Sunday, August 17, 2014

SWASTIC स्वास्तिक-स्वस्तिवाचन*

SWASTIC
स्वास्तिक-स्वस्तिवाचन
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
स्वस्तिक मंत्र शुभ और शांति के लिए प्रयुक्त होता है। स्वस्ति = सु + अस्ति = कल्याण हो। इससे हृदय और मन मिल जाते हैं। मंत्रोच्चार करते हुए दर्भ से जल के छींटे डाले जाते हैं. यह माना जाता है कि यह जल पारस्परिक क्रोध और वैमनस्य को शांत कर रहा है। स्वस्ति मन्त्र का पाठ करने की क्रिया 'स्वस्तिवाचन' कहलाती है।
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः। स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः। स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
गृहनिर्माण के समय स्वस्तिक मंत्र बोला जाता है। मकान की नींव में घी और दुग्ध छिड़का जाता था। ऐसा विश्वास है कि इससे गृहस्वामी को दुधारु गाएँ प्राप्त हेती हैं एवं गृहपत्नी वीर पुत्र उत्पन्न करती है। खेत में बीज डालते समय प्रार्थना की जाती है कि विद्युत् इस अन्न को क्षति न पहुँचाए, अन्न की विपुल उन्नति हो और फसल को कोई कीड़ा न लगे। पशुओं की समृद्धि के लिए भी स्वस्तिक मंत्र का प्रयोग होता है जिससे उनमें कोई रोग ना लगे। गायों को खूब बच्चे उत्पन्न करें।
यात्रा के आरंभ में स्वस्तिक मंत्र बोला जाता है ताकि यात्रा सफल और सुरक्षित हो, मार्ग में हिंसक पशु या चोर और डाकू ना मिलें। व्यापार में लाभ हो। अच्छे मौसम के लिए भी इस मन्त्र का जाप किया जाता है, जिससे दिन और रात्रि सुखद हों, स्वास्थ्य लाभ हो तथा खेती को कोई हानि न हो।
पुत्र जन्म पर स्वस्तिक मंत्र अत्यावश्यक है। इससे बच्चा स्वस्थ रहता है, उसकी आयु बढ़ती थी और उसमें शुभ गुणों का समावेश होता है। इसके अलावा भूत, पिशाच तथा रोग उसके पास नहीं आ सकते थे। षोडश संस्कारों में भी इस मंत्र का उपयोग किया जाता है। स्वस्तिक मंत्र शरीर रक्षा, सुखप्राप्ति एवं आयुवृद्धि के लिए प्रयुक्त होता है।
गणेशाम्बिका पूजन :: यजमान हाथ में पुष्प लेकर गणेश जी महाराज और माँ अम्बिका का ध्यान करें करते हुए निम्न मन्त्रों का पाठ-उच्चारण करें :-
सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः। 
लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायक:॥
धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजानन:। 
द्वद्शैतानि नामानि यः पठे च्छ्रिणुयादपी॥
विद्यारंभे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा। 
संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते॥
शुक्लाम्बरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजम्। 
प्रसन्नवदनं ध्यायेत् सर्व्विघ्नोपशान्तये॥
अभिप्सितार्थ सिद्ध्यर्थं पूजितो य: सुरासुरै:। 
सर्वविघ्नहरस्तस्मै गणाधिपतये नम:॥
सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके। 
शरण्ये त्र्यम्बिके गौरी नारायणि नमोस्तुते॥
सर्वदा सर्वकार्येषु नास्ति तेषाममङ्गलम्। 
येषां हृदयस्थो भगवान् मङ्गलायतनो हरि:॥
तदेव लग्नं सुदिनं तदेव ताराबलं चन्द्रबलं तदेव।
विद्याबलं दैवबलं तदेव लक्ष्मीपते तेन्घ्रियुगं स्मरामि॥
लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजय:। 
येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दन:॥
यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर:। 
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥
अनन्यास्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥
स्मृतेःसकल कल्याणं भाजनं यत्र जायते। 
पुरुषं तमजं नित्यं व्रजामि शरणं हरम्॥
सर्वेष्वारंभ कार्येषु त्रय:स्त्री भुवनेश्वरा:। 
देवा दिशन्तु नः सिद्धिं ब्रह्मेशानजनार्दना:॥
विश्वेशम् माधवं दुन्धिं दण्डपाणिं च भैरवम्।
वन्दे कशी गुहां गंगा भवानीं मणिकर्णिकाम्॥
