Monday, May 26, 2014

NAV GRAH POOJAN नवग्रह पूजन

NAV GRAH POOJAN 
नवग्रह पूजन
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्। 
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
Nine Grah-planets viz. Sun (Adity), Moon (Som), Mars (Angarak), Mercury (Budh), Jupiter (Brahaspati), Venus (Shukr), Rahu and Ketu. Rahu & Ketu are shadow planets. Prayers of these deities occur in the  :- Rig Ved, Atharv Ved & Sam Ved. 
Enchantment of these poetic verses-Mantr is collectively termed as Nav Grah Pujan or Nav Grah Sukt. One recites these Shloks just as to fulfill his worldly desires-wishes. 
सूर्य-आदित्य SUN :: Adity is the Sun-Sury Narayan  and is the son of Maharshi Kashyap and Aditi. He is strong, splendid, bold, regal, warlike, victorious and energetic. He travels in a chariot drawn by seven horses and his charioteer is Arun.
आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च। 
हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्॥ 
[यजुवेद 33.43, 34.31,ऋग्वेद 1.35.2, तैतिरीय संहिता 3.4.11.2]
अंधकार से प्रकाश की ले जाने के लिये सत्य निष्ठां हेतु, निर्जीव अथवा सजीव सभी में प्राणों का संचार करने हेतु सूर्य देव  स्वर्णमयी रथ में सवार होकर जगत को प्रकाशित करते हैं। 
Moving through darkness with the light of truth, recognizing the mortal and immortal, borne in his golden chariot he comes, Savitar, God who gazes upon the worlds.
सूर्य SUN :: He illuminates the whole world & nourishes it.
ॐ आदित्यस्य नमस्कारान् हे कुरुवंतु दिने दिने।
आयुः प्रज्ञा बलम् वीर्यम् तेजस तेषान् च जायते॥
ॐ ह्राँ ह्री सः ॐ नमो भगवाते श्री सूर्याय नम:।
जपाकुसीमसका काश्यप्रयं सूहादयुतिम्। 
मतोऽस्मि दिवाकरम् तमोऽरिं संदण॥
जपा (जिसे अढ़ौल का फूल भी कहा जाता है) की भाँति जिसकी कान्ति है, कश्यप से जो उत्पन्न अन्धकार जिनका शत्रु है, जो सभी पापों को नष्ट कर देते हैं, उन सूर्य भगवान् को मैं प्रणाम करता हूँ।
चन्द्र-सोम MOON :: Moon is the demigod God who rose from the ocean of milk when it was churned. He is inconsistent, amorous, charming, imaginative and poetical.
इमं देवा असपत्नं सुवध्यं महते क्षत्राय महते ज्यैष्ठ्याय महते जानराज्यायेन्द्रस्येन्द्रियाय। इमममुष्य पुत्रममुष्ये पुत्रमस्यै विश एष वोऽमी राजा सोमोऽस्माकं ब्राह्मणानां राजा॥ [यजु. 10.18]
आ पयायस्व समेतु ते विश्वतः सोम वर्ष्ण्यम। भवा वाजस्य संगथे॥ 
[ऋग्वेद 1.91.16; तैतरीय संहिता 3.2.5]
हे चंद्र देव! आपको हर दिशा से शक्ति की प्राप्ति हो। 
Swell up, O Som! Let your strength be gathered from all sides. Be strong in the gathering of might.
दधिशंखतुषाराभं क्षीरोदार्णवसम्भवम्। 
नमामि शशिनं सोमं शर्भोमुकूटभूषणम्॥
दही, शंख, हिम के समान जो दीप्तमान है, जो क्षीर सागर से उत्पन्न हुए हैं, जो भगवान् शिव के मुकुट के अलङ्कार बने हुए हैं, उन चन्द्रदेव को में प्रणाम करता हूँ।
स चित्र चित्रं चितयन्तमस्मे चित्रक्षत्र चित्रतमं वयोधाम।
चन्द्रं रयिं पुरुवीरं बर्हन्तं चन्द्र चन्द्राभिर्ग्र्णते युवस्व॥ 
हे (चित्र) अद्भुत गुण कर्म और स्वभाव वाले (चित्रक्षत्र) अदभुत राज्य वा धन से युक्त (चन्द्र) आह्लादकारक, जैसे (सः) वह विद्वान् (चन्द्राभिः) आनन्द और धन करने वाली प्रजाओं से (अस्मे) हम लोगों के लिये (चित्रम्) आश्चर्य्यभूत (चन्द्रम्) आनन्द देने वाले सुवर्ण आदि को (चितयन्तम्) जनाते हुए तथा (चित्रतमम्) अत्यन्त आश्चर्य्ययुक्त रूप और (वयोधाम) जीवन के धारण करने और बृहन्तम् बड़े (पुरुवीरम्) बहुत वीरों के देने वाले (रयिम्) धन की (गुणते) स्तुति करता है, उस को आप (युवस्व) उत्तम प्रकार युक्त करिये।[ऋग्वेद  6.6.7]
Wondrous! Of wondrous power! I give to the singer wealth wondrous, outstanding, most wonderful, life-giving. Bright wealth, O Refulgent Divine Wisdom, vast, with many aspects, give understanding to your devotee.
चन्द्र स्तोत्र :: 
श्वेताम्बर: श्वेतवपु: किरीटी, श्वेतद्युतिर्दण्डधरो द्विबाहु:।
 चन्द्रो मृतात्मा वरद: शशांक:, श्रेयांसि मह्यं प्रददातु देव:॥1
दधिशंखतुषाराभं क्षीरोदार्णवसम्भवम। 
नमामि शशिनं सोमं शम्भोर्मुकुटभूषणम॥2
क्षीरसिन्धुसमुत्पन्नो रोहिणी सहित: प्रभु:।
हरस्य मुकुटावास: बालचन्द्र नमोsस्तु ते॥3
सुधायया यत्किरणा: पोषयन्त्योषधीवनम।
सर्वान्नरसहेतुं तं नमामि सिन्धुनन्दनम॥4
राकेशं तारकेशं च रोहिणीप्रियसुन्दरम।
ध्यायतां सर्वदोषघ्नं नमामीन्दुं मुहुर्मुहु:॥5 
इति मन्त्रमहार्णवे चन्द्रमस: स्तोत्रम।  
भौम-मंगल, अङ्गारक MARS :: Mars also called as Kuj and Angarak. He is a soldier, crafty, unscrupulous and tyrannical.
अग्निमूर्धा दिव: ककुत्पति: पृथिव्या अयम्। 
अपां रेतां सि जिन्वति[यजु. 3.12]
धरणीगर्भसम्भूतं विद्युत्कान्तिसमप्रभम्। 
कुमारं शक्तिहस्तं तं (च) मङ्गलं प्रणाम्यहम्॥
पृथ्वी के गर्भ से जिनकी उत्पत्ति हुई है, विद्युत के समान जिनकी प्रभा है,जो हाथो में शक्ति धारण किये हुए है, उन मङ्गलदेव को में प्रणाम करता हूँ।
बुध MERCURY :: Mercury is the illicit son of Moon and Guru Brahaspati's wife Tara. He is speculative scientific, skilful.
उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्ते सं सृजेधामयं च। 
अस्मिन्त्सधस्‍थे अध्‍युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यशमानश्च सीदत[यजु. 15.54] 
प्रियंगलिकॉश्यामं रूपेणाप्रतिमं बुधम्।
सौम्य सौम्य रणोपेतं तं बुधं प्रणाम्यहेम्॥ 
प्रियंगु की काली के जैसे जिनका परिणामतर्ण) है, जिनके रूपको किसी भी तरह वर्णित नहीं किया जाता ऐसा है (जिनकी कोई उपमा ही।) उन सौम्य और सोम्य गुणों से युक्त बुध को में प्रणाम करता हूँ। 
गुरु-बृहस्पति JUPITER :: Jupiter is and the son of Mahrshi  Angiras.  He is Dev Guru, teacher, Purohit, guide of demigods. He is religious learned, and philosopher, wise and a statesman.
बृहस्पति युद्ध के देवता और देवगुरु-पुरोहित भी हैं। उनमें ब्राह्मण तथा क्षत्रिय दोनों की चरित्रगत विशेषताएँ पायी जाती हैं। इसकी पीठकाली तथा शृंग तीक्ष्ण हैं। बृहस्पति स्वर्णिम वर्ण के हैं। यह शस्त्र के रूप में धनुष-बाण तथा परशु धारण करते हैं।उनको वज्रिन भी कहा गया है। वे युद्ध में इन्द्र की सहायता करते हैं। इन के बिना कोई भी यज्ञ कार्य पूर्ण नहीं हो सकता। बृहस्पति मनुष्यों को उत्तम वय, सौभाग्य प्रदान करते हैं। उनको पृष्ठ, ब्रह्मणस्पति, शक्तिपुत्र, सुगोपाः, मरुत्संखा, द्युतिमान्, गणपति वाचस्पति भी कहा गया है। 
बृहस्पतिः प्रथमं जायमानो महो ज्योतिषः परमे व्योमन्।
सप्तास्यस्तु वि जातो रवेण वि सप्तरश्मिरधमत् तमांसि
जब बृहस्पति ने महान् प्रकाश वाले परम व्योम (आकाश) में पहले-पहले जन्म लिया, तो सात मुख वाले, ध्वनि के साथ विभिन्न रूपों वाले (संयुक्त) और सात किरणों वाले ने अँधेरे को पराजित किया।[ऋग्वेद 4.50.4; अथर्ववेद 20.88]
बृहस्पतिः प्रथमं जायमानस्तिष्यं नक्षत्रमभिसम्बभूव।
श्रेष्ठो देवानां पृतनासु जिष्णुः दिशोSनुसर्वा अभयं नो अस्तु
पहली बार प्रकट होते हुए बृहस्पति तिष्य (पुष्य) नक्षत्र के सामने प्रकट हुए। तिष्य और पुष्य दोनों एकार्थक है । तैत्तिरीय-ब्राह्मण में इसके देवता बृहस्पति है।[तैतरीय ब्राह्मण 3.1.1.5] 
बृहस्पते अति यदर्यो अर्हाद् द्युमद्विभाति क्रतुमज्जनेषु। 
यद्दीदयच्छवस ऋतुप्रजात तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम्[यजु. 26.3]
देवानां च ऋषिणों च गुरुकाञ्चनसत्रिभम्। 
बुद्धिभूतं त्रिलोकेशं तं नमामि बृहस्पतिम्॥
जो स्वयं देवताओ और ऋषिओ के गुरु है, कंचन (सुवर्ण) के समान जिनकी प्रभा है, जो बुद्धिदाता है, तीनों लोको के प्रभु हैं, उन बृहस्पति को में प्रणाम करता हूँ। 
शुक्र VENUS :: Shukr-Venus is the son of Bhragu. His mother's name is Kavya. He was adopted as their Guru by the Asuras and he guided them in their wars with the demigods. He is self-willed, master of state craft, poet, thinker and philosopher.
पर वः शुक्राय भानवे भरध्वं हव्यं मतिं चाग्नये सुपूतम।
यो दैव्यानि मानुषा जनूंष्यन्तर्विश्वानि विद्मना जिगाति॥ 
[ऋग्वेद 7.4.1]
Bring forth your offerings to his refulgent splendour; your hymn as purest offering to Agni the mystic fire of wisdom who goes as messenger conveying all songs of men to the Gods in heaven.
अन्नात्परिस्त्रुतो रसं ब्रह्मणा व्यपित्क्षत्रं पय: सोमं प्रजापति:। 
ऋतेन सत्यमिन्द्रियं विपानं शुक्रमन्धस इन्द्रस्येन्द्रियमिदं पयोऽमृतं मधु
[यजुवेद 19.75]
हिमहेम कुन्दमणोलाभ द्वेत्यानां परमं गुरुम्।  
सर्वशास्तप्रवक्तारं भार्गवं प्रणाम्यहम्॥
तुषार (हिम की तरह), कुन्द,मृणाल के समान जिनकी कान्ति है, जो दैत्यों के परम गुरु हैं, सब शास्त्रों के परमज्ञाता हैं, कुशल वक्ता हैं, उन शुक्रदेव को मैं में प्रणाम करता हूँ। 
शनि SATURN :: Saturn is the son of Sun-the deity of light & wisdom. He is lame and moves slowly. He is cruel, vindictive, gloomy, immoral and destructive.
शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शं योरभि स्त्रवन्तु न:
[ऋग्वेद 10.9.4; अथर्वेद 1.6.1; यजुवेद 36.12]
हे शनिदेव! आप हमारे अनुकूल हों, हमें उत्तम स्वास्थ्य और शक्ति प्रदान करें। 
May the seven cosmic principles be propitious for us; divine forces for our aid & bliss. Let them flow for us, for health and strength.
PROPITIOUS :: अनुकूल, मेहरबान, अनुग्राही; suited, favourable, compatible, congruent, congenial, clement, complaisant, merciful, tender hearted, regardful, merciful.
नीलांजनसमाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्। 
छायामात्त ड सम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम्॥
नीलांजन के समय जिनकी दीप्ति है जो सूर्य नारायण के पुत्र हे, यमराज के को सूर्य की छाया से जिनकी उत्पत्ति हुई है, उन शनेछर दताको में प्रणाम करता हु (करती हु)
राहु RAHU-DRAGON HEAD :: He is the son of Mahrishi Kashyap and his Asur wife Sinhika. Bhagwan Shri Hari Vishnu chopped off his head while distributing Amrat (nectar, elixir) between the demigods & the demons as Mohini when he tried to get it by deceit. The Head constitutes  He is violent, head strong, frank and furious.
कया नश्चित्र आ भुवदूती सदावृध: सखा। कया शचिष्ठया वृता
[यजु. 36.4] 
अर्धकाय महावीर्य चन्द्रादित्यविमर्दनम्। 
सिंहिकागर्भसम्भूतं तं राहुं प्रणाम्यहम्॥ 
जिनका देह आधा है,जिनमे महान पराक्रम है,जो सूर्य चंद्र को भी परास्त कर सकते है जिनकी उत्पत्ति सिंहिका के गर्भ से हुई है उन राहु देवताको में प्रणाम करता हूँ। 
केतु KETU DRAGON TAIL :: Torso of Rahu is Ketu. He is secretive. meditative and unsocial.
