Friday, November 13, 2015

मन्त्र महोदधि MANTR MAHODADHI

मन्त्र महोदधि
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥
[श्रीमद् भगवद्गीता 2.47]
"मननात् त्रायते इति मंत्र:"
मनन करने पर जो त्राण दे या सभी विकारों से रक्षा करे वही मंत्र है।
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति हेतु प्रेरणा देने वाली शक्ति को मंत्र कहते हैं। तंत्रानुसार देवता के सूक्ष्म शरीर को या इष्टदेव की कृपा को मंत्र कहते हैं। दिव्य शक्तियों की कृपा को प्राप्त करने में उपयोगी शब्द शक्ति को 'मंत्र' कहते हैं। अदृश्य गुप्त शक्ति को जागृत करके अपने अनुकूल बनाने वाली विधा को मंत्र कहते हैं। और अंत में इस प्रकार गुप्त शक्ति को विकसित करने वाली विधा को मंत्र कहते हैं।
मन्त्र महोदधि नामक ग्रंथ में अनेक अरित्र मंत्रों का समावेश है, जो आद्य माना जाता है।
अरित्र :: शत्रु से रक्षा करनेवाला, आगे बढ़ाने वाला, बल्ला जिससे नाव खेते हैं, डाँड़, क्षेपणी, निपातक, नाव खेने का डाँड़ा, वह डोरी जिससे जल की गहराई नापी जाती है, जहाज या नाव का लंगर।
आद्य :: आदि, मूल; primitive, primordial, opening, primary, proto, prototypical.
यहाँ तक मन्त्र समूहों का तथा कामना विशेष में प्रयुक्त किये जाने वाले मन्त्रों का निरुपण कर ग्रथकार सर्वदेव साधारण पूजा विधान कहने का उपक्रम करते हैं। अब मैं देवताओं की सामान्य रुप से की जाने वाली पूजा विधि को कहता हूँ :-
गुरु पूजन :-
बुद्धिमान साधक ब्रह्म मुहूर्त में उठ कर शौचादि क्रिया से निवृत्त होकर शुद्ध वस्त्र धारण कर, मन्त्र स्नान करके देव पूजा गृह में प्रवेश करे और देवागार का समार्जन आदि कार्य करे। तदनन्तर मङ्गला आरती करके निर्माल्य को हटा कर दूर करे। फिर देवता को पुष्पाञ्जलि समर्पित कर उन्हें दन्तधावन तथा आचमनार्थ जल प्रदान करे।
फिर अपने इष्टदेव को नमस्कार कर शुद्ध आसन पर बैठकर अपने गुरु का स्मरण करे। प्रसन्नता की मुद्रा में शिरःस्थ श्वेत कमल पर आसीन दो भुजा और दो नेत्रों अहं ब्रह्मास्मि इस प्रकार की भावना में लीन, नित्यमुक्त सर्वथा शोकरहित गुरुदेव का स्मरण कर पुनः उनके स्वरुप में अपनी एकता की भावना कर उनका पूजन करे।
तदनन्तर, निम्न दो श्लोकों से अपने इष्टदेव की प्रार्थना करे। प्रार्थना में जिसके इष्टदेव विष्णु हों उसे इसी प्रकार की प्रार्थना करनी चाहिए :-
त्रैलोक्यचैतन्याम्यादिदेव श्रीनाथ विष्णो भवदाज्ञयैव।
प्रातः समुत्थाय तवप्रियार्थ संसारयात्रामनुवर्तयिष्ये॥
जानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिर्जानाम्यधर्म न च मे निवृत्तिः।
केनापि देवेन हृदिस्थितेन यथानियुक्तोऽस्मि तथा करोमि॥
शिवोपासक को "श्री नाथ विष्णो" की जगह "विश्वेश शम्भो भवदाज्ञयैव" दुर्गोपासक को "भगवानि दुर्गे भवदाज्ञयैव" इसी प्रकार छन्दोनुकूल ऊह कर अपने इष्टदेव का संबुद्धयन्त तत्त्त्पदों का उच्चारण कर प्रार्थान करनी चाहिए।
इसके बाद अपने इष्टदेव के नाम और गुणों का स्मरण करते हुए स्नानार्थ नदी, कूप अथवा तडागादि में जाना चाहिये। विद्वानों ने आभ्यन्तर और बाह्य भेद से स्नान दो भेद कहे हैं।
आभ्यन्तर स्नान का विधान ::
करोड़ों सूर्य के समान तेजस्वी अपने दिव्य आभूषणों एवं आयुधों को धारण किये शिरःस्थ सहस्त्रदल पर आसीन अपने इष्टदेव का स्मरण करते हुये ब्रह्मरन्ध्र से आती हुई उनके चरणोदक की धारा से अपने शरीर के समस्त पापों को धो कर बहा देना और पाप रहित हो जाना यह आन्तर स्नान कहा जाता है।
बाह्य स्नान :: इस प्रकार आभ्यंतर स्नान कर वैदिक मार्ग से अपनी अपनी शाखा के अनुसार बाह्य स्नान करे। फिर जल में अघमर्षण सूक्त का जप करे। ऋग्वेद के दशम मण्डल में माधुच्छन्दस ऋषि के इस अघमर्षण सूक्त का महत्व यह है कि सन्ध्या-काल में प्राणायाम के बाद इसी सूक्त के विनियोग का विधान है। इस सूक्त के मंत्रोच्चार के बाद ही सूर्य को अर्घ्य देने की पात्रता है।
अघम-र्षण का अर्थ है, पाप से निवृत्ति। मार्जन की प्रक्रिया में इस सूक्त की ऋचाओं के विनियोग के पीछे तथ्य यह है कि सृष्टि के आरम्भ को स्मरण करना वैदिक-हिन्दु संस्कृति में अतिपावन है।
अघमर्षण सूक्त ::
ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत।
ततो रात्र्यजायत तत: समुद्रो अर्णव:॥
सबसे पहले तप आया, तप ने दो पदार्थ प्रकट किये। एक था ऋत, दूसरा था सत्य। ये वे शाश्वत नियम हैं, जिनसे सृष्टि हुई। तब निबिड़ अंधकार में डूबी महारात्रि उत्पन्न हुई और फिर असंख्य अणुओं से भरा हुआ महान् समुद्र उपजा।[ऋग्वेद.10.190.1]
समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत।
अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी॥
अणुओं के महासमुद्र से ही समय की उत्पत्ति हुई। समय के साथ ही दिन और रात बने, गतिशील समय के वश में सम्पूर्ण विश्व हुआ।[ऋग्वेद.10.190.2]
सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्।
दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्व:॥
विधाता ने जैसी कल्पना की थी, वैसे ही सूर्य और चन्द्रमा उदित हुए। आकाश छा गया, पृथ्वी प्रकट हुई, अंतरिक्ष दिखाई देने लगा, फिर वह ज्योतिर्मय लीला निकेतन झिलमिला उठा, जहाँ सृजन के ताने-बाने बुने गये।[ऋग्वेद.10.190.3]
नन्द, सुनन्द, चण्ड, प्रचण्ड, बल, प्रबल, बलभद्रा तथा सुभद्रा, ये भगवान् श्री हरी विष्णु के द्वारपाल हैं। नन्दी, महाकाल, गणेश, वृषभ, भृंगिरिटि, स्कन्द, पार्वतीश एवं चण्डेश्वर, ये भगवान् शिव के द्वारपाल हैं। ब्राह्यी आदि अष्टमातृकायें शक्ति की द्वारपाल हैं। वक्रतुण्ड, एकदंष्ट्र, महोदर, गजानन, लम्बोदर, विकट, विघ्नराज एवं धूम्रराज, ये गणपति के द्वारपाल हैं। इन्द्र, यम, वरुण, कुबेर, ईशान, अग्नि, निऋति एवं वायु, ये त्रिपुरा के द्वारपाल हैं।
इस क्रम से सांप्रदायिक द्वार पूजा करने के बाद दिव्य, अन्तरिक्ष एवं भौम इन त्रिविध विघ्नों का उत्सारण करना चाहिये।
उत्सारण :: गति में लाना, दर या भाव कम करना, अतिथि या अभ्यागत का स्वागत करना।
विघ्नोत्सारण का विधान :: स्वयं को धानस्थ शंकर मानकर दिव्य दृष्टि से विघ्नों का, अर्घ्य जल से अन्तरिक्षस्थ विघ्नों का तथा पैर से भूमिगत विघ्नों का उत्सारण करना चाहिये।
तदनन्तर, निम्न दो मन्त्रों को पढकर सभी प्रकार के विघ्नों का उत्सारण करना चाहिये :-
अपसर्पन्तु ते भूता ये भूता भूमिसंस्थिताः।
ये भूता विघ्नकर्तारस्ते नश्यन्तु शिवाज्ञया॥1॥
अपक्रामन्तु भूतानि पिशाचाः सर्वतो दिशम्।
सर्वेषामविरोधेन ब्रह्माकर्मसमारभे॥2॥
जाते हुये विघ्नों को अवकाश देने के लिये अपना वामाङ्ग संकुचित कर लेना चाहिये।
फिर दाहिना पैर आगे रख कर गृह में प्रवेश करना चाहिये तथा नैऋत्य कोण में क्षेत्रपाल एवं विधाता का पूजन करना चाहिये।
आसन पर बैठने का विधान :: प्रथम कुशासन उसके ऊपर व्याघ्रचर्म उसके ऊपर रेशमी वस्त्र इस क्रम से रखकर साधक, "अनन्तासनाय नमः, विमलासनाय नमः, पद्‌मासनाय नमः", इन तीन मन्त्रों को पढकर तीन कुशा स्थापित करे। काष्ठ, पत्ता एवं कठिन बाँस, पत्थर, तृणगोशकृत् एवं मिट्टी से बन आसन विषम होते हैं। अतः पीड़ा दायक होने के कारण इन आसनों को वर्जित कर देना चाहिये।
निम्न मन्त्र को विनियोगपूर्वक पढ़कर पूर्व या उत्तर की ओर मुख कर स्वस्तिक, पद्मासन अथवा वीरासन से बैठना चाहिये।
ॐ पृथ्वी त्वया घृता लोका देवित्वं विष्णुनाधृता।
त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु चासनम्॥
आसन पर बैठने का विनियोग ::
ॐ पृथ्वीतिमन्त्रस्य मेरुपृष्ठ ऋषिः सुतल्म छन्दः कूर्मो देवता आसनोपवेशेने विनियोगः।
आसनों के लक्षण ::
स्वास्तिकासन :: पैर दोनों जानु और ऊरु के बीज दोनों पाद तल को अर्थात् दक्षिण पाद के जानु और ऊरु के मध्य वाम पाद तल एवं वाम पाद के जानु और ऊरु के मध्य दक्षिण पाद तल को स्थापित कर शरीर को सीधे कर बैठने का नाम स्वस्तिकासन है।
पद्मासन :: दोनों ऊरु के ऊपर दोनों पादतल को स्थापित कर व्युत्क्रम पूर्वक (हाथों को उलट कर) दोनों हाथों से दोनों हाथ के अँगूठे को बींध लेने का नाम पद्मासन है।
वीरासन :: एक पैर को दूसरे पैर के नितम्ब के नीचे स्थापित करे तथा दूसरे पादतल को नितम्ब के नीचे स्थापित किए गए पैर के ऊरु पर रक्खे तथा शरीर को सीधे तो वह वीरासन कहा जाता है।
कालान्तर (मन्वन्तर और महायुग) के कारण वैदिक शाखाओं के अनेक भेद होने से उस प्रकार के स्नान के अनेक भेद हैं।
संकल्प :: जल में तीर्थावाहन, मृत्तिका प्रार्थना, मृत्तिका द्वारा अङ्ग लेपन "ॐ आपो हिष्ठा मयो भुवः" इत्यादि मन्त्रों से जल द्वारा शिरः प्रोक्षण, तदनन्तर सूर्याभिमुख नाभि मात्र जल में स्नान, पुनः "ॐ चित्पतिर्मा पुनातु" इत्यादि मन्त्रों से शरीर का पवित्रीकरण करने के पश्चात् अघमर्षण सूक्त का जप करना चाहिये।
अघमर्षण का विनियोग ::
ॐ अघमर्षणसूक्तस्य अघमर्षणऋषिनुष्टुप्छन्दः भाववृतो देवता अघमर्षणे विनियोगः।
अघमर्षण सूक्त के बाद मन्त्र स्नान हेतु प्रथम प्राणायाम करें। फिर मूल मन्त्र से षडङ्गन्यास करें।
फिर अंकुश मुद्रा दिखा कर निम्न तीन मन्त्रों से जल में तीर्थों का आवाहन करना चाहिये :-
ब्रह्माण्डोदरतीर्थानि करैः स्पृष्टानि ते रवे।
तेन सत्येन मे देव तीर्थं देहि दिवाकार॥
गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति।
नर्मदे सिन्धुकावेरि जलेस्मिन्सन्निधिं कुरु॥
आवाहयामि त्वा देवि स्नानार्थमिहसुन्दरि।
एहि गङ्गे नमस्तुभ्यं सर्वतीर्थसमन्विते॥
तत्पश्चात् "वं" इस सुधाबीज को पढकर उस तीर्थजल में मिला देना चाहिये। तदनन्तर उस जले में अग्नि , सूर्य और ग्लौं अर्थात् चन्द्र मण्डलों का उस जल में ध्यान करना चाहिये। फिर "वं" मन्त्र को 12 बार पढकर उस जल में मिलाकर कवच "हुं" मन्त्र से जल को गोठं देना चाहिये, तदनन्तर अस्त्र मन्त्र "फट्" इस मन्त्र से जल की रक्षा करनी चाहिये।
फिर मूल मन्त्र से 11 बार उस जल का अभिमन्त्रण कर नमन करे और ‘आधारः’ इस वक्ष्यमाण मन्त्र से जल देवता की आकॄति का ध्यान कर, उन्हें प्रणाम करना चाहिये।
फिर उस जल में देवताओं का स्मरण करते हुये मूल मन्त्र से स्नान करना चाहिये। तदनन्तर जल से ऊपर आ कर कलश मुद्रा दिखाकर 7 बार अपने शिर पर अभिषेक करना चाहिये।
तत्पश्चात, कलशमुद्रा का सम्पादन करें।
"हस्तद्वयेन सावकशिकमुष्टिकरेण कुम्भमुद्रा"।
दोनों हाथ की मुट्ठी में अवकाश रखकर एक में मिलाने से कलश मुद्रा निष्पन्न होती है।
फिर मूल मन्त्र के साथ निम्न चार मन्त्रों को पढकर अपने शरीर पर जल का अभिषेक करना चाहिये।
आचार्य शंकर द्वारा कहे गए निम्न चारों मन्त्रों को का उच्चारण करते हुए ब्राह्मण का चरणोदक शालिग्राम शिला चरणामृत पीकर शंख स्थित जल को शालिग्राम शिला के चारों ओर 3 बार घुमाकर अपने शिर को अभिषिक्त करना चाहिये।
सिसृक्षोर्निखिलं विश्वं मुहुः शुक्रं प्रजापतेः।
मातरः सर्वभूतानामापो देव्यः पुनन्तु माम्॥1॥
अलक्ष्मीं मलरुण्म या सर्वभूतेषु संस्थिताम्।
क्षालयन्ति ल्निजस्पर्शादापो देव्यः पुनन्तु माम्॥2॥
यन्मे केषेषु दौर्भ्याग्यं सीमन्ते यच्च मूर्द्धनि।
ललाटॆ कर्णयोरक्ष्णोरापस्तद् घ्नन्तु वो नमः॥3॥
आयुरारोग्यमैश्वर्यमरिपक्षक्षयः सुखम्।
सन्तोषः क्षान्तिरास्तिक्यं विद्या भवतु वो नमः॥4॥
फिर देव-मनुष्य एवं पितरों का संक्षेप में तर्पण करना चाहिये। फिर स्नान किये गये वस्त्र का प्रक्षालन कर उसे निचोड़ कर रख देना चाहिए और दोनों घृटनों तक धौत वस्त्र धारण कर पश्चात् उत्तरीय वस्त्र धारण करना चाहिये।
संक्षिप्त तर्पण विधि :: नाभि मात्र जल में खडे हो कर "ॐ ब्रह्मादयो देवास्तृप्यन्ताम्" से देवताओं का, "गौतमादयो ऋषयस्तृप्यन्ताम्" से एक एक अञ्जलि जल देकर, "सनकादयः मनुष्यास्तृप्यन्ताम्" इस मन्त्र से दो अञ्जलि जल प्रदान कर देवता, ऋषि और मनुष्यों का तर्पण करें।
तत्पश्चात :- "कव्यवाडनलादयो देवपितरस्तृप्यन्ताम्’ अमुक गोत्राः अस्मात्पितापितामहप्रपितामहाः सपत्नीकास्तृप्यन्ताम् अमुकगोत्राः अस्मन्मातामह-प्रमातामह-वृद्धप्रमातामहाः सपत्नीका तृप्यन्ताम्" से देव पितरों एवं स्वपितरों को तीन-तीन अञ्जलि जल प्रदान करे। 
आब्रह्यस्तम्बपर्यन्तं देवर्षिपितृमानवाः।
तृप्यन्तु पितरः सर्वे मातृमातामहादयः॥
श्लोक से समस्त पितरों को तीन-तीन अञ्जलि जल प्रदान करें।
यदि तीर्थ न मिल सके तो घर पर ही गर्म जल से स्नान करना चाहिये। घर पर स्नान करते समय यथोचित स्वल्प मन्त्र का ही प्रयोग करना चाहिये तथा हाथ में जल लेकर अघमर्षण मन्त्र पढना चाहिये। ज्वरादि रोगों के कारण स्नान करन में असमर्थ होने पर भस्म अथवा गोधूलि से ही स्नान कर लेना चाहिये।
तदनन्तर बुद्धिमान साधक आसन पर बैठकर आचमन करे, फिर ईश्वर के आदि 12 नामों से शरीर के 12 अङ्गों पर तिलक लगाये। ललाट, उदर, हृदय, कण्ठ, दक्षिणपार्श्वे, दाहिना कन्धा, वामपार्श्व, बाया कन्धा, दाहिना कान, वाँया कान पीठ एवं ककुद्‍; ये 12 अङ्ग तिलक लगाने के लिये कहे गये हैं। ललाट पर गदा, हृदय पर खड्‌ग दोनों भुजाओं पर शंख एवं चक्र, शिर पर धनुष बाण की आकृति इस प्रकार वैष्णवों को तिलक लगाने का विधान कहा गया है।
शैवों के त्रिपुण्ड लगाने का विधान ::
अग्निरिति भस्म, वायुरिति भस्म, जलमिति भस्म, स्थलमिति भस्म, व्योमेति भस्म सर्वं ह वा इदं भस्मम् एतानि चक्षूंषि तस्माद् व्रतमेतत्पाशुपतं यद् भस्मनाङ्गनि संस्पृशेत्।
उपरोक्त मन्त्र से अग्निहोत्र की भस्म लेकर निम्न मन्त्र से अभिमन्त्रित करें :-
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥
तत्पश्चात् :-
तत्पुरुषाय नमः :- इस मन्त्र से मस्तक में,
अघोराय नमः :- इस मन्त्र से दाहिने कन्धे में,
सद्योजाताय नमः :- इस मन्त्र से बायें कन्धे में,
वामदेवाय नमः :- इस मन्त्र से जथर में,
ईशानाय नमः :- इस मन्त्र से वक्षःस्थल में त्रिपुण्ड लगायें।
उपर्युक्त नामों के स्थान पर निम्न मंत्रों का प्रयोग है :-
तत्पुरुषाय विद्महे, अधोरेम्यः, सद्योजातं प्रपद्यामि,
वामदेवाय नमः, ईशानः सर्वविद्यानाम्।
इन पाँच ऋचाओम से उपर्युक्त पाँचों स्थानोम में त्रिपुण्ड लगायें। फिर अपनी शाखा के अनुसार वैदिक सन्ध्या करके मन्त्र साधना-सन्ध्या करनी चाहिये।
मन्त्र संध्या की विधि :: प्राणायाम एवं षडङ्गन्यास कर हाथ में जल लेकर मूल मन्त्र का जप करते हुए तीन बार आचमन करना चाहिये। पुनः दाहिने हाथ से जल लेकर बायें हाथ में रखकर उसे दाहिने हाथ से ढककर, उससे गिरते हुये जल बिन्दुओं से मूल मन्त्र पढते हुये 7 बार शरीर का मार्जन कर शेष जल को पुनः दाहिने हाथ में लेकर उसे नासिका के पास ले जाना चाहिये।
तत्पश्चात ईडा नाड़ी से उसे भीतर खींच कर उसके द्वारा देहगत पापों को धो कर कृष्णवर्ण पाप पुरुष के साथ पिङ्गला द्वारा निकलने की भावना कर अपने सामने कल्पित वज्र शिला पर "फट्‍" इस अस्त्र मन्त्र से फेंक देना चाहिये। इस प्रकार से किया गया अघमर्षण साधक के सारे सञ्चित पापों को दूर कर देता है।
इतना कर लेने के पश्चात् अञ्जलि में जल ले कर मूल मन्त्र के साथ षोडशार्ण मन्त्र "रविमण्डल्संस्थाय देवायार्ध्यं कल्पयामि" का उच्चारण कर अर्घ्य देना चाहिये।
अर्घ्यदान के पश्चात् साधक अपने इष्टदेव का सूर्यमण्डल में एकाग्रचित्त से ध्यान कर गायत्री मन्त्र तथा मूल मन्त्र का एक सौ आठ बार जप करे और 28 बार जल से तर्पण करें। इस प्रकार भगवान् सूर्य को अर्घ्य देने के बाद संहारमुद्रा से समस्त तीर्थो का विसर्जन कर सूर्यदेव एवं लोकपालों को प्रणाम कर अपने इष्टदेव की स्तुति करें। तत्पश्चात यज्ञशाला में जा कर पैर धोकर आचमन करें। फिर सविधि गार्हपत्य अग्नि में होम कर सभी अग्नियों का उपस्थान करें, और देव मन्दिर में जाकर यथाविधि आचमन करें।
वैष्णव आचमन विधि :: "ॐ केशवाय नमः, ॐ नारायणाय नमः, ॐ माधवाय नमः", इन तीन मन्त्रों से हाथ का प्रक्षालन कर "मधुसूदनाय नमः, त्रिविक्रमाय नमः", इन दो मन्त्रों से ओष्ठ प्रक्षालन करें। फिर "वामनाय नमः, श्रीधराय नमः", इन दो मन्त्रों से मुख, फिर "हृषीकेशाय नमः" से दाहिना हाथ, फिर "पद्मनाभाय नमः" इस मन्त्र से पादप्रक्षालन करना चाहिये।
फिर "दामोदराय नमः" से मस्तक का प्रोक्षण कर संकर्षणादि के चतुर्थ्यन्त रुपों के प्रारम्भ में वेदादि (ॐ) तथ अन्त में "नमः" लगाकर हाथ की अँगुलियों से मुख आदि अङ्गों पर क्रमशः निम्न प्रकार न्यास करना चाहिये :-
"ॐ संकर्षणाय नमः" से मुख पर, "ॐ वासुदेवाय नमः, ॐ प्रद्युम्नाय नमः" से दोनों नासिकाओं पर, "ॐ अनिरुद्धाय नमः, ॐ पुरुषोत्तमय नमः" से दोनो नेत्रों पर, "ॐ अधोक्षजाय नमः, ॐ नृसिंहाय नमः" से दोनों कानों पर, "ॐ अच्युताय नमः" से नाभि पर, "ॐ जनार्दनाय नमः" से हृदय पर, "ॐ उपेन्द्राय नमः" से शिर पर तथा "ॐ हरये नमः, ॐ विष्णवे नमः" से दोनों कन्धों पर न्यास करना चाहिये।
केशवादि चतुर्थ्यन्त नामों के प्रारम्भ में प्रणव तथा अन्त में नमः लगाकर मुख नासिका पर प्रदेशिनी से, नेत्र एवं कानों पर अनामिका से, नाभि पर कनिष्ठिका से तथा सभी अँगुलियों से अँगुलियों से अँगूठा मिलाकर सर्वत्र न्यास करना चाहिये। हृदय पर हथेली से तथा मस्तक तथा दोनों कन्धों पर सभी अँगुलियों से न्यास करन चाहिये।
शैवों की आचमन विधि :: "हां आत्मतत्त्वाय स्वाहा, हीं विद्यातत्त्वाय स्वाहा, हूं शिवतत्त्वाय स्वाहा" इन मन्त्रों से शैवोम को तीन बार आचमन करना चाहिये तथा "ऐं आत्मतत्त्वाय स्वाहा, ह्रीं विद्यातत्त्वाय स्वाहा, क्लीं शिवतत्त्वाय स्वाहा:" इन मन्त्रों से शाक्तों को आचमन करना चाहिये। हाथों का प्रक्षालन तथा अँगुलियों से अंगों के स्पर्श की प्रक्रिया उपांशु (बिना मन्त्र के मौन होकर) करनी चाहिये।
इस प्रकार आचमन कर लेने के पश्चात् सामान्य अर्घ्य (पूजा सामग्री) से देवागार के द्वार का पूजन करना चाहिये।
"तार (ॐ), विसर्ग सहित वहिन (र) और ख (ह) अर्थात् (ह्रः) फिर द्वारार्घ्य साधयामि" इतना कह कर अस्त्र मन्त्र (फट्‍) से अर्घ्य पात्र का प्रक्षालन करना चाहिये। फिर हृद (नमः) मन्त्र से जल भर कर "गङ्गे च यमुने चैव" इत्यादि मन्त्र से उसमें तीर्थों का आवाहन करना चाहिये। तदनन्तर निगम (प्रणव) मन्त्र से उसमें गन्धादि डालना चाहिये। फिर धेनुमुद्रा दिखाकर मूलमन्त्र से उसे अभिमन्त्रित करन चाहिये।
इस प्रकार के अर्घ्य से द्वार देवताओं का पूजन कर द्वारपालों का पूजन करना चाहिये। ये द्वारपाल सांप्रदयिक दष्टि से भिन्न-भिन्न कहे गये हैं।
अर्घ्य, पाद्य, आचमनीय, मधुपर्क एवं पुनराचमनीय के पाँचों पात्र तथा पुष्पादि अपनी दहिनी ओर रखना चाहिये और जलपात्र, व्यजन (पंखा), छत्र, लादर्श (शीशा) एवं चमर बायीं ओर स्थापित करना चाहिये।
साधक अञ्जलि बाँध कर अपनी बायीं ओर गुरु को तथा दाहिनी ओर गणपति को प्रणाम करे। दोनों हाथ पर अस्त्र (फट) मन्त्र से न्यास कर तीन बार ताली बजाकर अँगूठे एवं तर्जनी से शब्द करते हुये सदर्शन मन्त्र पढकर दिग्बन्धन करना चाहिये।
"ॐ नमः चतुर्थ्यन्त सुदर्शन अस्त्राय फट्"
प्रणव (ॐ), हृदय (नमः), "चतुर्थ्यन्त सुदर्शन" (सुदर्शनाय) और फिर "अस्त्राय फट्", यह मंत्र 12 अक्षरों का है।
इस मन्त्र से अपने चारों ओर अग्नि का प्राकार बनाकर साधक भूतों से अजेय हो जाता है। इसके पश्चात भूतशुद्धि, प्राणप्रतिष्ठा एवं पञ्चविध (सृष्टि, स्थिति, संहार, सृष्टि, स्थिति) मातृका न्यासों को करना चाहिये। तदनन्तर अन्य मातृका न्यास करना चाहिये, यथा :-
