Thursday, November 5, 2015

महामृत्युंजय मंत्र MAHA MRATUNJAY MANTR

MAHA MRATUNJAY MANTR
महामृत्युंजय मंत्र 
(PALMISTRY ENCYCLOPEDIA संतोष हस्तरेखा विश्वकोष)
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
भगवान् शिव के अनन्य भक्त मृकण्ड ऋषि सन्तान हीन होने के कारण दुखी थे। विधाता ने उन्हें सन्तान योग नहीं दिया था। मृकण्ड ने सोचा कि महादेव संसार के सारे विधान बदल सकते हैं, इसलिए भोलेनाथ को प्रसन्नकर पुत्र प्राप्ति का उद्यम किया जाये।
मृकण्ड ने घोर तप किया। महादेव प्रसन्न हुए। उन्होंने ऋषि को कहा कि मैं विधान को बदलकर तुम्हें पुत्र का वरदान दे रहा हूँ, लेकिन इस वरदान के साथ हर्ष के साथ विषाद भी होगा। भोलेनाथ के वरदान से मृकण्ड को पुत्र हुआ जिसका नाम मार्कण्डेय पड़ा। ज्योतिषियों ने मृकण्ड को बताया कि यह विलक्ष्ण बालक अल्पायु है और इसकी उम्र केवल 10 वर्ष है।
मार्कण्डेय बड़े होने लगे तो पिता ने उन्हें शिव मंत्र की दीक्षा दी। मार्कण्डेय जी की माता बालक के उम्र बढ़ने से चिंतित रहती थीं। उन्होंने मार्कण्डेय को अल्पायु होने की बात बता दी।
मार्कण्डेय ने भगवान् शिव जी की आराधना के लिए महामृत्युंजय मंत्र की रचना की और शिव लिंग के करीब बैठकर इसका अखंड जाप करने लगे।
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥
समय पूरा होने पर यमदूत उन्हें लेने आए। यमदूतों ने देखा कि बालक महाकाल की आराधना कर रहा है, तो उन्होंने थोड़ी देर प्रतीक्षा की। मार्केण्डेय ने अखण्ड जप का संकल्प लिया था।
यमदूतों का मार्केण्डेय को छूने का साहस न हुआ और लौट गए। उन्होंने यमराज को बताया कि वे बालक तक पहुँचने का साहस नहीं कर पाये।धर्मराज-यमराज स्वयं मार्कण्डेय के पास पहुँचे। बालक मार्कण्डेय ने यमराज को देखा तो महामृत्युंजय मंत्र का जाप करते हुए शिवलिंग से लिपट गया।
यमराज ने बालक को शिवलिंग से खींचकर ले जाने की चेष्टा की तो जोरदार हुँकार से मन्दिर काँपने लगा। एक प्रचण्ड प्रकाश से यमराज की आँखें चुँधिया गईं।
शिवलिंग से स्वयं महाकाल प्रकट हो गए। उन्होंने हाथों में त्रिशूल लेकर यमराज को सावधान किया और पूछा तुमने मेरी साधना में लीन भक्त को खींचने का साहस कैसे किया?
यमराज महाकाल के प्रचण्ड रूप से काँपने लगे। उन्होंने कहा :- प्रभु मैं आप का सेवक हूँ। आपने ही जीवों के प्राण हरने का निष्ठुर कार्य मुझे सौंपा है।
भगवान् चंद्रशेखर का क्रोध कुछ शान्त हुआ तो बोले :- "मैं अपने भक्त की स्तुति से प्रसन्न हूँ और मैंने इसे दीर्घायु होने का वरदान दिया है। तुम इसे नहीं ले जा सकते"।
यमराज ने कहा :- "प्रभु आपकी आज्ञा सर्वोपरि है। मैं आपके भक्त मार्कण्डेय द्वारा रचित महामृत्युंजय का पाठ करने वाले को त्रास नहीं दुँगा।
महाकाल की कृपा से मार्केण्डेय दीर्घायु हो गए। उनके द्वारा रचित महामृत्युंजय मंत्र काल को भी परास्त करता है। सोमवार को महामृत्युंजय का पाठ करने से भगवान् शिव की कृपा प्राप्त होती है और असाध्य रोगों, मानसिक वेदना का समाधान होता है।
महा मृत्‍युंजय मंत्र :: समस्‍त संसार के पालनहार, तीन नेत्र वाले शिव की हम अराधना करते हैं। विश्‍व में सुरभि फैलाने वाले भगवान् शिव मृत्‍यु; न कि मोक्ष से हमें मुक्ति दिलाएँ।
महामृत्युंजय मंत्र के वर्णो (अक्षरों) का अर्थ :: महामृत्युंजय मंत्र के वर्ण, पद, वाक्यक, चरण, आधी ऋचा और सम्पूर्ण ऋचा; इन छ: अंगों के अलग-अलग अभिप्राय हैं।
ओम त्र्यंबकम् मंत्र के 33 अक्षर हैं जो महर्षि वशिष्ठ के अनुसार 33 देवताआं के घोतक हैं। उन तैंतीस देवताओं में 8 वसु 11 रुद्र और 12 आदित्य 1 प्रजापति तथा 1 षटकार हैं। इन तैंतीस देवताओं की सम्पूर्ण शक्तियाँ महामृत्युंजय मंत्र से निहीत होती हैं, जिससे महा महामृत्युंजय का पाठ करने वाला प्राणी दीर्घायु तो प्राप्त करता ही है, साथ ही वह नीरोग, ऐश्व‍र्य युक्ता धनवान भी होता है। महामृत्युंजय मंत्र का पाठ करने वाला प्राणी हर दृष्टि से सुखी एवम समृध्दिशाली होता है। भगवान् शिव की अमृतमययी कृपा उस पर निरन्तंर बरसती रहती है।
त्रि :– ध्रववसु प्राण का घोतक है, जो सिर में स्थित है।
यम :– अध्ववरसु प्राण का घोतक है, जो मुख में स्थित है।
ब :– सोम वसु शक्ति का घोतक है, जो दक्षिण कर्ण में स्थित है।
कम :– जल वसु देवता का घोतक है, जो वाम कर्ण में स्थित है।
य :– वायु वसु का घोतक है, जो दक्षिण बाहु में स्थित है।
जा :- अग्नि वसु का घोतक है, जो बाम बाहु में स्थित है।
म :– प्रत्युवष वसु शक्ति का घोतक है, जो दक्षिण बाहु के मध्य में स्थित है।
हे :– प्रयास वसु मणि बन्धत में स्थित है।
