प्रेता यजता नर इन्द्रो वः शर्म यच्छतु।
उग्रा वः सन्तु बाहवोऽनाधृष्या यथाऽसथ॥14॥
हे हमारे नरो! जाओ और विजय करो। इन्द्र तुम्हें विजय-सुख दें। तुम्हारी भुजाएँ उग्र हों, जिससे तुम अघर्षित होकर टिके रहो।
घर्षित :: रगड़ा हुआ, घिसा, पिसा हुआ, अपहृत, अपहृता, घर्षित, घर्षिताअच्छी तरह धुला हुआ, माँजा हुआ; abject, victim of abduction.
Hey warriors-soldiers! Move and win-over power the enemy. Let Devraj Indr provide you with the pleasure-happiness of victory. Your hands-arms should be fiery, strong enough and quick, so that you remain unabducted.
असौ या सेना मरुतः परेषामभ्यैति न ओजसा स्पर्धमाना।
तां गृहत तमसाऽपव्रतेन यथाऽमी अन्यो अन्यं न जानन्॥15॥
हे मरुद्गण! यह जो शत्रु सेना बल में हम से स्पर्धा करती हुई हमारी ओर चली आ रही है, उसे कर्म हीनता के अन्धकार से आच्छादित कर दो, ताकि वे आपस में ही एक-दूसरे को न जानते हुए लड़ मरें।
Hey Marud Gan! Let the enemy army, which is moving towards us, competing with us, should be shrouded with the cover of inability-imprudence so that they fight one another, without recognising themselves.
यत्र बाणा: सम्पतन्ति कुमारा विशिखा इव।
तत्र इन्द्रोबृहस्पतिरदितिः शर्म यच्छतु विश्वाहा शर्मयच्छतु॥16॥
शिखा हीन कुमारों की भाँति शत्रु प्रेरित बाण जहाँ-जहाँ पड़ें, वहाँ-वहाँ इन्द्र, बृहस्पति और अदिति हमारा कल्याण करें। विश्व संहारक हमारा कल्याण करें।
Let the destroyer of the world (Bhagwan Mahesh-Shiv) do our welfare. Where ever the arrows shot by the enemy, like the youth without hair coil over the head, fall Dev Raj Indr, Dev Guru Brahaspati and Mata Aditi look to our welfare i.e., protect us.
पितृ सूक्त ::उदिताम् अवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः।
असुम् यऽ ईयुर-वृका ॠतज्ञास्ते नो ऽवन्तु पितरो हवेषु॥1॥
अंगिरसो नः पितरो नवग्वा अथर्वनो भृगवः सोम्यासः।
तेषां वयम् सुमतो यज्ञियानाम् अपि भद्रे सौमनसे स्याम्॥2॥
ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासो ऽनूहिरे सोमपीथं वसिष्ठाः।
तेभिर यमः सरराणो हवीष्य उशन्न उशद्भिः प्रतिकामम् अत्तु॥3॥
त्वं सोम प्र चिकितो मनीषा त्वं रजिष्ठम् अनु नेषि पंथाम्।
तव प्रणीती पितरो न देवेषु रत्नम् अभजन्त धीराः॥4॥
त्वया हि नः पितरः सोम पूर्वे कर्माणि चक्रुः पवमान धीराः।
वन्वन् अवातः परिधीन् ऽरपोर्णु वीरेभिः अश्वैः मघवा भवा नः॥5॥
त्वं सोम पितृभिः संविदानो ऽनु द्यावा-पृथिवीऽ आ ततन्थ।
तस्मै तऽ इन्दो हविषा विधेम वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥6॥
बर्हिषदः पितरः ऊत्य-र्वागिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम्।
तऽ आगत अवसा शन्तमे नाथा नः शंयोर ऽरपो दधात॥7॥
आहं पितृन्त् सुविदत्रान् ऽअवित्सि नपातं च विक्रमणं च विष्णोः।
बर्हिषदो ये स्वधया सुतस्य भजन्त पित्वः तऽ इहागमिष्ठाः॥8॥
उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु।
तऽ आ गमन्तु तऽ इह श्रुवन्तु अधि ब्रुवन्तु ते ऽवन्तु-अस्मान्॥9॥
आ यन्तु नः पितरः सोम्यासो ऽग्निष्वात्ताः पथिभि-र्देवयानैः।
अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तो ऽधि ब्रुवन्तु ते ऽवन्तु-अस्मान्॥10॥
अग्निष्वात्ताः पितर एह गच्छत सदःसदः सदत सु-प्रणीतयः।
अत्ता हवींषि प्रयतानि बर्हिष्य-था रयिम् सर्व-वीरं दधातन॥11॥
येऽ अग्निष्वात्ता येऽ अनग्निष्वात्ता मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते।
तेभ्यः स्वराड-सुनीतिम् एताम् यथा-वशं तन्वं कल्पयाति॥12॥
अग्निष्वात्तान् ॠतुमतो हवामहे नाराशं-से सोमपीथं यऽ आशुः।
ते नो विप्रासः सुहवा भवन्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥13॥
आच्या जानु दक्षिणतो निषद्य इमम् यज्ञम् अभि गृणीत विश्वे।
मा हिंसिष्ट पितरः केन चिन्नो यद्व आगः पुरूषता कराम॥14॥
आसीनासोऽ अरूणीनाम् उपस्थे रयिम् धत्त दाशुषे मर्त्याय।
पुत्रेभ्यः पितरः तस्य वस्वः प्रयच्छत तऽ इह ऊर्जम् दधात॥15॥
पितृ-सूक्त :: ऋषि :- शङ्क यामायन, देवता :- 1-10, पितर :- 12-14, छन्द त्रिट्टप और जगती :- 11।
पहली आठ ऋचाओं विभिन्न स्थानों में निवास करने वाले पितरों को हविर्भाग स्वीकार करने के लिये आमन्त्रित किया गया है। अन्तिम छ: ऋचाओं में अग्रि से प्रार्थना की गयी है कि वे सभी पितरों को साथ लेकर हवि-ग्रहण करने के लिये पधारने की कृपा करें।
The manes have been requested to accept the offerings in first eight hymns and last six hymns requests Agni Dev to come along with all Manes and accept offerings-Havi (Havy-Kavy).
उदीरतामवर उत् परास उन्मध्यमाः पितर; सोम्यासः।
असुं य ईयुरवृका ऋतज्ञास्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु॥
नीचे, ऊपर और मध्य स्थानों में रहने वाले, सोम पान करने के योग्य हमारे सभी पितर उठकर तैयार हों। यज्ञ के ज्ञाता सौम्य स्वभाव के हमारे जिन पितरों ने नूतन प्राण धारण कर लिये हैं, वे सभी हमारे बुलाने पर आकर हमारी सुरक्षा करें।[ऋग्वेद 10.15.1]
सौम्य :: प्रिय, उदार, क्षमाशील, प्रशम्य; mild, benign, kindly, placable.
All of our deceased ancestors-Manes who have been placed in upper, middle and lower segments-abodes, should get up be ready to sip Somras. Those Pitr-Manes who knows-understand Veds, are benign-placable and got new lease of life (rebirth) should come on being called-requested by us and protect us.
इदं पितृभ्यो नमो अस्त्वद्य ये पूर्वासो य उपरास ईयुः।
ये पार्थिवे रजस्या निषत्ता ये वा नूनं सुवजनासु विषु॥
जो भी नये अथवा पुराने पितर यहाँ से चले गये हैं, जो पितर अन्य स्थानों में हैं और जो उत्तम स्वजनों के साथ निवास कर रहे हैं अर्थात् यमलोक, मर्त्यलोक और विष्णु लोक में स्थित सभी पितरों को आज हमारा यह प्रणाम निवेदित हो।[ऋग्वेद 10.15.2]
We offer homages to our Manes-Pitr who are either old or new & have moved to other places, residing with their own folk in Yam Lok, Marty Lok earth, Vishnu Lok-abode of Bhagwan Shri Hari Vishnu.
आहं पितृन् त्सुवित्राँ अवित्सि नपातं विक्रमणं च विष्णोः।
बर्हियदो ये स्वधया सुतस्य भजन्त पित्वस्त इहागमिष्ठाः॥
उत्तम ज्ञान से युक्त पितरों को तथा अपानपात् और विष्णु के विक्रमण को, मैंने अपने अनुकूल बना लिया है। कुशासन पर बैठने के अधिकारी पितर प्रसन्नतापूर्वक आकर अपनी इच्छा के अनुसार हमारे द्वारा अर्पित हवि और सोम रस ग्रहण करें।[ऋग्वेद 10.15.3]
अपांनपात् :: एक देवता, यह निथुद्रुप अग्नि जो पानी में प्रकाशित होता हैं; person or entity.[ऋग्वेद 2.35]
विक्रमण :: चलना, कदम रखना, भगवान् श्री हरी विष्णु का एक डग, शूरता-वीरता, पाशुपत-अलौकिक शक्ति; movement, one foot of Bhagwan Shri Hari Vishnu, bravery.
I have made the enlightened Manes-Pitr and the raising of Bhagwan Shri Hari Vishnu's foot, favourable. The Manes entitled of occupying Kushasan-cushion, made of Kush grass (very auspicious in nature), are welcome to make offerings and accept Somras.
बर्हिषदः पितर ऊत्यवार्गिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम्।
त आ गतावसा शंतमेनाऽथा नः शं योररपो दधात॥
कुशासन पर अधिष्ठित होने वाले हे पितर! आप कृपा करके हमारी ओर आइये। यह हवि आपके लिये ही तैयार की गयी है, इसे प्रेम से स्वीकार कीजिये। अपने अत्यधिक सुख प्रद प्रसाद के साथ आयें और हमें क्लेश रहित सुख तथा कल्याण प्राप्त करायें।[ऋग्वेद 10.15.4]
Hey Kushasan occupying Manes! Please come towards us. The offering has been prepared for you, accept it with love. Please bring with you auspicious Prasad-blessings and make us free from troubles and grant comforts along with our welfare.
उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु।
त आ गमन्तु त इह श्रुवन्त्वधि ब्रुवन्तु तेऽवन्त्वस्मान्॥
पितरों को प्रिय लगने वाली सोम रूपी निधियों की स्थापना के बाद कुशासन पर हमने पितरों का आवाहन किया है। वे यहाँ आयें और हमारी प्रार्थना सुनें। वे हमारी करने साथ देवों के पास हमारी ओर से संस्तुति करें।[ऋग्वेद 10.15.5]
Having collected the goods liked by the Manes like Somras, we have prayed them to come and occupy the Kushasan. They should accept our prayers and recommend to demigods-deities, measures for our welfare.
आच्या जानु दक्षिणतो निषद्येमं यज्ञमभि गृणीत विश्वे।
मा हिंसिष्ट पितरः केन चिन्नो यद्व आगः पुरुषता कराम॥
हे पितरो! बायाँ घुटना मोड़कर और वेदी के दक्षिण में नीचे बैठकर आप सभी हमारे इस यज्ञ की प्रशंसा करें। मानव स्वभाव के अनुसार हमने आपके विरुद्ध कोई भी अपराध किया हो तो उसके कारण हे पितरो! आप हमें दण्ड न दें (पितर बायाँ घुटना मोड़कर बैठते हैं और देवता दाहिना घुटना मोड़कर बैठना पसन्द करते हैं)।[ऋग्वेद 10.15.6]
Hey Pitr Gan-Manes! Please bend the left leg and sit in the South of the Vedi (Hawan Kund, Pot meant for Agni Hotr-offerings in holy fire) and appreciate-participate in our Yagy-endeavours. Hey Pitr Gan! If we have committed any mistake due to human nature against you, please do not punish us.
The Pitr mould their left leg during prayers or Yagy and the demigods-deities fold their right leg.
आसीनासो अरुणीनामुपस्थे रयिं धत्त दाशुषे मर्त्याय।
पुत्रेभ्य: पितरस्तस्य वस्यः प्र यच्छत त इहोर्जं दधात॥
अरुण वर्ण की उषा देवी के अङ्क में विराजित हे पितर! अपने इस मर्त्य लोक के याजक को धन दें, सामर्थ्य दें तथा अपनी प्रसिद्ध सम्पत्ति में से कुछ अंश हम पुत्रों को देवें।[ऋग्वेद 10.15.7]
Occupying the lap of Usha Devi, having the aura like Sun-golden hue, Hey Pitr Gan! grant a fraction of your famous assets to us (your sons-descendants) along with capability to make proper use of it.
ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासो ऽनूहिरे सोमपीथं वसिष्ठाः।
तेभिर्यमः संरराणो हवींष्युशन्नुशद्धिः प्रतिकाममत्तु॥
(यम के सोमपान के बाद) सोमपान के योग्य हमारे वसिष्ठ कुल के सोमपायी पितर यहाँ उपस्थित हो गये हैं। वे हमें उपकृत करने के लिये सहमत होकर और स्वयं उत्कण्ठित होकर यह राजा यम हमारे द्वारा समर्पित हवि को अपने इच्छानुसार ग्रहण करें।[ऋग्वेद 10.15.8]
Having consumed Somras, our Pitrs-Manes from the Vashishth clan have gathered here. Willing to oblige us, Dharm-Yam Raj should accept the offerings made us as per their will.
ये तातूषुर्देवत्रा जेहमाना होत्राविदः स्तोमतष्टासो अर्कै:।
आग्नेयाहि सुविदत्रेभिर्वाङ् सत्यैः कव्यैः पितृभिर्घर्मसद्धिः॥
अनेक प्रकार के हवि द्रव्यों के ज्ञानी अर्को से, स्तोमों की सहायता से जिन्हें निर्माण किया है, ऐसे उत्तम ज्ञानी, विश्वासपात्र घर्म नामक हवि के पास बैठने वाले कव्य नामक हमारे पितर देव लोक में साँस लगने की अवस्था तक प्यास से व्याकुल हो गये हैं। उनको साथ लेकर हे अग्निदेव! आप यहाँ उपस्थित होवें।[ऋग्वेद 10.15.9]
घर्म GHARM:: घास, धूप, सूर्य ताप, एक प्रकार का यज्ञ पात्र, ग्रीष्म काल, स्वेद-पसीना; sweat, grass, sun light, heat of Sun, a kind of pot for Yagy, summers.
कव्य :: वह अन्न जो पितरों को दिया जाय, वह द्रव्य जिससे पिंड, पितृ यज्ञादि किए जायें; the food meant for offerings to the Manes, a ball of dough meant for performing Pitr Yagy.
स्तोम :: स्तुति, स्तव, यज्ञ, समूह-झुंड, राशि, ढेर, यज्ञ करने वाला व्यक्ति; prayers, one performing Yagy, Yagy, group-compilation.
Hey Agni Dev! Please bring our enlightened Manes known as Kavy, who are feeling thirsty, at the Yagy site, who are leaned in various kinds of Havi-offerings and the Yagy designs who sit with the Havi known as Kavy.
ये सत्यासो हविरदो हविष्या इन्द्रेण देवै: सरथं दधाना:।
आग्ने याहि सहस्त्रं देववन्दैः परै: पूर्वैः पितृभिर्घर्मसद्धिः॥
कभी न बिछुड़ने वाले, ठोस हवि का भक्षण करने वाले, इन्द्र और अन्य देवों के साथ एक ही रथ में प्रयाण करने वाले, देवों की वन्दना करने वाले घर्म नामक हवि के पास बैठने वाले जो हमारे पूर्वज पितर हैं, उन्हें सहस्त्रों की संख्या में लेकर हे अग्निदेव! यहाँ पधारें।[ऋग्वेद 10.15.10]
Hey Agni Dev! Please come with our Manes in thousands, who never separate from us, eats solid Havi-offerings, moves-travels along with the demigods-deities and Indr Dev in the same charoite, who pray to the demigods-deities and sit with the Havi called Gharm.
अग्निष्वात्ता: पितर एह गच्छत सदः सदः सदत सुप्रणीतयः॥
अत्ता हवींषि प्रयतानि बहिर्ष्यथा रयिं सर्ववीरं दधातन॥
अग्नि के द्वारा पवित्र किये गये हे उत्तम पथ प्रदर्शक पितर! यहाँ आइये और अपने-अपने आसनों पर अधिष्ठित हो जाइये। कुशासन पर समर्पित हवि द्रव्यों का भक्षण करें और (अनुग्रह स्वरूप) पुत्रों से युक्त सम्पदा हमें समर्पित करा दें।[ऋग्वेद 10.15.11]
Hey excellent guides, purified by Agni Dev! Please come here and occupy your seats. Enjoy-eat the Havi offered to you, while sitting over the Kushasan and grant wealth-riches along with sons.
त्वमग्न ईळितो जातवेदो ऽवाड्ड व्यानि सुरभीणि कृत्वी।
प्रादाः पितृभ्यः स्वधया ते अक्षन्नद्धि त्वं देव प्रयता हवींषि॥
हे ज्ञानी अग्निदेव! हमारी प्रार्थना पर आप इस हवि को मधुर बनाकर पितरों के पास ले गये, उन्हें पितरों को समर्पित किया और पितरों ने भी अपनी इच्छा के अनुसार उस हवि का भक्षण किया। हे अग्निदेव! (अब हमारे द्वारा) समर्पित हवि आप ग्रहण करें।[ऋग्वेद 10.15.12]
Hey enlightened Agni Dev! you took this Havi, making it sweet, offered it to our Manes and they consumed to it, as per their wish. Hey Agni Dev! Now, please you accept the Havi-offerings.
