॐ देवकीनन्दनाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि।
तन्नो कृष्ण: प्रचोदयात्॥44
ॐ दामोदराय विद्महे रुक्मिणीवल्लभाय धीमहि
तन्नः कृष्णः प्रचोदयात्॥45
ॐ गोविन्दाय विद्महे गोपीवल्लभाय धीमहि
तन्नः कृष्णः प्रचोदयात्46
गोपाल ::
ॐ गोपालाय विद्महे गोपीजनवल्लभाय धीमहि
तन्नो गोपालः प्रचोदयात्॥47
 पाण्डुरङ्ग ::
ॐ भक्तवरदाय विद्महे पाण्डुरङ्गाय धीमहि
तन्नः कृष्णः प्रचोदयात्॥48॥
नृसिंह ::
ॐ वज्रनखाय विद्महे तीक्ष्णदंष्ट्राय धीमहि।
तन्नो नृसिंह: प्रचोदयात्॥49
ॐ नृसिंहाय विद्महे वज्रनखाय धीमहि तन्नः सिंहः प्रचोदयात्॥50
परशुराम ::
ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि
तन्नः परशुरामः प्रचोदयात्॥51
इन्द्र ::
ॐ सहस्रनेत्राय विद्महे वज्रहस्ताय धीमहि
तन्न इन्द्रः प्रचोदयात्॥52
हनुमान ::
ॐ आञ्जनेयाय विद्महे महाबलाय धीमहि
तन्नो हनूमान् प्रचोदयात्॥53
ॐ आञ्जनेयाय विद्महे वायुपुत्राय धीमहि
तन्नो हनूमान् प्रचोदयात्॥54
मारुती ::
ॐ मरुत्पुत्राय विद्महे आञ्जनेयाय धीमहि तन्नो मारुतिः प्रचोदयात्॥55
दुर्गा ::
ॐ कात्यायनाय विद्महे कन्यकुमारी च धीमहि
तन्नो दुर्गा प्रचोदयात्॥56
ॐ महाशूलिन्यै विद्महे महादुर्गायै धीमहि
तन्नो भगवती प्रचोदयात्॥57
ॐ गिरिजायै च विद्महे शिवप्रियायै च धीमहि
तन्नो दुर्गा प्रचोदयात्॥58॥
शक्ति ::
ॐ सर्वसंमोहिन्यै विद्महे विश्वजनन्यै च धीमहि
तन्नः शक्तिः प्रचोदयात्॥59॥
काली ::
ॐ कालिकायै च विद्महे श्मशानवासिन्यै च धीमहि
तन्न अघोरा प्रचोदयात्॥60॥
ॐ आद्यायै च विद्महे परमेश्वर्यै च धीमहि
तन्नः कालीः प्रचोदयात्॥61
देवी ::
ॐ महाशूलिन्यै च विद्महे महादुर्गायै धीमहि
तन्नो भगवती प्रचोदयात्॥62
ॐ वाग्देव्यै च विद्महे कामराज्ञै च धीमहि
तन्नो देवी प्रचोदयात्॥63॥
गौरी ::
ॐ सुभगायै च विद्महे काममालिन्यै च धीमहि
तन्नो गौरी प्रचोदयात्॥64
लक्ष्मी ::
ॐ महालक्ष्म्यै विद्महे  विष्णुप्रियायै धीमहि।
तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात्॥65
ॐ महादेव्यै च विद्महे विष्णुपत्न्यै च धीमहि
तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात्॥66
 सरस्वती ::
ॐ वाग्देव्यै च विद्महे विरिञ्चिपत्न्यै च धीमहि
तन्नो वाणी प्रचोदयात्॥67
 सीता ::
ॐ जनकनन्दिन्यै विद्महे भूमिजायै च धीमहि
तन्नः सीता प्रचोदयात्॥68
राधा ::
ॐ वृषभानुजायै विद्महे कृष्णप्रियायै धीमहि।
तन्नो राधा प्रचोदयात्॥69
अन्नपूर्णा ::
ॐ भगवत्यै च विद्महे माहेश्वर्यै च धीमहि
तन्न अन्नपूर्णा प्रचोदयात्॥70
तुलसी ::
ॐ तुलसीदेव्यै च विद्महे विष्णुप्रियायै च धीमहि
तन्नो बृन्दः प्रचोदयात्॥71
महादेव ::
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि
तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्॥72
रुद्र ::
ॐ पुरुषस्य विद्महे सहस्राक्षस्य धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्॥73
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्॥74
शिव :: 
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि। तन्नो रुद्र: प्रचोदयात्
ॐ सदाशिवाय विद्महे सहस्राक्ष्याय धीमहि।
तन्नः साम्बः प्रचोदयात्॥75
नन्दिकेश्वर ::
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे नन्दिकेश्वराय धीमहि
तन्नो वृषभः प्रचोदयात्॥76
गणेश ::
ॐ तत्कराटाय विद्महे हस्तिमुखाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात्॥77
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्तिः प्रचोदयात्॥78
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे हस्तिमुखाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात्॥79
ॐ एकदन्ताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्तिः प्रचोदयात्॥80
ॐ लम्बोदराय विद्महे महोदराय धीमहि तन्नो दन्तिः प्रचोदयात्॥81
षण्मुख ::
ॐ षण्मुखाय विद्महे महासेनाय धीमहि तन्नः स्कन्दः प्रचोदयात्॥82
ॐ षण्मुखाय विद्महे महासेनाय धीमहि तन्नः षष्ठः प्रचोदयात्॥83
सुब्रह्मण्य ::
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महासेनाय धीमहि तन्नः षण्मुखः प्रचोदयात्॥84
ॐ ::
ॐ ॐकाराय विद्महे डमरुजातस्य धीमहि
तन्नः प्रणवः प्रचोदयात्॥85
अजपा ॐ हंस हंसाय विद्महे सोऽहं हंसाय धीमहि
तन्नो हंसः प्रचोदयात्॥86
दक्षिणामूर्ति ::
ॐ दक्षिणामूर्तये विद्महे ध्यानस्थाय धीमहि
तन्नो धीशः प्रचोदयात्॥87
गुरु ::
ॐ गुरुदेवाय विद्महे परब्रह्मणे धीमहि
तन्नो गुरुः प्रचोदयात्॥88
हयग्रीव ::
ॐ वागीश्वराय विद्महे हयग्रीवाय धीमहि
तन्नो हंसः प्रचोदयात्॥89
अग्नि ::
ॐ सप्तजिह्वाय विद्महे अग्निदेवाय धीमहि तन्न अग्निः प्रचोदयात्॥90
ॐ वैश्वानराय विद्महे लालीलाय धीमहि तन्न अग्निः प्रचोदयात्॥91
 ॐ महाज्वालाय विद्महे अग्निदेवाय धीमहि
तन्नो अग्निः प्रचोदयात्॥92
यम ::
ॐ सूर्यपुत्राय विद्महे महाकालाय धीमहि
तन्नो यमः प्रचोदयात्॥93
वरुण ::
ॐ जलबिम्बाय विद्महे नीलपुरुषाय धीमहि
तन्नो वरुणः प्रचोदयात्॥94
वैश्वानर ::
ॐ पावकाय विद्महे सप्तजिह्वाय धीमहि तन्नो वैश्वानरः प्रचोदयात्॥95
मन्मथ ::
ॐ कामदेवाय विद्महे पुष्पवनाय धीमहि तन्नः कामः प्रचोदयात्॥96
हंस ::
ॐ हंस हंसाय विद्महे परमहंसाय धीमहि तन्नो हंसः प्रचोदयात्॥97
ॐ परमहंसाय विद्महे महत्तत्त्वाय धीमहि तन्नो हंसः प्रचोदयात्॥98
नन्दी ::
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे चक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो नन्दिः प्रचोदयात्॥99
गरुड़ ::
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे सुवर्णपक्षाय धीमहि
तन्नो गरुडः प्रचोदयात्॥100
सर्प ::
ॐ नवकुलाय विद्महे विषदन्ताय धीमहि तन्नः सर्पः प्रचोदयात्॥101
पाञ्चजन्य ::
ॐ पाञ्चजन्याय विद्महे पावमानाय धीमहि
तन्नः शङ्खः प्रचोदयात्॥102
सुदर्शन ::
ॐ सुदर्शनाय विद्महे महाज्वालाय धीमहि तन्नश्चक्रः प्रचोदयात्॥103
अग्नि ::
ॐ रुद्रनेत्राय विद्महे शक्तिहस्ताय धीमहि तन्नो वह्निः प्रचोदयात्॥104
ॐ वैश्वानराय विद्महे लाललीलाय धीमहि तन्नोऽग्निः प्रचोदयात्॥105
ॐ महाज्वालाय विद्महे अग्निमथनाय धीमहि
तन्नोऽग्निः प्रचोदयात्॥106
आकाश ::
ॐ आकाशाय च विद्महे नभोदेवाय धीमहि
तन्नो गगनं प्रचोदयात्॥107
अन्नपूर्णा ::
ॐ भगवत्यै च विद्महे माहेश्वर्यै च धीमहि
तन्नोऽन्नपूर्णा प्रचोदयात्॥108
बगला मुखी ::
ॐ बगलामुख्यै च विद्महे स्तम्भिन्यै च धीमहि
तन्नो देवी प्रचोदयात्॥109
बटुक भैरव ::
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे आपदुद्धारणाय धीमहि
तन्नो बटुकः प्रचोदयात्॥110
भैरवी ::
ॐ त्रिपुरायै च विद्महे भैरव्यै च धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्॥111
भुवनेश्वरी ::
ॐ नारायण्यै च विद्महे भुवनेश्वर्यै धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्॥112
ब्रह्मा ::
ॐ पद्मोद्भवाय विद्महे देववक्त्राय धीमहि तन्नः स्रष्टा प्रचोदयात्॥113
ॐ वेदात्मने च विद्महे हिरण्यगर्भाय धीमहि
तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात्॥114
ॐ परमेश्वराय विद्महे परतत्त्वाय धीमहि तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात्॥115
चन्द्र ::
ॐ क्षीरपुत्राय विद्महे अमृततत्त्वाय धीमहि तन्नश्चन्द्रः प्रचोदयात् ॥116
छिन्नमस्ता ::
ॐ वैरोचन्यै च विद्महे छिन्नमस्तायै धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्॥117
दक्षिणामूर्ति ::
ॐ दक्षिणामूर्तये विद्महे ध्यानस्थाय धीमहि
तन्नो धीशः प्रचोदयात्॥118
देवी ::
ॐ देव्यैब्रह्माण्यै विद्महे महाशक्त्यै च धीमहि
तन्नो देवी प्रचोदयात्॥119
धूमावती ::
ॐ धूमावत्यै च विद्महे संहारिण्यै च धीमहि तन्नो धूमा प्रचोदयात्॥120
दुर्गा ::
ॐ कात्यायन्यै विद्महे कन्याकुमार्यै धीमहि तन्नो दुर्गा प्रचोदयात्॥121
ॐ महादेव्यै च विद्महे दुर्गायै च धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्॥122
गणेश ::
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात्॥123
ॐ एकदन्ताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि
तन्नो दन्ती प्रचोदयात्॥124
गरुड ::
ॐ वैनतेयाय विद्महे सुवर्णपक्षाय धीमहि
तन्नो गरुडः प्रचोदयात्॥125
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे सुवर्णपर्णाय (सुवर्णपक्षाय) धीमहि
तन्नो गरुडः प्रचोदयात्॥126
गौरी ::
ॐ गणाम्बिकायै विद्महे कर्मसिद्ध्यै च धीमहि
तन्नो गौरी प्रचोदयात्॥127
ॐ सुभगायै च विद्महे काममालायै धीमहि तन्नो गौरी प्रचोदयात्॥128
गोपाल ::
ॐ गोपालाय विद्महे गोपीजनवल्लभाय धीमहि
तन्नो गोपालः प्रचोदयात्॥129
गुरु ::
ॐ गुरुदेवाय विद्महे परब्रह्माय धीमहि तन्नो गुरुः प्रचोदयात्॥130
हनुमत् ::
ॐ रामदूताय विद्महे कपिराजाय धीमहि
तन्नो हनुमान् प्रचोदयात्॥131
ॐ अञ्जनीजाय विद्महे वायुपुत्राय धीमहि
तन्नो हनुमान् प्रचोदयात्॥132
हयग्रीव ::
ॐ वागीश्वराय विद्महे हयग्रीवाय धीमहि तन्नो हंसः प्रचोदयात्॥133
इन्द्र, शक्र ::
ॐ देवराजाय विद्महे वज्रहस्ताय धीमहि तन्नः शक्रः प्रचोदयात्॥134
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे सहस्राक्षाय धीमहि तन्न इन्द्रः प्रचोदयात्॥135
जल ::
ॐ ह्रीं जलबिम्बाय विद्महे मीनपुरुषाय धीमहि
तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्॥136
ॐ जलबिम्बाय विद्महे नीलपुरुषाय धीमहि
तन्नस्त्वम्बु प्रचोदयात्॥137
जानकी ::
ॐ जनकजायै विद्महे रामप्रियायै धीमहि
तन्नः सीता प्रचोदयात्॥138
जयदुर्गा ::
ॐ नारायण्यै विद्महे दुर्गायै च धीमहि तन्नो गौरी प्रचोदयात्॥139
काली ::
ॐ कालिकायै विद्महे श्मशानवासिन्यै धीमहि
तन्नोऽघोरा प्रचोदयात्॥140
काम ::
ॐ मनोभवाय विद्महे कन्दर्पाय धीमहि
तन्नः कामः प्रचोदयात्॥141
ॐ मन्मथेशाय विद्महे कामदेवाय धीमहि
तन्नोऽनङ्गः प्रचोदयात्॥142
ॐ कामदेवाय विद्महे पुष्पबाणाय धीमहि
तन्नोऽनङ्गः प्रचोदयात्॥143॥
*कामकलाकाली ::
ॐ अनङ्गाकुलायै विद्महे मदनातुरायै धीमहि
तन्नः कामकलाकाली प्रचोदयत्॥144
ॐ दामोदराय विद्महे वासुदेवाय धीमहि
तन्नः कृष्णः प्रचोदयात्॥145
ॐ देवकीनन्दनाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि
तन्नः कृष्ण: प्रचोदयात॥146 
मन ही प्राण का प्रेरक है। मन और प्राण के इस संबंध की व्याख्या गायत्री मंत्र को इष्ट है। सविता मन प्राणों के रूप में सब कर्मों का अधिष्ठाता है, यह सत्य और प्रत्यक्ष सिद्ध है। इसे ही गायत्री के तीसरे चरण में कहा गया है। 
ब्राह्मण ग्रंथों की व्याख्या है :- "कर्माणि धिय:" अर्थात जिसे हम धी या बुद्धि तत्त्व कहते हैं, वह केवल मन के द्वारा होनेवाले विचार या कल्पना सविता नहीं किंतु उन विचारों का कर्मरूप में मूर्त होना है। यही उसकी चरितार्थता है। किंतु मन की इस कर्म क्षम शक्ति के लिए मन का सशक्त या बलिष्ठ होना आवश्यक है। उस मन का जो तेज कर्म की प्रेरणा के लिए आवश्यक है, वही वरेण्य भर्ग है। मन की शक्तियों का तो पारवार नहीं है। उनमें से जितना अंश मनुष्य अपने लिए सक्षम बना पाता है, वहीं उसके लिए उस तेज का वरणीय अंश है। अतएव सविता के भर्ग की प्रार्थना में विशेष ध्वनि यह भी है कि सविता या मन का जो दिव्य अंश है, वह पार्थिव या भूतों के धरातल पर अवतीर्ण होकर पार्थिव शरीर में प्रकाशित हो। गायत्री मंत्र में अन्य किसी प्रकार की कामना नहीं पाई जाती। यहाँ एक मात्र अभिलाषा यही है कि मानव को ईश्वर की ओर से मन के रूप में जो दिव्य शक्ति प्राप्त हुई है, उसी के द्वारा वह उसी सविता का ज्ञान करे और कर्मों के द्वारा उसे इस जीवन में सार्थक करे।
ॐ संक्षिप्त संकेत गायत्री के आरंभ में रखा गया है। अ, उ, म इन तीनों मात्राओं से ॐ का स्वरूप बना है। अ अग्नि, उ वायु और म आदित्य का प्रतीक है। 
गायत्री के पूर्व में जो तीन व्याहृतियाँ हैं, वे भी सहेतुक हैं :-
"भू":- पृथ्वी लोक, ऋग्वेद, अग्नि, पार्थिव जगत् और जाग्रत् अवस्था का सूचक है। 
"भुव:" अंतरिक्ष लोक, यजुर्वेद, वायु देवता, प्राणात्मक जगत् और स्वप्नावस्था का सूचक है। 
"स्व:" द्युलोक, सामवेद, आदित्य देवता, मनोमय जगत् और सुषुप्ति अवस्था का सूचक है। 
इस त्रिक के अन्य अनेक प्रतीक ब्राह्मण, उपनिषद् और पुराणों में कहे गए हैं, किंतु यदि त्रिक के विस्तार में व्याप्त निखिल विश्व को वाक के अक्षरों के संक्षिप्त संकेत में समझना चाहें तो उसके लिए ही यह 
ॐ संक्षिप्त संकेत गायत्री के आरंभ में रखा गया है। अ, उ, म इन तीनों मात्राओं से ॐ का स्वरूप बना है। अ अग्नि, उ वायु और म आदित्य का प्रतीक है। 
यह विश्व प्रजापति की वाक है। वाक का अनंत विस्तार है, किंतु यदि उसका एक संक्षिप्त प्रतीक लेकर सारे विश्व का स्वरूप बताना चाहें तो अ, उ, म या ॐ कहने से उस त्रिक का परिचय प्राप्त होगा, जिसका स्फुट प्रतीक त्रिपदा गायत्री है। 
ॐ :: प्रणव; ओउम OM. I adore the Divine Self, who illuminates the three abodes :- Earth, Heaven & the Nether world physical, astral and causal; I offer my prayers to that God who shines like the Sun. May He enlighten our intellect. Pranav or Omkar Mantr consisting of the vowels a and u and the consonant `m'. It refers to the Almighty, OM, Brahmn; भूर :- मनुष्य को प्राण प्रदाण करने वाला; 
भुवः :- दुख़ों का नाश करने वाला, the Earth and the world immediately above the earth; 
स्वः :- सुख़ प्रदान करने वाला one's own; 
तत्सवितुर्वरेण्यं :- that all creating great person in the form of sun; तत् :- वह; सवितुर :- सूर्य की भांति उज्जवल, वरेण्यं :- सबसे उत्तम, भर्गो :- कर्मों का उद्धार करने वाला, radiance; lustre; brilliance; देवस्य :- प्रभु, intellect and mind; धीमहि :- आत्म चिंतन के योग्य (ध्यान), May meditate; धियो :- बुद्धि, यो :- जो, He who; नः :- हमारी, us; to us or ours, प्रचोदयात् :- हमें शक्ति दें (प्रार्थना), inspire; kindle, urge, induce.
