PENANCES प्रायश्चित
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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"ॐ गं गणपतये नमः"
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
ब्राह्मण के घर से धान्य, अन्न आदि धन को ज्ञानपूर्वक चुराये तो प्राजापत्य व्रत करने से शुद्ध होता है। चुराई हुई वस्तु वापस कर देने पर सान्तपन कृच्छ्र व्रत होता है। भक्ष्य, भोज्य, सवारी, शय्या, आसन, फूल, मूल तथा फल चुराने पर पञ्चगव्य पीना चाहिये तभी पाप की निवृत्ति होती है।मनुष्य स्त्री, खेत, घर, कुँएं तथा बावड़ी का सम्पूर्ण जल चोरी करने पर चान्द्रायण व्रत करे।
हिंसा करने वाले मनुष्य के लिये प्रायश्चित का भी विधान :: जो मनुष्य काष्ठ, ढेला आदि से गौ को मारता है, वह कृच्छ व्रत करे तथा जिसने गौ हत्या मिट्टी के द्वारा की है वह अतिकृच्छ व्रत करें। शम्भ ऊँट, अश्व, हाथी, सिंह, व्याघ्र वा गर्दभ की हत्या करने वाले शूद्र की हत्या के समान प्रायश्चित्त करे। बिल्ली, गोह, नौला, मेंढक वा पक्षी को मारने वाला तीन दिन तक दुग्ध पान कर, फिर पादकृच्छ्र को करे। मूर्ख ब्राह्मण को मारने पर शूद्र की हत्या का प्रायश्चित्त करे। जो मनुष्य शिल्पी, कारीगर, शूद्र तथा स्त्री को मारता है, वह दो प्राजापत्य करके ग्यारह बैलों का दान करे, तब उसकी शुद्धि होती है। निरपराधी वैश्य या क्षत्रिय की हिंसा करने वाला मनुष्य दो अतिकृच्छ्र व्रत कर बीस गौ दक्षिणा में देने से शुद्ध होता है। जो मनुष्य अधर्मी वैश्य, शूद्र तथा कुकर्मी ब्राह्मण को मारता है, उसकी शुद्धि चांद्रायण व्रत के करने तथा तीस गौवें दान करने से होती है। यदि ब्राह्मण ने चाण्डाल की हिंसा की तो वह कृच्छ्र तथा प्राजापत्य व्रत कर दो गौवें दक्षिणा में देकर शुद्ध होता है। क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा किसी अन्य जाति ने यदि चांडाल की हिंसा की हो तो वह अर्द्धकृच्छ्र व्रत करने से शुद्ध हो जाता है।जिस अनुष्ठान के द्वारा किए हुए पाप का निश्चित रूप से शोधन हो उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। जैसे क्षार से वस्त्र की शुद्धि होती है, वैसे ही प्रायश्चित्त से पापी की शुद्धि होती है।[महर्षि अत्रि]
पातकी प्रायश्चित्त का भागी होता है। सर्वप्रथम उसे किए हुए पाप के निमित्त पश्चात्ताप होना चाहिए। अपने पाप क प्रायश्चित्त जानने के लिए उसे परिषद् में उपस्थित होना चाहिए। मीमांसा, न्याय और धर्मशास्त्र के जानकार तीन विद्वानों की परिषद् कही गई है। महापातक का प्रायश्चित्त बतलाते समय राजा की उपस्थित भी आवश्यक है। देश, काल और पातकी की परिस्थिति के अनुकूल प्रायश्चित्त होना चाहिए। बालक, वृद्ध, स्त्री और आतुर को आधा प्रायश्चित्त विहित हैं। पाँच वर्ष की अवस्था तक नहीं है। पाँच से पौने बारह वर्ष तक चौथाई प्रायश्चित्त है और यह प्रायश्चित्त बालक के पिता या गुरु को करना चाहिए। बारह से सोलह वर्ष तक आधार और सोलह से अस्सी वर्ष तक पूरा प्रायश्चित्त अनुष्ठेय है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को क्रमश: पूरा, आधा, तीन भाग और चौथाई प्रायश्चित्त कर्तव्य है। ब्रह्मचारी को द्विगुणित, वानप्रस्थी को त्रिगुणित और यति को चतुर्गुणित प्रायश्चित्त करना चाहिए। प्रायश्चित्त करने में विलंब करना अनुचित है। आरंभ के पूर्वदिन सविधि क्षौर, स्नान और पंचगव्य का प्राशन करना चाहिए।
जिस कर्म को शास्त्रों में निषेध किया है, उसका त्याग और जिसको ग्राह्य बतलाया है, उनका ग्रहण करना मनुष्य मात्र के लिये श्रेयस्कर है। कदाचित् कुसङ्गवश कोई पाप बन जाय तो उसकी निवृत्ति के निमित्त यथोचित प्रायश्चित्त करना आवश्यक है। यदि प्रायश्चित न किया जाय तो अगले जन्मों में दूषित योनि प्राप्त होती है या अङ्ग-भङ्ग, भगन्दर आदि दोषों से युक्त मनुष्य योनि मिलती है। किस पाप से मनुष्य किस योग में उत्पन्न होता है अथवा अङ्गो में किस प्रकार की विकृति होती है, प्रायश्चित्तेन्दु शेखर में इनका विस्तार से वर्णन है। प्रायश्चित्त के अनेक भेद हैं। जैसा पाप हो, वैसा ही प्रायश्चित होता है। उसमें भी ज्ञात, अज्ञात, अवस्था-भेद और तत्काल या कालाति-क्रमण आदि के विचारानुसार यथोचित प्रयश्चित्त में कमी-बेशी भी की जाती है यथा सामान्य के लिये जप या हवन, विशेष के लिये (पूर्वाङ्ग में लिखे हुए) एक भुक्त, नक्त, अयाचित या उपवास और ताड्न-मारण आदि के लिये कृच्छ्र या अतिकृच्छ्र नियत किये जाते हैं। इस विषय में प्राजापत्य और चान्द्रायण का विशेष प्राधान्य है। अधिकांश पापों के प्रायश्चित प्रायः इन्होीं के (कृच्छ्र-अतिकृच्छ्र आदि) भेदों से सम्पन्न होते हैं। इनमें भी पापों की गुरुता और लघुता के अनुसार कठोरता और सरलता की जाती है यथा :-
(1). प्रायो नाम तपः प्रोक्तं चित्तं निश्चय उच्यते।
तपोनिश्चयसंयुक्तं प्रायश्चित्तमिति स्मृतम्॥ [अङ्गिरा]
(2). प्रयतत्वाद्वोपचितमशुभं नाशयतीति प्रायश्चित्तम्।[हारीत]
(3). परोपकारः पुण्याय।
(4). पापाय परपीडनम्। [वेदव्यास]
(5). त्र्यहं प्रातस्त्र्यहं सायं त्र्यहमद्यादयाचितम्।
परं त्र्यहं च नाश्र्नीयात् प्राजापत्यं चरेद् द्विजः॥ [मनु]
(6). अनृतं मद्यगन्धं च दिवामैथुमेव च। पुनाति वृषलान्नं च संध्या बहिरुपासिता॥
शतजप्ता तु सावित्री महापातकनाशिनी। सहस्त्रजप्ता तु तथा पातकेभ्यः प्रमोचिनी॥
दशसाहस्त्रजाप्येन सर्वकिल्बिषनाशिनी।
लक्षं जप्ता तु सा देवी महापातकनाशिनी॥ [शङ्ग]
(7). तिलान् ददाति यः प्रातस्तिलान् स्पृशति खादति।
तिलस्त्रायी तिलाञ्जुह्वन् सर्वं तरति दुष्कृतम्॥ [यम]
पाप और पुण्य, दोनों का स्वरुप अत्यन्त सूक्ष्म है। इनमें अज्ञानवश पाप और ज्ञानवश पुण्य स्वतः संचित होते हैं और समय पाकर बढ़ जाने से दोनों प्रत्यक्ष देखने में आ जाते है। उस समय पाप का बुरा और पुण्य का अच्छा फल होता ही है। उसमें भी मनुष्य स्वभावतः अच्छे की इच्छा और बुरे प्रति ग्लानि का अनुभव करता है।
पाप की परिणति नर्क, हीन योनियों में जन्म या फिर हीन जाति, कुल वंश में जन्म में होती है।
जातक को रोग, कठिनाइयों, परेशानियों, अकाल मृत्यु, कष्टों का भोग भोगना पड़ता है। अज्ञान, अशिक्षा, बेरोजगारी, राजदण्ड भुखमरी ऐसी अवस्था में सामान्य बात है।
अज्ञान, अविवेक कुसंगत, पाप के जनक हैं। लालन-पालन में कमी-लापरवाही इसका कारण हो सकतीं हैं।
विद्वानों, पंडितों, ज्ञानियों, मनीषियों, ऋषियों-मुनियों, विचारशील-विवेकशील व्यक्तियों, मनु महाराज ने पाप से मुक्ति का मार्ग दिखाया है। त्रिकालदर्शी महर्षियों ने मनुष्य को पाप मुक्त रखने के लिये प्रायश्चित निश्चित किये हैं। स्वधर्म वर्णाश्रम धर्म का पालन, प्रायश्चित पापों सुरक्षा प्रदान करते हैं।
प्रायस (तप) और चित्तनिवृत्ति (निश्चय) प्रायश्चित्त है। [अङ्गिरा]
शुद्धि द्वारा संचित पापों का नाश प्रायश्चित है।[हारीत]
अन्तःकरणमें ग्लानि पछतावा प्रायश्चित के रूप ही हैं।
सुरा पान :: सुरा, जल, घृत, गोमूत्र या दूध प्रभृति किसी एक को गरम करके खौलता हुआ पीना चाहिए और तब तक पान करते रहना चाहिए जब तक प्राण न निकले।
गुरु तल्प गमन :: गुरुपत्नी के साथ संभोग करने पर तपाए हुए लोहे के पलंग पर उसे सोना चाहिए। साथ ही तपाई हुई लोहे की स्त्री की प्रतिकृति का आलिंगन कर प्राण विसर्जन करना चाहिए।
संसर्गि प्रायश्चित्त :: महापातक करनेवाले के संसर्ग में यदि कोई व्यक्ति एक वर्ष पर्यंत रहे तो उसे नियमपूर्वक द्वादशवर्षीय व्रत का पालन करना चाहिए। इस तरह प्रयश्चित्त करने से मानव पाप से मुक्त हो जाता है।
मनुस्मृति और प्रायश्चित :अकुर्वन्विहितं कर्म निन्दितं च समाचरन्।
प्रसक्तश्चैन्द्रियार्थेषु प्रायश्चित्तीयते नरः॥[मनुस्मृति 11.44]शास्त्र से विहित कर्म को न करने वाला और निन्दित कार्यों को करने वाला तथा इन्द्रियों को विषयों में आसक्त करने वाला मनुष्य प्रायश्चित्ति होता है।
One who is inclined to omitting the duties prescribed by the scriptures, performing wretched (wicked, sinful acts, vices) acts without control over sensualities (sexuality, passions, lust, Lasciviousness) is liable to under go penances.
Failure to perform penances for the sinful acts, he is sure to be put, into hells followed by birth in lower species like insects, worms etc.
अकामतः कृते पापे प्रायश्चित्तं विदुर्बुधाः।
कामकारकृतेऽप्याहुरेके श्रुतिनिदर्शनात्॥[मनुस्मृति 11.45]अनिच्छा से किये हुए पाप का प्रायश्चित होता है, ऐसा पंडितों ने कहा है और इच्छा से किये हुए पाप का प्रायश्चित श्रुति के अनुसार होता है, ऐसा किसी का मत है।
As per doctrine put forward by the scholars-Pandits, the penances are meant for the sins committed unintentionally as per scriptures, but the penances meant for the willful commuting sins should be carried out as per the Shruti.
Some penances are followed religiously as per the tradition or the decision of the learned in the society. Those who visited foreign countries had to drink Ganga Jal or the Cow's urine. Some were made to eat Cow dung. Meat eaters had to observe fast on Ekadashi. Time changed and more and more people are moving to foreign countries. No one ever really, bother about such penances, these days.Penances have spiritual merits which one should observe as and when he has time for them.
एतान्येनांसि सर्वाणि यथोक्तानि पृथक्पृथक्।
यैर्यैर्व्रतैरपोह्यन्ते तानि सम्यङ्निबोधत॥मनुस्मृति 11.71॥
ये पूर्वोक्त पाप जो अलग-अलग कहे गये हैं, वो जिन-जिन व्रतों से नष्ट होते हैं उन्हें अच्छी तरह सुनो।
Listen with attention the penances (manner, fasts, determinants, methods) for destroying the sins described here.
ब्रह्महा द्वादश समाः कुटीं कृत्वा वने वसेत्
भैक्षाश्यात्मविशुद्ध्यर्थं कृत्वा शवशिरो ध्वजम्॥मनुस्मृति 11.72॥
ब्रह्महत्या करने वाला, बारह साल तक वन में कुटिया बनाकर रहे और मुण्ड हाथ में लेकर भिक्षा माँगकर जीवन निर्वाह करे।
ब्रह्महत्या :: जिस ब्राह्ण की हत्या की गई हो उसकी खोपड़ी के एक भाग का खप्पर बनाकर सर्वदा हाथ में रखे। दूसरे भाग को बाँस में लगाकर ध्वजा बनाए और उस ध्वजा को सर्वदा अपने साथ रखे। भिक्षा में उपलब्ध सिद्धान्न से अपना जीवन निर्वाह करे। इन नियमों का पालन करते हुए 12 वर्ष पर्यन्त तीर्थयात्रा करने पर ब्रह्महत्या के पाप से छुटकारा मिलता है। एक ब्राह्मण की अथवा 12 गौओं की प्राणरक्षा करने पर अथवा अश्वमेघ यज्ञ, अवभृथ स्नान करने पर उपर्युक्त 12 वर्ष की अवधि में कमी होना संभव हैं।
The slayer of Brahmn should reside in the forest in a hut and live on the alms received while begging with human skull in his hands.
लक्ष्यं शस्त्रभृतां वा स्याद्विदुषामिच्छयाऽत्मनः।
प्रास्येदात्मानमग्नौ वा समिद्धे त्रिरवाक्शिराः॥मनुस्मृति 11.73॥
अपनी इच्छा से शस्त्रधारी विद्वानों का अपने आपको लक्ष्य-निशाना बनावे अथवा जलती हुई अग्नि में सर नीचा करके उसमें अपने को तीन बार झोंके।
Let the armed himself either become the target of the enlightened-scholars out of his own free will or subject his lowered head into a blazing fire thrice.
यजेत वाश्वमेधेन स्वर्जिता गोसवेन वा।
अभिजिद्विश्वजिद्भ्यां वा त्रिवृताग्निष्टुताऽपि वा॥मनुस्मृति 11.74॥
अश्वमेध, स्वर्जित, गोसव, अभिजित्, विश्वजित् अथवा तीन बार अग्निष्टोम करे।
Let him either conduct Ashwmedh, Swarjit, Gosav, Abhijit, Vishwjit or Agnishtom thrice.
अश्वमेध यज्ञ में घोड़े की बलि का अर्थ खाण्ड के बने हुए घोड़े से है, जिस प्रकार Hinduism do not advocate animal-human sacrifices. Hinduism do not permit violence. Hinduism do not permit meat eating.
जपन्वान्यतमं वेदं योजनानां शतं व्रजेत्।
ब्रह्महत्यापनोदाय मितभुङ्यतेन्द्रियः॥मनुस्मृति 11.75॥
अल्पहारी जितेन्द्रिय होकर वेदों में से किसी वेद का जप करता हुआ ब्रह्महत्या जनित पाप दूर करने लिये एक सौ योजन तक जाये।
The guilty (repentant seeking penances) of murdering (killing, slaying) a Brahmn should travel a distance of 100 Yojan reciting the verses of any of the Veds.
He should undertake pilgrimage.
सर्वस्वं वेदविदुषे ब्राह्मणायोपपादयेत्।
धनं वा जीवनायालं गृहं वा सपरिच्छदम्॥11.76॥
अथवा वेद विद्वान् ब्राह्मण को अपना सर्वस्व दान कर दे अथवा उनके जीवनोपयोगी आवश्यक धन परिच्छेद के साथ दे।
Either he should donate all his belongings to a Brahmn well versed with the Veds or grant him sufficient money along with a house.
परिच्छेद :: काट-छाँटकर अलग करना, किसी वस्तु के अलग-अलग खंड, विभाजन; बँटवारा, अवधि, सीमा-हद, निर्णय, निश्चय, उपचार, माप, परिभाषा, किसी पुस्तक का प्रकरण, अध्याय।
हविष्यभुग्वाऽनुसरेत्प्रतिस्रोतः सरस्वतीम्।
जपेद्वा नियताहारस्त्रिर्वै वेदस्य संहिताम्॥11.77॥
अथवा हविष्य भोजन करता हुआ सरस्वती नदी के स्त्रोत-मुहाने तक जाये अथवा नियत आहार करता हुआ तीन बार वेद संहिता का पाठ करे।
Else he should under take pilgrimage, travelling on foot, till the source of holy Saraswati river or study Ved Sanhita thrice every day, with fixed quantum of food (just sufficient to survive).
कृतवापनो निवसेद् ग्रामान्ते गोव्रजेऽपि वा।
आश्रमे वृक्षमूले वा गोब्राह्मणहिते रतः॥11.78॥
अथवा सर मुँड़वाकर, गौ, ब्राह्मण का उपकार करता हुआ गाँव के बाहर गौशाला में कुटी बनाकर अथवा पेड़ के नीचे वास करे।
Another alternative is to live outside the village in a cowshed in thatched hut or live under a tree.
ब्राह्मणार्थे गवार्थे वा सद्यः प्राणान्परित्यजेत्।
मुच्यते ब्रह्महत्याया गोप्ता गोर्ब्राह्मणस्य च॥11.79॥
अथवा ब्राह्मण की रक्षा में या गौ की रक्षा में शीघ्र ही प्राण का त्याग कर दे, क्योंकि गौ और ब्राह्मण की रक्षा करने वाला ब्रह्महत्या छूट जाता है।
One who sacrifices his life for the sake-protection of either cow or a Brahmn is freed from the sin of Brahmhatya-killing a Brahmn.
