DWADASH JYOTIRLING
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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श्रीशिवपञ्चाक्षरस्तोत्रम् ::
नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय भस्माङ्गरागाय महेश्वराय।
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय तस्मै न काराय नमः शिवाय॥1॥
मन्दाकिनीसलिलचन्दनचर्चिताय नन्दीश्वरप्रमञ्चनाथमहेश्वराय।
मन्दारपुष्पबहुपुष्पसुपूजिताय तस्मै म काराय नमः शिवाय॥2॥
शिवाय गौरीबदनाब्जवृन्द सूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय।
श्रीनीलकण्ठाय वृषध्वजाय तस्मै शि काराय नमः शिवाय ॥3॥
वसिष्ठकुम्भोद्भवगौतमार्य मुनीन्द्रदेवाचितशेखराय।
चन्द्रार्कवैश्वानरलोचनाय तस्मै व काराय नमः शिवाय॥4॥
यक्षस्वरूपाय जटाधराय पिनाकहस्ताय सनातनाय।
दिव्याय देवाय दिगम्बराय तस्मै य काराय नमः शिवाय॥5॥
पञ्चाक्षरमिदं पुण्यं य: पठेच्छिवसन्निधौ।
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते ॥6॥
इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितं शिवपञ्चाक्षरस्तोत्रं सम्पूर्णम्।
JYOTIR LING :: Bhagwan Brahma-the creator) and Bhagwan Vishnu-the nurturer had an argument in terms of supremacy of creation. To test them, Bhagwan Shiv pierced the three worlds as a huge endless pillar of light, the Jyotir Ling. Both Bhagwan Vishnu and Bhagwan Brahma split their ways to downwards and upwards directions respectively to find the end of Aura-endless bright column of light. Brahma Ji lied that he found out the end, while Bhagwan Shri Hari Vishnu conceded his defeat. Bhagwan Shiv appeared as a second pillar of light and cursed Brahma Ji that he would have no place in ceremonies while Bhagwan Shri Hari Vishnu would be worshipped till the end of eternity. The Jyotir Ling is the supreme part less reality, out of which Bhagwan Shiv partly appears. The Jyotir Ling shrines, thus are the places where Bhagwan Shiv appeared as a fiery column of light. Originally there were believed to be 64 Jyotir Lings while 12 of them are considered to be most auspicious and holy. Each of the twelve Jyotir Ling sites take the name of the presiding deity-each considered different manifestation of Bhagwan Shiv. At all these sites, the primary image is Lingam representing the beginning less and endless Stambh-pillar, symbolising the infinite nature of Bhagwan Shiv. The twelve Jyotir Ling are Som Nath in Gujarat, Mallikarjun at Shrisaelam in Andhra Pradesh, Maha Kaleshwar at Ujjain in Madhy Pradesh, Omkareshwar in Madhy Pradesh, Kedar Nath in Himalayas, Bhima Shankar in Maharashtr, Vishw Nath at Varanasi in Uttar Pradesh, Trayambkeshwar in Maharashtr, Vaedy Nath at Deo Ghar in Jharkhand, Nageshwar at Dwarka in Gujarat, Rameshwar at Rameshwaram in Tamil Nadu and Grashneshwar at Auranga Bad, Maharashtr.[Shiv Maha Puran]
द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग स्त्रोत्रम् ::
सौराष्ट्रदेशे विशदेऽतिरम्ये ज्योतिर्मयं चन्द्रकलावतंसम्।
भक्तिप्रदानाय कृपावतीर्णं तं सोमनाथं शरणं प्रपद्ये॥1॥
श्रीशैलशृङ्गे विबुधातिसङ्गे तुलाद्रितुङ्गेऽपि मुदा वसन्तम्।
तमर्जुनं मल्लिकपूर्वमेकं नमामि संसारसमुद्रसेतुम्॥2॥
अवन्तिकायां विहितावतारं मुक्तिप्रदानाय च सज्जनानाम्।
अकालमृत्योः परिरक्षणार्थं वन्दे महाकालमहासुरेशम्॥3॥
कावेरिकानर्मदयोः पवित्रे समागमे सज्जनतारणाय।
सदैव मान्धातृपुरे वसन्तमोङ्कारमीशं शिवमेकमीडे॥4॥
पूर्वोत्तरे प्रज्वलिकानिधाने सदा वसन्तं गिरिजासमेतम्।
सुरासुराराधितपादपद्मं श्रीवैद्यनाथं तमहं नमामि॥5॥
याम्ये सदङ्गे नगरेऽतिरम्ये विभूषिताङ्गं विविधैश्च भोगैः। सद्भक्तिमुक्तिप्रदमीशमेकं श्रीनागनाथं शरणं प्रपद्ये ॥6॥
महाद्रिपार्श्वे च तटे रमन्तं सम्पूज्यमानं सततं मुनीन्द्रः।
सुरासुरैर्यक्षमहोरगाद्यैः केदारमीशं शिवमेकमीडे॥7॥
सह्याद्रिशीर्षे विमले वसन्तं गोदावरीतीरपवित्रदेशे।
यद्दर्शनात्पातकमाशु नाशं प्रयाति तं त्र्यम्बकमीशमीडे॥8॥
सुताम्रपर्णीजलराशियोगे निबध्य सेतुं विशिखैरसंख्यैः।
श्रीरामचन्द्रेण समर्पितं तं रामेश्वराख्यं नियतं नमामि॥9॥
यं डाकिनीशाकिनिकासमाजे निषेव्यमाणं पिशिताशनैश्च।
सदैव भीमादिपदप्रसिद्धं तं शङ्करं भक्तहितं नमामि॥10॥
सानन्दमानन्दवने वसन्तमानन्दकन्दं हतपापवृन्दम्।
वाराणसीनाथमनाथनाथं श्रीविश्वनाथं शरणं प्रपद्ये॥11॥
इलापुरे रम्यविशालकेऽस्मिन् समुल्लसन्तं च जगद्वरेण्यम्।
वन्दे महोदारतरस्वभावं घृष्णेश्वराख्यं शरणं प्रपद्ये॥12॥ ज्योतिर्मयद्वादशलिङ्गकानां शिवात्मनां प्रोक्तमिदं क्रमेण।
स्तोत्रं पठित्वा मनुजोऽतिभक्त्या फलं तदालोक्य निजं भजेच्च॥13॥
इति श्रीद्वादशज्योतिर्लिङ्ग स्त्रोत्रं सम्पूर्णम्।
शिवलिंग का अर्थ है भगवान् शिव का आदि-अनादी स्वरूप। शून्य, आकाश, अनंत, ब्रह्माण्ड और निराकार परम पुरुष का प्रतीक होने से इसे लिंग कहा गया है। जिस तरह भगवान् विष्णु का प्रतीक चिन्ह शालिग्राम है उसी तरह भगवान् शिव का प्रतीक चिन्ह शिवलिंग है। इस पिण्ड की आकृति हमारी आत्मा की ज्योति की तरह होती है।
प्रलयकाल में समस्त सृष्टि जिसमें लीन हो जाती है और पुन: सृष्टिकाल में जिससे प्रकट होती है उसे लिंग कहते हैं। इस प्रकार विश्व की संपूर्ण ऊर्जा ही लिंग की प्रतीक है। वस्तुत: यह संपूर्ण सृष्टि बिंदु-नाद स्वरूप है। बिंदु शक्ति है और नाद शिव। यही सबका आधार है। बिंदु एवं नाद अर्थात शक्ति और शिव का संयुक्त रूप ही तो शिवलिंग में अवस्थित है। बिंदु अर्थात ऊर्जा और नाद अर्थात ध्वनि। यही दो संपूर्ण ब्रह्मांड का आधार है। इसी कारण प्रतीक स्वरूप शिवलिंग की पूजा-अर्चना की जाती है।[वायुपुराण]
आकाश स्वयं लिंग है। धरती उसका पीठ या आधार है और सब अनंत शून्य से पैदा हो उसी में लय होने के कारण इसे लिंग कहा है। वातावरण सहित घूमती धरती या सारे अनंत ब्रह्मांड (ब्रह्मांड गतिमान है) का अक्स/धुरी ही लिंग है। पुराणों में शिवलिंग को कई अन्य नामों से भी संबोधित किया गया है जैसे प्रकाश स्तंभ लिंग, अग्नि स्तंभ लिंग, ऊर्जा स्तंभ लिंग, ब्रह्मांडीय स्तंभ लिंग आदि।[स्कन्दपुराण]
ब्रह्मांड का प्रतीक ज्योतिर्लिंग :: शिवलिंग का आकार-प्रकार ब्रह्मांड में घूम रही हमारी आकाशगंगा की तरह है। यह शिवलिंग हमारे ब्रह्मांड में घूम रहे पिंडों का प्रतीक है, कुछ लोग इसे यौनांगों के अर्थ में लेते हैं और उन लोगों ने भगवान् शिव की इसी रूप में पूजा की और उनके बड़े-बड़े पंथ भी बन गए हैं। ये वे लोग हैं जिन्होंने धर्म को सही अर्थों में नहीं समझा और अपने स्वार्थ के अनुसार धर्म को अपने सांचे में ढाला।
शिवलिंग का अर्थ है भगवान् शिव का आदि-अनादी स्वरूप अर्थात शिव यानी परम पुरुष का प्रकृति के साथ समन्वित-चिह्न। शून्य, आकाश, अनन्त, ब्रह्माण्ड और निराकार परमपुरुष का प्रतीक होने से इसे लिंग कहा गया है।
शिव की दो काया है। एक वह, जो स्थूल रूप से व्यक्त किया जाए, दूसरी वह, जो सूक्ष्म रूपी अव्यक्त लिंग के रूप में जानी जाती है। शिव की सबसे ज्यादा पूजा लिंग रूपी पत्थर के रूप में ही की जाती है। लिंग शब्द को लेकर बहुत भ्रम होता है। संस्कृत में लिंग का अर्थ है चिह्न। इसी अर्थ में यह शिवलिंग के लिए इस्तेमाल होता है।
ज्योतिर्लिंग :: ज्योतिर्लिंग उत्पत्ति के संबंध में पुराणों में अनेक मान्यताएं प्रचलित हैं। वेदानुसार ज्योतिर्लिंग यानी व्यापक ब्रह्मात्मलिंग जिसका अर्थ है व्यापक प्रकाश। जो शिवलिंग के 12 खण्ड हैं।
ब्रह्म, माया, जीव, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी को ज्योतिर्लिंग या ज्योति पिंड कहा गया है।[शिवपुराण]
12 रुद्र :: पहले महाकाल, दूसरे तारा, तीसरे बाल भुवनेश, चौथे षोडश श्रीविद्येश, पांचवें भैरव, छठें छिन्नमस्तक, सातवें द्यूमवान, आठवें बगलामुख, नौवें मातंग, दसवें कमल। अन्य जगह पर रुद्रों के नाम :- कपाली, पिंगल, भीम, विरुपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, आपिर्बुध्य, शम्भू, चण्ड तथा भव का उल्लेख मिलता है।
अन्य रुद्र या शंकर के अंशावतार :: इन अवतारों के अतिरिक्त शिव के दुर्वासा, हनुमान, महेश, वृषभ, पिप्पलाद, वैश्यानाथ, द्विजेश्वर, हंसरूप, अवधूतेश्वर, भिक्षुवर्य, सुरेश्वर, ब्रह्मचारी, सुनटनतर्क, द्विज, अश्वत्थामा, किरात और नतेश्वर आदि अवतारों का उल्लेख भी 'शिव पुराण' में हुआ है। हनुमान ग्यारहवें रुद्रावतार माने जाते हैं।
भैरव :: भैरव भी कई हुए हैं, जिसमें से काल भैरव और बटुक भैरव दो प्रमुख हैं। माना जाता है कि महेष-नन्दी और महाकाल भगवान् शिव के द्वारपाल हैं। रुद्र देवता शिव की पंचायत के सदस्य हैं। वैदिक काल के रुद्र और उनके अन्य स्वरूप तथा जीवन दर्शन को पुराणों में विस्तार मिला।
शिव के द्वारपाल :: नन्दी, स्कन्द, रिटी, वृषभ, भृंगी, गणेश, उमा-महेश्वर और महाकाल।
शिव पंचायत :: सूर्य, गणपति, देवी, रुद्र और विष्णु ये शिव पंचायत कहलाते हैं।
शिव पार्षद :: जिस तरह जय और विजय भगवान् श्री हरी विष्णु के पार्षद हैं, उसी तरह बाण, रावण, चंड, नन्दी, भृंगी आदि शिव के पार्षद हैं। नन्दी और भृंगी गण भी है, द्वारपाल भी है और पार्षद भी।
शिव गण :: भगवान् शिव के गणों में भैरव को सबसे प्रमुख माना जाता है। उसके बाद नन्दी का स्थान है और फिर वीरभ्रद्र। जहाँ भी भगवान् शिव का मन्दिर स्थापित होता है, वहाँ रक्षक (कोतवाल) के रूप में भैरव जी की प्रतिमा भी स्थापित की जाती है। भैरव दो हैं :- काल भैरव और बटुक भैरव। वीरभद्र भगवान् शिव के गण थे जिन्होंने भगवान् शिव के आदेश पर दक्ष प्रजापति का सर धड़ से अलग कर दिया। भगवान् शिव ने अपनी जटा से वीरभद्र को उत्पन्न किया।[देव संहिता, स्कन्द पुराण]
प्रमुख गण :: भैरव, वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नन्दी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, जय और विजय। इसके अलावा, पिशाच, दैत्य और नाग-नागिन, पशुओं को भी शिव का गण माना जाता है। ये सभी गण धरती और ब्रह्माण्ड में विचरण करते रहते हैं और प्रत्येक मनुष्य, आत्मा आदि की खैर-खबर रखते हैं।
शिव शिष्य सप्तऋषि :: भगवान् शिव ने अपने ज्ञान के विस्तार के लिए 7 ऋषियों को चुना और उनको योग के अलग-अलग पहलुओं का ज्ञान दिया, जो योग के 7 बुनियादी पहलू बन गए। वक्त के साथ इन 7 रूपों से सैकड़ों शाखाएं निकल आईं।
देवों के देव महादेव :: देवताओं की दैत्यों से प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी। ऐसे में जब भी देवताओं पर घोर संकट आता था तो वे सभी देवाधिदेव महादेव के पास जाते थे। दैत्यों, राक्षसों सहित देवताओं ने भी भगवान् शिव को कई बार चुनौती दी, लेकिन वे सभी परास्त होकर भगवान् शिव के समक्ष झुक गए इसीलिए भगवान् शिव हैं, देवों के देव महादेव। वे दैत्यों, दानवों और भूतों के भी प्रिय भगवान् हैं।
SHIV LING शिव लिंग :: Representation of the male genital organ of Bhagwan Shiv as Shiv Ling is misconceived, false, misleading, base less. Those who presented such interpretations did not understand the Sanskrat-Vedic text. Its really very difficult to interpret the language, where a word may have several-different meaning depending on the misconstrued misunderstanding-misconception. A single syllable creates a lot of change in the meaning. Shiv is Bhagwan Shiv and Shiva is his consort (partner, companion, mate, helpmate) Maa Shakti power, nature, wife. Ling (Lingam simply means formless), is one of the many manifestation of Universe. Universe in itself is a manifestation of the Almighty. Ling is a term which is used to describe either of the two sexes i.e., male or female, where as Shishn (शिश्न) is the right term for pennies.
चराचर अंधकार में डूबा हुआ था सभी ओर पानी ही पानी था। तब एक स्वर्ण अण्ड नार, पानी, जल में प्रकट हुआ। इस अण्ड से भगवान् श्री हरी विष्णु प्रकट हुए और उनके नाभि कमल से सृष्टि कर्ता भगवान् ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए। ब्रह्मा जी ने भ्रान्तिवश स्वयं को नारायण-भगवान् श्री हरी विष्णु का जनक, उत्पत्ति कर्ता, जन्मदाता, पिता समझा। जब ब्रह्मा जी इस विषय में विवाद कर रहे थे, उसी समय एक अग्नि-ऊर्जा पुञ्ज प्रकट हुआ और दोनों के इस विवाद के समय एक आदि लिंग प्रकट हुआ, जिसका कोई ओर-छोर, आदि और अन्त नहीं था। उसका आदि अन्त ढूँढ़ने की कोशिश में भगवान् ब्रह्मा और भगवान् श्री हरी विष्णु के कई हजार वर्ष निकल गए। यही शिव लिंग कहलाता है। भगवान् शिव को आदि देव और आदि माँ भगवती पार्वती को आदि शक्ति माँ भगवती कहा जाता है।
Entire universe was inundated with water under the cover of darkness, when a gigantic golden egg emerged out of the surface of water. Bhagwan Shri Narayan evolved out of it and there after Brahma Ji appeared through the navel of Bhagwan Shri Hari Vishnu, called Narayan, since he slept-lay over Naar-Water. Brahma Ji misunderstood himself to be cause of the creation of Bhagwan Shri Hari Vishnu and a debate-argument, took place between the creator Brahma and the preserver Vishnu as to, who was the father and who was the son. At this juncture a huge column of light, aura, plasma appeared before them, creating a lot of curiosity in them. The column of light appeared in front of Bhagwan Brahma & Bhagwan Shri Hari Vishnu in the month of Marg Sheersh on Poornima or Prati Pada, according to the Indian-Sanatan Dharm calendar. Both Bhagwan Shri Hari Vishnu & Brahma Ji did their best to trace the origin or the end of that Ling-unsuccessfully. Just then there was an Akashvani (आकाशवाणी, Voice from the eternal, cosmic sound) which said that he was the cause behind the birth-evolution of both of them. Each of them had their own function and that their was no confusion about who was the father or who was the son, since both of them were his forms, who himself was both formless and with a form. He advised Brahma Ji to begin with ascetic practices-Tapasya, since he was the one who had to create the living beings. His two forms, are Shakl-Sakar (शक्ल-साकार, with form, shape & size) and Nishakl-Nirakar (निशक्ल-निराकार, formless-without specific shape and size). Bhagwan Shiv has a from and he is formless too.
शिव साकार और निराकर दोनों ही हैं। वे ही आदिदेव कहलाते हैं।
The column of light was one of his infinite forms-manifestations. Brahmn was his Nishkl form and Maheshwar was his Shakl form. There after Bhagwan Shiv appeared in his visible form. He preached both of them the real meaning of Shiv Lingam.
प्रधानं प्रकृतिर यदाहुर्लिगंउत्तम।
गंध-वर्ण-रसहिंनं शब्द-स्पर्शादिवर्जितं॥
The foremost Ling which is devoid of colour, taste, hearing, touch etc. is spoken of as Prakrati or nature. The nature itself is a Ling, symbol, component, organ of Bhagwan Shiv. When one see-visualise nature, he infer the presence of its creator :- Bhagwan Shiv. Shiv Lingam is the mark-representation of Shiv, who is the creator, sustainer, nurturer, preserver and the destroyer. Shiv Ling is the supreme entity from where the whole universe has originated, created, emerged and where it will finally merge.
आकाशं लिंगमित्याहु: पृथ्वी तस्य पीठिका।
आलय: सर्व देवानां लयनार्लिंगमुच्यते॥
अनन्त आकाश लिंग और पृथ्वी उसका आधार है। सभी ब्रह्माण्ड इन्हीं से उत्पन्न होते हैं और इन्हीं में समा जाते-विलीन हो जाते हैं।[स्कन्द पुराण]
अनन्त शून्य से पैदा होकर अन्ततः उसी में लय होने के कारण, इसे लिंग कहा है।[स्कन्दपुराण]
यही कारण है कि इसे प्रकाश स्तंभ-लिंग, अग्नि स्तंभ-लिंग, उर्जा स्तंभ-लिंग, ब्रह्माण्डीय स्तंभ-लिंग (cosmic pillar-Lingam) इत्यादि कहा गया है।
The endless sky (the great void-space which contains the entire universe) is the Ling, the Earth is its seat-base. Entire universe and its entities evolve-emerge out of it and ultimately merge into it. बैद्य नाथ ज्योतिर्लिंग
The Mool Prakrati (प्रकृति) that absorbs all the Vikrati (defect, विकृति) emerged from the Shiv Ling.[साँख्य शास्त्र]
Formless Ling represents the formless power of this universe that is the origin-center of all the matter and the events-happenings of this universe. When the Brahm appear-incarnate with sixteen Kala-phases, HE become Shakl (शक्ल, having a form) and when he manifest in the crude energy, he is called Brahm (ब्रह्म, formless, undefined). Brahm means the most enormous (वृहत, enormous, gigantic, large) and the creator of all. Lingam depicts formless Brahmic power the Almighty. HE appear as a ling in symbolic form. [न्याय शास्त्र]
Ling-Lingam is a symbol of the Almighty. Lingam (Brahm) and Lingee (आत्मा-Atma) are same, therefore the great souls should also worship him. One who has established Shiv Lingam somewhere in his life, will get Sayujay Moksh (सायुज्य मोक्ष, eternal company of Bhagwan Shiv).
A subtle representative of God that is present in one's body. Kundlini is coiled with it in three and half coils. This is what Shiv Ling and snake coiled round depict in the temples. It shows Parmatma in the form of Atma and Shakti in the form of Kundlini.[वेदान्त]
The Sanskrat word Lingam or just Ling means symbol, which is the literal meaning of Shiv Lingam.
संस्कृत में शिव लिंग के सन्दर्भ में, लिंग शब्द से अभिप्राय, चिह्न, निशानी, गुण, व्यवहार या प्रतीक है।
The way when one see a smoke, he infer the presence of fire, the moment he see Shiv Lingam he immediately visualise the existence of the Supreme Shiv.
The whole universe rotates through a shaft called Shiv Lingam.
त आकाशे न विधन्ते।
रूप, रस, गंध और स्पर्श आकाश के लक्षण नही है। शब्द ही आकाश का गुण है।[वै 2.1.5]
निष्क्रमणम् प्रवेशनमित्याकशस्य लिंगम्।
जिसमें प्रवेश करना व निकलना होता है, वह आकाश का लिंग है अर्थात ये आकाश के गुण है।[वै 2.1.20]
अपरस्मिन्नपरं युगपच्चिरं क्षिप्रमिति काललिङ्गानि।
जिसमें अपर, पर, (युगपत) एक वर, (चिरम) विलम्ब, क्षिप्रम शीघ्र इत्यादि प्रयोग होते है, इसे काल कहते हैं और ये काल के लिंग हैं।[वै 2.2.6]
इत इदमिति यतस्यद्दिश्यं लिंगम।
जिसमें पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊपर व नीचे का व्यवहार होता है, उसी को दिशा कहते हैं अर्थात ये सभी दिशा के लिंग हैं।[वै 2.2.10]
इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख-दुःख, ज्ञानान्यात्मनो लिंगमिति।
जिसमें (इच्छा) राग, (द्वेष) वैर, (प्रयत्न) पुरुषार्थ, सुख, दुःख, (ज्ञान) जानना आदि गुण हो, वो जीवात्मा है और ये सभी जीवात्मा के लिंग अर्थात कर्म व गुण हैं। इसीलिए शून्य, आकाश, अनन्त, ब्रह्माण्ड और निराकार परम पुरुष का प्रतीक होने के कारण, इसे लिंग कहा गया है।[न्याय 1.1.10]
आकाश स्वयं लिंग है एवं धरती उसका पीठ या आधार है और ब्रह्माण्ड की हर चीज
यह लगभग 13.7 खरब वर्ष से प्रचलित सार्वभौमिक ज्ञान संस्कृत भाषा में उपलब्ध है। किसी स्थान पर अकस्मात् उर्जा का उत्सर्जन होता है तो, उर्जा का फैलाव अपने मूल स्थान के चारों ओर एक वृताकार पथ में तथा उपर व नीचे की ओर अग्रसर होता है अर्थात दसों दिशाओं में होता है। जिसके फलस्वरूप एक क्षणिक शिवलिंग आकृति की प्राप्ति होती है जो कि परमाणु बम के विस्फोट से प्राप्त उर्जा का प्रतिरूप है।
Dwadash stands for 12 and Jyotir Ling stands for the stone, rock, pind, Jyoti stands for light, glow, brightness, through which emerged the Almighty Shiv, after prolonged medication-asceticism over a period of thousands of years, by it self to bless the devotee and grant boons. It's related to mysticism as well. These Jyotir Ling have significance and have connection with the devotee after who's name it is remembered and revered-prayed.
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम।
उज्जियिन्यां महाकालमोंकारे परमेश्र्वरम्॥
परल्यां वैजनाथं च डाकिन्या भीमशंकरम्।
सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥
वाराणस्यां च विश्वेशं त्र्यम्बकं गौमतीतटे।
हिमालये तु केदारं धुष्णेशं च शिवालये॥
द्वादशैतानि नामानि प्रातरुत्थाय य: पठेत्।
सर्वयाय विनिर्मुक्त: सर्व सिद्धि फलंलभेत॥
एतानि ज्योतिर्लिन्गानी सांय प्रात: पठेन्नर:।
सप्त जन्म कृतं पापं समरेण विनश्यति॥
It was water all around, when Bhagwan Vishnu emerged out of the golden shell and laid over Nar (water) and hence got the name Narayan (one who rests, sleeps over water). Bhagwan Brahma emerged out of the navel lotus of Shri Narayan and started a dialogue as to who was the creator. They found the entire universe in the stomach of each. At this juncture a huge dome of light-AURA appeared all around and they both tried to find its beginning or end. They gave the exercise. This Jyoti evolved in the form of an endless pillar is recognised as Shiv Ling.
