Friday, June 7, 2013

SHIV-SHAKTI भगवान् शिव आदि माता भगवती

 SHIV-SHAKTI
भगवान् शिव आदि माता भगवती
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।

[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारम्।
सदा बसन्तं हृदयारबिन्दे भवं भवानीसहितं नमामि॥
कर्पूरगौरं :- कर्पूर के समान गौर वर्ण वाले।
करुणावतारं :- करुणा के जो साक्षात् अवतार हैं।
संसारसारं :- समस्त सृष्टि के जो सार हैं।
भुजगेंद्रहारम् :- इस शब्द का अर्थ है जो साँप को हार के रूप में धारण करते हैं।
सदा वसतं हृदयाविन्दे भवंभावनी सहितं नमामि :- जो शिव, पार्वती के साथ सदैव मेरे हृदय में निवास करते हैं, उनको मेरा नमन है।
जो कर्पूर जैसे गौर वर्ण वाले हैं, करुणा के अवतार हैं, संसार के सार हैं और भुजंगों का हार धारण करते हैं, वे भगवान् शिव माता भवानी सहित मेरे ह्रदय में सदैव निवास करें और उन्हें मेरा नमन है।[शिवपुराण, ज्ञानसंहिता 68.18]
कर्पूरके समान गौर वर्णवाले, करुणा के अवतार, विश्व के मूल कारण, गले में नागराज का हार धारण करने वाले तथा हृदय कमल में सदा विराजमान रहने वाले भगवान् शिव को भवानी सहित मैं प्रणाम करता हूँ।
भगवान्  शिव की ये स्तुति शिव-पार्वती विवाह के समय भगवान् श्री हरी विष्णु द्वारा गाई गई है। अमूमन ये माना जाता है कि शिव शमशान वासी हैं, उनका स्वरुप बहुत भयंकर और अघोरी वाला है। लेकिन, ये स्तुति बताती है कि उनका स्वरुप बहुत दिव्य है। शिव को सृष्टि का अधिपति माना गया है, वे मृत्युलोक के देवता हैं, उन्हें पशुपतिनाथ भी कहा जाता है, पशुपति का अर्थ है संसार के जितने भी जीव हैं (मनुष्य सहित) उन सब का अधिपति। ये स्तुति इसी कारण से गाई जाती है कि जो इस समस्त संसार का अधिपति है, वो हमारे मन में वास करे। शिव श्मशान वासी हैं, जो मृत्यु के भय को दूर करते हैं। हमारे मन में शिव वास करें, मृत्यु का भय दूर हो।
माता सती जन्म कथा :: भगवान ब्रह्मा के दक्षिण अँगुष्ठ से प्रजापति दक्ष की उत्पत्ति हुई। दक्ष प्रजापति परम पिता ब्रह्मा के पुत्र थे, जो कश्मीर घाटी के हिमालय क्षेत्र में रहते थे। ब्रह्मा जी के मानस पुत्रों में से एक प्रजापति दक्ष, का पहला विवाह स्वायंभुव मनु और शतरूपा की तीसरी पुत्री प्रसूति से हुआ। प्रजापति दक्ष की दो पत्नियाँ थीं, प्रसूति और वीरणी। दक्ष प्रजापति की कई पुत्रियाँ थीं। सभी पुत्रियाँ गुणवती थीं, परन्तु दक्ष के मन में संतोष नहीं था।
ब्रह्मा जी ने दक्ष प्रजापति से कहा, “पुत्र! मैं तुम्हारे परम कल्याण की बात कह रहा हूँ। भगवान् शिव ने पूर्णा परा प्रकृति (देवी आदि शक्ति ) को पत्नी स्वरूप प्राप्त करने हेतु पूर्व में आराधना की थी। जिसके परिणाम स्वरूप देवी आदि शक्ति ने उन्हें वर प्रदान किया कि वे शिव को पति रूप में वरण करेंगी। तुम उग्र तपस्या कर उन आदि शक्ति को प्रसन्न करो और उन्हें अपनी पुत्री रूप में प्राप्त करो, जिसके पश्चात उनका भगवान् शिव से विवाह करना। परम-सौभाग्य से वह आदि शक्ति देवी जिसके यहाँ जन्म लेंगी, उसका जीवन सफल हो जायेगा।
 
प्रजापति दक्ष ने ब्रह्मा जी को आश्वासन दिया कि वह घोर साधना कर देवी आदि शक्ति को अपने पुत्री रूप में प्राप्त करेंगे। वे चाहते थे कि उनके घर में एक ऐसी पुत्री का जन्म हो, जो शक्ति-सम्पन्न हो। सर्व-विजयिनी हो। दक्ष एक ऐसी पुत्री के लिए तप करने लगे। प्रजापति दक्ष, देवी की आराधना हेतु तत्पर हुए तथा उपवासादी नाना व्रतों द्वारा कठोर तपस्या करते हुए, उन्होंने देवी आदि शक्ति की आराधना की। दक्ष की तपस्या से सन्तुष्ट हो देवी आदि शक्ति ने उन्हें दर्शन दिया! वे चार भुजाओं से युक्त एवं कृष्ण वर्ण की थीं तथा गले में मुण्ड-माला धारण किये हुए थीं। नील कमल के समान उनके नेत्र अत्यंत सुन्दर प्रतीत हो रहे थे तथा वे सिंह के पीठ पर विराजमान थीं। देवी आदि शक्ति ने दक्ष प्रजापति से तपस्या का कारण पूछा! साथ ही उन्हें मनोवांछित वर प्रदान करने का आश्वासन दिया। इस प्रकार देवी से आश्वासन पाने पर दक्ष ने उन्हें अपने यहाँ पुत्री रूप में जन्म धारण करने हेतु निवेदन किया।
देवी आदि शक्ति ने प्रजापति दक्ष से कहा "मैं तुम्हारे यहाँ जन्म धारण करूँगी तथा भगवान् शिव की पत्नी बनूँगी, मैं तुम्हारी तपस्या से सन्तुष्ट हूँ। मैं तुम्हारे घर में तब तक रहूँगी जब तक कि तुम्हारा पुण्य क्षीण न हो और तुम्हारे द्वारा मेरे प्रति अनादर करने पर मैं पुनः अपनी यह आकृति धारण कर वापस अपने धाम को चली जाऊँगी"। इस प्रकार देवी दक्ष से कह कर माँ आदि शक्ति देवी भगवती अन्तर्ध्यान हो गईं।
फलतः माँ भगवती आद्य शक्ति ने सती रूप में दक्ष प्रजापति के यहाँ जन्म लिया। दक्ष पत्नी प्रसूति ने एक कन्या को जन्म दिया तथा दसवें दिन सभी परिवार जनों ने एकत्रित हो, उस कन्या का नाम सती रखा।
जैसे जैसे सती की आयु बढ़ी, वैसे-वैसे ही उसकी सुन्दरता और गुण भी बढने लगे। सती दक्ष की सभी पुत्रियों में अलौकिक थीं। उन्होंने बाल्यकाल में ही कई ऐसे अलौकिक कृत्य कर दिखाए थे, जिन्हें देखकर स्वयं दक्ष को भी विस्मय  रह गया। 
प्रसूति से दक्ष की 24 कन्याएँ थीं और वीरणी से 60 कन्याएँ। इस तरह दक्ष की 84 पुत्रियाँ थीं। समस्त दैत्य, गन्दर्भ, अप्सराएँ, पक्षी, पशु सब सृष्टि इन्हीं कन्याओं से उत्पन्न हुई है। दक्ष की ये सभी कन्याएँ, देवी, यक्षिणी, पिशाचिनी आदि कहलाईं। उक्त कन्याओं और इनकी पुत्रियों को ही किसी न किसी रूप में पूजा जाता है। प्रसूति से दक्ष की 24 पुत्रियाँ :- श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शाँति, सिद्धि, कीर्ति, ख्याति, सती, सम्भूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, सन्नति, अनुसूया, ऊर्जा, स्वाहा, सती और स्वधा। पर्वत राजा दक्ष ने अपनी 13 पुत्रियों का विवाह धर्म से किया। ये 13 पुत्रियाँ हैं :- श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शाँति, सिद्धि और कीर्ति। इसके बाद ख्याति का विवाह महर्षि भृगु से, सम्भूति का विवाह महर्षि मरीचि से, स्मृति का विवाह महर्षि अंगीरस से, प्रीति का विवाह महर्षि पुलत्स्य से, सन्नति का कृत से, अनुसूया का महर्षि अत्रि से, ऊर्जा का महर्षि वशिष्ठ से, स्वाहा का पितृस से हुआ।
अन्य कन्याओं का विवाह हुआ तो दक्ष को सती के विवाह की चिंता शुरू हुई। उसे ध्यान आया कि यह साक्षात् भगवती आदि शक्ति हैं। इन्होंने पूर्व से ही किसी और को पति बनाने का निश्चय कर रखा हैं। परन्तु दक्ष ने सोचा कि भगवान् शिव के अंश से उत्पन्न रुद्र उनके आज्ञाकारी हैं, उन्हें ससम्मान बुलाकर मैं अपनी इस सुन्दर कन्या उन्हें दे सकता हूँ।
तभी दक्ष के महल में तुलसी विवाह उत्सव पर तुलसी और भगवान् सालिगराम के विवाह का आयोजन किया गया। जिसमें माता सती ने रंगोली में भगवान् शिव की आकृति बना दी और उसमे खो गईं; जिसे देख दक्ष झल्ला उठा। राजकुमारी सती को उनकी शिव भक्त दासी ने भगवान् शिव की महिमा बताई। देवताओं के आग्रह पर भगवान् शिव सती की रक्षा के लिए सती के समक्ष प्रकट हुए और सती की रक्षा की। भगवान् शिव को देख माता सती शिवमय हो गईं। माता सती ने भगवान् शिव से जुड़ाव सा महसूस किया। भगवान् शिव अंतर्ध्यान हो गए।
दक्ष ने ब्रह्मा जी से परामर्श किया। ब्रह्मा जी ने कहा, "सती आद्या शक्ति का अवतार हैं। आद्या आदि शक्ति और भगवान् शिव आदि पुरुष हैं। अतः सती के विवाह के लिए भगवान् शिव ही योग्य और उचित वर हैं"। दक्ष प्रजापति ने ब्रह्मा जी की बात मानकर सती का विवाह भगवान् शिव के साथ कर दिया। सती कैलाश में जाकर भगवान् शिव के साथ रहने लगीं। 
सती और शिव विवाह :: एक दिन माता सती भ्रमण के लिए निकलीं तो ऋषि दधीचि ने उन्हें दंडवत प्रणाम किया और शिव महिमा का बखान किया। महल में जाकर माता सती ने भगवान् शिव से विवाह की इच्छा जाहिर की जिससे दक्ष सहमत हो गए। माँ सती दक्ष के महल और सुख सुविधाओं का त्याग कर मन में भगवान् शिव से विवाह की इच्छा ले वन में तपस्या के लिए चलीं गईं। माँ सती के आवाहन पर भगवान् शिव ने प्रकट हो माँ सती को दक्ष के पास लौटने की सलाह दी।
प्रसूति के कहने पर दक्ष ने माँ सती के लिए उचित वर खोजने लगा। सती के विवाह हेतु दक्ष ने स्वयंवर का आयोजन किया और जिसमें सभी देवता, दैत्य, गन्धर्व, किन्नर इत्यादि को निमंत्रित किया गया, परन्तु त्रिशूल धारी भगवान् शिव को नहीं बुलाया। भगवान् शिव को अपमानित करने के उद्देश्य से प्रजापति दक्ष ने स्वयंवर में द्वारपाल की जगह सिर झुकाये भगवान् शिव की प्रतिमा स्थापित कर दी। 
उस सभा में सभी देव, दैत्य, मुनि इत्यादि आये। सभी अतिथिगण वहाँ नाना प्रकार के दिव्य वस्त्र तथा रत्नमय अलंकार धारण किये हुए थे, वे नाना प्रकार के रथ तथा हाथियों पर आयें थे। इस विशेष अवसर पर भेरी (नागड़ा), मृदंग और ढोल बज रहें थे, सभा में गन्धर्वों द्वारा सुललित गायन प्रस्तुत किया जा रहा था। सभी अतिथियों के आने पर दक्ष प्रजापति ने अपनी त्रैलोक्य-सुंदरी कन्या सती को सभा में बुलवाया। इस अवसर पर भगवान् शिव भी अपने वाहन वृषभ में सवार होकर वहाँ आये, सर्वप्रथम उन्होंने आकाश से ही उस सभा का अवलोकन किया।
दक्ष ने अपनी कन्या सती से कहा, "पुत्री यहाँ एक से एक सुन्दर देवता, दैत्य, ऋषि, मुनि एकत्रित हैं, तुम इनमें से जिसे भी अपने अनुरूप गुण-सम्पन्न युक्त समझो, उस दिव्य पुरुष के गले में माला पहना कर, उसको अपने पति रूप में वरन कर लो"। सती देवी ने आकाश में उपस्थित भगवान् शिव को प्रणाम कर वर माला को भूमि पर रख दी। भूमि पर रखी हुई वह माला भगवान् शिव के गले स्वतः पहुँच गई तो भगवान शिव अकस्मात् ही उस सभा में प्रकट हो गए। उस समय भगवान् शिव का शरीर दिव्य रूप-धारी था, वे नाना प्रकार के अलंकारों से सुशोभित थे, उनकी शारीरिक आभा करोड़ों चन्द्रमाओं के कान्ति के समान थीं। सुगन्धित द्रव्यों का लेपन करने वाले, कमल के समान तीन नेत्रों से युक्त भगवान् शिव देखते-देखते प्रसन्न मन युक्त हो वहाँ से अंतर्ध्यान भी हो गए।
तत्पश्चात माँ सती ने स्वयंवर में एक अन्य माला, भगवान् शिव से अपने आत्मिक प्रेम को आधार बना, उनका आवाहन कर भगवान् शिव की प्रतिमा को वरमाला डालकर भगवान्  शिव को अपने पति रूप में वरण कर लिया। अब भगवान् शिव ने प्रकट होकर माँ सती को अपनी भार्या के रूप में स्वीकार कर लिया। प्रजापति दक्ष द्वारा इस विवाह को नहीं मानने पर ब्रह्म देव और भगवान् श्री हरी विष्णु ने दक्ष को लताड़ा तो उसने यह रिश्ता स्वीकार कर लिया। शिव-सती के मिलन से चारों दिशाओं में हर्ष पैदा हो गया। इस विवाह से शिव सती दोनों पुनः सम्पूर्णता को प्राप्त हुए। माँ सती दक्ष के महल से विदा हो भगवान् शिव के साथ कैलाश पर्वत पर चली गईं। 
सती और शिव का विवाह तो दक्ष ने करा दिया, लेकिन अपने अपमान और अपने मन से भगवान् शिव के प्रति वैमनस्य भाव को नहीं मिटा पाया। सती द्वारा भगवान्  शिव का वरण करने के परिणाम स्वरूप, दक्ष प्रजापति के मन में सती के प्रति प्रेम कम हो गया था।
सती के विदा होने के पश्चात दक्ष प्रजापति, शिव तथा सती की निंदा करते हुए रुदन करने लगे। इस पर उन्हें दधीचि मुनि ने समझाया, "तुम्हारा भाग्य पुण्य-मय था, जिसके परिणाम स्वरूप सती ने तुम्हारे यहाँ जन्म धारण किया, तुम शिव तथा सती के वास्तविकता को नहीं जानते हो। सती ही आद्या शक्ति मूल प्रकृति तथा जन्म-मरण से रहित हैं, भगवान्  शिव भी साक्षात् आदि पुरुष हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं हैं। देवता, दैत्य इत्यादि, जिन्हें कठोर से कठोर तपस्या से सन्तुष्ट नहीं कर सकते उन आद्या शक्ति मूल प्रकृति को तुमने सन्तुष्ट किया तथा पुत्री रूप में प्राप्त किया। अब किस मोह में पड़ कर तुम उनके विषय में कुछ नहीं जानने की बात कर रहे हों? उनकी निंदा करते हो"!?
इस पर दक्ष ने अपने ही पुत्र मरीचि से कहा,"आप ही बताएँ कि यदि शिव आदि-पुरुष हैं एवं इस चराचर जगत के स्वामी हैं, तो उन्हें श्मशान भूमि क्यों प्रिय है? वे विरूपाक्ष तथा त्रिलोचन क्यों हैं? वे भिक्षा-वृति क्यों स्वीकार किये हुए हैं? वे अपने शरीर में चिता भस्म क्यों लगते हैं"?
इस पर मुनि ने अपने पिता को उत्तर दिया, "भगवान् शिव पूर्ण एवं नित्य आनन्दमय हैं तथा सभी ईश्वरों के भी ईश्वर हैं, उनके आश्रय में जाने वालो को दुःख तो है ही नहीं। आपकी विपरीत बुद्धि उन्हें कैसे भिक्षुक कह रही है? उनकी वास्तविकता जाने बिना, आप उनकी निंदा क्यों कर रहे हैं? वे सर्वत्र गतिमान और व्याप्त हैं। उनके निमित्त श्मशान या रमणीय नगर दोनों एक ही हैं, शिव लोक तो बहुत ही अपूर्व हैं, जिसे भगवान् ब्रह्मा तथा भगवान् श्री हरी विष्णु भी प्राप्त करने की आकांशा करते हैं। देवताओं के लिए कैलाश में वास करना दुर्लभ हैं। देवराज इंद्र का स्वर्ग, कैलाश के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं हैं। इस मृत्यु लोक में वाराणसी नाम की रमणीय नगरी भगवान् शिव की ही है, वह परमात्मा मुक्ति क्षेत्र है, जहाँ भगवान् ब्रह्मा आदि देवता भी मृत्यु की कामना करते हैं। यह तुम्हारा मिथ्या भ्रम है कि श्मशान के अतिरिक्त उनका कोई वास स्थान नहीं है। व्यर्थ मोह में पड़कर भगवान् शिव तथा सती की निंदा  मत करो।
मुनि दधीचि द्वारा समझाने पर भी दक्ष प्रजापति के मन से उन दम्पत्ति शिव तथा सती के प्रति हीन भावना नहीं गई तथा उनके बारे में निन्दात्मक कटुवचन बोलते रहें। वे अपनी पुत्री सती की निन्दा करते हुए विलाप करते थे, "हे सती! हे पुत्री! तुम मुझे मेरे प्राणों से भी अधिक प्रिय थीं, मुझे शोक सागर में छोड़-कर तुम कहाँ चली गई। तुम दिव्य मनोहर अंग वाली हो, तुम्हें मनोहर शय्या पर सोना चाहिये, आज तुम उस कुरूप पति के संग श्मशान में कैसे वास कर रही हो"?