त्रिवारं प्रतिरोद्धा वा सर्वस्वमवजित्य वा।
विप्रस्य तन्निमित्ते वा प्राणालाभे विमुच्यते॥11.80॥
अथवा ब्राह्मण के धन को तीन बार (डाकुओं या चोरों से) बचाने वाला, सर्वस्व को जीतकर ब्राह्मण को अर्पण करने वाला अथवा उसके निमित्त प्राण देने वाला ब्रह्महत्या से छूट जाता है। One who either protects the property of a Brahmn from looting-theft at least thrice, restores his property or sacrifices his life for the sack of a Brahmn in this act arson, terror, looting theft, dacoity) is relieved from the sin of killing a Brahmn.
एवं दृढव्रतो नित्यं ब्रह्मचारी समाहितः।
समाप्ते द्वादशे वर्षे ब्रह्महत्यां व्यपोहति॥11.81॥
इस प्रकार दृढ़व्रत एकाग्रचित्त और ब्रह्मचारी होकर सर्वदा नियम पूर्वक बारह वर्ष तक रहने वाला ब्रह्महत्या पाप से छूट जाता है।
One who subjects himself to such rigorous penances-repentance for 12 years with firm control over himself and firm determination to accomplish, is relieved of the greatest sin of slaying a Brahmn.
शिष्ट्वा वा भूमिदेवानां नरदेवसमागमे।
स्वमेनोऽवभृथस्नातो हयमेधे विमुच्यते॥11.82॥
अश्वमेध यज्ञ में ब्राह्मण ऋत्विज और यज्ञकर्त्ता राजा के सामने ब्रह्महत्या का खुलासा करने और अवभृथ स्नान (यज्ञ के अंत में किया जाने वाला स्नान) करने से ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति मिल जाती है।
The murderer of a Brahmn is relieved from the sin when he admits it in front of the king & the one organising the Ashwmedh Yagy (Horse sacrifice-symbolic) once the Yagy is over and one has bathed.
Here the judiciary comes into picture. The admittance of the grave crime may compel the king to order to crucify the guilty & confiscate all his belongings. However the king may pardon him as well, since the guilty has undergone penances.
धर्मस्य ब्राह्मणो मूलमग्रं राजन्य उच्यते।
तस्मात् समागमे तेषामेनो विख्याप्य शुध्यति॥11.83॥
धर्म का मूल ब्राह्मण है और क्षत्रिय उसका अग्रभाग है। इसलिये उन लोगों के समागम से यज्ञ में उनके सामने अपने पापों को प्रकट करने से ब्रह्महत्या करता शुद्ध जाता है।
The slayer of the Brahmn is relieved of the sin by confessing-accepting his guilt since the Brahmn is at the root of Dharm & the Kshtriy is at the tip of it.
The Brahmn postulates-defines the Dharm and the Kshtriy implements it. The religion is a very intricate subject and needs explanation time & again. The Brahmn clarifies the hick by quoting illustrations from the Veds, Purans.
ब्रह्मणः संभवेनैव देवानामपि दैवतम्।
प्रमाणं चैव लोकस्य ब्रह्मात्रैव हि कारणम्॥11.84॥
वेद की मर्यादा के अनुरूप, जन्म से ही ब्राह्मण देवताओं का देवता होता है और लोक में प्रमाण माना जाता है।
The Brahmn is a deity of the demigods as well by virtue of his birth as a Brahmn. His statements, directives, assertions are considered authentic-proof as per doctrine of the Veds.
This is true but the Brahmn must be enlightened, learned, unattached, pious, righteous, honest, virtuous. In today's scenario a Brahmn by birth may not be a Brahmn at all.
तेषां वेदविदो ब्रूयुस्त्रयोऽप्येनः सुनिष्कृतिम्।
सा तेषां पावनाय स्यात्पवित्रा विदुषां हि वाक्॥[मनुस्मृति 11.85]
ऐसे ब्राह्मणों में से वेद को जानने वाले तीन ब्राह्मण छुटकारा पाने के लिये जो उपाय बतायें उनसे भी पापियों की शुद्धि हो जाती है, क्योंकि पण्डितों की वाणी ही पवित्र होती है।
The penances prescribed by three Brahmns of the status of demigods well versed in Veds are capable of diluting the sin-impact of Brahmhatya, since their words carries weight.
Here the Brahmn is pure-pious, truthful through mind, speech and deeds मनसा, वचना, कर्मणा).
अतोऽन्यतममास्थाय विधिं विप्रः समाहितः।
ब्रह्महत्याकृतं पापं व्यपोहत्यात्मवत्तया॥[मनुस्मृति 11.86]
इसलिये इनमें से किसी उपाय संयतात्मा होकर ब्राह्मण अनुष्ठान करे। आत्मसंयम से ब्राह्मण किसी भी, कैसे भी पाप का नाश कर सकता है।
Any of the methods prescribed above for emancipation from Brahmhatya can relieve the guilty from the sin by a Brahmn who has perfect control over himself if he undertake the job.
अनुष्ठान :: संस्कार, धार्मिक संस्कार, उत्सव, धार्मिक क्रिया, पद्धति, शास्रविधि, आचार, आतिथ्य सत्कार, समारोह, विधि, रसम, शिष्टाचार, त्योहार, पर्व, उत्सव-काल, संपादन, विधिपूर्वक संपादन; ritual, rite, ceremony, celebration, solemnisation.
हत्वा गर्भमविज्ञातमेतदेव व्रतं चरेत्।
राजन्यवैश्यौ चैजानावात्रेयीमेव च स्त्रियम्॥[मनुस्मृति 11.87]
अज्ञात गर्भ यज्ञ करते हुए, क्षत्रिय और वैश्य को तथा रजो धर्म युक्त स्त्री को मारकर ब्रह्महत्या से छुटकारा पाने वाले उपायों (पूर्वोक्त) को ही करे।
The penances prescribed for Brahmhatya should be adopted for foeticide (भ्रूणहत्या), killing a Kshatriy & Vaeshy and a woman undergoing periods-menstrual cycle.
उक्त्वा चैवानृतं साक्ष्ये प्रतिरुध्य गुरुं तथा।
अपहृत्य च निःक्षेपं कृत्वा च स्त्रीसुहृत्वधम्॥[मनुस्मृति 11.88]
झूठी गवाही देने पर, गुरु पर झूंठा आरोप लगाने पर, किसी की धरोहर का अपहरण करने पर तथा स्त्री और मित्र का वध करने पर भी ब्रह्महत्या में कहे गये प्रायश्चितों करे।
Penances meant for Brahmhatya are applicable in case one gives false evidence-witness, falsely slur-blame his Guru-teacher, confiscate the custodian goods of someone, killing a woman and the friend.
इयं विशुद्धिरुदिता प्रमाप्याकामतो द्विजम्।
कामतो ब्राह्मणवधे निष्कृतिर्न विधीयते॥[मनुस्मृति 11.89]
अनिच्छा से किये हुये ब्राह्मण के वध की यह विशुद्धि कही गयी है और इच्छा से-जानबूझकर किये गये ब्राह्मण वध का कोई प्रायश्चित नहीं है।
The penances-repentance for the slaying of a Brahmn unknowingly-unwittingly or against desire have been described, but their is no penance for the murder, killing of a Brahmn knowingly-wilfully, intentionally.
The murderer has to suffer for millions of years in hells.
सुरां पीत्वा द्विजो मोहादग्निवर्णां सुरां पिबेत्।
तया स काये निर्दग्धे मुच्यते किल्बिषात्ततः॥[मनुस्मृति 11.90]
ब्राह्मण यदि मोहवश मदिरा पान कर ले तो इस पाप के नाश के लिये उसे अग्नि वर्ण के समान (अर्थात वैसी ही जलती हुई) मदिरा पीये, क्योंकि उससे जब शरीर जलता है, तब जातक उस पाप से छूट नहीं जाता।
To get rid of the sin of drinking wine due to delusion-ignorance, the Brahmn should drink wine which is burning like fire, since only when his body is burnt by the fire, the doer is relieved off the sin.
गोमूत्रमग्निवर्णं वा पिबेदुदकमेव वा।
पयो घृतं वाऽऽमरणाद् गोशकृद्रसमेव वा॥[मनुस्मृति 11.91]
अथवा गोमूत्र, जल, गाय का दूध, गोघृत और गाय के गोबर का रस, इनमें से किसी एक चीज को आग के समान तप्त करके मरण पर्यन्त पीता रहे।
Another option is to drink hot any of these :- cow's urine, water, cow's milk, cow's ghee and the extract of cow dung, throughout the life.
कणान्वा भक्षयेदब्दं पिण्याकं वा सकृन्निशि।
सुरापानापनुत्त्यर्थं वालवासा जटी ध्वजी॥[मनुस्मृति 11.92]
अथवा एक वर्ष तक मदिरापान के दोष से शान्त्यर्थ रात में एक ही बार किसी अन्न का कण अथवा तिल की खली खाये और ऊनी वस्त्र पहने, जटा रखे तथा मदिरापान का ध्वजा-चिन्ह धारण करे।
Yet another alternative to pacify sin caused by drinking wine is that one must eat a single grain at night or eat the remains of sesame-Til, wear warm cloths, grow long hair and wear the marks to show that he had been a drunkard.
सुरां वै मलमन्नानां पाप्मा च मलमुच्यते।
तस्माद् ब्राह्मणराजन्यौ वैश्यश्च न सुरां पिबेत्॥[मनुस्मृति 11.93]
सुरा-मदिरा, अन्न के मल को कहते हैं और मल पाप है इसलिये स्वर्ण-ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य शराब न पियें।
Alcohol-wine is obtained from the waste products of food grain or by fermenting various goods, like wheat, barley, grapes, sugar cane juice etc. This is like shit-excreta. Therefore, the Swarn: Brahmn, Kshatriy & the Vaeshy should not consume wine. The shit-excreta is comparable to sins.
गौडी पैष्टी च माध्वी च विज्ञेया त्रिविधा सुरा।
यथैवैका तथा सर्वा न पातव्या द्विजोत्तमैः॥[मनुस्मृति 11.94]
गौड़ी, षैष्ठी और माधवी ये तीन प्रकार की मदिरा होती हैं। इनमें जैसी एक है, वैसी तीनों है, इसलिये ब्राह्मण पान करें।
Goudi (distilled from molasses), Shaeshthi (distilled from ground rice) & Madhvi (distilled from Madhuk flowers) are the three kinds of wines-liquors. All the three are alike in character. Therefore, the Brahmn should not consume them.
They are alcoholic & toxic in nature and adversely affect the brain directly.
यक्षरक्षःपिशाचान्नं मद्यं मांसं सुराSSसवम्।
तद् ब्राह्मणेन नात्तव्यं देवानामश्नता हविः॥[मनुस्मृति 11.95]
मद्य, माँस, मदिरा और आसव ये यक्ष, राक्षस और पिशाचों की वस्तुएँ हैं। इसलिये देवताओं के हविष्य खाने वाले ब्राह्मण इन पदार्थों का इस्तेमाल न करें।
Wine, narcotics, meat and alcoholic extracts are meant for demons, giants. The demigods, Manes & Brahmns should never consume them.
पानसद्राक्षमाध्वीकं खर्जूरं तालमैक्षवम्।माध्वीकं टाङ्कपाद्वींकगैरेयं नारिकेलजम्। सामान्यानि द्विजातीनां मद्यान्येकादशैव च॥[पुलस्त्य]
माँस, शराब, नशीले पदार्थ राक्षसी प्रवृति वालों लिये हैं, ब्राह्मणों के लिये नहीं।
Meat and wines (Madhy, Madira, narcotics-drugs, smoking and Asav-extracts) are the goods consumed by Yaksh, Rakshas & Pishach. Therefore, the Brahmns who consume the left over offerings meant for the demigods, should not consume them.
अमेध्ये वा पतेन्मत्तो वैदिकं वाऽप्युदाहरेत्।
अकार्यमन्यत्कुर्याद्वा ब्राह्मणो मदमोहितः॥[मनुस्मृति 11.96]
मदिरा पान से उत्तम ब्राह्मण अपवित्र जगह में गिर पड़े या निषिद्ध जगहों में वेद पाठ या और ही कोई न करने योग्य कार्य को कर सकता है। इसलिये ब्राह्मण को मदिरा पान नहीं करना चाहिये।
The Brahmn may fall into an impure-contaminated place under the impact-influence of liquor or recite Ved Mantr at a prohibited place or may involve in indecent-obscene acts. Pronunciation of Mantr-Shloks may become vague & produce counter productive results. So, the Brahmn should not drink wines-intoxicants.
यस्य कायगतं ब्रह्म मद्येनाप्लाव्यते सकृत्।
तस्य व्यपैति ब्राह्मण्यं शूद्रत्वं च स गच्छति॥[मनुस्मृति 11.97]
जिस ब्राह्मण के शरीर में स्थित ब्रह्म (आत्मा) एक बार भी मदिरा से प्लावित हो जाती है, उसका ब्राह्मणत्व नष्ट हो जाता है और वह शूद्रवत् हो जाता है।
The Brahmnhood of the Brahm (the component of the Almighty-soul) residing inside the body of the Brahmn is lost just by tasting-sipping wine once.
Achievement of Brahmnhood is extremely difficult, painstaking & rigorous task. Just by taking birth in a Brahmn family, one does not become a Brahmn.
During the course of studies, one had to suck absolutely pure alcohol for finding out its physical properties, in 1971, at RCE,Ajmer. Later, one encountered taste of rum during a train journey from Jodhpur to Delhi, in 1976, unaware of what had been said in the scriptures. While teaching, one studied the harmful effects of wine-consuming alcohol at length and guided-taught the students all that, accordingly.
Since, 1996-97 one take meals only once and do not eat food grain twice in a day.No wine, no smoking.
एषा विचित्राभिहिता सुरापानस्य निष्कृतिः।
अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि सुवर्णस्तेयनिष्कृतिम्॥[मनुस्मृति 11.98]
यह मदिरापान का विचित्र प्रायश्चित कहा गया है। अब इसके बाद सोना चुराने का प्रायश्चित कहूँगा।
Having described the bizarre penances for drinking wine by the Brahmn, I will narrate the penances for stealing gold.
जिन मुसलमानों, ईसाईयों, अंग्रेजों ने मन्दिरों और भारत वासियों का सोना लूटा, उनको और उनके परिवार और आने वाली सन्तानों को इसके घोर दुष्परिणाम भुगतने पड़े और आगे भी भुगतने पड़ेंगे।
The Muslims & Christians who looted gold, jewellery, gems from the temples in India and the Indians had to suffer a lot. Their progeny too will suffer till end of the clan comes-materialises.
सुवर्णस्तेयकृद्विप्रो राजानमभिगम्य तु।
स्वकर्म ख्यापयन्ब्रूयात्मां भवाननुशास्त्विति॥[मनुस्मृति 11.99]
सुवर्ण को चुराने वाला ब्राह्मण राजा के सन्मुख उपस्थित होकर अपने किये हुए कर्म का व्याख्यान करता हुआ कहे कि आप मुझे इस कर्म का दण्ड दें।
The Brahmn, guilty of stealing gold should confess in front of the king himself and request to punish him.
गृहीत्वा मुसलं राजा सकृद्धन्यात्तु तं स्वयम्।
वधेन शुद्ध्यति स्तेनो ब्राह्मणस्तपसैव तु॥[मनुस्मृति 11.100]
राजा स्वयं मूसल लेकर उस ब्राह्मण पर एक बार प्रहार करे। चोर वध से शुद्ध होता है, किन्तु ब्राह्मण तपस्या से शुद्ध होता है।
The king should strike the Brahmn who has stolen gold and committed himself for punishment to the king with a pestle-ponder (Club, Muller) once. The thief is purified by killing him but the Brahmn is cleansed by Tapsya (austerities, ascetics, meditation) only.
तपसाSपनुनुत्सुस्तु सुवर्णस्तेयजं मलम्।
चीरवासा द्विजोऽरण्ये चरेदाब्राह्महणों व्रतम्॥[मनुस्मृति 11.101]
सुवर्ण चुराने से उत्पन्न पाप तपस्या द्वारा नाश करने की इच्छा वाला ब्राह्मण पुराने कपड़े को पहनकर वन में ब्रह्महत्या के प्रायश्चित करे।
The Brahmn who wish to clear himself of the sin earned by stealing gold, should subject himself to the penances meant for Brahmhatya in a forest wearing old cloths.
एतैर्व्रतैरपोहेत पापं स्तेयकृतं द्विजः।
गुरुस्त्रीगमनीयं तु व्रतैरेभिरपानुदेत्॥[मनुस्मृति 11.102]
इन पूर्वोक्त व्रतों (ब्रह्महत्या प्रायश्चितों) द्वारा ब्राह्मण चोरी सम्बन्धित पापों का नाश करे। गुरुपत्नी गमन के पाप को आगे कही हुई विधियों से नष्ट करे।
The Brahmn should cleanse himself of the sin caused by stealing, subjecting himself to penances described in earlier postulates. Next follows the penances meant for clearing oneself from the sin of intercourse-mating with teacher's wife.
गुरुतल्प्यभिभाष्यैनस्तप्ते स्वप्यादयोमये।
सूर्मीं ज्वलन्तीं स्वाश्लिष्येन्मृत्युना स विशुध्यति॥[मनुस्मृति 11.103]
गुरु पत्नी से व्यभिचार-गमन करने वाला, अपने पाप को लोगों के सामने प्रकट करके, लोहे की जलती हुई शय्या सोये अथवा लोहे की स्त्री बनाकर उसे आग में तपाकर, उसका आलिंगन करे और मर जाये; यही उसकी शुद्धि है।
One who had intercourse with his teacher's wife should disclose his guilt and sleep over a red hot iron bed or embrace a red hot statue of woman & die. This is the penance for him.
Ahilya had to suffer from the curse of her husband along with Dev Raj Indr. She was turned into a stone block to be brought back to life by Bhagwan Shri Ram. She had recognised Dev Raj and she could refuse to mate with Dev Raj Indr. Dev Raj had vaginal openings all over his body as the curse, which were converted into eyes later on being subjecting himself to penances.
Those who spoil women or girls have to face tortures in hells.
