Sunday, October 26, 2014

YAM-DHARM RAJ THE DEITY OF DEATH मृत्यु के देवता यम :: SUN (3) सूर्य*

YAM-DHARM RAJ THE DEITY OF DEATH 
मृत्यु के देवता यम
 CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
Yam Raj is the son of Bhagwan Sury and Saranyu. He is the twin brother of Yami, brother of Shraddh Dev Manu and the step brother of Shani. Devi Dhumorna (देवी धुमोरना) is his wife and Katila (कतिला) is his son.
He is the Lok Pal (Guardian of the Directions) of the south. [Rig Ved 10.10, 10.14, 10.35]
Yam has  four arms, dark green complexion matching rain clouds with wrathful expression, surrounded by garland of flames, protruding fangs, dressed in red, yellow or blue garments, holding noose and mace or sword and riding a buffalo. He wields a noose called Yam Pash, with which he seizes the Souls of people who are about to die.
He is the son of Bhagwan Sury and Sandhya, the daughter of Vishw Karma. Shraddh Dev Manu was his brother and Yami is his older sister. He is the ruler of Pitre-Manes.
भूः, भुवः और स्वः, ये तीनों लोक मिलकर कृतक त्रैलोक्य कहलाते हैं। सूर्य और ध्रुव के बीच जो चौदह लाख योजन का अन्तर है, उसे स्वर्लोक कहते हैं। स्वर्लोक में पुण्य आत्माएं कुछ काल के लिए विश्राम रहती है। [विष्णु पुराण]
मृत्यु के उपरान्त मनुष्य की आत्मा शरीर को त्यागकर यात्रा प्रारंभ करती है तो उसे तीन प्रकार के मार्ग मिलते हैं। उस आत्मा को किस मार्ग पर चलाया जाएगा यह केवल उसके कर्मों पर निर्भर करता है। ये तीन मार्ग हैं :- अर्चि मार्ग, धूम मार्ग और उत्पत्ति-विनाश मार्ग। 
अर्चि मार्ग ब्रह्मलोक और देवलोक की यात्रा के लिए होता है, वहीं धूममार्ग पितृलोक की यात्रा पर ले जाता है और उत्पत्ति-विनाश मार्ग नर्क की यात्रा के लिए है। हालांकि सभी मार्ग से गई आत्माओं को कुछ काल भिन्न-भिन्न लोक में रहने के बाद पुन: मृत्युलोक में आना पड़ता है। अधिकतर आत्माओं को यहीं जन्म लेना और यहीं मरकर तब तक पुन: जन्म लेना पड़ता है जब तक कि उसे मुक्ति-मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। 
शरीर छोड़ने के पश्चात, जिन्होंने तप-ध्यान किया है, वे ब्रह्मलोक चले जाते हैं अर्थात ब्रह्मलीन हो जाते हैं। कुछ सत्कर्म करने वाले भक्तजन स्वर्ग चले जाते हैं। स्वर्ग अर्थात वे देव बन जाते हैं। राक्षसी कर्म करने वाले कुछ प्रेत योनि में अनंतकाल तक भटकते रहते हैं और कुछ पुन: धरती पर जन्म ले लेते हैं। जन्म लेने वालों में भी जरूरी नहीं कि वे मनुष्य योनि में ही जन्म लें। इससे पूर्व ये सभी पितृलोक में रहते हैं वहीं उनका न्याय होता है।[ यजुर्वेद]
धर्मराज यमराज :: साधना के आठ अंगों यानी अष्टांग योग में यम का स्थान पहला है। यम का अर्थ होता है नियंत्रण और संयम। [योग सूत्र]। 
14 यम :: यम, धर्मराज, मृत्यु, अन्तक, वैवस्वत, काल, सर्वभूतक्षय, औदुम्बर, दध्न, नील, परमेष्ठी, वृकोदर, चित्र और चित्रगुप्त। [स्मृती]
उन्हें पितृपति, कृतांत, शमन, काल, दंडधर, श्राद्धदेव, धर्म, जीवितेश, महिषध्वज, महिषवाहन, शीर्णपाद, हरि और कर्मकर आदि नामों से भी जाना जाता है। ज्योतिष में यम को प्लूटो भी कहते हैं। यह एक घोर अंधकारमय ग्रह है। 
यमराज परम भागवत, बारह भागवताचार्यों में से एक हैं। यम पितरों के अधिपति हैं।यम और यमी दोनों देवता मंत्रद्रष्टा ऋषि हैं। 
इंद्र, अग्नि, यम, नऋति, वरुण, वायु, कुबेर, ईश्व, अनंत और ब्रह्मा दस दिशाओं के दिकपाल हैं।यम, धर्मराज, मृत्यु, अन्तक, वैवस्वत, काल, सर्वभूतक्षय, औदुभ्बर, दघ्न, नील, परमेष्ठी, वृकोदर, चित्र और चित्रगुप्त - इन चौदह नामों से यमराज की आराधना होती है। इन्हीं नामों से इनका तर्पण किया जाता है। 
यमराज की नगरी को यमपुरी-संयमनीपुरी और राजमहल को कालीत्री कहते हैं। यमराज के सिंहासन का नाम विचार-भू है। महाण्ड और कालपुरुष इनके शरीर रक्षक और यमदूत इनके अनुचर हैं। वैध्यत यमराज का द्वारपाल है। चार आंखें तथा चौड़े नथुने वाले दो प्रचण्ड कुत्ते यम द्वार के संरक्षक हैं।
विश्वकर्मा की कन्या संज्ञा ने अपने पति सूर्य को देखकर भय से आँखें बंद कर ली, तब भगवान् सूर्य ने क्रुद्ध होकर उन्हें शाप दिया कि जाओ, तुम्हें जो पुत्र होगा, वह लोगों का संयमन करनेवाला (उनके प्राण लेनेवाला) होगा। जब संज्ञा ने उनकी और चंचल दृष्टि से देखा, तब उन्होंने कहा कि तुम्हें जो कन्या होगी, वह इसी प्रकार चंचलता पूर्वक नदी के रूप में बहा करेगी। पुत्र तो यही यम हुए और कन्या यमी हुई, जो बाद में यमुना के नाम से प्रसिद्ध हुई। [मार्कण्डेय पुराण]
यम विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा के गर्भ से उत्पन्न भगवान् सूर्य के पुत्र हैं। यमी-यमुना नदी उनकी बहन और भगवान् श्री कृष्ण की एक पत्नी हैं। इनके भाई का नाम श्राद्धदेव मनु है। यमराज की पत्नी देवी धुमोरना हैं और कतिला उनके पुत्र।
यमराज का रंग हरा है और वे लाल वस्त्र पहनते हैं। यमराज भैंसे की सवारी करते हैं और उनके हाथ में गदा होती है।यम राज दक्षिण दिशा के दिकपाल और मृत्यु के देवता हैं।[मार्कण्डेय पुराण]
यम और यमी देवता मंत्र दृष्टा ऋषि हैं। वे पितरों के अधिपति हैं। यमराज जीवों के शुभाशुभ कर्मों के निर्णायक हैं। दक्षिण दिशा के इन लोकपाल की संयमनी पुरी अशुभकर्मा प्राणियों के लिए बड़ी भय प्रद है।
महाराज परीक्षित शुकदेवजी से पूछते हैं तो वे कहते हैं कि हे राजन! ये नरक त्रिलोक के भीतर ही है तथा दक्षिण की ओर पृथ्वी से नीचे जल के ऊपर स्थित है। उस लोक में सूर्य के पुत्र पितृराज भगवान् यम हैं। वे अपने सेवकों सहित रहते हैं तथा भगवान की आज्ञा का उल्लंघन न करते हुए, अपने दूतों द्वारा वहाँ लाए हुए मृत प्राणियों को उनके दुष्कर्मों के अनुसार पाप का फल दंड देते हैं।[महाभारत]
यमलोक :: मृत्यु के बारह दिनों के बाद मानव की आत्मा यमलोक का सफर प्रारंभ कर देती है। यह  मृत्युलोक के ऊपर दक्षिण में 86,000 योजन की दूरी पर है। एक योजन में करीब 4 किमी होते हैं।[गरूड़ पुराण, कठोपनिषद]
यमलोक के इस रास्ते में वैतरणी नदी है। वैतरणी नदी विष्ठा और रक्त से भरी हुई है। जिसने गाय को दान किया है, वह इस वैतरणी नदी को आसानी से पार कर यमलोक पहुँच जाता है अन्यथा इस नदी में डूबता-उतराता रहता है और यमदूत उसे बाहर निकालकर बार-बार धक्का देते रहते हैं।
यमपुरी पहुँचने के बाद आत्मा पुष्पोदका नामक एक और नदी के पास पहुँच जाती है, जिसका जल स्वच्छ होता है और जिसमें कमल के फूल खिले रहते हैं। इसी नदी के किनारे छायादार बड़ का एक वृक्ष है, जहाँ आत्मा थोड़ी देर विश्राम करती है। यहीं पर उसे उसके पुत्रों या परिजनों द्वारा किए गए पिंडदान और तर्पण का भोजन मिलता है, जिससे उसमें पुन: शक्ति का संचार हो जाता है।[गरूड़ पुराण]
यमलोक एक लाख योजन क्षेत्र में फैला और इसके चार मुख्य द्वार हैं। 
दक्षिण द्वार :: यहाँ से पापियों का प्रवेश होता है। यह घोर अंधकार और भयानक सांप, सिंह और भेड़िये आदि तरह के भयानक जीव और राक्षसों से घिरा रहता है। यहाँ से प्रवेश करने वाली पापी आत्माओं के लिए यह अत्यंत कष्टकर होता है। इसे नरक का द्वार कहा जाता है। यम-नियम का पालन नहीं करने वाले निश्चित ही इस द्वार में प्रवेश करके कम से कम 100 वर्षों तक कष्ट झेलते हैं।
पापी और अधर्मी जिन्होंने जीवन भर शराब, माँस और परस्त्री गमन के अलावा कुछ नहीं किया, जिन्होंने धर्म का अपमान ‍किया, कभी भी कोई पुण्य कार्य नहीं किया, वे मरने के बाद स्वत: ही दक्षिण दिशा की ओर खिंच जाते हैं। ऐसे पापियों को सबसे पहले तप्त लौह द्वार तथा पूय, शोणित एवं क्रूर पशुओं से पूर्ण वैतरणी नदी पार करनी होती है।
नदी पार करने के बाद दक्षिण द्वार से भीतर आने पर वे अत्यंत विस्तीर्ण सरोवरों के समान नेत्र वाले, धूम्र वर्ण, प्रलय-मेघ के समान गर्जन करने वाले, ज्वालामय रोमधारी, बड़े तीक्ष्ण प्रज्वलित दंतयुक्त, संडासी जैसे नखों वाले, चर्म वस्त्रधारी, कुटिल-भृकुटि भयंकर तम वेश में यमराज को देखते हैं। वहाँ घोरतर पशु तथा यमदूत उपस्थित होते हैं।
अशुभ कर्म करने वाले मनुष्य भयानक दंड के भागी होते हैं यमराज द्वारा नरक में भेज देते हैं।
पश्चिम द्वार :: पश्चिम का द्वार रत्नों से जड़ित है। इस द्वार से ऐसे जीवों का प्रवेश होता है जिन्होंने दान-पुण्य किया हो, धर्म की रक्षा की हो और तीर्थों में प्राण त्यागे हो।
उत्तर द्वार :: उत्तर का द्वार भिन्न-भिन्न स्वर्णजड़ित रत्नों से सजा होता है, जहाँ से वही आत्मा प्रवेश करती है जिसने जीवन में माता-पिता की खूब सेवा की हो, हमेशा सत्य बोलता रहा हो और हमेशा मन-वचन-कर्म से अहिंसक हो।
पूर्व द्वार :: पूर्व का द्वार हीरे, मोती, नीलम और पुखराज जैसे रत्नों से सजा होता है। इस द्वार से उस आत्मा का प्रवेश होता है, जो योगी, ऋषि, सिद्ध और संबुद्ध है। इसे स्वर्ग का द्वार कहते हैं। इस द्वार में प्रवेश करते ही आत्मा का गंधर्व, देव, अप्सराएं स्वागत करती हैं।
पश्चिम का द्वार रत्नों से जड़ित है। इस द्वार से ऐसे जीवों का प्रवेश होता है जिन्होंने तीर्थों में प्राण त्यागे हो।
जब कोई व्यक्ति मरता है तो सबसे पहले वह गहरी नींद के हालात में ऊपर उठने लगता है। मरने के 12 दिन के बाद यमलोक के लिए उसकी यात्रा ‍शुरू होती है।आत्मा सत्रह दिन तक यात्रा करने के पश्चात अठारहवें दिन यमपुरी पहुँचती है। वह हवा में स्वत: ही उठती जाती है, जहाँ रुकावट होती है, वहीं उसे यमदूत नजर आते हैं, जो उसे ऊपर की ओर ले जाते हैं। 
मनुष्यों के मरने की दिशा, उनके कर्म और मरने की तिथि अनुसार तय होती है। जैसे कृष्ण पक्ष में देह छोड़ी है तो दक्षिण और उसके पास के द्वार खुले होते हैं, लेकिन यदि शुक्ल पक्ष में देह छोड़ी है तो उत्तर और उसके आसपास के द्वार खुले होते हैं। लेकिन तब कोई नियम काम नहीं करता जब कोई मृतात्मा पाप से भरा हो। वह शुक्ल पक्ष में मरकर भी वह दक्षिण दिशा में गमन करता है। इसके अलावा उत्तरायण और दक्षिणायन सबसे ज्यादा महत्व होता है।
चार द्वारों, सात तोरणों तथा पुष्पोदका, वैवस्वती आदि सुरम्य नदियों से पूर्ण अपनी पुरी में पूर्व, पश्चिम तथा उत्तर के द्वार से प्रविष्ट होने वाले पुण्यात्मा को भगवान् विष्णु के दर्शन होते हैं जो शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी, चतुर्भुज, नीलाभ रूप में अपने महाप्रसाद में रत्नासन पर दर्शन देते हैं।
चित्रगुप्त :: वे यमराज के मुंशी हैं, जिनके माध्यम से धर्मराज सभी प्राणियों के कर्मों और पाप-पुण्य का लेखा-जोखा रखते हैं। चित्रगुप्त की बही 'अग्रसन्धानी' में प्रत्येक जीव के पाप-पुण्य का हिसाब-किताब है।
धर्मराज द्वारा पृथ्वीलोक पर रहने वाले प्राणियों के कर्मों के अनुसार स्वर्ग या नरक भेजने का काम बहुत उलझन और दुविधा पूर्ण था। इसके बारे में उन्होंने महाकाल भगवान् शिव और ब्रह्मा जी से निवेदन किया तो ब्रह्माजी ध्यानलीन हो गए और एक हजार वर्ष की तपस्या के बाद एक पुरुष उत्पन्न हुआ जो चित्रगुप्त कहलाया।
चित्रगुप्त का जन्म ब्रह्माजी की काया से हुआ था, अत: वे कायस्थ कहलाए। चित्रगुप्त जी के हाथों में कर्म की किताब, कलम, दवात और करवाल हैं। ये कुशल लेखक हैं और इनकी लेखनी से जीवों को उनके कर्मों के अनुसार न्याय मिलता है। 
चित्रगुप्त जी के गुणों यथा सतर्कता, सहजता, यथार्थता, सटीकता और व्यावसायिकता आदि के कारण उन्हें यम के अधिकारी के रूप में नियुक्त किया गया। उक्त गुणों के आधार पर चित्रगुप्त पृथ्वी पर रहने वाले जीवों का लेखा-जोखा व अच्छे-बुरे कार्यों का हिसाब पूरी परिपूर्णता के साथ करते हैं। फिर मृत्यु के देवता यम, जीवों के कार्यों के अनुसार उन्हें स्वर्ग व नरक में भेजने का फैसला करते हैं। इन्हीं के आधार पर मृत्यु के बाद जीव फिर किस योनि में जाएगा, का निर्धारण भी होता है।
Please refer to :: CHITR GUPT DYNASTY-KAYASTH चित्रगुप्त वंश-कायस्थ कुल santoshkipathshala.blogspot.com
पितृलोक :: पितरों का निवास चंद्रमा के उर्ध्वभाग में है। यहाँ आत्माएं मृत्यु के बाद एक से लेकर 100 वर्ष तक मृत्यु और पुनर्जन्म की मध्य की स्थिति में रहती हैं। पितृलोक के श्रेष्ठ पितरों को न्यायदात्री समिति का सदस्य माना जाता है। 
अन्न से शरीर तृप्त होता है। अग्नि को दान किए गए अन्न से सूक्ष्म शरीर और मन तृप्त होता है। इसी अग्निहोत्र से आकाश मंडल के समस्त पक्षी भी तृप्त होते हैं। पक्षियों के लोक को भी पितृलोक कहा जाता है।
सूर्य की सहस्र किरणों में जो सबसे प्रमुख है उसका नाम अमा है। उस अमा नामक प्रधान किरण के तेज से सूर्य त्रैलोक्य को प्रकाशमान करते हैं। उसी अमा में तिथि विशेष को चन्द्र (वस्य) का भ्रमण होता है तब उक्त किरण के माध्यम से चंद्रमा के उर्ध्वभाग से पितर धरती पर उतर आते हैं।  इसीलिए श्राद्धपक्ष की अवावस्या तिथि का महत्व भी है।
अमावस्या के साथ मन्वादि तिथि, संक्रांतिकाल व्यतीपात, गजच्दाया, चंद्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण इन समस्त तिथि-वारों में भी पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध किया जा सकता है।
Halloween, a contraction of Hallows' Evening, also known as All Hallows' Eve or All Saints' Eve, is a celebration observed in a number of countries on 31 October, the eve of the Western Christian feast of All Hallows' Day. It begins the three-day observance, the time in the liturgical year dedicated to remembering the dead, including saints (hallows), martyrs and all the faithful departed.