केतुं कृण्वन्नकेतवे पेशो मर्या अपेशसे। समुषद्भिरजायथा:
[यजुवेद 29.37, तैतरीय संहिता 7.4.20]
पलाशपुष्पसकाशं तारकाग्रहमस्तकम्। 
रौद्र रौद्रात्मकं धोरं त केतुं प्रणाम्यहम्॥ 
पलाश के पुष्प की तरह जिनकी देहकान्ति हे,जो सभी तारकाओं में श्रेष्ठ है जो स्वयं रोद्र और रोद्रात्मक है। ऐसे घोत रूपधारी केतु देवता को में प्रणाम करता हूँ।
फूलश्रुति :: 
इति व्यासमखोद्गीत यूँ: पठेत् समाहित:। 
दिवा वा वा रात्रौ विघशान्तिर्भविष्यति॥
व्यास के मुखसे निकत हु स्तोत्र को सावधानी पूर्वक दिन या रात्रि के समय पाठ करता हे उसकी सारी बाधार्य शांत हो जाती है। विघ्न शान्त हो जाते है।
नर्नारीनपाणां च भवेद दुःस्वप्नाशनम्। 
ऐश्वर्यमर्तुलं तेषामारोग्य पुष्टिवर्धनम्॥
समग्र संसार के सभी लोग स्त्री-पुरुष और राजाओं के भी दुःस्वप्नो के दोप दूर हो जाते है। इसका पाठ करने से अपार ऐश्वर्य और आरोग्य प्राप्त होता है। पुष्टि वृद्धि होती है।
नव ग्रह सूक्त NAV GRAH SUKT :: ग्रहों से होने वाली पीड़ा का निवारण करने के लिए इस स्तोत्र का पाठ अत्यंत लाभदायक है। इसमें सूर्य से लेकर हर ग्रहों से क्रमश: एक-एक श्लोक के द्वारा पीड़ा दूर करने की प्रार्थना की गई है :- 
ग्रहाणामादिरात्यो लोकरक्षणकारक:। 
विषमस्थानसम्भूतां पीड़ां हरतु मे रवि:॥
रोहिणीश: सुधा‍मूर्ति: सुधागात्र: सुधाशन:। 
विषमस्थानसम्भूतां पीड़ां हरतु मे विधु:॥
भूमिपुत्रो महातेजा जगतां भयकृत् सदा। 
वृष्टिकृद् वृष्टिहर्ता च पीड़ां हरतु में कुज:॥ 
उत्पातरूपो जगतां चन्द्रपुत्रो महाद्युति:। 
सूर्यप्रियकरो विद्वान् पीड़ां हरतु मे बुध:॥ 
देवमन्त्री विशालाक्ष: सदा लोकहिते रत:। 
अनेकशिष्यसम्पूर्ण:पीड़ां हरतु मे गुरु:॥
दैत्यमन्त्री गुरुस्तेषां प्राणदश्च महामति:। 
प्रभु: ताराग्रहाणां च पीड़ां हरतु मे भृगु:॥
सूर्यपुत्रो दीर्घदेहा विशालाक्ष: शिवप्रिय:। 
मन्दचार: प्रसन्नात्मा पीड़ां हरतु मे शनि:॥
अनेकरूपवर्णेश्च शतशोऽथ सहस्त्रदृक्। 
उत्पातरूपो जगतां पीडां पीड़ां मे तम:॥
महाशिरा महावक्त्रो दीर्घदंष्ट्रो महाबल:। 
अतनुश्चोर्ध्वकेशश्च पीड़ां हरतु मे शिखी:॥
 नवग्रह स्तोत्र ::
दधिशंखतुषाराभं क्षीरोदार्णव संभवम्। 
नमामि शशिनं सोमं शंभोर्मुकुट भूषणम्
धरणीगर्भ संभूतं विद्युत्कांति समप्रभम्।
कुमारं शक्तिहस्तं तं मंगलं प्रणाम्यहम्॥ 
प्रियंगुकलिकाश्यामं रुपेणाप्रतिमं बुधम्।
सौम्यं सौम्यगुणोपेतं तं बुधं प्रणमाम्यहम्
देवानांच ऋषीनांच गुरुं कांचन सन्निभम्। 
बुद्धिभूतं त्रिलोकेशं तं नमामि बृहस्पतिम्॥
हिमकुंद मृणालाभं दैत्यानां परमं गुरुम्।
सर्वशास्त्र प्रवक्तारं भार्गवं प्रणमाम्यहम्॥
नीलांजन समाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्।
छायामार्तंड संभूतं तं नमामि शनैश्चरम्॥ 
अर्धकायं महावीर्यं चंद्रादित्य विमर्दनम्।
सिंहिकागर्भसंभूतं तं राहुं प्रणमाम्यहम्॥
पलाशपुष्पसंकाशं तारकाग्रह मस्तकम्। 
रौद्रंरौद्रात्मकं घोरं तं केतुं प्रणमाम्यहम्॥ 
इति श्रीव्यासमुखोग्दीतम् यः पठेत् सुसमाहितः।
दिवा वा यदि वा रात्रौ विघ्न शांतिर्भविष्यति॥ 
नरनारी नृपाणांच भवेत् दुःस्वप्ननाशनम्।
ऐश्वर्यमतुलं तेषां आरोग्यं पुष्टिवर्धनम्॥
ग्रहनक्षत्रजाः पीडास्तस्कराग्निसमुभ्दवाः।
ता सर्वाःप्रशमं यान्ति व्यासोब्रुते न संशयः॥ 
इति श्रीव्यास विरचितम् आदित्यादी नवग्रह स्तोत्रं संपूर्णं। 
 
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Friday, May 23, 2014

PRAYER RULES पूजा विधान

PRAYER RULES पूजा विधान 
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ॐ गं गणपतये नमः 
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्। 
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
सुखी और समृद्धिशाली जीवन के लिए देवी-देवताओं के पूजन की परम्परा आदि काल से चली आ रही है। अधिकांश हिन्दु इस परम्परा  को निभाते हैं। पूजन से मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। पूजन का शुभ फल पूर्ण रूप से प्राप्त करने हेतु पूजा करते समय शास्त्र में वर्णित कुछ सावधानियाँ-नियमों का पालन भी किया जाता है। 
पूजा पाठ सम्बन्धी सामान्य नियम ::
(1). सूर्य, गणेश,दुर्गा,शिव एवं विष्णु ये पाँच देव कहलाते हैं। इनकी पूजा सभी कार्यों में गृहस्थ आश्रम में नित्य होनी चाहिए। इससे धन-लक्ष्मी और सुख प्राप्त होता है।
(2). गणेश जी महाराज और भैरव जी को तुलसी नहीं चढ़ानी चाहिए।
(3). दुर्गा जी को दूर्वा नहीं चढ़ानी चाहिए।
(4). सूर्य देव को शंख के जल से अर्घ्य नहीं देना चाहिए।
(5). तुलसी का पत्ता बिना स्नान किये नहीं तोडना चाहिए। जो लोग बिना स्नान किये तोड़ते हैं, उनके तुलसी पत्रों को भगवान स्वीकार नहीं करते हैं।
(6). रविवार, एकादशी, द्वादशी,संक्रान्ति तथा संध्या काल में तुलसी नहीं तोड़नी चाहिए।मासिक धर्म की स्थिति में महिलायें तुलसी से दूर ही रहें। 
(7). दूर्वा (एक प्रकार की घास) रविवार को नहीं तोड़नी चाहिए।
(8). केतकी का फूल भगवान् शंकर को नहीं चढ़ाना चाहिए।
(9).  कमल का फूल पाँच रात्रि तक उसमें जल छिड़क कर चढ़ा सकते हैं।
(10). बिल्व पत्र दस रात्रि तक जल छिड़क कर चढ़ा सकते हैं।
(11). तुलसी की पत्ती को ग्यारह रात्रि तक जल छिड़क कर चढ़ा सकते हैं।
(12). हाथों में रख कर हाथों से फूल नहीं चढ़ाना चाहिए।
(13). ताँबे के पात्र में चंदन नहीं रखना चाहिए।
(14). दीपक से दीपक नहीं जलाना चाहिए; जो दीपक से दीपक जलाते हैं, वो रोगी होते हैं।
(15). पतला चंदन देवताओं को नहीं चढ़ाना चाहिए।
(16). प्रतिदिन की पूजा में मनोकामना की सफलता के लिए दक्षिणा अवश्य चढ़ानी चाहिए। दक्षिणा में अपने दोष, दुर्गुणों को छोड़ने का संकल्प लें, अवश्य सफलता मिलेगी और मनोकामना पूर्ण होगी।
(17). चर्मपात्र या प्लास्टिक पात्र में गंगाजल नहीं रखना चाहिए।
(18). स्त्रियों और शूद्रों को शंख नहीं बजाना चाहिए यदि वे बजाते हैं तो माता लक्ष्मी वहाँ से चली जाती हैं।
(19). देवी देवताओं का पूजन दिन में पाँच बार करना चाहिए। सुबह 5 से 6 बजे तक ब्रह्म बेला में प्रथम पूजन और आरती होनी चाहिए। प्रात: 9 से 10 बजे तक दिवितीय पूजन और आरती होनी चाहिए। मध्याह्र में तीसरा पूजन और आरती। फिर शयन करा देना चाहिए शाम को चार से पाँच बजे तक चौथा पूजन और आरती होना चाहिए। रात्रि में 8 से 9 बजे तक पाँचवाँ पूजन और आरती। फिर शयन करा देना चाहिए। 
(20). आरती करने वालों को प्रथम चरणों की चार बार, नाभि की दो बार और मुख की एक या तीन बार और समस्त अंगों की सात बार आरती करनी चाहिए।
(21). पूजा हमेशा पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख रखकर करनी चाहिए। यदि संभव हो सके तो सुबह 6 से 8 बजे के बीच में पूजा अवश्य करें।
भगवान् की आरती करते समय भगवान् के श्री चरणों की चार बार आरती करें, नाभि की दो बार और मुख की एक या तीन बार आरती करें। इस प्रकार भगवान् के समस्त अंगों की कम से कम सात बार आरती करनी चाहिए।
(22). पूजा जमीन पर ऊनी आसन पर बैठकर ही करनी चाहिए। पूजागृह में सुबह एवं शाम को दीपक, एक घी का और एक तेल का रखें। पूजा के लिए आसन रुरु मृग चरम, चीते की खाल, मृग चर्म, मूँज की चटाई या फिर ऊनी हो।
(23). पूजा अर्चना होने के बाद उसी जगह पर खड़े होकर 3 परिक्रमाएँ करें।
(24). पूजाघर में मूर्तियाँ 1, 3, 5, 7, 9, 11 इंच तक की होनी चाहियें। इससे बड़ी नहीं तथा खड़े हुए गणेश जी, माता सरस्वती, माता लक्ष्मी की मूर्तियाँ घर में नहीं होनी चाहिए।
(25). गणेश जी महाराज या देवी की प्रतिमा तीन-तीन, शिवलिंग दो, शालिग्राम दो, सूर्य प्रतिमा दो, गोमती चक्र दो की सँख्या में कदापि न रखें। अपने मदिर में सिर्फ प्रतिष्ठित मूर्ति ही रखें। उपहार, काँच, लकड़ी एवं फायबर की मूर्तियाँ न रखें। खण्डित, जलीकटी फोटो और टूटा काँच तुरन्त हटा दें, यह अमंगलकारक है एवं इनसे विपतियों का आगमन होता है।
(26). मंदिर के ऊपर भगवान के वस्त्र, पुस्तकें एवं आभूषण आदि भी न रखें मंदिर में पर्दा अति आवश्यक है। अपने पूज्य माता-पिता तथा पित्रों का फोटो मंदिर में कदापि न रखें। उन्हें घर के नैऋत्य कोण में स्थापित करें।
(27). भगवान् विष्णु की चार, गणेश जी की तीन, भगवान् सूर्य की सात, माता भगवती दुर्गा की एक एवं भगवान् शिव की आधी परिक्रमा कर सकते हैं।
(28). प्रत्येक व्यक्ति को अपने घर में कलश स्थापित करना चाहिए। कलश जल से पूर्ण, श्रीफल से युक्त विधिपूर्वक स्थापित करें। यदि घर में श्रीफल कलश उग जाता हैं, तो वहाँ सुख एवं समृद्धि के साथ स्वयं लक्ष्मी जी नारायण के साथ निवास करती हैं। तुलसी का पूजन भी आवश्यक है।
(29). मकड़ी के जाले एवं दीमक से घर को सर्वदा बचावें अन्यथा घर में भयंकर हानि हो सकती है।
(30). घर में झाड़ू कभी खड़ा कर के न रखें। झाड़ू लांघना, पाँव से कुचलना भी दरिद्रता को निमंत्रण देना है।  दो झाड़ू को भी एक ही स्थान में न रखें इससे शत्रु बढ़ते हैं।
(31). घर में किसी परिस्थिति में जूठे बर्तन न रखें। क्योंकि शास्त्र कहते हैं कि रात में लक्ष्मी जी घर का निरीक्षण करती हैं। यदि जूठे बर्तन रखने ही हो तो किसी बड़े बर्तन में उन बर्तनों को रख कर उनमें पानी भर दें और ऊपर से ढक दें तो दोष निवारण हो जायेगा।
(32). कपूर का एक छोटा सा टुकड़ा घर में नित्य अवश्य जलाना चाहिए, जिससे वातावरण अधिकाधिक शुद्ध हो और वातावरण में धनात्मक ऊर्जा बढ़े।
(33). घर में नित्य घी का दीपक जलावें और सुखी रहें। कभी भी दीपक से दीपक नहीं जलाना चाहिए। जो व्यक्ति दीपक से दीपक जलाते हैं, वे रोगी होते हैं।
(34). घर में नित्य गोमूत्र युक्त जल से पोंछा लगाने से घर में वास्तुदोष समाप्त होते हैं तथा दुरात्माएँ हावी नहीं होती हैं।
(35). सेंधा नमक घर में रखने से सुख श्री(लक्ष्मी) की वृद्धि होती है ।
(36). रोज पीपल वृक्ष के स्पर्श से शरीर में रोग प्रतिरोधकता में वृद्धि होती है। बुधवार और रविवार को पीपल के वृक्ष में जल अर्पित नहीं करना चाहिए।
(37). साबुत धनिया, हल्दी की पाँच गाँठें, 11 कमलगट्टे तथा साबुत नमक एक थैली में रख कर तिजोरी में रखने से बरकत होती है, श्री (लक्ष्मी) व समृद्धि बढ़ती है।
(38). दक्षिणावर्त शंख जिस घर में होता है, उसमें साक्षात लक्ष्मी एवं शांति का वास होता है वहाँ मंगल ही मंगल होते हैं। पूजा स्थान पर दो शंख नहीं होने चाहिए।
(39). घर में यदा-कदा केसर के छींटे देते रहने से वहाँ धनात्मक ऊर्जा में वृद्धि होती है। पतला घोल बनाकर आम्र पत्र अथवा पान के पते की सहायता से केसर के छींटे लगाने चाहिए।
(40). एक मोती शंख, पाँच गोमती चक्र, तीन हकीक पत्थर, एक ताम्र सिक्का व थोड़ी सी नागकेसर एक थैली में भरकर घर में रखें। इससे श्री (लक्ष्मी) की वृद्धि होगी।
(41). आचमन करके जूठे हाथ सिर के पृष्ठ भाग में कदापि न पोंछें। इस भाग में अत्यंत महत्वपूर्ण कोशिकाएँ होती हैं।
(42). घर में पूजा पाठ व मांगलिक पर्व में सिर पर टोपी व पगड़ी पहननी चाहिए, रुमाल विशेष कर सफेद रुमाल शुभ नहीं माना जाता है।
