Sunday, February 12, 2017

XXX मधुपर्क-पञ्चगव्य कथा :: SHRADDH-HOMAGE TO MANES (5) तर्पण-श्राद्ध

मधुपर्क-पञ्चगव्य कथा
SHRADDH-HOMAGE TO MANES (5) तर्पण-श्राद्ध

CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj

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श्राद्ध कर्म में यह व्यवस्था है कि वेदपाठी ब्राह्मणों को जो कभी मृतक संबंधी भोज नहीं करते, को श्राद्धों में भोजनार्थ न बुलाया जाए। उन्हें वैश्व देव निमित्तिक भाग ही देना चाहिए। यदि श्राद्ध में कोई दोष रह जाए तो उसका विधि पूर्वक प्रायश्चित करना भी आवश्यक है।
श्राद्ध करने की विधि :: श्राद्धकर्ता बाल तथा नाखुन कटवाकर तेल लगाने के बाद स्नान करें और शुद्ध हो। तत्पश्चात ब्राह्मण को मंडल में लाकर पाद्य, अर्ध्य, धूप, दीप, तिल तथा माला आदि से उसका पूजन करें। श्राद्ध कर्म संपन्न होने पर ब्राह्मण को भोजन कराए। इस बात का ध्यान रखें कि सपात्रक श्राद्ध में पितरों को लक्ष्य कर संकल्प नहीं कराया जाता। ब्राह्मणों के संतुष्ट होने पर स्वस्तिवाचन करे। इस स्वस्ति वाचन से मन शुद्ध होता है। श्राद्ध में तीन पिंड दिए जाते हैं, उन्हें उठाने से पूर्व पृथ्वी को तीन बार वैष्णवी, काश्पयी और अक्षया नाम से प्रणाम करें। तब प्रथम पिंड स्वयं खाए, दूसरा पत्नी को दे और तीसरा जल में डाल दे। इस प्रकार किया गया श्राद्ध या पितृयज्ञ पूर्णतः सफल होता है। उससे पितरों की तृप्ति और श्राद्धकर्ता की समृद्धि होती है। श्राद्ध के अंत में शांति पाठ से शुभ मंगल की प्राप्ति होती है।
यह सुनकर भगवान से भगवती पृथ्वी ने पूछा कि मधुपर्क किस मात्रा में और किस रूप में लेना चाहिए और उसके बनाने की विधि क्या है। वसुंधरा की बात सुनकर भगवान वराह ने कहा कि मधुपर्क मेरा ही अंश है। तुम जानती हो कि दक्षिण अंग से ही सृष्टि के समय इसकी उत्पत्ति हुई। यह विश्व कल्याण का स्वयं रूप है। इसके बनाने की विधि बहुत सरल है कि समान मात्रा में शहद, दही और घी मिलाकर पवित्र मंत्रों का उच्चारण किया जाए। यह सुनकर पृथ्वी ने फिर पूछा तो उसके पान की विधि बताते हुए भगवान वराह ने कहा कि जब मधुपर्क लिया जाए तो भक्त को कहना चाहिए हे भगवन! आपके द्वारा जगत की सृष्टि होती है। आप देवादि कर्म और यज्ञ के साक्षी हैं। हे प्रभा! आप मुझे आवागमन के चक्र से मुक्ति प्रदान करें। मुझे शांति दें। इसके उपरांत वह मुझे समर्पित करना चाहिए। मधुपर्क समर्पण करते समय ‘ओम नमो नारायणाय’ मंत्र के साथ प्रार्थना करनी चाहिए हे देवाधिदेव! देव स्रष्टा, सर्वव्यापी भगवन! आप सर्व सुपूजित हैं। भवसागर से मेरा तारण करने के लिए आप इन मधुपर्कयुक्त पात्रों में विराजमान हों। दधि, घृत, मधु आदि से बना यह मधुपर्क आपको समर्पित है। इस प्रकार भावमय स्तवन से मैं प्रसन्न होता हूं। कभी-कभी यदि कुछ नहीं मिले तो हाथ में जल लेकर ही मधुपर्क समझा जा सकता है। यदि मरणासन्न व्यक्ति को मधुपर्क दिया जाता है तो उसे शांति मिलती है। इस विषय में मैं एक प्रसंग सुनाता हूं। प्राचीन समय की बात है, एक बार राजा जनमेजय अश्वमेघ यज्ञ कर रहे थे। उस समय वैशाम्पायन उनसे मिल ने आए किंतु राजा यज्ञ में दीक्षित थे। इसलिए मुनि उनसे नहीं मिल पाए और यज्ञ की समाप्ति तक प्रतीक्षा करनी पड़ी। उधर, जब यज्ञ समाप्त हुआ तो जनमेजय को पता चला कि इस प्रकार ऋषि वैशम्पायन आए हुए हैं और प्रतीक्षा करने के लिए उन्होंने पास में ही एक आश्रम बनाकर निवास प्रारंभ कर दिया है। राजा को बहुत मानसिक कष्ट हुआ कि उनके कारण ऋषि को प्रतीक्षा करनी पड़ी और उन्होंने यह भी सोचा कि यह तो मुनि का अपमान हुआ है। उन्हें इस बात की भी चिंता हुई कि मुनि न जाने कैसा शाप दे बैठें। इस तरह चिंता से व्याकुल राजा जनमेजय स्वयं मुनि के सामने उपस्थित हुए। उन्होंने पहले तो उनका सम्मान किया और फिर उनसे क्षमा मांगी। राजा के मन में मुनि के शाप का भय बराबर विद्यमान रहा। उन्होंने कहा कि हे प्रभो! आप मुझे यमलोक की यंत्रणा से बचने का उपाय बताइए। मैं यमपुरी का रूप भी जानना चाहता हूं।[श्री वराह पुराण]