स्वयं वा शिश्नवृषणावुत्कृत्याधाय चाञ्जलौ।
नैर्ऋतीं दिशमातिष्ठेदानिपातादजिह्मगः॥[मनुस्मृति 11.104]
अथवा स्वयं ही अपने लिंग और अण्डकोषों को काटकर अपनी अञ्जलि में लेकर जब तक शरीर पात न हो जाये तब तक सीधे नैर्ऋत्य (दक्षिण-पश्चिम के कोण-दिशा) में दौड़ता हुआ जाये।
Else he should cut his pennies & testicles, hold them in his hands and run in South-West direction, till he dies.
षट्वाङ्गी चीरवासा वा श्मश्रुलो विजने वने।
प्राजापत्यं चरेत्कृच्छ्रमब्दमेकं समाहितः॥[मनुस्मृति11.105]
अथवा खट्वाङ्ग धारण कर, पुराना कपड़ा पहनकर, दाढ़ी बढ़ाकर निर्जन वन में एक वर्ष तक निरालस्य होकर कृच्छ प्राजापत्य व्रत को करे।
One guilty of raping-mating his teacher's wife should hold a club shaped object like the foot of a bedstead i.e. a club or staff with a skull at the top, wear old cloths, grow his beard, live in an isolated forest for one year performing Krachchh Prajapty Vrat.
कृच्छ चान्द्रायण व्रत ::
शोधयेत् तु शरीरं स्वं पंचगव्येन मन्त्रितः।
स शिरः कृष्ण पक्षस्य तत् प्रकुर्वीत वापनम्॥
शुक्ल वासाः शुचिर्भूखा मौञ्जों वन्धीत मेखलाम्।
पलाश दण्डमादाय ब्रह्मचर्य व्रते स्थितः॥
कृ तोपवासः पूर्व तु शुक्ल प्रतिपादे द्विजः।
नदी संगम तीर्थेषु शुचौ देशे गृहेऽपिवा॥
शरीर को दश स्नान-विधान से शुद्ध करें। अभिमन्त्रित करके पंचगव्य पीयें। सिर को मुँड़ाकर कृष्ण पक्ष में व्रत आरम्भ करे। श्वेत वस्त्र पहने, पवित्र रहे, कटि प्रवेश में मेखला और लँगोट धारण किये रहें। पलास की लाठी लिये रहे और ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करें। नदी के संगम, तीर्थ एवं पुष्प प्रदेशों में अथवा घर में रहकर भी शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा में चान्द्रायण व्रत आरम्भ करें।
नदीं गत्वा विशुद्धात्मा सोमाय वरु णाय च।
आदित्याय नमस्कृत्वा ततः स्नायात् समाहितः॥
उतीर्योदक माचम्य च स्थित्वा पूर्वतो मुखः।
प्राणायामं ततः कृत्वा पवित्रेरभिसेचनम्॥
वीरघ्न मृषभं वापि तथा चाप्यधमर्वषम्।
गायत्री मम देवीं या सावित्रीं वा जपेत् ततः॥
शुद्ध मन से नदी में स्नान करे। सोम, वरुण और सूर्य को नमस्कार करें। पूर्व को मुख करके बैठे। आचमन, प्राणायाम, पवित्री कारण, अभिसिंचन, अधमर्षण आदि संध्या-कृत्यों को करता हुआ सावित्री-गायत्री का जप करें।
आधारा वाज्य भागो च प्रणवं व्याहतिस्तथा।
वारुणं चैव पञ्चैव हुत्वा सर्वान् यथा क्रमम्॥
प्रणम्य धाग्निं सोमं च भस्य धृत्वा यथा विधि।
आधार होम, आज्य भाग, प्रणव, व्याहृति, वरुण आदि का विधि पूर्वक हवन करें और अग्नि तथा सोम को प्रणाम करके मस्तक पर भस्म धारण करें।
अंगुल्थग्रे स्थितं पिण्डं गायञ्याचाभिमन्त्रयेत्।
अंगुलीभिस्त्रिभि पिण्डं प्राश्नीयात् प्रां शुचिः॥
यथा च वर्धते सोमो ह्रसते च यथा पुनः।
तथा पिण्डाश्च वर्धन्ते ह्रसन्ते च दिने दिने॥
तीन अँगुलियों पर आ सके इतना अन्न का पिण्ड गायत्री से अभिमन्त्रित करके पूर्व की ओर मुख करके खायें। जिस प्रकार कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा घटता है, उसी प्रकार भोजन घटाये और शुक्ल पक्ष में जैसे चन्द्रमा बढ़ता है वैसे-वैसे बढ़ायें।
कृच्छ चान्द्रायण के भेद ::
(1). पिपीलिका मध्य चान्द्रायण ::
ऐकेकं ह्रासयेत पिण्डं कृष्ण शुक्ले च वर्धयेत्।
उपस्पृषंस्त्रिषवणमेतच्चंद्रायणं स्मृतमं॥
इसमें पूर्ण मासी को 15 ग्रास खाकर क्रमशः एक-एक ग्रास घटाते हैं और अमावस्या व प्रतिपदा को निराहार रहकर दोज से एक-एक ग्रास बढ़ाते हुए पूर्णिमा को पुनः 15 ग्रासों पर जा पहुँचते हैं। इस व्रत में पूरे एक माह में कुल 240 ग्रास ग्रहण करते हैं।
(2). यव मध्य चान्द्रायण ::
एतमेव विधि कृत्स्नमाचरेद्यवमध्यमे।
शुक्ल पक्षादि नियतष्चरंष्चंद्रायणं व्रतम॥
यव मध्य चांद्रायण शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से प्रारम्भ होता है। अमावस्या के दिन उपवास करके शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को एक ग्रास लेवे इसके पश्चात् पूर्णिमा तक एक-एक ग्रास बढ़ाते हुए 15 ग्रास तक पहुँचे। इसके बाद कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से एक-एक ग्रास घटाते हुए अमावस्या को निराहार की स्थिति तक पहुँचें। इस व्रत में भी 240 ग्रास ही खाने का विधान है।
(3). यति चान्द्रायण ::
अष्टौ अष्टौ समष्नीयात् पिण्डान माध्यन्दिने स्थिते।
नियतात्मा हविष्याषी यति चंद्रायणं स्मृतम्॥
प्रतिदिन मध्याह्नकाल में आठ-आठ ग्रास खाते रहें। इसे यति चांद्रायण कहते हैं। इसमें न किसी दिन कम करते हैं और न अधिक। इससे भी एक मास में 240 ग्रास ही खाये जाते हैं।
(4). शिशु चान्द्रायण ::
च्तुरः प्रातरष्नीयात् पिंडान् विप्रः समाहितः।
चतुरोऽस्त मिते सूर्ये षिषुचंद्रायणं स्मृतम्॥
अर्थात इसमें प्रातः 4 ग्रास और सायंकाल 4 ग्रास खाए जाते हैं और यही क्रम नित्य रहता है। इस प्रकार शिशु चांद्रायण में प्रतिदिन आठ ग्रास खाते हुए एक मास में 240 ग्रास पूरे किये जाते हैं। तिथि की वृद्धि या क्षय हो जाने पर ग्रास की भी वृद्धि या कमी हो जाती है।
ग्रास के दो अर्थ हैं :-
"पिण्डान् प्रकृति स्थात प्राश्नति"
साधारणतया मनुष्य जितना बड़ा ग्रास खाता है वही ग्रास का परिमाण है।[वीद्धायन]
कुम्कुटाण्ड प्रमाणं स्याद् यावद् वास्य मुख विशेत्।
एतं ग्रासं विजानीयुः शुद्ध्यर्थे काय शोधनम्॥
मुर्गी के अण्डे की बराबर ग्रास माना जाय अर्थात जितना मुँह में समा सके उसे ग्रास कहा जाय।[महर्षि अत्रि]
चारों प्रकार के चांद्रायण व्रतों में आहार ग्रहण करते समय प्रत्येक ग्रास को प्रथम गायत्री महामंत्र से अभिमंत्रित करते हैं, तत्पश्चात् क्रमशः :: भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्यं, यशः, श्रीः, अर्क, इट्, ओजः, तेजः, पुरुषः, धर्मः, शिवः; इन मंत्रों के आरम्भ में और अंत में नमः स्वाहा संयुक्त करके उस मंत्र को उच्चारण करते हुए ग्रास का भक्षण किया जाता है। यथा :- सत्यं नमः स्वाहा।
उपरोक्त मन्त्रों में से उतने ही मंत्र प्रयोग होंगे, जितने कि ग्रास भक्षण किये जाएँगे।
उदाहरण स्वरूप, जैसे चतुर्थी तिथि को चार ग्रास लेने हैं तो :- (1). नमः स्वाहा, (2). भूः नमः स्वाहा, (3). भुवः नमः स्वाहा, (4). स्वः नमः स्वाहा आदि। इन चार मंत्रों के साथ क्रमशः एक-एक ग्रास ग्रहण किया जाएगा।
चांद्रायण व्रतों के दिनों में संध्या, स्वाध्याय, देवपूजा, गायत्री जप, हवन आदि साधनात्मक-उपासनात्मक धार्मिक कृत्यों का नित्य-नियम रखना चाहिए। भूमिशयन एवं ब्रह्मचर्य पालन का विधान आवश्यक है। व्रत का संकल्प लेते समय मुण्डन कराने का भी शास्त्र आदेश है, साथ-ही-साथ चांद्रायण का उत्तरार्द्ध पक्ष यह है कि जो खाई खोदी गयी है अर्थात् जो दुष्कृत्य अपने से बन पड़े है, उनकी किसी-न-किसी रूप में भरपाई की जाय। व्रत की समाप्ति पर सामर्थ्यानुसार हवन-यज्ञ ब्राह्मण या कन्या भोज, ब्रह्म भोज जैसे उपक्रम भी अपनाये जा सकते हैं।
चान्द्रायणं वा त्रीन्मासानभ्यस्येन्नियतैन्द्रियः।
हविष्येण यवाग्वा वा गुरुतल्पापनुत्तये॥[मनुस्मृति 11.106]
(षड्गुणजल पक्वधनद्रव-द्रवविशेष:।
अन्यञ्च मन्डञ्चतुSर्दशगुणे यवागू: षडगुणेSम्भसि॥)
अथवा जितेन्द्रिय होकर तीन मास पर्यन्त हविष्य या यवागु भोजन (पतली खिचड़ी) खाकर गुरुपत्नी गमन जन्य पाप के नाशार्थ चन्द्रायण व्रत करे।
As an alternative, the sinner of raping-mating teacher's wife should exercise full command over his sense organs and eat Havishy & Yavagu for three months while performing Chandrayan Vrat.
हविष्य :: यज्ञ के समय प्रयोग किये जाने वाले यज्ञोपयोगी खाद्यान्न; eatable meant for offering during a Yagy-Hawan, Agnihotr.
एतैर्व्रतैरपोहेयुर्महापातकिनो मलम्।
उपपातकिनस्त्वेवमेभिर्नानाविधैर्व्रतैः॥[मनुस्मृति 11.107]
इन पूर्वोक्त व्रतों द्वारा महापातकी अपने पापों का नाश करे और उपपातकी आगे कहे अनेक प्रकार व्रतों से अपने पाप का नाश करे।
The worst sinner can observe the penances described here to get rid of his sins while one who has commuted minor sins may follow the penances described next.
उपपातकसंयुक्तो गोघ्नो मासं यवान्पिबेत्।
कृतवापो वसेद् गोष्ठे चर्मणा तेन संवृतः॥[मनुस्मृति 11.108]
गौ वध करने वाला उपपातकी एक मास पर्यन्त यवागू को पीये और शिखा सहित मुण्डन कराकर, उसी मरी हुई गाय के चमड़े को ओढ़कर गोशाला में वास करे।
The sinner of killing a cow should drink Yavagu for one month, wear the hide-skin of the cow killed by him, live in a cow shed for rectifying this minor sin.
चतुर्थकालमश्नीयादक्षारलवणं मितम्।
गोमूत्रेणाचरेत्स्नानं द्वौ मासौ नियतेन्द्रियः॥[मनुस्मृति 11.109]
जितेन्द्रिय होकर दो मास तक नित्य गोमूत्र से स्नान करे, तीन शाम उपवास कर चौथे शाम को खाना खाये, नमक का त्याग कर परिमित हविष्य भोजन करे।
The culprit of killing a cow should take bath in cow's urine for two months, skip three dinners and take dinner on the fourth day, discard using of salt and eat the limited food meant for offerings in a Yagy, by restraining his organs.
Cow's urine works as medicine for hundreds of ailments. Its advised that one should drink cow's urine in some incurable diseases. Never consume the milk or urine of such cows which roam in the cities eating waste dumped by house hold.
दिवानुगच्छेदगास्तास्तु तिष्ठन्नूर्ध्वं रजः पिबेत्।
शुश्रूषित्वा नमस्कृत्य रात्रौ वीरासनं वसेत्॥[मनुस्मृति 11.110]
दिन में गौवों के पीछे-पीछे, उनके पैर की उड़ती हुई धूलि को सहता हुआ घूमे। रात में उनकी सेवा कर, उन्हें प्रणाम करके, वीरासन में उनके करीब बैठे।
Having killed the Brahmn or mated his teacher's wife, one should wander behind the cows tolerating the dust raised by them. At night he should serve them fodder, give them water to drink, clean their place of sitting, bow in front of them and sit in Veerasan throughout the night near them.
Muslims, Christians and others who slaughter the cow and eat beef perhaps do not know the guilt-sin they are committing; for which they to serve in hells for a long period of time.
तिष्ठन्तीष्वनुतिष्ठेत्तु व्रजन्तीष्वप्यनुव्रजेत्।
आसीनासु तथासीनो नियतो वीतमत्सरः॥[मनुस्मृति 11.111]
गौ के खड़ी होने पर वह खुद भी खड़ा हो जाये, जब वह चले तो खुद भी चले और बैठने पर खुद भी बैठ जाये। यह कार्य वह तीन मास तक नियमपूर्वक क्रोध-परेशानी रहित होकर करे।
One who is undergoing penances should stand when the cow stand, sit when it sits & move when it moves. He should do it untiredly without getting angry-irritated for three months regulatory.
आतुरामभिशस्तां वा चौरव्याघ्रादिभिर्भयैः।
पतितां पङ्कलग्नां वा सर्वौपायैर्विमोचयेत्॥[मनुस्मृति 11.112]
जो गाय रोगग्रस्त हो, व्याघ्र आदि दुष्टों से भयभीत हो, गिर पड़ी हो या कीचड़ में फँसी हो, उसका सब उपायों से उद्धार करे।
One should help the cow by all means which is diseased, afraid of beasts (wolfs, leopards, tiger lion etc.) or the humans ready to kill her, fallen down, struck in mud.उष्णे वर्षति शीते वा मारुते वाति वा भृशम्।
न कुर्वीतात्मनस्त्राणं गोरकृत्वा तु शक्तितः॥[मनुस्मृति 11.113]
गर्मी, वर्षा, जाड़े और जिस समय बड़ी तेजी से हवा चल रही हो, उस समय गौ की रक्षा किये बिना, अपने रक्षा न करे।
One should protect the cow prior to his own safety, when its too hot, too cold, too rainy or fast wind is blowing.
आत्मनो यदि वाऽन्येषां गृहे क्षेत्रेऽथवा खले।
भक्षयन्तीं न कथयेत्पिबन्तं चैव वत्सकम्॥[मनुस्मृति 11.114]
अपने या अन्य के गृह में अथवा खेत में या खलियान खाती हुई गौ को और दूध पीते हुए बछड़े को न रोके और दूसरे से कार्य लिए कहे।
One should neither obstruct a cow eating in his own house or other's barn-threshing floor or the calf drinking milk, instead he may instruct someone else to do this.
अनेन विधिना यस्तु गोघ्नो गामनुगच्छति।
स गोहत्याकृतं पापं त्रिभिर्मासैर्व्यपोहति॥[मनुस्मृति 11.115]
इस विधि से जो गौ हत्या करने वाला, गौ की सेवा करता है, वह तीन मास में ही गोहत्या के पाप से छूट जाता है।
One who serves the cows by this method, for three months, is relieved of the sin of killing a cow.
वृषभैकादशा गाश्च दद्यात्सुचरितव्रतः।
अविद्यमाने सर्वस्वं वेदविद्भ्यो निवेदयेत्॥[मनुस्मृति 11.116]
विधि पूर्वक, भली भाँति व्रत करके, वैदिक ब्राह्मण को एक बैल और दस गाय दे। यदि इतनी गौ न हों तो उसके पास जो कुछ हो, वह सब ब्राह्मण को दे दे।
The killer of cow should observe fast with due procedures after the penances and donate one ox and ten cows to a Brahmn who lives according to Vaedic tenets-procedure and style. If he is short of ten cows, he should give every thing that he possesses to the Brahmn.
एतदेव व्रतं कुर्युरुपपातकिनो द्विजाः।
अवकीर्णिवर्ज्यं शुद्ध्यर्थं चान्द्रायणमथापि वा॥[मनुस्मृति 11.117]
अवकीर्णी (व्रत भ्रष्ट) को छोड़कर, उपपातकी द्विज पाप शुद्ध्यर्थ पूर्वोक्त व्रत को करे अथवा चान्द्रायण व्रत करे।
Baring the one who could not complete the fast under taken by him, the Brahmn who has committed minor sins should adopt the fasts described in earlier tenet or may observe Chandrayan fast.
अवकीर्णी तु काणेन गर्दभेन चतुष्पथे।
पाकयज्ञविधानेन यजेत निर्ऋतिं निशि॥[मनुस्मृति 11.118]
(अवकीर्णी भवेद् गत्वा ब्रह्मक्षारी च योषितम्) अवकीर्णी (व्रत भ्रष्ट) रात को काने गधे के साथ चौराहे पर पाकयज्ञ की विधि से निर्ऋति देवता यजन करे।
One who failed to complete his fast should perform Pak Yagy at the road crossings during night praying the Nirrati Devs-demigods accompanied by an ass blind of one eye.
