Friday, January 31, 2014

BHAGWAN SHRI HARI VISHNU भगवान् श्री हरी विष्णु*

BHAGWAN SHRI HARI VISHNU
भगवान् श्री हरी विष्णु
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
विष्णु शब्द की व्युत्पत्ति विष् धातु से हुई है। विष् धातु ही व्याप्ति के अर्थ में विष्णु शब्द को निष्पन्न करती है।[यास्काचार्य निरुक्त 12.18]
परम वीर्यशाली :: विष् धातु से व्युत्पन्न विष्णु पद का शाब्दिक अर्थ व्यापक, गतिशील, क्रियाशील अथवा उद्यम-शील होता है। अपने बल-विक्रम के ही कारण वे लोगों द्वारा स्तुत होते हैं। वे अनन्त वीर्यवाले हैं। इस गुण के कारण ही उन्हें प्रतीक रूप से वृष्ण’भी माना गया है।
विश् धातु को भी प्रवेश के अर्थ प्रयुक्त किया जाता है, क्योंकि वह विभु होने से सर्वत्र प्रवेश किया हुआ  व्याप्त है।
विष्णु शब्द का अर्थ मुख्यतः व्यापक ही है। उसकी व्युत्पत्ति अर्थात व्याप्ति के वाचक नुक् प्रत्ययान्त विष् धातु  से हुई है। विश् धातु भी विकल्प ही है। नुक् प्रत्ययान्त विश् धातु का रूप विष्णु है।[आदि शंकराचार्य विष्णुसहस्रनाम भाष्य] 
उस महात्मा की शक्ति इस सम्पूर्ण विश्व में प्रवेश किये हुए हैं; इसलिए वह विष्णु कहलाता है, क्योंकि विश् धातु का अर्थ प्रवेश करना है।[विष्णुपुराण]
विष्णु का अर्थ व्यापक (व्यापनशील देव) ही है।[विष्णुसूक्त ऋग्वेद 1.154.1-3; आचार्य सायण]
व्यापक तथा अप्रतिहत गति :: भगवान् श्री हरी विष्णु विस्तीर्ण, व्यापक और अप्रतिहत गति वाले हैं। उरुगाय और उरुक्रम आदि पद इस तथ्य के पोषक हैं। 
भगवान् श्री हरी विष्णु का तीसरा पद जहाँ पहुँचता है, वही उनका आवास स्थान है। विष्णु लोक अत्यधिक प्रकाश युक्त परम पद, सर्वोत्कृष्ट लोक है। 
पद्मनाभ स्वामी मन्दिर,
केरल
त्रयात्मकता :: भगवान् श्री हरी विष्णु तीन पद-क्रम वाले, तीन प्रकार की गति करने वाले और लोकत्रय के धारक हैं। वे अपने तीन पाद-प्रक्षेपों से अकेले ही तीनों लोकों को नाप लेते हैं। इसी प्रकार वह त्रिधातु अर्थात् सत्, रज और तम का समीकृत रूप अथवा पृथ्वी, जल और तेज से युक्त भी हैं।
सर्जक, पालक, संहारक :: भगवान् श्री हरी विष्णु पार्थिव लोकों का निर्माण और परम विस्तृत अन्तरिक्ष आदि लोकों का प्रस्थापन करने वाले हैं। वे स्वनिर्मित लोकों में तीन प्रकार की गति करने वाले हैं। उनकी ये तीन गतियाँ उद्भव, स्थिति और विलय की प्रतीक हैं। इस प्रकार जड़-जंगम सभी के वे निर्माता भी हैं, पालक भी और विनाशक भी। 
पद्मनाभ स्वामी मन्दिर,
केरल
इस जगत के मूल में वर्तमान, नित्य, अजन्मा, अक्षय, अव्यय, एकरस तथा हेय के अभाव से निर्मल परब्रह्म को ही विष्णु संज्ञा दी है। वे (विष्णु) 'परानां परः' (प्रकृति से भी श्रेष्ठ), अन्तरात्मा में अवस्थित परमात्मा, परम श्रेष्ठ तथा रूप, वर्ण आदि निर्देशों तथा विशेषण से परे हैं।
भगवान् श्री हरी विष्णु जन्म, वृद्धि, अस्तित्व, प्रजनन, क्षय तथा विनाश; (Birth, growth, existence, regeneration, decay and destruction) इन छह विकारों से रहित हैं। 
वे सर्वत्र व्याप्त हैं और समस्त विश्व का उन्हीं में वास है; इसीलिए विद्वान् उन्हें वासुदेव कहते हैं। जिस समय दिन, रात, आकाश, पृथ्वी, अन्धकार, प्रकाश तथा इनके अतिरिक्त भी कुछ नहीं था, उस समय एकमात्र वही प्रधान पुरुष परम ब्रह्म विद्यमान थे, जो कि इन्द्रियों और बुद्धि के विषय (ज्ञातव्य) नहीं हैं। 
पद्मनाभ स्वामी मन्दिर,
केरल
सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा जी को भगवान् श्री हरी विष्णु ने मूल ज्ञानस्वरूप चतुःश्लोकी भागवत सुनाया था, "सृष्टि के पूर्व केवल मैं ही मैं था। मेरे अतिरिक्त न स्थूल था न सूक्ष्म और न दोनों का कारण अज्ञान। जहाँ यह सृष्टि नहीं है, वहाँ मैं ही मैं हूँ और इस सृष्टि के रूप में जो प्रतीत हो रहा है, वह भी मैं ही हूँ और जो कुछ बच रहेगा, वह भी मैं ही हूँ"। 
सृष्टि की उत्पत्ति के प्रसंग में कहा गया है कि सृष्टि करने की इच्छा होने पर एकार्णव में सोये (एकमात्र) विष्णु की नाभि से कमल का प्रादुर्भाव हुआ और उसमें समस्त गुणों को आभासित करने वाले स्वयं विष्णु के ही अन्तर्यामी रूप से प्रविष्ट होने से स्वतः वेदमय ब्रह्मा का प्रादुर्भाव हुआ।
पालनकर्ता होने के कारण उन्हें जागतिक दृष्टि से यदा-कदा विविध प्रपंचों का भी सहारा लेना पड़ता है। असुरों के द्वारा राज्य छीन लेने पर पुनः स्वर्गाधिपत्य-प्राप्ति हेतु देवताओं को समुद्र-मंथन का परामर्श देते हुए असुरों से छल करने का सुझाव देना तथा कामोद्दीपक मोहिनी रूप धारणकर असुरों को मोहित करके देवताओं को अमृत पिलाना; शंखचूड़ (जलंधर) के वध हेतु तुलसी (वृन्दा) का सतीत्व भंग करने सम्बन्धी देवीभागवत तथा शिवपुराण जैसे उपपुराणों में वर्णित कथाओं में विष्णु का छल-प्रपंच द्रष्टव्य है। इस सम्बन्ध में यह अनिवार्यतः ध्यातव्य है कि पालनकर्ता होने के कारण वे परिणाम देखते हैं। किन्हीं वरदानों से असुरों/अन्यायियों के बल-विशिष्ट हो जाने के कारण यदि छल करके भी अन्यायी का अन्त तथा अन्याय का परिमार्जन होता है तो वे छल करने से भी नहीं हिचकते। रामावतार में छिपकर बाली को मारना तथा कृष्णावतार में महाभारत युद्ध में अनेक छलों का विधायक बनना उनके इसी दृष्टिकोण का परिचायक है। ध्यातव्य है कि पुराणों में तात्विक ज्ञान को ही ब्रह्म, परमात्मा और भगवान् कहा गया है।
विष्णु का स्वरूप :: विष्णु का सम्पूर्ण स्वरूप ज्ञानात्मक है। पुराणों में उनके द्वारा धारण किये जाने वाले आभूषण तथा आयुध :-
कौस्तुभ मणि :- जगत् के निर्लेप, निर्गुण तथा निर्मल क्षेत्रज्ञ स्वरूप का प्रतीक,
श्रीवत्स :- प्रधान या मूल प्रकृति,
गदा :- बुद्धि,
शंख :- पंचमहाभूतों के उदय का कारण तामस अहंकार,
शार्ंग (धनुष) :- इन्द्रियों को उत्पन्न करने वाला राजस अहंकार,
सुदर्शन चक्र :- सात्विक अहंकार,
वैजयन्ती माला :- पंचतन्मात्रा तथा पंचमहाभूतों का संघात (वैजयन्ती माला मुक्ता, माणिक्य, मरकत, इन्द्रनील तथा हीरा। इन पाँच रत्नों से बनी होने से पंच प्रतीकात्मक। 
बाण :- ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय, 
खड्ग :- विद्यामय ज्ञान; जो अज्ञानमय कोश (म्यान) से आच्छादित रहता है, 
इस प्रकार समस्त सृजनात्मक उपादान तत्त्वों को विष्णु अपने शरीर पर धारण किये रहते हैं।
श्रीविष्णु  स्तुति ::
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशम्।
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघ वर्णं शुभांगम्
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्।
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्
जिनकी आकृति अतिशय शांत है, जो शेषनाग की शैया पर शयन किए हुए हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो ‍देवताओं के भी ईश्वर और संपूर्ण जगत के आधार हैं, जो आकाश के सदृश सर्वत्र व्याप्त हैं, नीलमेघ के समान जिनका वर्ण है, अतिशय सुंदर जिनके संपूर्ण अंग हैं, जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किए जाते हैं, जो संपूर्ण लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरण रूप भय का नाश करने वाले हैं, ऐसे लक्ष्मीपति, कमलनेत्र भगवान्  श्री विष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ।
विष्णु की सर्वश्रेष्ठता का यह तात्पर्य नहीं है कि शिव या ब्रह्मा आदि उनसे न्यून हैं। ऊँच-नीच का भाव ईश्वर के पास नहीं होता। वह तो लीला में सृष्टि-संचालन हेतु सगुण (सरूप) होने की प्राथमिकता मात्र है। इसलिए वैष्णव हो या शैव, सभी पुराण तथा महाभारत जैसे श्रेष्ठ ग्रन्थ एक स्वर से घोषित करते हैं कि ईश्वर एक ही हैं। कहा गया है कि एक ही भगवान् जनार्दन जगत् की सृष्टि, स्थिति (पालन) और संहार के लिए ब्रह्मा, विष्णु और शिव, इन तीन संज्ञाओं को धारण करते हैं। अनेकत्र विष्णु तथा शिव के एक ही होने के स्पष्ट कथन उपलब्ध होते हैं।
विष्णु अवतार :: अवतार का शाब्दिक अर्थ है भगवान् का अपनी स्वातंत्र्य-शक्ति के द्वारा भौतिक जगत् में मूर्त रूप से आविर्भाव होना, प्रकट होना। अवतार की सिद्धि :- अपने रूप का परित्याग कर कार्यवश नवीन रूप का ग्रहण तथा दूसरा नवीन जन्म ग्रहण कर सम्बद्ध रूप में आना, जिसमें माता के गर्भ में उचित काल तक एक स्थिति की बात भी सन्निविष्ट है। इसमें अत्यल्प समय के लिए रूप बदलकर या किसी दूसरे का रूप धारणकर पुनः अपने रूप में आ जाना शामिल नहीं होता।
अवतार प्रयोजन :: भगवान् ने स्वयं अवतार का प्रयोजन बताते हुए कहा है कि जब-जब धर्म की हानि और अधर्म का उत्थान हो जाता है, तब-तब सज्जनों के परित्राण और दुष्टों के विनाश के लिए मैं विभिन्न युगों में (माया का आश्रय लेकर) उत्पन्न होता हूँ। इसके अतिरिक्त भागवत महापुराण में एक विशिष्ट और अधिक उदात्त प्रयोजन की बात कही गयी है कि भगवान् तो प्रकृति सम्बन्धी वृद्धि-विनाश आदि से परे अचिन्त्य, अनन्त, निर्गुण हैं। तो यदि वे अवतार रूप में अपनी लीला को प्रकट नहीं करते तो जीव उनके अशेष गुणों को कैसे समझते? अतः जीवों के प्रेरणारूप कल्याण के लिए उन्होंने अपने को (अवतार रूप में) तथा अपनी लीला को प्रकट किया। इसलिए विभिन्न अवतार-कथाओं में कई विषम स्थितियाँ हैं जिससे जीव यह समझ सके कि परिस्थिति के अनुसार उचित मार्ग कैसा होता है![श्रीमद्भगवद्गीता 4.7-8]
अवतारों की संख्या ::
विष्णु के अवतारों की पहली व्यवस्थित सूची महाभारत में उपलब्ध होती है। महाभारत के शान्तिपर्व में अवतारों की कुल संख्या 10 बतायी गयी है :-
हंस: कूर्मश्च मत्स्यश्च प्रादुर्भावा द्विजोत्तम॥
वराहो नरसिंहश्च वामनो राम एव च।
रामो दाशरथिश्चैव सात्वत: कल्किरेव च॥
श्री भगवान् स्वयं नारद से कहते हैं :- हंस, कूर्म, मत्स्य, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, दशरथ नन्दन राम, यदुवंशी श्री कृष्ण तथा कल्कि; ये सब मेरे अवतार हैं। आगे यह भी कहा गया है कि ये भूत और भविष्य के सभी अवतार हैं। मूलपाठ में वर्णन छह अवतारों का है :- (1). वराह, (2). नरसिंह, (3). वामन, (4.) परशुराम, (5). राम और (6). कृष्ण। 
महाभारत के दाक्षिणात्य पाठ में अवतार का वर्णन इस प्रकार है :-
मत्स्य: कूर्मो वराहश्च नरसिंहश्च वामन:।
रामो रामश्च रामश्च कृष्ण: कल्की च ते दश
 कालांतर अन्य अवतारों की भी कल्पना प्रचलित हुई और कुल अवतारों की गणना चौबीस तक पहुँच गयीं।
दशावतार :: भागवत महापुराण में 22 तथा 24 अवतारों की गणना के बावजूद अवतारों की बहुमान्य संख्या महाभारत की दस ही रही। पद्मपुराण, लिंगपुराण, वराहपुराण, मत्स्यपुराण आदि अनेक पुराणों में समान रूप से दश अवतारों की बात ही बतायी गयी है। अग्निपुराण के वर्णन में भी बिल्कुल वही क्रम है। इस सन्दर्भ का निम्नांकित श्लोक प्रायः सर्वनिष्ठ है :-
मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नरसिंहोऽथ वामनः।
रामो रामश्च कृष्णश्च बुद्धः कल्किश्च ते दश॥
सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा जी को भगवान् श्री विष्णु ने जो मूल ज्ञानस्वरूप चतुःश्लोकी भागवत सुनाया था, उसमें भी यही भाव व्यक्त हुआ है, "सृष्टि के पूर्व केवल मैं ही मैं था। मेरे अतिरिक्त न स्थूल था न सूक्ष्म और न दोनों का कारण अज्ञान। जहाँ यह सृष्टि नहीं है, वहाँ मैं ही मैं हूँ और इस सृष्टि के रूप में जो प्रतीत हो रहा है, वह भी मैं ही हूँ और जो कुछ बच रहेगा, वह भी मैं ही हूँ"। 
भगवान् श्री हरी विष्णु के दो रूप हुए। प्रथम रूप :- प्रधान पुरुष और दूसरा रूप  :-काल है। ये ही दोनों सृष्टि और प्रलय को अथवा प्रकृति और पुरुष को संयुक्त और वियुक्त करते हैं। यह काल रूप भगवान् अनादि तथा अनन्त हैं; इसलिए संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय भी कभी नहीं रुकते।
सृष्टि करने की इच्छा होने पर एकार्णव में सोये (एक मात्र) विष्णु की नाभि से कमल का प्रादुर्भाव हुआ और उसमें समस्त गुणों को आभासित करने वाले स्वयं विष्णु के ही अन्तर्यामी रूप से प्रविष्ट होने से स्वतः वेदमय ब्रह्मा का प्रादुर्भाव हुआ।[भागवत महापुराण]
पालनकर्ता होने के कारण उन्हें जागतिक दृष्टि से यदा-कदा विविध प्रपंचों का भी सहारा लेना पड़ता है। असुरों के द्वारा राज्य छीन लेने पर पुनः स्वर्गाधिपत्य-प्राप्ति हेतु देवताओं को समुद्र-मंथन का परामर्श देते हुए असुरों से छल करने का सुझाव देना तथा कामोद्दीपक मोहिनी रूप धारणकर असुरों को मोहित करके देवताओं को अमृत पिलाना; शंखचूड़ (जलंधर) के वध हेतु तुलसी (वृन्दा) का सतीत्व भंग करने सम्बन्धी देवीभागवत तथा शिवपुराण जैसे उपपुराणों में वर्णित कथाओं में विष्णु का छल-प्रपंच द्रष्टव्य है। इस सम्बन्ध में यह अनिवार्यतः ध्यातव्य है कि पालनकर्ता होने के कारण वे परिणाम देखते हैं। किन्हीं वरदानों से असुरों-अन्यायियों के बल-विशिष्ट हो जाने के कारण यदि छल करके भी अन्यायी का अन्त तथा अन्याय का परिमार्जन होता है तो वे छल करने से भी नहीं हिचकते। रामावतार में छिपकर बाली को मारना तथा कृष्णावतार में महाभारत युद्ध में अनेक छलों का विधायक बनना उनके इसी दृष्टिकोण का परिचायक है। पुराणों या तत्सम्बन्धी ग्रन्थों में ये प्रसंग विपरीत स्थितियों में सामान्य से इतर विशिष्ट कर्तव्य के ज्ञान हेतु ही उपस्थापित किये गये हैं। ध्यातव्य है कि पुराणों में तात्विक ज्ञान को ही ब्रह्म, परमात्मा और भगवान् कहा गया है।
VISHNU ARADHNA विष्णु आराधना-SHRI NARAYAN HRADYAM MULASHTKAM मूलाष्टकम् ::
ॐ नारायणः परं ज्योतिरात्मा नारायणः परः।
नारायणः परं ब्रह्म नारायण नमोऽस्तु ते॥1॥ 
Om. Narayanh Param Jyotiratma Narayanh Parh; Narayanh Param Brahm Narayan Namostute.
Bhagwan Shri Narayan is the divine light and our soul is divine;  Narayan is Ultimate Brahmn and I salute Narayan.
नारायणः परो देव दाता नारायणः परः। 
नारायणः परो ध्याता नारायण नमोऽस्तु ते॥2॥  

Narayanh Paro Dev Data Narayanh Parh; Narayanh Paro Dhyata Narayan Namostute. Narayan is the Ultimate Almighty-God and Narayan is the Ultimate Nurturer-giver; Narayan is the Supreme support and I salute-bow before Narayan.
नारायणः परं धाम ध्यानं नारायणः परः। 
नारायणः परो धर्मो नारायण नमोऽस्तु ते॥3॥
Narayanh Param Dham Dyanam Narayanh Parh; Narayanh Paro Dharmo Narayan Namostute.
Narayan is the Ultimate abode and Narayan is the Supreme-Ultimate-Divine  meditation; Narayan is the Ultimate Dharm-Religion and I salute-revere-honor Narayan.
नारायणः परो वेद्यो विद्या नारायण परः। 
विश्वं नारायणः साक्षान्नारायण नमोऽस्तु ते॥4॥
Narayanh Paro Vedyo Vidya Narayan Parh; Vishwam Narayanh Sakshannarayan Namostute.
Narayan is the Ultimate enlightenment-learning-knowledge; the universe is a form of Narayan and I salute-bow in front of Narayan.
नारायणद्विधिर्जातो नारायणाच्छिवः। 
जातो नारायणादिन्द्रो नारायण नमोऽस्तु ते॥5॥
Narayanad Vidhirjato Narayanachchhivh; Jato Narayanadindro Narayan Namostute.
Brahma  and Shiv got birth from Narayan and Indr was  born to Narayan  and I salute-respect-regard Narayan.
रविर्नारायणं तेजश्चान्द्रं नारायणं महः। 
वह्निर्नारायणः साक्षान्नारायण नमोऽस्तु ते॥6॥
Ravirnarayan Tejash Chandrm Narayanm Mhh; Vahnir Narayanh Sakshannarayan Namostute.
Sun shines because of Narayan and moon gets light from Narayan and the fire is an aspect-form of Narayan and I pray-salute Narayan.
नारायण उपास्यः स्याद्गुरुर्नारायणः परः। 
नारायणः परो बोधो नारायण नमोऽस्तु ते॥7॥ 
Narayan Upasyh Syad Gurur Narayanh Parh; Narayanh Paro Bodho Narayan namostute.
Narayan is the Ultimate-Guru who has to be meditated; Narayan is the highest wisdom-enlightenment-realization and I salute-pray-revere Narayan.
नारायणः फलं मुख्यं सिद्धिर्नारायणः सुखम्। 
सेव्यो नारायणः शुद्धो नारायण नमोऽस्तु ते॥8॥
Narayanh Falam Mukhyam Siddhirnarayanah Sukham; Sevyo Narayanh Shudho Narayan namostute.
Narayan is the Ultimate reward-grant of boons-result of prayers and pleasure; and service-prayer-dedication to Narayan is purifying-cleansing and I salute Narayan. 
