Tuesday, May 7, 2013

MAHA KAL BHAGWAN SHIV भगवान् शिव

BHAGWAN SHIV
भगवान् शिव
 
 CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:। 
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
भगवान् शिव माता पार्वती के पति हैं जिन्हें शंकर, महादेव, भोलेनाथ, आदिनाथ आदि कहा जाता है।
(1). आदिनाथ शिव :- सर्वप्रथम शिव ने ही धरती पर जीवन के प्रचार-प्रसार का प्रयास किया इसलिए उन्हें आदिदेव भी कहा जाता है। आदि का अर्थ प्रारम्भ-शुरुआत। आदिनाथ होने के कारण वे आदिश भी हैं।
(2). भगवान् शिव के अस्त्र-शस्त्र :: शिव का धनुष :- पिनाक, चक्र :- भवरेंदु और सुदर्शन, अस्त्र :- पाशुपतास्त्र और शस्त्र :- त्रिशूल है। 
(3). भगवान् शिव का नाग :- शिव के गले में जो नाग लिपटा रहता है, उसका नाम वासुकि है। वासुकि के बड़े भाई का नाम शेषनाग है।
(4). शिव की अर्द्धांगिनी :- शिव की पहली पत्नी सती ने ही अगले जन्म में पार्वती के रूप में जन्म लिया और वही उमा, उर्मि, काली कही गई हैं।
(5). शिव के पुत्र :- गणेश, कार्तिकेय, सुकेश, जलंधर, अयप्पा और भूमा-मङ्गल। 
(6). शिव के शिष्य :- शिव के 7 शिष्य हैं, जिन्हें प्रारंभिक सप्तऋषि माना गया है। इन ऋषियों ने ही शिव के ज्ञान को संपूर्ण धरती पर प्रचारित किया जिसके चलते भिन्न-भिन्न धर्म और संस्कृतियों की उत्पत्ति हुई। शिव ने ही गुरु और शिष्य परंपरा की शुरुआत की थी। शिव के शिष्य हैं :- बृहस्पति, विशालाक्ष, शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज इसके अलावा 8वें गौरशिरस मुनि भी थे।
(7). शिव के गण :- शिव के गणों में भैरव, वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, जय और विजय प्रमुख हैं। इसके अलावा, पिशाच, दैत्य और नाग-नागिन, पशुओं को भी शिव का गण माना जाता है। 
(8). शिव पंचायत :- भगवान सूर्य, गणपति, देवी, रुद्र और विष्णु ये शिव पंचायत कहलाते हैं।
(9). शिव के द्वारपाल :- नंदी, स्कंद, रिटी, वृषभ, भृंगी, गणेश, उमा-महेश्वर और महाकाल।
(10). शिव पार्षद :- जिस तरह जय और विजय विष्णु के पार्षद हैं उसी तरह बाण, रावण, चंड, नंदी, भृंगी आदि शिव के पार्षद हैं।
(11). देवता और असुर दोनों के प्रिय शिव :- भगवान्  शिव को देवों के साथ असुर, दानव, राक्षस, पिशाच, गंधर्व, यक्ष आदि सभी पूजते हैं। वे रावण को भी वरदान देते हैं और राम को भी। उन्होंने भस्मासुर, शुक्राचार्य आदि कई असुरों को वरदान दिया था। शिव, सभी आदिवासी, वनवासी जाति, वर्ण, धर्म और समाज के सर्वोच्च देवता हैं।
(12). शिव चिह्न :- वनवासी से लेकर सभी साधारण व्‍यक्ति जिस चिह्न की पूजा कर सकें, उस पत्‍थर के ढेले, बटिया को शिव का चिह्न माना जाता है। इसके अलावा रुद्राक्ष और त्रिशूल को भी शिव का चिह्न माना गया है। कुछ लोग डमरू और अर्द्ध चन्द्र को भी शिव का चिह्न मानते हैं, हालांकि ज्यादातर लोग शिवलिंग अर्थात शिव की ज्योति का पूजन करते हैं।
(13). शिव की गुफा :- शिव ने भस्मासुर से बचने के लिए एक पहाड़ी में अपने त्रिशूल से एक गुफा बनाई और वे फिर उसी गुफा में छिप गए। वह गुफा जम्मू से 150 किलोमीटर दूर त्रिकूटा की पहाड़ियों पर है। दूसरी ओर भगवान् शिव ने जहाँ माता पार्वती को अमृत ज्ञान दिया था वह गुफा अमरनाथ गुफा के नाम से प्रसिद्ध है।
(14). शिव के पैरों के निशान :- श्री पद श्री लंका में रतन द्वीप पहाड़ की चोटी पर स्थित श्रीपद नामक मन्दिर में शिव के पैरों के निशान हैं। ये पदचिह्न 5 फुट 7 इंच लंबे और 2 फुट 6 इंच चौड़े हैं। इस स्थान को सिवानोलीपदम कहते हैं। कुछ लोग इसे आदम पीक कहते हैं।
रुद्र पद :- तमिलनाडु के नागपट्टीनम जिले के थिरुवेंगडू क्षेत्र में श्रीस्वेदारण्येश्‍वर का मंदिर में शिव के पदचिह्न हैं जिसे रुद्र पदम कहा जाता है। इसके अलावा थिरुवन्नामलाई में भी एक स्थान पर शिव के पदचिह्न हैं।
तेजपुर :- असम के तेजपुर में ब्रह्मपुत्र नदी के पास स्थित रुद्रपद मन्दिर में शिव के दाएं पैर का निशान है।
जागेश्वर :- उत्तराखंड के अल्मोड़ा से 36 किलोमीटर दूर जागेश्वर मन्दिर की पहाड़ी से लगभग साढ़े 4 किलोमीटर दूर जंगल में भीम के मंदिर के पास शिव के पदचिह्न हैं। पाण्डवों को दर्शन देने से बचने के लिए उन्होंने अपना एक पैर यहां और दूसरा कैलाश में रखा था।
रांची :- झारखंड के रांची रेलवे स्टेशन से 7 किलोमीटर की दूरी पर रांची हिल पर शिवजी के पैरों के निशान हैं। इस स्थान को पहाड़ी बाबा मन्दिर कहा जाता है।
(15). शिव के अवतार :- वीरभद्र, पिप्पलाद, नंदी, भैरव, महेश, अश्वत्थामा, शरभावतार, गृहपति, दुर्वासा, हनुमान, वृषभ, यतिनाथ, कृष्णदर्शन, अवधूत, भिक्षुवर्य, सुरेश्वर, किरात, सुनटनर्तक, ब्रह्मचारी, यक्ष, वैश्यानाथ, द्विजेश्वर, हंसरूप, द्विज, नतेश्वर आदि हुए हैं। वेदों में रुद्रों का जिक्र है। रुद्र 11 बताए जाते हैं- कपाली, पिंगल, भीम, विरुपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, आपिर्बुध्य, शंभू, चण्ड तथा भव।
(16). शिव परिवार :- शिवपुत्र कार्तिकेय का वाहन मयूर है, जबकि शिव के गले में वासुकि नाग है। स्वभाव से मयूर और नाग आपस में दुश्मन हैं। इधर गणपति का वाहन चूहा है, जबकि साँप मूषक भक्षी जीव है। पार्वती का वाहन शेर है, लेकिन शिवजी का वाहन तो नंदी बैल है। 
(17). कैलाश :- ति‍ब्बत स्थित कैलाश पर्वत पर उनका निवास है। जहां पर शिव विराजमान हैं उस पर्वत के ठीक नीचे पाताल लोक है जो भगवान विष्णु का स्थान है। शिव के आसन के ऊपर वायुमंडल के पार क्रमश: स्वर्ग लोक और फिर ब्रह्माजी का स्थान है।
(18). शिव भक्त :- ब्रह्मा, विष्णु और सभी देवी-देवताओं सहित भगवान राम और कृष्ण भी शिव भक्त है। हरिवंश पुराण के अनुसार, कैलास पर्वत पर कृष्ण ने शिव को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की थी। भगवान राम ने रामेश्वरम में शिवलिंग स्थापित कर उनकी पूजा-अर्चना की थी।
(19). शिव ध्यान :- शिव की भक्ति हेतु शिव का ध्यान-पूजन किया जाता है। शिवलिंग को बिल्वपत्र चढ़ाकर शिवलिंग के समीप मंत्र जाप या ध्यान करने से मोक्ष का मार्ग पुष्ट होता है।
(20). शिव मंत्र :- (20.1). ॐ नम: शिवाय। (20.2). ॐ ह्रौं जू सः। ॐ भूः भुवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ। सः जू ह्रौं ॐ।  
(21). शिव व्रत और त्योहार :- सोमवार, प्रदोष और श्रावण मास में शिव व्रत रखे जाते हैं। शिवरात्रि और महाशिवरात्रि शिव का प्रमुख पर्व त्योहार है।
(22). शिव परम्परा :- भगवान शंकर की परंपरा को उनके शिष्यों बृहस्पति, विशालाक्ष (शिव), शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज, अगस्त्य मुनि, गौरशिरस मुनि, नंदी, कार्तिकेय, भैरवनाथ आदि ने आगे बढ़ाया। इसके अलावा वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, बाण, रावण, जय और विजय ने भी शैवपंथ का प्रचार किया। इस परंपरा में सबसे बड़ा नाम आदिगुरु भगवान दत्तात्रेय का आता है। दत्तात्रेय के बाद आदि शंकराचार्य, मत्स्येन्द्रनाथ और गुरु गुरुगोरखनाथ का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।
(23). शिव महिमा :- शिव ने कालकूट नामक विष पिया था जो अमृत मंथन के दौरान निकला था। शिव ने भस्मासुर जैसे कई असुरों को वरदान दिया था। शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया था। शिव ने गणेश और राजा दक्ष के सिर को जोड़ दिया था। ब्रह्मा द्वारा छल किए जाने पर शिव ने ब्रह्मा का पाँचवाँ सिर काट दिया था।
(24). शैव परम्परा :- दसनामी, शाक्त, सिद्ध, दिगंबर, नाथ, लिंगायत, तमिल शैव, कालमुख शैव, कश्मीरी शैव, वीरशैव, नाग, लकुलीश, पाशुपत, कापालिक, कालदमन और महेश्वर सभी शैव परंपरा से हैं। चंद्रवंशी, सूर्यवंशी, अग्निवंशी और नागवंशी भी शिव की परंपरा से ही माने जाते हैं। भारत की असुर, रक्ष और आदिवासी जाति के आराध्य देव शिव ही हैं। शैव धर्म भारत के आदिवासियों का धर्म है।
(25). शिव के प्रमुख नाम :- महेश, नीलकंठ, महादेव, महाकाल, शंकर, पशुपतिनाथ, गंगाधर, नटराज, त्रिनेत्र, भोलेनाथ, आदिदेव, आदिनाथ, त्रियंबक, त्रिलोकेश, जटाशंकर, जगदीश, प्रलयंकर, विश्वनाथ, विश्वेश्वर, हर, शिवशंभु, भूतनाथ और रुद्र।
(26). अमरनाथ गुफ़ा में अमर कथा :- शिव ने अपनी अर्धांगिनी पार्वती को मोक्ष हेतु अमरनाथ की गुफा में जो ज्ञान दिया उस ज्ञान की आज अनेकानेक शाखाएं हो चली हैं। वह ज्ञानयोग और तंत्र के मूल सूत्रों में शामिल है। 'विज्ञान भैरव तंत्र' एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें भगवान शिव द्वारा पार्वती को बताए गए 112 ध्यान सूत्रों का संकलन है।
(27). शिव ग्रंथ :- वेद और उपनिषद सहित विज्ञान भैरव तंत्र, शिव पुराण और शिव संहिता में शिव की संपूर्ण शिक्षा और दीक्षा समाई हुई है। तंत्र के अनेक ग्रंथों में उनकी शिक्षा का विस्तार हुआ है।
(28). शिवलिंग :- वायु पुराण के अनुसार प्रलयकाल में समस्त सृष्टि जिसमें लीन हो जाती है और पुन: सृष्टिकाल में जिससे प्रकट होती है, उसे लिंग कहते हैं। इस प्रकार विश्व की संपूर्ण ऊर्जा ही लिंग की प्रतीक है। वस्तुत: यह संपूर्ण सृष्टि बिंदु-नाद स्वरूप है। बिंदु शक्ति है और नाद शिव। बिंदु अर्थात ऊर्जा और नाद अर्थात ध्वनि। यही दो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का आधार है। प्रतीक स्वरूप शिवलिंग की पूजा-अर्चना की जाती है।
(29). बारह ज्योतिर्लिंग :- सोमनाथ, मल्लिकार्जुन, महाकालेश्वर, ॐकारेश्वर, वैद्यनाथ, भीमशंकर, रामेश्वर, नागेश्वर, विश्वनाथजी, त्र्यम्बकेश्वर, केदारनाथ, घृष्णेश्वर। ज्योतिर्लिंग उत्पत्ति के संबंध में अनेकों मान्यताएं प्रचलित है। ज्योतिर्लिंग यानी 'व्यापक ब्रह्मात्मलिंग' जिसका अर्थ है 'व्यापक प्रकाश'। जो शिवलिंग के बारह खंड हैं। शिवपुराण के अनुसार ब्रह्म, माया, जीव, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी को ज्योतिर्लिंग या ज्योति पिंड कहा गया है।
(30). देवों के देव महादेव :- देवताओं की दैत्यों से प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी। ऐसे में जब भी देवताओं पर घोर संकट आता था तो वे सभी देवाधिदेव महादेव के पास जाते थे। दैत्यों, राक्षसों सहित देवताओं ने भी शिव को कई बार चुनौती दी, लेकिन वे सभी परास्त होकर शिव के समक्ष झुक गए इसीलिए शिव हैं देवों के देव महादेव। वे दैत्यों, दानवों और भूतों के भी प्रिय भगवान हैं। वे राम को भी वरदान देते हैं और रावण को भी।
(31). शिव हर काल में :- भगवान् शिव ने हर काल में भक्तों को दर्शन देकर कृतार्थ  किया है। राम के समय भी शिव थे। महाभारत काल में भी शिव थे और विक्रमादित्य के काल में भी शिव के दर्शन होने का उल्लेख मिलता है। भविष्य पुराण अनुसार राजा हर्षवर्धन को भी भगवान शिव ने दर्शन दिये थे। परब्रह्म परमेश्वर भगवान् श्री कृष्ण के रूप में प्रकट हुए। उनके बायें अंग से माँ भगवती सरस्वती प्रकट हुईं। उनकी जिव्हा से माँ भगवती राधा प्रकट हुईं। 
इसी क्रम में भगवान् सदाशिव का प्राकट्य हुआ। अनन्त ब्रह्माण्डों में अनन्त त्रिदेव :- ब्रह्मा, विष्णु और महेश मौजूद हैं। भगवान् शिव परब्रह्म परमेश्वर का काल रूप है। वे ही महाकाल हैं। 
भगवान् सदाशिव तब से है जब से सृष्टि है। सृष्टि के आदिकाल में न सत था न असत, न वायु थी न आकाश, न मृत्यु थी और न अमरता, न रात थी न दिन, उस समय केवल वही था, जो वायु रहित स्थिति में भी अपनी शक्ति से साँस ले रहा था। उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। वही परमात्मा है, जिसमें से संपूर्ण सृष्टि और आत्माओं की उत्पत्ति हुई है। विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का कारण यही ब्रह्म है। तब वही तत्सदब्रह्म ही था जिसे श्रुति में सत कहा गया है। सत अर्थात अविनाशी परमात्मा। उस अविनाशी पर ब्रह्म (काल) ने कुछ काल के बाद द्वितीय की इच्छा प्रकट की। उसके भीतर एक से अनेक होने का संकल्प हुआ। तब उस निराकार परमात्मा ने अपनी लीला शक्ति से आकार की कल्पना की, जो मूर्ति रहित परम ब्रह्म है। परम ब्रह्म अर्थात एकाक्षर ब्रह्म, परम अक्षर ब्रह्म। वह परम ब्रह्म भगवान् ही सदाशिव हैं। अर्वाचीन और प्राचीन विद्वान उन्हीं को ईश्वर कहते हैं। उन्हें ही शिव कहते है। उस समय केवल सदाशिव की ही सत्ता थी जो विद्यमान, जो अनादि और चिन्मय कही जाती थी। उन्हीं भगवान सदाशिव को वेद पुराण और उपनिषद तथा संत महात्मा; ईश्वर तथा सर्वलोकमहेश्वर कहते हैं।
भगवान् शिव के मन में सृष्टि रचने की इच्छा हुई। उन्होंने सोचा कि में एक से अनेक हो जाऊं। यह विचार आते ही सबसे पहले परमेश्वर शिव ने अपनी परा शक्ति अम्बिका को प्रकट किया तथा उनसे कहा सृष्टि के लिए किसी दूसरे पुरुष का सृजन करना चाहिए, जिसके कंधे पर सृष्टि चलन का भार रखकर हम आनंदपूर्ण विचरण कर सकें। शिव और शक्ति एक ही परमात्मा के दो रूप है, इसी कारण भगवान् शिव को अर्धनारीश्वर भी कहा जाता है। सृष्टि को रचने का समय आ गया था। 
ऐसा निश्चय करके शक्ति सहित परमेश्वर शिवा ने आपने वाम अण्ड के 10 वें भाग पर अमृत मल दिया। वहाँ से तत्काल एक दिव्य पुरुष प्रकट हुआ। उसका सौन्दर्य अतुलनीय था। उसमें सर्वगुण संपन्न की प्रधानता थी। वह परम शांत और सागर की तरह गंभीर था। उसके चार हाथों में शंख, चक्र, गदा और पध सुशोभित हो रहे थे। उस दिव्य पुरुष ने भगवान् शिव को प्रणाम करके कहा "भगवन् मेरा नाम निश्चित कीजिये और काम बताइये"। उनकी बात सुनकर भगवान् शिव ने मुस्कराते हुए कहा "वत्स! व्यापक होने के कारण तुम्हारा नाम विष्णु होगा। सृष्टि का पालन करना तुम्हारा काम होगा। इस समय तुम उत्तम तप करो"।
भगवान् शिव का आदेश प्राप्त कर भगवान् विष्णु कठोर तपस्या करने लगे। उस तपस्या के श्रम से उनके अंगों से जल धाराएँ निकलने लगीं, जिससे सूना आकाश भर गया। अंततः उन्होंने थककर उसी जल में शयन किया।
तदनंतर सोये हुए भगवान् नारायण की नाभि से एक उत्तम कमल प्रकट हुआ। उसी समय भगवान् शिव ने अपने दाहिने अण्ड से चतुर्मुखः ब्रह्मा को प्रकट करके उस कमल पर बैठा दिया। महेश्वर की माया से मोहित हो जाने के कारण बहुत दिनों तक ब्रह्मा जी उस कमल की नाल में भ्रमण करते रहे। किन्तु उन्हें अपने उत्पत्ति कर्ता का पता नहीं लगा। आकाशवाणी द्वारा तप का आदेश मिलने पर अपने जन्मदाता के दर्शनाथ बारह वर्षों तक कठोर तपस्या की। तत्पश्चात उनके सम्मुख भगवान् विष्णु प्रकट हुए। श्री परमेश्वर शिव की लीला से उस समय वहाँ श्री विष्णु और ब्रह्मा जी के बीच विवाद हो गया और ये विवाद उन दोनों के मध्य अपनी श्रेष्ठता को लेकर था, ये विवाद बढ़ते ही गया। कुछ देर बाद उन दोनों के मध्य एक अग्नि स्तम्भ प्रकट हुआ। बहुत प्रयास के बाद भी भगवान् विष्णु और भगवान्  ब्रह्मा  उस अग्नि स्तम्भ के आदि-अंत का पता नहीं लगा सके।
अंततः थककर भगवान् श्री हरी विष्णु ने प्रार्थना किया, “हे महाप्रभु! हम आपके स्वरूप को नहीं जानते। आप जो कोई भी हैं" हमें दर्शन दें। भगवान् विष्णु की स्तुति सुनकर महेश्वर सहसा प्रकट हो गए और बोले,' हे सुरश्रेष्ठगण! मैं तुम दोनों के तप और भक्ति से भलीभांति संतुष्ट हूँ। ब्रह्मा, तुम मेरी आज्ञा से जगत की सृष्टि करो और वत्स विष्णु! तुम इस चराचर जगत का पालन करो। तदनंतर भगवान् शिव ने अपने हृदय भाग से रुद्र को प्रकट किया और संहार का दायित्व सौंपकर वही अंतर्ध्यान हो गये।
शिव आदि देव है। वे महादेव हैं, सभी देवों में सर्वोच्च और महानतम है शिव को ऋग्वेद में रुद्र कहा गया है। पुराणों में उन्हें महादेव के रूप में स्वीकार किया गया है। वे ही इस जगत की सृष्टि करते हैं, इसकी रक्षा करते हैं और अंत में इसका संहार करते हैं। ‘रु’ का अर्थ है-दुःख तथा ‘द्र’ का अर्थ है-द्रवित करना या हटाना अर्थात् दुःख को हरने (हटाने) वाला। शिव की सत्ता सर्वव्यापी है। प्रत्येक व्यक्ति में आत्म-रूप में शिव का निवास है। सब कुछ शिव मय है। शिव से परे कुछ भी नहीं है। 
शिवोदाता, शिवोभोक्ता शिवं सर्वमिदं जगत्। 
शिव ही दाता हैं, शिव ही भोक्ता हैं। जो दिखाई पड़ रहा है यह सब शिव ही है। शिव का अर्थ है-जिसे सब चाहते हैं वह अखण्ड आनंद, परम मंगल, परम कल्याण।
भगवान शिवमात्र पौराणिक देवता ही नहीं, अपितु वे पंचदेवों में प्रधान, अनादि सिद्ध परमेश्वर हैं एवं निगमागम आदि सभी शास्त्रों में महिमामण्डित महादेव हैं। वेदों ने इस परमतत्त्व को अव्यक्त, अजन्मा, सबका कारण, विश्वपंच का स्रष्टा, पालक एवं संहारक कहकर उनका गुणगान किया है। श्रुतियों ने भगवान् सदाशिव को स्वयम्भू, शान्त, प्रपंचातीत, परात्पर, परमतत्त्व, ईश्वरों के भी परम महेश्वर कहकर स्तुति की है। परम ब्रह्म के इस कल्याण रूप की उपासना उच्च कोटि के सिद्धों, आत्मकल्याणकामी साधकों एवं सर्वसाधारण आस्तिक जनों-सभी के लिये परम मंगलमय, परम कल्याणकारी, सर्वसिद्धिदायक और सर्वश्रेयस्कर है। देव, दनुज, ऋषि, महर्षि, योगीन्द्र, मुनीन्द्र, सिद्ध, गन्धर्व ही नहीं, अपितु ब्रह्मा और विष्णु तक इन महादेव की उपासना करते हैं।
सामान्यतः ब्रह्मा को सृष्टि का रचयिता, विष्णु को पालक और शिव को संहारक माना जाता है। परन्तु मूलतः शक्ति तो एक ही है, जो तीन अलग-अलग रूपों में अलग-अलग कार्य करती है। वह मूल शक्ति शिव ही हैं। ब्रह्मा, विष्णु, शंकर (त्रिमूर्ति) की उत्पत्ति महेश्वर अंश से ही होती है। मूल रूप में शिव ही कर्ता, भर्ता तथा हर्ता हैं। सृष्टि का आदि कारण शिव है। शिव ही ब्रह्म हैं। जिससे पैदा होते हैं, जन्म पाकर जिसके कारण जीवित रहते हैं और नाश होते हुए जिसमें प्रविष्ट हो जाते हैं, वही ब्रह्म है। शिव आदि तत्त्व है, वह ब्रह्म है, वह अखण्ड, अभेद्य, अच्छेद्य, निराकार, निर्गुण तत्त्व है। वह अपरिभाषेय है, वह नेति-नेति है।
इस तरह से भगवान् सदाशिव सृष्टि का भार भगवान् विष्णु और भगवान् ब्रह्मा को देकर तपस्या में लीन हो गए।
सृष्टि रचना क्रम में जब भगवान् श्री हरी विष्णु और उनसे भगवान् ब्रह्मा जी का प्रादुर्भाव होता है, तब भी वे उपस्थित रहते हैं। महाप्रलय में समस्त ब्रह्माण्ड और उनके साथ ही समस्त सृष्टि उनमें लीन हो जाती है। ब्रह्मा जी की आयु दो परार्ध, भगवान् श्री हरी विष्णु की आयु 4 परार्ध और भगवान् शिव की आयु 8 परार्ध है। भगवान् शिव को आदि देव महादेव भी कहा जाता है। 
सृष्टि के प्रारम्भ में नार-जल से नारायण प्रकट हुए। उनके नाभि कमल से ब्रह्मा जी प्रकट हुए। उन दोनों में विवाद हुआ कि पिता कौन-बड़ा कौन है? तभी एक बड़ा तेज पुंज प्रकट हुआ और भगवान् श्री हरी विष्णु और ब्रह्मा जी से कहा कि इसका छोर ढूँढो। जो भी तेज पुंज का अंत-छोर ढूंढ लेगा वही श्रेष्ठ होगा। दोनों को ही उसका अंत नहीं मिला। तब दोनों से ही तपस्या करने को कहा गया। वह तेज पुंज ही भगवान् सदाशिव थे। 
पौलोम पर्व :: वर्षों से समाधिस्थ भगवान् शिव ने जैसे ही अपने नेत्र खोले, चहुँ ओर का वातावरण ही जैसे जीवंत हो उठा। वृक्ष पुष्प दलों से लद गए, उन पर भौरें गुंजन करने लगे और मानो वसंत छा गया। कुमार कार्तिकेय और गणेश जी महाराज ने नंदी महाराज और गणों समेत भगवान् शिव के सम्मुख साष्टांग दंडवत प्रणाम किया। माता पहले ही अपने देव को नमन कर सुरम्य वातावरण का अवलोकन कर रहीं थीं। इतनी लंबी समाधि से चकित कुमार कार्तिकेय ने कौतूहलवश अपनी असीम जिज्ञासा  से देवाधिदेव शिव से प्रश्न किया :- "आप जिन भगवान् श्री राम जी की पूजा करते हैं, वह सच्चिदानंद कहाँ पर निवास करते हैं"।
भगवान् शिव मुस्कुराए और उत्तर दिया :- "सुनो वत्स! तीनों लोगों का पालन करने वाले मेंरे प्रभु श्री राम के नारायण स्वरूप का निवास स्थान बद्रीकाश्रम में था जहाँ नर तथा नारायण त्रेतायुग के पूर्व अर्थात सतयुग में सभी के दर्शन हेतु उपलब्ध थे। वहाँ जाने और भगवान् के दर्शन मात्र से सभी को मोक्ष की प्राप्ति हो जाती थी। 
सतयुग के पश्चात त्रेतायुग में भगवान् नारायण के दर्शन मात्र देवताओं और ऋषियों को ही हो पाते थे। इसके बाद जब अनाचार बढ़ने लगा देवताओं और ऋषियों में भी अहंकार जागृत हो गया, पाखंड बढ़ने लगा तो नारायण बद्रिकाश्रम को छोड़कर क्षीरसागर में चले गए।
देवताओं और प्राणीमात्र ने जब बद्रिकाश्रम में भगवान् विष्णु को नहीं पाया, तो अत्यंत व्याकुल हो गए। ऐसे में सभी देवता और ऋषि गण ब्रह्मा जी के पास गए और नारायण के बारे में पूछा। ब्रह्मा जी भी निरुत्तर हो गए और नारायण को खोजते हुए क्षीरसागर पहुँच गए वहाँ भी नारायण के दर्शन ब्रह्मा जी के अतिरिक्त और किसी को नहीं हुए और भगवान्  विष्णु ने पुनः बद्रिकाश्रम जाने से मना कर दिया"।
इतना कहकर शिव ने कार्तिकेय की तरफ देखा :- भगवान्  कार्तिकेय बड़े ध्यान से पिता की बातें सुन रहे थे। फिर क्या हुआ पिता श्री? क्या स्वयं नारायण अभी भी क्षीरसागर में ही विराजमान हैं? हाँ पुत्र! द्वापर के बाद क्षीरसागर ही भगवान् विष्णु का स्थाई निवास है, जहाँ पर वे माता लक्ष्मी के साथ निवास कर रहे हैं। 
आज भी नारद तीर्थ से बद्रिकाश्रम तक की यात्रा तथा वहाँ का प्रसाद ग्रहण करने वाला प्राणी परम मोक्ष को प्राप्त करता है तथा विष्णुलोक बैकुंठ में उसे स्थान मिल जाता है।
कार्तिकेय के मुख पर अब परम सन्तुष्टि के भाव थे।
उन्होंने शिव को साष्टांग दंडवत किया और अपने मार्ग को प्रस्थान किया।
शिव आराधना :: 
ओ३म् कारं बिंदु-संयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिन:। 
कामदं मोक्षदं चैव ओ३म् काराय मनो नम:॥1॥
नमंति ऋषयो देवा नमन्त्यप्सरसां गणाः।
नरा नमंति देवेशं ‘न’ काराय नमो नमः ॥2॥
महादेवं महात्मानं महाध्यानं परायणम्।
महापापहरं देवं ‘म’ काराय नमो नमः॥3॥
शिवं शांतं जगन्नाथं लोकानुग्रहकारकम्।
शिवमेकपदं नित्यं ‘शि’ काराय नमो नमः॥4॥
वाहनं वृषभो यस्य वासुकिः कंठभूषणम्।
वामे शक्तिधरं देवं ‘व’ काराय नमो नमः॥5॥
यत्र यत्र स्थितो देवः सर्वव्यापी महेश्वरः।
यो गुरुः सर्वदेवानां ‘य’ काराय नमो नमः ॥6॥
षडक्षरमिदं स्तोत्रं यः पठेच्छिवसंनिधौ।
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते॥7॥ 
शैवागम में रुद्र के सातवें स्वरूप को शिव कहा गया है। शिव शब्द नित्य विज्ञानानंदघन परमात्मा का वाचक है। इसलिए शैवागम भगवान् शिव को गायत्री के द्वारा प्रतिपाद्य एवं एकाक्षर ओंकार का वाच्यार्थ मानता है। शिव शब्द की उत्पत्ति ‘वश कान्तौ’ धातु से हुई है, जिसका तात्पर्य यह है कि जिसको सब चाहते हैं, उसका नाम शिव है। सब चाहते हैं, अखण्ड आनन्द को। अतएव शिव शब्द का तात्पर्य अखण्ड आनंद हुआ । जहाँ आनन्द है, वहीं शान्ति है और परम आनन्द को ही परम कल्याण कहते हैं। अत: शिव शब्द का अर्थ परम कल्याण ही है। इसीलिए शिव को कल्याण गुण-निलय कहा जाता है।
लिंग का अर्थ है चिन्ह, निशानी, गुण, व्यवहार या प्रतीक।  
शून्य, आकाश, अनन्त, ब्रह्माण्ड और निराकार परम पुरुष का प्रतीक होने से इसे लिंग कहा गया है।  

