PRAYER RULES पूजा विधान
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
सुखी और समृद्धिशाली जीवन के लिए देवी-देवताओं के पूजन की परम्परा आदि काल से चली आ रही है। अधिकांश हिन्दु इस परम्परा को निभाते हैं। पूजन से मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। पूजन का शुभ फल पूर्ण रूप से प्राप्त करने हेतु पूजा करते समय शास्त्र में वर्णित कुछ सावधानियाँ-नियमों का पालन भी किया जाता है।
पूजा पाठ सम्बन्धी सामान्य नियम ::
(1). सूर्य, गणेश,दुर्गा,शिव एवं विष्णु ये पाँच देव कहलाते हैं। इनकी पूजा सभी कार्यों में गृहस्थ आश्रम में नित्य होनी चाहिए। इससे धन-लक्ष्मी और सुख प्राप्त होता है।
(2). गणेश जी महाराज और भैरव जी को तुलसी नहीं चढ़ानी चाहिए।
(3). दुर्गा जी को दूर्वा नहीं चढ़ानी चाहिए।
(4). सूर्य देव को शंख के जल से अर्घ्य नहीं देना चाहिए।
(5). तुलसी का पत्ता बिना स्नान किये नहीं तोडना चाहिए। जो लोग बिना स्नान किये तोड़ते हैं, उनके तुलसी पत्रों को भगवान स्वीकार नहीं करते हैं।
(6). रविवार, एकादशी, द्वादशी,संक्रान्ति तथा संध्या काल में तुलसी नहीं तोड़नी चाहिए।मासिक धर्म की स्थिति में महिलायें तुलसी से दूर ही रहें।
(7). दूर्वा (एक प्रकार की घास) रविवार को नहीं तोड़नी चाहिए।
(8). केतकी का फूल भगवान् शंकर को नहीं चढ़ाना चाहिए।
(9). कमल का फूल पाँच रात्रि तक उसमें जल छिड़क कर चढ़ा सकते हैं।
(10). बिल्व पत्र दस रात्रि तक जल छिड़क कर चढ़ा सकते हैं।
(11). तुलसी की पत्ती को ग्यारह रात्रि तक जल छिड़क कर चढ़ा सकते हैं।
(12). हाथों में रख कर हाथों से फूल नहीं चढ़ाना चाहिए।
(13). ताँबे के पात्र में चंदन नहीं रखना चाहिए।
(14). दीपक से दीपक नहीं जलाना चाहिए; जो दीपक से दीपक जलाते हैं, वो रोगी होते हैं।
(15). पतला चंदन देवताओं को नहीं चढ़ाना चाहिए।
(16). प्रतिदिन की पूजा में मनोकामना की सफलता के लिए दक्षिणा अवश्य चढ़ानी चाहिए। दक्षिणा में अपने दोष, दुर्गुणों को छोड़ने का संकल्प लें, अवश्य सफलता मिलेगी और मनोकामना पूर्ण होगी।
(17). चर्मपात्र या प्लास्टिक पात्र में गंगाजल नहीं रखना चाहिए।
(18). स्त्रियों और शूद्रों को शंख नहीं बजाना चाहिए यदि वे बजाते हैं तो माता लक्ष्मी वहाँ से चली जाती हैं।
(19). देवी देवताओं का पूजन दिन में पाँच बार करना चाहिए। सुबह 5 से 6 बजे तक ब्रह्म बेला में प्रथम पूजन और आरती होनी चाहिए। प्रात: 9 से 10 बजे तक दिवितीय पूजन और आरती होनी चाहिए। मध्याह्र में तीसरा पूजन और आरती। फिर शयन करा देना चाहिए शाम को चार से पाँच बजे तक चौथा पूजन और आरती होना चाहिए। रात्रि में 8 से 9 बजे तक पाँचवाँ पूजन और आरती। फिर शयन करा देना चाहिए।
(20). आरती करने वालों को प्रथम चरणों की चार बार, नाभि की दो बार और मुख की एक या तीन बार और समस्त अंगों की सात बार आरती करनी चाहिए।
(21). पूजा हमेशा पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख रखकर करनी चाहिए। यदि संभव हो सके तो सुबह 6 से 8 बजे के बीच में पूजा अवश्य करें।
भगवान् की आरती करते समय भगवान् के श्री चरणों की चार बार आरती करें, नाभि की दो बार और मुख की एक या तीन बार आरती करें। इस प्रकार भगवान् के समस्त अंगों की कम से कम सात बार आरती करनी चाहिए।
(22). पूजा जमीन पर ऊनी आसन पर बैठकर ही करनी चाहिए। पूजागृह में सुबह एवं शाम को दीपक, एक घी का और एक तेल का रखें। पूजा के लिए आसन रुरु मृग चरम, चीते की खाल, मृग चर्म, मूँज की चटाई या फिर ऊनी हो।
(23). पूजा अर्चना होने के बाद उसी जगह पर खड़े होकर 3 परिक्रमाएँ करें।
(24). पूजाघर में मूर्तियाँ 1, 3, 5, 7, 9, 11 इंच तक की होनी चाहियें। इससे बड़ी नहीं तथा खड़े हुए गणेश जी, माता सरस्वती, माता लक्ष्मी की मूर्तियाँ घर में नहीं होनी चाहिए।
(25). गणेश जी महाराज या देवी की प्रतिमा तीन-तीन, शिवलिंग दो, शालिग्राम दो, सूर्य प्रतिमा दो, गोमती चक्र दो की सँख्या में कदापि न रखें। अपने मदिर में सिर्फ प्रतिष्ठित मूर्ति ही रखें। उपहार, काँच, लकड़ी एवं फायबर की मूर्तियाँ न रखें। खण्डित, जलीकटी फोटो और टूटा काँच तुरन्त हटा दें, यह अमंगलकारक है एवं इनसे विपतियों का आगमन होता है।
(26). मंदिर के ऊपर भगवान के वस्त्र, पुस्तकें एवं आभूषण आदि भी न रखें मंदिर में पर्दा अति आवश्यक है। अपने पूज्य माता-पिता तथा पित्रों का फोटो मंदिर में कदापि न रखें। उन्हें घर के नैऋत्य कोण में स्थापित करें।
(27). भगवान् विष्णु की चार, गणेश जी की तीन, भगवान् सूर्य की सात, माता भगवती दुर्गा की एक एवं भगवान् शिव की आधी परिक्रमा कर सकते हैं।