Thursday, February 9, 2017

XXX SHRADDH श्राद्ध :: SHRADDH-HOMAGE TO MANES (4) श्राद्ध कर्म

 SHRADDH श्राद्ध
SHRADDH-HOMAGE TO MANES (4) श्राद्ध कर्म
 CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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यज्ञ :: शसगरों में प्रत्येक गृहस्थ के लिये निम्न पाँच यज्ञों को नित्य करने का निर्देश है। 
ब्रह्म यज्ञ :- प्रतिदिन अध्ययन और अध्यापन करना ही ब्रह्म-यज्ञ है।
देव यज्ञ :- देवताओं की प्रसन्नता हेतु पूजन-हवन आदि करना।
पितृ यज्ञ :- श्राद्ध और 'तर्पण' करना ही पितृ यज्ञ है।
भूत यज्ञ :- बलि और वैश्व देव की प्रसन्नता हेतु जो पूजा की जाती है, उसे भूत यज्ञ कहते हैं।
मनुष्य यज्ञ :- इसके अन्तर्गत अतिथि सत्कार आता है।
श्राद्ध करने की योग्यता :: जो कोई व्यक्ति मृतक की सम्पत्ति ले लेता है, उसे उसके लिए श्राद्ध करना चाहिए अथवा जो भी कोई श्राद्ध करने की योग्यता रखता है अथवा श्राद्ध का अधिकारी है, वह मृतक की सम्पत्ति ग्रहण कर सकता है।[विष्णु धर्मोत्तर]
इन्द्र ने सम्राट मान्धाता से कहा कि अनार्य-दस्यु यवन, किरात आदि अनार्य-दस्यु पितृ यज्ञ कर सकते हैं और ब्राह्मणों को धन भी दे सकते हैं।[शान्ति पर्व]
म्लेच्छों को पितरों के लिए श्राद्ध करना चाहिये है। [वायु पुराण]
पुत्रहीन पत्नी को (मरने पर) पति द्वारा पिण्ड नहीं दिया जाना चाहिए, पिता द्वारा पुत्र को तथा बड़े भाई के द्वारा छोटे भाई को भी पिण्ड नहीं दिया जाना चाहिए। निमि ने अपने मृत पुत्र का श्राद्ध किया था, किन्तु उन्होंने आगे चलकर पश्चाताप किया, क्योंकि वह कार्य धर्मसंकट था।[गोभिलस्मृति]
पिता को पुत्र का एवं बड़े भाई को छोटे भाई का श्राद्ध नहीं करना चाहिए। [अपरार्क]
कभी-कभी यह सामान्य नियम भी नहीं माना जा सकता। [बृहत्पराशर]
स्नेहवश किसी के लिए भी श्राद्ध करने की, विशेषत: गया, में अनुमति दी है। ऐसा कहा गया है कि केवल वही पुत्र कहलाने योग्य है, जो पिता की जीवितावस्था में उसके वचनों का पालन करता है, प्रति वर्ष (पिता की मृत्यु के उपरान्त) पर्याप्त भोजन, (ब्राह्मणों) को देता है और जो गया में (पूर्वजों) को पिण्ड देता है।[बौधायन एवं वृद्धशातातप]
उपनयन विहीन बच्चा शूद्र के समान है और वह वैदिक मंत्रों का उच्चारण नहीं कर सकता, परन्तु अन्त्येष्टि कर्म से सम्बन्धित वैदिक मंत्रों का उच्चारण कर सकता है। अल्पवयस्क पुत्र भी, यद्यपि अभी वह उपनयन विहीन होने के कारण वेदाध्ययन रहित है, अपने पिता को जल तर्पण कर सकता है, नव श्राद्ध कर सकता है और 'शुन्धन्तां पितर:' जैसे मंत्रों का उच्चारण कर सकता है, किन्तु श्रौताग्नियों या गृह्यग्नियों के अभाव में वह पार्वण जैसे श्राद्ध नहीं कर सकता।[मेधातिथि]
अनुपनीत-जिनका अभी उपनयन संस्कार नहीं हुआ है, बच्चों, स्त्रियों तथा शूद्रों को पुरोहित द्वारा श्राद्धकर्म कराना चाहिए या वे स्वयं भी बिना मंत्रों के श्राद्ध कर सकते हैं; किन्तु वे केवल मृत के नाम एवं गोत्र या दो मंत्रों, यथा :– देवेभ्यो नम: एवं पितृभ्य: स्वधा नम: का उच्चारण कर सकते हैं। पुरुषों, स्त्रियों एवं उपनीत तथा अनुपनीत बच्चों को भी श्राद्ध करना चाहिये।[स्मृत्यर्थसार] 
प्रपौत्र द्वारा श्राद्ध :: पिता, पितामह एवं प्रपितामह तीन स्व-सम्बन्धी पूर्व पुरुषों का श्राद्ध किया जाता है।[तैत्तिरीय संहिता एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण]  