This exactly westernised form of Pitre Paksh-Manes homages period. 
पित्रों की श्रेणियाँ ::  दिव्य पितर और मनुष्य पितर। दिव्य पितर उस जमात का नाम है, जो जीवधारियों के कर्मों को देखकर मृत्यु के बाद उसे क्या गति दी जाए, इसका निर्णय करता है। इस जमात  के अधिपति धर्मराज हैं। यमराज भी पितर हैं। काव्यवाडनल, सोम, अर्यमा और यम,  ये चार इस जमात के मुख्य गण प्रधान हैं। अर्यमा को पितरों का प्रधान  हैं और यमराज न्यायाधीश।
इन चारों के अलावा प्रत्येक वर्ग की ओर से सुनवाई करने वाले हैं, यथा अग्निष्व, देवताओं के प्रतिनिधि, सोमसद या सोमपा-साध्यों के प्रतिनिधि तथा बहिर्पद गंधर्व, राक्षस, किन्नर सुपर्ण, सर्प तथा यक्षों के प्रतिनिधि हैं। इन सबसे गठित जो जमात है, वही पितर हैं। यही मृत्यु के बाद न्याय करती है।
दिव्य पितर सदस्यगण :: अग्रिष्वात्त, बहिर्पद आज्यप, सोमेप, रश्मिप, उपदूत, आयन्तुन, श्राद्धभुक व नान्दीमुख ये नौ दिव्य पितर हैं। आदित्य, वसु, रुद्र तथा दोनों अश्विनी कुमार भी केवल नांदीमुख पितरों को छोड़कर शेष सभी को तृप्त करते हैं।
आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ऊपर की किरण (अर्यमा) और किरण के साथ पितृ प्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। पितरों में श्रेष्ठ है अर्यमा। अर्यमा पितरों के देव हैं। ये महर्षि कश्यप की पत्नी देवमाता अदिति के पुत्र हैं और इंद्रादि देवताओं के भाई। उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र इनका निवास लोक है।
इनकी गणना नित्य पितरों में की जाती है जड़-चेतन मयी सृष्टि में, शरीर का निर्माण नित्य पितृ ही करते हैं। इनके प्रसन्न होने पर पितरों की तृप्ति होती है। श्राद्ध के समय इनके नाम से जलदान दिया जाता है। यज्ञ में मित्र (सूर्य) तथा वरुण (जल) देवता के साथ स्वाहा का हव्य और श्राद्ध में स्वधा का कव्य दोनों स्वीकार करते हैं।
भारतीय, हिन्दु  महीनों के हिसाब से सूर्य के नाम हैं :- चैत्र मास में धाता, वैशाख में अर्यमा, ज्येष्ठ में मित्र, आषाढ़ में वरुण, श्रावण में इंद्र, भाद्रपद में विवस्वान, आश्विन में पूषा, कार्तिक में पर्जन्य, मार्गशीर्ष में अंशु, पौष में भग, माघ में त्वष्टा एवं फाल्गुन में विष्णु। इन नामों का स्मरण करते हुए सूर्य को अर्घ्य देने का विधान है।
शुभ आत्मा स्वर्ग का अनुभव करती है और उसे शांति व स्थिरता मिलती है। स्वर्ग में रहने के पश्चात वह किसी अच्छे समय में पुन: अच्छे कुल और स्थान में जन्म लेती है।
14 यमों को उनके नाम से 3-3 अंजलि जल तर्पण में देते हैं। इनका निवास यमलोक के नाम से जाना जाता है।[धर्मशास्त्र संग्रह]
कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी को दीये जलाकर यम को प्रसन्न किया जाता है। [स्कन्दपुराण]
दीपावली से पूर्व दिन यमदीप देकर तथा दूसरे पर्वो पर यमराज की आराधना करके मनुष्य उनकी कृपा का सम्पादन करता है। ये निर्णेता हम से सदा शुभकर्म की आशा करते हैं। दण्ड के द्वारा जीव को शुद्ध करना ही इनके लोक का मुख्य कार्य है।
यम एक धर्मशास्त्र भी है।
Mahatma Vidur and Yudhistar were incarnations of Dharm Raj during Maha Bharat. As soon as Mahatma Vidur relinquished his body his soul merged with that of Yudhistar.
जातस्त हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि॥
क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है (जब तक मोक्ष-मुक्ति नहीं मिलती)। इससे भी इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने योग्य नहीं है।[श्रीमद्भगवद्गीता 2.27]  
One who took birth will be dead and the one, who has died will take birth again, (till Salvation, Liberation, Assimilation in the Almighty-God). You are not meant for sorrow on this subject, which has no remedy-way out. 
जन्म-मृत्यु रूपी प्रवाह अनवरत-निरन्तर सतत है, जब तक कि मुक्ति न हो जाये, मोक्ष की प्राप्ति न हो। यह माला के मनकों की तरह है, जो कि घूम-फिर कर शुरू वाले पर आ जाता है। कभी-कभी जापक किसी कारण वश साधना को बीच में ही छोड़ देता है। 
जब परमात्मा यह कहते हैं कि "इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने योग्य नहीं है" उनका तात्पर्य यह है कि तुम कोई सामान्य-साधारण मनुष्य नहीं हो अपितु विशेष कार्य हेतु, इस धरा-पृथ्वी पर (भार कम करने के लिये) मेरे साथ आये हो।) 
Birth and death are cyclic in nature, till one is not liberates-assimilate in the Ultimate, obtain emancipation-Salvation. This is a continuous process like the beads of a rosary, moved in the hands through fingers reaching the starting point, yet again. One may restart after reaching the first bead or may dismiss in between, as per his conditions-situation.
When Bhagwan Shri Krashn point out that, "You are not meant for sorrow" he simply mean-emphasise that Arjun is not an ordinary human being but an incarnation of the God like him, who had appeared to reduce the burden of the earth, by eliminating Kshatriy who were like demons, giants, wicked, tyrants, evil, sinners in terms of behaviour, actions, deeds and the like. 
In fact a human being is superior to demigods, Rakshas (Asur, demons, giants), Yaksh; since this is the only species of two legged being who is capable of performing virtuous deeds. (Some demons, Rakshas too did penances, ascetics, worship of the Almighty but with a motive-desire.) The pyramid has Brahmans at the apex and Mallechchh (Muslims & Christians) at the bottom. The four walled pyramid of Hinduism has four walls in the form of Brahmans, Kshatriy, Vaeshy and the Shudr. While its most difficult for the Brahman to attain Moksh, a Shudr can easily attain it by just performing his duties religiously. The Mallechchh are limited-restricted to just eat, drink, lasciviousness and merry. But each and every community has nice & virtuous people. 
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः॥
जो मनुष्य अन्तकाल में भी मेरा स्मरण करते हुए शरीर छोड़ता है, वह मेरे स्वरूप को ही प्राप्त करता है, इसमें सन्देह नहीं है।[श्रीमद्भगवद्गीता 8.5]  
One who remembers the Almighty at the time of death, attains HIS figure-assimilates in HIM, which is beyond doubt suspicion (One reaches Vaekunth Lok, abode of Bhagwan Vishnu or Gau Lok, abode of Bhagwan Shri Krashn, with four arms, like the Almighty). 
जो मनुष्य पूरे जीवन भर अनेकानेक अवसर प्राप्त होने पर भी भजन, कीर्तन, मनन, चिन्तन, तपस्या, योग नहीं कर पाया, अगर वो मृत्यु के मौंके पर केवल भगवान् का स्मरण मात्र भी कर ले तो, उसे भगवान् की प्राप्ति हो जाती है। एक ऐसा इन्सान जिसने संसार की प्रत्येक वस्तु, गतिविधि को परमात्मा का स्वरूप मान लिया है और वह यदि मृत्यु के वक़्त इन्हें स्मरण करता है तो, वह भी प्रभु का स्मरण ही करता है। उसने जिस भीे भाव  से परमात्मा को माना-जाना है, यथा द्विभुज, चतुर्भुज, साकार, निराकार, सगुण, निर्गुण, नाम, लीला, धाम, रूप आदि और उपासना की है तो वह उसी-उसी रूप-भाव को प्राप्त करेगा। ऐसा न होने पर भी यदि प्राणी अंत समय में भगवान् को स्मरण करता है तो, उसे भगवत प्राप्ति में कोई संदेह नहीं है।[अजामिल को मृत्यु काल में परमात्मा का स्मरण करने से वैकुण्ठ की प्राप्ति हुई]
One who do not devote time for prayers, recitation of Almighty's names, characteristics, asceticism, Yog, pilgrimage, worship, meditation etc. still has the chance to attain Moksh-Salvation if he remembers HIM at the time of death. One who identified God in each and activity, entity, object too attain Liberation if he recollects them as a form of the Almighty, while departing the earth. He who recognised the God as having 2 hands or 4 hands, with form or formless, with qualities-characters or without characteristics, names, abodes, acts, incarnations, divinity will attain that form after the death. Even if nothing of the sort had happened and he just remembers HIM, the doors of the abodes of the Almighty (Vaekunth Lok or Gau Lok) opens up for him, i.e., his Liberation is certain without any doubt-suspicion.
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च। 
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥8.12॥ 
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्। 
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥8.13॥
इन्द्रियों के समस्त द्वारों को रोककर मन का ह्रदय में निरोध करके और अपने प्राणों को मस्तक में स्थापित करके योग धारणा में स्थित हुआ जो साधक "ॐ" इस "एक अक्षर का ब्रह्म" का मानसिक उच्चारण और मेरा स्मरण करता हुआ शरीर को छोड़कर जाता है, वह परम गति को प्राप्त होता है।[श्रीमद्भगवद्गीता 8.12-13]  
One attains the Ultimate-the Supreme Abode, when he closes all doors of the body (mouth, nostrils, eyes, ears, pennies & anus) checks the thoughts by subliming them in the heart, pulls the soul-Pran Vayu (bio impulses), in the skull, brain, cerebrum, practicing Yog, reciting-uttering the Ultimate syllable "ॐ"OM-the sacred monosyllable sound power of Spirit, mentally-silently and remembering the Almighty, while deserting the human incarnation-body.
मनुष्य-साधक शरीर त्याग करते वक्त अपना ध्यान कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों से हटा ले, ताकि वे अपने स्थान पर स्थिर रहें। मन का निरोध करके उसे ह्रदय में स्थानान्तरित कर दे अर्थात ध्यान को विषयों से मुक्त करके, अपने ह्रदय में परमात्मा की मूर्ति-आकृति का अनुभव करे। प्राणों को दसवें द्वार-ब्रह्मरंध्र में रोक ले अर्थात उन पर काबू कर ले। इस प्रकार वो योग धारणा में स्थित हो जाये। इन्द्रियों और मन से कुछ भी चेष्टा न करे। इस स्थित को प्राप्त करके वो "ॐ" अर्थात "प्रणव" का मानसिक उच्चारण करे अर्थात वो निर्गुण-निराकार परम अक्षर ब्रह्म का स्मरण करे। यही वह अवस्था है, जिसमें प्रभु को स्मरण करते हुए दसवें द्वार :- ब्रह्म रंध्र से प्राणों का विसर्जन करते हुए परमगति अर्थात निर्गुण-निराकर परमात्मा को प्राप्त करे। 
The practitioner of Yog has to divert his attention from the body and the brain, thought, ideas, organs of work and experience, so that they are comfortably placed in their position-becomes motionless. The mind has to be controlled completely and forget every thing else, except the God and form a mental image of the Almighty in the heart. The bio impulses have to be concentrated in the tenth opening: the place between the eye brows called Brahm Randhr-the Ultimate opening through he scull. Having attained this state, he should start uttering-reciting "ॐ" silently-mentally. Now, he is ready-prepared to immerse in the Almighty, who is free from characteristics and form. The time is mature for him to depart the human incarnation for which he was awarded this, to assimilate in the God.
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्‌। 
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः॥
जिस मार्ग में ज्योतिर्मय-प्रकाश स्वरूप अग्नि का अधिपति देवता, दिन का अधिपति देवता, शुक्ल पक्ष का अधिपति देवता और उत्तरायण के छः महीनों का अधिपति देवता है, उस मार्ग में शरीर छोड़कर गए हुए ब्रह्मवेत्ता योगीजन उपयुक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले जाए जाकर (पहले ब्रह्मलोक को प्राप्त होकर) पीछे ब्रह्मा जी के साथ ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।[श्रीमद्भगवद्गीता 8.24]
The Yogi who still has some fractional, remaining desires, motives, is taken sequentially, through the paths followed by the deity, demigod of fire, Agni, the deity of the day, the deity of bright lunar fortnight and thereafter by the deity of the Uttrayan-the six months period, during which the Sun moves from South to North; to the creator Brahma Ji & they too assimilate in the Almighty with Brahma Ji.
इस पृथ्वी पर शुक्लमार्ग में सबसे पहले अग्नि देवता का अधिकार रहता है। अग्नि रात्रि में प्रकाश करती है, दिन में नहीं क्योंकि अग्नि का प्रकाश दिन के प्रकाश की अपेक्षा सीमित है, कम दूर तक जाता है। शुक्लपक्ष 15 दिनों का होता है जो कि पितरों की एक रात है। यह प्रकाश आकाश में अधिक दूर तक जाता है। जब सूर्य भगवान् उत्तर की तरफ चलते हैं, तब यह उत्तरायण कहलाता है और यह 6 महीनों का समय देवताओं का एक दिन है। इसका प्रकाश और अधिक दूर तक फैला हुआ है। जो शुक्लमार्ग की बहुलता वाले मार्ग में जाने वाले हैं, वे सबसे पहले अग्नि देवता के अधिकार में, फिर दिन के देवता के अधिकार में और शुक्लपक्ष के देवता को प्राप्त होते हैं। शुक्लपक्ष के देवता उसे उत्तरायण के अधिपति के सुपुर्द कर देते हैं औए वे उसे आगे ब्रह्मलोक के अधिकारी देवता के समर्पित कर देते हैं। इस प्रकार जीव क्रमश: ब्रह्मलोक में पहुँच जाता है और ब्रह्मा जी की आयु पर्यन्त वहाँ रहकर महाप्रलय में ब्रह्मा जी के साथ ही मुक्त हो जाता है तथा सच्चिदानंदघन परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।
ब्रह्मविद :: परमात्मा परोक्षरूप से जानने वालों के लिए है अपरोक्षरुप रूप से जाननेवालों के लिए नहीं, जिन्हें यहीं पर सद्योमुक्ति या जीवन्मुक्ति बगैर ब्रह्मलोक जाये ही प्राप्त हो जाती है।
The period of bright moon light is under the control of the deity of fire Agni Dev. Fire does not produce as much light as is produced by the Sun. Sun light extends farther than the light produced by fire. Bright lunar fortnight constitutes of 15 days, which is the period dominated by the Pitr Gun (the Manes, ancestors). The light extends farther. It is followed by the period of 6 months, when the Sun turns north called Uttrayan in northern hemisphere. The sequence is such that the soul of the relinquished is passed on to the next in the hierarchy to be handed over to the creator Brahma Ji, where it stays and enjoys till the Ultimate devastation takes place and it merges with the Almighty-the Ultimate being, not to return back.
There is yet another version which explains this verse in the form of the phases of Moon. As the organism grows in virtues his status is enhanced from 1 to 16, which is the phase of the Ultimate being-the Almighty. Those with less virtues to their credit and still possess left over rewards of the virtuous, righteous, pious deeds; are promoted to the Brahm Lok in stead of being relinquished straight way to the Almighty by granting him Salvation.