(28). प्रत्येक व्यक्ति को अपने घर में कलश स्थापित करना चाहिए। कलश जल से पूर्ण, श्रीफल से युक्त विधिपूर्वक स्थापित करें। यदि घर में श्रीफल कलश उग जाता हैं, तो वहाँ सुख एवं समृद्धि के साथ स्वयं लक्ष्मी जी नारायण के साथ निवास करती हैं। तुलसी का पूजन भी आवश्यक है।
(29). मकड़ी के जाले एवं दीमक से घर को सर्वदा बचावें अन्यथा घर में भयंकर हानि हो सकती है।
(30). घर में झाड़ू कभी खड़ा कर के न रखें। झाड़ू लांघना, पाँव से कुचलना भी दरिद्रता को निमंत्रण देना है। दो झाड़ू को भी एक ही स्थान में न रखें इससे शत्रु बढ़ते हैं।
(31). घर में किसी परिस्थिति में जूठे बर्तन न रखें। क्योंकि शास्त्र कहते हैं कि रात में लक्ष्मी जी घर का निरीक्षण करती हैं। यदि जूठे बर्तन रखने ही हो तो किसी बड़े बर्तन में उन बर्तनों को रख कर उनमें पानी भर दें और ऊपर से ढक दें तो दोष निवारण हो जायेगा।
(32). कपूर का एक छोटा सा टुकड़ा घर में नित्य अवश्य जलाना चाहिए, जिससे वातावरण अधिकाधिक शुद्ध हो और वातावरण में धनात्मक ऊर्जा बढ़े।
(33). घर में नित्य घी का दीपक जलावें और सुखी रहें। कभी भी दीपक से दीपक नहीं जलाना चाहिए। जो व्यक्ति दीपक से दीपक जलाते हैं, वे रोगी होते हैं।
(34). घर में नित्य गोमूत्र युक्त जल से पोंछा लगाने से घर में वास्तुदोष समाप्त होते हैं तथा दुरात्माएँ हावी नहीं होती हैं।
(35). सेंधा नमक घर में रखने से सुख श्री(लक्ष्मी) की वृद्धि होती है ।
(36). रोज पीपल वृक्ष के स्पर्श से शरीर में रोग प्रतिरोधकता में वृद्धि होती है। बुधवार और रविवार को पीपल के वृक्ष में जल अर्पित नहीं करना चाहिए।
(37). साबुत धनिया, हल्दी की पाँच गाँठें, 11 कमलगट्टे तथा साबुत नमक एक थैली में रख कर तिजोरी में रखने से बरकत होती है, श्री (लक्ष्मी) व समृद्धि बढ़ती है।
(38). दक्षिणावर्त शंख जिस घर में होता है, उसमें साक्षात लक्ष्मी एवं शांति का वास होता है वहाँ मंगल ही मंगल होते हैं। पूजा स्थान पर दो शंख नहीं होने चाहिए।
(39). घर में यदा-कदा केसर के छींटे देते रहने से वहाँ धनात्मक ऊर्जा में वृद्धि होती है। पतला घोल बनाकर आम्र पत्र अथवा पान के पते की सहायता से केसर के छींटे लगाने चाहिए।
(40). एक मोती शंख, पाँच गोमती चक्र, तीन हकीक पत्थर, एक ताम्र सिक्का व थोड़ी सी नागकेसर एक थैली में भरकर घर में रखें। इससे श्री (लक्ष्मी) की वृद्धि होगी।
(41). आचमन करके जूठे हाथ सिर के पृष्ठ भाग में कदापि न पोंछें। इस भाग में अत्यंत महत्वपूर्ण कोशिकाएँ होती हैं।
(42). घर में पूजा पाठ व मांगलिक पर्व में सिर पर टोपी व पगड़ी पहननी चाहिए, रुमाल विशेष कर सफेद रुमाल शुभ नहीं माना जाता है।
पंचोपचार एवं षोडशोपचार पूजन :: मूर्ति के आकार और जातक में श्रद्धा-भक्ति के अनुरूप उसमें देवता का तत्त्व आता है। पूजादि संस्कारों के कारण भक्ति तत्त्व को जागृत किया जाता है। पूजन से देवता प्रसन्न होते हैं। देवता की कृपा पूजक को सुलभ हो जाती है। जातक में उपस्थित-विद्यमान रज-तम गुणों की मात्रा घटने से जातक की बुद्धि चैतन्य होती है।
पंचोपचार पूजन कृत्य ::
(1). देवता को गंध (चंदन) लगाना तथा हलदी-कुमकुम चढाना :- सर्वप्रथम, देवता को अनामिका से (कनिष्ठिका के समीप की उंगलीसे) चंदन लगाएं । इसके उपरांत दाएं हाथ के अंगूठे और अनामिका के बीच चुटकीभर पहले हलदी, फिर कुमकुम देवता के चरणों में अर्पित करें ।
(2). देवता को पत्र-पुष्प (पल्लव) चढाना :- देवता को कागद के (कागज के), प्लास्टिक के इत्यादि कृत्रिम तथा सजावटी पुष्प न चढाएं, अपितु नवीन (ताजे) और सात्विक पुष्प चढाएं । देवता को चढाए जानेवाले पत्र-पुष्प न सूंघें । देवता को पुष्प चढाने से पूर्व पत्र चढाएं। विशिष्ट देवता को उनका तत्त्व अधिक मात्रा में आकर्षित करनेवाले विशिष्ट पत्र-पुष्प चढाएं, उदा. शिवजी को बिल्वपत्र तथा श्री गणेशजी को दूर्वा और लाल पुष्प । पुष्प देवता के सिर पर न चढाएं; चरणों में अर्पित करें । डंठल देवता की ओर एवं पंखुडियां (पुष्पदल) अपनी ओर कर पुष्प अर्पित करें ।
(3). देवता को धूप दिखाना (अथवा अगरबत्ती दिखाना) :- देवता को धूप दिखाते समय उसे हाथ से न फैलाएं । धूप दिखाने के उपरांत विशिष्ट देवता का तत्त्व अधिक मात्रा में आकर्षित करने हेतु विशिष्ट सुगंध की अगरबत्तियों से उनकी आरती उतारें, उदा. शिवजी को हीना से तथा श्री लक्ष्मीदेवी की गुलाब से ।
धूप दिखाते समय तथा अगरबत्ती घुमाते समय बाएं हाथ से घंटी बजाएं ।
(4). देवता की दीप-आरती करना :- दीप-आरती तीन बार धीमी गति से उतारें । दीप-आरती उतारते समय बाएं हाथ से घंटी बजाएं।
दीप जलाने के संदर्भ में ध्यान में रखने योग्य सूत्र
(4.1). दीप प्रज्वलित करने हेतु एक दीप से दूसरा दीप न जलाएं ।