गायत्री मंत्र :: 
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। 
धियो यो नः प्रचोदयात्॥
सत्, चित्त, आनन्दस्वरूप और जगत के स्रष्टा ईश्वर के सर्वोत्कृष्ट तेज का हम ध्यान करते हैं। वे हमारी बुद्धि को शुभ प्रेरणा दें।[यजुर्वेद 36.3]   
उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अपनी अन्तरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।
The Almighty who is for ever-eternal, is consciousness in the living being & bliss; should grant us with the Ultimate pure forms of energy. He should guide our mind-brain with auspicious inspiration.
सच्चिदानन्द :: वह परमात्मा, जो सदा सर्वदा से है, मन-चित्त का नियन्त्रण करने वाला है और आनन्द स्वरूप है; the Almighty who is forever, ever since, eternal, controls our brain-mind, intellect and is Ultimate pleasure-Bliss.  
सत् :: शाश्वत, टिकाऊ न बदलने वाला; for ever-ever since, the Almighty.  
चित्त :: चेतना, विचार शक्ति; consciousness in the living being. 
गायत्री के चौबीस अक्षर :: गायत्री मंत्र के 24 अक्षरों के साथ अनेक कारण जुड़े हुए है। इसके साथ कई चौबीस रहस्यों का सम्मिलन है। नीचे कुछ ऐसे ही चौबीस अक्षरों के हेतु बताये जाते हैं :−
(1). संसार की समस्त विद्याओं के भण्डार 24 महाग्रन्थ हैं। 4 वेद, 4 उपवेद, 4 ब्राह्मण, 6 दर्शन और 6 वेदांग इस प्रकार चौबीस हुए। तत्वज्ञों का ऐसा भी मत है कि गायत्री के 24 अक्षरों से यह एक-एक ग्रन्थ बना है। गायत्री के गर्भ में इन 24 ग्रंथों का मर्म छिपा हुआ है। गायत्री का मर्म इन 24 ग्रंथों में वर्णित है। जो गायत्री का विस्तृत रहस्य जानना चाहे, वे इन 24 महाग्रन्थों को पढ़कर उकसा मर्म समझ सकते है।
(2). हृदय जीवन का और ब्रह्मरंध्र ईश्वर का स्थान है। हृदय से ब्रह्मरंध्र 24 अँगुल दूर है। एक-एक अक्षर से एक-एक अँगुल की दूरी को पार करके जीव गायत्री द्वारा ब्रह्म में लीन हो सकता है, ऐसा योगी लोग कहते हैं। गायत्री के 24 अक्षर यह संकेत करते हैं कि ईश्वर जीव से, हृदय मस्तिष्क से 24 अँगुल दूर है। हृदय में ईश्वर रहता है और मस्तिष्क में मन। अपने मन को ईश्वर के अर्पण कर दो तो कल्याण की प्राप्ति हो जाएगी।
(3). गायत्री के तीन विराम होते हैं, शरीर के भी तीन भाग हैं, प्रत्येक भाग के अंतर्गत आठ अंग होते हैं। इस प्रकार शरीर रूपी गायत्री के 24 अक्षर हो जाते हैं। 
(3.1). शिर, नेत्र, कर्ण प्राण = 8 अक्षर,
(3.2). मुख, हाथ, पैर, नाक = 8 अक्षर,
(3.3). कण्ठ, त्वचा, गुदा, शिश्न = 8 अक्षर, 
यह सब मिलकर 24 हुए। गायत्री के दो-दो अक्षरों से इन बारह प्रमुख अंगों की रचना हुई है। यह स्वभावतः पवित्र हैं और इन्हें सदा पवित्र ही रखने का प्रयत्न करना चाहिए।
(4). शरीर की सुषुम्ना नाड़ी में 24 कशेरुकाएँ हैं (ग्रीवा में 7, पीठ में 12, कमर में 5; कुल 24) से कशेरुकाएँ प्राणों का, मातृकाओं का ग्रन्थियों का और चक्रों का पोषण करने वाली हैं। यह पोषण गायत्री कहा जाता है और इन 24 कशेरुकाओं को 24 अक्षर कहते हैं
(5). शरीर में प्राण सूत्र 24 है गायत्री में 24 अक्षर हैं। गायत्री का एक एक अक्षर सूक्ष्म शरीर के लिए उतना ही महत्व पूर्ण है जितना कि स्थूल शरीर के लिए ये 24 प्राण सूत्र हैं
(6). शरीर में 5 ज्ञानेन्द्रियाँ 5 कर्मेंद्रियां 5 प्राण, 5 तत्व और 4 अन्तःकरण हैं। इन 24 के द्वारा ही शरीर जीवित रहता है। हमारे आध्यात्मिक शरीर में गायत्री की 24 शक्तियाँ इसी प्रकार ओत प्रोत हैं
(7). गायत्री साधना से अष्ट सिद्धि, नव निद्धि और सात शुभ गतियों की प्राप्ति होती है, यह 24 महान लाभ गायत्री के अंतर्गत हैं।
(8). इस मंत्र में 24 ऋषियों और 24 देवताओं की शक्तियों की शक्तियाँ सन्निहित हैं
(9). साँख्य दर्शन में वर्णित 24 तत्वों से सृष्टि का क्रम चलता है। उन 24 का प्रतिनिधित्व गायत्री के 24 अक्षर करते हैं।
(10). शरीर में प्रधानतः 24 अंग है। उसके प्रत्येक तृतीयाँश में भी 24−24 टुकड़े है। शरीर के तीन भाग है। शिर, धड़ और पैर। इन तीनों भागों में से प्रत्येक में 24−24 अवयव है। इसी प्रकार सूक्ष्म शरीर में 24 तत्व है। इन दोनों शरीर के अवयवों की सृष्टि 24 अक्षर वाली गायत्री से होती है। ब्रह्म पुरुष के शरीर के 24 भाग गायत्री के 24 अक्षर है।
इस प्रकार के और भी अनेकों कारण है जो गायत्री के 24 अक्षरों का हेतु है। प्रत्येक अक्षर के पीछे बड़े बड़े महान् तत्व है जिसका विस्तृत वर्णन अन्यत्र करेंगे।
गँगा जी के समान कोई तीर्थ नहीं है, केशव से श्रेष्ठ कोई देवता नहीं है। गायत्री मन्त्र के जप से श्रेष्ठ कोई जप न आज तक हुआ है और न होगा।
सर्वफलप्रदा, देवताओं और ऋषियों की उपास्य गायत्री, करोड़ों मन्त्रों में सर्व प्रमुख मन्त्र गायत्री है, जिसकी उपासना ब्रह्मा आदि देव भी करते हैं। यह गायत्री ही वेदों का मूल है।
गायत्री यद्यपि एक वैदिक छन्द है, परन्तु इसकी एक देवी के रूप में मान्यता है। समस्त लोकों में परमात्मस्वरूपिणी जो ब्रह्मशक्ति विराज रही है, वही सूक्ष्म-सत् प्रकृति के रूप में गायत्री के नाम से जानी जाती है। 
गायत्री के तीन रूप ::  सरस्वती, लक्ष्मी एवं काली।
ह्रीं श्रीं क्लीं चेति रूपेभ्यस्त्रिभ्यो हि लोकपालिका।
भासते सततं लोके गायत्री त्रिगुणात्मिका 
गायत्री संहिता :: 
ह्रीं :: ज्ञान, बुद्धि, विवेक, प्रेम, संयम, सदाचार। 
श्रीं :: धन, वैभव, पद, प्रतिष्ठा, भोग, ऐश्वर्य। 
क्लीं :: स्वास्थ्य, बल, साहस, पराक्रम, पुरुषार्थ, तेज। इन तीन रूपों एवं विशेषताओं से पालन करने वाली त्रिगुणात्मक ईश्वरीय शक्ति ही गायत्री है।
ब्रह्मा, विष्णु और महेश तथा वेद भी गायत्री का ध्यान और जप करते हैं, अत: गायत्री को ‘वेदोपास्या’ भी कहते हैं। ब्रह्मा जी ने तराजू के एक पलड़े में चारों वेदों को और दूसरे में गायत्री को रखकर तौला तो गायत्री चारों वेदों की तुलना में भारी सिद्ध हुई। इसीलिए ऋषियों ने गायत्री उपासना को मनुष्यों के लिए वैसे ही आवश्यक बताया जैसे कि सांस लेना, भोजन ग्रहण करना और निद्रा आदि।
ब्रह्मास्त्र, पाशुपतास्त्र आदि बड़े-बड़े दिव्य अस्त्र इसी गायत्री मन्त्र के अनुलोम-विलोम विधि से तैयार किए जाते हैं। सन्ध्या वन्दन के समय गायत्री मन्त्र के उच्चारण के साथ दिया गया अर्घ्य ऐसे ही ब्रह्मास्त्र का रूप धारणकर सूर्य के सभी शत्रु राक्षसों का सफाया करके उनके उदित होने के लिए निष्कण्टक मार्ग बना देता है।
जब विश्वामित्र ने महर्षि वशिष्ठ के वध के लिए भगवान् शिव से प्राप्त पचासों दिव्यास्त्रों का प्रयोग किया, तब महर्षि वशिष्ठ ने केवल ब्रह्म दण्ड से ही उन सब दिव्यास्त्रों को निष्फल कर दिया। महर्षि वशिष्ठ ने इस ब्रह्मदण्ड का निर्माण गायत्री मन्त्र की साधना से ही किया था।[वाल्मीकि रामायण]
गायत्री ही तप है, गायत्री ही योग है, गायत्री ही सबसे बड़ा ध्यान और साधन है। इससे बढ़कर सिद्धिदायक साधन और कोई नहीं है।[स्कन्दपुराण]
गायत्री सद्बुद्धि दायक मन्त्र है।
ॐ भू: भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्॥ 
पृथ्वी लोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक में व्याप्त उस श्रेष्ठ परमात्मा का हम ध्यान करते हैं, जो हमारी बुद्धि को सत् की ओर प्रेरित करे।
सावित्री ने एक वर्ष तक गायत्री जप करके वह शक्ति प्राप्त की थी जिससे वह अपने मृत पति सत्यवान के प्राणों को यमराज से लौटा सकी। गान्धारी आंखों पर पट्टी बांधकर तप करती थीं जिससे उनके नेत्रों में वह शक्ति उत्पन्न हो गयी कि उनके दृष्टिपातमात्र से दुर्योधन का शरीर अभेद्य हो गया। जिस जंघा पर उसने लज्जावश कपड़ा डाल लिया, वह कच्ची रह गयी और उसी पर प्रहार करके भीम ने दुर्योधन को मारा था। देवी अनुसुइया ने तप से ब्रह्मा, विष्णु, महेश को नन्हे बालक बना दिया। सुकन्या की तपस्या से जीर्ण-शीर्ण च्यवन ऋषि तरुण हो गए।
यह मंत्र ऋग्वेद में उद्धृत है। इसके ऋषि विश्वामित्र हैं और देवता सविता हैं। यह मंत्र विश्वामित्र के इस सूक्त के 18 मंत्रों मे केवल एक है। इसकी महिमा का अनुभव ऋषियों ने किया। संपूर्ण ऋग्वेद के 10 सहस्र मंत्रों में से इस मंत्र के अर्थ की गंभीर व्यंजना सबसे अधिक की गई। इस मंत्र में 24 अक्षर हैं। उनमें आठ-आठ अक्षरों के तीन चरण हैं। इन अक्षरों से पहले तीन व्याहृतियाँ और उनसे पूर्व प्रणव या ओंकार को जोड़कर मंत्र का पूरा स्वरूप ::
(1), ॐ,  (2). भूर्भव: स्व: और (3). तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
[ऋग्वेद 3.62.10, यजुर्वेद 36.3.30, यजुर्वेद संहिता 3.35, 22.9, 30.2, सामवेद उत्तरार्थिक 13.3.3, 3.4.3]
मंत्र के इस रूप को मनु ने सप्रणवा, सव्याहृतिका गायत्री कहा है और जप में इसी का विधान किया है।
om bhoor bhuvah svah Tat savitur varenyam bhargo devasy dheemahi dhiyo yo nah prachodayat.
