CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।
Soul, is immortal, eternal imperishable, infinite, indestructible, free from ageing, distinction, unitary, undivided, unbreakable, impenetrable.
आत्मा अजन्मा, अजर, अमर तथा अभेद्य है।
Soul is forever, unique and unilateral.
The eternal soul is free from characteristics. The basic characteristics Satv (Goodness, Virtues), Raj (Actions, deeds, desires), Tam (Ignorance), inertia bounds the soul with the body-nature and obstruct in its release-relinquishment. The soul is imperishable and free from any characteristics-qualities.
Its the store house of impressions of one's good or bad deeds, unless they are completely eliminated by undergoing the impact of them in repeated incarnations.
The inertial nature-the organism, creature has no faculty-capacity to feel pleasure or pain. For this purpose, the soul is essential.
Soul is forever, unique and unilateral.
The eternal soul is free from characteristics. The basic characteristics Satv (Goodness, Virtues), Raj (Actions, deeds, desires), Tam (Ignorance), inertia bounds the soul with the body-nature and obstruct in its release-relinquishment. The soul is imperishable and free from any characteristics-qualities.
Its the store house of impressions of one's good or bad deeds, unless they are completely eliminated by undergoing the impact of them in repeated incarnations.
The inertial nature-the organism, creature has no faculty-capacity to feel pleasure or pain. For this purpose, the soul is essential.
आत्मा के 12 लक्षण :: आत्मा नित्य, अविनाशी, शुद्ध, एक, क्षेत्रज्ञ, आश्रय, निर्विकार, स्वयं प्रकाश, सबका कारण, व्यापक, असङ्ग तथा आवरणरहित रहित है।[श्रीमद्भागवत 7.7.19]
मनुष्य के भूत, इन्द्रिय और अन्तःकरण से उनका साक्षी आत्मा अलग है। जीव कहलाने वाले उस आत्मा से भी ब्रह्म भिन्न है और प्रकृति से उसके संचालक पुरुषोत्तम भिन्न हैं। [श्रीमद्भागवत 3.28.41]
देव मनुष्यादि शरीरों में रहनेवाल एक ही आत्मा अपने आश्रयों के गुण-भेद के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार का भासता-प्रतीत होता है। [श्रीमद्भागवत 3.28.43]
मनुष्य योनिज्ञान-विज्ञान का मूल स्त्रोत है। जो इसे पाकर भी अपने आत्मरूप परमात्मा को नहीं जान लेता, उसे कहीं भी, किसी भी योनि में शांति नहीं मिल सकती।[श्रीमद्भागवत 6.16.58]
आत्मा का स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म है, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति-इन तीनों अवस्थाओं तथा इनके अभिमानों से विलक्षण है।[श्रीमद्भागवत 6.16.61]
आत्मा तो एक ही है परन्तु वह अपने ही गुणों की सृष्टि कर लेता है और गुणों के द्वारा बनाये गए पञ्च भूतों में एक होने पर भी अनेक, स्वयं प्रकाश होने पर भी दृश्य, अपना स्वरूप होने पर भी अपने से भिन्न, नित्य होने पर भी अनित्य और निर्गुण होने पर भी सगुण के रूप में प्रतीत होता है।[श्रीमद्भागवत 10.85.24]
आत्मा परमात्मा का ही अंग है। आत्मा पूर्वजन्म की स्मृति और संस्कारों से संयुक्त रहती है जब तक कि पुण्य-पाप शेष हैं। मन आत्मा का अभिन्न अंग है। मन में जब तक इच्छाएँ शेष हैं आत्मा जीव रूप में जन्म लेती रहेगी। माता के गर्भ में आते ही उसे पूर्वजन्मों की स्मृति हो जाती है और प्राणी अत्यन्त कष्ट के साथ उनको स्मरण करता रहता है। जन्म के तुरन्त पश्चात् अधिकांश प्राणियों की स्मृति विलुप्त हो जाती है। नारद, जड़ भरत जैसे महापुरुष पूर्व जन्म की स्मृति से संयुक्त होकर प्रकट हुए।
One who has understood-identified the Almighty and the soul as one is extremely rare and free from all fears. He does not feel afraid of anyone or anything.
The Muslims do not recognise this fact. They have devised a New term Allah. They call it Khuda as well. Malaysia-Muslim country have sole copy-right, patent over Allah.
मनुष्य के भूत, इन्द्रिय और अन्तःकरण से उनका साक्षी आत्मा अलग है। जीव कहलाने वाले उस आत्मा से भी ब्रह्म भिन्न है और प्रकृति से उसके संचालक पुरुषोत्तम भिन्न हैं। [श्रीमद्भागवत 3.28.41]
देव मनुष्यादि शरीरों में रहनेवाल एक ही आत्मा अपने आश्रयों के गुण-भेद के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार का भासता-प्रतीत होता है। [श्रीमद्भागवत 3.28.43]
मनुष्य योनिज्ञान-विज्ञान का मूल स्त्रोत है। जो इसे पाकर भी अपने आत्मरूप परमात्मा को नहीं जान लेता, उसे कहीं भी, किसी भी योनि में शांति नहीं मिल सकती।[श्रीमद्भागवत 6.16.58]
आत्मा का स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म है, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति-इन तीनों अवस्थाओं तथा इनके अभिमानों से विलक्षण है।[श्रीमद्भागवत 6.16.61]
आत्मा तो एक ही है परन्तु वह अपने ही गुणों की सृष्टि कर लेता है और गुणों के द्वारा बनाये गए पञ्च भूतों में एक होने पर भी अनेक, स्वयं प्रकाश होने पर भी दृश्य, अपना स्वरूप होने पर भी अपने से भिन्न, नित्य होने पर भी अनित्य और निर्गुण होने पर भी सगुण के रूप में प्रतीत होता है।[श्रीमद्भागवत 10.85.24]
आत्मा परमात्मा का ही अंग है। आत्मा पूर्वजन्म की स्मृति और संस्कारों से संयुक्त रहती है जब तक कि पुण्य-पाप शेष हैं। मन आत्मा का अभिन्न अंग है। मन में जब तक इच्छाएँ शेष हैं आत्मा जीव रूप में जन्म लेती रहेगी। माता के गर्भ में आते ही उसे पूर्वजन्मों की स्मृति हो जाती है और प्राणी अत्यन्त कष्ट के साथ उनको स्मरण करता रहता है। जन्म के तुरन्त पश्चात् अधिकांश प्राणियों की स्मृति विलुप्त हो जाती है। नारद, जड़ भरत जैसे महापुरुष पूर्व जन्म की स्मृति से संयुक्त होकर प्रकट हुए।
आत्मा साक्षी विभुः पूर्ण एको मुक्तश्चिदक्रियः।
असंगो निःस्पृहः शान्तो भ्रमात्संसारवानिव॥
आत्मा साक्षी, सर्वव्यापी, पूर्ण, एक मुक्त, चेतन, अक्रिय, असंग, इच्छा रहित एवं शांत है। भ्रम वश ही ये सांसारिक प्रतीत होती है।[अष्टावक्र गीता 1.12]
One who is the visionary, himself visualise, watches, witnesses everything-event, all pervading, complete and free, conscious, aware (alert, vigilant, rational), inert, dissociated, desire less and quite-peaceful. It’s only due to illusion that it all appears worldly.
The soul is not involved in any activity of the possessor. It just visualises the actions of the doer but carries with it the impact of sins and virtues along with it in next incarnations; just like the air which carries smoke, moisture, heat-cold, gases, pollutants with it.
The soul is not involved in any activity of the possessor. It just visualises the actions of the doer but carries with it the impact of sins and virtues along with it in next incarnations; just like the air which carries smoke, moisture, heat-cold, gases, pollutants with it.
One may consider it to be just like the driver installed in a computer to perform certain function. No driver no desired action.
श्रुत्वापि शुद्धचैतन्य आत्मानमतिसुन्दरं।
उपस्थेऽत्यन्तसंसक्तो मालिन्यमधिगच्छति॥
यह सुनकर भी कि आत्मा शुद्ध, चैतन्य और अत्यंत सुन्दर है, तुम कैसे जननेंद्रिय में आसक्त होकर मलिनता को प्राप्त हो सकते हो।[अष्टावक्र गीता 3.4] Having understood-learnt that the soul is pure, conscious, rational, alert, aware, vigilant and extremely beautiful, one should not acquire impurity by attraction in genital organs or passions (sensuality, sexuality, lust, Lasciviousness).
आत्मानमद्वयं कश्चिज्-जानाति जगदीश्वरं।
यद् वेत्ति तत्स कुरुते न भयं तस्य कुत्रचित्॥4.6॥
आत्मा और जगत का ईश्वर एक है, यह कोई-कोई ही जानता है, जो यह जान-समझ लेता है उसको किसी से भी किसी प्रकार का भय नहीं है।[अष्टावक्र गीता 4.6] One who has understood-identified the Almighty and the soul as one is extremely rare and free from all fears. He does not feel afraid of anyone or anything.
The Muslims do not recognise this fact. They have devised a New term Allah. They call it Khuda as well. Malaysia-Muslim country have sole copy-right, patent over Allah.
