Friday, April 18, 2014

MAA LAKSHMI PRAYERS माँ लक्ष्मी आराधना

MAA LAKSHMI PRAYERS
 माँ लक्ष्मी आराधना
 
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
कराग्रे वसते लक्ष्मी: करमध्ये सरस्वती।
करमूले स्थितो ब्रह्मा प्रभाते कर दर्शनम्॥
कर-हाथ, अग्रे-आगे का भाग, वसते-निवास करना, लक्ष्मी-धन (सम्पदासम्पत्ति, सुख, वैभव), करमध्ये-हाथ का बीच का भाग, च-और, सरस्वती वाणी, वाक-विद्या की देवी, करमूले-हाथ का मूल स्थान-हथेली व भुजा का संगम स्थल जहां से भाग्य हाथ शुरू होता है-कलाई, गोविन्दम्-ईश्वर, प्रभाते-प्रात:काल, कर दर्शनम्-दर्शन करना।
हाथ के अग्र भाग में अर्थात अँगुलियों पर लक्ष्मी का वास होता है और हाथ के मध्य हथेली में सरस्वती निवास करती हैं तथा हाथ के मूल में ईश्वर का निवास होता है, क्योंकि सृष्टि का आदिमूल परमेश्वर है। अतः मनुष्य को प्रात: काल इनका दर्शन अवश्य करना चाहिए। लक्ष्मी का आदान-प्रदान अंगुलियों से गिनकर किया जाता है, इसलिए माँ लक्ष्मी का निवास अंगुलियों में है। माँ सरस्वती देवी हथेली के मध्य में रहती है और इन दोनों के मूल में ईश्वर का निवास है। माँ लक्ष्मी व माँ सरस्वती दोनों का एक साथ निवास करना परम् सौभाग्यशाली है।
माँ लक्ष्मी का वाहन उल्लू तथा माँ सरस्वती का वाहन हंस है। जिस प्रकार उल्लू व हंस एक समय पर, एक स्थान पर नही रह सकते उसी प्रकार सरस्वती व लक्ष्मी मनुष्य के पास एक साथ नही रह सकतीं और यदि मनुष्य के पास दोनों एक साथ रहती हैं, तो वह मनुष्य ईश्वर की असीम अनुकंपा का पात्र होगा और ऐसे मनुष्य विरले हुआ करते हैं।
लक्ष्मी-धन-सम्पत्ति-वैभव  मनुष्य को अहंकार प्रदान करती है, जो कि अज्ञानता की निशानी है। सरस्वती का वाहन हंस शुभ्र, श्वेत, धवल निर्मल होता है और श्वेत ज्ञान का प्रतीक है। जिस प्रकार अहंकार और ज्ञान जिस प्रकार एक जगह नही रह सकते, उसी प्रकार लक्ष्मी व सरस्वती एक जगह नही रह सकतीं।जो ज्ञानी पुरूष होते हैं, उनके यहां लक्ष्मी और सरस्वती एक साथ निवास कर सकती हैं, परंतु ये दोनों एक साथ केवल तब ही निवास करती हैं, जब लक्ष्मी व सरस्वती दोनों के मूल में जगदाधार-आदिमूल ईश्वर है। ईश्वर को प्रथमत: रखने वाला मनुष्य लक्ष्मी एवं सरस्वती दोनों की ही कृपा का पात्र होगा। हाथ मनुष्य की कर्मेन्द्रिय है, मनुष्य के शरीर में पांच ज्ञानेन्द्रियां व पांच ही कर्मेन्द्रियां होती हैं। हस्त इंद्रिय हाथ के ऊपर रहती है, जो लेनदेन की क्रिया समय अनुसार करती है। हाथों पर इंद्र देवता का निवास होता है। इसलिए अपने हाथों को-अपनी हस्त इंद्रियों को, हमेशा ही इंद्र के समान परमार्थ, परोपकार, लोकोपकार के कार्य में लगाना ही मनुष्य के लिए श्रेयस्कर, लाभकारी, गुणकारी होता है। प्रात:काल में इसलिए अपनी हस्त इंद्रियों का दर्शन उपरोक्त विचार एवं प्रकार से अवश्य करना चाहिए। तभी जीवन सफल, सुफल, समृद्घ एवं परमार्थी तथा अंत में मुमुक्ष होकर मोक्ष पद प्राप्त करने में सफल होता है।
महालक्ष्मी पूजन विधि :: सर्वप्रथम मन, वाणी और हृदय से पवित्र होने के लिए पवित्रीकरण और आचमन का विधान सम्पन्न किया जाता है। पवित्रीकरण के लिये दाहिने हाथ में जल रखकर बायें हाथ से ढँक ले और मंत्र पढऩे के बाद अपने समस्त शरीर पर छिडक़ लें और निम्न मंत्र पढ़ें :- 
ऊँ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वार्र्स्थां गतोपि वा। 
य: स्मरेत् पुण्ण्डरीकाक्षं स बाहयात्त्यन्तर: शुचि:॥ 
आचमन लिये दाहिने हाथ में जल लेकर निम्र मंत्र बोलते हुए तीन बार जल पीये। पंच पात्र के आचमनी से भी जल लेकर दूर से ही पी सकते हैं।
ऊँ अमृतृतृतोपेपेपस्तरणमसि स्वाहा॥ 
ऊँ अमृतृतृतोपिधानसि स्वाहा॥ 
ऊँ सत्यं यश: श्रीमर्यि श्री: श्रयतां स्वाहा॥ 
इसके बाद प्राणायाम करते हुए  आचमन के पश्चात् दाहिने हाथ में जल, अक्षत और पुष्प लेकर निम्र मंत्र पढ़ते हुए संकल्प लें। साधक एक-एक करके कुल तीन आचनम करें, दाँये हाथ के अँगुष्ठ मूल से होठ पोंछे और अपनी बाँई ओर हाथ धो लें ::
ॐ केशवाय नमः। ॐ नारायणाय नमः।
ॐ माधवाय नमः। ॐ हृषीकेशाय नमः। ॐ गोविन्दाय नमः।
पवित्र करण के लिये निम्न  मंत्र को पढते हुए, कुशा से अपने और पूजन सामग्री को जल से सींचें :-
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा। 
यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः॥
आसन शुद्धि के लिये आसन पर जल छोड़कर उसे छूते हुए निम्न मंत्र पढ़ें :-
ॐ पृथ्वी! त्वया धृता लोका देवि! त्वं विष्णुना धृता।
त्वं च धारय मां देवि! पवित्रं कुरु चासनम्॥
पवित्र धारण के लिये अँगूठी या कुश की पवित्र पहने, अँगूठी पहले से हो तो स्पर्श करें :-
ॐ पवित्रे स्थो वैष्णव्यौ सवितुर्वः प्रसव उत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः। तस्त ते पवित्रपते पवित्रपूतस्य यत्कामः पुने तच्छकेयमः॥
शिखा बन्धन के लिये निम्नलिखित या गायत्री मंत्र बोलते हुए शिखा बाँध लें, शिखा बँधी हुई हो तो स्पर्श करें :-
चिद्रूपिणि महामाये! दिव्यतेजःसमन्विते।
श्री लक्ष्मीसूक्त :: काम, क्रोध, लोभ वृत्ति से मुक्ति प्राप्त कर धन, धान्य, सुख, ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए माँ भगवत लक्ष्मी की आराधना की जाती है। 
पद्मानने पद्मिनि पद्मपत्रे पद्मप्रिये पद्मदलायताक्षि। 
विश्वप्रिये विश्वमनोऽनुकूले त्वत्पादपद्मं मयि सन्निधत्स्व॥1॥