॥इति मूलाष्टकम्॥ 
PRAYER BY LIBERATED ELEPHANT गजेन्द्र मोक्ष ::
प्रातर्भजामि भजताम भयाकरं तं, प्राकसर्वजन्मकृतपापभयापहत्यै; 
यो ग्राहवक्त्रपतितांगघ्रिगजेन्द्रघोर,शोकप्रणाशनकरो धृतशंखचक्र:।
जिसने शंख-चक्र धारण करके ग्राह के मुख में पड़े हुए चरण वाले गजेन्द्र के घोर संकट का नाश किया, भक्तों को अभय करने वाले उन भगवान को अपने पूर्वजन्मों के सब पापों का नाश करने के लिये प्रात:काल भजना चाहिए।
श्रीमद्भागवतान्तर्गत गजेन्द्र कृत भगवान का स्तवन: श्री मद्भागवत के अष्टम स्कन्ध में गजेन्द्र मोक्ष की कथा, द्वितीय अध्याय में ग्राह के साथ गजेन्द्र के युद्ध का वर्णन है, तृतीय अध्याय में गजेन्द्र कृत भगवान के स्तवन और गजेन्द्र मोक्ष का प्रसंग और चतुर्थ अध्याय में गज ग्राह के पूर्व जन्म का इतिहास है, जो कि पूर्व कल्प का है। श्री मद्भागवत में गजेन्द्र मोक्ष आख्यान के पाठ का माहात्म्य बतलाते हुए इसको स्वर्ग तथा यशदायक, कलियुग के समस्त पापों का नाशक, दुःस्वप्न नाशक और श्रेय साधक कहा गया है।
श्री शुक उवाच: ::
एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि। 
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम॥1॥
श्री शुकदेव जी ने कहा: बुद्धि के द्वारा पिछले अध्याय में वर्णित रीति से निश्चय करके तथा मन को हृदय देश में स्थिर करके वह गजराज अपने पूर्व जन्म में सीखकर कण्ठस्थ किये हुए सर्वश्रेष्ठ एवं बार बार दोहराने योग्य निम्नलिखित स्तोत्र का मन ही मन पाठ करने लगा। 
गजेन्द्र उवाच: ::
ऊं नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम। 
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि॥2॥ 
गजराज ने (मन ही मन) कहा :: जिनके प्रवेश करने पर (जिनकी चेतना को पाकर) ये जड शरीर और मन आदि भी चेतन बन जाते हैं (चेतन की भांति व्यवहार करने लगते हैं), ‘ओम’ शब्द के द्वारा लक्षित तथा सम्पूर्ण शरीर में प्रकृति एवं पुरुष रूप से प्रविष्ट हुए उन सर्व समर्थ परमेश्वर को हम मन ही मन नमन करते हैं। 
यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयं। 
योस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम॥3॥ 
जिनके सहारे यह विश्व टिका है, जिनसे यह निकला है, जिन्होने इसकी रचना की है और जो स्वयं ही इसके रूप में प्रकट हैं–फिर भी जो इस दृश्य जगत से एवं इसकी कारणभूता प्रकृति से सर्वथा परे (विलक्षण ) एवं श्रेष्ठ हैं–उन अपने आप–बिना किसी कारण के–बने हुए भगवान की मैं शरण लेता हूं। 
यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं क्कचिद्विभातं क्क च तत्तिरोहितम। 
अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षते स आत्ममूलोवतु मां परात्परः॥4॥ 
अपने संकल्प शक्ति के द्वार अपने ही स्वरूप में रचे हुए और इसीलिये सृष्टिकाल में प्रकट और प्रलयकाल में उसी प्रकार अप्रकट रहने वाले इस शास्त्र प्रसिद्ध कार्य कारण रूप जगत को जो अकुण्ठित दृष्टि होने के कारण साक्षी रूप से देखते रहते हैं उनसे लिप्त नही होते, वे चक्षु आदि प्रकाशकों के भी परम प्रकाशक प्रभु मेरी रक्षा करें। 
कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्नशो लोकेषु पालेषु च सर्व हेतुषु। 
तमस्तदाsसीद गहनं गभीरं यस्तस्य पारेsभिविराजते विभुः॥5॥ 
समय के प्रवाह से सम्पूर्ण लोकों के एवं ब्रह्मादि लोकपालों के पंचभूत में प्रवेश कर जाने पर तथा पंचभूतों से लेकर महत्वपर्यंत सम्पूर्ण कारणों के उनकी परमकरुणारूप प्रकृति में लीन हो जाने पर उस समय दुर्ज्ञेय तथा अपार अंधकाररूप प्रकृति ही बच रही थी। उस अंधकार के परे अपने परम धाम में जो सर्वव्यापक भगवान सब ओर प्रकाशित रहते हैं वे प्रभु मेरी रक्षा करें। 
न यस्य देवा ऋषयः पदं विदु-र्जन्तुः पुनः कोsर्हति गन्तुमीरितुम। 
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु॥6॥ 
भिन्न भिन्न रूपों में नाट्य करने वाले अभिनेता के वास्तविक स्वरूप को जिस प्रकार साधारण दर्शक नही जान पाते , उसी प्रकार सत्त्व प्रधान देवता तथा ऋषि भी जिनके स्वरूप को नही जानते , फिर दूसरा साधारण जीव तो कौन जान अथवा वर्णन कर सकता है–वे दुर्गम चरित्र वाले प्रभु मेरी रक्षा करें। 
दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलम विमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः। 
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने भूतत्मभूता सुहृदः स मे गतिः॥7॥ 
आसक्ति से सर्वदा छूटे हुए, सम्पूर्ण प्राणियों में आत्मबुद्धि रखने वाले, सबके अकारण हितू एवं अतिशय साधु स्वभाव मुनिगण जिनके परम मंगलमय स्वरूप का साक्षात्कार करने की इच्छा से वन में रह कर अखण्ड ब्रह्मचार्य आदि अलौकिक व्रतों का पालन करते हैं, वे प्रभु ही मेरी गति हैं। 
न विद्यते यस्य न जन्म कर्म वा न नाम रूपे गुणदोष एव वा। 
तथापि लोकाप्ययाम्भवाय यः स्वमायया तान्युलाकमृच्छति॥8॥ 
जिनका हमारी तरह कर्मवश ना तो जन्म होता है और न जिनके द्वारा अहंकार प्रेरित कर्म ही होते हैं, जिनके निर्गुण स्वरूप का न तो कोई नाम है न रूप ही, फिर भी समयानुसार जगत की सृष्टि एवं प्रलय (संहार) के लिये स्वेच्छा से जन्म आदि को स्वीकार करते हैं। 
तस्मै नमः परेशाय ब्राह्मणेsनन्तशक्तये। 
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्य कर्मणे॥9॥ 
उन अन्नतशक्ति संपन्न परं ब्रह्म परमेश्वर को नमस्कार है। उन प्राकृत आकाररहित एवं अनेको आकारवाले अद्भुतकर्मा भगवान को बारंबार नमस्कार है। 
नम आत्म प्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने। 
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि॥10॥ 
स्वयं प्रकाश एवं सबके साक्षी परमात्मा को नमस्कार है। उन प्रभु को जो नम, वाणी एवं चित्तवृत्तियों से भी सर्वथा परे हैं, बार बार नमस्कार है। 
सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता। 
नमः केवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे॥11॥ 
विवेकी पुरुष के द्वारा सत्त्वगुणविशिष्ट निवृत्तिधर्म के आचरण से प्राप्त होने योग्य, मोक्ष सुख की अनुभूति रूप प्रभु को नमस्कार है। 
नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुण धर्मिणे। 
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च॥12॥ 
सत्त्वगुण को स्वीकार करके शान्त, रजोगुण को स्वीकर करके घोर एवं तमोगुण को स्वीकार करके मूढ से प्रतीत होने वाले, भेद रहित, अतएव सदा समभाव से स्थित ज्ञानघन प्रभु को नमस्कार है। 
क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे। 
पुरुषायात्ममूलय मूलप्रकृतये नमः॥13॥
शरीर इन्द्रीय आदि के समुदाय रूप सम्पूर्ण पिण्डों के ज्ञाता, सबके स्वामी एवं साक्षी रूप आपको नमस्कार है । सबके अन्तर्यामी, प्रकृति के भी परम कारण, किन्तु स्वयं कारण रहित प्रभु को नमस्कार है। 
सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे। 
असताच्छाययोक्ताय सदाभासय ते नमः॥14॥ 
सम्पूर्ण इन्द्रियों एवं उनके विषयों के ज्ञाता, समस्त प्रतीतियों के कारण रूप, सम्पूर्ण जड-प्रपंच एवं सबकी मूलभूता अविद्या के द्वारा सूचित होने वाले तथा सम्पूर्ण विषयों में अविद्यारूप से भासने वाले आपको नमस्कार है। 
नमो नमस्ते खिल कारणाय निष्कारणायद्भुत कारणाय। 
सर्वागमान्मायमहार्णवाय नमोपवर्गाय परायणाय॥15॥ 
सबके कारण किंतु स्वयं कारण रहित तथा कारण होने पर भी परिणाम रहित होने के कारण, अन्य कारणों से विलक्षण कारण आपको बारम्बार नमस्कार है। सम्पूर्ण वेदों एवं शास्त्रों के परम तात्पर्य, मोक्षरूप एवं श्रेष्ठ पुरुषों की परम गति भगवान् को नमस्कार है। 
गुणारणिच्छन्न चिदूष्मपाय तत्क्षोभविस्फूर्जित मान्साय। 
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम-स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि॥16॥ 
जो त्रिगुणरूप काष्ठों में छिपे हुए ज्ञानरूप अग्नि हैं, उक्त गुणों में हलचल होने पर जिनके मन में सृष्टि रचने की बाह्य वृत्ति जागृत हो उठती है तथा आत्म तत्त्व की भावना के द्वारा विधि निषेध रूप शास्त्र से ऊपर उठे हुए ज्ञानी महात्माओं में जो स्वयं प्रकाशित हो रहे हैं उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ। 
मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोsलयाय। 
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत-प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते॥17॥ 
मुझ जैसे शरणागत पशुतुल्य (अविद्याग्रस्त) जीवों की अविद्यारूप फाँसी को सदा के लिये पूर्णरूप से काट देने वाले अत्याधिक दयालू एवं दया करने में कभी आलस्य ना करने वाले नित्यमुक्त प्रभु को नमस्कार है । अपने अंश से संपूर्ण जीवों के मन में अन्तर्यामी रूप से प्रकट रहने वाले सर्व नियन्ता अनन्त परमात्मा आप को नमस्कार है। 
आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तै-र्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय। 
मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभावितायज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय॥18॥ 
शरीर, पुत्र, मित्र, घर, संपंत्ती एवं कुटुंबियों में आसक्त लोगों के द्वारा कठिनता से प्राप्त होने वाले तथा मुक्त पुरुषों के द्वारा अपने हृदय में निरन्तर चिन्तित ज्ञानस्वरूप, सर्वसमर्थ भगवान् को नमस्कार है। 
यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति। 
किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययं करोतु मेदभ्रदयो विमोक्षणम॥19॥ 
जिन्हे धर्म, अभिलाषित भोग, धन तथा मोक्ष की कामना से भजने वाले लोग अपनी मनचाही गति पा लेते हैं अपितु जो उन्हे अन्य प्रकार के अयाचित भोग एवं अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं वे अतिशय दयालु प्रभु मुझे इस विपत्ती से सदा के लिये उबार लें। 
एकान्तिनो यस्य न कंचनार्थवांछन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः। 
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलं गायन्त आनन्न्द समुद्रमग्नाः॥20॥ 
जिनके अनन्य भक्त-जो वस्तुतः एकमात्र उन भगवान के ही शरण है-धर्म, अर्थ आदि किसी भी पदार्थ को नही चाह्ते, अपितु उन्ही के परम मंगलमय एवं अत्यन्त विलक्षण चरित्रों का गान करते हुए आनन्द के समुद्र में गोते लगाते रहते हैं। 
तमक्षरं ब्रह्म परं परेश-मव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम। 
अतीन्द्रियं सूक्षममिवातिदूर-मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे॥21॥ 
उन अविनाशी, सर्वव्यापक, सर्वश्रेष्ठ, ब्रह्मादि के भी नियामक, अभक्तों के लिये प्रकट होने पर भी भक्तियोग द्वारा प्राप्त करने योग्य, अत्यन्त निकट होने पर भी माया के आवरण के कारण अत्यन्त दूर प्रतीत होने वाले, इन्द्रियों के द्वारा अगम्य तथा अत्यन्त दुर्विज्ञेय, अन्तरहित किंतु सबके आदिकारण एवं सब ओर से परिपूर्ण उन भगवान की मैं स्तुति करता हूँ। 
यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः।
नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः॥22॥ 
ब्रह्मादि समस्त देवता, चारों वेद तथा संपूर्ण चराचर जीव नाम और आकृति भेद से जिनके अत्यन्त क्षुद्र अंश के द्वारा रचे गये हैं। 
यथार्चिषोग्नेः सवितुर्गभस्तयो निर्यान्ति संयान्त्यसकृत स्वरोचिषः। 
तथा यतोयं गुणसंप्रवाहो बुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः॥23॥ 
जिस प्रकार प्रज्ज्वलित अग्नि से लपटें तथा सूर्य से किरणें बार बार निकलती है और पुनः अपने कारण मे लीन हो जाती है उसी प्रकार बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ और नाना योनियों के शरीर – यह गुणमय प्रपंच जिन स्वयंप्रकाश परमात्मा से प्रकट होता है और पुनः उन्ही में लीन हो जाता है। 
स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यंग न स्त्री न षण्डो न पुमान न जन्तुः। 
नायं गुणः कर्म न सन्न चासन निषेधशेषो जयतादशेषः॥24॥ 
वे भगवान न तो देवता हैं न असुर, न मनुष्य हैं न तिर्यक (मनुष्य से नीची, पशु, पक्षी आदि किसी) योनि के प्राणी है । न वे स्त्री हैं न पुरुष और नपुंसक ही हैं । न वे ऐसे कोई जीव हैं, जिनका इन तीनों ही श्रेणियों में समावेश हो सके। न वे गुण हैं न कर्म, न कार्य हैं न तो कारण ही । सबका निषेध हो जाने पर जो कुछ बच रहता है, वही उनका स्वरूप है और वे ही सब कुछ है । ऐसे भगवान मेरे उद्धार के लिये आविर्भूत हों। 
जिजीविषे नाहमिहामुया कि मन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या।
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लव स्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम॥25॥ 
मैं इस ग्राह के चंगुल से छूट कर जीवित नही रहना चाहता; क्योंकि भीतर और बाहर, सब ओर से अज्ञान से ढके हुए इस हाथी के शरीर से मुझे क्या लेना है। मैं तो आत्मा के प्रकाश को ढक देने वाले उस अज्ञान की निवृत्ति चाहता हूँ, जिसका कालक्रम से अपने आप नाश नही होता, अपितु भगवान्  की दया से अथवा ज्ञान के उदय से होता है। 
सोsहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम।
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोस्मि परं पदम॥26॥ 
इस प्रकार मोक्ष का अभिलाषी मैं विश्व के रचियता, स्वयं विश्व के रूप में प्रकट तथा विश्व से सर्वथा परे, विश्व को खिलौना बनाकर खेलने वाले, विश्व में आत्मरूप से व्याप्त , अजन्मा, सर्वव्यापक एवं प्राप्त्य वस्तुओं में सर्वश्रेष्ठ श्री भगवान् को केवल प्रणाम ही करता हूं, उनकी शरण में हूँ। 
योगरन्धित कर्माणो हृदि योगविभाविते।
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोsस्म्यहम॥27॥ 
जिन्होने भगवद्भक्ति रूप योग के द्वारा कर्मों को जला डाला है, वे योगी लोग उसी योग के द्वारा शुद्ध किये हुए अपने हृदय में जिन्हे प्रकट हुआ देखते हैं, उन योगेश्वर भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ। 
नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय।
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने॥28॥ 
जिनकी त्रिगुणात्मक (सत्त्व, रज, तम रूप) शक्तियों का रागरूप वेग असह्य है, जो सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयरूप में प्रतीत हो रहे हैं तथापि जिनकी इन्द्रियाँ विषयों में ही रची पची रहती हैं, ऐसे लोगों को जिनका मार्ग भी मिलना असंभव है, उन शरणागत रक्षक एवं अपार शक्तिशाली आपको बार-बार नमस्कार है। 
नायं वेद स्वमात्मानं यच्छ्क्त्याहंधिया हतम।
तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोsस्म्यहम॥29॥ 
जिनकी अविद्या नामक शक्ति के कार्यरूप अहंकार से ढंके हुए अपने स्वरूप को यह जीव जान नही पाता, उन अपार महिमा वाले भगवान की मैं शरण आया हूँ। 
श्री शुकदेव उवाच ::
एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं ब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः। नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वात तत्राखिलामर्मयो हरिराविरासीत॥30॥ 
श्री शुकदेव जी ने कहा :- जिसने पूर्वोक्त प्रकार से भगवान के भेद रहित निराकार स्वरूप का वर्णन किया था , उस गजराज के समीप जब ब्रह्मा आदि कोई भी देवता नही आये, जो भिन्न भिन्न प्रकार के विशिष्ट विग्रहों को ही अपना स्वरूप मानते हैं, तब सक्षात श्री हरी, जो सबके आत्मा होने के कारण सर्वदेवस्वरूप हैं, वहाँ प्रकट हो गये। 
तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासः स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भि:।छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमानश्चक्रायुधोsभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः॥31॥ 
उपर्युक्त गजराज को उस प्रकार दुःखी देख कर तथा उसके द्वारा पढी हुई स्तुति को सुन कर सुदर्शनचक्रधारी जगदाधार भगवान इच्छानुरूप वेग वाले गरुड जी की पीठ पर सवार होकर स्तवन करते हुए देवताओं के साथ तत्काल उस स्थान अपर पहुँच गये जहाँ वह हाथी था। 
सोsन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो दृष्ट्वा गरुत्मति हरि ख उपात्तचक्रम।
उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छा-न्नारायण्खिलगुरो भगवान नम्स्ते॥32॥ 
सरोवर के भीतर महाबली ग्राह के द्वारा पकडे जाकर दुःखी हुए उस हाथी ने आकाश में गरुड की पीठ पर सवार चक्र उठाये हुए भगवान श्री हरि को देखकर अपनी सूँड को -जिसमें उसने (पूजा के लिये) कमल का एक फूल ले रक्खा था-ऊपर उठाया और बडी ही कठिनाई से “सर्वपूज्य भगवान नारायण आपको प्रणाम है”; कहा। 
तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार। 
ग्राहाद विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रं सम्पश्यतां हरिरमूमुचदुस्त्रियाणाम॥33॥ 
उसे पीडित देख कर अजन्मा श्री हरि एकाएक गरुड को छोडकर नीचे झील पर उतर आये । वे दया से प्रेरित हो ग्राहसहित उस गजराज को तत्काल झील से बाहर निकाल लाये और देवताओं के देखते देखते चक्र से मुँह चीर कर उसके चंगुल से हाथी को उबार लिया।
PRAYER EVOTED TO BHAGWAN SHRI HARI VISHNU परम पुरुष (भगवान् श्री हरी विष्णु) स्तवन ::
ॐ सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्।
 स भूमि  ँ  ् सर्वत स्पृत्वाऽत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम्॥
उन परम पुरुष के सहस्रों (अनन्त) मस्तक, सहस्रों नेत्र और सहस्रों चरण हैं। वे इस सम्पूर्ण विश्व की समस्त भूमि (पूरे स्थान) को सब ओर से व्याप्त करके, इससे दस अङ्गुल (अनन्त योजन) ऊपर स्थित हैं अर्थात् वे ब्रह्माण्ड में व्याप्त होते हुए उससे परे भी हैं।[यजुर्वेद 31.1]
The Almighty in HIS incarnations as Hari Vishnu has numerous-infinite heads, eyes and legs. HE has established himself above the universe at a height-distance of infinite Yojans by occupying it all over. 
पुरुष एवेदः सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम्।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति॥
यह जो इस समय वर्तमान (जगत्) है, जो बीत गया और जो आगे होने वाला है, वह सब वे परम पुरुष ही हैं। इसके अतिरिक्त वे देवताओं के तथा जो अन्न से ही (भोजन द्वारा) जीवित रहते हैं, उन सबके भी ईश्वर (अधीश्वर-शासक) हैं।[यजुर्वेद 31.2]
HE is the Ultimate-Eternal who expresses HIMSELGF as past, present & future (HE is Maha Kal).HE is master of the demigods-deities and all those species, organism (plants & animals) which depends over food.
एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि॥
यह भूत, भविष्य, वर्तमान से सम्बद्ध समस्त जगत् इन परम पुरुष का वैभव है। वे अपने इस विभूति विस्तार से भी महान् हैं। उन परमेश्वर की एक पाद्विभूति (चतुर्थांश), में ही यह पञ्चभूतात्मक विश्व है। उनकी शेष त्रिपाद्विभूति में शाश्वत दिव्यलोक (वैकुण्ठ, गोलोक, साकेत, शिवलोक आदि) हैं।[यजुर्वेद 31.3]
Entire universe related with the past, present & the future are HIS extensions (galore, projections). HE is above all of these extensions containing this world with five elements-ingredients (basic components-Earth, Jal, Vayu, Akash, Agni-Tej) in one fourth of HIS galore. The remaining three portions of his galore contain Vaekunth, Gau Lok, Saket, Shiv Lok etc.
पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार यह प्रकृति के आठ तत्व हैं। उक्त सभी की उत्पत्ति आत्मा या ब्रह्म की उपस्थिति के कारण है। माँ भगवती-प्रकृति परमात्मा का अभिन्न अंग है। 
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत् पुनः।
ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशने अभि॥
वे परम पुरुष स्वरूपत: इस मायिक जगत से परे त्रिपाद्विभूति में प्रकाशमान हैं (वहाँ माया का प्रवेश न होने से उनका स्वरूप नित्य प्रकाशमान है)। इस विश्व के रूप में उनका एक पाद ही प्रकट हुआ है अर्थात् एक पाद से वे विश्वरूप भी हैं, इसलिये वे ही सम्पूर्ण जड़ एवं चेतनमय-उभयात्मक जगत के परिव्याप्त किये हुए हैं।[यजुर्वेद 31.4] 
The Almighty is present with rest of HIS three segments as a shining entity, where the entry of Maya (illusion-mirage) is banned. Only one segment of HIS glory is visible in this world covering the inertial-non living and the living beings-conscious.
ततो विराडजायत विराजो अधि पूरुषः। 
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः॥
उन्हीं आदि पुरुष से विराट् (ब्रह्माण्ड) उत्पन्न हुआ। वे परम पुरुष हैं। विराट के अधिपुरुष-अधिदेवता (हिरण्यगर्भ) रूप से उत्पन्न होकर अत्यन्त प्रकाशित हुए। पीछे उन्होंने भूमि (लोकादि) तथा शरीर (देव, मानव, तिर्यक् आदि) उत्पन्न किये।[यजुर्वेद 31.5]
The Almighty created Virat Purush (Son of Bhagwan Shri Krashn & Maa Bhagwati Radha Ji in Gau Lok). Numerous Universes were created out of the spores over the body of Virat Purush. Over one of the spores our Universe appeared. A golden shell appeared over the surface of water-Nar out of which Bhagwan Shri Hari Vishnu appeared, Bhagwan Brahma appeared out of his navel and Bhagwan Shiv beamed out of the forehead of Brahma Ji. 
Bhagwan Shiv is a form of Kal-time. He was already present prior to the appearance of the Golden Shell.
Later various abodes were created by Bhagwan Shri Hari Vishnu & Brahma Ji created various forms of life. 
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाण्यम्।
पशूँस्ताँश्चिक्रे बायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये॥ 
जिसमें सब कुछ हवन किया गया है, उस यज्ञ पुरुष से उसी ने दही, घी आदि उत्पन्न किये और वायु में, वन में एवं ग्राम में रहने योग्य पशु उत्पन्न किये।[यजुर्वेद 31.6]
The Yagy Purush in whom every thing is sacrificed, created organisms which could survive in air, water and the land (forests, villages-community) curd, Ghee etc. 
Yagy Purush is Bhagwan Shiv called Adi Dev Maha Dev.
तस्माद् यज्ञात स र्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे। 
छन्दां ँ  ्सि जज्ञिरे तस्मात् यजुस्तस्मादजायत
उसी सर्वहुत यज्ञ पुरुष से ऋग्वेद एवं सामवेद के मन्त्र उत्पन्न हुए, उसी से यजुर्वेद मन्त्र उत्पन्न हुए और उसी से सभी छन्द भी उत्पन्न हुए।[यजुर्वेद 31.7]
All scriptures-Veds & their Mantr, Chhand, Shlok etc. evolved out of the Yagy Purush.
तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः। 
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः॥ 
उसी से घोड़े उत्पन्न हुए, उसी से गायें उत्पन्न हुईं और हवि थी। उसी से भेड़-बकरियाँ उत्पन्न हुईं। वे दोनों ओर दाँतों वाले हैं।[यजुर्वेद 31.8]
हविष्य :: हवन के योग्य सामग्री; offerings for holy sacrifices in holy fire, Agni Hotr, Hawan.
Animals with hoofs like horses, cows, sheep & goats too were created by him. They teeth over both sides of the jaws. It generated goods for holy sacrifices in fire like Ghee, curd, Panchamrat.
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः। 
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये॥ 
देवताओं, साध्यों तथा ऋषियों ने सर्वप्रथम उत्पन्न हुए उस यज्ञ-पुरुष को कुशा पर अभिषिक्त किया और उसी से उसका यजन किया।[यजुर्वेद 31.9]
Initially the demigods-deities, Sadhy Gan & the Rishi Gan worshipped the Yagy Purush over Kush Grass-straw, and used Kush Grass for the prayers.
SADHY GAN साध्य गण :: भगवान् शिव के गण; Sadhy refers to one of the various classifications of Gan, a group of deities attached to Bhagwan Shiv. (1). Adity, (2). Visvas or Vishv Dev, (3). Vasu, (4). Tushith, (5). Abhasvaras, (6). Anil, (7). Maharajik (8). Sadhy and (9). Rudr. These are attached to Bhagwan Shiv and serve under the command of Ganesh Ji Maha Raj, dwelling on Gan Parwat identified with Kaelash, a peak of the Himalay mountain.
कृते यद् ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः। 
द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात्॥
सनातन सतयुग में भगवान् श्री हरी विष्णु का ध्यान करने से, त्रेता युग में यज्ञ के द्वारा उनका योजन करने से, द्वापर में उनकी सेवा पूजा करने से जो फल प्राप्त होता है, वह कलयुग में हरी नाम संकीर्तन से ही मिल जाता है।
हे राजन! सत्ययुग में विष्णु का ध्यान करने से, त्रेता युग में यज्ञ करने से तथा द्वापर युग में भगवान् के चरणकमलों की सेवा करने से जो फल प्राप्त होता है, वही कलियुग में केवल हरे कृष्ण महामंत्र के कीर्तन करके प्राप्त किया जा सकता है।[श्रीमद्भागवत महापुराण 12.3.52]
ऋग्वेद संहिता, प्रथम मण्डल सूक्त (155) ::  ऋषि :- दीर्घतमा, देवता :- विष्णु, इन्द्रा-विष्णु, छन्द :- जगती।
प्र वः पान्तमन्धसो धियायते महे शूराय विष्णवे चार्चत। 
या सानुनि पर्वतानामदाभ्या महस्तस्थतुरर्वतेव साधुना॥
हे अध्वर्यु गण! आप स्तुति प्रिय और महावीर इन्द्र देव और श्री हरी विष्णु के लिए पीने योग्य सोमरस निर्मित करें। वे दोनों दुर्द्धर्ष और महिमा वाले हैं। वे मेघ के ऊपर इस तरह भ्रमण करते है, मानों सुशिक्षित अश्व के ऊपर भ्रमण करते हैं।[ऋग्वेद 1.155.1]
दुर्धर्ष :: जिसे वश में करना कठिन हो, जिसे परास्त करना या हराना कठिन हो, प्रबल, प्रचंड, उग्र, जिसे दबाया न जा सके, दुर्व्यवहारी, महाभारत कालीन हस्तिनापुर में सम्राट धृतराष्ट्र का एक पुत्र, रामायण काल में रावण की सेना का एक राक्षस; difficult to be assaulted, controlled defeated, overpowered.
Hey Ritviz-households! You should prepare Somras for the sake of Dev Raj Indr and Bhagwan Shri Hari Vishnu, who deserve to be honoured-revered. They can neither be defeated nor controlled by any one. They move over the clouds just like one who rides a trained horse.
त्वेषमित्था समरणं शिमीवतोरिन्द्राविष्णू सुतपा वामुरुष्यति। 
या मर्त्याय प्रतिधीयमानमित्कृशानोरस्तुरसनामुरुष्यथः
हे इन्द्र देव और श्री हरी विष्णु! आप लोग दृष्टपद हो, इसलिए यज्ञ में बचे हुए सोमरस पीने वाले यजमान आपके दीप्तिपूर्ण आगमन की प्रशंसा करते हैं। आप लोग मनुष्यों के लिए, शत्रु विमर्दक अग्नि से प्रदातव्य अन्न सदैव समर्पित करते हैं।[ऋग्वेद 1.155.2]
हे मनुष्यों! अपने रक्षक सोम रूप अन्न को इन्द्रदेव और विष्णु के लिए सिद्ध करो। वे दोनों उन्नत कर्म वाले किसी के बहकावे में नहीं आते।
Hey Indr Dev and Shri Hari Vishnu! Those who consume the left over Somras appreciate your arrival in the Yagy since you fulfil-grant the desired boons. You grant food grains to the humans yielded by the enemy destroyer Agni Dev.
ता ईं वर्धन्ति मह्यस्य पौंस्यं नि मातरा नयति रेतसे भुजे। 
दधाति पुत्रोऽवरं परं पितुर्नाम तृतीयमधि रोचने दिवः
समस्त प्रसिद्ध आहुतियाँ इन्द्रदेव के महान् पौरुष को बढ़ाती हैं। ये ही सबकी मातृभूता धावा पृथ्वी के रेत, तेज और उपभोग के लिए वही शक्ति प्रदान करते हैं। पुत्र का नाम निकृष्ट है और पिता का नाम उत्कृष्ट है। द्युलोक के दीप्तिमान् प्रदेश में तृतीय नाम पौत्र का नाम है अथवा वह द्युलोक में रहने वाले इन्द्रदेव और श्री हरी विष्णु के अधीन है।[ऋग्वेद 1.155.3]
रेत :: वीर्य-शुक्र, पारा-पारद, जल, प्रवाह-बहाव, धारा, बालू; sperms, send, flow.
हे इन्द्र और विष्णु तुम कर्मों के फल देने वाले दाता हो। तुम्हारे लिए साधक सोमरस निचौड़कर तैयार रखता है। तुम शत्रु द्वारा लक्ष्य कर फेंके गये बाणों से उसकी रक्षा करने में सक्षम हों। समस्त आहुतियाँ इन्द्रदेव की शक्ति-वीर्य को पुष्ट करती हैं।
Major offerings enhance-boost the valour-power of Indr Dev. Its he, who grant the power to consume, energy-aura and the sperms. The name of son is Nikrasht-worst & that of father is Utkrasht-excellent. The third entity shinning-glittering in the heavens is the grandson. They are under the control of Indr Dev and Bhagwan Shri Hari Vishnu.
Sperms are the carriers of genetic material to next generation from grandfather to grandson.
