Tuesday, December 30, 2014

PAWAN-VAYU DEV (THE DEITY OF AIR) :: पवन-वायु देव (ऋग्वेद 1-5)*

PAWAN-VAYU DEV
पवन-वायु देव
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
dharmvidya.wordpress.com hindutv.wordpress.com santoshhastrekhashastr.wordpress.com  bhagwatkathamrat.wordpress.com jagatgurusantosh.wordpress.com  
santoshkipathshala.blogspot.com santoshsuvichar.blogspot.com santoshkathasagar.blogspot.com bhartiyshiksha.blogspot.com santoshhindukosh.blogspot.com palmistrycncyclopedia.blgspot.com
santoshvedshakti.blogspot.com
ॐ गं गणपतये नम:। 
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
Air is basic ingredient for life. It evolved with Bhagwan Shri Hari Vishnu at the time of  his appearance in the Golden egg shell. Its controlled by Pawan-Vayu Dev. Pawan Dev is the father of Shri Hanuman Ji Maharaj & Bheem Sen.
पवन देव वायु के देवता हैं। उन्हें हनुमान जी महाराज और भीमसेन के पिता के रूप में भी जाना जाता है। माधवाचार्य को उनका अवतार कहा जाता है। 
Once the demigods who control bodily functions got engaged in a contest to determine who among them is the greatest. When a deity such as that of vision would leave a man's body, that man would continue to live, albeit as a blind man and having regained the lost faculty once the errant deity returned to his post. One by one the deities all took their turns leaving the body, but the man continued to live on, though successively impaired in various ways. Finally, when Mukhy Pran started to leave the body, all the other deities started to be inexorably pulled off their posts by force, just as a powerful horse yanks off pegs in the ground to which he is bound. This caused the other deities to realise that they can function only when empowered by Vayu and can be overpowered by him easily.[Brahad Arnayak Upnishad]
Vayu is said to be the only deity not afflicted by demons of sin who were on the attack. 
One cannot know Brahman except by knowing Vayu as the Udgith (the Mantric syllable om).[Chandogy Upanishad]
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः। 
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्॥
प्राणियों के शरीर में रहने वाला मैं प्राण-अपान से युक्त वैश्वानर-जठराग्नि होकर चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ।[श्रीमद्भगवद्गीता 15.14] 
The Almighty is present in the body of the organism in the form of combustion power to digest 4 kinds of food grains in association with 5 kinds of air. HE has said that HE is the power behind fire to burn. Without HIM fire is not capable to burn anything.
अग्नि से प्रकाश भी उत्पन्न होता है और यह दहन का कार्य भी करती है। प्राणी के शरीर में यही अग्नि भोजन को पचाने का कार्य करती है। इस अग्नि का नाम जठराग्नि है और यह 5 प्रकार की वायु (प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान) के सहयोग से 4 प्रकार के अन्नों को पचाती है। इन 5 प्रधान वायु के अलावा 5 उपप्रधान वायु :- नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त और धनंजय भी हैं। जठराग्नि के द्वारा पचाये गये भोजन को प्राण वायु शरीर के समस्त अंगों तक पहुँचाती है तथा अपान वायु अपशिष्ट पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने का कार्य करती है। 
The fire present in the form of digestive power in the stomach breaks the food particles into juices and then carries them to various organs, systems, tissues and cells. The food particles are then utilised through oxidation and the wastes are excreted out of the body. The digestive power (fire) has 5 main and 5 sub divisions. Each one has specific purpose.
PANCH BHUT-TATV पञ्च तत्व-भूत :: These five elements  are (1). Earth or Prathvi, पृथ्वी, (2). Water or Jal, जल, (3). Fire-Tej or Agni, अग्नि, (4). Air or Vayu, वायु and (5). Ether or Akash, आकाश 
पंच तत्त्व :: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु  और आकाश।  
पञ्च प्राण या प्राण वायु :: 
(1). प्रधान वायु :-
(1.1). प्राण :: निवास स्थान-ह्रदय; श्र्वास को बाहर निकालना, खाये हुए अन्न को पचाना। 
(1.2). अपान :: निवास स्थान-गुदा; श्र्वास को अंदर ले जाना, मल-मूत्र को बाहर निकालना, गर्भ को बाहर निकालना। 
(1.3). समान :: निवास स्थान-नाभि; पचे हुए भोजन को समस्त अंगो, ऊतकों, कोशिकाओं तक ले जाना। 
(1.4). उदान :: निवास स्थान-कण्ठ; भोजन के गाढ़े और तरल भाग को अलग-अलग करना, सूक्ष्म शरीर को बाहर निकालना, दूसरे शरीर या लोक में ले जाना। 
(1.5). व्यान :: निवास स्थान-सम्पूर्ण शरीर; शरीर के सम्पूर्ण अंगों को सिकोड़ना और फैलाना। 
(2). उप प्रधान वायु :- 
(2.1). नाग :: कार्य-डकार लेना। 
(2.2). कूर्म :: कार्य-नेत्रों को खोलना और बन्द करना। 
(2.3). कृकर :: कार्य-छींकना। 
(2.4). देवदत्त :: कार्य-जम्हाई लेना।  
(2.5). धनंजय :: कार्य-मृत्यु के बाद शरीर को फुलाना।
पञ्च प्राण (प्राणवायु, प्राणायाम) :: प्राणी के शरीर के भीतर पाँच प्रकार की वायु पाई जाती है। ये पाँचों ही पवन देव के पुत्र हैं और प्राणी में प्रकृति के अंश में उपस्थित रहते हैं।
प्राण :: वह वायु जो मनुष्य, प्राणी, जीव के शरीर को जीवित रखती है। शरीरांतर्गत प्राण वायु की उपस्थिति तक ही जीवात्मा इसमें निवास करता है। इस वायु का मुख्‍य स्थान हृदय में है।इस वायु के आवागमन को अच्छी तरह, भली-भाँति समझकर जो इसे साध लेता है वह लंबे काल तक जीवित रहने का रहस्य जान लेता है। वायु शरीर के अन्तर्गत खाद्य पदार्थों-भोजन को पोषक या हानिकारक पदार्थों में तब्दील करने-बदलने की क्षमता रखती है। मल का निर्माण और निष्कासन भी इसी के माध्यम से होता है। 
आयाम :: प्रथम नियंत्रण या रोकना, द्वितीय विस्तार और दिशा। व्यक्ति जब जन्म लेता है तो गहरी श्वास लेता है और जब मरता है तो पूर्णत: श्वास छोड़ देता है। प्राण जिस आयाम से आते हैं, उसी आयाम में चले जाते हैं। मनुष्य जब श्वास लेता है तो भीतर जा रही हवा या वायु पाँच भागों में विभक्त हो जाती है अर्थात शरीर के भीतर पाँच जगह स्थिर और स्थित हो जाता हैं। लेकिन वह स्थिर और स्थितर रहकर भी गतिशील रहती है।
पंचक :: (1) व्यान, (2) समान, (3) अपान, (4) उदान और (5) प्राण।