हे देवी लक्ष्मी! आप कमलमुखी, कमल पुष्प पर विराजमान, कमल-दल के समान नेत्रों वाली, कमल पुष्पों को पसंद करने वाली हैं। सृष्टि के सभी जीव आपकी कृपा की कामना करते हैं। आप सबको मनोनुकूल फल देने वाली हैं। हे देवी! आपके चरण-कमल सदैव मेरे हृदय में स्थित हों।
पद्मानने पद्मऊरू पद्माक्षी पद्मसम्भवे। 
तन्मे भजसिं पद्माक्षि येन सौख्यं लभाम्यहम्‌॥2॥
हे देवी लक्ष्मी! आपका श्रीमुख, ऊरु भाग, नेत्र आदि कमल के समान हैं। आपकी उत्पत्ति कमल से हुई है। हे कमलनयनी! मैं आपका स्मरण करता हूँ, आप मुझ पर कृपा करें।
अश्वदायी गोदायी धनदायी महाधने। 
धनं मे जुष तां देवि सर्वांकामांश्च देहि मे॥3॥
हे देवी लक्ष्मी! अश्व, गौ, धन आदि देने में आप समर्थ हैं। आप मुझे धन प्रदान करें। हे माता! मेरी सभी कामनाओं को आप पूर्ण करें।
पुत्र पौत्र धनं धान्यं हस्त्यश्वादिगवेरथम्‌। 
प्रजानां भवसी माता आयुष्मंतं करोतु मे॥4॥
हे देवी लक्ष्मी! आप सृष्टि के समस्त जीवों की माता हैं। आप मुझे पुत्र-पौत्र, धन-धान्य, हाथी-घोड़े, गौ, बैल, रथ आदि प्रदान करें। आप मुझे दीर्घ-आयुष्य बनाएँ।
धनमाग्नि धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसु। 
धन मिंद्रो बृहस्पतिर्वरुणां धनमस्तु मे॥5॥
हे देवी लक्ष्मी! आप मुझे अग्नि, धन, वायु, सूर्य, जल, बृहस्पति, वरुण आदि की कृपा द्वारा धन की प्राप्ति कराएँ।
निम्न मंत्र का उच्चारण करें :- 
ॐ चिद्रूपिणि महामाये, दिव्यतेजः समन्विते। 
तिष्ठ देवि! शिखामध्ये तेजोवृद्धिं कुरुष्व मे॥  
महालक्ष्मी व्रत कथा :: (1). बहुत पुरानी बात है जब एक बार किसी  गांँव में एक गरीब ब्राह्मण रहता था। वह ब्राह्मण नियमित रुप से भगवान् श्री हरी विष्णु का पूजन किया करता था। उसकी पूजा-भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान् विष्णु ने उसे दर्शन दिये और ब्राह्मण से उसकी इच्छा पूछी। ब्राह्मण ने माता लक्ष्मी का निवास अपने घर में होने की इच्छा जाहिर की। यह सुनकर भगवान् विष्णु ने माता लक्ष्मी की प्राप्ति का मार्ग ब्राह्मण को बता दिया। उन्होंने कहा कि गाँव के मंदिर के सामने एक स्त्री आकर उपले थापती है, तुम उन्हें अपने घर आने का निमंत्रण देना,  वही  देवी लक्ष्मी हैं। 
देवी लक्ष्मी जी के आने के बाद तुम्हारा घर धन और धान्य से भर जायेगा। यह कहकर भगवान् विष्णु अंतर्ध्यान हो गए। अगले दिन ब्राह्मण सुबह ही मंदिर के सामने जाकर बैठ गया और माता का इंतजार करने लगा। लक्ष्मी जी उपले थापने के लिये आईं, तो ब्राह्मण ने उनसे अपने घर आने का निवेदन किया। ब्राह्मण की बात सुनकर माता लक्ष्मी समझ गईं, कि यह सब भगवान् विष्णु के कहने से हुआ है। लक्ष्मी जी ने ब्राह्मण से कहा कि तुम महालक्ष्मी व्रत करो। 16 दिनों तक व्रत करने और सोलहवें दिन रात्रि को चन्द्रमा को अर्ध्य देने से तुम्हारा मनोरथ पूरा होगा। 
ब्राह्मण ने देवी के कहे अनुसार व्रत और पूजन किया और देवी को उत्तर दिशा की ओर मुँह  करके चन्द्रमा को अर्ध्य  दिया। लक्ष्मी जी ने अपना वचन पूरा किया।  उस दिन से यह व्रत इस दिन, पूरी श्रद्वा से किया जाता है। 
(2). एक बार महालक्ष्मी का त्यौहार आया. हस्तिनापुर में गांधारी ने नगर की सभी स्त्रियों को पूजा का निमंत्रण दिया परन्तु कुन्ती से नहीं कहा। गांधारी के 100 पुत्रों ने बहुत सी मिट्टी लाकर एक हाथी बनाया और उसे खूब सजाकर महल में बीचों बीच स्थापित किया सभी स्त्रियाँ पूजा के थाल ले लेकर गांधारी के महल में जाने लगी। इस पर कुन्ती बड़ी उदास हो गई। जब पांडवो ने कारण पूछा तो उन्होंने पूछा कि मैं कैसे पूजा करूँ? अर्जुन ने कहा माँ ! तुम पूजा की तैयारी करो, मैं तुम्हारे लिए जीवित हाथी लाता हूँ। अर्जुन स्वर्ग में देवराज इन्द्र के पास पहुँचे और अपनी माता के पूजन हेतु ऐरावत को ले आये l माता ने सप्रेम पूजन किया।  सभी ने सुना कि कुन्ती के यहाँ तो स्वयं देवराज इंद्र का एरावत हाथी आया है तो सभी कुन्ती के महल की ओर दौड पड़ीं और सभी ने वहाँ पूजन किया। 
इस व्रत पर सोलह बोल की कहानी सोलह बार कही जाती है और चावल या गेहूँ छोड़े जाते हैंl  आश्विन कृष्णा अष्टमी को सोलह पकवान पकाये जाते हैं l 
सोलह बोल की कथा ::  अमोती दमो तीरानी, पोला पर ऊचो सो परपाटन गाँव, जहाँ के राजा मगर सेन दमयंती रानी, कहे कहानी, सुनो हो महालक्ष्मी देवी रानी, हमसे कहते, तुमसे सुनते, सोलह बोल की कहानी। 
महालक्ष्मी व्रत विधान :: सबसे पहले प्रात:काल स्नान से पहले हरी घास, दूब को अपने पूरे शरीर पर घिसें लें! स्नान आदि कार्यो से निवृ्त होकर, व्रत का संकल्प लिया जाता है। व्रत का संकल्प लेते समय निम्न मंत्र का उच्चारण किया जाता है :-
करिष्यsहं महालक्ष्मि व्रतमें त्वत्परायणा। 
तदविध्नेन में यातु समप्तिं स्वत्प्रसादत: 
अर्थात, हे देवी, मैं आपकी सेवा में तत्पर होकर आपके इस महाव्रत का पालन करूंगा. आपकी कृ्पा से यह व्रत बिना विध्नों के पर्रिपूर्ण हों, ऎसी कृ्पा करें। यह कहकर अपने हाथ की कलाई में बना हुआ डोरा बांध लें, जिसमें 16 गाँठे लगी हों, बाँध लें। 
(1).  लकड़ी की चौकी पर श्वेत रेशमी आसन (कपड़ा ) बिछायें। 
(2). मूर्ति को लाल वस्त्र से सजाएँ। माता लक्ष्मी को पंचामृ्त से स्नान कराया जाता है और फिर उसका सोलह प्रकार से पूजन किया जाता है। 
(3). खंड ज्योति स्थापित करें। 
(4). सुबह तथा संध्या के समय पूजा आरती करें। मेवा, मिठाई, बर्फी का नित्य भोग लगायें।   
(5). पूजन सामग्री में चन्दन, ताल, पत्र, पुष्प माला, अक्षत, दूर्वा, लाल सूत, सुपारी, नारियल तथा नाना प्रकार के भोग रखे जाते हैं। नये सूत गोले 16-16 की संख्या में 16  बार रखे जाते हैं। 
