Monday, June 22, 2015

SHRI RAM HRADYAM STROTR श्रीराम ह्रदयम् स्त्रोत्र

SHRI RAM HRADYAM STROTR श्रीराम ह्रदयम् स्त्रोत्र

CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।  
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्। 
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
श्रीमहादेव उवाच ::
 ततो रामः स्वयं प्राह हनूमंत मुपस्थितम्।
श्रृणु तत्त्वं प्रवक्ष्यामि ह्यात्मानात्मपरात्मनाम्॥1॥
श्री महादेव कहते हैं: तब श्री राम ने अपने पास खड़े हुए श्री हनुमान से स्वयं कहा, मैं तुम्हें आत्मा, अनात्मा और  परमात्मा का तत्त्व बताता हूँ, तुम ध्यान से सुनो। 
Bhagwan Shiv said:  Then Sri Ram himself addressed Sri Hanuman, who was standing nearby to understand the gist, theme, basics, roots of the soul and the Almighty-Supreme Soul.
आकाशस्य यथा भेद-स्त्रिविधो दृश्यते महान्।
जलाशये महाकाशस्-तदवच्छिन्न एव हि॥2॥
विस्तृत आकाश के तीन भेद दिखाई देते हैं : एक महाकाश, दूसरा जलाशय में जलावच्छिन्न (जल से घिरा हुआ सा) आकाश। 
The vast space appears to be divided into three partitions: First, the great space itself; second, space appearing to be partitioned by pool water. 
प्रतिबिंबाख्यमपरं दृश्यते त्रिविधं नभः। 
बुद्ध्यवचिन्न चैतन्यमे-कं पूर्णमथापरम्॥3॥
और तीसरा (महाकाश का जल में) प्रतिबिम्बाकाश। उसी प्रकार चेतन भी तीन प्रकार का होता है: एक बुद्ध्यवच्छिन्न चेतन (बुद्धि से परिमित हुआ सा), दूसरा जो सर्वत्र परिपूर्ण है। 
And the third reflection (or image) of the great space in pool water. Similarly, Consciousness also appears to have three partitions: consciousness (appearing to be)surrounded by intelligence, the other all pervading consciousness.
आभासस्त्वपरं बिंबभूत-मेवं त्रिधा चितिः। 
साभासबुद्धेः कर्तृत्वम-विच्छिन्नेविकारिणि॥4॥
और तीसरा आभास चेतन जो बुद्धि में प्रतिबिंबित होता है। कर्तृत्व आभास चेतन के सहित बुद्धि में होता है अर्थात् आभास चेतन की प्रेरणा से ही बुद्धि सब कार्य करती है। 
And third is the consciousness which gets reflected in intelligence. This reflected consciousness along with intelligence has illusion of doing. Or due to this consciousness, intelligence is able to do all the work.
साक्षिण्यारोप्यते भ्रांत्या जीवत्वं च तथाऽबुधैः। 
आभासस्तु मृषाबुद्धिः अविद्याकार्यमुच्यते॥5॥
किन्तु भ्रान्ति के कारण अज्ञानी लोग साक्षीआत्मा में कर्तृत्व और जीवत्व का आरोप करते हैं अर्थात् उसे ही कर्ता और भोक्ता मान लेते हैं। आभास तो मिथ्या है और बुद्धि अविद्या का कार्य है। 
But due to ignorance, people ascribe this activity to witnessing Soul and assume it to be the doer and the user. This reflection is fake, false, Mithya (non existent) and the intelligence is the by product of Avidya (nature or Maya, falsehood).
अविच्छिन्नं तु तद् ब्रह्म विच्छेदस्तु विकल्पितः। 
विच्छिन्नस्य पूर्णेन एकत्वं प्रतिपाद्यते॥6॥
वह ब्रह्म विच्छेद रहित है और विकल्प (भ्रम) से ही उसके विभाजन (विच्छेद) माने जाते हैं। इस प्रकार विच्छिन्न (आत्मा) और पूर्ण चेतन (परमात्मा) के एकत्व का प्रतिपादन किया गया। 
That Consciousness is without any division and due to illusion only; these divisions appear to exist. This illustrates that the divided (soul) and undivided consciousness (supreme soul) are to be the same.
तत्त्वमस्यादिवाक्यैश्‍च साभासस्याहमस्तथा। 
ऐक्यज्ञानं यदोत्पन्नं महावाक्येन चात्मनोः॥7॥
तत्त्वमसि (तुम वह आत्मा हो) आदि वाक्यों द्वारा  अहम् रूपी आभास चेतन की आत्मा (बुद्ध्यवच्छिन्न चेतन) के साथ एकता बताई जाती है। जब महावाक्य द्वारा एकत्व का ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। 
Final statements-addresses like: You are that soul etc., establishes the unity between the reflected consciousness (which we call I, my, me or myself) and surrounded consciousness. When Maha Vaky firmly Ultimate statement-address, demonstrates this unity.
तदाऽविद्या स्वकार्येश्चनश्यत्येव न संशयः।
एतद्विज्ञाय मद्भावा-योपपद्यते॥8॥
तो अविद्या अपने कार्यों सहित नष्ट हो जाती है, इसमें संशय नहीं है। इसको जान कर मेरा भक्त, मेरे भाव (स्वरुप) को प्राप्त हो जाता है। 
Then Avidya (nature or Maya-illusion, ignorance, imprudence) gets destroyed along with its manifestations (which produce such illusions). One, who is devoted to the Almighty, when understands this assimilates in me i.e., attains Moksh, Liberation.
मद्भक्‍तिविमुखानां हि शास्त्रगर्तेषु मुह्यताम्। 
न ज्ञानं न च मोक्षः स्यात्तेषां जन्मशतैरपि॥9॥
मेरी भक्ति से विमुख जो लोग शास्त्र रूपी गड्ढे में मोहित हुए पड़े रहते हैं, उन्हें सौ जन्मों में भी न ज्ञान प्राप्त होता है और न मुक्ति ही। 
Those who are devoid of devotion to the Almighty  remain struck with the lust-ignorance of learning the scriptures, without understanding & adopting the gist-theme-elixir-nectar-basics which stresses over devotion, will not be able to become scholar even in hundreds of births, devoid of Salvation.
इदं रहस्यं ह्रदयं ममात्मनो मयैव साक्षात्-कथितं तवानघ।
मद्भक्तिहीनाय शठाय च त्वया दातव्यमैन्द्रादपि राज्यतोऽधिकम्॥10॥
हे निष्पाप हनुमान! यह रहस्य मेरी आत्मा का भी हृदय है और यह साक्षात् मेरे द्वारा ही तुम्हें सुनाया गया है। यदि तुम्हें इंद्र के राज्य से भी अधिक संपत्ति मिले तो भी मेरी भक्ति से रहित किसी दुष्ट को इसे मत सुनाना। 
O sinless Hanuman! this secret constitutes the centre-heart of even my soul. This has been described to you directly by me. Even if someone offers you a kingdom more precious than that of Indr-Heavens, you should not tell it to him if he is devoid of my devotion or is wicked.
इति श्रीमदध्यात्मरामायण-बालकांडोक्तं श्रीरामह्रदयं संपूर्णम्।
इस प्रकार श्री अध्यात्म रामायण के बाल कांड में कहा गया श्रीराम हृदय संपूर्ण हुआ॥
This completes the Sri Ram Hradyam as mentioned in Bal Kand of Sri Adhyatm Ramayan.[(SALVATION-MOKSH:  ILLUSTRATION FROM RAMAYAN)

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Friday, June 19, 2015

सूक्त SUKT*

सूक्त SUKT
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
वेदों के संहिता भाग में मंत्रों का शुद्ध रूप रहता है जो देवस्तुति एवं विभिन्न यज्ञों के समय पढ़ा जाता है। अभिलाषा प्रकट करने वाले मंत्रों तथा गीतों का संग्रह होने से संहिताओं को संग्रह कहा जाता है। इन संहिताओं में अनेक देवताओं से सम्बद्ध सूक्त प्राप्त होते हैं।
"सम्पूर्णमृषिवाक्यं तु सूक्तमित्यSभिधीयते"
मन्त्रद्रष्टा ऋषि के सम्पूर्ण वाक्य को सूक्त कहते हैँ, जिसमेँ एक अथवा अनेक मन्त्रों में देवताओं के नाम दिखलाई पडते हैं। सूक्त के चार भेद:- देवता, ऋषि, छन्द एवं अर्थ हैं। 
पुराण, उपनिषदों में वर्णित मन्त्रों, सूक्तों को वेदों से लिया गया है। 
गुरू अपने इष्ट की पूजा-अर्चना कर उसे संतुष्ट करे। प्रत्येक गुरू को अपनी गुरू परम्परा में मिला हुआ मन्त्र पहले स्वयं सिद्ध करना चाहिये और फिर वही मंत्र अपने आने वाले शिष्यों को देना चाहिये। शिष्यों को भी अपने इष्ट को ध्यान में रख कर ऐसे गुरू की तलाश करनी चाहिये जो कि उसके  इष्ट के अनुरूप उसेदीक्षित कर सके।वेदों के मंत्रों एवं सूक्तों का जाप पूरी तरह शारीरिक स्वच्छता के साथ करना चाहिये। इनका पाठ संध्या काल में भी किया जा सकता है। 
पूर्व जन्म के कर्मों, सत्-असत्, पाप-पुण्य के अनुरूप ही फल की प्राप्ति होती है। उसका वर्तमान जन्म भी उन्हें के अनुरूप योनि, कुल, गोत्र, धर्म, जाति, देश में होता है। सुख-दुःख, धन-दौलत, हारी-बीमारी की उपलब्धि भी इसी प्रकर होती है। 
दुःख, हारी-बीमारी, परेशानियों. कठिनाइयों से मुक्ति के लिए साधक-जातक को सूक्तों का श्रवण, अध्ययन, पठन-पाठन पूरी श्रद्धा-भक्ति के साथ करना चाहिये।
सवितृ सूक्त ::  सूक्त संख्या :- 11, ऋषि :- गृत्समद एवं हिरण्यस्तूप, निवास :- द्युस्थानीय। 
पवित्र गायत्री मंत्र का सम्बन्ध सवितृ से ही माना जाता है। सविता शब्द की निष्पत्ति सु धातु से हुई है, जिसका अर्थ है उत्पन्न करना, गति देना तथा प्रेरणा देना। सवितृ देव का सूर्य देवता से बहुत साम्य है। सविता का स्वरूप आलोकमय तथा स्वर्णिम है। इसीलिए इसे स्वर्ण नेत्र, स्वर्ण हस्त, स्वर्ण पाद एवं स्वर्ण जिव्य की संज्ञा दी गई है। उनका रथ स्वर्ण की आभा से युक्त है, जिसे दो या अधिक लाल घोड़े खींचते हैं। इस रथ पर बैठकर वे सम्पूर्ण विश्व में भ्रमण करते हैं। इसे असुर नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। प्रदोष तथा प्रत्यूष दोनों से इसका सम्बन्ध है। हरिकेश, अयोहनु, अंपानपात्, कर्मक्रतु, सत्यसूनु, सुमृलीक, सुनीथ आदि इनके विशेषण हैं।
गलद् रक्तमण्डावलीकण्ठमाला महाघोररावा सुदंष्ट्रा कराला। 
विवस्त्रा श्मशानलया मुक्तकेशी महाकालकामाकुला कालिकेयम्॥1॥ 
भुजे वामयुग्मे शिरोSसिं दधाना वरं दक्षयुग्मेSभयं वै तथैव। 
सुमध्याSपि तुङ्गस्तनाभारनम्रा लसद् रक्तसृक्कद्वया सुस्मितास्या॥2॥ 
शवद्वन्द्वकर्णावतंसा सुकेशी लसत्प्रेतपाणिं प्रयुक्तैककाञ्ची। 
शवाकारमञ्चाधिरूढा शिवाभि-श्चर्दिक्षुशब्दायमानाSभिरेजे॥3॥ 
स्तुति: ::

विरञ्च्यादिदेवास्त्रयस्ते गुणांस्त्रीन् समाराध्य कालीं प्रधाना बभूवु:। 
अनादिं सुरादिं मखादिं भवादिं स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा:॥4॥ 
जगन्मोहनीयं तु वाग्वादिनीयं सुहृत्पोषिणीशत्रुसंहारणीयम्। 
वचस्तम्भनीयं किमुच्चाटनीयं स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा:॥5॥ 
इयं स्वर्गदात्री पुन: कल्पवल्ली मनोजांस्तु कामान् यथार्थं प्रकुर्यात्। 
तथा ते कृतार्था भवन्तीति नित्यं स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा:॥6॥ 
सुरापानमत्ता सभुक्तानुरक्ता लसत्पूतचित्ते सदाविर्भवत्ते। 
जपध्यानपूजासुधाधौतपङ्का स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा:॥7॥ 
चिदान्दकन्दं हसन् मन्दमन्दं शरच्चन्द्रकोटिप्रभापुञ्जबिम्बम्। 
मुनीनां कवीनां हृदि द्योतयन्तं स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा:॥8॥ 
महामेघकाली सुरक्तापि शुभ्रा कदाचिद् विचित्राकृतिर्योगमाया। 
न बाला न वृद्धा न कामातुरापि स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा:॥9॥ 
क्षमस्वापराधं महागुप्तभावं मया लोकमध्ये प्रकाशीकृत यत्। 
तव ध्यानपूतेन चापल्यभावात् स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा:॥10॥
फलश्रुति: ::
यदि ध्यानयुक्तं पठेद् यो मनुष्य-स्तदा सर्वलोके विशालो भवेच्च। 
गृह चाष्टसिद्धिर्मृते चापि मुक्ति: स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा:॥11॥ 
इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितं श्रीकालिकाष्टकं सम्पूर्णम्। 
सूर्य-सूक्त (1) :: ऋग्वेदीय 1.11.5, ऋषि :- कुत्स आङ्गिरस, देवता :- सूर्य, छन्द :- त्रिष्टुप्। 
इस सूक्त के देवता सूर्य सम्पूर्ण विश्व के प्रकाशक ज्योतिर्मय नेत्र, जगत की आत्मा,  और प्राणी को सत्कर्मों में प्रेरित करनेवाले देव हैं। देव मण्डल में इनका अन्यतम एवं विशिष्ट स्थान इसलिये भी है, कि ये जीव के लिये प्रत्यक्ष गोचर हैं। ये सभी के लिये आरोग्य प्रदान करने वाले एवं सर्वविध कल्याण करनेवाले हैं; अतः समस्त प्राण धारियों के लिये स्तवनीय हैं, वन्दनीय हैं। 
चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुण स्याग्ने:।    
आ प्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्ष ँ ् सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च॥1॥
प्रकाशमान रश्मियों का समूह अथवा राशि-राशि देवगण सूर्य मण्डल के रूप में उदित हो रहे हैं। ये मित्र, वरुण, अग्नि और सम्पूर्ण विश्व के प्रकाशक ज्योतिर्मय नेत्र हैं। इन्होंने उदित होकर द्युलोक, पृथ्वी और अन्तरिक्ष को अपने देदीप्यमान तेज से सर्वतः परिपूर्ण कर दिया है। इस मण्डल में जो सूर्य हैं, वे अन्तर्यामी होने के कारण सबके प्रेरक परमात्मा हैं तथा जङ्गम एवं स्थावर सृष्टि की आत्मा हैं।
Groups of rays or the group of demigods are rising in the form of the solar system with constellations. He forms the eyes of Mitr, Varun and the entire universe. He has lit the entire space, earth and the cosmos. The Sun who is present in this group is omniscient, immanent, all knowing & is the motivating force-Almighty for all sorts of organism and the stable-stationary objects.
सूर्यों देवीमुषसं रोचमानां मर्त्यो न योषामभ्येति पश्चात्।
यत्रा नरो देवयन्तो युगानि वितन्वते प्रति भद्राय भद्रम्॥2॥ 
सूर्य गुणमयी एवं प्रकाशमान उषा देवी के पीछे-पीछे चलते हैं, जैसे कोई मनुष्य सर्वाङ्ग-सुन्दरी युवती का अनुगमन करे! जब सुन्दरी उषा प्रकट होती है, तब प्रकाश के देवता सूर्य की आराधना करने के लिये कर्मनिष्ठ मनुष्य अपने कर्तव्य-कर्म का सम्पादन करते हैं। सूर्य कल्याणरूप हैं और उनकी आराधना से कर्तव्य कर्म के पालन से कल्याण की प्राप्ति होती हैं।
Sun follows Usha (day break) just like a man who follows an extremely beautiful woman. The devoted humans begins with their work-endeavours with the appearance of Usha, to pray to the deity of light i.e., Sun. Sun is a form of welfare of all and with his worship one enables himself to achieve welfare. 
भद्रा अश्वा हरितः सूर्यस्य चित्रा एतग्वा अनुमाद्यासः।
नमस्यन्तो दिव आ पृष्ठमस्थुः परिद्यावा पृथिवी यन्ति सद्यः॥3॥ 
सूर्य का यह रश्मि-मण्डल अश्व के समान उन्हें सर्वत्र पहुँचाने वाला चित्र-विचित्र एवं कल्याणरूप है। यह प्रतिदिन तथा अपने पथ पर ही चलता है एवं अर्चनीय तथा वन्दनीय है। यह सबको नमन की प्रेरणा देता है और स्वयं द्युलोक के ऊपर निवास करता है। यह तत्काल द्युलोक और पृथ्वी का परिमन्त्रण कर लेता है।
The aura-brightness of Sun moves like a horse to take him all around in various curious ways-forms. It always moves over its own path everyday is deserve worship. It inspire everyone to pray and remains it self above the heavens. It immediately covers the entire universe i.e., the heavens, earth (& the nether world).
तत् सूर्यस्य देवत्वं तन्महित्वं मध्या कर्तोर्वंततं सं जभार। 
यदेदयुक्त हरितः सधस्थादाद्रात्री वासस्तनुते सिमस्मै॥4॥
सर्वान्तर्यामी प्रेरक सूर्य का यह ईश्वरत्व और महत्त्व है कि वे प्रारम्भ किये हुए, किंतु अपरिसमाप्त कृत्यादि कर्म को ज्यों का त्यों छोड़कर अस्ताचल जाते समय अपनी किरणों को इस लोक से अपने-आप में समेट लेते हैं। साथ ही उसी समय अपने रसाकर्षी किरणों और घोड़ों को एक स्थान से खींचकर दूसरे स्थान पर नियुक्त कर देते हैं। उसी समय रात्रि अन्धकार के आवरण से सबको आवृत्त कर देती है।
Its Godly-eternal character of the Sun that he leaves the work (to be taken up next day) as such at the time of Sun set and sucks his rays as well & moves-deploy his horses, which pulls his charoite else where. It leads to darkness all around i.e., night falls.  
  तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्यो रूपं कृणुते द्योरुपस्थे।
अनन्तमन्यद् रुशदस्य पाजः कृष्णमन्यद्धरितः सं भरन्ति॥5॥ 
प्रेरक सूर्य प्रात:काल मित्र, वरुण और समग्र सृष्टि को सामने से प्रकाशित करने के लिये प्राची के आकाशीय क्षितिज में अपना प्रकाशक रूप प्रकट करते हैं। इनकी रसभोजी रश्मियाँ अथवा हरे घोड़े बलशाली रात्रिकालीन अन्धकार के निवारण में समर्थ विलक्षण तेज धारण करते हैं। उन्हीं के अन्यत्र जाने से रात्रि में काले अन्धकार की सृष्टि होती है।  
प्राची ::  पूर्व; orient, the east.
विलक्षण :: Grotesque, Fantabulous.
The Sun rises in the east to illuminate Mitr, Varun & the entire living world in the front, at the horizon. Its rays of light which sucks the liquids-extracts and the green horses removes the darkness of the night and with its aura-energy, which is grotesque, fantabulous. Their movement elsewhere causes night. 
अद्या देवा उदिता सूर्यस्य निरंहसः पिपृता निरवद्यात्।
तन्नोमित्रोवरुणोमामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः॥6॥ 
हे प्रकाशमान सूर्य-रश्मियो! आज सूर्योदय के समय इधर-उधर बिखरकर तुम लोग हमें पापों से निकालकर बचा लो। न केवल पाप से ही, प्रत्युत जो कुछ निन्दित है, गर्हणीय है, दुःख-दारिद्रय  है, सबसे हमारी रक्षा करो। जो कुछ हमने कहा है; मित्र, वरुण, अदिति, सिन्धु, पृथ्वी और धुलोक के अधिष्ठातृ देवता उसका आदर करें, अनुमोदन करें, वे भी हमारी रक्षा करें।
गर्हणीय :: निंदनीय, तिरस्करणीय, घृणाजनक, गर्हणीय, घृणित, गर्हणीय, नीच, अधम; inaccessible, condemnable, detestable, execrable. 
Hey the bright Sun rays! Protect us from sins by spreading all around. Not only the sins but protect us from every thing which is condemnable, inaccessible, pains-sorrow & the poverty. What has been said by us be respected (approved, sanctioned) by Mitr, Varun, Aditi, Sindhu, earth and the worshipped deities of the heavens, protecting us. 
सूर्य-सूक्त (2) :: ऋषि :- विभ्राड्, देवता:- सूर्य, छन्द :- जगती।    
ये सूर्य मण्डल के प्रत्यक्ष देवता हैं, जिनका दर्शन सब प्राणियों को नित्य-निरन्तर होता है। पञ्च देवों में भी सूर्य नारायण की पूर्ण ब्रह्म के रूप में उपासना होती है। भगवान् सूर्य नारायण को प्रसन्न करने के लिये प्रति दिन के उपस्थान एवं  प्रार्थना में सूर्य-सूक्त के पाठ करने की परम्परा है। शरीर के असाध्य रोगों से मुक्ति पाने में सूर्य सूक्त अपूर्व शक्ति रखता है। 
विभ्राड् बृहत्पिबतु सोम्यं मध्वायुर्दधद्यज्ञपतावविह्रुतम्। 
वातजूतो अभिरक्षति त्मना प्रजाः पुपोष पुरुधा वि राजति॥1॥
वायु से प्रेरित आत्मा द्वारा जो महान् दीप्तिमान् सूर्य प्रजा की रक्षा तथा पालन-पोषण करता है और अनेक प्रकार से शोभा पाता है, वह अखण्ड आयु प्रदान करते हुए मधुर सोमरस का पान करे।
शोभा :: सौंदर्य, सुंदरता, शोभा, सौम्यता, सौष्ठव, चमक, द्युति, आभा, आलोक, तेज, महिमा, प्रताप, प्रतिष्ठा, गर्व, यश;  beauty, grace, glory, lustre.
The Sun which is brilliant-lustrous, protects & nurses the populace, whose soul is inspired by Pawan (deity-demigod), is glorified in numerous ways, may grant us unbroken life span (good health) and drink Somras.  
उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः। दृशे विश्वाय सूर्यम्॥2॥ 
विश्व की दर्शन-क्रिया सम्पादित करने के लिये अग्रिज्वाला-स्वरूप उदीयमान सूर्य देव को ब्रह्म ज्योतियाँ ऊपर उठाये रखती हैं।
The Brahm Jyoti keeps the Sun, which like a ball of burning gases, elevated in the sky to make the universe visible.
The flow of energy from the Almighty raises the Sun to its orbital status, moving round another star, along with its solar system. 
येना पायक चक्षसा भुरण्यन्तंजनाँ अनु। त्वं वरुण पश्यसि॥3॥ 
हे पावक रूप एवं वरुण रूप सूर्य! तुम जिस दृष्टि से ऊर्ध्व गमन करने वालों को देखते हो, उसी कृपा दृष्टि से सब जनों को देखो।
Hey Sun enjoying the status of Agni-fire & Varun-water! Please look at the masses-populace with the same pleasing-soothing eyes-attitude, with which you see those who are rising upwards.
Water is a compound of hydrogen & oxygen. Hydrogen burns in Oxygen to produce water. Hydrogen is the basic element which can be converted to any other element like Gold. Hydrogen in plasmic state produces enormous energy. Normally, it burns to produces-synthesise Helium.
दैव्यावध्वर्यूआ गत ँ ् रथेन सूर्यत्वचा।मध्या यज्ञ ँ ् समञ्जा थे। 
तं प्रत्रथाऽयं वेनश्चित्रं देवानाम्॥4॥
हे दिव्य अश्विनीकुमारो! आप भी सूर्य की सी कान्तिवाले रथ में आयें और हविष्य से यज्ञ को परिपूर्ण करें। उसे ही जिसे ज्योतिष्मानों में चन्द्रदेव ने प्राचीन विधि से अद्भुत बनाया है।
Hey divine Ashwani Kumars! You should also come in the charoite (aeroplane) having aura (lustre, brilliance) like the Sun-your father & make offerings to complete the Yagy. One which has been made amazing-glittering by the Moon with ancient methods, procedures.
तंप्रत्नथा पूर्वथा विश्वधेमथा न्येषनातिं बर्हिषद ँ ् स्वर्विदम्। 
प्रतीचीनं वृजनं दोहसे धुनिमाशुं जयन्तमनु यासु वर्धसे॥5॥
यज्ञादि श्रेष्ठ क्रियाओं में अग्रणी रहने वाले और विपरीत पापादि का नाश करने वाले, श्रेष्ठ विस्तार वाले, श्रेष्ठ आसन पर स्थित, स्वर्ग के ज्ञाता आपको हम पुरातन विधि से, पूर्ण विधि से, सामान्य विधि से और इस प्रस्तुत विधि से वरण करते हैं।
You being first in excellent endeavours like Yagy and destroying the sins, has excellent extensions, occupying excellent throne, knowing the heaven through the ancient methods, complete-comprehensive methods, normal methods and the other offered methods, we select-choose.
अयं वेनश्चोदयत् पृश्रिगर्भा ज्योतिर्जरायू रजसो विमाने। 
इममपा ँ ्संगमे सूर्यस्य शिशुं न विप्रा मतिभी रिहन्ति॥6॥
जल के निर्माण के समय ज्योतिर्मण्डल से चन्द्रमा अन्तरिक्षीय जल को प्रेरित करता है। इस जल समागम के समय ब्राह्मण सरल वाणी से वेन (चन्द्रमा) की स्तुति करते हैं।
At the moment water is formed, the Moon inspires (enhances the process) the water in the universe (as a catalyst). At the moment the water from the outer space mixes with the one already present the Brahmns pray to the Moon. 
चित्रं देवनामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः। 
आ प्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्ष ँ ्सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुपश्च॥7॥
क्या ही आश्चर्य है कि स्थावर-जंगम जगत की आत्मा, किरणों का पुञ्ज, अग्नि, मित्र और वरुण का नेत्र रूप यह सूर्य भूलोक, द्युलोक तथा अन्तरिक्ष को पूर्ण करता हुआ उदित होता है।
पुञ्ज :: समूह; agglomerate, group, constellation, cluster, accumulation, clump, bunch.
The Sun which constitutes the soul of the universe including inertial-stationary and movable-dynamic world, rises with the agglomerate-group of Sun rays; Agni-fire, Mitr & Varun (demigods) constituting their eyes-like thier eyes, lightens-lit the earth, heavens and the space.
आ नइडाभिर्विदथे सुशस्ति विश्वानरः सविता देव एतु। 
अपि यथा युवानो मत्सथा नो विश्वं जगदभिपित्वे मनीषा॥8॥ 
सुन्दर अन्नों वाले हमारे प्रशंसनीय यज्ञ में सर्वहितैषी सूर्यदेव आगमन करें। हे अजर देवो! जैसे भी हो, आप लोग तृप्त हों और आगमनकाल में हमारे सम्पूर्ण गौ आदि को बुद्धिपूर्वक तृप्त करें।
Sun (Sury Dev-deity) should bless-come in our appreciable Yagy in which excellent grains are used as offerings. Hey immortal demigods-deities! You should be satisfied-content in all possible ways and satisfy our cows prudently-intelligently at the time of your arrival.
यदद्य कच्च वृत्रहन्नुदगा अभि सूर्य। सर्वं तदिन्द्र ते वशे॥9॥ 
हे इन्द्र! हे सूर्य! आज तुम जहाँ-कहीं भी उदीयमान हो, वे सभी प्रदेश तुम्हारे अधीन हैं।
Hey Indr! Hey Sury! Where ever you rise all places should be under your control (they should be blessed by you). 
तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिष्कृदसिसूर्य। विश्वमा भासिरोचनम्॥10॥
देखते-देखते विश्व का अतिक्रमण करनेवाले हे विश्व के प्रकाशक सूर्य! इस दीप्तिमान् विश्व को तुम्हीं प्रकाशित करते हो।
Hey Sun Dev! You cross-pass over the whole world lightening it with your light-Aura brilliance! Its you, who lightens the world.
तत् सूर्यस्य देवत्वं तन्महित्वं मध्या कर्तोर्विततं संजभार। 
यदेदयुक्त हरितः सधस्थादाद्रात्री वासस्तनुते सिमस्मै॥11॥
सूर्य का देवत्व तो यह है कि ये ईश्वर-सृष्ट जगत् के मध्य स्थित हो समस्त ग्रहों को धारण करते हैं और आकाश से ही जब हरित वर्ण की किरणों से संयुक्त हो जाते हैं तो रात्रि सब के लिये अन्धकार का आवरण फैला देती है।
Godly function of the Sun lies in retaining the planets by occupying the central position (located at the focus). When the Sun combines the green rays in the sky, it spreads the cover of darkness-night all around.
तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्यो रूपं कृणुते द्योरुपस्थे। 
अनन्तमन्यद् रुशदस्य पाजः कृष्णमन्यद्धरितः संभरन्ति॥12॥
धुलोक के अङ्क में यह सूर्य मित्र और वरुण का रूप धारण कर सबको देखता है। अनन्त शुक्ल-देदीप्यमान इसका एक दूसरा अद्वैत रूप है। कृष्णवर्ण का एक दूसरा द्वैतरूप है, जिसे इन्द्रियाँ ग्रहण करती हैं।
The Sun keep on watching by residing in the lap-womb in the form of Mitr & Varun (Dev, demigods-deities). Its another form is infinite, visible, shinning-lustrous which is monistic. Its dark form has two forms which is perceived by the sense organs.
बण्महाँ असि सूर्य बडादित्य महाँ असि। 
महस्ते सतो महिमा पनस्यतेऽद्धा देव महाँ असि॥13॥
हे सूर्यरूप परमात्मन्! तुम सत्य ही महान् हो। आदित्य! तुम सत्य ही महान् हो। महान् और सद्रूप होने के कारण आपकी महिमा गायी जाती है। आप सत्य ही महान् हैं।
सद्रूप :: सुन्दर शरीर वाला, सुडौल आकार वाला, अच्छे आचरणवाला, सदाचारी, सज्जन; beautiful.
Hey Sun-a form of the Almighty! Hey Adity! Indeed you are great. Being great & beautiful your glory is chanted. Indeed you are great.
बट् सूर्य श्रवसा महाँ असि सन्ना देव महाँ असि। 
ह्ना देवानामसुर्यः पुरोहितो विभु ज्योतिरदाभ्यम्॥14॥ 
हे सूर्य! तुम सत्य ही यश तथा महिमा से महान् हो। देवों के हितकारी एवं अग्रणी और अदम्य व्यापक ज्योतिवाले हो।
अदम्य :: न बदनेवाला, अजेय; indomitable, untamed, unconquerable.
Hey Sury! You are truly greater than honour & glory. You remain forward for the welfare of the demigods-deities (who in turn look to the welfare of humans) blessed with all pervading light being broad-wide & indomitable.
श्रायन्त इव सूर्य विश्वेदिन्द्रस्य भक्षत। 
वसूनि जाते जनमान ओजसा प्रति भागं न दीधिम॥15॥
जिन सूर्य का आश्रय करने वाली किरणें इन्द्र की सम्पूर्ण वृष्टि-सम्पत्ति का भक्षण करती हैं और फिर उनको उत्पन्न करने अर्थात् वर्षण करने के समय यथाभाग उत्पन्न करती हैं, उन सूर्य को हम हृदय में धारण करते हैं। 
धारण करना :: अंगीकार करना; accept, wear, contain. 
We accept-wear the Sury Dev who sucks the whole rains showered by Indr Dev and release it.
अद्या देवा उदित सूर्यस्य निर ँ ् हसः पिपृता निरवद्यात्।
तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धु: पृथिवी उत अद्यौः॥16॥ 
हे देवो! आज सूर्य का उदय हमारे पाप और दोष को दूर करे और मित्र, वरुण, अदिति, सिन्धु, पृथिवी तथा स्वर्ग सब के सब मेरी इस वाणी का अनुमोदन करें।
Hey demigods-deities! Let today's Sun rise vanish all our sins and defects; Mitr, Varun, Aditi, Sindhu, Prathvi & heavens support-follow my these words.
आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं  च। 
हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्॥17॥
सबके प्रेरक सूर्यदेव स्वर्णिम रथ में विराजमान होकर अन्धकार पूर्ण अन्तरिक्ष-पथ में विचरण करते हुए देवों और मानवों को उनके कार्यों में लगाते हुए लोकों को देखते हुए चले आ रहे हैं।
All inspiring Sury Dev riding his charoite is moving over the dark path making demigods-deities & humans perform their jobs, looking over the various abodes.
विष्णु सूक्त :: ऋषि :- दीर्घतमा, निवास स्थान :- द्युस्थानीय, सूक्त सँख्या :- 5.
विष्णु शब्द विष् धातु से बना है, जिसका अर्थ है व्यापनशील या क्रियाशील होना अर्थात समस्त लोकों में अपनी किरणों को फैलाने वाला। भगवान् विष्णु देवताओं  सहायक हैं। वृत्र वध के समय भगवान् विष्णु ने इन्द्र की सहायता की थी। भगवान् श्री हरी विष्णु ने तीन पगों में तीनों लोकों को नापकर राजा बाहुबली को सुतल लोक प्रदान किया और देवताओं को भी मुक्त किया। 
भगवान् विष्णु के लिए त्रिविक्रम शब्द का प्रयोग भी किया जाता है, जिसका अर्थ है सूर्य रूप विष्णु पृथ्वीलोक, द्युलोक और अंतरिक्ष में अपनी किरणों का प्रसार करते हैं तथा उनके प्रकाश से जरायुज, अण्डज, उद्भिज और स्वेदज सभी प्रकार की सृष्टि का विस्तार होता है। भगवान् विष्णु शरीर के अधिष्ठातृ देवता हैं। उनका उच्चलोक परमपद है, जहाँ मधु उत्सव है। पक्षियों में पक्षीराज गरुड इनके वाहन हैं। भगवान् विष्णु को उरुक्रम, उरगाय भीम गिरिष्ठा, वृष्ण, गिरिजा, गिरिक्षत, सहीयान् नामों से भी सम्बोधित किया गया है।
विष्णु सूक्त के द्रष्टा दीर्घतमा ऋषि हैं। भगवान् श्री हरी विष्णु के विविध रूप, कर्म हैं। अद्वितीय परमेश्वर रूप में उन्हें महाविष्णु-विराट पुरुष कहा  गया है, यज्ञ एवं जलोत्पादक सूर्य भी उन्हीं का रूप है। वे पुरातन हैं, जगत्स्रष्टा हैं। नित्य-नूतन एवं चिर-सुन्दर हैं। संसार को आकर्षित करने वाली माता भगवती लक्ष्मी उनकी भार्या हैं। उनके नाम एवं लीला के संकीर्तन से परमपद की प्राप्ति होती है जो कि मानव जीवन का परम् उद्देश्य, ध्येय, लक्ष्य है।  जो व्यक्ति उनकी ओर उन्मुख होता है, उसकी ओर वे भी उन्मुख होते हैं और साधक को मनोवाञ्छित फल प्रदान कर अनुगृहीत करते हैं। 
इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्। समूढमस्य पाशसुरे स्वाहा॥1॥ 
सर्वव्यापी भगवान् श्री हरी विष्णु ने इस जगत को धारण किया हुआ है और वे ही पहले भूमि, दूसरे अन्तरिक्ष और तीसरे धुलोक में तीन पदों को स्थापित करते हैं अर्थात् सर्वत्र व्याप्त हैं। इन विष्णु देव में ही समस्त विश्व व्याप्त है। हम उनके निमित्त हवि प्रदान करते हैं।
All pervaded Bhagwan Shri Hari Vishnu, is supporting this universe. He created-established the earth, space and the higher abodes. We make offerings to HIM.