द्वादश ज्योतिर्लिंग स्त्रोत्र :: इस स्तोत्र का जप जो भी व्यक्ति प्रतिदिन करता है, उसे बारह ज्योतिर्लिंगो जैसे दर्शन करने के समान फल की प्राप्ति और भगवान् शिव की कृपा के साथ-साथ अन्य सभी देवी देवताओ की कृपा भी प्राप्त होती है।
सौराष्ट्रदेशे विशदेsतिरम्ये ज्योतिर्मयं चन्द्रकलावतंसम।
भक्तिप्रदानाय कृपावतीर्णं तं सोमनाथं शरणं प्रपद्ये॥1॥
जो शिव अपनी भक्ति प्रदन करने के लिए सौराष्ट्र प्रदेश में दयापूर्वक अवतरित हुए हैं, चंद्रमा जिनके मस्तक का आभूषण बना है, उन ज्योतिर्लिंग स्वरुप भगवान श्री सोमनाथ की शरण में मैं जाता हूँ।श्रीशैलश्रृंगे विबुधातिसंगेतुलाद्रितुंगेsपि मुदा वसन्तम।
तमर्जुनं मल्लिकापूर्वमेकं नमामि संसारसमुद्रसेतुम॥2॥
जो ऊँचाई के आदर्शभूत पर्वतों से भी बढ़कर ऊँचे श्री शैल के शिखर पर, जहाँ देवताओं का अत्यन्त समागम रहता है, प्रसन्नतापूर्वक निवास करते हैं तथा जो संसार-सागर से पार कराने के लिए पुल के समान है, उन एकमात्र प्रभु मल्लिकार्जुन को मैं नमस्कार करता हूँ।अवन्तिकायां विहितावतारंमुक्तिप्रदानाय च सज्जनानाम।
अकालमृत्यो: परिरक्षणार्थं वन्दे महाकालमहासुरेशम॥3॥
संतजनो को मोक्ष देने के लिए जिन्होंने अवन्तिपुरी (वर्तमान में उज्जैन) में अवतार धारण किया है, उन महाकाल नाम से विख्यात महादेवजी को मैं अकाल मृत्यु से बचाने के लिए प्रणाम करता हूँ। कावेरिकानर्मदयो: पवित्रे समागमे सज्जनतारणाय।
सदैव मान्धातृपुरे वसन्तमोंकारमीशं शिवमेकमीडे॥4॥
जो सत्पुरुषो को संसार सागर से पार उतारने के लिए कावेरी और नर्मदा के पवित्र संगम के निकट मान्धाता के पुर में सदा निवास करते हैं, उन अद्वित्तीय कल्याणमय भगवान ऊँकारेश्वर का मैं स्तवन करता हूँ। पूर्वोत्तरे प्रज्वलिकानिधाने सदा वसन्तं गिरिजासमेतम।
सुरासुराराधितपादपद्मं श्रीवैद्यनाथं तमहं नमामि॥5॥
जो पूर्वोत्तर दिशा में चिताभूमि (वर्तमान में वैद्यनाथ धाम) के भीतर सदा ही गिरिजा के साथ वास करते हैं, देवता और असुर जिनके चरण कमलों की आराधना करते हैं, उन श्री वैद्यनाथ को मैं प्रणाम करता हूँ। याम्ये सदंगे नगरेsतिरम्ये विभूषितांग विविधैश्च भोगै:।
सद्भक्तिमुक्तिप्रदमीशमेकं श्रीनागनाथं शरणं प्रपद्ये॥6॥
जो दक्षिण के अत्यन्त रमणीय सदंग नगर में विविध भोगो से संपन्न होकर आभूषणों से भूषित हो रहे हैं, जो एकमात्र सदभक्ति और मुक्ति को देने वाले हैं, उन प्रभु श्रीनागनाथ जी की शरण में मैं जाता हूँ। महाद्रिपार्श्चे च तट रमन्तं सम्पूज्यमानं सततं मुनीन्द्रै:।
सुरासुरैर्यक्षमहोरगाद्यै: केदारमीशं शिवमेकमीडे॥7॥
जो महागिरि हिमालय के पास केदारश्रृंग के तट पर सदा निवास करते हुए मुनीश्वरो द्वारा पूजित होते हैं तथा देवता, असुर, यज्ञ और महान सर्प आदि भी जिनकी पूजा करते हैं, उन एक कल्याणकारक भगवान् केदारनाथ का मैं स्तवन करता हूँ। सह्याद्रिशीर्षे विमले वसन्तं गोदावरीतीरपवित्रदेशे।
यद्दर्शनात्पातकमाशु नाशं प्रयाति तं त्र्यम्बकमीशमीडे॥8॥
जो गोदावरी तट के पवित्र देश में सह्य पर्वत के विमल शिखर पर वास करते हैं, जिनके दर्शन से तुरन्त ही पातक नष्ट हो जाता है, उन श्री त्र्यम्बकेश्वर का मैं स्तवन करता हूँ। सुताम्रपर्णीजलराशियोगे निबध्य सेतुं विशिखैरसंख्यै:।
श्रीरामचन्द्रेण समर्पितं तं रामेश्वराख्यं नियतं नमामि॥9॥
जो भगवान् श्री रामचन्द्र जी के द्वारा ताम्रपर्णी और सागर के संगम में अनेक बाणों द्वारा पुल बाँधकर स्थापित किये गए, उन श्री रामेश्वर को मैं नियम से प्रणाम करता हूँ। यं डाकिनीशाकिनिकासमाजे निषेव्यमाणं पिशिताशनैश्च।
सदैव भीमादिपदप्रसिद्धं तं शंकरं भक्तहितं नमामि॥10॥
जो डाकिनी और शाकिनी वृन्द में प्रेतों द्वारा सदैव सेवित होते हैं, उन भक्ति हितकारी भगवान् भीम शंकर को मैं प्रणाम करता हूँ। सानन्दमानन्दवने वसन्तमानन्दकन्दं हतपापवृन्दम।
वाराणसीनाथमनाथनाथं श्रीविश्वनाथं शरणं प्रपद्ये॥11॥
जो स्वयं आनंद कन्द हैं और आनंदपूर्वक आनन्द वन (वर्तमान में काशी) में वास करते हैं, जो पाप समूह के नाश करने वाले हैं, उन अनाथों के नाथ काशीपति श्री विश्वनाथ की शरण में मैं जाता हूँ। इलापुरे रम्यविशालकेsस्मिन समुल्लसन्तं च जगद्वरेण्यम। वन्दे महोदारतरस्वभावं घृष्णे श्वराख्यं शरणं प्रपद्ये॥12॥
जो इलापुर के सुरम्य मन्दिर में विराजमान होकर समस्त जगत के आराधनीय हो रहे हैं, जिनका स्वभाव बड़ा ही उदार है, उन घृष्णेश्वर नामक ज्योतिर्मय भगवान शिव की शरण में मैं जाता हूँ। ज्योतिर्मयद्वादशलिंगानां शिवात्मनां प्रोक्तमिदं क्रमेण।
स्तोत्रं पठित्वा मनुजोsतिभक्त्या फलं तदालोक्य निजं भजेच्च॥13॥
KASHI VISHW NATH श्री विश्वेश्वर :: यह ज्योतिर्लिङ्ग उत्तर भारत की प्रसिद्ध नगरी काशी में स्थित है। इस नगरी का प्रलय काल में भी लोप नहीं होता। उस समय भगवान् अपनी वास भूमि इस पवित्र नगरी को अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं और सृष्टि काल आने पर पुनः यथास्थान रख देते हैं। सृष्टि की आदि स्थली भी इसी नगरी को बताया जाता है। भगवान् विष्णु ने इसी स्थान पर सृष्टि कामना से तपस्या करके भगवान् शिव को प्रसन्न किया था। अगस्त्य मुनि ने भी इसी स्थान पर अपनी तपस्या द्वारा भगवान् शिव को सन्तुष्ट किया था। इस पवित्र नगरी की महिमा ऐसी है कि यहाँ जो भी प्राणी अपने प्राण त्याग करता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। भगवान् शिव उसके कान में 'तारक' मन्त्र का उपदेश करते हैं। इस मन्त्र के प्रभाव से पापी से पापी प्राणी भी सहज ही भव सागरकी बाधाओं से पार हो जाते हैं।
विषयासक्तचित्तोऽपि त्यक्तधर्मरतिर्नरः।
इह क्षेत्रे मृतः सोऽपि संसारे न पुनर्भवेत्॥
विषयों में आसक्त, अधर्म निरत व्यक्ति भी यदि इस काशी क्षेत्र में मृत्यु को प्राप्त हो तो उसे भी पुनः संसार बन्धन में नहीं आना पड़ता।
मत्स्य पुराण में इस नगरी का महत्त्व बताते हुए कहा गया है, "जप, ध्यान और ज्ञान रहित तथा दुःखों से पीड़ित मनुष्यों के लिये काशी ही एक मात्र परम गति है। श्री विश्वेश्वर के आनन्द कानन में दशाश्वमेध, लोलार्क, बिन्दु माधव, केशव और मणि कर्णिका, ये पाँच प्रधान तीर्थ हैं। इसी से इसे 'अविमुक्त क्षेत्र' कहा जाता है"।
जपध्यानविहीनानां ततो दुःखाहतानां ज्ञानवर्जितचेतसाम्।
ततो दुःखाहतानां च गतिर्वाराणसी नृणाम्॥
तीर्थानां पञ्चकं सारं विश्वेशानन्दकानने।
दशाश्वमेधं लोलार्क: केशवो बिन्दुमाधवः॥
पञ्चमी तु महाश्रेष्ठा प्रोच्यते मणिकर्णिका।
एभिस्तु तीर्थवर्यैश्च वर्ण्यते ह्यविमुक्तकम्॥
इस परम पवित्र नगरी के उत्तर की तरफ ॐकार खण्ड, दक्षिण में केदार खण्ड और बीच में विश्वेश्वर खण्ड है। प्रसिद्ध विश्वेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग इसी खण्ड में अवस्थित है।
भगवान् शिव माता पार्वती का पाणिग्रहण करके कैलास पर्वत पर रह रहे थे। लेकिन वहाँ पिता के घर में ही विवाहित जीवन बिताना माता पार्वती को अच्छा न लगता था। एक दिन उन्होंने भगवान् शिव से कहा, "आप मुझे अपने घर ले चलिये। यहाँ रहना मुझे अच्छा नहीं लगता। सारी लड़कियाँ शादी के बाद अपने पति के घर जाती हैं, मुझे पिता के घर में ही रहना पड़ रहा है"। भगवान् शिव ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली। वह माता पार्वती को साथ लेकर अपनी पवित्र नगरी काशी में आ गये। यहाँ आकर वे विश्वेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग के रूप में स्थापित हो गये।
शास्त्रों में इस ज्योतिर्लिङ्ग की महिमा का निगदन पुष्कल रूपों में किया गया है। इस ज्योतिर्लिंङ्ग के दर्शन-पूजन द्वारा मनुष्य समस्त पापों-तापों से छुटकारा पा जाता है। प्रतिदिन नियम से श्री विश्वेश्वर के दर्शन करने वाले भक्तों के योगक्षेम का समस्त भार भूतभावन भगवान् भोलेनाथ अपने ऊपर ले लेते हैं। ऐसा भक्त उनके परम धाम का अधिकारी बन जाता है। भगवान् शिव की कृपा उस पर सदैव बनी रहती है। रोग, शोक, दुःख-दैन्य उसके पास भूलकर भी नहीं आते।
The Vishw Nath temple in Banaras in Uttar Pradesh is the destination of thousands of pilgrims that visit this ancient city. Probably the most famous site not just in India, but the world over, the Vishw Nath shrine is revered as one of the 12 Jyotir Ling shrines of Shiv.Kashi Vishw Nath Temple is located in Uttar Pradesh. Kashi Vishw Nath Temple is one of the most revered temple-shrine dedicated to Bhagwan Shiv. The temple stands on the western bank of the holy river Ganga and is one of the twelve Jyotir Lings. The Kashi-Varanasi-Banaras is the oldest living city-civilisation over the earth. It has been destroyed and reconstructed-renovated numerous times. The last structure was demolished by Aurangzeb, the sixth Mughal emperor who constructed the Gyan Vapi Mosque on its site. The current structure was built on an adjacent site by the Maratha monarch, Ahilya Bai Holkar of Indore in 1,780.
Two domes of the temple are covered by gold donated by Maha Raja Ranjit Singh. The third dome was covered with gold later. Since 1983, the temple has been managed by the government of Uttar Pradesh. During the religious occasion of Shiv Ratri, the descendents of last Kashi Naresh preside-over the ceremonies-functions.
The temple has been mentioned in the Purans including the Kashi Khand (section) of Skand Puran. The original Vishw Nath temple was destroyed by the army of Qutub-ud-din Aibak in 1,194, when he defeated the Raja of Kannauj as a commander of Muhammad Ghori. The temple was rebuilt by a Gujarati merchant during the reign of Delhi's Sultan Iltutmish (1,211-1,266). It was demolished again during the rule of either Hussain Shah Sharqi (1,447-1,458) or Sikandar Lodhi (1,489-1,517). Raja Man Singh rebuilt the temple during Mughal emperor Akbar's rule, but orthodox Hindus boycotted it as he had let the Mughals marry within his family. Raja Todar Mal further re-built the temple with Akbar's funding at its original site in 1,585. In 1,669 Emperor Aurangzeb destroyed the temple and built the Gyan Vapi Mosque in its place. The remains of the erstwhile temple are present in the foundation, the columns and at the rear part of the mosque.
In 1,742, the Maratha ruler Malhar Rao Holkar made a plan to demolish the mosque and reconstruct Vishweshwar temple at the site. However, his plan did not materialise, partially because of intervention by the Nawabs of Lucknow, who controlled the territory.
Around 1,750, the Maha Raja of Jaipur commissioned a survey of the land around the site, with the objective of purchasing land to rebuild the Kashi Vishw Nath temple. However, his plan to rebuild the temple did not materialise either. In 1,780, Malhar Rao's daughter-in-law Ahilya Bai Holkar constructed the present temple adjacent to the mosque. In 1,828, Baija Bai, widow of the Maratha ruler Daulat Rao Scindhia of Gwalior State, built a low-roofed colonnade with over 40 pillars in the Gyan Vapi precinct. During 1,833-1,840, the boundary of Gyan Vapi Well, the ghats and other nearby temples were constructed. A 7 feet high stone statue of Nandi Maha Raj, gifted by the Raja of Nepal stands to the east of the colonnade. Many noble families from various ancestral kingdoms of Indian subcontinent and their prior establishments make generous contributions for the operations of the temple. In 1,841, the Bhosales of Nagpur donated silver to the temple. In 1,859, Maha Raja Ranjit Singh donated one tonne of gold for plating the temple's dome.
The temple was managed by a hereditary group of Priests, Pujaris, Pandas or Mahants. After the death of Mahant Devi Dutt, a dispute arose among his successors. In 1,900, his brother-in-law Pandit Visheshwar Dayal Tewari filed a lawsuit, which resulted in him being declared the Head Priest.
As per Shiv Puran, once Bhagwan Brahma Ji-the Creator and Bhagwan Vishnu-the nurturer, had an argument in terms of supremacy of creation, before evolution. To test them, Bhagwan Shiv pierced the three worlds as a huge endless pillar of Aura-light, the Jyotir Ling. Bhagwan Vishnu and Brahma Ji split their ways to downwards and upwards respectively to find the end of the light in either directions. Brahma Ji lied that he found out the end, while Bhagwan Vishnu conceded his defeat. Adi Dev Bhagwan Shiv appeared as a second pillar of light and cursed Brahma Ji that he would have no place in ceremonies while Bhagwan Vishnu would be worshipped till the end of eternity. The Jyotir Ling (The Eternal endless column of Aura-brightness-light without end) is the supreme reality, out of which Bhagwan Shiv partially appears. The Jyotir Ling shrines, thus are places where Bhagwan Shiv appeared as a fiery column of light. There are 64 forms (incarnations) of Shiv, not to be confused with Jyotir Lings.
The Mani Karnika Ghat on the banks of Maa Ganga near to the Kashi Vishw Nath Temple is considered as a Shakti Peeth and is a revered place of worship. Mani Karnika of Maa Bhagwati Sati fell here while her body was cut into 52 segments by Bhagwan Vishnu to bring Bhagwan Shiv back to consciousness.
Please refer to :: माता सती की कथा & MATA SATI माता सती santoshkathasagar.blogspot.com
The temple complex consists of a series of smaller shrines, located in a small lane called the Vishw Nath Gali, near the river. The Ling of the main deity at the shrine is 60 cm tall and 90 cm in circumference housed in a silver altar. The main temple is quadrangle and is surrounded by shrines of other demigods-deities. There are small temples for Kal Bhairav, Dand Pani, Avi Mukteshwar, Bhagwan Vishnu, Vinayak, Shaneshwar, Virupaksh and Virupaksh Gauri in the complex. There is a small well in the temple called the Gyan Vapi-wisdom well. The Gyan Vapi well sites to the north of the main temple and it is believed that the Jyotir Ling was hidden in the well to protect it at the time of invasion. The main priest of the temple jumped in the well with the Shiv Ling in order to protect the Jyotir Ling from invaders.
Structural Plan of the temple :: There is a Sabha Grah or congregation hall leading to the inner Garbh Grah or sanctum. The venerable Ling is made up of black coloured stone, and is enshrined in the sanctum, placed on a silver platform. Structure of the temple is composed of three parts. The first comprises a spire on the temple of Bhagwan Vishw Nath-Maha Dev. The second is gold dome and the third is the gold spire atop the Vishw Nath carrying a flag and a trident.
The Kashi Vishw Nath temple receives around 3,000 visitors every day. On certain occasions the numbers reach 10.00,000 and more. The 15.5 metre high gold spire and gold domes are very attractive and pious. All the three domes are made up of pure gold.
Many leading saints, including Adi Shankrachary, Ram Krashn Param Hans, Swami Vivekanand, Goswami Tulsidas, Swami Dayanand Saraswati and Guru Nanak Dev have visited the site.
Tulsi Dass Ji presented Ram Charit Manas to Bhagwan Maha Dev, which proved to be more auspicious during the Kali Yug. A visit to the temple and a bath in the river Ganges is one of many methods believed to lead one on a sacred path to Moksh (Salvation, Liberation, Assimilation in the Almighty). Devotee from all over the world try to visit the place at least once in their lifetime. There is also a tradition that one should give up at least one desire after a pilgrimage to this temple and the pilgrimage would also include a visit to the temple at Rameshwaram in Tamil Nadu in Southern India, where people take Ganga Jal to perform prayer at the temple and bring back sand from near that temple. Because of the immense popularity and holiness of Kashi Vishw Nath temple, hundreds of temples across India have been built in the same architectural style. Many legends record that the true devotee achieves freedom from death and Sansar-universe-world by the worship of Shiv. Devotees of Bhagwan Shiv on death are being taken directly to Shiv Lok by his messengers and not to Yam Lok. The superiority of Bhagwan Shiv is established by his victory over his own nature. Bhagwan Shiv is himself identified with death, as Maha Kal. There is a popular belief that Shiv himself blows the Mantr of Salvation into the ears of people who die naturally at the Vishw Nath temple.
गँगा नदी के पश्चिमी तट पर स्थित वाराणसी नगर विश्व के प्राचीनतम शहरों में से एक माना जाता है तथा यह भारत की सांस्कृतिक राजधानी के रूप में सुशोभित है। इस नगर के हृदय में बसा है भगवान् काशी विश्वनाथ का मन्दिर जो प्रभु शिव, विश्वेश्वर या विश्वनाथ के प्रमुख ज्योतिर्लिंगों में से एक है। स्त्री हो या पुरुष, युवा हो या प्रौढ़, हर कोई यहाँ पर मोक्ष की प्राप्ति के लिए जीवन में एक बार अवश्य आता है। ऐसा मानते हैं कि यहाँ पर आने वाला हर श्रद्धालु भगवान् विश्वनाथ को अपनी ईष्ट इच्छा समर्पित करता है।
जब पृथ्वी का पुनः उदय हुआ तब प्रकाश की पहली किरण काशी की धरती पर पड़ी थी। तभी से काशी ज्ञान तथा आध्यात्म का केंद्र माना जाता है। प्रलयकाल में भी काशी का लोप नहीं होता। प्रलयकाल में भगवान् शंकर इसे अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं और सृष्टि काल आने पर इसे नीचे उतार देते हैं। इसी स्थान पर भगवान् श्री हरी विष्णु ने सृष्टि उत्पन्न करने का कामना से तपस्या करके आशुतोष को प्रसन्न किया था और फिर उनके शयन करने पर उनके नाभि-कमल से ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए, जिन्होने सारे लोकों की रचना की। अगस्त्य मुनि ने भी विश्वेश्वर की बड़ी आराधना की थी और इन्हीं की अर्चना से श्री वशिष्ठ जी तीनों लोकों में पूजित हुए तथा राजर्षि विश्वामित्र ब्रह्मर्षि कहलाये।
सर्वतीर्थमयी एवं सर्वसंतापहारिणी मोक्षदायिनी काशी की महिमा ऐसी है कि यहाँ प्राण त्याग करने से ही मुक्ति मिल जाती है। भगवान् भोले नाथ मरते हुए प्राणी के कान में तारक-मंत्र का उपदेश करते हैं, जिससे वह आवगमन से छुट जाता है, चाहे मृत-प्राणी कोई भी क्यों न हो। मतस्यपुराण का मत है कि जप, ध्यान और ज्ञान से रहित एवंम दुखों परिपीड़ित जनों के लिये काशीपुरी ही एकमात्र गति है। विश्वेश्वर के आनंद-कानन में 5 मुख्य तीर्थ हैं:- (1). दशाश्वेमघ, (2). लोलार्ककुण्ड, (3). बिन्दुमाधव, (4). केशव और (5). मणिकर्णिका
और इन्हीं से युक्त यह अविमुक्त क्षेत्र कहलाता है।
काशी भगवान् शिव की प्रिय नगरी है। हर-हर महादेव घर-घर महादेव, का जयघोष काशी के लिए ही किया जाता है। काशी में भगवान् शिव विश्वेश्वर नामक ज्योतिर्लिंग में निवास करते हैं। भगवान् शिव के मन में एक बार एक से दो हो जाने की इच्छा जागृत हुई। उन्होंने खुद को रूपों में विभक्त कर लिया। एक शिव कहलाए और दूसरे शक्ति। लेकिन इस रूप में अपने माता-पिता को ना पाकर वह बेहद दुखी थे। उस समय आकाशवाणी ने उन्हें तपस्या करने की सलाह दी। तपस्या हेतु भगवान् शिव ने अपने हाथों से 5 कोस लंबे भूभाग पर काशी का निर्माण किया। और यहाँ वे विश्वेश्वर के रूप में विराजमान हुए।
ब्रह्मा जी और भगवान् श्री हरी विष्णु में जब यह विवाद हुआ कि पिता कौन है, तब आदि देव महादेव भगवान् शिव वहाँ प्रकाश लिंग के रूप में प्रकट हुए और ब्रह्मा जी ने ऊपरी छोर और भगवान् विष्णु ने निचला छोर ढूंढ़ने का प्रयास किया। भगवान् विष्णु ने स्वीकार किया कि मैं अंतिम छोर नहीं ढूंढ पाया किन्तु ब्रह्मा जी ने झूठ कहा कि मैंने खोज लिया। तब भगवान् शिव ने ब्रह्मा को श्राप दिया कि उनकी पूजा न होगी क्योंकि उन्होंने असत्य भाषण किया था।
यहीं पास में मणिकर्णिका मन्दिर है, जो सती माता का शक्ति पीठ है। भगवान् शिव ने यह स्थल अपने त्रिशूल पर उठा रखा है और इसे ब्रह्मा जी की सृष्टि से पृथक रखा है। मन्दिर प्रांगण में पवित्र ज्ञानवापी नामक कुँआ है।
माँ गंगा के तट पर बसी काशी दुनिया का सबसे प्राचीन नगर है। इस पर इक्ष्वाकु-सूर्यवंश तथा चन्द्र वंश का शासन रहा है। काशी नरेश की तीनों पुत्रियों अंबा, अंबिका और अंबालिका का स्वयंवर से भीष्म पितामह ने अपहरण किया था। इस अपहरण के परिणाम स्वरूप काशी और हस्तिनापुर की शत्रुता हो गई। महाभारत युद्ध में जरासन्ध और उसका पुत्र सहदेव दोनों काम आये। कालांतर में गँगा की बाढ़ ने पाण्डवों की राजधानी हस्तिनापुर को डुबा दिया, तब पाण्डव वर्तमान इलाहाबाद जिला में यमुना किनारे कौशाम्बी में नई राजधानी बनाकर बस गए। उनका राज्य वत्स कहलाया और काशी पर मगध की जगह अब वत्स का अधिकार हुआ। काशी नरेश ने कृत्या की उत्पत्ति करके भगवान् श्री कृष्ण को मारने का प्रयास किया तो ब्राह्मणों ने मंत्रोचारण में एक हलन्त का उपयोग किया, जिससे मन्त्र का अर्थ उल्टा हो गया और कृत्या ने काशी कुल सहित नष्ट कर दिया।
ब्रह्मदत्त नाम के राजकुल का काशी पर अधिकार हुआ। उस कुल में बहुत विद्वान शासक हुए। इनके समकालीन पंजाब में कैकेय राजकुल में राजा अश्वपति था। तभी गँगा-यमुना के दोआब में राज करने वाले पांचाल में राजा प्रवहण जैबलि ने भी अपने ज्ञान का डंका बजाया था। इनके समकालीन काशी राज्य का राजा अजातशत्रु हुआ। ये आत्मा और परमात्मा के ज्ञान में अनुपम था। ब्रह्म और जीवन के सम्बन्ध पर, जन्म और मृत्यु पर, लोक-परलोक पर तब देश में विचार हो रहे थे।
भारत में मगध, कोसल, वत्स और उज्जयिनी नामक 4 चार राज्य प्रबल थे जो एक-दूसरे को जीतने के लिए, आपस में बराबर लड़ते रहते थे। कभी काशी वत्सों के हाथ में जाती, कभी मगध के और कभी कोसल के। पार्श्वनाथ के बाद और बुद्ध से कुछ पहले, कोसल-श्रावस्ती के राजा कंस ने काशी को जीतकर अपने राज में मिला लिया। उसी कुल के राजा महाकोशल ने तब अपनी बेटी कोसल देवी का मगध के राजा बिम्बसार से विवाह कर दहेज के रूप में काशी की वार्षिक आमदनी एक लाख मुद्रा प्रतिवर्ष देना आरम्भ किया और इस प्रकार काशी मगध के नियंत्रण में पहुँच गई। राज के लोभ से मगध के राजा बिम्बसार के बेटे अजातशत्रु ने पिता को मारकर गद्दी छीन ली। तब विधवा बहन कोसलदेवी के दुःख से दुःखी उसके भाई कोसल के राजा प्रसेनजित ने काशी की आमदनी अजातशत्रु को देना बन्द कर दिया जिसका परिणाम मगध और कोसल समर हुई। इसमें कभी काशी कोसल के, कभी मगध के हाथ लगी। अन्ततः अजातशत्रु की जीत हुई और काशी उसके बढ़ते हुए साम्राज्य में समा गई। बाद में मगध की राजधानी राजगृह से पाटलिपुत्र चली गई और फिर कभी काशी पर उसका आक्रमण नहीं हो पाया।
आधुनिक काशी राज्य वाराणसी का भूमिहार ब्राह्मण राज्य बना है। भारतीय स्वतंत्रता उपरान्त अन्य सभी रजवाड़ों के समान काशी नरेश ने भी अपनी सभी प्रशासनिक शक्तियाँ छोड़ कर मात्र एक प्रसिद्ध हस्ती की भाँति रहना आरम्भ किया। वर्तमान स्थिति में ये मात्र एक सम्मान उपाधि रह गयी है। काशी नरेश का रामनगर किला वाराणसी शहर के पूर्व में गँगा नदी के तट पर बना है। काशी नरेश का एक अन्य किला चेत सिंह महल, शिवाला घाट, वाराणसी में स्थित है। यहीं महाराज चेत सिंह जिनकी माँ एक राजपूतनी थी को ब्रिटिश अधिकारी ने 200 से अधिक सैनिकों के संग मार डाला था। रामनगर किला और इसका संग्रहालय अब बनारस के राजाओं का एक स्मारक बना हुआ है। इसके अलावा 18वीं शताब्दी से ये काशी नरेश का आधिकारिक आवास बना हुआ है। आज भी काशी नरेश को शहर में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। ये शहर के धार्मिक अग्रणी संरक्षक और सभी धामिक कार्यकलापों में अभिन्न भाग होते हैं।
SOM NATH JYOTIRLING सोमनाथ ज्योतिर्लिंग :: यह ज्योतिर्लिंग सोमनाथ नामक विश्व प्रसिद्ध मन्दिर में स्थापित है। यह मंन्दिर गुजरात प्रान्त के काठिया वाड़ क्षेत्र में समुद्र के किनारे स्थित है। पहले यह क्षेत्र प्रभास क्षेत्र के नाम से जाना जाता था। इसी स्थान पर भगवान् श्री कृष्ण ने जरा नामक व्याध के बाण को निमित्त बनाकर अपनी लीला का संवरण किया था।
दक्ष प्रजापति की सत्ताईस कन्याएँ थीं। उन सभी का विवाह चन्द्र देव के साथ हुआ था। किन्तु चन्द्र देव का समस्त अनुराग उनमें एक केवल रोहिणी के प्रति था। उनके इस व्यवहार से दक्ष प्रजापति की अन्य कन्याओं में बहुत बैचेनी थी। उन्होंने अपनी यह व्यथा अपने पिता को सुनायी। दक्ष प्रजापति ने चन्द्र देव को अनेकों बार समझाया, किन्तु रोहिणी के वशीभूत उनके हृदय पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अन्ततः दक्ष प्रजापति ने कुद्ध होकर उन्हें क्षय ग्रस्त (Tuberculosis) हो जाने का शाप दे दिया। इस शाप के कारण चन्द्रदेव तत्काल क्षय ग्रस्त हो गये। उनके ग्रस्त होते ही पृथ्वीपर सुधा शीतलता वर्षण का उनका सारा कार्य रुक गया। चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गयी। चन्द्र देव भी बहुत दुःखी और चिन्तित हुए। उनकी प्रार्थना सुनकर इन्द्रादि देवता तथा वसिष्ठ आदि ऋषि उनके उद्धार के लिये पितामह ब्रह्मा जी के पास गये। सारी बातों को सुनकर ने उन्होंने कहा, "चन्द्रमा अपने शाप विमोचन के लिये अन्य देवों के माथ पवित्र प्रभास क्षेत्र में जाकर मृत्युञ्जय भगवान् शिव की आराधना करें। उनकी कृपा से अवश्य ही इनका शाप नष्ट हो जायगा और ये रोगमुक्त हो जायेंगे"।
उनके आदेशानुसार चन्द्र देव ने यह कार्य पूरा किया। उन्होंने घोर तपस्या करते हुए दस करोड़ जप किया। इससे प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने उन्हें अमरत्व प्रदान किया। उन्होंने कहा, "चन्द्रदेव तुम शोक मत करो तुम्हारा शाप मोचन तो होगा ही, साथ ही साथ प्रजापति दक्ष के वचनों की रक्षा भी हो जायगी। कृष्णपक्ष में प्रतिदिन तुम्हारी एक-एक कला क्षीण होगी। पुनः शुक्ल पक्ष उसी क्रम में तुम्हारी एक-एक कला बढ़ा करेगी। इस प्रकार प्रत्येक पूर्णिमा को तुम्हें पूर्ण चन्द्रत्व प्राप्त होता रहेगा। चन्द्र देव को मिलने वाले भगवान् शिव के इस वरदान से सारे लोकों के प्राणी प्रसन्न हो उठे। सुधाकर चन्द्रदेव पुनः दसों दिशाओं में सुधा वर्षण का कार्य पूर्व वत करने लगे।
श्राप मुक्त होकर चन्द्र देव ने अन्य देवताओं के साथ मिलकर मृत्युंजय भगवान् शिव से प्रार्थना की कि आप माता पार्वती के साथ प्राणियों के उद्धारार्थ यहाँ निवास करें। उसको इस प्रार्थना को स्वीकार करके ज्योति रूप में प्रभु माता पार्वती के साथ सभी यहाँ रहने लगे।
पावन प्रभास क्षेत्र में स्थित इस सोमनाथ ज्योति लिङ्ग कथा का वर्णन महाभारत, श्रीमद्भागवत तथा स्कन्द पुराण आदि में विस्तार पूर्वक किया गया है। चन्द्र देव का एक नाम सोम भी है। उन्होंने भगवान् शिव को ही अपना नाथ-स्वामी मानकर यहाँ तपस्या की थी। अतः इस ज्योतिलिङ्ग को सोमनाथ कहा जाता है। इसके दर्शन, पूजन, आराधन से भक्तों के जन्म-जन्मान्तर के सारे दूर हो जाते हैं। वे भगवान् शिव और माता की कृपा के पात्र बन जाते है, मोक्ष का मार्ग उनके लिये सहज हो सुलभ हो जाता है। उनके लौकिक -पारलौकिक सारे कृत्य स्वयं अनायास सफल हो जाते हैं।
सोमनाथ मन्दिर का दरवाजा :: सोमनाथ मन्दिर से ज्यादा रहस्यमयी उसके दरवाजे थे। ब्रिटेन की संसद में इनको लेकर बहस भी हुई थी।
सोमनाथ मन्दिर पर इतने आक्रमण सदियों में हो चुके थे कि कोई भी ये ठीक से दावा नहीं कर सकता कि उसके मुख्य द्वार को कौन सा हमलावर उखाड़कर ले गया था। मन्दिर की मूर्तियाँ तो गजनबी भी लेकर गया और अलाउद्दीन खिलजी का सिपहसालार उलूग खान भी, दोनों ही मूर्तियाँ अपने अपने शहरों यानी गजनी और दिल्ली की मस्जिदों की सीढ़ियों में चिनवा दी गईं।
सोमनाथ मन्दिर को अगर सरदार पटेल ने दोबारा बनाने का बीड़ा उठाया, श्री लाल कृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ को अपनी ऐतिहासिक यात्रा के लिए चुना, गजनबी से लेकर खिलजी और औरंगजेब तक ने उसे लूटा, मोदी वहाँ जाने का कोई मौका नहीं छोड़ते और राहुल को भी वहाँ वोटों की खातिर जाना ही पड़ा। (राहुल मुसलमान बाप और ईसाई माँ की औलाद है (उसने तो वोटों के लिये जनेऊ भी पहनकर दिखा दिया)।
LEFT :: SOM NATH EVEN AFTER LOOTING SEVERAL TIMES RIGHT :: GHAZNI LOOTED-PLUNDERED IT AND STANDS DESERTED TODAY. |
महादजी सिंधिया सोमनाथ मन्दिर चाँदी के मुख्य द्वार लाहौर से लेकर आया मगर पुजारियों ने उन्हें लेने से मना कर दिया। वो दरवाजे बाद में उज्जैन भिजवा दिए गए और महाकालेश्वर ज्योर्तिलिंग और उज्जैन के गोपाल मंदिर मन्दिर में रखे हुए हैं।
Moon was married to 27 daughters of King Daksh Prajapati. But out of his 27 wives, Moon used to love one wife more than others. Because of the beauty of Rohini, Moon used to favour her and neglected all other 26 queens. The other 26 queens were upset with this behaviour of Moon, so they went to their Father, Daksh and complained about it. On this, Daksh decided to discuss with moon so that moon treats all his wives equally. Moon listened to King Daksh's request, but even after this he loved only Rohini and neglected other queens. When King Daksh was again informed about it, he got very angry on Moon and cursed moon, that the beauty and the shine which you are so proud of, it will start diminishing day by day and you will your shine will reduce.