शैवों को "श्रीकण्ठ मातृकान्यास", वैष्णवों को "केशवादि कीर्तिन्यास", गाणपत्योम को "गणेश कलान्यास" तथा शाक्तों को "शक्ति कलान्यास" करना चाहिये।
इन न्यासों के ऋषि आदि ::
श्रीकण्ठ न्यास का विनियोग एवं षडङ्गन्यास :: इसके दक्षिणा मूर्ति ऋषि हैं, गायत्री छन्दं हैं और अर्द्धनारीश्वर देवता हैं। सब सिद्धियोम के लिये इसका विनियोग किया जात है। हल बीज है तथा स्वर शक्ति है। इससे क्रमशः गुप्ताङ्गं एव्म पैरों पर न्यास करन चाहिये। षड्‌दीर्घ सहित (ह्स) से षड्ङन्यास कर भगवान् शिव-शंकर का ध्यान करना चाहिये।
अस्य श्रीकण्ठमातृकामन्त्रस्य दक्षिणमूर्तिऋषि गायत्रीच्छन्दः अर्द्धनारीश्वरों देवता हलो बीजानि स्वरा शक्तयः सर्वकार्य सिद्धयर्थे न्यासे विनियोगः।
ऋष्यादिन्यास :-
ॐ दक्षिणामूर्ति ऋषये नमः, शिरसे, ॐ गायत्रीछन्दसे नमः, मुखे, ॐ अर्द्धनारीश्वरो देवतायै नमः, हृदि, ॐ विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे।
षडङ्गन्यास :-
ह्सां हृदयाय नमः, ह्सीं शिरसे स्वाहा, ह्सूम शिखार्य वषट्, ह्सैं कवचाय हुम्, ह्सौं नेत्रत्रयाय वौषट्, ह्सः अस्त्राय फट्।
अर्द्धनारीश्वर का ध्यान :- जिनके चार हाथों में पाश, अंकुश्य, वर और अक्षमाला शोभित हो रहे हैं, मस्तक पर चन्द्रकला धारण किये हुये त्रिनेत्र ऐसे सुवर्ण की कान्ति वाले भगवान् अर्द्धनारीश्वर का ध्यान करना चाहिये।
श्रीकण्ठ मातृकान्यास का प्रकार :- उक्त प्रकार से अर्द्धनारीश्वर भगवान् का ध्यान कर शिव व शक्ति के चतुर्थ्यन्त द्विवचन रुपों के आगे नमः लगा कर प्रारम्भ में "ह्सौं मातृकावर्णो" को लगाकर यथा क्रमेण मातृका स्थलों में न्यास करना चाहिये।
श्रीकण्ठ एवं पूर्णादरी, अनन्त एवं विरजा, सूक्ष्मेश एवं शाल्मली, त्रिमूर्तीश एवं लोलक्षि, अमरेश एवं वर्तुलाक्षी, अर्घीश एवं दीर्घघोणा, भारभूति एवं दीर्घमुखी, तिथीश एवं गोमुखी, स्थाण्वीश एवं दीर्घजिहवा, हर एवं कुम्भोदरी, झिण्टीश एवं ऊर्ध्वकेशी, भौतिकेश एवं विकृतमुखी, सद्योजात एवं ज्वालामुखी, अनुग्रहेश एवं उल्कामुखी, अक्रूरेश एवं श्रीमुखी, महासेनेश एवं विद्यामुखी, क्रोधीश अनुग्रहेश एवं उल्कामुखी, अक्रूरेश एवं श्रीमुखी, महासेनेश एवं विद्यामुखी, क्रोधीश एं महाकाली, चण्डेश एवं सरस्वती, पञ्चान्तक एवं सर्वसिद्धिगौरी, शिवोत्तमेश एवं त्रैलोक्यविद्या, एकरुद्र एवं मन्त्रशक्ति, कूर्मेश एवं आत्मशक्ति, एकनेत्रेश एवं भूतमातृ, चतुराननेश एवं लम्बोदरी, अजेश एवं द्रावणी, सर्वेश एवं नागरी, सोमेश एवं खेचरी, लाङ्गलीश एवं मञ्जरी, दारकेश एवं रुपिणी, अर्धनारीश एवं वारिणी, उमाकान्त एवं काकोदरी, आषाढीश एवं पूतना, चण्डीश एवं भद्रकाली, अन्त्रीश एवं योगिनी, मीनेश एवं शंखिनि, मेषेश एवं तर्जनी, लोहितेश एवं कालरात्रि, शिखीश एवं कुब्जिनी, छगलण्डेश एवं कपर्दिनी, द्विरण्डेश एवं रेवती, पिनाकीश एवं माधवी, खड्‌गीश एवं वारुणी, बकेश एवं वायवी, श्वतेश एवं रक्षोविदारिणी, भृग्वीश एवं सहजा, नकुलीश एवं लक्ष्मी, शिवेश एवं व्यापिनी तथा संवर्तक एवं महामाया।
ये श्रीकण्ठादि मातृकायें हैं।
श्रीकण्ठ आदि नामों में जहाँ ईश पद नहीं कहा गया है वहाँ सर्वत्र ईश पद जोड़ लेना चाहिये। जैसे श्री कण्ठेश, अनन्तेश आदि। शक्ति के अन्त में चतुर्थ्यन्त द्विवचन बोल कर नमः पद जोड़ना चाहिये।
अन्त के यकारादि द्श वर्णो के साथ, त्वग्, असृङ् मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र, प्राण, शक्ति एवं क्रोध के साथ आत्मभ्यां जोड़ना चाहिये तथा सर्वत्र आदि में "ह्सौं हय" बीज जोड़ना चाहिये। इसका स्पष्टीकरण आगे वक्ष्यमाण न्यास में द्रष्टव्य हैं।
न्यास विधि :-
ॐ ह्सौं अं श्रीकण्ठेशपूर्णोदरीभ्यां नमः ललाटे।
ॐ हसौं आं अनन्तेशविरजाभ्यां नमः मुखवृत्ते।
ॐ ह्स् ॐ इं सूक्ष्मेशशाल्मलीभ्यां नमः, दक्षनेत्रे।
ॐ ह्सौं ईं त्रिमूर्तीशलोलाक्षीभ्यां नमः, वामनेत्रे।
ॐ हसौं उं अमरेशवर्तुलाक्षीभ्यां नमः दक्षकर्णे।
ॐ ह्सौं ऊं अर्घीशदीर्धघोणाभ्यां नमः वामकर्णे।
ॐ ह्सौं ऋं भारभूतएशदीर्घमुखाभ्यां नमः दक्षनासापुटे।
ॐ ह्सौं ऋं तिथीशगोमुखीभ्यां नमः वामनासापुटे।
ॐ ह्सौं लृं स्थाण्वीशदीर्घजिह्‌वाभ्यां नमः दक्षगण्डे।
ॐ हसौं लृं हरेशकुण्डोदरीभ्यां नमः वामगण्डे।
ॐ ह्सौं एं झिण्टीशऊर्ध्वकेशीभ्यां नमः ऊर्ध्वोष्ठे।
ॐ ह्सौं ऐं भौतिकेशविकृतमुखीभ्यां नमः अधरोष्ठे।
ॐ ह्सौं ओं सद्योजातज्वालामुखीभ्यां नमः ऊर्ध्वदन्तपंक्तौ।
ॐ ह्सौं कं क्रोधीशमहकालीभ्यां नमः जिहवाग्रे।
ॐ ह्सौं खं चण्डीशसरस्वतीभ्यां नमः कण्ठदेशे।
ॐ ह्सौं गं पञ्चान्तकेशसर्वसिद्धिगौरीभ्यां नमः दक्षबाहुमूले।
ॐ ह्सौं घं शिवोत्तमेशत्रैलोक्यविद्याभ्यां नमः दक्षकूर्परे।
ॐ ह्सौं ङं एकरुद्रेशमन्त्रशक्तिभ्यां नमः दक्षमणिबन्धे।
ॐ ह्सौं चं कूर्मेशाआत्मशक्तिभ्या नमः दक्षहस्ताङ्‌गुलिमूले।
ॐ ह्सौं छं एकनेत्रेशभूतमातृभ्यां नमः दक्षहस्ताङ्‍गुल्यग्रे।
ॐ ह्सौं जं चतुराननेशलम्बोदारीभ्यां नमः वामबाहुमूले।
ॐ ह्सौं झं अजेशद्रावणीभ्या नमः वामकूर्परे।
ॐ ह्सौं ञं सर्वेशनागरीभ्यां नमः वाममणिबन्धे।
ॐ ह्सौं टं सोमेशखेचरीभ्यां नमः वामहस्ताङ्‌गुलिमूले।
ॐ ह्सौं ठं लाङ्गलीशमञ्जरीभ्यां नमः वामहस्ताङ्‌गुल्यग्रे।
ॐ हसौं डं दारकेशरुपिणीभ्या।
ॐ हसौं ठं लाङ्गलीशमञ्जरीभ्यां नमः वामहस्तागुल्यग्रे।
ॐ ह्सौं डं दारकेशरुपिणीभ्या नमः दक्षपादमूले।
ॐ ह्सौं ढं अर्धनारीशवीरिणीभ्यां नमः दक्षजानूनि।
ॐ ह्सौं णं उमाकान्तेशकाकोदरीभ्या नमः दक्षगुल्फे।
ॐ ह्सौं तं आषाढीशपूतनाभ्यां नमः दक्षपादाङ्‌गुलिमूले।
ॐ ह्सौं थं चण्दीशभद्रकालीभ्यां नमः दक्षपादाङ्‌गुल्यग्रे।
ॐ ह्सौं दं अन्त्रीशयोनिनीभ्यां नमः वामपादमूले।
ॐ ह्सौं धं मीनेशशंखिनीभ्यां नमः वामजानौ।
ॐ ह्सौं नं मेषेशतर्जनीभ्यां नमः वामगुल्फे।
ॐ ह्स् ॐ पं. संतोष भारद्वाज* कालरात्रीभ्यां नमः वामपादाङ्‌गुलिमूले।
ॐ ह्सौं फं शिखीशकुब्जिनीभ्यां नमः वामपादाङ्‌गुल्यग्रे।
ॐ ह्सौं बं छागलण्डेशकपरिनीभ्यां नमः दक्षपार्श्वे।
ॐ ह्सौं भं द्विरण्डेशवज्राभ्या नमः वामपार्श्वे।
ॐ ह्सौं मं महाकालेशजयाभ्या नमः पृष्ठे।
ॐ ह्सौं यं त्वगात्मभ्यां बालीशसुमुखेश्वरीभ्या नमः उदरे।
ॐ ह्सौं रं असृगात्मभ्यां भुजङ्गेशरेवतीभ्यां नमः हृदि।
ॐ ह्सौं लं मांसात्मभ्यां पिनाकीशमाधवीभ्यां नमः दक्षांसे।
ॐ ह्सौं वं मेदात्मभ्यां खड्‌गीशवारुणीभ्यां नमः ककुदि।
ॐ ह्स्ॐ शं अस्थ्यात्मभ्यां बकेशवायवीभ्यां नमः वामांसे।
ॐ ह्सौं षं मज्जात्मभ्यां श्वेतेशरक्षिविदारिणीभ्यां नमः हृदयादिदक्षहस्तान्तम्।
ॐ हसौं सं शुक्रात्मभ्यां भृग्वीशसहजाभ्यां नमः हृदयादिवामहस्तान्तम।
ॐ ह्सौं हं प्राणात्मभ्यां नकुलीशलक्ष्मीभ्यां नमः हृदयादिक्षपादान्तम।
ॐ ह्सौं लं शक्त्यात्मभ्यां शिवेशव्यापिनीभ्यां नमः हृदयादिवामपादान्तम्।
ॐ ह्सौं क्षं क्रोधात्मभ्यां संवर्तकेशमाहामायाभ्यां नमः हृदयादिमस्तकान्तम्।
* इसके स्थान पर अपना नाम संयुक्त करें।
केशवादि मातृकाओं का विनियोग :: केशव मातृका मन्त्र के नारायण ऋषि हैं, अमृत गायत्री छन्द हैं तथा लक्ष्मी एवं हरि देवता हैं। शक्तिबीज, श्रीबीज एवं कामबीज की दो आवृत्तियाँ कर षडङ्गन्यास करना चाहिए।
विनियोग :-
अस्य केशवमातृकान्यासस्य नारायण ऋषिरमृतगायत्रीछान्दः लक्ष्मीहरीदेवते न्यासे विनियोगः।
षडङ्गन्यास :-
ह्रीं हृदयाय नमः, श्रीं शिरसे स्वाहा, क्लीं शिखायै वषट्‍,
ह्रीं कवचाय हुम, श्रीं नेत्रत्रयाय वौषट, क्लीं अस्त्राय फट्।
माता लक्ष्मी और भगवान् श्री हरी विष्णु का ध्यान :- अपने हाथों में शंख, चक्र, गदा, पद्म, कुम्भ, आदर्श, कमल एवं पुस्तक धारण किये हुये, मेघ एवं विद्युत जैसी कान्ति वाले लक्ष्मी और हरि का मैं ध्यान करता हूँ।
इस प्रकार ध्यान कर शक्ति (ह्रीं) श्री (श्रीं) तथा काम (क्लीं) से संपुटित अकारादि वर्ण, फिर विष्णु एवं उनकी शक्ति के नाम के अन्त में चतुर्थी द्विवचन तथा अन्त में नमः तथा प्रारम्भ में प्रणम लगा कर न्यास करना चाहिए।
केशव मातृकाएं :: केशव एवं कीर्त्ति, नारायण एवं कान्ति, माधव एवं तुष्टि, गोविन्द एवं पुष्टि, विष्णु एवं धृति, मधुसूदन एवं शान्ति, त्रिविक्रम एवं क्रिया, वामन एवं दया, श्रीधर एवं मेधा, हृषीकेश एवं हर्षा, पद्मनाभ एवं श्रद्धा, दामोदर एवं लज्जा, वासुदेव एवं लक्ष्मी, संकर्षण तथा सरस्वती, प्रद्युम्न और प्रीति, अनिरुद्ध एवं रति, चक्री एवं जया, गदी एवं दुर्गा शाड्‌र्गी एवं प्रभा, खड्‌गी एवं सत्या, शंखी एवं चण्ड, हली एवं वाणी, मुसली एवं विलासिनी, शूली एवं विजया, पाशी एवं विरजा, अंकुशी एवं विश्वा, मुकुन्द एवं विनदा, नन्दज एवं सुनदा, नन्दी एवं सत्या, नर एवं ऋद्धि, नरकजित्‍ एवं समृद्धि, हरि एवं शुद्धि, कृष्ण एवं बुद्धि, सत्य एवं भुक्ति सात्त्वत एवं मति, सोरि एवं क्षमा, शूर एवं रमा, जनार्दन एवं उमा, भूधर एवं क्लेदिनी, विश्वमूर्त्ति एवं क्लिन्ना, वैकुण्ठ एवं वसुधा, पुरुषोत्तम एवं वसुदा, बली एवं परा, बलानुज एवं परायणा, बाल एवं सूक्ष्मा, वृषघ्न एवं सन्ध्या वृष एवं प्रज्ञा, हंस एवं प्रभा, वराह एव निशा, विमल एवं मेघा तथा नृसिंह एवं विद्युता।
केशवमातृका न्यास में भी अन्तिम यकारादि दश वर्णो के साथ "त्वगात्मभ्यामित्यादि" पूर्वोक्त रीति के अनुसार लगाकर न्यास करना चाहिये।
न्यास विधि ::
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं अं क्लीं श्रीं ह्रीं केशवकीर्तिभ्यां नमः ललाटे,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं आं क्लीं श्रीं ह्रीं नारायणकान्तिभ्यां नमः, मुखवृत्ते,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं इं क्लीं श्रीं ह्रीं माधवतुष्टिभ्यां नमः, दक्षनेत्रे,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ई क्लीं श्रीं ह्रीं गोविन्दपुष्टिभ्यां नमः, वामनेत्रे,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं उं क्लीं श्रीं ह्रीं विष्णुधृतिभ्यां नमः, दक्षकर्णे,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऊं क्लीं श्रीं ह्रीं मधुसूदनशान्तिभ्या नमः, वामकर्णे,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऋं क्लीं श्रीं ह्रीं त्रिविक्रमक्रियाभ्या नमः, दक्षनासायाम,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऋं क्लीं श्रीं ह्रीं वामनदयाभ्यां नमः, दक्षनासायाम,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं लृं क्लीं श्रीं ह्रीं वामनदयाभ्या नमः, वामनासायाम्,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं लृं क्लीं श्रीं ह्रीं हृषीकेशहर्षाभ्यां नमः, वामगण्डे,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं एं क्लीं श्रीं ह्रीं पद्‌नाभश्रद्धाभ्यां नमः, ओष्ठे,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं क्लीं श्रीं ह्रीं दामोदरलज्जाभ्यां नमः, अधरे,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ओं क्लीं श्रीं ह्रीं वासुदेवलक्ष्मीभ्यां नमः, ऊर्ध्वदन्तपंक्तौ,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं औं क्लीं श्रीं ह्रीं संकर्षणसरस्वतीभ्यां नमः, अधोदन्तपंक्तौ,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं अं क्लीं श्रीं ह्रीं प्रद्युम्नप्रीतिभ्यां नमः, मस्तके,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं अः क्लीं श्री ह्रीं अनिरुद्धरतिभ्यां नमः, मुखे,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं कं क्ली श्रीं ह्रीं चक्रीजयाभ्यां नमः, दक्षबाहुमूले,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं खं क्लीं श्रीं ह्रीं गदीदुर्गाभ्यां नमः, दक्षकूर्परे,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं गं क्ली श्रीं ह्रीं शाङ्‌र्गीप्रभाभ्यां नमः, दक्षमणिबन्धे,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं घं क्लीं श्रीं ह्रीं खड्‌गीसत्याभ्यां नमः, दक्षाड्‌गुलिमूले
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ङं क्लीं श्री ह्रीं शंखीचण्डाभ्या नमः, दक्षाड्‌गुल्यग्रे,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं चं क्लीं श्रीं ह्रीं हलीवाणीभ्यां नमः, वामबाहुमूले,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं छं क्लीं श्रीं ह्रीं मुसलीविलसिनीभ्यां नमः, वामकूर्परे,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं जं क्लीं श्रीं ह्रीं शूलीविजयाभ्यां नमः, वाममणिबन्धे,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं झं क्लीं श्रीं ह्रीं पाशीविरजाभ्यां नमः, वामाड्‌गुलिमूले,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ञं क्लीं श्रीं ह्रीं अंकुशीविश्वाभ्या नमः, वामाड्‌गुल्यग्रे,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं टं क्लीं श्रीं ह्रीं मुकुन्दविनदाभ्या नमः, दक्षपादमूले,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ठं क्लीं श्रीं ह्रीं नन्दजसुनदाभ्यां नमः, दक्षजानुनि,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं डं क्लीं श्रीं ह्रीं नन्दीसत्याभ्यां नमः, दक्षगुल्फे,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ढं क्ली श्रीं ह्रीं नरऋद्धिभ्यां नमः, दक्षपादाड्‌गुलिमूले,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं णं क्लीं श्रीं ह्रीं नरकजित्समृद्धिभ्यां नमः दक्षपादाड्‌गुल्यग्रे,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं तं क्लीं श्रीं ह्रीं हरशुद्धिभ्यां नमः वामपादमूले,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं थं क्लीं श्रीं ह्रीं कृष्णबुद्धिभ्यां नमः, वामजानुनि,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं दं क्लीं श्रीं ह्रीं सत्यमुक्तिभ्यां नमः, वामगुल्फे,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं धं क्लीं श्रीं ह्रीं सात्वतमतिभ्यां नमः, वामपादाड्‌गुलिमूले,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं नं क्लीं श्रीं ह्रीं सौरिक्षमाभ्यां नमः, वामपादाड्‌गुल्यग्रे,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं पं क्लीं श्रीं ह्रीं शूररमाभ्यां नमः, दक्षपार्श्वे,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं फं क्लीं श्रीं ह्रीं जनार्दनोमाभ्यां नमः, वामपार्श्वे,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं बं क्लीं श्रीं ह्रीं भूधरक्लेदिनीभ्यां नमः, पृष्ठे,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं भं क्लीं श्रीं ह्रीं विश्वमूर्तिक्लिन्नाभ्यां नमः, नाभौ,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं मं क्लीं श्रीं ह्रीं वैकुण्ठवसुधाभ्यां नमः, उदरे,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं यं क्लीं श्रीं ह्रीं त्वगात्मभ्यां पुरुषोत्तवसुदाभ्यां नमः, हृदि,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं रं क्लीं श्रीं ह्रीं असृगात्मभ्यां बलीपराभ्यां नमः, दक्षांसे,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं लं क्लीं श्रीं ह्रीं मांसात्मभ्यां बालानुपरायणाभ्यां नमः, कुकुदि,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं वं क्लीं श्रीं ह्रीं मेदसात्मभ्यां बालसूक्ष्माभ्यां नमः, वामांसे,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं शं क्लीं श्रीं ह्रीं अस्थ्यात्मभ्यां वृषघ्नस्न्ध्याभ्यां नमः, हृदादिक्षकरान्तम,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं षं क्लीं श्री ह्रीं मज्जात्मभ्यां वृषप्रज्ञाभ्या नमः, हृदयादि वामकरान्तम,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं सं क्लीं श्रीं ह्रीं शुक्रात्मभ्यां हंसप्रभाभ्यां नमः, हृदादिदक्षपादान्तम,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं हं क्लीं श्रीं ह्रीं प्राणात्मभ्यां वराहनिशाभ्यां नमः, हृदादिवामपादान्तम,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ळं क्लीं श्रीं ह्रीं शक्त्यात्मभ्यां विमलमेघाभ्यां नमः, हृदादिउदरात्नम्,
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं क्षं क्लीं श्रीं ह्रीं क्रोधात्मभ्यां नृसिंहविद्युताभ्यां नमः, हृदादिमुखपर्यन्तम्।
गणेश मातृका :: गणेश मातृकान्यास मन्त्र के गणक ऋषि निचृद्‌गायत्री छन्द तथा शक्ति विनायक देवता हैं। षड्‌दीर्घ सहित गकार से षड्ङ्ग न्यास करने के पश्चात् "गणेश-गणपति " का ध्यान करना चाहिये।
विनियोग ::
अस्य श्रीगणेशमातृकान्यासमन्त्रस्य गणकऋषिर्निचृद्‌ गायत्रीच्छन्दः शक्तिविनायको देवता न्यासे विनियोगः।
षडङ्गन्यास ::
ॐ गां हृदयाय नमः, ॐ गीं शिरसे स्वाहा,
ॐ गूं शिखायै वषट्, ॐ गैं कवचाय हुम्,
ॐ गौं नेत्रत्रायाय वौषट्, ॐ गं अस्त्राय फट्।
गणपति ध्यान :: अपने हाथों में त्रिशूल, अंकुश, वर और अभय धारण किये हुये, अपनी प्रियतमा द्वारा रक्तवर्ण के कमलों के समान हाथो से आलिंगित, त्रिनेत्र गणपति का मैं ध्यान करता हूँ।
गणेश मातृकाएं :: उक्त प्रकार से ध्यान कर लेने के पश्चात् अपने बीजाक्षरों को पहले लगाकर तदनन्तर "विघ्नेश ह्रीं" आदि में चतुर्थ्यन्त द्विवचन, फिर "नमः" लगा कर गणेश मातृका न्यास करना चाहिये।
विघ्नेश एवं ह्रीं, विघ्नराज एवं श्रीं, विनायक एवं पुष्टि, शिवोत्तम एवं शान्ति, विघ्नकृत एवं स्वस्ति, विघ्नहर्ता एवं सरस्वती, गण एवं स्वाहा, मोहिनी, कपर्दी एवं नटी, दीर्घजिहव एवं पार्वती, शंकुकर्ण एवं ज्वालिनी, वृषभध्वज्क एवं नन्दा, सुरेश एं गणनायक, गजेन्द्र एव्म कामरुपिणी, सूर्पकर्ण और उमा, त्रिलोचन और तेजोवती, लम्बोदर एवं सत्या, महानन्द एवं विघ्नेशी, चतुर्मूर्ति एवं सुरुपिणी, सदाशिव एवं कामदा, आमोद एवं मदजिहवा, दुर्मुख एवं भूति, सुमुख एवं भौतिक, प्रमोद एवं सिता, एकपाद एवं रमा, द्विजिहवा एवं महिषी, शूर एवं भञ्जिनी, वीर एवं विकर्णा, षन्मुखं एवं भृकुटी, वरद एवं लज्जा, वामदेव एवं दीर्घघोण वक्रतुण्ड एवं धनुर्धरा, द्विरद एवं यामिनी, सेनानी एवं रात्रि, कामान्ध एव्म ग्रामणी, मत्त एवं शशिप्रभा, विमत्त एवं लोललोचन, मत्तवाहन एवं चंचला, जटी एवं दीप्ति, मुण्डी एवं सुभगा, खड्‌गी एवं दुर्भगा, वरेण्य एवं शिवा, वृषकेतन एवं भगा, भक्तप्रिय एवं भगिनी, गणेश एवं भोगिनी, मेघनाद एवं सुभगा, व्यासी एवं कालरात्रि और गणेश्वर एवं कालिका।
ये 51 गणेशमातृकायें हैं।
यकारादिवर्णो के साथ त्वगात्मभ्यामित्यादि का योग पूर्वोक्त रीति से कर लेना चाहिए।
न्यास विधि ::