अपरोक्षक्रम में :: (1). अग्नि: :- बुद्धि सतोगुणी हो जाती है दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव विकसित होने लगता है, (2). ज्योति: :- ज्योति के समान आत्म साक्षात्कार की प्रबल इच्छा बनी रहती है। दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव ज्योति के समान गहरा होता जाता है और (3). अहः :- दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव दिन के प्रकाश की तरह स्थित हो जाता है। इस प्रकृम में 16 कलाएँ :– 15 कला शुक्ल पक्ष + 01 एवं उत्तरायण कला = 16 हैं। (3.1). बुद्धि का निश्चयात्मक हो जाना, (3.2). अनेक जन्मों की सुधि आने लगती है, (3.3). चित्त वृत्ति नष्ट हो जाती है, (3.4). अहंकार नष्ट हो जाता है, (3.5). संकल्प-विकल्प समाप्त हो जाते हैं। स्वयं के स्वरुप का बोध होने लगता है, (3.6). आकाश तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। कहा हुआ प्रत्येक शब्द सत्य होता है, (3.7). वायु तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। स्पर्श मात्र से रोग मुक्त कर देता है, (3.8). अग्नि तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। दृष्टि मात्र से कल्याण करने की शक्ति आ जाती है, (3.9). जल तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। जल स्थान दे देता है। नदी, समुद्र आदि कोई बाधा नहीं रहती, (3.10). पृथ्वी तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। हर समय देह से सुगंध आने लगती है, नींद, भूख प्यास नहीं लगती, (3.11). जन्म, मृत्यु, स्थिति अपने अधीन हो जाती है, (3.12). समस्त भूतों से एक रूपता हो जाती है और सब पर नियंत्रण हो जाता है। जड़ चेतन इच्छानुसार कार्य करते हैं, (3.13). समय पर नियंत्रण हो जाता है। देह वृद्धि रुक जाती है अथवा अपनी इच्छा से होती है, (3.14). सर्व व्यापी हो जाता है। एक साथ अनेक रूपों में प्रकट हो सकता है। पूर्णता अनुभव होती है। योगी-विमुक्त लोक कल्याण के लिए संकल्प धारण कर सकता है, (3.15). कारण का भी कारण हो जाता है। यह अव्यक्त अवस्था है, (3.16). उत्तरायण कला :- अपनी इच्छा अनुसार समस्त दिव्यता के साथ अवतार रूप में जन्म लेता है जैसे राम, कृष्ण। यहाँ उत्तरायण के प्रकाश की तरह उसकी दिव्यता फैलती है। सोलहवीं कला पहले और पन्द्रहवीं को बाद में स्थान दिया है। इससे निर्गुण सगुण स्थिति भी सुस्पष्ट हो जाती है। सोलह कला युक्त पुरुष में व्यक्त अव्यक्त की सभी कलाएँ होती हैं। यही दिव्यता है।[वेदों के समान ही विभिन्न विद्वानों ने गीता की व्याख्या भी अलग-अलग की है। परन्तु मूल तत्व सब जगह एक ही रहता है]
यम सूक्त, ऋग्वेद के दशम मण्डल का 14वाँ सूक्त :: ऋषि :- यमो वैवस्वत, देवता :: 1-5 यम, 6 :- पित्रथर्वभृगुसोम, 7-9 लिङ्गोक्त पितर, 10-12 श्वानौ है। छन्द :- 1-12 त्रिष्टुप, 13-14, 16 अनुष्टुप, 15 बृहती। निम्न यम सूक्त तीन भागों में विभक्त है। ऋचा 1-6 तक के पहले भाग में यम एवं उनके सहयोगियों की सराहना की गयी है और यज्ञ में उपस्थित होने के लिये उनका आवाहन किया गया है। ऋचा 7-12 तक के दूसरे भाग में नूतन मृतात्मा को श्मशान को दहन-भूमि से निकलकर यमलोक जाने का आदेश दिया गया है। 13-16 तक तक की ऋचाओं में यज्ञ की हवि को स्वीकार करने के लिये यम का आवाहन किया गया है।
धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्। 
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते॥
धूम का अधिपति देवता, रात्रि का अधिपति देवता, कृष्ण पक्ष का अधिपति देवता और 6 महीनों वाले दक्षिणायन का अधिपति देवता है, शरीर छोड़कर गया हुआ, उस मार्ग से गया हुआ सकाम व्यक्ति-योगी चन्द्रमा की ज्योति को प्राप्त होकर लौट आता है अर्थात जन्म-मरण को प्राप्त होता है।[श्रीमद्भगवद्गीता 8.25] 
The passage of righteous, virtuous, pious one, who is praying to the Almighty with motive is quite different, since it follows the path of darkness, night, dark phase of Moon-fortnight, turning of Sun into Southern solstice-hemisphere, when he ultimately achieves the Chandr Lok to be fed with elixir, Amrat, nectar for the period of his stay there and thereafter turning back to earth to be born in the families of the righteous well to do people.
Sun & Moon both have some kind of habitation. Habitation over the Sun is masked by the outer sphere which is luminous-illuminated and visible through out the universe. Habitation over Luna may be both inside or surface of Moon. Time and again evidence surfaces favouring the presence of life over Luna. Life is possible over Venus as well Mars. These are known as abodes-Lok of deities.
धूम अर्थात अन्धकार के देवता कृष्ण मार्ग से जाने वाले जीवों को रात्रि के अधिपति देवता को सौंप देते हैं, जो कि उन्हें कृष्ण पक्ष के देवता के सुपुर्द कर देते हैं। यहाँ से जीव को दक्षिणायन के अधिपति ग्रहण करते हैं और अब जीव को चन्द्र लोक के अधिपति प्राप्त करते हैं। यहाँ वह अमृत का पान करता है। चन्द्रमा पृथ्वी के सन्निकट है जबकि चन्द्र लोक तो सूर्य लोक से भी कहीं आगे है। चन्द्र लोक अमृत चन्द्र मण्डल में आता है, जिससे शुक्ल पक्ष में औषधियों की पुष्टि होती है। कृष्ण मार्ग भी उर्ध्व गति का द्योतक है। ऐसे लोग पुनर्जन्म लेते वक्त श्रीमानों के घर में स्थान पाते हैं। ये व्यक्ति-साधक वो हैं, जो कि ऊँचे लोकों के प्राप्ति हेतु यज्ञ, हवन, अग्निहोत्र आदि का आयोजन करते हैं। अतः ब्रह्म लोक तक पहुँच कर ब्रह्मा जी के साथ लय होने वाले और इन साधकों की गति में अन्तर है। जिस साधक का उद्देश्य ही भगवत्प्राप्ति है वो कभी भी शरीर छोड़ें :- दिन-रात, उत्तरायण-दक्षिणायन, शुक्ल पक्ष-कृष्ण पक्ष, उन्हें लेने लिए स्वयं भगवान् के पार्षद आते हैं। 
निष्काम भाव प्रकाशमय और सकाम भाव अंधकारमय है। कृष्ण मार्ग को पितृ यान, धूम मार्ग और दक्षिण मार्ग भी कहा गया है। 
The deity of darkness handover the expired-dead one to the deity of Krashn Marg (dark way, path-road), who in turn give him to the deity of night to be handed over to the deity of dark phase of Lunar fortnight. From here, he is surrendered to the deity of the southern path of Sun, leading him to the Chandr Lok which is much higher than the Sun's abode. The Lunar abode is different than the Luna which is comparatively closer to the earth. The organism in his minor form-body (सूक्ष्म शरीर) is fed with nectar, elixir, the Amrat to support him, till his rewarding-enjoying phase is over. Now, the organism returns to the earth to be born in the families of the devotees of the God, who are well to do, prosperous. 
There is a lot of difference between the darkness associated with the hells and this dark route to Chandr Lok. Hells are full of tortures, pains, sorrow, worries unending tensions, anxieties etc. The route to Chandr Lok is meant for those who desire to attain Ultimate comforts and performs Yagy, Hawan, prayers, Agnihotr to attain them. Yet there are the humans-Yogis who's one point program is attainment of the God through devotion. For them the restriction of day-night, dark or bright phase of Moon, movement of Sun in northern hemisphere or southern hemisphere are meaningless, since the nominees of the God themselves come to earth to receive and welcome them to the Almighty's abode.
Selflessness-devotion without motives desires is synonym to brightness-light, while devotion with desires-longing is darkness.
शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते। 
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः॥
क्योंकि शुक्ल और कृष्ण, ये दोनों ही गतियाँ अनादिकाल से ही जगत्-प्राणी मात्र के साथ सम्बन्ध रखने वाली मानी गई हैं। इनमें से एक गति से जाने वालों को लौटना नहीं पड़ता, जबकि दूसरी गति से जाने वालों को पुनः लौटना पड़ता है।[श्रीमद्भगवद्गीता 8.26]  
Movement of the soul through bright or the dark passage is continuing from the beginning-onset of life. First of these passage is safe, since one is not supposed to return back to earth while the return-reincarnation is certain from the second-dark path. The former grants Salvation and the latter leads to rebirth as human beings.
शुक्ल मार्ग पर गए प्राणी का लय ब्रह्मा जी के हो जाता है, उसे वापस आना नहीं पड़ता; जबकि कृष्ण मार्ग पर गए हुए को वापस लौटना ही पड़ता है। यही जगत का शास्वत नियम है, जो कि अनादिकाल से चला आ रहा है। भगवत्कृपा प्राणी को कभी भी किसी भी योनि में प्राप्त हो सकती है, क्योंकि उसे अपने बचे हुए पुण्य और पापों का क्षय होने तक ऊर्ध्वगति, मध्यगति या अधोगति के भोग के इन मार्गों का अनुसरण करना ही होता है। मनुष्य जन्म बहुत विशेष है, क्योंकि यहीं पर रहकर प्राणी कर्म, योग, मुक्ति-मोक्ष, भक्ति का उद्यम कर सकता है। 
The bright-illuminated passage leads to assimilation in the creator, ensuring assimilation in the Almighty at the occurrence of Ultimate devastation, deluge-annihilation. The dark path is called so, since the organism has left over desires, affections, allurements, alienation (अलगाव, दुराव, अन्य संक्रामण, हस्तांतरण, विराग, dispassion, disfavour), which are sure to bring him back to the earth to restart yet again. This is the law of nature-eternity; followed by the divinity. However, one may be able to attain Salvation-freedom in inferior species as well, since he had been able to undergo the remaining punishments in that form. One should not be proud of being a Brahmn, enlightened, scholar, rich or a noble, since that phase might be going to be over as soon as the reward of the leftover pious deeds has been encashed. Movement to higher, middle order or the lower abodes depends upon the deeds of the organism as a human being and some times in inferior species like primates, as well. One must keep it in mind that he has been able to get the opportunity of being a human being due to some left over pious deeds which he should not miss to attain the Ultimate abode-the abode of the Almighty.
नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन। 
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन॥
हे प्रथानन्दन अर्जुन! इन दोनों मार्गों को जानने वाला कोई भी योगी मोहित नहीं होता। अतः हे अर्जुन! तू हर समय योग युक्त समता को प्राप्त कर।[श्रीमद्भगवद्गीता 8.27]  
The Almighty stressed that the Yogi-one, who is aware of the two routes-paths after the death; first leading to Salvation and the other leading to reincarnation, is not enchanted-illusioned. He asked Arjun to attain equanimity aided with Yog and establish himself in it.
अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च। 
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः॥ 
अक्षरों में अकार और समासों में द्वन्द समास (संस्कृत व्याकरण में वह अवस्था जब अनेक पदों का एक पद, अनेक विभक्तियों की एक विभक्ति या अनेक स्वरों का एक स्वर होता है) मैं हूँ। अक्षरकाल अर्थात काल का भी महाकाल तथा सब ओर मुख वाला धाता सबका पालन पोषण करनेवाला, भी मैं ही हूँ।[श्रीमद्भगवद्गीता 10.33]   
The Almighty asserts that HE is the first letter of the alphabets-syllables "अ" and  HE is the "I AM-ME, MY" the dual compound among the compound words. HE is the endless time and the Ultimate time (Maha Kal Bhagwan Shiv) side by side. HE is sustainer-nurturer and omniscient, having mouth in all directions.  
वर्णमाला में सबसे पहले अकार "अ" आता है। स्वर और व्यंजन दोनों में ही अकार मुख्य है। इसके बिना व्यञ्जनों का उच्चारण भी नहीं होता। अतः यह परमात्मा की विभूति है। द्वन्द समास वह शब्द है, जो दो शब्दों से मिलकर बनता और दोनों शब्दों में प्रधानता है। अतः यह भी परमात्मा की विभूति हुआ। आदि देव परमात्मा अनन्त अनादि, कालातीत हैं। उनका कभी क्षय नहीं होता। सर्ग और प्रलय काल में समय की गणना को भगवान् सूर्य के अनुरूप-सन्दर्भ में किया जाता है। महाप्रलय में जब सूर्य भी लीन हो जाता, तब समय की गणना परमात्मा के सापेक्ष होती है। इसी वजह से प्रभु अक्षय काल हैं। सूर्य द्वारा निर्धारित काल ज्योतिष सम्बन्धित गणनाओं का आधार है, जो अक्षय काल है; वह परिवर्तनशील नहीं है। अतः अक्षर काल परमात्मा की विभूति है। परमात्मा हर वक्त हर घड़ी सभी प्राणियों को निहारते रहते हैं और सभी-सब के सब प्रकार के कार्य कलापों पर, उनकी पैनी नजर रहती है। इस लिहाज से प्रभु स्वयं अपनी विभूति स्वयं हैं।
The vowel "अ" (English has no equivalent for this sound. Its very near to A-a. A-a is close to "ए" of Hindi and Sanskrat. Almost all consonants have this sound attached with them. There are compound words which have two or more words, signifying each one of them. This leads to the Ultimate nature of this letter-alphabet, making it a form of the God. The Almighty is beyond the limits of time & is since ever, for ever. At the time of evolution & the doom's day the Sun losses its significance, since it too assimilate in the Almighty. At that occasion the Almighty is the absolute time scale, which makes HIM, HIS own excellence-Ultimate quality. The Almighty watches all living beings with HIS face in all directions, so that each and every one gets his due. This is again an Ultimate trait which makes HIM superior to all.
मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्। 
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा॥10.34॥ 
सबका हरण करने वाली मृत्यु और भविष्य में उत्पन्न होने वाला मैं हूँ तथा स्त्री जाति, कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, घृति और क्षमा मैं हूँ।[श्रीमद्भगवद्गीता 10.34]  
The Almighty stressed that HE is the all devouring death and also the origin of future beings and the seven qualities fame, prosperity, speech, memory, intellect, resolve and forgiveness amongest the women fore.
मृत्यु में हरण करने-छीनने की ऐसी क्षमता हैं कि प्राणान्त के पश्चात स्मृति तक नहीं रहती। यह परमात्मा की सामर्थ है। पूर्व जन्म की यादें कष्ट, यंत्रणा, चिन्ता, मोह आदि को बढ़ाने वाली ही होती है। सबको पैदा करने वाले भी वही हैं और उत्पत्ति के हेतु भी वो ही हैं, संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय परमात्मा से ही है। स्त्री जाति में कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, घृति और क्षमा सर्वश्रेष्ठ हैं। कीर्ति, स्मृति, मेधा, घृति और क्षमा दक्ष प्रजापति की, श्री मह्रिषी भृगु तथा वाक् ब्रह्मा जी की कन्याएँ हैं। संसार में प्रतिष्ठा को कीर्ति कहते हैं। धन, सम्पत्ति, ऐश्वर्य, श्री कहलाते हैं। जिस वाणी को धारण करने से मनुष्य विद्वान, पण्डित, ज्ञानी कहलाता है, वह वाक् है। जो शक्ति पुरानी सीखी, समझी सुनी गईं बातों को फिर से याद दिलाती है, वो स्मृति है। जो शक्ति विद्या को ठीक तरीके से याद रखने में तथा बुद्धि की धारणा में सहायक है, वो मेधा है। मनुष्य के अपने निश्चय, सिद्धान्त, मान्यता पर बगैर विचलित हुए डटे रहना घृति है। अकारण अपराध करने पर शक्ति, सामर्थ होते हुए भी दण्ड न देना, क्षमा है। कीर्ति, श्री और वाक् प्राणियों की वाह्य मुखी विशेषताएँ हैं तथा स्मृति, मेधा, घृति और क्षमा अन्तःमुखी प्रतिभाएँ-विशेषताएँ हैं। इन सातों को परमात्मा ने अपनी विभूति बताया है। यदि किसी व्यक्ति में ये गुण प्रकट हों, तो उसे परमात्मा की विशेषता मानना चाहिए, उसकी स्वयं की नहीं। अपना गुण मानने से मनुष्य में अभिमान उत्पन्न होता है। 
Death has the unique quality of eliminating-wiping out, the previous memory. Memory of the previous births may cause pain agony, distress, attachment, undue botheration in the minds of the human beings. The death is a form, quality, excellent ability-uniqueness of the God. Death is followed by the birth. Evolution-creations, stabilisation and destruction are caused by the Almighty, in a cyclic manner-order. The women-fore have 7 names (titles, qualities, traits, characterises)  which are known for their Ultimate qualities. These 7 are Keerti Fame, recognition), Shri (wealth, property, money), Vak (speech, language), Smrati (memory), Medha (brilliance), Ghrati and Kshma. Keerti, Smrati, Medha & Kshma are the daughters of Daksh Praja Pati, Shri is the daughter of Mahrishi Bhragu, while Vak is the daughter of Brahma Ji. Prestige (fame, respect, honour, good, will) in the world is due to Keerti. Wealth, money, property, prosperity, vehicles, comforts, luxuries comes due to Shri. Smrati (remembrance, memory) helps in recollecting the old-previous deeds, events, learnt things. Medha provides help in properly assembling the knowledge, ability, learning and up keep of intelligence, prudence, cleverness, diplomacy. Ghrati-will power, determination is that ability of one, which helps him in maintaining his stand over principles, facts, belief, resolutions. Kshma-pardon is that ability which forbids one from punishing the guilty in spite of strength, power, capability. Vak-speech is the ability to communicate, express, describe, teach and granting of enlightenment, status as philosopher, scholar Pandit to the individual. Keerti, Shri & Vak are the external features, qualities, traits of an individual. Smrati, Medha, Ghrati &  Kshma are the internal characteristics of the bearer. As and when these qualities appear in one, he should consider them to be the gift of the Almighty not his own qualities, since it will lead to ego-pride in him.
