Saturday, April 27, 2013

DHARM धर्म

DHARM-RELIGION धर्म
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
DHARM :: Everything prescribed by the epics-scripters, leading to Sadgati (improvement of Perlok-next birth reincarnation, abode, leading to freedom from rebirth) by undertaking chastity, ascetic, righteous, auspicious, pious acts and rejecting inauspicious acts. Whole hearted efforts, expenses made; devotion of body, innerself, mind and soul, physique, ability, status, rights, capabilities for the welfare of others (mankind, society, world), leading to the welfare of the doer is Dharm.
Dharm promotes worldly endeavours and efforts for Salvation promotes attainment of the Ultimate. Dharm and dutifulness are the two sides of the same coin. Completion of own duties-Varnashram Dharm, leads to Yog & the practice of Yog awards the gist, nectar, elixir, basic truth, theme, central idea automatically, which is the back bone of of Karm & Gyan Yog.
DHARM :: The practice-duty, whose nature is to follow the orders-dictates of the God, justice without partiality, to do all the common interest, which is supervised by the evidentiary evidences and being Vedokt and is acceptable to all human beings, it is called religion. [Aryodshyratnamala, Dayanand Saraswati]
श्रुत्वा धर्म विजानाति श्रुत्वा त्यजति दुर्मतिम्।
श्रुत्वा ज्ञानमवाप्नोति श्रुत्वा मोक्षमवाप्नुयात्॥
शास्त्रों का श्रवण करने से धर्म का ज्ञान होता है और दुर्बुद्धि का नाश होता है, ज्ञान और मोक्ष की प्राप्ति होती है।[चाणक्य नीति 6.1] 
Knowledge of Dharm Shastr comes through listening (understanding, analysing, meditating) to scriptures (sermons, discourses, speeches, preaching by saints-sages, philosophers, scholars, Pandits, learned, enlightened, Guru) leading to loss of wickedness, evils, cruelty and attainment of Salvation-Moksh.
राजा बाहु बलि ने पूर्व जन्म में सत्संग में उपदेशक को सुनने मात्र से ही धर्म में रूचि प्राप्त कर ली। भगवान् अनंत ने सत्संग को तपस्या से भी श्रेष्ठ माना है। 
Explanation of the tenets of scriptures by the narrator Guru makes it easy to grasp. The treatise constitutes of listening, reading, understanding and application in life. Interest in discourses modifies attitude and metamorphosis-transformation to spirituality begins.
Ved, Upnishad, Vedant, Itihas, Bhagwat Geeta, Ramayan, Maha Bharat, Brahmans, Aranyak form the core of Dharm.
धर्म का अर्थ है अपने कर्तव्य-जिम्मेदारी का निर्वाह-पालन। कभी गलत न सोचना और न करना, सभी की भलाई करना, हमेशा चरित्रवान रहे, पूरी ईमानदारी से अपने परिवार का पालन-पोषण करना व हमेशा सच बोलना भी धर्म का ही एक रूप है। जहाँ कहीं से भी मनुष्य को सादा जीवन-उच्च विचार जैसे सिद्धांत मिले, उसे ग्रहण करने की कोशिश करनी चाहिए। यही धर्म का सार है। इससे मनुष्य कभी भी पीछे नहीं हटना चाहिए।
धर्म-परिभाषा :: धर्म के उपादान हैं। वेद, स्मृति, भद्र लोगों का आचार, आत्मतुष्टि; इस शास्त्र के लिए किसका अधिकार है; ब्रह्मावर्त, ब्रह्मर्षिदेश, मध्यदेश, आर्यावर्त की सीमाएँ; संस्कार क्यों आवश्यक हैं; ऐसे संस्कार, यथा :- जातकर्म, नामधेय, चूड़ाकर्म, उपनयन; वर्णों के उपनयन का उचित काल, उचित मेखला, पवित्र जनेऊ, तीन वर्णों के ब्रह्मचारियों के लिए दण्ड, मृगछाला, ब्रह्मचारी के कर्तव्य एवं आचरण; 36, 18 एवं 9 वर्षों का ब्रह्मचर्य; समावर्तन, विवाह; विवाहयोग्य लड़की; ब्राह्मण चारों वर्णों की लड़कियों से विवाह कर सकता है; आठ प्रकार के विवाहों की परिभाषा, किस जाति के लिए कौन विवाह उपयुक्त है, पति-पत्नी के कर्तव्य; नारी-स्तुति, पंचाह्निक; गृहस्थ-जीवन की प्रशंसा, अतिथि-सत्कार, मधुपर्क; श्राद्ध, श्राद्ध में कौन निमन्त्रित नहीं होते; गृहस्थ की जीवन-विधि एवं वृत्ति; स्नातक-आचार-विधि, अनध्याय-नियम; वर्जित एवं अवर्जित भोज्य एवं पेय के लिए नियम; कौन-कौन से मांस एवं तरकारियाँ खानी चाहिए; जन्म-मरण पर अशुद्धिकाल, सपिण्ड एवं समानोदक की परिभाषा; विभिन्न प्रकार से विंभिन्न वस्तुओं के स्पर्श से पवित्रीकरण, पत्नी एवं विधवा के कर्तव्य; वानप्रस्थ होने का काल, उसकी जीवनचर्या, परिव्राजक एवं उसके कर्तव्य; गृहस्थ-स्तुति: राजधर्म, दण्ड-स्तुति, राजा के लिए चार विद्याएँ, काम से उत्पन्न राजा के दस अवगुण एवं क्रोध से उत्पन्न आठ अवगुण (दोष); मन्त्रि-परिषद की रचना, दूत के गुण (पात्रता), दुर्ग एवं राजधानी, पुरुष एवं विविध विभागों के अध्यक्ष; युद्ध-नियम; साम-दान, भेद एवं दण्ड नामक चार साधन; ग्राममुखिया से ऊपर वाले राज्याधिकारी; कर-नियम; बारह राजाओं के मण्डल की रचना; छ: गुण :- संधि, युद्ध-स्थिति, शत्रु पर आक्रमण, आसन, शरण