Monday, April 15, 2013

DIVINITY-SPIRITUALITY अध्यात्म

SPIRITUALITY-DIVINITY
अध्यात्म
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
The root of the word divine is literally Godly i.e., Dev in Sanskrat. It describe supernatural power like a demigod, supreme being, creator, deity or holy spirits and is regarded as sacred and holy. It has transcendental origin. Its attributes or qualities are superior or supreme relative to things of the Earth. Divinity is regarded as eternal and based in truth, while material things are regarded as ephemeral and based in illusion. Such things that may qualify as divine are apparitions, visions, prophecies, miracles and in some views also the soul or more general things like resurrection, immortality, grace and salvation.
श्री भगवानुवाच :- 
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते। 
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः॥
भगवान् श्री कृष्ण ने कहा :- परम अक्षर ब्रह्म और परा प्रकृति को अध्यात्म कहते हैं। परब्रह्म परमेश्वर परमात्मा के द्वारा प्राणियों की सत्ता को प्रकट करना  कर्म है।[श्रीमद्भागवतगीता 8.3] 
Bhagwan Shri  Krishna said: Param Akshar is a manifestation of Brahm-the Almighty (Om, Pranav, Ved, Nature, the eternal and immutable Spirit of the Supreme Being). The creative power of Almighty that causes manifestation of the living entity is called Karm.
परम अक्षर का नाम ब्रह्म है। ब्रह्म को प्रणव, वेद, प्रकृति के लिए भी प्रयोग किया गया है। परम अक्षर सर्वोपरि सच्चिदानन्दघन, अविनाशी, निर्गुण-निराकार परमात्मा का वाचक है। आत्मा का वर्णन-बखान भी अध्यात्म है।स्वभाव के अध्यात्म के साथ आने से यह जीव के होने अर्थात उसके स्वरूप का वाचक बन गया है। समस्त सृष्टि के परमेश्वर में विलय के तदोपरांत पुनः महासर्ग की शुरुआत होती है, जिसे कर्म कहा गया है। महाप्रलय के वक़्त अहङ्कार और सञ्चित कर्मों सहित प्राणियों का प्रकृति में लीन होना, परमात्मा को प्रकृति को क्रियाशीलता प्रदान करने के लिए संकल्प उत्त्पन्न करता है। यही सृष्टि की रचना, फल रहित क्रिया और फल जनक शुभ-अशुभ कर्म के कारक बन जाते हैं। फिर भी सृष्टि रचना का कर्ता होने के बावजूद परमात्मा अकर्ता ही हैं। 
The Almighty is represented by the Ultimate letter vowel "ॐ"-OM, called Brahm. This is used to illustrate the primary sound created at the occasion of the evolution-creation of nature, Veds, the indestructible God-who is without characteristics and form. This is spirituality-mythology and explanation of the characteristics of soul too is spirituality-mythology. Combination of organism-nature with mythology-spirituality becomes his form. At the time of destruction-dissolution, the entire nature and the organisms merge into the Almighty with their characters, tendencies, ego and appear again when evolution takes place. This process is described as Karm (action, activity, deed) performed by the God, which is without ego, indulgence-free from any reward, virtuousness or evilness. Though the Almighty is creating the nature-universe, yet-still he is not the doer-performer, since his indulgence is not there. The organism who had eloped-merged into the Ultimate are reappearing according to the balance of their deeds in previous incarnations.
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥
 हे अर्जुन! तू मुझ में मन वाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझ को प्रणाम कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा, यह मैं तुझ से सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ, क्योंकि तू मेरा अत्यंत प्रिय है।[श्रीमद्भागवत गीता 18.65] 
Hey Arjun! This is my true and solemn promise made to you-the devotee, who worships, offers obeisance and has fixed his mind in me-the Almighty, to accept you-him being dear, in MY-HIS abode. 