सात प्रकार के व्यक्ति एक-दूसरे से अति सम्बन्धित हैं और वे अविभक्तदाय सपिण्ड कहे जाते हैं :– प्रपितामह, पिता, स्वयं व्यक्ति-जो अपने से पूर्व से तीन को पिण्ड देता है, उसके सहोदर भाई, उसका पुत्र-उसी की जाति वाली पत्नी से उत्पन्न, पौत्र एवं प्रपौत्र। सकुल्य वे हैं जो विभक्तदायाद हैं, मृत की सम्पत्ति उसे मिलती है, जो मृत के शरीर से उत्पन्न हुआ है।[बौधायन धर्मसूत्र]
पुत्र के जन्म से व्यक्ति उच्च लोकों-स्वर्ग आदि की प्राप्ति करता है, पौत्र से अमरता प्राप्त करता है और प्रपौत्र से वह सूर्य लोक पहुँच जाता है। व्यक्ति के तीन वंशज समान रूप से व्यक्ति को आध्यात्मिक लाभ पहुँचाते हैं।[मनु] 
आह्विक यज्ञ :: वह आह्विक यज्ञ जिसमें पितरों को स्वधा (भोजन) एवं जल दिया जाता है, पितृयज्ञ कहलाता है [शतपथ ब्राह्मण एवं तैत्तिरीय आरण्यक] 
पितृयज्ञ को तर्पण-जल से पूर्वजों की संतुष्टि, करना कहा है। [मनु]
प्रत्येक गृहस्थ को प्रतिदिन भोजन या जल या दूध, मूल एवं फल के साथ श्राद्ध करना चाहिए और पितरों को संतोष देना चाहिए। प्रारम्भिक रूप में श्राद्ध पितरों के लिए अमावस्या के दिन किया जाता था। अमावस्या दो प्रकार की होती है; विनोवाली एवं कुहू। आहिताग्नि (अग्निहोत्री) सिनीवाली में श्राद्ध करते हैं तथा इनसे भिन्न एवं शूद्र लोग कुहू अमावस्या में श्राद्ध करते हैं।[मनु] 
श्राद्ध की कोटियाँ :: श्राद्ध (या सभी कृत्य) तीन कोटियों में विभाजित किये गये हैं; नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य।
नित्य श्राद्ध :: वह किसी निश्चित अवसर पर किया जाए यथा–आह्विक, अमावास्या के दिन वाला या अष्टका के दिन वाला।
नित्य कर्म यथा :- अग्निहोत्र, दर्श पूर्णमास याग, अवश्य करने चाहिए, भले ही कर्ता उनके कुछ उपकृत्यों को करने में असमर्थ हो। काम्य कृत्यों के सभी भाग सम्पादित होने चाहिए और यदि कर्ता सोचता है कि वह सबका सम्पादन करने में असमर्थ है तो उसे काम्य कृत्य करने ही नहीं चाहिए।[जैमिनिय] 
पंचमहायज्ञ कृत्य, जिनमें पितृयज्ञ भी सम्मिलित है, नित्य कहे जाते हैं अर्थात् उन्हें बिना किसी फल की आशा के करना चाहिए, उनके न करने से पाप लगता है। नित्य कर्मों को करने से प्राप्त फल की जो चर्चा धर्मशास्त्रों में मिलती है, वह केवल प्रशंसा मात्र ही है। उससे केवल यही व्यक्त होता है कि कर्मों के सम्पादन से व्यक्ति पवित्र हो जाता है। किन्तु ऐसा नहीं है कि वे अपरिहार्य नहीं है और उनका सम्पादन तभी होता है, जब व्यक्ति किसी विशिष्ट फल की आशा रखता है अर्थात् इन कर्मों का सम्पादन काम्य अथवा इच्छाजनित नहीं है।
श्राद्ध का सम्पादन प्रत्येक मास के अन्तिम पक्ष में होना चाहिए, दोपहर को श्रेष्ठता मिलनी चाहिए और पक्ष के आरम्भिक दिनों की अपेक्षा अन्तिम दिनों को अधिक महत्त्व देना चाहिए। [आपस्तम्ब धर्मसूत्र]
श्राद्ध प्रत्येक मास के कृष्ण पक्ष में चतुर्थी को छोड़कर किसी भी दिन किया जा सकता है। [गौतम एवं वसिष्ठ]
यदि विशिष्ट रूप में उचित सामग्रियों या पवित्र ब्राह्मण उपलब्ध हो या कर्ता किसी पवित्र स्थान (यथा–गया) में हो तो श्राद्ध किसी भी दिन किया जा सकता है। [गौतम, कूर्म पुराण]
गया में किसी भी दिन श्राद्ध किया जा सकता है। [अग्नि पुराण]
नैमित्तिक श्राद्ध :: जो ऐसे अवसर पर किया जाए जो कि अनिश्चित सा हो, यथा :– पुत्रोत्पत्ति आदि पर, उसे  कहा जाता है।
काम्य श्राद्ध :: जो किसी विशिष्ट फल के लिए किया जाए यथा :– स्वर्ग, संतति आदि की प्राप्ति के लिए। कृत्तिका या रोहिणी पर किया गया श्राद्ध।
विष्णु धर्मसूत्र द्वारा वर्णित दिनों में किये जाने वाले श्राद्ध नैमित्तिक हैं और जो विशिष्ट तिथियों एवं सप्ताह के दिनों में कुछ निश्चित इच्छाओं की पूर्ति के लिए किये जाते हैं, वे काम्य श्राद्ध कहे जाते हैं। 
