Monday, April 8, 2013

DEVOTION भक्ति

DEVOTION भक्ति
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:। 
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
सत्य, त्रेता और द्वापर युग में ज्ञान और वैराग्य मुक्ति के साधन थे। कलियुग में केवल भक्ति ही ब्रह्म सायुज्य मोक्ष की प्राप्ति करने वाली है। परमात्मा ने यही विचार करके सत्स्वरूप भक्ति की रचना की है। भगवान् श्री हरी विष्णु ने भक्ति को ज्ञान व वैराग्य पुत्र रूप में तथा मुक्ति को दासी के रूप में प्रदान किया। कलियुग में मुंक्ति पाखण्ड रूपी  दोष से पीड़ित होकर क्षीण होनी लगी और भक्ति की आज्ञा से तुरन्त बैकुण्ठलोक को चली गई। भक्ति के स्मरण करने पर मुक्ति धरालोक पर आती तो है, परन्तु तुरन्त चली जाती है। कलियुग एक ऐसा युग है, जिसमें मात्र प्रेमरूपी भक्ति  को धारण करने से प्राणी भगवान् के अभय धाम-लोक को प्राप्त करता है। इन लोगों को यमराज स्वप्न में भी परेशान नहीं करते। भूत, प्रेत, पिशाच, राक्षस या दैत्य आदि का साया भी ऐसे लोगों पर नहीं पड़ता। भगवान् मात्र भक्ति से ही वश में हो जाते हैं। मनुष्यों का सहस्त्रों जन्मों के पुण्य-प्रताप से भक्ति में अनुराग होता है। भक्ति से तो स्वयं भगवान् श्री कृष्ण चन्द्र भी सामने उपस्थित हो जाते हैं। जो भक्त से द्रोह करता है, वो तीनो लोकों में दुःख ही दुःख पाता है। प्रह्लाद और  ध्रुव ने भक्ति के माध्यम से भगवान् श्री हरी विष्णु को प्राप्त किया। श्रीमद्भागवत भक्ति, ज्ञान और वैराग्य के माध्यम से महान विवेक की उत्पत्ति करता है। भगवान् वेद व्यास ने इसे भक्ति, ज्ञान और वैराग्य की स्थापना के लिए इसे प्रकाशित किया।[श्रीमद्भागवत 2.4.71]
During the Saty Yug, Treta Yug and Dwapar Yug age-cosmic era, Enlightenment and Relinquishment were the means to attain Salvation (Moksh, Assimilation in God, Liberation). During the present era Kali Yug, devotion is the only means-source of attaining the Almighty. The Almighty created Bhakti-devotion for the welfare of the Humans due to the intricate-devastating nature of Kali Yug leading to loss of virtues, righteousness, piousity, honesty, morals, values. Kali Yug is the period during which the majority of the population will indulge in dishonesty, wretchedness, frauds, vulgarity, sensuality, sexuality, passions, unholy-sinful acts, Lasciviousness, Hippocracy, Atheism etc. People will move away from morality, ethics, culture & values. They will discard & dishonour the scriptures. 5,151 years of Kali Yug has passed and the total duration of it is 4,80,000 years. Bhakti was blessed with Gyan & Vaeragy as sons and Mukti as a slave. Mukti could not survive the onslaught of Hippocracy, deceitful acts, hearsay, dissimulation and imposterity and left for the Vaikunth Lok-the Abode of the Almighty Bhagwan Shri Hari Vishnu. However, it visits off & on,  as and when, invited by Bhakti.
One who develops devotion in the Almighty with love & affection attains the Ultimate abode, which is the source of fearlessness. Those who are devoted to the Almighty are not shadowed by the Yam Raj-the deity of death and reincarnations.
Ghosts, demons, Rakshas, Shaetan-devils, giants, Dracula remain away from such people. The Almighty is controlled by the devotees and their devotion. The Almighty present himself before the devotee to bless him-grant vows. Anyone who acts against the Bhakt-devotee find trouble, pain, sorrow, grief, torture in all abodes. Bhakt Prahlad (the mighty demon king and son of Hirany Kashyap) & Dhruv got the Ultimate boons from the Almighty by virtue of Bhakti-devotion. Shri Mad Bhagvat generates the Bhakti, Gyan and Vaeragy, leading to evolution of prudence-brilliance, Piousity. Bhagwan Ved Vyas produced it, for the welfare of masses and establishment of Bhakti, Gyan and Vaeragy leading to evolution of prudence-brilliance, during this era called Kali Yug.
मनुष्यों के लिए सर्व श्रेष्ठ धर्म वही है, जिसमें भगवान श्री कृष्ण की कामना रहित भक्ति हो।  जो नित्य-निरन्तर बनी रहे; ऐसी भक्ति से ह्रदय आनन्द स्वरूप परमात्मा की उपलब्धि करके कृतकृत्य हो जाता है। भगवान् श्री कृष्ण की भक्ति होते ही अनन्य प्रेम से उनमें चित्त जोड़ते ही निष्काम ज्ञान और वैराग्य का आविर्भाव हो जाता है।[श्रीमद्भागवत 2.1.6-7]
भक्ति के प्रभाव से भोजन प्रसाद में, भूख व्रत में, पानी अमृत में, संगीत कीर्तन में, कार्य सेवा में, यात्रा तीर्थ यात्रा में और मनुष्य भक्त में परिवर्तित हो जाते हैं। 
Bhakti transforms food into Prashad, Hunger into Fast, Water into Elixir, Music into Keertan, Action into Service, Work-deeds into Karm, Travel into Pilgrimage, Man into a Human being.
भक्ति के पाँच भाव ::  वात्सल्य, श्रृंगार, शान्त, दास और सख्य।
उत्तमा भक्ति का लक्षण ::
अन्याभिलाषिताशून्यं ज्ञानकमद्यिनावृतम्।
आनुकूल्येन कृष्णनुशीलनं भक्तिरूत्तमा॥
भक्ति केवल एक मार्ग ही नहीं, अपितु अपने आप में पंचम पुरुषार्थ है। मनुष्य के हृदय में रति के रूप में भक्ति का अंकुर उद्भूत होने के अनन्तर पुरुषार्थ चतुष्टय की कोई वांछा शेष नहीं रहती। ज्ञानयोग और कर्मयोग की अपेक्षा भक्तियोग अधिक ग्राह्य है। ज्ञानयोग और कर्मयोग का पालन समुचित रूप में किया जाए तो वे भक्ति की प्राप्ति भी करवा सकते हैं।
DIVINITY-भक्ति-DEVOTION :: परमात्मा को इन आठ गुणों द्वारा भक्त के द्वारा संतुष्ट किया जा सकता है :- अहिंसा, इन्द्रिय संयम, जीवों पर दया करना, क्षमा, शम, दम, ध्यान और  सत्य।
अहिंसा NON VIOLENCE.
इन्द्रिय संयम CONTROL OVER SENSE ORGANS.
जीवों पर दया करना PITY OVER LIVING BEINGS.
क्षमा PARDON-FORGIVENESS.
शम-SHUM ::  Enlightenment, dedication of all faculties-intellect in the divinity through absence of passions-peace of mind-quite-rest. Peace, Tranquillity, Solace.
दम-DUM ::  Restraint of the senses, sensuality, passions, mortification, subdued feelings.
ध्यान MEDITATION :: स्थिर चित्त से भगवान  का चिंतन, ध्यान कहलाता है। समस्त उपाधियों से मुक्त मन सहित आत्मा का ब्रह्म विचार में परायण होना ध्यान है। ध्येय रूप आधार में स्थित एवं सजातीय प्रतीतियों से युक्त चित्त को जो विजातीय प्रतीतियों से रहित प्रतीति  होती है, उसको भी ध्यान कहते हैं। जिस किसी प्रदेश में भी ध्येय वस्तु के चिंतन में एकाग्र हुए चित्त को प्रतीति  के साथ जो अभेद-भावना होती है, उसका नाम भी ध्यान है। ध्यान परायण होकर जो व्यक्ति अपने शरीर का त्याग करता है, वह अपने कुल स्वजन और मित्रों का उद्धार करके स्वयं भगवत स्वरुप हो जाता है। प्रति दिन श्रद्धा पूर्वक श्री हरी का ध्यान करने से मनुष्य वह गति पाता  है, जो कि सम्पूर्ण महायज्ञों के द्वारा भी अप्राप्य है
चलते-फिरते, उठते-बैठते-खड़े होते, सोते-जागते, आँख खोलते-मींचते, शुद्ध-अशुद्ध अवस्था में भी निरंतर परमेश्वर का ध्यान करना चाहिए।
भगवान मृत्युंजय, ध्यान करने पर अकाल-मृत्यु  को दूर करने वाले हैं।
साधक को पहले मन को स्थिर करने के लिए स्थूल-मूर्त रूप का ध्यान करना चाहिये। मन के स्थिर हो जाने पर उसे सूक्ष्म तत्व-अमूर्त के चिंतन में लगाना चाहिये।
ध्यानावस्था में समस्याओं का समाधान मिल जाता है। 
One is aware of deep-repeated thinking over certain issues-problems, which forces him to forget everything to find ways and means, to come out of the difficulty.  The thinker get involved with it, whole heartedly and all his energies are channelized into finding a solution. Ultimately, he approaches the God. Life in itself is full of difficulties and the prudent-enlightened makes a bid to come out of them. The easiest-simplest method is meditation by focusing-fixing-concentrating the brain-mind into the Almighty.
This is a state when one prevents the mind from roaming around, brings the mind-brain under self restraint-control. Inner self-sensualities-passions are made to fall in line with deep thinking-contemplation. A magic spell is cast, followed by enchantment-charm-delight-happiness.
One has to focus the mind over certain material object like a statue-picture-even Om-Bhagwan, written over the wall. This can be done-achieved, while-talking-walking-moving-standing-sitting-sleeping-waking-opening or closing eyes-pure or impure body state continuously reciting-remembering the God. He should consider himself as an incarnation-organ-part-component of the God and that he has evolved out of the Almighty and merge into him.
Meditation relieves anxiety and helps in solving intricate problems.
Human brain has two lobes-compartments which drag him into different directions-channels. One may successfully perform two tasks, simultaneously. During emergency-difficulty the two lobes start functioning together. Repeated practice makes one achieve this state quite frequently. This act when utilized to focus, penetrate, channelize into the creator-nurturer-destroyer-all in one, the Almighty; relieves the devotee of all pains, sorrow, grief, problems, difficulty and the cycle of birth and rebirth, obviously.
For best results choice of a peaceful place-solitude is recommended. Continued efforts gives quick results associated with confidence-happiness-success.
समाधि :: जो चैतन्य स्वरूप से युक्त और प्रशांत महासागर की भाँति स्थिर हो,  जिसमें आत्मा  के सिवाय किसी अन्य वस्तु की प्रतीति न हो, उस ध्यान को समाधि  कहते हैं। जो ध्यान के समय अपने चित्त को ध्येय-परमात्मा, में लगा कर वायु हीन प्रदेश की अग्नि शिखा के भांति अविचल एवं स्थिर भाव से बैठा रहता  है, वह योगी समाधिस्थ कहा गया  है। जो न सुनता है, न सूँघता है, न देखता है, न रसास्वादन करता है, न स्पर्श का अनुभव करता है, न मन में संकल्प उठने देता है, न अभिमान करता है और न बुद्धि से किसी दूसरी-अन्य, वस्तु को जानता ही  है, केवल  काष्ठ (वृक्ष) की भाँति अविचल भाव से ध्यान में स्थित रहता  है, ऐसे चिंतन परायण पुरुष को समाधिस्थ कहते हैं। जो अपने आत्म स्वरुप श्री विष्णु के ध्यान में संलग्न रहता है, उसके सामने अनेक दिव्य विघ्न उपस्थित होते हैं, वे सिद्धि की सूचनादेने वाले हैं। बड़े बड़े विघ्न, लालच, लोभ, ज्ञान, सिद्धियाँ, प्रतिभा, सद्गुण, सम्पूर्ण शील, कलाएँ, कन्याएँ बिना बुलाए उपस्थित होती हैं। जो इनको तिनके की भांति निस्सार मानकर त्याग देता है, उसी पर भगवान् श्री हरी विष्णु की कृपा होती है और वे प्रसन्न होते हैं। 
सत्य TRUTH :: Experiencing-visualising the equanimity-true divinity, all around.
One who is neither too emancipated nor extremely attached, has luckily-by virtue of good fortune developed faith, respect, regard, honour in the scriptures-Shashtr-stories pertaining to the actions, deeds, performances  of  the 9 incarnations of the Almighty, due to some  auspicious, virtues, righteous act in his previous births, is qualified-eligible for Bhakti Yog.
One has to pray-meditate-concentrate, in the presence of statue-idol-bust (portrait, picture, photograph, image, sketch, figure, mental image, perception-Its symbolic and helps in concentrating.) and devote, himself to viewing, seeing, listening, recitation, visiting holy places-holy rivers, pertaining to the memory of incarnations.
The practitioner (devotee) who has emancipated, unattached, not feeling the desire or passions has developed a mental perception, feeling of pain, trouble, torture, grief, sorrow in all deeds, industry, efforts, actions, functions, endeavours, has faith, trust in the stories of 9 incarnations of the God and has realized that all passions, comforts, pleasures, enjoyments, sensuality, lust, sex are the reason, cause of grief and if he is still unable, incapable to reject them, should undergo, experience, bear with them, but from the depths of heart consider them as painful, taboo, torturous, grave,  censuring them and his misfortune for having born them.
One should pray to the God with firm determination (recitation, whether silent-mentally or vocal). In this manner by regular-continuous-repeated remembrance of the God, the God himself makes a place (occupies a seat, place, berth) in the heart of the devotee (practitioner) and as soon as he (takes center stage in the heart) occupies the heart, all passions-sensuality along with the seeds, vanish-eliminate, all together-for ever.
When one becomes face to face with the Supreme Soul, all bonds-ties-knots in his heart weakens, eliminate all his doubts-misconceptions, perceptions, tear off (break away-lose) lust, sensuality, passions, fears, misgivings, completely.
The Yogi associated with devotion, surrender to the God (seeks asylum, shelter, patronage, under him) and continuously keep himself busy in thinking, remembering the God; enlightenment or renunciation are not essential for him. He is automatically benefited by the devotion to God.
The devotee by virtue of his devotion to the God, become capable of obtaining-attaining everything as per his own will/disposition, such as Karm-deeds-industry, asceticism, meditation, practice of Yog, charity, righteousness, means of welfare, heavens, emancipation (release from suffering, rebirth) the Ultimate Abode or anything else just by imagination-without efforts/ease, involuntarily-suddenly.
The inalienable lover and the hermits-saints-sages-devotees with patience do not want, ask anything for themselves. On the other hand, even if the God himself grants, gifts, offers, give anything, they do not accept even Kaevly Moksh (Ultimate Salvation), what to talk of other things.
The greatest and the ultimate welfare is absolute neutrality (indifference, impartiality). Hence one who is neutral, indifferent, impartial, disinterested (without desires), is able to attain the Bhakti of God.
The Ultimate-exclusive-inalienable devotee and saints, sages, Rishi, Muni, Mahrishi, Brahmrishi, with equanimity, who have attained the Ultimate gist, beyond the reach of intelligence, have no concern–relation with the methods-procedure or the restrictions, which cause virtues or sins.
One who seek asylum-shelter, recourse under Bhakti, Gyan, Karm Yog attains the Ultimate abode of the Almighty representing welfare, since they have understood, recognized, identified the gist of Ultimate Per Brahm.
Methodology-procedure  :: Pray to God as a spirit, image, idol or statue.
Approach the God with sincere loving heart, which is fully accepted.
All offerings, small or large are accepted, as long as they are made with love.
Union with Brahm, releases from endless sufferings, endless cycles of births and rebirths, which can be easily attained, through devotion.
Worship God, renouncing  all actions in him and regarding him as Supreme Soul.
Meditate the Almighty with single mind and devotion.
Surrender self to God with equanimity.
NINE ELEMENTS OF BHAKTI YOG :: Dev Rishi Narad, described the nine elements of Bhakti Yog in his Bhakti Sutr.
SAT SANG (Auspicious, virtuous, righteous, pious, holy company) :: To cultivate and maintain contact with people who speak of God and truth.
HARI KATHA :: Listening, telling, remembering, describing, discussing stories pertaining to God: To be inspired by the Holy Scriptures-epics-Shastr and the life stories of saints.
BHAKTI YOG (Alokik, अलौकिक, Divine, eternal) :: Importance is given to the Almighty only to retain Alokik Bhakti.  When the devotee takes the patronage-shelter-asylum under the God in his efforts without considering his own efforts as major contributory, then only his faith is divine.
Everything becomes divine as soon as the devotee takes shelter in the Almighty. One who is not extremely renunciated or attached, but due to some auspicious-virtuous deed in his previous births, respect, honour, dedication, devotion has evolved-emerged, in various parleys of the Almighty, is entitled, authorised, suitable, fit for Bhakti Yog.
Almighty is above both Ksher and Aksher. One should seek asylum in him, with equanimity in both Ksher and Aksher by surrendering himself to the Almighty.
Human body has inbuilt capabilities to perform Lokik (worldly), either Gyan Yog or Karm Yog. Importance and labour are major contributory factors.
One should surrender himself to the Almighty, while performing all his duties, with the knowledge of worldly and divine as well without the desire of even Moksh.
Bhakti-Devotion is infinite never ending elixir-nectar. This is obtained by seeking shelter-under the God. It is the best means to attain God and has to be secret and concealable.