आकाश स्वयं लिंग है।[स्कन्दपुराण]
शिवलिंग वातावरण सहित घूमती धरती तथा सारे अनन्त गतिमान ब्रह्माण्ड का अक्स-धुरी ही लिंग है।
शिव लिंग का अर्थ अनन्त भी होता है अर्थात जिसका कोई अन्त नहीं है नहीं।
धरती उसका पीठ या आधार है और सब अनन्त शून्य से पैदा हो उसी में लय होने के कारण इसे लिंग कहा है तथा कई अन्य नामो से भी संबोधित किया गया है जैसे :- प्रकाश स्तंभ, लिंग, अग्नि स्तंभ, उर्जा स्तंभ, ब्रह्माण्डीय स्तंभ। 
ब्रह्माण्ड में दो ही चीजें हैं :- ऊर्जा और पदार्थ। मानव शरीर पदार्थ से निर्मित है और आत्मा परमात्मा का अंश (ऊर्जा-शरीर को  चलाने वाला शरीरी) है।
इसी प्रकार शिव पदार्थ और शक्ति ऊर्जा का प्रतीक बन कर शिवलिंग कहलाते है।
ब्रह्मांड में उपस्थित समस्त ठोस तथा उर्जा शिवलिंग में निहित है। वास्तव में शिवलिंग ब्रह्मांड की आकृति है। 
भगवान् शिव और आदि माता शक्ति (पार्वती) का आदि-नादी एकल रूप है तथा पुरुष और प्रकृति की समानता का प्रतीक भी अर्थात इस संसार में न केवल पुरुष का और न केवल प्रकृति (स्त्री) का वर्चस्व है अर्थात दोनों सामान हैं। 
लिंग का तात्पर्य प्रतीक से है, शिवलिंग का मतलब है पवित्रता का प्रतीक। दीपक की प्रतिमा बनाये जाने से इस की शुरुआत हुई। बहुत से हठ योगी दीपशिखा पर ध्यान लगाते हैं। हवा में दीपक की ज्योति टिमटिमा जाती है और स्थिर ध्यान लगाने की प्रक्रिया में अवरोध उत्पन्न करती है। इसलिए दीपक की प्रतिमा स्वरूप शिवलिंग का निर्माण किया गया ताकि निर्विघ्न एकाग्र होकर ध्यान लग सके। 
आधिभौतिक सातवें रुद्र के रूप में भगवान् शिव की चन्द्रमूर्ति काठियावाड़ में सोमनाथ के नाम से प्रसिद्ध है। 
भगवान् शिव ::
 माता
 पार्वती के पति भगवान् शंकर जिन्हें महादेव, भोलेनाथ, आदिनाथ आदि कहा जाता है।
(1). आदिनाथ शिव :- सर्वप्रथम शिव ने ही धरती पर जीवन के प्रचार-प्रसार का प्रयास किया इसलिए उन्हें आदिदेव भी कहा जाता है। आदि का अर्थ प्रारम्भ। आदिनाथ होने के कारण उनका एक नाम आदिश भी है।
(2). शिव के अस्त्र-शस्त्र :- शिव का धनुष पिनाक, चक्र भवरेंदु और सुदर्शन, अस्त्र पाशुपतास्त्र और शस्त्र त्रिशूल है। उक्त सभी का उन्होंने ही निर्माण किया था।
(3). भगवान शिव का नाग :- शिव के गले में जो नाग लिपटा रहता है, उसका नाम वासुकि है। वासुकि के बड़े भाई का नाम शेषनाग है।
(4). शिव की अर्द्धांगिनी :- शिव की पहली पत्नी सती ने ही अगले जन्म में पार्वती के रूप में जन्म लिया और वही उमा, उर्मि, काली कही गई हैं।
(5). शिव के पुत्र :- शिव के प्रमुख 6 पुत्र हैं - गणेश, कार्तिकेय, सुकेश, जलंधर, अयप्पा और भूमा। 
(6). शिव के शिष्य :- शिव के 7 शिष्य हैं, जिन्हें प्रारंभिक सप्तऋषि माना गया है। इन ऋषियों ने ही शिव के ज्ञान को संपूर्ण धरती पर प्रचारित किया, जिसके चलते भिन्न-भिन्न धर्म और संस्कृतियों की उत्पत्ति हुई। शिव ने ही गुरु और शिष्य परंपरा की शुरुआत की थी। शिव के शिष्य हैं - बृहस्पति, विशालाक्ष, शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज इसके अलावा 8वें गौरशिरस मुनि भी थे।
(7). शिव के गण :- शिव के गणों में भैरव, वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, जय और विजय प्रमुख हैं। इसके अलावा, पिशाच, दैत्य और नाग-नागिन, पशुओं को भी शिव का गण माना जाता है। 
(8). शिव पंचायत :- भगवान् सूर्य, गणपति, देवी, रुद्र और विष्णु ये शिव पंचायत कहलाते हैं।
(9). भगवान् शिव के द्वारपाल :- नंदी, स्कन्द, रिटी, वृषभ, भृंगी, गणेश, उमा-महेश्वर और महाकाल।
(10). शिव पार्षद :- जिस तरह जय और विजय विष्णु के पार्षद हैं, उसी तरह बाण, रावण, चंड, नंदी, भृंगी आदि शिव के पार्षद हैं।
(11). सभी धर्मों का केंद्र शिव :- शिव की वेशभूषा ऐसी है कि प्रत्येक धर्म के लोग उनमें अपने प्रतीक ढूँढ़ सकते हैं। सभी धर्मों में शिव के होने की छाप स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। शिव के शिष्यों से एक ऐसी परम्परा की शुरुआत हुई, जो आगे चलकर शैव, सिद्ध, नाथ, दिगंबर संप्रदाय में वि‍भक्त हो गई।
(12). देवता और असुर दोनों के प्रिय शिव :- भगवान् शिव को देवों के साथ असुर, दानव, राक्षस, पिशाच, गंधर्व, यक्ष आदि सभी पूजते हैं। वे रावण को भी वरदान देते हैं और राम को भी। उन्होंने भस्मासुर, शुक्राचार्य आदि कई असुरों को वरदान दिया था। शिव, सभी आदिवासी, वनवासी जाति, वर्ण, धर्म और समाज के सर्वोच्च देवता हैं।
(14). शिव चिह्न :- 
वनवासी से लेकर सभी साधारण व्‍यक्ति जिस चिह्न की पूजा कर सकें, उस पत्‍थर के ढेले, बटिया को शिव का चिह्न माना जाता है। इसके अलावा रुद्राक्ष और त्रिशूल को भी भगवान् शिव का चिह्न माना गया है। डमरू और अर्द्ध चन्द्र को भी शिव का चिह्न मान कर पूजा जाति है। ज्यादातर लोग शिवलिंग अर्थात शिव की ज्योति का पूजन करते हैं।
(15). भगवान् शिव गुफा :- भगवान् शिव ने भस्मासुर से बचने के लिए एक पहाड़ी में अपने त्रिशूल से एक गुफा बनाई और वे फिर उसी गुफा में छिप गए। वह गुफा जम्मू से 150 किलोमीटर दूर त्रिकूटा की पहाड़ियों पर है। दूसरी ओर भगवान् शिव ने जहाँ माता पार्वती को अमृत ज्ञान दिया था, वह गुफा अमरनाथ गुफा के नाम से प्रसिद्ध है।
(16). भगवान् शिव के पैरों के निशान :- श्रीपद-श्री लंका में रतन द्वीप पहाड़ की चोटी पर स्थित श्रीपद नामक मन्दिर में भगवान् शिव के पैरों के निशान हैं। ये पदचिह्न 5 फुट 7 इंच लंबे और 2 फुट 6 इंच चौड़े हैं। इस स्थान को सिवानोलीपदम कहते हैं। कुछ लोग इसे आदम पीक कहते हैं।
रुद्र पद :- तमिलनाडु के नागपट्टीनम जिले के थिरुवेंगडू क्षेत्र में श्रीस्वेदारण्येश्‍वर का मन्दिर में भगवान् शिव के पदचिह्न हैं, जिन्हें रुद्र पदम कहा जाता है। इसके अलावा थिरुवन्नामलाई में भी एक स्थान पर भगवान् शिव के पदचिह्न हैं।
तेजपुर :- असम के तेजपुर में ब्रह्मपुत्र नदी के पास स्थित रुद्रपद मन्दिर में शिव के दाएं पैर का निशान है।
जागेश्वर :- उत्तराखंड के अल्मोड़ा से 36 किलोमीटर दूर जागेश्वर मन्दिर की पहाड़ी से लगभग साढ़े 4 किलोमीटर दूर जंगल में भीम के मंदिर के पास भगवान् शिव के पदचिह्न हैं। पाण्डवों को दर्शन देने से बचने के लिए उन्होंने अपना एक पैर यहाँ और दूसरा कैलाश में रखा था।
राँची :- झारखंड के राँची रेलवे स्टेशन से 7 किलोमीटर की दूरी पर राँची पहाड़ी पर भगवान् शिव के पैरों के निशान हैं। इस स्थान को पहाड़ी बाबा मन्दिर कहा जाता है।
(17). शिव के अवतार :- वीरभद्र, पिप्पलाद, नंदी, भैरव, महेश, अश्वत्थामा, शरभावतार, गृहपति, दुर्वासा, हनुमान, वृषभ, यतिनाथ, कृष्णदर्शन, अवधूत, भिक्षुवर्य, सुरेश्वर, किरात, सुनटनर्तक, ब्रह्मचारी, यक्ष, वैश्यानाथ, द्विजेश्वर, हंसरूप, द्विज, नतेश्वर आदि हुए हैं। वेदों में रुद्रों का जिक्र है। रुद्र 11 बताए जाते हैं - कपाली, पिंगल, भीम, विरुपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, आपिर्बुध्य, शंभू, चण्ड तथा भव।
(18). शिव परिवार :- शिवपुत्र कार्तिकेय का वाहन मयूर है, जबकि शिव के गले में वासुकि नाग है। स्वभाव से मयूर और नाग आपस में दुश्मन हैं। इधर गणपति का वाहन चूहा है, जबकि साँप मूषक भक्षी जीव है। पार्वती का वाहन शेर है, लेकिन शिवजी का वाहन तो नंदी बैल है। 
(19).  शिव निवास :- ति‍ब्बत स्थित कैलाश पर्वत पर उनका निवास है। 
(20). शिव भक्त :- ब्रह्मा, विष्णु और सभी देवी-देवताओं सहित भगवान् श्री राम और भगवान् श्री कृष्ण भी शिव भक्त हैं। भगवान् श्री कृष्ण ने भगवान् शिव को प्रसन्न करने के लिए 12 वर्ष तक तपस्या की थी। भगवान् श्री राम ने रामेश्वरम में शिवलिंग स्थापित कर उनकी पूजा-अर्चना की थी।[हरिवंश पुराण]
(21). शिव ध्यान :- शिव की भक्ति हेतु भगवान् शिव का ध्यान-पूजन किया जाता है। शिवलिंग को बिल्वपत्र चढ़ाकर शिवलिंग के समीप मंत्र जाप या ध्यान करने से मोक्ष का मार्ग पुष्ट होता है।
(22). शिव मंत्र :- (22.1). ॐ नम: शिवाय। (22.2). ॐ ह्रौं जू सः। ॐ भूः भुवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ। सः जू ह्रौं ॐ।
(23). शिव व्रत और त्योहार :- सोमवार, प्रदोष और श्रावण मास में शिव व्रत रखे जाते हैं। शिव रात्रि और महा शिवरात्रि भगवान् शिव का प्रमुख पर्व त्योहार है।
(24). शिव प्रचारक :- भगवान् शिव की परंपरा को उनके शिष्यों बृहस्पति, विशालाक्ष (शिव), शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज, अगस्त्य मुनि, गौरशिरस मुनि, नंदी, कार्तिकेय, भैरवनाथ आदि ने आगे बढ़ाया। इसके अलावा वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, बाण, रावण, जय और विजय ने भी शैवपंथ का प्रचार किया। इस परम्परा में सबसे बड़ा नाम आदि गुरु भगवान् दत्तात्रेय का आता है। दत्तात्रेय के बाद आदि शंकराचार्य, मत्स्येन्द्र नाथ और गुरु गोरखनाथ का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।
(25). शिव महिमा :- भगवान् शिव ने कालकूट नामक विष पीया था जो कि समुद्र मन्थन के दौरान निकला था। भगवान् शिव ने भस्मासुर जैसे कई असुरों को वरदान दिया था। भगवान् शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया था। भगवान् शिव ने गणेश जी महाराज और दक्ष प्रजापति के सिर को जोड़ दिया था। ब्रह्मा जी द्वारा छल किए जाने पर भगवान् शिव ने ब्रह्मा जी का पाँचवाँ सिर काट दिया था।
(26). शैव परम्परा :- दसनामी, शाक्त, सिद्ध, दिगंबर, नाथ, लिंगायत, तमिल शैव, कालमुख शैव, कश्मीरी शैव, वीरशैव, नाग, लकुलीश, पाशुपत, कापालिक, कालदमन और महेश्वर सभी शैव परंपरा से हैं। चंद्रवंशी, सूर्यवंशी, अग्निवंशी और नागवंशी भी भगवान् शिव की परंपरा से ही माने जाते हैं। भारत की असुर, राक्षस और आदिवासी जाति के आराध्य देव भी भगवान् शिव ही हैं। शैव धर्म भारत के आदि वासियों का धर्म है।
(27). भगवान् शिव के प्रमुख नाम :-  भगवान् शिव के108 नामों का उल्लेख पुराणों में मिलता है। प्रचलित नाम :- महेश, नीलकंठ, महादेव, महाकाल, शंकर, पशुपति नाथ, गंगाधर, नटराज, त्रिनेत्र, भोलेनाथ, आदिदेव, आदिनाथ, त्रियंबक, त्रिलोकेश, जटाशंकर, जगदीश, प्रलयंकर, विश्वनाथ, विश्वेश्वर, हर, शिवशंभु, भूतनाथ और रुद्र।
(28). अमरनाथ के अमृत वचन :- भगवान् शिव ने अपनी अर्धांगिनी माता पार्वती को मोक्ष हेतु अमरनाथ की गुफा में जो ज्ञान दिया, उस ज्ञान की आज अनेकानेक शाखाएं हो चली हैं। वह ज्ञानयोग और तंत्र के मूल सूत्रों में शामिल है। विज्ञान भैरव तंत्र एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें भगवान् शिव द्वारा माता पार्वती को बताए गए 112 ध्यान सूत्रों का संकलन है।
(29). शिव ग्रंथ :- वेद और उपनिषद सहित विज्ञान भैरव तंत्र, शिव पुराण और शिव संहिता में शिव की सम्पूर्ण  शिक्षा-दीक्षा समाई हुई है। तंत्र के अनेक ग्रंथों में उनकी शिक्षा का विस्तार हुआ है।
(30. शिवलिंग :- वायु पुराण के अनुसार प्रलयकाल में समस्त सृष्टि जिसमें लीन हो जाती है और पुन: सृष्टिकाल में जिससे प्रकट होती है, उसे लिंग कहते हैं। इस प्रकार विश्व की संपूर्ण ऊर्जा ही लिंग की प्रतीक है। वस्तुत: यह संपूर्ण सृष्टि बिंदु-नाद स्वरूप है। बिंदु शक्ति है और नाद शिव। बिंदु अर्थात ऊर्जा और नाद अर्थात ध्वनि। यही दो संपूर्ण ब्रह्मांड का आधार है। इसी कारण प्रतीक स्वरूप शिवलिंग की पूजा-अर्चना है।
(31). बारह ज्योतिर्लिंग :- सोमनाथ, मल्लिकार्जुन, महाकालेश्वर, ओंकारेश्वर, वैद्यनाथ, भीमशंकर, रामेश्वर, नागेश्वर, विश्वनाथजी, त्र्यम्बकेश्वर, केदारनाथ, घृष्णेश्वर। ज्योतिर्लिंग उत्पत्ति के संबंध में अनेकों मान्यताएं प्रचलित है। ज्योतिर्लिंग यानी 'व्यापक ब्रह्मात्मलिंग' जिसका अर्थ है 'व्यापक प्रकाश'। जो शिवलिंग के बारह खंड हैं। शिवपुराण के अनुसार ब्रह्म, माया, जीव, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी को ज्योतिर्लिंग या ज्योति पिंड कहा गया है।
दूसरी मान्यता अनुसार शिव पुराण के अनुसार प्राचीनकाल में आकाश से ज्‍योति पिंड पृथ्‍वी पर गिरे और उनसे थोड़ी देर के लिए प्रकाश फैल गया। इस तरह के अनेकों उल्का पिंड आकाश से धरती पर गिरे थे। भारत में गिरे अनेकों पिंडों में से प्रमुख बारह पिंड को ही ज्‍योतिर्लिंग में शामिल किया गया।
(32). शिव दर्शन :- शिव के जीवन और दर्शन को जो लोग यथार्थ दृष्टि से देखते हैं वे सही बुद्धि वाले और यथार्थ को पकड़ने वाले शिवभक्त हैं, क्योंकि शिव का दर्शन कहता है कि यथार्थ में जियो, वर्तमान में जियो, अपनी चित्तवृत्तियों से लड़ो मत, उन्हें अजनबी बनकर देखो और कल्पना का भी यथार्थ के लिए उपयोग करो। आइंस्टीन से पूर्व शिव ने ही कहा था कि कल्पना ज्ञान से ज्यादा महत्वपूर्ण है।
(33). सदाशिव शिव और शंकर :- भगवान् सदाशिव परमपिता परब्रह्म परमेश्वर का वह रूप हैं  जो भगवान् श्री कृष्ण का अंग है और उन्हीं से प्रकट हुए भगवान् शिव भगवान् सदाशिव के वे अनन्त विग्रह हैं, जो अनन्त ब्रह्माण्डों में विराजमान हैं। 
(34). देवों के देव महादेव :- देवताओं की दैत्यों से प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी। ऐसे में जब भी देवताओं पर घोर संकट आता था तो वे सभी देवाधिदेव महादेव के पास जाते थे। दैत्यों, राक्षसों सहित देवताओं ने भी शिव को कई बार चुनौती दी, लेकिन वे सभी परास्त होकर शिव के समक्ष झुक गए इसीलिए शिव हैं देवों के देव महादेव। वे दैत्यों, दानवों और भूतों के भी प्रिय भगवान्-ईष्ट हैं। वे राम को भी वरदान देते हैं और रावण को भी।
(35). शिव हर काल में :- भगवान् शिव ने हर काल में लोगों को दर्शन दिए हैं। राम के समय भी शिव थे। महाभारत काल में भी शिव थे और विक्रमादित्य के काल में भी शिव के दर्शन होने का उल्लेख मिलता है। राजा हर्षवर्धन को भी भगवान् शिव ने दर्शन दिये थे।[भविष्य पुराण]
स्तुति ::
अम्भोधर श्यामलकुन्तलायै तडित्प्रभाताम्र जटाधराय।  
निरीश्वरायै निखिलेश्वराय नमः शिवायै च नमः शिवाय॥ 
जिनके श्यामल केश जल से भरे बादल समान हैं एवं जिनकी ताम्रवर्णीय जटाएँ चमकीली बिजली के समान हैं, जो हमेशा स्वतंत्र हैं अर्थात जिनका कोई ईश्वर नहीं है एवं जो सर्व लोकों के स्वामी हैं; ऐसे शिव को प्रणाम।
[One should never forget that Bhagwan Shiv too is an Ultimate form-MAHA KAL of the Almighty only, not the Almighty himself. Bhagwan Shri Krashn said that he is Rudr amongest the 11 Rudr. Whenever, one worship a deity he worship him or her as the Almighty.]
शिव षडक्षर स्तोत्रम्  ::
ओङ्कारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः। 
कामदं मोक्षदं चैव ओङ्काराय नमो नमः॥ 
Onkaram Bindu Sanyuktam, Nityam Dhyayanti Yoginh.
Kamdam Mokshdam Chaev; Onkaray Namo Namah.
I salute the one who is conjoined-united with the source-The almighty; who is for ever-permanent; the Yogis (realised souls) meditate-dwell upon HIM; who fulfil all desires and grants Salvation-liberation.
This is a prayer devoted to Bhagwan Shiv; who himself pray to the Almighty.
श्री शङ्कराचार्य कृतं-अर्धनारीनटेश्वर स्तोत्र ::
चाम्पेयगौरार्धशरीरकायै कर्पूरगौरार्धशरीरकाय।
धम्मिल्लकायै च जटाधराय नम: शिवायै च नम: शिवाय॥1॥
कस्तूरिकाकुंकुमचर्चितायै चितारजः पुंजविचर्चिताय।
कृतस्मरायै विकृतस्मराय नम: शिवायै च नम: शिवाय॥2॥
चलत्क्वणत्कंकणनूपुरायै पादाब्जराजत्फणीनूपुराय।
हेमांगदायै भुजगांगदाय नम: शिवायै च नम: शिवाय॥3॥
विशालनीलोत्पललोचनायै विकासिपंकेरुहलोचनाय।
समेक्षणायै विषमेक्षणाय नम: शिवायै च नम: शिवाय॥4॥
मन्दारमालाकलितालकायै कपालमालांकितकन्धराय।
दिव्याम्बरायै च दिगम्बराय नम: शिवायै च नम: शिवाय॥5॥
अम्भोधरश्यामलकुन्तलायै तडित्प्रभाताम्रजटाधराय।
निरीश्वरायै निखिलेश्वराय नम: शिवायै च नम: शिवाय ॥6॥
प्रपंचसृष्ट्युन्मुखलास्यकायै समस्तसंहारकताण्डवाय।
जगज्जनन्यैजगदेकपित्रे नम: शिवायै च नम: शिवाय॥7॥
प्रदीप्तरत्नोज्ज्वलकुण्डलायै स्फुरन्महापन्नगभूषणाय।
शिवान्वितायै च शिवान्विताय नम: शिवायै च नम: शिवाय॥8॥
स्तोत्र पाठ का फल ::
एतत् पठेदष्टकमिष्टदं यो भक्त्या स मान्यो भुवि दीर्घजीवी।
प्राप्नोति सौभाग्यमनन्तकालं भूयात् सदा तस्य समस्तसिद्धि:॥9॥
इति आदिशंकराचार्य विरचित अर्धनारीनटेश्वरस्तोत्रम् सम्पूर्णम्। 
आदिदेव भगवान् महादेव स्तुति ::
कैलासशिखरस्यं च पार्वतीपतिमुर्त्तममि। 
यथोक्तरूपिणं शंभुं निर्गुणं गुणरूपिणम्॥ 
पंचवक्त्र दशभुजं त्रिनेत्रं वृषभध्वजम्। 
कर्पूरगौरं दिव्यांग चंद्रमौलि कपर्दिनम्॥ 
व्याघ्रचर्मोत्तरीयं च गजचर्माम्बरं शुभम्। 
वासुक्यादिपरीतांग पिनाकाद्यायुद्यान्वितम्॥ 
सिद्धयोऽष्टौ च यस्याग्रे नृत्यन्तीहं निरंतरम्। 
जयज्योति शब्दैश्च सेवितं भक्तपुंजकै:॥ 
तेजसादुस्सहेनैव दुर्लक्ष्यं देव सेवितम्। 
शरण्यं सर्वसत्वानां प्रसन्न मुखपंकजम्॥ 
वेदै: शास्त्रैर्ययथागीतं विष्णुब्रह्मनुतं सदा। 
भक्तवत्सलमानंदं शिवमावाह्याम्यहम्॥ 
प्रभो! शूलपाणे विभो विश्वनाथ महादेव शंभो महेश त्रिनेत्र शिवाकान्त शान्त स्मरारे पुरारे त्वदन्यो वरेण्यो न मान्यो न गण्यः। 
हे त्रिशूलधारी! हे विभो विश्वनाथ! हे महादेव! हे शंभो! हे महेश! हे त्रिनेत्र! हे पार्वती वल्लभ! हे शान्त! हे स्मरणीय! हे त्रिपुरारे! आपके समक्ष न कोई श्रेष्ठ है, न वरण करने योग्य है, न मान्य है और न गणनीय ही है। 
शंभो महेश करुणामय शूलपाणे गौरीपते पशुपते पशुपाशनाशिन्। 
काशीपते करुणया जगदेतदेक-स्त्वंहंसि पासि विदधासि महेश्वरोऽसि॥ 
हे शम्भो! हे महेश! हे करूणामय! हे शूलपाणे! हे गौरीपति! हे पशुपति! हे काशीपति! आप ही सभी प्रकार के पशुपाश (मोह माया) का नाश करने वाले हैं। हे करूणामय! आप ही इस जगत की उत्पत्ति, पालन एवं संहार के कारण हैं। आप ही इसके एकमात्र स्वामी हैं। 
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् 
उर्वारुकमिव बन्धनानत् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥ 
हम त्रिनेत्रधारी भगवान् शिव की पूजा करते हैं, जो प्रत्येक श्वास में जीवन शक्ति का संचार करते हैं, जो सम्पूर्ण जगत का पालन पोषण अपनी शक्ति से कर रहे हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि जिस प्रकार एक ककड़ी अपनी बेल में पक जाने के उपरांत उस बेल रुपी संसार के बन्धन से मुक्त हो जाती है, उसी प्रकार हम भी इस संसार रुपी बेल में पक जाने के उपरांत जन्म मृत्यु के बन्धनों से सदा के लिए मुक्त हो जाए और आपके चरणों की अमृतधारा का पान करते हुए शरीर को त्यागकर आप ही में लीन हो जाए और मोक्ष को प्राप्त कर लें ! 
कर-चरणकृतं वाक्कायजं कर्मजं वा श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधम। 
विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व, जय-जय करुणाब्धे श्री महादेव शम्भो॥ 
हाथों से, पैरों से, वाणी से, शरीर से, कर्म से, कर्णों से, नेत्रों से अथवा मन से भी हमने जो अपराध किए हों, वे विहित हों अथवा अविहित, उन सबको क्षमा कीजिए, हे करुणा सागर महादेव शम्भो! आपकी जय हो, जय हो। 
तस्मै नम: परमकारणकारणाय, दिप्तोज्ज्वलज्ज्वलित पिङ्गललोचनाय। 
नागेन्द्रहारकृतकुण्डलभूषणाय, ब्रह्मेन्द्रविष्णुवरदाय नम: शिवाय॥ 
जो (शिव) कारणों के भी परम कारण हैं, (अग्निशिखा के समान) अति दिप्यमान उज्ज्वल एवं पिङ्गल नेत्रों वाले हैं, सर्पों के हार-कुण्डल आदि से विभूषित हैं तथा ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्रादि को भी वर देने वालें हैं, उन भगवान् शिव को मैं नमस्कार करता हूँ। 
श्रीमत्प्रसन्नशशिपन्नगभूषणाय, शैलेन्द्रजावदनचुम्बितलोचनाय। 
कैलासमन्दरमहेन्द्रनिकेतनाय, लोकत्रयार्तिहरणाय नम: शिवाय॥ 
जो निर्मल चन्द्र कला तथा सर्पों द्वारा ही भूषित एवं शोभायमान हैं, गिरिराज कुमारी अपने मुख से जिनके लोचनों का चुम्बन करती हैं, कैलास एवं महेन्द्र गिरि जिनके निवास स्थान हैं तथा जो त्रिलोकी के दु:ख को दूर करने वाले हैं, उन भगवान् शिव को मैं नमन करता हूँ।
पद्मावदातमणिकुण्डलगोवृषाय, कृष्णागरुप्रचुरचन्दनचर्चिताय। 
भस्मानुषक्तविकचोत्पलमल्लिकाय, नीलाब्जकण्ठसदृशाय नम: शिवाय॥ 
जो स्वच्छ पद्मराग मणि के कुण्डलों से किरणों की वर्षा करने वाले हैं, अगरू तथा चन्दन से चर्चित तथा भस्म, प्रफुल्लित कमल और जूही से सुशोभित हैं, ऐसे नील कमल सदृश कण्ठ वाले भगवान् शिव को नमस्कार है।
लम्बत्स पिङ्गल जटा मुकुटोत्कटाय, दंष्ट्राकरालविकटोत्कटभैरवाय। 
व्याघ्राजिनाम्बरधराय मनोहराय, त्रिलोकनाथनमिताय नम: शिवाय॥ 
 जो लटकती हुई पिङ्गवर्ण जटाओं के सहित मुकुट धारण करने से जो उत्कट जान पड़ते हैं, तीक्ष्ण दाढ़ों के कारण जो अति विकट और भयानक प्रतीत होते हैं, साथ ही व्याघ्र चर्म धारण किए हुए हैं तथा अति मनोहर हैं तथा तीनों लोकों के अधिश्वर भी जिनके चरणों में झुकते हैं, उन भगवान् शिव को मैं नमन करता हूँ।
दक्षप्रजापतिमहाखनाशनाय, क्षिप्रं महात्रिपुरदानवघातनाय। 
ब्रह्मोर्जितोर्ध्वगक्रोटिनिकृंतनाय, योगाय योगनमिताय नम: शिवाय॥ 
जो दक्ष प्रजापति के महायज्ञ को ध्वंस करने वाले हैं, जिन्होंने परम् विकट त्रिपुरासुर का तत्काल अन्त कर दिया था तथा जिन्होंने दर्प युक्त ब्रह्मा के ऊर्ध्व मुख (पञ्च्म सिर) को काट दिया था, उन भगवान् शिव को मैं नमन करता हूँ।
संसारसृष्टिघटनापरिवर्तनाय, रक्ष: पिशाचगणसिद्धसमाकुलाय। 
सिद्धोरगग्रहगणेन्द्रनिषेविताय, शार्दूलचर्मवसनाय नम: शिवाय॥ 
जो संसार में घटित होने वाले समस्त घटनाओं में परिवर्तन करने में सक्षम हैं, जो राक्षस, पिशाच से लेकर सिद्ध गणों द्वारा घिरे रहते हैं (जिनके अच्छे और बुरे सभी अनुयायी हैं); सिद्ध, सर्प, ग्रह-गण एवं इन्द्रादि से सेवित हैं तथा जो बाघम्बर धारण किये हुए हैं, उन भगवान् शिव को मैं नमन करता हूँ।
भस्माङ्गरागकृतरूपमनोहराय, सौम्यावदातवनमाश्रितमाश्रिताय। 
गौरीकटाक्षनयनार्धनिरीक्षणाय, गोक्षीरधारधवलाय नम: शिवाय॥ 
जिन्होंने भस्म लेप द्वरा शृंगार किया हुआ है, जो अति शान्त एवं सुन्दर वन का आश्रय करने वालों (ऋषि, भक्तगण) के आश्रित (वश में) हैं, जिनका माता पार्वती कटाक्ष नेत्रों द्वारा निरीक्षण करती हैं तथा जिनका गोदुग्ध की धारा के समान श्वेत वर्ण है, उन भगवान् शिव को मैं नमन करता हूँ।
आदित्य सोम वरुणानिलसेविताय, यज्ञाग्निहोत्रवरधूमनिकेतनाय। 
ऋक्सामवेदमुनिभि: स्तुतिसंयुताय, गोपाय गोपनमिताय नम: शिवाय॥ 
जो सूर्य, चन्द्र, वरूण और पवन द्वार सेवित हैं, यज्ञ एवं अग्निहोत्र धूम में जिनका निवास है, ऋक-सामादि, वेद तथा मुनिजन जिनकी स्तुति करते हैं, उन नन्दीश्वर पूजित गौओं का पालन करने वाले भगवान् शिव को मैं नमन करता हूँ।
पशूनां पतिं पापनाशं परेशं, गजेन्द्रस्य कृत्तिं वसानं वरेण्यम्। 
जटाजूटमध्ये स्फुरद्गाङ्गवारिं, महादेवमेकं स्मरामि स्मरारिम्॥ 
हे शिव! आप जो प्राणिमात्र के स्वामी एवं रक्षक हैं, पाप का नाश करने वाले परमेश्वर हैं, गजराज का चर्म धारण करने वाले हैं, श्रेष्ठ एवं वरण करने योग्य हैं, जिनकी जटाजूट में गँगा जी खेलती हैं, उन एक मात्र महादेव को बारम्बार स्मरण करता हूँ। 
महेशं सुरेशं सुरारातिनाशं, विभुं विश्वनाथं विभूत्यङ्गभूषम्। 
विरूपाक्षमिन्द्वर्कवह्नित्रिनेत्रं, सदानन्दमीडे प्रभुं पञ्चवक्त्रम्॥ 
हे महेश्वर, सुरेश्वर, देवों (के भी) दु:खों का नाश करने वाले विभु विश्वनाथ (आप) विभुति धारण करने वाले हैं, सूर्य, चन्द्र एवं अग्नि आपके तीन नेत्र के समान हैं। ऎसे सदा आनन्द प्रदान करने वाले पञ्चमुख वाले महादेव मैं आपकी स्तुति करता हूँ।
गिरीशं गणेशं गले नीलवर्णं, गवेन्द्राधिरूढं गुणातीतरूपम्। 
भवं भास्वरं भस्मना भूषिताङ्गं, भवानीकलत्रं भजे पञ्चवक्त्रम्॥ 
हे शिव! आप जो कैलाशपति हैं, गणों के स्वामी, नीलकंठ हैं, (धर्म स्वरूप वृष) बैल की सवारी करते हैं, अनगिनत गुण वाले हैं, संसार के आदि कारण हैं, प्रकाश पुञ सदृश्य हैं, भस्मअलंकृत हैं, जो भवानिपति हैं, उन पञ्चमुख प्रभु को मैं भजता हूँ।
शिवाकान्त शंभो शशाङ्कार्धमौले, महेशान शूलिञ्जटाजूटधारिन्। 
त्वमेको जगद्व्यापको विश्वरूपः, प्रसीद प्रसीद प्रभो पूर्णरूप॥ 
हे शिवा-पार्वती पति, शम्भु! हे चन्द्रशेखर! हे महादेव! आप त्रिशूल एवं जटाजूट धारण करने वाले हैं। हे विश्वरूप! सिर्फ आप ही सम्पूर्ण जगत में व्याप्त हैं। हे पूर्णरूप आप प्रसन्न हों, प्रसन्न हों।
परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं, निरीहं निराकारमोंकारवेद्यम्। 
यतो जायते पाल्यते येन विश्वं, तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम्॥ 
हे एकमात्र परमात्मा! जगत के आदिकारण! आप इच्छा रहित, निराकार एवं ओंकार स्वरूप वाले हैं। आपको सिर्फ प्रण (ध्यान) द्वारा ही जाना जा सकता है। आपके द्वारा ही सम्पुर्ण सृष्टि की उत्पत्ति होती है, आप ही उसका पालन करते हैं तथा अंतत: उसका आप में ही विलय हो जाता है। हे प्रभू! मैं आपको भजता हूँ।
न भूमिर्नं चापो न वह्निर्न वायुर्न, चाकाशमास्ते न तन्द्रा न निद्रा। 
न गृष्मो न शीतं न देशो न वेषो, न यस्यास्ति मूर्तिस्त्रिमूर्तिं तमीडे॥ 
जो न भूमि हैं, न जल, न अग्नि, न वायु और न ही आकाश अर्थात आप पंचतत्वों से परे हैं। आप तन्द्रा, निद्रा, ग्रीष्म एवं शीत से भी अलिप्त हैं। आप देश एव वेश की सीमा से भी परे हैं। हे निराकार त्रिमूर्ति! मैं आपकी स्तुति करता हूँ।
अजं शाश्वतं कारणं कारणानां, शिवं केवलं भासकं भासकानाम्। 
तुरीयं तमःपारमाद्यन्तहीनं, प्रपद्ये परं पावनं द्वैतहीनम्॥ 
हे अजन्मा-अनादि! आप शाश्वत हैं, नित्य हैं, कारणों के भी कारण हैं। हे कल्याण मूर्ति (शिव) आप ही एक मात्र प्रकाशकों को भी प्रकाश प्रदान करने वाले हैं। आप तीनों अवस्थाओं से परे हैं। हे अनादि-अनन्त! आप जो कि अज्ञान से परे हैं, आपके उस परम् पावन अद्वैत स्वरूप को नमस्कार है। 
नमस्ते नमस्ते विभो विश्वमूर्ते नमस्ते नमस्ते चिदानन्दमूर्ते, नमस्ते नमस्ते तपोयोग गम्य, नमस्ते नमस्ते श्रुति ज्ञानगम्य। 
हे विभो, हे विश्वमूर्ते आपको नमस्कार है, नमस्कार है। हे सबको आनन्द प्रदान करने वाले सदानन्द आपको नमस्कार है, नमस्कार है। हे तपोयोग ज्ञान द्वारा प्राप्त्य आपको नमस्कार है, नमस्कार है। हे वेदज्ञान द्वारा प्राप्त्य (प्रभु) आपको नमस्कार है, नमस्कार है। 
पुष्पदंत रचित शिव महिमा स्तोत्र :: राजा चित्ररथ ने एक अद्भुत सुन्दर बाग का निर्माण करवाया। जिसमें विभिन्न प्रकार के सुन्दर फूल थे। हर रोज राजा उन पुष्पों से भगवान् शिव की पूजा करते थे। एक दिन पुष्पदंत नामक गन्धर्व जो कि देवराज इन्द्र के दरबार में गायक था, उद्यान की तरफ से जाते हुए फूलों की सुन्दरता से मोहित हो कर उन्हें चुराने लगा। परिणाम स्वरुप राजा चित्ररथ भगवान् शिव को फूल अर्पित नहीं कर पा रहे थे। राजा बहुत प्रयास के बाद भी चोर को पकड़ने में असफल रहे, क्योंकि गन्धर्व पुष्पदंत में अदृश्य रहने की शक्ति थी। अन्त में राजा ने अपने बगीचे में शिव निर्माल्य फैला दिया। अनजाने में पुष्पदंत शिव निर्माल्य के ऊपर से चला गया, जिससे उसे भगवान् शिव का कोप भाजन बनना पड़ा। फलतः पुष्पदंत की दिव्य शक्तियाँ नष्ट हो गयीं। उसने क्षमा याचना के लिए भगवान् शिव की महिमा का गुणगान करते हुए स्तुति की। भगवान् शिव की कृपा से पुष्पदंत की दिव्य शाक्तियाँ लौट आयीं। पुष्पदंत द्वारा रचित भगवान् शिव की स्तुति "शिव महिम्नः स्तोत्र" के नाम से प्रसिद्ध हुई। 43 छन्दों का यह स्तोत्र शिव भक्तों को अत्यंत प्रिय है।
शिव महिम्नः स्तोत्रम् महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः। अथाऽवाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन् ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः
शिव महिमा स्त्रोत का पाठ करने से सभी प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है। पापों का नाश होता है। मन निर्मल हो जाता है।
यह स्त्रोत शिव भक्तों का प्रिय हैै। 43 छंदों के इस स्तोत्र में भगवान् शिव के दिव्य स्वरूप एवं उनकी सादगी का वर्णन है। इस स्तुति को गाकर पुष्पदंत ने भगवान् शिव को प्रसन्न किया और अपनी खोई हुई दिव्य शक्तियों को प्राप्त किया।
महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी
स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः।
अथाऽवाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन्
ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः॥1॥
हे हर! आप प्राणी मात्र के कष्टों को हरने वाले हैं। मैं इस स्तोत्र द्वारा आपकी वन्दना कर रहा हूँ जो कदाचित आपकी वन्दना के योग्य न भी हो। हे महादेव! स्वयं ब्रह्मा जी और अन्य देवगण भी आपके चरित्र की पूर्ण गुणगान करने में सक्षम नहीं हैं। जिस प्रकार एक पक्षी अपनी क्षमता के अनुसार ही आसमान में उड़ान भर सकता है। उसी प्रकार मैं यथा शक्ति आपकी आराधना करता हूँ।
हे प्रभु! बड़े-बड़े विद्वान और योगीजन आपके महिमा को नहीं जान पाये तो मैं तो एक साधारण बालक हूँ, मेरी क्या गिनती? लेकिन क्या आपकी महिमा को पूर्ण तया जाने बिना आपकी स्तुति नहीं हो सकती? मैं ये नहीं मानता, क्योंकि अगर ये सच है तो फिर ब्रह्मा की स्तुति भी व्यर्थ कहलाएगी। मैं तो ये मानता हूँ कि सबको अपनी मति के अनुसार स्तुति करने का अधिकार है। इसलिए हे भोलेनाथ! आप कृप्या मेरे हृदय के भाव को देखें और मेरी स्तुति का स्वीकार करें।
अतीतः पंथानं तव च महिमा वाङ्मनसयोः
अतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि। 
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः
पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः॥2॥
हे शिव! आपकी व्याख्या न तो मन, ना ही वचन द्वारा ही सम्भव है। आपके सन्दर्भ में वेद भी अचंभित हैं तथा नेति-नेति का प्रयोग करते हैं अर्थात ये भी नहीं और वो भी नहीं। आपका सम्पूर्ण गुणगान भला कौन करा सकता है? ये जानते हुए भी आपकी आदि-अन्त रहित परमात्मा का गुणगान कठिन है। मैं आपका वन्दना करता हूँ।
मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतः
तव ब्रह्मन् किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम्।
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः
पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता॥3॥
हे वेद और भाषा के सृजक! जब स्वयं देवगुरु बृहस्पति भी आपके स्वरूप की व्याख्या करने में असमर्थ हैं तो फिर मेरा कहना ही क्या!? हे त्रिपुरारी! अपने सीमित क्षमता का बोध होते हुए भी मैं इस विश्वास से इस स्तोत्र की रचना कर रहा हूँ कि इससे मेरे सर्वांग शुद्ध होगी तथा मेरे बुद्धि-विवेक का विकास होगा।
तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत्
त्रयीवस्तु व्यस्तं तिस्रुषु गुणभिन्नासु तनुषु।
अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं
विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः॥4॥
हे देव! आप ही इस संसार के सृजक, पालनकर्ता एवं विलयकर्ता हैं। तीनों वेद आपके ही सहिंता गाते हैं। तीनों गुण (सत, रज, तम) आपसेे ही प्रकाशित हैं। आपकी ही शक्ति त्रिदेवों में निहित है। इसके बाद भी कुछ मूढ़ प्राणी आपका उपहास करते हैं तथा आपके बारे भ्रम फैलाने का प्रयास करते हैं, जो कि सर्वथा अनुचित है।
किमीहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं
किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च।
अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसर दुःस्थो हतधियः
कुतर्कोऽयं कांश्चित् मुखरयति मोहाय जगतः॥5॥
हे महादेव! वो मूढ़ प्राणी जो स्वयं ही भ्रमित हैं। इस प्रकार से तर्क-वितर्क (कुतर्क) द्वारा आपके अस्तित्व को चुनौती देने की कोशिश करते हैं। वो कहते हैं कि अगर कोई परम् पुरुष है तो उसके क्या गुण हैं? वो कैसा दिखता है? उसके क्या साधन हैं? वो इस श्रृष्टि को किस प्रकार धारण करता है? ये प्रश्न वास्तव में भ्रामक मात्र हैं। वेद ने भी स्पष्ट किया है कि तर्क द्वारा आपको नहीं जाना जा सकता।
अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगतां
अधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति।
अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने कः परिकरो
यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे॥6॥
हे परमपिता! इस श्रृष्टि में सात लोक (भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्गलोक, सत्यलोक, महर्लोक, जनलोक, एवं तपलोक) हैं। इनका सृजन भला सृजक यानि कि आपके) बिना कैसे सम्भव हो सका!? ये किस प्रकार से और किस साधन से निर्मित हुए!? तात्पर्य है कि आप पर संशय का कोई तर्क भी नहीं हो सकता है।
त्रयी साङ्ख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च।
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव॥7॥
विभिन्न प्राणी सत्य तक पहुँचने के लिया विभिन्न वेद पद्धतियों का अनुसरण करते हैं। पर जिस प्रकार सभी नदी अन्ततः सागर में समाहित हो जाती है। ठीक उसी प्रकार हर मार्ग आप तक ही पहुँचता है।
महोक्षः खट्वाङ्गं परशुरजिनं भस्म फणिनः
कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम्।
सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भूप्रणिहितां
न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति॥8॥
हे शिव! आपके भृकुटि के इशारे मात्र से सभी देवगण ऐश्वर्य एवं सम्पदाओं का भोग करते हैं। पर आपके स्वयं के लिए सिर्फ बैल (नन्दी महाराज), कपाल, बाघम्बर, त्रिशूल, नागमाला एवं भस्म हैं। अगर कोई संशय करे कि अगर आप देवों के असीम ऐश्वर्य के श्रोत हैं, तो आप स्वयं उन ऐश्वर्यों का भोग क्यों नहीं करते? तो इस प्रश्न का उत्तर सहज ही है। आप इच्छा रहित और स्वयं में ही स्थित हैं।
ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं
परो ध्रौव्याऽध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये।
समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव
स्तुवन् जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता॥9॥
हे त्रिपुरहन्ता। इस संसार के बारे में विभिन्न विचारकों के भिन्न-भिन्न मत हैं। कोई इसे नित्य जानता है। तो कोई इसे अनित्य समझता है। अन्य इसे नित्यानित्य बताते हैं। इन विभिन्न मतों के कारण मेरी बुध्दि भ्रमित होती है। पर मेरी भक्ति आप में और दृढ़ होती जा रही है।
तवैश्वर्यं यत्नाद् यदुपरि विरिञ्चिर्हरिरधः
परिच्छेतुं यातावनिलमनलस्कन्धवपुष।
ततो भक्तिश्रद्धा-भरगुरु-गृणद्भ्यां गिरिश यत्
स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति॥10॥
एक समय आपके पूर्ण स्वरूप का भेद जानने हेतु ब्रह्मा एवं विष्णु क्रमशः ऊपर एवं नीचे की दिशा में गए। पर उनके सारे प्रयास विफल हुए। जब उन्होंने भक्ति मार्ग अपनाया, तभी आपको जान पाये। क्या आपकी भक्ति कभी विफल हो सकती है!?
अयत्नादासाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं
दशास्यो यद्बाहूनभृत-रणकण्डू-परवशान्।
शिरःपद्मश्रेणी-रचितचरणाम्भोरुह-बलेः
स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम्॥11॥
हे त्रिपुरान्तक! दशानन रावण किस प्रकार विश्व को शत्रु विहीन कर सका? उसके महाबाहू हर पल युद्ध के लिए व्यग्र रहे। हे प्रभु! रावण ने भक्ति वश अपने ही शीश को काट-काट कर आपके चरण कमलों में अर्पित कर दिया, ये उसी भक्ति का प्रभाव था।
अमुष्य त्वत्सेवा-समधिगतसारं भुजवनं
बलात् कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः।
अलभ्यापातालेऽप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि
प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः॥12॥
हे शिव! एक समय उसी रावण ने मद् में चूर आपके कैलाश को उठाने की धृष्टता करने की भूल की। हे महादेव! आपने अपने सहज, पाँव के अँगूठे मात्र से उसे दबा दिया। फिर क्या था; रावण कष्ट में रूदन करा उठा। वेदना ने पटल लोक में भी उसका पीछा नहीं छोड़ा। अन्ततः आपकी शरणागति के बाद ही, वह मुक्त हो सका।
यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतीं
अधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयत्रिभुवनः।
न तच्चित्रं तस्मिन् वरिवसितरि त्वच्चरणयोः
न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः॥13॥
हे शम्भो! आपकी कृपा मात्र से ही बाणासुर दानव इन्द्रादि देवों से भी अधिक ऐश्वर्यशाली बन सका तथा तीनों लोकों पर राज्य किया। हे ईश्वर! आपकी भक्ति से क्या कुछ सम्भव नहीं हैं!?
अकाण्ड-ब्रह्माण्ड-क्षयचकित-देवासुरकृपा
विधेयस्याऽऽसीद् यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः।
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो
विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवन-भय-भङ्ग-व्यसनिनः॥14॥
देवताओं एव असुरों ने अमृत प्राप्ति हेतु समुद्र मन्थन किया। समुद्र से अनेक मूल्यवान वस्तुएं प्राप्त हुईं जो देव तथा दानवों ने आपस में बाँट लिया। पर जब समुद्र से अत्यधिक भयावह कालकूट विष प्रगट हुआ तो असमय ही श्रृष्टि समाप्त होने का भय उत्पन्न हो गया और सभी भयभीत हो गए। हे हर! तब आपने ही संसार रक्षार्थ विषपान कर लिया। वह विष आपके कण्ठ में निष्क्रिय होकर पड़ा है। विष के प्रभाव से आपका कण्ठ नीला पड़ गया। हे नीलकंठ! आश्चर्य है कि ये विकृति भी आपकी शोभा ही बढ़ाती है। कल्याण का कार्य सुन्दर ही होता है।
असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः।
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्
स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः॥15॥
हे प्रभु! कामदेव के वार से कभी कोई भी नहीं बच सका, चाहे वो मनुष्य हों या देव या दानव हो। पर जब कामदेव ने आपकी शक्ति समझे बिना आपकी ओर अपने पुष्प बाण को साधा तो आपने उसे तत्क्षण ही भस्म कर दिया। श्रेष्ठ जनों के अपमान का परिणाम कभी हितकर नहीं होता।
मही पादाघाताद् व्रजति सहसा संशयपदं
पदं विष्णोर्भ्राम्यद् भुज-परिघ-रुग्ण-ग्रह-गणम्।
मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृत-जटा-ताडित-तटा
जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता॥16॥
हे नटराज! जब संसार कल्याण के हित के हेतु आप ताण्डव करने लगते हैं तो आपके पाँव के नीचे धरा काँप उठती है। आपके हाथों के परिधि से टकराकर ग्रह नक्षत्र भयभीत हो उठते हैं। विष्णु लोक भी हिल जाता है। आपके जटा के स्पर्श मात्र से स्वर्गलोक व्याकुल हो उठता है। हे महादेव! आश्चर्य है कि अनेकों बार कल्याणकारी कार्य भी भय उत्पन्न करते हैं।
वियद्व्यापी तारा-गण-गुणित-फेनोद्गम-रुचिः
प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते।
जगद्द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमिति
अनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः॥17॥
आकाश गँगा से निकलती तारागणों के बीच से गुजरती गँगा जल अपनी धारा से धरती पर टापू तथा अपने वेग से चक्रवात उत्पन्न करती हैं। पर ये उफान से परिपूर्ण गँगा आपके मस्तक पर एक बूँद के समान ही दृष्टिगोचर होती हैं। ये आपके दिव्य स्वरूप का ही परिचायक है।
रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो
रथाङ्गे चन्द्रार्कौ रथ-चरण-पाणिः शर इति।
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बर विधिः
विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः॥18॥
हे शिव! आपने त्रिपुरासुर का वध करने हेतु, पृथ्वी को रथ, ब्रह्मा जी को सारथी, सूर्य- चन्द्र को पहिया एवं स्वयं इन्द्र को बाण बनाया। हे शम्भू! इस वृहत प्रयोजन की क्या आवश्यकता थी!? आपके लिए तो संसार मात्र का विलय करना अत्यन्त ही छोटी बात है। आपको किसी सहायता की क्या आवश्यकता!?
हरिस्ते साहस्रं कमल बलिमाधाय पदयोः
यदेकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम्।
गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषः
त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम्॥19॥
जब भगवान् हरी विष्णु ने आपकी सहस्त्र कमलों (एवं सहस्र नामों) द्वारा पूजा प्रारम्भ की तो उन्होंने एक कमल कम पाया। तब भक्ति भाव से हरि ने अपने एक आँख (कमलनयन) को कमल के स्थान पर अर्पित कर दिया। उनकी यही अदम्य भक्ति ने सुदर्शन चक्र का स्वरूप धारण कर लिया। जिसे भगवान् विष्णु संसार की रक्षार्थ उपयोग करते हैं।
क्रतौ सुप्ते जाग्रत् त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते।
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदान-प्रतिभुवं
श्रुतौ श्रद्धां बध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः॥20॥
हे देवाधिदेव! आपने ही कर्मफल का विधान बनाया। आपके ही विधान से अच्छे कर्मों तथा यज्ञ कर्म का फल प्राप्त होता है। आपके वचनों में श्रद्धा रख कर सभी वेद कर्मों में आस्था बनाया रखते हैं तथा यज्ञ कर्म में संलग्न रहते हैं।
क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृतां
ऋषीणामार्ति्वज्यं शरणद सदस्याः सुर-गणाः।
क्रतुभ्रंशस्त्वत्तः क्रतुफल-विधान-व्यसनिनः
ध्रुवं कर्तुं श्रद्धा विधुरमभिचाराय हि मखाः॥21
हे प्रभु! यदपि आपने यज्ञ कर्म और फल का विधान बनाया है, तदापि जो यज्ञ शुद्ध विचारों और कर्मो से प्रेरित न हो और आपकी अवहेलना करने वाला हों; उनका परिणाम कदाचित विपरीत और अहितकर ही होता है। दक्ष प्रजापति के महायज्ञ से उपयुक्त उदाहरण भला और क्या हो सकता है? दक्ष प्रजापति के यज्ञ में स्वयं ब्रह्मा जी पुरोहित तथा अनेकानेक देवगण तथा ऋषि-मुनि शामिल हुए। फिर भी भगवान् शिव की अवहेलना के कारण यज्ञ का नाश हुआ। आप अनीति को सहन नहीं करते भले ही शुभकर्म के क्षद्मवेश में क्यों न हों।
प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं
गतं रोहिद् भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा।
धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुं
त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः॥22
एक समय में ब्रह्मा जी अपनी पुत्री पर ही मोहित हो गये। जब उनकी पुत्री ने हिरनी का स्वरुप धारण कर भागने की कोशिश की, तो कामातुर ब्रह्मा जी ने भी हिरण के भेष में उनका पीछा करने लगे। हे शंकर! तब आप व्याघ्र स्वरूप में धनुष-बाण ले ब्रह्मा जी की ओर कूच किया। आपके रौद्र रूप से भयभीत ब्रह्मा जी आकाश दिशा की ओर भाग निकले तथा आज भी आपसे भयभीत हैं।
स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्नाय तृणवत्
पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि।
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत-देहार्ध-घटनात्
अवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः॥23
हे योगेश्वर! जब आपने माता पार्वती को अपनी सहभागी बनाया तो उन्हें आपने योगी होने पे शंका उत्पन्न हुईं। ये शंका निर्मूल थी, क्योंकि जब स्वयं कामदेव ने आप पर अपना प्रभाव दिखलाने की कोशिश की तो आपने काम को जला दिया।
श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचराः
चिता-भस्मालेपः स्रगपि नृकरोटी-परिकरः।
अमङ्गल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं
तथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मङ्गलमसि॥24
हे भोलेनाथ! आप श्मशान में रमण करते हैं। भूत-प्रेत आपके संगी-साथी होते हैं। आप चिता भस्म का लेप करते हैं तथा मुण्ड माल धारण करते हैं। ये सारे गुण ही अशुभ एवं भयावह जान पड़ते हैं। तब भी हे श्मशान निवासी! आपके भक्त आपके इस स्वरूप में भी शुभकारी एव आनन्ददायी प्रतीत होता है। क्योंकि हे शंकर! आप मनोवान्छिता फल प्रदान करने में तनिक भी विलम्ब नहीं करते हैं।
मनः प्रत्यक् चित्ते सविधमविधायात्त-मरुतः
प्रहृष्यद्रोमाणः प्रमद-सलिलोत्सङ्गति-दृशः।
यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्यामृतमये
दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत् किल भवान्॥25
हे योगिराज! मनुष्य नाना प्रकार के योग पद्धति को अपनाते हैं, जैसे कि श्वास पर नियंत्रण, उपवास, ध्यान इत्यादि। हे महादेव! इन योग क्रियाओं द्वारा वो जिस आनन्द, जिस सुख को प्राप्त करते हैं, वो वास्तव में आप ही हैं।
त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवहः
त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च।
परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रति गिरं
न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत् त्वं न भवसि॥26
हे शिव! आप ही सूर्य, चन्द्र, धरती, आकाश, अग्नि, जल एवं वायु हैं। आप ही आत्मा भी हैं। हे देव! मुझे ऐसा कुछ भी ज्ञात नहीं जो आप न हों।
त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरान्
अकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत् तीर्णविकृति।
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः
समस्त-व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम्॥27
हे सर्वेश्वर! ’’ऊँ’’ तीन तत्वों से बना हैं। अ, ऊ, म जो तीन वेदों (ऋग, साम, यजुर), तीन अवस्था (जाग्रत, स्वप्ना, शुसुप्ता), तीन लोकों, तीन कालों, तीन गुणों तथा त्रिदेवों को इंगित करता हैं। हे ओंकार! आप ही इस त्रिगुण, त्रिकाल, त्रिदेव, त्रिअवस्था और त्रिवेद के समागम हैं।
भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहान्
तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम्।
अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि
प्रियायास्मैधाम्ने प्रणिहित-नमस्योऽस्मि भवते॥28
हे शिव! विद एवं देवगण आपकी इन आठ नामों से वन्दना करते हैं। भव, सर्व, रूद्र, पशुपति, उग्र, महादेव, भीम एवं इशान। हे शम्भू मैं भी आपकी इन नामों से स्तुति करता हूँ।
नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमः
नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः।
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमः
नमः सर्वस्मै ते तदिदमतिसर्वाय च नमः॥29॥
हे त्रिलोचन! आप अत्यधिक दूर हैं और अत्यंत पास भी आप महा विशाल भी हैं तथा परम सूक्ष्म भी। आप श्रेष्ठ भी हैं तथा कनिष्ठ भी। आप ही सभी कुछ हैं, साथ ही आप सभी कुछ से परे भी हैं।
बहुल-रजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः
प्रबल-तमसे तत् संहारे हराय नमो नमः।
जन-सुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नमः
प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः॥30॥
हे भव! मैं आपको रजोगुण से युक्त सृजनकर्ता जान कर आपका नमन करता हूँ। हे हर! मैं आपको तामस गुण से युक्त, विलयकर्ता मान आपका नमन करता हूँ। हे मृड! आप सतोगुण से व्याप्त सबका पालन करने वाले हैं। आपको नमस्कार है। आप ही ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश हैं। हे परमात्मा! मैं आपको इन तीन गुणों से परे जान कर शिव रूप में नमस्कार करता हूं।
श-परिणति-चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं
क्व च तव गुण-सीमोल्लङ्घिनी शश्वदृद्धिः।
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्
वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम्॥31॥
हे शिव! आप गुनातीत हैं और आपका विस्तार नित्य बढता ही जाता है। अपनी सीमित क्षमता से मैं कैसे आपकी वन्दना कर सकता हूँ? परा भक्ति से ये दूरी मिट जाती है तथा मैं आपके कर कमलों में अपनी स्तुति प्रस्तुत करता हूँ।
असित-गिरि-समं स्यात् कज्जलं सिन्धु-पात्रे
सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति॥32॥
यदि कोई गिरि (पर्वत) को स्याही, सिंधु को दवात, देव उद्यान के किसी विशाल वृक्ष को लेखनी एवं छाल को पत्र की तरह उपयोग में लाए तथा स्वयं ज्ञान स्वरूपा माँ सरस्वती अनन्तकाल तक आपके गुणों की व्याख्या में संलग्न रहें, तो भी आप के गुणों की व्याख्या सम्भव नहीं है।
असुर-सुर-मुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दु-मौलेः
ग्रथित-गुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य।
सकल-गण-वरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानः
रुचिरमलघुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार॥33॥
इस स्तोत्र की रचना पुष्पदंत गन्धर्व ने उन चन्द्रमोलेश्वर भगवान् शिव के गुणगान के लिए की है, जो गुणातीत हैं।
अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत्
पठति परमभक्त्या शुद्ध-चित्तः पुमान् यः।
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र
प्रचुरतर-धनायुः पुत्रवान् कीर्तिमांश्च॥34॥
जो भी इस स्तोत्र का शुद्ध मन से नित्य पाठ करता है, वो जीवन काल में विभिन्न ऐश्वर्यों का भोग करता है तथा अंततः शिव धाम को प्राप्त करता है तथा शिव तुल्य हो जाता है।
महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः।
अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम्॥35॥
महेश से श्रेष्ठ कोइ देव नहीं, शिव महिमा स्तोत्र से श्रेष्ठ कोई स्तोत्र नहीं। ॐ से बढकर कोई मंत्र नहीं तथा गुरू से ऊपर कोई सत्य नहीं।
दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः।
महिम्नस्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥36॥
दान, यज्ञ, ज्ञान एवं त्याग इत्यादि सत्कर्म इस स्तोत्र के पाठ के सोलहवें अंश के बराबर भी फल नहीं प्रदान कर सकते हैं।
कुसुमदशन-नामा सर्व-गन्धर्व-राजः
शशिधरवर-मौलेर्देवदेवस्य दासः।
स खलु निज-महिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्
स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्य-दिव्यं महिम्नः॥37॥
कुसुम दन्त नामक गन्धर्वों का राजा चन्द्रमोलेश्वर शिव जी का परम् भक्त था। अपने अपराध (पुष्प की चोरी) के कारण वो अपने दिव्य स्वरूप से वंचित हो गया। तब उसने इस स्तोत्र की रचना कर भगवान् शिव को प्रसन्न किया तथा अपने दिव्य स्वरूप को पुनः प्राप्त किया।
सुरगुरुमभिपूज्य स्वर्ग-मोक्षैक-हेतुं 
पठति यदि मनुष्यः प्राञ्जलिर्नान्य-चेताः।
व्रजति शिव-समीपं किन्नरैः स्तूयमानः 
स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम्॥38॥ 
जो इस स्तोत्र का पठन करता है वो शिवलोक पाता है तथा ऋषि मुनियों द्वारा भी पूजित हो जाता है।
आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्व-भाषितम्।
अनौपम्यं मनोहारि सर्वमीश्वरवर्णनम्॥39॥
पुष्पदंत रचित ये स्तोत्र दोषरहित है तथा इसका नित्य पाठ करने से परम् सुख की प्राप्ति होती है।
इत्येषा वाङ्मयी पूजा श्रीमच्छङ्कर-पादयोः।
अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः॥40॥
ये स्तोत्र भगवान् शिव को समर्पित है। प्रभु हमसे प्रसन्न हों। 
तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर।
यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः॥41॥
हे शिव! मैं आपके वास्तविक स्वरुप् को नहीं जानता। हे शिव आपके उस वास्तविक स्वरूप जिसे मैं नहीं जान सकता हूँ, उसको नमस्कार है।
एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः।
सर्वपाप-विनिर्मुक्तः शिव लोके महीयते॥42॥
जो इस स्तोत्र का दिन में एक, दो या तीन बार पाठ करता है वो पाप मुक्त हो जाता है तथा शिव लोक को प्राप्त करता है।
श्री पुष्पदन्त-मुख-पङ्कज-निर्गतेन स्तोत्रेण किल्बिष-हरेण हर-प्रियेण।
कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः॥43॥
पुष्पदंत द्वारा रचित ये स्तोत्र भगवान् शिव को अत्यन्त प्रिय है। इसका पाठ करने वाला अपने संचित पापों से मुक्ति पाता है।
पञ्चब्रह्म मन्त्र :: पञ्चमुखी शिव के पाँच रूप (मुख) ही पञ्चब्रह्म (ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव, सद्योजात) हैं तथा यहाँ उपस्थित पाँच मंत्र भगवान् विष्णु ने ज्योतिर्मय महलिङ्ग से प्राप्त करके जप करना आरम्भ किया था। ये मंत्र शिव पूजा के लिए अत्यंत प्रभावशाली हैं। 
(1). ॐकार से उत्पन्न, पाँच कलाओं से युक्त, बुद्धि विवर्धक तथा सभी धर्म-अर्थ को सिद्ध करने वाला शुद्ध स्फटिक तुल्य अत्यंत शुभ्र तथा अड़तीस शुभ अक्षरों वाला पवित्र मंत्र :: 
ईशान सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानां ब्रह्मादिपति ब्रह्मणोऽधिपतिर्। 
ब्रह्मा शिवो मे अस्तु सदाशिवोम्॥ 
(2). गायत्री से उत्पन्न, चार कलाओं वाला, चौबीस अक्षरों से युक्त तथा वश्यकारक हरित वर्ण अत्युत्तम मंत्र :: 
तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि। तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्॥
वश्यकारक :: ए :- वशीकरण का कारक (किसी व्यक्ति को अपने अनुकूल बनाने वाला), ऐ :- पुरुष का वशीकरण, ओ :- लोक वश्यकारक, औ :- राज वश्यकारक, अं :- गजराज (हाथी) आदि वन्य जीवों को वश में करने वाला, अः :- मृत्युनाशक।  क :- विष बीज है, ख :- स्तंभन बीज है, ग :- गणपति बीज है. घ :- स्तंभन बीज है. ड. :- असुर बीज है, च :- चंद्रमा बीज है, छ :- लाभ बीज है और मृत्युनाशक है, ज :- ब्रह्म राक्षस बीज है, झ :- चंद्रमा बीज है और धर्म, अर्थ, काम और मोक्षप्रद है, ट :- क्षोभण बीज है और चित्त को चंचल करने वाला है, ठ :- चंद्रमा बीज है और विष तथा अपमृत्यु नाशक है, ड :- गरुड़ बीज है, ढ :- कुबेर बीज है और उत्तराभिमुख होकर चार लाख जप करने से धन-धान्य की वृद्धि करता है, ण :- असुर बीज है,  त :- अष्ट वसुओं का बीज है, थ :- यम बीज है और मृत्यु के भय को मिटाता है, त :- अष्ट वसुओं का बीज है, थ :- यम बीज है और मृत्यु के भय को मिटाता है, द :- दुर्गा बीज है और वश्य एवं पुष्टि कर्म के निमित्त उत्तम है, ध :- सूर्य बीज है और यश और सुख की वृद्धि करता है, न :- ज्वरनाशक है और एकांतर एवं तिजारी ज्वर को दूर करता है, प :- वीरभद्र और वरुण बीज है, फ :- विष्णु बीज है और धन-धान्य की वृद्धि करता है, ब :- ब्रह्म बीज है और त्रिदोषनाशक है, भ :- भद्रकाली का बीज है और भूत-प्रेत और पिशाचादि के भय का शमन करता है, म :- माला, अग्नि तथा रुद्र का बीज है जो स्तंभन और मोहन कर्म के लिए उपयोगी है और अष्ट महासिद्धि देने वाला है, य :- उच्चाटनकारण वायु बीज है, र :- उग्र कर्मों की सिद्धि देने वाला अग्नि बीज है, ल :- धन-धान्य की वृद्धि करने वाला इन्द्र बीज है,  व :- विष तथा मृत्यु का नाशक वरुण बीज है, श :- एक लाख जप से लक्ष्मी (धन) की प्राप्ति कराने वाला लक्ष्मी बीज है, ष :- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष देने वाला सूर्य बीज है, स :- ज्ञान सिद्धि तथा वाक सिद्धि प्रदान करने वाला वाणी बीज है, ह :- आकाश एवं शिव का बीज है, क्ष :- पृथ्वी बीज है और यही नृसिंह तथा भैरव का भी बीज है। 
यदि उपरोक्त किसी भी अक्षर का जप करना हो तो उस पर अनुनासिक चन्द्र बिन्दु लगाकर तथा ‘ह्रीं’ बीज का संपुट करके (आदि और अन्त में जोड़कर) जप करना चाहिए। वैसे तंत्र ग्रंथों में प्रत्येक वर्ण का ध्यान भी प्राप्त होता है, जैसे :-
अ-कारं वृत्तासन गजवाहनं हेमवर्ण कुंकुमगंधं लवणस्वादुं जबूद्वीपविस्तीर्णं चतुर्मुखमष्टबाहुं कृष्णलोचनं जटा-मुकुटधारिणं सितवर्णं मौक्तिकाभरणमतीव बलिनं गंभीरं पुल्लिंगं ध्यायामि। 
(3). अथर्ववेद से उत्पन्न, आठ कलाओं से युक्त, तैंतीस शुभ अक्षर वाला कृष्णवर्ण तथा अत्यंत अभिचारिक अघोर मंत्र :: 
अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो अघोरघोरेतरेभ्यः। 
सर्वेभ्यो सर्व सर्वेभ्यो नमस्ते अस्तु रुद्र रूपेभ्यः॥ 
(4). यजुर्वेद से प्रादुर्भूत, आठ कलाओं वाला, श्वेतवर्ण वाला, शान्तिकारक पैंतीस अक्षरों से युक्त पवित्र सद्योजात मंत्र :: 
सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमो नमः। 
भवे भवे नाति भवे भवस्व मां भवोद्भवाय नमः॥ 
(5). सामवेद से उत्पन्न, रक्तवर्ण, बाल आदि तेरह कलाओं से युक्त, जगत का आदि स्वरुप तथा वृद्धि-संहार का कारण रूप छयासठ अक्षरों वाला उत्तम मंत्र :: 
वामदेवायनमो ज्येष्ठाय नमः श्रेष्ठाय नमो रुद्राय नमः कालाय नमः। 
कलविकरणाय नमो बलविकरणाय नमो बलाय नमो बलप्रमथनाय नमः। सर्वभूतदमनाय नमो मनोन्मनाय नमः॥ 
SHIV PANCHAKSHAR STROTR शिव पञ्चाक्षर स्त्रोत्र :: 
नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय भस्माङ्गरागाय महेश्वराय। 
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय तस्मै नकाराय नमः शिवाय॥1॥
मन्दाकिनीसलिलचन्दनचर्चिताय नन्दीश्वरप्रमथनाथमहेश्वराय। 
मन्दारपुष्पबहुपुष्पसुपूजिताय तस्मै मकाराय नमः शिवाय॥2॥
शिवाय गौरीवदनाब्जवृन्दसूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय। 
श्रीनीलकण्ठाय वृषध्वजाय तस्मै शिकाराय नमः शिवाय॥3॥
वशिष्ठ कुम्भोद्भव गौतमार्य मूनीन्द्रदेवार्चित शेखराय। 
चन्द्रार्कवैश्वानरलोचनाय तस्मै वकाराय नमः शिवाय॥4॥
यज्ञस्वरूपाय जटाधराय पिनाकहस्ताय सनातनाय। 
दिव्याय देवाय दिगम्बराय तस्मै यकाराय नमः शिवाय॥5॥
पञ्चाक्षरमिदं पुण्यं यः पठेच्छिवसंनिधौ। 
शिवलोकमावाप्नोति शिवेन सह मोदते॥6॥
शिवाष्टकम :: शिव के प्रशंसा में अनेकों अष्टकों की रचना हुई है जो शिवाष्टक, लिंगाष्टक, रूद्राष्टक, बिल्वाष्टक जैसे नामों से प्रसिद्ध हैं। यह आठ पदों में विभक्त है।
तस्मै नम: परमकारणकारणाय, दिप्तोज्ज्वलज्ज्वलित पिङ्गललोचनाय।
नागेन्द्रहारकृतकुण्डलभूषणाय, ब्रह्मेन्द्रविष्णुवरदाय नम: शिवाय॥1॥
जो (शिव) कारणों के भी परम कारण हैं, (अग्निशिखा के समान) अति दिप्यमान उज्ज्वल एवं पिङ्गल नेत्रोंवाले हैं, सर्पों के हार-कुण्डल आदि से भूषित हैं तथा ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्रादि को भी वर देने वालें हैं, उन शिव जी को नमस्कार करता हूँ। 
श्रीमत्प्रसन्नशशिपन्नगभूषणाय, शैलेन्द्रजावदनचुम्बितलोचनाय। 
कैलासमन्दरमहेन्द्रनिकेतनाय, लोकत्रयार्तिहरणाय नम: शिवाय॥2॥ 
जो निर्मल चन्द्र कला तथा सर्पों द्वारा ही भूषित एवं शोभायमान हैं, गिरिराजग्गुमारी अपने मुख से जिनके लोचनों का चुम्बन करती हैं, कैलास एवं महेन्द्रगिरि जिनके निवासस्थान हैं तथा जो त्रिलोकी के दु:ख को दूर करनेवाले हैं, उन शिव जी को नमस्कार करता हूँ। 
पद्मावदातमणिकुण्डलगोवृषाय, कृष्णागरुप्रचुरचन्दनचर्चिताय। 
भस्मानुषक्तविकचोत्पलमल्लिकाय, नीलाब्जकण्ठसदृशाय नम: शिवाय॥3॥ 
जो स्वच्छ पद्मरागमणि के कुण्डलों से किरणों की वर्षा करने वाले हैं, अगरू तथा चन्दन से चर्चित तथा भस्म, प्रफुल्लित कमल और जूही से सुशोभित हैं ऐसे नीलकमलसदृश कण्ठवाले शिव को नमस्कार है। 
लम्बत्स पिङ्गल जटा मुकुटोत्कटाय, दंष्ट्राकरालविकटोत्कटभैरवाय। 
व्याघ्राजिनाम्बरधराय मनोहराय, त्रिलोकनाथनमिताय नम: शिवाय॥4॥ 
जो लटकती हुई पिङ्गवर्ण जटाओंके सहित मुकुट धारण करने से जो उत्कट जान पड़ते हैं, तीक्ष्ण दाढ़ों के कारण जो अति विकट और भयानक प्रतीत होते हैं, साथ ही व्याघ्रचर्म धारण किए हुए हैं तथा अति मनोहर हैं तथा तीनों लोकों के अधिश्वर भी जिनके चरणों में झुकते हैं, उन शिव जी को नमस्कार करता हूँ। 
दक्षप्रजापतिमहाखनाशनाय, क्षिप्रं महात्रिपुरदानवघातनाय। 
ब्रह्मोर्जितोर्ध्वगक्रोटिनिकृंतनाय, योगाय योगनमिताय नम: शिवाय॥5॥ 
जो दक्षप्रजापति के महायज्ञ को ध्वंस करने वाले हैं, जिन्होने परंविकट त्रिपुरासुर का तत्कल अन्त कर दिया था तथा जिन्होंने दर्पयुक्त ब्रह्मा के ऊर्ध्वमुख (पञ्च्म शिर) को काट दिया था, उन शिव जी को नमस्कार करता हूँ। 
संसारसृष्टिघटनापरिवर्तनाय, रक्ष: पिशाचगणसिद्धसमाकुलाय। 
सिद्धोरगग्रहगणेन्द्रनिषेविताय, शार्दूलचर्मवसनाय नम: शिवाय॥6॥ 
जो संसार मे घटित होने वाले सम्सत घटनाओं में परिवर्तन करने में सक्षम हैं, जो राक्षस, पिशाच से ले कर सिद्धगणों द्वरा घिरे रहते हैं (जिनके बुरे एवं अच्छे सभि अनुयायी हैं); सिद्ध, सर्प, ग्रह-गण एवं इन्द्रादिसे सेवित हैं तथा जो बाघम्बर धारण किये हुए हैं, उन शिव जी को नमस्कार करता हूँ। 
भस्माङ्गरागकृतरूपमनोहराय, सौम्यावदातवनमाश्रितमाश्रिताय। 
गौरीकटाक्षनयनार्धनिरीक्षणाय, गोक्षीरधारधवलाय नम: शिवाय॥7॥ 
जिन्होंने भस्म लेप द्वरा सृंगार किया हुआ है, जो अति शांत एवं सुन्दर वन का आश्रय करने वालों (ऋषि, भक्तगण) के आश्रित (वश में) हैं, जिनका श्री पार्वतीजी कटाक्ष नेत्रों द्वरा निरिक्षण करती हैं तथा जिनका गोदुग्ध की धारा के समान श्वेत वर्ण है, उन शिव जी को नमस्कार करता हूँ। 
आदित्य सोम वरुणानिलसेविताय, यज्ञाग्निहोत्रवरधूमनिकेतनाय। 
ऋक्सामवेदमुनिभि: स्तुतिसंयुताय, गोपाय गोपनमिताय नम: शिवाय॥8॥ 
जो सूर्य, चन्द्र, वरूण और पवन द्वार सेवित हैं, यज्ञ एवं अग्निहोत्र धूममें जिनका निवास है, ऋक-सामादि, वेद तथा मुनिजन जिनकी स्तुति करते हैं, उन नन्दीश्वरपूजित गौओं का पालन करने वाले शिव जी को नमस्कार करता हूँ। 
भगवान् श्री हरी विष्णु कृत शिवसहस्रनामावलि :: 
ॐ स्थिराय नमः, ॐ स्थाणवे नमः, ॐ प्रभवे नमः, ॐ भीमाय नमः, ॐ प्रवराय नमः, ॐ वरदाय नमः, ॐ वराय नमः, ॐ सर्वात्मने नमः, ॐ सर्वविख्याताय नमः, ॐ सर्वस्मै नमः॥10॥ 
ॐ सर्वकराय नमः, ॐ भवाय नमः, ॐ जटिने नमः, ॐ चर्मिणे नमः, ॐ शिखण्डिने नमः, ॐ सर्वाङ्गाय नमः, ॐ सर्वभावनाय नमः, ॐ हराय नमः, ॐ हरिणाक्षाय नमः, ॐ सर्वभूतहराय नमः॥20॥ 
ॐ प्रभवे नमः, ॐ प्रवृत्तये नमः, ॐ निवृत्तये नमः, ॐ नियताय नमः, ॐ शाश्वताय नमः, ॐ ध्रुवाय नमः, ॐ श्मशानवासिने नमः, ॐ भगवते नमः, ॐ खचराय नमः, ॐ गोचराय नमः॥30॥ 
ॐ अर्दनाय नमः, ॐ अभिवाद्याय नमः, ॐ महाकर्मणे नमः, ॐ तपस्विने नमः, ॐ भूतभावनाय नमः, ॐ उन्मत्तवेषप्रच्छन्नाय नमः, ॐ सर्वलोकप्रजापतये नमः, ॐ महारूपाय नमः, ॐ महाकायाय नमः, ॐ वृषरूपाय नमः॥40॥ 
ॐ महायशसे नमः, ॐ महात्मने नमः, ॐ सर्वभूतात्मने नमः, ॐ विश्वरूपाय नमः, ॐ महाहणवे नमः, ॐ लोकपालाय नमः, ॐ अन्तर्हितत्मने नमः, ॐ प्रसादाय नमः, ॐ हयगर्धभये नमः, ॐ पवित्राय नमः॥50॥ ॐ महते नमः, ॐनियमाय नमः, ॐ नियमाश्रिताय नमः, ॐ सर्वकर्मणे नमः, ॐ स्वयंभूताय नमः, ॐ आदये नमः, ॐ आदिकराय नमः, ॐ निधये नमः, ॐ सहस्राक्षाय नमः, ॐ विशालाक्षाय नमः॥60॥ 
ॐ सोमाय नमः, ॐ नक्षत्रसाधकाय नमः, ॐ चन्द्राय नमः, ॐ सूर्याय नमः, ॐ शनये नमः, ॐ केतवे नमः, ॐ ग्रहाय नमः, ॐ ग्रहपतये नमः, ॐ वराय नमः, ॐ अत्रये नमः॥70॥ 
ॐ अत्र्या नमस्कर्त्रे नमः, ॐ मृगबाणार्पणाय नमः, ॐ अनघाय नमः, ॐ महातपसे नमः, ॐ घोरतपसे नमः, ॐ अदीनाय नमः, ॐ दीनसाधकाय नमः, ॐ संवत्सरकराय नमः, ॐ मन्त्राय नमः, ॐ प्रमाणाय नमः॥80॥ 
ॐ परमायतपसे नमः, ॐ योगिने नमः, ॐ योज्याय नमः, ॐ महाबीजाय नमः, ॐ महारेतसे नमः, ॐ महाबलाय नमः, ॐ सुवर्णरेतसे नमः, ॐ सर्व्ज्ञाय नमः, ॐ सुबीजाय नमः, ॐ बीजवाहनाय नमः॥90॥ 
ॐ दशबाहवे नमः, ॐ अनिमिशाय नमः, ॐ नीलकण्ठाय नमः, ॐ उमापतये नमः, ॐ विश्वरूपय नमः, ॐ स्वयंश्रेष्ठाय नमः, ॐ बलवीराय नमः, ॐ अबलोगणाय नमः, ॐ गणकर्त्रे नमः, ॐ गणपतये नमः॥100॥ 
नटराज स्तुति :: शिव परं ब्रह्म जगत सृजनकर्ता एवं जगत गुरु हैं। शिव का तांडव प्रसिद्ध है। शिव के आनद तांडव के साथ ही सृजन का आरंभ होता है एवं रौद्र तांडव के साथ ही सम्पूर्ण विश्व शिव में पुनः समाहित हो जाते हैं। नटराज शिव के जगत गुरू स्वरूप का भी परिचायक है। नृत्य कलाओं में श्रेष्ठ गिना जाता है और नटराज शिव कलाओं एवं ज्ञान प्रदान करने वाले परम् गुरु हैं। नटराज स्तुति उन्ही जगत गुरु, परम् ब्रह्म शिव को समर्पित है। 
सत सृष्टि तांडव रचयिता नटराज राज नमो नमः। 
हे नटराज आप ही अपने तांडव द्वारा सृष्टि की रचना करने वाले हैं। हे नटराज राज आपको नमन है। 
हे आद्य गुरु शंकर पिता नटराज राज नमो नमः। 
हे शंकर आप ही परं पिता एवं आदि गुरु हैं. हे नटराज राज आपको नमन है। 
गंभीर नाद मृदंगना धबके उरे ब्रह्मांडना नित होत नाद प्रचंडना नटराज राज नमो नमः। 
हे शिव, ये संपूर्ण विश्व आपके मृदंग के ध्वनि द्वारा ही संचालित होता है। इस संसार में व्याप्त प्रत्येक ध्वनि के श्रोत आप ही हैं। हे नटराज राज आपको नमन है। 
सिर ज्ञान गंगा चंद्र चिद ब्रह्म ज्योति ललाट मां विष नाग माला कंठ मां नटराज राज नमो नमः। 
हे नटराज आप ज्ञान रूपी चंद्र एवं गंगा को धारण करने वाले हैं, आपका ललाट से दिव्या ज्योति का स्रोत है। हे नटराज राज आप विषधारी नाग को गले में धारण करते हैं। आपको नमन है। 
तवशक्ति वामे स्थिता हे चन्द्रिका अपराजिता 
चहु वेद गाएं संहिता नटराज राज नमो नमः। 
हे शिव (माता) शक्ति आपके अर्धांगिनी हैं, हे चंद्रमौलेश्वर आप अजय हैं. चार वेदा आपकी ही सहिंता का गान करते हैं. हे नटराज राज आपको नमन है। 
आदि एवं अंत से रहित, सर्वेश्वर शिव देवाधिदेव हैं। मानव मात्र ही नहीं वरन देव, दानव, पशु-पक्षी, यहाँ तक की ईश्वर भी संकट के समय में शिव की ही शरण ग्रहण करते हैं। स्वयं पालनकर्ता श्री नारायण विष्णु भगवान ने शिव जी की सहस्रनामों से स्तुति कर उन्हे प्रसन्न किया था तथा अपना सुदर्शन चक्र पुन: प्राप्त किया था। 
PRAYER DEVOTED TO BHAGWAN SHIV AS PASHU PATI NATH
 ::
श्री पशुपतिनाथ:शरणम् मम: पशुपति पञ्चास्य स्तवः।  
सदा सद्योजातस्मितमधुरसास्वादपरया भवान्या दृक्पातभ्रमरततिभिश्चुम्बितपुटम्। 
अपां पत्युः काष्ठां श्रितमधिकशीतं पशुपते-
र्मुखं सद्योजातं मम दुरितजातं व्यपनयेत्॥1॥ 
जटान्तःस्वर्धुन्याश्शिशिरमुखवातैरवमतिं 
गतं वामां रुष्टामनुनयसहस्रैः प्रशमितुम्। 
किरत्ज्योत्स्नं वामं नयनमगजानेत्रघटितं 
दधद्वामं वक्त्रं हरतु मम कामं, पशुपतेः॥2॥ 
गले घोरज्वालं गरलमपि गण्डूषसदृशं निदाघान्ते, 
गर्जद्घनवदतिनीलं वहति यत्। 
निरस्तुं विश्वाघप्रचयमधितिष्ठद्यमदिशं ह्यघोरं 
तद्वक्त्रं लघयतु मदं मे, पशुपतेः॥3॥ 
पूर्तिं प्रणतशिरसां दातुमनिशं जलाभावो 
माभूदिति शिरसि गङ्गां वहति यत्। 
सुरेशासास्फूर्तिं मुकुटशशिभासा किरति 
तत् मुखं तत् पुंरूपं हरतु मम मोहं, पशुपतेः॥4॥ 
रमेशो वागीशो दिवसरजनीशौ परशुदृक् 
सुरेशो दैत्येशो निशिचरकुलेशोऽथ धनदः। 
यदूर्ध्वांशुव्रातैश्शिवचरितवन्तः परिणताः 
तदैशानं वक्त्रं हरतु भवपाशं, पशुपतेः॥5॥ 
ॐ पशुपतिनाथ नमो नमः।
शिवाराधना :: 
ओ३म् कारं बिंदु-संयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिन:। 
कामदं मोक्षदं चैव ओ३म् काराय मनो नम:॥1॥
नमंति ऋषयो देवा नमन्त्यप्सरसां गणाः। 
नरा नमंति देवेशं ‘न’ काराय नमो नमः ॥2॥
महादेवं महात्मानं महाध्यानं परायणम्। 
महापापहरं देवं ‘म’ काराय नमो नमः॥3॥ 
शिवं शांतं जगन्नाथं लोकानुग्रहकारकम्। 
शिवमेकपदं नित्यं ‘शि’ काराय नमो नमः॥4॥
वाहनं वृषभो यस्य वासुकिः कंठभूषणम्। 
वामे शक्तिधरं देवं ‘व’ काराय नमो नमः॥5॥ 
यत्र यत्र स्थितो देवः सर्वव्यापी महेश्वरः। 
यो गुरुः सर्वदेवानां ‘य’ काराय नमो नमः॥6॥ 
षडक्षरमिदं स्तोत्रं यः पठेच्छिवसंनिधौ। 
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते॥7॥ 
कालभैरवाष्टकम् :: 
देवराजसेव्यमानपावनांघ्रिपङ्कजं व्यालयज्ञसूत्रमिन्दुशेखरं कृपाकरम्।
नारदादियोगिवृन्दवन्दितं दिगंबरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे॥1॥