ॐ अं विघ्नेशह्रींभ्यां नमः ललाटे, ॐ आं विघ्नराजश्रीभ्यां नमः मुखवृत्ते, ॐ इं विनायकपुष्टिभ्यां नमः दक्षनेत्रे, ॐ ई शिवोत्तशान्तिभ्यां नमः वामनेत्रे, ॐ उं विघ्नकृत्स्वस्तिभ्यां नमः दक्षकर्णे, ॐ ऊं विघ्नहर्तृसरस्वतीभ्यां नमः वामकर्णे, ॐ ऋं गणस्वाहाभ्या नमः दक्षनासायाम्, ॐ ऋं एकदन्तसुमेधाभ्यां नमः वामनासायाम्, ॐ लृं द्विदन्तकान्तिभ्यां नमः दक्षगण्डे, ॐ लृं गजवक्त्रकामिनीभ्यां नमः, वामगणे , ॐ एं निरञ्जनमोहिनीभ्यां नमः ओष्ठे, ॐ ऐं कपर्दीनटीभ्यां नम्ह अधरे, ॐ ओं दीर्घजिहवपार्वतीभ्यां नमः ऊर्ध्वदन्तपड्‌क्तौ, ॐ औं शड्‌कुकर्णज्वालिनीभ्यां नमः अधः दन्तपंक्तौ, ॐ अं वृषमध्वजनन्दाभ्यां नमः शिरसि, ॐ अः सुरेशगणनायकाभ्यां नमः मुखे, ॐ कं गजेन्द्रकामरुपिणीभ्यां नमः दक्षबाहूमूले, ॐ खं सूर्पकर्णोमाभ्यां नमः दक्षकूर्परे, ॐ गं त्रिलोचनतेजोवतीभ्यां नमः दक्षमणिबन्धे, ॐ घं लम्बोदरसत्याभ्यां नमः दक्षाङ्‌गुलिमूले, ॐ ङं महानन्दविघ्नेशीम्यां नमः दक्षहस्ताड्‌गुल्यग्रे, ॐ चं चतुर्मूर्तिसुरुपिणीभ्यां नमः वामबाहूमूले, ॐ छं सदाशिवकामदाभ्यां नमः वाकमूर्परे, ॐ जं आमोदमदजिहवाभ्यां नमः वाममणिबन्धे, ॐ झं दुर्मुहभूतिभ्यां नमः वामबाहु अड्‌गुल्यगे, ॐ ञं सुमुखभौतिकाभ्यां नमः वामबाहु अड्‌गुल्यग्रे, ॐ टं प्रमोदसिताभ्यां नमः, दक्षपादमूले, ॐ ठं एकपादरमाभ्यां नमः दक्षजानौ ॐ डं द्विजिहवमहिषीभ्यां नमः दक्षगुल्फे, ॐ ढं शूरभञ्जनीभ्यां नमः दक्षपाड्‌गुलिमूले, ॐ णं वीरविकर्णाभ्यां नमः दक्षपादाड्‌गुल्यग्रे, ॐ तं षण्मुख भ्रुकुटीभ्यां नमः वामपादमूले, ॐ थं वरदलज्जाभ्या नमः वामजानौ, ॐ दं वामदेवदीर्घघोणाभ्यां नमः वामगुल्फे, ॐ धं वक्रतुण्डधनुर्धराभ्यां नमः वामपदाड्‌गुलिमूले, ॐ नं द्विरदयामिनीभ्यां नमः वामपादाड्‌गुल्यग्रे, ॐ पं सेनानीरात्रिभ्यां नमः, पृष्ठे, ॐ भं विमललोललोचनाभ्यां नमः नाभौ, ॐ मं मत्तवाहनचञ्ज्चलाभ्यां नम्ह उदरे, ॐ यं त्वगात्मभ्याञ्जटीदीप्तिभ्यां नमः हृदि, ॐ रं असृगात्मभ्यां मुण्डीसुभगान्यां नमः दक्षांसे, ॐ लं मांसात्मभ्यां खड्‌गीदुर्भगाभ्यां नमः ककुदि, ॐ वं मेदात्मभ्यां वरेण्यशिवाभ्यां नमः वामांसे, ॐ शं अस्थ्यात्मभ्यां वृषकेतनभगाभ्यां नमः हृदयादिदक्षहस्तानाम्, ॐ षं मज्जात्मभ्यां भक्तप्रियभगिनीभ्यां नमः हृदयादिवामहस्तान्तम्, ॐ सं शुक्रात्मभ्यां गणेशभोगिनीभ्यां नमः हृदयादिदक्षपादान्तम, ॐ हं प्राणात्मभ्यां मेघनादसुभगाभ्यां नमः हृदयादिवामपादात्नम्, ॐ ळं शक्त्यात्मभ्यां व्यासिकालरात्रिभ्यां नमः हृदयादिउदरात्नम् ॐ क्षं क्रोधात्मभ्यां गणेश्वरकालिकाभ्यां नमः हृदयादिमस्तकान्तम्।
कलामातृका :: इस मन्त्र के प्रजापति ऋषि हैं, गायत्री छन्द है तथा शारदा देवता हैं। प्रणव के प्रारम्भ में तथा अन्त में दोनों ओर ह्स्व तथा दीर्घ स्वरों को लगाकर षडङ्गन्यास का विधान है।
विनियोग ::
अस्य श्रीकलामातृकान्यासस्य प्रजापतिऋषिः गायत्री छन्दः शारदादेवता हलोबीजानि स्वरा शक्तयः न्यासे विनियोग।
ऋष्यादिन्यास ::
ॐ प्रजापतिऋषये नमः शिरसि, ॐ गायत्रीछन्दसे नमः मुखे,
ॐ शारदादेवतायै नमः हृदि, ॐ ह्ल्भ्यो बीजेभ्यो नमः गुहये,
ॐ स्वरशक्तिभ्यो नमः पादयोः, ॐ विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे।
षडङ्गन्यास ::
अं ॐ आ हृदयाय नमः इं, ॐ ईं शिरसे स्वाहा उं,
ॐ ऊं शिखायै वषट्, एं ॐ ऐं कवचाय हुम्ओं,
ॐ औं नेत्रत्रयाय वौषट् अं, ॐ अः अस्त्राय फट्।
माँ शारदा ध्यान :: अपने हाथों में शंख, चक्र, परशु, कपाल, अक्षमाला, पुस्तक, अमृतकुम्भ और त्रिशूल धारण की हुई श्वेत, पीत, कृष्ण, श्वेत तथा रक्त वर्ण के पञ्चमुखों से युक्त त्रिनेत्रा तथा चन्द्रमा जैसी शरीर की आभा वाली माँ शारदा का मैं ध्यान करता हूँ।इस प्रकार ध्यान कर प्रारम्भ में प्रणव फिर चतुर्थ्यन्त कला लगा कर कलान्यास करना चाहिये।
कला मातृकाएँ :: कलाओं सँख्या 51 है।
निवृत्ति, प्रतिष्ठा विद्या, शान्ति, इन्घिका, दीपिका, रेचिका, मोचिका, पराभिधा, सूक्ष्मा, सूक्ष्मामृता, ज्ञानामृता, आप्यायनी, व्यापिनी, व्योमरुपा, अनन्ता, सृष्टि, ऋद्धिका, स्मृति, मेधा, कान्ति, लक्ष्मी, द्युति, स्थिरा, स्थिति, सिद्धि, जरा, पालिनी, क्षान्ति, ईश्वारिका, रति, कामिका, वरदा, आहलादिनी, प्रीति, दीर्घा, तीक्ष्णा, रौद्री, भया, निद्रा, तन्द्रिका, क्षुधा, क्रोधिनी, क्रिया, उत्कारी समृत्युका पीता, श्वेता, अरुणा सिता और अनन्ता।
न्यासविधि ::
ॐ अं निवृत्यै नमः ललाटे, ॐ आं प्रतिष्ठायै नमः मुखवृत्ते,
ॐ इं विद्यायै नमः दक्षनेत्रे, ॐ ई शान्त्यै नमः वामनेत्रे,
ॐ उं इन्धिकायै नमः दक्षकर्णे, ॐ ऊं दीपिकायै नमः वामकर्णे,
ॐ ऋं रेचिकायै नमः दक्षनासापुटे, ॐ ऋं मोचिकायै नमः वामनासापुटे,
ॐ लृं पराभिधायै नमः दक्षगण्डे, ॐ लृं सूक्ष्मायै नमः वामगण्डे,
ॐ एं सूक्ष्मामृतायै नमः ओष्ठे, ॐ ऐं ज्ञानामृतायै नमः अधरे,
ॐ ओं आप्यायिन्यै नमः ऊर्ध्वदन्तपंक्तौ, ॐ औं व्यापिन्यै नमः अधः दन्तपंक्तौ,
ॐ अं व्योमरुपायै नमः शिरसि, ॐ अः अनन्तायै नमः मुखे,
ॐ कं सृष्टयै नमः जिहवाग्रे, ॐ खं ऋद्धिकायै नमः कण्ठदेशे,
ॐ गं स्मृत्यै नमः दक्षबाहुमूले, ॐ घं मेधायै नमः दक्षकूर्परे,
ॐ ङं कान्त्यै नमः दक्षमणिबन्धे, ॐ चं लक्ष्म्यै नमः दक्षहस्ताड्‌गुलिमूले,
ॐ छं द्युत्यै नमः दक्षहस्ताड्‌गुल्यग्रे, ॐ जं स्थिरायै नमः वामबाहुमूले,
ॐ झं स्थित्यै नमः वामकूर्परे, ॐ ञं सिद्धयै नमः वाममणिबन्धे,
ॐ टं जरायै नमः वामहस्तांगुलिमूले, ॐ ठं पालिन्यै नमः वामहस्ताड्‌गुल्यग्रे,
ॐ डं क्षान्त्यै नमः दक्षपादमूले, ॐ ढं ईश्वरिकायै नमः दक्षजानौ,
ॐ णं रत्यै नमः दक्षगुल्फे, ॐ तं कामिकायै नमः दक्षपाड्‌गुलिमूले,
ॐ थं वरदायै नमः दक्षपाड्‌गुल्यग्रे, ॐ दं आहलादिन्यै नमः वामपादमूले,
ॐ धं प्रीत्यै नमः वामजानौ, ॐ नं दीर्घायै नमः वामगुल्फे,
ॐ पं तीक्ष्णायै नमः वामपादाड्‍गुलिमूले, ॐ फं रौद्रयै नमः वामपादाड्‌गुल्यग्रे,
ॐ बं भयायै नमः दक्षपार्श्वे, ॐ भं निद्रायै नमः वामपार्श्वे,
ॐ मं तन्द्रिकायै नमः पृष्ठे, ॐ यं क्षुधायै नमः वामपार्श्वे,
ॐ रं क्रोधिन्यै नमः हृदि, ॐ लं क्रियायै नमः दक्षांसे,
ॐ वं उत्कार्यै नमः ककुदि, ॐ शं समृत्युकायै नमः वामांसे,
ॐ षं पीतायै नमः हृदयादिदक्षहस्तान्तम्, ॐ सं श्वेतायै नमः हृदयादिवामहस्तान्तम्,
ॐ हं अरुणायै नमः हृदयादिदक्षपादन्तम्, ॐ ळं सितायै नमः हृदयादिवामपादान्तम्,
ॐ क्षं अनन्तायै नमः हृदयादिमस्तकान्तम्।
इस प्रकार विविध देवताओं का कलामातृका न्यास कहा गया। अतः कही गई विधि के अनुसार साधकों को अपने अपने इष्ट देवताओं का कलान्यास करना चाहिये। तदनन्तर कल्प ग्रन्थों में कही गई विधि के अनुसार अपने अपने मूल मन्त्र के न्यासों को भी करना चाहिये।
ऋष्यादिन्यास :: मूल मन्त्र के ऋषि का शिर, पर, छन्द का मुख पर, देवता का हृदय पर, बीज का गुह्य में तथा शक्ति का पैरों पर न्यास करना चाहिये। फिर अङ्गन्यास तथा करन्यास भी करना चाहिये।
करन्यास विधि :: अड्‌गुष्ठादि अड्‌गुलियों पर तथा करतल करपृष्ठ पर न्यास करते समय "अड्‌गुष्ठाभ्यां नमः, तर्जनीभ्यां नमः, मध्यमाभ्यां नमः, अनामिकाभ्यां नमः, कनिष्ठाभ्यां नमः एवं करतलपृष्ठाभ्यां नमः" कहना चाहिये।
अङ्गन्यास का विधान :: अपनी-अपनी मुद्रा एवं जातियों के साथ हृदादि अङ्गों पर न्यास करना चाहिये। अब उन-उन मुद्राओं को तथा जातियों को कहा जा रहा है :-
"हृदयाय नमः शिरसे स्वाहा, शिखायै वषट्‍ कवचाय हुम्, नेत्रत्रयाय वौषट्‍" तथा "अस्त्राय फट्" से 6 जाति कही जाती हैं। दो नेत्र वाले देतवा के न्यास में "नेत्रभ्यां वौषट्" ऐसा कहना चाहिये। जहाँ पञ्चागन्यास करना हो वहाँ नेत्रन्यास वर्जित है।
अङ्गन्यास की मुद्रायें :: अँगूठे के अतिरिक्त शेष तर्जनी आदि 4 अँगुलियों को फैला कर हृदय और शिर पर पुनः अँगूठा रहित मुट्ठी से शिखा पर तथा कन्धे से लेकर नाभि पर्यन्त, दश अँगुलियों से कवच पर, तीन नेत्र वाले देवता के न्यास में तर्जनी आदि 3 अड्‌गुलियाँ तथा दो नेत्र वाले देवता के न्यास में तर्जनी और मध्यमा इन दो अँगुलियों से न्यास करना चाहिये। हाथ को फैलाकर 3 बार ताली बजाकर साधक तर्जनी और अँगूठे के अग्रभाग को फैलाते हुये दिग्बधन करें। यह अस्त्र मुद्रा कही गई है। भगवान् श्री हरी विष्णु के अङ्गन्यास की मुद्रायें कही गई हैं।
तर्जनी आदि तीन अङ्गगुलियों को फैलाकर हृदय पर, दो अँगुलियों से शिर पर, अँगूठे से शिखा पर, दशों अँगुलियों से वर्म पर, हृदय के समान हो नेत्र पर तथा पूर्ववत भगवान् श्री हरी विष्णु के न्यास के समान अस्त्र पर न्यास करना चाहिये। यहाँ तक शक्ति न्यास की मुद्रायें कही गई हैं।
अँगूठे को बाहर निकाल कर बनी मुष्टि की मुद्रा से हृदय पर, तर्जनी और अँगूठे के अतिरिक्त शेष अँगुलियों को मिलाकर मुट्ठी बनाकर शिर पर न्यास करना चाहिये। अँगूठा और कनिष्ठा रहित मुटिठयों से शिखा पर, अँगूठे और तर्जनी रहित मुटिठयों से कवच पर तथा तर्जनी आदि 3 अँगुलियों से नेत्र पर न्यास करना चाहिये। दोनों हथेलीयों को बजा देने से अस्त्र मुद्रा बन जाती है। ये भगवान् शिव के षङ्गन्यास की मुद्रायें कही गई हैं।
इसके बाद वर्णन्यास करना चाहिये। न्यास किये बिना मन्त्र का जप निष्फल और विघ्नदायक कहा गया है।
पीठ देवताओं के न्यास करने के लिये अपने शरीर को ही पीठ मान लेना चाहिए। साधक को मूलाधार पर मण्डूक का, स्वाधिष्ठान पर कालाग्नि का, नाभि पर कच्छप का तथा हृदय में आधार शक्ति से आरम्भ कर (कूर्म, अनन्त, पृथ्वी, सागर, रत्नद्वीप, प्रासाद एवं) हेमपीठ तक का न्यास करना चाहिये।
फिर दाहिने कन्धे, बायें कन्धे, वाम ऊरु एवं दक्षिण ऊरु पर क्रमशः धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य का न्यास करना चाहिये और मुख, वाम पार्श्व नाभि एवं दक्षिण पार्श्व पर क्रमशः अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य, और अनैश्वर्य का न्यास करना चाहिये।
इसके बाद पुनः हृदय में (अनन्त से पद्म तक तल्पाकार अनन्त, आनन्दकन्द, सविन्नाल, पद्म, प्रकृतिमय, पत्र, विकारमय केसर तथा रत्नमय पञ्चाशद्‌बीजाढ्य कर्णिका का) न्यास कर, पद्म पर सूर्य की (तपिनी आदि 12) कलाओं का, चन्द्रमण्डल की (अमृता आदि 16) कलाओं का तथा वहिनमण्डल की (धूम्रार्चिष् आदि 10) कलाओं का नाम तथा उन कलाओं के आदि में वर्णो के प्रारम्भ के अक्षरों को लगाकर न्यास करना चाहिये। फिर अपने नाम के आद्यक्षर सहित सत्त्वादि तीन गुणों का न्यास करना चाहिये। तत्पश्चात् अपने नाम के आदि वर्ण सहित आत्मा अन्तराल और परमात्मा का तथा आदि में परा (ह्रीं) लगाकर ज्ञानात्मा का न्यास करना चाहिये।
पुनः माया तत्त्व, कलातत्त्व, विद्यातत्त्व और परतत्त्व का भी अपने नाम के आदि वर्ण सहित न्यास करना चाहिये। तदनन्तर पीठ शक्तियों का न्यास कर अपने पीठ मन्त्र का भी न्यास करना चाहिये। हृदय में अनन्त आदि देवों को उत्तरोत्तर एक दूसरे का आधार माना गया है क्योंकि सज्जनों ने पूर्व-पूर्व का उत्तरोत्तर आधार कहा है।
पीठन्यास :: अपने संप्रदाय में (वैष्णव शैव, शाक्त, गाणपत्य एवं सौर) कल्पोक्त करन्यास, अङ्गन्यास तथा वर्णन्यासों के करने के बाद अपने शरीर को इष्टदेवता का पीठ मानकर उसके विधि अङ्गों पर पीठ देवताओं का इस प्रकार न्यास करना चाहिये :-
ॐ मण्डूकाय नमः मूलाधारे, ॐ कालाग्निरुद्राय नमः स्वाधिष्ठाने,
ॐ कच्छपाय नमः नाभौ, ॐ आधारशक्तयै नमः हृदि,
ॐ प्रकृतये नमः हृदि, ॐ कूर्माय नमः हृदि,
ॐ अनन्ताय नमः हृदि, ॐ पृथिव्यै नमः हृदि,
ॐ क्षीरसागराय नमः हृदि, ॐ रत्नद्वीपाय नमः हृदि,
ॐ मणिमण्डपाय नमः हृदि, ॐ कल्पवृक्षाय नमः हृदि,
ॐ मणिवेदिकयै नमः हृदि, ॐ हेमपीठाय नमः हृदि।
पुनः धर्म अदि का तत्स्थानों में इस प्रकार न्यास करना चाहिए, यथा :-
ॐ धर्माय नमः दक्षिणस्कन्धे, ॐ ज्ञानाय नमः वामस्कन्धे,
ॐ वैराग्याय नमः वामोरी, ॐ ऐश्वर्याय नमः दक्षिणोरीः,
ॐ अधर्माय नमः मुखे, ॐ अज्ञानाय नमः वामपार्श्वे,
ॐ अवैराग्याय नमः नाभौ, ॐ अनैश्वर्याय नमः दक्षिणपार्श्वे।
तदनन्तर हृदय में अनन्त आदि देवता ओम का निम्नलिखित मन्त्रों से न्यास करना चाहिए, यथा :-
ॐ तल्पाकारायानन्ताय नमः हृदि, ॐ आनन्तकन्दाय नमः हृदि,
ॐ संविन्नालाय नमः हृदि, ॐ सर्वतत्त्वात्मकपद्माय नमः हृदि,
ॐ प्रकृतमयपत्रेभ्यो नमः हृदि, ॐ विकारमयकेसरेभ्यो नमः हृदि,
ॐ पञ्चाशद्‌बीजाढ्यकर्णिकायै नमः हृदि, ॐ अं सूर्यमण्डलाय द्वादशकलात्मने नमः।
पुनः हृत्पद्म पर :-
ॐ कं भं तपिन्यै नमः, ॐ खं बं तापिन्यै नमः,
ॐ गं फं धूम्रायै नमः, ॐ घं पं मरीच्यै नमः,
ॐ ङं नं ज्वालिन्यै नमः, ॐ चं धं रुच्यै नमः,
ॐ छं दं सुषुम्णायै नमः, ॐ जं थं भोगदायै नमः,
ॐ झं तं विश्वायै नमः, ॐ ञं णं बोधिन्यै नमः,
ॐ टं ढं धारिण्यै नमः, ॐ ठं डं क्षमयै नमः।
पुनस्तत्रैव :-
ॐ उं सोममण्डलाय षोडशकलात्मने नमः, ॐ अं अमृतायै नमः,
ॐ आं मानदायै नम्ह, ॐ इं पूषायै नमः,
ॐ ईं तुष्टयै नमः, ॐ उं पुष्टयै नमः,
ॐ ऊं रत्यै नमः, ॐ ऋं धृत्यै नमः,
ॐ ऋं शशिन्यै नमः, ॐ लृं चण्डिकायै नमः,
ॐ ल्रुं कान्त्यै नमः, ॐ एं ज्योत्स्नायै नमः,
ॐ ऐं श्रियै नमः, ॐ ओं प्रीत्यै नमः,
ॐ औं अङ्गदायै नमः, ॐ अं पूर्णायै नमः,
ॐ अः पूर्णामृतायै नमः।
पुनस्तत्रैव :-
ॐ रं वहिनमण्डलाय दशकलात्मने नमः,
ॐ यं धूम्रार्चिषे नमः, ॐ रं ऊष्मायै नमः,
ॐ लं ज्वलिन्यै नमः, ॐ वं ज्वालिन्यै नमः,
ॐ शं विस्फुलिङ्गिन्यै नमः, ॐ षं शुश्रियै नमः,
ॐ सं स्वरुपायै नमः, ॐ हं कपिलायै नमः,
ॐ ळं हव्यवाहनायै नमः।
पुत्रस्तत्रैव :-
ॐ सं सत्त्वाय नमः, ॐ रं रजसे नमः,
ॐ तं तमसे नमः ॐ आं आत्मने नमः,
ॐ अं अन्तरात्मने नमः, ॐ पं परमात्मने नमः,
ॐ ह्रीं ज्ञानात्मने नमः, ॐ मां मायातत्त्वाय नमः,
ॐ कं कलातत्त्वाय नमः, ॐ विं विद्यातत्त्वाय नमः,
ॐ पं परतत्त्वाय नमः।
उपर्युक्त रीति से सभी न्यास सभी देवताओं की उपासना में विहित है। इसके बाद हृत्पद्म के पूर्वादि केसरों पर तत्तद्‌देवताओं की कल्पोक्त पीठ शक्तियों का न्यास करना चाहिये। तदनन्तर पुनः हृदय के मध्य में पीठ मन्त्र से न्यास करना चाहिये।
इस प्रकार अपने देहमय पीठ पर अपने इष्ट देवता का ध्यान करना चाहिये। तदनन्तर उनकी मुद्रायें प्रदर्शित कर मानस पूजा भी करनी चाहिये।
मानस पूजा करते समय तन्मय हो कर इन मन्त्रों से इष्टदेव का पूजन भी करना चाहिये।
इसी प्रकार अन्य देवताओं के मानस पूजन में केशव के स्थान में शंकर, पार्वती, गणेश, दिनेश, आदि पद का ॐ कह कर के उच्चारण करना चाहिये।
मानस पूजा विधि :: सर्वप्रथम अपने इष्टदेव के स्वरुप का ध्यान कर उनकी मुद्रा प्रदर्शित करें। तदनन्तर तन्मय हो कर स्वागत आदि मन्त्र से उनका स्वागत कर सन्निधिकरण करे। फिर मानसोपचारों से उनका पूजन करें। इस प्रकार मानस पूजा करने के बाद साधक कुछ क्षणों के लिये तन्मय हो इष्टदेव के मूल मन्त्र का 108 बार जप करें।
तदनन्तर देवता को जप समर्पित कर विशेषार्घ्य भी स्थापित करना चाहिये।
बाह्य पूजा विधि :: प्रयोग द्वारा सिद्धि प्रदान करने वाले षट्‍कर्म :-
(1). शान्ति, (2). वश्य, (3). स्तम्भन, (4). विद्वेषण, (5). उच्चाटन और (6). मारण। तन्त्र शास्त्र में ये षट्‌कर्म कहे गए हैं।
रोगादिनाश के उपा को शान्ति कहते है। आज्ञाकारिता वश्यकर्म है। वृत्तियों का सर्वथा निरोध स्तम्भन है। परस्पर प्रीतिकारी मित्रों में विरोध उत्पन्न करन विद्वेषण है। स्थान नीचे गिरा देना उच्चाटन है तथा प्राण वियोगानुकूल कर्म मारण है। षट्‌कर्मों के यही लक्षण हैं।
षट्‌कर्मों में ज्ञेय 19 पदार्थ :: (1). देवता, (2). देवताओम के वर्ण, (3). ऋतु, (4). दिशा, (5). दिन, (6). आसन, (7). विन्यास, (8). मण्डल, (9). मुद्रा, (10). अक्षर, (11). भूतोदय, (12). समिधायें, (13). माला, (14). अग्नि, (15). लेखन द्रव्य, (16). कुण्ड, (17). स्त्रुक्‍, (18). स्त्रुवा तथा (19). लेखनी इन पदार्थों को भलीभाँति जानकारी कर षट्‌कर्मों में इनका प्रयोग करना चाहिए।
देवता और उनके वर्ण :: (1). रति-श्वेत, (2). वाणी-अरुण, (3). रमा-हल्दी जैसा पीला, (4). ज्येष्ठा-मिश्रित, (5). दुर्गा-श्याम (काला), एवं (6). काली-धूसरित यथाक्रम शान्ति आदि षट्‍कर्मों के देवता और उनके वर्ण हैं। प्रत्येक कर्म के आरम्भ में कर्म के देवता के अनुकूल पुष्पों से उनका पूजन करना चाहिए।
अहोरात्र में वसन्तादि 6 ऋतु :: एक-एक ऋतु का मान 10-10 घटी है। (1). हेमन्त, (2).. वसन्त, (3). शिशिर, (4). ग्रीष्म, (5). वर्षा और (6). शरद्‍ इन छः ऋतुओं का साधक को शान्ति आदि षट्‌कर्मों में उपयोग करना चाहिए। प्रतिदिन सूर्योदय से 10 घटी (4 घण्टी) वसन्त, उसके आगे दश घटी शिशिर इत्यादि क्रम समझना चाहिए।
दिशाएं :: ईशान-उत्तर-पूर्व-निऋति वायव्य और आग्नेय ये शान्ति आदि कर्मों के लिए दिशायें हैं। अतः शान्ति आदि कर्मोम के लिए उन उन दिशाओं की ओर मुख कर जपादि कार्य करना चाहिए।
षट्‌कर्मों में क्रियमाण तिथि एवं वार :: शुक्ल पक्ष की द्वितीया, तृतीया, पञ्चमी एवं सप्तमी तिथि को बुधवार बृहस्पतिवार आये तो शान्तिकर्म करना चाहिए। शुक्लपक्ष की चतुर्थी, षष्ठी, नवमी एवं त्रयोदशी को सोमवार बृहस्पतिवार आने पर वशीकरण कर्म प्रशस्त होता है।
विद्वेषण में एकादशी, दशमी, नवमी और अष्टमी तिथि को शुक्र या शनिवार का दिन हो तो वह शुभ है।
यदि कृष्णपक्ष की अष्टमी एवं चतुर्दशी को शनिवार हो तो फल सिद्धि के लिए उच्चाटन कर्म करना चाहिए। कृष्णपक्ष की अष्टमी, चतुर्दशी एवं अमावस्या तथा शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को रवि, मङ्गल शनिवार, का दिन हो तो स्तम्भन और मारण कर्म सिद्ध हो जाता है।
आसन :: शान्ति आदि षट्‌कर्मों में क्रमशः पद्‌मासन, स्वस्तिकासन, विकटासन, कुक्कुटासन, वज्रासन एवं भद्रासन का उपयोग करना चाहिए। गाय, गैंडा, हाथी, सियार, भेड एवं भैंसे के चमड़े के आसन पर बैठ कर शान्ति आदि षट्‌कर्मों में जपादि कार्य करना चाहिए।
पद्‌मासन का लक्षण :: दोनों ऊरु के ऊपर दोनों पादतल को स्थापित कर व्युत्क्रम पूर्वक (हाथों को उलट कर) दोनों हाथों से दोनों हाथ के अंगूठे को बींध लेने का नाम पद्‌मासन है ।
स्वस्तिकासन का लक्षण :: पैर के दोनों जानु और दोनों ऊरु के बीच दोनों पादतल को अर्थात दक्षिण पद के जानु और ऊरु के मध्य वाम पादतल एवं वामपाद के जानु और ऊरु के मध्य दक्षिण पादतल को स्थापित कर शरीर को सीधे कर बैठने का नाम स्वस्तिकासन है।
विकटासन :: जानु और जंघाओ के बीच में दोनों हाथों को जब लाया जाए तो अभिचार प्रयोग में इसे विकटासन कहते हैं।
कुक्कुटासन :: पहले उत्कटासन करके फिर दोनों पैरों को एक साथ मिलायें। दोनों घुटनों के मध्य दोनों भुजाओं को रखना कुक्कुटासन है ।
वज्रासन :: पैर के परस्पर जानु प्रदेश पर एक दूसरे को स्थापित करें तथा हाथ की अँगुलियों को सीधे ऊपर की ओर उठाए रखें तो इस प्रकार के आसन को वज्रासन कहते हैं।
भद्रासन :: सीवनी (गुदा और लिंग के बीचों बीच ऊपर जाने वाली एक रेखा जैसी पतली नाड़ी) के दोनों तरफ दोनों पैरों के गुल्फों को वामपार्श्व में दक्षिणपाद के गुल्फ को एवं दक्षिण पार्श्व में वामपाद के गुल्फ को निश्चल रुप से स्थापित कर वृषण (अण्डकोश) के नीचे दोनों पैर की घुट्टी के नीचे दाहिनी ओर वामपाद की घुटने तथा बाँई ओर दक्षिण पाद की घुट्टी स्थापित कर पूर्ववत दोनों हाथों से बींध लेने से भद्रासन हो जाता है।
विन्यास :: शान्ति आदि 6 कर्मो में क्रमशः (1). ग्रन्थन, (2). विदर्भ, (3). सम्पुट, (4). रोधन, (5). योग और (6). पल्लव।
ग्रन्थन विन्यास :: मन्त्र का एक अक्षर उसके बाद नाम का एक अक्षर फिर मन्त्र का एक अक्षर तदनन्तर नाम का एक अक्षर, इस प्रकार मन्त्र और नाम के अक्षरों का ग्रन्थन करना ग्रन्थन विन्यास है।
विदर्भ विन्यास :: प्रारम्भ में मन्त्र के दो अक्षर उसके बाद नाम का एक अक्षर इस प्रकार मन्त्र और नाम के अक्षरों के बारम्बार विन्यास को मन्त्र शास्त्रों को जानने वाले विदर्भ विन्यास कहते हैं।
संपुट विन्यास :: पहले समग्र मन्त्र का उच्चारण, तदनन्तर समग्र नामाक्षरों का उच्चारण करना फिर इसके बाद विलोम क्रम से मन्त्र बोलना संपुट विन्यास कहा जाता है।