लेना एवं द्वैध; विजयी के कर्तव्य; न्यायशासन-सम्बन्धी राजा के कर्तव्य; व्यवहारों के 18 नाम, राजा एवं न्यायाधीश, अन्य न्यायाधीश; सभा; सभा-रचना; नाबालिगों, विधवाओं, असहाय लोगों, कोष आदि को दने के लिए राजा का धर्म; चोरी गये हुए धन का पता लगाने में राजा का कर्तव्य; दिये हुए ऋण को प्राप्त करने के लिए ऋणदाता के साधन; स्थितियाँ जिनके कारण अधिकारी मुक़दमा हार जाता है, साक्षियों की पात्रता, साक्ष्य के लिए अयोग्य व्यक्ति, शपथ, झूठी गवाही के लिए अर्थ-दण्ड, शारीरिक दण्ड के ढंग, शारीरिक दण्ड से ब्राह्मणों को छुटकारा; तौल एवं तटखरे; न्यूनतम, मध्यम एवं अधिकतम अर्थ-दण्ड; ब्याज-दर, प्रतिज्ञाएँ, प्रतिकूल (बिपक्षी के) अधिकार से प्रतिज्ञा, सीमा, नाबालिग की भूमि-सम्पत्ति, धन-संग्रह, राजा की सम्पत्ति आदि पर प्रभाव नहीं पड़ता; दामदुपट का नियम; बन्धक; पिता के कौन-से ऋण पुत्र नहीं देगा; सभी लेन-देन को कपटाचार एवं बलप्रयोग नष्ट कर देता है; जो स्वामी नहीं है उसके द्वारा विक्रय; स्वत्व एवं अधिकार; साक्षा; प्रत्यादान; मज़दूरी का न देना; परम्पराविरोध; विक्रय-विलोप; स्वामी एवं गोरक्षक के बीच का झगड़ा, गाँव के इर्द-गिर्द के चरागाह; सीमा-संघर्ष गालियाँ (अपशब्द), अपवाद एवं पिशुन-वचन; आक्रमण, मर्दन एवं कुचेष्टज्ञ; पृष्ठभाग पर कोड़ा मारना; चोरी, साहस (यथा हत्या, डकैती आदि के कार्य); स्वरक्षा का अधिकार; ब्राह्मण कब मारा जा सकता है; व्यभिचार एवं बलात्कार, ब्राह्मण के लिए मृत्यु-दण्ड नहीं, प्रत्युत देश-निकाला; माता-पिता, पत्नी, बच्चे कभी भी त्याज्य नहीं हैं; चुंगियाँ एवं एकाधिकार; दासों के सात प्रकार, पति-पत्नी के न्याय (व्यवहारानुकूल) कर्तव्य, स्त्रियों की भर्त्सना, पातिव्रत की स्तुति; बच्चा किसको मिलना चाहिए, जनक को या जिसकी पत्नी से वह उत्पन्न हुआ है; नियोग का विवरण एवं उसकी भर्त्सना; प्रथम पत्नी का कब अतिक्रमण किया जा सकता है; विवाह की अवस्था; बँटवारा, इसकी अवधि, ज्येष्ठ पुत्र का विशेष भाग; पुत्रिका, पुत्री का पुत्र, गोद का पुत्र, शूद्र पत्नी सपिण्ड उत्तराधिकार पाता है; सकुल्य, गुरु एवं शिष्य उत्तराधिकारी के रूप में; ब्राह्मण के धन को छोड़कर अन्य किसी के धन का अन्तिम उत्तराधिकारी राजा है; स्त्रीधन के प्रकार; स्त्रीधन का उत्तराधिकार; बसीयत से हटाने के कारण; किस सम्पात्ति का बँटवारा नहीं होता; विद्या के लाभ, पुनर्मिलन; माता एवं पितामह उत्तराधिकारी के रूप में; बाँट दी जानेवाली सम्पत्ति; जुआ एवं पुरस्कार, ये राजा द्वारा बन्द कर दिये जाने चाहिए; पंच महापाप, उनके लिए प्रायश्चित्त; ज्ञात एवं अज्ञात (गुप्त) चोर; बन्दीगृह; राज्य के सात अंग; वैश्य एवं शूद्र के कर्तव्य; केवल ब्राह्मण ही पढ़ा सकता है; मिश्रित जातियाँ; म्लेच्छ, कम्बोज, यवन, शक, सबके लिए आचार-नियम; चारों वर्णों के विशेषाधिकार एवं कर्तव्य, विपर्ति में ब्राह्मण की वृत्ति के साधन; ब्राह्मण कौन-से पदार्थ न पदार्थ न विक्रय करे; जीविका-प्राप्ति एवं उसके साधन के सात उचित ढंग; दान-स्तुति; प्रायश्चित्त् के बारे में विविध मत; बहुत-से देखे हुए प्रतिफल; पूर्वजन्म के पाप के कारण रोग एवं शरीर-दोष; पंच नैतिक पाप एवं उनके लिए प्रायश्चित्त; उपपातक और उनके लिए प्रायश्चित्त; सान्तयन, पराक, चान्द्रायण जैसे प्रायश्चित्त; पापनाशक पवित्र मन्त्र; कर्म पर विवेचन; क्षेत्रज्ञ, भूतात्मा, जीव; नरक-कष्ट; सत्त्व, रजस् एवं तमस् नामक तीन गुण; नि:श्रैयस की उत्पत्ति किससे होती है; आनन्द का सर्वोच्च साधन है आत्म-ज्ञान; प्रवृत्त एवं निवृत्त कर्म; फलप्राप्ति की इच्छा से रहित होकर जो कर्म किया जाय वही निवृत्त है; वेद-स्तुति; तर्क का स्थान; शिष्ट एवं परिषद्; मानव शास्त्र के अध्ययन का फल।
DHARM :: Everything prescribed by the epics-scripters, leading to Sadgati (improvement of Parlok-next birth-incarnation, abode) by undertaking chastity, ascetic, righteous, auspicious, pious acts and rejecting inauspicious acts. Whole hearted efforts, expenses made; devotion of body, mind and soul, physique, ability, status, rights, capabilities for the welfare of others (mankind, society, world), leading to the welfare of the doer is Dharm.
The practice-duty, whose nature is to follow the orders-dictates of the God, justice without partiality, to do all the common interest, which is supervised by the evidentiary evidences and being Vedokt and is acceptable to all human beings, it is called religion. [Aryodshyratnamala, Dayanand Saraswati]
Dharm promotes worldly endeavours and efforts for Salvation promotes attainment of the Ultimate. Dharm and dutifulness are the two sides of the same coin. Completion of own duties-Varnashram Dharm, leads to Yog & the practice of Yog awards the gist, nectar, elixir, basic truth, theme, central idea automatically, which is the back bone of of Karm & Gyan Yog.