(6). लाल कलावे का टुकड़ा लेकर उसमें 16 गांठे लगा कर कलाई में बाँध लेँ। पहले दिन सुबह पूजा के समय घर का प्रत्येक सदस्य इसे बाँधे एवं पूजा के पश्वात इसे उतार कर माता लक्ष्मी के चरणों में रख दे। इसका प्रयोग पुनः अंतिम दिन संध्या पूजा के समय होगा। 
इसके बाद व्रत करने वाले उपवासक के द्वारा 16 ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है और समुचित दान-दक्षिणा अपनी स्थिति के अनुरूप दी जाती है। 
इसके बाद निम्न मंत्र का उच्चारण किया जाता है :-
क्षीरोदार्णवसम्भूता लक्ष्मीश्चन्द्र सहोदरा। 
व्रतोनानेत सन्तुष्टा भवताद्विष्णुबल्लभा 
अर्थात, क्षीर सागर से प्रकट हुई माता लक्ष्मी, चन्दमा की सहोदर, भगवान् श्री विष्णु वल्लभा, महालक्ष्मी इस व्रत से संतुष्ट हों। 
इसके बाद चार ब्राह्मण और 16 ब्राह्मणियों को भोजन करना चाहिए। इस प्रकार यह व्रत पूरा होता है।इस प्रकार जो इस व्रत को करता है, उसे अष्ट लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। 
उद्यापन की विधि :- 
(1). व्रत के अंतिम दिन उद्यापन के समय दो सूप-छाज लें। सूप ना मिले तो नई थाली में 16 श्रृंगार के सामान, 16 की संख्या में और दूसरी थाली अथवा सूप से ढकें। 16 दिए जलाएं, पूजा करें, थाली में रखे। सुहाग के सामान को देवी जी को स्पर्श कराएँ एवं उसे दान करने का संकल्प लें। 
(2). जब चन्द्रमा निकल आये तो लोटे में जल लेकर तारों को अर्घ दें तथा उत्तर दिशा की ओर मुँह करके पति-पत्नी एक दूसरे का हाथ थाम कर के माता महालक्ष्मी को अपने घर आने का न्यौता  दें कि हे! माता महालक्ष्मी मेरे घर पधारो।  इस प्रकार तीन बार आग्रह करें। 
(3). इसके पश्चात एक सुन्दर थाली में माता महालक्ष्मी के लिए, बिना लहसुन प्याज का भोजन सजाएँ तथा घर के उन सभी सदस्यों को भी थाली लगायें जो व्रत से हैं। यदि संभव हो तो माता को चांदी की थाली में भोजन परोसें। ध्यान रखें कि थाली ऐसे रखी होनी चाहिये कि माता का मुँख उत्तर दिशा में हो और बाकि व्रती पूर्व या पश्चिम दिशा की ओर मुँह कर के भोजन करें। 
(4). भोजन में पूड़ी, सब्जी, रायता, मिठाई और खीर होने चाहिये। 
(5). भोजन के पश्चात माता की थाली ढँक दें एवं सूप में रखा सामान भी रात भर ढंका रहने दें। सुबह उठके इस भोजन को किसी गाय को खिला दें और दान सामग्री को किसी ब्राह्मण को दान करें जो कि इस व्रत की अवधी में महालक्ष्मी का जाप करता हो या फिर स्वयं यह व्रत करता हो, यदि ऐसा संभव न हो तो किसी भी ब्राह्मण को ये दान दे सकते हैं या फिर माता लक्ष्मी के मन्दिर में देना अति उत्तम होगा। 
दान सामग्री की 16 वस्तुएं  :– 
सोलह चुनरी, सोलह सिंदूर, सोलह लाली, सोलह रिबन, सोलह कंघे, सोलह शीशे, सोलह बिछुए, नाक की सोलह लौंग, सोलह फल, सोलह मिठाई, सोलह मेवे, सोलह लौंग, सोलह इलायची, सोलह मीटर सफेद कपड़ा या सोलह रुमाल। 
माँ महालक्ष्मी का धन  मंत्र ::
ॐ ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रासिद प्रासिद श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्षमाये  नमः। 
 
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SARASWATI VANDNA
सरस्वती वन्दना
 CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
हंसारूढा हरहसितहारेन्दुकुन्दावदाता वाणी मन्दस्मिततरमुखी मौलिबद्धेन्दुलेखा। विद्यावीणामृतमयघटाक्षस्त्रजा दीप्तहस्ता श्वेतताब्जस्था भवदभिमतप्राप्तये भारती स्यात्॥
जो हंस पर विराजमान हैं, शिव जी के अट्टहास, हार, चन्द्रमा और कुन्द के समान उज्वल वर्ण वाली हैं तथा वाणी स्वरूपा हैं, जिनका मुख मन्द-मुसकान से सुशोभित है और मस्तक चन्द्र रेखा से विभूषित है तथा जिनके हाथ पुस्तक, वीणा, अमृतमय घट और अक्ष माला से उद्दीप्त हो रहे हैं, जो श्वेत कमल पर आसीन हैं, वे सरस्वती देवी भक्तों की अभीष्ट सिद्धि करने वाली हों।[दक्षिणा मूर्ति संहिता]
SARASWATI PUJA-BASANT PANCHMI सरस्वती पूजा-बसन्त पञ्चमी :: Basant Panchami is celebrated on the fifth day of  Magh (end of January) and is dedicated to Maa Bhagwati Saraswati's Puja-worship. Maa Saraswati appeared prior of Maa Radha from the left half of Bhagwan Shri Krashn, in Gou Lok. She is one of the Tri Devi's, worshipped along with Maa Laxmi and Mata Parvati. Vasant Panchami, is celebrated as the day for the worship of Kam Dev and his wife Rati as well.
वसंत पंचमी या श्री पंचमी के अवसर पर विद्या की देवी माँ सरस्वती की पूजा की जाती है। यह पूजा पूर्वी भारत, पश्चिमोत्तर बांग्लादेश, नेपाल और अन्य कई राष्ट्रों में बड़े उल्लास से मनायी जाती है। इस दिन पीले वस्त्र धारण किये जाते हैं। 
वसंत ऋतु में मौसम बहुत अच्छा रहता है। वसंत आते ही प्रकृति का कण-कण खिल उठता है। मानव तो क्या पशु-पक्षी तक उल्लास से भर जाते हैं। इस दौरान हर दिन, नयी उमंग से उदय होता है और नयी चेतना प्रदान करता है। सभी तरफ फूलों की बहार आती है। सरसों फूलने लगती है। गेहूँ की बालियाँ खिलतीं हैं। आम के पेड़ों पर बौर आ जाता और हर तरफ़ रंग-बिरंगी तितलियाँ मँडराने लगतीं। वसंत ऋतु का स्वागत करने के लिए माघ महीने के पाँचवे दिन एक बड़ा जश्न मनाया जाता है और  भगवान् विष्णु और कामदेव की पूजा होती। यह वसंत पंचमी का त्यौहार कहलाता है। शास्त्रों में बसंत पंचमी का वर्णन ऋषि पंचमी के नाम से भी मिलता है। 
SARASWATI MANTR सरस्वती मंत्र ::
ऐं॥1॥
Aem.
ऐं लृं॥2॥
Aem Lram॥
ऐं रुं स्वों॥3॥
Aem Rum Svom.