परा. मा. के मत से नित्य कर्मों का सम्पादन संस्कारक जो कि मन को पवित्र बना दे और उसे शुभ कर्मों की ओर प्रेरित करे, कहा जाता है। किन्तु कुछ परिस्थितियों में यह अप्रत्यक्ष अन्तर्हित रहस्य-परम तत्त्व की जानकारी की अभिकांक्षा भी उत्पन्न करता है।
श्राद्ध फल :: संक्रान्ति पर किया गया श्राद्ध अनन्त काल तक के लिए स्थायी होता है। जन्म के दिन एवं कतिपय नक्षत्रों में श्राद्ध करना चाहिए। कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि से अमावस्या तक किये गये श्राद्धों के फलों का उल्लेख आपस्तम्ब धर्मसूत्र, अनुशासन पर्व, वायु पुराण, याज्ञवल्क्य, ब्रह्म पुराण, विष्णु धर्मसूत्र, कूर्म पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण में किया गया है।
रविवार को श्राद्ध करने वाला रोगों से सदा के लिए छुटकारा पा जाता है और वे जो सोम, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र एवं शनि को श्राद्ध करते हैं, क्रम से सौख्य (या प्रशंसा), युद्ध में विजय, सभी इच्छाओं की पूर्ति, अभीष्ट ज्ञान, धन एवं लम्बी आयु प्राप्त करते हैं। [विष्णु धर्मसूत्र]
कूर्म पुराण में सप्ताह के कतिपय दिनों में सम्पादित श्रोद्धों से उत्पन्न फलों का उल्लेख किया है।
विष्णु धर्मसूत्र ने कृत्तिका से भरणी-अभिजित को भी सम्मिलित करते हुए; तक के 28 नक्षत्रों में सम्पादित श्राद्धों से उत्पन्न फलों का उल्लेख किया है।
अग्नि पुराण में आया है कि वे श्राद्ध जो किसी तीर्थ या युगादि एवं मन्वादि दिनों में किये जाते हैं वे पितरों को अक्षय संतुष्टि देते हैं। 
विष्णु पुराण, मत्स्य पुराण, पद्म पुराण, वराह पुराण, प्रजापति स्मृति एवं स्कन्द पुराण का कथन है कि वैशाख शुक्ल तृतीया, कार्तिक शुक्ल नवमी, भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी एवं माघ की अमावास्या युगादि तिथियाँ अर्थात् चारों युगों के प्रथम दिन कही जाती हैं, वे पितरों को अक्षय संतुष्टि देती हैं।
मत्स्य पुराण, अग्नि पुराण, सौर पुराण, पद्म पुराणने 14 मनुओं या मन्वन्तरों की प्रथम तिथियाँ इस प्रकार दी हैं :–आश्विन शुक्ल नवमी, कार्तिक शुक्ल द्वादशी, चैत्र एवं भाद्रपद शुक्ल तृतीया, फाल्गुन की अमावास्या, पौष शुक्ल एकादशी, आषाढ़ शुक्ल दशमी एवं माघ शुक्ल सप्तमी, श्रावण कृष्ण अष्टमी, आषाढ़, कार्तिक, फाल्गुन, चैत्र एवं ज्येष्ठ की पूर्णिमा; पितरों को अक्षय संतुष्टि देती हैं।
मत्स्यपुराण की सूची स्मृतिच, कृत्यरत्नाकर, परा. मा.एवं मदनपारिजात, स्कन्द पुराण एवं स्मृत्यर्थसार, स्कन्दपुराण-नागर खण्ड, में श्वेत से लेकर तीन कल्पों की प्रथम तिथियाँ श्राद्ध के लिए उपयुक्त ठहरायी गयी हैं और वे पितरों को अक्षय संतुष्टि देती हैं। 
श्राद्ध और ग्रहण ::
आपस्तम्ब धर्मसूत्र, मनु, विष्णु धर्म सूत्र, कूर्म पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण, भविष्य पुराण ने रात्रि, संध्या (गोधूलि काल) या जब सूर्य का तुरत उदय हुआ हो तब–ऐसे कालों में श्राद्ध सम्पादन मना किया है। किन्तु चन्द्र ग्रहण के समय छूट दी है। आपस्तम्ब धर्मसूत्र ने इतना जोड़ दिया है कि यदि श्राद्ध सम्पादन अपरान्ह्न में आरम्भ हुआ हो और किसी कारण से देर हो जाए तथा सूर्य डूब जाए तो कर्ता को श्राद्ध सम्पादन के शेष कृत्य दूसरे दिन ही करने चाहिए और उसे दर्भों पर पिण्ड रखने तक उपवास करना चाहिए।