योगी-साधकों-तपस्वियों की दो गतियों :- कृष्ण मार्गी साधक सुख-भोग, उच्च लोकों में जाने की इच्छा रखते हैं, किन्तु शुक्ल मार्गी परमात्मा-ब्रह्म में लीन होना चाहते हैं। इन दोनों को जानकर जो व्यक्ति कृष्ण मार्ग का त्यागकर देता है और निष्काम हो कर समता हासिल कर लेता है और दृढ़ प्रतिज्ञ हो जाता है कि उसे तो केवल परमात्म तत्व की उपलब्धि ही करनी है, वो मोहित-पथभ्रष्ट नहीं होता और अन्ततोगत्वा परमात्मा को प्राप्त कर ही लेता है।  
There are two paths after the death one may follow. The second one is that of comforts, sensuality, enjoyment, pleasure and the first one is to liberate from the repeated cycles of birth and death. The enlightened, aware of these two has to attain equanimity and practice for Liberation, emancipation, Salvation with firm determination. He is not illusioned or enchanted. He rejects all allurements, desires and devote himself whole heartedly, to the Almighty.
परेयिवांसं प्रवतो महीरनु बहुभ्यः पन्थामनुपस्परशानम्।
वैवस्वतं संगमनं जनानां यमं राजानं हविषा दुवस्य॥
उत्तम पुण्य-कर्मो को करने वालों को सुखद स्थान में ले जाने वाले, बहुतों के हितार्थ योग्य मार्ग के द्रष्टा, विवस्वान के पुत्र यम को हवि अर्पण करके उनकी सेवा करें, जिनके पास मनुष्यों को जाना ही पड़ता है।[ऋग्वेद 10.14.1]

Let us make offerings to Yam, the son of Vivasvan, to whom every one is bound to go (after death), who shows the right path for the benefit-welfare of many and who carries those who perform virtuous, righteous, pious deeds to places of comforts.
यमो नो गातुं प्रथमो विवेद नैषा गव्यूतिरपभर्तवा उ।
यत्रा नः पूर्वे पितरः परेयुरेना जज्ञानाः पथ्या अनु स्वाः॥
पाप-पुण्य के ज्ञाता सब में प्रमुख यम के मार्ग को कोई बदल नहीं सकता। पहले जिस मार्ग से हमारे पूर्वज गये हैं, उसी मार्ग से अपने-अपने कर्मानुसार हम सब जायँगे।[ऋग्वेद 10.14.2]
No one can change the working (path, method, procedure) of Yam Raj. The way-path the ancestors left (died), will be followed by the descendants as per their deeds.
मातली कव्यैर्यमो अङ्गिरोभिर्बृहस्पतिर्ऋक्व्वभिर्वाबृधान:। 
याँश्च देवा वावृधुर्ये च देवान् त्स्वाहान्ये स्वधयान्ये मदन्ति॥
इन्द्र कव्यभुक् पितरों की सहायता से, यम अंगिरसादि पितरों की सहायता से और बृहस्पति ऋक्वदादि पितरों की सहायता से उत्कर्ष पाते हैं। देव जिनको उन्नत करते हैं, जो देवों को बढ़ाते हैं। उनमें से कोई स्वाहा के द्वारा (देव) और कोई स्वधा से (पितर) प्रसन्न होते हैं।[ऋग्वेद 10.14.3]
उत्कर्ष :: महानता, महत्ता, विस्तार, अधिकता, विपुलता, शिखर, पराकाष्ठा, चरम उत्कर्ष, ऊँचा शिखर, उच्चतम शिखर; flourishing, climax, greatness, growth, moving to the top.
Dev Raj Indr attained peak (heights in a carrier, rise) with the help of Kavybhuk Pitr, Yam Raj (Dharm Raj) due to Angirsadi Pitr, Dev Guru Brahaspati Rikadi Pitr. Those who are promoted by the demigods-deities (Almighty), they too help demigods-deities scales peaks-heights.
इमं यम प्रस्तरमा हि सीदाऽङ्गिरोभिः पितृभिः संविदानः। 
आ त्वा मन्त्राः कविशस्ता वहन्त्वेना राजन् हविषा मादयस्व॥
हे यम! अङ्गिरादि पितरों के साथ इस श्रेष्ठ यज्ञ में आकर बैठें। विद्वान् लोगों के मन्त्र आपको बुलावें। हे राजा यम! इस हवि से संतुष्ट होकर हमें प्रसन्न कीजिये।[ऋग्वेद 10.14.4]
Hey Yam! Come and sit-participate in this Yagy with the Pitr like Angiras. The Mantr enchanted by the learned-enlighten invites you. Hey Yam, the king! Be satisfied with the offerings and make us happy. 
अङ्गिरोभिरा गहि यज्ञियेभिर्यम वैरूपैरिह मादयस्व। 
विवस्वन्तं हुवे यः पिता तेऽस्मिन् यज्ञे बर्हिष्या निषद्य॥
हे यम! यज्ञ में स्वीकार करने योग्य अङ्गिरस ऋषियों को साथ लेकर आयें। वैरूप नामक पूर्वजों के साथ यहाँ आप भी प्रसन्न हों। आपके पिता विवस्वान को मैं यहाँ निमंत्रित करता हूँ (और प्रार्थना करता हूँ) कि इस यज्ञ में वह कुशासन पर बैठकर हमें संतुष्ट करें।[ऋग्वेद 10.14.5] 
Hey Yam! Bring the acceptable Rishis like Angiras. Please be with the ancestors like Vaerup, here. I invite your father Vivaswan (Sury Bhagwan-Sun) and request him to sit over the Kushasan and satisfy us. 
अङ्गिरसो नः पितरो नवग्वा अथर्वाणो भगवः सोम्यासः।
तेषां वयं सुमतौ यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसे स्याम॥
अङ्गिरा, अथर्वा एवं ऋग्वादि हमारे पितर अभी ही आये हैं और ये हमारे ऋषि सोमपान के लिये योग्य ही हैं। उन सब यज्ञार्ह पूर्वजों की कृपा तथा मङ्गलप्रद प्रसन्नता हमें पूरी तरह प्राप्त हो।[ऋग्वेद 10.14.6] 
Angira, Atharva and Rigvadi Pitr have just come and they deserve drinking Somras. Blessings of all these ancestors, acceptable for the Yagy and auspicious pleasure-happiness be available to us. 
प्रेहि ग्रेहि पथिभि: पूर्व्येभिर्यत्रा नः पूर्वे पितरः परेयुः।
उभा राजाना स्वधया मदन्ता यमं पश्यासि वरुणं  च देवम्॥
हे पिता! जहाँ हमारे पूर्व पितर जीवन पार कर गये है, उन प्राचीन मार्गों से आप भी जायें। स्वधाकर अमृतान्न से प्रसन्न-तृप्त हुए राजा यम और वरुण देव से जाकर मिलें।[ऋग्वेद 10.14.7]
Hey father! The abode where our ancestors have gone, you should also the available to you following the same track. Being satisfied with the Swadhakar-the food grains,  which are like nectar-elixir, you should meet the king Yam and Varun Dev. 
सं गच्छस्व पितृभिः सं यमेनेष्टापूर्तेन परमे व्योमन्। 
हित्वायावद्यं पुनरस्तमेहि सं गच्छस्व तन्वा सुवर्चा:॥
हे पिता! श्रेष्ठ स्वर्ग में अपने पितरों के साथ मिलें। वैसे ही अपने यज्ञ, दान आदि पुण्य कर्मो के फल से भी मिलें। अपने सभी दोषों को त्याग कर इस (शाश्वत) घर की ओर आयें और सुन्दर तेज से युक्त होकर (संचरण करने योग्य नवीन) शरीर धारण करें।[ऋग्वेद 10.14.8]
शाश्वत :: विरल, चिरंतन, सदैव के लिए; which is eternal and for ever, perpetual-in perpetuity, sempiternal.
Hey father! You should join-meet the Pitr-ancestors through excellent track-path. Meet them as per result-merit (rewards)  of the virtuous deeds like Yagy, donations-charity. Come to the this sempiternal place, after rejecting all defects, sins, vices and have a new body associated with aura.
अपेत वीत वि च सर्पतातो ऽस्मा एतं पितरो लोकमक्रन्।
अहोभिरद्भिरक्तुभिव्र्यक्तं यमो ददात्यवसानमस्मै॥
है भूत-पिशाचो!। यहाँ से चले जाओ, हट जाओ, दूर चले आओ। पितरों  ने यह स्थान इस मृत मनुष्य के लिये निश्चित किया है। यह स्थान दिन-रात और जल से युक्त है। यम ने इस स्थान को मृत मनुष्य को दिया है (इस ऋचा में श्मशान के भूत-पिशाचों से प्रार्थना की गयी है कि वे मृत व्यक्ति के अन्तिम विश्राम स्थल के मार्ग में बाधा न उपस्थित करें)।[ऋग्वेद 10.14.9]
Hey evil spirits, devil  spectre (Dracula)! Move away from here. Pitr have given this place (cremation ground) to the deceased. This place has water during day & night. Yam has granted this place to the dead.
अति द्रव सारमेयौ श्वनौ चतुरक्षौ शबलौ साधुना पथा।
अथा पिदृतन्  त्सुविदत्राँ उपहि यमेन ये सधमादं मदन्ति॥   
हे सद्यः मृत जीव! चार नेत्रों वाले चित्रित शरीर के सरमा के दोनों श्वान-पुत्र हैं। उनके पास अच्छे मार्ग उत्पन्न शीघ्र गमन करो। यमराज के साथ एक ही पंक्ति में प्रसन्नता से (अन्नादिका) उपभोग करने वाले अपने अत्यन्त उदार पितरों के पास उपस्थित हो जाओ (मृत व्यक्ति से कहा गया है कि उचित मार्ग से आगे बढ़कर सभी बाधाओं को हटाते हुए यम लोक ले जाने वाले दोनों श्वानों के साथ वह जल्द जा पहुँचे)।[ऋग्वेद 10.14.10] 
Hey deceased! Move with the two sons of Sarma with spotted-painted body, who remain in the form of dog. To dine with Yam Raj in the same row present yourself in front of liberal Pitr.
यौ ते श्वानौ यम रक्षितारौ चतुरक्षौ पशिरक्षी नृचक्षसौ।
ताभ्यामेनंपरिदेहि राजन्  त्स्वस्ति चास्मा  अनमीवं च धेहि॥
हे यमराज! मनुष्यों पर ध्यान रखने वाले, चार नेत्रों वाले,  मार्ग के रक्षक ये जो आपके रक्षक श्वान हैं, उनसे इस मृतात्मा को रक्षा करें। हे राजन्! इसे कल्याण और आरोग्य प्राप्त करायें।[ऋग्वेद 10.14.11] 
Hey Yam Raj! Please protect the deceased from the four eyed dogs protecting the way, keeping an eye (watching) over the humans. Hey king! Kindly grant his welfare and health.
उरूणसावसुसूतृपा उदुम्बलौ यमस्य दूतौ चरतो जनाँ अनु। 
तावस्मभ्यं दृशये सूर्याय पुनर्दातामसुमद्येह भद्रम्॥
यम के दूत, लम्बी नासिका वाले, (मुमूर्षु व्यक्ति के) प्राण अपने अधिकार में रखने वाले, महा पराक्रमी (आपके) दोनों श्वान मर्त्य लोक में भ्रमण करते रहते हैं। वे हमें सूर्य के दर्शन के लिये यहाँ आज कल्याणकारी उचित प्राण दें।[ऋग्वेद 10.14.12]
The mighty dogs who are the agents of Yam Raj, who have long nose, take possession of the dying person, keep on roaming in the perishable world. They should provide us beneficial Pran-life for seeing the Sun.
यमाय सोमं सुनुत यमाय जुहुना हविः। 
यमं ह यज्ञो गच्छत्यदग्निदूतो अरंकृतः॥
यम के लिये सोम का सेवन करो तथा यम के लिये (अग्नि में) हवि का हवन करो। अग्नि उसका दूत है,  इसलिये अच्छी तरह तैयार किया हुआ यह हमारा यज्ञ हवि यम के पास पहुँच जाता है।[ऋग्वेद 10.14.13] 
Drink Somras for Yam and make offering in the fire. Agni is his agent, so finely prepared our offerings meant for the Yagy reach him.
यमाय घुतवद्धविर्जुहोत प्र च तिष्ठत।
स नो देवेष्या यमद् दीर्घमायुः प्र जीवसे॥
घृत से मिश्रित यह हव्य यम के लिये (अग्नि में) हवन करो और यम की उपासना करो। देवों के बीच यम हमें दीर्घ आयु दें, ताकि हम जीवित रह सकें।[ऋग्वेद 10.14.14]
Use the offerings mixed with Ghee-clarified butter in Agni-fire for Yam and pray to him. Let Yam Raj occupying seat amongest the demigods-deities, grant us long life to let us survive. 
यमाय मधुमत्तमं राजे हव्यं जुहोतन।
इदं नम ऋषिभ्यः पूर्वजेभ्यः पूर्वेभ्यः पश्चि कृद्भ्यः॥
अत्यधिक माधुर्य युक्त यह हव्य राजा यम के लिये के अग्नि में हवन करो। (हे यम!) हमारा यह प्रणाम अपने पूर्वज के ऋषियों को, अपने पुरातन मार्ग दर्शकों को समर्पित हो जाय।[ऋग्वेद 10.14.15] 
Make this sweet offering in fire for the king Yam. Hey Yam! Our salutations should reach the Rishis-sages of our ancestors and our ancient path should be offered to the viewers.
त्रिकद्रुकेभिः पतति पळुर्वीरेक मिद्बृहत्।
त्रिष्टुब्गायत्री छन्दांसि सर्वा ता यम आहिता॥
त्रिकद्रुक नामक यज्ञों में हमारा यह (सोमरूपी सुपर्ण) उड़ान ले रहा है। यम छ: स्थानों :- धुलोक, भूलोक, जल, औषधि, ऋक् और सुनृत में रहते हैं। गायत्री तथा अन्य छन्द, ये सभी इन यम में ही सुप्रतिष्ठित किये गये हैं।[ऋग्वेद 10.14.16]
सुपर्ण :: गरुड़, मुरण, पक्षी-चिड़िया, किरण, एक असुर का नाम, देवगंधर्व, एक पर्वत का नाम, घोड़ा, अश्व, सोम, वैदिक मंत्रों की एक शाखा का नाम, अंतरिक्ष का एक पुत्र, सेना की एक प्रकार की व्यूहरचना, नागकेसर, नागपुष्प, अमलतास, स्वर्णपुष्प, ज्ञानस्वरूप, कोई दिव्य पक्षी, सुंदर पत्र या पत्ता, (सुंदर किरणों से युक्त होने के कारण इस शब्द का प्रयोग चंद्रमा और सूर्य के लिये भी होता है), सुंदर दलों या पत्तोंवाला, सुंदर परोंवाला, भगवान्  विष्णु के वाहन गरुड़ का एक नाम, भगवान्  विष्णु का एक नाम।
ऋक् :: ऋचा, स्तुति, पूजा; Blood.
Our Suparn is flying in the Yagy named Trikdruk. Yam resides in six places :- space-sky, earth, water, medicines, Rik-blood and Sunrat. 