हे ! पृथ्वी, स्वर्ग और पाताल लोक के प्रकाशक, सबसे उत्तम, सूर्य की भाँति उज्जवल, कर्मों का उद्धार करने वाले, आत्म चिंतन और बुद्धि में धारण-ध्यान करने के योग्य  परमात्मा, हमें शक्ति दें। 
Hey Almighty! The one who has to be meditated through intelligence, spreading radiance-lustre-brilliance to the three abodes :- The earth, The Heaven & The Nether world; shinning like the Sun, kindly grant me strength to liberate from the impact of deeds. 
उस प्राण स्वरूप, दुःख नाशक, सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पाप नाशक, देव स्वरूप परमात्मा को हम अंत:करण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करें।
मंत्र के इस रूप को मनु ने सप्रणवा, सव्याहृतिका गायत्री कहा है और जप में इसी का विधान किया है।
ब्रह्म ज्ञान (गायत्री) की उत्पत्ति स्वयम्भू भगवान् विष्णु की अंगुलियाँ मथने से जल उत्पन्न हुआ। जल से फेन निकला। फेनों से बुद्बुद्ध की उत्पत्ति हुई। उससे अण्ड की और अण्ड से ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए। उनसे वायु निकला।अग्नि की उत्पत्ति उससे ही हुई। अग्नि से ओङ्कार उत्पन्न हुआ। ओङ्कार से व्याहृति उत्पन्न हुईं। व्याहृति से गायत्री पैदा हुईं और गायत्री से सावित्री। उनसे सरस्वती। सरस्वती से सभी वेद उत्पन्न हुए। वेदों से सभी लोक हुए और उनसे सभी प्राणी हुए। इसके बाद गायत्री और व्याहृतियाँ प्रवृत्त हुईं।[ब्रह्मा जी]
गायत्री दो प्रकार की होती है :– लौकिक और वैदिक। लौकिक गायत्री में चार चरण होते हैं तथा वैदिक गायत्री में तीन चरण होते हैं। इसी कारणवश गायत्री का नाम त्रिपदा भी है। त्रिपदा गायत्री के ऋषि विश्वामित्र हैं। परमसत्ता धर्मी, शक्ति या शक्तिमान् की जो इच्छा, ज्ञान और क्रिया इस गुणत्रय से सम्पन्न है और जो ज्योति: स्वरुप है उसकी मैं उपासना करता हूँ। 
त्रिपदा गायत्री के :– भूमि, अन्तरिक्ष और स्वर्ग ये अष्टाक्षर कहलाते है। 
गायत्री का प्रत्येक पाद आठ अक्षरों का है :–
भू:, भुव: और स्व: यह तीनो लोक परिन्त विराजमान हैं। ऋच: यजूंषि ओर सामानि ये अष्टाक्षर भी गायत्री की एक पदत्रयी विद्या है। प्राणों का नाम गय है। उनका त्राण करने से ही गायत्री कहलाती है। 
गायत्री के भिन्न–भिन्न 24 अक्षर इस प्रकार है :–
ऊँ (1). त, (2). त्स, (3). वि, (4). तु, (5). र्व, (6). रे, (7). णि, (8). यं। ऊँ (9). भ, (10). र्गो, (11). दे, (12). व, (13). स्य, (14). धी, (15). म, (16). हि। ऊँ (17). धि, (18). यो, (19). यो, (20). न:, (21). प्र, (22). चो, (23). द, (24). यात् ।    
॥ ऊँ नम:॥ 
मुक्ताविद्रुमहेमनील धवलच्छायैमु‍र्खैस्त्रीक्षणैयु‍र्क्ता मिन्दुनिबद्धरत्नमुकुटां तत्वार्थवर्णात्मिकाम्। गायत्रीं वरदाभयाडंकुशकषा: षुभ्रं कपालं गुणं, षंखं चक्रमथारविन्दयुगलं हस्तैर्वहन्तीं भजे॥ 
यह पॉंच सिर वाली है (जो पंच ज्ञानेन्द्रियों के बोधक) तथा प्रधान पंच प्राणधारिणी है। इन पंच प्राणों के पंच वर्ण हैं। एक मोती जैसा, दूसरा विद्रुम मणि जैसा तीसरा सुवर्ण जैसा, चौथा नीलमणि जैसा और पॉंचवा धवल अर्थात् गौरवपूर्ण का है। इसके तीन आँखें हैं अर्थात् (अ–उ–म् :: ऊॅं) प्रणव के वर्ण–त्रय के अनुसार वेदत्रय अर्थात् रसवेद, विज्ञानवेद और छन्दोवेद सम्बद्ध, ऋक, यजु: और साम वेदात्मक तीन नयन अर्थात् ज्ञानवाली या त्रिविद्यावाली है। इसी को दूसरे प्रकार से श्रुति कहती है कि ये नाद, बिन्दु और कला के द्योतक है। इसके मुकुट पर, जो रत्न–मंडित है, वह चन्द्र है अर्थात् ज्योतिर्मयी आद्यषक्ति अमृत वर्शिणी है, ऐसा बोध है। तत्व वर्णात्मिका है अर्थात् चौबीस अक्षर वाली गायत्री चतुविशंति तत्वों की बनी हुई पूर्ण अर्थात् सत् चिद् ब्रा स्वरुपिणी है। यहॉ गायत्री में तीन अक्षर हैं :– ग+य+त्र। ग से ‘गति‘ ‘य‘ तथा ‘त्र‘ से ‘यात्री‘ अर्थात् यात्री की गति हो, वह ‘गायत्री‘ है। ‘ग‘ से गंगा, ‘य‘ से यमुना और ‘त्र‘ से त्रिवेणी। ये तीनों हिन्दू के पवित्र तीर्थ माने जाते हैं। दसों भुजायें कर्मेन्द्रियों और विषयों की द्योतक है। दक्षिण पाँचों भुजाएँ, वाक्, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ की द्योतक है तथा बॉंई–पाँचों भुजाएँ वचन, आदान, विहरण, उत्सर्ग और आनन्द विशयक रुप है। ये दसों आयुध इनके कर्म करण रुप हैं। ऐसी ही रुप–कल्पना परा प्राण शक्ति या परमात्मा की भी है और अपरा, चन्चला, माध्यमा, प्राणशक्ति या जीवात्मा की भी है।
श्रुति भी कहती है कि ‘‘गायत्री वा इदं सर्वम्‘‘ गायत्री ही सब कुछ है। व्युत्पत्ति शास्त्र की दृष्टि से गायत्री वह है जो इसके साधक को सभी प्रकार की मलिनता तथा पापों से बचाये एवं संरक्षण करे। कहा गया हे कि ‘गायन्तं त्रायते इति गायत्री‘। गायत्री मन्त्र भी है और प्रार्थना है जिसमें उपासक केवल अपने लिये ही नहीं, सभी के लिये ज्ञान की ज्योति पाने हेतु प्रार्थना करता है ।
देवियों में स्थान :: 
गयत्र्येव परो विश्णुगायित्र्व पर: षिव:। 
गायत्र्येव परो ब्राा, गायत्र्येव त्रयी तत:॥[स्कन्दपुराण] 
गायत्री ही परमात्मा विष्णु है, गायत्री ही परमात्मा शिव है और गायत्री ही परमात्मा परम् ब्रह्म है। अत: गायत्री से ही तीनों वेदों की उत्पत्ति हुई है। भगवती गायत्री को सावित्री, ब्राागायत्री, वेदमाता, देवमाता आदि के नाम से मनुष्य ही नही अपितु देवगण भी सम्बोधित करते हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि, गायत्री वेदों की माता है और गायत्री से ही चारो वेदों की उत्पत्ति हुई है। यह सब ब्रह्माण्ड गायत्री ही है। वेद, उपनिशद्, वेदों की शाखाएं, ब्रााण ग्रन्थ, पुराण और धर्मशास्त्र ये सभी गायत्री के कारण पवित्र माने जाते हैं। अनेक शास्त्र, पुराणादि के कीर्तन करने पर भी ये सभी शास्त्र गायत्री के द्वारा ही पावन होते हैं। गायत्री मन्त्र के जप में भगवत् तत्व को प्रकट करने की रहस्यमयी क्षमता है। मन्त्र के जप से हृदय की ग्रंथियों का भेदन होता है, सम्पूर्ण दु:ख छिन्न–भिन्न हो जाते हैं और सभी अवशिष्ट कर्मबन्धन विनिष्ट हो जाते हैं।
Gayatri is Tri Pada :- a Trinity, since being the Primordial Divine Energy, it is the source of three cosmic qualities known as “Sat”, “Raj” and “Tam” representing spirituality by the deities “Saraswati” or “Hreem”. “Lakshmi” or “Shreem” and “Kali” or “Durga” as “Kleem”. Incorporation of “Hreem” in the soul augments positive traits like wisdom, intelligence, discrimination between right and wrong, love, self-discipline and humility. Yogis, spiritual masters, philosophers, devotees and compassionate saints derive their strength from Saraswati.
गायत्री एक ओर विराट् विश्व और दूसरी ओर मानव जीवन, एक ओर देवतत्व और दूसरी ओर भूततत्त्व, एक ओर मन और दूसरी ओर प्राण, एक ओर ज्ञान और दूसरी ओर कर्म के पारस्परिक संबंधों की पूरी व्याख्या कर देती है। इस मंत्र के देवता सविता हैं, सविता सूर्य की संज्ञा है, सूर्य के नाना रूप हैं, उनमें सविता वह रूप है जो समस्त देवों को प्रेरित करता है। जाग्रत् में सवितारूपी मन ही मानव की महती शक्ति है। जैसे सविता देव है, वैसे मन भी देव है [देवं मन: ऋग्वेद, 1.164.18]। मन ही प्राण का प्रेरक है। मन और प्राण के इस संबंध की व्याख्या गायत्री मंत्र को इष्ट है। सविता मन प्राणों के रूप में सब कर्मों का अधिष्ठाता है, यह सत्य और प्रत्यक्ष सिद्ध है। इसे ही गायत्री के तीसरे चरण में कहा गया है। 
ब्राह्मण ग्रंथों की व्याख्या है :- कर्माणि धिय: अर्थातृ जिसे हम धी या बुद्धि तत्त्व कहते हैं, वह केवल मन के द्वारा होनेवाले विचार या कल्पना सविता नहीं किंतु उन विचारों का कर्मरूप में मूर्त होना है। यही उसकी चरितार्थता है। किंतु मन की इस कर्म क्षम शक्ति के लिए मन का सशक्त या बलिष्ठ होना आवश्यक है। उस मन का जो तेज कर्म की प्रेरणा के लिए आवश्यक है, वही वरेण्य भर्ग है। मन की शक्तियों का तो पारवार नहीं है। उनमें से जितना अंश मनुष्य अपने लिए सक्षम बना पाता है, वहीं उसके लिए उस तेज का वरणीय अंश है। अतएव सविता के भर्ग की प्रार्थना में विशेष ध्वनि यह भी है कि सविता या मन का जो दिव्य अंश है, वह पार्थिव या भूतों के धरातल पर अवतीर्ण होकर पार्थिव शरीर में प्रकाशित हो। गायत्री मंत्र में अन्य किसी प्रकार की कामना नहीं पाई जाती। यहाँ एक मात्र अभिलाषा यही है कि मानव को ईश्वर की ओर से मन के रूप में जो दिव्य शक्ति प्राप्त हुई है, उसी के द्वारा वह उसी सविता का ज्ञान करे और कर्मों के द्वारा उसे इस जीवन में सार्थक करे।
तीनों वेदो ॠग्वेद, यजुर्वेद, एवं सामवेद का संबंध अध्यात्म तथा दर्शन से है। ॠग्वेद पारलौकिक ज्ञान का भंडार है, जबकि यजुर्वेद यज्ञादि अनुष्ठानों को संपन्न करने में प्रयुक्त मंत्रों का संग्रह है। धार्मिक अनुष्ठानों में गायन में प्रयुक्त मंत्रों का संकलन सामवेद क रूप में है। अथर्व वेद में लौकिक उपयोग की बातें यथा आयुर्विज्ञान, आयुधविज्ञान, अर्थशास्त्र संग्रहीत हैं।
गायत्री मंत्र की महिमा चारों वेदों में, स्मृति ग्रंथों में उपनिषदों में, महाभारत में, ऋषियों, मुनियों, विद्वान, आचार्यों ने मुक्त कंठ से की है। यह दुख हरणी, पाप नाशनी, सुख दायनी, बुद्धि प्रदायनी अनुपम गरिमाशालिनी मंत्र है।
ॐ :: प्रणब-प्राचीनतम, जगत की उत्तपत्ति की  ध्वनि, 
तत् :: वह, ईश्वर, जगदाधार परमात्मा, भगवान्,
सवितुर :: सूर्य, कर्ता, संरक्षक, सूर्य की भांति उज्जवल; 
वरेण्यम :: आराध्य, सर्वोत्तम-चयन करने योग्य, सबसे उत्तम;
भर्गो-भर्गास :: आभा, प्रभा, प्रकाश दीप्ति, कर्मों का उद्धार करने वाला, radiance; lustre; brilliance.