साधक को चाहिए कि वह अहंता (मैं पन, घमण्ड, अहङ्कार) से मुक्ति प्राप्त करे। अपितु यह ध्यान करे कि मैं भगवान् का हूँ। इससे उसका मन प्रभु के गुण, लीला, प्रभाव का चिंतन करेगा और भगवत्नाम, जप में लगेगा। जैसे-जैसे भक्त का भगवान् में मन दृढ़तापूर्वक लगेगा त्यों-त्यों, उसमें सेवा-भाव, पूजा-अर्चना की वृद्धि होगी। पूरी तरह से समर्पण का भाव आने से भगवान् उसके दायित्व को अपना लेंगे। वह परम शुद्ध हो जायेगा। उसका प्रकृति से सम्बन्ध टूट जायेगा और वह मोक्ष मार्ग पर आरूढ़ हो जायेगा। 
The Devotee, who got rid of his ego-arrogance, dropped his allegiance with the perishable world, finds belongingness and love for the God, in his innerself. He begins with chanting the names-titles of God, which illustrate various actions-performances of the God, to relieve the mankind of the pains, troubles and difficulties. The God vows, promises and grants highest abodes to the devotee, who offers him prayers-thinks of HIM-chants HIS names-glory.
The devotee has to set his mind in the God. As one thinks, so he becomes (As you sow, shall you reap). Concentration of mind and meditation, absolves him of sins and awards austerity. Paying of obeisance, initiates rapport with the Almighty, which gradually grow. He penetrates the reason behind the happenings, occurrences, birth, rebirth. His intimacy, closeness, friendship with the God grows and metamorphosis takes place. He realises that difficulties, challenges, pains, grief are there to cleanse him of the sins and inauspicious deeds, leading him to extreme-absolute purification and piousness of mind, body, speech, action and soul.
The soul of the creature-devotee belongs to the Supreme soul. It’s utter most endeavour of the Almighty to purify the soul, which has under gone 84,00,000 incarnations-in different species & is still suffering due to his ignorance. God’s love for the devotee, starts guiding him towards spirituality and attainment of the God HIMSELF.
With his birth one start developing allegiance to perishable worldly possessions, in the always changing world, pushes him away from the Almighty, who loves him the most. Realisation of his mistake and reconciliation opens opportunities of Supreme pleasure and love.
चैतन्य अध्यात्म :: ब्रह्म का स्वरूप विशुद्ध आनन्दात्मक है। ब्रह्म विशेष है और उसकी अन्य शक्तियाँ विशेषण हैं। शक्तियों से विशिष्ट ब्रह्म को ही भगवान कहा जाता है।
ब्रह्म, ईश्वर, भगवान और परमात्मा ये संज्ञाएं एक ही तत्त्व की हैं। अचिन्त्य भेदा-भेद वादी आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में जिस तत्त्व को ईश्वर कहा है, वह ब्रह्म ही है। ईश्वर एक और बहुभाव से अभिन्न होने पर भी गुण और गुणों तथा देह और देही भाव से भिन्न भी है। गुण और गुणी का परस्पर अभेद भी माना जाता है, इसलिए ब्रह्म गुणात्मा भी कहलाता है। भेद जल और उसकी तरंगों की भिन्नता के समान है। जगत की उत्पत्ति, स्थिति और लय का आधार भी ब्रह्म ही है। वही जगत का उपादान तथा निमित्त कारण है। 