DEATH मृत्यु :: शरीर में जब वात का वेग बढ़ जाता है तो उसकी प्रेरणा से ऊष्मा अर्थात पित्त का प्रकोप भी हो जाता है।  वह पित्त सारे शरीर को घेर कर सारे सम्पूर्ण देशों को आवर्त के लेता है और प्राणों के स्थान और मर्मों का उच्छेद कर डालता है। फिर शीत से वायु का प्रकोप होता है और वायु अपने निकलने का स्थान-छिद्र ढूढ़ने लगती है। 
दो नेत्र, दो कान, दो नासिका और एक मुँख; ये सात छिद्र हैं और आठवाँ ब्रह्मरन्ध्र है। शुभ कार्य करने वाले मनुष्यों के प्राण प्रायः इन्हीं पूर्व सात मार्गों से निकलते हैं। धर्मात्मा जीव को उत्तम मार्ग और यान द्वारा स्वर्ग भेजा जाता है। 
अनभ्यासेन वेदानामाचारस्य च वर्जनात्। 
आलस्यादन्नदोषाच्च मृत्युर्विप्राञ्जिघांसति॥
वेदों का अभ्यास न करने से, अपने आचार को छोड़ देने से, आलस्य करने से और दूषित अन्न खाने से मृत्यु ब्राह्मणों को मारने की इच्छा करती है।[मनु स्मृति 5.4]  
The Brahmn invite untimely death by neglecting the study-practice of Veds, deviating from the conduct meant for the Brahmns described in scriptures, becoming lazy and eating contaminated, stale, unhealthy food.
Death is imminent, but life span is increased by adopting suitable eating habits, exercise, performing Yog.
लशुनं गृञ्जनं चैव पलाण्डुं कवकानि च। 
अभक्ष्याणि द्विजातीनाममेध्यप्रभवाणि च॥[मनु स्मृति 5.5]
लहसुन, गाजर, प्याज और गोबर छत्ता तथा अशुद्ध (माँस, मछली, अंडा; विष्ठा इत्यादि से होने वाले) पदार्थ, द्विजातियों के लिये अखाद्य हैं। 
Eating of Garlic, leeks and onions, mushrooms, meat, fish & eggs  and all plants which springing from impure substances like compost, rotten meat etc. are prohibited for Brahmns.
All plants have medicinal value-properties. If one has to take something as medicine its allowed. during emergency there is no restriction. Regular use of these things is definitely harmful for every one. Ayur Ved is the most advanced & developed medical science which can cure all ailments except death.
निम्न छिद्र  :: गुदा औए उपस्थ। पापियों के प्राण इन्हीं छिद्रों से निकलते है। 
योगी के प्राण मस्तक का भेदन करके ब्रह्मरन्ध्र से निकलते हैं और जीव इच्छानुसार अन्य लोकों में जाता है।
जीव को यमराज के दूत आतिवाहिक शरीर में पहुँचाते हैं। यमलोक का मार्ग अति भयंकर और 86,000 योजन लम्बा है। यमराज के आदेश से चित्रगुप्त जीव को उसके पाप कर्मों के अनुरूप भयंकर नरकों में भेजते हैं।
महाकाल भगवान् शिव ने पार्वती को बताए मृत्यु रहस्य :: 
(1). यदि अचानक शरीर सफेद या पीला पड़ जाए और लाल निशान दिखाई दे तो समझना चाहिए कि उस मनुष्य की मृत्यु 6 महीने के भीतर हो जाएगी। जब मुँह, कान, आँख और जीभ ठीक से काम न करें तो भी 6 महीने के भीतर ही मृत्यु जाननी चाहिए।
(2). जो मनुष्य हिरण के पीछे होने वाली शिकारियों की भयानक आवाज को भी जल्दी नहीं सुनता उसकी मृत्यु भी 6 महीने के भीतर हो जाती है। 
(3). जिसे सूर्य, चंद्रमा या अग्नि का प्रकाश ठीक से दिखाई न दे और चारों ओर काला अंधकार दिखाई दे तो उसका जीवन भी 6 महीने के भीतर समाप्त हो जाता है।
(4). त्रिदोष (वात, पित्त, कफ) में जिसकी नाक बहने लगे, उसका जीवन पंद्रह दिन से अधिक नहीं चलता। यदि किसी व्यक्ति के मुँह और कण्ठ बार-बार सूखने लगे तो यह जानना चाहिए कि 6 महीने बीतते-बीतते उसकी आयु समाप्त हो जाएगी।
(5). जब किसी व्यक्ति को जल, तेल, घी तथा दर्पण में अपनी परछाई न दिखाई दे तो समझना चाहिए कि उसकी आयु 6 माह से अधिक नहीं है। जब कोई अपनी छाया को सिर से रहित देखे अथवा अपने को छाया से रहित पाए तो ऐसा मनुष्य एक महीने भी जीवित नहीं रहता।
(6).  जब चंद्रमा व सूर्य के आस-पास के चमकीला घेरा काला या लाला दिखाई दे तब 15 दिन के अंदर ही उस मनुष्य की मृत्यु हो जाती है। अरूंधती तारा व चंद्रमा जिसे न दिखाई दे अथवा जिसे अन्य तारे भी ठीक से न दिखाई दें, ऐसा मनुष्य की मृत्यु एक महीने के भीतर हो जाती है।
(7). यदि ग्रहों का दर्शन होने पर भी दिशाओं का ज्ञान न हो, मन में बैचेनी छाई रहे तो उस मनुष्य की मृत्यु 6 महीने में हो जाती है। जिसे आकाश में सप्तर्षि तारे न दिखाई दे, उस मनुष्य की आयु 6 महीने ही शेष समझनी चाहिए।
(8). जिस मनुष्य को उतथ्य व ध्रुव तारा अथवा सूर्यमंडल का भी दर्शन न हो, रात में इंद्रधनुष और दोपहर में उल्कापात होता दिखाई दे तथा गीध और कौवे घेरे रहें तो उसकी आयु 6 महीने से अधिक नहीं होती।
इन दिखाई देने सम्बन्धी लक्षणों को तभी मानना चाहिये जब जातक को सही देखे देता हो मगर उपयुक्त वस्तुएँ ने दिखती हों। 
Enhancement of the flow of air in the body-blood enhances the bile juices as well. This bile covers the entire body through nervous system, blood circulatory system and the skin. It attacks-targets the soft points-centres of the other  airs (heart, lungs) in the body. This lead to lowering of body temperature-cold. This cold strengthens the attack of the air in the body further, which start tracing the opening for release.
Humans have 2 ears, 2 nostrils, 2 eyes and a mouth, a total of 7 openings-outlets and the 8th is the Brahm Randhr-the ultimate outlet for the soul-Vital. The soul-Pran Vayu of pious-virtuous-righteous releases through these 7 openings. The pious-virtuous, righteous gets heaven by the sanction of Yam Raj. Chitr Gupt send him there through excellent routes by planes.
There are 2 more out lets for the release of Pran Vayu-the vital force-energy: The anus and the pennies. The soul of the wicked-sinner leaves the body through them.
The Yogi has the ultimate outlet for the soul-the Brahm Randhr. The soul explodes the skull and leaves the body to the abodes of its choice, in a divine formation-incarnation achieved by it.
The dead-deceased gets another identical non material body which is moved to hell through a distance of 86,000 Yojan which is very painful. There Yam Raj looks at him and Chitr Gupt thereafter send him to hell, which are extremely painful-torturous. What one gets here is the outcome of his deeds? As one sows, so he gets, here. This is absolute justice.
DEATH THE ULTIMATE TRUTH :: One has faced undergone suffering-setbacks-disasters-illness-agony-death in previous births, innumerable times, having acquired rich experience in them. They can be manoeuvred-handled quite easily. One should conquer the fear from them-face them without being afraid. These are the outcome of sins, in previous births. Activities which one is used to-experienced-practiced-repeatedly in previous births-lives are sufficient to develop skill and ability in doing them. You have the experience of death in previous innumerable lives, then why are you afraid of it, now!?Let such events do not destabilise-disturb one, having faced and survived them, a great number of times. All sinful acts should be avoided to protect self in present and future births. These troubles can not be escaped, since they are the outcome of deeds, in last many many births left to be experienced. So, one must face them smiling, boldly-bravely. It's good to face them at a time when health is good-body has potential rigours-torture .
One always do so many things to improve his next births, but fails to make endeavours to rectify sinful errors-activities in present-current life. One must make efforts to safeguard the present by not indulging in sinful-unrighteous acts. All sinful acts should be avoided to protect self in present and future births.  These troubles can not be escaped, since they are the outcome of deeds in last many many births left to be experienced. So, one must face them smilingly, boldly-bravely. It's good to face them at a time when health is good-body has potential.
One always do so many things to improve his next births, but fails to make endeavours to rectify sinful errors-activities in present-current life. One must make efforts to safeguard the present by not indulging in sinful-vice-wicked-wretched-unrighteous acts. One remembers God and the God also remember his creations. He is always with his devotees to strengthen them. So one has to be virtuous, pious, honest, righteous.
Death is imminent and constitute an integral part of the life cycle and death cycle. One who is born must die, sooner or later. Demigods are not exception to this rule. Even the deities-goddess under go this cycle. None of the 14 abodes: 7 heavens and the 7 Tal are spared by it. Bhagwan Shri Ram and Bhagwan Shri Krashn took incarnation and left, as soon the deeds-purpose of their incarnation was over. All abodes under go this cycle. Bhagwan Brahma-Bhagwan Vishnu and Bhagwan Mahesh them self are bound-governed  by this rule with the life of 2 Parardh, 4 Parardh and 8 Parardh respectively. None of the abodes is spared by birth and destruction. As soon as the impact of virtues is over, the souls start descending to lower abodes .It reaches the earth, in the incarnation of human beings in a virtuous family. Here onward the next journey is decided, depending upon his deeds, virtues or sins. The sins will take him to hells. The soul may earn virtues, piousness, righteousness, honesty, devotion, values, ethics, leading to Salvation-a state of no return to earth. [Santosh]
One has faced-undergone suffering-setbacks-disasters-illness-agony-death in previous births innumerable times, having acquired rich experience in them. Activities which one is used to-experienced-practiced-repeatedly in previous lives are sufficient to develop skill and ability in doing them. Let such events do not destabilise-disturb one, having faced and survived them, a great number of times. They can be manoeuvred-handled quite easily. One should conquer them, without being afraid. These are the outcome of sins in previous births. All sinful acts should be avoided to protect self in present and future births. These troubles can not be escaped, since they are the outcome of deeds in previous many many births left to be experienced. So, one must face them smilingly, boldly-bravely. It's good to face them at a time when health is good-body has potential to face rigours-torture.
One always do so many things to improve his next births, but fails to make endeavours to rectify sinful errors-activities in present-current life. One must make efforts to safeguard the present by not indulging in sinful-unrighteous acts.
One remembers God and the God also remember his creations. He is always with his devotees to strengthen them. So, one has to be virtuous, righteous, honest, truthful, pious.
Enhancement of the flow of air in the body-blood enhances the bile juices as well. This bile covers the entire body through nervous system, blood circulatory system and the skin. It attacks-targets the soft points-centres of the other  airs (heart, lungs) in the body. This lead to lowering of body temperature-cold. This cold strengthens the attack of the air in the body further, which start tracing the opening for release.
Humans have 2 ears, 2 nostrils, 2 eyes and a mouth, a total of 7 openings-outlets and the 8th is the Brahm Randhr-the ultimate outlet for the soul-Vital. The soul-Pran Vayu of pious-virtuous-righteous releases through these 7 openings. The pious-virtuous, righteous gets heaven by the sanction of Yam Raj. Chitr Gupt send him there through excellent routes by planes.
There are 2 more out lets for the release of Pran Vayu-the vital force-energy :- The anus and the pennies. The soul of the wicked-sinner leaves the body through them.
The Yogi has the ultimate outlet for the soul-the Brahm Randhr. The soul explodes the skull and leaves the body to the abodes of its choice, in a divine formation-incarnation achieved by it.
The dead-deceased gets another identical non material body which is moved to hells through a distance of 86,000 Yojan which is very painful. There Yam Raj looks at him and Chitr Gupt thereafter send him to hells, which are extremely painful-torturous. What one gets here is the outcome of his deeds? As one sows, so he gets, here. This is absolute justice.