Trinity constitutes of HIM. HE is Brahma, Vishnu & Mahesh. HE is the nurturer.
इरावती धेनुमती हि भूत सूयवसिनी मनवे दशस्या। व्यस्कनारोदसीविष्णवेतेदाधर्थपृथिवीमभितोमयूखैः स्वाहा॥2॥
यह पृथ्वी सबके कल्याणार्थ अन्न और गाय से युक्त, खाद्य-पदार्थ देने वाली तथा हित के साधनों को देने वाली है। हे विष्णुदेव! आपने इस पृथ्वी को अपनी किरणों के द्वारा सब ओर अच्छी प्रकार से धारण कर रखा है। हम आपके लिये आहुति प्रदान करते हैं।
This earth provides food rains, cows who gives all sorts of eatables & other goods for the welfare of humans. Hey Bhagwan Shri Hari Vishnu! You are supporting this earth with your strength & power. We makes offerings to you (in holi fire i.e., Yagy, Hawan Agni Hotr).
देवश्रुतौ देवेष्वा घोषतं प्राची प्रेतमध्वरं कल्पयन्ती ऊर्ध्वं यज्ञं नयतं मा जिह्वरतम्। स्वं गोष्ठमा वदतं देवी दुर्ये आयुर्मा निर्वादिष्टं प्रजां मा निर्वादिष्टमत्र रमेथां वर्ष्मन् पृथिव्याः॥3॥
आप देवसभा में प्रसिद्ध विद्वानों में यह कहें :- इस यज्ञ के समर्थन में पूर्व दिशा में जाकर यज्ञ को उच्च बनायें, अध:पतित न करें। देवस्थान में रहने वाले अपनी गोशाला में निवास करें। जब तक आयु है, तब तक धनादि से सम्पन्न बनायें। संततियों पर अनुग्रह करें। इस सुखप्रद स्थान में आप सदैव निवास करें। 
Please say in the Dev Sabha (council of Demigods) that they-the demigods-deities should move to the east and make the Yagy a success. You should be present in the cows of your cowshed in the heavens. Support the humans with riches, amenities, wealth and be present at that comfortable place.
विष्णोर्नु कं वीर्याणि प्र वोचं यः पार्थिवानि विममे रजाःसि। 
योअस्कभायदुत्तर सधस्थं विचक्रमाणस्त्रेधोरुगायो विष्णवे त्वा॥4॥
जिन सर्वव्यापी भगवान् श्री हरी विष्णु ने अपने सामर्थ्य से इस पृथ्वी सहित अन्तरिक्ष, धुलोकादि स्थानों का निर्माण किया है तथा जो तीनों लोकों में अपने पराक्रम से प्रशंसित होकर उच्चतम स्थान को शोभायमान करते हैं, उन सर्वव्यापी परमात्मा के किन-किन यशों का वर्णन करें।
Let us sing the glory of Bhagwan Shri Hari Vishnu who has created the earth, heavens and the space and occupies the highest seat-position in three abodes :- earth, heavens & the nether world.
दिवो वा विष्ण उत वा पृथिव्या महो वा विष्ण उरोरन्तरिक्षात्। 
उभा हि हस्ता हस्ता वसुना पृणस्वा प्र यच्छ दक्षिणादोत सव्याद्विष्णवे त्वा॥5॥ 
हे विष्णु! आप अपने अनुग्रह से समस्त जगत को सुखों से पूर्ण कीजिये और भूमि से उत्पन्न पदार्थ और अन्तरिक्ष से प्राप्त द्रव्यों से सभी सुख निश्चय ही प्रदान करें। हे सर्वान्तर्यामी प्रभु! दोनों हाथों से समस्त सुखों को प्रदान करनेवाले विष्णु! हम आपको सुपूजित करते हैं।
Hey Vishnu! Please provide all sorts of comforts (amenities, luxuries) in this world. The goods grown over the earth & received-obtained from the outer space, should grant us pleasure. Hey all pervading Almighty, who provide comforts, amenities with both of your forwards hands (HE has four hands) we honour-worship you! 
प्रतद्विष्णुः स्तवते वीर्येण मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः। 
यस्योरुषु त्रिषु विक्रमणेष्वधिक्षियन्ति भुवनानि विश्वा॥6॥
भयंकर सिंह के समान पर्वतों में विचरण करने वाले सर्वव्यापी देव विष्णु! आप अतुलित पराक्रम के कारण स्तुति-योग्य हैं। सर्वव्यापक विष्णु देव के तीनों स्थानों में सम्पूर्ण प्राणी निवास करते हैं।
Hey all pervading Shri Hari! You roam in the mountains like a furious lion. Your valour, strength, power deserve worship. Living beings are present in all the three abodes supported by HIM. 
विष्णो रराटमसि विष्णोः श्नप्ने स्थो विष्णोः स्यूरसि। 
विष्णोर्ध्रुवोऽसि। वैष्णवमसि विष्णवे त्वा॥7॥ 
इस विश्व में व्यापक देव विष्णु का प्रकाश निरन्तर फैल रहा है। विष्णु के द्वारा ही यह विश्व स्थिर है तथा इनसे ही इस जगत् का विस्तार हुआ है और कण-कण में ये ही प्रभु व्याप्त हैं। जगत की उत्पत्ति करने वाले हे प्रभु! हम आपकी अर्चना करते हैं।
The glory-energy of the all pervading Bhagwan Shri Hari is spreading all over the universe which is fixed (the position & location of all universes, galaxies & the stars is fixed in a certain place which is not disturbed) by HIM and the universe extended further.
This is a well knit structure having 64 dimensions. The heavenly objects can move in a fixed place but can not leave that position.
नारायण सूक्त :: ऋषि नारायण, देवता आदित्य-पुरुष,  छन्द भूरिगार्षी त्रिष्टुपु, निच्यदार्षी त्रिष्टुप् एवं आष्-र्यनुष्टुप्। 
इस सूक्त में सृष्टि के विकास और व्यक्ति के कर्तव्य का बोध होता है। इसमें आदि पुरुष (महाविष्णु, विराट पुरुष) की महिमा की अभिव्यक्ती है। इस मंत्र की सिद्धि से सभी देवता जातक के पक्ष में हो जाते हैं। 
अद्भ्यः सम्भृतः पृथिव्यै रसाच्च विश्वकर्मणः समवर्तताग्ने। 
तस्य त्वष्टा विदधद्रूपमेति तन्मत्त्यस्य देवत्वमाजानमग्रे॥1॥
पृथ्वी आदि की सृष्टि के लिये अपने प्रेम के कारण वह पुरुष जल आदि से परिपूर्ण होकर पूर्व ही छा गया। उस पुरुष के रूप को धारण करता हुआ सूर्य उदित होता है, जिसका मनुष्य के लिये प्रधान देवत्व है।
The Adi Purush-first one to evolve, pervaded the water prior to his appearance and his first form showed off as Sun, who is a demigod-deity & is essential for life-humans.
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्। 
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥2॥ 
मैं अज्ञानान्धकार से परे आदित्य-प्रतीकात्मक उस सर्वोत्कृष्ट पुरुष को जानता हूँ। मात्र उसे जानकर ही मृत्यु का अतिक्रमण होता है। शरण के लिये अन्य कोई मार्ग नहीं। 
I am aware of the presence of Adi Purush, Maha Vishnu, Virat Purush. He is away from ignorance. One who knows him, i.e., worship does not fear death, rebirth. He can be availed through worship.  
प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा वि जायते।
तस्य योनिं परि पश्यन्ति धीरास्तस्मिन् ह तस्थुर्भुवनानि विश्वा॥3॥ 
वह परमात्मा आभ्यन्तरमें विराजमान है। उत्पन्न न होनेवाला होकर भी नाना प्रकार से उत्पन्न होता है। संयमी पुरुष ही उसके स्वरूप का साक्षात्कार करते हैं। सम्पूर्ण भूत उसी में सन्निविष्ट हैं।
HE was present at all points of time i.e., in the past, present and the future as well. HE is unborn yet HE reveals HIMSELF in many ways. Only those who who exercise self restraint-self control can visualise HIM. Every thing-event that has occurred in the past resides in HIM.
यो देवेभ्य आतपति यो देवानां पुरोहितः। 
पूर्वो यो देवेभ्यो जातो नमो रुचाय ब्राह्मे॥4॥ 
जो देवताओं के लिये सूर्य रूप से प्रकाशित होता है, जो देवताओं का कार्य साधन करने वाला है और जो देवताओं से पूर्व स्वयं भूत है, उस देदीप्यमान ब्रह्म को नमस्कार है।
We worship the Brahm bearing aura, who shines as Sun for the demigods-deities, accomplish their endeavours,  who is present prior to the demigods-deities. 
रुचं ब्राह्मं जनयन्तो देवा अग्रे तदब्रुवन्। 
यस्त्वैवं ब्राह्मणो विद्यात्तस्य देवा असन् वशे॥5॥
उस शोभन ब्रह्म को प्रथम प्रकट करते हुए देवता बोले, "जो ब्राह्मण तुम्हें इस स्वरूप में जाने, देवता उसके वश में हों"।
The demigods-deities at HIS first appearance said, "All the demigods-deities may be under the control of the Brahmn (Indr Dev) who recognises YOU in this form."  
श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पल्यावहोरात्रे पार्श्निक्षत्राणि रूपमश्विनौ व्यात्तम्। 
म इष्णन्निषाणामुं इषाण सर्वलोकं म इषाण॥6॥ 
समृद्धि और सौन्दर्य तुम्हारी पत्नी के रूप में हैं, दिन तथा रात तुम्हारे अगल-बगल हैं, अनन्त नक्षत्र तुम्हारे रूप हैं, द्यावा-पृथ्वी तुम्हारे मुख स्थानीय हैं। इच्छा करते समय परलोक की इच्छा करो। मैं सर्वलोकात्मक हो जाऊँ-ऐसी इच्छा करो, ऐसी इच्छा करो।
All amenities and beauty exists as YOUR wife (Maa Lakshmi), day & night are by YOUR side, infinite Nakshtr (star, solar systems) are YOUR forms-incarnations, the earth is YOUR mouth. If one has a desire, he should think of the betterment of his next abode. I should be positive in thoughts & ideas. 
श्रीमच्छंकराचार्यविरचितं नारायणस्तोत्रं :: 
नारायण नारायण जय गोविंद हरे। 
नारायण नारायण जय गोपाल हरे॥
करुणापारावारा वरुणालयगम्भीरा। 
घननीरदसंकाशा कृतकलिकल्मषनाशा॥
यमुनातीरविहारा धृतकौस्तुभमणिहारा।  
पीताम्बरपरिधाना सुरकल्याणनिधाना॥
मंजुलगुंजाभूषा मायामानुषवेषा। 
राधाऽधरमधुरसिका रजनीकरकुलतिलका॥
मुरलीगानविनोदा वेदस्तुतभूपादा। 
बर्हिनिवर्हापीडा नटनाटकफणिक्रीडा॥
वारिजभूषाभरणा राजिवरुक्मिणिरमणा। 
जलरुहदलनिभनेत्रा जगदारम्भकसूत्रा॥
पातकरजनीसंहर करुणालय मामुद्धर।
अधबकक्षयकंसारे केशव कृष्ण मुरारे॥
हाटकनिभपीताम्बर अभयं कुरु मे मावर।
दशरथराजकुमारा दानवमदस्रंहारा॥
गोवर्धनगिरिरमणा गोपीमानसहरणा।
शरयूतीरविहारासज्जनऋषिमन्दारा॥
विश्वामित्रमखत्रा विविधपरासुचरित्रा। 
ध्वजवज्रांकुशपादा धरणीसुतस्रहमोदा॥
जनकसुताप्रतिपाला जय जय संसृतिलीला।  
दशरथवाग्घृतिभारा दण्डकवनसंचारा॥
मुष्टिकचाणूरसंहारा मुनिमानसविहारा। 
वालिविनिग्रहशौर्या वरसुग्रीवहितार्या॥
मां मुरलीकर धीवर पालय पालय श्रीधर। 
जलनिधिबन्धनधीरा रावणकण्ठविदारा॥
ताटीमददलनाढ्या नटगुणविविधधनाढ्या। 
गौतमपत्नीपूजन करुणाघनावलोकन॥
स्रम्भ्रमसीताहारा साकेतपुरविहारा। 
अचलोद्घृतिञ्चत्कर भक्तानुग्रहतत्पर॥
नैगमगानविनोदा रक्षःसुतप्रह्लादा।
भारतियतिवरशंकर नामामृतमखिलान्तर॥
इति श्रीमच्छंकराचार्यविरचितं नारायणस्तोत्रं सम्पूर्णम्‌।
SHREE SUKT श्री सूक्त :: ऋषि :- आनन्दकर्दम चिक्लीत जातवेद, देवता :- स्त्री, छन्द :- अनुष्टुप प्रस्तार पंक्ति एवं त्रिष्टुप। 
यह सभी ऐश्वर्यों को देने में समर्थ है। सुखों की प्राप्ति हेतु सँध्या के समय अपने इष्ट के सम्मुख बैठकर या किसी देवालय में या फिर किसी शक्ति-पीठ में बैठकर इसका कम से कम 3 पाठ प्रतिदिन पाठ करने चाहिये। यह मनोकामना पूर्ण करने में समर्थ है।
ऐश्वर्य एवं समृद्धि की कामना से इस सूक्त के मन्त्रों का जप तथा इन मन्त्रों से हवन, पूजन अमोध अभीष्ट फल दायक है।
One who conduct Yagy-Hawan with the desire for amenities, comforts, luxuries recite the following Mantr may be able to attain the goal.
हिरण्यवर्णा हरिणीं सुवर्णरजतस्त्रजाम्। 
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह॥1॥
हे जातवेदा (सर्वज्ञ) अग्निदेव! सुवर्ण-जैसी रंगवाली, किञ्चित् हरितव्ण विशिष्टा, सोने और चाँदी के हार पहनने वालो, चन्द्रवत प्रसन्न कान्ति, स्वर्णमयी लक्ष्मी देवी को मेरे लिये आवाहन करो।
Hey all knowing Agni Dev! Please invite Maa Laxmi, who has a golden colour with the tinge of slight green colour, wears golden & silver necklaces, with the  aura  like the Moon on my behalf
तां म आ वह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम् ॥2॥
अग्ने! उन लक्ष्मी देवी को, जिनका कभी विनाश नहीं होता तथा जिनके आगमन से मैं सोना, गौ, घोड़े तथा पुत्रादि को प्राप्त करूँगा, मेरे लिये आवाहन करो।
Hey Agni Dev! Please invite imperishable Maa Laxmi Devi, with the arrival of whom I may get cows, horses and sons; on my behalf
अश्वपूर्वा रथमध्यां हस्तिनादप्रमोदिनीम्।
श्रियं देवीमुप ह्वये श्रीर्मा देवी जुषताम्॥3॥
जिन देवी के आगे घोड़े तथा उनके पीछे रथ रहते हैं तथा जो हस्तिनाद को सुनकर प्रमुदित होती हैं, उन्हीं श्री देवी का मैं आवाहन करता हूँ; लक्ष्मी देवी मुझे प्राप्त हों।
I invite the Goddess-Shri Devi (Maa Laxmi, Goddess of riches, wealth) who has horses in her front and chariots behind, who become happy by listening to the voice-sound of elephants, should accompany me.
कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारा मार्द्रां  ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम्। 
पद्येस्थितां पद्मवर्णा तामिहोप ह्वये श्रियम्॥4॥
जो साक्षात् ब्रह्म रूपा, मन्द-मन्द मुसकराने वाली, सोने के आवरण से आवृत, दयामयी, तेजोमयी, पूर्णकामा, भक्तानुग्रह कारिणी, कमल के आसन पर विराजमान तथा पद्मवर्णा हैं, उन लक्ष्मी देवी का मैं यहाँ आवाहन करता हूँ। 
I invite Maa Laxmi at this place, who is like the Brahm, has little smile, decorated with gold, kind, wearing aura, kind to the devotees, sitting over lotus and has the colour of Padm (Kamal, Lotus). 
चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम्। 
तां पद्मिनीमीं शरणं प्र पद्येऽलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे॥5॥ 
मैं चन्द्र के समान शुभ्र कान्तिवाली, सुन्दर द्युतिशालिनी (lustre, चमक), यश से दीप्तिमती, स्वर्ग लोक में देव गणों के द्वारा पूजिता, उदारशीला, पद्महस्ता लक्ष्मी देवी की शरण ग्रहण करता है। मेरा दारिद्रय दूर हो जाय। मैं आपको शरण्ये रूप में वरण करता हूँ।
I seek protection (shelter, asylum) under Maa Bhagwati Laxmi who has the aura of Moon, who is beautiful & lustrous, shinning with glory, revered by the demigod-deities of the heavens, having the hands like the lotus. Hey Maa Laxmi! Let my poverty be abolished. I accept-bear you my the protector. 
आदित्यवर्णे तस्य तपसोऽधि जातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ विल्यः। तस्य 
फलानि तमसा नुदन्तु या अन्तरा याश्च बाह्या अलक्ष्मीः॥6॥ 
हे सूर्य के समान प्रकाश स्वरूपे! तुम्हारे ही तप से वृक्षों में श्रेष्ठ मङ्गलमय बिल्व वृक्ष (wood apple) उत्पन्न हुआ। उसके फल हमारे बाहरी और भीतरी दारिद्रय को दूर करें।
Hey (Maa Bhagwati Laxmi) of the form of glittering Sun! Bilv Vraksh-Bel Patthar-the excellent & pious, was born as a result of your asceticism. Its fruits may remove our external & internal poverty. 
उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह।  
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेSस्मिन् कीर्तिमुद्धिं ददातु मे॥7॥
देवि! देव सखा कुबेर और उनके मित्र मणि भद्र तथा दक्ष प्रजापति की कन्या कीर्ति मुझे प्राप्त हों अर्थात् मुझे धन और यश की प्राप्ति हो। मैं इस राष्ट्र-देश में उत्पन्न हुआ हूँ, मुझे कीर्ति और ऋद्धि (संपन्नता, सफलता) प्रदान करें।
Hey Goddess (Maa Bhagwati Laxmi-Lakshmi)! You should be available to me like the friends of demigods-deities Kuber, his friend Mani Bhadr and the daughter of Daksh Prajapati, which means that I may get glory and wealth. I am born in this country. Bless me with glory-name & fame, riches and success. 
क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम्। 
अभूतिमसमृद्धिं च सर्वां निर्णुद में गृहात्॥8॥ 
लक्ष्मी की ज्येष्ठ बहिन अलक्ष्मी (दरिद्रताकी अधिष्ठात्री देवी) का, जो क्षुधा और पिपासा (प्यास, तृष्णा, इच्छा, लोभ) से मलिन-क्षीणकाय रहती हैं, मैं नाश चाहता हूँ। देवि! मेरे घर से सब प्रकार के दारिद्रय और अमङ्गल को दूर करो।
I want to abolish the elder sister of Maa Laxmi who is known as Alaxmi, who is always weak due to hunger & thirst (extreme unreasonable desires, greed). Hey Devi! Kindy remove all sorts of poverty and inauspiciousness from my house.  
गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम्।  
ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोप ह्वये श्रियम्॥9॥
जो दुराधर्षा तथा नित्यपुष्टा हैं तथा गोबर से (पशुओं से) युक्त गन्ध गुणवती पृथ्वी ही जिनका स्वरूप है, सब भूतों की स्वामिनी उन लक्ष्मी देवी का मैं यहाँ-अपने घर में आवाहन करता हूँ।
दुर्धर्ष :: जिसे वश में करना कठिन हो, जिसे परास्त करना या हराना कठिन हो, प्रबल, प्रचंड, उग्र, जिसे दबाया न जा सके, दुर्व्यवहारी, हस्तिनापुर सम्राट धृतराष्ट्र का एक पुत्र, रावण की सेना का एक राक्षस; who is difficult to control, difficult to defeat, strong-powerful, a son of Dhratrashtr, a demon in Ravan's army.
I invite Maa Lakshmi to my house, who is difficult to control & defeat,  mother earth is her replica with the smell of dung and who the master of all that has happened in the past.
मनसः काममाकूर्तिं वाचः सत्यमशीमहि। 
पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः॥10॥ 
मनोकामनाएँ और संकल्प की सिद्धि एवं वाणी की सत्यता मुझे प्राप्त हों, गौ आदि पशुओं एवं विभिन्न अन्नों-भोग्य पदार्थों के रूप में तथा यश  में श्री देवी का हमारे यहाँ आगमन हो।
Maa Laxmi may be present in our house in the form of cows, different food grains-items, honour & glory & ascertain accomplishment of our all desires, resolution and the speech. 
कर्दमेन प्रजा भूता मयि सम्भव कर्दम। 
श्रियं वासथ मे कुले मातरं पद्ममालिनीम्॥11॥ 
लक्ष्मी के पुत्र कर्दम की हम संतान हैं। हे कर्दम ऋषि! आप हमारे यहाँ उत्पन्न हों तथा पद्यों की माला धारण करने वाली माता लक्ष्मी देवी को हमारे कुल में स्थापित करें।
We are the progeny of Kardam Rishi, the son of Maa Lakshmi. Hey Kardam! Please take birth in our family and establish Maa Lakshmi, who wears the garland of Lotus flowers in our family.
आय: सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस में गृहे। 
नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले॥12॥ 
जल स्निग्ध पदार्थो की श्रष्टि करें। लक्ष्मी पुत्र  चिक्लीत! आप भी मेरे घर में वास करें और माता लक्ष्मी देवी का मेरे कुल में निवास करायें।
स्निग्ध :: स्नेह युक्त, प्रेममय (स्निग्ध दृष्टि), चिकना (स्निग्ध पदार्थ); aliphatic, balsamic, lubricated.
Let water create lubricated goods. Hey Maa Lakshmi's Chiklit! Please stay in our house along with Maa Laxmi. 
आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टि पिङ्गलां  पद्ममालिनीम्। 
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह॥13॥ 
अग्ने! आर्द्रस्वभावा, कमलहस्ता, पुष्टिरूपा, पीतवर्णा, पद्मों की माला धारण करने वाली, चन्द्रमा के समान शुभ कान्ति से युक्त, स्वर्णमयी लक्ष्मी देवी का मेरे यहाँ आवाहन करें।
आर्द्र :: गीला, तरल, नम, द्रवित; wet, moist.
Hey Agni! Please invite Maa Laxmi, who is soft by nature, nourishing, yellow coloured, wearing the garland of Lotus flowers, having the aura like he Moon & is like gold in our house. 
आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं सुवर्णा हेममालिनीम्। 
सूर्या हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह॥14॥
अग्ने! जो दुष्टों का निग्रह करने वाली होने पर भी कोमल स्वभाव की हैं, जो मङ्गल दायिनी, अवलम्बन प्रदान करने वाली यष्टिरूपा, सुन्दर वर्णवाली, सुवर्ण माला धारिणी, सूर्य स्वरूपा तथा हिरण्यमयी हैं, उन लक्ष्मी देवी का मेरे लिये आवहन करें।यष्टि :: छड़ी,  डंडा या लाठी, झंडे का डंडा, पेड़ की टहनी, डाल, शाखा, बाँह, लता, मुलेठी, ताँत; stick.
Hey Agni Dev! Please invite Maa Laxmi to my house, who is soft by nature, auspicious, supporting, like a stick, beautiful coloured, like the Sun and gold.
तां म आ वह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्। 
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरुषानहम्॥15॥ 
अग्ने! कभी नष्ट न होने वाली उन लक्ष्मी देवी का मेरे लिये आवाहन करें, जिनके आगमन से बहुत सा धन, गौएँ, दासियाँ, अश्व और पुत्रादि को हम प्राप्त करें।
Hey Agni Dev! Please invite the imperishable Maa Lakshmi for us, arrival of whom may bless us with plenty of cows, women workers-slaves, horses and sons.
यः शुचिः प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम्।  
सूक्तं पञ्चदशर्चं च श्रीकामः सततं जपेत्॥16॥ 
जिसे लक्ष्मी की कामना हो, वह प्रतिदिन पवित्र और संयमशील होकर अग्नि में घी की आहुतियाँ दे तथा इन पंद्रह ऋचाओंवाले 'श्री-सूक्त' का निरन्तर पाठ करें।
One who is desirous of Lakshmi-wealth, should make offerings in holy fire every day after becoming pure-pious with the 15 verse written above regularly everyday.
श्री सूक्त का जाप प्रयोग हृदय अथवा आज्ञाचक्र में या सामान्य पूजा प्रकरण से ही संपन्न करें।
देवी-सूक्त :: ऋग्वेद के दशम मण्डल का 125 वां सूक्त वाक् सूक्त है। इसे आत्मसूक्त भी कहते हैं। इसमें अम्भृण ऋषि की पुत्री वाक् ब्रह्म साक्षात्कार से सम्पन्न होकर अपनी सर्वात्मक दृष्टि को अभिव्यक्त कर रही हैं।   
अहं रुद्रे भिर्वसुभिश्च राम्यहमादित्यैरुत विश्वदेवैः।
अहं मित्रावरुणोभा विभम्र्य हमिन्द्राग्नी अहमश्चिनोभा॥1॥
ब्रह्म स्वरूपा मैं रुद्र, वसु, आदित्य और विश्व देवता के रुप में विचरण करती हूँ, अर्थात् मैं ही उन-उन रूपों में भास रही हूँ। मैं ही ब्रह्म रूप से मित्र और वरुण दोनों को धारण करती हूँ। मैं ही इन्द्र और अग्नि का आधार हूँ। मैं ही दोनों अश्विनी कुमारों का भी धारण-पोषण करती हूँ। 
I roam as a form of the Brahm as Rudr, Vasu, Adity & Vishv Dev. I bear Mitr & Varun as a form of Brahm (Almighty-Par Brahm Parmeshwar). I am at the root of Indr and Agni. I bear the Ashwani Kumars and nurture, support them.
Mata Bhagwati is better half of the Almighty. She is the mother nature. Without her, nothing can be done in this universe or else where. 
It means that every thing that exits, we see is mirage-illusionary, perishable. Its only the God who is everlasting, ever since, for ever.
अहं सोममाहनसं विभर्म्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम्। 
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्यते॥2॥
मैं ही शत्रुनाशक, कामादि दोष-निवर्तक, परमाह्वाददायी, यज्ञगत सोम, चन्द्रमा, मन अथवा शिव का भरण-पोषण करती हूँ। मैं ही त्वष्टा, पूषा और भग को भी धारण करती हूँ। जो यजमान यज्ञ में सोमाभिषक के द्वारा देवताओं को तृप्त करने के लिये हाथ में हविष्य लेकर हवन करता है, उसे लोक-परलोक में सुखकारी फल देने वाली मैं ही हूँ।
सुख :: आनन्द, आराम, चैन,  अनुकूल और प्रिय; happiness, pleasure. 
I am the slayer of the enemy, remover of the defects caused by lasciviousness (wandering, wavering mind), giver of extreme pleasure-bliss and supporter of Yagy, moon, innerself and the Shiv. I bear Twasta, Pusha & Bhag. I grant happiness to the host-devotee who conduct Yagy for the contentment of the demigods-deities by making offerings, in this & the next abodes.
द्रविड :: वर्ण के ब्रात्य से उत्पन्न पुत्र को झल्ल, मल्ल, लिच्छिवि, नट, करण, खस और द्रविड कहते हैं; The son born out of Braty wing of the Kshatriy is called Jhall, Mall, Lichchhivi, Nat, Karan, Khas or Dravid. Dravid used as a synonym for the South Indians, Tamils-Dravidians as well.
द्रविण :: द्रविण कर्मफल और सांसारिक धन-सम्पत्ति का पर्याय है। कर्मफल दाता मायाधिपति ईश्वर हैं। ब्रह्म ही फलदाता है। यह ईश्वर-ब्रह्म अपनी आत्मा ही है। 
Dravid is a word which means the result-outcome of the deeds and the wealth-riches. Its only the God (Maya Pati-master of Maa Bhagwati) who award the outcome of deeds. This Ishwar-God resides in our body as the soul.  
अहं राष्ट्री संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्। 
तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम्॥3॥
मैं ही राष्ट्री अर्थात् सम्पूर्ण जगत की ईश्वरी हूँ। मैं उपासकों को उनके अभीष्ट वसु-धन प्राप्त कराने वाली हूँ। जिज्ञासुओं के साक्षात् कर्तव्य परब्रह्म को अपनी आत्मा के रूप में मैंने अनुभव कर लिया है। जिनके लिये यज्ञ किये जाते हैं, उनमें मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ। सम्पूर्ण प्रपञ्च के रूप में अनेक सी होकर विराजमान हूँ। सम्पूर्ण प्राणियों के शरीर में जीव रूप में, मैं अपने-आपको ही प्रविष्ट कर रही हूँ। भिन्न-भिन्न देश, काल, वस्तु और व्यक्तियों में जो कुछ हो रहा है, किया जा रहा है, वह सब मुझ में मेरे लिये ही किया जा रहा है। सम्पूर्ण विश्व के रूप में अवस्थित होने के कारण जो कोई, जो कुछ भी करता है, वह सब मैं ही हैं।
अवस्थित :: अवस्थान, टिकाव, विद्यमानता; location, locality.
I am Rashtri-the female God, Goddess of the whole universe.  I make available the desired wealth-riches. I have felt-experienced the Ultimate-Par Brahm Parmeshwar in my soul, who is the object of curiosity for the devotees-practitioners. I am the best-excellent among those for whom the Yagy are conduced-performed. I am present in the living beings as a fraction in all illusionary objects-multiple forms. I am penetrating in all organisms. Every thing they do is due to me, for me, in me. Whatever is done to make the universe localise (at a specific place, point of time) by anyone is due to me since I am present in each object-matter.
Mother Bhagwati-Nature (Adi Shakti, Para Shakti), has cast her spell over all organism, pervading the entire universe. She is the body and Almighty is the soul.
मया सो अन्नमत्ति यो विपश्यति यः प्राणिति य ई शृणोत्युक्तम्।
अमन्तवो मां त उप क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धिवं ते वदामि॥4॥ 
जो कोई भोग भोगता है, वह मुझ भोक्त्री की शक्ति से ही भोगता है। जो देखता है, जो श्वासोच्छास रूप व्यापार करता है और जो कही हुई बात सुनता है, वह भी मुझ से ही। जो इस प्रकार अन्तर्यामि रूप से स्थित मुझे नहीं जानते, वे अज्ञानी दीन, हीन, क्षीण हो जाते हैं। मेरे प्यारे सखा! मेरी बात सुनो, "मैं तुम्हारे लिये उस ब्रह्मात्मक वस्तु का उपदेश करती हूँ, जो श्रद्धा-साधनसे उपलब्ध होती है"।
अंतर्यामी :: अंतःकरण या मन की बात जानने वाला, वह सर्वोच्च सत्ता जिसे सृष्टि का स्वामी माना जाता है, सबके मन में रहने और सबके मन की बात जानने वाला ईश्वर; immanent, omniscient, all Knowing.
Whatever, pleasure-pain, good-bad, trouble-comfort one experiences is due to me. Whatever he sees or respire-breath, listen is all due to me. Those who do not recognise me as omniscient those ignorant remain poverty stricken and become weak in  moment of second. Let me describe you the gist of Brahm, which is attained by virtue to faith, devotion and shelter (asylum, protection under HIM) only.
"श्रद्धि" शब्द का अर्थ श्रद्धा है। श्रत् पद में उपसर्गवत् वृत्ति होने के कारण "कि" प्रत्यय हो जाता है। "व" प्रत्यय मत्वर्थीय है। इसका अर्थ हुआ परब्रह्म अर्थात् परमात्मा का साक्षात्कार श्रद्धा, प्रयत्न से होता है। श्रद्धा आत्मबल है और यह वैराग्य से स्थिर होती है। अपनी बुद्धि से ढूढ़ने पर जो वस्तु सौ वर्षों में भी प्राप्त नहीं हो सकती, वह श्रद्धा से क्षण भर में मिल जाती है। यह प्रज्ञा की अन्धता नहीं है, जिज्ञासुओं का शोध और अनुभवियों के अनुभव से लाभ उठाने की वैज्ञानिक प्रक्रिया है।
Shraddha-faith in the Almighty make those things available within seconds, which one can not get by making efforts in hundreds of years. Devotion to God grants inner strength.
अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवेभिरुत मानुषेभिः। 
यं कामये तं तमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम्॥5॥
मैं स्वयं ही इस ब्रह्मात्मक वस्तु का उपदेश करती हूँ। देवताओं और मनुष्यों ने भी इसी का सेवन किया है। मैं स्वयं ब्रह्मा हूँ। मैं जिसकी रक्षा करना चाहती हूँ, उसे सर्वश्रेष्ठ बना देती हूँ, मैं चाहूँ तो उसे सृष्टिकर्ता ब्रह्मा बना दूं, अतीन्द्रियार्थ ऋषि बना दूँ और उसे बृहस्पति के समान सुमेधा (समझदार, विवेकशील, चतुर) बना दूँ। मैं स्वयं अपने स्वरूप ब्रह्मभिन्न आत्मा का गान कर रही हूँ।
Let me describe-preach the gist of Brahm. Demigods-deities too have followed it. I am Brahma, myself. I make one excellent if I desire to protect him. I may turn one into Brahma or grant him into a Rishi having deep insight. I can make him Sumedha (intelligent, prudent) like Brahaspati (Dev Guru). I am explaining my self my true identity which is different from the Brahm. 
अहं रुद्राय धनुरा तनोमि ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ। 
अहं जनाय समदं कृणोम्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश॥6॥ 
मैं ही ब्रह्म ज्ञानियों के द्वेषी हिंसारत त्रिपुर वासी त्रिगुणाभिमानी अहंकार, असुर का वध करने के लिये, संहारकारी रुद्र के धनुष पर ज्या (प्रत्यञ्चा) चढ़ाती हूँ। मैं ही अपने जिज्ञासु स्तोताओं के विरोधी शत्रुओं के साथ संग्राम करके उन्हें पराजित करती हूँ। मैं ही द्युलोक और पृथ्वी  में अन्तर्यामि रूप से प्रविष्ट हूँ।
इस मन्त्र में भगवान् रुद्र द्वारा त्रिपुरा सुरकी विजय की कथा बीज रूपसे विद्यमान है।
I stretch the bow string of Bhagwan Shiv to kill-destroy the Tripur occupied by the demons and its inhabitants spreading violence under arrogance-pride. Its me who destroys the enemy of the devotees-hosts who perform Yagy. I am present over the earth and the space-heavens, nether world as omniscient. 
अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन् मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे। 
ततो वि तिष्ठे भुवनानु विश्वोतामूं द्यां वष्र्मणोप स्पृशामि॥7॥ 
इस विश्व के शिरोभाग पर विराजमान द्युलोक अथवा आदित्य रूप पिता का प्रसव में ही करती रहती हूँ। उस कारण में ही में ही तन्तुओं में पट के समान आकाशादि सम्पूर्ण कार्य दिख रहा है। दिव्य कारण, वारिरूप समुद्र, जिसमें सम्पूर्ण प्राणियों एवं पदार्थों का उदय होता रहता है, वह ब्रह्म चैतन्य ही मेरा निवास स्थान है। यही कारण है कि सम्पूर्ण भूतों में अनुप्रविष्ट होकर रहती हूँ और अपने कारणभूत मायात्मक स्वशरीर से  सम्पूर्ण दृश्य कार्य  स्पर्श करती हूँ।
Its me who activate the Sun leading to light all round, making everything visible. The ocean occupied by the Almighty, where evolution takes place is may abode-residence. I am present in all happenings in the past and observes all the current activities all over the universe with my own causative illusionary body. 