पंचोपचार एवं षोडशोपचार पूजन :: मूर्ति के आकार और जातक में श्रद्धा-भक्ति के अनुरूप उसमें देवता का तत्त्व आता है। पूजादि संस्कारों के कारण भक्ति तत्त्व को जागृत किया जाता है। पूजन से देवता प्रसन्न होते हैं। देवता की कृपा पूजक को सुलभ हो जाती है। जातक में उपस्थित-विद्यमान रज-तम गुणों की मात्रा घटने से जातक की बुद्धि चैतन्य होती है। 
पंचोपचार पूजन कृत्य ::
(1). देवता को गंध (चंदन) लगाना तथा हलदी-कुमकुम चढाना :- सर्वप्रथम, देवता को अनामिका से (कनिष्ठिका के समीप की उंगलीसे) चंदन लगाएं । इसके उपरांत दाएं हाथ के अंगूठे और अनामिका के बीच चुटकीभर पहले हलदी, फिर कुमकुम देवता के चरणों में अर्पित करें ।
(2). देवता को पत्र-पुष्प (पल्लव) चढाना :- देवता को कागद के (कागज के), प्लास्टिक के इत्यादि कृत्रिम तथा सजावटी पुष्प न चढाएं, अपितु नवीन (ताजे) और सात्विक पुष्प चढाएं । देवता को चढाए जानेवाले पत्र-पुष्प न सूंघें । देवता को पुष्प चढाने से पूर्व पत्र चढाएं। विशिष्ट देवता को उनका तत्त्व अधिक मात्रा में आकर्षित करनेवाले विशिष्ट पत्र-पुष्प चढाएं, उदा. शिवजी को बिल्वपत्र तथा श्री गणेशजी को दूर्वा और लाल पुष्प । पुष्प देवता के सिर पर न चढाएं; चरणों में अर्पित करें । डंठल देवता की ओर एवं पंखुडियां (पुष्पदल) अपनी ओर कर पुष्प अर्पित करें ।
(3). देवता को धूप दिखाना (अथवा अगरबत्ती दिखाना) :- देवता को धूप दिखाते समय उसे हाथ से न फैलाएं । धूप दिखाने के उपरांत विशिष्ट देवता का तत्त्व अधिक मात्रा में आकर्षित करने हेतु विशिष्ट सुगंध की अगरबत्तियों से उनकी आरती उतारें, उदा. शिवजी को हीना से तथा श्री लक्ष्मीदेवी की गुलाब से ।
धूप दिखाते समय तथा अगरबत्ती घुमाते समय बाएं हाथ से घंटी बजाएं ।
(4). देवता की दीप-आरती करना :- दीप-आरती तीन बार धीमी गति से उतारें । दीप-आरती उतारते समय बाएं हाथ से घंटी बजाएं।
दीप जलाने के संदर्भ में ध्यान में रखने योग्य सूत्र
(4.1). दीप प्रज्वलित करने हेतु एक दीप से दूसरा दीप न जलाएं ।
(4.2). तेल के दीप से घी का दीप न जलाएं ।
(4.3). पूजाघरमे प्रतिदिन तेल के दीप की नई बाती जलाएं ।
(5); देवता को नैवेद्य निवेदित करना :- नैवेद्य के पदार्थ बनाते समय मिर्च, नमक और तेल का प्रयोग अल्प मात्रा में करें और घी जैसे सात्विक पदार्थों का प्रयोग अधिक करें । नैवेद्य के लिए सिद्ध (तैयार) की गई थाली में नमक न परोसें। देवता को नैवेद्य निवेदित करने से पहले अन्न ढककर रखें । नैवेद्य समर्पण में सर्वप्रथम इष्टदेवता से प्रार्थना कर देवता के समक्ष भूमि पर जल से चौकोर मंडल बनाएं तथा उस पर नैवेद्य की थाली रखें । नैवेद्य समर्पण में थाली के सर्व ओर घडी के कांटे की दिशा में एक ही बार जल का मंडल बनाएं । पुनः विपरीत दिशा में जल का मंडल न बनाएं । नैवेद्य निवेदित करते समय ऐसा भाव रखें कि ‘हमारे द्वारा अर्पित नैवेद्य देवतातक पहुंच रहा है तथा देवता उसे ग्रहण कर रहे हैं।
देव पूजन के उपरांत किए जानेवाले कृत्य :: यद्यपि पंचोपचार पूजन में ‘कर्पूरदीप जलाना’ यह उपचार नहीं है, तथापि कर्पूर की सात्विकता के कारण उस का दीप जलाने से सात्विकता प्राप्त होने में सहायता मिलती है । अतएव नैवेद्य दिखाने के उपरांत कर्पूरदीप जलाएं । fशंखनाद कर देवता की भावपूर्वक आरती उतारें । आरती ग्रहण करने के उपरांत नाक के मूल पर (आज्ञाचक्र पर) विभूति लगाएं और तीन बार तीर्थ प्राशन करें । अंत में प्रसाद ग्रहण करें तथा उसके उपरांत हाथ धोएं ।
षोडशोेपचार पूजन :: 
(1). देवता का आवाहन-बुलाना :- देवता अपने अंग, परिवार, आयुध और शक्तिसहित पधारें तथा मूर्ति में प्रतिष्ठित होकर हमारी पूजा ग्रहण करें, इस हेतु संपूर्ण शरणागत भाव से देवता से प्रार्थना करना अर्थात् उनका `आवाहन करना। आवाहन के समय हाथ में चंदन, अक्षत एवं तुलसीदल अथवा पुष्प लें।
आवाहन के उपरांत देवता का नाम लेकर अंत में ‘नमः’ बोलते हुए उन्हें चंदन, अक्षत, तुलसीदल अथवा पुष्प अर्पित कर हाथ जोडें।
देवता के रूप के अनुसार उनका नाम लें यथा श्री गणपति के लिए श्री गणपतये नमः।माँ भवानी के लिए ‘श्री भवानी देव्यै नमः। तथा विष्णु पंचायतन के लिए (पंचायतन अर्थात् पांच देवता; विष्णु पंचायतन के पांच देवता हैं, श्री हरि विष्णु, शिव, श्री गणेश, देवी तथा सूर्य) श्री महाविष्णु प्रमुख पंचायतन देवताभ्यो नमः, कहें।
(2). देवता को आसन :- देवता के आगमन पर उन्हें विराजमान होने के लिए सुंदर आसन दिया है, ऐसी कल्पना कर विशिष्ट देवता को प्रिय पत्र-पुष्प; यथा श्री गणेश जी को दूर्वा, शिव जी को बेल, श्री हरि विष्णु को तुलसी अथवा अक्षत अर्पित करें ।
(3). पाद्य-पाद प्रक्षालन :-  देवता को ताम्रपात्र में रखकर उनके चरणों पर आचमनी से जल चढाएं।
(4). हस्त-प्रक्षालन :- आचमनी में जल लेकर उसमें चंदन, अक्षत तथा पुष्प डालकर, उसे मूर्ति के हाथ पर चढाएं।
(5). मुख-प्रक्षालन :- आचमनी में कर्पूर-मिश्रित जल लेकर, उसे देवता को अर्पित करने के लिए ताम्रपात्र में छोड़ें। 
(6). स्नान-देवता पर जल चढाना :- धातु की मूर्ति, यंत्र, शालग्राम इत्यादि हों, तो उन पर जल चढाएं। मिट्टी की मूर्ति हो, तो पुष्प अथवा तुलसी दल से केवल जल छिड़कें। चित्र हो, तो पहले उसे सूखे वस्त्र से पोंछ लें। तदुपरांत गीले कपड़े से पुनः सूखे कपडे से पोंछें। देवताओं की प्रतिमाओं को पोंछने के लिए प्रयुक्त वस्त्र स्वच्छ हो। वस्त्र नया हो, तो एक-दो बार पानी में भिगोकर तथा सुखाकर प्रयोग करें। अपने कंधे के उपरने से अथवा धारण किए वस्त्र से देवताओं को न पोंछें।
(6.1). पंचामृत से स्नान के अंतर्गत दूध, दही, घी, मधु तथा शक्कर से क्रमानुसार स्नान करवाएं। एक पदार्थ से स्नान करवाने के उपरांत तथा दूसरे पदार्थ से स्नान करवाने से पूर्व जल चढाएं यथा दूध से स्नान करवाने के उपरांत तथा दही से स्नान करवाने से पूर्व जल चढाएं।
(6.2). देवता को चंदन तथा कर्पूर-मिश्रित जल से स्नान करवाएं।
(6.3). आचमनी से जल चढाकर सुगंधित द्रव्य-मिश्रित जल से स्नान करवाएं ।
(6.4). देवताओं को उष्णोदक से स्नान करवाएं। उष्णोदक अर्थात् अत्यधिक गरम नहीं, वरन् गुनगुना पानी ।
(6.5). देवताओं को सुगंधित द्रव्य-मिश्रित जल से स्नान करवाने के उपरांत गुनगुना जल डालकर महाभिषेक स्नान करवाएं। महाभिषेक करते समय देवताओं पर धीमी गति की निरंतर धारा पडती रहे, इसके लिए अभिषेक पात्र का प्रयोग करें। संभव हो तो महाभिषेक के समय विविध सूक्तों का उच्चारण करें।
(6.6). महाभिषेक के उपरांत पुनः आचमन के लिए ताम्रपात्र में जल छोडेें तथा देवताओं की प्रतिमाओं को पोंछकर रखें।
(7). देवता को वस्त्र देना :-  देवताओं को कपास के दो वस्त्र अर्पित करें। एक वस्त्र देवता के गले में अलंकार के समान पहनाएं तथा दूसरा देवता के चरणों में रखें।
(8). देवता को उपवस्त्र अथवा यज्ञोपवीत (जनेऊ देना) अर्पित करना :-  पुरुष देवताओं को यज्ञोपवीत (उपवस्त्र) अर्पित करें।
(9). पंचोपचार अर्थात देवता को गंध (चंदन) लगाना।  
(10). पुष्प अर्पित करना। 
(11). धूप दिखाना अथवा अगरबत्ती से आरती उतारना। 
(12). दीप-आरती करना तथा नैवेद्य निवेदित करना।
(13). नैवेद्य दिखाने के उपरांत दीप-आरती और तत्पश्चात् कर्पूर-आरती करें ।
(14). देवता को मनः पूर्वक नमस्कार करना। 
(15). परिक्रमा करना :- नमस्कार के उपरांत देवता के सर्व ओर परिक्रमा करें। परिक्रमा करने की सुविधा न हो, तो अपने स्थान पर ही खड़े होकर तीन बार घूम जाएं।
(16). मंत्र-पुष्पांजलि :- परिक्रमा के उपरांत मंत्रपुष्प-उच्चारण कर, देवता को अक्षत अर्पित करें। तदुपरान्त पूजा में ज्ञात-अज्ञात चूकों तथा त्रुटियों के लिए अंत में देवतासे क्षमा मांगें और पूजा का समापन करें। 
अंत में विभूति लगाएं, तीर्थ प्राशन करें और प्रसाद ग्रहण करें।
सुखी और समृद्धिशाली जीवन के लिए देवी-देवताओं के पूजन की परंपरा आदि काल से चली आ रही है। अधिकांश हिन्दु  में लोग इस परंपरा को निभाते हैं। पूजन से मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। पूजन का शुभ फल पूर्ण रूप से प्राप्त करने हेतु पूजा करते समय शास्त्र में वर्णित कुछ सावधानियाँ-नियमों का पालन भी किया जाना चाहिए।  
कभी भी दीपक से दीपक नहीं जलाना चाहिए। जो व्यक्ति दीपक से दीपक जलाते हैं, वे रोगी होते हैं।
बुधवार और रविवार को पीपल के वृक्ष में जल अर्पित नहीं करना चाहिए।
पूजा हमेशा पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख रखकर करनी चाहिए। यदि संभव हो सके तो सुबह 6 से 8 बजे के बीच में पूजा अवश्य करें।
पूजा के लिए आसन रुरु मृग चरम, चीते की खाल, मृग चर्म, मूँज की चटाई या फिर ऊनी हो।
घर के मंदिर में सुबह एवं शाम एक दीपक घी का और एक दीपक तेल का जलाना चाहिए।
पूजन-कर्म और आरती पूर्ण होने के बाद उसी स्थान पर खड़े होकर 3 परिक्रमाएँ अवश्य करनी चाहिए।
रविवार, एकादशी, द्वादशी, संक्रान्ति तथा संध्या काल में तुलसी के पत्ते नहीं तोड़ना चाहिए। मासिक धर्म की स्थिति में महिलायें तुलसी से दूर ही रहें। 
भगवान् की आरती करते समय भगवान् के श्री चरणों की चार बार आरती करें, नाभि की दो बार और मुख की एक या तीन बार आरती करें। इस प्रकार भगवान् के समस्त अंगों की कम से कम सात बार आरती करनी चाहिए।
पूजाघर में मूर्तियाँ 1, 3, 5, 7, 9, 11 इंच तक की होनी चाहियें। इससे बड़ी नहीं तथा खड़े हुए गणेश जी, माता सरस्वती, माता लक्ष्मी की मूर्तियाँ घर में नहीं होनी चाहिए।
गणेश जी या देवी की प्रतिमा तीन-तीन, शिवलिंग दो, शालिग्राम दो, सूर्य प्रतिमा दो, गोमती चक्र दो की सँख्या में कदापि न रखें।
मंदिर में सिर्फ प्रतिष्ठित मूर्ति ही रखें। उपहार, काँच, लकड़ी एवं फायबर की मूर्तियाँ न रखें एवं खण्डित, जली-कटी-फ़टी  फोटो और टूटा काँच तुरंत हटा दें। खंडित मूर्तियों की पूजा वर्जित की गई हैं। जो भी मूर्ति खंडित हो जाती है, उसे पूजा के स्थल से हटा देना चाहिए और किसी पवित्र बहती नदी में प्रवाहित कर देना चाहिए। खंडित मूर्तियों की पूजा अशुभ मानी गई है। 
मंदिर के ऊपर भगवान के वस्त्र, पुस्तकें एवं आभूषण आदि भी न रखें मंदिर में पर्दा अति आवश्यक है।  अपने पूज्य माता–पिता तथा पित्रों का फोटो मंदिर में कदापि न रखें। उन्हें घर के नैऋत्य कोण में स्थापित करें।
भगवान् विष्णु की चार, गणेश जी की तीन, सूर्य की सात, माता भगवती दुर्गा की एक एवं भगवान् शिव की आधी परिक्रमा कर सकते हैं।
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्। 
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते॥
देवता, ब्राह्मण, गुरुजन और जीवन्मुक्त महापुरुष का यथा योग्य पूजन करना, शुद्धि रखना, सरलता, ब्रह्मचर्य का पालन और हिंसा न करना; यह शरीर सम्बन्धी तप कहा जाता है।[श्रीमद्भ गवद्गीता 17.14]
Worship-honouring the demigods-deities, Brahmans-priests, Guru-teacher, relinquished-enlightened, sages-saints, maintenance of purity, simplicity, celibacy and non violence are means of asceticism pertaining to body.