ये चेह पितरो ये च नेह याँश्च विद्म याँ उ च न प्रविद्य।
त्वं वेत्थ यति ते जातवेदः स्वधाभिर्यज्ञं सुकृतं जुषस्व॥
जो हमारे पितर यहाँ (आ गये) हैं और जो यहाँ नहीं आये हैं, जिन्हें हम जानते हैं और जिन्हें हम अच्छी प्रकार जानते भी नहीं; उन सभी को, जितने (और जैसे) हैं, उन सभी को हे अग्निदेव! आप भली-भाँति पहचानते हैं। उन सभी की इच्छा के अनुसार अच्छी प्रकार तैयार किये गये इस हवि को (उन सभी के लिये) प्रसन्नता के साथ स्वीकार करें।[ऋग्वेद 10.15.13]
Hey Agni Dev! You recognise our all those Manes who have gathered here and those who are not present here, we either know them or may not know them, but Hey Agni Dev! you know-recognise all of them. Please accept this Havi for their happiness-pleasure prepared as per their taste.
ये अग्निदग्धा मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते।
तेभिः स्वराळसुनीतिमेतां यथावशं तन्वं कल्पयस्व॥
हमारे जिन पितरों को अग्नि ने पावन किया है और जो अग्नि द्वारा भस्मसात् किये बिना ही स्वयं पितृ भूत हैं तथा जो अपनी इच्छा के अनुसार स्वर्ग के मध्य में आनन्द से निवास करते हैं। उन सभी की अनुमति से, हे स्वराट् अग्रे! (पितृलोक में इस नूतन मृत जीव के) प्राण धारण करने योग्य (उसके) इस शरीर को उसकी इच्छा के अनुसार ही बना दो और उसे दे दो।[ऋग्वेद 10.15.14]
स्वराट् :: ब्रह्मा, ईश्वर, एक प्रकार का वैदिक छंद, वह वैदिक छंद जिसके सब पादों में मिलकर नियमित वर्णों में दो वर्ण कम हों, सूर्य की सात किरणों में से एक का नाम (को कहते हैं), विष्णु का एक नाम, शुक्र नीति के अनुसार वह राजा जिसका वार्षिक राजस्व 5० लाख से 1 करोड़ कर्ष तक हो, वह राजा जो किसी ऐसे राज्य का स्वामी हो, जिसमें स्वराज्य शासन प्रणाली प्रचलित हो, जो स्वयं प्रकाशमान हो और दूसरों को प्रकाशित करता हो, जो सर्वत्र व्याप्त, अविनाशी (स्वराट्), स्वयं-प्रकाश रूप और (कालाग्नि) प्रलय में सब का काल और काल का भी काल है, परमेश्वर-कालाग्नि है; Brahma Ji, Almighty, self lighting, possessing aura.
Our Pitr Gan-Manes, who have been purified by the Agni, those who themselves are like Agni-fire even without being burnt by fire, who lives in heavens with our their own will, Hey shinning Agni Dev! please make their bodies in new incarnation-rebirth as per their desire-wish, with their permission.
उषस् सूक्त :: ऋग्वेद संहिता, प्रथम मंडल सूक्त (48), ऋषि :- प्रस्कण्व काण्व, देवता :- उषा, छन्द :- बाहर्त प्रगाथ (विषमा बृहती, समासतो बृहती), निवास स्थान :- द्युस्थानीय।उषा शब्द वस् दीप्तौ धातु से निष्पन्न हुआ है। जिसकाअर्थ है, प्रकाशमान होना। इस सौन्दर्य की देवी के उदित् होते ही आकाश का कोना कोना जगमगाने लगता है, तथा विश्व हर्ष के अतिरेक से भर जाता है। यह प्रत्येक प्राणी को अपने कार्य में प्रवृत कर देती है। उषा का रथ चमकदार है और उसे लाल रंग के घोड़े खींचते हैं। उषा को रात्रि की बहन भी कहा गया है। आकाश से उत्पन्न होने के कारण उषा को स्वर्ग की पुत्री भी कहा गया है। उषा सूर्य की प्रेमिका है, इसके अतिरिक्त उषा का सम्बन्ध अश्विनी कुमारो से भी है। उषा अपने भक्तों को धन, यश, पुत्र आदि प्रदान करती हैं। ऋग्वेद में उषा को रेवती, सुभगाः, प्रचेताः, विश्ववारा, पुराणवती मधुवती,ऋतावरी, सुम्नावरी, अरुषीः, अमर्त्या आदि विशेषणों से अलंकृत किया गया है।सह वामेन न उषो व्युच्छा दुहितर्दिवः।
सह द्युम्नेन बृहता विभावरि राया देवि दास्वती॥1॥
हे आकाशपुत्री उषे! उत्तम तेजस्वी,दान देने वाली, धनो और महान ऐश्वर्यों से युक्त होकर आप हमारे सम्मुख प्रकट हों अर्थात हमे आपका अनुदान-अनुग्रह होता रहे। अश्वावतीर्गोमतीर्विश्वसुविदो भूरि च्यवन्त वस्तवे।
उदीरय प्रति मा सूनृता उषश्चोद राधो मघोनाम्॥2॥
अश्व, गौ आदि (पशुओं अथवा संचारित होने वाली एवं पोषक किरणों) से सम्पन्न धन्य धान्यों को प्रदान करने वाली उषाएँ प्राणिमात्र के कल्याण के लिए प्रकाशित हुई हैं। हे उषे! कल्याणकारी वचनो के साथ आप हमारे लिए उपयुक्त धन वैभव प्रदान करें।उवासोषा उच्छाच्च नु देवी जीरा रथानाम्।
ये अस्या आचरणेषु दध्रिरे समुद्रे न श्रवस्यवः॥3॥
जो देवी उषा पहले भी निवास कर चुकी हैं, वह रथो को चलाती हुई अब भी प्रकट हो। जैसे रत्नो की कामना वाले मनुष्य समुद्र की ओर मन लगाये रहते हैं; वैसे ही हम देवी उषा के आगमन की प्रतिक्षा करते हैं। उषो ये ते प्र यामेषु युञ्जते मनो दानाय सूरयः।
अत्राह तत्कण्व एषां कण्वतमो नाम गृणाति नृणाम्॥4॥
हे उषे! आपके आने के समय जो स्तोता अपना मन, धनादि दान करने मे लगाते है, उसी समय अत्यन्त मेधावी कण्व उन मनुष्यों के प्रशंसात्मक स्तोत्र गाते हैं। आ घा योषेव सूनर्युषा याति प्रभुञ्जती।
जरयन्ती वृजनं पद्वदीयत उत्पातयति पक्षिणः॥5॥
उत्तम गृहिणी स्त्री के समान सभी का भलीप्रकार पालन करने वाली देवी उषा जब आयी है, तो निर्बलो को शक्तिशाली बना देती हैं, पाँव वाले जीवो को कर्म करने के लिए प्रेरित करती है और पक्षियों को सक्रिय होने की प्रेरणा देती है। वि या सृजति समनं व्यर्थिनः पदं न वेत्योदती।
वयो नकिष्टे पप्तिवांस आसते व्युष्टौ वाजिनीवति॥6॥
देवी उषा सबके मन को कर्म करने के लिए प्रेरित करती हैं तथा धन इच्छुको को पुरुषार्थ के लिए भी प्रेरणा देती है। ये जीवन दात्री देवी उषा निरन्तर गतिशील रहती हैं। हे अन्नदात्री उषे! आपके प्रकाशित होने पर पक्षी अपने घोसलों मे बैठे नही रहते।एषायुक्त परावतः सूर्यस्योदयनादधि।
शतं रथेभिः सुभगोषा इयं वि यात्यभि मानुषान्॥7॥
हे देवी उषा सूर्य के उदयस्थान से दूरस्थ देशो को भी जोड़ देती हैं। ये सौभाग्यशालिनी देवी उषा मनुष्य लोक की ओर सैंकड़ो रथो द्वारा गमन करती हैं। विश्वमस्या नानाम चक्षसे जगज्ज्योतिष्कृणोति सूनरी।
अप द्वेषो मघोनी दुहिता दिव उषा उच्छदप स्रिधः॥8॥
सम्पूर्ण जगत इन देवी उषा के दर्शन करके झुककर उन्हे नमन करता है। प्रकाशिका, उत्तम मार्गदर्शिका, ऐश्वर्य सम्पन्न आकाश पुत्री देवी उषा, पीड़ा पहुँचाने वाले हमारे बैरियों को दूर हटाती हैं।उष आ भाहि भानुना चन्द्रेण दुहितर्दिवः।
आवहन्ती भूर्यस्मभ्यं सौभगं व्युच्छन्ती दिविष्टिषु॥9॥
हे आकाशपुत्री उषे! आप आह्लादप्रद दीप्ती से सर्वत्र प्रकाशित हों। हमारे इच्छित स्वर्ग-सुख युक्त उत्त्म सौभाग्य को ले आयें और दुर्भाग्य रूपी तमिस्त्रा को दूर करें। विश्वस्य हि प्राणनं जीवनं त्वे वि यदुच्छसि सूनरि।
सा नो रथेन बृहता विभावरि श्रुधि चित्रामघे हवम्॥10॥
हे सुमार्ग प्रेरक उषे! उदित होने पर आप ही विश्व के प्राणियो का जीवन आधार बनती हैं। विलक्षण धन वाली, कान्तिमती हे उषे! आप अपने बृहत रथ से आकर हमारा आवाह्न सुनें। उषो वाजं हि वंस्व यश्चित्रो मानुषे जने।
तेना वह सुकृतो अध्वराँ उप ये त्वा गृणन्ति वह्नयः॥11॥
हे उषादेवि! मनुष्यो के लिये विविध अन्न-साधनो की वृद्धि करें। जो याजक आपकी स्तुतियाँ करते है, उनके इन उत्तम कर्मो से संतुष्ट होकर उन्हें यज्ञीय कर्मो की ओर प्रेरित करें। विश्वान्देवाँ आ वह सोमपीतयेऽन्तरिक्षादुषस्त्वम्।
सास्मासु धा गोमदश्वावदुक्थ्यमुषो वाजं सुवीर्यम्॥12॥
हे उषे! सोमपान के लिए अंतरिक्ष से सब देवों को यहाँ ले आयें। आप हमे अश्वों, गौओ से युक्त धन और पुष्टिप्रद अन्न प्रदान करें। यस्या रुशन्तो अर्चयः प्रति भद्रा अदृक्षत।
सा नो रयिं विश्ववारं सुपेशसमुषा ददातु सुग्म्यम्॥13॥
जिन देवी उषा की दीप्तीमान किरणे मंगलकारी प्रतिलक्षित होती हैं, वे देवी उषा हम सबके लिए वरणीय, श्रेष्ठ, सुखप्रद धनो को प्राप्त करायें। ये चिद्धि त्वामृषयः पूर्व ऊतये जुहूरेऽवसे महि।
सा न स्तोमाँ अभि गृणीहि राधसोषः शुक्रेण शोचिषा॥14॥
हे श्रेष्ठ उषादेवि! प्राचीन ऋषि आपको अन्न और संरक्षण प्राप्ति के लिये बुलाते थे। आप यश और तेजस्विता से युक्त होकर हमारे स्तोत्रो को स्वीकार करें। उषो यदद्य भानुना वि द्वारावृणवो दिवः।
प्र नो यच्छतादवृकं पृथु च्छर्दिः प्र देवि गोमतीरिषः॥15॥
हे देवी उषे! आपने अपने प्रकाश से आकाश के दोनो द्वारों को खोल दिया है। अब आप हमे हिंसको से रक्षित, विशाल आवास और दुग्धादि युक्त अन्नो को प्रदान करें। सं नो राया बृहता विश्वपेशसा मिमिक्ष्वा समिळाभिरा।
सं द्युम्नेन विश्वतुरोषो महि सं वाजैर्वाजिनीवति॥16॥
हे देवी उषे! आप हमें सम्पूर्ण पुष्टिप्रद महान धनो से युक्त करें, गौओं से युक्त करें। अन्न प्रदान करने वाली, श्रेष्ठ हे देवी उषे! आप हमे शत्रुओं का संहार करने वाला बल देकर अन्नो से संयुक्त करें। वरुण सूक्त :: ऋषि :- शुनः शेप आजीगर्ति एवं वशिष्ठ, निवास स्थान :- द्युस्थानीय, ऋग्वेद संहिता, प्रथम मंडल सूक्त 25।
वरुण देव द्युलोक और पृथ्वी लोक को धारण करने वाले तथा स्वर्गलोक और आदित्य एवं नक्षत्रों के प्रेरक हैं। ऋग्वेद में वरुण का मुख्य रूप शासक के रूप में वर्णन है। वे प्राणियों-जीवधारियों के पाप-पुण्य तथ सत्य-असत्य का लेखा-जोखा रखते हैं। ऋग्वेद में वरुण देव का उज्जवल रूप वर्णित है। सूर्य उसके नेत्र हैं। वे सुनहरा चोगा पहनते हैं और कुशा के आसन पर विराजमान हैं। उनका रथ सूर्य के समान दीप्तिमान है तथा उसमें घोड़े जुते हुए हैं। उनके गुप्तचर विश्वभर में फैलकर सूचनाएँ लाते हैं। वरुण देव रात्र और दिवस के अधिष्ठाता हैं। वे संसार को नियमों में चलाने का व्रत धारण किए हुए हैं। ऋग्वेद में वरुण के लिए क्षत्रिय स्वराट, उरुशंश, मायावी, धृतव्रतः दिवः कवि, सत्यौजा, विश्वदर्शन आदि विशेषणों का प्रयोग किया गया है।
ऋग्वेद संहिता, प्रथम मंडल सूक्त 25 :: ऋषि :- शुन: शेप आजीगर्ति इत्यादयः, देवता :- वरुण, छन्द :- गायत्री।
यच्चिद्धि ते विशो यथा प्र देव वरुण व्रतम्। मिनीमसि द्यविद्यवि॥
हे वरुणदेव! जैसे अन्य मनुष्य आपके व्रत अनुष्ठान में प्रमाद करते है, वैसे ही हमसे भी आपके नियमों में कभी-कभी प्रमाद हो जाता है; कृपया इसे क्षमा करें।[ऋग्वेद 1.25.1]
प्रमाद :: लापरवाही, असावधानी, खिलने वाला पौधा, भारी भूल, भयंकर त्रुटि, negligence, bloomer, incautiousness, carelessness.
अनुष्ठान :: संस्कार, धार्मिक क्रिया, पद्धति, शास्रविधि, धार्मिक उत्सव, आचार, आतिथ्य सत्कार, समारोह, रसम; ceremonies, rituals, rites.
हे वरुण देव! जैसे तुम्हारे व्रतानुष्ठान में व्यक्ति प्रमाद करते हैं, वैसे ही हम भी तुम्हारे सिद्धान्त आदि को तोड़ डालते हैं।
Sometimes we become careless-negligent in following the rules & regulations-procedures of prayers-Vrat, rites & rituals. Kindly pardon-forgive us.
मा नो वधाय हत्नवे जिहीळानस्य रीरधः। मा हृणानस्य मन्यवे॥2॥
हे वरुणदेव! आपने अपने निरादर करने वाले का वध करने के लिये धारण किये गये शस्त्र के सम्मुख हमें प्रस्तुत न करें। अपनी क्रुद्ध अवस्था में भी हम पर कृपा कर क्रोध ना करें।[ऋग्वेद 1.25.2]
हे वरुण! अपमान करने वालों को सजा उसकी हिंसा है। हमको यह सजा मत दो, हम पर क्रोध न करो।
Hey Varun Dev! Please do not subject us to murder with weapons for ignoring-insulting you. Even if angry; please have mercy over us.
वि मृळीकाय ते मनो रथीरश्वं न संदितम्। गीर्भिर्वरुण सीमहि॥
हे वरुणदेव! जिस प्रकार रथी अपने थके हुए घोड़ों की परिचर्या करते हैं, उसी प्रकार आपके मन को हर्षित करने के लिये हम स्तुतियों का गान करते हैं।[ऋग्वेद 1.25.3]
हे वरुण! प्रार्थना द्वारा हम आपकी कृपा चाहते हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे अश्व का स्वामी उसके घावों पर पट्टियाँ बाँधता है।
Hey Varun Dev! We wish to assuage your feelings (make you happy) just like the driver of the charoite who takes care-serve his tired horses.
परा हि मे विमन्यवः पतन्ति वस्यइष्टये। वयो न वसतीरुप॥
हे वरुणदेव! जिस प्रकार पक्षी अपने घोसलों की ओर दौड़ते हुये गमन करते हैं, उसी प्रकार हमारी चंचल बुद्धियाँ धन प्राप्ति के लिये दूर-दूर तक दौड़ती है।[ऋग्वेद 1.25.4]
घोंसलों की ओर दौड़ने वाली चिड़ियों के समान हमारी क्रोध रहित बुद्धियाँ धन की प्राप्ति के लिए दौड़ती है।
Hey Varun Dev! Our fickle-agile mind looks to various sources of income-earnings far & wide just like the birds which fly to their nest.