अपरान्ह्न :: दोपहर और सँध्या के बीच का समय सामान्यतया अपरान्ह्न माना गया है। श्राद्ध काल के लिए मनु द्वारा व्यवस्थित अपरान्ह्न के अर्थ के विषय में अपरार्क, हेमाद्रि एवं अन्य लेखकों तथा निबन्धों में विद्वत्तापूर्ण विवेचन उपस्थित किया गया है। कई मत प्रकाशित किये गये हैं। कुछ लोगों के मत से मध्यान्ह्न के उपरान्त दिन का शेषान्त अपरान्ह्न है। पूर्वाह्न शब्द ऋग्वेद में आया है। इस कथन के आधार पर कहा है कि दिन को तीन भागों में बांट देने पर अन्तिम भाग अपरान्ह्न कहा जाता है। तीसरा मत यह है कि पाँच भागों में विभक्त दिन का चौथा भाग अपरान्ह्न है। इस मत को मानने वाले शतपथ ब्राह्मण पर निर्भर हैं। दिन के पाँच भाग ये हैं :–प्रात:, संगव, मध्यन्दिन (मध्यान्ह्न), अपरान्ह्न एवं सायाह्न (सांय या अस्तगमन)। इनमें प्रथम तीन स्पष्ट रूप से ऋग्वेद में उल्लिखित हैं। प्रजापति स्मृति में आया है कि इनमें प्रत्येक भाग तीन मुहूर्तों तक रहता है। इसने आगे कहा है कि कुतप सूर्योदय के उपरान्त आठवाँ मुहूर्त है और श्राद्ध को कुतप में आरम्भ करना चाहिए तथा उसे रौहिण मुहूर्त के आगे नहीं ले जाना चाहिए। श्राद्ध के लिए पाँच मुहूर्त (आठवें से बारहवें तक) अधिकतम योग्य काल हैं।
कुतप :: यह कु-निन्दित अर्थात् पाप एवं तप-जलाना से बना है। इसके आठ अर्थ ये हैं :– मध्याह्न, खड्गपात्र-गेंडे के सींग का बना पात्र, नेपाल का कम्बल, रूपा-चाँदी, दर्भ, तिल, गाय एवं दौहित्र-कन्या का पुत्र। अमावास्या, महालय, अष्टका एवं अन्वष्टका के श्राद्ध अपरान्ह्न में ही किये जाते हैं। वृद्धि श्राद्ध और आम श्राद्ध-जिनमें केवल अन्न का ही अर्पण होता है, प्रात: काल में किये जाते हैं। [स्मृति वचन एवं हेमाद्रि]
यदि मुख्य काल में श्राद्ध करना सम्भव: न हो तो उसके पश्चात् वाले गौण काल में उसे करना चाहिए, किन्तु कृत्य के मुख्य काल एवं सामग्री संग्रहण के काम में प्रथम को ही वरीयता देनी चाहिए और सभी मुख्य द्रव्यों को एकत्र करने के लिए गौण काल के अतिरिक्त अन्य कार्यों में उसकी प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए।[त्रिकाण्ड मण्डन]
श्राद्ध स्थल :: कर्ता को प्रयास करके दक्षिण की ओर ढालू भूमि खोजनी चाहिए, जो कि पवित्र हो और जहाँ पर मनुष्य अधिकतर न जाते हों। उस भूमि को गोबर से लीप देना चाहिए, क्योंकि पितर लोग वास्तविक स्वच्छ स्थलों, नदी-तटों एवं उस स्थान पर किये गए श्राद्ध से प्रसन्न होते हैं, जहाँ पर लोग बहुधा कम ही जाते हैं। [मनु]
श्राद्ध स्थल चतुर्दिक से आवृत, पवित्र एवं दक्षिण की ओर ढालू होना चाहिए। [याज्ञवल्क्य] 
बैलों, हाथियों एवं घोड़ों की पाठ पर, ऊँची भूमि या दूसरे की भूमि पर श्राद्ध नहीं करना चाहिए।[शंख] 
वन, पुण्य पर्वत, तीर्थस्थान, मन्दिर; इनके निश्चित स्वामी नहीं होते और ये किसी की वैयक्तिक सम्पत्ति नहीं हैं।[कूर्म पुराण]
गया :: विष्णुपद मंदिर का निर्माण भगवान विष्णु के पांव के निशान पर इस मंदिर का निर्माण कराया गया है। यहाँ पितृदान भी किया जाता है। यहाँ फल्गु नदी के तट पर पिंडदान करने से मृत व्यक्ति को बैकुंठ की प्राप्ति होती है। विष्णुधर्मसूत्र ने श्राद्ध योग्य जिन 55 तीर्थों के नाम दिये हैं, उनमें गयाशीर्ष, अक्षयवट, फल्गु, उत्तर मानस, मतंग-वापी, विष्णुपद प्रमुख हैं। यहाँ व्यक्ति जो कुछ दान करता है उससे उसे अक्षय फल मिलता है। 
पितरों के लिए गया में जाना, फल्गु-स्नान करना, पितृ तर्पण करना, गदाधर-विष्णु एवं गयाशीर्ष का दर्शन करना चाहिये है। [अत्रि-स्मृति 55-58]
गया तीर्थ में किये गये श्राद्ध से उत्पन्न अक्षय फल का उल्लेख किया है।[शंख]
नासिक :: नासिक से लगभग 28 किलोमीटर की दूरी पर स्थित त्रयंबकेश्वर गौतम ऋषि की तपोभूमि है। गौतम ऋषि ने भगवान् शिव की तपस्या करके माँ गंगा को यहाँ अवतरित करने का वरदान माँगा था, जिसके फलस्वरूप यहाँ गोदावरी नदी की धारा प्रवाहित हुई। इसलिए गोदावरी को दक्षिण भारत की गंगा भी कहा जाता है। इस स्थान पर किया श्राद्ध और पिण्ड दान सीधा पितरों तक पहुँचता है। इससे पितरों को प्रेत योनी से मुक्ति मिलती है और वह उत्तम लोक में स्थान प्राप्त करते हैं। यहाँ श्राद्ध, तर्पण, पिण्डदान एवं पितरों की संतुष्टि हेतु ब्राह्मण भोजन करवाने से पितर तृप्त होकर अखंड सौभाग्य का आशीर्वाद प्रदान करते हैं।