भानुकोटिभास्वरं भवाब्धितारकं परं नीलकण्ठमीप्सितार्थदायकं त्रिलोचनम्। कालकालमंबुजाक्षमक्षशूलमक्षरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे॥2॥
शूलटंकपाशदण्डपाणिमादिकारणं श्यामकायमादिदेवमक्षरं निरामयम्।
भीमविक्रमं प्रभुं विचित्रताण्डवप्रियं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे॥3॥
भुक्तिमुक्तिदायकं प्रशस्तचारुविग्रहं भक्तवत्सलं स्थितं समस्तलोकविग्रहम्। विनिक्वणन्मनोज्ञहेमकिङ्किणीलसत्कटिं 
काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे॥4॥
धर्मसेतुपालकं त्वधर्ममार्गनाशनं कर्मपाशमोचकं सुशर्मधायकं विभुम्।
स्वर्णवर्णशेषपाशशोभितांगमण्डलं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे॥5॥
रत्नपादुकाप्रभाभिरामपादयुग्मकं नित्यमद्वितीयमिष्टदैवतं निरंजनम् ।
मृत्युदर्पनाशनं करालदंष्ट्रमोक्षणं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे॥ 6॥
अट्टहासभिन्नपद्मजाण्डकोशसंततिं दृष्टिपात्तनष्टपापजालमुग्रशासनम्।
अष्टसिद्धिदायकं कपालमालिकाधरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे॥7॥
भूतसंघनायकं विशालकीर्तिदायकं काशिवासलोकपुण्यपापशोधकं विभुम्। नीतिमार्गकोविदं पुरातनं जगत्पतिं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे॥8॥
फल श्रुति ::  
कालभैरवाष्टकं पठंति ये मनोहरं ज्ञानमुक्तिसाधनं विचित्रपुण्यवर्धनम्। 
शोकमोहदैन्यलोभकोपतापनाशनं प्रयान्ति कालभैरवांघ्रिसन्निधिं नरा ध्रुवम्॥ 
इति कालभैरवाष्टकम् संपूर्णम्। 
विभिन्न शैव सम्प्रदाय :: 
(1). कापालिक सम्प्रदाय :: रामानुज के अनुसार, शरीर के छ: मुद्रिका का ज्ञान पाकर एवं स्त्री के जननेंद्रिय में स्थित आत्मा का मनन कर, जो लोग शिव की उपासना करते है, उन्हें कापाल सम्प्रदायी कहते हैं। [रामानुज 2.2.35] अपने इस हेतु के सिध्यर्थ इस सम्प्रदाय के लोग निम्नलिखित आचारों को प्रधानता देते हैं :- (1). खोपड़ी में भोजन लेना, (2). चिता भस्म सारे शरीर को लगाना, (3). चिता भस्म भक्षण करना, (4). हाथ में डण्डा धारण करना, (5). मद्य का चषक साथ में रखना एवं (6). मद्य में स्थित रुद्रदेवता की उपासना करना। ये लोग गले में रुद्राक्ष की माला पहनते हैं एवं जटा धारण करते हैं। गले में मुण्ड माला धारण करने वाले भैरव एवं चण्डिका की ये लोग उपासना करते हैं, जिन्हें ये लोग शिव एवं पार्वती का अवतार मानते है।इसी सम्प्रदाय की एक शाखा को कालामुख अथवा महाव्रतधर कहते है, जो अन्य सप्रदायिकों से अधिक कर्मठ मानी जाती है।
चेतावनी :: एक सामान्य मनुष्य-गृहस्थ को कभी भी उपरोक्त उपासनाओं को नहीं करना चाहिए। 
(2). पाशुपत सम्प्रदाय :: इस सम्प्रदाय के लोग सारे शरीर पर चिताभस्म लगाते हैं एवं चिताभस्म में ही सोते है। भीषण हास्य, नृत्य, गायन, हुडुक्कार एवं अस्पष्ट शब्दों में ॐ कार का जाप, आदि छ: मार्गों से ये शिव की उपासना करते हैं। इस सम्प्रदाय की सारी उपासना पद्धति, अनार्य लोगों के उपासना पद्धति से आयी हुई प्रतीत होती है। 
(3). शैव सम्प्रदाय :: यह सम्प्रदाय कापालिक एवं पाशुपत जैसे अतिभार्गिक सम्प्रदायों से तुलना में अधिक बुद्धिवादी है, जिस कारण इन्हें सिद्धान्त वादी कहा जाता है। इस सम्प्रदाय में मानवी आत्मा के पशु कहा गया है, जो इन्द्रिय पाशों से बँधा हुआ है। 
पशुपति अथवा शिव की मंत्रोपासना से आत्मा इन पाशों से मुक्त होता है, ऐसी इस सम्प्रदाय के लोगों की मान्यता है। 
कश्मीर शैव-सम्प्रदाय :: इस सम्प्रदाय की निम्नलिखित दो प्रमुख शाखाएँ मानी जाती हैं। (1). स्पंदशास्त्र, जिसका जनक वसुगुप्त एवं उसका शिष्य कल्लाट माने जाते हैं। इस सम्प्रदाय के दो प्रमुख ग्रंथ शिवसूत्रम् एवं स्पंदकारिका हैं। (2). प्रत्यभिज्ञान शास्त्र, जिसका जनक सोमानंद एवं उसका शिष्य उदयाकर माने जाते हैं। इस सम्प्रदाय का प्रमुख ग्रंथ शिवद्दष्टि है, जिसकी विस्तृत टीका अभिनव गुप्त के द्वारा लिखी गयी है। इन दोनों सम्प्रदायों में कापालिक एवं पाशुपत जैसे प्राणायाम एवं अघोरी आचरण पर जोर नहीं दिया गया है, बल्कि चित्तशुद्धि के द्वारा आनव, मायिय एवं काय आदि मनों मालिन्य को दूर करने को कहा गया है। इस प्रकार ये दोनों सिद्धान्त अघोरी रुद्र उपासकों से कतिपय श्रेष्ठ प्रतीत होते हैं। राज तरंगिणी के अनुसार, काश्मीर का शैव सम्प्रदाय अत्यधिक प्राचीन है एवं सम्राट अशोक के द्वारा कश्मीर में भगवान् शिव के दो देवालय बनवायें गये थे। कश्मीर का सुविख्यात राजा दामोदर (द्वितीय) भगवान् शिव का अनन्य उपासक था। इस प्रकार प्राचीन काल से प्रचलित रहे शिव-उपासना के पुनरुत्थान का महत्वपूर्ण कार्य स्पंद शास्त्र एवं प्रत्यभिज्ञान शास्त्र वादी आचार्यों के द्वारा किया गया। 
वीरशैव-लिंगायत सम्प्रदाय :: इस सम्प्रदाय का आद्य प्रसारक आचार्य बसव को माना जाता है, जिसकी जीवन गाथा बसव पुराण में दी गयी है। इस सम्प्रदाय के मत शैव  दर्शन अथवा सिद्धान्त दर्शन से काफी मिलते जुलते हैं। इस सम्प्रदाय के अनुसार, ब्रह्म का स्वरूप सत्, चित् एवं आनंद मय है एवं वही शिव तत्त्व है। इस आद्य शिव तत्व के लिंग (शिव लिंग) एवं अंग (मानवी आत्मा) ऐसे दो प्रकार माने गये हैं एवं इन दोनों का संयोग भगवान् शिव की भक्ति से ही होता है, ऐसा माना जाता है। इस तत्व ज्ञान में लिंग के महालिंग, प्रसादलिंग, चरलिंग, शिवलिंग, गुरुलिंग एवं आचारलिंग आदि प्रकार के कहे गये हैं, जो शिव के ही विभिन्न रूप हैं। 
इसी प्रकार अंग की भी योगांग, भोगांग एवं त्यागांग; ऐसी तीन अवस्थाएँ बतायी गयी है, जो शिव की भक्ति की तीन अवस्थाएँ मानी गयी हैं। लिंगायतों के आचार्य स्वयं को लिंगी ब्राह्मण (पंचम) कहलाते है एवं इस सम्प्रदाय के उपासक गले में शिवलिंग की प्रतिमा धारण करते हैं।
Recently a movement was launched in Karnatak to recognise them a separate religious entity different from Hindu. It was purely a political move by Congress party which is playing a dirty-sinister game to tarnish Hinduism, being headed by Christians and Muslims.  
द्रविड देश में शिव पूजा :: इस प्रदेश के शैव सम्प्रदाय के आद्य प्रचारक तिरुनान थे, जिनके द्वारा लिखित 384 पदिगम् (स्तोत्र) द्रविड देश में वेदों जैसे पवित्र माने जाते हैं। 
शिव पूजा का एक उप विभाग शक्ति अथवा देवी की उपासना है, जहाँ देवी की त्रिपुर सुन्दरी नाम से पूजा की जाती है। शिव पूजा के अन्य कई प्रकार गणपति (विनायक) एवं भगवान् स्कन्द की उपासना हैं। 
शिव-उपासना के ग्रन्थ :: (1). शिव सहस्त्र नाम यह महाभारत में उपलब्ध है। इसका कथन तण्डि ने उपमन्यु को एवं उपमन्यु ने भगवान् श्री कृष्ण को किया था।[म.अनु.17.31.153] 
इसके अतिरिक्त्त दक्ष वर्णित शिव सहस्र नाम महाभारत में उपलब्ध हैं।[म.शां.परि.1.28] 
शिव सहस्र नाम की स्वतंत्र रचनाएँ भी लिंग पुराण [लिंग. 65.98] एवं शिवपुराण में उपलब्ध हैं।[शिव. कोटि. 35] 
(2). पुराण :: शैव सम्प्रदाय का उल्लेख पुराणों में विस्तार से किया गया है। कूर्म, ब्रह्मांड, भविष्य, मत्स्य, मार्कंडेय, लिंग, वराह. वामन, शिव एवं स्कंद।[स्कंद. शिव रहस्य खण्ड, सम्भव काण्ड 2.30-33] 
(3). शिवगीता :: यह पद्म पुराण के गौडीय संस्करण में प्राप्त हैं, किन्तु आनंदाश्रम संस्करण में अप्राप्य है। 
(4). शिवस्तुति :: महाभारत में शिवस्तुति सम्बंधी आख्यान प्राप्त हैं। (4.1). अश्वत्थामन् कृत [म. मौ.7], (4.2). कृष्णकृत [म.अनु.14 एवं ह.वं.2.74.22-34], (4.3). कृष्णार्जुनकृत [म.द्रो.57], (4.4). तण्डिन्कृत [म.अनु.47], (4.5). दक्षकृत [म.शां.परि.1.28] एवं [मरुत्तकृत म.आश्व.8.14], (4.6). शिवमहिमा-यह महाभारत के एक स्वतंत्र आख्यान में वर्णित है, (4.7). लिंगार्चन महिमा-यह महाभारत के एक स्वतंत्र आख्यान में प्राप्त है [म.अनु, 247] और (4.8). शिवनिंदा-यह द्क्ष प्रजापति के द्वारा की गई शिवर्निदा भागवत में प्राप्त है। [भा.4.2.9-16] 
भगवान् शिव सम्बंधित तीर्थस्थान :: रुद्र-शिव के नाम से एवं इनके प्रासादिक विभूतित्व से प्रभावित हुए अनेक तीर्थ स्थानों का निर्देश महाभारत एवं पुराणों में प्राप्त है। (1). ज्योतिंलिंग-जिनकी सँख्या कुल बारह है, (2). मुंजपृष्ठ-एक रुद्रसेवित स्थान, जो हिमालय के शिखर पर स्थित था [म.शां.122.2-4], (3). मुंजवट-गंगा के तट पर स्थित एक तीर्थत्थान, जहाँ शिव की परिक्रमा करने से गणपति पद की प्राप्ति होती है [म.व.83.446], (4). मुंज पर्वत-हिमालय में स्थित एक पर्वत, जहाँ भगवान् शंकर तपस्या करते हैं, (5). रुद्रकोटि-एक तीर्थस्थान, जहाँ शिव दर्शन की अभिलाषा से करोडो मुनि एकत्रित हुये थे एवं उन पर प्रसन्न हो कर भगवान् शिव ने करोड़ों शिवलिंगों के रूप में उन्हें दर्शन दिया था।[म.व.80.124-129] (6). रुद्रपद-एक तीर्थ, जहाँ शिव की पूजा करने से अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। [म.व. 80.108] तथा पाठभेद-वस्त्रापथ।(7). हिमवत्-एक पवित्र पर्वत, जो त्रिपुरदाह के समय भगवान् रुद्र के रथ में आधार काष्ठ बना था। इस पर्वत में स्थित आदि गिरि नामक स्थान में शिव का आश्रम स्थित था।[म. शां. 319-320] 
रुद्राष्टकम् ::  
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम्।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम्॥1॥
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम्।
करालं महाकाल कालं कृपालं गुणागार संसारपारं नतोऽहम्॥2॥
तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं मनोभूत कोटिप्रभा श्री शरीरम्।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गङ्गा लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा॥3॥
चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम्।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि॥4॥
प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम्।
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम्॥5॥
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी।
चिदानन्द संदोह मोहापहारी प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी॥6॥
न यावत् उमानाथ पादारविन्दं भजन्तीह लोके परे वा नराणाम्।
न तावत् सुखं शान्ति सन्तापनाशं प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम्॥7॥
न जानामि योगं जपं नैव पूजां नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम्।
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो॥8॥
रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति॥
इति श्रीगोस्वामितुलसीदासकृतं श्रीरुद्राष्टकं संपूर्णम्। 
नाग-पञ्चमी के दिन यह श्रीरुद्राष्टकम् का पाठ विशेष फलदायी है।
अष्ट मुखी शिवलिंग ::
 संसार में भगवान् शिव जी के अनेकों शिवलिंग हैं, लेकिन अष्ट मुखी शिवलिंग एक ही है। निम्न आठों मुख भगवान शिव के अष्ट तत्त्व को दर्शाते हैं। 
(1). शर्व [शार्वी]-पृथ्वी मयी है, (2). भावी-जल मयी, (3). रौद्री-तेजो मयी, (4). औग्री-वायु मयी, (5). भैमी-आकाश मयी, (6). पशुपति-क्षेत्रज्ञ रूपा, (7). ईशान-सूर्य रूपिणी और (8). महादेव-चंद्र मयी। 
शिवलिंग पूजा का महत्व :: श्री शिव महा पुराण के सृष्टि खंड अध्याय 12 श्लोक 82 से 86 में ब्रह्मा जी के पुत्र सनत्कुमार जी भगवान् वेद व्यास को उपदेश देते हुए कहते है कि :- 
(1). हर गृहस्थ को देहधारी सद्गुरू से दीक्षा लेकर पंच देवों (श्री गणेश, भगवान् सूर्य, भगवान् विष्णु, माँ दुर्गा और भगवान् शंकर) की प्रतिमाओं में नित्य पूजन करना चाहिए, क्योंकि भगवान् शिव ही सबके मूल है, मूल (भगवान् शिव) को सींचने से सभी देवता तृत्प हो जाते हैं, परन्तु सभी देवताओं को तृप्त करने पर भी प्रभू शिव की तृप्ति नहीं होती। यह रहस्य देहधारी सद्गुरू से दीक्षित व्यक्ति ही जानते हैं। 
सृष्टि के पालनकर्ता भगवान् श्री हरी विष्णु ने एक बार, सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी के साथ निर्गुण, निराकार, अजन्मा ब्रह्म (शिव) से प्रार्थना की, "प्रभो! आप कैसे प्रसन्न होते हैं"? 
प्रभु शिव बोले,"मुझे प्रसन्न करने के लिए शिवलिंग का पूजन करो। जब-जब किसी प्रकार का संकट या दु:ख हो तो शिवलिंग का पूजन करने से समस्त दु:खों का नाश हो जाता है।[शिवमहापुराण सृष्टिखंड अध्याय] 
(2). जब देवर्षि नारद ने भगवान् श्री हरी विष्णु को शाप दिया और बाद में पश्चाताप किया, तब भगवान् श्री हरी विष्णु ने नारद जी को पश्चाताप के लिए शिवलिंग का पूजन, शिव भक्तों का सत्कार, नित्य शिव शत नाम का जाप आदि क्रियाएं बतलाई। [श्री शिव महापुराण सृष्टिखंड अध्याय] 
(3). सृष्टि रचयिता ब्रह्माजी देवताओं को लेकर क्षीर सागर में भगवान् श्री हरी विष्णु के पास परम तत्व जानने के लिए पहुँचे। भगवान् श्री हरी विष्णु ने सभी को शिवलिंग की पूजा करने की आज्ञा दी और विश्वकर्मा को बुलाकर देवताओं के अनुसार अलग-अलग द्रव्य के शिवलिंग बनाकर देने की आज्ञा दी और पूजा विधि भी समझाई।[श्री शिव महापुराण सृष्टिखंड अध्याय 12] 
(4). रूद्रावतार हनुमान जी ने राजाओं से कहा कि भगवान् शिव की पूजा से बढ़कर और कोई तत्व नहीं है। हनुमान जी ने एक श्रीकर नामक गोप बालक को शिव-पूजा की दीक्षा दी। अत: हनुमान जी के भक्तों को भगवान् शिव की प्रथम पूजा करनी चाहिए।[श्री शिवमहापुराण कोटीरूद्र संहिता अध्याय 17] 
(5). ब्रह्मा जी अपने पुत्र देवर्षि नारद को शिवलिंग की पूजा की महिमा का उपदेश देते हैं। देवर्षि नारद के प्रश्न और ब्रह्मा जी के उत्तर पर ही श्री शिव महापुराण की रचना हुई है। माँ पार्वती जगदम्बा के अत्यन्त आग्रह से, जनकल्याण के लिए, निर्गुण निराकार अजन्मा ब्रह्म (भगवान् शिव) ने सौ करोड़ श्लोकों में श्री शिवमहापुराण की रचना की। चारों वेद और अन्य सभी पुराण, श्री शिव महापुराण की तुलना में नहीं आ सकते। 
प्रभु शिव की आज्ञा से भगवान् विष्णु के अवतार भगवान् वेदव्यास ने श्री शिवमहापुराण को 24,672 श्लोकों में संक्षिप्त किया है। यह ग्रन्थ मूलत: देववाणी संस्कृत में है। 
जो व्यक्ति देहधारी सद्गुरू से दीक्षा लेकर, एक बार गुरू मुख से श्री शिव महापुराण श्रवण कर फिर नित्य संकल्प करके (संकल्प में अपना गोत्र, नाम, समस्याएं और कामनायें बोलकर) नित्य श्वेत ऊनी आसन पर उत्तर की ओर मुखकर के श्री शिव महापुराण का पूजन करके दण्डवत प्रणाम करता है और मर्यादा-पूर्वक पाठ करता है, उसे इस प्रकार सम्पूर्ण 24,672 श्लोकों वाले श्री शिव महापुराण का बोलते हुए सात बार पाढ करने से भगवान् शिव  का दर्शन हो जाता है। 
पाठ करते समय स्थिर आसन हो, एकाग्र मन हो, प्रसन्न मुद्रा हो, अध्याय पढ़ते समय किसी से वार्ता न करें, किसी को प्रणाम न करे और अध्याय का पूरा पाठ किए बिना बीच में उठे नहीं। श्री शिव महापुराण पढ़ते समय जो ज्ञान प्राप्त हुआ उसे व्यवहार में लायें। श्री शिव महापुराण एक गोपनीय ग्रन्थ है। जिसका पठन (परीक्षा लेकर) सात्विक, निष्कपटी, प्रभु शिव में श्रद्धा रखने वालों को ही सुनाना चाहिए। 
(6). जब पाण्ड़व लोग वनवास में थे, तब भी कपटी दुर्योधन पाण्ड़वों को कष्ट देता था। (दुर्वासा ऋषि को भेजकर तथा मूक नामक राक्षस को भेजकर) तब पाण्ड़वों ने भगवान् श्री कृष्ण से दुर्योधन के दुर्व्यवहार करके उस संकट से राहत पाने का उपाय पूछा। 
तब भगवान् श्री कृष्ण ने उन सभी को प्रभु शिव की पूजा के लिए सलाह दी और कहा "मैंने सभी मनोरथों को प्राप्त करने के लिए प्रभु शिव की पूजा की है और आज भी कर रहा हूँ। तुम लोग भी करो"। भगवान् वेदव्यास ने भी पाण्ड़वों को भगवान् शिव की पूजा का उपदेश दिया। हिमालय में, काशी में, उज्जैन में, नर्मदा-तट पर या विश्व में कहीं भी चले जायें, प्रत्येक स्थान पर सबसे सनातन शिवलिंग की पूजा ही है। मक्का मदीना में एवं रोम के कैथोलिक चर्च में भी शिवलिंग स्थापित हैं, परन्तु सही देहधारी सद्गुरू से दीक्षा न लेकर, सही पूजा न करने से ही मनुष्यों को सांसारिक -भौतिक सुख प्राप्त नहीं हो रहे हैं। 
श्री शिव-पूजा से प्राप्त होने वाले सुख :: दरिद्रता, रोग सम्बन्धी कष्ट, शत्रु द्वारा होने वाली पीड़ा एवं चारों प्रकार का पाप तभी तक कष्ट देते हैं, जब तक प्रभु शिव की पूजा नहीं की जाती। [श्री शिवमहापुराण सृष्टिखंड 11.12-15] 
महादेव का पूजन कर लेने पर सभी प्रकार का दु:ख नष्ट हो जाता है, सभी प्रकार के सुख प्राप्त हो जाते है और अन्त में मुक्ति लाभ होता है। जो मनुष्य जीवन पाकर उसके मुख्य सुख सन्तान की प्राप्ति चाहते हैं, उन्हें सब सुखों को देने वाले महादेव की पूजा करनी चाहिए। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र विधिवत भगवान् शिव का पूजन करें। इससे सभी मनोकामनाएं सिद्ध हो जाती हैं।[श्री शिवमहापुराण सृष्टिखंड 11. 12-15]
श्री शिव चालीसा ::
दोहा ::
श्री गणेश गिरिजा सुवन, मंगल मूल सुजान। 
कहत अयोध्यादास तुम, देहु अभय वरदान॥
जय गिरिजा पति दीन दयाला। सदा करत सन्तन प्रतिपाला॥
भाल चन्द्रमा सोहत नीके। कानन कुण्डल नागफनी के॥
अंग गौर शिर गंग बहाये। मुण्डमाल तन छार लगाये॥
वस्त्र खाल बाघम्बर सोहे। छवि को देख नाग मुनि मोहे॥1॥
मैना मातु की ह्वै दुलारी। बाम अंग सोहत छवि न्यारी॥
कर त्रिशूल सोहत छवि भारी। करत सदा शत्रुन क्षयकारी॥
नन्दि गणेश सोहै तहँ कैसे। सागर मध्य कमल हैं जैसे॥
कार्तिक श्याम और गणराऊ। या छवि को कहि जात न काऊ॥2॥
देवन जबहीं जाय पुकारा। तब ही दुख प्रभु आप निवारा॥
किया उपद्रव तारक भारी। देवन सब मिलि तुमहिं जुहारी॥
तुरत षडानन आप पठायउ। लवनिमेष महँ मारि गिरायउ॥
आप जलंधर असुर संहारा। सुयश तुम्हार विदित संसारा॥3॥
त्रिपुरासुर सन युद्ध मचाई। सबहिं कृपा कर लीन बचाई॥
किया तपहिं भागीरथ भारी। पुरब प्रतिज्ञा तसु पुरारी॥
दानिन महं तुम सम कोउ नाहीं। सेवक स्तुति करत सदाहीं॥
वेद नाम महिमा तव गाई। अकथ अनादि भेद नहिं पाई॥4॥
प्रगट उदधि मंथन में ज्वाला। जरे सुरासुर भये विहाला॥
कीन्ह दया तहँ करी सहाई। नीलकण्ठ तब नाम कहाई॥
पूजन रामचंद्र जब कीन्हा। जीत के लंक विभीषण दीन्हा॥
सहस कमल में हो रहे धारी। कीन्ह परीक्षा तबहिं पुरारी॥5॥
एक कमल प्रभु राखेउ जोई। कमल नयन पूजन चहं सोई॥
कठिन भक्ति देखी प्रभु शंकर। भये प्रसन्न दिए इच्छित वर॥
जय जय जय अनंत अविनाशी। करत कृपा सब के घटवासी॥
दुष्ट सकल नित मोहि सतावै। भ्रमत रहे मोहि चैन न आवै॥6॥
त्राहि त्राहि मैं नाथ पुकारो। यहि अवसर मोहि आन उबारो॥
लै त्रिशूल शत्रुन को मारो। संकट से मोहि आन उबारो॥
मातु पिता भ्राता सब कोई। संकट में पूछत नहिं कोई॥
स्वामी एक है आस तुम्हारी। आय हरहु अब संकट भारी॥7॥
धन निर्धन को देत सदाहीं। जो कोई जांचे वो फल पाहीं॥
अस्तुति केहि विधि करौं तुम्हारी। क्षमहु नाथ अब चूक हमारी॥
शंकर हो संकट के नाशन। मंगल कारण विघ्न विनाशन॥
योगी यति मुनि ध्यान लगावैं। नारद शारद शीश नवावैं॥8॥
नमो नमो जय नमो शिवाय। सुर ब्रह्मादिक पार न पाय॥
जो यह पाठ करे मन लाई। ता पार होत है शम्भु सहाई॥
ॠनिया जो कोई हो अधिकारी। पाठ करे सो पावन हारी॥
पुत्र हीन कर इच्छा कोई। निश्चय शिव प्रसाद तेहि होई॥9॥
पण्डित त्रयोदशी को लावे। ध्यान पूर्वक होम करावे॥
त्रयोदशी ब्रत करे हमेशा। तन नहीं ताके रहे कलेशा॥
धूप दीप नैवेद्य चढ़ावे। शंकर सम्मुख पाठ सुनावे॥
जन्म जन्म के पाप नसावे। अन्तवास शिवपुर में पावे॥10॥
कहे अयोध्या आस तुम्हारी। जानि सकल दुःख हरहु हमारी॥
दोहा ::
नित्त नेम कर प्रातः ही, पाठ करौं चालीसा। 
तुम मेरी मनोकामना, पूर्ण करो जगदीश॥
मगसर छठि हेमन्त ॠतु, संवत चौसठ जान। 
अस्तुति चालीसा शिवहि, पूर्ण कीन कल्याण॥
भगवान् शिव की आरती :: 
जय शिव ओंकारा, प्रभु जय शिव ओंकारा। 
ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव, अर्द्धागनी धारा॥
एकानन चतुरानन पंचानन राजै। 
हंसानन गरुड़ासन वृष वाहन साजै॥
दो भुज चार चतुर्भुज दस भुज अति सोहै। 
तीनों रूप निरखते त्रिभुवन जन मोहे॥
अक्ष माला वन माला मुण्ड माला धारी। 
चन्दन मृग मद सोहे भाले शुभकारी॥
श्वेतांबर पीताम्बर बाघाम्बर अंगे। 
ब्रह्मा दिक सनकादिक भूतादिक संगे॥
कर के मध्ये कमंडल चक्र त्रिशूल धारी। 
सुखहारी दुखहारी जगपालन कारी॥
ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव जानत अविवेका। 
प्रण वाक्षर में शोभित ये तीनों एका॥
त्रिगुण स्वामी कि आरती जो कोई नर गावे। 
कहत शिवानन्द स्वामी सुख संपत् पावे॥
MAHA SHIV RATRI महा शिव रात्रि :: Maha Shiv Ratri, is celebrated with fun fare, enthusiasm and frolic. Maha Shiv Ratri occurs in the Krashn Paksh (dark fortnight) of Phalgun (February or March).
People wake up in the morning dress up with washed or new cloths, attire and visit the nearby temple, with offerings like Milk, sweets, Batase, Ganga Jal, Bel Patthar Leaves, Fruits preferably Ber (jujube fruit) or Datura, Vermilion Paste, Beetle Leaves, incense sticks and Pure Desi Ghee lamps. Long serpentine queues are witnessed near the temples. One who perform Pooja on this day is relinquished (detached, freed) from sins and is blessed with Moksh. On this auspicious day one should recite "Om Namah Shivay", Maha Mratunjay Mantr or Tandav Strotr silently with or without Rudraksh garland, rosary-Jap Mala.
One performs Pooja with the help of a Pandit or by himself by pouring water, mixed with Ganga Jal, milk, honey over the Shiv ling, along with  Bel Patr for cleansing his the soul. Vermilion paste is applied on the Shiv Ling to identify one with virtues, devotion and piousity. Fruits are offered to seek longevity and gratification of desires. Incense are lighted for acquiring riches-wealth. Oil lamps are lit to acquire knowledge from the master of masters Bhagwan Shiv. Beetle leaves are offered to seek satisfaction, peace, solace and tranquillity along with worldly pleasures-comforts.
Shivabhishek-Mahabhishek is performed with Sugarcane Juice for pleasing Man Laxmi-for Wealth, with Milk & Ghee-for progeny, children, with Water for release from miseries, with Mustard-for protection against enemies and with Ganga Jal-for Moksh. Dhatura fruit and flower are also offered to Bhagwan Shiv even though they are poisonous, being favourite of Bhagwan Shiv. 
Bhagwan Shiv is worshipped in Ling form throughout the night; which is bathed every three hours with the 5 sacred offerings from a virtuous cow, called the "Panch Gavy". The Panch Gavy contains milk, sour milk, cow's urine, butter and dung. Milk, Clarified Butter, Curd, Honey and Sugar are also offered to the Ling. In Ujjain Maha Kaal Pooja is performed from the very fine Bhasm-powdered ashes from the pyre. Puja is amplified many folds, on this auspicious day. Bhagwan Shiv is Bhole-innocent, Nath-master, merciful and compassionate. One who attains the blessings of Bhagwan Shiv is awarded residence in Shiv Lok. Pooja performed at the site of Jyotir Ling is even more rewarding. 
On the day of Maha Shiv Ratri at midnight, Bhagwan Shiv revealed his Ling Swroop-form on this day. Rudra Abhishek is performed at midnight. 
Bhawan Shiv married with Maa Parwati on  this auspicious occasion. He acquired Sagun-with definite shape; from Nirgun-shapeless by virtue of the mystic powers-Maya  of Maa Bhagwati Parwati.
Bhagwan Shiv consumed the deadly poison Halahal, which emerged out during Samudr Manthan-the churning of Kshir Sagar-the milky ocean and protected the three abodes :- Heavens, Earth and the Patal Lok-nether world,  on this auspicious occasion. His  throat turned blue and so his name became Neel Kanth.
Bhole Nath revealed to Maa Parvati that the 14th night of the Krashn Paksh-fortnight, is his favourite night and that the devotees, who worship him on this auspicious night will surely receive his blessings. He preformed Tandav-the dance of primordial conception, preservation, sustenance and destruction on this auspicious day.
Maa Parvati under took his strict penances on this virtuous day. 
One keep awaking & performing Pooja, enchanting-reciting divine prayers, throughout the night in the honour of Bhagwan Shiv (the Truth, Supreme, Maha Yogi, Ultimate, Chandr Shekhar).  He, who sheltered Ganga in his locks, is Aghori-the master of Tantr-Mantr. Maha Dev, Bhole Nath, Rudr devotees worship him with dedication and devotion on this auspicious day of Maha Shiv Ratri to seek his blessings, so that they can live a fulfilling life leading to Moksh.
शिवरात्रि :: हर महीने के कृष्ण एवं शुक्ल चतुर्दशी को शिवरात्रि कहते है एवं फाल्गुन कुष्ण चतुर्दशी को महा शिव रात्रि कहते है। यह दिन शिव उपासना की द्दष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। 
महा शिव रात्रि मनुष्यों को पाप, अन्याय और अनाचार से दूर रहकर मनुष्यों को शुद्ध, पवित्र और सात्विक जीवन जीने की प्रेरणा देती है। कल्याण और मोक्ष प्रदान करने वाली महाशिव रात्रि के दिन भगवान् शिव की विधि-विधान के साथ पूजा करने से सुख-शान्ति और खुशहाली आती है। श्रद्धा भाव से भगवान् शिव का पूजन करने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है। महा शिव रात्रि में जागरण करते हुए भगवान् शिव की आराधना करने और शान्त-चित्त एवं पूर्ण सात्विक भाव से व्रत रखने से भक्तों के समस्त दुःख तथा कष्ट दूर हो जाते हैं। 
अन्याय और अत्याचार का पर्याय बने ताड़कासुर के वध का निमित्त बने भगवान् शिव ने माता सती के अपने पिता के घर यज्ञाग्नि में भस्म होने के बाद, ताण्डव नृत्य किया।
अभिव्यक्ति प्रदान करने वाली यह एक मात्र ऐसी काल रात्रि है, जो मनुष्यों को पाप कर्म, अन्याय और अनाचार से दूर रहकर पवित्र एवं सात्विक जीवन जीने की प्रेरणा देती है।
भगवान् शिव को चन्दन, बूरा-शक्कर, पान-सुपारी, लौंग-इलायची, पंचमेवा, फल, धतूरा, रुद्राक्ष, बेलपत्र, पुष्पों में कनेर, नीलकमल, गुलाब, चमेली, गेंदा आदि समर्पित करने के साथ-साथ धूप और दीप प्रज्‍ज्वलित करना चाहिए। शिवलिंग पर कभी भी चंपा, केतकी, नागकेशर, केवड़ा और मालती के पुष्प नहीं चढ़ाने चाहिए। 
शिव पूजन के दौरान महामृत्युंजय मंत्र, शिवाष्टक, रुद्राष्टक, रामचरित मानस के बालकांड के अंतर्गत शिव-सती प्रसंग का पाठ करना विशेष फलदायी कारक- दायक माना गया है। व्रत न भी कर सके, तो उक्त पाठ से भी शिव उपासना का संपूर्ण फल मिल जाता है।
शिव नवरात्रि पर्व श्रीमहाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग उज्जैन 21 फरवरी, 1 मार्च, 2022 :: श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर में महाशिवरात्रि के पहले शिव नवरात्रि का पर्व मनाया जाता है। शिव नवरात्रि का पर्व बड़े ही उत्साह से मनाया जाता है, जिसके अतंर्गत प्रतिदिन बाबा महाकाल का आकर्षक श्रृंगार किया जाता है।
इस दौरान पूरे 9 दिन तक महाकाल के दरबार में देवाधिदेव महादेव और माता पार्वती के विवाहोत्सव का उल्लास रहता है।
शैव मतानुसार; महाशिवरात्रि के 9 दिन पूर्व अर्थात; फाल्गुन कृष्ण पक्ष पंचमी 21 फरवरी, 2,022 से फाल्गुन कृष्ण पक्ष चतुर्दशी 1 मार्च, 2,022 महाशिवरात्रि तक शिव नवरात्रि या महाकाल नवरात्रि का 9 दिन का उत्सव बताया गया है। जिस प्रकार शक्ति की आराधना हेतु देवी नवरात्रि रहती है, उसी प्रकार भगवान् शिव की साधना के लिए शिव नवरात्रि का विधान बताया गया है।
उज्जैन शक्तिपीठ और शक्तितीर्थ है। यहाँ महाकाल के साथ देवी हरसिद्धि विराजित हैं। शिव-पार्वती संबंध के कारण शक्ति की तरह शिव की भी नवरात्रि उत्सव की परंपरा है। यहाँ नौ रात्रि तक विशेष पूजा-अर्चना की जाती है। महाकालेश्वर मंदिर में महाकाल नवरात्रि के दौरान लघुरुद्र, महारुद्र्र, अतिरुद्र, रुद्राभिषेक, शिवार्चन, हरिकीर्तन के आयोजन किए जाते हैं।
श्री शिव नवरात्रि देश के प्रसिद्ध बारह ज्योतिर्लिंगों के अलावा कई शिव मंदिरों में विशेष रूप से मनाई जाती है।
शिव नवरात्रि के अंतर्गत; भस्मारती के बाद प्रातः श्री महाकालेश्वर मंदिर के नैवेद्य कक्ष में भगवान श्री चंद्रमौलीश्वर का पूजन किया जायेगा, उसके पश्चात कोटितीर्थ कुण्ड के समीप स्थापित श्री कोटेश्वर महादेव का अभिषेक एवं पूजन किया जायेगा। उसके पश्चात 11 पंडितों द्वारा एकादश-एकादशनी, लघु रुद्र पाठ किया जाता है। गर्भगृह में भगवान महाकाल का पंचामृत अभिषेक पूजन कर केसर युक्त चंदन के लेपन से भगवान का दूल्हा बनाया जाएगा।
श्री महाकालेश्वर मंदिर, उज्जैन में महाशिवरात्रि पर्व भूतभावन बाबा महाकाल और माता पार्वती के विवाह उत्सव और शिव नवरात्रि के रूप में मनाया जाता है।
इस दौरान पूरे नौ दिन तक महाकाल के दरबार में देवाधिदेव महादेव और माता पार्वती के विवाहोत्सव का उल्लास रहता है। भस्म रमाने वाले बाबा महाकाल दूल्हा बनते हैं। उन्हें हल्दी  नही लगाई जाती बल्कि और केशर और और चंदन से ऊबटन कर उनका नित नया मनमोहक श्रृंगार किया जाता है।
महाकाल को नित्य, केशर, चन्दन का उबटन, सुगंधित इत्र, ओषधी, फलों के रस आदि से स्नान करवाया जाता है।
जिस प्रकार विवाह के दौरान दूल्हे को हल्दी लगाई जाती है। उसी प्रकार भगवान् महाकाल को भी हल्दी नहीं लगाई जाती; बल्कि केसर चंदन का उबटन लगाया जाता है।  
शिव नवरात्रि महोत्सव के प्रथम दिवस, अर्थात; 21 फरवरी, 2,022 को भस्म रमाने वाले भूतभावन बाबा महाकाल को दूल्हा बनाया जाता है और इसके साथ ही उज्जैन के महाकाल मंदिर में शिव नवरात्रि महोत्सव की शुरूआत होती है।
9 दिनों तक चलने वाले इस विवाह उत्सव में शहर सहित देशभर के श्रद्धालु पहुँचते हैं।
9 दिनों तक सांय को केसर व चंदन के उबटन से भगवान् महाकालेश्वर का अनूठा श्रृंगार किया जाएगा। पुजारी भगवान् को हल्दी लगाकर दूल्हा बनाएंगे। भक्तों को 9 दिन तक भगवान महाकाल अलग-अलग रूपों में दर्शन देंगे।
शिव नवरात्रि महोत्सव 2,022 विभिन्न श्रृंगार :-
21 फरवरी, 2,022 :- महाकालेश्वर भगवान् शिव को चोला एवं दुपट्टा तथा जलाधारी को मेखला धारण करवाया जाएगा।
22 फरवरी :- श्री पंचमुखी शेषनाग श्रृंगार दर्शन। 
23 फरवरी :- श्री घटाटोप श्रृंगार दर्शन। 
24 फरवरी :- श्री छबीना श्रृंगार दर्शन। 
25 फरवरी :- श्री होल्कर मुखौटा श्रृंगार दर्शन। 
26 फरवरी :- श्री मनमहेश स्वरूप श्रृंगार दर्शन। 
27 फरवरी :- श्री उमा महेश स्वरूप श्रृंगार दर्शन। 
28 फरवरी :- श्री शिव तांडव स्वरूप श्रृंगार दर्शन। 
1 मार्च :- महाशिवरात्री विशेष श्रृंगार दर्शन और 
2 मार्च :- सप्तधान एवं सेहरा श्रृंगार दर्शन। 
श्री महाकालेश्वर भगवान् को प्रतिदिन कटरा, मेखला, दुपट्टा, मुकुट, मुंडमाल, छ्त्र, आदि वस्त्र एवं आभूषण पहनायें जाएंगे 
अवंतिकानाथ के दिव्य रूप के दर्शन के लिए बड़ी संख्या में भक्त उमड़ते हैं। शिव विवाहोत्सव के लिए मंदिर को वस्त्र, पुष्प तथा विद्युत रोशनी से दुल्हन की तरह सजाया जाता है।
श्री महाकाल महाराज के दरबार में भगवान महाकाल और माता पार्वती के विवाह उत्सव का उल्लास; शिव नवरात्रि के प्रथम दिवस से बिखरने लगता है।
महाशिवरात्रि का पर्व यूँ तो हर ज्योतिर्लिंग और शिवालय में मनाया जाता है, किन्तु उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर में महाशिवरात्रि पर्व खास होता है।
महा शिवरात्रि व्रत :: देवों के देव भगवान भोले नाथ के भक्तों के लिये महा शिव रात्रि का व्रत विशेष महत्व रखता हैं। यह पर्व फाल्गुन कृ्ष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दिन मनाया जाता है। इस दिन का व्रत रखने से भगवान् भोले नाथ शीघ्र प्रसन्न हों, उपासक की मनोकामना पूरी करते हैं। इस व्रत को सभी स्त्री-पुरुष, बच्चे, युवा, वृ्द्धों के द्वारा किया जा सकता हैं। विधि पूर्वक व्रत रखने पर तथा शिव पूजन, शिव कथा, शिव स्तोत्रों का पाठ व "उँ नम: शिवाय" का पाठ करते हुए रात्रि जागरण करने से अश्वमेघ यज्ञ के समान फल प्राप्त होता हैं। व्रत के दूसरे दिन यथाशक्ति वस्त्र-क्षीर सहित भोजन, दक्षिणादि प्रदान करके संतुष्ट किया जाता है। 
इस व्रत को जो भी व्यक्ति करता है, उसे सभी भोगों की प्राप्ति के बाद, मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह व्रत सभी पापों का क्षय करने वाला है व इस व्रत को लगातार 14 वर्षो तक करने के बाद विधि-विधान के अनुसार इसका उद्धापन कर देना चाहिए।  
संकल्प :: व्रत का संकल्प सम्वत, नाम, मास, पक्ष, तिथि-नक्षत्र, अपने नाम व गोत्रादि का उच्चारण करते हुए करना चाहिए। महा शिव रात्री के व्रत का संकल्प करने के लिये हाथ में जल, चावल, पुष्प आदि सामग्री लेकर शिवलिंग पर छोड़ दी जाती है। 
व्रत सामग्री :: उपवास की पूजन सामग्री में जिन वस्तुओं को प्रयोग किया जाता हैं, उसमें पंचामृ्त (गँगाजल, दूध, दही, घी, शहद), सुगंधित फूल, शुद्ध वस्त्र, बिल्व पत्र, धूप, दीप, नैवेध, चंदन का लेप, ऋतुफल आदि  हैं। 
व्रत विधि :: महा शिव रात्री व्रत को रखने वालों को उपवास के पूरे दिन, भगवान् भोले नाथ का ध्यान करना चाहिए। प्रात: स्नान करने के बाद भस्म का तिलक कर रुद्राक्ष की माला धारण की जाती है। इसके ईशान कोण दिशा की ओर मुख कर भगवान् शिव का पूजन धूप, पुष्पादि व अन्य पूजन सामग्री से पूजन करना चाहिए। 
इस व्रत में चारों पहर में पूजन किया जाता है। प्रत्येक पहर की पूजा में "ॐ नम: शिवाय" व " ॐ शिवाय नम:" का जाप करते रहना चाहिए। अगर शिव मन्दिर में यह जाप करना संभव न हों, तो घर की पूर्व दिशा में, किसी शान्त स्थान पर जाकर इस मंत्र का जाप किया जा सकता हैं। चारों पहर में किये जाने वाले इन मंत्र जापों से विशेष पुन्य प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त उपवास की अवधि में रुद्राभिषेक करने से भगवान् शंकर अत्यन्त प्रसन्न होते है। 
शिव अभिषेक विधि :: महाशिव रात्रि के दिन शिव अभिषेक करने के लिये सबसे पहले एक मिट्टी का बर्तन लेकर उसमें पानी भरकर, पानी में बेलपत्र, आक धतूरे के पुष्प, चावल आदि डालकर शिवलिंग को अर्पित किये जाते हैं। व्रत के दिन शिवपुराण का पाठ सुनना-करना चाहिए और मन में असात्विक विचारों को आने से रोकना चाहिए। शिवरात्रि के अगले दिन सवेरे जौ, तिल, खीर और बेलपत्र का हवन करके व्रत समाप्त किया जाता है। 
जलाभिषेक :: किसी भी दिन निम्न 108 मंत्रों के साथ भगवान् शिव की पूजा या शिवलिंग पर जलापर्ण करने से हर मनोकामना पूर्ण होती है। सोमवार या श्रावण सोमवार के दिन ऐसा करना विशेष रूप से फलदायी है।
त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रियायुधम्।
त्रिजन्म पापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥1॥
त्रिशाखैः बिल्वपत्रैश्च अच्छिद्रैः कोमलैः शुभैः।
तव पूजां करिष्यामि एकबिल्वं शिवार्पणम्॥2॥
सर्वत्रैलोक्यकर्तारं सर्वत्रैलोक्यपालनम्।
सर्वत्रैलोक्यहर्तारं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥3॥
नागाधिराजवलयं नागहारेण भूषितम्।
नागकुण्डलसंयुक्तं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥4॥
अक्षमालाधरं रुद्रं पार्वतीप्रियवल्लभम्।
चन्द्रशेखरमीशानं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥5॥
त्रिलोचनं दशभुजं दुर्गादेहार्धधारिणम्।
विभूत्यभ्यर्चितं देवं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥6॥
त्रिशूलधारिणं देवं नागाभरणसुन्दरम्।
चन्द्रशेखरमीशानं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥7॥
गङ्गाधराम्बिकानाथं फणिकुण्डलमण्डितम्।
कालकालं गिरीशं च एकबिल्वं शिवार्पणम्॥8॥
शुद्धस्फटिक सङ्काशं शितिकण्ठं कृपानिधिम्।
सर्वेश्वरं सदाशान्तं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥9॥
सच्चिदानन्दरूपं च परानन्दमयं शिवम्।
वागीश्वरं चिदाकाशं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥10॥
शिपिविष्टं सहस्राक्षं कैलासाचलवासिनम्।
हिरण्यबाहुं सेनान्यं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥11॥
अरुणं वामनं तारं वास्तव्यं चैव वास्तवम्।
ज्येष्टं कनिष्ठं गौरीशं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥12॥
हरिकेशं सनन्दीशं उच्चैर्घोषं सनातनम्।
अघोररूपकं कुम्भं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥13॥
पूर्वजावरजं याम्यं सूक्ष्मं तस्करनायकम्।
नीलकण्ठं जघन्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम्॥14॥
सुराश्रयं विषहरं वर्मिणं च वरूधिनम्। 
महासेनं महावीरं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥15॥
कुमारं कुशलं कूप्यं वदान्यञ्च महारथम्।
तौर्यातौर्यं च देव्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम्॥16॥
दशकर्णं ललाटाक्षं पञ्चवक्त्रं सदाशिवम्।
अशेषपापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥17॥
नीलकण्ठं जगद्वन्द्यं दीननाथं महेश्वरम्।
महापापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥18॥
चूडामणीकृतविभुं वलयीकृतवासुकिम्।
कैलासवासिनं भीमं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥19॥
कर्पूरकुन्दधवलं नरकार्णवतारकम्।
करुणामृतसिन्धुं च एकबिल्वं शिवार्पणम्॥20॥
महादेवं महात्मानं भुजङ्गाधिपकङ्कणम्।
महापापहरं देवं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥21॥
भूतेशं खण्डपरशुं वामदेवं पिनाकिनम्।
वामे शक्तिधरं श्रेष्ठं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥22॥
फालेक्षणं विरूपाक्षं श्रीकण्ठं भक्तवत्सलम्।
नीललोहितखट्वाङ्गं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥23॥
कैलासवासिनं भीमं कठोरं त्रिपुरान्तकम्।
वृषाङ्कं वृषभारूढं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥24॥
सामप्रियं सर्वमयं भस्मोद्धूलितविग्रहम्।
मृत्युञ्जयं लोकनाथं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥25॥
दारिद्र्यदुःखहरणं रविचन्द्रानलेक्षणम्।
मृगपाणिं चन्द्रमौळिं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥26॥
सर्वलोकभयाकारं सर्वलोकैकसाक्षिणम्।
निर्मलं निर्गुणाकारं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥27॥
सर्वतत्त्वात्मकं साम्बं सर्वतत्त्वविदूरकम्।
सर्वतत्त्वस्वरूपं च एकबिल्वं शिवार्पणम्॥28॥
सर्वलोकगुरुं स्थाणुं सर्वलोकवरप्रदम्।
सर्वलोकैकनेत्रं च एकबिल्वं शिवार्पणम्॥29॥
मन्मथोद्धरणं शैवं भवभर्गं परात्मकम्।
कमलाप्रियपूज्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम्॥30॥
तेजोमयं महाभीमं उमेशं भस्मलेपनम्।
भवरोगविनाशं च एकबिल्वं शिवार्पणम्॥31॥
स्वर्गापवर्गफलदं रघुनाथवरप्रदम्।
नगराजसुताकान्तं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥32॥
मञ्जीरपादयुगलं शुभलक्षणलक्षितम्।
फणिराजविराजं च एकबिल्वं शिवार्पणम्॥33॥
निरामयं निराधारं निस्सङ्गं निष्प्रपञ्चकम्।
तेजोरूपं महारौद्रं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥34॥
सर्वलोकैकपितरं सर्वलोकैकमातरम्।
सर्वलोकैकनाथं च एकबिल्वं शिवार्पणम्॥35॥
चित्राम्बरं निराभासं वृषभेश्वरवाहनम्।
नीलग्रीवं चतुर्वक्त्रं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥36॥
रत्नकञ्चुकरत्नेशं रत्नकुण्डलमण्डितम्।
नवरत्नकिरीटं च एकबिल्वं शिवार्पणम्॥37॥
दिव्यरत्नाङ्गुलीस्वर्णं कण्ठाभरणभूषितम्।
नानारत्नमणिमयं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥38॥
रत्नाङ्गुलीयविलसत्करशाखानखप्रभम्।
भक्तमानसगेहं च एकबिल्वं शिवार्पणम्॥39॥
वामाङ्गभागविलसदम्बिकावीक्षणप्रियम्।
पुण्डरीकनिभाक्षं च एकबिल्वं शिवार्पणम्॥40॥
सम्पूर्णकामदं सौख्यं भक्तेष्टफलकारणम्।
सौभाग्यदं हितकरं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥41॥
नानाशास्त्रगुणोपेतं स्फुरन्मङ्गल विग्रहम्।
विद्याविभेदरहितं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥42॥
अप्रमेयगुणाधारं वेदकृद्रूपविग्रहम्।
धर्माधर्मप्रवृत्तं च एकबिल्वं शिवार्पणम्॥43॥
गौरीविलाससदनं जीवजीवपितामहम्।
कल्पान्तभैरवं शुभ्रं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥44॥
सुखदं सुखनाशं च दुःखदं दुःखनाशनम्।
दुःखावतारं भद्रं च एकबिल्वं शिवार्पणम्॥45॥
सुखरूपं रूपनाशं सर्वधर्मफलप्रदम्।
अतीन्द्रियं महामायं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥46॥
सर्वपक्षिमृगाकारं सर्वपक्षिमृगाधिपम्।
सर्वपक्षिमृगाधारं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥47॥
जीवाध्यक्षं जीववन्द्यं जीवजीवनरक्षकम्।
जीवकृज्जीवहरणं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥48॥
विश्वात्मानं विश्ववन्द्यं वज्रात्मावज्रहस्तकम्।
वज्रेशं वज्रभूषं च एकबिल्वं शिवार्पणम्॥49॥
गणाधिपं गणाध्यक्षं प्रलयानलनाशकम्।
जितेन्द्रियं वीरभद्रं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥50॥
त्र्यम्बकं मृडं शूरं अरिषड्वर्गनाशनम्।
दिगम्बरं क्षोभनाशं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥51॥
कुन्देन्दुशङ्खधवलं भगनेत्रभिदुज्ज्वलम्।
कालाग्निरुद्रं सर्वज्ञं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥52॥
कम्बुग्रीवं कम्बुकण्ठं धैर्यदं धैर्यवर्धकम्।
शार्दूलचर्मवसनं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥53॥
जगदुत्पत्तिहेतुं च जगत्प्रलयकारणम्।
पूर्णानन्दस्वरूपं च एकबिल्वं शिवार्पणम्॥54॥
सर्गकेशं महत्तेजं पुण्यश्रवणकीर्तनम्।
ब्रह्माण्डनायकं तारं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥55॥
मन्दारमूलनिलयं मन्दारकुसुमप्रियम्।
बृन्दारकप्रियतरं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥56॥
महेन्द्रियं महाबाहुं विश्वासपरिपूरकम्।
सुलभासुलभं लभ्यं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥ 57॥
बीजाधारं बीजरूपं निर्बीजं बीजवृद्धिदम्।
परेशं बीजनाशं च एकबिल्वं शिवार्पणम्॥58॥
युगाकारं युगाधीशं युगकृद्युगनाशनम्।
परेशं बीजनाशं च एकबिल्वं शिवार्पणम्॥59॥
धूर्जटिं पिङ्गलजटं जटामण्डलमण्डितम्।
कर्पूरगौरं गौरीशं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥60॥
सुरावासं जनावासं योगीशं योगिपुङ्गवम्।
योगदं योगिनां सिंहं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥61॥
उत्तमानुत्तमं तत्त्वं अन्धकासुरसूदनम्।
भक्तकल्पद्रुमस्तोमं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥62॥
विचित्रमाल्यवसनं दिव्यचन्दनचर्चितम्।
विष्णुब्रह्मादि वन्द्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम्॥63॥
कुमारं पितरं देवं श्रितचन्द्रकलानिधिम्।
ब्रह्मशत्रुं जगन्मित्रं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥64॥
लावण्यमधुराकारं करुणारसवारधिम्।
भ्रुवोर्मध्ये सहस्रार्चिं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥65॥
जटाधरं पावकाक्षं वृक्षेशं भूमिनायकम्।
कामदं सर्वदागम्यं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥66॥
शिवं शान्तं उमानाथं महाध्यानपरायणम्।
ज्ञानप्रदं कृत्तिवासं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥67॥
वासुक्युरगहारं च लोकानुग्रहकारणम्।
ज्ञानप्रदं कृत्तिवासं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥68॥
शशाङ्कधारिणं भर्गं सर्वलोकैकशङ्करम्। 
शुद्धं च शाश्वतं नित्यं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥69॥
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणम्।
गम्भीरं च वषट्कारं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥70॥
भोक्तारं भोजनं भोज्यं जेतारं जितमानसम्। 
करणं कारणं जिष्णुं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥71॥
क्षेत्रज्ञं क्षेत्रपालञ्च परार्धैकप्रयोजनम्।
व्योमकेशं भीमवेषं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥72॥
भवज्ञं तरुणोपेतं चोरिष्टं यमनाशनम्।
हिरण्यगर्भं हेमाङ्गं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥73॥
दक्षं चामुण्डजनकं मोक्षदं मोक्षनायकम्।
हिरण्यदं हेमरूपं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥74॥
महाश्मशाननिलयं प्रच्छन्नस्फटिकप्रभम्।
वेदास्यं वेदरूपं च एकबिल्वं शिवार्पणम्॥75॥
स्थिरं धर्मं उमानाथं ब्रह्मण्यं चाश्रयं विभुम्। 
जगन्निवासं प्रथममेकबिल्वं शिवार्पणम्॥76॥
रुद्राक्षमालाभरणं रुद्राक्षप्रियवत्सलम्।
रुद्राक्षभक्तसंस्तोममेकबिल्वं शिवार्पणम्॥77॥
फणीन्द्रविलसत्कण्ठं भुजङ्गाभरणप्रियम्। 
दक्षाध्वरविनाशं च एकबिल्वं शिवार्पणम्॥78॥
नागेन्द्रविलसत्कर्णं महीन्द्रवलयावृतम्।
मुनिवन्द्यं मुनिश्रेष्ठमेकबिल्वं शिवार्पणम्॥79॥
मृगेन्द्रचर्मवसनं मुनीनामेकजीवनम्।
सर्वदेवादिपूज्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम्॥80॥
निधनेशं धनाधीशं अपमृत्युविनाशनम्।
लिङ्गमूर्तिमलिङ्गात्मं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥81॥
भक्तकल्याणदं व्यस्तं वेदवेदान्तसंस्तुतम्।
कल्पकृत्कल्पनाशं च एकबिल्वं शिवार्पणम्॥82॥
घोरपातकदावाग्निं जन्मकर्मविवर्जितम्।
कपालमालाभरणं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥83॥
मातङ्गचर्मवसनं विराड्रूपविदारकम्।
विष्णुक्रान्तमनन्तं च एकबिल्वं शिवार्पणम्॥84॥
यज्ञकर्मफलाध्यक्षं यज्ञविघ्नविनाशकम्।
यज्ञेशं यज्ञभोक्तारं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥85॥
कालाधीशं त्रिकालज्ञं दुष्टनिग्रहकारकम्।
योगिमानसपूज्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम्॥86॥
महोन्नतमहाकायं महोदरमहाभुजम्।
महावक्त्रं महावृद्धं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥87॥
सुनेत्रं सुललाटं च सर्वभीमपराक्रमम्।
महेश्वरं शिवतरं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥88
समस्तजगदाधारं समस्तगुणसागरम्।
सत्यं सत्यगुणोपेतं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥89॥
माघकृष्णचतुर्दश्यां पूजार्थं च जगद्गुरोः।
दुर्लभं सर्वदेवानां एकबिल्वं शिवार्पणम्॥90॥
तत्रापि दुर्लभं मन्येत् नभोमासेन्दुवासरे।
प्रदोषकाले पूजायां एकबिल्वं शिवार्पणम्॥91॥
तटाकं धननिक्षेपं ब्रह्मस्थाप्यं शिवालयम्।
कोटिकन्यामहादानं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥92॥
दर्शनं बिल्ववृक्षस्य स्पर्शनं पापनाशनम्।
अघोरपापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥92॥ 
तुलसीबिल्वनिर्गुण्डी जम्बीरामलकं तथा।
पञ्चबिल्वमिति ख्यातं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥94॥
अखण्डबिल्वपत्रैश्च पूजयेन्नन्दिकेश्वरम्।
मुच्यते सर्वपापेभ्यः एकबिल्वं शिवार्पणम्॥95॥
सालङ्कृता शतावृत्ता कन्याकोटिसहस्रकम्।
साम्राज्यपृथ्वीदानं च एकबिल्वं शिवार्पणम्॥96॥
दन्त्यश्वकोटिदानानि अश्वमेधसहस्रकम्।
सवत्सधेनुदानानि एकबिल्वं शिवार्पणम्॥97॥ 
चतुर्वेदसहस्राणि भारतादिपुराणकम्।
साम्राज्यपृथ्वीदानं च एकबिल्वं शिवार्पणम्॥98॥
सर्वरत्नमयं मेरुं काञ्चनं दिव्यवस्त्रकम्।
तुलाभागं शतावर्तं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥99॥
अष्टोत्तरश्शतं बिल्वं योऽर्चयेल्लिङ्गमस्तके।
अधर्वोक्तं अधेभ्यस्तु एकबिल्वं शिवार्पणम्॥100॥
काशीक्षेत्रनिवासं च कालभैरवदर्शनम्।
अघोरपापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥101॥
अष्टोत्तरशतश्लोकैः स्तोत्राद्यैः पूजयेद्यथा।
त्रिसन्ध्यं मोक्षमाप्नोति एकबिल्वं शिवार्पणम्॥102॥
दन्तिकोटिसहस्राणां भूः हिरण्यसहस्रकम्।
सर्वक्रतुमयं पुण्यं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥103॥
पुत्रपौत्रादिकं भोगं भुक्त्वा चात्र यथेप्सितम्।
अन्ते च शिवसायुज्यं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥104॥
विप्रकोटिसहस्राणां वित्तदानाच्च यत्फलम्।
तत्फलं प्राप्नुयात्सत्यं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥105॥
त्वन्नामकीर्तनं तत्त्वं तवपादाम्बु यः पिबेत्
जीवन्मुक्तोभवेन्नित्यं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥106॥
अनेकदानफलदं अनन्तसुकृतादिकम्।
तीर्थयात्राखिलं पुण्यं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥107॥
त्वं मां पालय सर्वत्र पदध्यानकृतं तव।
भवनं शाङ्करं नित्यं एकबिल्वं शिवार्पणम्॥108॥
ॐ नमः शिवाय। 
पूजन करने का विधि-विधान :: महा शिव रात्रि के दिन शिव भक्त मन्दिरों में विशेष रुप से प्रार्थना करने लिये पहुँचते हैं। भगवान् भोले नाथ इस दिन की गई पूजा-अर्चना, प्रार्थना-आराधना से अत्यधिक प्रसन्न होते हैं। उनका पूजन बेल-पत्र आदि चढ़ाते हुए किया जाता है। व्रत करने और पूजन के साथ जब रात्रि जागरण भी किया जाये, तो यह व्रत और अधिक शुभ फल देता है। इस दिन भगवान् शिव का विवाह हुआ था, इसलिये रात्रि में भगवान् शिव की बारात निकाली जाती है। भोलेनाथ के दरबार में कोई भेद नहीं। सभी धर्म जाति और वर्गों के लोग महादेव का पूजन अपने-अपने विधि विधान से कर सकते हैं। महादेव को सिर्फ भक्तिपूर्ण हृदय का समर्पण चाहिए। 
महा मृत्‍युंजय मंत्र :: Recitation-enchantment of Maha Mratyunjay Mantr protects one from all illnesses and diseases.
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌॥ 
OM Tryambkam  Yajamahe Sugandhim Pushti Vardhnam;
Urvaruk Miv Bandhnan Mratyor Mukshiy Mamratat. 
I worship thee, O! The sweet Lord of transcendental vision (the three eyed). O! the giver of health and prosperity to all, may I be free from the bonds of death, just as a melon (or cucumber) is severed effortlessly from its bondage or attachment to the creeper.
I worship Bhagwan Shiv the three-eyed Supreme deity, who is full of fragrance and who nourishes all beings; may He liberate me from the death (of ignorance), for the sake of immortality (of knowledge and truth), just as the ripe cucumber is severed from its bondage (the creeper).
इस मंत्र में 32 शब्दों का प्रयोग हुआ है और इसी मंत्र में ॐ लगा देने से 33 शब्द हो जाते हैं। इसे त्रयस्त्रिशाक्षरी या तैंतीस अक्षरी मंत्र कहते हैं। श्री वशिष्ठ जी ने इन 33 शब्दों के 33 देवता गणों की निम्नलिखित शक्तियाँ निश्चित की हैं। इसमें 8 वसु, 11 रुद्र, 12 आदित्य 1 प्रजापति तथा 1 वषट को माना है।समस्‍त संसार के पालनहार, तीन नेत्र वाले भगवान् शिव की हम अराधना करते हैं। विश्‍व में सुरभि फैलाने वाले भगवान् शिव मृत्‍यु हमें मोक्ष-मुक्ति दिलायें।
महामृत्युंजय मंत्र के वर्णो (अक्षरों) का अर्थ :: 
महामृत्युंघजय मंत्र के वर्ण पद वाक्यक चरण आधी ऋचा और सम्पूर्ण ऋचा-इन छ: अंगों के अलग-अलग अभिप्राय हैं।
इन तैंतीस देवताओं की सम्पूर्ण शक्तियाँ महामृत्युंजय मंत्र से निहीत होती है जिससे महा महामृत्युंजय का पाठ करने वाला प्राणी दीर्घायु तो प्राप्त करता ही हैं । साथ ही वह नीरोग, ऐश्व‍र्य युक्ता धनवान भी होता है । महामृत्युंरजय का पाठ करने वाला प्राणी हर दृष्टि से सुखी एवम समृध्दिशाली होता है । भगवान शिव की अमृतमययी कृपा उस निरन्तंर बरसती रहती है।
त्रि :- ध्रव वसु प्राण का घोतक है, जो सिर में स्थित है।
यम :- अध्ववरसु प्राण का घोतक है, जो मुख में स्थित है।
ब :- सोम वसु शक्ति का घोतक है, जो दक्षिण कर्ण में स्थित है।
कम :- जल वसु देवता का घोतक है, जो वाम कर्ण में स्थित है।
य :- वायु वसु का घोतक है, जो दक्षिण बाहु में स्थित है।
जा :- अग्नि वसु का घोतक है, जो बाम बाहु में स्थित है।
म :- प्रत्युवष वसु शक्ति का घोतक है, जो दक्षिण बाहु के मध्य में स्थित है।
हे :- प्रयास वसु मणिबन्ध में स्थित है।
सु  :- वीरभद्र रुद्र प्राण का बोधक है, जो दक्षिण हस्त की अँगुलि के मूल में स्थित है।
ग :- शुम्भ् रुद्र का घोतक है, जो  दक्षिणहस्त् की अँगुलि के अग्र भाग में स्थित है।
न्धिम् :- गिरीश रुद्र शक्ति का मूल घोतक है, जो बायें हाथ के मूल में स्थित है।
पु :- अजैक पात रुद्र शक्ति का घोतक है, जो बाम हस्त के मध्य भाग में स्थित है।
ष्टि :- अहर्बुध्य्त् रुद्र का घोतक है, जो बाम हस्त के मणिबन्ध में स्थित है।
व :- पिनाकी रुद्र प्राण का घोतक है, जो बायें हाथ की अँगुलि के मूल में स्थित है।
र्ध :- भवानीश्वपर रुद्र का घोतक है, जो बाम हस्त की अँगुलि के अग्र भाग में स्थित है।
नम् :- कपाली रुद्र का घोतक है, जो उरु मूल में स्थित है।
उ :- दिक्पति रुद्र का घोतक है, जो यक्ष जानु में स्थित है।
र्वा  :- स्थाणु रुद्र का घोतक है, जो यक्ष गुल्फ में स्थित है।
रु  :- भर्ग रुद्र का घोतक है, जो चक्ष पादांगुलि मूल में स्थित है।
क :- धाता आदित्य का घोतक है, जो यक्ष पादांगुलियों के अग्र भाग में स्थित है।
मि :- अर्यमा आदित्य का घोतक है, जो वाम उरु मूल में स्थित है।
व :- मित्र आदित्य का घोतक है, जो वाम जानु में स्थित है।
ब :- वरुणादित्य का बोधक है, जो वाम गुल्फ में स्थित है।
न्धा  :- अंशु आदित्य का घोतक है, जो वाम पादांगुलि के मूल में स्थित है।
नात् :- भगादित्य का बोधक है, जो वाम पैर की अँगुलियों के अग्रभाग में स्थित है।
मृ :-  विश्वन (सूर्य) का घोतक है, जो दक्ष पार्श्व में स्थित है।
र्त्यो् :- दन्दाददित्य् का बोधक है, जो वाम पार्श्व भाग में स्थित है।
मु :- पूषादित्यं का बोधक है, जो  पृष्ठ भाग में स्थित है।
क्षी :- पर्जन्य् आदित्यय का घोतक है, जो नाभि स्थिल में स्थित है।
य :- त्वणष्टान आदित्य का बोधक है, जो गुहय भाग में स्थित है।
मां :- विष्णुय आदित्य का घोतक है, यह शक्ति स्व्रुप दोनों भुजाओं में स्थित है।
मृ :- प्रजापति का घोतक है, जो कंठ भाग में स्थित है।
तात् :- अमित वषट्कार का घोतक है, जो हदय प्रदेश में स्थित है।
उपर वर्णन किये स्थानों पर उपरोक्तध देवता, वसु आदित्य आदि अपनी सम्पुर्ण शक्तियों सहित विराजत हैं। जो प्राणी श्रध्दा सहित महामृत्युजय मंत्र का पाठ करता है, उसके शरीर के अंग-अंग (जहाँ के जो देवता या वसु अथवा आदित्य हैं) उनकी रक्षा होती है।
मंत्रगत पदों की शक्तियॉं :: जिस प्रकार मंत्रा में अलग अलग वर्णो (अक्षरों) की शक्तियाँ हैं। उसी प्रकार अलग- अलग  पदों की भी शक्तियॉं हैं।
त्र्यम्‍‍बकम् :- त्रैलोक्यक शक्ति का बोध कराता है, जो सिर में स्थित है।
यजा :- सुगन्धात शक्ति का घोतक है, जो ललाट में स्थित है।
महे :- माया शक्ति का द्योतक है, जो कानों में स्थित है।
सुगन्धिम् :- सुगन्धि शक्ति का द्योतक है, जो नासिका (नाक) में स्थित है।
पुष्टि :- पुरन्दिरी शकित का द्योतक है, जो मुख में स्थित है।
वर्धनम :- वंशकरी शक्ति का द्योतक है, जो कंठ में स्थित है।
उर्वा :- ऊर्ध्देक शक्ति का द्योतक है, जो ह्रदय में स्थित है।
रुक :- रुक्तदवती शक्ति का द्योतक है, जो नाभि में स्थित है।
मिव :- रुक्मावती शक्ति का बोध कराता है, जो कटि भाग में स्थित है ।
बन्धानात् – बर्बरी शक्ति का द्योतक है जो गुह्य भाग में स्थित है।
मृत्यो: :- मन्त्र्वती शक्ति का द्योतक है, जो उरुव्दंय में स्थित है।
मुक्षीय :- मुक्तिकरी शक्तिक का द्योतक है, जो जानुव्दओय में स्थित है।
मा :- माशकिक्तत सहित महाकालेश का बोधक है, जो दोंनों जँघाओं में स्थित है।
अमृतात :- अमृतवती शक्तिका द्योतक है, जो पैरों के तलुओं में स्थित है।
Anyone, who worships Shiv on the day of Maha Shiv Ratri is released-relinquished from all bondage and sins of Karm and moves towards the path of Moksh. Devotees, who worship Bhagwan Shiv with true devotion on Maha Shiv Ratri are freed from all sins-bondage and are blessed with health, wealth and success. 
Parad, Para-Mercury is regarded as one of the auspicious metals. Shiv Lings made using Parad are considered as most auspicious, even more auspicious than Shiv Lings made from gemstones or gold. Devotees who worship Parad Shiv Ling are blessed with all worldly pleasures and are excelled on the path of Moksh. Parad Shiv Ling, when kept in homes or place of work brings in physically, spiritually and psychologically upliftment. Parad and Parad Shiv Ling have many other medicinal and mystic benefits such as peace, prosperity and happiness. 
Shiv Ling represents Bhawan Shiv, the primeval and primary source of energy in this Universe.  Generally, people avoid  installation of Shiv Ling at homes or place of work, since its proper place is cremation ground or the temple. Shiv is Supreme Soul-Adi Dev, Maan Parwati Shakti is his driving force. The combination of Shiv and Shakti is behind the creation-nurture and act of perishing this Universe. 
Ling symbolises Tej (energy, sperms) and Chaitany-living (consciousness); it is often represented alongside the Yoni, which is a symbol of Maa Shakti, the female creative energy of the universe. Thus, Shiv Ling is a symbol of union of the duality of  Shiv (The Purest) and Shakti (sacred force or the cosmic energy). 
भगवान् शिव के 108 नाम का जाप :: (1). ॐ भोलेनाथ नमः, (2). ॐ कैलाश पति नमः, (3). ॐ भूतनाथ नमः, (4). ॐ नंदराज नमः, (5). ॐ नन्दी की सवारी नमः, (6). ॐ ज्योतिलिंग नमः, (7). ॐ महाकाल नमः, (8). ॐ रुद्रनाथ नमः, (9). ॐ भीमशंकर नमः, (10). ॐ नटराज नमः, (11). ॐ प्रलेयन्कार नमः, (12). ॐ चंद्रमोली नमः, (13). ॐ डमरूधारी नमः, (14). ॐ चंद्रधारी नमः, (15). ॐ मलिकार्जुन नमः, (16). ॐ भीमेश्वर नमः, (17). ॐ विषधारी नमः, (18). ॐ बम भोले नमः, (19). ॐ ओंकार स्वामी नमः, (20). ॐ ओंकारेश्वर नमः, (21). ॐ शंकर त्रिशूलधारी नमः, (22). ॐ विश्वनाथ नमः, (23). ॐ अनादिदेव नमः, (24). ॐ उमापति नमः, (25). ॐ गोरापति नमः, (26). ॐ गणपिता नमः, (27). ॐ भोले बाबा नमः, (28). ॐ शिवजी नमः, (29). ॐ शम्भु नमः, (30). ॐ नीलकंठ नमः, (31). ॐ महाकालेश्वर नमः, (32). ॐ त्रिपुरारी नमः, (33). ॐ त्रिलोकनाथ नमः, (34). ॐ त्रिनेत्रधारी नमः, (35). ॐ बर्फानी बाबा नमः, (36). ॐ जगतपिता नमः, (37). ॐ मृत्युन्जन नमः, (38). ॐ नागधारी नमः, (39). ॐ रामेश्वर नमः, (40). ॐ लंकेश्वर नमः, (41). ॐ अमरनाथ नमः, (42). ॐ केदारनाथ नमः, (43). ॐ मंगलेश्वर नमः, (44). ॐ अर्धनारीश्वर नमः, (45). ॐ नागार्जुन नमः, (46). ॐ जटाधारी नमः, (47). ॐ नीलेश्वर नमः, (48). ॐ गलसर्पमाला नमः, (49). ॐ दीनानाथ नमः, (50). ॐ सोमनाथ नमः, (51). ॐ जोगी नमः, (52). ॐ भंडारी बाबा नमः, (53). ॐ बमलेहरी नमः, (54). ॐ गोरीशंकर नमः, (55). ॐ शिवाकांत नमः, (56). ॐ महेश्वराए नमः, (57). ॐ महेश नमः, (58). ॐ ओलोकानाथ नमः, (59). ॐ आदिनाथ नमः, (60). ॐ देवदेवेश्वर नमः, (61). ॐ प्राणनाथ नमः, (62). ॐ शिवम् नमः, (63). ॐ महादानी नमः, (64). ॐ शिवदानी नमः, (65). ॐ संकटहारी नमः, (66). ॐ महेश्वर नमः, (67). ॐ रुंडमालाधारी नमः, (68). ॐ जगपालनकर्ता नमः, (69). ॐ पशुपति नमः, (70). ॐ संगमेश्वर नमः, (71). ॐ दक्षेश्वर नमः, (72). ॐ घ्रेनश्वर नमः, (73). ॐ मणिमहेश नमः, (74). ॐ अनादी नमः, (75). ॐ अमर नमः, (76). ॐ आशुतोष महाराज नमः, (77). ॐ विलवकेश्वर नमः, (78). ॐ अचलेश्वर नमः, (79). ॐ अभयंकर नमः, (80). ॐ पातालेश्वर नमः, (81). ॐ धूधेश्वर नमः, (82). ॐ सर्पधारी नमः, (83). ॐ त्रिलोकिनरेश नमः, (84). ॐ हठ योगी नमः, (85). ॐ विश्लेश्वर नमः, (86). ॐ नागाधिराज नमः, (87). ॐ सर्वेश्वर नमः, (88). ॐ उमाकांत नमः, (89). ॐ बाबा चंद्रेश्वर नमः, (90). ॐ त्रिकालदर्शी नमः, (92). ॐ त्रिलोकी स्वामी नमः, (92). ॐ महादेव नमः, (93). ॐ गढ़शंकर नमः, (94). ॐ मुक्तेश्वर नमः, (95). ॐ नटेषर नमः, (96). ॐ गिरजापति नमः, (97). ॐ भद्रेश्वर नमः, (98). ॐ त्रिपुनाशक नमः, (99). ॐ निर्जेश्वर नमः, (100). ॐ किरातेश्वर नमः, (101). ॐ जागेश्वर नमः, (102). ॐ अबधूतपति नमः, (103). ॐ भीलपति नमः, (104). ॐ जितनाथ नमः, (105). ॐ वृषेश्वर नमः, (106). ॐ भूतेश्वर नमः, (107). ॐ बैजूनाथ नमः एवं (108). ॐ नागेश्वर नमः। 
शिव शतनाम ::
देवा ऊचुः ::
जय शम्भो विभो रुद्र स्वयम्भो जय शङ्कर।
जयेश्वर जयेशान जय सर्वज्ञ कामद॥1॥
नीलकण्ठ जय श्रीद श्रीकण्ठ जय धूर्जटे।
अष्टमूर्तेऽनन्तमूर्ते महामूर्ते जयानघ॥2॥
जय पापहरानङ्गनिःसङ्गाभङ्गनाशन।
जय त्वं त्रिदशाधार त्रिलोकेश त्रिलोचन॥3॥
जय त्वं त्रिपथाधार त्रिमार्ग त्रिभिरूर्जित।
त्रिपुरारे त्रिधामूर्ते जयैकत्रिजटात्मक॥4॥
शशिशेखर शूलेश पशुपाल शिवाप्रिय।
शिवात्मक शिव श्रीद सुहृच्छ्रीशतनो जय॥5॥
सर्व सर्वेश भूतेश गिरिश त्वं गिरीश्वर।
जयोग्ररूप मीमेश भव भर्ग जय प्रभो॥6॥
जय दक्षाध्वरध्वंसिन्नन्धकध्वंसकारक।
रुण्डमालिन् कपालिंस्थं भुजङ्गाजिनभूषण॥7॥
दिगम्बर दिशां नाथ व्योमकश चिताम्पते।
जयाधार निराधार भस्माधार धराधर॥8॥
देवदेव महादेव देवतेशादिदैवत।
वह्निवीर्य जय स्थाणो जयायोनिजसम्भव॥9॥
भव शर्व महाकाल भस्माङ्ग सर्पभूषण।
त्र्यम्बक स्थपते वाचाम्पते भो जगताम्पते॥10॥
शिपिविष्ट विरूपाक्ष जय लिङ्ग वृषध्वज।
नीललोहित पिङ्गाक्ष जय खट्वाङ्गमण्डन॥11॥
कृत्तिवास अहिर्बुध्न्य मृडानीश जटाम्बुभृत्।
जगद्भ्रातर्जगन्मातर्जगत्तात जगद्गुरो॥12॥
पञ्चवक्त्र महावक्त्र कालवक्त्र गजास्यभृत्।
दशबाहो महाबाहो महावीर्य महाबल॥13॥
अघोरघोरवक्त्र त्वं सद्योजात उमापते।
सदानन्द महानन्द नन्दमूर्ते जयेश्वर॥14॥
एवमष्टोत्तरशतं नाम्नां देवकृतं तु ये।
शम्भोर्भक्त्या स्मरन्तीह शृण्वन्ति च पठन्ति च॥15॥
न तापास्त्रिविधास्तेषां न शोको न रुजादयः।
ग्रहगोचरपीडा च तेषां क्वापि न विद्यते॥16॥
श्रीः प्रज्ञाऽऽरोग्यमायुष्यं सौभाग्यं भाग्यमुन्नतिम्।
विद्या धर्मे मतिः शम्भोर्भक्तिस्तेषां न संशयः॥17॥
इति श्रीस्कन्दपुराणे सह्याद्रिखण्डे शिवाष्टोत्तरनामशतकस्तोत्रं सम्पूर्णम्।
रुद्राभिषेक :: श्रावण मास पूजा, अर्चना, आराधना करने से भगवान् शिव प्रसन्न होते है और मनवांच्छित फल की प्राप्त होता है।
शिवरात्रि को भी शिवार्चन करने से भगवान् शिव  प्रसन्न होते हैं। 
शुभ मूहूर्त में शुद्ध वस्त्र धारण करके यजमान पूजा के लिए मण्डप में आयें। दक्षिण ओर पत्नी को ग्रंथिबन्धन करके बैठाया जाय। शुद्ध वस्त्र धारण करना उत्तम होता है। तदनन्तर आत्म शुद्धि के लिए निम्न मंत्रों का उच्चारण करते हुए आचमन करें :-
ॐ केशवाय नमः, ॐ नारायणाय नमः, ॐ माधवाय नमः।
तीन बार आचमन कर निम्न मंत्र का जप करके  हाथ धो लें :-
ॐ विष्णवे नमः।
पुनः बायें हाथ में जल लेकर दाहिने हाथ से अपने ऊपर और पूजा सामग्री पर निम्न श्लोक पढ़ते हुए छिड़कें :-
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा।
यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः
ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु, ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु।
आसन शुद्धि :: निम्न मंत्र पढ़कर आसन पर जल छिड़कें :-
ॐ पृथ्वि। त्वया धृता लोका देवि। त्वं विष्णुना धृता। 
त्वं च धारय मां देवि। पवित्रां कुरु चासनम् 
शिखाबन्धन :: चोटी में गाँठ लगायें।
ॐ मानस्तोके तनये मानऽआयुषि मानो गोषु मानोऽअश्वेषुरीरिषः। 
मानोव्वीरान् रुद्रभामिनो व्वधीर्हविष्मन्तः सदमित्त्वा हवामहे॥
ॐ चिद्रूपिणि महामाये दिव्यतेजः समन्विते। 
तिष्ठ देवि शिखाबद्धे तेजोवृद्धिं कुरुष्व मे॥ 
कुश धारण :: निम्न मंत्र से बायें हाथ में तीन कुश तथा दाहिने हाथ में दो कुश धारण करें।
ॐ पवित्रोस्थो वैष्णव्यौ सवितुर्व्वः प्रसवऽउत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रोण सूर्यस्य रश्मिभिः। तस्य ते पवित्रपते पवित्रपूतस्य यत्कामः पुनेतच्छकेयम्॥
पुनः ब्राह्मण यजमान के ललाट पर कुंकुम तिलक करें।
यजमान तिलक :: 
ॐ आदित्या वसवो रुद्रा विश्वेदेवा मरुद्गणाः। 
तिलकन्ते प्रयच्छन्तु धर्मकामार्थसिद्धये॥
इस के बाद यजमान गुरु मंत्र का 11 बार जाप करें।
उसके बाद यजमान आचार्य एवं अन्य ऋत्विजों के साथ हाथ में पुष्पाक्षत लेकर स्वस्त्ययन करें :- 
ॐ आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासोऽ परीतास उद्भिदः।
देवा नो यथा सदमिद् वृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवे दिवे॥
देवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां देवानाँ रातिरभि नो निवर्तताम्।
देवानाँ सख्यमुपसेदिमा व्वयं देवा न आयुः प्रतिरन्तु जीवसे॥
तान्पूर्वया निविदा हूमहे वयं भगं मित्रामदितिं दक्षमश्रिधम्।
अर्यमणं वरुणँ सोममश्विना सरस्वती नः सुभगा मयस्करत्॥ 
तन्नो व्वातो मयोभु वातु भेषजं तन्माता पृथिवी तत्पिता द्यौः।
तद् ग्रावाणः सोमसुतो मयोभुवस्तदश्विना शृणुतं धिष्ण्या युवम्॥
तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियञ्जिन्वमवसे हूमहे वयम्।
पूषा नो यथा वेदसामसद् वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्ताक्ष्र्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥
पृषदश्वा मरुतः पृश्निमातरः शुभं यावानो विदथेषु जग्मयः।
अग्निर्जिह्ना मनवः सूरचक्षसो विश्वे नो देवा अवसागमन्निह॥
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाँ सस्तनुभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः॥
शतमिन्नु शरदो अन्ति देवा यत्रा नश्चक्रा जरसं तनूनाम्।
पुत्रसो यत्रा पितरो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः
अदितिर्द्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता स पिता स पुत्राः।
विश्वे देवा अदितिः पञ्चजना अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम्॥
ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष Ủ शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिर्व्वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्मशान्तिः सर्वं Ü शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सामा शान्तिरेधि॥
यतो यतः समीहसे ततो नोऽअभयं कुरू। 
शं नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुब्भ्यः॥
सुशान्तिर्भवतु।
हाथ में लिए पुष्प और अक्षत गणेश जी एवं माँ गौरी पर चढ़ा दें। हर एक नाम पर पुष्प या चावल अर्पित करें। पुनः हाथ में पुष्प अक्षत आदि लेकर निम्न मंगल श्लोक पढ़ें :-