तत्तदिदस्य पौंस्यं गृणीमसीनस्य त्रातुरवृकस्य मीळ्हुषः। 
यः पार्थिवानि त्रिभिरिद्विगामभिरुरु क्रमिष्टोरुगायाय जीवसे
हम सबके स्वामी, पालक, शत्रु हीन और युवा श्री हरी विष्णु के पौरुष की स्तुति करते हैं। इन्होंने प्रशंसनीय लोक की रक्षा के लिए तीन बार पाद विक्षेप द्वारा समस्त पार्थिव लोकों की विस्तृत रूप से परिक्रमा की।[ऋग्वेद 1.155.4]
इन्द्र देव वर्षा से अन्न प्रदान करते हैं। अन्न रूप वीर्य रज से पुत्र प्राप्ति होती है। उसी से तृतीय से नाम पुत्र हुआ। प्राणधारियों की रचना इन्द्रदेव और विष्णु के अधिकार में हैं। सबके दाता, रक्षक, शत्रु से परे, युवा विष्णु के बल-वीर्य की हम प्रार्थना करते हैं। 
We pray the valour & might of our master, nurturer, free from enemies and young Shri Hari Vishnu. For the protection of the appreciable abodes his three footfalls circumbulated the physical abodes.
द्वे इदस्य क्रमणे स्वर्दृशोऽभिरख्याय मर्त्यो भुरण्यति। 
तृतीयमस्य नकिरें दधर्षति वयश्चन पतयन्तः पतत्रिणः
मनुष्य गण कीर्तन करते हुए स्वर्ग दर्शी श्री हरी विष्णु के दो पाद क्षेप प्राप्त करते हैं। उनके तीसरे पाद क्षेप को मनुष्य नहीं पा सकते। आकाश में उड़ने वाले पक्षी या मरुत भी नहीं प्राप्त कर सकते।[ऋग्वेद 1.155.5]
जिन्होंने संसार की रक्षा के लिए तीन डग रखकर ही सभी लोकों को लांघ डाला। सब मनुष्य इन विष्णु के दो पदों को ही देख सकते हैं। तीसरे पद तक पहुँचने का कोई भी साहस नहीं करता। क्षितिज में विचरण करने वाले मरुद्गण भी नहीं ग्रहण कर सकते। 
Those praying to Shri Hari Vishnu, who looked at the heavens, can see-perceive HIS two steps only. HIS third foot fall can not be seen by the humans. Neither the birds flying in the sky nor the Marud Gan can see it. 
चतुर्भिः साकं नवति च नामभिश्चक्रं न वृत्तं व्यतींरवीविपत् । 
बृहच्छरीरो विमिमान ऋकभिर्युवाकुमारः प्रत्येत्याहवम् 
श्री हरी विष्णु ने गति विशेष द्वारा विविध स्वभाव शाली काल के चौरानबें अंशों को चक्र की तरह वृत्ताकार परिचालित कर रखा है। श्री हरी विष्णु विशाल स्तुति से युक्त और स्तुति द्वारा जानने योग्य हैं। वे नित्य, युवा और अकुमार हैं। मनुष्यों द्वारा आवाहित किये जाने पर यज्ञ की ओर आगमन करते हैं।[ऋग्वेद 1.155.6]
व्यापक वंदनाओं से परिपूर्ण विष्णु ने काल के चौरानवें (अंशों) को चक्र की तरह घुमाया। वंदना करने वाले उन्हें ध्यान से खोजते और आह्ववान करते हैं।
Bhagwan Shri Vishnu has rotated the 94 degrees-divisions of the KAL-time in an cyclic order. HE deserved to be prayed-worshiped & known. HE is always young. As and when remembered by the humans-invited HE comes to the Yagy.
As a matter of practice the Hindu invite all the demigods-deities in all of his celebrations, functions, rituals, prayers, Yagy etc. etc.
यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्। 
मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादा उच्येते॥
पुरुष का जब विभाजन हुआ तो उसमें कितनी कल्पना की गयीं? उसका मुख क्या था, उसके बाहु क्या थे, उसके जाँघ क्या थे और उसके पैर क्या कहे जाते थे।[यजुर्वेद 31.10]
When humans were formed-created, their legs, feet, mouth, hands, legs were conceived. What were they called!?
Param Purush is identified as the Almighty HIMSELF & the Virat Purush,  who came into existence after the Almighty adopted a form as Krashn & Radha Ji became his second half. Their love making process brought forward the Virat Purush, from whom all universes appeared. 
What ever has come into existence will disappear sooner or later i.e., what ever, who so ever is born has to perish.
ब्राह्मणोऽस्य मुखामासीद्वाहू राजन्यः कृतः। 
करू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत 
ब्राह्मण इसका मुख था (मुख से ब्राह्मण उत्पन्न हुए) क्षत्रिय दोनों भुजाएँ बने (दोनों भुजाओं से क्षत्रिय उत्पन्न हुए)। इस पुरुष की जो दोनों जंघाएँ थीं, वे ही वैश्य हुई अर्थात् उनसे वैश्य उत्पन्न हुए और पैरों से शूद्र वर्ण प्रकट हुआ।[यजुर्वेद 31.11]
Brahmn was his mouth-Brahmn was born out of the mouth, Kshatriy from the hands, Vaeshy from the thighs and the Shudr evolved out of his legs (of Brahma Ji).
These were divine creations. Humans and other species evolved from the wives of Mahrishi Kashyap.
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत। 
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत 
इस परम पुरुष के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुए, नेत्रों से सूर्य प्रकट हुए, कानों से वायु और प्राण तथा मुख से अग्नि की उत्पत्ति हुई।[यजुर्वेद 31.12]
Moon evolved out of the innerself & the Sun from the eyes, air and the Pran-life force from the ears  and Agni-fire evolved out of the mouth, of the Ultimate being-Purush.
Brahma Ji is the creator-an extension of the Virat Purush, Maha Vishnu.
नाभ्या आसीदन्तरिक्ष शीर्ण्णो द्यौः समवर्तत। 
पद्य भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकों अकल्पयन्
उन्हीं परम पुरुष की नाभि से अन्तरिक्ष लोक उत्पन्न हुआ, मस्तक से स्वर्ग प्रकट हुआ, पैरों से पृथ्वी, कानों से दिशाएँ प्रकट हुईं। इस प्रकार समस्त लोक उस पुरुष में ही कल्पित हुए।[यजुर्वेद 31.13]
The space-sky evolved out of the naval, heaven from the fore head, earth from the legs, directions from the ears of the Ultimate Purush-the God.
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत। 
वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः॥
जिस पुरुष रूप हविष्य से देवों ने यज्ञ का विस्तार किया, वसन्त उसका घी था, ग्रीष्म काष्ठ एवं शरद्।[यजुर्वेद 31.14]
The demigods extended the life system-evolution as a Yagy by using the humans as offering, spring season as Ghee-butter oil, summar as wood and the winters. 
सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः।
देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबनन् पुरुषं पशुम्॥ 
देवताओं ने जब यज्ञ करते समय (संकल्प से) पुरुष रूप पशु का बन्धन किया, तब सात समुद्र इसकी परिधि (मेखलाएँ) थे। इक्कीस प्रकार के छन्दों की (गायत्री, अति जगती और कृति में से प्रत्येक के सात-सात प्रकार से) समिधाएँ बनीं।[यजुर्वेद 31.15]
When the demigods-deities trapped the human being as an animal, the seven oceans became its circumference-limits. 21 Chhand-a set of Vaedic verses were as used Samidha-wood.
The humans were blessed with the secret-confidential knowledge of the Veds to make use of it to modify-improve their lives. 
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्। 
तेह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्व साध्याः सन्ति देवा:॥
देवताओं ने (पूर्वोक्त रूप से) यज्ञ के द्वारा यज्ञ स्वरूप परम पुरुष का यजन (आराधन) किया। इस यज्ञ से सर्वप्रथम धर्म उत्पन्न हुए। उन धर्म के आचरण से वे देवता महान् महिमा वाले होकर उस स्वर्ग लोक का सेवन करते हैं, जहाँ प्राचीन साध्य-देवता निवास करते हैं। अतः हम सभी सर्वव्यापी जड-चेतनात्मक रूप विराट् पुरुष की कर बद्ध स्तुति करते हैं।[यजुर्वेद 31.16]
It was the endeavour of the deities-demigods to worship the Yagy Purush-Almighty. First one to emerge from this endeavour as Yagy was Dharm Raj-Yam Raj to regulate birth & death of the organism. The demigods enjoy the heaven by following the tenants of Dharm, an abode of Sadhy Gan.  In this manner we pray to the Virat Purush-Maha Vishnu, who is present in every non living & living, with folded hands.
विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र :: विष्णु सहस्त्र नाम स्तोत्र का नियमित पाठ करने वाले व्यक्ति को यश, सुख, ऐश्वर्य, संपन्नता, सफलता, आरोग्य एवं सौभाग्य की प्राप्ति तथा मनोकामनाओं की पूर्ति होती है। श्री राधे विष्णु सहस्त्र नाम स्तोत्र के पाठ का फल पुरुषोत्तम मास में सहस्त्र गुना बढ़ जाता है। 
भगवान् श्री हरी विष्णु के 1,000 नाम विष्णु सहस्त्र नाम :: 
ॐ विश्वं विष्णु: वषट्कारो भूत भव्य भवत प्रभुः। 
भूत-कृत भूत-भृत भावो भूतात्मा भूतभावनः॥1॥
पूतात्मा परमात्मा च मुक्तानां परमं गतिः। 
अव्ययः पुरुष साक्षी क्षेत्रज्ञो अक्षर एव च॥2॥ 
योगो योग-विदां नेता प्रधान-पुरुषेश्वरः। 
नारसिंह-वपुः श्रीमान केशवः पुरुषोत्तमः॥3॥
सर्वः शर्वः शिवः स्थाणु: भूतादि: निधि: अव्ययः। 
संभवो भावनो भर्ता प्रभवः प्रभु: ईश्वरः॥4॥
 स्वयंभूः शम्भु: आदित्यः पुष्कराक्षो महास्वनः। 
अनादि-निधनो धाता विधाता धातुरुत्तमः॥5॥
अप्रमेयो हृषीकेशः पद्मनाभो-अमरप्रभुः। 
विश्वकर्मा मनुस्त्वष्टा स्थविष्ठः स्थविरो ध्रुवः॥6॥
अग्राह्यः शाश्वतः कृष्णो लोहिताक्षः प्रतर्दनः। 
प्रभूतः त्रिककुब-धाम पवित्रं मंगलं परं॥7॥
ईशानः प्राणदः प्राणो ज्येष्ठः श्रेष्ठः प्रजापतिः। 
हिरण्य-गर्भो भू-गर्भो माधवो मधुसूदनः॥8॥
ईश्वरो विक्रमी धन्वी मेधावी विक्रमः क्रमः। 
अनुत्तमो दुराधर्षः कृतज्ञः कृति: आत्मवान॥9॥
सुरेशः शरणं शर्म विश्व-रेताः प्रजा-भवः। 
अहः संवत्सरो व्यालः प्रत्ययः सर्वदर्शनः॥10॥
अजः सर्वेश्वरः सिद्धः सिद्धिः सर्वादि: अच्युतः। 
वृषाकपि: अमेयात्मा सर्व-योग-विनिःसृतः॥11॥
 वसु:वसुमनाः सत्यः समात्मा संमितः समः। 
अमोघः पुण्डरीकाक्षो वृषकर्मा वृषाकृतिः॥12॥
रुद्रो बहुशिरा बभ्रु: विश्वयोनिः शुचि श्रवाः। 
अमृतः शाश्वतः स्थाणु: वरारोहो महातपाः॥13॥ 
सर्वगः सर्वविद्-भानु:विष्वक सेनो जनार्दनः। 
वेदो वेदविद अव्यंगो वेदांगो वेदवित् कविः॥14॥ 
लोकाध्यक्षः सुराध्यक्षो धर्माध्यक्षः कृता कृतः। 
चतुरात्मा चतुर्व्यूह: चतुर्दंष्ट्र: चतुर्भुजः॥15॥ 
भ्राजिष्णु भोजनं भोक्ता सहिष्णु: जगदादिजः। 
अनघो विजयो जेता विश्वयोनिः पुनर्वसुः॥16॥
उपेंद्रो वामनः प्रांशु: अमोघः शुचि: ऊर्जितः। 
अतींद्रः संग्रहः सर्गो धृतात्मा नियमो यमः॥17॥
वेद्यो वैद्यः सदायोगी वीरहा माधवो मधुः। 
अति-इंद्रियो महामायो महोत्साहो महाबलः॥18॥
महाबुद्धि: महावीर्यो महाशक्ति: महाद्युतिः। 
अनिर्देश्य वपुः श्रीमान अमेयात्मा महाद्रि धृक॥19॥
महेष्वासो महीभर्ता श्रीनिवासः सतां गतिः। 
अनिरुद्धः सुरानंदो गोविंदो गोविदां पतिः॥20॥
मरीचि:दमनो हंसः सुपर्णो भुजगोत्तमः। 
हिरण्यनाभः सुतपाः पद्मनाभः प्रजापतिः॥21॥
अमृत्युः सर्वदृक् सिंहः सन धाता संधिमान स्थिरः। 
अजो दुर्मर्षणः शास्ता विश्रुतात्मा सुरारिहा॥22॥
गुरुःगुरुतमो धामः सत्यः सत्य पराक्रमः। 
निमिषो अनिमिषः स्रग्वी वाचस्पति: उदार धीः॥23॥
अग्रणी: ग्रामणीः श्रीमान न्यायो नेता समीरणः। 
सहस्र-मूर्धा विश्वात्मा सहस्राक्षः सहस्रपात॥24॥
आवर्तनो निवृत्तात्मा संवृतः सं-प्रमर्दनः। 
अहः संवर्तको वह्निः अनिलो धरणीधरः॥25॥
सुप्रसादः प्रसन्नात्मा विश्वधृक्वि श्वभुक्वि भुः। 
सत्कर्ता सकृतः साधु: जह्नु: नारायणो नरः॥26॥
असंख्येयो-अप्रमेयात्मा विशिष्टः शिष्ट कृत्शु चिः। 
सिद्धार्थः सिद्धसंकल्पः सिद्धिदः सिद्धिसाधनः॥27॥
वृषाही वृषभो विष्णु: वृषपर्वा वृषोदरः। 
वर्धनो वर्धमानश्च विविक्तः श्रुति सागरः॥28॥ 
सुभुजो दुर्धरो वाग्मी महेंद्रो वसुदो वसुः। 
नैक-रूपो बृहद-रूपः शिपिविष्टः प्रकाशनः॥29॥ 
ओज: तेजो-द्युतिधरः प्रकाश-आत्मा प्रतापनः। 
ऋद्धः स्पष्टाक्षरो मंत्र:चंद्रांशु: भास्कर-द्युतिः॥30॥
अमृतांशूद्भवो भानुः शशबिंदुः सुरेश्वरः। 
औषधं जगतः सेतुः सत्य-धर्म-पराक्रमः॥31॥ 
भूत-भव्य-भवत्-नाथः पवनः पावनो-अनलः। 
कामहा कामकृत-कांतः कामः कामप्रदः प्रभुः॥32॥
युगादि-कृत युगावर्तो नैकमायो महाशनः। 
अदृश्यो व्यक्तरूपश्च सहस्रजित्-अनंतजित॥33॥
इष्टो विशिष्टः शिष्टेष्टः शिखंडी नहुषो वृषः। 
क्रोधहा क्रोधकृत कर्ता विश्वबाहु: महीधरः॥34॥ 
अच्युतः प्रथितः प्राणः प्राणदो वासवानुजः। 
अपाम निधिरधिष्टानम् अप्रमत्तः प्रतिष्ठितः॥35॥ 
स्कन्दः स्कन्द-धरो धुर्यो वरदो वायुवाहनः। 
वासुदेवो बृहद भानु: आदिदेवः पुरंदरः॥36॥ 
अशोक: तारण: तारः शूरः शौरि: जनेश्वर:। 
अनुकूलः शतावर्तः पद्मी पद्मनिभेक्षणः॥37॥ 
पद्मनाभो-अरविंदाक्षः पद्मगर्भः शरीरभृत। 
महर्धि-ऋद्धो वृद्धात्मा महाक्षो गरुड़ध्वजः॥38॥
अतुलः शरभो भीमः समयज्ञो हविर्हरिः। 
सर्वलक्षण लक्षण्यो लक्ष्मीवान समितिंजयः॥39॥
 विक्षरो रोहितो मार्गो हेतु: दामोदरः सहः। 
महीधरो महाभागो वेगवान-अमिताशनः॥40॥ 
उद्भवः क्षोभणो देवः श्रीगर्भः परमेश्वरः। 
करणं कारणं कर्ता विकर्ता गहनो गुहः॥41॥ 
व्यवसायो व्यवस्थानः संस्थानः स्थानदो-ध्रुवः। 
परर्रद्वि परमस्पष्टः तुष्टः पुष्टः शुभेक्षणः॥42॥ 
रामो विरामो विरजो मार्गो नेयो नयो-अनयः। 
वीरः शक्तिमतां श्रेष्ठ: धर्मो धर्मविदुत्तमः॥43॥
वैकुंठः पुरुषः प्राणः प्राणदः प्रणवः पृथुः। 
हिरण्यगर्भः शत्रुघ्नो व्याप्तो वायुरधोक्षजः॥44॥
ऋतुः सुदर्शनः कालः परमेष्ठी परिग्रहः। 
उग्रः संवत्सरो दक्षो विश्रामो विश्व-दक्षिणः॥45॥
विस्तारः स्थावर: स्थाणुः प्रमाणं बीजमव्ययम। 
अर्थो अनर्थो महाकोशो महाभोगो महाधनः॥46॥
अनिर्विण्णः स्थविष्ठो-अभूर्धर्म-यूपो महा-मखः। 
नक्षत्रनेमि: नक्षत्री क्षमः क्षामः समीहनः॥47॥
यज्ञ इज्यो महेज्यश्च क्रतुः सत्रं सतां गतिः। 
सर्वदर्शी विमुक्तात्मा सर्वज्ञो ज्ञानमुत्तमं॥48॥
सुव्रतः सुमुखः सूक्ष्मः सुघोषः सुखदः सुहृत। 
मनोहरो जित-क्रोधो वीरबाहुर्विदारणः॥49॥ 
स्वापनः स्ववशो व्यापी नैकात्मा नैककर्मकृत। 
वत्सरो वत्सलो वत्सी रत्नगर्भो धनेश्वरः॥50॥
धर्मगुब धर्मकृद धर्मी सदसत्क्षरं-अक्षरं। 
अविज्ञाता सहस्त्रांशु: विधाता कृतलक्षणः॥51॥
गभस्तिनेमिः सत्त्वस्थः सिंहो भूतमहेश्वरः। 
आदिदेवो महादेवो देवेशो देवभृद गुरुः॥52॥
उत्तरो गोपतिर्गोप्ता ज्ञानगम्यः पुरातनः। 
शरीर भूतभृद्भोक्ता कपींद्रो भूरिदक्षिणः॥53॥
सोमपो-अमृतपः सोमः पुरुजित पुरुसत्तमः। 
विनयो जयः सत्यसंधो दाशार्हः सात्वतां पतिः॥54॥
जीवो विनयिता-साक्षी मुकुंदो-अमितविक्रमः। 
अम्भोनिधिरनंतात्मा महोदधिशयो-अंतकः॥55॥
अजो महार्हः स्वाभाव्यो जितामित्रः प्रमोदनः। 
आनंदो नंदनो नंदः सत्यधर्मा त्रिविक्रमः॥56॥
महर्षिः कपिलाचार्यः कृतज्ञो मेदिनीपतिः। 
त्रिपदस्त्रिदशाध्यक्षो महाश्रृंगः कृतांतकृत॥57॥
महावराहो गोविंदः सुषेणः कनकांगदी। 
गुह्यो गंभीरो गहनो गुप्तश्चक्र-गदाधरः॥58॥
वेधाः स्वांगोऽजितः कृष्णो दृढः संकर्षणो-अच्युतः। 
वरूणो वारुणो वृक्षः पुष्कराक्षो महामनाः॥59॥
भगवान भगहानंदी वनमाली हलायुधः। 
आदित्यो ज्योतिरादित्यः सहिष्णु:-गतिसत्तमः॥60॥
VISHNU PAD EMPLE GAYA BIHAR
सुधन्वा खण्डपरशुर्दारुणो द्रविणप्रदः। 
दिवि:स्पृक् सर्वदृक व्यासो वाचस्पति:अयोनिजः॥61॥
त्रिसामा सामगः साम निर्वाणं भेषजं भिषक। 
संन्यासकृत्-छमः शांतो निष्ठा शांतिः परायणम॥62॥
शुभांगः शांतिदः स्रष्टा कुमुदः कुवलेशयः। 
गोहितो गोपतिर्गोप्ता वृषभाक्षो वृषप्रियः॥63॥
अनिवर्ती निवृत्तात्मा संक्षेप्ता क्षेमकृत्-शिवः। 
श्रीवत्सवक्षाः श्रीवासः श्रीपतिः श्रीमतां वरः॥64॥
दः श्रीशः श्रीनिवासः श्रीनिधिः श्रीविभावनः। 
श्रीधरः श्रीकरः श्रेयः श्रीमान्-लोकत्रयाश्रयः॥65॥
स्वक्षः स्वंगः शतानंदो नंदिर्ज्योतिर्गणेश्वर:। 
विजितात्मा विधेयात्मा सत्कीर्तिश्छिन्नसंशयः॥66॥ 
उदीर्णः सर्वत:चक्षुरनीशः शाश्वतस्थिरः। 
भूशयो भूषणो भूतिर्विशोकः शोकनाशनः॥67॥
अर्चिष्मानर्चितः कुंभो विशुद्धात्मा विशोधनः। 
अनिरुद्धोऽप्रतिरथः प्रद्युम्नोऽमितविक्रमः॥68॥
कालनेमिनिहा वीरः शौरिः शूरजनेश्वरः। 
त्रिलोकात्मा त्रिलोकेशः केशवः केशिहा हरिः॥69॥ 
कामदेवः कामपालः कामी कांतः कृतागमः। 
अनिर्देश्यवपुर्विष्णु: वीरोअनंतो धनंजयः॥70॥ 
ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृत् ब्रह्मा ब्रह्म ब्रह्मविवर्धनः। 
ब्रह्मविद ब्राह्मणो ब्रह्मी ब्रह्मज्ञो ब्राह्मणप्रियः॥71॥ 
महाक्रमो महाकर्मा महातेजा महोरगः। 
महाक्रतुर्महायज्वा महायज्ञो महाहविः॥72॥ 
स्तव्यः स्तवप्रियः स्तोत्रं स्तुतिः स्तोता रणप्रियः। 
पूर्णः पूरयिता पुण्यः पुण्यकीर्तिरनामयः॥73॥
मनोजवस्तीर्थकरो वसुरेता वसुप्रदः। 
वसुप्रदो वासुदेवो वसुर्वसुमना हविः॥74॥ 
सद्गतिः सकृतिः सत्ता सद्भूतिः सत्परायणः। 
शूरसेनो यदुश्रेष्ठः सन्निवासः सुयामुनः॥75॥ 
भूतावासो वासुदेवः सर्वासुनिलयो-अनलः। 
दर्पहा दर्पदो दृप्तो दुर्धरो-अथापराजितः॥76॥ 
विश्वमूर्तिमहार्मूर्ति:दीप्तमूर्ति: अमूर्तिमान। 
अनेकमूर्तिरव्यक्तः शतमूर्तिः शताननः॥77॥
एको नैकः सवः कः किं यत-तत-पद्मनुत्तमम। 
लोकबंधु: लोकनाथो माधवो भक्तवत्सलः॥78॥
सुवर्णोवर्णो हेमांगो वरांग: चंदनांगदी। 
वीरहा विषमः शून्यो घृताशीरऽचलश्चलः॥79॥ 
अमानी मानदो मान्यो लोकस्वामी त्रिलोकधृक। 
सुमेधा मेधजो धन्यः सत्यमेधा धराधरः॥80॥ 
तेजोवृषो द्युतिधरः सर्वशस्त्रभृतां वरः। 
प्रग्रहो निग्रहो व्यग्रो नैकश्रृंगो गदाग्रजः॥81॥
चतुर्मूर्ति: चतुर्बाहु:श्चतुर्व्यूह:चतुर्गतिः। 
चतुरात्मा चतुर्भाव:चतुर्वेदविदेकपात॥82॥
समावर्तो-अनिवृत्तात्मा दुर्जयो दुरतिक्रमः। 
दुर्लभो दुर्गमो दुर्गो दुरावासो दुरारिहा॥83॥
शुभांगो लोकसारंगः सुतंतुस्तंतुवर्धनः। 
इंद्रकर्मा महाकर्मा कृतकर्मा कृतागमः॥84॥ 
उद्भवः सुंदरः सुंदो रत्ननाभः सुलोचनः। \
अर्को वाजसनः श्रृंगी जयंतः सर्वविज-जयी॥85॥
सुवर्णबिंदुरक्षोभ्यः सर्ववागीश्वरेश्वरः। 
महाह्रदो महागर्तो महाभूतो महानिधः॥86॥ 
कुमुदः कुंदरः कुंदः पर्जन्यः पावनो-अनिलः। 
अमृतांशो-अमृतवपुः सर्वज्ञः सर्वतोमुखः॥87॥
सुलभः सुव्रतः सिद्धः शत्रुजिच्छत्रुतापनः। 
न्यग्रोधो औदुंबरो-अश्वत्थ:चाणूरांध्रनिषूदनः॥88॥ 
सहस्रार्चिः सप्तजिव्हः सप्तैधाः सप्तवाहनः। 
अमूर्तिरनघो-अचिंत्यो भयकृत्-भयनाशनः॥89॥ 
अणु:बृहत कृशः स्थूलो गुणभृन्निर्गुणो महान्। 
अधृतः स्वधृतः स्वास्यः प्राग्वंशो वंशवर्धनः॥90॥
भारभृत्-कथितो योगी योगीशः सर्वकामदः। 
आश्रमः श्रमणः क्षामः सुपर्णो वायुवाहनः॥91॥
धनुर्धरो धनुर्वेदो दंडो दमयिता दमः। 
अपराजितः सर्वसहो नियंता नियमो यमः॥92॥
सत्त्ववान सात्त्विकः सत्यः सत्यधर्मपरायणः। 
अभिप्रायः प्रियार्हो-अर्हः प्रियकृत-प्रीतिवर्धनः॥93॥ 
विहायसगतिर्ज्योतिः सुरुचिर्हुतभुग विभुः। 
रविर्विरोचनः सूर्यः सविता रविलोचनः॥94॥
अनंतो हुतभुग्भोक्ता सुखदो नैकजोऽग्रजः। 
अनिर्विण्णः सदामर्षी लोकधिष्ठानमद्भुतः॥95॥ 
सनात्-सनातनतमः कपिलः कपिरव्ययः। 
स्वस्तिदः स्वस्तिकृत स्वस्ति स्वस्तिभुक स्वस्तिदक्षिणः॥96॥ 
अरौद्रः कुंडली चक्री विक्रम्यूर्जितशासनः। 
शब्दातिगः शब्दसहः शिशिरः शर्वरीकरः॥97॥ 
अक्रूरः पेशलो दक्षो दक्षिणः क्षमिणां वरः। 
विद्वत्तमो वीतभयः पुण्यश्रवणकीर्तनः॥98॥ 
उत्तारणो दुष्कृतिहा पुण्यो दुःस्वप्ननाशनः। 
वीरहा रक्षणः संतो जीवनः पर्यवस्थितः॥99॥
अनंतरूपो-अनंतश्री: जितमन्यु: भयापहः। 
चतुरश्रो गंभीरात्मा विदिशो व्यादिशो दिशः॥100॥
अनादिर्भूर्भुवो लक्ष्मी: सुवीरो रुचिरांगदः। 
जननो जनजन्मादि: भीमो भीमपराक्रमः॥101॥ 
आधारनिलयो-धाता पुष्पहासः प्रजागरः। 
ऊर्ध्वगः सत्पथाचारः प्राणदः प्रणवः पणः॥102॥ 
 प्रमाणं प्राणनिलयः प्राणभृत प्राणजीवनः। 
तत्त्वं तत्त्वविदेकात्मा जन्ममृत्यु जरातिगः॥103॥ 
भूर्भवः स्वस्तरुस्तारः सविता प्रपितामहः। 
यज्ञो यज्ञपतिर्यज्वा यज्ञांगो यज्ञवाहनः॥104॥
यज्ञभृत्-यज्ञकृत्-यज्ञी यज्ञभुक्-यज्ञसाधनः। 
यज्ञान्तकृत-यज्ञगुह्यमन्नमन्नाद एव च॥105॥
आत्मयोनिः स्वयंजातो सामगायनः। 
देवकीनंदनः स्रष्टा क्षितीशः पापनाशनः॥106॥
शंखभृन्नंदकी चक्री शार्ङ्गधन्वा गदाधरः। 
रथांगपाणिरक्षोभ्यः सर्वप्रहरणायुधः॥107॥ 
सर्वप्रहरणायुध ॐ नमः इति।
वनमालि गदी शार्ङ्गी शंखी चक्री च नंदकी
श्रीमान् नारायणो विष्णु: वासुदेवोअभिरक्षतु
 हरी ॐ तत्सत।
 ***ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नम:***
नमो नारायण ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।
भगवान्  श्री हरी विष्णु के 1,000 नाम ::
(1). विश्वम् :- जो स्वयं में ब्रह्मांड हो जो हर जगह विद्यमान हो; HE who pervades the entire universe.