ब्रह्म की तीन शक्तियाँ मानी गई हैं:- परा, अपरा और अविद्या। परा शक्ति के कारण ब्रह्म जगत का निमित्त कारण है तथा अपरा और अविद्या-माया, शक्ति के कारण ब्रह्म जगत का उपादान कारण माना जाता है। 
अभिव्यक्ति की दृष्टि से ब्रह्म की शक्ति के तीन रूप हैं :- सेवित्, संघिनी और ह्लादिनी। 
ब्रह्म ऐश्वर्य और माधुर्य दोनों से ही युक्त है। कृष्ण के विग्रह को भी ब्रह्म से अभिन्न और कृष्ण को ही परम शक्ति माना गया। ब्रह्म जगत के स्रष्टा के रूप में भगवान् कहलाता है। सत्ता, महत्ता और स्नेह की अवस्थिति के कारण ब्रह्म को ही हरि, नारायण या कृष्ण कहते हैं। जगत की सृष्टि ब्रह्म की अविद्या अथवा माया शक्ति के द्वारा होती है। जगत ईश्वर से भिन्न होते हुए भी उसके अधीन होने के कारण अभिन्न है। जगत भ्रम नहीं अपितु तात्कालिक सत्य है। 
प्रकृति और माया अभिन्न हैं। अत: प्रकृति को ब्रह्म की शक्ति कहा गया है। प्रलय काल में भी प्रकृति की स्थिति सूक्ष्म रूप में बनी रहती है। अत: प्रपंच ब्रह्म से न तो पूर्णतया भिन्न है और न ही अभिन्न। वस्तुत: इनकी भिन्ना-भिन्नतात्मकता अचिन्त्य हैं। 
स्वरूपाधभिन्नत्वेन चिन्तयितुमशक्यत्वाद भेद:, भिन्नत्वेन चिन्तयितुमशक्यत्वादभेदश्च प्रतीयते इति शक्तिमतोभेदाभेददांवंर्गीकृतो तौ च अचिन्त्यौ।
जगत नित्य माना जाये तो कार्य-कारण सम्बन्धों की अवस्थिति नहीं मानी जा सकती। जगत को मिथ्या माना जाये तो मिथ्या से मिथ्या की उत्पत्ति मानना असंगत ही है। जगत अपने मूल-निमित्त कारण, में अव्यक्त रूप से रहता है, उस अवस्था में वह नित्य है, किन्तु व्यक्तावस्था में वह अनित्य है। 
जीव ब्रह्म से पृथक है। यह अणु परिणाम है। जीव में सत्व, रजस् तथा तमस् ये तीनों गुण विद्यमान रहते हैं। ब्रह्म प्रलय के अनन्तर "एकोऽहं बहुस्याम्" की इच्छा से जीव की पुष्टि करता है। जीव अपने स्वरूप को माया के कारण भूल जाता है। जिस प्रकार सूर्य की किरणें सूर्य से पृथक नहीं हैं, उसी प्रकार जीव भी वास्तव में ब्रह्म से पृथक नहीं है, किन्तु अभिव्यक्ति के समय जीव की पृथक सत्ता से इन्कार नहीं किया जा सकता। जीव ब्रह्म की अभिव्यक्ति है, आभास नहीं। भक्ति के द्वारा जीव अपने मूल स्वरूप को प्राप्त कर सकता है। जीव भी अणु चैतन्य है, वह नित्य है। ईश्वर, जीव, प्रकृति और काल ये चार पदार्थ नित्य हैं और इन चारों में से अन्तिम तीन प्रथम के अधीन हैं। इसी कारण जीव को ईश्वर की शक्ति और ब्रह्म को शक्तिमान भी कहा जा सकता है। जीव तत्त्व शक्ति और कृष्ण तत्त्व को शक्तिमान है। 
माया ब्रह्म की परिणाम शक्ति है और उसके दो भेद हैं  :- 
तत्र सा मायाख्या परिणाम शक्तिश्च द्विविधा वर्ण्यते, निमित्ताशो माया उपादानांश: प्रधानम् इति। तत्र केवला शक्तिर्निमित्तम्, तद व्यूहमयी तूपादानमिति विवेक:।