नित्य सिद्धि भक्त :: जो कृष्ण के साथ नित्य वास करने की पात्रता अर्जित कर लेते हैं :- जैसे गोपाल। 
साधन सिद्ध भक्त :: जो प्रयत्नपूर्वक कृष्ण का सान्निध्य प्राप्त करते हैं। 
कृपा सिद्ध भक्त :: जो कृपा से ही सान्निध्य प्राप्त करते हैं।  
9 प्रकार की भक्ति ::
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्। 
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्॥
श्रवण (परीक्षित), कीर्तन (शुकदेव), स्मरण (प्रह्लाद), पादसेवन (लक्ष्मी), अर्चन (पृथुराजा), वंदन (अक्रूर), दास्य (हनुमान), सख्य (सुदामा, अर्जुन) और आत्मनिवेदन (बलि राजा) का द्वारा इनका पालन किया गया। 
श्रवण :: ईश्वर की लीला, कथा, महत्व, शक्ति, स्त्रोत इत्यादि को परम श्रद्धा सहित अतृप्त मन से निरंतर सुनना।
कीर्तन :: ईश्वर के गुण, चरित्र, नाम, पराक्रम आदि का आनंद एवं उत्साह के साथ कीर्तन करना।
स्मरण :: निरंतर अनन्य भाव से परमेश्वर का स्मरण करना, उनके महात्म्य और शक्ति का स्मरण कर उस पर मुग्ध होना। कंस भगवान् श्री कृष्ण का निरन्तर स्मरण शत्रु भाव से करता था और यही उसकी मुक्ति का कारण बना। 
पाद सेवन :: ईश्वर के चरणों का आश्रय लेना और उन्हीं को अपना सर्वस्य समझना।
अर्चना :: भक्ति के नौ प्रकारों में मुख्य और कल्याणकारी भक्ति की विधा है, अर्चना-भगवान् के श्री विग्रह का पूजन-मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना।  
नवधा भक्ति राख्याता मुख्यां तत्रार्चनां शिवाम्। 
प्राह भागवतीं सेवामरं दास इति श्रुतिः॥ 
अरं दासो न मीळ्हुषे कराण्यहं देवाय भूर्णयेऽनागाः। 
अचेतयदचितो देवो अर्यो गृत्सं राये कवितरो जुनाति॥
मैं निषिद्धाचरण से वर्जित भक्त किसी दास की तरह असीम फल की प्राप्ति के लिये चतुर्विध-पुरुषार्थ दाता परमेश्वर को पुष्पादि से अलंकृत करता हूँ, ताकि वे मुझ पर प्रसन्न हों। ये देव सर्वस्वामी होकर अपने संनिधान से पाषाण को भी पूजनीय बना देते हैं। बहुदर्शी पुरुष ऐश्वर्य प्राप्ति के लिये प्राणनादि कर्ता उस परमेश्वर को ही पूजनादि से प्रसन्न करते हैं, क्षुद्र फल प्रद राजा आदि की परवाह नहीं करते।[ऋग्वेद 7.86.7]
वंदन :: भगवान की मूर्ति को अथवा भगवान के अंश रूप में व्याप्त भक्तजन, आचार्य, ब्राह्मण, गुरूजन, माता- पिता आदि को परम आदर सत्कार के साथ पवित्र भाव से नमस्कार करना या उनकी सेवा करना।
दास्य :: ईश्वर को स्वामी और अपने को दास समझकर परम श्रद्धा के साथ सेवा करना।
सख्य :: ईश्वर को ही अपना परम मित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे समर्पण कर देना तथा सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन करना। अर्जुन और सुदामा की भक्ति में सख्य भाव था। 
आत्म निवेदन :: अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पण कर देना और कुछ भी अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना। यह भक्ति की सबसे उत्तम अवस्था मानी गई।
One should surrender himself to the Almighty, while performing all his duties, with the knowledge of worldly and divine as well without the desire of even Moksh.
NINE ELEMENTS OF BHAKTI YOG :: Dev Rishi Narad, described the nine elements of Bhakti Yog in his Bhakti Sutr.
SAT SANG (Auspicious, virtuous, righteous, pious, holy company) :: To cultivate and maintain contact with people who speak of God and truth.
HARI KATHA :: Listening, telling, remembering, describing, discussing stories pertaining to God: To be inspired by the Holy Scriptures, epics, Shastr and the life stories of saints.
SHRADDHA (Faith) :: To have faith in the Holy Scriptures and the Master and to accept and take to heart their words and teachings.
ISHWAR BHAJAN (ईश्वर भजन-Prayers, enchants, rituals) :: To sing God’s praises, to sing spiritual songs (Bhajans) in the praise the glory of God.
MANTR JAP (Recitation, Repetition of Mantr 108, 1008,  even more 5 lakh times as well, times at a stretch) :: To inwardly repeat your Mantr at all times and under all circumstances.
SHAM DAM (Internal and External Control) :: To be the Master of the senses and not allow temptation to overwhelm us and to discipline thought, word and deed.
SANTOUN KA ADAR (आदर, respect, honour all Holy Virtuous people) :: To respect and honour all people who have dedicated their life to God, no matter to which religion they belong.
SANTOSH (contentment) :: To be thankful for and content with everything that God gives.
ISHWAR  PRANIDHAN (devotion to God) :: To love God with a pure heart without egoistic expectations, and complete surrender to the Divine.
Methodology-procedure  ::
Pray to God as a spirit, image, idol or statue.
Approach the God with sincere loving heart, which is fully accepted.
All offerings, small or large are accepted, as long as they are made with love.
Union with Brahm, releases from endless sufferings, endless cycles of births and rebirths, which can be easily at
tained, through devotion.Worship God, renouncing all actions in him and regarding him as Supreme Soul.
Meditate the Almighty with single mind and devotion.
Surrender self to God with equanimity.
प्रभु राम शबरी संवाद ::
ताहि देइ गति राम उदारा। सबरी कें आश्रम पगु धारा॥
सबरी देखि राम गृहँ आए। मुनि के बचन समुझि जियँ भाए॥
उदार हृदय भगवान् श्री राम शबरी के आश्रम में पधारे। शबरी ने भगवान् श्री राम को कुटिया में आते देखा, तो मतंग ऋषि के वचनों को याद करके उसका मन प्रसन्न हो उठा।[राम चरित मानस]
Kind hearted-generous Bhagwan Shri Ram came to the hut of Shabri. Shabri saw him & became happy remembering the prediction of Matang Rishi who had said that Bhagwan Shri Ram would come to her to grant her emancipation.
सरसिज लोचन बाहु बिसाला। जटा मुकुट सिर उर बनमाला॥
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई॥
कमल सदृश नेत्र और विशाल भुजाओं वाले, सिर पर जटाओं का मुकुट और हृदय पर वनमाला धारण किए हुए सुंदर, साँवले और गोरे दोनों भाइयों के चरणों में शबरी लिपट गई।[राम चरित मानस]
Shabri saw Bhagwan Shri Ram with Lakshman Ji and fell over his feet (prostrated and embraced his feet). Bhagwan Shri Ram had eyes like lotus flower with long arms, hair locks (tuft of matted hair adorning their head) and wearing a rosary-garland of Van Mala flowers over his chest. His body colour was slightly dark with blueish tinge and Lakshman Ji had fair colour.
प्रेम मगन मुख बचन न आवा। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा॥
सादर जल लै चरन पखारे। पुनि सुंदर आसन बैठारे॥
वह प्रेम मग्न हो गई, मुख से कोई वचन नहीं निकला। वह बार-बार भगवान् श्री राम के चरण-कमलों में सिर नवा रही थी। उसने जल लेकर आदरपूर्वक दोनों भाइयों के चरण धोए और फिर उन्हें सुन्दर आसनों पर बैठाया।[राम चरित मानस] 
She was overwhelmed with love & no words came to her lips. Her throat was chocked with emotions. She bowed her head at HIS feet repeatedly. She washed their feet with water and offered them comfortable seats-cushions with due respect & honour.
कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि॥
उसने अत्यंत रसीले और स्वादिष्ट कन्द, मूल और फल लाकर भगवान् श्री राम को दिए। प्रभु ने बार-बार प्रशंसा करके उन्हें प्रेम सहित खाया।[राम चरित मानस] 
She offered tasty-delicious berries, root bulbs and fruits to them. Bhagwan Shri Ram & Lakshman Ji ate them with love.
पानि जोरि आगें भइ ठाढ़ी। प्रभुहि बिलोकि प्रीति अति बाढ़ी॥
केहि बिधि अस्तुति करौं तुम्हारी। अधम जाति मैं जड़मति भारी॥
फिर वह हाथ जोड़कर खड़ी हो गई। प्रभु को देखकर उसका प्रेम अत्यन्त-अत्यधिक बढ़ गया। उसने कहा, "मैं किस प्रकार आपकी स्तुति करूँ? मैं नीच जाति की और अत्यंत मूढ़ बुद्धि हूँ"।[राम चरित मानस] 
She stood before them with folded hands and asked how could she offer prayers to them since she was from a low caste, ignorant and illiterate!?
अधम ते अधम अधम अति नारी। तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी॥
कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउँ एक भगति कर नाता॥
जो अधम से भी अधम हैं, स्त्रियाँ उनमें भी अत्यंत अधम हैं और उनमें भी हे पापनाशन! मैं मंदबुद्धि हूँ। श्री रघुनाथ जी ने कहा :- "हे भामिनि! मेरी बात सुन, मैं तो केवल एक भक्ति का ही सम्बन्ध मानता हूँ"।[रामचरितमानस]
Shabri called herself most depraved, depraved as compared to the most depraved & said that incarnation as a woman, was even more depraved. She said that she was one of the most depraved and addressed HIM as the one who was capable of wiping off sins.
Raghu Nath Ji said that HE recognised only one relation and that was devotion.
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें॥
जोगि बृंद दुरलभ गति जोई। तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई॥
हे भामिनि (सुंदर स्त्री, कामिनी, प्रलोभिनी, क्रोधी स्त्री, क्रुद्ध रहने वाली स्त्री) मुझे वही अत्यंत प्रिय है जो मेरे प्रति अन्यन्य भक्ति रखता है। फिर तुझ में तो मेरे प्रति अत्यन्त दृढ़ भक्ति है। अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिए सुलभ हो गई है।[राम चरित मानस] 
Bhagwan Shri Ram blessed Shabri with unique-unflinching devotion to HIM calling her Bhamini (a pious woman). He said that she was liked by HIM due to her devotion and granted her the abodes which were not available even to the Yogis.
जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई॥
भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा॥
जाति, पाँति, कुल, धर्म, बड़ाई, धन, बल, कुटुम्ब, गुण और चतुराई, इन सबके होने पर भी भक्ति से रहित मनुष्य वैसा लगता है, जैसे जलहीन-शोभाहीन बादल।[राम चरित मानस] 
Despite caste, kinship, lineage, piety, reputation, wealth, physical strength, numerical strength of his family, accomplishments and ability, a man lacking in devotion is just like the clouds which have no water.
मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा॥
जनकसुता कइ सुधि भामिनी। जानहि कहु करिबरगामिनी॥
मेरे दर्शन का परम अनुपम फल यह है कि जीव अपने सहज स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। हे भामिनि! अब यदि तू गजगामिनी जानकी की कुछ खबर जानती हो तो बता।[राम चरित मानस] 
The most incomparable fruit-reward of devotion to ME is that the soul attains its natural state-Salvation. If you have any information pertaining to the daughter of king Janak's please narrate it. 
पंपा सरहि जाहु रघुराई। तहँ होइहि सुग्रीव मिताई॥ सो सब कहिहि देव रघुबीरा। जानतहूँ पूछहु मतिधीरा॥
शबरी ने कहा :- हे रघुनाथ जी! आप पंपा नामक सरोवर को जाइए। वहाँ आपकी सुग्रीव से मित्रता होगी। हे देव! हे रघुवीर! वह सब हाल बतावेगा। हे धीर बुद्धि! आप सब जानते हुए भी मुझ से पूछते हैं![राम चरित मानस]
Hey Raghu Nath! In spite of being aware of every event you, the possessor of stable mind-steady resolve asking me (just to honour me)! You please move to Pampa Lack, where you will meet Sugreev, who will reveal every thing to you.
बार बार प्रभु पद सिरु नाई। प्रेम सहित सब कथा सुनाई॥
बार-बार प्रभु के चरणों में सिर नवाकर, प्रेम सहित उसने सब कथा सुनाई।[राम चरित मानस]
She bowed repeatedly in front of Bhagwan Shri Ram and narrated the whole story, including what Matang Rishi told her.
कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख हृदय पद पंकज धरे।
तजि जोग पावक देह परि पद लीन भइ जहँ नहिं फिरे
नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू।
बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू
सब कथा कहकर भगवान्‌ के मुख के दर्शन कर, उनके चरण कमलों को धारण कर लिया और योगाग्नि से देह को त्याग कर (जलाकर) वह उस दुर्लभ हरिपद में लीन हो गई, जहाँ से लौटना नहीं होता। तुलसीदासजी कहते हैं कि अनेकों प्रकार के कर्म, अधर्म और बहुत से मत-ये सब शोकप्रद हैं, हे मनुष्यों! इनका त्याग कर दो और विश्वास करके भगवान् श्री राम के चरणों में प्रेम करो।[राम चरित मानस]
After telling the whole story she gazed on Bhagwan Shri Ram countenance and imprinted the image of HIS lotus feet in her heart and casting her body-immolated in the sacred divine fire. She achieved the Ultimate abode of Raghu Nath Ji, from where no one returns i.e., no further reincarnation. Tulsi Dass Ji said that one should devote himself to the Almighty with undivided faith.
जाति हीन अघ जन्म महि मुक्त कीन्हि असि नारि।
महामंद मन सुख चहसि ऐसे प्रभुहि बिसारि॥
जो नीच जाति की और पापों की जन्मभूमि थी, ऐसी स्त्री को भी जिन्होंने मुक्त कर दिया, अरे महादुर्बुद्धि मन! तू ऐसे प्रभु को भूलकर सुख चाहता है?[राम चरित मानस]
Bhagwan Shri Ram granted Salvation to the lady who belonged to a low caste & origin. Tulsi Dass Ji addressed the humans as worst ignorant who indulge in repeated sins.
Human incarnation after passing through 84,00,000 species is meant for devotion to the God to achieve Salvation.
नवधा भक्ति :: शबरी को हरिपद में लीन होने से पहले प्रभु राम ने शबरी को नवधा भक्ति के अनमोल वचन दिए। प्रभु सदैव भाव के भूखे हैं और अन्त:करण की प्रीति पर रीझते हैं।
भगवान् श्री राम द्वारा शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश :-
नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं। 
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥
मैं तुझ से अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर। 
पहली भक्ति है, संतों का सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम। 
Now, I tell you the nine forms of Devotion; please listen attentively and cherish them in your mind. The first in order is fellowship-company of the pious-virtuous, righteous, enlightened, saints and the second one constitutes listening to the stories pertaining to me i.e., fondness for MY stories (various deeds performed by the Almighty in the incarnation as Bhagwan Shri Ram).
गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान। 
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥
तीसरी भक्ति है, अभिमान रहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा। चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़ कर मेरे गुण समूहों का गान करें।
Third one is serving the Guru, elders without ego-pride (arrogance) and fourth is singing-narrating (elaborating, describing, description) of various qualities-traits, characteristics of the God without any guileless.
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा; पंचम भजन सो बेद प्रकासा। 
छठ दम सील बिरति बहु करम; निरत निरंतर सज्जन धरमा॥
मेरे (राम नाम) मंत्र का जाप और मुझ में दृढ़ विश्वास, यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इन्द्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरन्तर संत पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना। 
Recitation of MY name and absolute confidence-devotion in ME constitute the fifth form and the sixth is absolute control over senses (passions, sensualities, sexuality), maintaining chastity & not to indulge in various deeds and following the behaviour-working of the saints regularly.
सातवँ सम मोहि मय जग देखा; मोतें संत अधिक करि लेखा। 
आठवँ जथालाभ संतोषा; सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥
सातवीं भक्ति है जगत्‌ भर को सम भाव से मुझ में ओत प्रोत (राम मय) देखना और संतों को मुझ से भी अधिक करके मानना। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना। 
Seventh is equanimity and resemblance of the universe-all living beings with the Almighty and giving more importance-credence to the saints as compared to the God. The saints are present in front of the devotee physically and help in discovering-achieving the God. The eighth form of devotion is contentment and not to desire for the belongings of others.
नवम सरल सब सन छलहीना; मम भरोस हियँ हरष न दीना। 
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई; नारि पुरुष सचराचर कोई॥
नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपट रहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना। इन नवों में से जिनके पास एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन कोई भी हो, उसका कल्याण हो जाता है।
Ninth form of devotion is simplicity freedom from contempt-cleverness, faith over HIM & absence of pain-sorrow, leading to the welfare of the devotee.
Possession of any of these will lead to welfare of the devotee, irrespective of inertial-stationary (trees) of humans.