वक्रतुण्ड् महाकाय सूर्य कोटि समप्रभ। 
निर्विघ्नं कुरु में देव सर्वकार्येषु सर्वदा॥ ॐ श्री गणेशाम्बिकाभ्यां नम:।
हाथ में लिया हुआ पुष्प गणेश जी महाराज माँ अम्बिका की मूर्ति या सुपारी से बनाए हुए भगवान् पर चढ़ा दें। इसके पश्चात दाँये हाथ में पुष्प, कुश, तिल, जौ, जल, द्रव्य लेकर संकल्प करना चाहिए।
ऋग्वेद संहिता, प्रथम मण्डल सूक्त (89) :: ऋषि :- गौतम राहूगण, देवता :- मविश्वेदेवा इत्यादयः ,  छन्द :- जगती, त्रिष्टुप्।
आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो अपरीतास उद्भिदः। 
देवा नो यथा सदमिधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवेदिवे
कल्याणकारी, अहिंसित, अप्रतिरुद्ध और शत्रु नाशक समस्त यज्ञ चारों ओर से हमें प्राप्त हों अथवा हमारे पास आयें। जो हमें न छोड़कर प्रतिदिन हमारी रक्षा करते हैं, वे ही देवता सदा हमें वर्द्धित करें।[ऋग्वेद 1.89.1]
अमर, अपराजित, वृद्धि से परिपूर्ण, कल्याणकारी वचन को हम ग्रहण करें जिससे विश्वेदेवा हमारी वृद्धि करते हुए रक्षक हों।
हमारे पास चारों ओर से ऐसे कल्याणकारी विचार आते रहें जो किसी से न दबें, उन्हें कहीं से बाधित न किया जा सके एवं अज्ञात विषयों को प्रकट करने वाले हों। प्रगति को न रोकने वाले और सदैव रक्षा में तत्पर देवता प्रतिदिन हमारी वृद्धि के लिए तत्पर रहें।
Let us make of sorts of efforts-Yagy, so that the beneficial, non violent, slayer-killer of the enemy demigods-deities, Vishwedeva protect us and ensure our progress.
देवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां देवानां रातिरभि नो नि वर्तताम्। 
देवानां सख्यमुप सेदिमा वयं देवा न आयुः प्र तिरन्तु जीवसे
यजमान प्रिय देवता लोग कल्याण वाहक अनुग्रह हमारे सामने ले आयें और उनका दान भी हमारे सामने आये। हम उन देवों का अनुग्रह प्राप्त करें और वे हमारी आयु बढ़ावें।[ऋग्वेद 1.89.2]
देवताओं का ध्यान और दान हमारी ओर प्रेरित हो। हम उनके मित्र बनने को प्रयत्न करें। वे हमारी आयु की वृद्धि करें।
यजमान की इच्छा रखने वाले देवताओं की कल्याण कारिणी श्रेष्ठ बुद्धि सदा हमारे सम्मुख रहे, देवताओं का दान हमें प्राप्त हो, हम देवताओं की मित्रता प्राप्त करें, देवता हमारी आयु को जीने के निमित्त बढ़ायें।
Let the demigod-deities who like the hosts-devotees, come with their blessings-obligations and donations to us. Let us be friendly with them and they should enhance-boost our longevity.
तान्पूर्वया निविदा हूमहे वयं भगं मित्रमदितिं दक्षमस्त्रिधम्।  
अर्यमणं वरुणं सोममश्विना सरस्वती नः सुभगा मयस्करत्॥
उन देवों को पूर्व के वेदात्मक वाक्य द्वारा हम बुलाते हैं। भग, मित्र, अदिति, दक्ष, अस्त्रिध या मरुद्रण, अर्यमा, वरुण, सोम और अश्विनी कुमारों को हम बुलाते हैं। सौभाग्य शालिनी देवी सरस्वती हमारे सुख का सम्पादन करें।[ऋग्वेद 1.89.3]
अदिति (देवमाता), आकाश, अन्तरिक्ष, माता, पिता और समस्त देव हैं। अदिति पंचजन है और अदिति जन्म और जन्म का कारण है। उन भग, मित्र, अदिति, दक्ष, अर्यमा, तरुण, चन्द्र और अश्विनी कुमारों का हम प्राचीन प्रार्थनाओं से आह्वान करते हैं। वे सौभाग्य प्रदान करने वाली सरस्वती हमें सुख प्रदान करें।
हम वेदरुप सनातन वाणी के द्वारा अच्युतरुप भग, मित्र, अदिति, प्रजापति, अर्यमण, वरुण, चन्द्रमा और अश्विनी कुमारों का आवाहन करते हैं। ऐश्वर्यमयी सरस्वती महावाणी हमें सब प्रकार का सुख प्रदान करें।
We call the demigods-deities :- Bhag, Mitr, Aditi, Daksh, Astridh, Marud Gan, Aryma, Varun, Som-Moon, Ashwani Kumars with the help of Ved Sukt, Strotr verses-hymns.  Let Mata Saraswati bless us and grant us comforts.