पाकयज्ञ :: वृषोत्सर्ग और गृहप्रतिष्ठा आदि के समय किया जाने वाला होम जिसमें खीर की आहुति दी जाती है। पंच महायज्ञ में ब्रह्मयज्ञ के अतिरिक्त अन्य चार यज्ञ :- वैश्वदेव, होम बलिकर्म, नित्य श्राद्ध और अतिथि भोजन, हैं। शूद्र को भी पाक यज्ञ (वह यज्ञ जिसमें हिंसा न हो पाक-शुद्ध हो) का अधिकार है। ऋग्वेद का पाकयज्ञ अन्न से ही अधिक सम्बन्धित है। उसमें हिंसा का स्थान नहीं है। मनु ने कामायनी के आरम्भ में यही पाकयज्ञ किया था, जो ऋषियों के अनुकूल है।
नैर्ऋति देव :: ये नैर्ऋत्य कोण के स्वामी हैं। ये सभी राक्षसों के अधिपति और परम पराक्रमी हैं। दिक्पाल निर्ऋति के लोक में जो राक्षस रहते हैं, वे जाति मात्र के राक्षस हें। आचरण में वे पूर्णरूप से पुण्यात्मा हैं। वे श्रुति और स्मृति के मार्ग पर चलते हैं। वे ऐसा खान-पान नहीं करते, जिनका शास्त्रों में विधान नहीं है। वे पुण्य का अनुष्ठान करते हैं। ये पालकी पर चलते हैं। इनका तेज काफी प्रखर है।[मत्स्य पुराण]
इन्हें सभी प्रकार के भोग सुलभ हैं। निर्ऋति देवता भगवदीय जनों के हित के लिए पृथ्वी पर आते हैं।[स्कन्द पुराण]
इनका वर्ण शरीर गाढ़े काजल की भाँति काला है तथा बहुत विशाल है। ये पीले आभूषणों से भूषित और हाथ में खड्ग लिये हुए हैं। राक्षसों का समूह इन्हें चारों ओर से घेरे रहता है।
हुत्वाऽग्नौ विधिवद्होमानन्ततश्च समेत्यृचावा।
वातेन्द्रगुरुवह्नीनां जुहुयात्सर्पिषाऽऽहुतीः॥[मनुस्मृति 11.119]विधिवत अग्नि में हवन करने के बाद "समासिञ्चन्तुमरुतः" इस ऋचा के साथ वायु, इन्द्र, वृहस्पति और अग्नि को घी आहुति दे।
Having completed offering in holy fire, the seeker of penances should make offering to Indr-king of demigods, Vayu (Pawan, air), Brahaspati and fire, by reciting "Samasinchntumaturt:" and pour ghee in the Agnihotr fire.
कामतो रेतसः सेकं व्रतस्थस्य द्विजन्मनः।
अतिक्रमं व्रतस्याहुर्धर्मज्ञा ब्रह्मवादिनः॥[मनुस्मृति 11.120]जो व्रतस्थ-ब्रह्मचारी द्विज इच्छा से वीर्य सिंचन करता है, उसका व्रत नष्ट है। धर्मज्ञ वेदवादियों ने ऐसा कहा है।
The learned & followers of Veds have opined that if the celibate or one who has under gone fasting involves in intercourse or discharges his sperms, his celibacy, endeavour-Vrat, penances, oblations are lost.
मारुतं पुरुहूतं च गुरुं पावकमेव च।
चतुरो व्रतिनोऽभ्येति ब्राह्मं तेजोऽवकीर्णिनः॥[मनुस्मृति 11.121]अबकीर्णी (व्रत भंग हुए) ब्रह्मचारी का ब्रह्मतेज, वायु, इंद्र, वृहस्पति और अग्नि देवताओं के पास चला जाता है।
The spiritual powers-aura of a celibate, who could not keep up his fasting-goals is distributed amongest Pawan Dev, Indr Dev, Dev Guru Brahaspati and Agni Dev.
एतस्मिन्नेनसि प्राप्ते वसित्वा गर्दभाजिनम्।
सप्तागारांश्चरेद्भैक्षं स्वकर्म परिकीर्तयन्॥[मनुस्मृति 11.122]इस पाप के (अवकीर्ण होना) हो जाने पर ब्रह्मचारी गदहे का चमड़ा पहनकर और पूर्वोक्त गदर्भ यज्ञ करके, अपने पाप को कहता हुआ, सात घरों से भिक्षा माँगकर लाये।
The celibate who could not keep up his fasting should wear the skin of a donkey and beg from seven houses, describing his sin in front of the household.
तेभ्यो लब्धेन भैक्षेण वर्तयन्नेककालिकम्।
उपस्पृशंस्त्रिषवणं त्वब्देन स विशुद्ध्यति॥[मनुस्मृति 11.123]उस पाई हुई भिक्षा से दिन और रात में केवल एक बार भोजन कर और तीन बार स्नान करता हुआ अवकीर्ण एक वर्ष में उस पाप से शुद्ध होता है।
The celibate who could not keep up his fasting, becomes sin free in one year by eating only once in a day, out of the beggings he has received, bathing thrice a day.
जातिभ्रंशकरं कर्म कृत्वाऽन्यतममिच्छया।
चरेत् सांतपनं कृच्छ्रं प्राजापत्यमनिच्छया॥[मनुस्मृति 11.124]
अपनी इच्छा से कोई अपकर्म जातिभ्रंशकर पापों में करे तो कृच्छ्रसांतपन व्रत करे और अनिच्छा से किया गया हो तो आगे कहे हुए प्राजापत्य व्रत करे।
One who has committed a bad deed-sin intentionally, should perform the Krachchhsantpan Vrat meant for those who have been lowered in caste system but if is has been done unwillingly, he should subject himself to Prajapaty Vrat described next.
संकरापात्रकृत्यासु मासं शोधनमैन्दवम्।
मलिनीकरणीयेषु तप्तः स्याद्यावकैस्त्र्यहम्॥[मनुस्मृति 11.125]
अपनी इच्छा से संकरीकरण अथवा अपात्रिकरण इन दोनों पापों में से किसी एक को करने वाला किये हुए पाप के शान्त्यर्थ चान्द्रायण व्रत करे और मलिनीकरण पापों के शान्त्यर्थ तीन दिन पर्यन्त गर्म लपसी पीवे।
One who has committed either Sankarikaran (production of mixed race, hybrid castes) or Apatrikaran (unsuitability) sins should subject himself to Chandrayan Vrat to get relieved-atonement from the impact of these. One who did Malinikaran (impurity) sins should drink hot Lapsi (barley-gruel) for three consecutive days.
लपसी :: Halva (wheat floor fried with ghee, mixed with Jaggery or sugar, added with milk or water) with excess of water, porridge.
Please refer to :: FASTING व्रत-उपवास santoshsuvichar.blogspot.com
तुरीयो ब्रह्महत्यायाः क्षत्रियस्य वधे स्मृतः।
वैश्येऽष्टमांशो वृत्तस्थे शूद्रे ज्ञेयस्तु षोडशः॥[मनुस्मृति 11.126]
क्षत्रिय का वध करने पर ब्रह्महत्या का चौथा भाग, अपने काम में लगे हुए वैश्य का वध करने पर आठवाँ भाग और शूद्र का वध करने पर सोलहवाँ भाग प्रायश्चित करे।
For the atonement of killing a Kshatriy one should commit himself to 1/4 of the penances meant for Brahmhatya, 1/8 for killing a Vaeshy busy in his deals and 1/16 for killing a Shudr.
अकामतस्तु राजन्यं विनिपात्य द्विजोत्तमः।
वृषभैकसहस्रा गा दद्यात्सुचरितव्रतः॥[मनुस्मृति 11.127]
अनिक्षा या अनजाने में क्षत्रिय की हत्या करे तो ब्राह्मण विधिवत् व्रत का आचरण करके एक बैल और एक सहस्त्र गौ ब्राह्मणों को दे।
If a Brahmn unknowingly-unintentionally or against his will kills a Kshatriy, he should follow the Vrat-penances systematically as per Shastr and donate one bull and 1,000 cows to Brahmns.
त्र्यब्दं चरेद्वा नियतो जटी ब्रह्महणो व्रतम्।
वसन्दूरतरे ग्रामाद् वृक्षमूलनिकेतनः॥[मनुस्मृति 11.128]
अथवा जटा बढ़ाकर गाँव के बाहर किसी वृक्ष के नीचे रहकर, तीन वर्ष तक ब्रह्महत्या का प्रायश्चित करे।
Alternatively he may grow his hair and reside out side the village under a tree for three years and follow the penances meant for killing a Brahmn.
एतदेव चरेदब्दं प्रायश्चित्तं द्विजोत्तमः।
प्रमाप्य वैश्यं वृत्तस्थं दद्याच्चैकशतं गवाम्॥[मनुस्मृति 11.129]
अपनी वृत्ति में लगे हुए वैश्य का वध करे तो वर्ष तक पूर्वोक्त प्रायश्चित करे और एक सौ गौ ब्राह्मणों को दान में दे।
One may follow-adopt the penances quoted above in case he happen to kill a Vaeshy busy in his business and donate 100 cows to Brahmns.
एतदेव व्रतं कृत्स्नं षण्मासांशूद्रहा चरेत्।
वृषभैकादशा वाऽपि दद्याद्विप्राय गाः सिताः॥[मनुस्मृति 11.130]
अज्ञानवश शूद्र वध करने वाला यही पूर्वोक्त व्रत को छः मास तक करे अथवा एक सफ़ेद बैल दस गाय ब्राह्मण को दे।
One should undergo the penances meant in earlier tenets for killing a Shudr due to ignorance for six months and donate one white ox-bull and ten cows to a Brahmn.
मार्जारनकुलौ हत्वा चाषं मण्डूकमेव च।
श्वगोधो लूककाकांश्च शूद्रहत्याव्रतं चरेत्॥[मनुस्मृति 11.131]
बिल्ली, नेवला, नीलकण्ठ पक्षी, मेघा, कुत्ता, गोह, उल्लू और कौआ; इनमें किसी को मारने पर शूद्र के वध का प्रायश्चित करे।
One should perform the penances meant for killing a Shudr for killing a cat, mongoose, Neel Kanth (blue jay-a bird), frog, a dog, an iguana or the crow.
पयः पिबेत् त्रिरात्रं वा योजनं वाऽऽध्वनो व्रजेत्।
उपस्पृशेत्स्रवन्त्यां वा सूक्तं वाऽब्दैवतं जपेत्॥[मनुस्मृति 11.132]
अथवा तीन रात तक दूध ही पीकर रहे या एक योजन पैदल चले या नदी में स्नान करे अथवा आपोहिष्ठेत्यादि ऋचा का जाप करे।
As an alternative one may survive just by drinking milk for three consecutive nights or walk one Yojan on foot or bathe in a river or recite Apohishthetyadi hymn-verse.
अभ्रिं कार्ष्णायसीं दद्यात्सर्पं हत्वा द्विजोत्तमः।
पलालभारकं षण्ढे सैसकं चैकमाषकम्॥[मनुस्मृति 11.133]
साँप को मारकर ब्राह्मण लोहे का नोकदार डण्डा और हिजड़े मारकर एक भार पुआल और एक मासा सीसा ब्राह्मण को दे।
Having killed a snake one should give a pointed-sharp iron rod and after killing an eunuch one Bhar of paddy and one Masha of lead should be given-donated to the Brahmn.
शुके द्विहायनं वत्सं क्रौञ्चं हत्वा त्रिहायनम्॥[मनुस्मृति 11.134]
वराह-शूकर (सूअर) मारने पर एक घड़ा भर घी, तीतर को मारने पर एक द्रोण तिल, सुग्गा-तोता मारने पर दो वर्ष का बछड़ा और क्रौञ्च पक्षी को मारने पर तीन वर्ष का बछड़ा ब्राह्मण को दे।
Having killed a pig one should offer one pitcher of Ghee, for killing a partridge one Dron of sesame seeds, for killing a parrot a calf of 2 years and for killing a crane a calf of 3 years should be given to the Brahmn.
वानरं श्येनभासौ च स्पर्शयेत् ब्राह्मणाय गाम्॥[मनुस्मृति 11.135]
हंस, बलाका (मादा बगुला), बगुल (वक), मोर, वानर, बाज, भास-शकुंत अथवा गिद्ध पक्षी; इनमें से किसी को मारने पर एक गौ स्पर्श कर ब्राह्मण को दे।
One should offer a cow after touching it, to the Brahmn if any of these is killed by him :- Swan, Balaka-female wader, heron, peacock,Vanar, falcon or Bhas-Vulture or Shakunt bird.
वासो दद्याद्धयं हत्वा पञ्च नीलान्वृषान्गजम्।
अजमेषावनड्वाहं खरं हत्वैकहायनम्॥[मनुस्मृति 11.136]
घोड़े को मारने पर वस्त्र, गज-हाथी का वध करने पर पाँच नीले बैल, बकरा और भेड़ को मारने पर एक बैल और गधे को मारने पाए एक वर्ष का बछड़ा ब्राह्मण को दान में दे।
One should give cloths on killing a horse, 5 blue bulls-oxen for killing an elephant, on killing goat and sheep one ox and on killing an ass one year old calf should be given to the Brahmn.
क्रव्यादांस्तु मृगान् हत्वा धेनुं दद्यात् पयस्विनीम्।
अक्रव्यादान् वत्सतरीमुष्ट्रं हत्वा तु कृष्णलम्॥[मनुस्मृति 11.137]
कच्चे माँस को खाने वाला पशुओं को मारने पर दुधारु गाय, तृण, घास-पात खाने वाले शाखाहारी पशुओं यथा हिरण को मारने पर जवान बछिया और ऊँट को मारने पर रत्ती भर सोना दान करे।
Those who eat raw meat should donate a milch-cow to the Brahmn on killing herbivores like deer a young cow and on killing a camel one Ratti gold should be donated to the Brahmn.
जीनकार्मुकबस्तावीन् पृथग् दद्याद् विशुद्धये।
चतुर्णामपि वर्णानां नारीर्हत्वाऽनवस्थिताः॥[मनुस्मृति 11.138]
चारों वर्णों की अव्यवस्थित-दुराचारिणीं स्त्रियों को मारकर, शरीर शुद्धयर्थ क्रमशः (ब्राह्मणादि क्रम से) चर्मपुट, धनुष, बकरा और भेड़ दान करें।
On killing adulterous-characterless women of the four Varn-caste one should donate leather goods, bow, goat-ram and sheep for purifying the body in order of women's caste i.e., Brahmn, Kshatriy, Vaeshy and Shudr.
दानेन वधनिर्णेकं सर्पादीनामशक्नुवन्।
एकैकशश्चरेत्कृच्छ्रं द्विजः पापापनुत्तये॥[मनुस्मृति 11.139]
यदि द्विज सर्पादिकों के मारने का प्रायश्चित करके दान करने में असमर्थ हो तो प्रत्येक पाप के शान्त्यर्थ-निवारण हेतु एक कृच्छ्र प्रजापत्य व्रत को करे।
If the Swarn-upper caste is unable to perform penances through donations, due to lack of money, he should subject himself to performance of Krachchhr Prajapaty Vrat.
अस्थिमतां तु सत्त्वानां सहस्रस्य प्रमापणे।
पूर्णे चानस्यनस्थ्नां तु शुद्रहत्याव्रतं चरेत्॥[मनुस्मृति 11.140]
हड्डी वाले एक सहस्त्र जीवों का वध करने पर तथा बहुत से बिना हड्डी वाले जानवरों का वध करने पर शुद्रवध का प्रायश्चित करना चाहिये।
One should subject himself to penances for killing a Shudr, equivalent to killing of thousands of bony animals and those without bones.
किञ्चिदेव तु विप्राय दद्यादस्थिमतां वधे।
अनस्थ्नां चैव हिंसायां प्राणायामेन शुध्यति॥[मनुस्मृति 11.141]
हड्डी वाले जीवों का वध करने पर ब्राह्मण को कुछ दे देवे। बिना हड्डी वाले जीवों की हत्या करने पर प्राणायाम से ही शुद्धि हो जाती है।
On killing bony animals, one should donate something to the Brahmn and perform Pranayam to cleanse himself for killing the organism without bones.
फलदानां तु वृक्षाणां छेदने जप्यमृक्शतम्।
गुल्मवल्लीलतानां च पुष्पितानां च वीरुधाम्॥[मनुस्मृति 11.142]
फल देने वाले वृक्ष, गुल्म, बल्ली, लतर और फैलने वाले वृक्षों को काटने पर एक सौ बार गायत्री का जाप करे।
For cutting fruit trees, shrubs, creepers, vines, the trees which spread wide or flowering plants, one should recite Gayatri Mantr 100 times after becoming fresh.
अन्नाद्यजानां सत्त्वानां रसजानां च सर्वशः।
फलपुष्पोद्भवानां च घृतप्राशो विशोधनम्॥[मनुस्मृति 11.143]
अनाजों में उत्पन्न जीवों का तथा रसों (गुड़ आदि में) और फल-पुष्पों में उत्पन्न जीवों का वध करने पर घी चाट लेने से ही शुद्धि हो जाती है।
Cleansing comes just by licking Ghee on killing organisms-insects etc. present in food grains, juice extracts like sugar cane, flowers & fruits.
Wine, vinegar are formed by fermentation and worms grow in them which are removed-killed. Fruits, vegetables, flowers have insects, worms in them.
कृषिजानामोषधीनां जातानां च स्वयं वने।
वृथालम्भेऽनुगच्छेद्गां दिनमेकं पयोव्रतः॥[मनुस्मृति 11.144]
जोते हुए खेत में उत्पन्न औषधियों और जंगल में स्वयं उत्पन्न वृक्षों-खरपतवार को वृथा काटने से एक दिन केवल दूध ही पीकर रहे और गाय के पीछे-पीछे घूमे।
One should depend over just milk for a day and roam behind the cows if he happen to cut the trees in the jungle, which have grown up by themselves or removal of weeds from the fields.
Normally, farmers observe Amavasya Vrat to get rid of necessary evils like killing of insects, worms, weeds or removal of undesirable trees-plants, shrubs. They conduct Hawan-Pooja, Saty Narayan Katha as well and donate some money, food, useful goods, clothing to the priests-Brahmns.
एतैर्व्रतैरपोह्यं स्यादेनो हिंसासमुद्भवम्।
ज्ञानाज्ञानकृतं कृत्स्नं शृणुतानाद्यभक्षणे॥[मनुस्मृति 11.145]
ज्ञान पूर्वक-जानबूझ कर अथवा अज्ञानपूर्वक किये हुए हिंसा जनित पापों का प्रायश्चित पूर्वोक्त विधि से दूर करे। अब अभोग्य पदार्थ भक्षण के प्रायश्चितों को सुनों।
One should get rid of the sins done unknowingly or willing by adopting the procedures-penances described earlier. Now, listen to the penances for the removal of sins committed by eating non eatables (meat, eggs, fish, flesh, wine etc.).