अहमेव वात इव प्र वाम्यारभमाणा भुवनानि विश्वा। 
परो दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिना सं बभूव॥8॥
जैसे वायु किसी दूसरे से प्रेरित न होने पर भी स्वयं प्रवाहित होता है, उसी प्रकार मैं ही किसी दूसरे के द्वारा प्रेरित और अधिष्ठित न होने पर भी स्वयं ही कारण रूप से सम्पूर्ण भूतरूप कार्यों का आरम्भ करती हूँ। मैं आकाश से भी परे हूँ और इस पृथ्वी से भी। अभिप्राय यह है कि मैं सम्पूर्ण विकारों से परे, असङ्ग, उदासीन, कूटस्थ ब्रह्म चैतन्य हूँ। अपनी महिमा से सम्पूर्ण जगत के रूप में मैं ही बरत रही हूँ, रह रही हूँ।
कूटस्थ :: ईश्वर-परमात्मा जो  कूट अर्थात सबसे ऊँचे स्थान पर स्थित हो; जिसकी स्थिति सर्वोपरि हो; आला दर्जे का; उच्चतम, जिसमें कुछ अदल-बदल न हो सके, अटल, अचल, विकार रहित, निर्विकार, अविनाशी, विनाशरहित, छिपा हुआ, गुप्त; embroidered.
The way air flows by itself, I too act of my own depending over the cause & effect of the past events. I am away from the sky-space & the earth as well. Though, I am neutral, maintains equanimity yet I am embroidered-active as well. I am pervading the entire universe with my powers.
रुद्र सूक्त :: ऋषि :- गृत्समद, निवास स्थान :- अन्तरिक्ष, सूक्त सँख्या :- 3.
ऋग्वेद में परमपिता-परमब्रह्म परमेश्वर की स्तुति रूद्र के रूप में की गई है। भगवान् रुद्र शक्तिशाली तथा भयंकर-रौद्र रूप में चित्रित किये गये हैं। दृढ़ अंगों से युक्त, यमराज आदि आठ मूर्तियों वाला प्रचण्ड पालन पोषण करने वाला व भूरे रंग के वे रुद्र दीप्तिमान् स्वर्णलंकारो से चमकते हैं। उनके पास विशेष आयुध हैं। शस्त्र के रूप में वे धनुष बाण धारण करते हैं। रुद्र रथ पर आसीन होकर नित्य युवा सिंह के समान भंयकर शत्रुओं को मारने वाले और उग्र स्वरूप वाले हैं। ऋग्वेद में रुद्र को मरुतों का पिता एवं स्वामी भी कहा गया है। रुद्र ने मरुतों को पृश्नि नाम की गौओं के थनों से उत्पन्न किया था। 
भूत-भावन भगवान् सदाशिव की प्रसन्नता के लिये इस सूक्त के पाठ का विशेष महत्त्व है। पूजा में भगवान् शिव को सबसे प्रिय जलधारा है। इसलिये भगवान् शिव के पूजन में रुद्राभिषेक की परम्परा है और अभिषेक में इस रुद्र सूक्त की ही प्रमुखता है। रुद्राभिषेक के अन्तर्गत रुद्राष्टाध्यायी के पाठ में ग्यारह बार इस सूक्त की आवृत्ति करने पर पूर्ण रुद्राभिषेक माना जाता है। फल की दृष्टि से इसका अत्यधिक महत्त्व है। यह रुद्र सूक्त आध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक त्रिविध तापों से मुक्त कराने तथा अमृतत्व की ओर अग्रसर करने का अन्यतम उपाय है। 
नमस्ते रुद्र मन्यव उतो त इषवे नमः। बाहुभ्यामुत ते नमः॥1॥
हे रुद्र! आपको नमस्कार है, आपके क्रोध को नमस्कार है, आपके बाण को नमस्कार है और आपकी भुजाओं को नमस्कार है।
Hey Rudr! We offer tributes, salute (respect, regard) to you, your anger, arrows and hands.
नमस्कार :: अभिवादन, शुभकामना, नमस्कार, अभिनंदन, मुबारकबाद, सत्कार, वन्दना, प्रणाम, नमस्ते, आराधना, श्रद्धा, नमस्कार, भक्ति, पूजा, आराधन; greeting, salutation, adoration, accost, hello, adoration, bonjour, bow, regard, respect, salutation, salute, compliment, court, greeting.
या ते रुद्र शिवा तनूरघोराऽपापकाशिनी। 
तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशन्ताभि चाकशीहि॥2॥
हे गिरिशन्त! अर्थात् पर्वत पर स्थित होकर सुख का विस्तार करने वाले रुद्र! हमें अपनी उस मङ्गलमयी मूर्ति द्वारा अवलोकन करें, जो सौम्य होने के कारण केवल पुण्य का फल प्रदान करने वाली है।
सौम्य :: प्रिय, उदार, क्षमाशील, सौम्य, प्रशम्य; benign, kindly, Placable.
Hey Indr! You stay over the mountain and expand comforts as Rudr (Bhagwan Shiv). Kindly observe-visualise us with that form of yours, which is Placable and grants us the favourable results of our virtuous acts.
यामिषुं गिरिशन्त हस्ते विभर्ष्यस्तवे। 
शिवां गिरित्र तां कुरु मा हि ँ ्सीः पुरुषं जगत्॥3॥ 
हे गिरिशन्त! हे गिरीश! अर्थात पर्वत पर स्थित होकर त्राण करनेवाले आप प्रलय करने के लिये जिस वाण को हाथ में धारण करते हैं, उसे सौम्य कर दें और जगत के जीवों की हिंसा न करें। 
Hey the resident of mountain-Girishant-Girish! Please make the arrow used by you to destroy-annihilation placable and do not kill the living beings.
Evolution and annihilation are two acts of God which occur periodically. Annihilation is the job of Bhagwan Shiv as Mahesh-Rudr.
शिवेन बचसा त्वा गिरिशाच्या बदामसि। 
यथा नः सर्वमिज्जगद यक्ष्म ँ ् सुमना असत्॥4॥
हे गिरीश! हम आपको प्राप्त करने के लिये मङ्गलमय स्तोत्र से आपकी प्रार्थना करते हैं, जिससे हमारा यह सम्पूर्ण जगत् रोग रहित एवं प्रसन्न हो। 
Hey Girish! We pray to you with the help of this verse (stanza) which is auspicious, so that our universe-world (earth) becomes free from diseases and happy. 
अध्ययोचदधिवक्ता प्रथमो दैव्यो भिषक्। 
अहिं श्च  सर्वांञ्जम्भय यन्त्सर्वाश्च यातुधान्यो ऽधराची: परासुव॥5॥
शास्त्र सम्मत वचन बोलने वाले, देव हितकारी, परम रोग नाशक, प्रथम पूज्य रुद्र हमें श्रेष्ठ कहें और सर्पादि का  विनाश करते हुए सभी अधोगामिनी राक्षसियों आदि को भी हमसे दूर करें।
The Rudr who has to be prayed first, speaks only those words which are in accordance with the scriptures-Ved, who is the ultimate for the welfare of demigods-deities, who removes all diseases-illness, should make us excel and wipe off snakes (poisonous, reptiles, insects etc.) and keep the demonesses facing downfall away from us. 
EXCEL :: बढ़ जाना, उत्तमतर होना, श्रेष्ठ होना, अन्यों से बढ़कर होना, विशिष्ट होना, अग्रगण्य होना। 
असौ यस्ताप्रो अरुण उत बभ्रुः सुमङ्गल:। 
ये चैन ँ ्रुद्रा  अभितोदिक्षु श्रिताः सहस्त्रशोऽवैषा ँ ्हेडईमहे॥6॥
ये जो ताम्र, अरुण और पिङ्गल वर्ण वाले मङ्गलमय सूर्य रूप रुद्र हैं और जिनके चारों ओर ये सहस्रों किरणों के रूप में रुद्र हैं, हम भक्ति द्वारा उनके क्रोध का निवारण करते हैं।
पिङ्गल :: भूरापन लिये हुए पीला या लाल, ताँबे के रंग का, भैरव राग का एक पुत्र, ताँबे और जस्ते के मेल से बनी हुई एक मिश्र धातु, एक खनिज पदार्थ जो लगभग पीले रंग का होता है, वर्षा और वसन्त ऋतु में सुरीली ध्वनि में बोलने वाला एक पक्षी; an alloy with yellow, red and grey tinge. 
We wish to calm down  the Rudr who is of the colour of bright yellow-orange, yellow, red & grey tinge, has thousands of rays around him with our devotion.
असौ योऽवसर्पति नीलग्रीवो विलोहितः। 
उतैनंगोपा अदृनभन्नदृश्रन्नुदहार्यः स दृष्टो मृडयाति नः॥7॥
ये जो विशेष रक्तवर्ण सूर्यरूपी नीलकण्ठ रुद्र गतिमान् हैं, जिन्हें गोप देखते हैं, जल-वाहिकाएँ देखती हैं, वह हमारे द्वारा देखे जाने पर हमारा मङ्गल करें।
Neelkanth Rudr, having red tinge like the Sun, is in motion, is viewed by the Gops, carriers of water view him, should do our welfare when seen by us. 
 नमोऽस्तु नीलग्रीवाय सहस्त्राक्षाय मीदुषे।
अथो ये अस्य सत्वानोऽहं तेभ्योऽकरं नमः॥8॥ 
सेचनकारी सहस्रों नेत्र वाले पर्जन्य रूप नीलकण्ठ रुद्र को हमारा नमस्कार है। इनके जो अनुचर हैं, उन्हें भी हमारा नमस्कार है।
सेचन :: भूमि को पानी से सींचना, सिंचाई; irrigation. 
पर्जन्य :: गरजता तथा बरसता हुआ बादल,  मेघ, इंद्र, विष्णु, कश्यप ऋषि के एक पुत्र जिसकी गिनती गंधर्वों में होती है; clouds causing rains.
अनुचर :: जमीदार, अनुरक्षक, सेवक, आश्रित; retainer, squire, followers.
We revere-salute to Neelkanth who nourishes us by causing rains from the clouds. We honour-salute his dependents-followers as well. 
प्रमुञ् धन्वनस्त्वमुभयोराल्र्योज्र्याम्। 
याश्च ते हस्त इषवः परा ता भगवो वप॥9॥
हे भगवन्! आपके धनुष की कोटियों के मध्य यह जो ज्या है, उसे आप खोल दें तथा आपके हाथ में ये जो बाण हैं, उन्हें आप हटा दें और इस प्रकार हमारे लिये सौम्य हो जायें।
Hey God! Please remove the cord from the bow, keep the arrows away and become placable for us. 
दिज्यं धनुः कपर्दिनो विशल्यो बाणवाँ उत।
अनेशन्नस्य या इषव आभुरस्य निषङ्गधिः॥10॥ 
जटाधारी रुद्र का धनुष ज्या रहित, तूणीर फलक हीन, बाण रहित, बाण दर्शन रहित और म्यान खड्ग रहित हो जायें।
Let the bow Rudr become cordless, quiver without sharp edged arrows, arrows invisible and the sheath without sword for Rudr to become placable.
The devotees should not be afraid by seeing armed Rudr. His posture wearing arms create fear in anyone who looks at him.
या ते हेतिमीं हेतिर्मीदुष्टम हस्ते बभूव ते धनुः। 
तयाऽस्मान्विश्वतस्त्वमयक्ष्मया परि भुज॥11॥
हे संतृप्त करने वाले रुद्र! आपके हाथ में जो आयुध हैं और आपका जो धनुष है, उपद्रव रहित उस आयुध या धनुष द्वारा आप हमारी सब ओर से रक्षा करें।
Hey fear causing Rudr! Please protect us with your weapons and the bow from all sides-directions. 
 परि ते धन्वनो हेतिरस्मान्वृणक्तु विश्वतः।
अथो य इषुधिस्तवारे अस्मन्नि धेहि तम्॥12॥ 
आप धनुर्धारी का यह जो आयुध है, वह हमारी रक्षा करने के लिये हमें चारों ओर से घेरे रहे, किंतु यह जो आपका तरकस है, उसे आप हम से दूर रखें।
Hey bow wearing your weapons should surround us from all sides to protect us but keep your quiver 
अवतत्य धनुष्ट ँ ्सहस्त्राक्ष शतेषुधे। 
निशीर्य शल्यानां मुखा शिवो नः सुमना भव॥13॥ 
हे सहस्रों नेत्र वाले, सैकड़ों तरकस वाले रुद्र! आप अपने धनुष को ज्यारहित और वाणों  के मुखों को फलक रहित करके हमारे लिये सुप्रसन्न एवं कल्याणमय हो जायें। 
Hey thousands of eyes bearing, hundred of quiver owning Rudr! You should become placable & happy causing our welfare, by keeping away the uncorded bow and the sharp edged arrows.
नमस्त आयुधायानातताय धृष्णवे।
उभाभ्यामुत ते नमो बाहुभ्यां तव धन्वने॥14॥ 
हे रुद्र! धनुष पर न चढ़ाये गये आपके बाण को नमस्कार है, आपकी दोनों भुजाओं को नमस्कार है एवं शत्रु-संहारक आपके धनुष को नमस्कार है।
Hey Rudr! We salute-revere your arrows which have not been put over the bow, your hands and the bow which destroy the enemy.
मानो महान्तमुत मा नो अभर्कं मा न उक्षन्तमुत मा न उक्षितम्। 
मा नो वधीः पितरं मोत मातरं मा नः प्रियास्तन्वो रुद्र रीरिषः॥15॥
हे रुद्र! हमारे बड़ों को मत मारो। हमारे बच्चों को मत मारो। हमारे तरुणों को मत मारो। हमारे पिता और माता की हिंसा न करो। हमारे प्रियजनों की हिंसा न करो।  हमारे पुत्र-पौत्रादिकों की हिंसा न करो।
Hey Rudr! Do not kill our elders, children, young ones, mother & father and our near & dear.
मा नस्तोके तनये मा न आयुषि मा नो गोषु मा नो अश्वेषुरीरिषः।
मा नो वीरान् रूद्र भामिनो वधीर्हविष्पन्तः सदमित्वा हवामहे॥16॥
हे रुद्र! हमारे पुत्रों और पौत्रों पर क्रोध न करें। हमारी गायों पर तथा हमारे घोड़ों पर क्रोध न करें। हमारे क्रोध युक्त वीरों को न मारें। हम हविष्य लिये हुए निरन्तर यज्ञार्थ आपका आवाहन करते हैं।
Hey Rudr! Please don't be angry with our son and grandsons, cows & horses, angry soldiers. We invite you for the Yagy with the offerings.
भगवान् रुद्र को स्वास्थ्य के देवता भी हैं, यथा :-
मा त्वा रुद्र चुक्रुधामा नमोभिर मा दुष्टुती वृषभ मा सहूती।
उन्नो वीरां अर्पय भेषजेभिर् भिषकतमं त्वा भिषजां श्रंणोमि॥
रुद्र के अधृष्म, द्रुतगामी, प्रचेतस्, इणाश, विश्वनियंता, भिषसमम्, मीढ़वान, नीलोदर, नीलकंठ, लोहितपृष्ठ, चेकितान आदि विशेषण हैं।
Rudr-Bhagwan Shiv has the titles like :- Adhrashm, Drutgami, Prachetas, Ishan, Vishwniyanta, Bhishsamm, Meedhvan, Nilodar, Neelkanth, Lohitprashth, Chekistan etc.
यम सूक्त, ऋग्वेद के दशम मण्डल का 14वाँ सूक्त :: ऋषि :- यमो वैवस्वत,  देवता :: 1-5 यम, 6 :- पित्रथर्वभृगुसोम, 7-9  लिङ्गोक्त पितर, 10-12  श्वानौ है। छन्द :- 1-12 त्रिष्टुप, 13-14, 16  अनुष्टुप,  15 बृहती। निम्न यम सूक्त तीन भागों में विभक्त है। ऋचा 1-6 तक के पहले भाग में यम एवं उनके सहयोगियों की सराहना की गयी है और यज्ञ में उपस्थित होने के लिये उनका आवाहन किया गया है। ऋचा 7-12 तक के दूसरे भाग में नूतन मृतात्मा को श्मशान को दहन-भूमि से निकलकर यमलोक जाने का आदेश दिया गया है। 13-16 तक तक की ऋचाओं में यज्ञ की हवि को स्वीकार करने के लिये यम का आवाहन किया गया है।
परेयिवांसं प्रवतो महीरनु बहुभ्यः पन्थामनुपस्परशानम्। 
वैवस्वतं संगमनं जनानां यमं राजानं हविषा दुवस्य॥1॥
उत्तम पुण्य-कर्मो को करने वालों को सुखद स्थान में ले जाने वाले, बहुतों के हितार्थ योग्य मार्ग के द्रष्टा, विवस्वान के पुत्र यम को हवि अर्पण करके उनकी सेवा करें, जिनके पास मनुष्यों को जाना ही पड़ता है। 
Let us make offerings to Yam, the son of Vivasvan, to whom every one is bound to go (after death), who shows the right path for the benefit-welfare of many and who carries those who perform virtuous, righteous, pious deeds to places of comforts.
यमो नो गातुं प्रथमो विवेद नैषा गव्यूतिरपभर्तवा उ।
यत्रा नः पूर्वे पितरः परेयुरेना जज्ञानाः पथ्या अनु स्वाः॥2॥ 
पाप-पुण्य के ज्ञाता सब में प्रमुख यम के मार्ग को कोई बदल नहीं सकता। पहले जिस मार्ग से हमारे पूर्वज गये हैं, उसी मार्ग से अपने-अपने कर्मानुसार हम सब जायँगे।
No one can change the working (path, method, procedure) of Yam Raj. The way-path the ancestors left (died), will be followed by the descendents as per their deeds.
मातली कव्यैर्यमो अङ्गिरोभिर्बृहस्पतिर्ऋक्व्वभिर्वाबृधान:। 
याँश्च देवा वावृधुर्ये च देवान् त्स्वाहान्ये स्वधयान्ये मदन्ति॥3॥
इन्द्र कव्यभुक् पितरों की सहायता से, यम अंगिरसादि पितरों की सहायता से और बृहस्पति ऋक्वदादि पितरों की सहायता से उत्कर्ष पाते हैं। देव जिनको उन्नत करते हैं, जो देवों को बढ़ाते हैं। उनमें से कोई स्वाहा के द्वारा (देव) और कोई स्वधा से (पितर) प्रसन्न होते हैं।
उत्कर्ष :: महानता, महत्ता, विस्तार, अधिकता, विपुलता, शिखर, पराकाष्ठा, चरम उत्कर्ष, ऊँचा शिखर, उच्चतम शिखर; flourishing, climax, greatness, growth, moving to the top.
Dev Raj Indr attained peak (heights in a carrier, rise) with the help of Kavybhuk Pitr, Yam Raj (Dharm Raj) due to Angirsadi Pitr, Dev Guru Brahaspati Rikadi Pitr. Those who are promoted by the demigods-deities (Almighty), they too help demigods-deities scales peaks-heights.
इमं यम प्रस्तरमा हि सीदाऽङ्गिरोभिः पितृभिः संविदानः। 
आ त्वा मन्त्राः कविशस्ता वहन्त्वेना राजन् हविषा मादयस्व॥4॥
हे यम! अङ्गिरादि पितरों के साथ इस श्रेष्ठ यज्ञ में आकर बैठें। विद्वान् लोगों के मन्त्र आपको बुलावें। हे राजा यम! इस हवि से संतुष्ट होकर हमें प्रसन्न कीजिये।
Hey Yam! Come and sit-participate in this Yagy with the Pitr like Angiras. The Mantr enchanted by the learned-enlighten invites you. Hey Yam, the king! Be satisfied with the offerings and make us happy. 
अङ्गिरोभिरा गहि यज्ञियेभिर्यम वैरूपैरिह मादयस्व। 
विवस्वन्तं हुवे यः पिता तेऽस्मिन् यज्ञे बर्हिष्या निषद्य॥5॥
हे यम! यज्ञ में स्वीकार करने योग्य अङ्गिरस ऋषियों को साथ लेकर आयें। वैरूप नामक पूर्वजों के साथ यहाँ आप भी प्रसन्न हों। आपके पिता विवस्वान को मैं यहाँ निमंत्रित करता हूँ (और प्रार्थना करता हूँ) कि इस यज्ञ में वह कुशासन पर बैठकर हमें संतुष्ट करें। 
Hey Yam! Bring the acceptable Rishis like Angiras. Please be with the ancestors like Vaerup, here. I invite your father Vivisman (Sury Bhagwan-Sun) and request him to sit over the Kushasan and satisfy us. 
अङ्गिरसो नः पितरो नवग्वा अथर्वाणो भगवः सोम्यासः।
तेषां वयं सुमतौ यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसे स्याम॥6॥ 
अङ्गिरा, अथर्वा एवं ऋग्वादि हमारे पितर अभी ही आये हैं और ये हमारे ऋषि सोमपान के लिये योग्य ही हैं। उन सब यज्ञार्ह पूर्वजों की कृपा तथा मङ्गलप्रद प्रसन्नता हमें पूरी तरह प्राप्त हो। 
Angira, Atharva and Rigvadi Pitr have just come and they deserve drinking Somras. Blessings of all these ancestors, acceptable for the Yagy and auspicious pleasure-happiness be available to us. 
प्रेहि ग्रेहि पथिभि: पूर्व्येभिर्यत्रा नः पूर्वे पितरः परेयुः।
उभा राजाना स्वधया मदन्ता यमं पश्यासि वरुणं  च देवम्॥7॥ 
हे पिता! जहाँ हमारे पूर्व पितर जीवन पार कर गये है, उन प्राचीन मार्गों से आप भी जायें। स्वधाकर अमृतान्न से प्रसन्न-तृप्त हुए राजा यम और वरुण देव से जाकर मिलें।
Hey father! The abode where our ancestors have gone, you should also the available to you following the same track. Being satisfied with the Swadhakar-the food grains,  which are like nectar-elixir, you should meet the king Yam and Varun Dev. 
सं गच्छस्व पितृभिः सं यमेनेष्टापूर्तेन परमे व्योमन्। 
हित्वायावद्यं पुनरस्तमेहि सं गच्छस्व तन्वा सुवर्चा:॥8॥
हे पिता! श्रेष्ठ स्वर्ग में अपने पितरों के साथ मिलें। वैसे ही अपने यज्ञ, दान आदि पुण्य कर्मो के फल से भी मिलें। अपने सभी दोषों को त्याग कर इस (शाश्वत) घर की ओर आयें और सुन्दर तेज से युक्त होकर (संचरण करने योग्य नवीन) शरीर धारण करें।
शाश्वत :: विरल, चिरंतन, सदैव के लिए; which is eternal and for ever, perpetual-in perpetuity, sempiternal.
Hey father! You should join-meet the Pitr-ancestors through excellent track-path. Meet them as per result-merit (rewards)  of the virtuous deeds like Yagy, donations-charity. Come to the this sempiternal place, after rejecting all defects, sins, vices and have a new body associated with aura.
अपेत वीत वि च सर्पतातो ऽस्मा एतं पितरो लोकमक्रन्।
अहोभिरद्भिरक्तुभिव्र्यक्तं यमो ददात्यवसानमस्मै॥9॥ 
है भूत-पिशाचो!। यहाँ से चले जाओ, हट जाओ, दूर चले आओ। पितरों  ने यह स्थान इस मृत मनुष्य के लिये निश्चित किया है। यह स्थान दिन-रात और जल से युक्त है। यम ने इस स्थान को मृत मनुष्य को दिया है (इस ऋचा में श्मशान के भूत-पिशाचों से प्रार्थना की गयी है कि वे मृत व्यक्ति के अन्तिम विश्राम स्थल के मार्ग में बाधा न उपस्थित करें)।
Hey evil spirits, devil  spectre (Dracula)! Move away from here. Pitr have given this place (cremation ground) to the deceased. This place has water during day & night. Yam has granted this place to the dead.
अति द्रव सारमेयौ श्वनौ चतुरक्षौ शबलौ साधुना पथा।
अथा पिदृतन्  त्सुविदत्राँ उपहि यमेन ये सधमादं मदन्ति॥10॥    
हे सद्यः मृत जीव! चार नेत्रों वाले चित्रित शरीर के सरमा के दोनों श्वान-पुत्र हैं। उनके पास अच्छे मार्ग उत्पन्न शीघ्र गमन करो। यमराज के साथ एक ही पंक्ति में प्रसन्नता से (अन्नादिका) उपभोग करने वाले अपने अत्यन्त उदार पितरों के पास उपस्थित हो जाओ (मृत व्यक्ति से कहा गया है कि उचित मार्ग से आगे बढ़कर सभी बाधाओं को हटाते हुए यम लोक ले जाने वाले दोनों श्वानों के साथ वह जल्द जा पहुँचे)। 
Hey deceased! Move with the two sons of Sarma with spotted-painted body, who remain in the form of dog. To dine with Yam Raj in the same row present yourself in front of liberal Pitr.
यौ ते श्वानौ यम रक्षितारौ चतुरक्षौ पशिरक्षी नृचक्षसौ।
ताभ्यामेनंपरिदेहि राजन्  त्स्वस्ति चास्मा  अनमीवं च धेहि॥11॥ 
हे यमराज! मनुष्यों पर ध्यान रखने वाले, चार नेत्रों वाले,  मार्ग के रक्षक ये जो आपके रक्षक श्वान हैं, उनसे इस मृतात्मा को रक्षा करें। हे राजन्! इसे कल्याण और आरोग्य प्राप्त करायें। 
Hey Yam Raj! Please protect the deceased from the four eyed dogs protecting the way, keeping an eye (watching) over the humans. Hey king! Kindly grant his welfare and health.
उरूणसावसुसूतृपा उदुम्बलौ यमस्य दूतौ चरतो जनाँ अनु। 
तावस्मभ्यं दृशये सूर्याय पुनर्दातामसुमद्येह भद्रम्॥12॥
यम के दूत, लम्बी नासिका वाले, (मुमूर्षु व्यक्ति के) प्राण अपने अधिकार में रखने वाले, महा पराक्रमी (आपके) दोनों श्वान मर्त्य लोक में भ्रमण करते रहते हैं। वे हमें सूर्य के दर्शन के लिये यहाँ आज कल्याणकारी उचित प्राण दें।
The mighty dogs who are the agents of Yam Raj, who have long nose, take possession of the dying person, keep on roaminmg in the perishable world. They should provide us beneficial Pran-life for seeing the Sun.
यमाय सोमं सुनुत यमाय जुहुना हविः। 
यमं ह यज्ञो गच्छत्यदग्निदूतो अरंकृतः॥13॥
यम के लिये सोम का सेवन करो तथा यम के लिये (अग्नि में) हवि का हवन करो। अग्नि उसका दूत है,  इसलिये अच्छी तरह तैयार किया हुआ यह हमारा यज्ञ हवि यम के पास पहुँच जाता है। 
Drink Somras for Yam and make offering in the fire. Agni is his agent, so finely prepared our offerings meant for the Yagy reach him.
यमाय घुतवद्धविर्जुहोत प्र च तिष्ठत।
स नो देवेष्या यमद् दीर्घमायुः प्र जीवसे॥14॥ 
घृत से मिश्रित यह हव्य यम के लिये (अग्नि में) हवन करो और यम की उपासना करो। देवों के बीच यम हमें दीर्घ आयु दें, ताकि हम जीवित रह सकें।
Use the offerings mixed with Ghee-clarified butter in Agni-fire for Yam and pray to him. Let Yam Raj occupying seat amongest the demigods-deities, grant us long life to let us survive. 
यमाय मधुमत्तमं राजे हव्यं जुहोतन।
इदं नम ऋषिभ्यः पूर्वजेभ्यः पूर्वेभ्यः पश्चि कृद्भ्यः॥15॥ 
अत्यधिक माधुर्य युक्त यह हव्य राजा यम के लिये के अग्नि में हवन करो। (हे यम!) हमारा यह प्रणाम अपने पूर्वज के ऋषियों को, अपने पुरातन मार्ग दर्शकों को समर्पित हो जाय। 
Make this sweet offering in fire for the king Yam. Hey Yam! Our salutations should reach the Rishis-sages of our ancestors and our ancient path should be offered to the viewers.
त्रिकद्रुकेभिः पतति पळुर्वीरेक मिद्बृहत्।
त्रिष्टुब्गायत्री छन्दांसि सर्वा ता यम आहिता॥16॥ 
त्रिकद्रुक नामक यज्ञों में हमारा यह (सोमरूपी सुपर्ण) उड़ान ले रहा है। यम छ: स्थानों :- धुलोक, भूलोक, जल, औषधि, ऋक् और सुनृत में रहते हैं। गायत्री तथा अन्य छन्द, ये सभी इन यम में ही सुप्रतिष्ठित किये गये हैं।
सुपर्ण :: गरुड़, मुरण, पक्षी-चिड़िया, किरण, एक असुर का नाम, देवगंधर्व, एक पर्वत का नाम, घोड़ा, अश्व, सोम, वैदिक मंत्रों की एक शाखा का नाम, अंतरिक्ष का एक पुत्र, सेना की एक प्रकार की व्यूहरचना, नागकेसर, नागपुष्प, अमलतास, स्वर्णपुष्प, ज्ञानस्वरूप, कोई दिव्य पक्षी, सुंदर पत्र या पत्ता, (सुंदर किरणों से युक्त होने के कारण इस शब्द का प्रयोग चंद्रमा और सूर्य के लिये भी होता है), सुंदर दलों या पत्तोंवाला, सुंदर परोंवाला, भगवान्  विष्णु के वाहन गरुड़ का एक नाम, भगवान्  विष्णु का एक नाम।
ऋक् :: ऋचा, स्तुति, पूजा; Blood.
Our Suparn is flying in the Yagy named Trikdruk. Yam resides in six places :- space-sky, earth, water, medicines, Rik-blood and Sunrat. 