(2). विष्णु :- जो हर जगह विद्यमान हो; HE who is present every where.
(3). वषट्कार :- जिसका यज्ञ और आहुतियों के समय आवाहन किया जाता हो; WHO is invited-remebered at the time of conducting Yagy, making offerings.
(4). भूतभव्यभवत्प्रभु :- भूत, वर्तमान और भविष्य का स्वामी; the master-lord of present, past and the future, master of the three forms of time viz. Akshy Kal, Maha Kal, Kal-Yamraj-Dharmraj. 
(5). भूतकृत् :- सब जीवों का निर्माता;  creator of all living beings, organisms, life forms.
(6). भूतभृत् :- सब जीवों का पालनकर्ता; (nurturer of all living beings, life forms.
(7). भाव :- भावना; feeling, sentiments, mood, psyche.
(8). भूतात्मा :-  सब जीवों का परमात्मा; God-lord of all living beings-species.
(9). भूतभावन :- सब जीवों उत्पत्ति और पालना का आधार; who evolve and nurture all life form, species, creator & nurturer of all living beings.
(10). पूतात्मा :- अत्यंत पवित्र सुगंधियों वाला; possessor of extremely pious, pure essesnces, smells.
(11). परमात्मा :- परम आत्मा; (The Almighty)
(12). मुक्तानां परमा गति :- सभी आत्माओं के लिए पहुँचने वाला अंतिम लक्ष्य (ultimate goal-target of all being  after emancipation, Salvation, Liberation).
(13). अव्यय :- अविनाशी, कभी नष्ट न होने वाला; for ever, ever since, imperishable, immortal,.
(14). पुरुष :- पुरुषोत्तम; best-excellent, ultimate amongest the humans.
(15). साक्षी :- बिना किसी व्यवधान के अपने स्वरुपभूत ज्ञान से सब कुछ देखने वाला; who watches, visualise, witness all activities-events uninterruptedly-freely.
(16). क्षेत्रज्ञ :- क्षेत्र अर्थात शरीर को जानने वाला; creator of the body, nature, characterises, qualities, traits in the living beings.
(17). अक्षर :- कभी क्षीण न होने वाला; imperishable, immortal.
(18). योग :- जिसे योग द्वारा पाया जा सके; HE who can be attained by Yog, devotion-Bhakti. Yog means assimilation in the Almighty.
(19). योगविदां नेता :- योग को जानने वाले योगवेत्ताओं का नेता; leader of those who know, understand, practice Yog.
(20). प्रधान पुरुषेश्वर :- प्रधान अर्थात प्रकृति, पुरुष अर्थात जीव, इन दोनों का स्वामी; master-leader, one who creates the nature and the being.
(21). नारसिंहवपु :- नर और सिंह दोनों के अवयव जिसमें दिखाई दें ऐसे शरीर वाला; one with the embodiment as a lion & the human being.
(22). श्रीमान् :- जिसके वक्ष स्थल में सदा श्री बसती हैं; the honourable in who chest Maa Laxmi resides.
(23). केशव :- जिसके केश सुन्दर हों; with beautiful hair.
(24). पुरुषोत्तम :- पुरुषों में उत्तम; excellent amongest the humans.
(25). सर्व :- सर्वदा सब कुछ जानने वाला; HE who knows everything.
(26). शर्व :- विनाशकारी या पवित्र; destroyer, pious.
(27). शिव :- सदा शुद्ध; Truth, Purest.
(28). स्थाणु :- स्थिर सत्य; truth which can not be altered.
(29). भूतादि :- पंच तत्वों के आधार; supporter of the five basic ingredients of Nature :- earth, water, air, sky, energy-Tej.
(30). निधिरव्यय :- अविनाशी निधि; wealth which is never lost. 
(31). सम्भव :- अपनी इच्छा से उत्पन्न होने वाले; He who evoles of his own will.
(32). भावन :- समस्त भोक्ताओं के फलों को उत्पन्न करने वाले; HE who generate-evolve the result-outcome, rewards of all deeds
(33). भर्ता :- समस्त संसार का पालन करने वाले; HE who nurtures all the living beings in the universe.
(34). प्रभव :- पंच महाभूतों को उत्पन्न करने वाले; WHO evolves the 5 basic ingrediants (earth, sky, water, air & energy-Tej) for the formation of the earth, universe.
(35). प्रभु :- सर्वशक्तिमान भगवान्; Almighty WHO possess al powers-might. 
(36). ईश्वर :- जो बिना किसी के सहायता के कुछ भी कर पाए; HE who can do every thing, without the support-help of any one. 
(37). स्वयम्भू :- जो सबके ऊपर है और स्वयं होते हैं; HE who is above all and complete in himself. 
(38). शम्भु :- भक्तों के लिए सुख की भावना की उत्पत्ति करने वाले हैं; HE who generate good (comforts, pleasure, welfare, riches etc.) will for the devotees. 
(39). आदित्य :- अदिति के पुत्र (वामन); son of Dev Mata Aditi. 
(40). पुष्कराक्ष :- जिनके नेत्र पुष्कर (कमल) समान हैं; who's eyes are like lotus. 
(41). महास्वन :- अति महान स्वर या घोष वाले; with loud voicespeech.
(42). अनादि-निधन :- जिनका आदि और निधन दोनों ही नहीं हैं; free from begining or end (ever since, for ever).
(43). धाता :- शेषनाग के रूप में विश्व को धारण करने वाले; supports the universe-earth in the form Of Bhagwan Shesh Nag.
(44). विधाता :- कर्म और उसके फलों की रचना करने वाले; decides the fate-destiny, out come of deeds.
(45). धातुरुत्तम :- अनंतादि अथवा सबको धारण करने वाले हैं; supports Anant (Bhagwan Shesh Nag) and all such entities.
(46). अप्रमेय :- जिन्हें जाना न जा सके; HE who can not be known (only Bhagwan Sada Shiv knows just a fraction-bit of HIM).
(47). हृषीकेश :- इन्द्रियों के स्वामी; Lord-master of sense and functional organs).
(48). पद्मनाभ :- जिसकी नाभि में जगत का कारण रूप पद्म स्थित है; HE in who's naval the reason of the creation of the universe is rests.
(49). अमरप्रभु :- देवता जो अमर हैं, उनके स्वामी; Lord-master of the immortal demigods-deities. 
(50). विश्वकर्मा :- विश्व जिसका कर्म अर्थात क्रिया है; creator of the universe, formation of the universe is his job. 
(51). मनु :- मनन करने वाले; thoughtful.
(52). त्वष्टा :- संहार के समय सब प्राणियों को क्षीण करने वाले; (A Demigod-Please refer to :: TWASTA DEV त्वष्टा देव santoshsuvichar.blogspot.com) WHO weakens all living beings at the time of annihilation.
(53). स्थविष्ठ :- अतिशय स्थूल; too haevy, gigentic.
(54). स्थविरो ध्रुव :- प्राचीन एवं स्थिर, ancient and fixed.
(55). अग्राह्य :- जो कर्मेन्द्रियों द्वारा ग्रहण नहीं किये जा सकते; WHO cannot be found, traced, identified, understood by the senses. 
(56). शाश्वत :- जो सब काल में हो; forever, ever since, presnt at all points of time. Ashay Kal.
(57). कृष्ण :- जिसका वर्ण श्याम हो; dark coloured. 
(58). लोहिताक्ष :- जिनके नेत्र लाल हों; with red eyes. 
(59). प्रतर्दन :- जो प्रलयकाल में प्राणियों का संहार करते हैं; HE who kills the living beings at the time of annihilation. 
(60). प्रभूतस् :- जो ज्ञान, ऐश्वर्य आदि गुणों से संपन्न हैं; He who is enlightened and possess all sorts of aminites. 
(61). त्रिकाकुब्धाम :- ऊपर, नीचे और मध्य तीनों दिशाओं के धाम हैं; HE is the abode of the three directions, Up-Top, down and the middle i.e., heavens, earth and the Nether world. 
(62). पवित्रम् :- जो पवित्र करे; WHO make-cause purity, piousness, righteousness, truth.
(63). मंगल :- परम् जो सबसे उत्तम है और समस्त अशुभों को दूर करता है; Ultimate who destrroy all jinx.
अशुभ :: मनहूस, अपशगुन, भविष्य सूचक, दु:ख, दुर्भाग्य-मंदभाग्य; inauspicious, ominous, unlucky, jinx.
(64). ईशान :- सर्वभूतों के नियंता; WHO controled all events in the past.
(65). प्राणद :- प्राणों को देने वाले; life granting.
(66). प्राण :- जो सदा जीवित है; always living-surving.
(67). ज्येष्ठ :- सबसे अधिक वृद्ध या या बड़ा; eldest-oldest. 
(68). श्रेष्ठः सबसे प्रशंसनीय
(69). प्रजापति :- ईश्वर रूप से सब प्रजाओं के पति; Leadear of the all people as God.
(70). हिरण्यगर्भ :- ब्रह्माण्डरूप अंडे के भीतर व्याप्त होने वाले; present-pervading as egg-ovum in the universe shaped golden shell. 
(71). भूगर्भ :- पृश्वी जिनके गर्भ में स्थित है; WHO is the ovum of the earth.
(72). माधव :- माँ अर्थात लक्ष्मी के धव अर्थात पति; husband of Maa Lakshmi.
(73). मधुसूदन :- मधु नामक दैत्य को मारने वाले; slayer of giant Madhu. 
(74). ईश्वर :- सर्वशक्तिमान; mighty, possessing all powers.
(75). विक्रम :- शूरवीर; brave, mighty, possessing valour.
(76). धन्वी :- धनुष धारण करने वाला; wearing bow.
(77). मेधावी :- बहुत से ग्रंथों को धारण करने के सामर्थ्य वाला; enlightened, learned, intellectual, intellegent.
(78). विक्रम :- जगत को लाँघ जाने वाला या गरुड़ पक्षी द्वारा गमन करने वाला; HE who ride Garud Ji  crosses the world-universe. 
(79). क्रम :- क्रमण (लांघना, दौड़ना) करने वाला या क्रम (विस्तार) वाला; HE who creat, follows order.
(80). अनुत्तम :- जिससे उत्तम और कोई न हो; Excellegent, best, superb.
(81). दुराधर्ष :- जो दैत्यादिकों से दबाया न जा सके; HE who can not be over powered by the wicked, demons, giants. 
(82). कृतज्ञ :- प्राणियों के किये हुए पाप-पुण्यों को जानने वाले; HE who knows the sins and virtues of the otganisms-living beings, greatful. 
(83). कृति :- सर्वात्मक, सबकी आत्मा; संपूर्ण विश्व की आत्मा; संपूर्ण विश्व में व्याप्त चेतन सत्ता; ब्रह्म; Omnipotent, pervading the entiore universe.
(84). आत्मवान् :- अपनी ही महिमा में स्थित होने वाले, स्वयं में स्थापित; limited to himself.
(85). सुरेश :- देवताओं के ईश; Almighty, God of the demigods-deities.
(86). शरणम् :- दीनों का दुःख दूर करने वाले; removes the difficulties, troubles, sorows, pains of the poor, worried who comes under his asylum, shelter.
दीन :: दरिद्र, तुच्छ, निर्बल, अनुपजाऊ, तंग, उदास, खिन्न, शोकाकुल, खेदपूर्ण, दर्दनाक, विलापी, शोकाकुल; poor, sorry, plaintive.
(87). शर्म :- परमानन्द स्वरूप; like bliss. 
(88). विश्वरेता :- विश्व के कारण; reason-cause behind the creation of the world-universe, evolution.
(89). प्रजाभव :- जिनसे सम्पूर्ण प्रजा उत्पन्न होती है; HE from whom the whole evolution takes place. 
(90). अह :- प्रकाश स्वरूप; like light, aura. 
(91). संवत्सर :- काल स्वरूप से स्थित हुए; HE who has established himself as the AKSHAY KAL (time, destroyer).
(92). व्याल :- व्याल (सर्प) के समान ग्रहण करने में न आ सकने वाले; WHO can not be over powered-controlled like a snake.
(93). प्रत्यय :- प्रतीति रूप होने के कारण; reason behind the experiencing the God, WHO HE explain the meaning.
प्रतीयतेSथॉSमेनेति प्रत्यय :: जिसके द्वारा अर्थ जानते हैं, उसी को प्रत्यय कहते हैं।
(94). सर्वदर्शन :- सर्वरूप होने के कारण सभी के नेत्र हैं; possessing all shapes, sizes is the eye of all beings.
(95). अज :- अजन्मा; unborn. 
(96). सर्वेश्वर :- ईश्वरों का भी ईश्वर; God of the demigods-deities.
(97). सिद्ध :- नित्य सिद्ध; WHO is undoubtedly perfect-complete.
सिद्ध :: पूरा, दोषहीन, निर्दोष, निपुण, प्रमाणित, पूर्ण, निर्मित; proven, perfect, proved, finished.
(98). सिद्धि :- सबसे श्रेष्ठ; excellent, best, WHO is the ultimate accomplishment.
(99). सर्वादि :- सर्व भूतों के आदि कारण; sources-reason behind all events in the past. 
(100). अच्युत :- अपनी स्वरुप शक्ति से च्युत न होने वाले; WHO never looses his powers, might.
(101). वृषाकपि :- वृष (धर्म) रूप और कपि (वानर, बन्दर) रूप; bearing the form of Bull-Dharm & Vanar-monkey. 
(102). अमेयात्मा :- जिनके आत्मा का माप परिच्छेद न किया जा सके; HE who's soul can not be further subdivided. 
परिच्छेद :: काट-छाँट कर अलग करना, बँटवारा; paragraph, chapter, further sub division by editing. 
(103). सर्वयोग विनिसृत :- सम्पूर्ण संबंधों से रहित; free from all bonds, ties, realtions, allurements, affections. 
(104). वसु :- जो सब भूतों में बसते हैं और जिनमें सब भूत बसते हैं; in whom the whole past reside and vice versa. 
(105). वसुमना :- जिनका मन प्रशस्त (श्रेष्ठ) है; who's innerself is excellent.
(106). सत्य :- सत्य स्वरुप; embodiment of truth. 
(107). समात्मा :- जो राग द्वेषादि से दूर हैं; free from attachments, enmity etc.
(108). सम्मित :- समस्त पदार्थों से परिच्छिन्न; a specified or determinate number or amount of something.
परिच्छिन्न :- परिच्छेद किया हुआ, घिरा हुआ; intersecting, determinate, quantity means a specified or determinate number or amount of something.
(109). सम :- सदा समस्त विकारों से रहित; always free from defects. 
(110). अमोघ :- जो स्मरण किये जाने पर सदा फल देते हैं; who always grants accaomplishmentrs-desires on being remembered. 
(111). पुण्डरीकाक्ष :- कमलवत् नेत्रों वाला; having eyes like lotus.  
(112). वृषकर्मा :- जिनके कर्म धर्म रूप हैं; HIS deeds-endeavours constitute Dharm-duty, hard working bull.
(113). वृषाकृति :- जिन्होंने धर्म के लिए ही शरीर धारण किया है; HE who acquire embodiment for he sake of establishing Dharm, law & order, peace, cohesiveness (सामंजस्य).
(114). रुद्र :- दुःख को दूर भगाने वाले; HE who absolves all problems, pain, sorrow. 
रुद्र :: डरावना, शिव, भयानक, गर्जन और बिजली का नाम होता है।
(115). बहुशिर :- बहुत से सिरों वाले; has many heads.
(116). बभ्रु :- लोकों का भरण करने वाले; moves in all abodes, universes. 
(117). विश्वयोनि :- विश्व के कारण; cause behind the creation of universe, evolution.
(118). शुचिश्रवा :- जिनके नाम सुनने योग्य हैं; HE who's name deserve listening, hearing. 
(119). अमृत :- जिनका मृत अर्थात मरण नहीं होता, nectar, elixir, HEwho never dies. 
(120). शाश्वत :- स्थाणुः शाश्वत (नित्य) और स्थाणु (स्थिर); immortal, for ever fixed, rigid. 
(121). वरारोह :- जिनका आरोह (गोद) वर (श्रेष्ठ) है; Who's lap is excellent.
(122). महातप :- जिनका तप महान है;  He who has attained extreme asceticism. 
(123). सर्वग :- जो सर्वत्र व्याप्त है; pervaded each & every where.
(124). सर्वविद्भानु :- जो सर्ववित् है और भानु भी है; HE who is known to every one and is Sun. 
(125). विष्वक्सेन :- जिनके सामने कोई सेना नहीं टिक सकती; HE whom no army can face. 
(126). जनार्दन :- दुष्टजनों को नरकादि लोकों में भेजने वाले; who sends the sinners, wicked viceful, vicious to hells. 
(127). वेद :- वेद रूप; embodiment of the Veds. 
(128). वेदविद् :- वेद जानने वाले; enlightened, knowsunderstand the Veds.
(129). अव्यंग :- जो किसी प्रकार ज्ञान से अधूरा न हो; who's knowledge is not incomplete in any way. 
(130). वेदांग :- वेद जिनके अंगरूप हैं; HE for whom Veds are like organs. 
(131). वेदविद् :-  वेदों को विचारने वाले; understands-aware of the content of Veds.
(132). कवि :- सबको देखने वाले; who watches-looks at every one. 
(133). लोकाध्यक्ष :- समस्त लोकों का निरीक्षण करने वाले; lord of all abodes, examin all abodes. 
(134). सुराध्यक्ष :- सुरों (देवताओं) के अध्यक्ष; Lord-head of all demigods-deities. 
(135). धर्माध्यक्ष :- धर्म और अधर्म को साक्षात देखने वाले; HE who establishes the Dharm & notice Adharm.
(136). कृताकृत :- कार्य रूप से कृत और कारणरूप से अकृत; practically uninvolved in any sort-type of deeds endeavours. 
(137). चतुरात्मा :- चार पृथक विभूतियों वाले; possess 4 kinds-types of titles. 
(138). चतुर्व्यूह :- चार व्यूहों वाले; possess 4 types-kinds of war formations.
(139). चतुर्दंष्ट्र :- चार दाढ़ों या सींगों वाले; having 4 jaws, tusks or horns. 
(140). चतुर्भुज :- चार भुजाओं वाले; having 4 arms. 
(141). भ्राजिष्णु :- एक रस प्रकाश स्वरूप; unique like light.
(142). भोजनम :- प्रकृति रूप भोज्य माया; WHO is like the illusionary nature. (HE him self is immortal-imperishable; Mother nature in itself is HIS perishable manifestation-form.)
(143). भोक्ता :- पुरुष रूप से प्रकृति को भोगने वाले; HE is a consumer in the form of human.
(144). सहिष्णु :- दैत्यों को भी सहन करने वाले; tolerant, allows the giants & demons to survive. 
(145). जगदादिज :- जगत के आदि में उत्पन्न होने वाले; HE who appear in the beginning of evolution.
(146). अनघ :- जिनमे अघ (पाप) न हो; sinless, pure, pious, righteous, truthful. 
(147). विजय :- ज्ञान, वैराग्य व ऐश्वर्य से विश्व को जीतने वाले; who conquer the universe with enlightenment, relinquishment and opulence, grandeur.
(148). जेता :- समस्त भूतों को जीतने वाले; HE who has conquered the entire past.
(149). विश्वयोनि :- विश्व और योनि दोनों वही है;  Womb of the universe.
(150). पुनर्वसु :- बार-बार शरीरों में बसने वाले; occupies body again & again, has infinite incarnations. 
(151). उपेन्द्र :-  अनुज रूप से इंद्र के पास रहने वाले; HE who resides with Dev Raj Indr as his younger brother (Vaman Avtar).
(152). वामन :- बौना, भगवान् विष्णु के पांचवें अवतार हैं, वामन देव, fifth incarnation of Bhagwan Shri Hari Vishnu as a dwarf.
(153). प्रांशु :- तीनों  लोकों को लांघने के कारण प्रांशु (ऊँचे) हो गए; HE who pervaded, turned so large that he measured the three abodes (Earth, Heaven and Nether world) just by raising his feet thrice. 
(154). अमोघ :- जिनकी चेष्टा मोघ (व्यर्थ) नहीं होती; HIS actions goes waste.
(155). शुचि :- स्मरण करने वालों को पवित्र करने वाले, clear those who remember HIM of sins.
(156). ऊर्जित :- अत्यंत बलशाली; extremely powerful-mighty, energetic, possesses aura as compared to thousands of Sun-stars. 
(157). अतीन्द्र :- जो बल और ऐश्वर्य में इंद्र से भी आगे हो; HE who is more powerful-mighty than Dev Raj Indr, possess the power to know future, intuition, far sight.
(158). संग्रह :- प्रलय के समय सबका संग्रह करने वाले; who collect-protect, keeps intact, all at the time annihilation. 
(159). सर्ग :- जगत रूप और जगत का कारण; reason behind the shape, size, and evolution of the universe and the organism.
सर्ग :: गमन, गति, चलना या बढ़ना; संसार, सृष्टी, जगत् की उत्पत्ति; बहाव, झोंक, प्रवाह; छोड़ना, चलाना, फेंकना; छोड़ा हुआ अस्त्र; मूल, उदगम, उत्पत्ति स्थान; प्रयत्न, चेष्टा; संकल्प; किसी ग्रंथ (विशेषत: काव्य) का अध्याय या प्रकरण या  परिच्छेद; मोह, मूर्छा; शिव का एक नाम; धावा, सेना का हमला; स्वीकृति; युद्धोपकरण, शस्त्रादि का उत्पादन; रुद्र का एक पुत्र; जीव-प्राणी; मलत्याग।
(160). धृतात्मा :- अपने स्वरुप को एक रूप से धारण करने वाले; HE who illustrate shows his one form.
(161). नियम :- प्रजा को नियमित करने वाले; HE who regulate the populace.
(162). यम :- अन्तः करण में स्थित होकर नियमन करने वाले; WHO resides in the innerself of the organism-living being and regulate him.
(163). वेद्य :- कल्याण की इच्छा वालों द्वारा जानने योग्य; WHO can be understood through the desire of welfare of the community.
(164). वैद्य :- सब विद्याओं के जानने वाले; enlightened, who knows all arts, crafts, sciences, education, learning etc.
(165). सदायोगी :- सदा प्रत्यक्ष रूप होने के कारण; a continuous performing Yogi.
सदा योगी व्यक्ति का ही सत्संग करें। उसके द्वारा सदैव दूसरों को सुख ही सुख मिलता है, जबकि भोगी के द्वारा सबको दुख मिलता है। 
(166). वीरहा :- धर्म की रक्षा के लिए असुर योद्धाओं को मारते हैं; HE who kills the demons, Asur, sinners, wicked, vicious for the protection-establishment of Dharm-order.
(167). माधव :- विद्या के पति; the ultimate in knowledge, enlightenment. 
(168). मधु :- मधु (शहद) के समान प्रसन्नता उत्पन्न करने वाले; HE who create happiness-pleasure like the honey. 
(169). अतीन्द्रिय :- इन्द्रियों से परे; HE who is beyond the sense organs of the living beings, beyond reach, HE who's senses perceive, picks up, acquire all that is happening around in the universe any where, any time. 
(170). महामाय :- मायावियों के भी स्वामी; Ultimate-master of all illusions Maya, cast.
(171). महोत्साह :- जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के लिए तत्पर रहने वाले; HE who is ready to evolve as Brahma Ji, stabilize-nurture as Bhagwan Shri Hari Vishnu & annihilate as Mahesh the universe.
(172). महाबल :- सर्वशक्तिमान; Almighty.