देवगणों में प्रमुख भगवान् विष्णु, भगवान् शिव, गणेश जी, माँ शक्ति और भगवान् सूर्य; ईश्वर स्तर के व 12 आदित्य, 11 रुद्र, 8 वसु तथा 2 अश्वनी कुमार पूज्य देवता हैं। द्विज ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के लिये प्रयुक्त हुआ है, मगर पूजा केवल योग्य ब्राह्मणों की ही की जाती है। माता-पिता, आचार्य, राजा जनक जैसे प्राज्ञ-जीवन्मुक्त व्यक्ति सम्मान-आदर के योग्य हैं। 
शारीरिक, सामुदायिक, घर, वस्त्रों आदि की सफाई परमावश्यक है। व्यवहार में ऐंठ-अकड़, घमण्ड, कुटिलता, कड़वापन, कठोरता के स्थान पर सरलता प्रशंसनीय-आवश्यक है। ब्रह्मचर्य एक आवश्यक प्रक्रिया है, जो कि कम से कम 25 वर्ष की उम्र तक पूरी निष्ठा-लग्न से करनी चाहिये। उसके बाद भी मैथुन केवल संतानोतपत्ति के हेतु ही करना उचित है। ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और सन्यास के दौरान तो, वीर्यपात कतई नहीं होना चाहिये। यही नियम स्त्रियों पर भी लागु होते हैं; विशेषकर विधवाओं के लिये। धर्म में अनावश्यक हिंसा-बलि के लिये कोई स्थान नहीं है; मगर हमलावर, आतंकी, आतताई, दुष्ट, घुसपैंठिये, बलात्कारी, हत्यारा  आदि का प्रतिकार भी अत्यावश्यक है। शारीरिक तप में बड्डपन, आलस्य-प्रमाद के लिये कोई स्थान नहीं है। 
There are 5 demigods of the level of God for worship. In addition to them 12 Aditiy, 11 Rudr, 8 Vasu and 2 Ashwani Kumars are also there for the purpose of prayers-worship. Upper castes in Hindus constitutes of Brahman, Kshatriy and Vaeshy; but only learned, scholars, enlightened, deserving Brahmans should be worshipped-honoured; during holy sacrifices. Parents, teachers-Guru, detached-relinquished, saints-sages-recluse do deserve to be honoured during such an event. 
Cleanliness of the body, house, cloths, environment is essential at all occasions. Simplicity of behaviour, is a desirable character-quality. Unnecessary diplomacy, cruelty, anger, strictness, foul-abusive language, ego, anger, pride should be completely discarded. Celibacy till the age of 25 years during studies and Vanprasth & Sanyas is essential. Sperms should not be allowed to discharge by avoiding such encounters-chances. During Grahasth Ashram, family way-house hold, one must restraint himself from discharge-ejection of sperms. Intercourse only for the sake of progeny is advised. Over indulgence in sex is always counter productive-dangerous. However, the needs of the husband & wife should be met at regular intervals. These rules are applicable to widows as well. The religion has no place for violence, animal-human sacrifice, murder. However, the terrorists, murderer, intruders, rapists, brutal, barbarians, attackers must be repelled, punished, killed. The physical asceticism involves the discard of superiority, laziness, intoxication.
 
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Sunday, May 11, 2014

FORMS OF PRAYER पूजा-अर्चना की विधियाँ

 

FORMS OF PRAYER 
पूजा-अर्चना की विधियाँ
 CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
dharmvidya.wordpress.com hindutv.wordpress.com santoshhastrekhashastr.wordpress.com bhagwatkathamrat.wordpress.com jagatgurusantosh.wordpress.com 
santoshkipathshala.blogspot.com santoshsuvichar.blogspot.com santoshkathasagar.blogspot.com bhartiyshiksha.blogspot.com santoshhindukosh.blogspot.com
ॐ गं गणपतये नमः। 
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्। 
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
पूजा अर्चना :: ईश्वर से जुड़ने के लिए सबसे सरल माध्यम है पूजा। पूजा के लिए कर्मकांड आवश्यक नहीं है। भगवान् का नाम कभी भी, कहीं भी लिया जा सकता है। रामायण, महा भारत, गीता, पुराण, उपनिषद का पढ़ना भी पूजा है। भगवान् की कथा-चरित्र को सुनना भी पूजा ही है। मन्दिर में जाना जरूरी नहीं है। इसके लिये धन की आवश्यकता भी नहीं है-नहाने-धोने-शुद्धि की भी आवश्यकता नहीं है। पूजा से मनुष्य में मन पर काबु, अनुशासन, परिश्रम, धर्य और दूरदर्शिता जैसे गुणों का विकास हो जाता है।सूर्य को अर्ध्य दिया जाना, तुलसी को प्रतिदिन जल चढ़ाना, गाय को गोग्रास देना, माता-पिता, वृद्धजन तथा दिवंगत पितृजनों को प्रतिदिन प्रणाम करना, मन्दिर में जाने का नाम पूजा नहीं बल्कि एक नियम-क्रम है। सच्चे-सरल शुद्ध ह्रदय से नाम लेना-स्मरण करना ही पर्याप्त है।  हाँ यदि धन है, समय है, नियत है तो कर्मकाण्ड-विधि, का पालन अवश्य करिये। पूजा-पाठ के लिये दुःख-दर्द, परेशानी आने का इन्तज़ार करना जरूरी नहीं है। तीर्थ यात्रा, पवित्र नदियों, सरोवरों में स्नान भी पूजा है।  अगर मन सच्चा है तो पूजा फल अवश्य देगी। निस्वार्थ पूजा, भक्ति भाव का महत्व तो बहुत ही ज्यादा है। मनुष्य किसी भी वर्ण, कुल-गोत्र, क्षेत्र, देश, लोक में जन्म हो सच्चे मन से पूजा अवश्य करे। 
अग्नि में आहुति-हवन-भोग आदि के कर्म में यज्ञ भी मात्र पाँच तरह के होते हैं:- (1). ब्रह्मयज्ञ, (2). देवयज्ञ, (3). पितृयज्ञ, (4). वैश्वदेव यज्ञ, (5). अतिथि यज्ञ। इनकी प्रकृति का निर्धारण आवश्यकताओं के अनुरूप है। 
12 FORMS OF YAGY 12 प्रकार के यज्ञ :: निस्वार्थ भाव से दूसरों के हित-भले के लिए किये गए कर्तव्य-कर्म करने का नाम ही यज्ञ है। यज्ञ से सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं। मनुष्य बन्धन मुक्त हो जाता है। 
(1). ब्रह्म यज्ञ :: प्रत्येक कर्म में कर्ता, करण, क्रिया, पदार्थ आदि सब को ब्रह्म रूप से अनुभव करना। 
(2). भगवदर्पण रूप यज्ञ :: सम्पूर्ण क्रियाओं और पदार्थों को केवल भगवान् का और भगवान् के लिए ही मानना। 
(3). अभिन्नता रूप यज्ञ :: असत् से सर्वथा विमुख होकर परमात्मा में विलीन हो जाना। परमात्मा से अलग अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना। 
(4). संयम रूप यज्ञ :: एकान्तकाल में अपनी इन्द्रियों को विषयों से मुक्त रखना-प्रवृत न होने देना। 
(5). विषय हवन रूप यज्ञ :: व्यवहार काल में इन्द्रियों से संयोग होने पर भी उनमें राग द्वेष पैदा न होने देना। 
(6). समाधिरूप यज्ञ ::मन बुद्धि सहित सम्पूर्ण इन्द्रियों और प्राणों की क्रियाओं को रोककर ज्ञान से प्रकाशित समाधि में स्थित हो जाना। 
(7). द्रव्य यज्ञ :: सम्पूर्ण पदार्थों को निःस्वार्थ भाव से दूसरों की सेवा में लगा देना। 
(8). तपो यज्ञ :: अपने कर्तव्य के पालन में आने वाली कठिनाइयों को प्रसन्नता पूर्वक सह लेना। 
(9). योग यज्ञ-कार्य की सिद्धि :: असिद्धि में तथा फल की प्राप्ति-अप्राप्ति में सम रहना। 
(10). स्वाध्याय रूप ज्ञान यज्ञ :: दूसरों के हित के लिए सत्-शास्त्रों का पठन-पाठन, नाम-जप आदि करना। 
(11). प्राणायम रूप यज्ञ :: पूरक, कुम्भक और रेचक पूर्वक प्रणायाम करना। 
(12). स्तम्भ वृत्ति प्राणायाम रूप यज्ञ :: नियमित आहार करते हुए प्राण और अपान को अपने-अपने स्थानों पर रोक देना। 
मनुष्य की समस्त क्रियाएँ यज्ञ रूप ही होनी चाहिए अर्थात स्वयं के लिए कुछ भी नहीं करना। जब मनुष्य केवल दूसरों के हित के लिए सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्म करता है तो परिणति कर्तव्य कर्म रूप यज्ञ में स्वतः हो जाती है। 
होम, यज्ञ या हवन आदि में यज्ञ कुण्ड की आकृति :: यज्ञ-अग्निहोत्र, हवन के लिए अग्नि कुण्ड-यज्ञ कुण्ड की आवश्यकता पड़ती है। यज्ञ विधि के अनुरूप ही यज्ञ कुण्ड का निर्माण किया जाता है। यज्ञ के प्रयोजन के अनुरूप मुख्यत: आठ प्रकार के यज्ञ कुण्ड प्रयोग में लए जाते हैं। 
(1). योनी कुण्ड  :- योग्य पुत्र प्राप्ति हेतु। 
(2). अर्ध चंद्राकार कुण्ड :- परिवार में सुख-शान्ति हेतु। पति-पत्नी दोनों को एक साथ आहुति देनी चाहिये। 
(3. त्रिकोण कुण्ड  :- शत्रुओं पर पूर्ण विजय हेतु। 
(4). वृत्त कुण्ड  :- जन कल्याण और देश में शान्ति  हेतु। 
(5). सम अष्टास्त्र कुण्ड :- रोग निवारण हेतु। 
(6). सम षडास्त्र कुण्ड :- शत्रुओं में परस्पर लड़ाई-झगड़े करवाने हेतु। 
(7). चतुष् कोण स्त्र कुण्ड :- सर्व कार्य की सिद्धि हेतु। 
(8). पदम कुण्ड :- तीव्रतम प्रयोग और मारण प्रयोगों से बचने हेतु। 
सामान्य पूजा-पाठ, यज्ञ-हवन के लिए चतुर्वर्ग के आकार के कुण्ड का ही प्रयोग करना चाहिये। 
मन्दिर-देव प्रतिमा और ध्यान साधना :: मूर्ति और मन्दिर भगवान् के प्रतीक हैं। ईश्वर सर्वव्यापी है और इस प्रकार मूर्ति में भी है। यह मनुष्य को ध्यान लगाने में मदद करते हैं। मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा-आराधना मनुष्य को शक्ति से जोड़ देती है। मन्दिर का निर्माण पूर्णतया वास्तु शास्त्र के अनुरूप हो तो वह परमात्मा के शरीर का प्रतीक बन जाता है। गर्भ गृह-सर, गोपुरा-मुख्य द्वार चरण, शुकनासी-नाक, अंतराला-निकलने की जगह गर्दन, प्राकर-ऊँची दीवारें, इन्हें शरीर के हाथ और ह्रदय या दिल में ईश्वर की मूर्ति के समान समझना चाहिये। इसी प्रकार मानव शरीर भी ईश्वर का प्रतिरूप ही है। 
NAMING STATUES-IDOLS :: They are broadly classified into five categories :- Swayam-Vyakt, Dev, Arsh or Siddh, Pauranik and Manush. The difference is based on who installed the deity in a given temple. The images installed by divinities like Brahm, Indr etc. are known as Devsthal. Images installed by great sages are known as Arshsthal and by Siddh are known as Siddhsthal. Images installed in the ancient days and are mentioned in the epics are known as Pauraniksthal. Images installed by the devout human beings are known as Manushsthal. 
