'मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद् वायुरजायत' पुरुष सूक्त के अनुसार अग्नि और इन्द्र जुडवाँ भाई हैं। उनका रथ सोने के समान चमकता है और दो मनोजवा एवं मनोज्ञ वायुप्रेरित लाल घोड़ों द्वारा खींचा जाता है। अग्नि का प्रयोजन दुष्टात्माओं और आक्रामक, अभिचारों को समाप्त करना है। अपने प्रकाश से राक्षसों को भगाने के कारण ये रक्षोंहन् कहे गए हैं। देवों की प्रतिष्ठा करने के लिए अग्नि का आह्वान किया जाता है :-
अग्नि में सभी दोवताओं का वास होता है :- "अग्निर्वै सर्वा देवता" अर्थात् अग्नि के साथ सभी देवताओं का सम्बन्ध है।[ऐतरेय-ब्राह्मण 1.1, शतपथ 1.4.4.10]
(1). अग्रणीर्भवतीति अग्निः। मनुष्य के सभी कार्यों में अग्नि अग्रणी होती है ।
(2). अयं यज्ञेषु प्रणीयते। यज्ञ में सर्वप्रथम अग्निदेव का ही आह्वान किया जाता है ।
(3). अङ्गं नयति सन्नममानः। अग्नि में पड़ने वाली सभी वस्तुओं को यह अपना अंग बना लेता है ।
(4). अक्नोपनो भवतीति स्थौलाष्ठीविः। न क्नोपयति न स्नेहयति।
(5). त्रिभ्य आख्यातेभ्यो जायते इति शाकपूणिः, इताद् अक्ताद् दग्धाद्वा नीतात्।
फलतः अग्नि सभी देवताओं में प्रमुख है।
अग्नि का स्वरूप भौतिक अग्नि के आधार पर व्याख्यायित किया गया है।
(1). अग्नि का रूप :- अग्नि की पीठ घृत से निर्मित है :- घृतपृष्ठ। इनका मुख घृत से युक्त है :- घृतमुख। इनकी जिह्वा द्युतिमान् है। दाँत स्वर्णिम, उज्ज्वल तथा लोहे के समान हैं। केश और दाढी भूरे रंग के हैं। जबडे तीखें हैं, मस्तक ज्वालामय है। इनके तीन सिर और सात रश्मियाँ हैं। इनके नेत्र घृतयुक्त हैं :- घृतम् में चक्षुः। इनका रथ युनहरा और चमकदार है जिसे दो या दो से अधिक घोडे खींचते हैं। अग्नि अपने स्वर्णिम रथ में यज्ञशाला में बलि (हवि) ग्रहण करने के लिए देवताओं को बैठाकर लाते हैं। वे अपने उपासकों के सदैव सहायक हैं।
(2). अग्नि का जन्म :- अग्नि स्वजन्मा, तनूनपात् है। ये स्वतः-अपने आप, उत्पन्न होते हैं। अग्नि दो अरणियों के संघर्षण से उत्पन्न होते हैं। इनके लिए अन्य की आवश्यकता नहीं है। इसका अभिप्राय यह है कि अग्नि का जन्म, अग्नि से ही हुआ है। प्रकृति के मूल में अग्नि है। ऋग्वेद के पुरुष-सूक्त में अग्नि की उत्पत्ति विराट्-पुरुष के मुख से बताई गई है :- मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च। अग्नि द्यावापृथ्वी के पुत्र हैं।
(3). भोजन :- अग्नि का मुख्य भोजन काष्ठ और घृत है। आज्य उनका प्रिय पेय पदार्थ है। ये यज्ञ में दी जाने वाली हवि को ग्रहण करते हैं।
(4). अग्नि कविक्रतु है :- अग्नि कवि तुल्य है। वे अपना कार्य विचारपूर्वक करते हैं। कवि का अर्थ है :- क्रान्तदर्शी, सूक्ष्मदर्शी, विमृश्यकारी। वे ज्ञानवान् और सूक्ष्मदर्शी हैं। उनमें अन्तर्दृष्टि है। अग्निर्होता कविक्रतुः।[ऋग्वेदः 1.1.5]