तन्नो वातो मयोभु वातु भेषजं तन्माता पृथिवी तत्पिता द्यौः। 
तद्ग्रावाण: सोमसुतो मयोभुवस्तदश्विना शृणुतं धिष्ण्या युवम् 
हमारे पास वायुदेव कल्याण वाहक भेषज ले आवें; माता मेदिनी और पिता द्युलोक भी ले आवें। सोम चुआने वाले और सुखकर स्तर भी उस औषध को ले आवें। ध्यान करने योग्य दोनों अश्विनी कुमारो, आप लोग हमारी याचना श्रवण करें।[ऋग्वेद 1.89.4]
भेषज :: रोगी को स्वस्थ करने अथवा रोग का इलाज या उसकी रोकथाम करने के लिए विधिपूर्वक बनाया हुआ पदार्थ; रोगी को निरोग तथा स्वस्थ करना या बनाना; Pharmaceutical। औषधि, जल, इत्यादि। 
पवन हमको सुख देने वाली औषधियाँ प्राप्त करायें। जननी पृथ्वी, जनक आकाश और सोम निष्पन्न करने वाले पाषणा यह औषधि लाएँ। हे अश्वि देवो! तुम उच्च पदवी वाले हो, हमारी वंदना सुनो।
वायुदेवता हमें सुखकारी औषधियाँ प्राप्त करायें। माता पृथ्वी और पिता स्वर्ग भी हमें सुखकारी औषधियाँ प्रदान करें। सोम का अभिषव करने वाले सुखदाता ग्रावा उस औषधरुप अदृष्ट को प्रकट करें। हे अश्विनी-कुमारो! आप दोनों सबके आधार हैं, हमारी प्रार्थना सुनिये।
Let Pawan Dev, Mother earth and the heavens arrange Pharmaceuticals for us. Bring those medicines-herbs from which Somras can be extracted. Hey Ashwani Kumars! Please listen-answer to our prayers.
तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियंजिन्वमवसे हूमहे वयम्। 
पूषा नो यथा वेदसामसद्वृधे रक्षिता पायुरदब्य: स्वस्तये॥
उस ऐश्वर्यशाली, स्थावर और जंगम के अधिपति और यज्ञ तोष इन्द्रदेव को अपनी रक्षा के लिए हम बुलाते हैं। जैसे पूषा हमारे धन की वृद्धि के लिए रक्षणशील है, वैसे ही अहिंसित पूषा हमारे मंगल के लिए रक्षक हो।[ऋग्वेद 1.89.5]
स्थावर जंगम के पोषणकर्त्ता मति प्रेरक विश्वेदेवों को हम रक्षार्थ पुकारते हैं, जिससे अहिंसित पूषा हमारे धन की वृद्धि करने वाले और रक्षक हों।
हम स्थावर-जंगम के स्वामी, बुद्धि को सन्तोष देनेवाले रुद्रदेवता का रक्षा के निमित्त आवाहन करते हैं। वैदिक ज्ञान एवं धन की रक्षा करने वाले, पुत्र आदि के पालक, अविनाशी पुष्टि-कर्ता देवता हमारी वृद्धि और कल्याण के निमित्त हों।
We call-request Vishw Dev-Indr Dev for our protection. The way Push Dev non violent protect our wealth, he may become beneficial to us.
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः। 
स्वस्ति नस्ताक्ष्र्यो  अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥
अपरिमेय स्तुति पात्र इन्द्र और सर्वज्ञ पूषा हमें मंगल प्रदान करें। तृक्ष के पुत्र कश्यप या अहिंसित रथनेमि युक्त गरुड़ तथा बृहस्पति हमें मंगल प्रदान करें।[ऋग्वेद 1.89.6]
यशस्वी इन्द्रदेव कल्याण करने वाले हों। धन से युक्त मंगल भी पूषा करें। जिनके रथ के पहिये के वेग का कोई नहीं रोक सकता, ऐसे अश्व सूर्य और बृहस्पति हमारा उद्धार करें।
महती कीर्ति वाले ऐश्वर्यशाली इन्द्र हमारा कल्याण करें, जिसको संसार का विज्ञान और जिसका सब पदार्थों में स्मरण है, सबके पोषणकर्ता वे पूषा (सूर्य) हमारा कल्याण करें। जिनकी चक्रधारा के समान गति को कोई रोक नहीं सकता, वे गरुड़देव हमारा कल्याण करें। वेदवाणी के स्वामी बृहस्पति हमारा कल्याण करें।
Let honourable Indr Dev and enlightened Push Dev look to our welfare. Kashyap, the son of Traksh or non violent Garud Dev & Brahaspati perform our welfare.