कदा क्षत्रश्रियं नरमा वरुणं करामहे। मृळीकायोरुचक्षसम्॥
बल ऐश्वर्य के अधिपति सर्वद्रष्टा वरुण देव को कल्याण के निमित्त हम यहाँ (यज्ञस्थल में) कब बुलायेंगे अर्थात यह अवसर कब मिलेगा?[ऋग्वेद 1.25.5]
अखण्ड समृद्धि वाले दूरदर्शी वरुण की कृपा प्राप्ति हत उन्हें अपने यज्ञ में ले आवेंगे।
When will we have the opportunity of inviting Varun Dev-who is the master of might & amenities and capable of visualising every thing, to the Yagy site
तदित्समानमाशाते वेनन्ता न प्र युच्छतः। धृतव्रताय दाशुषे॥
व्रत धारण करना वाले (हविष्यमान) दाता यजमान के मंगल के निमित्त, ये मित्र और वरुण देव हविष्यान की इच्छा करते हैं, वे कभी उसका त्याग नहीं करते। वे हमें बन्धन से मुक्त करें।[ऋग्वेद 1.25.6]
हवि की कामना वाले सखा-वरुण, निष्ठावान यजमान की साधारण हवि को भी नहीं त्यागते।
Mitr & Varun Dev desire to have the offerings of the Yagy for the benefit-welfare of he host conducting Yagy associated with fast. Let them make us free from the cycles of death & rebirth-grant Salvation.
वेदा यो वीनां पदमन्तरिक्षेण पतताम्। वेद नावः समुद्रियः॥
हे वरुण देव! आकाश में उड़ने वाले पक्षियों के मार्ग को और समुद्र में संचार करने वाली नौकाओं के मार्ग को भी आप जानते हैं।[ऋग्वेद 1.25.7]
हे वरुण देव! आप उड़ने वाले पक्षियों के क्षितिज-मार्ग और समुद्र की नौका-मार्ग के पूर्ण ज्ञाता है।
Hey Varun Dev! You are aware of the route followed by the birds flying in the sky and boats navigating in the ocean.
वेद मासो धृतव्रतो द्वादश प्रजावतः। वेदा य उपजायते॥
नियम धारक वरुणदेव प्रजा के उपयोगी बारह महिनों को जानते हैं और तेरहवें मास (मल मास, अधिक मास, पुरुषोत्तम मास) को भी जानते है।[ऋग्वेद 1.25.8]
वे घृत-नियम वरुण, प्रजाओं के उपयोगी बारह महीनों को तथा तेरहवें अधिक मास को भी जानते हैं।
Varun Dev who frame the rules and implement them, knows the twelve months in a year including the Purushottom Mass (thirteenth month-extra month) meant for the welfare of humans.
वेद वातस्य वर्तनिमुरोरृष्वस्य बृहतः। वेदा ये अध्यासते॥
वे वरुणदेव अत्यन्त विस्तृत, दर्शनीय और अधिक गुणवान वायु के मार्ग को जानते हैं। वे उपर द्युलोक में रहने वाले देवों को भी जानते हैं।[ऋग्वेद 1.25.9]
वे मूर्धा रूप से स्थित, विस्तृत, उन्नत, उत्तम वायु के मार्ग को भली-भाँति जानते हैं।
Varun Dev knows well the broad, good looking, scenic, possessing good qualities path of air; in addition to the demigods-deities residing in upper abodes-heavens.
नि षसाद धृतव्रतो वरुणः पस्त्यास्वा। साम्राज्याय सुक्रतुः॥
प्रकृति के नियमों का विधिवत पालन कराने वाले, श्रेष्ठ कर्मों में सदैव निरत रहने वाले वरुण देव प्रजाओं में साम्राज्य स्थापित करने के लिये बैठते हैं।[ऋग्वेद 1.25.10]
सिद्धान्त में स्थिर, सुन्दर प्रज्ञावान वरुण प्रजाजनों में साम्राज्य विद्यमान करने के लिए विराजते हैं।
Varun Dev who is always inclined to virtuous, righteous, pious deeds, is established to ensure the following-implementations of the rules of nature.
अतो विश्वान्यद्भुता चिकित्वाँ अभि पश्यति। कृतानि या च कर्त्वा॥
सब अद्भुत कर्मो की क्रिया विधि जानने वाले वरुणदेव, जो कर्म संपादित हो चुके हैं और जो किये जाने वाले हैं, उन सबको भली-भाँति देखते हैं।[ऋग्वेद 1.25.11]
जो घटनाएँ हुई या होने वाली हैं, उन सभी को वे मेधावी वरुण इस स्थान से देखते हैं।
Varun Dev is aware of the methodology of the amazing deeds & watches carefully the deeds accomplished and those deeds which remains to be completed.
स नो विश्वाहा सुक्रतुरादित्यः सुपथा करत्। प्र ण आयूंषि तारिषत्॥
वे उत्तम कर्मशील अदिति पुत्र वरुण देव हमें सदा श्रेष्ठ मार्ग की ओर प्रेरित करें और हमारी आयु को बढ़ायें।[ऋग्वेद 1.25.12]
वे महान मति वाले वरुण हमको सदैव सुन्दर मार्ग प्रदान करें और हमको आयुष्मान करें।
Let Varun Dev, son of Aditi (Dev Mata), let us inspire to the virtuous, pious, righteous path (of Bhakti) and enhance our longevity-age.
बिभ्रद्द्रापिं हिरण्ययं वरुणो वस्त निर्णिजम्। परि स्पशो नि षेदिरे॥
सुवर्णमय कवच धारण करके वरुणदेव अपने हृष्ट-पुष्ट शरीर को सुसज्जित करते हैं। शुभ्र प्रकाश किरणें उनके चारों ओर विस्तीर्ण होती हैं।[ऋग्वेद 1.25.13]
स्वर्ण कवच से उन्होंने अपना मर्म भाग ढक लिया है।
Varun Dev has covered his handsome body-figure with golden shield. Bright rays of light spread around him.
न यं दिप्सन्ति दिप्सवो न द्रुह्वाणो जनानाम्। न देवमभिमातयः॥
हिंसा करने की इच्छा वाले शत्रु-जन (भयाक्रान्त होकर) जिनकी हिंसा नही कर पाते, लोगों के प्रति द्वेष रखने वाले, जिनसे द्वेष नहीं कर पाते, ऐसे वरुणदेव को पापीजन स्पर्श तक नहीं कर पाते।[ऋग्वेद 1.25.14]
उनके चारों ओर समाचार वाहक उपस्थित हैं। जिन्हें शत्रु धोखा नहीं दे सकते, विद्रोह करने वाले जिनसे द्रोह करने में सफल नहीं हो सकते, उन वरुण से कोई शत्रुता नहीं कर सकता।
The violent enemy are unable to harm (kill) him due to fear, those who are envious with others cannot be envious with him. The sinners can not even touch-reach him.
उत यो मानुषेष्वा यशश्चक्रे असाम्या। अस्माकमुदरेष्वा॥
जिन वरुणदेव ने मनुष्यों के लिये विपुल अन्न भण्डार उत्पन्न किया है; उन्होंने ही हमारे उदर में पाचन सामर्थ्य भी स्थापित की है।[ऋग्वेद 1.25.15]
जिस वरुण ने मनुष्य के लिए अन्न की भरपूर स्थापना की है, वह हमारे पेट में अन्न ग्रहण करने की सामर्थ्य प्रदान करता है।
Varun Dev who has generated a big deposit of food grain, has given the power to digest the food in our stomach.
परा मे यन्ति धीतयो गावो न गव्यूतीरनु। इच्छन्तीरुरुचक्षसम्॥
उस सर्वद्रष्टा वरुणदेव की दृष्टि, कामना करने वाली हमारी बुद्धि तक, वैसे ही उन तक पहुँचती है, जैसे गौएँ श्रेष्ठ बाड़े की ओर जाती हैं।[ऋग्वेद 1.25.16]
दूरदर्शी वरुण की इच्छा करती हुई मनोवृत्तियाँ निवृत्त होकर वैसे ही हो जाती हैं, जैसे चरने की जगह की ओर गौएँ जाती हैं।
The sight of all visualising Varun Dev reaches our minds, just like the cows which moves to the beast cowshed.
सं नु वोचावहै पुनर्यतो मे मध्वाभृतम्। होतेव क्षदसे प्रियम्॥
होता (अग्निदेव) के समान हमारे द्वारा लाकर समर्पित की गई हवियों का आप अग्निदेव के समान भक्षण करे, फिर हम दोनों वार्ता करेंगे।[ऋग्वेद 1.25.17]
मेरे द्वारा सम्पादित मधुर हवि को अग्नि के समान प्रीतिपूर्वक भक्षण करो। फिर हम दोनों मिलकर वार्तालाप करेंगे।
Please eat (consume, accept) the offerings made by us, like the host-Agni Dev and thereafter we will talk together.
दर्शं नु विश्वदर्शतं दर्शं रथमधि क्षमि। एता जुषत मे गिरः॥
दर्शनीय वरुण को उनके रथ के साथ हमने भूमि पर देखा है। उन्होंने हमारी स्तुतियाँ स्वीकारी हैं।[ऋग्वेद 1.25.18]
सबके देखने योग्य वरुण को, अनेक रथ सहित पृथ्वी पर मैंने देखा है। उन्होंने मेरी प्रार्थनाएँ स्वीकार कर ग्रहण कर ली हैं।
We have seen beautiful & handsome (admirable) Varun Dev over the earth and he accepted our prayers.
इमं मे वरुण श्रुधी हवमद्या च मृळय। त्वामवस्युरा चके॥
हे वरुणदेव! आप हमारी प्रार्थना पर ध्यान दें, हमें सुखी बनायें। अपनी रक्षा के लिये हम आपकी स्तुति करते हैं।[ऋग्वेद 1.25.19]
हे वरुणदेव! मेरे आह्वान को सुनो। मुझ पर आज कृपा दृष्टि रखो।
Hey Varun Dev! Please notice our prayers and make us happy. We pray to you for our protection.
त्वं विश्वस्य मेधिर दिवश्च ग्मश्च राजसि। स यामनि प्रति श्रुधि॥
हे मेधावी वरुणदेव! आप द्युलोक, भूलोक और सारे विश्व पर आधिपत्य रखते हैं, आप हमारे आवाहन को स्वीकार कर "हम रक्षा करेंगे" ऐसा प्रत्युत्तर दे।[ऋग्वेद 1.25.20]
मुझ पर कृपा दृष्टि करने की कामना वाले तुम्हें मैंने बुलाया है। हे मेधावी वरुण देव! तुम क्षितिज और धरा के स्वामी हो। तुम हमारे आह्वान का उत्तर दो।
Hey brilliant Varun Dev! You rule the upper abodes, earth and the whole universe. Kindly, accept our invitation and assure us that you will protect us.
उदुत्तमं मुमुग्धि नो वि पाशं मध्यमं चृत। अवाधमानि जीवसे॥
हे वरुणदेव! हमारे उत्तम (ऊपर के) पाश को खोल दें, हमारे मध्यम पाश काट दें और हमारे नीचे के पाश को हटाकर, हमें उत्तम जीवन प्रदान करें।[ऋग्वेद 1.25.21]
हे वरुण देव। ऊपर के बन्धन को खींचों, मध्य के बन्धन को काटो और नीचे के पाश को भी खींचकर हमको जीवन प्रदान करो।
Hey Varun Dev! Cut the upper, middle & the lower knots and grant us excellent life-longevity.
वरुण सूक्त (2) ऋषि :- शुनःशेप एवं वशिष्ठ, निवास स्थान :- द्युस्थानीय, सूक्त सँख्या 12.
वरुण देव द्युलोक और पृथ्वी लोक को धारण करने वाले तथा स्वर्गलोक और आदित्य एवं नक्षत्रों के प्रेरक हैं। ऋग्वेद में वरुण का मुख्य रूप शासक का है। वह जनता के पाप पुण्य तथ सत्य असत्य का लेखा-जोखा रखते हैं। ऋग्वेद में वरुण देव का उज्जवल रूप वर्णित है। सूर्य उसके नेत्र हैं। वह सुनहरा चोगा पहनते हैं और कुशा के आसन पर बैठते हैं। उसका रथ सूर्य के समान दीप्तिमान है तथा उसमें घोड़े जुते हुए हैं। उसके गुप्तचर विश्वभर में फैलकर सूचनाएँ लाते हैं। वरुण रात्री और दिन के अधिष्ठाता हैं। वह संसार के नियमों में चलाने का व्रत धारण किए हुए हैं। ऋग्वेद में वरुण देव के लिए क्षत्रिय स्वराट, उरुशंश, मायावी, धृतव्रतः दिवः कवि, सत्यौजा, विश्वदर्शन आदि विशेषणों का प्रयोग मिलता है।
आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन।
महे रणाय चक्षसे॥
हे आप-जल! आप प्राणी मात्र को सुख देने वाले हैं। सुखोपभोग एवं संसार में रमण करते हुए, हमें उत्तम दृष्टि की प्राप्ति हेतु पुष्ट करें।[ऋग्वेद 10.9.1]
Hey water! You provide nourishment. Provide us with excellent eye sight & strength to enjoy the worldly goods.
Two third of human body constitute of water. Its essential for the body. It generate happiness-satisfaction after drinking when one feel thirst.
सुख से आनन्द, अनुकूलता, प्रसन्नता, शान्ति आदि की अनुभूति होती है। इसकी अनुभूति मन से जुड़ी हुई है। बाह्य साधनों से भी सुख की अनुभूति हो सकती है। आन्तरिक सुख आत्मानुभव अनुकूल परिस्थितियों-वातावरण जुड़ा है।
अर्थागमो नित्यमरोगिता च, प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च।
वश्यस्य पुत्रो अर्थकरी च विद्या षड् जीवलोकस्य सुखानि राजन्॥
देवर्षि नारद ने धर्मराज युधिष्ठिर को सुख का अर्थ समझते हुए कहा कि किस व्यक्ति के पास ये निम्न 6 वस्तुएँ हों वह सुखी है :- अर्थागम, निरोगी काया, प्रिय पत्नी, प्रिय वादिनी पत्नी, आज्ञाकारी पुत्र, अर्थ करी विद्या।
यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेहः नः।
उशतीरिव मातरः॥
जिनका स्नेह उमड़ता ही रहता है, ऐसी माताओं की भाँति, आप हमें अपने सबसे अधिक कल्याण प्रद रस में भागीदार बनायें।[ऋग्वेद 10.9.2]
You should be beneficial to us just like the mother who's love overflows for the progeny.
तस्मा अरं गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ।
आपो जनयथा च नः॥
अन्न आदि उत्पन्न कर प्राणी मात्र को पोषण देने वाले, हे दिव्य प्रवाह! हम आपका सान्निध्य पाना चाहते हैं। हमारी अधिकतम वृद्धि हो।[ऋग्वेद 10.9.3]
Hey divine flowing liquid! You help the vegetation-food grain grow to nourish the living beings. We desire your company for our maximum growth.
ईशाना वार्याणां क्षयन्तीश्चर्षणीनाम्।
अपो याचामि भेषजम्॥
व्याधि निवारक दिव्य गुण वाले जल का हम आवाहन करते हैं। वह हमें सुख-समृद्धि प्रदान करे। उस औषधि रूप जल की हम प्रार्थना करते हैं।[ऋग्वेद 10.9.4]
Hey water with the divine property of removing illness! We invite you to grant us happiness and prosperity.
पञ्चम सूक्त :: अपांभेषज (जल चिकित्सा), मन्त्रदृष्टा :- सिन्धु द्वीप ऋषि, देवता :- अपांनपात्, सोम और आप:, छन्द :- 1, 2, 3 गायत्री, 4 वर्धमान गायत्री।
आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन।
महे रणाय चक्षसे॥
हे आपः! आप प्राणी मात्र को सुख देने वाले हैं। सुखोपभोग एवं संसार में रमण करते हुए, हमें उत्तम दृष्टि की प्राप्ति हेतु पुष्ट करें।[ऋग्वेद 10.9.1]
Hey water! You give comfort to organisms. Make us strong-nourish us, to enjoy comforts-pleasures while roaming all over the world, giving best sight.
One should be able to perceive the truth, welfare of others.
यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेहः नः।
उशतीरिव मातरः॥
जिनका स्नेह उमड़ता ही रहता है, ऐसी माताओं की भाँति, आप हमें अपने सबसे अधिक कल्याणप्रद रस में भागीदार बनायें।[ऋग्वेद 10.9.2]
Make us helpful-beneficial to others like the mother who is loving, affectionate, helpful, careful, protective in all your ventures-endeavours.
तस्मा अरं गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ।
आपो जनयथा च नः॥
अन्न आदि उत्पन्न कर प्राणीमात्र को पोषण देने वाले, हे दिव्य प्रवाह! हम आपका सान्निध्य पाना चाहते हैं। हमारी अधिकतम वृद्धि हो।[ऋग्वेद 10.9.3]
Hey divine flow, you nourish the living beings by producing food grains! We wish to be close to you. Let us grow to our maximum capacity.
ईशाना वार्याणां क्षयन्तीश्चर्षणीनाम्।
अपो याचामि भेषजम्॥
व्याधि निवारक दिव्य गुण वाले जल का हम आवाहन करते हैं। वह हमें सुख-समृद्धि प्रदान करे। उस औषधि रूप जल की हम प्रार्थना करते हैं।[ऋग्वेद 10.9.4]
We invite water which has divine qualities which removes-cures ailments (diseases, illness). Let he grant us comforts and growth. We worship water in the form of medicines.