परिणाम शक्ति के निमित्तांश को निमित्त माया और उपादानांश को उपादार्ना माया भी कहा गया है। निमित्त माया के काल, दैव, कर्म और स्वभाव के चार भेद बताये गए हैं और उपादान भाषा में द्रव्य, क्षेत्र, प्राण, आत्मन् और विकार का समावेश माना गया है। 
जीव दो प्रकार के होते हैं :- नित्य मुक्त और नित्य संसारी। 
नित्य मुक्त जीवों पर माया का प्रभाव नहीं पड़ता और ब्रह्म की स्वरूप शक्ति के अधीन वे सदा मुक्त रहते हैं। नित्य संसारी जीव माया के अधीन रहते हैं। ऐसे जीवों के दो भेद होते हैं, बहिर्मुख और विद्वेषी। बहिर्मुख जीवों के दो भेद हैं :- अरुचिग्रस्त और वैकृत्यग्रस्त। माया ग्रस्त जीवों का मोक्ष अनेक योनियों में भ्रमण करने के अनन्तर सत्संग से संभव होता है। ज्योंहि माया ग्रस्त जीव माया के बन्धन से छूटने का उपक्रम करता है, त्यौंहि भगवान्  भी उस पर अपनी कृपा न्यौछावर कर देते हैं।
मुक्ति के पाँच प्रकार :- सालोक्य, सार्ष्टि, सारूप्य, सामीप्य और सायुज्य। भक्ति ही मुक्ति-मोक्ष का साधन है। इन सब मुक्तियों में से सायुज्य को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है। सायुज्य मुक्ति, मोक्ष ही है, यानि जीव की पृथक सत्ता का इस अवस्था में अवसान हो जाता है। जीव का कभी ब्रह्म में विलय नहीं होता, सायुज्य मुक्ति में भी ब्रह्म और जीव का नित्य सहअस्तित्व बना रहता है। जीव के ब्रह्म में शाश्वत विलय का सर्वथा निषेध नहीं किया गया है, किन्तु वे इस प्रकार के विलय से भी अधिक महत्त्व उस स्थिति को देते हैं, जिसमें जीव ब्रह्म के साथ सहअस्तित्व का आनन्द उठाता रहे। किन्तु उस अवस्था में जीव ब्रह्म से भिन्न रहता है या अभिन्न-अचिन्त्य है। 
अचिन्त्य भक्ति को भेदा-भेदवाद के नाम से पुकारा जाता है। अचिन्त्य वह ज्ञान है, जो तर्कगम्य नहीं होता।
अचिन्त्यम् तर्कासहं यज्ञज्ञानम्। अर्थापत्तिगम्य: भिन्नाभिन्नत्वादिविकल्पेश्चिन्तयितुमशक्य: केवलमर्थापत्ति ज्ञानगोचर:। 
वह शक्ति जो असम्भव को भी सम्भव बना दे अथवा अभेद में भी भेद का दर्शन करवा दे, अचिन्त्य कहलाती है। 
दुर्घटघटकत्वम् अचिन्त्यत्वम्। 
पुरुषोत्तम में एकत्व और पृथकत्व अंशत्व और अंशित्व युगपद रूप में रह सकते हैं। जिस प्रकार अग्नि में ज्वलन शक्ति तथा जैसे भगवान् श्री कृष्ण में सोलह हज़ार रानियों के समक्ष एक साथ ही रहने की शक्ति है, किन्तु उसकी कोई तार्किक व्याख्या नहीं की जा सकती, उसी प्रकार अभेद में भेद की सत्ता है, किन्तु उसका तार्किक विश्लेषण नहीं किया जा सकता, वह अचिन्त्य है। 
विशेषबलात् तद् भेद व्यवहारो भवतिविशेषश्च
 भेदप्रतिनिधि: भेदाभावेऽपि तत् कार्य प्रत्याय्यम्।
अभेद में भेद का आधार विशेष ही है और एक प्रकार से विशेष को अचिन्त्य का पर्यायवाची मानने का उपक्रम किया गया है। 
केवल भेदाभेद के विश्लेषण के लिए, अपितु श्रुतियों की व्याख्या के लिए भी अचिन्त्य शक्ति के अस्तित्व को स्वीकार करना आवश्यक है। 
विज्ञानम् आनन्दं ब्रह्म।
निर्विकल्पक ब्रह्म ही एकमात्र परम सत्य है और सम्यक ज्ञान ही उसकी प्राप्ति का एक मात्र साधन है। वही ब्रह्म को सविकल्पक है और भक्ति ही उसकी प्राप्ति का साधन  है।[बृहदारण्यक उपनिषद] 
