Friday, October 24, 2014

SATURN WORSHIP शनि देव आराधना :: SUN (2) सूर्य

SATURN WORSHIP 
शनि देव आराधना
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
नमः कृष्णाय नीलाय शीतिकण्ठनिभाय च।
नमः कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नमः॥ 
नमो निर्मांसदेहाय  दीर्घश्मश्रुजटाय च।
नमो विशालनेत्राय शुष्कोदरभयाकृते॥ 
नमः पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णे च वै पुनः।
नमो दीर्घाय शुष्काय कालदंष्ट्र नमोSस्तु ते॥ 
नमस्ते कोटराक्षाय दुर्निरीक्ष्याय वै नमः।
नमो घोराय रौद्राय भीषणाय करालिने॥
नमस्ते सर्वभक्षायबलीमुख नमोSस्तु ते।
 सूर्यपुत्र नमस्तेSस्तु भास्करेSभयदाय च॥
अधोदृष्टे नमस्तेSस्तु  संवर्तक नमोSस्तु ते। 
नमो मन्दगते तुभ्यं निस्त्रिंशाय नमोSस्तु ते॥
तपसा दग्धदेहाय नित्यं योगरताय च। 
नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नमः॥
ज्ञान चक्षुर्नमस्तेSस्तु कश्यपात्मजसूनवे। 
तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्ष्णात्॥ 
देवासुर मनुष्याश्च सिद्धविद्याधरोरगा:। 
त्वया विलोकिताः सर्वे नाशं यान्ति समूलतः।
 प्रसादं कुरु मे देव वरार्होSहमुपागतः॥     
शनि गायत्री मन्त्र :: ॐ सूर्यपुत्राय विद्महे मृत्युरूपाय धीमहि तन्न सौरि प्रचोदयात।
शनि पुराणिक मन्त्र :: ॐ प्रां प्रीं प्रों स: शनये नम:। 
सूर्य वंशी भगवान राम के पिता राजा दशरथ की कथा: ज्योतिषियों ने यह निश्चयकर कि शनिदेव रोहिणी का भेदन करके आगे बढ़ेंगे, जिससे उग्र शाकटभेद नामक योग बनेगा, जो कि मनुष्यों, देवताओं और राक्षसों तक के लिए भारी होगा और पृथिवी पर 12 वर्षों के लिए दुर्भिक्ष फैलेगा, रघुवंशी राजा दशरथ जो कि सातौं द्वीपों के स्वामी, चक्रवर्ती सम्राट और महान वीर थे, को आगाह किया। राजा ने अपने मंत्रियों व गुरु वशिष्ठ से विचार विमर्श किया तथा दिव्यास्त्रों सहित धनुष लेकर रथ पर आरूढ़ होकर नक्षत्र मण्डल में गये।  

रोहिनी पृष्ठ सूर्य से सवा लाख योजन ऊपर है। राजा दशरथ ने धनुष को कान तक खींचकर उस पर संहारास्त्र का संधान किया, जो कि देवताओं और असुरों तक पर भारी था। शनिदेव ने राजा की जन सहायता की भावना को समझकर कुछ भय दिखाते हुए, हँसकर कहा "राजन आपका महान पुरुषार्थ शत्रु को भय पहुँचाने वाला है तथापि आप अपनी सदभावना के कारण, मेरी द्रष्टि में आकर भी बच गये, जबकि, देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर और नाग कोई भी हो, तुरन्त भस्म हो जाता है। मैं आपके तेज और पौरुष से संतुष्ट हूँ। आप जो भी वर माँगोगे, मैं तुरंत दुंगा।"
राजा  दशरथ  ने कहा कि जब तक सूर्य, चन्द्रमा सहित धरती कायम है, नदियाँ, समुद्र हैं, आप रोहिणी का भेदन न करें और कभी भी 12 वर्षों तक दुर्भिक्ष न पड़े।शनैषवर ने एवमस्तु कहा। तो पृथ्वीपति महाराज दशरथ ने दोनों हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करी।
दशरथ उवाच:
अथ शनिस्तोत्रम्: अस्य श्रीशनैश्चरस्तोत्रस्य दशरथ ऋषि: शनैश्चरो देवत त्रिष्टुपछंद: शनैश्चरप्रीत्यर्थे जपे विनियोग:।
कोणाऽन्तको रौद्रयमोऽथ बभ्रु: कृष्ण: शनि: पिंगलमंद सौरि:;
नित्यं स्मृतो यो हरते च पीडां तस्मै नम: श्रीरविनंदनाय।
सुरासुर: किंपुरूषा गणेंद्रा गन्धर्वविद्याधरपन्नगाश्च;
पीड्यंति सर्वे विषमस्थितेन तस्मै नाम: श्रीरविनंदनाय॥
नरा नरेंद्रा: पशवो मृगेंद्रा वन्याश्च ये कीटपतंगभृंगा;
पीड्यंति सर्वे विषमस्थितेन तस्मै नम: श्रीरविनंदनाय। 
देशाश्च दुर्गाणि वनानि यत्र सेनानिवेशा: पुरपत्तनाति;
पीड्यंति सर्वे विषमस्थितेन तस्मै नम: श्रीरविनंदनाय॥
तिलैर्यवैर्माषगुडन्नदानैर्लोहेन नीलांबरदानतो वा;
प्रीणाति मंत्रैर्निजवासरे च तस्मै नम: श्रीरविनंदनाय। 
प्रयाकूले यमुनातटे च सरस्वती पुण्यजले गुहायाम्‌;
यो योगिनां ध्यानगतोऽपि सूक्ष्मस्तस्मै नम: श्रीरविनंदनाय॥
अन्यप्रदेशात्स्वगृहं प्रविष्टस्तदीयवारे स नर: सूखी स्यात्‌;
गृहाद्‌ गतो यो न पुन: प्रयाति तस्मै नम: श्रीरविनंदनाय नम:। 
स्रष्टा स्यंभूर्भुवनतरस्य त्राता हरि: संहरते पिनाकी;