OFFERINGS OF A TEMPLE मन्दिर का चढ़ावा :: भक्त और भगवान् के बीच की कड़ी मन्दिर, धर्म स्थल, तीर्थ स्थल हैं। भारत में करोणों की तादाद में श्रद्धालुगण अपनी भक्ति भावना का इज़हार प्रतिदिन नियमानुसार करते हैं। इसके लिए उन्हें मन्दिर मिले या ना मिले, वो अपनी श्रद्धा के सुमन-फूल, मन, वचन-क्रम, श्रद्धा, कर्म-कर्तव्य, सेवा के माध्यम से प्रभु को अर्पित कर ही देते हैं। अक्सर लोग मन्दिरों में धन, सोना-चाँदी, जेवर, कीमती बहुमूल्य वस्तुएँ चढ़ा कर अपनी आरजू पूरी करने की अरदास करते हैं। कुछ लोग फल-फूल, मेवा-मिठाई अर्पित करते हैं। भारत में ऐसे हजारों मन्दिर हैं, जहाँ दैनिक चढ़ावा करोणों में चढ़ता है। 
इस चढ़ावे की बन्दर बाँट, ट्रस्टी, पुजारियों, कर्मचारियों में हो जाती है। अक्सर झगड़ा होने पर हत्या, मुकदमे होते रहते हैं। मन्दिरों में चढ़ावे की बन्दर बाँट तिमाही, छमाही, चौथाई, माहवारी, देहाड़ी आदि आधारों पर होती आई है। 
अपनी मनोकामना पूरी करवाने को लोग-बाग जो चढ़ावा चढ़ाते हैं, वो हारी-बीमारी, दुःख-दर्द, परेशानी-कष्ट, भूत-प्रेत से मुक्ति, सन्तान प्राप्ति, नौकरी, आकाँक्षा-इच्छा पूर्ति हेतु ही ज्यादातर होती हैं। मुक्ति-मोक्ष, धर्म की चाहत वाले भी उनमें शामिल होते हैं। 
जो चढ़ावा धर्म-ईमान की कमाई का होता है, वही सार्थक होता है, शेष व्यर्थ। 
चढ़ावे की कमाई खाने वालों के वारिसों को तरक्की करते शायद ही कभी देखा जाता है। बगैर कमाए खाना अवनति, निम्न लोकों में जाने का रास्ता है। शास्त्रों में वेतन लेकर पूजा करने वाले को अगले जन्म में चाण्डाल, हीन-निम्न योनियों में जाने वाला बताया जाता है। 
उन यवन, मुसलमान, अँग्रेजों का वंश नाश हो गया, जो कि मन्दिरों में लूट-पाट के जिम्मेवार थे। उनका राजपाठ, ठाठ-बाट, दौलत-धन-शौहरत सब नष्ट हो गया। अहमद शाह अब्दाली, मोहम्मद गौरी, एलेक्सजेण्डर-सिकंदर (Alexander) आदि आदि सभी नर्कगामी हुए। बाबर, औरंगज़ेब भी उसी गति को प्राप्त हुए। 
जो ब्राह्मण दान में प्राप्त हुए धन का सदुपयोग अपने और दूसरों की भलाई, हित रक्षा-चिन्तन में करता है, उसका और उसके कुल का नाश कभी होता। अपितु वह निरन्तर फलता-फूलता रहता है। सामर्थवान को कभी भी अनुग्रह, दान, बख्शीश नहीं लेनी चाहिये। 
प्रसाद को कभी भी अकेले, बिना बाँटे नहीं खाना चाहिए। प्रसाद चावल के दाने के बराबर भी पर्याप्त होता है। प्रसाद देने में कभी हाथ नहीं रोकना चाहिए। प्रसाद देने में भेद-भाव, अन्तर-फ़र्क नहीं होना चाहिए। 
दीन-दुःखी, गरीब-बीमार, बेआसरा, साधु, महात्मा, फकीर, ब्राह्मण, ज़रूरतमन्द को देने में कभी संकोच नहीं करना चाहिए। 
घर आये मेहमान की समुचित खातिरदारी निसंकोच करनी चाहिए। अतिथि सत्कार में कोई कोर-कसर बाकि नहीं रहनी चाहिए। हाँ पात्र-कुपात्र का ध्यान रखना जरूरी है। 
कलियुग के आगमन के साथ भारतवासियों ने स्वाध्याय को लगभग छोड़ दिया। धर्म की बेतुकी व्याख्याएँ की जाने लगीं। बौद्ध अवतार के बाद तो हद ही गई। ऐरा-गेरा, नत्थू-खैरा भी स्वयं को विद्वान् बताने लगा। वेदाभ्यासी ब्राह्मणों की उपेक्षा-बेकद्री हो गई। नतीज़तन-जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें आक्रान्ता-आक्रमणकारी-लुटेरे भी अतिथि दिखने लगे और भारत वर्ष को 800 तक आधीनता का सामना करना पड़ा। अभी भी विधर्मी मुसलमान और ईसाई स्वयं को पण्डित कहकर राज कर रहे हैं। 
केरल, कर्नाटक जैसे प्रान्तों की विधर्मी सरकारों ने मन्दिरों के चढ़ावे को लूटकर मुसलमानों और ईसाइयों पर खर्च करना शुरू कर दिया। 
5 FORMS OF PRAYER 5 प्रकार की पूजा ::
(1). अभिगमन :: देवता के स्थान को झाड़ बुहार के साफ रखना, उसे लीपना, रंग-रोगन, सफेदी करना, पहले चढ़े निर्माल्य को हटाना। यह सार्ष्टि नामक मुक्ति प्रदान करता है। 
(2). उपादान :: पूजा के लिए चन्दन, गंध, पुष्प आदि पूजा-सामग्री का संग्रह का नाम उपादान है। यह सामीप्य नामक मुक्ति प्रदान करता है। 
(3). योग :: अपने इष्टदेव के साथ अपनी आत्मभावना करना कि वे मुझ से भिन्न नहीं हैं; वे मेरी ही आत्मा हैं। यह सालोक्य नामक मुक्ति प्रदान करता है।
(4). स्वाध्याय :: इष्टदेव के मंत्र का अर्थानुसन्धान पूर्वक जप करना। सूक्त और स्त्रोत्र, वेदान्त शास्त्र आदि का पाठ, गुण, नाम, लीला, भगवान् का कीर्तन तथा भगवत्त तत्व आदि का प्रतिपादन करने वाले शास्त्रों का अभ्यास भी स्वाध्याय कहलाता है। यह सायुज्य नामक मुक्ति प्रदान करता है।
(5). इज्या :: उपचारों द्वारा अपने आराध्य देव का यथार्थ विधि से पूजा करना। यह सारूप्य नामक मुक्ति प्रदान करता है।
भगवान् सदाशिव की पूजा-उपासना में एक रहस्य की बात है यह कि जहाँ एक ओर रत्नों से परिनिर्मित लिंगों की पूजा में अपार समारोह के साथ राजोपचार आदि विधियों से विशाल वैभव का प्रयोग होता है, वहीं सरलता की दृष्टि से, केवल जल, अक्षत, बिल्वपत्र ओर मिखावाद्य (मुख से बम-बम की ध्वनी) से भी परिपूर्णता मानी जाती है और भगवान् सदाशिव की कृपा उपलब्ध हो जाती है। इसीलिये वे आशुतोष और उदार शिरोमणि कहे हैं।
FIVE WAYS-METHODS-PROCEDURES TO OFFER PRAYER :: Naman, Smaran, Keertan, Yachna (याचना)  and Arpan (अर्पण, समर्पण). The five faces of Hanuman Ji Maha Raj depict these five forms. Shri Hanuman always used to Naman, Smaran and Keertan of Bhagwan Shri Ram. He surrendered (Arpan, Samarpan) to his Master Shri Ram. He also begged (Yachna) Shri Ram to bless him the undivided love.
Prayer  to the deities, God, saints or the holy places-temples can be performed in five different ways. One can clean, sweep, broom the holy place-shrine, statues and change the deity's clothing. Offering of sandal wood paste, Kum-Kum and other items utilized for prayers, do include prayer. Thinking-identifying of the deities-Almighty considering him to be none other than one self, is also a pure form of prayer. Recitation of verses, prayers is a virtuous-pious-righteous form of worship. Performing various acts like sacrifices, Hawan, Agnihotr-igniting essence sticks-dhoop-visiting holy places-pilgrimage-bathing in holy rivers ponds-sacred ocean, offerings made for the sake of the poor-down trodden, pity on all living beings, donation for social cause, too is a part and partial of prayers. Any of these performed with purity of heart-dedication-concentration under the asylum of the God grants Salvation.
पंचकोशी साधना ::
गायत्री के पाँच मुख-पाँच दिव्य कोश :: अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश, आनन्दमय कोश। पंचकोशी साधना ध्यान गायत्री की उच्च स्तरीय साधना है। पंचमुखी गायत्री प्रतिमा में पाँच मुख मानवीय चेतना के पाँच आवरण हैं। इनके उतरते चलने पर आत्मा का असली रूप प्रकट होता है। इन्हें पाँच कोश या पाँच खजाने भी कह सकते हैं। मनुष्य की अन्तःचेतना में एक से एक बढ़ी-चढ़ी विभूतियाँ प्रसुप्त अविज्ञात स्थिति में छिपी पड़ी हैं। इनके जागने पर मानवीय सत्ता देवोपम स्तर पर पहुँच जाती है और जगमगाती हुई दृष्टिगोचर होती है।
पंचकोश ध्यान धारणा के निर्देश में पाँच प्राण तत्त्व ::
पाँच प्राण :: चेतना में विभिन्न प्रकार की उमंगें उत्पन्न करने का कार्य प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान नामक पञ्च पर्ण करते हैं। 
पाँच तत्त्व :: अग्नि, जल, वायु , आकाश और पृथ्वी यह पाँच तत्त्व काया, दृश्यमान पदार्थों और अदृश्य प्रवाहों का संचालन करते हैं। समर्थ चेतना इन्हें प्रभावित करती है।
पाँच देव :: भवानी, गणेश, ब्रह्मा, विष्णु, महेश इन्हें क्रमशः बलिष्ठता, बुद्धिमता, उपार्जन शक्ति, अभिवर्धन, पराक्रम एवं परिवर्तन की प्रखरता कह सकते हैं। यही पाँच शक्तियाँ आत्मसत्ता में भी विद्यमान हैं और इस छोटे ब्रह्माण्ड को सुखी समुन्नत बनाने का उत्तरदायित्व सम्भालती हैं।
आत्म सत्ता के पाँच कलेवरों के रूप में पंचकोश को बहुत अधिक महत्त्व दिया जाता है।
(1). अन्नमय कोश :: प्रत्यक्ष शरीर, जीवन शरीर। अन्नमयकोश ऐसे पदार्थों का बना है जो आँखों से देखा और हाथों से छुआ जा सकता है। अन्नमयकोश के दो भाग किये जा सकते हैं। एक प्रत्यक्ष अर्थात् स्थूल, दूसरा परोक्ष अर्थात् सूक्ष्म, दोनों को मिलाकर ही एक पूर्ण काया बनती है।
पंचकोश की ध्यान धारणा में जिस अन्नमयकोश का ऊहापोह किया गया है, वह सूक्ष्म है, उसे जीवन शरीर कहना अधिक उपयुक्त होगा। अध्यात्म शास्त्र में इसी जीवन शरीर को प्रधान माना गया है और अन्नमयकोश के नाम से इसी की चर्चा की गई है।
योगी लोगों का आहार-विहार बहुत बार ऐसा देखा जाता है जिसे शरीर शास्त्र की दृष्टि से हानिकारक कहा जा सकता है फिर भी वे निरोगी और दीर्घजीवी देखे जाते हैं, इसका कारण उनके जीवन शरीर का परिपुष्ट होना ही है। अन्नमय कोश की साधना जीवन शरीर को जाग्रत्, परिपुष्ट, प्रखर एवं परिष्कृत रखने की विधि व्यवस्था है।
जीवन-शरीर का मध्य केन्द्र नाभि है। जीवन शरीर को जीवित रखने वाली ऊष्मा और रक्त की गर्मी जो सच्चार का कारण है और रोगों से लड़ती है, उत्साह स्फूर्ति प्रदान करती है, यही ओजस् है।
ध्यान धारणा :: ध्यान धारणा में श्रद्धा और सङ्कल्प के साथ साधक ऐसी भावना-कल्पना करे कि साक्षात् सविता देव-भगवान् सूर्य नाभि चक्र में अग्नि के माध्यम से सारे शरीर में प्रवेश कर रहे हैं। जीवन शरीर में ओजस् का उभार और व्यक्तित्व में नव जीवन का सच्चार हो रहा है। पहले की अपेक्षा सक्रियता बढ़ गई है, उदासी दूर हुई है और उत्साह एवं स्फूर्त में उभार आया है।
(2). प्राणमय कोश :: जीवनी शक्ति। जीवित मनुष्य में आँका जाने वाला विद्युत् प्रवाह, तेजोवलय एवं शरीर के अन्दर एवं बाह्य क्षेत्र में फैली हुई जैव विद्युत् की परिधि को प्राणमय कोश कहते हैं। शारीरिक स्फूर्ति और मानसिक उत्साह की विशेषता प्राण विद्युत् के स्तर और अनुपात पर निर्भर रहती है।
चेहरे पर चमक, आँखों में तेज, मन में उमंग, स्वभाव में साहस एवं प्रवृत्तियों में पराक्रम इसी विद्युत्प्रवाह का उपयुक्त मात्रा में होना है। इसे ही प्रतिभा अथवा तेजस् कहते हैं। शरीर के इर्दगिर्द फैला हुआविद्युत् प्रकाश तेजोवलय कहलाता है। यही प्राण विश्वप्राण के रूप में समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। इसे पात्रता के अनुरूप जितना अभीष्ट है, प्राप्त कर सकते हैं।
ध्यान धारणा :: सविता शक्ति मूलाधार चक्र के माध्यम से प्राणमय कोश में प्रवेश और संव्याप्त हो रही है। सविता की विद्युत् शक्ति काया में संव्याप्त बिजली के साथ मिलकर उसकी क्षमता असंख्य गुना बढ़ा देती है। साधक ध्यान करे कि उसके कण-कण में, नस-नस में, रोम-रोम में सविता से अवतरित विशिष्ट शक्ति का प्रवाह गतिशील हो रहा है। आत्मसत्ता प्राण विद्युत् से ओत-प्रोत एवं आलोकित हो रही है। यह दिव्य विद्युत् प्रतिभा बनकर व्यक्तित्व को प्रभावशाली बना रही है, पराक्रम और साहस का जागरण हो रहा है।