श्राद्ध वर्जना :: म्लेच्छदेश में न तो श्राद्ध करना चाहिए और न ही जाना चाहिए; उसमें पुन: कहा गया है कि म्लेच्छदेश वह है जिसमें चार वर्णों की परम्परा नहीं पायी जाती है। [विष्णु धर्मसूत्र] 
ने व्यवस्था दी है कि त्रिशंकु देश, जिसका बारह योजन विस्तार है, जो कि महानदी के उत्तर और कीकट (मगध) के दक्षिण में है, श्राद्ध के लिए योग्य नहीं हैं। [वायु पुराण]
कारस्कर, कलिंग, सिंधु के उत्तर का देश और वे सभी देश जहाँ वर्णाश्रम की व्यवस्था नहीं पायी जाती है, श्राद्ध के लिए यथा साध्य त्याग देने चाहिए। 
निम्नलिखित देशों में श्राद्ध कर्म का यथासम्भव परिहार करना चाहिए :- किरात देश, कलिंग, कोंकण, क्रिमि, दशार्ण, कुमार्य-कुमारी अन्तरीप, तंगण, क्रथ, सिंधु नदी के उत्तरी तट, नर्मदा का दक्षिणी तट एवं करतोया का पूर्वी भाग।[ब्रह्मपुराण] 
विसर्जन श्राद्ध के 3 प्रकार ::  (1). पिण्ड विसर्जन, (2). पितृ विसर्जन और (3). देव विसर्जन।
उदक कर्म :: मृतक के लिए जल दान की क्रिया को उदक कर्म कहते हैं।
श्राद्ध और पितर :: श्राद्धों का पितरों के साथ अटूट संबंध है। पितरों के बिना श्राद्ध की कल्पना नहीं की जा सकती। श्राद्ध पितरों को आहार पहुँचाने का माध्यम मात्र है। मृत व्यक्ति के लिए जो श्रद्धायुक्त होकर तर्पण, पिण्ड, दानादि किया जाता है, उसे श्राद्ध कहा जाता है और जिस 'मृत व्यक्ति' के एक वर्ष तक के सभी और्ध्व दैहिक क्रिया कर्म संपन्न हो जायें, उसी की 'पितर' संज्ञा हो जाती है।
मेरे वे पितर जो प्रेतरूप हैं, तिलयुक्त जौं के पिण्डों से तृप्त हों। साथ ही सृष्टि में हर वस्तु ब्रह्मा से लेकर तिनके तक, चर हो या अचर, मेरे द्वारा दिये जल से तृप्त हों। [वायु पुराण]
पिण्डदान :: पिण्ड दाहिने हाथ में लिया जाए। मन्त्र के साथ पितृतीथर् मुद्रा से दक्षिणाभिमुख होकर पिण्ड किसी थाली या पत्तल में क्रमशः स्थापित करें। 
(1).  प्रथम पिण्ड देवताओं के निमित्त :-
ॐ उदीरतामवर उत्परास, ऽउन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः।
असुं यऽईयुरवृका ऋतज्ञाः, ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु।
(2).  दूसरा पिण्ड ऋषियों के निमित्त :-
ॐ अंगिरसो नः पितरो नवग्वा, अथवार्णो भृगवः सोम्यासः।
तेषां वय सुमतौ यज्ञियानाम्, अपि भद्रे सौमनसे स्याम॥
(3). तीसरा पिण्ड दिव्य मानवों के निमित्त :-
ॐ आयन्तु नः पितरः सोम्यासः, अग्निष्वात्ताः पथिभिदेर्वयानैः।
 अस्मिन्यज्ञे स्वधया मदन्तः, अधिब्रवन्तु तेऽवन्त्वस्मान्॥
(4). चौथा पिण्ड दिव्य पितरों के निमित्त :-
ॐ ऊजरँ वहन्तीरमृतं घृतं, पयः कीलालं परिस्रुत्। स्वधास्थ तपर्यत मे पितृन्॥
(5).  पाँचवाँ पिण्ड यम के निमित्त :-
ॐ पितृव्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः, पितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः, प्रपितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः। अक्षन्पितरोऽमीमदन्त, पितरोऽतीतृपन्त पितरः, पितरः शुन्धध्वम्॥
(6).  छठवाँ पिण्ड मनुष्य-पितरों के निमित्त-
ॐ ये चेह पितरो ये च नेह, याँश्च विद्म याँ२ उ च न प्रविद्म।
 त्वं वेत्थ यति ते जातवेदः, स्वधाभियर्ज्ञ सुकृतं जुषस्व॥
(7). सातवाँ पिण्ड मृतात्मा के निमित्त :-
ॐ नमो वः पितरो रसाय, नमो वः पितरः शोषाय, नमो वः पितरो जीवाय; 
नमो वः पितरः स्वधायै, नमो वः पितरो घोराय। 
नमो वः पितरो मन्यवे, नमो वः पितरः पितरो; 
नमो वो गृहान्नः पितरो, दत्त सतो वः पितरो देष्मैतद्वः, पितरो वासऽआधत्त
(8). आठवाँ पिण्ड पुत्रदार रहितों के निमित्त :-
ॐ पितृवंशे मृता ये च, मातृवंशे तथैव च। गुरुश्वसुरबन्धूनां, ये चान्ये बान्धवाः स्मृताः॥