एकस्त्रिधा ऋग्यजु:साममूर्तितस्मै नम: श्रीरविनंदनाय नम:॥
शन्यष्टकं य: प्रयत: प्रभाते नित्यं सुपुत्रै: पशुबांधवैश्च;
पठेच्च सौख्यं भुवि भोगयुक्तं प्राप्नोति निर्वाणपदं परं स:। 
कोणस्थ: पिंगलो बभ्र: कृष्णा रौद्राऽन्तको यम:;
 सौरि:शनेश्चरो मंद: पिप्पलादेन संस्तुत:॥
एतानि दश नामानि प्रातरुत्थाप य: पठेत्;
शनैश्चरकृता पीडा न कदाचिद्‍भविष्यति। 
इति श्रीदशरथप्रोक्तं शनैश्चरस्तोत्रं संपूर्णम्॥
जिनके शरीर का रंग कृष्ण नील तथा भगवान शंकर के समान है, उन शनि देव को नमस्कार है। 
जो जगत के लिए कालाग्नि एवं कृतांत रूप हैं, उन शनैश्वर को बारम्बार नमस्कार है।
जिनका शरीर कंकाल है और जिनकी दाढ़ी मूंछ और जटा बढ़ी हुई है, उन शनि देव को प्रणाम है। 
जिनके बड़े-बड़े नेत्र, पीठ में सटा पेट और भयानक आकार है, उन  शनैश्वर देव को नमस्कार है।
जिनके शरीर का ढांचा फैला हुआ है, जिनके रोएँ बहुत मोटे हैं, जो लम्बे चौड़े किन्तु सूखे शरीर वाले हैं तथा जिनकी दाढें कालरूप हैं, उन शनि देव  को बारंबार प्रणाम है।
शने! आपके नेत्र खोखले के सामान गहरे हैं, और आपकी ओर देखना भी कठिन है, आप घोर, रौद्र,  भीषण और विकराल हैं, आपको नमस्कार है। 
Photoबलीमुख! आप सब कुछ भक्षण करने वाले हैं, आपको नमस्कार है।
सूर्यनन्दन! भास्करपुत्र! अभय देने वाले आपको प्रणाम है। 
नीचे की ओर दृष्टि रखने वाले शनि देव! आपको नमस्कार है। 
संवर्तक! आपको प्रणाम है। 
मंदगति से चलने वाले शनैश्वर! आपका प्रतीक तलवार के समान है, आपको पुनः-पुनः प्रणाम है।
हे शनि देव! आपने तपस्या से अपने देह को दग्ध कर दिया; आप सदा योगभ्यास में तत्पर,  भूख से आतुर और अतृप्त रहते हैं।  आपको सदा-सर्वदा नमस्कार है।
ज्ञान नेत्र ! आपको प्रणाम है। 
कश्यप नन्दन सूर्य के पुत्र शनिदेव ! आपको शत-शत नमस्कार है। 
आप संतुष्ट होकर राज्य दे देते हैं और रुष्ट होने पर उसे तत्क्षण हर लेते हैं। देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर और नाग- ये सब आपकी दृष्टि पड़ने पर समूल नष्ट हो जाते हैं।
देव मुझ पर प्रसन्न होइये। मैं वर पाने के योग्य  हूँ और आपकी शरण में आया हूँ। 
शनिदेव ने स्तुति से संतुष्ट होकर, पुनः वर मांगने को कहा। 
सूर्यनन्दन! आपसे देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी तथा नाग-किसी को भी पीड़ा न हो, दशरथ ने आग्रह किया । 
शनि देव ने कहा देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, चारण, विद्याधर तथा राक्षस-इनमें से किसी के भी जन्म-मृत्यु अथवा चतुर्थ स्थान में रहने पर वे उसे मृत्यु कष्ट दे सकते हैं, परन्तु जो भी व्यक्ति इस स्त्रोत्र के द्वारा श्रद्धा पूर्वक पवित्र और एकाग्र चित्त होकर उनकी लोहमयी सुन्दर प्रतिमा का शमी पत्रों से पूजन करके, तिल मिश्रित उड़द-भात, लोहा, काली गौ या वृषभ, ब्राह्मण को दान करेगा और विशेषतः शनिवार को उनकी पूजा करेगा, उसे वो कभी कष्ट नहीं देंगे। गोचर, जन्म लग्न, दशाओं और अन्तर्दशाओं में पीड़ा का निवारण करते हुए सदा उसकी रक्षा करेंगे।  इसी विधान से सारा संसार पीड़ा मुक्त हो सकता है। 
राजा दशरथ ने अपने को कृतार्थ मानते हुए श्रद्धा पूर्वक प्रणाम किया और अयोध्या वापस चले गये। 
जो भी मनुष्य प्रातः उठकर इस स्त्रोत्र का पाठ करता है अथवा सुनता है, वो पाप मुक्त होकर स्वॉगलोक में स्थान पाता है। 
शनि देव को प्रसन्न और सन्तुष्ट करने हेतु वैदिक और लौकिक उपाय: शनि देव प्रसन्न होने पर भक्त की मनोकामना पूरी करने के साथ मार्ग के अवरोध भी दूर करते हैं। 
शनि देव के हेतु दान किसी वृद्ध मनुष्य को देना चाहिये। काला जूता, नीलम, सुवर्ण, लोहा, साबुत काले माह, कुलथी, सरसों का तेल, काले-तिल, काले तिलों का तेल, काले-वस्त्र, कस्तूरी, काली भैंस, काले-फूल, नवंग-लौंग, टोपीदार काले तिल के तेल के दिया जलाना, गंगा जल तथा कुछ दूध डालकर पश्चिम की तरफ मुँह करके पीपल की जड़ में अर्ध्य देना शुभ होता है। 
उड़द के बने आटे की वस्तुयें, पंजीरी, सरसों के तेल में पकाई खाद्य पदार्थ काले कुते को  खिलाने चाहिये। घर का पालतू कुता बाहर जाकर गंदगी न खाता हो, इस बात की सावधानी बरतनी चाहिये। 