अज्ञानाद्वारुणीं पीत्वा संस्कारेणैव शुध्यति।
मतिपूर्वमनिर्देश्यं प्राणान्तिकमिति स्थितिः॥[मनुस्मृति 11.146]
अनजाने में-अज्ञान से वारुणी-शराब पी लेने पर पुनः संस्कार से शुद्ध होता है। किन्तु ज्ञान पूर्वक-इच्छापूर्वक पीने से जिस प्रायश्चित से प्राणान्त हो जाये, वैसा ही प्रायश्चित उसके लिये हो सकता है। यही शास्त्र का निर्णय है।
One can be purified for drinking Varuni (wine, liquor, alcohol) unknowingly-unintentionally. But if it is consumed knowingly-willingly one has to adopt such penances, which leads to death. This is the dictate of the scriptures.
अपः सुराभाजनस्था मद्यभाण्डस्थितास्तथा।
पञ्चरात्रं पिबेत्पीत्वा शङ्खपुष्पीश्रितं पयः॥[मनुस्मृति 11.147]
सुरापात्र (पैष्टीपात्र) में अथवा मद्य के पात्र में रखा हुआ जल पी लेने से शंखपुष्पी के साथ औटाया हुआ दूध, पाँच रात्रि पीये।
If one happen to drink water stored in a wine pot, he should drink milk in which Shankh Pushpi (a medicinal herb) has been boiled, for five consecutive nights.
This is an antidote for curing the adverse effects of drinking wine.
स्पृष्ट्वा दत्वा च मदिरां विधिवत्प्रतिगृह्य च।
शूद्रोच्छिष्टाश्च पीत्वापः कुशवारि पिबेत्र्यहम्॥[मनुस्मृति 11.148]
मदिरा को स्पर्श कर विधिवत् उसे ग्रहण करने पर या शूद्र का जूठा जल पीने पर, तीन दिन तक कुशा मिलाकर औटाया हुआ जल पिये।
One should drink water which has been boiled with Kusha-grass, for three days if he happen to drink Madira-wine after touching-confirming that its wine or drinking the water left over by a Shudr after drinking.
ब्राह्मणस्तु सुरापस्य गन्धमाघ्राय सोमपः।
प्राणानप्सु त्रिरायम्य घृतं प्राश्य विशुद्ध्यति॥[मनुस्मृति 11.149]
सोम पीने वाला ब्राह्मण यदि सुरा पीने वाले के मुँह की बदबू-गंध को सूँघ ले तो वह जल के भीतर तीन बार प्राणायाम करके, घी चाट कर शुद्ध होता है।
The Brahmn who drinks the divine Som, should perform Pranayam three times in water and lick Ghee if he happen to smell the foul odour emanated out of the mouth of a drunkard.
अज्ञानात्प्राश्य विण्मूत्रं सुरासंस्पृष्टमेव च।
पुनः संस्कारमर्हन्ति त्रयो वर्णा द्विजातयः॥[मनुस्मृति 11.150]
तीनों द्विजाति वर्ण, यदि अज्ञान से विष्ठा, मूत्र या मदिरा मिला हुआ कोई रस आस्वादन कर लें, तो फिर से संस्कार कराने योग्य हो जाते हैं।
The Upper castes (Brahmn, Kshatriy & the Vaeshy) if happen to drink or eat any thing mixed-contaminated by faecal matter (shit), urine or wine become impure and they should under go Sanskars-rites yet again.
The food grain, eatables, vegetables are grown in sewer's-gutter's highly contaminated-polluted water. They are dangerous for the health of the users. The irrigation canal which has its source near Kalinidi Kunj in Noida is full of germs, viruses, bacteria, microbes and the consecutive governments are wasting huge sums of money for cleaning river without any visible output. Most of the money is pocketed by the officials, politicians. Water supplied to Noida residents too is extremely polluted and create health hazards for the masses, without moving the politicians & the bureaucrats. All efforts during the last 33 years failed to wake up the politicians and the New Okhla Industrial Development Authority officials. The corruption is too deep rooted and eradication seems to be impossible.
No MLA or MP made efforts to supply clean drinking-potable water in Noida.
वपनं मेखला दण्डो भैक्षचर्या व्रतानि च।
निवर्तन्ते द्विजातीनां पुनःसंस्कारकर्मणि॥[मनुस्मृति 11.151]
द्विजातियों के पुनः संस्कार कर्म में मुण्डन, मेखला, दण्ड, भिक्षा और ब्रह्मचर्य व्रत नहीं करना होता।
Repetition of Sanskars is exempted from Mundan-tonsure, Mekhla-Janeu (wearing of sacred thread around the loin), carrying of staff, begging and celibacy.
अभोज्यानां तु भुक्त्वान्नं स्त्रीशूद्रोच्छिष्टमेव च।
जग्ध्वा मांसमभक्ष्यं च सप्तरात्रं यवान्पिबेत्॥[मनुस्मृति 11.152]
जिनका अन्न नहीं खाना चाहिये, उनका अन्न खाने पर और स्त्री, शूद्र का जूठा खाने पर और अभक्ष्य-माँस आदि खा लेने पर, सात रात्रि तक यवाग् या जल और जौ का सत्तू पीये।
One should drink Yavagu or drink Sattu (gruel, flour of fried barley mixed with jaggery) of barley for seven nights, in case he has eaten food from the house of one prohibited by scriptures, left over food of woman or Shudr or eating undesirable goods like meat, shit etc.
शुक्तानि च कषायांश्च पीत्वा मेध्यान्यपि द्विजः।
तावद्भवत्यप्रयतो यावत्तन्न व्रजत्यधः॥[मनुस्मृति 11.153]
सिरका और अर्क शुद्ध होते हुए भी उसको पीने वाला, द्विज तब तक अपवित्र रहता है, जब तक कि यह शरीर से निकल नहीं जाता।
The upper caste-Swarn remains impure till vinegar or extracts (wine etc.) remains in the body.
विड्वराहखरोष्ट्राणां गोमायोः कपिकाकयोः।
पाश्य मूत्रपुरीषाणि द्विजश्चान्द्रायणं चरेत्॥[मनुस्मृति 11.154]
गाँव में रहने वाले सूअर, गधा, ऊँट, सियार, बन्दर कौए का विष्ठा खा लेने पर चान्द्रायण व्रत करे।
One should commit himself to Chandrayan Vrat if he happen to eat the shit of pig, donkey, camel, jackal, monkey or crow living in the village.
शुष्काणि भुक्त्वा मांसानि भौमानि कवकानि च।
अज्ञातं चैव सूनास्थमेतदेव व्रतं चरेत्॥[मनुस्मृति 11.155]
सूखे माँस या जिसके बारे में पता न हो तथा जो माँस कसाई के यहाँ हो तथा गोबर छत्ता खा लेने पर भी चान्द्रायण व्रत करे।
One should conform to Chandrayan Vrat if he happen to eat dry meat or the meat the origin of which in not known in addition to the meat obtained from the butcher or eating mushrooms.
क्रव्यादसूकरोष्ट्राणां कुक्कुटानां च भक्षणे।
नरकाकखराणां च तप्तकृच्छ्रं विशोधनम्॥[मनुस्मृति 11.156]
कच्चा माँस खाने वाले पशु, सूअर, ऊँट, मुर्गा, कौआ और गधा; इनमें से किसी माँस अपनी जानकारी में खाये तो तृप्तकृच्छ व्रत करे।
If one consumes the meat of beasts-carnivorous animals, those who eat meat, pig, camel, cock, crow or donkey; one should purify himself by resorting to Taptkrachchh Vrat.
मासिकान्नं तु योऽश्नीयादसमावर्तको द्विजः।
त्रीण्यहान्युपवसेदेकाहं चोदके वसेत्॥[मनुस्मृति 11.157]
जिसका समावर्तन संस्कार नहीं हुआ हो, ऐसा द्विज-ब्रह्मचारी यदि मासिक श्राद्ध सम्बन्धी अन्न खाये तो उसे तीन दिन तक उपवास करके मात्र जल पीकर रहना चाहिए।
समावर्तन 12 वाँ संस्कार है। गुरुकुल में शिक्षा पूर्ण होने के पश्चात जब जातक की गुरुकुल से विदाई की जाती है तो आगामी जीवन के लिये उसे गुरु द्वारा उपदेश देकर विदाई दी जाती है।
The celibate who has not undergone due advice from the Achary-Guru on completion of his education, happen to attend the monthly Shraddh Karm, should subject himself to three days of fasting depending solely over water.
ब्रह्मचारी तु योऽश्नीयान्मधु मांसं कथञ्चन।
स कृत्वा प्राकृतं कृच्छ्रं व्रतशेषं समापयेत्॥[मनुस्मृति 11.158]
जो ब्रह्मचारी किसी प्रकार से मधु, माँस खा ले तो वह प्रजाप्रत्य व्रत को करके ब्रह्मचर्य व्रत को समाप्त करे।
If the celibate happen to eat meat or honey, he should conform to Prajapaty Vrat and complete his Brahmchary Vrat.
बिडालकाकाखूच्छिष्टं जग्ध्वा श्वनकुलस्य च।
केशकीटावपन्नं च पिबेद् ब्रह्मसुवर्चलाम्॥[मनुस्मृति 11.159]
बिल्ली, कौआ, मूसा, कुत्ता और नेवले, जूठा और केश, कीड़े से व्याप्त अन्न को खा लेने पर ब्रह्म सुवर्चला (क्वाथ) को पीये।
In case he happen to eat the left over food of cat, rat, dog, an ichneumon or the food infested with insects-worms or hair, he should drink the extract-decoction of called Brahm Suvarchla.
BRAHM SUVARCHLA :: Centella asiatica, Umbelliferae, मण्डूकपर्णी, सरस्वती, माण्डुकी, सुवर्चला, ब्राह्मी।
Its used to energies the brain, treat mental disorder, enhance memory, soth (oedema), Pandu (anaemia), Jat (fever) since ancient times in India. It is a prostate herb, rooting at the nodes.
अभोज्यमन्नं नात्तव्यमात्मनः शुद्धिमिच्छता।
अज्ञानभुक्तं तूत्तार्यं शोध्यं वाप्याशु शोधनैः॥[मनुस्मृति 11.160]
अपनी शुद्धि चाहने वाला अभोज्य-अभक्ष्य अन्न को न खाये और यदि अज्ञान वश-अनजाने में खाले तो उसे उलटी करके निकाल दे अथवा शीघ्र प्रयाश्चित द्वारा शुद्ध कर ले।
One desirous of his purity, should not eat the contaminated-adulterated, undesirable, non-vegetarian food. If he has eaten something of this kind unknowingly, he must vomit it out or adopt suitable penances for this as soon as possible.
एषोऽनाद्यादनस्योक्तो व्रतानां विविधो विधिः।
स्तेयदोषापहर्तॄणां व्रतानां श्रूयतां विधिः॥[मनुस्मृति 11.161]
इस प्रकार अभक्ष्य पदार्थ भक्षण के अनेक प्रायश्चित कहे। अब चोरी के दोषों को हरने वाले प्रायश्चितों की विधि सुनो।
In this manner the penances to rectify-purify from the defects, sins generated through eating of undesirable food have been discussed. Now, listen to the penances meant for the eradication of the defects-caused by theft-stealing.
धान्यान्नधनचौर्याणि कृत्वा कामाद् द्विजोत्तमः।
स्वजातीयगृहादेव कृच्छ्राब्देन विशुध्यति॥[मनुस्मृति 11.162]
ब्राह्मण इच्छा से अर्थात जानबूझकर, अपने स्वजातीय के घर से धान्य, अन्न (दाल-भात, रोटी और धन की चोरी करे तो एक वर्ष तक कृच्छ्र प्रजापत्य व्रत को करने से शुद्ध होता है।
The Brahmn attains purity by observing Krachchhr Prajapty Vrat for one year, if he happen to commit theft of food, food grain, money from his own caste-fellow people.
मनुष्याणां तु हरणे स्त्रीणां क्षेत्रगृहस्य च।
कूपवापीजलानां च शुद्धिश्चान्द्रायणं स्मृतम्॥[मनुस्मृति 11.163]
मनुष्य, स्त्री, खेत, गृह, कूँआ और बाबली का जल चुराने वाला चान्द्रायण व्रत करने से शुद्ध होता है।
One who happen to steal water of a man or woman, fields-crops, home, well or pond-reservoir is purified by observing penances pertaining to Chandrayan Vrat.
द्रव्याणामल्पसाराणां स्तेयं कृत्वान्यवेश्मतः।
चरेत्सांतपनं कृच्छ्रं तन्निर्यात्यात्मशुद्धये॥[मनुस्मृति 11.164]
दूसरे के घर से अल्प मूल्य की वस्तु चुराने पर आत्मशुद्धयार्थ वह वस्तु उसके मालिक को लौटा दे और कृच्छ्र सांतपन व्रत करे।
One should return the good with low price stolen by him to the owner and observe Krachchhr Santpan Vrat for purification, as a penance.
भक्ष्यभोज्यापहरणे यानशय्यासनस्य च।
पुष्पमूलफलानां च पञ्चगव्यं विशोधनम्॥[मनुस्मृति 11.165]
भक्ष्य (मोदकादि), भोज्य (दूध आदि), सवारी, शय्या, आसन, फूल, मूल और फल को चुराने पर पञ्चगव्य प्राशन से शुद्धि होती है।
One who steals eatables like Laddhu, milk, vehicles, seat, flowers, roots, fruits should drink Panch Gavy for his purification as a penance.
तृणकाष्ठद्रुमाणां च शुष्कान्नस्य गुडस्य च।
चेलचर्मामिषाणां च त्रिरात्रं स्यादभोजनम्॥[मनुस्मृति 11.166]
तृण, काष्ठ, पेड़, सूखा अन्न, गुड़, वस्त्र, चमड़ा और माँस; इन सब पदार्थों में से किसी एक पदार्थ को चुराने पर तीन रात तक उपवास करे।
One should observe fast for three nights for staling any of these :- Straw (animal feed), wood, tree, dry food grain, jaggery, cloths, leather and meat.
मणिमुक्ताप्रवालानां ताम्रस्य रजतस्य च।
अयः कांस्यौपलानां च द्वादशाहं कणान्नता॥[मनुस्मृति 11.167]
मणि, मोती, मूँगा, ताँबा, चाँदी, लोहा, काँसा और पत्थर में से किसी एक को चुराने पर शुद्धि बारह दिन तक अन्न का कण खाने से होती है।
One should survive-depend over food grain pieces for 12 days, for staling any of these :- gems, pearls, coral, copper, silver, iron, brass or stone.
कार्पासकीटजोर्णानां द्विशफेकशफस्य च।
पक्षिगन्धौषधीनां च रज्ज्वाश्चैव त्र्यहं पयः॥[मनुस्मृति 11.168]
सूती, रेशमी, ऊनी कपड़े, घोड़ा, बैल और पक्षी, कपूर, चन्दन और औषधि तथा रस्सी में से किसी एक की चोरी करने पर तीन दिन तक दूध पीकर रहे।
One should survive-depend over milk for 3 days for staling any of these :- cotton, silk, wool, ox, horse (an animal with cloven hoofs or one with uncloven hoofs), a bird, perfumes, camphor, sandal wood, medicinal herbs or a rope.
एतैर्व्रतैरपोहेत पापं स्तेयकृतं द्विजः।
अगम्यागमनीयं तु व्रतैरेभिरपानुदेत्॥[मनुस्मृति 11.169]
इन पूर्वोक्त उपायों द्वारा द्विज चोरी के पापों से शुद्ध-मुक्त होवे और अगम्या गमन के पापों को आगे कहे गए व्रतों-उपायों से नष्ट करे।
The Brahmn should get rid of the sins caused by stealing by observing these methods and cleanse-purify himself of the sins caused by mating the non deserving women (prostitutes, low caste women, virgin girls etc.) through the methods, (procedures, penances) described next.
गुरुतल्पव्रतं कुर्याद्रेतः सिक्त्वा स्वयोनिषु।
सख्युः पुत्रस्य च स्त्रीषु कुमारीष्वन्त्यजासु च॥[मनुस्मृति 11.170]
सगी बहन, मित्र की स्त्री, कुमारी और चण्डालिन के साथ स्त्री प्रसङ्ग करने वाला गुरु पत्नी गमन का प्रायश्चित करे।
One who indulged in sex with his real sister, wife of a friend, virgin or the Chandalin should undergo penances meant for the removal of sins for mating with teacher's wife.
पैतृष्वसेयीं भगिनीं स्वस्रीयां मातुरेव च।
मातुश्च भ्रातुस्तनयां गत्वा चान्द्रायणं चरेत्॥[मनुस्मृति 11.171]
फुफेरी, मौसेरी, ममेरी बहनों के साथ प्रसङ्ग करके चान्द्रायण व्रत करे।
On having sex with the cousin sisters (daughter of father's sister, mother's sister's daughter, mother's brother's daughter) one should perform Chandrayan Vrat.
It shows that the Muslims following Islam are the greatest sinner in this world. Islam is a distorted virgin of Hinduism spread by the ignorant, extremely biased, illiterate power hungry sinners by murdering innocent, helpless, unarmed people. Sharia too is a distorted version of Manu Smrati and Quran is a distorted-motivated version of Purans. These people are mongering all over the world in the form of terrorists.
China ha s done well by retaining Muslim.
एतास्तिस्रस्तु भार्यार्थे नोपयच्छेत् तु बुद्धिमान्।
ज्ञातित्वेनानुपेयास्ताः पतति ह्युपयन्नधः॥[मनुस्मृति 11.172]
बुद्धिमान इन तीनों (फुफेरी, मौसेरी, ममेरी बहनों को) स्त्री बनाने के लिये उपयोग न करें, क्योंकि ये बहनें होने के कारण ब्याहने योग्य नहीं हैं। यदि कोई ऐसा करता है तो वह नरकगामी होता है।
The prudent should neither have sex with these cousin sister nor marry them since, he may have suffer in the hells on this account.
In India Punjabi & South Indian Hindus do not mind marrying their cousin sisters under the influence of Muslim traitors. There are cases where the real maternal uncles marry thier real sister's daughters. All of them are sure to reach hell sooner or later.