वेद अपौरूषेय, नित्य एवं सर्वोपरि है और वेद-प्रतिपादित अर्थ को ही धर्म कहा गया है।
धर्म के लिए वेद ही परम प्रमाण हैं। उनके अनुसार यज्ञों में मंत्रों के विनियोग, श्रुति, वाक्य, प्रकरण, स्थान एवं समाख्या को मौलिक आधार माना जाता है।[जैमिनि]धर्म की व्याख्या यजुर्वेद में की गयी है। वेद के प्रारम्भ में ही यज्ञ की महिमा का वर्णन है। वैदिक परिपाटी में यज्ञ का अर्थ देव-यज्ञ ही नहीं है, वरन् इसमें मनुष्य के प्रत्येक प्रकार के कार्यों-कर्म का समावेश हो जाता है।
शास्त्रोक्त प्रत्येक कार्य-कर्म यज्ञ ही है। सभी प्रकार के कर्मों की व्याख्या इस दर्शन शास्त्र में है।
धर्म करणीय कर्म के जानने की जिज्ञासा है। कर्म एक विस्तृत अर्थवाला शब्द है जिसके विषय में 16 अध्याय और 64 पादों वाला ग्रन्थ की रचना की गई है।
शास्त्रों में बताया गया विधान जो कि कर्म परलोक में सद्गति प्रदान करता है, वह धर्म है। माँ-बाप, बड़े-बूढ़े, दूसरों की सेवा करना-सुख पहुँचाना, अपने तन, मन, धन सामर्थ, योग्यता, पद, अधिकार, आदि को समाज सेवा में उपयोग करना धर्म है। कुँआ, तालाब, बाबड़ी, धर्मशाला, शिक्षण संस्थान,अस्पताल, प्याऊ-सदावर्त, निष्काम भाव सेवा, आवश्यकतानुसार उदारता पूर्वक खर्च करना और बिना लोभ, लाभ, लिप्सा, लालच, स्पृहा के इन कार्यों को करना आदि धर्म हैं। वर्णाश्रम धर्म और कर्तव्य का पालन धर्म है।
ADHARM :: Use of position-status for inauspicious acts, selfishness, teasing, paining others, cruelty, torture, terrorism, vices, wickedness, snatching others belongings, murder etc. is Adharm. It creates bonds, ties and hurdles for the doer. Scriptures have prescribed-described the various acts an individual should do, depending upon Varnashram, Country, social decorum, convention, dignity and the situation.
अधर्मी ::
दश धर्मं न जानन्ति धृतराष्ट्र निबोध तान्। 
मत्तः प्रमत्तः उन्मत्तः श्रान्तः क्रुद्धो बुभुक्षितः[विदुर नीति 53] 
त्वरमाणश्च लुब्धश्च भीतः कामी च ते दश। 
तस्मादेतेषु सर्वेषु न प्रसज्जेत पण्डितः[विदुर नीति 54] 
मद्यपान से मत्त, विषयासक्त मन वाला होने से प्रमत्त, उन्माद आदि रोग से युक्त उन्मत्त, थका हुआ, क्रोध से युक्त, भूखा, शीघ्रता करने वाला, लोभी, डरा हुआ और दसवाँ कामी, ये दस प्रकार के लोग धर्म को नहीं मानते। इसलिए पण्डित को चाहिए कि इसने सम्पर्क न रखे।
The drunkards, passionate, frantic-frenetic, tired-weak, angry-furious, hungry, one in a hurry, greedy, afraid-feared and the lascivious do not worry about Dharm (virtuous, ethics, dignity). The learned, scholars, prudent should not keep relations-dealings with such people. 
धर्म में कुधर्म, अधर्म, और परधर्म का समिश्रण होता है। दूसरे के अनिष्ट का भाव, कूटनीति आदि, धर्म में कुधर्म हैं। यज्ञ में पशुबलि देना आदि धर्म में अधर्म है। जो अपने लिए निषिद्ध है, ऐसा दूसरे वर्ण, आश्रम आदि का धर्म, धर्म में पर धर्म है। कुधर्म, अधर्म और परधर्म से कल्याण नहीं होता। कल्याण उस धर्म से होता है, जिसमें अपने स्वार्थ तथा अभिमान का त्याग एवं दूसरे का वर्तमान और भविष्य में हित शामिल है।[श्रीमद् भगवद्गीता (3.35)] 
अपने-अपने वर्ण तथा आश्रम के अनुसार मनुष्य जो भी धर्म का अनुष्ठान करते हैं, उसकी सिद्धि इसी में है कि भगवान् प्रसन्न हों। इसलिये एकाग्र मन से भक्तवत्सल भगवान् का ही निरन्तर श्रवण, कीर्तन, ध्यान और आराधना करते रहना चाहिये।[श्रीमद्भागवत 1.2.13-14]
आहार-निद्रा-भय-मैथुनं च समानमेतत्पशुभिर्नराणाम्। 
धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥
अगर किसी मनुष्य में धार्मिक लक्षण नहीं है और उसकी गति-विधी केवल आहार ग्रहण करने, निंद्रा में, भविष्य के भय में अथवा संतान उत्पत्ति में लिप्त है, वह पशु के समान है, क्योंकि धर्म ही मनुष्य और पशु में भेद करता है। 
धर्म के 30 लक्षण :: सत्य, दया, तपस्या, शौच, तितिक्षा, उचित-अनुचित का विचार-ज्ञान, मन का संयम, इन्द्रियों का संयम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, त्याग, स्वाध्याय, सरलता, संतोष, समदर्शी महात्माओं की सेवा, धीरे-धीरे सांसारिक भोगों की चेष्टा से निवृति, मनुष्य के अभिमान पूर्ण प्रयत्नों का फल उल्टा ही होता है-यह विचार धारण करना, मौन, आत्मचिंतन, प्राणियों को अन्न आदि का यथायोग विभाजन-वितरण, उनमें और विशेष करके मनुष्यों में अपने आत्मा तथा इष्टदेव का भाव, संतों के परम आश्रय भगवान् श्री कृष्ण के नाम-गुण-लीला आदि का श्रवण, कीर्तन, स्मरण, उनकी सेवा, पूजा और नमस्कार; उनके प्रति दास्य, सख्यसाथी-प्रेमी, और आत्म समर्पण। ये तीस प्रकार का आचरण, सभी मनुष्यों का परम धर्म है। इसके पालन से सर्वात्मा भगवान् प्रसन्न होते हैं। यह उपदेश प्रह्लाद जी ने अपने बाल्य काल में अपने सहपाठियों को दिया। उन्होंने यह सब नारद जी के मुँख से अपनी माँ को कहते सुना जब वे गर्भ में थे। [श्रीमद्भागवत 11.7.8-12]