किसी का पहना हुआ जूता और काला कपड़ा भूल कर भी नहीं पहनना चाहिये। 
शनिवार के दिन पति-पत्नी और अन्य स्त्री संग नहीं करना चाहिये। शनिवार के दिन गीला वस्त्र नहीं पहनना चाहिये और ना ही स्त्री को पुरुष संग करना चाहिये।
शनिवार के दिन सरसों का तेल मालिश करके स्नान करना चाहिये। सिर में भी सरसों का तेल लगाना चाहिये। 
काले कम्बल दान देना शुभ होता है। 
लोहे का छल्ला बायें हाथ की बड़ी अँगुली-मध्यमा में धारण करना चाहिये। सूखा, जटा-पानी वाला नारियल अपने कद के बराबर काले धागे या से लपेट कर, तेल और काले तिलों का तिलक-टीका लगाकर, अपने सिर के ऊपर पर से चार बार घुमाकर कर बहते हुए पानी में प्रवाहित कर देना चाहिये। 
जिस घर का द्वार पश्चिम दिशा की तरफ हो और अशुभ हो; उस घर के मुख्य द्वार के पास एक फुट का गड्डा खोद कर उसमें काले सुरमें की एक छड़ लेकर दबाना शनि की प्रसंता के लिये शुभ होता है। 
शनि देव का वास्तु दोष घर या उद्योग में हो तो बहुत अशुभ मना गया है। घर, दुकान और फैक्ट्री के बाहर गेट पर घोड़े की नाल लगा दें। 
शनि देव स्थूल भाव से चलन, वलन और आकुंचन से प्रभाव डालते हैं। शून्य भाव के अनुसार व्यान, समान, उड़ान, अपान और प्राण वायु को भी प्रभावित करते हैं। 
शनि देव की प्रसन्नता हेतु सप्तधान्य यथा मूंग, उड़द, गेहूं, काले-चने, जौ, धान्य-तंदुल-कंगनी; अष्टगंध धूप-अगर, छरीला, जटामासी, कर्पूर-कचरी, गुग्गल, देव दारू, गोघृत, सफ़ेद चन्दन का दान करते रहना चाहिये। 
अष्टगंध: अगर, कस्तूरी, कुकुम, कर्पूर, चन्दन, टोपीदार लौंग, देवदारु। 
शनि देव के लिये शनिश्चरी अमावस्या के दिन काले-तिल के तेल से 9 दीपक (1) मंदिर में, (2) तुलसी के नीचे, (3) घर की देहली, (4) पीपल के पेड़ के नीचे, (5) पानी का स्थान, (6) हनुमान मंदिर, (7) चौराहा, (8) घर की बाहरी दीवार और (9) घर की छत पर जलाने चाहिये।दीपक में तेल घर केवल एक आदमी को भरना चाहिये।
अपने शरीर का वजन करके उसके तीन भाग काले तिल और चतुर्थ भाग शर्करा शनि के मदिर में जाकर दान देना चाहिये। 
साढ़े सती के समय और गोचर शनि राशि परिवर्तन के समय शक्कर और तिल सहित 30 मोदक देने पर शनि देव बहुत प्रसन्न होते हैं। शनि देव की जब तक दशा चलती रहे तब तक शनि को 30 मोदक का भोग लगाना या दान देना शुभ होता है। शनि देव को नारियल और पेठे की बलि देनी चाहिये।
शनि देव के उलटे लटकने की कथा ::  
शनि देव, ग्रह व देवता दोनों रूप में पूजे जाते हैं। शनि देव व्यक्ति को उसके अच्छे व बुरे कर्मो का फल प्रदान करते हैं। इसी कारण इन्हें कर्म दंडाधिकारी का पद प्राप्त है। यह पद उन्हें भगवान् शिव से प्राप्त हुआ। शनि कर्म प्रधान ग्रह है, जिसका पुराणों ने साकार दार्शनिक चित्रण किया है। शनि के अधिदेवता ब्रह्मा व प्रत्यधिदेवता यम हैं। कृष्ण वर्ण शनि का वाहन गिद्ध है व यह लोह रथ की सवारी करते हैं। शनि ने अपनी दृष्टि से पिता सूर्य को कुष्ठ रोग दे दिया था। जिन पर इनकी कदृष्टि पड़ती है, वो राजा से रंक बन जाता है। देवी-देवता तक इनसे प्रकोप से डरते हैं।
भगवान् सूर्य नारायण ने अपने सभी पुत्रों की योग्यतानुसार  विभिन्न लोकों का अधिपत्य प्रदान किया, परन्तु असंतुष्ट शनि देव ने उद्दंडता वश पिता की आज्ञा की अवेलना करते हुए दूसरे लोकों पर कब्जा कर लिया। सूर्य देव  की प्रार्थना पर भगवान् शिव ने अपने गणों को शनि से युद्ध करने भेजा जिन्हें शनि देव ने परास्त कर दिया। इसके बाद भोलेनाथ व शनिदेव में भयंकर युद्ध हुआ। शनिदेव ने भोलेनाथ पर मारक दॄष्टि डाली तो उन्होंने तीसरा नेत्र खोलकर शनि व उनके सभी लोक का दमन कर शनि पर त्रिशुल का प्रहार कर दिया और शनि देव को पराजित किया।
इसके बाद शनि को सबक देने के लिए महादेव ने उन्हे पीपल के पेड़ से 19 वर्षों तक उल्टा लटका दिया। इन्हीं 19 वर्षों तक शनि शिव उपासना में लीन रहे। इसी कारण शनि की महादश 19 वर्ष की होती है। पुत्रमोह से ग्रस्त भगवान् सूर्य ने महेश्वर से शनि का जीवदान माँगा। तब महेश्वर ने प्रसन्न होकर शनि को मुक्त कर उन्हें अपना शिष्य बनाकर संसार का दंडाधिकारी नियुक्त किया।