सत्य, त्रेता और द्वापर युग में ज्ञान और वैराग्य मुक्ति के साधन थे। कलियुग में केवल भक्ति ही ब्रह्म सायुज्य-मोक्ष की प्राप्ति करने वाली है। परमात्मा ने यही विचार करके सत्स्वरूप भक्ति की रचना की है। श्री हरी ने भक्ति को ज्ञान व वैराग्य पुत्र रूप में तथा मुक्ति को दासी के रूप में प्रदान किया। कलियुग में मुक्ति पाखण्ड रूपी दोष से पीड़ित होकर क्षीण होनी लगी और भक्ति की आज्ञा से तुरन्त बैकुण्ठ लोक को चली गई। भक्ति के स्मरण करने पर मुक्ति धरालोक पर आती तो हैं, परन्तु तुरन्त चली जाती है। कलियुग एक ऐसा युग है, जिसमें मात्र प्रेमरूपी भक्ति को धारण करने से प्राणी भगवान् के अभय धाम-लोक को प्राप्त करता है। इन लोगों को यमराज स्वप्न में भी परेशान नहीं करते। भूत, प्रेत, पिशाच, राक्षस या दैत्य आदि का साया भी ऐसे लोगों पर नहीं पड़ता। भगवान् मात्र भक्ति से ही वश में हो जाते हैं। मनुष्यों का सहस्त्रों जन्मों के पुण्य-प्रताप से भक्ति में अनुराग होता है। भक्ति से तो स्वयं भगवान् श्री कृष्ण चन्द्र भी सामने उपस्थित हो जाते हैं। जो भक्त से द्रोह करता है, वो तीनो लोकों में दुःख ही दुःख पाता है। प्रह्लाद और ध्रुव ने भक्ति के माध्यम से श्री हरी को प्राप्त किया। श्रीमद्भागवत भक्ति, ज्ञान और वैराग्य के माध्यम से महान विवेक की उत्पत्ति करता है। भगवान् वेद व्यास ने इसे भक्ति, ज्ञान और वैराग्य की स्थापना के लिए इसे प्रकाशित किया।[श्रीमद्भागवत 2.4.71]
भगवान् ने कर्म फल के त्याग को श्रेष्ठ और तुरन्त शान्ति देने वाला कहा है। पिछले श्लोकों में वर्णित चारों ही साधन मनुष्य को स्वतंत्रता से भगवत्प्राप्ति कराने वाले हैं। शास्त्र ज्ञान और तत्व ज्ञान में बहुत अन्तर है। तत्व ज्ञान सभी साधनों का फल है। ज्ञान की तुलना अभ्यास से करते हैं, तो पाते हैं कि इसमें न अभ्यास है, न ध्यान है और न कर्म फल का त्याग है। जिस अभ्यास में न ज्ञान है, न ध्यान है और न कर्म फल का त्याग है, तो ऐसे अभ्यास से तो ज्ञान ही श्रेष्ठ है। आध्यात्मिक ज्ञान से संयुक्त अभ्यास मनुष्य में भगवत्प्राप्ति की अभिलाषा जाग्रत कर सकता है। यहाँ ध्यान शब्द केवल मन की एकाग्रता का वाचक है, न कि ध्यान योग का। इस तरह के ध्यान में शास्त्र ज्ञान और कर्म फल का त्याग नहीं है। ऐसा ध्यान उस ज्ञान की अपेक्षा श्रेष्ठ है, जिसमें अभ्यास, ध्यान और कर्म फल का त्याग नहीं है। ध्यान मन को नियंत्रित करता है, शास्त्र नहीं। मन को नियंत्रित करके साधक जिस शक्ति को प्राप्त करता है, उसका उपयोग वह परमात्मा की ओर बढ़ने में कर सकता है। ज्ञान और कर्म फल त्याग से रहित ध्यान की अपेक्षा ज्ञान और ध्यान से रहित कर्म फल त्याग श्रेष्ठ है। कर्मफल के त्याग में संसार से माने हुए सम्बन्ध का त्याग हो जाता है। यही त्याग का वास्तविक स्वरूप है। जप-तप ध्यान समाधि, मनुष्य स्वयं के लिए सांसारिक सुख के लिए न करे, ताकि उसका सम्बन्ध उससे बने ही नहीं। इस तरह से कर्म फल का त्याग कर देने से मनुष्य को जिस शान्ति की प्राप्ति होती है, वो परम शान्ति अर्थात भगवत्प्राप्ति है। अभ्यास, शास्त्र ज्ञान और ध्यान तीनों ही करण सापेक्ष हैं, मगर कर्म फल त्याग करण निरपेक्ष है।The Almighty has said that the rejection of the desire for the rewards of actions-deeds provides immediate relief, solace, peace, tranquillity. The methods described in earlier verses-Shloks (rhymes) are the means of attaining the God, independently. They are capable in themselves. However, the knowledge of scriptures is not enough, unless it is assisted by meditation and devotion to one's duties without the desire-expectation for the rewards. One may rise from the knowledge of scriptures to enlightenment i.e., Tatv Gyan (gist of divinity-eternity); understanding the purpose of birth and our endeavour to seek release thereafter. Tatv Gyan is the ultimate of all efforts, means leading to the Ultimate. Practice of knowledge develops understanding, skill, ability, interest directing one to the God. This type of practice of knowledge-rote memory, learning is insufficient as compared to Dhyan Yog. Mere attainment of knowledge is useless without meditation, practice of meditation and rejection of the desire for reward of actions. The practice which does not materialise into attainment of God is useless. If the knowledge of the scriptures is aided by practice of procedures-methods leading to the attainment of God, it becomes quite useful-effective. When one merely talks of Dhyan-meditation, he is far-far away from Dhyan Yog. The meditation leading to love in God is better than that knowledge free from practice, meditation and rejection of the desire of rewards of actions. Meditation leads to concentration and penetration into the Almighty, which the practitioner may for attainment of the Almighty HIMSELF. Rejection of the desire of the rewards utilise for the deeds leads to detachment from the world and that is the sole aim of worship. One should never utilise the ascetic practice, enchantment of holy verses, meditation, staunch meditation for self. Instead he should make use of them for the benefit of the society-others as a whole. This will keep him free from bonds with the world, leading to bliss i.e., the God. Practice, knowledge of scriptures and Dhyan involve the self, while rejection of the desire for the reward of deeds makes one absolute. During the Saty, Treta and Dwapar age-cosmic era, Enlightenment and Relinquishment were the means to attain Salvation-Moksh-Assimilation in God-Liberation, emancipation. During the present era Kali Yug, devotion is the only means-source of attaining the Almighty. The Almighty created Bhakti-devotion for the welfare of the Humans due to the intricate-devastating nature of Kali Yug leading to loss of virtues, righteousness, piousity, honesty, values. Kali Yug is the period during which the majority of the population will indulge in dishonesty, wretchedness, frauds, vulgarity, sensuality, sexuality, passions-un holi acts, Hippocracy, Atheism, sinful acts. People will moves away from morality, culture & values. They will discard & dishonour the scriptures. 5,151 years of Kali Yug has passed and the total duration of it is 4,80, 000 years. Bhakti was blessed with Gyan & Vaeragy as sons and Mukti as a slave. Mukti could not survive the onslaught of Hippocracy, deceitful acts, hearsay, dissimulation and im posterity and left for the Vaekunth Lok-the Abode of the Almighty Bhagwan Shri Krashn. However, it visits off & on, as and when, invited by Bhakti.
One who develops devotion in the Almighty with love & affection attains the Ultimate abode, which is the source of fearlessness. Those who are devoted to the Almighty are not shadowed by the Yum Raj-the deity of death and reincarnations.
Ghosts, demons, Rakshas, Shaetan-devils, giants, Dracula remain away from such people. The Almighty is controlled by the devotees and their devotion. The Almighty present himself before the devotee to bless him-grant vows. Any one who acts against the Bhakt-devotee find trouble, pain, sorrow, grief, torture in all abodes. Bhakt Prahlad (the mighty demon king and son of Hirany Kashyap) & Dhruv got the Ultimate boons from the Almighty by virtue of Bhakti-devotion. Shri Mad Bhagvat generates the Bhakti, Gyan and Vaeragy, leading to evolution of prudence-brilliance, Piousity. Bhagwan Ved Vyas produced it, for the welfare of masses and establishment of Bhakti, Gyan and Vaeragy leading to evolution of prudence-brilliance, during this era called Kali Yug.
मनुष्यों के लिए सर्व श्रेष्ठ धर्म वही है जिसमें भगवान श्री कृष्ण की भक्ति कामना रहित हो। जो नित्य-निरन्तर बनी रहे; ऐसी भक्ति से ह्रदय आनन्द स्वरूप परमात्मा की उपलब्धि करके कृतकृत्य हो जाता है। भगवान् श्री कृष्ण की भक्ति होते ही अनन्य प्रेम से उनमें चित्त जोड़ते ही निष्काम ज्ञान और वैराग्य का आविर्भाव हो जाता है।[श्रीमद्भागवत 2.1.6-7]
भक्ति के प्रभाव से भोजन प्रसाद में, भूख व्रत में, पानी अमृत में, संगीत कीर्तन में, कार्य सेवा में, यात्रा तीर्थ यात्रा में और मनुष्य भक्त में परिवर्तित हो जाते हैं।
Bhakti transforms food into Prashad, Hunger into Fast, Water into Elixir, Music into Keertan, Action into Service, Work-deeds into Karm, Travel into Pilgrimage, Man into a Human being.
भक्ति को शास्त्रों में मुक्ति और मोक्ष से भी बढ़कर माना गया है।
Devotion is superior to Liberation and Salvation as per scriptures.
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते। 
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते॥
और जो मनुष्य अव्यभिचारी भक्तियोग के द्वारा मेरा सेवन करता है, वह इन गुणों का अतिक्रमण करके ब्रह्म प्राप्ति का पात्र हो जाता है।[श्रीमद् भगवद्गीता 4.26]  
One who worship the Almighty with the help of pure-pious Bhakti Yog qualifies for the unswerving devotion-Salvation & transcends the three modes-characteristics  of material Nature. 
भगवान् ने गुणातीत (निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति) होने का उपाय भक्ति बताया है।साधक को यदि ज्ञान योग अथवा कर्म योग का सहारा न भी हो तो भी वह मात्र भक्ति योग से परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। केवल भगवान् का ही आश्रय, सहारा, सम्बल, आशा, बल, विश्वास, भक्ति मार्ग ही साधक के लिए पर्याप्त है। जो साधक अनन्य भाव से प्रभु की शरण में है, उसे गुणों के अतिक्रमण का प्रयास नहीं करना पड़ता, प्रभु स्वयं ही उसका मार्ग सरल-निष्कंटक बना देते हैं।
The Almighty propounded (प्रतिपादित, स्थापित) the means of the attainment of Brahm as Bhakti Yog. Devotion to the God automatically cuts the bonds of three characteristics of material nature-world. The practitioner can achieve the Ultimate through devotion without the help of Gyan Yog-enlightenment and Karm Yog performances as per the directives of scriptures. Shelter, asylum, seeking protection under the God, faith and one point-single mind devotion are enough for attaining Brahm-Liberation. One is not supposed to cross the barrier of the material characteristics. The Almighty HIMSELF makes his path clear. 
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया। 
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्॥
हे प्रथानन्दन अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जिसके अन्तर्गत हैं और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, वह परम पुरुष परमात्मा तो अनन्य भक्ति से प्राप्त किया जा सकता है।[श्रीमद्भगवद्गीता 8.22] 
Bhagwan Shri Krashn asked Arjun-the son of Pratha-Kunti, that the Almighty is pervaded throughout the universe-eternity, all living beings are controlled by HIM and HE can be attained through unique-unalienable devotion. Entire universes is confined in HIM.
सम्पूर्ण सृष्टि परमात्मा के अन्तर्गत-अधीन है और वह स्वयं सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त है। उसके सिवाय किसी अन्य की स्वतंत्र सत्ता नहीं है। वह अव्यक्त, अक्षर, परमगति केवल अनन्य भक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है। कोई भी अन्य साधन बगैर भक्ति के अपूर्ण है। 
Whole world-life is controlled by the Almighty and HE HIMSELF pervades through it. None-nothing is independent, except HIM. HE the undisclosed, undescribed, Ultimate WHO can be achieved through unique, undivided, unshared devotion. Whatever path one adopts for Salvation should have devotion associated with it. How can one attain HIM without dedication-devotion?!
एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः। 
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः॥
जो मनुष्य मेरी इस विभूति (प्रताप, महत्व, तेज, गौरव, ऐश्वर्य) को और योग सामर्थ्य को तत्व से जानता है अर्थात दृढ़ता से सन्देह रहित होकर स्वीकार कर लेता है, वह अविचल भक्ति योग से युक्त हो जाता है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है।[श्रीमद्भगवद्गीता 10.7]  
One who truly recognises-understands the gist of MY manifestations (majesty, greatness, power) and Yogic powers is united with ME by unswerving devotion. There is no doubt about it.
भगवान् की जितनी भी विभूतियाँ-ऐश्वर्य हैं, वे सभी योग सहित अलौकिक विलक्षण शक्ति, अनंत सामर्थ्य की द्योतक हैं। योग में स्थित परमात्म तत्व समता, सम्बन्ध और सामर्थ्य को प्रदर्शित करता है। निर्विकार-निष्काम होने पर मनुष्य में यह आंशिक-तात्कालिक क्षमता आ जाती है। प्रकृति से सम्बन्ध, इस क्षमता को क्षीण कर देता है। संसार में जितनी भी विशेषताएँ-प्रभाव, सामर्थ्य हैं, उनके मूल में कारण रूप से परमात्मा ही हैं। जो व्यक्ति पूर्ण रूप से दृढ़तापूर्वक भगवत्शरण ग्रहण कर लेता है, वह अविचल भक्ति योग से युक्त हो जाता है, जिसमें भगवान् के सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है। जब अविचल रूप से यह मान लिया, समझ लिया कि भगवान् के अतिरिक्त अन्य किसी की सत्ता है ही नहीं, तो संशय का प्रश्न ही पैदा नहीं होता।
The powers of the Almighty are infinite. Yog is a means to achieve the divine powers-capabilities. The gist of the strength of God is reflected in Yog. One who is relinquished-free from defects, attains these powers partially-temporarily. Connection with the nature diminishes these powers. Any thing-activity which is Ultimate, excellent, superb is a reflection of the God's power. One who seeks shelter, asylum-refuse, protection under the Almighty attains the Bhakti Yog-Ultimate devotion, which does not allow one to deviate from the eternal-divine path. One who has understood-recognised that the Almighty is behind all that happening around, becomes free from all types of suspicion-doubt about the God.
सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम। 
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः॥
परमात्मा भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि मेरा यह जो चतुर्भुज रुप तुमने देखा है, इसके दर्शन अत्यन्त ही दुर्लभ हैं। देवता भी इस रुप देखने के लिये नित्य लालायित रहते हैं।[श्रीमद् भगवद्गीता 11.52]  
The Almighty Shri Krashn told Arjun that HIS four armed figure-exposure was very rare-difficult to see and the demigods-deities were always eager-desirous to see it.
परमात्मा श्री कृष्ण ने अर्जुन को कहा कि उनका चतुर्भुज रुप अत्यन्त दुर्लभ है और इसे देखने के लिये देवगण भी लालायित रहते हैं तथा यह केवल अनन्य भक्ति से ही संभव हैं। देवताओं में अनन्य भक्ति का अभाव है, क्योंकि वो केवल भोग-विलास के लिये ही देवता बने हैं। उनमें देवत्व पद का अभिमान है। यज्ञ, तप, दान आदि से भी भगवान् के दर्शन दुर्लभ हैं। 
The Almighty made it clear that HIS four armed figure could be seen through devotion only. Even the deities-demigods could not see it, since they lacked unique-exclusive (unqualified) love and devotion in HIM. They were proud to be demigods and got this form to enjoy, satisfaction of sensuality (sexuality, passions). Sacrifices, donations, asceticism etc. could not grant this capability to one for lack of ultimate devotion towards the Almighty.
नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया। 
शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा॥
जिस प्रकार तुमने मुझे देखा है, इस प्रकार के चतुर्भुजरुप में मैं न तो वेदों से, न तप से, न दान से और न यज्ञ से ही देखा जा सकता हूँ।[श्रीमद् भगवद्गीता 11.53] 
The Almighty made it clear to Arjun that HE could not be seen in the four armed composed-calm form by the study of Veds, ascetic practices-austerities, donations or sacrifices.
परमात्मा ने अर्जुन को यह स्पष्ट किया कि उनको सौम्य चतुर्भुज रुप योग्यता के द्वारा नहीं, अपितु केवल उनकी कृपा से ही देखा जा सकता है। कृपा भी केवल सुपात्र-ग्राह्य-उपयुक्त व्यक्ति के ऊपर की जाती है। भगवत्कृपा की उपलब्धि तभी हो सकती जब कि मनुष्य अपनी समझ, सामर्थ्य, समय, सामग्री अर्थात स्वयं को भी प्रभु के अर्पण कर दे। उसे अपनी योग्यता, बल, बुद्धि का किञ्चित-लेश मात्र भी अभिमान न रहे। इस स्थिति में जब वो अनन्य भक्ति व प्रेम भाव से परमात्मा को पुकारता है तो, वे तत्काल-तुरन्त प्रकट हो जाते हैं।  
The Almighty made it absolutely clear to Arjun that HE was available through undistinguished devotion and love, only. HIS four armed composed-calm form could be assessed through HIS own mercy (kindness, will) only. Various methods described in Veds-scriptures, ascetic practices-austerities, donation-charity or sacrifices are of no use, in the absence of unique-undivided, true love and devotion. The God is willing to appear before one who has surrendered every thing, his intelligence, pride-ego, ability-capability, time prudence-understanding to HIM. One has no pride or ego with respect to HIM. One who is under HIS patronage and calls HIM with absolute devotion and unique-unclassified love, pleases HIM and HE comes running to take care of the devotee.
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन। 
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप॥ 
परन्तु हे शत्रुतापन अर्जुन! इस प्रकार चतुर्भुजरुप वाला मैं केवल जानने में और साकाररुप से देखने में तथा प्रवेश (प्राप्त) करने में शक्य हूँ।[श्रीमद् भगवद्गीता 11.54] 
The Almighty addressed Arjun as Shatru Tapan! One who could create fear-terror in the minds of the enemy and continued that HE could be seen in four armed composed form-figure through single-minded absolute (unique, undivided) devotion alone and reached-assimilated in HIM.