श्रीमन्महागणाधिपतये नमः। लक्ष्मीनारायणाभ्यां नमः। उमामहेश्वराभ्यां नमः। वाणीहिरण्यगर्भाभ्यां नमः। शचीपुरन्दराभ्यां नमः। मातापितृचरणकमलेभ्यो नमः। इष्टदेवताभ्यो नमः। कुलदेवताभ्यो नमः। ग्रामदेवताभ्यो नमः। वास्तुदेवताभ्यो नमः। स्थानदेवताभ्यो नमः। सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः। सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नमः।
हाथ में पुष्प चावल लेकर गणेश जी का ध्यान करें और निम्न आराधना करें :-
विश्वेशं माधवं ढुण्ढिं दण्डपाणिं च भैरवम्।
वन्दे काशीं गुहां गङ्गां भवानीं मणिकर्णिकाम्॥
वक्रतुण्ड महाकाय कोटिसूर्यसमप्रभ। 
निर्विघ्नं कुरु मे देव  सर्वकार्येषु सर्वदा।
सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः।
लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायकः॥
धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः।
द्वादशैतानि नामानि यः पठेच्छृणुयादपि॥
विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा।
सङ्ग्रामे सङ्कटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते॥
शुक्लाम्बरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजम्।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत् सर्वविघ्नोपशान्तये॥
अभीप्सितार्थ-सिद्धार्थं पूजितो यः सुराऽसुरैः।
सर्वविघ्नहरस्तस्मै गणाधिपतये नमः॥
सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके। 
शरण्ये त्रयम्बके गौरि नारायणि  नमोऽस्तु ते॥
सर्वदा सर्वकार्येषु नास्ति तेषाममङ्गलम्।
येषां हृदिस्थो भगवान् मङ्गलायतनो हरिः॥
तदेव लग्नं सुदिनं तदेव ताराबलं चन्द्रबलं तदेव।
विद्यावलं दैवबलं तदेव लक्ष्मीपते तेऽङ्घ्रियुगं स्मरामि॥
लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः।
येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः॥
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिध्र्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥
स्मृतेः सकलकल्याणं भाजनं यत्र जायते।
पुरुषं तमजं नित्यं ब्रजामि शरणं हरिम्॥
सर्वेष्वारम्भकार्येषु त्रयस्त्रिभुवनेश्वराः।
देवा दिशन्तु नः सिद्धिं ब्रह्मेशानजनार्दनाः॥
संकल्प :: दाहिने हाथ में जल अक्षत पान सुपाणी और द्रव्य लेकर निम्न संकल्प मंत्र करें :-
ऊँ विष्णु र्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद् भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्त्तमानस्य अद्य श्री ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय परार्धे श्री श्वेत वाराह कल्पै वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे युगे कलियुगे कलि प्रथमचरणे भूर्लोके जम्बूद्वीपे भारत वर्षे भरत खंडे आर्यावर्तान्तर्गतैकदेशे ... नगरे ... ग्रामे वा बौद्धावतारे विरोधकृत नाम संवत्सरे श्री सूर्ये दक्षिणायने वर्षा ऋतौ महामाँगल्यप्रद मासोत्तमे शुभ श्रावण मासे कृष्ण पक्षे चतुर्थी तिथौ बुधवासरे पूर्वाभाद्रपद नक्षत्रे अतिगंड योगे बालव करणे मीन राशि स्थिते चन्द्रे कर्क राशि स्थिते सूर्य तुला राशि स्थिते देवगुरौ शेषेषु ग्रहेषु च यथा यथा राशि स्थान स्थितेषु सत्सु एवं ग्रह गुणगण विशेषण विशिष्टायाँ चतुर्थ्याम्‌ शुभ पुण्य तिथौ ... गौत्रः ... अमुक शर्मा, वर्मा, गुप्ता, दासो ऽहं मम आत्मनः श्रीसाम्बसदाशिवप्रीत्यर्थञ्च लिंङ्गोपरि यथोपचारौ श्री साम्बसदाशिवपूजनपूर्वकमं जलधारया लघुरुद्रेण रुद्राभिषेकं पूजनं करिष्ये।
इसके पश्चात्‌ हाथ का जल किसी पात्र में छोड़ दें।
(1). गणपति आवाहनम् :-
गणानांत्वा गणपतिं हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपतिं हवांमहे।
निधीनां त्वा निधिपतिं हवामहे व सो मम। 
आजहमानिगर्भधमानिगर्भधमात्वमजासि गर्भधम्॥
ॐ गणेशाय नमः आवाहयामि स्थापयामि, पूजयामि। 
(2). भवानी आवाहनम् ::
अम्बे अम्बिकेम्बालिके न मा नयति कश्चन।
ससस्त्यश्वकः सुभद्रिकां काम्पीलवासिनीम्॥
ॐ नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम्॥
ॐ श्री गौर्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि।
(3). नन्दीश्वर आवाहनम् :-
ॐ आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन् मातरं पुरः। पितरञ्च प्रयन्त्स्वः॥
ॐ नन्दीश्वराय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि॥
(4). वीरभद्राय नमः आवाहयामि स्थापयामि, पूजयामि॥
(5). स्वामी कार्तिकेय आवाहनम् :-
ॐ यदक्रन्दः प्रथमं जायमानऽ उद्यन्त् समुद्रादुत वा पुरीषात्।
श्येनस्य पक्षा हरिणस्य बाहू उपस्तुत्यं महि जातं ते अर्वन्॥
ॐ श्री स्कन्दाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि॥
(6). गण आवाहनम् :-
ॐ भद्रो नो अग्निराहुतो भद्राराति:।
सुभग भद्रो अध्वरः। भद्राऽ उत प्रशस्तयः॥
ॐ सर्वेभ्यो गणेभ्यो नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि।
(7). कुबेराय नमः आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि। 
(8). किर्तिमुखाय नमः आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि। 
(9).  सर्प आवाहनम् :-
ॐ नमोस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथिवीमनु। 
ये अन्तरिक्षे ये दिवि तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः॥
ॐ सर्पेभ्यो नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि॥
(10). भगवान् शिव का आवाहन :-
नमस्ते रुद्र मन्यव उतो त इषवे नमः। बाहुभ्यामुत ते नमः॥
ॐ शिवाय नमः आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि।
भगवान् शिव का ध्यान ::
ॐ वन्दे देवमुमापतिं सुरगुरुं, वन्दे जगत्कारणम्।
वन्दे पन्नगभूषणं मृगधरं, वन्दे पशूनाम्पतिम्॥
वन्दे सूर्यशशाङ्क वह्निनयनं, वन्दे मुकुन्दप्रियम्।
वन्दे भक्तजनाश्रयं च वरदं, वन्दे शिवं शङ्करम्॥
ॐ भगवते श्री साम्बसदाशिवाय नमः, ध्यानम् समर्पयामि।
(1). जल में चन्दन मिलाकरभगवान्  शिव के पैरों में अर्पित करें :-
यामिषुं गिरिशन्त हस्ते बिभर्ष्यस्तवे।
शिवां गिरित्र तां कुरु मा हि ँ  ् सीः पुरुषं जगत्॥
ॐ भगवते श्री साम्बसदाशिवाय नमः, पाद्यम् समर्पयामि॥
(2). जल में पुष्प मिलाकर भगवान् शिव (शिव लिंग) के ऊपर छोङें और मन में भावना करें कि हम भगवान् शिव के हाथों को धुला रहे हैं।
शिवेन वचसा त्वा गिरिशाच्छा वदामसि।
यथा नः सर्वमिज्जगदयक्ष्मः सुमना असत्॥
ॐ भगवते श्री साम्बसदाशिवाय नमः, अर्घ्यं समर्पयामि।
(3). जल में लौंग लारची मिलाकर शिव लिँग के ऊपर जल छोङें और मन में विचार करें कि हम भगवान् शिव  का आचमन कर रहे हैं।
अध्यवोचदधिवक्ता प्रथमो दैव्यो भिषक्।
अहींश्र्चसर्वाञ्जम्भयन्त्सर्वाश्र्चयातुधान्योऽधरा॥
ॐ भगवते श्री साम्बसदाशिवाय नमः, आचमनीयं समर्पयामि।
(4). शुद्धय जल से शिव लिङ्ग का स्नान करें।
असौ यस्ताम्रो अरुण उत बभ्रुः सुमङ्गलः।
ये चेन  ँ  ्रुद्रा अभितो दिक्षु श्रिताः सहस्त्रशोऽवैषा ँ  ् हेडईमहे॥
ॐ भगवते श्री साम्बसदाशिवाय नमः, स्नानं समर्पयामि।
शिवलिंग अच्छी तरह से साफ कर लें। स्नान में प्रयुक्त दूध, दही, घी, मधु, शर्करा आदि को इकठ्ठा कर प्रसाद स्वरूप सबको वितरित कर दें।
(4.1). पयः स्नानम् (दुग्ध से स्नान) ::
ॐ पयः पृथिव्यां पय ऽ ओषधीषुु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयो धाः।
पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम्॥
ॐ भगवते श्री साम्बसदाशिवाय नमः, पयःस्नानं समर्पयामि।
एक आचमनीयं जलं समर्पयामि
(4.2). दधिस्नानम् (दही से स्नान) ::
ॐ दधिक्राव्णो अकारिषं जिष्णोरश्वस्य वाजिनः।
सुरभि नो मुखा करत्प्र णऽ आयूषि तारिषत्॥
ॐ भगवते श्री साम्बसदाशिवाय नमः, दधिस्नानं समर्पयामि।
एक आचमनीयं जलं समर्पयामि
(4.3). घृतस्नानम् (घी से स्नान) ::
ॐ घृतं घृतपावानः पिबत वसां वसापावानःपिबतान्तरिक्षस्य हविरसि स्वाहा।
दिशःप्रदिशऽ आदिशो विदिशऽ उद्दिशो दिग्भ्यः स्वाहा॥
ॐ भगवते श्री साम्बसदाशिवाय नमः, घृतस्नानं समर्पयामि।
एक आचमनीयं जलं समर्पयामि॥
(4.4). मधुस्नानम् (शहद से स्नान) ::
ॐ मधु वाताऽ ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः। माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः।
ॐ मधु नक्तमुतोषसो मधुमत् पार्थिव रजः। मधुद्यौरस्तुनःपिता।
ॐ मधुमान्नो वनस्पतिः मधुमाँ2अस्तु सूर्यः। माध्वीर्गावो भवन्तु नः॥
ॐ भगवते श्री साम्बसदाशिवाय नमः, मधुस्नानं समर्पयामि।
एक आचमनीयं जलं समर्पयामि॥
(4.5). शर्करास्नानम् (शक्कर से स्नान) ::
ॐ अपा रसमुद्वयस सूर्ये सन्त समाहितम्। अपा रसस्य यो रसस्तं वो गृह्णामि
उत्तममुपयाम गृहीतोसीन्द्राय त्वा जुष्टं गृह्णाम्येष ते योनिरिन्द्राय त्वा जुष्टतमम्॥
ॐ भगवते श्री साम्बसदाशिवाय नमः, शर्करास्नानं समर्पयामि।
एक आचमनीयं जलं समर्पयामि॥
(4.6). पञ्चामृतस्नानम् (पंचामृत से स्नान) ::
ॐ पञ्च नद्यः सरस्वतीमपि यन्ति सस्रोतसः।
सरस्वती तु पञ्चधा सो देशेभवत्सरित्॥
ॐ भगवते श्री साम्बसदाशिवाय नमः,पञ्चामृतस्नानं समर्पयामि।
(4.7). शुद्धोदकस्नानम् (गंगा जल से स्नान) ::
ॐ शुद्धवालः सर्वशुद्धवालो मणिवालस्तऽआश्विनाः श्येतः
श्येताक्षोरुणस्ते रुद्राय पशुपतये कर्णा यामाऽ।   
अवलिप्ता रौद्रा नभोरूपाःपार्जन्याः॥
ॐ भगवते श्री साम्बसदाशिवाय नमः, शुद्धोदकस्नानं समर्पयामि।
(4.8). गन्धोदकस्नानम् (हल्दी, चन्दन आदि जल में मिलाकर स्नान करायें) ::
ॐ अ शुना ते अ शुः पृच्यतां परुषा परुः।
गन्धस्ते सोममवतु मदाय रसो अच्युतः॥
ॐ भगवते श्री साम्बसदाशिवाय नमः,गन्धोदक स्नानं समर्पयामि।
(4.9). शुद्धोदकस्नानम् (पुनःफिर से गंगा जल से स्नान करायें) ::
ॐ शुद्धवालः सर्वशुद्धवालो मणिवालस्तऽआश्विनाः श्येतः श्येताक्षोरुणस्ते रुद्राय पशुपतये कर्णा यामाऽअवलिप्ता रौद्रा नभोरूपाःपार्जन्याः॥
ॐ भगवते श्री साम्बसदाशिवाय नमः, शुद्धोदकस्नानं समर्पयामि।
(4.10). भाँग से स्नान करायें।
महाभिषेकस्नानम् :: शृङ्गी या लोटे से भगवान् शिव के ऊपर जलधार छोड़ें, महाभिषेक स्नान करायें। जब तक मन्त्र चलता रहे, जलधार बनाये रखना चाहिए।
ॐ नमस्ते रुद्र मन्यवऽ उतो तऽ इषवे नमः। बाहुभ्यामुतते नमः॥
या ते रुद्र शिवा तनूरघोराऽपापकाशिनी।
तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशन्ताभि चाकशीहि॥
यामिषुं गिरिशन्त हस्ते बिभर्ष्यस्तवे।
शिवां गिरित्र तां कुरु मा हि सीः पुरुषं जगत्॥
शिवेन वचसा त्वा गिरिशाच्छावदामसि।
यथा नः सर्वमिज्जगदयक्ष्म सुमनाऽ असत्॥
अध्यवोचदधिवक्ता प्रथमो दैव्यो भिषक्।
अहीँश्च सर्वाञ्जम्भयन्त्सर्वाश्च यातुधान्योऽधराचीः परा सुव॥
असौ यस्ताम्रो अरुणऽ उत बभ्रुः सुमङ्गलः।
ये चैन रुद्राऽ अभितो दिक्षु श्रिताः सहस्रशोऽवैषा हेडऽ ईमहे॥
असौ योऽवसर्पति नीलग्रीवो विलोहितः।
उतैनं गोपाऽअदृश्रन्नदृश्रन्नुदहार्यः स दृष्टो मृडयाति नः॥
नमोऽस्तु नीलग्रीवाय सहस्राक्षाय मीढुषे।
अथो ये अस्य सत्वानोऽहं तेभ्योऽकरं नमः॥
प्रमुञ्च धन्वनस् त्वमुभयोरार्त् न्योर्ज्याम्।
याश्च ते हस्तऽइषवः परा ता भगवो वप॥
विज्यं धनुः कपर्दिनो विशल्यो बाणवाँ2 उत।
अनेशन्नस्य याऽ इषवऽआभुरस्य निषङ्गधिः॥
या ते हेतिर्मीढुष्टम हस्ते बभूव ते धनुः।
तयाऽस्मान् विश्वतस् त्वमयक्ष्मया परि भुज॥
परि ते धन्वनो हेतिरस्मान्वृणक्तु विश्वतः।
अथो यऽ इषुधिस्तवारे अस्मन्निधेहि तम्॥
अवतत्य धनुष्ट्व सहस्राक्ष शतेषुधे।
निशीर्य शल्यानां मुखा शिवो नः सुमना भव॥
नमस्तऽ आयुधायानातताय धृष्णवे।
उभाभ्यामुत ते नमो बाहुभ्यां तव धन्वने॥
मा नो महान्तमुत मा नो अर्भकं मा नऽउक्षन्तमुत मा नऽ उक्षितम्।
मा नो वधीः पितरं मोत मातरं मा नः प्रियास्तन्वो रुद्र रीरिषः॥
मा नस्तोके तनये मा नऽआयुषि मा नो गोषु मा नो अश्वेषु रीरिषः।
मा नो वीरान् रुद्र भामिनो वधीर्हविष्मन्तः सदमित् त्वा हवामहे॥
शुद्धोदकस्नानम् (शुद्धजल से स्नान) ::
ॐ शुद्धवालः सर्वशुद्धवालो मणिवालस्तऽआश्विनाः। श्येतः श्येताक्षोरुणस्ते रुद्राय पशुपतये कर्णा यामाऽअवलिप्ता रौद्रा नभोरूपाःपार्जन्याः॥
ॐ भगवते श्री साम्बसदाशिवाय नमः, शुद्धोदकस्नानं समर्पयामि।
भगवान् शिव को वस्त्र अर्पण ::
ॐ सुजातो ज्योतिषा सह शर्म वरूथमाऽसदत्स्वः।
वासो अग्ने विश्वरूपँ  सं व्ययस्व विभावसो॥
ॐ भगवते श्री साम्बसदाशिवाय नमः, वस्त्र समर्पयामि।
भगवान् शिव को जनेऊ-यज्ञोपवीत अर्पण :: 
ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रां प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः॥
ॐ भगवते श्री साम्बसदाशिवाय नमः,यज्ञोपवीत समर्पयामि।
एक आचमनीयम जलं समर्पयामि।
भगवान् शिव को भस्म और चन्दन अर्पण ::
ॐ त्वां गन्धर्वा अखनँस्त्वामिन्द्रस्त्वां बृहस्पतिः।
त्वामोषधे सोमो राजा विद्वान् यक्ष्मादमुच्यत॥
ॐ भगवते श्री साम्बसदाशिवाय नमः,चन्दनं समर्पयामि।
भगवान् शिव को अक्षत-चावल और सप्तधान अर्पण ::
ॐ अक्षन्नमीमदन्त ह्यव प्रिया अधूषत।
अस्तोषत स्वभानवो विप्रा नविष्ठया मती योजान्विन्द्र ते हरी॥
ॐ भगवते श्री साम्बसदाशिवाय नमः, अक्षतान समर्पयामि।
भगवान् शिव को पुष्प अर्पण ::
ॐ ओषधीः प्रति मोदध्वं पुष्पवतीः प्रसूवरीः।
अश्वा इव सजित्वरीर्वीरुधः पारयिष्णवः॥
ॐ भगवते श्री साम्भसदाशिवाय नमः, पुष्पं समर्पयामि।
भगवान् शिव को बेलपत्र अर्पण :: 
ॐ त्रिदलं त्रिगुणाकारं, त्रिनेत्रं च त्रिधायुधम्।
त्रिजन्मपाप संहारं, बिल्वपत्रं शिवार्पणम्॥
दर्शनं बिल्वपत्रस्य, स्पर्शनं पापनाशनम्।
अघोरपाप संहारं, बिल्वपत्रं शिवार्पणम्॥
ॐ भगवते श्री साम्बसदाशिवाय नमः, बिल्वपत्रं समर्पयामि।
ध्यान के बाद भगवान् शिव के आगे लिखे 108 नामों से शिवलिंग पर बिल्व पत्र चढ़ायें अथवा पुष्पाक्षत आदि से भगवान् शिव का पूजन करें, नमन करें। बिल्वपत्र अर्पण  साथ-साथ प्रत्येक नाम के साथ समर्पित करते चलें।
(1). ॐ शिवाय नमः, (2). ॐ महेश्वराय नमः, (3). ॐ शम्भवे नमः,
(4). ॐ पिनाकिने नमः, (5). ॐ शशिशेखराय नमः, (6). ॐ वामदेवाय नमः,
(7). ॐ विरूपाक्षाय नमः, (8). ॐ कपर्दिने नमः, (9). ॐ नीललोहिताय नमः,
(10). ॐ शङ्कराय नमः, (11). ॐ शूलपाणिने नमः, (12). ॐ खट्वाङ्गिने नमः,
(13). ॐ विष्णुवल्लभाय नमः, (14). ॐ शिपिविष्टाय नमः, 
(15). ॐ अम्बिकानाथाय नमः, (16). ॐ श्री कण्ठाय नमः,
(17). ॐ भक्तवत्सलाय नमः, (18). ॐ भवाय नमः, (19). ॐ शर्वाय नमः,
(20). ॐ त्रिलोकेशाय नमः, (21). ॐ शितिकण्ठाय नमः,
(22). ॐ शिवाप्रियाय नमः, (23). ॐ उग्राय नमः, (24). ॐ कपालिने नमः,
(25). ॐ कामारये नमः, (26). ॐ अन्धकासुर सूदनाय नमः,
(27). ॐ गङ्गाधराय नमः, (28). ॐ ललाटाक्षाय नमः,
(29). ॐ कालकालाय नमः, (30). ॐ कृपानिधये नमः, (31). ॐ भीमाय नमः
(32). ॐ परशुहस्ताय नमः, (33). ॐ मृगपाणये नमः, 
(34). ॐ जटाधराय नमः, (35). ॐ कैलासवासिने नमः,
(36). ॐ कवचिने नमः, (37). ॐ कठोराय नमः,
(38). ॐ त्रिपुरान्तकाय नमः, (39). ॐ वृषाङ्काय नमः,
(40). ॐ वृषभारूढाय नमः, (41). ॐ भस्मोद् धूलितविग्रहाय नमः,
(42). ॐ सामप्रियाय नमः, (43). ॐ स्वरमयाय नमः, (44). ॐ त्रयीमूर्तये नमः,
(45). ॐ अनीश्वराय नमः, (46). ॐ सर्वज्ञाय नमः, (47). ॐ परमात्मने नमः,
(48). ॐ सोमलोचनाय नमः, (49). ॐ सूर्यलोचनाय नमः, 
(50). ॐ अग्निलोचनाय नमः, (51). ॐ हविर्यज्ञमयाय नमः,
(52). ॐ सोमाय नमः, (53). ॐ पञ्चवक्त्राय नमः, (54). ॐ सदाशिवाय नमः,
(55). ॐ विश्वेश्वराय नमः, (56). ॐ वीरभद्राय नमः, (57). ॐ गणनाथाय नमः,
(58). ॐ प्रजापतये नमः, (59). ॐ हिरण्यरेतसे नमः, (60). ॐ दुर्धर्षाय नमः,
(61). ॐ गिरीशाय नमः, (62). ॐ गिरिशाय नमः, (63). ॐ अनघाय नमः,
(64). ॐ भुजङ्गभूषणाय नमः, (65). ॐ भर्गाय नमः, 
(66). ॐ गिरिधन्विने नमः, (67). ॐ गिरिप्रियाय नमः, 
(68). ॐ कृत्तिवाससे नमः, (69). ॐ पुरारातये नमः,
(70). ॐ भगवते नमः, (71). ॐ प्रमथाधिपाय नमः, (72). ॐ मृत्युञ्जयाय नमः,
(73). ॐ सूक्ष्मतनवे नमः, (74). ॐ जगद्व्यापिने नमः, (75). ॐ जगद्गुरवे नमः,
(76). ॐ व्योमकेशाय नमः, (77). ॐ महासेन जनकाय नमः,
(78). ॐ चारुविक्रमाय नमः, (79). ॐ रुद्राय नमः, (80). ॐ भूतपतये नमः,
(81). ॐ स्थाणवे नमः, (82). ॐ अहिर्बुध्न्याय नमः, (83). ॐ दिगम्बराय नमः,
(84). ॐ अष्टमूर्तये नमः, (85). ॐ अनेकात्मने नमः,
(86). ॐ सात्त्विकाय नमः, (87). ॐ शुद्धविग्रहाय नमः, 
(88). ॐ शाश्वताय नमः, (89). ॐ खण्डपरशवे नमः,
(90). ॐ अजपाश विमोचकाय नमः, (91). ॐ मृडाय नमः,
(92). ॐ पशुपतये नमः, (93). ॐ देवाय नमः, (94). ॐ महादेवाय नमः,
(95). ॐ अव्ययाय नमः, (96). ॐ प्रभवे नमः, (97). ॐ पूषदन्तभिदे नमः,
(98). ॐ अव्यग्राय नमः, (99). ॐ दक्षाध्वर हराय नमः, 
(100). ॐ हराय नमः, (101). ॐ भगनेत्रभिदे नमः,
(102). ॐ अव्यक्ताय नमः, (103). ॐ सहस्राक्षाय नमः,
(104). ॐ सहस्रपदे नमः, (105). ॐ अपवर्गप्रदाय नमः,
(106). ॐ अनन्ताय नमः, (107). ॐ तारकाय नमः,
(108). ॐ परमेश्वराय नमः।
भगवान् शिव जी  दुर्वा अर्पण (दूर्वाङ्कुरम्) ::
ॐ काण्डात् काण्डात् प्ररोहन्ती परुषः परुषस्परि।
एवा नो दूर्वे प्र तनु सहस्रेण शतेन च॥
ॐ भगवते श्री साम्बसदाशिवाय नमः, दूर्वांकुरम् समर्पयामि।
यदि पूजन में शमी पत्र, भाँग, धतूरा-मदार, इत्र आदि चढ़ाना हो तो दूर्वांकुरम् के पश्चात् त्र्यम्बकम् यजामहे ... मन्त्र बोलकर समर्पित कर दें।
भगवान् शिव को अबीर, गुलाल, कुमकुम अर्पण (सौभाग्य द्रव्याणि) :: 
ॐ अहिरिव भोगैः पर्येति बाहुं ज्याया हेतिं परिबाधमानः।
हस्तघ्नो विश्वा वयुनानि विद्वान् पुमान् पुमा सं परि पातु विश्वतः॥
ॐ भगवते श्री साम्बसदाशिवाय नमः, सौभाग्य द्रव्याणि समर्पयामि।
भगवान् शिव को इत्र-सुगन्ध अर्पित करें। 
भगवान् शिव और माता गौरी को श्रंगार अर्पित करें।  
भगवान् शिव को धूप अर्पण (धूपम्) ::
ॐ ब्राह्मणोस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्या शूद्रोअजायत॥
ॐ भगवते श्री साम्बसदाशिवाय नमः, धूपं आघ्रापयामि।
भगवान् शिव की दीपक से संक्षेप आरती (दीपम्) :-
ॐ चन्द्रमा मनसो जातः चक्षोः सूर्यो अजायत।
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत॥
ॐ भगवते श्री साम्बसदाशिवाय नमः, दीपं दर्शयामि।
भगवान् शिव को प्रसाद (नैवेद्यम्) अर्पित करें :-
ॐ नाभ्याऽ आसीदन्तरिक्ष शीर्ष्णो द्यौः समवर्त्तत।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात् तथा लोकाँ2अकल्पयन्॥
ॐ भगवते श्री साम्बसदाशिवाय नमः, नैवेद्यं निवेदयामि।
भगवान् शिव को फल (ऋतुफलम्) अर्पित करें :-
ॐ याः फलिनीर्याऽ अफलाऽ अपुष्पा याश्च पुष्पिणीः।
बृहस्पतिप्रसूतास्ता नो मुञ्चन्त्व हसः॥
ॐ भगवते श्री साम्बसदाशिवाय नमः, ऋतुफलं समर्पयामि।
भगवान् शिव को पान (ताम्बूलपूगीफलानि) अर्पित करें :-
ॐ यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत।
वसन्तोस्यासीदाज्यं ग्रीष्म ऽ इध्मः शरद्धविः॥
ॐ भगवते श्री साम्बसदाशिवाय नमः, ताम्बूलपूगीफलानि समर्पयामि।
भगवान् शिव को दक्षिणा अर्पित करें :-
ॐ सप्तास्यासन् परिधयः त्रिः सप्त समिधः कृताः। प्त समिधः कृताः।
देवा यद्यज्ञं तन्वानाऽ अबध्नन् पुरुषं पशुम्॥
ॐ भगवते श्री साम्बसदाशिवाय नमः, दक्षिणां समर्पयामि।
भगवान् शिव की आरती ::
ॐ जय शिव ओङ्कारा, भज शिव ओङ्कारा।
ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव, अर्द्धांगी धारा॥
ॐ हर हर महादेव...
एकानन चतुरानन पञ्चानन राजे।
हंसासन, गरुडासन, वृषवाहन साजे॥
ॐ हर हर महादेव...
दो भुज चार चतुर्भुज, दशभुज अति सोहे।
तीनों रूप निरखते, त्रिभुवन जन मोहे॥
ॐ हर हर महादेव...
अक्षमाला वनमाला, मुण्डमाला धारी।
चन्दन मृगमद् चन्दे, भोले शुभकारी॥
ॐ हर हर महादेव...
श्वेताम्बर पीताम्बर, बाघाम्बर अङ्गे।
सनकादिक देवादिक, भूतादिक सङ्गे॥
ॐ हर हर महादेव...
कर मध्ये कमण्डलु, चक्र त्रिशूल धर्त्ता।
सुखकारी दुखहारी जग भूतादिक संगे॥
ॐ हर हर महादेव...
ब्रह्मा विष्णु सदाशिव, जानत अविवेका।
प्रणवाक्षर में शोभित, ये तीनों एका॥
ॐ हर हर महादेव...
त्रिगुण स्वामी की आरती, जो कोई नर गावे।
भजत शिवानन्द स्वामी मनवांच्छित फल पावे॥
ॐ हर हर महादेव....
क्षमा प्रार्थना ::
ॐ आवाहनं न जानामि, नैव जानामि पूजनम्।
विसर्जनं न जानामि, क्षमस्व परमेश्वर॥
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं, भक्तिहीनं सुरेश्वर।
यत्पूजितं मया देव! परिपूर्णं तदस्तु मे॥
अनेन कृतेन श्रीशिवाभिषेक कर्मणा। 
श्रीभवानी शङ्करमहारुद्रः प्रीयताम् न मम॥
सबके कल्याण हेतु शुभकामना करें :-
ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःखमाप्नुयात्॥
श्रद्धां मेधां यशः प्रज्ञां, विद्यां पुष्टिं श्रियं बलम्।
तेज आयुष्यमारोग्यं, देहि मे हव्यवाहन॥
शान्ति-अभिषिञ्चनम् ::
ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्मशान्तिःसर्व शान्तिः, शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः। सर्वारिष्टसुशान्तिर्भवतु।
यदि प्रतिष्ठित शिवलिंग न हो तो धातु, पत्थर या मिट्टी आदि की प्रतिमा बनाकर प्राण प्रतिष्ठा हेतु स्वस्तिवाचन के पश्चात् दायें हाथ में पुष्प लेकर शिवलिंग (गणेश, पार्वती हों तो उनका भी) स्पर्श करें।
ॐ मनो जूतिर्जुषतामाज्यस्य बृहस्पतिर्यज्ञमिमं तनोत्वरिष्टं यज्ञ समिमं दधातु।
विश्वेदेवास ऽ इह मादयन्तामो3म्प्रतिष्ठ॥
ॐ अस्यै प्राणाः प्रतिष्ठन्तु, अस्यै प्राणाः क्षरन्तु च।
अस्यै देवत्वमर्चायै, मामहेति च कश्चन॥
पूजन की समाप्ति पर विसर्जन कर दें।
विसर्जनम् ::
ॐ यान्तु देवगणाः सर्वे, पूजामादाय मामकीम्।
इष्टकाम समृद्ध्यर्थं, पुनरागमनाय च॥
बेल पत्र ::  
बिल्व-पत्र एक पेड़ की पत्तियाँ हैं, जिसके पत्ते तीन-तीन के समूह में मिलते हैं। कुछ पत्तियाँ चार या पाँच के समूह में भी होती हैं। चार या पाँच के समूह वाली पत्तियाँ बड़ी दुर्लभ होती हैं। बेल के पेड़-वृक्ष पेड को बिल्व भी कहते हैं। बिल्व के पेड़ का विशेष धार्मिक महत्व हैं। बेल के पेड़ को पानी या गंगाजल से सींचने से समस्त तीर्थो का फल प्राप्त होता हैं एवं भक्त को शिवलोक की प्राप्ति होती हैं। बेल कि पत्तियों में औषधि गुण भी होते हैं। जिसके उचित औषधीय प्रयोग से कई रोग दूर हो जाते हैं। बिल्व का वृक्ष भगवान् शिव का ही रूप है। बिल्व-वृक्ष के मूल अर्थात उसकी जड़ में शिवलिंग स्वरूपी भगवान् शिव का वास होता हैं। 
पूजन में इसकी मूल यानी जड़ को सींचा जाता हैं।
बिल्वमूले महादेवं लिंगरूपिणमव्ययम्। 
य: पूजयति पुण्यात्मा स शिवं प्राप्नुयाद्॥
बिल्वमूले जलैर्यस्तु मूर्धानमभिषिञ्चति। 
स सर्वतीर्थस्नात: स्यात्स एव भुवि पावन:॥
बिल्व के मूल में लिंग रूपी अविनाशी महादेव का पूजन जो पुण्यात्मा व्यक्ति करता है, उसका कल्याण होता है। जो व्यक्ति भगवान् शिव के ऊपर बिल्व मूल में जल चढ़ाता है उसे सब तीर्थो में स्नान का फल मिल जाता है।
बिल्व पत्र तोड़ने का मंत्र :- बेल के पत्ते तोड़ने से पहले निम्न मंत्र का उच्चारण करना चाहिए :-
अमृतोद्भव श्रीवृक्ष महादेवप्रियःसदा।
गृह्यामि तव पत्राणि शिवपूजार्थमादरात्॥
अमृत से उत्पन्न सौंदर्य व ऐश्वर्यपूर्ण वृक्ष महादेव को हमेशा प्रिय है।भगवान् शिव की पूजा के लिए हे वृक्ष में तुम्हारे पत्र तोड़ता हूँ।
बिल्व की पत्तियाँ विशेष दिन या विशेष पर्वो के अवसर पर तोड़ना निषेध हैं।
अमारिक्तासु संक्रान्त्यामष्टम्यामिन्दुवासरे।
बिल्वपत्रं न च छिन्द्याच्छिन्द्याच्चेन्नरकं व्रजेत॥
अमावस्या, संक्रान्ति के समय, चतुर्थी, अष्टमी, नवमी और चतुर्दशी तिथियों तथा सोमवार के दिन बिल्व-पत्र तोड़ना वर्जित है।
बिल्व-पत्र तोड़कर चढ़ाने से मना किया गया हैं तो यह भी कहा गया है कि इन दिनों में चढ़ाया गया बिल्व-पत्र धोकर पुन: चढ़ा सकते हैं।
अर्पितान्यपि बिल्वानि प्रक्षाल्यापि पुन: पुन:।
शंकरायार्पणीयानि न नवानि यदि चित्॥
भावार्थ: अगर भगवान शिव को अर्पित करने के लिए नूतन बिल्व-पत्र न हो तो चढ़ाए गए पत्तों को बार-बार धोकर चढ़ा सकते हैं।
बेल पत्र चढाने का मंत्र :- श्रावण मास में भगवान् शिव को विल्वपत्र अर्पित करने से मनुष्य के समस्त कार्य, उद्योग  व मनोकामना सिद्ध होती हैं।
त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रिधायुतम्।
त्रिजन्मपापसंहार, विल्वपत्रं शिवार्पणम्
तीन गुण, तीन नेत्र, त्रिशूल धारण करने वाले और तीन जन्मों के पाप को संहार करने वाले हे भगवान् शिव आपको त्रिदल बिल्व पत्र अर्पित करता हूँ।भगवान् शिव को बिल्व-पत्र चढ़ाने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।
श्रीशिवपञ्चाक्षरस्तोत्रम् ::
नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय भस्माङ्गरागाय महेश्वराय। 
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय तस्मै न काराय नमः शिवाय॥1॥ 
मन्दाकिनीसलिलचन्दनचर्चिताय नन्दीश्वरप्रमञ्चनाथमहेश्वराय। 
मन्दारपुष्पबहुपुष्पसुपूजिताय तस्मै म काराय नमः शिवाय॥2॥
शिवाय गौरीबदनाब्जवृन्द सूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय।
श्रीनीलकण्ठाय वृषध्वजाय तस्मै शि काराय नमः शिवाय॥3॥
वसिष्ठकुम्भोद्भवगौतमार्य मुनीन्द्रदेवाचितशेखराय।
चन्द्रार्कवैश्वानरलोचनाय तस्मै व काराय नमः शिवाय॥4॥
यक्षस्वरूपाय जटाधराय पिनाकहस्ताय सनातनाय।
दिव्याय देवाय दिगम्बराय तस्मै य काराय नमः शिवाय॥5॥
पञ्चाक्षरमिदं पुण्यं य: पठेच्छिवसन्निधौ। 
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते॥6॥
इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितं शिवपञ्चाक्षरस्तोत्रं सम्पूर्णम्।
 शिव संकल्प मंत्र ::
ओं यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति।
दूरन्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु
[युजुर्वेद 34.1]
येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः।
यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु
[युजुर्वेद 34.2]
यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्जोतिरन्तरमृतं प्रजासु।
यस्मान्न ऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु
[युजुर्वेद 34.3]
येनेदम्भूतं भुवनम्भविष्यत् परिगृहीतममृतेन सर्वम्।
येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु
[युजुर्वेद 34.4]
यस्मिन्नृचः साम यजूंषि यस्मिन् प्रतिष्ठता रथनाभाविवाराः।
यस्मिँश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु
[युजुर्वेद 34.5]
सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान् नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिनऽइव।
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु
[युजुर्वेद 34.6]
भगवान् भोलेनाथ ::
माता पार्वती  के पति भगवान् शिव को शंकर, महादेव, भोलेनाथ आदि नामों जाता है। भगवान् शिव महाकाल हैं। उनकी आयु 4 परार्ध है। इस काल में 2 बार भगवान् श्री हरी विष्णु और 4 बार ब्रह्मा जी का अवतरण होता है।
(1). आदिदेव महादेव :- उनसे से भगवान् श्री हरी विष्णु का प्रादुर्भाव स्वर्ण-हिरण्य अण्ड से होता है। तत्पश्चाहत उनके नाभि कमल से ब्रह्मा प्रकट होते है। ब्रह्मा जी के मस्तिष्क से स्वयं शम्भू-महेश प्रकट होते हैं। वही आदिदेव आदिश हैं।
(2). भगवान् शिव के अस्त्र-शस्त्र :- शिव का धनुष पिनाक, चक्र भवरेंदु और सुदर्शन, अस्त्र पाशुपतास्त्र और शस्त्र त्रिशूल है। उक्त सभी का उन्होंने ही निर्माण किया था।
(3). भगवान् शिव का नाग :- नागराज वासुकी भगवान् शिव के गले  आभूषण हैं। भगवान् शेष नाग उनके बड़े भाई हैं।
(4). भगवान् शिव की अर्द्धांगिनी :- माता पार्वती उनकी पत्नी हैं। वही पूर्वजन्म में माता सती थीं। वही उमा, उर्मि, काली कही गई हैं। भोलेनाथ के गले में जो 108 नरमुण्ड हैं वे उनकी पूर्व पत्नियों के हैं। 
(5). भगवान् शिव के पुत्र :- गणपति महाराज, भगवान् कार्तिकेय, मङ्गल-भौम, सुकेश, जलंधर, अयप्पा और भूमा।
(6). भगवान् शिव के शिष्य :- शिव के 7 शिष्य हैं, जिन्हें प्रारंभिक सप्तऋषि माना गया है। इन ऋषियों ने ही शिव के ज्ञान को संपूर्ण धरती पर प्रचारित किया जिसके चलते भिन्न-भिन्न धर्म और संस्कृतियों की उत्पत्ति हुई। शिव ने ही गुरु और शिष्य परंपरा की शुरुआत की थी। बृहस्पति, विशालाक्ष, शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज। इसके अलावा 8वें गौरशिरस मुनि भी थे।
(7). भगवान् शिव के गण :- शिव के गणों में भैरव, वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, जय और विजय प्रमुख हैं। इसके अलावा, पिशाच, दैत्य और नाग-नागिन, पशुओं को भी शिव का गण माना जाता है। नंदी महाराज ने ही कामशास्त्र की रचना की थी। कामशास्त्र के आधार पर ही कामसूत्र लिखा गया।
(8). भगवान् शिव की पंचायत :- भगवान सूर्य, गणपति, देवी, रुद्र और विष्णु ये शिव पंचायत कहलाते हैं।
(9). भगवान् शिव के द्वारपाल :- नंदी, स्कंद, रिटी, वृषभ, भृंगी, गणेश, उमा-महेश्वर और महाकाल।
(10). भगवान् शिव के पार्षद :- जिस तरह जय और विजय विष्णु के पार्षद हैं, उसी तरह बाण, रावण, चंड, नंदी, भृंगी आदि शिव के पार्षद हैं।
(11). भगवान् शिव का परिवार :- शिवपुत्र कार्तिकेय का वाहन मयूर है, जबकि शिव के गले में वासुकि नाग है। स्वभाव से मयूर और नाग आपस में दुश्मन हैं। इधर गणपति का वाहन चूहा है, जबकि साँप मूषक भक्षी जीव है। माता पार्वती का वाहन शेर है, लेकिन शिवजी का वाहन तो नंदी बैल है।
(12). भगवान् शिव के प्रतीक-चिह्न :- वनवासी से लेकर सभी साधारण व्‍यक्ति जिस चिह्न की पूजा कर सकें, उस पत्‍थर के ढेले, बटिया को शिव का चिह्न माना जाता है। इसके अलावा रुद्राक्ष और त्रिशूल को भी शिव का चिह्न माना गया है। कुछ लोग डमरू और अर्द्ध चन्द्र को भी शिव का चिह्न मानते हैं, हालांकि ज्यादातर लोग शिवलिंग अर्थात शिव की ज्योति का पूजन करते हैं।
(13). देवता और असुर दोनों के प्रिय भगवान् शिव :- भगवान् शिव को देवों के साथ असुर, दानव, राक्षस, पिशाच, गंधर्व, यक्ष आदि सभी पूजते हैं। वे रावण को भी वरदान देते हैं और राम को भी। उन्होंने भस्मासुर, शुक्राचार्य आदि कई असुरों को वरदान दिया था। 
(14). भगवान् शिव के अवतार :- वीरभद्र, पिप्पलाद, नंदी, भैरव, महेश, अश्वत्थामा, शरभावतार, गृहपति, दुर्वासा, हनुमान, वृषभ, यतिनाथ, कृष्णदर्शन, अवधूत, भिक्षुवर्य, सुरेश्वर, किरात, सुनटनर्तक, ब्रह्मचारी, यक्ष, वैश्यानाथ, द्विजेश्वर, हंसरूप, द्विज, नतेश्वर आदि हुए हैं। वेदों में रुद्रों का जिक्र है। रुद्र 11 बताए जाते हैं- कपाली, पिंगल, भीम, विरुपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, आपिर्बुध्य, शंभू, चण्ड तथा भव।
(15). भगवान् शिव की गुफा :- शिव ने भस्मासुर से बचने के लिए एक पहाड़ी में अपने त्रिशूल से एक गुफा बनाई और वे फिर उसी गुफा में छिप गए। वह गुफा जम्मू से 150 किलोमीटर दूर त्रिकूटा की पहाड़ियों पर है। दूसरी ओर भगवान् शिव ने जहाँ पार्वती को अमृत ज्ञान दिया था वह अमरनाथ के नाम से प्रसिद्ध है।
(16). भगवान् शिव के पैरों के निशान :: 
श्रीपद :- श्रीलंका में रतन द्वीप पहाड़ की चोटी पर स्थित श्रीपद नामक मंदिर में शिव के पैरों के निशान हैं। ये पदचिह्न 5 फुट 7 इंच लंबे और 2 फुट 6 इंच चौड़े हैं। इस स्थान को सिवानोलीपदम कहते हैं। कुछ लोग इसे आदम पीक कहते हैं।
रुद्र पद :- तमिलनाडु के नागपट्टीनम जिले के थिरुवेंगडू क्षेत्र में श्रीस्वेदारण्येश्‍वर का मंदिर में शिव के पदचिह्न हैं जिसे 'रुद्र पदम' कहा जाता है। इसके अलावा थिरुवन्नामलाई में भी एक स्थान पर शिव के पदचिह्न हैं।
तेजपुर :- असम के तेजपुर में ब्रह्मपुत्र नदी के पास स्थित रुद्रपद मंदिर में शिव के दाएं पैर का निशान है।
जागेश्वर :- उत्तराखंड के अल्मोड़ा से 36 किलोमीटर दूर जागेश्वर मंदिर की पहाड़ी से लगभग साढ़े 4 किलोमीटर दूर जंगल में भीम के मंदिर के पास शिव के पदचिह्न हैं। पांडवों को दर्शन देने से बचने के लिए उन्होंने अपना एक पैर यहाँ और दूसरा कैलाश में रखा था।
रांची :- झारखंड के रांची रेलवे स्टेशन से 7 किलोमीटर की दूरी पर 'रांची हिल' पर शिवजी के पैरों के निशान हैं। इस स्थान को 'पहाड़ी बाबा मंदिर' कहा जाता है।
(17). शिव निवास :: ति‍ब्बत स्थित कैलाश पर्वत पर उनका निवास है। जहाँ पर शिव विराजमान है।
(18). भगवान् शिव के भक्त :- मनुष्य, देव-दानव, सुर-असुर सभी उनके  भक्त हैं। ब्रह्मा, विष्णु और सभी देवी-देवताओं सहित भगवान् श्री राम और कृष्ण भी शिव भक्त है। हरिवंश पुराण के अनुसार, कैलाश पर्वत पर कृष्ण ने शिव को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की थी। भगवान् श्री राम ने रामेश्वरम में शिवलिंग स्थापित कर उनकी पूजा-अर्चना की थी।
(19). भगवान् शिव का ध्यान :- शिव की भक्ति हेतु शिव का ध्यान-पूजन किया जाता है। शिवलिंग को बिल्वपत्र चढ़ाकर शिवलिंग के समीप मंत्र जाप या ध्यान करने से मोक्ष का मार्ग पुष्ट होता है।
(20). शिव मंत्र :- (1). ॐ नम: शिवाय। (2). महामृत्युंजय मंत्र- ॐ ह्रौं जू सः। ॐ भूः भुवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ। सः जू ह्रौं ॐ। 
(21). भगवान् शिव के निमित्त व्रत और त्योहार :- सोमवार, प्रदोष और श्रावण मास में शिव व्रत रखे जाते हैं। शिवरात्रि और महाशिवरात्रि शिव का प्रमुख पर्व त्योहार है।
(22). शिव भक्त :- भगवान् शंकर की परंपरा को उनके शिष्यों बृहस्पति, विशालाक्ष (शिव), शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज, अगस्त्य मुनि, गौरशिरस मुनि, नंदी, कार्तिकेय, भैरवनाथ आदि ने आगे बढ़ाया। इसके अलावा वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, बाण, रावण, जय और विजय ने भी शैवपंथ का प्रचार किया। इस परंपरा में सबसे बड़ा नाम आदिगुरु भगवान दत्तात्रेय का आता है। दत्तात्रेय के बाद आदि शंकराचार्य, मत्स्येन्द्रनाथ और गुरु गुरुगोरखनाथ का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।
(23). शिव महिमा :- शिव ने कालकूट नामक विष पिया था जो अमृत मंथन के दौरान निकला था। शिव ने भस्मासुर जैसे कई असुरों को वरदान दिया था। शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया था। शिव ने गणेश और राजा दक्ष के सिर को जोड़ दिया था। ब्रह्मा द्वारा छल किए जाने पर शिव ने ब्रह्मा का पांचवां सिर काट दिया था।
(24). शैव परम्परा :-  दसनामी, शाक्त, सिद्ध, दिगंबर, नाथ, लिंगायत, तमिल शैव, कालमुख शैव, कश्मीरी शैव, वीरशैव, नाग, लकुलीश, पाशुपत, कापालिक, कालदमन और महेश्वर सभी शैव परंपरा से हैं। चंद्रवंशी, सूर्यवंशी, अग्निवंशी और नागवंशी भी शिव की परंपरा से ही माने जाते हैं। भारत की असुर, रक्ष और आदिवासी जाति के आराध्य देव शिव ही हैं। शैव धर्म भारत के आदिवासियों का धर्म है।
(25). भगवान् शिव के प्रमुख नाम :- शिव के वैसे तो अनेक नाम हैं जिनमें 108 नामों का उल्लेख पुराणों में मिलता है लेकिन यहां प्रचलित नाम जानें- महेश, नीलकंठ, महादेव, महाकाल, शंकर, पशुपतिनाथ, गंगाधर, नटराज, त्रिनेत्र, भोलेनाथ, आदिदेव, आदिनाथ, त्रियंबक, त्रिलोकेश, जटाशंकर, जगदीश, प्रलयंकर, विश्वनाथ, विश्वेश्वर, हर, शिवशंभु, भूतनाथ और रुद्र।
(26). अमरनाथ के अमृत वचन :-  शिव ने अपनी अर्धांगिनी पार्वती को मोक्ष हेतु अमरनाथ की गुफा में जो ज्ञान दिया उस ज्ञान की आज अनेकानेक शाखाएं हो चली हैं। वह ज्ञानयोग और तंत्र के मूल सूत्रों में शामिल है। विज्ञान भैरव तंत्र एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें भगवान् शिव द्वारा माता पार्वती को बताए गए 112 ध्यान सूत्रों का संकलन है।
(27). शिव ग्रंथ :- वेद और उपनिषद सहित विज्ञान भैरव तंत्र, शिव पुराण और शिव संहिता में शिव की संपूर्ण शिक्षा और दीक्षा समाई हुई है। तंत्र के अनेक ग्रंथों में उनकी शिक्षा का विस्तार हुआ है।
(28). शिवलिंग :- वायु पुराण के अनुसार प्रलयकाल में समस्त सृष्टि जिसमें लीन हो जाती है और पुन: सृष्टिकाल में जिससे प्रकट होती है, उसे लिंग कहते हैं। इस प्रकार विश्व की संपूर्ण ऊर्जा ही लिंग की प्रतीक है। वस्तुत: यह संपूर्ण सृष्टि बिंदु-नाद स्वरूप है। बिंदु शक्ति है और नाद शिव। बिंदु अर्थात ऊर्जा और नाद अर्थात ध्वनि। यही दो संपूर्ण ब्रह्मांड का आधार है। इसी कारण प्रतीक स्वरूप शिवलिंग की पूजा-अर्चना है।
(29). बारह ज्योतिर्लिंग :- सोमनाथ, मल्लिकार्जुन, महाकालेश्वर, ॐकारेश्वर, वैद्यनाथ, भीमशंकर, रामेश्वर, नागेश्वर, विश्वनाथजी, त्र्यम्बकेश्वर, केदारनाथ, घृष्णेश्वर। ज्योतिर्लिंग यानी व्यापक ब्रह्मात्मलिंग जिसका अर्थ है व्यापक प्रकाश। जो शिवलिंग के बारह खंड हैं। शिवपुराण के अनुसार ब्रह्म, माया, जीव, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी को ज्योतिर्लिंग या ज्योति पिंड कहा गया है। 
विष्णुप्रोक्त शिव सहस्रनाम स्तोत्रम :: ऋषियों ने कहा, हे सूतजी! भगवान् विष्णु ने देवाधि देव महेश्वर से सुदर्शन चक्र कैसे प्राप्त किया बताने की कृपा करें। इस पर श्री सूतजी ने कहा, हे ऋषियों जब देव, दानव के मध्य भयंकर व विनाशकारी युद्ध हुआ तो दानवों के भय से देव भाग खड़े हुए और भगवान् श्री हरी विष्णु की शरण में जाकर याचना की। तब श्री हरी विष्णु ने कहा, देवों! मैं असुरों का मारकर आप सभी का उद्धार करूँगा। श्री सूत जी ने कहा,  हे ऋषियों! देवताओं से इस प्रकार कह कर श्री हरि ने विश्वकर्मा द्वारा निर्मित शिवलिंग को हिमालय के शिखर पर स्थापित कर त्वरित रुद्र तथा रुद्र सूक्त द्वारा अभिषेक और पूजन कर प्रारम्भ में भव नाम वाले शिव सहस्र नाम स्तोत्र के प्रत्येक नाम का कमल पुष्प पूजन कर तथा प्रत्येक नाम का दस हजार आहुति देकर पुनः शिव सहस्रनाम स्तोत्रम का पाठ किया।[लिङ्गपुराण, पूर्व भाग, अध्याय 98] 
भगवान् श्री विष्णु ने कहा कि जो मेरे द्वारा कहे इस शिव सहस्रनाम स्तोत्रम को पढ़ता, सुनता या सुनाता है, वह प्रत्येक नाम के उच्चारण पर सुवर्ण के दान का फल प्राप्त करता है और उसे हजार अश्वमेध यज्ञ करने का फल प्राप्त होता है। जो घृत से शिव सहस्रनाम स्तोत्रम को पढ़ते हुए भगवान् शिव को स्नान कराता है वह हजार यज्ञों के फल प्राप्त करते हुए देवों द्वारा पूजित हो कर शिव लोक को जाता है और इह लोक में सम्पूर्ण सुखों को भोगता है।
अथ भगवान विष्णुप्रोक्त शिव सहस्रनाम स्तोत्रम (लिङ्गपुराणान्तर्गत) :-
ऋषय ऊचुः :-
कथं देवेन वै सूत देवदेवान्महेश्वरात।
सुदर्शनाख्यं वै लब्धं वक्तुमर्हसि विष्णुना॥1॥
सूत उवाच :-
देवानामसुरेन्द्राणामभवच्च सुदारुणः।
सर्वेषामेव भूतानां विनाशकरणो महान॥2॥
ते देवाः शक्तिमुशलैः सायकैर्नतपर्वभिः।
प्रभिद्यमानाः कुन्तैश्च दुद्रुवुर्भयविह्वलाः॥3॥
पराजितास्तदा देवा देवदेवेश्वरं हरिम।
प्रणेमुस्तं सुरेशानं शोकसंविग्नमानसाः॥4॥
तान समीश्याथ भगवान्देवदेवेश्वरो हरिः।
प्रणिपत्य स्थितान्देवानिदं वचनमब्रवीत॥5॥
वत्साः किमिति वै देवाश्च्युतालङ्कारविक्रमाः॥6॥
समागताः ससंतापा वक्तुमर्हथ सुव्रताः।
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा तथाभूताः सुरोत्तमाः।
प्रणम्याहुर्यथावृत्तं देवदेवाय विष्णवे॥7॥
भगवन्देवदेवेश विष्णो जिष्णो जनार्दन।
दानवैः पीडिताः सर्वे वयं शरणमागताः॥8॥
त्वमेव देवदेवेश गतिर्नः पुरुषोत्तम।
त्वमेव परमात्मा हि त्वं पिता जगतामपि॥9॥
त्वमेव भर्ता हर्ता च भोक्ता दाता जनार्दन।
हन्तुमर्हसि तस्मात्त्वं दानवान्दानवार्दन॥10॥
दैत्याश्च वैष्णवैर्ब्राह्मै रौद्रैर्याम्यैः सुदारुणैः।
कौबेरैश्चैव सौम्यैश्च नैरृत्यैर्वारुणैर्दृढैः॥11॥
वायव्यैश्च तथाग्नेयैरैशानैर्वार्षिकैः शुभैः।
सौरै रौद्रैस्तथा भीमैः कम्पनैर्जृम्भणैर्दृढैः॥12॥
अवध्या वरलाभात्ते सर्वे वारिजलोचन।
सूर्यमण्डलसम्भूतं त्वदीयं चक्रमुद्यतम॥13॥
कुण्ठितं हि दधीचेन च्यावनेन जगद्गुरो।
दण्डं शार्ङ्गं तवास्त्रं च लब्धं दैत्यैः प्रसादतः॥14॥
पुरा जलन्धरं हन्तुं निर्मितं त्रिपुरारिणा।
रथाङ्गं सुशितं घोरं तेन तान हन्तुमर्हसि॥15॥
तस्मात्तेन निहन्तव्या नान्यैः शस्त्रशतैरपि।
ततो निशम्य तेषां वै वचनं वारिजेशणः॥16॥
श्रीविष्णुरुवाच :-
वाचस्पतिमुखानाह स हरिश्चक्रभृत्स्वयम।
भोभो देवा महादेवं सर्वैर्देवैः सनातनैः॥17॥
सम्प्राप्य साम्प्रतं सर्वं करिष्यामि दिवौकसाम।
देवा जलंधरं हन्तुं निर्मितं हि पुरारिणा॥18॥
लब्ध्वा रथाङ्गं तेनैव निहत्य च महासुरान।
सर्वान्धुन्धुमुखान्दैत्यानष्टषष्टिशतान्सुरान॥19॥
सूत उवाच :-
सबान्धवान्शणादेव युष्मान संतारयाम्यहम।
एवमुक्त्वा सुरश्रेष्ठान सुरश्रेष्ठमनुस्मरन॥20॥
सुरश्रेष्ठस्तदा श्रेष्ठं पूजयामास शङ्करम।
लिङ्गं स्थाप्य यथान्यायं हिमवच्छिखरे शुभे॥21॥
मेरुपर्वतसंकाशं निर्मितं विश्वकर्मणा।
त्वरिताख्येन रुद्रेण रौद्रेण च जनार्दनः॥22॥
स्नाप्य सम्पूज्य गन्धाद्यैर्ज्वालाकारं मनोरमम।
तुष्टाव च तदा रुद्रं सम्पूज्याग्नौ प्रणम्य च॥23॥
देवं नाम्नां सहस्रेण भवाद्येन यथाक्रमम।
पूजयामास च शिवं प्रणवाद्यं नमोन्तकम॥24॥
देवं नाम्नां सहस्रेण भवाद्येन महेश्वरम।
प्रतिनाम सपद्मेन पूजयामास शङ्करम॥25॥
अग्नौ च नामभिर्देवं भवाद्यैः समिदादिभिः।
स्वाहान्तैर्विधिवद्धुत्वा प्रत्येकमयुतं प्रभुम॥26॥
तुष्टाव च पुनः शम्भुं भवाद्यैर्भवमीश्वरम।
भवः शिवो हरो रुद्रः पुरुषः पद्मलोचनः॥27॥
भगवान् विष्णुप्रोक्त शिव सहस्रनाम स्तोत्रम (लिङ्गपुराणान्तर्गत) मूलपाठ :- 
श्री विष्णुरुवाच :-
अर्थितव्यः सदाचारः सर्वशम्भुर्महेश्वरः।
ईश्वरः स्थाणुरीशानः सहस्राशः सहस्रपात॥28॥
वरीयान वरदो वन्द्यः शङ्करः परमेश्वरः।
गङ्गाधरः शूलधरः परार्थैकप्रयोजनः॥29॥
सर्वघ्य़ः सर्वदेवादिगिरिधन्वा जटाधरः।
चन्द्रापीडश्चन्द्रमौलिर्विद्वान्विश्वामरेश्वरः॥30॥
वेदान्तसारसन्दोहः कपाली नीललोहितः।
ध्यानाधारो.अपरिच्छेद्यो गौरीभर्ता गणेश्वरः॥31॥
अष्टमूर्तिर्विश्वमूर्तिस्त्रिवर्गः स्वर्गसाधनः।
घ्य़ानगम्यो दृढप्रघ्य़ो देवदेवस्त्रिलोचनः॥32॥
वामदेवो महादेवः पाण्डुः परिदृढो दृढः।
विश्वरूपो विरूपाक्शो वागीशः शुचिरन्तरः॥33॥
सर्वप्रणयसंवादीवृषाङ्को वृषवाहनः।
ईशः पिनाकी खट्वाङ्गी चित्रवेषश्चिरन्तनः॥34॥
तमोहरो महायोगी गोप्ता ब्रह्माङ्गहृज्जटी।
कालकालः कृत्तिवासाः सुभगः प्रणवात्मकः॥35॥
उन्मत्तवेषश्चक्शुष्योदुर्वासाः स्मरशासनः।
दृढायुधः स्कन्दगुरुः परमेष्ठी परायणः॥36॥
अनादिमध्यनिधनो गिरिशो गिरिबान्धवः।
कुबेरबन्धुः श्रीकण्ठो लोकवर्णोत्तमोत्तमः॥37॥
सामान्यदेवः कोदण्डी नीलकण्ठः परश्वधी।
विशालाक्शो मृगव्याधः सुरेशः सूर्यतापनः॥38॥
धर्मकर्माक्शमः क्शेत्रं भगवान भगनेत्रभित।
उग्रः पशुपतिस्तार्क्श्यप्रियभक्तः प्रियंवदः॥39॥
दाता दयाकरो दक्शः कपर्दी कामशासनः।
श्मशाननिलयः सूक्श्मः श्मशानस्थो महेश्वरः॥40॥
लोककर्ता भूतपतिर्महाकर्ता महौषधी।
उत्तरो गोपतिर्गोप्ता घ्य़ानगम्यः पुरातनः॥41॥
नीतिः सुनीतिः शुद्धात्मा सोमसोमरतः सुखी।
सोमपो.अमृतपः सोमो महानीतिर्महामतिः॥42॥
अजातशत्रुरालोकः सम्भाव्यो हव्यवाहनः।
लोककारो वेदकारः सूत्रकारः सनातनः॥43॥
महर्षिः कपिलाचार्यो विश्वदीप्तिस्त्रिलोचनः।
पिनाकपाणिभूदेवः स्वस्तिदः स्वस्तिकृत्सदा॥44॥
त्रिधामा सौभगः शर्वः सर्वघ्य़ः सर्वगोचरः।
ब्रह्मधृग्विश्वसृक्स्वर्गः कर्णिकारः प्रियः कविः॥45॥
शाखो विशाखो गोशाखः शिवोनैकः क्रतुः समः।
गङ्गाप्लवोदको भावः सकलस्थपतिस्थिरः॥46॥
विजितात्मा विधेयात्मा भूतवाहनसारथिः।
सगणो गणकार्यश्च सुकीर्तिश्छिन्नसंशयः॥47॥
कामदेवः कामपालो भस्मोद्धूलितविग्रः।
भस्मप्रियो भस्मशायी कामी कान्तः कृतागमः॥48॥
समायुक्तो निवृत्तात्मा धर्मयुक्तः सदाशिवः।
चतुर्मुखश्चतुर्बाहुर्दुरावासो दुरासदः॥49॥
दुर्गमो दुर्लभो दुर्गः सर्वायुधविशारदः।
अध्यात्मयोगनिलयः सुतन्तुस्तन्तुवर्धनः॥50॥
शुभाङ्गो लोकसारङ्गो जगदीशो.अमृताशनः।
भस्मशुद्धिकरो मेरुरोजस्वी शुद्धविग्रहः॥51॥
हिरण्यरेतास्तरणिर्मरीचिर्महिमालयः।
महाह्रदो महागर्भः सिद्धवृन्दारवन्दितः॥52॥
व्याघ्रचर्मधरो व्याली महाभूतो महानिधिः।
अमृताङ्गो.अमृतवपुः पञ्चयघ्य़ः प्रभञ्जनः॥53॥
पञ्चविंशतितत्त्वघ्य़ः पारिजातः परावरः।
सुलभः सुव्रतः शूरो वाङ्मयैकनिधिर्निधिः॥54॥
वर्णाश्रमगुरुर्वर्णी शत्रुजिच्छत्रुतापनः।
आश्रमः क्शपणः क्शामो घ्य़ानवानचलाचलः॥55॥
प्रमाणभूतो दुर्घ्य़ेयः सुपर्णो वायुवाहनः।
धनुर्धरो धनुर्वेदो गुणराशिर्गुणाकरः॥56॥
अनन्तदृष्टिरानन्दो दण्डो दमयिता दमः।
अभिवाद्यो महाचार्यो विश्वकर्मा विशारदः॥57॥
वीतरागो विनीतात्मा तपस्वी भूतभावनः।
उन्मत्तवेषः प्रच्छन्नो जितकामो जितप्रियः॥58॥
कल्याणप्रकृतिः कल्पः सर्वलोकप्रजापतिः।
तपस्वी तारको धीमान प्रधानप्रभुरव्ययः॥59॥
लोकपालो.अन्तर्हितात्मा कल्यादिः कमलेक्शणः।
वेदशास्त्रार्थतत्त्वघ्य़ो नियमो नियमाश्रयः॥60॥
चन्द्रः सूर्यः शनिः केतुर्विरामो विद्रुमच्छविः।
भक्तिगम्यः परं ब्रह्म मृगबाणार्पणो.अनघः॥61॥
अद्रिराजालयः कान्तः परमात्मा जगद्गुरुः।
सर्वकर्माचलस्त्वष्टा माङ्गल्यो मङ्गलावृतः॥62॥
महातपा दीर्घतपाः स्थविष्ठः स्थविरो ध्रुवः।
अहः संवत्सरो व्याप्तिः प्रमाणं परमं तपः॥63॥
संवत्सरकरो मन्त्रः प्रत्ययः सर्वदर्शनः।
अजः सर्वेश्वरः स्निग्धो महारेता महाबलः॥64॥
योगी योग्यो महारेताः सिद्धः सर्वादिरग्निदः।
वसुर्वसुमनाः सत्यः सर्वपापहरो हरः॥65॥
अमृतः शाश्वतः शान्तो बाणहस्तः प्रतापवान।
कमण्डलुधरो धन्वी वेदाङ्गो वेदविन्मुनिः॥66॥
भ्राजिष्णुर्भोजनं भोक्ता लोकनेता दुराधरः।
अतीन्द्रियो महामायः सर्वावासश्चतुष्पथः॥67॥
कालयोगी महानादो महोत्साहो महाबलः।
महाबुद्धिर्महावीर्यो भूतचारी पुरन्दरः॥68॥
निशाचरः प्रेतचारी महाशक्तिर्महाद्युतिः।
अनिर्देश्यवपुः श्रीमान्सर्वहार्यमितो गतिः॥69॥
बहुश्रुतो बहुमयो नियतात्मा भवोद्भवः।
ओजस्तेजो द्युतिकरो नर्तकः सर्वकामकः॥70॥
नृत्यप्रियो नृत्यनृत्यः प्रकाशात्मा प्रतापनः।
बुद्धः स्पष्टाक्शरो मन्त्रः सन्मानः सारसम्प्लवः॥71॥
युगादिकृद्युगावर्तो गम्भीरो वृषवाहनः।
इष्टो विशिष्टः शिष्टेष्टः शरभः शरभो धनुः॥72॥
अपांनिधिरधिष्ठानं विजयो जयकालवित।
प्रतिष्ठितः प्रमाणघ्य़ो हिरण्यकवचो हरिः॥73॥
विरोचनः सुरगणो विद्येशो विबुधाश्रयः।
बालरूपो बलोन्माथी विवर्तो गहनो गुरुः॥74॥
करणं कारणं कर्ता सर्वबन्धविमोचनः।
विद्वत्तमो वीतभयो विश्वभर्ता निशाकरः॥75॥
व्यवसायो व्यवस्थानः स्थानदो जगदादिजः।
दुन्दुभो ललितो विश्वो भवात्मात्मनिसंस्थितः॥76॥
वीरेश्वरो वीरभद्रो वीरहा वीरभृद्विराट।
वीरचूडामणिर्वेत्ता तीव्रनादो नदीधरः॥77॥
आघ्य़ाधारस्त्रिशूली च शिपिविष्टः शिवालयः।
वालखिल्यो महाचापस्तिग्मांशुर्निधिरव्ययः॥78॥
अभिरामः सुशरणः सुब्रह्मण्यः सुधापतिः।
मघवान्कौशिको गोमान विश्रामः सर्वशासनः॥79॥
ललाटाक्शो विश्वदेहः सारः संसारचक्रभृत।
अमोघदण्डी मध्यस्थो हिरण्यो ब्रह्मवर्चसी॥80॥
परमार्थः परमयः शम्बरो व्याघ्रको.अनलः।
रुचिर्वररुचिर्वन्द्यो वाचस्पतिरहर्पतिः॥81॥
रविर्विरोचनः स्कन्धः शास्ता वैवस्वतो जनः।
युक्तिरुन्नतकीर्तिश्च शान्तरागः पराजयः॥82॥
कैलासपतिकामारिः सविता रविलोचनः।
विद्वत्तमो वीतभयो विश्वहर्ता.अनिवारितः॥83॥
नित्यो नियतकल्याणः पुण्यश्रवणकीर्तनः।
दूरश्रवा विश्वसहो ध्येयो दुःस्वप्ननाशनः॥84॥
उत्तारको दुष्कृतिहा दुर्धर्षो दुःसहो.अभयः।
अनादिर्भूर्भुवो लक्श्मीः किरीटित्रिदशाधिपः॥85॥
विश्वगोप्ता विश्वभर्ता सुधीरो रुचिराङ्गदः।
जननो जनजन्मादिः प्रीतिमान्नीतिमान्नयः॥86॥
विशिष्टः काश्यपो भानुर्भीमो भीमपराक्रमः।
प्रणवः सप्तधाचारो महाकायो महाधनुः॥87॥
जन्माधिपो महादेवः सकलागमपारगः।
तत्त्वातत्त्वविवेकात्मा विभूष्णुर्भूतिभूषणः॥88॥
ऋषिर्ब्राह्मणविज्जिष्णुर्जन्ममृत्युजरातिगः।
यघ्य़ो यघ्य़पतिर्यज्वा यघ्य़ान्तो.अमोघविक्रमः॥89॥
महेन्द्रो दुर्भरः सेनी यघ्य़ाङ्गो यघ्य़वाहनः।
पञ्चब्रह्मसमुत्पत्तिर्विश्वेशो विमलोदयः॥90॥
आत्मयोनिरनाद्यन्तो षड्विंशत्सप्तलोकधृक।
गायत्रीवल्लभः प्रांशुर्विश्वावासः प्रभाकरः॥91॥
शिशुर्गिरिरतः सम्राट सुषेणः सुरशत्रुहा।
अमोघो.अरिष्टमथनो मुकुन्दो विगतज्वरः॥92॥
स्वयंज्योतिरनुज्योतिरात्मज्योतिरचञ्चलः।
पिङ्गलः कपिलश्मश्रुः शास्त्रनेत्रस्त्रयीतनुः॥93॥
घ्य़ानस्कन्धो महाघ्य़ानी निरुत्पत्तिरुपप्लवः।
भगो विवस्वानादित्यो योगाचार्यो बृहस्पतिः॥94॥
उदारकीर्तिरुद्योगी सद्योगीसदसन्मयः।
नक्शत्रमाली राकेशः साधिष्ठानः षडाश्रयः॥95॥
पवित्रपाणिः पापारिर्मणिपूरो मनोगतिः।
हृत्पुण्डरीकमासीनः शुक्लः शान्तो वृषाकपिः॥96॥
विष्णुर्ग्रहपतिः कृष्णः समर्थो.अनर्थनाशनः।
अधर्मशत्रुरक्शय्यः पुरुहूतः पुरुष्टुतः॥97॥
ब्रह्मगर्भो बृहद्गर्भो धर्मधेनुर्धनागमः।
जगद्धितैषिसुगतः कुमारः कुशलागमः॥98॥
हिरण्यवर्णो ज्योतिष्मान्नानाभूतधरो ध्वनिः।
अरोगो नियमाध्यक्शो विश्वामित्रो द्विजोत्तमः॥99॥
बृहज्योतिः सुधामा च महाज्योतिरनुत्तमः।
मातामहो मातरिश्वा नभस्वान्नागहारधृक॥100॥
पुलस्त्यः पुलहो.अगस्त्यो जातूकर्ण्यः पराशरः।
निरावरणधर्मघ्य़ो विरिञ्चो विष्टरश्रवाः॥101॥
आत्मभूरनिरुद्धो.अत्रि घ्य़ानमूर्तिर्महायशाः।
लोकचूडामणिर्वीरश्चण्डसत्यपराक्रमः॥102॥
व्यालकल्पो महाकल्पो महावृक्शः कलाधरः।
अलंकरिष्णुस्त्वचलो रोचिष्णुर्विक्रमोत्तमः॥103॥
आशुशब्दपतिर्वेगी प्लवनः शिखिसारथिः।
असंसृष्टो.अतिथिः शक्रः प्रमाथी पापनाशनः॥104॥
वसुश्रवाः कव्यवाहः प्रतप्तो विश्वभोजनः।
जर्यो जराधिशमनो लोहितश्च तनूनपात॥105॥
पृषदश्वो नभोयोनिः सुप्रतीकस्तमिस्रहा।
निदाघस्तपनो मेघः पक्शः परपुरञ्जयः॥106॥
मुखानिलः सुनिष्पन्नः सुरभिः शिशिरात्मकः।
वसन्तो माधवो ग्रीष्मो नभस्यो बीजवाहनः॥107॥
अङ्गिरामुनिरात्रेयो विमलो विश्ववाहनः।
पावनः पुरुजिच्छक्रस्त्रिविद्यो नरवाहनः॥108॥
मनो बुद्धिरहंकारः क्शेत्रघ्य़ः क्शेत्रपालकः।
तेजोनिधिर्घ्य़ाननिधिर्विपाको विघ्नकारकः॥109॥
अधरो.अनुत्तरोघ्य़ेयो ज्येष्ठो निःश्रेयसालयः।
शैलो नगस्तनुर्दोहो दानवारिररिन्दमः॥110॥
चारुधीर्जनकश्चारु विशल्यो लोकशल्यकृत।
चतुर्वेदश्चतुर्भावश्चतुरश्चतुरप्रियः॥111॥
आम्नायो.अथ समाम्नायस्तीर्थदेवशिवालयः।
बहुरूपो महारूपः सर्वरूपश्चराचरः॥112॥
न्यायनिर्वाहको न्यायो न्यायगम्यो निरञ्जनः।
सहस्रमूर्धा देवेन्द्रः सर्वशस्त्रप्रभञ्जनः॥113॥
मुण्डो विरूपो विकृतो दण्डी दान्तो गुणोत्तमः।
पिङ्गलाक्शो.अथ हर्यक्शो नीलग्रीवो निरामयः॥114॥
सहस्रबाहुः सर्वेशः शरण्यः सर्वलोकभृत।
पद्मासनः परंज्योतिः परावरफलप्रदः॥115॥
पद्मगर्भो महागर्भो विश्वगर्भो विचक्शणः।
परावरघ्य़ो बीजेशः सुमुखः सुमहास्वनः॥116॥
देवासुरगुरुर्देवो देवासुरनमस्कृतः।
देवासुरमहामात्रो देवासुरमहाश्रयः॥117॥
देवादिदेवो देवर्षिर्देवासुरवरप्रदः।
देवासुरेश्वरो दिव्यो देवासुरमहेश्वरः॥118॥
सर्वदेवमयो.अचिन्त्यो देवतात्मात्मसम्भवः।
ईड्यो.अनीशः सुरव्याघ्रो देवसिंहो दिवाकरः॥119॥
विबुधाग्रवरश्रेष्ठः सर्वदेवोत्तमोत्तमः।
शिवघ्य़ानरतः श्रीमान शिखिश्रीपर्वतप्रियः॥120॥
जयस्तम्भो विशिष्टम्भो नरसिंहनिपातनः।
ब्रह्मचारी लोकचारी धर्मचारी धनाधिपः॥121॥
नन्दी नन्दीश्वरो नग्नो नग्नव्रतधरः शुचिः।
लिङ्गाध्यक्शः सुराध्यक्शो युगाध्यक्शो युगावहः॥122॥
स्ववशः सवशः स्वर्गः स्वरः स्वरमयः स्वनः।
बीजाध्यक्शो बीजकर्ता धनकृद्धर्मवर्धनः॥123॥
दम्भो.अदम्भो महादम्भः सर्वभूतमहेश्वरः।
श्मशाननिलयस्तिष्यः सेतुरप्रतिमाकृतिः॥124॥
लोकोत्तरस्फुटालोकस्त्र्यम्बको नागभूषणः।
अन्धकारिर्मखद्वेषी विष्णुकन्धरपातनः॥125॥
वीतदोषो.अक्शयगुणो दक्शारिः पूषदन्तहृत।
धूर्जटिः खण्डपरशुः सकलो निष्कलो.अनघः॥126॥
आधारः सकलाधारः पाण्डुराभो मृडो नटः।
पूर्णः पूरयिता पुण्यः सुकुमारः सुलोचनः॥127॥
सामगेयः प्रियकरः पुण्यकीर्तिरनामयः।
मनोजवस्तीर्थकरो जटिलो जीवितेश्वरः॥128॥
जीवितान्तकरो नित्यो वसुरेता वसुप्रियः।
सद्गतिः सत्कृतिः सक्तः कालकण्ठः कलाधरः॥129॥
मानी मान्यो महाकालः सद्भूतिः सत्परायणः।
चन्द्रसञ्जीवनः शास्ता लोकगूढो.अमराधिपः॥130॥
लोकबन्धुर्लोकनाथः कृतघ्य़ः कृतिभूषणः।
अनपाय्यक्शरः कान्तः सर्वशास्त्रभृतां वरः॥131॥
तेजोमयो द्युतिधरो लोकमायो.अग्रणीरणुः।
शुचिस्मितः प्रसन्नात्मा दुर्जयो दुरतिक्रमः॥132॥
ज्योतिर्मयो निराकारो जगन्नाथो जलेश्वरः।
तुम्बवीणी महाकायो विशोकः शोकनाशनः॥133॥
त्रिलोकात्मा त्रिलोकेशः शुद्धः शुद्धिरथाक्शजः।
अव्यक्तलक्शणो.अव्यक्तो व्यक्ताव्यक्तो विशाम्पतिः॥134॥
वरशीलो वरतुलो मानो मानधनो मयः।
ब्रह्मा विष्णुः प्रजापालो हंसो हंसगतिर्यमः॥135॥
वेधा धाता विधाता च अत्ता हर्ता चतुर्मुखः।
कैलासशिखरावासी सर्वावासी सतां गतिः॥136॥
हिरण्यगर्भो हरिणः पुरुषः पूर्वजः पिता।
भूतालयो भूतपतिर्भूतिदो भुवनेश्वरः॥137॥
संयोगी योगविद्ब्रह्मा ब्रह्मण्यो ब्राह्मणप्रियः।
देवप्रियो देवनाथो देवघ्य़ो देवचिन्तकः॥138॥
विषमाक्शः कलाध्यक्शो वृषाङ्को वृषवर्धनः।
निर्मदो निरहंकारो निर्मोहो निरुपद्रवः॥139॥
दर्पहा दर्पितो दृप्तः सर्वर्तुपरिवर्तकः।
सप्तजिह्वः सहस्रार्चिः स्निग्धः प्रकृतिदक्शिणः॥140॥
भूतभव्यभवन्नाथः प्रभवो भ्रान्तिनाशनः।
अर्थो.अनर्थो महाकोशः परकार्यैकपण्डितः॥141॥
निष्कण्टकः कृतानन्दो निर्व्याजो व्याजमर्दनः।
सत्त्ववान्सात्त्विकः सत्यकीर्तिस्तम्भकृतागमः॥142॥
अकम्पितो गुणग्राही नैकात्मा नैककर्मकृत।
सुप्रीतः सुमुखः सूक्श्मः सुकरो दक्शिणो.अनलः॥143॥
स्कन्धः स्कन्धधरो धुर्यः प्रकटः प्रीतिवर्धनः।
अपराजितः सर्वसहो विदग्धः सर्ववाहनः॥144॥
अधृतः स्वधृतः साध्यः पूर्तमूर्तिर्यशोधरः।
वराहशृङ्गधृग्वायुर्बलवानेकनायकः॥145॥
श्रुतिप्रकाशः श्रुतिमानेकबन्धुरनेकधृक।
श्रीवल्लभशिवारम्भः शान्तभद्रः समञ्जसः॥146॥
भूशयो भूतिकृद्भूतिर्भूषणो भूतवाहनः।
अकायो भक्तकायस्थः कालघ्य़ानी कलावपुः॥147॥
सत्यव्रतमहात्यागी निष्ठाशान्तिपरायणः।
परार्थवृत्तिर्वरदो विविक्तः श्रुतिसागरः॥148॥
अनिर्विण्णो गुणग्राही कलङ्काङ्कः कलङ्कहा।
स्वभावरुद्रो मध्यस्थः शत्रुघ्नो मध्यनाशकः॥149॥
शिखण्डी कवची शूली चण्डी मुण्डी च कुण्डली।
मेखली कवची खड्गी मायी संसारसारथिः॥150॥
अमृत्युः सर्वदृक सिंहस्तेजोराशिर्महामणिः।
असंख्येयो.अप्रमेयात्मा वीर्यवान्कार्यकोविदः॥151॥
वेद्यो वेदार्थविद्गोप्ता सर्वाचारो मुनीश्वरः।
अनुत्तमो दुराधर्षो मधुरः प्रियदर्शनः॥152॥
सुरेशः शरणं सर्वः शब्दब्रह्मसतां गतिः।
कालभक्शः कलङ्कारिः कङ्कणीकृतवासुकिः॥153॥
महेष्वासो महीभर्ता निष्कलङ्को विशृङ्खलः।
द्युमणिस्तरणिर्धन्यः सिद्धिदः सिद्धिसाधनः॥154॥
निवृत्तः संवृतः शिल्पो व्यूढोरस्को महाभुजः।
एकज्योतिर्निरातङ्को नरो नारायणप्रियः॥155॥
निर्लेपो निष्प्रपञ्चात्मा निर्व्यग्रो व्यग्रनाशनः।
स्तव्यस्तवप्रियः स्तोता व्यासमूर्तिरनाकुलः॥156॥
निरवद्यपदोपायो विद्याराशिरविक्रमः।
प्रशान्तबुद्धिरक्शुद्रः क्शुद्रहा नित्यसुन्दरः॥157॥
धैर्याग्र्यधुर्यो धात्रीशः शाकल्यः शर्वरीपतिः।
परमार्थगुरुर्दृष्टिर्गुरुराश्रितवत्सलः॥158॥
भगवान्  विष्णुप्रोक्त शिव सहस्रनाम स्तोत्रम (लिङ्गपुराणान्तर्गत) फलश्रुति :-
सूत जी उवाच :-
रसो रसघ्य़ः सर्वघ्य़ः सर्वसत्त्वावलम्बनः।
एवं नाम्नां सहस्रेण तुष्टाव वृषभध्वजम॥159॥
स्नापयामास च विभुः पूजयामास पङ्कजैः।
परीक्शार्थं हरेः पूजाकमलेषु महेश्वरः॥160॥
गोपयामासकमलं तदैकं भुवनेश्वरः।
हृतपुष्पो हरिस्तत्र किमिदं त्वभ्यचिन्तयन॥161॥
घ्य़ात्वा स्वनेत्रमुद्धृत्य सर्वसत्त्वावलम्बनम।
पूजयामास भावेन नाम्ना तेन जगद्गुरुम॥162॥
ततस्तत्र विभुर्दृष्ट्वा तथाभूतं हरो हरिम।
तस्मादवतताराशु मण्डलात्पावकस्य च॥163॥
कोटिभास्करसंकाशं जटामुकुटमण्डितम।
ज्वालामालावृतं दिव्यं तीक्श्णदंष्ट्रं भयङ्करम॥164॥
शूलटङ्कगदाचक्रकुन्तपाशधरं हरम।
वरदाभयहस्तं च दीपिचर्मोत्तरीयकम॥165॥
इत्थम्भूतं तदा दृष्ट्वा भवं भस्मविभूषितम।
हृष्टो नमश्चकाराशु देवदेवं जनार्दनः॥166॥
दुद्रुवुस्तं परिक्रम्य सेन्द्रा देवास्त्रिलोचनम।
चचाल ब्रह्मभुवनं चकम्पे च वसुन्धरा ॥167॥
ददाह तेजस्तच्छम्भोः प्रान्तं वै शतयोजनम।
अधस्ताच्चोर्ध्वतश्चैव हाहेत्यकृत भूतले॥168॥
तदा प्राह महादेवः प्रहसन्निव शङ्करः।
सम्प्रेक्श्य प्रणयाद्विष्णुं कृताञ्जलिपुटं स्थितम॥169॥
घ्य़ातं मयेदमधुना देवकार्यं जनार्दन।
सुदर्शनाख्यं चक्रं च ददामि तव शोभनम॥170॥
यद्रूपं भवता दृष्टं सर्वलोकभयङ्करम।
हिताय तव यत्नेन तव भावाय सुव्रत॥171॥
शान्तं रणाजिरे विष्णो देवानां दुःखसाधनम।
शान्तस्य चास्त्रं शान्तं स्याच्छान्तेनास्त्रेण किं फलम॥172॥
शान्तस्य समरे चास्त्रं शान्तिरेव तपस्विनाम।
योद्धुः शान्त्या बलच्छेदः परस्य बलवृद्धिदः॥173॥
देवैरशान्तैर्यद्रूपं मदीयं भावयाव्ययम।
किमायुधेन कार्यं वै योद्धुं देवारिसूदन॥174॥
क्शमा युधि न कार्यं वै योद्धुं देवारिसूदन।
अनागते व्यतीते च दौर्बल्ये स्वजनोत्करे॥175॥
अकालिके त्वधर्मे च अनर्थेवारिसूदन।
एवमुक्त्वा ददौ चक्रं सूर्यायुतसमप्रभम॥176॥
नेत्रं च नेता जगतां प्रभुर्वै पद्मसन्निभम।
तदाप्रभृति तं प्राहुः पद्माक्शमिति सुव्रतम॥177॥
दत्त्वैनं नयनं चक्रं विष्णवे नीललोहितः।
पस्पर्श च कराभ्यां वै सुशुभाभ्यामुवाच ह॥178॥
वरदोहं वरश्रेष्ठ वरान्वरय चेप्सितान।
भक्त्या वशीकृतो नूनं त्वयाहं पुरुषोत्तम॥179॥
इत्युक्तो देवदेवेन देवदेवं प्रणम्य तम।
त्वयि भक्तिर्महादेव प्रसीद वरमुत्तमम॥180॥
नान्यमिच्छामि भक्तानामार्तयो नास्ति यत्प्रभो।
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य दयावान सुतरां भवः॥181॥
पस्पर्श च ददौ तस्मै श्रद्धां शीतांशुभूषणः।
प्राह चैवं महादेवः परमात्मानमच्युतम॥182॥
मयि भक्तश्च वन्द्यश्च पूज्यश्चैव सुरासुरैः।
भविष्यति न संदेहो मत्प्रसादात्सुरोत्तम॥183॥
यदा सती दक्शपुत्री विनिन्द्येव सुलोचना।
मातरं पितरं दक्शं भविष्यति सुरेश्वरी॥184॥
दिव्या हैमवती विष्णो तदा त्वमपि सुव्रत।
भगिनीं तव कल्याणीं देवीं हैमवतीमुमाम॥185॥
नियोगाद्ब्रह्मणः साध्वीं प्रदास्यसि ममैव ताम।
मत्सम्बन्धी च लोकानां मध्ये पूज्यो भविष्यसि॥186॥
मां दिव्येन च भावेन तदा प्रभृति शङ्करम।
द्रक्श्यसे च प्रसन्नेन मित्रभूतमिवात्मना॥187॥
इत्युक्त्वान्तर्दधे रुद्रो भगवान्नीललोहितः।
जनार्दनोपि भगवान्देवानामपि सन्निधौ॥188॥
अयाचत महादेवं ब्रह्माणं मुनिभिः समम।
मया प्रोक्तं स्तवं दिव्यं पद्मयोने सुशोभनम॥189॥
यः पठेच्छृणुयाद्वापि श्रावयेद्वा द्विजोत्तमान।
प्रतिनाम्नि हिरण्यस्य दत्तस्य फलमाप्नुयात॥190॥
अश्वमेधसहस्रेण फलं भवति तस्य वै।
घृताद्यैः स्नापयेद्रुद्रं स्थाल्या वै कलशैः शुभैः॥191॥
नाम्नां सहस्रेणानेन श्रद्धया शिवमीश्वरम।
सोपि यघ्य़सहस्रस्य फलं लब्ध्वा सुरेश्वरैः॥192॥
पूज्यो भवति रुद्रस्य प्रीतिर्भवति तस्य वै।
तथास्त्विति तथा प्राह पद्मयोनेर्जनार्दनम॥193॥
जग्मतुः प्रणिपत्यैनं देवदेवं जगद्गुरुम।
तस्मान्नाम्नां सहस्रेण पूजयेदनघो द्विजाः॥194॥
जपीन्नाम्नां सहस्रं च स याति परमां गतिम॥195॥
इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे सहस्रनामभिः पूजनाद्विष्णुचक्रलाभो नामाष्टनवतितमोध्यायः।
भगवान विष्णुप्रोक्त शिव सहस्रनाम स्तोत्रम (लिङ्गपुराणान्तर्गत) समाप्त।
शिव सहस्रनाम स्तोत्र :: 
ध्यानम् :-
शान्तं पद्मासनस्थं शशिधरमकुटं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रं
शूलं वज्रं च खड्गं परशुमभयदं दक्षभागे वहन्तं।
नागं पाशं च घण्टां प्रलयहुतवहं चाङ्कुशं वामभागे
नानालङ्कारयुक्तं स्फटिकमणिनिभं पार्वतीशं नमामि॥
स्तोत्रम् :-
ओं स्थिरः स्थाणुः प्रभुर्भीमः प्रवरो वरदो वरः।
सर्वात्मा सर्वविख्यातः सर्वः सर्वकरो भवः॥1॥
जटी चर्मी शिखण्डी च सर्वाङ्गः सर्वभावनः।
हरश्च हरिणाक्षश्च सर्वभूतहरः प्रभुः॥2॥
प्रवृत्तिश्च निवृत्तिश्च नियतः शाश्वतो ध्रुवः।
श्मशानवासी भगवान् खचरो गोचरोऽर्दनः॥3॥
अभिवाद्यो महाकर्मा तपस्वी भूतभावनः।
उन्मत्तवेषप्रच्छन्नः सर्वलोकप्रजापतिः॥4॥
महारूपो महाकायो वृषरूपो महायशाः।
महात्मा सर्वभूतात्मा विश्वरूपो महाहनुः॥5॥
लोकपालोऽन्तर्हितात्मा प्रसादो हयगर्दभिः।
पवित्रं च महांश्चैव नियमो नियमाश्रितः॥6॥
सर्वकर्मा स्वयम्भूत आदिरादिकरो निधिः।
सहस्राक्षो विशालाक्षः सोमो नक्षत्रसाधकः॥7॥
चन्द्रः सूर्यः शनिः केतुर्ग्रहो ग्रहपतिर्वरः।
अत्रिरत्र्यानमस्कर्ता मृगबाणार्पणोऽनघः॥8॥
महातपा घोरतपा अदीनो दीनसाधकः।
संवत्सरकरो मन्त्रः प्रमाणं परमं तपः॥9॥
योगी योज्यो महाबीजो महारेता महाबलः।
सुवर्णरेताः सर्वज्ञः सुबीजो बीजवाहनः॥10॥
दशबाहुस्त्वनिमिषो नीलकण्ठ उमापतिः।
विश्वरूपः स्वयंश्रेष्ठो बलवीरोऽबलो गणः॥11॥
गणकर्ता गणपतिर्दिग्वासाः काम एव च।
मन्त्रवित्परमोमन्त्रः सर्वभावकरो हरः॥12॥
कमण्डलुधरो धन्वी बाणहस्तः कपालवान्।
अशनी शतघ्नी खड्गी पट्‍टिशी चायुधी महान्॥13॥
स्रुवहस्तः सुरूपश्च तेजस्तेजस्करो निधिः।
उष्णीषी च सुवक्त्रश्च उदग्रो विनतस्तथा॥14॥
दीर्घश्च हरिकेशश्च सुतीर्थः कृष्ण एव च।
सृगालरूपः सिद्धार्थो मुण्डः सर्वशुभङ्करः॥15॥
अजश्च बहुरूपश्च गन्धधारी कपर्द्यपि।
ऊर्ध्वरेता ऊर्ध्वलिङ्ग ऊर्ध्वशायी नभस्स्थलः॥16॥
त्रिजटी चीरवासाश्च रुद्रः सेनापतिर्विभुः।
अहश्चरो नक्तञ्चरस्तिग्ममन्युः सुवर्चसः॥17॥
गजहा दैत्यहा कालो लोकधाता गुणाकरः।
सिंहशार्दूलरूपश्च आर्द्रचर्माम्बरावृतः॥18॥
कालयोगी महानादः सर्वकामश्चतुष्पथः।
निशाचरः प्रेतचारी भूतचारी महेश्वरः॥19॥
बहुभूतो बहुधरः स्वर्भानुरमितो गतिः।
नृत्यप्रियो नित्यनर्तो नर्तकः सर्वलालसः॥20॥
घोरो महातपाः पाशो नित्यो गिरिरुहो नभः।
सहस्रहस्तो विजयो व्यवसायो ह्यतन्द्रितः॥21॥
अधर्षणो धर्षणात्मा यज्ञहा कामनाशकः।
दक्षयागापहारी च सुसहो मध्यमस्तथा॥22॥
तेजोपहारी बलहा मुदितोऽर्थोऽजितो वरः।
गम्भीरघोषो गम्भीरो गम्भीरबलवाहनः॥23॥
न्यग्रोधरूपो न्यग्रोधो वृक्षकर्णस्थितिर्विभुः।
सुतीक्ष्णदशनश्चैव महाकायो महाननः॥24॥
विष्वक्सेनो हरिर्यज्ञः सम्युगापीडवाहनः।
तीक्ष्णतापश्च हर्यश्वः सहायः कर्मकालवित्॥25॥
विष्णुप्रसादितो यज्ञः समुद्रो बडबामुखः।
हुताशनसहायश्च प्रशान्तात्मा हुताशनः॥26॥
उग्रतेजा महातेजा जन्यो विजयकालवित्।
ज्योतिषामयनं सिद्धिः सर्वविग्रह एव च॥27॥
शिखी मुण्डी जटी ज्वाली मूर्तिजो मूर्धगो बली।
वेणवी पणवी ताली खली कालकटङ्कटः॥28॥
नक्षत्रविग्रहमतिर्गुणबुद्धिर्लयोऽगमः।
प्रजापतिर्विश्वबाहुर्विभागः सर्वगोमुखः॥29॥
विमोचनः सुसरणो हिरण्यकवचोद्भवः।
मेघजो बलचारी च महीचारी स्रुतस्तथा॥30॥
सर्वतूर्यनिनादी च सर्वातोद्यपरिग्रहः।
व्यालरूपो गुहावासी गुहो माली तरङ्गवित्॥31॥
त्रिदशस्त्रिकालधृक्कर्मसर्वबन्धविमोचनः।
बन्धनस्त्वसुरेन्द्राणां युधिशत्रुविनाशनः॥32॥
साङ्ख्यप्रसादो दुर्वासाः सर्वसाधुनिषेवितः।
प्रस्कन्दनो विभागज्ञो अतुल्यो यज्ञभागवित्॥33॥
सर्ववासः सर्वचारी दुर्वासा वासवोऽमरः।
हैमो हेमकरो यज्ञः सर्वधारी धरोत्तमः॥34॥
लोहिताक्षो महाक्षश्च विजयाक्षो विशारदः।
सङ्ग्रहो निग्रहः कर्ता सर्पचीरनिवासनः॥35॥
मुख्योऽमुख्यश्च देहश्च काहलिः सर्वकामदः।
सर्वकालप्रसादश्च सुबलो बलरूपधृक्॥36॥
सर्वकामवरश्चैव सर्वदः सर्वतोमुखः।
आकाशनिर्विरूपश्च निपाती ह्यवशः खगः॥37॥
रौद्ररूपोऽंशुरादित्यो बहुरश्मिः सुवर्चसी।
वसुवेगो महावेगो मनोवेगो निशाचरः॥38॥
सर्ववासी श्रियावासी उपदेशकरोऽकरः।
मुनिरात्मनिरालोकः सम्भग्नश्च सहस्रदः॥39॥
पक्षी च पक्षरूपश्च अतिदीप्तो विशाम्पतिः।
उन्मादो मदनः कामो ह्यश्वत्थोऽर्थकरो यशः॥40॥
वामदेवश्च वामश्च प्राग्दक्षिणश्च वामनः।
सिद्धयोगी महर्षिश्च सिद्धार्थः सिद्धसाधकः॥41॥
भिक्षुश्च भिक्षुरूपश्च विपणो मृदुरव्ययः।
महासेनो विशाखश्च षष्ठिभागो गवाम्पतिः॥42॥
वज्रहस्तश्च विष्कम्भी चमूस्तम्भन एव च।
वृत्तावृत्तकरस्तालो मधुर्मधुकलोचनः॥43॥
वाचस्पत्यो वाजसनो नित्याश्रमपूजितः।
ब्रह्मचारी लोकचारी सर्वचारी विचारवित्॥44॥
ईशान ईश्वरः कालो निशाचारी पिनाकवान्।
निमित्तस्थो निमित्तं च नन्दिर्नन्दिकरो हरिः॥45॥
नन्दीश्वरश्च नन्दी च नन्दनो नन्दिवर्धनः।
भगहारी निहन्ता च कालो ब्रह्मपितामहः॥46॥
चतुर्मुखो महालिङ्गश्चारुलिङ्गस्तथैव च।
लिङ्गाध्यक्षः सुराध्यक्षो योगाध्यक्षो युगावहः॥47॥
बीजाध्यक्षो बीजकर्ता अध्यात्माऽनुगतो बलः।
इतिहासः सकल्पश्च गौतमोऽथ निशाकरः॥48॥
दम्भो ह्यदम्भो वैदम्भो वश्यो वशकरः कलिः।
लोककर्ता पशुपतिर्महाकर्ता ह्यनौषधः॥49॥
अक्षरं परमं ब्रह्म बलवच्छक्र एव च।
नीतिर्ह्यनीतिः शुद्धात्मा शुद्धो मान्यो गतागतः॥50॥
बहुप्रसादः सुस्वप्नो दर्पणोऽथ त्वमित्रजित्।
वेदकारो मन्त्रकारो विद्वान् समरमर्दनः॥51॥
महामेघनिवासी च महाघोरो वशीकरः।
अग्निज्वालो महाज्वालो अतिधूम्रो हुतो हविः॥52॥
वृषणः शङ्करो नित्यं वर्चस्वी धूमकेतनः।
नीलस्तथाऽङ्गलुब्धश्च शोभनो निरवग्रहः॥ 53॥
स्वस्तिदः स्वस्तिभावश्च भागी भागकरो लघुः।
उत्सङ्गश्च महाङ्गश्च महागर्भपरायणः॥54॥
कृष्णवर्णः सुवर्णश्च इन्द्रियं सर्वदेहिनाम्।
महापादो महाहस्तो महाकायो महायशाः॥55॥
महामूर्धा महामात्रो महानेत्रो निशालयः।
महान्तको महाकर्णो महोष्ठश्च महाहनुः॥56॥
महानासो महाकम्बुर्महाग्रीवः श्मशानभाक्।
महावक्षा महोरस्को ह्यन्तरात्मा मृगालयः॥57॥
लम्बनो लम्बितोष्ठश्च महामायः पयोनिधिः।
महादन्तो महादम्ष्ट्रो महाजिह्वो महामुखः॥58॥
महानखो महारोमा महाकोशो महाजटः।
प्रसन्नश्च प्रसादश्च प्रत्ययो गिरिसाधनः॥59॥
स्नेहनोऽस्नेहनश्चैव अजितश्च महामुनिः।
वृक्षाकारो वृक्षकेतुरनलो वायुवाहनः॥60॥
गण्डली मेरुधामा च देवाधिपतिरेव च।
अथर्वशीर्षः सामास्य ऋक्सहस्रामितेक्षणः॥ 61॥
यजुः पादभुजो गुह्यः प्रकाशो जङ्गमस्तथा।
अमोघार्थः प्रसादश्च अभिगम्यः सुदर्शनः॥ 62॥
उपकारः प्रियः सर्वः कनकः काञ्चनच्छविः।
नाभिर्नन्दिकरो भावः पुष्करः स्थपतिः स्थिरः॥63॥
द्वादशस्त्रासनश्चाद्यो यज्ञो यज्ञसमाहितः।
नक्तं कलिश्च कालश्च मकरः कालपूजितः॥64॥
सगणो गणकारश्च भूतवाहनसारथिः।
भस्मशयो भस्मगोप्ता भस्मभूतस्तरुर्गणः॥65॥
लोकपालस्तथालोको महात्मा सर्वपूजितः।
शुक्लस्त्रिशुक्लः सम्पन्नः शुचिर्भूतनिषेवितः॥66॥
आश्रमस्थः क्रियावस्थो विश्वकर्ममतिर्वरः।
विशालशाखस्ताम्रोष्ठो ह्यम्बुजालः सुनिश्चलः॥67॥
कपिलः कपिशः शुक्लः आयुश्चैव परोः।
गन्धर्वो ह्यदितिस्तार्क्ष्यः सुविज्ञेयः सुशारदः॥68॥
परश्वधायुधो देवः ह्यनुकारी सुबान्धवः।
तुम्बवीणो महाक्रोध ऊर्ध्वरेता जलेशयः॥69॥
उग्रो वंशकरो वंशो वंशनादो ह्यनिन्दितः।
सर्वाङ्गरूपो मायावी सुहृदो ह्यनिलोऽनलः॥70॥
बन्धनो बन्धकर्ता च सुबन्धनविमोचनः।
सयज्ञारिः सकामारिर्महादम्ष्ट्रो महायुधः॥71॥
बहुधानिन्दितः शर्वः शङ्करः शङ्करोऽधनः।
अमरेशो महादेवो विश्वदेवः सुरारिहा॥72॥
अहिर्बुध्न्योऽनिलाभश्च चेकितानो हरिस्तथा।
अजैकपाच्च कापाली त्रिशङ्कुरजितः शिवः॥73॥
धन्वन्तरिर्धूमकेतुः स्कन्दो वैश्रवणस्तथा।
धाता शक्रश्च विष्णुश्च मित्रस्त्वष्टा ध्रुवो धरः॥74॥
प्रभावः सर्वगो वायुरर्यमा सविता रविः।
उषङ्गुश्च विधाता च मान्धाता भूतभावनः॥75॥
विभुर्वर्णविभावी च सर्वकामगुणावहः।
पद्मनाभो महागर्भश्चन्द्रवक्त्रोऽनिलोऽनलः॥76॥
बलवांश्चोपशान्तश्च पुराणः पुण्यचञ्चुरी।
कुरुकर्ता कुरुवासी कुरुभूतो गुणौषधः॥77॥
सर्वाशयो दर्भचारी सर्वेषां प्राणिनाम्पतिः।
देवदेवः सुखासक्तः सदसत्सर्वरत्नवित्॥78॥
कैलासगिरिवासी च हिमवद्गिरिसंश्रयः।
कूलहारी कूलकर्ता बहुविद्यो बहुप्रदः॥79॥
वणिजो वर्धकी वृक्षो वकुलश्चन्दनछ्छदः।
सारग्रीवो महाजत्रुरलोलश्च महौषधः॥80॥
सिद्धार्थकारी सिद्धार्थश्छन्दोव्याकरणोत्तरः।
सिंहनादः सिंहदम्ष्ट्रः सिंहगः सिंहवाहनः॥81॥
प्रभावात्मा जगत्कालस्थालो लोकहितस्तरुः।
सारङ्गो नवचक्राङ्गः केतुमाली सभावनः॥ 82॥