रोधन विन्यास :: नाम के आदि, मध्य और अन्त में मन्त्र का उच्चारण करना रोधन विन्यास कहा जाता है।
योग विन्यास :: नाम के अन्त मन्त्र बोलना योग विन्यास होता है।
पल्लव विन्यास :: मन्त्र के अन्त में नामोच्चारण को पल्लव विन्यास कहते हैं।
मन्त्र के आठवें प्रकार, मण्डल का लक्षण :: दोनों ओर दो-दो कमलों से युक्त अर्द्ध-चन्द्राकार चिन्ह को जल का मण्डल कहा गया है, यह शान्तिकर्म में प्रशस्त कहा गया है। त्रिकोण के भीतर उपयोग स्वस्तिक का चिन्ह रखा अग्नि को मण्डल माना गया है, वश्यकर्म में इसका उपयोग प्रशस्त कहा गया है। वज्र चिन्ह से युक्त चौकोर भूमि का मण्डल कहा गया है, जो स्तम्भन कार्य के लिए प्रशस्त कहा गया है।
आकाश मण्डल वृत्ताकार होता है। यह विद्वेषण कार्य में प्रशस्त है, छह बिन्दुओं से अंकित वृत्त वायु मण्डल कहा गया है, जो उच्चाटन क्रिया में प्रशस्त है। मारण में पूर्वोक्त वहिन मण्डल का उपयोग करना चाहिए।
मण्डल का लक्षण और मुद्रा :: शान्ति आदि षट्‍कर्मों में पद्म, पाश, गदा, मुशल, वज्र एवं खड्‌ग मुद्राओं का प्रदर्शन करना चाहिए।
होम की मुद्रायें ::
(1). पद्‌ममुद्रा :: दोनों हाथों को सम्मुख करके हथेलियां ऊपर करे, अँगुलियों को बन्द कर मुट्ठी बाँधें। अब दोनों अँगूठों को अँगुलियों के ऊपर से परस्पर स्पर्श करायें।
(2). पाशमुद्रा :: दोनों हाथ की मुट्ठियाँ बाँधकर बाँई तर्जनी को दाहिनी तर्जनी से बाँधे। फिर दोनों तर्जनियों को अपने-अपने अँगूठों से दबायें। इसके बाद दाहिनी तर्जनी के अग्रभाग को कुछ अलग करने से पाश मुद्रा निष्पन्न होती है।
(3). गदामुद्रा :: दोनों हाथों की हथेलियों को मिला कर, फिर दोनों हाथ की अँगुलियाँ परस्पर एक दूसरे से ग्रथित करे। इसी स्थिति में मध्यमा अँगुलियों को मिलाकर सामने की ओर फैला दें। यह भगवान् श्री हरी विष्णु को सन्तुष्ट करने वाली गदा मुद्रा है।
(4). मूशलमुद्रा :: दोनों हाथों की मुट्ठी बाँधे फिर दाहिनी मुट्ठी को बाँयें पर रखने से मूशल मुद्रा बनती है।
(5). वज्रमुद्रा :: कनिष्ठा और अँगुठे को मिलाकर त्रिकोण बनाने को अशनि (वज्र मुद्रा) कहते हैं अर्थात कनिष्ठा और अँगूठे को मिलाकर प्रसारित कर त्रिक बनाना वज्रमुद्रा है।
(6). खड्‌गमुद्रा :: कनिष्ठिका और अनामिका अँगुलियों को एक दूसरे के साथ बाँधकर अँगूठों को उनसे मिलाए। शेष उंगलियों को एक साथ मिला कर फैला देने से खड्‌गमुद्रा निष्पन्न होती है।
मृगी, हंसी एवं सूकरी ये तीन होम की मुद्रायें हैं। मध्यमा अनामिका और अँगूठे के योग से मृगी मुद्रा, कनिष्ठा को छोड़कर कर शेष सभी अङ्गगुलियों का योग करने से हँसी मुद्रा और हाथ को संकुचित कर लेने से सूकरी मुद्रा बनती है।
शान्ति कार्य में मृगी वश्य में हंसी तथा शेष स्तम्भनादि कार्यों में सूकरी मुद्रा का प्रयोग किया जाता है।
अक्षर :: शान्ति आदि षट्‌कर्मों में यन्त्र पर चन्द्र, जल, धरा, आकाश, पवन और अनल वर्णो के बीजाक्षरों का क्रमशः लेखन करना चाहिए।
सोलह स्वर, स एवं ठ ये अठारह चन्द्र वर्ण के बीजाक्षर हैं। चन्द्रवर्ण से हीन पञ्चभूतों के अक्षर जलादि तत्वों के बीजाक्षर वश्यादि कर्मों के लिए उपयुक्त हैं।
शान्ति आदि षट्‌कर्मों में मन्त्र शास्त्रज्ञों ने क्रमशः नमः, स्वाहा, वषट्‍, वौषट, हुम् एवं फट्‍ इन छः को जातित्वेन स्वीकार किया है।
मन्त्र के ग्यारहवें प्रकार, भूतों का उदय :: जब दोनों नासापुटों के नीचे तक श्वास चलता हो तब जल तत्त्व का उदय समझना चाहिए, जो शान्ति कर्म में सिद्धि दायक होता है। नाक के मध्य में सीधे दण्ड की तरह श्वास गति होने पर पृथ्वी तत्त्व का उदय समझना चाहिए, यह स्तम्भन काम में सिद्धिदायक होता है। नासा छिद्रों के मध्य में श्वास की गति होने पर आकाश तत्त्व का उदय समझना चाहिए, जो विद्वेषण में सिद्धि दायक है। नासापुटों के ऊपर श्वास की गति होने पर अग्नि तत्त्व का उदय समझना चाहिए।
ऐसे समय में मारण एवं वशीकरण दोनों कार्यो में सफलता मिलती है। श्वास की गति तिर्यक (तिरछी) होने पर वायु तत्त्व का उदय समझना चाहिए जो उच्चाटन क्रिया में शुभावह होता है।
मन्त्र का बारहवाँ प्रकार और समिधाधाएं :: शान्ति कार्य में गोघृत मिश्रित दूर्वा से, वश्य में बकरी के घी से मिश्रित अनार की समिधा से स्तम्भन में भेड़ का घी मिला कर अमलतास वृक्ष की समिधा से, विद्वेषण में अतसी के तेल मिश्रित धतूरे की समिधा से, उच्चाटन में सरसों के तेल से मिश्रित आम की वृक्ष की समिधा से तथा मारण में कटुतैल मिश्रित खैर की लकड़ी की समिधा से होम करना चाहिए।
तेरहवें प्रकार में माला की विधि :: शान्ति आदि षट्‌कर्मों में शंख की शान्ति में, कवलगद्दा की वश्य में, नींबू की स्तम्भन में, नीम की विद्वेषण में, घोड़े के दाँत उच्चाटन में तथा गधे के दाँत की जप माला मारण कर्म में उपयोग करना चाहिए।
शान्ति, वश्य, पूष्टि, भोग एवं मोक्ष के कर्मों में मध्यमा में स्थित माला को अँगूठे से घुमाना चाहिए। स्तम्भनादि कार्यो के लिए बुद्धिमान साधक को अनामिका एवं अँगूठे से जप करना चाहिए। विद्वेषण एवं उच्चाटन में तर्जनी एवं अँगूठे से जप करना चाहिए तथा मारण में कनिष्ठिका एवं अँगूठे से जप करने का विधान है।
माला की मणियोम की गणना :: शुभकार्य के लिए माला में मणियोम की सँख्या 108, 54 या 27 कही गई है, किन्तु अभिचार (मारण) कर्म में मणियों की सँख्या 15 होती है।
चौदहवें प्रकार वाली अग्नि :: शान्ति और वशीकरण कर्म में लौकिक अग्नि में, स्तम्भन में बरगद के काठ की बनी अग्नि में, विद्वेषण में बहेड़े की लकड़ी की अग्नि में तथा उच्चाटन एवं मारण के प्रयोगों में श्मशानाग्नि में होम का विधान है।
अग्नि प्रज्वलित करने के लिए समिधाएँ :: शुभ कार्यो में वेल, आक, पलाश एवं दुधारु वृक्षों की समिधा ओम से तथा अशुभ कर्मों में विषकृत कुचिला, बहेडा, नीबू, धतूरा एवं लिसोडे की समिधाओं से मान्त्रिक को अग्नि प्रज्वलित करनी चाहिए।
अग्नि जिव्हाओं का तत्कर्मों में पूजन का विधान :: शान्ति कर्म में अग्नि की सुप्रभा संज्ञक जिव्हा का, वश्य में रक्त नामक जिव्हा का, स्तम्भन में हिरण्या नामक जिव्हा का, विद्वेषण में गगना नामक जिव्हा का, उच्चाटन में अतिरिक्तिका जिव्हा का तथा मारण में कृष्णा नामक अग्नि जिव्हा और सभी जगह बहुरुपा नामक अग्नि जिव्हा का पूजन करना चाहिए।
शान्त्यादि कर्मों में ब्राह्मण भोजन :: शान्ति एवं वश्य में होम के दशांश सँख्या में ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए।
होम की सँख्या के पच्चीसवें अंश की सँख्या में ब्राह्मण भोजन मध्यम तथा शतांश सँख्या में ब्राह्मण भोजन अधम है। स्तम्भन कार्य में शान्ति की सँख्या से दूने ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए। इसी प्रकार विद्वेषण एवं उच्चाटन में शान्ति सँख्या से तीन गुने ब्राह्मणों को तथा मारण में सँख्या के तुल्य ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए।
भोजनार्ह ब्राह्मणों का स्वरुप :: अत्यन्त विशुद्ध कुलों में उत्पन्न साङ्‌गवेद के विद्वान पवित्र निर्मल अन्तःकरण वाले सदाचार परायण ब्राह्मणों को विविध प्रकार के मनोहर भोज्य पदार्थो से भोजन कराना चाहिए। उनमें देव बुद्धि रखकर पूजन करन चाहिए तथा बारम्बार उन्हें प्रणाम करना चाहिए। मधुर वाणी से तथा सुर्वणदि दे दान से उन्हें सन्तुष्ट करना चाहिए। इस प्रकार के ब्राह्मणों द्वारा दिए गए आशीर्वाद के प्राप्त करने से साधक के समस्त अभिचारादि पाप नष्ट हो जाते हैं तथा शीघ्र ही उसे मनोऽभिलषित पदार्थो की प्राप्ति हो जाती है।
लेखन द्रव्य :: चन्दन, गोरोचन, हल्दी, गृहधूम, चिता का अङ्गार तथा विषाष्टक यन्त्र लेखन के द्रव हैं। यन्त्र तरङ्ग में भी पूर्वोक्त द्रव्यादि भी तत्कामनों में लेखन द्रव्य कहे गए हैं तथा ये भी ग्राह्य हैं। (1). पिप्पली, (2). मिर्च, (3). सोंठ, (4). बाज पक्षी की विष्टा, (5). चित्रक (अण्डी), (6). गृहधूम, (7). धतूरे का रस तथा (8). लवण ये 8 वस्तुयें विषाष्टक हैं।
शान्ति और वश्य कर्म में भोज पत्र पर, स्तम्भन में व्याघ्र चर्म पर, विद्वेष में गदहे की खाल पर, उच्चाटन में ध्वज वस्त्र पर और मारण में मनुष्य की हड्डी पर, मान्त्रिक को मन्त्र लिखना चाहिए। यत्र तरङ्ग में विविध प्रयोगों में यन्त्र लिखने के जो जो आधार कहे गए हैं वे भी यन्त्राधार में ग्राह्य हैं।
मन्त्र के 16 वें प्रकार, कुण्ड :: शान्ति आदि षट्‌कर्मों में क्रमशः वृत्तकार, पद्‌माकार, चतुरस्त्र, त्रिकोण, षट्‌कोण और अर्द्धचन्द्रकार कुण्ड का निर्माण पश्चिम उत्तर-पूर्व नैऋत्य वायव्य और दक्षिण दिशा में करना चाहिए।
स्त्रुवा और स्त्रुची :- शान्ति में सुवर्ण की एवं वश्य में यज्ञ वृक्ष की स्त्रुवा और स्त्रुची बनानी चाहिए। शेष स्तम्भनादि कार्यों में लौह की स्त्रुवा और स्त्रुची बनानी चाहिए।
मन्त्र के 19वें प्रकार, लेखनी :: शान्ति कर्म में सोने, चाँदी अथवा चमेली की, वश्य कर्म में दूर्वा की, स्तम्भन में अगस्त्य वृक्ष की अथवा अमलतास की, विद्वेषण में करञ्ज की, उच्चाटन में बहेडे की तथा मारण में मनुष्य की हड्डी की लेखनी से यन्त्र लिखना चाहिए। शुभ कर्म में साधक को शुभ मुहूर्त में अशुभ कार्य में रिक्ता (चौथ, नवमी, चतुर्दशी) तिथियों में मङ्गलवार के दिन तथा विष्टी (भद्रा) में लेखनी का निर्माण करना चाहिए।
उक्त कर्मों में भक्ष्य पदार्थों को, तर्पण द्रव्यों को तथा उपयोग में लाये जाने योग्य पात्र :- शान्ति और वश्य कर्म करते समय हविष्यान्न, स्तम्भन करते समय खीर, विद्वेषण करते समय उड़द एवं मूँग, उच्चाटन करते समय गेहूँ तथा मारण करते समय मान्त्रिक को मसूर एवं काली बेकरी के दूध में बने खीर का भोजन करना चाहिए।
शान्ति कर्म में तथा वश्य कर्म में हल्दी मिला जल, स्तम्भन और मारण कर्म में मिर मिला कुछ गुण गुना जल तथा विद्वेषण एवं उच्चाटन में भेड़ के खून से कमकश्रत जल तर्पण द्रव्य कहा गया है।
शान्ति एवं वश्य कर्म में सोने के पात्र में, स्तम्भन में मिट्टी के पात्र में, विद्वेषण में खैर के पात्र में, उच्चाटन में लोहे के पात्र में तथा मारण में मुर्गी के अण्डे में तर्पण करना चाहिए।
शान्ति एवं वश्य कर्म में मृदु आसन पर बैठकर तर्पण करना चाहिए। स्तम्भन में घुटनों से उठकर तथा विद्वेषण आदि में एक पैर पर खड़े होकर तर्पण करना चाहिए।
साधकों को सर्वप्रथम विधिवत न्यास द्वारा आत्मरक्षा करने के बाद ही काम्य कर्मों का अनुष्ठान करना चाहिए, अन्यथा हानि और असफलता ही प्राप्त होती है।
जो व्यक्ति शुभ अथवा अशुभ किसी भी प्रकार का काम्य कर्म करता है, मन्त्र उसका शत्रु बन जाता है। इसलिए काम्यकर्म न करे; यही उत्तम है।
विषया सक्त चित्त वालों के सन्तोष के लिए प्राचीन आचार्यों ने काम्य कम की विधि का प्रतिपादन किया है, किन्तु यह हितकारी नहीं है। काम्य कर्म वालों के लिए केवल कामना सिद्धि मात्र फल की प्राप्ति होती है।
निष्काम भाव से देवताओं की उपासना करने वालों की सारी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। केवल सुख प्राप्ति के लिए प्रत्येक मन्त्रों के जितने भी प्रयोग बतलाये गए हैं, उनकी आसक्ति का त्याग कर निष्काम रुप सेवेदों में कर्मकाण्ड, उपासना और ज्ञान तीन काण्ड बतलाये गए हैं। "ज्योतिष्टोमेन यजेत्" यह कर्मकाण्ड है, "सूर्यो ब्रह्मेत्युपासीत" यह उपासना है, ये दोनों काण्ड ज्ञान के साधन हैं। "अयमात्मा ब्रह्म" यह ज्ञान है, जो स्वयं में साध्य है। यही उक्त दोनों में ही वेदोक्त मार्ग के अनुसार प्रवृत्त होना चाहिए। देवता की उपासना से अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है। जिससे उत्तम ज्ञान की प्राप्ति होती है। कार्य, कारण, संघात शरीर में प्रविष्ट हुआ जीव ही परब्रह्म है। इसी ज्ञान से साधक मुक्त हो जाता है। अतः मनुष्य देह प्राप्त कर देवता "ओम" की उपासना से मुक्ति प्राप्त कर लेनी चाहिए। जो मनुष्य देह प्राप्त कर संसार बन्धन से मुक्त नही होता, वही महापापी।
इसलिए उपासना और कर्म से काम-क्रोधादि शत्रुओं का नाश कर आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए सत्पुरुषों को सतत्‍ प्रयत्न करते रहना चाहिए।
देवता की उपासना करने वाले को अपना भविष्य विचार कर उसमें प्रवृत्त होना चाहिए।
देवोपासना विधि :: स्नान और दान आदि करने के बाद भगवान् श्री हरी विष्णु के चरण कमलों का ध्यान कर कुश की शय्या पर सोना चाहिए तथा भगवान् शिव से "भगवान् देवदेवेश...... त्वत्प्रसादान्महेश्वर" पर्यन्त निम्न तीन श्लोकों से प्रार्थना कर निश्चिन्त हो सो जाना चाहिए।
ॐ भगवान देव-देवेश शूल मृद वृषवाहन।
इष्टानिष्टे समाचक्ष्य मम सुप्तस्य शाश्वते॥
ॐ नमो जाय त्रिनेत्राय पिंगलाय माहात्मने।
वामाय विश्व-रुपाय स्वप्नाधिपतये नमः॥
स्वप्नं कथ्य मे तुभ्यं सर्व-कार्येष्वशेषतः।
क्रिया सिद्धि विधास्यामि त्वत्प्रसादान्महेश्वर॥
देवता की पूजा करनी चाहिए।
प्रातःकाल उठने पर देखा हुआ स्वप्न अपने गुरुदेव (बड़े-बूढ़ों, माता-पिता) से बतला देना चाहिए। उनके न होने पर स्वयं साधक को अपने स्वप्न के भविष्य के विषय में विचार कर लेना चाहिए।
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शुभाशुभ स्वप्न :: लिङ्ग चन्द्र और सूर्यकर बिम्ब, सरस्वती, गङ्गा, गुरु, लालवर्ण वाले समुद्र में तैरना, युद्ध में विजय, अग्नि का अर्चन, मयूर युक्त, हंस युक्त अथवा चक्र युक्त रथ पर बैठना, स्नान, संभोग, सारस की सवारी, भूमिलाभ, नदी, ऊँचे-ऊँचे महल, रथ, कमल, छत्र, कन्या, फलवान वृक्ष, सर्प अथवा हाथी, दीया, घोड़ा, पुष्प, वृषभ और अश्व, पर्वत, शराब का घड़ा, ग्रह-नक्षत्र, स्त्री, उदीयमान सूर्य अप्सराओं का दर्शन, लिपे-पोते स्वच्छ मकान पर, पहाड़ पर तथा विमान पर चढ़ना, आकाश यात्रा, मद्य पीना, माँस खाना, विष्टा का लेप, खून से स्नान, दही-भात का भोजन, राज्यभिषेक होना (राज्य प्राप्ति), गाय, बैल और ध्वजा का दर्शन, सिंह और सिंहासन, शंख बाजा, गोरोचन, दधि, चन्दन तथा दर्पण इनका स्वप्न में दिखलायी पडना शुभावह कहा गया है।
तैल की मालिश किए पुरुष का, काला अथवा नग्न व्यक्ति का, गङ्गा, कौआ, सूखा वृक्ष, काँटेदार वृक्ष, चाण्डाल बड़े कन्धे वाला पुरुष, तल (छत) रहित पक्ता महल इनका स्वप्न में दिखलाई पडना अशुभ है।
दुःस्वप्न की शात्नि के उपाय :- दुःस्वप्न दिखई पडने पर उसकी शान्ति करानी चाहिए। तदनन्तर एकाग्रमन से इष्टदेव के मन्त्र को जप करना चाहिए। 3 वर्ष तक जप करने वाले को विघ्न की संभावना रहती है, अतः विघ्नसमूह की परवाह न कर अपने जप में तत्पर रहना चाहिए। अपने चित्त में विश्वस्त रहने वाला सिद्ध पुरुष चौथे वर्ष में अवश्य ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है।
मन्त्र सिद्धि का लक्षण :: मन में प्रसन्नता आत्मसन्तोष, नगाङ्गे की ध्वनि, गाने की ध्वनि, ताल की ध्वनि, गन्धर्वो का दर्शन, अपने तेज को सूर्य के समान देखना, निद्रा, क्षुधा, जप करना, शरीर का सौन्दर्य बढना, आरोग्य होना, गाम्भीर्य, क्रोध और लोभ का अपने में सर्वथा अभाव, इत्यादि चिन्ह जब साधक को दिखाई पड़े तो मन्त्र की सिद्धि तथा देवता की प्रसन्नता समझनी चाहिए।
मन्त्र सिद्धि के बाद के कर्त्तव्य :: मन्त्र सिद्धि प्राप्त कर लेने वाले साधक को ज्ञान प्राप्ति के लिए जप की सँख्या में निरन्तर वृद्धि का यन्त करते रहना चाहिए। जब वेदान्त प्रतिपादित (अयमात्माब्रह्म, अहं ब्रह्मास्मि, तत्त्वामसि श्वेतोकेतो इत्यादि) तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त है जाये तब साधक कृतार्थ हो जाता है और संसार बन्धन से छूट जाता है।
मन्त्रमहोदधि की अनुक्रमणिका ::
मन्त्र महोदधि में पच्चीस तरङ्ग हैं।
प्रथम तरङ्ग :: में भूतसुद्धि, प्राणप्रतिष्ठा, मातृकान्यास, पुरश्चरण और होम की विधि तथा तर्पण का विषय प्रतिपादन किया गया है।
द्वितीय तरङ्ग :: गणेश के विविध मन्त्र और उनकी सिद्धि के प्रकार कहे गए हैं।
तृतीय तरङ्ग :: काली तथा काली नाम से अभिहित दक्षिणाकाली आदि के अनेक मन्त्र एवं सुमुखी के मन्त्र का प्रतिपादन एवं काम्यप्रयोग कहा गया है।
चतुर्थ तरङ्ग :: तारा की उपासना तथा पञ्चम तरङ्ग में तारा के भेद कहे गए हैं।
पञ्चम तरङ्ग :: अनुपलब्ध
छठे तरङ्ग :: छिन्नमस्ता, शबरी, स्वयम्बरा, मधुअमती, प्रमदा, प्रमोदा, बन्दी जो बन्धन से मुक्त करती हैं, उनमन्त्रों को बताया गया है।
सप्तम तरङ्ग :: वटयक्षिणी, वटयक्षिणी के भेद, वाराही, ज्येष्ठा, कर्णपिशाचिनी, स्वप्नेश्वरी, मातङ्गी, बाणेशी एवं कामेशी के मन्त्रों को प्रतिपादित दिया गया है।
अष्टम तरङ्ग :: त्रिपुराबाला तथा उनके भेदों का विवेचन विस्तार से किया गया है।
नवम तरङ्ग :: अन्नपूर्णा, उनके भेद त्रैलोक्यमोहन गौरी एवं ज्येष्ठालक्ष्मी तथा उनके साथ ही प्रत्यंगिरा के भी मन्त्रों का निर्देश किया गया है।
दशम तरङ्ग :: बगलामुखी तथा वाराही को भी बतलाया गया है।
एकादश तरङ्ग :: श्रीविद्या तथा द्वादश तरङ्ग में उनके आवरण पूजा की विधि बताई गई है।
त्रयोदश तरङ्ग :: हनुमान् के मन्त्रों एवं प्रयोगों का विशद्‍ रुप से प्रतिपादन किया गया है।
चतुर्दश तरङ्ग :: नृसिंह, गोपाल एवं गरुड मन्त्रों का प्रतिपादन है।
पञ्चदश तरङ्ग :: सूर्य, भौम, बृहस्पति, शुक्र एवं वेदव्यास के मन्त्रों को बताया गया है।
षोडश तरङ्ग :: महामृत्युञ्जय, रुद्र एवं गङ्गा तथा मणिकर्णिका के मन्त्र कहे गए हैं।
सप्तदश तरङ्ग :: कार्त्तवीर्यार्जुन के मन्त्र, दीपदान विधि आदि का वर्णन है।
अष्टादश तरङ्ग :: कालरात्रि के मन्त्र, नवार्णमन्त्र शतचण्डी और सहस्त्रचण्डी विधान का सविस्तार वर्णन किया गया है।
उन्नीसवें तरङ्ग :: चरणायुध मन्त्र, शास्ता मन्त्र, पार्थिवार्चन, धर्मराज, चित्रगुप्त के मन्त्रों का प्रतिपादन करते हुये आसुरी (दुर्गा) विधि का प्रतिपादन किया गया है।
बीसवें तरङ्ग :: विविध यन्त्र, स्वर्णाकर्षण भैरव की उपासना विधि तथा अनेक यन्त्रों का वर्णन है ।
इक्कीसवें तरङ्ग :: स्नान से लेकर अर्न्तयाग तथा नित्यकर्म का वर्णन है।
बाइसवें तरङ्ग :: अर्घ्यस्थापन से लेकर पूजन पर्यन्त के कृत्य तथा पूजा के भेद बतलाये गये हैं।
त्रयोविंशति तरङ्ग :: दमनक तथा पवित्रक से इष्टदेव के सर्मचन का विधान कहा गया है।
चौबीसवें तरङ्ग :: मन्त्र शोधन की नाना प्रकार की प्रक्रिया कही गई है।
पच्चीसवें तरङ्ग :: षट्‌कर्मों के समस्त विधान का निर्देश है।
इस ग्रन्थ का अभ्यास करने वाले समस्त पाठकगण अपने धर्म में परायण रहें। सर्वदा कल्याण का दर्शन करें। द्रोह से सर्वथा पराङ्‌मुख रहें और उनकी वंशपरम्परा अविच्छिन्न रुप से चलती रहे।
जगदीश्वर श्रीहरि सभी का कल्याण करें। हमारी ईश्वर से प्रार्थना है कि जब तक वेद, सूर्य तथा चन्द्रमा रहें तब तक धर्म कायम रहे। मेरे देश भारत में सदाचारियों, धर्मज्ञों, विद्वानों का शासन कायम रहे। दुराचारियों, बेईमानों, अधर्मियों का नाश हो।
समस्त देवगणों की विपत्ति को दूर करने वाले, देवगणों से वन्दित लक्ष्मी सहित श्रीनृसिंह देव हमें निरन्तर हर्ष प्रदान करते रहें।
क्षीर सागर के मध्य में स्थित श्वेत द्वीप के मण्डप में अपनी गोद में स्थित माता लक्ष्मी के साथ विराजमान, प्रसन्नता से पूर्ण भगवान् श्री नृसिंह हमारी रक्षा करें। जो अञ्जलि आदि मुद्राओं से पूजा करने वाले अपने भक्तो को समस्त सिद्धियाँ प्रदान करते हैं; वह भगवान् श्री नृसिंह मुझे हमें सात्विकता प्रदान करें। हमारी बुद्धि रजोगुण रहित हो।