वद वद वाग्वादिनी स्वाहा॥4॥
Vad Vad Vagvadini Svaha.
ॐ ऐं नमः॥5॥
Om Aem Namah.
ॐ ऐं क्लीं सौः॥6॥
Om Aem Kleem Sauh.
ॐ ऐं महासरस्वत्यै नमः॥7॥
Om Aem Maha Sarasvatyae Namah.
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं वाग्देव्यै सरस्वत्यै नमः॥8॥
Om Aem Hreem Shreem Vagdevyae Sarasvatyae Namah॥
ॐ अर्हं मुख कमल वासिनी पापात्म क्षयम्कारी वद वद वाग्वादिनी सरस्वती ऐं ह्रीं नमः स्वाहा॥9॥
Om Arham Mukh Kamal Vasini Papatm Kshaymkari Vad Vad Vagvadini Saraswati Aim Hreem Namah Svaha.
या देवी सर्वभूतेषु विद्यारूपेण संस्थिता। 
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥10॥
Ya Devi Sarv Bhuteshu Vidyarupen Sansthita; 
Namastasyae Namastasyae Namastasyae Namo Namah.
ॐ ऐं वाग्देव्यै विद्महे कामराजाय धीमहि। तन्नो देवी प्रचोदयात्॥11॥
Om Aim Vagdevyae Vidmahe Kamarajay Dhimahi; Tanno Devi Prachodayat.
सरस्वती नमस्तुभ्यं वर्दे कामरूपिणी विद्यारम्भं करिष्यामि सिद्धिर्भवतु में सदा॥12॥
हे सबकी कामना पूर्ण करने वाली माता सरस्वती, आपको नमस्कार करता हूँ। मैं अपनी विद्या ग्रहण करना आरम्भ कर रहा हूँ, मुझे इस कार्य में सिद्धि मिले।
Saraswati Yantra

सरस्वती महाभागे विद्ये कमललोचने विद्यारूपा विशालाक्षि विद्यां देहि नमोस्तुते॥13॥
या देवी सर्वभूतेषू, मां सरस्वती रूपेण संस्थिता। 
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥14॥
ऐं ह्रीं श्रीं वाग्वादिनी सरस्वती देवी मम जिव्हायां। 
सर्व विद्यां देही दापय-दापय स्वाहा॥15॥
ॐ ह्रीं ऐं ह्रीं सरस्वत्यै नमः॥16॥
वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि। 
मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणी विनायकौ॥17॥
सरस्वत्यै नमो नित्यं भद्रकाल्यै नमो नम:। 
वेद वेदान्त वेदांग विद्यास्थानेभ्य एव च। सरस्वति महाभागे विद्ये कमललोचने 
विद्यारूपे विशालाक्षी विद्यां देहि नमोस्तुते॥18॥
प्रथम भारती नाम, द्वितीय च सरस्वती तृतीय शारदा देवी, चतुर्थ हंसवाहिनी
पंचमम् जगतीख्याता, षष्ठम् वागीश्वरी तथा सप्तमम् कुमुदीप्रोक्ता, अष्ठमम् ब्रह्मचारिणी नवम् बुद्धिमाता च दशमम् वरदायिनी एकादशम् चंद्रकांतिदाशां भुवनेशवरी द्वादशेतानि नामानि त्रिसंध्य य: पठेनर: जिह्वाग्रे वसते नित्यमं
ब्रह्मरूपा सरस्वती सरस्वती महाभागे विद्येकमललोचने विद्यारूपा विशालाक्षि॥19॥ 
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना। या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा॥20॥
शुक्लवर्ण वाली, संपूर्ण चराचर जगत्‌ में व्याप्त, आदिशक्ति, परब्रह्म के विषय में किए गए विचार एवं चिंतन के सार रूप परम उत्कर्ष को धारण करने वाली, सभी भयों से भयदान देने वाली, अज्ञान के अंधेरे को मिटाने वाली, हाथों में वीणा, पुस्तक और स्फटिक की माला धारण करने वाली और पद्मासन पर विराजमान बुद्धि प्रदान करने वाली, सर्वोच्च ऐश्वर्य से अलंकृत, भगवती शारदा (सरस्वती देवी) की मैं वंदना करता हूँ।  
ध्यान मंत्र :: 
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता। 
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना॥
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता। 
सा माम् पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा॥21॥
जो विद्या की देवी भगवती सरस्वती कुन्द के फूल, चंद्रमा, हिमराशि और मोती के हार की तरह धवल वर्ण की हैं और जो श्वेत वस्त्र धारण करती हैं, जिनके हाथ में वीणा-दण्ड शोभायमान है, जिन्होंने श्वेत कमलों पर आसन ग्रहण किया है तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर आदि देवताओं द्वारा जो सदा पूजित हैं, वही संपूर्ण जड़ता और अज्ञान को दूर कर देने वाली माँ सरस्वती हमारी रक्षा करें। 
जो कुन्द-पुष्प और हिम-माला के समान उज्जवल-वर्णा हैं, जो उज्जवल वस्त्र-धारिणी हैं, जो सुन्दर वीणा-दण्ड से सुशोभित कर-कमलों वाली हैं और जो सदा ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवताओं द्वारा वन्दिता हैं, वे जड़ता को निर्मूल करनेवाली भगवती सरस्वती मेरी रक्षा करें। 
Ya Kundendu-Tushar-Har-Dhavala, Ya Shubhra-Vastravrita, 
Ya Vina-Vara-Danda-Mandita-Kara, Ya Shveta-Padmasana. 
Ya Brahmachyuta-Shankara-Prabhritibhirdevaih Sada Vandita, 
Sa Mam Patu Saraswati Bhagwati Nihshesha-Jadyapaha.
शुक्लाम् ब्रह्मविचार सार परमाम् आद्यां जगद्व्यापिनीम्। 
वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्‌॥
हस्ते स्फटिकमालिकाम् विदधतीम् पद्मासने संस्थिताम्‌। 
वन्दे ताम् परमेश्वरीम् भगवतीम् बुद्धिप्रदाम् शारदाम्‌॥22॥
प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु।
ये परम चेतना हैं। माँ सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। हममें जो आचार और मेधा है, उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं। इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है। भगवान् श्री कृष्ण ने माँ सरस्वती वरदान दिया था कि वसंत पंचमी के दिन उनकी आराधना की जाएगी।
कवि, लेखक, गायक, वादक, नाटककार, नृत्यकार अपने साज़ और उपकरणों की पूजा और माँ सरस्वती की वंदना करते हैं। वसंत पंचमी के दिन ही भगवान् श्री राम शबरी की कुटिया में आये थे। उस क्षेत्र के वनवासी आज भी एक शिला को पूजते हैं, जिसके बारे में उनकी श्रध्दा है कि भगवान् श्री राम वहीं आकर यहीं बैठे थे। वहीं शबरी माता का मंदिर भी है।
पृथ्वीराज चौहान ने मोहम्मद ग़ोरी को 16 बार पराजित किया और उदारता दिखाते हुए हर बार जीवित छोड़ दिया। सत्रहवीं बार पृथ्वीराज चौहान पराजित हुआ, तो मोहम्मद ग़ोरी ने उसे अफगानिस्तान ले गया और उसकी आँखें फोड़ दीं। मोहम्मद ग़ोरी ने मृत्युदंड देने से पूर्व उनके शब्दभेदी बाण का कमाल देखना चाहा। पृथ्वीराज के साथी कवि चंदबरदाई के परामर्श पर ग़ोरी ने ऊँचे स्थान पर बैठकर तवे पर चोट मारकर संकेत किया। तभी चंदबरदाई ने पृथ्वीराज को संदेश दिया :-
चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण। 
ता ऊपर सुल्तान है, मत चूकै चौहान॥
Vasant Panchami is associated with the sensuality-passions, in Kachchh (Gujarat) and celebrated by preparing bouquet and garlands of flowers set with mango leaves, as a gift. People dress in saffron, pink or yellow and visit each other. Songs pertaining to Bhagwan Shri Krashn & Maa Radha are sung with festivity-fervour. Kam Dev and his wife Rati are considered by them as incarnation of Bhagwan Shri Krashn & Radha Ji.