(4.2). तेल के दीप से घी का दीप न जलाएं ।
(4.3). पूजाघरमे प्रतिदिन तेल के दीप की नई बाती जलाएं ।
(5); देवता को नैवेद्य निवेदित करना :- नैवेद्य के पदार्थ बनाते समय मिर्च, नमक और तेल का प्रयोग अल्प मात्रा में करें और घी जैसे सात्विक पदार्थों का प्रयोग अधिक करें । नैवेद्य के लिए सिद्ध (तैयार) की गई थाली में नमक न परोसें। देवता को नैवेद्य निवेदित करने से पहले अन्न ढककर रखें । नैवेद्य समर्पण में सर्वप्रथम इष्टदेवता से प्रार्थना कर देवता के समक्ष भूमि पर जल से चौकोर मंडल बनाएं तथा उस पर नैवेद्य की थाली रखें । नैवेद्य समर्पण में थाली के सर्व ओर घडी के कांटे की दिशा में एक ही बार जल का मंडल बनाएं । पुनः विपरीत दिशा में जल का मंडल न बनाएं । नैवेद्य निवेदित करते समय ऐसा भाव रखें कि ‘हमारे द्वारा अर्पित नैवेद्य देवतातक पहुंच रहा है तथा देवता उसे ग्रहण कर रहे हैं।
देव पूजन के उपरांत किए जानेवाले कृत्य :: यद्यपि पंचोपचार पूजन में ‘कर्पूरदीप जलाना’ यह उपचार नहीं है, तथापि कर्पूर की सात्विकता के कारण उस का दीप जलाने से सात्विकता प्राप्त होने में सहायता मिलती है । अतएव नैवेद्य दिखाने के उपरांत कर्पूरदीप जलाएं । fशंखनाद कर देवता की भावपूर्वक आरती उतारें । आरती ग्रहण करने के उपरांत नाक के मूल पर (आज्ञाचक्र पर) विभूति लगाएं और तीन बार तीर्थ प्राशन करें । अंत में प्रसाद ग्रहण करें तथा उसके उपरांत हाथ धोएं ।
षोडशोेपचार पूजन ::
(1). देवता का आवाहन-बुलाना :- देवता अपने अंग, परिवार, आयुध और शक्तिसहित पधारें तथा मूर्ति में प्रतिष्ठित होकर हमारी पूजा ग्रहण करें, इस हेतु संपूर्ण शरणागत भाव से देवता से प्रार्थना करना अर्थात् उनका `आवाहन करना। आवाहन के समय हाथ में चंदन, अक्षत एवं तुलसीदल अथवा पुष्प लें।
आवाहन के उपरांत देवता का नाम लेकर अंत में ‘नमः’ बोलते हुए उन्हें चंदन, अक्षत, तुलसीदल अथवा पुष्प अर्पित कर हाथ जोडें।
देवता के रूप के अनुसार उनका नाम लें यथा श्री गणपति के लिए श्री गणपतये नमः।माँ भवानी के लिए ‘श्री भवानी देव्यै नमः। तथा विष्णु पंचायतन के लिए (पंचायतन अर्थात् पांच देवता; विष्णु पंचायतन के पांच देवता हैं, श्री हरि विष्णु, शिव, श्री गणेश, देवी तथा सूर्य) श्री महाविष्णु प्रमुख पंचायतन देवताभ्यो नमः, कहें।
(2). देवता को आसन :- देवता के आगमन पर उन्हें विराजमान होने के लिए सुंदर आसन दिया है, ऐसी कल्पना कर विशिष्ट देवता को प्रिय पत्र-पुष्प; यथा श्री गणेश जी को दूर्वा, शिव जी को बेल, श्री हरि विष्णु को तुलसी अथवा अक्षत अर्पित करें ।
(3). पाद्य-पाद प्रक्षालन :- देवता को ताम्रपात्र में रखकर उनके चरणों पर आचमनी से जल चढाएं।
(4). हस्त-प्रक्षालन :- आचमनी में जल लेकर उसमें चंदन, अक्षत तथा पुष्प डालकर, उसे मूर्ति के हाथ पर चढाएं।
(5). मुख-प्रक्षालन :- आचमनी में कर्पूर-मिश्रित जल लेकर, उसे देवता को अर्पित करने के लिए ताम्रपात्र में छोड़ें।
(6). स्नान-देवता पर जल चढाना :- धातु की मूर्ति, यंत्र, शालग्राम इत्यादि हों, तो उन पर जल चढाएं। मिट्टी की मूर्ति हो, तो पुष्प अथवा तुलसी दल से केवल जल छिड़कें। चित्र हो, तो पहले उसे सूखे वस्त्र से पोंछ लें। तदुपरांत गीले कपड़े से पुनः सूखे कपडे से पोंछें। देवताओं की प्रतिमाओं को पोंछने के लिए प्रयुक्त वस्त्र स्वच्छ हो। वस्त्र नया हो, तो एक-दो बार पानी में भिगोकर तथा सुखाकर प्रयोग करें। अपने कंधे के उपरने से अथवा धारण किए वस्त्र से देवताओं को न पोंछें।
(6.1). पंचामृत से स्नान के अंतर्गत दूध, दही, घी, मधु तथा शक्कर से क्रमानुसार स्नान करवाएं। एक पदार्थ से स्नान करवाने के उपरांत तथा दूसरे पदार्थ से स्नान करवाने से पूर्व जल चढाएं यथा दूध से स्नान करवाने के उपरांत तथा दही से स्नान करवाने से पूर्व जल चढाएं।
(6.2). देवता को चंदन तथा कर्पूर-मिश्रित जल से स्नान करवाएं।
(6.3). आचमनी से जल चढाकर सुगंधित द्रव्य-मिश्रित जल से स्नान करवाएं ।
(6.4). देवताओं को उष्णोदक से स्नान करवाएं। उष्णोदक अर्थात् अत्यधिक गरम नहीं, वरन् गुनगुना पानी ।
(6.5). देवताओं को सुगंधित द्रव्य-मिश्रित जल से स्नान करवाने के उपरांत गुनगुना जल डालकर महाभिषेक स्नान करवाएं। महाभिषेक करते समय देवताओं पर धीमी गति की निरंतर धारा पडती रहे, इसके लिए अभिषेक पात्र का प्रयोग करें। संभव हो तो महाभिषेक के समय विविध सूक्तों का उच्चारण करें।
(6.6). महाभिषेक के उपरांत पुनः आचमन के लिए ताम्रपात्र में जल छोडेें तथा देवताओं की प्रतिमाओं को पोंछकर रखें।
(7). देवता को वस्त्र देना :- देवताओं को कपास के दो वस्त्र अर्पित करें। एक वस्त्र देवता के गले में अलंकार के समान पहनाएं तथा दूसरा देवता के चरणों में रखें।