(173). महाबुद्धि :- सर्व बुद्धिमान; Ultimate in intelligence & enlightenment.
(174). महावीर्य :- संसार के उत्पत्ति की कारण रूप; the reason behind the evolution of the universe and the organism. 
(175). महाशक्ति :- अति महान शक्ति और सामर्थ्य के स्वामी; HE who's power, might, strength is infinite. 
(176). महाद्युति :- जिनकी बाह्य और अंतर दयुति (ज्योति) महान है; HE who's inner & outer aura is Ultimate.
(177). अनिर्देश्यवपु :- जिसे बताया न जा सके; HE who is beyond explanation. 
(178). श्रीमान् :- जिनमें श्री है; HE who possess SHRI-Laxmi in HIM. 
(179). अमेयात्मा :- जिनकी आत्मा समस्त प्राणियों से अमेय (अनुमान न की जा सकने योग्य) है; HE who's soul can not be estimated by the living beings.
(180). महाद्रिधृक् :-  मंदराचल और गोवर्धन पर्वतों को धारण करने वाले; HE WHO is capable of holding-supporting the mountains like Mandrachal and Govardhan.
(181). महेष्वास :- जिनका धनुष महान है; WHO'S bow is great.
(182). महीभर्ता  :- प्रलयकालीन जल में डूबी हुई पृथ्वी को धारण करने वाले, HE who support the earth during annihilation. 
(183). श्रीनिवास :- श्री के निवास स्थान; the abode of Mata Laxmi.
(184). सतां गति :- संतजनों के पुरुषार्थ साधन हेतु; HE who is the goal, target of the saints through Salvation, Assimilation in God, Moksh, Emancipation. 
(185). अनिरुद्ध :- प्रादुर्भाव के समय किसी से निरुद्ध न होने वाले;  Who can not be obstructed by any one at the time-hour of evolving.
अनिरुद्ध :: व्यवधान-रहित, निर्विरोध; free from obstruction. 
(186). सुरानन्द :- सुरों (देवताओं) को आनंदित करने वाले; HE who amuse the demigods-deities. 
(187). गोविन्द :- वाणी (गौ) को प्राप्त कराने वाले; who helps in attaining Gou-cow, Maa Kam Dhenu, Nandini, Surbhi. 
(188). गोविदां :- पतिः गौ (वाणी) पति; HE who is one of the 7 greatest mountains, a leader.
(189). मरीचि :- तेजस्वियों के परम तेज; HE who has the Ultimate aura, brillance, radiance.
(190). दमन :- राक्षसों का दमन करने वाले; controls, supress, repress the demons.
दमन :: आत्मनियंत्रण, बलपूर्वक शांत करने का काम; suppression, repression.
(191). हंस :: संसार भय को नष्ट करने वाले; HE who removes the fears of the world. 
(192). सुपर्ण :: धर्म और अधर्म रूप सुन्दर पंखों वाले; HE who has beautiful feathers like Dharm & Adharm.
सुपर्ण-गरुड़ जी, भगवान्  श्री हरी विष्णु के वाहन, सुपर्ण- भगवान् श्री हरी विष्णु।
सुंदर पत्तों वाला, सुंदर पंखों या परों वाला, विष्णु, गरुड़, देव-गन्धर्व, सोम, किरण, एक वैदिक शाखा जिसमें 103 मंत्र हैं, एक प्रकार की सैनिक व्यूह-रचना, घोड़ा, चिड़िया, पक्षी, मुर्गा, अमलतास, नागकेसर।
(193). भुजगोत्तम :: भुजाओं से चलने वालों में उत्तम; best-excellent amongest those who have arms. 
(194). हिरण्यनाभ ::  हिरण्य (स्वर्ण) के समान नाभि वाले, HE who's naval is like gold. 
(195). सुतपा :: सुन्दर तप करने वाले; who resort to excellent ascetic practices. 
(196). पद्मनाभः पद्म के समान सुन्दर नाभि वाले
(197). प्रजापतिः प्रजाओं के पिता
(198). अमृत्युः जिसकी मृत्यु न हो
(199). सर्वदृक् प्राणियों के सब कर्म-अकर्मादि को देखने वाले
(200). सिंहः हनन करने वाले हैं
(201). सन्धाता मनुष्यों को उनके कर्मों के फल देते हैं
(202). सन्धिमान् फलों के भोगनेवाले हैं
(203). स्थिरः सदा एकरूप हैं
(204). अजः भक्तों के ह्रदय में रहने वाले और असुरों का संहार करने वाले
(205). दुर्मषणः दानवादिकों से सहन नहीं किये जा सकते
(206). शास्ता श्रुति स्मृति से सबका अनुशासन करते हैं
(207). विश्रुतात्मा सत्यज्ञानादि रूप आत्मा का विशेषरूप से श्रवण करने वाले
(208). सुरारिहा सुरों (देवताओं) के शत्रुओं को मारने वाले
(209). गुरुः सब विद्याओं के उपदेष्टा और सबके जन्मदाता
(210). गुरुतमः ब्रह्मा आदिको भी ब्रह्मविद्या प्रदान करने वाले
(211). धाम परम ज्योति
(212). सत्यः सत्य-भाषणरूप, धर्मस्वरूप
(213). सत्यपराक्रमः जिनका पराक्रम सत्य अर्थात अमोघ है
(214). निमिषः जिनके नेत्र योगनिद्रा में मूंदे हुए हैं
(215). अनिमिषः मत्स्यरूप या आत्मारूप
(216). स्रग्वी वैजयंती माला धारण करने वाले
(217). वाचस्पतिः-उदारधीः विद्या के पति,सर्व पदार्थों को प्रत्यक्ष करने वाले
(218). अग्रणीः मुमुक्षुओं को उत्तम पद पर ले जाने वाले
(219). ग्रामणीः भूतग्राम का नेतृत्व करने वाले
(220). श्रीमान् जिनकी श्री अर्थात कांति सबसे बढ़ी चढ़ी है
(221). न्यायः न्यायस्वरूप
(222). नेता जगतरूप यन्त्र को चलाने वाले
(223). समीरणः श्वासरूप से प्राणियों से चेष्टा करवाने वाले
(224). सहस्रमूर्धा सहस्र मूर्धा (सिर) वाले
(225). विश्वात्मा विश्व के आत्मा
(226). सहस्राक्षः सहस्र आँखों या इन्द्रियों वाले
(227). सहस्रपात् सहस्र पाद (चरण) वाले
(228). आवर्तनः संसार चक्र का आवर्तन करने वाले हैं
(229). निवृत्तात्मा संसार बंधन से निवृत्त (छूटे हुए) हैं
(230). संवृतः आच्छादन करनेवाली अविद्या से संवृत्त (ढके हुए) हैं
(231). संप्रमर्दनः अपने रूद्र और काल रूपों से सबका मर्दन करने वाले हैं
(232). अहः संवर्तकः दिन के प्रवर्तक हैं
(233). वह्निः हविका वहन करने वाले हैं
(234). अनिलः अनादि
(235). धरणीधरः वराहरूप से पृथ्वी को धारण करने वाले हैं
(236). सुप्रसादः जिनकी कृपा अति सुन्दर है
(237). प्रसन्नात्मा जिनका अन्तः करण रज और तम से दूषित नहीं है
(238). विश्वधृक् विश्व को धारण करने वाले हैं
(239). विश्वभुक् विश्व का पालन करने वाले हैं
(240). विभुः हिरण्यगर्भादिरूप से विविध होते हैं
(241). सत्कर्ता सत्कार करते अर्थात पूजते हैं
(242). सत्कृतः पूजितों से भी पूजित
(243). साधुः साध्यमात्र के साधक हैं
(244). जह्नुः अज्ञानियों को त्यागते और भक्तो को परमपद पर ले जाने वाले
(245). नारायणः नर से उत्पन्न हुए तत्व नार हैं जो भगवान् के अयन (घर) थे
(246). नरः नयन कर्ता है इसलिए सनातन परमात्मा नर कहलाता है
(247). असंख्येयः जिनमे संख्या अर्थात नाम रूप भेदादि नहीं हो
(248). अप्रमेयात्मा जिनका आत्मा अर्थात स्वरुप अप्रमेय है
(249). विशिष्टः जो सबसे अतिशय (बढे चढ़े) हैं
(250). शिष्टकृत् जो शासन करते हैं
(251). शुचिः जो मलहीन है
(252). सिद्धार्थः जिनका अर्थ सिद्ध हो
(253). सिद्धसंकल्पः जिनका संकल्प सिद्ध हो
(254). सिद्धिदः कर्ताओं को अधिकारानुसार फल देने वाले
(255). सिद्धिसाधनः सिद्धि के साधक
(256). वृषाही जिनमे वृष(धर्म) जोकि अहः (दिन) है वो स्थित है
(257). वृषभः जो भक्तों के लिए इच्छित वस्तुओं की वर्षा करते हैं
(258). विष्णुः सब और व्याप्त रहने वाले
(259). वृषपर्वा धर्म की तरफ जाने वाली सीढ़ी
(260). वृषोदरः जिनका उदर मानो प्रजा की वर्षा करता है
(261). वर्धनः बढ़ाने और पालना करने वाले
(262). वर्धमानः जो प्रपंचरूप से बढ़ते हैं
(263). विविक्तः बढ़ते हुए भी पृथक ही रहते हैं
(264). श्रुतिसागरः जिनमे समुद्र के सामान श्रुतियाँ रखी हुई हैं
(265). सुभुजः जिनकी जगत की रक्षा करने वाली भुजाएं अति सुन्दर हैं
(266). दुर्धरः जो मुमुक्षुओं के ह्रदय में अति कठिनता से धारण किये जाते हैं
(267). वाग्मी जिनसे वेदमयी वाणी का प्रादुर्भाव हुआ है
(268). महेन्द्रः ईश्वरों के भी इश्वर
(269). वसुदः वसु अर्थात धन देते हैं
(270). वसुः दिया जाने वाला वसु (धन) भी वही हैं
(271). नैकरूपः जिनके अनेक रूप हों
(272). बृहद्रूपः जिनके वराह आदि बृहत् (बड़े-बड़े) रूप हैं
(273). शिपिविष्टः जो शिपि (पशु) में यञरूप में स्थित होते हैं
(274). प्रकाशनः सबको प्रकाशित करने वाले
(275). ओजस्तेजोद्युतिधरः ओज, प्राण और बल को धारण करने वाले
(276). प्रकाशात्मा जिनकी आत्मा प्रकाश स्वरुप है
(277). प्रतापनः जो अपनी किरणों से धरती को तप्त करते हैं
(278). ऋद्धः जो धर्म, ज्ञान और वैराग्य से संपन्न हैं
(279). स्पष्टाक्षरः जिनका ओंकाररूप अक्षर स्पष्ट है
(280). मन्त्रः मन्त्रों से जानने योग्य
(281). चन्द्रांशुः मनुष्यों को चन्द्रमा की किरणों के समान आल्हादित करने वाले
(282). भास्करद्युतिः सूर्य के तेज के समान धर्म वाले
(283). अमृतांशोद्भवः समुद्र मंथन के समय जिनके कारण चन्द्रमा की उत्पत्ति हुई
(284). भानुः भासित होने वाले
(285). शशबिन्दुः चन्द्रमा के समान प्रजा का पालन करने वाले
(286). सुरेश्वरः देवताओं के इश्वर
(287). औषधम् संसार रोग के औषध
(288). जगतः सेतुः लोकों के पारस्परिक असंभेद के लिए इनको धारण करने वाला सेतु
(289). सत्यधर्मपराक्रमःजिनके धर्म-ज्ञान और पराक्रमादि गुण सत्य है
(290). भूतभव्यभवन्नाथः भूत, भव्य (भविष्य) और भवत (वर्तमान) प्राणियों के नाथ है
(291). पवनः पवित्र करने वाले हैं
(292). पावनः चलाने वाले हैं
(293). अनलः प्राणों को आत्मभाव से ग्रहण करने वाले हैं
(294). कामहा मोक्षकामी भक्तों और हिंसकों की कामनाओं को नष्ट करने वाले
(295). कामकृत् सात्विक भक्तों की कामनाओं को पूरा करने वाले हैं
(296). कान्तः अत्यंत रूपवान हैं
(297). कामः पुरुषार्थ की आकांक्षा वालों से कामना किये जाते हैं
(298). कामप्रदः भक्तों की कामनाओं को पूरा करने वाले हैं
(299). प्रभुः प्रकर्ष
(300). युगादिकृत् युगादि का आरम्भ करने वाले हैं
(301). युगावर्तः सतयुग आदि युगों का आवर्तन करने वाले हैं
(302). नैकमायः अनेकों मायाओं को धारण करने वाले हैं
(303). महाशनः कल्पांत में संसार रुपी अशन (भोजन) को ग्रसने वाले
(304). अदृश्यः समस्त ज्ञानेन्द्रियों के अविषय हैं
(305). व्यक्तरूपः स्थूल रूप से जिनका स्वरुप व्यक्त है
(306). सहस्रजित् युद्ध में सहस्रों देवशत्रुओं को जीतने वाले
(307). अनन्तजित् अचिन्त्य शक्ति से समस्त भूतों को जीतने वाले
(308). इष्टः यज्ञ द्वारा पूजे जाने वाले
(309). विशिष्टः अन्तर्यामी
(310). शिष्टेष्टः विद्वानों के ईष्ट
(311). शिखण्डी शिखण्ड (मयूरपिच्छ) जिनका शिरोभूषण है
(312). नहुषः भूतों को माया से बाँधने वाले
(313). वृषः कामनाओं की वर्षा करने वाले
(314). क्रोधहा साधुओं का क्रोध नष्ट करने वाले
(315). क्रोधकृत्कर्ता क्रोध करने वाले दैत्यादिकों के कर्तन करने वाले हैं
(316). विश्वबाहुः जिनके बाहु सब और हैं
(317). महीधरः महि (पृथ्वी) को धारण करते हैं
(318). अच्युतः छः भावविकारों से रहित रहने वाले
(319). प्रथितः जगत की उत्पत्ति आदि कर्मो से प्रसिद्ध
(320). प्राणः हिरण्यगर्भ रूप से प्रजा को जीवन देने वाले
(321). प्राणदः देवताओं और दैत्यों को प्राण देने या नष्ट करने वाले हैं
(322). वासवानुजः वासव (इंद्र) के अनुज (वामन अवतार)
(323). अपां-निधिः जिसमे अप (जल) एकत्रित रहता है वो सागर हैं
(324). अधिष्ठानम् जिनमे सब भूत स्थित हैं
(325). अप्रमत्तः कर्मानुसार फल देते हुए कभी चूकते नहीं हैं
(326). प्रतिष्ठितः जो अपनी महिमा में स्थित हैं
(327). स्कन्दः स्कंदन करने वाले हैं
(328). स्कन्दधरः स्कन्द अर्थात धर्ममार्ग को धारण करने वाले हैं
(329). धूर्यः समस्त भूतों के जन्मादिरूप धुर (बोझे) को धारण करने वाले हैं
(330). वरदः इच्छित वर देने वाले हैं
(331). वायुवाहनः आवह आदि सात वायुओं को चलाने वाले हैं
(332). वासुदेवः जो वासु हैं और देव भी हैं
(333). बृहद्भानुः अति बृहत् किरणों से संसार को प्रकाशित करने वाले
(334). आदिदेवः सबके आदि हैं और देव भी हैं
(335). पुरन्दरः देवशत्रुओं के पूरों (नगर)का ध्वंस करने वाले हैं
(336). अशोकः शोकादि छः उर्मियों से रहित हैं
(337). तारणः संसार सागर से तारने वाले हैं
(338). तारः भय से तारने वाले हैं
(339). शूरः पुरुषार्थ करने वाले हैं
(340). शौरिः वासुदेव की संतान
(341). जनेश्वरः जन अर्थात जीवों के इश्वर
(342). अनुकूलः सबके आत्मारूप हैं
(343). शतावर्तः जिनके धर्म रक्षा के लिए सैंकड़ों अवतार हुए हैं
(344). पद्मी जिनके हाथ में पद्म है
(345). पद्मनिभेक्षणः जिनके नेत्र पद्म समान हैं
(346). पद्मनाभः हृदयरूप पद्म की नाभि के बीच में स्थित हैं
(347). अरविन्दाक्षः जिनकी आँख अरविन्द (कमल) के समान है
(348). पद्मगर्भः हृदयरूप पद्म में मध्य में उपासना करने वाले हैं
(349). शरीरभृत् अपनी माया से शरीर धारण करने वाले हैं
(350). महर्द्धिः जिनकी विभूति महान है
(351). ऋद्धः प्रपंचरूप
(352). वृद्धात्मा जिनकी देह वृद्ध या पुरातन है
(353). महाक्षः जिनकी अनेको महान आँखें (अक्षि) हैं
(354). गरुडध्वजः जिनकी ध्वजा गरुड़ के चिन्ह वाली है
(355). अतुलः जिनकी कोई तुलना नहीं है
(356). शरभः जो नाशवान शरीर में प्रयगात्मा रूप से भासते हैं
(357). भीमः जिनसे सब डरते हैं
(358). समयज्ञः समस्त भूतों में जो समभाव रखते हैं
(359). हविर्हरिः यज्ञों में हवि का भाग हरण करते हैं
(360). सर्वलक्षणलक्षण्यः परमार्थस्वरूप
(361). लक्ष्मीवान् जिनके वक्ष स्थल में लक्ष्मी जी निवास करती हैं
(362). समितिञ्जयः समिति अर्थात युद्ध को जीतते हैं
(363). विक्षरः जिनका क्षर अर्थात नाश नहीं है
(364). रोहितः अपनी इच्छा से रोहितवर्ण मूर्ति का स्वरुप धारण करने वाले
(365). मार्गः जिनसे परमानंद प्राप्त होता है
(366). हेतुः संसार के निमित्त और उपादान कारण हैं
(367). दामोदरः दाम लोकों का नाम है जिसके वे उदर में हैं
(368). सहः सबको सहन करने वाले हैं
(369). महीधरः पर्वतरूप होकर मही को धारण करते हैं
(370). महाभागः हर यज्ञ में जिन्हे सबसे बड़ा भाग मिले
(371). वेगवान् तीव्र गति वाले हैं
(372). अमिताशनः संहार के समय सारे विश्व को खा जाने वाले हैं
(373). उद्भवः भव यानी संसार से ऊपर हैं
(374). क्षोभणः जगत की उत्पत्ति के समय प्रकृति और पुरुष में प्रविष्ट होकर क्षुब्ध करने वाले
(375). देवः जो स्तुत्य पुरुषों से स्तवन किये जाते हैं और सर्वत्र जाते हैं
(376). श्रीगर्भः जिनके उदर में संसार रुपी श्री स्थित है
(377). परमेश्वरः जो परम है और ईशनशील हैं
(378). करणम् संसार की उत्पत्ति के सबसे बड़े साधन हैं
(379). कारणम् जगत के उपादान और निमित्त
(380). कर्ता स्वतन्त्र
(381). विकर्ता विचित्र भुवनों की रचना करने वाले हैं
(382). गहनः जिनका स्वरुप, सामर्थ्य या कृत्य नहीं जाना जा सकता
(383). गुहः अपनी माया से स्वरुप को ढक लेने वाले
(384). व्यवसायः ज्ञानमात्रस्वरूप
(385). व्यवस्थानः जिनमे सबकी व्यवस्था है
(386). संस्थानः परम सत्ता
(387). स्थानदः ध्रुवादिकों को उनके कर्मों के अनुसार स्थान देते हैं
(388). ध्रुवः अविनाशी
(389). परर्धिः जिनकी विभूति श्रेष्ठ है
(390). परमस्पष्टः परम और स्पष्ट हैं
(391). तुष्टः परमानन्दस्वरूप
(392). पुष्टः सर्वत्र परिपूर्ण
(393). शुभेक्षणः जिनका दर्शन सर्वदा शुभ है
(394). रामः अपनी इच्छा से रमणीय शरीर धारण करने वाले
(395). विरामः जिनमे प्राणियों का विराम (अंत) होता है
(396). विरजः विषय सेवन में जिनका राग नहीं रहा है
(397). मार्गः जिन्हे जानकार मुमुक्षुजन अमर हो जाते हैं
(398). नेयः ज्ञान से जीव को परमात्वभाव की तरफ ले जाने वाले
(399). नयः नेता
(400). अनयः जिनका कोई और नेता नहीं है
(401). वीरः विक्रमशाली
(402). शक्तिमतां श्रेष्ठः सभी शक्तिमानों में श्रेष्ठ
(403). धर्मः समस्त भूतों को धारण करने वाले
(404). धर्मविदुत्तमः श्रुतियाँ और स्मृतियाँ जिनकी आज्ञास्वरूप है
(405). वैकुण्ठः जगत के आरम्भ में बिखरे हुए भूतों को परस्पर मिलाकर उनकी गति रोकने वाले
(406). पुरुषः सबसे पहले होने वाले
(407). प्राणः प्राणवायुरूप होकर चेष्टा करने वाले हैं
(408). प्राणदः प्रलय के समय प्राणियों के प्राणों का खंडन करते हैं
(409). प्रणवः जिन्हे वेद प्रणाम करते हैं
(410). पृथुः प्रपंचरूप से विस्तृत हैं
(411). हिरण्यगर्भः ब्रह्मा की उत्पत्ति के कारण
(412). शत्रुघ्नः देवताओं के शत्रुओं को मारने वाले हैं
(413). व्याप्तः सब कार्यों को व्याप्त करने वाले हैं
(414). वायुः गंध वाले हैं
(415). अधोक्षजः जो कभी अपने स्वरुप से नीचे न हो
(416). ऋतुः ऋतु शब्द द्वारा कालरूप से लक्षित होते हैं
(417). सुदर्शनः उनके नेत्र अति सुन्दर हैं
(418). कालः सबकी गणना करने वाले हैं
(419). परमेष्ठी हृदयाकाश के भीतर परम महिमा में स्थित रहने के स्वभाव वाले
(420). परिग्रहः भक्तों के अर्पण किये जाने वाले पुष्पादि को ग्रहण करने वाले
(421). उग्रः जिनके भय से सूर्य भी निकलता है
(422). संवत्सरः जिनमे सब भूत बसते हैं
(423). दक्षः जो सब कार्य बड़ी शीघ्रता से करते हैं
(424). विश्रामः मोक्ष देने वाले हैं
(425). विश्वदक्षिणः जो समस्त कार्यों में कुशल हैं
(426). विस्तारः जिनमे समस्त लोक विस्तार पाते हैं
(427). स्थावरस्स्थाणुः स्थावर और स्थाणु हैं
(428). प्रमाणम् संवितस्वरूप
(429). बीजमव्ययम् बिना अन्यथाभाव के ही संसार के कारण हैं
(430). अर्थः सबसे प्रार्थना किये जाने वाले हैं
(431). अनर्थः जिनका कोई प्रयोजन नहीं है
(432). महाकोशः जिन्हे महान कोष ढकने वाले हैं
(433). महाभोगः जिनका सुखरूप महान भोग है
(434). महाधनः जिनका भोगसाधनरूप महान धन है
(435). अनिर्विण्णः जिन्हे कोई निर्वेद (उदासीनता) नहीं है
(436). स्थविष्ठः वैराजरूप से स्थित होने वाले हैं
(437). अभूः अजन्मा
(438). धर्मयूपः धर्म स्वरुप यूप में जिन्हे बाँधा जाता है
(439). महामखः जिनको अर्पित किये हुए मख (यज्ञ) महान हो जाते हैं
(440). नक्षत्रनेमिः सम्पूर्ण नक्षत्रमण्डल के केंद्र हैं
(441). नक्षत्री चन्द्ररूप
(442). क्षमः समस्त कार्यों में समर्थ
(443). क्षामः जो समस्त विकारों के क्षीण हो जाने पर आत्मभाव से स्थित रहते हैं
(444). समीहनः सृष्टि आदि के लिए सम्यक चेष्टा करते हैं
(445). यज्ञः सर्वयज्ञस्वरूप
(446). इज्यः जो पूज्य हैं
(447). महेज्यः मोक्षरूप फल देने वाले सबसे अधिक पूजनीय
(448). क्रतुः तद्रूप
(449). सत्रम् जो विधिरूप धर्म को प्राप्त करता है
(450). सतां-गतिः जिनके अलावा कोई और गति नहीं है
(451). सर्वदर्शी जो प्राणियों के सम्पूर्ण कर्मों को देखते हैं
(452). विमुक्तात्मा स्वभाव से ही जिनकी आत्मा मुक्त है
(453). सर्वज्ञः जो सर्व है और ज्ञानरूप है
(454). ज्ञानमुत्तमम् जो प्रकृष्ट, अजन्य, और सबसे बड़ा साधक ज्ञान है
(455). सुव्रतः जिन्होंने अशुभ व्रत लिया है
(456). सुमुखः जिनका मुख सुन्दर है
(457). सूक्ष्मः शब्दादि स्थूल कारणों से रहित हैं
(458). सुघोषः मेघ के समान गंभीर घोष वाले हैं
(459). सुखदः सदाचारियों को सुख देने वाले हैं
(460). सुहृत् बिना प्रत्युपकार की इच्छा के ही उपकार करने वाले हैं
(461). मनोहरः मन का हरण करने वाले हैं
(462). जितक्रोधः क्रोध को जीतने वाले
(463). वीरबाहुः अति विक्रमशालिनी बाहु के स्वामी
(464). विदारणः अधार्मिकों को विदीर्ण करने वाले हैं
(465). स्वापनः जीवों को माया से आत्मज्ञानरूप जाग्रति से रहित करने वाले हैं
(466). स्ववशः जगत की उत्पत्ति, स्थिति और लय के कारण हैं
(467). व्यापी सर्वव्यापी
(468). नैकात्मा जो विभिन्न विभूतियों के द्वारा नाना प्रकार से स्थित हैं
(469). नैककर्मकृत् जो संसार की उत्पत्ति, उन्नति और विपत्ति आदि अनेक कर्म करते हैं
(470). वत्सरः जिनमे सब कुछ बसा हुआ है
(471). वत्सलः भक्तों के स्नेही
(472). वत्सी वत्सों का पालन करने वाले
(473). रत्नगर्भः रत्न जिनके गर्भरूप हैं
(474). धनेश्वरः जो धनों के स्वामी हैं
(475). धर्मगुब् धर्म का गोपन(रक्षा) करने वाले हैं
(476). धर्मकृत् धर्म की मर्यादा के अनुसार आचरण वाले हैं
(477). धर्मी धर्मों को धारण करने वाले हैं