परमात्मा ने कहा कि उन्हें अनन्य भक्ति और प्रेम के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है अर्थात भगवान् का आश्रय, सहारा, शरण, आशा तथा विश्वास। किसी भी प्रकार की योग्यता, बल, मन अथवा बुद्धि यहाँ कार्य नहीं करती।अहंकार-अभिमान का नाश इसमें सहायक है। अनन्य भक्ति मनुष्य को परमात्मा को तत्व से जानने में सहायक है। ज्ञान के द्वारा भगवान् को तत्त्व से जाना जा सकता है; परन्तु दर्शन होना अनिवार्य नहीं है। मनुष्य भक्ति भाव से परमात्मा को राम, कृष्ण, विष्णु आदि रूपों में प्राप्त कर सकता है। जब भक्त परमात्मा से अभिन्नता हासिल कर लेता है, तो वह उनकी नित्य लीला में प्रवेश कर लेता है। इसमें भक्त की इच्छा और परमात्मा की मर्जी प्रमुख हैं। प्रभु भक्त को मुक्ति से पहले उसकी पारमार्थिक इच्छाएँ भी पूरा कर देते हैं यथा ध्रुव को 36,000 वर्षों का व विभीषण जी को एक कल्प का राज्य प्रदान किया। 
ज्ञान के माध्यम से व्यक्ति भगवान् को जान सकता है और उनके लीला मण्डल में प्रवेश कर सकता है परन्तु भक्ति भाव से वह जानना, प्रवेश करना और दर्शनों की प्राप्ति भी कर सकता है। जानना और प्रवेश ब्रह्म की उपलब्धि है तथा जानना, प्रवेश और दर्शन समग्रता का प्रतीक है।  
The Almighty explained that HE could be achieved through dedication and affection, through total surrender, only. One who seek asylum, shelter, refuge under HIM is qualified to see HIM. Faith and hope contribute in witnessing the God. Absolute-single minded devotion leads one to visualise the Almighty. Loss of pride & ego helps one in attaining the God. knowledge-enlightenment helps one in knowing the gist of the Almighty and entering HIS circle of influence but one seldom has the opportunity of seeing HIM. Practically there is no chance in such a case. However, one who is devoted with love and seek asylum under HIM, can easily assess HIM. Dhruv Ji got 36,000 years of uninterrupted empire and Vibhishan Ji got one Kalp's (One day of Brahma Ji in divine years. Please refer to chapter one on Hinduism of this blog.) reign-rule before being taken to God's visual circle-face to face with HIM. Bhakti-devotions reign supreme over enlightenment, aided with God's desire-mercy.
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः। 
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव॥
हे पाण्डव! जो व्यक्ति मेरे ही लिये ही कर्म करनेवाला, मेरे ही परायण और मेरा ही प्रेमी भक्त है तथा सर्वथा आसक्ति रहित और प्राणिमात्र के साथ वैरभाव से रहित है, वह भक्त मुझे प्राप्त होता है।[श्रीमद् भगवद्गीता 11.55]  
The Almighty made it clear to Arjun while addressing him as Pandav-son of Pandu, that the one who perform all duties (endeavours, deeds, tasks, Varnashram Dharm etc.) for HIS sake, is devoted to HIM with love under HIS patronage (asylum, shelter, protection), is free from all attachments (bonds, connections, ties), without enmity with the other organism, achieves HIM.
साधन पञ्चक भी कहा जाता है और 2 विभागों में बाँटा गया है। (1). भगवान् के साथ घनिष्टता और (2). संसार के साथ सम्बन्ध विच्छेद। (1.1). साधक (व्यक्ति, भक्त), जप, कीर्तन, ध्यान, सत्संग, स्वाध्याय आदि भगवत्सम्बन्धी कर्मों को और वर्णाश्रम धर्म, देश, काल, परिस्थिति आदि के अनुसार प्राप्त लौकिक कर्मों को केवल प्रभु की प्रसन्नता के लिए ही करता है। (1.2). जो व्यक्ति परमात्मा को ही परमोत्कृष्ट समझकर, केवल उनके परायण रहता है और उन्हें ही परम ध्येय, परम आश्रय, परम प्रापणीय मानता है। (1.3). जो समस्त देश, काल, परिस्थितियों में केवल परमात्मा की ही भक्ति करता है और केवल उन्हीं से प्रेम करता है। (2.1). उसकी संसार में आसक्ति, ममता और कामना नहीं है। उसका प्रभु के साथ अनन्य प्रेम है। उसमें राग का अभाव है। (2.2). उसके ह्रदय में किसी के भी प्रति किञ्चित मात्र का द्वेषभाव नहीं है। इस प्रकार का व्यक्ति परमात्मा को ही प्राप्त हो जाता है अर्थात प्रभु को तत्व से जानता है, दर्शन प्राप्त कर लेता है और उन्हें प्राप्त भी कर लेता है। जिस उद्देश्य के लिये उसका जन्म हुआ था, वह पूरा हो जाता है। इन सब की प्राप्ति हेतु मनुष्य को अपनी चिन्तन शक्ति और दृष्टि को परमात्मा के सिवाय किसी अन्य में नहीं लगाना चाहिये। 
The Almighty told 5 things to Arjun, which are called Sadhak Panchak, 5 resolves, determination, Vows, Notion, Conviction, Conception of the practitioner-devotee). They have been subdivided into two groups. (1.1). Pronunciation of God's names, recitation, meditation-concentration, auspicious-holy company, self study of scriptures-holy text, performance of deeds pertaining to the Almighty, following Varnashram Dharm, performances of duties for the pleasure-happiness of the God irrespective of the location, time and situation. (1.2). To remain devoted to the Almighty by considering HIM to be Ultimate goal, shelter and attainable. (1.3). To remain devoted to HIM and love HIM only. (2.1). One is not attached to the world, has no desires or attachments. (2.2). He has no enmity for any one. One who posses these qualities can see the God.  He knows the God through gist, sees HIM and attains HIM, assimilate in HIM i.e., achieves Salvation. The goal of his birth is accomplished. To achieve this goal one should not put his thoughts and vision to any other entity.
भक्त के 39 लक्षण :: 
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते। 
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्॥ 
अभ्यास (कर्मकाण्ड) से शास्त्र ज्ञान श्रेष्ठ है, शास्त्र ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से भी सब कर्मों के फल की इच्छा-आसक्ति का त्याग श्रेष्ठ है, क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शान्ति प्राप्त हो जाती है।[श्रीमद्भागवत गीता 12.12]
The transcendental knowledge of scriptures is better than mere ritualistic practice; meditation is better than-superior to scriptural knowledge; renunciation of selfish attachment to the rewards-fruits of work (deeds), is better than meditation, since peace immediately follows renunciation of selfish motives.
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च। 
निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुखः क्षमी॥
संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः। 
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥
सब प्राणियों में द्वेषभाव से रहित और मित्र भाव वाला तथा दयालु भी और ममता रहित, अहंकार रहित, सुःख-दुःख की प्राप्ति में सम, क्षमाशील, निरन्तर संतुष्ट, योगी शरीर को वश में किये हुए, दृढ़ निश्चय वाला, मुझ में अर्पित मन-बुद्धि वाला जो मेरा भक्त है, वह मुझे प्रिय है।[श्रीमद्भागवत गीता 12.13-14] 
The Almighty told Arjun that a devotee-Yogi who is free from envy-rivalry, friendship & compassionate, free from attachments-affections & ego-pride, even-minded in pain and pleasure, forgiving and ever content, with subdued mind, with firm resolve, whose mind and intellect are engaged in dwelling upon HIM, who is devoted to HIM, is dear to HIM. 
ऐसा व्यक्ति जो द्वेषभाव से मुक्त है और किसी को भी कोई भी किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचाना चाहता, समस्त क्रियाओं में भगवान् का मंगलमय विधान ही मानता है, प्राणियों के प्रति मैत्री, करुणा का भाव रखने वाला, प्राणियों के प्रति ममता भाव से मुक्त तथा उसकी अपने शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियों के प्रति भी ममता नहीं है, उसकी अपने शरीर के प्रति अहं बुद्धि नहीं है। उसके अन्तःकरण में स्वतः श्रेष्ठ, दिव्य, अलौकिक गुण प्रकट होने लगते हैं, जिन्हें भक्त परमात्मा की कृपा ही मानता है, जिससे वह अहंकार से मुक्त रहता है। वह सुःख और दुःख, प्रतिकूल और अनुकूल परिस्थितियों के प्रति सम भाव रखता है। जिससे उसमें हर्ष-शोकादि विकार उत्पन्न नहीं होते। उसके स्वभाव में अपने प्रति द्वेष रखने वालों, अपराध करने वालों के प्रति भी क्षमा का भाव रहता है। वह सभी प्रकार से संतुष्ट है। वह नित्य-निरन्तर परमात्मा से जुड़ा हुआ होने के कारण योगी है। उसको अपने शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियों पर पूरा काबू है; जिससे वे अनुशासन में हैं। वह भगवान् के प्रति भक्ति भाव में पूरी तरह से दृढ़-अविचलित है।  
साधन के प्रति भक्त में निर्मम और निरहंकार होना बहुत आवश्यक है। इसलिए कर्मयोग, ज्ञान योग और भक्ति योग, तीनों में ही निर्मम और निर्हंकार होने की बात कही गई है। जब भक्त के मन, बुद्धि, प्राण पूरी तरह भगवान् में लग जाते हैं, तो भगवान् का उसके प्रति प्रेम स्वाभाविक ही है। 
The individual is free from envy, malice-hate and does not harm anyone. He believes that all auspicious activities that happens around him  are the will of the God. He has pity in his heart for all beings. He has no affection-attachment for anyone-anything. He does not keep concern for the mind, intelligence and his own body as well. He is free from ego & pride pertaining to his body or capabilities of any kind, he possesses. This evolves auspicious divine qualities-traits in him for which he gives the credit to God's will-mercy. This prevents him from ego. He has developed neutrality towards pleasure & pain. This equanimity keeps him free from sorrow or joy. He pardons-forgives one, who has envious-malicious attitude towards him. He is content in himself and is satisfied with whatever he possess i.e., he has due to the kindness of the God. He is a Yogi who is always connected with the God. His body, mind, intelligence and the soul are under his own command & well disciplined. He has firm resolve towards devotion to God. He is rigid and free from ego for being a practitioner of Karm Yog, Gyan Yog and Bhakti Yog towards devotion to the Almighty. This has reciprocated-created love for the Almighty, in him. 
The fact is that if one loves the God he too reciprocates.
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः॥[श्रीमद्भागवत गीता 12.15]
जिससे कोई भी प्राणी उद्विघ्न-क्षुब्ध नहीं होता और जो स्वयं भी किसी से उद्विघ्न नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष (ईर्ष्या), भय और उद्वेग (हलचल) से रहित है, वह मुझे प्रिय है। 
The one by whom others are not agitated, disturbed, angered and who himself too is not agitated by others, who is free from joy, envy, fear and anxiety, is also dear to ME.
भक्त जिसके द्वारा-कारण कोई भी व्यक्ति परेशान नहीं होता भी, भगवान् को प्रिय है। उसकी समस्त क्रियाएँ प्राणी मात्र के भले के लिये होती हैं। वह भूल से भी किसी का अनिष्ट करने की चेष्टा नहीं करता। फिर भी कुछ आसुरी स्वभाव के व्यक्ति अपने दोष युक्त स्वभाव के कारण अकारण ही उससे द्वेष-वैर रखते हुए दुःखी रहते हैं। अक्सर दुष्ट लोग भी उसकी संगत में अपना बुरा स्वभाव-व्यवहार बदल लेते हैं। वह किसी के प्रति द्वेष-दुर्भावना नहीं रखता। वह सभी प्रकार के हर्ष-विषाद से मुक्त है। उसमें स्वाभाविक एक रस, विलक्षण और अलौकिक प्रसन्नता-परमानन्द है। उसमें दूसरों के प्रति ईर्ष्या  का अभाव है। उसमें मृत्यु, सांसारिक कारणों यथा चोर, डाकू आदि तथा स्वयं के अन्दर पैदा होने वाले झूठ, कपट, बेईमानी, व्यभिचार, शास्त्र विरुद्ध आचरण और भावों का भी भय-डर नहीं है, क्योंकि वह इनसे निर्लिप्त-दूर है। उसमें गुणों का अभिमान नहीं है और दुर्गुणों-दुराचारों, विकारों से मुक्त है। वह परमात्मा को प्यार करता है और स्वयं भी परमात्मा को प्रिय है। 
The God has described the person whom he likes-loves. One who does not harm, disturb, agitate, anger anyone, is dear to the Almighty. All his actions are for the welfare of the mankind. Still some people envy him due to their own demonic nature. Such people too change their habit-nature, when they come in contact with this type of devotee of the God. He does not nurse ill will (grievances, grudge) for the others. He is free from all kinds of tensions, since he possesses bliss in himself. He does not envy others. He is free from the fear of death, out side deterioration, thieves, dacoits, sinners, wretched and the inner defects. He loves the Almighty and is reciprocated by HIM.
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः। 
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥
जो अपेक्षा-आवश्यकता से रहित, बाहर-भीतर से पवित्र, चतुर, उदासीन, व्यथा से रहित और सभी आरम्भों का अर्थात नये-नये कर्मों का सर्वथा त्यागी है, वह मेरा भक्त मुझे प्रिय है।[श्रीमद्भागवत गीता 12.16] 
The Almighty says that one who is needless-free from desires, pious, virtuous, righteous, pure both externally & internally, wise, neutral-has attained equanimity-impartiality, free from anxiety, (botheration, tensions, worries) & who has renounced the doer ship in all undertakings, endeavours, entrepreneurship etc., such a devotee is dear to HIM. 
भक्त भगवान् को ही सर्वश्रेष्ठ मानकर संसार की किसी भी वस्तु के प्रति खिंचाव-लगाव महसूस नहीं करता। उसका अपने शरीर, मन, बुद्धि और इंद्रियों के प्रति भी अपनापन-लगाव नहीं है। उसमें विषय-वासनाओं, स्पृहा का भी अभाव है। वह भयंकर से भयंकर विपत्ति-परिस्थिति में भी भगवत लीला में रमा रहता है। उसका अविनाशी परमात्मा से कभी वियोग नहीं होता। उसे अपने शरीर निर्वाह की भी चिन्ता नहीं है। उसे तो इसकी भी चिन्ता नहीं है कि भगवान् दर्शन देंगे अथवा नहीं। वह शान्त, द्वेष रहित, समदर्शी और निस्पृह है। उसकी शरीर में अपनापन अहंता, ममता, मेरा-मैं पन नहीं है। उसका अन्तःकरण पवित्र है। ऐसे भक्तों की चरणरज से तीर्थ भी पवित्र हो जाते  हैं। वह अहंकार से दूर है। उसके जीवन का एकमात्र उद्देश्य भगवान् को प्राप्त करना है, सो उसने पा लिया है। अतः वह दक्ष और चतुर है। उसका विवेक जागृत है। वो संसार के प्रति उदासीन, निर्लिप्त, तटस्थ है। वह भेद-भाव से रहित है। उसके चित्त में व्यथा-दुःख, राग-द्वेष, खिन्नता, हलचल, हर्ष-शोक, नहीं हैं। वह परिस्थिति जन्य विकारों से मुक्त है। वो भोग, नए-नवीन उद्यमों से दूर है। वह सिवाए भगवान् के किसी को अपना नहीं मानता। ज्ञान के द्वारा उसकी चित्त, जड़-ग्रन्थि कट गई है। ऐसा भक्त जो पूरी तरह परमात्मा को ही समर्पित है, वो परमात्मा को प्रिय है। 
The devotee considers the Almighty to be Ultimate-Eternal and do not find attachment-attraction towards other things-commodities. He has no attachment with his own body, mind, intelligence and the sense organs. He has freed himself from desires, wants, sensuality, passions. He keeps himself involved in the God even in worst possible circumstances-conditions. Practically, he is never separated from the God. He does not worry about his basic needs like food, since he thinks that the God will HIMSELF arrange it. He is under the asylum, shelter, protection of the God. He do not bother whether the God will come and meet him. He is calm, quite, composed, peaceful, neutral, detached, free from envies. He has no pride-ego or attachment for the body. His innerself is pure, pious, virtuous, righteous, honest. His conscience is pure. The sites of pilgrim becomes pious-pure with the touch of his feet. His sole motive is to attain the God, which he has attained. He is skilful, wise and clever in the sense that his goal of reaching the Almighty is fulfilled. His prudence guides him. He is neutral to the world-universe and has developed equanimity towards its inhabitants. He is free from worries, grievances, anxieties-tensions, pleasure-pain, disturbances-distortions. He is not deterred by the adverse circumstances-conditions. He does not involve himself in new ventures, endeavours. He does not consider anyone else his own, except the God. His mind, psyche, mood, gestures and the inertia have been cut off by the enlightenment. He is thoroughly devoted to the Almighty. The Almighty loves him.
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति। 
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः॥
जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है और जो शुभ-अशुभ कर्मों से ऊँचा उठा हुआ (राग-द्वेष रहित) है, वह भक्तिमान मनुष्य मुझे प्रिय है।[श्रीमद्भागवत गीता 12.17] 
One who is free from rejoice, malice (hatred, malevolence, hate, malignity, resentment), grieves, desires, likes, dislikes; who has renounced both the good and the evil and is full of devotion is dear to the Almighty. 
सिद्ध पुरुष में राग, द्वेष, हर्ष और शोक नहीं होते। ज्यों-ज्यों उसकी भक्ति का वेग बढ़ता है, त्यों-त्यों वह संसार से दूर होता चला जाता है और भगवान् से जुड़ता जाता है। अंततोगत्वा भगवान् का साक्षात्कार होने पर सभी विकार पूरी तरह मिट जाते हैं। हर्ष और शोक; राग-द्वेष के परिणाम हैं, जो कि स्वतः कम होते जाते हैं। उसकी कामनाएँ नष्ट हो गईं हैं। भगवत्प्राप्ति के साथ ही सभी विकार खत्म हो जाते हैं। उसके शुभ और अशुभ कर्म भी समाप्त हो जाते हैं। उसका कर्म बन्धन नष्ट हो जाता है। भक्त का भगवान् में अनन्य प्रेम हो जाता है। वह निरन्तर भगवान् का चिन्तन, स्मरण, भजन करता रहता है। इस अवस्था में परमात्मा को प्रिय हो जाता है। 
The devotee who has reached the stage of perfection, becomes free from attachments, malice, pleasures or pain. With the increase in his intensity of worship his bonds with the God are strengthened. He becomes closer to HIM and is able to assess HIM-see HIM. Pleasure & pains are the results-outcome of attachments and malice, hatred, malevolence, malignity, resentment, leading to loss, completion, fulfilment of desires. All his defects are removed with the view of the God, impact of auspicious and inauspicious deeds, too are finished-over. The bonds-ties evolved due to the impact of endeavours are lost completely. He becomes an unparalleled devotee of the God. He continues with meditation, remembrance and recitation of holy verses of the Almighty. At this stage, he is accepted-adopted by the God with love. 