(8). देवता को उपवस्त्र अथवा यज्ञोपवीत (जनेऊ देना) अर्पित करना :- पुरुष देवताओं को यज्ञोपवीत (उपवस्त्र) अर्पित करें।
(9). पंचोपचार अर्थात देवता को गंध (चंदन) लगाना।
(10). पुष्प अर्पित करना।
(11). धूप दिखाना अथवा अगरबत्ती से आरती उतारना।
(12). दीप-आरती करना तथा नैवेद्य निवेदित करना।
(13). नैवेद्य दिखाने के उपरांत दीप-आरती और तत्पश्चात् कर्पूर-आरती करें ।
(14). देवता को मनः पूर्वक नमस्कार करना।
(15). परिक्रमा करना :- नमस्कार के उपरांत देवता के सर्व ओर परिक्रमा करें। परिक्रमा करने की सुविधा न हो, तो अपने स्थान पर ही खड़े होकर तीन बार घूम जाएं।
(16). मंत्र-पुष्पांजलि :- परिक्रमा के उपरांत मंत्रपुष्प-उच्चारण कर, देवता को अक्षत अर्पित करें। तदुपरान्त पूजा में ज्ञात-अज्ञात चूकों तथा त्रुटियों के लिए अंत में देवतासे क्षमा मांगें और पूजा का समापन करें।
अंत में विभूति लगाएं, तीर्थ प्राशन करें और प्रसाद ग्रहण करें।
पूजा पाठ सम्बन्धी सामान्य नियम ::
(1). सूर्य, गणेश,दुर्गा,शिव एवं विष्णु ये पाँच देव कहलाते हैं। इनकी पूजा सभी कार्यों में गृहस्थ आश्रम में नित्य होनी चाहिए। इससे धन-लक्ष्मी और सुख प्राप्त होता है।
(2). गणेश जी महाराज और भैरव जी को तुलसी नहीं चढ़ानी चाहिए।
(3). दुर्गा जी को दूर्वा नहीं चढ़ानी चाहिए।
(4). सूर्य देव को शंख के जल से अर्घ्य नहीं देना चाहिए।
(5). तुलसी का पत्ता बिना स्नान किये नहीं तोडना चाहिए। जो लोग बिना स्नान किये तोड़ते हैं, उनके तुलसी पत्रों को भगवान स्वीकार नहीं करते हैं।
(6). रविवार, एकादशी, द्वादशी,संक्रान्ति तथा संध्या काल में तुलसी नहीं तोड़नी चाहिए।मासिक धर्म की स्थिति में महिलायें तुलसी से दूर ही रहें।
(7). दूर्वा (एक प्रकार की घास) रविवार को नहीं तोड़नी चाहिए।
(8). केतकी का फूल भगवान् शंकर को नहीं चढ़ाना चाहिए।
(9). कमल का फूल पाँच रात्रि तक उसमें जल छिड़क कर चढ़ा सकते हैं।
(10). बिल्व पत्र दस रात्रि तक जल छिड़क कर चढ़ा सकते हैं।
(11). तुलसी की पत्ती को ग्यारह रात्रि तक जल छिड़क कर चढ़ा सकते हैं।
(12). हाथों में रख कर हाथों से फूल नहीं चढ़ाना चाहिए।
(13). ताँबे के पात्र में चंदन नहीं रखना चाहिए।
(14). दीपक से दीपक नहीं जलाना चाहिए; जो दीपक से दीपक जलाते हैं, वो रोगी होते हैं।
(15). पतला चंदन देवताओं को नहीं चढ़ाना चाहिए।
(16). प्रतिदिन की पूजा में मनोकामना की सफलता के लिए दक्षिणा अवश्य चढ़ानी चाहिए। दक्षिणा में अपने दोष, दुर्गुणों को छोड़ने का संकल्प लें, अवश्य सफलता मिलेगी और मनोकामना पूर्ण होगी।
(17). चर्मपात्र या प्लास्टिक पात्र में गंगाजल नहीं रखना चाहिए।
(18). स्त्रियों और शूद्रों को शंख नहीं बजाना चाहिए यदि वे बजाते हैं तो माता लक्ष्मी वहाँ से चली जाती हैं।
(19). देवी देवताओं का पूजन दिन में पाँच बार करना चाहिए। सुबह 5 से 6 बजे तक ब्रह्म बेला में प्रथम पूजन और आरती होनी चाहिए। प्रात: 9 से 10 बजे तक दिवितीय पूजन और आरती होनी चाहिए। मध्याह्र में तीसरा पूजन और आरती। फिर शयन करा देना चाहिए शाम को चार से पाँच बजे तक चौथा पूजन और आरती होना चाहिए। रात्रि में 8 से 9 बजे तक पाँचवाँ पूजन और आरती। फिर शयन करा देना चाहिए।
(20). आरती करने वालों को प्रथम चरणों की चार बार, नाभि की दो बार और मुख की एक या तीन बार और समस्त अंगों की सात बार आरती करनी चाहिए।
(21). पूजा हमेशा पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख रखकर करनी चाहिए। यदि संभव हो सके तो सुबह 6 से 8 बजे के बीच में पूजा अवश्य करें।
भगवान् की आरती करते समय भगवान् के श्री चरणों की चार बार आरती करें, नाभि की दो बार और मुख की एक या तीन बार आरती करें। इस प्रकार भगवान् के समस्त अंगों की कम से कम सात बार आरती करनी चाहिए।
(22). पूजा जमीन पर ऊनी आसन पर बैठकर ही करनी चाहिए। पूजागृह में सुबह एवं शाम को दीपक, एक घी का और एक तेल का रखें। पूजा के लिए आसन रुरु मृग चरम, चीते की खाल, मृग चर्म, मूँज की चटाई या फिर ऊनी हो।
(23). पूजा अर्चना होने के बाद उसी जगह पर खड़े होकर 3 परिक्रमाएँ करें।
(24). पूजाघर में मूर्तियाँ 1, 3, 5, 7, 9, 11 इंच तक की होनी चाहियें। इससे बड़ी नहीं तथा खड़े हुए गणेश जी, माता सरस्वती, माता लक्ष्मी की मूर्तियाँ घर में नहीं होनी चाहिए।
(25). गणेश जी महाराज या देवी की प्रतिमा तीन-तीन, शिवलिंग दो, शालिग्राम दो, सूर्य प्रतिमा दो, गोमती चक्र दो की सँख्या में कदापि न रखें। अपने मदिर में सिर्फ प्रतिष्ठित मूर्ति ही रखें। उपहार, काँच, लकड़ी एवं फायबर की मूर्तियाँ न रखें। खण्डित, जलीकटी फोटो और टूटा काँच तुरन्त हटा दें, यह अमंगलकारक है एवं इनसे विपतियों का आगमन होता है।