भगवान् श्री लक्ष्मीनृसिंह की जय हो। हम परमकल्याणकारी श्री नृसिंह भगवान् की वन्दना करते हैं। जिन नृसिंह भगवान् ने महबलवान बड़े-बड़े दैत्यों का संहार किया उन नरहरि को हम साष्टाँग प्रणाम करते हैं।
लक्ष्मी-नृसिंह से बढ कर अन्य और कोई देवता नहीं है। इसलिए श्री नृसिंह के चरण कमलों की सेवा करनी चाहिए। यही सोंच कर श्रीनृसिंह हमारे मन-अन्तरात्मा में निवास करें। हमारा मन कभी भी नृसिंह भगवान् से अलग न हो।
बाबा विश्वनाथ, माँ भवानी, अन्नपूर्णा, बिन्दु माधव, मणि कर्णिका, भैरव, भागीरथी तथा दण्डपाणी हमारा सत् कल्याण करें।
मन्त्र महोदधि-नवम तरङ्ग :: अभीष्ट फल देने वाले अन्नपूर्णेश्वरी के मन्त्र, जिनकी उपासना से कुबेर ने निधिपतित्व, भगवान् सदाशिव से मित्रता, दिगीशत्त्व एवं कैलाशाधिपतित्त्व प्राप्त किया था।
माँ भगवती अन्नपूर्णेश्वरी का मन्त्रोद्धार :: वेदादि (ॐ), गिरिजा (ह्रीम), पद्‌मा (श्रीं), मन्मथ (क्लीं), हृदय (नमः), तदनन्तर ‘भगवति माहेश्वरि अन्नपूर्णे’ पद, फिर अन्त में दहनाङ्गना (स्वाहा), लगाने से बीस अक्षरों का अन्नपूर्णा मन्त्र बनता है।
इस मन्त्र के द्रुहिण (ब्रह्मा) ऋषि हैं, कृति छन्द हैं तथा अन्नपूर्णेशी देवता हैं। षड्‌दीर्घ सहित हृल्लेखा बीज से षडङ्गन्यास करना चाहिए।
मन्त्र ::
ॐ श्रीं क्लीं भगवति माहेश्वरि अन्नपूर्ण स्वाहा।
विनियोग :- अस्य श्रीअन्नपूर्णामन्त्रस्य द्रुहिणऋषिः कृतिश्छन्दः अन्नपूर्णेशी देवता ममाभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः।
षडङ्गन्यास :- ह्रां हृदाय नमः, ह्रीं शिरसे स्वाहा, हूँ शिखायै वषट्, ह्रैं कवचाय हुं, ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्, ह्रः अस्त्राय फट्।
मुख दोनों नासिका, दोनों नेत्र, दोनों कान, अन्धु (लिङ्ग) और गुदा में मन्त्र के 1, 1, 1, 1, 2, 4, 4, 4 एवं 2 वर्णो से नवपदन्यास कर सुरेश्वरी का ध्यान करना चाहिए।
नव पदन्यास :- 
ॐ नमः मुखे, ह्रीं नमः दक्षनासायाम, श्रीं नमः वामनासायाम्, क्लीं नमः दक्षिणनेत्र, नमः, नमः वामनेत्रे, भगवति नमः दक्षकर्णे, माहेश्वरि नमः वामकर्णे, अन्नपूर्णे नमः अन्धौ (लिङ्गे), स्वाहा नमः मूलाधारे।
अन्नपूर्णा भगवती का ध्यान :- तपाये गये सोने के समान कान्तिवाली, शिर पर चन्दकला युक्त मुकुट धारण किये हुये, रत्नों की प्रभा से देदीप्यमान, नाना वस्त्रों से अलंकृत, तीन नेत्रों वाली, भूमि और रमा से युक्त, दोनों हाथ में दवी एवं स्वर्णपात्र लिए हुये, रमणीय एवं समुन्नत स्तन मण्डल से विराजित तथा नृत्य करते हुये सदाशिव को देख कर प्रसन्न रहने वाली अन्नपूर्णेश्वरी का ध्यान करना चाहिए।
मेरुतत्र के अनुसार भगवती अन्नपूर्णा का ध्यान :-
तप्तकाञ्चनसंकाशां बालेन्दुकृतशेखराम्।
नवरत्नप्रभादीप्त मुकुटां कुङ्‌कुमारुणाम्॥
चित्रवस्त्रपरीधानां मीनाक्षीं कलशस्तनीम्।
सानन्दमुखलोलाक्षीं मेखलाढ्यनितम्बिनीम्।
अन्नदानरतां नित्यां भूमिश्रीभ्यां नमस्कृतात्॥
दुग्धान्नभरितं पात्रं सरत्नं वामहस्तके।
दक्षिणे तु करं देव्या दर्वी ध्यायेत्‍ सुवर्णजाम्॥
तपाए हुए सुवर्ण के समान कान्ति वाली, मुकुट में बालचन्द्र धारण किए हुए, नवीन रत्न की प्रभा से प्रदीप्त मुकुट किए हुए, कुड्‌कुम सी लाली युक्त, चित्र-विचित्र वस्त्र पहने हुए, मीनाक्षी एवं कलश के समान स्तनों वालीम नृत्य करते हुए ईश को देखकर आनन्दित परा भगवती अन्नपूर्णा का ध्यान करना चाहिए।
आनन्द युक्त मुख वाली एवं चञ्चल नेत्रों वाली, नितम्ब पर मेखाला बाँध हुए, अन्न दान में तल्लीन भूमि एवं लक्ष्मी दोनों से नित्य नमस्कृत देवी अन्नपूर्ण का ध्यान करना चाहिए।
दुग्ध एवं अन्न से परिपूर्ण पात्र और रत्न से युक्त पात्रों को वाम हाथों में धारण करने वाली और दाहिने हाथ में सूप लिए हुए सुवर्ण के समान प्रभा वाली देवी का ध्यान करना चाहिए।
अन्नपूर्णा मन्त्र का एक लाख जप करना चाहिए तथा घृत मिश्रित चरु से दश हजार आहुतियाँ देनी चाहिएँ। जयादि नव शक्तियों से युक्त पीठ पर इनकी पूजा करनी चाहिए।
पूजा यन्त्र :- त्रिकोण-त्रिभुजाकार, चतुर्दल, अष्टदल, षोडशदल एवं नूपुर सहित निर्मित यन्त्र पर, मायाबीज से आसन देवी को देना चाहिए।
पीठ पूजा :- प्रथमतः उपरोक्त 9.7 में वर्णित देवी के स्वरुप का ध्यान करें और फिर मानसोपचारों से उनका पूजन करें। शंख का अर्घ्यपात्र स्थापित करें। फिर "आधारशक्तये नमः" से "ह्रीं ज्ञानात्मने नमः" पर्यन्त मन्त्रों के पीठ देवताओं का पूजन कर पीठ के पूर्वादि दिशाओं एवं मध्य में जयादि 9 शक्तियों का इस प्रकार पूजन करें :-
ॐ जयायै नमः, ॐ विजयायै नमः, ॐ अजित्ययै नमः, ॐ अपराजितायै नमः, ॐ विलासिन्यै नमः, ॐ दोर्मध्ये नमः, ॐ अघोरायै नमः, ॐ मङ्गलायै नमः, ॐ नित्यायै नमः।
इसके पश्चात् मूल से मूर्ति कल्पित कर "ह्री सर्वशक्तिकमलासनाय नमः" से देवी को आसन देकर विधिवत् आवाहन एवं पूजन कर पुष्पाञ्जलि प्रदार करें, फिर अनुज्ञा ले आवरण पूजा करें।
सर्वप्रथम त्रिकोण में आग्नेयकोण से प्रारम्भ कर तीनों कोणों में शिव, वाराह और माधव की अपने-अपने निम्न मन्त्रों से पूजा करें।
शिव मन्त्र :- प्रणव (ॐ), मनुचन्द्राढ्य गगन (हौं), हृद‌ (नमः), फिर "शिवा" इद के बाद मारुत (य), लगाने से सात अक्षरों का शिव मन्त्र निष्पन्न होता है।
मन्त्र :- ॐ हौं नमः शिवाय।
वराह मन्त्र :- तार (ॐ), फिर ‘नमो भगवते वराह’ पद, फिर अर्घीशयुग्वसु (रु), फिर ‘पाय भृर्भूवः स्वः’ फिर शूर (प), कामिका (त), फिर ‘ये मे भूपतित्वं देहि ददापय’ पद, इसके अन्त में शुचिप्रिया (स्वाहा) लगाने से तैंतीस अक्षरों का वराह मन्त्र निष्पन्न होता है।
मन्त्र :- ॐ नमो भगवते वराहरुपाय भूर्भुवः स्वःपतये भूपतित्त्वं में देहि ददापय स्वाहा।
नारायणार्चन मन्त्र :- प्रणव (ॐ), हृदय (नमः), फिर ‘नारायणाय’ पद्‍ लगाने से आठ अक्षरों का नारायण मन्त्र निष्पन्न होता है।
मन्त्र :- ॐ नमो नारायणाय।
तीनों देवों के पूजन के बाद षडङ्गपूजा करनी चाहिए।
इसके बाद वाम भाग में धरा (भूमि) तथा दाहिने भाग में महालक्ष्मी का अपने-अपने मन्त्रों से पूजन करचा चाहिए। ‘अन्नं मह्यन्नं’ के बाद, ‘मे देहि अन्नाधिप’, इसके बाद ‘तये ममान्नं प्र’, फिर ‘दापय’ इसके बाद अनलसुन्दरी (स्वाहा) लगाकर बाईस अक्षरों के इस (औं) से युक्त करने पर ग्लौं यह भूमि का बीज है।
भूमि पूजन हेतु मन्त्र :- 
ग्लौ अन्नं मह्यन्नं मे देह्यन्नधिपतये ममान्नं प्रदापय स्वाहा ग्लौं।
लक्ष्मी पूजन में उक्त मन्त्र को लक्ष्मी बीज से संपुटित करना चाहिए। ‘वहिन (र), शान्ति (ई), बिन्दु सहित वक (श) इस प्रकार श्रीं यह श्री बीज बनता है।
श्रीबीज संपुटित श्रीपूजन मन्त्र :- श्रीं अन्नं मह्यन्नं मे देह्यनाधिपतये ममान्नं प्रदापय स्वाह श्रीं।
आद्य वेदास्र (चतुरस्र) चतुर्दल में आदि के चार बीज लगाकर कर चार शक्तियों का पूजन करना चाहिए। (1). परा, (2). भुवनेश्वरी, (3). कमला एवं (4). सुभगा ये चार शक्तियों हैं। अष्टदल में ब्राह्यी आदि अष्टमातृकाओं का पूजन करना चाहिए। तदनन्तर षोडशदल में मूल मन्त्र के शेष वर्णो को आदि में लगाकर (1). अमृता, (2). मानदा, (3). तुष्टि, (4). पुष्टि, (5). प्रीति, (6). रति, (7). ह्रीं (लज्जा), (8). श्री, (9). स्वधा, (10). स्वाहा, (11). ज्योत्स्ना, (12). हैमवती, (13). छाया, (14). पूर्णिमा, (15). नित्या एवं (16). अमावस्या का ‘अन्नपूर्णायै नमः’ लगा कर पूजन करना चाहिए। तदनन्तर भूपुर के भीतर लोकपालों की तथा उसके बाहर उनके अस्त्रों की पूजा करनी चाहिए।
अष्टमातृका ::
ब्राह्मणी :- ये परमपिता ब्रह्मा की शक्ति को प्रदर्शित करती हैं। ये पीत वर्ण की है तथा इनकी चार भुजाएँ हैं। ब्रह्मदेव की तरह इनका आसन कमल एवं वाहन हंस है।
वैष्णवी :- ये भगवान विष्णु की शक्ति को प्रदर्शित करती हैं। इनकी भी चार भुजाएँ हैं, जिनमें ये भगवान् श्री हरी विष्णु की तरह शंख, चक्र, गदा एवं कमल धारण करती हैं। नारायण की भाँति ये विविध आभूषणों से ऐश्वर्य का प्रदर्शन करती हैं तथा इनका वाहन भी गरुड़ है।
माहेश्वरी :- आदि देव महादेव की शक्ति को प्रदर्शित करने वाली चार भुजाओं वाली ये देवी नंदी पर विराजमान रहती हैं। इनका दूसरा नाम रुद्राणी भी है जो महरूद्र की शक्ति का परिचायक है। महादेव की भांति ये भी त्रिनेत्रधारी एवं त्रिशूलधारी हैं। इनके हाथों में त्रिशूल, डमरू, रुद्राक्षमाला एवं कपाल स्थित रहते हैं।
इन्द्राणी :- ये देवराज इंद्र की शक्ति को प्रदर्शित करती हैं, जिन्हें ऐन्द्री, महेन्द्री एवं वज्री भी कहा जाता है। इनकी चार भुजाएँ एवं हजार नेत्र बताये गए हैं। इन्द्र की भाति ही ये वज्र धारण करती हैं और ऐरावत पर विराजमान रहती हैं।
कौमारी :- शिवपुत्र कार्तिकेय की शक्ति स्वरूपा ये देवी कुमारी, कार्तिकी और अम्बिका नाम से भी जानी जाती हैं। मोर पर सवार हो ये अपने चारों हाथों में परशु, भाला, धनुष एवं रजत मुद्रा धारण करती हैं। कभी-कभी इन्हें स्कन्द की भाँति छः हाथों के साथ भी दर्शाया जाता है।
वाराही :- ये भगवान् श्री हरी विष्णु के अवतार वाराह अथवा यमदेव की शक्ति को प्रदर्शित करती हैं। ये अपने चार हाथों में दंड, हल, खड्ग एवं पानपत्र धारण करती हैं तथा भैसें पर सवार रहती हैं। इन्हे भी अर्ध नारी एवं अर्ध वराह के रूप में दिखाया जाता है।
चामुण्डा :- ये देवी चंडी का ही दूसरा रूप है और उन्हीं की शक्तियों का प्रतिनिधित्व करती हैं। इन्हें चामुंडी या चर्चिका भी कहा जाता है। इनका रंग रूप महाकाली से बहुत मिलता जुलता है। नरमुंडों से घिरी कृष्ण वर्ण की ये देवी अपने चारों भुजाओं में डमरू, खड्ग, त्रिशूल एवं पानपत्र लिए रहती हैं। त्रिनेत्रधारी ये देवी सियार पर सवार शवों के बीच में अत्यंत भयानक प्रतीत होती हैं।
नरसिंहि :- विष्णु अवतार नृसिंह की प्रतीक इन देवी का स्वरुप भी उनसे मिलता है। इन्हें नरसिंहिका एवं प्रत्यंगिरा भी कहा जाता है।
आवरण पूजा विधि :: प्रथमावरण में त्रिकोणाकर कर्णिका में आग्नेय कोण से ईशान कोण तक शिव, वाराह एवं नारायण की पूजा यथा :- "ॐ नमः शिवाय, आग्नेये, ॐ नमो भगवते वराहरुपाय भूर्भुवःस्वःपतये भूपतित्त्वं मेम देहि ददापय स्वाहा (अग्ने)" पुनः "ॐ नमो नारायणाय, ईशाने"
द्वितीयावरण में केसरों में षडङ्गपूजा :: 
ॐ ह्रां हृदयाय नमः, ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा, ॐ ह्रूँ शिखायै वषट्,
ॐ ह्रैं कवचाय नमः, ॐ ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्, ॐ ह्रः अस्त्राय फट्।  
फिर ऊपर कहे गये भूमि बीज संपुटित मन्त्र से देवी के वाम भाग में भूमि का, मध्य में शुद्ध अन्नपूर्णा से अन्नपूर्णा का तथा उपर्युक्त श्री बीज संपुटित मन्त्र से महा श्री का दक्षिण भाग में पूजन चाहिए यथा :- 
"ग्लौं अन्नं मह्यन्नं देह्यन्नाधिपतये ममान्नं प्रदापय स्वाहा ग्लौं भूम्यै नमः"। वामभागे यथा :- "श्रीं अन्नं मह्यन्नं मे देह्यन्नधिपतये ममान्न प्रदापय स्वाहा, श्रीं श्रियै नमः" से श्री का। फिर मध्य में अन्नपूर्णा का यथा :- 
"अन्न मह्यन्नं मेम देह्यन्नाधिपतये ममान्नं प्रदापय स्वाहा अन्नपूर्णायै नमः"
तृतीयावरण में पूर्व से आरम्भ कर उत्तर पर्यन्त चारों दिशाओं में परा आदि चार शक्तियों का पूजन करना चाहिए यथा :-
ॐ ऐं परायै नमः, पूर्वे, ॐ ह्रीं भुवनेश्वर्यै नमः दक्षिणे, ॐ श्रीं कमलायै नमः पश्चिमे, ॐ क्लीं सुभगायै नमः उत्तरे
चतुर्थावरण में अष्टदल पर पूर्वादि अष्ट दिशाओं में ब्राह्यी आदि अष्टमातृकाओं का पूजन करनी चाहिए यथा :-
ॐ ब्राह्ययै नमः, ॐ माहेश्वर्यै नमः, ॐ कौमार्यै नमः, ॐ वैष्णव्यै नमः, ॐ वाराह्यै नमः,  ॐ इन्द्राण्यै नमः, ॐ चामुण्डायै नमः,  ॐ महालक्ष्म्यै नम:।  
पञ्चमावरण में षोडशदलों में प्रदक्षिण क्रम से अमृता आदि सोलह शक्तियों का पूजन करना चाहिए यथा :-
ॐ नं अमृतायै अन्नपूर्णायै नमः, ॐ श्वं स्वधायै अन्नपूर्णायै नमः, ॐ मों मानदायै अन्नपूर्णायै नमः, ॐ रिं स्वाहायै अन्नपूर्णायै नमः, ॐ भं तुष्ट्‌यै अन्नपूर्णायै नमः, ॐ अं ज्योत्स्नायै अन्नपूर्णायै नमः, ॐ गं पुष्ट्‌यै अन्नपूर्णायै नमः, ॐ न्नं हैमवत्यै अन्नपूर्णायै नमः, ॐ वं प्रीत्यै अन्नपूर्णायै नमः, ॐ पूं छायायै अन्नपूर्णायै नमः, ॐ तिं रत्यै अन्नपूर्णायै नमः, ॐ र्णें पूर्णिमायै अन्नपूर्णायै नमः, ॐ मां हियै अन्नपूर्णायै नमः, ॐ स्वां नित्यायै अन्नपूर्णायै नमः, ॐ हें श्रियै अन्नपूर्णायै नमः, ॐ हां अमावस्यायै अन्नपूर्णायै नमः। 
षष्ठावरण में भूपुर के भीतर अपने अपने दिशाओं में इन्द्रादि दश दिक्पालों का पूजन करना चाहिए - ॐ इन्द्राय नमः पूर्वे, ॐ अग्नये नमः आग्नेये, ॐ यमाय नमः दक्षिणे, ॐ निऋत्ये नमः, नैऋत्ये, ॐ वरुणाय नमः पश्चिमे, ॐ वायवे नमः वायव्ये, ॐ सोमाय नमः उत्तरे, ॐ ईशानाय नमः ऐशान्ये, ॐ ब्रह्यणे नमः पूर्वेशानयोर्मध्ये, ॐ अनन्ताय नमः पश्चिमनैऋत्ययोर्मध्ये।
सप्तमावरण में भूपुर के बाहर पूर्वादि दिशाओं में वज्रादि आयुधों की पूजा करे :- 
ॐ वज्राय नमः पूर्वे,  ॐ शक्तये नमः आग्नेये, ॐ दण्डाय नमः दक्षिणे, ॐ खडगाय नमः नैऋत्ये, ॐ पाशाय नमः पश्चिमे, ॐ अकुंशाय नमः वायव्ये, ॐ गदायै नमः उत्तरे,  ॐ त्रिशूलाय नमः ऐशान्ये, ॐ पद‍माय नमः पूर्वेशानयोर्मध्ये, ॐ चक्राय नमः पश्चिमनैऋत्ययोर्मध्ये।
इस प्रकार यथोपलब्ध उपचारों से आवरण पूजा करने के पश्चात् जप प्रारम्भ करना चाहिए।
इस प्रकार जपादि से मन्त्र सिद्धि हो जाने पर साधक धन संचय में कुबेर के समान धनी होकर लोकवन्दित हो जाता है।
अन्नपूर्णा मन्त्र :: रमा (श्रीं) और कामबीज (क्लीं) से रहित पूर्वोक्त मन्त्र अष्टादश अक्षरों का होकर अन्य मन्त्र बन जाता है। इस मन्त्र के दो, दो, चार, चार एवं दो अक्षरों से षडङ्गन्यास की विधि है। 
मन्त्र का स्वरुप :- 
ॐ ह्रीं नमः भगवति माहेश्वरि अन्नपूर्णे स्वाहा। 
इसका विनियोग एवं ध्यान पूर्वमन्त्र के समान है।
षडङ्गन्यास :: 
ॐ ह्रीं हृदयाय नमः, ॐ नमः शिरसे स्वाहा, ॐ भगवति शिखायै वषट्, ॐ माहेश्वरि कवचाय हुम, ॐ अन्नपूर्णे नेत्रत्रयाय वौषट्, ॐ स्वाहा अस्त्राय फट्।
मन्त्र और ध्यान :- 
माया हृद्‌भगवत्यन्ते माहेश्वरिपदं ततः। 
अन्नपूर्ण ठयुगलं मनुः सप्तदशाक्षरः॥[शारदा तिलक 10.109] 
अङ्‌गानि मायया कुर्यात् ततो देवीं विचिन्तयेत् मन्नप्रदननिरतां स्तनभारनम्राम्। नृत्यन्तमिन्दुशकलाभरणं विलोक्य हृष्टां भजे भगवतीं भवदुःखहर्त्रीम्॥[शारदा तिलक 10.110] 
मन्त्र :-  माया (हीम्), हृत् (नमः), तदनन्तर ‘भगवति माहेश्वरि अन्नपूर्णे, तीन पद, तदनन्तर दो ठकार (स्वाहा) लिखे । इस प्रकार 17 अक्षरों का अन्नपूर्णा मन्त्र का उद्धार कहा गया। इसका स्वरुप :- "ह्रीं नमः भगवति माहेश्वरि अन्नपूर्णे स्वाहा" हुआ।
ध्यान :- जिनका शरीर रक्तवर्ण है, जिन्होंने नाना प्रकार के चित्र-विचित्र वस्त्र धारण किए हैं, जिनके शिखा में नवीन चन्द्रमा विराजमान है, जो निरन्तर त्रैलोक्यवासियों को अन्न प्रदान करने में निरत हैं। स्तमभार से विनम्र भगवान् सदाशिव को अपने सामने नाचते देख कर प्रसन्न रहने वाली संसार के समस्त पाप तापों को दूर करने वाली भगवती अन्नपूर्णा का स्तवन इस प्रकार करना चाहिए।
अन्न पूर्णा देवी का अन्य मन्त्र ::  पूर्वोक्त विंशत्यक्षर मन्त्र में चौदह अक्षर के बाद "ममाभिमतमन्नं देहि देहि अन्नपूर्णे स्वाहा" यह सत्रह अक्षर मिला देने से कुल इकत्तीस अक्षरों का एक अन्य अन्नपूर्णा मन्त्र बन जाता है। इस मन्त्र के 4, 6, 4, 7, 4, एवं 6 अक्षरों से षडङ्गन्यास करने चाहियें।
विमर्श-मन्त्र का स्वरुप :-
 ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं नमः भगवति माहेश्वरि ममाभिमतमन्नं देहि देहि अन्नपूर्णे स्वाहा।
षडङन्यास :- 
ॐ ह्रीं श्री क्लीं हृदयाय नम्ह, ॐ नमो भगवति शिरसे स्वाहा, ॐ माहेश्वरि शिखायै वषट, ॐ ममाभिमतमन्नं कवचाय हुं, ॐ देहि देहि नेत्रत्रयाय वौषट्, ॐ अन्नपूर्णे स्वाहा अस्त्रायु फट्।
अन्नपूर्णा देवी का अन्य मन्त्र ::  प्रणव (ॐ), कमला (श्रीं), शक्ति (ह्रीं), फिर "नमो भगवति प्रसन्नपरिजातेश्वरि अन्नपूर्णे", फिर अनलाङ्गना (स्वाहा:) लगाने से अभीष्ट साधक चौबीस अक्षरों का अन्नपूर्णा मन्त्र बनता हैं। इस मन्त्र के 3, 2, 4, 9, 4 एवं 2 अक्षरों से षडङ्गन्यास करना चाहिए।
विमर्श-मन्त्र का स्वरुप :- 
ॐ श्रीं ह्रीं नमो भगवति प्रसन्नपारिजातेश्वरि अन्नपूर्णे स्वाहा
षडङ्गन्यास :- 
ॐ श्रीं ह्रीं हृदयाय नमः, ॐ नमः शिरसे स्वाहा, ॐ भगवति शिखायै वषट्, ॐ प्रसन्नपारिजातेश्वरि कवचाय हुम्, ॐ अन्नपूर्णे नेत्रत्रयाय वौषट्, ॐ स्वाहा अस्त्राय फट्। 
अन्य मन्त्र :-  तार (ॐ) श्री (श्रीं) शक्ति (ह्रीं), हृदय (नमः), फिर ‘भग’, फिर अम्भ (ब), फिर सदृक् कामिका (ति), फिर ‘महेश्वरि प्रसन्नवरदे’ तदनन्तर ‘अन्नपूर्णे’ इसके अन्त में अग्निपत्नी (स्वाहा) लगाने से पच्चीस अक्षरों का अन्नपूर्णा मन्त्र निष्पन्न होता है।
मन्त्र के राग षट्‌युग षड्‌ वेद, नेत्र 3, 6, 4, 6, 4, एवं 2 अक्षरों से षडङ्गन्यास करना चाहिए। उपर्युक्त चार मन्त्रों का विनियोग और ध्यान आदि समस्त कृत्य पूर्ववत् हैं।
विमर्श-मन्त्र का स्वरुप :- 
ॐ श्री ह्रीं नमो भगवति माहेश्वरि प्रसन्नवरदे अन्नपूर्णे स्वाहा।
षडङ्गन्यास :- 
ॐ श्रीं ह्रीं हृदयाय नमः, ॐ नमो भगवति शिरसे स्वाहा:, ॐ महेश्वरि शिखायै वषट्, ॐ प्रसन्न वरदे कवचाय हुम्, ॐ अन्नपूर्णे नेत्रत्रयाय वौषट्,  ॐ स्वाहा: अस्त्राय षट्।
त्रैलोक्यमोहन गौरी मन्त्र :: माया (ह्रीं), उसके अन्त में ‘नमः’ पद, फिर ‘ब्रह्म श्री राजिते राजपूजिते जय’, फिर ‘विजये गौरि गान्धारि’ फिर ‘त्रिभु’ इसके बाद तोय ((व), मेष (न), फिर ‘वशङ्गरि’, फिर ‘सर्व’ पद, फिर ससद्यल (लो), फिर ‘क वशङकरि’, फिर ‘सर्वस्त्रीं पुरुष’ के बाद ‘वशङ्गरि’, फिर ‘सु द्वय’ (सु सु), दु द्वय (दु दु), घे युग् (घे घे), वायुग्म (वा वा), फिर हरवल्लभा (ह्रीं), तथा अन्त में ‘स्वाहा’ लगाने से 61 अक्षरों का यह मन्त्रराज है।
विमर्श-मन्त्र का स्वरुप ::  
ह्रीं नमः ब्रह्मश्रीराजिते राजपूजिते जयविजये गौरि गान्धारि त्रिभुवनवशङ्गरि, सर्वलोकवशङ्गरि सर्वस्त्रीपुरुषवशङ्करि सु सु दु दु घे घे वा वा ह्रीं स्वाहा:
विनियोग :- इस मन्त्र के अज ऋषि हैं, निच्‌द गायत्री छन्द है, त्रैलोक्यमोहिनी गौरी देवता है, माया बीज ऐ एवं स्वाह शक्ति है। षड् दीर्घयुक्त मायाबीज से युक्त इस मन्त्र के 14, 10, 8 एवं 11 अक्षरों से षडङ्गन्यास करना चाहिए। फिर मूलमन्त्र से व्यापक कर त्रैलोक्यमोहिनी का ध्यान करना चाहिए।
विमर्श-विनियोग :- 
अस्य श्रीत्रैलोक्यमोहनगौरीमन्त्रस्य अजऋषिर्निचृद्‌गायत्री छन्दः त्रैलोक्यमोहिनीगौरीदेवता ह्रीं बीजं स्वाहा शक्ति ममाऽभीष्टसिद्धयर्थ जप विनियोगः।
षडङ्गन्यास :-  
ह्रां ह्रीं नमो ब्रह्यश्रीराजिते राजपूजिते हृदयाय नमः, ह्रीं जयविजये गौरीगान्धारि शिरसे स्वहा, हूँ त्रिभुवनशङ्गरि शिखायै वषट्, ह्रैं सर्वलोक वशङ्गरि कवचाय हुं, ह्रौं सर्वस्त्रीपुरुष नेत्रत्रयाय वशङ्गरि वौषट्, सुसु दुदु घेघे वावा ह्रीं स्वाहा, ह्रीं नमोः ब्रह्मश्रीराजिते राजपूजिते जयविजये गौरिगान्धारि त्रिभुवनवशङ्गरि सर्वलोकवशङ्गरि सर्वस्त्री पुरुष वशङ्गरि सुसु दुदु घेघे वावा ह्रीं स्वाहा, सर्वाङ्गे।