वायु के इस पाँच तरह से रूप बदलने के कारण ही व्यक्ति चैतन्य रहता है, स्मृतियांँ सुरक्षित रहती हैं, पाचन क्रिया सही चलती रहती है और हृदय में रक्त प्रवाह-स्पंदन होता रहता है। मन के विचार बदलने या स्थिर रहने में भी इसका योगदान रहता है। इस प्रणाली में किसी भी प्रकार का अवरोध पूरे शरीर, तंत्रिका-तंत्र को प्रभावित करता है। शरीर, मन तथा चेतना बीमारी, व्याधि, रोग और शोक से ‍ग्रस्त हो जाते हैं। नियमित प्राणायाम मन-मस्तिष्क, चरबी-माँस, आँत, गुर्दे, मस्तिष्क, श्वास नलिका, स्नायु तंत्र और खून आदि सभी को शुद्ध और पुष्ट, स्वस्थ रखता है।
ये सभी प्राण शरीर के अलग-अलग भागों को नियंत्रित करते हैं।
(1). प्राणवायु :- ह्रदय से लेकर नासिका पर्यन्त जो प्राणवायु होती है, उसे प्राण कहते हैं। श्वास प्रश्वास को नासिका द्वारा लेना और छोड़ना, मुख और नासिका की गति, अन्न को पाचन योग्य बनाना, पानी को रक्त मूत्र एवं पसीने में परिवर्तित करना प्राणवायु के मुख्य कार्य है। इसका सम्बन्ध वायु तत्व एवं अनाहत चक्र (ह्रदय) से है। प्राण वायु मनुष्य के शरीर का संचालन करती है। यह वायु मूलत: खून ऑक्सीजन (O2 ) और कार्बन-डाइऑक्साइड ( CO2 ) के रूप में रहती है। 
(2). अपान वायु :- यह नाभि से लेकर पैरों तक विचरती है। नाभि से नीचे के अंग यथा प्रजनन अंग, गर्भाशय, कमर, घुटने, जंघाएँ, मल-मूत्र पैर इन सभी अंगों का कार्य अपान वायु द्वारा होता है। इसका सम्बन्ध पृथ्वी तत्व और मूलाधार चक्र से है। इसकी गति नीचे की ओर होती है। अपान का अर्थ नीचे जाने वाली वायु। यह शरीर के रस में होती है।
(3). समानवायु :- यह नाभि से ह्रदय तक चलती है। पाचन क्रिया भोजन से रस निकलकर पोषक तत्वों को सभी अंगो में बाँटना इस वायु का कार्य है। इसका सम्बन्ध अग्नि तत्व और मणिपुर चक्र से है। समान नामक संतुलन बनाए रखने वाली वायु का कार्य हड्डी में होता है। हड्डियों से ही संतुलन बनता है।
(4). व्यान वायु :- यह समूचे शरीर में घूमती है। सभी स्थूल एवं सूक्षम नाड़ियों में रक्त संचार बनाये रखना इसका कार्य है। इसका सम्बन्ध जल तत्व और स्वाधिष्ठान चक्र से है। व्यान का अर्थ है चरबी तथा माँस से सम्बंधित कार्यों का सम्पादन करना।
(5). उदान वायु :- यह कंठ से लेकर मस्तिष्क पर्यन्त भ्रमण करती है। इसका सम्बन्ध आकाश तत्व और विशुद्धि चक्र से है। उदान का अर्थ उपर ले जाने वाली वायु। यह हमारे स्नायुतंत्र में स्थित होती है।
प्राणिक मुद्रा :- पाँचों प्राणों के नाम पर ही पाँच प्राणिक मुद्राएँ हैं, जिनमें दो या दो से अधिक तत्वों का अग्नि के साथ मिलन होता है। उदाहरणार्थ :- अग्नि + वायु + आकाश, अग्नि + आकाश + पृथ्वी, अग्नि + पृथ्वी + जल, अग्नि + वायु + आकाश + पृथ्वी और अग्नि + शेष चारों तत्व। इसी तरह से बनने वाली मुद्राओं को ही प्राणिक मुद्रा कहा जाता है। जब दो से अधिक तत्व आपस में मिलते हैं तो उनका प्रभाव तत्व मुद्राओं की तुलना में और भी अधिक बढ़ जाता है। जिस प्रकार से दो अथवा अधिक नदियों के मिलने से संगम का महत्व बढ़ जाता है, उसी प्रकार इन मुद्राओं का महत्व भी बढ़ जाता है। ये मुद्राएँ हैं :- (1). प्राण मुद्रा, (2). अपान मुद्रा, (3). व्यान मुद्रा, (4). उदान मुद्रा और (5). समान मुद्रा अथवा मुकुल मुद्रा।
वायवा याहि दर्शतेमे सोमा अरंकृता:।
तेषां पाहि श्रुधी हवम्॥
हे प्रियदर्शी वायुदेव! हमारी प्रार्थना को सुनकर यज्ञ स्थल पर आयें। आपके निमित्त सोम रस प्रस्तुत है, इसका पान करें।[ऋग्वेद 1.2.1] 
हे प्रियदर्शन वार्यो! यहाँ पर पधारो, तुम्हारे लिए यह सुप्रसिद्ध सोम रखा है, उसे पीते हुए हमारे संकल्पों पर ध्यान आकृष्ट करो। 
Hey Vayu Dev-the lover of goodness! Please come to this spot meant for Yagy and drink the Somras.
The Yagy is perform for the fulfilment of some desire. The deities-demigods are invited to the Yagy so that they help the organiser fulfil the objective. 
वाय उक्वेथेभिर्जरन्ते त्वामच्छा जरितार:। सुतसोमा अहर्विद:॥
हे वायुदेव! सोमरस तैयार करके रखने वाले, उसके गुणों को जानने वाले स्तोतागण स्तोत्रों से आपकी उत्तम प्रकार से स्तुति करते हैं।[ऋग्वेद 1.2.2] 
हे वार्यो! यह सोम निष्पन्न करने वाले और उसके गुणों को जानने वाले वंदनाकारी तेरा गुणगान करते हुए पूजन करते हैं। 
Hey Vayu Dev-the deity of air! Those who prepare the Somras, knows its qualities pray to you while appreciating you.
वायो तव प्रपृञ्चती धेना जिगाति दाशुषे। उरूची सोमपीतये॥
हे वायुदेव! आपकी प्रभावोत्पादक वाणी, सोमयाग करने वाले सभी यजमानों की प्रशंसा करती हुई एवं सोम रस का विशेष गुणगान करती हुई, सोमरस पान करने की अभिलाषा से दाता (यजमान) के पास पहुँचती है।[ऋग्वेद 1.2.3]
हे वायु! तुम्हारे हृदय को छूने वाली वाणी सोम की इच्छा से दाता को शीघ्र प्राप्त होती है। 
Hey Vayu Dev! your soothing (consoling, pleasing) words in the form of the verses of Sam Ved reaches the performer of Yagy, who offer you Somras. 
इन्द्रवायू उमे सुता उप प्रयोभिरा गतम्। इन्दवो वामुशान्ति हि॥
हे इन्द्रदेव! हे वायुदेव! यह सोमरस आपके लिये अभिषुत किया (निचोड़ा) गया है। आप अन्नादि पदार्थो से साथ यहाँ पधारें, क्योंकि यह सोमरस आप दोनों की कामना करता है।[ऋग्वेद 1.2.4]
हे इन्द्र तथा वायु! यहाँ सोम इस प्रस्तुत है। यह तुम्हारे लिए ही है; अतः अन्न आदि सहित आओ।
Hey Indr Dev! Hey Vayu Dev! This Somras has been extracted for you, so please come to us with the food grain etc. 
वायविन्द्रश्च चेतथ: सुतानां वाजिनीवसू। तावा यातमुप द्रवत्॥
हे वायुदेव! हे इन्द्रदेव! आप दोनों अन्नादि पदार्थो और धन से परिपूर्ण है एवं अभिषुत सोमरस की विशेषता को जानते है। अत: आप दोनों शीघ्र ही इस यज्ञ में पदार्पण करें।[ऋग्वेद 1.2.5]
हे वायु! हे इन्द्र! तुम अन्न सहित सोमों के त्राता हो इसलिए शीघ्र आगमन करो।
Hey Indr Dev! Hey Vayu Dev! You provide us with food grain and other essential commodities and knows the qualities of Somras. So, kindly oblige us by joining this Yagy-our efforts.
वायविन्द्रश्च सुन्वत आ यातमुप निष्कृतम्। मक्ष्वि१त्था धिया नरा॥
हे वायुदेव! हे इन्द्रदेव! आप दोनों ही बड़े सामर्थ्यशाली हैं। आप यजमान द्वारा बुद्धिपूर्वक निष्पादित सोम के पास अति शीघ्र पधारें।[ऋग्वेद 1.2.6] 
हे वायु और इन्द्रदेव! इस सिद्ध किये गये सोम रस के निकट शीघ्र पधारो। तुम दोनों ही योग्य पदार्थों को ग्रहण करते हो।
 Hey Indr Dev! Hey Vayu Dev! Both of you are powerful-capable. Please join this Yagy in which Somras is being offered.
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम्। 
पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये॥6॥ 
जिसमें सब कुछ हवन किया गया है, उस यज्ञपुरुष से उसी ने दही, घी आदि उत्पन्न किये और वायु में, वन में एवं ग्राम में रहने योग्य पशु उत्पन्न किये।[ऋग्वेद 10.90.6 पुरुष सूक्त] 
He who is Yagy Purush-Ultimate being created curd, Ghee etc. & the creatures capable of living in the air, forests and villages.