अश्विनौ सूक्त :: ऋषि :- कक्षीवान् एवं वसिष्ठ, निवास स्थान :- द्युस्थानीय। 
अश्विनी कुमार सूर्य देव-विवस्वान् और त्वष्टा की पुत्री सरण्यू के पुत्र और देवताओं के चिकित्सक हैं, जो कि सुनहरी चमक सौन्दर्य और कमल की मालाओं से सदा विभूषित रहते हैं। इनका मार्ग स्वर्णमय है। अश्विनी कुमारों को मधु अति प्रिय है। इनके रथ में तीन पहिए हैं और उनका वेग पवन से भी अधिक तेज है। इसमें सुनहरी पंखों वाले घोडे़ जुते हैं। इस रथ को ऋभु नामक देवताओं ने बनाया था। वे उषा के प्रकट होने के अनन्तर और सूर्योदय के मध्य प्रकट होते हैं। अश्विनौ के निचेतास, हिरण्यवर्तनी, रुद्रवर्तनी, पुरुशाकतमा, मधुपाणि, तमोहन्ता, शुभ्रस्पति, दिवोनपात् अश्वमद्या, वृष्णा आदि नाम भी  हैं।
अश्विना यज्वरीरिषो द्रवत्पाणी शुभस्पती। पुरुभुजा चनस्यतम्॥1॥
हे क्षिप्रबाहु, सुकर्मपालक और विस्तीर्ण-भुज-संयुक्त अश्विद्वय! तुम लोग यज्ञीय अन्न को ग्रहण करो।
अश्विना पुरुदंससा नरा शवीरया धिया। धिष्ण्या वनतं गिरः॥2॥
हे विविध कर्मा, नेता और पराक्रमशाली अश्विद्वय! आदरयुक्त बुद्धि के साथ हमारी स्तुति सुनो।
दस्रा युवाकवः सुता नासत्या वृक्तबर्हिषः। आ यातं रुद्रवर्तनी॥3॥
हे शत्रुनाशन, सत्यभाषी और शत्रुदमनकारी अश्विद्वय! सोमरस तैयार कर छिन्न कुशो पर रक्खा हुआ है; तुम आओ।
इन्द्रा याहि चित्रभानो सुता इमे त्वायवः। अण्वीभिस्तना पूतासः॥4॥
हे विचित्र-दीप्तिशाली इन्द्र! अँगुलियों से बनाया हुआ नित्य-शुद्ध यह सोमरस तुम्हें चाहता है; तुम आओ।
इन्द्रा याहि धियेषितो विप्रजूतः सुतावतः। उप ब्रह्माणि वाघतः॥5॥
हे इन्द्र! हमारी भक्ति से आकृष्ट होकर और ब्राह्मणो द्वारा आहूत होकर सोम-संयुक्त वाघत नाम के पुरोहित की प्रार्थना ग्रहण करने आओ।
इन्द्रा याहि तूतुजान उप ब्रह्माणि हरिवः। सुते दधिष्व नश्चनः॥6॥
हे अश्वशाली इन्द्र! हमारी प्रार्थना सुनने शीघ्र आओ। सोमरस-संयुक्त यज्ञ में हमारा अन्न धारण करो।
ओमासश्चर्षणीधृतो विश्वे देवास आ गत। दाश्वांसो दाशुषः सुतम्॥7॥
हे विश्वे देवगण! तुम रक्षक हो तथा मनुष्यों के पालक हो। तुम हव्यदाता यजमान के प्रस्तुत सोमरस के लिए आओ। तुम यज्ञ-फल-दाता हो।
विश्वे देवासो अप्तुरः सुतमा गन्त तूर्णयः। उस्रा इव स्वसराणि॥8॥
जिस तरह सूर्य की किरणें दिन में आती हैं, ऐसी तरह वृष्टिदाता विश्वेदेव! शीघ्र प्रस्तुत सोमरस के लिए आगमन करें।
विश्वे देवासो अस्रिध एहिमायासो अद्रुहः। मेधं जुषन्त वह्नयः॥9॥
विश्वे देवगण अक्षय, प्रत्युत्पन्नमति, निर्वैर और धन-वाहक हैं। वे इस यज्ञ में पधारें।
पावका नः सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती। यज्ञं वष्टु धियावसुः॥10॥
पतितपावनी, अन्न-युक्त और धनदात्री सरस्वती धन के साथ हमारे यज्ञ की कामना करें।
चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम्। यज्ञं दधे सरस्वती॥11॥
सत्य की प्रेरणा करनेवाली, सुबुद्धि पुरुषों को शिक्षा देनेवाली सरस्वती हमारा यज्ञ ग्रहण कर चुकी हैं।
महो अर्णः सरस्वती प्र चेतयति केतुना। धियो विश्वा वि राजति॥12॥
प्रवाहित होकर सरस्वती ने जलराशि उत्पन्न की है और इसके सिवा समस्त ज्ञानों का भी जागरण किया है।  
अग्नि :: देवताओं में अग्नि का सबसे प्रमुख स्थान है और इन्द्र के पश्चात अग्नि देव का ही पूजनीय स्थान है। अग्निदेव नेतृत्व शक्ति से सम्पन्न, यज्ञ की आहुतियों को ग्रहण करने वाले तथा तेज एवं प्रकाश के अधिष्ठाता हैं। मातरिश्वा भृगु तथा अंगिरा इन्हें भूतल पर लाये। अग्नि पार्थिव देव हैं। यज्ञाग्नि के रूप में इनका मूर्तिकरण प्राप्त होता है। अतः ये ही ऋत्विक, होता और पुरोहित हैं। ये यजमानों के  द्वारा विभिन्न देवों के उद्देश्य से अपने में प्रक्षिप्त हविष् को उनके पास ऋग्वेद में अग्नि को धृतपृष्ठ, शोचिषकेश, रक्तश्मश्रु,रक्तदन्त, गृहपति, देवदूत, हव्यवाहन, समिधान, जातवेदा, विश्वपति, दमूनस, यविष्ठय, मेध्य आदि नामों से सम्बोधि्ात किया गया है।
'मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद् वायुरजायत' पुरुष सूक्त के अनुसार अग्नि और इन्द्र जुडवां भाई हैं। उनका रथ सोने के समान चमकता है और दो मनोजवा एवं मनोज्ञ वायुप्रेरित लाल घोड़ों द्वारा खींचा जाता है। अग्नि का प्रयोजन दुष्टात्माओं और आक्रामक, अभिचारों को समाप्त करना है। अपने प्रकाश से राक्षसों को भगाने के कारण ये रक्षोंहन् कहे गए हैं। देवों की प्रतिष्ठा करने के लिए अग्नि का आह्वान किया जाता है :-
अग्निर्होता कविक्रतु सत्यश्चित्रश्रवस्तमः। देवो देवेभिरागमत्॥
अग्नि-सूक्त ऋग्वेद के प्रथम मण्डल का प्रथम सूक्त है। इसके ऋषि मधुच्छन्दा वैश्वामित्र है। यह विश्वामित्र के पुत्र हैं। इसके देवता अग्नि हैं। इसका छन्द गायत्री-छन्द है। इस सूक्त का स्वर षड्जकृ है। गायत्री-छन्द में आठ-आठ अक्षरों के तीन पाद (चरण) होते हैं। इस प्रकार यह छन्द चौबीस अक्षरों (स्वरों) का है। इसमें कुल नौ मन्त्र है।सँख्या की दृष्टि से इऩ्द्र (250 श्लोक) के बाद अग्नि (200 श्लोक) का ही स्थान है, किन्तु महत्ता की दृष्टि से अग्नि का सर्वप्रमुख स्थान है।स्वतन्त्र रूप से अग्नि का 200 सूक्तों में स्तवन किया गया है। सामूहिक रूप से अग्नि का 2483 सूक्तों में स्तवन किया गया है। अग्नि पृथ्वी स्थानीय देवता है। इनका पृथ्वी लोक में प्रमुख स्थान है।
अग्नि का स्वरूप :: अग्नि शब्द "अगि गतौ" (भ्वादि. 5.2) धातु से बना है। गति के तीन अर्थ हैंः - ज्ञान, गमन और प्राप्ति। इस प्रकार विश्व में जहाँ भी ज्ञान, गति, ज्योति, प्रकाश, प्रगति और प्राप्ति है, वह सब अग्नि का ही प्रताप है।
अग्नि में सभी दोवताओं का वास होता  है :- "अग्निर्वै सर्वा देवता।" [ऐतरेय-ब्राह्मण 1.1, शतपथ 1.4.4.10] अर्थात् अग्नि के साथ सभी देवताओं का सम्बन्ध है। अग्नि सभी देवताओँ की आत्मा है :- अग्निर्वै सर्वेषां देवानाम् आत्मा।[शतपथ-ब्राह्मण 14.3.2.5]
निरुक्ति :- अग्नि की पाँच प्रकार से निरुक्ति  हैं :-
(1). अग्रणीर्भवतीति अग्निः। मनुष्य के सभी कार्यों में अग्नि अग्रणी होती है ।
(2). अयं यज्ञेषु प्रणीयते। यज्ञ में सर्वप्रथम अग्निदेव का ही आह्वान किया जाता है ।
(3). अङ्गं नयति सन्नममानः । अग्नि में पडने वाली सभी वस्तुओं को यह अपना अंग बना लेता है ।
(4). अक्नोपनो भवतीति स्थौलाष्ठीविः। न क्नोपयति न स्नेहयति। निरुक्तकार स्थौलाष्ठीवि का मानना है कि यह रूक्ष (शुष्क) करने वाली होती है, अतः इसे अग्नि कहते हैं।
(5). त्रिभ्य आख्यातेभ्यो जायते इति शाकपूणिः, इताद् अक्ताद् दग्धाद्वा नीतात् ।" शाकपूणि आचार्य का मानना है कि अग्नि शब्द इण्, अञ्जू या दह् और णीञ् धातु से बना है । इण् से "अ", अञ्जू से या दह् से "ग" और णीञ् से "नी" लेकर बना है [आचार्य यास्क, निरुक्तः 7.4.15]
कोई भी याग अग्नि के बिना सम्भव नहीं है। याग की तीन मुख्य अग्नियाँ होती हैं :- गार्हपत्य, आह्वनीय और दक्षिणाग्नि। गार्हपत्याग्नि सदैव प्रज्वलित रहती है। शेष दोनों अग्नियों को प्रज्वलित किए बिना याग नहीं हो सकता।
फलतः अग्नि सभी देवताओं में प्रमुख है।
अग्नि का स्वरूप भौतिक अग्नि के आधार पर व्याख्यायित किया गया है।
(1). अग्नि का रूप :- अग्नि की पीठ घृत से निर्मित है :- घृतपृष्ठ।  इनका मुख घृत से युक्त है :--घृतमुख। इनकी जिह्वा द्युतिमान् है। दाँत स्वर्णिम, उज्ज्वल तथा लोहे के समान हैं। केश और दाढी भूरे रंग के हैं। जबडे तीखें हैं, मस्तक ज्वालामय है। इनके तीन सिर और सात रश्मियाँ हैं। इनके नेत्र घृतयुक्त हैं :- घृतम् में चक्षुः। इनका रथ युनहरा और चमकदार है जिसे दो या दो से अधिक घोडे खींचते हैं। अग्नि अपने स्वर्णिम रथ में यज्ञशाला में बलि (हवि) ग्रहण करने के लिए देवताओं को बैठाकर लाते हैं। वे अपने उपासकों के सदैव सहायक हैं।
(2). अग्नि का जन्म :- अग्नि स्वजन्मा, तनूनपात् है। ये स्वतः-अपने आप, उत्पन्न होते हैं। अग्नि दो अरणियों के संघर्षण से उत्पन्न होते हैं। इनके लिए अन्य की आवश्यकता नहीं है। इसका अभिप्राय यह है कि अग्नि का जन्म, अग्नि से ही हुआ है। प्रकृति के मूल में अग्नि  है। ऋग्वेद के पुरुष-सूक्त में अग्नि की उत्पत्ति विराट्-पुरुष के मुख से बताई गई है :- मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च। अग्नि द्यावापृथ्वी के पुत्र हैं। 
(3). भोजन :- अग्नि का मुख्य भोजन काष्ठ और घृत है। आज्य उनका प्रिय पेय पदार्थ है। ये यज्ञ में दी जाने वाली हवि को ग्रहण करते हैं।
(4). अग्नि कविक्रतु है :- अग्नि कवि तुल्य है। वे अपना कार्य विचारपूर्वक करते हैं। कवि का अर्थ है :- क्रान्तदर्शी, सूक्ष्मदर्शी, विमृश्यकारी। वे ज्ञानवान् और सूक्ष्मदर्शी हैं। उनमें अन्तर्दृष्टि है। अग्निर्होता कविक्रतुः। [ऋग्वेदः 1.1.5]
(5). गमन :- अग्नि का मार्ग कृष्ण वर्ण का है। विद्युत् रथ पर सवार होकर चलते हैं। जो प्रकाशमान्, प्रदीप्त, उज्ज्वल और स्वर्णिम है। वह रथ दो अश्वों द्वारा खींचा जाता है, जो मनोज्ञा, मनोजवा, घृतपृष्ठ, लोहित और वायुप्रेरित है।
(6). अग्नि रोग-शोक और पाप-शाप नाशक हैं :- अग्नि रोग-शोक, पाप-दुर्भाव, दुर्विचार और शाप तथा पराजय का नाश करते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि जिसके हृदय में सत्त्व और विवेकरूपी अग्नि प्रज्वलित हो जाती है, उसके हृदय से दुर्भाव, दुर्विचार रोग-शोक के विचार नष्ट हो जाते हैं। वह व्यक्ति पराजित नहीं होता :-देवम् अमीवचातनम्।[ऋग्वेदः 1.12.7] और प्रत्युष्टं रक्षः प्रत्युष्टा अरातयः। [यजुर्वेदः-1.7]
(7.) यज्ञ के साथ अग्नि का सम्बन्ध :- यज्ञ के साथ अग्नि का अभिन्न सम्बन्ध है। उसे यज्ञ का ऋत्विक् कहा जाता है। वह पुरोहित और होता है। वह देवाताओं का आह्वान करता है और यज्ञ-भाग देवताओं तक पहुँचाता है :-अग्निमीऴे पुरोहितम्। [ऋग्वेदः 1.1.1]
(8). देवताओं के साथ अग्नि का सम्बन्ध :- अग्नि के साथ अश्विनी और उषा रहते हैं। मानव शरीर में आत्मारूपी अग्नि  विस्तार है। अश्विनी प्राण-अपान वायु हैं। इनसे ही मानव जीवन चलता है। इसी प्रकार उषाकाल में प्राणायाम, धारणा और ध्यान की क्रियाएँ की जाती हैं। अग्नि वायु के मित्र हैं। जब अग्नि प्रदीप्त है, तब वायु उनका साथ देते हैं :- आदस्य वातो अनु वाति शोचिः। [ऋग्वेदः 1.148.4]
(9). मानव-जीवन के साथ अग्नि का सम्बन्ध :- अग्नि मनुष्य के रक्षक पिता हैं :- स नः पितेव सूनवेSग्ने सुपायनो भव। [ऋग्वेदः 1.1.9] उन्हें दमूनस्, गृहपति, विश्वपति कहा जाता है।
(10). पशुओं से तुलना :- आत्मारूपी अग्नि हृदय में प्रकट होते हैं। ये हृदय में हंस के समान निर्लेप भाव से रहते हैं। ये उषर्बुध (उषाकाल) में जागने वालों के हृदय में चेतना प्रदान करते हैं :- हंसो न सीदन्, क्रत्वा चेतिष्ठो, विशामुषर्भुत्, ऋतप्रजातः, विभुः। [ऋग्वेदः 1.65.5]
(11). अग्नि अतिथि है :- अग्नि रूप आत्मा शरीर में अतिथि के तुल्य रहते हैं और सत्यनिष्ठा से रक्षा करते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि जो व्यक्ति सत्य का आचरण, सत्यनिष्ठ और सत्यवादी है, वे उसकी सदैव रक्षा करते हैं। ये अतिथि के समान शरीर में रहते हैं, जब उनकी इच्छा होती है, तब प्रस्थान कर जाते हैं :- अतिथिं  मानुषाणाम्। [ऋग्वेदः 1.127.8]
(12). अग्नि अमृत है :- संसार नश्वर है। इसमें अग्नि ही अजर-अमर है। यह अग्नि ज्ञानी को अमृत प्रदान करती है। अग्नि रूप परमात्मा मानव हृदय में वाद्यमान अमृत तत्त्व है। जो साधक और ज्ञानी हैं, उन्हें इस अमृतत्व आत्मा का दर्शन होता है :- विश्वास्यामृत भोजन। [ऋग्वेदः 1.44.5]
(13). अग्नि के तीन शरीर हैं :स्थूल-शरीर सू्क्ष्म-शरीर और कारण-शरीर। मानव शरीर अन्नमय-कोश और प्राणमय कोश वाला स्थूल शरीर है। मनोमय और विज्ञानमय कोश वाला शरीर सूक्ष्म शरीर है। आनन्दमय कोश वाला शरीर कारण शरीर है :- तिस्र उ ते तन्वो देववाता। [ऋग्वेदः- 3.20.2]
अग्नि सूक्त (1) ::  ऋग्वेद संहिता 1.1.1-9,  ऋषि :- मधुच्छन्दा वैश्वामित्र, देवता :- अग्नि, छन्द :-गायत्री। 
वेद में अग्नि देवता का विशेष महत्व है। ऋग्वेद संहिता में दो सौ सूक्त अग्नि के स्तवन में उपलब्ध है। ऋग्वेद के सभी मण्डलों के आदि में अग्नि सूक्त के अस्तित्व से अग्नि देव की प्रधानता  प्रकट होती है। सर्वप्रधान और सर्वव्यापक होने के साथ अग्नि सर्वप्रथम, सर्वाग्रणी भी हैं। इनका जातवेद नाम इसको विशेषता का द्योतक है। भूमण्डल के प्रमुख तत्वों से अग्नि का सम्बन्ध बताया का जाता है। प्राणि मात्रके सर्वविध कल्याण के लिये इस सूक्त गायन किया जाता है।
अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्॥1॥
सबका हित करने वाले, यज्ञ के प्रकाशक, सदा अनुकूल यज्ञ कर्म करने वाले, विद्वानों के सहायक अग्नि की मैं प्रशंसा करता हूँ।
I praise-appreciate Agni Dev, who is always helpful to all, lit-lightens the Yagy, always perform favourite deeds and is helpful to the learned Brahmns-Pandits.
हे अग्निदेव! हम आपकी स्तुती करते हैं। आप यज्ञ (श्रेष्ठतम पारमार्थिक कर्म) के पुरोहित (आगे बढाने वाले), देवता (अनुदान देनेवाले), ऋत्विज (समयानुकूल यज्ञ का सम्पादन करनेवाले), होता (देवों का आवाहन करनेवाले) और याचकों को रत्नों से (यज्ञ के लाभों से) विभूषित करने वाले हैं। 
Hey Agni Dev-the demigod of fire! We glorify (adore, pray, worship) you as the highest priest of sacrifice, the divine, one who invites the demigods, who is the offeror and possessor of greatest wealth.
अग्निः पूर्वेर्भिऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत। स देवाँ एह वक्षति॥2॥
सदैव से प्रशंसित अग्नि देव का आवाहन करते हैं। अग्नि के द्वारा ही देवता शरीर में प्रतिष्ठित रहते हैं। शरीर से अग्नि देव के निकल जाने पर समस्त देव इस शरीर को त्याग देते हैं।
We invite Agni Dev who is always appreciable. Its the Agni Dev who hold the deities-demigods in the body. Demigods-deities leave the body as soon as Agni Dev moves out of it.
जो अग्नि देव पूर्व कालिक ऋषियों (भृगु, अंगिरादि) द्वारा प्रशंसित हैं। जो वर्तमान काल में भी ऋषि कल्प वेदज्ञ विद्वानों द्वारा स्तुत्य हैं, वे अग्निदेव इस यज्ञ में देवों का आवाहन करें। 
देव आवाहन मंत्र :- 
आगच्छ भगवन्देव स्थाने चात्र स्थिरो भव। 
यावत्पूजां करिष्यामि तावत्वं सन्निधौ भव
May that Agni, who is worthy to be praised by ancient and modern sages, gather the deities-demigods here.
अग्निना रयिमश्नवत् पोषमेव दिवेदिवे। यशसं वीरवत्तमम्॥3॥
अग्नि ही पुष्टि कारक, बल युक्त और यशस्वी अन्न प्रदान करते हैं। अग्नि से ही पोषण होता है, यश बढ़ता है और वीरता से धन प्राप्त होता है।
Agni provides nourishing, strengthening and glorifying grains. Agni is nourishing and glorifying leading to earning through valour.
स्तोता द्वारा स्तुति किये जाने पर; यश बढ़ाने वाले अग्नि देव मनुष्यों-यजमानों को प्रतिदिन विवर्धमान-बढ़ने वाला धन, यश एवं पुत्र-पौत्रादि, वीर पुरूष आदि प्रदान करनेवाले हैं। 
Agni Dev, the deity of fire grants wealth to the devotees, which keeps on enhancing-increasing day by day along with the devotee's name fame-honour. He is blessed with able progeny.
अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि। स इद् देवेषु गच्छति॥4॥
हे अग्नि! जिस हिंसा रहित यज्ञ को सब ओर से आप सफल बनाते हैं, वही देवों के समीप पहुँचता है। 
Hey Agni! The Yagy free from violence becomes successful and reaches the demigods-deities.
हे अग्निदेव। आप सबका रक्षण करने में समर्थ हैं। आप जिस अध्वर (हिंसा रहित यज्ञ) को सभी ओर से आवृत किये रहते हैं, वही यज्ञ देवताओं तक पहुँचता है।  
Hey Agni Dev! You are capable of protecting everyone. You keep on surrounding the Hawan Kund-sacrificial pot free from violence (Animal sacrifice, meat) from all sides. These offerings reach the demigods-deities through you.
This verse clearly states that the Yagy-Hawan-Agni Hotr does not allow animal sacrifice, eating of meat.
अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः देवो देवेभिरा गमत्॥5॥
देवों का आवाहन करने वाला, यज्ञ-निष्पादक, ज्ञानियों की कर्म शक्ति का प्रेरक, सत्य परायण, विविध रूपों वाला और अतिशय कीर्ति युक्त यह तेजस्वी अग्नि, देवों के साथ इस यज्ञ में आयें।
The Agni who is brilliant, glorious, having vivid forms, truthful, directing the enlightened to endeavours-Yagy performances, inviting the demigods-deities, should come to the Yagy along with the demigods-deities.
हे अग्निदेव! आप हवि प्रदाता, ज्ञान और कर्म की संयुक्त शक्ति के प्रेरक, सत्यरूप एवं विलक्षण रूप युक्त है। आप देवों के साथ इस यज्ञ में पधारें। 
O Agni Dev! You provide us with the material for offerings-sacrifices, knowledge-enlightenment and power-strength, inspiration for performing deeds-duties and you are an embodiment of truth, unique in qualities. Kindly oblige us by arriving here at the site of the Yagy along with the demigods-deities.
यदङ्ग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि। तवेत् तत् सत्यमङ्गिरः॥6॥
हे अग्नि! आप दान शील का कल्याण करते हैं। हे शरीर में व्यापक अग्नि! यह आपका नि:संदेह एक सत्य कर्म है।
Hey Agni! You resort to the welfare of the person who is a donor. Hey body pervading Agni! Its definitely a truthful deed.
हे अग्निदेव! आप यज्ञ करने वाले यजमान का धन, आवास, संतान एवं पशुओं की समृद्धि करके, जो भी कल्याण करते हैं, वह भविष्य के किये जाने वाले यज्ञों के माध्यम से आपको ही प्राप्त होता है। 
Hey Agni Dev! What ever welfare you do-bestow to the devotee-the person performing Yagy; in the form of wealth, live stock (animals), progeny and residence is returned to you through various sacrifices performed by the devotee in his life time-span.
उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम्। नमो भरन्त एमसि॥7॥
हे अग्नि! प्रति दिन, दिन और रात बुद्धि पूर्वक नमस्कार करते हुए हम आपके समीप आते हैं अर्थात् अपनी स्तुतियों द्वारा हमेशा उस प्रकाशक एवं तेजस्वी अग्नि का गुणगान करना चाहिये, दिन और रात्रि के समय उनको सदा प्रणाम करना चाहिये।
Hey Agni! We always seek your shelter-protection (asylum) every day, during the day & night. One should always seek his blessings.
हे जाज्वलयमान अग्निदेव! हम आपके सच्चे उपासक हैं। श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा आपकी स्तुति करते हैं और दिन-रात, आपका सतत गुणगान करते हैं। हे देव। हमे आपका सान्निध्य प्राप्त हो। 
O Agni Dev possessor of Aura-brilliance! We are your devotees, performing the worship with pure intentions and keep on reciting your praise (qualities, traits) through day & night.
राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम्। वर्धमानं स्वे दमे॥8॥
दीप्यमान, हिंसा रहित यज्ञों के रक्षक, अटल सत्य के प्रकाशक और अपने घर में बढ़ने वाले अग्नि के पास हम नमस्कार करते हुए आते हैं।
We have come to the Agni who is bright-brilliant, protector of the Yagy, favours the truth and is lit in our homes, to honour him.
हम गृहस्थ लोग दिप्तिमान, यज्ञों के रक्षक, सत्य वचन रूप व्रत को आलोकित करने वाले, यज्ञ स्थल में वृद्धि को प्राप्त करने वाले अग्निदेव के निकट, स्तुति पूर्वक आते हैं। 
We, the house holds leading a family life come to seek asylum (patronage, protection) under you at the site of the Yagy to have growth; you being the illuminator of the Yagy site and our protector requesting you again and again politely.
स नः पितेव सूनवेऽग्ने सूपायनो भव। सचस्वा नः स्वस्तये॥9॥
हे अग्नि! जिस प्रकार पिता-पुत्र के कल्याणकारी काम में सहायक होता है, उसी प्रकार आप हमारे कल्याण में सहायक हों। 
Hey Agni! You should be helpful to us, just like the father who is protective to the son.
हे गाहर्पत्य अग्ने! जिस प्रकार पुत्र को पिता (बिना बाधा के) सहज की प्राप्त होता है, उसी प्रकार आप भी (हम यजमानों के लिये) बाधा रहित होकर सुख पूर्वक प्राप्त हों। आप हमारे कल्याण के लिये हमारे निकट रहें। 
O Gaharpaty Agni! The convenience with which a son can approach his father without tension (trouble, hesitation), you should also be accessible to us for our welfare, around-near us.
अग्नि सूक्त (2) ऋग्वेद संहिता, प्रथम मंडल सूक्त 27 :: ऋषि :- शुन:शेप आजीगर्ति। देवता :- 1-12 अग्नि, 13 देवतागण। छन्द 1-12  गायत्री, 13 त्रिष्टुप।]
अश्वं न त्वा वारवन्तं वन्दध्या अग्निं नमोभिः। सम्राजन्तमध्वराणाम्॥
तमोनाशक, यज्ञों के सम्राट स्वरूप हे अग्निदेव! हम स्तुतियों के द्वारा आपकी वन्दना करते हैं। जिस प्रकार अश्व अपनी पूँछ के बालों से मक्खी-मच्छर दूर भगाता है, उसी प्रकार आप भी ज्वालाओं से हमारे विरोधियों को दूर भगायें।[ऋग्वेद 1.27.1]
Hey Agni Dev-the destroyer (remover) of darkness, the king of Yagy! We pray to you with the help of hymns. Please repel our opponents with your flames just like the horse who chase-throws away mosquotes and flies.
HYMES :: भजन, स्तोत्र, स्तवन; ode, psalm, prayer, eulogy, panegyric, praise, song of praise.
स घा नः सूनुः शवसा पृथुप्रगामा सुशेवः। मीढ्वाँ अस्माकं बभूयात्॥
हम इन अग्निदेव की उत्तम विधि से उपासना करते हैं। वे बल से उत्पन्न, शीघ्र गतिशील अग्निदेव हमें अभिष्ट सुखों को प्रदान करें।[ऋग्वेद 1.27.2]
We pray to Agni Dev with the best procedures. Agni Dev, who was born by force, is fast moving may kindly grant us all comforts, amenities.
Fire is produces when two pieces of wood are rubbed together with force or stones are struck or rubbed with each other with force (force of friction). 
स नो दूराच्चासाच्च नि मर्त्यादघायोः। पाहि सदमिद्विश्वायुः॥
हे अग्निदेव! सब मनुष्यों के हित चिन्तक आप दूर से और निकट से, अनिष्ट चिन्तन से सदैव हमारी रक्षा करें।[ऋग्वेद 1.27.3]
Hey Agni Dev! Please always protect us from the ill will of everyone-humans (colleagues, friend, relatives etc.)
इममू षु त्वमस्माकं सनिं गायत्रं नव्यांसम्। अग्ने देवेषु प्र वोचः॥
हे अग्निदेव! आप हमारे गायत्री परक प्राण पोषक स्तोत्रों एवं नवीन अन्न (हव्य) को देवों तक (देव वृत्तियों के पोषण हेतु) पहुँचाये।[ऋग्वेद 1.27.4]
Hey Agni Dev! Please carry forward our offerings (food grains) and the life protecting hymns  of Gayatri to the demigods-deities. 
आ नो भज परमेष्वा वाजेषु मध्यमेषु। शिक्षा वस्वो अन्तमस्य॥
हे अग्निदेव! आप हमें श्रेष्ठ (आध्यात्मिक), मध्यम (आधिदैविक) एवं कनिष्ठ (आधिभौतिक) अर्थात सभी प्रकार की धन सम्पदा प्रदान करें।[ऋग्वेद 1.27.5]
Hey Agni Dev! Kindly bless us with all amenities of life, ranging from lower to highest level.
विभक्तासि चित्रभानो सिन्धोरूर्मा उपाक आ। सद्यो दाशुषे क्षरसि॥
सात ज्वालाओं से दीप्तिमान हे अग्निदेव! आप धनदायक हैं। नदी के पास आने वाली जल तरंगों के सदृश आप हविष्यान्न दाता को तत्क्षण (श्रेष्ठ) कर्म फल प्रदान करते हैं।[ऋग्वेद 1.27.6]
Hey Agni Dev glittering with 7 flames! You provide wealth (gold, money) to the worshippers. You grant the best out come-rewards of the deeds-endeavours to the host-one performing Yagy, just like the waves in the river waters, reaching the banks.
यमग्ने पृत्सु मर्त्यमवा वाजेषु यं जुनाः। स यन्ता शश्वतीरिषः॥
हे अग्निदेव! आप जीवन संग्राम में जिस पुरुष को प्रेरित करते हैं, उनकी रक्षा आप स्वयं करते हैं। साथ ही उसके लिये पोषक अन्नों की पूर्ति भी करते हैं।[ऋग्वेद 1.27.7]
Hey Agni Dev! One inspired by in the struggles of life, is protected by you. You provide him with sufficient food grains for his nourishment.
नकिरस्य सहन्त्य पर्येता कयस्य चित्। वाजो अस्ति श्रवाय्यः॥
हे शत्रु विजेता अग्निदेव! आपके उपासक को कोई पराजित नहीं कर सकता, क्योंकि उसकी (आपके द्वारा प्रदत्त) तेजस्विता प्रसिद्ध है।[ऋग्वेद 1.27.8]
Hey enemy defeating Agni Dev! No one can defeat your worshipers, since they possess the energy-power granted by you.
स वाजं विश्वचर्षणिरर्वद्भिरस्तु तरुता। विप्रेभिरस्तु सनिता॥
सब मनुष्यों के कल्याणकारक वे अग्निदेव जीवन-संग्राम में अश्व रूपी इन्द्रियों द्वारा विजयी बनाने वाले हैं। मेधावी पुरुषों द्वारा प्रशंसित वे अग्निदेव हमें अभीष्ट फल प्रदान करें।[ऋग्वेद 1.27.9]
The Agni Dev, who benefit all humans, help us with the help of our organs-which are like the horse, let us win in the war of life-struggles. Appreciated by the genius, Let Agni Dev grant us the desired rewards-out put of our endeavours.
जराबोध तद्विविड्ढि विशेविशे यज्ञियाय। स्तोमं रुद्राय दृशीकम्॥
स्तुतियों से देवों को प्रबोधित करने वाले हे अग्निदेव! ये यजमान, पुनीत यज्ञ स्थल पर दुष्टता, विनाश हेतु आपका आवाहन करते हैं।[ऋग्वेद 1.27.10]
Hey Agni Dev! The hosts invite you with the help of highly esteemed hymns-prayers, at the Yagy site to vanish the wicked, depraved, sinners, viceful. 
स नो महाँ अनिमानो धूमकेतुः पुरुश्चन्द्रः। धिये वाजाय हिन्वतु॥
अपरिमित धूम्र-ध्वजा से युक्त, आनन्द प्रद, महान वे अग्निदेव हमें ज्ञान और वैभव की ओर प्रेरित करें।[ऋग्वेद 1.27.11]
Agni Dev associated with the flag of smoke, pleasure granting highly esteemed may give us enlightenment and amenities-wealth.  
स रेवाँ इव विश्पतिर्दैव्यः केतुः शृणोतु नः। उक्थैरग्निर्बृहद्भानुः॥
विश्व पालक, अत्यन्त तेजस्वी और ध्वजा सदृश गुणों से युक्त दूर दर्शी वे अग्नि देव वैभवशाली राजा के समान हमारी स्तवन रूपी वाणियों को ग्रहण करें।[ऋग्वेद 1.27.12]
Let Agni Dev who is the nurturer of the whole world, extremely energetic-possessing aura-brilliance, possessing the characterices of flag, far sighted-visionary accept our prayers-hymns to him.
नमो महद्भ्यो नमो अर्भकेभ्यो नमो युवभ्यो नम आशिनेभ्यः।
यजाम देवान्यदि शक्नवाम मा ज्यायसः शंसमा वृक्षि देवाः॥
बड़ों, छोटों, युवकों और वृद्धों को हम नमस्कार करते हैं। सामर्थ्य के अनुसार हम अग्नि देव सहित देवों का यजन करें। हे देवो! अपने से बड़ो के सम्मान में हमारे द्वारा कोई त्रुटी न हो।[ऋग्वेद 1.27.13]
We salute the elders, youngers, youth and the aged. We honour Agni Dev & the demigods-deities as per our capability. Kindly ensure that no mistake is committed by us in honouring our elders (Pitr Gan, Dev Gan, Rishi Gan Deities & the ALMIGHTY) 
इन्द्र सूक्त (1) :: ऋग्वेद :- मण्डल 1, ऋषि :- मधुच्छन्दा:, देवता :- इन्द्र:, छन्द :- गायत्री, अनुवाक :- 2. 
इन्द्रमिद गाथिनो बर्हदिन्द्रमर्केभिरर्किणः। इन्द्रं वाणीरनूषत॥1॥ 
साम वेदियों ने साम-गान द्वारा, ऋग्वेदियों ने वाणी द्वारा और यजुर्वेदियों ने वाणी द्वारा इन्द्र की स्तुति की है। 
Dev Raj Indr has been prayed-felicitated by the practitioners of Sam Ved with the verses of Sam Ved, those of Rig Ved with Rig Ved verses & the Yajur Ved practitioners with the verses of Yajur Ved.
इन्द्र इद धर्योः सचा सम्मिश्ल आ वचोयुजा। इन्द्रो वज्रीहिरण्ययः॥2॥ 
इन्द्र अपने दोनों घोड़ों को बात की बात में जोत कर सबके साथ मिलते हैं। इन्द्र वज्रयुक्त और हिरण्यमय हैं।
DevRaj Indr glittering like gold, holding Vajr-thunder volt, deploy his horses in the chariot and joins others quickly.
इन्द्रो दीर्घाय चक्षस आ सूर्यं रोहयद दिवि। वि गोभिरद्रिमैरयत॥3॥
दूरस्थ मनुष्यों को देखने के लिए ही इन्द्र ने सूर्य को आकाश में रक्खा है। सूर्य अपनी किरणों द्वारा पर्वतों को आलोकित किये हुए हैं।
Dev Raj Indr hold Sun (Bhagwan Sury) in the sky to see those humans, who are away from him. Sun is lightening the mountains with his rays. 
इन्द्र वाजेषु नो अव सहस्रप्रधनेषु च। 
उग्र उग्राभिरूतिभिः॥4॥ 
उग्र इन्द्र! अपनी अप्रतिहत रक्षण-शक्ति द्वारा युद्ध और लाभकारी महासमर में हमारी रक्षा करो। 
अप्रतिहत :: जिसे कोई रोक न सके, निर्बाध, अप्रभावित, अंकुश; continuous, who can not be blocked by any one.
Hey furious Indr! Protect us with your unblock able power, in the big gainful-productive war.
इन्द्रं वयं महाधन इन्द्रमर्भे हवामहे। युजं वर्त्रेषु वज्रिणम॥5॥ 
इन्द्र हमारे सहायक और शत्रुओं के लिए वज्रधर हैं; इसलिए हम धन और महाधन के लिए इन्द्र का आह्वान करते हैं।
Since, Indr is our associate and thunder volt holder for the enemy, we invite him for riches and ultimate comforts. 
स नो वर्षन्नमुं चरुं सत्रादावन्नपा वर्धि। अस्मभ्यमप्रतिष्कुतः॥6॥ 
अभीष्ट फलदाता और वृष्टिप्रद इन्द्र! तुम हमारे लिए इस मेघ को भेदन करो। तुमने कभी भी हमारी प्रार्थना अस्वीकार नहीं की। 
Hey desired results producing and rain showering Indr Dev! You should make these clouds rain. You never rejected our prayers.
तुञ्जे-तुञ्जे य उत्तरे सतोमा इन्द्रस्य वज्रिणः। न विन्धेस्य सुष्टुतिम॥7॥
जो विवध स्तुति वाक्य विभिन्न देवताओं के लिए प्रयुक्त होते हैं, सो सब वज्रधारी इन्द्र के हैं। इन्द्र की योग्य स्तुति मैं नहीं जानता। 
All those prayers meant for the other demigods-deities are used for praying Dev Raj Indr. I do not know a suitable prayer meant for the thunder volt wearing-holding, Dev Raj Indr.
वर्षा यूथेव वंसगः कर्ष्टीरियर्त्योजसा। ईशानो अप्रतिष्कुतः॥8॥
जिस तरह विशिष्ट गतिवाला बैल अपने गो बल को बलवान करता है, उसी प्रकार इच्छित वितरण करता इन्द्र मनुष्य को बलशाली करते हैं। इन्द्र शक्ति संपन्न हैं और किसी की याचना को अग्राह्य नहीं करते।
The manner in which a bull having a special speed (breed) strengthen his flock of cows, Dev Raj Indr makes the humans (who pray to him) strong & powerful. He never reject the requests-prayers of anyone.   
य एकश्चर्षणीनां वसूनामिरज्यति। इन्द्रः पञ्च कसितीनाम॥9॥
इन्द्र मनुष्यों, धन और पञ्चक्षिति के ऊपर शासन करने वाले हैं।
 Indr rules humans, wealth-riches and the five horizons.
इन्द्रं वो विश्वतस परि हवामहे जनेभ्यः। अस्माकमस्तु केवलः॥10॥
सबके अग्रणी इन्द्र को तुम लोगों के लिए हम आह्वान करते हैं। इन्द्र हमारे ही हैं।
We invite Dev Raj Indr who stands first for you. Indr belongs to us.
इन्द्र-सूक्त (2) :: ऋषि :- अप्रतिरथ, देवता :- इन्द्र तथा आर्षी,  छन्द :- त्रिष्टुप्। इन्द्र वेद के प्रमुख देक्ता है। इन्द्र के विषय में अन्य देवताओं की अपेक्षा अधिक कथाएँ प्रचलित हैं। इनका समस्त स्वरूप स्वर्णिम तथा अरुण है। ये सवाधिक सुन्दर रूपों को धारण करते हैं तथा सूर्य की अरुण  आभा को धारण करते हैं। अतः इन्हें हिरण्य कहा जाता है। 
आशु: शिशानोवृषभो न भीमो धनाधन: क्षोभणश्चर्षणीनाम्
संक्रन्दनोSनिमिष एकवीरशत ँ ् सेना अजयत् साकमिन्द्रः॥1॥ 
वेगगामी, वज्रतीक्ष्णकारी, वर्षण (Precipitation, Testis) की उपमा वाले, भयंकर, मेघ तुल्य वृष्टि करनेवाले, मानवों के मोक्षकर्ता, निरन्तर गर्जना युक्त, अपलक, अद्वितीय वीर इन्द्र ने शत्रुओं की सैकड़ों सेनाओं को एक साथ जीत लिया है।
Indr is fast moving, strikes hard with thunderbolt, has the title of Varshan (sperm producing-too sexy), makes having-furious rains, grants Salvation-Moksh to humans, roaring continuously, un parallelled warrior-brave (valour) and wins hundreds of armies at a time.
संक्रन्दनोSनिमिषेण जिष्णुना युत्कारेण दुश्च्यवनेन धृष्णुना। 
तदिन्द्रेण जयत तत्सहध्वं युधो नर इषुहस्तेन वृष्णा॥2॥
हे योद्धाओ! गर्जन कारी, अपलक, जयशील, युद्धरत, अपराजेय, प्रतापी, हाथ में वाण सहित, कामनाओं की वृष्टि करने वाले इन्द्र की कृपा से शत्रु को जीतो और उसका संहार करो।
Hey warriors! Win the enemy by the grace of Indr Dev who is roaring stunning, thundering), do not blink his eyes, winning, engaged in war, undefeated, glorious, has arrows in his hands, showers desires-amenities. 
सइषुहस्तैः सनिषङ्गिभिर्वशी ँ ् स्रष्टा सयुधइन्द्रोगणेन। 
 ँ ् सृष्टजित्सोमपा बाहुशर्ध्युग्रधन्वा प्रतिहिताभिरस्ता॥3॥
वह संयमी, युद्धार्थ उपस्थितों को जीतने वाला, शत्रु समूहों से युद्ध करने वाला, सोम पान करने वाला, बाहुबल से युक्त, कठोर धनुष वाला इन्द्र, बाण धारी एवं तूणीर धारी शत्रुओं से भिड़ जाता है और अपने फेंके गये बाणों से उन्हें परास्त करता है।
संयमी :: कड़ा, चुप्पा, अल्पभाषी, उपवास करनेवाला, शांत, गम्भीर, सादा, परहेज़गार, उद्वेग रहित; One who practice self restraint, self control. Spartan, abstinent, sober.
He is self controlled-restrained, wins those who have come to fight, fights with groups of enemies, drinks Somras, possessed with muscle power, wears a hard-strong bow & arrows, strike the enemies and defeat them by his arrows.
बृहस्यते परिदीया रथेन रक्षोहामित्राँ अपबाधमानः। 
प्रभञ्जन्सेनाः प्रमणो युधा जयन्न स्माकमेध्यविता रथानाम्॥4॥ 
हे व्याकरण कर्ता! तुम रथ से संचरण करने वाले, राक्षस-विनाशक, शत्रु पीड़ा कारक, उनकी सेनाओं के विध्वंस कर्ता एवं युद्ध द्वारा हिंसाकारियों के विजेता हो। हमारे रथों के रक्षक बनो।
Hey Indr (grammarian)! You control the war in a charoite, kills the demons-giants, causes pain to the enemy, destroys their armies and is winner of the violent traitors in the war. Please protect our chariots. 