न्याय देवता शनि सदा,सच की रखते लाज।
यही गिराते हैं सदा, झूठे जन पर गाज
शश्नैश्वर व्रत कथा :: एक समय में स्वर्गलोक में इस प्रश्न पर वाद-विवाद हो गया कि नौ ग्रहों में बड़ा कौन है ?इस पर विचार और निर्णय हेतु वे सभी  देवता देवराज इन्द्र के पास पहुंचे और उनसे कहा कि वे निर्णय करें कि उनमें सबसे बड़ा कौन है। उनका प्रश्न सुन इन्द्र उलझन में पड़ गए। उन्होंने सभी को पृथ्वीलोक में राजा विक्रमादित्य के पास चलने का सुझाव दिया।
सभी ग्रह भू-लोक राजा विक्रमादित्य के दरबार में पहुंचे। जब ग्रहों ने अपना प्रश्न राजा विक्रमादित्य से पूछा तो वह भी कुछ देर के लिए परेशान हो उठे, क्योंकि सभी ग्रह अपनी-अपनी शक्तियों के कारण महान थे। किसी को भी छोटा या बड़ा कह देने से उनके क्रोध के प्रकोप से भयंकर हानि पहुंच सकती थी।
अचानक राजा विक्रमादित्य को एक उपाय सूझा और उन्होंने विभिन्न धातुओं जैसे सोना, चांदी, कांसा, तांबा, सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक व लोहे के नौ आसन बनवाएं। सबसे आगे सोना और सबसे पीछे लोहे का आसन रखा गया। उन्होंने सभी देवताओं को अपने-अपने आसन पर बैठने को कहा। उन्होंने कहा-जो जिसका आसन हो उसे ही ग्रहण करें। जिसका आसन पहले होगा वह सबसे बड़ा तथा जिसका बाद में होगा वह सबसे छोटा होगा।
चूंकि लोहे का आसन सबसे पीछे था इसलिए शनिदेव समझ गए कि राजा ने मुझे सबसे छोटा बना दिया है। इस निर्णय से शनि देव रुष्ट होकर बोले कि राजा ने  सबसे पीछे बैठाकर उनका अपमान किया है। उन्होंने चेतावनी दी कि वे शनि देव की शक्तियों से परिचित नहीं हैं अन्यथा ऐसा निर्णय नहीं करते। सूर्य एक राशि पर एक महीने, चन्द्रमा दो महीने दो दिन, मंगल डेढ़ महीने, बुध और शुक्र एक महीने, बृहस्पति तेरह महीने रहते हैं, लेकिन शनि किसी भी राशि पर ढ़ाई वर्ष से लेकर साढ़े सात वर्ष तक बने रहता हैं। बड़े-बड़े देवताओं को उन्होंने अपने प्रकोप से पीड़ित किया है और अब राजा विक्रमदित्य की बारी है।
इस पर राजा विक्रमादित्य बोले कि जो कुछ भाग्य में होगा वो तो भुगतना है पड़ेगा। 
इसके बाद अन्य ग्रहों के देवता तो प्रसन्नता के साथ चले गए, परन्तु शनिदेव बड़े क्रोध के साथ वहाँ से विदा हुए। कुछ समय बाद जब राजा विक्रमादित्य पर साढ़े साती की दशा आई तो शनिदेव ने घोड़े के व्यापारी का रूप धारण किया और बहुत से घोड़ों के साथ विक्रमादित्य की नगर पहुंचे। राजा विक्रमादित्य उन घोड़ों को देखकर एक अच्छे-से घोड़े को अपनी सवारी के लिए चुनकर उस पर चढ़े। राजा जैसे ही उस घोड़े पर सवार हुए वह बिजली की गति से दौड़ पड़ा। तेजी से दौड़ता हुआ घोड़ा राजा को दूर एक जंगल में ले गया और फिर वहां राजा को गिराकर गायब हो गया। राजा अपने नगर लौटने के लिए जंगल में भटकने लगा पर उसे कोई रास्ता नहीं मिला। राजा को भूख प्यास लग आई। बहुत घूमने पर उन्हें एक चरवाहा मिला। राजा ने उससे पानी मांगा। पानी पीकर राजा ने उस चरवाहे को अपनी अंगूठी दे दी और उससे रास्ता पूछकर जंगल से निकलकर पास के नगर में चल दिए।
Photoनगर पहुँच कर राजा एक सेठ की दुकान पर बैठ गए। राजा के कुछ देर दुकान पर बैठने से सेठ की बहुत बिक्री हुई। सेठ ने राजा को भाग्यवान समझा और उसे अपने घर भोजन पर ले गया। सेठ के घर में सोने का एक हार खूंटी पर लटका हुआ था। राजा को उस कमरे में छोड़कर सेठ कुछ देर के लिए बाहर चला गया। तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी। राजा के देखते-देखते खूँटी सोने के उस हार को निगल गई। सेठ ने जब हार गायब देखा तो उसने चोरी का सन्देह राजा पर किया और अपने नौकरों से कहा कि इस परदेशी को रस्सियों से बाँधकर नगर के राजा के पास ले चलो। राजा ने विक्रमादित्य से हार के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि खूँटी ने हार को निगल लिया। इस पर राजा क्रोधित हुए और उन्होंने चोरी करने के अपराध में विक्रमादित्य के हाथ-पाँव काटने का आदेश दे दिया। सैनिकों ने राजा विक्रमादित्य के हाथ-पाँव काट कर उन्हें सड़क पर छोड़ दिया।