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत। 
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायते॥12॥ 
इस परम पुरुष के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुए, नेत्रों से सूर्य प्रकट हुए, कानों से वायु और प्राण तथा मुख से अग्नि की उत्पत्ति हुई।[ऋग्वेद 10.90.12]
Som Dev (Chandr Dev, Moon) emerged from the innerself (mind & heart) of the Param-Yagy Purush, eyes produced Sun, ears emitted air & Pran-life sustaining force and Agni-fire came out of the mouth.
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत। 
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत 
इस परम पुरुष के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुए, नेत्रों से सूर्य प्रकट हुए, कानों से वायु और प्राण तथा मुख से अग्नि की उत्पत्ति हुई।[यजुर्वेद 31.12]
Moon evolved out of the innerself & the Sun from the eyes, air and the Pran-life force from the ears  and Agni-fire evolved out of the mouth, of the Ultimate being-Purush.
Brahma Ji is the creator-an extension of the Virat Purush, Maha Vishnu.
नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्। 
किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद् गहनं गभीरम्॥
प्रलय-काल में असर नहीं था। सत्य भी उस समय नहीं था, पृथ्वी-आकाश भी नहीं थे। तब कौन यहाँ रहा था। ब्रह्माण्ड कहाँ था, गम्भीर जल भी कहाँ था।[ऋग्वेद 10.129.1]
Prior to evolution nothing was present. It was only the Almighty who existed everywhere. No air, no water, so sky. It was full of darkness after vast devastation-annihilation. It was all quit. Universe, Solar System, Earth, Heaven and Nether world too did not exist.
The space is filled with energy. The Almighty is  formless, shapeless, figure less at this stage. The energy fuses into mass and the Almighty appears as Shri Krashn.
Devastation & annihilation are cyclic and intermediate in nature like the 108 beads of a rosary. All living being assimilate-merge in Brahma Ji to evolve in next Kalp.
न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः। 
आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किञ्चनास॥
उस समय न मृत्यु थी न अमृत ही था। रात्रि और दिन भी नहीं थे। वायु से शून्य और आत्मा के अवलम्ब श्वास-प्रश्वास वाला एक ब्रह्म मात्र ही था। उसके अतिरिक्त सब शून्य था।[ऋग्वेद 10.129.2]
That was the occasion when neither death or immortality existed. It was neither day nor night. In the absence of air, the Brahm exited depending over the soul, inhaling 7 exhaling air. It was just the Brahm, Almighty-God who prevailed, WHO has neither beginning, not end. HE is since ever for ever. HE evolves by HIMSELF. HE is the only one WHO perpetuate none else, nothing else.
परम ब्रह्म अर्थात एकाक्षर ब्रह्म, परम अक्षर ब्रह्म, ब्रह्म ही सत्य है, वही अविकारी परमेश्‍वर है। जिस समय सृष्टि में अंधकार था। न जल, न अग्नि और न वायु था तब वही तत्सदब्रह्म ही था जिसे श्रुतियों में सत्-अविनाशी परमात्मा कहा गया है।  
उस अविनाशी परब्रह्म (काल) ने कुछ काल के बाद द्वितीय की इच्छा प्रकट की। उसके भीतर एक से अनेक होने का संकल्प उदित हुआ। तब उस निराकार परमात्मा ने अपनी लीला शक्ति से आकार की कल्पना की, जो मूर्ति रहित परम ब्रह्म है। 
Its only the Almighty who is truth (for ever since ever), known as Ekakshr (single syllable) Brahm, Param Brahmn, The defect free-untainted Ultimate, Almighty. It was HE who was alone described as Non-perishable God. Water, air or fire did not exist.
सृष्टि रचना का कार्य ईश्वर की इच्छा से होता है। इसके प्रारंभिक क्रम में अंधकार में सिमटी ऊर्जा परमाणुओं में बदलती है। स्वतंत्र अवस्था में रहने के लिये परमाणु द्रव्य का अंतिम अवयव है तथा परमाणु नित्य हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु परमाणुओं के संयोग से बने हैं। सर्वप्रथम इन्हीं परमाणुओं से क्रिया होती है और दो परमाणुओं के संयोग से द्वयणुक उत्पन्न होते हैं। ऐसे ही तीन द्वयणुकों के संयोग से त्रयणुक बनता है, तत्पश्चात् चतुरणुक आदि क्रम से महती पृथ्वी, महत् आकाश, महत् तेज तथा महत् वायु उत्पन्न होता है।
Evolution is the outcome of the desire of the Almighty. It begins with the fusion of energy from darkness into atoms, the basic-fundamental particles which can exist freely in nature. Everything including earth, air, water, energy are formed by the fusion of atoms. Two atoms fuse to form a molecule. Two or more atoms may combine to form molecules with three or more atoms. Molecules with multiple atoms may be formed. Complex molecules do exists. 
More than 49 particles have been recognised which exhibit both energy and particulate form, including the God particle.
ऋग्वेद संहिता, प्रथम मण्डल सूक्त (134) ::  ऋषि :- परुच्छेपो, देवता :- वायु, छन्द :- अत्यष्टि।
आ त्वा जुवो रारहाणा अभि प्रयो वायो, वहन्त्विह पूर्वपीतये सोमस्य पूर्वपीतये। ऊर्ध्वा ते अनु सूनृता मनस्तिष्ठतु जानती। नियुत्वता रथेना याहि दावने वायो मखस्य दावने
हे वायु देवता! शीघ्र गामी और बलवान् अश्व आपको अन्न के उद्देश्य से और देवों के बीच प्रथम सोमपान के लिए इस यज्ञ में ले आवें। हमारी प्रिय, सत्य और उच्च स्तुति अच्छी तरह आपके गुणों की व्याख्या करती है। वह आपके अनुकूल हैं। आप अपने रथ द्वारा आहुतियों को ग्रहण करने के लिए इस यज्ञ में पधारें।[ऋग्वेद 1.134.1]
हे वार्यों! सोम पान के लिए वेगवान अश्व तुम्हें पहले से ही यहाँ लावें। हमारी वंदना रूपी वाणी उन्नत हुई तुम्हारे गुणों को जानती है। वह तुम्हारे अनुकूल हो। तुम जुते हुए रथ से परिपूर्ण हुए हविदाता को ग्रहण होओ।
Hey -Pawan-Vayu Dev (The deity of air)! Let the fast moving horses deployed in the charoite bring you to the spot of the Yagy for drinking Somras & offerings in the form of food grains. Our prayers describe your characterises with the help of our attractive, true, high quality verses-poems, which suits you. 
मन्दन्तु त्वा मन्दिनो वायविन्दवोऽस्मत्क्राणासः सुकृता अभिद्यवो गोभिः क्राणा अभिद्यवः। यद्ध क्राणा इरध्यै दक्षं सचन्त ऊतयः। सध्रीचीना नियुतो दावने धिय उप ब्रुवत ईं धियः
हे वायु देवता! मादकतोत्पादक, हर्षजनक, सम्यक प्रस्तुत, उज्ज्वल और मन्त्र द्वारा हूयमान सोमरस आपको आनन्दित करे। श्रम में लगे हुए पुरुषार्थी मनुष्य, विवेक युक्त, दान और रक्षण हेतु आपकी प्रार्थना करते हैं।[ऋग्वेद 1.134.2]
हुयमान :: यज्ञ, बलि, आहुति, नैवेद्य; offering, oblation, prey, victim, Ahuti, holocaust, immolation, being offered in oblation.
हे वायु! हमारे प्रभावशाली, सुपुष्ट सोमरस तुम्हें पुष्ट करें दूध के प्रभाव से युक्त हुए इन सोमों के प्रति चलने के लिए तुम्हारे घोड़े पराक्रम प्राप्त करें। स्तोताओं की प्रार्थनाओं के प्रति पराक्रम से आएँ।
Hey Pawan Dev! Let the Somras which causes pleasure-happiness, toxication, offered as per schedule, treated by the recitation of Mantr in the Yagy as oblation, amuse-please you. The prudent who are engaged in their endeavours pray to you for charity and protection. 