इस पर दधीचि मुनि ने दक्ष को पुनः समझाया, "आप तो ज्ञानियों में श्रेष्ठ हैं, क्या आप यह नहीं जानते हैं कि उस स्वयंवर में इस पृथ्वी, समुद्र, आकाश, पाताल से जितने भी दिव्य स्त्री-पुरुष आये थे, वे सब इन्हीं दोनों आदि पुरुष-स्त्री के ही रूप हैं। तुम उस पुरुष (भगवान् शिव) को यथार्थतः अनादि (प्रथम) पुरुष जान लो तथा त्रिगुणात्मिका परा भगवती तथा चिदात्मरूपा प्रकृति के विषय में अभी अच्छी तरह समझ लो। यह तुम्हारा दुर्भाग्य ही है कि तुम आदि-विश्वेश्वर भगवान् तथा उनकी पत्नी आदि शक्ति-परा भगवती सती को महत्व नहीं दे रहे हो। तुम शोक-मग्न हो, यह समझ लो कि हमारे शास्त्रों में जिन्हें प्रकृति एवं पुरुष कहा गया हैं, वे दोनों आद्या शक्ति मूल प्रकृति सती तथा भगवान् शिव ही हैं"।
पुनः दक्ष बोले कि आप उन दोनों के सम्बन्ध में ठीक ही कह रहें होंगे, परन्तु मुझे नहीं लगता हैं कि शिव से बढ़कर कोई और श्रेष्ठ देवता नहीं हैं। यद्यपि ऋषिजन सत्य बोलते हैं, उनकी सत्यता पर कोई संदेह नहीं होना चाहिये, परन्तु मैं यह मानने को सन्नद्ध नहीं हूँ कि शिव ही सर्वोत्कृष्ट हैं। इसका मूल कारण हैं, जब मेरे पिता ब्रह्मा जी ने इस सृष्टि की रचना की थीं, तभी रुद्र भी उत्पन्न हुए थे, जो शिव समान शरीर तथा भयानक बल वाले थे। वे अति-साहसी एवं विशाल आकर वाले थे, निरंतर क्रोध के कारण उनके नेत्र सर्वदा लाल रहते थे, वे चीते का चर्म पहनते थे, सर पर लम्बी-लम्बी जटाएँ रखते थे। एक बार दुष्ट रूद्र ब्रह्मा जी द्वारा निर्मित इस सृष्टि को नष्ट करने उद्यत हुए तो, ब्रह्मा जी ने उन्हें कठोर आदेश देकर शान्त किया, साथ ही मुझे आदेश दिया कि भविष्य में ये प्रबल पराक्रमी रुद्र ऐसा उपद्रव न कर पायें तथा आज वे सभी मेरे वश में हैं। ब्रह्मा जी की आज्ञा से ही ये रौद्र-कर्मा रुद्र भयभीत हो मेरे वश में रहते हैं। रुद्र अपना आश्रय स्थल एवं बल छोड़ कर मेरे अधीन हो गए हैं। अब मैं पूछता हूँ कि जिनके अंश से संभूत ये रुद्र मेरे अधीन हैं, तो इनका जन्म दाता मुझ से कैसे श्रेष्ठ हो सकता है? सत्पात्र को अधिकृत कर दिया गया दान ही पुण्य प्रद एवं यश प्रदान करने वाला होता है। मेरी इतनी गुणवान और सुन्दर पुत्री को क्या मेरी आज्ञा में न रहने वाला वह शिव ही मिला था!? मैंने अपनी पुत्री का दान उसे कर दिया। जब तक रुद्र मेरी आज्ञा के अधीन हैं, तब तक मेरी ईर्ष्या शिव में बनी रहेंगी।
इस तरह से दक्ष अपने मन में उत्पन्न हुए भावों को छुपा नहीं पाये और भगवान् शिव के प्रति उदासीन ही रहे। इसके साथ-साथ ही अपनी पुत्री सती के प्रति भी उनका क्रोध बढ़ते ही गया।
माता सती और भगवान् शिव :: माता सती और भगवान् शिव विवाह पश्चात हिमालय शिखर कैलाश में वास करने हेतु गए, जहाँ सभी देवता, महर्षि, नागों के प्रमुख, गन्धर्व, किन्नर, प्रजापति इत्यादि उत्सव मनाने हेतु गये। उनके साथ हिमालय-पत्नी मैना भी अपनी सखियों के संग गई। इस प्रमोद के अवसर पर सभी ने वहांँ उत्सव मनाया, सभी ने उन ‘शिव-सती’ दम्पती को प्रणाम किया, उन्होंने मनोहर नित्य प्रस्तुत किये तथा विशेष गाना-बजाना किया। अन्ततः शिव तथा सती ने वहांँ उत्सव मनाने वाले सभी गणों को प्रसन्नतापूर्वक विदाई दी, तत्पश्चात सभी वहाँ से चले गए।
हिमालय पत्नी मैना जब अपने निवास स्थान को लौटने लगी, तो उन्होंने उन परम सुन्दरी मनोहर अंगों वाली सती को देख कर सोचा कि सती को जन्म देने वाली माता धन्य हैं, मैं भी आज से प्रतिदिन इन देवी से प्रार्थना करूँगी ताकि अगले जन्म में ये मेरी पुत्री बनें। ऐसा विचार कर, हिमालय पत्नी मैना ने माता सती की प्रतिदिन पूजा और आराधना करने लगी।
हिमालय पत्नी मैना ने महाष्टमी से उपवास आरम्भ कर वर्ष पर्यन्त भगवती सती के निमित्त व्रत प्रारम्भ कर दिया, वे सती को पुत्री रूप में प्राप्त करना चाहती थीं। अन्ततः मैना के तपस्या से सन्तुष्ट हो देवी आदि-शक्ति ने उन्हें अगले जन्म में पुत्री होने का आशीर्वाद दिया।
एक दिन बुद्धिमान नंदी नाम के वृषभ भगवान् शिव के पास कैलाश गए, वैसे वे दक्ष के सेवक थे, परन्तु दधीचि मुनि के शिष्य होने के कारण परम शिव भक्त भी थे। उन्होंने भूमि पर लेट कर भगवान् शिव को दण्डवत प्रणाम किया तथा बोले कि हे महादेव! मैं दक्ष का सेवक हूँ, परन्तु महर्षि मरीचि के शिष्य होने के कारण आप के सामर्थ्य को भली-भाँति जानता हूँ। मैं आपको साक्षात आदि-पुरुष तथा माता सती को मूल प्रकृति आदि शक्ति के रूप में इस चराचर जगत की सृष्टि, स्थिति, प्रलय कर्ता मानता हूँ। इस प्रकार नंदी ने भगवान् शिव की भक्ति युक्त, गदगद वाणी से स्तुति कर, भगवान् शिव को संतुष्ट तथा प्रसन्न किया।
नंदी द्वारा स्तुति करने पर प्रसन्न हो भगवान् शिव उनसे बोले कि तुम्हारी मनोकामना क्या है, स्पष्ट बताओ, मैं उसे अवश्य पूर्ण करूँगा।
नंदी ने भगवान् शिव से कहा! "मैं चाहता हूँ कि आप की सेवा करता हुआ निरन्तर आप के समीप रहूँ, मैं जहाँ भी रहूँ, आप के निरन्तर दर्शन करता रहूँ"।
तदनन्तर, भगवान् शिव ने उन्हें अपना प्रधान अनुचर तथा प्रमथ-गणों का प्रधान नियुक्त कर दिया। भगवान् शिव ने नंदी को आज्ञा दी कि मेरे निवास स्थान से कुछ दूर रहकर तुम सभी गणों के साथ पहरा दो, जब भी में तुम्हारा स्मरण करूँ तुम मरे पास आना तथा बिना आज्ञा के कोई भी मेरे पास ना आ पावें। इस प्रकार सभी प्रमथगण भगवान् शिव के निवास स्थान से कुछ दूर चले गए और पहरा देने लगे।
भगवती आदि शक्ति ने विचार किया कि कभी हिमालय पत्नी मैना ने भी उन्हें अपनी पुत्री रूप में प्राप्त करने का वचन माँगा था तथा उन्होंने उन्हें मनोवांछित वर प्रदान भी किया था। अब शीघ्र ही उनके पुत्री रूप में वे जन्म लेंगी, इसमें कोई संशय नहीं हैं। दक्ष के पुण्य क्षीण होने के कारण देवी भगवती का उसके प्रति लगाव भी कम हो गया था। उन्होंने अपनी लीला कर प्रजापति द्वारा उत्पन्न देह तथा स्थान को छोड़ने का निश्चय कर लिया तथा हिमालय राज के घर जन्म लें, पुनः भगवान् शिव को पति स्वरूप में प्राप्त करने का निश्चय किया एवं उचित समय की प्रतीक्षा करने लगीं।
भगवान् शिव, माता सती के साथ कैलाश में 25 वर्षों तक रहे और एक अद्भुत जीवन को जिया।
एक बार भगवान् शिव को राम कथा सुनने की इच्छा हुई तो उन्होंने सती से कहा चलो कुंभज ऋषि के आश्रम में चलते हैं। कुंभज ऋषि के आश्रम में पति-पत्नी पहुँचे। उन्होंने कहा मैं आपसे राम कथा सुनना चाहता हूँ। भगवान् शिव आए तो कुंभज ऋषि खड़े हो गए उन्होंने भगवान् शिव को प्रणाम किया और बोले बैठिए मैं सुनाता हूँ। माता सती ने सोचा ये क्या बात हुई जो वक्ता हैं, वो श्रोता को प्रणाम कर रहा है। श्रोता वक्ता को करता है, यह तो समझ में आता है। तो जो खुद ही प्रणाम कर रहा है वो क्या राम कथा कैसे-और क्या सुनाएगा?! माता सती ने सोचा कि भगवान् शिव तो ऐसे ही भोलेनाथ हैं, किसी के भी साथ बैठ जाते हैं। यहाँ से माता सती के मन में विचारों का क्रम तर्कों के साथ चालू हो गया। ऋषि ने इतनी सुन्दर राम कथा सुनाई कि भगवान् शिव आनन्द विभोर हो गये। पर माता सती कथा नहीं सुन रही थीं। भगवान् शिव ने कथा सुनी और अपनी पत्नी को देखा कि वे कथा नहीं सुन रही थीं। वे इधर-उधर देख रही थीं।
जब दोनों पति-पत्नी कुंभज ऋषि के आश्रम से राम कथा सुनकर लौट रहे थे, तब भगवान् श्री राम चंद्र की विरह लीला चल रही थी। रावण ने माता सीता का हरण कर लिया था और भगवान् श्री राम और लक्ष्मण उनकी खोज में दर दर भटक रहे थे। राम सीता के विरह में सामान्य व्यक्तियों की भाँति रो रहे थे।
यह देखकर भगवान् शिव ने कहा कि जिनकी कथा सुनकर हम आ रहे हैं, उनकी लीला चल रही है। भगवान् शिव ने उन्हें दूर से ही प्रणाम किया, जय सच्चिदानंद और जैसे ही उनको प्रणाम किया तो माता सती का माथा और ठनक गया कि ये पहले तो कथा सुनकर आए एक ऐसे ऋषि से जो वक्ता होकर श्रोता को प्रणाम कर रहे थे और अब ये मेरे पति देव इनको प्रणाम कर रहे हैं, रोते हुए राजकुमार को।
भगवान् शिव ने ये देख कर कहा, "सती आप समझ नहीं रही हैं, ये वही पर ब्रह्म परमेश्वर भगवान् श्री राम हैं, जिनकी कथा हम सुनकर आए हैं। उनका अवतार हो चुका है और ये लीला चल रही है। मैं प्रणाम कर रहा हूँ, आप भी प्रणाम करिए"। सती ने बोला, "मैं तो नहीं कर सकती प्रणाम। ये ब्रह्म हैं, मैं कैसे मान लूँ। मैं तो परीक्षा लूँगी"। वे सोचने लगीं, अयोध्या के नृपति दशरथ के पुत्र राम आदि पुरुष के अवतार कैसे हो सकते हैं? वे तो आजकल अपनी पत्नी सीता के वियोग में दण्डक वन में उन्मत्त की भाँति विचरण कर रहे हैं। वृक्ष और लताओं से उनका पता पूछते फिर रहे हैं। यदि वे आदि पुरुष के अवतार होते, तो क्या इस प्रकार आचरण करते? माता सती के मन में भगवान् राम की परीक्षा लेने का विचार उत्पन्न हो चुका था। माता सती ने भगवान् शिव से कहा कि वो श्री राम की परीक्षा लेना चाहती है। भगवान् शिव ने उन्हें मना किया कि ये उचित नहीं है। लेकिन माता सती नहीं मानी। माता सती ने सोचा कि अगर मैंने सीता का वेश धर लिया तब ये जो राजकुमार हैं, सीता-सीता चिल्ला रहे हैं, मुझे पहचान नहीं पाएँगे। माता सती ने माता सीता का रूप धरा और जाकर वन में ठीक उस जगह बैठ गयीं, जहाँ से भगवान् श्री राम और लक्ष्मण जी आने वाले थे। जैसे ही दोनों वहाँ से गुजरे तो उन्होंने माता सीता के रूप में माता सती को देखा। लक्ष्मण जी तो माता सती की इस माया के प्रभाव में आ गए और माता सीता रूपी माता सती को देख कर प्रसन्न हो गए। उन्होंने जल्दी से आगे बढ़कर उन्हें प्रणाम किया। तभी भगवान् श्री राम ने आगे बढ़कर माता सती को दण्डवत प्रणाम किया। ये देख कर लक्ष्मण जी के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। इससे पहले वे कुछ समझ पाते, भगवान् श्री राम ने हाथ जोड़ कर माता सीता रूपी माता सती से कहा कि माता आप इस वन में क्या कर रही हैं? क्या आज महादेव ने आपको अकेले ही विचरने के लिए छोड़ दिया है? अगर आपके अपने इस पुत्र के लायक कोई सेवा हो तो बताइए। माता सती ने जब ऐसा सुना तो उनसे कुछ उत्तर देते न बना। वे अदृश्य हो गई और मन ही मन पश्चाताप करने लगीं कि उन्होंने व्यर्थ ही भगवान् श्री राम पर संदेह किया। भगवान् श्री राम सचमुच आदि पुरुष के अवतार हैं।
माता सती लौटकर आई और अपने भगवान् शिव के पास आकर बैठ गईं। भगवान् शिव ने पूछा कि देवी परीक्षा ले ली? तो माता सती ने, झूठ बोल दिया कि मैंने कोई परीक्षा नहीं ली। मैंने तो आप ही की तरह प्रणाम किया।
कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं, कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं।[राम चरित मानस]
भगवान् शिव से क्या छुपा था। उन्हें पता चल गया कि माता सती ने माता सीता का रूप धर कर भगवान् श्री राम की परीक्षा ली थी। उन्होंने सोचा कि इन्होंने सबसे बड़ी गलती यह की कि ये माता सीता बन गई, मेरी माँ का रूप धर लिया तो अब मेरा इनसे दाम्पत्य नहीं चलेगा। मैं इनका मानसिक त्याग करता हूँ। अब उनके लिए सती को एक पत्नी के रूप में देख पाना सम्भव ही नहीं था। उसी क्षण से भगवान् शिव मन ही मन माता सती से विरक्त हो गए। उनके व्यवहार में आये परिवर्तन को देख कर थोड़े दिन तो माता सती सोचती रहीं कि ये तो रूठ गए, लम्बे रूठ गए, दो-तीन दिन तो रूठते थे पहले भी, तो मना लेती थी, पर इस बार तो स्थायी हो गया। तब चिंता होने लगी। ये तो सुन ही नहीं रहे हैं, ध्यान में चले गए। माता सती ने पिता मह ब्रह्मा जी से इसका कारण पूछा तो उन्होंने माता सती को उनकी गलती का एहसास कराया। ब्रह्मा जी ने कहा कि इस जन्म में तो अब भगवान् शिव किसी भी परिस्थिति में तुम्हें अपनी पत्नी के रूप में नहीं देख सकेंगे। माता सती दुख और पश्चाताप की लहरों में डूबने उतारने लगीं।
माता सती ने माता सीता जी का वेश धारण किया, यह जानकर भगवान् शिव के मन में विषाद उत्पन्न हो गया। उन्होंने सोचा कि यदि अब वे सती से प्रेम करते हैं तो यह धर्म विरुद्ध होगा क्योंकि सीता जी को वे माता के समान मानते थे। परन्तु वे सती से बहुत प्रेम करते थे, इसलिए उन्हें त्याग भी नहीं सकते थे। तब उन्होंने मन ही मन प्रतिज्ञा की कि अब पति-पत्नी के रूप में उनका और सती का मिलन नहीं हो सकता, परन्तु इस बारे में उन्होंने माता सती से प्रत्यक्ष में कुछ नहीं कहा। तत्पश्चात वे कैलाश लौट आए।
ये जानकार माता सती अत्यधिक दुखी हुईं, पर अब क्या हो सकता था। भगवान् शिव के मुख से निकली हुई बात असत्य कैसे हो सकती थी? भगवान् शिव समाधिस्थ हो गए। माता सती दुख और पश्चाताप की लहरों में डूबने उतारने लगीं।
दक्ष प्रजापति और माता सती :: भगवान् शिव और माता सती का अद्भुत प्रेम शास्त्रों में वर्णित है। इसका प्रमाण है माता सती के यज्ञ कुण्ड में कूदकर आत्मदाह करना और ‌माता सती के शव को उठाए क्रोधित भगवान् शिव का ताण्डव करना। हालांकि यह भी भगवान् शिव की लीला ही थी, क्योंकि इससे 51 शक्ति पीठों की स्थापना हो गई।
भगवान् शिव ने माता सती को पहले ही बता दिया था कि उन्हें यह शरीर त्याग करना है। इसी समय उन्होंने माता सती को अपने गले में मौजूद मुंडों की माला का रहस्य भी बताया था।
एक बार नारद जी के उकसाने पर माता सती भगवान् शिव से जिद करके पूछने लगीं कि आपके गले में जो मुँड माला है, उसका रहस्य क्या है? जब काफी समझाने पर भी माता सती न मानी तो भगवान् शिव ने राज खोल ही दिया। भगवान् शिव ने माता सती से कहा कि इस मुँड माला में जितने भी मुँड हैं, वे सभी आपके हैं। माता सती इस बात को सुनकर हैरान रह गयी।
माता सती ने भगवान् शिव से पूछा, यह भला कैसे सम्भव है कि सभी मुँड मेरे हैं। इस पर भगवान् शिव बोले यह आपका 108 वाँ जन्म है। इससे पहले आप 107 बार जन्म लेकर शरीर त्याग चुकी हैं और ये सभी मुँड उन पूर्व जन्मों की निशानी है। इस माला में अभी एक मुँड की कमी है, इसके बाद यह माला पूर्ण हो जाएगी। भगवान् शिव की इस बात को सुनकर माता सती ने भगवान् शिव से कहा कि मैं बार-बार जन्म लेकर शरीर त्याग करती हूँ, लेकिन आप शरीर त्याग नहीं करते!