(26). मंदिर के ऊपर भगवान के वस्त्र, पुस्तकें एवं आभूषण आदि भी न रखें मंदिर में पर्दा अति आवश्यक है। अपने पूज्य माता-पिता तथा पित्रों का फोटो मंदिर में कदापि न रखें। उन्हें घर के नैऋत्य कोण में स्थापित करें।
(27). भगवान् विष्णु की चार, गणेश जी की तीन, भगवान् सूर्य की सात, माता भगवती दुर्गा की एक एवं भगवान् शिव की आधी परिक्रमा कर सकते हैं।
(28). प्रत्येक व्यक्ति को अपने घर में कलश स्थापित करना चाहिए। कलश जल से पूर्ण, श्रीफल से युक्त विधिपूर्वक स्थापित करें। यदि घर में श्रीफल कलश उग जाता हैं, तो वहाँ सुख एवं समृद्धि के साथ स्वयं लक्ष्मी जी नारायण के साथ निवास करती हैं। तुलसी का पूजन भी आवश्यक है।
(29). मकड़ी के जाले एवं दीमक से घर को सर्वदा बचावें अन्यथा घर में भयंकर हानि हो सकती है।
(30). घर में झाड़ू कभी खड़ा कर के न रखें। झाड़ू लांघना, पाँव से कुचलना भी दरिद्रता को निमंत्रण देना है। दो झाड़ू को भी एक ही स्थान में न रखें इससे शत्रु बढ़ते हैं।
(31). घर में किसी परिस्थिति में जूठे बर्तन न रखें। क्योंकि शास्त्र कहते हैं कि रात में लक्ष्मी जी घर का निरीक्षण करती हैं। यदि जूठे बर्तन रखने ही हो तो किसी बड़े बर्तन में उन बर्तनों को रख कर उनमें पानी भर दें और ऊपर से ढक दें तो दोष निवारण हो जायेगा।
(32). कपूर का एक छोटा सा टुकड़ा घर में नित्य अवश्य जलाना चाहिए, जिससे वातावरण अधिकाधिक शुद्ध हो और वातावरण में धनात्मक ऊर्जा बढ़े।
(33). घर में नित्य घी का दीपक जलावें और सुखी रहें। कभी भी दीपक से दीपक नहीं जलाना चाहिए। जो व्यक्ति दीपक से दीपक जलाते हैं, वे रोगी होते हैं।
(34). घर में नित्य गोमूत्र युक्त जल से पोंछा लगाने से घर में वास्तुदोष समाप्त होते हैं तथा दुरात्माएँ हावी नहीं होती हैं।
(35). सेंधा नमक घर में रखने से सुख श्री(लक्ष्मी) की वृद्धि होती है ।
(36). रोज पीपल वृक्ष के स्पर्श से शरीर में रोग प्रतिरोधकता में वृद्धि होती है। बुधवार और रविवार को पीपल के वृक्ष में जल अर्पित नहीं करना चाहिए।
(37). साबुत धनिया, हल्दी की पाँच गाँठें, 11 कमलगट्टे तथा साबुत नमक एक थैली में रख कर तिजोरी में रखने से बरकत होती है, श्री (लक्ष्मी) व समृद्धि बढ़ती है।
(38). दक्षिणावर्त शंख जिस घर में होता है, उसमें साक्षात लक्ष्मी एवं शांति का वास होता है वहाँ मंगल ही मंगल होते हैं। पूजा स्थान पर दो शंख नहीं होने चाहिए।
(39). घर में यदा-कदा केसर के छींटे देते रहने से वहाँ धनात्मक ऊर्जा में वृद्धि होती है। पतला घोल बनाकर आम्र पत्र अथवा पान के पते की सहायता से केसर के छींटे लगाने चाहिए।
(40). एक मोती शंख, पाँच गोमती चक्र, तीन हकीक पत्थर, एक ताम्र सिक्का व थोड़ी सी नागकेसर एक थैली में भरकर घर में रखें। इससे श्री (लक्ष्मी) की वृद्धि होगी।
(41). आचमन करके जूठे हाथ सिर के पृष्ठ भाग में कदापि न पोंछें। इस भाग में अत्यंत महत्वपूर्ण कोशिकाएँ होती हैं।
(42). घर में पूजा पाठ व मांगलिक पर्व में सिर पर टोपी व पगड़ी पहननी चाहिए, रुमाल विशेष कर सफेद रुमाल शुभ नहीं माना जाता है।
पंचोपचार एवं षोडशोपचार पूजन :: मूर्ति के आकार और जातक में श्रद्धा-भक्ति के अनुरूप उसमें देवता का तत्त्व आता है। पूजादि संस्कारों के कारण भक्ति तत्त्व को जागृत किया जाता है। पूजन से देवता प्रसन्न होते हैं। देवता की कृपा पूजक को सुलभ हो जाती है। जातक में उपस्थित-विद्यमान रज-तम गुणों की मात्रा घटने से जातक की बुद्धि चैतन्य होती है।
पंचोपचार पूजन कृत्य ::
(1). देवता को गंध (चंदन) लगाना तथा हलदी-कुमकुम चढाना :- सर्वप्रथम, देवता को अनामिका से (कनिष्ठिका के समीप की उंगलीसे) चंदन लगाएं । इसके उपरांत दाएं हाथ के अंगूठे और अनामिका के बीच चुटकीभर पहले हलदी, फिर कुमकुम देवता के चरणों में अर्पित करें ।
(2). देवता को पत्र-पुष्प (पल्लव) चढाना :- देवता को कागद के (कागज के), प्लास्टिक के इत्यादि कृत्रिम तथा सजावटी पुष्प न चढाएं, अपितु नवीन (ताजे) और सात्विक पुष्प चढाएं । देवता को चढाए जानेवाले पत्र-पुष्प न सूंघें । देवता को पुष्प चढाने से पूर्व पत्र चढाएं। विशिष्ट देवता को उनका तत्त्व अधिक मात्रा में आकर्षित करनेवाले विशिष्ट पत्र-पुष्प चढाएं, उदा. शिवजी को बिल्वपत्र तथा श्री गणेशजी को दूर्वा और लाल पुष्प । पुष्प देवता के सिर पर न चढाएं; चरणों में अर्पित करें । डंठल देवता की ओर एवं पंखुडियां (पुष्पदल) अपनी ओर कर पुष्प अर्पित करें ।
(3). देवता को धूप दिखाना (अथवा अगरबत्ती दिखाना) :- देवता को धूप दिखाते समय उसे हाथ से न फैलाएं । धूप दिखाने के उपरांत विशिष्ट देवता का तत्त्व अधिक मात्रा में आकर्षित करने हेतु विशिष्ट सुगंध की अगरबत्तियों से उनकी आरती उतारें, उदा. शिवजी को हीना से तथा श्री लक्ष्मीदेवी की गुलाब से ।