देवस्य :: दैवीय, दैदीप्यमान सर्वोच्च परमात्मा, प्रभु, intellect and mind.
धीमहि :: हम ध्यानस्थ हों, हम ध्यान करते हैं, आत्म चिंतन के योग्य (ध्यान), May meditate.
धियो-धियः :: विचार, बुद्धि, विवेक, 
यो :: जो, इस प्रकाश में; He who.
नः :: हमें, हमारा, हमारी, us; to us or ours.
प्रचोदयात ::  प्रेरित करे, प्रेरणा, मार्गदर्शन मिले,  हमें शक्ति दें (प्रार्थना), inspire; kindle, urge, induce.
अर्थात जो प्रकाश, सूक्ष्म, परिपूर्ण और सामान्य इन तीनों लोकों को दीप्तिमान करता है, हम उसकी महिमा का चिंतन करते हैं। 
मैं शक्ति, प्रेम, उज्ज्वल प्रकाश और सार्वभौमिक बुद्धि के रूप में परमात्मा की कृपा का अनुभव कर रहा हूँ। प्रभु मेरे मस्तिष्क को प्रदीप्त करके मुझे दैवीय प्रकाश-मार्गदर्शन प्रदान करें।  
इसकी रचना गायत्री नामक छंद में हुई है। 24 अक्षरों वाला यह मंत्र श्रेष्ठतम माना गया है। इस मंत्र का देवता सविता से संबंध होने के कारण इसका नाम सावित्री मंत्र भी है। महात्म्य, प्रभाव, बड़प्पन, ऊँचा होने के कारण इसको गुरु मंत्र, महा मंत्र भी कहा जाता है। 
भू: भुर्व:  स्व: :: गायत्री के पूर्व में जो तीन व्याहृतियाँ हैं, वे भी सहेतुक हैं।इन तीन व्याहृतियों के अनेक गुण, भाव पद हैं। शाब्दिक दृष्टि से ये क्रमशः पृथ्वी लोक, अंतरिक्ष तथा स्वर्ग लोक को इंगित करते हैं। पृथ्वीलोक तथा स्वर्गलोक के मध्य में अंतरिक्ष है। वह परमात्मा भू: स्वयंभू अर्थात स्वयं की स्वतंत्र सत्ता वाला है। प्राणों का रक्षक है। उसे किसी ने नहीं बनाया है। उसका कोई कारण नहीं है। वह भुव: है। दुख विनाशक है। सृष्टि को बनाने वाला है। चेतन स्वरूप है। वह स्व: सुखस्वरूप है। आनंद का भंडार है। उसकी सत्ता में दुख का लेशमात्र भी स्थान नहीं है। जिस प्रकार सूर्य की रश्मियाँ (परमेश्वर की आभा), पृथ्वी (भुर), आकाश (भुवः) और अंतरिक्ष (स्वः) को प्रकाशित करती है, उसी प्रकार वह प्रकाश मुझे भी दीप्तिमान करे। 
भुर :- पृथ्वी लोक, ऋग्वेद, अग्नि, पार्थिव जगत् और जाग्रत् अवस्था का सूचक है; भौतिक जगत, नुष्य को प्राण प्रदाण करने वाला; 
भुवः :- अंतरिक्ष लोक, यजुर्वेद, वायु देवता, प्राणात्मक जगत् और स्वप्नावस्था का सूचक है; मानसिक जगत, दुख़ों का नाश करने वाला; the Earth and the world immediately above the earth; और 
स्वः :- आध्यात्मिक जगत, सुख़ प्रदान करने वाला; one's own, that all creating great person in the form of sun. 
द्युलोक, सामवेद, आदित्य देवता, मनोमय जगत् और सुषुप्ति अवस्था का सूचक है। इस त्रिक के अन्य अनेक प्रतीक ब्राह्मण, उपनिषद् और पुराणों में कहे गए हैं, किंतु यदि त्रिक के विस्तार में व्याप्त निखिल विश्व को वाक के अक्षरों के संक्षिप्त संकेत में समझना चाहें तो उसके लिए ही यह ॐ संक्षिप्त संकेत गायत्री के आरंभ में रखा गया है। अ, उ, म इन तीनों मात्राओं से ॐ का स्वरूप बना है। अ अग्नि, उ वायु और म आदित्य का प्रतीक है। यह विश्व प्रजापति की वाक है। वाक का अनंत विस्तार है, किंतु यदि उसका एक संक्षिप्त प्रतीक लेकर सारे विश्व का स्वरूप बताना चाहें तो अ, उ, म या ॐ कहने से उस त्रिक का परिचय प्राप्त होगा, जिसका स्फुट प्रतीक त्रिपदा गायत्री है। 
ॐ OM, ओम्, ओउम :: 
एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम। 
एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्म लोके महीयते
इस ओम् नाम का सहारा सर्वोत्तम है। इस सहारे को जान लेने से मनुष्य ब्रह्मलोक को प्राप्त कर लेता है।
प्रणव-primordial sound at the occasion of evolution.  I adore the Divine Self, who illuminates the three abodes :- Earth, Heaven & the Nether world physical, astral and causal; I offer my prayers to that God who shines like the Sun. May He enlighten our intellect. Pranav or Omkar Mantr consisting of the vowels a and u and the consonant `m'. It refers to the Almighty, OM, Brahmn.
तत्सवितुर्वरेण्यम् :: गायत्री मंत्र में भगवान को सविता के रूप में वरण करने, अपनाने की प्रार्थना की गई है जो कि सविता बनकर मनुष्य को प्रेरणा देता है। ज्ञान का प्रकाश करता है। समस्त जगत् को उत्पन्न करता है और सबका स्वामी है। समग्र ऐश्वर्य युक्त है। सब दुखों का नाशक है। ऐसे उस सविता युक्त देव को हम अपनाएँ।
सविता (सवितृ) :: यह परमात्मा का संबोधन है, जिससे समस्त सृष्टि का प्रसव हुआ है अर्थात् जिससे मूर्त एवं अमूर्त सभी कुछ उत्पन्न हुआ है। सभी पापों का भर्जन करने वाली उसकी सामर्थ्य या शक्ति को भर्ग कहा गया है। मंत्र में निहित भाव है :- उस सविता देवता के वरण किये जाने योग्य अर्थात् प्रार्थनीय भर्ग का हम ध्यान करें। वह सविता या उसका भर्ग जो हमारी बुद्धियों को सत्कर्मों के प्रति प्रेरित करता है।
भर्गो देवस्य धीमहि :: जो परमेश्वर भर्ग: स्वरूप है। जो सर्वश्रेष्ठ, सबसे पवित्र, सबसे अच्छा और तेज स्वरूप है। भगवान के उस उत्तम तेज का, प्रकाश का हम श्रद्धा, भक्ति और एकाग्र भाव से ध्यान करें जो दिव्य गुणों से युक्त, आनंद एक रस तथा सुखों को प्रदान करने वाला परम देवादि महादेव है उसका ही सदा ध्यान करें।
धियो यो न प्रचोदयात्गा :: इसमें भगवान सविता से जो उत्तम बुद्धि का दाता है। परम शुद्ध तेजोमय और पाप को भून डालने वाला है, वरण करने के योग्य है, वह परमेश्वर हमारी बुद्धि को उत्तम मार्ग की ओर प्रेरित करें। मनुष्य की बुद्धि सत्संग, स्वाध्याय, यज्ञ, ईश्वर-चिंतन, परोपकार, सेवा, दान आदि श्रेष्ठ कर्मों में लगे इसलिए कहा गया है :-
जहाँ सुमति तंह सम्पत्ति नाना। 
जहाँ कुमति तंह विपत्ति निधाना[तुलसीदास]
गायत्री  बौद्धिक क्षमता बढ़ाने हेतु की जाने वाली प्रार्थना है। 
यह अन्नपूर्णा है, माँ है, जीवन की वृद्धि करने वाली पुष्टिदाता शक्ति है, अतः उसकी उपेक्षा न करें।  
यह वेदसार है। यह वेद-विज्ञ अर्थात ज्ञान की वृद्धि करने वाली है। तथ्यात्मक रूप से चारों वेदों में निहित चार महावाक्य सार तत्व के रूप में इस गायत्री मंत्र में निहित हैं।   

गायत्री मंत्र बौद्धिक क्षमता बढ़ाने के लिए वैदिक प्रार्थना है जो कि एक पवित्र मन्त्र है जो सृष्टि निर्माण के बहुआयामी एकत्व को प्रदर्शित करता है। इस एकता की मान्यता के माध्यम से मनुष्य बहुलता को समझ सकता है। जिस प्रकार एक ही मिट्टी से अलग अलग आकृति और आकार के बर्तन बनाये जा सकते है, सोने के गहने विविध प्रकार के निर्मित किये जा सकते हैं, जबकि स्वर्ण एक ही है, यह आत्मा (दैवीय तत्व) भी सबमें एक ही है। गाय का रंग जो भी हो दूध हमेशा सफेद ही रहता है। 
स्तुति, ध्यान और प्रार्थना ये गायत्री के तीन भाग हैं। सबसे पहले दैवीय प्रार्थना, तदुपरांत श्रद्धा पूर्वक ध्यान और अंत में बुद्धि विवेक जागृत एवं पुष्ट करने का दैविक शक्ति से निवेदन।  
इस मंत्र में सभी देवता समाहित हैं। यह किसी धर्म, विशेष संप्रदाय, जाति, मूर्ति या संस्था से संबंधित नहीं है। 
गायत्री सम्पूर्ण वेदों की माँ है (गायत्री चंधासम माता)। इनके तीन नाम हैं :- गायत्री, सावित्री और सरस्वती। ये तीनों प्रत्येक मनुष्य में निवास करती हैं। 
गायत्री अर्थात चैतन्य शक्ति। यह इंद्रियों, भावनाओं की स्वामी हैं। 
सावित्री अर्थात प्राण अधिपति (जीवन शक्ति) है। सावित्री सत्य की शिक्षक, प्रतीक हैं । 
सरस्वती वक्तृत्व शक्ति (वाक) की अधिपति, पीठासीन देवी हैं। 
ये तीनों विचारों की शुद्धता, शब्द और कर्म (त्रिकर्ण शुद्धि) का प्रतिनिधित्व करतीं हैं। यद्यपि गायत्री के ये तीन नाम है किन्तु ये तीनों चेतना (गायत्री), वाणी की शक्ति (सरस्वती) और जीवनी शक्ति (सावित्री) के रूप में प्रत्येक मनुष्य में विद्यमान हैं। अतः गायत्री चेतना, मन और वाक् की त्रिमूर्ति हैं। 
गायत्रीमन्त्र :: 
सूर्य :: 
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। 
धियो यो नः प्रचोदयात्॥1
ॐ आदित्याय विद्महे सहस्रकिरणाय धीमहि। 
तन्नो भानुः प्रचोदयात्॥2
ॐ प्रभाकराय विद्महे दिवाकराय धीमहि। 
तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्॥3
ॐ अश्वध्वजाय विद्महे पाशहस्ताय धीमहि। 
तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्॥4
ॐ भास्कराय विद्महे महद्द्युतिकराय धीमहि। 
तन्न आदित्यः प्रचोदयात्॥5
ॐ आदित्याय विद्महे सहस्रकराय धीमहि। 
तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्॥6
ॐ भास्कराय विद्महे महातेजाय धीमहि। 
तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्॥7
ॐ भास्कराय विद्महे महाद्द्युतिकराय धीमहि। 
तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्॥8
चन्द्र ::
ॐ क्षीरपुत्राय विद्महे महाकालाय धीमहि तन्नश्चन्द्रः प्रचोदयात्॥9
ॐ क्षीरपुत्राय विद्महे अमृतत्वाय धीमहि तन्नश्चन्द्रः प्रचोदयात्॥10
ॐ निशाकराय विद्महे कलानाथाय धीमहि तन्नः सोमः प्रचोदयात्॥11
अङ्गारक, भौम, मङ्गल, कुज ::
ॐ वीरध्वजाय विद्महे विघ्नहस्ताय धीमहि तन्नो भौमः प्रचोदयात्॥12
ॐ अङ्गारकाय विद्महे भूमिपालाय धीमहि तन्नः कुजः प्रचोदयात्॥13
ॐ चित्रिपुत्राय विद्महे लोहिताङ्गाय धीमहि तन्नो भौमः प्रचोदयात्॥14
ॐ अङ्गारकाय विद्महे शक्तिहस्ताय धीमहि 
तन्नो भौमः प्रचोदयात्॥15
बुध :: 
ॐ गजध्वजाय विद्महे सुखहस्ताय धीमहि तन्नो बुधः प्रचोदयात्॥16
ॐ चन्द्रपुत्राय विद्महे रोहिणी प्रियाय धीमहि
 तन्नो बुधः प्रचोदयात्॥17
ॐ सौम्यरूपाय विद्महे वाणेशाय धीमहि तन्नो बुधः प्रचोदयात्॥18
गुरु ::
 ॐ वृषभध्वजाय विद्महे क्रुनिहस्ताय धीमहि
तन्नो गुरुः प्रचोदयात्॥19
ॐ सुराचार्याय विद्महे सुरश्रेष्ठाय धीमहि तन्नो गुरुः प्रचोदयात्॥20
शुक्र ::
 ॐ अश्वध्वजाय विद्महे धनुर्हस्ताय धीमहि तन्नः शुक्रः प्रचोदयात्॥21 
ॐ रजदाभाय विद्महे भृगुसुताय धीमहि तन्नः शुक्रः प्रचोदयात्॥22
ॐ भृगुसुताय विद्महे दिव्यदेहाय धीमहि तन्नः शुक्रः प्रचोदयात्॥23
शनीश्वर, शनैश्चर, शनी ::
ॐ काकध्वजाय विद्महे खड्गहस्ताय धीमहि 
तन्नो मन्दः प्रचोदयात्॥24
ॐ शनैश्चराय विद्महे सूर्यपुत्राय धीमहि तन्नो मन्दः प्रचोदयात्॥25
ॐ सूर्यपुत्राय विद्महे मृत्युरूपाय धीमहि तन्नः सौरिः प्रचोदयात्॥26
राहु ::
 ॐ नाकध्वजाय विद्महे पद्महस्ताय धीमहि तन्नो राहुः प्रचोदयात्॥27
ॐ शिरोरूपाय विद्महे अमृतेशाय धीमहि तन्नो राहुः प्रचोदयात्॥28॥
केतु ::
ॐ अश्वध्वजाय विद्महे शूलहस्ताय धीमहि तन्नः केतुः प्रचोदयात्॥29
ॐ चित्रवर्णाय विद्महे सर्परूपाय धीमहि तन्नः केतुः प्रचोदयात्॥30
ॐ गदाहस्ताय विद्महे अमृतेशाय धीमहि तन्नः केतुः प्रचोदयात्॥31
पृथ्वी ::
ॐ पृथ्वी देव्यै विद्महे सहस्रमर्त्यै च धीमहि तन्नः पृथ्वी प्रचोदयात्॥32
ब्रह्मा ::
ॐ चतुर्मुखाय विद्महे हंसारूढाय धीमहि तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात्॥33
ॐ वेदात्मनाय विद्महे हिरण्यगर्भाय धीमहि तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात्॥34
ॐ चतुर्मुखाय विद्महे कमण्डलुधराय धीमहि
 तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात्॥35
ॐ परमेश्वराय विद्महे परमतत्त्वाय धीमहि तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात्॥36
विष्णु ::
ॐ त्रैलोक्यमोहनाय विद्महे कामदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु: प्रचोदयात्।