(5). गमन :- अग्नि का मार्ग कृष्ण वर्ण का है। विद्युत् रथ पर सवार होकर चलते हैं। जो प्रकाशमान्, प्रदीप्त, उज्ज्वल और स्वर्णिम है। वह रथ दो अश्वों द्वारा खींचा जाता है, जो मनोज्ञा, मनोजवा, घृतपृष्ठ, लोहित और वायुप्रेरित है।
(6). अग्नि रोग-शोक और पाप-शाप नाशक हैं :- अग्नि रोग-शोक, पाप-दुर्भाव, दुर्विचार और शाप तथा पराजय का नाश करते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि जिसके हृदय में सत्त्व और विवेकरूपी अग्नि प्रज्वलित हो जाती है, उसके हृदय से दुर्भाव, दुर्विचार रोग-शोक के विचार नष्ट हो जाते हैं। वह व्यक्ति पराजित नहीं होता :-देवम् अमीवचातनम्।[ऋग्वेदः 1.12.7] और प्रत्युष्टं रक्षः प्रत्युष्टा अरातयः। [यजुर्वेदः-1.7]
(7.) यज्ञ के साथ अग्नि का सम्बन्ध :- यज्ञ के साथ अग्नि का अभिन्न सम्बन्ध है। उसे यज्ञ का ऋत्विक् कहा जाता है। वह पुरोहित और होता है। वह देवाताओं का आह्वान करता है और यज्ञ-भाग देवताओं तक पहुँचाता है :-अग्निमीऴे पुरोहितम्। [ऋग्वेदः 1.1.1]
(8). देवताओं के साथ अग्नि का सम्बन्ध :- अग्नि के साथ अश्विनी और उषा रहते हैं। मानव शरीर में आत्मारूपी अग्नि विस्तार है। अश्विनी प्राण-अपान वायु हैं। इनसे ही मानव जीवन चलता है। इसी प्रकार उषाकाल में प्राणायाम, धारणा और ध्यान की क्रियाएँ की जाती हैं। अग्नि वायु के मित्र हैं। जब अग्नि प्रदीप्त है, तब वायु उनका साथ देते हैं :- आदस्य वातो अनु वाति शोचिः। [ऋग्वेदः 1.148.4]
(9). मानव-जीवन के साथ अग्नि का सम्बन्ध :: अग्नि मनुष्य के रक्षक पिता हैं :-
(10). पशुओं से तुलना :- आत्मारूपी अग्नि हृदय में प्रकट होते हैं। ये हृदय में हंस के समान निर्लेप भाव से रहते हैं। ये उषर्बुध (उषाकाल) में जागने वालों के हृदय में चेतना प्रदान करते हैं :-
(12). अग्नि अमृत है :- संसार नश्वर है। इसमें अग्नि ही अजर-अमर है। यह अग्नि ज्ञानी को अमृत प्रदान करती है। अग्नि रूप परमात्मा मानव हृदय में वाद्यमान अमृत तत्त्व है। जो साधक और ज्ञानी हैं, उन्हें इस अमृतत्व आत्मा का दर्शन होता है :- विश्वास्यामृत भोजन।[ऋग्वेदः 1.44.5]
(13). अग्नि के तीन शरीर हैं :- स्थूल-शरीर सू्क्ष्म-शरीर और कारण-शरीर। मानव शरीर अन्नमय-कोश और प्राणमय कोश वाला स्थूल शरीर है। मनोमय और विज्ञानमय कोश वाला शरीर सूक्ष्म शरीर है। आनन्दमय कोश वाला शरीर कारण शरीर है :- तिस्र उ ते तन्वो देववाता।[ऋग्वेद 3.20.2]
In summer he should expose himself to the heat of five fires, during the rainy season live under the open sky and during winters be dressed in wet clothes, thus gradually increasing the rigour of his austerities.