न ते संगोऽस्ति केनापि किं शुद्धस्त्यक्तुमिच्छसि।
संघातविलयं कुर्वन् नेवमेव लयं व्रज॥
तुम्हारा किसी से भी संयोग नहीं है, तुम शुद्ध हो, तुम क्या त्यागना चाहते हो, इस (अवास्तविक) सम्मिलन को समाप्त कर के ब्रह्म से योग (एकरूपता) को प्राप्त करो।[अष्टावक्र गीता 5.1] The individual-soul is not associated-connected with any one. He is pure-perfect, can achieve-attain oneness, assimilation-SAYUJY, with the Brahm by renouncing-severing the virtual-illusionary connections with the world-universe.
All relations are lost after death, with the living as well as non living.
All relations are lost after death, with the living as well as non living.
उदेति भवतो विश्वं वारिधेरिव बुद्बुदः।
इति ज्ञात्वैकमात्मानं एवमेव लयं व्रज॥5.2॥
जिस प्रकार समुद्र से बुलबुले उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार विश्व एक आत्मा (परमपिता परमब्रह्म परमेश्वर) से ही उत्पन्न होता है। यह जानकर ब्रह्म से योग (एकरूपता) को प्राप्त करो।[अष्टावक्र गीता 5.2] Having understood that the universe evolved-originated from one soul-the Ultimate-Almighty, like a bubble in the ocean, one should merge-assimilate himself with the Brahm.
The manner in which a drop of water is identical to water in the ocean, each and every solid particle is earth on falling over earth, in the same manner each and every individual become God on merging with HIM.
The manner in which a drop of water is identical to water in the ocean, each and every solid particle is earth on falling over earth, in the same manner each and every individual become God on merging with HIM.
आकाशवदनन्तोऽहं घटवत् प्राकृतं जगत्।
इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः॥
आकाश के समान मैं अनंत हूँ और यह जगत घड़े के समान महत्त्वहीन है, यह ज्ञान है। इसका न त्याग करना है और न ग्रहण, बस इसके साथ एकरूप होना है।[अष्टावक्र गीता 6.1] "The Almighty-Ultimate is infinite-limitless, like the sky-space and the universe is meaningless-unimportant like a pitcher". It's the enlightenment-knowledge, which is neither to be rejected nor to be accepted, one has to identify himself with it and live with it.
The sky-space & universe are components of nature. Nature is a component of the God. One as a soul is Atma-Shariri component of God, Parmatma-the Purush and as Sharir a component of nature-the Prakrati.
The sky-space & universe are components of nature. Nature is a component of the God. One as a soul is Atma-Shariri component of God, Parmatma-the Purush and as Sharir a component of nature-the Prakrati.
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत॥
इस अविनाशी-नाश रहित, अप्रमेय-जानने में न आने वाले-जिसे मापा न जा सके, नित्य स्वरूप जीवात्मा-शरीरी के ये सब शरीर नाशवान कहे गए हैं, इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तू युद्ध कर। [श्रीमद भागवत गीता 2.18॥
All the incarnations-embodiment of this perennial, immeasurable-beyond estimate (beyond destruction), regularly existing-stable soul (embodied self-Atma); are perishable-destructible, O! the descendant of great Bharat Vansh-clan you should fight the battle.
अनाशिन: :: किसी भी काल में, किसी भी कारण से, कभी भी किञ्चित मात्र भी, जिसका परिवर्तन, क्षति या अभाव नहीं होता, वह अविनाशी (शरीरी-परमात्मा का अंश) है।
Which can not be destroyed-eliminated even by a minutest fraction, lost or become rare-scarce, due to any reason, in any period-segment of time, is perpetual-never ending.
प्रमेयस्य :: जिसका प्रमाण नहीं होता अर्थात जिसका होना स्वयं सिद्ध है, जो अंतःकरण और इन्द्रियों का विषय नहीं है। साधु-महात्मा, शास्त्र जिसको मानते हैं।
Some thing which do not need proof-testimony, is a proof in itself, which is not a subject of the inner self or the sense organs. Philosophers, scholars, enlightened, scriptures, have a belief (faith, confidence) in it.
नित्यस्य :: यह सभी कालों में रहता है। निरन्तर रहने वाला है।
हवा, आकाश, प्राण को देखा नहीं जा सकता तथापि यह माना जाता है कि वे हैं। इसे स्वयं सिद्ध कहते हैं। इसी प्रकार आत्मा है। जिस प्रकार पृथ्वी से ऊपर अंतहीन आकाश है, उसी प्रकार यह आत्मा है, जो कि परमात्व के रूप में प्रत्येक प्राणी में मौजूद-उपस्थित है।
हे महान भारत वंशी अर्जुन! युद्ध कर। अन्याय का प्रतिकार कर। जिन्हें तुम अपने समक्ष देख रहे हो वे सब नाशवान हैं, जबकि इनके अन्दर उपस्थित आत्मा अविनाशी है।
Which is for ever-perpetual. Air, sky and the life can not be seen. Its believed that they exist. There existence is felt, when we breath or see the birds-aeroplane flying or the distant stars-galaxies are observed. The sky begins from the earth and is limitless-without boundaries-infinite. Its present inside & out side the body as well. The soul is a fragment-component of the Almighty in the organism. The manner in which each fraction of empty space is sky each soul is a component of the Almighty. The Almighty is all pervading. He is present in each and every organism, particle.
O! The descendant of great Bharat fight the war-battle. All those, whom you see in front of you, are perishable; while the soul present in them is perpetual-everlasting.
One who is on the right, righteous, pious, virtuous path, must not be disheartened. He should continue with his endeavours. Act without the desire for rewards.
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥
जो इस शरीरी-आत्मा को मरने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते कि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी द्वारा मारा जाता है।[श्रीमद्भगवद्गीता 2.19]
One who thinks that the soul can kill and the other one who thinks that it is dead (or may be killed); both are ignorant, since the soul neither kill any one nor can it be killed by any one.
शरीरी-आत्मा में स्वयं कुछ करने की सामर्थ-कर्तापन नहीं है। आत्मा से संयुक्त होकर ही शरीर कुछ कर सकता है। अतः आत्मा को कुछ भी करने के लिए शरीर की आवश्यकता पड़ती है। शरीर तभी तक कुछ कर सकता है, जब तक उसमें आत्मा है, अन्यथा नहीं अर्थात यह न किसी क्रिया की कर्ता है और न ही किसी कर्म की। यह निरपेक्ष-विकार हीन है।
जिसमें विकृति होती है, परिवर्तन होता है, गतिविधि होती है और जन्म लेता है, वही मर सकता है और वह शरीर है, ना कि आत्मा। जो जन्म नहीं लेता, जो मरता नहीं है, उसके लिये शोक कैसा?!
The soul is unable to perform any activity of its own, in the absence of a material body. Soul's association with the body enables it to perform. Hence, body is essential for any activity. The body can perform till it has the soul otherwise not. It's neither the doer nor the deed. Its untainted-defect less-absolute.
Any thing which has defect, undergoes change, perform or has some activity associated with it and takes birth can die. It's the body which perish not the soul. Why should something which do not take birth or die, be grieved upon?!
न जायते म्रियते वा कदाचि न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥
यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है, क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता।[श्रीमद्भगवद्गीता 2.20]
The soul neither take birth or dies. Its free from evolution and rebirth-regeneration, since it is unborn-permanent, perennial absolute, forever, perpetual. Its not killed, when the body vanishes.
शरीर 6 प्रकार के विकार :- उत्पन्न होना, बदलना, सत्तावान दिखना, बढ़ना, धटना और नष्ट होना।
शरीरी-आत्मा, इन 6 विकारों से मुक्त है। यह परमात्मा का अंश है। इसमें संयोग और वियोग नहीं होते। यह अविनाशी नित्य-तत्व, पैदा होकर फिर से उत्पन्न होने वाला नहीं है। यह स्वयं-सिद्ध व निर्विकार है। इस अविकारी का आदि और अन्त नहीं है। यह जन्म से रहित है। यह नित्य, निरन्तर, अपक्षय, शाश्वत (एकरूप-एकरस), पुराण (अनादि) है।
शरीर का नाश होने पर भी अविनाशी शरीरी का नाश नहीं होता। प्राणी, मनुष्य जन्म लेने से पूर्व 84,00,000 योनियों से गुजरता है और अंसख्य जन्म लेता है। शरीरी के शरीर से संयुक्त होने पर चेतना का उदय होता है।
The organism is associated with 6 types of defects-activities :- Birth-coming to existence, change, physical presence, growth, decay (recede, reduce) & destruction (vanish, elimination, death. The soul is free from these defects. Its a component of the Almighty. Its free from association and dissociation. This imperishable, perennial, perpetual entity, is free from evolution and births. Its a proven self, free and untainted, unsmeared, unstained. This defect less entity does not take birth. This is always, continuous, undecaying, composed, absolute (always unchanging, endless, since ever).
The soul remains as such even after the destruction of the body. The organism passes through 84,00,000 incarnation in different lower species, before birth as a human being. Association of soul with the body, brings life to it.