ॐ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्॥37
नारायण ::
ॐ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्॥38
 वेङ्कटेश्वर ::
ॐ निरञ्जनाय विद्महे निरपाशाय धीमहि
 तन्नः श्रीनिवासः प्रचोदयात्॥39
राम ::
ॐ रघुवंश्याय विद्महे सीतावल्लभाय धीमहि
तन्नो रामः प्रचोदयात्॥40
ॐ दाशरथाय विद्महे सीतावल्लभाय धीमहि
तन्नो रामः प्रचोदयात्॥41
ॐ भरताग्रजाय विद्महे सीतावल्लभाय धीमहि
तन्नो रामः प्रचोदयात्॥42
ॐ भरताग्रजाय विद्महे रघुनन्दनाय धीमहि
तन्नो रामः प्रचोदयात् ॥43
 कृष्ण ::
ॐ देवकीनन्दनाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि।
तन्नो कृष्ण: प्रचोदयात्॥44
ॐ दामोदराय विद्महे रुक्मिणीवल्लभाय धीमहि
तन्नः कृष्णः प्रचोदयात्॥45
ॐ गोविन्दाय विद्महे गोपीवल्लभाय धीमहि
तन्नः कृष्णः प्रचोदयात्46
गोपाल ::
ॐ गोपालाय विद्महे गोपीजनवल्लभाय धीमहि
तन्नो गोपालः प्रचोदयात्॥47
 पाण्डुरङ्ग ::
ॐ भक्तवरदाय विद्महे पाण्डुरङ्गाय धीमहि
तन्नः कृष्णः प्रचोदयात्॥48॥
नृसिंह ::
ॐ वज्रनखाय विद्महे तीक्ष्णदंष्ट्राय धीमहि।
तन्नो नृसिंह: प्रचोदयात्॥49
ॐ नृसिंहाय विद्महे वज्रनखाय धीमहि तन्नः सिंहः प्रचोदयात्॥50
परशुराम ::
ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि
तन्नः परशुरामः प्रचोदयात्॥51
इन्द्र ::
ॐ सहस्रनेत्राय विद्महे वज्रहस्ताय धीमहि
तन्न इन्द्रः प्रचोदयात्॥52
हनुमान ::
ॐ आञ्जनेयाय विद्महे महाबलाय धीमहि
तन्नो हनूमान् प्रचोदयात्॥53
ॐ आञ्जनेयाय विद्महे वायुपुत्राय धीमहि
तन्नो हनूमान् प्रचोदयात्॥54
मारुती ::
ॐ मरुत्पुत्राय विद्महे आञ्जनेयाय धीमहि तन्नो मारुतिः प्रचोदयात्॥55
दुर्गा ::
ॐ कात्यायनाय विद्महे कन्यकुमारी च धीमहि
तन्नो दुर्गा प्रचोदयात्॥56
ॐ महाशूलिन्यै विद्महे महादुर्गायै धीमहि
तन्नो भगवती प्रचोदयात्॥57
ॐ गिरिजायै च विद्महे शिवप्रियायै च धीमहि
तन्नो दुर्गा प्रचोदयात्॥58॥
शक्ति ::
ॐ सर्वसंमोहिन्यै विद्महे विश्वजनन्यै च धीमहि
तन्नः शक्तिः प्रचोदयात्॥59॥
काली ::
ॐ कालिकायै च विद्महे श्मशानवासिन्यै च धीमहि
तन्न अघोरा प्रचोदयात्॥60॥
ॐ आद्यायै च विद्महे परमेश्वर्यै च धीमहि
तन्नः कालीः प्रचोदयात्॥61
देवी ::
ॐ महाशूलिन्यै च विद्महे महादुर्गायै धीमहि
तन्नो भगवती प्रचोदयात्॥62
ॐ वाग्देव्यै च विद्महे कामराज्ञै च धीमहि
तन्नो देवी प्रचोदयात्॥63॥
गौरी ::
ॐ सुभगायै च विद्महे काममालिन्यै च धीमहि
तन्नो गौरी प्रचोदयात्॥64
लक्ष्मी ::
ॐ महालक्ष्म्यै विद्महे  विष्णुप्रियायै धीमहि।
तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात्॥65
ॐ महादेव्यै च विद्महे विष्णुपत्न्यै च धीमहि
तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात्॥66
 सरस्वती ::
ॐ वाग्देव्यै च विद्महे विरिञ्चिपत्न्यै च धीमहि
तन्नो वाणी प्रचोदयात्॥67
 सीता ::
ॐ जनकनन्दिन्यै विद्महे भूमिजायै च धीमहि
तन्नः सीता प्रचोदयात्॥68
राधा ::
ॐ वृषभानुजायै विद्महे कृष्णप्रियायै धीमहि।
तन्नो राधा प्रचोदयात्॥69
अन्नपूर्णा ::
ॐ भगवत्यै च विद्महे माहेश्वर्यै च धीमहि
तन्न अन्नपूर्णा प्रचोदयात्॥70
तुलसी ::
ॐ तुलसीदेव्यै च विद्महे विष्णुप्रियायै च धीमहि
तन्नो बृन्दः प्रचोदयात्॥71
महादेव ::
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि
तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्॥72
रुद्र ::
ॐ पुरुषस्य विद्महे सहस्राक्षस्य धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्॥73
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्॥74
शिव :: 
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि। तन्नो रुद्र: प्रचोदयात्
ॐ सदाशिवाय विद्महे सहस्राक्ष्याय धीमहि।
तन्नः साम्बः प्रचोदयात्॥75
नन्दिकेश्वर ::
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे नन्दिकेश्वराय धीमहि
तन्नो वृषभः प्रचोदयात्॥76
गणेश ::
ॐ तत्कराटाय विद्महे हस्तिमुखाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात्॥77
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्तिः प्रचोदयात्॥78
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे हस्तिमुखाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात्॥79
ॐ एकदन्ताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्तिः प्रचोदयात्॥80
ॐ लम्बोदराय विद्महे महोदराय धीमहि तन्नो दन्तिः प्रचोदयात्॥81
षण्मुख ::
ॐ षण्मुखाय विद्महे महासेनाय धीमहि तन्नः स्कन्दः प्रचोदयात्॥82
ॐ षण्मुखाय विद्महे महासेनाय धीमहि तन्नः षष्ठः प्रचोदयात्॥83
सुब्रह्मण्य ::
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महासेनाय धीमहि तन्नः षण्मुखः प्रचोदयात्॥84
ॐ ::
ॐ ॐकाराय विद्महे डमरुजातस्य धीमहि
तन्नः प्रणवः प्रचोदयात्॥85
अजपा ॐ हंस हंसाय विद्महे सोऽहं हंसाय धीमहि
तन्नो हंसः प्रचोदयात्॥86
दक्षिणामूर्ति ::
ॐ दक्षिणामूर्तये विद्महे ध्यानस्थाय धीमहि
तन्नो धीशः प्रचोदयात्॥87
गुरु ::
ॐ गुरुदेवाय विद्महे परब्रह्मणे धीमहि
तन्नो गुरुः प्रचोदयात्॥88
हयग्रीव ::
ॐ वागीश्वराय विद्महे हयग्रीवाय धीमहि
तन्नो हंसः प्रचोदयात्॥89
अग्नि ::
ॐ सप्तजिह्वाय विद्महे अग्निदेवाय धीमहि तन्न अग्निः प्रचोदयात्॥90
ॐ वैश्वानराय विद्महे लालीलाय धीमहि तन्न अग्निः प्रचोदयात्॥91
 ॐ महाज्वालाय विद्महे अग्निदेवाय धीमहि
तन्नो अग्निः प्रचोदयात्॥92
यम ::
ॐ सूर्यपुत्राय विद्महे महाकालाय धीमहि
तन्नो यमः प्रचोदयात्॥93
वरुण ::
ॐ जलबिम्बाय विद्महे नीलपुरुषाय धीमहि
तन्नो वरुणः प्रचोदयात्॥94
वैश्वानर ::
ॐ पावकाय विद्महे सप्तजिह्वाय धीमहि तन्नो वैश्वानरः प्रचोदयात्॥95
मन्मथ ::
ॐ कामदेवाय विद्महे पुष्पवनाय धीमहि तन्नः कामः प्रचोदयात्॥96
हंस ::
ॐ हंस हंसाय विद्महे परमहंसाय धीमहि तन्नो हंसः प्रचोदयात्॥97
ॐ परमहंसाय विद्महे महत्तत्त्वाय धीमहि तन्नो हंसः प्रचोदयात्॥98
नन्दी ::
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे चक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो नन्दिः प्रचोदयात्॥99
गरुड़ ::
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे सुवर्णपक्षाय धीमहि
तन्नो गरुडः प्रचोदयात्॥100
सर्प ::
ॐ नवकुलाय विद्महे विषदन्ताय धीमहि तन्नः सर्पः प्रचोदयात्॥101
पाञ्चजन्य ::
ॐ पाञ्चजन्याय विद्महे पावमानाय धीमहि
तन्नः शङ्खः प्रचोदयात्॥102
सुदर्शन ::
ॐ सुदर्शनाय विद्महे महाज्वालाय धीमहि तन्नश्चक्रः प्रचोदयात्॥103
अग्नि ::
ॐ रुद्रनेत्राय विद्महे शक्तिहस्ताय धीमहि तन्नो वह्निः प्रचोदयात्॥104
ॐ वैश्वानराय विद्महे लाललीलाय धीमहि तन्नोऽग्निः प्रचोदयात्॥105
ॐ महाज्वालाय विद्महे अग्निमथनाय धीमहि
तन्नोऽग्निः प्रचोदयात्॥106
आकाश ::
ॐ आकाशाय च विद्महे नभोदेवाय धीमहि
तन्नो गगनं प्रचोदयात्॥107
अन्नपूर्णा ::
ॐ भगवत्यै च विद्महे माहेश्वर्यै च धीमहि
तन्नोऽन्नपूर्णा प्रचोदयात्॥108
बगला मुखी ::
ॐ बगलामुख्यै च विद्महे स्तम्भिन्यै च धीमहि
तन्नो देवी प्रचोदयात्॥109
बटुक भैरव ::
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे आपदुद्धारणाय धीमहि
तन्नो बटुकः प्रचोदयात्॥110
भैरवी ::
ॐ त्रिपुरायै च विद्महे भैरव्यै च धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्॥111
भुवनेश्वरी ::
ॐ नारायण्यै च विद्महे भुवनेश्वर्यै धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्॥112
ब्रह्मा ::
ॐ पद्मोद्भवाय विद्महे देववक्त्राय धीमहि तन्नः स्रष्टा प्रचोदयात्॥113
ॐ वेदात्मने च विद्महे हिरण्यगर्भाय धीमहि
तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात्॥114
ॐ परमेश्वराय विद्महे परतत्त्वाय धीमहि तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात्॥115
चन्द्र ::
ॐ क्षीरपुत्राय विद्महे अमृततत्त्वाय धीमहि तन्नश्चन्द्रः प्रचोदयात् ॥116
छिन्नमस्ता ::
ॐ वैरोचन्यै च विद्महे छिन्नमस्तायै धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्॥117
दक्षिणामूर्ति ::
ॐ दक्षिणामूर्तये विद्महे ध्यानस्थाय धीमहि
तन्नो धीशः प्रचोदयात्॥118
देवी ::
ॐ देव्यैब्रह्माण्यै विद्महे महाशक्त्यै च धीमहि
तन्नो देवी प्रचोदयात्॥119
धूमावती ::
ॐ धूमावत्यै च विद्महे संहारिण्यै च धीमहि तन्नो धूमा प्रचोदयात्॥120
दुर्गा ::
ॐ कात्यायन्यै विद्महे कन्याकुमार्यै धीमहि तन्नो दुर्गा प्रचोदयात्॥121
ॐ महादेव्यै च विद्महे दुर्गायै च धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्॥122
गणेश ::
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात्॥123
ॐ एकदन्ताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात्॥124
गरुड ::
ॐ वैनतेयाय विद्महे सुवर्णपक्षाय धीमहि तन्नो गरुडः प्रचोदयात्॥125
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे सुवर्णपर्णाय (सुवर्णपक्षाय) धीमहि
तन्नो गरुडः प्रचोदयात्॥126
गौरी ::
ॐ गणाम्बिकायै विद्महे कर्मसिद्ध्यै च धीमहि
तन्नो गौरी प्रचोदयात्॥127
ॐ सुभगायै च विद्महे काममालायै धीमहि तन्नो गौरी प्रचोदयात्॥128
गोपाल ::
ॐ गोपालाय विद्महे गोपीजनवल्लभाय धीमहि
तन्नो गोपालः प्रचोदयात्॥129
गुरु ::
ॐ गुरुदेवाय विद्महे परब्रह्माय धीमहि तन्नो गुरुः प्रचोदयात्॥130
हनुमत् ::
ॐ रामदूताय विद्महे कपिराजाय धीमहि
तन्नो हनुमान् प्रचोदयात्॥131
ॐ अञ्जनीजाय विद्महे वायुपुत्राय धीमहि
तन्नो हनुमान् प्रचोदयात्॥132
हयग्रीव ::
ॐ वागीश्वराय विद्महे हयग्रीवाय धीमहि तन्नो हंसः प्रचोदयात्॥133
इन्द्र, शक्र ::
ॐ देवराजाय विद्महे वज्रहस्ताय धीमहि तन्नः शक्रः प्रचोदयात्॥134
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे सहस्राक्षाय धीमहि तन्न इन्द्रः प्रचोदयात्॥135
जल ::
ॐ ह्रीं जलबिम्बाय विद्महे मीनपुरुषाय धीमहि
तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्॥136
ॐ जलबिम्बाय विद्महे नीलपुरुषाय धीमहि
तन्नस्त्वम्बु प्रचोदयात्॥137
जानकी ::
ॐ जनकजायै विद्महे रामप्रियायै धीमहि तन्नः सीता प्रचोदयात्॥138
जयदुर्गा ::
ॐ नारायण्यै विद्महे दुर्गायै च धीमहि तन्नो गौरी प्रचोदयात्॥139
काली ::
ॐ कालिकायै विद्महे श्मशानवासिन्यै धीमहि
तन्नोऽघोरा प्रचोदयात्॥140
काम ::
ॐ मनोभवाय विद्महे कन्दर्पाय धीमहि तन्नः कामः प्रचोदयात्॥141
ॐ मन्मथेशाय विद्महे कामदेवाय धीमहि तन्नोऽनङ्गः प्रचोदयात्॥142
ॐ कामदेवाय विद्महे पुष्पबाणाय धीमहि तन्नोऽनङ्गः प्रचोदयात्॥143॥
*कामकलाकाली ::
ॐ अनङ्गाकुलायै विद्महे मदनातुरायै धीमहि
तन्नः कामकलाकाली प्रचोदयत्॥144
ॐ दामोदराय विद्महे वासुदेवाय धीमहि
तन्नः कृष्णः प्रचोदयात्॥145
ॐ देवकीनन्दनाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि
तन्नः कृष्ण: प्रचोदयात॥146 
*कामकलाकाली मन्त्रम् KAM KALA KALI MANTR :: This is one of the most auspicious form of Maa Maha Kali. The Sadhana should be carried out under the supervision of an enlightened teacher who could energise the Mantr and fruitfully perfected the Mantr. This form of Maha Kali bestow all the Siddhis. Only one who performed-practiced Sadhana in previous births may get this Kali Mantr. Chastity-celibacy is essential for this. 