भूतालयो भूतपतिरहोरात्रमनिन्दितः॥83॥
वाहिता सर्वभूतानां निलयश्च विभुर्भवः।
अमोघः सम्यतो ह्यश्वो भोजनः प्राणधारणः॥ 84 ॥
धृतिमान् मतिमान् दक्षः सत्कृतश्च युगाधिपः।
गोपालिर्गोपतिर्ग्रामो गोचर्मवसनो हरिः॥85॥
हिरण्यबाहुश्च तथा गुहापालः प्रवेशिनाम्।
प्रकृष्टारिर्महाहर्षो जितकामो जितेन्द्रियः॥86॥
गान्धारश्च सुवासश्च तपस्सक्तो रतिर्नरः।
महागीतो महानृत्यो ह्यप्सरोगणसेवितः॥87॥
महाकेतुर्महाधातुर्नैकसानुचरश्चलः।
आवेदनीय आदेशः सर्वगन्धसुखावहः॥88॥
तोरणस्तारणो वातः परिधीपतिखेचरः।
सम्योगो वर्धनो वृद्धो ह्यतिवृद्धो गुणाधिकः॥89॥
नित्य आत्मा सहायश्च देवासुरपतिः पतिः।
युक्तश्च युक्तबाहुश्च देवो दिवि सुपर्वणः॥90॥
आषाढश्च सुषाढश्च ध्रुवोऽथ हरिणो हरः।
वपुरावर्तमानेभ्यो वसुश्रेष्ठो महापथः॥91॥
शिरोहारी विमर्शश्च सर्वलक्षणलक्षितः।
अक्षश्च रथयोगी च सर्वयोगी महाबलः॥92॥
समाम्नायोऽसमाम्नायस्तीर्थदेवो महारथः।
निर्जीवो जीवनो मन्त्रः शुभाक्षो बहुकर्कशः॥93॥
रत्नप्रभूतो रक्ताङ्गो महार्णवनिपानवित्।
मूलं विशालो ह्यमृतो व्यक्ताव्यक्तस्तपोनिधिः॥94॥
आरोहणोऽधिरोहश्च शीलधारी महायशाः।
सेनाकल्पो महाकल्पो योगो योगकरो हरिः॥95॥
युगरूपो महारूपो महानागहनो वधः।
न्यायनिर्वपणः पादः पण्डितो ह्यचलोपमः॥96॥
बहुमालो महामालः शशी हरसुलोचनः।
विस्तारो लवणः कूपस्त्रियुगः सफलोदयः॥97॥
त्रिलोचनो विषण्णाङ्गो मणिविद्धो जटाधरः।
बिन्दुर्विसर्गः सुमुखः शरः सर्वायुधः सहः॥98॥
निवेदनः सुखाजातः सुगन्धारो महाधनुः।
गन्धपाली च भगवानुत्थानः सर्वकर्मणाम्॥99॥
मन्थानो बहुलो वायुः सकलः सर्वलोचनः।
तलस्तालः करस्थाली ऊर्ध्वसंहननो महान्॥100॥
छत्रं सुछत्रो विख्यातो लोकः सर्वाश्रयः क्रमः।
मुण्डो विरूपो विकृतो दण्डी कुण्डी विकुर्वणः॥101॥
हर्यक्षः ककुभो वज्री शतजिह्वः सहस्रपात्।
सहस्रमूर्धा देवेन्द्रः सर्वदेवमयो गुरुः॥102॥
सहस्रबाहुः सर्वाङ्गः शरण्यः सर्वलोककृत्।
पवित्रं त्रिककुन्मन्त्रः कनिष्ठः कृष्णपिङ्गलः॥103॥
ब्रह्मदण्डविनिर्माता शतघ्नी पाशशक्तिमान्।
पद्मगर्भो महागर्भो ब्रह्मगर्भो जलोद्भवः॥104॥
गभस्तिर्ब्रह्मकृद्ब्रह्मी ब्रह्मविद्ब्राह्मणो गतिः।
अनन्तरूपो नैकात्मा तिग्मतेजाः स्वयम्भुवः॥105॥
ऊर्ध्वगात्मा पशुपतिर्वातरंहा मनोजवः।
चन्दनी पद्मनालाग्रः सुरभ्युत्तरणो नरः॥106॥
कर्णिकारमहास्रग्वी नीलमौलिः पिनाकधृत्।
उमापतिरुमाकान्तो जाह्नवीभृदुमाधवः॥107॥
वरो वराहो वरदो वरेण्यः सुमहास्वनः।
महाप्रसादो दमनः शत्रुहा श्वेतपिङ्गलः॥108॥
प्रीतात्मा परमात्मा च प्रयतात्मा प्रधानधृत्।
सर्वपार्श्वमुखस्त्र्यक्षो धर्मसाधारणो वरः॥109॥
चराचरात्मा सूक्ष्मात्मा अमृतो गोवृषेश्वरः।
साध्यर्षिर्वसुरादित्यः विवस्वान्सविताऽमृतः॥110॥
व्यासः सर्गः सुसङ्क्षेपो विस्तरः पर्ययो नरः।
ऋतुः संवत्सरो मासः पक्षः सङ्ख्यासमापनः॥111॥
कला काष्ठा लवा मात्रा मुहूर्ताहः क्षपाः क्षणाः।
विश्वक्षेत्रं प्रजाबीजं लिङ्गमाद्यस्सुनिर्गमः॥112॥
सदसद्व्यक्तमव्यक्तं पिता माता पितामहः।
स्वर्गद्वारं प्रजाद्वारं मोक्षद्वारं त्रिविष्टपम्॥113॥
निर्वाणं ह्लादनश्चैव ब्रह्मलोकः परागतिः।
देवासुरविनिर्माता देवासुरपरायणः॥114॥
देवासुरगुरुर्देवो देवासुरनमस्कृतः।
देवासुरमहामात्रो देवासुरगणाश्रयः॥115॥
देवासुरगणाध्यक्षो देवासुरगणाग्रणीः।
देवादिदेवो देवर्षिर्देवासुरवरप्रदः॥116॥
देवासुरेश्वरो विश्वो देवासुरमहेश्वरः।
सर्वदेवमयोऽचिन्त्यो देवतात्माऽऽत्मसम्भवः॥117॥
उद्भित्त्रिविक्रमो वैद्यो विरजो नीरजोऽमरः।
ईड्यो हस्तीश्वरो व्याघ्रो देवसिंहो नरर्षभः॥118॥
विबुधोऽग्रवरः सूक्ष्मः सर्वदेवस्तपोमयः।
सुयुक्तः शोभनो वज्री प्रासानाम्प्रभवोऽव्ययः॥119॥
गुहः कान्तो निजः सर्गः पवित्रं सर्वपावनः।
शृङ्गी शृङ्गप्रियो बभ्रू राजराजो निरामयः॥120॥
अभिरामः सुरगणो विरामः सर्वसाधनः।
ललाटाक्षो विश्वदेवो हरिणो ब्रह्मवर्चसः॥121॥
स्थावराणाम्पतिश्चैव नियमेन्द्रियवर्धनः।
सिद्धार्थः सिद्धभूतार्थोऽचिन्त्यः सत्यव्रतः शुचिः॥122॥
व्रताधिपः परं ब्रह्म भक्तानाम्परमागतिः।
विमुक्तो मुक्ततेजाश्च श्रीमान् श्रीवर्धनो जगत्॥123॥
इति श्री शिव सहस्रनाम स्तोत्र
शिव सहस्त्रनाम :: भगवान शिव के 1,008 नाम  जिसका वर्णन कई पुराणों के साथ लिंग पुराण में शिव सहस्त्रनाम स्तोत्रम में भी किया गया हैम। शिव के सहस्त्र नाम स्वयं श्री हरी विष्णु ने सर्वप्रथम उच्चरित किये थे, जब एक कथा अनुसार हरी को शिव जी को 1,008 तरह के पुष्प अर्पित करने थे और हर पुष्प के साथ श्री हरी शिव का एक नाम ले रहे थे।
(1). ॐ स्थिराय नमः। Om Sthiray Namah.
(2). ॐ स्थाणवे नमः। Om Sthanve Namah.
(3). ॐ प्रभवे नमः। Om Prabhve Namah.
(4). ॐ भीमाय नमः। Om Bhimay Namah.
(5). ॐ प्रवराय नमः। Om Pravaray Namah.
(6). ॐ वरदाय नमः। Om Varaday Namah.
(7). ॐ वराय नमः। Om Varay Namah.
(8). ॐ सर्वात्मने नमः। Om Sarvatmne Namah.
(9). ॐ सर्वविख्याताय नमः। Om Sarvvikhyatay Namah.
(10). ॐ सर्वस्मै नमः। Om Sarvasmae Namah.
(11). ॐ सर्वकराय नमः। Om Sarvkaray Namah.
(12). ॐ भवाय नमः। Om Bhavay Namah.
(13). ॐ जटिने नमः। Om Jatine Namah.
(14). ॐ चर्मिणे नमः। Om Charmine Namah.
(15). ॐ शिखण्डिने नमः। Om Shikhandine Namah.
(16). ॐ सर्वाङ्गाय नमः। Om Sarvangay Namah.
(17). ॐ सर्वभावनाय नमः। Om Sarvbhavanay Namah.
(18). ॐ हराय नमः। Om Haray Namah.
(19). ॐ हरिणाक्षाय नमः। Om Harinakshay Namah.
(20). ॐ सर्वभूतहराय नमः। Om Sarvbhuthray Namah.
(21). ॐ प्रभवे नमः। Om Prabhve Namah.
(22). ॐ प्रवृत्तये नमः। Om Pravrttaye Namah.
(23). ॐ निवृत्तये नमः। Om Nivrttaye Namah.
(24). ॐ नियताय नमः। Om Niytay Namah.
(25). ॐ शाश्वताय नमः। Om Shashvtay Namah.
(26). ॐ ध्रुवाय नमः। Om Dhruvay Namah.
(27). ॐ श्मशानवासिने नमः। Om Shmashanvasine Namah.
(28). ॐ भगवते नमः। Om Bhagwate Namah.
(29). ॐ खचराय नमः। Om Khachray Namah.
(30). ॐ गोचराय नमः। Om Gochray Namah.
(31). ॐ अर्दनाय नमः। Om Ardnay Namah.
(32). ॐ अभिवाद्याय नमः। Om Abhivadyay Namah.
(33). ॐ महाकर्मणे नमः। Om Mahakarmane Namah.
(34). ॐ तपस्विने नमः। Om Tapaswine Namah।
(35). ॐ भूतभावनाय नमः। Om Bhutbhavnay Namah.
(36). ॐ उन्मत्तवेषप्रच्छन्नाय नमः। Om Unmattveshprachchhannay Namah.
(37). ॐ सर्वलोकप्रजापतये नमः। Om Sarvlokprajapatye Namah.
(38). ॐ महारूपाय नमः। Om Maharupay Namah.
(39). ॐ महाकायाय नमः। Om Mahakayay Namah.
(40). ॐ वृषरूपाय नमः। Om Vrashrupay Namah.
(41). ॐ महायशसे नमः। Om Mahayashse Namah.
(42). ॐ महात्मने नमः। Om Mahatmane Namah.
(43). ॐ सर्वभूतात्मने नमः। Om Sarvabhutatmane Namah.
(44). ॐ विश्वरूपाय नमः। Om Vishvrupay Namah.
(45). ॐ महाहनवे नमः। Om Mahahanve Namah.
(46). ॐ लोकपालाय नमः। Om Lokpalay Namah.
(47). ॐ अन्तर्हितात्मने नमः। Om Antarhitatmne Namah.
(48). ॐ प्रसादाय नमः। Om Prasaday Namah.
(49). ॐ हयगर्दभये नमः। Om Hayagardarbhaye Namah.
(50). ॐ पवित्राय नमः। Om Pavitray Namah.
(51). ॐ महते नमः। Om Mahate Namah.
(52). ॐ नियमाय नमः। Om Niymay Namah.
(53). ॐ नियमाश्रिताय नमः। Om Niymashritay Namah.
(54). ॐ सर्वकर्मणे नमः। Om Sarvkarmane Namah.
(55). ॐ स्वयम्भूताय नमः। Om Swayambhutay Namah.
(56). ॐ आदये नमः। Om Adye Namah.
(57). ॐ आदिकराय नमः। Om Adikaray Namah.
(58). ॐ निधये नमः। Om Nidhye Namah.
(59). ॐ सहस्राक्षाय नमः। Om Sahasrakshay Namah.
60). ॐ विशालाक्षाय नमः। Om Vishalakshay Namah.
(61). ॐ सोमाय नमः। Om Somay Namah.
(62). ॐ नक्षत्रसाधकाय नमः। Om Nakshatrsadhakay Namah.
(63). ॐ चन्द्राय नमः। Om Chandray Namah.
(64). ॐ सूर्याय नमः। Om Suryay Namah.
(65). ॐ शनये नमः। Om Shanye Namah.
(66). ॐ केतवे नमः। Om Ketve Namah.
(67). ॐ ग्रहाय नमः। Om Grahay Namah.
(68). ॐ ग्रहपतये नमः। Om Grahpatye Namah.
(69). ॐ वराय नमः। Om Varay Namah.
(70). ॐ अत्रये नमः। Om Atraye Namah.
(71). ॐ अत्र्या नमस्कर्त्रे नमः। Om Atrya Namaskartre Namah.
(72). ॐ मृगबाणार्पणाय नमः। Om Mragbanarpanay Namah.
(73). ॐ अनघाय नमः। Om Anghay Namah.
(74). ॐ महातपसे नमः। Om Mahatapse Namah.
(75). ॐ घोरतपसे नमः। Om Ghoratpase Namah.
(76). ॐ अदीनाय नमः। Om Adinay Namah.
(77). ॐ दीनसाधकाय नमः। Om Dinsadhkay Namah.
(78). ॐ संवत्सरकराय नमः। Om Samvatsarkaray Namah.
(79). ॐ मन्त्राय नमः। Om Mantray Namah.
(80). ॐ प्रमाणाय नमः। Om Pramanay Namah.
(81). ॐ परमाय तपसे नमः। Om Parmay Tapse Namah.
(82). ॐ योगिने नमः। Om Yogine Namah.
(83). ॐ योज्याय नमः। Om Yojyay Namah.
(84). ॐ महाबीजाय नमः। Om Mahabijay Namah.
(85). ॐ महारेतसे नमः। Om Maharetse Namah.
(86). ॐ महाबलाय नमः। Om Mahablay Namah.
(87). ॐ सुवर्णरेतसे नमः। Om Suvarnretse Namah.
(88). ॐ सर्वज्ञाय नमः। Om Sarvgyay Namah.
(89). ॐ सुबीजाय नमः। Om Subijay Namah.
(90). ॐ बीजवाहनाय नमः। Om Bijvahanay Namah.
(91). ॐ दशबाहवे नमः। Om Dashbahve Namah.
(92). ॐ अनिमिषाय नमः। Om Animishay Namah.
(93). ॐ नीलकण्ठाय नमः। Om Nilkanthay Namah.
(94). ॐ उमापतये नमः। Om Umapatye Namah.
(95). ॐ विश्वरूपाय नमः। Om Vishvrupay Namah.
(96). ॐ स्वयंश्रेष्ठाय नमः। Om Swayamshreshthay Namah.
(97). ॐ बलवीराय नमः। Om Balviray Namah.
(98). ॐ अबलोगणाय नमः। Om Abloganay Namah.
(99). ॐ गणकर्त्रे नमः। Om Gankartre Namah.
(100). ॐ गणपतये नमः। Om Ganpataye Namah.
(101). ॐ दिग्वाससे नमः। Om Digvasase Namah.
(102). ॐ कामाय नमः। Om Kamay Namah.
(103). ॐ मन्त्रविदे नमः। Om Mantrvide Namah.
(104). ॐ परममन्त्राय नमः। Om Parammantray Namah.
(105). ॐ सर्वभावकराय नमः। Om Sarvbhavkray Namah.
(106). ॐ हराय नमः। Om Haray Namah.
(107). ॐ कमण्डलुधराय नमः। Om Kamandaludharay Namah.
(108). ॐ धन्विने नमः। Om Dhanwine Namah.
(109). ॐ बाणहस्ताय नमः। Om Banhastay Namah.
(110). ॐ कपालवते नमः। Om Kapalwate Namah.
(111). ॐ अशनिने नमः। Om Ashnine Namah.
(112). ॐ शतघ्निने नमः। Om Shatghnine Namah.
(113). ॐ खड्गिने नमः। Om Khadgine Namah.
(114). ॐ पट्टिशिने नमः। Om Pattishine Namah.
(115). ॐ आयुधिने नमः। Om Ayudhine Namah.
(116). ॐ महते नमः। Om Mahate Namah.
(117). ॐ स्रुवहस्ताय नमः। Om Sruvahstay Namah.
(118). ॐ सुरूपाय नमः। Om Surupay Namah.
(119). ॐ तेजसे नमः। Om Tejse Namah.
(120). ॐ तेजस्करनिधये नमः। Om Tejskarnidhaye Namah.
(121). ॐ उष्णीषिणे नमः। Om Ushnishine Namah.
(122). ॐ सुवक्त्राय नमः। Om Suvaktray Namah.
(123). ॐ उदग्राय नमः। Om Udagray Namah.
(124). ॐ विनताय नमः। Om Vinatay Namah.
(125). ॐ दीर्घाय नमः। Om Dirghay Namah.
(126). ॐ हरिकेशाय नमः। Om Harikeshay Namah.
(127). ॐ सुतीर्थाय नमः। Om Sutirthay Namah.
(128). ॐ कृष्णाय नमः। Om Krashnay Namah.
(129). ॐ शृगालरूपाय नमः। Om Shragalrupay Namah.
(130). ॐ सिद्धार्थाय नमः। Om Siddharthay Namah.
(131). ॐ मुण्डाय नमः। Om Munday Namah.
(132). ॐ सर्वशुभङ्कराय नमः। Om Sarvshubhankray Namah.
(133). ॐ अजाय नमः। Om Ajay Namah.
(134). ॐ बहुरूपाय नमः। Om Bahurupay Namah.
(135). ॐ गन्धधारिणे नमः। Om Gandhdharine Namah.
(136). ॐ कपर्दिने नमः। Om Kapardine Namah.
(137). ॐ ऊर्ध्वरेतसे नमः। Om Urdhvretse Namah.
(138). ॐ ऊर्ध्वलिङ्गाय नमः। Om Urdhvlingay Namah.
(139). ॐ ऊर्ध्वशायिने नमः। Om Urdhvshayine Namah.
(140). ॐ नभःस्थलाय नमः। Om Nabh:sthlay Namah.
(141). ॐ त्रिजटिने नमः। Om Trijtine Namah.
(142). ॐ चीरवाससे नमः। Om Chirvasse Namah.
(143). ॐ रुद्राय नमः। Om Rudray Namah.
(144). ॐ सेनापतये नमः। Om Senapataye Namah.
(145). ॐ विभवे नमः। Om Vibhave Namah.
(146). ॐ अहश्चराय नमः। Om Ahashcharay Namah.
(147). ॐ नक्तञ्चराय नमः। Om Naktancharay Namah.
(148). ॐ तिग्ममन्यवे नमः। Om Tigmmanyve Namah.
(149). ॐ सुवर्चसाय नमः। Om Suvarchsay Namah.
(150). ॐ गजघ्ने नमः। Om Gajaghne Namah.
(151). ॐ दैत्यघ्ने नमः। Om Daetyaghne Namah.
(152). ॐ कालाय नमः। Om Kalay Namah.
(153). ॐ लोकधात्रे नमः। Om Lokdhatre Namah.
(154). ॐ गुणाकराय नमः। Om Gunakaray Namah.
(155). ॐ सिंहशार्दूलरूपाय नमः। Om Sinhshardulrupay Namah.
(156). ॐ आर्द्रचर्माम्बरावृताय नमः। Om Ardrcharmambravratay Namah.
(157). ॐ कालयोगिने नमः। Om Kalyogine Namah.
(158). ॐ महानादाय नमः। Om Mahanaday Namah.
(159). ॐ सर्वकामाय नमः। Om Sarvkamay Namah.
(160). ॐ चतुष्पथाय नमः। Om Chatushpathay Namah.
(161). ॐ निशाचराय नमः। Om Nishachray Namah.
(162). ॐ प्रेतचारिणे नमः। Om Pretcharine Namah.
(163). ॐ भूतचारिणे नमः। Om Bhutcharine Namah.
(164). ॐ महेश्वराय नमः। Om Maheshwray Namah.
(165). ॐ बहुभूताय नमः। Om Bahubhutay Namah.
(166). ॐ बहुधराय नमः। Om Bahudharay Namah.
(167). ॐ स्वर्भानवे नमः। Om Swarbhanve Namah.
(168). ॐ अमिताय नमः। Om Amitay Namah.
(169). ॐ गतये नमः। Om Gatye Namah.
(170) ॐ नृत्यप्रियाय नमः। Om Nratypriyay Namah.
(171). ॐ नित्यनर्ताय नमः। Om Nitynartay Namah.
(172). ॐ नर्तकाय नमः। Om Nartkay Namah.
(173). ॐ सर्वलालसाय नमः। Om Sarvlalsay Namah.
(174). ॐ घोराय नमः। Om Ghoray Namah.
(175). ॐ महातपसे नमः। Om Mahatapse Namah.
(176). ॐ पाशाय नमः। Om Pashay Namah.
(177). ॐ नित्याय नमः। Om Nityay Namah.
(178). ॐ गिरिरुहाय नमः। Om Giriruhay Namah.
(179). ॐ नभसे नमः। Om Nabhase Namah.
(180). ॐ सहस्रहस्ताय नमः। Om Sahasrhastay Namah.
(181). ॐ विजयाय नमः। Om Vijyay Namah.
(182). ॐ व्यवसायाय नमः। Om Vyavsayay Namah.
(183). ॐ अतन्द्रिताय नमः। Om Atandritay Namah.
(184). ॐ अधर्षणाय नमः। Om Adharshanay Namah.
(185). ॐ धर्षणात्मने नमः। Om Dharshnatmane Namah.
(186). ॐ यज्ञघ्ने नमः। Om Yagyghne Namah.
(187). ॐ कामनाशकाय नमः। Om Kamanashakaya Namah.
(188). ॐ दक्षयागापहारिणे नमः। Om Dakshayagapaharine Namah.
(189). ॐ सुसहाय नमः। Om Sushay Namah.
(190). ॐ मध्यमाय नमः। Om Madhymay Namah.
(191). ॐ तेजोऽपहारिणे नमः। Om Tejoapaharine Namah.
(192). ॐ बलघ्ने नमः। Om Balghne Namah.
(193). ॐ मुदिताय नमः। Om Muditay Namah.
(194). ॐ अर्थाय नमः। Om Arthay Namah.
(195). ॐ अजिताय नमः। Om Ajitay Namah.
(196). ॐ अवराय नमः। Om Avray Namah.
(197). ॐ गम्भीरघोषाय नमः। Om Gambhirghoshay Namah.
(198). ॐ गम्भीराय नमः। Om Gambhiray Namah.
(199). ॐ गम्भीरबलवाहनाय नमः। Om Gambhirbalvahanay Namah.
(200). ॐ न्यग्रोधरूपाय नमः। Om Nygrodhrupay Namah.
(201). ॐ न्यग्रोधाय नमः। Om Nyagrodhay Namah.
(202). ॐ वृक्षकर्णस्थितये नमः। Om Vrakshkarnsthitaye Namah.
(203). ॐ विभवे नमः। Om Vibhave Namah.
(204). ॐ सुतीक्ष्णदशनाय नमः। Om Sutikshndashanay Namah.
(205). ॐ महाकायाय नमः। Om Mahakayay Namah.
(206). ॐ महाननाय नमः। Om Mahananay Namah.
(207). ॐ विष्वक्सेनाय नमः। Om Vishvaksenay Namah.
(208). ॐ हरये नमः। Om Harye Namah.
(209). ॐ यज्ञाय नमः। Om Yagyay Namah.
(210). ॐ संयुगापीडवाहनाय नमः। Om Sanyugapidvahnay Namah.
(211). ॐ तीक्ष्णतापाय नमः। Om Tikshntapay Namah.
(212). ॐ हर्यश्वाय नमः। Om Haryshway Namah.
(213). ॐ सहायाय नमः। Om Sahayay Namah.
(214). ॐ कर्मकालविदे नमः। Om Karmkalvide Namah.
(215). ॐ विष्णुप्रसादिताय नमः। Om Vishnuprasaditay Namah.
(216). ॐ यज्ञाय नमः। Om Yagyay Namah.
(217). ॐ समुद्राय नमः। Om Samudray Namah.
(218). ॐ वडवामुखाय नमः। Om Vadvmukhay Namah.
(219). ॐ हुताशनसहायाय नमः। Om Hutashansahayay Namah.
(220). ॐ प्रशान्तात्मने नमः। Om Prashantatmane Namah.
(221). ॐ हुताशनाय नमः। Om Hutashnay Namah.
(222). ॐ उग्रतेजसे नमः। Om Ugratejse Namah.
(223). ॐ महातेजसे नमः। Om Mahatejse Namah.
(224). ॐ जन्याय नमः। Om Janyay Namah.
(225). ॐ विजयकालविदे नमः। Om Vijaykalvide Namah.
(226). ॐ ज्योतिषामयनाय नमः। Om Jyotishamaynay Namah.
(227). ॐ सिद्धये नमः। Om Siddhye Namah.
(228). ॐ सर्वविग्रहाय नमः। Om Sarvvigrhay Namah.
(229). ॐ शिखिने नमः। Om Shikhine Namah.
(230). ॐ मुण्डिने नमः। Om Mundine Namah.
(231). ॐ जटिने नमः। Om Jatine Namah.
(232). ॐ ज्वालिने नमः। Om Jwaline Namah.
(233). ॐ मूर्तिजाय नमः। Om Murtijay Namah.
(234). ॐ मूर्द्धगाय नमः। Om Murddhgay Namah.
(235) ॐ बलिने नमः। Om Baline Namah.
(236). ॐ वेणविने नमः। Om Venvine Namah.
(237). ॐ पणविने नमः। Om Panvine Namah.
(238). ॐ तालिने नमः। Om Taline Namah.
(239). ॐ खलिने नमः। Om Khaline Namah.
(240). ॐ कालकटङ्कटाय नमः। Om Kalaktanktay Namah.
(241). ॐ नक्षत्रविग्रहमतये नमः। Om Nakshtravigrahmatye Namah.
(242). ॐ गुणबुद्धये नमः। Om Gunbuddhye Namah.
(243). ॐ लयाय नमः। Om Layay Namah.
(244). ॐ अगमाय नमः। Om Agmay Namah.
(245). ॐ प्रजापतये नमः। Om Prajaptaye Namah.
(246). ॐ विश्वबाहवे नमः। Om Vishvbahave Namah.
(247). ॐ विभागाय नमः। Om Vibhagay Namah.
(248). ॐ सर्वगाय नमः। Om Sarvgay Namah.
(249). ॐ अमुखाय नमः। Om Amukhay Namah.
(250). ॐ विमोचनाय नमः। Om Vimochanay Namah.