(478). सत् सत्यस्वरूप परब्रह्म
(479). असत् प्रपंचरूप अपर ब्रह्म
(480). क्षरम् सर्व भूत
(481). अक्षरम् कूटस्थ
(482). अविज्ञाता वासना को न जानने वाला
(483). सहस्रांशुः जिनके तेज से प्रज्वल्लित होकर सूर्य तपता है
(484). विधाता समस्त भूतों और पर्वतों को धारण करने वाले
(485). कृतलक्षणः नित्यसिद्ध चैतन्यस्वरूप
(486). गभस्तिनेमिः जो गभस्तियों (किरणों) के बीच में सूर्यरूप से स्थित हैं
(487). सत्त्वस्थः जो समस्त प्राणियों में स्थित हैं
(488). सिंहः जो सिंह के समान पराक्रमी हैं
(489). भूतमहेश्वरः भूतों के महान इश्वर हैं
(490). आदिदेवः जो सब भूतों का ग्रहण करते हैं और देव भी हैं
(491). महादेवः जो अपने महान ज्ञानयोग और ऐश्वर्य से महिमान्वित हैं
(492). देवेशः देवों के ईश हैं
(493). देवभृद्गुरुः देंताओं के पालक इन्द्र के भी शासक हैं
(494). उत्तरः जो संसारबंधन से मुक्त हैं
(495). गोपतिः गौओं के पालक
(496). गोप्ता समस्त भूतों के पालक और जगत के रक्षक
(497). ज्ञानगम्यः जो केवल ज्ञान से ही जाने जाते हैं
(498). पुरातनः जो काल से भी पहले रहते हैं
(499). शरीरभूतभृत् शरीर की रचना करने वाले भूतों के पालक
(500). भोक्ता पालन करने वाले
(501). कपीन्द्रः वानरों के स्वामी
(502). भूरिदक्षिणः जिनकी बहुत सी दक्षिणाएँ रहती हैं
(503). सोमपः जो समस्त यज्ञों में देवतारूप से सोमपान करते हैं
(504). अमृतपः आत्मारूप अमृतरस का पान करने वाले
(505). सोमः चन्द्रमा (सोम) रूप से औषधियों का पोषण करने वाले
(506). पुरुजित् पुरु अर्थात बहुतों को जीतने वाले
(507). पुरुसत्तमः विश्वरूप अर्थात पुरु और उत्कृष्ट अर्थात सत्तम हैं
(508). विनयः दुष्ट प्रजा को विनय अर्थात दंड देने वाले हैं
(509). जयः सब भूतों को जीतने वाले हैं
(510). सत्यसन्धः जिनकी संधा अर्थात संकल्प सत्य हैं
(511). दाशार्हः जो दशार्ह कुल में उत्पन्न हुए
(512). सात्त्वतां पतिः सात्वतों (वैष्णवों) के स्वामी
(513). जीवः क्षेत्रज्ञरूप से प्राण धारण करने वाले
(514). विनयितासाक्षी प्रजा की विनयिता को साक्षात देखने वाले
(515). मुकुन्दः मुक्ति देने वाले हैं
(515). अमितविक्रमः जिनका विक्रम (शूरवीरता) अतुलित है
(517). अम्भोनिधिः जिनमे अम्भ (देवता) रहते हैं
(518). अनन्तात्मा जो देश, काल और वस्तु से अपरिच्छिन्न हैं
(519). महोदधिशयः जो महोदधि (समुद्र) में शयन करते हैं
(520). अन्तकः भूतों का अंत करने वाले
(521). अजः अजन्मा
(522). महार्हः मह (पूजा) के योग्य
(523). स्वाभाव्यः नित्यसिद्ध होने के कारण स्वभाव से ही उत्पन्न नहीं होते
(524). जितामित्रः जिन्होंने शत्रुओं को जीता है
(525). प्रमोदनः जो अपने ध्यानमात्र से ध्यानियों को प्रमुदित करते हैं
(526). आनन्दः आनंदस्वरूप
(527). नन्दनः आनंदित करने वाले हैं
(528). नन्दः सब प्रकार की सिद्धियों से संपन्न
(529). सत्यधर्मा जिनके धर्म ज्ञानादि गुण सत्य हैं
(530). त्रिविक्रमः जिनके तीन विक्रम (डग) तीनों लोकों में क्रान्त (व्याप्त) हो गए
(531). महर्षिः कपिलाचार्यः जो ऋषि रूप से उत्पन्न हुए कपिल हैं
(532).  कृतज्ञः कृत (जगत) और ज्ञ (आत्मा) हैं
(533). मेदिनीपतिः मेदिनी (पृथ्वी) के पति
(534). त्रिपदः जिनके तीन पद हैं
(535). त्रिदशाध्यक्षः जागृत , स्वप्न और सुषुप्ति इन तीन अवस्थाओं के अध्यक्ष
(536). महाशृंगः मत्स्य अवतार
(537). कृतान्तकृत् कृत (जगत) का अंत करने वाले हैं
(538). महावराहः महान हैं और वराह हैं
(539). गोविन्दः गो अर्थात वाणी से प्राप्त होने वाले हैं
(540). सुषेणः जिनकी पार्षदरूप सुन्दर सेना है
(541). कनकांगदी जिनके कनकमय (सोने के) अंगद(भुजबन्द) हैं
(542). गुह्यः गुहा यानि हृदयाकाश में छिपे हुए हैं
(543). गभीरः जो गंभीर हैं
(544). गहनः कठिनता से प्रवेश किये जाने योग्य हैं
(545). गुप्तः जो वाणी और मन के अविषय हैं
(546). चक्रगदाधरः मन रुपी चक्र और बुद्धि रुपी गदा को लोक रक्षा हेतु धारण करने वाले
(547). वेधाः विधान करने वाले हैं
(548). स्वांगः कार्य करने में स्वयं ही अंग हैं
(549). अजितः अपने अवतारों में किसी से नहीं जीते गए
(550). कृष्णः कृष्णद्वैपायन
(551). दृढः जिनके स्वरुप सामर्थ्यादि की कभी च्युति नहीं होती
(552). संकर्षणोऽच्युतः जो एक साथ ही आकर्षण करते हैं और पद च्युत नहीं होते
(553). वरुणः अपनी किरणों का संवरण करने वाले सूर्य हैं
(554). वारुणः वरुण के पुत्र वसिष्ठ या अगस्त्य
(555). वृक्षः वृक्ष के समान अचल भाव से स्थित
(556). पुष्कराक्षः हृदय कमल में चिंतन किये जाते हैं
(557). महामनः सृष्टि,स्थिति और अंत ये तीनों कर्म मन से करने वाले
(558). भगवान् सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य जिनमें है
(559). भगहा संहार के समय ऐश्वर्यादि का हनन करने वाले हैं
(560). आनन्दी सुखस्वरूप
(561). वनमाली वैजयंती नाम की वनमाला धारण करने वाले हैं
(562). हलायुधः जिनका आयुध (शस्त्र) ही हल है
(563). आदित्यः अदिति के गर्भ से उत्पन्न होने वाले
(564). ज्योतिरादित्यः सूर्यमण्डलान्तर्गत ज्योति में स्थित
(565). सहिष्णुः शीतोष्णादि द्वंद्वों को सहन करने वाले
(566). गतिसत्तमः गति हैं और सर्वश्रेष्ठ हैं
(567). सुधन्वा जिनका इन्द्रियादिमय सुन्दर शारंग धनुष है
(568). खण्डपरशु: जिनका परशु अखंड है
(569). दारुणः सन्मार्ग के विरोधियों के लिए दारुण (कठोर) हैं
(570). द्रविणप्रदः भक्तों को द्रविण (इच्छित धन) देने वाले हैं
(571). दिवःस्पृक् दिव (स्वर्ग) का स्पर्श करने वाले हैं
(572). सर्वदृग्व्यासः सम्पूर्ण ज्ञानों का विस्तार करने वाले हैं
(573). वाचस्पतिरयोनिजः विद्या के पति और जननी से जन्म न लेने वाले हैं
(574). त्रिसामा तीन सामों द्वारा सामगान करने वालों से स्तुति किये जाने वाले हैं
(575). सामगः सामगान करने वाले हैं
(576). साम सामवेद
(577). निर्वाणम् परमानंदस्वरूप ब्रह्म
(578). भेषजम् संसार रूप रोग की औषध
(579). भृषक् संसाररूप रोग से छुड़ाने वाली विद्या का उपदेश देने वाले हैं
(580). संन्यासकृत् मोक्ष के लिए संन्यास की रचना करने वाले हैं
(581). समः सन्यासियों को ज्ञान के साधन शम का उपदेश देने वाले
(582). शान्तः विषयसुखों में अनासक्त रहने वाले
(583). निष्ठा प्रलयकाल में प्राणी सर्वथा जिनमे वास करते हैं
(584). शान्तिः सम्पूर्ण अविद्या की निवृत्ति
(585). परायणम् पुनरावृत्ति की शंका से रहित परम उत्कृष्ट स्थान हैं
(586). शुभांगः सुन्दर शरीर धारण करने वाले हैं
(587). शान्तिदः शान्ति देने वाले हैं
(588). स्रष्टा आरम्भ में सब भूतों को रचने वाले हैं
(589). कुमुदः कु अर्थात पृथ्वी में मुदित होने वाले हैं
(590). कुवलेशयः कु अर्थात पृथ्वी के वलन करने से जल कुवल कहलाता है उसमे शयन करने वाले हैं
(591). गोहितः गौओं के हितकारी हैं
(592). गोपतिः गो अर्थात भूमि के पति हैं
(593). गोप्ता जगत के रक्षक हैं
(594). वृषभाक्षः वृष अर्थात धर्म जिनकी दृष्टि है
(595). वृषप्रियः जिन्हे वृष अर्थात धर्म प्रिय है
(596). अनिवर्ती देवासुरसंग्राम से पीछे न हटने वाले हैं
(597). निवृतात्मा जिनकी आत्मा स्वभाव से ही विषयों से निवृत्त है
(598). संक्षेप्ता संहार के समय विस्तृत जगत को सूक्ष्मरूप से संक्षिप्त करने वाले हैं
(599). क्षेमकृत् प्राप्त हुए पदार्थ की रक्षा करने वाले हैं
(600). शिवः अपने नामस्मरणमात्र से पवित्र करने वाले हैं
(601). श्रीवत्सवक्षाः जिनके वक्षस्थल में श्रीवत्स नामक चिन्ह है
(602). श्रीवासः जिनके वक्षस्थल में कभी नष्ट न होने वाली श्री वास करती हैं
(603). श्रीपतिः श्री के पति
(604). श्रीमतां वरः ब्रह्मादि श्रीमानों में प्रधान हैं
(605). श्रीदः भक्तों को श्री देते हैं इसलिए श्रीद हैं
(606). श्रीशः जो श्री के ईश हैं
(607). श्रीनिवासः जो श्रीमानों में निवास करते हैं
(608). श्रीनिधिः जिनमे सम्पूर्ण श्रियां एकत्रित हैं
(609). श्रीविभावनः जो समस्त भूतों को विविध प्रकार की श्रियां देते हैं
(610). श्रीधरः जिन्होंने श्री को छाती में धारण किया हुआ हैं
(611). श्रीकरः भक्तों को श्रीयुक्त करने वाले हैं
(612). श्रेयः जिनका स्वरुप कभी न नष्ट होने वाले सुख को प्राप्त कराता है
(613). श्रीमान् जिनमे श्रियां हैं
(614). लोकत्रयाश्रयः जो तीनों लोकों के आश्रय हैं
(615). स्वक्षः जिनकी आँखें कमल के समान सुन्दर हैं
(616). स्वङ्गः जिनके अंग सुन्दर हैं
(617). शतानन्दः जो परमानंद स्वरुप उपाधि भेद से सैंकड़ों प्रकार के हो जाते हैं
(618). नन्दिः परमानन्दस्वरूप
(619). ज्योतिर्गणेश्वरः ज्योतिर्गणों के इश्वर
(620). विजितात्मा जिन्होंने आत्मा अर्थात मन को जीत लिया है
(621). विधेयात्मा जिनका स्वरुप किसीके द्वारा विधिरूप से नहीं कहा जा सकता
(622). सत्कीर्तिः जिनकी कीर्ति सत्य है
(623). छिन्नसंशयः जिन्हे कोई संशय नहीं है
(624). उदीर्णः जो सब प्राणीओं से उत्तीर्ण है
(625). सर्वतश्चक्षुः जो अपने चैतन्यरूप से सबको देखते हैं
(626). अनीशः जिनका कोई ईश नहीं है
(627). शाश्वत :- स्थिरः जो नित्य होने पर भी कभी विकार को प्राप्त नहीं होते
(628). भूशयः लंका जाते समय समुद्रतट पर भूमि पर सोये थे
(629). भूषणः जो अपने अवतारों से पृथ्वी को भूषित करते रहे हैं
(630). भूतिः समस्त विभूतियों के कारण हैं
(631). विशोकः जो शोक से परे हैं
(632). शोकनाशनः जो स्मरणमात्र से भक्तों का शोक नष्ट कर दे
(633). अर्चिष्मान् जिनकी अर्चियों (किरणों) से सूर्य, चन्द्रादि अर्चिष्मान हो रहे हैं
(634). अर्चितः जो सम्पूर्ण लोकों से अर्चित (पूजित) हैं
(635). कुम्भः कुम्भ(घड़े) के समान जिनमे सब वस्तुएं स्थित हैं
(636). विशुद्धात्मा तीनों गुणों से अतीत होने के कारण विशुद्ध आत्मा हैं
(637). विशोधनः अपने स्मरण मात्र से पापों का नाश करने वाले हैं
(638). अनिरुद्धः शत्रुओं द्वारा कभी रोके न जाने वाले
(639). अप्रतिरथः जिनका कोई विरुद्ध पक्ष नहीं है
(640). प्रद्युम्नः जिनका दयुम्न (धन) श्रेष्ठ है
(641). अमितविक्रमःजिनका विक्रम अपरिमित है
(642). कालनेमीनिहा कालनेमि नामक असुर का हनन करने वाले
(643). वीरः जो शूर हैं
(644). शौरी जो शूरकुल में उत्पन्न हुए हैं
(645). शूरजनेश्वरः इंद्र आदि शूरवीरों के भी शासक
(646). त्रिलोकात्मा तीनों लोकों की आत्मा हैं
(647). त्रिलोकेशः जिनकी आज्ञा से तीनों लोक अपना कार्य करते हैं
(648). केशवः ब्रह्मा,विष्णु और शिव नाम की शक्तियां केश हैं उनसे युक्त होने वाले
(649). केशिहा केशी नामक असुर को मारने वाले
(650). हरिः अविद्यारूप कारण सहित संसार को हर लेते हैं
(651). कामदेवः कामना किये जाते हैं इसलिए काम हैं और देव भी हैं
(652). कामपालः कामियों की कामनाओं का पालन करने वाले हैं
(653). कामी पूर्णकाम हैं
(654). कान्तः परम सुन्दर देह वाले हैं
(655). कृतागमः जिन्होंने श्रुति,स्मृति आदि आगम(शास्त्र) रचे हैं
(656). अनिर्देश्यवपुः जिनका रूप निर्दिष्ट नहीं किया जा सकता
(657). विष्णुः जिनकी प्रचुर कांति पृथ्वी और आकाश को व्याप्त करके स्थित है
(658). वीरः गति आदि से युक्त हैं
(659). अनन्तः देश, काल, वस्तु, सर्वात्मा आदि से अपरिच्छिन्न
(660). धनञ्जयः अर्जुन के रूप में जिन्होंने दिग्विजय के समय बहुत सा धन जीता था
(661). ब्रह्मण्यः जो तप,वेद,ब्राह्मण और ज्ञान के हितकारी हैं
(662). ब्रह्मकृत् तपादि के करने वाले हैं
(663). ब्रह्मा ब्रह्मरूप से सबकी रचना करने वाले हैं
(664). ब्रहम बड़े तथा बढ़ानेवाले हैं
(665). ब्रह्मविवर्धनः तपादि को बढ़ाने वाले हैं
(666). ब्रह्मविद् वेद तथा वेद के अर्थ को यथावत जानने वाले हैं
(667). ब्राह्मणः ब्राह्मण रूप
(668). ब्रह्मी ब्रह्म के शेषभूत जिनमे हैं
(669). ब्रह्मज्ञः जो अपने आत्मभूत वेदों को जानते हैं
(670). ब्राह्मणप्रियः जो ब्राह्मणों को प्रिय हैं
(671). महाक्रमः जिनका डग महान है
(672). महाकर्मा जगत की उत्पत्ति जैसे जिनके कर्म महान हैं
(673). महातेजा जिनका तेज महान है
(674). महोरगः जो महान उरग (वासुकि सर्परूप) है
(675). महाक्रतुः जो महान क्रतु (यज्ञ) है
(676). महायज्वा महान हैं और लोक संग्रह के लिए यज्ञानुष्ठान करने से यज्वा भी हैं
(677). महायज्ञः महान हैं और यज्ञ हैं
(678). महाहविः महान हैं और हवि हैं
(679). स्तव्यः जिनकी सब स्तुति करते हैं लेकिन स्वयं किसीकी स्तुति नहीं करते
(680). स्तवप्रियः जिनकी सभी स्तुति करते हैं
(681). स्तोत्रम् वह गुण कीर्तन हैं जिससे उन्ही की स्तुति की जाती है
(682). स्तुतिः स्तवन क्रिया
(683). स्तोता सर्वरूप होने के कारण स्तुति करने वाले भी स्वयं हैं
(684). रणप्रियः जिन्हे रण प्रिय है
(685). पूर्णः जो समस्त कामनाओं और शक्तियों से संपन्न हैं
(686). पूरयिता जो केवल पूर्ण ही नहीं हैं बल्कि सबको संपत्ति से पूर्ण करने भी वाले हैं
(687). पुण्यः स्मरण मात्र से पापों का क्षय करने वाले हैं
(688). पुण्यकीर्तिः जिनकी कीर्ति मनुष्यों को पुण्य प्रदान करने वाली है
(689). अनामयः जो व्याधियों से पीड़ित नहीं होते
(690). मनोजवः जिनका मन वेग समान तीव्र है
(691). तीर्थकरः जो चौदह विद्याओं और वेद विद्याओं के कर्ता तथा वक्ता हैं
(692). वसुरेताः स्वर्ण जिनका वीर्य है
(693). वसुप्रदः जो खुले हाथ से धन देते हैं
(694). वसुप्रदः जो भक्तों को मोक्षरूप उत्कृष्ट फल देते हैं
(695). वासुदेवः वासुदेवजी के पुत्र
(696). वसुः जिनमे सब भूत बसते हैं
(697). वसुमना जो समस्त पदार्थों में सामान्य भाव से बसते हैं
(698). हविः जो ब्रह्म को अर्पण किया जाता है
(699). सद्गतिः जिनकी गति यानी बुद्धि श्रेष्ठ है
(700). सत्कृतिः जिनकी जगत की उत्पत्ति आदि कृति श्रेष्ठ है
(701). सत्ता सजातीय, विजातीय भेद से रहित अनुभूति हैं
(702). सद्भूतिः जो अबाधित और बहुत प्रकार से भासित हैं
 (703). सत्परायणः सत्पुरुषों के श्रेष्ठ स्थान हैं
(704). शूरसेनः जिनकी सेना शूरवीर है और हनुमान जैसे शूरवीर उनकी सेना में हैं
(705). यदुश्रेष्ठः यदुवंशियों में प्रधान हैं
(706). सन्निवासः विद्वानों के आश्रय है
(707). सुयामुनः जिनके यामुन अर्थात यमुना सम्बन्धी सुन्दर हैं
(708). भूतावासः जिनमे सर्व भूत मुख्य रूप से निवास करते हैं
(709). वासुदेवः जगत को माया से आच्छादित करते हैं और देव भी हैं
(710). सर्वासुनिलयः सम्पूर्ण प्राण जिस जीवरूप आश्रय में लीन हो जाते हैं
(711). अनलः जिनकी शक्ति और संपत्ति की समाप्ति नहीं है
(712). दर्पहा धर्मविरुद्ध मार्ग में रहने वालों का दर्प नष्ट करते हैं
(713). दर्पदः धर्म मार्ग में रहने वालों को दर्प(गर्व) देते हैं
(714). दृप्तः अपने आत्मारूप अमृत का आखादन करने के कारण नित्य प्रमुदित रहते हैं
(715). दुर्धरः जिन्हे बड़ी कठिनता से धारण किया जा सकता है
(716). अथापराजितः जो किसी से पराजित नहीं होते
(717). विश्वमूर्तिः विश्व जिनकी मूर्ति है
(718). महामूर्तिः जिनकी मूर्ति बहुत बड़ी है
(719). दीप्तमूर्तिः जिनकी मूर्ति दीप्तमति है
(720). अमूर्तिमान् जिनकी कोई कर्मजन्य मूर्ति नहीं है
(721). अनेकमूर्तिः अवतारों में लोकों का उपकार करने वाली अनेकों मूर्तियां धारण करते हैं
(722). अव्यक्तः जो व्यक्त नहीं होते
(723). शतमूर्तिः जिनकी विकल्पजन्य अनेक मूर्तियां हैं
(724). शताननः जो सैंकड़ों मुख वाले है
(725). एकः जो सजातीय, विजातीय और बाकी भेदों से शून्य हैं
(726). नैकः जिनके माया से अनेक रूप हैं
 (727). सवः वो यज्ञ हैं जिससे सोम निकाला जाता है
(728). कः सुखस्वरूप
(729). किम् जो विचार करने योग्य है
(730). यत् जिनसे सब भूत उत्पन्न होते हैं
(731). तत् जो विस्तार करता है
(732). पदमनुत्तमम् वह पद हैं और उनसे श्रेष्ठ कोई नहीं है इसलिए अनुत्तम भी हैं
(733). लोकबन्धुः जिनमे सब लोक बंधे रहते हैं
(734). लोकनाथः जो लोकों से याचना किये जाते हैं और उनपर शासन करते हैं
(735). माधवः मधुवंश में उत्पन्न होने वाले हैं
(736). भक्तवत्सलः जो भक्तों के प्रति स्नेहयुक्त हैं
(737). सुवर्णवर्णः जिनका वर्ण सुवर्ण के समान है
(738). हेमांगः जिनका शरीर हेम(सुवर्ण) के समान है
(739). वरांगः जिनके अंग वर (सुन्दर) हैं
(740). चन्दनांगदी जो चंदनों और अंगदों(भुजबन्द) से विभूषित हैं
(741). वीरहा धर्म की रक्षा के लिए दैत्यवीरों का हनन करने वाले हैं
(742). विषमः जिनके समान कोई नहीं है
(743). शून्यः जो समस्त विशेषों से रहित होने के कारण शून्य के समान हैं
(744). घृताशी जिनकी आशिष घृत यानी विगलित हैं
(745). अचलः जो किसी भी तरह से विचलित नहीं होते
(746). चलः जो वायुरूप से चलते हैं
(747). अमानी जिन्हे अनात्म वस्तुओं में आत्माभिमान नहीं है
(748). मानदः जो भक्तों को आदर मान देते हैं
(749). मान्यः जो सबके माननीय पूजनीय हैं
(750). लोकस्वामी चौदहों लोकों के स्वामी हैं
(751). त्रिलोकधृक् तीनों लोकों को धारण करने वाले हैं
(752). सुमेधा जिनकी मेधा अर्थात प्रज्ञा सुन्दर है
(753). मेधजः मेध अर्थात यज्ञ में उत्पन्न होने वाले हैं
(754). धन्यः कृतार्थ हैं
(755). सत्यमेधः जिनकी मेधा सत्य है
(756). धराधरः जो अपने सम्पूर्ण अंशों से पृथ्वी को धारण करते हैं
(757). तेजोवृषः आदित्यरूप से सदा तेज की वर्षा करते हैं
(758). द्युतिधरः द्युति को धारण करने वाले हैं
(759). सर्वशस्त्रभृतां वरः समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ
(760). प्रग्रहः भक्तों द्वारा समर्पित किये हुए पुष्पादि ग्रहण करने वाले हैं
(761). निग्रहः अपने अधीन करके सबका निग्रह करते हैं
(762). व्यग्रः जिनका नाश नहीं होता
(763). नैकशृंगः चार सींगवाले हैं
(764). गदाग्रजः मंत्र से पहले ही प्रकट होते हैं
(765). चतुर्मूर्तिः जिनकी चार मूर्तियां हैं
(766). चतुर्बाहुः जिनकी चार भुजाएं हैं
(767). चतुर्व्यूहः जिनके चार व्यूह हैं
(768). चतुर्गतिः जिनके चार आश्रम और चार वर्णों की गति है
(769). चतुरात्मा राग द्वेष से रहित जिनका मन चतुर है
(770). चतुर्भावः जिनसे धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष पैदा होते हैं
(771). चतुर्वेदविद् चारों वेदों को जानने वाले
(772). एकपात् जिनका एक पाद है
(773). समावर्तः संसार चक्र को भली प्रकार घुमाने वाले हैं
(774). निवृत्तात्मा जिनका मन विषयों से निवृत्त है
(775). दुर्जयः जो किसी से जीते नहीं जा सकते
(776). दुरतिक्रमः जिनकी आज्ञा का उल्लंघन सूर्यादि भी नहीं कर सकते
(777). दुर्लभः दुर्लभ भक्ति से प्राप्त होने वाले हैं
(778). दुर्गमः कठिनता से जाने जाते हैं
(779). दुर्गः कई विघ्नों से आहत हुए पुरुषों द्वारा कठिनता से प्राप्त किये जाते हैं
(780). दुरावासः जिन्हे बड़ी कठिनता से चित्त में बसाया जाता है
(781). दुरारिहा दुष्ट मार्ग में चलने वालों को मारते हैं
(782). शुभांगः सुन्दर अंगों से ध्यान किये जाते हैं
(783). लोकसारंगः लोकों के सार हैं
(784). सुतन्तुः जिनका तंतु - यह विस्तृत जगत सुन्दर हैं
(785). तन्तुवर्धनः उसी तंतु को बढ़ाते या काटते हैं
(786). इन्द्रकर्मा जिनका कर्म इंद्र के कर्म के समान ही है
(787). महाकर्मा जिनके कर्म महान हैं
(788). कृतकर्मा जिन्होंने धर्म रूप कर्म किया है
(789). कृतागमः जिन्होंने वेदरूप आगम बनाया है
(790). उद्भवः जिनका जन्म नहीं होता
(791). सुन्दरः विश्व से बढ़कर सौभाग्यशाली
(792). सुन्दः शुभ उंदन (आर्द्रभाव) करते हैं
(793). रत्ननाभः जिनकी नाभि रत्न के समान सुन्दर है
(794). सुलोचनः जिनके लोचन सुन्दर हैं
(795). अर्कः ब्रह्मा आदि पूजनीयों के भी पूजनीय हैं
(796). वाजसनः याचकों को वाज(अन्न) देते हैं
(797). शृंगी प्रलय समुद्र में सींगवाले मत्स्यविशेष का रूप धारण करने वाले हैं
(798). जयन्तः शत्रुओं को अतिशय से जीतने वाले हैं