बनविज्ञायः स्थविरः प्रवीरः सहस्वान् वाजी सहमान उग्रः।
अभिवीरो अभित्त्वा सहोजा जैत्रमिन्द्र रथमा तिष्ठ गोवित्॥5॥ 
हे दूसरों के बल को जानने वाले, पुरातन शासक, शूर, साहसी, अन्रवान्, उग्र, वीरों से युक्त, परिचरों से युक्त, सहज ओजस्वी, स्तुति के ज्ञाता एवं शत्रुओं के तिरस्कर्ता इन्द्र! तुम अपने जयशील रथ पर आरूढ हो जाओ।
तिरस्कार :: घृणा, अवहेलना, घृष्टता, निन्दा, परिवाद, धिक्कार, भला-बुरा, घिन, हँसी, नफ़रत, मज़ाक; disdain, reproach, scorn.  
Hey Indr! You assess the power-strength of the enemy, ancient ruler, brave possessing valour, possess food grain, fiery (violent, furious), possess aura, aware of prayers (of the Almighty), subjects the enemy to humiliation-reproach. Please ride your winning charoite.
गोत्रभिदं गोविदं वजबाहु जयन्तमज्म प्रमुणन्तमोजसा। 
इम ँ ् सजाता अनुवीरयध्वमिन्द्र ँ ् सखायो अनुस ँ ् रभव्यम्॥6॥
है तुल्य जन्मा इन्द्र सखा देवो! इस असुर संहारक, वेदज्ञ, वज्रबाहु, रणजेता, बलपूर्वक शत्रु-संहर्ता इन्द्र के अनुरूप ही तुम लोग भी शौर्य दिखाओ और इसकी ओर से तुम भी आक्रमण करो।
Hey demigods with the equivalent origin-ancestry! You should join Indr, who destroys the demons-giants, enlightened in Veds, wears thunder volt-Vajr, wins the war, kills the enemies with force-might and show bravery just like him and raid the enemies. 
अभिगोत्राणि सहसा गाहमानोऽदयो वीरः शतमन्युरिन्द्र।  
दुश्च्यवनः पृतनाषाडयुध्योऽस्माक ँ ् सेना अवतु प्र युत्सु॥7॥ 
शत्रुओं को निर्दयतापूर्वक, विविध क्रोधयुक्त हो और सहसा मर्दित करनेवाला और अडिग होकर उनके आक्रमणों को झेलने वाला वीर इन्द्र हमारी सेना की सर्वथा रक्षा करे।
Brave Indr, who faces-tolerates the enemies without fear, unmoved, possess vivid angers (means to strike), grants honours at once should protect our armies completely-thoroughly.
इन्द्र आसां नेता बृहस्पतिर्दक्षिणा यज्ञः पुर एतु सोमः।
देवसेनानामभिभञ्जतीनां जयन्तीनां मरुतो यन्त्वग्रम्॥8॥ 
शत्रुओं का मानमर्दन करनेवाली, विजयोन्मुखी, इन देव सेनाओं का नेता वेदज्ञ इन्द्र है। विष्णु इसके दाहिने ओर से आयें, सोम सामने से आयें तथा गण देवता आगे-आगे चलें। 
Indr is the leader of the winning mighty demigods-deities armies which destroys the pride of the enemies. Let Bhawan Shri Hari Vishnu by his right side, Som-Chandr Dev in front the Gan Devta moves ahead-forward. 
इन्द्रस्य वृष्णोवरुणस्य राज्ञआदित्यानां मरुता ँ ् शर्धउग्रम्।
महामनसां भुवनच्यवानां घोषो देवानां जयतामुदस्थात्॥9॥
वर्षण शील इन्द्र की, राजा वरुण की, महामनस्वी आदित्यों और मरुतों की तथा भुवनों को दबाने वाले  विजयी देवताओं की सेना का उग्र घोष हुआ।
The winning-striking armies of the demigods-deities, which targets-presses the abodes of the demons-enemies, ready to shower Indr Dev, king Varun Dev, enlightened Adity Gan and the Marud Gan  made winning sound.
उद्धर्षय मधवन्नायुधान्युत्सत्वनां मामकानां मना ँ ्सि। 
उदवृत्रहन्वाजिनां वाजिनान्युद्रधानां जयतां यन्तु घोषाः॥10॥
हे इन्द्र! आयुधों को उठाकर चमका दो। हमारे जीवों के मन प्रसन्न कर दो। हे इन्द्र! घोड़ों की गति तीव्र कर दो और जयशील रथों के घोष तुमुल (Boisterous) हों।
Hey Indr! Let the weapons be polished making our hearts fill with pleasure & let the horses run fast making boisterous sound of the chariots.
अस्माकमिन्द्र: समृतेषु ध्वजेष्वस्माकं या इषवस्ता जयन्तु। 
अस्माकं वीरा उत्तरे भवन्त्वस्माँ उ देवा अवता हवेषु॥11॥
हमारी ध्वजाओं के शत्रु ध्वजाओं से जा मिलने पर इन्द्र हमारी रक्षा करें। हमारे बाण विजयी हों। हमारे वीर शत्रु वीरों से उत्कृष्ट हों तथा युद्ध में देवता हमारी रक्षा करें।
Let Dev Raj Indr protect us if our flags joins the flags of the enemy i.e., we are defeated. Our arrows should be victorious. Our soldiers should be better than those of the enemy. Let demigods-deities protect us in war.
अमीषां चित्तं प्रतिलोभयन्ती गृहाणाङ्गान्यप्वे परेहि। 
अभि प्रेहिनिर्दह हृत्सु शोकैरन्धेनामित्रास्तमसा सचन्ताम्॥12॥
हे व्याधि देवि! इन शत्रुओं के चित्तों को मोहित करती हुई पृथक् हो जा। चारों ओर से अन्यान्य शत्रुओं को भी समेटती हुई पृथक् हो जा। उनके हृदयों को शोकाकुल कर दो और वे हमारे शत्रु तामस अहंकार से ग्रस्त हो जायँ।
Hey Vyadhi Devi-deity causing trouble! Please cast your spell over the enemy move away. Surround the enemy from all sides and move away. Let their hearts be filled with pain-sorrow. Let our enemy be over powered by Tamas (making them lazy-immovable) proud-arrogance.
अवसृष्टा परापत शरव्ये ब्रह्मस ँ ्शिते।गच्छामित्रान् प्रपद्यस्व मामीषां कंचनोच्छिषः॥13॥
ब्रह्म मन्त्र से अभिमन्त्रित हे हमारे बाण-ब्रह्मास्त्रो! हमारे द्वारा छोड़े जाने पर तुम शत्रुओं पर जा पड़ो। उनके पास जाओ और उनके शरीरों में प्रविष्ट हो जाओ तथा  उनमें से किसी को भी न छोड़ो।
Hey our arrows-Brahmastr! You should fall over the enemy. Move to them and penetrate their bodies. Don't spare even a single enemy. 
प्रेता यजता नर इन्द्रो वः शर्म यच्छतु। 
उग्रा वः सन्तु बाहवोऽनाधृष्या यथाऽसथ॥14॥ 
हे हमारे नरो! जाओ और विजय करो। इन्द्र तुम्हें विजय-सुख दें। तुम्हारी भुजाएँ उग्र हों, जिससे तुम अघर्षित होकर टिके रहो। 
घर्षित :: रगड़ा हुआ, घिसा, पिसा हुआ, अपहृत, अपहृता, घर्षित, घर्षिताअच्छी तरह धुला हुआ, माँजा हुआ; abject, victim of abduction.
Hey warriors-soldiers! Move and win-over power the enemy. Let Devraj Indr provide you with the pleasure-happiness of victory. Your hands-arms should be fiery, strong enough and quick, so that you remain unabducted.
असौ या सेना मरुतः परेषामभ्यैति न ओजसा स्पर्धमाना।
तां गृहत तमसाऽपव्रतेन यथाऽमी अन्यो अन्यं न जानन्॥15॥ 
हे मरुद्गण! यह जो शत्रु सेना बल में हम से स्पर्धा करती हुई हमारी ओर चली आ रही है, उसे कर्म हीनता के अन्धकार से आच्छादित कर दो, ताकि वे आपस में ही एक-दूसरे को न जानते हुए लड़ मरें।
Hey Marud Gan! Let the enemy army, which is moving towards us, competing with us, should be shrouded with the cover of inability-imprudence so that they fight one another, without recognising themselves. 
यत्र बाणा: सम्पतन्ति कुमारा विशिखा इव।
तत्र इन्द्रोबृहस्पतिरदितिः शर्म यच्छतु विश्वाहा शर्मयच्छतु॥16॥ 
शिखा हीन कुमारों की भाँति शत्रु प्रेरित बाण जहाँ-जहाँ पड़ें, वहाँ-वहाँ इन्द्र, बृहस्पति और अदिति हमारा कल्याण करें। विश्व संहारक हमारा कल्याण करें।
Let the destroyer of the world (Bhagwan Mahesh-Shiv) do our welfare. Where ever the arrows shot by the enemy, like the youth without hair coil over the head, fall Dev Raj Indr, Dev Guru Brahaspati and Mata Aditi look to our welfare i.e., protect us.
पितृ सूक्त ::
उदिताम् अवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः।
असुम् यऽ ईयुर-वृका ॠतज्ञास्ते नो ऽवन्तु पितरो हवेषु॥1॥
अंगिरसो नः पितरो नवग्वा अथर्वनो भृगवः सोम्यासः।
तेषां वयम् सुमतो यज्ञियानाम् अपि भद्रे सौमनसे स्याम्॥2॥
ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासो ऽनूहिरे सोमपीथं वसिष्ठाः।
तेभिर यमः सरराणो हवीष्य उशन्न उशद्भिः प्रतिकामम् अत्तु॥3॥
त्वं सोम प्र चिकितो मनीषा त्वं रजिष्ठम् अनु नेषि पंथाम्।
तव प्रणीती पितरो न देवेषु रत्नम् अभजन्त धीराः॥4॥
त्वया हि नः पितरः सोम पूर्वे कर्माणि चक्रुः पवमान धीराः।
वन्वन् अवातः परिधीन् ऽरपोर्णु वीरेभिः अश्वैः मघवा भवा नः॥5॥
त्वं सोम पितृभिः संविदानो ऽनु द्यावा-पृथिवीऽ आ ततन्थ।
तस्मै तऽ इन्दो हविषा विधेम वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥6॥
बर्हिषदः पितरः ऊत्य-र्वागिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम्।
तऽ आगत अवसा शन्तमे नाथा नः शंयोर ऽरपो दधात॥7॥
आहं पितृन्त् सुविदत्रान् ऽअवित्सि नपातं च विक्रमणं च विष्णोः।
बर्हिषदो ये स्वधया सुतस्य भजन्त पित्वः तऽ इहागमिष्ठाः॥8॥
उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु।
तऽ आ गमन्तु तऽ इह श्रुवन्तु अधि ब्रुवन्तु ते ऽवन्तु-अस्मान्॥9॥
आ यन्तु नः पितरः सोम्यासो ऽग्निष्वात्ताः पथिभि-र्देवयानैः।
अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तो ऽधि ब्रुवन्तु ते ऽवन्तु-अस्मान्॥10॥
अग्निष्वात्ताः पितर एह गच्छत सदःसदः सदत सु-प्रणीतयः।
अत्ता हवींषि प्रयतानि बर्हिष्य-था रयिम् सर्व-वीरं दधातन॥11॥
येऽ अग्निष्वात्ता येऽ अनग्निष्वात्ता मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते।
तेभ्यः स्वराड-सुनीतिम् एताम् यथा-वशं तन्वं कल्पयाति॥12॥
अग्निष्वात्तान् ॠतुमतो हवामहे नाराशं-से सोमपीथं यऽ आशुः।
ते नो विप्रासः सुहवा भवन्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥13॥
आच्या जानु दक्षिणतो निषद्य इमम् यज्ञम् अभि गृणीत विश्वे।
मा हिंसिष्ट पितरः केन चिन्नो यद्व आगः पुरूषता कराम॥14॥
आसीनासोऽ अरूणीनाम् उपस्थे रयिम् धत्त दाशुषे मर्त्याय।
पुत्रेभ्यः पितरः तस्य वस्वः प्रयच्छत तऽ इह ऊर्जम् दधात॥15॥
पितृ-सूक्त :: ऋषि :- शङ्क यामायन, देवता :- 1-10, पितर :- 12-14, छन्द त्रिट्टप  और जगती :- 11   
पहली आठ ऋचाओं विभिन्न स्थानों में निवास करने वाले पितरों को हविर्भाग स्वीकार करने के लिये आमन्त्रित किया गया है। अन्तिम छ: ऋचाओं में अग्रि से प्रार्थना की गयी है कि वे सभी पितरों को साथ लेकर हवि-ग्रहण करने के लिये पधारने की कृपा करें।
The manes have been requested to accept the offerings in first eight hymns and last six hymns requests Agni Dev to come along with all Manes and accept offerings-Havi (Havy-Kavy).
उदीरतामवर उत् परास उन्मध्यमाः पितर; सोम्यासः। 
असुं य ईयुरवृका ऋतज्ञास्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु
नीचे, ऊपर और मध्य स्थानों में रहने वाले, सोम पान करने के योग्य हमारे सभी पितर उठकर तैयार हों। यज्ञ के ज्ञाता सौम्य स्वभाव के हमारे जिन पितरों ने नूतन प्राण धारण कर लिये हैं, वे सभी हमारे बुलाने पर आकर हमारी सुरक्षा करें।[ऋग्वेद 10.15.1]
सौम्य :: प्रिय, उदार, क्षमाशील, प्रशम्य; mild, benign, kindly, placable.
All of our deceased ancestors-Manes who have been placed in upper, middle and lower segments-abodes, should get up be ready to sip Somras. Those Pitr-Manes who knows-understand Veds, are benign-placable and got new lease of life  (rebirth) should come on being called-requested by us and protect us. 
इदं पितृभ्यो नमो अस्त्वद्य ये पूर्वासो य उपरास ईयुः। 
ये पार्थिवे रजस्या निषत्ता ये वा नूनं सुवजनासु विषु
जो भी नये अथवा पुराने पितर यहाँ से चले गये हैं, जो पितर अन्य स्थानों में हैं और जो उत्तम स्वजनों के साथ निवास कर रहे हैं अर्थात् यमलोक, मर्त्यलोक और विष्णु लोक में स्थित सभी पितरों को आज हमारा यह प्रणाम निवेदित हो।[ऋग्वेद 10.15.2]
We offer homages to our Manes-Pitr who are either old or new & have moved to other places, residing with their own folk in Yam Lok, Marty Lok earth, Vishnu Lok-abode of Bhagwan Shri Hari Vishnu.   
आहं पितृन् त्सुवित्राँ   अवित्सि नपातं विक्रमणं च विष्णोः। 
बर्हियदो ये स्वधया सुतस्य भजन्त पित्वस्त इहागमिष्ठाः॥
उत्तम ज्ञान से युक्त पितरों को तथा अपानपात् और विष्णु के विक्रमण को, मैंने अपने अनुकूल बना लिया है। कुशासन पर बैठने  के अधिकारी पितर प्रसन्नतापूर्वक आकर अपनी इच्छा के अनुसार हमारे द्वारा अर्पित हवि और सोम रस ग्रहण करें।[ऋग्वेद 10.15.3]
अपांनपात् :: एक देवता, यह निथुद्रुप अग्नि जो पानी में प्रकाशित होता हैं; person or entity.[ऋग्वेद 2.35]
विक्रमण :: चलना, कदम रखना, भगवान् श्री हरी विष्णु का एक डग, शूरता-वीरता, पाशुपत-अलौकिक शक्ति; movement, one foot of Bhagwan Shri Hari Vishnu, bravery.
I have made the enlightened Manes-Pitr and the raising of Bhagwan Shri Hari Vishnu's foot, favourable. The Manes entitled of occupying Kushasan-cushion, made of Kush grass (very auspicious in nature), are welcome to make offerings and accept Somras.
बर्हिषदः पितर ऊत्यवार्गिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम्। 
त आ गतावसा शंतमेनाऽथा नः शं योररपो दधात॥
कुशासन पर अधिष्ठित होने वाले हे पितर! आप कृपा करके हमारी ओर आइये। यह हवि आपके लिये ही तैयार की गयी है, इसे प्रेम से स्वीकार कीजिये। अपने अत्यधिक सुख प्रद प्रसाद के साथ आयें और हमें क्लेश रहित सुख तथा कल्याण प्राप्त करायें।[ऋग्वेद 10.15.4]
Hey Kushasan occupying Manes! Please come towards us. The offering has been prepared for you, accept it with love. Please bring with you auspicious Prasad-blessings and make us free from troubles and grant comforts along with our welfare. 
उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु।
त आ गमन्तु त इह श्रुवन्त्वधि ब्रुवन्तु तेऽवन्त्वस्मान्॥
पितरों को प्रिय लगने वाली सोम रूपी निधियों की स्थापना के बाद कुशासन पर हमने पितरों का आवाहन किया है। वे यहाँ आयें और हमारी प्रार्थना सुनें। वे हमारी  करने साथ देवों के पास हमारी ओर से संस्तुति करें।[ऋग्वेद 10.15.5]
Having collected the goods liked by the Manes like Somras, we have prayed them to come and occupy the Kushasan. They should accept our prayers  and recommend to demigods-deities,  measures for our welfare.
आच्या जानु दक्षिणतो निषद्येमं यज्ञमभि गृणीत विश्वे।
मा हिंसिष्ट पितरः केन चिन्नो यद्व आगः पुरुषता कराम॥
हे पितरो! बायाँ घुटना मोड़कर और वेदी के दक्षिण में नीचे बैठकर आप सभी हमारे इस यज्ञ की प्रशंसा करें। मानव स्वभाव के अनुसार हमने आपके विरुद्ध कोई भी अपराध किया हो तो उसके कारण हे पितरो! आप हमें दण्ड न दें (पितर बायाँ घुटना मोड़कर बैठते हैं और देवता दाहिना घुटना मोड़कर बैठना पसन्द करते हैं)।[ऋग्वेद 10.15.6]
Hey Pitr Gan-Manes! Please bend the left leg and sit in the South of the Vedi (Hawan Kund, Pot meant for Agni Hotr-offerings in holy fire) and appreciate-participate in our Yagy-endeavours. Hey Pitr Gan! If we have committed any mistake due to human nature against you, please do not punish us. 
The Pitr mould their left leg during prayers or Yagy and the demigods-deities fold their right leg. 
आसीनासो अरुणीनामुपस्थे रयिं धत्त दाशुषे मर्त्याय। 
पुत्रेभ्य: पितरस्तस्य वस्यः प्र यच्छत त इहोर्जं   दधात॥
अरुण वर्ण की उषा देवी के अङ्क में विराजित हे पितर! अपने इस मर्त्य लोक के याजक को धन दें, सामर्थ्य दें तथा अपनी प्रसिद्ध सम्पत्ति में से कुछ अंश हम पुत्रों को देवें।[ऋग्वेद 10.15.7]
Occupying the lap of Usha Devi, having the aura like Sun-golden hue, Hey Pitr Gan! grant a fraction of your famous assets to us (your sons-descendants) along with capability to make proper use of it. 
ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासो ऽनूहिरे सोमपीथं वसिष्ठाः। 
तेभिर्यमः संरराणो हवींष्युशन्नुशद्धिः प्रतिकाममत्तु॥
(यम के सोमपान के बाद) सोमपान के योग्य हमारे वसिष्ठ कुल के सोमपायी पितर यहाँ उपस्थित हो गये हैं। वे हमें उपकृत करने के लिये सहमत होकर और स्वयं उत्कण्ठित होकर यह राजा यम हमारे द्वारा समर्पित हवि को अपने इच्छानुसार ग्रहण करें।[ऋग्वेद 10.15.8] 
Having consumed Somras, our Pitrs-Manes from the Vashishth clan have gathered here. Willing to oblige us, Dharm-Yam Raj should accept the offerings made us as per their will.  
ये तातूषुर्देवत्रा जेहमाना होत्राविदः स्तोमतष्टासो अर्कै:। 
आग्नेयाहि सुविदत्रेभिर्वाङ् सत्यैः कव्यैः पितृभिर्घर्मसद्धिः॥
अनेक प्रकार  के हवि द्रव्यों के ज्ञानी अर्को से, स्तोमों की सहायता से जिन्हें निर्माण किया है, ऐसे उत्तम ज्ञानी, विश्वासपात्र घर्म नामक हवि के पास बैठने वाले कव्य नामक हमारे पितर देव लोक में साँस लगने की अवस्था तक प्यास से व्याकुल हो गये हैं। उनको साथ लेकर हे अग्निदेव! आप यहाँ उपस्थित होवें।[ऋग्वेद 10.15.9]
घर्म GHARM:: घास,  धूप, सूर्य ताप, एक प्रकार का यज्ञ पात्र, ग्रीष्म काल, स्वेद-पसीना; sweat, grass, sun light, heat of Sun, a kind of pot for Yagy, summers.
कव्य :: वह अन्न जो पितरों को दिया जाय, वह द्रव्य जिससे पिंड, पितृ यज्ञादि किए जायें; the food meant for offerings to the Manes, a ball of dough meant for performing Pitr Yagy.
स्तोम :: स्तुति, स्तव, यज्ञ, समूह-झुंड, राशि, ढेर, यज्ञ करने वाला व्यक्ति; prayers, one performing Yagy, Yagy, group-compilation.
Hey Agni Dev! Please bring our enlightened Manes known as Kavy, who are feeling thirsty, at the Yagy site, who are leaned in various kinds of Havi-offerings and the Yagy designs who sit with the Havi known as Kavy.
ये सत्यासो हविरदो हविष्या इन्द्रेण देवै: सरथं दधाना:। 
आग्ने याहि सहस्त्रं देववन्दैः परै: पूर्वैः पितृभिर्घर्मसद्धिः॥
कभी न बिछुड़ने वाले, ठोस हवि का भक्षण करने वाले, इन्द्र और अन्य देवों  के साथ एक ही रथ में प्रयाण करने वाले, देवों की वन्दना करने वाले घर्म नामक हवि के पास बैठने वाले जो हमारे पूर्वज पितर हैं, उन्हें सहस्त्रों की संख्या में लेकर हे अग्निदेव! यहाँ पधारें।[ऋग्वेद 10.15.10]
Hey Agni Dev! Please come with our Manes in thousands, who never separate from us, eats solid Havi-offerings, moves-travels along with the demigods-deities and Indr Dev in the same charoite, who pray to the demigods-deities and sit with the Havi called Gharm. 
अग्निष्वात्ता: पितर एह गच्छत सदः सदः सदत सुप्रणीतयः॥ 
अत्ता हवींषि प्रयतानि बहिर्ष्यथा रयिं सर्ववीरं दधातन॥
अग्नि के द्वारा पवित्र किये गये हे उत्तम पथ प्रदर्शक पितर! यहाँ आइये और अपने-अपने आसनों पर अधिष्ठित हो जाइये। कुशासन पर समर्पित हवि द्रव्यों का भक्षण करें और (अनुग्रह स्वरूप) पुत्रों से युक्त सम्पदा हमें समर्पित करा दें।[ऋग्वेद 10.15.11]
Hey excellent guides, purified by Agni Dev! Please come here and occupy your seats. Enjoy-eat the Havi offered to you, while sitting over the Kushasan and grant wealth-riches along with sons.   
त्वमग्न ईळितो जातवेदो ऽवाड्ड व्यानि सुरभीणि कृत्वी। 
प्रादाः पितृभ्यः स्वधया ते अक्षन्नद्धि त्वं देव प्रयता हवींषि॥
हे ज्ञानी अग्निदेव! हमारी प्रार्थना पर आप इस हवि को मधुर बनाकर पितरों के पास ले गये, उन्हें पितरों को समर्पित किया और पितरों ने भी अपनी इच्छा के अनुसार उस हवि का भक्षण किया। हे अग्निदेव! (अब हमारे द्वारा) समर्पित हवि  आप ग्रहण करें।[ऋग्वेद 10.15.12]
Hey enlightened Agni Dev! you took this Havi, making it sweet, offered it to our Manes and they consumed to it, as per their wish. Hey Agni Dev! Now, please you accept the Havi-offerings.    
ये चेह पितरो ये च नेह याँश्च विद्म याँ उ च न प्रविद्य।  
त्वं वेत्थ यति ते जातवेदः स्वधाभिर्यज्ञं सुकृतं जुषस्व॥
जो हमारे पितर यहाँ (आ गये) हैं और जो यहाँ नहीं आये हैं, जिन्हें हम जानते हैं और जिन्हें हम अच्छी प्रकार जानते भी नहीं; उन सभी को, जितने (और जैसे) हैं, उन सभी को हे अग्निदेव! आप भली-भाँति पहचानते हैं। उन सभी की इच्छा के अनुसार अच्छी प्रकार तैयार किये गये इस हवि को (उन सभी के लिये) प्रसन्नता के साथ स्वीकार करें।[ऋग्वेद 10.15.13] 
Hey Agni Dev! You recognise our all those Manes who have gathered here and those who are not present here, we either know them or may not know them, but Hey Agni Dev! you know-recognise all of them. Please accept this Havi for their happiness-pleasure prepared as per their taste.  
ये अग्निदग्धा मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते।
तेभिः स्वराळसुनीतिमेतां यथावशं तन्वं कल्पयस्व॥
हमारे जिन पितरों को अग्नि ने पावन किया है और जो अग्नि द्वारा भस्मसात् किये बिना ही स्वयं पितृ भूत हैं तथा जो अपनी इच्छा के अनुसार स्वर्ग के मध्य में आनन्द से निवास करते हैं। उन सभी की अनुमति से, हे स्वराट् अग्रे! (पितृलोक में इस नूतन मृत जीव के) प्राण धारण करने योग्य (उसके) इस शरीर को उसकी इच्छा के अनुसार ही बना दो और उसे दे दो।[ऋग्वेद 10.15.14]
स्वराट् :: ब्रह्मा, ईश्वर, एक प्रकार का वैदिक छंद, वह वैदिक छंद जिसके सब पादों में मिलकर नियमित वर्णों में दो वर्ण कम हों, सूर्य की सात किरणों में से एक का नाम (को कहते हैं), विष्णु का एक नाम, शुक्र नीति के अनुसार वह राजा जिसका वार्षिक राजस्व 5० लाख से 1 करोड़ कर्ष तक हो, वह राजा जो किसी ऐसे राज्य का स्वामी हो, जिसमें स्वराज्य शासन प्रणाली प्रचलित हो, जो स्वयं प्रकाशमान हो और दूसरों को प्रकाशित करता हो, जो सर्वत्र व्याप्त, अविनाशी (स्वराट्), स्वयं-प्रकाश रूप और (कालाग्नि) प्रलय में सब का काल और काल का भी काल है, परमेश्वर-कालाग्नि है; Brahma Ji, Almighty, self lighting, possessing aura.
Our Pitr Gan-Manes, who have been purified by the Agni, those who themselves are like Agni-fire even without being burnt by fire, who lives in heavens with our their own will, Hey shinning Agni Dev! please make their bodies in new incarnation-rebirth as per their desire-wish, with their permission.
उषस् सूक्त :: ऋग्वेद संहिता, प्रथम मंडल सूक्त (48),  ऋषि :- प्रस्कण्व काण्व,  देवता :- उषा,  छन्द :- बाहर्त प्रगाथ (विषमा बृहती, समासतो बृहती), निवास स्थान :- द्युस्थानीय
उषा शब्द वस् दीप्तौ धातु से निष्पन्न हुआ है। जिसकाअर्थ है, प्रकाशमान होना। इस सौन्दर्य की देवी के उदित् होते ही आकाश का कोना कोना जगमगाने लगता है, तथा विश्व हर्ष के अतिरेक से भर जाता है। यह प्रत्येक प्राणी को अपने कार्य में प्रवृत कर देती है। उषा का रथ चमकदार है और उसे लाल रंग के घोड़े खींचते हैं। उषा को रात्रि की बहन भी कहा गया है। आकाश से उत्पन्न होने के कारण उषा को स्वर्ग की पुत्री भी कहा गया है। उषा सूर्य की प्रेमिका है, इसके अतिरिक्त उषा का सम्बन्ध अश्विनी कुमारो से भी है। उषा अपने भक्तों को धन, यश, पुत्र आदि प्रदान करती हैं। ऋग्वेद में उषा को रेवती, सुभगाः, प्रचेताः, विश्ववारा, पुराणवती मधुवती,ऋतावरी, सुम्नावरी, अरुषीः, अमर्त्या आदि विशेषणों से अलंकृत किया गया है।
सह वामेन न उषो व्युच्छा दुहितर्दिवः। 
सह द्युम्नेन बृहता विभावरि राया देवि दास्वती॥1॥
हे आकाशपुत्री उषे! उत्तम तेजस्वी,दान देने वाली, धनो और महान ऐश्वर्यों से युक्त होकर आप हमारे सम्मुख प्रकट हों अर्थात हमे आपका अनुदान-अनुग्रह होता रहे। 
अश्वावतीर्गोमतीर्विश्वसुविदो भूरि च्यवन्त वस्तवे। 
उदीरय प्रति मा सूनृता उषश्चोद राधो मघोनाम्॥2॥
अश्व, गौ आदि (पशुओं अथवा संचारित होने वाली एवं पोषक किरणों) से सम्पन्न धन्य धान्यों को प्रदान करने वाली उषाएँ प्राणिमात्र के कल्याण के लिए प्रकाशित हुई हैं। हे उषे! कल्याणकारी वचनो के साथ आप हमारे लिए उपयुक्त धन वैभव प्रदान करें।
उवासोषा उच्छाच्च नु देवी जीरा रथानाम्। 
ये अस्या आचरणेषु दध्रिरे समुद्रे न श्रवस्यवः॥3॥
जो देवी उषा पहले भी निवास कर चुकी हैं, वह रथो को चलाती हुई अब भी प्रकट हो। जैसे रत्नो की कामना वाले मनुष्य समुद्र की ओर मन लगाये रहते हैं; वैसे ही हम देवी उषा के आगमन की प्रतिक्षा करते हैं। 
उषो ये ते प्र यामेषु युञ्जते मनो दानाय सूरयः। 
अत्राह तत्कण्व एषां कण्वतमो नाम गृणाति नृणाम्॥4॥
हे उषे! आपके आने के समय जो स्तोता अपना मन, धनादि दान करने मे लगाते है, उसी समय अत्यन्त मेधावी कण्व उन मनुष्यों के प्रशंसात्मक स्तोत्र गाते हैं। 
आ घा योषेव सूनर्युषा याति प्रभुञ्जती। 
जरयन्ती वृजनं पद्वदीयत उत्पातयति पक्षिणः॥5॥
उत्तम गृहिणी स्त्री के समान सभी का भलीप्रकार पालन करने वाली देवी उषा जब आयी है, तो निर्बलो को शक्तिशाली बना देती हैं, पाँव वाले जीवो को कर्म करने के लिए प्रेरित करती है और पक्षियों को सक्रिय होने की प्रेरणा देती है। 
वि या सृजति समनं व्यर्थिनः पदं न वेत्योदती।
वयो नकिष्टे पप्तिवांस आसते व्युष्टौ वाजिनीवति॥6॥
देवी उषा सबके मन को कर्म करने के लिए प्रेरित करती हैं तथा धन इच्छुको को पुरुषार्थ के लिए भी प्रेरणा देती है। ये जीवन दात्री देवी उषा निरन्तर गतिशील रहती हैं। हे अन्नदात्री उषे! आपके प्रकाशित होने पर पक्षी अपने घोसलों मे बैठे नही रहते।
एषायुक्त परावतः सूर्यस्योदयनादधि। 
शतं रथेभिः सुभगोषा इयं वि यात्यभि मानुषान्॥7॥
हे देवी उषा सूर्य के उदयस्थान से दूरस्थ देशो को भी जोड़ देती हैं। ये सौभाग्यशालिनी देवी उषा मनुष्य लोक की ओर सैंकड़ो रथो द्वारा गमन करती हैं। 
विश्वमस्या नानाम चक्षसे जगज्ज्योतिष्कृणोति सूनरी।
अप द्वेषो मघोनी दुहिता दिव उषा उच्छदप स्रिधः॥8॥
सम्पूर्ण जगत इन देवी उषा के दर्शन करके झुककर उन्हे नमन करता है। प्रकाशिका, उत्तम मार्गदर्शिका, ऐश्वर्य सम्पन्न आकाश पुत्री देवी उषा, पीड़ा पहुँचाने वाले हमारे बैरियों को दूर हटाती हैं।
उष आ भाहि भानुना चन्द्रेण दुहितर्दिवः।
आवहन्ती भूर्यस्मभ्यं सौभगं व्युच्छन्ती दिविष्टिषु॥9॥
हे आकाशपुत्री उषे! आप आह्लादप्रद दीप्ती से सर्वत्र प्रकाशित हों। हमारे इच्छित स्वर्ग-सुख युक्त उत्त्म सौभाग्य को ले आयें और दुर्भाग्य रूपी तमिस्त्रा को दूर करें। 
विश्वस्य हि प्राणनं जीवनं त्वे वि यदुच्छसि सूनरि।
सा नो रथेन बृहता विभावरि श्रुधि चित्रामघे हवम्॥10॥
हे सुमार्ग प्रेरक उषे! उदित होने पर आप ही विश्व के प्राणियो का जीवन आधार बनती हैं। विलक्षण धन वाली, कान्तिमती हे उषे! आप अपने बृहत रथ से आकर हमारा आवाह्न सुनें। 
उषो वाजं हि वंस्व यश्चित्रो मानुषे जने।
तेना वह सुकृतो अध्वराँ उप ये त्वा गृणन्ति वह्नयः॥11॥
हे उषादेवि! मनुष्यो के लिये विविध अन्न-साधनो की वृद्धि करें। जो याजक आपकी स्तुतियाँ करते है, उनके इन उत्तम कर्मो से संतुष्ट होकर उन्हें यज्ञीय कर्मो की ओर प्रेरित करें। 
विश्वान्देवाँ आ वह सोमपीतयेऽन्तरिक्षादुषस्त्वम्।
सास्मासु धा गोमदश्वावदुक्थ्यमुषो वाजं सुवीर्यम्॥12॥
हे उषे! सोमपान के लिए अंतरिक्ष से सब देवों को यहाँ ले आयें। आप हमे अश्वों, गौओ से युक्त धन और पुष्टिप्रद अन्न प्रदान करें। 
यस्या रुशन्तो अर्चयः प्रति भद्रा अदृक्षत। 
सा नो रयिं विश्ववारं सुपेशसमुषा ददातु सुग्म्यम्॥13॥
जिन देवी उषा की दीप्तीमान किरणे मंगलकारी प्रतिलक्षित होती हैं, वे देवी उषा हम सबके लिए वरणीय, श्रेष्ठ, सुखप्रद धनो को प्राप्त करायें। 
ये चिद्धि त्वामृषयः पूर्व ऊतये जुहूरेऽवसे महि।
सा न स्तोमाँ अभि गृणीहि राधसोषः शुक्रेण शोचिषा॥14॥
हे श्रेष्ठ उषादेवि! प्राचीन ऋषि आपको अन्न और संरक्षण प्राप्ति के लिये बुलाते थे। आप यश और तेजस्विता से युक्त होकर हमारे स्तोत्रो को स्वीकार करें। 
उषो यदद्य भानुना वि द्वारावृणवो दिवः। 
प्र नो यच्छतादवृकं पृथु च्छर्दिः प्र देवि गोमतीरिषः॥15॥
हे देवी उषे! आपने अपने प्रकाश से आकाश के दोनो द्वारों को खोल दिया है। अब आप हमे हिंसको से रक्षित, विशाल आवास और दुग्धादि युक्त अन्नो को प्रदान करें। 
सं नो राया बृहता विश्वपेशसा मिमिक्ष्वा समिळाभिरा। 
सं द्युम्नेन विश्वतुरोषो महि सं वाजैर्वाजिनीवति॥16॥
हे देवी उषे! आप हमें सम्पूर्ण पुष्टिप्रद महान धनो से युक्त करें, गौओं से युक्त करें। अन्न प्रदान करने वाली, श्रेष्ठ हे देवी उषे! आप हमे शत्रुओं का संहार करने वाला बल देकर अन्नो से संयुक्त करें। 
वरुण सूक्त :: ऋषि :- शुनः शेप आजीगर्ति एवं वशिष्ठ, निवास स्थान :- द्युस्थानीय, ऋग्वेद संहिता, प्रथम मंडल सूक्त 25।  
वरुण देव द्युलोक और पृथ्वी लोक को धारण करने वाले तथा स्वर्गलोक और आदित्य एवं नक्षत्रों के प्रेरक हैं। ऋग्वेद में वरुण का मुख्य रूप शासक के रूप में वर्णन है। वे प्राणियों-जीवधारियों के पाप-पुण्य तथ सत्य-असत्य का लेखा-जोखा रखते हैं। ऋग्वेद में वरुण देव का उज्जवल रूप वर्णित है। सूर्य उसके नेत्र हैं। वे सुनहरा चोगा पहनते हैं और कुशा के आसन पर विराजमान हैं। उनका रथ सूर्य के समान दीप्तिमान है तथा उसमें घोड़े जुते हुए हैं। उनके गुप्तचर विश्वभर में फैलकर सूचनाएँ लाते हैं। वरुण देव रात्र और दिवस के अधिष्ठाता हैं। वे संसार को नियमों में चलाने का व्रत धारण किए हुए हैं। ऋग्वेद में वरुण के लिए क्षत्रिय स्वराट, उरुशंश, मायावी, धृतव्रतः दिवः कवि, सत्यौजा, विश्वदर्शन आदि विशेषणों का प्रयोग किया गया है।
ऋग्वेद संहिता, प्रथम मंडल सूक्त 25 :: ऋषि :- शुन: शेप आजीगर्ति इत्यादयः, देवता :- वरुण, छन्द :- गायत्री।
यच्चिद्धि ते विशो यथा प्र देव वरुण व्रतम्। मिनीमसि द्यविद्यवि॥
हे वरुणदेव! जैसे अन्य मनुष्य आपके व्रत अनुष्ठान में प्रमाद करते है, वैसे ही हमसे भी आपके नियमों में कभी-कभी प्रमाद हो जाता है; कृपया इसे क्षमा करें।[ऋग्वेद 1.25.1]
प्रमाद :: लापरवाही, असावधानी, खिलने वाला पौधा, भारी भूल, भयंकर त्रुटि,  negligence, bloomer, incautiousness, carelessness.