The air & water acquires the impurities of the specific place where its blowing but after a while they free themselves from the impurities like dust, smoke, foul smells, scents, moisture etc. The soul too acquire sins, virtues or equanimity which may be neutralised in one or the other birth. It should be the endeavour of one to attain equanimity with pleasure pain and all creatures-species.
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्॥
हे पृथापुत्र अर्जुन! जो पुरुष इस शरीरी-आत्मा को नाश रहित-अविनाशी, नित्य, अजन्मा-जन्म रहित और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मारे और कैसे किसको मरवाये है?[श्रीमद्भगवद्गीता 2.21]
Hey Arjun-the son of Pratha! How can a human, who recognises this soul as imperishable, perpetual, perennial, free from birth & death, undecaying (unweaning, unspent), ever kill some one or get some one else killed?
शरीरी-आत्मा, नाश रहित-अविनाशी, नित्य, अजन्मा-जन्म रहित और अव्यय है, जिसे इस बात का अहसास (ज्ञान, बोध, समझ) है, वो न तो स्वयं किसी को मारेगा और न ही मरवायेगा। वो हमेशां इस काम से बचेगा-झिझकेगा। वह दूसरे लोगों को भी इस कार्य से रोकेगा।
आत्मा में कोई परिवर्तन, वृद्धि, अवनति, क्षय नहीं होता, क्योंकि यह दोष रहित है।
इस बात पर जोर दिया गया है कि शास्त्र के विधान-निर्देशानुसार कार्य सम्पादन हो। किसको कब, कैसे, किसलिए, क्यों मारा जाना है, यह ज्यादा महत्वपूर्ण है। मृत्युदण्ड का नियम, कानून, श्रुति का पालन अति आवश्यक है। आतताई, घुसपैठिया, अपहरणकर्ता, दुराचारी, आतंकवादी, हत्यारा-ये सभी बगैर किसी दुःख, शोक, दया के मारे जाने योग्य हैं।
One who is aware that the soul is free from death (decay, change, birth, loss) will not undertake, hesitate in killing some one or getting him killed. He will desist-discourage this practice.
The soul does not under go change, growth, diminish, reorient. It is defect less.
The stress is over the following of the scriptures which elaborate when, why, whom, how one should be killed. There should be no grief over the death of any one, who deserve to be killed. The torturous, troublesome, invader, terrorist, abductor-rapist, intruder, tyrant, murderer, deserve to be killed without repentance, tension, guilt, hesitation, fear.
The laws are framed by the criminals sitting in the parliament, assemblies who make laws with the escape routes for such people. One keep on fighting loosing battle in the courts, where the judges are appointed & patronised by these criminals, only. In India the collegium system must be abandoned and judges should be appointed through fair selection-competition.
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥
जैसे मनुष्य फटे-पुराने वस्त्रों को त्यागकर, दूसरे नए वस्त्रों को धारण-ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर, दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है।[श्रीमद्भगवद्गीता 2.22]
The way a man rejects his torn-old cloths and accepts (change, wear) new cloths, the soul too leave the old (retired, incapable, fatigued, fragile) body and moves to the new body.
मनुष्य को नये कपड़े पहनने का शौक होता है। ज्यादातर लोग फटने-पुराने होने, रंगहीन, फैशन बदलने पर, कपड़े बदल देते हैं। ऐसे ही धीर पुरुष बगैर शोक करे, शरीर बदल लेते हैं।
पशु-पक्षी अन्य जीव कपड़े न तो पहनते हैं और न कपड़े बदलने का प्रश्न ही पैदा होता है। हाँ कुछ जीव अपनी ऊपरी त्वचा को अवश्य बदल लेते हैं। जीवात्मा उनमें भी मौजूद है। प्राणी को मनुष्य बनने से पहले इन असँख्य योनियों से गुजरना पड़ा था। फिर शोक-दुःख किसलिये? आत्मा शरीर में तभी तक रहती है, जब तक कि उसका निर्धारित कार्य काल पूरा न हो जाये।
मनुष्य को मरने से डर नहीं, अपितु इस बात का डर है कि उसकी इच्छाएँ अपूर्ण रह गयीं या फिर मरने में बहुत कष्ट होगा। अगर अपनी मर्जी से मनुष्य मर सकता तो शायद संसार खाली हो गया होता। जरा सा कष्ट आया और प्राणी ने संसार त्यागा।
आत्मा अपने कर्मों की गति के अनुसार एक लोक से दूसरे लोक में गमन करती रहती है। मनुष्य अन्तिम क्षण-घड़ी में जो इच्छाएँ करता है, वो पूरी अवश्य होती हैं।
Its a common human tendency to change old-torn cloths. Some people change cloths as per new trends, fashion. No one worries for them. The stable one, too under goes the change of the soul from one incarnation to the other, without repentance, botheration, trouble, hesitation, grief.
Birds, animals-other creatures do not wear cloths. Nature has provided them with a protective fur-coat. However, some organism do reject their exoskeleton, skin, epidermis. They too have soul. The organism had to pass through innumerable bodies, which had to be deserted due to one reason or the other. Then, why should there be sorrow, at all?
The soul stays in a specific body only till its assigned period is incomplete-not over. No one is afraid of death. The fear is due to the unfulfilled desires or the pain associated with the weak, fragile, diseased, torn body. If one could die of his own desire-will, the entire world would have become empty. Every body would have left the body as soon a little pain-difficulty would have arrived.
The soul moves from one body to another and from one world, universe, galaxy to another, depending upon the nature of his deeds and the desires associated with the inner self at the time of death.
Every now & then one comes across news pertaining to rebirth and almost all details furnished by the person in new incarnation comes out to be correct.
I feel that the torture, pain in rebirth and coming up is too much. Growing, learning, preparing to adjust with the society & all that. So, I would like myself to prepare for Moksh-emancipation following the path of Karm-endeavours, Gyan-enlightenment & Bhakti-devotion.
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥
इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग (तेज) नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता।[श्रीमद्भगवद्गीता 2.23]
This soul cannot be cut-hurt by weapons-arms, fire can not burn it, water can not melt, decay, dissolve, emaciated, rot, loss, numb, vanish, fortify, wet it and wind can not dry it.
पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश महाभूत हैं। शस्त्र पृथ्वी से उत्पन्न हुए हैं। पृथ्वी, जल, तेज और वायु, आत्मा को किसी भी प्रकार से हानि नहीं पहुँचा सकते हैं। ये आकाश से ही उत्पन्न हुए हैं। आकाश क्रिया हीन है और इन सबको अवकाश-आश्रय प्रदान करता है। आकाश का कारण-आधार प्रकृति है। प्रकृति, पुरुष (ईश्वर, आत्मा) से विलग है। आत्मा-पुरुष से ही प्रकृति को सत्ता-स्फूर्ति मिलती है। अतः ये उसे विकृत नहीं कर सकते। आत्मा तक अस्त्र-शस्त्रों की पहुँच है ही नहीं। ये तो पूर्ण रूप से निर्विकार है। शरीर नष्ट होगा, आत्मा नहीं। अतः अर्जुन की व्यथा व्यर्थ, आधारहीन, अकारण है।
Earth, water, Tej (fire, energy), air and the sky are the basic, raw, ancient, initial components, materials of nature. Weapons-arms are created from the earth. Earth, fire, air and water can not harm the soul, since they are created from the sky. Sky in it self is independent & is free from any activity. Sky provides them freedom, resting, idling place without being contaminated-smeared by them. The root-basic cause of sky is nature.
The soul (Purush, God) provides strength to nature. Therefore, nature can not destroy-vanish it. Arms (ammunition, weapons) can not reach the soul. This is defect less (pure, uncontaminated). Body will parish not the soul. So, the grief-reasoning of Arjun is unfounded, unreasonable, without logic, baseless.
Being a component of the Almighty the Soul is imperishable. It will continue its journey till it assimilates in the God.
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥
क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य-काटा नहीं जा सकता, यह आत्मा अदाह्य-जलाया नहीं जा सकता, अक्लेद्य-गीला नहीं किया जा सकता और निःसंदेह अशोष्य-सुखाया नहीं जा सकता है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी-सबमें परिपूर्ण, अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन-अनादि है।[श्रीमद्भगवद्गीता 2.24]
Undoubtedly, this soul can not be cut, burnt, wet-soaked or dried, being perennial (absolute, perpetual, for ever, since ever), which is pervaded-present in each and every particle including all organism, stable-stationary, immobile and ancient-since ever.