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः। 
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः॥
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्। 
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः॥
जो शत्रु और मित्र में तथा मान-अपमान में सम है और शीत-उष्ण (शरीर की अनुकूलता-प्रतिकूलता) तथा सुःख-दुःख (मन-बुद्धि की अनुकूलता-प्रतिकूलता) में सम है एवं आसक्ति रहित है और जो निन्दा-स्तुति को समान समझने वाला, मननशील, जिस किसी प्रकार से भी (शरीर का निर्वाह होने, न होने में) सन्तुष्ट रहने वाला तथा शरीर में ममता-आसक्ति से रहित और स्थिर बुद्धिवाला है, वह भक्तिमान् मनुष्य मुझे प्रिय है।[श्रीमद्भागवत गीता 12.18-19] 
One who remains balanced-neutral towards friend or foe, in honour or insult-disgrace, in hot or cold (conditions adverse or favourable to the body), in pleasure or pain (conditions favourable or adverse to heart and intelligence); has attained equanimity & is free from attachment; who is indifferent to censure or praise; who is thoughtful, quiet and content with whatever he has; unattached to a place (region, country, house); equanimous (in full control of faculties, perfectly poised and sure of himself, self-contained and dependable; strong and self-possessed in the face of trouble) and full of devotion that person is dear to ME.
राग-द्वेष से रहित सिद्ध भक्त के हृदय में किसी के प्रति शत्रु-मित्र का भाव नहीं रहता। वह अपने आपमें पूर्णतया सदैव सम रहता है। मान-अपमान स्थिति जन्य है। भक्त में अहंता और ममता न होने के कारण उसके अन्तःकरण में कोई विकार (हर्ष-शोक) उत्पन्न नहीं होता और अपनी समता की स्थिति को बनाये रखता है। इन्द्रियों का अपने विषयों से संयोग होने पर उसके अन्तःकरण में समता होने से कोई विकार नहीं होता। यही स्थिति उसमें पदार्थों-धनादि की प्राप्ति-अप्राप्ति में सुःख-दुःख के प्रति है। अतः प्राप्ति-अप्राप्ति में वह हर्ष-शोक से रहित है। स्वरूप से मनुष्य पदार्थों का संग-साथ छोड़ नहीं सकता, परन्तु वह अपने अन्तःकरण में उनमें आसक्ति, लगाव, जुड़ाव का त्यागकर सकता है। आसक्ति ही प्राणी को कामना, क्रोध, मूढ़ता का शिकार बनाती है। राग-आसक्ति का कारण मैं-पन है, जो मन, बुद्धि, इन्द्रियों और विषयों के प्रति है। विवेक इसको त्यागने में सहायक है। प्राणी का भगवान् से स्वाभाविक लगाव-प्रेम है, जो कि उसमें संसार के प्रति आसक्ति के कारण दबा-ढँका रहता है। भक्त के मन में शरीर के प्रति अहंता-ममता न होने से उस पर निंदा-स्तुति का प्रभाव नहीं पड़ता और इन दोनों में ही उसकी सम बुद्धि बनी रहती है। वह चिंतन-मननशीेल है और बगैर आवश्यकता के व्यर्थ नहीं बोलता। वह शरीर निर्वाह के लिये जो कुछ भी मिल जाये, उसी में सन्तुष्ट है और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितयों में भी सम है। उसकी अपने निवास स्थान में ममता-आसक्ति नहीं है। उसके ह्रदय में परमात्मा के प्रति किसी भी प्रकार की शंका नहीं है। अतः स्थिर बुद्धि है। भगवत्तत्त्व को जानने के लिये उसे किसी प्रमाण, शास्त्र-विचार, स्वाध्याय आदि की ज़रुरत नहीं है। जिस व्यक्ति ने भगवत्भक्ति से स्वयं को भर लिया है, वही भक्तिमान और नर-मनुष्य कहलाने के काबिल है। 
इस प्रकार भगवान् ने सिद्ध भक्त के पिछले 7 श्लोकों में 39 लक्षण बताये हैं। 
The detached-relinquished devotee is free form enmity or friendship towards any one. He is equanimous and self contained. He is neutral to honour or insult. Being free from affections-attachments, he is free from pleasure or pain. He is calm, quite, composed when the sense organs interact with the objects of sensuality-passions. This interaction does not cause any defect-motivation in him. This status is maintained in success or failure in obtaining the worldly possessions, comforts, materials, money-wealth etc. He is free from happiness or disappointment for not having obtained goods for comforts-utility. Its not possible for him to isolate himself from the company of worldly materials, but he can reject the attachment in his heart for them. Attachment causes anger, despair, stupidity which he has to reject. The main reason for attachments is ego (I, my, me, mine) & imprudence,  which connects him to passions, senses, sensuality, sexuality, which can be over come through prudence-intelligence. He has natural attachment-love for the Almighty, which is not revealed due to the worldly attractions. Worldly afflictions keep it masked. He develops neutrality in himself which protects him from praise of rebuke-slur. He maintains his cool towards them. He is thoughtful and analysis & synthesis keep on going in him, which controls his speech. He speaks only when essential and to the point, only. Whatever, he has got for maintaining the body is sufficient for him. He is satisfied and content with whatever he has. He do not store for future. He is equanimous towards the favourable or opposite-adverse conditions. He has no attachment for the place, he lives. He has no doubt about the Almighty in his heart. He do not need any quotations from the scriptures or self study about the existence of God. One has filled himself with devotion & is the true worshipper and deserve to be called a human being.
In this manner the Almighty described 39 qualities, traits, characteristics of the devotees in previous 7 verses to Arjun. One who acquires them is sure to the sail the ocean of this birth successfully.
किन्हीं दो गुणों को दबा देने से तीसरा गुण उभरने लगता है। प्रारम्भ में मनुष्य रजो गुण और तमो गुण पर काबू करे। तत्पश्चात वह सत्त्व गुण का निरन्तर अभ्यास करे। सत्त्व गुण के अभ्यास में सुख में न रमे और ज्ञान के अहंकार से सावधान रहकर आगे बढ़े और सामाजिक, सांसारिक दायित्वों-कर्तव्यों को निस्पृहता साथ निर्वाह करता रहे और अन्त में केवल और केवल अनन्य भक्ति में मन रमाये। 
Satv Gun too needs continuous practice. A stage will come when the devotee-practitioner will start enjoying Satv gun and obtain comfort-solace through it. He will have enlightenment too. But that is not his target. He has to look for unparalleled devotion to the God-Almighty. His aim is Salvation, Liberation and Assimilation in the God.
यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः। 
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः॥
सात्विक मनुष्य देवताओं का पूजन करते हैं, राजस मनुष्य यक्षों तथा राक्षसों का दूसरे तामस लोग प्रेतों और भूत गणों का पूजन करते हैं।[श्रीमद् भगवद्गीता17.4]  
The virtuous, pious, righteous worship demigods-deities, those with desires for higher abodes and comforts worship Yaksh and Rakshas-demons & Giants, while the ignorant with vicious desires worship ghosts and spirits.
भगवान् श्री कृष्ण ने देवान् शब्द का प्रयोग भगवान् विष्णु (राम और कृष्ण), भगवान् शंकर, गणेश जी महाराज, माँ शक्ति-पार्वती और सूर्य भगवान् के सन्दर्भ में किया है। इनके अलावा बारह आदित्य, आठ वसु, ग्यारह रुद्र और दो अश्वनी कुमारों की निष्काम पूजा का निर्देश दिया है। यक्ष और राक्षस भी देव योनि में आते हैं, मगर उनका पूजन राजस मनुष्यों द्वारा दूसरों के विनाश और कामना पूर्ति के लिए किया जाता है। तामस मनुष्य भूत-प्रेतों की पूजा-अर्चना करते हैं। प्रेत के अंतर्गत जो पितृ गण हैं, उनका निष्काम भाव से पूजन सात्विक माना गया है। शास्त्र विहित कर्म, नारायण बलि, गया श्राद्ध, प्रेतकर्मों को तामस नहीं माना गया है। कुत्ते और कौए को निष्काम भाव से रोटी देना भी सात्विक कर्म है। पतिव्रत धर्म का पालन सास श्वसुर की सेवा, ईष्ट की पूजा सात्विक कर्म और कल्याणकारी है। 
The Almighty categorised the methods of worship into three. The first mode is purely virtuous which involves the prayers offered to Bhagwan Vishnu (Ram & Krashn), Bhagwan Shiv, Adi Maa Shakti-Parwati, Ganesh Ji Maha Raj and Bhagwan Sury. Satvik Bhakti involves the prayers offered to 33 deities namely 12 Adity, 8 Vasu, 11 Rudr and 2 Ashwani Kumars. Yaksh and Rakshas too constitute divine category but are worshipped by those who are overridden by passions & desire-long for higher abodes. The ignorant worship the diseased in the form of Bhut-Pret (Ghosts) & Pishach i.e., Ghosts-Dracula etc. However, the sacrifices offered to Bhagwan Narayan, diseased in the form of Pitr Gan performing Shraddh prayers at Gaya Bihar and the performance of rights at the time of death for the release of the diseased, are included in the list of Virtuous deeds. Feeding dogs and crows during Shraddh (homage to Manes, diseases ancestors, family members) period too is Satvik. Service of the husband, in laws by the women is Pious act. The Pitr-Manes Gan are considered to be divine. Manes are divine as well mortals who have passed away.
अनन्य भक्ति :: unique (exclusive, unqualified, unconditional, unreserved, unlimited, without reservations, categorical, unequivocal, unambiguous, unrestricted, wholehearted, positive, unmitigated, unadulterated, undiluted, unalloyed, unvarnished, unstinting) devotion. Absolute-single minded devotion. 
नैष्कर्म्य सिद्धि :: वह है जिसमें कर्म सर्वथा अकर्म हो जायें। कर्म योग से नैष्कर्म्य सिद्धि प्राप्त होती है। कर्मयोग और ज्ञान योग निष्ठा हैं। कर्म योग-ज्ञान योग की परानिष्ठा भक्ति से  होगी। परम नैष्कर्म्य सिद्धि और परा निष्ठा दोनों ही भक्ति से प्राप्त होती हैं।
 परा भक्ति :: 
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति। 
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥
फिर वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित, प्रसन्न मन वाला योगी-साधक न तो किसी के लिए शोक करता है और न किसी की आकांक्षा ही करता है। ऐसा समस्त प्राणियों में समभाव वाला योगी मेरी पराभक्ति को (जो तत्त्व ज्ञान की पराकाष्ठा है तथा जिसको प्राप्त होकर और कुछ जानना बाकी नहीं रहता, वही यहाँ पराभक्ति, ज्ञान की परानिष्ठा, परम नैष्कर्म्यसिद्धि और परमसिद्धि इत्यादि नामों से कही गई है) प्राप्त हो जाता है।[श्रीमद्भागवत गीता 18.54] 
Devotee, who attains Almighty, associated with happiness neither experience grief nor desire anything, having achieved equanimity, he asserts himself in the Supreme Soul-divine Bhakti (devotion) to the Almighty. 
अन्तःकरण में विनाशशील वस्तुओं, अहंकार-घमण्ड, ममता, सुख-भोग आदि की आवश्यकता न रहने-त्याग करने से, ज्ञान-साँख्य योगी में स्वाभाविक शान्ति आ जाती है। असत् से ऊपर उठने पर साधक ब्रह्म प्राप्ति का पात्र बन जाता है। असत् वस्तुओं का महत्व समाप्त होने से चित्त में प्रसन्नता और परमात्म तत्व का भाव अटल हो जाता है। वह शोक-चिंता से मुक्त हो जाता है। परिस्थितियों से उसे परेशानी का अनुभव नहीं होता। वह परमात्मा से अभिन्नता का अनुभव करने लगता है। सभी वस्तुओं-स्थितियों से समभाव-समता उत्पन्न होती है। उसे परमात्मा की ओर विलक्षण आकर्षण, खिंचाव, अनुराग अनुभव होता है, जो पराभक्ति है। 
Loss of appetite-greed, for destructible, perishable goods, worldly possessions, nullifies the tendencies like arrogance-pride in the innerself of the devotee. Having sacrificed all desires, allurements, bonds, attachment he remains commuted to the God, only. Peace comes in his innerself, with the detachment from comforts-luxuries. He stops collecting-storing them.
Rising above unnatural, virtual, non virtuous possessions, qualifies him for closeness with the God. He automatically attains-experiences the state of divinity. Desire for unnatural-worldly, non virtuous goods, do not disturbs his innerself and mental peace, solace, tranquillity comes to him automatically. Loss of desires for such objects, brings natural happiness to the Sankhy Yogi, stabilising the component of God in him.
Misfortunes, mishappenings,  biggest losses, loss of position, property, status, do not unnerve him. He realises the natural-existing equanimity with the Supreme Soul and his creations. He experiences extra ordinary attraction, love for the Almighty, which is Divine–Devotion.
Gyan-Sankhy Yogi having seeds of divinity, never stresses his route of faith, never considers detachment from the world as Supreme, do not dishonour divinity, is not satisfied with detachment. He is blessed with extreme pleasure-Bliss, Permanand. Once divinity is attained, he is ready for immersion in him-close to HIM-associated with HIM, the Supreme Divinity.
Gyan Yog stress over loss of stability, through prudence-momentum gained, raises him above worldly materials-acquisitions of love for God, enables him to find God in each and every one including material objects. Love is developed through faith and divine blessings. He craves for infinite-extreme happiness i.e., Bliss-Permanand.
Karm Yog provides peace, solace, happiness through detachment, Gyan Yog through realisation of self and Bhakti Yog through equanimity with God, HIS creations-each and every particle of this universe to the devotee-Sankhy Yogi.
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्॥
उस पराभक्ति के द्वारा वह मुझ परमात्मा को, मैं जो हूँ और जितना हूँ, ठीक वैसा का वैसा तत्व से जान लेता है तथा उस भक्ति से मुझे तत्व से जानकर तत्काल ही मुझमें प्रविष्ट हो जाता है।[श्रीमद्भागवत गीता 18.55] 
The Devotee, who understands and recognises-identifies, the essence, spirit, gist of the Supreme Spirit, through divine devotion, with all his powers and spread, in depth, assimilates in HIM, with the help of the ultimate knowledge, enlightenment, gist. 
परमात्म तत्व में अनुराग होने पर साधक उसके प्रति समर्पित होकर उससे अभिन्न हो जाता है; उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं रहता, अहंभाव नष्ट हो जाता है और प्रेम स्वरूप, प्रेम भक्ति प्राप्त हो जाती है। यह भक्ति परमात्म तत्व का वास्तविक बोध है। संसार से सम्बन्ध मिट जाता है। परमात्मा का आश्रय लेने से साधक जन्म-मरण से मुक्ति पाकर ब्रह्म, अध्यात्म, निर्गुण विषय, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ सहित सम्पूर्ण सगुण-विषय का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। उसे यह ज्ञान हो जाता है कि परमात्मा अनेक रूपों, आकृतियों, शक्तियों के साथ, भिन्न-भिन्न समुदायों में, अनेक इष्ट-देवों के रूप में प्रकट होता है। इस तत्व को जानकर उसका विलय परमात्मा में हो जाता है। 
जीव का परमात्मा से सम्बन्ध, आकर्षण, प्रेम (रति, प्रीति, आकर्षण) स्वाभाविक है और यही उसको परमात्मा से जोड़ता है। परमात्मा से विमुख व्यक्ति संसार में आकृषित होता-जुड़ा रहता है और वासना, स्पृहा, कामना, आशा, तृष्णा आदि का शिकार हो जाता है। 
ब्रह्मभूत अवस्था होने पर राग-द्वेष, हर्ष-शोक, मिट जाते हैं और समता की प्राप्ति होती है, सम होने पर पराभक्ति जो कि वास्तविक प्रीति है, मिलती है और परमात्मा के संग अपने स्वरूप का बोध हो जाता है। इस बोध के होते ही साधक परमात्म तत्व में लीन हो जाता है। तपस्वी, ज्ञानी, कर्मी से भी श्रेष्ठ समता वाले योगी को माना गया है। 
Having achieved the attraction and love for the essence of God, the devotee completely surrenders to God and become undistinguished-inseparable from HIM. His arrogance is lost completely and Bhakti-devotion associated with love is attained, which helps him, in identifying the Parmatm Tatv (essence of God).
At this stage though attachment is lost completely, yet a segment of ego-I am defect less, I am Brahm, I am quite, I am pure, I have achieved some thing, remains! Once dependence over nature is overcome, with the help of divine devotion, this ego is also lost and comprehensibility prevails, thereafter.
One who is infatuated with the God-who solely depends upon HIM, inalienably-exclusively recognises HIM. Those who want to get rid of ageing-death, reincarnations solely take refuge (shelter, asylum) in HIM. Such people-devotee recognises-understands all aspects of HIM, including HIS various incarnations. HE reveals HIMSELF through various incarnations, deities, angels, maintaining HIS unique identity in different religions, societies.
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः। 
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्॥
मेरा आश्रय लेने वाला भक्त-कर्मयोगी सदा संपूर्ण कर्मों को करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन-शाश्वत अविनाशी परम पद को प्राप्त हो जाता है।[श्रीमद्भागवत गीता 18.56]  
The Devotee, who is under the protection-patronage of God, attains the supreme eternal imperishable status-abode, with the grace of the Almighty, while performing all of his Varnashram duties. 