People in Maharashtr, Madhy Pradesh, Chhattis Garh and Uttar Pradesh, worship Bhagwan Shiv and Maa Parvati on this day. Offerings of mango flowers and the ears of wheat are traditionally made.
The temple devoted to Sury Bhagwan located  in Aurangabad district of  Bihar is called Sury Dev temple and it was established on Basant Panchami. The day is celebrated to commemorate the founding of the shrine by King Ala of Allahabad. The statues are washed and old red clothes on them are replaced with new ones on Basant Panchami. Devotees sing, dance and play musical instruments.
बीज मन्त्र :: ऐं 
सरस्वती मन्त्र :: ॐ ह्रां ऐं ह्रीं सरस्वतयै नमः।
मानस पूजा :: 
ॐ ऐं क्लीं सौः ह्रीं श्रीं ध्रीं वद वद वाग्-वादिनि सौः क्लीं ऐं श्रीसरस्वत्यै नमः। 
शुक्लां ब्रह्म-विचार-सार-परमां आद्यां जगद्-व्यापिनीम्। 
वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्॥ 
हस्ते स्फाटिक-मालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम्। 
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धि-प्रदां शारदाम्॥1॥ 
या कुन्देन्दु-तुषार-हार-धवला या शुभ्र-वस्त्रावृता, 
या वीणा वर-दण्ड-मण्डित-करा या श्वेत-पद्मासना।
या ब्रह्माऽच्युत-शंकर-प्रभृतिभिर्देवैः सदा सेविता, 
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेष-जाड्यापहा॥2॥ 
ह्रीं ह्रीं ह्रीं हृद्यैक-बीजे शशि-रुचि-कमले कल-विसृष्ट-शोभे, 
भव्ये भव्यानुकूले कुमति-वन-दवे विश्व-वन्द्यांघ्रि-पद्मे।
पद्मे पद्मोपविष्टे प्रणत-जनो मोद सम्पादयित्री, 
प्रोत्फुल्ल-ज्ञान-कूटे हरि-निज-दयिते देवि! संसार तारे॥3॥ 
ऐं ऐं दृष्ट-मन्त्रे कमल-भव-मुखाम्भोज-भूत-स्वरुपे, 
रुपारुप-प्रकाशे सकल-गुण-मये निर्गुणे निर्विकारे।
न स्थूले नैव सूक्ष्मेऽप्यविदित-विभवे नापि विज्ञान-तत्त्वे, 
विश्वे विश्वान्तराले सुर-वर-नमिते निष्कले नित्य-शुद्धे॥4॥ 
इन मंत्रों का 5,00,000  बार जाप करने से सरस्वती कण्ठ में वास करती है।
सरस्वती स्त्रोत्र ::
ॐ रवि-रुद्र-पितामह-विष्णु-नुतं, हरि-चन्दन-कुंकुम-पंक-युतम्!
मुनि-वृन्द-गजेन्द्र-समान-युतं, तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्॥1॥ 
शशि-शुद्ध-सुधा-हिम-धाम-युतं, शरदम्बर-बिम्ब-समान-करम्।
बहु-रत्न-मनोहर-कान्ति-युतं, तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्॥2॥ 
कनकाब्ज-विभूषित-भीति-युतं, भव-भाव-विभावित-भिन्न-पदम्।
प्रभु-चित्त-समाहित-साधु-पदं, तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्॥3॥ 
मति-हीन-जनाश्रय-पारमिदं, सकलागम-भाषित-भिन्न-पदम्।
परि-पूरित-विशवमनेक-भवं, तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्॥4॥ 
सुर-मौलि-मणि-द्युति-शुभ्र-करं, विषयादि-महा-भय-वर्ण-हरम्।
निज-कान्ति-विलायित-चन्द्र-शिवं, तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्॥5॥ 
भव-सागर-मज्जन-भीति-नुतं, प्रति-पादित-सन्तति-कारमिदम्।
विमलादिक-शुद्ध-विशुद्ध-पदं, तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्॥6॥ 
परिपूर्ण-मनोरथ-धाम-निधिं, परमार्थ-विचार-विवेक-विधिम्।
सुर-योषित-सेवित-पाद-तमं, तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्॥7॥ 
गुणनैक-कुल-स्थिति-भीति-पदं, गुण-गौरव-गर्वित-सत्य-पदम्।
कमलोदर-कोमल-पाद-तलं,तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्॥8॥ 
सरस्वती की पूर्ण कृपा  एवं मोक्ष प्राप्त करने हेतु इस स्तोत्र का प्रतिदिन कम से कम तीन बार अवश्य पाठ करें।
फल-श्रुति ::
इदं स्तोत्रं महा-पुण्यं, ब्रह्मणा परिकीर्तितं। 
यः पठेत् प्रातरुत्थाय, तस्य कण्ठे सरस्वती॥ 
त्रिसंध्यं यो जपेन्नित्यं, जले वापि स्थले स्थितः। 
पाठ-मात्रे भवेत् प्राज्ञो, ब्रह्म-निष्ठो पुनः पुनः॥ 
हृदय-कमल-मध्ये, दीप-वद् वेद-सारे। 
प्रणव-मयमतर्क्यं, योगिभिः ध्यान-गम्यकम्॥ 
हरि-गुरु-शिव-योगं, सर्व-भूतस्थमेकम्। 
सकृदपि मनसा वै, ध्यायेद् यः सः भवेन्मुक्त॥ 
सरस्वती चालीसा ::
जनक जननि पद्मरज, निज मस्तक पर धरि। 
बन्दौं मातु सरस्वती, बुद्धि बल दे दातारि॥
पूर्ण जगत में व्याप्त तव, महिमा अमित अनंतु। 
दुष्जनों के पाप को, मातु तु ही अब हन्तु॥
जय श्री सकल बुद्धि बलरासी। जय सर्वज्ञ अमर अविनाशी॥
जय जय जय वीणाकर धारी। करती सदा सुहंस सवारी॥1॥
रूप चतुर्भुज धारी माता। सकल विश्व अन्दर विख्याता॥
जग में पाप बुद्धि जब होती। तब ही धर्म की फीकी ज्योति॥2॥
तब ही मातु का निज अवतारी। पाप हीन करती महतारी॥