(799). सर्वविज्जयी जो सर्ववित हैं और जयी हैं
(800). सुवर्णबिन्दुः जिनके अवयव सुवर्ण के समान हैं
(801). अक्षोभ्यः जो राग द्वेषादि और देवशत्रुओं से क्षोभित नहीं होते
(802). सर्ववागीश्वरेश्वरः ब्रह्मादि समस्त वागीश्वरों के भी इश्वर हैं
(803). महाहृदः एक बड़े सरोवर समान हैं
(804). महागर्तः जिनकी माया गर्त (गड्ढे) के समान दुस्तर है
(805). महाभूतः तीनों काल से अनवच्छिन्न (विभाग रहित) स्वरुप हैं
(806). महानिधिः जो महान हैं और निधि भी हैं
(807). कुमुदः कु (पृथ्वी) को उसका भार उतारते हुए मोदित करते हैं
(808). कुन्दरः कुंद पुष्प के समान शुद्ध फल देते हैं
(809). कुन्दः कुंद के समान सुन्दर अंगवाले हैं
(810). पर्जन्यः पर्जन्य (मेघ) के समान कामनाओं को वर्षा करने वाले हैं
(811). पावनः स्मरणमात्र से पवित्र करने वाले हैं
(812). अनिलः जो इल (प्रेरणा करने वाला) से रहित हैं
(813). अमृतांशः अमृत का भोग करने वाले हैं
(814). अमृतवपुः जिनका शरीर मरण से रहित है
(815). सर्वज्ञः जो सब कुछ जानते हैं
(816). सर्वतोमुखः सब ओर नेत्र, शिर और मुख वाले हैं
(817). सुलभः केवल समर्पित भक्ति से सुखपूर्वक मिल जाने वाले हैं
(818). सुव्रतः जो सुन्दर व्रत(भोजन) करते हैं
(819). सिद्धः जिनकी सिद्धि दूसरे के अधीन नहीं है
(820). शत्रुजित् देवताओं के शत्रुओं को जीतने वाले हैं
(821). शत्रुतापनः देवताओं के शत्रुओं को तपानेवाले हैं
(822). न्यग्रोधः जो नीचे की ओर उगते हैं और सबके ऊपर विराजमान हैं
(823). उदुम्बरः अम्बर से भी ऊपर हैं
(824). अश्वत्थः श्व अर्थात कल भी रहनेवाला नहीं है
(825). चाणूरान्ध्रनिषूदनः चाणूर नामक अन्ध्र जाति के वीर को मारने वाले हैं
(826). सहस्रार्चिः जिनकी सहस्र अर्चियाँ (किरणें) हैं
(827). सप्तजिह्वः उनकी अग्निरूपी सात जिह्वाएँ हैं
(828). सप्तैधाः जिनकी सात ऐधाएँ हैं अर्थात दीप्तियाँ हैं
(829). सप्तवाहनः सात घोड़े(सूर्यरूप) जिनके वाहन हैं
(830). अमूर्तिः जो मूर्तिहीन हैं
(831). अनघः जिनमे अघ(दुःख) या पाप नहीं है
(832). अचिन्त्यः सब प्रमाणों के अविषय हैं
(833). भयकृत् भक्तों का भय काटने वाले हैं
(834). भयनाशनः धर्म का पालन करने वालों का भय नष्ट करने वाले हैं
(835). अणुः जो अत्यंत सूक्ष्म हैं
(836). बृहत् जो महान से भी अत्यंत महान हैं
(837). कृशः जो अस्थूल हैं
(838). स्थूलः जो सर्वात्मक हैं
(839). गुणभृत् जो सत्व, रज और तम गुणों के अधिष्ठाता हैं
(840). निर्गुणः जिनमे गुणों का अभाव है
(841). महान् जो अंग, शब्द, शरीर और स्पर्श से रहित हैं और महान हैं
(842). अधृतः जो किसी से भी धारण नहीं किये जाते
(843). स्वधृतः जो स्वयं अपने आपसे ही धारण किये जाते हैं
(844). स्वास्यः जिनका ताम्रवर्ण मुख अत्यंत सुन्दर है
(845). प्राग्वंशः जिनका वंश सबसे पहले हुआ है
(846). वंशवर्धनः अपने वंशरूप प्रपंच को बढ़ाने अथवा नष्ट करने वाले हैं
(847). भारभृत् अनंतादिरूप से पृथ्वी का भार उठाने वाले हैं
(848). कथितः सम्पूर्ण वेदों में जिनका कथन है
(849). योगी योग ज्ञान को कहते हैं उसी से प्राप्त होने वाले हैं
(850). योगीशः जो अंतरायरहित हैं
(851). सर्वकामदः जो सब कामनाएं देते हैं
(852). आश्रमः जो समस्त भटकते हुए पुरुषों के लिए आश्रम के समान हैं
(853). श्रमणः जो समस्त अविवेकियों को संतप्त करते हैं
(854). क्षामः जो सम्पूर्ण प्रजा को क्षाम अर्थात क्षीण करते हैं
(855). सुपर्णः जो संसारवृक्षरूप हैं और जिनके छंद रूप सुन्दर पत्ते हैं
(856). वायुवाहनः जिनके भय से वायु चलती है
(857). धनुर्धरः जिन्होंने राम के रूप में महान धनुष धारण किया था
(858). धनुर्वेदः जो दशरथकुमार धनुर्वेद जानते हैं
(859). दण्डः जो दमन करनेवालों के लिए दंड हैं
(860). दमयिता जो यम और राजा के रूप में प्रजा का दमन करते हैं
(861). दमः दण्डकार्य और उसका फल दम
(862). अपराजितः जो शत्रुओं से पराजित नहीं होते
(863). सर्वसहः समस्त कर्मों में समर्थ हैं
(864). अनियन्ता सबको अपने अपने कार्य में नियुक्त करते हैं
(865). नियमः जिनके लिए कोई नियम नहीं है
(866). अयमः जिनके लिए कोई यम अर्थात मृत्यु नहीं है
(867). सत्त्ववान् जिनमे शूरता-पराक्रम आदि सत्व हैं
(868). सात्त्विकः जिनमे सत्वगुण प्रधानता से स्थित है
(869). सत्यः सभी चीनों में साधू हैं
(870). सत्यधर्मपरायणः जो सत्य हैं और धर्मपरायण भी हैं
(871). अभिप्रायः प्रलय के समय संसार जिनके सम्मुख जाता है
(872). प्रियार्हः जो प्रिय ईष्ट वस्तु निवेदन करने योग्य है
(873). अर्हः जो पूजा के साधनों से पूजनीय हैं
(874). प्रियकृत् जो स्तुतिआदि के द्वारा भजने वालों का प्रिय करते हैं
(875). प्रीतिवर्धनः जो भजने वालों की प्रीति भी बढ़ाते हैं
(876). विहायसगतिः जिनकी गति अर्थात आश्रय आकाश है
(877). ज्योतिः जो स्वयं ही प्रकाशित होते हैं
(878). सुरुचिः जिनकी रुचि सुन्दर है
(879). हुतभुक् जो यज्ञ की आहुतियों को भोगते हैं
(880). विभुः जो सर्वत्र वर्तमान हैं और तीनों लोकों के प्रभु हैं
(881). रविः जो रसों को ग्रहण करते हैं
(882). विरोचनः जो विविध प्रकार से सुशोभित होते हैं
(883). सूर्यः जो श्री(शोभा) को जन्म देते हैं
(884). सविता सम्पूर्ण जगत का प्रसव(उत्पत्ति) करने वाले हैं
(885). रविलोचनः रवि जिनका लोचन अर्थात नेत्र हैं
(886). अनन्तः जिनमे नित्य, सर्वगत और देशकालपरिच्छेद का अभाव है
(887). हुतभुक् जो हवन किये हुए को भोगते हैं
(888). भोक्ता जो जगत का पालन करते हैं
(889). सुखदः जो भक्तों को मोक्षरूप सुख देते हैं
(890). नैकजः जो धर्मरक्षा के लिए बारबार जन्म लेते हैं
(891). अग्रज :- जो सबसे आगे उत्पन्न होता है; elder brother, ahead of all.
(892). अनिर्विण्णः जिन्हे सर्वकामनाएँ प्राप्त होनेकारण अप्राप्ति का खेद नहीं है
(893). सदामर्षी साधुओं को अपने सम्मुख क्षमा करते हैं
(894). लोकाधिष्ठानम् जिनके आश्रय से तीनों लोक स्थित हैं
(895). अद्भुतः जो अपने स्वरुप, शक्ति, व्यापार और कार्य में अद्भुत है
(896). सनात् काल भी जिनका एक विकल्प ही है
(897). सनातनतमः जो ब्रह्मादि सनतानों से भी अत्यंत सनातन हैं
(898). कपिलः बडवानलरूप में जिनका वर्ण कपिल है
(899). कपिः जो सूर्यरूप में जल को अपनी किरणों से पीते हैं
(900). अव्ययः प्रलयकाल में जगत में विलीन होते हैं
(901). स्वस्तिदः भक्तों को स्वस्ति अर्थात मंगल देते हैं
(902). स्वस्तिकृत् जो स्वस्ति ही करते हैं
(903). स्वस्ति जो परमानन्दस्वरूप हैं
(904). स्वस्तिभुक् जो स्वस्ति भोगते हैं और भक्तों की स्वस्ति की रक्षा करते हैं
(905). स्वस्तिदक्षिणः जो स्वस्ति करने में समर्थ हैं
(906). अरौद्रः कर्म, राग और कोप जिनमे ये तीनों रौद्र नहीं हैं
(907). कुण्डली सूर्यमण्डल के समान कुण्डल धारण किये हुए हैं
(908). चक्री सम्पूर्ण लोकों की रक्षा के लिए मनस्तत्त्वरूप सुदर्शन चक्र धारण किया है
(909). विक्रमी जिनका डग तथा शूरवीरता समस्त पुरुषों से विलक्षण है
(910). ऊर्जितशासनः जिनका श्रुति-स्मृतिस्वरूप शासन अत्यंत उत्कृष्ट है
(911). शब्दातिगः जो शब्द से कहे नहीं जा सकते
(912). शब्दसहः समस्त वेद तात्पर्यरूप से जिनका वर्णन करते हैं
(913). शिशिरः जो तापत्रय से तपे हुओं के लिए विश्राम का स्थान हैं
(914). शर्वरीकरः ज्ञानी-अज्ञानी दोनों की शर्वरीयों (रात्रि) के करने वाले हैं
(915). अक्रूरः जिनमे क्रूरता नहीं है
(916). पेशलः जो कर्म, मन, वाणी और शरीर से सुन्दर हैं
(917). दक्षः बढ़ा-चढ़ा, शक्तिमान तथा शीघ्र कार्य करने वाला ये तीनों दक्ष जिनमे है
(918). दक्षिणः जो सब ओर जाते हैं और सबको मारते हैं
(919). क्षमिणांवरः जो क्षमा करने वाले योगियों आदि में श्रेष्ठ हैं
(920). विद्वत्तमः जिन्हे सब प्रकार का ज्ञान है और किसी को नहीं है
(921). वीतभयः जिनका संसारिकरूप भय बीत(निवृत्त हो) गया है
(922). पुण्यश्रवणकीर्तनः जिनका श्रवण और कीर्तन पुण्यकारक है
(923). उत्तारणः संसार सागर से पार उतारने वाले हैं
(924). दुष्कृतिहा पापनाम की दुष्क्रितयों का हनन करने वाले हैं
(925). पुण्यः अपनी स्मृतिरूप वाणी से सबको पुण्य का उपदेश देने वाले हैं
(926). दुःस्वप्ननाशनः दुःस्वप्नों को नष्ट करने वाले हैं
(927). वीरहा संसारियों को मुक्ति देकर उनकी गतियों का हनन करने वाले हैं
(928). रक्षणः तीनों लोकों की रक्षा करने वाले हैं
(929). सन्तः सन्मार्ग पर चलने वाले संतरूप हैं
(930). जीवनः प्राणरूप से समस्त प्रजा को जीवित रखने वाले हैं
(931). पर्यवस्थितः विश्व को सब ओर से व्याप्त करके स्थित है
(932). अनन्तरूपः जिनके रूप अनंत हैं
(933). अनन्तश्रीः जिनकी श्री अपरिमित है
(934). जितमन्युः जिन्होंने मन्यु अर्थात क्रोध को जीता है
(935). भयापहः पुरुषों का संस्कारजन्य भय नष्ट करने वाले हैं
(936). चतुरश्रः न्याययुक्त
(937). गभीरात्मा जिनका मन गंभीर है
(938). विदिशः जो विविध प्रकार के फल देते हैं
(939). व्यादिशः इन्द्रादि को विविध प्रकार की आज्ञा देने वाले हैं
(940). दिशः सबको उनके कर्मों का फल देने वाले हैं
(941). अनादिः जिनका कोई आदि नहीं है
(942). भूर्भूवः भूमि के भी आधार है
(943). लक्ष्मीः पृथ्वी की लक्ष्मी अर्थात शोभा हैं
(944). सुवीरः जो विविध प्रकार से सुन्दर स्फुरण करते हैं
(945). रुचिरांगदः जिनकी अंगद(भुजबन्द) कल्याणस्वरूप हैं
(946). जननः जंतुओं को उत्पन्न करने वाले हैं
(947). जनजन्मादिः जन्म लेनेवाले जीव की उत्पत्ति के कारण हैं
(948). भीमः भय के कारण हैं
(949). भीमपराक्रमः जिनका पराक्रम असुरों के भय का कारण होता है
(950). आधारनिलयः पृथ्वी आदि पंचभूत आधारों के भी आधार है
(951). अधाता जिनका कोई धाता(बनाने वाला) नहीं है
(952). पुष्पहासः पुष्पों के हास (खिलने)के समान जिनका प्रपंचरूप से विकास होता है
(953). प्रजागरः प्रकर्षरूप से जागने वाले हैं
(954). ऊर्ध्वगः सबसे ऊपर हैं
(955). सत्पथाचारः जो सत्पथ का आचरण करते हैं
(956). प्राणदः जो मरे हुओं को जीवित कर सकते हैं
(957). प्रणवः जिनके वाचक ॐ कार का नाम प्रणव है
(958). पणः जो व्यवहार करने वाले हैं
(959). प्रमाणम् जो स्वयं प्रमारूप हैं
(960). प्राणनिलयः जिनमे प्राण अर्थात इन्द्रियां लीन होती है
(961). प्राणभृत् जो अन्नरूप से प्राणों का पोषण करते हैं
(962). प्राणजीवनः प्राण नामक वायु से प्राणियों को जीवित रखते हैं
(963). तत्त्वम् तथ्य, अमृत, सत्य ये सब शब्द जिनके वाचक हैं
(964). तत्त्वविद् तत्व अर्थात स्वरुप को यथावत जानने वाले हैं
(965). एकात्मा जो एक आत्मा हैं
(966). जन्ममृत्युजरातिगः जो न जन्म लेते हैं न मरते हैं
(967). भूर्भुवःस्वस्तरुः भू,भुवः और स्वः जिनका सार है उनका होमादि करके प्रजा तरती है
(968). तारः संसार सागर से तारने वाले हैं
(969). सविताः सम्पूर्ण लोक के उत्पन्न करने वाले हैं
(970). प्रपितामहः पितामह ब्रह्मा के भी पिता है
(971). यज्ञः यज्ञरूप हैं
(972). यज्ञपतिः यज्ञों के स्वामी हैं
(973). यज्वा जो यजमान रूप से स्थित हैं
(974). यज्ञांगः यज्ञ जिनके अंग हैं
(975). यज्ञवाहनः फल हेतु यज्ञों का वहन करने वाले हैं
(976). यज्ञभृद् यज्ञ को धारण कर उसकी रक्षा करने वाले हैं
(977). यज्ञकृत् जगत के आरम्भ और अंत में यज्ञ करते हैं
(978). यज्ञी अपने आराधनात्मक यज्ञों के शेषी हैं
(979). यज्ञभुक् यज्ञ को भोगने वाले हैं
(980). यज्ञसाधनः यज्ञ जिनकी प्राप्ति का साधन है
(981). यज्ञान्तकृत् यज्ञ के फल की प्राप्ति कराने वाले हैं
(982). यज्ञगुह्यम् यज्ञ द्वारा प्राप्त होने वाले
(983). अन्नम् भूतों से खाये जाते हैं
(984). अन्नादः अन्न को खाने वाले हैं
(985). आत्मयोनिः आत्मा ही योनि है इसलिए वे आत्मयोनि है
(986). स्वयंजातः निमित्त कारण भी वही हैं
(987). वैखानः जिन्होंने वराह रूप धारण करके पृथ्वी को खोदा था
(988). सामगायनः सामगान करने वाले है
(989). देवकीनन्दन :- देवकी के पुत्र; son of Devki. 
(990). स्रष्टा :- सम्पूर्ण लोकों के रचयिता हैं; creator of all abodes & universes.
(991). क्षितीश :- क्षिति अर्थात पृथ्वी के ईश (स्वामी) हैं; Lord, mastrer of the earth.
(992). पापनाशन :- पापों का नाश करने वाले हैं; HE who removes the sins. 
(993). शंखभृत् जिन्होंने पांचजन्य नामक शंख धारण किया हुआ है
(994). नन्दकी जिनके पास विद्यामय नामक खडग है
 (995). चक्री जिनकी आज्ञा से संसारचक्र चल रहा है
(996). शार्ङ्गधन्वा जिन्होंने शारंग नामक धनुष धारण किया है
(997). गदाधरः जिन्होंने कौमोदकी नामक गदा धारण किया हुआ है
(998). रथांगपाणिः जिनके हाथ में रथांग अर्थात चक्र है
(999). अक्षोभ्यः जिन्हे क्षोभित नहीं किया जा सकता
(1000). सर्वप्रहरणायुध :- प्रहार करने वाली सभी वस्तुएं जिनके आयुध हैं; (HE whose weapons are all those goods which can be projected, thrown).
हे भगवान् नारायण! हमारी रक्षा कीजिये। वही विष्णु भगवान् जिन्होंने वनमाला पहनी है, जिन्होंने गदा, शंख, खडग और चक्र धारण किया हुआ है। वही विष्णु हैं और वही वासुदेव हैं। 
फल श्रुति :: 
भीष्म बोले :- इस प्रकार विष्णु जी के सहस्र नाम होते हैं। जो सदा नियमित होकर इसका पाठ सुनता है या जपता है, उसे जीवन में और मृत्यु के बाद भी कभी अशुभता नहीं देखनी पड़ती। 
सहस्रनाम का श्रवण करने से ब्राह्मण विद्या पाता है, क्षत्रिय विजय पाता है, वैश्य धन पाता है और शूद्र सुख पाता है।
सहस्रनाम का पाठ करने से जिसे धर्म चाहिए उसे धर्म मिलता है, जिसे धन चाहिए उसे धन मिलता है, जिसे सुख चाहिए उसे सुख मिलता है, जिसे संतान चाहिए उसे संतान मिलती है।
जो वासुदेव अर्थात विष्णु के 1,000 नामों का भजन रोज़ सुबह करता है और जिसका मन सहस्रनाम करते हुए लगातार भगवान् विष्णु में लगा रहता है, उसे प्रसिद्धि मिलती है, वह हर जगह सबसे आगे रहता है, वह धनवान बनता है, उसे मोक्ष मिलता है, उसे किसी का डर नहीं रहेगा, उसकी कीर्ति पताका फहराने लगेगी वह बीमार नहीं पड़ेगा, वह हमेशा ही स्वस्थ और सुन्दर दिखेगा, उसके पास सब भौतिक सुविधाएं रहेंगी, जो बीमार है वह स्वस्थ हो जायेगा। 
जो बंधन में है वो स्वतंत्र हो जायेगा, जो भय में है उसका भय दूर होगा और जो खतरे में है वो सुरक्षित हो जायेगा।
जो पुरुषोत्तम में पूरी श्रद्धा रखकर सहस्रनाम का पाठ करता है, वह अत्यंत दुष्कर दुखों को भी पार कर जाएगा।
Pt. Santosh Bhardwaj, NSW, SYDNEY, AUSTRALIA
अतो देवा अवन्तु नो यतो विष्णुर्विचक्रमे। 
पृथिव्याः सप्त धामभिः॥
जहाँ से (यज्ञ स्थल या पृथ्वी से) विष्णुदेव ने (पोषण परक) पराक्रम दिखाया, वहाँ (उस यज्ञीय क्रम से) पृथ्वी से सप्तधामों से देवतागण हमारी रक्षा करें।[ऋग्वेद 1.22.16]
जिस सप्त जगह वाली धरा पर विष्णु ने पाद-क्रमण किया उसी धरा पर देवगण हमारी सुरक्षा करें।
The demigods-deities should protect us via the seven holy regions-Yagy sites, where Bhagwan Shri Hari Vishnu showed HIS might
इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्। समूळ्हमस्य पांसुरे॥
यह सब विष्णुदेव का पराक्रम है, तीन प्रकार के (त्रिविध-त्रियामी) उनके चरण हैं। इसका मर्म धूलि भरे प्रदेश में निहित है।[ऋग्वेद 1.22.17]
(त्रिआयामी सृष्टि के पोषण का जो पराक्रम दिखाता है, उसका रहस्य अन्तरिक्ष धूलि (सुक्ष्म कणों) के प्रवाह मे सन्निहित है। उसी प्रवाह से सभी प्रकार के पोषक पदार्थ बनते-बिगड़ते रहते हैं।)
विष्णु ने इस संसार को तीन पैर रखकर विजय किया। इनके धूल लगे पाँव में ही पूरी सृष्टि लीन हो गयी।
All these creations are due to the might-power of Bhagwan Shri Hari Vishnu, who covered the entire universe in just three steps (earth, heavens and the nether world). The gist-secret of these creations is revealed in the fine particles surrounding the universe.  
त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। 
अतो धर्माणि धारयन्॥
विश्वरक्षक, अविनाशी, विष्णुदेव तीनों लोकों में यज्ञादि कर्मों को पोषित करते हुये तीन चरणों से जग में व्याप्त है अर्थात तीन शक्ति धाराओं (सृजन, पोषण और परिवर्तन) द्वारा विश्व का संचालन करते हैं।[ऋग्वेद 1.22.18]
सभी की रक्षा करने वाले, किसी से धोखा न खाने वाले, नियम पालक विष्णु ने तीन पैर रखे।
Bhagwan Shri Hari Vishnu pervades the whole universe covering it in three steps by means of Yagy and virtuous deeds. 
विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे। 
इन्द्रस्य युज्यः सखा॥
हे याजको! सर्वव्यापक भगवान् विष्णु के सृष्टि संचालन सम्बन्धी कार्यो (सृजन, पोषण और परिवर्तन) ध्यान से देखो। इसमें अनेकानेक व्रतों (नियमों,अनुशासनों) का दर्शन किया जा सकता है। इन्द्र (आत्मा) के योग्य मित्र उस परम सत्ता के अनुकूल बनकर रहे। (ईश्वरीय अनुशासनों का पालन करें)।[ऋग्वेद 1.22.19]
विष्णु के पराक्रम को देखो। जिनके पराक्रम से सभी नियम स्थिति हैं। वे इन्द्र के साथी और मित्र हैं। 
Hey organisers of the Yagy! Observe the functions related to creation, nourishment & change in the functioning of the universe, which involve various rules-regulations, determinations. Let every one behave as per wish of the Ultimate-Almighty just like Dev Raj Indr.
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः। 
दिवीव चक्षुराततम्॥
जिस प्रकार सामान्य नेत्रों से आकाश में स्थित सूर्य देव को सहजता से देखा जाता है, उसी प्रकार विद्वज्जन अपने ज्ञान चक्षुओं से विष्णुदेव (देवत्व के परमपद) के श्रेष्ठ स्थान को देखते हैं।[ऋग्वेद 1.22.20]
(ईश्वर दृष्टिमय भले ही न हो, अनुभूतिजन्य अवश्य है।)
क्षितिज की ओर विस्तार पूर्वक देखने वाला नेत्र विष्णु के परमपद को देखना चाहता है। ज्ञानीजन उस पद को लगातार अपने मन में देखते हैं।
The manner in which common men see the Sun, the enlightened see the Almighty with their insight the Ultimate abode of the Almighty. 
तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते। 
विष्णोर्यत्परमं पदम्॥
जागरूक विद्वान स्तोतागण विष्णुदेव के उस परमपद को प्रकाशित करते हैं अर्थात जन सामान्य के लिये प्रकट करते है।[ऋग्वेद 1.22.21]
विष्णु के सर्वोच्च पद को वंदना करने वाले चेतन, ज्ञानीजन, भली-भांति प्रकाशित करते हैं।
The enlightened-learned describe the Ultimate abode of the Almighty to the common men.
ऋग्वेद संहिता, प्रथम मण्डल सूक्त (154) ::  ऋषि :- दीर्घतमा, देवता :- विष्णु, छन्द :- त्रिष्टुप्।
विष्णोर्नु कं वीर्याणि प्र वोचं यः पार्थिवानि विममे रजांसि। 
यो अस्कभायदुत्तरं सधस्थं विचक्रमाणस्त्रेधोरुगायः
मैं श्री हरी विष्णु के वीरता पूर्ण कार्य का शीघ्र ही कीर्त्तन करूँगा। उन्होंने वामन अवतार में तीनों लोकों को अपने पैरों से मापा-नापा था। उन्होंने ऊपर के सत्यलोक को भी स्तम्भित किया। उन्होंने तीन बार पृथ्वी पर अपना पैर रखे। इसीलिए संसार उनकी स्तुति करता है।[ऋग्वेद 1.154.1]
मैं विष्णु की वीरता का वर्णन करता हूँ। उन्होंने तीन डग में जगत को नाप लिया था और क्षितिज को दृढ़ किया था। विष्णु के तीन डग में समस्त लोक वास करते हैं।
I will recite the rhymes-hymns in the honour of Bhagwan Shri Vishnu and his valour. HE measured the three abodes with HIS feet during Vaman Avtar (Incarnation of Bhagwan Shri Hari Vishnu during the period of demon king Bahu Bali-grandson of Prahlad Ji) HE made the Saty Lok immovable-stationary. HE put his feet thrice over the earth, therefore the world-universe pray to HIM. 