SOUL आत्मा :: आत्मा (शरीरी, देही, soul) को किसी अस्त्र-शस्त्र, मन्त्र, वाणी, श्राप से काटा-छेदा नहीं किया जा सकता। इसे अग्नि या किसी अन्य रीति से जलाया नहीं जा सकता। इसे चूसा, सोखा, गीला, घोला, मिलाया नहीं जा सकता। इसे किसी भी क्रिया द्वारा प्रभावित नहीं किया जा सकता। इसके ऊपर किसी काल का प्रभाव भी नहीं होता है। यह देही सम्पूर्ण व्यक्ति, वस्तु, शरीर आदि में एकरूप-एकसमान विराजमान है। यह स्वतः कहीं आने-जाने में समर्थ नहीं है। इसमें स्वतः कहीं आने-जाने की क्रिया नहीं होती। यह स्थिर स्वभाव वाला, कम्पन रहित, न हिलने-डुलने वाला है। इसका आदि-अन्त नहीं है, यह सनातन है।
आत्मा वह कारण है, जिससे शरीर में अनुभूति, अनुभव, चेतना होती है।
The soul can not be cut-penetrated by any weapon, ammunition, curse, words or hymns-rhymes. It can not be burnt, evaporated, dried by any means. It can not be soaked, sucked, wet, dissolved, mixed. It can not be affected by any process-action. It's free from the impact of time, in any dimension. Its uniformly present-spreaded over in the body. It can not move out of the body or into it, of its own, independently, freely. (As soon as the organism is dead, it acquires yet another body identical to the one it had in the previous body, which is immaterial.) Its free from movement, vibrations being inertial, stationary by nature. It has no origin or end, being free from birth, rebirth, incarnations. Its present, ever since the inception of this universe. Its a component of the Almighty.
This is the soul by virtue which the body-physique feels, becomes conscious, aroused, awake, aware, alert. Without soul the body is a lump of mass.
However, its believed that the Yogis can leave the body, roam as per their wish and re-enter the body. Some Yogis (souls) acquires bodies of the people who were able bodied and died at young age without any disease by drowning etc.
Ghosts are wretched souls unable to enter any other body.
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥
आत्मा अव्यक्त-अप्रत्यक्ष है। यह अचिन्त्य-चिन्तन का विषय नहीं है और यह निर्विकार-विकार रहित कहा जाता है। इससे हे अर्जुन! इस आत्मा को उपर्युक्त प्रकार से जानकर शोक करना उचित नहीं है।[श्रीमद्भगवद्गीता 2.25]
The soul is invisible (unrevealed, which can not be seen like air, intelligence, desires, thoughts), beyond thoughts (imagination, image, perception & defect less, pure, untainted, unsmeared). Therefore, Hey Arjun! having understood (recognized, identified) the soul in this manner, grief-condolence is undesirable (useless, unjustified, unnecessary).
आत्मा का स्थूल शरीर के समान आँखों से दृष्टिगोचर होना सम्भव नहीं है (इसके लिये दिव्य दृष्टि चाहिये)। मन और बुद्धि तो चिन्तन विचारों में आते हैं, परन्तु यह चिन्तन का विषय भी नहीं है। यह चेतना उत्पन्न करने वाली है। यह देही-विकार रहित कहा गया है, क्योंकि यह परिवर्तन रहित है।
Its not possible to see-observe the soul like a physical entity. One might need divine sight-vision. One may perceive, think, recognize, understand, intelligence and the feelings, sensuality, passions (always subject to change, variable, negotiable). But this is defect less, pure, uncontaminated, since it is free from change.
इसको निषेध मुख से 8 गुणों :- अच्छेद्य, अक्लेद्य, अदाह्य, अशोष्य, अचल, अव्यक्त, अचिन्त्य और अविकार्य से युक्त माना गया है और
विधिमुख से :- नित्य, सनातन, स्थाणु और सर्वगत माना गया है। इसके वास्तविक स्वरूप का वर्णन इसलिये भी सम्भव नहीं है, क्योंकि यह वाणी का विषय नहीं है और स्वयं वाणी इससे प्रकट होती है। आत्मा को इस प्रकार जानकर किसी का भी किसी के लिये भी शोक व्यर्थ-उचित नहीं है।
It has 8 characteristics through negativity or contradiction :: It can not be cut-divided, wet, burnt, sucked, inertial (unmovable, stationary), unrevealed, beyond thought, untainted-unsmeared & has 4 characteristics through positivity-reasoning :- Perennial, absolute, perpetual, stable, stationary, immobile and ancient-since ever, which is pervaded-present in each and every particle including all organism.
आठ गुणों से युक्त आत्मा को जानने का फल ::
य आत्मापहतपाप्मा विजरो विमृत्युर्विशोको विजिघत्सोSपिपास: सत्यकामः सत्यसङ्कल्प: सोSन्वेष्टव्य: स विजिज्ञासितव्यः स सर्वा ँ ्श्च लोकानाप्नोति स सर्वाँ ्श्च कामान्यस्तमात्मानमनुविद्य विजानातीति ह प्रजापतिरुवाच।[छान्दोग्यo 8.7.1]
प्रजापति ने कहा :: जो आत्मा पापरहित, जरा (बुढ़ापा) रहित, मृत्युरहित, शोकरहित, भूख से रहित, प्यास से रहित, सत्यकाम और सत्यसङ्कल्प (इन स्वभावगत आठ गुणों से युक्त) है, उसे खोजना चाहिये, उसे जानना चाहिये। जो उसको खोजकर जान लेता है, वह सब लोकों और समस्त कामनाओं को प्राप्त होता है।
Prajapati has said that the Soul which is possessed with 8 characterises :- untainted (free from sins), ageless (does not grow old), imperishable (does not die), free from sorrow (pains, displeasure), free from hunger, free from thirst, truthful, determined to be true in resolve; should be identified (searched, traced). One who identifies it, attain all abodes i.e., Ultimate abode-Salvation (Moksh) and all his desires are fulfilled.
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि॥
किन्तु यदि तू इस आत्मा को सदा जन्मने वाला तथा सदा मरने वाला मानता हो, तो भी हे महाबाहो! तू इस प्रकार शोक करने योग्य नहीं है। [श्रीमद्भगवद्गीता 2.26]
Oh the great-mighty warrior! After listening to me, still if you believe that this soul gets birth and dies, you need not go under depression (sorrow, grief), since you are not meant-born for this.
जो पैदा होगा वही तो मरेगा और जो पैदा ही नहीं हुआ, वो मरेगा कैसे!? भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं कि हे शक्ति शाली महाबाहु अर्जुन! स्वयं को पहचानों। तुम्हारे जन्म का हेतु-उद्देश्य इस प्रकार शोक करना नहीं है। अर्जुन को जो शक्तियाँ स्वयं भगवान् शिव और इन्द्र ने प्रदान कीं, उनका भी हेतु-कारण है। जो स्वयं साक्षात गोलोकवासी श्री कृष्ण सारथि बने हैं, वह भी विचारणीय-भेद पूर्ण है। स्वयं अर्जुन कौन हैं; ये भी उनको समझना चाहिये-उनके जन्म का हेतु क्या है? भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं कि "हे अर्जुन! तुम्हारा जन्म शोक करने के लिए नहीं हुआ"। अर्जुन अवतारी पुरुष, स्वयं नर, इंद्र के पुत्र हैं। यह जानना-समझना भी अति आवश्यक है।
अगर इस आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व है, तो वो कहाँ है, कैसी है, उसका आकार प्रकार कैसा है? आत्मा शरीर से मुक्त होकर मनुष्य के अँगूठे बराबर स्थान में केन्द्रित हो जाती है। कुछ लोग भूत-प्रेत-पिशाच-ऊपरी हवा का जिक्र करते हैं; परन्तु वह भी माध्यम की तलाश में रहती हैं।
One who has born must die, this is what the nature is. How will one die, if he has not taken birth? O mighty Arjun! Realise, recollect, remember, who you are? The purpose-reason behind your birth is not to indulge in meaningless grief! The powers, Astr, Shastr, (divine arms & ammunition) provided to Arjun by the destroyer-Mahesh Bhagwan Shiv and Indr has a reason-logic behind them. The Almighty-the Lord of Lords Shri Krashn from his abode the Gau Lok him self is driving his chariot, too has a reason behind it. Who Arjun himself is to be understood and the purpose behind his birth too has to be understood, by Arjun? So, Bhagwan Krashn said, "You are not meant for grief". Arjun is an incarnation of the Almighty in the form of NAR and a component of Indr-the mighty king of deities-demigods, as a son. This is extremely important.
If this soul has an independent existence, where is it, how does it looks like, what are its features?! The soul rests itself in a place equivalent to the thumb of the human being. Some people correlate the soul with the ghosts, which too is dependent over the medium.
The sole aim, purpose behind human incarnation of the soul is social welfare, performance of his duties in the form of Varnashram Dharm and attain Salvation-Moksh.
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्॥
कोई व्यक्ति इस आत्मा को आश्चर्य की भाँति देखता-अनुभव है तो दूसरा कोई इसका आश्चर्य की भाँति वर्णन करता है तथा अन्य कोई इसे आश्चर्य की भाँति सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जान पाता।[श्रीमद्भगवद्गीता 2.29]
Some experience-view it with surprise, other one describe-discuss about it with surprise, yet another one listens about it just as a surprise and there are the people who listens about it, but fails to recognise its existence.