अमानुषीषू पुरुष उदक्यायामयोनिषु।
रेतः सिक्त्वा जले चैव कृच्छ्रं सांतपनं चरेत्॥[मनुस्मृति 11.173]
जो मनुष्य अमानुषी (मनुष्य से भिन्न योनि, चौपाये बगैरा) में, रजस्वला स्त्री में, योनि से भिन्न स्थान में तथा जल में वीर्यपात करता है, उसकी कृच्छ्र सान्तवन व्रत करने से शुद्धि होती है।
One who discharges sperms in any other species other than humans, woman passing through periods-menstrual cycle, anus-homosexuality, masturbation etc. or in water, may be purified by observing Krachchhrsantvan Vrat.
All unnatural sexual activities-acts are sins.
मैथुनं तु समासेव्य पुंसि योषिति वा द्विजः।
गोयानेऽप्सु दिवा चैव सवासाः स्नानमाचरेत्॥[मनुस्मृति 11.174]
जो द्विज पुरुष या स्त्री के साथ बैलगाड़ी (या रथ, जिसमें बैल जुते हुए हों) जल में या दिन में मैथुन करे तो उसे सचैल स्नान (जो कपड़े पहन कर होता है) करना चाहिये।
The upper caste who indulge in sex in a bullock cart or chariot driven by oxen, in water or during the day, should bathe along with the cloths.
Sex in a moving vehicle is sin.
चण्डालान्त्यस्त्रियो गत्वा भुक्त्वा च प्रतिगृह्य च।
पतत्यज्ञानतो विप्रो ज्ञानात्साम्यं तु गच्छति॥[मनुस्मृति 11.175]
यदि ब्राह्मण अज्ञानवश चाण्डाल या म्लेच्छ स्त्री के साथ संभोग करे, उनका अन्न खाये अथवा उनका दान ले तो पतित हो जाता है। यदि जान-बूझकर ऐसा नहीं किया गया हो तो उसके बराबर-स्तर का हो जाता है।
The Brahmn falls from his status-grace if he enters into sexual relations-mating with a Chandal woman of a Mallechchh woman (Muslims or Christians). If he do this unintentionally he comes to the level of these woman in caste structure-status.
A Brahmn should never marry his progeny in the family of such people. These days such people advertise in matrimonial columns of News Papers under the head :: Cosmopolitans.
Thus sex with prostitutes or any woman, other than own wife, is a grave offence-sin, leading to hells.
विप्रदुष्टां स्त्रियं भर्ता निरुन्ध्यादेकवेश्मनि।
यत्पुंसः परदारेषु तच्चैनां चारयेद् व्रतम्॥[मनुस्मृति 11.176]
स्वेच्छा से व्यभिचार में प्रवृत्त स्त्री को उसका पति एक घर में बन्द कर दे और पुरुषों को परस्त्री गमन के विषय में जो प्रायश्चित कहा है, वही करे।
One whose wife indulges into sex with other men voluntarily should be locked in a house and her husband should perform purification rites-penances pertaining to sex with other woman.
Such women are generally criminal minded. So, one should be cautious with them. This type of woman may kill her husband as well.The current law does not permit this-closing in a house. One should divorce such a woman and then enter into purification process.
सा चेत्पुनः प्रदुष्येत् तु सदृशेनोपमन्त्रिता।
कृच्छ्रं चान्द्रायणं चैव तदस्याः पावनं स्मृतम्॥[मनुस्मृति 11.177]
पूर्वोक्त प्रकार से नियन्त्रित होते हुए भी यदि वह स्त्री अपने स्वजातीय के साथ फिर व्यभिचार करे तो उसके लिये कृच्छ्र चान्द्रायण व्रत कराये।
If the woman subjected to enclosure in house again repeats the offence even with her own caste person, she should be subjected to Krachchhr Chandrayan Vrat.
Once a woman enters into sexual relations with more than one person, she never revert back-retract.
यदि शेर के मुँह इन्सान का खून लग जाये तो वह आदमखोर बन जाता है और यही स्थिति ऐसी पतित-पथभ्रष्ट औरतों की होती है।
यत्करोत्येकरात्रेण वृषलीसेवनाद् द्विजः।
तद्भैक्षभुज्जपन्नित्यं त्रिभिर्वर्षैर्व्यपोहति॥[मनुस्मृति 11.178]
द्विज एक रात में चाण्डालिन के सेवन से जो पाप संचित करता है, उस को तीन वर्ष पर्यन्त भिक्षा का अन्न खाकर, गायत्री का जप करता हुआ नष्ट करता है।
The should Brahmn eradicate the sin earned by mating with the Chandalin by surviving over the grain-food obtained through alms-begging and reciting Gayatri Mantr for three years.
Such women generally lack character-morals and enter into sexual alliance with anyone, inviting sexual diseases unknowing and thereafter passing them to the sexual partners. One should never enter into sexual alliance with prostitutes, whores, society-call girls. He should be confined to his wife only.
एषा पापकृतामुक्ता चतुर्णामपि निष्कृतिः।
पतितैः सम्प्रयुक्तानामिमाः शृणुत निष्कृतीः॥[मनुस्मृति 11.179]
यह चार प्रकार (हिंसा, अभक्ष्य, चोरी, अगम्या गमन) के पापों को करने वालों का प्रायश्चित कहा है। अब पतितों के संसर्गियों का प्रायश्चित सुनों।
The penances-cure from the sins committed through four means :- violence, eating undesirable, theft-stealing and mating with other women have been described. Now, listen to the penances meant for the accomplices, associates or the once who roam-live with him, or accompany him.
One who deal with such people, invite trouble for himself, even without actually indulging in these nefarious (evil, wretched, criminal, sinful) activities.
संवत्सरेण पतति पतितेन सहाचरन्।
याजनाध्यापनाद्यौनान्न तु यानासनाशनात्॥[मनुस्मृति 11.180]
पतित के साथ सवारी करने से, एक आसन पर बैठने से, उसके साथ भोजन करने से एक वर्ष में पतित हो जाता है। किन्तु उसका यज्ञ कराने, पढ़ाने या उसके साथ विवाहादि सम्बन्ध बनाने से ब्राह्मण-जातक तत्काल ही पतित हो जाता है।
The Brahmn is slurred, depraved, falls from grace by travelling, sharing seat, eating-dinning with him (the wretched, criminal, sinner) within a year but is affected immediately, if he perform his Yagy, teach him or maintain relations like marriage with him.
काजल की कोठरी में दाग़ लागे ही लागे।
यो येन पतितेनैषां संसर्गं याति मानवः।
स तस्यैव व्रतं कुर्यात् तत्संसर्गविशुद्धये॥[मनुस्मृति 11.181]
जो मनुष्य जिस प्रकार के पतित के साथ संसर्ग करने से पतित हुआ है, उसी पतित के ही शुद्ध होने वाले प्रायश्चित करे।
One should adopt the purification rites-penances meant for the sinner in whose company he acquired the sin.
पतितस्योदकं कार्यं सपिण्डैर्बान्धवैर्बहिः।
निन्दितेऽहनि सायाह्ने ज्ञात्यर्त्विग्गुरुसंनिधौ॥[मनुस्मृति 11.182]
पतित के सपिण्ड बान्धवगण ग्राम से बाहर जाति, ऋत्विज (पुरोहित) और गुरु के सामने निन्दित-पतित को दिन में सन्ध्या समय, किसी अशुभ दिन में जीते जी जलाञ्जली देवें।
The brothers of the sinner should offer libation of water outside the village in front of the same caste fellow, Guru & Purohit in the evening, on an inauspicious day (like solar or lunar eclipse).
They just detach themselves from him and do not keep any connection-dealing with him, considering him to be dead for them.
दासी घटमपां पूर्णं पर्यस्येत्प्रेतवत् पदा।
अहोरात्रमुपासीरन्नशौचं बान्धवैः सह॥[मनुस्मृति 11.183]
दासी दक्षिणाभिमुख होकर जल से भरे हुए घड़े को पैर से जैसे प्रेत के लिये लुढ़का दिया जाता है, वैसे ही लुढ़का दे, इसके बाद सपिण्ड (दयाद) लोग एक अहोरात्र का अशौच का व्यवहार करें।
The maid servant (female slave) should tilt-strike the pitcher full of water, with her foot facing South, in a manner prescribed for the deceased and the brothers should observe rites meant for impurity for a day & night.
निवर्तेरंश्च तस्मात्तु संभाषणसहासने।
दायाद्यस्य प्रदानं च यात्रा चैव हि लौकिकी॥[मनुस्मृति 11.184]
उस पातकी से बोलना, एक ही आसन पर बैठना, लेन-देन करना और उसके साथ भोजनादि का व्यवहार सब छोड़ दें।
All sorts of dealings like talking, sitting on the same couch-seat, money matters, dinning etc. with that sinner should be stopped at once.
ज्येष्ठता च निवर्तेत ज्येष्ठावाप्यं च यद् धनम्।
ज्येष्ठांशं प्राप्नुयाच्चास्य यवीयान् गुणतोऽधिकः॥[मनुस्मृति 11.185]
पतित होने के बाद बड़े भाई की जयेष्ठता नहीं रहती और जेठे भाई का प्राप्य धन और जो ज्येष्ठांश हो, सब भाइयों में श्रेष्ठ और गुणी छोटा भाई पाता है।
The elder brother losses all rights over the inherited properties, receivables as inheritance after becoming a sinner. The younger brother who excels amongest the younger brothers is entitled to all that belonging to the elder brother.
प्रायश्चित्ते तु चरिते पूर्णकुम्भमपां नवम्।
तेनैव सार्धं प्रास्येयुः स्नात्वा पुण्ये जलाशये॥[मनुस्मृति 11.186]
पतित के प्रायश्चित कर लेने पर उसके सपिण्ड बान्धव गण, उसके साथ पवित्र जलाशय में स्नान कर जल से भरा नया घड़ा पानी में फेंक दें।
Once the depraved-sinner completes the penances, his brothers should bathe with him in a pious-holy pond and drop a new pitcher full of water in that pond.
स त्वप्सु तं घटं प्रास्य प्रविश्य भवनं स्वकम्।
सर्वाणि ज्ञातिकार्याणि यथापूर्वं समाचरेत्॥[मनुस्मृति 11.187]
वह उस घड़े को जल में फेंककर अपने घर में प्रवेश कर सभी भाई बन्धुओं के साथ जैसा व्यवहार था, वैसा करें।
After throwing the pitcher in water, he should enter the house and interact with his brothers normally, as he was behaving earlier.
एतदेव विधिं कुर्याद्योषित्सु पतितास्वपि।
वस्त्रान्नपानं देयं तु वसेयुश्च गृहान्तिके॥[मनुस्मृति 11.188]
वही विधि पतित स्त्रियों के साथ इस्तैमाल करनी चाहिये; किन्तु उन्हें अन्न, जल और वस्त्र ही देना चाहिये और वह घर के समीप झोंपड़ी में रहे।
The sinner-depraved women having undergone penances, should adopt the process described earlier. But she should reside out side the house in a hut. She should be given food, water and clothing only.
Family members are not supposed to interact with her.
एनस्विभिरनिर्णिक्तैर्नार्थं किं चित् सहाचरेत्।
कृतनिर्णेजनांश्चैव न जुगुप्सेत कर्हिचित्॥[मनुस्मृति 11.189]
जिन पापात्माओं ने प्रायश्चित नहीं किया है, उनके साथ किसी प्रकार का व्यवहार-सम्बन्ध नहीं रखना चाहिये। जिन लोगों ने प्रायश्चित कर लिया हो उनकी निंदा कभी न करे।
One should not deal-interact with those who have not undertaken penances. Never criticise, defame, reproach one who has undergone penances.
बालघ्नांश्च कृतघ्नांश्च विशुद्धानपि धर्मतः।
शरणागतहन्तॄंश्च स्त्रीहन्तॄंश्च न संवसेत्॥[मनुस्मृति 11.190]
बालकों का वध करने वाले, कृतघ्न, शरणागत की हत्या करने वाले और स्त्री की हत्या करने वाले की हत्या करने वाले, यदि प्रायश्चित करके शुद्ध हो जायें तो भी उनका संसर्ग न करे।
One should maintain distance from the killer of children, thankless, protected person-under his shelter and the women, even if they undergo penances.
येषां द्विजानां सावित्री नानूच्येत यथाविधि:।
तांश्चारयित्वा त्रीन्कृच्छ्रान्यथाविध्युपनाययेत्॥[मनुस्मृति 11.191]
जिन द्विजों का शास्त्रानुसार यज्ञोपवीत संस्कार न हुआ हो, उनसे तीन कृच्छ्र प्राजापत्य व्रत कराके विधिवत उनका यज्ञोपवीत संस्कार करा दे।
The upper castes, who could not perform Yagyopavit ceremony, should be allowed to do so by performing three Krachchhr Prajapaty Vrat.
प्रायश्चित्तं चिकीर्षन्ति विकर्मस्थास्तु ये द्विजाः।
ब्रह्मणा च परित्यक्तास्तेषामप्येतदादिशेत्॥[मनुस्मृति 11.192]
जो द्विज निषिद्ध धर्म करने वाले हों और वेदाध्ययन से रहित हों, उनसे यदि वे प्रायश्चित करना चाहें तो उन्हें भी यही विधि अपनानी चाहिये।
The Swarn-upper castes who indulge in forbidden activities & have not studied the Veds and are willing to undergo penances, they should also adopt the method described above.
यद्गर्हितेनार्जयन्ति कर्मणा ब्राह्मणा धनम्।
तस्योत्सर्गेण शुध्यन्ति जप्येन तपसैव च॥[मनुस्मृति 11.193]
जो ब्राह्मण गर्हित, निन्दित तरीके, कर्म से धन इकट्ठा करता-कमाता है, उसकी शुद्धि जप-तप से होती है।
Having acquired money-wealth through condemned means, the Brahmn should resort to ascetics, penances, prayers of the Almighty.
He may resort to fasting and charity as well.
जपित्वा त्रीणि सावित्र्याः सहस्राणि समाहितः।
मासं गोष्ठे पयः पीत्वा मुच्यतेऽसत्प्रतिग्रहात्॥[मनुस्मृति 11.194]
ब्राह्मण यदि समाहित चित्त होकर तीन सहस्त्र गायत्री का जाप करे अथवा एक मास तक दूध पीकर गोशाला में रहे तो दूषित दान लेने का दोष नहीं होता।
If the Brahmn recite Gayatri Mantr 3,000 times by concentrating in it or depend solely upon milk and live in the cow shed, the impurity caused by accepting donations made by the wicked-wretched people; who had earned their wealth through dubious-improper means, will be cleansed-rectified.
उपवासकृशं तं तु गोव्रजात्पुनरागतम्।
प्रणतं प्रति पृच्छेयुः साम्यं सौम्येच्छसीति किम्॥[मनुस्मृति 11.195]
उपवास से दुर्बल और गोशाला से आये हुए उस कृशित ब्राह्मण से लोग पूछें कि क्या तुम हम लोगों के साथ मिलना चाहते हो!?
People should ask the Brahmn who has become weak due to fasting, depending solely upon milk & staying in the cow shed for one month, if he wanted to interact with them!?
One should never make fun of him or taunt over him, since he has purified himself by subjecting to extreme penances and tough life.
सत्यमुक्त्वा तु विप्रेषु विकिरेद्यवसं गवाम्।
गोभिः प्रवर्तिते तीर्थे कुर्युस्तस्य परिग्रहम्॥[मनुस्मृति 11.196]
वह ब्राह्मणों से सत्य कहकर (मैं अब दूषित दान नहीं लूँगा) गौ के आगे घास रख दे। यदि गौ उसके हाथ का घास खा ले तो अन्य ब्राह्मण उसको अपने समाज में शामिल कर लें।
He should swear-forsooth (I will not offend again), in front of other Brahmns that he will not accept donations from the wretched and put grass in front of the cow. If the cow eats the grass, they should admit him in their fold-community.
FORSOOTH :: सत्य, सचमुच, वास्तव में, veritable, fact, literally, indeed, of truth, to be sure, actually, concretely, in facto, practicably.
व्रात्यानां याजनं कृत्वा परेषामन्त्यकर्म च।
अभिचारमहीनं च त्रिभिः कृच्छ्रैर्व्यपोहति॥[मनुस्मृति 11.197]
व्रात्यों का यज्ञ, अपने कुटुम्ब से भिन्न लोगों की दाहादी क्रिया, अभिचार और अहिन यज्ञ कराकर या करके तीन प्रजापत्य करके ब्राह्मण शुद्ध होता है।
He should perform Vraty Yagy, perform the obsequies of those who are not related to him, incantation & Ahin Yagy or perform three Prajapaty Yagy to attain purity.
अभिचार :: मंत्र-तंत्र द्वारा मारण तथा उच्चाटन आदि हिंसक कार्य, तंत्र मंत्र द्वारा मारण, मोहन, उच्चाटन आदि द्वारा किये जानेवाले अनुचित कर्म; incantation.
OBSEQUIES :: दफ़न, समाधि, अण्त्यकर्म, अंत्येष्टि क्रिया, मरणोत्तर क्रियाएँ; committal, entombment, mausoleum, trance, tomb, grave, reliquary.
शरणागतं परित्यज्य वेदं विप्लाव्य च द्विजः।
संवत्सरं यवाहारस्तत्पापमपसेवति॥[मनुस्मृति 11.198]
शरणागत का त्याग करने से (अर्थात रक्षा ने करने वाला) और अनधिकारी को वेद पढ़ाने से एक वर्ष तक केवल जौ का आहार करने से उस पाप से छुटकारा मिलता है।
One is relieved of the sin of not protecting one who desires protection and teaching Veds to one who is not entitled for learning them by eating barley meals (bread, Sattu etc.) for one year.
Protection can be given only by a person who is capable of doing so. However, protection should be given to only one who deserve it. Never try to protect people who are wretched, attackers, rapists, dacoits, thieves, sinners, evil creators-mongers etc.
श्वशृगालखरैर्दष्टो ग्राम्यैः क्रव्याद्भिरेव च।
नराश्वोष्ट्रवराहैश्च प्राणायामेन शुध्यति॥[मनुस्मृति 11.199]
कुत्ता, सियार, गधा, कच्चे माँस को खाने वाले, ग्राम्य पशु, मनुष्य, घोड़ा, ऊँट और सूअर जिसको काटें, वह प्राणायाम कर लेने से ही शुद्ध हो जाते है।
One who is bitten by the domesticated animals, cattle, dog, jackal, donkey, eaters of red meat, humans, horse, camel and pig are cleanse just by performing Pranayam-Yog.