जो व्यक्ति सर्वथा भगवान् के परायण-शरणागत हो जाता है, अपना स्वतंत्र कुछ नहीं समझता, ऐसे भक्त का उद्धार स्वयं परमात्मा कर देते हैं। उसको अपने जीवन निर्वाह के लिए किसी बात-चीज की कमी नहीं होती। जिस धर्म परायण साँख्य योगी ने शरीर, वाणीं और मन का संयमन कर लिया है और एकांत में रहकर सदा ध्यान योग में लगा रहता है, उसको जिस पद की प्राप्ति होती है, वह लौकिक, पारलौकिक, सामाजिक, शरीरिक आदि सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मों को हमेशा करते हुए, प्रभु का आश्रय लेने वाला भक्त उनकी कृपा से प्राप्त कर लेता है। स्वतः सिद्ध परम पद की प्राप्ति अपने कर्मों, अपने पुरुषार्थ से अथवा अपने साधनों से नहीं, अपितु केवल भगवत्कृपा से होती है। यह परम पद भक्ति मार्ग से परम धाम, सत्य लोक, वैकुण्ठ लोक, गौलोक, साकेत लोक और ज्ञान मार्ग में विदेह, कैवल्य मुक्ति, स्वरूप स्थिति कहलाता है। उसके नाम अलग-अलग हैं। जहाँ भगवान् हैं; वहीं उनका लोक है। जब भक्त की अनन्य निष्ठा सिद्ध हो जाती है तब, परिच्छिन्नता का अत्यंत अभाव हो जाता है और वही लोक उसके सामने प्रकट हो जाता है अर्थात उसे जीते जी ही  दिव्य लोक की दिव्य लीलाओं का अनुभव होने लगता है।अगर भक्त की धारणा यह है कि दिव्य लोक एक परम विशिष्ठ स्थान-जगह है तो, उसकी प्राप्ति तो मृत्यु के बाद ही होगी, जब भगवान् के पार्षद या स्वयं भगवान् उसे लेने के लिए आयेंगे। 
भक्त महज अपने वर्णाश्रम धर्म का पालन सब विहित कर्मों को सदा करते हुए भी भगवत्कृपा को प्राप्त कर लेता है। 
The Devotee, who has surrendered to the Almighty, is totally under his shelter, is salvaged by the God.
A meditating Sankhy-Gyan Yogi, who has controlled his body, mind, speech, heart, senses and sensuality is concentrating over the Almighty in solitude (deep woods, remote caves, high altitude tough terrains-mountains), attains the imperishable, eternal status, position, prominence, abode.
He should continue physical, social, worldly, divine functions under the refuge of God. More he depend over the God, more he experiences the divine bliss, grace, kindness-blessings. Close proximity-imperishable abodes are the result of the mercy, will, desire of the Almighty.
The God is present everywhere. His abodes too, are present everywhere. Attainment of undistinguished faith results in loss of differentiation-multiplicity of abodes. The Devotee feels the presence of the Supreme Soul all around him with the physical-material body.
इमं लोकं मातृमक्त्या पितृभक्तया तु मध्यमम्।
गुरुश्रुषया त्वेवं ब्रह्मलोकं समश्नुते॥
माता में भक्ति से लोक का, पितृभक्ति से मध्यलोक और गुरु की सेवा से ब्रह्मलोक से सुख को प्राप्त करता है।[मनुस्मृति 2.333]
Through the devotion to his mother the disciple wins the comforts of this world, through devotion to the father one attains the comforts-happiness of the middle abodes-heavens and by serving the Guru he claims the comforts up to the Brahm Lok.
अर्जुन उवाच :: 
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते। 
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः॥12.1॥
भक्त इस प्रकार निरन्तर आप में लगे रहकर आपकी सगुण-साकार उपासना करते हैं और जो अविनाशी निर्गुण-निराकार की ही उपासना करते हैं, उन दोनों में से उत्तम योग वेत्ता कौन है?
Arjun enquired that from amongest the two categories of the ever steadfast Yogis :- (1). Those who consider HIM to be with form and characteristics and (2). Those who consider HIM to be free from any form and characteristics, which one is superior?
अर्जुन ने परमात्मा से अपनी जिज्ञासा प्रकट की कि निरन्तर साधना में लगे हुए योगियों में से कौन सा श्रेष्ठ है? सगुण-साकार भगवान् के वे रुप जो उन्होंने विभिन्न अवतारों में ग्रहण किये थे और जिस स्वरुप से वे अपने दिव्य धाम में विराजमान हैं, में आस्था रखने वाला साधक; जो भगवत्भक्ति, जप-तप, स्मरण-चिन्तन, उपासना में पूर्ण रुप से तल्लीन हो जाता है, तो उसे अन्य किसी वस्तु, क्रिया, ध्वनि-आवाज, विघ्न-बाधा आदि का भान-आभास नहीं होता अथवा अविनाशी सच्चिदानन्दघन परब्रह्म निर्गुण-निराकर के वाचक अक्षर, में आस्था रखने वाला साधक? साकार और निराकार, सगुण और निर्गुण दोनों रुपों की परस्पर तुलना में कौन श्रेष्ठ है, यही अर्जुन की जिज्ञासा है?
Arjun had been listening to the words spoken by the Almighty with astute attention & concentration. He had been analysing them side by side. He wanted to be clear about the form of worship which was better amongest the two. The worship with form and characteristics or without form and characteristics!? In either of the cases the worshipper is so deeply involved in the thinking, meditation, concentrating in the Almighty that he does not hear any sound around him.
श्रीभगवानुवाच ::
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः॥12.2॥
मुझ में मन को लगाकर नित्य प्रतिदिन, निरन्तर मुझ में लगे हुए जो भक्त परम श्रद्धा से युक्त होकर, मेरी सगुण-साकार रुप में उपासना करते हैं, वे मेरे मत में सर्वश्रेष्ठ योगी हैं। 
One, the steadfast devotee, who fixes his mind (psyche, innerself, mind, heart and soul) in HIM and who worship HIM with supreme faith & devotion having characteristics and  form, are HIS best devotees-Yogis in HIS opinion.
परमात्मा की राय है कि मनुष्य का मन वहीं लगता है, जहाँ प्रेम होता है और जिससे प्रेम होता है, उसका चिन्तन स्वतः होता है। साधक को चाहिए कि वह स्वयं-समग्र को (मन, बुद्धि, हृदय, आत्मा सहित) परमात्मा में लगाये। जब उसमें परमात्मा के प्रति श्रद्धा होगी, तो मन स्वतः प्रेम सहित उनमें लग जायेगा। परमात्मा अपना मत प्रकट करते हैं, क्योंकि विद्वान व्यक्तियों के अलग-अलग परिस्थियों, देश, काल में मत पृथक हो सकते हैं और मनुष्य उनके कथन का अपनी-अपनी बुद्धि के अनुरुप अर्थ करते हैं। उनकी दृष्टि में परमात्मा का ध्यान-मनन, चिन्तन साकार (राम, कृष्ण, विष्णु आदि) और सगुण रुप में सर्वश्रेष्ठ है। 
The Almighty opined that it was best process for the Yogi-practitioner to adopt HIS worship with a form and possessing characteristics through meditation concentrating his mind, energies, heart and the soul. (This is why we prefer a statue-idol, picture of the Almighty to concentrate-meditate in HIM). One develops love for such things-entities which are best in his opinion (as per his own taste, liking). Faith generates love and devotion in HIM. The opinion of the Almighty is Ultimate, Supreme, Absolute, yet enlightened give different interpretations of HIS words according to their own bent of mind, situation, country and the time-cosmic era. 
The ignorant might also give several versions-interpretations of what has been said by the God to bluff themselves and the general public, simultaneously. This is the reason why the Hindu, "Ary" i.e., one following Sanatan Dharm, prefers an image of the God as an idol-statue, picture etc. The relics of Sanatan Dharm are found all over the world including China, Europe, Arab Countries and America; but the ignorant prefer to reject them and sway by the opinion of the mischievous preachers, world wide.
It has been observed that some Muslims in India are propagating false notions, meanings, interpretations of Hindu scriptures. The Britishers-Christians too indulged in pressing forward grossly misconceived-wrong interpretations, which are biased. At present Christian missionaries are busy in converting Hindus by giving false meanings of Hindu scriptures to the ignorant.
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥12.3॥
संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥12.4॥
और जो अपने इन्द्रिय समूह को भली-भाँति वश में करके चिन्तन में न आने वाले, सब जगह परिपूर्ण, देखने में न आने वाले, निर्विकार, अचल, ध्रुव, अक्षर और अव्यक्त मुझ परब्रह्म परमेश्वर की तत्परता से उपासना करते हैं, वे प्राणिमात्र के हित में प्रीति रखने वाले और सब जगह सम बुद्धि वाले मनुष्य मुझे ही प्राप्त होते हैं।
The Almighty asserted that those who control their senses completely-thoroughly and worship with promptness (quickness, readiness, swiftness, zeal) the invisible-formless, inconceivable, omnipresent-immovable, Dhruv (aligned at one particular position), non consumable, unrevealed and have love & affection for the benefit of the creatures-organism with equanimity, attain HIM-the Almighty.
प्रभु की उपासना साकार-निराकार दोनों ही स्वरुपों में उपासकों के द्वारा की जाती है। इन्द्रिय संयम निर्गुण-तत्व की उपासना में ज़रूरी-सहयोगी है। निर्गुण उपासना और कर्मयोग में चिंतन का कोई आधार, सम्बल, सहारा नहीं होता, जिससे मन विषयों की ओर झुक-मुड़ सकता है। इन्द्रियों को वश में करके, अन्तर्मन-अन्तःकरण से राग को खत्म करना जरूरी है। सगुण उपासना में इन्द्रियाँ भगवान् में लग जाती हैं। क्योंकि सगुण स्वरूप में इन्द्रियों को विषय प्राप्त हो जाते हैं। ब्रह्म, मन और बुद्धि का विषय नहीं है और प्रकृति से परे है। परमात्मा को स्वयं करण-निरपेक्ष ज्ञान से ही जाना जाता है। सर्वव्यापी होने के कारण, वह सीमित मन, बुद्धि, इन्द्रियों से ग्रहण नहीं किया जा सकता। वह चिन्मय सर्वत्र परिपूर्ण है। उसका वर्णन संकेत, भाषा, वाणी से सम्भव नहीं है। वह एक रस, निर्विकार और निर्लिप्त है। उसमें किञ्चित मात्र भी परिवर्तन संभव नहीं है। अतः वह कूटस्थ (जिसे घड़ा न जा सके) है। वह ब्रह्म, अटल, अविचल है। उसकी सत्ता निश्चित और नित्य है, अतः ध्रुव है। उसका कभी विनाश नहीं होता, अतः अक्षर है। वह मन, बुद्धि, इन्द्रियों का विषय न होने से अव्यक्त है। शरीर सहित सम्पूर्ण पदार्थों और कर्मों में वासना तथा अहंकार का अभाव तथा भावरूप सच्चिदानन्द घन परमात्मा में अभिन्न भाव से नित्य-निरन्तर दृढ़ स्थित रहना ही उपासना करना है। मनष्य जब शरीर, धन, सम्पत्ति आदि पदार्थों को अपना न मानकर दूसरों की सेवा में लगा देता है, तो उसकी आसक्ति, ममता, कामना, स्वार्थ भाव का स्वतः त्याग हो जाता है। क्योंकि निर्गुण-निराकार परमात्मा सम है, अतः उसके उपासकों की बुद्धि सम्पूर्ण प्राणी-पदार्थों में भी विषम नहीं होती। निर्गुण और सगुण दोनों ही परमात्मा के स्वरूप हैं। सगुण उपासना सरल और निर्गुण उपासना थोड़ी कठिन है। 
The Almighty is worshipped through both means :- with form and without form. When one opts for characteristics less worship, he has to resort to control of senses, mind, intelligence. Characteristics less worship and Karm Yog do not have means to support meditation, which allows the thoughts to deviate towards the consumption-worldly affairs. When one adopts worship supported by one or the other form of the God, he has a means to help, restrain his mind and energies towards the Ultimate. This makes the utilisation of his thoughts, mind, intelligence and the senses. The Brahm is not the subject of mind or intelligence. HE is away from nature. The God can be understood, recognised, identified through absolute enlightenment, independent from the sense organs. HE is pervaded-eternal all over the universe, therefore HE can not be grasped, understood, identified through mind and intelligence. HE constitutes of pure intelligence, Supreme consciousness and is pervaded or permeated by consciousness. Its not possible to describe HIM through words, language, symbols etc. HE is unilateral, stable, unattached, untainted. HE never undergoes a change. HE can not be cast or given a specific shape. HE is Brahm, absolute and unchangeable. HIS authority is absolute. HE never perishes-disintegrate. HE is Dhruv-fixed, helps in gaining direction. HE never degenerate-degrade. HE is not the subject of ideas, thoughts and therefore, remain unrevealed. Absence of lust, sensuality, sexuality, passion lasciviousness, in the body, material world and the ego; undifferentiated-undivided devotion to HIM, continuously-regularity in HIS worship, is essential. When one discards money, belongings for the service of the society, others, mankind by considering them to be meant for the service of the mankind, he is detached, his selfishness, attachments, desires are lost. The Almighty is even, same, equal for all. HIS devotees cannot have distinguishable thoughts about others. They attain equanimity. Form less and with form; both are the features of the God. Its a bit difficult to worship HIM in formless state as compared to with form.
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते॥12.5॥
अव्यक्त में आसक्त चित्त वाले उन साधकों को कष्ट अधिक होता है; क्योंकि देहाभिमानी के द्वारा अव्यक्त-विषयक गति कठिनता से प्राप्त की जाती है। 
The practitioner who has interest in the formless (the impersonal, unmanifest) Absolute form of the Almighty has to undergo more pain-difficulty, since one who has pride in having a figure-body realises accomplishment with difficulty.
निर्गुण उपासना को श्रेष्ठ मानकर भी उपासक का ध्यान (बुद्धि, मन, चित्त) निर्गुण तत्व में आविष्ट नहीं हुआ है, जिसके लिये रुचि, विश्वास और योग्यता-पात्रता नितान्त आवश्यक है, क्योंकि उनमें वैराग्य में कमी और देहाभिमान शेष हैं। उनमें निर्गुण के प्रति आसक्ति है, जो कि देह का गुण है, अव्यक्त का नहीं। ऐसे साधकों को निर्गुण उपासना में कठिनाई अधिक होती है, क्योंकि निर्गुण उपासना में देहाभिमान ही मुख्य बाधा है। निर्गुण-निराकर ब्रह्म ही अव्यक्त है। देह के सम्बन्ध ही जीव और ब्रह्म की एकता में प्रमुख बाधा है। 
The practitioner considers the worship of the God as formless entity, better. But his mind has been aligned with that method for want of interest, faith and ability for lack of detachment leading to ego-pride of being in possession of the human incarnation-material object, a component of nature. He has attraction for that form of worship which does not involve characteristics-qualities of the God. They are unable to forgo the pride of being an individual. This makes it difficult to concentrate in the Almighty. The characteristics free from of the GOD is undefined and is Brahm. The physical-material connection of the individual is main hurdle in this form of worship.
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्न्यस्य मत्पर:।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते॥12.6॥
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥12.7॥
जो साधक मुझे परब्रह्म परमेश्वर मानकर अपना पूरा ध्यान मुझ में लगाते हैं; हे पार्थ! मुझ में आविष्ट चित्त वाले उन भक्तों का मैं मृत्युरुप संसार सागर से शीघ्र ही उद्धार करने वाला बन जाता हूँ। 
The worshipper who channelize his complete energy in ME considering ME as the sole, Supreme-Ultimate goal, worshiping ME and meditating in ME with exclusive devotion, O Parth! I become his rescuer from the universe-world, pervaded, influenced-synonymous with death.
श्री भगवान् ने अर्जुन को पार्थ कहकर सम्बोधित किया और कहा कि संसार सागर मृत्युरूप है। यहाँ जो उत्पन्न हुआ है, उसे नष्ट होना ही है। जो पैदा हुआ है, उसे मरना ही है और जन्म-मृत्यु की पुनरावृत्ति भी कर्मों के अनुरुप होगी ही। जो व्यक्ति मोह, ममता, कामना, राग-द्वेष, परिस्थितियों के बन्धन में बँधा है, उसकी मुक्ति सम्भव नहीं है। ऐसा साधक जिसका लक्ष्य, उद्देश्य, ध्येय केवल भगवान् ही हैं और जिन्होंने प्रेमपूर्वक अपना ध्यान-मन परमात्मा में ही लगा दिया है, उनका उद्धार परमात्मा स्वयं कर देते हैं। 
The God made it clear to Arjun, addressing him as Parth that the world-universe is pervaded by death. Who so ever is born, will have to die! One has to get repeated incarnations depending upon his deeds in the present and previous births. The human being is tied with the world due to his desires, attachments, affections, situations etc. which prevent his release from it. One who has got the asylum-protection, shelter under the God with love, with the only goal-target of achieving the Ultimate is rescued by the Almighty HIMSELF.
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय। 
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः॥12.8॥ 
तू मुझ में ही मन को लगाकर और मुझ में ही बुद्धि को प्रविष्ट कर, इसके बाद तू मुझ में निवास करेगा, इसमें सन्देह-संशय नहीं है। 
The Almighty directed Arjun to channelize his mind-brain into HIM and concentrate his intellect into HIM through meditation-concentration and contemplation and assured him that he will  reside in HIM, 
thereafter without any doubt.