सु :- वीरभद्र रुद्र प्राण का बोधक है। यह दक्षिण हस्त की अँगुलि के मूल में स्थित है।
ग :- शुम्भ् रुद्र का घोतक है। यह दक्षिण हस्त् अँगुलि के अग्र भाग में स्थित है।
न्धिम् :- गिरीश रुद्र शक्ति का मूल घोतक है। बायें हाथ के मूल में स्थित है।
पु :- अजैक पात रुद्र शक्ति का घोतक है। बाम हस्तह के मध्य भाग में स्थित है।
ष्टि :– अहर्बुध्य्त् रुद्र का घोतक है, यह बाम हस्त के मणिबन्ध में स्थित है।
व :– पिनाकी रुद्र प्राण का घोतक है। यह बायें हाथ की अँगुलि के मूल में स्थित है।
र्ध :– भवानीश्वपर रुद्र का घोतक है, बाम हस्त अँगुलि के अग्र भाग में स्थित है।
नम् :– कपाली रुद्र का घोतक है। उरु मूल में स्थित है।
उ :- दिक्पति रुद्र का घोतक है। यक्ष जानु में स्थित है।
र्वा :– स्थाणु रुद्र का घोतक है, जो यक्ष गुल्फ् में स्थित है।
रु :– भर्ग रुद्र का घोतक है, जो चक्ष पादांगुलि मूल में स्थित है।
क :– धाता आदित्यद का घोतक है जो यक्ष पादांगुलियों के अग्र भाग में स्थित है।
मि :– अर्यमा आदित्यद का घोतक है जो वाम उरु मूल में स्थित है।
व :– मित्र आदित्यद का घोतक है जो वाम जानु में स्थित है।
ब :– वरुणादित्या का बोधक है जो वाम गुल्फा में स्थित है।
न्धा :– अंशु आदित्यद का घोतक है। वाम पादंगुलि के मुल में स्थित है।
नात् :– भगादित्यअ का बोधक है। वाम पैर की अंगुलियों के अग्रभाग में स्थित है।
मृ :– विवस्व्न (सुर्य) का घोतक है जो दक्ष पार्श्वि में स्थित है।
र्त्यो् :– दन्दाददित्य् का बोधक है। वाम पार्श्वि भाग में स्थित है।
मु :– पूषादित्यं का बोधक है। पृष्ठै भगा में स्थित है।
क्षी :– पर्जन्य् आदित्यय का घोतक है। नाभि स्थिल में स्थित है।
य :– त्वणष्टान आदित्यध का बोधक है। गुहय भाग में स्थित है।
मां :– विष्णुय आदित्यय का घोतक है। यह शक्ति स्व्रुप दोनों भुजाओं में स्थित है।
मृ :– प्रजापति का घोतक है, जो कंठ भाग में स्थित है।
तात् :– अमित वषट्कार का घोतक है, जो हदय प्रदेश में स्थित है।
उपर वर्णन किये स्थानों पर उपरोक्तध देवता, वसु आदित्य आदि अपनी सम्पुर्ण शक्तियों सहित विराजत हैं । जो प्राणी श्रध्दा सहित महामृत्युजय मंत्र का पाठ करता है उसके शरीर के अंग–अंग (जहाँ के जो देवता या वसु अथवा आदित्य हैं) उनकी रक्षा होती है।
मंत्रगत पदों की शक्तियॉं ::
जिस प्रकार मंत्रा में अलग अलग वर्णो (अक्षरों) की शक्तियाँ हैं। उसी प्रकार अलग–अलग पदों की भी शक्तियॉं है।
त्र्यम्‍‍बकम् :– त्रैलोक्यक शक्ति का बोध कराता है, जो सिर में स्थित है।
यजा :- सुगन्धात शक्ति का घोतक है, जो ललाट में स्थित है।
महे :- माया शक्ति का द्योतक है, जो कानों में स्थित है।
सुगन्धिम् :– सुगन्धि शक्ति का द्योतक है, जो नासिका (नाक) में स्थित है।
पुष्टि :– पुरन्दिरी शकित का द्योतक है जो मुख में स्थित है।
वर्धनम :– वंशकरी शक्ति का द्योतक है, जो कंठ में स्थित है ।
उर्वा :– ऊर्ध्देक शक्ति का द्योतक है जो, ह्रदय में स्थित है।
रुक :– रुक्तदवती शक्ति का द्योतक है, जो नाभि में स्थित है।
मिव :- रुक्मावती शक्ति का बोध कराता है, जो कटि भाग में स्थित है।
बन्धानात् :– बर्बरी शक्ति का द्योतक है, जो गुह्य भाग में स्थित है।
मृत्यो: :– मन्त्र्वती शक्ति का द्योतक है, जो उरुव्दंय में स्थित है।
मुक्षीय :– मुक्तिकरी शक्तिक का द्योतक है जो जानुव्दओय में स्थित है ।
मा :– माशकिक्तत सहित महाकालेश का बोधक है, जो दोंनों जंघाओ में स्थित है।
अमृतात :– अमृतवती शक्ति का द्योतक है जो पैरो के तलुओं में स्थित है।
महामृत्युञ्जय जाप ::
"शरीरं व्याधिमन्दिरम्"
मनुष्य के पञ्च भौतिक शरीर में नाना प्रकार की आधि-व्याधियाँ रहती हैं। शरीर को स्वस्थ रखने के लिये उपयुक्त आहार-विहार, खान-पान, नियमित दिनचर्या आदि बहुत-से उपाय हैं। इन सब उपायों को करते रहने के बावजूद भी कर्मफल के कारण शरीर में कोई बलवान अरिष्ट जब चिकित्सा आदि उपायों से ठीक नहीं हो पाता, तब ऐसे अरिष्ट की निवृत्ति के लिये महामृत्युञ्जय के जप का विधान है। इस जप से मृत्यु को जीतने वाले भगवान् महादेव प्रसन्न होते हैं और वे रोग से पीड़ित व्यक्ति को रोग से मुक्ति प्रदान करते हैं।
मूल मन्त्र ::
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्
हम सुगन्धि और पुष्टि वर्द्धक त्र्यम्बक की पूजा या यज्ञ करते हैं। रुद्र देवता उर्वारुक फल (बदरी फल) की तरह हमें मृत्यु बन्धन से मुक्त करें और अमृत (चिरजीवन या स्वर्ग) से मत मुक्त करें।[ऋग्वेद 7.59.12]
We worship Trayambak growing & nurturing us, with strong with Yagy. Let Rudr Dev release us from the bonds of death like the cucumber and treat us with nectar-elixir.