पञ्चाग्नि :: अन्वाहार्य, पाचन, गार्हपत्य, आहवनीय और आवसथ्य। इन पञ्चाग्नियों का रूप निम्न प्रकार हैं:
द्युलोक अग्नि :- उसमें सूर्यरूपी समिधा जल रही है। उसकी किरणें धुआँ हैं, दिन उसकी लपटें हैं, चन्द्रमा अंगारे और नक्षत्र चिंगारियां हैं। उसमें देवता श्रद्धा की आहुति देते हैं, जिससे सोम (राजा) पैदा होता है।
पर्जन्य अग्नि :- वायु समिधा, अभ्र धूम, विद्युत् ज्वाला, वज्रपात अंगारे, गर्जन चिंगारियां हैं। उसमें देव सोम (राजा) की आहुति देते हैं। तब वर्षा उत्पन्न होती है।
पृथ्वी अग्नि :- सम्वत्सर समिधा, आकाश धूम, रात्रि ज्वाला, दिशा अंगारे तथा अवान्तर दिशाएं चिंगारियां हैं। इसमें देव वर्षा की आहुति देते हैं। फलत: अन्न उत्पन्न होता है।
शरीर (हमारा) अग्नि :- वाक् उसकी समिधा, प्राण धूम, जिह्वा ज्वाला, चक्षु अंगारे, श्रोत्र चिंगारियां हैं। उसमें देव अन्न की आहुतियां देते हैं। जिससे वीर्य उत्पन्न होता है।
स्त्री देह अग्नि :- उसकी समिधा उपस्थ, उपमन्त्रण धूम, योनि ज्वाला, मैथुन अँगारे और आनन्द चिंगारियाँ हैं। इससे गर्भ उत्पन्न होता है। यहाँ श्रद्धारूपी जल देह में रूपान्तरित होता है। शरीर उत्पन्न होता है।
मृत्यु काल में प्राणाग्नि के निकल जाने से शीतल शरीर को अग्नि (पञ्चमहाभूत) के हवाले कर दिया जाता है। अग्नि आत्मा को वहीं ले जाता है, जहाँ से वह आया था।
One should reject the use of fire (for cooking, protection from cold etc.) and let it dwell in his body by leaving home, maintaining silence and depending over fruits, roots, bulbs, rhizomes of plants.
Hey Agni Dev-the demigod of fire! We glorify (adore, pray, worship) you as the highest priest of sacrifice, the divine, one who invites the demigods, who is the offeror and possessor of greatest wealth.
देव आवाहन मंत्र :-
Agni Dev, the deity of fire grants wealth to the devotees, which keeps on enhancing-increasing day by day along with the devotee's name fame-honour. He is blessed with able progeny.
Hey Agni Dev! You are capable of protecting everyone. You keep on surrounding the Hawan Kund-sacrificial pot free from violence (Animal sacrifice, meat) from all sides. These offerings reach the demigods-deities through you.
This verse clearly states that the Yagy, Hawan, Agni Hotr does not allow animal sacrifice, eating of meat.
O Agni Dev! You provide us with the material for offerings-sacrifices, knowledge-enlightenment and power-strength, inspiration for performing deeds-duties and you are an embodiment of truth, unique in qualities. Kindly oblige us by arriving here at the site of the Yagy along with the demigods-deities.
Hey Agni Dev! What ever welfare you do-bestow to the devotee-the person performing Yagy; in the form of wealth, live stock (animals), progeny and residence is returned to you through various sacrifices performed by the devotee in his life time-span.
O Agni Dev possessor of Aura-brilliance! We are your devotees, performing the worship with pure intentions and keep on reciting your praise (qualities, traits) through day & night.
We, the house holds leading a family life come to seek asylum (patronage, protection) under you at the site of the Yagy to have growth; you being the illuminator of the Yagy site and our protector requesting you again and again politely.
O Gaharpaty Agni! The convenience with which a son can approach his father without tension (trouble, hesitation), you should also be accessible to us for our welfare, around-near us.
पुंसवने चन्द्रनामा शुगांकर्मणि शोभन:॥
नाग्नि स्यात्पार्थिवी ह्यग्नि: प्राशने च शुचिस्तथा॥
गोदाने सूर्यनामा च केशान्ते ह्यग्निरुच्यते॥
चतुर्थ्यान्तु शिखी नाम धृतिरग्निस्तथा परे॥
लक्षहोमे तु वह्नि:स्यात कोटिहोमे हुताश्न:॥
पौष्टिके बलदश्चैव क्रोधाग्निश्चाभिचारिके॥
कोष्ठे तु जठरी नाम क्रव्यादो मृतभक्षणे॥
अग्नि के रूप ::
छागस्थ: साक्षसूत्रोऽग्नि: सप्तार्चि: शक्तिधारक:॥
स्निग्ध: प्रदक्षिणश्चैव वह्नि: स्यात् कार्यसिद्धये॥
ब्रह्मग्रन्थिस्थितं प्राणं स प्रेरयति पावक:॥
अतिसूक्ष्मध्वनि नाभौ हृदि सूक्ष्मं गले पुन:॥
आविर्भावयतीत्येवं पञ्चधा कीर्त्यते बुधै:॥
जात: प्राणाग्निसंयोगात्तेन नादोऽभिधीयते॥
अग्नि के अंगारादि भेद ::
ते जाण तेउजीवा जाणित्ता परिहरेदव्वा। [मूलाचार 221]
[आचारांग निर्युक्ति 166; पंचसंग्रह-प्राकृत अधिकार संख्या 1.79; धवला पुस्तक संख्या 1.1.1.42.273, गा. 151, भगवती आराधना-विजयोदयी टीका-गाथा संख्या 607.805, 608.805, तत्त्वार्थसार अधिकार संख्या 2.64.]