उक्त मन्त्र का ध्यान :: देव समूहों से अर्चित पाद कमलों वाली, अरुण वर्णा, मस्तक पर चन्द्र कला धारण किये हुये, लाल चन्दन, लाल वस्त्र एवं लाल पुष्पों से अलंकृत अपने दोनों हाथों में अंकुश एवं पाश लिए हुये शिवा (गौरी) हमारा कल्याण करें।
उक्त मन्त्र का दस हजार जप करे, तदनन्तर घृत मिश्रित पायस (खीर) से उसका दशांश होम करे, अन्त में पूर्वोक्ती पीठ पर श्रीगिरिजा का पूजन करें।
आवरण पूजा :: केशरों पर षडङ्गपूजा कर अष्टदलों में ब्राह्यी आदि मातृकाओं की, भूपुर में लोकपालों की तथा बाहर उनके आयुधों की पूजा करनी चाहिए।
विमर्श :- पीठ देवताओं एवं पीठ शक्तियों का पूजन कर पीठ पर मूलमन्त्र से देवी की मूर्ति की कल्पना कर आवाहनादि उपचारों से पुष्पाञ्जलि समर्पित कर उनकी आज्ञा से इस प्रकार आवरण पूजा करे।
सर्वप्रथम केशरों में षडङ्गमन्त्रों से षडङ्गपूजा करनी चाहिए, यथा :-
ह्रीं ह्रीं नमो ब्रह्मश्रीराजिते राजपूजिते हृदयाय नमः,
ह्रीं जयविजये गौरि गान्धारि शिरसे स्वाहा,
ह्रूँ त्रिभुवनवशङ्गरि शिखायै वषट्,
ह्रैं सर्वलोकवशङ्गरि कवचाय हुम्,
ह्रौं सर्वस्त्रीपुरुषवशङ्गरि नेत्रत्रयाय वौषट्,
ह्रः सुसु दुदु घेघे वावा ह्रीं स्वाहा अस्त्राय फट्। 
फिर अष्टदल में पूर्वादि दिशाओं के क्रम से ब्राह्यी आदि का पूजन करनी चाहिए।
(1). ॐ ब्राह्ययै नमः, पूर्वदले,  (2). ॐ माहेश्वर्यै नमः, आग्नेये, (3). ॐ कौमार्यै नमः, दक्षिणे, (4). ॐ वैष्णव्यै नमः, नैऋत्ये,.  (5). ॐ वाराह्यै नमः, पश्चिमे, (6). ॐ इन्द्राण्यै नमः, वायव्ये, (7). ॐ चामुण्डायै नमः, उत्तरे और (8). ॐ महालक्ष्म्यै नमः, ऐशान्ये। 
तत्पश्चात् भूपुर के भीतर अपनी अपनी दिशाओं में इन्द्रादि दश दिक्पालों की पूजा करनी चाहिए। 
इन्द्राय नमः, पूर्वे, अग्नये नमः, आग्नेये, यमाय नमः, दक्षिणे नैऋत्याय नमः, नैऋत्ये वरुणाय नमः, पश्चिमे, वायवे नमः, वायव्ये, सोमाय नमः, उत्तरे, ईशानाय नमः, पश्चिमनैऋत्योर्मध्ये।
भूपुर के बाहर वज्रादि आयुधों की पूजा करनी चाहिए :-
वज्राय नमः, पूर्वे, शक्तये नमः, आग्नेये, दण्डाय नमः दक्षिणे,
खडगाय नमः, नैऋत्ये, पाशाय नमः, पश्चिमे, अंकुशाय नमः, वायव्ये, गदायै नमः, उत्तरे त्रिशूलाय नमः, ऐशान्ये, पद्‌माय नमः, पूर्वेशानर्यर्मध्ये, चक्राय नमः, पश्चिमनैऋत्ययोर्मध्ये।
काम्य प्रयोग :-
इस प्रकार आराधना करने से देवी सुख एवं संपत्ति प्रदान करती हैं। तिल मिश्रित तण्डुल (चावल), सुन्दर फल, त्रिमधु (घी, मधु, दूध) से मिश्रित लवण और मनोहर लालवर्ण के कमलों से जो व्यक्ति तीन दिन तक हवन करता है, उस व्यक्ति के ब्राह्यणादि सभी वर्ण एक महीने के भीतर वश में जो जाते हैं। 
सूर्यमण्डल में विराजमान देवी के उक्त स्वरुप का ध्यान करते हुये जो व्यक्ति जप करता है अथवा 108 आहुतियाँ प्रदान करता है, वह व्यक्ति सारे जगत् को अपने वश में कर लेता है।
माता गौरी का अन्य मन्त्र :: हंस (स्), अनल (र), ऐकारस्थ शशांकयुत् (ऐं) उससे युक्त नभ (ह्) इस प्रकार हस्त्रैं, फिर वायु (य्), अग्नि (र), एवं कर्णेन्दु (ऊ) सहित तोय (व्) अर्थात् ‘व्य‌रुँ’ , फिर ‘राजमुखि’, ‘राजाधिमुखिवश्य’ के बाद ‘मुखि’ , फिर माया (ह्रीं), रमा (श्रीं), आत्मभूत (क्लीं), फिर ‘देवि देवि महादेवि देवाधैदेवि सर्वजनस्य मुखं’ के बाद मम वशं’ फिर दो बार ‘कुरु कुरु’ और इसके अन्त में वहिनप्रिया (स्वाहा) लगाने से अङातालिस अक्षरों का मन्त्र निष्पन्न होता है। 
विमर्श-मन्त्र का स्वरुप :- 
ह्स्त्रैं व्य्‌रुँ राजमुखि राजाधि मुखि वश्यमुखि ह्रीं श्रीं क्लीं देवि महादेवि देवाधिदेवि सर्वजनस्य मुखं मम वशं कुरु कुरु स्वाहा। 
इस मन्त्र के ऋषि छन्द देवत आदि हैं। मन्त्र के ग्यारह वर्णो से हृदय सात वर्णो से शिर चार वर्णो से शिखा चार वर्णो से कवच पाँच वर्णो से नेत्र तथा सत्रह वर्णो से अस्त्र न्यास करना चाहिए। पूर्ववत् जप ध्यान एवं पूजा भी करनी चाहिए। षड्‌दीर्घयुत माया बीज प्रारम्भ में लगाकर षडङ्गन्यास के मन्त्रों की कल्पना कर लेनी चाहिए। इस प्रकार मन्त्र सिद्ध हो जाने पर साधक काम्य प्रयोग का अधिकारी होता है।
विमर्श-विनियोग :: 
अस्य श्रीगौरीमन्त्रस्य अजऋषिर्निचृद्‌गायत्रीछन्दः गौरीदेवता, ह्रीं बीजं स्वाहा शक्तिः ममाखिलकामनासिद्धयर्थे जपे विनियोगः।
षडङ्गन्यास :-  
ह्रां ह्स्त्रैं व्य्‌रुँ राजमुखि राजाधिमुखि हृदयाय नमः, ह्रीं वश्यमुखि ह्रीं श्रीं क्लीं शिरसे स्वाहा, ह्रूँ देवि देवि शिखायै वषट्, ह्रै महादेवि कवचाय हुम्, ह्रौं देवाधिदेवि नेत्रत्रयाय वौषट्, ह्रः सर्वजनस्य मुखं मम वशं कुरु कुरु स्वाहा अस्त्राय फट्।
पूजाविधि :- देवी के स्वरुप का ध्यान करें। अर्घ्य स्थापन, पीठ शक्तिपूजन, देवी पूजन तथा आवरण देवताओं का पूजन करें।
वशीकरण मन्त्र :: वशीकरण मन्त्र के पूजन जप होम एवं तर्पण में मूल मन्त्र के ‘सर्वजनस्य’ पद के स्थान पर जिसे अपने वश में करना हो उस साध्य के षष्ठन्त रुप को लगाना चाहिए। सात दिन तक सहस्र-सहस्र की सँख्या में संपातपूर्वक (हुतावशेष स्रुवावस्थित घी का प्रोक्षणी में स्थापन) घी से होम कर उस संपात (संस्रव) घृत को साध्य व्यक्ति को पिलाने से वह वश में हो जाता है।
साध्य व्यक्ति के जन्म नक्षत्र सम्बन्धी लकड़ी लेकर उसी से साध्य की प्रतिमा निर्माण करें। फिर उसमें प्राण-प्रतिष्ठा कर उस प्रतिमा को आँगन में गाढ़ दें। 
पुनः उसके ऊपर अग्निस्थापन कर मध्य रात्रि में सात दिन तक रक्त चन्दन मिश्रित जपा कुसुम के फूलों से प्रतिदिन इस मन्त्र से एक हजार आहुतियाँ प्रदार करें। इसके बाद उस प्रतिमा को उखाड़ कर किसी नदी के किनारे गाढ़ देनी चाहिए, ऐसा करने से साध्य निश्चित रुप से वश में हो कर दासवत् हो जाता है। 
विमर्श-जन्म नक्षत्रों के वृक्षों की तालिका ::          
ज्येष्ठा लक्ष्मी का मन्त्रोद्धार :- वाग्बीज (ऐं), भुवनेशी (ह्रीं), श्रीं (श्रीं), अनन्त (आ), फिर ‘द्यलक्ष्मि’, फिर ‘स्वयंभुवे’, फिर शम्भुजाया (ह्रीं), तदनन्तर ‘ज्येष्ठार्यै’ अन्त में हृदय (नमः) लगाने से सत्रह अक्षरों का धन को वृद्धि करने वाला मन्त्र बनता है।    
विमर्श-मन्त्र का स्वरुप :- 
ऐं ह्रीं श्रीं आद्यलक्ष्मि स्वयंभुवे ह्रीं ज्येष्ठायै नमः। 
विनियोग :- इस मन्त्र के ब्रह्या ऋषि हैं, अष्टि छन्द है, ज्येष्ठा लक्ष्मी देवता हैं, श्री बीज है तथा माया शक्ति है। मूल मन्त्र से हस्त् प्रक्षालन कर बाद में अङ्गन्यास करना चाहिए।
विमर्श-विनियोग का स्वरुप :-
अस्य श्रीज्येष्ठालक्ष्मीमन्त्रस्य ब्रह्याऋषिष्टिच्छन्दः ज्येष्ठालक्ष्मीदेवता ममाभीष्ट-सिद्धयर्थे जपे विनियोगः। 
मन्त्र के 3, 4, 4, 1, 3, एवं 2 वर्णो से षडङ्गन्यास करना चाहिए तथा 1, 1, 1, 4, 4, 1, 3, एवं दो वर्णो से शिर भूमध्य, मुख, हृदय, नाभि मूलाधार जानु एवं पैरों का न्यास करना चाहिए। 
विमर्श-षडङ्गन्यास :-  
ऐं ह्रीं श्रीं हृदयाय नमः, आद्यलक्ष्मी शिरसे स्वाहा, स्वयंभुवे शिखायै वषट्ह्रीं,  कवचाय हुम्, ज्येष्ठायै वौषट्, नमः अस्त्राय फट्।
सर्वाङगन्यास :- 
ऐं नमः शिरसि, ह्रीं नमः भ्रूमध्ये, श्रीं नमः मुखे, आद्यलक्ष्मि नमः हृदि, स्वयंभुवे नमः नाभौ, ह्रीं नमः मूलाधारे, ज्येष्ठायै नमः जान्वो, नमोः नमः पादयोः। 
ज्येष्ठा लक्ष्मी का ध्यान :: उदीयमान सूर्य के समान लाल आभावाली, प्रहसितमुखीम, रक्त वस्त्र एवं रक्त वर्ण के अङ्गरोगीं से विभूषित, हाथों में कुम्भ धनपात्र, अंकुशं एवं पाश को धारण किये हुये, कमल पर विराजमान, कमलनेत्रा, पीन स्तनों वाली, सौन्दर्य के सागर के समान, अवर्णनीय सुन्दरा से युक्त, अपने उपासकों के समस्त अभिलाषा ओम को पूर्ण करने वाली श्री ज्येष्ठा लक्ष्मी का ध्यान करना चाहिए। 
उक्त मन्त्र का एक लाख जप करे तथा घी मिश्रित खीर से उसका दशांश होम करे फिर वक्ष्यमाण पीठ पर महागौरी का पूजन करना चाहिए। 
ज्येष्ठ पीठ की नवशक्तियाँ :: (1). लोहिताक्षी, (2). विरुपा, (3). कराली, (4). नीललोहिता, (5). समदा, (6). वारुणी, (7). पुष्टि, (8). अमोघा एवं (9). विश्वमोहिनी। इनका पूजन आठ दिशाओं में तथा मध्य में करना चाहिए। तदनन्तर वक्ष्यमाण गायत्री मत्र से को आसन देना चाहिए। 
प्रणव (ॐ) फिर रक्तज्येष्ठायै विद्‌महे तदनन्तर नीलज्येष्ठा पद के पश्चात् धीमहि उसके बाद तन्नो लक्ष्मी पद, फिर प्रचोदयात  यह ज्येष्ठा का गायत्री मन्त्र कहा गया है।
केशरों में अङ्गपूजाम, अष्टपत्रों पर मातृकाओं की, फिर उसके बाहर लोकपालों एवं उनके अस्त्रों की पूजा करनी चाहिए। इस प्रकार जप आदि से सिद्ध मन्त्र मनोवाञ्छित फल देता है (द्र. 9.38)। 
विमर्श-पीठ पूजा विधि :-  साधक ज्येष्ठा लक्ष्मी के स्वरुप का ध्यान करे, फिर मानसोपचार से पूजन कर प्रदक्षिण क्रम से पीठ की शक्तियों का पूर्वादि आठ दिशाओं में एवं मध्य में इस प्रकार पूजन करें :- 
ॐ लोहिताक्ष्यै नमः पूर्वे, ॐ दिव्यायै नमः आग्नेये, ॐ कराल्यै नमः दक्षिणे, ॐ नीललोहितायै नमः नैऋत्ये, ॐ समदायै नमः पश्चिमे, ॐ वारुण्यै नमः वायव्ये, ॐ पुष्ट्यै नमः उत्तरे,  ॐ अमोघायै नमः ऐशान्ये, ॐ विश्वमोहिन्यै नमः मध्ये। 
तदनन्तर :-
ॐ रक्तज्येष्ठायै विद्‌महे नीलज्येष्ठायै धीमहि; तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात्। 
इस गायत्री मन्त्र से उक्त पूजित पीठ पर देवी को आसन देवे। फिर यथोपचार देवी का पूजन कर पुष्पाञ्जलि प्रदान कर उनकीं अनुज्ञा ले आवरण पूजा करें।
सर्व प्रथम केशरों में षडङ्गपूजा :-
ॐ ऐं ह्रीं श्री हृदयाय नमः, आद्यलक्ष्मि शिरसे स्वाहा, स्वयंभुवे शिखायै वषट्‍, ह्रीं कवचाय हुम् ज्येष्ठायै नेत्रत्रयाय वौषट्, स्वाहा अस्त्राय फट्। 
तदनन्तर अष्टदल में ब्राह्यी आदि देवताओं की, भूपुर के भीतर इन्द्रादि दश दिक्पालों की तथा बाहर उनके वज्रादि आयुधों की पूर्ववत् पूजा करनी चाहिए (द्र. 9.38)। आवरण पूजा के पश्चात् देवी का धूप दीपादि से उपचारों से पूजन कर जप प्रारम्भ करें।
इस प्रकार पूजन सहित पुरश्चरण करने से मन्त्र सिद्ध होता है और साधक को अभिमन्त फल प्रदान करता है।
अन्नपूर्णा के अन्य मन्त्र :: अन्नपूर्णा के आवरण पूजा में भूमि एवं श्री के पूजनार्थ बाइस अक्षरों के मन्त्र का वर्णन किया जा चुका है (द्र. 9. 16-17)।
उसी को तार (ॐ), भू (ग्लौं) एवं श्री (श्रीं) से संपुटित कर जप करना चाहिए।अन्नदायक मन्त्र की साधना का प्रकार :- इस मन्त्र के ब्रह्या ऋषि हैं, निचृद् गायत्री छन्द हैं, श्री एवं वसुधा इसके देवता हैं, ग्लौं इसका बीज है तथा श्रीं शक्ति है।
विमर्श-मन्त्र का स्वरुप :: 
ॐ ग्लौं श्रीं अन्नं मह्यन्नं मे देह्यन्नाधिपतये 
ममान्नं प्रदापय स्वाहा श्रीं ग्लौं ॐ।
विनियोग :- 
ॐ अस्य श्रीज्येष्ठालक्ष्मीमन्त्रस्य ब्रह्याऋषिर्निचृद्‌गायत्रीछन्दः वसुधाश्रियौ देवते ग्लौं बीजं श्रीं शक्तिः मनोकामनासिद्धयर्थे जपे विनियोगः। 
न्यास विधि :अन्नं महि से हृदय, अन्नं मे देहि से शिर, अन्नाधिपतये से शिखा, ममान्नं प्रदापय से कवच तथा स्वाहा से अस्त्र का न्यास करना चाहिए। 
इन मन्त्रों के प्रारम्भ में ध्रुव (ॐ) तथा अन्त में षड्‌दीर्घ सहित भूमिबीज एवं श्री बीज लगाना चाहिए। यह न्यास नेत्र को छोडकर मात्र पाँच अङ्गों में किया जाता है। न्यास के बाद क्षीरसागर में स्वर्णद्वीप में वसुधा एवं श्री का ध्यान वक्ष्यमाण (9. 70) श्लोक के अनुसार करें। 
विमर्श-पञ्चाङ्गन्यास विधि :- "पञ्चाड्गानि मनोर्यत्र तत्र नेत्रमनुं त्यजेत्" जहाँ पञ्चाङ्गन्यास कहा गया हो वहाँ नेत्रन्यास न करे। इस नियम के अनुसार नेत्र को छोडकर इस प्रकार पञ्चाङ्गन्यास करना चाहिए।
ॐ अन्नं महि ग्लां श्रीं हृदयाय नमः, ॐ अन्नं मे देहि ग्लीं शिरसे स्वाहा,
ॐ अन्नाधिपतये ग्लूं श्रीं शिखायै वषट्, ॐ ममान्नं प्रदापय ग्लैं श्रीं कवचाय हुं, ॐ स्वाहा ग्लौं ग्लः श्रीं अस्त्राय फट्
भूमि एवं श्री ध्यान :: कल्पद्रुम के नीचे मणि वेदिका पर ज्येष्ठा लक्ष्मी के बायें एवं दाहिने भाग में विराजमान वस्त्र एवं आभूषणों से अलंकृत तथा देवता एवं मुनिगणों से वन्दित भूमि का एवं श्री का ध्यान करना चाहिए।
उक्त मन्त्र का एक लाख जप करना चाहिए तथा घी मिश्रित अन्न से उसका दशांश होम करना चाहिए। तदनन्तर वैष्णव पीठ पर वसुधा एवं श्री का पूजन करना चाहिए।
नव पीठशक्तियाँ :- (1).  विमला, (2). उत्कर्षिणी, (3). ज्ञाना, (4). क्रिया, (5). योगा, (6). प्रहवी, (7). सत्या, (8). ईशाना एवं (9). अनुग्रहा।
तार (ॐ), फिर "नमो भगवते विष्णवे सर्व" के बाद "भतात्मसंयोग" पद, फिर "योगपद‌म" पद, तदनन्तर "पीठात्मने नमः" यह पीठ पूजा का मन्त्र कहा गया है। इस मन्त्र से आसन देकर मूल मन्त्र से आवाहनादि पूजन करना चाहिए।
विमर्श :: पीठ पर आसन देने के मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है :- 
ॐ नमो भगवते विष्णवे सर्वभूतात्मसंयोगयोगपद्‌पीठात्मने नमः।
पीठ पूजा करने के बाद उसके केशरों में पूर्वादि आठ दिशाओं के प्रदक्षिण क्रम से आठ पीठ्ग शक्तियोम की तथा मध्य में नवम अनुग्रह शक्ति की इस प्रकार पूजा करें :- 
(1). ॐ विमलायै नमः पूर्वे,
(2). ॐ उत्कर्षिण्यै नमः आग्नेये,
(3). ॐ ज्ञानायै नमः दक्षिणे,
(4). ॐ क्रियायै नमः नैऋत्ये,
(5). ॐ योगायै नमः पश्चिमे,
(6). ॐ प्रहव्यै नमः वायव्ये,
(7). ॐ सत्यायै नमः उत्तरे,
(8). ॐ ईशानायै नमः ऐशान्ये और 
(9). ॐ अनुग्रहायै नमः मध्ये। 
इस प्रकार पीठ के आठों दिशाओं में तथा मध्य में पूजन करने के बाद "ॐ नमो भगवते विष्णवे सर्वभूतात्मसंयोगयोगपद्‌पीठात्मने नमः" इस मन्त्र से भूमि और श्री इन दोनों को उक्त पूजित पीठ पर आसन दें। फिर उनके स्वरुप का ध्यान कर, मूल मन्त्र से आवाहन कर, मूर्ति की कल्पना कर, पाद्य आदि उपचार संपादन कर, पुष्पाञ्जलि प्रदान कर उनकी अनुज्ञा ले आवरण पूजा प्रारम्भ कर, प्रदक्षिणा क्रम से प्रथम केशरों में अङ्गपूजा करें।
प्रथम केशरों में अङ्ग पूजा करने के पश्चात् पूर्वादि दिशाओं में प्रदक्षिणे क्रम से भूमि, अग्नि, जल और वायु की प्रदक्षिणा करें। तदनन्तर चारों कोणों में निवृत्ति, प्रतिष्ठा, विद्या और शान्ति की पूजा करें।
फिर (1). बलाका, (2). विमला, (3). कमला, (4). वनमाला, (5). विभीषा, (6). मालिका, (7). शाकंरी और (8). वसुमालिका की पूर्वादि दिशाओं में स्थित अष्टदल में पूजा करें ।
तदनन्तर भूपुर के भीतर आठों दिशाओं में इन्द्रादि दश दिक्पालों की और भूपुर के बाहर आठों दिशाओं में उनके वज्रादि आयुधोम की पूजा करनी चाहिए।
विमर्श :: आवरण पूजा विधि :-  सर्वप्रथम केशरों में अङ्ग्पूजा यथा-
(1). ॐ अन्नं महि ग्लां श्रीं हृदाय नमः,
(2). ॐ अन्नं देहि ग्लूं श्रीं शिखायै नमः,
(3). ॐ अन्नं देहि श्रीं शिरसे स्वाहा:, 
(4). ॐ ममान्नं प्रदापय ग्लौ श्रीं कवचाय हुम् एवं 
(5). ॐ स्वाहा ग्लौं ग्लः श्रीं अस्त्राय फट्।
फिर यन्त्र के पूर्वादि दिशाओं में भूमि आदि की पूजा यथा-
ॐ लं भूम्यै नमः पूर्वे, ॐ रं अग्नेये नमः दक्षिणे,
ॐ वं अद्‌भ्यो नमः पश्चिमे, ॐ यं वायवे नमः उत्तरे। 
तत्पश्चात् आग्नेयादि कोणों में निवृत्ति आदि की यथा-
ॐ निवृत्त्यै नमः आग्नेये,  ॐ प्रतिष्ठायै नमः नैऋत्ये,
ॐ विद्यायै नमः वायव्ये, ॐ शान्त्यै नमः ऐशान्ये।
इसके बाद अष्टदलों में पूर्वादि दिशाओं के क्रम से बलाका आदि की पूजा करनी चाहिए, यथा-
(1). ॐ बलाकायै नमः पूर्वे,
(2). ॐ विमलायै नमः आग्नेये,
(3). ॐ कमलायै नमः दक्षिणे,
(4). ॐ वनमालायै नमः नैऋत्ये,
(5). ॐ विभीषायै नमः पश्चिमे,
(6). ॐ मालिकायै नमः वायव्ये,
(7). ॐ शाङ्गर्यै नमः उत्तरे एवं 
(8). ॐ वसुमालिकायै नम्ह ऐशान्ये। 
इसके बाद भूपुर के भीतर पूर्वादि दिशाओं के प्रदक्षिण क्रम से इन्द्रादि दश दिक्पालोम को तथा बाहर उनके वज्रादि आयुधों की पूजा कर गन्ध धूपादि द्वारा व्सुधा और महाश्री की पूजा करें (फिर जप करें)। 
इस प्रकार जो व्यक्ति अपने परिवार के साथ वसुधा एवं महालक्ष्मी का जप पूजनादि के द्वारा आराधना करता है वह पर्याप्त धनधान्य प्राप्त करता है।
श्री (धन, दौलत, समृद्धि) की प्राप्ति के लिए साधक घृत मिश्रित तिलों से बिल्व वृक्ष की समिधाओं से घी मिश्रित खीर से तथा बिल्वपत्र एवं बेल के गुद्‌द से हवन करे।
कुबेर :: जातक कुबेर का मन्त जपते हुये प्रतिदिन कुबेर मन्त्र से वटवृक्ष की समिधाओ में दश आहुतियाँ प्रदान करे।
तार (ॐ), फिर ‘वैश्रवणाय’, फिर अन्त में अग्निप्रिया (स्वाहा:) लगा देने पर आठ अक्षरों का कुबेर मन्त्र बनता है। यथा :- 
‘ॐ वैश्रवणाय स्वाहा:’
होम करते समये अग्नि के मध्य में कुबेर का इस प्रकार ध्यान करे :-
कुबेर अपने दोनों हाथों से धनपूर्ण स्वर्णकुम्भ तथा रत्न करण्डक (पात्र) लिए हुये उसे उडेल रहे हैं। जिनके हाथ एवं पैर छोटे छोटे हैं, तुन्दिल (मोटा) है जो वट वृक्ष के नीचे रत्न सिंहासन पर विराजमान हैं और प्रसन्न मुख हैं। इस प्रकार ध्यान पूर्वक होम करने से साधक कुबेर से भी अधिक संपत्तिशाली हो जाता है।
कृत्या साधना :: अब शत्रुओं के द्वारा प्रयुक्त कृत्या (मारण के लिए किये गये प्रयोग विशेष) को नष्ट करने वाली प्रत्यङ्गिरा :-
दीर्घेन्दुयुक् मरुत् (दीर्घ आ, इन्द्र अनुस्वार उससे युक्त मरुत्‍य ‘यां; फिर ब्रह्या (क) लोहित संस्थित मांस (ल्प), फिर ‘यन्ति, नोऽरयः’ यह पद, इसके बाद ‘क्रूरां कृत्यां’ उच्चारण करना चाहिए। फिर ‘वधूमिव’ यह पद, फिर ‘तां ब्रह्य’ उसके बाद सदीर्घ ण (णा), फिर ‘अपनिर्णुदम् के पश्चात ‘प्रत्यक्‌कर्त्तारमृच्छतु’ इस मन्त्र को तार (ॐ) माया (ह्रीं) से संपुटित करने पर सैंतीस अक्षरों का प्रत्यङ्गिरा मन्त्र निष्पन्न होता है।
विमर्श मन्त्र का स्वरुप :-
"ॐ ह्रीं यां कल्पयन्ति नोरयः क्रूरां कृत्यां वधूमिव तां ब्रह्यणा अपनिर्णुदम् प्रत्यक्कर्त्तारमृच्छतु ह्रीं ॐ"
इस मन्त्र के ऋषि ब्रह्या जी हैं, अनुष्टुप् छन्द है, देवी प्रत्यङ्गिरा इसके देवता हैं, प्रणव बीज हैं, माया (ह्रीं) शक्ति है, पर कृत्या (शत्रु द्वारा प्रयुक्त मारण रुप विशेष अभिचार) के विनाश के लिए इसका विनियोग है।
विमर्श विनियोग :- 
"अस्य श्रीप्रत्यङ्गिरामन्त्रस्य ब्रह्याऋषिरनुष्टुपछन्दः देवी प्रत्यङ्गिरा देवता ॐ बीजं ह्री शक्तिः परकृत्या निवारणे विनियोगः" 
उक्त मन्त्र का न्यास :-
मन्त्र के 8 तोयनिधि, 4 युग, 4 वेद, 4 फिर 5 फिर वसु (8) अक्षरों से प्रारम्भ में प्रणव एवं अन्त में 6 दीर्घयुक्त पार्वती (माया ह्रीं) लगाकर जाति (हृदयाय नमः) आदि षडङ्गन्यास करना चाहिए।
मन्त्र का पदन्यास :-
साधक तार (ॐ) तथा माया से संपुटित मन्त्र के चौदह पदों का शिर, भ्रूमध्य, मुख, कण्ठ, दोनों बाहु, हृदय, नाभि, दोनों ऊरु, दोनों जानु तथा दोनों पैरों में इस प्रकार कुल चौदह स्थानों में क्रम पूर्वक उक्त न्यास करे।
विमर्श :- षडङ्गन्यास इस प्रकार करे :-
ॐ यां कल्पयान्ति नोरयः ह्रां हृदयाय नमः, ॐ क्रूरां कृत्यां ह्रीं शिरसे स्वाहा, ॐ वधूमिव ह्रों शिखायै वषट्, ॐ तां ब्रह्मणां ह्रैं कवचाय हुम्,
ॐ अपनिर्णुदम् ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्, ॐ प्रत्यक्कर्त्तारमृच्छतु ह्रः अस्त्राय फट्।
मन्त्र का पदन्यास :-
ॐ ह्रीं यां ह्रीं शिरसि, ॐ ह्रीं कल्पयन्ति ह्रीं भूमध्ये,
ॐ ह्रीं नो ह्रीं मुखे, ॐ ह्रीं अरयः ह्रीं कण्ठे,
ॐ ह्रीं क्रूरां दक्षिण वाहौ, ॐ ह्रीं कृत्यां ह्रीं वामबाहौ,
ॐ ह्रीं वधूम् ह्रीं हृदि, ॐ ह्रीं एवं ह्रीं नाभौ,