वायुर्युङ्क्ते रोहिता वायुररुणा वायू रथे अजिरा धुरि वोळ्हवे वहिष्ठा धुरि वोळ्हवे। प्र बोधया पुरंधिं जार आ ससतीमिव। प्र चक्षय रोदसी वासयोषसः श्रवसे वासयोषसः
भारवहन के लिए वायु देवता लोहितवर्ण, गमनशील अश्व रथ में नियोजित करते हैं; क्योंकि ये भार वहन में अत्यन्त समर्थ हैं। जिस प्रकार थोड़ी निद्रा मैं आई स्त्री को उसका प्रेमी जगा देता है, उसी प्रकार आप भी बहुयज्ञ प्रबोधित यजमान को जागृत करते हैं। आप आकाश और पृथ्वी को प्रकाशित करते हुए उषा को हव्य ग्रहण के लिए स्थापित करते हैं।[ऋग्वेद 1.134.3]
चलने के लिए लाल रंग के घोड़ों को वायु देव उनके रथ में जोड़ते हैं। वे रथ की धुरी में सुनहरे द्रुतगामी अश्वों को जोड़कर प्रेमी द्वारा सोती हुई नारी को जगाने के तुल्य को जगाते हैं। वे कीर्ति के लिए उषा को स्थित करते हैं। 
Pawan Dev deploys red coloured fast moving horses in his chariot since they are good at carrying weight. You awake the host carrying out Yagy just like a woman who awakes her lover. You establish Usha to spread light in the space and the earth.
तुभ्यमुषासः शुचयः परावति भद्रा वस्त्रा तन्वते दंसु रश्मिषु चित्रा नव्येषु रश्मिषु। तुभ्यं धेनुः सबर्दुघा विश्वा वसूनि दोहते। अजनयो मरुतो वक्षणाभ्यो दिव आ वक्षणाभ्यः
हे वायु देव! दीप्ति युक्त उषाएँ, दूर देश में आपके लिए ही घरों को ढ़ँकने वाली किरणों से कल्याणकारी वस्त्र को विस्तारित करती हैं; नई किरणों से विचित्र वस्त्रों का विस्तार कर अमृत बरसाने वाली गायें आपके ही लिए समस्त धन प्रदान करती है। आपने वर्षा और नदियों के उत्पादन के लिए अन्तरिक्ष से मरुतों को उत्पादित किया।[ऋग्वेद 1.134.4]
हे वायुदेव! चमकती हुई उषाएँ दूर देश तक स्थित घरों में तुम्हारे लिए किरण रूपी वस्त्रों को फैलाती हैं। अनेक रंगों वाली किरणों को बढ़ाती हैं। अमृत रूपी दूध वाली धेनुएँ तुम्हारे लिए सभी धनों को दोहन करती हैं। तुमने वहाँ के लिए मरुतों को प्रकट किया है। 
Hey Pawan Dev! Bright Ushas spread over the houses like a useful cloth-covering and nectar yielding cows yield all sorts of riches. You have established Marud Gan in the space for causing rain and the rivers.
तुभ्यं शुक्रासः शुचयस्तुरण्यवो मदेषूग्रा इषणन्त भुर्वण्यपामिषन्त भुर्वणिः। त्वां त्सारी दसमानो भगमीट्टे तक्ववीये। त्वं विश्वस्माद्भुवनात्पासि धर्मणासुर्यात्पासि धर्मणा
दीप्त, शुद्ध, उग्र और प्रवाहशाली सोमरस आपके आनन्द के लिए आहवनीय अग्रि के पास जाता है और जल भार वाहक मेघ की आकांक्षा करता है। हे वायुदेव! यजमान लोग अत्यन्त डरे हुए और शरीर से दुर्बल होकर चोरों के हटाने के लिए आपकी पूजा करते हैं। हमारे धार्मिक होने से हमारे समस्त महाभूतों की रक्षा करें। हमारे धर्म संयुक्त होने के कारण असुरों से हमारी रक्षा करें।[ऋग्वेद 1.134.5]
महाभूत :: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश नामक पंच तत्व, सभी तत्वों में समान रूप से विद्यमान तत्व-मूल द्रव्य, परमेश्वर।
हे वायु! ये चमकते हुए पुष्टिकर सोम तुम्हारे लिए ग्रहण होते हैं। शत्रु के भय से क्षीण होता हुआ यजमान तुम्हारा शीघ्रता से आह्वान करता है। तुम धर्म द्वारा संसार की सुरक्षा करने वाले हो और असुरों से आराधकों को बचाते हो।
Pure, shinning, fierce flowing Somras moves to the Agni Dev and requests for the clouds carrying rains-water. Hey Pawan Dev! The devotees who are afraid of the thieves and have become too weak, pray to you for protection. Protect us from all the past misdeeds-misadventure. Our righteous, virtuous, pious, pure deeds protect us from the demons-Anary.
त्वं नो वायवेषामपूर्व्यः सोमानां प्रथमः पीतिमर्हसि सुतानां पीतिमर्हसि। उतो विहुत्पतीनां विशां ववर्जुषीणाम्। विश्वा इत्ते धेनवो दुह्र आशिरं घृतं दुहत आशिरम्
हे वायु देवता! आपके पहले किसी ने भी सोमरस नहीं पिया था। आप ही सबसे पहले हमारे इस अभिषुत सोमरस का पान करने योग्य हैं। आप हवन करने वाले और निष्पाप लोगों का हव्य स्वीकार करते हैं। सभी गायें आपके लिए दूध देती हैं और आपके लिए घी भी देती हैं।[ऋग्वेद 1.134.6]
हे वायु! हमारे द्वारा निचोड़े उन सोम रसों को पीने में तुम सक्षम हो। तुम्हारे लिए ये अत्यन्त दूध देने वाली धेनुएँ सोमरस से मिलाने के लिए दूध और घी का दोहन करती हैं।
Hey Pawan-Vayu Dev! None prior to you sipped Somras. You deserve to accept this Somras as oblation. You accept the offerings of sinless devotees conducting Yagy. All cows yield milk & Ghee for you as offerings.
ऋग्वेद संहिता, प्रथम मण्डल सूक्त (135) ::  ऋषि :- परुच्छेपो, देवता :- वायु, छन्द :- अष्टि, अत्यष्टि।
स्तीर्णं बर्हिरुप नो याहि वीतये सहस्रेण नियुता नियुत्वतेशतिनीभिर्नियुत्वते तुभ्यं हि पूर्वपीतये देवा देवाय येमिरे। प्र ते सुतासो मधुमन्तो अस्थिरन्मदाय क्रत्वे अस्थिरन्
हे नियुत अश्व वाले वायु देवता! आप हजारों अश्वों से नियोजित रथ पर बैठकर यहाँ पधारें। आपके लिए यहाँ कुशासन बिछाया गया है। ऋत्विजों ने आपके लिए ही सोमरस निर्मित किया है। इस मधुर सोमरस का पान करके आप आनंदित व बलयुक्त होवें।[ऋग्वेद 1.135.1]
हे वायुदेव! हवि सेवन के लिए बिछी हुई कुशा को ग्रहण होओ। ऋत्विजों ने तुम्हारे सेवन के लिए पहले से ही सोम रस तैयार रखा है। निष्पन्न सोम तुमको शक्ति देगा और पुष्ट करेगा।
Hey Pawan-Vayu Dev! You should ride the chariot in which thousands of horses have been deployed and come here. Kushasan-mat made of Kush Grass has been laid here for you to sit. Those who are engaged in Yagy have extracted Somras for you. Drink this Somras, be amused & fresh, strong.
तुभ्यायं सोमः परिपूतो अद्रिभिः स्पार्हा वसानः परि कोशमर्षति शुक्रा वसानो अर्षति। तवायं भाग आयुषु सोमो देवेषु हूयते। वह वायो नियुतो याह्यस्मयुर्जुषाणो याह्यस्मयुः
हे वायु देवता! आपके लिए पत्थरों से कूटकर शोधित किया हुआ तथा वांछित तेजस्विता को धारित किया हुआ सोमरस कलश में स्थापित किया गया है। मनुष्यों के द्वारा सर्वप्रथम आपका ही आवाहन किया जाता है। हे वायु देव! आप अश्वों द्वारा यहाँ पधार कर मधुर शुद्ध व कान्तिवान् सोमरस का पान करें।[ऋग्वेद 1.135.2]
हे वायुदेव! यह सिद्धस्थ किया गया सोम शक्ति धारण करता हुआ कलश की ओर बढ़ता है। यह सोम हवि से परिपूर्ण किया जाता है। हम अभिलाषा करने वालों की तरफ तुम अपने घोड़ों को प्रेरित करो।
Hey Vayu Dev! Somras crushed with stones, purified possessing energy has been stored in the pot-Kalash. The humans invite you first. Hey Vayu Dev! You ride the horses and sip-enjoy the sweet, aurous, pure Somras.