"ब्रह्म सत्-चित्-आनन्दमय" है। 
निर्विकल्पक प्रत्यक्ष से सत् का ज्ञान होता है। सत् ही चिन्मय है। 
निर्विकल्पक ब्रह्म, सविकल्पक ब्रह्म का अपूर्ण दर्शन है। ब्रह्म केवल भक्तिगम्य है। ब्रह्म सगुण और सर्विशेष है। जीव अणु और सेवक है। जीव की मुक्ति भक्ति से होती है। जगत तात्कालिक-तात्क्षणिक सत्य है। ब्रह्म जगत का निमित्त और उपादान कारण है। जीव और ब्रह्म मुक्तावस्था में भी भिन्न रहते हैं। गुण और गुणी भाव से जीव और ब्रह्म को अभिन्न और भिन्न माना जाता है। ब्रह्म और जीव के बीच दास्य के अतिरिक्त शान्त, सख्य, वात्सल्य और मधुर भाव भी है। ब्रह्म अद्वय ज्ञानतत्त्व है। ब्रह्म अद्वय है, क्योंकि वैसा ही कोई दूसरा तत्त्व ब्रह्माण्ड में विद्यमान नहीं है। भगवान् परम तत्त्व और ब्रह्म को निर्विशेष है। ब्रह्म में शक्तियाँ अव्यक्त रूप से रहती हैं। भगवान् में वे क्रिया शीलता के साथ रहती हैं। 
ब्रह्म ही परमात्मा है। माया शक्ति का सम्बन्ध परमात्मा से ही है। भगवान् का सगुण रूप, अपरिमेय शक्तियों और गुणों से पूर्ण और मान्य है। जीव परमात्मा का शाश्वत अंश है। चैतन्य ने भक्ति को ही मोक्ष का साधन माना है। वस्तुत: भगवान् की प्रीति के अनुभव को ही वे मोक्ष मानते हैं और प्रीति के लिए भक्ति के समान कोई दूसरा साधन नहीं है। भक्ति के द्वारा जीव ईश्वर के समान स्थिति प्राप्त कर लेता है। ईश्वर से अभिन्न तो वह नहीं हो सकता, किन्तु भक्ति के द्वारा जीव को इतना अधिक आन्तरिक सामीप्य प्राप्त हो जाता है कि जीव फिर कभी ब्रह्म के समीप से अलग नहीं होता। भक्ति के लिए गुरु की कृपा भी आवश्यक है। चैतन्य के भक्ति मार्ग में तर्क का कोई स्थान नहीं है। चैतन्य के मतानुसार भक्ति वस्तुत: आध्यात्मिक स्नेह है। ब्रह्म की संवित् एवं द्वादिनी शक्ति का सम्मिश्रण ही भक्ति है। ज्ञान और वैराग्य भी मुक्ति के साधन हैं। भक्ति प्रमुख साधन है। ज्ञान और वैराग्य सहकारी साधन है। ह्लादिनी शक्ति का सार होने के कारण भक्ति आनन्द रूपिणी होती है और संवित् शक्ति का सार होने के कारण भक्ति ज्ञानरूपिणी भी है। चैतन्य के मत में भक्ति एक साधना मार्ग ही नहीं, अपितु ज्ञान और विज्ञान का सार भी है। 
भक्ति मार्ग की तीन अवस्थाएं हैं :- साधन, भाव और प्रेम। इन्द्रियों के माध्यम से की जाने वाली भक्ति जीव के हृदय में भगवत प्रेम को जागृत करती है। इसीलिए इसको साधन भक्ति कहा जाता है। भाव प्रेम की प्रथम अवस्था का नाम है, अत: भक्ति मार्ग की प्रक्रिया में भाव भक्ति का दूसरा स्थान है। जब भाव घनीभूत हो जाता है, तब वह प्रेम कहलाने लगता है। यही भक्ति की चरम अवस्था है और इस सोपान पर पहुँचने के बाद ही जीव मुक्ति का पात्र बनता है। 
साधन भक्ति के दो भेद हैं :- वैधी और रागानुगा। शास्त्रीय विधियों द्वारा प्रवर्तित भक्ति वैधी और भक्त के हृदय में स्वाभाविक रूप से जागृत भक्ति रागानुगा कहलाती है। 
भक्ति की पात्रता उन लोगों में ही होती है, जो सांसारिक मामलों से न तो एकदम विरक्त होते हैं और न ही एकदम अनुरक्त और भगवान की जो पूजा और नाम संकीर्तन में विश्वास रखते हैं। 