परमात्मा ने अर्जुन को निर्देश दिया कि वे उन्हें अपना सबसे प्रिय मानकर, अपना मन-चित्त उनमें लगायें। अपनी बुद्धि को पूरी तरह भगवान् के श्री चरणों में लगा दें। यह निरन्तर ध्यान-मनन और चिन्तन के द्वारा संभव है। इससे उनको स्वतः परमात्मा से अपना नित्य सम्बन्ध महसूस होने लगेगा। मनुष्य भगवत्प्राप्ति के दृढ़ उद्देश्य से ऐसा करे तो उसे सफलता अवश्य मिलती है। उसका मन भोग, विलास, आमोद-प्रमोद, कामना-ममता, मान-सम्मान, बड़ाई-तारीफ़, अहंकार-घमण्ड से हट जाता है। उसकी स्मृति में स्वयं भगवान् निवास करते हैं। परमात्मा ने अर्जुन को आश्वस्त किया कि इससे निसन्देह उनका प्रभु में स्थाई निवास सुनिश्चित हो जायेगा अर्थात मोक्ष-मुक्ति की प्राप्ति हो जायेगी। 
यह हर साधक, तपस्वी, भक्त पर लागू होता है। 
The Almighty guided Arjun to put all his efforts by considering HIM to be HIS most affectionate being-entity, through meditation, thinking, concentration. This is possible by penetrating the intelligence using mind-brain (psyche, mood, innerself)  and efforts into the God. Think of the God and nothing else. One has to make firm decision to commit himself to the Almighty and he will find himself under HIS asylum-patronage. One will experience nearness to the God. His mood, choices, gestures will deviate away from consumption-comforts, recreation-pleasure, desires-attachments, appreciation, ego-pride etc. He will attain equanimity towards these attitudes-flirtations. The God will reside in his soul, heart & memory. The Almighty has assured that one who practice this, attains HIS abode permanently.
This is applicable to every devotee, Tapasvi and the practitioner meditating in HIM.
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्। 
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनंजय॥12.9॥ 
अगर तू अपने चित्त (मन-बुद्धि) को अचल भाव से मुझ में अर्पण-स्थिर करने में समर्थ नहीं मानता, तो हे धनञ्जय! अभ्यास योग के द्वारा तू मेरी प्राप्ति की इच्छा कर।
The Almighty addressed Arjun as Dhananjay and advised him to practice spiritual discipline, if he was unable in controlling-stabilising his mood, mind, gestures and desire to attain HIM. 
परमात्मा ने अर्जुन को धनञ्जय कहकर पुकारा और उपदेश दिया कि वे अपने चित्त (मन और बुद्धि) को अभ्यास योग के द्वारा उनमें केंद्रित करें। इससे चित्त, मन, बुद्धि अचल भाव से उनमें लग जायेंगे। योग अभ्यास समता का द्योतक है। भगवत्प्राप्ति के हेतु किया गया भजन, कीर्तन, नाम, जप-तप, भजन-कीर्तन, शास्त्रों का अध्ययन अभ्यास योग है। साधक जब भगवत्प्राप्ति के ध्येय-उद्देश्य से दृढ़ धारणा करके, अन्य सभी संकल्पों का त्याग कर देता है, तो उसका मार्ग सरल हो जाता है। अनन्य भक्ति से साधक के हृदय में भगवान् के प्रति  अनुराग हो जाता है और वो उनके बगैर नहीं रह सकता। इस स्थिति में भगवान् भी उसके बगैर नहीं रह सकते।
The Almighty called Arjun as Dhananjay and asked him to channelize his energy in HIM through concentration, meditation and rigorous practice. The human brain is very active (fertile, uncontrolled and roam in all possible directions) and deserve to be saddled. Intelligence and prudence help him in controlling it. The practice added with Yog like recitation of God's names, prayers, ascetic practice etc. paves the way. He has to take firm decision not to deviate under any circumstances and continue with his endeavour to attain the Almighty, leading to affection and love for HIM. It results in growth-development of mutual love, since the God always reciprocates love of the devotee-practitioner. Slowly and gradually the devotee starts rejecting allurements-desires and sets his eyes on the achievement of God, only. Now, he reaches a stage when he cannot live without the Almighty. His intense desire opens up vistas of Salvation-emancipation for him and ultimately he achieves the Ultimate-the God.
अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव। 
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि॥12.10॥ 
अगर तू अभ्यास-योग में अपने को असमर्थ पाता है, तो मेरे लिये कर्म करने को परायण हो जा। मेरे लिये कर्मों को करता हुआ भी तू सिद्धि को प्राप्त हो जायेगा। 
The Almighty gave an alternative to Arjun that if he found it difficult to adopt Abhyas Yog-practice of Yog of any spiritual discipline, then he could resort to intent on performing his duty just for HIM. He should attain perfection by doing his prescribed duty for the God, without any selfish-personal motive, just as an instrument to serve and please the God. 
भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन को कहा कि यदि उन्हें (मनुष्य-साधक को) अभ्यास योग में दिक्क्त-परेशानी महसूस होती हो, तो वे वर्णाश्रम धर्म, लौकिक कर्म और भजन-कीर्तन, ध्यान, नाम-जप आदि पारमार्थिक कर्मों को सांसारिक भोग से हटाकर केवल भगवत्प्राप्ति में लगायें। भोग और संग्रह से स्वयं को मुक्त करें। भगवान् में ध्यान लगने से धीरे-धीरे साधक की तीव्रता-उत्कंठा बढ़ती जाती है। उसका उत्साह बढ़ता जाता है। उसकी पूरी समझ, सामग्री, प्रयास, सामर्थ्य और समय भगवत्प्राप्ति में लग जाते हैं। अभ्यास योग की अपेक्षा क्रियाओं को भगवान् को अर्पण करना आसान है।
The Almighty suggested to Arjun (humans, devotees, practitioners, ascetics) that if he found it difficult to perform Abhyas Yog, he could resort to Varnashram Dharm, completion of his duties with dedication, recitation of Gods names & prayers-worship dedicated to HIM, ascetic deeds and channelize himself from consumption and accumulation to the God. The concentration and meditation will increase his intensity and interest in the Almighty and he is encouraged to move further-closer to the Almighty. All his efforts, wealth, time and strength are spent in achieving-attaining the eternity. Performances according to scriptures are easier as compared to Abhyas Yog. 
One should adopt virtues, honesty, truthfulness, righteousness, piousity in his daily routine, perform his homely duties rigorously, honestly and keep on remembering the God as and when he has free time. Surrender  himself to the dictates of the Almighty and avoid sinful acts. Reject wicked vicious-sinful, company and be devoted to God.
अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः। 
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्॥12.11॥ 
अगर मेरे योग (समता) के आश्रित हुआ तू इस को भी करने में असमर्थ है, तो मन-इंद्रियों को वश में करके सम्पूर्ण कर्मों के फल की इच्छा का त्याग कर। 
The Almighty suggested another alternative to Arjun that if he found Abhyas Yog to be difficult, he could control his senses and the mind (& heart, psyche, reflections, gestures) and reject the desire for the reward of his deeds having surrendered to HIM with equanimity. 
भगवान् श्री कृष्ण ने पहले कहा कि उनकी प्राप्ति के लिये सम्पूर्ण कर्मों को उनके लिये करो। यह भक्ति योग है। अब भगवान् ने अन्य उपाय में कर्मों के सम्पूर्ण फलों का त्याग करना है जो कि कर्म योग है। आत्म संयम के बिना कर्म फल त्याग असम्भव है। फल की इच्छा के त्याग के साथ मनुष्य का संसार से सम्बन्ध भी मिट जायेगा। इन्द्रिय संयम से कर्मों का विस्तार नहीं होगा। मन, बुद्धि, इन्द्रियों के संयम से विषयों का चिन्तन नहीं होगा और फिर उनमें आसक्ति का तो सवाल ही नहीं पैदा होता। सर्व कर्मों में यज्ञ, दान, तप, सेवा और वर्णाश्रम धर्म भी आते हैं, जिनमें जीविका और शरीर निर्वाह भी शामिल है। अतः मनुष्य को कर्म फल में ममता, कामना, वासना, आसक्ति का त्याग करना है, जो कि पूरी तरह सरल और बेहद आसान हो सकता है। फलासक्ति का त्याग यह सुनिश्चित करता है कि व्यक्ति अकर्मण्य नहीं है, अपितु अपने कर्तव्य का निष्ठा पूर्वक निर्वाह कर रहा है। कर्म फलासक्ति का त्याग ही सात्विक त्याग है। इससे क्रियाओं का वेग शान्त हो जाता है और पहले की आसक्ति मिट जाती है। व्यक्ति यह सुनिश्चित करें कि उसके राग द्वेष भी मिट रहे हैं। इच्छा आसक्ति मिटते ही, कर्मों से सम्बन्ध स्वतः नष्ट हो जाता है।
The Almighty always stresses over the completion of one's inherited duties with firm faith and determination. He just ask the individual to reject the desire for the reward, which is binding. The loss of motive for reward-fruit, detaches him with the living world. When the individual controls his senses, mind & heart, further extension of deeds (motives, desires) will stop. The ultimate stage of contemplation-satisfaction is attained-reached. The mind, intelligence and the senses will not drag him to consumption (comforts, luxuries, enjoyments, pleasure seeking etc.) and further actions (endeavours, goals, targets, materialistic achievements). Here the stress is over the rejection of the desire-attachment for worldly possessions. The duties-actions include service of the mankind, donations, holy sacrifices into fire, rituals asceticism and the Varnashram Dharm, which should not be abandoned under any circumstances. The actions are a must but desire for favourable output is undesirable-uncalled for. Working smoothly for the family, self, society, nation; resolves his passion for more and more activity. Here one should ensure that he perform the job without envy or attachment. Loss of attachment automatically relinquishes him from the reward-out come of the actions.
Its extremely difficult to restrain the brain & senses. But regular practice and devotion to the God helps in it as well.
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते। 
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्॥12.12॥ 
अभ्यास (कर्मकाण्ड) से शास्त्र ज्ञान श्रेष्ठ है, शास्त्र ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से भी सब कर्मों के फल की इच्छा-आसक्ति का त्याग श्रेष्ठ है, क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शान्ति प्राप्त हो जाती है। 
The transcendental knowledge of scriptures is better than mere ritualistic practice; meditation is better than-superior to scriptural knowledge; renunciation of selfish attachment to the rewards-fruits of work (deeds), is better than meditation, since peace immediately follows renunciation of selfish motives. 
भगवान् ने कर्मफल के त्याग को श्रेष्ठ और तुरन्त शान्ति देने वाला कहा है। पिछले श्लोकों में वर्णित चारों ही साधन मनुष्य को स्वतंत्रता से भगवत्प्राप्ति कराने वाले हैं। शास्त्र ज्ञान और तत्व ज्ञान में बहुत अन्तर है। तत्व ज्ञान सभी साधनों का फल है। ज्ञान की तुलना अभ्यास से करते हैं, तो पाते हैं कि इसमें न अभ्यास है, न ध्यान है और न कर्म फल का त्याग है। जिस अभ्यास में न ज्ञान है, न ध्यान है और न कर्म फल का त्याग है, तो ऐसे अभ्यास से तो ज्ञान ही श्रेष्ठ है। आध्यात्मिक ज्ञान से संयुक्त अभ्यास मनुष्य में भगवत्प्राप्ति की अभिलाषा जाग्रत कर सकता है। यहाँ ध्यान शब्द केवल मन की एकाग्रता का वाचक है, न कि ध्यान योग का। इस तरह के ध्यान में शास्त्र ज्ञान और कर्म फल का त्याग नहीं है। ऐसा ध्यान उस ज्ञान की अपेक्षा श्रेष्ठ है, जिसमें अभ्यास, ध्यान और कर्म फल का त्याग नहीं है। ध्यान मन को नियंत्रित करता है, शास्त्र नहीं। मन को नियंत्रित करके साधक जिस शक्ति को प्राप्त करता है, उसका उपयोग वह परमात्मा की ओर बढ़ने में कर सकता है। ज्ञान और कर्म फल त्याग से रहित ध्यान की अपेक्षा ज्ञान और ध्यान से रहित कर्म फल त्याग श्रेष्ठ है। कर्मफल के त्याग में संसार से माने हुए सम्बन्ध का त्याग हो जाता है। यही त्याग का वास्तविक स्वरूप है। जप-तप ध्यान समाधि, मनुष्य स्वयं के लिए सांसारिक सुख के लिए न करे, ताकि उसका सम्बन्ध उससे बने ही नहीं। इस तरह से कर्म फल का त्याग कर देने से मनुष्य को जिस शान्ति की प्राप्ति होती है, वो परम शांति अर्थात भगवत्प्राप्ति है। अभ्यास, शास्त्र ज्ञान और ध्यान तीनों ही करण सापेक्ष हैं, मगर कर्म फल त्याग करण निरपेक्ष है।
The Almighty has said that the rejection of the desire for the rewards of actions-deeds provides immediate relief, solace, peace, tranquillity. The methods described in earlier verses-Shloks (rhymes) are the means of attaining the God, independently. They are capable in themselves. However, the knowledge of scriptures is not enough, unless it is assisted by meditation and devotion to one's duties without the desire-expectation for the rewards. One may rise from the knowledge of scriptures to enlightenment i.e., Tatv Gyan (gist of divinity-eternity); understanding the purpose of birth and our endeavour to seek release thereafter. Tatv Gyan is the ultimate of all efforts, means leading to the Ultimate. Practice of knowledge develops understanding, skill, ability, interest directing one to the God. This type of practice of knowledge-rote memory, learning is insufficient as compared to Dhyan Yog. Mere attainment of knowledge is useless without meditation, practice of meditation and rejection of the desire for reward of actions. The practice which does not materialise into attainment of God is useless. If the knowledge of the scriptures is aided by practice of procedures-methods leading to the attainment of God, it becomes quite useful-effective. When one merely talks of Dhyan-meditation, he is far-far away from Dhyan Yog. The meditation leading to love in God is better than that knowledge free from practice, meditation and rejection of the desire of rewards of actions. Meditation leads to concentration and penetration into the Almighty, which the devotee-practitioner may practice for attainment of the Almighty HIMSELF. Rejection of the desire of the rewards utilised for the deeds leads to detachment from the world and that is the sole aim of worship. One should never utilise the ascetic practice, enchantment of holy verses, meditation, staunch meditation for self. Instead he should make use of them for the benefit of the society-others as a whole (वसुधैव कुटुम्बकम्). This will keep him free from bonds with the world, leading to bliss i.e., the God. Practice, knowledge of scriptures and Dhyan involve the self, while rejection of the desire for the reward of deeds makes one absolute.
वसुधैव कुटुम्बकम् :: यह सनातन धर्म का मूल संस्कार तथा विचारधारा है, जो कि महा उपनिषद सहित कई ग्रन्थों में लिपिबद्ध है। इसका अर्थ है :- धरती ही परिवार है (वसुधा एव कुटुम्बकम्)। 
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
 उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥ 
यह अपना है और यह दूसरे का है, इस तरह की गणना छोटे चित्त वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वाले लोगों की तो (सम्पूर्ण) धरती ही परिवार है।[महोपनिषद् 4.71]
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च। 
निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुखः क्षमी॥12.13॥
संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः। 
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥12.14॥
सब प्राणियों में द्वेषभाव से रहित और मित्र भाव वाला तथा दयालु भी और ममता रहित, अहंकार रहित, सुःख-दुःख की प्राप्ति में सम, क्षमाशील, निरन्तर संतुष्ट, योगी शरीर को वश में किये हुए, दृढ़ निश्चय वाला, मुझ में अर्पित मन-बुद्धि वाला जो मेरा भक्त है, वह मुझे प्रिय है। 
The Almighty told Arjun that a devotee-Yogi, who is free from envy-rivalry, friendship & compassionate, free from attachments-affections & ego-pride, even-minded in pain and pleasure, forgiving and ever content, with subdued mind, with firm resolve, whose mind and intellect are engaged in dwelling upon HIM, who is devoted to HIM, is dear to HIM.
One has to equanimity towards all living beings. 
ऐसा व्यक्ति जो द्वेषभाव से मुक्त है और किसी को भी कोई भी किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचाना चाहता, समस्त क्रियाओं में भगवान् का मंगलमय विधान ही मानता है, प्राणियों के प्रति मैत्री, करुणा का भाव रखने वाला, प्राणियों के प्रति ममता भाव से मुक्त तथा उसकी अपने शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियों के प्रति भी ममता नहीं है, उसकी अपने शरीर के प्रति अहं बुद्धि नहीं है। उसके अन्तःकरण में स्वतः श्रेष्ठ, दिव्य, अलौकिक गुण प्रकट होने लगते हैं, जिन्हें भक्त परमात्मा की कृपा ही मानता है, जिससे वह अहंकार से मुक्त रहता है। वह सुःख और दुःख, प्रतिकूल और अनुकूल परिस्थितियों के प्रति सम भाव रखता है। जिससे उसमें हर्ष-शोकादि विकार उत्पन्न नहीं होते। उसके स्वभाव में अपने प्रति द्वेष रखने वालों, अपराध करने वालों के प्रति भी क्षमा का भाव रहता है। वह सभी प्रकार से संतुष्ट है। वह नित्य-निरन्तर परमात्मा से जुड़ा हुआ होने के कारण योगी है। उसको अपने शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियों पर पूरा काबू है; जिससे वे अनुशासन में हैं। वह भगवान् के प्रति भक्ति भाव में पूरी तरह से दृढ़-अविचलित है।  
साधन के प्रति भक्त में निर्मम और निरहंकार होना बहुत आवश्यक है। इसलिए कर्मयोग, ज्ञान योग और भक्ति योग, तीनों में ही निर्मम और निरहंकार होने की बात कही गई है। जब भक्त के मन, बुद्धि, प्राण पूरी तरह भगवान् में लग जाते हैं, तो भगवान् का उसके प्रति प्रेम स्वाभाविक ही है। 
The individual is free from envy, malice-hate and does not harm anyone. He believes that all auspicious activities that happens around him  are the will of the God. He has pity in his heart for all beings. He has no affection-attachment for anyone-anything. He does not keep concern for the mind, intelligence and his own body as well. He is free from ego & pride pertaining to his body or capabilities of any kind, he possesses. This evolves auspicious divine qualities-traits in him for which he gives the credit to God's will-mercy. This prevents him from ego. He has developed neutrality towards pleasure & pain. This equanimity keeps him free from sorrow or joy. He pardons-forgives one, who has envious-malicious attitude towards him. He is content in himself and is satisfied with whatever he possess i.e., he has due to the kindness of the God. He is a Yogi who is always connected with the God. His body, mind, intelligence and the soul are under his own command & well disciplined. He has firm resolve towards devotion to God. He is rigid and free from ego for being a practitioner of Karm Yog, Gyan Yog and Bhakti Yog towards devotion to the Almighty. This has reciprocated-created love for the Almighty, in him. 