मृत्यु एक परम सत्य :: विचलित मत होओ। मृत्यु भय व्यर्थ है। व्यक्ति समस्त प्रकार की यातनाओं, यंत्रणाओं, रोगों, व्याधि, बीमारीओं, रोगों व  मृत्यु का अनुभव अनंत  पूर्वजन्मों में  भी कर चुका है। अत: उनसे डरना व्यर्थ है। एक यही क्रिया है जो आत्मा स्वयं नहीं करती फिर भी उसे इसका अनन्त बार का अनुभव है। दुनियां में हर परेशानी का समाधान है। डरो मत साहस-धैर्य धारण करो। पूर्व जन्मों के कर्मों का फल तो हर हालत में भोगना पड़ेगा, उसको टाल तो सकते हो, मगर उससे बच नहीं सकते।अभी इस परेशानी से निपट लोगे तो अगले जन्म में नहीं झेलनी पडेगी।सभी आपत्तियों, विपत्तियों, संकटों, दुखों, दर्द ,परेशानियों का हंस कर स्वागत करो; उन से डरो मत, मुकाबला करो।  पाप-बुराई  से बचो। दुनियां का हर संकट टल जायेगा। 
मृत्यु अटल है और शाश्वत सत्य है। 
अगले जन्म के साथ साथ इस जन्म को भी सुधारो । 
भक्त व भगवान एक दूसरे को याद करते हैं। परमात्मा भक्त से कभी विलग-अलग नहीं होता। अत: उस पर भरोसा करो। अच्छे धार्मिक सत्य कर्म करते हुए, उसे याद  करते रहो। तुम्हारा कल्याण अवश्य होगा।
जब कभी कोई व्यक्ति श्मशान में जाता है उसे जीवन की नीरसता याद आने लगती है उह भ्रम जाल लगता है, और वह कहता है, "अरे अन्त में यहीं तो आना है, फिर धोका, बेईमानी, झूँठ, लूट, चोरी, डकैती किस लिये !? परन्तु, जैसे ही श्मशान से बाहर निकलता है, वह सब कुछ भूलकर फिर से इन्हीं गोरख धंधों में लग जाता है। क्या यही जीवन है? क्या इसीलिए जीवन है ? मनुष्य जन्म अमोल है यह मानव मात्र की सेवा, अपना उद्धार सत कर्म, धर्म के लिए ही है। 
मृत्यु के पश्चात् अनुभव :: (1). अभी 14 मार्च 2014 को बुलंद शहर में एक स्त्री की मृत्यु हो गई। परन्तु कुछ घण्टों बाद वो फिर से जीवित हो गई। उसने बताया कि ऊपर जाने पर यह पर कहा गया ये किसे उठा लाये।? जिसे लाना था वो तो दूसरे मोह्हले में रहती है। भूल सुधार तो हो गया, परन्तु देखो गलती तो धर्म राज के यहाँ भी हो सकती है। 

(2). एक थे शादी बाबा। गाँव सलैमपुर, कस्बा ककोड़, जिला बुलंद शहर, उत्तर प्रदेश, भारत। वो मुसलमान थे। वो कब्र में दफनाने वक्त उठ बैठे। लोगों ने कहा भूत है भागो। उन्होंने मातम मनाने वालों को रोका और कहा कि देखो वो जो शादी पण्डित हैं, मरना तो उन्हें था, वो लोग भूल से मुझे उठा के ले गये। वहाँ जाकर देखा तो पता पड़ा कि मरना तो किसी और को था और मर कोई और गया। ख़ैर भूल सुधार तो हो गया। शादी बाबा उसके बाद 20 साल तक दिल्ली की जामा मस्जिद में हर जुम्मे को 70 मील का सफर, पैदल तय करके आते रहे। उन्हें अपने मरने-वापस जाने का मुकरर वक्त बता दिया गया था और वो उसी वक्त, दिन, तारीख पर गये। मजहब का झगड़ा यहाँ है, वहाँ नहीं। 
मृत्यु भय व्यर्थ है :- मृत्यु एक परम सत्य है। मृत्यु अटल है और शाश्वत सत्य है। अत: उनसे डरना व्यर्थ है। विचलित मत होओ। दुनियां में हर परेशानी का समाधान है। डरो मत, साहस-धैर्य धारण करो। पाप-बुराई  से बचो। अभी इस परेशानी से निपट लोगे तो, अगले जन्म में नहीं झेलनी पडेगी। अगले जन्म के साथ साथ इस जन्म को भी सुधारो। भक्त व भगवान एक दूसरे को याद करते हैं। परमात्मा भक्त से कभी विलग-अलग नहीं होता। अत: उस पर भरोसा करो। अच्छे धार्मिक सत्य कर्म करते हुए उसे याद  करते रहो। कल्याण अवश्य होगा।
व्यक्ति समस्त प्रकार की यातनाओं, यंत्रणाओं, रोगों, व्याधि, बीमारीओं, रोगों व  मृत्यु का अनुभव अनंत  पूर्वजन्मों में  भी कर चुका है।  एक यही क्रिया है जो आत्मा स्वयं नहीं करती फिर भी उसे इसका अनन्त बार का अनुभव है।दुनियाँ में हर परेशानी का समाधान है। डरो मत साहस-धैर्य धारण करो। पूर्व जन्मों के कर्मों का फल तो हर हालत में भोगना पड़ेगा, उसको टाल तो सकते हो, मगर उससे बच नहीं सकते। अभी इस परेशानी से निपट लोगे तो अगले जन्म में नहीं झेलनी पडेगी। सभी आपत्तियों, विपत्तियों, संकटों, दुखों, दर्द, परेशानियों का हंस कर स्वागत करो; उन से डरो मत, संघर्ष मुकाबला करो।  पाप-बुराई  से बचो। दुनियां का हर संकट टल जायेगा ।अगले जन्म के साथ साथ इस जन्म को भी सुधारो । 
भक्त व भगवान एक दूसरे को याद करते हैं। परमात्मा भक्त से कभी विलग-अलग नहीं होता। अत: उस पर भरोसा करो। अच्छे धार्मिक सत्य कर्म करते हुए, उसे याद  करते रहो। तुम्हारा कल्याण अवश्य होगा।
जब कभी कोई व्यक्ति श्मशान में जाता है उसे जीवन की नीरसता याद आने लगती है उह भ्रम जाल लगता है, और वह कहता है, "अरे अन्त में यहीं तो आना है, फिर धोका, बेईमानी, झूँठ, लूट, चोरी, डकैती किस लिये !? परन्तु, जैसे ही श्मशान से बाहर निकलता है, वह सब कुछ भूलकर फिर से इन्हीं गोरख धंधों में लग जाता है। क्या यही जीवन है? क्या इसीलिए जीवन है ? मनुष्य जन्म अमोल है यह मानव मात्र की सेवा, अपना उद्धार सत कर्म, धर्म के लिए ही है। 
अभी 14 मार्च 2014 को बुलंद शहर में एक स्त्री की मृत्यु हो गई। परन्तु कुछ घण्टों बाद वो फिर से जीवित हो गई। उसने बताया कि ऊपर जाने पर यह पर कहा गया ये किसे उठा लाये।? जिसे लाना था वो तो दूसरे मोह्हले में रहती है। भूल सुधार तो हो गया, परन्तु देखो गलती तो धर्म राज के यहाँ भी हो सकती है। 
DEATH मृत्यु :- शरीर में जब वात का वेग बढ़ जाता है तो उसकी प्रेरणा से ऊष्मा अर्थात पित्त का प्रकोप भी हो जाता है।  वह पित्त सारे शरीर को घेर कर सारे सम्पूर्ण देशों को आवर्त के लेता है और प्राणों के स्थान और मर्मों का उच्छेद कर डालता है। फिर शीत से वायु का प्रकोप होता है और वायु अपने निकलने का स्थान-छिद्र ढूढ़ने लगती है। 
दो नेत्र, दो कान, दो नासिका और एक मुँख: ये सात छिद्र हैं और आठवाँ ब्रह्मरन्ध्र है। शुभ कार्य करने वाले मनुष्यों के प्राण प्रायः इन्हीं पूर्व सात मार्गों से निकलते हैं। धर्मात्मा जीव को उत्तम मार्ग और यान द्वारा स्वर्ग भेजा जाता है। 
नीचे भी दो छिद्र हैं :- गुदा औए उपस्थ। पापियों के प्राण इन्हीं छिद्रों से निकलते है। 
योगी के प्राण मस्तक का भेदन करके ब्रह्मरन्ध्र से निकलते हैं और जीव इच्छानुसार अन्य लोकों में जाता है।
जीव को यमराज के दूत आतिवाहिक शरीर में पहुंचते हैं। यमलोक का मार्ग अति भयंकर और 86,000 योजन लम्बा है। यमराज के आदेश से चित्रगुप्त जीव को उसके पाप कर्मों के अनुरूप भयंकर नरकों में भेजते हैं।
 गरुड़ पुराण में बताया गया है कि यमलोक का रास्ता भयानक और पीड़ा देने वाला है। वहां एक नदी भी बहती है जोकि सौ योजन अर्थात एक सौ बीस किलोमीटर है। इस नदी में जल के स्थान पर रक्त और मवाद बहता है और इसके तट हड्डियों से भरे हैं। मगरमच्छ, सूई के समान मुखवाले भयानक कृमि, मछली और वज्र जैसी चोंच वाले गिद्धों का यह निवास स्थल है।
वैतरणी :: यम के दूत जब धरती से लाए गए व्यक्ति को इस नदी के समीप लाकर छोड़ देते हैं तो नदी में से जोर-जोर से गरजने की आवाज आने लगती है। नदी में प्रवाहित रक्त उफान मारने लगता है। पापी मनुष्य की जीवात्मा डर के मारे थर-थर कांपने लगती है। केवल एक नाव के द्वारा ही इस नदी को पार किया जा सकता है। उस नाव का नाविक एक प्रेत है। जो पिंड से बने शरीर में बसी आत्मा से प्रश्र करता है कि किस पुण्य के बल पर तुम नदी पार करोगे। जिस व्यक्ति ने अपने जीवनकाल में गौदान किया हो केवल वह व्यक्ति इस नदी को पार कर सकता है, अन्य लोगों को यमदूत नाक में काँटा फँसाकर आकाश मार्ग से नदी के ऊपर से खींचते हुए ले जाते हैं।
व्रत और उपवास का पालन करने से गोदान का फल प्राप्त होता है। दान वितरण है। इस नदी का नाम वैतरणी है। अत: दान कर जो पुण्य कमाया जाता है, उसके बल पर ही वैतरणी नदी को पार किया जा सकता है।
वैतरणी नदी की यात्रा को सुखद बनाने के लिए मृतक व्यक्ति के नाम वैतरणी गोदान का विशेष महत्व है। पद्धति तो यह है कि मृत्यु काल में गौमाता की पूँछ हाथ में पकड़ाई जाती है या स्पर्श करवाई जाती है। लेकिन ऐसा न होने की स्थिति में गाय का ध्यान करवा कर प्रार्थना इस प्रकार करवानी चाहिए।
वैतरणी गोदान मंत्र ::
धेनुके त्वं प्रतीक्षास्व यमद्वार महापथे। 
उतितीर्षुरहं भद्रे वैतरणयै नमौऽस्तुते॥
पिण्डदान कृत्वा यथा संभमं गोदान कुर्यात।[गरुड़ पुराण]
मृत्यु  के पश्चात :: मरने के 47 दिन बाद आत्मा  यमलोक में पहुँचती है। मृत्यु एक परम् सत्य है। मृत्यु के बाद आत्मा को कर्मों के अनुरूप गति-जन्म की प्रापि होती हैं। जो मनुष्य अच्छे कर्म करता है, वह स्वर्ग जाता है,जबकि जो मनुष्य जीवन भर बुरे कामों में लगा रहता है, उसे यमदूत नरक में ले जाते हैं। सबसे पहले जीवात्मा को यमलोक ले जाया जाता है। वहाँ यमराज उसके पापों के आधार पर उसे  अनुरूप लोक और योनि प्रदान करते हैं। 
जिस मनुष्य की मृत्यु होने वाली होती है, वह बोल नहीं पाता। अंत समय में उसमें दिव्य दृष्टि उत्पन्न होती है और वह संपूर्ण संसार को एकरूप समझने लगता है। उसकी सभी इंद्रियाँ नष्ट हो जाती हैं। वह जड़ अवस्था में आ जाता है, यानी हिलने-डुलने में असमर्थ हो जाता है। इसके बाद उसके मुँह से झाग निकलने लगता है और लार टपकने लगती है। पापी पुरुष के प्राण नीचे के मार्ग-गुदा से निकलते हैं।
मृत्यु के समय दो यमदूत आते हैं। वे बड़े भयानक, क्रोधयुक्त नेत्र वाले तथा पाशदंड धारण किए होते हैं। वे नग्न अवस्था में रहते हैं और दाँतों से कट-कट की ध्वनि करते हैं। यमदूतों के कौए जैसे काले बाल होते हैं। उनका मुँह टेढ़ा-मेढ़ा होता है। नाखून ही उनके शस्त्र होते हैं। यमराज के इन दूतों को देखकर प्राणी भयभीत होकर मलमूत्र त्याग करने लग जाता है। उस समय शरीर से अंगूष्ठमात्र (अंगूठे के बराबर) जीव हा-हा शब्द करता हुआ निकलता है।
यमराज के दूत जीवात्मा के गले में पाश बाँधकर यमलोक ले जाते हैं। उस पापी जीवात्मा को रास्ते में थकने पर भी यमराज के दूत भयभीत करते हैं और उसे नरक में मिलने वाली यातनाओं के बारे में बताते हैं। यमदूतों की ऐसी भयानक बातें सुनकर पापात्मा जोर-जोर से रोने लगती है, किंतु यमदूत उस पर बिल्कुल भी दया नहीं करते।
इसके बाद वह अंगूठे के बराबर शरीर यमदूतों से डरता और काँपता हुआ, कुत्तों के काटने से दु:खी अपने पापकर्मों को याद करते हुए चलता है। आग की तरह गर्म हवा तथा गर्म बालू पर वह जीव चल नहीं पाता है। वह भूख-प्यास से भी व्याकुल हो उठता है। तब यमदूत उसकी पीठ पर चाबुक मारते हुए उसे आगे ले जाते हैं। वह जीव जगह-जगह गिरता है और बेहोश हो जाता है। इस प्रकार यमदूत उस पापी को अंधकार मय मार्ग से यमलोक ले जाते हैं।
यमलोक 99 हजार योजन (योजन वैदिक काल की लंबाई मापने की इकाई है। एक योजन बराबर होता है, चार कोस यानी 13.16 कि.मी) दूर है। वहाँ पापी जीव को दो-तीन मुहूर्त में ले जाते हैं। इसके बाद यमदूत उसे भयानक यातना देते हैं। यह याताना भोगने के बाद यमराज की आज्ञा से यमदूत आकाशमार्ग से पुन: उसे उसके घर छोड़ आते हैं।
घर में आकर वह जीवात्मा अपने शरीर में पुन: प्रवेश करने की इच्छा रखती है, लेकिन यमदूत के पाश से वह मुक्त नहीं हो पातीऔर भूख-प्यास के कारण रोती है। पुत्र आदि जो पिंड और अंत समयमें दान करते हैं, उससे भी प्राणी की तृप्ति नहीं होती, क्योंकि पापी पुरुषों को दान, श्रद्धांजलि द्वारा तृप्ति नहीं मिलती। इस प्रकार भूख-प्यास से बेचैन होकर वह जीव यमलोक जाता है।
जिस पापात्मा के पुत्र आदि पिंडदान नहीं देते हैं तो वे प्रेत रूप हो जाती हैं और लंबे समय तक निर्जन वन में दु:खी होकर घूमती रहती है। काफी समय बीतने के बाद भी कर्म को भोगना ही पड़ता है, क्योंकि प्राणी नरक यातना भोगे बिना मनुष्य शरीर नहीं प्राप्त होता। मनुष्य की मृत्यु के बाद 10 दिन तक पिंडदान अवश्य करना चाहिए। उस पिंडदान के प्रतिदिन चार भाग हो जाते हैं। उसमें दो भाग तो पंचमहाभूत देह को पुष्टि देने वाले होते हैं, तीसरा भाग यमदूत का होता है तथा चौथा भाग प्रेत खाता है। नवें दिन पिंडदान करने से प्रेत का शरीर बनता है। दसवें दिन पिंडदान देने से उस शरीर को चलने की शक्ति प्राप्त होती है।
शव को जलाने के बाद पिंड से हाथ के बराबर का शरीर उत्पन्न होता है। वही यमलोक के मार्ग में शुभ-अशुभ फल भोगता है। पहले दिन पिंडदान से मूर्धा (सिर), दूसरे दिन गर्दन और कंधे, तीसरे दिन से हृदय, चौथे दिन के पिंड से पीठ, पाँचवें दिन से नाभि, छठे और सातवें दिन से कमर और नीचे का भाग, आठवें दिन से पैर, नवें और दसवें दिन से भूख-प्यास उत्पन्न होती है। यह पिंड शरीर को धारण कर भूख-प्यास से व्याकुल प्रेतरूप में ग्यारहवें और बारहवें दिन का भोजन करता है।
यमदूतों द्वारा तेरहवें दिन प्रेत को बंदर की तरह पकड़ लिया जाता है। इसके बाद वह प्रेत भूख-प्यास से तड़पता हुआ यमलोक अकेला ही जाता है। यमलोक तक पहुंचने का रास्ता वैतरणी नदी को छोड़कर छियासी हजार योजन है। उस मार्ग पर प्रेत प्रतिदिन दो सौ योजन चलता है। इस प्रकार 47 दिन लगातार चलकर वह यमलोक पहुँचता है। मार्ग में सोलह पुरियों को पार कर पापी जीव यमराज के घर जाता है।
इन सोलह पुरियों के नाम इस प्रकार है :- सौम्य, सौरिपुर, नगेंद्रभवन, गंधर्व, शैलागम, क्रौंच, क्रूरपुर, विचित्रभवन, बह्वापाद, दु:खद, नानाक्रंदपुर, सुतप्तभवन, रौद्र, पयोवर्षण,शीतढ्य, बहुभीति। इन सोलह पुरियों को पार करने के बाद यमराजपुरी आती है। पापी प्राणी यमपाश में बंधा मार्ग में हाहाकार करते हुए यमराज पुरी जाता है।[गरुड़ पुराण] 
मौत का आभास :: अगर किसी व्यक्ति को अचानक चंद्रमा और सूरज काले दिखाई देने लगे, सभी दिशाएँ घूमती दिखें तो उसकी मौत 6 माह में हो सकती है।
अगर किसी व्यक्ति को चंद्रमा या सूर्य के आसपास काला या लाल घेरा दिखाई देने लगे तो समझना चाहिये कि उसकी मौत 15 दिन के अंदर होगी।
अगर किसी व्यक्ति को रात में चंद्रमा या तारे ठीक से ना दिखाई दें, तब ऐसा माना जाता है कि उसकी मौत एक महीने के अंदर हो सकती है।
यदि किसी इंसान का बाँया हाथ लगातार फड़कता रहे, तालू सूख जाए तो उसकी मौत भी एक महीने में हो जाती है।
जिस व्यक्ति को अचानक नीली मक्खियां घेर लें तो ऐसा माना जाता है कि अब उसकी उम्र एक महीने ही बची है।