ॐ अस्य श्रीकामकलाकाली मन्त्रस्य, महाकालऋषि: वृहतिछन्दः। 
कामकलाकाली देवता, क्लीं बीजम्, हूं शक्ति:, भगवति कामकलाकाली प्रसाद सिद्ध्यर्थे जपे विनियोग: 
षडङ्ग न्यास ::
क्लीं का हृदयाय नमः। क्रीं म शिरसे स्वाहा। हूँ क  शिखायै वौषट्। क्रों ला नेत्रत्रयायै वौषट्। स्फ्रें का कवचाय हुं। कामकलाकाली ली अस्त्राय फट्।
ध्यानम् :: 
ध्यानमस्याः प्रवक्ष्यामि कुरु चित्तैकतानताम्
उद्यद्घनाघना श्लिष्यज्जवा-कुसुम-सन्निभाम्
मत्त-कोकिल-नेत्राभां  पक्व-जम्बूफल-प्रभाम्
सुदीर्घ-प्रपदालम्बि विस्रस्त-घन-मूर्ध्वजाम्
ज्वालदंगार-वच्छोण नेत्रत्रितय-भूषिताम्
उद्य-च्छारद-सम्पूर्ण चन्द्र-कोकनदाननाम्
दीर्घ-दंष्ट्रा-युगो  दंचद्-विकराल-मुखाम्बुजाम्
वितस्तिमात्र-निष्क्रान्त  ललज्जिह्वा-भयानकाम्
व्यात्ताननतया दृश्यद्वात्रिंशद्-दन्तमण्डलाम्
निरन्तरं वेपमानोत्तमांगाम् घोररूपिणीम्
अंसासक्त नृमुंडसृक् पिबन्तीं वक्रकन्धराम्
उरोजा भोगसंसक्त सम्पतद्रुधिरोच्चयाम्
सशीत्कृतिध्यन्तीम् तल्ले लिहानरसज्ञया। 
बीज मन्त्रम्-त्रैलोक्याकर्षण मन्त्रम् ::
क्लीं क्रीं हूँ क्रों स्फ्रें कामकलाकाली स्फ्रें क्रों हूँ क्रीं क्लीं स्वाहा। 
कामकलाकाली गायत्री ::
ॐ अनङ्गाकुलायै विद्महे मदनातुरायै धीमहि 
तन्नः कामकलाकाली प्रचोदयत्। 
कपिलोपासित उपासित कामकलाकाली मन्त्रम् ::
ॐ अस्य मन्त्रस्य, श्रीसनक ऋषि:, प्रतिष्ठा छन्द:, श्रीकामकलाकाली देवताः,ग्लूं शक्तिः,ग्लूं कीलकं श्रीकामकलाकाली प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः।
ह्रीं फ्रें क्रौं ग्लूं छ्रीं स्त्रीं हूं स्फ्रें खफ्रें ह्सख्फ्रें  क्ष्रौं स्हौ: फट् स्वाहा। 
मरीचि उपासित श्रीकामकलाकाली मन्त्रम् ::
ॐ अस्य मन्त्रस्य, श्री कदर्म  ऋषि:, बृहति छन्द:, श्रीकामकलाकाली देवताः, ह्रीं शक्तिः, हूं कीलकं श्रीकामकलाकाली प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्रीं हूं छ्रीं स्त्रीं फ्रें क्रों हौं क्षौं आं स्फ्रें स्वाहा। 
ब्रह्म गायत्री एवं देव गायत्री :: गायत्री के तन्त्र ग्रन्थों में 24 गायत्रियों का वर्णन है। चौबीस देवताओं के लिए एक-एक गायत्री है। गायत्री छन्द में ग्रथित होने से उन्हें ‘गायत्री’ कहते हैं। इस प्रकार 24 गायत्रियों द्वारा 24 देवताओं से सम्बन्ध स्थापित किया गया है।
गायत्री त्रिपदा कही जाती है। गायत्री मन्त्र के 24 अक्षर तीन पदों में विभक्त हैं। गायत्री मन्त्र के ‘विद्महे’, ‘धीमहि’ और ‘धियो यो न: प्रचोदयात्’ शब्दों को लेकर चौबीस देवताओं की गायत्री रची गयी है। इससे गायत्री मन्त्र की पवित्रता, उच्चता और सर्वश्रेष्ठता सिद्ध होती है।
धीमहि कहते हैं–ध्यान को। पर किसका ध्यान? उस मंगलमय प्रकाशवान परमात्मा का ध्यान, जिसको हृदय में धारण करने पर सब प्रकार की सुख-शान्ति, ऐश्वर्य, प्राण-शक्ति और परमपद की प्राप्ति होती है।
यो न: प्रचोदयात्’ में कामनाओं की ओर संकेत किया गया है। मनुष्य कामनाओं से बना हुआ है। कामना (इच्छा) के कारण ही यह संसार चल रहा है। परन्तु मनुष्य की कामनाएं स्वार्थ से ऊपर उठकर धर्ममय होनी चाहिए जो सबके लिए हितकर हों। यही गायत्री का स्वरूप है। गायत्री मन्त्र में परमात्मा से सद्बुद्धि व श्रेष्ठ कर्मों की ओर प्रेरित करने की कामना की गयी है।
गायत्री-मन्त्र में चौबीस शक्तियां गूँथी हुई हैं। गायत्री मन्त्र की उपासना करने से उन शक्तियों का लाभ साधक को मिलता है। चौबीस देवताओं की चौबीस शक्तियां हैं। मनुष्य को जिस शक्ति की कामना हो या इन शक्तियों में से किसी शक्ति की अपने में कमी का अनुभव होता हो तो उसे उस शक्ति वाले देवता की उपासना करनी चाहिए। उस देवता का ध्यान करते हुए देव गायत्री का जप करना चाहिए। इनके जप से उस देवता के साथ साधक का विशेष रूप से सम्बन्ध स्थापित हो जाता है और उस देव से सम्बन्ध रखने वाली चैतन्य शक्तियां, सिद्धियां साधक को प्राप्त हो जाती हैं। उस शक्ति के देवता की गायत्री का जप भी मूल गायत्री जप के साथ करने से लाभ होता है।
जैसे दूध में सभी पोषक तत्त्व होते हैं और दूध पीने वाले को सभी पोषक तत्त्वों का लाभ मिलता है। परन्तु यदि किसी को किसी विशेष तत्त्व की आवश्यकता होती है तो वह दूध के उसी विशेष तत्त्व का ही सेवन करता है। किसी को यदि चिकनाई की आवश्यकता है तो वह दूध के चिकनाई वाले भाग घी का सेवन करता है। किसी को छाछ की आवश्कता है तो वह दूध के छाछ वाले अंश को ग्रहण करता है। रोगियों को दूध फाड़कर उसका पानी देते हैं। उसी प्रकार विशेष शक्तियों  की आवश्यकता होने पर मनुष्य को उसी शक्ति से सम्बन्धित देव की आराधना करनी चाहिए।
जिस देवता की जो गायत्री है उसका दशांश जप गायत्री मन्त्र साधना के साथ करना चाहिए। देवताओं की गायत्रियां वेदमाता गायत्री की छोटी-छोटी शाखाएं है, जो तभी तक हरी-भरी रहती हैं, जब तक वे मूलवृक्ष के साथ जुड़ी हुई हैं। वृक्ष से अलग कट जाने पर शाखा निष्प्राण हो जाती है, उसी प्रकार अकेले देव गायत्री भी निष्प्राण होती है, उसका जप महागायत्री (गायत्री मन्त्र) के साथ ही करना चाहिए।
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चौबीस देवताओं के गायत्री मन्त्र :: 
(1). गणेश गायत्री :– 
ॐ एकदन्ताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि। तन्नो दन्तिः प्रचोदयात्॥
(2). नृसिंह गायत्री :– 
ॐ नृसिंहाय विद्महे वज्रनखाय धीमहि। तन्नः सिंहः प्रचोदयात्॥
(3). विष्णु गायत्री :– 
ॐ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्॥
(4). शिव गायत्री :– 
ॐ पञ्चवक्शाय  विद्महे वासुदेवाय धीमहि। तन्नो रुद्र: प्रचोदयात्॥
(5). कृष्ण गायत्री :– 
ॐ देवकीनन्दनाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि। तन्नो कृष्ण: प्रचोदयात्॥
(6). राधा गायत्री :– 
ॐ वृषभानुजायै विद्महे कृष्णप्रियायै धीमहि। तन्नो राधा प्रचोदयात्॥
(7). अग्नि गायत्री :– 
ॐ महालक्ष्म्यै विद्महे  विष्णुप्रियायै धीमहि। तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात्॥
(8). अग्नि गायत्री :– 
ॐ महाज्वालाय विद्महे अग्निदेवाय धीमहि। तन्नो अग्नि: प्रचोदयात्
(9). इन्द्र गायत्री :–
ॐ सहस्त्रनेत्राय विद्महे वज्रहस्ताय धीमहि। तन्नो इन्द्र: प्रचोदयात्
(10). सरस्वती गायत्री :–
ॐ सरस्वत्यै विद्महे ब्रह्मपुत्र्यै धीमहि। तन्नो देवी प्रचोदयात्
(11). दुर्गा गायत्री :– 
ॐ गिरिजायै विद्महे शिवप्रियायै धीमहि। तन्नो दुर्गा प्रचोदयात्
(12). हनुमान गायत्री :–
ॐ अंजनेयाय विद्महे वायुपुत्राय धीमहि।  तन्नो मारुति: प्रचोदयात्
(13). पृथ्वी गायत्री :–
ॐ पृथ्वीदेव्यै विद्महे सहस्त्रमूत्यै धीमहि। तन्नो पृथ्वी प्रचोदयात्
(14). सूर्य गायत्री :–
ॐ आदित्याय विद्महे सहस्त्रकिरणाय धीमहि। तन्नो सूर्य: प्रचोदयात्
(15). राम गायत्री :–
ॐ दशरथाय विद्महे सीतावल्लभाय धीमहि। तन्नो राम: प्रचोदयात्
(16). सीता गायत्री :–
ॐ जनकनन्दिन्यै विद्महे भूमिजायै धीमहि। तन्नो सीता प्रचोदयात्
(17). चन्द्र गायत्री :–
ॐ क्षीरपुत्राय विद्महे अमृतत्त्वाय धीमहि। तन्नो चन्द्र: प्रचोदयात्
(18). यम गायत्री :–
ॐ सूर्यपुत्राय विद्महे महाकालाय धीमहि। तन्नो यम: प्रचोदयात्
(19). ब्रह्मा गायत्री :–
ॐ चतुर्मुखाय विद्महे हंसारुढ़ाय धीमहि। तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात्
(20). वरुण गायत्री :–
ॐ जलबिम्वाय विद्महे नीलपुरुषाय धीमहि। तन्नो वरुण: प्रचोदयात्
(21). नारायण गायत्री :–
ॐ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि। तन्नो नारायण: प्रचोदयात्
(22). हयग्रीव गायत्री :–
ॐ वागीश्वराय विद्महे हयग्रीवाय धीमहि। तन्नो हयग्रीव: प्रचोदयात्
(23). हंस गायत्री :–
ॐ परमहंसाय विद्महे महाहंसाय धीमहि। तन्नो हंस: प्रचोदयात्
(24). तुलसी गायत्री :–
ॐ श्रीतुलस्यै विद्महे विष्णुप्रियायै धीमहि। तन्नो वृन्दा प्रचोदयात्
गायत्री साधना का प्रभाव तत्काल होता है जिससे साधक को आत्मबल प्राप्त होता है और मानसिक कष्ट में तुरन्त शान्ति मिलती है। इस महामन्त्र के प्रभाव से आत्मा में सतोगुण बढ़ता है।
गायत्री जप में आसन का भी विचार किया जाता है। बांस, पत्थर, लकड़ी, वृक्ष के पत्ते, घास-फूस के आसनों पर बैठकर जप करने से सिद्धि प्राप्त नहीं होती, वरन् दरिद्रता आती है। गायत्री शक्ति का ध्यान करके करमाला, रुद्राक्ष या तुलसी की माला में जप करना चाहिए। मन में मन्त्र का उच्चारण करना चाहिए। न जीभ हिले, न होंठ।
गायत्री की महिमा के सम्बन्ध में क्या कहा जाए। ब्रह्म की जितनी महिमा है, वह सब गायत्री की भी मानी जाती हैं। वेदमाता गायत्री से यही विनम्र प्रार्थना है कि वे दुर्बुद्धि को मिटाकर सबको सद्बुद्धि प्रदान करें।
गायत्री मुद्राओं का रहस्य :: गायत्री मंत्र अपने आप में एक पूरी श्रृष्टि है और यह सृष्टि करने की क्षमता से भी परिपूर्ण है। 24 अक्षरों में समाहित यह ब्रह्मांडीय ऊर्जा हमें उस परब्रह्म से जोड़ती है तथा हमारे त्रिविध तापों की शांति करती है। इसके प्रत्येक अक्षर में देव शक्ति निहित है जिसकी विभिन्न मुद्राएं, शक्तियां उनसे संबंधित सिद्धियां और उनके आयाम विस्तार हैं जो की बहुत सूक्ष्म विज्ञान है।
गायत्री मुद्राओं के विभिन्न देवता और सिद्धियां। गायत्री की 24 मुद्राएं 24 देवताओं के पूरक हैं जो गायत्री के 24 अक्षरों में समाहित हैं :- 
चतुर्विंशतिकेष्वेवं नामसु द्वादशैव तु। वैदिकानि तथाऽन्यानि शेषाणि तान्त्रिकानि तु
गायत्री के चौबीस नामों में बारह वैदिक वर्ग के हैं और बारह तान्त्रिक वर्ग के।
चतुर्विशंतु वर्णेषु चतुर्विशति शक्तयः। शक्ति रूपानुसारं च तासां पूजाविधीयते॥
गायत्री के चौबीस अक्षरों में चौबीस देवशक्तियां निवास करती हैं। इसलिए उनके अनुरूपों की ही पूजा-अर्चा और मुद्राएं की जाती है।
आद्य शक्तिस्तथा ब्राह्मी, वैष्णवी शाम्भवीति च।
वेदमाता देवमाता विश्वमाता ऋतम्भरा॥
मन्दाकिन्यजपा चैव, ऋद्धि सिद्धि प्रकीर्तिता। 
धैदिकानि तु नामानि तु पूर्वोक्तानि हि द्वादश॥
(1). आद्यशक्ति, (2). ब्राह्मी, (3). वैष्णवी, (4). शाम्भवी, (5). वेदमाता, (6). देवमाता, (7). विश्वमाता, (8). ऋतम्भरा, (9). मन्दाकिनी, (10). अजपा, (11). ऋद्धिऔर (12). सिद्धि। 