251 ॐ सुसरणाय नमः। Om Susaranaya Namah।
252 ॐ हिरण्यकवचोद्भवाय नमः। Om Hiranyakavachodbhavaya Namah।
253 ॐ मेढ्रजाय नमः। Om Medhrajaya Namah।
254 ॐ बलचारिणे नमः। Om Balacharine Namah।
255 ॐ महीचारिणे नमः। Om Mahicharine Namah।
256 ॐ स्रुताय नमः। Om Srutaya Namah।
257 ॐ सर्वतूर्यनिनादिने नमः। Om Sarvaturyaninadine Namah।
258 ॐ सर्वातोद्यपरिग्रहाय नमः। Om Sarvatodyaparigrahaya Namah।
259 ॐ व्यालरूपाय नमः। Om Vyalarupaya Namah।
260 ॐ गुहावासिने नमः। Om Guhavasine Namah।
261 ॐ गुहाय नमः। Om Guhaya Namah।
262 ॐ मालिने नमः। Om Maline Namah।
263 ॐ तरङ्गविदे नमः। Om Tarangavide Namah।
264 ॐ त्रिदशाय नमः। Om Tridashaya Namah।
265 ॐ त्रिकालधृषे नमः। Om Trikaladhrishe Namah।
266 ॐ कर्मसर्वबन्धविमोचनाय नमः। Om Karmasarvabandhavimochanaya Namah।
267 ॐ असुरेन्द्राणां बन्धनाय नमः। Om Asurendranam Bandhanaya Namah।
268 ॐ युधि शत्रुविनाशनाय नमः। Om Yudhi Shatruvinashanaya Namah।
269 ॐ साङ्ख्यप्रसादाय नमः। Om Sankhyaprasadaya Namah।
270 ॐ दुर्वाससे नमः। Om Durvasase Namah।
271 ॐ सर्वसाधुनिषेविताय नमः। Om Sarvasadhunishevitaya Namah।
272 ॐ प्रस्कन्दनाय नमः। Om Praskandanaya Namah।
273 ॐ विभागज्ञाय नमः। Om Vibhagajnaya Namah।
274 ॐ अतुल्याय नमः। Om Atulyaya Namah।
275 ॐ यज्ञविभागविदे नमः। Om Yajnavibhagavide Namah।
276 ॐ सर्ववासाय नमः। Om Sarvavasaya Namah।
277 ॐ सर्वचारिणे नमः। Om Sarvacharine Namah।
278 ॐ दुर्वाससे नमः। Om Durvasase Namah।
279 ॐ वासवाय नमः। Om Vasavaya Namah।
280 ॐ अमराय नमः। Om Amaraya Namah।
281 ॐ हैमाय नमः। Om Haimaya Namah।
282 ॐ हेमकराय नमः। Om Hemakaraya Namah।
283 ॐ अयज्ञाय नमः। Om Ayajnaya Namah।
284 ॐ सर्वधारिणे नमः। Om Sarvadharine Namah।
285 ॐ धरोत्तमाय नमः। Om Dharottamaya Namah।
286 ॐ लोहिताक्षाय नमः। Om Lohitakshaya Namah।
287 ॐ महाक्षाय नमः। Om Mahakshaya Namah।
288 ॐ विजयाक्षाय नमः। Om Vijayakshaya Namah।
289 ॐ विशारदाय नमः। Om Visharadaya Namah।
290 ॐ सङ्ग्रहाय नमः। Om Sangrahaya Namah।
291 ॐ निग्रहाय नमः। Om Nigrahaya Namah।
292 ॐ कर्त्रे नमः। Om Kartre Namah।
293 ॐ सर्पचीरनिवासनाय नमः। Om Sarpachiranivasanaya Namah।
294 ॐ मुख्याय नमः। Om Mukhyaya Namah।
295 ॐ अमुख्याय नमः। Om Amukhyaya Namah।
296 ॐ देहाय नमः। Om Dehaya Namah।
297 ॐ काहलये नमः। Om Kahalaye Namah।
298 ॐ सर्वकामदाय नमः। Om Sarvakamadaya Namah।
299 ॐ सर्वकालप्रसादये नमः। Om Sarvakalaprasadaye Namah।
300 ॐ सुबलाय नमः। Om Subalaya Namah।