पृषदश्वा मरुतः पृश्निमातरः शुभंयावानो विदथेषु जग्मयः।
अग्निजिहा मनवः सूरचक्षसो विश्वे नो देवा अवसा गमन्नि ह॥
श्वेत बिन्दु चिह्नित अश्ववाले, पृश्नि के पुत्र शोभन गतिशाली, यज्ञगामी, अग्रि जिव्हा पर अवस्थित बुद्धिशाली और सूर्य के समान प्रकाशशाली मरुत देव हमारी रक्षा के लिए यहाँ पधारे।[ऋग्वेद 1.89.7]
चित्र-विचित्र घोड़ों से युक्त सुन्दर गति से यज्ञों को प्राप्त होने वाले मरुद्गण सूर्य के समान तेजस्वी मनु और सभी देवगण अपने रक्षण-साधनों सहित यहाँ पधारें।
चितकबरे वर्ण के घोड़ों वाले, अदिति माता से उत्पन्न, सबका कल्याण करने वाले, यज्ञशालाओं में जाने वाले, अग्निरुपी जिह्वा वाले, सर्वज्ञ, सूर्यरुप नेत्र वाले मरुद्गण और विश्वेदेव देवता हविरुप अन्न को ग्रहण करने के लिये हमारे इस यज्ञ में आयें।
Let enlightened Marud Gan-the son of earth, as bright as Sun, stationed our the edge of fire, moves fast with their white spotted horses, come here to protect us. 
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूः भिर्व्यशेम देवहितं यदायुः
हे देवगण! हम कानों से मंगलप्रद वाक्य सुनें, हे यजनीय देवगण! हम आँखों से मंगलवाहक वस्तु देखें, हम दृढ़ाङ्ग शरीर से सम्पन्न होकर आपकी स्तुति करके ब्रह्मा द्वारा निर्दिष्ट आयु प्राप्त करें।[ऋग्वेद 1.89.8]
हे पूज्य देवगण! हम वंदनाकारी कल्याणप्रद वाणी को सुने। मंगल कार्यों को नेत्र से देखें। पुष्ट शरीरों से देवताओं द्वारा नियत की गई आयु का प्रयोग करें।
Hey honourable demigods-deities! Let us listen the words spell our welfare, our eyes should see the objects meant for our welfare, our body-physique should be strong enough to enjoy the age granted by Brahma Ji-the creator. 
शतमिन्नू शरदो अन्ति देवा यत्रा नश्चक्रा जरसं तनूनाम्। 
पुत्रासो यत्र पितरो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः॥
हे देवगण! मनुष्यों के लिए (आप लोगों के द्वारा) सौ वर्ष की आयु ही कल्पित है। इसी बीच आप लोग शरीर में बाधा उत्पन्न करते हैं और इसी बीच पुत्र लोग पिता हो जाते हैं। उस निर्दिष्ट आयु के बीच हमें विनष्ट मत करो।[ऋग्वेद 1.89.9]
हे देवताओं! जब हमें बुढ़ापा देखे तो तब हम लगभग सौ वर्ष के होते हैं। उस समय हमारे पुत्र भी जनक बन जाते हैं। तुम हमको अल्प आयु में मृत्यु को प्राप्त न करवाना।
हे यजमान के रक्षक देवतागण! हम दृढ अंगों वाले शरीर से पुत्र आदि के साथ मिलकर आपकी स्तुति करते हुए कानों से कल्याण की बातें सुनें, नेत्रों से कल्याणमयी वस्तुओं को देखें, देवताओं की उपासना-योग्य आयु को प्राप्त करें।
Hey deities-demigods! You have fixed the maximum age of humans to be 100 years. You develop many disturbances, ailments, troubles, difficulties, diseases in the body. Just then the sons become fathers. Please do not destroy-kill us before-during that age.
The age of humans during Sat Yug is 400 years, Tretra Yug 300 years, Dwapar Yug 200 years and during Kali Yug it is 100 years. But exceptions are always there. Those who continue Yog practice, maintain regular life style & diet, resort to high moral & character may live up to 500 years during Kali Yug as well.