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥
हम त्रिनेत्रधारी भगवान् शिव की पूजा करते हैं, जो मृत्यु से रहित दिव्य सुगन्धि से युक्त, उपासकों के लिये धन धान्य आदि पुष्टि को बढ़ाने वाले हैं। वे त्रिनेत्रधारी उर्वारुक (कर्कटी या ककड़ी-जो पकने पर वृन्त या बन्धन-स्थान से स्वतः अलग हो जाती है) फल की तरह हम सबको अपमृत्यु या सांसारिक मृत्यु से मुक्त करें।स्वर्गरूप या मुक्तिरूप अमृत से हमको न छुड़ायें अर्थात् अमृत-तत्त्व से हम उपासकों को वञ्चित न करें।[शुक्लयजु. 3.60]
इस मन्त्र में "भूः भुवः स्वः" इन तीन व्याहृतियों में तथा (ॐ) "हाँ जूं सः" इन तीन बीज मन्त्रों में "ॐ" इस प्रणव को लगाकर मृत्युञ्जय मन्त्र के तीन निम्न रूप हैं :-
(1). 48 वर्णात्मक पहला मन्त्र आठ प्रणव युक्त।(मृत्युञ्जय मन्त्र)
(2). 52 वर्णात्मक दूसरा छः प्रणव युक्त।(मृत संजीवनी मृत्युञ्जय मन्त्र)
(3). 62 वर्णात्मक तीसरा चौदह प्रणव युक्त।(महामृत्युञ्जय मन्त्र)
मृत्युञ्जय जप मन्त्र ::
भूः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ त्र्यम्बकंमामृतात्। ॐ स्वः ॐ भुव: ॐ भूः ॐ।
मृत संजीवनी मन्त्र ::
ॐ हौं जूं स: ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ त्र्यम्बकं यजामहे मामृतात्।
ॐ स्वः भुवः भूः ॐ स: जूं हौं ॐ।
महामृत्युञ्जय मन्त्र ::
ॐ हौं ॐ जूं ॐ सः ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ त्र्यम्बकं यजामहे मामृतात्।
ॐ स्वः ॐ भुवः ॐ भूः ॐ स: ॐ जूं ॐ हीं ॐ।
सूर्यादि नवग्रहों की दशा, महादशा, अन्तर्दशा तथा प्रत्यन्तर्दशा यदि किसी व्यक्ति के लिये अरिष्ट उत्पन्न करने वाली होती है तो उन-उन अरिष्ट कारक ग्रहों की शान्ति के लिये भगवान् शिव की शरण ग्रहण करनी चाहिए।
मृत्युञ्जयमहारुद्र त्राहि मां शरणागतम्।
जन्ममृत्युजरारोगैः पीडितं कर्मबन्धनैः॥
शरणमें आये पीड़ित व्यक्ति को भगवान् शिव जन्म, मृत्यु, जरा (वृद्धावस्था), रोग एवं कर्म के बन्धनों से मुक्त कर देते हैं।
मृत्युञ्जय जप विधि :: सर्वप्रथम शौच-सानादिसे पवित्र होकर आसन शुद्धि करके भस्म तथा रुद्राक्ष धारण करें। तदनन्तर जप का संकल्प कर गणेशादि देवों का स्मरण करें। यथासम्भव पञ्चाङ्ग पूजन कर करन्यास एवं अङ्गन्यास करें। भगवान् शिव इस प्रकार ध्यान करें :-
ॐ चन्द्रोद्भासितमूर्धजं सुरपति पीयूषपात्रं वहद्ध स्ताोन दधत् सुदिव्यममल हास्यास्यपङ्केरुहम्। सूर्वन्द्वग्निविलोचनं करतलैः पाशाक्षसूत्रांकुशाम्भोजं बिभ्रतमक्षयं पशुपति मृत्युञ्जयं संस्मे्॥
मैं उन मृत्युजय भगवान् का स्मरण करता हूँ, जो अक्षय और अविनाशी हैं। जिनके केश चन्द्रमा से सुशोभित हैं। जो देवताओं के स्वामी है तथा जिन्होंने अपने कर कमलों में अमृत का दिव्य एवं निर्मल विशाल पात्र धारण कर रखा है। जिनका मुख कमल हास्यमय (प्रसन्न) है और जिनके तीनों नेत्र सूर्य, चन्द्रमा एवं अग्निमय हैं। जिनके करतल में पाश, अक्षसूत्र (रुद्राक्षमाला), अंकुश और कमल हैं।
इसके बाद मानसोपचार पूजा करें।
प्रत्येक पुष्पादि पदार्थ को अर्पित करने के लिये आचमनी से जल छोड़ना चाहिये।
"ॐ लं पृदिल्यात्मकं गचं समर्पयामि"
पृथ्वी रूप "ल" बीज गन्ध है।
"ॐ आकाशात्मकं पुष्पं समर्पयामि"
आकाशरूप "ह" चीज पुष्प है।
"ॐ यं वाव्यात्मकं धूपं समर्पयामि"
वायु रूप "यं" बीज धूप है।
"ॐ तेजसात्मक दीपं समर्पयामि"
तेजरूप "रं" बीज दीपक है।
"ॐ वं अमृतात्मकं नैवेद्यं समर्पयामि"
अमृतरूप "ई" बोज नैवेद्य है।
"ॐ सं सर्वात्मकं मन्त्रपुष्पं समर्पयामि"
सर्वस्वरूप 'सं' बीज मन्त्र पुष्प है।
मानस पूजा करने के पश्चात् एकाग मन से संकल्पित मन्त्र से मृत्युजय मंत्र का जप करना चाहिये।
जप समाप्त होने के बाद पुनः अङ्गन्यास एवं करन्यास करके मृत्युज्जय देवता-भगवान् शिव का जप-निवेदन करें तथा हाथ में जल लेकर मन्त्र जप सिद्धि के लिये निम्न श्लोक का उच्चारण करें :-
गुणालिगुह्मण्येता त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम्।
सिद्धिर्भवतु मे देय त्यनप्रसादान्यहेशर॥
तत्पक्षात् "अनेन यथासंख्याकेन" (जो जप की सँख्या को यथा :- सपादलक्ष सवा लाख) "संख्याकेन मृत्युञ्जय जपाख्येन कर्मणा श्रीमहामृत्युञ्जयदेवता प्रीयतां न मम"।
यह कहकर जल छोड़ दें ।
उपर्युक्त प्रकार से जप को अर्पित करके प्रार्थना करें :-
मृत्युञ्जयमहारुद्र त्राहि मां शरणागतम्।
जन्ममृत्युजरारोगैः पीडितं कर्मबन्धनैः॥
हे मृत्युञ्जय! महारुद्र! जन्म-मृत्यु तथा वार्धक्य आदि विविध रोगों एवं कर्मो के बन्धन से पीड़ित मैं आपकी शरण में आया हूँ, मेरी रक्षा करें।
मन्त्रोचारण, पूजन एवं जपादि-कर्म में जाने अनजाने में त्रुटि होना सम्भव है, अत: उस दोष की निवृत्ति के लिये भगवान् महादेव से क्षमा याचना करनी चाहिये
यदक्षरपदभ्रष्टं मात्राहीनं च यद्धवेत्।
तत्सर्व क्षम्यतां देव प्रसीद परमेश्वर॥
सभी कर्मों (श्रौत-स्मार्त आदि) के द्रष्टा एवं साक्षी भगवान् विष्णु हैं। अत: उनका स्मरण करने से वे प्रमाद, आलस्यादि के कारण कर्म में जो कुछ कर्तव्य छूट जाता है, उसको पूर्ण करते हैं। अतः अन्त में "ॐ विष्णवे नमः" का तीन बार उच्चारण करना चाहिये।
शास्त्रानुसार ::
प्रमादात् कुर्वतां कर्म प्रव्यवेताध्वरेषु यत्।
स्मरणादेव तद्विष्णोः सम्पूर्ण स्यादिति श्रुतिः॥
यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या जपयज्ञक्रियादिषु।
न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्॥
अनुष्ठानरूप जप सँख्या पूर्ण करने के बाद जप सँख्या का दशांश होम, होम का दशांश तर्पण, तर्पण का दशांश मार्जन एवं मार्जन का दशांश ब्राह्मण भोजन कराने पर हो सम्पूर्ण अनुष्ठान माना गया है। यदि उक्त ततद् दशांश होमादि कर्म करने में किसी विशेष कारण वश असमर्थता हो तो जप सँख्या दशांश का चौगुना (हजार माला का दशांश एक तथा उसका चौगुना चार सौ माला के क्रम से) सँख्या। परिमित जप करने से ही जप कर्म की साङ्गता (पूगता) हो जाती है।
मृत संजीवनी मंत्र ::
क्क हौं जूं सः, क्क भूर्भुवः स्वः। क्क भूर्भवः स्वः। क्क त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्व्वारूकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्। स्वः भुवः भूः क्क हौं जूं सः क्क। 