The fact is that if one loves the God he too reciprocates.
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः॥12.15॥ 
जिससे कोई भी प्राणी उद्विघ्न-क्षुब्ध नहीं होता और जो स्वयं भी किसी से उद्विघ्न नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष (ईर्ष्या), भय और उद्वेग (हलचल) से रहित है, वह मुझे प्रिय है। 
The one by whom others are not agitated, disturbed, angered and who himself too is not agitated by others, who is free from joy, envy, fear and anxiety, is also dear to ME.
भक्त जिसके द्वारा-कारण कोई भी व्यक्ति परेशान नहीं होता भी, भगवान् को प्रिय है। उसकी समस्त क्रियाएँ प्राणी मात्र के भले के लिये होती हैं। वह भूल से भी किसी का अनिष्ट करने की चेष्टा नहीं करता। फिर भी कुछ आसुरी स्वभाव के व्यक्ति अपने दोष युक्त स्वभाव के कारण अकारण ही उससे द्वेष-वैर रखते हुए दुःखी रहते हैं। अक्सर दुष्ट लोग भी उसकी संगत में अपना बुरा स्वभाव-व्यवहार बदल लेते हैं। वह किसी के प्रति द्वेष-दुर्भावना नहीं रखता। वह सभी प्रकार के हर्ष-विषाद से मुक्त है। उसमें स्वाभाविक एक रस, विलक्षण और अलौकिक प्रसन्नता-परमानन्द है। उसमें दूसरों के प्रति ईर्ष्या  का अभाव है। उसमें मृत्यु, सांसारिक कारणों यथा चोर, डाकू आदि तथा स्वयं के अन्दर पैदा होने वाले झूठ, कपट, बेईमानी, व्यभिचार, शास्त्र विरुद्ध आचरण और भावों का भी भय-डर नहीं है, क्योंकि वह इनसे निर्लिप्त-दूर है। उसमें गुणों का अभिमान नहीं है और दुर्गुणों-दुराचारों, विकारों से मुक्त है। वह परमात्मा को प्यार करता है और स्वयं भी परमात्मा को प्रिय है। 
The God has described the person whom he likes-loves. One who does not harm, disturb, agitate, anger anyone, is dear to the Almighty. All his actions are for the welfare of the mankind. Still some people envy him due to their own demonic nature. Such people too change their habit-nature, when they come in contact with this type of devotee of the God. He does not nurse ill will (grievances, grudge) for the others. He is free from all kinds of tensions, since he possesses bliss in himself. He does not envy others. He is free from the fear of death, out side deterioration, thieves, dacoits, sinners, wretched and the inner defects. He loves the Almighty and is reciprocated by HIM.
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः। 
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥12.16॥ 
जो अपेक्षा-आवश्यकता से रहित, बाहर-भीतर से पवित्र, चतुर, उदासीन, व्यथा से रहित और सभी आरम्भों का अर्थात नये-नये कर्मों का सर्वथा त्यागी है, वह मेरा भक्त मुझे प्रिय है। 
The Almighty says that one who is needless-free from desires, pious, virtuous, righteous, pure both externally & internally, wise, neutral-has attained equanimity-impartiality, free from anxiety, (botheration, tensions, worries) & who has renounced the doer-ownership ship in all undertakings, endeavours, entrepreneurship etc., such a devotee is dear to HIM. 
भक्त भगवान् को ही सर्वश्रेष्ठ मानकर संसार की किसी भी वस्तु के प्रति खिंचाव-लगाव महसूस नहीं करता। उसका अपने शरीर, मन, बुद्धि और इंद्रियों के प्रति भी अपनापन-लगाव नहीं है। उसमें विषय-वासनाओं, स्पृहा का भी अभाव है। वह भयंकर से भयंकर विपत्ति-परिस्थिति में भी भगवत लीला में रमा रहता है। उसका अविनाशी परमात्मा से कभी वियोग नहीं होता। उसे अपने शरीर निर्वाह की भी चिन्ता नहीं है। उसे तो इसकी भी चिन्ता नहीं है कि भगवान् दर्शन देंगे अथवा नहीं।
उसे परमपिता-परब्रह्म परमेश्वर में लीन होना है। उसके जीवन का एकमात्र उद्देश्य भगवान् को प्राप्त करना है, सो उसने पा लिया है 
वह शान्त, द्वेष रहित, समदर्शी और निस्पृह है। उसकी शरीर में अपनापन अहंता, ममता, मेरा-मैं पन नहीं है। उसका अन्तःकरण पवित्र है। ऐसे भक्तों की चरणरज से तीर्थ भी पवित्र हो जाते  हैं। वह अहंकार से दूर है। अतः वह दक्ष और चतुर है। उसका विवेक जागृत है। वो संसार के प्रति उदासीन, निर्लिप्त, तटस्थ है। वह भेद-भाव से रहित है। उसके चित्त में व्यथा-दुःख, राग-द्वेष, खिन्नता, हलचल, हर्ष-शोक, नहीं हैं। वह परिस्थिति जन्य विकारों से मुक्त है। वो भोग, नए-नवीन उद्यमों से दूर है। वह सिवाए भगवान् के किसी को अपना नहीं मानता। ज्ञान के द्वारा उसकी चित्त, जड़-ग्रन्थि कट गई है। ऐसा भक्त जो पूरी तरह परमात्मा को ही समर्पित है, वो परमात्मा को प्रिय है। 
The devotee considers the Almighty to be Ultimate-Eternal and do not find attachment-attraction towards other things-commodities, events. He has no attachment with his own body, mind, intelligence and the sense organs. He has freed himself from desires, wants, sensuality, passions. He keeps himself involved in the God even in worst possible circumstances-conditions. Practically, he is never separated from the God. He does not worry about his basic needs like food, since he thinks that the God will HIMSELF arrange it. He is under the asylum, shelter, protection of the God. He do not bother whether the God will come and meet him. He is calm, quite, composed, peaceful, neutral, detached, free from envies. He has no pride-ego or attachment for the body. His innerself is calm, quite, pure, pious, virtuous, righteous, honest, truthful. His conscience is pure. The sites of pilgrim becomes pious-pure with the touch of his feet. His sole motive is to attain the God, (Salvation, emancipation, assimilation in God, Liberation) which he has attained. He is skilful, wise and clever in the sense that his goal of reaching the Almighty is fulfilled. His prudence guides him. He is neutral to the world-universe and has developed equanimity towards its inhabitants. He is free from worries, grievances, anxieties-tensions, pleasure-pain, disturbances-distortions. He is not deterred by the adverse circumstances-conditions. He does not involve himself in new ventures, endeavours. He does not consider anyone else his own, except the God. His mind, psyche, mood, gestures and the inertia have been cut off by the enlightenment. He is thoroughly devoted to the Almighty. The Almighty loves him.
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः॥12.17॥ 
जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है और जो शुभ-अशुभ कर्मों से ऊँचा उठा हुआ (राग-द्वेष रहित) है, वह भक्तिमान मनुष्य मुझे प्रिय है। 
One who is free from rejoice, malice (hatred, malevolence, hate, malignity, resentment), grieves, desires, likes, dislikes; who has renounced both the good and the evil and is full of devotion is dear to the Almighty. 
सिद्ध पुरुष में राग, द्वेष, हर्ष और शोक नहीं होते। ज्यों-ज्यों उसकी भक्ति का वेग बढ़ता है, त्यों-त्यों वह संसार से दूर होता चला जाता है और भगवान् से जुड़ता जाता है। अंततोगत्वा भगवान् का साक्षात्कार होने पर उसके सभी विकार पूरी तरह मिट जाते हैं। हर्ष और शोक; राग-द्वेष के परिणाम हैं, जो कि स्वतः कम होते जाते हैं। उसकी कामनाएँ नष्ट हो गईं हैं। भगवत्प्राप्ति के साथ ही सभी विकार खत्म हो जाते हैं। उसके शुभ और अशुभ कर्म भी समाप्त हो जाते हैं। उसका कर्म बन्धन नष्ट हो जाता है। भक्त का भगवान् में अनन्य प्रेम हो जाता है। वह निरन्तर भगवान् का चिन्तन, स्मरण, भजन करता रहता है। इस अवस्था में परमात्मा को प्रिय हो जाता है।
The devotee who has reached the stage of perfection, becomes free from attachments, malice, pleasures or pain. With the increase in his intensity of worship his bonds with the God are strengthened. He becomes closer to HIM and is able to assess-see HIM. Pleasure & pains are the results-outcome of attachments and malice, hatred, malevolence, malignity, resentment, leading to loss, completion, fulfilment of desires. All his defects are removed with the view (face to face) of the God, impact of auspicious and inauspicious deeds, too are finished-over. The bonds-ties evolved due to the impact of endeavours are lost completely. He becomes an unparalleled devotee of the God. He continues with meditation, remembrance and recitation of holy verses of the Almighty. At this stage, he is accepted-adopted by the God with love. 
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः। 
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः॥12.18॥ 
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्। 
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः॥12.19॥
जो शत्रु और मित्र में तथा मान-अपमान में सम है और शीत-उष्ण (शरीर की अनुकूलता-प्रतिकूलता) तथा सुःख-दुःख (मन-बुद्धि की अनुकूलता-प्रतिकूलता) में सम है एवं आसक्ति रहित है और जो निन्दा-स्तुति को समान समझने वाला, मननशील, जिस किसी प्रकार से भी (शरीर का निर्वाह होने, न होने में) सन्तुष्ट रहने वाला तथा शरीर में ममता-आसक्ति से रहित और स्थिर बुद्धिवाला है, वह भक्तिमान् मनुष्य मुझे प्रिय है। 
One who remains balanced-neutral towards friend or foe, in honour or insult-disgrace, in hot or cold (conditions adverse or favourable to the body), in pleasure or pain (conditions favourable or adverse to heart and intelligence); has attained equanimity & is free from attachment; who is indifferent to censure or praise; who is thoughtful, quiet and content with whatever he has; unattached to a place (region, country, house); equanimous (in full control of faculties, perfectly poised and sure of himself, self-contained and dependable; strong and self-possessed in the face of trouble) and full of devotion that person is dear to ME.
राग-द्वेष से रहित सिद्ध भक्त के हृदय में किसी के प्रति शत्रु-मित्र का भाव नहीं रहता। वह अपने आप में पूर्णतया सदैव सम रहता है। मान-अपमान स्थिति जन्य है। भक्त में अहंता और ममता न होने के कारण उसके अन्तःकरण में कोई विकार (हर्ष-शोक) उत्पन्न नहीं होता और अपनी समता की स्थिति को बनाये रखता है। इन्द्रियों का अपने विषयों से संयोग होने पर उसके अन्तःकरण में समता होने से कोई विकार नहीं होता। यही स्थिति उसमें पदार्थों-धनादि की प्राप्ति-अप्राप्ति में सुख-दुःख के प्रति है। अतः प्राप्ति-अप्राप्ति में वह हर्ष-शोक से रहित है। स्वरूप से मनुष्य पदार्थों का संग-साथ छोड़ नहीं सकता, परन्तु वह अपने अन्तःकरण में उनमें आसक्ति, लगाव, जुड़ाव का त्यागकर सकता है। आसक्ति ही प्राणी को कामना, क्रोध, मूढ़ता का शिकार बनाती है। राग-आसक्ति का कारण मैं-पन है, जो मन, बुद्धि, इन्द्रियों और विषयों के प्रति है। विवेक इसको त्यागने में सहायक है। प्राणी का भगवान् से स्वाभाविक लगाव-प्रेम है, जो कि उसमें संसार के प्रति आसक्ति के कारण दबा-ढँका रहता है। भक्त के मन में शरीर के प्रति अहंता-ममता न होने से उस पर निंदा-स्तुति का प्रभाव नहीं पड़ता और इन दोनों में ही उसकी सम बुद्धि बनी रहती है। वह चिंतन-मननशीेल है और बगैर आवश्यकता के व्यर्थ नहीं बोलता। वह शरीर निर्वाह के लिये जो कुछ भी मिल जाये, उसी में सन्तुष्ट है और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितयों में भी सम है। उसकी अपने निवास स्थान में ममता-आसक्ति नहीं है। उसके ह्रदय में परमात्मा के प्रति किसी भी प्रकार की शंका नहीं है। अतः स्थिर बुद्धि है। भगवत्तत्त्व को जानने के लिये उसे किसी प्रमाण, शास्त्र-विचार, स्वाध्याय आदि की ज़रुरत नहीं है। जिस व्यक्ति ने भगवत्भक्ति से स्वयं को भर लिया है, वही भक्तिमान और नर-मनुष्य कहलाने के काबिल है। 
इस प्रकार भगवान् ने सिद्ध भक्त के पिछले 7 श्लोकों में 39 लक्षण बताये हैं। 
The detached-relinquished devotee is free form enmity or friendship towards any one. He is equanimous and self contained. He is neutral to honour or insult. Being free from affections-attachments, he is free from pleasure or pain. He is calm, quite, composed when the sense organs interact with the objects of sensuality-passions. This interaction does not cause any defect-motivation in him. This status is maintained in success or failure in obtaining the worldly possessions, comforts, materials, money-wealth etc. He is free from happiness or disappointment for not having obtained goods for comforts-utility. Its not possible for him to isolate himself from the company of worldly materials, but he can reject the attachment in his heart for them. Attachment causes anger, despair, stupidity which he has to reject. The main reason for attachments is ego (I, my, me, mine) & imprudence,  which connects him to passions, senses, sensuality, sexuality, which can be over come through prudence-intelligence. He has natural attachment-love for the Almighty, which is not revealed due to the worldly attractions. Worldly afflictions keep it masked. He develops neutrality in himself which protects him from praise of rebuke-slur. He maintains his cool towards them. He is thoughtful and analysis & synthesis keep on going in him, which controls his speech. He speaks only when essential and to the point, only. Whatever, he has got for maintaining the body is sufficient for him. He is satisfied and content with whatever he has. He do not store for future. He is equanimous towards the favourable or opposite-adverse conditions. He has no attachment for the place, he lives. He has no doubt about the Almighty in his heart. He do not need any quotations from the scriptures or self study about the existence of God. One has filled himself with devotion & is the true worshipper and deserve to be called a human being.
In this manner the Almighty described 39 qualities, traits, characteristics of the devotees in previous 7 verses to Arjun. One who acquires them is sure to the sail the ocean of this birth successfully.
ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते। 
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः॥12.20॥ 
परन्तु जो मुझ में श्रद्धा रखने वाले और मेरे परायण हुए भक्त, इस धर्ममय अमृत को जैसा कहा है, वैसा ही, भली भाँति सेवन करते हैं, वे मुझे अत्यन्त प्रिय हैं। 
The Almighty Shri Krashn declared that those devotees who are faithful to HIM & have taken shelter-asylum under HIM, perform the way as directed by HIM, sincerely-honestly were dear to HIM. The words spoken by the Almighty are like elixir-nectar and constitutes the gist of human life.
भगवान् ने उन श्रद्धालु साधक भक्तों को अपने प्राथमिक विशेष प्रेम का ग्राहक बताया है, जो सिद्ध भक्तों के श्लोक 13 से 19 तक वर्णित धर्ममय अमृतमय  लक्षणों को आदर्श मानकर साधना करते हैं। परमात्मा ने श्रद्धामय प्रेम के साथ विवेक की उपयोगिता का बखान भी किया है। सिद्ध भक्तों को आदर्श मानकर साधक भक्तों को परमात्मा ने अपने परायण अर्थात भगवत्परायण होने को कहा है। सिद्ध भक्तों के 39 लक्षणों में धर्म (कर्तव्य) का सारांश है। उसे अवगुणों, कुसंगति, असंयम, असाधन, अभिमान, असत्, विकारों का सर्वथा त्याग करना है। दैवी सम्पत्ति, धर्ममय सदगुणों का श्रद्धा पूर्वक पालन करने से भक्त में करुणा का आविर्भाव होने से वह स्वतः सिद्ध भक्तों की श्रेणी में आ जाता है। उसके अवगुण स्वतः नष्ट हो जाते हैं। इन साधन भक्तों को परमात्मा ने अपना अत्यन्त प्रिय कहा है। 
The Almighty has declared those devotees as his ultimate loved ones, who follow the basic-root 39 tenets (सिद्धांत, जड़सूत्र, मत) described in verse 13-19 for the relinquished-detached capable devotees. The God has stressed the need for prudence aided with devotion. These 39 tenets-characteristic are the extract, nectar, elixir, gist of Dharm (religion-duty). He asks the devotees to follow-worship HIM in totality. The devotee has to reject defects, bad company, lack of control, ego, utilisation of bad-improper means, wickedness, malice-slur completely. This will lead him to automatic gain of pity-kindness in his behaviour and he comes in the category of relinquished-perfect devotees. His negativity-bad characters are lost completely. The Almighty recognises such devotees as HIS most loved ones.
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्यायः ॥12॥
इस प्रकार ॐ, तत्, सत्, इन भगवन्नामों के उच्चारण पूर्वक ब्रह्म विद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषदरुप श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में भक्ति योग नामक बारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ। 
In this manner the chapter describing Om, Tat, Sat is completed, in the form of a conversation between the Almighty Shri Krashn and Arjun. It describes the Brahm Vidya & Bhakti Yog.
The God has enlightened & guided me to complete this great treatise along with the blessings of Bhagwan Ved Vyas, Maa Bhagwati Saraswati & Ganesh Ji Maha Raj.
This revision of this chapter on Brahm Vidya & Bhakti Yog, has been completed today i.e., 30.03.2022 at Noida-India by the blessings of the virtuous readers and the kindness, grace of the Almighty.
Let the Almighty grant peace & solace to the devotees of the God.
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)
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