प्र तद्विष्णुः स्तवते वीर्येण मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः। 
यस्योरुषु त्रिषु विक्रमणेष्वधिक्षियन्ति भुवनानि विश्वा
क्योंकि भगवान् श्री हरी विष्णु के तीन पाद क्षेप में सारा संसार निहित है, इसलिए भयंकर, हिंस्र, गिरि कन्दराओं में रहने वाले वन्य पशुओं की तरह संसार भगवान् श्री हरी विष्णु के वीरता की प्रशंसा करता है।[ऋग्वेद 1.154.2]
अतः पर्वत पर वास करने वाले डरावने पशुओं के समान यह संसार विष्णु जी की ऋग्वेद वीरता की प्रशंसा करता है। जिन विष्णु ने अकेले ही अपने तीन डग में तीनों लोकों को नाप लिया उन महाबली विष्णु की बहुत से जीव प्रार्थना करते हैं।
Since, the entire universe is pervaded in the three steps of Bhagwan Shri Hari Vishnu, hence the whole world appreciate HIS valour like the dangerous, violent animals residing in the caves of the mountains 
प्र विष्णवे शूषमेतु मन्म गिरिक्षित उरुगायाय वृष्णे। 
य इदं दीर्घ प्रयतं सधस्थमेको विममे त्रिभिरित्यदेभिः
उन्मत्त प्रदेश में रहने वाले अभीष्ट वर्षक और सब लोकों में प्रशंसित श्री हरी विष्णु के महाबल के और स्तोत्रों का उच्चारण करते हैं। उन्होंने अकेले ही एकत्र अवस्थित और अति विस्तीर्ण नियत लोकत्रय को तीन बार के पद क्रमण द्वारा माप दिया।[ऋग्वेद 1.154.3]
उन्मत्त :: नशे में चूर, मतवाला, पागल, एक राक्षस का नाम, जिसके मस्तिष्क-बुद्धि में विकार आ गया हो, जो आपे में न हो, मदांध, सनकी, बावला; frantic, frenetic. 
जिन अकेले ने त्रिगुणात्मक पृथ्वी नभ और सभी लोकों को ग्रहण किया है वे विष्णु अक्षय, स्वतंत्रता में प्रसन्न रहते हैं औश्न प्राणियों को मधुर अन्न आदि से युक्त करते हैं।
Those people who live in disturbed places and those inhibiting the three abodes, pray-appreciate Bhagwan Shri Hari Vishnu reciting prayers-Strotr pertaining to his valour, might & power. HE alone covered the entire universe in just three steps.
यस्य त्री पूर्णा मधुना पदान्यक्षीयमाणा स्वधया मदन्ति। 
य उ त्रिधातु पृथिवीमुत द्यामेको दाधार भुवनानि विश्वा
जिन श्री विष्णु का ह्रास हीन, अमृत पूर्ण और त्रिसंख्यक पद क्षेप अन्न द्वारा मनुष्यों को हर्ष देता है, उन्हीं श्री हरी विष्णु ने अकेले ही धातुत्रय, पृथ्वी, स्वर्ग लोक और समस्त भुवनों को धारण कर रखा है।[ऋग्वेद 1.154.4]
मैं विष्णु के उस विशाल पद की शरण चाहता हूँ, जहाँ देवों के स्वामित्व को मानने वाले मनुष्य आश्वासन ग्रहण करते हैं।
The 3 foot fall of Shri Hari Vishnu bearing nectar, are free from depletion-erosion, grants food grains & pleasure to the humans. HE alone is supporting-bearing the earth, heavens and all abodes.
तदस्य प्रियमभि पाथो अश्यां नरो यत्र देवयवो मदन्ति। 
उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्या विष्णोः पदे परमे मध्व उत्सः
देवाकांक्षी मनुष्य जिस प्रिय मार्ग को प्राप्त करके दृष्ट होते हैं, मैं भी उसी को प्राप्त करूँ। उस महा पराक्रमी श्री हरी विष्णु के परम पद में मधुर (अमृत आदि का) क्षरण है। श्री हरी विष्णु वास्तव में मित्र हैं।[ऋग्वेद 1.154.5]
विष्णु ही बन्धु हैं, उनका परमपद ही अमृतादि (मधुरता) का केन्द्र है।
I should also follow-adopt the path-method, followed by the people desirous of attaining the demigods-deities. HE is Ultimate, true friend, having Ultimate valour-might.
ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः। 
अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमव भाति भूरि
जिन सब स्थानों में उत्तम शृङ्ग वाली और शीघ्र गामी गायें हैं, उन्हीं सब स्थानों में आप दोनों (देवराज इन्द्र और श्री हरी विष्णु) के जाने के लिए मैं श्री हरी विष्णु की प्रार्थना करता हूँ। इन सब स्थानों में बहुत लोगों के स्तवनीय और अभीष्ट वर्षक श्री विष्णु का परम पद यथेष्ट स्फूर्त्ति प्राप्त करता है।[ऋग्वेद 1.154.6]
हे इन्द्र और विष्णु! हम तुम दोनों के उस स्थान की इच्छा करते हैं जहाँ अत्यन्त शक्तिशाली सिद्ध रूप गायें हैं। वन्दना के योग्य विष्णु का ऊँचा पद तेज से परिपूर्ण है।
I pray to both of you :- Dev Raj Indr & Bhagwan Shri Hari Vishnu, to lead-guide us to those places, where the fast moving cows & with excellent horns. This Ultimate place-seat of Bhagwan Shri Hari Vishnu grants vigour, energy & power.
ऋग्वेद संहिता, प्रथम मण्डल सूक्त (155) ::  ऋषि :- दीर्घतमा, देवता :- विष्णु, इन्द्रा-विष्णु, छन्द :- जगती।
प्र वः पान्तमन्धसो धियायते महे शूराय विष्णवे चार्चत। 
या सानुनि पर्वतानामदाभ्या महस्तस्थतुरर्वतेव साधुना॥
हे अध्वर्यु गण! आप स्तुति प्रिय और महावीर इन्द्र देव और श्री हरी विष्णु के लिए पीने योग्य सोमरस निर्मित करें। वे दोनों दुर्द्धर्ष और महिमा वाले हैं। वे मेघ के ऊपर इस तरह भ्रमण करते है, मानों सुशिक्षित अश्व के ऊपर भ्रमण करते हैं।[ऋग्वेद 1.155.1]
दुर्धर्ष :: जिसे वश में करना कठिन हो, जिसे परास्त करना या हराना कठिन हो, प्रबल, प्रचंड, उग्र, जिसे दबाया न जा सके, दुर्व्यवहारी, महाभारत कालीन हस्तिनापुर में सम्राट धृतराष्ट्र का एक पुत्र, रामायण काल में रावण की सेना का एक राक्षस; difficult to be assaulted, controlled defeated, overpowered.
Hey Ritviz-households! You should prepare Somras for the sake of Dev Raj Indr and Bhagwan Shri Hari Vishnu, who deserve to be honoured-revered. They can neither be defeated nor controlled by any one. They move over the clouds just like one who rides a trained horse.
त्वेषमित्था समरणं शिमीवतोरिन्द्राविष्णू सुतपा वामुरुष्यति। 
या मर्त्याय प्रतिधीयमानमित्कृशानोरस्तुरसनामुरुष्यथः
हे इन्द्र देव और श्री हरी विष्णु! आप लोग दृष्टपद हो, इसलिए यज्ञ में बचे हुए सोमरस पीने वाले यजमान आपके दीप्तिपूर्ण आगमन की प्रशंसा करते हैं। आप लोग मनुष्यों के लिए, शत्रु विमर्दक अग्नि से प्रदातव्य अन्न सदैव समर्पित करते हैं।[ऋग्वेद 1.155.2]
हे मनुष्यों! अपने रक्षक सोम रूप अन्न को इन्द्रदेव और विष्णु के लिए सिद्ध करो। वे दोनों उन्नत कर्म वाले किसी के बहकावे में नहीं आते।
Hey Indr Dev and Shri Hari Vishnu! Those who consume the left over Somras appreciate your arrival in the Yagy since you fulfil-grant the desired boons. You grant food grains to the humans yielded by the enemy destroyer Agni Dev.
ता ईं वर्धन्ति मह्यस्य पौंस्यं नि मातरा नयति रेतसे भुजे। 
दधाति पुत्रोऽवरं परं पितुर्नाम तृतीयमधि रोचने दिवः
समस्त प्रसिद्ध आहुतियाँ इन्द्रदेव के महान् पौरुष को बढ़ाती हैं। ये ही सबकी मातृभूता धावा पृथ्वी के रेत, तेज और उपभोग के लिए वही शक्ति प्रदान करते हैं। पुत्र का नाम निकृष्ट है और पिता का नाम उत्कृष्ट है। द्युलोक के दीप्तिमान् प्रदेश में तृतीय नाम पौत्र का नाम है अथवा वह द्युलोक में रहने वाले इन्द्रदेव और श्री हरी विष्णु के अधीन है।[ऋग्वेद 1.155.3]
रेत :: वीर्य-शुक्र, पारा-पारद, जल, प्रवाह-बहाव, धारा, बालू; sperms, send, flow.
हे इन्द्र और विष्णु तुम कर्मों के फल देने वाले दाता हो। तुम्हारे लिए साधक सोमरस निचौड़कर तैयार रखता है। तुम शत्रु द्वारा लक्ष्य कर फेंके गये बाणों से उसकी रक्षा करने में सक्षम हों। समस्त आहुतियाँ इन्द्रदेव की शक्ति-वीर्य को पुष्ट करती हैं।
Major offerings enhance-boost the valour-power of Indr Dev. Its he, who grant the power to consume, energy-aura and the sperms. The name of son is Nikrasht-worst & that of father is Utkrasht-excellent. The third entity shinning-glittering in the heavens is the grandson. They are under the control of Indr Dev and Bhagwan Shri Hari Vishnu.
Sperms are the carriers of genetic material to next generation from grandfather to grandson.
तत्तदिदस्य पौंस्यं गृणीमसीनस्य त्रातुरवृकस्य मीळ्हुषः। 
यः पार्थिवानि त्रिभिरिद्विगामभिरुरु क्रमिष्टोरुगायाय जीवसे
हम सबके स्वामी, पालक, शत्रु हीन और युवा श्री हरी विष्णु के पौरुष की स्तुति करते हैं। इन्होंने प्रशंसनीय लोक की रक्षा के लिए तीन बार पाद विक्षेप द्वारा समस्त पार्थिव लोकों की विस्तृत रूप से परिक्रमा की।[ऋग्वेद 1.155.4]
इन्द्र देव वर्षा से अन्न प्रदान करते हैं। अन्न रूप वीर्य रज से पुत्र प्राप्ति होती है। उसी से तृतीय से नाम पुत्र हुआ। प्राणधारियों की रचना इन्द्रदेव और विष्णु के अधिकार में हैं। सबके दाता, रक्षक, शत्रु से परे, युवा विष्णु के बल-वीर्य की हम प्रार्थना करते हैं। 
We pray the valour & might of our master, nurturer, free from enemies and young Shri Hari Vishnu. For the protection of the appreciable abodes his three footfalls circumbulated the physical abodes.
द्वे इदस्य क्रमणे स्वर्दृशोऽभिरख्याय मर्त्यो भुरण्यति।
तृतीयमस्य नकिरें दधर्षति वयश्चन पतयन्तः पतत्रिणः
मनुष्य गण कीर्तन करते हुए स्वर्ग दर्शी श्री हरी विष्णु के दो पाद क्षेप प्राप्त करते हैं। उनके तीसरे पाद क्षेप को मनुष्य नहीं पा सकते। आकाश में उड़ने वाले पक्षी या मरुत भी नहीं प्राप्त कर सकते।[ऋग्वेद 1.155.5]
जिन्होंने संसार की रक्षा के लिए तीन डग रखकर ही सभी लोकों को लांघ डाला। सब मनुष्य इन विष्णु के दो पदों को ही देख सकते हैं। तीसरे पद तक पहुँचने का कोई भी साहस नहीं करता। क्षितिज में विचरण करने वाले मरुद्गण भी नहीं ग्रहण कर सकते। 
Those praying to Shri Hari Vishnu, who looked at the heavens, can see-perceive HIS two steps only. HIS third foot fall can not be seen by the humans. Neither the birds flying in the sky nor the Marud Gan can see it. 
चतुर्भिः साकं नवति च नामभिश्चक्रं न वृत्तं व्यतींरवीविपत् । 
बृहच्छरीरो विमिमान ऋकभिर्युवाकुमारः प्रत्येत्याहवम् 
श्री हरी विष्णु ने गति विशेष द्वारा विविध स्वभाव शाली काल के चौरानबें अंशों को चक्र की तरह वृत्ताकार परिचालित कर रखा है। श्री हरी विष्णु विशाल स्तुति से युक्त और स्तुति द्वारा जानने योग्य हैं। वे नित्य, युवा और अकुमार हैं। मनुष्यों द्वारा आवाहित किये जाने पर यज्ञ की ओर आगमन करते हैं।[ऋग्वेद 1.155.6]
व्यापक वंदनाओं से परिपूर्ण विष्णु ने काल के चौरानवें (अंशों) को चक्र की तरह घुमाया। वंदना करने वाले उन्हें ध्यान से खोजते और आह्ववान करते हैं।
Bhagwan Shri Vishnu has rotated the 94 degrees-divisions of the KAL-time in an cyclic order. HE deserved to be prayed-worshiped & known. HE is always young. As and when remembered by the humans-invited HE comes to the Yagy.
As a matter of practice the Hindu invite all the demigods-deities in all of his celebrations, functions, rituals, prayers, Yagy etc. etc.
ऋग्वेद संहिता, प्रथम मण्डल सूक्त (156) ::  ऋषि :- दीर्घतमा, देवता :- विष्णु, छन्द :- त्रिष्टुप, जगती।
भवा मित्रो न शेव्यो घृतासुतिर्विभूतद्युम्न एवया उ सप्रथाः। 
अधा ते विष्णो विदुषा चिदर्ध्यः स्तोमो यज्ञश्च राध्यो हविष्मता
हे विष्णु देव! मित्र की तरह आप हमारे सुख दाता, घृताहुति भाजन, प्रकृत अन्नवान्, रक्षा शील और पृथु व्यापी हो। विद्वान् यजमान द्वारा आपके स्तोत्र बार-बार कहने योग्य हैं और मनुष्यों द्वारा हवि रूप अन्न समर्पित करते हुए सम्पन्न किया गया यज्ञ स्तुति योग्य है।[ऋग्वेद 1.156.1]
हे विष्णो! जल उत्पादन करने वाले, अत्यन्त यशस्वी, रक्षक, विशाल सखा के तुल्य सुख प्रदान करने वाले हो। तुम्हारे श्लोक को मेधावी जन पुष्ट करते हैं।
Hey Vishnu Dev! You grant us comforts, protection, accept our offerings in the form of Ghee, provide us food grains, produce water-rains and pervades like king Prathu (an incarnation of God, who made the earth worth living). The learned Ritviz-hosts recite Strotr in your honour repeatedly. The Yagy conducted by the humans in your honour deserve appreciation.
यः पूर्व्याय वेधसे नवीयसे सुमज्जानये विष्णवे ददाशति। 
यो जातमस्य महतो महि ब्रवत्सेदु श्रवोभिर्युज्यं चिदभ्यसत्
जो व्यक्ति प्राचीन मेधावी, नित्य नवीन और स्वयं उत्पन्न या जगन्मादनशीला स्त्री वाले श्री हरी विष्णु को हव्य प्रदान करता है, जो महानुभाव इनकी पूजनीय आदि कथा कहते हैं, वे ही इनके समीप स्थान पाते हैं।[ऋग्वेद 1.156.2]
तुम्हारा अनुष्ठान हविदाता यजमान सम्पन्न करते हैं। जो प्रतापी पूजनीय स्वयंभू विष्णु के लिए हवि देता है और उनके यज्ञों का वर्णन करता है वह सभी को जीत लेता है।
The intelligent-prudent who either make offerings to Bhagwan Shri Hari Vishnu or recite his stories-prayers are able to approach him.
तमु स्तोतारः पूर्व्यं यथा विद ऋतस्य गर्भ जनुषा पिपर्तन। 
आस्य जानन्तो नाम चिद्विवक्तन महस्ते विष्णो सुमतिं भजामहे
हे स्तोताओं! प्राचीन यज्ञ के गर्भ भूत श्री हरी विष्णु को जैसा जानते हो, वैसे ही स्तोत्र आदि के द्वारा उनको प्रसन्न करें। श्री हरी विष्णु का नाम जानकर कीर्तन करें। हे श्री हरी विष्णु! आप महानुभाव है, आपकी बुद्धि की हम उपासना करते हैं।[ऋग्वेद 1.156.3]
हे स्तोताओं! प्रकृति के गर्भ रूपी विष्णु को तुम जानते हो। इनका गुणगान कर इनको हर्ष प्राप्त कराओ।
Hey devotees (Ritviz)! Let Bhagwan Shri Hari Vishnu, the root (basic cause) of all Yagy, be pleased by reciting his names, singing hymns-rhymes devoted to HIM. Hey Hari Vishnu! You are gentle by nature and hence, thus we pray-worship you.
तमस्य राजा वरुणस्तमश्विना क्रतुं सचन्त मारुतस्य वेधसः। 
दाधार दक्षमुत्तममहर्विदं व्रजं च विष्णुः सखिवाँ अपोर्णुते
राजा वरुण देव और अश्विनी कुमार ऋत्विकों के साथ यजमान के यज्ञ रूप श्री हरी विष्णु की सेवा करते हैं। अश्विनी कुमार और श्री हरी विष्णु मित्र होकर उत्तम और दिनज्ञ बल धारित करके मेघों का आच्छादन छिन्न-भिन्न कर देते हैं।
हे विष्णो। हम तुम्हारी कृपा प्राप्त करें। मरुतों को प्रेरणा देने वाले इन विष्णु की कामना में वरुण और अश्विनी कुमार हमेशा तैयार रहते हैं।
Varun Dev & Ashwani Kumars serve Bhagwan Shri Vishnu, along with the Ritviz-hosts conducting Yagy; who is a form of the Yagy. Ashwani Kumars and Bhagwan Shri Hari Vishnu join hands to disrupt the clouds (which would have caused disruption in the Yagy).
आ यो विवाय सचथाय दैव्य इन्द्राय विष्णुः सुकृते सुकृत्तरः। अजिन्वत्रिषधस्थ आर्यमृतस्य भागे यजमानमाभजत्
जो स्वर्गीय और अतिशय शोभन कर्मा श्री हरी विष्णु शोभन कर्मा इन्द्र देव के साथ मिलकर आते हैं, उन्हीं मेधावी तीनों लोकों में पराक्रम शाली श्री हरी विष्णु ने आगमन करने वाले यजमान को प्रसन्न करके यज्ञ का भाग प्रदान किया।[ऋग्वेद 1.156.5]
विष्णु की सखा परिपूर्ण दिन को ग्रहण करने वाले महान शक्ति को धारण करते हुए अधंकार को मिटाकर ज्योति रचित करते हैं। महान कार्य वाले विष्णु और इन्द्र देव की सेवा में तैयार रहते हैं। वे त्रिलोक्य स्वामी ईश्वर से यजमान को अनुष्ठान-फल का भागीदार बनाते हैं।
Bhagwan Shri Hari Vishnu associate with Indr Dev and oblige the Ritviz-the host organising the Yagy. They grant the reward of the Yagy to one who conduct the Yagy.
ऋग्वेद संहिता, षष्ठम मण्डल सूक्त (69) :: ऋषि :- भरद्वाज बार्हस्पत्य; देवता :- इन्द्र देव, विष्णु; छन्द :- विषुप्।
सं वां कर्मणा समिषा हिनोमीन्द्राविष्णू अपसस्पारे अस्य।
जुषेथां यज्ञं द्रविणं च धत्तमरिष्टैर्नः पथिभिः पारयन्ता
हे इन्द्र देव और श्री विष्णु! आपके निमित्त हम हवि और उत्तम स्तोत्र प्रेषित करते हैं। आप दोनों प्रसन्न होकर यज्ञ में पधारे और हमें धन प्रदान करें।[ऋग्वेद 6.69.1]
Hey Indr Dev & Vishnu Dev! We make offering for you and recited excellent Strotr-sacred hymns. Both of you become happy with us and join the Yagy.
या विश्वासां जनितारा मतीनामिन्द्राविष्णू कलशा सोमधाना।
 प्र वो गिरः शस्यमाना अवन्तु प्र स्तोमासो गीयमानासो अर्कैः
हे इन्द्र देव और श्री विष्णु! आप स्तुतियों के पिता हैं। आप कलश स्वरूप और सोम के निधानभूत हैं। कहे जाने वाले स्तोत्र आपको प्राप्त होते हैं। स्तोताओं द्वारा गायन किए गए स्तोत्र आपको प्राप्त होते है।[ऋग्वेद 6.69.2]
Hey Indr Dev & Vishnu Dev! you are the father-source of the Strotr-Stutis. You are like the Kalash-pitcher & basis of som. The Strotr composed & recited by the worshipers are directed towards you. 
इन्द्राविष्णू मदपती मदानामा सोमं यातं द्रविणो दधाना।
सं वामञ्जन्त्वक्तुभिर्मतीनां सं स्तोमासः शस्यमानास उक्थैः
हे इन्द्र देव और श्री विष्णु! आप सोम के अधिपति हैं। धन देते हुए आप सोम के सम्मुख आवें। स्तोताओं के स्तोत्र, उक्थों के साथ आपको तेज द्वारा बढ़ायें।[ऋग्वेद 6.69.3]
उक्थ  :: श्लोक, स्तोत्र, कथन, कथन, उक्ति, स्तोत्र, सूक्ति, साम-विशेष, प्राण, ऋषभक नाम की औषधि; Strotr, Sukt, spelled, stated, hymns.
Hey Indr Dev & Shri Vishnu! You are the lord of Som. Come to Som while granting wealth. Enhance boost your aura with the compositions and recitations sacred hymns.
आ वामश्वासो अभिमातिषाह इन्द्राविष्णू सधमादो वहन्तु।
जुषेथां विश्वा हवना मतीनामुप ब्रह्माणि शृणुतं गिरो मे
हे इन्द्र देव और श्री विष्णु! हिंसकों को हराने वाले और एकत्रमत्त अश्वगण आपका वहन करें। स्तोताओं के समस्त स्तोत्रों का आप सेवन करें। मेरे स्तोत्रों और वचनों को भी श्रवण करें।[ऋग्वेद 6.69.4]
Hey Indr Dev & Shri Vishnu! Let the horses of the same nature, capable of defeating the violent enemy, carry you. Respond to all Strotr of the Stotas. Respond to my prayers-Strotr and requests as well.
इन्द्राविष्णू तत्पनयाय्यं वां सोमस्य मद उरु चक्रमाथे।
अकृणुतमन्तरिक्षं वरीयोऽप्रथतं जीवसे नो रजांसि
हे इन्द्र देव और श्री विष्णु! सोमरस का मद या हर्ष उत्पन्न होने पर आप लोग विस्तृतरूप से परिक्रमा करते है। आपने अन्तरिक्ष को विस्तृत किया। आपने लोकों को हमारे जीने के लिए प्रसिद्ध किया। आपके ये सब कर्म प्रशंसा योग्य हैं।[ऋग्वेद 6.69.5]
Hey Indr Dev & Shri Vishnu! You revolve comprehensively under the impact of Somras. You extended the space-universe. You made the abodes suitable for our living. All these endeavours of yours, deserve appreciation-applaud.
इन्द्राविष्णू हविषा वावृधानाग्राद्वाना नमसा रातहव्या।
घृतासुती द्रविणं धत्तमस्मे समुद्रः स्थः कलशः सोमधानः
घृत और अन्न से युक्त इन्द्र देव और श्री विष्णु! आप सोमरस के पान से बढ़ते हैं और सोम के अग्रभाग का भक्षण करते हैं। नमस्कार के साथ याजकगण आपको हव्य देते हैं। आप हमें धन प्रदान करें। आप लोग समुद्र की तरह हैं। आप सोम का भण्डार और कलश के रूप हैं।[ऋग्वेद 6.69.6]
Hey possessor of Ghee and food grains Indr Dev & Shri Vishnu! You boost by the consumption of Somras and eat the upper segment of Som. The Ritviz salute and make offerings to you. You are like the ocean. You are the store house of Som and appear like  Kalash.
इन्द्राविष्णू पिबतं मध्वो अस्य सोमस्य दस्त्रा जठरं पृणेथाम्।
आ वामन्यांसि मदिराण्यग्मन्नुप ब्रह्माणि शृणुतं हवं मे
हे दर्शनीय इन्द्र देव और श्री विष्णु! आप इस मदकारी सोमरस को पीकर उदर को भरें। आपके पास मदकर सोमरूप अन्न जावे। मेरा स्तोत्र और आवाहन ध्यानपूर्वक श्रवण करें।[ऋग्वेद 6.69.7]
Hey Indr Dev & Shri Vishnu! Fill your stomach with Somras. Let the intoxicating Som come to you as a food grain. Listen-respond to my invocation seriously.
उभा जिग्यथुर्न परा जयेथे न परा जिग्ये कतरश्चनैनोः।
इन्द्रश्च विष्णो यदपस्पृधेथां त्रेधा सहस्त्रं वि तदैरयेथाम्॥
हे इन्द्र देव और श्री विष्णु! आप विजयी होवें; कभी पराजित न होवें। आप दोनों में से कोई भी पराजित होने वाला नहीं है। आपने जिस वस्तु के लिए असुरों के साथ युद्ध किया, वह यद्यपि लोक, वेद और वचन के रूप में स्थित और असंख्य है, तथापि आपने अपनी वीरता से उसे प्राप्त किया।[ऋग्वेद 6.69.8]
Hey Indr Dev & Shri Vishnu! You should be a winner and never defeated. None of you can be defeated. Though the commodity for which you fought with the demons is available in unlimited quantum, like abode, Ved and words yet you obtained-attained it with your valour-bravery.(08.11.2023)
 
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