आत्मा एक आश्चर्य का विषय है, क्योंकि यह अन्य वस्तुओं की तरह देखने, सुनने, पढ़ने या जानने में नहीं आती। इसका ज्ञान लौकिक नहीं, अपितु विलक्षण, पारलौकिक, अदभुत है।
पश्यति का तात्पर्य है, देखना और स्वयं के द्वारा जानना। आँखों से देखने में आने वाला जीव, दिखने वाली वस्तु और देख पाने की शक्ति का होना आवश्यक है। जब स्वयं के द्वारा जानने, अस्तित्व, समझने की बात आती है तो वह अपने द्वारा ही समझी-अनुभव की जाती है।
शरीर को 3 प्रकार से माना जाता है :- स्थूल, सूक्ष्म और कारण। स्थूल शरीर 5 ज्ञानेन्द्रियों, 5 कर्मेन्द्रियों और 5 प्राण के साथ मन और बुद्धि का विषय है। सूक्ष्म शरीर बुद्धि का विषय है और कारण शरीर प्रकृति और देही-आत्म स्वरूप प्रकृति से भी परे है। अतः स्वयं को जानने वाला कोई बिरला ही होता है, क्योंकि लोगों में इस बात की जिज्ञासा का अभाव है।
कभी-कभी व्यक्ति भूत-प्रेत-दुरात्माओं के प्रभाव में आकर अनाप-सनाप बोलने लगता है। ऐसे व्यक्तियों को ग्रस्त किये हुए आत्मा अपना पूर्व काल, जीवन, जन्म व्यक्त कर सकती है।
वाणी स्वयं आत्मा पर निर्भर है, अतः यह भी आत्मा को पूरी तरह व्यक्त करने समझाने में असमर्थ है। इसलिये यह आश्चर्य का विषय भी है। जब कोई स्वयं ही इसके बारे में नहीं जानेगा, तो वह दूसरों को कैसे समझायेगा ?!
सामान्य व्यक्ति को खाने-पीने, जीने, काम, आराम, मौज-मस्ती से ही फुर्सत नहीं है; तो वो आत्मा को जानने की कोशिश क्या, क्यों, किसलिये और कैसे करेगा। उसे तो आत्मा की बात से आश्चर्य ही होगा।
Soul is a matter of surprise for some people, since it is beyond seeing, experiencing, view, observation, hearing-listening, reading-learning or identifying-discovering. Its knowledge is not worldly. It's amazing, wonderful, surprising. Its beyond the common man's understanding-limits.
PASHYATI means seeing and self identification. It needs the viewer, some object to be viewed and the power to see. Self identification-realisation, involves the organism, human being, individual. The viewer's body may constitute of the physical entity having 5 sense organs, 5 work organs, 5 airs in addition to innerself-Man (psyche, मन, mood, consciousness, seat of perception & feelings, inclination, temperament, will, character, purpose i.e., what one calls mind-heart and soul) and intelligence. Generally, one do not go beyond this, since its the limit for him-sufficient to know. Other than the material-physical body the 2nd type of body is exactly like the material one-first type, before the death but its weightless-divine, invisible. It is a subject-concept of the intelligence for understanding. The 3rd type of body is based on reason, logic, perception including nature. This soul is beyond the preview of nature. So, its very rare to find some one who has realised him self, due to lack of desire to do so.
The speech-intelligence itself is dependent over the soul. So, it is incompetent to describe the nature of soul completely, thoroughly, properly, making it an entity for surprise. When someone himself is not clear about it, how can he explain-elaborate it to others?!
The common man has no time to be curious either about the soul or him self. He is busy with work, gossip, fun & frolic, leisure, amusement, earning or other things. So, if one tells-talks about it, he will be surprised, may be curious.
CONSCIOUSNESS :: समझ, होश, आपा, भान, अभिज्ञता, चेतना, चैतन्य, जानकारी, ज्ञान, बोध, संज्ञा।
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि॥
हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! यह आत्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य (जिसका वध नहीं किया जा सके) है। इस कारण किसी भी प्राणी के लिए शोक नहीं करना चाहिये।[श्रीमद्भगवद्गीता साँख्य योग 2.30]
This soul present in the body-physique is immortal & can not be killed. Therefore, O the great descendant of Bhrat Arjun! You should not feel sorry-perturbed for any organism-specifically these who have gathered for the war.
यह स्पष्ट है कि शरीर नश्वर है और आत्मा अमर है। हिंसा का प्रतिपादन किसी भी धर्म शास्त्र में नहीं किया गया है। परन्तु युद्ध की स्थिति में यह अनिवार्य हो जाती है। यही क्षत्रिय धर्म है। इसी के लिये सेना, पुलिस, रक्षक नियुक्त किये जाते हैं। यह न्याय से भी जुड़ा है। अपनी, अपनी प्रजा की, परिवार की, समाज की रक्षा आवश्यक-अनिवार्य है। अन्याय का प्रतिकार अत्यावश्यक है। यही धर्म है। अगर धर्म निर्वाह में जान चली जाये या ले ली जाये तो पुण्य ही होगा पाप नहीं। जान ही तो जाएगी, आत्मा तो अजर-अमर है।
Its absolutely clear that the soul is perennial, absolute, imperishable, perpetual, while the body will perish sooner or later. No scripture advocate violence, killings, murders except Quran is only book which makes Muslims dreaded killers-murderers & terrorists. At present Islam is icon-synonym of Terrorism. It becomes essential during a war, conflict for maintaining law and order. This is religious obligation for being one, belonging to a marshal caste. Army, police, protectors, guards are appointed for this reason only. This is an essential feature of justice-law and order, as well. The king has to protect the nation, himself, the civilians-populace, society, individuals. If life is lost for serving the nation-residents, its virtuous not sin. Death for a just cause is pious-holy affair, unlike jihad by ignorant, misguided, power hungry, tyrants, killers, terrorists, invaders, intruders, sycophants, who must be repelled with might. Its the duty of each and every one irrespective of faith to vanish them. Only the body will perish not the soul. Its of no use weeping or mourning for the deceased for long since he is not going to return to wipe off tears.
Always remember that from Brahman-Dronachary to Nishad-Eklavy all fought Maha Bharat i.e., all 5 Varn are capable to fight-repel the enemy, tyrants. Why wait for the God, government or demigods-deities to rescue you?! Mahatma Buddh and Maha Vir just asked to make harmony, peace and Ahinsa-non violence; not to bear torture, violence, terrorism, insult. Rise up repel these cowards who attack over the back.
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते॥
हे कुन्तीनन्दन! यह पुरुष (आत्मा) स्वयं अनादि होने से और गुणों से रहित होने से अविनाशी परमात्म स्वरुप ही है। यह शरीर में रहता हुआ भी न कुछ करता है और न लिप्त होता है।[श्रीमद्भगवद्गीता 13.31]
The Almighty addressed Arjun as Kunti Nandan! The Purush-Soul present in the body being timeless entity, free from characteristics, is a replica of the God. Though it resides in the body, yet it does nothing and remains uncontaminated, unsmeared, unconcerned and remains uninvolved (neutral, equanimous).
क्योंकि आत्मा परमात्मा का अंश है, यह शरीर में निवास करते हुए भी प्रकृति से अप्रभावित रहता है। यह अनादि-अनन्त और गुणातीत है। सात्विक, राजसिक और तामसिक आदि गुण-विकार इसमें कदापि नहीं हैं। यह शरीर में रहते हुए कोई कर्म नहीं करता और निलिप्त-निर्विकार है। इसमें कर्तव्य और भोक्तृत्व है ही नहीं। यह असंग और अविनाशी है।
The soul is a component of the God. In spite of residing in the body, it remains free from the nature which has characters. It is since ever and is forever. Satvik, Rajsik and the Tamsik characters do not affect it. It remains uncontaminated-unsmeared. Though it resides in the body, yet it does not perform. It is imperishable and detached.
यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते॥
जैसे सब जगह व्याप्त आकाश अत्यन्त सूक्ष्म होने से कहीं भी लिप्त नहीं होता, ऐसे ही सब जगह परिपूर्ण आत्मा भी देह में लिप्त (indulged, smeared, absorbed, involved, stained, engrossed, deeply attached) नहीं होता।[श्रीमद् भगवद्गीता 13.32]
The manner in which the all pervading sky-space remains unindulged, being too thin-minute-microscopic-subtlety (सूक्ष्मता), the soul too remains unindulged by residing in the body.
मनुष्य जो कुछ भी करता है, उसके पीछे फल, सिद्धि, भोक्तृत्व, लिप्तता ही होती है, जिसका त्याग करने से कर्तृत्व का त्याग स्वतः हो जाता है। पृथ्वी, तेज़, जल और वायु आकाश में व्याप्त-व्याप्य हैं तथा आकाश के अंतर्गत हैं, परन्तु आकाश इनके अंतर्गत नहीं है। आकाश की अपेक्षा ये स्थूल हैं और आकाश इनकी अपेक्षा सूक्ष्म-विरल है। ये चारों सीमित हैं, मगर आकाश असीम है। इन चारों में विकार है, परन्तु आकाश में विकार नहीं है। जिस प्रकार आकाश इन चारों भूतों में रहता हुआ भी लिप्त-विकृत नहीं होता, उसी प्रकार शरीर में रहते हुए भी आत्मा लिप्त नहीं होता। आत्मा स्वयं नित्य, सर्वगत, स्थाणु, अचल, अविनाशी, सनातन, अव्यक्त, अचिन्त्य, निर्लिप्त और अविकारी है। इस अविनाशी आत्मा से यह संसार व्याप्त है।
A man is guided by motive. He works for the sake of reward, gain, output, result etc. If he discard the desire for the reward-fruit of his endeavour, he is automatically drifted away from desires, motives, attachments. The earth, energy, air and water are held by the space-sky which remains unsmeared in spite of holding them. These four are under of the influence of space which remains out of their influence, effect, impact. These are material objects (heavy), while space is thin, minute, microscopic. These four have defects but the space-sky is free from defects. The manner in which the space remains uncontaminated, in spite of holding them, the Soul too remain unsmeared-unindulged while residing in the body. Soul is forever, always, minute, imperishable, undefined, beyond imagination, defect less, eternal and all pervading.