अन्य संदर्भ :: यज्ञ में आर्ष यज्ञ, प्रकरण मोक्ष 5.1.; भगवती आराधना, विजयोदयी टीका, गाथा संख्या 8.1856,
अर्हत्पूजा से ही अग्नि पवित्र है, स्वयं नहीं[अग्नि 2]।
क्रोधादि तीन अग्नियों का निर्देश ::
पंचाग्नि का अर्थ पंचाचार ::
प्राणायाम सम्बन्धी अग्निमण्डल ::
आग्नेयी धारणा का लक्षण ::
इनके लिये जो पाक-भोजन आदि बनता है, वह इसी स्थापित अग्नि में सम्पादित होता है। गृहस्थ के लिये जो नित्य होम विधि है, वह भी इसी अग्नि द्वारा सम्पन्न होती है। यह अग्नि कभी बुझनी नहीं चाहिये। अतः प्रयत्नपूर्वक इसकी रक्षा की जाती है।
*1अष्टका श्राद्ध, पार्णवश्राद्ध, श्रावणी-उपाकर्म, आग्रहायणी, चैत्री, आश्वयुजी एवं औपासन :- ये सात कर्म सात पाकयज्ञ संस्थाएँ कहलाती हैं। [पारस्कर गृह सूत्र]
(2). हविर्यज्ञ संस्था :- (2.1). अग्न्याधेय (अग्निहोत्र), (2.2). दर्श पौर्णमास, (2.3). अग्रहायण, (2.4). चातुर्मास्य, (2.5). निरूढपशुबन्ध, (2.6). सौत्रामणियाग तथा (2.7). पिण्ड पितृ यज्ञ।
द्रविणोदा द्रविणसस्तुरस्य द्रविणोदाः सनरस्य प्र यंसत्।
द्रविणोदा वीरवतीमिषं नो द्रविणोदा रासते दीर्घमायुः॥
ऋग्वेद संहिता, प्रथम मण्डल सूक्त (99) :: ऋषि :- कश्यप, मारीच, देवता :- अग्नि जातवेदा, छन्द:- त्रिष्टुप्।
जातवेदसे सुनवाम सोममरातीयतो नि दहाति वेदः।
स नः पर्षदति दुर्गाणि विश्वा नावेव सिन्धुं दुरितात्यग्निः॥
हम सर्वभूतज्ञ अग्निदेव को उद्देश्य कर सोम का अभिषव करते हैं। जो हमारे प्रति शत्रु की तरह आचरण करते हैं, उनका धन अग्नि जला दें। जिस प्रकार से नाव से नदी पार को जाती है, उसी प्रकार से वे हमें सम्पूर्ण दुःखों से पार लगाकर हमारे पापों को नष्ट कर दें।[ऋग्वेद 1.99.1]
हम धनोत्पादक अग्नि के लिए सोम निष्पन्न करें। शत्रुओं के धनों को नष्ट करें। जैसे नौका सरिता को पार करा देती है, वैसे ही वह अग्नि हमको दुःखों से पार करें और हमारी रक्षा करें।
Let us procure Somras for Agni Dev who produces-grant us wealth, riches, valuables. Let Agni Dev burn those who behave as an enemy with us. Let Agni Dev swim us across-through the pains, sorrow, tortures, just like the boat which crosses the river. He should eliminate our sins and protect us.
CIRCUMAMBULATION प्रदक्षिणा |
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