ॐ ह्रीं तां ह्रीं दक्षिण उरौ, ॐ ह्रीं ब्रह्मणा ह्रीं वाम उरौ,
ॐ ह्रीं अपनिर्णुदमः ह्रीं दक्षिणजानौ, ॐ ह्रीं प्रत्यक् ह्रीं वामजानौ,
ॐ ह्रीं कर्त्तारम् ह्रीं दक्षिणपादे, ॐ ह्रीं ऋच्छतु ह्रीं वामपादे।
महेश्वरी का ध्यान :: जिस दिगम्बरा देवी के केश छितराये हैं, ऐसी मेघ के समान श्याम वर्ण वाली, हाथों में खड्‍ग चौर चर्म धारण किये, गले में सर्पों की माला धारण किये, भयानक दाँतो से अत्यन्त उग्रमुख वाली, शत्रु समूहों को कवलित करने वाली, भगवान् शिव-शंकर के तेज से प्रदीप्त, प्रत्यङ्गिरा का ध्यान करना चाहिए।
इस प्रकार मन्त्र का ध्यान करते हुये दस हजार मन्त्रों का जप करें तथा अपामार्ग (चिचिहड़ी) की लकड़ी, घृत मिश्रित राजी (राई) से उनका दशांश होम करें।
अन्नपूर्णा पीठ पर अङ्ग पूजा लोकपाल एवं उनके आयुधोम की पूजा करनी चाहिए। इस प्रकार सिद्ध मंत्र  का काम्य प्रयोगों में 100 बार जप करें। फिर उतनी ही सँख्या में होम भी करें। तदनन्तर वक्ष्यमाण दस मन्त्रों से दसों दिशाओं में बलि देवें।
विमर्श-प्रयोगविधि :- पूर्ववर्ती  विधि से पीठ देवता एवं पीठ शक्तियों की पूजा कर पीठ पर देवी पूजा करें। फिर उनकी अनुज्ञा लेकर इस प्रकार आवरण पूजा करे। कर्णिका में षडङ्गपूजा फिर अन्नपूर्णा के षष्ठ एवं सप्तम आवरण में बतलाई गई विधि से इन्द्रादि लोकपालों एवं उनके, आयुधों की पूजा करें।
पूर्व दिशा में "यो मे पूर्वगतः पाप्पा पापकेनेह कर्मणा इन्द्रस्तं देव" इतना कहकर ‘राजो’ फिर ‘अन्त्रयतु’ फिर ‘अञ्जयुत’ कह कर ‘मोहयतु’ ऐसा कहें, फिर ‘नाशयतु’ ‘मारयतु’ ‘बलिं तस्मै प्रयच्छतु’ इसके बाद ‘कृतं मम’, ‘शिवं मम’ फिर ‘शान्तिः स्वस्त्ययनं चास्तु’ कहने से बलि मन्त्र बन जाता है। आदि में प्रणव लगाकर अडगठ अक्षरों से बलि प्रदान करनी  चाहिए।
तत्पश्चात् बलि देने के समय इस मन्त्र में पूर्व के स्थान में आग्नेय आदि दिशाओं का नाम बदलते रहना चाहिए और इन्द्र के स्थान में अग्नि इत्यादि दिक्पालों के नाम भी बदलते रहना चाहिए। इस प्रकार करने से शत्रु द्वारा की गई ‘कृत्या’ शीघ्र नष्ट हो जाती है।
विमर्श-बलि मन्त्र का स्वरुप :- 
"ॐ यो मे पूर्वगतः पाप्पापाकेनेह कर्मणा इन्द्रस्तं देवराजो भञ्जयतु, अञ्जयतु, मोहयतु, नाशयतु मारयतु बलिं तस्मै प्रयच्छतु कृतं मम शिवं मम शान्तिः स्वस्त्ययनं चास्तु" 
यह अदसठ अक्षर का बलिदान मन्त्र है।
दसों दिशाओं में बलिदान का प्रकार :: यो में पूर्वगतः पाप्मा पापकेनेह कर्मणा इन्द्रस्तं देवराजो भञ्जस्तु इत्यादि,  यो में आग्नेयगतः पाप्मा पापकेनेह कर्मणा अग्निस्तं तेजोराजो भञ्जयतु इत्यादि, यो में दक्षिणगतः पाप्मा पापकेनेह कर्मणा यमस्तं प्रेतराजों भञ्जयतु इत्यादि, यो में में नैऋत्यगतः पाप्मा पापकेनेह कर्मणा निऋतिस्तं रक्षराजो भञ्जयतु इत्यादि, यो में पश्चिमगतः पाप्मा पापकेनेह कर्मणा वरुणस्तं जलराजो भञ्जयतु इत्यादि, यो में वायव्यगतः पाप्मा पापकेनेह कर्मणा वायुस्तं प्राणराजो भञ्जयतु इत्यादि, यो में उत्तरगतः पाप्मा पापकेनेह कर्मणा सोमस्तं नक्षत्रराजो भञयतु इत्यादि, यो में ईशानगतः पाप्मा पापकेनेह कर्मणा ईशानस्तं गणराजो भञ्जतु इत्यादि, यो में ऊर्ध्वगतः पाप्मा पापकेनेह कर्मणा ब्रह्या तं प्रजाराजो भञ्जतु इत्यादि, यो में अधोगतः पाप्मा पापकेनेह कर्मणा अनन्तस्त्म नागराजो भञ्जयतु इत्यादि। 
प्रत्यङ्गिरा माला मन्त्र का उद्धार :: तार (ॐ), माया (ह्रीं), फिर ‘नमः कृष्णवाससे शत वर्ण’ फिर ‘सहस्त्र हिंसिनि’ पद, फिर ‘सहस्त्रवदने’ पुनः ‘महाबले’, फिर ‘अपराजिते’, फिर ‘प्रत्यङ्गिरे’, फिर ‘परसैन्य परकर्म’ फिर सदृक्‍ जल (वि), फिर ‘ध्वंसिनि परमन्त्रोत्सादिनि सर्व’ पद, फिर उसके अन्त में’ ‘भूत’ पद, फिर ‘दमनि’, फिर ‘सर्वदेवान्, फिर ‘बन्ध युग्म (बन्ध बन्ध), फिर ‘सर्वविद्या’, फिर ‘छिन्धि’ युग्म (छिन्धि, छिन्धि), फिर ‘क्षोभय’ युग्म (क्षोभय क्षोभय), फिर ‘परमन्त्राणि’ के बाद ‘स्फोटय’ युग्म्‍ (स्फोटय स्फोटय), फिर ‘सर्वश्रृङ्‌खलां’ के बाद ‘त्रोटय’ युग्म (त्रोटय त्रोटय), फिर ‘ज्वलज्ज्वाला जिहवे करालवदने प्रत्यङ्गिरे’ पिर माया (ह्रीं), तथा अन्त में ‘नमः लगाने से 125  अक्षरों का प्रत्यंगिरा माला मन्त्र बनता है।
विमर्श-प्रत्यङ्गगिरा माला मन्त्र का स्वरुप :: ॐ ह्रीं नमः कृष्ण वाससे शतसहस्रहिंसिनि सहस्रवदने महाबले अपराजिते प्रत्यङ्गिरे परसैन्य परकर्मविध्वंसिनि परमन्त्रोत्सादिनि सर्वभूतदमनि सर्वदेवान् बन्ध बन्ध सर्वविद्याश्छिन्धि छिन्धि छिन्धि क्षोभय क्षोभय परयन्त्राणि स्फोटय स्फोटय सर्वश्रृङ्‌खलास्त्रोटय त्रोटय ज्वलज्ज्वालाजिहवे करालवदन प्रत्यङ्गिरे ह्रीं नमः।
इस मन्त्र के ऋषि छन्द तथा देवता पूर्व में कह आये हैं। इस मन्त्र के माया बीज से षडङ्गन्यास करना चाहिए। तदनन्तर समस्त शत्रुओं को नाश करने वाली प्रत्यङ्गिरा का ध्यान करना चाहिए।
शत्रु नाश :: 
विमर्श-विनियोग :- 
अस्य श्रीप्रत्यङ्गिरामन्त्रस्य ब्रह्याऋषिरनुष्टुप‌छन्दः प्रत्यङ्गिरादेवता ॐ बीजं ह्रीं शक्तिः ममाभीष्टसिद्ध्यर्थे (परकृत्यनिवारणे वा) जपे विनियोगः।
प्रत्यङ्गन्यास :-  
ॐ ह्रां हृदाय नमः,  ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा, ॐ ह्रूं शिखायै वषट्,  ॐ ह्रैं कवचाय हुम्, ॐ ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्, ॐ ह्रः अस्त्राय फट्।
सिंहारुढ, अत्यन्त कृष्णवर्णा, त्रिभुवन को भयभीत करने वाले रुपकों को धारण करने वाली, मुख से आग की ज्वाला उगलती हुई, नवीन दो वस्त्रों को धारण किये हुये, नीलमणि की आभा के समान कान्ति वाली, अपने दोनों हाथों में शूल तथा खड्‌ग धारण करने वाली, स्वभक्तोम की रक्षा में अत्यन्त सावधान रहने वाली, ऐसी प्रत्यङ्गिरा देवी हमारे शत्रुओं के द्वारा किये गये अभिचारों को विनष्ट करे।
इस मन्त्र का दस  हजार जप करना चाहिए तथा तिल एवं राई का होम एक हजार की सँख्या में निष्पन्न कर मन्त्र सिद्ध करना चाहिए। फिर काम्य प्रयोगों में मात्र 100 की सँख्या में जप करना चाहिए।
ग्रह बाधा, भूत बाधा आदि किसी प्रकार की बाधा होने पर इस मन्त्र का जप करते हुए से रोगी को अभिसिञ्चित करना चाहिए। इसी प्रकार शत्रु द्वारा यन्त्र मन्त्रादि द्वारा अभिचार भी विनिष्ट करना चाहिए।
षोडशाक्षर वाला शत्रु विनाशक मन्त्र :- 
प्रणवं (ॐ), सेन्दु केशव (अं), सेन्दु पञ्चवर्गो के आदि अक्षर (कं चं टं तं पं), चन्द्रान्वित वियत् (हं), सद्योजात (ओ), शशांक (अनुस्वार), उससे युक्त रान्त (ल), इस प्रकार (लों), माया (ह्रीं), कर्ण (उकार), चन्द्र (अनुस्वार), इससे युक्त अत्रि (द्) (अर्थात् दुं), सर्गी (विसर्गयुक्त), भृगु, (स), इस प्रकार (सः), वर्म (हुं) फिर ‘फट्‍’ इसके अन्त में अन्त में ‘स्वाहा’ लगाने से उक्त मन्त्र निष्पन्न होता है।
विमर्श-मन्त्र का स्वरुप :- 
ॐ अं कं चं टं तं पं हं लों ह्रीं दुं सः हुं फट् स्वाहा। 
इस मन्त्र के विधाता ऋषि हैम, अष्टि छन्द हैं। महाअग्नि, महापर्वत, महासमुद्र, महावायु, महाधरा तथा महाकाश देवता कहे गये हैं, हुं बीज है, पार्वती (ह्रीं) शक्ति है। षड्‌दीर्घ सहित माय बीज से इसके षडङगन्यास का विधान कहा गया है।
विमर्श-विनियोग :-  
अस्य विरोधिशामकमन्त्रस्य ब्रह्याऋषिरष्टिर्च्छन्दः
महापार्वताब्ध्याग्निवायुधराकाश देवताः हुं बीज्म ह्रीं शक्तिः शत्रुशमनार्थ जपे विनियोगः।
षडङ्गन्यास :- 
ॐ हां हृदाय नमः,  ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा, ॐ ह्रूं शिखायै वषट्, ॐ ह्रैं कवचाय हुम् , ॐ ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्,  ॐ हः अस्त्राय फट्।
छः देवताओं का ध्यान :: 
(1). अनेक रत्नों की प्रभा से आक्रान्त वृक्ष झरनों एवं व्याघ्रादि महाभयानक पशुओं से व्याप्त अनेक शिखर युक्त महापार्वत का ध्यान कराना चाहिए।
(2). मछली एवं कछा रुपी बीजों वाला, नव रत्न समन्वित, मेघ के समान कान्तिमान् कल्लोलों से व्याप्त महासमुद्र का स्मरण करना चाहिए।
(3). अपने ज्वाला से तीनों लोकों को आक्रान्त करने वाले अद्‌भुत एवं पीतवर्ण वाले महाग्नि का शत्रुनाश के लिए स्मरण करना चाहिए।
(4). पृथ्वी की उडाई गई धूलराशि से द्युलोक एवं भूलोक को मलिन एवं उनकी गति को अवरुद्ध करने वाले प्राण रुप से सारे विश्व को जीवन दान करने वाले महापवन का स्मरण करना चाहिए।
(5). नदी, पर्वत, वृक्षादि, रुप दलों वाली, अनेक प्रकार ग्रामों से व्याप्त समस्त जगत् की आधारभूता महापृथ्वी तत्त्व का स्मरण करना चाहिए।
(6). सूर्यादि ग्रहों, नक्षत्रों एवं कालचक्र से समन्वित, तथा सारे प्राणियों को अवकाश देने वाले निर्मल महाआकाश का ध्यान करना चाहिए।
इस प्रकार उक्त छः देवताओं का ध्यान कर सोलह हजार की सँख्या में उक्त मन्त्र का जप करना चाहिए। तदनन्तर षड्‌द्रव्यों से दशांश होम करना चाहिए। 
(1). धान, (2). चावल, (3). घी, (4). सरसों, (5). जौ एवं (6). तिल, इन षड्‌द्रव्यों में प्रत्येक से अपने अपने भाग के अनुसार 267-267 आहुतियाँ देकर पूर्वोक्त पीठ पर इनका पूजन करना चाहिए।
फिर अङ्गपूजा, दिक्पाल पूजा एवं वज्रादि आयुधों की पूजा करने पर इस मन्त्र की सिद्धि होती है। शत्रु के उपद्रवों से उद्विग्न व्यक्ति को शत्रु नाश के लिए इस मन्त्र का प्रयोग करना चाहिए।
अकार का ध्यान :-  पर्वत के समान आकृति वाले शत्रु संमुख दौडते हुये एवं उस पर झपटते हुये अकार का पूर्वदिशा में ध्यान चाहिए।
समुद्र के समान आकृति वाले अपने तरङ्गों से सारे पृथ्वी मण्डल को बहाते हुये भयङ्ग्कर रुप धारी ककार का पश्चिम दिशा में स्मरण करना चाहिए। 
अपने ज्वाला समूहों से आकाश मण्डल को व्याप्त करते हुए सारे जगत् को जलाने वाले प्रलयाग्नि के समान चक्रार का पृथ्वी रुप में एवं पञ्चम वर्ग के प्रथमाक्षर पकार का गगन रुप में जितेन्द्रिय साधक की ध्यान करना चाहिए।
सारे जगत् को प्रकम्पित करने वाले युगान्त कालीन पवन के समान आकृति वाले तृतीय वर्ग का प्रथमाक्षर टकार का उत्तर दिशा में ध्यान करना चाहिए।
शत्रुवर्ग को बाधित करने वाले चतुर्थ वर्ग के प्रथमाक्षर तकार का पृथ्वी रुप में एवं पञ्चम वर्ग के प्रथमाक्षर पकार का गगन रुप में जितेन्द्रिय साधक को ध्यान करना चाहिए।
शत्रु की श्वास प्रणाली को अवरुद्ध कर उसे व्याकुल करते हुये आगे के अग्रिम दो वर्णो (हं लों) का ध्यान करना चाहिए।
फिर श्रेष्ठ साधक को शत्रु के नेत्र, मुख एवं को अवरुद्ध करने वाले माया आदि तीन वर्णो का (ह्रीं दुं सः) ध्यान करना चाहिए । फिर वर्म (हुङ्कार) से संक्षोभित तथा अस्त्र (फट्)  से शत्रु को मूलाधार से उठा कर अग्नि में फेक कर उनके शरीर को जलाते हुये दो अक्षर हुं फट् का ध्यान करना चाहिए।
इस प्रकार मन्त्र के सब वर्णो का आदि के ॐ कार तथा अन्त में स्वाहा इन तीन वर्णो को छोडकर (मात्र तेरह वर्णो का) ध्यान करने वाला मालिक एक हजार की संख्या में निरन्तर जप करे तो तीन मण्डलों (उन्चास दिन) के भीतर ही वह अपने शत्रु को मार सकता हैं।

मन्त्रमहोदधि-पञ्चविंश तरङ्ग (आद्य मंत्रोंका समावेश) :: 
अरित्र :: प्रयोग द्वारा सिद्धि प्रदान करने वाले षट्‍कर्मों :-
(1). शान्ति, (2). वश्य, (3). स्तम्भन, (4). विद्वेषण, (5). उच्चाटन और (6). मारण, ये तन्त्र शास्त्र में षट्‌कर्म कहे गए हैं।
रोगादिनाश के उपा को शान्ति कहते हैं। आज्ञाकारिता वश्यकर्म हैं। वृत्तियों का सर्वथा निरोध स्तम्भन है। परस्पर प्रीतिकारी मित्रों में विरोध उत्पन्न करना विद्वेषण है। स्थान नीचे गिरा देना उच्चाटन है तथा प्राण वियोगानुकूल कर्म मारण है। षट्‌कर्मों के यही लक्षण हैं।
अब षट्‌कर्मों में ज्ञेय 18 पदार्थो :-
(1). देवता, (2). देवताओं  के वर्ण, (3). ऋतु, (4). दिशा, (5). दिन, (6). आसन, (7). विन्यास, (8). मण्डल, (9). मुद्रा, (10). अक्षर, (11). भूतोदय, (12). समिधायें, (13). माला, (14). अग्नि, (15). लेखन द्रव्य, (16). कुण्ड, (17). स्त्रुक् तथा (18). लेखनी। इन पदार्थों को भली-भाँति जानकारी कर षट्‌कर्मों में इनका प्रयोग करना चाहिए।
(1). क्रम से प्राप्त देवगण :: (1.1). रति, (1.2). वाणी, (1.3). रमा, (1.4). ज्येष्ठा, (1.5). दुर्गा एवं  (1.6). काली यथाक्रम शान्ति आदि षट्‍कर्मों के देवता कहे गए हैं।
(2). क्रम से प्राप्त देवगणों के वर्ण :: (2.1). श्वेत, (2.2). अरुण, (2.3). हल्दी जैसा पीला, (2.4). मिश्रित, (2.5). श्याम (काला) एवं (2.6). धूसरित। ये उक्त देवताओं के वर्ण हैं। प्रत्येक कर्म के आरम्भ में कर्म के देवता के अनुकूल पुष्पों से उनका पूजन करना चाहिए।
(3). एक अहोरात्र में प्रतिदिन वसन्तादि 6 ऋतुयें होती हैं। इनमें एक-एक ऋतु का मान 10-10 घटी माना गया है। (3.1). हेमन्त, (3.2). वसन्त, (3.3). शिशिर, (3.4). ग्रीष्म, (3.5). वर्षा और (3.6).  शरद्‍ इन छः ऋतुओं का साधक को शान्ति आदि षट्‌कर्मों में उपयोग करना चाहिए। प्रतिदिन सूर्योदय से 10 घटी (4 घण्टी) वसन्त, उसके आगे दश घटी शिशिर इत्यादि क्रम समझना चाहिए।
(4). दिशाएं :: ईशान :- उत्तर-पूर्व, निऋति :- वायव्य और आग्नेय ये शान्ति आदि कर्मों के लिए दिशायें कही गई हैं। अतः शान्ति आदि कर्मों के लिए उन -उन दिशाओं की ओर मुख कर जपादि कार्य करना चाहिए।
(5). षट्‌कर्मों में क्रियमाण तिथि एवं वार :: शुक्ल पक्ष की द्वितीया, तृतीया, पञ्चमी एवं सप्तमी तिथि को बुधवार बृहस्पतिवार आये तो शान्तिकर्म करना चाहिए। शुक्लपक्ष की चतुर्थी, षष्ठी, नवमी एवं त्रयोदशी को सोमवार बृहस्पतिवार आने पर वशीकरण कर्म प्रशस्त होता है।
विद्वेषण-में एकादशी, दशमी, नवमी और अष्टमी तिथि को शुक्र या शनिवार का दिन हो तो शुभावह कहा गया है।
यदि कृष्णपक्ष की अष्टमी एवं चतुर्दशी को शनिवार हो तो फल सिद्धि के लिए उच्चाटन कर्म करना चाहिए। कृष्णपक्ष की अष्टमी, चतुर्दशी एवं अमावस्या तथा शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को रवि, मङ्गल शनिवार, का दिन हो तो स्तम्भन और मारण कर्म सिद्ध हो जाता है।
(6). शान्ति आदि षट्‌कर्मों में क्रमशः पद्‌मासन, स्वस्तिकासन, विकटासन, कुक्कुटासन, वज्रासन एवं भद्रासन का उपयोग करना चाहिए। गाय, गैंडा, हाथी, सियार, भेड़  एवं भैसे के चमड़े के आसन पर बैठ कर शान्ति आदि षट्‌कर्मों में जपादि कार्य करना चाहिए।
पद्‌मासन का लक्षण :- दोनों ऊरु के ऊपर दोनों पादतल को स्थापित कर व्युत्क्रम पूर्वक (हाथों को उलट कर) दोनों हाथों से दोनों हाथ के अँगूठे को बींध लेने का नाम पद्‌मासन कहा गया है।
स्वस्तिकासन का लक्षण :- पैर के दोनों जानु और दोनों ऊरु के बीच दोनों पादतल को अर्थात दक्षिण पद के जानु और ऊरु के मध्य वाम पादतल एवं वामपाद के जानु और ऊरु के मध दक्षिण पादतल को स्थापित कर शरीर को सीधे कर बैठने का नाम स्वस्तिकासन है ।
विकटासन का लक्षण :- जानु और जंघाओं के बीच में दोनों हाथों को जब लाया जाए तो अभिचार प्रयोग में इसे विकटासन कहते हैं ।
कुक्कुटासन का लक्षण :- पहले उत्कटासन करके फिर दोनों पैरों को एक साथ मिलावें। दोनों घुटनों के मध्य दोनों भुजाओं को रखना कुक्कुटासन कहा गया है।
वज्रासन का लक्षण :- पैर के परस्पर जानु प्रदेश पर एक दूसरे को स्थापित् करें तथा हाथ की अँगुलियों को सीधे ऊपर की ओर उठाए रखे तो इस प्रकार के आसन को वज्रासन कहते हैं।
भद्रासन का लक्षण :- सीवनी (गुदा और लिंग के बीचों-बीच ऊपर जाने वाली एक रेखा जैसी पतली नाड़ी है) के दोनों तरफ दोनों पैरों के गुल्फों को अर्थात वामपार्श्व में दक्षिणपाद के गुल्फ को एवं दक्षिण पार्श्व में वामपाद के गुल्फ को निश्चल रुप से स्थापित कर वृषण (अण्डकोश) के नीचे दोनों पैर की घुट्टी अर्थात वृषण के नीचे दाहिनी ओर वामपाद की घृट्टॆ तथा बाँई ओर दक्षिण पाद की घुट्टी स्थापित कर पूर्ववत्‍ दोनों हाथों से बींध लेने से भद्रासन हो जाता है।
(7). विन्यास :: शान्ति आदि 6 कर्मोम में क्रमशः (7.1). ग्रन्थन, (7.2). विदर्भ, (7.3). सम्पुट, . रो(7.4). धन, (7.5). योग और (7.6). पल्लव; ये 6 विन्यास कहे गए हैं।
(7.1). मन्त्र का एक अक्षर उसके बाद नाम का एक अक्षर फिर मन्त्र का एक अक्षर तदनन्तर नाम का एक अक्षर इस प्रकार मन्त्र और नाम के अक्षरों का ग्रन्थन करना ‘ग्रन्थन विन्यास’ है।
(7.2). प्रारम्भ में मन्त्र के दो अक्षर उसके बाद नाम का एक अक्षर इस प्रकार मन्त्र और नाम के अक्षरों के बारम्बार विन्यास को मन्त्र शात्रों को जानने वाले ‘विदर्भ विन्यास’ कहते हैं।
(7.3). पहले समग्र मन्त्र का उच्चारण, तदनन्तर समग्र नामाक्षरों का उच्चारण करना फिर इसके बाद विलोम क्रम से मन्त्र बोलना ‘संपुट विन्यास’ कहा जाता है।
(7.4). नाम के आदि, मध्य और अन्त में मन्त्र का उच्चारण करना ‘रोधन विन्यास’ कहा जाता है।
(7.5). नाम के अन्त मन्त्र बोलना ‘योग विन्यास’ होता है।
(7.6). मन्त्र के अन्त में नामोच्चारण को ‘पल्लवविन्यास’ कहते हैं।
(8). मन्त्र के आठवें प्रकार, मण्डल का लक्षण :: दोनों ओर दो-दो क्रम लोम से युक्त अर्द्धचन्द्राकार चिन्ह को जल का मण्डल कहा गया है, यह शान्तिकर्म में प्रशस्त कहा गया है। त्रिकोण के भीतर उपयोग स्वस्तिक का चिन्ह रखा अग्नि क मण्डल माना गया है, वश्यकर्म में इसका उपयोग प्रशस्त कहा गया है। वज्र चिन्ह से युक्त चौकोर भूमि का मण्डल कहा गया है जो स्तम्भन कार्य के लिए प्रशस्त कहा गया है।
आकाश मण्डल वृत्ताकार होता है। यह विद्वेषण कार्य में प्रशस्त है, छह बिन्दुओं से अंकित वृत्त वायु मण्डल कहा गया है, जो उच्चाटन क्रिया में प्रशस्त है। मारण में पूर्वोक्त वहिनमण्डल का उपयोग करना चाहिए।
(9). मुद्रा :: शान्ति आदि षट्‍कर्मों में पदम्, पाश, गदा, मुशल, वज्र एवं खड्‌ग मुद्राओं का प्रदर्शन करना चाहिए। 
होम मुद्रायें :-
(1). पद्‌ममुद्रा :- दोनों हाथों को सम्मुख करके हथेलियाँ ऊपर करे, अंगुलियों को बन्द कर मुट्ठी बाँधें। अब दोनों ऐगूठों को अँगुलियों के ऊपर से परस्पर स्पर्श कराये। यह पद्‌म मुद्रा है।
(2). पाशमुद्रा :- दोनों हाथ की मुट्ठियाँ बाँधकर बाईं तर्जनी को दाहिनी तर्जनी से बांध। फिर दोनों तर्जनियों को अपने-अपने अँगूठों से दबायें। इसके बाद दाहिनी तर्जनी के अग्रभाग को कुछ अलग करने से पाश मुद्रा निष्पन्न होती है।
(3). गदामुद्रा :- दोनों हाथों की हथेलियों को मिला कर, फिर दोनों हाथ की अँगुलियाँ  परस्पर एक दूसरे से ग्रथित करे। इसी स्थिति में मध्यमा उगलियों को मिलाकर सामने की ओर फैला दे। तब यह विष्णु को सन्तुष्ट करने वाली ‘गदा मुद्रा’ होती है।
(4). मुशलमुद्रा :- दोनों हाथों की मुट्ठी बाँधे फिर दाहिनी मुट्ठी को बायें पर रखने से मुशल मुद्रा बनती है।
(5). वज्रमुद्रा :- कनिष्ठा और अँगूठे को मिलाकर त्रिकोण बनाने को अशनि (वज्रमुद्रा) कहते हैं अर्थात कनिष्ठा और अँगूठे को मिलाकर प्रसारित कर त्रिक्  बनाना वज्रमुद्रा है।
(6). खड्‌गमुद्रा :- कनिष्ठिका और अनामिका अँगुलियों को एक दूसरे के साथ बाँधकर अँगूठों को उनसे मिलाए। शेष अँगुलियों को एक साथ मिला कर फैला देने से खड्‌ग मुद्रा निष्पन्न होती है।
मृगी, हंसी एवं सूकरी ये तीन होम की मुद्रायें हैं। 
मध्यमा अनामिका और अँगूठे के योग से मृगी मुद्रा, कनिष्ठा को छोड़कर शेष सभी अङ्गगुलियों का योग करने से हँसी मुद्रा और हाथ को संकुचित कर लेने से सूकरी मुद्रा बनती है। इस प्रकार इन तीन मुद्राओं का लक्षण कहा गया है। शान्ति कार्य में मृगी वश्य में हंसी तथा शेष स्तम्भनादि कार्यों में सूकरी मुद्रा का प्रयोग किया जाता है।