कुछ दिन बाद एक तेली उन्हें उठाकर अपने घर ले गया और उसे कोल्हू पर बैठा दिया। राजा आवाज देकर बैलों को हाँकते रहते। इस तरह तेली का बैल चलता रहा और राजा को भोजन मिलता रहा। शनि के प्रकोप की साढ़े साती पूरी होने पर वर्षा ऋतु प्रारम्भ हुई। एक रात विक्रमादित्य मेघ मल्हार गा रहे थे, तभी नगर की राजकुमारी मनभावनी रथ पर सवार उस घर के पास से गुजरी। उसने मल्हार सुना तो उसे अच्छा लगा और दासी को भेजकर गाने वाले को बुला लाने को कहा। दासी लौटकर राजकुमारी को अपंग राजा के बारे में सब कुछ बता दिया। राजकुमारी उसके मेघ मल्हार से बहुत मोहित हुई और सब कुछ जानते हुए भी उसने अपंग राजा से विवाह करने का निश्चय किया।
राजकुमारी ने अपने माता-पिता से जब यह बात कही तो वह हैरान रह गए। उन्होंने उसे बहुत समझाया पर राजकुमारी ने अपनी जिद नहीं छोड़ी और प्राण त्याग देने का निश्चय कर लिया। आखिरकार राजा-रानी को विवश होकर अपंग विक्रमादित्य से राजकुमारी का विवाह करना पड़ा। विवाह के बाद राजा विक्रमादित्य और राजकुमारी तेली के घर में रहने लगे। उसी रात स्वप्न में शनिदेव ने राजा से कहा-राजा तुमने मेरा प्रकोप देख लिया। मैंने तुम्हें अपने अपमान का दंड दिया है। राजा ने शनिदेव से क्षमा करने को कहा और प्रार्थना की कि शनि देव ने जितना उन्हें प्रताड़ित किया है, उतना किसी अन्य को ना करें। 
शनिदेव ने विक्रमादित्य की प्रार्थना स्वीकार की और कहा कि जो भी स्त्री-पुरुष उनकी पूजा करेगा, कथा सुनेगा, नित्य ही स्मरण करेगा, चींटियों को आटा खिलाएगा वह सभी प्रकार के कष्टों से मुक्त होता रहेगा तथा उसके सब मनोरथ पूर्ण होंगे। यह कहकर शनिदेव अंतर्ध्यान हो गए।
प्रातःकाल राजा विक्रमादित्य की नींद खुली तो अपने हाथ-पांव देखकर राजा को बहुत खुशी हुई। उन्होंने मन ही मन शनिदेव को प्रणाम किया। राजकुमारी भी राजा के हाथ-पांव सलामत देखकर आश्चर्य में डूब गई। तब राजा विक्रमादित्य ने अपना परिचय देते हुए शनिदेव के प्रकोप की सारी कहानी सुनाई।
इधर सेठ को जब इस बात का पता चला तो दौड़ता हुआ आया और राजा विक्रमादित्य के चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगा। राजा विक्रमादित्य ने उसे क्षमा कर दिया, क्योंकि वह जानते थे कि यह सब तो शनिदेव के प्रकोप के कारण हुआ था। सेठ राजा विक्रमादित्य को पुन: को अपने घर ले गया और उसे भोजन कराया। भोजन करते समय वहां एक आश्चर्य घटना घटी। सबके देखते-देखते उस खूंटी ने हार उगल दिया। सेठ ने अपनी बेटी का विवाह भी राजा के साथ कर दिया और बहुत से स्वर्ण आभूषण, धन आदि देकर राजा को विदा किया।
राजा विक्रमादित्य राजकुमारी मनभावनी और सेठ की बेटी के साथ अपने नगर वापस पहुंचे तो नगरवासियों ने हर्ष के साथ उनका स्वागत किया। अगले दिन राजा विक्रमादित्य ने पूरे राज्य में घोषणा कराई कि शनिदेव सब ग्रहों में सर्वश्रेष्ठ हैं। प्रत्येक स्त्री-पुरुष शनिवार को उनका व्रत करें और व्रत कथा अवश्य सुनें। राजा विक्रमादित्य की घोषणा से शनिदेव बहुत प्रसन्न हुए। शनिवार का व्रत करने और व्रत कथा सुनने से शनिदेव की अनुकंपा बनी रहती है और जातक के सभी दुख दूर होते हैं। 
SHANI SHINGNAPUR-TEMPLE
The presiding deity of Shingna Pur, Shaneshwar-Shani Dev-the personification of the planet Saturn is worshipped with utmost reverence and devotion by people from all over the world. Shani Shingna Pur is about 35 km from Ahmad Nagar city, 160 km northeast of Pune and 84 km from Aurangabad. 
It consists of a five and a half feet high black rock installed on an open-air platform, which symbolizes the Shani Dev. A Trishul (trident) is placed along the side of the image and a Nandi (bull, incarnation of Dharm) image is present on the south side. The front has small images of Bhagwan Shiv and Hanuman Ji Maharaj. 
Om Nilanjan Samabhasam, Raviputram Yamagrajam;
 Chhaya Martand Sambhutam, Tam Namami Shanaishwaram.