अदितिर्द्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता स पिता स पुत्रः। 
विश्वे देवाः अदितिः पञ्च जनाः अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम्
अदिति-देवमाता, आकाश, अंतरिक्ष, माता-पिता और समस्त देवगण हैं। अदिति पञ्चजन हैं और जन्म का कारण हैं।[ऋग्वेद 1.89.9]
पञ्चजन :: चार वर्ण और पाँचवां वर्ण निषाद है। इनको पाँच जाति (race, नस्ल) भी कहा गया है। चार ऋत्विक और एक यजमान को मिलाकर पाँच होते हैं। 
आकाश, अंतरिक्ष, माता-पिता, पुत्र, सभी देवगण, सम्पूर्ण जातियाँ या जो उत्पन्न हुआ है या उत्पन्न होगा, यह सभी अदिति रूप हैं।
हे देवता गण! आप सौ वर्ष की आयु-पर्यन्त हमारे समीप रहें, जिस आयु में हमारे शरीर को जरावस्था प्राप्त हो, जिस आयु में हमारे पुत्र पिता अर्थात् पुत्रवान् बन जाएँ, हमारी उस गमनशील आयु को आपलोग बीच में खण्डित न होने दें।
Sky, space-heavens, parents and all deities-demigods are the various forms of Dev Mata Aditi. She is he rot cause behind the birth of all organism.
Each and every organism is the component of the Almighty-God. Birth-rebirth, reincarnations are the outcome of the deeds-endeavours of living beings in various births.
अदितिर्द्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता स पिता स पुत्रः।
विश्वेदेवा अदितिः पंचजना अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम॥
अखण्डित पराशक्ति स्वर्ग है, वही अन्तरिक्ष-रुप है, वही पराशक्ति माता-पिता और पुत्र भी है। समस्त देवता पराशक्ति के ही स्वरुप हैं, अन्त्यज सहित चारों वर्णों के सभी मनुष्य पराशक्तिमय हैं, जो उत्पन्न हो चुका है और जो उत्पन्न होगा, सब पराशक्ति के ही स्वरुप हैं।[ऋग्वेद 1.89.10]
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:, पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:, सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥
द्युलोक शान्तिदायक हों, अन्तरिक्ष लोक शान्तिदायक हों, पृथ्वी लोक शान्तिदायक हो। जल, औषधियाँ और वनस्पतियाँ शान्तिदायक हों। सभी देवता, सृष्टि की सभी शक्तियाँ शान्तिदायक हों। ब्रह्म अर्थात महान परमेश्वर हमें शान्ति प्रदान करने वाले हों। उनका दिया हुआ ज्ञान, वेद शान्ति देने वाले हों। सम्पूर्ण चराचर जगत शान्ति पूर्ण हों अर्थात सब जगह शान्ति ही शान्ति हो। ऐसी शान्ति मुझे प्राप्त हो और वह सदा बढ़ती ही रहे। अभिप्राय यह है कि सृष्टि का कण-कण हमें शान्ति प्रदान करने वाला हो। समस्त पर्यावरण ही सुखद व शान्तिप्रद हो।
यतो यत: समीहसे ततो नो अभयं कुरु। 
शं न: कुरु प्रजाभ्यो भयं न: पशुभ्य:॥
सुशान्तिर्भवतु।श्री मन्महागणाधिपतये नमः। लक्ष्मीनारायणाभ्यां नम:। उमामहेश्वराभ्यां नम:। वाणीहिरण्यगर्भाभ्यां नं:। शचिपुरन्दराभ्यां नम:। इष्टदेवताभ्यो नम:। कुलदेवताभ्यो नम:। ग्रामदेवताभ्यो नम:। वास्तुदेवताभ्यो नम:। स्थानदेवताभ्यो नम:। सर्वेभ्यो देवेभ्यो नम:। सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नम:। ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय श्री मन्महागणाधिपतये नम:।