शिव पुराण की रुद्र संहिता के सतीखंड में इसका उल्लेख है कि इस मंत्र के विषय में शिव पुराण की रुद्र संहिता के सतीखंड में उल्लेख है कि पूर्व काल में महामुनि दधीचि और राजा ध्रुव के मध्य श्रेष्ठता को लेकर परस्पर विवाद इतना उग्र हो उठा कि राजा ने महर्षि के शरीर को काट डाला।
दधीचि ने पृथ्वी पर गिरते समय शुक्राचार्य का स्मरण किया तो उन्होंने तत्काल वहां उपस्थित होकर अपनी मृत संजीवनी विद्या के बल से दधीचि मुनि के अंगों को जोड़कर उन्हें पूर्ववत सकुशल जीवित कर दिया और तदुपरांत मृत्युंजय विद्या के प्रर्वतक शुक्राचार्य जी ने उन्हें वेदों में प्रतिपादित महामृत्युंजय मंत्र का उपदेश दिया।
दधीचि इसी महामृत्युंजय मंत्र की साधना से अवध्य हो गए तथा उनकी हडि्डयां वज्र हो गईं। बाद में दधीचि ने देवताओं के हितार्थ अपनी अस्थियों का दान कर दिया, जिससे देवराज इंद्र का अस्त्र वज्र बना। महामृत्युंजय मंत्र की महिमा अपार है। यह साधक को मृत्यु के मुँह से खींच लाने वाला अचूक मंत्र है।
मृत्युंजय विद्या के प्रवर्तक शुक्राचार्य ने इसे मृत संजीवनी मंत्र संज्ञा दी है। इस मंत्र के जप ध्यान से साधक रोगमुक्त व अजेय हो जाता है। महर्षि दधीच ने इस मंत्र के माध्यम से अवध्यता, वज्रमय अस्थि व अदीनता का वरदान प्राप्त किया और अजेय बन गए। उन्होंने न केवल महाराज ध्रुव के अहंकार का मर्दन किया बल्कि भगवान विष्णु व देवताओं से भी अपराजित रहे।
महामृत्युंजय मंत्र की साधना करके वर्तमान में भी आधि, व्याधि, भय, अपमृत्यु आदि पर विजय प्राप्त की जा सकती है। यह अनुभव सिद्ध मंत्र है। महामृत्युंजय मंत्र ऋग्वेद, यजुर्वेद, नारायणोपनिषद् शिवपुराण आदि में महामृत्युंजय मंत्र का विशद् उल्लेख है।
इस मंत्र की साधना यज्ञ, जप, अभिषेक आदि के माध्यम से की जाती है।
शिवलिंग का जलाभिषेक करते हुए मंत्रोच्चारण शीघ्र फलदायक माना गया है। वैसे तो महामृत्युंजय का अनुष्ठान 11 पंडितों से 11 दिन तक कराने का विधान है। इसलिए विद्वानों ने जन कल्याण हेतु संक्षिप्त विधि द्वारा व्यक्तिगत रूप से जप करने की विधि प्रावधान किया है, जो उक्त अनुष्ठान के समान फलदायक है।
संक्षिप्त विधि से अनुष्ठान करने के लिए शुद्ध होकर गणेश जी महाराज का ध्यान-स्मरण करना चाहिए। इसके पश्चात् तिथि, वारादि का उच्चारण करते हुए संकल्प कर भगवान महामृत्युंजय का जप आरंभ करना चाहिए। इस मंत्र का 8, 9, 11, 21, 30 या 45 दिनों में कम से कम सवा लाख जप करने का विधान है।
यदि व्यक्ति रोग के कारण स्वयं मंत्र साधना नहीं कर सके, तो कोई अन्य व्यक्ति रोगी के नाम से संकल्प लेकर मंत्र की साधना कर सकता है। रोगी को महामृत्युंजय मंत्र से अभिमंत्रित जल का सेवन करना चाहिए।
रोगी की शय्या के चारों ओर कम से कम तीन बार महामृत्युंजय का जप करते हुए और जल छिड़कते हुए परिक्रमा कर महामृत्युंजय रक्षा कवच का निर्माण करना चाहिए। इन मंत्रों के उच्चारण में साधक को सतर्कता बरतनी चाहिए।
विधि-विधान और शुद्धि पूर्वक महामृत्युन्जय अथवा गायत्री मंत्र का एक मंत्र का सवा लाख जाप करने समस्त इच्छाओं की पूर्ति सम्भव है।
महामृत्युंजय गायत्री (संजीवनी) मंत्र ::
ॐ हौं जूं स: ॐ भूर्भुव: स्व:ॐ तत्सर्वितुर्वरेण्यं त्रयम्बकं यजामहे भर्गोदेवस्य धीमहि सुगन्धिम पुष्टिवर्धनम बंधनान धियो योन: प्रचोदयात उर्वारुकमिव बन्धनान मृत्योर्मुक्षीय मामृतातॐ स्व: भुव: भू: स: जूं हौं ॐ।
ॐ हौं जूं स: ॐ भूर्भुव: स्व: ॐ त्रयंबकंयजामहे ॐ तत्सर्वितुर्वरेण्यं ॐ सुगन्धिंपुष्टिवर्धनम ॐ भर्गोदेवस्य धीमहि ॐ उर्वारूकमिव बंधनान ॐ धियो योन: प्रचोदयात ॐ मृत्योर्मुक्षीय मामृतात ॐ स्व: ॐ भुव: ॐ भू: ॐ स: ॐ जूं ॐ हौं ॐ। 
ऋषि शुक्राचार्य ने इस मंत्र की आराधना निम्न रूप में की थी जिसके प्रभाव से वह देव-दानव युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए दानवों को सहज ही जीवित कर सकें।
महामृत्युंजय मंत्र में सभी 33 देवताओं (8 वसु, 11 रूद्र, 12 आदित्य, 1 प्रजापति तथा 1 वषट तथा ऊँ) की शक्तियाँ शामिल हैं। गायत्री मंत्र प्राण ऊर्जा तथा आत्मशक्ति को बढ़ाने वाला है। विधिवत रूप से संजीवनी मंत्र की साधना करने से इन दोनों मंत्रों के संयुक्त प्रभाव से व्यक्ति में कुछ ही समय में विलक्षण शक्तियाँ उत्पन्न हो जाती है। यदि वह नियमित रूप से इस मंत्र का जाप करता रहे तो उसे अष्ट सिद्धिया, नवनिधिया मिलती हैं तथा मृत्यु के बाद मोक्ष प्राप्त हो जाता है।
इन मंत्रों का दुरूपयोग करने पर साधक-अभ्यास कर्ता को दुष्परिणाम भुगतने पड़ते हैं।
संजीवनी मंत्र के जाप में सधानियाँ ::
(1). जपकाल के दौरान पूर्ण रूप से सात्विकता बनाये रखें।
(2). मंत्र जाप के दौरान साधक का मुँह पूर्व दिशा की ओर होना चाहिए।
(3). इस मंत्र का जाप शिवमंदिर में या किसी शाँत एकान्त-निर्जन स्थल पर (गुफा, वन, सरोवर का किनारा) रूद्राक्ष की माला से ही करना चाहिए।
(4). मंत्र का उच्चारण बिल्कुल शुद्ध और सही होना चाहिए साथ ही मंत्र की आवाज होठों से बाहर नहीं आनी चाहिए।
(5). जपकाल के दौरान व्यक्ति को माँस, शराब तथा अन्य सभी तामसिक चीजों से दूर रहना चाहिए। उसे पूर्ण ब्रह्मचर्य के साथ रहते हुए अपनी पूजा-अर्चना, जप करना चाहिये।
महामृत्युंजय गायत्री (संजीवनी) मंत्र का जाप करने से साधक-व्यक्ति में अत्यधिक ऊर्जा का प्रवाह होता है, जिसे सामान्य व्यक्ति सहन नहीं कर सकता, जिसके परिणाम स्वरूप साधक विक्षिप्त हो सकता है। इस प्रक्रिया के दौरान उसकी मृत्यु भी संभव है। इसका अभ्यास गुरू के सान्निध्य में रहकर करना चाहिये और मंत्र जाप की मात्रा धीरे-धीरे बढ़ानी चाहिये। इस दौरान के प्राणायाम और यौगिक क्रियाओं का निरंतर अभ्यास करते रहना चाहिये।
मृतसञ्जीवन स्तोत्र ::
एवमारध्य गौरीशं देवं मृत्युञ्जयमेश्वरं।
मृतसञ्जीवनं नाम्ना कवचं प्रजपेत् सदा॥1॥
evamaradhy gaurishan devan mrityungjayameshvaran;
mritasangjivanan namna kavachan prajapet sada.