301- 400 – Shiv ke 1008 Naam in Hindi Pdf Download

301 ॐ बलरूपधृषे नमः। Om Balarupadhrishe Namah।
302 ॐ सर्वकामवराय नमः। Om Sarvakamavaraya Namah।
303 ॐ सर्वदाय नमः। Om Sarvadaya Namah।
304 ॐ सर्वतोमुखाय नमः। Om Sarvatomukhaya Namah।
305 ॐ आकाशनिर्विरूपाय नमः। Om Akashanirvirupaya Namah।
306 ॐ निपातिने नमः। Om Nipatine Namah।
307 ॐ अवशाय नमः। Om Avashaya Namah।
308 ॐ खगाय नमः। Om Khagaya Namah।
309 ॐ रौद्ररूपाय नमः। Om Raudrarupaya Namah।
310 ॐ अंशवे नमः। Om Amshave Namah।
311 ॐ आदित्याय नमः। Om Adityaya Namah।
312 ॐ बहुरश्मये नमः। Om Bahurashmaye Namah।
313 ॐ सुवर्चसिने नमः। Om Suvarchasine Namah।
314 ॐ वसुवेगाय नमः। Om Vasuvegaya Namah।
315 ॐ महावेगाय नमः। Om Mahavegaya Namah।
316 ॐ मनोवेगाय नमः। Om Manovegaya Namah।
317 ॐ निशाचराय नमः। Om Nishacharaya Namah।
318 ॐ सर्ववासिने नमः। Om Sarvavasine Namah।
319 ॐ श्रियावासिने नमः। Om Shriyavasine Namah।
320 ॐ उपदेशकराय नमः। Om Upadeshakaraya Namah।
321 ॐ अकराय नमः। Om Akaraya Namah।
322 ॐ मुनये नमः। Om Munaye Namah।
323 ॐ आत्मनिरालोकाय नमः। Om Atmaniralokaya Namah।
324 ॐ सम्भग्नाय नमः। Om Sambhagnaya Namah।
325 ॐ सहस्रदाय नमः। Om Sahasradaya Namah।
326 ॐ पक्षिणे नमः। Om Pakshine Namah।
327 ॐ पक्षरूपाय नमः। Om Paksharupaya Namah।
328 ॐ अतिदीप्ताय नमः। Om Atidiptaya Namah।
329 ॐ विशाम्पतये नमः। Om Vishampataye Namah।
330 ॐ उन्मादाय नमः। Om Unmadaya Namah।
331 ॐ मदनाय नमः। Om Madanaya Namah।
332 ॐ कामाय नमः। Om Kamaya Namah।
333 ॐ अश्वत्थाय नमः। Om Ashvatthaya Namah।
334 ॐ अर्थकराय नमः। Om Arthakaraya Namah।
335 ॐ यशसे नमः। Om Yashase Namah।
336 ॐ वामदेवाय नमः। Om Vamadevaya Namah।
337 ॐ वामाय नमः। Om Vamaya Namah।
338 ॐ प्राचे नमः। Om Prache Namah।
339 ॐ दक्षिणाय नमः। Om Dakshinaya Namah।
340 ॐ वामनाय नमः। Om Vamanaya Namah।
341 ॐ सिद्धयोगिने नमः। Om Siddhayogine Namah।
342 ॐ महर्षये नमः। Om Maharshaye Namah।
343 ॐ सिद्धार्थाय नमः। Om Siddharthaya Namah।
344 ॐ सिद्धसाधकाय नमः। Om Siddhasadhakaya Namah।
345 ॐ भिक्षवे नमः। Om Bhikshave Namah।
346 ॐ भिक्षुरूपाय नमः। Om Bhikshurupaya Namah।
347 ॐ विपणाय नमः। Om Vipanaya Namah।
348 ॐ मृदवे नमः। Om Mridave Namah।
349 ॐ अव्ययाय नमः। Om Avyayaya Namah।
350 ॐ महासेनाय नमः। Om Mahasenaya Namah।
351 ॐ विशाखाय नमः। Om Vishakhaya Namah।
352 ॐ षष्टिभागाय नमः। Om Shashtibhagaya Namah।
353 ॐ गवाम्पतये नमः। Om Gavampataye Namah।
354 ॐ वज्रहस्ताय नमः। Om Vajrahastaya Namah।
355 ॐ विष्कम्भिने नमः। Om Vishkambhine Namah।
356 ॐ चमूस्तम्भनाय नमः। Om Chamustambhanaya Namah।
357 ॐ वृत्तावृत्तकराय नमः। Om Vrittavrittakaraya Namah।
358 ॐ तालाय नमः। Om Talaya Namah।
359 ॐ मधवे नमः। Om Madhave Namah।
360 ॐ मधुकलोचनाय नमः। Om Madhukalochanaya Namah।
361 ॐ वाचस्पत्याय नमः। Om Vachaspatyaya Namah।
362 ॐ वाजसनाय नमः। Om Vajasanaya Namah।
363 ॐ नित्यमाश्रमपूजिताय नमः। Om Nityamashramapujitaya Namah।
364 ॐ ब्रह्मचारिणे नमः। Om Brahmacharine Namah।
365 ॐ लोकचारिणे नमः। Om Lokacharine Namah।
366 ॐ सर्वचारिणे नमः। Om Sarvacharine Namah।
367 ॐ विचारविदे नमः। Om Vicharavide Namah।
368 ॐ ईशानाय नमः। Om Ishanaya Namah।
369 ॐ ईश्वराय नमः। Om Ishwaraya Namah।
370 ॐ कालाय नमः। Om Kalaya Namah।
371 ॐ निशाचारिणे नमः। Om Nishacharine Namah।
372 ॐ पिनाकवते नमः। Om Pinakavate Namah।
373 ॐ निमित्तस्थाय नमः। Om Nimittasthaya Namah।
374 ॐ निमित्ताय नमः। Om Nimittaya Namah।
375 ॐ नन्दये नमः। Om Nandaye Namah।
376 ॐ नन्दिकराय नमः। Om Nandikaraya Namah।
377 ॐ हरये नमः। Om Haraye Namah।
378 ॐ नन्दीश्वराय नमः। Om Nandishwaraya Namah।
379 ॐ नन्दिने नमः। Om Nandine Namah।
380 ॐ नन्दनाय नमः। Om Nandanaya Namah।
381 ॐ नन्दिवर्द्धनाय नमः। Om Nandivarddhanaya Namah।
382 ॐ भगहारिणे नमः। Om Bhagaharine Namah।
383 ॐ निहन्त्रे नमः। Om Nihantre Namah।
384 ॐ कालाय नमः। Om Kalaya Namah।
385 ॐ ब्रह्मणे नमः। Om Brahmane Namah।
386 ॐ पितामहाय नमः। Om Pitamahaya Namah।
387 ॐ चतुर्मुखाय नमः। Om Chaturmukhaya Namah।
388 ॐ महालिङ्गाय नमः। Om Mahalingaya Namah।
389 ॐ चारुलिङ्गाय नमः। Om Charulingaya Namah।
390 ॐ लिङ्गाध्यक्षाय नमः। Om Lingadhyakshaya Namah।
391 ॐ सुराध्यक्षाय नमः। Om Suradhyakshaya Namah।
392 ॐ योगाध्यक्षाय नमः। Om Yogadhyakshaya Namah।
393 ॐ युगावहाय नमः। Om Yugavahaya Namah।
394 ॐ बीजाध्यक्षाय नमः। Om Bijadhyakshaya Namah।
395 ॐ बीजकर्त्रे नमः। Om Bijakartre Namah।
396 ॐ अध्यात्मानुगताय नमः। Om Adhyatmanugataya Namah।
397 ॐ बलाय नमः। Om Balaya Namah।
398 ॐ इतिहासाय नमः। Om Itihasaya Namah।
399 ॐ सकल्पाय नमः। Om Sakalpaya Namah।
400 ॐ गौतमाय नमः। Om Gautamaya Namah।