कल्याण कारक, न दबनेवाले, पराभूत न होने वाले, उच्चता को पहुँचानेवाले शुभ कर्म चारों ओर से हमारे पास आयें। प्रगति को न रोकने वाले, प्रतिदिन सुरक्षा करने वाले देव हमारा सदा संवर्धन करने वाले हों। सरल मार्ग से जाने वाले देवों की कल्याणकारक सुबुद्धि तथा देवों की उदारता हमें प्राप्त होती रहे। हम देवों की मित्रता प्राप्त करें, देव हमें दीर्घ आयु हमारे दीर्घ जीवन के लिये दें। उन देवों को प्राचीन मन्त्रों से हम बुलाते हैं। भग, मित्र, अदिति, दक्ष, विश्वास योग्य मरुतों के गण, अर्यमा, वरुण, सोम, अश्विनीकुमार, भाग्य युक्त सरस्वती हमें सुख दें। वायु उस सुखदायी औषध को हमारे पास बहायें। माता भूमि तथा पिता द्युलोक उस औषध को हमें दें। सोमरस निकालने वाले सुखकारी पत्थर वह औषध हमें दें। हे बुद्धिमान् अश्विदेवो तुम वह हमारा भाषण सुनो। स्थावर और जंगम के अधिपति बुद्धि को प्रेरणा देने वाले उस ईश्वर को हम अपनी सुरक्षा के लिये बुलाते हैं। इससे वह पोषणकर्ता देव हमारे ऐश्वर्य की समृद्धि करने वाला तथा सुरक्षा करने वाला हो, वह अपराजित देव हमारा कल्याण करे और संरक्षक हो। बहुत यशस्वी इन्द्र हमारा कल्याण करे, सर्वज्ञ पूषा हमारा कल्याण करे। जिसका रथचक्र अप्रतिहत चलता है, वह तार्क्ष्य हमारा कल्याण करे, बृहस्पति हमारा कल्याण करे। धब्बों वाले घोड़ों से युक्त, भूमि को माता मानने वाले, शुभ कर्म करने के लिये जाने वाले, युद्धों में पहुँचने वाले, अग्नि के समान तेजस्वी जिह्वावाले, मननशील, सूर्य के समान तेजस्वी मरुत् रुपी सब देव हमारे यहाँ अपनी सुरक्षा की शक्ति के साथ आयें। हे देवो! कानों से हम कल्याणकारक भाषण सुनें। हे यज्ञ के योग्य देवों आँखों से हम कल्याणकारक वस्तु देखें। स्थिर सुदृढ़ अवयवों से युक्त शरीरों से हम तुम्हारी स्तुति करते हुए, जितनी हमारी आयु है, वहाँ तक हम देवों का हित ही करें। हे देवो सौ वर्ष तक ही हमारे आयुष्य की मर्यादा है, उसमें भी हमारे शरीरों का बुढ़ापा तुमने किया है तथा आज जो पुत्र हैं, वे ही आगे पिता होनेवाले हैं, सब देव, पञ्चजन (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और निषाद), जो बन चुका है और जो बनने वाला है, वह सब अदिति ही है अर्थात् यही शाश्चत सत्य है, जिसके तत्त्वदर्शन से परम कल्याण होता है।
स्वास्तिक :: 
यह हिन्दु-सनातन धर्म का एक प्रतीक-चिन्ह है।
स्वस्तिक भारतीय संस्कृति का सनातन चिन्ह-प्रतीक है। इसीलिए किसी भी शुभ कार्य को करने से पहले स्वस्तिक चिह्न अंकित करके उसका पूजन किया जाता है। स्वस्तिक शब्द सु+अस+क से बना है। 'सु' का अर्थ अच्छा, 'अस' का अर्थ 'सत्ता' या 'अस्तित्व' और 'क' का अर्थ 'कर्त्ता' या करने वाले से है। इस प्रकार 'स्वस्तिक' शब्द का अर्थ हुआ 'अच्छा' या 'मंगल' करने वाला। आशीर्वाद, मंगल या पुण्यकार्य करना लिखा है आदि इसके पर्यायवाची हैं। 'स्वस्तिक, सर्वतोऋद्ध' अर्थात् 'सभी दिशाओं में सबका कल्याण हो।' इस प्रकार 'स्वस्तिक' शब्द में किसी व्यक्ति या जाति विशेष का नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व के कल्याण या 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना निहित है। स्वस्तिक शब्द की निरुक्ति है :- "स्वस्तिक क्षेम कायति, इति स्वस्तिकः" कुशलक्षेम या कल्याण का प्रतीक ही स्वस्तिक है।
ॐ स्वस्ति न इंद्रो वृद्ध श्रवा हा स्वस्ति न ह पूषा विश्व वेदा हा।
स्वस्ति न ह ताक्षर्‌यो अरिष्ट नेमि हि स्वस्ति नो बृहस्पति हि दधातु॥
महान कीर्ति वाले इन्द्र हमारा कल्याण करो, विश्व के ज्ञानस्वरूप पूषादेव हमारा कल्याण करो। जिसका हथियार अटूट है ऐसे गरूड़ भगवान हमारा मंगल करो। बृहस्पति हमारा मंगल करो।