गौरीपति मृत्युञ्जयेश्र्वर भगवान् शंकर की विधिपूर्वक आराधना करने के पश्र्चात भक्त को सदा मृतसञ्जीवन नामक कवच का सुस्पष्ट पाठ करना चाहिये।
सारात् सारतरं पुण्यं गुह्याद्गुह्यतरं शुभं।
महादेवस्य कवचं मृतसञ्जीवनामकं॥2॥
sarat sarataran punyan guhyadguhyataran shubhan;
mahadevasy kavachan mritasangjivanamakan.
महादेव भगवान् शङ्कर का यह मृतसञ्जीवन नामक कवच का तत्त्व का भी तत्त्व है, पुण्यप्रद है गुह्य और मङ्गल प्रदान करने वाला है।
समाहितमना भूत्वा शृणुष्व कवचं शुभं।
शृत्वैतद्दिव्य कवचं रहस्यं कुरु सर्वदा॥3॥
samahitamana bhootva shrinushv kavachan shubhan;
shritvaitaddivy kavachan rahasyan kuru sarvada.
आचार्य शिष्य को उपदेश करते हैं कि हे वत्स! अपने मन को एकाग्र करके इस मृतसञ्जीवन कवच को सुनो। यह परम कल्याणकारी दिव्य कवच है। इसकी गोपनीयता सदा बनाये रखना।
वराभयकरो यज्वा सर्वदेवनिषेवितः।
मृत्युञ्जयो महादेवः प्राच्यां मां पातु सर्वदा॥4॥
varabhayakaro yajva sarvadevanishevitah;
mrityungjayo mahadevah prachyan man patu sarvada.
जरा से अभय करने वाले, निरन्तर यज्ञ करनेवाले, सभी देवतओं से आराधित हे मृत्युञ्जय महादेव! आप पर्व-दिशा में मेरी सदा रक्षा करें।
दधाअनः शक्तिमभयां त्रिमुखं षड्भुजः प्रभुः।
सदाशिवोऽग्निरूपी मामाग्नेय्यां पातु सर्वदा॥5॥
dadhaanah shaktimabhayan trimukhan shadbhujah prabhuh;
sadashivo-a-gniroopi mamagneyyan patu sarvada.
अभय प्रदान करने वाली शक्ति को धारण करने वाले, तीन मुखों वाले तथा छ: भुजओं वाले, अग्रिरूपी प्रभु सदाशिव अग्रिकोण में मेरी सदा रक्षा करें।
अष्टदसभुजोपेतो दण्डाभयकरो विभुः।
यमरूपि महादेवो दक्षिणस्यां सदावतु॥6॥
ashtadasabhujopeto dandabhayakaro vibhuh;
yamaroopi mahadevo dakshinnasyan sadavatu.
अट्ठारह भुजाओं से युक्त, हाथ में दण्ड और अभय मुद्रा धारण करने वाले, सर्वत्र व्याप्त यमरुपी महादेव शिव दक्षिण-दिशा में मेरी सदा रक्षा करें।
खड्गाभयकरो धीरो रक्षोगणनिषेवितः।
रक्षोरूपी महेशो मां नैरृत्यां सर्वदावतु॥7॥
khadgabhayakaro dhiro rakshogannanishevitah;
rakshoroopi mahesho man nairrityan sarvadavatu.
हाथ में खड्ग और अभय मुद्रा धारण करने वाले, धैर्यशाली, दैत्यगणों से आराधित रक्षोरुपी महेश नैर्ऋत्यकोण में मेरी सदा रक्षा करें।
पाशाभयभुजः सर्वरत्नाकरनिषेवितः
वरुणात्मा महादेवः पश्चिमे मां सदावतु॥8॥
pashabhayabhujah sarvaratnakaranishevitah;
varunatma mahadevah pashchime man sadavatu.
हाथ में अभय मुद्रा और पाश धारण करने वाले, सभी रत्नाकरों से सेवित, वरुण स्वरूप महादेव भगवान् शंकर पश्चिम- दिशा में मेरी सदा रक्षा करें।
गदाभयकरः प्राणनायकः सर्वदागतिः।
वायव्यां मारुतात्मा मां शङ्करः पातु सर्वदा॥9॥
gadabhayakarah prannanayakah sarvadagatih;
vayavyan marutatma man shangkarah patu sarvada.
हाथों में गदा और अभय मुद्रा धारण करने वाले, प्राणो के रक्षक, सर्वदा गतिशील वायुस्वरूप शंकरजी वायव्यकोण में मेरी सदा रक्षा करें।
शङ्खाभयकरस्थो मां नायकः परमेश्वरः।
सर्वात्मान्तरदिग्भागे पातु मां शङ्करः प्रभुः॥10॥
shangkhabhayakarastho man nayakah parameshvarah;
sarvatmantaradigbhage patu man shangkarah prabhuh.
हाथों में शंख और अभय मुद्रा धारण करने वाले नायक (सर्वमार्गद्रष्टा) सर्वात्मा सर्वव्यापक परमेश्वर भगवान् शिव समस्त दिशाओं के मध्य में मेरी रक्षा करें।
शूलाभयकरः सर्वविद्यानमधिनायकः।
ईशानात्मा तथैशान्यां पातु मां परमेश्वरः॥11॥
shoolabhayakarah sarvavidyanamadhinayakah;
eeshanatma tathaishanyan patu man parameshvarah.
हाथों में शंख और अभय मुद्रा धारण करने वाले, सभी विद्याओं के स्वामी, ईशान स्वरूप भगवान् परमेश्वर शिव ईशान कोण में मेरी रक्षा करें
ऊर्ध्वभागे ब्रःमरूपी विश्वात्माऽधः सदावतु।
शिरो मे शङ्करः पातु ललाटं चन्द्रशेखरः॥12॥
udharvbhage brahmaroopi vishvatma-a-dhah sadavatu;
shiro me shangkarah patu lalatan chandrashekharah.