आ नो नियुद्धिः शतिनीभिरध्वरं सहस्त्रिणीभिरुप याहि वीतये वायो। हव्यानि वीतये। तवायं भाग ऋत्वियः सरश्मिः सूर्ये सचा। अध्वर्युभिरमाणा अयंसत वायो शुक्रा अयंसत
हे वायु देवता! आप सैकड़ों और हजारों अश्वों पर सवार होकर अभिमत सिद्धि और हव्य मक्षण के लिए हमारे यज्ञ में पधारे। यही आपका भाग है; यह सूर्य के तेज से युक्त व ऋत्विकों के द्वारा निर्मित हुआ है। यह सोमरस का आपके बल को बढ़ाने वाला है।[ऋग्वेद 1.135.3]
अभिमत :: राय, सुझाव, विचार, मत, सम्मति, इष्ट, मनचाही बात, वांछित, मनोनीत, सम्मत, अनुमत, राय के मुताबिक, मनचाहा; desired.
हे वायुदेव! सैकड़ों हजारों के द्वारा हमारे यज्ञ में सम्मलित होकर हवि को स्वीकार करो। यह तुम्हारा भाग सूर्य के समान तेज वाला है। अध्वर्युओं ने तुम्हारे लिए यह सोम रस अर्पित किया है।
Hey Vayu Dev! Please come to our Yagy, riding thousands of horses to accept the offerings & accomplishments. Its your share prepared by the Ritviz possessing the energy of the Sun. This Somras will boost your power, energy, strength. 
आ वां रथो नियुत्वान्वक्षदवसेऽभि प्रयांसि सुधितानि वीतये वायो। हव्यानि वीतये। पिबतं मध्वो अन्धसः पूर्वपेयं हि वां हितम्। वायवा चन्द्रेण राधसा गतमिन्द्रश्च राधसा गतम्
हे वायु देवता! हमारी रक्षा के लिए इन्द्रदेव के साथ आप अश्व नियोजित रथ द्वारा यहाँ पधार कर हमने जो सोमरस तैयार किया है, उस सोमरस का पान करें। यह सोमरस इन्द्र देवता के साथ आपको भी आनन्द देने वाला है।[ऋग्वेद 1.135.4]
हे वायो! सुन्दर हवि रूप अन्नों की ओर तुम्हारा रथ रक्षापूर्वक चले। तुम मधुर सोम रस को ग्रहण करो। तुम उज्जवल धनों से युक्त हुए इन्द्र सहित पधारो।
Hey Vayu Dev! Please with Indr Dev for protecting us in the chariot in which horses have been deployed and sip Somras. This Somras will give you pleasure-amusement like Indr Dev.  
आ वां धियो ववृत्युरध्वराँ उपेममिन्दुं मर्मृजन्त वाजिनमाशुमत्यं न वाजिनम्। तेषां पिबतमस्मयू आ नो गन्तमिहोत्या। इन्द्रवायू सुतानामद्रिभिर्युवं मदाय वाजदा युवम्
हे इन्द्र देव और वायु देवता! हमारे स्तोत्रादि आप लोगों को यज्ञ में आने के लिए प्रेरित करते हैं। जैसे शीघ्रगामी अश्च को परिमार्जित किया जाता है, वैसे ही कलश से लाये हुए सोमरस को ऋत्विक् लोग परिमार्जित करते हैं। अध्वर्युओं (यजुर्वेद विहित कार्य करने वालों) द्वारा बने हुए इस सोमरस का पान करें। हमारी रक्षा के लिए यज्ञ में पधारें। आप दोनों अन्न देने वाले हैं, इसलिए हमारे प्रति प्रसन्न होकर आनन्द देने के लिए पत्थरों के द्वारा कूटकर जो यह सोमरस बनाया गया है, उसको पीवें।[ऋग्वेद 1.135.5]
हे इन्द्र देव और वायु देव! हमारी वंदनाएँ तुम्हें अनुष्ठान की ओर आकृष्ट करें। ऋत्विजों ने रस छानकर रखा है, उसे यहाँ पर पधार कर पान करो और हमारी सुरक्षा करो।
Hey Indr Dev & Vayu Dev!  Let our prayers-worship Strotr inspire you to join our Yagy. The way a fast moving horse is readied, similarly the Somras in the Kalash is readied for both of you. Let the organisers of the Yagy too sip the Somras. Please come to protect us. Both of you grant us food grains. 
इमे वां सोमा अप्स्वा सुता इहाध्वर्युभिर्भरमाणा अयंसत वायो शुक्रा अयंसत। एते वामध्यसृक्षत तिरः पवित्रमाशवः। युवायवोऽति रोमाण्यव्यया सोमासो अत्यव्यया
हमारे इस यज्ञकार्य में अभिषुत और अध्वर्युओं द्वारा गृहीत यह दीप्त सोमरस निश्चय ही आप दोनों के लिये ही हैं। यह यथेष्ट सोमरस निश्चय ही आपके लिए टेढ़े तीरछी धारा के पात्र में डाला जाता है। इस प्रकार का सोमरस आपको प्राप्त हो। अखण्डित रोम तन्तुओं से छन कर सोमरस अति संरक्षक गुणों से युक्त हो जाता है।[ऋग्वेद 1.135.6]
अध्वर्यु :: यज्ञ करानेवाले श्रेष्ठ यजुर्वेदी पुरोहित, आचार्य, पुरोधा, कर्मकांडी ब्राह्मण, यजुर्वेद के अनुरूप कर्म करनेवाला, यज्ञ का संपादन करनेवाला, यजुर्वेद में बतलाए गए कर्म करने वाला ऋत्विक, यज्ञ में यजुर्वेद का मंत्र पढ़ने वाला व्यक्ति; one who holds-conducts Yagy in accordance with Yajur Ved, best among the priests, enchanters of Yajur Ved, best amongest the priests,  the priests and the organises, hosts reciting Mantr in the Yagy.
हे वायु देव! अध्वर्युओं द्वारा प्राप्त हुए निष्पन्न सोम रस प्रस्तुत है। ये तुम दोनों के लिए ऊनी वस्त्र से छाने गये हैं। 
The Somras in this Yagy is prepared by the organisers; is definitely meant for both of you. Its poured in an inclined position-condition, in the pot meant for sipping. Let this be available to both of you. When this is extracted through the unbroken fibre, its full of highly protective powers.
अति वायो ससतो याहि शश्वतो यत्र ग्रावा वदति तत्र गच्छतं गृहमिन्द्रश्च गच्छतम्। वि सूनृता दहशे रीयते घृतमा पूर्णया नियुता याथो अध्वरमिन्द्रश्च याथो अध्वरम्
हे वायु देवता! आप निद्रालु यजमानों का अतिक्रमण करके उस गृह में जायें, जिसमें प्रस्तर का शब्द होता है। इन्द्रदेव भी उसी गृह में जावें। जिस गृह में प्रिय और सत्य स्तुति का उच्चारण होता है, जिस घर में घृत जाता है, उसी यज्ञस्थान में पुष्ट नियुत घोड़ों के साथ जावें। हे इन्द्रदेव! आप भी वहाँ पधारें।[ऋग्वेद 1.135.7]
हे वायु! सभी सो रहे व्यक्तियों को जगाते हुए, आओ। सोम को कूटने के पत्थर के शब्द से आकर्षित होओ। 
Hey Vayu Dev! You just cross the sleeping organisers of the Yagy and move to that room where sound of the rattling stones is heard. Let, Indr Dev too visit that house-room. You should visit that house riding the strong horses, where Yagy is held, in which pleasing truth prevails & Ghee is used. Let Indr Dev accompany.
अत्राह तद्वहेथे मध्व आहुतिं यमश्वत्थमुपतिष्ठन्त जायवोऽस्मे ते सन्तु जायवः। साकं गावः सुवते पच्यते यवो न ते वाय उप दस्यन्ति धेनवो नाप दस्यन्ति धेनवः
हे इन्द्र देव और वायु देवता! आप इस यज्ञ में मधु के समान उस आहुति को धारण करें, जिसके लिए विजेता यजमान पर्वत आदि प्रदेशों में जाते हैं। हमारे विजेता लोग यज्ञ का निर्वाहन करने में समर्थ हों। गायें आपके लिए अमृतरूपी दूध देती हैं और जौ से बनाया हुआ हव्य तैयार होता है। हे वायुदेवता! ये गायें आपके लिए कभी कम न हों, न ही किसी के द्वारा इनका अपहरण हो।[ऋग्वेद 1.135.8]
हे इन्द्र और वायुदेव! तुम इस मधुर सोम की आहुति प्राप्त करो। इस पीपल रूप सोम को अजय व्यक्ति पान करते हैं। हमारी गौएँ क्षीण न हों। 
Hey Indr & Vayu Dev! You should accept those offerings, for which the winning organisers of the Yagy visit mountainous regions. Our winners should be able to complete-finish the Yagy.  The cows yield the milk which is comparable to the nectar, which is used for preparing offerings with barley. Hey Vayu Dev! Our cows should never be reduced in numbers and they should never be stolen or abducted. 