अनुष्ठान :: संस्कार, धार्मिक क्रिया, पद्धति, शास्रविधि, धार्मिक उत्सव, आचार, आतिथ्य सत्कार, समारोह, रसम; ceremonies, rituals, rites.
 हे वरुण देव! जैसे तुम्हारे व्रतानुष्ठान में व्यक्ति प्रमाद करते हैं, वैसे ही हम भी तुम्हारे सिद्धान्त आदि को तोड़ डालते हैं। 
Sometimes we become careless-negligent in following the rules & regulations-procedures of prayers-Vrat, rites & rituals. Kindly pardon-forgive us. 
मा नो वधाय हत्नवे जिहीळानस्य रीरधः। मा हृणानस्य मन्यवे॥2॥
हे वरुणदेव! आपने अपने निरादर करने वाले का वध करने के लिये धारण किये गये शस्त्र के सम्मुख हमें प्रस्तुत न करें। अपनी क्रुद्ध अवस्था में भी हम पर कृपा कर क्रोध ना करें।[ऋग्वेद 1.25.2]
हे वरुण! अपमान करने वालों को सजा उसकी हिंसा है। हमको यह सजा मत दो, हम पर क्रोध न करो।
Hey Varun Dev! Please do not subject us to murder with weapons for ignoring-insulting you. Even if angry; please have mercy over us. 
वि मृळीकाय ते मनो रथीरश्वं न संदितम्। गीर्भिर्वरुण सीमहि॥
हे वरुणदेव! जिस प्रकार रथी अपने थके हुए घोड़ों की परिचर्या करते हैं, उसी प्रकार आपके मन को हर्षित करने के लिये हम स्तुतियों का गान करते हैं।[ऋग्वेद 1.25.3]
हे वरुण! प्रार्थना द्वारा हम आपकी कृपा चाहते हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे अश्व का स्वामी उसके घावों पर पट्टियाँ बाँधता है।
Hey Varun Dev! We wish to assuage your feelings (make you happy) just like the driver of the charoite who takes care-serve his tired horses. 
परा हि मे विमन्यवः पतन्ति वस्यइष्टये। वयो न वसतीरुप॥
हे वरुणदेव! जिस प्रकार पक्षी अपने घोसलों की ओर दौड़ते हुये गमन करते हैं, उसी प्रकार हमारी चंचल बुद्धियाँ धन प्राप्ति के लिये दूर-दूर तक दौड़ती है।[ऋग्वेद 1.25.4]
घोंसलों की ओर दौड़ने वाली चिड़ियों के समान हमारी क्रोध रहित बुद्धियाँ धन की प्राप्ति के लिए दौड़ती है।
Hey Varun Dev! Our fickle-agile mind looks to various sources of income-earnings far & wide just like the birds which fly to their nest. 
कदा क्षत्रश्रियं नरमा वरुणं करामहे। मृळीकायोरुचक्षसम्॥
बल ऐश्वर्य के अधिपति सर्वद्रष्टा वरुण देव को कल्याण के निमित्त हम यहाँ (यज्ञस्थल में) कब बुलायेंगे अर्थात यह अवसर कब मिलेगा?[ऋग्वेद 1.25.5]
अखण्ड समृद्धि वाले दूरदर्शी वरुण की कृपा प्राप्ति हत उन्हें अपने यज्ञ में ले आवेंगे।
When will we have the opportunity of inviting Varun Dev-who is the master of might & amenities and capable of visualising every thing, to the Yagy site
तदित्समानमाशाते वेनन्ता न प्र युच्छतः। धृतव्रताय दाशुषे॥
व्रत धारण करना  वाले (हविष्यमान) दाता यजमान के मंगल के निमित्त, ये मित्र और वरुण देव हविष्यान की इच्छा करते हैं, वे कभी उसका त्याग नहीं करते। वे हमें बन्धन से मुक्त करें।[ऋग्वेद 1.25.6]
हवि की कामना वाले सखा-वरुण, निष्ठावान यजमान की साधारण हवि को भी नहीं त्यागते।
Mitr & Varun Dev desire to have the offerings of the Yagy for the benefit-welfare of he host conducting Yagy associated with fast. Let them make us free from the cycles of death & rebirth-grant Salvation.
वेदा यो वीनां पदमन्तरिक्षेण पतताम्। वेद नावः समुद्रियः॥
हे वरुण देव! आकाश में उड़ने वाले पक्षियों के मार्ग को और समुद्र में संचार करने वाली नौकाओं के मार्ग को भी आप जानते हैं।[ऋग्वेद 1.25.7]
हे वरुण देव! आप उड़ने वाले पक्षियों के क्षितिज-मार्ग और समुद्र की नौका-मार्ग के पूर्ण ज्ञाता है।
Hey Varun Dev! You are aware of the route followed by the birds flying in the sky and boats navigating in the ocean.
वेद मासो धृतव्रतो द्वादश प्रजावतः। वेदा य उपजायते॥
नियम धारक वरुणदेव प्रजा के उपयोगी बारह महिनों को जानते हैं और तेरहवें मास (मल मास, अधिक मास, पुरुषोत्तम मास) को भी जानते है।[ऋग्वेद 1.25.8]
वे घृत-नियम वरुण, प्रजाओं के उपयोगी बारह महीनों को तथा तेरहवें अधिक मास को भी जानते हैं।
Varun Dev who frame the rules and implement them, knows the twelve months in a year including the Purushottom Mass (thirteenth month-extra month) meant for the welfare of humans.
वेद वातस्य वर्तनिमुरोरृष्वस्य बृहतः। वेदा ये अध्यासते॥
वे वरुणदेव अत्यन्त विस्तृत, दर्शनीय और अधिक गुणवान वायु के मार्ग को जानते हैं। वे उपर द्युलोक में रहने वाले देवों को भी जानते हैं।[ऋग्वेद 1.25.9]
वे मूर्धा रूप से स्थित, विस्तृत, उन्नत, उत्तम वायु के मार्ग को भली-भाँति जानते हैं।
Varun Dev knows well the broad, good looking, scenic, possessing good qualities path of air; in addition to the demigods-deities residing in upper abodes-heavens.  
नि षसाद धृतव्रतो वरुणः पस्त्यास्वा। साम्राज्याय सुक्रतुः॥
प्रकृति के नियमों का विधिवत पालन कराने वाले, श्रेष्ठ कर्मों में सदैव निरत रहने वाले वरुण देव प्रजाओं में साम्राज्य स्थापित करने के लिये बैठते हैं।[ऋग्वेद 1.25.10]
सिद्धान्त में स्थिर, सुन्दर प्रज्ञावान वरुण प्रजाजनों में साम्राज्य विद्यमान करने के लिए विराजते हैं।
Varun Dev who is always inclined to virtuous, righteous, pious deeds, is established to ensure the following-implementations of the rules of nature. 
अतो विश्वान्यद्भुता चिकित्वाँ अभि पश्यति। कृतानि या च कर्त्वा॥
सब अद्‍भुत कर्मो की क्रिया विधि जानने वाले वरुणदेव, जो कर्म संपादित हो चुके हैं और जो किये जाने वाले हैं, उन सबको भली-भाँति देखते हैं।[ऋग्वेद 1.25.11]
जो घटनाएँ हुई या होने वाली हैं, उन सभी को वे मेधावी वरुण इस स्थान से देखते हैं।
Varun Dev is aware of the methodology of the amazing deeds & watches carefully the deeds accomplished and those deeds which remains to be completed.
स नो विश्वाहा सुक्रतुरादित्यः सुपथा करत्। प्र ण आयूंषि तारिषत्॥
वे उत्तम कर्मशील अदिति पुत्र वरुण देव हमें सदा श्रेष्ठ मार्ग की ओर प्रेरित करें और हमारी आयु को बढ़ायें।[ऋग्वेद 1.25.12]
वे महान मति वाले वरुण हमको सदैव सुन्दर मार्ग प्रदान करें और हमको आयुष्मान करें।
Let Varun Dev, son of Aditi (Dev Mata), let us inspire to the virtuous, pious, righteous path (of Bhakti) and enhance our longevity-age.
बिभ्रद्द्रापिं हिरण्ययं वरुणो वस्त निर्णिजम्। परि स्पशो नि षेदिरे॥
सुवर्णमय कवच धारण करके वरुणदेव अपने हृष्ट-पुष्ट शरीर को सुसज्जित करते हैं। शुभ्र प्रकाश किरणें उनके चारों ओर विस्तीर्ण होती हैं।[ऋग्वेद 1.25.13]
स्वर्ण कवच से उन्होंने अपना मर्म भाग ढक लिया है।
Varun Dev has covered his handsome body-figure with golden shield. Bright rays of light spread around him. 
न यं दिप्सन्ति दिप्सवो न द्रुह्वाणो जनानाम्। न देवमभिमातयः॥
हिंसा करने की इच्छा वाले शत्रु-जन (भयाक्रान्त होकर) जिनकी हिंसा नही कर पाते, लोगों के प्रति द्वेष रखने वाले, जिनसे द्वेष नहीं कर पाते, ऐसे वरुणदेव को पापीजन स्पर्श तक नहीं कर पाते।[ऋग्वेद 1.25.14]
उनके चारों ओर समाचार वाहक उपस्थित हैं। जिन्हें शत्रु धोखा नहीं दे सकते, विद्रोह करने वाले जिनसे द्रोह करने में सफल नहीं हो सकते, उन वरुण से कोई शत्रुता नहीं कर सकता।
The violent enemy are unable to harm (kill) him due to fear, those who are envious with others cannot be envious with him. The sinners can not even touch-reach him.
उत यो मानुषेष्वा यशश्चक्रे असाम्या। अस्माकमुदरेष्वा॥
जिन वरुणदेव ने मनुष्यों के लिये विपुल अन्न भण्डार उत्पन्न किया है; उन्होंने ही हमारे उदर में पाचन सामर्थ्य भी स्थापित की है।[ऋग्वेद 1.25.15]
जिस वरुण ने मनुष्य के लिए अन्न की भरपूर स्थापना की है, वह हमारे पेट में अन्न ग्रहण करने की सामर्थ्य प्रदान करता है।
Varun Dev who has generated a big deposit of food grain, has given the power to digest the food in our stomach.
परा मे यन्ति धीतयो गावो न गव्यूतीरनु। इच्छन्तीरुरुचक्षसम्॥
उस सर्वद्रष्टा वरुणदेव की दृष्टि, कामना करने वाली हमारी बुद्धि तक, वैसे ही उन तक पहुँचती है, जैसे गौएँ श्रेष्ठ बाड़े की ओर जाती हैं।[ऋग्वेद 1.25.16]
दूरदर्शी वरुण की इच्छा करती हुई मनोवृत्तियाँ निवृत्त होकर वैसे ही हो जाती हैं, जैसे चरने की जगह की ओर गौएँ जाती हैं।
The sight of all visualising Varun Dev reaches our minds, just like the cows which moves to the beast cowshed.
सं नु वोचावहै पुनर्यतो मे मध्वाभृतम्। होतेव क्षदसे प्रियम्॥
होता (अग्निदेव) के समान हमारे द्वारा लाकर समर्पित की गई हवियों का आप अग्निदेव के समान भक्षण करे, फिर हम दोनों वार्ता करेंगे।[ऋग्वेद 1.25.17]
मेरे द्वारा सम्पादित मधुर हवि को अग्नि के समान प्रीतिपूर्वक भक्षण करो। फिर हम दोनों मिलकर वार्तालाप करेंगे।
Please eat (consume, accept) the offerings made by us, like the host-Agni Dev and thereafter we will talk together.
दर्शं नु विश्वदर्शतं दर्शं रथमधि क्षमि। एता जुषत मे गिरः॥
दर्शनीय वरुण को उनके रथ के साथ हमने भूमि पर देखा है। उन्होंने हमारी स्तुतियाँ स्वीकारी हैं।[ऋग्वेद 1.25.18]
सबके देखने योग्य वरुण को, अनेक रथ सहित पृथ्वी पर मैंने देखा है। उन्होंने मेरी प्रार्थनाएँ स्वीकार कर ग्रहण कर ली हैं।
We have seen beautiful & handsome (admirable) Varun Dev over the earth and he accepted our prayers.
इमं मे वरुण श्रुधी हवमद्या च मृळय। त्वामवस्युरा चके॥
हे वरुणदेव! आप हमारी प्रार्थना पर ध्यान दें, हमें सुखी बनायें। अपनी रक्षा के लिये हम आपकी स्तुति करते हैं।[ऋग्वेद 1.25.19]
हे वरुणदेव! मेरे आह्वान को सुनो। मुझ पर आज कृपा दृष्टि रखो।
Hey Varun Dev! Please notice our prayers and make us happy. We pray to you for our protection.
त्वं विश्वस्य मेधिर दिवश्च ग्मश्च राजसि। स यामनि प्रति श्रुधि॥
हे मेधावी वरुणदेव! आप द्युलोक, भूलोक और सारे विश्व पर आधिपत्य रखते हैं, आप हमारे आवाहन को स्वीकार कर "हम रक्षा करेंगे" ऐसा प्रत्युत्तर दे।[ऋग्वेद 1.25.20]
मुझ पर कृपा दृष्टि करने की कामना वाले तुम्हें मैंने बुलाया है। हे मेधावी वरुण देव! तुम क्षितिज और धरा के स्वामी हो। तुम हमारे आह्वान का उत्तर दो।
Hey brilliant Varun Dev! You rule the upper abodes, earth and the whole universe. Kindly, accept our invitation and assure us that you will protect us. 
उदुत्तमं मुमुग्धि नो वि पाशं मध्यमं चृत। अवाधमानि जीवसे॥
हे वरुणदेव! हमारे उत्तम (ऊपर के) पाश को खोल दें, हमारे मध्यम पाश काट दें और हमारे नीचे के पाश को हटाकर, हमें उत्तम जीवन प्रदान करें।[ऋग्वेद 1.25.21]
हे वरुण देव। ऊपर के बन्धन को खींचों, मध्य के बन्धन को काटो और नीचे के पाश को भी खींचकर हमको जीवन प्रदान करो।
Hey Varun Dev! Cut the upper, middle & the lower knots and grant us excellent life-longevity.
वरुण सूक्त (2) ऋषि :- शुनःशेप एवं वशिष्ठ, निवास स्थान :- द्युस्थानीय, सूक्त सँख्या 12. 
वरुण देव द्युलोक और पृथ्वी लोक को धारण करने वाले तथा स्वर्गलोक और आदित्य एवं नक्षत्रों के प्रेरक हैं। ऋग्वेद में वरुण का मुख्य रूप शासक का है। वह जनता के पाप पुण्य तथ सत्य असत्य का लेखा-जोखा रखते हैं। ऋग्वेद में वरुण देव का उज्जवल रूप वर्णित है। सूर्य उसके नेत्र हैं। वह सुनहरा चोगा पहनते हैं और कुशा के आसन पर बैठते हैं। उसका रथ सूर्य के समान दीप्तिमान है तथा उसमें घोड़े जुते हुए हैं। उसके गुप्तचर विश्वभर में फैलकर सूचनाएँ लाते हैं। वरुण रात्री  और दिन  के अधिष्ठाता हैं। वह संसार के नियमों में चलाने का व्रत धारण किए हुए हैं। ऋग्वेद में वरुण देव के लिए क्षत्रिय स्वराट, उरुशंश, मायावी, धृतव्रतः दिवः कवि, सत्यौजा, विश्वदर्शन आदि विशेषणों का प्रयोग मिलता है।
आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन। 
महे रणाय चक्षसे
हे आप-जल! आप प्राणी मात्र को सुख देने वाले हैं। सुखोपभोग एवं संसार में रमण करते हुए, हमें उत्तम दृष्टि की प्राप्ति हेतु पुष्ट करें।[ऋग्वेद 10.9.1]
Hey water! You provide nourishment. Provide us with excellent eye sight & strength to enjoy the worldly goods.
Two third of human body constitute of water. Its essential for the body. It generate happiness-satisfaction after drinking when one feel thirst.
सुख से आनन्द, अनुकूलता, प्रसन्नता, शान्ति आदि की अनुभूति होती है। इसकी अनुभूति मन से जुड़ी हुई है। बाह्य साधनों से भी सुख की अनुभूति हो सकती है। आन्तरिक सुख आत्मानुभव अनुकूल परिस्थितियों-वातावरण  जुड़ा है। 
अर्थागमो नित्यमरोगिता च, प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च।
वश्यस्य पुत्रो अर्थकरी च विद्या षड् जीवलोकस्य सुखानि राजन्॥ 
देवर्षि नारद ने धर्मराज युधिष्ठिर को सुख का अर्थ समझते हुए कहा कि किस व्यक्ति के पास ये निम्न 6 वस्तुएँ हों वह सुखी है :- अर्थागम, निरोगी काया, प्रिय पत्नी, प्रिय वादिनी पत्नी, आज्ञाकारी पुत्र, अर्थ करी विद्या।
यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेहः नः।
उशतीरिव मातरः
जिनका स्नेह उमड़ता ही रहता है, ऐसी माताओं की भाँति, आप हमें अपने सबसे अधिक कल्याण प्रद रस में भागीदार बनायें।[ऋग्वेद 10.9.2]
You should be beneficial to us just like the mother who's love overflows for the progeny.
तस्मा अरं गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ।
आपो जनयथा च नः॥
अन्न आदि उत्पन्न कर प्राणी मात्र को पोषण देने वाले, हे दिव्य प्रवाह! हम आपका सान्निध्य पाना चाहते हैं। हमारी अधिकतम वृद्धि हो।[ऋग्वेद 10.9.3]
Hey divine flowing liquid! You help  the vegetation-food grain grow to nourish the living beings. We desire your company for our maximum growth.
ईशाना वार्याणां क्षयन्तीश्चर्षणीनाम्।
अपो याचामि भेषजम्
व्याधि निवारक दिव्य गुण वाले जल का हम आवाहन करते हैं। वह हमें सुख-समृद्धि प्रदान करे। उस औषधि रूप जल की हम प्रार्थना करते हैं।[ऋग्वेद 10.9.4]
Hey water with the divine property of removing illness! We invite you to grant us happiness and prosperity.
पञ्चम सूक्त :: अपांभेषज (जल चिकित्सा), मन्त्रदृष्टा :- सिन्धु द्वीप ऋषि,  देवता :- अपांनपात्, सोम और आप:, छन्द :- 1, 2, 3 गायत्री, 4 वर्धमान गायत्री।
आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन। 
महे रणाय चक्षसे॥
हे आपः! आप प्राणी मात्र को सुख देने वाले हैं। सुखोपभोग एवं संसार में रमण करते हुए, हमें उत्तम दृष्टि की प्राप्ति हेतु पुष्ट करें।[ऋग्वेद 10.9.1]
Hey water! You give comfort to organisms. Make us strong-nourish us, to enjoy comforts-pleasures while roaming all over the world, giving best sight.
One should be able to perceive the truth, welfare of others.
यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेहः नः।
उशतीरिव मातरः॥
जिनका स्नेह उमड़ता ही रहता है, ऐसी माताओं की भाँति, आप हमें अपने सबसे अधिक कल्याणप्रद रस में भागीदार बनायें।[ऋग्वेद 10.9.2]
Make us helpful-beneficial to others like the mother who is loving, affectionate, helpful, careful, protective in all your ventures-endeavours.
तस्मा अरं गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ।
आपो जनयथा च नः॥
अन्न आदि उत्पन्न कर प्राणीमात्र को पोषण देने वाले, हे दिव्य प्रवाह! हम आपका सान्निध्य पाना चाहते हैं। हमारी अधिकतम वृद्धि हो।[ऋग्वेद 10.9.3]
Hey divine flow, you nourish the living beings by producing food grains! We wish to be close to you. Let us grow to our maximum capacity.
ईशाना वार्याणां क्षयन्तीश्चर्षणीनाम्।
अपो याचामि भेषजम्॥
व्याधि निवारक दिव्य गुण वाले जल का हम आवाहन करते हैं। वह हमें सुख-समृद्धि प्रदान करे। उस औषधि रूप जल की हम प्रार्थना करते हैं।[ऋग्वेद 10.9.4]
We invite water which has divine qualities which removes-cures ailments (diseases, illness). Let he grant us comforts and growth. We worship water in the form of medicines.
षष्ठः सूक्त :: अपां भेषज (जल चिकित्सा) सूक्त, मन्त्रदृष्टा :- सिन्धु द्वीप ऋषि, कृति अतवा अतर्वा, देवता :- अपांनपात्, सोम और आप, छन्द :- 1, 2, 3 गायत्री, 4 पथ्यापंक्ति।
शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये।
शं योरभि स्रवन्तु नः॥1॥
दैवीगुणों से युक्त आपः (जल) हमारे लिए हर प्रकार से कल्याणकारी और प्रसन्नतादायक हो। वह आकांक्षाओं की पूर्ति करके आरोग्य प्रदान करे।
विशेष-दृष्टव्य है कि वर्तमान में इस मन्त्र का विनियोग ‘शनि’ की पूजा में किया जाता है।
अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा।
अग्निं च विश्वशम्भुवम्॥2॥
‘सोम’ का हमारे लिए उपदेश है कि ‘दिव्य आपः’ हर प्रकार से औषधीय गुणों से युक्त है। उसमें कल्याणकारी अग्नि भी विद्यमान है।
आपः प्रणीत भेषजं वरुथं तन्वे 3 मम।
ज्योक् च सूर्यं दृशे॥3॥
दीर्घकाल तक मैं सूर्य को देखूँ अर्थात् जीवन प्राप्त करुँ। हे आपः! शरीर को आरोग्यवर्धक दिव्य औषधियाँ प्रदान करो।
शं न आपो धन्वन्याः 3 शभु सन्त्वनूप्याः।
शं नः खनित्रिमा आपः शमु याः कुम्भ आमृताः शिवा नः सन्तु वार्षिकीः॥4॥
सूखे प्रान्त (मरुभूमि) का जल हमारे लिए कल्याणकारी हो। ‘जलमय देश’ का जल हमें सुख प्रदान करे। भूमि से खोदकर निकाला गया कुएँ आदि का जल हमारे लिए सुखप्रद हो। पात्र में स्थित जल हमें शान्ति देने वाला हो। वर्षा से प्राप्त जल हमारे जीवन में सुख-शांति की वृष्टि करने वाला सिद्ध हो।
33वाँ सूक्त :: ‘आपः सूक्त’, मन्त्रदृष्टा-शन्ताति ऋषि, देवता-चन्द्रमा/आपः, छन्दः-त्रिष्टुप्।
हिरण्यवर्णाः शुचयः पावका यासु जातः सविता यास्वग्निः।
या अग्निं गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु॥1॥
जो जल सोने के समान आलोकित होने वाले रंग से सम्पन्न, अत्यधिक मनोहर शुद्धता प्रदान करने वाला है, जिससे सविता देव और अग्नि देव उत्पन्न हुए हैं। जो श्रेष्ठ रंग वाला जल ‘अग्निगर्भ’ है। वह जल हमारी व्याधियों को दूर करके हम सबको सुख और शान्ति प्रदान करे।
यासां राजा वरुणो याति मध्ये सत्यानृते अवपश्यज्जनानाम्।
या अग्निं गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु॥2॥
जिस जल में रहकर राजा वरुण, सत्य एवं असत्य का निरीक्षण करते चलते हैं। जो सुन्दर वर्ण वाला जल अग्नि को गर्भ में धारण करता है, वह हमारे लिए शान्तिप्रद हो।
यासां देवा दिवि कृण्वन्ति भक्षं या अन्तरिक्षे बहुधा भवन्ति।
या अग्निं गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु॥3॥
जिस जल के सारभूत तत्व तथा सोमरस का इन्द्र आदि देवता द्युलोक में सेवन करते हैं। जो अन्तरिक्ष में विविध प्रकार से निवास करते हैं। अग्निगर्भा जल हम सबको सुख और शान्ति प्रदान करे।
शिवेन मा चक्षुषा पश्यतापः शिवया तन्वोप स्पृशत त्वचं में।
घृतश्चुतः शुचयो याः पावकास्ता, न आपः शं स्योना भवन्तु॥4॥
हे जल के अधिष्ठाता देव! आप अपने कल्याणकारी नेत्रों द्वारा हमें देखें तथा अपने हितकारी शरीर द्वारा हमारी त्वचा का स्पर्श करें। तेजस्विता प्रदान करने वाला शुद्ध तथा पवित्र जल हमें सुख तथा शान्ति प्रदान करे।
षष्ठकाण्ड, 124वाँ सूक्त :: निर्ऋत्यपस्तरण सूक्त, मन्त्रदृष्टा :- अथर्वा ऋषि, देवता :- दिव्य आपः, छन्द :- त्रिष्ठुप्।
दिवो नु मां बृहतो अन्तरिक्षादपांस्तोको अभ्यपप्तद् रसेन।
समिन्द्रियेण पयसाहमग्ने, छन्दोभिर्यज्ञैः सुकृतां कृतेन॥1॥
विशाल द्युलोक से दिव्य-अप् (जल या तेज) युक्त रस की बूँदें हमारे शरीर पर गिरी हैं। हम इन्द्रियों सहित दुग्ध के समान सारभूत अमृत से एवं छन्दों (मन्त्रों) से सम्पन्न होने वाले यज्ञों के पुण्यफल से युक्त हों।
यदि वृक्षादभ्यपप्तत् फलं तद् यद्यन्तरिक्षात् स उ वायुरेव।
यत्रास्पृक्षत् तन्वो 3 यच्च वासस आपो नुदन्तु निर्ऋतिं पराचैः॥2॥
वृक्ष के अग्रभाग से गिरी वर्षा की जल बूँद, वृक्ष के फल के समान ही है। अन्तरिक्ष से गिरा जल बिन्दु निर्दोष वायु के फल के समान है। शरीर अथवा पहने वस्त्रों पर उसका स्पर्श हुआ है। वह प्रक्षालनार्थ जल के समान ‘निर्ऋतिदेव’ (पापो को) हमसे दूर करें।
अभ्यञ्जनं सुरभि सा समृद्धिर्हिरण्यं वर्चस्तदु पूत्रिममेव।
सर्वा पवित्रा वितताध्यस्मत् तन्मा तारीन्निर्ऋतिर्मो अरातिः॥3॥
यह अमृत वर्षा उबटन, सुगंधित द्रव्य, चन्दन आदि सुवर्ण धारण तथा वर्चस् की तरह समृद्धि रूप है। यह पवित्र करने वाला है। इस प्रकार पवित्रता का आच्छादन होने के कारण ‘पापदेवता’ और शत्रु हम से दूर रहें।
सोम सूक्त :: ऋषि :- कण्व, निवास स्थान :- पृथ्वी। सूक्त : 5, देवता : अग्नि धृताहुत।  
हे अग्नि ! यजमान को उत्तम पद, देह कान्ति और सन्तान से युक्त करो । वह सोम और ब्रह्मणस्पति का निज जन हों। हे इन्द्र! तुम्हारी कृपा से यजमान स्वतन्त्र, सबका वशकर्ता, धनवान् और दीर्घजीवी हो।
सूक्त : 6,  देवता : ब्रह्मणस्पति।  
हे ब्रह्मणस्पते! देवों के भक्त शत्रु को भी यजमान के वशवर्ती कर दी। हे सोम ! कुविचारी शत्रु पर वज्र प्रहार करके उसे छिन्न-भिन्न करके भगा दो। हे सोम! हमारे नाश के इच्छुक सन्तापकारी शत्रु का संहार करो।
नवम मण्डल से सम्बद्ध सोम, ऋग्वेद का प्रमुख देवता है।
अथ स सोमः स्वधारयाऽस्मान् पुनीयादित्याह।
वह सोम अपनी धारा से हमें पवित्र करे।
इन्द्राय इन्द्रार्थम् पातवे पातुम्। 
असमानकर्तृकेष्वपि छन्दसि तुमर्थीया दृश्यन्ते—इति भ०।
"ये विद्वांसो मनुष्याः सर्वरोगप्रणाशकमानन्दप्रदमोषधिरसं पीत्वा शरीरात्मानौ पवित्रयन्ति ते धनाढ्या जायन्ते" [यजुर्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं]
सोम के दो अर्थ हैं। सोम एक औषधि  है जो स्वादिष्ट और मदिष्ट (आनन्दप्रद) है और सोम चन्द्रमा के लिये भी प्रयुक्त होता है जो जी औषधियों के राजा हैं। पृथ्वी पर समस्त जड़ी-बूटियाँ उनके प्रभाव से ही उत्पन्न होती हैं। 
स्वादिष्ठया मदिष्ठया पवस्व सोम धारया। 
इन्द्राय पातवे सुतः॥ [ऋक् 9.1.1, सामवेद 1]
त्वम् (स्वादिष्ठया) स्वादुतमया (मदिष्ठया) अतिशयेन हर्षप्रदया (धारया) आनन्दसन्तत्या (पवस्व) अस्मान् पुनीहि। त्वम् (इन्द्राय) मम आत्मने (पातवे) पातुम्। अत्र पा धातोः तुमर्थे तवेन् प्रत्ययः। नित्वादाद्युदात्तत्वम्। (सुतः) अभिषुतो भव॥1
हे (सोम) रसागार-आनन्द सागर परमेश्वर! तुम (स्वादिष्ठया) स्वादिष्ठ, (मदिष्ठया) अतिशय हर्षप्रद (धारया) आनन्दधारा से (पवस्व) हमें पवित्र करो। तुम (इन्द्राय) मेरे आत्मा के (पातवे) पान के लिए (सुतः) अभिषुत हो। 
हे सोमदेव! आप अपनी स्वादिष्ट और आनन्द प्रदान करने वाली धारा के साथ इंद्रदेव के लिए कलश में प्रवाहित हों. क्योंकि उन्हीं के पीने के लिये निका ले गए हैं। 
सोमं मन्यते पपिवान्यत्सम्पिषन्त्योषधिम्। 
सोमं यं ब्रह्माणो विदुर्न तस्याश्नाति कश्चन॥ [ऋक् 10.85.3]
निरूक्त में ही ओषधि का अर्थ उष्मा धोने वाला यानि क्लेश धोने वाला है।
स्वान्तःकरणे स्रवन्तीं पावयित्रीमानन्दरसतरङ्गिणीमनुभवन्नुपासको ब्रूते यत् परमात्मरूपात् सोमादभिषूयमाणो ब्रह्मानन्दरस इत्थमेव ममात्मनः पानाय निरन्तरं धारारूपेण प्रस्रवेदिति॥2॥
अपने अन्तःकरण में बहती हुई पवित्रता सम्पादिनी आनन्द-रस की सरिता को अनुभव करता हुआ उपासक कह रहा है कि परमात्मा-रूप सोम से अभिषुत होता हुआ ब्रह्मानन्द-रस इसी प्रकार मेरे आत्मा के पानार्थ निरन्तर धारा-रूप में प्रवाहित होता रहे।  
सोमलता, सौम्यता के अर्थों में बहुधा प्रयुक्त सोम शब्द के वर्णन में इसका निचोड़ा-पीसा जाना, इसका जन्मना (या निकलना, सवन) और इंद्र द्वारा पीया जाना प्रमुख है। 
अलग-अलग स्थानों पर इंद्र का अर्थ आत्मा, राजा, ईश्वर, बिजली आदि है। सोम का अर्थ श्रमजनित आनंद, भगवान् श्री कृष्ण भी लिया गया है। सामवेद के लगभग एक चौथाई मंत्र पवमान सोम-पवित्र करने वाला सोम, के विषय में है।
Please refer to :: SOMRAS-THE EXTRACT OF SOMVALLI सोमवल्ली-लता और सोमवृक्ष
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TANTROKT RATRI SUKT तन्त्रोक्त रात्रिसूक्त :: Ratri Sukt is one of the hymns to dedicated to Maa Durga. Ratri Sukt is used to invoke that energy and to enhance the brain powers.
Ratri Sukt is also used by people having sleep disorder. Recitation of Ratri Sukt bring one's mind in tune to sleep quicker. Ratri Sukt also tune up the energy level in the body. Ratri Sukt is to be recited 2-3 times before sleeping. 
It defines the omnipresence and omnipotence of Maa Durga, She is the energy pervading all forms of life. She is the power in Mantr. She is the energy of getting success in all endeavours. She provides everything to her Sadhak. She can remove obstacles, enemies and every negative outcome. The energy of Maa Durga is the cause of love, harmony, happiness and prosperity. 