षष्ठः सूक्त :: अपां भेषज (जल चिकित्सा) सूक्त, मन्त्रदृष्टा :- सिन्धु द्वीप ऋषि, कृति अतवा अतर्वा, देवता :- अपांनपात्, सोम और आप, छन्द :- 1, 2, 3 गायत्री, 4 पथ्यापंक्ति।
शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये।
शं योरभि स्रवन्तु नः॥1॥
दैवीगुणों से युक्त आपः (जल) हमारे लिए हर प्रकार से कल्याणकारी और प्रसन्नतादायक हो। वह आकांक्षाओं की पूर्ति करके आरोग्य प्रदान करे।
विशेष-दृष्टव्य है कि वर्तमान में इस मन्त्र का विनियोग ‘शनि’ की पूजा में किया जाता है।
अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा।
अग्निं च विश्वशम्भुवम्॥2॥
‘सोम’ का हमारे लिए उपदेश है कि ‘दिव्य आपः’ हर प्रकार से औषधीय गुणों से युक्त है। उसमें कल्याणकारी अग्नि भी विद्यमान है।
आपः प्रणीत भेषजं वरुथं तन्वे 3 मम।
ज्योक् च सूर्यं दृशे॥3॥
दीर्घकाल तक मैं सूर्य को देखूँ अर्थात् जीवन प्राप्त करुँ। हे आपः! शरीर को आरोग्यवर्धक दिव्य औषधियाँ प्रदान करो।
शं न आपो धन्वन्याः 3 शभु सन्त्वनूप्याः।
शं नः खनित्रिमा आपः शमु याः कुम्भ आमृताः शिवा नः सन्तु वार्षिकीः॥4॥
सूखे प्रान्त (मरुभूमि) का जल हमारे लिए कल्याणकारी हो। ‘जलमय देश’ का जल हमें सुख प्रदान करे। भूमि से खोदकर निकाला गया कुएँ आदि का जल हमारे लिए सुखप्रद हो। पात्र में स्थित जल हमें शान्ति देने वाला हो। वर्षा से प्राप्त जल हमारे जीवन में सुख-शांति की वृष्टि करने वाला सिद्ध हो।
33वाँ सूक्त :: ‘आपः सूक्त’, मन्त्रदृष्टा-शन्ताति ऋषि, देवता-चन्द्रमा/आपः, छन्दः-त्रिष्टुप्।
हिरण्यवर्णाः शुचयः पावका यासु जातः सविता यास्वग्निः।
या अग्निं गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु॥1॥
जो जल सोने के समान आलोकित होने वाले रंग से सम्पन्न, अत्यधिक मनोहर शुद्धता प्रदान करने वाला है, जिससे सविता देव और अग्नि देव उत्पन्न हुए हैं। जो श्रेष्ठ रंग वाला जल ‘अग्निगर्भ’ है। वह जल हमारी व्याधियों को दूर करके हम सबको सुख और शान्ति प्रदान करे।
यासां राजा वरुणो याति मध्ये सत्यानृते अवपश्यज्जनानाम्।
या अग्निं गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु॥2॥
जिस जल में रहकर राजा वरुण, सत्य एवं असत्य का निरीक्षण करते चलते हैं। जो सुन्दर वर्ण वाला जल अग्नि को गर्भ में धारण करता है, वह हमारे लिए शान्तिप्रद हो।
यासां देवा दिवि कृण्वन्ति भक्षं या अन्तरिक्षे बहुधा भवन्ति।
या अग्निं गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु॥3॥
जिस जल के सारभूत तत्व तथा सोमरस का इन्द्र आदि देवता द्युलोक में सेवन करते हैं। जो अन्तरिक्ष में विविध प्रकार से निवास करते हैं। अग्निगर्भा जल हम सबको सुख और शान्ति प्रदान करे।
शिवेन मा चक्षुषा पश्यतापः शिवया तन्वोप स्पृशत त्वचं में।
घृतश्चुतः शुचयो याः पावकास्ता, न आपः शं स्योना भवन्तु॥4॥
हे जल के अधिष्ठाता देव! आप अपने कल्याणकारी नेत्रों द्वारा हमें देखें तथा अपने हितकारी शरीर द्वारा हमारी त्वचा का स्पर्श करें। तेजस्विता प्रदान करने वाला शुद्ध तथा पवित्र जल हमें सुख तथा शान्ति प्रदान करे।
षष्ठकाण्ड, 124वाँ सूक्त :: निर्ऋत्यपस्तरण सूक्त, मन्त्रदृष्टा :- अथर्वा ऋषि, देवता :- दिव्य आपः, छन्द :- त्रिष्ठुप्।
दिवो नु मां बृहतो अन्तरिक्षादपांस्तोको अभ्यपप्तद् रसेन।
समिन्द्रियेण पयसाहमग्ने, छन्दोभिर्यज्ञैः सुकृतां कृतेन॥1॥
विशाल द्युलोक से दिव्य-अप् (जल या तेज) युक्त रस की बूँदें हमारे शरीर पर गिरी हैं। हम इन्द्रियों सहित दुग्ध के समान सारभूत अमृत से एवं छन्दों (मन्त्रों) से सम्पन्न होने वाले यज्ञों के पुण्यफल से युक्त हों।
यदि वृक्षादभ्यपप्तत् फलं तद् यद्यन्तरिक्षात् स उ वायुरेव।
यत्रास्पृक्षत् तन्वो 3 यच्च वासस आपो नुदन्तु निर्ऋतिं पराचैः॥2॥
वृक्ष के अग्रभाग से गिरी वर्षा की जल बूँद, वृक्ष के फल के समान ही है। अन्तरिक्ष से गिरा जल बिन्दु निर्दोष वायु के फल के समान है। शरीर अथवा पहने वस्त्रों पर उसका स्पर्श हुआ है। वह प्रक्षालनार्थ जल के समान ‘निर्ऋतिदेव’ (पापो को) हमसे दूर करें।
अभ्यञ्जनं सुरभि सा समृद्धिर्हिरण्यं वर्चस्तदु पूत्रिममेव।
सर्वा पवित्रा वितताध्यस्मत् तन्मा तारीन्निर्ऋतिर्मो अरातिः॥3॥
यह अमृत वर्षा उबटन, सुगंधित द्रव्य, चन्दन आदि सुवर्ण धारण तथा वर्चस् की तरह समृद्धि रूप है। यह पवित्र करने वाला है। इस प्रकार पवित्रता का आच्छादन होने के कारण ‘पापदेवता’ और शत्रु हम से दूर रहें।
सोम सूक्त :: ऋषि :- कण्व, निवास स्थान :- पृथ्वी। सूक्त : 5, देवता : अग्नि धृताहुत।
हे अग्नि ! यजमान को उत्तम पद, देह कान्ति और सन्तान से युक्त करो । वह सोम और ब्रह्मणस्पति का निज जन हों। हे इन्द्र! तुम्हारी कृपा से यजमान स्वतन्त्र, सबका वशकर्ता, धनवान् और दीर्घजीवी हो।
सूक्त : 6, देवता : ब्रह्मणस्पति।
हे ब्रह्मणस्पते! देवों के भक्त शत्रु को भी यजमान के वशवर्ती कर दी। हे सोम ! कुविचारी शत्रु पर वज्र प्रहार करके उसे छिन्न-भिन्न करके भगा दो। हे सोम! हमारे नाश के इच्छुक सन्तापकारी शत्रु का संहार करो।
नवम मण्डल से सम्बद्ध सोम, ऋग्वेद का प्रमुख देवता है।
अथ स सोमः स्वधारयाऽस्मान् पुनीयादित्याह।
वह सोम अपनी धारा से हमें पवित्र करे।
इन्द्राय इन्द्रार्थम् पातवे पातुम्।
असमानकर्तृकेष्वपि छन्दसि तुमर्थीया दृश्यन्ते—इति भ०।
"ये विद्वांसो मनुष्याः सर्वरोगप्रणाशकमानन्दप्रदमोषधिरसं पीत्वा शरीरात्मानौ पवित्रयन्ति ते धनाढ्या जायन्ते" [यजुर्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं]
सोम के दो अर्थ हैं। सोम एक औषधि है जो स्वादिष्ट और मदिष्ट (आनन्दप्रद) है और सोम चन्द्रमा के लिये भी प्रयुक्त होता है जो जी औषधियों के राजा हैं। पृथ्वी पर समस्त जड़ी-बूटियाँ उनके प्रभाव से ही उत्पन्न होती हैं।
स्वादिष्ठया मदिष्ठया पवस्व सोम धारया।
इन्द्राय पातवे सुतः॥ [ऋक् 9.1.1, सामवेद 1]
त्वम् (स्वादिष्ठया) स्वादुतमया (मदिष्ठया) अतिशयेन हर्षप्रदया (धारया) आनन्दसन्तत्या (पवस्व) अस्मान् पुनीहि। त्वम् (इन्द्राय) मम आत्मने (पातवे) पातुम्। अत्र पा धातोः तुमर्थे तवेन् प्रत्ययः। नित्वादाद्युदात्तत्वम्। (सुतः) अभिषुतो भव॥1॥
हे (सोम) रसागार-आनन्द सागर परमेश्वर! तुम (स्वादिष्ठया) स्वादिष्ठ, (मदिष्ठया) अतिशय हर्षप्रद (धारया) आनन्दधारा से (पवस्व) हमें पवित्र करो। तुम (इन्द्राय) मेरे आत्मा के (पातवे) पान के लिए (सुतः) अभिषुत हो।
हे सोमदेव! आप अपनी स्वादिष्ट और आनन्द प्रदान करने वाली धारा के साथ इंद्रदेव के लिए कलश में प्रवाहित हों. क्योंकि उन्हीं के पीने के लिये निका ले गए हैं।
सोमं मन्यते पपिवान्यत्सम्पिषन्त्योषधिम्।
सोमं यं ब्रह्माणो विदुर्न तस्याश्नाति कश्चन॥ [ऋक् 10.85.3]
निरूक्त में ही ओषधि का अर्थ उष्मा धोने वाला यानि क्लेश धोने वाला है।
स्वान्तःकरणे स्रवन्तीं पावयित्रीमानन्दरसतरङ्गिणीमनुभवन्नुपासको ब्रूते यत् परमात्मरूपात् सोमादभिषूयमाणो ब्रह्मानन्दरस इत्थमेव ममात्मनः पानाय निरन्तरं धारारूपेण प्रस्रवेदिति॥2॥
अपने अन्तःकरण में बहती हुई पवित्रता सम्पादिनी आनन्द-रस की सरिता को अनुभव करता हुआ उपासक कह रहा है कि परमात्मा-रूप सोम से अभिषुत होता हुआ ब्रह्मानन्द-रस इसी प्रकार मेरे आत्मा के पानार्थ निरन्तर धारा-रूप में प्रवाहित होता रहे।
सोमलता, सौम्यता के अर्थों में बहुधा प्रयुक्त सोम शब्द के वर्णन में इसका निचोड़ा-पीसा जाना, इसका जन्मना (या निकलना, सवन) और इंद्र द्वारा पीया जाना प्रमुख है।
अलग-अलग स्थानों पर इंद्र का अर्थ आत्मा, राजा, ईश्वर, बिजली आदि है। सोम का अर्थ श्रमजनित आनंद, भगवान् श्री कृष्ण भी लिया गया है। सामवेद के लगभग एक चौथाई मंत्र पवमान सोम-पवित्र करने वाला सोम, के विषय में है।
Please refer to :: SOMRAS-THE EXTRACT OF SOMVALLI सोमवल्ली-लता और सोमवृक्ष
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TANTROKT RATRI SUKT तन्त्रोक्त रात्रिसूक्त :: Ratri Sukt is one of the hymns to dedicated to Maa Durga. Ratri Sukt is used to invoke that energy and to enhance the brain powers.
Ratri Sukt is also used by people having sleep disorder. Recitation of Ratri Sukt bring one's mind in tune to sleep quicker. Ratri Sukt also tune up the energy level in the body. Ratri Sukt is to be recited 2-3 times before sleeping.
It defines the omnipresence and omnipotence of Maa Durga, She is the energy pervading all forms of life. She is the power in Mantr. She is the energy of getting success in all endeavours. She provides everything to her Sadhak. She can remove obstacles, enemies and every negative outcome. The energy of Maa Durga is the cause of love, harmony, happiness and prosperity.
विश्वेश्वरी जगद्धात्रीं स्थितिसंहारकारिणीम्।
निद्रां भगवतीं विष्णुरतुलां तेजसः प्रभुः॥1॥
जो इस विश्व की अधीश्वरी, जगत को धारण करने वाली, संसार का पालन और संहार करने वाली तथा तेज:स्वरुप भगवान् श्री हरी विष्णु की अनुपम शक्ति हैं, उन्हीं भगवती निद्रा देवी की स्तुति ब्रह्मा जी करने लगे।
ब्रह्मोवाच :-
त्वं स्वाहा त्वं स्वधात्वं हि वषट्कारस्वरात्मिका।
सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता॥2॥
हे देवि! तुम्हीं स्वाहा, तुम्ही स्वधा और तुम्ही वषटकार हो। स्वर भी तुम्हारे ही स्वरुप हैं।
अर्धमात्रा स्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषतः।
त्वमेव संध्या सावित्री त्वं देवी जननी परा॥3॥
तुम्हीं जीवनदायिनी सुधा हो। नित्य अक्षर प्रणव में अकार, उकार, मकार इन तीन मात्राओं के रूप में तुम्हीं स्थित हो तथा इन मात्राओं के अतिरिक्त जो विन्दुरुपा नित्य अर्धमात्रा है, जिसका विशेष रुप से उच्चारण नहीं किया जा सकता, वह भी तुम्हीं ही हो। हे देवि! तुम्ही संध्या, सावित्री तथा परम जननी हो।
त्वयैतद्धार्यते विश्वं त्वयैतत्सृज्यते जगत्।
त्वयैतत्पाल्यते देवि त्वमत्स्यन्तेच सर्वदा॥4॥
हे देवि! तुम्हीं इस विश्व-ब्रह्माण्ड को धारण करती हो। तुमसे ही इस जगत की सृष्टि होती है। तुम्हीं से इसका पालन होता है और सदा तुम्हीं कल्प के अन्त में सबको अपना ग्रास बना लेती हो।
विसृष्टौ सृष्टिरूपात्वम् स्थितिरूपाच पालने।
तथा संहतिरूपांते जगतोऽस्य जगन्मये॥5॥
हे जगन्मयी देवि! इस जगत की उत्पत्ति के समय तुम सृष्टिरूपा हो, पालनकाल में स्थितिरूपा हो तथा कल्पान्त के समय संहाररूप धारण करने वाली हो।
महाविद्या महामाया महामेधामहास्मृतिः।
महामोहा च भवती महादेवी महासुरी॥6॥
तुम्हीं महाविद्या, महामाया, महामेधा, महास्मृति, महामोहरूपा, महादेवी और महासुरी हो।
प्रकृतिस्त्वं च सर्वस्य गुणत्रयविभाविनी।
कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्च दारुणा॥7॥
तुम्हीं तीनों गुणों को उत्पन्न करने वाली सबकी प्रकृति हो। भयंकर कालरात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि भी तुम्हीं हो।
त्वं श्रीस्त्वमीश्वरी त्वं ऱ्हीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षणा।
लज्जा पुष्टिस्तथा तुष्टिस्त्वं शांतिः क्षांतिरेवच॥8॥
तुम्हीं श्री, तुम्ही ईश्वरी, तुम्ही ह्रीं और तुम्हीं बोधस्वरुपा बुद्धि हो। लज्जा, पुष्टि, तुष्टि, शान्ति और क्षमा भी तुम्हीं हो।
खङ्गिनी शृलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा।
शंखिनी चापिनी बाणभुशुंडीपरिधायुधा॥9॥
तुम खड्गधारिणी, शूलधारिणी, घोररुपा तथा गदा, चक्र, शंख और धनुष धारण करने वाली हो। बाण, भुशुण्डी और परिघ ये भी तुम्हारे अस्त्र हैं।
सौम्या सौम्यतराशेषसौम्येभ्यस्त्वतिसुंदरी।
परापराणां परमा त्वमेव परमेश्वरी॥10॥
तुम सौम्य और सौम्यतर हो। इतना ही नहीं, जितने भी सौम्य एवं सुन्दर पदार्थ हैं, उन सबकी अपेक्षा तुम अत्यधिक सुन्दरी हो। पर और अपर सबसे परे रहने वाली परमेश्वरी तुम्ही हो।
यच्च किंचित क्वचिद्वस्तु सदसद्धाखिलात्मिके।
तत्त्व सर्वस्य या शक्तिः सात्वं किं स्तूयसे सदा॥11॥
सर्वस्वरुपे देवि! कहीं भी सत्-असत् रूप जो कुछ वस्तुएँ हैं और उन सबकी जो शक्ति है, वह तुम्हीं हो. ऎसी अवस्था में तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है?
यया त्वया जगस्रष्टा जगत्पात्यतियो जगत्।
सोऽपि निद्रावशं नीतः कस्त्वां स्तोतुमिहेश्वरः॥12॥
जो इस जगत की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं, उन भगवान्-ईश्वर को भी जब तुमने निद्रा के अधीन कर दिया है, तब तुम्हारी स्तुति करने में यहाँ कौन समर्थ हो सकता है!?