वाल्मीकिजी थे हत्यारा। तव प्रसाद जानै संसारा॥3॥
रामचरित जो रचे बनाई। आदि कवि की पदवी पाई॥
कालिदास जो भये विख्याता। तेरी कृपा दृष्टि से माता॥4॥
तुलसी सूर आदि विद्वाना। भये और जो ज्ञानी नाना॥
तिन्ह न और रहेउ अवलम्बा। केव कृपा आपकी अम्बा॥5॥
करहु कृपा सोइ मातु भवानी। दुखित दीन निज दासहि जानी॥
पुत्र करहिं अपराध बहूता। तेहि न धरई चित माता॥6॥
राखु लाज जननि अब मेरी। विनय करउं भांति बहु तेरी॥
मैं अनाथ तेरी अवलंबा। कृपा करउ जय जय जगदंबा॥7॥
मधुकैटभ जो अति बलवाना। बाहुयुद्ध विष्णु से ठाना॥
समर हजार पाँच में घोरा। फिर भी मुख उनसे नहीं मोरा॥8॥
मातु सहाय कीन्ह तेहि काला। बुद्धि विपरीत भई खलहाला॥
तेहि ते मृत्यु भई खल केरी। पुरवहु मातु मनोरथ मेरी॥9॥
चंड मुण्ड जो थे विख्याता। क्षण महु संहारे उन माता॥
रक्त बीज से समरथ पापी। सुरमुनि हदय धरा सब काँपी॥10॥
काटेउ सिर जिमि कदली खम्बा। बारबार बिन वउं जगदंबा॥
जगप्रसिद्ध जो शुंभनिशुंभा। क्षण में बाँधे ताहि तू अम्बा॥11॥
भरतमातु बुद्धि फेरेऊ जाई। रामचन्द्र बनवास कराई॥
एहिविधि रावण वध तू कीन्हा। सुर नरमुनि सबको सुख दीन्हा॥12॥
को समरथ तव यश गुन गाना। निगम अनादि अनंत बखाना॥
विष्णु रुद्र जस कहिन मारी। जिनकी हो तुम रक्षाकारी॥13॥
रक्त दन्तिका और शताक्षी। नाम अपार है दानव भक्षी॥
दुर्गम काज धरा पर कीन्हा। दुर्गा नाम सकल जग लीन्हा॥14॥
दुर्ग आदि हरनी तू माता। कृपा करहु जब जब सुखदाता॥
नृप कोपित को मारन चाहे। कानन में घेरे मृग नाहे॥15॥
सागर मध्य पोत के भंजे। अति तूफान नहिं कोऊ संगे॥
भूत प्रेत बाधा या दुःख में। हो दरिद्र अथवा संकट में॥16॥
नाम जपे मंगल सब होई। संशय इसमें करई न कोई॥
पुत्रहीन जो आतुर भाई। सबै छांड़ि पूजें एहि भाई॥17॥
करै पाठ नित यह चालीसा। होय पुत्र सुन्दर गुण ईशा॥
धूपादिक नैवेद्य चढ़ावै। संकट रहित अवश्य हो जावै॥18॥
भक्ति मातु की करैं हमेशा। निकट न आवै ताहि कलेशा॥
बंदी पाठ करें सत बारा। बंदी पाश दूर हो सारा॥19॥
रामसागर बाँधि हेतु भवानी। कीजै कृपा दास निज जानी॥20॥
मातु सूर्य कान्ति तव, अन्धकार मम रूप।
डूबन से रक्षा करहु परूँ न मैं भव कूप॥
बलबुद्धि विद्या देहु मोहि, सुनहु सरस्वती मातु।
राम सागर अधम को आश्रय तू ही देदातु॥
पावका न: सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती। यज्ञं वष्टु धियावसु:॥
पवित्र बनाने वाली, पोषण देने वाली, बुद्धीमत्ता पूर्वक ऐश्वर्य प्रदान करने वाली सरस्वती! ज्ञान और कर्म से हमारे यज्ञ को सफल बनायें।[ऋग्वेद 1.3.10]
हे पवित्र करने वाली सरस्वती! तुम बुद्धि द्वारा अन्न और धन को प्रदान करने वाली हो। मेरे इस यज्ञ को सफल बनाओ।
Hey Saraswati! You make us pure, nourish and grant intellect-prudence associated with all sorts of amenities-comforts. Please make our Yagy-endeavours successful by granting us enlightenment-intelligence, amenities.
चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम्। यज्ञं दधे सरस्वती॥
सत्यप्रिय (वचन) बोलने की प्रेरणा देने वाली, मेधावी जनों को यज्ञानुष्ठान की प्रेरणा (मति) प्रदान करने वाली देवी सरस्वती, हमारे इस यज्ञ को स्वीकार करके हमें अभीष्ट वैभव प्रदान करें।[ऋग्वेद 1.3.11]  
सत्य कर्मों की प्रेरक उत्तम बुद्धि को प्रशस्त करने वाली यह सरस्वती हमारे यज्ञ को स्वीकार करने वाली हैं।
Let Devi Saraswati inspire us to speak the truth, the genius to conduct Yagy, accept our Yagy and grant us with desired amenities, wealth.
महो अर्ण: सरस्वती प्र चेतयति केतुना। धियो विश्वां वि राजति॥
जो देवी सरस्वती नदी रूप में प्रभूत जल को प्रवाहित करती हैं; वे सुमति को जगाने वाली देवी सरस्वती, सभी याजकों की प्रज्ञा को प्रखर बनाती हैं।[ऋग्वेद 1.3.12] 
सरस्वती विशाल ज्ञान-समुद्र को उज्ज्वल करने वाली है। यही सब बुद्धियों को ज्ञान की ओर प्रेरित करती है।
The Devi Saraswati who make the water flow in the river, increase-awake the pious-auspiciousness, strengthen the wisdom of the devotees.
इळा सरस्वती मही तिस्रो देवीर्मयोभुवः। बर्हिः सीदन्त्वस्रिधः॥
इळा, सरस्वती और मही ये तीनों देवियाँ सुखकारी और क्षयरहित हैं! ये तीनों बिछे हुए दीप्तिमान कुश के आसनों पर विराजमान हों।[ऋग्वेद 1.13.9]
इला सरस्वती और मही, ये तीनों देवियाँ सुख प्रदान करने वाली हैं। वे इस कुश आसन को ग्रहण करें।
The three goddesses :- Ila, Saraswati & Mahi who grants comforts and are imperishable should occupy the glittering-divine cushions-seats.