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥
इस संसार में जीव बना हुआ आत्मा मेरा ही सनातन अंश है; परन्तु वह प्रकृति में स्थित मन और पाँचों इन्द्रियों का आकर्षित करता है अर्थात अपना मान लेता है।[श्रीमद्भगवद्गीता 15.7]
Soul, an eternal fraction of the God, in the form of an organism; under the influence of nature considers the innerself-consciousness and the 5 senses to be his own.
3 लोक और 14 भुवन (Other cosmological regions, abodes) में जीव जितनी भी योनियों में भ्रमण करता है, वे सभी प्रभु का सनातन अंश हैं। जीव केवल भगवान् का ही अंश मात्र है। शरीर धारण करने के उपरान्त प्रकृति के प्रभाव से वह शरीर को अपना मानने लगता है। उसका मन और पाँचों इन्द्रियाँ उसे भ्रमित करते हुए मोह जाल में फाँस देती हैं। प्रभु सदैव जीव के उपकार का चिन्तन करते रहते हैं। वे प्रत्येक जीव को जानते और पहचानते हैं। परमात्मा ने मनुष्य को शास्त्र, बुद्धि और विवेक-समझ के साथ-साथ ज्ञान भी दिया है, ताकि वह हकीकत को जानकर स्वयं को इस बन्धन से मुक्त कर, परमात्मा में लीन होने का सतत-निरन्तर, दृढ निश्चय के साथ, गम्भीर प्रयास करे।
The body is mortal & the soul is immortal. The soul is eternal fraction of the God. The God is conscious about the well being of the individual organism, which passes through 3 abodes; the Heaven, Earth and Nether world, in addition to the 14 other cosmological regions-abodes, through various species. Having attained the body it considers only the body of its own, under the influence of ignorance (consciousness, psyche, innerself) and the 5 senses. He remains under the illusion till he is cautioned by the scriptures, intelligence, prudence and enlightenment. The God is always thinking of the welfare of the individual organism, since he knows and recognise each and every living being. The individual has to make serious, dedicated efforts to come out of the illusion, cut the bonds and release himself to assimilate in HIM.
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।
गृहित्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्॥
वायु गन्ध के स्थान से गन्ध को ग्रहण करके ले जाती है, ऐसे ही शरीरादि का स्वामी बना हुआ जीवात्मा भी जिस शरीर को छोड़ता है, वहाँ से इन मन (पूर्व जन्म के संस्कारों) सहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है, उसमें चला जाता है।[श्रीमद्भगवद्गीता 15.8]
Just as the air takes away the smell from its source, likewise the soul which had been occupying a body, carries the senses (habits, traits, good or bad qualities, characteristics) along with the innerself, psyche, consciousness and insert it, in the new body attained by it.
गन्ध वायु में व्याप्त हो जाती है और वह वायु जहाँ-जहाँ जाती है, वह भी वहीं चली जाती है। नई-नई गन्ध उसमें मिलती चली जाती हैं। ये विभिन्न प्रकार की गन्ध समयानुसार धीरे-धीरे स्वतः ही वायु से अलग हो जाती हैं। इसी प्रकार शरीर में स्थित आत्मा मनुष्य के स्वभाव, आदतों, अच्छाई और बुराइयों को अपने में समा लेती है। ये एकत्रित गुण-अवगुण नवीन शरीर में चले जाते हैं। अच्छी-बुरी सङ्गति, स्वाध्याय, शिक्षा-दीक्षा, पर्यावरण, समाज, घर-परिवार आदि के साथ मिलना-जुलना, सम्बन्ध, नातेदार-रिस्तेदार, मित्र आदि का प्रभाव उस पर जाने-अनजाने पड़ता है और उसके स्वभाव, मिज़ाज, व्यवहार का निर्धारण करता है। पिछले जन्मों के संसार वर्तमान जन्म में बदल सकते हैं।
वायु संसार में सर्वाधिक स्वतः स्वच्छ होने-करने की प्रवृत्ति रखती है। धीरे-धीरे हवा स्वयं ही साफ़ हो जाती है। इसी प्रकार आत्मा नये पर्यावरण-परिवार में जाकर उसके गुणों को ग्रहण कर सकती है। अतः अच्छे संस्कारों, सुसंगति के प्रभाव से मनुष्य परमात्मा की तरफ मुड़ भी सकता है। बस प्रयास, रास्ता दिखाने वाले की जरूरत है।
The air is capable of absorbing the smells, scents (pleasant or foul) of all sorts, gases, moisture, dust, smoke etc. and carries them off. Slowly and gradually these absorbed impurities are laid off or washed off in rain. The soul which is present in the body too carries off the good or bad habits, traits, qualities, characteristics to the new incarnation. The impact of previous deeds remains with the soul till it subsides. One may acquire virtues or vices depending upon the company he keeps. A good company helps in reducing the burden of vices & sins accumulated in innumerable previous births. Scriptures, history, preaching by the saints helps a lot in the purification of the soul. Just as the sweat and dirt (scum, smut, dirt, filth, rancour, offscourings, composite, grudge, grouse, rancour, dregs, feculent, मैल, झाग, लुआब, मल, बदमाश, करखी का धब्बा, काजल का कलंक, गंदी बातचीत, गंदगी, मिट्टी, धूल, कीचड़, मैल, कचरा, पंक, धूलि, मलिनता, नीचता, विद्वेष, द्वेष, शत्रुता, धृणा, मालिन्य, तलछट, मिश्रण, मिलावट, असन्तोष, द्वेष, घृणा का कारण, ईर्षा, वैर का कारण, गुनगुनानेवाला, बड़बड़ानेवाला, विद्वेष, द्वेष, शत्रुता, धृणा, मालिन्य, गंदा, पंकिल, मटमैला, बदबूदार) present over the body are washed off, similarly the negative characteristics can be dropped in the present birth through good-virtuous, pious company.
Air is the greatest cleanser. It cleans itself automatically depending upon the conditions, climate, environment. Similarly, the soul is cleansed by the pious, virtuous company with the help of the guru, guide, mentor.
श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते॥
यह जीवात्मा मन का आश्रय लेकर ही श्रोत्र और नेत्र तथा त्वचा, रसना और घ्राण (इन 5 इन्द्रियों के द्वारा) विषयों का सेवन करता है।[श्रीमद्भगवद्गीता 15.9]
The living being uses the senses pertaining to hearing, sight, touch, taste, smell through the Man :- the innerself, psyche, consciousness, mood.
जीवात्मा मन का सहारा लेकर ही इन्द्रिय सुख-दुःख, सुनना, देखना, स्पर्श, सूँघना, स्वाद आदि का अनुभव कर सकता है। पाँचों ज्ञानेद्रियों और कर्मेन्द्रियों का घनिष्ठ सम्बन्ध है। पाँचों महाभूतों के मिले हुए सत्त्वगुण अंश से मन और बुद्धि, रजोगुण अंश से प्राण और तमोगुण अंश से शरीर बना है। जीवात्मा जिस प्रकार पहले शरीर में विषयों का सेवन करता था, उसी प्रकार दूसरे शरीर में जाने पर उनका सेवन करने लगता है। इसी कारण से जीवात्मा बार-बार विषयों में आसक्तिवश विभिन्न ऊँच-नीच योनियों में भटकता रहता है। पूरी सृष्टि में केवल मानव शरीर रखकर ही प्राणी अपना उद्धार कर सकता है।
आठ गुणों से युक्त आत्मा को जानने का फल ::
य आत्मापहतपाप्मा विजरो विमृत्युर्विशोको विजिघत्सोSपिपास: सत्यकामः सत्यसङ्कल्प: सोSन्वेष्टव्य: स विजिज्ञासितव्यः स सर्वा ँ ्श्च लोकानाप्नोति स सर्वाँ ्श्च कामान्यस्तमात्मानमनुविद्य विजानातीति ह प्रजापतिरुवाच।[छान्दोग्यo 8.7.1] प्रजापति ने कहा :: जो आत्मा पापरहित, जरा (बुढ़ापा) रहित, मृत्युरहित, शोकरहित, भूख से रहित, प्यास से रहित, सत्यकाम और सत्यसङ्कल्प (इन स्वभावगत आठ गुणों से युक्त) है, उसे खोजना चाहिये, उसे जानना चाहिये। जो उसको खोजकर जान लेता है, वह सब लोकों और समस्त कामनाओं को प्राप्त होता है।
Prajapati has said that the Soul which is possessed with 8 characterises :: untainted (free from sins), ageless (does not grow old), imperishable (does not die), free from sorrow (pains, displeasure), free from hunger, free from thirst, truthful, determined to be true in resolve; should be identified (searched, traced). One who identifies it, attain all abodes i.e., Ultimate abode-Salvation (Moksh) and all his desires are fulfilled.