धर्म वह है जो मनुष्य को आदर्श जीवन जीने की कला और मार्ग बताता है। केवल पूजा-पाठ या कर्मकांड ही धर्म नहीं है। धर्म मानव जीवन को एक दिशा देता है। विभिन्न पंथों, मतों और संप्रदायों द्वारा जो नियम, मनुष्य को अच्छे जीवन यापन,  प्रेम, करूणा, अहिंसा, क्षमा और अपनत्व का भाव उत्पन्न करते हों वही धर्म हैं।
असुखोदर्क अर्थात जिसका कारण दुःख कारक होता है, उस धर्म को छोड़ देना चाहिए।[मनु]
धर्म-अधर्म का विवेचन करते हुए भीष्म और उसके पूर्व कर्ण पर्व में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं :-
धारणाद्धर्ममित्याहुः धर्मो धारयते प्रजाः।
यत्स्याद्धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः॥[महाभारत शांतिपर्व सत्यानृताध्याय]
धर्म शब्द संस्कृत की 'धृ' धातु से बना है, जिसका तात्पर्य है धारण करना, आलंबन देना, पालन करना। धारण करने योग्य आचरण धर्म है। सही और गलत की पहचान कराकर प्राणि मात्र को सद मार्ग पर चलने के लिए अग्रसर करे, वह धर्म है। जो मनुष्य के जीवन में अनुशासन लाये वह धर्म है। आदर्श अनुशासन वह है, जिसमें व्यक्ति की विचार धारा और जीवन शैली सकारात्मक हो जाती है। जब तक किसी भी व्यक्ति की सोच सकारात्मक नहीं होगी, धर्म उसे प्राप्त नहीं हो सकता है। धर्म ही मनुष्य की शक्ति है, धर्म ही मनुष्य का सच्चा शिक्षक है। धर्म के बिना मनुष्य अधूरा है, अपूर्ण है।
धर्म से ही प्रजा बँधी हुई है। जिससे सबका धारण होता है वही धर्म है। यदि यह धर्म छूट जाए तो समझ लेना चाहिए कि समाज के सारे बन्धन भी टूट गए और यदि समाज के बन्धन टूटे तो आकर्षण शक्ति के बिना आकाश में सूर्यादि ग्रह मालाओं की जो दशा हो जाती है अथवा समुद्र में मल्लाह के बिना नाव की जो दशा होती है, ठीक वही दशा समाज की भी हो जाती है। इसलिए उक्त शोचनीय अवस्था में पड़कर समाज को नाश से बचाने के लिए भगवान् वेद व्यास ने कहा कि यदि अर्थ या द्रव्य पाना हो तो धर्म के द्वारा अर्थात् समाज की रचना को न बिगाड़ते हुए प्राप्त करो और यदि काम आदि वासनाओं को तृप्त करना हो तो वह भी धर्म से ही करो।
ऊर्ध्वबाहुर्विरौम्येषः न च कश्चिच्छृणोति माम्।
धर्मादर्थश्च कामश्च स धर्मः किं न सेव्यते॥[महाभारत]
अरे! भुजा उठा कर मैं चिल्ला रहा हूँ, परन्तु कोई भी नहीं सुनता! धर्म से ही अर्थ और काम की प्राप्ति होती है, इसलिए इस प्रकार के धर्म का आचरण तुम क्यों नहीं करते हो!? 
पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा दोनों ही पारलौकिक अर्थ के प्रतिपादक ग्रंथों के साथ ही धर्मग्रंथ के नाते से "नारायणं नमस्कृत्य" इन प्रतीक शब्दों के द्वारा महाभारत का भी समावेश ब्रह्मयज्ञ के नित्य पाठ में कर दिया गया है।
"धार्यते इति धर्म:" 
जो धारण किया जाये वह धर्म है। लोक परलोक के सुखों की सिद्धि के हेतु सार्वजानिक पवित्र गुणों और कर्मों का धारण व सेवन करना धर्म है। यह मानव जीवन को उच्च व पवित्र बनाने वाली, ज्ञानानुकुल, मर्यादा युक्त पद्यति है। सदाचार युक्त जीवन ही धर्म है। धर्म ईश्वर में दृढ आस्था, विश्वास का प्रतीक है। इसका आधार ईश्वरीय सृष्टि नियम है। यह मनुष्य को पुरुषार्थी बनाकर मोक्ष प्राप्ति की शिक्षा देता है।
वैशेषिक दर्शन के प्रथम दो सूत्र हैं :: 
अथातो धर्म व्याख्यास्याम:॥ 
यतोSभ्युदयनि: श्रेयससिद्धि: स धर्म:॥
जिससे इहलौकिक और पारलौकिक (नि:श्रेयस) सुख की सिध्दि होती है, वह धर्म है।
एष धर्मो महायोगो दानं भूतदया तथा।
ब्रह्मचर्य तथा सत्यमनुक्रोशो धृति: क्षमा।
सनातनस्य धर्मस्य मूलमेतत् सनातनम्
दान देना, प्राणियों पर दया करना, ब्रह्मचर्य व्रत का पालन, सत्य भाषण, करुणा, धैर्य, क्षमा-शीलता, यही धर्म है, यही महान् योग है। ये सनातन धर्म के सनातन मूल है।[महा.आश्वमेधिक पर्व 11.82]
Donation-charity, pity over the living beings, chastity, speaking the truth, compassion, patience, pardon-excuse is Sanatan-Etrnnal Dharm.
धर्म के दस लक्षण ::
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। 
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥[मनुस्मृति 6.92]
संतोष, क्षमा, 
संयम-मन को दबाना, अस्तेय-अन्याय से किसी की वस्तु को न लेना, शारीरिक पवित्रता, इन्द्रियों का निग्रह, धी याबुद्धि, विद्या, सत्य, क्रोध न करना; ये धर्म के दस लक्षण हैं।
Contentment, forgiveness, suppression of mind-self control, abstention from unrighteous appropriating anything (not to snatch, loot, belongings of others), purity-cleaning of the body, coercion of the organs (sensuality, sex, lust), wisdom-prudence, knowledge (learning, enlightenment, Ttv Gyan-Gist of the Supreme Soul), truthfulness and abstention from anger, form the ten tenets, rules for an auspicious life.