Pranayam leads to deep breathing which enriches the blood with oxygen leading to killing of germs, virus, bacteria, pathogens, microbes etc.
षष्ठान्नकालता मासं संहिताजप एव वा।
होमाश्च सकला नित्यमपाङ्क्त्यानां विशोधनम्॥[मनुस्मृति 11.200]
जो अपांक्तेय-पतित हैं, उनकी शुद्धि के लिए यह विधान है कि एक मास तक छटी शाम को भोजन करें, वेद की संहिताओं का जप करें अथवा वेदोक्त मन्त्रों से नित्य हवन करें।
Those depraved, who been excluded due to some sin from the society (not from Hinduism, out castes) should take meals only on the sixth evening, recite Ved Mantr-Sanhita and conduct Hawan everyday to be cleansed.
उष्ट्रयानं समारुह्य खरयानं तु कामतः।
स्नात्वा तु विप्रो दिग्वासाः प्राणायामेन शुध्यति॥[मनुस्मृति 11.201]
जो ब्राह्मण अपनी मर्जी-इच्छा से ऊँट या गधे पर चढ़े और नंगा होकर स्नान करे वह प्राणायाम मात्र से शुद्ध हो जाता है।
The Brahmn who willingly rides an ass or a camel or baths naked is purified just by performing Yog-Pranayam.
One should never unclothe or bath openly whether a woman or a man. One should never let others see him naked, except a doctor.
विनाद्भिरप्सु वाप्यार्तः शारीरं संनिवेश्य च।
सचैलो बहिराप्लुत्य गामालभ्य विशुद्ध्यति॥[मनुस्मृति 11.202]
अत्यन्त वेग से पीड़ित होकर पानी के बिना या पानी में मलमूत्र का त्याग करे तो गाँव के बाहर नदी वगैरह में स्कैल्य (वस्त्रादि पहने हुए ही) स्नान करके गौ का स्पर्श करके शुद्ध होता है।
One become pure by bathing in a river or pond outside the village while wearing cloths if he happen to defecate without the use of water in a water body-pit, in case the urge for this is too hard. Thereafter, he should touch a cow.
Changing times makes the Hindus use toilets where excreta passes directly into water present in the sheet and then they use paper napkins.Excreta is then flushed. Its not all, those who are present abroad use sanitisers in stead of washing hands with water. India has already banned use of sanitisers by the bank employees counting currency notes manually.
During Corona Kal use of sanitises has increased too much, beyond limits; which too is dangerous-harmful.
वेदोदितानां नित्यानां कर्मणां समतिक्रमे।
स्नातकव्रतलोपे च प्रायश्चित्तमभोजनम्॥[मनुस्मृति 11.203]
वेद में कहे हुए नित्यकर्मों का अतिक्रमण हो जाने पर एक दिन भोजन न करें, यही इस दोष का प्रायश्चित।
In case one happen to skip the daily routine-purification measures prescribed in the Veds, he may subject himself to one day's fasting.
हुङ्कारं ब्राह्मणस्योक्त्वा त्वङ्कारं च गरीयसः।
स्नात्वाऽनश्नन्नहः शेषमभिवाद्य प्रसादयेत्॥[मनुस्मृति 11.204]
ब्राह्मण को हुंकार (अर्थात चुप बैठने को कहना) और अपने से बड़े को तू कह दे तो उस समय से सांयकाल तक स्नान कर उसकी सेवा करके उसको प्रसन्न करे।
If one happen to ask a Brahmn to sit quietly or spell "tu" (you, it shows disrespect) to elders, he should bathe and serve him till evening.
To speak "tu" to elders is considered as bad manner & against etiquette in India. However, people generally speak "tu" to the Almighty and close friends, relatives etc. "Tu" and "tum" are part of slang used by Hindi speaking people in North India, especially Uttar Pradesh. Proper word for addressing unknown person is Aap.
ताडयित्वा तृणेनापि कण्ठे वाऽऽबध्य वाससा।
विवादे वा विनिर्जित्य प्रणिपत्य प्रसादयेत्॥[मनुस्मृति 11.205]
ब्राह्मण को तृण से भी मारने पर अथवा उसके कण्ठ में कपड़ा डालने या विवाद करने पर उसको प्रणाम कर प्रसन्न करना चाहिये।
Appeasement of Brahmn by saluting-prostrating in front of him, in case he is struck even if by mistake even with a straw, tying his neck with a cloth or altercation should be done very politely, in soothing language.
अवगूर्य त्वब्दशतं सहस्रमभिहत्य च।
जिघांसया ब्राह्मणस्य नरकं प्रतिपद्यते॥[मनुस्मृति 11.206]
ब्राह्मण को मारने की धमकी देने पर सौ वर्ष और दण्ड से प्रहार करने पर एक हजार वर्ष तक नर्क भोगना पड़ता है।
Threatening a Brahmn by death leads to 100 years of stay in hell and strucking him with a baton leads to one thousand years of stay in the hell.
शोणितं यावतः पांसून्सङ्गृह्णाति महीतले।
तावन्त्यब्दसहस्राणि तत्कर्ता नरके वसेत्॥[मनुस्मृति 11.207]
ब्राह्मण का रुधिर-खून धरती पर गिरकर धूल के जितने कणों को भिगोता है, उतने ही हजार वर्ष तक रुधिर बहाने वाला नर्क में वास करता है।
One is subjected to stay in hell for as many thousand years as the number of dust particles are smeared by the blood of the Brahmn which oozes out of his body on striking him.
अवगूर्य चरेत्कृच्छ्रमतिकृच्छ्रं निपातने।
कृच्छ्रातिकृच्छ्रौ कुर्वीत विप्रस्योत्पाद्यशोणितम्॥[मनुस्मृति 11.208]
ब्राह्मण को मारने के लिए लाठी उठाने पर कृच्छ्रव्रत करे और मार देने पर अतिकृच्छ्र व्रत करे और खून बहाने पर दोनों कृच्छ्र व्रत और अतिकृच्छ्र व्रत करे।
One should observe Krachchhr Vrat having raised baton-hand over the Brahmn. In case the Brahmn is struck with the baton, he should observe Atikrachchhr Vrat. If blood comes out of the body of the Brahmn as a result of striking him, one should under go both penances i.e., Krachchhr and Atikrachchhr Vrat.
अनुक्तनिष्कृतीनां तु पापानामपनुत्तये।
शक्तिं चावेक्ष्य पापं च प्रायश्चित्तं प्रकल्पयेत्॥[मनुस्मृति 11.209]
जिन पापों के प्रायश्चित नहीं कहे गये हैं उनके प्रायश्चित के लिये पापकर्त्ता अपनी शक्ति-सामर्थ्य को देखकर व्यवस्था करे।
The sinner may undergo penances as per his own strength & tolerance for those sins the penances of which have not been mentioned-discussed.
यैरभ्युपायैरेनांसि मानवो व्यपकर्षति।
तान्वोऽभ्युपायान्वक्ष्यामि देवर्षिपितृसेवितान्॥[मनुस्मृति 11.210]
जिन उपायों से मनुष्य अपने पापों का प्रायश्चित करता है, देवता, पितरों और ऋषियों से अनुष्ठित उन उपायों को कहता हूँ।
I am describing those measures which are to be adopted for the Penances approved by demigods-deities, Manes and the sages.
त्र्यहं प्रातस्त्र्यहं सायं त्र्यहमद्यादयाचितम्।
त्र्यहं परं च नाश्नीयात्प्राजापत्यं चरन्द्विजः॥[मनुस्मृति 11.211]
प्राजापत्य व्रत का आचरण करता हुआ द्विज तीन दिन सवेरे, तीन दिन शाम और तीन दिन बिना किसी से कुछ माँगे ही, जो कुछ मिल जाये उसे ही खाये। इसी को प्राजापत्य व्रत कहते हैं।
The Swarn-upper caste should eat whatever is available without being asked, for three days in the morning & three days in the evening. This process is termed as Prajapaty Vrat.
गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधि सर्पिः कुशोदकम्।
एकरात्रोपवासश्च कृच्छ्रं सांतपनं स्मृतम्॥[मनुस्मृति 11.212]
गोमूत्र, गाय का गोबर, गाय का दूध, गौ के दूध की दही, गौ का घी, कुश का जल; इन सबको मिलाकर भोजन करे, दूसरे दिन उपवास करे। इसी को कृच्छ्रसान्तापन व्रत कहते हैं।
As a penance one should mix cow's urine, dung, milk, curd, ghee and the extract of Kush grass and eat them. Next day he should observe a fast. This is called Krachchhr Sanatapan Vrat.
एकैकं ग्रासमश्नीयात्त्र्यहाणि त्रीणि पूर्ववत्।
त्र्यहं चोपवसेदन्त्यमतिकृच्छ्रं चरन्द्विजः॥[मनुस्मृति 11.213]
तीन दिन तक सवेरे एक ग्रास और तीन दिन तक शाम को एक-एक ग्रास और तीन दिन तक बिना माँगे अन्न भी एक-एक ग्रास खाये। इसी को अतिकृच्छ्र व्रत कहते हैं।
One who undergoes penances, should eat one mouthful only once in a day for three days in the morning followed by eating one mouthful for next three days in the evening and thereafter for the next three days, he should eat one mouthful food which he has obtained without being asked.This is known as Atikrachchhr Vrat.
तप्तकृच्छ्रं चरन्विप्रो जलक्षीरघृतानिलान्।
प्रतित्र्यहं पिबेदुष्णान्सकृत्स्नायी समाहितः॥[मनुस्मृति 11.214]
ब्राह्मण नित्य एक बार स्नानकर एकाग्रचित्त होकर प्रत्येक तीन-तीन दिन के क्रम से गर्म दूध, गर्म घी और गर्म वायु का सेवन करे (अर्थात तीन दिन जल, तीन दिन दूध इत्यादि)। इसी को तप्तकृच्छ्र व्रत कहते है।
The Brahmn should consume warm milk for three days, followed by warm Ghee for another three days and warm air for yet another three consecutive days after becoming fresh-bathing once in a day, every day. This is described as Taptkrachchhr Vrat.
यतात्मनोऽप्रमत्तस्य द्वादशाहमभोजनम्।
पराको नाम कृच्छ्रोऽयं सर्वपापापनोदनः॥[मनुस्मृति 11.215]
संयत चित्त होकर मन और इन्द्रियों को रोककर-काबू में करके, बारह दिन उपवास करने को पराककृच्छ्र व्रत कहते हैं, जो कि समस्त पापों का नाश करने वाला है।
Observance of fast for twelve days after controlling the innerself-psyche and passions-sense organs, is Parakkrachchhr Vrat which leads to destruction from all sins.
This penance relieves one from all sins, guilt.
एकैकं ह्रासयेत्पिण्डं कृष्णे शुक्ले च वर्धयेत्।
उपस्पृशंस्त्रिषवणमेतच्चान्द्रयणं व्रतम्॥[मनुस्मृति 11.216]
कृष्ण पक्ष में तिथि के अनुसार एक-एक ग्रास कम करके और शुल्क पक्ष में तिथि के अनुसार एक-एक ग्रास बढ़कर भोजन करे, इसको चान्द्रायण व्रत कहते हैं।
Reduction of one mouthful of food every day during dark phase of Moon as per date in Hindu calendar and increasing of food intake one mouthful each day, is Chandrayan Vrat.
एतमेव विधिं कृत्स्नमाचरेद्यवमध्यमे।
शुक्लपक्षादिनियतश्चरंश्चान्द्रायणं व्रतम्॥[मनुस्मृति 11.217]
शुक्ल पक्षादि से पूर्वोक्त प्रकार से (अर्थात तिथि के अनुसार) व्रत को करे तो यवमध्यम चान्द्रायण व्रत कहते हैं।
If one undergoes penances as described above during bright phase of Moon (as per dates-Tithi) is termed as Yavmadhyam Chandrayan Vrat.
अष्टावष्टौ समश्नीयात्पिण्डान्मध्यंदिने स्थिते।
नियतात्मा हविष्याशी यतिचान्द्रायणं चरन्॥[मनुस्मृति 11.218]
शुल्कपक्षादि वा कृष्णपक्षादि से आरम्भ कर एक मास तक जितेन्द्रिय होकर दोपहर में आठ ग्रास हविष्य अन्न का भोजन, यति चान्द्रायण व्रत कहलाता है।
One undertaking penances beginning from either the bright or dark phase of the Moon performing them with control over sense organs, eating eight mouthful of food during the mid day is called Yati Chandrayan Vrat.
चतुरः प्रातरश्नीयात्पिण्डान्विप्रः समाहितः।
चतुरोऽस्तमिते सूर्ये शिशुचान्द्रायणं स्मृतम्॥[मनुस्मृति 11.219]
एक मास तक चार ग्रास सबेरे और चार ग्रास शाम को नियम से भोजन करे। इसको शिशु चान्द्रायण व्रत मुनियों ने कहा है।
One willing to take penances should eat four mouthfuls of food in the morning & four mouthfuls in the evening regularly. The sages have termed it as Shishu Chandrayan Vrat.
यथा कथं चित् पिण्डानां तिस्रोऽशीतीः समाहितः।
मासेनाश्नन् हविष्यस्य चन्द्रस्यैति सलोकताम्॥[मनुस्मृति 11.220]जो नियत चित्त होकर एक मास तक किसी भी प्रकार से 240 ग्रास केवल हविष्य ही खाकर निर्वाह करता है, वह चन्द्रलोक को जाता है।
One solely survives on 240 mouthfuls of the sacrificial offerings of food to deities-Hawan for on month, goes to Chandr Lok.
एतद्रुद्रास्तथादित्या वसवश्चाचरन्व्रतम्।
सर्वाकुशलमोक्षाय मरुतश्च महर्षिभिः॥[मनुस्मृति 11.221]इस व्रत को रूद्र, आदित्य-सूर्य, वसु, मरुत देवता और महिर्षियों ने भी सभी पापों से मुक्त होने के लिये किया था।
This penances-Vrat was adopted-performed by Rudr (Bhagwan Shiv), Adity-Sun, Vasu, Marut, and the Great Sages to get rid of all sins.
महाव्याहृतिभिर्होमः कर्तव्यः स्वयमन्वहम्।
अहिंसासत्यमक्रोधमार्जवं च समाचरेत्॥[मनुस्मृति 11.222]स्वयं प्रतिदिन महाव्याहृति होम घी से करे। हिंसा, क्रोध और कुटिलता और झूँठ न बोले।
One should resort to Mahavyahrati Hawan with Ghee everyday and keep off from violence, anger, diplomacy-treachery and never tell a lie.
त्रिरह्नस्त्रिर्निशायां च सवासा जलमाविशेत्।
स्त्रीशूद्रपतितांश्चैव नाभिभाषेत कर्हिचित्॥[मनुस्मृति 11.223]दिन और रात में तीन-तीन बार कपड़ों सहित जल में प्रवेश करे और स्त्री, शूद्र और पतित से सम्भाषण न करे।
One ready to undertake penances should enter the water body or bathe thrice with cloths in the morning, mid day and evening, discarding conversation with women, Shudr and the depraved-out caste.
स्थानासनाभ्यां विहरेदशक्तोऽधः शयीत वा।
ब्रह्मचारी व्रती च स्याद् गुरुदेवद्विजार्चकः॥[मनुस्मृति 11.224]अपने स्थान पर घूमे या अपने आसन पर बैठे अथवा अस्वस्थ होने पर भूमि पर सोये। ब्रह्मचारियों के नियम के अनुसार (अर्थात मौञ्जी मेखला, दण्ड धारण करके) रहे और गुरु, देवता और ब्राह्मण की पूजा करे।
One following penances should move around his own place or occupy his seat and sleep over the ground when ill (over mat or cushion). He should subject himself to rules meant for chastity-celibacy and regard the Guru, demigods and the Brahmns.
This is just like quarantine during Corona Kal of today.
सावित्रीं च जपेन्नित्यं पवित्राणि च शक्तितः।
सर्वेष्वेव व्रतेष्वेवं प्रायश्चितार्थमादृतः॥[मनुस्मृति 11.225]नित्य सावित्री का जप करे और अपने सामर्थ्य का अनुसार पवित्र सूक्तों का जप करे। सभी व्रतों में प्रायश्चित के लिये ऐसा करना उत्तम है।
One resorting to penances should recite Savitri (Mantr-prayers) as per his capacity, capability, ability & recite other pious Sukt. This is considered to be an excellent penance.
For learning-reciting Sukt please refer to :- santoshsuvichar.blogspot.com
एतैर्द्विजातयः शोध्या व्रतैराविष्कृतैनसः।
अनाविष्कृतपापांस्तु मन्त्रैर्होमैश्च शोधयेत्॥[मनुस्मृति 11.226]आविष्कृत (प्रकट) पापों के शमन के लिये द्विजों को पूर्वोक्त चान्द्रायण आदि व्रतों को करना चाहिये और अनाविष्कृत अर्थात गुप्त पापों के शान्त्यर्थ मन्त्रों का जप-हवन करना चाहिये।
The Brahmn and the upper caste should observe Chandrayan Vrat for the pacification of revealed sins and the unrevealed sins should be pacified with the help of recitation of Mantr and performing Hawans (offering oblations in holy fire).
ख्यापनेनानुतापेन तपसाऽध्ययनेन च।
पापकृत्मुच्यते पापात्तथा दानेन चापदि॥[मनुस्मृति 11.227]अपने पापों को लोगों में प्रकट करके पछताने से, तप तथा अध्ययन करने से पाप करने वाला पाप के दोष से मुक्त हो जाता है और यदि तप आदि करने में असमर्थ हो तो दान करके भी पाप से मुक्त हो सकता है।
Confession of sins followed by repentance-penances, austerity, Tpsaya and studying the sacred text-Ved, Shastr leads to the removal of the impact of sins. If one is not able to adopt ascetics he may resort to donations.
In this era if one reveals his sins in font of wicked people there is a great danger of his being black mailed.Thus reveal the sins in front of virtuous people, enlightened Guru or the trusted people like parents.Then take a pledge not to repeat them in future under any circumstances. Remain firm-determined over this decision.