इमे ये ते सु वायो बाह्वोजसोऽन्तर्नदी ते पतयन्त्युक्षणो महि व्राधन्त उक्षणः धन्वञ्चिद्ये अनाशवो जीराश्चिदगिरौकसः। सूर्यस्येव रश्मयो दुर्नियन्तवो हस्तयोर्दुर्नियन्तवः
हे वायु देवता! ये जो आपके बलशाली युवा बैलों के समान और अत्यन्त हृष्ट-पुष्ट घोड़े है, वे आपको स्वर्ग और पृथ्वी पर ले जाते हैं, ये अन्तरिक्ष में भी गमन करने में देर नहीं करते, ये शीघ्रगामी हैं, इनकी गति नहीं रुकती। सूर्य किरणों की तरह इनकी गति का रोकना कठिन है।[ऋग्वेद 1.135.9]
हमारा अन्न परिपक्व हो जाये। ये तुम्हारे शक्तिशाली वृषभ नदी रूपी प्रवाह में दौड़ते ये मरुस्थल में भी नष्ट नहीं होते। ये सूर्य की किरणों के समान अबाध वेग वाले हैं।
Hey Vayu Dev! Your powerful-strong horses which are comparable to the strong young oxen-bull, are capable of taking you to the earth, heavens and even in the space. They are fast moving and their movements can not be obstructed. Their movement can not be blocked just like the Sun rays.
वायो ये ते सहस्रिणो रथासस्तेभिरा गहि। नियुत्वान्त्सोमपीतये
हे वायु देव! आपके पास जो हजार रथ हैं, उनके द्वारा नियुत्गण से युक्त होकर सोम पान के लिए पधारें।[ऋग्वेद 2.41.1]
हे वार्या। अपने हजारों रथ द्वारा, मरुद्गण से परिपूर्ण होकर सोमपान के लिए पधारो मरुद्गण युक्त पधारो। 
Hey Vayu Dev (deity of air)! Come to us, riding your thousands charoites along with Marud Gan to drink Somras.
नियुत्वान्वायवा गायं शुक्रो अयामि ते। गन्तासि सुन्वतो गृहम् 
हे वायुदेव! नियुतगण से युक्त होकर आयें। आपने दीप्तिमान् सोमरस ग्रहण किया है। सोमाभिषवकारी यजमान के घर में आप जाते है।[ऋग्वेद 2.41.2]
तुमने तेज से परिपूर्ण सोम को पिया है। तुम सोम सिद्ध करने वाले के घर को ग्रहण हो।
Hey Vayu Dev! Come to us along with the Marud Gan. You have drunk energetic Somras. You visit the house-family of the Ritviz-household who extract Somras for you.
शुक्रस्याद्य गवाशिर इन्द्रवायू नियुत्वतः। आ यातं पिबतं नरा 
हे नेता इन्द्र देव और वायु देव! आप आज नियुत्गण से युक्त होकर और सोम के लिए आकर गव्य मिला सोमरस पीवें।[ऋग्वेद 2.41.3]
हे इन्द्र और वायु! तुम मरुद्गण से युक्त हुए सोम के लिए यहाँ पर आओ और दूध मिश्रित सोम रस को पीयें।
Hey Indr Dev & Vayu-Pawan Dev! Come to us along with Marud Gan and drink the Somras mixed with cow milk.  
इन्द्रज्येष्ठा मरुद्गणा देवासः पूषरातयः। विश्वे मम श्रुता हवम्
जिन मरुतों में इन्द्र देव श्रेष्ठ हैं, जिनके दाता पूषा हैं, वे ही मरुद्गण हमारा आह्वान श्रवण करें।[ऋग्वेद 2.41.15]
जिन मरुद्गण में इन्द्रदेव सर्वश्रेष्ठ हैं, जिनको पूषा दान प्रदान करने वाले हैं, वे मरुद्गण हमारे आह्वान को सुनें।
The Marud Gan, amongest whom, Indr Dev is the beast, who's benefactor is Pusha Dev, listen-respond to our prayers.
ऋग्वेद संहिता, चतुर्थ मण्डल सूक्त (46) :: ऋषि :- वामदेव गौतम, देवता :-  इन्द्र देव, वायु देव, छन्द :- गायत्री
अग्रं पिबा मधूनां सुतं वायो दिविष्टिषु। त्वं हि पूर्वपा असि
हे वायु देव! स्वर्ग प्रापक यज्ञ में आप सर्वप्रथम अभिषुत सोमरस का पान करें; क्योंकि आप सबसे पहले सोमरस का पान करने वाले हैं।[ऋग्वेद 4.46.1]
हे वायु! स्वर्ग में स्थान बनाने वाले अनुष्ठान में इस अभिषुत सोम रस को आकर पीओ क्योंकि तुम सबसे पहले सोमरस का पान करने वाले हो।
Hey Vayu Dev! Drink this freshly extracted Somras first of all, since you are one who clears the way to heavens and you are entitled to drink it first.
शतेना नो अभिष्टिभिर्नियुत्वाँ इन्द्रसारथिः। वायो सुतस्य तृम्पतम्
हे वायु देव! आप नियुद्वान् हैं और इन्द्र देव आपके सारथि हैं। आप अपरिमित कामनाओं को पूर्ण करने के लिए आगमन करें। आप अभिषुत सोमरस का पान करें।[ऋग्वेद 4.46.2]
हे वायु देव! हे इन्द्र देव! तुम दोनों सोमपान के द्वारा संतुष्टि को प्राप्त हो जाओ। हे वायु! तुम संसार के कल्याणकारी कर्म में नियुक्त हुए हो। तुम इन्द्र देव के सारथी होकर हमारी दृढ़ कामनाओं को पूरा करने के लिए यहाँ आओ।
Hey Vayu Dev! Indr Dev is your charioteer & you are appointed to perform the welfare of the humans-world.  Invoke to accomplish our unfulfilled desires. Drink the freshly extracted Somras.
आ वां सहस्रं हरय इन्द्रवायू अभि प्रयः। वहन्तु सोमपीतये
हे इन्द्र देव और वायु देव! आप दोनों को हजारों संख्या वाले अश्व युक्त रथ द्रुतगति से सोमपान के लिए ले आवें।[ऋग्वेद 4.46.3]
हे इन्द्र और वायु! तुम दोनों को हजारों अश्व शीघ्रतापूर्वक सोमपान के लिए यहाँ ले आएँ।
Hey Indr Dev & Vayu Dev! Come here fast, riding the charoite pulled by thousands of horses, to drink the Somras.
रथं हिरण्यवन्धुरमिन्द्रवायू स्वध्वरम्। आ हि स्थाथो दिविस्पृशम्
हे इन्द्र देव और वायु देव! आप दोनों हिरण्मय निवासाधार काष्ठ से युक्त द्युलोक स्पर्शी और शोभन यज्ञशाली रथ पर आरोहण करें।[ऋग्वेद 4.46.4]
हे इन्द्रदेव और वायु! तुम दोनों स्वर्ण के उज्जवल काष्ठ के मूल वाले तथा अम्बर से तुम दोनों ही महान शक्तिशाली रथ से ही हवि प्रदान करने वाले यजमान के निकट पधारो।
Hey Indr Dev & Vayu Dev! Come to the Yagy of the Ritviz, for accepting offerings riding the charoite in which wood is studded with gold, from the heavens.
रथेन पृथुपाजसा दाश्वांसमुप गच्छतम्। इन्द्रवायू इहा गतम्
हे इन्द्र देव और वायु देव! आप दोनों प्रभूत बल सम्पन्न रथ द्वारा हव्य दाता याजक गण के निकट आगमन करें तथा इस यज्ञ मण्डप में पधारें।[ऋग्वेद 4.46.5]
तुम दोनों यजमान के लिए ही इस महान अनुष्ठान में पधारो।
Hey Indr Dev! Hey Vayu Dev! Visit the Yagy of the Ritviz making offerings, riding the charoite associated with your might.  