The statue of Shani Dev present here is swayambhu-one which presented itself for the benefit of devotees. This locality witnessed heavy rains around 350 years ago. This huge black slab came floating here and got stuck in the roots of a large berry tree. When the water drained out; shepherds-cattle grazers saw the rock. When they tried to recover it from the roots by prodding, blood started oozing from it. Shani Dev dreamt a pious villager and told him that he had decided to stay there in that form in Shingana Pur and that he could only be lifted out by those, who were uncle and nephew in relation and carried in a bullock cart with black bullocks. When the villagers tried to retrieve it, they could not carry it any further and so decided to install it, where it stood. The shepherds were instructed to install the rock in the open and offer prayers and Taelabhishek every Saturday, without fail, by the deity. The deity took the responsibility of protecting the devotees from dacoits or burglars or thieves. The locality does not have doors in its houses.

Pious days for offering prayers here are, Saturdays, Shani Trayodashi and Amavshya-no Moon night. Devotees here can perform puja, Abhishek, rituals by them selves. Shri Dattatray Temple and the tomb of Sant Shri Udasi Baba are also present nearby.


शनिदेव कश्यप गोत्रीय हैं तथा सौराष्ट्र उनका जन्मस्थल माना जाता है। शनैश्चर की शरीर-कान्ति इंद्रनीलमणि के समान है। इनके सिर पर स्वर्णमुकुट, गले में माला तथा शरीर पर नीले रंग के वस्त्र सुशोभित हैं। शनि गिद्ध पर सवार रहते हैं। ये हाथों में धनुष, बाण, त्रिशूल और वरमुद्रा धारण करते हैं।
सूर्यदेवता का ब्याह दक्ष कन्या संज्ञा के साथ हुआ था। संज्ञा के गर्भ से तीन संतानों का जन्म हुआ :- (1). वैवस्वत मनु, (2). यमराज और (3). यमुना। संज्ञा सूर्य देवता का अत्याधिक तेज सह नहीं पाती थीं। उन्होंने तपस्या करके अपने तेज को बढ़ाना या तपोबल से सूर्य की अग्नि को कम करने का विचार किया। उन्होंने वन में एकान्त में जाकर तप करने का निर्णय लिया। संज्ञा ने तपोबल से अपने ही जैसी दिखने वाली छाया को प्रकट किया। छाया-सुवर्णा को नारी धर्म के साथ अपने बच्चों की परवरिश करने को भी कहा तथा यह भेद प्रकट न करने को कहा और स्वयं तपस्या करने चली गईं। अपनी खुबसूरती तथा यौवन को लेकर उसे जंगल में डर था अत: उसने बडवा -घोडी का रूप बना लिया कि कोई उसे पहचान न सके और तप करने लगीं। छाया का भेद प्रकट होने पर सूर्य भगवान् उन्हें न पाकर चिन्तित हो गये। ढूँढ़ने पर वो उन्हें घोड़ी के रूप में भीषण, घनघोर वन-जंगल में, जो कि उत्तर कुरुक्षेत्र में था, में विचरण करती हुईं मिलीं। 
सूर्य और छाया के मिलन से तीन बच्चों (1). मनु, (2). शनिदेव तथा (3). पुत्री भद्रा-तपती। छाया के गर्भ से उत्पन्न होने के कारण  शनिदेव का रंग काला था। भेद प्रकट होने पर सूर्य भगवान् का प्रेम अपनी पत्नी छाया-सुवर्णा और उनकी सन्तान शनिदेव पर विशेष नहीं था। शनि देव की अपने पिता भगवान् सूर्य से स्वाभाविक शत्रुता है।
शनिदेव ने भगवान् शिव की आराधना तथा घोर तपस्या से अपनी देह को दग्ध कर लिया उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने नवग्रहों में  सर्वश्रेष्ठ स्थान प्रदान किया। उन्हें पृथ्वी लोक का न्यायाधीश व दंडाधिकारी बनाया। भगवान् शिव ने इन्हें यह भी वरदान दिया कि वे जिस किसी को भी क्रोधित होकर देखेंगे वो भस्म हो जायेगा। मानव, देवता, असुर, सिद्ध, विद्याधर और नाग भी उनसे भयभीत रहते हैं, परन्तु हनुमान जी महाराज पर इनका बस नहीं चलता। रावण ने इन्हें लँका में ले जाकर उल्टा लटका दिया था जहाँ से इन्हें हनुमान जी ने ही छुड़ाया था। दधीचि की पुत्र भगवान् शिव के अवतार पिप्पलपाद ने इन पर डंडे से प्रहार करके लंगड़ा किया था। पिप्पलपाद से शनि देव भयभीत रहते हैं। राजा दशरथ ने इनसे विनय करके प्रजारंजन लिए इनकी गति को नियंत्रित किया था। 