ऐसे लोग तीन कोटियों में रखे जा सकते हैं :- उत्तम, मध्यम और निकृष्ट। उत्तम कोटि में वे आते हैं, जो वेद शास्त्र ज्ञाता होने के साथ साथ पूर्ण आत्मा और दृढ़ संकल्प से भगवान की भक्ति में रत होते हैं। मध्यम कोटि के भक्त वे हैं, जो वेद शास्त्र वेत्ता न होते हुए भी भगवत भक्ति में दृढ़ आस्था रखते हैं। निकृष्ट कोटि के भक्तों में उन लोगों की गिनती होती है, जिनकी आस्था और संकल्प दृढ़ नहीं रहते। 
आनन्द प्राप्ति और मोक्ष प्राप्ति की इच्छा जिस व्यक्ति के मन से दूर नहीं हुई, वह भक्ति मार्ग पर नहीं चल सकता। 
उत्तमा भक्ति का लक्षण है :- 
अन्याभिलाषिताशून्यं ज्ञानकमद्यिनावृतम्। 
आनुकूल्येन कृष्णनुशीलनं भक्तिरूत्तमा॥
चैतन्य की भक्ति पद्धति वस्तुत: व्यवहार का विषय अधिक है। चैतन्य मतानुयायियों ने भक्ति के भेदोपभेद या अन्य सैद्धांतिक पक्षों पर अधिक बल नहीं दिया।
भक्ति केवल एक मार्ग ही नहीं, अपितु अपने आप में पंचम पुरुषार्थ है। मनुष्य के हृदय में रति के रूप में भक्ति का अंकुर उद्भूत होने के अनन्तर पुरुषार्थ चतुष्टय की कोई वांछा शेष नहीं रहती। 
भक्तों या साधकों का उल्लेख नित्य सिद्ध, साधना सिद्ध और कृपासिद्ध के रूप में भी किया जाता है। 
नित्य सिद्धि भक्त वे हैं, जो कृष्ण के साथ नित्य वास करने की पात्रता अर्जित कर लेते हैं :- जैसे गोपाल। 
साधन सिद्ध वे हैं, जो प्रयत्नपूर्वक कृष्ण का सान्निध्य प्राप्त करते हैं। 
कृपासिद्ध भक्त वे हैं, जो कृपा से ही सान्निध्य प्राप्त करते हैं। 
ज्ञानयोग और कर्मयोग की अपेक्षा भक्तियोग अधिक ग्राह्य है। ज्ञानयोग और कर्मयोग का पालन समुचित रूप में किया जाए तो वे भक्ति की प्राप्ति भी करवा सकते हैं।  चैतन्य द्वारा निर्दिष्ट भक्ति मार्ग में गुरु का अत्यधिक महत्त्व है। गुरु द्वारा दीक्षित होने के अन्तर नामोच्चारण करना अपेक्षित है। तदनन्तर भक्त को सांसारिक विषयों का त्याग वृन्दावन, द्वारका, आदि तीर्थों या गंगातट पर निवास, आयाचित खाद्य सामग्री से जीवन निर्वाह, एकादशी का व्रत रखना, पीपल के पेड़ पर जल चढ़ाना, आदि कार्य करने चाहिए। नास्तिकों के संग का त्याग, अधिक लोगों को शिष्य न बनाना, भद्दे वार्तालाप में न पड़ना आदि भी भक्ति मार्ग के अनुयायियों के लिए अनिवार्य है। भक्तों के लिए तुलसी का भक्षण, भागवत का श्रवण तथा कृष्ण संकीर्तन, सत्संग आदि भी अनिवार्य हैं। चैतन्य की भक्ति पद्धति में जप का अपना विशिष्ट स्थान है। विज्ञप्तिमय प्रार्थना, श्रवण और स्मरण, ध्यान और दास्यभाव भी आवश्यक है। 
भगवान् श्री कृष्ण द्वारका धाम में पूर्ण रूप से, मथुरा में पूर्णतर रूप से और वृन्दावन में पूर्णतम रूप से बिराजते हैं। इस पूर्णतम भक्ति के लिए वृन्दावन ही सर्वोत्तम स्थान है। 
SPIRITUALITY अध्यात्म :: 
Characters such as Satv are controlled by Karm-deeds. Karm is earned through Avidya-ignorance and absence of enlightenment. Soul is pure, imperishable, quite, devoid of characters, significance and beyond the nature. It, alone is diffused, encompassed in all the creatures. It neither increases nor decreases or eliminate.