ब्रह्मरूपी शिव मेरी ऊर्ध्वभाग में तथा विश्वात्मस्वरूप शिव अधोभाग में मेरी सदा रक्षा करें। शंकर मेरे सिर की और चन्द्रशेखर मेरे ललाट की रक्षा करें।
भूमध्यं सर्वलोकेशस्त्रिणेत्रो लोचनेऽवतु।
भ्रूयुग्मं गिरिशः पातु कर्णौ पातु महेश्वरः॥13॥
bhoomadhyan sarvalokeshastrinetro lochane-a-vatu;
bhrooyugman girishah patu karnau patu maheshvarah.
मेरे भौंहों के मध्य में सर्वलोकेश और दोनों नेत्रों की त्रिनेत्र भगवान् शंकर रक्षा करें, दोनों भौंहों की रक्षा गिरिश एवं दोनों कानों को रक्षा भगवान् महेश्वर करें।
नासिकां मे महादेव ओष्ठौ पातु वृषध्वजः।
जिह्वां मे दक्षिणामूर्तिर्दन्तान्मे गिरिशोऽवतु॥14॥
nasikan me mahadev oshthau patu vrishadhvajah;
jihvan me dakshinamoortirdantanme girisho-a-vatu.
महादेव मेरी नासिका की तथा वृषभध्वज मेरे दोनों होठों की सदा रक्षा करें। दक्षिणा मूर्ति मेरी जिह्वा की तथा गिरिश मेरे दाँतों की रक्षा करें।
मृतुय्ञ्जयो मुखं पातु कण्ठं मे नागभूषणः।
पिनाकि मत्करौ पातु त्रिशूलि हृदयं मम॥15॥
mrituyngjayo mukhan patu kanthan me nagabhooshannah;
pinaki matkarau patu trishooli hridayan mam.
मृत्युञ्जय मेरे मुख की एवं नागभूषण भगवान् शिव मेरे कण्ठ की रक्षा करें। पिनाकी मेरे दोनों हाथों की तथा त्रिशूली मेरे हृदय की रक्षा करें।
पञ्चवक्त्रः स्तनौ पातु उदरं जगदीश्वरः।
नाभिं पातु विरूपाक्षः पार्श्वौ मे पार्वतीपतिः॥16॥
pangchavaktrah stanau patu udaran jagadishvarah;
nabhin patu viroopakshah parshvau me parvatipatih.
पञ्चवक्त्र मेरे दोनों स्तनो की और जगदीश्वर मेरे उदर की रक्षा करें । विरूपाक्ष नाभिकी और पार्वती पति पार्श्वभाग की रक्षा करें।
कटद्वयं गिरीशौ मे पृष्ठं मे प्रमथाधिपः।
गुह्यं महेश्वरः पातु ममोरू पातु भैरवः॥17॥
katadvayan girishau me prishthan me pramathadhipah;
guhyan maheshvarah patu mamoroo patu bhairavah.
गिरीश मेरे दोनों कटिभाग की तथा प्रमथाधिप पृष्टभाग की रक्षा करें। महेश्वर मेरे गुह्यभाग की और भैरव मेरे दोनों ऊरुओं की रक्षा करें।
जानुनी मे जगद्दर्ता जङ्घे मे जगदम्बिका।
पादौ मे सततं पातु लोकवन्द्यः सदाशिवः॥18॥
januni me jagaddarta jangghe me jagadambika;
padau me satatan patu lokavandyah sadashivah.
जगद्धर्ता मेरे दोनों घुटनों की, जगदम्बिका मेरे दोनों जाँघों की तथा लोकवन्दनीय सदाशिव निरन्तर मेरे दोनों पैरों की रक्षा करें।
गिरिशः पातु मे भार्यां भवः पातु सुतान्मम।
मृत्युञ्जयो ममायुष्यं चित्तं मे गणनायकः॥19॥
girishah patu me bharyan bhavah patu sutanmam;
mrityungjayo mamayushyan chittan me gannanayakah.
गिरीश मेरी भार्या की रक्षा करें तथा भव मेरे पुत्रों की रक्षा करें। मृत्युञ्जय मेरे आयु की गणनायक मेरे चित्त की रक्षा करें।
सर्वाङ्गं मे सदा पातु कालकालः सदाशिवः।
एतत्ते कवचं पुण्यं देवतानां च दुर्लभम्॥20॥
sarvanggan me sada patu kalakalah sadashivah;
etatte kavachan punyan devatanan ch durlabham.
कालों के काल सदाशिव मेरे सभी अंगो की रक्षा करें। हे वत्स! देवताओं के लिये भी दुर्लभ इस पवित्र कवच का वर्णन मैंने तुमसे किया है।
मृतसञ्जीवनं नाम्ना महादेवेन कीर्तितम्।
सह्स्रावर्तनं चास्य पुरश्चरणमीरितम्॥21॥
mritasangjivanan namna mahadeven keertitam;
sahsravartanan chasy purashcharannamiritam.
महादेवजी ने मृतसञ्जीवन नामक इस कवच को कहा है। इस कवच की सहस्त्र आवृत्ति को पुरश्चरण कहा गया है।
यः पठेच्छृणुयान्नित्यं श्रावयेत्सु समाहितः।
सकालमृत्युं निर्जित्य सदायुष्यं समश्नुते॥22॥
yah pathechchhrinuyannityan shravayetsu samahitah;
sakalamrityun nirjity sadayushyan samashnute.
जो अपने मन को एकाग्र करके नित्य इसका पाठ करता है, सुनता अथवा दूसरों को सुनाता है, वह अकाल मृत्यु को जीतकर पूर्ण आयु का उपयोग करता है।
हस्तेन वा यदा स्पृष्ट्वा मृतं सञ्जीवयत्यसौ।
आधयोव्याध्यस्तस्य न भवन्ति कदाचन॥23॥
hasten va yada sprishtva mritan sangjivayatyasau;
aadhayovyadhyastasy n bhavanti kadachan.
जो व्यक्ति अपने हाथ से मरणासन्न व्यक्ति के शरीर का स्पर्श करते हुए इस मृतसञ्जीवन कवच का पाठ करता है, उस आसन्नमृत्यु प्राणी के भीतर चेतनता आ जाती है। फिर उसे कभी आधि-व्याधि नहीं होतीं।
कालमृयुमपि प्राप्तमसौ जयति सर्वदा।
अणिमादिगुणैश्वर्यं लभते मानवोत्तमः॥24॥
kalamriyumapi praptamasau jayati sarvada;
animadigunaishvaryan labhate manavottamah.
यह मृतसञ्जीवन कवच काल के हाथ में गये हुए व्यक्ति को भी जीवन प्रदान कर ‍देता है और वह मानवोत्तम अणिमा आदि गुणों से युक्त ऐश्वर्य को प्राप्त करता है।
युद्दारम्भे पठित्वेदमष्टाविशतिवारकं।
युद्दमध्ये स्थितः शत्रुः सद्यः सर्वैर्न दृश्यते॥25॥
yuddarambhe pathitvedamashtavishativarakan;
yuddamadhye sthitah shatruh sadyah sarvairn drishyate.