जब किसी इंसान को पानी, तेल, घी और शीशे में अपनी परछाई दिखाई ना दे तो उसकी मौत में 6 महीने का समय ही शेष होता है।
किसी इंसान का शरीर सफेद या पीला हो जाए और शरीर पर लाल निशान दिखाई देने लगें, तो उसकी मौत 6 महीने में हो सकती है।
यम गीता :: नचिकेता यम संवाद 
न देने योग्य गौ के दान से दाता का उलटे अमङ्गल होता है। इस विचार से सात्त्विक बुद्धि-सम्पन्न ऋषि कुमार नचिकेता अधीर हो उठे। उनके पिता वाज श्रवस वाज त्रवा के पुत्र उद्दालक ने विश्वजित् नामक महान् यज्ञ के अनुष्ठान में अपनी सारी सम्पत्ति दान कर दी, किंतु ऋषि-ऋत्विज् और सदस्यो की दक्षिणा में अच्छी-बुरी सभी गौएँ दी जा रही थीं। पिता के मङ्गल की रक्षा के लिये अपने अनिष्ट की आशंका होते हुए भी उन्होंने विनय पूर्वक कहा, "पिताजी! मैं भी आपका धन हूँ, मुझे किसे दे रहे हैं"- "तत कस्मै मां दास्यसीति"
उद्दालक ने कोई उत्तर नहीं दिया। नचिकेता ने पुनः वही प्रश्न किया, पर उद्दालक टाल गये।
"पिताजी! मुझे किसे दे रहे हैं"? नचिकेता द्वारा तीसरी बार पूछने पर उद्दालक को क्रोध आ गया। चिढ़कर उन्होंने कहा, "तुम्हें देता हूँ मृत्यु को   देता हूँ" :- "मृत्यवे त्वा ददामीति"
नचिकेता विचलित नहीं हुए। परिणाम के लिये वे पहले से ही प्रस्तुत थे। उन्होंने हाथ जोड़कर पिता से कहा, "पिताजी! शरीर नश्वर है, पर सदाचरण सर्वोपरि हैं। आप अपने वचन की रक्षा के लिये मुझे यम सदन जाने कीआज्ञा दें"।
ऋषि सहम गये, पर पुत्र की सत्य परायणता देखकर उसे यम पुरी जाने की आज्ञा उन्होंने दे दी। नचिकेता ने पिता के चरणों में सभक्ति प्रणाम किया और वे यमराज की पुरी के लिये प्रस्थान कर गए। यमराज काँप उठे। अतिथि ब्राह्मण का सत्कार न  करने के कुपरिणाम से वे पूर्णतया परिचित थे और ये तो अग्नि तुल्य तेजस्वी ऋषि कुमार थे, जो उनकी अनुपस्थिति उनके द्वार पर बिना अन्न-जल ग्रहण किये तीन रात विता चुके थे। यम जलपूरित स्वर्ण कलश अपने ही हाथों में लिये दौड़े। उन्होंने नचिकेता को सम्मान पूर्वक पाद्यार्यं देकर अत्यन्त विनयपूर्वक कहा, "आदरणीय ब्राह्मण  कुमार, पूज्य अतिथि होकर भी आपने मेरे द्वार पर तीन रात्रियाँ  उपवास में बिता दीं। यह मेरा अपराध है। आप प्रत्येक रात्रि के लिये एक-एक वर मुझ से माँग लें"।
"मृत्यो! मेरे पिता मेरे प्रति शान्त-संकल्प, प्रसन्न चित्त और क्रोध रहित हो जायँ तथा जब मैं आपके यहाँ से लौटकर घर जाऊँ, तब वे मुझे पहचान कर प्रेम पूर्वक बातचीत करें"। पितृ भक्त बालक ने प्रथम वर माँगा। "तथास्तु" यम-धर्म राज ने कहा।
"मृत्यो! स्वर्ग के साधन भूत अग्नि को आप भली-भाँति जानते हैं। उसे ही जानकर लोग स्वर्ग में अमृतत्व देवत्व को प्राप्त होते हैं, मैं उसे जानना चाहता हूँ। यह मेरी द्वितीय वर-याचना है"।
"अग्नि अनन्त स्वर्ग लोक की प्राप्ति का साधन है", यमराज अल्पायु तीक्ष्ण बुद्धि, वास्तविक जिज्ञासु के रूप नचिकेता को पाकर प्रसन्न थे। उन्होंने कहा, "यही अग्नि विराट् रूप से जगत् की  प्रतिष्ठा का मूल कारण है। इसे आप विद्वानों की बुद्धि रूप गुहा में स्थित समझिये"। उस अग्नि के लिये जैसी और जितनी ईंटें चाहिये, जिस प्रकार रखी जानी चाहिये तथा यज्ञस्थ ली निर्माण के लिये आवश्यक सामग्रियाँ और अग्नि चयन करने की विधि बतलाते हुए, अत्यन्त संतुष्ट होकर यम ने द्वितीय वर के रूप में कहा, "मैंने जिस अग्नि की बात आप से कहो, वह आपके ही नाम से प्रसिद्ध होगी और आप इस विचित्र रत्नों वाली माला को भी ग्रहण कीजिये"।
 "तृतीयं वरं नचिकेतो वृणीष्व"।[कठोपनिषद्  1.1.19] 
हे नचिकेता! अब तीसरा वर मांगिये। 
अग्नि को स्वर्ग का साधन अच्छी प्रकार बतलाकर यम ने कहा। 
"आप मृत्यु के देवता हैं" श्रद्धा-समन्वित नचिकेता ने कहा, "आत्मा का प्रत्यक्ष या अनुमान से निर्णय नहीं हो पाता। अतः मैं आपसे वही आत्म तत्व जानना चाहता हूँ कृपा पूर्वक बतला दीजिये"।
यम झिझ के। आत्मविद्या साधारण विद्या नहीं। उन्होंने नचिकेता को उस ज्ञान की दुरूहता बतलायी, पर उनको वे अपने निक्षय से नहीं डिगा सके। यम ने भुवन मोहन अस्त्र का उपयोग किया, सुर-दुर्लभ सुन्दरियों और दीर्घ काल स्थायिनी भोग-सामग्रियोंका प्रलोभन दिया, परन्तु ऋषि कुमार अपने तत्त्व-सम्बन्धी गूढ वर से विचलित नहीं हो सके। 
आप बड़े भाग्यवान् हैं। यम ने नचिकेता के वैराग्य की प्रशंसा की और वित्त मयी संसार गति की निन्दा करते हुए बतलाया कि विवेक-वैराग्य, सम्पन्न पुरुष ही ब्रह्म ज्ञान प्राप्ति के अधिकारी हैं। श्रेय-प्रेय और विद्या-अविद्या के विपरीत स्वरूप का यम ने पूरा वर्णन करते हुए कहा "आप श्रेय चाहते हैं तथा विद्या के अधिकारी हैं"।
भगवन्! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो सब प्रकार के व्यावहारिक विषयों से अतीत जिस परब्रह्म को आप द्वार पर आप देखते हैं, मुझे अवश्य बतलाने की कृपा कीजिये।
"परब्रह्म परमेश्वर परमात्मा चेतन है। वह न जन्मता है, न मरता है। न यह किसी से उत्पन्न हुआ है और न ही कोई दूसरा ही इससे उत्पन्न हुआ है"। नचिकेता की जिज्ञासा देखकर यम अत्यन्त प्रसन्न हो गये थे। उन्होंने आत्मा के स्वरूप को विस्तार पूर्वक समझाया, "वह अजन्मी है, नित्य है, शाश्वत है, सनातन है, शरीर के नाश होने पर भी बना रहता है। वह सूक्ष्म से सूक्ष्म और महान् से भी महान् है। वह समस्त अनित्य शरीरों में रहते हुए भी शरीर रहित है, समस्त अस्थिर पदार्थों में व्याप्त होते हुए भी सदा स्थिर है। वह कण-कण में व्याप्त है। सारा सृष्टि क्रम उसी के आदेश पर चलता है। अग्नि उसी के भय से जलता है, सूर्य उसी के भयसे तपता है तथा इन्द्र, वायु और पाँचवाँ मृत्यु उसी के भयसे दौड़ते हैं। जो पुरुष काल के गाल में जाने से पूर्व उसे जान लेते हैं, वे मुक्त हो जाते हैं तथा शोकादि क्लेशोंको पार करके परमानन्द को प्राप्त कर लेते हैं"
यम ने आगे कहा, "वह न तो वेद के प्रवचन से प्राप्त होता है, न विशाल बुद्धि से मिलता है और न केवल जन्म भर शास्त्रों के श्रवण से ही मिलता है"।  
"नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन"
[कठोपनिषद् 12.23]
"वह उन्हीं को प्राप्त होता है, जिनकी वासनाएँ शान्त हो चुकी हैं, कामनाएँ मिट गयी हैं और जिनके पवित्र अन्तःकरण को मलिनता की छाया भी स्पर्श नहीं कर पाती तथा जो उसे पाने के लिये अत्यन्त व्याकुल हो जाते हैं"।
आत्म ज्ञान प्राप्त कर लेनेके बाद उद्दालक-पुत्र कुमार नचिकेता लौटे तो उन्होंने देखा कि वृद्ध तपस्वियों का समुदाय भी उनके स्वागतार्थ खड़ा है। 
गरुड़-पुराण महात्म्य :: 
विद्या कीर्ति प्रभा लक्ष्मीजयारोग्यादिकारकम्।
यः पठेच्छृणुयद्रुद सर्ववित् स दिवं व्रजेत॥
भगवान् हरि ने कहा- हे रुद्र! यह गरुड़ महापुराण विद्या, यश, सौन्दर्य, लक्ष्मी, विजय और आरोग्यादिका कारक है। जो मनुष्य इसका पाठ करता है या सुनता है, वह सब कुछ जान लेता है और अन्त में उसको स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
यः पठेच्छृणुयाद्वापि श्रावयेद्वा समाहितः। 
संलिखेल्लेखयेद्वापि धारयेत् पुस्तकं ननु। 
धर्मार्थी प्राप्नुयाद्धर्ममर्थार्थी चार्थमाप्नुयात्॥
जो मनुष्य एकाग्रचित होकर इस महापुराण का पाठ करता है, सुनता है अथवा सुनाता है, जो इसको लिखता है, लिखाता है या पुस्तक के ही रूप में इसे अपने पास रखता है, वह यदि धर्मार्थी है, तो उसे धर्म की प्राप्ति होती है, यदि अर्थ का अभिलाषी है तो अर्थ प्राप्त होता है।
गारुडं यस्य हस्ते तु तस्य हस्तगतो नयः।
यः पठेच्छृणुयादेतद्भुक्तिं मुक्तिं समाप्नुयात्॥
जिस मनुष्य के हाथ में यह गरुड़ महापुराण विद्यमान है, उसके हाथ में ही नीतियों का कोष है। जो प्राणी इस पुराण का पाठ करता है या इसको सुनाता है, वह भोग और मोक्ष दोनों को प्राप्त कर लेता है। 
धर्मार्थ काममोक्षांश्च प्राप्नुयाच्छ्रवणादितः।
पुत्रार्थी लभते पुत्रान् कामार्थी काममाप्नुयात्॥
इस महापुराण को पढ़ने या सुनने से मनुष्य के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थों की सिद्धि हो जाती है। इस महापुराण का पाठ करके या इसको सुनकर के पुत्र चाहने वाला पुत्र प्राप्त करता है तथा कामना का इच्छुक अपनी कामना प्राप्ति में सफलता प्राप्त कर लेता है।
विद्यार्थी लभते विद्यां जयार्थी लभते जयम्।
ब्रह्महत्यादिना पापी पापशुद्धिमवाप्नुयात्॥
विद्यार्थी को विद्या, विजिगीषु को विजय, ब्रह्महत्यादि से युक्त पापी, पाप से विशुद्धि को प्राप्त करता है।
वन्ध्यापि लभते पुत्रं कन्या विन्दति सत्पतिम्। 
क्षेमार्थी लभते क्षेमं भोगार्थी भोगमाप्नुयात्॥
बन्ध्या स्त्री पुत्र, कन्या सज्जनपति, क्षेमार्थी क्षेम तथा भोग चाहने वाला भोग प्राप्त करता है।
मङ्गलार्थी मङ्गलानि गुणार्थी गुणमाप्नुयात्।
काव्यार्थी च कवित्वं च सारार्थी सारमाप्नुयात्
मंगल की कामना वाला व्यक्ति अपना मंगल, गुणों का इच्छुक व्यक्ति गुण, काव्य करने का अभिलाषी मनुष्य कवित्वशक्ति और जीवन का सारतत्व चाहने वाला व्यक्ति सारतत्व प्राप्त करता है।
ज्ञानार्थी लभते ज्ञानं सर्वसंसारमर्दनम्। 
इदं स्वस्त्ययनं धन्यं गारुडं गरुडेरितम्॥
ज्ञानार्थी सम्पूर्ण संसार का मर्दन करने वाला ज्ञान प्राप्त करता है "हे रुद्र!" पक्षि श्रेष्ठ गरुड़ के द्वारा कहा गया यह "गारुड़महापुराण" धन्य है। यह तो सबका कल्याण करने वाला है।
नाकाले मरणं तस्य श्लोकमेकं तु यः पठेत्। 
श्लोकार्धपठनादस्य दुष्टशत्रुक्षयो धुवम्॥
जो मनुष्य इस महापुराण के एक भी श्लोक का पाठ करता है उसकी अकाल मृत्यु नहीं होती। इसके मात्र आधे श्लोक का पाठ करने से निश्चित ही दुष्ट शत्रु का क्षय हो जाता है।
अतो हि गारुड़ मुख्यं पुराणं शास्त्रसम्मतम्। 
गारुडेन समं नास्ति विष्णुधर्मप्रदर्शने॥
इसलिए यह गरुड़पुराण मुख्य और शास्त्र सम्मत पुराण है। विष्णु धर्म के प्रदर्शन में गरुड़ पुराण के समान दूसरा कोई भी पुराण नहीं है।
यथा सुराणां प्रचरो जनार्दनो यथायुधानां प्रवरः सुदर्शनम्। 
तथा पुराणेषु च गारुडं च मुख्यं तदाहुर्हरितत्व दर्शनं॥
जैसे देवों में जनार्दन श्रेष्ठ है और आयुधों में सुर्दशन श्रेष्ठ है, वैसे ही पुराणों में यह गरुड़ पुराण हरि के तत्वनिरुपण में मुख्य कहा गया है।
पुराणं गारुडं पुण्यं पवित्रं पापनाशम्। 
श्रृण्वतां कामनापूर्ण श्रोतव्यं सर्वदैव हि
यश्चेदं श्रृणुयान्मर्त्यो यश्चापि परिकीर्तयेत्। 
विहाय यातानां घोरां धूतपापो दिवं व्रजेत्॥
यह गरुड़ महापुराण बड़ा ही पवित्र एवं पुण्यदायक है। यह सभी पापों का विनाशक एवं सुनने वालों की समस्त कामनाओं का पूरक है। इसका सदैव श्रवण करना चाहिए। जो मनुष्य इस महापुराण को सुनता या पाठ करता है, वह निष्पाप होकर यमराज की भंयकर यातनाओं को तोड़कर स्वर्ग को प्राप्त करता है।
नृणामकृतचूडानां विशुद्धिर्नैशिकी स्मृता। 
निर्वृत्तचूडकानां तु त्रिरात्रात्शुद्धिरिष्यते॥5.67॥
मुंडन के पूर्व बालक की मृत्यु होने से दवादों को एक अहोरात्र और मुंडन के बाद उपनयन के पूर्व मृत्यु होने से तीन रात तक अशौच होता है।[मनु स्मृति 5.67]  
If the infant expires before the tonsure ceremony his immediate relatives-brothers etc. have to abstain from worship, prayers, auspicious activities, new ventures for one complete day and night. If the death occurs after tonsure but before sacred thread ceremony-Janeu; it constitute impurity for three days.
All religious activities, auspicious functions, marriages etc. are suspended for 3 days.
ऊनद्विवार्षिकं प्रेतं निदध्युर्बान्धवा बहिः। 
अलङ्कृत्य शुचौ भूमावस्थिसञ्चयनाद्ते॥5.68॥
दो वर्ष उम्र का बालक मर जाये तो बन्धुगण उसे फूल मालाओं से सजाकर गॉंव के बाहर पवित्र भूमि में रख कर उसका अस्थि संचय न करें।[मनु स्मृति 5.68]  
If the child dies before acquiring the age of 2 years his dead body should be placed in the pious soil after decorating it with flowers, garlands. His bones should not be digged-excavated.
This place has to be maintained by the society so that no defalcation is allowed there and no garbage is dumped there. The body should be buried at such a depth that it can not be digged by jackals, foxes etc.
नास्य कार्योऽग्निसंस्कारो न च कार्यौदकक्रिया। 
अरण्ये काष्ठवत्त्यक्त्वा क्षपेयुस्त्र्यहमेव च॥
अग्नि संस्कार न करें और न ही इसकी उदक क्रिया ही करें। उसे जंगल में लकड़ी के तरह त्याग दें और तीन दिन तक अशौच रखें।[मनु स्मृति 5.69] 
Neither the dead body has to be cremated-burnt, nor rituals like bathing in sacred water have to be performed. The body should be rejected like dead wood i.e., one should not show any sort of affection to it. A three days mourning has to be observed during which period no sacred-auspicious ceremony, function, celebration has to take place.
उदक क्रिया :: किसी के करने, अग्नि संस्कार के बाद घाट पर नहाना; bathing in a reservoir or flowing water-river after cremation of dead body.
नात्रिवर्षस्य कर्तव्या बान्धवैरुदकक्रिया। 
जातदन्तस्य वा कुर्युर्नाम्नि वाऽपि कृते सति॥[मनु स्मृति 5.70]
तीन वर्ष से कम उम्र के बालक के मरने पर उसे जलाञ्जलि न दें। जिसके दाँत निकल आये हों और नामकरण हो गया हो, उसकी उदक क्रिया और अग्निसंस्कार करें।मनु स्मृति 5.70] 
In case the child dies before acquiring the age of 3 years he should not be offered rituals connected with pouring of water. The child whose teeth have grown up and whose naming ceremony has been conducted, should be cremated.
जलाञ्जलि :: अञ्जलि में जल लेकर सूर्य भगवान् आदि देवताओं को अर्पित करना; hollowed palms filled with water offered to ancestors-deceased, a method of offering homage to the deceased in front of the Sun on the banks of a river, pond.