विष्णुः शरीरग्रहणमहमीशान एवच।
कारितास्ते यतोऽतस्त्वां कः स्तोतुं शक्तिमान्भवेत्॥13॥
मुझको, भगवान् शिव को तथा भगवान् श्री हरी विष्णु को भी तुमने ही शरीर धारण कराया है। अत: तुम्हारी स्तुति करने की शक्ति किसमें है?
सा त्वमित्थं प्रभावैः स्वैरुदारैर्देवि संस्तुता।
मोहयैतौ दुराधर्षावसुरौ मधुकैटभौ॥14॥
हे देवि! तुम तो अपने इन उदार प्रभावों से ही प्रशंसित हो। ये जो दोनों दुर्धर्ष असुर मधु और कैटभ हैं, इन को मोह में डाल दो।
प्रबोधं न जगत्स्वामी नीयतामच्युतो लघु।
बोधश्च क्रियतामस्य हन्तुमेतौ महासुरौ॥15॥
जगदीश्वर भगवान् श्री हरी विष्णु को शीघ्र ही जगा दो। साथ ही इनके भीतर इन दोनों महान असुरों को मार डालने की बुद्धि उत्पन्न कर दो।
इति रात्रिसूक्तम्।
रात्रि सूक्त :: ऋग्वेद 10.10.127. यह ऋग्वेद की 8 ऋचाएं हैं, जिनमें रात्रि अर्थात रात की अधिष्ठात्री देवी भुवनेश्वरी का स्तवन (आराधना) किया गया है।
रात्रि देवी जगत् के समस्त जीवों के शुभाशुभ कर्मों की साक्षी हैं और तदनुरूप फल प्रदान करती हैं। ये सर्वत्र व्याप्त हैं और अपनी ज्ञानमयी ज्योति से जीवों के अज्ञानान्धकार का नाश कर देती हैं। करुणामयी रात्रि देवी के अंक में सुषुप्तावस्था में समस्त जीव निकाय सुखपूर्वक सोया रहता है।
विनियोग :: रात्रीत्याद्यष्टर्चस्य सूक्तस्य कुशिकः सौभरो रात्रिर्वा भारद्वाजो ऋषिः, रात्रिर्देवता, गायत्री छन्दः, देवीमाहात्म्यपाठे विनियोग:।
रात्री व्यख्यदायती पुरुत्रा देव्यक्षभिः।
विश्वा अधि श्रियोऽधित॥[ऋग्वेद 10.10.127.1]
महत्तत्वादिरूप व्यापक इन्द्रियों से सब देशों में समस्त वस्तुओं को प्रकाशित करने वाली ये रात्रि रूपा देवी अपने उत्पन्न किये हुए जगत के जीवों के शुभाशुभ कर्मों को विशेष रूप से देखती हैं और उनके अनुरूप फल की व्यवस्था करने के लिये समस्त विभूतियों को धारण करती हैं।[देवीपुराण 1]
ओर्वप्रा अमर्त्या निवतो देव्युद्वतः।
ज्योतिषा बाधते तमः॥[ऋग्वेद 10.10.127.2]
ये देवी अमर हैं और सम्पूर्ण विश्व को नीचे फैलनेवाली लता आदि को तथा ऊपर बढ़ने वाले वृक्षों को भी व्याप्त करके स्थित हैं; इतना ही नहीं ये ज्ञानमयी ज्योति से जीवों के अज्ञानान्धकार का नाश कर देती हैं।[देवीपुराण 2]
निरु स्वसारमस्कृतोषसं देव्यायती।
अपेदु हासते तमः॥[ऋग्वेद 10.10.127.3]
परा चिच्छक्तिरूपा रात्रि देवी आकर अपनी बहिन ब्रह्म विद्यामयी उषा देवी को प्रकट करती हैं, जिससे अविद्यामय अन्धकार स्वतः नष्ट हो जाता है।[देवीपुराण 3]
सा नो अद्य यस्या वयं नि ते यामन्नविक्ष्महि।
वृक्षे न वसतिं वयः॥[ऋग्वेद 10.10.127.4]
वे रात्रि देवी इस समय मुझ पर प्रसन्न हों, जिनके आने पर हम लोग अपने घरों में सुख से सोते हैं, ठीक वैसे ही, जैसे रात्रि के समय पक्षी वृक्षों पर बनाये हुए अपने घोंसलों में सुखपूर्वक शयन करते हैं।[देवीपुराण 4]
नि ग्रामासो अविक्षत नि पद्वन्तो नि पक्षिणः।
नि श्येनासश्चिदर्थिनः॥[ऋग्वेद 10.10.127.5]
उस करुणामयी रात्रिदेवी के अंक में सम्पूर्ण ग्रामवासी मनुष्य, पैरों से चलने वाले गाय, घोड़े आदि पशु, पंखों से उड़नेवाले पक्षी एवं पतंग आदि, किसी प्रयोजन से यात्रा करनेवाले पथिक और बाज आदि भी सुखपूर्वक सोते हैं।[देवीपुराण 5]
यावया वृक्यं वृकं यवय स्तेनमूर्म्ये।
अथा नः सुतरा भव॥[ऋग्वेद 10.10.127.6]
हे रात्रि मयी चिच्छक्ति! तुम कृपा करके वासनामयी वृकी तथा पापमय वृक को हमसे अलग करो। काम आदि तस्कर समुदाय को भी दूर हटाओ। तदनन्तर हमारे लिये सुखपूर्वक तरने योग्य हो जाओ, मोक्षदायिनी एवं कल्याणकारिणी बन जाओ।[देवीपुराण 6]
उप मा पेपिशत्तमः कृष्णं व्यक्तमस्थित।
उष ऋणेव यातय॥[ऋग्वेद 10.10.127.7]
हे उषा! हे रात्रि की अधिष्ठात्री देवी! सब ओर फैला हुआ यह अज्ञानमय काला अन्धकार मेरे निकट आ पहुँचा है। तुम इसे ऋण की भाँति दूर करो जैसे धन देकर अपने भक्तों के ऋण दूर करती हो, उसी प्रकार ज्ञान देकर इस अज्ञान को भी हटा दो।[देवीपुराण 1]
उप ते गा इवाकरं वृणीष्व दुहितर्दिवः।
रात्रि स्तोमं न जिग्युषे॥[ऋग्वेद 10.10.127.8]
हे रात्रि देवी! तुम दूध देनेवाली गौ के समान हो। मैं तुम्हारे समीप आकर स्तुति आदि से तुम्हें अपने अनुकूल करता हूँ। व्योम स्वरूप परमात्मा की परम पुत्री! तुम्हारी कृपा से मैं काम आदि शत्रुओं को जीत चुका हूँ, तुम स्तोम की भाँति मेरे इस हविष्य को भी ग्रहण करो।[देवीपुराण 8]
SHRI SUKT श्री सूक्त :: श्री सूक्त 'पञ्च सूक्तों' में से एक है, (पंच सूक्त :- पुरुष सूक्तम, विष्णु सूक्तम, श्री सूक्तम, भू सूक्तम, नील सूक्तम)। देवी महालक्ष्मी को समर्पित यह स्तोत्र ऋग्वेद से लिया गया है। देवी की कृपा से सुख प्राप्ति के लिए इस स्तोत्र का पाठ किया जाता है।
हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह॥1॥
तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम।
यस्या हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम्॥2॥
अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रबोधिनीम।
श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवीर्जुषताम॥4॥
कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्दा ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम।
पद्मे स्थितां पद्मवर्णां तामिहोपह्वये श्रियम्॥5॥
चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम।
तां पद्मिनीमीं शरणमहं प्रपद्येऽलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे॥6॥
आदित्यवर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरा याश्च बाह्या अलक्ष्मीः॥7॥
उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह।
प्रादुर्भूतोऽस्मिराष्ट्रेऽस्मिन कीर्तिमृद्धिं ददातु मे॥8॥
क्षुप्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाश्याम्यहम।
अभूतिमसमृद्धिं च सर्वां निर्णुद मे गृहात॥9॥
गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम्।
ईश्वरी सर्वभूतानांतामिहोपह्वये श्रियम॥10॥
मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि।
पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः॥11॥
कर्दमेन प्रजाभूता मयि संभव कर्दम।
श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम॥12॥
आपः सृजन्तु स्नि-ग्धानि चिक्लीत वस् में गृहे।
निच देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले॥13॥
आर्द्रां पुष्करिणीम पुष्टिंपिँगलां पद्ममालिनीं।
चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह॥14॥
आर्द्रां यःकरिणींयष्टिं सुवर्णा हेममालिनीं।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह॥15॥
तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्र्वान् विन्देयं पुरुषान्हम्॥16॥
यः शुचि प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम्।
सूक्तं पञ्चदशर्चं च श्रीकामः सततं जपेत्॥17॥
पद्मानने पद्म ऊरु पद्माक्षी पद्मसम्भवे।
तन्मे भजसि पद्माक्षि येन सौख्यं लभाम्यहम॥18॥
अश्वदायी गोदायी धनदायी महाधने।
धनं मे जुषतां देवि सर्वकामांश्च देहि मे॥19॥
पद्मानने पद्मविपद्मपत्रे पद्मप्रिये पद्मदलायताक्षि।
विश्वप्रिये विश्वमनोऽनुकूले त्वत्पादपद्मं मयिसन्निधत्सव॥20॥
पुत्रपौत्रधनं धान्यं हस्त्यश्वादिगवे रथम्।
प्रजानां भवसी माता आयुष्मन्तं करोतु मे॥21॥
धनमग्निर्धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसुः।
धनमिन्द्रो वृहस्पतिर्वरुणं धनमस्तु मे॥22॥
वैनतेय सोमं पिब सोमं पिबतु वृत्रहा।
सोमं धनस्य सोमिनो मह्यं ददातु सोमिनः॥23॥
न क्रोधो न च मात्सर्य न लोभो नाशुभा मतिः।
भवन्ति कृत पुण्यानां भक्तानां श्रीसूक्तम जपत्॥24॥
सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतरांशुकगन्धमाल्य शोभे।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यं॥25॥
विष्णुपत्नीं क्षमां देवीं माधवीं माधव प्रियाम्।
लक्ष्मीं प्रियसखीं देवीं नमाम्यच्युतवल्लभाम्॥26॥
महालक्ष्मी च विद्महे विष्णुपत्नी च धीमहि।
तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात्॥27॥
श्रीवर्चस्वमायुष्यमारोग्यमाविधाच्छोभमानं महीयते।
धान्यं धनं पशुं बहुपुत्रलाभं शतसंवत्सरं दीर्घमायुः॥28॥
पद्मप्रिये पद्मिनि पद्महस्ते पद्मालये पद्मदलायताक्षि।
विश्वप्रिये विष्णुमनोऽनुकूले त्वत्पादपद्मं मयि सन्निधत्सव॥29॥
श्रिये जात श्रिय आनिर्याय श्रियं वयो जनितृभ्यो दधातु।
श्रियं वसाना अमृतत्वमायन् भजन्ति सद्यः सवितो विदध्यून्॥30॥
श्रिय एवैनं तच्छ्रियामादधाति।
सन्ततमृचा वषट्कृत्यं संधत्तं संधीयते प्रजया पशुभिः य एवं वेद॥31॥
ॐ महादेव्यै च विद्महे विष्णुपत्न्यै च धीमहि।
तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात॥32॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।
श्री लक्ष्मीसूक्त :: काम, क्रोध, लोभ वृत्ति से मुक्ति प्राप्त कर धन, धान्य, सुख, ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए माँ भगवत लक्ष्मी की आराधना की जाती है।
पद्मानने पद्मिनि पद्मपत्रे पद्मप्रिये पद्मदलायताक्षि।
विश्वप्रिये विश्वमनोऽनुकूले त्वत्पादपद्मं मयि सन्निधत्स्व॥1॥
हे देवी लक्ष्मी! आप कमलमुखी, कमल पुष्प पर विराजमान, कमल-दल के समान नेत्रों वाली, कमल पुष्पों को पसंद करने वाली हैं। सृष्टि के सभी जीव आपकी कृपा की कामना करते हैं। आप सबको मनोनुकूल फल देने वाली हैं। हे देवी! आपके चरण-कमल सदैव मेरे हृदय में स्थित हों।
पद्मानने पद्मऊरू पद्माक्षी पद्मसम्भवे।
तन्मे भजसिं पद्माक्षि येन सौख्यं लभाम्यहम्॥2॥
हे देवी लक्ष्मी! आपका श्रीमुख, ऊरु भाग, नेत्र आदि कमल के समान हैं। आपकी उत्पत्ति कमल से हुई है। हे कमलनयनी! मैं आपका स्मरण करता हूँ, आप मुझ पर कृपा करें।
अश्वदायी गोदायी धनदायी महाधने।
धनं मे जुष तां देवि सर्वांकामांश्च देहि मे॥3॥
हे देवी लक्ष्मी! अश्व, गौ, धन आदि देने में आप समर्थ हैं। आप मुझे धन प्रदान करें। हे माता! मेरी सभी कामनाओं को आप पूर्ण करें।
पुत्र पौत्र धनं धान्यं हस्त्यश्वादिगवेरथम्।
प्रजानां भवसी माता आयुष्मंतं करोतु मे॥4॥
हे देवी लक्ष्मी! आप सृष्टि के समस्त जीवों की माता हैं। आप मुझे पुत्र-पौत्र, धन-धान्य, हाथी-घोड़े, गौ, बैल, रथ आदि प्रदान करें। आप मुझे दीर्घ-आयुष्य बनाएँ।
धनमाग्नि धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसु।
धन मिंद्रो बृहस्पतिर्वरुणां धनमस्तु मे॥5॥
हे देवी लक्ष्मी! आप मुझे अग्नि, धन, वायु, सूर्य, जल, बृहस्पति, वरुण आदि की कृपा द्वारा धन की प्राप्ति कराएँ।
पुरुष सूक्त :: ऋषि :- नारायण, देवता :- पुरुष।
ऋग्वेद संहिता के दसवें मण्डल का एक प्रमुख सूक्त यानि मंत्र संग्रह (10.90) है, यजुर्वेद (31वाँ अध्याय), अथर्ववेद (19वें काण्ड का छठा सूक्त), तैत्तिरीय संहिता, शतपथ ब्राह्मण तथा तैत्तिरीय आरण्यक आदि में प्राप्त होता है। मुद्गलोपनिषद् में भी पुरुष-सूक्त प्राप्त हैं, जिसमें दो मन्त्र अतिरिक्त हैं। इसमें विराट पुरुष (महा विष्णु, गौलोक में भगवान् श्री कृष्ण और राधा जी पुत्र) का उनके अंगों सहित वर्णन है।
इस सूक्त में विराट पुरुष परमात्मा की महिमा निरूपित है और सृष्टि निरूपण की प्रक्रिया का वर्णन है।
विराट पुरुष के अनन्त सिर, नेत्र और चरण हैं। यह सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड उनकी एक पाद्वि भूति है अर्थात् चतुर्थांश है। उनकी शेष त्रिपाद्विभूति में शाश्वत दिव्यलोक (वैकुण्ठ, कैलास, साकेत आदि) हैं।
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्।
स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशांगुलमं॥1॥
(पुरूषः) विराट रूप काल भगवान् अर्थात् क्षर पुरूष (सहस्रशीर्षा) हजार सिरों वाला (सहस्राक्षः) हजार आँखों वाला (सहस्रपात्) हजार पैरों वाला है। (स) वह काल (भूमिम्) पृथ्वी वाले इक्कीस ब्रह्माँडो को (विश्वतः) सब ओर से (दशंगुलम्) दसों अंगुलियों से अर्थात् पूर्ण रूप से काबू किए हुए (वृत्वा) गोलाकार घेरे में घेर कर (अत्यातिष्ठत्) इस से बढ़कर अर्थात् अपने काल लोक में सबसे न्यारा भी इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में ठहरा है अर्थात् रहता है।
जिसके हजारों हाथ, पैर, हजारों आँखे, कान आदि हैं, वह विराट रूप काल प्रभु अपने आधीन सर्व प्राणियों को पूर्ण काबू करके अर्थात् 20 ब्रह्माण्डों को गोलाकार परिधि में रोककर स्वयं इनसे ऊपर (अलग) इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में बैठा है।
उन परम पुरुष के सहस्रों (अनन्त) मस्तक, सहस्रों नेत्र और सहस्रों चरण हैं । वे इस सम्पूर्ण विश्व की समस्त भूमि (पूरे स्थान) को सब ओर से व्याप्त करके इससे दस अंगुल (अनन्त योजन) ऊपर स्थित हैं अर्थात् वे ब्रह्माण्ड में व्यापक होते हुए उससे परे भी हैं।
The Ultimate-Param Purush has thousands of hands, legs, eyes, ears etc. He has pervaded the whole universe on one hand and on the other he is away from it, maintaining infinite distance.