धूप दिखाते समय तथा अगरबत्ती घुमाते समय बाएं हाथ से घंटी बजाएं ।
(4). देवता की दीप-आरती करना :- दीप-आरती तीन बार धीमी गति से उतारें । दीप-आरती उतारते समय बाएं हाथ से घंटी बजाएं।
दीप जलाने के संदर्भ में ध्यान में रखने योग्य सूत्र
(4.1). दीप प्रज्वलित करने हेतु एक दीप से दूसरा दीप न जलाएं ।
(4.2). तेल के दीप से घी का दीप न जलाएं ।
(4.3). पूजाघरमे प्रतिदिन तेल के दीप की नई बाती जलाएं ।
(5); देवता को नैवेद्य निवेदित करना :- नैवेद्य के पदार्थ बनाते समय मिर्च, नमक और तेल का प्रयोग अल्प मात्रा में करें और घी जैसे सात्विक पदार्थों का प्रयोग अधिक करें । नैवेद्य के लिए सिद्ध (तैयार) की गई थाली में नमक न परोसें। देवता को नैवेद्य निवेदित करने से पहले अन्न ढककर रखें । नैवेद्य समर्पण में सर्वप्रथम इष्टदेवता से प्रार्थना कर देवता के समक्ष भूमि पर जल से चौकोर मंडल बनाएं तथा उस पर नैवेद्य की थाली रखें । नैवेद्य समर्पण में थाली के सर्व ओर घडी के कांटे की दिशा में एक ही बार जल का मंडल बनाएं । पुनः विपरीत दिशा में जल का मंडल न बनाएं । नैवेद्य निवेदित करते समय ऐसा भाव रखें कि ‘हमारे द्वारा अर्पित नैवेद्य देवतातक पहुंच रहा है तथा देवता उसे ग्रहण कर रहे हैं।
देव पूजन के उपरांत किए जानेवाले कृत्य :: यद्यपि पंचोपचार पूजन में ‘कर्पूरदीप जलाना’ यह उपचार नहीं है, तथापि कर्पूर की सात्विकता के कारण उस का दीप जलाने से सात्विकता प्राप्त होने में सहायता मिलती है । अतएव नैवेद्य दिखाने के उपरांत कर्पूरदीप जलाएं । fशंखनाद कर देवता की भावपूर्वक आरती उतारें । आरती ग्रहण करने के उपरांत नाक के मूल पर (आज्ञाचक्र पर) विभूति लगाएं और तीन बार तीर्थ प्राशन करें । अंत में प्रसाद ग्रहण करें तथा उसके उपरांत हाथ धोएं ।
षोडशोेपचार पूजन ::
(1). देवता का आवाहन-बुलाना :- देवता अपने अंग, परिवार, आयुध और शक्तिसहित पधारें तथा मूर्ति में प्रतिष्ठित होकर हमारी पूजा ग्रहण करें, इस हेतु संपूर्ण शरणागत भाव से देवता से प्रार्थना करना अर्थात् उनका `आवाहन करना। आवाहन के समय हाथ में चंदन, अक्षत एवं तुलसीदल अथवा पुष्प लें।
आवाहन के उपरांत देवता का नाम लेकर अंत में ‘नमः’ बोलते हुए उन्हें चंदन, अक्षत, तुलसीदल अथवा पुष्प अर्पित कर हाथ जोडें।
देवता के रूप के अनुसार उनका नाम लें यथा श्री गणपति के लिए श्री गणपतये नमः।माँ भवानी के लिए ‘श्री भवानी देव्यै नमः। तथा विष्णु पंचायतन के लिए (पंचायतन अर्थात् पांच देवता; विष्णु पंचायतन के पांच देवता हैं, श्री हरि विष्णु, शिव, श्री गणेश, देवी तथा सूर्य) श्री महाविष्णु प्रमुख पंचायतन देवताभ्यो नमः, कहें।
(2). देवता को आसन :- देवता के आगमन पर उन्हें विराजमान होने के लिए सुंदर आसन दिया है, ऐसी कल्पना कर विशिष्ट देवता को प्रिय पत्र-पुष्प; यथा श्री गणेश जी को दूर्वा, शिव जी को बेल, श्री हरि विष्णु को तुलसी अथवा अक्षत अर्पित करें ।
(3). पाद्य-पाद प्रक्षालन :- देवता को ताम्रपात्र में रखकर उनके चरणों पर आचमनी से जल चढाएं।
(4). हस्त-प्रक्षालन :- आचमनी में जल लेकर उसमें चंदन, अक्षत तथा पुष्प डालकर, उसे मूर्ति के हाथ पर चढाएं।
(5). मुख-प्रक्षालन :- आचमनी में कर्पूर-मिश्रित जल लेकर, उसे देवता को अर्पित करने के लिए ताम्रपात्र में छोड़ें।
(6). स्नान-देवता पर जल चढाना :- धातु की मूर्ति, यंत्र, शालग्राम इत्यादि हों, तो उन पर जल चढाएं। मिट्टी की मूर्ति हो, तो पुष्प अथवा तुलसी दल से केवल जल छिड़कें। चित्र हो, तो पहले उसे सूखे वस्त्र से पोंछ लें। तदुपरांत गीले कपड़े से पुनः सूखे कपडे से पोंछें। देवताओं की प्रतिमाओं को पोंछने के लिए प्रयुक्त वस्त्र स्वच्छ हो। वस्त्र नया हो, तो एक-दो बार पानी में भिगोकर तथा सुखाकर प्रयोग करें। अपने कंधे के उपरने से अथवा धारण किए वस्त्र से देवताओं को न पोंछें।
(6.1). पंचामृत से स्नान के अंतर्गत दूध, दही, घी, मधु तथा शक्कर से क्रमानुसार स्नान करवाएं। एक पदार्थ से स्नान करवाने के उपरांत तथा दूसरे पदार्थ से स्नान करवाने से पूर्व जल चढाएं यथा दूध से स्नान करवाने के उपरांत तथा दही से स्नान करवाने से पूर्व जल चढाएं।
(6.2). देवता को चंदन तथा कर्पूर-मिश्रित जल से स्नान करवाएं।
(6.3). आचमनी से जल चढाकर सुगंधित द्रव्य-मिश्रित जल से स्नान करवाएं ।
(6.4). देवताओं को उष्णोदक से स्नान करवाएं। उष्णोदक अर्थात् अत्यधिक गरम नहीं, वरन् गुनगुना पानी ।