धृति-धैर्य :- धन संपत्ति, यश एवं वैभव आदि का नाश होने पर धीरज बनाए रखना तथा कोई कष्ट, कठिनाई या रूकावट आने पर निराश न होना।
क्षमा :- दूसरो के दुर्व्यवहार और अपराध को लेना तथा आक्रोश न करते हुए बदले की भावना न रखना ही क्षमा है।
दम :- मन की स्वच्छंदता को रोकना। बुराइयों के वातावरण में तथा कुसंगति में भी अपने आप को पवित्र बनाए रखना एवं मन को मनमानी करने से रोकना ही दम है।
अस्तेय, अपरिग्रह :- किसी अन्य की वस्तु या अमानत को पाने की चाह न रखना। अन्याय से किसी के धन, संपत्ति और अधिकार का हरण न करना ही अस्तेय है।
पवित्रता (शौच) :- शरीर को बाहर और भीतर से पूर्णत: पवित्र रखना, आहार और विहार में पूरी शुद्धता एवं पवित्रता का ध्यान रखना।
इन्द्रिय निग्रह :- पांचों इंद्रियों को सांसारिक विषय वासनाओं एवं सुख-भोगों में डूबने, प्रवृत्त होने या आसक्त होने से रोकना ही इंद्रिय निगह है।
धी :- भलीभांति समझना। शास्त्रों के गूढ़-गंभीर अर्थ को समझना आत्मनिष्ठ बुद्धि को प्राप्त करना। प्रतिपक्ष के संशय को दूर करना।
विद्या :- आत्मा-परमात्मा विषयक ज्ञान, जीवन के रहस्य और उद्देश्य को समझना। जीवन जीने की सच्ची कला ही विद्या है।
सत्य :- मन, कर्म, वचन से पूर्णत: सत्य का आचरण करना। अवास्तविक, परिवर्तित एवं बदले हुए रूप में किसी, बात, घटना या प्रसंग का वर्णन करना या बोलना ही सत्याचरण है।
अक्रोध :- दुर्व्यवहार एवं दुराचार के लिए किसी को माफ करने पर भी यदि उसका व्यवहार न बदले तब भी क्रोध न करना। अपनी इच्छा और योजना में बाधा पहुँचाने वाले पर भी क्रोध न करना। हर स्थिति में क्रोध का शमन करने का हर सम्भव प्रयास करना।
धर्म का स्वरुप :: धर्म अनुभूति का विषय है। यह मुख की बात मतवाद अथवा युक्तिमूलक कल्पना मात्र नहीं है। आत्मा की ब्रह्मस्वरूपता को जान लेना, तद्रुप हो जाना-उसका साक्षात्कार करना, यही धर्म है। यह केवल सुनने या मान लेने की चीज नहीं है। समस्त मन-प्राण का विश्वास की वस्तु के साथ एक हो जाना-यही धर्म है।[स्वामी विवेकानंद]
वेदों एवं शास्त्रों के मुताबिक धर्म में उत्तम आचरण के निश्चित और व्यवहारिक नियम है :-
आ प्रा रजांसि दिव्यानि पार्थिवा श्लोकं देव: कृणुते स्वाय धर्मणे।
[ऋग्वेद 4.5.3.3]
धर्मणा मित्रावरुणा विपश्चिता व्रता रक्षेते असुरस्य मायया। [ऋग्वेद 5.63.7]
यहाँ पर 'धर्म' का अर्थ निश्चित नियम (व्यवस्था या सिद्धान्त) या आचार नियम है। 
अभयं सत्वसशुद्धिज्ञार्नयोगव्यवस्थिति:। 
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाधायायस्तप आर्जवम्॥ 
अहिंसा सत्यमक्रोधत्याग: शांतिर पैशुनम्। 
दया भूतष्य लोलुप्तवं मार्दवं ह्रीरचापलम्॥ 
तेज: क्षमा धृति: शौचमद्रोहो नातिमानिता। 
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत॥ [गीता 16.1-3]
भय रहित मन की निर्मलता, दृढ मानसिकता, स्वार्थ रहित दान, इन्द्रियों पर नियंत्रण, देवता और गुरुजनों की पूजा, यश जैसे उत्तम कार्य, वेद शास्त्रों का अभ्यास, भगवान के नाम और गुणों का कीर्तन, स्वधर्म पालन के लिए कष्ट सहना, व्यक्तित्व, मन, वाणी तथा शरीर से किसी को कष्ट न देना, सच्ची और प्रिय वाणी, किसी भी स्थिति में क्रोध न करना, अभिमान का त्याग, मन पर नियंत्रण, निंदा न करना, सबके प्रति दया, कोमलता, समाज और शास्त्रों के अनुरूप आचरण, तेज, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, शत्रुभाव नही रखना; यह सब धर्म सम्मत गुण व्यक्तित्व को देवता बना देते है। 
सर्वत्र विहितो धर्म: स्वग्र्य: सत्यफलं तप:। 
बहुद्वारस्य धर्मस्य नेहास्ति विफला क्रिया॥ [महाभारत शांतिपर्व 174. 2]
धर्म अदृश्य फल देने वाला होता है। धर्म मय आचरण का फल तत्काल दिखाई नहीं देता अपितु, समय आने पर उसका प्रभाव सामने आता है। सत्य को जानने (तप) का फल, मरण के पूर्व (ज्ञान रूप में) मिलता है। धर्म आचरण करते हुए कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ता है किन्तु ये कठिनाइयां ज्ञान और समझ को बढाती है। धर्म के कई द्वार हैं। जिनसे वह अपनी अभिव्यक्ति करता है। धर्म मय आचरण करने पर धर्म का स्वरुप समझ में आने लगता है, तब मनुष्य कर्मो को ध्यान से देखते है और अधर्म से बचते हैं। धर्म की कोई भी क्रिया विफल नही होती, धर्म का कोई भी अनुष्ठान व्यर्थ नही जाता। अतः मनुष्य को सदैव धर्म का आचरण करना चाहिए।
भगवान् श्री राम धर्म की जीवंत प्रतिमा हैं। [वाल्मिकी रामायण 3.37.13] 
श्री राम कभी धर्म को नहीं छोड़ते और धर्म उनसे कभी अलग नहीं होता है। [युद्ध कांड 28. 19] 
संसार में धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है। धर्म में ही सत्य की प्रतिष्ठा है। धर्म का पालन करने वाले को माता-पिता, ब्राह्मण एवं गुरु के वचनों का पालन अवश्य करना चाहिए।[भगवान् श्री राम]
यस्मिस्तु सर्वे स्वरसंनिविष्टा धर्मो, यतः स्यात् तदुपक्रमेत। 
द्रेष्यो भवत्यर्थपरो हि लोके, कामात्मता खल्वपि न प्रशस्ता॥
[बाल्मीकि रामायण 2. 21. 58]
जिस कर्म में धर्म आदि पुरुषार्थों का समावेश नहीं, उसको नहीं करना चाहिए। जिससे धर्म की सिद्धि होती हो वहीं कार्य करें। जो केवल धन कमाने के लिए कार्य करता है, वह संसार में सबके द्वेष का पात्र बन जाता है। यानि उससे, उसके अपने ही जलने लगते हैं। धर्म विरूद्ध कार्य करना घोर निंदनीय है। माता सीता भी धर्म के पालन को ही आवश्यक मानती हैं। 
धर्मादर्थः प्रभवति धर्मात् प्रभवते सुखम्। 
धर्मेण लभते सर्व धर्मसारमिदं जगत्॥ [बाल्मीकि रामायण 3. 9. 30]
धर्म से अर्थ प्राप्त होता है और धर्म से ही सुख मिलता है और धर्म से ही मनुष्य सर्वस्व प्राप्त कर लेता है। इस संसार में धर्म ही सार है। माता सीता ने यह उस समय कहा जब भगवान् श्री राम वन में मुनिवेश धारण करने के बावजूद शस्त्र साथ में रखना चाहते थे। बाल्मीकि रामायण में माता सीता के माध्यम से पुत्री धर्म, पत्नी धर्म और माता धर्म मुखरित हुआ है। अतः सीता भारतीय नारी का आदर्श स्वरुप है।
धर्म ईश्वर प्रदत होता है व्यक्ति विशेष द्वारा चलाया हुआ नहीं क्योंकि व्यक्ति विशेष द्वारा चलाया हुआ मत (विचार) होता है अर्थात उस व्यक्ति को जो सही लगा वो उसने लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया और श्रद्धा पूर्वक अथवा बल पूर्वक अपना विचार (मत) स्वीकार करवाया।
केवल हिन्दु धर्म ही ईश्वरीय धर्म है। यह समग्र मानव जाति के लिए है और सभी के लिये समान है। सूर्य का प्रकाश, जल, प्रकृति प्रदत खाद्य पदार्थ आदि ईश्वर कृत हैं  और सभी के लिए समान रूप से उपलब्ध हैं। उसी प्रकार धर्म (धारण करने योग्य) भी सभी मनुष्यों के लिए समान है। 
"वसुधैव कुटुम्बकम्" [वेद]
सारी धरती को अपना घर समझो; consider the whole earth to be a home.