(3). मनोमय कोश :: विचार बुद्धि, विवेकशीलता। मनोमय कोश पूरी विचारसत्ता का क्षेत्र है। इसमें चेतन, अचेतन एवं उच्च चेतन की तीनों ही परतों का समावेश है। इसमें मन, बुद्धि और चित्त तीनों का संगम है।
मन कल्पना करता है। बुद्धि विवेचना करती और निर्णय पर पहुँचाती है। चित्त में अभ्यास के आधार पर वे आदतें बनती हैं, जिन्हें संस्कार भी कहा जाता है। इन तीनों का मिला हुआ स्वरूप मनोमय कोश है।
मनोमय कोश का प्रवेश द्वार आज्ञाचक्र (भू्र मध्य) है। आज्ञाचक्र जिसे तृतीय नेत्र अथवा दूरदर्शिता कह सकते हैं, इसका जागरण एवं उन्मीलन करना मनोमय कोश की ध्यान धारणा का उद्देश्य है। आज्ञाचक्र की संगति शरीर शास्त्री पिट्यूटरी एवं पीनियल ग्रन्थियों के साथ करते हैं।
ध्यान धारणा :: व्यक्ति को चेतना में उच्चस्तरीय प्रखरता उत्पन्न करने के लिए बह्मचेतना के समावेश की आवश्यकता पड़ती है। ब्रह्मसत्ता की उसी की विनिर्मित प्रतीक-प्रतिमा सूर्य है। उसकी सचेतन स्थिति सविता है, भावना करें कि सविता का प्रकाश आज्ञाचक्र, मस्तिष्क क्षेत्र से सम्पूर्ण शरीर मेंव्याप्त,मनोमय कोश में फैल रहा है।
आत्मसत्ता का समूचा चिन्तन, क्षेत्र, मनोमय कोश सविता की ज्योति एवं ऊर्जा से भर गया है। आत्मसत्ता की स्थिति ज्योति पुञ्ज एवं ज्योति पिण्ड बनने जैसी हो रही है। दृश्य में ज्योति का स्वरूप भावानुभूति में प्रज्ञा बन जाता है।
सविता के मनोमय कोश में प्रवेश करने का अर्थ है, चेतना का प्रज्ञावान् बनना, ऋतम्भरा से-भूमा से आलोकित एवं ओतप्रोत होना। इस स्थिति को विवेक एवं सन्तुलन का जागरण भी कह सकते हैं।
इन्हीं भावनाओं को मान्यता रूप में परिणत करना, श्रद्धा, निष्ठा एवं आस्था की तरह अन्य क्षेत्र में प्रतिष्ठापित करना, यही है सविता शक्ति का मनोमय कोश में अवतरण। भावना करें कि प्रज्ञा-विवेक, सन्तुलन की चमक मस्तिष्क के हर कण में प्रविष्ट हो रही है, संकल्पों में दृढ़ता आ रही है।
(4). विज्ञानमय कोश :: भाव प्रवाह। विज्ञानमय कोश चेतन की तरह है जिसे अतीन्द्रिय- क्षमता एवं भाव संवेदना के रूप में जाना जाता है। विज्ञानमय और आनन्दमय कोश का सम्बन्ध सूक्ष्म जगत् से ब्रह्मचेतना से है।
सहानुभूति की संवेदना, सहृदयता और सज्जनता का सम्बन्ध हृदय से है। यही हृदय एवं भाव संस्थान अध्यात्म शास्त्र में विज्ञानमय कोश कहलाता है। परिष्कृत हृदय- चक्र में उत्पन्न चुम्बकत्व ही दैवी तत्त्वों को सूक्ष्म जगत् से आकर्षित करता और आत्मसत्ता में भर लेने की प्रक्रियाएँ सम्पन्न करता है।
श्रद्धा जितनी परिपक्व होगी-दिव्य लोक से अनुपम वरदान खिंचते चले आएँगे। अतीन्द्रिय क्षमता, दिव्य दृष्टि, सूक्ष्म जगत् से अपने प्रभाव-पराक्रम पुरुषार्थ द्वारा अवतरित होता है।
ध्यान धारणा :: विज्ञानमय कोश में सविता प्रकाश का प्रवेश दीप्ति के रूप में माना गया है। दीप्ति प्रकाश की वह दिव्य धारा है, जिसमें प्रेरणा एवं आगे बढ़ने की शक्ति भी भरी रहती है, ऐसी क्षमता को वर्चस् कहते हैं। यह प्रेरणा से ऊँची चीज है।
प्रेरणा से दिशा प्रोत्साहन देने जैसा भाव टपकता है, किन्तु वर्चस् में वह चमक है जो धकेलने, घसीटने, फेंकने, उछालने की भी सामर्थ्य रखती है। नस-नस में रोम-रोम में दीप्ति का सच्चार, दीप्ति का प्रभाव, दिव्य भाव संवेदनाओं और अतीन्द्रिय ज्ञान के रूप में होता है।
दीप्ति की प्रेरणा से सद्भावनाओं का अभिवर्धन होता है और सहृदयता जैसी सत्प्रवृत्तियाँ उभर कर आती हैं, ऐसी आस्था अन्तःकरण में सुदृढ़ अवस्था में होनी चाहिए। स्वयं को असीम सत्ता में व्याप्त फैला हुआ अनुभव करें। सहृदयता, श्रद्धा, दिव्य ज्ञान का विकास और स्नेह करुणा जैसी संवेदनाओं से रोमांच का शरीर में बोध हो रहा है।
(5). आनन्दमय कोश :: आनन्दमय कोश चेतना का वह स्तर है, जिनमें उसे अपने वास्तविक स्वरूप की अनुभूति होती रहती है। आत्मबोध के दो पक्ष हैं :- (5.1). अपनी ब्राह्मी चेतना, बह्म सत्ता का भान होने से आत्मसत्ता में संव्याप्त परमात्मा का दर्शन होता है। (5.2). संसार के प्राणियों और पदार्थों के साथ अपने वास्तविक सम्बन्धों का तत्त्वज्ञान भी हो जाता है। इस कोश के परिष्कृत होने पर एक आनन्द भरी मस्ती छाई रहती है।
ईश्वर इच्छा मानकर प्रखर कर्त्तव्य परायण; किन्तु नितान्त वैरागी की तरह काम करते हैं। स्थितप्रज्ञ की स्थिति आ जाती है। आनन्दमय कोश की ध्यान धारणा से व्यक्तित्व में ऐसे परिवर्तन आरम्भ होते हैं, जिसके सहारे क्रमिक गति से बढ़ते हुए धरती पर रहने वाले देवता के रूप में आदर्श जीवनयापन कर सकने का सौभाग्य मिलता है।
ध्यान धारणा :: धारणा में सविता का सहस्रार मार्ग से प्रवेश करके समस्त कोश सत्ता पर छा जाने, ओत-प्रोत होने का ध्यान किया जाता है। यदि सङ्कल्प में श्रद्धा, विश्वास की प्रखरता हो, तो सहस्रार का चुम्बकत्व सविता शक्ति को प्रचुर परिमाण में आकर्षित करने और धारण करने में सफल हो जाता है।
इसकी अनुभूति कान्ति रूप में होती है। कान्ति सामान्यतः सौन्दर्य मिश्रित प्रकाश को कहते हैं और किसी आकर्षक एवं प्रभावशाली चेहरे को कान्तिवान् कहते हैं, पर यहाँ शरीर की नहीं आत्मा की कान्ति का प्रसङ्ग है।
इसलिए वह तृप्ति, तुष्टि एवं शान्ति के रूप में देखी जाती है। तृप्ति अर्थात् सन्तोष। तुष्टि अर्थात् प्रसन्नता। शान्ति अर्थात् उद्वेग रहित, सुस्थिर मनःस्थिति। यह तीनों वरदान, तीनों शरीरों में काम करने वाली चेतना के सुसंस्कृत उत्कृष्ट चिन्तन का परिचय देते हैं। स्थूल शरीर सन्तुष्ट, तृप्त। सूक्ष्म शरीर प्रसन्न, तुष्ट।
कारण शरीर शान्त समाहित, स्थिति में सहज मुसकान बनी रहती है, हलकी-सी मस्ती छायी रहती है।
सविता शक्ति के पंचकोश में प्रवेश करने और छा जाने की अनुभूति ऐसी गहरी और भावमय होनी चाहिए, जैसे प्रसन्नता की स्थिति में मन उल्लास से उभरता है या धूप में बैठने से शरीर गर्म होता है।  
इच्छा पूर्ति हेतु देवराधना ::
ब्रह्म तेज़ या विशिष्ट ज्ञान-विद्या हेतु :: वृहस्पति 
इन्द्रियों की सन्तुष्टि-विशिष्ट शक्ति ::
 इन्द्र

अगले जन्म में संतान सुख :: प्रजापतियों का स्मरण 
सुन्दर और आकृषक शरीर :: अग्नि-गन्दर्भ 
अन्न संग्रह :: देव माता अदिति 
वीरता :: रुद्रगण। 
धन-लक्ष्मी :: माया (माँ लक्ष्मी)। 
स्वर्ग :: देवमाता अदिति।  
राज्य, सत्ता :: विश्व देव।  
सुंदरता :: गन्दर्भ।  
पति-पत्नी में सामंजस्य-प्रेम-सौहार्द, गृहस्थ सुख :: 
माँ गौरी-पार्वती, शिव परिवार (भगवान् शिव, माँ पार्वती, गणपति, कुमार भगवान् कार्तिकेय और नंदी महाराज)
।  
विद्या :: भगवान् शिव माँ, सरस्वती। 
वंश वृद्धि :: पितृगण।  
भोग :: चन्द्र, कामदेव, ब्रह्मा जी।  
मोक्ष :: भगवान्  श्री हरी विष्णु।  
कष्ट निवारण :: गणपति श्री गणेश। 
रोग निवारण :: 
अश्वनी कुमार, भगवान् धन्वंतरि, महामृत्युंजयी महा काल भगवान् शिव। 
   
SYMBOLISM OF BHAGWAN SHIV भगवान् शिव के प्रतीक :: 
THREE POWERS :: Knowledge-enlightenment, Desire, Implementation.
DRUM :: Represents Ved,  Scriptures, The  Ultimate  Guru.
SERPENTS :: Ego, Pride.
FACE :: Maa Ganga (गँगा) Flowing Over Spiritual Wisdom, Learning, Enlightenment. 
MOON :: Master of time-Kal &  & Immortal HIMSELF. 
THIRD EYE :: Destroyer Of Evil, Ignorance, Vision. 
RUDRAKSH :: Purity, Rosary in Right hand-concentration. 
TIGER SKIN :: Fearlessness.
Prayer to the deities, God, saints or the holy places-temples can be performed in five different ways. One can clean, sweep, broom the holy place-shrine, statues and change the deity's clothing. Offering of sandal wood paste, Kum-Kum and other items utilised for prayers, do include prayer. Thinking-identifying of the deities-Almighty considering HIM to be none other than oneself, is also a pure form of prayer. Recitation of verses, prayers is a virtuous, pious, righteous form of worship. Performing various acts like sacrifices, Hawan, Agnihotr, igniting essence sticks, dhoop, visiting holy places-shrines, pilgrimage,bathing in holy rivers ponds-sacred ocean, offerings made for the sake of the poor-down trodden, pity on all living beings, donation for social cause, too is a part and partial of prayers. Any of these performed with purity of heart, dedication, concentration under the asylum of the God grants Salvation is prayer. 
SHIV LING ABHISHEK ::
MILK :: Blessings, purity.
YOGURT :: Prosperity. 
HONEY :: Sweet, soothing words, speech.  
GHEE :: Victory. 
SUGAR :: Happiness. 
WATER :: PURITY. 
राहु केतु आवरण पूजा ::
ॐ राहवे नमः। ॐ केतवे नमः। ॐ भौमाय नमः। ॐ बुधाय नमः। ॐ गुरवे नमः। ॐ शुक्राय नमः। ॐ शनैश्चराय नमः। ॐ वरुणसुतेभ्योनमः। 
ॐ सूर्यसुतेभ्यो नमः। ॐ अग्निपुत्रेभ्यो नमः। ॐ कुबेरपुत्रेभ्यो नमः। 
ॐ वायुपुत्रेभ्यो नमः। ॐ कटुरसाय नमः। ॐ आम्लरसाय नमः। 
ॐ क्षाररसाय नमः। ॐ कषायरसाय नमः। ॐ स्वादुरसाय नमः। 
ॐ षष्ठिसहस्रमन्दे हारुणी राक्षसेभ्यो नमः। ॐ मेषादिद्वादशराशिभ्यो नमः। 
ॐ अश्विन्यादिसप्तविंशतिनक्षत्रेभ्यो नमः। 
ॐ विष्कुम्भादिसप्तविंशतियोगेभ्यो नमः। ॐ बबादि करणेभ्यो नमः। 
ॐ सप्तद्वीपेभ्यो नमः। ॐ ऋग्वेदादिचतुर्वेदेभ्यो नमः। 
ॐ भूरादिसप्तलोकेभ्यो नमः। ॐ सप्तसागरेभ्यो नमः। ॐ ध्रुवाय नमः। 
ॐ सप्तर्षिभ्यो नमः। ॐ एकोनपञ्चाशन्मरुद्भ्यो नमः। ॐ षडृतुभ्यो नमः। 
ॐ द्वादशमासेभ्यो नमः। ॐ द्वयनाभ्यां नमः। ॐ पञ्चदशतिथिभ्यो नमः। 
ॐ षष्ठिसंवत्सरेभ्यो नमः। ॐ सुपर्णेभ्यो नमः। ॐ नागेभ्यो नमः। 
ॐ यक्षेभ्यो नमः।ॐ गन्धर्वेभ्यो नमः। ॐ विद्याधरेभ्यो नमः। 
ॐ अप्सरेभ्यो नमः। ॐ अक्षोभ्यो नमः।ॐ ब्रह्मणे नमः।ॐ विष्णवे नमः।
ॐ रुद्राय नमः। ॐ सत्वाय नमः।ॐ रजसे नमः। ॐ तमसे नमः। 
ॐ इन्द्रादिदशदिक्पालेभ्यो नमः। ॐ वज्राय नमः। ॐ शक्तये नमः। 
ॐ दण्डाय नमः। ॐ खड्गाय नमः। ॐ पाशाय नमः।
ॐ अङ्कुशाय नमः। ॐ गदायै नमः। ॐ त्रिशूलाय नमः। ॐ पद्माय नमः। 
ॐ चक्राय नमः। ॐ ऐरावताय नमः। ॐ पुण्डरीकाय नमः। 
ॐ वामनाय नमः।ॐ कुमुदाय नमः। ॐ अञ्जनाय नमः। ॐ पुष्पदन्ताय नमः। ॐ सार्वभौमाय नमः। ॐ दामिन्यै नमः। ॐ छायायै नमः। 
ॐ अभीष्टसिद्धिं मे देही। ॐ समस्तावरणार्चनदेवेभ्यो नमः। 
ॐ राहुकेतुभ्यां नमः। 
इस को जपने से महानता प्राप्त होती है और साधक के घर में आठों सिद्धियाँ वर्तमान रहती हैं। यह जप मच्छ शंकराचार्य विरचित है। 