(10). अक्षर-शान्ति आदि षट्‌कर्मों में यन्त्र पर चन्द्र, जल, धरा, आकाश, पवन, और अनल वर्णो के बीजाक्षरों का क्रमशः लेखन करना चाहिए। ऐसा मन्त्र शास्त्र के विद्वानों ने कहा है।
सोलह, स्वर, स एवं ठ ये अठारह चन्द्र वर्ण के बीजाक्षर हैं, चन्द्रवर्ण से हीन पञ्चभूतों के अक्षर जलादि तत्वों के बीजाक्षर वश्यादि कर्मों के लिए उपयुक्त हैं। कुछ आचार्यो ने स, व, ल, ह, य एवं र को क्रमशः चन्द्र जल, भूमि, आकाश और वायु एवं का बीजाक्षर कहा है।
शान्ति आदि षट्‌कर्मों में मन्त्र शास्त्रज्ञों ने क्रमशः नमः, स्वाहा, वषट्‍, वौषट, हुम् एवं फट्‍ इन छः को जातित्वेन स्वीकार किया है।
(11). मंत्र के ग्यारहवें प्रकार, भूत :: जब दोनों नासापुटों के नीचे तक श्वास चलता हो, तब जल तत्त्व का उदय समझना चाहिए, जो शान्ति कर्म में सिद्धि दायक होता है। नाक के मध्य में सीधे दण्ड की तरह श्वास गति होने पर पृथ्वी तत्त्व का उदय समझना चाहिए, यह स्तम्भन काम में सिद्धि दायक होता है। नासा छिद्रों के मध्य में श्वास की गति होने पर आकाश तत्त्व का उदय समझना चाहिए, जो विद्वेषण में सिद्धि दायक है। नासापुटों के ऊपर श्वास की गति होने पर अग्नि तत्त्व का उदय समझना चाहिए।
ऐसे समय में मारण एवं वशीकरण दोनों कार्यो में सफलता मिलती है। श्वास की गति तिर्यक (तिरछी) होने पर वायु तत्त्व का उदय समझना चाहिए जो उच्चाटन क्रिया में शुभावह होता है।
(12). मन्त्र का बारहवाँ  प्रकार, विभिन्न समिधाएँ :: शान्ति कार्य में गोघृत मिश्रित दूर्वा से, वश्य में बकरी के घी से मिश्रित अनार की समिधा से स्तम्भन में भेड़ी का घी मिला कर अमलतास वृक्ष की समिधा से, विद्वेषण में अतसी के तेल मिश्रित धतूरे की समिधा से, उच्चाटन में सरसों के तेल से मिश्रित आम की वृक्ष की समिधा से तथा मारण में कटुतैल मिश्रित खैर की लकड़ी की समिधा से होम करना चाहिए।
(13). तेरहवें प्रकार में माला की विधि :: शान्ति आदि षट्‌कर्मों में शंख की शान्ति में, कवलगद्दा की वश्य में, नींबू की स्तम्भन में, नीम की विद्वेषण में, घोड़े  के दाँत उच्चाटन में तथा गदहे के दाँत की जप माला मारण कर्म में उपयोग करना चाहिए।
शान्ति, वश्य, पूष्टि, भोग एवं मोक्ष के कर्मों में मध्यमा में स्थित माला को अँगूठे से घुमाना चाहिए। स्तम्भनादि कार्यो के लिए बुद्धिमान साधक को अनामिका एवं अँगूठे से जप करना चाहिए। विद्वेषण एवं उच्चाटन में तर्जनी एवं अँगूठे से जप करना चाहिए तथा मारण में कनिष्ठिका एवं अँगूठे से जप करने का विधान है।
प्रसङ्ग प्राप्त माला की मणियोम की गणना :- शुभ कार्य के लिए माला में मणियोम की संख्या 108, 54 या 27 कही गई है, किन्तु अभिचार (मारण) कर्म में मणियों की सँख्या 15 कही गई है।
(14). चौदहवें प्रकार वाले अग्नि :: शान्ति और वशीकरण कर्म में लौकिक अग्नि में, स्तम्भन में बरगद के काठ की बनी अग्नि में, विद्वेषण में बहेड़े की लकडी की अग्नि में तथा उच्चाटन एवं मारण के प्रयोगोम में श्मशानाग्नि में होम का विधान है।
अग्नि प्रज्वलित करने के लिए समिधा :- शुभ कार्यो में वेल, आक, पलाश एवं दुधारु वृक्षों की समिधाओं से तथा अशुभ कर्मों में विषकृत कुचिला, बहेड़ा, नीबू, धतूरा एवं लिसोड़े की समिधाओं से मान्त्रिक को अग्नि प्रज्वलित करनी चाहिए।
अग्नि जिहवाओं का तत्कर्मों में पूजन का विधान :- शान्ति कर्म में अग्नि की सुप्रभा संज्ञक जिव्हा का, वश्य में रक्त नामक जिव्हा का, स्तम्भन में हिरण्या नामक जिव्हा का, विद्वेषण में गगना नामक जिव्हा का, उच्चाटन में अतिरिक्ति नामक जिव्हा का तथा मारण में कृष्णा नामक अग्नि जिव्हा और सभी जगह बहुरुपा नामक अग्नि जिव्हा का पूजन करना चाहिए।
शान्त्यादि कर्मों में ब्राह्मण भोजन के विषय में कुछ विशेषतायें हैं। शान्ति एवं वश्य में होम के दशांश सँख्या में ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए, यह उत्तम पक्ष माना गया है।
होम की सँख्या के पच्चीसवें अंश की सँख्या में ब्राह्मण भोजन मध्यम तथा शतांश सँख्या में ब्राह्मण भोजन अधम पक्ष कहा गया है। स्तम्भन कार्य में शान्ति की सँख्या से दूने ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए। इसी प्रकार विद्वेषण एवं उच्चाटन में शान्ति सँख्या से तीन गुने ब्राह्मणों को तथा मारण में सँख्या के तुल्य ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए।
भोजनार्ह ब्राह्मणों का स्वरुप :- अत्यन्त विशुद्ध कुलों में उत्पन्न साङ्‌गवेद के विद्वान पवित्र निर्मल अन्तःकरण वाले सदाचार परायण ब्राह्मणों को विविध प्रकार के मनोहर भोज्य पदार्थो से भोजन कराना चाहिए। उनमें देव बुद्धि रखकर पूजन करन चाहिए तथा बारम्बार उन्हें प्रणाम करना चाहिए। मधुर वाणी से तथा सुर्वणादि दे दान से उन्हें सन्तुष्ट करना चाहिए। इस प्रकार के ब्राह्मणों द्वारा दिए गए आशीर्वाद के प्राप्त करने से साधक के समस्त अभिचारादि पाप नष्ट हो जाते हैं तथा शीघ्र ही उसे मनोऽभिलषित पदार्थो की प्राप्ति हो जाती है।
(15). लेखन द्रव्य :- चन्दन, गोरोचन, हल्दी, गृहधूम, चिता का अङ्गार तथा विषाष्टक यन्त्र लेखन के द्रव कहे गए हैं। यन्त्र तरङ्ग (20) में पूर्वोक्त द्रव्यादि भी तत्कामनाओं में लेखन द्रव्य कहे गए हैं। वे भी ग्राह्य हैं। (1). पिप्पली, (2). मिर्च, (3). सोंठ, )4). बाज पक्षी की विष्टा, (5). चित्रक (अरण्डी), (6). गृहधूम, (7). धतूरे का रस तथा  (8). लवण ये 8 वस्तुयें विषाष्टक कही गई हैं।
शान्ति और वश्य कर्म में भोज पत्र पर, स्तम्भन में व्याघ्र चर्म पर, विद्वेष में गदहे की खाल पर, उच्चाटन में ध्वज वस्त्र पर और मारण में मनुष्य की हड्डी पर, मान्त्रिक को मन्त्र लिखना चाहिए। यत्र तरङ्ग (20 में विविध प्रयोगों में यन्त्र लिखने के जो जो आधार कहे गए हैं, वे भी यन्त्राधार में ग्राह्य हैं। 
(16). मन्त्र के 16 वें प्रकार, कुण्ड का विषयक :: शान्ति आदि षट्‌कर्मों में क्रमशः वृत्तकार, पद्‌माकार, चतुरस्त्र, त्रिकोण, षट्‌कोण और अर्द्ध चन्द्रकार कुण्ड का निर्माण पश्चिम उत्तर-पूर्व नैऋत्य वायव्य और दक्षिण दिशा में करना चाहिए।
(17). स्त्रुवा और स्त्रुची :: शान्ति में सुवर्ण की एवं वश्य में यज्ञवृक्ष की स्त्रुवा और स्त्रुची बनानी चाहिए। शेष स्तम्भनादि कार्योम में लौह की स्त्रुवा और स्त्रुची बनानी चाहिए।
(18). मन्त्र का उन्नीसवां प्रकार, लेखनी :: शान्ति कर्म में सोने, चाँदी, अथवा चमेली की, वश्य कर्म में दूर्वा की, स्तम्भन में अगस्त्य वृक्ष की अथवा अमलतास की, विद्वेषण में करञ्ज की, उच्चाटन में बहेड़े की तथा मारण में मनुष्य की हड्डी की लेखनी से यन्त्र लिखना चाहिए। शुभ कर्म में साधक को शुभ मुहूर्त में अशुभ कार्य में रिक्ता (चौथ, नवमी, चतुर्दशी) तिथियों में मङ्गलवार के दिन तथा विष्टी (भद्रा) में लेखनी का निर्माण करना चाहिए।
उक्त कर्मों में भक्ष्य पदार्थ, तर्पण द्रव्यों तथा उपयोग में लाये जाने योग्य पात्र :: शान्ति और वश्य कर्म करते समय हविष्यान्न, स्तम्भन करते समय खीर, विद्वेषण करते समय उड़द एवं मूँग, उच्चाटन करते समय गेहूँ तथा मरण करते समय मान्त्रिक को मसूर एवं काली बेकरी के दूध में बने खीर का भोजन करना चाहिए। 
शान्ति कर्म में तथा वश्य कर्म में हल्दी मिला जल, स्तम्भन और मारण कर्म में मिर मिला कुछ गुण गुना जल तथा विद्वेषण एवं उच्चाटन में भेड़ के खून से कमकश्रत जल तर्पण द्रव्य कहा गया है।
शान्ति एवं वश्य कर्म में सोने के पात्र में, स्तम्भन में मिट्टी के पात्र में, विद्वेषण में खैर के पात्र में, उचाटन में लोहे के पात्र में तथा मारण में मुर्गी के अण्डे में तर्पण करना चाहिए।
शान्ति एवं वश्य कर्म में मृदु आसन पर बैठकर तर्पण करना चाहिए। स्तम्भन में घुटनों से उठकर तथा विद्वेषण आदि में एक पैर से खड़े हो कर तर्पण करना चाहिए।
यह सब मन्त्र साधकों के सन्तोष के लिए षट्‍कर्मों (शान्ति, वश्य, स्तम्भन, विद्वेषण उच्चाटन और मारण) की विधि है। सर्वप्रथम विधिवत न्यास  द्वारा आत्मरक्षा करने के बाद ही काम्य कर्मों का अनुष्ठान करना चाहिए। अन्यथा हानि और असफलता ही प्राप्त होती है।
जो व्यक्ति शुभ अथवा अशुभ किसी भी प्रकार का काम्य कर्म करता है, मन्त्र उसका शत्रु बन जाता है, इसलिए काम्यकर्म न करे; यही उत्तम है।
विषयासक्त चित्त वालों के सन्तोष के लिए प्राचीन आचार्यों ने काम्य कर्म की विधि का प्रतिपादन किया है, किन्तु यह हितकारी नहीं है। काम्य कर्म वालों के लिए केवल कामना सिद्धि मात्र फल की प्राप्ति होती है।
निष्काम भाव से देवताओं की उपासना करने वालों की सारी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। केवल सुख प्राप्ति के लिए प्रत्येक मन्त्रों के जितने भी प्रयोग बतलाये गए हैं, उनकी आसक्ति का त्याग कर निष्काम रुप से देवता की पूजा करनी चाहिए।
वेदों में कर्म काण्ड, उपासना और ज्ञान तीन काण्ड बतलाये गए हैं। "ज्योतिष्टोम यजेत्" यह कर्मकाण्ड है, "सूर्यो ब्रह्मेत्युपासीत" यह उपासना है, ये दोनों काण्ड ज्ञान के साधन हैं। "अयमात्मा ब्रह्म" यह ज्ञान है, जो स्वयं में साध्य है। यही उक्त दोनों में ही वेदोक्त मार्ग के अनुसार प्रवृत्त होना चाहिए। देवता की उपासना से अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है। जिससे उत्तम ज्ञान की प्राप्ति होती है। कार्य कारण संघात शरीर में प्रविष्ट हुआ जीव ही परब्रह्म है। इसी ज्ञान से साधक मुक्त हो जाता है। अतः मनुष्य देह प्राप्त कर देवताओं की उपासना से मुक्ति प्राप्त कर लेनी चाहिए। जो मनुष्य देह प्राप्त कर संसार बन्धन से मुक्त नहीं होता, वही महापापी। 
इसलिए उपासना और कर्म से काम-क्रोधादि शत्रुओं का नाश कर आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए सत्पुरुषों को सतत् प्रयत्न करते रहना चाहिए।
देवता की उपासना करने वाले को अपना भविष्य विचार कर उसमें प्रवृत्त होना चाहिए। उसकी विधि इस प्रकार है :-
स्नान और दान आदि करने के बाद भगवान् श्री हरी विष्णु के चरण कमलों का ध्यान कर कुश की शय्या पर सोना चाहिए तथा भगवान् शिव से :- "भगवान् देवदेवेश...... त्वत्प्रसादान्महेश्वर" पर्यन्त तीन श्लोकों से (द्र. 25. 83. 86) से प्रार्थना कर निश्चिन्त हो सो जाना चाहिए।
प्रातःकाल उठने पर देखा हुआ स्वप्न अपने गुरुदेव से बतला देना चाहिए। उनके न होने पर स्वयं साधक को अपने स्वप्न के भविष्य के विषय में विचार कर लेना चाहिए।
शुभाशुभ स्वप्न :: लिङ्ग चन्द्र और सूर्यकर बिम्ब, सरस्वती, गङ्गा, गुरु, लालवर्ण वाले समुद्र में तैरना, युद्ध में विजय, अग्नि का अर्चन, मयूर युक्त, हंस युक्त अथवा चक्र युक्त रथ पर बैठना, स्नान, संभोग, सारस की सवारी, भूमि लाभ, नदी, ऊँचे-ऊँचे महल, रथ, कमल, छत्र, कन्या, फलवान् वृक्ष, सर्प अथवा हाथी, दीया, घोड़ा, पुष्प, वृषभ और अश्व, पर्वत, शराब का घड़ा, ग्रह नक्षत्र, स्त्री, उदीयमान सूर्य अप्सराओं का दर्शन, लिपे-पुते स्वच्छ मकान पर, पहाड़ पर तथा विमान पर चढ़ना, आकाश यात्रा, मद्य पीना, माँस खाना, विष्टा का लेप, खून से स्नान, दही भात का भोजन, राज्यभिषेक होना (राज्य प्राप्ति), गाय, बैल और ध्वजा का दर्शन, सिंह और सिंहासन, शंख बाजा, गोरोचन, दधि, चन्दन तथा दर्पण इनका स्वप्न में दिखलायी पड़ना शुभ है।
तैल की मालिश किए पुरुष का, काला अथवा नग्न व्यक्ति का, गङ्गा, कौआ, सूखा वृक्ष, काँटेदार वृक्ष, चाण्डाल बडे कन्धे वाला पुरुष, तल (छत) रहित पक्ता महल इनका स्वप्न में दिखलाई पडना अशुभ है।
दुःस्वप्न की शात्नि के उपाय :: दुःस्वप्न दिखई पडने पर उसकी शान्ति करानी चाहिए। तदनन्तर एकाग्रमन से इष्टदेव के मन्त्र को जप करना चाहिए। 3 वर्ष तक जप करने वाले को विघ्न की संभावना रहती है, अतः विघ्न समूह की परवाह न कर अपने जप में तत्पर रहना चाहिए। अपने चित्त में विश्वस्त रहने वाला सिद्ध पुरुष चौथे वर्ष में अवश्य ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है।
मन्त्र सिद्धि का लक्षण :-
मन में प्रसन्नता आत्मसन्तोष, नगाङ्गे की ध्वनि, गाने की ध्वनि, ताल की ध्वनि, गन्धर्वो का दर्शन, अपने तेज को सूर्य के समान देखना, निद्रा, क्षुधा, जप करना, शरीर का सौन्दर्य बढना, आरोग्य होना, गाम्भीर्य, क्रोध और लोभ का अपने में सर्वथा अभाव, इत्यादि चिन्ह जब साधक को दिखाई पडे ती मन्त्र की सिद्धि तथा देवता की प्रसन्नता समझनी चाहिए।
मन्त्र सिद्धि के बाद के कर्त्तव्य का निर्देश :- मन्त्र सिद्धि प्राप्त कर लेने वाले साधक को ज्ञान प्राप्ति के लिए जप की संख्या में निरन्तर वृद्धि का यन्त करते रहना चाहिए । जब वेदान्त प्रतिपादित (अयमात्माब्रह्म, अहं ब्रह्मास्मि, तत्त्वामसि श्वेतोकेतो इत्यादि) तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त हो जाय तब साधक कृतार्थ हो जाता है और संसार बन्धन से छूट जाता है।
ग्रन्थ समाप्ति में पुनः मङ्गलाचरण :- सर्वव्यापी ईश्वर परमात्मा की मैं वन्दना करता हूँ, जो अनेक देवताओं का स्वरुप ग्रहण कर मनुष्यों के अभीष्टों को पूरा करते है।
ग्रन्थ रचना का हेतु :- श्रेष्ठ विद्वान् ब्राह्मणों द्वारा प्रार्थना किये जाने पर अनेक तन्त्र ग्रन्थोम का अवलोकन कर अपनी बुद्धि के अनुसार मैंने इस मन्त्र महोदधि नामक ग्रन्थ की रचना है। यही इस ग्रन्थ की रचना का हेतु है। 
अब प्रसङ्ग प्राप्त मन्त्रमहोदधि की अनुक्रमणिका कहते हैं -
इस मन्त्रमहोदधि में पच्चीस तरङ्ग हैं। 
प्रथम तरङ्ग में भूतसुद्धि, प्राणप्रतिष्ठा, मातृकान्यास, पुरश्चरण और होम की विधि तथा तर्पण का विषय प्रतिपादन किया गया है।
द्वितीय तरङ्ग में गणेश के विविध मन्त्र और उनकी सिद्धि के प्रकार कहे गए हैं।
तृतीय तरङ्ग में काली तथा काली नाम से अभिहित दक्षिणाकाली आदि के अनेक मन्त्र एवं सुमुखी के मन्त्र का प्रतिपादन एवं काम्य प्रयोग कहा गया है।
चतुर्थ तरङ्ग  में तारा की उपासना तथा पञ्चम तरङ्ग में तारा के भेद कहे गए हैं।
छठे तरङ्ग  में छिन्नमस्ता, शबरी, स्वयम्बरा, मधुअमती, प्रमदा, प्रमोदा, बन्दी जो बन्धन से मुक्त करती हैं, उनके मन्त्रों को बताया गया है।
सप्तम तरङ्ग में वटयक्षिणी, वटयक्षिणी के भेद, वाराही, ज्येष्ठा, कर्णपिशाचिनी, स्वप्नेश्वरी, मातङ्गी, बाणेशी एवं कामेशी के मन्त्रों को प्रतिपादित दिया गया है।
अष्टम तरङ्ग में त्रिपुराबाला तथा उनके भेदों का विवेचन विस्तार से किया गया है।
नवम तरङ्ग में अन्नपूर्णा, उनके भेद त्रैलोक्यमोहन गौरी एवं ज्येष्ठालक्ष्मी तथा उनके साथ ही प्रत्यंगिरा के भी मन्त्रों का निर्देश किया गया है।
दशम तरङ्ग में बगलामुखी तथा वाराही को भी बतलाया गया है।
एकादश तरङ्ग में श्रीविद्या तथा द्वादश तरङ्ग में उनके आवरण पूजा की विधि बताई गई है।
त्रयोदश तरङ्ग में हनुमान  महाराज के मन्त्रों एवं प्रयोगों का विशद्‍ रुप से  प्रतिपादन किया गया है।
चतुर्दश तरङ्ग में नृसिंह, गोपाल एवं गरुड मन्त्रों का प्रतिपादन है।
पञ्चदश तरङ्ग में सूर्य, भौम, बृहस्पति, शुक्र एवं वेदव्यास के मन्त्रों को बताया गया है।
षोडश तरङ्ग में महामृत्युञ्जय, रुद्र एवं गङ्गा तथा मणिकर्णिका के मन्त्र कहे गए हैं।
सप्तदश तरङ्ग में कार्त्तवीर्यार्जुन के मन्त्र, दीपदान विधि आदि का वर्णन है।
अष्टादश तरङ्ग में कालरात्रि के मन्त्र, नवार्णमन्त्र शतचण्डी और सहस्त्रचण्डी विधान का सविस्तार वर्णन किया गया है।
उन्नीसवें तरङ्ग में चरणायुध मन्त्र, शास्ता मन्त्र, पार्थिवार्चन, धर्मराज, चित्रगुप्त के मन्त्रों का प्रतिपादन करते हुये आसुरी (दुर्गा) विधि का प्रतिपादन किया गया है।
बीसवें तरङ्ग में विविध यन्त्र, स्वर्णाकर्षण भैरव की उपासना विधि तथा अनेक यन्त्रों का वर्णन है।
इक्कीसवें तरङ्ग में स्नान से लेकर अर्न्तयाग तथा नित्यकर्म का वर्णन है।
बाइसवें तरङ्ग में अर्घ्यस्थापन से लेकर पूजन पर्यन्त के कृत्य तथा पूजा के भेद बतलाये गये हैं।
त्रयोविंशति तरङ्ग में दमनक तथा पवित्रक से इष्टदेव के सर्मचन का विधान कहा गया है।
चौबीसवें तरङ्ग में मन्त्र शोधन की नाना प्रकार की प्रक्रिया कही गई है।
पच्चीसवें तरङ्ग  में षट्‌कर्मों के समस्त विधान का निर्देश है।
इस प्रकार मन्त्रमहोदधि के पच्चीस तरङ्गों में उक्त समस्त विषयों का वर्णन किया गया है।
ग्रन्थकार :: अहिच्छत्र देश में द्विजो के छत्र के समान वत्स में उत्पन्न, धरातल में अपनी विद्वत्ता से विख्यात रत्नाकर नाम के ब्राह्मण हुये।
उनके लडके फनूभट्ट, हुये, जो भगवान् श्री राम के प्रकाण्ड भक्त थे। उनके पुत्र श्री महीधर हुये, जिन्होने संसार की असारता को जान कर अपना देश छोड कर काशी नगरी में आकर भगवान् नृसिंह की सेवा करते हुये मन्त्रमहोदधि नामक इस तन्त्र ग्रन्थ की रचना की।
अनेक ग्रन्थों में लिखे गए नाना प्रकार के मन्त्रों के सार को किसी एक ग्रन्थ में निबद्ध करने की इच्छा रखने वाले तथा आगम ग्रन्थों के मर्मज्ञ महामुनियों, श्रेष्ठ ब्राह्मणों एवं कल्याण नामक स्वकीय पुत्र के द्वारा प्रार्थना किए जाने पर मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार इस मन्त्रमहोदधि नामक ग्रन्थ की रचना की है।
ग्रन्थकार ग्रन्थ के अन्त में आशीर्वचन :- इस ग्रन्थ का अभ्यास करने वाले समस्त पाठकगण अपने धर्म में परायण रहें। सर्वदा कल्याण का दर्शन करें। द्रोह से सर्वथा पराङ्‌मुख रहें और उनकी वंशपरम्परा अविच्छिन्न रुप से चलती रहे।
जगदीश्वर से प्रार्थना करते हुये ग्रन्थ की समाप्ति :- जगदीश्वर श्रीहरि सभी का कल्याण करें और जब तक वेद, सूर्य तथा चन्द्रमा रहें तब तक इस ग्रन्थ का प्रचार प्रसार करते रहें।
समस्त देवगणों की विपत्ति को दूर करने वाले, देवगणों से वन्दित लक्ष्मी सहित श्रीनृसिंह देव हमें निरन्तर हर्ष प्रदान करते रहें।
क्षीर सागर के मध्य में स्थित श्वेत द्वीप के मण्डप में अपनी गोद में स्थित लक्ष्मी के साथ विराजमान, प्रसन्नता से पूर्ण भगवान् श्री नृसिंह मेरी रक्षा करें, जो अञ्जलि आदि मुद्राओं से पूजा करने वाले अपने भक्तो को समस्त सिद्धियाँ प्रदान करते हैं वह भगवान् श्रीनृसिंह मुझे सत्व-रजो गुण रहित सद्‌बुद्धि दें।
भगवान् श्री लक्ष्मीनृसिंह की जय हो। मैं परमकल्याणकारी श्री नृसिंह की वन्दना करता हूँ, जिन नृसिंह ने महबलवान् बड़े-बड़े दैत्यों का वध किया उन नरहरि को मैं प्रणाम करता हूँ।
लक्ष्मीनृसिंह से बढ कर और कोई देवता नहीं है। इसलिए श्री नृसिंह के चरण कमलों की सेवा करनी चाहिए। यही सोंच कर श्रीनृसिंह मेरे मन में निवास करें। यह मेरा मन कभी भी नृसिंह से अलग न हो।
बाबा विश्वनाथ, भवानी अन्नपूर्णा, बिन्दुमाधव, मणिकर्णिका, भैरव, भागीरथे तथा दण्डपाणी मेरा कल्याण करें।
विक्रम संवत् 1,645 में ज्येष्ठ शुक्ला अष्टमी को बाबा विश्वनाथ के सान्निध्य में यह मन्त्रमहोदधि नामक ग्रन्थ पूर्ण हुआ।
By the grace of Almighty, Maa Bhagwati Saraswati, Ganpati Ji Maharaj & Bhagwan & Ved Vyas, I have reviewed this Treatise on Mantr and presented to the virtuous readers, today the June 24, 2021, at Noida, UP, India.
  
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)