विश्वेश्वरी जगद्धात्रीं स्थितिसंहारकारिणीम्।
निद्रां भगवतीं विष्णुरतुलां तेजसः प्रभुः॥1॥
जो इस विश्व की अधीश्वरी, जगत को धारण करने वाली, संसार का पालन और संहार करने वाली तथा तेज:स्वरुप भगवान् श्री हरी विष्णु की अनुपम शक्ति हैं, उन्हीं भगवती निद्रा देवी की स्तुति ब्रह्मा जी करने लगे। 
ब्रह्मोवाच :-
त्वं स्वाहा त्वं स्वधात्वं हि वषट्कारस्वरात्मिका।
सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता॥2॥
हे देवि! तुम्हीं स्वाहा, तुम्ही स्वधा और तुम्ही वषटकार हो। स्वर भी तुम्हारे ही स्वरुप हैं। 
अर्धमात्रा स्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषतः।
त्वमेव संध्या सावित्री त्वं देवी जननी परा॥3॥
तुम्हीं जीवनदायिनी सुधा हो। नित्य अक्षर प्रणव में अकार, उकार, मकार इन तीन मात्राओं के रूप में तुम्हीं स्थित हो तथा इन मात्राओं के अतिरिक्त जो विन्दुरुपा नित्य अर्धमात्रा है, जिसका विशेष रुप से उच्चारण नहीं किया जा सकता, वह भी तुम्हीं ही हो।  हे देवि! तुम्ही संध्या, सावित्री तथा परम जननी हो। 
त्वयैतद्धार्यते विश्वं त्वयैतत्सृज्यते जगत्।
त्वयैतत्पाल्यते देवि त्वमत्स्यन्तेच सर्वदा॥4॥
हे देवि! तुम्हीं इस विश्व-ब्रह्माण्ड को धारण करती हो। तुमसे ही इस जगत की सृष्टि होती है। तुम्हीं से इसका पालन होता है और सदा तुम्हीं कल्प के अन्त में सबको अपना ग्रास बना लेती हो। 
विसृष्टौ सृष्टिरूपात्वम् स्थितिरूपाच पालने।
तथा संहतिरूपांते जगतोऽस्य जगन्मये॥5॥
हे जगन्मयी देवि! इस जगत की उत्पत्ति के समय तुम सृष्टिरूपा हो, पालनकाल में स्थितिरूपा हो तथा कल्पान्त के समय संहाररूप धारण करने वाली हो। 
महाविद्या महामाया महामेधामहास्मृतिः।
महामोहा च भवती महादेवी महासुरी॥6॥
तुम्हीं महाविद्या, महामाया, महामेधा, महास्मृति, महामोहरूपा, महादेवी और महासुरी हो। 
प्रकृतिस्त्वं च सर्वस्य गुणत्रयविभाविनी।
कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्च दारुणा॥7॥
तुम्हीं तीनों गुणों को उत्पन्न करने वाली सबकी प्रकृति हो। भयंकर कालरात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि भी तुम्हीं हो। 
त्वं श्रीस्त्वमीश्वरी त्वं ऱ्हीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षणा।
लज्जा पुष्टिस्तथा तुष्टिस्त्वं शांतिः क्षांतिरेवच॥8॥
तुम्हीं श्री, तुम्ही ईश्वरी, तुम्ही ह्रीं और तुम्हीं बोधस्वरुपा बुद्धि हो। लज्जा, पुष्टि, तुष्टि, शान्ति और क्षमा भी तुम्हीं हो। 
खङ्गिनी शृलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा।
शंखिनी चापिनी बाणभुशुंडीपरिधायुधा॥9॥
तुम खड्गधारिणी, शूलधारिणी, घोररुपा तथा गदा, चक्र, शंख और धनुष धारण करने वाली हो। बाण, भुशुण्डी और परिघ ये भी तुम्हारे अस्त्र हैं। 
सौम्या सौम्यतराशेषसौम्येभ्यस्त्वतिसुंदरी।
परापराणां परमा त्वमेव परमेश्वरी॥10॥
तुम सौम्य और सौम्यतर हो। इतना ही नहीं, जितने भी सौम्य एवं सुन्दर पदार्थ हैं, उन सबकी अपेक्षा तुम अत्यधिक सुन्दरी हो। पर और अपर सबसे परे रहने वाली परमेश्वरी तुम्ही हो। 
यच्च किंचित क्वचिद्वस्तु सदसद्धाखिलात्मिके।
तत्त्व सर्वस्य या शक्तिः सात्वं किं स्तूयसे सदा॥11॥
सर्वस्वरुपे देवि! कहीं भी सत्-असत् रूप जो कुछ वस्तुएँ हैं और उन सबकी जो शक्ति है, वह तुम्हीं हो. ऎसी अवस्था में तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है?
यया त्वया जगस्रष्टा जगत्पात्यतियो जगत्।
सोऽपि निद्रावशं नीतः कस्त्वां स्तोतुमिहेश्वरः॥12॥
जो इस जगत की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं, उन भगवान्-ईश्वर को भी जब तुमने निद्रा के अधीन कर दिया है, तब तुम्हारी स्तुति करने में यहाँ कौन समर्थ हो सकता है!?
विष्णुः शरीरग्रहणमहमीशान एवच।
कारितास्ते यतोऽतस्त्वां कः स्तोतुं शक्तिमान्भवेत्॥13॥
मुझको, भगवान् शिव  को तथा भगवान्  श्री हरी विष्णु को भी तुमने ही शरीर धारण कराया है। अत: तुम्हारी स्तुति करने की शक्ति किसमें है?
सा त्वमित्थं प्रभावैः स्वैरुदारैर्देवि संस्तुता।
मोहयैतौ दुराधर्षावसुरौ मधुकैटभौ॥14॥
हे देवि! तुम तो अपने इन उदार प्रभावों से ही प्रशंसित हो। ये जो दोनों दुर्धर्ष असुर मधु और कैटभ हैं, इन को मोह में डाल दो।  
प्रबोधं न जगत्स्वामी नीयतामच्युतो लघु।
बोधश्च क्रियतामस्य हन्तुमेतौ महासुरौ॥15॥
जगदीश्वर भगवान् श्री हरी  विष्णु को शीघ्र ही जगा दो। साथ ही इनके भीतर इन दोनों महान असुरों को मार डालने की बुद्धि उत्पन्न कर दो। 
इति रात्रिसूक्तम्। 
रात्रि सूक्त :: ऋग्वेद 10.10.127. यह ऋग्वेद की 8 ऋचाएं हैं, जिनमें रात्रि अर्थात रात की अधिष्ठात्री देवी भुवनेश्वरी का स्तवन (आराधना) किया गया है।
रात्रि देवी जगत् के समस्त जीवों के शुभाशुभ कर्मों की साक्षी हैं और तदनुरूप फल प्रदान करती हैं। ये सर्वत्र व्याप्त हैं और अपनी ज्ञानमयी ज्योति से जीवों के अज्ञानान्धकार का नाश कर देती हैं। करुणामयी रात्रि देवी के अंक में सुषुप्तावस्था में समस्त जीव निकाय सुखपूर्वक सोया रहता है।
विनियोग :: रात्रीत्याद्यष्टर्चस्य सूक्तस्य कुशिकः सौभरो रात्रिर्वा भारद्वाजो ऋषिः, रात्रिर्देवता, गायत्री छन्दः, देवीमाहात्म्यपाठे विनियोग:। 
रात्री व्यख्यदायती पुरुत्रा देव्यक्षभिः। 
विश्वा अधि श्रियोऽधित॥[ऋग्वेद 10.10.127.1] 
महत्तत्वादिरूप व्यापक इन्द्रियों से सब देशों में समस्त वस्तुओं को प्रकाशित करने वाली ये रात्रि रूपा देवी अपने उत्पन्न किये हुए जगत के जीवों के शुभाशुभ कर्मों को विशेष रूप से देखती हैं और उनके अनुरूप फल की व्यवस्था करने के लिये समस्त विभूतियों को धारण करती हैं।[देवीपुराण 1]
ओर्वप्रा अमर्त्या निवतो देव्युद्वतः। 
ज्योतिषा बाधते तमः॥[ऋग्वेद 10.10.127.2] 
ये देवी अमर हैं और सम्पूर्ण विश्व को नीचे फैलनेवाली लता आदि को तथा ऊपर बढ़ने वाले वृक्षों को भी व्याप्त करके स्थित हैं; इतना ही नहीं ये ज्ञानमयी ज्योति से जीवों के अज्ञानान्धकार का नाश कर देती हैं।[देवीपुराण 2]
निरु स्वसारमस्कृतोषसं देव्यायती। 
अपेदु हासते तमः॥[ऋग्वेद 10.10.127.3] 
परा चिच्छक्तिरूपा रात्रि देवी आकर अपनी बहिन ब्रह्म विद्यामयी उषा देवी को प्रकट करती हैं, जिससे अविद्यामय अन्धकार स्वतः नष्ट हो जाता है।[देवीपुराण 3] 
सा नो अद्य यस्या वयं नि ते यामन्नविक्ष्महि। 
वृक्षे न वसतिं वयः॥[ऋग्वेद 10.10.127.4] 
वे रात्रि देवी इस समय मुझ पर प्रसन्न हों, जिनके आने पर हम लोग अपने घरों में सुख से सोते हैं, ठीक वैसे ही, जैसे रात्रि के समय पक्षी वृक्षों पर बनाये हुए अपने घोंसलों में सुखपूर्वक शयन करते हैं।[देवीपुराण 4]
नि ग्रामासो अविक्षत नि पद्वन्तो नि पक्षिणः। 
नि श्येनासश्चिदर्थिनः॥[ऋग्वेद 10.10.127.5] 
उस करुणामयी रात्रिदेवी के अंक में सम्पूर्ण ग्रामवासी मनुष्य, पैरों से चलने वाले गाय, घोड़े आदि पशु, पंखों से उड़नेवाले पक्षी एवं पतंग आदि, किसी प्रयोजन से यात्रा करनेवाले पथिक और बाज आदि भी सुखपूर्वक सोते हैं।[देवीपुराण 5] 
यावया वृक्यं वृकं यवय स्तेनमूर्म्ये।
अथा नः सुतरा भव॥[ऋग्वेद 10.10.127.6] 
हे रात्रि मयी चिच्छक्ति! तुम कृपा करके वासनामयी वृकी तथा पापमय वृक को हमसे अलग करो। काम आदि तस्कर समुदाय को भी दूर हटाओ। तदनन्तर हमारे लिये सुखपूर्वक तरने योग्य हो जाओ, मोक्षदायिनी एवं कल्याणकारिणी बन जाओ।[देवीपुराण 6]
उप मा पेपिशत्तमः कृष्णं व्यक्तमस्थित। 
उष ऋणेव यातय॥[ऋग्वेद 10.10.127.7]
हे उषा! हे रात्रि की अधिष्ठात्री देवी! सब ओर फैला हुआ यह अज्ञानमय काला अन्धकार मेरे निकट आ पहुँचा है। तुम इसे ऋण की भाँति दूर करो जैसे धन देकर अपने भक्तों के ऋण दूर करती हो, उसी प्रकार ज्ञान देकर इस अज्ञान को भी हटा दो।[देवीपुराण 1]
उप ते गा इवाकरं वृणीष्व दुहितर्दिवः। 
रात्रि स्तोमं न जिग्युषे॥[ऋग्वेद 10.10.127.8] 
हे रात्रि देवी! तुम दूध देनेवाली गौ के समान हो। मैं तुम्हारे समीप आकर स्तुति आदि से तुम्हें अपने अनुकूल करता हूँ। व्योम स्वरूप परमात्मा की परम पुत्री! तुम्हारी कृपा से मैं काम आदि शत्रुओं को जीत चुका हूँ, तुम स्तोम की भाँति मेरे इस हविष्य को भी ग्रहण करो।[देवीपुराण 8]
SHRI SUKT  श्री सूक्त :: श्री सूक्त 'पञ्च सूक्तों' में से एक है, (पंच सूक्त :- पुरुष सूक्तम, विष्णु सूक्तम, श्री सूक्तम, भू सूक्तम, नील सूक्तम)। देवी महालक्ष्मी को समर्पित यह स्तोत्र ऋग्वेद से लिया गया है। देवी की कृपा से सुख प्राप्ति के लिए इस स्तोत्र का पाठ किया जाता है। 
हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह॥1॥
तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम।
यस्या हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम्॥2॥
अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रबोधिनीम।
श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवीर्जुषताम॥4॥
कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्दा ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम।
पद्मे स्थितां पद्मवर्णां तामिहोपह्वये श्रियम्॥5॥
चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम।
तां पद्मिनीमीं शरणमहं प्रपद्येऽलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे॥6॥
आदित्यवर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरा याश्च बाह्या अलक्ष्मीः॥7॥
उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह।
प्रादुर्भूतोऽस्मिराष्ट्रेऽस्मिन कीर्तिमृद्धिं ददातु मे॥8॥
क्षुप्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाश्याम्यहम।
अभूतिमसमृद्धिं च सर्वां निर्णुद मे गृहात॥9॥
गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम्।
ईश्वरी सर्वभूतानांतामिहोपह्वये श्रियम॥10॥
मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि।
पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः॥11॥
कर्दमेन प्रजाभूता मयि संभव कर्दम।
श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम॥12॥
आपः सृजन्तु स्नि-ग्धानि चिक्लीत वस् में गृहे।
निच देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले॥13॥
आर्द्रां पुष्करिणीम पुष्टिंपिँगलां पद्ममालिनीं।
चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह॥14॥
आर्द्रां यःकरिणींयष्टिं सुवर्णा हेममालिनीं।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह॥15॥
तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्र्वान् विन्देयं पुरुषान्हम्॥16॥
यः शुचि प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम्।
सूक्तं पञ्चदशर्चं च श्रीकामः सततं जपेत्॥17॥
पद्मानने पद्म ऊरु पद्माक्षी पद्मसम्भवे।
तन्मे भजसि पद्माक्षि येन सौख्यं लभाम्यहम॥18॥
अश्वदायी गोदायी धनदायी महाधने।
धनं मे जुषतां देवि सर्वकामांश्च देहि मे॥19॥
पद्मानने पद्मविपद्मपत्रे पद्मप्रिये पद्मदलायताक्षि।
विश्वप्रिये विश्वमनोऽनुकूले त्वत्पादपद्मं मयिसन्निधत्सव॥20॥
पुत्रपौत्रधनं धान्यं हस्त्यश्वादिगवे रथम्।
प्रजानां भवसी माता आयुष्मन्तं करोतु मे॥21॥
धनमग्निर्धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसुः।
धनमिन्द्रो वृहस्पतिर्वरुणं धनमस्तु मे॥22॥
वैनतेय सोमं पिब सोमं पिबतु वृत्रहा।
सोमं धनस्य सोमिनो मह्यं ददातु सोमिनः॥23॥
न क्रोधो न च मात्सर्य न लोभो नाशुभा मतिः।
भवन्ति कृत पुण्यानां भक्तानां श्रीसूक्तम जपत्॥24॥
सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतरांशुकगन्धमाल्य शोभे।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यं॥25॥
विष्णुपत्नीं क्षमां देवीं माधवीं माधव प्रियाम्।
लक्ष्मीं प्रियसखीं देवीं नमाम्यच्युतवल्लभाम्॥26॥
महालक्ष्मी च विद्महे विष्णुपत्नी च धीमहि।
तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात्॥27॥
श्रीवर्चस्वमायुष्यमारोग्यमाविधाच्छोभमानं महीयते।
धान्यं धनं पशुं बहुपुत्रलाभं शतसंवत्सरं दीर्घमायुः॥28॥
पद्मप्रिये पद्मिनि पद्महस्ते पद्मालये पद्मदलायताक्षि।
विश्वप्रिये विष्णुमनोऽनुकूले त्वत्पादपद्मं मयि सन्निधत्सव॥29॥
श्रिये जात श्रिय आनिर्याय श्रियं वयो जनितृभ्यो दधातु।
श्रियं वसाना अमृतत्वमायन् भजन्ति सद्यः सवितो विदध्यून्॥30॥
श्रिय एवैनं तच्छ्रियामादधाति।
सन्ततमृचा वषट्कृत्यं संधत्तं संधीयते प्रजया पशुभिः य एवं वेद॥31॥
ॐ महादेव्यै च विद्महे विष्णुपत्न्यै च धीमहि।
तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात॥32॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।
श्री लक्ष्मीसूक्त :: काम, क्रोध, लोभ वृत्ति से मुक्ति प्राप्त कर धन, धान्य, सुख, ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए माँ भगवत लक्ष्मी की आराधना की जाती है। 
पद्मानने पद्मिनि पद्मपत्रे पद्मप्रिये पद्मदलायताक्षि। 
विश्वप्रिये विश्वमनोऽनुकूले त्वत्पादपद्मं मयि सन्निधत्स्व॥1॥
हे देवी लक्ष्मी! आप कमलमुखी, कमल पुष्प पर विराजमान, कमल-दल के समान नेत्रों वाली, कमल पुष्पों को पसंद करने वाली हैं। सृष्टि के सभी जीव आपकी कृपा की कामना करते हैं। आप सबको मनोनुकूल फल देने वाली हैं। हे देवी! आपके चरण-कमल सदैव मेरे हृदय में स्थित हों।
पद्मानने पद्मऊरू पद्माक्षी पद्मसम्भवे। 
तन्मे भजसिं पद्माक्षि येन सौख्यं लभाम्यहम्‌॥2॥
हे देवी लक्ष्मी! आपका श्रीमुख, ऊरु भाग, नेत्र आदि कमल के समान हैं। आपकी उत्पत्ति कमल से हुई है। हे कमलनयनी! मैं आपका स्मरण करता हूँ, आप मुझ पर कृपा करें।
अश्वदायी गोदायी धनदायी महाधने। 
धनं मे जुष तां देवि सर्वांकामांश्च देहि मे॥3॥
हे देवी लक्ष्मी! अश्व, गौ, धन आदि देने में आप समर्थ हैं। आप मुझे धन प्रदान करें। हे माता! मेरी सभी कामनाओं को आप पूर्ण करें।
पुत्र पौत्र धनं धान्यं हस्त्यश्वादिगवेरथम्‌। 
प्रजानां भवसी माता आयुष्मंतं करोतु मे॥4॥
हे देवी लक्ष्मी! आप सृष्टि के समस्त जीवों की माता हैं। आप मुझे पुत्र-पौत्र, धन-धान्य, हाथी-घोड़े, गौ, बैल, रथ आदि प्रदान करें। आप मुझे दीर्घ-आयुष्य बनाएँ।
धनमाग्नि धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसु। 
धन मिंद्रो बृहस्पतिर्वरुणां धनमस्तु मे॥5॥
हे देवी लक्ष्मी! आप मुझे अग्नि, धन, वायु, सूर्य, जल, बृहस्पति, वरुण आदि की कृपा द्वारा धन की प्राप्ति कराएँ।
पुरुष सूक्त :: ऋषि :- नारायण, देवता :- पुरुष।
ऋग्वेद संहिता के दसवें मण्डल का एक प्रमुख सूक्त यानि मंत्र संग्रह (10.90) है, यजुर्वेद (31वाँ अध्याय), अथर्ववेद (19वें काण्ड का छठा सूक्त), तैत्तिरीय संहिता, शतपथ ब्राह्मण तथा तैत्तिरीय आरण्यक आदि में प्राप्त होता है। मुद्गलोपनिषद् में भी पुरुष-सूक्त प्राप्त हैं, जिसमें दो मन्त्र अतिरिक्त हैं। इसमें विराट पुरुष (महा विष्णु, गौलोक में भगवान् श्री कृष्ण और राधा जी पुत्र) का उनके अंगों सहित वर्णन है। 
इस सूक्त में विराट पुरुष परमात्मा की महिमा निरूपित है और सृष्टि निरूपण की प्रक्रिया का वर्णन है। 
विराट पुरुष के अनन्त सिर, नेत्र और चरण हैं। यह सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड उनकी एक पाद्वि भूति है अर्थात् चतुर्थांश है। उनकी शेष त्रिपाद्विभूति में शाश्वत दिव्यलोक (वैकुण्ठ, कैलास, साकेत आदि) हैं। 
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्। 
स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशांगुलमं॥1॥
(पुरूषः) विराट रूप काल भगवान् अर्थात् क्षर पुरूष (सहस्रशीर्षा) हजार सिरों वाला (सहस्राक्षः) हजार आँखों वाला (सहस्रपात्) हजार पैरों वाला है। (स) वह काल (भूमिम्) पृथ्वी वाले इक्कीस ब्रह्माँडो को (विश्वतः) सब ओर से (दशंगुलम्) दसों अंगुलियों से अर्थात् पूर्ण रूप से काबू किए हुए (वृत्वा) गोलाकार घेरे में घेर कर (अत्यातिष्ठत्) इस से बढ़कर अर्थात् अपने काल लोक में सबसे न्यारा भी इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में ठहरा है अर्थात् रहता है।
जिसके हजारों हाथ, पैर, हजारों आँखे, कान आदि हैं, वह विराट रूप काल प्रभु अपने आधीन सर्व प्राणियों को पूर्ण काबू करके अर्थात् 20 ब्रह्माण्डों को गोलाकार परिधि में रोककर स्वयं इनसे ऊपर (अलग) इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में बैठा है।
उन परम पुरुष के सहस्रों (अनन्त) मस्तक, सहस्रों नेत्र और सहस्रों चरण हैं । वे इस सम्पूर्ण विश्व की समस्त भूमि (पूरे स्थान) को सब ओर से व्याप्त करके इससे दस अंगुल (अनन्त योजन) ऊपर स्थित हैं अर्थात् वे ब्रह्माण्ड में व्यापक होते हुए उससे परे भी हैं।
The Ultimate-Param Purush has thousands of hands, legs, eyes, ears etc. He has pervaded the whole universe on one hand and on the other he is away from it, maintaining infinite distance.
पुरूष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम्।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति॥2॥
(एव) इसी प्रकार कुछ सही तौर पर (पुरूष) ईश्वर है। वह अक्षर पुरूष अर्थात् परब्रह्म है (च) और (इदम्) यह (यत्) जो (भूतम्) उत्पन्न हुआ है (यत्) जो (भाव्यम्) भविष्य में होगा (सर्वम्) सब (यत्) प्रयत्न से अर्थात् मेहनत द्वारा (अन्नेन) अन्न से (अतिरोहति) विकसित होता है। यह अक्षर पुरूष भी (उत) सन्देह युक्त (अमृतत्वस्य) मोक्ष का (इशानः) स्वामी है अर्थात् ईश्वर  तो अक्षर पुरूष भी कुछ सही है, परन्तु पूर्ण मोक्ष दायक नहीं है।
परब्रह्म (अक्षर पुरुष) का विवरण है जो कुछ ईश्वर  वाले लक्षणों से युक्त है, परन्तु इसकी भक्ति से भी पूर्ण मोक्ष नहीं है, इसलिए इसे संदेह युक्त मुक्ति दाता कहा है। इसे कुछ प्रभु के गुणों युक्त इसलिए कहा है कि यह काल की तरह तप्तशिला पर भून कर नहीं खाता। परन्तु इस परब्रह्म के लोक में भी प्राणियों को परिश्रम करके कर्माधार पर ही फल प्राप्त होता है तथा अन्न से ही सर्व प्राणियों के शरीर विकसित होते हैं, जन्म तथा मृत्यु का समय भले ही काल (क्षर पुरुष) से अधिक है, परन्तु फिर भी उत्पत्ति प्रलय तथा चैरासी लाख योनियों में यातना बनी रहती है।
यह जो इस समय वर्तमान (जगत्) है, जो बीत गया और जो आगे होने वाला है, वह सब वे परम पुरुष ही हैं। इसके अतिरिक्त वे देवताओं के तथा जो अन्न से (भोजन द्वारा) जीवित रहते हैं, उन सब के भी ईश्वर (अधीश्वर-शासक) हैं। 
He for ever, ever since. He is present, past & the future. He is the ultimate being yet he is not the Almighty. He is the governor of all demigods-deities who survive over the strength of the food provided by him.
एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पुरूषः।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि॥3॥ 
(अस्य) इस अक्षर पुरूष अर्थात् परब्रह्म की तो (एतावान्) इतनी ही (महिमा) प्रभुता है। (च) तथा (पुरूषः) वह परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर तो (अतः) इससे भी (ज्यायान्) बड़ा है (विश्वा) समस्त (भूतानि) क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष तथा इनके लोकों में तथा सत्यलोक तथा इन लोकों में जितने भी प्राणी हैं (अस्य) इस पूर्ण परमात्मा परम अक्षर पुरूष का (पादः) एक पैर है अर्थात् एक अंश मात्रा है। (अस्य) इस परमेश्वर के (त्रि) तीन (दिवि) दिव्य लोक जैसे सत्यलोक-अलख लोक-अगम लोक (अमृतम्) अविनाशी (पाद्) दूसरा पैर है अर्थात् जो भी सर्व ब्रह्माण्डों में उत्पन्न है। वह सत्य पुरूष पूर्ण परमात्मा का ही अंश या अंग है।
इस ऊपर के मंत्र 2 में वर्णित अक्षर पुरुष (परब्रह्म) की तो इतनी ही महिमा है तथा वह पूर्ण पुरुष तो इससे भी बड़ा है अर्थात सर्वशक्तिमान है तथा सर्व ब्रह्माण्ड उसी के अंश मात्रा पर ठहरे हैं। इस मंत्र में तीन लोकों का वर्णन इसलिए है, क्योंकि चौथा अनामी (अनामय) लोक अन्य रचना से पहले का है। यही तीन प्रभुओं (क्षर पुरूष, अक्षर पुरूष तथा इन दोनों से अन्य परम अक्षर पुरूष) का विवरण श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 15 श्लोक संख्या 16.17 में है। 
यह भूत, भविष्य, वर्तमान से सम्बद्ध समस्त जगत इन परम पुरुष का वैभव है। वे अपने इस विभूति विस्तार से भी महान हैं। उन परमेश्वर को एकपाद्विभूति (चतुर्थाश) में ही यह पंचभूतात्मक विश्व है। उनकी शेष त्रिपाद्विभूति में शाश्वत दिव्यलोक (वैकुण्ठ, गोलोक, साकेत, शिवलोक आदि) हैं।
वैभव :: भव्यता, तेज, प्रताप, शान, चमक, महिमा, गौरव, बड़ाई; grandeur, splendour, majesty.
Every thing pertaining to past, present & the future is the grandeur of the Ultimate being Virat Purush-Maha Vishnu). He is greater than this extension. His, just one fragment covers the whole universe made of Panch Tatv. His remaining three segments cover the entire divine creations like Vaekunth, Gau Lok, Saket, Shiv Lok etc.) 
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत् पुनः। 
ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशने अभि॥4॥ 
(पुरूषः) यह परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् अविनाशी परमात्मा (ऊध्र्वः) ऊपर (त्रि) तीन लोक जैसे सत्यलोक, अलख लोक, अगम लोक रूप (पाद) पैर अर्थात ऊपर के हिस्से में (उदैत) प्रकट होता है अर्थात विराजमान है (अस्य) इसी परमेश्वर पूर्ण ब्रह्म का (पादः) एक पैर अर्थात एक हिस्सा जगत रूप (पुनर्) फिर (इह) यहाँ (अभवत्) प्रकट होता है (ततः) इसलिए (सः) वह अविनाशी पूर्ण परमात्मा (अशनानशने) खाने वाले काल अर्थात क्षर पुरूष व न खाने वाले परब्रह्म अर्थात अक्षर पुरूष के भी (अभि) ऊपर (विश्वङ्) सर्वत्रा (व्यक्रामत्) व्याप्त है अर्थात उसकी प्रभुता सर्व ब्रह्माण्डों व सर्व प्रभुओं पर है। वह कुल का मालिक है। जिसने अपनी शक्ति को सब के ऊपर फैलाया है।
यही सर्व सृष्टी रचनाकार प्रभु अपनी रचना के ऊपर के हिस्से में तीनों स्थानों (सतलोक, अलखलोक, अगमलोक) में तीन रूप में स्वयं प्रकट होता है अर्थात स्वयं ही विराजमान है। यहाँ अनामी लोक का वर्णन इसलिए नहीं किया क्योंकि अनामी लोक में कोई रचना नहीं है तथा अकह (अनामय) लोक शेष रचना से पूर्व का है। फिर कहा है कि उसी परमात्मा के सत्यलोक से बिछुड़ कर नीचे के ब्रह्म व परब्रह्म के लोक उत्पन्न होते हैं और वह पूर्ण परमात्मा खाने वाले ब्रह्म अर्थात काल से (क्योंकि ब्रह्म/काल विराट शाप वश एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों को खाता है) तथा न खाने वाले परब्रह्म अर्थात् अक्षर पुरुष से (परब्रह्म प्राणियों को खाता नहीं, परन्तु जन्म-मृत्यु, कर्म-दण्ड ज्यों का त्यों बना रहता है) भी ऊपर सर्वत्र व्याप्त है अर्थात इस पूर्ण परमात्मा की प्रभुता सर्व के ऊपर है,  परमेश्वर ही कुल का मालिक है। जिसने अपनी शक्ति को सब के ऊपर ऐसे फैलाया है जैसे सूर्य अपने प्रकाश को सब के ऊपर फैला कर प्रभावित करता है, ऐसे पूर्ण परमात्मा ने अपनी शक्ति रूपी क्षमता को सभी ब्रह्माण्डों को नियन्त्रित रखने के लिए छोड़ा हुआ है।
वे परम पुरुष स्वरूपतः इस मायिक जगत से परे त्रिपाद्विभूति में प्रकाशमान हैं (वहाँ माया का प्रवेश न होने से उनका स्वरूप नित्य प्रकाशमान है)। इस विश्व के रूप में उनका एक पाद ही प्रकट हुआ है अर्थात् एक पाद से वे ही विश्वरूप भी हैं, इसलिये वे ही सम्पूर्ण जड़  एवं चेतनमय, उभयात्मक जगत को परिव्याप्त किये हुए हैं।
The Ultimate being is established over the perishable-virtual (imaginary) world. This universe is just one fragment of his extensions. He is pervading the inertial-static and the conscious-living world.
तस्माद् विराळजायत विराजो अधि पूरुषः। 
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः॥5॥
(तस्मात्) उसके पश्चात् उस परमेश्वर सत्यपुरूष की शब्द शक्ति से (विराट्) विराट अर्थात ब्रह्म, जिसे क्षर पुरूष व काल भी कहते हैं (अजायत) उत्पन्न हुआ है (पश्चात्) इसके बाद (विराजः) विराट पुरूष अर्थात काल भगवान् से (अधि) बड़े (पुरूषः) परमेश्वर ने (भूमिम्) पृथ्वी वाले लोक, काल ब्रह्म तथा परब्रह्म के लोक को (अत्यरिच्यत) अच्छी तरह रचा (अथः) फिर (पुरः) अन्य छोटे-छोटे लोक (स) उस पूर्ण परमेश्वर ने ही (जातः) उत्पन्न किया अर्थात स्थापित किया।
तीनों लोकों (अगमलोक, अलख लोक तथा सतलोक) की रचना के पश्चात पूर्ण परमात्मा ने ज्योति निरंजन (ब्रह्म) की उत्पत्ति की अर्थात उसी सर्व शक्तिमान परमात्मा पूर्ण ब्रह्म से ही विराट अर्थात् ब्रह्म (काल) की उत्पत्ति हुईं। 
गीता अध्याय 3, मन्त्र 15 :- अक्षर पुरूष अर्थात अविनाशी प्रभु से ब्रह्म उत्पन्न हुआ।अर्थववेद काण्ड 4, अनुवाक 1, सूक्त 3 :- पूर्ण ब्रह्म से ब्रह्म की उत्पत्ति हुई। उसी पूर्ण ब्रह्म ने (भूमिम्) भूमि आदि छोटे-बड़े सर्व लोकों की रचना की। वह पूर्णब्रह्म इस विराट भगवान अर्थात् ब्रह्म से भी बड़ा है अर्थात इसका भी मालिक है।
उन्हीं आदि पुरुष से विराट (ब्रह्माण्ड) उत्पन्न हुआ। वे परम पुरुष ही विराट के अधिपुरुष-अधिदेवता (हिरण्यगर्भ) रूप से उत्पन्न होकर अत्यन्त प्रकाशित हुए। बाद में उन्होंने भूमि (लोकादि) तथा शरीर (देव, मानव, तिर्यक् आदि) उत्पन्न किये।
The Ultimate being (Adi Purush) led to the creation of the universe. He evolved as Adhi Purush-Adhi Devta as Hirany Garbh (Golden Womb Shell, out of which Bhagwan Shri Hari Vishnu evolved, followed By Brahma Ji from his naval lotus). Thereafter, he created the other abodes like earth and species like demigods-deities, humans, insects, plants shrubs etc. etc. 
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम्। 
पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये॥6॥ 
जिसमें सब कुछ हवन किया गया है, उस यज्ञपुरुष से उसी ने दही, घी आदि उत्पन्न किये और वायु में, वन में एवं ग्राम में रहने योग्य पशु उत्पन्न किये। 
He who is Yagy Purush-Ultimate being created curd, Ghee etc. & the creatures capable of living in the air, forests and villages
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे। 
छन्दाᳬसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत॥7॥ 
उसी सर्वहुत यज्ञ पुरुष से ऋग्वेद एवं सामवेद के मन्त्र उत्पन्न हुए, उसी से यजुर्वेद के मन्त्र उत्पन्न हुए और उसी से सभी छन्द भी उत्पन्न हुए।
Its the Yagy Purush who evolved the Rig Ved, Sam Ved and the Mantr of Yajur Ved and the Chhand-stanza.
तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः। 
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः॥8॥ 
उसी से घोड़े उत्पन्न हुए, उसी से गायें उत्पन्न हुईं और उसी से भेड़-बकरियाँ उत्पन्न हुईं। वे दोनों ओर दाँतों वाले हैं।
Horses, cows, sheep & goats having teeth in upper & the lower jaws evolved out of him.
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः। 
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये॥9॥ 
देवताओं, साध्यों तथा ऋषियों ने सर्वप्रथम उत्पन्न हुए उस यज्ञपुरुष को कुशा पर अभिषिक्त किया और उसी से उसका यजन किया। 
Demigods-deities, Sadhy Gan (one kind-specie of demigods) and the Rishi Gan prayed to the Yagy Purush who evolved first over the Kush grass, initially.
यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्। 
मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादा उच्येते॥10॥ 
पुरुष का जब विभाजन हुआ तो उसमें कितनी विकल्पनाएँ की गयीं? उसका मुख क्या था? उसके बाहु क्या थे? उसके जंघे क्या थे और उसके पैर क्या कहे जाते हैं?
At the time of creation of the Virat-Yagy Purush, his mouth, arms, thighs, legs were conceptualised.  
ब्राह्मणोऽस्य मुखामासीद्वाहू राजन्य: कृत:। 
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्याँ शूद्रो अजायत॥11॥
ब्राह्मण इसका मुख था (मुख से ब्राह्मण उत्पन्न हुए)। क्षत्रिय दोनों भुजाएँ बने (दोनों भुजाओं से क्षत्रिय उत्पन्न हुए)। इस पुरुष की जो दोनों जंघाएँ थीं, वे ही वैश्य हुईं अर्थात् उनसे वैश्य उत्पन्न हुए और पैरों से शूद्र वर्ण प्रकट हुआ।  
ब्राह्मण ब्रह्मा जी के मुख से जन्मे हैं, क्षत्रिय ब्रह्मा के भुजा से जन्मे हैं, वैश्य जँघा से, जबकि शूद्र पाँव से जन्मे हैं।ये सभी दिव्य जन्मा हैं। 
मानवी सृष्टि महर्षि कश्यप से प्रारम्भ हुई अतः "जन्मना जायते शूद्र:"[मनुस्मृति] जन्म से सब शूद्र होते हैं, अतः जो व्यक्ति बुद्धि, विवेक के कार्यों में निपुड़ होता है वो ब्राह्मण वर्ण में जा सकता है और उसकी तुलना ही ब्रह्म के मुख से की जा सकती है। इसके सामान ही जो व्यक्ति युद्ध एवं राजनीति में निपुड़ होता है वो क्षत्रिय हो सकता है, व्यापार में निपुण (बढ़ई, लोहार, सोनार आदि) व्यक्ति वैश्य तथा अन्य सभी कार्य करने वाला व्यक्ति शूद्र हो सकता है।
The Brahmns appeared from the mouth, Kshatriy from the arms, Vaeshy from the thighs and the Shudr from the feet of Brahma Ji, as divine species.
The humans were created by Maharshi Kashyap through sexual intercourse. They too were titles Brahmns, Kshatriy, Vaeshy and Shudr on the basis of the Karm-practices adopted by them. 
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत। 
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायते॥12॥ 
इस परम पुरुष के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुए, नेत्रों से सूर्य प्रकट हुए, कानों से वायु और प्राण तथा मुख से अग्नि की उत्पत्ति हुई।
Som Dev (Chandr Dev, Moon) emerged from the innerself (mind & heart) of the Param-Yagy Purush, eyes produced Sun, ears emitted air & Pran-life sustaining force and Agni-fire came out of the mouth.
नाभ्या आसीदन्तरिक्षᳬ शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत । 
पद्भ्यां भूमिर्दिशः ओत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन्॥13॥ 
उन्हीं परम पुरुष की नाभि से अन्तरिक्ष लोक उत्पन्न हुआ, मस्तक से स्वर्ग प्रकट हुआ, पैरों से पृथिवी, कानों से दिशाएँ प्रकट हुईं। इस प्रकार समस्त लोक उस पुरुष में ही कल्पित हुए।
The space was created from his naval, mind produced the heavens, legs produced the earth, ears led to the formations of the 10 directions. In this manner all abodes are assumed to present in the Virat Purush-Maha Vishnu.