पूजा अर्चना :: ईश्वर से जुड़ने के लिए सबसे सरल माध्यम है पूजा। पूजा के लिए कर्मकाण्ड आवश्यक नहीं है। भगवान् का नाम कभी भी, कहीं भी लिया जा सकता है। रामायण, महा भारत, गीता, पुराण, उपनिषद का पढ़ना भी पूजा है। भगवान् की कथा-चरित्र को सुनना भी पूजा ही है। मन्दिर में जाना जरूरी नहीं है। इसके लिये धन की आवश्यकता भी नहीं है, नहाने-धोने, शुद्धि की भी आवश्यकता नहीं है। पूजा से मनुष्य में मन पर काबू, अनुशासन, परिश्रम, धर्य और दूरदर्शिता जैसे गुणों का विकास हो जाता है। सूर्य को अर्ध्य दिया जाना, तुलसी को प्रतिदिन जल चढ़ाना, गाय को गोग्रास देना, माता-पिता, वृद्धजन तथा दिवंगत पितृजनों को प्रतिदिन प्रणाम करना, मन्दिर में जाने का नाम पूजा नहीं बल्कि एक नियम-क्रम है। सच्चे-सरल शुद्ध ह्रदय से नाम लेना-स्मरण करना ही पर्याप्त है। हाँ यदि धन है, समय है, नियत है तो कर्म काण्ड-विधि, का पालन किया जा सकता है। पूजा-पाठ के लिये दुःख-दर्द, परेशानी आने का इन्तज़ार करना जरूरी नहीं है। तीर्थ यात्रा, पवित्र नदियों, सरोवरों में स्नान भी पूजा है। अगर मन सच्चा है तो पूजा फल अवश्य देगी। निस्वार्थ पूजा, भक्ति भाव का महत्व तो बहुत ही ज्यादा है। मनुष्य किसी भी वर्ण, कुल-गोत्र, क्षेत्र, देश, लोक में जन्म हो सच्चे मन से पूजा अवश्य करे। 
संध्या वन्दन :: संध्या वन्दन को संध्योपासना भी कहते हैं। सन्धि काल में ही सँध्या वन्दन की जाती है। संधि 5 वक्त (समय) की होती है, लेकिन प्रात:काल और सँध्‍या काल उक्त 2 समय की सन्धि प्रमुख है अर्थात सूर्य उदय और अस्त के समय। 
इस समय मन्दिर या एकान्त  में शौच, आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना मौन रहकर की जाती है। उक्त काल में भोजन, नींद, यात्रा, वार्तालाप और समागम आदि वर्जित हैं। इसमें पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है। यही वेद नियम है। यही सनातन सत्य है। सँध्या वन्दन में प्रार्थना ही सर्वश्रेष्ठ मानी गई है।
वेदज्ञ और ईश्‍वर परायण लोग इस समय प्रार्थना करते हैं। ज्ञानीजन इस समय ध्‍यान करते हैं। भक्तजन कीर्तन करते हैं। पुराणिक लोग देवमूर्ति के समक्ष इस समय पूजा या आरती करते हैं। 
वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, गीता और अन्य धर्मग्रंथों में सँध्या वन्दन की महिमा और महत्व का वर्णन किया गया है। सँध्या वन्दन प्रकृति और ईश्वर के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का माध्यम है। कृतज्ञता से सकारात्मकता का विकास होता है। सकारात्मकता से मनोकामना की पूर्ति होती है और सभी तरह के रोग तथा शोक मिट जाते हैं।
संध्योपासना के 4 प्रकार :: (1). प्रार्थना, (2). ध्यान, (3). कीर्तन और (4). पूजा-आरती। व्यक्ति की जिसमें जैसी श्रद्धा है, वह वैसा करता है। सँध्या वन्दन सभी मनुष्यों का धर्म-कर्तव्य है। सूर्य और तारों से रहित दिन-रात की संधि को तत्वदर्शी मुनियों ने संध्याकाल माना है।[आचार भूषण 89]
(1). प्रार्थना :: सँध्या वन्दन में सर्वश्रेष्ठ है, प्रार्थना। प्रार्थना को वैदिक ऋषिगण स्तुति या वन्दना कहते थे। प्रार्थना को उपासना और आराधना भी कह सकते हैं। इसमें निराकार ईश्वर के प्रति कृतज्ञता और समर्पण का भाव व्यक्त किया जाता है। इसमें भजन या कीर्तन नहीं किया जाता। इसमें पूजा या आरती भी नहीं की जाती। 
प्रार्थना के प्रकार :- (1.1). आत्मनिवेदन, (1.2). नामस्मरण, (1.3). वन्दन और (1.4). संस्कृत भाषा में समूह गान।
प्रार्थना के फायदे :: प्रार्थना में मन से जो भी माँगा जाता है वह फलित होता है। ईश्वर प्रार्थना को सँध्या वन्दन भी कहते हैं। यह आरती, जप, पूजा या पाठ, तंत्र, मंत्र आदि कर्म काण्ड से भिन्न और सर्वश्रेष्ठ है।
प्रार्थना से मन स्थिर और शाँत रहता है। इससे क्रोध पर नियन्त्रण पाया जा सकता है। इससे स्मरण शक्ति और चेहरे की चमक बढ़ जाती है। प्रतिदिन इसी तरह 15-20 मिनट प्रार्थना करने से व्यक्ति अपने आराध्य से जुड़ने लगता है और धीरे-धीरे उसके सारे संकट समाप्त होने लगते हैं। प्रार्थना से मन में सकारात्मक ऊर्जा का विकास होता है तथा शरीर निरोगी बनता है।
प्रार्थना का असर बहुत जल्द होता है। समूह में की गई प्रार्थना तो और शीघ्र फलित होती है। सभी तरह की आराधना में श्रेष्ठ है प्रार्थना। वेदज्ञ प्रार्थना ही करते हैं। वे‍दों की ऋचाएँ प्रकृति और ईश्वर के प्रति गहरी प्रार्थनाएँ ही तो है। 
नवधा भक्ति में से एक है प्रार्थना। प्रार्थना को उपासना, आराधना, वन्दना, अर्चना भी कह सकते हैं। इसमें निराकार ईश्वर या देवताओं के प्रति कृतज्ञता और समर्पण का भाव व्यक्त किया जाता है। इसमें भजन या कीर्तन नहीं किया जाता। इसमें पूजा या आरती भी नहीं की जाती। प्रार्थना का असर बहुत जल्द होता है। 
प्रार्थना का प्रचलन सभी धर्मों में है, लेकिन प्रार्थना करने के तरीके अलग-अलग हैं। तरीके कैसे भी हों जरूरी है प्रार्थना करना। प्रार्थना योग भी अपने आप में एक अलग ही योग है, लेकिन कुछ लोग इसे योग के तप और ईश्वर प्राणिधान का हिस्सा मानते हैं। प्रार्थना को मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य प्राप्त करने की एक क्रिया भी माना जाता है।
प्रार्थना विधि :: ईश्वर, भगवान, देवी-देवता या प्रकृति के समक्ष प्रार्थना करने से मन और तन को शान्ति मिलती है। मन्दिर, घर या किसी एकान्त स्थान पर खड़े होकर या फिर ध्यान मुद्रा में बैठकर दोनों हाथों को नमस्कार मुद्रा में ले आएं। अब मन-मस्तिष्क को एकदम शान्त और शरीर को पूर्णत: शिथिल कर लें और आँखें बद कर अपना सम्पूर्ण ध्यान अपने ईष्ट पर लगाएं। 15 मिनट तक एकदम शान्त इसी मुद्रा में रहें तथा साँस की क्रिया सामान्य कर दें।
(2). ध्यान :: ध्यान का अर्थ एकाग्रता नहीं होता। ध्यान का मूलत: अर्थ है जागरूकता, होश, साक्ष‍ी भाव। ध्यान का अर्थ ध्यान देना, हर उस बात पर जो हमारे जीवन से जुड़ी है। शरीर पर, मन पर और आसपास जो भी घटित हो रहा है, उस पर, विचारों के क्रिया-कलापों पर और भावों पर। इस ध्यान देने के जरा से प्रयास से ही साधक अमृत की ओर एक-एक कदम बढ़ा सकते हैं। ध्यान को ज्ञानियों ने सर्वश्रेष्ठ माना है। ध्यान से मनोकामनाओं की पूर्ति होती है और ध्यान से मोक्ष का द्वार खुलता है। भीतर से जाग जाना ध्यान है। सदा निर्विचार की दशा में रहना ही ध्यान है। ध्यान को ऋषि-मुनियों ने पूजा, आरती, यज्ञ और प्रार्थना आदि में सबसे ऊपर रखा है। ध्यान से सभी प्रकार के कष्ट मिट जाते हैं और ध्यान के माध्यम से ही मोक्ष मिलता है।
तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् ॥[योग सूत्र 3.2] 
जहाँ चित्त को लगाया जाए उसी में वृत्ति का एकतार चलना ध्यान है। धारणा का अर्थ चित्त को एक जगह लाना या ठहराना है, जहाँ भी चित्त ठहरा हुआ है, उसमें वृत्ति का एकतार चलना ध्यान है। उसमें जाग्रत रहना ध्यान है। ध्यान अर्थात परमात्मा का स्मरण, उसमें मन-चित्त को केंद्रित-एकाग्र करना।
(3). कीर्तन :: कीर्तन ईश्वर, भगवान या गुरु के प्रति स्वयं के समर्पण या भक्ति के भाव को व्यक्त करने का एक शान्त और संगीतमय तरीका है। इसे ही भजन कहते हैं। भजन करने से शान्ति मिलती है। शास्त्रीय संगीत अनुसार किए गए भजन ही भजन होते हैं। सामवेद में शास्त्रीय सं‍गीत का उल्लेख मिलता है।
कीर्तन नवधा भक्ति का ही एक रूप है। 
मन्दिर में कीर्तन सामूहिक रूप से किसी विशेष अवसर पर ही किया जाता है। कीर्तन के प्रवर्तक देवर्षि नारद हैं। कीर्तन के माध्यम से ही प्रह्लाद, अजामिल आदि ने परम पद प्राप्त किया था। मीराबाई, नरसी मेहता, तुकाराम आदि संत भी इसी परम्परा के अनुयायी थे।
कीर्तन के दो प्रकार :: देशज और शास्त्रीय। देशज अर्थात लोक संगीत परम्परा से उपजा कीर्तन जिसे हीड़ भी कहा जाता है। शास्त्रीय संगीत में रागों पर विशेष ध्यान दिया जाता है। संतों के दोहे और भजनकारों के पदों को भजन में गाया जाता है।
(4). पूजा-आरती :: पूजा करने के पुराणिकों ने अनेकों तरीके विकसित किए है। पूजा किसी देवता या देवी की मूर्ति के समक्ष की जाती है जिसमें गुड़ और घी की धूप दी जाती है, फिर हल्दी, कुमकुम, धूम, दीप और अगरबत्ती से पूजा करके आराध्यदेव की आरती उतारी जाती है। पूजा को नित्यकर्म में शामिल किया गया है। पूजा में सभी देवों की स्तुति की जाती है। 
12 बजे के पूर्व पूजा और आरती समाप्त हो जाना चाहिए। दिन के 12 से 4 बजे के बीच पूजा या आरती नहीं की जाती है। रात्रि के सभी कर्म वेदों द्वारा निषेध माने गए हैं, जो लोग रात्रि को पूजा या यज्ञ करते हैं उनके उद्देश्य अलग रहते हैं। पूजा और यज्ञ का सात्विक रूप ही मान्य है।
पूजा से वातावरण शुद्ध होता है और आध्यात्मिक माहौल का निर्माण होता है जिसके चलते मन और मस्तिष्क को शान्ति मिलती है। पूजा मंत्रों के उच्चारण के साथ की जाती है। पूजा समाप्ति के बाद आरती की जाती है। यज्ञ करते वक्त यज्ञ की पूजा की जाती है और उसके अलग नियम होते हैं। पूजा करने से देवता लोग प्रसन्न होते हैं। पूजा से रोग और शोक मिटते हैं और व्यक्ति को मुक्ति मिलती है।
SANDHYOPASNA सन्ध्योपासना 
सँध्या विधि :: जातक पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख कर के आसन पर बैठ कर मार्जन के विनियोग का मन्त्र पढ़कर, जल छोड़े व मार्जन का निम्न मन्त्र पढ़कर, अपने शरीर एवं सामग्री पर जल छिड़कें :-
ॐ अपवित्रः पवित्रो वेत्यस्य वामदेव ऋषिः, 
विष्णुर्देवता, गायत्रीच्छन्दः, हृदि पवित्रकरणे विनियोगः।
पवित्रीकरण :: 
ॐ अपवित्रः पवित्रोऽवा सर्वावस्थाङ्गतोऽपि वा यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याऽभ्यन्तरः शुचि:। पुण्डरीकाक्षः पुनातु। ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु॥
आचमन :: 
ॐ केशवाय नमः। ॐ माधवाय नमः। 
ॐ नारायणाय नमः। ॐ ह्रृषीकेशाय नमः॥
आसन पवित्र करने के मंत्र का विनियोग पढ़कर जल गिरायें :–
ॐ पृथ्वीति मन्त्रस्य मेरुपृष्ठ ऋषिः, सुतलं छन्दः, 
कूर्मो देवता, आसन पवित्रकरणे विनियोगः।
अब आसन पर जल छिड़क कर दायें हाथ से उसका स्पर्श करते हुए आसन पवित्र करने का मंत्र पढें। 
आसनशुद्धि :: 
ॐ पृथिवी त्त्वया धृता लोका देवी त्वम् विष्णुना धृता। 
त्वम् च धारय मां देवी पवित्रं कुरु चासनम्॥
शिखा बन्धन :: 
ॐ चिद्रुपिणी महामाये दिव्य तेजः समन्विते। 
तिष्ठ देवी शिखा मध्ये तेजो वृधिं कुरुष्व मे॥
मंत्र से शिखा बाँध लें, यदि शिखा पहले से बँधी हो तो उसका स्पर्श कर लें। ईशान दिशा की ओर मुख करके आचमन करें और निम्न विनियोग पढ़कर पृथ्वी पर जल छोड़ें :–
विनियोग :: 
ऋत्तं चेत्ति माधुच्छन्दसोऽघर्मर्षण ऋषिरनुष्टुप्च्छन्दो भाववृत्तं दैवतमपामुपस्पर्शने विनियोगः।
निम्न मंत्र पढ़कर आचमन करें :–
आचमन :: 
ॐ ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत ततो रात्र्यजायत।ततः समुद्रो अर्णवः। समुद्रादर्णवादधि संवत्सरोऽअजायत अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्यमिषतोवशी। सूर्याचन्द्रमसैाधाता यथा पूर्वमकल्पयत। 
दिवं च पृथिवींचांतरिक्षोमथो स्वः॥
तीन बार गायत्री मन्त्र से जल को अभिमंत्रित कर अपने चारों ओर छिड़क लें और उच्चारण करें :-
ॐ आपोमामभिरक्षन्तु।
तत्पश्चात निम्न विनियोग मंत्र पढ़कर पृथ्वी पर जल छोड़ें :–
विनियोग :: 