वामावर्त स्वस्तिक :: 
यह शुभ चिह्न है, जो प्रगति की ओर संकेत करता है। दूसरी आकृति में रेखाएँ पीछे की ओर संकेत करती हुई हमारे बायीं ओर मुड़ती हैं। इसे वामावर्त स्वस्तिक कहते हैं। भारतीय संस्कृति में इसे अशुभ माना जाता है। जर्मनी के तानाशाह हिटलर के ध्वज में यही वामावर्त स्वस्तिक' अंकित था। ऋग्वेद की ऋचा में स्वस्तिक को सूर्य का प्रतीक माना गया है और उसकी चार भुजाओं को चार दिशाओं की उपमा दी गई है। सिद्धान्त सार ग्रन्थ में उसे विश्व ब्रह्माण्ड का प्रतीक चित्र माना गया है। उसके मध्य भाग को विष्णु की कमल नाभि और रेखाओं को ब्रह्माजी के चार मुख, चार हाथ और चार वेदों के रूप में निरूपित किया गया है। अन्य ग्रन्थों में चार युग, चार वर्ण, चार आश्रम एवं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के चार प्रतिफल प्राप्त करने वाली समाज व्यवस्था एवं वैयक्तिक आस्था को जीवन्त रखने वाले संकेतों को स्वस्तिक में ओत-प्रोत बताया गया है। मंगलकारी प्रतीक चिह्न स्वस्तिक अपने आप में विलक्षण है। यह मांगलिक चिह्न अनादि काल से सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त रहा है। अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक को मंगल- प्रतीक माना जाता रहा है। विघ्नहर्ता गणेश की उपासना धन, वैभव और ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी के साथ भी शुभ लाभ, स्वस्तिक तथा बहीखाते की पूजा की परम्परा है। इसे भारतीय संस्कृति में विशेष स्थान प्राप्त है। इसीलिए जातक की कुण्डली बनाते समय या कोई मंगल व शुभ कार्य करते समय सर्वप्रथम स्वस्तिक को ही अंकित किया जाता है।
(1). स्वस्तिवाचन से ही समस्त मांगलिक कार्य को शुरू किया जाता है। अनादिकाल से ऋषि-महर्षि, शास्त्रों के मर्मज्ञ विद्वान पूर्वाचार्य प्रत्येक कार्य का शुभारम्भ स्वस्ति वाचन से ही कराते चले आ रहे हैं।
(2). स्वास्तिक चिह्न का सभी धर्मावलम्बी समान रूप से आदर करते हैं। बर्मा, चीन, कोरिया, अमेरिका, जर्मनी, जापान आदि अन्यान्य देशों में इसे सम्मान प्राप्त है। यह चिह्न र्जमन राष्ट्र ध्वज में भी सगौरव फहराता’ है।
(3). पूजन हेतु थाली के मध्य में रोली के स्वास्तिक बनाकर अक्षत रखकर श्री गणेशजी का पूजन कराया जाता है। कलश में भी स्वास्तिक अंकित किया जाता है। भवन द्वार (चैखट) पर सतिया अंकित किया जाता है। जहाँ ऊँ, श्री, ऋद्धि-सिद्धि, शुभ-लाभ लिखा जाता है वहीं सतिया भी अपना विशेष स्थान रखता है।
(4). बच्चे के जन्मोत्सव पर आचार्य से पूछकर सद्गृहस्थों में विदूषी महिलायें सतियो रखने के पश्चात ही गीतादि मांगलिक कार्यों को शुरु करती हैं। सतिया श्री, ऋद्धि-सिद्धि, शुभ-लाभ, श्रीगणेश अनुपूरक सुखस्वरूप हैं। ऊँ श्री स्वस्तिक सकल, मंगल मूल अधार। ऋद्धि-सिद्धि शुभ लाभ हो, श्री गणेश सुखसार।
(5). स्वस्तिक संस्कृत भाषा का अव्यय पद है। पाणिनी व्याकरण के अनुसार इसे व्याकरण कौमुदी में अव्यय के पदों में गिनाया जाता है यह ‘स्वस्तिक’ पद ‘सु’ उपसर्ग तथा ‘अस्ति’ अव्यय (क्रम 61) के संयोग से बना है, यथा सु+अस्ति = स्वस्ति। इसमें ‘इकोयविच’ सूत्र के उकार के स्थान में वकार हुआ है। स्वस्ति में भी ‘अस्ति’ को अव्यय माना गया है और ‘स्वस्ति’ अव्यय पद का अर्थ कल्याण, मंगल, शुभ आदि के रूप में किया गया है जब ‘स्वस्ति’ अव्यय से स्वार्थ में ‘क’ प्रत्यय हो जाता है तब यही ‘स्वस्ति’ स्वस्तिक नाम पा जाता है। परंतु अर्थ में कोई भेद नहीं होता। सारांश यह है कि ‘ऊँ’ और ‘स्वस्तिक’ दोनों ही मंगल, क्षेत्र, कल्याण रूप, परमात्मा वाचक हैं। इनमें कोई संदेह नहीं।