भगवान् शिव हँसते हुए बोले कि मैं अमर कथा जानता हूँ इसलिए मुझे शरीर का त्याग नहीं करना पड़ता। इस पर माता सती ने भी अमर कथा जानने की इच्छा प्रकट की। भगवान् शिव जब माता सती को कथा सुनाने लगे तो उन्हें नींद आ गयी और वह कथा सुन नहीं पायी।
इसलिए उन्हें दक्ष के यज्ञ कुंड में कूदकर अपने शरीर का त्याग करना पड़ा। उसके पश्चात भगवान् शिव ने माता सती के मुँड को भी माला में गूँथ लिया। इस प्रकार 108 मुँड की माला तैयार हो गयी। माता सती ने अगला जन्म पार्वती के रूप में लिया। इस जन्म में माता पार्वती को अमरत्व प्राप्त हुआ और फिर उन्हें शरीर त्याग नहीं करना पड़ा।
दक्ष प्रजापति अपने दुर्भाग्य के कारण प्रतिदिन भगवान् शिव और माता सती की निंदा करते रहते थे। वे भगवान् शिव को सम्मान नहीं देते थे तथा उन दोनों का द्वेष परस्पर बढ़ता ही गया। एक बार देवर्षि नारद, दक्ष प्रजापति के पास गए और उनसे कहा कि तुम सर्वदा भगवान् शिव की निंदा करते रहते हो, इस निन्दात्मक व्यवहार के प्रतिफल में जो कुछ होने वाला हैं, उसे भी सुन लो। भगवान् शिव शीघ्र ही अपने गणो के साथ यहाँ आकर सब कुछ भस्म कर देंगे, हड्डियाँ बिखेर देंगे, तुम्हारा कुल सहित विनाश कर देंगे। मैंने तुम्हें यह स्नेह वश बता रहा हूँ, तुम अपने मंत्रियों से भली-भाँति विचार-विमर्श कर लो। यह कह नारद जी वहाँ से चले गए। तदनंतर, दक्ष ने अपने मंत्रियों को बुलवाकर, इस सन्दर्भ में अपने भय को प्रकट किया तथा कैसे इसका प्रतिरोध हो, इसका उपाय विचार करने हेतु कहा।
दक्ष की चिंता से अवगत हो, सभी मंत्री भयभीत हो गए। उन्होंने दक्ष को परामर्श दिया कि भगवान् शिव के साथ हम वैर नहीं कर सकते तथा इस संकट के निवारण हेतु हमें और कोई उपाय नहीं सूझ रहा। आप परम बुद्धिमान हैं तथा सब शास्त्रों के ज्ञाता हैं, आप ही इस समस्या के निवारण हेतु कोई प्रतिकारात्मक उपाय सोचें, हम सभी उसे सफल करने का प्रयास करेंगे।
दक्ष ने संकल्प किया कि मैं सभी देवताओं को आमंत्रित कर वृहस्पति श्रवा यज्ञ करूँगा! जिसके संरक्षक सर्व-विघ्न-निवारक यज्ञाधिपति भगवान् विष्णु स्वयं होंगे, जहाँ श्मशान वासी भगवान् शिव को नहीं बुलाया जायेगा। दक्ष यह देखना चाहते थे कि भूतपति शिव इस पुण्य कार्य में कैसे विघ्न डालेंगे। इस तथ्य में दक्ष के सभी मंत्रियों का भी मत था, तदनंतर वे क्षीरसागर के तट पर जाकर, अपने यज्ञ के संरक्षण हेतु भगवान् विष्णु से प्रार्थना करने लगे। दक्ष के प्रार्थना को स्वीकार करते हुए, भगवान् विष्णु उस यज्ञ के संरक्षण हेतु दक्ष की नगरी में आयें। दक्ष ने इन्द्रादि समस्त देवताओं सहित, देवर्षियों, ब्रह्म-ऋषियों, यक्षों, गन्धर्वों, किन्नरों, पितरों, ग्रह, नक्षत्र दैत्यों, दानवों, मनुष्यों इत्यादि सभी को निमंत्रण किया परन्तु भगवान् शिव तथा उनकी पत्नी सती को निमंत्रित नहीं किया और न ही उनसे सम्बन्ध रखने वाले किसी अन्य को। अगस्त्य, कश्यप, अत्रि, वामदेव, भृगु, दधीचि, व्यास जी, भरद्वाज, गौतम, पैल, पाराशर, गर्ग, भार्गव, ककुप, सित, सुमन्तु, त्रिक, कंक तथा वैशम्पायन ऋषि एवं और भी दूसरे मुनि सपरिवार दक्ष के यज्ञ अनुष्ठान में पधारे थे। दक्ष ने विश्वकर्मा से अनेक विशाल तथा दिव्य भवन का निर्माण करवा कर, अतिथियों के ठहरने हेतु प्रदान किया, अतिथियों का उन्होंने बहुत सत्कार किया। दक्ष का वह यज्ञ कनखल नामक स्थान में हो रहा था।
यज्ञ अनुष्ठान में उपस्थित समस्त लोगों से दक्ष ने निवेदन किया कि मैंने अपने इस यज्ञ महोत्सव में शिव तथा सती को निमंत्रित नहीं किया हैं, उन्हें यज्ञ का भाग नहीं प्राप्त होगा, परम पुरुष भगवान् विष्णु इस यज्ञ में उपस्थित हैं तथा स्वयं इस यज्ञ की रक्षा करेंगे। आप सभी किसी का भी भय न मान कर इस यज्ञ में सम्मिलित रहें। इस पर भी वहाँ उपस्थित देवता आदि आमंत्रित लोगों को भय हो रहा था, परन्तु जब उन्होंने सुना कि इस यज्ञ की रक्षा हेतु स्वयं यज्ञ-पुरुष भगवान् श्री विष्णु आये हैं, तो उनका भय दूर हो गया।
प्रजापति दक्ष ने यज्ञ में माता सती को छोड़ अपनी सभी कन्याओं को बुलवाया तथा वस्त्र-आभूषण इत्यादि आदि देकर उनका यथोचित सम्मान किया। उस यज्ञ में किसी भी पदार्थ की कमी नहीं थीं, तदनंतर दक्ष ने यज्ञ प्रारंभ किया, उस समय स्वयं पृथ्वी देवी यज्ञ-वेदी बनी तथा साक्षात् अग्निदेव यज्ञकुंड में विराजमान हुए।
स्वयं यज्ञ-भगवान् श्री हरी विष्णु उस यज्ञ में उपस्थित थे परन्तु, वहाँ दधीचि मुनि ने भगवान् शिव को न देखकर, प्रजापति दक्ष से पूछा कि आप के यज्ञ में सभी देवता अपने-अपने भाग को लेने हेतु साक्षात उपस्थित हैं। यहाँ सभी देवता आयें हैं, परन्तु यज्ञ पति भगवान् शिव नहीं दिखाई देते है। उनके बगैर कोई यज्ञ पूरा नहीं हो सकता।
प्रजापति दक्ष ने मुनिवर से कहा कि हे मुनि! मैंने इस शुभ अवसर पर शिव को निमंत्रित नहीं किया हैं, मेरी मान्यता हैं कि ऐसे पुण्य-कार्यों में शिव की उपस्थिति उचित नहीं हैं।
दधीचि मुनि ने कहा कि यह यज्ञ उन भगवान् शिव के बिना श्मशान तुल्य हैं। इस पर दक्ष को बड़ा क्रोध हुआ तथा उन्होंने दधीचि मुनि को अपशब्द कहे। मुनिराज ने उन्हें पुनः भगवान् शिव को ससम्मान बुला लेने का आग्रह किया। कई प्रकार के उदाहरण देकर उन्होंने भगवान् शिव के बिना सब निरर्थक है यह समझाने का प्रयास किया। दधीचि मुनि ने कहा कि जिस देश में नदी न हो, जिस यज्ञ में भगवान् शिव न हो, जिस नारी का कोई पति न हो, जिस गृहस्थ का कोई पुत्र न हो वह सब निरर्थक ही है। कुश के बिना संध्या तथा तिल के बिना पित्र-तर्पण, हवि के बिना कोई होम पूर्ण नहीं है। उसी प्रकार भगवान् शिव के बिना कोई यज्ञ पूर्ण नहीं है। जो भगवान् श्री हरी विष्णु हैं, वही भगवान् शिव हैं और जो भगवान् शिव हैं, वही भगवान् श्री हरी विष्णु हैं। इन दोनों में कोई भेद नहीं है। इन दोनों से किसी एक के प्रति भी जो कोई द्वेष रखता है तो वह द्वेष दोनों के ही प्रति है, ऐसा समझना चाहिये। भगवान् शिव के अपमान हेतु तुमने जो ये यज्ञ का आयोजन किया हैं, इससे तुम नष्ट हो जाओगे।
इस पर दक्ष ने कहा कि सम्पूर्ण जगत के पालक यज्ञ-पुरुष जनार्दन श्री हरी विष्णु जिसके रक्षक हों, वहाँ श्मशान में रहने वाला शिव मेरा कुछ अहित नहीं कर सकता। अगर वह अपने भूत-प्रेतों के साथ यहाँ आता है तो भगवान् विष्णु का चक्र उसके ही विनाश का कारण बनेगा। इस पर दधीचि मुनि ने दक्ष से कहा कि अविनाशी भगवान् विष्णु तुम्हारी तरह मूर्ख नहीं हैं, जो तुम्हारे लिए युद्ध करें। कुछ समय पश्चात तुम्हें यह स्वतः ही ज्ञात हो जायेगा।
यह सुनकर दक्ष और अधिक क्रोधित हो गया और अपने अनुचरों से कहा कि इस ब्राह्मण को दूर भगा दो। इस पर मुनि राज ने दक्ष से कहा कि तू क्या मुझे भगा रहा हैं, तेरा भाग्य तो पहले से ही तुझसे रूठ गया है, अब शीघ्र ही तेरा विनाश होगा, इस में कोई संदेह नहीं है। उस यज्ञ अनुष्ठान से दधीचि मुनि क्रोधित हो चेले गए। उनके साथ दुर्वासा, वामदेव, च्यवन एवं गौतम आदि ऋषि भी उस अनुष्ठान से चल दिए, क्योंकि वे भगवान् शिव तत्त्व के उपासक थे। इन सभी ऋषियों के जाने के पश्चात, उपस्थित ऋषियों से ही यज्ञ को पूर्ण करने का दक्ष ने निश्चय कर यज्ञ आरम्भ किया। परिवार के सदस्यों द्वारा कहने पर भी दक्ष ने सती का अपमान करना बन्द नहीं किया, उसका पुण्य क्षीण हो चुका था। परिणाम स्वरूप, वह माँ भगवती आदि शक्ति रूपा माता सती का अपमान करता ही जा रहा था।
अन्य सभी ऋषिगण बड़े उत्साह तथा हर्ष के साथ दक्ष के यज्ञ में जा रहें थे। माता सती ने गंधमादन पर्वत पर अपनी सखियों के संग क्रीड़ाएँ कर रहीं थीं। उन्होंने रोहिणी के संग चंद्रमा को आकाश मार्ग से जाते हुए देखा तथा अपनी सखी विजया से कहा कि जल्दी जाकर पूछ तो आ, ये चन्द्र देव रोहिणी के साथ कहा जा रहे हैं? तदनंतर विजया, चन्द्र देव के पास गई। चन्द्र देव ने उन्हें दक्ष के महा-यज्ञ का सारा वृतांत सुनाया। विजया, माता सती के पास आई और चन्द्र देव द्वारा जो कुछ कहा गया, वह सब कह सुनाया। यह सुनकर देवी सती को बड़ा विस्मय हुआ और वे भगवान् शिव के पास आईं।
यज्ञ अनुष्ठान से देवर्षि नारद, भगवान् शिव के पास आये और उन्होंने भगवान् शिव को बताया कि दक्ष ने अपने यज्ञ अनुष्ठान में केवल मात्र आप दोनों को छोड़ कर अन्य सभी को निमंत्रित किया हैं। उस अनुष्ठान में आपको न देखकर मैं दुःखी हुआ तथा आपको बताने आया हूँ कि आप लोगों का वहाँ जाना उचित है। आप अविलम्ब वहाँ जायें।
भगवान् शिव ने नारद जी से कहा कि हम दोनों के वहाँ जाने से कोई विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं होने वाला है, प्रजापति जैसे चाहें, अपना यज्ञ सम्पन्न करें।
नारद जी ने कहा कि आपका अपमान करके यदि वह यह यज्ञ पूर्ण कर लेगा तो इसमें आप की अवमानना होगी। यह समझते हुए कृपा कर आप वहाँ चल कर अपना यज्ञ भाग ग्रहण करें, अन्यथा उस यज्ञ में विघ्न उत्पन्न होगा।
भगवान् शिव ने कहा कि हे नारद! न तो ही मैं वहाँ जाऊँगा और न ही सती वहाँ जायेंगी। वहाँ जाने पर भी दक्ष हमें हमारा यज्ञ भाग नहीं देगा, तय है।
भगवान् शिव से इस प्रकार उत्तर पाकर नारद जी ने माता सती से कहा कि हे जगन्माता! आपको वहाँ अवश्य जाना चाहिये। कोई कन्या अपने पितृ गृह में किसी विशेष आयोजन के बारे में सुन कर कैसे वहाँ नहीं जा सकती है? आप की अन्य जितनी बहनें हैं, सभी अपने-अपने पतियों के साथ उस आयोजन में आई हैं। उस दक्ष ने आपको अभिमान वश नहीं बुलाया है। आप उनके इस अभिमान के नाश हेतु कोई उपाय करें। आपके पति-देव भगवान् शिव तो परम योगी हैं। इन्हें अपने मान या अपमान की कोई चिंता नहीं है। वे तो उस यज्ञ में जायेंगे नहीं और न ही कोई विघ्न उत्पन्न करेंगे। इतना कहकर नारद जी पुनः यज्ञ सभा में वापस आ गए।
नारद मुनि के वचन सुनकर, माता सती ने अपने पति भगवान् शिव से कहा कि मेरे पिता प्रजापति दक्ष विशाल यज्ञ का आयोजन किये हुए हैं। हम दोनों का उस में जाना उचित ही है। यदि हम वहाँ गए तो वे हमारा सम्मान ही करेंगे।
इस पर भगवान् शिव ने कहा कि तुम्हें ऐसे अहितकर बात मन में नहीं लानी चाहिये। बिना निमंत्रण के जाना मरण के समान ही है। तुम्हारे पिता को मेरा विद्याधर कुलों में स्वछंद विचरण करना अच्छा नहीं लगता है। मेरे अपमान के निमित्त ही उन्होंने इस यज्ञ का आयोजन किया है। मैं जाऊँ या तुम, हम दोनों का वहाँ पर कोई सम्मान नहीं होगा, यह तुम समझ लो। श्वसुर गृह में जामाता अधिक से अधिक सम्मान की आशा रखता है। यदि वहाँ जाने से अपमान होता है तो वह मृत्यु से भी बढ़ कर कष्टदायक होगा। अतः मैं तुम्हारे पिता के यहाँ नहीं जाऊँगा। वहाँ मेरा जाना तुम्हारे पिता को प्रिय नहीं होगा। तुम्हारे पिता मुझे दिन-रात, दीन-हीन तथा दरिद्र और दुःखी कहते रहते है। बिन बुलाये वहाँ जाने पर वे और अधिक कटु-वचन कहने लगेंगे। अपमान हेतु कौन बुद्धिमान श्वसुर गृह जाना उचित समझता है? बिना निमंत्रण के हम दोनों का वहाँ जाना कदापि उचित नहीं है।
भगवान् शिव द्वारा समझाने पर भी माता सती नहीं मानी और कहने लगीं कि आपने जो कुछ भी कहा, वह सब सत्य है। परन्तु ऐसा भी तो हो सकता है कि वहाँ हमारे जाने पर वे हमारा यथोचित सम्मान करें।
भगवान् शिव ने माता सती से कहा कि तुम्हारे पिता ऐसे नहीं हैं, वे हमारा सम्मान नहीं करेंगे। मेरा स्मरण आते ही दिन-रात वे मेरी निंदा करते हैं। यह केवल मात्र तुम्हारा भ्रम ही है।
माता सती ने कहा कि आप जायें या न जायें यह आपकी रुचि है। आप मुझे आज्ञा दीजिये। मैं अपने पिता के घर अवश्य जाऊँगी, पिता के घर जाने हेतु कन्या को आमंत्रण-निमंत्रण की आवश्यकता नहीं होती। वहाँ यदि मेरा सम्मान हुआ तो मैं पिताजी से कहकर आप को भी यज्ञ भाग दिलाऊँगी और यदि पिता जी ने मेरे सम्मुख आपकी निंदा की तो उस यज्ञ का विध्वंस कर दूँगी।
भगवान् शिव ने पुनः माता सती से कहा कि तुम्हारा वहाँ जाना उचित नहीं है। वहांँ तुम्हारा सम्मान नहीं होगा। पिता द्वारा की गई निंदा तुम सहन नहीं कर पाओगी। जिसके कारण तुम्हें प्राण त्याग करना पड़ेगा, तुम अपने पिता का क्या अनिष्ट करोगी?
इस पर माता सती ने क्रोधित होकर भगवान् शिव से कहा कि मैं अपने पिता के घर जरूर जाऊँगी, फिर आप मुझे आज्ञा दें या न दें। भगवान् शिव ने माता सती से अपने पिता के यहाँ जाने का वास्तविक प्रयोजन पूछा और कहा कि अगर उन्हें अपने पति की निंदा सुनने का कोई प्रयोजन नहीं है तो वे क्यों ऐसे पुरुष के गृह जा रही हैं, जहाँ उनकी सर्वथा निंदा होती हो।
माता सती ने कहा कि मुझे आपकी निंदा सुनने में कोई रुचि नहीं हैं और न ही मैं आपके निंदा करने वाले के घर जाना चाहती हूँ। वास्तविकता तो यह हैं, यदि आपका किसी भी प्रकार से अपमान कर, मेरे पिताजी इस यज्ञ को सम्पूर्ण कर लेते हैं तो भविष्य में हमारे ऊपर कोई श्रद्धा नहीं रखेगा और न ही हमारे निमित्त आहुति ही डालेगा। आप आज्ञा दें या न दें, मैं वहाँ जाकर यथोचित सम्मान न पाने पर यज्ञ का विध्वंस कर दूंगी।
भगवान् शिव ने कहा कि मेरे इतने समझाने पर भी आप आज्ञा से बाहर होती जा रही हैं, इसलिये जो आपकी इच्छा हो वही करें। आप मेरे आदेश की प्रतीक्षा क्यों कर रहीं हैं?
भगवान् शिव के ऐसा कहने पर दक्ष-पुत्री सती देवी अत्यंत क्रुद्ध हो गईं। उन्होंने सोचा कि जिनको कठिन तपस्या करने के पश्चात प्राप्त किया था, आज वो मेरा ही अपमान कर रहें हैं। अब मैं इन्हें अपना वास्तविक प्रभाव दिखाऊँगी।
भगवान् शिव ने देखा कि माता सती के होंठ क्रोध से फड़क रहे हैं तथा नेत्र प्रलयाग्नि के समान लाल हो गए हैं, जिसे देखकर भयभीत होकर, उन्होंने अपने नेत्रों को मूँद लिया। माता सती ने सहसा घोर अट्टहास किया, जिसके कारण उनके मुँह में लम्बी -लम्बी दाढ़ें दिखने लगीं। जिसे देख-सुन कर भगवान् शिव हतप्रभ हो गए। कुछ समय पश्चात उन्होंने जब अपनी आँखों को खोला तो, सामने देवी का भीम आकृति युक्त भयानक रूप दिखाई दे रहा था। देवी वृद्धावस्था के समान वर्ण वाली हो गई थीं। उनके केश खुले हुए थे, जिह्वा मुख से बाहर लपलपा रही थी। उनकी चार भुजाएँ थीं। उनके देह से प्रलयाग्नि के समान ज्वालाएँ निकल रही थीं। उनके रोम-रोम से स्वेद निकल रहा था। वे भयंकर डरावनी चीत्कार कर रहीं थीं तथा आभूषणों के रूप में केवल मुँड-मालाएँ धारण किये हुए थीं। उनके मस्तक पर अर्ध चन्द्र शोभित था, शरीर से करोड़ों प्रचंड आभाएँ निकल रहीं थीं, उन्होंने चमकता हुआ मुकुट धारण कर रखा था। इस प्रकार के घोर भीमाकार भयानक रूप में, अट्टहास करते हुए देवी, भगवान् शिव के सम्मुख खड़ी हुई।
उन्हें इस प्रकार देख कर भगवान् शिव ने भयभीत हो भागने का मन बनाया। वे हतप्रभ हो इधर उधर दौड़ने लगे। माता सती ने भयानक अट्टहास करते हुए, निरुद्देश्य भागते हुए भगवान् शिव से कहा कि आप मुझ से डरिये नहीं। परन्तु भगवान् शिव डर के मारे इधर-उधर भागते रहे। इस प्रकार भागते हुए अपने पति को देखकर, दसों दिशाओं में देवी अपने ही दस अवतारों में खड़ी हो गईं। भगवान् शिव जिस भी दिशा की ओर भागते, वे अपने एक अवतार में उनके सम्मुख खड़ी हो जातीं। इस तरह भागते-भागते जब भगवान् शिव को कोई स्थान नहीं मिला तो वे एक स्थान पर खड़े हो गए। इसके पश्चात उन्होंने जब अपनी आँखें खोलीं तो अपने सामने मनोहर मुख वाली श्यामा देवी को देखा। उनका मुख कमल के समान खिला हुआ था, दोनों पयोधर स्थूल तथा आँखें कमल के समान थीं। उनके केश खुले हुए थे, देवी करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान थीं, उनकी चार भुजाएं थीं। वे दक्षिण दिशा में सामने खड़ी थीं।
अत्यंत भयभीत हो विस्मय से भगवान् शिव ने उन देवी से पूछा कि आप कौन हैं, मेरी प्रिय सती कहा हैं?