With this curse, moon started loosing its shine and he got scared. So, he approached Bhagwan Brahma to seek his advice. Brahma Ji advised Moon to worship Bhagwan Shiv at Prabhas Tirth. On the advice of Brahma Ji, Moon started worshipping Bhagwan Shiv. Pleased with the great penance and devotion of Moon, Bhagwan Shiv appeared before Moon and blessed him.
Bhagwan Shiv relieved Moon from this curse. After this, Bhagwan Shiv persisted here in the form of Som Nath Jyotir Ling. Moon had built a golden Temple at this place. Later, Ravan built a Silver Temple and Bhagvan Shri Krashn is believed to have built Som Nath temple with Sandalwood.
Som Nath Temple is in Saurashtr district of Gujarat. This Temple is adorned with beautiful gems and precious metals.
This temple has been destroyed 17 times by different invaders like Mehmood Vaishnavi, Aurangzeb etc. These invaders not just destroyed the temple, but also looted the gems and the gold from this temple. But every time, the Hindu Kings re-constructed this temple and maintained its glory. The Som Nath temple that we see today has been constructed by Sardar Vallabh Bhai Patel.
चन्द्र देव कामदेव और ब्रह्मा जी के अवतार हैं। चन्द्र देव का विवाह राजा दक्ष प्रजापति की 27 पुत्रियों से हुआ था। लेकिन अपनी 27 पत्नियों में से, चन्द्र देव एक पत्नी को दूसरों से अधिक प्यार करता था। रोहिणी की सुंदरता के कारण, चन्द्र देव उसका पक्ष लेता था और अन्य सभी 26 रानियों की उपेक्षा करता था। अन्य 26 रानियाँ चन्द्र देव के इस व्यवहार से परेशान थीं, इसलिए उन्होंने अपने पिता, दक्ष के पास जाकर इसकी शिकायत की। इस पर, दक्ष ने चन्द्र देव के साथ चर्चा करने का फैसला किया, ताकि चन्द्र देव अपनी सभी पत्नियों के साथ समान व्यवहार करे। चन्द्र देव ने राजा दक्ष के अनुरोध को सुना, लेकिन इसके बाद भी वह केवल रोहिणी से प्यार करते थे और अन्य रानियों की उपेक्षा करते थे। जब राजा दक्ष को इसके बारे में फिर से सूचित किया गया, तो उन्होंने चन्द्र देव पर बहुत गुस्सा किया और चन्द्र देव को शाप दिया कि जिस सुंदरता और चमक पर आपको गर्व है, वह दिन-ब-दिन कम होने लगेगी और आपकी चमक कम हो जाएगी।
इस श्राप से चन्द्र देव ने अपनी चमक खोनी शुरू कर दी और वे डर गये। इसलिए उन्होंने ब्रह्मा जी से सलाह लेने के लिए सम्पर्क किया। ब्रह्मा जी ने चन्द्र देव को प्रभास तीर्थ पर भगवान् शिव की पूजा करने की सलाह दी। ब्रह्मा जी की सलाह पर चन्द्र देव ने भगवान् शिव की पूजा शुरू कर दी। चन्द्र देव की महान तपस्या और भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान् शिव चन्द्र देव के सामने प्रकट हुए और उन्हें आशीर्वाद दिया।
भगवान् शिव ने चन्द्र देव को इस श्राप से मुक्त किया। इसके बाद, भगवान् शिव ने सोमनाथ ज्योतिर्लिंग के रूप में यहाँ निवास किया। चन्द्र देव ने इस स्थान पर एक स्वर्ण मन्दिर का निर्माण किया था। बाद में, रावण ने एक रजत मन्दिर का निर्माण किया और भगवान् श्री कृष्ण ने सोमनाथ मन्दिर का निर्माण चन्दन की लकड़ी से किया।
इस मन्दिर को महमूद गजनवी, औरंगज़ेब आदि जैसे विभिन्न आक्रमणकारियों द्वारा 17 बार नष्ट किया गया। इन आक्रमणकारियों ने न केवल मन्दिर को नष्ट कर दिया, बल्कि इस मंदिर से रत्न और सोना भी लूट लिया। लेकिन हर बार, हिन्दु राजाओं ने इस मन्दिर का पुनर्निर्माण किया और इसकी महिमा बनाए रखी।
सोमनाथ 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है। इसे विदेशी आक्रमण कारियों द्वारा अनेकों बार लूटा गया और ध्वस्त किया गया। इसका अनेकों बार पुननिर्माण हुआ है। यह धर्म और आस्था के साथ इतिहास का अंग है। इसकी अकूत धन-सम्पत्ति ने भी विधर्मियों को आकर्षित किया।
गणपति के श्राप से चन्द्रदेव कुष्ठ और राजयक्ष्मा ग्रस्त हो गए तो गणपति ने ही उन्हें निवारण हेतु भगवान् शिव की आराधना करने का आदेश दिया। अन्ततः भगवान् शिव प्रसन्न हुए और सोम (चन्द्र देव) के श्राप का निवारण किया। सोम के कष्ट को दूर करने वाले प्रभु शिव की यहाँ पर स्थापना स्वयं सोमदेव ने की थी। यह स्थान सोमतीर्थ कहलाया।
सोमनाथ से 1-2 किलोमीटर की दूरी पर स्थित भालका नामक तीर्थस्थल पर जब वासुदेव कृष्ण विश्राम कर रहे थे तभी एक हिरण का पीछा करते हुए उस ओर पहुँचे बहेलिये-पूर्व जन्म के इन्द्रपुत्र बाली ने उनके पैर में पद्म को देखा और उसे मृग की आँख समझकर उसमें बाण मार दिया। भगवान् श्री कृष्ण ने बहेलिया के बाण से घायल होकर अपना पार्थिव शरीर त्यागा था।
सोमनाथ के मन्दिर के पौराणिक महत्व को देखकर, राजा नागभट्ट के द्वारा तीसरी बार 815 ई. में मन्दिर का जीर्णोद्धार किया गया था। ये मन्दिर अपनी सुन्दरता, अकूत धन सम्पति के लिए दुनिया भर में प्रसिद्द था।
मन्दिर के आकुल धन-सम्पदा के बारे में सुनकर 1,024 ई. में मोहम्मद गजनवी ने सोमनाथ के मन्दिर पर अपने 5,000 सैनिकों के साथ आक्रमण कर दिया। उस समय मन्दिर में लगभग 50,000 त्रिशूल धारी शिव-भक्त मन्दिर में मौजूद थे, मगर भक्तों ने गजनवी की सेना से युद्ध करने के बजाय, अपने सामर्थ्य पर विश्वास करने के बजाय, दैवीय शक्तियों पर विश्वास किया। भक्त-जन शिव से चमत्कार की आस में हाथ जोड़कर उनसे प्रार्थना करते रहे और गजनवी ने न सिर्फ सोमनाथ मन्दिर को लूटा बल्कि उन सभी श्रद्धालुओं की निर्ममता से हत्या कर दी। बीस मील लम्बे काफिले में शामिल ऊँटों पर दोनों ओर हीरे-ज्वारहात भरे हुए थे। बैल गाड़ियाँ सोने-चाँदी के पात्रों से लदीं थीं। उसका वंशनाश हो गया।
मन्दिरों में जमा अकूत धन-दौलत किसी काम की नहीं है। इसका सदुपयोग हिन्दु धर्माम्बलियों के हित में किया जाना चाहिये। वर्तमान काल में कम्युनिस्ट, ईसाई और मुसलमान राजनेता इसका दुरूपयोग मुसलमानों और ईसाईयों के उत्थान के लिये कर रहे हैं।
गुजरात के राजा भीम और मालवा के राजा भोज ने सोमनाथ के मन्दिर का पुनः जीर्णोद्धार किया। 13वीं सदी में जब गुजरात पर दिल्ली सल्तनत का राज्य था तब मुस्लिम शासक अलाउदीन खिलज़ी के द्वारा इस मन्दिर को पुन: तोड़ा गया। बाद में ओरंगजेब ने 1,706 में इस मन्दिर को फिर से तोड़ा था।
भारत की स्वतंत्रता के बाद सरदार वल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में सोमनाथ मन्दिर का पुन: जीर्णोद्धार का कार्य प्रारम्भ हुआ। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा.राजेन्द्र प्रसाद ने 11 मई 1,951 को अपनी प्राण प्रतिष्ठा देकर ज्योतिर्लिंग की मन्दिर में स्थापना की थी। 1,962 में सोमनाथ के मन्दिर के निर्माण का कार्य पूर्ण हुआ। इस मन्दिर के निर्माण में सरदार वल्लभ भाई पटेल ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। आज सोमनाथ मन्दिर में दर्शन के लिए देश-विदेश से हजारों की सँख्या में श्रद्धालु आते हैं।
जवाहर लाल नेहरू एक मुसलमान था। उसने डा. राजेन्द्र प्रसाद को उनके द्वारा सोमनाथ मन्दिर का उद्घाटन किये जाने पर उन्हें हर प्रकार की तकलीफ़ पहुँचाकर दण्डित किया। उसने अयोध्या में राम लला के मन्दिर निर्माण को भी रोकने की कार्यवाही की।
सोमनाथ मन्दिर के दक्षिण में एक स्तंभ स्थित है। जिस पर एक तीर रखकर संकेत किया गया है कि सोमनाथ मन्दिर और दक्षिण ध्रुव के बीच में पृथ्वी-भूमि का कोई भाग नहीं है। यद्यपि सोमनाथ का मन्दिर कई बार तोड़ा गया और उसे पुन: भव्य स्वरुप प्रदान किया जाता रहा है, लेकिन सोमनाथ मन्दिर का ज्योतिर्लिंग आज भी सुरक्षित है। सोमनाथ का मन्दिर बारह पवित्र ज्योतिर्लिंगों में से एक है।
सोमनाथ मन्दिर से लगभग 200 किलोमीटर दूर भगवान् श्री वासुदेव कृष्ण द्वारा बसाई गयी द्वारिका नगरी है। द्वारिकाधीश के दर्शन के लिए प्रतिदिन देश विदेश से हजारों श्रद्धालु आते हैं और श्रद्धालु जन गोमती नदी में स्नान कर पुन्य अर्जित करते है।
सोमनाथ मन्दिर के आसपास 10 किलोमीटर की परिधि में लगभग 42 मन्दिर है। इन मन्दिरों के अलावा यहाँ तीन नदियों हिरण, कपिला और सरस्वती का महासंगम होता है। इस त्रिवेणी स्नान का विशेष महत्व है।
सोमनाथ मन्दिर के आसपास 10 किलोमीटर की परिधि में लगभग 42 मन्दिर है। इन मन्दिरों के अलावा यहाँ तीन नदियों हिरण, कपिला और सरस्वती का महासंगम होता है। इस त्रिवेणी स्नान का विशेष महत्व है।
नेपाल स्थित पशुपति नाथ मन्दिर की तरह सोमनाथ मन्दिर में भी गैर हिन्दुओं का प्रवेश वर्जित है। सिर्फ उचित कारण बताने पर ही गैर हिन्दु लोगों का मन्दिर में प्रवेश होता है। लुटेरे तो आज भी हर गली चौराहे पर मौजूद हैं।
महाकालेश्वर UJJAINI MAHA KALESHWAR :: यह परम पवित्र ज्योतिर्लिङ्ग मध्य प्रदेश के उज्जैन नगर में स्थित है। पुण्य सलिला क्षिप्रा नदी के तट पर अवस्थित उज्जैन प्राचीन काल में उज्जयिनी के नाम से विख्यात था। इसे अवन्तिका पुरी भी कहते थे। यह भारत की परम पवित्र सप्त पुरियों में से एक है।
प्राचीन काल में उज्जयिनी में राजा चन्द्रसेन राज्य करते थे। वह परम शिव भक्त थे। एक दिन श्रीकर नामक एक पाँच वर्ष का गोप बालक अपनी माँ के साथ उधर से गुजर रहा था। राजा द्वारा शिव पूजन देखकर उसे बहुत विस्मय और कौतुहल हुआ। वह स्वयं उसी प्रकार की सामग्रियों से शिव पूजन करने के लिये लालायित हो उठा। सामग्री का साधन न जुटा पाने पर, लौटते समय उसने रास्ते से एक पत्थर का टुकड़ा उठा लिया। घर आकर उसी पत्थर को शिव रूप में स्थापित कर पुष्प, चन्दन आदि से परम श्रद्धा पूर्वक उसकी पूजा करने लगा। माता भोजन करने के लिये उसे बुलाने आयी, किन्तु वह पूजा छोड़ कर उठने के लिये किसी प्रकार भी तैयार नहीं हुआ। अन्त में माता ने झल्लाकर पत्थर का वह टुकड़ा उठाकर दूर फेंक दिया। इससे बहुत ही दुःखी होकर वह बालक जोर-जोर से भगवान् शिव को पुकारता हुआ रोने लगा। रोते-रोते अन्त में बेहोश होकर वहीं गिर पड़ा। बालक को अपने प्रति यह भक्ति और प्रेम देखकर आशुतोष भगवान् शिव अत्यन्त प्रसन्न हो गये। बालक ने ज्यों ही होश में आकर अपने नेत्र खोले तो उसने देखा कि उसके सामने एक बहुत ही भव्य और अति विशाल स्वर्ण और रत्नों से बना हुआ मन्दिर खड़ा है। उस मन्दिर के भीतर एक बहुत ही प्रकाशमय, भास्वर, तेजस्वी ज्योतिर्लिङ्ग मौजद था। बालक प्रसन्नता से अविभूत होकर भगवान् शिव की स्तुति करने लगा। उसकी माँ को जब यह पता लगा तो उसने अपने पुत्र को गले से लगा लिया। राजा चन्द्रसेन को जब यह समाचार मिला तो उन्होंने भी बालक की सिद्धि और भक्ति की सराहना की। धीरे-धीरे यह समाचार सभी दिशाओं में फैलने लगा और वहाँ पर बड़ी भीड़ इकट्ठा होने लगी।
अब तो हनुमान जी महाराज भी वहाँ पधारे। उन्होंने कहा, हे मनुष्यो! भगवान् भोलेनाथ शीघ्र फल प्रदायक देव हैं। इस बालक के भक्ति भाव से प्रसन्न होकर, उन्होंने यह फल प्रदान किया है। जो सिद्धि ऋषि-मुनि सहस्त्रों जन्मों और वर्षों की तपस्या से भी प्राप्त नहीं कर पाते, वह इस बालक को सहज ही प्राप्त हो गया है। इस बालक की आठवीं पीढ़ी में धर्मात्मा नन्द गोप का जन्म होगा। इस प्रकार परमपिता परमेश्वर, पर ब्रह्म परमेश्वर द्वापर युग में ही अवतार लेकर अनेकानेक लीलाएँ करेंगे।
पूर्वकाल में उज्जयनी-अवन्तिका पुरी में एक तपोनिष्ठ, वेदपाठी अत्यन्त तेजस्वी ब्राह्मण निवास करते थे। दूषण नामक राक्षस उनकी तपस्या में विघ्न पैदा करने लगा। उसके अत्याचारों से प्रजा बेहद दुःखी हो गई और त्राहि-त्राहि करने लगी। ब्रह्मा जी से वर प्राप्त करके वह अपनी शक्तियों का दुरूपयोग करने लगा था। ब्राह्मण को कष्ट में देखकर प्राणि मात्र का कल्याण करने वाले भगवान् भोलेनाथ वहाँ प्रकट हो गये। उन्होंने एक हुँकार मात्र से उस दारुण दुःख देने वाले अत्याचारी को भस्म कर दिया। हुँकार के साथ प्रकट होने के कारण भगवान् शिव का नाम महाकाल पड़ गया। इस ज्योतिलिङ्ग को महाकाल के नाम से जाना जाता है।
महाभारत शिवपुराण एवं स्कन्द पुराण में इस ज्योतिलिङ्ग की महिमा का वर्णन-बखान किया गया है।
Temple of Bhagwan MAHA KAL-SHIV is situated in the town of Ujjain, Madhy Pradesh. It is one of the most sacred temples dedicated to Bhagwan Shiv and is one of the twelve Jyotir Lings. It is located in the ancient city of Ujjain in Madhy Pradesh, India. The temple is situated on the bank of holy river Shipra. The presiding deity, Bhagwan Shiv in the Ling form is believed to be Swayambhu-one evolved him self, deriving currents of power-Shakti from within itself as against the other images and Lings that are ritually established and invested with Mantr Shakti.
Shiv Puran, describes the evolution of the endless bright Jyotir Ling which evolved at the occasion of evolution and appearance of Bhagwan Vishnu-the nurturer, providing sustenance; from the golden egg shell and emergence of Brahma Ji-the creator, through his naval lotus, which followed an argument between Bhagwan Vishnu & Brahma Ji in terms of supremacy. Brahma Ji mistook himself to be the father of Bhagwan Vishnu. Bhagwan Vishnu and Brahma Ji split their ways to downwards and upwards directions respectively to find the end of the source of light. Brahma Ji lied that he had found out the end, while Bhagwan Vishnu conceded his defeat. Bhagwan Shiv appeared as a second pillar of light and cursed Brahma Ji that he would have no place in prayers, sacrifices, rituals while Bhagwan Vishnu would be worshipped till the end of eternity.
The Jyotir Ling is the supreme part less reality, out of which Bhagwan Shiv partially appears. The Jyotir Ling shrines, are present where Bhagwan Shiv appeared as a fiery column of light. There are 64 forms of Bhagwan Shiv, other than Jyotir Lings. Each of the twelve Jyotir Ling sites take the name of the presiding deity i.e., each considered different manifestation of Bhagwan Shiv.
The idol of Mahakaleshwar is known to be Dakshina Murti, which means that it is facing south. This is a unique feature, upheld by the Tantric Shivnetr tradition to be found only in Mahakaleshwar among the 12 Jyotir Lings. The idol of Omkareshwar Mahadev is consecrated in the sanctum above the Maha Kal. The images of Ganesh Ji, Maa Parvati and Bhagwan Kartikey are installed in the west, north and east of the sanctum sanctorum. To the south is the image of Nandi, the carrier of Bhagwan Shiv and representation of Dharm-religion. The idol of Nagchandreshwar on the third storey is open for darshan only on the day of Nag Panchami. The temple has five levels, one of which is underground. The temple itself is located in a spacious courtyard surrounded by massive walls near a lake. The Shikhar or the spire is adorned with sculptural finery. Brass lamps light the way to the underground sanctum. It is believed that Prasad (holy offering) offered here to the deity can be re-offered unlike all other shrines. On the day of Maha Shiv Ratri, a huge fair is held near the temple and worship goes on through the night.
In the precincts of the Mahakaleshwar temple is Shri Swapaneshwar Mahadev temple, where devotees pray to Bhagwan Shiv as Maha Kaal, to realise the most important dreams of their lives. Bhagwan Sada Shiv-Maha Dev is so empathetic, benevolent and easy to please that devotees are sure to be granted the boons, they wish for with a pure heart in this temple. Bhagwan Shiv is known as Bhole Baba as well, due to his nature of being pleased easily with the devotees. Here Maha Dev is Swapaneshwar and Maa Shakti is Swapaneshwari.
Maha Kal-SHIV is the distinctive presiding deity of Ujjain. Bhagwan killed the demon-Rakshas called Tripur. Maha Kal literally means the Ultimate destroyer-Supreme deity of death. Kal stands for death-end and time. Ujjain has been and still is a seat of astrology and Indian astronomy, having a Nav Grah-Nine Planet temple and an observatory.
The Ling in this temple is also called Dakshinamurti, as it is the only one that faces South. The Ling in this temple is also known as Swayambhu-which evolved it self, from the earth, as it derives powers from within, quite unlike the other Lings where the powers are manifested by mantras or hymns. Deriving The grandeur of Maha Kaleshwar is indescribable.
Chandr Sen, the king of Ujjain was not only a scholar, but also a staunch devotee of Bhagwan Shiv. Once his friend Maheshwari’s follower Mani Bhadr gave him a beautiful gem stone called Soundary Chintamani. The stone was so bright, glittering and beautiful that when Chandr Sen wore it round his neck, he looked even more glorious than the celestial demigods. It made the demigods feel jealous. Once, some kings went and asked Chandr Sen to part with the jewel and Chandr Sen promptly refused to oblige. This angered the kings, who in turn attacked Chandra Sen’s kingdom. Chandr Sen realized that he was surrounded by the enemy. He sought help of Maha Kal. Bhagwan Shiv was pleased with his prayers and the trouble passed away.
Just then, by chance, a shepherd woman who had suddenly became a widow, wandered near Maha Kal, carrying her son with her. The illiterate boy saw the king performing Puja in front of the Shiv Ling. He too installed a rounded stone as Maha Kal in his house and started worshiping it. The boy became so engrossed in prayer and chanting, that he even forgot all about food. When his mother went to call him, a number of times he had no affect on him. He was silently praying. Angered by this, the mother who was still bound by worldly love, threw away the Shiv Ling. She destroyed every thing pertaining to worship-prayers. The boy was very sad at what his mother had done. He started to pray to Shiv with his entire concentration. Bhagwan Shiv was mobilised by the devotion of the small child. He came running to help the child. This stone Shiv Ling which was installed by boy, who was the son of a cowherd soon became adorned with gemstones and turned into a Jyotir Ling. After singing in praise of Bhagwan Shiv, when the boy returned to his house, he was amazed to find a beautiful palatial home instead. Thus, with the grace and blessings of Bhagwan Shiv, the boy became rich and led a very happy life. He was blessed that Almighty Bhagwan Shri Krashn will take incarnation in his clan to reduce the weight of earth.