Dharm or Adharm is always behind, beneath the states-conditions of all the creatures.
Soul moves from one body to another to experience, enjoy, undergo the fruits  or punishments of Karm.
Creatures have nothing except punch-Bhoot (Prathvi-Earth, Aakash-Sky-Space, Jal-Water, Vayu-air, Tej-Energy) in them.
The differentiation incarnations like demigods, humans, demons, trees or animals are fake, unreal, imaginary or untrue.
The object, which do not acquire-obtain-attain-seek, new shape-form, as a result-consequence of   rebirth-reorientation-reincarnation, is the ultimate good, supreme truth, reality and spiritual.
It’s auspicious for the enlightened-intellectual-philosopher to attain Salvation. Yagy which helps in attainment of heavens-higher abodes too, is auspicious-fortunate-meritorious-creditable, but it’s more auspicious to have a desire for Salvation.
Soul is broad-pervasive, extensive, comprehensive, even pure, free from characters-characteristics and free from nature. It’s free from birth, death, increase-decrease and defects.
The ultimate, Almighty is free and is not associated with unreal, non-virtuous, name or caste. He is one, even by existence, in his own or other physique-bodies. Understanding of this supreme reality is enlightenment. Those who possess the feeling of duality-ambiguity between the ultimate and the universe or make distinction between the ultimate and the universe are not spiritual.
Auspicious Karm-deeds are those, which do not create bonds-attachments-delusion-allurement and Vidya is the vehicle-source to detachment and auspicious Karm. Karm Yogi has a continuous relation with the Almighty.
Gyan  (Sankhy) Yogi has the essential, fundamental realistic relation with the God.
The devotee, who has sought refuge-asylum in him, has spiritual relation with the Almighty-the God.
Continued relation of the Karm Yogi with the Almighty, leads to rejection of attachment with what is unreal, occasional, temporary, transient or impermanent.
Essential fundamental acknowledgement and understanding of the Gyan Yogi, provides him with the unity and assimilation of essence, with the supreme spirit, the real state and nature i.e., the God.
Spiritual relation of the Devotee-the Bhakt, has love for the God, associated with the loss of distinction between the two.
Karm Yogi’s relation with the God is quite, assuaged with elixir-nectar-ambrosia.
Gyan Yogi’s relation with the God is unbroken, undivided, entirely uninterrupted, continuous, individual and indestructible with wholeness, entirely with integrity associated with elixir-nectar.
Bhakti-Devotion is infinite never ending elixir-nectar. This is obtained by seeking shelter-under the God. It is the best means to attain God and has to be secret and concealable.
BHAKTI YOG-ALOKIK (Divine-eternal) :: Importance is given to the Almighty only to retain Alokik Bhakti,  When the devotee takes the patronage of the God in his efforts without considering his own efforts as major contributory, then only his faith is divine.
Everything becomes divine as soon as the devotee takes shelter in the Almighty. One who is not extremely renunciated or attached, but due to some auspicious-virtuous deed in his previous births, respect, honour, dedication, devotion has evolved-emerged, in various parleys of the Almighty, is entitled-authorised-suitable-fit for Bhakti Yog.
Almighty is above both Ksher and Aksher. One should seek asylum in him, with equanimity in both Ksher and Aksher by surrendering himself to the Almighty.
Human body has inbuilt capabilities to perform Lokik (worldly), either Gyan Yog or Karm Yog. Importance and labour are major contributory factors.
One should surrender himself to the Almighty, while performing all his duties, with the knowledge of worldly and divine as well without the desire of even Moksh.
 
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