माता सती ने भगवान् शिव से कहा कि आप मुझ सती को नहीं पहचान रहें है, ये सारे रूप जो आप देख रहे है; काली, तारा, त्रिपुरसुंदरी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, बगलामुखी, धूमावती, मातंगी एवं कमला, ये सब मेरे ही नाना नाम हैं। भगवान् शिव द्वारा उन नाना देवियों का परिचय पूछने पर देवी ने कहा कि ये जो आप के सम्मुख भीमाकार देवी हैं, इनका नाम काली है। ऊपर की ओर जो श्याम-वर्णा देवी खड़ी हैं, वह तारा हैं, आपके दक्षिण में जो मस्तक-विहीन अति भयंकर देवी खड़ी हैं, वह छिन्न मस्ता हैं, आपके उत्तर में जो देवी खड़ी हैं, वह भुवनेश्वरी हैं, आपके पश्चिम दिशा में जो देवी खड़ी हैं, वह शत्रु विनाशिनी बगला मुखी देवी हैं, विधवा रूप में आपके आग्नेय कोण में धूमावती देवी खड़ी हैं, आपके नैऋत्य कोण में देवी त्रिपुर सुन्दरी  खड़ी हैं, आप के वायव्य कोण में जो देवी हैं, वह मातंगी हैं, आपके ईशान कोण में जो देवी खड़ी हैं, वह कमला हैं तथा आपके सामने भयंकर आकृति वाली मैं भैरवी खड़ी हूँ। अतः आप इनमें किसी से भी न डरें। यह सभी देवियाँ महाविद्याओं की श्रेणी में आती हैं, इनके साधक या उपासक पुरुषों को चतुर्वर्ग (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) तथा मनोकामनाएँ पूर्ण करने वाली हैं। आज मैं अपने पिता का अभिमान चूर्ण करने हेतु जाना चाहती हूँ, यदि आप न जाना चाहें, तो मुझे ही आज्ञा दें।
भगवान् शिव ने माता सती से कहा कि मैं अब आपको पूर्ण रूप से नहीं जान पाया हूँ। अतः पूर्व में प्रमाद या अज्ञान वश मैंने आपके विषय में जो भी कुछ अनुचित कहा हो, उसे क्षमा करें। आप आद्या परा विद्या हैं, सभी प्राणियों में आप व्याप्त हैं तथा स्वतंत्र परा-शक्ति हैं। आप का नियन्ता तथा निषेधक कौन हो सकता हैं? आपको रोक सकूँ, मुझमें ऐसा सामर्थ्य नहीं है। इस विषय में आपको जो अनुचित लगे आप वही करें।
इस प्रकार भगवान् शिव के कहने पर देवी उनसे बोलीं कि हे महेश्वर! सभी प्रमथ गणों के साथ आप यहीं कैलाश में ठहरें। मैं अपने पिता के यहाँ जा रही हूँ। भगवान् शिव को यह कह वह ऊपर खड़ी हुई तारा अकस्मात् एक रूप हो गई तथा अन्य अवतार अंतर्ध्यान हो गए। देवी ने प्रमथों को रथ लाने का आदेश दिया। वायु वेग से सहस्रों सिंहों से जुती हुई मनोरम देवी-रथ, जिसमें नाना प्रकार के अलंकार तथा रत्न जुड़े हुए थे, प्रमथ प्रधान द्वारा लाया गया। वह भयंकर रूप वाली काली देवी उस विशाल रथ में बैठ कर आपने पितृ गृह को चली, नंदी उस रथ के सारथी थे, इस कारण भगवान् शिव को सहसा धक्का सा लगा।
दक्ष यज्ञ मंडप में उस भयंकर रूप वाली देवी को देख कर सभी चंचल हो उठे, सभी भय से व्याकुल हो गए। सर्व प्रथम भयंकर रूप वाली देवी अपनी माता के पास गई, बहुत काल पश्चात आई हुई, अपनी पुत्री को देख कर दक्ष-पत्नी प्रसूति बहुत प्रसन्न हुई तथा देवी से बोलीं कि तुम्हें आज इस घर में देख कर मेरा शोक समाप्त हो गया है। तुम स्वयं आद्या शक्ति हो। तुम्हारे दुर्बुद्धि पिता ने तुम्हारे पति भगवान् शिव की महिमा को न समझते हुए, उनसे द्वेष कर, यहाँ यज्ञ का योजन कर रहें हैं, जिसमें तुम्हें तथा तुम्हारे पति को निमंत्रित नहीं किया गया हैं। इस विषय में हम सभी परिवार वालों तथा बुद्धिमान ऋषियों ने उन्हें बहुत समझाया, परन्तु वे किसी की न माने।
माता सती ने अपनी माता से कहा कि मेरे पति भगवान् शिव का अनादर करने के निमित्त उन्होंने ये यज्ञ तो प्रारम्भ कर लिया हैं, परन्तु मुझे यह नहीं लगता हैं कि यह यज्ञ निर्विघ्न समाप्त होगा। उनकी माता ने भी उन्हें ब्रह्म मुहूर्त में आयें हुए स्वप्न से अवगत कराया, जिसमें उन्होंने देखा की इस यज्ञ का विध्वंस, शिवगणों द्वारा हो गया हैं। इसके पश्चात माता सती ने अपनी माता को प्रणाम कर, अपने पिता के पास यज्ञ स्थल पर गईं।
उन भयंकर काली देवी को देख कर दक्ष सोचने लगा कि यह कैसी अद्भुत बात है। पहले तो सती स्वर्ण के वर्ण वाली गौर शरीर, सौम्य तथा सुन्दर थीं, आज वह श्याम वर्ण वाली कैसी हो गए हैं! सती इतनी भयंकर क्यों लग रही हैं? इसके केश क्यों खुले हैं? क्रोध से इसके नेत्र लाल क्यों हैं? इसकी दाढ़ें इतनी भयंकर क्यों लग रहीं हैं? इसने अपने शरीर में चीते का चर्म क्यों लपेट रखा हैं? इसकी चार भुजाएँ क्यों हो गई हैं? इस भयानक रूप में वह इस देव सभा में कैसे आ गई? सती ऐसे क्रुद्ध लग रही थीं, मानो वह क्षण भर में समस्त जगत का भक्षण कर देंगी। इसका अपमान कर हमने यह यज्ञ आयोजन किया हैं, मानो वह इसी का दंड देने हेतु यहाँ आई हो। प्रलय-काल में जो इन भगवान् ब्रह्मा एवं भगवान् श्री हरी विष्णु का भी संहार करती हैं, वह इस साधारण यज्ञ का विध्वंस कर दे तो भगवान् ब्रह्मा तथा भगवान् विष्णु क्या कर पायेंगे?
सती की इस भयंकर रूप को देख कर सभी यज्ञ-सभा में भय से काँप उठे। उन्हें देख कर सभी अपने कार्यों को छोड़ते हुए स्तब्ध हो गए। वहाँ बैठे अन्य देवता, दक्ष प्रजापति के भय से उन्हें प्रणाम नहीं कर पायें। समस्त देवताओं की ऐसी स्थिति देखकर, क्रोध से जलते नेत्रों वाली काली देवी से दक्ष ने कहा कि तू कौन हैं निर्लज्ज? किसकी पुत्री हैं? किसकी पत्नी हैं? यहाँ किस उद्देश्य से आई हैं? तू सती की तरह दिख रही है, क्या तू वास्तव में शिव के घर से आई मेरी कन्या सती हैं ?
इस पर सती ने कहा कि पिताजी, आपको क्या हुआ है? आप मुझे क्यों नहीं पहचान पा रहें हैं? आप मेरे पिता हैं और मैं आपकी पुत्री सती हूँ। मैं आपको प्रणाम करती हूँ।
दक्ष ने माता सती से कहा कि पुत्री, तुम्हारी यह क्या अवस्था हो गई हैं? तुम तो गौर वर्ण की थीं, दिव्य वस्त्र धारण करती थीं और आज तुम चीते का चर्म पहने भरी सभा में क्यों आई हो? तुम्हारे केश क्यों खुले हैं? तुम्हारे नेत्र इतने भयंकर क्यों प्रतीत हो रहें हैं? क्या शिव जैसे अयोग्य पति को पाकर तुम्हारी यह दशा हो गई है या तुम्हें मैंने इस यज्ञ अनुष्ठान में नहीं आमंत्रित किया इसके कारण तुम अप्रसन्न हो? केवल शिव पत्नी होने के कारण मैंने तुम्हें इस यज्ञ में निमंत्रित नहीं किया हैं, ऐसा नहीं है कि तुमसे मेरा स्नेह नहीं है। तुमने अच्छा ही किया जो तुम स्वयं चली आईं। तुम्हारे निमित्त नाना अलंकार-वस्त्र इत्यादि रखे हुए हैं, इन्हें तुम स्वीकार करो! तुम तो मुझे अपने प्राणों की तरह प्रिय हो। कही तुम शिव जैसे अयोग्य पति पाकर दुःखी तो नहीं हो?
भगवान् शिव के सम्बन्ध में कटु वचन सुनकर माता सती के सभी अंग प्रज्वलित हो उठे और उन्होंने सोचा कि सभी देवताओं के साथ अपने पिता को यज्ञ सहित भस्म करने का मुझ में पर्याप्त सामर्थ्य है। परन्तु पितृ हत्या के भय से मैं ऐसा नहीं कर पा रहीं हूँ, परन्तु इन्हें सम्मोहित तो कर सकती हूँ।
ऐसा सोचकर सर्वप्रथम उन्होंने अपने समान आकृति वाली छाया-सती का निर्माण किया तथा उनसे कहा कि तू इस यज्ञ का विनाश कर दे। मेरे पिता के मुँह से शिव निंदा की बातें सुनकर, उन्हें नाना प्रकार की बातें कहना तथा अन्ततः इस प्रज्वलित अग्नि कुण्ड में अपने शरीर की आहुति दे देना। तुम पिताजी के अभिमान का इसी क्षण मर्दन कर दो, इसका समाचार जब भगवान् शिव को प्राप्त होगा तो वे अवश्य ही यहाँ आकर इस यज्ञ का विध्वंस कर देंगे। छाया सती से इस प्रकार कहकर, आदि शक्ति देवी स्वयं वहाँ से अंतर्ध्यान हो आकाश में चली गईं।
छाया सती ने दक्ष को चेतावनी दी कि वह देव सभा में बैठ कर शिव निंदा न करें नहीं तो वह उनकी जिह्वा हो काट कर फेंक देंगी।
दक्ष ने अपनी कन्या से कहा कि मेरे सम्मुख कभी उस शिव की प्रशंसा न करना। मैं उस दुराचारी श्मशान में रहने वाली, भूत-पति एवं बुद्धि-विहीन तेरे पति को अच्छी तरह जानता हूँ। तू अगर उसी के पास रहने में अपना सब सुख मानती है, तो तू वही रह! तू मेरे सामने उस भूत-पति भिक्षुक की स्तुति क्यों कर रही है?
छाया-सती ने कहा कि मैं आपको पुनः समझा रहीं हूँ। अगर अपना हित चाहते हो तो यह पाप-बुद्धि का त्याग करें तथा भगवान् शिव की सेवा में लग जाए। यदि प्रमाद-वश अभी भी भगवान् शिव की निंदा करते रहे तो वह यहाँ आकर इस यज्ञ सहित आपको विध्वस्त कर देंगे।
इस पर दक्ष ने कहा कि कुपुत्री, तू दुष्ट है! तू मेरे सामने से दूर हट जा। तेरी मृत्यु तो मेरे लिए उसी दिन हो गई थी, जिस दिन तूने शिव का वरण किया था। अब बार-बार मुझे अपने पति का स्मरण क्यों करा रही है? तेरा दुर्भाग्य है कि तुझे निकृष्ट पति मिला है। तुझे देख कर मेरा शरीर शोकाग्नि से संतप्त हो रहा है। हे दुरात्मिके! तू मेरी आँखों के सामने से दूर हो जा और अपने पति का व्यर्थ गुणगान न कर।
दक्ष के इस प्रकार कहने पर छाया सती क्रुद्ध हो कर भयानक रूप में परिवर्तित हो गई। उनका शरीर प्रलय के मेघों के समान काला पड़ गया था, तीन नेत्र क्रोध के मारे लाल अंगारों के समान लग रहे थे। उन्होंने अपना मुख पूर्णतः खोल दिया था, केश खुले पैरो तक लटक रहें थे। घोर क्रोध युक्त उस प्रदीप्त शरीर वाली माता सती ने अट्टहास करते हुए दक्ष से गम्भीर वाणी में कहा कि अब मैं आप से दूर नहीं जाऊँगी, अपितु आपसे उत्पन्न इस शरीर को शीघ्र ही नष्ट कर दूँगी। देखते ही देखते वह छाया-सती क्रोध से लाल नेत्र कर, उस प्रज्वलित यज्ञकुंड में कूद गईं। उस क्षण पृथ्वी काँपने लगी तथा वायु भयंकर वेग से बहने लगी। पृथ्वी पर भयंकर उल्का-पात होने लगा। यज्ञ अग्नि की अग्नि बुझ गई, वह उपस्थित ब्राह्मणों ने नाना प्रयास कर पुनः जैसे-तैसे यज्ञ को आरंभ किया।
जैसे ही भगवान् शिव के 60,000 प्रमथों ने देखा कि माता सती ने यज्ञ कुण्ड में अपने प्राणों की आहुति दे दी, वे सभी अत्यंत रोष से भर गए। 20,000 प्रमथ गणों ने तो माता सती के साथ ही प्राण त्याग दिए। बाकी बचे हुए प्रमथ गणों ने दक्ष को मारने हेतु अपने अस्त्र-शास्त्र उठाये। उन आक्रमणकारी प्रमथों को देख कर भृगु ने यज्ञ में विघ्न उत्पन्न करने वालों के विनाश हेतु यजुर्मंत्र से दक्षिणाग्नि में आहुति दी। जिस से यज्ञ से ऋभु नाम के सहस्रों देवता प्रकट हुए। उन सब के हाथों में जलती हुई लकड़ियाँ थीं। उन ऋभुयों के संग प्रमथ गणों का भयंकर युद्ध हुआ, जिसमें उन प्रमथ गणों की हार हुई।
यह सब देख वहाँ पर उपस्थित सभी देवता, ऋषि, मरुद्गणा, विश्वेदेव, लोकपाल इत्यादि सभी चुप रहें। वहांँ उपस्थित सभी को यह आभास हो गया था की, वहाँ पर कोई विकट विघ्न-संकट उत्पन्न होने वाला है। उनमें से कुछ एक ने भगवान् श्री हरी विष्णु से विघ्न के समाधान करने हेतु कोई उपाय करने हेतु कहा। वहाँ उपस्थित सभी अत्यधिक भयभीत हो गए और भगवान् शिव द्वारा उत्पन्न होने वाले विध्वंसात्मक प्रलय स्थित की कल्पना करने लगे।
देवर्षि नारद ने कैलाश जाकर भगवान् शिव से कहा कि हे महेश्वर! आप को प्रणाम है। आप की प्राणप्रिय माता सती ने अपने पिता के घर आप की निंदा सुनकर क्रोध-युक्त हो यज्ञकुंड में अपने देह का त्याग कर दिया है तथा यज्ञ पुनः आरम्भ हो गया है। देवताओं ने आहुति लेना प्रारम्भ कर दिया है। भृगु के मन्त्र बल के प्रताप से जो प्रमथ बच गए थे, वे सभी भगवान् शिव के पास गए और उन्होंने उन्हें उपस्थित परिस्थिति से अवगत करवाया।
नारद जी तथा प्रमथ गणों से यह समाचार सुनकर भगवान् शिव शोक प्रकट करते हुए रुदन करने लगे। वे घोर विलाप करने लगे तथा मन ही मन सोचने लगे कि हे सती! मुझे इस शोक-सागर में निमग्न कर तुम कहा चली गईं? अब मैं कैसे अपना जीवन धारण करूँगा? इसी कारण मैंने तुम्हें वहाँ जाने हेतु मना किया था, परन्तु तुम अपना क्रोध प्रकट करते हुए वहाँ गई तथा अन्ततः तुमने देह त्याग कर दिया।
इस प्रकार के नाना विलाप करते हुए भगवान् शिव के मुख तथा नेत्र क्रोध से लाल हो गए तथा उन्होंने रौद्र रूप धारण कर लिया। उनके रुद्र रूप से पृथ्वी के जीव ही क्या स्वयं पृथ्वी भी भयभीत हो गई। भगवान् शिव ने अपने सर से एक जटा उखड़ी और उसे रोष पूर्वक पर्वत के ऊपर दे मारा, इसके साथ ही उनके ऊपर के नेत्रों से एक बहुत चमकने वाली अग्नि प्रकट हुई। उनके जटा के पूर्व भाग से महा-भयंकर, वीरभद्र प्रकट हुए तथा जटा के दूसरे भाग से महाकाली उत्पन्न हुई, जो घोर भयंकर दिखाई दे रहीं थीं।
वीरभद्र ने प्रलय-काल के मृत्यु के समान विकराल रूप धारण किया, जिससे तीन नेत्रों से जलते हुए अँगारे निकल रहे थे, उनके समस्त शरीर से भस्म लिपटी हुई थीं, मस्तक पर जटाएँ शोभित हो रहीं थीं।
उसने भगवान् शिव को प्रणाम कर तीन बार उनकी प्रदक्षिणा की तथा हाथ जोड़ कर बोला कि मैं क्या करूँ आज्ञा दीजिये? आप अगर आज्ञा दे तो मैं इन्द्र को भी आप के सामने ले आऊँ, फिर भले ही भगवान् श्री हरी विष्णु उनकी सहायतार्थ क्यों न आयें।
भगवान् शिव ने वीरभद्र को अपने प्रमथों का प्रधान नियुक्त कर, शीघ्र ही दक्ष पुरी जाकर यज्ञ विध्वंस तथा साथ ही दक्ष का वध करने की भी आज्ञा दी। भगवान् शिव ने वीरभद्र को यह आदेश देकर, अपने निश्वास से हजारों गण प्रकट किये। वे सभी भयंकर कृत्य वाले तथा युद्ध में निपुण थे, किसी के हाथ में तलवार थीं तो किसी के हाथ में गदा, कोई मूसल, भाला, शूल इत्यादि अस्त्र उठाये हुए थे। वे सभी भगवान् शिव को प्रणाम कर वीरभद्र तथा महा-काली के साथ चल दिए और शीघ्र ही दक्ष-पुरी पहुँच गए।
काली, कात्यायनी, ईशानी, चामुंडा, मुंडनर्दिनी, भद्र-काली, भद्र, त्वरिता तथा वैष्णवी, इन नौ-दुर्गाओं के संग महाकाली, दक्ष के विनाश करने हेतु चली। उनके संग नाना डाकिनियाँ, शकिनियाँ, भूत, प्रमथ, गुह्यक, कुष्मांड, पर्पट, चटक, ब्रह्म-राक्षस, भैरव तथा क्षेत्र-पाल आदि सभी वीर भगवान् शिव की आज्ञानुसार दक्ष यज्ञ के विनाश हेतु चले। इस प्रकार जब वीरभद्र, महाकाली के संग इन समस्त वीरों ने प्रस्थान किया, तब दक्ष के यह देवताओं को नाना प्रकार के विविध उत्पात तथा अपशकुन होने लगे। वीरभद्र के दक्ष यज्ञ स्थल में पहुँच कर समस्त प्रमथों को आज्ञा दी! यज्ञ को तत्काल विध्वस्त कर समस्त देवताओं को यहाँ से भगा दो। इसके पश्चात सभी प्रमथ गण यज्ञ विध्वंसक कार्य में लग गए।