ORIGIN OF MAHA KAL ::
(1). गोप-यादव वंशी बालक द्वारा शिव आराधना :: उज्जयिनी में राजा चंद्रसेन का राज्य करते थे। वे भगवान् शिव के परम भक्त थे। शिवगणों में मुख्य मणिभद्र नामक गण उनका मित्र था। एक बार मणिभद्र ने राजा चंद्रसेन को एक अत्यंत तेजोमय चिंतामणि प्रदान की। चंद्रसेन ने इसे गले में धारण किया तो उसका प्रभामण्डल तो जगमगा ही उठा, साथ ही दूरस्थ देशों में उनकी यश-कीर्ति बढ़ने लगी। उस मणि को प्राप्त करने के लिए दूसरे राजाओं ने प्रयास आरम्भ कर दिए। कुछ ने प्रत्यक्षतः माँग की तो कुछ ने विनती की। कुछ ताकत के बल से उसे प्राप्त करने को कटिबद्ध हो गए।
चूँकि वह मणि राजा की अत्यंत प्रिय वस्तु थी, अतः राजा ने वह मणि किसी को नहीं दी। अन्ततः उस पर मणि लालायित राजाओं ने आक्रमण कर दिया। शिव भक्त चंद्रसेन भगवान् महाकाल की शरण में जाकर ध्यानमग्न हो गया। जब चंद्रसेन समाधिस्थ थे, तब वहाँ विधवा गोपी अपने पाँच वर्ष बालक को साथ लेकर दर्शन हेतु आई। राजा को ध्यानमग्न देखकर वह बालक भी शिव की पूजा हेतु प्रेरित हुआ। वह कहीं से एक पाषाण ले आया और अपने घर के एकान्त स्थल में बैठकर भक्तिभाव से शिवलिंग की पूजा करने लगा।
कुछ देर पश्चात उसकी माता ने भोजन के लिए उसे बुलाया, किन्तु वह नहीं आया। फिर बुलाया, वह फिर नहीं आया। माता स्वयं बुलाने आई तो उसने देखा बालक ध्यानमग्न बैठा है और उसकी आवाज सुन नहीं रहा है। तब क्रुद्ध होकर माता ने उस बालक को पीटना शुरू कर दिया और समस्त पूजन-सामग्री उठाकर फेंक दी। ध्यान से मुक्त होकर बालक चेतना में आया तो उसे अपनी पूजा को नष्ट देखकर बहुत दुख हुआ। अचानक उसकी व्यथा की गहराई से चमत्कार हुआ। भगवान् शिव की कृपा से वहाँ एक सुन्दर मन्दिर प्रकट हो गया। मन्दिर के मध्य में दिव्य शिवलिंग विराजमान था एवं बालक द्वारा सज्जित पूजा सामग्री यथावत थी। उसकी माता की तंद्रा भंग हुई तो वह भी आश्चर्यचकित हो गई। राजा चंद्रसेन को जब भगवान् शिव की अनन्य कृपा से घटित इस घटना की जानकारी मिली तो वह भी उस शिवभक्त बालक से मिलने पहुँचे। अन्य राजा जो मणि हेतु युद्ध पर उतारू थे, वे भी वहाँ पधारे। सभी ने राजा चंद्रसेन से अपने अपराध की क्षमा माँगी और सब मिलकर भगवान् महाकाल का पूजा-अर्चना करने लगे। तभी वहाँ रामभक्त श्री हनुमान जी महाराज वहाँ उपस्थित हुए और उन्होंने गोप-बालक को गोद में बैठाकर सभी राजाओं और उपस्थित जनसमुदाय को संबोधित किया :-
ऋते शिवं नान्यतमा गतिरस्ति शरीरिणाम्।
एवं गोप सुतो दिष्टया शिवपूजां विलोक्य च॥
अमन्त्रेणापि सम्पूज्य शिवं शिवम् वाप्तवान्। एष भक्तवरः शम्भोर्गोपानां कीर्तिवर्द्धनः इह भुक्तवा खिलान् भोगानन्ते मोक्षमवाप्स्यति॥ अस्य वंशेऽष्टमभावी नंदो नाम महायशाः। प्राप्स्यते तस्यस पुत्रत्वं कृष्णो नारायणः स्वयम्॥
ENLARGE THIS IMAGE TO SEE SOMEONE INVISIBLE PERFORMING POOJA AT 2.45 AM MIDNIGHT AT MAHA KAL-UJJAIN TEMPLE
शिव के अतिरिक्त प्राणियों की कोई गति नहीं है। इस गोप (यादव वंशी) बालक ने अन्यत्र शिव पूजा को मात्र देखकर ही, बिना किसी मंत्र अथवा विधि-विधान के शिव आराधना कर शिवत्व-सर्वविध, मंगल को प्राप्त किया है। यह शिव का परम श्रेष्ठ भक्त समस्त गोपजनों की कीर्ति बढ़ाने वाला है। इस लोक में यह अखिल अनन्त सुखों को प्राप्त करेगा व मृत्योपरांत मोक्ष को प्राप्त होगा। इसी के वंश का आठवाँ पुरुष महायशस्वी नंद होगा, जिसके पुत्र के रूप में स्वयं नारायण श्री कृष्ण नाम से प्रतिष्ठित होंगे। भगवान् महाकाल तब ही से उज्जयिनी में स्वयं विराजमान हैं।The ruler of Ujjain called Chandr Sen, was a pious devotee of Bhagwan Shiv and worshipped him all the time. One day, a farmer's boy named Shridhar was walking on the grounds of the palace and heard the King chant the Bhagwan's name and rushed to the temple to start praying with him. However, the guards removed him by force and sent him to the outskirts of the city near the river Kshipra. Rivals of Ujjain, primarily King Ripu Daman and King Singhadity of the neighbouring kingdoms decided to attack the Kingdom and take over its treasures around this time. Hearing this, Shridhar started to pray and the news spread to a priest named Vraddhi. He was shocked to hear this and upon the urgent pleas of his sons, started to pray to Bhagwan Shiv at the river Kshipra. The Kings chose to attack with the help of the powerful demon Dushan, who was blessed by Brahma Ji to be invisible. They plundered the city and attacked all the devotees of Bhagwan Shiv.
Upon hearing the pleas of His helpless devotees, Bhagwan Shiv appeared in his Maha Kal form and destroyed the enemies of King Chandr Sen. Upon the request of his devotees Shridhar and Vraddhi, Bhagwan Shiv agreed to reside in the city and become the chief deity of the Kingdom and take care of it against its enemies and to protect all his devotees. From that day on, Bhagwan Shiv resided with his aura as Maha Kal in the Maha Kal Shiv Ling that was formed of its own due to the powers of Bhagwan Shiv and his consort, Maa Bhagwati Parvati. Bhagwan Shiv also blessed his devotees and declared that people who worshipped Him in this form would be free from the fear of death and diseases. Also, they would be granted worldly treasures and be under the protection of Bhagwan Shiv himself.
Bhagwan Shiv also blessed his devotees and declared that people who worshipped Him in this form would be free from the fear of death and diseases. Also, they would be granted worldly treasures and be under the protection of Bhagwan Shiv himself.
Once there lived a Brahman in Avanti who was an ardent devotee of Bhagwan Shiv. He had four sons and the family worshipped Bhagwan Shiv every day.
There lived a demon named Dushan some where around their home in a hill named Ratan Mala. Demon Dushan hated all forms of Shiv and Vaedic worship. He went around killing people who worshipped Bhagwan Shiv. Soon Dushan came to know about the family in Avanti Chakr Nagri or Chakr Dhara that worshipped Bhagwan Shiv.
Soon, the demon arrived with his army and attacked the city. But the family continued to worship Bhagwan Shiv in the form of a Shiv Ling.
Finally, the demon and soldiers reached the home of the Brahmn and started hurling weapons. The demon broke open the door and advanced towards the Shiv Ling by raising a sword.
Suddenly, there was a deafening sound and there appeared a dreadful form beyond explanation before the Shiv Ling. A single glance by the Maha Kal form of Bhagwan Shiv burnt the demon and his army into ashes. Uncontrollable and unsatisfied, the form of Bhagwan Shiv gave a huge roar; the entire universe trembled in fear.
The family was but delighted to see Bhagwan Shiv and continued chanting his glory and prayers. Before his true devotees. Bhagwan Shiv is always the Bhole Nath-one who can be influenced easily by the devotees. Hearing the prayers of his devotees, His anger subsided. But the family who was aware of the dangers of the world realised that the form of Bhagwan Shiv as Maha Kal was essential for peace and prosperity and asked him to reside in this form at Ujjain. Since then Bhagwan Shiv remains at Ujjain Maha Kal Temple as Maha Kal-the one with the power to annihilate all living and non-living. Maha Kal stands for superior to Yam Raj-Dharm Raj the deity-demigod of death & religion-virtues.
The temple complex was destroyed by Sultan Shas-ud-din Iltutmish during his raid of Ujjain in 1,234-5. The present structure was built by the Maratha general Ran Ji Scindhia in 1,736. Further developments and management was done by other members of his dynasty, including Mahadji Scindhia (1,730–12 February 1,794) and Daulat Rao Scindhia's wife Baija Bai. (1,827–1,863). During the reign of Jayaji Rao Scindhia (until 1,886), major programs of the then Gwalior State used to be held at this temple.
After Independence the Dev Sthan Trust was replaced by the municipal corporation of Ujjain. Nowadays, it is under the collectorate office of Ujjain district.
BHASM ARTI :: It commences just before the break of dawn to awaken the deity. It happens just once every day. The ceremony comprises of the anointment of the idol with sacred ash that is brought from the ghats-cremation grounds. This is applied on the Shiv Ling before the commencement of prayers.
STRUCTURE :: The temple constitutes of five-storey building that has the presence of the Ganesh Ji, Maa Parvati, Bhagwan Kartikey, Nandi Maharaj and Nagchandreshwar. This is opened only on the Nag Panchami Day. The temple's architecture deserve admiration having beautifully carved pillars located in the courtyard. The walls in hallways have unique pieces of sculptures that are remnants of a particular era. The floors, balconies and roofs in the shrine have adopted the Rajput style of architectures.
The best time to visit the Mahakaleshwar Temple is during the festival of Maha Shiv Ratri that falls between the months of February and March. On this day, the temple resonates with the scared chants of Om Namh Shivay & Om Shivay Namh.
Ujjain does not have an airport of its own. Closest airport to reach this holy city is Indore. There after one can travel to the old city by the SH-27 & 18 highways.
A number of buses commute on the state highway. This is probably the best mode of transport owing to the good condition of the roads.
It is well connected by rail routes. It has four stations, namely Ujjain Junction, Vikram Nagar, Chintaman and Pingleshwar.
It is surrounded by a number of historical monuments but the Mahakaleshwar Temple continues to remain the life line of the city. The temple serves as an unbreakable link between modern India and the ancient Hindu customs.
उज्जयिनी :: आदि काल से पृथ्वी की शोभा बढ़ाता हुआ चक्रधारा अथवा चक्रा नगरी उज्जयिनी नाम से जानी जाती है। इसके अन्य नाम अवन्तिका, कनकश्रृंगा, कुशस्थली, पद्मावती, अमरावती, भोगवती, हिरण्यवती, कुशस्थली, कुमुद्वती तथा प्रतिकल्पा आदि भी हैं।
उज्जयिनी अत्यन्त प्राचीन शिक्षा स्थल भी था, जहाँ गुरुकुलों में कला एवं विज्ञान तथा वेदों का ज्ञान दिया जाता था। भगवान् श्री कृष्ण ने अपने भ्राता बलराम तथा सखा सुदामा के साथ यहीं पर गुरु संदीपनी के आश्रम-गुरुकुल में अध्ययन किया था। यह हिन्दुओं का काल-निर्धारण का केंद्र भी है। उत्तर में 23 डिग्री 11 मिनट तथा पूर्व में 73 डिग्री 45 मिनट पर स्थित होने के कारण खगोलीय ग्रन्थ के अनुसार मुख्य भूमध्य रेखा अथवा शून्य देशांतर रेखा उज्जैन से गुजरती है, इसलिए समय की गणना उज्जैन में सूर्योदय के द्वारा की जाती है और तदनुसार, कैलेण्डर वर्ष के आरंभ ‘मकर संक्रांति’ तथा युग के प्रारंभ की गणना इससे की जाती है।
यहीं पर भगवान् शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक तथा अति पावन श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग विद्यमान है। इस नगरी का पौराणिक तथा धार्मिक एवं आध्यात्मिक महत्व है। जहाँ महाकाल स्थित है वहीँ पर पृथ्वी की नाभि-केंद्र है अर्थात धरा का केंद्र धारा नगरी, चक्र धारा है। उज्जैन की पावन धरा पर ही माँ शक्ति के 51 शक्तिपीठों में से एक माँ हरसिद्धि का मन्दिर भी स्थित है।
यहाँ के सैकड़ों मन्दिरों की स्वर्ण चोटियों को देखकर इस नगर को प्राचीन समय में स्वर्ण श्रंगा भी कहा जाता था। मोक्षदायक सप्तपुरियों में से एक इस उज्जैन नगर में 7 सागर तीर्थ, 28 तीर्थ, 84 सिद्धलिंग, 30 शिवलिंग, अष्ट (8) भैरव, एकादश (11) रुद्रस्थान, सैकड़ों देवताओं के मंदिर, जलकुंड तथा स्मारक है। ऐसा प्रतीत होता है कि 33 करोड़ देवी देवताओं की इन्द्रपुरी इस उज्जैन नगर में बसी हुई है।
इतिहास :: मध्यप्रदेश के मालवा में उत्तरवाहिनी क्षिप्रा तट पर भारत की प्राचीनतम, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक नगरी उज्जयिनी अवस्थित है। प्रत्येक कल्प में उज्जयिनी के नाम बदलकर रखे गये थे। श्वेतवराह कल्प में इसका नाम ‘उज्जयिनी’ है।
भागवद के स्कन्द में भगवान् श्री कृष्ण और बलराम दोनों भ्राताओं को विद्यार्जन हेतु अवन्तिका में गुरुदेव सान्दीपनि ऋषि के आश्रम में आने की कथा कही गई है। श्री राम चरित, भगवान् श्री कृष्ण चरित से पूर्व 17,50,000 वर्ष पूर्व घटित हुआ। रामायण के किष्किंधाकाण्ड काण्ड में भी माता सीता के अन्वेषणार्थ वानर दल को रवाना करते समय सुग्रीव ने अवन्ति देश का उल्लेख किया है।
प्राचीन नगरी वर्तमान उज्जैन से उत्तर में थी जो आज गढ़कालिका नामक क्षेत्र से विख्यात है। प्राचीन भारत की समय गणना का केन्द्र बिन्दु होने के कारण ही काल के आराध्य महाकाल हैं जो द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक है।
उज्जयिनी क्षिप्रा नदी से सिंचित क्षेत्र है। उपजाऊ काली मिट्टी का क्षेत्र और मालवा के पठार का सबसे ऊँचा नगर होने का इसे गौरव प्राप्त है। इसे नवतेरी नगर तथा शिवपुरी नाम से भी जाना जाता है। उज्जयिनी के 9 कोस चौड़ाई तथा 13 कोस लम्बाई के विस्तार से नवतेरी नगर नाम की उत्पत्ति मानी गई है।
उज्जयिनी जिस जनपद में थी, उसका नाम अवन्ति था। अवन्ति का राजा चण्ड प्रद्योत उज्जयिनी में निवास करता था।
इस नगर के अधिष्ठाता देव महादेव ने त्रिपुरी के शक्तिशाली राक्षस अंधकासुर (भगवान् शिव व माता पार्वती का पुत्र, पहले दुराचारी राजा वेन तथा बाद में भगवान् शिव का गण भृंगी) को पराजित कर विजय प्राप्त की। अतः स्मृति स्वरूप उज्जयिनी नाम रखा गया।[स्कन्द पुराण 28वाँ अध्याय]
अवन्तिका :: उज्जयिनी अवन्ति जनपद की महत्वपूर्ण नगरी थी; जो कालान्तर में राजधानी बन गई। अवन्तिका नाम देवराज की अवन्तिपुरी से आया। मृच्छकटिकम्, दशकुमारचरितम् आदि में अवन्तिका, अवन्तिपुरी का उल्लेख है। स्कन्द पुराण में उल्लेख है कि अवन्तिका इसलिए कहा गया है कि यह नगरी प्रतिकल्प की समाप्ति पर देवताओं के पवित्र स्थल, औषधि व प्राणियों की रक्षा करती है।
कनकश्रृंगा :: नारदीय व स्कन्द पुराण में यह कनकश्रृंगा के नाम से प्रसिद्ध है। इस नाम के सम्बन्ध में कहा जाता है कि उज्जयिनी के समीप कनकगिरी है। बाणभट्ट ने कादम्बरी में उज्जयिनी वर्णन के समय सम्भवतः इसी कारण इसे कनकश्रृंगा कहा है।
कुशस्थली :: कुशस्थली उज्जैन का अन्य नाम है। इस नाम का उल्लेख नारदीय व स्कन्द पुराण में मिलता है। स्कन्द पुराण में उल्लेख है कि यहाँ ब्रह्मा ने तर्पण किया था। कहते हैं ब्रह्मा ने कुशघास के तृण यहाँ फेंके थे। अतः इसका नाम कुश स्थली या हेम श्रृंगा हुआ।
पद्मावती :: उज्जयिनी के अधिपति का वर्णन पद्मावती नगरी के राजा के रूप में किया है। पद्मावती नाम धन सम्पदा को दर्शाता है। स्कन्द पुराण में लक्ष्मी के निवास के कारण पद्मावती कहा है। कालिदास ने भी यहाँ पर मणिमाणिक्यों की प्रशंसा की है। उज्जयिनी पद्मराग मणियों के कारण प्रसिद्ध थी। यहाँ के उन्नत व्यापार का वर्णन किया गया है।
कुमुद्वती :: पुष्प करण्डक नदी, सरोवरों, उद्यानों से परिपूर्ण उज्जयिनी हमेशा कुमुदिनी व कमल खिलते थे; अतः स्कन्द पुराण में कुमुद्वती कहा है। कुमुदिनी के उल्लेख के रूप में बाणभट्ट ने कादम्बरी में सुन्दर उद्यानों जलाशयों का उल्लेख किया है। जिनमें कमल खिले रहते थे।
अमरावती :: अमरावती नाम देवता वास तथा सुन्दर रमणियों के कारण हुआ। पद्मप्राभृतक व पादताडितक साहित्य में इस नगर का अन्य देशों के साथ सम्बन्ध होने से इसे सार्वभौम नगर कहा जाता है। इसी कारण से उज्जयिनी को अमरावती भी कहा है।
प्रतिकल्पा :: यह नगरी अपने पुरातन इतिहास के साथ जीवित होने के कारण स्कन्दपुराण में प्रतिकल्पा के नाम से भी जानी गई है। सोमदेव तथा कथासरित्सागर में इन चार युगों में क्रमशः पद्मावती, भोगवती, हिरण्यवती व उज्जयिनी नाम बताये हैं।
वर्तमान उज्जयिनी 75°5° पूर्व देशान्तर व 23°11° उत्तर अक्षांश पर क्षिप्रा नदी के दाहिने तट पर स्थित है। उज्जयिनी चम्बल की सहायक नदी क्षिप्रा के पूर्वी तट पर समुद्रतल से 1,698 फीट की ऊँचाई पर स्थित है पुरातत्व नगरी वर्तमान उज्जैन से 2 मील उत्तर की ओर थी। इसके सम्बंध में यह कहा जाता है कि इसे भूकम्प तथा क्षिप्रा की असाधारण बाढ़ ने नष्ट कर दिया था। जयनगरी उज्जयिनी भारतीय इतिहास को गौरवमय बनाने वाले प्रभावशाली राजनैतिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र मे से एक है। बनारस तथा मथुरा के समान शाश्वत नगरी होने का सम्मान इसे प्राप्त है।
प्रद्योत एवं वासवदत्ता, अशोक तथा मुंज, रूद्रदमन, नवसाहसांक और भोज, सवाई जयसिंह तथा महादजी शिन्दे की स्मृतियों के प्रभामण्डल से उज्जयिनी दीप्तिमान है। यह विक्रमादित्य की राजधानी थी, जिसे पारम्परिक विक्रम संवत् से सम्बद्ध करती है। इसी में उन सभ्यताओं का आयोजन हुआ था जिनमें कालिदास, उमर एवं पद्मगुप्त ने कीर्ति प्राप्त की थी। भारतीय ज्योतिर्विदों की प्रथम मध्याह्न रेखा का यह स्थान है। विक्रमादित्य की यह राजधानी सदा से भारत की सातपवित्र नगरियों में गिनी जाती है।
अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, कांची, अवन्तिका।
पुरी, द्वारावती श्चैव सप्तैता मोक्षदायिका॥
आकाश में तारकेश्वर, पाताल में हाटकेश्वर और मृत्युलोक में महाकालेश्वर है जो उज्जैन ही में विराजमान हैं। महाकालेश्वर प्रसिद्ध द्वादश ज्योतिर्लिंगों में एक है। इसकी पावनता स्कन्द पुराण के आवन्त्य खण्ड में इस प्रकार वर्णित किया है :-
तस्माद्धिकरं क्षेत्रं करुणां वै सुरोत्माः।
तस्मात्दशगुणं मये प्रयागं तीर्थ मुत्तमम्॥
तस्मात्दशगुणा काशी काश्या दशगुणा गया।
तस्तात्दगुणा प्रोक्ता कुशस्थली च पुण्यदा॥
वर्तमान उज्जैन नगरी नागाधिराज विन्ध्य के मनोरम अंचल में पुण्य सलिला ऐतिहासिक एवं धार्मिक क्षिप्रा नदी के पूर्व तट पर अवस्थित है। यहाँ का जलवायु अत्यन्त मधुर समशीतोष्ण है। उज्जैन की प्रधान बोली मालवी है, जो अवन्ति से उत्पन्न है। हिन्दी और मराठी का यहाँ पर्याप्त प्रचार है। व्यापार उद्योग इस नगरी में विविध हैं अतीत में रूई-कपास का यह केन्द्र था। कपड़ा मिलें जिनिंग-प्रेस, फैक्ट्री, तेल, आटा कपड़ा, होजरी आदि बड़े-बड़े कारखाने थे। उज्जैन भारत के मध्य भाग में है, अतएव वह इस विशाल राष्ट्र के हृदय स्थान पर है। जिस प्रकार भौगौलिक दृष्टि से अवन्ति भारत के देश के मध्यम में है, उसी प्रकार मानव शरीर में अध्यात्मिक देश-प्रतिष्ठा की योजना के अनुसार वह नाभिस्थान (शरीर-मध्य) में प्रतिष्ठित मानी गई है।
उज्जैन का वैज्ञानिक जगत में भी स्वतन्त्र महत्व है। जब उत्तर ध्रुव की स्थिति पर 21 मार्च से प्रायः 6 मास का दिन होने लगता है तब 6 मास के तीन माह होने के पश्चात सूर्य दक्षिण क्षितिज से बहुत दूर हो जाता है। उस समय सूर्य ठीक उज्जैन के मस्तक पर होता है। उज्जैन का अक्षांश व सूर्य की परम क्रांति दोनों ही 24 अक्षांश पर मानी गई। सूर्य के ठीक नीचे की स्थिति उज्जयिनी के अलावा संसार के किसी नगर की नहीं रही।
प्राचीन काल से ही उज्जयिनी को भौगोलिक व प्राकृतिक दृष्टि से महत्व प्राप्त होता था। खगोल एवं भौगोलिक गणना के अनुसार लंका सुमेरु पर्वत जो मध्य देशान्तर रेखा, वह उज्जैन के ऊपर से होकर गई है। भारत की काल गणना का माध्यम उज्जैन की रहा है। इसी कारण प्राचीन भारत में उज्जयिनी की ग्रीनविच माना गया, जिस प्रकार खगोलशास्त्र में उज्जयिनी सूर्य के मस्तक पर ठीक नीचे आता है। उसी प्रकार भौगोलिक स्थिति में भी सारे देश का मध्यवर्ती केन्द्र बिन्दु उज्जैन है। इसलिए उज्जयिनी को देश का नाभि क्षेत्र कहा गया है।
नगर के बाह्य प्रदेश में यहाँ महाकाल (शिव) और चिरसंगिनी, मंगल चण्डी (दुर्गा का रूप विशेष) का प्रसिद्ध मंदिर। ये मंगल चण्डी शक्ति संगम तंत्र में इस प्रकार उल्लिखित अविन्त देश की कालिका ही होगी :-
उज्जयिन्यां कर्कराजः मांगल्यः कपिलांवरः।
भैरवः सिद्धिः साक्षादेवी मंगलचण्डिका।
अवन्ती संज्ञको देशः कालिका तत्र तिष्ठति।
प्राचीन नगरी की भूमि पर प्राचीनता आज भी दिखाई देती है और यहाँ पुरातत्व की असँख्य वस्तुएँ, रत्न, अक्ष, मुद्रा, आभूषण तथा सिक्के प्राप्त हुए हैं। वर्तमान नगर आयताकार है और कभी गोल शिखरों वाले प्रस्तर प्रकार से परिवेष्ठित था जिसको मालवा के सुल्तानों के द्वारा ईस्वी 15वीं शताब्दी में निर्मित होना बताया जाता है; किन्तु मालकम के समय में ही इस प्राचीर के अनेक भाग ध्वस्त हो गये थे। 1,810 ई. में राजधानी का स्थान उज्जैन से परिवर्तन होकर ग्वालियर के समीप लश्कर हो जाने के कारण प्रसिद्ध शिन्दे राजवंश ग्वालियर चला गया। सबसे अधिक महत्वपूर्ण भाग जयपुर के महाराज सवाई जयसिंह द्वारा स्थापित जयसिंह पुरा है, जो 1,733-1,743 तक मालवा के शासक थे। शिया मुसलमानों के एक भाग बोहराओं के नाम पर बोहरा बाखल तथा कोट या किला जो सम्भवतः संस्कृत साहित्य में प्रसिद्ध महाकाल वन के स्थल का संकेत करता है। जयसिंह पुरा में वैज्ञानिक अध्ययन में रूचि रखने वाले जयपुर के सवाई महाराज द्वारा निर्मित वेधशाला है।
पुरातत्वीय परिक्षेत्र :: अभी तक हुए उत्खनन से प्राप्त सामग्री तथा मुद्राओं को वर्णित किया गया है, जिनके द्वारा परिक्षेत्र की सांस्कृतिक गरिमा सम्बन्धी साहित्यिक उल्लेखों की सम्पुष्टि की गयी है। उज्जयिनी भारत के प्राचीनतम नगरों में से एक उज्जयिनी परिक्षेत्र के सांस्कृतिक स्वरूप की सम्पुष्टि हेतु परिक्षेत्र में है। युगदृष्टा ऋषियों के काल में इस प्रकार तथा कंगूरे वर्तमान थे। महाकाल के प्रांगण, कोटितीर्थ-उज्जयिनी, नर्मदा, दक्षिण सिंधु, चर्मण्वती तथा पश्चिम भारत के अन्य तीर्थस्थलों से इसका घनिष्ठ सम्बन्ध है।
महाकालं ततो गच्छेत् नियतो नियताशनः।
कोटितीर्थमुपस्पृश्य ध्यमेधफलं लभेत॥
कालिदास, बाण भट्ट तथा सोमदेव के ग्रन्थों में उज्जयिनी के महाकाल का महत्वपूर्ण उल्लेख है। रामायण अवन्ति से परिचित है (लगभग 17,50, 000 वर्ष), जो उज्जयिनी के समीप के प्रदेश का नाम ही नहीं है, वरन स्वयं नगरी के नाम के रूप में उल्लिखित है।
हिन्दु धर्म में तीर्थ यात्रा के लिए चार प्रमुख धाम चार दिशाओं में स्थित होना वर्णित है। उत्तर में बद्रीनाथ पूर्व में जगन्नाथपुरी, दक्षिण में रामेश्वर व पश्चिम में द्वारकापुरी है। किन्तु इन सब तीर्थों में उज्जयिनी प्रमुख माना गया है और इसी कारण यह महातीर्थ कहलाता है। इसका कारण यह है कि यह भारत वर्ष के मध्य अर्थात नाभि स्थान पर स्थित है। भारत में तीर्थ यात्रा का प्रारम्भ तथा समाप्ति उज्जैन के महातीर्थ से ही होती है। इस नाभि देश का स्वामी महाकालेश्वर को बताया गया है। जहाँ मानव लोक के स्वामी महाकाल हो, वह देश महान है।
उज्जैन के भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग नई दिल्ली के अधीन स्मारक :- (1). वैश्य टेकरी (सन्दर्भ: विक्रम स्मृति ग्रंथ) और (2). कुम्हार टेकरी।
म.प्र.पुरातत्व विभाग म.प्र. शासन के अधीन स्मारक :- (1). चौबीस खम्बा माता मन्दिर, (2). विष्णु चतुष्टिका, (3). वीर दुर्गादास की छत्री और (4). तिलकेश्वर महादेव मन्दिर।
RAMESHWARAM श्री सेतुबन्ध रामेश्वर :: इस ज्योतिर्लिङ्ग की स्थापना मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्री रामचन्द्र ने की थी।
(1). जब भगवान् श्री रामचन्द्र लङ्का पर चढ़ाई करने के लिये जा रहे थे तब इसी स्थान पर उन्होंने समुद्र तट की बालुका से शिवलिङ्ग बनाकर उसका पूजन किया था। ऐसा भी कहा जाता है कि इस स्थान पर ठहरकर भगवान् राम जल पी रहे थे कि आकाशवाणी हुई कि मेरी पूजा किये बिना ही जल पीते हो? इस वाणी को सुनकर भगवान् श्री राम ने बालुका से शिवलिङ्ग बनाकर उसकी पूजा की तथा भगवान् शिव से रावण पर विजय प्राप्त करने का वर माँगा। उन्होंने प्रसन्नता के साथ यह वर भगवान् श्री राम को दे दिया। भगवान् शिव ने लोक कल्याणार्थ ज्योतिर्लिंङ्ग के रूप में वहाँ निवास करने की सबकी प्रार्थना भी स्वीकार कर ली। तभी से यह ज्योतिर्लिंङ्ग यहाँ विराजमान है।
(2). जब भगवान् श्री राम रावण का वध करके लौट रहे थे, तब उन्होंने अपना पहला पड़ाव समुद्र के इस पार गन्धमादन पर्वत पर डाला था। वहाँ बहुत से ऋषि और मुनिगण उनके दर्शन के लिये उनके पास आये। उन आदर सत्कार करते हुए भगवान् राम ने उनसे कहा कि पुलस्त्य के वंशज रावण का वध करने के कारण मुझ पर ब्रह्म हत्या का पाप लग गया है, आप लोग मुझे इससे निवृत्ति का कोई उपाय बताइये यह बात सुनकर वहाँ उपस्थित सारे ऋषियों मुनियों ने एक स्वर से कहा कि आप यहाँ शिवलिङ्ग की स्थापना कीजिये। इससे आप ब्रह्म हत्या के पापसे छुटकारा पा जायेंगे।
भगवान् श्रीराम ने उनकी यह बात स्वीकार कर हनुमान जी को कैलास पर्वत जाकर वहाँ से शिवलिङ्ग लाने का आदेश दिया। हनुमान जी तत्काल ही वहाँ जा पहुँचे, किन्तु उन्हें उस समय वहाँ भगवान् शिव के दर्शन नहीं हुए। अतः वे उनका दर्शन प्राप्त करने के लिये वहीं बैठकर तपस्या करने लगे। कुछ काल पश्चात् भगवान् शिव के दर्शन प्राप्त कर हनुमान जी शिवलिङ्ग लेकर लौटे किन्तु तब तक शुभ मुहूर्त्त बीत जाने की आशंका से यहाँ माता सीता द्वारा बालू का लिङ्ग स्थापन कराया जा चुका था।
हनुमान जी को यह सब देखकर बहुत दुःख हुआ। उन्होंने अपनी व्यथा भगवान् श्री राम से कह सुनायी। भगवान् श्री राम द्वारा पहले ही लिङ्ग स्थापित किये जाने का कारण हनुमान जी को बताते हुए कहा कि यदि तुम चाहो तो इस लिङ्ग को यहाँ से उखाड़ कर हटा दो। हनुमान जी अत्यन्त प्रसन्न होकर उस लिङ्ग को उखाड़ने लगे, किन्तु बहुत प्रयत्न करने पर भी वह टस से मस नहीं हुआ। अन्त में उन्होंने उस शिवलिङ्ग को अपनी पूँछ में लपेटकर उखाड़ने का प्रयत्न किया, फिर भी वह ज्यों का त्यों अडिग बना रहा। उलटे हनुमान जी ही धक्का खाकर एक कोस दूर मूर्च्छित होकर जा गिरे। उनके शरीर से रक्त बहने लगा। यह देख कर सभी लोग अत्यन्त व्याकुल हो उठे। माता सीता पुत्र से भी प्यारे अपने हनुमान् जी के शरीर पर हाथ फेरती हुई विलाप करने लगीं। मूर्च्छा दूर होने पर हनुमान जी ने भगवान् श्री राम को परम ब्रह्म के रूप में सामने देखा। भगवान् श्री राम ने उन्हें भगवान् भोले नाथ की महिमा बताकर उनका प्रबोध किया। हनुमान जी द्वारा लाये गये लिङ्ग की स्थापना भी वहीं पास में करवा दी।
स्कन्द पुराण में इसकी महिमा विस्तार से वर्णित है।
The consecration of the temple of Bhagwan Rameshwar was done by none other than Bhagwan Shri Ram himself and thus this name. It is situated in a large island surrounded by sea in the southern side of India.