  ये मे कुले लुप्तपिण्डाः, पुत्रदारविवजिर्ताः। तेषां पिण्डो मया दत्तो, ह्यक्षय्यमुपतिष्ठतु॥
(9). नौवाँ पिण्ड उच्छिन्न कुलवंश वालों के निमित्त-
ॐ उच्छिन्नकुलवंशानां, येषां दाता कुले नहि। धमर्पिण्डो मया दत्तो, ह्यक्षय्यमुपतिष्ठतु॥
(10). दसवाँ पिण्ड गभर्पात से मर जाने वालों के निमित्त-
ॐ विरूपा आमगभार्श्च, ज्ञाताज्ञाताः कुले मम। तेषां पिण्डो मया दत्तो, ह्यक्षय्यमुपतिष्ठतु॥
(11). ग्यारहवाँ पिण्ड इस जन्म या अन्य जन्म के बन्धुओं के निमित्त :-
ॐ अग्निदग्धाश्च ये जीवा, ये प्रदग्धाः कुले मम। भूमौ दत्तेन तृप्यन्तु, धमर्पिण्डं ददाम्यहम्॥
(12). बारहवाँ पिण्ड इस जन्म या अन्य जन्म के बन्धुओं के निमित्त :-
ॐ ये बान्धवाऽ बान्धवा वा, ये ऽन्यजन्मनि बान्धवाः। तेषां पिण्डो मया दत्तो, ह्यक्षय्यमुपतिष्ठतु॥
यदि तीर्थ श्राद्ध में, पितृपक्ष में से एक से अधिक पितरों की शान्ति के लिए पिण्ड अपिर्त करने हों, तो नीचे लिखे वाक्य में पितरों के नाम-गोत्र आदि जोड़ते हुए वाञ्छित संख्या में पिण्डदान किये जा सकते हैं।
 ... गोत्रस्य अस्मद् ...नाम्नो, अक्षयतृप्त्यथरँ इदं पिण्डं तस्मै स्वधा॥ 
पिण्ड समपर्ण के बाद पिण्डों पर क्रमशः दूध, दही और मधु चढ़ाकर पितरों से तृप्ति की प्राथर्ना की जाती है।
निम्न मन्त्र पढ़ते हुए पिण्ड पर दूध दुहराएँ :- 
ॐ पयः पृथिव्यां पयऽओषधीषु, पयो दिव्यन्तरिक्षे पयोधाः। पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम्।
पिण्डदाता निम्नांकित मन्त्रांश को दुहराएँ :- 
ॐ दुग्धम्। दुग्धम्। दुग्धम्। तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम्॥
निम्नांकित मन्त्र से पिण्ड पर दही चढ़ाएँ :-
ॐ दधिक्राव्णे ऽअकारिषं, जिष्णोरश्वस्य वाजिनः। सुरभि नो मुखाकरत्प्रण, आयु षि तारिषत्।
पिण्डदाता निम्नांकित मन्त्रांश दुहराएँ :-
ॐ दधि। दधि। दधि। तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम्।
नीचे लिखे मन्त्रों साथ पिण्डों पर शहद चढ़ाएँ :-
ॐ मधुवाताऽऋतायते, मधु क्षरन्ति सिन्धवः। माध्वीनर्: सन्त्वोषधीः।
ॐ मधु नक्तमुतोषसो, मधुमत्पाथिर्व रजः। मधु द्यौरस्तु नः पिता।
ॐ मधुमान्नो वनस्पतिर, मधुमाँअस्तु सूयर्:। माध्वीगार्वो भवन्तु नः। 
पिण्डदानकर्त्ता निम्नांकित मन्त्रांश को दुहराएँ :-
ॐ मधु। मधु। मधु। तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम्। 
श्राद्ध दिवस से पूर्व दिवस को बुद्धिमान पुरुष श्रोत्रिय आदि से विहित ब्राह्मणों को ‘पितृ-श्राद्ध तथा ‘वैश्व-देव-श्राद्ध’ के लिए निमंत्रित करें। पितृ-श्राद्ध के लिए सामर्थ्यानुसार अयुग्म तथा वैश्व-देव-श्राद्ध के लिए युग्म ब्राह्मणों को निमंत्रित करना चाहिए। निमंत्रित तथा निमंत्रक क्रोध, स्त्रीगमन तथा परिश्रम आदि से दूर रहे। श्राद्ध-दिवस पर निम्न प्रक्रिया का पालन निमंत्रित तथा निमंत्रक को करना विहित है। 
श्राद्ध कर्म संक्षिप्त विधि ::
(1). सर्व प्रथम ब्राह्मण का पैर धोकर सत्कार करें।
(2). हाथ धोकर उन्हें आचमन कराने के बाद साफ आसन प्रदान करें।
(3). देवपक्ष के ब्राह्मणों को पूर्वाभिमुख तथा पितृ-पक्ष व मातामह-पक्ष के ब्राह्मणों को उत्तराभिमुख बिठाकर भोजन कराएं।
(4). श्राद्ध विधि का ज्ञाता पुरुष यव-मिश्रित जल से देवताओं को अर्घ्य दान कर विधि-पूर्वक धूप, दीप, गंध, माला निवेदित करें।
(5).  इसके बाद पितृ-पक्ष के लिए अपसव्य भाव से यज्ञोपवीत को दाएँ कन्धे पर रखकर निवेदन करें, फिर ब्राह्मणों की अनुमति से दो भागों में बंटे हुए कुशाओं का दान करके मंत्रोच्चारण-पूर्वक पितृ-गण का आह्वान करें तथा अपसव्य भाव से तिलोसक से अर्घ्यादि दें।
(6). यदि कोई अनिमंत्रित तपस्वी ब्राह्मण या कोई भूखा पथिक अतिथि रुप में आ जाए तो निमंत्रित ब्राह्मणों की आज्ञा से उसे यथेच्छा भोजन निवेदित करें।