दक्ष बहुत भयभीत हो गया और उसने यज्ञ संरक्षक भगवान् श्री हरी विष्णु से यज्ञ की रक्षा हेतु कुछ उपाय करने का निवेदन किया। भगवान् श्री हरी विष्णु ने दक्ष को बताया कि उससे बहुत बड़ी भूल हुई थी। उसे तत्व का ज्ञान नहीं है। इस प्रकार उन्हें देवाधिदेव की अवहेलना नहीं करनी चाहिये थी। उपस्थित संकट को टालने में कोई भी सक्षम नहीं हैं। शत्रु-मर्दक वीरभद्र, भगवान् रुद्र के क्रोधाग्नि से प्रकट हुए हैं। इस समय वे सभी रुद्र गणों के नायक हैं एवं अवश्य ही इस यज्ञ का विध्वंस कर देंगे। इस प्रकार भगवान् श्री हरी विष्णु के वचन सुनकर दक्ष घोर चिंता में डूब गए। तदनंतर, शिव गणों के साथ देवताओं का घोर युद्ध प्रारम्भ हुआ, उस युद्ध में देवता पराजित होकर भाग गए। शिव गणों ने यज्ञ स्तूपों को उखाड़ कर दसों दिशाओं में फेंका और हव्य पात्रों को फोड़ दिया, प्रमथों ने देवताओं को प्रताड़ित करना प्रारम्भ कर दिया तथा उन्होंने देखते ही देखते उस यज्ञ को पूर्णतः विध्वस्त कर दिया।
भगवान् शिव योगेश्वर हैं,  वैरागी है और गृहस्थ में प्रवेश करने जा रहे है। उनके हाथ में त्रिशूल है जो तीन शूल काम, क्रोध, लोभ का प्रतीक है।गृहस्थ में प्रवेश करने से पहले तीनों ही अधीन-वश में हैं। नंदीश्वर पर बैठकर चले हैं, जो कि स्वयं धर्म हैं अर्थात धर्म किसी भी परिस्थिति में नहीं छोडेगे। उनके भाल पर चंद्रमा सुशोभित है, जो कि मन का प्रतीक है। मन भोला, निर्मल, पवित्र, सशक्त और  उज्जवल हो। सिर पर जटाओ का मुकुट है, गृहस्थ में प्रवेश करने जा रहे हैं और गृहस्थी में जंजाल भी बहुत होते हैं। उन जंजाल रूपी जटाओं को, संकट को भी श्रंगार मुकुट बनाकर धारण किया है, स्वीकार किया है। 
जटाओं से गँगा की धारा बह रही है अर्थात गृहस्थी के सिर पर जो जंजालों की जटाएँ  हैं। उनसे विवेक की, भक्ति की, गंँगा निकलती है। नागों के आभूषण पहन रखे हैं जो कि इस बात के प्रतीक हैं कि विषैले व्यक्ति भी नियन्त्रण में रहें। 
मुण्ड माला इस बात का प्रतीक है कि भगवान् शिव ने मृत्यु को वश में कर रखा है। भस्म रमाके चले है। भस्म काम नाशक है। विवाह में हल्दी लगायी जाती है, जो कि कामवर्द्धक, परन्तु रोगनाशक भी है। 
भगवान् शिव के शरीर पर व्याघ्र  चर्म है, व्याघ्र हिंसा व अंहकार का प्रतीक माना जाता है। इसका अर्थ है कि भगवान् शिव ने हिंसा व अहंकार का दमन कर, उसे अपने नीचे दबा कर चले हैं। गृहस्थ में हिंसा और अहंकार दोनों के लिये ही स्थान  नहीं है। स्थान है तो केवल समन्वय-सामंजस्य का। 
गृहस्थ में समन्वय आवश्यक है। जहाँ पत्नी, पुत्र और वाहन सभी की पूजा होती है। माँ पार्वती भवानी हैं, पुत्र गणेश और कार्तिकेय हैं, वाहन नंदी हैं। यहाँ सभी आदरणीय और पूजनीय हैं। पूरा शिव परिवार ही आदरणीय-पूजनीय है। 
गले में सर्प हैं। उनकी भी पूजा होती है अर्थात अपने चरित्र को ऐसा बनाये कि सभी आदर करें। भगवान् कार्तिकेय का वाहन मोर है, गणेश जी का वाहन चूहा है, माता का वाहन शेर है। मोर सर्प को खाता है। सर्प चूहे को खा जाता है। सिंह, बैल को खाता है। पर यहाँ सभी साथ-साथ प्यार से रहते हैं। यही समन्वय गृहस्थ जीवन-परिवार में होना चाहिये। 
भगवान् शिव और माँ पार्वती राम चरित्र की चर्चा करते हैं। भगवान् शिव जी ने ही माँ पार्वती जी को भगवान् श्री राम कथा सुनाई। पति-पत्नी में संत्संग और राम चर्चा भी हो सकती है। श्रीमद्भागवत में देवहुति और कर्दम जी के गृहस्थ जीवन में प्रवेश होने पर 14 वर्षों तक दोनों पति पत्नी के बीच में केवल सत्संग ही हुआ तत्पश्चात गृहस्थ में प्रवेश किया। इसलिए भगवान्  कपिल के रूप में उनके यहाँ अवतरित हुए। 
माता सती के वियोग के उपरान्त भगवान् शिव तपस्या में लीन हो गए। माँ सती ने शरीर का त्याग करते समय संकल्प किया था कि मैं पुनः जन्म लेकर हिमवान-हिमालय के यहाँ जन्म लेकर भगवान् शिव की अर्द्धांगिनी बनुँगी। देवताओं की योजनानुसार माता हिमालय की पत्नी मेनका के गर्भ में प्रविष्ट होकर उनकी कोख से प्रकट हुईं। पर्वतराज की पुत्री होने के कारण माँ भगवती जगदम्बा पार्वती कहलाईं। उनके सयानी होने पर स्यानी माता-पिता को उनके योग्य वर की चिंता सताने लगी।
विधि के अनुसार एक दिन अचानक देवर्षि नारद राजा हिमालय के महल में आ पहुँचे और माँ पार्वती का हाथ देखकर कहने लगे कि उनका विवाह भगवान् शिव के साथ होना चाहिए और वे ही सभी दृष्टि से उनके योग्य हैं। पार्वती के माता-पिता को नारद जी ने जब यह बताया कि पार्वती साक्षात जगदम्बा के रुप में इस जन्म में आपके यहाँ प्रकट हुई हैं, तो उन्हें अपार आनन्द हुआ।
तपस्या से उपरति के पश्चात भगवान् शिव घूमते-घुमाते हिमालय प्रदेश में जा पहुँचे। माँ को तपस्या करते हुए पाया तो उन्होंने माँ की परीक्षा ली और सन्तुष्ट हुए। माँ भी उनको पाने के लिए अनवरत तपस्या में लीन थीं। भोले बाबा नट का रूप धारण करके हिमालय के यहाँ पहुँचे और भाँति-भाँति के करतव दिखाने लगे। पर्वतराज की पत्नी मैना ने उन्हें भगवान् ब्रह्मा, भगवान् विष्णु और भगवान् शिव के रूप धारण करने को कहा तो प्रभु तत्काल इन तीनों ही रूपों में प्रकट हो गए। अन्ततोगत्वा हिमालय और उनकी पत्नी मैना भगवान् शिव से उनकी पुत्री को पत्नी के रूप में ग्रहण करने की प्रार्थना की। भगवान् शिव माँ पार्वती की भक्ति देखकर वे उनका आग्रह नहीं टाल पाये। भगवान् शिव से अनुमति मिलने के बाद माँ पार्वती प्रतिदिन अपनी सखियों को साथ ले भोले बाबा की सेवा करने लगीं। माँ पार्वती इस बात का सदा ध्यान रखती थीं कि भगवान् शिव को किसी भी प्रकार का कष्ट न हो। माता पार्वती प्रतिदिन भगवान् शिव के चरण धोकर चरणोदक ग्रहण करतीं और षोडशोपचार से पूजा करतीं। इसी तरह माँ पार्वती को भगवान शिव की सेवा करते दीर्घ समय व्यतीत हो गया। किन्तु पार्वती जैसी सुन्दर बाला से इस प्रकार एकान्त में सेवा लाभ लेते रहने पर भी भगवान्  शिव के मन में कभी विकार  उत्पन्न नहीं हुआ।
त्रिपुरारी शिव हमेशा अपनी समाधि में ही निश्चल रहते। उधर देवताओं को तारक नाम का असुर बड़ा त्रास दे रहा था। ब्रह्मा जी ने उस सभी देवता को बताया, इस दैत्य की मृत्यु केवल भगवान् शिव के वीर्य से उत्पन्न पुत्र के हाथों ही हो सकती हैं। अतः सभी देवता शिव-पार्वती का विवाह कराने का प्रयास करने लगे। देवताओं ने भगवान् शिव को पार्वती के प्रति अनुरक्त करने के लिए कामदेव को उनके पास भेजा, किन्तु पुष्पायुध का पुष्पबाण भी भगवान् शिव के मन को विक्षुब्ध न कर सका। उलटा कामदेव भगवान् शिव की क्रोधाग्नि से भस्म हो गए।
तदोपरांत भगवान् शिव कैलास की ओर चल दिए। माँ पार्वती को भगवान् शिव की सेवा से वंचित होने का बड़ा दुःख हुआ, किंतु उन्होंने निराश न होकर अब की बार तप द्वारा भगवान् शिव को सन्तुष्ट करने की मन में ठानी।
उनकी माता ने उन्हें सुकुमार एवं तप के अयोग्य समझकर बहुत मना किया, किन्तु पार्वती पर इसका कोई असर नहीं हुआ। पार्वती अपने संकल्प से वे तनिक भी विचलित नहीं हुईं। माता पर्वती भी घर से निकल उसी शिखर पर तपस्या करने लगीं, जहाँ शिवजी ने तपस्या की थी। शिखर पर तपस्या में माँ पार्वती ने पहले वर्ष फलाहार से जीवन व्यतीत किया, दूसरे वर्ष वे वृक्षों के पत्ते खाकर रहने लगीं और फिर तो उन्होंने पर्ण का भी त्याग कर दिया।
इस प्रकार पार्वती ने तीन हजार वर्ष तक तपस्या की। माँ पार्वती की कठोर तपस्या को देख ऋषि-मुनि भी दंग रह गए। अन्त में भगवान् भोले नाथ का आसन हिला। उन्होंने पार्वती की परीक्षा के लिए पहले सप्तर्षियों को भेजा और पीछे स्वयं वटुक वेश धारण कर पार्वती की परीक्षा के निमित्त प्रस्थान किया।
जब भगवान् शिव ने सब प्रकार से जाँच-परखकर देख लिया कि पार्वती की उनमें अविचल निष्ठा हैं, तब तो वे अपने को अधिक देर तक न छिपा सके। वे तुरन्त अपने असली रूप में पार्वती के सामने प्रकट हो गए और उन्हें पाणि ग्रहण का वरदान देकर अन्तर्धान हो गए।
पार्वती अपने तप को पूर्ण होते देख घर लौट आईं और अपने माता-पिता से सारा वृतान्त कह सुनाया। अपनी दुलारी पुत्री की कठोर तपस्या को फलीभूत होता देखकर माता-पिता के आनन्द का ठिकाना नहीं रहा। भगवान् शिव ने सप्तर्षियों को विवाह का प्रस्ताव लेकर हिमालय के पास भेजा और इस प्रकार विवाह की शुभ तिथि निश्चित होगई।
सप्तर्षियों द्वारा विवाह की तिथि निश्चित कर दिए जाने के बाद भगवान् शिव ने नारद जी द्वारा सारे देवताओं को विवाह में सम्मिलित होने के लिए आदरपूर्वक निमंत्रित किया और अपने गणों को बारात की तैयारी करने का आदेश दिया। 
भगवान् शिव के इस आदेश से अत्यंत प्रसन्न होकर गणेश्वर शंखकर्ण, केकराक्ष, विकृत, विशाख, विकृतानन, दुन्दुभ, कपाल, कुंडक, काकपादोदर, मधुपिंग, प्रमथ, वीरभद्र आदि गणों के अध्यक्ष अपने-अपने गणों को साथ लेकर चल पड़े। नंदी, क्षेत्रपाल, भैरव आदि गणराज भी कोटि-कोटि गणों के साथ निकल पड़े। ये सभी तीन नेत्रों वाले थे। सबके मस्तक पर चन्द्रमा और गले में नीले चिन्ह थे। सभी ने रुद्राक्ष के आभूषण पहन रखे थे। सभी के शरीर पर उत्तम भस्म लगी हुई थी। इन गणों के साथ भगवान् शिव के भूतों, प्रेतों, पिशाचों की सेना भी आकर सम्मिलित हो गई। इनमें डाकनी, शाकिनी, यातुधान, वेताल, ब्रह्म राक्षस आदि भी शामिल थे। इन सभी के रूप-रंग, आकार-प्रकार, चेष्टाएँ, वेश-भूषा, हाव-भाव आदि सभी कुछ अत्यन्त विचित्र थे। वे सबके सब अपनी तरंग में मस्त होकर नाचते-गाते और मौज उड़ाते हुए भगवान् शिव के चारों ओर एकत्रित हो गए।
जगत् के सभी छोटे बड़े पर्वत, वन, समुद्र, नदियाँ तालाब आदि हिमाचल का निमन्त्रण पाकर इच्छानुसार रूप धारण कर उस विवाह में सम्मिलित थे। हिमाचल के नगर को सुन्दरतापूर्वक सजाया गया।
हिमवान के घर से भगवान् शिव को लग्न पत्रिका भेजी गई, जिसे उन्होंने विधिपूर्वक बाँच कर हर्ष के साथ स्वीकार किया तथा लग्न-पत्रिका लाने वालों का यथोचित आदर-सम्मान कर, उन्हें विदा किया। तदनंतर, भगवान् शिव ने ऋषियों से कहा कि, "आप लोगों ने उनके कार्य का भली प्रकार से संपादन किया, अब उन्होंने विवाह स्वीकार कर लिया हैं, अतः सभी को विवाह में चलना चाहिये"। तदनंतर, भगवान् शिव ने नारद जी का स्मरण किया, जिस कारण वे तक्षण ही वहाँ उपस्थित हुए। भगवान् शिव ने उनसे कहा, “नारद! तुम्हारे उपदेश से ही पार्वती ने कठोर तपस्या कर मुझे सन्तुष्ट किया हैं तथा मैंने उनका पति रूप से पाणिग्रहण करने का निश्चय किया। सप्त-ऋषियों ने लग्न का साधन और शोधन कर दिया हैं, आज से सातवें दिन मेरा विवाह हैं। इस अवसर पर मैं लौकिक रीति का आश्रय लेकर महान उत्सव करूँगा, तुम भगवान् श्री हरी विष्णु आदि सब देवताओं, मुनियों, सिद्धों तथा अन्य लोगों को मेरे ओर से निमंत्रित करो"। भगवान् शिव की आज्ञानुसार नारद जी ने तीनों लोकों में सभी को शिव-विवाह का निमंत्रण दिया तथा अन्ततः कैलाश पर लौट आये।
सप्तर्षियों ने हिमाचल के घर जाकर भगवान् शिव और पार्वती के विवाह के लिये वेद की विधि के अनुसार शुभ दिन, शुभ नक्षत्र और शुभ घड़ी का निश्चय कर लग्नपत्रिका तैयार कर ब्रह्मा जी के पास पहुँचा दिया। भगवान् शिव के विवाह की सूचना पाकर समस्त देवता अपने विमानों में आरूढ़ होकर भगवान् शिव के यहाँ पहुँच गये।
चण्डी देवी बड़ी प्रसन्नता के साथ उत्सव मनाती हुई भगवान रुद्रदेव की बहन बनकर वहाँ आ पहुँचीं। उन्होंने सर्पों के आभूषण पहन रखे थे। वे प्रेत पर बैठकर अपने मस्तक पर सोने का कलश धारण किए हुए थीं। धीरे-धीरे वहाँ सारे देवता भी एकत्र हो गए। उस देव मण्डली के बीच में भगवान् श्री हरी विष्णु गरुड़ पर विराजमान थे। पितामह ब्रह्मा जी भी उनके पास में मूर्तिमान वेद, शास्त्र, पुराण, आगम, सनकादि महासिद्ध, प्रजापति पुत्रों तथा कई परिजनों के साथ उपस्थित थे।
देवराज इन्द्र भी कई आभूषण पहन अपने ऐरावत गज पर बैठ वहाँ पहुँचे थे। सभी प्रमुख ऋषि भी वहाँ आ गए थे। तुम्बुरु, नारद, हाहा और हूहू आदि श्रेष्ठ गन्दर्भ तथा किन्नर भी भगवान् शिव की बारात की शोभा बढ़ाने के लिए वहाँ पहुँच गए। इनके साथ ही सभी जगन्माताएँ, देव कन्याएँ, देवियाँ तथा पवित्र देवांगनाएँ भी वहाँ आ गईं। इन सभी के वहाँ मिलने के बाद भगवान् शिव अपने स्फुटिक जैसे उज्ज्वल, सुन्दर वृषभ पर सवार हुए। दूल्हे के वेश में भगवान् शिव की शोभा निराली ही छटक रही थी। इस दिव्य और विचित्र बारात के प्रस्थान के समय डमरुओं की डम-डम, शंखों के गंभीर नाद, ऋषियों-महर्षियों के मंत्रोच्चार, यक्षों, किन्नरों, गन्धर्वों के सरस गायन और देवांगनाओं के मनमोहक नृत्य और मंगल गीतों की गूँज से तीनों लोक परिव्याप्त हो उठे।
भगवान् शिव के गणों ने भगवान् शिव की जटाओं का मुकुट बनाकर और सर्पों के मौर, कुण्डल, कंकण उनका श्रृंगार किया और वस्त्र के स्थान पर बाघम्बर लपेट दिया। तीन नेत्रों वाले भगवान् शिव के सुन्दर मस्तक पर चन्द्रमा, सिर पर गँगा जी, गले में विष और वक्ष पर मुण्डों की माला शोभा दे रही थी। उनके एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे हाथ में डमरू सुशोभित थे।
भगवान् शिव बैल पर चढ़ कर चले। बाजे बज रहे थे। देवांगनाएँ उन्हें देख कर मुस्कुरा रही थीं और विनोद पूर्वक कह रही थीं कि इस वर के योग्य दुलहिन संसार में शायद ही हो। भगवान् ब्रह्मा, भगवान् श्री हरी विष्णु सहित समस्त देवताओं के साथ ही साथ भगवान् शिव समस्त गण भी बाराती थे। उनके गणों में कोई बिना मुख का था तो किसी के अनेक मुख थे, कोई बिना हाथ पैर का था तो किसी के कई हाथ पैर थे, किसी की एक भी आँख नहीं थी तो किसी के बहुत सारी आँखें थीं, कोई पवित्र वेष धारण किये था तो कोई बहुत ही अपवित्र वेष धारण किया हुआ था। सब मिला कर प्रेत, पिशाच और योगनियों की जमात चली जा रही थी बारात के रूप में।