(6.5). देवताओं को सुगंधित द्रव्य-मिश्रित जल से स्नान करवाने के उपरांत गुनगुना जल डालकर महाभिषेक स्नान करवाएं। महाभिषेक करते समय देवताओं पर धीमी गति की निरंतर धारा पडती रहे, इसके लिए अभिषेक पात्र का प्रयोग करें। संभव हो तो महाभिषेक के समय विविध सूक्तों का उच्चारण करें।
(6.6). महाभिषेक के उपरांत पुनः आचमन के लिए ताम्रपात्र में जल छोडेें तथा देवताओं की प्रतिमाओं को पोंछकर रखें।
(7). देवता को वस्त्र देना :- देवताओं को कपास के दो वस्त्र अर्पित करें। एक वस्त्र देवता के गले में अलंकार के समान पहनाएं तथा दूसरा देवता के चरणों में रखें।
(8). देवता को उपवस्त्र अथवा यज्ञोपवीत (जनेऊ देना) अर्पित करना :- पुरुष देवताओं को यज्ञोपवीत (उपवस्त्र) अर्पित करें।
(9). पंचोपचार अर्थात देवता को गंध (चंदन) लगाना।
(10). पुष्प अर्पित करना।
(11). धूप दिखाना अथवा अगरबत्ती से आरती उतारना।
(12). दीप-आरती करना तथा नैवेद्य निवेदित करना।
(13). नैवेद्य दिखाने के उपरांत दीप-आरती और तत्पश्चात् कर्पूर-आरती करें ।
(14). देवता को मनः पूर्वक नमस्कार करना।
(15). परिक्रमा करना :- नमस्कार के उपरांत देवता के सर्व ओर परिक्रमा करें। परिक्रमा करने की सुविधा न हो, तो अपने स्थान पर ही खड़े होकर तीन बार घूम जाएं।
(16). मंत्र-पुष्पांजलि :- परिक्रमा के उपरांत मंत्रपुष्प-उच्चारण कर, देवता को अक्षत अर्पित करें। तदुपरान्त पूजा में ज्ञात-अज्ञात चूकों तथा त्रुटियों के लिए अंत में देवतासे क्षमा मांगें और पूजा का समापन करें।
अंत में विभूति लगाएं, तीर्थ प्राशन करें और प्रसाद ग्रहण करें।
सुखी और समृद्धिशाली जीवन के लिए देवी-देवताओं के पूजन की परंपरा आदि काल से चली आ रही है। अधिकांश हिन्दु में लोग इस परंपरा को निभाते हैं। पूजन से मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। पूजन का शुभ फल पूर्ण रूप से प्राप्त करने हेतु पूजा करते समय शास्त्र में वर्णित कुछ सावधानियाँ-नियमों का पालन भी किया जाना चाहिए।
कभी भी दीपक से दीपक नहीं जलाना चाहिए। जो व्यक्ति दीपक से दीपक जलाते हैं, वे रोगी होते हैं।
बुधवार और रविवार को पीपल के वृक्ष में जल अर्पित नहीं करना चाहिए।
पूजा हमेशा पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख रखकर करनी चाहिए। यदि संभव हो सके तो सुबह 6 से 8 बजे के बीच में पूजा अवश्य करें।
पूजा के लिए आसन रुरु मृग चरम, चीते की खाल, मृग चर्म, मूँज की चटाई या फिर ऊनी हो।
घर के मंदिर में सुबह एवं शाम एक दीपक घी का और एक दीपक तेल का जलाना चाहिए।
पूजन-कर्म और आरती पूर्ण होने के बाद उसी स्थान पर खड़े होकर 3 परिक्रमाएँ अवश्य करनी चाहिए।
रविवार, एकादशी, द्वादशी, संक्रान्ति तथा संध्या काल में तुलसी के पत्ते नहीं तोड़ना चाहिए। मासिक धर्म की स्थिति में महिलायें तुलसी से दूर ही रहें।
भगवान् की आरती करते समय भगवान् के श्री चरणों की चार बार आरती करें, नाभि की दो बार और मुख की एक या तीन बार आरती करें। इस प्रकार भगवान् के समस्त अंगों की कम से कम सात बार आरती करनी चाहिए।
पूजाघर में मूर्तियाँ 1, 3, 5, 7, 9, 11 इंच तक की होनी चाहियें। इससे बड़ी नहीं तथा खड़े हुए गणेश जी, माता सरस्वती, माता लक्ष्मी की मूर्तियाँ घर में नहीं होनी चाहिए।
गणेश जी या देवी की प्रतिमा तीन-तीन, शिवलिंग दो, शालिग्राम दो, सूर्य प्रतिमा दो, गोमती चक्र दो की सँख्या में कदापि न रखें।
मंदिर में सिर्फ प्रतिष्ठित मूर्ति ही रखें। उपहार, काँच, लकड़ी एवं फायबर की मूर्तियाँ न रखें एवं खण्डित, जली-कटी-फ़टी फोटो और टूटा काँच तुरंत हटा दें। खंडित मूर्तियों की पूजा वर्जित की गई हैं। जो भी मूर्ति खंडित हो जाती है, उसे पूजा के स्थल से हटा देना चाहिए और किसी पवित्र बहती नदी में प्रवाहित कर देना चाहिए। खंडित मूर्तियों की पूजा अशुभ मानी गई है।
मंदिर के ऊपर भगवान के वस्त्र, पुस्तकें एवं आभूषण आदि भी न रखें मंदिर में पर्दा अति आवश्यक है। अपने पूज्य माता–पिता तथा पित्रों का फोटो मंदिर में कदापि न रखें। उन्हें घर के नैऋत्य कोण में स्थापित करें।
भगवान् विष्णु की चार, गणेश जी की तीन, सूर्य की सात, माता भगवती दुर्गा की एक एवं भगवान् शिव की आधी परिक्रमा कर सकते हैं।
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते॥
देवता, ब्राह्मण, गुरुजन और जीवन्मुक्त महापुरुष का यथा योग्य पूजन करना, शुद्धि रखना, सरलता, ब्रह्मचर्य का पालन और हिंसा न करना; यह शरीर सम्बन्धी तप कहा जाता है।[श्रीमद्भ गवद्गीता 17.14]
Worship-honouring the demigods-deities, Brahmans-priests, Guru-teacher, relinquished-enlightened, sages-saints, maintenance of purity, simplicity, celibacy and non violence are means of asceticism pertaining to body.