(7). निमंत्रित ब्राह्मणों की आज्ञा से शाक तथा लवणहीन अन्न से श्राद्ध-कर्ता यजमान निम्न मंत्रों से अग्नि में तीन बार आहुति दें-
प्रथम आहुतिः- “अग्नये काव्यवाहनाय स्वाहा”
द्वितीय आहुतिः- “सोमाय पितृमते स्वाहा”
(8). आहुतियों से शेष अन्न को ब्राह्मणों के पात्रों में परोस दें।
(9). इसके बाद रुचि के अनुसार अन्न परोसें और अति विनम्रता से कहें कि ‘आप भोजम ग्रहण कीजिए”।
(10). ब्राह्मणों को भी तद्चित और मौन होकर प्रसन्न मुख से सुखपूर्वक भोजन करना चाहिए तथा यजमान को क्रोध और उतावलेपन को छोड़कर भक्ति-पूर्वक परोसते रहना चाहिए।
(11). फिर ऋग्वेदोक्त ‘रक्षोघ्न मंत्र’ ॐ अपहता असुरा रक्षांसि वेदिषद इत्यादि ऋचा का पाठ कर श्राद्ध-भूमि पर तिल छिड़कें तथा अपने पितृ-रुप से उन ब्राह्मणों का ही चिंतन करे तथा निवेदन करें कि ‘इन ब्राह्मणों के शरीर में स्थित मेरे पिता, पितामह और प्रपितामह आदि आज तृप्ति लाभ करें। 
एकोद्दिष्ट श्राद्ध ::  एकोद्दिष्ट श्राद्ध का मतलब किसी एक को निमित्त मानकर किए जाने वाला श्राद्ध जैसे किसी की मृत्यु हो जाने पर दशाह, एकादशाह आदि एकोद्दिष्ट श्राद्ध के अन्तर्गत आता है। इसमें विश्वेदेवों को स्थापित नहीं किया जाता।
एकोदिष्ट श्राद्ध मृत्यु की तिथि के दिन किया जाता है जिसमें एक पिंड और एक बलि, जबकि पार्वण श्राद्ध में पिता का श्राद्ध अष्टमी तिथि को और माता का नवमी को होता है। इसमें छह पिंड और दो बलि दी जाती हैं। श्राद्ध के पहले तर्पण किया जाता है। तर्पण का जल सूर्योदय से आधे पहर तक अमृत, एक पहर तक मधु, डेढ़ पहर तक दूध और साढ़े तीन पहर तक जल के रूप में पितरों को प्राप्त होता है।  जो मनुष्य नास्तिकता और चंचलता से तर्पण करता है, उसके पितृ पिपासित होकर अपने आत्मज का स्वेद (पसीना) पीते हैं। 
तर्पण की सामग्री :: जल, कुश, तिल, जौ, चन्दन, अक्षत, खगौती, श्वेत पुष्प,जौ, कुश और जल को हाथ में लेकर भगवान् विष्णु के नाम से यह शुरू होता है।  
श्राद्धकर्ता स्नान करके पवित्र होकर धुले हुए दो वस्त्र धोती और उत्तरीय धारण करता है। वह गायत्री मंत्र पढ़ते हुए शिखाबंधन करने के बाद श्राद्ध के लिए रखा हुआ जल छिड़कते हुए सभी वस्तुओं को पवित्र करता है। उसके बाद तीन बार आचमनी कर हाथ धोकर विश्वदेवों के लिए दो आसन देता है। उन दोनों आसनों के सामने भोजन पात्र के रूप में पलाश अथवा तोरई का एक-एक पत्ता रखा जाता है। 

गौमय से लिपी हुई शुद्ध भूमि पर बैठकर श्राद्ध की सामग्रियों को रखकर सबसे पहले भोजन तैयार करना चाहिए। ईशान कोण में पिण्ड दान के लिए पाक-शुद्ध सामग्री रखी जाती है। श्राद्ध में पितरों के लिए पूड़ी, सब्जी, मिठाई, खीर, रायता आदि-आदि श्रद्धा-सामर्थ के अनुरूप शामिल हैं। इस प्रक्रिया में प्रपितामह, पितामह, पिता [क्रमशः आदित्य, रूद्र और वसु स्वरुप] को जल अर्पित किया जाता है।  देवताओं को सव्य होकर [दायें कंधे पर जनेऊ] और पितरों को असव्य होकर [बायें कंधे पर जनेऊ] कुश, तिल और जौ के साथ मंत्रानुसार जल अर्पित किया जाता है। इसी तरह बायें हाथ की अनामिका उंगली में मोटक धारण करना, बाँयी कमर पर नींवी रोपित करना, गोबर के ऊपर रखकर दिया जलाना और अंत में उसे एक पत्ते से एक बार में बुझाना। प्रेतात्माओं के लिए भी भोजन देना, कव्वे, कुत्ते और गाय के लिए भोजन देना। चीनी, मधु, कुश, तुलसी, दूध मिलाकर पिंड बनाते समय मन्त्र पढ़ते हुए पितरों को याद करना, घर के खिड़की दरवाजे खोले रखना, इस मान्यता के साथ कि पितृ आये हुए  हैं, पितरों की पातली में यह कहते हुए दोबारा भोजन डालना कि आपको कुछ और चाहिए। श्राद्ध के उपरान्त ब्राह्मणों को भोजन कराना, यथोचित दक्षिणा, सीधा (सूखी भोजन सामग्री) और वस्त्र प्रदान करना, रायता वगैरह गाँव में खासकर बिरादरी में भेजना आदि आदि।