इनमें डाकनी, शाकिनी, यातुधान, वेताल, ब्रह्मराक्षस आदि भी शामिल थे। इन सभी के रूप-रंग, आकार-प्रकार, चेष्टाएँ, वेश-भूषा, हाव-भाव आदि सभी कुछ अत्यंत विचित्र थे। वे सबके सब अपनी तरंग में मस्त होकर नाचते-गाते और मौज उड़ाते हुए भगवान् शंकर के चारों ओर एकत्रित हो गए।
गणेश्वर शंखकर्ण, केकराक्ष, विकृत, विशाख, विकृतानन, दुन्दुभ, कपाल, कुंडक, काकपादोदर, मधुपिंग, प्रमथ, वीरभद्र आदि गणों के अध्यक्ष अपने-अपने गणों को साथ लेकर चल पड़े।
नंदी, क्षेत्रपाल, भैरव आदि गणराज भी कोटि-कोटि गणों के साथ निकल पड़े। ये सभी तीन नेत्रों वाले थे। सबके मस्तक पर चंद्रमा और गले में नीले चिन्ह थे। सभी ने रुद्राक्ष के आभूषण पहन रखे थे। सभी के शरीर पर उत्तम भस्म लगी हुई थी।
इन गणों के साथ भगवान् शंकर के भूतों, प्रेतों, पिशाचों की सेना भी आकर सम्मिलित हो गई।
भगवान् शिव के सभी गण भारी उत्सव माना रहें थे, भगवान् श्री हरी विष्णु अपनी पत्नी माता लक्ष्मी के साथ आपने पार्षदों सहित, साथ ही भगवान् ब्रह्मा अपने गणों के साथ कैलाश पर आये। समस्त लोकपाल भी अपनी पत्नियों के साथ सज-धज कर कैलाश पर आये; मुनि, नाग, सिद्ध, उप-देवता तथा अन्य लोग भी कैलाश पर गए तथा शिव-गणों  के साथ उत्सव मनाने लगे। भगवान् शिव ने अपने स्वाभाविक भेष के अनुसार ही नाना आभूषणों को धारण किया, उनका स्वरूप बड़ा ही आकर्षक था। कैलाश पर उपस्थित सभी उनके विवाह में जाने हेतु तैयार हुए, भगवान् विष्णु ने भगवान् शिव से कहा! “गृह-सुत्रोक्त विधि के अनुसार आप पार्वती से विवाह करें, जिससे यह विधि लोक-विख्यात हो जाये तथा अपने कुलधर्म के अनुसार मण्डप -स्थापन एवं नंदी-मुख श्राद्ध भी करें"। भगवान् श्री हरी विष्णु के कथन अनुसार भगवान् शिव ने विधिपूर्वक समस्त कार्य किये, उनके समस्त कार्य स्वयं भगवान् ब्रह्मा तथा उनके नाना महर्षि पुत्र आभ्युदयिक करने लगे। सभी ऋषियों ने बड़े हर्ष के साथ बहुत से मांगलिक कार्य किये, विघ्नों के शान्ति हेतु ग्रहों और समस्त मंडलवर्ती देवताओं का पूजन किया गया। समस्त प्रकार के लौकिक, वैदिक कर्म यथोचित रीति से कर भगवान् शिव बहुत सन्तुष्ट हुए, तदनंतर वे ऋषियों तथा देवताओं को आगे कर कैलाश से हिमवान के घर जाने हेतु निकले। उन्होंने अपने कुछ गणों को कैलाश पर ही ठहरने तथा बाकी गणों को हिमालय की नगरी की ओर प्रस्थान करने का आदेश दिया।
अपने स्वामी द्वारा आदेश पाकर, सभी प्रमथ इत्यादि गण, भूत-प्रेतों के संग महान उत्सव करते हुए चले। नंदी, भैरव एवं क्षेत्रपाल असंख्य गणों के साथ भारी उत्सव मानते हुए चले, वे सभी अनेक हाथों से युक्त थे, सर पर जटा, उत्तम भस्म तथा रुद्राक्ष इत्यादि आभूषण धारण किये हुए थे। उस समय डमरुओं के घोष, भेरियों की गड़गड़ाहट तथा शंख-नाद से तीनों लोक गूंज उठा था, दुन्दुभियों की ध्वनि से महान कोलाहल हो रहा था। समस्त देवता, शिव गणों के पीछे रहकर बरात का अनुसरण कर रहें थे, समस्त लोकपाल तथा सिद्ध-गण भी उन्हीं के साथ थे। देवताओं के मध्य में गरुड़ पर विराज-कर भगवान् श्री हरी विष्णु चल रहे थे, उनके पार्षदों ने उन्हें नाना आभूषणों से विभूषित किया था, साथ ही भगवान् ब्रह्मा भी वेद-पुराणों के साथ थे। शाकिनी, यातुधान, बेताल, ब्रह्म-राक्षस, भूत, प्रेत, पिशाच, प्रमथ, गन्धर्व, किन्नर बड़े हर्ष के साथ नाना प्रकार की ध्वनि करने हुए चल रहें थे। देव-कन्याएँ, जगन्माताऍ तथा अन्य देवांगनाएँ बड़ी प्रसन्नता के साथ भगवान् शिव के विवाह में सम्मिलित होने हेतु आयें थे।
सर्वप्रथम भगवान् शिव ने नारद जी को हिमालय के घर भेजा, वे वहाँ की सजावट देखकर दंग रह गए। देवताओं, अन्य लोगों तथा अपने गणों सहित भगवान् शिव हिमालय के नगर के समीप आयें, हिमालय ने नाना पर्वतों तथा ब्राह्मणों को उनसे वार्तालाप करने तथा अगवानी हेतु भेजा। समस्त देवताओं को भगवान् शिव के बरात में देखकर हिमालय-राज को बड़ा ही विस्मय हुआ तथा वे अपने आप को धन्य मानने लगे। भगवान् शिव को अपने सामने देखकर हिमवान ने उन्हें प्रणाम किया, साथ ही पर्वतों तथा ब्राह्मणों ने भी उनकी वन्दना की। भगवान् शिव अपने वाहन वृषभ पर आरूढ़ थे, उनके बाएँ भाग में भगवान् विष्णु तथा दाहिने भाग में भगवान् ब्रह्मा उपस्थित थे। हिमवान ने अन्य सभी देवताओं को भी मस्तक झुकाया, तत्पश्चात भगवान् शिव की आज्ञा से वे सभी को अपने नगर में ले गए।
भगवान् शिव का भेष बड़ा ही निराला हैं, समस्त प्रकार के विस्मित कर देने वाले तत्व इन्हें प्रिय हैं। वे अद्भुत वर के रूप में सज-धज कर अपनी बारात ले हिमालय राज के घर गए थे; ये वृषभ पर आरूढ़ थे, शरीर में चिता भस्म लगाये हुए, पाँच मस्तकों से युक्त थे, बाघाम्बर एवं गज चर्म इन्होंने वस्त्र के रूप में धारण कर रखा था। आभूषण के रूप में हड्डियों, मानव खोपड़ियों तथा रुद्राक्ष की माला शरीर में धारण किये हुए थे, अपने दस हाथों में खप्पर, पिनाक, त्रिशूल, डमरू, धनुष आदि अस्त्र-शस्त्र धारण किये हुए थे। साथ ही इनके संग आने वाले समस्त बाराती या गण भूत-प्रेत, बेताल इत्यादि भयंकर भय-भीत कर देने वाले अद्भुत रूप में थे। मर्मर नाद करते हुए, बवंडर के समान, टेढें-मेढें मुँह तथा शरीर वाले अत्यंत कुरूप, लंगड़े-लूले-अंधे, दंड, पाश, मुद्गर, हड्डियाँ, धारण किये हुए थे। बहुत से गणों के मस्तक नहीं थे तथा किन्हीं के एक से अधिक मस्तक थे, कोई बिना हाथ के तथा उलटे हाथ वाले, बहुत से मस्तक पर कई चक्षु वाले, कुछ नेत्र हीन थे तथा कुछ एक ही चक्षु वाले थे, किसी के बहुत से कान थे और किसी के एक भी नहीं थे। 
सभी बाराती जब हिमाचल नगरी के पास पहुँचे तब नारद जी ने गिरिराज हिमालय को सूचना दी। हिमवान तत्काल ही विभिन्न स्वागत सामग्रियों के साथ भगवान् शिव का दर्शन करने चल पड़े। उन्होंने समस्त देव सम्माज को अपने यहाँ आया देख कर आनंदमग्न हो गए। उन्होंने भाव विभोर होकर समस्त देवताओं का स्वागत किया। हिमराज, मन ही मन सोचने लगे कि उनसे ज्यादा भाग्यवान कोई नहीं है। उन्होंने सभी का स्वागत सत्कार किया और सभी को प्रणाम कर, अपने निवास स्थान पर लौट आये।
इस अवसर पर मैना के मन में भगवान् शिव के दर्शन की इच्छा हुई तथा उन्होंने नारद जी को बुलवाया तथा उनसे कहने लगी कि पार्वती ने जिसके हेतु कठोर तप किया, सर्व प्रथम मैं उन भगवान् शिव को देखुँगी। भगवान् शिव, मैना के मन के अहंकार को समझ गए थे, इस कारण उन्होंने भगवान् श्री हरी विष्णु तथा भगवान् ब्रह्मा सहित समस्त देवताओं को पहले ही भवन में प्रवेश करा दिया तथा स्वयं पीछे से आने का निश्चय किया।
इस उद्देश्य से मैना अपने भवन के ऊपर नारद जी संग गई एवं बारात को भली प्रकार से देख रहीं थीं। प्रत्येक दल के स्वामी को देखकर मैना, नारद जी से पूछती थीं, क्या यही भगवान् शिव हैं? नारद जी उत्तर देते थे कि यह तो भगवान् शिव के सेवक हैं। मैना मन ही मन आनन्द से विभोर हो सोचने लगती, जिसके सेवक इतने सुन्दर हैं, उनके स्वामी पता नहीं कितने सुन्दर होंगे। भगवान् विष्णु के अद्भुत स्वरूप को देखकर मैना को लगा की "अवश्य ही वे भगवान् शिव हैं, इसमें संशय नहीं है"। इस पर नारद जी ने कहा! "वे भी पार्वती के वर नहीं हैं, वे तो केशव श्री हरी विष्णु हैं। पार्वती के वर तो इनसे भी अधिक सुन्दर हैं, उनकी शोभा का वर्णन नहीं हो सकता हैं। इस पर मैना ने अपने आप को बहुत ही सौभाग्यशाली मना, जिसने पार्वती को जन्म दिया, वे इस प्रकार सोच ही रहीं थी की भगवान् शिव सामने आ गए। उनकी तथा उनके गणों की भेष-भूषा तथा स्वरूप उनके अभिमान को चूर-चूर करने वाले थे, नारद जी ने भगवान् शिव को इंगित कर मैना को बताया की वे ही पार्वती के पति भगवान् शिव हैं।
सर्वप्रथम मैना ने भूत-प्रेतों से युक्त नाना शिव-गणों को देखा; उनमें से कितने ही बवंडर का रूप धारण किये हुए, टेढ़े-मेंढ़े मुखाकृति और मर्मर ध्वनि करने वाले थे। प्रायः सभी बहुत ही कुरूप स्वरूप वाले थे, कुछ विकराल थे, किन्हीं का मुँह दाढ़ी-मूँछ से भरा हुआ था, बहुत से लंगड़े थे तो कई अंधे, किसी की एक से अधिक आँख थे तो किसी की एक भी नहीं, कोई बहुत हाथ तथा पैर वाले थे तो कुछ एक हाथ एवं पैर युक्त। वे सभी गण दंड, पाश तथा मुद्गर इत्यादि धारण किये हुए बारात में आयें थे, कोई वाहन उलटे चला रहे थे, कोई सींग युक्त थे, कई डमरू तथा गोमुख बजाते थे, कितने ही गण मस्तक विहीन थे। कुछ एक के उलटे मुख थे तो किसी के बहुत से मुख थे, किन्हीं के बहुत सारे कान थे, कुछ तो बहुत ही डरावने दिखने वाले थे, वे सभी अद्भुत प्रकार की भेष-भूषा धारण किये हुए थे। वे सभी गण बड़े ही विकराल स्वरूप वाले तथा भयंकर थे, जिनकी कोई सँख्या नहीं थीं। नारद जी ने उन सभी गणों को मैना को दिखाते हुए कहा, पहले आप भगवान् शिव के सेवकों को देखे, तदनंतर उनके भी दर्शन करना। परन्तु, उन असंख्य विचित्र-कुरूप-भयंकर स्वरूप वाले भूत-प्रेतों को देखकर मैना (मैना) भय से व्याकुल हो गई।
इन्हीं गणों के बीच में भगवान् शिव अपने वाहन वृषभ पर सवार थे, नारद जी ने अपनी उँगली से इंगित कर उन्हें मैना को दिखाया। उनके पञ्च मुख थे और सभी मुख पर 3 नेत्र थे, मस्तक पर विशाल जटा समूह था। उन्होंने शरीर में भस्म धारण कर रखा था, जो उनका मुख्य आभूषण हैं तथा दस हाथों से युक्त थे, मस्तक पर जटा-जुट और चन्द्रमा का मुकुट धारण किये हुए थे। वे अपने हाथों में कपाल, त्रिशूल, पिनाक इत्यादि अस्त्र धारण किये हुए थे, उनकी आँखें बड़े ही भयानक दिख रहीं थीं, वे शरीर पर बाघाम्बर तथा हाथी का चर्म धारण किये हुए थे। भगवान् शिव का ऐसा रूप देखकर मैना भय के मरे व्याकुल हो गई, काँपने लगी तथा भूमि पर गिर गयी एवं मूर्छित हो गई। वहां उपस्थित स्वजनों ने मैना की नाना प्रकार की सेवा कर उन्हें स्वस्थ किया।
जब मैना को चेत हुआ, तब वे अत्यंत क्षुब्ध हो विलाप करने लगी तथा अपने पुत्री को दुर्वचन कहने लगी; साथ ही उन्होंने नारद मुनि को भी बहुत उलटा-सीधा सुनाया। मैना, नारद जी से बोलीं, “भगवान् शिव को पति रूप में प्राप्त करने हेतु पार्वती को तपस्या करने का पथ तुमने दिखाया, तदनंतर हिमवान को भी शिव-पूजा करने का परामर्श दिया, इसका फल ऐसा अनर्थकारी एवं विपरीत होगा यह मुझे ज्ञात नहीं था। दुर्बुद्धि देवर्षि! तुमने मुझे ठग लिया हैं, मेरी पुत्री ने ऐसा तप किया जो महान मुनियों के लिए भी दुष्कर हैं, इसका उसे ऐसा फल मिला? यह सभी को दुःख में ही डालने वाला हैं। हाय! अब मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? मेरे जीवन का नाश हो गया हैं, मेरा कुल भ्रष्ट हो गया हैं, वे सभी दिव्य सप्त-ऋषि कहा गए? उनकी तो मैं दाड़ी-मूँछ नोच लुँगी, वशिष्ठ जी की पत्नी भी बड़ी ही धूर्त निकली। पता नहीं किस अपराध से मेरा सब कुछ नष्ट हो गया हैं"।
तदनंतर, वे पार्वती की ओर देखकर दुर्वचन कहने लगी, "अरी दुष्ट ! तूने यह क्या किया? मुझे दुःखी किया हैं, तूने सोना देकर काँच का क्रय किया, चन्दन छोड़कर अपने अंगों में कीचड़ लगाया हैं। प्रकाश की लालसा में सूर्य को छोड़कर जतन कर जुगनू को पकड़ा हैं, गँगा जल का त्याग कर कुएँ का जल पीया है, सिंह का सेवन छोड़कर सियार के पास गई हैं। घर में रखी हुई यश की मंगलमयी विभूति का त्याग कर चिता की अमंगल भस्म अपने पल्लू में बाँधा हैं, तुमने सभी देवताओं को छोड़कर, शिव को पाने के लिए इतना कठोर तप किया हैं! तुझको धिक्कार है! धिक्कार है! तपस्या हेतु उपदेश देने वाले दुर्बुद्धि नारद तथा तेरी सखियों को धिक्कार है! हम दोनों माता-पिता को धिक्कार है, जिसने तुझ जैसी दुष्ट कन्या को जन्म दिया है! सप्त-ऋषियों को धिक्कार है! तूने मेरा घर ही जला कर रखा दिया है, यह तो मेरा साक्षात् मरण ही है। हिमवान अब मेरे समीप न आयें, सप्त-ऋषि मुझे आज से अपना मुँह न दिखाए, तूने मेरे कुल का नाश कर दिया है, इससे अच्छा तो यह था की मैं बाँझ ही रह जाती। मैं आज तेरे शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर, तेरा त्याग करके कही और चली जाऊँगी, मेरा तो जीवन ही नष्ट हो गया है"।
ऐसा कहकर मैना पुनः मूर्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ी, उस समय सभी देवता उनके निकट गए। पुनः उनकी चेतना वापस आने पर नारद जी उनसे बोले, "आपको पता नहीं भगवान् शिव का स्वरूप बड़ा ही मनोरम हैं, आपने जो देखा वह उनका यथार्थ रूप नहीं हैं। आप अपने क्रोध का त्याग कर स्वस्थ हो जाइये तथा पार्वती-शिव के विवाह में अपने कर्तव्य को पूर्ण करें"। इस पर मैना अधिक क्रोध-युक्त होकर नारद जी से बोलीं! "मुनिराज आप दुष्ट तथा अधमों के शिरोमणि हैं, आप यहाँ से दूर चले जायें"। मैना द्वारा इस प्रकार कहने पर देवराज इंद्र तथा अन्य देवता और दिक्पाल मैना से बोले, "तुम हमारे वचनों को प्रसन्नता पूर्वक सुनो! भगवान् शिव उत्कृष्ट देवता तथा सभी को उत्तम सुख प्रदान करने वाले हैं, आपकी कन्या के तप से प्रसन्न होकर ही उन्होंने पार्वती को उत्तम वर प्रदान किया है। यह सुनकर मैना देवताओं से विलाप कर कहने लगी! "उस शिव का स्वरूप बड़ा ही डरावना हैं, मैं उसके हाथों में अपनी कन्या का दान नहीं करूँगी, सभी देवता मेरी कन्या के उत्कृष्ट स्वरूप को क्यों प्रपंच कर व्यर्थ करने हेतु उद्धत हैं"? तदनंतर, मैना के पास सप्त-ऋषि गण आये और कहने लगे, "पितरों की कन्या मैना, हम तुम्हारे कार्य सिद्धि हेतु आयें हैं। जो कार्य उचित हैं, उसे तुम्हारे हठ के कारण हम विपरीत क्यों मान ले? भगवान् शिव देवताओं में सर्वोच्च हैं, वे साक्षात दान पात्र होकर तुम्हारे घर पर आयें हैं"। इस पर मैना को भरी क्रोध हुआ तथा उन्होंने कहा, "मैं अपनी कन्या के अस्त्र से टुकड़े-टुकड़े कर दूँगी, परन्तु उस शिव के हाथों में अपनी पुत्री को नहीं दुँगी, तुम सब मेरे सामने से चले जाओ और कभी मेरे सामने ना आना"।