पुरूष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम्।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति॥2॥
(एव) इसी प्रकार कुछ सही तौर पर (पुरूष) ईश्वर है। वह अक्षर पुरूष अर्थात् परब्रह्म है (च) और (इदम्) यह (यत्) जो (भूतम्) उत्पन्न हुआ है (यत्) जो (भाव्यम्) भविष्य में होगा (सर्वम्) सब (यत्) प्रयत्न से अर्थात् मेहनत द्वारा (अन्नेन) अन्न से (अतिरोहति) विकसित होता है। यह अक्षर पुरूष भी (उत) सन्देह युक्त (अमृतत्वस्य) मोक्ष का (इशानः) स्वामी है अर्थात् ईश्वर तो अक्षर पुरूष भी कुछ सही है, परन्तु पूर्ण मोक्ष दायक नहीं है।
परब्रह्म (अक्षर पुरुष) का विवरण है जो कुछ ईश्वर वाले लक्षणों से युक्त है, परन्तु इसकी भक्ति से भी पूर्ण मोक्ष नहीं है, इसलिए इसे संदेह युक्त मुक्ति दाता कहा है। इसे कुछ प्रभु के गुणों युक्त इसलिए कहा है कि यह काल की तरह तप्तशिला पर भून कर नहीं खाता। परन्तु इस परब्रह्म के लोक में भी प्राणियों को परिश्रम करके कर्माधार पर ही फल प्राप्त होता है तथा अन्न से ही सर्व प्राणियों के शरीर विकसित होते हैं, जन्म तथा मृत्यु का समय भले ही काल (क्षर पुरुष) से अधिक है, परन्तु फिर भी उत्पत्ति प्रलय तथा चैरासी लाख योनियों में यातना बनी रहती है।
यह जो इस समय वर्तमान (जगत्) है, जो बीत गया और जो आगे होने वाला है, वह सब वे परम पुरुष ही हैं। इसके अतिरिक्त वे देवताओं के तथा जो अन्न से (भोजन द्वारा) जीवित रहते हैं, उन सब के भी ईश्वर (अधीश्वर-शासक) हैं।
He for ever, ever since. He is present, past & the future. He is the ultimate being yet he is not the Almighty. He is the governor of all demigods-deities who survive over the strength of the food provided by him.
एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पुरूषः।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि॥3॥
(अस्य) इस अक्षर पुरूष अर्थात् परब्रह्म की तो (एतावान्) इतनी ही (महिमा) प्रभुता है। (च) तथा (पुरूषः) वह परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर तो (अतः) इससे भी (ज्यायान्) बड़ा है (विश्वा) समस्त (भूतानि) क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष तथा इनके लोकों में तथा सत्यलोक तथा इन लोकों में जितने भी प्राणी हैं (अस्य) इस पूर्ण परमात्मा परम अक्षर पुरूष का (पादः) एक पैर है अर्थात् एक अंश मात्रा है। (अस्य) इस परमेश्वर के (त्रि) तीन (दिवि) दिव्य लोक जैसे सत्यलोक-अलख लोक-अगम लोक (अमृतम्) अविनाशी (पाद्) दूसरा पैर है अर्थात् जो भी सर्व ब्रह्माण्डों में उत्पन्न है। वह सत्य पुरूष पूर्ण परमात्मा का ही अंश या अंग है।
इस ऊपर के मंत्र 2 में वर्णित अक्षर पुरुष (परब्रह्म) की तो इतनी ही महिमा है तथा वह पूर्ण पुरुष तो इससे भी बड़ा है अर्थात सर्वशक्तिमान है तथा सर्व ब्रह्माण्ड उसी के अंश मात्रा पर ठहरे हैं। इस मंत्र में तीन लोकों का वर्णन इसलिए है, क्योंकि चौथा अनामी (अनामय) लोक अन्य रचना से पहले का है। यही तीन प्रभुओं (क्षर पुरूष, अक्षर पुरूष तथा इन दोनों से अन्य परम अक्षर पुरूष) का विवरण श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 15 श्लोक संख्या 16.17 में है।
यह भूत, भविष्य, वर्तमान से सम्बद्ध समस्त जगत इन परम पुरुष का वैभव है। वे अपने इस विभूति विस्तार से भी महान हैं। उन परमेश्वर को एकपाद्विभूति (चतुर्थाश) में ही यह पंचभूतात्मक विश्व है। उनकी शेष त्रिपाद्विभूति में शाश्वत दिव्यलोक (वैकुण्ठ, गोलोक, साकेत, शिवलोक आदि) हैं।
वैभव :: भव्यता, तेज, प्रताप, शान, चमक, महिमा, गौरव, बड़ाई; grandeur, splendour, majesty.
Every thing pertaining to past, present & the future is the grandeur of the Ultimate being Virat Purush-Maha Vishnu). He is greater than this extension. His, just one fragment covers the whole universe made of Panch Tatv. His remaining three segments cover the entire divine creations like Vaekunth, Gau Lok, Saket, Shiv Lok etc.)
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत् पुनः।
ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशने अभि॥4॥
(पुरूषः) यह परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् अविनाशी परमात्मा (ऊध्र्वः) ऊपर (त्रि) तीन लोक जैसे सत्यलोक, अलख लोक, अगम लोक रूप (पाद) पैर अर्थात ऊपर के हिस्से में (उदैत) प्रकट होता है अर्थात विराजमान है (अस्य) इसी परमेश्वर पूर्ण ब्रह्म का (पादः) एक पैर अर्थात एक हिस्सा जगत रूप (पुनर्) फिर (इह) यहाँ (अभवत्) प्रकट होता है (ततः) इसलिए (सः) वह अविनाशी पूर्ण परमात्मा (अशनानशने) खाने वाले काल अर्थात क्षर पुरूष व न खाने वाले परब्रह्म अर्थात अक्षर पुरूष के भी (अभि) ऊपर (विश्वङ्) सर्वत्रा (व्यक्रामत्) व्याप्त है अर्थात उसकी प्रभुता सर्व ब्रह्माण्डों व सर्व प्रभुओं पर है। वह कुल का मालिक है। जिसने अपनी शक्ति को सब के ऊपर फैलाया है।
यही सर्व सृष्टी रचनाकार प्रभु अपनी रचना के ऊपर के हिस्से में तीनों स्थानों (सतलोक, अलखलोक, अगमलोक) में तीन रूप में स्वयं प्रकट होता है अर्थात स्वयं ही विराजमान है। यहाँ अनामी लोक का वर्णन इसलिए नहीं किया क्योंकि अनामी लोक में कोई रचना नहीं है तथा अकह (अनामय) लोक शेष रचना से पूर्व का है। फिर कहा है कि उसी परमात्मा के सत्यलोक से बिछुड़ कर नीचे के ब्रह्म व परब्रह्म के लोक उत्पन्न होते हैं और वह पूर्ण परमात्मा खाने वाले ब्रह्म अर्थात काल से (क्योंकि ब्रह्म/काल विराट शाप वश एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों को खाता है) तथा न खाने वाले परब्रह्म अर्थात् अक्षर पुरुष से (परब्रह्म प्राणियों को खाता नहीं, परन्तु जन्म-मृत्यु, कर्म-दण्ड ज्यों का त्यों बना रहता है) भी ऊपर सर्वत्र व्याप्त है अर्थात इस पूर्ण परमात्मा की प्रभुता सर्व के ऊपर है, परमेश्वर ही कुल का मालिक है। जिसने अपनी शक्ति को सब के ऊपर ऐसे फैलाया है जैसे सूर्य अपने प्रकाश को सब के ऊपर फैला कर प्रभावित करता है, ऐसे पूर्ण परमात्मा ने अपनी शक्ति रूपी क्षमता को सभी ब्रह्माण्डों को नियन्त्रित रखने के लिए छोड़ा हुआ है।
वे परम पुरुष स्वरूपतः इस मायिक जगत से परे त्रिपाद्विभूति में प्रकाशमान हैं (वहाँ माया का प्रवेश न होने से उनका स्वरूप नित्य प्रकाशमान है)। इस विश्व के रूप में उनका एक पाद ही प्रकट हुआ है अर्थात् एक पाद से वे ही विश्वरूप भी हैं, इसलिये वे ही सम्पूर्ण जड़ एवं चेतनमय, उभयात्मक जगत को परिव्याप्त किये हुए हैं।
The Ultimate being is established over the perishable-virtual (imaginary) world. This universe is just one fragment of his extensions. He is pervading the inertial-static and the conscious-living world.
तस्माद् विराळजायत विराजो अधि पूरुषः।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः॥5॥
(तस्मात्) उसके पश्चात् उस परमेश्वर सत्यपुरूष की शब्द शक्ति से (विराट्) विराट अर्थात ब्रह्म, जिसे क्षर पुरूष व काल भी कहते हैं (अजायत) उत्पन्न हुआ है (पश्चात्) इसके बाद (विराजः) विराट पुरूष अर्थात काल भगवान् से (अधि) बड़े (पुरूषः) परमेश्वर ने (भूमिम्) पृथ्वी वाले लोक, काल ब्रह्म तथा परब्रह्म के लोक को (अत्यरिच्यत) अच्छी तरह रचा (अथः) फिर (पुरः) अन्य छोटे-छोटे लोक (स) उस पूर्ण परमेश्वर ने ही (जातः) उत्पन्न किया अर्थात स्थापित किया।
तीनों लोकों (अगमलोक, अलख लोक तथा सतलोक) की रचना के पश्चात पूर्ण परमात्मा ने ज्योति निरंजन (ब्रह्म) की उत्पत्ति की अर्थात उसी सर्व शक्तिमान परमात्मा पूर्ण ब्रह्म से ही विराट अर्थात् ब्रह्म (काल) की उत्पत्ति हुईं।
गीता अध्याय 3, मन्त्र 15 :- अक्षर पुरूष अर्थात अविनाशी प्रभु से ब्रह्म उत्पन्न हुआ।अर्थववेद काण्ड 4, अनुवाक 1, सूक्त 3 :- पूर्ण ब्रह्म से ब्रह्म की उत्पत्ति हुई। उसी पूर्ण ब्रह्म ने (भूमिम्) भूमि आदि छोटे-बड़े सर्व लोकों की रचना की। वह पूर्णब्रह्म इस विराट भगवान अर्थात् ब्रह्म से भी बड़ा है अर्थात इसका भी मालिक है।
उन्हीं आदि पुरुष से विराट (ब्रह्माण्ड) उत्पन्न हुआ। वे परम पुरुष ही विराट के अधिपुरुष-अधिदेवता (हिरण्यगर्भ) रूप से उत्पन्न होकर अत्यन्त प्रकाशित हुए। बाद में उन्होंने भूमि (लोकादि) तथा शरीर (देव, मानव, तिर्यक् आदि) उत्पन्न किये।
The Ultimate being (Adi Purush) led to the creation of the universe. He evolved as Adhi Purush-Adhi Devta as Hirany Garbh (Golden Womb Shell, out of which Bhagwan Shri Hari Vishnu evolved, followed By Brahma Ji from his naval lotus). Thereafter, he created the other abodes like earth and species like demigods-deities, humans, insects, plants shrubs etc. etc.
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम्।
पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये॥6॥
जिसमें सब कुछ हवन किया गया है, उस यज्ञपुरुष से उसी ने दही, घी आदि उत्पन्न किये और वायु में, वन में एवं ग्राम में रहने योग्य पशु उत्पन्न किये।
He who is Yagy Purush-Ultimate being created curd, Ghee etc. & the creatures capable of living in the air, forests and villages
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे।
छन्दाᳬसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत॥7॥
उसी सर्वहुत यज्ञ पुरुष से ऋग्वेद एवं सामवेद के मन्त्र उत्पन्न हुए, उसी से यजुर्वेद के मन्त्र उत्पन्न हुए और उसी से सभी छन्द भी उत्पन्न हुए।
Its the Yagy Purush who evolved the Rig Ved, Sam Ved and the Mantr of Yajur Ved and the Chhand-stanza.
तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः॥8॥
उसी से घोड़े उत्पन्न हुए, उसी से गायें उत्पन्न हुईं और उसी से भेड़-बकरियाँ उत्पन्न हुईं। वे दोनों ओर दाँतों वाले हैं।
Horses, cows, sheep & goats having teeth in upper & the lower jaws evolved out of him.
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः।
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये॥9॥
देवताओं, साध्यों तथा ऋषियों ने सर्वप्रथम उत्पन्न हुए उस यज्ञपुरुष को कुशा पर अभिषिक्त किया और उसी से उसका यजन किया।
Demigods-deities, Sadhy Gan (one kind-specie of demigods) and the Rishi Gan prayed to the Yagy Purush who evolved first over the Kush grass, initially.
यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्।
मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादा उच्येते॥10॥
पुरुष का जब विभाजन हुआ तो उसमें कितनी विकल्पनाएँ की गयीं? उसका मुख क्या था? उसके बाहु क्या थे? उसके जंघे क्या थे और उसके पैर क्या कहे जाते हैं?
At the time of creation of the Virat-Yagy Purush, his mouth, arms, thighs, legs were conceptualised.
ब्राह्मणोऽस्य मुखामासीद्वाहू राजन्य: कृत:।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्याँ शूद्रो अजायत॥11॥
ब्राह्मण इसका मुख था (मुख से ब्राह्मण उत्पन्न हुए)। क्षत्रिय दोनों भुजाएँ बने (दोनों भुजाओं से क्षत्रिय उत्पन्न हुए)। इस पुरुष की जो दोनों जंघाएँ थीं, वे ही वैश्य हुईं अर्थात् उनसे वैश्य उत्पन्न हुए और पैरों से शूद्र वर्ण प्रकट हुआ।
ब्राह्मण ब्रह्मा जी के मुख से जन्मे हैं, क्षत्रिय ब्रह्मा के भुजा से जन्मे हैं, वैश्य जँघा से, जबकि शूद्र पाँव से जन्मे हैं।ये सभी दिव्य जन्मा हैं।
मानवी सृष्टि महर्षि कश्यप से प्रारम्भ हुई अतः "जन्मना जायते शूद्र:"[मनुस्मृति] जन्म से सब शूद्र होते हैं, अतः जो व्यक्ति बुद्धि, विवेक के कार्यों में निपुड़ होता है वो ब्राह्मण वर्ण में जा सकता है और उसकी तुलना ही ब्रह्म के मुख से की जा सकती है। इसके सामान ही जो व्यक्ति युद्ध एवं राजनीति में निपुड़ होता है वो क्षत्रिय हो सकता है, व्यापार में निपुण (बढ़ई, लोहार, सोनार आदि) व्यक्ति वैश्य तथा अन्य सभी कार्य करने वाला व्यक्ति शूद्र हो सकता है।
The Brahmns appeared from the mouth, Kshatriy from the arms, Vaeshy from the thighs and the Shudr from the feet of Brahma Ji, as divine species.
The humans were created by Maharshi Kashyap through sexual intercourse. They too were titles Brahmns, Kshatriy, Vaeshy and Shudr on the basis of the Karm-practices adopted by them.
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत।
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायते॥12॥
इस परम पुरुष के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुए, नेत्रों से सूर्य प्रकट हुए, कानों से वायु और प्राण तथा मुख से अग्नि की उत्पत्ति हुई।
Som Dev (Chandr Dev, Moon) emerged from the innerself (mind & heart) of the Param-Yagy Purush, eyes produced Sun, ears emitted air & Pran-life sustaining force and Agni-fire came out of the mouth.
नाभ्या आसीदन्तरिक्षᳬ शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः ओत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन्॥13॥
उन्हीं परम पुरुष की नाभि से अन्तरिक्ष लोक उत्पन्न हुआ, मस्तक से स्वर्ग प्रकट हुआ, पैरों से पृथिवी, कानों से दिशाएँ प्रकट हुईं। इस प्रकार समस्त लोक उस पुरुष में ही कल्पित हुए।
The space was created from his naval, mind produced the heavens, legs produced the earth, ears led to the formations of the 10 directions. In this manner all abodes are assumed to present in the Virat Purush-Maha Vishnu.
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत।
वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः॥14॥
जिस पुरुष रूप हविष्य से देवों ने यज्ञ का विस्तार किया, वसन्त उसका घी था, ग्रीष्म काष्ठ एवं शरद हवि थी।
The extension of the Yagy had the Purush as the offering, spring season was its Ghee-clarified butter, wood & summers and the winters became offerings in the holy fire.
सप्तास्यासन्परिधयस्त्रिाः सप्त समिधः कृताः।
देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन् पुरुषं पशुम्॥15॥
(सप्त) सात संख ब्रह्मण्ड तो परब्रह्म के तथा (त्रिसप्त) इक्कीस ब्रह्मण्ड काल ब्रह्म के (समिधः) कर्म दण्ड दुःख रूपी आग से दुःखी (कृताः) करने वाले (परिधयः) गोलाकार घेरा रूप सीमा में (आसन्) विद्यमान हैं (यत्) जो (पुरूषम्) पूर्ण परमात्मा की (यज्ञम्) विधिवत् धार्मिक कर्म अर्थात् पूजा करता है (पशुम्) बलि के पशु रूपी काल के जाल में कर्म बन्धन में बंधे (देवा) भक्तात्माओं को (तन्वानाः) काल के द्वारा रचे अर्थात् फैलाये पाप कर्म बंधन जाल से (अबध्नन्) बन्धन रहित करता है अर्थात् बन्दी छुड़ाने वाला बन्दी छोड़ है।
सात संख ब्रह्मण्ड परब्रह्म के तथा इक्कीस ब्रह्माण्ड ब्रह्म के हैं, जिन में गोलाकार सीमा में बंद पाप कर्मों की आग में जल रहे प्राणियों को वास्तविक पूजा विधि बता कर सही उपासना करवाता है। जिस कारण से बलि दिए जाने वाले पशु की तरह जन्म-मृत्यु के काल (ब्रह्म) के खाने के लिए तप्त शिला के कष्ट से पीडि़त भक्तात्माओं को काल के कर्म बन्धन के फैलाए जाल को तोड़कर बन्धन रहित करता है अर्थात बन्धन तोड़ने वाला बन्दी छोड़ है।
यजुर्वेद अध्याय 5 मंत्र 32 :- कविरंघारिसि (कविर्) कबिर परमेश्वर (अंघ) पाप का (अरि) शत्रु (असि) है अर्थात् पाप विनाशक है। बम्भारिसि (बम्भारि) बन्धन का शत्रु अर्थात् बन्दी छोड़ परमेश्वर (असि) है।
देवताओं ने जब यज्ञ करते समय (संकल्प से) पुरुष रूप पशु को बन्धन मुक्त किया, तब सात समुद्र इसकी परिधि (मेखलाएँ) थे। इक्कीस प्रकार के छन्दों की (गायत्री, अतिजगती और कृति में से प्रत्येक के सात-सात प्रकार से) समिधाएँ बनीं।
When the demigods-deities released the animal in the form of Human, seven seas were surrounding it. 21 types of stanza-prayers (like Gayatri, Ati Jagti & Krati) became its Samidha-pious wood for Agni Hotr.