महर्षि कश्यप ने शनि स्तोत्र के एक मंत्र में सूर्य पुत्र शनि देव को महाबली और ग्रहों का राजा कहा है- सौरिग्रहराजो महाबलः। शनिदेव ने शिव भगवान की भक्ति व तपस्या से नवग्रहों में सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त किया है।सौर जगत के नौ ग्रहों में शनि का सातवाँ स्थान है। इसे फलित ज्योतिष में अशुभ माना जाता है। आधुनिक खगोल शास्त्र के अनुसार शनि की धरती से दूरी लगभग नौ करोड मील है।  इसका व्यास एक अरब बयालीस करोड साठ लाख किलोमीटर है तथा इसकी गुरुत्व शक्ति धरती से 95 गुना अधिक है।  शनि को सूर्य की परिक्रमा करने पर उन्नीस वर्ष लगते है। अंतरिक्ष में शनि सधन नील आभा से खूबसूरत, बलवान, प्रभावी, दृष्टिगोचर है, जिसे 22 उपग्रह हैं। 
शनि देव के 108  नाम :: शनैश्चर, शान्त, सर्वाभीष्टप्रदायिन्श, रण्य, वरेण्य, सर्वेश, सौम्य, सुरवन्द्य, सुरलोकविहारिण्-सुरह्स की दुनिया में भटकने वाले, सुखासनोपविष्ट-घात लगा के बैठने वाले, सुन्दर, घन, घनरूप, घनाभरणधारिण्-लोहे के आभूषण पहनने वाले, घनसारविलेप-कपूर के साथ अभिषेक करने वाले, खद्योत, मन्द, मन्दचेष्ट, महनीयगुणात्मन्म, र्त्यपावनपद, महेश, छायापुत्र, शर्व, शततूणीरधारिण्च, रस्थिरस्वभाव, अचञ्चल, नीलवर्ण, नित्य, नीलाञ्जननिभ, नीलाम्बरविभूशण, निश्चल, वेद्य, विधिरूप, विरोधाधारभूमी, भेदास्पदस्वभाव, वज्रदेह, वैराग्यद, वीर, वीतरोगभय, विपत्परम्परेश, विश्ववन्द्य, गृध्नवाह, गूढ, कूर्माङ्ग, कुरूपिण्कु, त्सित, गुणाढ्य, गोचर, अविद्यामूलनाश, विद्याविद्यास्वरूपिण्,  आयुष्यकारण, आपदुद्धर्त्र, विष्णुभक्त, वशिन्वि, विधागमवेदिन्, विधिस्तुत्य, वन्द्य, विरूपाक्ष, वरिष्ठ, गरिष्ठ, वज्राङ्कुशधर, वरदाभयहस्त, वामन-बौना, ज्येष्ठापत्नीसमेत,श्रेष्ठ, मितभाषिण्क, ष्टौघनाशकर्त्र, पुष्टिद, स्तुत्य, स्तोत्रगम्य, भक्तिवश्य, भानु, भानुपुत्र, भव्य, पावन, धनुर्मण्डलसंस्था, धनदा-धन के दाता, धनुष्मत्त, नुप्रकाशदेह, तामस, अशेषजनवन्द्य, विशेषफलदायिन्व, शीकृतजनेश, पशूनां पति, खेचर, घननीलाम्बर, काठिन्यमानस, आर्यगणस्तुत्य, नीलच्छत्र, नित्य, निर्गुण, गुणात्मन्नि, न्द्य, वन्दनीय, धीर, दिव्यदेह, दीनार्तिहरण, दैन्यनाशकराय, आर्यजनगण्य, क्रूर, क्रूरचेष्ट, कामक्रोधकर, कलत्रपुत्रशत्रुत्वकारण, परिपोषितभक्त, परभीतिहर, भक्तसंघमनोऽभीष्टफलद, निरामय, शनि।
दधीचि पुत्र पिप्लपाद कथा :: 
श्मशान में जब महर्षि दधीचि के मांसपिंड का दाह संस्कार हो रहा था तो उनकी पत्नी अपने पति का वियोग सहन नहीं कर पायीं और पास में ही स्थित विशाल पीपल वृक्ष के कोटर में 3 वर्ष के बालक को रख स्वयम् चिता में बैठकर सती हो गयीं। इस प्रकार महर्षि दधीचि और उनकी पत्नी का बलिदान हो गया किन्तु पीपल के कोटर में रखा बालक भूख प्यास से तड़प तड़प कर चिल्लाने लगा।जब कोई वस्तु नहीं मिली तो कोटर में गिरे पीपल के गोदों (फल) को खाकर बड़ा होने लगा। कालान्तर में पीपल के पत्तों और फलों को खाकर बालक का जीवन येन केन प्रकारेण सुरक्षित रहा।
एक दिन देवर्षि नारद वहाँ से गुजरे। नारद ने पीपल के कोटर में बालक को देखकर उसका परिचय पूछा :-
नारद :- बालक तुम कौन हो?
बालक :- यही तो मैं भी जानना चाहता हूँ।
नारद जी :- तुम्हारे जनक कौन हैं?
बालक :- यही तो मैं जानना चाहता हूँ।
तब नारद ने ध्यान धर देखा। नारद ने आश्चर्यचकित हो बताया कि  हे बालक! तुम
महान दानी महर्षि दधीचि के पुत्र हो। तुम्हारे पिता की अस्थियों का वज्र बनाकर ही देवताओं ने असुरों पर विजय पायी थी। नारद जी ने बताया कि तुम्हारे पिता दधीचि की मृत्यु मात्र 31 वर्ष की वय में ही हो गयी थी।
बालक :- मेरे पिता की अकाल मृत्यु का कारण क्या था ?
नारद जी :- तुम्हारे पिता पर शनिदेव की महादशा थी।
बालक :- मेरे ऊपर आयी विपत्ति का कारण क्या था ?