SARASWATI KAWACH श्रीमद्सरस्वतीदेवीकवचम्- शारदाम्बाकवचम् ::
नारद उवाच :-
श्रुतं सर्वं मया पूर्वं त्वत्प्रसादात्सुधोपमम्।
अधुना प्रकृतीनां च व्यस्तं वर्णय पूजनम्॥1॥
कस्याः पूजा कृता केन कथं मर्त्ये प्रचारिता।
केन वा पूजिता का वा केन का वा स्तुता प्रभो॥2॥
तासां स्तोत्रं च ध्यानं च प्रभावं चरितं शुभम्।
काभिः केभ्यो वरो दत्तस्तन्मे व्याख्यातुमर्हसि॥3॥
श्रीनारायण उवाच :-
गणेशजननी दुर्गा राधा लक्ष्मीः सरस्वती।
सावित्री च सृष्टिविधौ प्रकृतिः पञ्चधा स्मृता॥4॥
आसां पूजा प्रसिद्धा च प्रभावः परमाद्भुतः।
सुधोपमं च चरितं सर्वमङ्गलकारणम्॥5॥
प्रकृत्यंशाः कला याश्च तासां च चरितं शुभम्।
सर्वं वक्ष्यामि ते ब्रह्मन् सावधानो निशामय॥6॥
काली वसुन्धरा गङ्गा षष्ठी मङ्गलचण्डिका।
तुलसी मनसा निद्रा स्वधा स्वाहा च दक्षिणा॥7॥
सङ्क्षिप्तमासां चरितं पुण्यदं श्रुतिसुन्दरम्।
जीवकर्मविपाकं च तच्च वक्ष्यामि सुन्दरम्॥8॥
दुर्गायाश्चैव राधाया विस्तीर्णं चरितं महत्।
तद्वत्पश्चात्प्रवक्ष्यामि सङ्क्षेपक्रमतः श‍ृणु॥9॥
आदौ सरस्वतीपूजा श्रीकृष्णेन विनिर्मिता।
यत्प्रसादान्मुनिश्रेष्ठ मूर्खो भवति पण्डितः॥10॥
आविर्भूता यथा देवी वक्त्रतः कृष्णयोषितः।
इयेष कृष्णं कामेन कामुकी कामरूपिणी॥11॥
स च विज्ञाय तद्भावं सर्वज्ञः सर्वमातरम्।
तामुवाच हितं सत्यं परिणामे सुखावहम्॥12॥
श्रीकृष्ण उवाच :-
भज नारायणं साध्वि मदंशं च चतुर्भुजम्।
युवानं सुन्दरं सर्वगुणयुक्तं च मत्समम्॥13॥
कामज्ञं कामिनीनां च तासां च कामपूरकम्।
कोटिकन्दर्पलावण्यं लीलालङ्कतमीश्वरम्॥14॥
कान्ते कान्तं च मां कृत्वा यदि स्थातुमिहेच्छसि।
त्वत्तो बलवती राधा न भद्रं ते भविष्यति॥15॥
यो यस्माद् बलवान्वापि ततोऽन्यं रक्षितुं क्षमः।
कथं परान्साधयति यदि स्वयमनीश्वरः॥16॥
सर्वेशः सर्वशास्ताहं राधां बाधितुमक्षमः।
तेजसा मत्समा सा च रूपेण च गुणेन च॥17॥
प्राणाधिष्ठातृदेवी सा प्राणांस्त्यक्तुं च कः क्षमः।
प्राणतोऽपि प्रियः पुत्रः केषां वास्ति च कश्चन॥18॥
त्वं भद्रे गच्छ वैकुण्ठं तव भद्रं भविष्यति।
पतिं तमीश्वरं कृत्वा मोदस्व सुचिरं सुखम्॥19॥
लोभमोहकामक्रोधमानहिंसाविवर्जिता।
तेजसा त्वत्समा लक्ष्मी रूपेण च गुणेन च॥20॥
तया सार्धं तव प्रीत्या शश्वत्कालः प्रयास्यति।
गौरवं च हरिस्तुल्यं करिष्यति द्वयोरपि॥21॥
प्रतिविश्वेषु तां पूजां महतीं गौरवान्विताम्।
माघस्य शुक्लपञ्चम्यां विद्यारम्भे च सुन्दरि॥22॥
मानवा मनवो देवा मुनीन्द्राश्च मुमुक्षवः।
वसवो योगिनः सिद्धा नागा गन्धर्वराक्षसाः॥23॥
मद्वरेण करिष्यन्ति कल्पे कल्पे लयावधि।
भक्तियुक्ताश्च दत्त्वा वै चोपचाराणि षोडश॥24॥
कण्वशाखोक्तविधिना ध्यानेन स्तवनेन च।
जितेन्द्रियाः संयताश्च घटे च पुस्तकेऽपि च॥25॥
कृत्वा सुवर्णगुटिकां गन्धचन्दनचर्चिताम्।
कवचं ते ग्रहीष्यन्ति कण्ठे वा दक्षिणे भुजे॥26॥
पठिष्यन्ति च विद्वांसः पूजाकाले च पूजिते।
इत्युक्त्वा पूजयामास तां देवीं सर्वपूजिताम्॥27॥
ततस्तत्पूजनं चकुर्ब्रह्मविष्णुशिवादयः।
अनन्तश्चापि धर्मश्च मुनीन्द्राः सनकादयः॥28॥
सर्वे देवाश्च मुनयो नृपाश्च मानवादयः।
बभूव पूजिता नित्यं सर्वलोकैः सरस्वती॥29॥
नारद उवाच :-
पूजाविधानं कवचं ध्यानं चापि निरन्तरम्।
पूजोपयुक्तं नैवेद्यं पुष्पं च चन्दनादिकम्॥30॥
वद वेदविदां श्रेष्ठ श्रोतुं कौतूहलं मम।
वर्तते हृदये शश्वत्किमिदं श्रुतिसुन्दरम्॥31॥
श्रीनारायण उवाच :-
श‍ृणु नारद वक्ष्यामि कण्वशाखोक्तपद्धतिम्।
जगन्मातुः सरस्वत्याः पूजाविधिसमन्विताम्॥32॥
माघस्य शुक्लपञ्चम्यां विद्यारम्भदिनेऽपि च।
पूर्वेऽह्नि समयं कृत्वा तत्राह्नि संयतः शुचिः॥33॥
स्नात्वा नित्यक्रियाः कृत्वा घटं संस्थाप्य भक्तितः।
स्वशाखोक्तविधानेन तान्त्रिकेणाथवा पुनः॥34॥
गणेशं पूर्वमभ्यर्च्य ततोऽभीष्टां प्रपूजयेत्।
ध्यानेन वक्ष्यमाणेन ध्यात्वा बाह्यघटे ध्रुवम्॥35॥
ध्यात्वा पुनः षोडषोपचारेण पूजयेद् व्रती।
पूजोपयुक्तं नैवेद्यं यच्च वेदनिरूपितम्॥36॥
वक्ष्यामि सौम्य तत्किञ्चिद्यथाधीतं यथागमम्।
नवनीतं दधि क्षीरं लाजांश्च तिललड्डुकम्॥37॥
इक्षुमिक्षुरसं शुक्लवर्णं पञ्चगुडं मधु।
स्वस्तिकं शर्करां शुक्लधान्यस्याक्षतमक्षतम्॥38॥
अच्छिन्नशुक्लधान्यस्य पृथुकं शुक्लमोदकम्।
घृतसैन्धवसंयुक्तं हविष्यान्नं यथोदितम्॥39॥
यवगोधूमचूर्णानां पिष्टकं घृतसंयुतम्।
पिष्टकं स्वस्तिकस्यापि पक्वरम्भाफलस्य च॥40॥
परमान्नं च सघृतं मिष्टान्नं च सुधोपमम्।
नारिकेलं तदुदकं कसेरुं मूलमार्द्रकम्॥41॥
पक्वरम्भाफलं चारु श्रीफलं बदरीफलम्।
कालदेशोद्भवं चारु फलं शुक्लं च संस्कतम्॥42॥
सुगन्धं शुक्लपुष्पं च सुगन्धं शुक्लचन्दनम्।
नवीनं शुक्लवस्त्रं च शङ्खं च सुन्दरं मुने॥43॥
माल्यं च शुक्लपुष्पाणां शुक्लहारं च भूषणम्।
यादृशं च श्रुतौ ध्यानं प्रशस्यं श्रुतिसुन्दरम्॥44॥
तन्निबोध महाभाग भ्रमभञ्जनकारणम्।
सरस्वतीं शुक्लवर्णां सस्मितां सुमनोहराम्॥45॥
कोटिचन्द्रप्रभामुष्टपुष्टश्रीयुक्तविग्रहाम्।
वह्निशुद्धांशुकाधानां वीणापुस्तकधारिणीम्॥46॥
रत्नसारेन्द्रनिर्माणनवभूषणभूषिताम्।
सुपूजितां सुरगणैर्ब्रह्मविष्णुशिवादिभिः॥47॥
वन्दे भक्त्या वन्दितां च मुनीन्द्रमनुमानवैः।
एवं ध्यात्वा च मूलेन सर्वं दत्त्वा विचक्षणः॥48॥
संस्तूय कवचं धृत्वा प्रणमेद्दण्डवद्भुवि।