युद्ध आरम्भ होने के पूर्व जो इस मृतसञ्जीवन कवच का 28 बार पाठ करके रणभूमि में उपस्थित होता है, वह उस समय सभी शत्रुऔं से अदृश्य रहता है।
न ब्रह्मादीनि चास्त्राणि क्षयं कुर्वन्ति तस्य वै।
विजयं लभते देवयुद्दमध्येऽपि सर्वदा॥26॥
n brahmadini chastrani kshayan kurvanti tasy vai;
vijayan labhate devayuddamadhye-a-pi sarvada.
यदि देवताओं के भी साथ युद्ध छिड जाय तो उसमें उसका विनाश ब्रह्मास्त्र भी नही कर सकते, वह विजय प्राप्त करता है।
प्रातरूत्थाय सततं यः पठेत्कवचं शुभं।
अक्षय्यं लभते सौख्यमिह लोके परत्र च॥27॥
pratarootthay satatan yah pathetkavachan shubhan;
akshayyan labhate saukhyamih loke paratr ch.
जो प्रात:काल उठकर इस कल्याणकारी कवच का सदा पाठ करता है, उसे इस लोक तथा परलोक में भी अक्षय सुख प्राप्त होता है।
सर्वव्याधिविनिर्मृक्तः सर्वरोगविवर्जितः।
अजरामरणो भूत्वा सदा षोडशवार्षिकः॥28॥
sarvavyadhivinirmriktah sarvarogavivarjitah;
ajaramarano bhootva sada shodashavarshikah.
वह सम्पूर्ण व्याधियों से मुक्त हो जाता है, सब प्रकार के रोग उसके शरीर से भाग जाते हैं। वह अजर-अमर होकर सदा के लिये सोलह वर्ष वाला व्यक्ति बन जाता है।
विचरव्यखिलान् लोकान् प्राप्य भोगांश्च दुर्लभान्।
तस्मादिदं महागोप्यं कवचम् समुदाहृतम्॥29॥
vicharavyakhilan lokan prapy bhoganshch durlabhan;
tasmadidan mahagopyan kavacham samudahritam.
इस लोक में दुर्लभ भोगों को प्राप्त कर सम्पूर्ण लोकों में विचरण करता रहता है। इसलिये इस महागोपनीय कवच को मृतसञ्जीवन नाम से कहा है।
मृतसञ्जीवनं नाम्ना देवतैरपि दुर्लभम्॥30॥
mritasangjivanan namna devatairapi durlabham.
यह देवताओं के लिय भी दुर्लभ है।
इति वसिष्ठ कृत मृतसञ्जीवन स्तोत्रम्।
महामृत्युंजय साधना :: प्रत्यक्षं ज्योतिषं शास्त्रम् अर्थात् ज्योतिष प्रत्यक्ष शास्त्र है। फलित ज्योतिष में महादशा एवं अन्तर्दशा का बड़ा महत्व है। वृहत्पाराशर होराशास्त्र में अनेकानेक दशाओं का वर्णन है। आजकल विंशोत्तरी दशा का प्रचलन है। मारकेश ग्रहों की दशा एवं अन्तर्दशा में महामृत्युंजय प्रयोग फलदायी है।
जन्म, मास, गोचर, अष्टक आदि में ग्रहजन्य पीड़ा के योग, मेलापक में नाड़ी के योग, मेलापक में नाड़ी दोष की स्थिति, शनि की साढ़ेसाती, अढय्या शनि, पनौती (पंचम शनि), राहु-केतु, पीड़ा, भाई का वियोग, मृत्युतुल्य विविध कष्ट, असाध्य रोग, त्रिदोषजन्य महारोग, अपमृत्युभय आदि अनिष्टकारी योगों में महामृत्युंजय प्रयोग रामबाण औषधि है।
शनि की महादशा में शनि तथा राहु की अनिष्टकारी अन्तर्दशा, केतु में केतु तथा गुरु की अनिष्टकारी अन्तर्दशा, रवि की महादशा में रवि की अनिष्टकारी अंतर्दशा, चन्द्र की महादशा में बृहस्पति, शनि, केतु, शुक तथा सूर्य की अनिष्टकारी अन्तर्दशा, मंगल तथा राहु की अनिष्टकारी अन्तर्दशा, राहु की महादशा में गुरु की अनिष्टकारी अन्तर्दशा, शुक्र की महादशा में गुरु की अनिष्टकारी अन्तर्दशा, मंगल तथा राहु की अन्तर्दशा, गुरु की महादशा में गुरु की अनिष्टकारी अंतर्दशा, बुध की महादशा में मंगल-गुरु तथा शनि की अनिष्टकारी अन्तर्दशा आदि इस प्रकार मारकेश ग्रह की दशा अन्तर्दशा में सविधि मृत्युंजय जप, रुद्राभिषेक एवं शिवार्जन से ग्रहजन्य एवं रोगजन्य अनिष्टकारी बाधाएँ शीघ्र नष्ट होकर अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है।
उपर्युक्त अनिष्टकारी योगों के साथ ही अभीष्ट सिद्धि, पुत्र प्राप्ति, राजपद प्राप्ति, चुनाव में विजयी होने, मान-सम्मान, धन लाभ, महामारी आदि विभिन्न उपद्रवों, असाध्य एवं त्रिदोषजन्य महारोगादि विभिन्न प्रयोजनों में सविधि प्रमाण सहित महामृत्युंजय जप से मनोकामना पूर्ण होती है।
विभिन्न प्रयोजनों में अनिष्टता के मान से 1 करोड़ 24 लाख, सवा लाख, दस हजार या एक हजार महामृत्युंजय जप करने का विधान उपलब्ध होता है। मंत्र दिखने में जरूर छोटा दिखाई देता है, किन्तु प्रभाव में अत्यंत चमत्कारी है।
देवता मंत्रों के अधीन होते हैं- मंत्रधीनास्तु देवताः। मंत्रों से देवता प्रसन्न होते हैं। मंत्र से अनिष्टकारी योगों एवं असाध्य रोगों का नाश होता है तथा सिद्धियों की प्राप्ति भी होती है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद, तैत्तिरीय संहिता एवं निरुवतादि मंत्र शास्त्रीय ग्रंथों में त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्द्धनम् उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्। उक्त मंत्र मृत्युंजय मंत्र के नाम से प्रसिद्ध है।
शिवपुराण में सतीखण्ड में इस मंत्र को 'सर्वोत्तम' महामंत्र' की संज्ञान से विभूषित किया गया है- मृत संजीवनी मंत्रों मम सर्वोत्तम स्मृतः। इस मंत्र को शुक्राचार्य द्वारा आराधित 'मृतसंजीवनी विद्या' के नाम से भी जाना जाता है। नारायणणोपनिषद् एवं मंत्र सार में- मृत्युर्विनिर्जितो यस्मात तस्मान्यमृत्युंजय स्मतः अर्थात् मृत्यु पर विजय प्राप्त करने के कारण इन मंत्र योगों को 'मृत्युंजय' कहा जाता है। सामान्यतः मंत्र तीन प्रकार के होते हैं- वैदिक, तांत्रिक, एवं शाबरी। इनमें वैदिक मंत्र शीघ्र फल देने वाले त्र्यम्बक मंत्र भी वैदिक मंत्र हैं।