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामया। 
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्॥
सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े।
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः। 
तस्माद्धर्मो न हन्तवयः मानो धर्मो हतोवाधीत्॥[मनु स्मृति]
धर्म उसका नाश करता है जो धर्म का नाश करता है। धर्म उसका रक्षण करता है जो उसके रक्षणार्थ प्रयास करता है। अतः धर्म का नाश नहीं करना चाहिए। धर्म का नाश करने वाले का नाश, अवश्यंभावी है।
मज़हब, मत धर्म के समानार्थक नहीं हैं। 
वेदोSखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम्। 
साधूनामात्मन स्तुतिष्टिरेव च॥[मनु स्मृति 2.6]
सम्पूर्ण वेद और वेदों के जानने वालों (मनु आदि को) स्मृति-शील और आचार तथा धार्मिकों की मनस्तुष्टि, यह सभी धर्म के मूल (धर्म में प्रमाण) हैं। 
Those who have learnt Veds including Manu and other sages (Rishis, Brahm Rishis, Mahrishis, holy men) who carried forward the traditions, principles, laws, rules, ethics, customs, virtuous conduct leading to self satisfaction and the Veds themselves are the proof of the Dharm-religiosity.
यः कश्चित्कस्यचिद्धर्मो मनुना परिकीर्तितः। 
स सर्वोSभिहितो वेदे सर्वज्ञानमयो हि सः॥[मनु स्मृति 2.7]
धर्म के सम्बन्ध में जो कुछ भी मनु ने कहा है वह (पहले से ही) वेद में कहा हुआ है, क्योंकि वे सर्वज्ञ है। 
Whatever has been said by Manu Ji pertaining to Dharm-religiosity, duties-responsibilities already exists in the Veds since Manu Ji was omniscient (सर्वज्ञ, सर्वदर्शी).
Manu Ji extracted the gist of Veds pertaining to the behaviour, interaction, mode of working-functioning of the humans in different cosmic era. Due to self interest-motive the ignorant, imprudent, idiot refuse to accept-follow the dictates of Dharm and suffer.
सर्वं तु समवेक्ष्येदं निखिलं ज्ञानचक्षुषा। 
श्रुति प्रामाण्यतो विद्वान्स्वधमें निविशेत वै॥[मनु स्मृति 2.8]
दिव्य दृष्टि से इन सबको अच्छी तरह देखकर (सोच-विचार कर) वेद को प्रमाण मानते हुए विद्वान् अपने धर्म में निरत रहें। 
The enlightened has to continue with his Dharm-duties in accordance with the tenets of Veds, by meditating, analysing, thinking, understanding, conceptualising thoroughly and viewing through divine vision.
श्रुति स्मृत्युदितं धर्ममनुतिष्ठन्हि मानवः। 
इह किर्तीमवाप्नोति प्रेत्य चानुत्तमं सुखम्॥[मनु स्मृति 2.9]
क्योंकि श्रुति (वेद), स्मृति (धर्म शास्त्र) में विहित धर्मादि को करने वाला मनुष्य इस लोक में कीर्ति को पाकर परलोक में सुख पाता है।
Since, one who follows the Dharm-practices described in the Veds and Smrati gets name, fame, glory, honour and comforts-pleasure in the higher abodes.
श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः। 
ते सर्वार्थेष्वमीमांस्ये ताभ्यां धर्मो हि निर्बभौ॥[मनु स्मृति 2.10]
श्रुति को वेद और स्मृति को धर्म शास्त्र जानना चाहिये, क्योंकि ये दोनों सभी विषयों में अतर्क्य हैं और इन्हीं दोनों से सभी धर्म प्रकट हुए हैं। 
Shruti-revelation should be identified as Veds and the Smrati (memory, tradition) as Dharm-religion, since both of them are beyond argument, reason, controversy, question and all religious practices have emerges from them.
योSवमन्येत ते मुले हेतुशास्त्राश्रयाद् द्विजः। 
स साधुभिर्बहिष्कार्यो नास्तिको वेदनिन्दकः॥
जो द्विजातक (या अन्य कोई भी व्यक्ति) शास्त्र द्वारा धर्म के मूल दोनों (वेद और स्मृति) का अपमान करता है, उसे सज्जनों (gentleman) द्वारा तिरष्कृत किया जाना चाहिये, क्योंकि वह वेद निन्दक होने से नास्तिक है।[मनु स्मृति 2.11] 
The Swarn (upper caste, twice born, higher castes) who insults (defy, dishonour, blaspheme, contempt, slur) the basics of the Dharm-religion namely Veds & the Smrati, deserves to be rebuked-condemned by the gentlemen, since he is a cynic (detractor, backbiter, denigrator, satirist, निंदक, मानवद्वेषी, चुगलखोर, आक्षेपक, निन्दोपाख्यान करने वाला) and such a person is an atheist.  