इन्द्रवायू अयं सुतस्तं देवेभिः सजोषसा। पिबतं दाशुषो गृहे
इन्द्र देव और वायु देव! यह सोमरस आपके लिए अभिषुत किया गया है। आप दोनों देवताओं के साथ समान प्रीति युक्त होकर हव्य दाता याजक गण की यज्ञशाला में उसका पान करें।[ऋग्वेद 4.46.6]
हे इन्द्र देव! हे वायो! यह प्रसिद्ध सोम रखा है। तुम दोनों समान प्रीति वाले होकर हविदाता यजमान के यज्ञ स्थल में आकार सोम रस पीओ।
Hey Indr Dev! Hey Vayu Dev! This Somras has been extracted for you. Drink it along with the demigods-deities happily, in the Yagy Shala-house of the Ritviz.
इह प्रयाणमस्तु वामिन्द्रवायू विमोचनम्। इह वां सोमपीतये
हे इन्द्र देव और वायु देव! इस यज्ञ में आप दोनों का आगमन हो। यहाँ पधार कर सोमपान के निमित्त आप दोनों अपने अश्वों को रथ से मुक्त करें।[ऋग्वेद 4.46.7]
हे इन्द्रदेव! हे वायो! इस अनुष्ठान में तुम्हें सोमरस पान करने के लिए अश्व खोल दिए जाएँ। तुम दोनों इस यज्ञ स्थल में आओ।
Hey Indr Dev! Hey Vayu Dev! Join this Yagy. Come here and release your horses from the charoite.(23.04.2023)
ऋग्वेद संहिता, चतुर्थ मण्डल सूक्त (47) :: ऋषि :- वामदेव गौतम, देवता :-  इन्द्र देव, वायु देव, छन्द :- गायत्री
वायो शुक्रो अयामि ते मध्वो अग्रं दिविष्टिषु।
आ याहि सोमपीतये स्पार्हो देव नियुत्वता
हे वायु देव! व्रतचर्यादि के द्वारा दीप्त-पवित्र होकर हम द्युलोक जाने की अभिलाषा से आपके लिए मधुर सोमरस का प्रथम आनयन करते हैं। हे वायु देव! आप स्पृहणीय हैं। आप अपने अश्व वाहन द्वारा सोमपान के लिए यहाँ आगमन करें।[ऋग्वेद 4.47.1]
हे वायो! महान कर्मानुष्ठानों द्वारा शुद्ध बने हुए हम अद्भुत संसार प्राप्ति की इच्छा करते हुए पहले तुम्हारे लिए ही सोमरस को लाते हैं। तुम अभिलाषा के योग्य हो। अपने वाहन के युक्त सोमपान करने के लिए उस स्थान से पधारो।
Hey Vayu Dev! We extract the sweet Somras with great efforts for you, adopting penances, fasts etc. You are desirable. Ride your charoite deploying horses and come here to drink Somras.
इन्द्रश्च वायवेषां सोमानां पीतिमर्हथः।
युवां हि यन्तीन्दवो निम्नमापो न सध्र्यक्
हे वायु देव! आप और इन्द्र देव इस गृहीत सोमरस के पान योग्य हो, आप दोनों ही सोमरस को प्राप्त करते हैं; क्योंकि जल जिस प्रकार से गर्त की ओर गमन करता है, उसी प्रकार से सकल सोमरस आप दोनों के अभिमुख गमन करते हैं।[ऋग्वेद 4.47.2]
हे वायो! उस ग्रहण किये हुए सोम पीने के पात्र तुम हो और इन्द्रदेव हैं। जैसे जल गड्ढे की ओर जाता है, वैसे ही सभी प्रकार के सोम तुम्हारे समीप जाते हैं।
Hey Vayu Dev! You and Indr dev are qualified to drink Somras. The way water moves to low lying areas, all sorts of Somras comes to you automatically.
वायविन्द्रश्च शुष्मिणा सरथं शवसस्पती।
नियुत्वन्ता न ऊतय आ यातं सोमपीतये
हे वायु देव! आप ही इन्द्र देव हैं। आप दोनों बल के स्वामी है। आप दोनों पराक्रमशाली और नियुद्गण से युक्त हैं। आप दोनों एक ही रथ पर आरोहण करके हम लोगों को आश्रय प्रदान करने के लिए और सोमरस का पान करने के लिए यहाँ पधारें।[ऋग्वेद 4.47.3]
तुम दोनों अत्यन्त शक्तिशाली एवं अश्वों से युक्त हो। तुम दोनों एक ही रथ पर विराजमान होकर सोमरस का पान करो तथा हमें आश्रय प्रदान करने के लिए यहाँ पर पधारो।
Hey Vayu Dev! You are Indr Dev. Both of you are mighty and possess the horses. Ride the same charoite and come to us for drinking Somras and grant us asylum-protection.
या वां सन्ति पुरुस्पृहो नियुतो दाशुषे नरा। 
अस्मे ता यज्ञवाहसेन्द्रवायू नि यच्छतम्
हे नायक तथा यज्ञ वाहक इन्द्र देव और वायु देव! आप दोनों के पास अनेकों द्वारा कामना किए जाने योग्य जो अश्व हैं, उन अश्वों को मुझ दान देने वाले यजमान को प्रदान करें।[ऋग्वेद 4.47.4]
हे इन्द्रदेव और वायो! तुम दोनों ही यज्ञ हवन करने वालों एवं समस्त देवों में अग्रणी हो। हम तुमको हवि रत्न प्रदान करने वाले यजमान हैं। तुम्हारे पास अभिलाषा के योग्य जो अश्व हैं उन्हें हमें प्रदान करो।
Hey leaders and supporter of the Yagy Vayu Dev & Indr Dev! Grant me-the Ritviz, the horses which several people desire to have-possess.(23.04.2023)
ऋग्वेद संहिता, चतुर्थ मण्डल सूक्त (48) :: ऋषि :- वामदेव गौतम, देवता :-  वायु देव, छन्द :- अनुष्टुप्
विहि होत्रा अवीता विपो न रायो अर्यः।
वायवा चन्द्रेण रथेन याहि सुतस्य पीतये
हे वायु देव! शत्रुओं को कम्पायमान करने वालों को राजा की तरह आप पूर्व ही दूसरे के द्वारा अपीत सोमरस का पान करें एवं स्तोताओं के धन का सम्पादन करें। हे वायु देव! आप सोमपान के लिए शीतलता दायक रथ द्वारा पधारें।[ऋग्वेद 4.48.1]
हे वायो! शत्रुओं को कम्पित करने वाले सम्राट के तुल्य तुम अन्यों के द्वारा व पान किये गये सोमरस को पूर्व ही पान करो और प्रार्थना करने वालों के लिए धनों को ग्रहण कराओ। तुम अपने कल्याणकारी रथ के द्वारा सोम को पान करने के लिए यहाँ पधारो।
Hey Vayu Dev! Arrive here in your charoite, which is cooled and trembles-hake the enemy, to drink Somras prior to others and grant wealth-money to the hosts-organisers of the Yagy.
निर्युवाणो अशस्तीर्नियुत्वाँ इन्द्रसारथिः।
वायवा चन्द्रेण रथेन याहि सुतस्य पीतये
हे वायु देव! आप अभिशस्ति का नि:शेष नियोग करते है। आप नियुद्गण से युक्त हैं और इन्द्र देव आपके सारथि हैं। हे वायु देव! आप सोमपान के लिए आह्लादकर रथ द्वारा पधारें।[ऋग्वेद 4.48.2]
हे वायु! तुम इन्द्र देव सहित सारथी के रूप में सुवर्णमय रथ द्वारा अश्वादि से युक्त होकर सौम्य स्वभाव वाले शक्तिवान प्राणियों से युक्त तथा अनेक दुष्ट प्राणियों से परे हो। तुम हर्षकारी सोम को पीने के लिए यहाँ पधारो।
Hey Vayu Dev! Arrive here to drink stimulating Somras in your golden charoite driven by Indr Dev.
अनु कृष्णे वसुधिती येमाते विश्वपेशसा।
वायवा चन्द्रेण रथेन याहि सुतस्य पीतये
हे वायु देव! कृष्ण वर्ण, वसुओं की धात्री, विश्व रूपा द्यावा-पृथ्वी आपका अनुगमन करती है। हे वायु देव! आप सोमपान के लिए तेजस्वी रथ द्वारा पधारें।[ऋग्वेद 4.48.3]
हे वायु! काले रंग वाली, वसुओं को धारण करने वाली विश्वरूप अम्बर-धरा तुम्हारे पदचिह्नों पर चलती है। तुम अपने हर्षिता परिपूर्ण रथ के द्वारा सोम को पीने के लिए यहाँ विराजमान होओ।
Hey Vayu! Blackish heaven & earth constituting the universe, who supports the Vasus, follows you. Come to drink Somras in your radiant charoite.