नारद जी :- शनिदेव की महादशा।
इतना बताकर देवर्षि नारद ने पीपल के पत्तों और गोदों को खाकर जीने वाले बालक का नाम पिप्पलाद रखा और उसे दीक्षित किया।
नारद के जाने के बाद बालक पिप्पलाद ने नारद के बताए अनुसार ब्रह्मा जी की घोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया। ब्रह्मा जी ने जब बालक पिप्पलाद से वर मांगने को कहा तो पिप्पलाद ने अपनी दृष्टि मात्र से किसी भी वस्तु को जलाने की शक्ति माँगी।ब्रह्मा जी से वर्य मिलने पर सर्वप्रथम पिप्पलाद ने शनि देव का आह्वाहन कर अपने सम्मुख प्रस्तुत किया और सामने पाकर आँखे खोलकर भष्म करना शुरू कर दिया।शनिदेव सशरीर जलने लगे। ब्रह्मांड में कोलाहल मच गया। सूर्यपुत्र शनि की रक्षा में सारे देव विफल हो गए। सूर्य भी अपनी आंखों के सामने अपने पुत्र को जलता हुआ देखकर ब्रह्मा जी से बचाने हेतु विनय करने लगे।अन्ततः ब्रह्मा जी स्वयम् पिप्पलाद के सम्मुख पधारे और शनिदेव को छोड़ने की बात कही किन्तु पिप्पलाद तैयार नहीं हुए। ब्रह्मा जी ने एक के बदले दो वर्य माँगने की बात कही। तब पिप्पलाद ने खुश होकर निम्नवत दो वरदान मांगे :-
(1). जन्म से 5 वर्ष तक किसी भी बालक की कुंडली में शनि का स्थान नहीं होगा।जिससे कोई और बालक मेरे जैसा अनाथ न हो।
(2). मुझ अनाथ को शरण पीपल वृक्ष ने दी है। अतः जो भी व्यक्ति सूर्योदय के पूर्व पीपल वृक्ष पर जल चढ़ाएगा उसपर शनि की महादशा का असर नहीं होगा।
ब्रह्मा जी ने तथास्तु कह वरदान दिया।तब पिप्पलाद ने जलते हुए शनि को  अपने ब्रह्मदण्ड से उनके पैरों पर आघात करके उन्हें मुक्त कर दिया। जिससे शनिदेव के पैर क्षतिग्रस्त हो गए और वे पहले जैसी तेजी से चलने लायक नहीं रहे। अतः तभी से शनि :-
"शनै: चरति य: शनैश्चर:" 
जो धीरे चलता है वही शनैश्चर है, कहलाये और शनि आग में जलने के कारण काली काया वाले अंग भंग रूप में हो गए।
सम्प्रति शनि की काली मूर्ति और पीपल वृक्ष की पूजा का यही धार्मिक हेतु है।आगे चलकर पिप्पलाद ने प्रश्न उपनिषद की रचना की,जो आज भी ज्ञान का वृहद भंडार है।
शनि देव स्वयं भी निम्न 5 का सम्मान करते हैं :: सूर्य पुत्र शनि देव का गुस्‍सैल स्‍वभाव और ग्रह दशा किसी को भी बर्बाद कर सकती है। लेकिन ऐसा हर किसी के साथ नहीं होता है। शनि देव केवल उन्‍हीं लोगों को परेशान करते हैं, जिनके कर्म अच्‍छे नहीं होते। शनिदेव न्‍याय के देवता हैं। यही वजह है कि भगवान्  शिव ने शनि देव को नवग्रहों में न्‍यायाधीश का काम सौंपा है। वह शनिदेव जिनके प्रकोप से सारी दुनिया डरती है, वह खुद भी निम्न 5 से डरते हैं :- 
शनि महाराज भगवान् सूर्य और उनकी दूसरी पत्‍नी छाया के पुत्र हैं। एक बार गुस्‍से में सूर्यदेव ने अपने ही पुत्र शनि को शाप देकर उनके घर को जला दिया था। इसके बाद सूर्य को मनाने के लिए शनि ने काले तिल से अपने पिता सूर्य की पूजा की तो वह प्रसन्‍न हुए। इस घटना के बाद से तिल से शनि देव और उनके पिता की पूजा होने लगी।
शनि देव पवन पुत्र हनुमान से भी बहुत डरते हैं। इसलिए ऐसा कहा जाता है कि हनुमान जी के दर्शन और उनकी भक्ति करने से शनि के सभी दोष समाप्‍त हो जाते हैं। जो लोग हनुमान जी की नियमित रूप से पूजा करते हैं, उन पर शनि की ग्रह दशा का खास प्रभाव नहीं पड़ता है।
अपने इष्‍ट का एक दर्शन पाने को शनि देव ने कोकिला वन में तपस्‍या की थी। शनिदेव के कठोर तप से प्रसन्‍न होकर भगवान् श्री कृष्‍ण ने कोयल के रूप में दर्शन दिए। तब शनि देव ने कहा था कि वह अब से भगवान् श्री  कृष्‍ण के भक्‍तों को परेशान नहीं करेंगे।
पौराणिक मान्‍यताओं के अनुसार, शनिदेव को पीपल से भी डर लगता है। इसलिए शनिवार को पीपल के पेड़ के नीचे सरसों के तेल का दीपक जलाने से शनिदेव प्रसन्‍न होते हैं। शास्‍त्रों में बताया गया है कि जो पिप्‍लाद मुनि का नाम जपेगा और पीपल की पूजा करेगा, उस पर शनि दशा का अधिक प्रभाव नहीं होगा।
शनि महाराज अपनी पत्नी से भय खाते हैं। इसलिए ज्योतिष शास्त्र में शनि की दशा में शनि पत्नी का नाम मंत्र जपना भी शनि का एक उपाय माना गया है। इसकी कथा यह है कि एक समय शनि पत्नी ऋतु स्नान करके शनि महाराज के पास आई। लेकिन अपने ईष्ट देव श्रीकृष्ण के ध्यान में लीन शनि महाराज ने पत्नी की ओर नहीं देखा। क्रोधित होकर पत्नी ने शाप दे दिया था।
पिता सूर्य देव के कहने पर शनि देव को बचपन में एक बार सबक सिखाने के लिए भगवान् शिव ने उन पर प्रहार किया था। शनिदेव इससे बेहोश हो गए तो पिता के विनती करने पर भगवान् शिव ने वापस उन्‍हें सही किया। तब से मान्‍यता है कि शनि देव भगवान् शिव को अपना गुरु मानकर उनसे डरने लगे हैं।
 
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)