वेदः स्मृति: सदाचार स्वस्य च प्रियमात्मन:। 
एतच्चतुर्विधं प्राहु: साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्॥
वेद, स्मृति, सदाचार और आत्मा को प्रिय संतोष; ये चार साक्षात् धर्म के लक्षण हैं।[मनुस्मृति 2.12] 
Ved, Smrati, good conduct and satisfaction to the soul are the four characteristics-pillars of Dharm.
अर्थकामेंष्वससक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते। 
धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः॥[मनु स्मृति 2.13]
अर्थ और काम में आसक्त पुरुषों के लिये ही धर्म ज्ञान का उपदेश है। धर्म का ज्ञान प्राप्त करने वालों को वेद ही श्रेष्ठ प्रमाण है। 
The preaching-sermons of Dharm & enlightenment are meant for those who are indulged in earning and sex (Wealth & desire). Those who wish to attain enlightenment Veds are the best proof which gives the guidelines-right direction.
श्रुतिर्द्वैधं यत्र स्यात्तत्र धर्मावुभौ स्मृतौ। 
उभावपि हि तौ धर्मौ  सम्यगुक्तौ मनीषिभिः॥[मनु स्मृति 2.14]
जहाँ पर श्रुतियों में ही विरोध है, वहाँ मनु ने दोनों ही अर्थों को धर्म माना है। महृषियों ने भी दोनों के कहे हुये धर्मों को धर्म माना है। 
In the case of contradictions in the Shruti, Manu decided to consider both the interpretations as Dharm and the Mahrishis too followed him.
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च। 
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च॥[श्रीमद्भगवद्गीता 14.27] 
क्योकिं ब्रह्म का और अविनाशी अमृत का तथा शाश्वत धर्म का और ऐकान्तिक सुख आश्रय मैं ही हूँ। 
The Almighty declared that HE is the basis-support of Brahm, Ambrosia-Amrat, everlasting cosmic order (Dharm) and absolute bliss. 
परमात्मा ने स्पष्ट किया कि ब्रह्म के आधार वही हैं अर्थात निराकार परमात्मा और साकार ब्रह्म वही हैं। भगवान् श्री कृष्ण ही परमात्मा और ब्रह्म हैं। अविनाशी अमृत भी वही हैं, क्योंकि जो अनंत है, वह परमात्मा का रुप ही है। सनातन धर्म-हिन्दु धर्म स्वयं प्रभु हैं। ऐकान्तिक सुख भी परमात्मा ही हैं। जिस प्रकार एक ही जल बर्फ, तरल, द्रव्य, ठोस, वाष्प, बादल, नदी, समुद्र, कुँए के रुप में दिखता है, वैसे ही परमात्मा भी ब्रह्म, अमृत, ऐकान्तिक सुख स्वरुप हैं। 
The Almighty made it absolutely clear to Arjun that HE is the Brahm-God, Ambrosia-Amrat, the eternal religion-Sanatan Dharm, i.e., Hindu Dharm and the Ultimate  Bliss. The manner in which water is seen as ocean, river, glacier, well, cloud, vapours, mist, ice, fog; the God too is seen in various other forms time and again to perpetuate the humanity.
एक एव सुहृद्धर्मो निधनेऽप्यनुयाति यः। 
शरीरेण समं नाशं सर्वमन्यद्धि  गच्छति॥[मनु स्मृति 8.17]
एक धर्म ही ऐसा मित्र है जो मरने पर भी साथ जाता है और अन्य पदार्थ शरीर के साथ नष्ट हो जाते हैं। 
The ethics (Dharm, virtues, righteousness, piousity) is the only friend which accompany the soul even after death in next incarnation and  all other materials are lost-parish with the body.
पादोऽधर्मस्य कर्तारं पादः साक्षिणमृच्छति। 
पादः सभासदः सर्वान्पादो राजानमृच्छति॥[मनु स्मृति 8.18]
अधर्म का चौथा भाग अधर्म करने वाले को, चौथा भाग साक्षी को, चौथा भाग सभासदों को और चौथा भाग राजा को प्राप्त होता है। 
Each of the doer of the crime-sin, the witness in favour of the doer, the judges-council members-jury who pass judgement in favour of the guilty and the king get one fourth of the guilt.
In this manner the king in whose empire injustice prevails is sure to achieve hellsTo be sure most of the present day ministers, parliamentarians are going to hells.
यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च। 
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी॥[श्रीमद्भागवत गीता 18.31]
हे पार्थ! जिस बुद्धि के द्वारा मनुष्य धर्म और अधर्म तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी यथार्थ-ठीक तरह से नहीं जानता, वह बुद्धि राजसी है।
That intelligence (mentality, tendency, inclination-bent of mind), which is not capable of differentiation between Dharm (Religion, religiosity) and Adharm (Non religious, irreligiosity, deeds–actions (pious & sins), ought to be discarded-rejected); what should be done and what should not be done is Rajsik.
शास्त्रों में बताया गया विधान जो कि कर्म परलोक में सद्गति प्रदान करता है, वह धर्म है। माँ-बाप, बड़े-बूढ़े, दूसरों की सेवा करना-सुख पहुँचाना, अपने तन, मन, धन सामर्थ्य, योग्यता, पद, अधिकार, आदि को समाज सेवा में उपयोग करना धर्म है। कुँआ, तालाब, बाबड़ी, धर्मशाला, शिक्षण संस्थान,अस्पताल, प्याऊ-सदावर्त, निष्काम भाव सेवा, आवश्यकतानुसार उदारता पूर्वक खर्च करना और बिना लोभ, लाभ, लिप्सा, लालच, स्पृहा के इन कार्यों को करना आदि धर्म हैं। वर्णाश्रम धर्म और कर्तव्य का पालन धर्म है। जो बुद्धि धर्म-अधर्म, कर्तव्य-अकर्तव्य, भय-अभय, बन्ध-अबन्ध, कार्य-अकार्य, राग-द्वेष,आदि के तत्व को सही तरीके से नहीं पहचान पाती, जिसमें विवेक का अभाव है, वो राजसी है। 
Attachments create defects like favouritism, prejudices, unevenness, in the working of the Rajsik doer. He is unable to justify, judge, differentiate or choose the right action, as per need of the situation. Engagement with attachments and prejudices, create bonds with the world. One fails to understand the world. He should understand this & detach. Once association with the God is established, the devotee becomes his component. This association is generated by Gyan-prudence, love and knowledge. Rajsik mentality turns into Satvik, which identifies the do’s and don's clearly through prudence. Prudence enables him, in the differentiation between Dharm-Adharm, do’s-don’ts, bonds and Salvation.