इस बारह को वैदिकी कहा गया है।
सावित्री सरस्वती ज्ञेया, लक्ष्मी दुर्गा तथैव च। 
कुण्डलिनी प्राणग्निश्च भवानी भुवनेश्वरी॥
अन्नपूर्णेति नामानि महामाया पयस्विनी। 
त्रिपुरा चैवेति विज्ञेया तान्त्रिकानि च द्वादश॥
(1). सावित्री, (2) सरस्वती, (3). लक्ष्मी, (4). दुर्गा, (5). कुण्डलिनी, (6) प्राणाग्नि, (7). भवानी, (8) भुवनेश्वरी, (9). अन्नपूर्णा, (10). महामाया, (11). पयस्विनी और (12) त्रिपुरा।
इन बारह को तान्त्रिकी कहा गया है।
बारह ज्ञान पक्ष की बारह विज्ञान पक्ष की शक्तियों के मिलन से चौबीस अक्षर वाला गायत्री मन्त्र विनिर्मित हुआ।
गायत्री मंत्र की शक्ति को बढ़ाने के लिए, इन 24 शक्तियों की इस मंत्र के जाप से पहले और बाद में 32 मुद्राएँ की जाती हैं, जिन्हें गायत्री मुद्राएँ कहते हैं। गायत्री मुद्राओं को बार-बार करने से शरीर को जीवनदायी ऊर्जा मिलती है, क्योंकि यह शरीर की सकारात्मक और नकारात्मक कोशिकाओं को आपस में मिलने से रोकती है।
24 अक्षरों के 24 देवताओं से सम्बन्धित 24 सिद्धियाँ हैं। गायत्री विनियोग में सविता देवता का उल्लेख है। 24 अक्षरों के 24 देवताओं और उनकी सिद्धियां हैं।
दैवतानि शृणु प्राज्ञ तेषामेवानुपूर्वशः।
आग्नेयं प्रथम प्रोक्तं प्राजापत्यं द्वितीयकम्॥
तृतीय च तथा सोम्यमीशानं च चतुर्थकम्।
सावित्रं पञ्चमं प्रोक्तं षष्टमादित्यदैवतम्॥
वार्हस्पत्यं सप्तमं तु मैवावरुणमष्टमम्।
नवम भगदैवत्यं दशमं चार्यमैश्वरम्॥
गणेशमेकादशकं त्वाष्ट्रं द्वादशकं स्मृतम्।
पौष्णं त्रयोदशं प्रोक्तमैद्राग्नं च चतुर्दशम्॥
वायव्यं पंचदशकं वामदेव्यं च षोडशम्।
मैत्रावरुण दैवत्यं प्रोक्तं सप्तदशाक्षरम्॥
अष्ठादशं वैश्वदेवमनविंशंतुमातृकम्।
वैष्णवं विंशतितमं वसुदैवतमीरितम्॥
एकविंशतिसंख्याकं द्वाविंशं रुद्रदैवतम्।
त्रयोविशं च कौवेरेगाश्विने तत्वसंख्यकम्॥
चतुर्विंशतिवर्णानां देवतानां च संग्रहः॥
गायत्री ब्रह्म कल्प में देवताओं के नामों का उल्लेख इस तरह से किया गया है :-
(1). अग्नि, (2). वायु, (3). सूर्य, (4). कुबेर, (5). यम, (6). वरुण, (7). बृहस्पति, (8). पर्जन्य, (9). इन्द्र, (10). गन्धर्व, (11). प्रोष्ठ, (12). मित्रा-वरूण, (13). त्वष्टा, (14). वासव, (15). मरूत, (16). सोम, (17). अंगिरा, (18). विश्वेदेवा, (19). अश्विनी कुमार, (20). पूषा, (21). रूद्र, (22). विद्युत, (23). ब्रह्म, (24). अदिति।
हे प्राज्ञ! अब गायत्री के 24 अक्षरों में विद्यमान 24 देवताओं के नाम सुनों :-
(1). अग्नि, (2). प्रजापति, (3.) चन्द्रमा, (4). ईशान, (5). सविता, (6). आदित्य, (7). बृहस्पति, (8). मित्रा-वरुण, (9). भग, (10). अर्यमा, (11). गणेश, (12). त्वष्टा, (13). पूषा, (14). इन्द्राग्नि, (15). वायु, (16). वामदेव, (17). मरुद्गण, (18) विश्वेदेवा, (19). मातृक, (20). विष्णु, (21). वसुगण, (22). रूद्र गण, (23) कुबेर, (24) अश्विनी कुमार। 
गायत्री मंत्र के 24 अक्षरों को 24 देवताओं का शक्ति - बीज मंत्र माना गया है । प्रत्येक अक्षर का एक देवता है। प्रकारान्तर से इस महामंत्र को 24 देवताओं का एवं संघ, समुच्चय या संयुक्त परिवार कह सकते हैं । इस परिवार के सदस्यों की गणना के विषय में शास्र बतलाते हैं :-
गायत्री मंत्र का एक-एक अक्षर एक-एक देवता का प्रतिनिधित्व करता है । इन 24 अक्षरों की शब्द शृंखला में बँधे हुए 24 देवता माने गये हैं :-
गायत्र्या वर्णमेककं साक्षात् देवरूपकम्। तस्मात् उच्चारण तस्य त्राणयेव भविष्यति॥
गायत्री संहिता :: गायत्री का एक-एक अक्षर साक्षात् देव स्वरूप है। इसलिए उसकी आराधना से उपासक का कल्याण ही होता है ।
उन देवताओं को अष्टसिद्धि, नव निद्धि एवं सप्त विभूतियों के रूप में गिना गया है। 8+9+7 = 24 होता है। गायत्री के प्राचीन काल के साधकों को उन चमत्कारी विशिष्टिताओं की उपलब्धि होती होगी। आज के सामान्य साधक सामान्य व्यक्तित्व के रहते हुए जो सफलताएँ प्राप्त कर सकते हैं, उन्हें इस प्रकार समझा जा सकता है :-
(1) प्रज्ञा, (2) वैभव, (3) सहयोग, (4) प्रतिभा, (5) ओजस्, (6) तेजस्, (7) वर्चस्, (8) कान्ति, (9) साहसिकता, (10) दिव्य दृष्टि, (11) पूर्वाभास, (12) विचार, संचार, (13) वरदान, (14) शाप, (15) शान्ति, (16) प्राण प्रयोग, (17) देहान्तर सम्पर्क, (18) प्राणाकर्षण, (19) ऐश्वर्य, (20) दूर श्रवण, (21) दूरदर्शन, (22) लोकान्तर सम्पर्क, (23) देव सम्पर्क और  (24) कीर्ति।
32 (24+8) गायत्री मुद्राएँ रीढ़ की हड्डी के 32 कशेरुक स्तंभों का प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व करती हैं। रीढ़ की हड्डी 72000 नाड़ियों का केंद्र बिंदु है जो शरीर के बाकी हिस्सों में आगे की ओर जाती हैं। हमारे सूक्ष्म शरीर (सूक्ष्म शरीर) में रीढ़ की हड्डी में 7 चक्र भी मौजूद हैं ।
जब रक्त इन नलिकाओं से होकर गुजरता है, तो यह शरीर को ताकत देता है, खराब कोशिकाओं को नष्ट करता है, रुकावटों को दूर करता है और हमें प्रतिरक्षा प्रदान करता है।
एक बार ये सभी मुद्राएं करने के बाद, आपको अपने हाथों को ज्ञान मुद्रा में रखते हुए कम से कम 10 बार गायत्री मंत्र का जाप करना चाहिए। इन 32 गायत्री मुद्राओं को पूर्वा मुद्रा (24 मुद्राएं) और उत्तरा (8 मुद्राएं) मुद्रा में विभाजित किया गया है । 
पूर्व मुद्राएं :- 32 मुद्राओं में से पहली 24 मुद्राएँ, जिन्हें पूर्व मुद्राएँ भी कहा जाता है, गायत्री मंत्र का जाप करने से पहले की जाती हैं। इन मुद्राओं को किसी दिव्य प्रतीक या गायत्री की मूर्ति के सामने किया जाना चाहिए।
24 मुद्राओं में से, पहले 17 मुद्राएँ पंच भूतों या शरीर के पाँच तत्वों पर केंद्रित हैं । वे पंच तत्व या 5 तत्वों को शुद्ध, उत्तेजित और संतुलित करते हैं जो नाड़ियों और चक्रों को सक्रिय करते हैं।
(1). सुमुखम मुद्रा :- यह हस्त मुद्रा जीवन के निर्माण का प्रतीक है। यह इच्छा (इच्छा) की ऊर्जा और प्रकृति के बनने से पहले की अवस्था ( एकम ) को दर्शाती है। हथेलियाँ एक दूसरे की ओर रखें। दोनों हाथों की सभी अंगुलियों के अग्रभागों को अंगूठे के अग्रभागों से मिलाएं। अब सभी अंगुलियों के पोरों को एक दूसरे से स्पर्श कराते हुए दोनों हाथों को आपस में जोड़ें।
(2). सम्पुटम मुद्रा :- यह हाथ का इशारा एक “कली” के निर्माण को दर्शाता है। यह मनुष्य की आत्मा में पूर्ण ज्ञान के निर्माण को दर्शाता है।
सुमुखम से, अपनी सभी अंगुलियों को सीधा करें जब तक कि आपकी अंगुलियों के आधार एक दूसरे को छूने न लगें। 
अंगूठे एक दूसरे के बगल में रखे जाते हैं, दोनों तरफ से स्पर्श करते हुए, जबकि हथेलियों का आधार एक दूसरे को छूता हुआ होना चाहिए।
(3). वित्तम मुद्रा :- यह मुद्रा कली के खिलने की अवस्था को दर्शाती है। यह इच्छा की ऊर्जा का क्रिया की ऊर्जा में रूपांतरण है
संपुटम की तरह ही उंगलियों की बनावट बनाए रखते हुए, हाथों को थोड़ा अलग रखें जब तक कि हथेलियों के बीच थोड़ा सा अंतर न हो जाए। आपकी कोई भी उंगली या हथेली एक दूसरे को छूती हुई नहीं होनी चाहिए।
(4). विस्त्रुतम मुद्रा :- कली पूरी तरह से खिलने के लिए तैयार है। यह मुद्रा ब्रह्मांड के विस्तार का भी प्रतीक है।
अपनी हथेलियों के बीच की दूरी बढ़ाते हुए अपनी उंगलियों को सीधा करें। अब आपकी उंगलियां एक दूसरे से दूर झुकी हुई होनी चाहिए।
उपरोक्त चार मुद्राओं का प्रदर्शन करते समय इस मंत्र का जाप किया जाता है।
अथहा परम प्रवक्ष्यामि वर्णा मुद्राहा क्रमेणतु।
सुमुखं सम्पुटं चैव विततं विस्तृतं तथा
(5). द्विमुख मुद्रा :- द्वि अर्थात दो और मुखम का अर्थ है चेहरे। यह मुद्रा ब्रह्म- प्रकृति और पुरुष के दोहरे चेहरों की याद दिलाती है ।
अंगुलियों को फैलाएँ और अनामिका तथा कनिष्ठिका के सिरों को आपस में मिलाएँ। बाकी अंगुलियाँ और अंगूठे एक दूसरे से दूर रहें।
(6). त्रिमुखम मुद्रा :- त्रि का अर्थ तीन होता है। इस प्रकार, यह मुद्रा इच्छा, ज्ञान और क्रिया की संयुक्त ऊर्जा को दर्शाती है। यह ब्रह्मा, विष्णु और महेश या शिव की 3 प्रकृतियों का भी प्रतिनिधित्व करता है। द्विमुख बनाते समय मध्यमा अंगुली के अग्रभागों को भी मिलाएं।
(7). चतुर्मुखम मुद्रा :- चतुर का मतलब चार होता है। यह मुद्रा 4 वेदों का प्रतीक है :-  ऋग्वेद,  यजुर्वेद , सामवेद और अथर्ववेद। यह 4 पुरुषार्थों (मानवीय कार्यों की वस्तु) को भी दर्शाता है, धर्म (धार्मिकता), अर्थ (रुपया-पैसा), काम (सुख) और मोक्ष (मुक्ति) को भी दर्शाता है। उपरोक्त मुद्रा को जारी रखते हुए तर्जनी उंगलियों के पोरों को भी जोड़ें।
(8). पंचमुखम मुद्रा :- पंच का मतलब पाँच होता है। यह पंच तत्त्वों या 5 मूल तत्वों का प्रतिनिधित्व करता है जो हर जीवित प्राणी को बनाते हैं, अंतरिक्ष या आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी। अंगूठे के पोरों को इस प्रकार मिलाएं कि दोनों हाथों की सभी अंगुलियां एक-दूसरे को छू रही हों।
(9). षण्मुखम मुद्रा :- यह मुद्रा भगवान षण्मुकम या जिन्हें आमतौर पर कार्तिकेय या सुब्रमण्य के नाम से जाना जाता है, को समर्पित है। वे भगवान शिव और देवी पार्वती के पुत्र हैं और ऐसा कहा जाता है कि उन्हें उनके लिए कठोर तप करना पड़ा था। इस प्रकार, यह मुद्रा हमें तप के महत्व को समझने में मदद करती है और प्रकृति की युवावस्था को भी दर्शाती है। उपरोक्त मुद्रा को बरकरार रखते हुए केवल दोनों छोटी उंगलियों के अग्रभागों को अलग करें।
(10). अधोमुखम मुद्रा :- इस मुद्रा के माध्यम से ज्ञानेन्द्रियों (इन्द्रियों) और कर्मेन्द्रियों (क्रिया के अंगों) पर विचार किया जाता है। यह प्रकृति की प्रक्रिया के अधोगामी मार्ग को भी दर्शाता है।
अपनी उंगलियों को इस तरह मोड़ें कि वे आपकी ओर इशारा करें और अंगूठे को ऊपर की ओर फैलाए रखें। हाथों को एक साथ लाएं ताकि उंगलियों के पीछे वाले हिस्से एक दूसरे को छू रहे हों।
(11). व्यापकंजलि मुद्रा :- यह  प्रकृति के विस्तार पर विचार है। यह ईश्वर के प्रति सर्वव्यापी अर्पण या आह्वान का भाव भी है।
ऊपर बताई गई मुद्रा से अपने हाथों को सामने की ओर घुमाएँ ताकि हाथ एक दूसरे के बगल में सपाट रहें, उंगलियाँ सीधी हों और हथेलियाँ ऊपर की ओर हों। छोटी उंगलियों के किनारों को एक साथ रखकर उन्हें एक साथ रखें।