The living being make use of the Man-psyche, to experience the sensual pleasures-pains. The sensual and working organs are closely interlinked. The Satv Gun effects the psyche, Rajo Gun effects the life force and the Tamo Gun impacts the body. The soul experiences the pleasure-pain & passions in the body. The impact of these remain over the soul even after the death which is carried over to the next births. This process keep on going as usual, till the organism try to get rid of them and achieve Salvation which is possible through the human body only. Even the demigods & deities are spared by this rule.
श्रोत्र का वाणी से, नेत्र का पैर से, त्वचा का हाथ से, रसना का उपस्थ से और घ्राण का गुदा से अर्थात पाँचों ज्ञानेन्द्रियों का कर्मेन्द्रियों से घनिष्ट सम्बन्ध है। जो जन्म से बहरा होता है, वह गूँगा भी होता है। पैर के तलवे की तेल मालिश का आँखों पर असर होता है। त्वचा के होने से ही हाथ का स्पर्श अनुभव होता है। रसनेंद्रिय के वश में होने से उपस्थेन्द्रिय भी वश में हो जाती है। घ्राण से गन्ध को ग्रहण करने तथा उससे सम्बंधित गुदा से गन्ध का त्याग होता है।
The ignorant do not know-understand the characteristics of the living being either departing from the body or staying in the other body or enjoying sensual pleasures; but the enlightened having the vision-eyes of learning know it.
स्थूल शरीर को छोड़ते समय जीव, सूक्ष्म और कारण शरीर के साथ प्रस्थान करता है। हृदय की धड़कन बन्द होने के बाद भी मस्तिष्क के कार्यरत रहने तक प्राण वायु रहती है और जीव का प्रस्थान नहीं माना जाता। मृत्यु काल में मनुष्य जिस जिस भाव के चिन्तन में लगा होता है, उसी आकर का सूक्ष्म शरीर बन जाता है और वही उसके कारण शरीर में अंकित हो जाता है। विषय वासनाओं से ग्रस्त मनुष्य भोगों से आगे भी कुछ है, यह सोचता ही नहीं। जीवात्मा पहले शरीर से, दूसरे में स्थानांतरण और विषय भोग में निष्क्रिय रहता है। गुणों से लिप्त दीखने पर भी निलिप्त रहता है। आत्मा का गुणों से सम्बन्ध है ही नहीं। ज्ञानहीन-मूढ़ व्यक्ति इन बातों के बारे में न तो जानता ही सोचता है। अविवेकी गुणों से मोहित होकर राग, भोग में लगा रहता है।
The soul departs the body with the micro body which it had been thinking of at that moment and the third stage of the body-absolute body carries the features of the present body to next incarnation. Till the heart is functioning and the brain is working, one is said to be alive. Ignorant does not think beyond passions, sensual pleasure, comforts. Whole life goes waste in earning, feeding and fighting the problems. The soul present in the body remain inactive during survival, transition to other body and the interaction with the community-society throughout the life. The soul remain unconcerned, neutral, passive with the characteristics. The imprudent-ignorant is unaware of the soul, its characteristics and life after death. He is busy with his desires, motives, ambitions, targets, goals etc., only.
योगी हृदय की धड़कन बंद करके जहाँ-तहाँ शूक्ष्म शरीर के साथ भ्रमण करते हैं। उनका शरीर यथावत रहता है मगर दिल की धड़कन न्यूनतम हो जाती है। उनका शरीर सामान्यतया गर्म ही रहता है।
Yogis are found to move with their micro body from one place to another with the thoughts-desire. Their body normally remain warm, heart beat becomes minimum but the brain keeps working.
श्रोत्र का वाणी से, नेत्र का पैर से, त्वचा का हाथ से, रसना का उपस्थ से और घ्राण का गुदा से अर्थात पाँचों ज्ञानेन्द्रियों का कर्मेन्द्रियों से घनिष्ट सम्बन्ध है। जो जन्म से बहरा होता है, वह गूँगा भी होता है। पैर के तलवे की तेल मालिश का आँखों पर असर होता है। त्वचा के होने से ही हाथ का स्पर्श अनुभव होता है। रसनेंद्रिय के वश में होने से उपस्थेन्द्रिय भी वश में हो जाती है। घ्राण से गन्ध को ग्रहण करने तथा उससे सम्बंधित गुदा से गन्ध का त्याग होता है।
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः॥[श्रीमद् भगवद्गीता 15.10]
शरीर को छोड़कर जाते या दूसरे शरीर में स्थित हुए अथवा विषयों को भोगते हुए भी गुणों से युक्त जीवात्मा के स्वरूप को मूढ़ मनुष्य नहीं जानते, ज्ञानरुपी नेत्रों वाले ज्ञानी मनुष्य ही जानते हैं। The ignorant do not know-understand the characteristics of the living being either departing from the body or staying in the other body or enjoying sensual pleasures; but the enlightened having the vision-eyes of learning know it.
स्थूल शरीर को छोड़ते समय जीव, सूक्ष्म और कारण शरीर के साथ प्रस्थान करता है। हृदय की धड़कन बन्द होने के बाद भी मस्तिष्क के कार्यरत रहने तक प्राण वायु रहती है और जीव का प्रस्थान नहीं माना जाता। मृत्यु काल में मनुष्य जिस जिस भाव के चिन्तन में लगा होता है, उसी आकर का सूक्ष्म शरीर बन जाता है और वही उसके कारण शरीर में अंकित हो जाता है। विषय वासनाओं से ग्रस्त मनुष्य भोगों से आगे भी कुछ है, यह सोचता ही नहीं। जीवात्मा पहले शरीर से, दूसरे में स्थानांतरण और विषय भोग में निष्क्रिय रहता है। गुणों से लिप्त दीखने पर भी निलिप्त रहता है। आत्मा का गुणों से सम्बन्ध है ही नहीं। ज्ञानहीन-मूढ़ व्यक्ति इन बातों के बारे में न तो जानता ही सोचता है। अविवेकी गुणों से मोहित होकर राग, भोग में लगा रहता है।
The soul departs the body with the micro body which it had been thinking of at that moment and the third stage of the body-absolute body carries the features of the present body to next incarnation. Till the heart is functioning and the brain is working, one is said to be alive. Ignorant does not think beyond passions, sensual pleasure, comforts. Whole life goes waste in earning, feeding and fighting the problems. The soul present in the body remain inactive during survival, transition to other body and the interaction with the community-society throughout the life. The soul remain unconcerned, neutral, passive with the characteristics. The imprudent-ignorant is unaware of the soul, its characteristics and life after death. He is busy with his desires, motives, ambitions, targets, goals etc., only.
योगी हृदय की धड़कन बंद करके जहाँ-तहाँ शूक्ष्म शरीर के साथ भ्रमण करते हैं। उनका शरीर यथावत रहता है मगर दिल की धड़कन न्यूनतम हो जाती है। उनका शरीर सामान्यतया गर्म ही रहता है।
Yogis are found to move with their micro body from one place to another with the thoughts-desire. Their body normally remain warm, heart beat becomes minimum but the brain keeps working.
निषेध मुख से आत्मा 8 के गुण :: अच्छेद्य, अक्लेद्य, अदाह्य, अशोष्य, अचल, अव्यक्त, अचिन्त्य और अविकार्य से युक्त माना गया है।
The Soul has 8 characteristics through negativity or contradiction :: It can not be cut-divided, wet, burnt, sucked, inertial (unmovable, stationary), unrevealed, beyond thought, untainted-unsmeared.
आत्मा विधिमुख से :- नित्य, सनातन, स्थाणु और सर्वगत है। इसके वास्तविक स्वरूप का वर्णन इसलिये भी सम्भव नहीं है, क्योंकि यह वाणी का विषय नहीं है और स्वयं वाणी इससे प्रकट होती है।
The Soul has 4 characteristics through positivity-reasoning :: Perennial, absolute, perpetual, stable, stationary, immobile and ancient-since ever, which is pervaded-present in each and every particle including all organism.
आठ गुणों से युक्त आत्मा को जानने का फल ::
य आत्मापहतपाप्मा विजरो विमृत्युर्विशोको विजिघत्सोSपिपास: सत्यकामः सत्यसङ्कल्प: सोSन्वेष्टव्य: स विजिज्ञासितव्यः स सर्वा ँ ्श्च लोकानाप्नोति स सर्वाँ ्श्च कामान्यस्तमात्मानमनुविद्य विजानातीति ह प्रजापतिरुवाच।
जो आत्मा पापरहित, जरा (बुढ़ापा) रहित, मृत्युरहित, शोकरहित, भूख से रहित, प्यास से रहित, सत्यकाम और सत्यसङ्कल्प (इन स्वभावगत आठ गुणों से युक्त) है, उसे खोजना चाहिये, उसे जानना चाहिये। जो उसको खोजकर जान लेता है, वह सब लोकों और समस्त कामनाओं को प्राप्त होता है।[प्रजापति छान्दोग्य. 8.7.1]
Untainted (free from sins), ageless (does not grow old), imperishable (does not die), free from sorrow (pains, displeasure), free from hunger, free from thirst, truthful-determined to be true in resolve; are the 8 characteristics possessed by the Soul which should be identified (searched, traced) by one within himself. One who identifies it, attain all abodes i.e., Ultimate abode-Salvation (Moksh) and all his desires are fulfilled.