यथा यथा नरोऽधर्मं स्वयं कृत्वाऽनुभाषते।
तथा तथा त्वचेवाहिस्तेनाधर्मेण मुच्यते॥[मनुस्मृति 11.228]जैसे-जैसे मनुष्य अपने किये गए पापों को लोगों में ठीक-ठीक बताता है, वैसे-वैसे वह उस अधर्म के कैंचुल से साँप की तरह मुक्त हो जाता है।
One gradually gets freedom from the impact of sins as he repent, observe penances & by accepting his sins in publicly. He is freed from the sins the way the snake is liberated from the exo skin, slough.
Confession followed by repentance and determination not to repeat such things in future leads to purification of soul just like air and water which become free from impurities-pollutants.
यथा यथा मनस्तस्य दुष्कृतं कर्म गर्हति।
तथा तथा शरीरं तत् तेनाधर्मेण मुच्यते॥[मनुस्मृति 11.229]
जैसे-जैसे पापी का मन पाप कर्म की निन्दा करता है, वैसे-वैसे उसका शरीर (मन आत्मा) उस पाप से छुटकारा पता जाता है।
The sinner is relieved off the impact of sins over his mind, heart, body & the soul, gradually, as he himself condemn the sins committed by him.
कृत्वा पापं हि संतप्य तस्मात्पापात्प्रमुच्यते।
नैवं कुर्यात् पुनरिति निवृत्त्या पूयते तु सः॥[मनुस्मृति 11.230]
पाप करके अपने किये हुए पर पश्चाताप करे तो वह पाप से छूट जाता है। फिर ऐसा नहीं करुँगा, मन में ऐसा संकल्प करके निवृत हो जाये तो वह पवित्र हो जाता है।
One is relieved off the guilt of having committed a sin by undergoing repentance-penances. He should determine that he would not repeat the offence-guilt again and is purified finally.
अनजाने में हुए पाप का प्रायश्चित :: श्रीमद्भागवत जी के षष्ठम स्कन्ध में, महाराज परीक्षित जी, श्री शुकदेव जी से ऐसा प्रश्न कर लिए।
बोले भगवन - आपने पञ्चम स्कन्ध में जो नरको का वर्णन किया ,उसको सुनकर तो गुरुवर रोंगटे खड़े जाते हैं।
प्रभूवर मैं आपसे ये पूछ रहा हूँ की यदि कुछ पाप हमसे अनजाने में हो जाते हैं ,जैसे चींटी मर गयी,हम लोग स्वास लेते हैं तो कितने जीव श्वासों के माध्यम से मर जाते हैं। भोजन बनाते समय लकड़ी जलाते हैं ,उस लकड़ी में भी कितने जीव मर जाते हैं और ऐसे कई पाप हैं जो अनजाने हो जाते हैं ।
तो उस पाप से मुक्ती का क्या उपाय है भगवन।
आचार्य शुकदेव जी ने कहा राजन ऐसे पाप से मुक्ती के लिए रोज प्रतिदिन पाँच प्रकार के यज्ञ करने चाहिए ।
महाराज परीक्षित जी ने कहा, भगवन एक यज्ञ यदि कभी करना पड़ता है तो सोंचना पड़ता है।आप पाँच यज्ञ रोज कह रहे हैं । -
यहां पर आचार्य शुकदेव जी हम सभी मानव के कल्याणार्थ कितनी सुन्दर बात बता रहे हैं।
राजन् अतिथि सत्कार खूब करें, कोई भिखारी आवे तो उसे जूठा अन्न कभी भी भिक्षा में न दे।
राजन् ऐसा करने से अनजाने में किये हुए पाप से मुक्ती मिल जाती है। हमे उसका दोष नहीं लगता। उन पापो का फल हमे नहीं भोगना पड़ता।
राजा ने पुनः पूछ लिया ,भगवन यदि गृहस्त में रहकर ऐसी यज्ञ न हो पावे तो और कोई उपाय हो सकता है क्या।
तब यहां पर श्री शुकदेव जी कहते हैं राजन् :-
कर्मणा कर्मनिर्हांरो न ह्यत्यन्तिक इष्यते।
अविद्वदधिकारित्वात् प्रायश्चितं विमर्शनम् ।।
नरक से मुक्ती पाने के लिए हम प्रायश्चित करें। कोई व्यक्ति तपस्या के द्वारा प्रायश्चित करता है। कोई ब्रह्मचर्य पालन करके प्रायश्चित करता है। कोई व्यक्ति यम,नियम,आसन के द्वारा प्रायश्चित करता है। लेकिन मैं तो ऐसा मानता हूँ राजन्!
केचित् केवलया भक्त्या वासुदेव परायणः।
राजन् केवल हरी नाम संकीर्तन से ही जाने और अनजाने में किये हुए को नष्ट करने की सामर्थ्य है।
इसलिए सदैव कहीं भी कभी भी किसी भी समय सोते जागते उठते बैठते राम नाम रटते रहो।
पाप-पुण्य :: हिन्दू धर्म में पाप-पुण्य का बेहद महत्व माना गया है। ये पाप-पुण्य सामान्यत: मनुष्य के कर्मों से जोड़कर देखे जाते हैं। मनुष्य कैसे कर्म कर रहा है, उसके द्वारा किए गए सही और गलत कर्मों को ही पाप-पुण्य में विभाजित किया जाता है।
पाप-पुण्य की अवधारणा :: हिन्दू शास्त्रों में पाप-पुण्य से जुड़ी कई मान्यताएं दर्ज हैं। विभिन्न पुण्य करना मनुष्य को कैसे लाभ दिलाता है और दूसरी ओर कैसे पाप करने से वह दंड को पाता है, यह सब शास्त्रों में दर्ज है।
पाप का भय :: जहां तक पुण्य की बात है तो इसे प्राप्त कर मनुष्य संतुष्ट महसूस करता है, उसे प्रसन्नता होती है कि उसने कोई नेक कार्य किया है। लेकिन जब बात ‘पाप’ की आती है तो वह भयभीत हो जाता है। इस पाप से वह खुद का बचाव कैसे करे इसकी योजना बनाने लगता है।
महाराज परीक्षित और शुकदेव जी का जवाब :: किंतु यहां यह सवाल उजागर होता है कि जानबूझकर किए गए पाप के लिए तो दंड अनिवार्य है, किंतु यदि अनजाने में कोई पाप का भागी बन जाए तो? इसी सवाल को वर्षों पहले महाराज परीक्षित ने भी उठाया था, जिसे श्रीमद्भागवत जी के षष्टम स्कन्ध में दर्ज किया गया था।
महाराज परीक्षित ने शुकदेव से यह सवाल किया था कि ‘यदि हम अनजाने में कोई पाप करते हैं तो उसका प्रायश्चित कैसे किया जाए? कई बार हम अनजाने में अपने पैरों तले चीटियों को रौंद देते हैं, श्वास के माध्यम से वायु में मौजूद जीवों को नष्ट करते हैं, लकड़ियों को जलाते समय उस पर मौजूद जीवों का नाश कर देते हैं। तो ऐसे पापों का प्रायश्चित कैसे किया जाए?
5 प्रकार के यज्ञ :: महाराज परीक्षित के इस सवाल को बेहद सरलता से जवाब देते हुए आचार्य शुकदेव बोले कि ‘ऐसे पाप से मुक्ति के लिए रोज प्रतिदिन 5 प्रकार के यज्ञ करने चाहिए’। रोजाना 5 प्रकार के ये यज्ञ ही अनजाने में किए गए पापों से छुटकारा दिलाते हैं। लेकिन क्या हैं ये यज्ञ, जानिए?
अनिवार्य 5 यज्ञ :: 5 यज्ञों की व्याख्या करते हुए शुकदेव बोले, ‘राजन, यह ऐसे बड़े यज्ञ नहीं हैं। वरन् कुछ सरल शास्त्रीय उपाय हैं जिहें यज्ञ के समान मानते हुए इस प्रकार का नाम दिया गया है। ये 5 यज्ञ मनुष्य को अनजाने में किए गए बुरे कृत्यों के बोझ से राहत दिलाते हैं।
पहला यज्ञ :: आचार्य शुकदेव के अनुसार यदि अनजाने में हम कोई पाप कर देते हैं तो हमें उसके प्रायश्चित के लिए रोजाना गऊ को एक रोटी दान करनी चाहिए। जब भी घर में रोटी बने तो पहली रोटी गऊ ग्रास के लिए निकाल देना चाहिए।
दूसरा यज्ञ :: चींटी को 10 ग्राम आटा रोज वृक्षों की जड़ों के पास डालना चाहिए।
तीसरा यज्ञ :: पक्षियों को अन्न रोज डालना चाहिए।
चौथा यज्ञ :: आटे की गोली बनाकर रोज जलाशय में मछलियों को डालना चाहिए।
पांचवां यज्ञ :: भोजन बनाकर अग्नि भोजन, यानी रोटी बनाकर उसके टुकड़े करके उसमें घी-चीनी मिलाकर अग्नि को भोग लगाएं।
आचार्य शुकदेव के अनुसार यदि कोई मनुष्य रोजाना ये 5 यज्ञ सम्पन्न करता है तो ना केवल वह अपने पापों के बोझ से मुक्ति पाता है, साथ ही उन धार्मिक उपायों को करने से वह पुण्य को भी प्राप्त करता है। इनमें से एक उपाय भगवान वेदव्यास जी द्वारा रचित पापनाशक स्तोत्र भी है जिसका विवरण आगे दिया गया है।
समस्त पाप नाशक स्तोत्र ::
भगवन वेदव्यासजी द्वारा रचित अठारह पुराणों में से एक ‘अग्नि पुराण’ में अग्निदेव द्वारा महर्षि वशिष्ठ को दियें गये विभिन्न उपदेश हैं| इसीके अंतर्गत इस पापनाशक स्तोत्र के बारे में महात्मा पुष्कर कहते हैं कि मनुष्य चित्त की मलिनता चोरी, हत्या, परस्त्रीगमन आदि विभिन्न पाप करता है, पर जब चित कुछ शुद्ध होता है तब उसे इन पापों से मुक्ति की इच्छा होती है| उस समय भगवान नारायण की दिव्य स्तुति करने से समस्त पापों का प्रायश्चित पूर्ण होता है| इसीलिए इस दिव्य स्तोत्र का नाम ‘समस्त पापनाशक स्तोत्र’ है|
निम्नलिखित प्रकार से भगवान नारायण की स्तुति करें :-
पुष्करोवाच ::
विष्णवे विष्णवे नित्यं विष्णवे विष्णवे नमः ।
नमामि विष्णुं चित स्थमहंकारगतिं हरिम् ॥
चित्तस्थमीशमव्यक्तमनन्तमपराजितम् ।
विष्णुमीडयमशेषेण अनादिनिधनं विभुम् ।।
विष्णुश्चित्तगतो यन्मे विष्णुर्बुद्धिगतश्च यत् ।
यच्चाहंकारगो विष्णुर्यव्दिष्णुमॅयि संस्थितः ॥
करोति कर्मभूतोऽसौ स्थावरस्य चरस्य च ।
तत् पापं नाशमायातु तस्मिन्नेव हि चिन्तिते ॥
ध्यातो हरति यत् पापं स्वप्ने दृष्टस्तु भावनात् ।
तमुपेन्द्रमहं विष्णुं प्राणतातिॅहरं हरिम् ॥
जगत्यस्मिन्निराधारे मज्जमाने तमस्यधः ।
हस्तावलम्बनं विष्णुं प्रणमामि परात्परम् ॥
सर्वेश्वरेश्वर विभो परमात्मन्नधोक्षज ।
हृषीकेश हृषीकेश हृषीकेश नमोऽस्तु ते ॥
नृसिंहानन्त गोविंद भूतभावन केशव ।
दुरुक्तं दुष्कृतं ध्यातं शमयाधं नमोऽस्तु ते॥
यन्मया चिन्तितं दुष्टं स्वचित्तवशवर्तिना।
अकार्यँ महदत्युग्रं तच्छ्मं नय केशव॥
ब्रह्मण्यदेव गोविंद परमार्थपरायण।
जगन्नाथ जगध्दतः पापं प्रश्मयाच्युत॥
यथापरह्मे सायाह्मे मध्याह्मे च तथा निशि।
कायेन मनसा वाचा कृतं पापमजानता॥
जानता च हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष माधव।
नामत्रयोच्चारणतः पापं यातु मम क्षयम्॥
शरीरं में हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष माधव।
पापं प्रशमयाध त्वं वाक्कृतं मम माधव॥
यद् भुंजन यत् स्वपंस्तिष्ठन् गच्छन् जाग्रद यदास्थितः।
कृतवान् पापमधाहं कायेन मनसा गिरा ॥
यत् स्वल्पमपि यत् स्थूलं कुयोनिनरकावहम्।
तद् यातु प्रशमं सर्वं वासुदेवानुकीर्तनात्॥
परं ब्रहम परं धाम पवित्रं परमं च यत्।
तस्मिन् प्रकीर्तिते विष्णौ यत् पापं तत् प्रणश्यतु॥
यत् प्राप्य न निवतॅन्ते गन्धस्पशाॅदिवजिॅतम्।
सूरयस्तत् पदं विष्णोस्तत् सर्वं शमयत्वधम्॥
[अग्नि पुराण 172]
महात्म्यं ::
पापप्रणाशनं स्त्रोत्रं यः पठेच्छृणुयादपि।
शारीरैमॉनसैवॉग्जैः कृतैः पापैः प्रमुच्यते॥
सर्वपापग्रहादिभ्यो याति विष्णोः परं पदम्।
तस्मात् पापे कृते जप्यं स्त्रोत्रं सवॉधमदॅनम्॥
प्रायश्चित्तमधौधानां स्त्रोत्रं व्रतकृते वरम्।
प्रायश्चित्तैः स्त्रोत्रजपैर्व्रतैनॅश्यति पातकम्॥
[अग्नि पुराण : 172.19-21]
अर्थ: - पुष्कर बोले: “सर्वव्यापी विष्णु को सदा नमस्कार है श्रीहरी विष्णु को नमस्कार है मैं अपने चित में स्थित सर्वव्यापी, अहंकारशून्य श्रीहरी को नमस्कार करता हूँ मैं अपने मानस में विराजमान अव्यक्त, अनंत और अपराजित परमेश्वर को नमस्कार करता हूँ। सबके पूजनीय, जन्म और मरण से रहित, प्रभावशाली श्रीविष्णु को नमस्कार है। विष्णु मेरे चित में निवास करते हैं, विष्णु मेरी बुद्धि में विराजमान हैं, विष्णु मुझमें भी स्थित हैं।
वे श्रीविष्णु ही चराचर प्राणियों के कर्मों के रूप में स्थित हैं, उनके चिंतन से मेरे पाप का विनाश हो जो ध्यान करने पर पापों का हरण करते हैं और भावना करने से स्वप्न में दर्शन देते हैं, इन्द्र के अनुज, शरणागतजनों का दुःख दूर करनेवाले उन पापपहारी श्रीविष्णु को मैं नमस्कार करता हूँ।
मैं इस निराधार जगत में अज्ञानान्धकार में डूबते हुए को हाथ का सहारा देनेवाले परात्परस्वरुप श्रीविष्णु के सम्मुख नतमस्तक होता हूँ। सर्वेश्वर प्रभो! कमलनयन परमात्मन्! हृषिकेश! आपको नमस्कार है| इन्द्रियों के स्वामी श्रीविष्णो! आपको नमस्कार है। नृसिंह! अनंतस्वरुप गोविन्द! समस्त भूतप्राणियों की सृष्टि करनेवाले केशव! मेरे द्वारा जो दुर्वचन कहा गया हो अथवा पापपूर्ण चिंतन किया गया हो, मेरे उस पाप का प्रशमन कीजिये, आपको नमस्कार है। केशव! अपने मन के वश में होकर मैंने जो न करने योग्य अत्यंत उग्र पापपूर्ण चिंतन किया है, उसे शांत कीजिये| परमार्थपरायण, ब्राह्मणप्रिय गोविन्द! अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होनेवाले जगन्नाथ! जगत का भरण-पोषण करनेवाले देवेश्वर! मेरे पाप का विनाश कीजिये। मैंने मध्यान्ह, अपरान्ह, सायंकल एवं रात्रि के समय जानते हुए अथवा अनजाने, शरीर, मन एवं वाणी के द्वारा जो पाप किया हो, ‘पुन्द्रिकाक्ष’, ‘हृषिकेश’, ‘माधव’- आपके इन तीन नामों के उच्चारण से मेरे वे सब पाप क्षीण हो जायें। कमलनयन! लक्ष्मीपते! इन्द्रियों के स्वामी माधव! आज आप मेरे शारीर एवं वाणी द्वारा किये हुए पापों का हनन कीजिये। आज मैंने खाते, सोते, खड़े, चलते अथवा जागते हुए मन, वाणी और शारीर से जो भी नीच योनी एवं नरक की प्राप्ति करनेवाले सूक्ष्म अथवा स्थूल पाप किये हों, भगवान वासुदेव के नामोच्चारण से वे सब विनष्ट हों जायें। जो परब्रह्म, परम धाम और परम पवित्र हैं, उन श्रीविष्णु के संकीर्तन से मेरे पाप लुप्त हो जायें। जिसको प्राप्त होकर ज्ञानीजन पुन: लौटकर नहीं आते, जो गंध, स्पर्श आदि तन्मात्राओं से रहित है, श्रीविष्णु का वह परम पद मेरे संपूर्ण पापों का शमन करे"।
महात्म्य :: जो मनुष्य पापों का विनाश करनेवाले इस स्तोत्र का पठन अथवा श्रवण करता है, वह शरीर, मन और वाणीजनित समस्त पापों से छूट जाता है एवं समस्त पापग्रहों से मुक्त होकर श्रीविष्णु के परम पद को प्राप्त होता है। इसलिए किसी भी पाप के हो जाने पर इस स्तोत्र का जप करें। यह स्तोत्र पापसमुहों के प्रायश्चित के समान है। कृच्छर् आदि व्रत करनेवाले के लिए भी यह श्रेष्ठ है। स्तोत्र-जप और व्रत्रूप प्रायश्चित से संपूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं। इसलिए भोग और मोक्ष की सिद्धि के लिए इनका अनुष्ठान करना चाहिए।
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