येषां चेयमिष्टदेवी तेषां नित्यक्रिया मुने॥49॥
विद्यारम्भे च वर्षान्ते सर्वेषां पञ्चमीदिने।
सर्वोपयुक्तं मूलं च वैदिकाष्टाक्षरः परः॥50॥
येषां येनोपदेशो वा तेषां स मूल एव च।
सरस्वती चतुर्थ्यन्तं वह्निजायान्तमेव च॥51॥
लक्ष्मीमायादिकं चैव मन्त्रोऽयं कल्पपादपः।
पुरा नारायणश्चेमं वाल्मीकाय कृपानिधिः॥52॥
प्रददौ जाह्नवीतीरे पुण्यक्षेत्रे च भारते।
भृगुर्ददौ च शुक्राय पुष्करे सूर्यपर्वणि॥53॥
चन्द्रपर्वणि मारीचो ददौ वाक्पतये मुदा।
भृगोश्चैव ददौ तुष्टो ब्रह्मा बदरिकाश्रमे॥54॥
आस्तिकस्य जरत्कारुर्ददौ क्षीरोदसन्निधौ।
विभाण्डको ददौ मेरौ ऋष्यश‍ृङ्गाय धीमते॥55॥
शिवः कणादमुनये गौतमाय ददौ मुदा।
सूर्यश्च याज्ञवल्क्याय तथा कात्यायनाय च॥56॥
शेषः पाणिनये चैव भारद्वाजाय धीमते।
ददौ शाकटायनाय सुतले बलिसंसदि॥57॥
चतुर्लक्षजपेनैव मन्त्रः सिद्धो भवेन्नृणाम्।
यदि स्यान्मन्त्रसिद्धो हि बृहस्पतिसमो भवेत्॥5॥
कवचं श‍ृणु विप्रेन्द्र यद्दत्तं ब्रह्मणा पुरा।
विश्वस्रष्टा विश्वजयं भृगवे गन्धमादने॥59॥
भृगुरुवाच :-
ब्रह्मन्ब्रह्मविदां श्रेष्ठ ब्रह्मज्ञानविशारद।
सर्वज्ञ सर्वजनक सर्वेश सर्वपूजित॥60॥
सरस्वत्याश्च कवचं ब्रूहि विश्वजयं प्रभो।
अयातयामं मन्त्राणां समूहसंयुतं परम्॥61॥
ब्रह्मोवाच :-
श‍ृणु वत्स प्रवक्ष्यामि कवचं सर्वकामदम्।
श्रुतिसारं श्रुतिसुखं श्रुत्युक्तं श्रुतिपूजितम्॥62॥
उक्तं कृष्णेन गोलोके मह्यं वृन्दावने वने।
रासेश्वरेण विभुना रासे वै रासमण्डले॥63॥
अतीव गोपनीयं च कल्पवृक्षसमं परम्।
अश्रुताद्भुतमन्त्राणां समूहैश्च समन्वितम्॥64॥
यद्धृत्वा भगवाञ्छुक्रः सर्वदैत्येषु पूजितः।
यद्धृत्वा पठनाद् ब्रह्मन् बुद्धिमांश्च बृहस्पतिः॥65॥
पठनाद्धारणाद्वाग्मी कवीन्द्रो वाल्मिको मुनिः।
स्वायम्भुवो मनुश्चैव यद्धृत्वा सर्वपूजितः॥66॥
कणादो गौतमः कण्वः पाणिनिः शाकटायनः।
ग्रन्धं चकार यद्धृत्वा दक्षः कात्यायनः स्वयम्॥67॥
धृत्वा वेदविभागं च पुराणान्यखिलानि च।
चकार लीलामात्रेण कृष्णद्वैपायनः स्वयम्॥68॥
शातातपश्च संवर्तो वसिष्ठश्च पराशरः।
यद्धृत्वा पठनाद् ग्रन्थं याज्ञवल्क्यश्चकार सः॥69॥
ऋष्यश‍ृङ्गो भरद्वाजश्चास्तिको देवलस्तथा।
जैगीषव्यो ययातिश्च धृत्वा सर्वत्र पूजिताः॥70॥
कवचस्यास्य विप्रेन्द्र ऋषिरेव प्रजापतिः।
स्वयं छन्दश्च बृहती देवता शारदाम्बिका॥71॥
सर्वतत्त्वपरिज्ञानसर्वार्थसाधनेषु च।
कवितासु च सर्वासु विनियोगः प्रकीर्तितः॥72॥
अथ कवचम् :-
श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा शिरो मे पातु सर्वतः।
श्रीं वाग्देवतायै स्वाहा भालं मे सर्वदावतु॥73॥
ॐ ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहेति श्रोत्रे पातु निरन्तरम्।
ओं श्रीं ह्रीं भगवत्यै सरस्वत्यै स्वाहा नेत्रयुग्मं सदावतु॥74॥
ऐं ह्रीं वाग्वादिन्यै स्वाहा नासां मे सर्वदावतु।
ह्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा चोष्ठं सदावतु॥75॥
ॐ श्रीं ह्रीं ब्राह्म्यै स्वाहेति दन्तपङ्क्तिं सदावतु।
ऐमित्येकाक्षरो मन्त्रो मम कण्ठं सदावतु॥76॥
ॐ श्रीं ह्रीं पातु मे ग्रीवां स्कन्धौ मे श्रीं सदावतु।
ॐ ह्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा वक्षः सदावतु॥77॥
ॐ ह्रीं विद्याधिस्वरूपायै स्वाहा मे पातु नाभिकाम्।
ॐ ह्रीं क्लीं वाण्यै स्वाहेति मम हस्तौ सदावतु॥78॥
ॐ सर्ववर्णात्मिकायै स्वाहा पादयुग्मं सदावतु।
ॐ वागधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा सर्वं सदावतु॥79॥
ॐ सर्वकण्ठवासिन्यै स्वाहा प्राच्यां सदावतु।
ॐ सर्वजिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहाग्निदिशि रक्षतु॥80॥
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं सरस्वत्यै बुधजनन्यै स्वाहा।
सततं मन्त्रराजोऽयं दक्षिणे मां सदावतु॥81॥
ऐं ह्रीं श्रीं त्र्यक्षरो मन्त्रो नैरृत्यां सर्वदावतु।
ॐ ऐं जिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहा मां वारुणेऽवतु॥82॥
ॐ सर्वाम्बिकायै स्वाहा वायव्ये मां सदावतु।
ॐ ऐं श्रीं क्लीं गद्यवासिन्यै स्वाहा मामुत्तरेऽवतु॥83॥
ॐ ऐं सर्वशास्त्रवासिन्यै स्वाहैशान्यां सदावतु।
ॐ ह्रीं सर्वपूजितायै स्वाहा चोर्ध्वं सदावतु॥84॥
ॐ ह्रीं पुस्तकवासिन्यै स्वाहाधो मां सदावतु।
ॐ ग्रन्थबीजस्वरूपायै स्वाहा मां सर्वतोऽवतु॥85॥
इति ते कथितं विप्र ब्रह्ममन्त्रौघविग्रहम्।
इदं विश्वजयं नाम कवचं ब्रह्मरूपकम्॥86॥
इति कवचम्।
पुरा श्रुतं धर्मवक्त्रात्पर्वते गन्धमादने।
तव स्नेहान्मयाख्यातं प्रवक्तव्यं न कस्यचित्॥87॥
गुरुमभ्यर्च्य विधिवद्वस्त्रालङ्कारचन्दनैः।
प्रणम्य दण्डवद्भूमौ कवचं धारयेत्सुधीः॥88॥
पञ्चलक्षजपेनैव सिद्धं तु कवचं भवेत्।
यदि स्यात्सिद्धकवचो बृहस्पतिसमो भवेत्॥89॥
महावाग्मी कवीन्द्रश्च त्रैलोक्यविजयी भवेत्।
शक्नोति सर्वं जेतुं च कवचस्य प्रसादतः॥90॥
इदं च कण्वशाखोक्तं कवचं कथितं मुने।
स्तोत्रं पूजाविधानं च ध्यानं च वन्दनं श‍ृणु॥91॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणे नवमस्कन्धे सरस्वतीस्तोत्रपूजाकवचादिवर्णनं नाम चतुर्थोऽध्यायः॥
इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे सरस्वतीकवचं नाम चतुर्थोऽध्यायः॥
 
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