मृत्युंजय जप, प्रकार एवं प्रयोगविधि का मंत्र महोदधि, मंत्र महार्णव, शारदातिक, मृत्युंजय कल्प एवं तांत्र, तंत्रसार, पुराण आदि धर्मशास्त्रीय ग्रंथों में विशिष्टता से उल्लेख है। मृत्युंजय मंत्र तीन प्रकार के हैं- पहला मंत्र और महामृत्युंजय मंत्र। पहला मंत्र तीन व्यह्यति- भूर्भुवः स्वः से सम्पुटित होने के कारण मृत्युंजय, दूसरा ॐ हौं जूं सः (त्रिबीज) और भूर्भुवः स्वः (तीन व्याह्यतियों) से सम्पुटित होने के कारण 'मृतसंजीवनी' तथा उपर्युक्त हौं जूं सः (त्रिबीज) तथा भूर्भुवः स्वः (तीन व्याह्यतियों) के प्रत्येक अक्षर के प्रारंभ में ॐ का सम्पुट लगाया जाता है। इसे ही शुक्राचार्य द्वारा आराधित महामृत्युंजय मंत्र कहा जाता है।
इस प्रकार वेदोक्त 'त्र्यम्बकं यजामहे' मंत्र में ॐ सहित विविध सम्पुट लगने से उपर्युक्त मंत्रों की रचना हुई है। 
उपर्युक्त तीन मंत्रों में मृतसंजीवनी मंत्र :: 
ॐ हौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्द्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ॐ स्वः भुवः ॐ सः जूं हौं ॐ।
यह मंत्र सर्वाधिक प्रचलित एवं फल देने वाला माना गया है। कुछ लघु मंत्र भी प्रयोग में आते हैं, जैसे-त्र्यक्षरी अर्थात तीन अक्षरों वाला ::
ॐ जूं सः पंचाक्षरी ॐ हौं जूं सः ॐ तथा ॐ जूं सः पालय पालय आदि। ॐ हौं जूं सः पालय पालय सः जूं हौं ॐ। हौं जूं सः पालय पालय सः जूं हौं ॐ।
इस मंत्र के 11 लाख अथवा सवा लाख जप का मृत्युंजय कवच यंत्र के साथ जप करने का विधान भी है। यंत्र को भोजपत्र पर अष्टगंध से लिखकर पुरुष के दाहिने तथा स्त्री के बाएँ हाथ पर बाँधने से असाध्य रोगों से मुक्ति होती है। सर्वप्रथम यंत्र की सविधि विभिन्न पूजा उपचारों से पूजा-अर्चना करना चाहिए, पूजा में विशेष रूप से आंकड़े, एवं धतूरे का फूल, केसरयुक्त, चंदन, बिल्वपत्र एवं बिल्वफल, भांग एवं जायफल का नैवेद्य आदि।
मंत्र जप के पश्चात् सविधि हवन, तर्पण एवं मार्जन करना चाहिए। मंत्र प्रयोग विधि सुयोग्य वैदिक विद्वान आचार्य के आचार्यत्व या मार्गदर्शन में सविधि सम्पन्न हो तभी यथेष्ठ की प्राप्ति होती है, अन्यथा अर्थ का अनर्थ होने की आशंका हो सकती है।
जप विधि में साधक को नित्यकर्म से निवृत्त हो आचमन-प्राणायाम के साथ मस्तक पर केसरयुक्त चंदन के साथ रुद्राक्ष माला धारण कर प्रयोग प्रारंभ करना चाहिए। प्रयोग विधि में मृत्युंजय देवता के सम्मुख पवित्र आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर शरीर शुद्धि कर संकल्प करने का विधान प्रमुख है। संकल्प के साथ विनियोग न्यास एवं ध्यान जप विधि के प्रमुख अंग हैं। मृत्युंजय महादेवों त्राहिमाम् शरणामम्। जन्म-मृत्यु जरारोगैः पीड़ितम् कर्मबंधनैः के ध्यान के साथ जप निवेदन करना चाहिए। अनिष्टकारी योगों एवं असाध्य रोगों से मुक्ति की यह रामबाण महौषधि है।
Recitation or listening of this Mantr, 3 to 108 times in early morning is highly beneficial. This Mantr protects one along with his family, friends, relatives, elders, from accidents and misfortunes of all kinds and has great curative effect over diseases declared incurable.
व्याधि-बीमारी-रोग, संकट, कष्ट, मृत्यु का आभास होने पर मनुष्य को इस मन्त्र का पूरी लग्न-निष्ठां-ईमानदारी के साथ श्रवण, मनन, पाठ करना चाहिए। इसके जप व उपासना के तरीके आवश्यकता के अनुरूप होते हैं। काम्य उपासना के रूप में भी इस मंत्र का जप किया जाता है। जप के लिए अलग-अलग मंत्रों का प्रयोग होता है। मंत्र में दिए अक्षरों की संख्या से इनमें विविधता आती है। स्वयं के लिए निम्न मन्त्रों का जप इसी तरह होगा जबकि किसी अन्य व्यक्ति के लिए यह जप किया जा रहा हो तो 'मां' के स्थान पर उस व्यक्ति का नाम लेना होगा।
(1). एकाक्षरी मंत्र :-
हौं।
(2). त्र्यक्षरी मंत्र :-
ॐ जूं सः।
(3). चतुराक्षरी मंत्र :-
ॐ वं जूं सः।
(4). नवाक्षरी मंत्र :-
ॐ जूं सः पालय पालय।
(5). दशाक्षरी (10) मंत्र :-
ॐ जूं सः मां पालय पालय।
तांत्रिक बीजोक्त मंत्र :: महामृत्युंजय मन्त्र के अलग-अलग रुप हैं। अपनी सुविधा के अनुसार किसी भी मंत्र का चुनाव करके नियमित रूप से इन मंत्रों का पाठ करना चाहिये। यह मन्त्र महर्षि वशिष्ठ ने हमें प्रदान किया। आचार्य शौनक ने ऋग्विधान में इस मन्त्र का वर्णन किया है। नियम पूर्वक व्रत तथा इस मंत्र द्वारा पायस (खीर, pudding) के हवन से दीर्घ आयु प्राप्त होती है, मृत्यु दूर है तथा प्रकार सुख प्राप्त होता है। इस मंत्र के अधिष्ठाता भगवान् शिव हैं। वेदोक्त महामृत्युंजय मंत्र निम्नलिखित है :-
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥[ऋग्वेद 7.59.12]
सुगन्ध युक्त, त्रिनेत्रधारी भगवान् शिव समस्त प्राणियों को भरण-पोषण, पालन-पोषण करने वाले, हमें संसार सागर (मृत्यु-अज्ञान) से उसी प्रकार बन्धन मुक्त करें, जिस प्रकार खीरा अथवा ककड़ी पककर बेल से अलग हो जाती है।
I worship Bhagwan Shiv the three-eyed Supreme deity, who is full of fragrance and who nourishes all beings; may He liberate me from the death (of ignorance), for the sake of immortality (of knowledge and truth), just as the ripe cucumber is severed from its bondage (the creeper).
संजीवनी मंत्र अर्थात्‌ संजीवनी विद्या ::
ॐ ह्रौं जूं सः। ॐ भूर्भवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनांन्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ। सः जूं ह्रौं ॐ॥
महामृत्युंजय मंत्र :: ॐ ह्रौं जूं सः। ॐ भूः भुवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌।
स्वः भुवः भूः ॐ। सः जूं ह्रौं ॐ॥


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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)

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