वहन्तु त्वा मनोयुजो युक्तासो नवतिर्नव।
वायवा चन्द्रेण रथेन याहि सुतस्य पीतये
हे वायु देव! मन के तुल्य वेगवान, परस्पर संयुक्त, निन्यान्वें अश्व आपका वहन करते है। हे वायु देव! आप सोमपान के लिए आह्लादकर रथ द्वारा पधारें।[ऋग्वेद 4.48.4]
हे वायु! मन के समान वेगवान आपस में मिले हुए निन्यानवें अश्व तुम्हें यहाँ लाते हैं। तुम सोम पीने के लिए प्रसन्नतापूर्वक सुन्दर रथ पर पधारो।
Hey Vayu Dev! Come here to drink Somras producing joy-pleasure, in your charoite, supported by 99 horses, which moves as fast as the brain. 
वायो शतं हरीणां युवस्व पोष्याणाम्।
उत वा ते सहस्रिणो रथ आ यातु पाजसा
हे वायु देव! आप सैकड़ों सँख्या वाले पोषणीय अश्वों को रथ में नियोजित करें अथवा सहस्र संख्यक अश्वों को रथ में नियोजित करें। उनसे युक्त होकर आपका रथ वेग पूर्वक यहाँ आवें।[ऋग्वेद 4.48.5]
हे वायु! तुम सैकड़ों अश्वों को रथ में जोड़ो और उनके साथ यहाँ आओ।
Hey Vayu Dev! Let your charoite driven by hundred or thousands of well nourished-stout horses, running fast come here.(24.04.2023)
प्र शंतमा वरुणं दीधिती गीर्मित्रं भगमदितिं नूनमश्याः।
पृषद्योनिः पञ्चहोता शृणोत्वतूर्तपन्था असुरो मयोभुः
प्रदत्त हव्य के साथ हम लोगों का निरतिशय सुखदायक स्तोत्र वरुण, मित्र, भग और आदित्य के निकट उपस्थित हैं। जो प्राण आदि पञ्चवायु के साधक हैं, जो विविध वर्ण के अन्तरिक्ष में अवस्थान करते हैं, जिनकी गति अबाधित है, जो प्राणदाता और सुख देने वाले है, वे वायुदेव हम लोगों का स्तोत्र श्रवण करें।[ऋग्वेद 5.42.1]
निरतिशय :: हद दरज़े का, बेहद, अद्वितीय, परम, जिसके आगे या जिससे बढ़कर और कुछ न हो,  चश्म, परमात्मा, ईश्वर, परब्रह्म; unique, ultimate, almighty, God.
We approach Varun, Mitr, Bhag and Adity Dev with the ultimate Strotr & offerings-oblations. Let Vayu Dev who grant-consist of five forms of living sustaining force-Pran, stay in the space having vivid colours, moves freely, grant life and comforts, listen to our Strotr.
अध्वर्यवश्चकृवांसो मधूनि प्र वायवे भरत चारु शुक्रम्।
होतेव नः प्रथमः पाह्यस्य देव मध्वो ररिमा ते मदाय
हे अध्वर्युओं! आप लोग मधुर घृतादि हव्य प्रस्तुत करें और वह रमणीय तथा दीप्त सोमरस सबसे पहले वायु को अर्पित करें। हे वायु देव! आप होता के तुल्य इस सोमरस को अन्य देवों से पहले पियें। हे वायु देव! यह मधुर सोमरस आपकी प्रसन्नता के लिए हम देते हैं।[ऋग्वेद 5.43.3]
Hey priests! Present sweet Ghee and other offerings along with Somras to Vayu Dev. Hey Vayu Dev! Drink this Somras offered by the worshiper first, as compared to the other demigods-deities. We offer this sweet Somras for your pleasure.
प्र तव्यसो नमउक्तिं तुरस्याहं पूष्ण उत वायोरदिक्षि।
या राधसा चोदितारा मतीनां या वाजस्य द्रविणोदा उत त्मन्
हम बलवान् और वेग पूर्वक गमन करने वाले पूषा तथा वायु देव की प्रार्थना करते हैं। ये दोनों देव धन और अन्न के लिए लोगों की बुद्धि को प्रेरित करें अथवा जो देव संग्राम के प्रेरक हैं, वे धनप्रदान करें।[ऋग्वेद 5.43.9]
We worship dynamic-accelerated mighty Pusha and Vayu Dev. Let both of them inspire the minds of public-populace for food grains and wealth or else, those who are the inspirer of war grant wealth.
अयं सोमश्चमू सुतोऽमत्रे परि षिच्यते। प्रिय इन्द्राय वायवे
हे इन्द्र देव और वायु देव! पत्थरों से कूटकर अभिषुत हुआ सोमरस पात्रों में छानकर भरा जाता है, यह इन्द्रदेव और वायुदेव के लिए प्रिय है। इस सोमरस को पीने के लिए यहाँ पधारें।[ऋग्वेद 5.51.4]
Hey Indr Dev & Vayu Dev! Come to drink Somras crushed with stones and filtered for you, kept in the pots. 
वायवा याहि वीतये जुषाणो हव्यदातये। 
पिबा सुतस्यान्धसो अभि प्रयः
हे वायु देव! हवि देने वाले यजमान की प्रीति के लिए आप हव्यपान करने के लिए पधारें। आकर अभिषुत सोमरूप अन्न का भक्षण करें।[ऋग्वेद 5.51.5]
Hey Vayu Dev! Come for drinking Somras for the love of the Ritviz making offerings and eat the food grains in the containing-form of Somras.
इन्द्रश्च वायवेषां सुतानां पीतिमर्हथः।
ताञ्जुषेथामरेपसावभि प्रयः
हे वायु देव! आप और इन्द्र देव इस अभिषुत सोमरस का पान करने के योग्य हैं; इसीलिए अहिंसक होकर आप दोनों इस सोमरस का सेवन करें और सोमात्मक अन्न के उद्देश्य से आगमन करें।[ऋग्वेद 5.51.6]
Hey Vayu Dev! You alongwith Indr Dev is qualified to drink this extracted Somras. Invoke for the eating the food grains in the form of Somras, without being violent.
सुता इन्द्राय वायवे सोमासो दध्याशिरः।
निम्नं न यन्ति सिन्धवोऽभि प्रयः
इन्द्र देव तथा वायु देव के लिए दधि मिश्रित सोमरस अभिषुत हुआ है। हे इन्द्र देव और वायु देव! निम्नगामिनी नदियों के सदृश वह सोमरस आप दोनों के अभिमुख गमन करता है।[ऋग्वेद 5.51.7]
Hey Indr Dev & Vayu Dev! Somras mixed with curd has been extracted for you. It moves to you like the rivers flowing in the down ward direction.
स्वस्तये वायुमुप ब्रवामहै सोमं स्वस्ति भुवनस्य यस्पतिः।
बृहस्पतिं सर्वगणं स्वस्तये स्वस्तय आदित्यासो भवन्तु नः
कल्याण के लिए हम लोग वायु देव की प्रार्थना करते हैं और सोमरस का भी स्तवन करते हैं। सोम निखिल लोक के पालक हैं। सब देवों के साथ मन्त्र पालक बृहस्पति देव की प्रार्थना कल्याण के लिए करते हैं। अदिति के पुत्र देवगण अथवा अरुणादि द्वादश देव हम लोगों के लिए कल्याणकारी हों।[ऋग्वेद 5.51.12]
We worship Vayu Dev for our welfare and extract Somras for him. Som nourish-nurture the whole world. We worship Brahaspati Dev with all demigods-deities, who is the supporter of Mantr Shakti, for our welfare. Let the son of Aditi Demigods and the twelve Adity Gan be helpful to us i.e., resort to our welfare. 



 
Contents of these above mentioned blogs are covered under copyright and anti piracy laws. Republishing needs written permission from the author. ALL RIGHTS ARE RESERVED WITH THE AUTHOR.
 संतोष महादेव-सिद्ध व्यास पीठ, बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा

No comments:

Post a Comment