यह एक पवित्र तीर्थ है। यह तमिल नाडु के रामनाथपुरम जिले में स्थित है। यह तीर्थ हिन्दुओं के चार धामों में से एक है। इसके अलावा यहाँ स्थापित शिवलिंग बारह द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक है। भारत के उत्तर में काशी की जो मान्यता है, वही दक्षिण में रामेश्वरम् की है। रामेश्वरम चेन्नई से लगभग सवा चार सौ मील दक्षिण-पूर्व में स्थित है। यह हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी से चारों ओर से घिरा हुआ एक सुन्दर शंख के आकार का द्वीप है। पहले यह द्वीप भारत की मुख्य भूमि के साथ जुड़ा हुआ था, परन्तु बाद में सागर की लहरों ने इस मिलाने वाली कड़ी को काट डाला, जिससे वह चारों ओर पानी से घिरकर टापू बन गया। यहाँ भगवान राम ने लंका पर चढ़ाई करने से पूर्व एक पत्थरों के सेतु का निर्माण करवाया था, जिस पर चढ़कर वानर सेना लंका पहुँची व वहाँ विजय पाई। बाद में भगवान् श्री राम ने विभीषण के अनुरोध पर धनुष कोटि नामक स्थान पर यह सेतु तोड़ दिया था। आज भी इस 30 मील (48 कि.मी) लम्बे आदि-सेतु के अवशेष सागर में दिखाई देते हैं। यहाँ के मन्दिर के तीसरे प्राकार का गलियारा विश्व का सबसे लम्बा गलियारा-रास्ता है।
रामेश्वरम पहुँचने वाला पुल :: जिस स्थान पर यह टापु मुख्य भूमि से जुड़ा हुआ था, वहाँ इस समय ढाई मील चौड़ी एक खाड़ी है। शुरू में इस खाड़ी को नावों से पार किया जाता था। बताया जाता है कि बहुत पहले धनुष्कोटि से मन्नार द्वीप तक पैदल चलकर भी लोग जाते थे। लेकिन 1,480 ई. में एक चक्रवाती तूफान ने इसे तोड़ दिया। बाद में आज से लगभग चार सौ वर्ष पहले कृष्णप्पनायकन नाम के एक राजा ने उस पर पत्थर का बहुत बड़ा पुल बनवाया। अँग्रेजो के आने के बाद उस पुल की जगह पर रेल का पुल बनाने का विचार हुआ। उस समय तक पुराना पत्थर का पुल लहरों की टक्कर से हिलकर टूट चुका था। एक जर्मन इंजीनियर की मदद से उस टूटे पुल का रेल का एक सुन्दर पुल बनवाया गया। इस समय यही पुल रामेश्वरम् को भारत से रेल सेवा द्वारा जोड़ता है। यह पुल पहले बीच में से जहाजों के निकलने के लिए खुला करता था। इस स्थान पर दक्षिण से उत्तर की और हिंद महासागर का पानी बहता दिखाई देता है। उथले सागर एवं संकरे जलडमरू मध्य के कारण समुद्र में लहरे बहुत कम होती है। शान्त बहाव को देखकर यात्रियों को ऐसा लगता है, मानो वह किसी बड़ी नदी को पार कर रहे हों।
रामेश्वरम् से दक्षिण में कन्या कुमारी नामक प्रसिद्ध तीर्थ है। रत्नाकर कहलाने वाली बंगाल की खाडी यहीं पर हिंद महासागर से मिलती है। रामेश्वरम् और सेतु बहुत प्राचीन है। परन्तु रामनाथ का मन्दिर उतना पुराना नहीं है। दक्षिण के कुछ और मन्दिर डेढ़-दो हजार साल पहले के बने है, जबकि रामनाथ के मन्दिर को बने अभी कुल आठ सौ वर्ष से भी कम हुए है। इस मन्दिर के बहुत से भाग पचास-साठ साल पहले के है।
रामेश्वरम का गलियारा विश्व का सबसे लम्बा गलियारा है। यह उत्तर-दक्षिण में 197 मी. एवं पूर्व-पश्चिम 133 मी. है। इसके परकोटे की चौड़ाई 6 मी. तथा ऊँचाई 9 मी. है। मन्दिर के प्रवेश द्वार का गोपुरम 38. 4 मी. ऊँचा है। यह मन्दिर लगभग 6 हेक्टेयर में बना हुआ है।
मन्दिर में विशालाक्षी जी के गर्भ-गृह के निकट ही नौ ज्योतिर्लिंग हैं, जो लंकापति विभीषण द्वारा स्थापित बताए जाते हैं। रामनाथ के मन्दिर में जो ताम्रपट है, उनसे पता चलता है कि 1,173 ई. में श्रीलंका के राजा पराक्रम बाहु ने मूल लिंग वाले गर्भगृह का निर्माण करवाया था। उस मन्दिर में अकेले शिवलिंग की स्थापना की गई थी। देवी की मूर्ति नहीं रखी गई थी, इस कारण वह नि:संगेश्वर का मन्दिर कहलाया। यही मूल मन्दिर आगे चलकर वर्तमान दशा को पहुँचा है।
बाद में पंद्रहवीं शताब्दी में राजा उडैयान सेतुपति और निकटस्थ नागूर निवासी वैश्य ने 1,450 ई. में इसका 78 फीट ऊँचा गोपुरम निर्माण करवाया था। बाद में मदुरई के एक देवी-भक्त ने इसका जीर्णोद्धार करवाया था। सोलहवीं शताब्दी में दक्षिणी भाग के द्वितीय परकोटे की दीवार का निर्माण तिरुमलय सेतुपति ने करवाया था। इनकी व इनके पुत्र की मूर्ति द्वार पर भी विराजमान है। इसी शताब्दी में मदुरई के राजा विश्वनाथ नायक के एक अधीनस्थ राजा उडैयन सेतुपति कट्टत्तेश्वर ने नन्दी मण्डप आदि का निर्माण करवाया। नन्दी मण्डप 22 फीट लम्बा, 12 फीट चौड़ा व 17 फीट ऊँचा है। रामनाथ के मन्दिर के साथ सेतुमाधव का मन्दिर आज से पाँच सौ वर्ष पहले रामनाथपुरम् के राजा उडैयान सेतुपति और एक धनी वैश्य ने मिलकर बनवाया था।
सत्रहवीं शताब्दी में दलवाय सेतुपति ने पूर्वी गोपुरम आरम्भ किया। 18 वीं शताब्दी में रवि विजय सेतुपति ने देवी-देवताओं के शयन-गृह व एक मण्डप बनवाया। बाद में मुत्तु रामलिंग सेतुपति ने बाहरी परकोटे का निर्माण करवाया। 1857–1904 के बीच मध्य देवकोट्टई से एक परिवार ने 126 फीट ऊँचा नौ द्वार सहित पूर्वीगोपुरम निर्माण करवाया। इसी परिवार ने 1,907-1,925 में गर्भ-गृह की मरम्मत करवाई। बाद में इन्होंने 1,947 में महाकुम्भाभिषेक भी करवाया।
रामेश्वरम् का मन्दिर भारतीय निर्माण-कला और शिल्पकला का एक सुन्दर नमूना है। इसके प्रवेश-द्वार चालीस फीट ऊँचा है। इसके प्राकार और मन्दिर के अन्दर सैकड़ौं विशाल खंभें है, जो देखने में एक-जैसे लगते है; परन्तु पास जाकर जरा बारीकी से देखा जाय तो मालूम होगा कि हर खंभे पर बेल-बूटे पर भिन्न-भिन्न कारीगरी है।
रामनाथ की मूर्ति के चारों और परिक्रमा करने के लिए तीन प्राकार बने हुए है। इनमें तीसरा प्राकार सौ साल पहले पूरा हुआ। इस प्राकार की लम्बाई चार सौ फुट से अधिक है। दोनों और पाँच फुट ऊँचा और करीब आठ फुट चौड़ा चबूतरा बना हुआ है। चबूतरों के एक ओर पत्थर के बड़े-बड़े खम्बों की लम्बी कतारे खड़ी हैं। प्राकार के एक सिरे पर खड़े होकर देखने पर ऐसा लगता है, मानों सैकड़ों तोरण-द्वार का स्वागत करने के लिए बनाए गये है। इन खम्बों की अद्भुत कारीगरी देखकर विदेशी भी दंग रह जाते है। यहाँ का गलियारा विश्व का सबसे लम्बा गलियारा है। रामनाथ के मंदिर मन्दिर के चारों और दूर तक कोई पहाड़ नहीं है, जहाँ से पत्थर आसानी से लाये जा सकें। गन्ध मादन पर्वत तो नाम मात्र का है। यह वास्तव में एक टीला है और उसमें से एक विशाल मन्दिर के लिए जरूरी पत्थर नहीं निकल सकते। रामेश्वरम् के मन्दिर में जो कई लाख टन के पत्थर लगे है, वे सब बहुत दूर-दूर से नावों में लादकर लाये गये है। रामनाथ जी के मन्दिर के भीतरी भाग में एक तरह का चिकना काला पत्थर लगा है। कहते है, ये सब पत्थर लंका से लाये गये थे।
रामेश्वरम् के विशाल मन्दिर को बनवाने और उसकी रक्षा करने में रामनाथपुरम् नामक छोटी रियासत के राजाओं का बड़ा हाथ रहा। अब तो यह रियासत तमिल नाडु राज्य में मिल गई हैं। रामनाथपुरम् के राजभवन में एक पुराना काला पत्थर रखा हुआ है। कहा जाता है, यह पत्थर राम ने केवटराज को राजतिलक के समय उसके चिह्न के रूप में दिया था। रामेश्वरम् की यात्रा करने वाले लोग, इस काले पत्थर को देखने के लिए रामनाथपुरम् जाते है। रामनाथ पुरम् रामेश्वरम् से लगभग तैंतीस मील दूर है।
भगवान् श्री राम ने पहले सागर से प्रार्थना की, कार्य सिद्ध ना होने पर धनुष चढ़ाया, तो सागर प्रकट हुए। माता सीता को छुड़ाने के लिए भगवान् श्री राम ने लंका पर चढ़ाई की थी। इस युद्ध में रावण और उसके सब साथी राक्षस मारे गये। रावण भी मारा गया और अन्ततः माता सीता को मुक्त कराकर भगवान् श्री राम वापस लौटे। रावण पुलस्त्य महर्षि का नाती था। चारों वेदों का जानने वाला प्रकाण्ड पण्डित और दसों दिशाओं का ज्ञाता और भगवान् शिव का परम भक्त। इस कारण भगवान् श्री राम को उसे मारने के बाद बड़ा खेद हुआ। ब्रह्मा-हत्या का पाप उन्हें लग गया। इस पाप को धोने के लिए उन्होने रामेश्वरम् में शिवलिंग की स्थापना करने का निश्चय किया। यह निश्चय करने के बाद उन्होंने हनुमान जी महाराज को आज्ञा दी कि काशी जाकर वहाँ से एक शिवलिंग ले आऐं। हनुमान पवन-सुत थे। बड़े वेग से आकाश मार्ग से चल पड़े। लेकिन शिवलिंग की स्थापना की नियत घड़ी पास आ गई। हनुमान का कहीं अता-पता न था। जब सीता जी ने देखा कि हनुमान के लौटने मे देर हो रही है, तो उन्होने समुद्र के किनारे के रेत को मुट्ठी में बाँधकर एक शिवलिंग बना दिया। यह देखकर भगवान् श्री राम बहुत प्रसन्न हुए और नियत समय पर इसी शिवलिंग की स्थापना कर दी। छोटे आकार का सही शिवलिंग रामनाथ कहलाता है। हनुमान जी के आने पर पहले छोटे प्रतिष्ठित छोटे शिवलिंग के पास ही भगवान् श्री राम ने काले पत्थर के उस बड़े शिवलिंग को स्थापित कर दिया। ये दोनों शिवलिंग इस तीर्थ के मुख्य मन्दिर में आज भी पूजित हैं। यही मुख्य शिवलिंग ज्योतिर्लिंग है
पूरे भारत, दक्षिण पूर्व एशिया और पूर्व एशिया के कई देशों में हर साल दशहरे पर और राम के जीवन पर आधारित सभी तरह के नृत्य-नाटकों में सेतु बन्धन का वर्णन किया जाता है। भगवान् श्री राम के द्वारा बनाये गये इस पुल का वर्णन रामायण में तो है ही, महाभारत में भी भगवान् श्री राम के नल-नील सेतु का जिक्र है। कालीदास की रघुवंश में सेतु का वर्णन है। अनेक पुराणों में भी श्री रामसेतु का विवरण आता है। नासा और भारतीय सेटेलाइट से लिए गए चित्रों में धनुषकोडि से जाफना तक जो एक पतली सी द्वीपों की रेखा दिखती है, उसे ही आज रामसेतु के नाम से जाना जाता है। यह सेतु तब पांच दिनों में ही बन गया था। इसकी लम्बाई 100 योजन व चौड़ाई 10 योजन थी। इसे बनाने में उच्च तकनीक का प्रयोग किया गया था
रामेश्वरम् शहर और रामनाथजी का प्रसिद्ध मन्दिर इस टापू के उत्तर के छोर पर है। टापू के दक्षिणी कोने में धनुष कोटि नामक तीर्थ है, जहाँ हिंद महासागर से बंगाल की खाड़ी मिलती है। इसी स्थान को सेतुबंध कहते है। लोगों का विश्वास है कि भगवान् श्री राम ने लंका पर चढाई करने के लिए समुद्र पर जो सेतु बाँधा था, वह इसी स्थान से आरम्भ हुआ था। इस कारण धनुष-कोटि का धार्मिक महत्व बहुत है। यही से कोलम्बो को जहाज जाते थे। अब यह स्थान चक्रवाती तूफान में बहकर समाप्त हो गया है।
रामेश्वरम् शहर से करीब डेढ़ मील उत्तर-पूर्व में गंधमादन पर्वत नाम की एक छोटी-सी पहाड़ी है। हनुमानजी ने इसी पर्वत से समुद्र को लाँघने के लिए छलांग मारी थी। बाद में राम ने लंका पर चढ़ाई करने के लिए, यहीं पर विशाल सेना संगठित की थी। इस पर्वत पर एक सुन्दर मन्दिर बना हुआ है, जहाँ भगवान् श्री राम के चरण-चिन्हों की पूजा की जाती है। इसे पादुका मन्दिर कहते हैं।
रामेश्वरम् की यात्रा करने वालों को हर जगह राम-कहानी की गूँज सुनाई देती है। रामेश्वरम् के विशाल टापू का चप्पा-चप्पा भगवान् श्री राम की कहानी से जुड़ी हुई है। इसी स्थान पर भगवान् श्री राम ने माता सीता की प्यास बुझाने के लिए धनुष की नोंक से कुँआ खोदा था। माता सीता ने अग्नि-प्रवेश किया था और भगवान् श्री राम ने जटाओं से मुक्ति पायी थी। यहाँ राम-सेतु के निर्माण में लगे ऐसे पत्थर भी मिलते हैं, जो पानी पर तैरते हैं। विश्वकर्मा के पुत्र नल-नील नामक दो वानरों ने उनको मिले वरदान के कारण जिस पाषाण शिला को छूआ, वो पानी पर तैरने लगी और सेतु के काम आयी। रामेश्वर के मन्दिर में जिस प्रकार भगवान् शिव की दो मूर्तियाँ हैं, उसी प्रकार देवी पार्वती की भी मूर्तियाँ अलग-अलग स्थापित की गई हैं। देवी की एक मूर्ति पर्वत वर्द्धिनी कहलाती है, दूसरी विशालाक्षी। मन्दिर के पूर्व द्वार के बाहर हनुमान महाराज की एक विशाल मूर्ति अलग मन्दिर में स्थापित है। रामेश्वरम् का मन्दिर है तो भगवान् शिव का, परन्तु उसके अन्दर कई अन्य मन्दिर भी हैं। सेतु माधव कहलाने वाले भगवान् श्री हरी विष्णु का मन्दिर इनमें प्रमुख है। रामनाथ के मन्दिर के अन्दर और परिसर में अनेक पवित्र तीर्थ है। इनमें प्रधान तीर्थों (जल कुण्ड) की सँख्या चौबीस थी, किन्तु दो कुण्ड सूख गए हैं और अब बाइस शेष हैं। ये वास्तव में मीठे जल के अलग-अलग कुँए हैं। कोटि तीर्थ जैसे एक दो तालाब भी है। इन तीर्थो में स्नान करना बड़ा फलदायक पाप-निवारक समझा जाता है। इन तीर्थों में अलग-अलग धातुओं के स्वास्थ्य वर्धक रसायन मौजूद हैं, जिससे उनमें नहाने से शरीर के रोग दूर हो जाते है और नई ताकत आ जाती है। बाईसवें कुण्ड में पहले 21 कुण्डों का मिला-जुला जल आता है। रामेश्वरम् से करीब तीन मील पूर्व में एक गाँव है, जिसका नाम तंगचिमडम है। यह गाँव रेल मार्ग के किनारे ही बसा है। वहाँ स्टेशन के पास समुद्र में एक तीर्थ कुण्ड है, जो विल्लूरणि तीर्थ कहलाता है। समुद्र के खारे पानी बीच में से मीठा जल निकलता है। एक बार माता सीता को बड़ी प्यास लगी। पास में समुद्र को छोड़कर और कहीं पानी न था, इसलिए भगवान् श्री राम ने अपने धनुष की नोक से यह कुण्ड खोदा था।
तंगचिडम स्टेशन के पास एक जीर्ण मन्दिर है। उसे एकान्त राम का मन्दिर कहते है। इस मन्दिर के अब जीर्ण-शीर्ण अवशेष ही बाकी हैं। राम नवमी के पर्व पर यहाँ कुछ रौनक रहती है। बाकी दिनों में बिलकुल सूना रहता है। मन्दिर के अन्दर भगवान् श्री राम, लक्ष्मण जी, हनुमान महाराज और माता सीता की बहुत ही सुन्दर मूर्तियाँ हैं। धुर्नधारी भगवान् श्री राम की एक मूर्ति ऐसी बनाई गई है, मानो वह हाथ मिलाते हुए कोई गम्भीर बात कर रहे हो। दूसरी मूर्ति में भगवान् श्री राम माता सीता की ओर देखकर मन्द-मन्द मुस्कान के साथ कुछ कह रहे हैं। ये दोनों मूर्तियाँ बड़ी मनोरम है। यहाँ सागर में लहरें बिल्कुल नहीं आतीं, इसलिए एकदम वातावरण एकदम शान्त रहता है। शायद इसीलिए इस स्थान का नाम एकान्त राम है। रामेश्वरम् के टापू के दक्षिण भाग में, समुद्र के किनारे, एक और दर्शनीय मन्दिर है। यह मन्दिर रमानाथ मन्दिर से पाँच मील दूर पर बना है। यह कोदंड कोदण्ड स्वामी का मन्दिर कहलाता है। विभीषण ने यहीं पर भगवान् श्री राम की शरण ली थी। रावण-वध के बाद भगवान् श्री राम ने इसी स्थान पर विभीषण का राजतिलक कराया था। इस मन्दिर में भगवान् श्री राम, माता सीता और लक्ष्मण जी की मूर्तियाँ देखने योग्य हैं। विभीषण की भी मूर्ति अलग स्थापित है। रामेश्वरम् को घेरे हुए समुद्र में भी कई विशेष स्थान ऐसे बताये जाते है, जहाँ स्नान करना पाप-मोचक माना जाता है। रामनाथ जी के मन्दिर के पूर्वी द्वार के सामने बना हुआ सीता कुण्ड इनमें मुख्य है। यही वह स्थान है, जहाँ माता सीता ने अपना सतीत्व सिद्व करने के लिए आग में प्रवेश किया था। माता सीता के ऐसा करते ही आग बुझ गई और अग्नि-कुण्ड से जल उमड़ आया। वही स्थान अब सीता कुण्ड कहलाता है। यहाँ पर समुद्र का किनारा आधा गोलाकार है। सागर एकदम शान्त है। उसमें लहरें बहुत कम उठती हैं। इस कारण देखने में वह एक तालाब सा लगता है। यहाँ पर बिना किसी खतरे के स्नान किया जा सकता है। यहीं पर हनुमान कुण्ड में तैरते हुए पत्थर भी दिखाई देते हैं।रामेश्वरम् से सात मील दक्षिण में एक स्थान है, जिसे दर्भशयनम् कहते हैं। यहीं पर भगवान् श्री राम ने पहले समुद्र में सेतु बाँधना शुरू किया था। इस कारण यह स्थान आदि सेतु भी कहलाता है। रामेश्वरम् के समुद्र में तरह-तरह की कोड़ियाँ, शंख और सीपें मिलती है। कहीं-कहीं सफेद रंग का बड़ियास मूँगा भी मिलता है। रामेश्वरम् केवल धार्मिक महत्व का तीर्थ ही नहीं, प्राकृतिक सौंदर्य की दृष्टि से भी दर्शनीय है। मद्रास से रेल-गाड़ी यात्रियों को करीब बाईस घण्टे में रामेश्वरम् पहुँचा देती हैं। रास्ते में पामबन स्टेशन पर गाड़ी बदलनी पड़ती है।
RAMESHWARAM got its importance-significance in the Treta-Yug when Bhagwan Shri Ram built a Shiv Ling here and worshipped it to get the blessings of Bhagwan Shiv, before conquering Shri Lanka the abode of demon king Ravan. Bhagwan Ram himself was an incarnation of Bhagwan Shri Hari Vishnu. It is located in South in Tamil Nadu. It is situated in the Gulf of Mannar at the very tip of the Indian peninsula. This is the place where Bhagwan Shri Ram, built the bridge called Ram Setu-Adams bridge, 7,50,000 years ago connecting Shri Lanka with the main land. The Ram Nath Swamy Temple dedicated to Bhagwan Shiv occupies a major area of Rameshwram. The temple is significant for the Hindus as a pilgrimage site, since pilgrimage to Banaras is incomplete without a pilgrimage to Rameshwram. The presiding deity here is in the form of a Shiv Ling-one of the twelve Jyotir Lings. Brahma Ji, Bhagwan Shri Hari Vishnu & Maheshwar-three forms of Almighty are present here together, all the time at every place.