अनच्छये तुरगातु जीवमेजदध्रुवं मध्य आ पस्त्यानाम्।
जीवो मृतस्य चरति स्वधाभिरमर्त्यो मर्त्येना सयोनिः॥
श्वास प्रक्रिया द्वारा अस्तित्व में रहने वाला जीव जब शरीर से चला जाता है, तब यह शरीर गृह में निश्चल पड़ा रहता है। मरण शील शरीरों के साथ रहने वाली आत्मा अविनाशी है अर्थात् इसका कभी विनाश नहीं होता। इसलिए अविनाशी आत्मा अपनी धारण करने की शक्तियों से युक्त होकर सभी जगह भ्रमण करती है।[ऋग्वेद 1.164.30]
चंचल चित्त वाला, श्वास परिपूर्ण जीव अपने गृह में अह्निवल रूप से वास करता है। मरण धर्म वालों को अन्न से परिपूर्ण होता हुआ वह अमरजीव स्वधा के भक्षण करता हुआ वास करता है।
Respiration-breathing keep the organism alive. When the soul depart the living being become motionless-dead. The soul which reside in the perishable bodies is immortal-forever. Hence it roams everywhere keeping its powers with it.
आत्मा की सात अवस्थाएं :: वेदों के अनुसार जन्म और मृत्यु के बीच और फिर मृत्यु से जन्म के बीच तीन अवस्थाएं ऐसी हैं जो अनवरत और निरंतर चलती रहती हैं। वह तीन अवस्थाएं हैं :- जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति।
जागा हुआ व्यक्ति जब सोता है तो पहले स्वप्निक अवस्था में चला जाता है फिर जब नींद गहरी होती है तो वह सुषुप्ति अवस्था में होता है। इसी के उल्टे क्रम में वह सवेरा होने पर पुन: जागृत हो जाता है। व्यक्ति एक ही समय में उक्त तीनों अवस्था में भी रहता है। कुछ लोग जागते हुए भी स्वप्न देख लेते हैं अर्थात वे गहरी कल्पना में चले जाते हैं।
जो व्यक्ति उक्त तीनों अवस्था से बाहर निकलकर खुद का अस्तित्व कायम कर लेता है वही मोक्ष के, मुक्ति के और ईश्वर के सच्चे मार्ग पर है। उक्त तीन अवस्था से क्रमश: बाहर निकला जाता है। इसके लिए निरंतर ध्यान करते हुए साक्षी भाव में रहना पड़ता है तब हासिल होती है :- तुरीय अवस्था, तुरीयातीत अवस्था, भगवत चेतना और ब्राह्मी चेतना।
जागृत अवस्था :- यह आलेख पढ़ते समय जागृत अवस्था है। ठीक-ठीक वर्तमान में रहना ही चेतना की जागृत अवस्था है, लेकिन अधिकतर लोग ठीक-ठीक वर्तमान में भी नहीं रहते। जागते हुए कल्पना और विचार में खोए रहना ही तो स्वप्न की अवस्था है।
भविष्य की कोई योजना बनाते वक़्त वर्तमान में नहीं रहकर कल्पना-लोक में चले जाते हैं। कल्पना का यह लोक यथार्थ नहीं एक प्रकार का स्वप्न-लोक होता है। जब हम अतीत की किसी याद में खो जाते हैं, तो हम स्मृति-लोक में चले जाते हैं। यह भी एक-दूसरे प्रकार का स्वप्न-लोक ही है।
अधिकतर लोग स्वप्न लोक में जीकर ही मर जाते हैं, वे वर्तमान में अपने जीवन का सिर्फ 10 प्रतिशत ही जी पाते हैं, तो ठीक-ठीक वर्तमान में रहना ही चेतना की जागृत अवस्था है।
स्वप्न अवस्था :- जागृति और निद्रा के बीच की अवस्था को स्वप्न अवस्था कहते हैं। निद्रा में डूब जाना अर्थात सुषुप्ति अवस्था कहलाती है। स्वप्न में व्यक्ति थोड़ा जागा और थोड़ा सोया रहता है। इसमें अस्पष्ट अनुभवों और भावों का घालमेल रहता है इसलिए व्यक्ति कब कैसे स्वप्न देख ले कोई भरोसा नहीं।
स्वप्न दिन भर के जीवन, विचार, भाव और सुख-दुख पर आधारित होते हैं। यह किसी भी तरह का संसार रच सकते हैं।
सुषुप्ति अवस्था :- गहरी नींद को सुषुप्ति कहते हैं। इस अवस्था में पाँच ज्ञानेंद्रियां और पाँच कर्मेंद्रियां सहित चेतना विश्राम करते हैं।
पाँच ज्ञानेंद्रियां :- चक्षु, श्रोत्र, रसना, घ्राण और त्वचा।
पाँच कर्मेंन्द्रियां :- वाक्, हस्त, पैर, उपस्थ और पायु।
सुषुप्ति की अवस्था चेतना की निष्क्रिय अवस्था है। यह अवस्था सुख-दुःख के अनुभवों से मुक्त होती है। इस अवस्था में किसी प्रकार के कष्ट या किसी प्रकार की पीड़ा का अनुभव नहीं होता। इस अवस्था में न तो क्रिया होती है, न क्रिया की संभावना। मृत्यु काल में अधिकतर लोग इससे और गहरी अवस्था में चले जाते हैं।
तुरीय अवस्था :- चेतना की चौथी अवस्था को तुरीय चेतना कहते हैं। यह अवस्था व्यक्ति के प्रयासों से प्राप्त होती है। चेतना की इस अवस्था का न तो कोई गुण है, न ही कोई रूप। यह निर्गुण है, निराकार है। इसमें न जागृति है, न स्वप्न और न सुषुप्ति। यह निर्विचार और अतीत व भविष्य की कल्पना से परे पूर्ण जागृति है।
यह उस साफ और शांत जल की तरह है जिसका तल दिखाई देता है। तुरीय का अर्थ होता है चौथी। इसके बारे में कुछ कहने की सुविधा के लिए इसे सँख्या से संबोधित करते हैं। यह पारदर्शी कांच या सिनेमा के सफेद पर्दे की तरह है जिसके ऊपर कुछ भी दर्शित नहीं हो रहा।
जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि चेतनाएं तुरीय के पर्दे पर ही घटित होती हैं और जैसी घटित होती हैं, तुरीय चेतना उन्हें हू-ब-हू हमारे अनुभव को प्रक्षेपित कर देती है। यह आधार-चेतना है। यहीं से शुरू होती है आध्यात्मिक यात्रा, क्योंकि तुरीय के इस पार संसार के दुःख तो उस पार मोक्ष का आनंद होता है। बस, छलांग लगाने की जरूरत है।
तुरीयातीत अवस्था :- तुरीय अवस्था के पार पहला कदम तुरीयातीत अनुभव का। यह अवस्था तुरीय का अनुभव स्थाई हो जाने के बाद आती है। चेतना की इसी अवस्था को प्राप्त व्यक्ति को योगी या योगस्थ कहा जाता है।
इस अवस्था में अधिष्ठित व्यक्ति निरंतर कर्म करते हुए भी थकता नहीं। इस अवस्था में काम और आराम एक ही बिंदु पर मिल जाते हैं। इस अवस्था को प्राप्त कर लिया, तो हो गए जीवन रहते जीवन-मुक्त। इस अवस्था में व्यक्ति को स्थूल शरीर या इंद्रियों की आवश्यकता नहीं रहती। वह इनके बगैर भी सबकुछ कर सकता है। चेतना की तुरीयातीत अवस्था को ही सहज-समाधि भी कहते हैं।
भगवत चेतना :- तुरीयातीत की अवस्था में रहते-रहते भगवत चेतना की अवस्था बिना किसी साधना के प्राप्त हो जाती है। इसके बाद का विकास सहज, स्वाभाविक और निस्प्रयास हो जाता है।
इस अवस्था में व्यक्ति से कुछ भी छुपा नहीं रहता और वह संपूर्ण जगत को भगवान की सत्ता मानने लगता है। यह एक महान सिद्ध योगी की अवस्था है ।
ब्राह्मी चेतना :- भगवत चेतना के बाद व्यक्ति में ब्राह्मी चेतना का उदय होता है अर्थात कमल का पूर्ण रूप से खिल जाना। भक्त और भगवान का भेद मिट जाना। अहम् ब्रह्मास्मि और तत्वमसि अर्थात मैं ही ब्रह्म हूं और यह संपूर्ण जगत ही मुझे ब्रह्म नजर आता है।
इस अवस्था को ही योग में समाधि की अवस्था कहा गया है अर्थात जीते-जी मोक्ष।
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