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत। 
वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः॥14॥ 
जिस पुरुष रूप हविष्य से देवों ने यज्ञ का विस्तार किया, वसन्त उसका घी था, ग्रीष्म काष्ठ एवं शरद हवि थी।
The extension of the Yagy had the Purush as the offering, spring season was its Ghee-clarified butter, wood & summers and the winters became offerings in the holy fire. 
सप्तास्यासन्परिधयस्त्रिाः सप्त समिधः कृताः।
देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन् पुरुषं पशुम्॥15॥
(सप्त) सात संख ब्रह्मण्ड तो परब्रह्म के तथा (त्रिसप्त) इक्कीस ब्रह्मण्ड काल ब्रह्म के (समिधः) कर्म दण्ड दुःख रूपी आग से दुःखी (कृताः) करने वाले (परिधयः) गोलाकार घेरा रूप सीमा में (आसन्) विद्यमान हैं (यत्) जो (पुरूषम्) पूर्ण परमात्मा की (यज्ञम्) विधिवत् धार्मिक कर्म अर्थात् पूजा करता है (पशुम्) बलि के पशु रूपी काल के जाल में कर्म बन्धन में बंधे (देवा) भक्तात्माओं को (तन्वानाः) काल के द्वारा रचे अर्थात् फैलाये पाप कर्म बंधन जाल से (अबध्नन्) बन्धन रहित करता है अर्थात् बन्दी छुड़ाने वाला बन्दी छोड़ है।
सात संख ब्रह्मण्ड परब्रह्म के तथा इक्कीस ब्रह्माण्ड ब्रह्म के हैं, जिन में गोलाकार सीमा में बंद पाप कर्मों की आग में जल रहे प्राणियों को वास्तविक पूजा विधि बता कर सही उपासना करवाता है। जिस कारण से बलि दिए जाने वाले पशु की तरह जन्म-मृत्यु के काल (ब्रह्म) के खाने के लिए तप्त शिला के कष्ट से पीडि़त भक्तात्माओं को काल के कर्म बन्धन के फैलाए जाल को तोड़कर बन्धन रहित करता है अर्थात बन्धन तोड़ने वाला बन्दी छोड़ है। 
यजुर्वेद अध्याय 5 मंत्र 32 :- कविरंघारिसि (कविर्) कबिर परमेश्वर (अंघ) पाप का (अरि) शत्रु (असि) है अर्थात् पाप विनाशक है। बम्भारिसि (बम्भारि) बन्धन का शत्रु अर्थात् बन्दी छोड़ परमेश्वर (असि) है।
देवताओं ने जब यज्ञ करते समय (संकल्प से) पुरुष रूप पशु को बन्धन मुक्त किया, तब सात समुद्र इसकी परिधि (मेखलाएँ) थे। इक्कीस प्रकार के छन्दों की (गायत्री, अतिजगती और कृति में से प्रत्येक के सात-सात प्रकार से) समिधाएँ बनीं।
When the demigods-deities released the animal in the form of Human, seven seas were surrounding it. 21 types of stanza-prayers (like Gayatri, Ati Jagti & Krati) became its Samidha-pious wood for Agni Hotr.
यज्ञेन यज्ञमSयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्। 
ते ह नाकम् महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥16॥ 
जो (देवाः) निर्विकार देव स्वरूप भक्तात्माएं (अयज्ञम्) अधूरी गलत धार्मिक पूजा के स्थान पर (यज्ञेन) सत्य भक्ति धार्मिक कर्म के आधार पर (अयजन्त) पूजा करते हैं (तानि) वे (धर्माणि) धार्मिक शक्ति सम्पन्न (प्रथमानि) मुख्य अर्थात् उत्तम (आसन्) हैं (ते ह) वे ही वास्तव में (महिमानः) महान भक्ति शक्ति युक्त होकर (साध्याः) सफल भक्त जन (नाकम्) पूर्ण सुखदायक परमेश्वर को (सचन्त) भक्ति निमित कारण अर्थात सत्भक्ति की कमाई से प्राप्त होते हैं, वे वहाँ चले जाते हैं। (यत्रा) जहाँ पर (पूर्वे) पहले वाली सृष्टी के (देवाः) पापरहित देव स्वरूप भक्त आत्माएं (सन्ति) रहती हैं।
जो निर्विकार (जिन्होंने माँस, शराब, तम्बाकू सेवन करना त्याग दिया है तथा अन्य बुराईयों से रहित हैं, वे) देव स्वरूप भक्त आत्माएं शास्त्र विधि रहित पूजा को त्याग कर शास्त्रानुकूल साधना करते हैं, वे भक्ति की कमाई से धनी होकर काल के ऋण से मुक्त होकर अपनी सत्य भक्ति की कमाई के कारण उस सर्व सुखदाई परमात्मा को प्राप्त करते हैं अर्थात् सत्यलोक में चले जाते हैं, जहाँ पर सर्व प्रथम रची सृष्टी के देव स्वरूप अर्थात पाप रहित हंस आत्माएं रहती हैं।
उपनिषद् इस मन्त्र में मोक्ष-निरूपण का उपसंहार भी निरूपित-निर्दिष्ट करता है। अत: मोक्ष-निरूपण के लिये श्रुति का अर्थ इस प्रकार होना चाहिये कि सम्पूर्ण कर्म, जो भगवद् अर्पण बुद्धि से भगवान् के लिये किये जाते हैं, यज्ञ हैं। उस कर्म रूप यज्ञ के द्वारा सात्त्विक वृत्तियों ने उन यज्ञस्वरूप भगवान् का युज़न-पूजन किया। इसी भगवद् अर्पण बुद्धि से किये गये यज्ञ रूप कर्मों के द्वारा ही सर्वप्रथम धर्म उत्पन्न हुए। धर्माचरण की उत्पत्ति भगवद् अर्पण बुद्धि से किये गये कर्मों से हुई। इस प्रकार भगवद् अर्पण बुद्धि से अपने समस्त कर्मो के द्वारा जो भगवान् के यजन रूप कर्म का आचरण करते हैं, वे उस भगवान् के दिव्य धाम को जाते हैं, जहाँ उनके साध्य-आराध्य आदि देव भगवान् विराजमान हैं।
देवताओं ने (पूर्वोक्त रूप से) यज्ञ के द्वारा यज्ञ स्वरूप परम पुरुष का यजन (आराधन) किया। इस यज्ञ से सर्वप्रथम धर्म उत्पन्न हुए। उन धर्मों के आचरण से वे देवता महान् महिमा वाले होकर उस स्वर्ग लोक का सेवन करते हैं, जहाँ प्राचीन साध्य देवता निवास करते हैं। (अत: हम सभी सर्वव्यापी जड़-चेतनात्मक रूप विराट् पुरुष को करबद्ध स्तुति करते हैं।)[शु.यजु. 31.1-16; ऋग्वेद, मुद्गलोपनिषद्] 
The demigods-deities prayed to the Yagy Purush in this manner. As an outcome of this Dharm appeared first. By adopting-following this Dharm-religious practices, the demigods-deities become glorious and enjoy the heavens where Sadhy Gan reside.
Following two Shloks loks-abodes like later additions.
वेदाहमेतं पुरुषं महान्त मादित्यवर्णं तमसस्तु पारे। 
सर्वाणि रूपाणि विचित्य धीरो नामानि कृत्वाभिवदन् यदास्ते॥17॥ 
तमस् (अविद्यारूप अन्धकार) से परे आदित्य के समान प्रकाश स्वरूप उस महान् पुरुष को मैं जानता हूँ। सबकी बुद्धि में रमण करने वाला वह परमेश्वर सृष्टि के आरम्भ में समस्त रूपों की रचना करके उनके नाम रखता है और उन्हीं नामों से व्यवहार करता हुआ सर्वत्र विराजमान होता है।
I know him, the Ultimate being, who is beyond darkness, in the form of Adity-Sun, aura, who resides in the minds of all, who created all beings-forms of life and the inertial-static world and names them and moves all around bearing these names-titles.
ये मन्त्र ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में नहीं मिलते, परन्तु पुरुष सूक्त के पृथक प्रकाशित कई संस्करणों में मिलते हैं। मूल उपनिषद् भी इनका संकेत हैं। ये मन्त्र पारमात्मिकोपनिषद्, महावाक्योपनिषद् तथा चित्युपनिषद् में भी आये हैं। यह मन्त्र तैत्तिरीय आरण्यक में भी है। 
धाता पुरस्ताद्यमुदाजहार शक्रः प्रविद्वान् प्रदिशश्चतस्रः। 
तमेवं विद्वानमृत इह भवति नान्यः पन्था विद्यते अयनाय॥18॥ 
पूर्व काल में ब्रह्मा जी ने जिनकी स्तुति की थी, इन्द्र ने चारों दिशाओं में जिसे (व्याप्त) जाना था, उस परम पुरुष को जो इस प्रकार (सर्वस्वरूप) जानता है, वह यहीं अमृतपद (मोक्ष) प्राप्त कर लेता है। इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग निज-निवास (स्वस्वरूप या भगवद्धाम) की प्राप्ति का नहीं है। 
Whom Brahma Ji worshipped in ancient period, Indr found him pervading in all directions and the one who who identifies him like this become capable of attaining Salvation-Moksh. There is no other means to seek liberation-emancipation. 
पितृ सूक्त :: पितृ दोष के कारण सन्तान हीनता, गरीबी प्राप्त होती है। इसके निवारण हेतु एकादशी या अमावस्या के दिन पितृ-सूक्त का श्रवण-पाठ, अध्ययन, दान-पुण्य  चाहिये। इसके  निवारण’ की श्रेष्ठ पद्धति नारायण बलि है। पितृ-पक्ष में या प्रतिदिन पितृ-सूक्त का पाठ कर ने से घर में या जन्म-कुण्ड़ली में कैसा भी पितृ-दोष क्यों न हो, वह हमेशा के लिए समाप्त हो जाता है और ‘पितरों’ की असीम-कृपा से साधक-याचक और उसके परिवार पर पित्रों की असीम कृपा हो जाती है। 
प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जाति के अनुसार अपने पितरों के निमित्त दान एवं श्राद्ध करना चाहिये। [स्कंद-पुराण]
ब्राह्मणों के पितर ॠषि वसिष्ठ के पुत्र माने गये हैं, अतः ब्राह्मणों को उनकी पूजा करनी चाहिये। क्षत्रियों के पितर अंगिरस-ॠषि के पुत्र माने गये है, अतः क्षत्रियों को उनकी पूजा करनी चाहिये। वैश्यों को पुलह-ऋषि के पुत्रों की पितर रूप में पूजा करनी चाहिये। शुद्रों को हिरण्यगर्भ के पुत्रों की पितर रूप में पूजा करनी चाहिये। जो भी व्यक्ति अपने पितरों के निमित्त दान-पुण्य या श्राद्ध करे, उस वक्त पितृ-सूक्त का पाठ करे। इससे उसकी मनोकामनायें पूर्ण होंगी।
 पितृ-सूक्त :: ऋषि :- शङ्क यामायन, देवता :- 1-10, पितर :- 12-14, छन्द त्रिट्टप  और जगती :- 11   
पहली आठ ऋचाओं विभिन्न स्थानों में निवास करने वाले पितरों को हविर्भाग स्वीकार करने के लिये आमन्त्रित किया गया है। अन्तिम छ: ऋचाओं में अग्रि से प्रार्थना की गयी है कि वे सभी पितरों को साथ लेकर हवि-ग्रहण करने के लिये पधारने की कृपा करें।
The manes have been requested to accept the offerings in first eight hymns and last six hymns requests Agni Dev to come along with all Manes and accept offerings-Havi.
उदीरतामवर उत् परास उन्मध्यमाः पितर; सोम्यासः। 
असुं य ईयुरवृका ऋतज्ञास्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु
नीचे, ऊपर और मध्य स्थानों में रहने वाले, सोम पान करने के योग्य हमारे सभी पितर उठकर तैयार हों। यज्ञ के ज्ञाता सौम्य स्वभाव के हमारे जिन पितरों ने नूतन प्राण धारण कर लिये हैं, वे सभी हमारे बुलाने पर आकर हमारी सुरक्षा करें।[ऋग्वेद 10.15.1]
सौम्य :: प्रिय, उदार, क्षमाशील, प्रशम्य; mild, benign, kindly, placable.
All of our deceased ancestors-Manes who have been placed in upper, middle and lower segments-abodes, should get up be ready to sip Somras. Those Pitr-Manes who knows-understand Veds, are benign-placable and got new lease of life  (rebirth) should come on being called-requested by us and protect us. 
इदं पितृभ्यो नमो अस्त्वद्य ये पूर्वासो य उपरास ईयुः। 
ये पार्थिवे रजस्या निषत्ता ये वा नूनं सुवजनासु विषु
जो भी नये अथवा पुराने पितर यहाँ से चले गये हैं, जो पितर अन्य स्थानों में हैं और जो उत्तम स्वजनों के साथ निवास कर रहे हैं अर्थात् यमलोक, मर्त्यलोक और विष्णु लोक में स्थित सभी पितरों को आज हमारा यह प्रणाम निवेदित हो।[ऋग्वेद 10.15.2]
We offer homages to our Manes-Pitr who are either old or new & have moved to other places, residing with thier own folk in Yam Lok, Marty Lok earth, Vishnu Lok-abode of Bhagwan Shri Hari Vishnu.   
आहं पितृन् त्सुवित्राँ   अवित्सि नपातं विक्रमणं च विष्णोः। 
बर्हियदो ये स्वधया सुतस्य भजन्त पित्वस्त इहागमिष्ठाः॥
उत्तम ज्ञान से युक्त पितरों को तथा अपानपात् और विष्णु के विक्रमण को, मैंने अपने अनुकूल बना लिया है। कुशासन पर बैठने  के अधिकारी पितर प्रसन्नतापूर्वक आकर अपनी इच्छा के अनुसार हमारे द्वारा अर्पित हवि और सोम रस ग्रहण करें।[ऋग्वेद 10.15.3]
अपांनपात् :: एक देवता, यह निथुद्रुप अग्नि जो पानी में प्रकाशित होता हैं; person or entity.[ऋग्वेद 2.35]
विक्रमण :: चलना, कदम रखना, भगवान् श्री हरी विष्णु का एक डग, शूरता-वीरता, पाशुपत-अलौकिक शक्ति; movement, one foot of Bhagwan Shri Hari Vishnu, bravery.
I have made the enlightened Manes-Pitr and the raising of Bhagwan Shri Hari Vishnu's foot, favourable. The Manes entitled of occupying Kushasan-cushion, made of Kush grass (very auspicious in nature), are welcome to make offerings and accept Somras.
बर्हिषदः पितर ऊत्यवार्गिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम्। 
त आ गतावसा शंतमेनाऽथा नः शं योररपो दधात॥
कुशासन पर अधिष्ठित होने वाले हे पितर! आप कृपा करके हमारी ओर आइये। यह हवि आपके लिये ही तैयार की गयी है, इसे प्रेम से स्वीकार कीजिये। अपने अत्यधिक सुख प्रद प्रसाद के साथ आयें और हमें क्लेश रहित सुख तथा कल्याण प्राप्त करायें।[ऋग्वेद 10.15.4]
Hey Kushasan occupying Manes! Please come towards us. The offering has been prepared for you, accept it with love. Please bring with you auspicious Prasad-blessings and make us free from troubles and grant comforts along with our welfare. 
उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु।
त आ गमन्तु त इह श्रुवन्त्वधि ब्रुवन्तु तेऽवन्त्वस्मान्॥
पितरों को प्रिय लगने वाली सोम रूपी निधियों की स्थापना के बाद कुशासन पर हमने पितरों का आवाहन किया है। वे यहाँ आयें और हमारी प्रार्थना सुनें। वे हमारी  करने साथ देवों के पास हमारी ओर से संस्तुति करें।[ऋग्वेद 10.15.5]
Having collected the goods liked by the Manes like Somras, we have prayed them to come and occupy the Kushasan. They should accept our prayers  and recommend to demigods-deities,  measures for our welfare.
आच्या जानु दक्षिणतो निषद्येमं यज्ञमभि गृणीत विश्वे।
मा हिंसिष्ट पितरः केन चिन्नो यद्व आगः पुरुषता कराम॥
हे पितरो! बायाँ घुटना मोड़कर और वेदी के दक्षिण में नीचे बैठकर आप सभी हमारे इस यज्ञ की प्रशंसा करें। मानव स्वभाव के अनुसार हमने आपके विरुद्ध कोई भी अपराध किया हो तो उसके कारण हे पितरो! आप हमें दण्ड न दें (पितर बायाँ घुटना मोड़कर बैठते हैं और देवता दाहिना घुटना मोड़कर बैठना पसन्द करते हैं)।[ऋग्वेद 10.15.6]
Hey Pitr Gan-Manes! Please bend the left leg and sit in the South of the Vedi (Hawan Kund, Pot meant for Agni Hotr-offerings in holy fire) and appreciate-participate in our Yagy-endeavours. Hey Pitr Gan! If we have committed any mistake due to human nature against you, please do not punish us. 
The Pitr mould their left leg during prayers or Yagy and the demigods-deities fold their right leg. 
आसीनासो अरुणीनामुपस्थे रयिं धत्त दाशुषे मर्त्याय। 
पुत्रेभ्य: पितरस्तस्य वस्यः प्र यच्छत त इहोर्जं   दधात॥
अरुण वर्ण की उषा देवी के अङ्क में विराजित हे पितर! अपने इस मर्त्य लोक के याजक को धन दें, सामर्थ्य दें तथा अपनी प्रसिद्ध सम्पत्ति में से कुछ अंश हम पुत्रों को देवें।[ऋग्वेद 10.15.7]
Occupying the lap of Usha Devi, having the aura like Sun-golden hue, Hey Pitr Gan! grant a fraction of your famous assets to us (your sons-descendants) along with capability to make proper use of it. 
ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासो ऽनूहिरे सोमपीथं वसिष्ठाः। 
तेभिर्यमः संरराणो हवींष्युशन्नुशद्धिः प्रतिकाममत्तु॥
(यम के सोमपान के बाद) सोमपान के योग्य हमारे वसिष्ठ कुल के सोमपायी पितर यहाँ उपस्थित हो गये हैं। वे हमें उपकृत करने के लिये सहमत होकर और स्वयं उत्कण्ठित होकर यह राजा यम हमारे द्वारा समर्पित हवि को अपने इच्छानुसार ग्रहण करें।[ऋग्वेद 10.15.8] 
Having consumed Somras, our Pitres from the Vashishth clan have gathered here. Willing to oblige us, Dharm-Yam Raj should accept the offerings made us as per their will.  
ये तातूषुर्देवत्रा जेहमाना होत्राविदः स्तोमतष्टासो अर्कै:। 
आग्नेयाहि सुविदत्रेभिर्वाङ् सत्यैः कव्यैः पितृभिर्घर्मसद्धिः॥
अनेक प्रकार  के हवि द्रव्यों के ज्ञानी अर्को से, स्तोमों की सहायता से जिन्हें निर्माण किया है, ऐसे उत्तम ज्ञानी, विश्वासपात्र घर्म नामक हवि के पास बैठने वाले कव्य नामक हमारे पितर देव लोक में साँस लगने की अवस्था तक प्यास से व्याकुल हो गये हैं। उनको साथ लेकर हे अग्निदेव! आप यहाँ उपस्थित होवें।[ऋग्वेद 10.15.9]
घर्म GHARM:: घास,  धूप, सूर्य ताप, एक प्रकार का यज्ञ पात्र, ग्रीष्म काल, स्वेद-पसीना; sweat, grass, sun light, heat of Sun, a kind of pot for Yagy, summers.
कव्य :: वह अन्न जो पितरों को दिया जाय, वह द्रव्य जिससे पिंड, पितृ यज्ञादि किए जायें; the food meant for offerings to the Manes, a ball of dough meant for performing Pitr Yagy.
स्तोम :: स्तुति, स्तव, यज्ञ, समूह-झुंड, राशि, ढेर, यज्ञ करने वाला व्यक्ति; prayers, one performing Yagy, Yagy, group-compilation.
Hey Agni Dev! Please bring our enlightened Manes known as Kavy, who are feeling thirsty, at the Yagy site, who are leaned in various kinds of Havi-offerings and the Yagy designs who sit with the Havi known as Kavy.
ये सत्यासो हविरदो हविष्या इन्द्रेण देवै: सरथं दधाना:। 
आग्ने याहि सहस्त्रं देववन्दैः परै: पूर्वैः पितृभिर्घर्मसद्धिः॥
कभी न बिछुड़ने वाले, ठोस हवि का भक्षण करने वाले, इन्द्र और अन्य देवों  के साथ एक ही रथ में प्रयाण करने वाले, देवों की वन्दना करने वाले घर्म नामक हवि के पास बैठने वाले जो हमारे पूर्वज पितर हैं, उन्हें सहस्त्रों की संख्या में लेकर हे अग्निदेव! यहाँ पधारें।[ऋग्वेद 10.15.10]
Hey Agni Dev! Please come with our Manes in thousands, who never separate from us, eats solid Havi-offerings, moves-travels along with the demigods-deities and Indr Dev in the same charoite, who pray to the demigods-deities and sit with the Havi called Gharm. 
अग्निष्वात्ता: पितर एह गच्छत सदः सदः सदत सुप्रणीतयः॥ 
अत्ता हवींषि प्रयतानि बहिर्ष्यथा रयिं सर्ववीरं दधातन॥
अग्नि के द्वारा पवित्र किये गये हे उत्तम पथ प्रदर्शक पितर! यहाँ आइये और अपने-अपने आसनों पर अधिष्ठित हो जाइये। कुशासन पर समर्पित हवि द्रव्यों का भक्षण करें और (अनुग्रह स्वरूप) पुत्रों से युक्त सम्पदा हमें समर्पित करा दें।[ऋग्वेद 10.15.11]
Hey excellent guides, purified by Agni Dev! Please come here and occupy your seats. Enjoy-eat the Havi offered to you, while sitting over the Kushasan and grant wealth-riches along with sons.   
त्वमग्न ईळितो जातवेदो ऽवाड्ड व्यानि सुरभीणि कृत्वी। 
प्रादाः पितृभ्यः स्वधया ते अक्षन्नद्धि त्वं देव प्रयता हवींषि॥
हे ज्ञानी अग्निदेव! हमारी प्रार्थना पर आप इस हवि को मधुर बनाकर पितरों के पास ले गये, उन्हें पितरों को समर्पित किया और पितरों ने भी अपनी इच्छा के अनुसार उस हवि का भक्षण किया। हे अग्निदेव! (अब हमारे द्वारा) समर्पित हवि  आप ग्रहण करें।[ऋग्वेद 10.15.12]
Hey enlightened Agni Dev! you took this Havi, making it sweet, offered it to our Manes and they consumed to it, as per their wish. Hey Agni Dev! Now, please you accept the Havi-offerings.    
ये चेह पितरो ये च नेह याँश्च विद्म याँ उ च न प्रविद्य।  
त्वं वेत्थ यति ते जातवेदः स्वधाभिर्यज्ञं सुकृतं जुषस्व॥
जो हमारे पितर यहाँ (आ गये) हैं और जो यहाँ नहीं आये हैं, जिन्हें हम जानते हैं और जिन्हें हम अच्छी प्रकार जानते भी नहीं; उन सभी को, जितने (और जैसे) हैं, उन सभी को हे अग्निदेव! आप भली-भाँति पहचानते हैं। उन सभी की इच्छा के अनुसार अच्छी प्रकार तैयार किये गये इस हवि को (उन सभी के लिये) प्रसन्नता के साथ स्वीकार करें।[ऋग्वेद 10.15.13] 
Hey Agni Dev! You recognise our all those Manes who have gathered here and those who are not present here, we either know them or may not know them, but Hey Agni Dev! you know-recognise all of them. Please accept this Havi for their happiness-pleasure prepared as per their taste.  
ये अग्निदग्धा मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते।
तेभिः स्वराळसुनीतिमेतां यथावशं तन्वं कल्पयस्व॥
हमारे जिन पितरों को अग्नि ने पावन किया है और जो अग्नि द्वारा भस्मसात् किये बिना ही स्वयं पितृ भूत हैं तथा जो अपनी इच्छा के अनुसार स्वर्ग के मध्य में आनन्द से निवास करते हैं। उन सभी की अनुमति से, हे स्वराट् अग्रे! (पितृलोक में इस नूतन मृत जीव के) प्राण धारण करने योग्य (उसके) इस शरीर को उसकी इच्छा के अनुसार ही बना दो और उसे दे दो।[ऋग्वेद 10.15.14]
स्वराट् :: ब्रह्मा, ईश्वर, एक प्रकार का वैदिक छंद, वह वैदिक छंद जिसके सब पादों में मिलकर नियमित वर्णों में दो वर्ण कम हों, सूर्य की सात किरणों में से एक का नाम (को कहते हैं), विष्णु का एक नाम, शुक्र नीति के अनुसार वह राजा जिसका वार्षिक राजस्व 5० लाख से 1 करोड़ कर्ष तक हो, वह राजा जो किसी ऐसे राज्य का स्वामी हो, जिसमें स्वराज्य शासन प्रणाली प्रचलित हो, जो स्वयं प्रकाशमान हो और दूसरों को प्रकाशित करता हो, जो सर्वत्र व्याप्त, अविनाशी (स्वराट्), स्वयं-प्रकाश रूप और (कालाग्नि) प्रलय में सब का काल और काल का भी काल है, परमेश्वर-कालाग्नि है; Brahma Ji, Almighty, self lighting, possessing aura.
Our Pitr Gan-Manes, who have been purified by the Agni, those who themselves are like Agni-fire even without being burnt by fire, who lives in heavens with our their own will, Hey shinning Agni Dev! please make their bodies in new incarnation-rebirth as per their desire-wish, with their permission. 
पितृ कवचः :: 
कृणुष्व पाजः प्रसितिम् न पृथ्वीम् याही राजेव अमवान् इभेन।
तृष्वीम् अनु प्रसितिम् द्रूणानो अस्ता असि विध्य रक्षसः तपिष्ठैः॥1॥ 
तव भ्रमासऽ आशुया पतन्त्यनु स्पृश धृषता शोशुचानः।
तपूंष्यग्ने जुह्वा पतंगान् सन्दितो विसृज विष्व-गुल्काः॥2॥
प्रति स्पशो विसृज तूर्णितमो भवा पायु-र्विशोऽ अस्या अदब्धः।
यो ना दूरेऽ अघशंसो योऽ अन्त्यग्ने माकिष्टे व्यथिरा दधर्षीत्॥3॥
उदग्ने तिष्ठ प्रत्या-तनुष्व न्यमित्रान् ऽओषतात् तिग्महेते।
यो नोऽ अरातिम् समिधान चक्रे नीचा तं धक्ष्यत सं न शुष्कम्॥4॥
ऊर्ध्वो भव प्रति विध्याधि अस्मत् आविः कृणुष्व दैव्यान्यग्ने।
अव स्थिरा तनुहि यातु-जूनाम् जामिम् अजामिम् प्रमृणीहि शत्रून्॥5॥
अग्नेष्ट्वा तेजसा सादयामि॥
पितृ-सूक्तम् :: 
उदिताम् अवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः। 
असुम् यऽ ईयुर-वृका ॠतज्ञास्ते नो ऽवन्तु पितरो हवेषु॥1॥
अंगिरसो नः पितरो नवग्वा अथर्वनो भृगवः सोम्यासः।
तेषां वयम् सुमतो यज्ञियानाम् अपि भद्रे सौमनसे स्याम्॥2॥
ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासो ऽनूहिरे सोमपीथं वसिष्ठाः।
तेभिर यमः सरराणो हवीष्य उशन्न उशद्भिः प्रतिकामम् अत्तु॥3॥
त्वं सोम प्र चिकितो मनीषा त्वं रजिष्ठम् अनु नेषि पंथाम्।
तव प्रणीती पितरो न देवेषु रत्नम् अभजन्त धीराः॥4॥
त्वया हि नः पितरः सोम पूर्वे कर्माणि चक्रुः पवमान धीराः।
वन्वन् अवातः परिधीन् ऽरपोर्णु वीरेभिः अश्वैः मघवा भवा नः॥5॥
त्वं सोम पितृभिः संविदानो ऽनु द्यावा-पृथिवीऽ आ ततन्थ।
तस्मै तऽ इन्दो हविषा विधेम वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥6॥
बर्हिषदः पितरः ऊत्य-र्वागिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम्।
तऽ आगत अवसा शन्तमे नाथा नः शंयोर ऽरपो दधात॥7॥
आहं पितृन्त् सुविदत्रान् ऽअवित्सि नपातं च विक्रमणं च विष्णोः।
बर्हिषदो ये स्वधया सुतस्य भजन्त पित्वः तऽ इहागमिष्ठाः॥8॥
उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु।
तऽ आ गमन्तु तऽ इह श्रुवन्तु अधि ब्रुवन्तु ते ऽवन्तु-अस्मान्॥9॥
आ यन्तु नः पितरः सोम्यासो ऽग्निष्वात्ताः पथिभि-र्देवयानैः।
अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तो ऽधि ब्रुवन्तु ते ऽवन्तु-अस्मान्॥10॥
अग्निष्वात्ताः पितर एह गच्छत सदःसदः सदत सु-प्रणीतयः।
अत्ता हवींषि प्रयतानि बर्हिष्य-था रयिम् सर्व-वीरं दधातन॥11॥
येऽ अग्निष्वात्ता येऽ अनग्निष्वात्ता मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते।
तेभ्यः स्वराड-सुनीतिम् एताम् यथा-वशं तन्वं कल्पयाति॥12॥
अग्निष्वात्तान् ॠतुमतो हवामहे नाराशं-से सोमपीथं यऽ आशुः।
ते नो विप्रासः सुहवा भवन्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥13॥
आच्या जानु दक्षिणतो निषद्य इमम् यज्ञम् अभि गृणीत विश्वे।
मा हिंसिष्ट पितरः केन चिन्नो यद्व आगः पुरूषता कराम॥14॥
आसीनासोऽ अरूणीनाम् उपस्थे रयिम् धत्त दाशुषे मर्त्याय।
पुत्रेभ्यः पितरः तस्य वस्वः प्रयच्छत तऽ इह ऊर्जम् दधात॥15॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॐ॥
तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु सूक्त  ::
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति दूरंगमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु।
दूर जाता जागरण में जो बहुत और उतना ही चला करता जब सब सुप्त रहते
ज्योतियों में ज्योति जो है एक वही मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी हो।
दैवी शक्ति से सम्पन्न जो मन जाग्रत अवस्था में दूर तक जाता है, जो सोते समय भी उसी तरह जागता है, वह ज्योतियों की ज्योति दूरंगम मेरा मन शिव-संकल्पों से युक्त हो।[यजुर्वेद  34.1.1]
येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः सदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु।
कर्म में होते निरत जिससे मनीषी व्रती का संकल्प पूरा कराता जो यज्ञ में बन शक्ति अद्भुद् जो प्रतिष्ठित वही मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी हो।
जिसके द्वारा मनीषी जन यज्ञीय विधानों में कर्म करते हैं, सब प्रजाओं के भीतर जो अपूर्व शक्ति है, वही मेरा मन शिव संकल्पों से युक्त हो।[यजुर्वेद  34.1.2] 
यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु यस्मान्न ऋते किं चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु।
ज्ञानमय, विज्ञानमय, धृतिशील सब प्राणियों में जो रहा करता है, तेज बनकर नहीं किंचित् कर्म होता बिना जिसके वही मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी हो।
प्रज्ञान, चेतना और धृति जिसके रूप है, प्रजाओं के भीतर जो अमृत ज्योति है, वही मेरा मन शिव संकल्पों से युक्त हो।[यजुर्वेद  34.1.3]
येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत् परिगृहीतममृतेन सर्वम्ये न यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु।
भूत, भावी, सतत वह जो अमृतवत् सबकुछ संजोता हविर्दाता सात रूपों में जगत विस्तार करता वही मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी हो।
जिस अमृतज्योति के भीतर भूत, भविष्य और वर्तमान सब परिगृतीत रहता है, जिसके द्वारा सप्तहोता यज्ञ का विधान होता है, वही मेरा मन शिव-संकल्पों से युक्त हो।[यजुर्वेद  34.1.4]
यस्मिन्नृचः साम यजूंषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः यस्मिश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु।
अरे जैसे चक्र में रथ के हुआ करते साम, ऋक्,यजु में प्रतिष्ठित वह प्राणियों के चित्त ओत प्रोत जिससे वही मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी हो।
ऋक, साम और यजु जिसमें इस तरह पिरोये हुए हैं जैसे रथ के पहिये की पुट्ठी में अरे लगे रहते हैं, जिसमें प्रजाओं के समस्त संकल्प है, वही मेरा मन शिव संकल्पों से युक्त हो।[यजुर्वेद  34.1.5]
सुसारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु।
सारथी रथ की कुशल वल्गा लिए नियंत्रित गतिशील कर ज्यों अश्वदल अथक् द्रुत जो प्रणियों के हृदय स्थित वही मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी हो ।
उत्तम सारथि जैसे लगा के द्वारा घोड़ों को नियन्त्रित करता है, जैसे ही जो मनुष्यों को बारम्बार ले जाता रहता है, जो हृदय अर्थात हमारे व्यक्तित्व केन्द्र बिन्दु पर प्रतिष्ठित है, जो अज़र और वेगशील है, यह मेरा मन शिव संकल्पों से युक्त हो।[यजुर्वेद 34.1.6]
अघमर्षण सूक्त ::
त्र्यहं तूपवसेद्युक्तस्त्रिरह्नोऽभ्युपयन्नपः।
मुच्यते पातकैः सर्वैस्त्रिर्जपित्वाऽघमर्षणम्
तीन दिन उपवास कर संयत चित्त होकर प्रतिदिन तीन बार (प्रातः, मध्यान्ह, सायंकाल) स्नान करते समय पानी में "ऋतं च सत्यं  च" इस अघमर्षण सूक्त का तीन बार जप करे तो सभी पापों का नाश हो सकता है।[मनुस्मृति 11.259]  
One is relieved of all sins if he recites "Ritan Ch Satyan Ch" Aghmarshan Sukt thrice, while bathing in the morning, midday-noon and the evening, staying in water, observing fast with balanced headedness (exercising control over the brain).
यथाऽश्वमेधः क्रतुराट् सर्वपापापनोदनः।
तथाऽघमर्षणं सूक्तं सर्वपापापनोदनम्
जिस प्रकार सभी प्रकार के पापों के नाशार्थ यज्ञों का राजा अश्वमेध यज्ञ है, उसी प्रकार सभी पापों का नाश करने वाला यह अघमर्षण सूक्त है।[मनुस्मृति 11.260] 
The way the Ashwmedh Yagy is greatest of all Yagy, Aghmarshan Sukt too is capable of destroying all sins.
अघमर्षण सूक्त ::
संकल्प :: जल में तीर्थावाहन, मृत्तिका प्रार्थना, मृत्तिका द्वारा अङ्ग लेपन ‘ॐ आपो हिष्ठा मयो भुवः’ इत्यादि मन्त्रों से जल द्वारा शिरः प्रोक्षण, तदनन्तर सूर्याभिमुख नाभि मात्र जल में स्नान, पुनः ‘ॐ चित्पतिर्मा पुनातु’ इत्यादि मन्त्रों से शरीर का पवित्रीकरण करने के पश्चात् अघमर्षण सूक्त का जप करना चाहिये।
अघमर्षण का विनियोग ::  
ॐ अघमर्षणसूक्तस्य अघमर्षणऋषिनुष्टुप्छन्दः भाववृतो देवता अघमर्षणे विनियोगः।
अघमर्षण सूक्त ::
ॐ ऋतं च सत्य्म चाभीद्धात्तपसोध्यजायत ततो रात्र्यजायत, ततः समुद्रो अर्णवः समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत, अहोरात्राणि विद्वधद्विश्वस्थ मिषतो वशी सूर्याच्चन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् दिवञ्ज पृथिवीञ्चान्तरिक्षमथो स्वः॥
अघमर्षण सूक्त के बाद मन्त्र स्नान करके प्राणायाम करें फिर मूल मन्त्र से षडङ्गन्यास करें।


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 संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)