Rameshwaram Temple is located in Tamil Nadu, Thirukoil. Bhagwan Shiv is worshipped as Ram Nath Swamy or Rameshwaram. It is also one of the twelve Jyotir Ling temples, where Shiv is worshipped in the form of a Jyotirling (pillar of light). It is one of the 274 Padal Patr Sthal, where the three of the most revered Nayanars (Shaevite saints), Appar, Sundarar and Tirugnana Sambandar, have glorified the temple with their songs. The temple was expanded during the 12th century by Pandy Dynasty and its principal shrines sanctum were renovated by Jeyaveer Cinkaiariyan and his successor Gunaveer Cinkaiariyan of the Jaffna kingdom. The temple has the longest corridor among all the temples in India. The temple is located in Rameshwaram, an island town in South India, considered a holy pilgrimage site for Shaevites, Vaeshnavites and Smarths. The presiding deity, the Lingam of Ram Nath Swamy, is believed to have been established and worshipped by Bhagwan Shri Ram, an avatar of Bhagwan Shri Hari Vishnu, to absolve the sins created during the war at Shri Lanka & killing Ravan, a Brahmn.
Shri Ram Nath Swamy Temple, Rameshwaram is located in Tamil Nadu. Bhagwan Shri ram worshipped Bhagwan Shiv to seek his blessings, since Ravan was his devotee. Ravan him self appeared to perform the rights, when invited by Bhagwan Shri Ram as a Purohit-Brahman. Bhagwan Shri Ram requested Hanuman Ji Maha Raj to bring a Shiv Ling. Being late in bringing the Ling, Mata Sita her self prepared the Ling with the sand.
The primary deity of the temple is Ram Nath Swamy (Bhagwan Shiv) in the form of Lingam. There are two lingams inside the sanctum, one built by Maa Sita, from sand, residing as the main deity, Ram Lingam and the other brought by Hanuman Ji Maha Raj from Kaelash called Vishw Lingam. Bhagwan Shri Ram instructed that Vishw Lingam should be worshipped first since it was brought by Hanuman Ji Maha Raj-the tradition continues even today.
There is a high compound wall on all four sides of the temple premises measuring about 865 feet furlong (220 yards) from east to west and one furlongs of 657 feet from north to south with huge towers (Gopurams) at the east and west and finished gate towers on the north and south. The temple has striking long corridors in its interior, running between huge colonnades on platforms above five feet high.
The second corridor is formed by sandstone pillars, beams and ceiling. The junction of the third corridor on the west and the paved way leading from the western Gopuram to Setu Madhav shrine forms a unique structure in the form of a chess board and it is popularly known as Chokkattan Mandapam where the Utsav deities are adorned and kept during the Vasantotsav (Spring festival) and on the 6th day festival in Adi (July-August) and Masi (February-March) conducted by the Setupati of Ram Nad.
The outer set of corridors is reputed to be the longest in the world being about 6.9 m height, 400 feet in each in the east and west and about 640 feet in north and south and inner corridors are about 224 feet in east and west and about 352 feet each in north and south. Their width varies from 15.5 feet to 17 feet in the east and west about 172 feet on the north and south with width varying 14.5 feet to 17 feet. The total length of those corridors is thus 3,850 feet. There are about 1,212 pillars in the outer corridor. Their height is about 30 feet from the floor to the center of the roof. The main tower or Raj Gopuram is 53 m tall. Most pillars are carved with individual composition. At the beginning, Ram Nath Swamy Temple was a thatched shed. The present structure was the work of many individuals spread over more than 17,50,000 years. The pride of place in the establishment for the Temple goes to the Setu Patis of Ram Nath Puram. In the seventeenth century, Dalavai Setu Pati built a portion of the main eastern Gopuram. In late eighteenth century, the world famous third corridor was constructed by Muttu Ram Ling Setupati who lived for forty nine years and ruled between 1,763 and 1,795. The corridor was called Chokkatan Mandapam. The Mukhy Pradhani (Chief Minister) was Muthuirullappa Pillai and the Chinna Prodhani (Deputy Chief Minister) was Krashna Iyengar. The Setu Pati’s statue and those of his two Pradhanis (ministers) can be seen at the western entrance to the third corridor.
There are separate shrines for Ram Nath Swami and Goddess Parvat Vardhini separated by a corridor. There are separate shrines for Goddess Visa Lakshi, Parvat Vardhini, Utsav idol, Shayan Grah, Perumal and Maha Ganpati. There are various halls inside the temple, namely Anuppu Mandapam, Shukr Var Mandapam, Setu Pati Mandapam, Kalyan Mandapam and Nandi Mandapam.
AGNI TIRTH (PILGRIMAGE SITES) :: There are sixty-four Tirths (holy water bodies) in and around the island of Rameshwaram, Tamil Nadu, India. According to Skand Puran twenty-four of them are important. Bathing in these Tirths is a major aspect of the pilgrimage to Rameshwaram and is considered equivalent to penance. Twenty-two of the Tirth are within the Ram Nath Swamy Temple. The number 22 indicates the 22 arrows in Bhagwan Ram's quiver. The first and major one is called Agni Tirtham, the sea (Bay of Bengal).
KEDAR NATH श्री केदारेश्वर ज्योतिर्लिंङ्ग :: पुराणों एवं शास्त्रों में श्रीकेदारेश्वर ज्योतिर्लिंङ्ग की महिमा का वर्णन बारम्बार किया गया है। यह ज्योतिर्लिंङ्ग पर्वतराज हिमालय की केदार नामक चोटी पर अवस्थित है। यहाँ की प्राकृतिक शोभा देखते ही बनती है। इस चोटी के पश्चिम भाग में पुण्यमती मन्दाकिनी नदी के तट पर स्थित केदारेश्वर महादेव का मन्दिर अपने स्वरूप से ही मनुष्यों को धर्म और अध्यात्म की ओर बढ़ने का सन्देश देता है। चोटी के पूर्व में अलकनन्दा के सुरम्य तट पर बदरीनाथ का परम प्रसिद्ध मन्दिर है। अलकनन्दा और मन्दाकिनी, ये दोनों नदियाँ नीचे रुद्र प्रयाग में आकर मिल जाती हैं। दोनों नदियों की यह संयुक्त धारा और नीचे देव प्रयाग में आकर भागीरथी गङ्गा से मिल जाती हैं। इस प्रकार परम पावन गङ्गा जी में स्नान करने वालों को भी श्रीकेदारेश्वर और बदरीनाथ के चरणों को धोने वाले जल का स्पर्श सुलभ हो जाता है।
In 2013, massive flash floods swept through Uttarakhand. The deluge claimed 197 lives. Kedar Nath, the temple and town, also bore the brunt of nature's fury, but the shrine survived. This massive boulder blocked the path of the water and saved the temple from being washed away. Later it was named Bhim Shila.
ROCK THAT PROTECTED KEDARNATH |
चराचर के पितामह ब्रह्माजी और सबका पालन-पोषण करने वाले भगवान् विष्णु भी महातपस्वी नर-नारायण के तप की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। अन्त में अवढरदानी भूतभावन भगवान् शिव भी उनकी उस कठिन साधना से प्रसन्न हो उठे। उन्होंने प्रत्यक्ष प्रकट होकर उन दोनों ऋषियों को दर्शन दया। नर और नारायण ने भगवान् भोलेनाथ के दर्शन से भावविह्वल और नन्द-विभोर होकर बहुत प्रकार की पवित्र स्तुतियों और मन्त्रों से उनकी पूजा-अर्चना की। भगवान् शिव ने अत्यन्त प्रसन्न होकर उनसे वर माँगने को कहा। भगवान् शिव की यह बात सुनकर उन दोनों ऋषियों ने उनसे कहा, दिवाधिदेव महादेव! यदि आप हम पर प्रसन्न हैं तो भक्तों के कल्याण हेतु आप सदा सर्वदा के लिये अपने स्वरूप को यहाँ स्थापित करने की कृपा करें। आपके यहाँ निवास करने से यह स्थान सभी प्रकार से अत्यन्त पवित्र हो उठेगा। यहाँ आकर आपका दर्शन-पूजन करने वाले मनुष्यों को आपकी अविनाशिनी भक्ति प्राप्त हुआ करेगी। प्रभो! आप मनुष्यों के कल्याण और उनके उद्धार के नये अपने स्वरूप को यहाँ स्थापित करने की हमारी प्रार्थना अवश्य ही स्वीकार करें।
उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान् शिव ने ज्योतिर्लिङ्ग के रूप में वहाँ बास करना स्वीकार किया। केदार नामक हिमालय शृङ्ग पर अवस्थित होने के कारण इस ज्योतिर्लिंङ्ग को श्री केदारेश्वर ज्योतिर्लिंङ्ग के रूप में जाना जाता है।
भगवान् शिव से वर माँगते हुए नर और नारायण ने इस ज्योतिर्लिंग और इस पवित्र स्थान के विषय में जो कुछ कहा है, वह अक्षरशः सत्य है। इस ज्योतिर्लिंङ्ग के दर्शन-पूजन तथा यहाँ स्नान करने से भक्तों को लौकिक फलों की प्राप्ति होने के साथ-साथ अचल शिव भक्ति तथा मोक्ष की प्राप्ति भी हो जाती है।
It is situates over the banks of Mandakini river. Among the twelve Jyotir Lings of Bhagwan Shiv, the one at Kedar Nath is located in the snow-clad area of the Himalay. This Jyotir Ling can be visited only during six months in a year. From the month of April to November (Vaesakh to Ashwin) is the time when pilgrims can make the journey to this holy shrine. For the rest of the year it is too cold and the Himalay is covered in snow. Therefore, the Kedar Nath temple remains closed for the pilgrimage.
During the month of Kartik, due to snowfall, Shri Kedareshwar idol is brought out of the temple after lighting a ghee lamp, “Nand Deep”. Then the temple is closed for the winter. From the month of Kartik to Chaetr Shri Kedareshwar’s abode is shifted to the Urvi Math, which is in the valley. In the month of Vaeshakh, when the temple doors are opened the lamp “Nand Deep” is still found glowing. People come to see this glorious lamp and devotees of Bhagwan Shiv consider themselves blessed.
Hari Dwar is considered to be the gateway to heaven, the magic city or Maya Puri. Ahead of Haridwar, there are holy places like Rishi Kesh, Dev Prayag, Son Prayag and Tri Yugi Narayan, Gauri Kund. To reach Kedar Nath one has to pass through these holi places. Some part of the journey is motorable and the rest has to be walked upon. This part of the way through the Himalay is very difficult. But devotees go through all this with dedication and determination. They overcome all the difficulties-hurdles with perseverance to reach, Kedar Nath Jyotir Ling Temple.
To climb the steep path, some use mules, some use Doli (डोली, palanquin) and some others use walking sticks. Helicopters too are available from Delhi to Kedar Nath & Badri Nath. There are resting places in between for the tired pilgrims. At Gauri Kund, the pilgrims take a bath in the hot springs. After this, they take a Darshan of the head-less Ganesh. It is here in Gauri Kund, that Bhagwan Shiv chopped off the head of Ganesh Ji Maha Raj, with his Trishul-the trident and later replaced it with the head of a baby elephant.
Going a bit higher from Gauri Kund, near the snow-clad mountains, on the banks of River Mandakini, the Kedar Nath temple of the glorious Jyotir Ling is visible. The Shiv Ling is self manifest and not installed by anyone. It is said that this is the hind part of Mahish (he-buffalo).
ORIGINAL KEDAR NATH :: Bhagwan Shiv was furious with Pandavs due to the killings during Maha Bharat. To pacify him, Bhagwan Shri Krashn asked to Pandavs to appease him by going to his abode and observe penances for the sins. This place is known as Gupt Kashi. From Gupt Kashi-Rudr Prayag, the Pandavs went ahead & reached Gauri Kund. While doing so Nakul and Sahdev found a he-buffalo. Bheem instantly recognised him and rushed to him. Bhagwan shiv entered earth, but Bheem caught his tail. The face of the buffalo went straight to Nepal, with its hind part in Kedar. The face of the buffalo is known as Pashupati Nath in Nepal. Now, finding no way out, Bhagwan Shiv appeared before them. His appearance absolved the Pandavs of their sins.
The hind part of Mahish, produced a glorious Jyotir Ling. Bhagwan Shiv who had appeared in the form of a column of aura, told Pandavs that from then onward he would remain there as a triangular shaped Jyotir Ling. Pandu had died here, when he got excited having seen Madri after bathing in a saree clad over her body, due to the curse. This place is famous as Pandukeshwar. The tribals here perform a dance called “Pandav Nraty”. The mountain top, where the Pandavs went to Swarg, is known as “Swarg Rohini”. When Dharm Raj Yudhistar was leaving for Swarg, one of his fingers fell on the earth. At that place, Dharm Raj installed a Shiv Ling, which is of the size of the thumb.
While in Mahish form, Bhim massaged the body of Bhagwan Shiv with Ghee. Thus, this triangular Shiv Jyotir Ling is massaged with ghee. Water and Bel leaves are used for worship.
Badrikashram has been an abode of Bhagwan Shiv for ascetics-Tapasya. When Sury Bhagwan's sons Nar Narayan went to Badri village and started the worshiping of Parthiv & ascetics, Bhagwan Shiv appeared before them. A few days later, a pleased Bhagwan Shiv granted them some boons. Nar Narayan wished that for the welfare of the humanity, Bhagwan Shiv should remain there in his original form. Granting their wish, in the snow clad Himalay, in a place called Kedar, Mahesh himself stayed there as a Jyoti. Here, he is known as Kedareshwar.
By visiting Kedareshwar, sorrows do not come even in dreams. By worshipping Shambar-Kedareshwar, Pandavs were rid of all their sins. Badri-Keshwar’s darshan rids one of the material ties. Whoever, gives Dan (alms) at Kedareshwar, just gets assimilated into Shiv Roop.
Around the main Kedar Nath temple, there are eight holy shrines. At the back, there is the Samadhi of Shankrachary. A little further up, there is dangerous cliff called Bhariguptan (Bhaerav Udan). One has to pass through dreadful and life threatening circumstances. But what one gets is not Mratyu (Death) but Moksh (Salvation).
भारत के उत्तराखंड राज्य में हिमालय पर्वत की गोद में स्थित केदारनाथ मन्दिर बारह ज्योतिर्लिंग में सम्मिलित होने के साथ ही चार धाम और पंच केदार में से भी एक है। इस ज्योतिर्लिंग की यात्रा करना हर शिव भक्त के लिए किसी सपने से कम नहीं है। उत्तरी हिमालय की तलहटी में बसे इस क्षेत्र में धार्मिक आस्था खींच लाती। हिमालय की बर्फीली चोटियों का नैसर्गिक सौंदर्य और मंदाकिनी नदी की कलकल ध्वनि यात्रियों का मन मोह लेती है। यहाँ की प्रतिकूल जलवायु के कारण यह मन्दिर अप्रैल से नवम्बर माह के मध्य ही दर्शन के लिए खुलता है। बारह ज्योतिर्लिंगों में केदारनाथ ज्योतिर्लिंग को सबसे सर्वोच्च माना गया है। इस ज्योतिर्लिंग के प्राचीन मन्दिर का निर्माण महाभारत का युद्ध समाप्त होने के बाद कराया था। केदार महिष अर्थात भैंसे का पिछला भाग है।
केदारनाथ को भगवान शिव का आवास माना जाता है। भगवान् शिव माता पार्वती से एक प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि यह क्षेत्र उतना ही प्राचीन है, जितना कि मैं हूँ। भगवान् शिव आगे बताते हैं कि इस स्थान पर सृष्टि की रचना के लिए ब्रह्मा के रूप में परब्रह्मत्व को प्राप्त किया था, तभी से यह स्थान उनके लिए आवास के समान है।इस स्थान को स्वर्ग के समान माना गया है। हिमालय के केदार श्रृंग पर भगवान् श्री हरी विष्णु के अवतार नर और नारायण ऋषि ने कठोर तपस्या की थी। तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् शिव ज्योतिर्लिंग के रूप में सदैव के लिए इस स्थान पर निवास करने लगे।[स्कंद पुराण]
महाभारत के युद्ध में विजयी होने पर पाण्डव चार अक्षौहणी सेना और नाते-रिश्तेदारों, भाइयों की हत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए आये। भगवान् शिव पाण्डवों से रुष्ट थे, इसलिए प्रभु शिव अन्तर्ध्यान होकर केदारधाम आ गए।
पाण्डवों ने भगवान् शिव पीछा किया तो भगवान् शिव ने भैंसे का रूप धारण कर लिया और वे अन्य पशुओं के झुंड में शामिल हो गये। पाण्डवों ने तब भी हार नहीं मानी और भीम ने अपना आकार बढ़ाना शुरू कर दिया। भीम ने दो पहाड़ों तक पैर फैला दिए। ऐसा करने के बाद सभी गाय-बैल और भैंसे तो निकल गए, लेकिन भगवान् शिव ने पैरों के नीचे से जाने से मना कर दिया। तब भीम ने भैंसे को पकड़ने की कोशिश की; लेकिन भगवान् शिव भैंसे के रूप में भूमि में समा गए, लेकिन भीम ने भैंसे की त्रिकोणात्मक पीठ का भाग पकड़ लिया।
पाण्डवों के प्रयासों से भगवान् शिव प्रसन्न हो गये और पाण्डवों को दर्शन दिये।पाण्डवों ने भगवान् शिव से हाथ जोड़कर विनती की तो भगवान् शिव ने उन्हें पाप मुक्त कर दिया। तभी से भगवान् शिव भैंसे की पीठ की आकृति के ज्योतिर्लिंग के रूप को केदारनाथ में विराजमान हैं।
सच्चे मन जो भी बाबा केदारनाथ का स्मरण करता है, उसकी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। सावन के महीने में केदारानाथ के दर्शन बहुत ही शुभ माने जाते हैं।BHEEM SHANKAR भीमशंकर ज्योतिर्लिंग :: Bhima Shankar temple is situated in a Forest Reserve about 3 hours drive from Pune. The place is hilly with beautiful greenery all around.
कुंभकर्ण के पुत्र को मार कर भगवान् शिव यहाँ प्रतिष्ठित हुए थे। भगवान् शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में भीमा शंकर का स्थान छठा है। यह ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र के पुणे से लगभग 110 किमी दूर सहाद्रि नामक पर्वत पर स्थित है।
कुंभकर्ण को कर्कटी नाम की एक महिला पर्वत पर मिली थी। उसे देखकर कुंभकर्ण उस पर मोहित हो गया और उससे विवाह कर लिया। विवाह के बाद कुंभकर्ण लंका लौट आया, लेकिन कर्कटी पर्वत पर ही रही। कुछ समय बाद कर्कटी को भीम नाम का पुत्र हुआ। जब भगवान् श्री राम ने कुंभकर्ण का वध कर दिया तो कर्कटी ने अपने पुत्र को देवताओं के छल से दूर रखने का फैसला किया।
बड़े होने पर जब भीम को अपने पिता की मृत्यु का कारण पता चला तो उसने देवताओं से बदला लेने का निश्चय कर लिया। भीम ने ब्रह्मा जी की तपस्या करके उनसे बहुत ताकतवर होने का वरदान प्राप्त कर लिया। कामरूपेश्वप नाम के राजा भगवान् शिव के भक्त थे। एक दिन भीम ने राजा को शिवलिंग की पूजा करते हुए देख लिया। भीम ने राजा को भगवान् की पूजा छोड़ उसकी पूजा करने को कहा। राजा के बात न मानने पर भीम ने उन्हें बन्दी बना लिया। राजा ने कारागार में ही शिवलिंग बना कर भगवान् शिव की पूजा करने लगा। जब भीम ने यह देखा तो उसने अपनी तलवार से राजा के बनाए शिवलिंग को तोड़ने का प्रयास किया। ऐसा करने पर शिवलिंग में से स्वयं भगवान् शिव प्रकट हो गए। भगवान् शिव और भीम के बीच घोर युद्ध हुआ, जिसमें भीम की मृत्यु हो गई। फिर देवताओं ने भगवान् शिव से हमेशा के लिए उसी स्थान पर रहने की प्रार्थना की। देवताओं के कहने पर शिव लिंग के रूप में उसी स्थान पर स्थापित हो गए। इस स्थान पर भीम से युद्ध करने की वजह से इस ज्योतिर्लिंग का नाम भीम शंकर पड़ गया।
मन्दिर का स्वरूप :- भीमशंकर मन्दिर बहुत ही प्राचीन है, लेकिन यहाँ के कुछ भाग का निर्माण नया भी है। इस मन्दिर के शिखर का निर्माण कई प्रकार के पत्थरों से किया गया है। यह मन्दिर मुख्यतः नागर शैली में बना हुआ है।
माँ पार्वती का मन्दिर :- भीम शंकर मन्दिर से पहले ही शिखर पर देवी पार्वती का एक मन्दिर है। इसे कमलजा मन्दिर कहा जाता है। मान्यता है कि इसी स्थान पर माँ पार्वती ने राक्षस त्रिपुरासुर से युद्ध में भगवान् शिव की सहायता की थी। युद्ध के बाद ब्रह्मा जी ने माँ पार्वती की कमलों से पूजा की थी। यहाँ के मुख्य मन्दिर के पास मोक्ष कुण्ड, सर्वतीर्थ कुण्ड, ज्ञान कुण्ड और कुषारण्य कुण्ड भी स्थित है। इनमें से मोक्ष नामक कुण्ड को महर्षि कौशिक से जुड़ा हुआ माना जाता है और कुशारण्य कुण्ड से भीम नदी का उद्गम माना जाता है। दर्शन या पर्यटन के लिए जाने के लिए साल का कोई भी समय चुना जा सकता है। महा शिवरात्रि के समय यहाँ पर विशेष मेला लगता है। यह भीम शंकर मन्दिर पुणे हवाई अड्डे से लगभग 115 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। वहाँ तक हवाई मार्ग से आकर सड़क मार्ग से भीम शंकर पहुँच सकते हैं। पुणे या नासिक तक रेल से आकर फिर सड़क मार्ग की मदद से भीम शंकर मन्दिर पहुँचा जा सकता है। इसके आस-पास दर्शनीय स्थलों में प्रमुख निम्न हैं :-
(1). हनुमान तालाब, (2). गुप्त भीमशंकर और (3). कमलजा देवी मन्दिर।
TRAYAMBKESHWAR त्र्यम्बकेश्वर मन्दिर :: यह ज्योतिर्लिंङ्ग महाराष्ट्र प्रान्तमें नासिक से 30 किमी. पश्चिम में अवस्थित है। इस ज्योतिर्लिङ्ग की स्थापना के विषय में शिवपुराण में यह कथा दी गयी है :- एक बार महर्षि गौतम के तपोवन में रहने वाले ब्राह्मणों की पत्नियाँ किसी बात पर उनकी पत्नी अहल्या से नाराज हो गयीं। उन्होंने अपने पतियों को ऋषि गौतम का अपकार करने के लिये प्रेरित किया। उन ब्राह्मणों ने इसके निमित्त गणपति महाराज की आराधना की। उनकी आराधना से प्रसन्न हो कर गणेश जी ने प्रकट होकर उनसे वर माँगने को कहा। उन ब्राह्मणों ने कहा, "प्रभो! यदि आप हम पर प्रसन्न हैं तो किसी प्रकार ऋषि गौतम को इस आश्रम से बाहर निकाल दें"। उनकी यह बात सुनकर गणेश जी ने उन्हें ऐसा वर न माँगने के लिये समझाया किन्तु वे अपने आग्रह पर अटल रहे। अन्ततः गणेश जी को विवश होकर उनकी बात माननी पड़ी। अपने भक्तों का मन रखने के लिये वे एक दुर्बल गाय का रूप धारण करके ऋषि गौतम के खेत में जाकर चरने लगे। गाय को फसल चरते देखकर ऋषि बड़ी नरमी के साथ हाथ में तृण लेकर उसे हाँकने के लिये लपके। उन तृणों का स्पर्श होते ही वह गाय वहीं मरकर गिर पड़ी। अब तो बड़ा हाहाकार मचा सारे ब्राह्मण एकत्र हो गो हत्यारा कहकर ऋषि गौतम की भर्त्सना करने लगे। ऋषि गौतम इस घटना से बहुत आश्चर्य चकित और दुःखी थे। अब उन सारे ब्राह्मणों ने उनसे कहा कि तुम्हें यह आश्रम छोड़कर अन्यत्र कहीं दूर चले जाना चाहिये। गो हत्यारे के निकट रहने से हमें भी पाप लगेगा।
विवश होकर ऋषि गौतम अपनी पत्नी अहिल्या के साथ वहाँ से एक कोस दूर जाकर रहने लगे। किन्तु उन ब्राह्मणों ने वहाँ भी उनका रहना दूभर कर दिया। वे कहने लगे, "गो हत्या के कारण तुम्हें अब वेद-पाठ और यज्ञादि के कार्य करने का कोई अधिकार नहीं रह गया है"। अत्यन्त कातर भाव से ऋषि गौतम ने उन ब्राह्मणों से प्रार्थना की कि आप लोग मेरे प्रायश्चित्त और उद्धार का कोई में उपाय बतावें। तब उन्होंने कहा, "गौतम! तुम अपने पाप को सर्वत्र सबको बताते हुए तीन बार पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करो। फिर लौटकर यहाँ एक महीने तक व्रत करो। इसके बाद ब्रह्मगिरि की 101 परिक्रमा करने के बाद ही तुम्हारी शुद्धि होगी अथवा यहाँ गङ्गाजी को लाकर उनके जल से स्नान करके एक करोड़ पार्थिव शिवलिङ्गों से भगवान् शिव की आराधना करो। इसके बाद पुनः गङ्गा जी में स्नान करके इस ब्रह्मगिरि की 11 बार परिक्रमा करो। फिर सौ घड़ों के की पवित्र जल से पार्थिव शिवलिङ्ग को स्नान कराने से तुम्हारा उद्धार होगा"।
Vinay Karvariya (Priest) TRAYAMBKESHWAR |
नासिक का प्रमुख तीर्थस्थल त्रयंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग मन्दिर है। इस मंदिर में त्रिदेव विराजमान हैं। इसी मन्दिर के ही पास स्थित ब्रह्म गिरि नामक पर्वत से गोदावरी नदी का उद्गम माना जाता है। यह एकमात्र ऐसा ज्योतिर्लिंग है, जहाँ केवल भगवान् शिव ही नहीं बल्कि भगवान् श्री हरी विष्णु और भगवान् ब्रह्मा भी विराजमान हैं। भगवान् शिव के बारह ज्योतिर्लिगों में श्री त्र्यंबकेश्वर का दसवाँ स्थान है।
Trayambkeshwar Temple is located at a distance of about 28 km from Nashik, Maharashtr near Brahm Giri. Its connected by road.
Trayambkeshwar town is an ancient Pilgrim site located at the source of the Godavari River, the longest river in peninsular India. Trayambkeshwar is abode of one of the twelve Jyotir Lings. The Ling in the temple is in the form of a three faced embodying Tridev Bhagwan Brahma, Bhagwan Shri Hari Vishnu and Bhagwan Shiv. The temple is mentioned in the powerful Mratyunjay Mantr that bestows immortality and longevity.
The present Trayambkeshwar temple was constructed by third Peshwa Bala Ji Baji Rao (1,740-1,760) on the site of an old temple. There are entry gates on all the four sides, viz. East, West, South and North.