पार्वती की माता के हठ त्याग न करने पर वहाँ हाहाकार मच गया, तदनंतर हिमवान, मैना के पास आयें और प्रेम पूर्वक नाना तत्त्वों को दर्शाते हुए उन्हें समझाने लगे। उन्होंने कहा! “तुम इस प्रकार व्याकुल क्यों हो रही हो? मेरी बातों को ध्यान पूर्वक सुनो! भगवान् शिव के नाना रूपों को तुम भली प्रकार जानती हो, इस पर भी तुम उनकी निंदा क्यों कर रही हो? उनके विकट रूप को देखकर तुम घबरा गई हो, वे ही सबके पालक हैं, अनुग्रह तथा निग्रह करने वाले हैं, सबके पूजनीय हैं। पहली बार यहाँ आकर उन्होंने कैसी लीलाएँ की थीं, क्या तुम्हें वह सब स्मरण नहीं है"? इसपर मैना ने हिमवान से कहा, "आप अपनी पुत्री के गले में रस्सी बाँध कर, उसे पर्वत से नीचे गिरा दीजिये या इसे ले जाकर निर्दयता पूर्वक सागर में डूबा दीजिये, मैं पार्वती को शिव के हाथों में नहीं दूुँगी। यदि आपने पुत्री का दान विकट रूपधारी शिव को किया तो मैं अपना शरीर त्याग दूँगी"। मैना के इस प्रकार के वचनों को सुनकर पार्वती स्वयं अपनी माता से आकर बोलीं, "इस समय आपकी बुद्धि विपरीत कैसे हो गयी है? आपने धर्म का त्याग कैसे कर दिया है? रुद्र-देव ही सर्व उत्पत्ति के कारण-भूत साक्षात् परमेश्वर हैं, इनसे बढ़कर दूसरा कोई भी नहीं है। समस्त श्रुतियाँ उन्हें ही सुन्दर रूप वाले तथा सुखद मानते हैं, समस्त देवताओं के स्वामी हैं, केवल इनके नाम और रूप अनेक हैं। भगवान् ब्रह्मा तथा भगवान् श्री हरी विष्णु भी इनकी सेवा करते हैं, भगवान् शिव ही सभी के अधिष्ठान, कर्ता, हर्ता तथा स्वामी हैं, सनातन एवं अविनाशी हैं। इनके हेतु ही सभी देवता किंकर हो आपके द्वार पर उत्सव मना रहें हैं, इससे बढ़कर और क्या हो सकता है? आप सुख पूर्वक उठकर मेरा हाथ उन परमेश्वर की सेवा में प्रदान करें, मैं स्वयं आपसे यह कह रही हूँ, आप मेरी इतनी सी विनती मान ले। यदि आपने मुझे इनके हाथों में नहीं दिया तो कभी किसी और वर का वरण नहीं करूँगी। मैंने मन, वाणी और क्रिया द्वारा स्वयं भगवान् शिव का वरण किया है, अब आप जैसा उचित समझे करें"। इस पर वे पार्वती पर बहुत क्रोधित हुई और उन्हें दुर्वचन कहते हुए विलाप करने लगीं।
भगवान् ब्रह्मा तथा सनकादी ऋषियों ने भी उन्हें इस विषय में बहुत समझाया परन्तु वे नहीं मानी, मैना की हठ की बात सुनकर भगवान् श्री हरी विष्णु तुरन्त वहाँ आये तथा उन्होंने कहा, "तुम पितरों की मानसी पुत्री हो, साथ ही हिमवान की प्रिय पत्नी हो, तुम्हारा सम्बन्ध साक्षात् भगवान् ब्रह्मा के कुल से हैं। तुम धर्म की आधार-भूता हो, फिर धर्म का त्याग क्यों कर रहीं हो? तुम भली-प्रकार से सोच-विचार करो! सम्पूर्ण देवता, ऋषि, भगवान् ब्रह्मा तथा स्वयं मैं, हम सभी तुम्हारा क्यों अहित चाहेंगे? क्या तुम भगवान् शिव को नहीं जानती हो? वे तो सगुण भी हैं और निर्गुण भी, कुरूप हैं और सुरूप भी। उनके रूप का वर्णन कौन कर पाया हैं? मैंने तथा भगवान् ब्रह्मा ने भी उनका अन्त नहीं पाया, फिर उन्हें कौन जान सकता है? भगवान् ब्रह्मा से लेकर कीट पर्यन्त  इस चराचर जगत में जो भी दिखाई देता हैं, वह सब भगवान् शिव का ही स्वरूप हैं। वे अपनी लीला से अनेक रूपों में अवतरित होते हैं, तुम दुःख का त्याग करो तथा भगवान् शिव का भजन करो, जिससे तुम्हें महान आनन्द की प्राप्ति होगी, तुम्हारा सारा क्लेश मिट जायेगा"। भगवान् पुरुषोत्तम श्री हरी विष्णु द्वारा इस प्रकार समझाने पर मैना का मन कुछ कोमल हुआ, परन्तु वे भगवान् शिव को अपनी कन्या का दाना न देने के हठ पर टिकी रहीं। कुछ क्षण पश्चात, भगवान् शिव की माया से मोहित होने पर मैना से भगवान् श्री हरी से कहा, "यदि वे सुन्दर, मनोरम शरीर धारण कर ले तो मैं अपनी पुत्री का दान उन्हें कर दुँगी; अन्य किसी उपाय से वे मोहित नहीं होंगी"।
मैना ने जब यह कहा कि भगवान् शिव यदि सुन्दर रूप धारण कर लें तो मै अपनी पुत्री का विवाह उनके साथ कर दूँगी। इसे सुनकर नारद जी भगवान् शिव के पास गये और उनसे सुन्दर रूप धारण करने का अनुरोध किया। भगवान् शिव दयालु एवं भक्तवत्सल हैं ही। उन्होंने नारद जी के अनुरोध को स्वीकार करके सुन्दर दिव्यरूप धारण कर लिया। उस समय उनका स्वरूप कामदेव से भी अधिक सुन्दर एवं लावण्यमय था।तब नारद जी ने मैना को भगवान् शिव के सुन्दर स्वरूप का दर्शन करने के लिए प्रेरित किया।
मैना ने जब शिव जी के स्वरूप को देखा तो वे आश्चर्यचकित हो गयीं। उस समय भगवान् शिव का शरीर करोड़ों सूर्यों से भी अधिक तेजस्वी और देदीप्यमान था। उनके अंग-प्रत्यंग मे सौन्दर्य की लावण्यमयी छटा विद्यमान थी। उनका शरीर सुन्दर वस्त्रों एवं रत्नाभूषणों से आच्छादित था। उनके मुख पर प्रसन्नता एवं मन्द मुस्कान की छटा सुशोभित थी। उनका शरीर अत्यन्त लावण्यमय, मनोहर, गौरवर्ण एवं कान्तिमान था। भगवान् श्री हरी विष्णु आदि सभी देवता उनकी सेवा में संलग्न थे। सूर्य देव उनके ऊपर छत्र ताने खड़े थे। चन्द्र देव मुकुट बनकर उनके मस्तक की शोभा बढ़ा रहे थे। गँगा और यमुना सेविकाओं की भाँति चँवर डुला रही थीं। आठों सिद्धियाँ उनके समक्ष नृत्य कर रही थीं। भगवान् ब्रह्मा, भगवान् श्री हरी विष्णु सहित सभी देवता, ऋषि-मुनि उनके यशोगान मे संलग्न थे। उनका वाहन भी सर्वांग विभूषित था। वस्तुतः उस समय भगवान् शिव की जो शोभा थी, वह अतुलनीय एवं अवर्णनीय थी। उसका वर्णन करना मानव-सामर्थ्य के परे था। 
भगवान् शिव के ऐसे विलक्षण स्वरूप को देखकर मैना अवाक् सी रह गयीं। वे गहन आनन्द सागर में निमग्न हो गयीं। कुछ देर बाद प्रसन्नता पूर्वक बोलीं :- हे प्रभुवर! मेरी पुत्री धन्य है। उसके कठोर तप के प्रभाव से ही मुझे आपका दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। मैंने अज्ञानतावश आपकी निन्दा रूपी जो अपराध किया है; वह अक्षम्य है। परन्तु आप भक्तवत्सल एवं करुणानिधान हैं। इसलिए मुझ मन्दबुद्धि को क्षमा करने की कृपा करें। मैना की अहंकार रहित प्रार्थना को सुनकर भगवान् शिव प्रसन्न हो गये। उसके बाद स्त्रियों ने चन्दन अक्षत से भगवान् शिव का पूजन किया और उनके ऊपर खीलों की वर्षा की। इस प्रकार के स्वागत-सत्कार को देखकर देवगण भी प्रसन्न हो गये।
मैना जब भगवान् शिव की आरती करने लगीं तब उनका स्वरूप और अधिक सुन्दर एवं मनभावन हो गया। उस समय उनके शरीर की कान्ति सुन्दर चम्पा के समान अत्यन्त मनोहर थी। उनके मुखार विन्द पर मन्द-मन्द मुस्कान सुशोभित हो रही थी। उनका सम्पूर्ण शरीर रत्नाभूषणों से सुसज्जित था। गले में मालती की माला तथा मस्तक पर रत्नमय मुकुट धारण करने से उनका मुखमण्डल श्वेत प्रभा से उद्भाषित हो रहा था। अग्नि के समान निर्मल, सूक्ष्म, विचित्र एवं बहुमूल्य वस्त्रों के कारण उनके शरीर की शोभा द्विगुणित हो रही थी। उनका मुख करोड़ों चन्द्रमाओं से भी अधिक आह्लादकारी था। उनका सम्पूर्ण शरीर मनोहर अंगराग से सुशोभित हो रहा था। उन्होंने अपनी विलक्षण प्रभा से सबको आच्छादित कर लिया था।
यह सब देखकर मैना कुछ क्षण के लिए तो चित्र-लिखित सी रह गई तथा उन्होंने भगवान शिव से कहा, "मेरी पुत्री धन्य हैं, जिसके कठोर तप से सन्तुष्ट हो आप इस घर पर पधारे हैं। मैंने अपने कुबुद्धि के कारण आपकी जी निंदा की हैं, उसे आप क्षमा कर प्रसन्न हो जायें"। मैना ने दोनों हाथ जोड़कर भगवान् शिव को प्रणाम किया, उस समय मैना के घर में उपस्थित अन्य स्त्रियों ने भी उनके दर्शन किये तथा सभी चकित रह गए।
भगवान् शिव के इस विलक्षण स्वरूप को देखकर मैना रानी का मुख प्रसन्नता से खिल उठा। वे भगवान् शिव के अगाध सौन्दर्य रस का नेत्र नलिन से पान करती हुई उनकी आरती करने लगीं। वे मन ही मन सोचने लगीं कि आज भगवान् शिव के इस दुर्लभ स्वरूप का दर्शन करके मैं भी धन्य हो गयी। मुझे जीवन भर के पुण्य प्रताप का सम्पूर्ण फल मिल गया। मैना ने भगवान् शिव की विधिवत आरती की। इसके बाद द्वार पूजा का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। इस प्रकार आरती करके वे घर के अन्दर चली गयीं।
द्वार पूजा आदि के बाद बारात जनवासे की ओर चल पड़ी। इधर पार्वती जी अपनी कुल देवी का पूजन करने गयीं। उस समय उनका स्वरूप अत्यन्त सुन्दर एवं दर्शनीय था। उनकी अंगकान्ति नीलाञ्जन सदृश अत्यन्त मनमोहक थी। उनके अंग-प्रत्यंग सौन्दर्य से परिपूर्ण थे। उनका मुखमण्डल मन्द मुस्कान से सुशोभित था।उनकी दृष्टि अत्यन्त पैनी एवं मनोहारिणी थी। नेत्रों की आकृति कमल को भी लज्जित कर रही थी। उनकी केशराशि बहुत सुन्दर एवं हृदयाकर्षक थी। कपोलों पर बनी हुई पत्रभंगी के कारण उनकी शोभा द्विगुणित हो रही थी। ललाट मे कस्तूरी और सिन्दूर की बिन्दी अत्यधिक शोभायमान थी।
पार्वती जी का सम्पूर्ण शरीर बहुमूल्य आभूषणों से सुसज्जित था। उन्होंने वक्षस्थल पर जो रत्नजटित हार धारण कर रखा था; उससे दिव्य दीप्ति निःसृत हो रही थी।उनकी भुजाओं मे केयूर, कंकण, वलय आदि आभूषण सुशोभित हो रहे थे। उन्होंने कानों मे जो रत्नकुण्डल धारण कर रखा था, उससे उनके मनोहर कपोलों की रमणीयता और अधिक बढ़ गयी थी। उनकी दन्तपंक्ति मणियों एवं रत्नों की शोभा को भी लज्जित कर रही थी। उनके अधर एवं ओष्ठ सुन्दर बिम्बाफल के समान सुशोभित हो रहे थे। पैरों में रत्नाभ महावर विराजमान थीं। उनके एक हाथ मे रत्नजटित दर्पण और दूसरे हाथ में  क्रीडा कमल सुशोभित हो रहा था।
पार्वती जी के शरीर की शोभा अत्यन्त सुन्दर एवं अवर्णनीय थी। उनके सम्पूर्ण शरीर में  चन्दन, अगरु, कस्तूरी और कंकुम का अंगराग सुशोभित था। उनके पैरों की पायजेब मधुर संगीत बिखेर रही थी। उनके इस दिव्य रूप को देखकर सभी देवता भक्तिभाव से नतमस्तक हो गये। भगवान्  शिव भी कनखियों के द्वारा पार्वती जी में सती जी की आकृति का अवलोकन किया, जिससे उनकी विरह वेदना समाप्त हो गयी। उनके सम्पूर्ण अंग रोमाञ्चित हो उठे।उस समय ऐसा प्रतीत होता था, मानो गौरी जी भगवान् शिव की आँखों में  समा गयी हों।
पार्वती जी अपने कुल देवी का पूजन करने लगीं। उनके साथ अनेक ब्राह्मण पत्नियाँ भी विद्यमान थीं। पूजनोपरान्त सभी स्त्रियाँ हिमालय के राजभवन मे चली गयीं। बाराती भी जनवासे मे जाकर विश्राम करने लगे।
द्वार पूजा के बाद बारात जनवासे वापस गयी। चढ़त का जब समय आया तब भगवान् श्री हरी विष्णु आदि देवताओं ने वैदिक एवं लौकिक रीति का पालन करते हुए भगवान् शिव के द्वारा दिये गये आभूषणों से पार्वती जी को अलंकृत किया। धीरे-धीरे कन्यादान की मुहूर्त सन्निकट आ गयी। वर सहित बारातियों को बुलाया गया। भगवान् शिव बाजे गाजे के साथ हिमालय के घर पहुँचे। हिमवान ने श्रद्धा भक्ति के साथ भगवान् शिव को प्रणाम किया और उनकी आरती उतारी। फिर उन्हें रत्नजटित सिंहासन पर बैठाया। आचार्यों ने मधुपर्क आदि क्रियायें सम्पन्न कीं। फिर पार्वती जी को उचित स्थान पर बैठाकर पुण्याहवाचन आदि किया गया।
अब कन्यादान का समय आ गया। हिमवान के दाहिनी ओर मैना और सामने पार्वती जी विराजमान हो गयीं। इसी समय हिमवान ने शाखोच्चार के उद्देश्य से भगवान् शिव से उनका गोत्र, प्रवर, शाखा आदि के विषय में पूछा। भगवान् शिव ने कोई उत्तर नहीं दिया। तब नारद ने कहा, "हे पर्वतराज!  तुम बहुत भोले हो, तुम्हारा प्रश्न उचित नहीं है, क्योंकि इनके गोत्र, कुल आदि के बारे में भगवान् ब्रह्मा, भगवान् श्री हरी विष्णु आदि भी नहीं जानते हैं। दूसरों के द्वारा जानने का प्रश्न ही नहीं उठता है। ये प्रकृति से परे निर्गुण, निराकार, परब्रह्म परमेश्वर, परमात्मा हैं और गोत्र, कुल, नाम आदि से रहित स्वतन्त्र एवं परम पिता परमेश्वर हैं। परन्तु स्वभाव से अत्यन्त दयालु और भक्तवत्सल हैं। ये केवल भक्तों का कल्याण करने के लिए ही साकार रूप धारण करते हैं। इसलिए इनके गोत्र, प्रवर आदि जानने के भ्रमजाल मे मत फँसिये।
नारद जी की बातों को सुनकर हिमालय को ज्ञान हो गया। उनके मन का सम्पूर्ण विस्मय नष्ट हो गया। उन्होंने प्रसन्नता पूर्वक निम्नलिखित मन्त्र बोलते हुए भगवान्  शिव के लिए अपनी कन्या का दान कर दिया। 
इमां कन्यां तुभ्यमहं ददामि परमेश्वर। भार्यार्थं परिगृह्णीष्व प्रसीद सकलेश्वर॥ 
भगवान् शिव प्रसन्नता पूर्वक वेदमन्त्रों के साथ पार्वती जी के कर कमलों को अपने हाथ में ग्रहण कर लिया। सम्पूर्ण त्रैलोक्य में जय जयकार का शब्द गूँजने लगा। इसके बाद शैलराज ने भगवान् शिव को कन्यादान की यथोचित सांगता प्रदान की। साथ ही अनेक प्रकार के द्रव्य, रत्न, गौ, अश्व, गज, रथ आदि प्रदान किया। इसके बाद विवाह की सम्पूर्ण क्रियायें सम्पन्न की गयीं। मंगल गीत गाये जाने लगे। ज्योनार हुआ। सुन्दरी स्त्रियों ने मीठे स्वरों में गाली गाईं। फिर महामुनियों ने वेदों में वर्णित रीति से भगवान् महादेव और जगत्जननी पार्वती जी का विवाह सम्पन्न करा दिया। हिमाचल ने दास, दासी, रथ, घोड़े, हाथी, गौएँ, वस्त्र, मणि आदि अनेक प्रकार की वस्तुओं को अन्न तथा सोने के बर्तनों के साथ दहेज के रूप में गाड़ियों में लदवा दिया।
इस प्रकार विवाह सम्पन्न हो जाने पर भगवान् शिव माता पार्वती के साथ अपने निवास कैलाश पर्वत में चले आये। वहाँ शिव पार्वती विविध भोग विलास करते हुए समय व्यतीत करने लगे।
सती का प्रेम उन्हें पार्वती के रूप में पुनः इस धरा पर लाकर शिव की अर्धांगिनी बनाकर उनके प्रेम को अमर कर दिया। उनके अमर प्रेम को प्रणाम!
आदि शक्ति माँ भगवती वन्दना ::
रक्षांसि यत्रोग्रविषाश्च नागा यत्रारयो दस्युबलानि यत्र; 
दावानलो यत्र तथाब्धिमध्ये तत्र स्थिता त्वं परिपासि विश्वम्॥1॥ 
Rakshansi Yatrogrvishashch Naaga Yatrarayo Dasyubalani Yatr; Davanalo Yatr Tathabdhimadhye Tatr Sthita Tvam Paripasi Vishvam.
देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद प्रसीद मातर्जगतोखिलस्य।  
प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वं त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य॥2॥ 
Devi Prapannaartihare Praseed Praseed Maatarjgatokhilasya; Praseed Vishveshvari Paahi Vishvam Tvameeshwaree Devi Characharasya.
जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी।  
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तु ते॥3॥ 
Jayanti Mangla Kaali Bhadrakaali Kapalinee; Durga Kshama Shiva Dhatri Swaha Svadha Namostu Te.
सर्वभूता यदा देवी स्वर्गमुक्तिप्रदायिनी।   
त्वं स्तुता स्तुतये का वा भवन्तु परमोक्तयः॥4॥ 
Sarvbhoota Yada Devi Swargmuktipradaayinee; Tvam Stutaa Stutaye Ka Va Bhavntu Parmoktayah.
नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चण्डिके दुरितापहे।  
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥5॥ 
Natebhyah Sarvada Bhaktya Chandike Duritaapahe; Roopam Dehi Jayam Dehi Yasho Dehi Dvisho Jahi.
प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्वार्तिहारिणि।  
त्रैलोक्यवासिनामीड्ये लोकानां वरदा भव॥6॥ 
Prantaanaam Praseed Tvam Devi Vishvaartihaarini; Trailokyavaasinaameedye Lokaanaam Varda Bhav.
देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।  
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥7॥ 
Dehi Saubhagyamaarogyam Dehi Me Paramam Sukham; Roopam Dehi Jayam Dehi Yasho Dehi Dvisho Jahi.
हिनस्ति दैत्यतेजांसि स्वनेनापूर्य या जगत्।  
सा घण्टा पातु नो देवि पापेभ्योनः सुतानिव॥8॥ 
Hinasti Daityatejaansi Svanenaapurya Yaa Jagat; Saa Ghanta Paatu No Devi Paapebhyonah Sutaaniv.
यस्याः प्रभावमतुलं भगवाननन्तो ब्रह्मा हरश्च न हि वक्तमलं बलं च। 
सा चण्डिकाखिलजगत्परिपालनाय नाशाय चाशुभभयस्य मतिं करोतु॥9॥ 
Yasyah Prabhavmatulam Bhagavaanananto Brahma Harashch Na Hi Vaqtumalam Balam Ch; Saa Chandikaakhiljagatparipaalanaay Naashaay Chashubhabhayasya Matim Karotu.
देव्या यया ततमिदं जग्दात्मशक्त्या निश्शेषदेवगणशक्तिसमूहमूर्त्या तामम्बिकामखिलदेव महर्षिपूज्यां भक्त्या नताः स्म विदधातु शुभानि सा नः॥10॥ 
Devya Yayaa Tatamidam Jagdaatmashaktyaa Nishsheshadevganshaktisamoohmoortyaa; Taamambikaamakhildev Maharshipoojyaam Bhaktyaa Nataah Sma Vidadhaatu Shubhani Saa Nah.
ॐ शैलपुत्री मैया रक्षा करो। ॐ जगजननि देवी रक्षा करो। 
ॐ नव दुर्गा नमः। ॐ जगजननी नमः। 
ॐ ब्रह्मचारिणी मैया रक्षा करो। ॐ भवतारिणी देवी रक्षा करो। 
ॐ नव दुर्गा नमः। ॐ जगजननी नमः। 
ॐ चंद्रघणटा चंडी रक्षा करो। ॐ भयहारिणी मैया रक्षा करो। 
ॐ नव दुर्गा नमः। ॐ जगजननी नमः। 
ॐ कुषमांडा तुम ही रक्षा करो। ॐ शक्तिरूपा मैया रक्षा करो। 
ॐ नव दुर्गा नमः। ॐ जगजननी नमः। 
ॐ स्कन्दमाता माता मैया रक्षा करो। ॐ जगदम्बा जननि रक्षा करो। 
ॐ नव दुर्गा नमः। ॐ जगजननी नमः। 
ॐ कात्यायिनी मैया रक्षा करो। ॐ पापनाशिनी अंबे रक्षा करो। 
ॐ नव दुर्गा नमः। ॐ जगजननी नमः। 
ॐ कालरात्रि काली रक्षा करो। ॐ सुखदाती मैया रक्षा करो। 
ॐ नव दुर्गा नमः। ॐ जगजननी नमः। 
ॐ महागौरी मैया रक्षा करो। ॐ भक्तिदाती रक्षा करो। 
ॐ नव दुर्गा नमः। ॐ जगजननी नमः। 
ॐ सिद्धिरात्रि मैया रक्षा करो। ॐ नव दुर्गा देवी रक्षा करो। 
ॐ नव दुर्गा नमः। ॐ जगजननी नमः।
BHAGWATI  ARADHNA भगवती आराधना :: Maa Bhagwati is the power of the Supreme-the Ultimate-Almighty. She maintains moral order and justice in the universe. She is Durga, Shakti, Bhawani, Radha, Sita, Rukmani... Maa Bhagwati Durga stands for the unified symbol of all divine forces; Strength, Morality, Power, Protector. Maa Saraswati, Laxmi and Parwati to evolve as Maa Bhagwati Durga. She is omnipresent. She is the personification of Universal Mother nature. She is present everywhere being the embodiment of power, energy & Peace. 
या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमानेयति  शब्दिता; 
नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमोनम: 
Ya Devi Sarv Bhuteshu Vishnu  Maneyati Shabdita;   Namstasye Namstasye Namstasye Namo Namh.
माँ भगवती के श्री चरणों में बारम्बार नमन है। वे भगवान् श्री हरी विष्णु की माया  के रूप में चराचर के समस्त प्राणियों में विराजमान हैं। 
One bow-pray repeatedly to Maa Bhagwati, who dwells in all creatures in the form of Maya-illusion of Bhagwan Vishnu.
या देवी  सर्वभूतेषु चेतनेत्याभि धीयते; 
नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमोनम:। 
Ya Devi Sarv Bhuteshu Chetanetyabhi Dheeyate; Namstasye Namstasye Namstasye Namo Namh. 
माँ भगवती के श्री चरणों में शत-शत नमन है। वे समस्त प्राणियों-जीवधारियों में अनुभूति-चेतना के रूप में विराजमान हैं। 
One bow again and again to the Devi, who abides in all creatures as consciousness-realisation.
या देवी  सर्वभूतेषु कांतिरूपेण संस्थिता; 
नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमोनम:। 
Ya Devi Sarv Bhuteshu Kantirupen Sansthita; Namstasye Namstasye Namstasye Namo Namh. 
माँ भगवती के श्री चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम है। वे समस्त प्राणियों में तेज-ऊर्जा आभा-प्रभामण्डल-दिव्य ज्योति के रूप में विद्यमान हैं।
One bow again and again in front of Maa Bhagwati, who lives in all creatures in the form of Aura, brilliance, Kanti (energy to do work).
या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरूपेण संस्थिता; 
नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमोनम:।
Ya Devi Sarv Bhuteshu Lakshmirupen Sansthita; Namstasye Namstasye Namstasye Namo Namh. 
माँ भगवती लक्ष्मी के श्री चरणों में अनेक नमन। वे समस्त जीवधारियों में धन, सम्पत्ति, ऐश्वर्य, खुशहाली के रूप में विराजमान हैं।
One bow again and again to the Maa Bhagwati Durga, who dwells in all creatures as Prosperity-wealth-worldly possessions.in the prosperous form.
या देवी सर्वभूतेषु वृत्तिरूपेण संस्थिता; 
नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमोनम:। 
Ya Devi Sarv Bhuteshu Vrattirupen Sansthita; Namstasye Namstasye Namstasye Namo Namh. 
माँ भगवती के चरणों में लगातार बारम्बार दण्डवत प्रणाम है, जो प्राणियों को जीविका, वृति, पुनर्जन्म प्रदान करती हैं। 
One prostrate-bow again and again in front of Maa Bhagwati, who dwells in all creatures in the form of lively hood, essential for survival leading to repeated cycle, repetition, reincarnation, motion.
या देवी सर्वभूतेषु स्मृतिरूपेण संस्थिता; 
नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमोनम:। 
Ya Devi Sarv Bhuteshu Smratirupen Sansthita; Namstasye Namstasye Namstasye Namo Namh.
माँ भगवती को नमस्कार है; वे मनुष्यों में याददाश्त के रूप में विद्यमान हैं। 
I bow again and again to the Goddess Maa Bhagwati, who lives in all creatures in the form of memory.
या देवी सर्वभूतेषु दयारूपेण संस्थिता;
 नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमोनम:। 
Ya Devi Sarv Bhuteshu Dayarupen Sansthita; Namstasye Namstasye Namstasye Namo Namh.
माँ भगवती के श्री चरणों में प्रणाम है, जो जीव धारियों में दया के रूप में मौजूद-उपस्थित हैं। 
One bow again and again to Maa Bhagwati, who dwells in all creatures in the form of mercy-pity, kindness 
या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरुपेण संस्थिता; 
नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमोनम:। 
Ya Devi Sarv Bhuteshu Sansthita; Namstasye Namstasye Namstasye Namo Namh.
माँ भगवती सरस्वती के श्री चरणों में नमन है, जिन्होंने समस्त प्राणियों को बुद्धि, विवेक, विद्या, ज्ञान प्रदान किया है। 
One prays-bows again and again to Maa Bhagwati Saraswati, who dwells in all creatures in the form of memory, prudence, learning, intelligence.
या देवी सर्वभूतेषु क्षुधारूपेण संस्थिता; 
नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमोनम:। 
Ya Devi Sarv Bhuteshu Kshudharupen Sansthita; Namstasye Namstasye Namstasye Namo Namh.
माँ भगवती सरस्वती के श्री चरणों में नमन है, जो समस्त प्राणियों भूख (काम-वासना, पेट में भोजन के रूप में) विद्यमान हैं। 
One bows again and again in front of Maa Bhagwati, who dwells-resides in all creatures in the form of appetite (sex, sensuality, passions, desires and hunger).
या देवी सर्वभूतेषु छायारूपेण संस्थिता; 
नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमोनम:। 
Ya Devi Sarv Bhuteshu Chhayarupen Sansthita; Namstasye Namstasye Namstasye Namo Namh.
माँ भगवती सरस्वती के श्री चरणों में नमन है, जो समस्त प्राणियों में छाया, अपने प्रतिबिम्ब-स्वरूप में उपस्थित हैं। 
One  bows again and again to the Goddess Maa Bhagwati, who lives in all creatures in the form of  image-relaxes and reflection.
या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण  संस्थिता; 
नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमोनम:। 
Ya Devi Sarv Bhuteshu Shaktirupen Sansthita; Namstasye Namstasye Namstasye Namo Namh.
माँ भगवती सरस्वती के श्री चरणों में नमन है, जो समस्त प्रणियों में शक्ति-बल के रूप में निवास करती हैं। 
One bows again and again in front of to the Devi Maa Bhagwati, who dwells in all creatures in the form of Shakti-the creative power and force.
या देवी सर्वभूतेषु तृष्णारूपेण संस्थिता; 
नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमोनम:। 
Ya Devi Sarv Bhuteshu Trashnarupen Sansthita; Namstasye Namstasye Namstasye Namo Namh.
माँ भगवती सरस्वती के श्री चरणों में नमन है, जो समस्त प्राणियों में तृष्णा, चाहत, कामना, लालच के रूप में मौजूद हैं।  
One  prays-bows repeatedly in front of Maa Bhagwati, who dwells in all creatures in the form of thirst, desire, craving, longing, greed.
या देवी सर्वभूतेषु क्षांतिरूपेण संस्थिता; 
नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमोनम:। 
Devi Sarv Bhuteshu Kshantirupen Sansthita; Namstasye Namstasye Namstasye Namo Namh.
माँ भगवती सरस्वती के श्री चरणों में नमन है, जो समस्त प्रणियों में सहनशीलता, सहिष्णुता, सहन शीलता, क्षमा रूप में विद्यमान हैं। 
One prays-bows again and again to the Devi Maa Bhagwati, who lives in all creatures in the merciful Patience, Forbearance, Endurance form.
या देवी सर्वभूतेषु लज्जारूपेण संस्थिता; 
नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमोनम:। 
Ya Devi Sarv Bhuteshu Lajjarupen Sansthita; Namstasye Namstasye Namstasye Namo Namh.
माँ भगवती सरस्वती के श्री चरणों में नमन है, जो समस्त प्रणियों में लज्जा, शर्म, हया के रूप में निवास करती हैं। 
One bows again and again to the Devi Maa Bhagwati, who lives in all creatures in the modesty-shyness form.
या देवी सर्वभूतेषु शांतिरूपेण संस्थिता; 
नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमोनम:। 
Ya Devi Sarv Bhuteshu Shantirupen Sansthita; Namstasye Namstasye Namstasye Namo Namh.
माँ भगवती सरस्वती के श्री चरणों में नमन है, जो समस्त प्रणियों में शान्ति, संतोष, सब्र  के रूप में निवास करती हैं। 
One bows again and again to the Devi Maa Bhagwati, who lives in all creatures in the form peace, tranquillity, solace, patience.
या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धारूपेण संस्थिता; 
नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमोनम:। 
Ya Devi Sarv Bhuteshu Shraddharupen Sansthita; Namstasye Namstasye Namstasye Namo Namh.
माँ भगवती सरस्वती के श्री चरणों में नमन है, जो समस्त प्रणियों में श्रद्धा-आदर के रूप में उपस्थित हैं। 
One bows again and again to the Devi Maa Bhagwati, who lives in all creatures in the reverence, respect, honour, veneration form.
या देवी सर्वभूतेषु तुष्टिरूपेण संस्थिता;  
नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमोनम:। 
Ya Devi Sarv Bhuteshu Tushtirupen Sansthita; Namstasye Namstasye Namstasye Namo Namh.
माँ भगवती सरस्वती के श्री चरणों में नमन है, जो समस्त प्रणियों में सन्तुष्टि रूप में  विराजमान हैं। 
One bows again and again to the Devi Maa Bhagwati, who lives in all creatures in the form of satisfaction. 
या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता;  
नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमोनम:। 
Ya Devi Sarv Bhuteshu Matrrupen Sansthita; Namstasye Namstasye Namstasye Namo Namh.
माँ भगवती सरस्वती के श्री चरणों में नमन है, जो समस्त प्रणियों में माँ के रूप में मौजूद हैं। 
One bows again and again to the Devi Maa Bhagwati, who lives in all creatures in the form of mother. 
या देवी सर्वभूतेषु भ्रांतिरूपेण  संस्थिता; 
नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमोनम:। 
Ya Devi Sarv Bhuteshu Bhrantirupen Sansthita; Namstasye Namstasye Namstasye Namo Namh.
माँ भगवती सरस्वती के श्री चरणों में नमन है, जो समस्त प्रणियों में भ्रम, छलावा, धोखे के रूप में विराजमान हैं।  
One bows again and again to the Devi Maa Bhagwati, who lives in all creatures in the form of mirage, confusion, illusion. 
या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता; 
नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमोनम:। 
Ya Devi Sarv Bhuteshu Nidrarupen Sansthita; Namstasye Namstasye Namstasye Namo Namh.
माँ भगवती को असीम नमस्कार हैं, जो प्राणियों में नींद-आराम के रूप में विराजमान हैं। 
One offers his gratitude to Maa Bhagwati, who lives in all creatures in the form of sleep-rest-relief-relaxation.
या देवी सर्वभूतेषु जातिरूपेण संस्थिता;  
नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमोनम:। 
Ya Devi Sarv Bhuteshu Jatirupen Sansthita; Namstasye Namstasye Namstasye Namo Namh.
माँ भगवती को असीम नमस्कार हैं जो प्राणियों में जाति, वर्ण, प्रजाति, वर्ग, उपवर्ग के रूप में विराजमान हैं।
One bows again and again to the Goddess Maa Bhagwat, who dwells in all creatures in the form of distinctions like, race, Varn, species, caste.
इन्द्रियानांधितात्रि धिस्तात्रि भूतानाम् चकिलेषु या; 
भूतेषु स्त्तम तस्य व्याप्ति देव्यै नमो नमः। 
Indriyanamadhistatri Bhootanam Chakileshu Ya; Bhooteshu Satatam Tasyai Vyaptidevyai Namo Namah.
One  bows  again and again to the all pervading Goddess Maa Bhagwati, who continuously controls the senses of all creatures and governs all elements.
चित्तिरूपेण या क्रस्तनां येताध्याप्य स्थितः; 
जगत नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः। 
Chitti Roopen Ya Krastnam Yetadhyapy Sthith Jagat; Namastasyai Namastasyai Namastasyai Namo Namah.
माँ भगवती को असीम नमस्कार हैं, जो समस्त प्राणियों में चेतना के रूप में व्याप्त हैं।
One bows again and again to the Goddess Maa Bhagwati, who pervades this world and controls it in the form of awareness.
BHAGWATI-THE MOTHER NATURE माँ भगवती-पराप्रकृति :: There is no difference between the Almighty-Param Brahm Permashwer and Bhagwati-the mother nature. They are one entity.
The difference, distinction between the two is a result of confusion-illusion of mind. The enlightened, who identifies, recognises, perceives the micro-extremely small, acute difference between the two, detaches from the world and becomes free forever from the cycles of birth and rebirth. He attains Salvation. There is no doubt in it.
Brahm is one, unique, forever, continuous, eternal. He appears to be two, at the time of creation-evolution, male-Bhagwan Shri Krashn and female-Radha Ji.
Though one, the Almighty and Bhagwati becomes multiple due to different titles, which create artificial distinctions.
This differentiation, distinction becomes pronounced at the time of creation-evolution. It’s not possible to generate without division into two.
At the time of destruction, he is neither male nor female or impotent. When evolution begins, the distinction returns-reappears due to the thoughts (intelligence, mind-brain).
No creature-organism devoid of her, can tremble, quiver, throb, vibrate, pulsate.
She is a component of all Demigods by different names as Shakti (The Power) and shows off as vigour  might, velour, valiant, deeds and exploit.
She resides in Saty Lok as Maha Saraswati, the Shakti of Brahma Ji and establishes the honour consecration of seedlings (basic characters of all organisms in seed form) of all organisms with their deeds and characters.
Maha Shakti of Vishnu resides in Vaekunth Lok with Bhagwan Shri Hari and Maha Kali Durga-Gauri stays with Shiv at Mount Kaelash.
Every learned-enlightened person knows a bit of Maa Bhagwati. Gyani (LEARNED, ENLIGHTENED, ACKNOWLEDGED, PHILOSOPHER, SCHOLAR, PANDIT) Brahma Ji knows more than the enlightened. Guru of the Gyanis, Ganesh Ji specifically knows more than him. Shiv, who knows all-everything, knows more about the Bhagwati as compared to all those, who know her.
Almighty Shri Krashn blessed Bhagwan Shiv with the knowledge of sacred-complicated secret characters of Bhagwati in an isolated Ras Mandal of Gau Lok.
Supreme soul, God of all, root cause of everything, basic figure of all, one who knows everything, one who nurture every one, the Almighty, reveals himself as Bhagwati. Everything in nature evolves out of him.    
SHIV SHAKTI शिव शक्ति :: Shiv and Shakti forms-constitutes the inseparable aspects of the same force-the Almighty. Maa Shakti or Durga is the power of Bhagwan Shiv. Without Shakti, Shiv has no expression and without Bhagwan Shiv, Shakti has no existence. Shakti is identical with Bhagwan Shiv. Bhagwan Shiv is the motive  and Shakti is expression-the nature.
Shiv is omnipotent, impersonal, inactive. He is pure consciousness. Shakti is dynamic. The power or active aspect of the immanent God is Shakti. Shakti is the embodiment of power. She is the eternal consort of Bhagwan Shiv. 
 
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