(6). ऊँ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदः।
स्वस्ति नस्ताक्ष्र्यों अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातुः॥
महान यशस्वी प्रभु हमारा कल्याण करें, सबके पालक सर्वज्ञ प्रभु हमारा कल्याण करें। सबके प्रकाशक विघ्नविनाशक प्रभु हमारा कल्याण करें। सबका पिता ज्ञानप्रदाता प्रभु वेदज्ञान देकर हम सबका कल्याण करें। चारों वेदों में वर्णित उपरोक्त वेदमंत्र "ऊँ स्वस्ति न इन्द्रो…" इसमें इन्द्र, वृद्ध श्रवा, पूषा, विश्ववेदा, ताक्ष्र्यो अरिष्टनेमि, बृहस्पति से मानव चराचर में व्याप्त प्राणियों के कल्याण की कामना की गई है। अंतरिक्ष में गतिशील ग्रहों के भ्रमणमार्ग पर जिसमें आने वाले अश्विनी, भरणी, कृतकादि नक्षत्र राशि समूह और असंख्य तारा पुँज हैं।
(7). यह तो सर्वविदित है कि अपने सौर परिवार की नाभि में सूर्य स्थित है जिसके इर्द-गिर्द ‘नाक्षरन्ति नाम नक्षत्र’ नक्षत्र भी स्थित है। राशि चक्र के चैदहवें नक्षत्र चित्रा का स्वामी वृद्धश्रवा (इन्द्र) है। त्वष्टा ने सूर्य को खराद कर कम तेजयुक्त करके प्राणियों को जीवन दान दिया था। पू.षा. रेवती के स्वामी हैं, जो कि एक दूसरे के आमने-सामने हैं। इसी प्रकार उत्तराषाढ़ा 21 वाँ नक्षत्र होने से पुष्य के सम्मुख है।
(8). अंतरिक्ष में बनने वाले इस प्राकृतिक चतुष्पाद चैराहे के केंद्र में सूर्य है। जिसकी चारों भुजायें परिक्रमा क्रम से फैली हुयी हैं। इस प्राकृतिक नक्षत्र रचना स्वस्तिक में आने वाले अनेक तारा समूहों के देवतागणों से भी मंगलकाममनाएं वेदों में की गई है।
(9). स्वस्तिक मात्र कल्पना नहीं, बल्कि वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित समस्त सुखों का मूल है। स्वस्तिक आर्यों का पवित्र शुभ एवं सौभाग्य चिह्न है। इसमें समस्त देवताओं का प्रतिनिधित्व निहित है सतिया में उपभुजायें लगाना अनुचित है लेकिन अन्यान्य विद्वान उपभुजायें बनाना उचित कहते हैं। स्वास्तिक चिह्न पर अभी खोज जारी है
(10). स्वस्तिक पोषक अन्य वेद मंत्रों में विशद् वर्णन मिलता है, यथा :-
स्वस्ति मित्रावरूणा स्वस्ति पथ्ये रेवंति।
स्वस्तिन इन्द्रश्चग्निश्च स्वस्तिनो अदिते कृषि॥
इसमें भी मित्र का अर्थ अनुराधा से लिया गया है। इसी प्रकार पूर्वाषाढ़ा का स्वामी वरूण है। रेवती एवं ज्येष्ठा का इन्द्र, कृत्तिका, विशाखा अग्नि और पुनर्वसु नक्षत्र का स्वामी अदिति है। रेवती से आठवाँ पुनर्वसु। पुनर्वसु से आठवाँ चित्रा, चित्रा से सातवाँ पूषा और पूषा से आठवाँ रेवती है।
उपरोक्त ऋचा में रेवती गणना क्रम से आता है। स्वस्तिक के चिह्न से सम्बंधित अन्य ऋचायें वेदों में वर्णित हैं। देखें सतिया के मध्य में जो शून्य बिन्दु रख दिये जाते हैं वे अनन्त ब्रह्माण्ड में अन्य तारा समूहों का संकेत करते हैं।
स्वास्तिक का चिन्ह जर्मन फ़ौजियों की वर्दी के साथ हिटलर की वर्दी पर भी देखा जा सकता था। सनातन धर्म में स्वास्तिक सर्वप्रथम पूज्य गणेशजी का प्रतीक है। इसीलिए स्वास्तिक चिन्ह शुभता का प्रतीक है।
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)