SHRI VAEDYNATH DEVDHAR श्री वैद्यनाथ मन्दिर, देवघर :: यह ज्योतिर्लिंङ्ग बिहार प्रान्त के सन्थाल परगने में स्थित है। शास्त्र और लोक दोनों में इसकी बड़ी प्रसिद्धि है। इसकी महिमा का वर्णन भूरिश किया गया है।
एक बार राक्षसराज रावण ने हिमालय पर जाकर भगवान् शिव का दर्शन प्राप्त करने के लिये बड़ी घोर तपस्या की। उसने एक-एक करके अपने सिर काटकर शिवलिङ्ग पर चढ़ाने शुरू किये। इस प्रकार उसने अपने नौ सिर वहाँ काटकर चढ़ा डाले। जब वह अपना दसवाँ और अन्तिम सिर काटकर चढ़ाने के लिये उद्यत हुआ तब भगवान् शिव अति प्रसन्न और सन्तुष्ट होकर उसके समक्ष प्रकट हो गये। शीश काटने को उद्यत रावण का हाथ पकड़कर उन्होंने उसे वैसा करने से रोक दिया। उसके नवाँ सिर भी पहले की तरह जोड़ दिये और अत्यन्त प्रसन्न होकर उससे वर माँगने को कहा।
रावण ने वर के रूप में भगवान् शिव से उस लिङ्ग को अपनी राजधानी लङ्का में ले जाने की आज्ञा माँगी। भगवान् शिव ने उसे यह वरदान तो दे दिया लेकिन एक शर्त भी उसके साथ लगा दिया। उन्होंने कहा, "तुम इसे ले जा सकते हो, किन्तु यदि रास्ते में इसे कहीं रख दोगे तो यह वहीं अचल हो जायगा। फिर तुम इसे उठा नहीं पाओगे। रावण इस बात को स्वीकार कर उस शिवलिङ्ग को उठाकर लङ्का के लिये चल पड़ा। चलते-चलते एक जगह मार्ग में उसे लघुशङ्का करने की आवश्यकता महसूस हुई। वह उस शिवलिङ्ग को एक अहीर के हाथ में थमाकर लघुशङ्का की निवृत्ति के लिये चल पड़ा। उस अहीर को शिवलिङ्ग का भार बहुत अधिक मालूम दिया, वह उसे सँभाल न सका। विवश होकर उसने उसे वहीं भूमि पर रख दिया। रावण जब लौटकर आया तब फिर बहुत प्रयत्न करने के बाद भी उस शिवलिङ्ग को किसी प्रकार भी उठा न सका। अन्त में निरुपाय होकर उस पवित्र शिवलिङ्ग पर अपने अंगूठे का निशान बनाकर या उसे वहीं छोड़कर लङ्का को लौट गया। तत्पश्चात् ब्रह्मा जी, भगवान् श्री हरी विष्णु आदि देवताओं ने वहाँ आकर उस शिवलिङ्ग का पूजन किया। इस प्रकार वहाँ उसकी प्रतिष्ठा कर वे लोग अपने-अपने धाम को लौट गये। यही ज्योतिर्लिङ्ग श्री वैद्यनाथ के नाम से जाना जाता है।
यह वैद्यनाथ ज्योतिर्लिङ्ग अनन्त फलों को देनेवाला है। यह ग्यारह अङ्गुल ऊँचा है। इसके ऊपर अँगूठे के आकार का गढ़ा है। कहा जाता है कि यह वही निशान है जिसे रावण ने अपने अँगूठे से बनाया था। यहाँ दूर-दूर से तीर्थों का जल लाकर चढ़ाने का विधान है। रोग-मुक्ति के लिये भी इस ज्योतिर्लिङ्ग की महिमा बहुत प्रसिद्ध है। पुराणों में बताया गया है कि जो मनुष्य इस ज्योतिर्लिंङ्ग का दर्शन करता है, उसे अपने समस्त पापों से छुटकारा मिल जाता है। उस पर भगवान् शिव की कृपा सदा बनी रहती है। दैहिक, दैविक, भौतिक कष्ट उसके पास भूलकर भी नहीं आते। भगवान् भूतभावन की कृपा से वह सारी बाधाओं, समस्त रोगों-शोकों से छुटकारा पा जाता है। उसे परम शान्ति दायक शिवधाम की प्राप्ति होती है। भगवान् शिव का कृपा प्राप्त वह जातक सारे संसार के लिये सुखदायक होता है। उसके सारे कृत्य भगवान् शिव को समर्पित करके किये जाते हैं। सारे संसार में उसे भगवान् शिव के ही दर्शन होते हैं। सारे प्राणियों के प्रति उसमें ममता और दया का भाव होता है। सभी भेदों में उसकी अभेद दृष्टि हो जाती है। उसे समस्त प्राणियों के प्रति साम्यावस्था-समता की प्राप्ति हो जाती है और उसके लिये मार्ग प्रशस्त हो जाता है। किसी भी प्राणी के प्रति उसमें ईर्ष्या, द्वेष, वैर, घृणा, क्रोध का अभाव हो जाता है। ऐसा भक्त सदैव सभी के कल्याण और हित में लगा रहता है। भगवान् शिव की भक्ति का यह अमोघ फल हमें अवश्य ही प्राप्त हो ऐसी ईश्वर से प्रार्थना-अर्चना है। यह स्थान देवताओं का घर माना जाता है। यह एक सिद्धपीठ है। इसे कामना लिंग भी कहा जाता हैं।रावण ने हिमालय पर भगवान् शिव को प्रसन्न करने के लिये घोर तपस्या की और अपने सिर काट-काटकर शिवलिंग पर चढ़ाने शुरू कर दिये। एक-एक करके नौ सिर चढ़ाने के बाद दसवाँ सिर भी काटने को ही था कि शिवजी प्रसन्न होकर प्रकट हो गये। उन्होंने उसके दसों सिर ज्यों के त्यों कर दिये और उससे वरदान माँगने को कहा। रावण ने लंका में जाकर उस लिंग को स्थापित करने के लिये, उसे ले जाने की आज्ञा माँगी। भगवान् शिव ने अनुमति तो दे दी, पर इस चेतावनी के साथ दी कि यदि वह मार्ग में इसे पृथ्वी पर रख देगा तो वह वहीं अचल हो जाएगा। अन्ततोगत्वा वही हुआ। रावण शिवलिंग लेकर चला पर मार्ग में एक चिताभूमि आने पर उसे लघुशंका निवृत्ति की आवश्यकता हुई। रावण उस लिंग को एक अहीर जिनका नाम बैजनाथ था, को थमा लघुशंका-निवृत्ति करने चला गया। अहीर ने ज्योतिर्लिंग को बहुत भारी अनुभव कर भूमि पर रख दिया। लौटने पर रावण पूरी शक्ति लगाकर भी उसे न उखाड़ सका और निराश होकर मूर्ति पर अपना अँगूठा गड़ाकर लंका को चला गया। भगवान् ब्रह्मा और श्री हरी विष्णु सहित देवताओं ने आकर उस शिवलिंग की पूजा की। भगवान् शिव का दर्शन होते ही देवी देवताओं ने शिवलिंग को वहीं प्रतिस्थापित कर दिया और शिव-स्तुति की।
देवघर का शाब्दिक अर्थ है, देवी-देवताओं का निवास स्थान। देवघर में बाबा भोलेनाथ का अत्यन्त पवित्र और भव्य मन्दिर स्थित है। हर साल सावन के महीने में श्रवण मेला लगता है, जिसमें लाखों श्रद्धालु "बोल-बम!" "बोल-बम!" का जयकारा लगाते हुए बाबा भोलेनाथ के दर्शन करने आते हैं।
मन्दिर के समीप ही एक विशाल तालाब भी स्थित है। बाबा बैद्यनाथ का मुख्य मन्दिर सबसे पुराना है जिसके आसपास अनेक अन्य मन्दिर भी बने हुए हैं। बाबा भोलेनाथ का मन्दिर माँ पार्वती जी के मन्दिर से जुड़ा हुआ है।
बैद्यनाथ धाम की पवित्र यात्रा श्रावण मास (जुलाई-अगस्त) में शुरु होती है। सबसे पहले तीर्थ यात्री सुल्तानगंज में एकत्र होते हैं जहाँ वे अपने-अपने पात्रों में पवित्र गंगाजल भरते हैं। इसके बाद वे गंगाजल को अपनी-अपनी काँवर में रखकर हैं। पवित्र जल लेकर जाते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि वह पात्र जिसमें जल है, वह कहीं भी भूमि से न सटे।
वासुकिनाथ अपने शिव मन्दिर के लिये जाना जाता है। यह मन्दिर देवघर से 42 किलोमीटर दूर जरमुण्डी गाँव के पास स्थित है। यहाँ पर स्थानीय कला के विभिन्न रूपों को देखा जा सकता है। इसके इतिहास का सम्बन्ध नोनीहाट के घाटवाल से जोड़ा जाता है। वासुकिनाथ मन्दिर परिसर में कई अन्य छोटे-छोटे मन्दिर भी हैं।
बाबा बैद्यनाथ मन्दिर परिसर के पश्चिम में देवघर के मुख्य बाजार में तीन और मन्दिर भी हैं। इन्हें बैजू मन्दिर के नाम से जाना जाता है। इन मन्दिरों का निर्माण बाबा बैद्यनाथ मन्दिर के मुख्य पुजारी के वंशजों ने करवाया था। प्रत्येक मन्दिर में भगवान् शिव का लिंग स्थापित है।
विश्व के सभी शिव मन्दिरों के शीर्ष पर त्रिशूल लगा दिखता है, मगर वैद्यनाथ धाम परिसर के भगवान् शिव, माता पार्वती, भगवान् लक्ष्मी-नारायण व अन्य सभी मन्दिरों के शीर्ष पर पंचशूल लगे हैं।
यहाँ प्रतिवर्ष महाशिवरात्रि से 2 दिनों पूर्व मन्दिरों से पंचशूल उतारे जाते हैं। इस दौरान पंचशूल को स्पर्श करने के लिए भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ती है। सभी पंचशूलों को नीचे लाकर महा शिवरात्रि से एक दिन पूर्व विशेष रूप से उनकी पूजा की जाती है और तब सभी पंचशूलों को मन्दिरों पर यथा स्थान स्थापित कर दिया जाता है। इस दौरान भगवान् शिव और माता पार्वती मन्दिरों के गठबंधन को हटा दिया जाता है। महा शिवरात्रि के दिन नया गठबंधन किया जाता है। गठबंधन के लाल पवित्र कपड़े को प्राप्त करने के लिए भी भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ती है। महा शिवरात्रि के दौरान बहुत-से श्रद्धालु सुल्तानगंज से कांवर में गंगाजल भरकर 105 किलोमीटर पैदल चलकर और ‘बोल बम’ का जयघोष करते हुए वैद्यनाथ धाम पहुँचते हैं।
नागेश्वर ज्योतिर्लिंग, द्वारका :: यह ज्योतिर्लिंग गुजरात के बाहरी क्षेत्र में द्वारिका स्थान में स्थित है। भगवान् शिव का एक नाम नागेश्वर भी है। द्वारका पुरी से भी नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की दूरी 17 मील की है।
एतद् यः श्रृणुयान्नित्यं नागेशोद्भवमादरात्।
सर्वान् कामानियाद् धीमान् महापातकनाशनम्॥
जो व्यक्ति श्रद्धा पूर्वक इसकी उत्पत्ति और माहात्म्य की कथा सुनेगा उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी हो जायेंगी और वह सारे पापों से छुटकारा पाकर समस्त सुखों का भोग करता हुआ, अंत में भगवान् शिव के परम पवित्र दिव्य धाम को प्राप्त होगा।
रुद्र संहिता में इन भगवान् शिव को "दारुकावने नागेशं" कहा गया है।
सुप्रिय नामक एक बड़ा धर्मात्मा और सदाचारी वैश्य था। वह भगवान् शिव का परम्-अनन्य भक्त था। वह निरन्तर उनकी आराधना, पूजन और ध्यान में तल्लीन रहता था। अपने सारे कार्य वह भगवान् शिव को अर्पित करके करता था। मन, वचन, कर्म से वह पूर्णतः शिवार्चन में ही तल्लीन रहता था। उसकी इस शिव भक्ति से दारुक नामक एक राक्षस बहुत क्रुद्व रहता था
उसे भगवान् शिव की यह पूजा किसी प्रकार भी अच्छी नहीं लगती थी। वह निरन्तर इस बात का प्रयत्न किया करता था कि उस सुप्रिय की पूजा-अर्चना में विघ्न पहुँचे। एक बार सुप्रिय नौका पर सवार होकर कहीं जा रहा था। उस दुष्ट राक्षस दारुक ने यह उपयुक्त अवसर देखकर नौका पर आक्रमण कर दिया। उसने नौका में सवार सभी यात्रियों को पकड़कर अपनी राजधानी में ले जाकर कैद कर लिया। सुप्रिय कारागार में भी अपने नित्य-नियम के अनुसार भगवान् शिव की पूजा-आराधना करने लगा।
अन्य बंदी यात्रियों को भी वह भगवान् शिव की भक्ति की प्रेरणा देने लगा। दारुक ने जब अपने सेवकों से सुप्रिय के विषय में यह समाचार सुना तब वह अत्यन्त क्रुद्ध होकर उस कारागर में आ पहुँचा। सुप्रिय उस समय भगवान् शिव के चरणों में ध्यान लगाए हुए दोनों आँखें बन्द किए बैठा था। उस राक्षस ने उसकी यह मुद्रा देखकर अत्यन्त भीषण स्वर में उसे डाँटते हुए कहा, "अरे दुष्ट वैश्य! तू आँखें बन्द कर इस समय यहाँ कौन से उपद्रव और षड्यन्त्र करने की बातें सोच रहा है"? उसके यह कहने पर भी धर्मात्मा शिवभक्त सुप्रिय की समाधि भंग नहीं हुई। अब तो वह दारुक राक्षस क्रोध से एकदम पागल हो उठा। उसने तत्काल अपने अनुचरों को सुप्रिय तथा अन्य सभी बंदियों को मार डालने का आदेश दे दिया। सुप्रिय उसके इस आदेश से जरा भी विचलित और भयभीत नहीं हुआ।
वह एकाग्र मन से अपनी और अन्य बंदियों की मुक्ति के लिए भगवान् शिव से प्रार्थना करने लगा। उसे यह पूर्ण विश्वास था कि मेरे आराध्य भगवान् शिवजी इस विपत्ति से मुझे अवश्य ही छुटकारा दिलाएँगे। उसकी प्रार्थना सुनकर भगवान् शिव तत्क्षण उस कारागार में एक ऊँचे स्थान में एक चमकते हुए सिंहासन पर स्थित होकर ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हो गए।
उन्होंने इस प्रकार सुप्रिय को दर्शन देकर उसे अपना पाशुपत-अस्त्र भी प्रदान किया। इस अस्त्र से राक्षस दारुक तथा उसके सहायक का वध करके सुप्रिय शिवधाम को चला गया। भगवान् शिव के आदेशानुसार ही इस ज्योतिर्लिंग का नाम नागेश्वर पड़ा।
ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग OMKARESHWAR :: The Temple of Bhagwan Shiv-Omkareshwr is situated on the banks of River Narmada, in between Indore & Khandwa. The temple is situated on an island, which is encircled by the Narmada River.
ओंकारेश्वर नगरी का मूल नाम मान्धाता है। ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मध्य प्रदेश के प्रसिद्ध शहर इंदौर के समीप खंडवा जिले में स्थित है। जिस स्थान पर यह ज्योतिर्लिंग स्थित है, उस स्थान पर नर्मदा नदी बहती है और पहाड़ी के चारों ओर नदी बहने से यहां ऊं का आकार बनता है। यह नर्मदा नदी के बीच मन्धाता या शिवपुरी नामक द्वीप पर स्थित है। ॐकारेश्वर का निर्माण नर्मदा नदी से स्वतः ही हुआ है। ऊं शब्द की उत्पति ब्रह्मा के मुख से हुई है। इसलिए किसी भी धार्मिक शास्त्र या वेदों का पाठ ऊं के साथ ही किया जाता है। यह ज्योतिर्लिंग औंकार अर्थात ऊं का आकार लिए हुए है, इस कारण इसे ओंकारेश्वर नाम से जाना जाता है।
देवी अहिल्याबाई होलकर की ओर से यहाँ नित्य मृत्तिका के 18 सहस्र शिवलिंग तैयार कर उनका पूजन करने के पश्चात उन्हें नर्मदा में विसर्जित कर दिया जाता था।
राजा मान्धाता ने यहाँ नर्मदा किनारे इस पर्वत पर घोर तपस्या कर भगवान् शिव को प्रसन्न किया और भगवान् शिव के प्रकट होने पर उनसे यहीं निवास करने का वरदान माँग लिया। तभी से उक्त प्रसिद्ध तीर्थ नगरी ओंकार-मान्धाता के रूप में पुकारी जाने लगी। जिस ओंकार शब्द का उच्चारण सर्वप्रथम सृष्टिकर्ता विधाता के मुख से हुआ, वेद का पाठ इसके उच्चारण किए बिना नहीं होता है। इस ओंकार का भौतिक विग्रह ओंकार क्षेत्र है। इसमें 68 तीर्थ हैं। यहाँ 33 करोड़ देवता परिवार सहित निवास करते हैं।
नर्मदा क्षेत्र में ओंकारेश्वर सर्वश्रेष्ठ तीर्थ है। मान्यता है कि कोई भी तीर्थ यात्री देश के भले ही सारे तीर्थ कर ले किन्तु जब तक वह ओंकारेश्वर आकर किए गए तीर्थों का जल लाकर यहाँ नहीं चढ़ाता, तब तक उसके सारे तीर्थ अधूरे माने जाते हैं। ओंकारेश्वर तीर्थ के साथ नर्मदा जी का भी विशेष महत्व है। शास्त्र मान्यता के अनुसार जमुना जी में 15 दिन का स्नान तथा गँगा जी में 7 दिन का स्नान जो फल प्रदान करता है, उतना पुण्य फल नर्मदा जी के दर्शन मात्र से प्राप्त हो जाता है।
ओंकारेश्वर तीर्थ क्षेत्र में चौबीस अवतार, माता घाट (सेलानी), सीता वाटिका, धावड़ी कुंड, मार्कण्डेय शिला, मार्कण्डेय संन्यास आश्रम, अन्नपूर्णाश्रम, विज्ञान शाला, बड़े हनुमान, खेड़ापति हनुमान, ओंकार मठ, माता आनंदमयी आश्रम, ऋणमुक्तेश्वर महादेव, गायत्री माता मन्दिर, सिद्धनाथ गौरी सोमनाथ, आड़े हनुमान, माता वैष्णो देवी मन्दिर, चाँद-सूरज दरवाजे, वीरखला, विष्णु मन्दिर, ब्रह्मेश्वर मन्दिर, सेगाँव के गजानन महाराज का मन्दिर, काशी विश्वनाथ, नरसिंह टेकरी, कुबेरेश्वर महादेव, चन्द्रमोलेश्वर महादेव के मन्दिर भी दर्शनीय हैं।
इस मन्दिर में भगवान् शिव के भक्त कुबेर ने तपस्या की थी तथा शिवलिंग की स्थापना की थी। जिसे भगवान् शिव ने देवताओं का खजांची-धनपति बनाया था। कुबेर के स्नान के लिए भगवान् शिव ने अपनी जटा के बाल से कावेरी नदी उत्पन्न की थी। यह नदी कुबेर मन्दिर के बाजू से बहकर नर्मदा जी में मिलती है, जिसे छोटी परिक्रमा में जाने वाले भक्तों ने प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में देखा है, यही कावेरी ओमकार पर्वत का चक्कर लगाते हुए संगम पर वापस नर्मदा जी से मिलती हैं, इसे ही नर्मदा कावेरी का संगम कहते है।
इस मंदिर पर प्रतिवर्ष दिवाली की बारस की रात को ज्वार चढाने का विशेष महत्त्व है इस रात्रि को जागरण होता है तथा धनतेरस की सुबह 4 बजे से अभिषेक पूजन होता हैं इसके पश्चात् कुबेर महालक्ष्मी का महायज्ञ, हवन, (जिसमें कई जोड़े बैठते हैं, धनतेरस की सुबह कुबेर महालक्ष्मी महायज्ञ नर्मदाजी का तट और ओम्कारेश्वर जैसे स्थान पर होना विशेष फलदायी होता हैं) भंडारा होता है, लक्ष्मी वृद्धि-सिद्धि का वितरण होता है, जिसे घर पर ले जाकर दीपावली की अमावस को विधि अनुसार धन रखने की जगह पर रखना होता है, जिससे घर में प्रचुर धन के साथ सुख-शान्ति प्राप्त होती है। इस अवसर पर हजारों भक्त दूर दूर से आते हैं व कुबेर का भंडार प्राप्त कर प्रचुर धन के साथ सुख-शान्ति पाते हैं। प्राचीन मन्दिर के ओम्कारेश्वर बाँध में जलमग्न हो जाने के कारण इसका नवनिर्माण किया।
नर्मदा किनारे जो बस्ती है, उसे विष्णु पुरी कहते हैं। यहाँ नर्मदा जी पर पक्का घाट है। सेतु अथवा नौका द्वारा नर्मदा जी को पार करके यात्री मान्धाता द्वीप में पहुँचता है। उस ओर भी पक्का घाट है। यहाँ घाट के पास नर्मदा जी में कोटि तीर्थ या चक्रतीर्थ माना जाता है। यहीं स्नान करके यात्री सीढ़ियों से ऊपर चढ़कर ऑकारेश्वर-मन्दिर में दर्शन करने जाते हैं। मन्दिर तट पर ही कुछ ऊँचाई पर है।
मन्दिर के अहाते में पंचमुख गणेश जी की मूर्ति है। प्रथम तल पर ओंकारेश्वर लिंग विराजमान हैं। श्रीओंकारेश्वर का लिंग अनगढ़ है। यह लिंग मन्दिर के ठीक शिखर के नीचे न होकर एक ओर हटकर है। लिंग के चारों ओर जल भरा रहता है। मन्दिर का द्वार छोटा है। ऐसा लगता है जैसे गुफा में जा रहे हों। पास में ही माता पार्वती की मूर्ति है। ओंकारेश्वर मन्दिर में सीढ़ियाँ चढ़कर दूसरी मंजिल पर जाने पर महाकालेश्वर लिंग के दर्शन होते हैं। यह लिंग शिखर के नीचे है। तीसरी मंजिल पर सिद्धनाथ लिंग है। यह भी शिखर के नीचे है। चौथी मंजिल पर गुप्तेश्वर लिंग है। पांचवीं मंजिल पर ध्वजेश्वर लिंग है।
तीसरी, चौथी व पांचवीं मंजिलों पर स्थित लिंगों के ऊपर स्थित छतों पर अष्टभुजाकार आकृतियाँ बनी हैं जो एक दूसरे में गुंथी हुई हैं। द्वितीय तल पर स्थित महाकालेश्वर लिंग के ऊपर छत समतल न होकर शंक्वाकार है और वहांँ अष्टभुजाकार आकृतियाँ भी नहीं हैं। प्रथम और द्वितीय तलों के शिवलिंगों के प्राँगणों में नन्दी महाराज की मूर्तियाँ स्थापित हैं। तृतीय तल के प्राँगण में नन्दी महाराज की मूर्ति नहीं है। यह प्राँगण केवल खुली छत के रूप में है। चतुर्थ एवं पंचम तलों के प्राँगण नहीं हैं। वह केवल ओंकारेश्वर मन्दिर के शिखर में ही समाहित हैं। प्रथम तल पर जो नन्दी की मूर्ति है, उसकी हनु के नीचे एक स्तम्भ दिखाई देता है। ऐसा स्तम्भ नन्दी की अन्य मूर्तियों में विरल ही पाया जाता है।
श्री ओंकारेश्वर जी की परिक्रमा में रामेश्वर-मन्दिर तथा गौरी सोमनाथ के दर्शन हो जाते हैं। ओंकारेश्वर मन्दिर के पास अविमुतश्वर, ज्वालेश्वर, केदारेश्वर आदि कई मन्दिर हैं।
मान्धाता टापू में ही ओंकारेश्वर की दो परिक्रमाएँ होती हैं, एक छोटी और एक बड़ी। ऑकारेश्वर की यात्रा तीन दिन की मानी जाती है। इस तीन दिन की यात्रा में यहाँ के सभी तीर्थ आ जाते हैं।
प्रथम दिन की यात्रा :- कोटि-तीर्थ पर (मान्धाता द्वीप में) स्नान और घाट पर ही कोटेश्वर, हाटकेश्वर, त्र्यम्बकेश्वर, गायत्रीश्वर, गोविन्देश्वर, सावित्रीश्वर का दर्शन करके भूरीश्वर, श्री कालिका तथा पंचमुख गणपति का एवं नन्दी का दर्शन करते हुए ऑकारेश्वरजी का दर्शन करें। ओंकारेश्वर मन्दिर में ही शुकदेव, मान्धांतेश्वर, मनागणेश्वर, श्रीद्वारिकाधीश, नर्मदेश्वर, नर्मदादेवी, महाकालेश्वर, वैद्यनाथेश्वर, सिद्धेश्वर, रामेश्वर, जालेश्वरके दर्शन करके विशल्या संगम तीर्थ पर विशल्येश्वर का दर्शन करते हुए अन्धकेश्वर, झुमकेश्वर, नवग्रहेश्वर, मारुति (यहाँ राजा मानकी साँग गढ़ी है), साक्षीगणेश, अन्नपूर्णा और तुलसीजी का दर्शन करके मध्याह्न विश्राम किया जाता है। मध्याहोत्तर अविमुक्तेश्वर, महात्मा दरियाई नाथ की गद्दी, बटुक भैरव, मंगलेश्वर, नागचन्द्रेश्वर, दत्तात्रेय एवं काले-गोरे भैरव का दर्शन करते बाजार से आगे श्री राम मन्दिर में श्री राम चतुष्टय का तथा वहीं गुफा में धृष्णेश्वर का दर्शन करके नर्मदाजी के मन्दिर में नर्मदा जी का दर्शन करना चाहिये।
दूसरे दिन :- यह दिन ओंकार-मान्धाता पर्वत की पंचकोशी परिक्रमा का है। कोटितीर्थ पर स्नान करके चक्रेश्वर का दर्शन करते हुए गऊघाट पर गोदन्तेश्वर, खेड़ापति हनुमान, मल्लिकार्जुन, चन्द्रेश्वर, त्रिलोचनेश्वर, गोपेश्वर के दर्शन करते श्मशान में पिशाच मुक्तेश्वर, केदारेश्वर होकर सावित्री-कुण्ड और आगे यमलार्जुनेश्वर के दर्शन करके कावेरी-संगम तीर्थ पर स्नान-तर्पणादि करे तथा वहीं श्री रणछोड़ जी एवं ऋण मुक्तेश्वर का पूजन करें। आगे राजा मुचुकुन्द के किले के द्वार से कुछ दूर जाने पर हिडिम्बा-संगम तीर्थ मिलता है। यहाँ मार्ग में गौरी-सोमनाथ की विशाल लिंगमूर्ति मिलती है (इसे मामा-भानजा कहते हैं)। यह तिमंजिला मन्दिर है और प्रत्येक मंजिल पर शिवलिंग स्थापित हैं। पास ही शिवमूर्ति है। यहाँ नन्दी, गणेश जी और हनुमान जी की भी विशाल मूर्तियाँ हैं। आगे अन्नपूर्णा, अष्टभुजा, महिषासुर मर्दिनी, सीता-रसोई तथा आनन्द भैरव के दर्शन करके नीचे उतरे। यह ओंकार का प्रथम खण्ड पूरा हुआ। नीचे पंचमुख हनुमान जी हैं। सूर्यपोल द्वार में षोडश भुजा दुर्गा, अष्टभुजा देवी तथा द्वार के बाहर आशापुरी माता के दर्शन करके सिद्धनाथ एवं कुन्ती माता (दशभुजा देवी) के दर्शन करते हुए किले के बाहर द्वार में अर्जुन तथा भीम की मूर्तियों के दर्शन करे। यहाँ से धीरे-धीरे नीचे उतरकर वीरखला पर भीमा शंकर के दर्शन करके और नीचे उतर कर काल भैरव के दर्शन करे तथा कावेरी-संगम पर जूने कोटि तीर्थ और सूर्य कुण्ड के दर्शन करके नौका से या पैदल (ऋतु के अनुसार जैसे सम्भव हो) कावेरी पार करे। उस पार पंथिया ग्राम में चौबीस अवतार, पशुपति नाथ, गया शिला, एरंडी-संगम तीर्थ, पित्रीश्वर एवं गदाधर-भगवान् के दर्शन करे। यहाँ पिण्डदान श्राद्ध होता है। फिर कावेरी पार कर के लाट भैरव-गुफा में कालेश्वर, आगे छप्पन भैरव तथा कल्पान्त भैरवके दर्शन करते हुए राजमहल में भगवान श्री राम का दर्शन करके औंकारेश्वर के दर्शन से परिक्रमा पूरी करें।
तीसरे दिन की यात्रा :- इस मान्धाता द्वीप से नर्मदा पार करके इस ओर विष्णुपुरी और ब्रह्मपुरी की यात्रा की जाती है। विष्णुपुरी के पास गोमुख से बराबर जल गिरता रहता है। यह जल जहाँ नर्मदा में गिरता है, उसे कपिला-संगम तीर्थ कहते हैं। वहाँ स्नान और मार्जन किया जाता है। गोमुख की धारा गोकर्ण और महाबलेश्वर लिंगों पर गिरती है। यह जल त्रिशूलभेद कुण्ड से आता है। इसे कपिल धारा कहते हैं। वहाँ से इन्द्रेश्वर और व्यासेश्वर का दर्शन करके अमलेश्वर का दर्शन करना चाहिये।
ममलेश्वर भी शिव र्लिंग है। ममलेश्वर मन्दिर अहल्याबाई का बनवाया हुआ है। गायकवाड़ राज्य की ओर से नियत किये हुए बहुत से ब्राह्मण यहीं पार्थिव-पूजन करते रहते हैं। यात्री चाहे तो पहले ममलेश्वर का दर्शन करके तब नर्मदा पार होकर औंकारेश्वर जायें; किंतु नियम पहले ओंकारेश्वर का दर्शन करके लौटते समय ममलेश्वर-दर्शन का ही है। पुराणों में ममलेश्वर नाम के बदले अमलेश्वर उपलब्ध होता है। ममलेश्वर-प्रदक्षिणा में वृद्ध कालेश्वर, बाणेश्वर, मुक्तेश्वर, कर्दमेश्वर और तिल भाण्डेश्वरके मन्दिर मिलते हैं।
ममलेश्वर का दर्शन करके (निरंजनी अखाड़े में) स्वामिकार्तिक (अघोरी नाले में) अघेोरेश्वर गणपति, मारुति का दर्शन करते हुए नृसिंह टेकरी तथा गुप्तेश्वर होकर (ब्रह्मपुरी में) ब्रह्मेश्वर, लक्ष्मी नारायण, काशी विश्वनाथ, शरणेश्वर, कपिलेश्वर और गंगेश्वरके दर्शन करके विष्णु पुरी लौटकर भगवान् विष्णु के दर्शन करें। यहीं कपिल जी, वरुण, वरुणेश्वर, नीलकण्ठेश्वर तथा कर्दमेश्वर होकर मार्कण्डेय आश्रम जाकर मार्कण्डेय शिला और मार्कण्डेयेश्वर के दर्शन करे।