यज्ञेन यज्ञमSयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।
ते ह नाकम् महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥16॥
जो (देवाः) निर्विकार देव स्वरूप भक्तात्माएं (अयज्ञम्) अधूरी गलत धार्मिक पूजा के स्थान पर (यज्ञेन) सत्य भक्ति धार्मिक कर्म के आधार पर (अयजन्त) पूजा करते हैं (तानि) वे (धर्माणि) धार्मिक शक्ति सम्पन्न (प्रथमानि) मुख्य अर्थात् उत्तम (आसन्) हैं (ते ह) वे ही वास्तव में (महिमानः) महान भक्ति शक्ति युक्त होकर (साध्याः) सफल भक्त जन (नाकम्) पूर्ण सुखदायक परमेश्वर को (सचन्त) भक्ति निमित कारण अर्थात सत्भक्ति की कमाई से प्राप्त होते हैं, वे वहाँ चले जाते हैं। (यत्रा) जहाँ पर (पूर्वे) पहले वाली सृष्टी के (देवाः) पापरहित देव स्वरूप भक्त आत्माएं (सन्ति) रहती हैं।
जो निर्विकार (जिन्होंने माँस, शराब, तम्बाकू सेवन करना त्याग दिया है तथा अन्य बुराईयों से रहित हैं, वे) देव स्वरूप भक्त आत्माएं शास्त्र विधि रहित पूजा को त्याग कर शास्त्रानुकूल साधना करते हैं, वे भक्ति की कमाई से धनी होकर काल के ऋण से मुक्त होकर अपनी सत्य भक्ति की कमाई के कारण उस सर्व सुखदाई परमात्मा को प्राप्त करते हैं अर्थात् सत्यलोक में चले जाते हैं, जहाँ पर सर्व प्रथम रची सृष्टी के देव स्वरूप अर्थात पाप रहित हंस आत्माएं रहती हैं।
उपनिषद् इस मन्त्र में मोक्ष-निरूपण का उपसंहार भी निरूपित-निर्दिष्ट करता है। अत: मोक्ष-निरूपण के लिये श्रुति का अर्थ इस प्रकार होना चाहिये कि सम्पूर्ण कर्म, जो भगवद् अर्पण बुद्धि से भगवान् के लिये किये जाते हैं, यज्ञ हैं। उस कर्म रूप यज्ञ के द्वारा सात्त्विक वृत्तियों ने उन यज्ञस्वरूप भगवान् का युज़न-पूजन किया। इसी भगवद् अर्पण बुद्धि से किये गये यज्ञ रूप कर्मों के द्वारा ही सर्वप्रथम धर्म उत्पन्न हुए। धर्माचरण की उत्पत्ति भगवद् अर्पण बुद्धि से किये गये कर्मों से हुई। इस प्रकार भगवद् अर्पण बुद्धि से अपने समस्त कर्मो के द्वारा जो भगवान् के यजन रूप कर्म का आचरण करते हैं, वे उस भगवान् के दिव्य धाम को जाते हैं, जहाँ उनके साध्य-आराध्य आदि देव भगवान् विराजमान हैं।
देवताओं ने (पूर्वोक्त रूप से) यज्ञ के द्वारा यज्ञ स्वरूप परम पुरुष का यजन (आराधन) किया। इस यज्ञ से सर्वप्रथम धर्म उत्पन्न हुए। उन धर्मों के आचरण से वे देवता महान् महिमा वाले होकर उस स्वर्ग लोक का सेवन करते हैं, जहाँ प्राचीन साध्य देवता निवास करते हैं। (अत: हम सभी सर्वव्यापी जड़-चेतनात्मक रूप विराट् पुरुष को करबद्ध स्तुति करते हैं।)[शु.यजु. 31.1-16; ऋग्वेद, मुद्गलोपनिषद्]
The demigods-deities prayed to the Yagy Purush in this manner. As an outcome of this Dharm appeared first. By adopting-following this Dharm-religious practices, the demigods-deities become glorious and enjoy the heavens where Sadhy Gan reside.
Following two Shloks loks-abodes like later additions.
वेदाहमेतं पुरुषं महान्त मादित्यवर्णं तमसस्तु पारे।
सर्वाणि रूपाणि विचित्य धीरो नामानि कृत्वाभिवदन् यदास्ते॥17॥
तमस् (अविद्यारूप अन्धकार) से परे आदित्य के समान प्रकाश स्वरूप उस महान् पुरुष को मैं जानता हूँ। सबकी बुद्धि में रमण करने वाला वह परमेश्वर सृष्टि के आरम्भ में समस्त रूपों की रचना करके उनके नाम रखता है और उन्हीं नामों से व्यवहार करता हुआ सर्वत्र विराजमान होता है।
I know him, the Ultimate being, who is beyond darkness, in the form of Adity-Sun, aura, who resides in the minds of all, who created all beings-forms of life and the inertial-static world and names them and moves all around bearing these names-titles.
ये मन्त्र ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में नहीं मिलते, परन्तु पुरुष सूक्त के पृथक प्रकाशित कई संस्करणों में मिलते हैं। मूल उपनिषद् भी इनका संकेत हैं। ये मन्त्र पारमात्मिकोपनिषद्, महावाक्योपनिषद् तथा चित्युपनिषद् में भी आये हैं। यह मन्त्र तैत्तिरीय आरण्यक में भी है।
धाता पुरस्ताद्यमुदाजहार शक्रः प्रविद्वान् प्रदिशश्चतस्रः।
तमेवं विद्वानमृत इह भवति नान्यः पन्था विद्यते अयनाय॥18॥
पूर्व काल में ब्रह्मा जी ने जिनकी स्तुति की थी, इन्द्र ने चारों दिशाओं में जिसे (व्याप्त) जाना था, उस परम पुरुष को जो इस प्रकार (सर्वस्वरूप) जानता है, वह यहीं अमृतपद (मोक्ष) प्राप्त कर लेता है। इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग निज-निवास (स्वस्वरूप या भगवद्धाम) की प्राप्ति का नहीं है।
Whom Brahma Ji worshipped in ancient period, Indr found him pervading in all directions and the one who who identifies him like this become capable of attaining Salvation-Moksh. There is no other means to seek liberation-emancipation.
पितृ सूक्त :: पितृ दोष के कारण सन्तान हीनता, गरीबी प्राप्त होती है। इसके निवारण हेतु एकादशी या अमावस्या के दिन पितृ-सूक्त का श्रवण-पाठ, अध्ययन, दान-पुण्य चाहिये। इसके निवारण’ की श्रेष्ठ पद्धति नारायण बलि है। पितृ-पक्ष में या प्रतिदिन पितृ-सूक्त का पाठ कर ने से घर में या जन्म-कुण्ड़ली में कैसा भी पितृ-दोष क्यों न हो, वह हमेशा के लिए समाप्त हो जाता है और ‘पितरों’ की असीम-कृपा से साधक-याचक और उसके परिवार पर पित्रों की असीम कृपा हो जाती है।
प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जाति के अनुसार अपने पितरों के निमित्त दान एवं श्राद्ध करना चाहिये। [स्कंद-पुराण]
ब्राह्मणों के पितर ॠषि वसिष्ठ के पुत्र माने गये हैं, अतः ब्राह्मणों को उनकी पूजा करनी चाहिये। क्षत्रियों के पितर अंगिरस-ॠषि के पुत्र माने गये है, अतः क्षत्रियों को उनकी पूजा करनी चाहिये। वैश्यों को पुलह-ऋषि के पुत्रों की पितर रूप में पूजा करनी चाहिये। शुद्रों को हिरण्यगर्भ के पुत्रों की पितर रूप में पूजा करनी चाहिये। जो भी व्यक्ति अपने पितरों के निमित्त दान-पुण्य या श्राद्ध करे, उस वक्त पितृ-सूक्त का पाठ करे। इससे उसकी मनोकामनायें पूर्ण होंगी।
पितृ-सूक्त :: ऋषि :- शङ्क यामायन, देवता :- 1-10, पितर :- 12-14, छन्द त्रिट्टप और जगती :- 11।
पहली आठ ऋचाओं विभिन्न स्थानों में निवास करने वाले पितरों को हविर्भाग स्वीकार करने के लिये आमन्त्रित किया गया है। अन्तिम छ: ऋचाओं में अग्रि से प्रार्थना की गयी है कि वे सभी पितरों को साथ लेकर हवि-ग्रहण करने के लिये पधारने की कृपा करें।
The manes have been requested to accept the offerings in first eight hymns and last six hymns requests Agni Dev to come along with all Manes and accept offerings-Havi.
उदीरतामवर उत् परास उन्मध्यमाः पितर; सोम्यासः।
असुं य ईयुरवृका ऋतज्ञास्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु॥
नीचे, ऊपर और मध्य स्थानों में रहने वाले, सोम पान करने के योग्य हमारे सभी पितर उठकर तैयार हों। यज्ञ के ज्ञाता सौम्य स्वभाव के हमारे जिन पितरों ने नूतन प्राण धारण कर लिये हैं, वे सभी हमारे बुलाने पर आकर हमारी सुरक्षा करें।[ऋग्वेद 10.15.1]
सौम्य :: प्रिय, उदार, क्षमाशील, प्रशम्य; mild, benign, kindly, placable.
All of our deceased ancestors-Manes who have been placed in upper, middle and lower segments-abodes, should get up be ready to sip Somras. Those Pitr-Manes who knows-understand Veds, are benign-placable and got new lease of life (rebirth) should come on being called-requested by us and protect us.
इदं पितृभ्यो नमो अस्त्वद्य ये पूर्वासो य उपरास ईयुः।
ये पार्थिवे रजस्या निषत्ता ये वा नूनं सुवजनासु विषु॥
जो भी नये अथवा पुराने पितर यहाँ से चले गये हैं, जो पितर अन्य स्थानों में हैं और जो उत्तम स्वजनों के साथ निवास कर रहे हैं अर्थात् यमलोक, मर्त्यलोक और विष्णु लोक में स्थित सभी पितरों को आज हमारा यह प्रणाम निवेदित हो।[ऋग्वेद 10.15.2]
We offer homages to our Manes-Pitr who are either old or new & have moved to other places, residing with thier own folk in Yam Lok, Marty Lok earth, Vishnu Lok-abode of Bhagwan Shri Hari Vishnu.
आहं पितृन् त्सुवित्राँ अवित्सि नपातं विक्रमणं च विष्णोः।
बर्हियदो ये स्वधया सुतस्य भजन्त पित्वस्त इहागमिष्ठाः॥
उत्तम ज्ञान से युक्त पितरों को तथा अपानपात् और विष्णु के विक्रमण को, मैंने अपने अनुकूल बना लिया है। कुशासन पर बैठने के अधिकारी पितर प्रसन्नतापूर्वक आकर अपनी इच्छा के अनुसार हमारे द्वारा अर्पित हवि और सोम रस ग्रहण करें।[ऋग्वेद 10.15.3]
अपांनपात् :: एक देवता, यह निथुद्रुप अग्नि जो पानी में प्रकाशित होता हैं; person or entity.[ऋग्वेद 2.35]
विक्रमण :: चलना, कदम रखना, भगवान् श्री हरी विष्णु का एक डग, शूरता-वीरता, पाशुपत-अलौकिक शक्ति; movement, one foot of Bhagwan Shri Hari Vishnu, bravery.
I have made the enlightened Manes-Pitr and the raising of Bhagwan Shri Hari Vishnu's foot, favourable. The Manes entitled of occupying Kushasan-cushion, made of Kush grass (very auspicious in nature), are welcome to make offerings and accept Somras.
बर्हिषदः पितर ऊत्यवार्गिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम्।
त आ गतावसा शंतमेनाऽथा नः शं योररपो दधात॥
कुशासन पर अधिष्ठित होने वाले हे पितर! आप कृपा करके हमारी ओर आइये। यह हवि आपके लिये ही तैयार की गयी है, इसे प्रेम से स्वीकार कीजिये। अपने अत्यधिक सुख प्रद प्रसाद के साथ आयें और हमें क्लेश रहित सुख तथा कल्याण प्राप्त करायें।[ऋग्वेद 10.15.4]
Hey Kushasan occupying Manes! Please come towards us. The offering has been prepared for you, accept it with love. Please bring with you auspicious Prasad-blessings and make us free from troubles and grant comforts along with our welfare.
उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु।
त आ गमन्तु त इह श्रुवन्त्वधि ब्रुवन्तु तेऽवन्त्वस्मान्॥
पितरों को प्रिय लगने वाली सोम रूपी निधियों की स्थापना के बाद कुशासन पर हमने पितरों का आवाहन किया है। वे यहाँ आयें और हमारी प्रार्थना सुनें। वे हमारी करने साथ देवों के पास हमारी ओर से संस्तुति करें।[ऋग्वेद 10.15.5]
Having collected the goods liked by the Manes like Somras, we have prayed them to come and occupy the Kushasan. They should accept our prayers and recommend to demigods-deities, measures for our welfare.
आच्या जानु दक्षिणतो निषद्येमं यज्ञमभि गृणीत विश्वे।
मा हिंसिष्ट पितरः केन चिन्नो यद्व आगः पुरुषता कराम॥
हे पितरो! बायाँ घुटना मोड़कर और वेदी के दक्षिण में नीचे बैठकर आप सभी हमारे इस यज्ञ की प्रशंसा करें। मानव स्वभाव के अनुसार हमने आपके विरुद्ध कोई भी अपराध किया हो तो उसके कारण हे पितरो! आप हमें दण्ड न दें (पितर बायाँ घुटना मोड़कर बैठते हैं और देवता दाहिना घुटना मोड़कर बैठना पसन्द करते हैं)।[ऋग्वेद 10.15.6]
Hey Pitr Gan-Manes! Please bend the left leg and sit in the South of the Vedi (Hawan Kund, Pot meant for Agni Hotr-offerings in holy fire) and appreciate-participate in our Yagy-endeavours. Hey Pitr Gan! If we have committed any mistake due to human nature against you, please do not punish us.
The Pitr mould their left leg during prayers or Yagy and the demigods-deities fold their right leg.
आसीनासो अरुणीनामुपस्थे रयिं धत्त दाशुषे मर्त्याय।
पुत्रेभ्य: पितरस्तस्य वस्यः प्र यच्छत त इहोर्जं दधात॥
अरुण वर्ण की उषा देवी के अङ्क में विराजित हे पितर! अपने इस मर्त्य लोक के याजक को धन दें, सामर्थ्य दें तथा अपनी प्रसिद्ध सम्पत्ति में से कुछ अंश हम पुत्रों को देवें।[ऋग्वेद 10.15.7]
Occupying the lap of Usha Devi, having the aura like Sun-golden hue, Hey Pitr Gan! grant a fraction of your famous assets to us (your sons-descendants) along with capability to make proper use of it.
ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासो ऽनूहिरे सोमपीथं वसिष्ठाः।
तेभिर्यमः संरराणो हवींष्युशन्नुशद्धिः प्रतिकाममत्तु॥
(यम के सोमपान के बाद) सोमपान के योग्य हमारे वसिष्ठ कुल के सोमपायी पितर यहाँ उपस्थित हो गये हैं। वे हमें उपकृत करने के लिये सहमत होकर और स्वयं उत्कण्ठित होकर यह राजा यम हमारे द्वारा समर्पित हवि को अपने इच्छानुसार ग्रहण करें।[ऋग्वेद 10.15.8]
Having consumed Somras, our Pitres from the Vashishth clan have gathered here. Willing to oblige us, Dharm-Yam Raj should accept the offerings made us as per their will.