देवगणों में प्रमुख भगवान् विष्णु, भगवान् शिव, गणेश जी, माँ शक्ति और भगवान् सूर्य; ईश्वर स्तर के व 12 आदित्य, 11 रुद्र, 8 वसु तथा 2 अश्वनी कुमार पूज्य देवता हैं। द्विज ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के लिये प्रयुक्त हुआ है, मगर पूजा केवल योग्य ब्राह्मणों की ही की जाती है। माता-पिता, आचार्य, राजा जनक जैसे प्राज्ञ-जीवन्मुक्त व्यक्ति सम्मान-आदर के योग्य हैं।
शारीरिक, सामुदायिक, घर, वस्त्रों आदि की सफाई परमावश्यक है। व्यवहार में ऐंठ-अकड़, घमण्ड, कुटिलता, कड़वापन, कठोरता के स्थान पर सरलता प्रशंसनीय-आवश्यक है। ब्रह्मचर्य एक आवश्यक प्रक्रिया है, जो कि कम से कम 25 वर्ष की उम्र तक पूरी निष्ठा-लग्न से करनी चाहिये। उसके बाद भी मैथुन केवल संतानोतपत्ति के हेतु ही करना उचित है। ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और सन्यास के दौरान तो, वीर्यपात कतई नहीं होना चाहिये। यही नियम स्त्रियों पर भी लागु होते हैं; विशेषकर विधवाओं के लिये। धर्म में अनावश्यक हिंसा-बलि के लिये कोई स्थान नहीं है; मगर हमलावर, आतंकी, आतताई, दुष्ट, घुसपैंठिये, बलात्कारी, हत्यारा आदि का प्रतिकार भी अत्यावश्यक है। शारीरिक तप में बड्डपन, आलस्य-प्रमाद के लिये कोई स्थान नहीं है।
शारीरिक, सामुदायिक, घर, वस्त्रों आदि की सफाई परमावश्यक है। व्यवहार में ऐंठ-अकड़, घमण्ड, कुटिलता, कड़वापन, कठोरता के स्थान पर सरलता प्रशंसनीय-आवश्यक है। ब्रह्मचर्य एक आवश्यक प्रक्रिया है, जो कि कम से कम 25 वर्ष की उम्र तक पूरी निष्ठा-लग्न से करनी चाहिये। उसके बाद भी मैथुन केवल संतानोतपत्ति के हेतु ही करना उचित है। ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और सन्यास के दौरान तो, वीर्यपात कतई नहीं होना चाहिये। यही नियम स्त्रियों पर भी लागु होते हैं; विशेषकर विधवाओं के लिये। धर्म में अनावश्यक हिंसा-बलि के लिये कोई स्थान नहीं है; मगर हमलावर, आतंकी, आतताई, दुष्ट, घुसपैंठिये, बलात्कारी, हत्यारा आदि का प्रतिकार भी अत्यावश्यक है। शारीरिक तप में बड्डपन, आलस्य-प्रमाद के लिये कोई स्थान नहीं है।
There are 5 demigods of the level of God for worship. In addition to them 12 Aditiy, 11 Rudr, 8 Vasu and 2 Ashwani Kumars are also there for the purpose of prayers-worship. Upper castes in Hindus constitutes of Brahman, Kshatriy and Vaeshy; but only learned, scholars, enlightened, deserving Brahmans should be worshipped-honoured; during holy sacrifices. Parents, teachers-Guru, detached-relinquished, saints-sages-recluse do deserve to be honoured during such an event.
Cleanliness of the body, house, cloths, environment is essential at all occasions. Simplicity of behaviour, is a desirable character-quality. Unnecessary diplomacy, cruelty, anger, strictness, foul-abusive language, ego, anger, pride should be completely discarded. Celibacy till the age of 25 years during studies and Vanprasth & Sanyas is essential. Sperms should not be allowed to discharge by avoiding such encounters-chances. During Grahasth Ashram, family way-house hold, one must restraint himself from discharge-ejection of sperms. Intercourse only for the sake of progeny is advised. Over indulgence in sex is always counter productive-dangerous. However, the needs of the husband & wife should be met at regular intervals. These rules are applicable to widows as well. The religion has no place for violence, animal-human sacrifice, murder. However, the terrorists, murderer, intruders, rapists, brutal, barbarians, attackers must be repelled, punished, killed. The physical asceticism involves the discard of superiority, laziness, intoxication.
Cleanliness of the body, house, cloths, environment is essential at all occasions. Simplicity of behaviour, is a desirable character-quality. Unnecessary diplomacy, cruelty, anger, strictness, foul-abusive language, ego, anger, pride should be completely discarded. Celibacy till the age of 25 years during studies and Vanprasth & Sanyas is essential. Sperms should not be allowed to discharge by avoiding such encounters-chances. During Grahasth Ashram, family way-house hold, one must restraint himself from discharge-ejection of sperms. Intercourse only for the sake of progeny is advised. Over indulgence in sex is always counter productive-dangerous. However, the needs of the husband & wife should be met at regular intervals. These rules are applicable to widows as well. The religion has no place for violence, animal-human sacrifice, murder. However, the terrorists, murderer, intruders, rapists, brutal, barbarians, attackers must be repelled, punished, killed. The physical asceticism involves the discard of superiority, laziness, intoxication.
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