भगवान् के महान भक्त अम्बरीष और मुचुकुन्द के पिता सूर्यवंशी राजा मान्धाता ने इस स्थान पर कठोर तपस्या करके भगवान शंकर को प्रसन्न किया था। उस महान पुरुष मान्धाता के नाम पर ही इस पर्वत का नाम मान्धाता पर्वत हो गया।
ओंकारेश्वर लिंग किसी मनुष्य के द्वारा गढ़ा, तराशा या बनाया हुआ नहीं है, बल्कि यह प्राकृतिक शिवलिंग है। इसके चारों ओर हमेशा जल भरा रहता है। प्राय: किसी मन्दिर में लिंग की स्थापना गर्भ गृह के मध्य में की जाती है और उसके ठीक ऊपर शिखर होता है, किन्तु यह ओंकारेश्वर लिंग मन्दिर के गुम्बद के नीचे नहीं है। इसकी एक विशेषता यह भी है कि मन्दिर के ऊपरी शिखर पर भगवान् महाकालेश्वर की मूर्ति लगी है। कुछ लोगों की मान्यता है कि यह पर्वत ही ओंकाररूप है।
परिक्रमा के अन्तर्गत बहुत से मन्दिरों के विद्यमान होने के कारण भी यह पर्वत ओंकार के स्वरूप में दिखाई पड़ता है। ओंकारेश्वर के मन्दिर ॐकार में बने चन्द्र का स्थानीय ॐ इसमें बने हुए चन्द्र बिन्दु का जो स्थान है, वही स्थान ओंकार पर्वत पर बने ओंकारेश्वर मन्दिर का है। इस मन्दिर में भगवान् शिव के पास ही माँ पार्वती की भी मूर्ति स्थापित है। यहाँ पर भगवान परमेश्वर महादेव को चने की दाल चढ़ाने की परम्परा है।
यह ज्योतिर्लिङ्ग मध्यप्रदेश में पवित्र नर्मदा नदी के तट पर अवस्थित है। इस स्थान पर नर्मदा के दो धाराओं में विभक्त हो जाने से बीच में एक टापू सा बन गया है। इस टापू को मान्धाता-पर्वत या शिवपुरी कहते हैं। नदी की एक धारा इस पर्वत के उत्तर और दूसरी दक्षिण होकर बहती है। दक्षिण वाली धारा ही मुख्य धारा मानी जाती है। इसी मान्धाता पर्वत पर श्रीओङ्कारेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग का मन्दिर स्थित है। पूर्व काल में महाराज मान्धाता ने इसी पर्वत पर अपनी तपस्या से भगवान् शिव को प्रसन्न किया था। इसी से इस पर्वत को मान्धाता-पर्वत कहा जाने लगा। इस ज्योतिर्लिङ्ग-मन्दिर के भीतर दो कोठरियों से होकर जाना पड़ता है। भीतर अँधेरा रहने के कारण यहाँ निरन्तर प्रकाश जलता रहता है। ओङ्कारेश्वर लिङ्ग मनुष्य निर्मित नहीं है। स्वयं प्रकृति ने इसका निर्माण किया है। यह स्वयंभू है। इसके चारों ओर हमेशा जल भरा रहता है। सम्पूर्ण मान्धाता पर्वत ही भगवान् शिवका रूप माना जाता है। इसी कारण इसे शिवपुरी भी कहते हैं। लोग भक्ति पूर्वक इसकी परिक्रमा करते हैं।
कार्त्तिक पूर्णिमा के दिन यहाँ बहुत भारी मेला लगता है। यहाँ लोग भगवान् शिव को चने की दाल चढ़ाते हैं। रात्रि की शयन आरती का कार्यक्रम बड़ी भव्यता के साथ होता है। तीर्थ यात्रियों को इसके दर्शन अवश्य करने चाहिये।
इस ओङ्कारेश्वर ज्योतिर्लिङ्गके दो स्वरूप हैं। एक को अमलेश्वरके नाम से जाता है। यह नर्मदा के दक्षिण तटपर ओङ्कारेश्वर से थोड़ी दूर हटकर है। पृथक् होते हुए भी दोनों की गणना एक ही में की जाती है।
लिङ्ग के दो स्वरूप होने की कथा :: एक बार विन्ध्य पर्वत ने पार्थिव अर्चना के साथ भगवान् शिव की छः मास तक कठिन उपासना की। उनकी इस उपासना से प्रसन्न होकर भूत भावन भोलेनाथ यहाँ प्रकट हुए। उन्होंने विन्ध्य को उनके मनोवाञ्छित वर प्रदान किये। विन्ध्याचल की इस वर प्राप्ति के अवसर पर वहाँ बहुत से ऋषिगण और मुनि भी पधारे। उनकी प्रार्थना पर भगवान् शिव ने अपने ओङ्कारेश्वर नामक लिङ्ग के दो भाग किये। एक का नाम ओङ्कारेश्वर और दूसरे का अमलेश्वर पड़ा। दोनों लिङ्गों का स्थान और मन्दिर पृथक् होते भी दोनों की सत्ता और स्वरूप एक ही माना गया है।
शिवपुराणमें इस ज्योतिर्लिङ्गकी महिमाका विस्तारसे वर्णन किया गया है। श्रीओङ्कारेश्वर और श्रीअमलेश्वर के दर्शन का पुण्य बताते हुए नर्मदा-स्नान के पावन फल का भी वर्णन किया गया है। प्रत्येक मनुष्य को इस क्षेत्र की यात्रा अवश्य ही करनी चाहिये। लौकिक-पारलौकिक दोनों प्रकार के उत्तम फलों की प्राप्ति भगवान् ओङ्कारेश्वर की कृपा से सहज ही हो जाती है। अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष के सभी साधन उसके लिये सहज ही सुलभ हो जाते हैं। अन्ततः जातक-भक्त को लोकेश्वर महादेव भगवान् शिव के परमधामकी प्राप्ति भी सहज हो जाती है।
भगवान् शिव तो भक्तों पर अकारण ही कृपा करने वाले हैं। वह अवढर दानी हैं। फिर जो लोग यहाँ आकर उनके दर्शन करते हैं, उनके सौभाग्य के विषयमें कहना ही क्या है? उनके लिये तो सभी प्रकारके उत्तम पुण्य-मार्ग सदा-सदा के लिये खुल जाते हैं।
GHUSHMESHWAR JYOTIR LING श्री घुश्मेश्वर :: इसे घुश्मेश्वर, घुसणेश्वर या घृष्णेश्वर भी कहा जाता है। यह महाराष्ट्र प्रदेश में दौलताबाद से बारह मील दूर वेरुल गाँव के पास अवस्थित है।
दक्षिण देश में देव गिरि पर्वत के निकट सुधर्मा नामक एक अत्यन्त तेजस्वी तपोनिष्ठ ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम सुदेहा था। दोनों में परस्पर बहुत प्रेम था। किसी प्रकार का कोई कष्ट उन्हें नहीं था। लेकिन उन्हें कोई सन्तान नहीं थी। ज्योतिष गणना से पता चला कि सुदेहा के गर्भ से सन्तानोत्पत्ति हो ही नहीं सकती। सुदेहा सन्तान की बहुत ही इच्छुक थी। उसने आग्रह करके सुधर्मा का दूसरा विवाह अपनी छोटी बहन से करवाने को जोर देना शुरू किया।
पहले तो ब्राह्मण देवता को यह बात नहीं जँची। लेकिन अन्त में उन्हें पत्नी की जिद के आगे झुकना ही पड़ा। वे उसका आग्रह टाल नहीं पाये। वे अपनी पत्नी की छोटी बहन घुश्मा को ब्याहकर घर ले आये। घुश्मा अत्यन्त विनीत और सदाचारिणी स्त्री थी। वह भगवान् शिव की अनन्य भक्त थी। प्रतिदिन एक सौ एक पार्थिव शिवलिङ्ग बनाकर हृदय की सच्ची निष्ठा के साथ उनका पूजन करती थी। भगवान् शिव की कृपा से थोड़े ही दिन बाद उसके गर्भसे अत्यन्त सुन्दर और स्वस्थ बालक ने जन्म लिया। बच्चे के जन्म से सुदेहा और घुश्मा दोनों के ही आनन्द का पार न रहा। दोनों के दिन बड़े आराम से बीत रहे थे। लेकिन न जाने कैसे थोड़े ही दिनों बाद सुदेहा के मन में एक कुविचार ने जन्म ले लिया। वह सोचने लगी, मेरा तो इस घर में कुछ है नहीं। सब कुछ घुश्मा का है। मेरे पति पर भी उसने अधिकार जमा लिया। सन्तान भी उसी की है।
यह कुविचार धीरे-धीरे उसके मन में बढ़ने लगा। घुश्मा का वह बालक भी बड़ा हो रहा था। धीरे-धीरे वह जवान हो गया। उसका विवाह भी हो गया। अब तक सुधर्मा के मन का कुविचार रूपी अङ्कुर एक विशाल वृक्ष का रूप ले चुका था। अन्ततः एक दिन उसने घुश्मा के युवा पुत्र को रात में सोते समय मार डाला। उसके शव को ले जाकर उसने उसी तालाब में फेंक दिया, जिसमें घुश्मा प्रतिदिन पार्थिव शिवलिङ्गों को सिराया करती थी। सुबह होते ही सबको इस बात का पता लगा। पूरे घर में कुहराम मच गया। सुधर्मा और उसकी पुत्र वधू दोनों सिर पीट-पीट कर फूट-फूट कर रोने लगे। लेकिन घुश्मा नित्य की भाँति भगवान् शिव की आराधना में तल्लीन रही। जैसे कुछ हुआ ही न हो। पूजा समाप्त करने के बाद वह पार्थिव शिवलिङ्गों को तालाब में छोड़ने के लिये चल पड़ी। जब वह तालाब से लौटने लगी उसी समय उसका प्यारा लाल तालाब के भीतर से निकलकर आता हुआ दिखलायी पड़ा। वह सदा की भाँति आकर घुश्मा के चरणों पर गिर पड़ा, जैसे कहीं आस-पास से ही घूमकर आ रहा हो। इसी समय भगवान् शिव भी वहाँ प्रकट होकर घुश्मा से वर माँगने को कहने लगे। वह सुधर्मा की घिनौनी करतूत से अत्यन्त कुद्ध हो उठे और उन्होंने अपना त्रिशूल उसका गला काटने को उठाया तो घुश्मा ने हाथ जोड़कर भगवान् शिव से कहा, "प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मेरी उस अभागिन बहन को क्षमा कर दें। निश्चित ही उसने अत्यन्त जघन्य पाप किया है; किन्तु आपकी दया से मुझे मेरा पुत्र वापस मिल गया। अब आप उसे क्षमा करें और प्रभो! मेरी एक प्रार्थना और है, लोक-कल्याण के लिये आप इस स्थान पर सदा-सर्वदा के लिये निवास करें। भगवान् शिव ने उसकी ये दोनों बातें स्वीकार कर लीं। ज्योतिर्लिङ्ग के रूप में प्रकट होकर वह वहीं निवास करने लगे। सती शिव भक्ता घुश्मा के आराध्य होने के कारण वे यहाँ घुश्मेश्वर महादेव के नाम से विख्यात हुए। घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग का दर्शन लोक-परलोक दोनों के लिये अमोघ फलदायी है।
It is situated just adjacent to the famous Ellora Caves. This temple illustrates pre-historic traditions in addition to pre-historic architectural style and structure. The inscriptions on the temples are a source of much attraction to ardent travellers. The temple, built of red rocks, is composed of a five tier Shikhar (शिखर). Restored in the 18th century by Ahilya Bai Holkar. Its dimensions are 240 x 185 [height x plinth] square feet tall. It houses beautiful carvings and sculptures of deities and demigods. Holy water springs from inside the temple.
The very devout Shiv devotee, Ghushm (Patel, chief of Verul) once found a treasure hidden in the snake pit (ant hill) by the grace of Bhagwan Shiv (Ghrishneshwar). He spent that money in renovating the temple and built a lake in Shikhar Shingna Pur. Later on, Goutami Bal (Bayaj Bai) and Ahilya Bai Holkar, queen of Indore renovated the Ghrishneshwar temple. This is an architectural marble, built with three different kind of stones. This a strong and beautiful temple. Halfway up the temple, Dashashwtar (दशाश्वतार); temple is found in addition to other beautiful statues of deities and demigods are beautifully carved in red stone. A court hall is built on 24 pillars having wonderful carvings. The scenes and paintings are beautiful. Its Garbh Grah measures (17 x 17) square feet. The Ling Murty faces eastward. A gorgeous statue of Nandi Keshwar is present in the court hall.
Millions of currency notes pour in the chest of the temple. Most of it goes to the priests directly from the devotees. Still, one wonders; the surroundings are in shambles. Those sitting inside the temple don't let the devotees have photographs of their memorable pilgrimage of the once in life time-whole life.
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्री शैले मल्लिकार्जुनम।
उज्जयिन्यां महाकालंओंकारं ममलेश्वरम॥
केदारं हिमवत्प्रष्ठे डाकिन्यां भीमशंकरम।
वाराणस्यां च विश्वेशं त्रयम्बकं गोतमी तटे॥
वैधनाथं चितभूमौ नागेशं दारुकावने।
सेतुबन्धे च रामेशं घुश्मेशं तु शिवालये॥
[शिव पुराण कोटि रुद्र संहिता 32-33]
MALLIKARJUN, Srisaelam (Andhra Pradesh) :: Shael Mallikarjun’s holy place is located on the banks of River Krashna. Here River Krishna is in the form of Patal Ganga (underground spring). Lakhs of devotees take a holy dip here and then go for the Darshan of the Jyotir Ling.
The shrine of Bhagwan Mallikarjun is picturesquely situated on a flat top of Nallamalai Hills, Srisaelam is one of the ancient Kshetr in India. It is on the right side of the River Krashna in Kurnool District of Andhra Pradesh. This celebrated mountain is also named as Siridhan, Srigiri, Sirigiri, Sriparvat and Srinagam. It has been a popular centre of Shaevite pilgrimage for centuries.
The presiding Deities of this Kshetram Bhagwan Mallikarjun Swamy is one of the twelve Jyotir Ling and Goddess Bhramaramba Devi is one of the eighteen Maha Shakti and both are self-manifested.
2nd Hari Hraray devotee of Srisail Mallikarjun constructed entry face (Mukh Mandap) shrine to Bhagwan Mallikarjun temple. Vithalamba wife of 2nd Ruler of Maharashtr, Chhatr Pati Shiva Ji also served for the development of Srisailam.
MALLIKARJUN TEMPLE :: It's is situated in the state of Andhra Pradesh. The temple is situated in the town of Shri Shaelam on the banks of River Patal Ganga Krashna. Shri Shael mountain is looked upon reverentially as the Kaelash of South.
Kumar Kartikey returned to Kaelash after completing his trip around the earth, he heard about Ganesh’s marriage from Dev Rishi Narad. This angered him. In spite of being restrained by his parents, he touched their feet in obeisance and left for Krounch Mountain. Maan Parvati was very distraught at having to be away from her son, implored Bhagwan Shiv to look for their son. Together, they went to Kumar. But, Kumar went away further by three Yojans, after learning that his parents were coming after him to Krounch Mountain. Before embarking on a further search for their son on each mountain, they decided to leave a light on every mountain they visited.
SHRI MALLIKARJUN SWAMY :: Since then this place came to be known as Jyotir Ling Mallikarjun. It is believed that Shiv and Parvati visited this place on Amavasya (No moon day) and (full Moon day) Poornmassi-Poornima, respectively. Visiting this Jyotir Ling not only blesses one (who is virtuous, not the sinners) with innumerable wealth, but also name and fame and fulfils all the desires.
Chandr Vati-a princes, decided to go to the Jungles for ascetic practices, penance and meditation. She chose Kadli Van for this purpose. She witnessed a miracle. A Kapila cow was standing under a Bilw tree and milk was flowing from all of its four udders, sinking into the ground. The cow kept doing this as a routine chore everyday. Chandra Vati dug up that area and found the self raising-Swayambhu Shiv Ling. It was bright and shining like the sun rays and looked like it was burning, throwing flames in all directions. Chandr Vati prayed to Bhagwan Shiv at this location of the Jyotir Ling. She built a huge Shiv Temple there. Bhagwan Shankar was pleased with her. Chandr Vati went to Kaelash, wind borne. She received salvation and Mukti. On one of the stone-inscriptions of the temple, Chandr Vati’s story can be seen carved out.
Parvat, son of Maharishi Silad performed penance, pleased Bhagwan Shiv and made him agree to live on his body. This Parvat assumed the shape of big Hill Sriparvat and Bhagwan Shiv lived on it's top as Mallikarjun Swamy.
Shri-the daughter of a Rishi did penance, pleased Bhagwan Shiv and got her name associated with the name of the Hill (Shaelam) which thereafter came to be known as Srisailam.
(1).Vraddh Mallikarjun Swamy :: This Shiv Ling is older than the present Mallikarjun Swamy Lingam. Status of Nandi, the carrier of Bhagwan Shiv is absent here. The Shiv Ling is uneven on its outer face. It indicates the old age of Bhagwan Shiv which was prayed by Chandr Vati. (Vraddh, aged, old)
(2). Ardh Nareeshwar :: This idol is in northern side of the main temple. This is the oldest idol. Right segment of the statue shows Bhagwan Shiv and the left shows Maan Parwati.(Ardh-half, Naree-woman, Ishwar-God)
(3). Lings incarnated by Pandavs :: Five temples are situated besides Ardh Nareeshwar temple. These were incarnated by Pandavs.
(4). Mallika Gundam :: Gundam was part and parcel of Saraswati river, which flows in inner of the Krashna river. This Saraswati river tributary is called Anant Vahini. It is flowing along with Krashna. Many devotees used this Mallika Gundam water to heal their diseases. Mallikarjun temple's image-shadow is being reflected in this Gundam-water.
(5). Veer Bhadr Swamy Temple :: This idol facing North is guarding Mallikarjun Swamy.
(6). Sanagalabasavanna :- It is situated in front of the Verasiro Mandapam. It is known as Nandi Mandpam after Nandi Shwar (Baswanna). Kannadigulu calls this as Chennu Kallu Baswanna.
(7). Addala (Mirror) Mandpam :- This is the place for Swamy, where he takes rest in the nights, called as Pavalinpu Sewa.
(8). Triphala uruksham :- Juvvi, Ravi and Medi plants together become grown as one tree. Achary Nagarjun and others were granted Deeksha under this tree. Issue less couples who perform pradakshina (walking round the tree) for seeking children.
(9). Nity Kalyan Mandpam (ceremonial, marriage hall) :- This in the south west side of temple where daily Kalyanam (Marriage) of the Mallikarjun Swamy and Bramaramkika ammawaru is done here in the evening times.
(10). Bhagwan Shri Ram and Mata Sita’s Sahashtr Ling :- Incarnated by Bhagwan Shri Ram and Maan Sita, 1000 Ling are carved out in one Ling. Shri Ram Ling is situated in Swamy temple, where as Maan Sita's Ling is in Ammavari temple.
यदि मनुष्य क्रमश: कहे गये इन द्वादश ज्योतिर्मय शिव लिंगो के स्तोत्र का भक्तिपूर्वक पाठ करें तो इनके दर्शन से होने वाला फल प्राप्त कर सकता है।
श्री भीमेश्वर :: This is not considered a Jyotir Ling. यह ज्योतिर्लिंङ्ग गोहाटी के पास ब्रह्मपुर पहाड़ी पर अवस्थित है। प्राचीन काल में भीम नामक एक महा प्रतापी राक्षस था। वह कामरूप प्रदेश में अपनी माँ के साथ रहता था। वह महाबली राक्षस, राक्षस राज रावण के छोटे भाई कुम्भ कर्ण का पुत्र था। लेकिन उसने अपने पिता को कभी देखा न था। उसके होश संभालने के पूर्व ही भगवान् राम के द्वारा कुम्भकर्ण का वध कर दिया गया था। जब वह युवावस्था को प्राप्त हुआ, तब उसकी माता ने उससे सारी बातें बतायीं। भगवान् विष्णु के अवतार श्री राम चन्द्र जी द्वारा अपने पिता के वध की बात सुनकर वह महाबली राक्षस अत्यन्त सन्तप्त और क्रुद्ध हो उठा। अब वह निरन्तर भगवान् श्री हरि के वध का उपाय सोचने लगा। उसने अपने अभीष्ट की प्राप्ति के लिये एक हजार वर्ष तक कठिन तपस्या की उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उसे लोक विजयी होने का वर प्रदान किया। अब तो वह राक्षस ब्रह्मा जी के उस वर के प्रभाव से सारे प्राणियाँ को पीड़ित करने लगा। उसने देवलोक पर आक्रमण करके इन्द्र आदि देवताओं को वहाँ से बाहर निकाल दिया। पूरे देव लोक पर अब भीम का अधिकार हो गया। इसके बाद उसने भगवान् श्री हरि को भी युद्ध में परास्त किया। श्री हरि को पराजित करने के पश्चात् उसने कामरूप के परम शिव भक्त राजा सुदक्षिण पर आक्रमण करके उन्हें मन्त्रियों अनुचरों सहित बन्दी बना लिया। इस प्रकार धीरे-धीरे उसने सारे लोकों पर अपना अधिकार जमा लिया। उसके अत्याचारों से वेदों, पुराणों, शास्त्रों और स्मृतियों का लोप गया। वह किसी को कोई धार्मिक कर्म नहीं करने देता था। इस प्रकार यज्ञ, तप ध्यान, स्वाध्याय आदि रुक गये।
BHEEMESHWAR |
राक्षस भीम के बन्दी गृह में पड़े हुए राजा सुदक्षिण ने भगवान् शिव का ध्यान किया। वे अपने सामने पार्थिव शिवलिङ्ग रखकर अर्चना कर रहे थे। उन्हें ऐसा करते देख क्रोधोन्मत्त होकर राक्षस भीम ने अपनी तलवार से उस पार्थिव शिव लिङ्ग पर प्रहार किया। किन्तु उसकी तलवार का स्पर्श उस लिङ्ग से हो भी नहीं पाया कि उसके भीतर से साक्षात् भूत-भावन महादेव वहाँ प्रकट हो गये। उन्होंने अपनी हुंकार मात्र से उस राक्षस को वहीं जलाकर भस्म कर दिया।
भगवान् शिव का यह अद्भुत कृत्य देखकर सारे ऋषि-मुनि और देवगण वहाँ एकत्र होकर उनकी स्तुति करने लगे। उन लोगों ने भगवान् शिव से प्रार्थना की कि हे महादेव! आप लोक कल्याणार्थ अब सदा के लिये यहीं निवास करें। यह क्षेत्र शास्त्रों में अपवित्र बताया गया है। आपके निवास से यह परम पवित्र पुण्य क्षेत्र बन जायेगा। भगवान् शिव ने उन सबकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली और वे वहीं ज्योतिर्लिंङ्ग के रूप में सदा के लिये निवास करने लगे। उनका यह ज्योतिर्लिङ्ग भीमेश्वर के नाम से विख्यात हुआ।
शिवपुराण के अध्याय 11-21 में यह कथा पूरे विस्तार से दी गयी है।इस ज्योतिर्लिंग की महिमा अमोघ है। इसके दर्शन का फल कभी व्यर्थ नहीं भक्तों की सभी मनोकामनाएँ यहाँ आकर पूर्ण हो जाती हैं।
BAIJ NATH JYOTIRLING HIMANCHAL PRADESH बैजनाथ मंदिर :: Its a Nagar style temple situated in a small town of Baej Nath, near Palm Pur, in Kangra District, Himachal Pradesh, India and was built in 8th Century by two local merchants named Ahuk and Manyuk. It is dedicated to Bhagwan Shiv as Vaedy Nath वैद्यनाथ the deity of physicians. A temple devoted to Bhagwan Shiv existed at the present site. The inner sanctum houses a Shiv Ling. Several images are carved over the walls and in niches on the exterior.
The inscriptions name the current ruler king Jaya Chandra, list of the names of the architects and the names of donor merchants at time of construction. Another inscription names Kangra district's old name i.e. Nagarakot, the district in which the temple is built. It contain Strotr-hymns in the honour of Bhagwan Shiv.
Numerous idols are carved on the walls of the temple. Some of them dating prior to the present temple was built. Idols include Ganpati Maha Raj, Hari Har, Half Bhagwan Shri Hari Vishnu and Half Bhagwan Shiv, Kalyan Sundar i.e., wedding of the Bhagwan Shiv & Maa Parwati, defeating Andhak, their son.