अतिक्रान्ते दशाहे च त्रिरात्रमशुचिर्भवेत्। 
संवत्सरे व्यतीते तु स्पृष्ट्वैवापो विशुध्यति॥
दशाह बीत जाने पर मृत्यु वार्ता होने से त्रिरात्रि शौच होता है। बीत जाने पर स्नान करने से शुद्धि होती है।[मनु स्मृति 5.76]
After the expiry of three days, one has to practice purification for 3 days. Thereafter, purification takes place just by bathing. 
In India, one is supposed to take bath everyday in the morning. One who is involved in austerities has to bathe trice or thrice a day.
निर्दशं ज्ञातिमरणं  श्रुत्वा पुत्रस्य जन्म च। 
सवासा जलमाप्लुत्य शुद्धो भवति मानवः॥
दशाह के अनन्तर सपिण्ड दयाद का मरण या पुत्र जन्म का समाचार सुनकर मनुष्य उस समय शरीर में जो कपड़े हों, उनके सहित जल में स्नान कर लेने से शुद्ध हो जाता है।[मनु स्मृति 5.77] 
Bothers-kines, who gets the informative after 10 days of the death or the birth of a son become pure by bathing along with the cloths they are wearing.
बाले देशान्तरस्थे च पृथक्पिण्डे च संस्थिते। 
सवासा जलमाप्लुत्य सद्य एव विशुध्यति॥
असपिण्ड (समानोदक) बालक के देशान्तर में मारे जाने की वार्ता (समाचार सुनकर) तुरन्त वस्र सहित स्नान करने से शुद्ध होता है।[मनु स्मृति 5.78] 
The distant relative who learns about the death of the child abroad, becomes pure just by taking bath along with the cloths, he is wearing.
This is to ward off the ill effects of vibrations, waves, gloom, generated in the atmosphere-cosmos due to the death of someone close, near & dear, relative, friend etc.
अन्तर्दशाहे स्यातां चेत्पुनर्मरणजन्मनी। 
तावत्स्यादशुचिर्विप्रो यावत्तत्स्यादनिर्दशम्॥
दस दिन के भीतर यदि मरणा शौच में पुनः दूसरा मरण और जनना शौच में दूसरा जन्म (अन्य बच्चे का जन्म) हो जाये तो ब्राह्मण तब तक पूर्व के दशाहा शौच के पूरा होने तक अशुद्ध रहता है।[मनु स्मृति 5.79]
The Brahmn remains impure if second death or second birth occurs in the family, before the completion of the 10 days of mourning, until the first period of ten days has expired.
त्रिरात्रमाहुराशौचमाचार्ये संस्थिते सति। 
तस्य पुत्रे च पत्न्यां च दिवारात्रमिति स्थितिः॥
आचार्य के मरने पर तीन दिन अशौच कहा गया है; किन्तु उसके पुत्र या स्त्री की मृत्यु होने पर एक अहो रात्र (रात) अशौच होता है, ऐसी शास्त्र की आज्ञा है।[मनु स्मृति 5.80] 
The scriptures asks to observe mourning-condolences for three day if the teacher dies, while in case of the death of teacher's wife's or his son's death; condolence for a day and night has to be observed.
श्रोत्रिये तूपसंपन्ने त्रिरात्रमशुचिर्भवेत्। 
मातुले पक्षिणीं रात्रिं शिष्यर्त्विग्बान्धवेषु च॥
वेद शास्त्र का जानने वाला कोई पुरुष किसी के घर पर मर जाये तो उसको त्रिरात्रा शौच होता है। मामा, यज्ञ पुरोहित, बान्धव और शिष्य की मृत्यु होने पर पक्षिणी अर्थात दो दिन और एक रत का अशौच होता है।[मनु स्मृति 5.81]  
If an enlightened person who has the knowledge of the Veds & scriptures dies at one's place, he should observe mourning for three days & nights; while in the case of the death of his maternal uncle or the priest who performs families prayers-Yagy or brothers or the disciple, condolences for two days and one night should be held.
प्रेते राजनि सज्योतिर्यस्य स्याद्विषये स्थितः। 
अश्रोत्रिये त्वहः कृत्स्नमनूचाने तथा गुरौ॥
जिसके राज्य में ब्राह्मण निवास करते हों, उस राजा की मृत्यु होने की वार्ता दिन को मिले तो सूर्य दर्शन पर्यन्त और रात को मिले तो तारे जब तक दिखाई दें, तब तक, अशौच रहता है। वेद शास्त्र न जानने वाला दिन में जिसके घर पर मरे, उसे सारा दिन और रात में मरे, तो सारी रात अशौच होता है। साङ्ग वेदाभ्यासी गुरु के मरने पर भी ऐसे ही, एक दिन या रात अशौच जानना चाहिये।[मनु स्मृति 5.82]  
Impurity-in auspiciousness prevails till Sun set if one gets the news of the death of the king in whose regime the Brahmns live-flourish, during the day. If the news is received at night it prevails till the stars are seen in the sky. If a person who is unaware of Veds or scriptures dies at one's place, he has to abstain from auspicious acts throughout the day. If such a person dies at night then inauspiciousness will prevail the whole night. Like wise, if the death of a Guru, learned, enlightened teacher, who is well versed with the scriptures occurs, one should abstain from all auspicious acts for the whole day or the whole night.
शुद्ध्येद्विप्रो दशाहेन द्वादशाहेन भूमिपः। 
वैश्यः पञ्चदशाहेन शूद्रो मासेन शुध्यति॥
सपिण्ड के मरण या जन्म में ब्राह्मण दस दिन में, क्षत्रिय 12 दिन में, वैश्य 15 दिन में और शूद्र एक मॉस में शुद्ध होता है।[मनु स्मृति 5.83] 
If the death or birth of of a sibling takes place in the family, Brahmn will attain purity in 10 days, Kshtriy will get it in 12 days, the Vaeshy will have it in 15 days and the Shudr will get it in one month.
As a matter of rule one should abstain from auspicious acts during this period. The impact of the death remains in the environment during the period described here in the form of vibrations-gloom.
न वर्धयेदघाहानि प्रत्यूहेन्नाग्निषु क्रियाः। 
न च तत्कर्म कुर्वाणः सनाभ्योऽप्यशुचिर्भवेत्॥
अशौच के दिन बढ़ाने नहीं चाहिये और ना ही अग्निहोत्र की क्रिया में बाधा डालनी चाहिये। उस कर्म को करता हुआ भी सपिण्ड अपवित्र नहीं होता।[मनु स्मृति 5.84]  
One should not enhance-increase the period of the observance of mourning-condolences. The holy sacrifices in fire should prevail as usual immediate after the period of mourning is over. The sibling too do not face the ill effects of such measures i.e., Agnihotr, Hawan, Prayers.
If one is unable to hold Agnihotr-Hawan every day, he may opt for incense sticks, Dhoop Batti (धूप बत्ती, Pastille), a wick lamp by using pure deshi ghee, mustard oil, til oil etc.
दिवाकीर्तिमुदक्यां च पतितं सूतिकां तथा। 
शवं तत्स्पृष्टिनं चैव स्पृष्ट्वा स्नानेन शुध्यति॥5.85॥
चाण्डाल, रजस्वला, पतित, प्रसूति का, शव और शव के स्पर्शकर्ता को छूकर स्नान करने से शुद्धि होती है। 
One becomes clean by taking a bath after touching a Chandal (the Shudr, who helps in cremation in the cremation ground, (a menstruating woman, an outcast, a woman who has given birth to a child, a corpse (dead body) or one who has touched a corpse.
मायामात्रमिदं विश्वं पश्यन् विगतकौतुकः।
अपि सन्निहिते मृत्यौ कथं त्रस्यति धीरधीः॥
समस्त जिज्ञासाओं से रहित, इस विश्व को माया में कल्पित देखने वाले, स्थिर प्रज्ञा वाले व्यक्ति को आसन्न मृत्यु भी कैसे भयभीत कर सकती है।[अष्टावक्र गीता 3.11]
One, who is free from curiosity, perceive this world as perishable, imaginary, artificial, illusory and is blessed with enlightenment, resolute intelligence (wisdom, understanding), can’t be made to fear death.
मृत्यु के 14 प्रकार :: राम-रावण युद्ध चल रहा था, तब अंगद ने रावण से कहा- तू तो मरा हुआ है, मरे हुए को मारने से क्या फायदा!?
रावण बोला :- मैं जीवित हूँ, मरा हुआ कैसे?
अंगद बोले :- सिर्फ साँस लेने वालों को जीवित नहीं कहते। साँस तो लुहार की धौंकनी भी लेती है!
तब अंगद ने मृत्यु के निम्न 14 प्रकार बताए :-
कौल कामबस कृपिन विमूढ़ा। अतिदरिद्र अजसि अतिबूढ़ा॥
सदारोगबस संतत क्रोधी। विष्णु विमुख श्रुति संत विरोधी॥
तनुपोषक निंदक अघखानी। जीवत शव सम चौदह प्रानी॥
(1). कामवश :- जो व्यक्ति अत्यंत भोगी हो, कामवासना में लिप्त रहता हो, जो संसार के भोगों में उलझा हुआ हो, वह मृत समान है। जिसके मन की इच्छाएं कभी खत्म नहीं होतीं और जो प्राणी सिर्फ अपनी इच्छाओं के अधीन होकर ही जीता है, वह मृत समान है। वह अध्यात्म का सेवन नहीं करता है, सदैव वासना में लीन रहता है।
(2). वाममार्गी :- जो व्यक्ति पूरी दुनिया से उल्टा चले, जो संसार की हर बात के पीछे नकारात्मकता खोजता हो, नियमों, परंपराओं और लोक व्यवहार के खिलाफ चलता हो, वह वाम मार्गी कहलाता है। ऐसे काम करने वाले लोग मृत समान माने गए हैं।
(3). कंजूस :- अति कृपण-कंजूस व्यक्ति भी मरा हुआ होता है। जो व्यक्ति धर्म कार्य करने में, आर्थिक रूप से किसी कल्याणकारी कार्य में हिस्सा लेने में हिचकता हो, दान करने से बचता हो, ऐसा आदमी भी मृतक समान ही है।
(4). अति दरिद्र :- गरीबी सबसे बड़ा अभिश्राप है। जो व्यक्ति धन, आत्म-विश्वास, सम्मान और साहस से हीन हो, वह भी मृत ही है। अत्यंत दरिद्र भी मरा हुआ है। गरीब आदमी को दुत्कारना नहीं चाहिए, क्योंकि वह पहले ही मरा हुआ होता है। दरिद्र-नारायण मानकर उनकी मदद करनी चाहिए।
(5). विमूढ़ :- अत्यंत मूढ़ यानी मूर्ख व्यक्ति भी मरा हुआ ही होता है। जिसके पास बुद्धि-विवेक न हो, जो खुद निर्णय न ले सके, यानि हर काम को समझने या निर्णय लेने में किसी अन्य पर आश्रित हो, ऐसा व्यक्ति भी जीवित होते हुए मृतक समान ही है, मूढ़ अध्यात्म को नहीं समझता।
(6). अजसि :- जिस व्यक्ति को संसार में बदनामी मिली हुई है, वह भी मरा हुआ है। जो घर-परिवार, कुटुंब-समाज, नगर-राष्ट्र, किसी भी ईकाई में सम्मान-इज्ज़त नहीं पाता, वह व्यक्ति भी मृत समान ही होता है।
(7). सदा रोगवश :- जो व्यक्ति निरंतर रोगी रहता है, वह भी मरा हुआ है। स्वस्थ शरीर के अभाव में मन विचलित रहता है। नकारात्मकता हावी हो जाती है। व्यक्ति मृत्यु की कामना में लग जाता है। जीवित होते हुए भी रोगी व्यक्ति जीवन के आनंद से वंचित रह जाता है।
(8). अति बूढ़ा-वयवृद्ध  :- अत्यंत वृद्ध व्यक्ति भी मृत समान होता है, क्योंकि वह अन्य लोगों पर आश्रित हो जाता है। शरीर और बुद्धि, दोनों अक्षम हो जाते हैं। ऐसे में कई बार वह स्वयं और उसके परिजन ही उसकी मृत्यु की कामना करने लगते हैं, ताकि उसे इन कष्टों से मुक्ति मिल सके।
(9). सतत क्रोधी :- 24  घंटे क्रोध में रहने वाला व्यक्ति भी मृतक समान ही है। ऐसा व्यक्ति हर छोटी-बड़ी बात पर क्रोध करता है। क्रोध के कारण मन और बुद्धि दोनों ही उसके नियंत्रण से बाहर होते हैं। जिस व्यक्ति का अपने मन और बुद्धि पर नियंत्रण न हो, वह जीवित होकर भी जीवित नहीं माना जाता। पूर्व जन्म के संस्कार लेकर यह जीव क्रोधी होता है। क्रोधी अनेक जीवों का घात करता है और नरकगामी होता है।
(10). अघ खानी :- जो व्यक्ति पाप कर्मों से अर्जित धन से अपना और परिवार का पालन-पोषण करता है, वह व्यक्ति भी मृत समान ही है। उसके साथ रहने वाले लोग भी उसी के समान हो जाते हैं। हमेशा मेहनत और ईमानदारी से कमाई करके ही धन प्राप्त करना चाहिए। पाप की कमाई पाप में ही जाती है और पाप की कमाई से नीच गोत्र, निगोद की प्राप्ति होती है।
(11). तनु पोषक :- ऐसा व्यक्ति जो पूरी तरह से आत्म संतुष्टि और खुद के स्वार्थों के लिए ही जीता है, संसार के किसी अन्य प्राणी के लिए उसके मन में कोई संवेदना न हो, ऐसा व्यक्ति भी मृतक समान ही है। जो लोग खाने-पीने में, वाहनों में स्थान के लिए, हर बात में सिर्फ यही सोचते हैं कि सारी चीजें पहले हमें ही मिल जाएं, बाकी किसी अन्य को मिलें न मिलें, वे मृत समान होते हैं। ऐसे लोग समाज और राष्ट्र के लिए अनुपयोगी होते हैं। शरीर को अपना मानकर उसमें रत रहना मूर्खता है, क्योंकि यह शरीर विनाशी है, नष्ट होने वाला है।
(12). निंदक :- अकारण निंदा करने वाला व्यक्ति भी मरा हुआ होता है। जिसे दूसरों में सिर्फ कमियाँ ही नजर आती हैं, जो व्यक्ति किसी के अच्छे काम की भी आलोचना करने से नहीं चूकता है, ऐसा व्यक्ति जो किसी के पास भी बैठे, तो सिर्फ किसी न किसी की बुराई ही करे, वह व्यक्ति भी मृत समान होता है। परनिंदा करने से नीच गोत्र का बंध होता है।
(13). परमात्म विमुख ATHIEST :- जो व्यक्ति ईश्वर यानि परमात्मा का विरोधी है, वह भी मृत समान है। जो व्यक्ति यह सोच लेता है कि कोई परमतत्व है ही नहीं; हम जो करते हैं, वही होता है, संसार हम ही चला रहे हैं, जो परमशक्ति में आस्था नहीं रखता, ऐसा व्यक्ति भी मृत माना जाता है।
(14). श्रुति संत विरोधी :- जो संत, ग्रंथ, पुराणों का विरोधी है, वह भी मृत समान है। श्रुत और संत, समाज में अनाचार पर नियंत्रण-अवरोध का काम करते हैं। 
काल: पचती भूतानि काल: संहरते प्रजा:।
काल: सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रम:॥
काल निपुणता प्रदान करता है और सभी जीवों का संहार भी करता है। जब सभी सो जाते हैं, वह जागता रहता है। काल को कोई जीत नहीं सकता।[चाणक्य नीति 6.7] 
Time perfects all living beings as well as kills them. Its alone is awake when all others are asleep. Time is insurmountable. Time never waits for any one. It keep on moving ahead, since evolution to the dooms day. Who so ever is born, has to go one day or the other. This is a never ending phenomenon. While one keep sleeping the time remain awake.
Time once lost, never comes back. So never waste it and make judicious, proper-virtuous use of it.
Time is synonym to death as well. All efforts, blessings, medicines fails, once the time of death approaches.
Time once gone, never comes back. So, do not waste time and put it to judicious, best, virtuous use.
Bhagwan Shiv is Maha Kal, Nandishwar is Dharm, Yam Raj-Dharm Raj is the deity-regulator of birth and death i.e., Kal. 
Par Brahm Parmeshwar Bhagwan Shri Krashn is Akshy Kal, Bhagwan Sada Shiv is Maha Kal, Dharm Raj is Kal.

Please refer to :: (1). THE DEITY OF DEATH धर्मराज यमराज santoshsuvichar.blogspot.com
(2). DEATH मृत्यु एक परम सत्य santoshsuvichar.blogspot.com
(3). REINCARNATION-REBIRTH पुनर्जन्म santoshsuvichar.blogspot.com
(4). HEAVEN & HELL, SIN & VIRTUE स्वर्ग और नरक, पुण्य व पाप santoshsuvichar.blogspot.com  
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)