(12). सकाटम मुद्रा :-
यह हस्त मुद्रा शरीर की गतिविधियों के साथ चक्रों का प्रतीक है। तर्जनी और अंगूठे को छोड़कर दोनों हाथों की अंगुलियों को मुट्ठी में बांध लें। तर्जनी को सीधा और सामने की ओर रखते हुए दोनों अंगूठों के सिरे को जोड़ लें। हथेलियाँ नीचे की ओर रखते हुए “अधोमुखी अँगूठे” की तरह दिखना चाहिए।
(13). यम पासम मुद्रा :- यह मुद्रा मृत्यु या रुकने का संकेत देती है। यह आपको जीवन और मृत्यु के चक्र को सिखाते हुए इडा और पिंगला नाड़ियों को संतुलित करने के लिए भी कहा जाता है।
तर्जनी उंगलियों को छोड़कर बाकी सभी उंगलियों को मोड़ लें और अपने अंगूठे को मोड़ी हुई उंगलियों के ऊपर थोड़ा सा टिका दें। तर्जनी उंगलियों को आपस में जोड़कर एक चेन या कड़ी बनाएं जो एक दूसरे को खींच रही हो।
(14). ग्रन्थितम मुद्रा :- यह मुद्रा सभी पंच तत्वों के एक साथ आने और उस क्षण का प्रतीक है जब आप अंततः ईश्वर में एक हो जाते हैं। अपनी हथेलियों को एक दूसरे के सामने रखें (प्रणाम मुद्रा में)। अपनी उंगलियों को आपस में जोड़ने के लिए प्रत्येक उंगली को बीच से मोड़ें।
(15). संमुखोनमुखम मुद्रा :- यह भाव जीवात्मा के परमात्मा में एकीकरण का भी प्रतिनिधित्व करता है।
यह मुद्रा उंगली गठन सुमुखम के समान होगा। फिर हाथों को इस तरह से मोड़ें कि दाहिना हाथ बाएं हाथ के ऊपर आ जाए। बाएं हाथ की हथेली ऊपर की ओर होनी चाहिए।
(16). प्रलम्बम मुद्रा :- यह मुद्रा उस मार्ग को दर्शाती है जिसे आप या तो अपनाते हैं या मोक्ष या मुक्ति पाने के लिए आप जिन अनेक जन्मों से गुजरते हैं, उनकी अवधि बहुत लंबी होती है।
हाथ की दोनों हथेलियाँ नीचे की ओर होनी चाहिए। उँगलियाँ सीधी और सामने की ओर होनी चाहिए। हाथ एक दूसरे के बगल में रखे जाने चाहिए। यह मुद्रा पुजारी या किसी वयस्क द्वारा पैर छूने वाले को आशीर्वाद देने के समय की मुद्रा के समान है।
(17). मुष्टिकम मुद्रा :- इस भाव के माध्यम से आप अज्ञानता को समाप्त कर देंगे। अपनी अंगुलियों को मोड़कर मुट्ठी बनाएं और अंगूठे को मुड़ी हुई तर्जनी उंगली के किनारे पर रखें। अंगूठे को किनारों पर जोड़कर हाथ के मध्य भाग को जोड़ें।
(18). मत्स्य मुद्रा :- मत्स्य का अर्थ मछली होता है। यह मानसिक स्थिरता और भूलने की बीमारी में मदद करती है।
दायाँ हाथ बाएँ हाथ के ऊपर रखें, दोनों हथेलियाँ नीचे की ओर हों। उँगलियाँ सीधी रखी जाती हैं जबकि अंगूठा बगल की ओर फैला होता है। हाथ की यह बनावट मछली जैसी दिखती है।
(19). कूर्मम मुद्रा :- कूर्म का अर्थ है कछुआ, जो अपने खोल में वापस चला जाता है और सुरक्षा करता है। इसी तरह, यह मुद्रा हमें अंदर की ओर मुड़ने और आत्म-जागरूकता के लिए प्रोत्साहित करती है। यह हमें जिम्मेदारियों और कठिन परिस्थितियों से निपटने का साहस देती है।
दाएं हाथ की मध्यमा और अनामिका उंगली को मोड़ें और बाकी उंगलियां सीधी रखें। इस हाथ को बाएं हाथ की हथेली पर इस तरह रखें कि अंगूठा बाएं हाथ की कलाई के बीच में हो। 
दाहिने हाथ की तर्जनी अंगुली को बाएं अंगूठे के ऊपर रखा जाना चाहिए तथा दाहिने हाथ की छोटी अंगुली का सिरा बाएं हाथ की तर्जनी अंगुली के सिरे को छूना चाहिए।
बाएं हाथ की शेष अंगुलियों को दाएं हाथ के किनारे पर लपेटा जाना चाहिए।
(20). वराहकम मुद्रा :- यह मुद्रा आपको परेशान और उलझन भरी परिस्थितियों से बाहर निकलने का रास्ता दिखाती है। यह असंभव कार्यों से निपटने का आत्मविश्वास देती है।
हाथों को मत्स्य मुद्रा में रखें। दोनों हाथों की तर्जनी, मध्यमा और अनामिका को थोड़ा नीचे की ओर मोड़ें। छोटी उंगली और अंगूठे सीधे और बगल की ओर फैले होने चाहिए।
(21). सिंह क्रांतम मुद्रा :- मनुष्य में निर्भयता के साथ साथ पुरुषार्थ का जागरण करते हुए धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की स्थापना करती है।
हाथों को अपने कानों के पास लाएँ और हथेलियों को सामने की ओर रखें। अपनी उँगलियों को सीधा और ऊपर की ओर रखें। अग्रभाग एक दूसरे के समानांतर होने चाहिए और कोहनी नीचे की ओर होनी चाहिए।
(22). महाक्रांतम मुद्रा :- यह मुद्रा अज्ञानता के समाप्त होने के बाद अपार ज्ञान की प्राप्ति को दर्शाती है।
उपरोक्त मुद्रा से हाथों को इस प्रकार मोड़ें कि हथेलियां पीछे की ओर हों।
(23). मुदगरम मुद्रा :- यह मुद्रा ब्रह्मांड के विनाश के हथियार का प्रतीक है। शारीरिक रूप से यह मधुमेह और उससे संबंधित बीमारियों को खत्म करने में मदद करती है।
दाहिने हाथ की मुट्ठी बनाएँ और हाथ को आँखों के स्तर पर अपने सामने लाएँ। दाएँ कोहनी को बाएँ हथेली के ऊपर रखें। दायाँ अग्रभाग सीधा होना चाहिए और दायाँ हथेली आगे की ओर होनी चाहिए।
(24). पल्लवम मुद्रा :- यह मुद्रा अभय मुद्रा का दूसरा नाम है जिसका अभ्यास निडरता को कम करने और साहस विकसित करने के लिए किया जाता है। यह चुनौतीपूर्ण समय के दौरान सुरक्षा, संरक्षण, शांति और आश्वासन का आह्वान करता है। दाहिने हाथ को कंधे की ऊंचाई पर इस प्रकार रखें कि हथेलियां आगे की ओर हों तथा अनामिका और कनिष्ठिका उंगलियां थोड़ी मुड़ी हुई हों।
उत्तरा मुद्रा :- ऋग्वेद यजुर्वेद और के अनुसार, ये 8 मुद्राएँ संध्या उपासना (शाम के दौरान की जाने वाली आध्यात्मिक साधना) और पूर्ण मुद्रा के बाद  की जाती हैं । ये मुद्राएँ तंत्रिकाओं को सक्रिय करती हैं और मन को शांति प्रदान करती हैं।
एक बार जब आप ये मुद्राएं पूरी कर लें, तो अपने दाहिने हाथ में थोड़ा पानी लें और उसे उंगलियों के बीच के अंतराल से रिसने दें और साथ में ‘ तत्सत् ब्रह्मर्पणमत्सु’ का जाप करें।
(1). सुरभि मुद्रा :- सुरभि मुद्रा में इस्तेमाल की जाने वाली उंगलियाँ गाय के थनों का प्रतिनिधित्व करती हैं और इसका नाम पवित्र गाय कामधेनु की बेटी सुरभि के नाम पर रखा गया है। इसे “इच्छा-पूर्ति” मुद्रा के रूप में भी जाना जाता है। बाएं हाथ की छोटी उंगली को दाएं हाथ की अनामिका उंगली के सिरे से जोड़ें। अपने दाहिने हाथ की छोटी उंगली और बाएं हाथ की अनामिका उंगली के सिरे को मिलाएं। विपरीत हाथों की मध्यमा उंगलियों को एक साथ लाएं ताकि वे तर्जनी उंगलियों को स्पर्श करें। हृदय की दिशा में इशारा करते हुए अंगूठों को उंगलियों से दूर ले जाएं।
(2). ज्ञान मुद्रा :- ज्ञान मुद्रा सहज ज्ञान की मुद्रा है। यह एकाग्रता और याददाश्त में सुधार करती है, जागरूकता लाती है और तंत्रिका तंत्र को आराम देती है। अविद्या के नाश और विद्या के प्रकाशमान होने का प्रतीक ज्ञान मुद्रा है।
तर्जनी और अंगूठे के सिरों को मिलाएँ। इस मुद्रा में अपना दायाँ हाथ, हथेलियाँ अंदर की ओर रखते हुए, छाती के बीच में रखें। बायाँ हाथ बाएँ घुटने पर रखा जाएगा, हथेलियाँ ऊपर की ओर होंगी।
(3). वैराग्य मुद्रा :- यह मुद्रा आपको समाधि की स्थिति से बाहर आने में मदद करेगी। यह सांसारिक और भौतिक मामलों से अलगाव का प्रतीक है। हाथों की यह मुद्रा ज्ञान मुद्रा के समान है, अंतर यह है कि इसमें हाथों को जांघों के बजाय जांघों पर रखा जाता है।
(4). योनि मुद्रा :- योनि मुद्रा शक्ति से जुड़ने का प्रतीक है। योनि मुद्रा किसी भी देवी उपासना में देवी तत्व को जाग्रत करके स्वयं में स्थापित करने का प्रतीक है। मूलाधार में स्थित देवी कुंडलिनी को शक्ति से जोड़कर षठचक्रों का भेदन योनीमुद्रा से संभव है। दोनो हाथों की उंगलियों को क्रॉस में जोड़कर तर्जनी के और अंगूठे के सिरे मिलाएं। मूलाधार के समकक्ष हाथों को रखें।
(5). शंख मुद्रा :- शंख, जिसे सुबह मंदिर के द्वार खोलने की घोषणा करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, मुद्रा द्वारा दर्शाया जाता है। शंख मुद्रा शरीर और आत्मा को शुद्ध करती है और दिव्य प्रकाश के साथ आंतरिक मंदिर को रोशन करने का प्रतिबिंब है।
दाहिने हाथ की चारों अंगुलियां बाएं अंगूठे के चारों ओर मुड़ी हुई होनी चाहिए।
बाएं हाथ की मध्यमा अंगुली को दाएं अंगूठे से जोड़ें। बाएं हाथ की अंगुलियों को आराम से फैलाकर एक साथ रखें ताकि जब आप उन्हें जोड़ें तो वे शंख के आकार की दिखें।
(6). पंकजम मुद्रा :- यह मुद्रा मुकुट मुद्रा को लक्षित करती है जिसे हज़ार पंखुड़ियों वाले कमल द्वारा दर्शाया जाता है। यह पिछले जीवन का ज्ञान उत्पन्न करने में मदद करती है।
अपनी हथेलियों को नमस्ते की मुद्रा में लाएं। हथेलियों के आधार को अंगूठे और छोटी उंगली के किनारों के साथ जोड़कर रखें, बाकी उंगलियों को एक दूसरे से दूर फैलाएं। हाथों की यह मुद्रा खिलते हुए फूल की तरह दिखनी चाहिए।
(7). लिंगम मुद्रा :- यह मुद्रा भगवान शिव की शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है। लिंगम या लिंग संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ लिंग होता है। भगवान शिव को अक्सर लिंगेश्वर के रूप में दर्शाया और पूजा जाता है और यह पुरुषत्व का प्रतीक है। यह अक्सर योनि मुद्रा के साथ होता है और कायाकल्प का भी प्रतीक है। यह मूल चक्र से मुकुट चक्र तक प्रवाहित होने वाली शक्ति के साथ एक होने में मदद करता है। अपनी हथेलियों को आपस में फंसा लें, परंतु दाहिने अंगूठे को ऊपर की ओर रखें।
(8). निर्वाणम मुद्रा :- निर्वाण मुद्रा द्वारा बोध की शांति प्राप्त की जाती है, जिसे स्वतंत्रता की मुद्रा के रूप में भी जाना जाता है। यह मुद्रा विशेष रूप से त्याग में सहायता करती है जो स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए आवश्यक है। यह अहंकार मुक्ति के लिए अत्यंत लाभकारी है।
अपनी हथेलियों को एक दूसरे के सामने लाएँ और उनके बीच थोड़ी दूरी रखें। अब अपने हाथों को इस तरह क्रॉस करें कि दायाँ हाथ बाईं तरफ़ हो और बायाँ हाथ दाईं तरफ़ हो। अपने हाथों को अंदर की तरफ़ मोड़ें और हथेलियों को जोड़ लें।
गायत्री की 24 शक्तियां भी हैं और उनसे संबंधित 24 सिद्धियां हैं जो इन 24 मुद्राओं से जुड़ी हुई हैं। अतः निष्कर्ष यह है की गायत्री साधना के लिए इन मुद्राओं का ज्ञान होना परम आवश्यक है।
 
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)
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