ॐ कारस्य ब्रह्मा ऋषिर्दैवी गायत्री छन्दः परमात्मा देवता, सप्त व्याहृतीनां प्रजापतिर्ऋषिः गायत्र्युष्णिगनुष्टुब्बृहतिपंक्ति त्रिष्टुब्जगत्यश्छन्दांसि अग्निवाय्वादित्य बृहस्पति वरुणेन्द्र विष्णवो देवता तत्सवितुरिति विश्वामित्र ऋषिर्गायत्री छन्दः सविता देवता, आपो ज्योतिरिति शिरसः प्रजापतिः ऋषिर्यजुश्छन्दो ब्रह्माग्निवायुसूर्या देवताः प्राणायामे विनियोगः॥ 
अब नीचे लिखे मंत्र से तीन बार प्राणायाम करें। पूरक में नीलवर्ण भगवान् श्री हरी विष्णु का ध्यान (नाभी देश में) करें। कुम्भक में रक्तवर्ण ब्रह्मा (हृदय में) का ध्यान करें। रेचक में श्वेतवर्ण शंकर का (ललाट में) ध्यान करें। भगवान् के प्रत्येक रुप लिए तीन या एक बार प्राणायाम मंत्र पढ़ें।
प्राणायाम मन्त्र :: 
ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ महः ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यं। 
ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥ 
ॐ आपो ज्योति रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों॥ 
प्रातःकाल का निम्न विनियोग और मंत्र पढ़कर पृथ्वी पर जल छोडें। 
विनियोग :: 
सूर्यश्च मेति नारायण ऋषिः अनुष्टुप्छन्दः 
सूर्यो देवता अपामुपस्पर्शने विनियोगः।  
आचमन ::  
ॐ सूर्यश्च मा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्यः पापेभ्यो रक्षन्ताम्। 
यद्रात्र्या पापमकार्षं मनसा वाचा हस्ताभ्यां 
पद्भ्यामुदरेण शिश्ना रात्रिस्तदवलुम्पतु।  
यत्किञ्चदुरितम् मयि इदमहमापोऽमृतयोनौ सूर्ये ज्योतिषि जुहोमि स्वाहा॥ 
निम्न विनियोग और मंत्र पढ़कर पृथ्वी पर जल छोडें। 
विनियोग :: 
आपो हिष्ठेत्यादि त्र्यृचस्य सिन्धुद्वीप ऋषिर्गायत्री 
छन्द आपोदेवता मार्जने विनियोगः।  
अब नीचे लिखे 9 मंत्रों से मार्जन करें। 7 पदों से सिर पर जल छोड़े, 8वें से भूमि पर और 9वें पद से फिर सिर पर तीन कुशों अथवा तीन अँगुलियों से मार्जन करें :–
(1). ॐ आपो हि ष्ठा मयो भुवः। (2). ॐ ता न ऊर्जे दधातन। (3). ॐ महे रणाय चक्षसे। (4). ॐ यो वः शिवतमो रसः। (5). ॐ तस्य भाजयतेह नः। (6). ॐ उशतीरिव मातरः। (7). ॐ तस्मा अरं गमाम वः। (8). ॐ यस्य क्षयाय जिन्वथ। (9). ॐ आपो जनयथा च नः॥
निम्न विनियोग और मंत्र पढ़कर पृथ्वी पर जल छोडें। 
द्रुपदादिवेत्यस्य कोकिलो राजपुत्र ऋषिः अनुष्टुप् 
छन्द आपो देवता सौत्रामण्यवभृथे विनियोगः। 
अब बायें हाथ में जल लेकर दाहिने हाथ से उसे ढक कर, नीचे लिखे मन्त्र को तीन बार पढ़ें, फिर उस जल को सिर पर छिड़क लें। 
ॐ द्रुपदादिव मुमुचानः स्विन्नः स्नातो मलदिव। 
पूतं पवित्रेणेवाज्यमापः शुन्धन्तु मैनसः॥
निम्न विनियोग और मंत्र पढ़कर पृथ्वी पर जल छोडें। 
विनियोग ::
ऋतञ्चेति त्र्यृचस्य माधुच्छन्दसोऽघमर्षण ऋषिः 
अनुष्टुप् छन्दो भाववृत्तं दैवतमघमर्षणे विनियोगः।
अब दाहिने हाथ में जल लेकर नाक से लगाकर, नीचे लिखे मन्त्र को तीन या एक बार पढ़ें, फिर अपनी बाईं ओर जल पृथ्वी पर छोड़ दें। (मन में यह भावना करें कि यह जल नासिका के बायें छिद्र से भीतर घुसकर अन्तःकरण के पाप को दायें छिद्र से निकाल रहा है, फिर उस जल की ओर दृष्टि न डालकर अपनी बायीं ओर शिला की भावना करके उस पर पाप को पटक कर नष्ट कर देने की भावना से जल उस पर फेंक दें।)
अघमर्षण  ::
 ॐ ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत ततो रात्र्यजायत। 
ततः समुद्रो अर्णवः। 
समुद्रादर्णवादधि संवत्सरोऽअजायत अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्यमिषतोवशी। 
सूर्याचन्द्रमसैाधाता यथा  पूर्वमकल्पयत। दिवं च पृथिवींचांतरिक्षोमथो स्वः॥
निम्न विनियोग और मंत्र पढ़कर पृथ्वी पर जल छोडें। 
विनियोग :: 
अन्तश्चरसीति तिरश्चीन ऋषिरनुष्टुप्छन्दः 
आपो देवता अपामुपस्पर्शने विनियोगः। 
निम्न विनियोग और मंत्र पढ़कर पृथ्वी पर जल छोडें। 
आचमन :: 
ॐ अन्तश्चरसिभूतेषु गुहायांविश्वतोमुखः।  
त्वम् यज्ञस्त्वं वषट्कार आपोज्योतिरसोऽमृतम्॥
निम्न विनियोग और मंत्र  केवल पढ़े जल न  छोडें :–
विनियोग :: 
ॐ कारस्य  ब्रह्मा ऋषिर्दैवी गायत्री छन्दः परमात्मा देवता, भूर्भुवः स्वरीति महाव्याहृतीनां परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छन्दांसि अग्निवायुसूर्या देवताः, तत्सवितुरिति विश्वामित्र ऋषिर्गायत्री छन्दः सविता देवता सूर्यार्घ्यदाने विनियोगः। 
अब प्रातःकाल की सँध्या में सूर्य के सामने खड़ा हो जाए। एक पैर की एड़ी उठाकर तीन बार गायत्री मंत्र का जप करके पुष्प मिले हुए जल से सूर्य को तीन अंजलि जल दें। प्रातःकाल का अर्घ्य जल में देना चाहिए यदि जल न हो तो स्थल को अच्छी तरह जल से धो कर उस पर अर्घ्य का जल गिराए।
गायत्री मन्त्र ::
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। 
धियो यो नः प्रचोदयात्।
इस मंत्र को पढ़कर ब्रह्मस्वरूपिणे सूर्यनारायणाय इदमर्घ्यं नमः  कह कर प्रातःकाल अर्घ्य समर्पण करे।
अब निम्न विनियोग और मंत्र पढ़कर पृथ्वी पर जल छोडें। 
विनियोग ::
उद्वयमित्यस्य प्रस्कण्व ऋषिरनुष्टुप्छन्दः सूर्योदेवता, उदुत्यमित्यस्य प्रस्कण्वऋषिः निचृद्गायत्री छन्दः सूर्योदेवता, चित्रमित्यस्य कौत्सऋषिस्त्रिष्टुप्छन्दः सूर्योदेवता, तच्चक्षुरित्यस्य दध्यङ्थर्वण ऋषिरक्षरातीतपुर उष्णिक्छन्दः सूर्योदेवता सूर्योपस्थाने विनियोगः। 
प्रातःकाल की सँध्या में अँजलि बाँधकर यदि सम्भव हो तो सूर्य भगवान् को खड़े होकर देखते हुए निम्न मंत्र पढ़ते हुए प्रणाम करें :–
ॐ उद्वयं तमसस्परि स्वः पश्यन्त उत्तरम्। 
देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम्॥
ॐ उदुत्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः। दृशे विश्वाय सूर्यम्॥
ॐ चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः। 
आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्ष ॐ सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च॥
ॐ तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं। 
ॐ शृणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः 
शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात्॥
अब बैठ कर अंगन्यास करें, दाहिने हाथ की पाँचों अंगुलियों से “हृदय” आदि का स्पर्श करें। 
ॐ हृदयाय नमः। (हृदय का स्पर्श)
ॐ भूः शिरसे स्वाहा। (मस्तक का स्पर्श)
ॐ भुवः शिखायै वषट्। (शिखा का स्पर्श)
ॐ स्वः कवचाय हुम्। (दाहिने हाथ की उँगलियों से बायें कंधे का और बायें हाथ की उँगलियों से दायें कंधे एक साथ स्पर्श करे)
ॐ भूर्भुवः नेत्राभ्यां वौषट्। (दोनों नेत्रों और ललाट के मध्य भाग का स्पर्श)
ॐ भूर्भुवः स्वः अस्त्राय फट्। (यह मंत्र पढ़कर दाहिने हाथ को सिर के ऊपर से बायीं ओर से पीछे की ओर ले जाकर दाहिनी ओर से आगे की ओर ले आये और तर्जनी तथा मध्यमा उँगलियों से बायें हाथ की हथेली पर ताली बजायें।)
नीचे लिखे मंत्र को पढ़कर इसके अनुसार गायत्री देवी का ध्यान करें :–
ॐ श्वेतवर्णा समुद्दिष्टा कौशेयवसना तथा। 
श्वेतैर्तिलेपनैः पुष्पैरलंकारैश्च भूषिता॥
आदित्यमण्डलस्था च ब्रह्मलोकगताथवा। 
अक्षसूत्रधरा देवी पद्मासनगता शुभा॥
निम्न विनियोग और मंत्र पढ़कर पृथ्वी पर जल छोडें :–
ॐ तेजोऽसीति धामनामासीत्यस्य च परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिर्यजुस्त्रिष्टुबृगुष्णिहौ 
छन्दसी सविता देवता गायत्र्यावाहने विनियोगः।
नीचे लिखे मंत्र से विनयपूर्वक गायत्री देवी का आवाहन करें :–
ॐ तेजोऽसि शुक्रमस्यमृतमसि। 
धामनामासि प्रियं देवानामनाधृष्टं देवयजनमसि॥
निम्न विनियोग और मंत्र पढ़कर पृथ्वी पर जल छोडें :–
ॐ गायत्र्यसीति विवस्वान् ऋषिः स्वराण्महापङ्क्तिश्छन्दः 
परमात्मा देवता गायत्र्युपस्थाने विनियोगः।
अब नीचे लिखे मंत्र से गायत्री देवी को प्रणाम करें :–
ॐ गायत्र्यस्येकपदी द्विपदी त्रिपदी चतुष्पद्यपदसि। 
न हि पद्यसे नमस्ते तुरीयाय दर्शताय पदाय परोरजसेऽसावदो मा प्रापत्॥
निम्न विनियोग और मंत्र पढ़कर पृथ्वी पर जल छोडें :–
ॐ कारस्य  ब्रह्मा ऋषिर्दैवी गायत्री छन्दः परमात्मा देवता, भूर्भुवः स्वरीति महाव्याहृतीनां परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छन्दांसि अग्निवायुसूर्या देवताः, तत्सवितुरिति विश्वामित्र ऋषिर्गायत्री छन्दः सविता देवता जपे विनियोगः।
फिर सूर्य की ओर मुख करके, कम से कम 108 बार गायत्री-मंत्र का जप करें :–
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। 
धियो यो नः प्रचोदयात्॥ 
निम्न विनियोग और मंत्र पढ़कर पृथ्वी पर जल छोडें :–
विश्वतश्चक्षुरिति भौवन ऋषिस्त्रिष्टुप् छन्दो 
विश्वकर्मा देवता सूर्यप्रदक्षिणायां विनियोगः।
अब नीचे लिखे मन्त्र से अपने स्थान पर खड़े होकर सूर्य देव की एक प्रदक्षिणा करें :–
ॐ विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात्।
सम्बाहुभ्यां धमति सम्पतत्रैर्द्यावाभूमि जनयन् देव एकः॥
निम्न विनियोग और मंत्र पढ़कर पृथ्वी पर जल छोडें :–
ॐ देवा गातुविद इति मनसस्पतिर्ऋषिर्विराडनुष्टुप् छन्दो वातो देवता जपनिवेदने विनियोगः।
अब नमस्कार करें :–
ॐ देवा गातुविदो गातुं वित्त्वा गातुमित 
मनसस्पत इमं देव यज्ञ  ॐ स्वाहा व्वाते धाः।
अब विसर्जन के विनियोग का मंत्र पढ़ें :–
उत्तमे शिखरे इति वामदेव ऋषिः अनुष्टुप् 
छन्दः गायत्री देवता गायत्रीविसर्जने विनियोगः।
विसर्जन मंत्र :–
ॐ उत्तमे शिखरे देवी भूम्यां पर्वतमूर्धनि। 
ब्राह्मणेभ्योऽभ्यनुज्ञाता गच्छ देवि यथासुखम॥
ॐ श्रीविष्णवे नमः॥ ॐ श्रीविष्णवे नमः॥ ॐ श्रीविष्णवे नमः॥
तिलक :: यह हिन्दु की एक पहचान है। सनातन धर्म में शैव, शाक्त, वैष्णव और अन्य मतों के अलग-अलग तिलक होते हैं।
कुमकुम :: हल्दी चुना मिलकर बना होता है जो आज्ञा चक्र की शुद्धि करते हुए, ज्ञान चक्र को प्रज्वलित करता है।
केसर ::  शीतल मस्तिष्क को केसर का तिलक प्रज्वलित करता है।
चन्दन  :: दिमाग को शीतलता प्रदान करते हुए मानसिक शान्ति भी देता है।
भस्मी :: वैराग्य की अग्रसर करते हुए मस्तिष्क के रोम कूपों के विषाणुओं को भी नष्ट करता है।
शैव :: शैव परंपरा में ललाट पर चन्दन की आड़ी रेखा या त्रिपुण्ड लगाया जाता है।
शाक्त :: शाक्त सिंदूर का तिलक लगाते हैं। सिंदूर उग्रता का प्रतीक है। यह साधक की शक्ति या तेज बढ़ाने में सहायक माना जाता है।
वैष्णव :: वैष्णव परंपरा में चौंसठ प्रकार के तिलक हैं, जिनमें निम्न प्रमुख हैं :-
लाल श्री तिलक :- इसमें आसपास चन्दन की व बीच में कुंकुम या हल्दी की खड़ी रेखा बनी होती है।
विष्णुस्वामी तिलक :- यह तिलक माथे पर दो चौड़ी खड़ी रेखाओं से बनता है। यह तिलक संकरा होते हुए भोहों के बीच तक आता है।
रामानन्दी तिलक :- विष्णुस्वामी तिलक के बीच में कुंकुम से खड़ी रेखा देने से रामानन्दी तिलक बनता है।
श्याम श्री तिलक :- इसे कृष्ण उपासक वैष्णव लगाते हैं। इसमें आसपास गोपी चन्दन की तथा बीच में काले रंग की मोटी खड़ी रेखा होती है।
अन्य तिलक :- गाणपत्य, तांत्रिक, कापालिक आदि के भिन्न तिलक होते हैं। साधु व संन्यासी भस्म का तिलक लगाते हैं।
 
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