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। 
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥[श्रीमद्भागवत गीता 18.66]
संपूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर (संपूर्ण कर्तव्य कर्मों को मुझ में त्याग-समर्पण कर) तू केवल मेरी (मुझ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर) शरण में आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा, तू चिंता-शोक मत कर। 
To bring the devotee out of confusion, the Almighty asserts that he should immerse all his prescribed, ordained, Varnashram duties in HIM and come to HIS fore, refuge, shelter, asylum and that HE will take care of the devotee, asks him not to worry, bother, grieve as, HE will liberate, relieve him of all sins. 
जब व्यक्ति किंकर्तव्य विमूढ़ हो कुछ सुझाई न दे रहा, बुद्धि कुंठित हो जाये, हो तो उसे स्वयं को परमात्मा की शरण में अर्पित कर देना चाहिये। वर्णाश्रम धर्म-कर्तव्य कर्म का त्याग स्वरूप से करने के लिये नहीं कहा गया है। धर्म-कर्तव्य का निर्धारण भगवान् के विचार का विषय है मनुष्य का नहीं। मनुष्य यदि अनेकों लोगों से सलाह-मशवरा करेगा तो वो उसे अलग-अलग तरह की सलाह देेंगे और वो अनिर्णय की स्थिति में आ जायेगा। ज्ञान योग, कर्म योग में मुख्य साधन शरणागति है। मनुष्य की बुद्धि, मन, इन्द्रियां, विचार शरीर सभी कुछ प्रभु के अधीन होने पर पाप-भटकाव का डर नहीं रहता। वह निर्भय, नि:शोक, निश्चिंत, निःशंक हो जाता है। उसे चाहिए कि वह इस बात की परीक्षा न करे कि उसके अन्दर क्या परिवर्तन हुआ और न ही ऐसी कोई धारणा बनाये कि वह भगवान् का नहीं है। इनसे उसे अनन्त रस की प्राप्ति होगी जो कि केवल शरणागति से ही सम्भव है। 
Confusion forces the individual to seek advice and protection from the ones, who are superior to him, who assure him to forget everything and get relieved. When a person fails to decide, what is right and what is wrong or what to do what not to do, it’s better for him to either surrender to the situation or the God. He may survive the situation, but surrender to God will ensures protection, added with well being.
Dharm-Religion is synonym to duties assigned to a person by the God. Some of them are part of his natural tendencies, while the others are meant for his survival. No one is advised to give up work. Rejection of prescribed, Varnashram  duties, work-labour for survival leads to nowhere. It’s not possible to be without work, since the body, organs, senses, mind, heart never rests, they continue working till the bearer is alive. Excellence is attained by controlling senses, sensuality, righteous duties, essential functions. Carrying out of duties, does not create bonds, as it’s obligatory to perform them, both for humans and Demigods-deities, for well being-welfare. Continuance of work (both prescribed & mandatory duties) till the last breath, relives the person of the sins. One should not be selfish; he should work for his family, society, country & the world-humanity as a whole.
"वसुधैव कुटुम्बकम्" सनातन धर्म का मूल मंत्र, संस्कार तथा विचारधारा है; जो महा उपनिषद सहित कई ग्रन्थों में लिपि बद्ध है। इसका अर्थ है :- धरती ही परिवार है (वसुधा एव कुटुम्बकम्)। 
अयं बन्धुरयं नेतिगणना लघुचेतसाम्। 
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥ [महोपनिषद्, 4.71]
यह अपना बन्धु है और यह अपना बन्धु नहीं है, इस तरह की गणना छोटे चित्त वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वाले लोगों की तो (सम्पूर्ण) धरती ही परिवार है।
Nature perpetuates due to performance of duties, which ultimately leads to Salvation, if made without attachment. Wise people too work-perform their duties unlike ignorant people. The wise should get work accomplished by the ignorant people, properly.
The Almighty assures the confused devotee, that offering, immersing, submission of deeds in HIM, will absolve him of all responsibilities, as the God HIMSELF has taken over possession, of them for accomplishment. The one who submits himself-surrenders, with all his deeds, ensures his liberation, since the God HIMSELF is goal, as well as means. Whatever, deficiency remains, will be compensated by the God, HIMSELF for the weaknesses of the devotee. Refuge under the God, provides infinite divine elixir of love-pleasure, BLISS that’s why it is the excellent-best possible means to Salvation.
श्वमांसमिच्छनार्तोऽत्तुं धर्माधर्मविचक्षणः।
प्राणानां परिरक्षार्थं वामदेवो न लिप्तवान्[मनुस्मृति 10.106]
धर्म-अधर्म को जानने वाले वामदेव ऋषि ने प्राणों की रक्षा के लिये क्षुधा से आर्त होकर कुत्ते के माँस को खाने की इच्छा की और वे उस पाप से लिप्त नहीं हुए। 
Rishi Vamdev who are aware-enlightened of the gist of Dharm & Adharm was not sully-slurred by sin when he desired to eat the flesh of a dog under the impact of hunger to protect his life.
भरद्वाजः क्षुधार्तस्तु सपुत्रो विजने वने।
बह्वीर्गाः प्रतिजग्राह वृधोस्तक्ष्णो महातपाः[मनुस्मृति 10.107]
निर्जन वन में क्षुधा से पीड़ित महातपस्वी भरद्वाज ऋषि ने अपने पुत्र के साथ वृधु नामक बढ़ई से बहुत सारी गायें माँगी थीं। 
Great ascetic Bhardwaj along with his son asked Vrabhu-a carpenter, many cows when he was stared by hunger in a lonely forest.
क्षुधार्तश्चात्तु मभ्यागाद्विश्वामित्रः श्वजाघनीम्।
चण्डालहस्तादादाय धर्माधर्मविचक्षणः[मनुस्मृति 10.108]
धर्म-अधर्म को जानने वाले विश्वामित्र ऋषि भूख से व्याकुल-आर्त होकर चाण्डाल के हाथ से कुत्ते के जंघे (कुल्हा, रान, नितम्ब) का माँस लेकर खाने को तैयार हो गये। 
Rishi Vishwa Mitr who knew the gist of Dharm-Adharm (right-wrong), agreed to eat the dog's haunch receiving it from a Chandal, tormented by hunger.
DHARM :: The practice-duty, whose nature is to follow the orders-dictates of the God, justice without partiality, to do all the common interest, which is supervised by the evidentiary evidences and being Vedokt and is acceptable to all human beings, it is called religion. [Aryodshyratnamala, Dayanand Saraswati]
धर्म :: जिसका स्वरुप ईश्वर की आज्ञा का यथावत पालन, पक्षपात रहित न्याय, सर्वहित करना है, जो कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सुपरीक्षित और वेदोक्त होने से सब मनुष्यों के लिए एक और मानने योग्य है, उसको धर्म कहते हैं।[आर्योद्देश्यरत्नमाला, दयानंद सरस्वती]



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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)