ये तातूषुर्देवत्रा जेहमाना होत्राविदः स्तोमतष्टासो अर्कै:।
आग्नेयाहि सुविदत्रेभिर्वाङ् सत्यैः कव्यैः पितृभिर्घर्मसद्धिः॥
अनेक प्रकार के हवि द्रव्यों के ज्ञानी अर्को से, स्तोमों की सहायता से जिन्हें निर्माण किया है, ऐसे उत्तम ज्ञानी, विश्वासपात्र घर्म नामक हवि के पास बैठने वाले कव्य नामक हमारे पितर देव लोक में साँस लगने की अवस्था तक प्यास से व्याकुल हो गये हैं। उनको साथ लेकर हे अग्निदेव! आप यहाँ उपस्थित होवें।[ऋग्वेद 10.15.9]
घर्म GHARM:: घास, धूप, सूर्य ताप, एक प्रकार का यज्ञ पात्र, ग्रीष्म काल, स्वेद-पसीना; sweat, grass, sun light, heat of Sun, a kind of pot for Yagy, summers.
कव्य :: वह अन्न जो पितरों को दिया जाय, वह द्रव्य जिससे पिंड, पितृ यज्ञादि किए जायें; the food meant for offerings to the Manes, a ball of dough meant for performing Pitr Yagy.
स्तोम :: स्तुति, स्तव, यज्ञ, समूह-झुंड, राशि, ढेर, यज्ञ करने वाला व्यक्ति; prayers, one performing Yagy, Yagy, group-compilation.
Hey Agni Dev! Please bring our enlightened Manes known as Kavy, who are feeling thirsty, at the Yagy site, who are leaned in various kinds of Havi-offerings and the Yagy designs who sit with the Havi known as Kavy.
ये सत्यासो हविरदो हविष्या इन्द्रेण देवै: सरथं दधाना:।
आग्ने याहि सहस्त्रं देववन्दैः परै: पूर्वैः पितृभिर्घर्मसद्धिः॥
कभी न बिछुड़ने वाले, ठोस हवि का भक्षण करने वाले, इन्द्र और अन्य देवों के साथ एक ही रथ में प्रयाण करने वाले, देवों की वन्दना करने वाले घर्म नामक हवि के पास बैठने वाले जो हमारे पूर्वज पितर हैं, उन्हें सहस्त्रों की संख्या में लेकर हे अग्निदेव! यहाँ पधारें।[ऋग्वेद 10.15.10]
Hey Agni Dev! Please come with our Manes in thousands, who never separate from us, eats solid Havi-offerings, moves-travels along with the demigods-deities and Indr Dev in the same charoite, who pray to the demigods-deities and sit with the Havi called Gharm.
अग्निष्वात्ता: पितर एह गच्छत सदः सदः सदत सुप्रणीतयः॥
अत्ता हवींषि प्रयतानि बहिर्ष्यथा रयिं सर्ववीरं दधातन॥
अग्नि के द्वारा पवित्र किये गये हे उत्तम पथ प्रदर्शक पितर! यहाँ आइये और अपने-अपने आसनों पर अधिष्ठित हो जाइये। कुशासन पर समर्पित हवि द्रव्यों का भक्षण करें और (अनुग्रह स्वरूप) पुत्रों से युक्त सम्पदा हमें समर्पित करा दें।[ऋग्वेद 10.15.11]
Hey excellent guides, purified by Agni Dev! Please come here and occupy your seats. Enjoy-eat the Havi offered to you, while sitting over the Kushasan and grant wealth-riches along with sons.
त्वमग्न ईळितो जातवेदो ऽवाड्ड व्यानि सुरभीणि कृत्वी।
प्रादाः पितृभ्यः स्वधया ते अक्षन्नद्धि त्वं देव प्रयता हवींषि॥
हे ज्ञानी अग्निदेव! हमारी प्रार्थना पर आप इस हवि को मधुर बनाकर पितरों के पास ले गये, उन्हें पितरों को समर्पित किया और पितरों ने भी अपनी इच्छा के अनुसार उस हवि का भक्षण किया। हे अग्निदेव! (अब हमारे द्वारा) समर्पित हवि आप ग्रहण करें।[ऋग्वेद 10.15.12]
Hey enlightened Agni Dev! you took this Havi, making it sweet, offered it to our Manes and they consumed to it, as per their wish. Hey Agni Dev! Now, please you accept the Havi-offerings.
ये चेह पितरो ये च नेह याँश्च विद्म याँ उ च न प्रविद्य।
त्वं वेत्थ यति ते जातवेदः स्वधाभिर्यज्ञं सुकृतं जुषस्व॥
जो हमारे पितर यहाँ (आ गये) हैं और जो यहाँ नहीं आये हैं, जिन्हें हम जानते हैं और जिन्हें हम अच्छी प्रकार जानते भी नहीं; उन सभी को, जितने (और जैसे) हैं, उन सभी को हे अग्निदेव! आप भली-भाँति पहचानते हैं। उन सभी की इच्छा के अनुसार अच्छी प्रकार तैयार किये गये इस हवि को (उन सभी के लिये) प्रसन्नता के साथ स्वीकार करें।[ऋग्वेद 10.15.13]
Hey Agni Dev! You recognise our all those Manes who have gathered here and those who are not present here, we either know them or may not know them, but Hey Agni Dev! you know-recognise all of them. Please accept this Havi for their happiness-pleasure prepared as per their taste.
ये अग्निदग्धा मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते।
तेभिः स्वराळसुनीतिमेतां यथावशं तन्वं कल्पयस्व॥
हमारे जिन पितरों को अग्नि ने पावन किया है और जो अग्नि द्वारा भस्मसात् किये बिना ही स्वयं पितृ भूत हैं तथा जो अपनी इच्छा के अनुसार स्वर्ग के मध्य में आनन्द से निवास करते हैं। उन सभी की अनुमति से, हे स्वराट् अग्रे! (पितृलोक में इस नूतन मृत जीव के) प्राण धारण करने योग्य (उसके) इस शरीर को उसकी इच्छा के अनुसार ही बना दो और उसे दे दो।[ऋग्वेद 10.15.14]
स्वराट् :: ब्रह्मा, ईश्वर, एक प्रकार का वैदिक छंद, वह वैदिक छंद जिसके सब पादों में मिलकर नियमित वर्णों में दो वर्ण कम हों, सूर्य की सात किरणों में से एक का नाम (को कहते हैं), विष्णु का एक नाम, शुक्र नीति के अनुसार वह राजा जिसका वार्षिक राजस्व 5० लाख से 1 करोड़ कर्ष तक हो, वह राजा जो किसी ऐसे राज्य का स्वामी हो, जिसमें स्वराज्य शासन प्रणाली प्रचलित हो, जो स्वयं प्रकाशमान हो और दूसरों को प्रकाशित करता हो, जो सर्वत्र व्याप्त, अविनाशी (स्वराट्), स्वयं-प्रकाश रूप और (कालाग्नि) प्रलय में सब का काल और काल का भी काल है, परमेश्वर-कालाग्नि है; Brahma Ji, Almighty, self lighting, possessing aura.
Our Pitr Gan-Manes, who have been purified by the Agni, those who themselves are like Agni-fire even without being burnt by fire, who lives in heavens with our their own will, Hey shinning Agni Dev! please make their bodies in new incarnation-rebirth as per their desire-wish, with their permission.
पितृ कवचः ::
कृणुष्व पाजः प्रसितिम् न पृथ्वीम् याही राजेव अमवान् इभेन।
तृष्वीम् अनु प्रसितिम् द्रूणानो अस्ता असि विध्य रक्षसः तपिष्ठैः॥1॥
तव भ्रमासऽ आशुया पतन्त्यनु स्पृश धृषता शोशुचानः।
तपूंष्यग्ने जुह्वा पतंगान् सन्दितो विसृज विष्व-गुल्काः॥2॥
प्रति स्पशो विसृज तूर्णितमो भवा पायु-र्विशोऽ अस्या अदब्धः।
यो ना दूरेऽ अघशंसो योऽ अन्त्यग्ने माकिष्टे व्यथिरा दधर्षीत्॥3॥
उदग्ने तिष्ठ प्रत्या-तनुष्व न्यमित्रान् ऽओषतात् तिग्महेते।
यो नोऽ अरातिम् समिधान चक्रे नीचा तं धक्ष्यत सं न शुष्कम्॥4॥
ऊर्ध्वो भव प्रति विध्याधि अस्मत् आविः कृणुष्व दैव्यान्यग्ने।
अव स्थिरा तनुहि यातु-जूनाम् जामिम् अजामिम् प्रमृणीहि शत्रून्॥5॥
अग्नेष्ट्वा तेजसा सादयामि॥
पितृ-सूक्तम् ::
उदिताम् अवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः।
असुम् यऽ ईयुर-वृका ॠतज्ञास्ते नो ऽवन्तु पितरो हवेषु॥1॥
अंगिरसो नः पितरो नवग्वा अथर्वनो भृगवः सोम्यासः।
तेषां वयम् सुमतो यज्ञियानाम् अपि भद्रे सौमनसे स्याम्॥2॥
ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासो ऽनूहिरे सोमपीथं वसिष्ठाः।
तेभिर यमः सरराणो हवीष्य उशन्न उशद्भिः प्रतिकामम् अत्तु॥3॥
त्वं सोम प्र चिकितो मनीषा त्वं रजिष्ठम् अनु नेषि पंथाम्।
तव प्रणीती पितरो न देवेषु रत्नम् अभजन्त धीराः॥4॥
त्वया हि नः पितरः सोम पूर्वे कर्माणि चक्रुः पवमान धीराः।
वन्वन् अवातः परिधीन् ऽरपोर्णु वीरेभिः अश्वैः मघवा भवा नः॥5॥
त्वं सोम पितृभिः संविदानो ऽनु द्यावा-पृथिवीऽ आ ततन्थ।
तस्मै तऽ इन्दो हविषा विधेम वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥6॥
बर्हिषदः पितरः ऊत्य-र्वागिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम्।
तऽ आगत अवसा शन्तमे नाथा नः शंयोर ऽरपो दधात॥7॥
आहं पितृन्त् सुविदत्रान् ऽअवित्सि नपातं च विक्रमणं च विष्णोः।
बर्हिषदो ये स्वधया सुतस्य भजन्त पित्वः तऽ इहागमिष्ठाः॥8॥
उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु।
तऽ आ गमन्तु तऽ इह श्रुवन्तु अधि ब्रुवन्तु ते ऽवन्तु-अस्मान्॥9॥
आ यन्तु नः पितरः सोम्यासो ऽग्निष्वात्ताः पथिभि-र्देवयानैः।
अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तो ऽधि ब्रुवन्तु ते ऽवन्तु-अस्मान्॥10॥
अग्निष्वात्ताः पितर एह गच्छत सदःसदः सदत सु-प्रणीतयः।
अत्ता हवींषि प्रयतानि बर्हिष्य-था रयिम् सर्व-वीरं दधातन॥11॥
येऽ अग्निष्वात्ता येऽ अनग्निष्वात्ता मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते।
तेभ्यः स्वराड-सुनीतिम् एताम् यथा-वशं तन्वं कल्पयाति॥12॥
अग्निष्वात्तान् ॠतुमतो हवामहे नाराशं-से सोमपीथं यऽ आशुः।
ते नो विप्रासः सुहवा भवन्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥13॥
आच्या जानु दक्षिणतो निषद्य इमम् यज्ञम् अभि गृणीत विश्वे।
मा हिंसिष्ट पितरः केन चिन्नो यद्व आगः पुरूषता कराम॥14॥
आसीनासोऽ अरूणीनाम् उपस्थे रयिम् धत्त दाशुषे मर्त्याय।
पुत्रेभ्यः पितरः तस्य वस्वः प्रयच्छत तऽ इह ऊर्जम् दधात॥15॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॐ॥
तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु सूक्त ::
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति दूरंगमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु।
दूर जाता जागरण में जो बहुत और उतना ही चला करता जब सब सुप्त रहते
ज्योतियों में ज्योति जो है एक वही मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी हो।
दैवी शक्ति से सम्पन्न जो मन जाग्रत अवस्था में दूर तक जाता है, जो सोते समय भी उसी तरह जागता है, वह ज्योतियों की ज्योति दूरंगम मेरा मन शिव-संकल्पों से युक्त हो।[यजुर्वेद 34.1.1]
येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः सदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु।
कर्म में होते निरत जिससे मनीषी व्रती का संकल्प पूरा कराता जो यज्ञ में बन शक्ति अद्भुद् जो प्रतिष्ठित वही मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी हो।
जिसके द्वारा मनीषी जन यज्ञीय विधानों में कर्म करते हैं, सब प्रजाओं के भीतर जो अपूर्व शक्ति है, वही मेरा मन शिव संकल्पों से युक्त हो।[यजुर्वेद 34.1.2]
यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु यस्मान्न ऋते किं चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु।
ज्ञानमय, विज्ञानमय, धृतिशील सब प्राणियों में जो रहा करता है, तेज बनकर नहीं किंचित् कर्म होता बिना जिसके वही मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी हो।
प्रज्ञान, चेतना और धृति जिसके रूप है, प्रजाओं के भीतर जो अमृत ज्योति है, वही मेरा मन शिव संकल्पों से युक्त हो।[यजुर्वेद 34.1.3]
येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत् परिगृहीतममृतेन सर्वम्ये न यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु।
भूत, भावी, सतत वह जो अमृतवत् सबकुछ संजोता हविर्दाता सात रूपों में जगत विस्तार करता वही मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी हो।
जिस अमृतज्योति के भीतर भूत, भविष्य और वर्तमान सब परिगृतीत रहता है, जिसके द्वारा सप्तहोता यज्ञ का विधान होता है, वही मेरा मन शिव-संकल्पों से युक्त हो।[यजुर्वेद 34.1.4]
यस्मिन्नृचः साम यजूंषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः यस्मिश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु।
अरे जैसे चक्र में रथ के हुआ करते साम, ऋक्,यजु में प्रतिष्ठित वह प्राणियों के चित्त ओत प्रोत जिससे वही मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी हो।
ऋक, साम और यजु जिसमें इस तरह पिरोये हुए हैं जैसे रथ के पहिये की पुट्ठी में अरे लगे रहते हैं, जिसमें प्रजाओं के समस्त संकल्प है, वही मेरा मन शिव संकल्पों से युक्त हो।[यजुर्वेद 34.1.5]
सुसारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु।
सारथी रथ की कुशल वल्गा लिए नियंत्रित गतिशील कर ज्यों अश्वदल अथक् द्रुत जो प्रणियों के हृदय स्थित वही मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी हो ।
उत्तम सारथि जैसे लगा के द्वारा घोड़ों को नियन्त्रित करता है, जैसे ही जो मनुष्यों को बारम्बार ले जाता रहता है, जो हृदय अर्थात हमारे व्यक्तित्व केन्द्र बिन्दु पर प्रतिष्ठित है, जो अज़र और वेगशील है, यह मेरा मन शिव संकल्पों से युक्त हो।[यजुर्वेद 34.1.6]
अघमर्षण सूक्त ::
त्र्यहं तूपवसेद्युक्तस्त्रिरह्नोऽभ्युपयन्नपः।
मुच्यते पातकैः सर्वैस्त्रिर्जपित्वाऽघमर्षणम्॥
तीन दिन उपवास कर संयत चित्त होकर प्रतिदिन तीन बार (प्रातः, मध्यान्ह, सायंकाल) स्नान करते समय पानी में "ऋतं च सत्यं च" इस अघमर्षण सूक्त का तीन बार जप करे तो सभी पापों का नाश हो सकता है।[मनुस्मृति 11.259]
One is relieved of all sins if he recites "Ritan Ch Satyan Ch" Aghmarshan Sukt thrice, while bathing in the morning, midday-noon and the evening, staying in water, observing fast with balanced headedness (exercising control over the brain).
यथाऽश्वमेधः क्रतुराट् सर्वपापापनोदनः।
तथाऽघमर्षणं सूक्तं सर्वपापापनोदनम्॥
जिस प्रकार सभी प्रकार के पापों के नाशार्थ यज्ञों का राजा अश्वमेध यज्ञ है, उसी प्रकार सभी पापों का नाश करने वाला यह अघमर्षण सूक्त है।[मनुस्मृति 11.260]
The way the Ashwmedh Yagy is greatest of all Yagy, Aghmarshan Sukt too is capable of destroying all sins.
अघमर्षण सूक्त ::
संकल्प :: जल में तीर्थावाहन, मृत्तिका प्रार्थना, मृत्तिका द्वारा अङ्ग लेपन ‘ॐ आपो हिष्ठा मयो भुवः’ इत्यादि मन्त्रों से जल द्वारा शिरः प्रोक्षण, तदनन्तर सूर्याभिमुख नाभि मात्र जल में स्नान, पुनः ‘ॐ चित्पतिर्मा पुनातु’ इत्यादि मन्त्रों से शरीर का पवित्रीकरण करने के पश्चात् अघमर्षण सूक्त का जप करना चाहिये।
अघमर्षण का विनियोग ::
ॐ अघमर्षणसूक्तस्य अघमर्षणऋषिनुष्टुप्छन्दः भाववृतो देवता अघमर्षणे विनियोगः।
अघमर्षण सूक्त ::
ॐ ऋतं च सत्य्म चाभीद्धात्तपसोध्यजायत ततो रात्र्यजायत, ततः समुद्रो अर्णवः॥ समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत, अहोरात्राणि विद्वधद्विश्वस्थ मिषतो वशी॥ सूर्याच्चन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् दिवञ्ज पृथिवीञ्चान्तरिक्षमथो स्वः॥
अघमर्षण सूक्त के बाद मन्त्र स्नान करके प्राणायाम करें फिर मूल मन्त्र से षडङ्गन्यास करें।
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)