401-500 – Shiv ke 1008 Naam in Hindi Pdf Download

401 ॐ निशाकराय नमः। Om Nishakaraya Namah।
402 ॐ दम्भाय नमः। Om Dambhaya Namah।
403 ॐ अदम्भाय नमः। Om Adambhaya Namah।
404 ॐ वैदम्भाय नमः। Om Vaidambhaya Namah।
405 ॐ वश्याय नमः। Om Vashyaya Namah।
406 ॐ वशकराय नमः। Om Vashakaraya Namah।
407 ॐ कलये नमः। Om Kalaye Namah।
408 ॐ लोककर्त्रे नमः। Om Lokakartre Namah।
409 ॐ पशुपतये नमः। Om Pashupataye Namah।
410 ॐ महाकर्त्रे नमः। Om Mahakartre Namah।
411 ॐ अनौषधाय नमः। Om Anaushadhaya Namah।
412 ॐ अक्षराय नमः। Om Aksharaya Namah।
413 ॐ परमब्रह्मणे नमः। Om Paramabrahmane Namah।
414 ॐ बलवते नमः। Om Balawate Namah।
415 ॐ शक्राय नमः। Om Shakraya Namah।
416 ॐ नीतये नमः। Om Nitaye Namah।
417 ॐ अनीतये नमः। Om Anitaye Namah।
418 ॐ शुद्धात्मने नमः। Om Shuddhatmane Namah।
419 ॐ शुद्धाय नमः। Om Shuddhaya Namah।
420 ॐ मान्याय नमः। Om Manyaya Namah।
421 ॐ गतागताय नमः। Om Gatagataya Namah।
422 ॐ बहुप्रसादाय नमः। Om Bahuprasadaya Namah।
423 ॐ सुस्वप्नाय नमः। Om Suswapnaya Namah।
424 ॐ दर्पणाय नमः। Om Darpanaya Namah।
425 ॐ अमित्रजिते नमः। Om Amitrajite Namah।
426 ॐ वेदकाराय नमः। Om Vedakaraya Namah।
427 ॐ मन्त्रकाराय नमः। Om Mantrakaraya Namah।
428 ॐ विदुषे नमः। Om Vidushe Namah।
429 ॐ समरमर्दनाय नमः। Om Samaramardanaya Namah।
430 ॐ महामेघनिवासिने नमः। Om Mahameghanivasine Namah।
431 ॐ महाघोराय नमः। Om Mahaghoraya Namah।
432 ॐ वशिने नमः। Om Vashine Namah।
433 ॐ कराय नमः। Om Karaya Namah।
434 ॐ अग्निज्वालाय नमः। Om Agnijwalaya Namah।
435 ॐ महाज्वालाय नमः। Om Mahajwalaya Namah।
436 ॐ अतिधूम्राय नमः। Om Atidhumraya Namah।
437 ॐ हुताय नमः। Om Hutaya Namah।
438 ॐ हविषे नमः। Om Havishe Namah।
439 ॐ वृषणाय नमः। Om Vrishanaya Namah।
440 ॐ शङ्कराय नमः। Om Shankaraya Namah।
441 ॐ नित्यं वर्चस्विने नमः। Om Nityam Varchaswine Namah।
442 ॐ धूमकेतनाय नमः। Om Dhumaketanaya Namah।
443 ॐ नीलाय नमः। Om Nilaya Namah।
444 ॐ अङ्गलुब्धाय नमः। Om Angalubdhaya Namah।
445 ॐ शोभनाय नमः। Om Shobhanaya Namah।
446 ॐ निरवग्रहाय नमः। Om Niravagrahaya Namah।
447 ॐ स्वस्तिदाय नमः। Om Swastidaya Namah।
448 ॐ स्वस्तिभावाय नमः। Om Swastibhavaya Namah।
449 ॐ भागिने नमः। Om Bhagine Namah।
450 ॐ भागकराय नमः। Om Bhagakaraya Namah।
451 ॐ लघवे नमः। Om Laghave Namah।
452 ॐ उत्सङ्गाय नमः। Om Utsangaya Namah।
453 ॐ महाङ्गाय नमः। Om Mahangaya Namah।
454 ॐ महागर्भपरायणाय नमः। Om Mahagarbhaparayanaya Namah।
455 ॐ कृष्णवर्णाय नमः। Om Krishnavarnaya Namah।
456 ॐ सुवर्णाय नमः। Om Suvarnaya Namah।
457 ॐ सर्वदेहिनामिन्द्रियाय नमः। Om Sarvadehinamindriyaya Namah।
458 ॐ महापादाय नमः। Om Mahapadaya Namah।
459 ॐ महाहस्ताय नमः। Om Mahahastaya Namah।
460 ॐ महाकायाय नमः। Om Mahakayaya Namah।
461 ॐ महायशसे नमः। Om Mahayashase Namah।
462 ॐ महामूर्ध्ने नमः। Om Mahamurdhne Namah।
463 ॐ महामात्राय नमः। Om Mahamatraya Namah।
464 ॐ महानेत्राय नमः। Om Mahanetraya Namah।
465 ॐ निशालयाय नमः। Om Nishalayaya Namah।
466 ॐ महान्तकाय नमः। Om Mahantakaya Namah।
467 ॐ महाकर्णाय नमः। Om Mahakarnaya Namah।
468 ॐ महोष्ठाय नमः। Om Mahoshthaya Namah।
469 ॐ महाहनवे नमः। Om Mahahanave Namah।
470 ॐ महानासाय नमः। Om Mahanasaya Namah।
471 ॐ महाकम्बवे नमः। Om Mahakambave Namah।
472 ॐ महाग्रीवाय नमः। Om Mahagrivaya Namah।
473 ॐ श्मशानभाजे नमः। Om Shmashanabhaje Namah।
474 ॐ महावक्षसे नमः। Om Mahavakshase Namah।
475 ॐ महोरस्काय नमः। Om Mahoraskaya Namah।
476 ॐ अन्तरात्मने नमः। Om Antaratmane Namah।
477 ॐ मृगालयाय नमः। Om Mrigalayaya Namah।
478 ॐ लम्बनाय नमः। Om Lambanaya Namah।
479 ॐ लम्बितोष्ठाय नमः। Om Lambitoshthaya Namah।
480 ॐ महामायाय नमः। Om Mahamayaya Namah।
481 ॐ पयोनिधये नमः। Om Payonidhaye Namah।
482 ॐ महादन्ताय नमः। Om Mahadantaya Namah।
483 ॐ महादंष्ट्राय नमः। Om Mahadamshtraya Namah।
484 ॐ महजिह्वाय नमः। Om Mahajihvaya Namah।
485 ॐ महामुखाय नमः। Om Mahamukhaya Namah।
486 ॐ महानखाय नमः। Om Mahanakhaya Namah।
487 ॐ महारोम्णे नमः। Om Maharomne Namah।
488 ॐ महाकोशाय नमः। Om Mahakoshaya Namah।
489 ॐ महाजटाय नमः। Om Mahajataya Namah।
490 ॐ प्रसन्नाय नमः। Om Prasannaya Namah।
491 ॐ प्रसादाय नमः। Om Prasadaya Namah।
492 ॐ प्रत्ययाय नमः। Om Pratyayaya Namah।
493 ॐ गिरिसाधनाय नमः। Om Girisadhanaya Namah।
494 ॐ स्नेहनाय नमः। Om Snehanaya Namah।
495 ॐ अस्नेहनाय नमः। Om Asnehanaya Namah।
496 ॐ अजिताय नमः। Om Ajitaya Namah।
497 ॐ महामुनये नमः। Om Mahamunaye Namah।
498 ॐ वृक्षाकाराय नमः। Om Vrikshakaraya Namah।
499 ॐ वृक्षकेतवे नमः। Om Vrikshaketave Namah।
500 ॐ अनलाय नमः। Om Analaya Namah।

501-600 – Shiv ke 1008 Naam in Hindi Pdf Download

501 ॐ वायुवाहनाय नमः। Om Vayuvahanaya Namah।
502 ॐ गण्डलिने नमः। Om Gandaline Namah।
503 ॐ मेरुधाम्ने नमः। Om Merudhamne Namah।
504 ॐ देवाधिपतये नमः। Om Devadhipataye Namah।
505 ॐ अथर्वशीर्षाय नमः। Om Atharvashirshaya Namah।
506 ॐ सामास्याय नमः। Om Samasyaya Namah।
507 ॐ ऋक्सहस्रामितेक्षणाय नमः। Om Riksahasramitekshanaya Namah।
508 ॐ यजुः पाद भुजाय नमः। Om Yajuh Pada Bhujaya Namah।
509 ॐ गुह्याय नमः। Om Guhyaya Namah।
510 ॐ प्रकाशाय नमः। Om Prakashaya Namah।
511 ॐ जङ्गमाय नमः। Om Jangamaya Namah।
512 ॐ अमोघार्थाय नमः। Om Amogharthaya Namah।
513 ॐ प्रसादाय नमः। Om Prasadaya Namah।
514 ॐ अभिगम्याय नमः। Om Abhigamyaya Namah।
515 ॐ सुदर्शनाय नमः। Om Sudarshanaya Namah।
516 ॐ उपकाराय नमः। Om Upakaraya Namah।
517 ॐ प्रियाय नमः। Om Priyaya Namah।
518 ॐ सर्वस्मै नमः। Om Sarvasmai Namah।
519 ॐ कनकाय नमः। Om Kanakaya Namah।
520 ॐ काञ्चनच्छवये नमः। Om Kanchanachchhavaye Namah।
521 ॐ नाभये नमः। Om Nabhaye Namah।
522 ॐ नन्दिकराय नमः। Om Nandikaraya Namah।
523 ॐ भावाय नमः। Om Bhavaya Namah।
524 ॐ पुष्करस्थपतये नमः। Om Pushkarasthapataye Namah।
525 ॐ स्थिराय नमः। Om Sthiraya Namah।
526 ॐ द्वादशाय नमः। Om Dwadashaya Namah।
527 ॐ त्रासनाय नमः। Om Trasanaya Namah।
528 ॐ आद्याय नमः। Om Adyaya Namah।
529 ॐ यज्ञाय नमः। Om Yajnaya Namah।
530 ॐ यज्ञसमाहिताय नमः। Om Yajnasamahitaya Namah।
531 ॐ नक्ताय नमः। Om Naktaya Namah।
532 ॐ कलये नमः। Om Kalaye Namah।
533 ॐ कालाय नमः। Om Kalaya Namah।
534 ॐ मकराय नमः। Om Makaraya Namah।
535 ॐ कालपूजिताय नमः। Om Kalapujitaya Namah।
536 ॐ सगणाय नमः। Om Saganaya Namah।
537 ॐ गणकाराय नमः। Om Ganakaraya Namah।
538 ॐ भूतवाहनसारथये नमः। Om Bhutavahanasarathaye Namah।
539 ॐ भस्मशयाय नमः। Om Bhasmashayaya Namah।
540 ॐ भस्मगोप्त्रे नमः। Om Bhasmagoptre Namah।
541 ॐ भस्मभूताय नमः। Om Bhasmabhutaya Namah।
542 ॐ तरवे नमः। Om Tarave Namah।
543 ॐ गणाय नमः। Om Ganaya Namah।
544 ॐ लोकपालाय नमः। Om Lokapalaya Namah।
545 ॐ अलोकाय नमः। Om Alokaya Namah।
546 ॐ महात्मने नमः। Om Mahatmane Namah।
547 ॐ सर्वपूजिताय नमः। Om Sarvapujitaya Namah।
548 ॐ शुक्लाय नमः। Om Shuklaya Namah।
549 ॐ त्रिशुक्लाय नमः। Om Trishuklaya Namah।
550 ॐ सम्पन्नाय नमः। Om Sampannaya Namah।
551 ॐ शुचये नमः। Om Shuchaye Namah।
552 ॐ भूतनिषेविताय नमः। Om Bhutanishevitaya Namah।
553 ॐ आश्रमस्थाय नमः। Om Ashramasthaya Namah।
554 ॐ क्रियावस्थाय नमः। Om Kriyavasthaya Namah।
555 ॐ विश्वकर्ममतये नमः। Om Vishvakarmamataye Namah।
556 ॐ वराय नमः। Om Varaya Namah।
557 ॐ विशालशाखाय नमः। Om Vishalashakhaya Namah।
558 ॐ ताम्रोष्ठाय नमः। Om Tamroshthaya Namah।
559 ॐ अम्बुजालाय नमः। Om Ambujalaya Namah।
560 ॐ सुनिश्चलाय नमः। Om Sunishchalaya Namah।
561 ॐ कपिलाय नमः। Om Kapilaya Namah।
562 ॐ कपिशाय नमः। Om Kapishaya Namah।
563 ॐ शुक्लाय नमः। Om Shuklaya Namah।
564 ॐ आयुषे नमः। Om Ayushe Namah।
565 ॐ परस्मै नमः। Om Parasmai Namah।
566 ॐ अपरस्मै नमः। Om Aparasmai Namah।
567 ॐ गन्धर्वाय नमः। Om Gandharvaya Namah।
568 ॐ अदितये नमः। Om Aditaye Namah।
569 ॐ तार्क्ष्याय नमः। Om Tarkshyaya Namah।
570 ॐ सुविज्ञेयाय नमः। Om Suvijneyaya Namah।
571 ॐ सुशारदाय नमः। Om Susharadaya Namah।
572 ॐ परश्वधायुधाय नमः। Om Parashvadhayudhaya Namah।
573 ॐ देवाय नमः। Om Devaya Namah।
574 ॐ अनुकारिणे नमः। Om Anukarine Namah।
575 ॐ सुबान्धवाय नमः। Om Subandhavaya Namah।
576 ॐ तुम्बवीणाय नमः। Om Tumbavinaya Namah।
577 ॐ महाक्रोधाय नमः। Om Mahakrodhaya Namah।
578 ॐ ऊर्ध्वरेतसे नमः। Om Urdhvaretase Namah।
579 ॐ जलेशयाय नमः। Om Jaleshayaya Namah।
580 ॐ उग्राय नमः। Om Ugraya Namah।
581 ॐ वंशकराय नमः। Om Vamshakaraya Namah।
582 ॐ वंशाय नमः। Om Vamshaya Namah।
583 ॐ वंशनादाय नमः। Om Vamshanadaya Namah।
584 ॐ अनिन्दिताय नमः। Om Aninditaya Namah।
585 ॐ सर्वाङ्गरूपाय नमः। Om Sarvangarupaya Namah।
586 ॐ मायाविने नमः। Om Mayavine Namah।
587 ॐ सुहृदे नमः। Om Suhride Namah।
588 ॐ अनिलाय नमः। Om Anilaya Namah।
589 ॐ अनलाय नमः। Om Analaya Namah।
590 ॐ बन्धनाय नमः। Om Bandhanaya Namah।
591 ॐ बन्धकर्त्रे नमः। Om Bandhakartre Namah।
592 ॐ सुबन्धनविमोचनाय नमः। Om Subandhanavimochanaya Namah।
593 ॐ सयज्ञारये नमः। Om Sayajnaraye Namah।
594 ॐ सकामारये नमः। Om Sakamaraye Namah।
595 ॐ महादंष्ट्राय नमः। Om Mahadamshtraya Namah।
596 ॐ महायुधाय नमः। Om Mahayudhaya Namah।
597 ॐ बहुधानिन्दिताय नमः। Om Bahudhaninditaya Namah।
598 ॐ शर्वाय नमः। Om Sharwaya Namah।
599 ॐ शङ्कराय नमः। Om Shankaraya Namah।
600 ॐ शङ्कराय नमः। Om Shankaraya Namah।

601-700 – Shiv ke 1008 Naam in Hindi Pdf Download

601 ॐ अधनाय नमः। Om Adhanaya Namah।
602 ॐ अमरेशाय नमः। Om Amareshaya Namah।
603 ॐ महादेवाय नमः। Om Mahadevaya Namah।
604 ॐ विश्वदेवाय नमः। Om Vishvadevaya Namah।
605 ॐ सुरारिघ्ने नमः। Om Surarighne Namah।
606 ॐ अहिर्बुध्न्याय नमः। Om Ahirbudhnyaya Namah।
607 ॐ अनिलाभाय नमः। Om Anilabhaya Namah।
608 ॐ चेकितानाय नमः। Om Chekitanaya Namah।
609 ॐ हविषे नमः। Om Havishe Namah।
610 ॐ अजैकपदे नमः। Om Ajaikapade Namah।
611 ॐ कापालिने नमः। Om Kapaline Namah।
612 ॐ त्रिशङ्कवे नमः। Om Trishankave Namah।
613 ॐ अजिताय नमः। Om Ajitaya Namah।
614 ॐ शिवाय नमः। Om Shivaya Namah।
615 ॐ धन्वन्तरये नमः। Om Dhanwantaraye Namah।
616 ॐ धूमकेतवे नमः। Om Dhumaketave Namah।
617 ॐ स्कन्दाय नमः। Om Skandaya Namah।
618 ॐ वैश्रवणाय नमः। Om Vaishravanaya Namah।
619 ॐ धात्रे नमः। Om Dhatre Namah।
620 ॐ शक्राय नमः। Om Shakraya Namah।
621 ॐ विष्णवे नमः। Om Vishnave Namah।
622 ॐ मित्राय नमः। Om Mitraya Namah।
623 ॐ त्वष्ट्रे नमः। Om Tvashtre Namah।
624 ॐ ध्रुवाय नमः। Om Dhruvaya Namah।
625 ॐ धराय नमः। Om Dharaya Namah।
626 ॐ प्रभावाय नमः। Om Prabhavaya Namah।
627 ॐ सर्वगाय वायवे नमः। Om Sarvagaya Vayave Namah।
628 ॐ अर्यम्णे नमः। Om Aryamne Namah।
629 ॐ सवित्रे नमः। Om Savitre Namah।
630 ॐ रवये नमः। Om Ravaye Namah।
631 ॐ उषङ्गवे नमः। Om Ushangave Namah।
632 ॐ विधात्रे नमः। Om Vidhatre Namah।
633 ॐ मान्धात्रे नमः। Om Mandhatre Namah।
634 ॐ भूतभावनाय नमः। Om Bhutabhavanaya Namah।
635 ॐ विभवे नमः। Om Vibhave Namah।
636 ॐ वर्णविभाविने नमः। Om Varnavibhavine Namah।
637 ॐ सर्वकामगुणावहाय नमः। Om Sarvakamagunavahaya Namah।
638 ॐ पद्मनाभाय नमः। Om Padmanabhaya Namah।
639 ॐ महागर्भाय नमः। Om Mahagarbhaya Namah।
640 ॐ चन्द्रवक्त्राय नमः। Om Chandravaktraya Namah।
641 ॐ अनिलाय नमः। Om Anilaya Namah।
642 ॐ अनलाय नमः। Om Analaya Namah।
643 ॐ बलवते नमः। Om Balawate Namah।
644 ॐ उपशान्ताय नमः। Om Upashantaya Namah।
645 ॐ पुराणाय नमः। Om Puranaya Namah।
646 ॐ पुण्यचञ्चुरिणे नमः। Om Punyachanchurine Namah।
647 ॐ कुरुकर्त्रे नमः। Om Kurukartre Namah।
648 ॐ कुरुवासिने नमः। Om Kuruvasine Namah।
649 ॐ कुरुभूताय नमः। Om Kurubhutaya Namah।
650 ॐ गुणौषधाय नमः। Om Gunaushadhaya Namah।
651 ॐ सर्वाशयाय नमः। Om Sarvashayaya Namah।
652 ॐ दर्भचारिणे नमः। Om Darbhacharine Namah।
653 ॐ सर्वेषां प्राणिनां पतये नमः। Om Sarvesham Praninam Pataye Namah।
654 ॐ देवदेवाय नमः। Om Devadevaya Namah।
655 ॐ सुखासक्ताय नमः। Om Sukhasaktaya Namah।
656 ॐ सते नमः। Om Sate Namah।
657 ॐ असते नमः। Om Asate Namah।
658 ॐ सर्वरत्नविदे नमः। Om Sarvaratnavide Namah।
659 ॐ कैलासगिरिवासिने नमः। Om Kailasagirivasine Namah।
660 ॐ हिमवद्गिरिसंश्रयाय नमः। Om Himavadgirisamshrayaya Namah।
661 ॐ कूलहारिणे नमः। Om Kulaharine Namah।
662 ॐ कूलकर्त्रे नमः। Om Kulakartre Namah।
663 ॐ बहुविद्याय नमः। Om Bahuvidyaya Namah।
664 ॐ बहुप्रदाय नमः। Om Bahupradaya Namah।
665 ॐ वणिजाय नमः। Om Vanijaya Namah।
666 ॐ वर्धकिने नमः। Om Vardhakine Namah।
667 ॐ वृक्षाय नमः। Om Vrikshaya Namah।
668 ॐ बकुलाय नमः। Om Bakulaya Namah।
669 ॐ चन्दनाय नमः। Om Chandanaya Namah।
670 ॐ छदाय नमः। Om Chhadaya Namah।
671 ॐ सारग्रीवाय नमः। Om Saragrivaya Namah।
672 ॐ महाजत्रवे नमः। Om Mahajatrave Namah।
673 ॐ अलोलाय नमः। Om Alolaya Namah।
674 ॐ महौषधाय नमः। Om Mahaushadhaya Namah।
675 ॐ सिद्धार्थकारिणे नमः। Om Siddharthakarine Namah।
676 ॐ सिद्धार्थाय नमः। Om Siddharthaya Namah।
677 ॐ छन्दोव्याकरणोत्तराय नमः। Om Chhandovyakaranottaraya Namah।
678 ॐ सिंहनादाय नमः। Om Simhanadaya Namah।
679 ॐ सिंहदंष्ट्राय नमः। Om Simhadamshtraya Namah।
680 ॐ सिंहगाय नमः। Om Simhagaya Namah।
681 ॐ सिंहवाहनाय नमः। Om Simhavahanaya Namah।
682 ॐ प्रभावात्मने नमः। Om Prabhavatmane Namah।
683 ॐ जगत्कालस्थालाय नमः। Om Jagatkalasthalaya Namah।
684 ॐ लोकहिताय नमः। Om Lokahitaya Namah।
685 ॐ तरवे नमः। Om Tarave Namah।
686 ॐ सारङ्गाय नमः। Om Sarangaya Namah।
687 ॐ नवचक्राङ्गाय नमः। Om Navachakrangaya Namah।
688 ॐ केतुमालिने नमः। Om Ketumaline Namah।
689 ॐ सभावनाय नमः। Om Sabhavanaya Namah।
690 ॐ भूतालयाय नमः। Om Bhutalayaya Namah।
691 ॐ भूतपतये नमः। Om Bhutapataye Namah।
692 ॐ अहोरात्राय नमः। Om Ahoratraya Namah।
693 ॐ अनिन्दिताय नमः। Om Aninditaya Namah।
694 ॐ सर्वभूतानां वाहित्रे नमः। Om Sarvabhutanam Vahitre Namah।
695 ॐ सर्वभूतानां निलयाय नमः। Om Sarvabhutanam Nilayaya Namah।
696 ॐ विभवे नमः। Om Vibhave Namah।
697 ॐ भवाय नमः। Om Bhavaya Namah।
698 ॐ अमोघाय नमः। Om Amoghaya Namah।
699 ॐ संयताय नमः। Om Samyataya Namah।
700 ॐ अश्वाय नमः। Om Ashvaya Namah।
701 ॐ भोजनाय नमः। Om Bhojanaya Namah।
702 ॐ प्राणधारणाय नमः। Om Pranadharanaya Namah।
703 ॐ धृतिमते नमः। Om Dhritimate Namah।
704 ॐ मतिमते नमः। Om Matimate Namah।
705 ॐ दक्षाय नमः। Om Dakshaya Namah।
706 ॐ सत्कृताय नमः। Om Satkritaya Namah।
707 ॐ युगाधिपाय नमः। Om Yugadhipaya Namah।
708 ॐ गोपालये नमः। Om Gopalaye Namah।
709 ॐ गोपतये नमः। Om Gopataye Namah।
710 ॐ ग्रामाय नमः। Om Gramaya Namah।
711 ॐ गोचर्मवसनाय नमः। Om Gocharmavasanaya Namah।
712 ॐ हरये नमः। Om Haraye Namah।
713 ॐ हिरण्यबाहवे नमः। Om Hiranyabahave Namah।
714 ॐ प्रवेशिनां गुहापालाय नमः। Om Praveshinam Guhapalaya Namah।
715 ॐ प्रकृष्टारये नमः। Om Prakrishtaraye Namah।
716 ॐ महाहर्षाय नमः। Om Mahaharshaya Namah।
717 ॐ जितकामाय नमः। Om Jitakamaya Namah।
718 ॐ जितेन्द्रियाय नमः। Om Jitendriyaya Namah।
719 ॐ गान्धाराय नमः। Om Gandharaya Namah।
720 ॐ सुवासाय नमः। Om Suvasaya Namah।
721 ॐ तपःसक्ताय नमः। Om Tapahsaktaya Namah।
722 ॐ रतये नमः। Om Rataye Namah।
723 ॐ नराय नमः। Om Naraya Namah।
724 ॐ महागीताय नमः। Om Mahagitaya Namah।
725 ॐ महानृत्याय नमः। Om Mahanrityaya Namah।
726 ॐ अप्सरोगणसेविताय नमः। Om Apsaroganasevitaya Namah।
727 ॐ महाकेतवे नमः। Om Mahaketave Namah।
728 ॐ महाधातवे नमः। Om Mahadhatave Namah।
729 ॐ नैकसानुचराय नमः। Om Naikasanucharaya Namah।
730 ॐ चलाय नमः। Om Chalaya Namah।
731 ॐ आवेदनीयाय नमः। Om Avedaniyaya Namah।
732 ॐ आदेशाय नमः। Om Adeshaya Namah।
733 ॐ सर्वगन्धसुखावहाय नमः। Om Sarvagandhasukhavahaya Namah।
734 ॐ तोरणाय नमः। Om Toranaya Namah।
735 ॐ तारणाय नमः। Om Taranaya Namah।
736 ॐ वाताय नमः। Om Vataya Namah।
737 ॐ परिध्यै नमः। Om Paridhyai Namah।
738 ॐ पतिखेचराय नमः। Om Patikhecharaya Namah।
739 ॐ संयोगवर्धनाय नमः। Om Samyogavardhanaya Namah।
740 ॐ वृद्धाय नमः। Om Vriddhaya Namah।
741 ॐ अतिवृद्धाय नमः। Om Ativriddhaya Namah।
742 ॐ गुणाधिकाय नमः। Om Gunadhikaya Namah।
743 ॐ नित्याय आत्मसहायाय नमः। Om Nityaya Atmasahayaya Namah।
744 ॐ देवासुरपतये नमः। Om Devasurapataye Namah।
745 ॐ पतये नमः। Om Pataye Namah।
746 ॐ युक्ताय नमः। Om Yuktaya Namah।
747 ॐ युक्तबाहवे नमः। Om Yuktabahave Namah।
748 ॐ दवाय दिविसुपर्वणाय नमः। Om Devaya Divisuparvanaya Namah।
749 ॐ आषाढाय नमः। Om Ashadhaya Namah।
750 ॐ सुषाढाय नमः। Om Sushadhaya Namah।
751 ॐ ध्रुवाय नमः। Om Dhruvaya Namah।
752 ॐ हरिणाय नमः। Om Harinaya Namah।
753 ॐ हराय नमः। Om Haraya Namah।
754 ॐ आवर्तमानेभ्योवपुषे नमः। Om Avartamanebhyovapushe Namah।
755 ॐ वसुश्रेष्ठाय नमः। Om Vasushreshthaya Namah।
756 ॐ महापथाय नमः। Om Mahapathaya Namah।
757 ॐ विमर्शाय शिरोहारिणे नमः। Om Vimarshaya Shiroharine Namah।
758 ॐ सर्वलक्षणलक्षिताय नमः। Om Sarvalakshanalakshitaya Namah।
759 ॐ अक्षाय रथयोगिने नमः। Om Akshaya Rathayogine Namah।
760 ॐ सर्वयोगिने नमः। Om Sarvayogine Namah।
761 ॐ महाबलाय नमः। Om Mahabalaya Namah।
762 ॐ समाम्नायाय नमः। Om Samamnayaya Namah।
763 ॐ असमाम्नायाय नमः। Om Asamamnayaya Namah।
764 ॐ तीर्थदेवाय नमः। Om Tirthadevaya Namah।
765 ॐ महारथाय नमः। Om Maharathaya Namah।
766 ॐ निर्जीवाय नमः। Om Nirjivaya Namah।
767 ॐ जीवनाय नमः। Om Jivanaya Namah।
768 ॐ मन्त्राय नमः। Om Mantraya Namah।
769 ॐ शुभाक्षाय नमः। Om Shubhakshaya Namah।
770 ॐ बहुकर्कशाय नमः। Om Bahukarkashaya Namah।
771 ॐ रत्नप्रभूताय नमः। Om Ratnaprabhutaya Namah।
772 ॐ रत्नाङ्गाय नमः। Om Ratnangaya Namah।
773 ॐ महार्णवनिपानविदे नमः। Om Maharnavanipanavide Namah।
774 ॐ मूलाय नमः। Om Mulaya Namah।
775 ॐ विशालाय नमः। Om Vishalaya Namah।
776 ॐ अमृताय नमः। Om Amritaya Namah।
777 ॐ व्यक्ताव्यक्ताय नमः। Om Vyaktavyaktaya Namah।
778 ॐ तपोनिधये नमः। Om Taponidhaye Namah।
779 ॐ आरोहणाय नमः। Om Arohanaya Namah।
780 ॐ अधिरोहाय नमः। Om Adhirohaya Namah।
781 ॐ शीलधारिणे नमः। Om Shiladharine Namah।
782 ॐ महायशसे नमः। Om Mahayashase Namah।
783 ॐ सेनाकल्पाय नमः। Om Senakalpaya Namah।
784 ॐ महाकल्पाय नमः। Om Mahakalpaya Namah।
785 ॐ योगाय नमः। Om Yogaya Namah।
786 ॐ युगकराय नमः। Om Yugakaraya Namah।
787 ॐ हरये नमः। Om Haraye Namah।
788 ॐ युगरूपाय नमः। Om Yugarupaya Namah।
789 ॐ महारूपाय नमः। Om Maharupaya Namah।
790 ॐ महानागहनाय नमः। Om Mahanagahanaya Namah।
791 ॐ अवधाय नमः। Om Avadhaya Namah।
792 ॐ न्यायनिर्वपणाय नमः। Om Nyayanirvapanaya Namah।
793 ॐ पादाय नमः। Om Padaya Namah।
794 ॐ पण्डिताय नमः। Om Panditaya Namah।
795 ॐ अचलोपमाय नमः। Om Achalopamaya Namah।
796 ॐ बहुमालाय नमः। Om Bahumalaya Namah।
797 ॐ महामालाय नमः। Om Mahamalaya Namah।
798 ॐ शशिने हरसुलोचनाय नमः। Om Shashine Harasulochanaya Namah।
799 ॐ विस्ताराय लवणाय कूपाय नमः। Om Vistaraya Lavanaya Kupaya Namah।
800 ॐ त्रियुगाय नमः। Om Triyugaya Namah।

801-900 – Shiv ke 1008 Naam in Hindi Pdf Download

801 ॐ सफलोदयाय नमः। Om Saphalodayaya Namah।
802 ॐ त्रिलोचनाय नमः। Om Trilochanaya Namah।
803 ॐ विषण्णाङ्गाय नमः। Om Vishannangaya Namah।
804 ॐ मणिविद्धाय नमः। Om Manividdhaya Namah।
805 ॐ जटाधराय नमः। Om Jatadharaya Namah।
806 ॐ विन्दवे नमः। Om Vindave Namah।
807 ॐ विसर्गाय नमः। Om Visargaya Namah।
808 ॐ सुमुखाय नमः। Om Sumukhaya Namah।
809 ॐ शराय नमः। Om Sharaya Namah।
810 ॐ सर्वायुधाय नमः। Om Sarvayudhaya Namah।
811 ॐ सहाय नमः। Om Sahaya Namah।
812 ॐ निवेदनाय नमः। Om Nivedanaya Namah।
813 ॐ सुखाजाताय नमः। Om Sukhajataya Namah।
814 ॐ सुगन्धाराय नमः। Om Sugandharaya Namah।
815 ॐ महाधनुषे नमः। Om Mahadhanushe Namah।
816 ॐ भगवते गन्धपालिने नमः। Om Bhagawate Gandhapaline Namah।
817 ॐ सर्वकर्मणामुत्थानाय नमः। Om Sarvakarmanamutthanaya Namah।
818 ॐ मन्थानाय बहुलाय वायवे नमः। Om Manthanaya Bahulaya Vayave Namah।
819 ॐ सकलाय नमः। Om Sakalaya Namah।
820 ॐ सर्वलोचनाय नमः। Om Sarvalochanaya Namah।
821 ॐ तलस्तालाय नमः। Om Talastalaya Namah।
822 ॐ करस्थालिने नमः। Om Karasthaline Namah।
823 ॐ ऊर्ध्वसंहननाय नमः। Om Urdhvasamhananaya Namah।
824 ॐ महते नमः। Om Mahate Namah।
825 ॐ छत्राय नमः। Om Chhatraya Namah।
826 ॐ सुच्छत्राय नमः। Om Suchchhatraya Namah।
827 ॐ विख्यातलोकाय नमः। Om Vikhyatalokaya Namah।
828 ॐ सर्वाश्रयाय क्रमाय नमः। Om Sarvashrayaya Kramaya Namah।
829 ॐ मुण्डाय नमः। Om Mundaya Namah।
830 ॐ विरूपाय नमः। Om Virupaya Namah।
831 ॐ विकृताय नमः। Om Vikritaya Namah।
832 ॐ दण्डिने नमः। Om Dandine Namah।
833 ॐ कुण्डिने नमः। Om Kundine Namah।
834 ॐ विकुर्वणाय नमः। Om Vikurvanaya Namah।
835 ॐ हर्यक्षाय नमः। Om Haryakshaya Namah।
836 ॐ ककुभाय नमः। Om Kakubhaya Namah।
837 ॐ वज्रिणे नमः। Om Vajrine Namah।
838 ॐ शतजिह्वाय नमः। Om Shatajihvaya Namah।
839 ॐ सहस्रपादे सहस्रमूर्ध्ने नमः। Om Sahasrapade Sahasramurdhne Namah।
840 ॐ देवेन्द्राय नमः। Om Devendraya Namah।
841 ॐ सर्वदेवमयाय नमः। Om Sarvadevamayaya Namah।
842 ॐ गुरवे नमः। Om Gurave Namah।
843 ॐ सहस्रबाहवे नमः। Om Sahasrabahave Namah।
844 ॐ सर्वाङ्गाय नमः। Om Sarvangaya Namah।
845 ॐ शरण्याय नमः। Om Sharanyaya Namah।
846 ॐ सर्वलोककृते नमः। Om Sarvalokakrite Namah।
847 ॐ पवित्राय नमः। Om Pavitraya Namah।
848 ॐ त्रिककुन्मन्त्राय नमः। Om Trikakunmantraya Namah।
849 ॐ कनिष्ठाय नमः। Om Kanishthaya Namah।
850 ॐ कृष्णपिङ्गलाय नमः। Om Krishnapingalaya Namah।
851 ॐ ब्रह्मदण्डविनिर्मात्रे नमः। Om Brahmadandavinirmatre Namah।
852 ॐ शतघ्नीपाश शक्तिमते नमः। Om Shataghnipasha Shaktimate Namah।
853 ॐ पद्मगर्भाय नमः। Om Padmagarbhaya Namah।
854 ॐ महागर्भाय नमः। Om Mahagarbhaya Namah।
855 ॐ ब्रह्मगर्भाय नमः। Om Brahmagarbhaya Namah।
856 ॐ जलोद्भवाय नमः। Om Jalodbhavaya Namah।
857 ॐ गभस्तये नमः। Om Gabhastaye Namah।
858 ॐ ब्रह्मकृते नमः। Om Brahmakrite Namah।
859 ॐ ब्रह्मिणे नमः। Om Brahmine Namah।
860 ॐ ब्रह्मविदे नमः। Om Brahmavide Namah।
861 ॐ ब्राह्मणाय नमः। Om Brahmanaya Namah।
862 ॐ गतये नमः। Om Gataye Namah।
863 ॐ अनन्तरूपाय नमः। Om Anantarupaya Namah।
864 ॐ नैकात्मने नमः। Om Naikatmane Namah।
865 ॐ स्वयंभुवाय तिग्मतेजसे नमः। Om Swayambhuvaya Tigmatejase Namah।
866 ॐ ऊर्ध्वगात्मने नमः। Om Urdhvagatmane Namah।
867 ॐ पशुपतये नमः। Om Pashupataye Namah।
868 ॐ वातरंहसे नमः। Om Vataramhase Namah।
869 ॐ मनोजवाय नमः। Om Manojavaya Namah।
870 ॐ चन्दनिने नमः। Om Chandanine Namah।
871 ॐ पद्मनालाग्राय नमः। Om Padmanalagraya Namah।
872 ॐ सुरभ्युत्तरणाय नमः। Om Surabhyuttaranaya Namah।
873 ॐ नराय नमः। Om Naraya Namah।
874 ॐ कर्णिकारमहास्रग्विणे नमः। Om Karnikaramahasragvine Namah।
875 ॐ नीलमौलये नमः। Om Nilamaulaye Namah।
876 ॐ पिनाकधृते नमः। Om Pinakadhrite Namah।
877 ॐ उमापतये नमः। Om Umapataye Namah।
878 ॐ उमाकान्ताय नमः। Om Umakantaya Namah।
879 ॐ जाह्नवीधृते नमः। Om Jahnavidhrite Namah।
880 ॐ उमाधवाय नमः। Om Umadhavaya Namah।
881 ॐ वराय वराहाय नमः। Om Varaya Varahaya Namah।
882 ॐ वरदाय नमः। Om Varadaya Namah।
883 ॐ वरेण्याय नमः। Om Varenyaya Namah।
884 ॐ सुमहास्वनाय नमः। Om Sumahasvanaya Namah।
885 ॐ महाप्रसादाय नमः। Om Mahaprasadaya Namah।
886 ॐ दमनाय नमः। Om Damanaya Namah।
887 ॐ शत्रुघ्ने नमः। Om Shatrughne Namah।
888 ॐ श्वेतपिङ्गलाय नमः। Om Shvetapingalaya Namah।
889 ॐ पीतात्मने नमः। Om Pitatmane Namah।
890 ॐ परमात्मने नमः। Om Paramatmane Namah।
891 ॐ प्रयतात्मने नमः। Om Prayatatmane Namah।
892 ॐ प्रधानधृते नमः। Om Pradhanadhrite Namah।
893 ॐ सर्वपार्श्वमुखाय नमः। Om Sarvaparshvamukhaya Namah।
894 ॐ त्र्यक्षाय नमः। Om Tryakshaya Namah।
895 ॐ धर्मसाधारणाय वराय नमः। Om Dharmasadharanaya Varaya Namah।
896 ॐ चराचरात्मने नमः। Om Characharatmane Namah।
897 ॐ सूक्ष्मात्मने नमः। Om Sukshmatmane Namah।
898 ॐ अमृताय गोवृषेश्वराय नमः। Om Amritaya Govrisheshvaraya Namah।
899 ॐ साध्यर्षये नमः। Om Sadhyarshaye Namah।

900 ॐ आदित्याय वसवे नमः। Om Adityaya Vasave Namah।

901-1008 – Shiv ke 1008 Naam in Hindi Pdf Download

901 ॐ विवस्वते सवितामृताय नमः। Om Vivasvate Savitamritaya Namah।
902 ॐ व्यासाय नमः। Om Vyasaya Namah।
903 ॐ ससङ्क्षेपाय विस्तराय सर्गाय नमः। Om Susankshepaya Vistaraya SargayaNamah।
904 ॐ पर्ययाय नराय नमः। Om Paryaya Naraya Namah।
905 ॐ ऋतवे नमः। Om Ritave Namah।
906 ॐ संवत्सराय नमः। Om Samvatsaraya Namah।
907 ॐ मासाय नमः। Om Masaya Namah।
908 ॐ पक्षाय नमः। Om Pakshaya Namah।
909 ॐ सङ्ख्यासमापनाय नमः। Om Sankhyasamapanaya Namah।
910 ॐ कलाभ्यो नमः। Om Kalabhyo Namah।
911 ॐ काष्ठाभ्यो नमः। Om Kashthabhyo Namah।
912 ॐ लवेभ्यो नमः। Om Lavebhyo Namah।
913 ॐ मात्राभ्यो नमः। Om Matrabhyo Namah।
914 ॐ मुहूर्ताहः क्षपाभ्यो नमः। Om Muhurtahah Kshapabhyo Namah।
915 ॐ क्षणेभ्यो नमः। Om Kshanebhyo Namah।
916 ॐ विश्वक्षेत्राय नमः। Om Vishvakshetraya Namah।
917 ॐ प्रजाबीजाय नमः। Om Prajabijaya Namah।
918 ॐ लिङ्गाय नमः। Om Lingaya Namah।
919 ॐ आद्याय निर्गमाय नमः। Om Adyaya Nirgamaya Namah।
920 ॐ सते नमः। Om Sate Namah।
921 ॐ असते नमः। Om Asate Namah।
922 ॐ व्यक्ताय नमः। Om Vyaktaya Namah।
923 ॐ अव्यक्ताय नमः। Om Avyaktaya Namah।
924 ॐ पित्रे नमः। Om Pitre Namah।
925 ॐ मात्रे नमः। Om Matre Namah।
926 ॐ पितामहाय नमः। Om Pitamahaya Namah।
927 ॐ स्वर्गद्वाराय नमः। Om Swargadwaraya Namah।
928 ॐ प्रजाद्वाराय नमः। Om Prajadwaraya Namah।
929 ॐ मोक्षद्वाराय नमः। Om Mokshadwaraya Namah।
930 ॐ त्रिविष्टपाय नमः। Om Trivishtapaya Namah।
931 ॐ निर्वाणाय नमः। Om Nirvanaya Namah।
932 ॐ ह्लादनाय नमः। Om Hladanaya Namah।
933 ॐ ब्रह्मलोकाय नमः। Om Brahmalokaya Namah।
934 ॐ परस्यै गतये नमः। Om Parasyai Gataye Namah।
935 ॐ देवासुरविनिर्मात्रे नमः। Om Devasuravinirmatre Namah।
936 ॐ देवासुरपरायणाय नमः। Om Devasuraparayanaya Namah।
937 ॐ देवासुरगुरवे नमः। Om Devasuragurave Namah।
938 ॐ देवाय नमः। Om Devaya Namah।
939 ॐ देवासुरनमस्कृताय नमः। Om Devasuranamaskritaya Namah।
940 ॐ देवासुरमहामात्राय नमः। Om Devasuramahamatraya Namah।
941 ॐ देवासुरगणाश्रयाय नमः। Om Devasuraganashrayaya Namah।
942 ॐ देवासुरगणाध्यक्षाय नमः। Om Devasuraganadhyakshaya Namah।
943 ॐ देवासुरगणाग्रण्ये नमः। Om Devasuraganagranye Namah।
944 ॐ देवातिदेवाय नमः। Om Devatidevaya Namah।
945 ॐ देवर्षये नमः। Om Devarshaye Namah।
946 ॐ देवासुरवरप्रदाय नमः। Om Devasuravarapradaya Namah।
947 ॐ देवासुरेश्वराय नमः। Om Devasureshwaraya Namah।
948 ॐ विश्वस्मै नमः। Om Vishvasmai Namah।
949 ॐ देवासुरमहेश्वराय नमः। Om Devasuramaheshwaraya Namah।
950 ॐ सर्वदेवमयाय नमः। Om Sarvadevamayaya Namah।
951 ॐ अचिन्त्याय नमः। Om Achintyaya Namah।
952 ॐ देवतात्मने नमः। Om Devatatmane Namah।
953 ॐ आत्मसम्भवाय नमः। Om Atmasambhavaya Namah।
954 ॐ उद्भिदे नमः। Om Udbhide Namah।
955 ॐ त्रिविक्रमाय नमः। Om Trivikramaya Namah।
956 ॐ वैद्याय नमः। Om Vaidyaya Namah।
957 ॐ विरजसे नमः। Om Virajase Namah।
958 ॐ नीरजसे नमः। Om Nirajase Namah।
959 ॐ अमराय नमः। Om Amaraya Namah।
960 ॐ ईड्याय नमः। Om Idyaya Namah।
961 ॐ हस्तीश्वराय नमः। Om Hastishwaraya Namah।
962 ॐ व्याघ्राय नमः। Om Vyaghraya Namah।
963 ॐ देवसिंहाय नमः। Om Devasimhaya Namah।
964 ॐ नरर्षभाय नमः। Om Nararshabhaya Namah।
965 ॐ विबुधाय नमः। Om Vibudhaya Namah।
966 ॐ अग्रवराय नमः। Om Agravaraya Namah।
967 ॐ सूक्ष्माय नमः। Om Sukshmaya Namah।
968 ॐ सर्वदेवाय नमः। Om Sarvadevaya Namah।
969 ॐ तपोमयाय नमः। Om Tapomayaya Namah।
970 ॐ सुयुक्ताय नमः। Om Suyuktay Namah.
(971). ॐ शोभनाय नमः। Om Shobhanay Namah.
(972). ॐ वज्रिणे नमः। Om Vajrine Namah.
(973). ॐ प्रासानां प्रभवाय नमः। Om Prasanam Prabhvay Namah.
(974). ॐ अव्ययाय नमः। Om Avyyay Namah.
(975). ॐ गुहाय नमः। Om Guhay Namah.
(976). ॐ कान्ताय नमः। Om Kantay Namah.
(977). ॐ निजाय सर्गाय नमः। Om Nijay Sargay Namah.
(978). ॐ पवित्राय नमः। Om Pavitray Namah.
(979). ॐ सर्वपावनाय नमः। Om Sarvpavnay Namah.
(980). ॐ शृङ्गिणे नमः। Om Shrangane Namah.
(981). ॐ शृङ्गप्रियाय नमः। Om Shrangpriyay Namah.
(982). ॐ बभ्रवे नमः। Om Babhrve Namah.
(983). ॐ राजराजाय नमः। Om Rajarajay Namah.
(984). ॐ निरामयाय नमः। Om Niramayay Namah.
(985). ॐ अभिरामाय नमः। Om Abhiramay Namah.
(986). ॐ सुरगणाय नमः। Om Suraganay Namah.
(987). ॐ विरामाय नमः। Om Viramay Namah.
(988). ॐ सर्वसाधनाय नमः। Om Sarvsadhanay Namah.
(989). ॐ ललाटाक्षाय नमः। Om Lalatakshay Namah.
(990). ॐ विश्वदेवाय नमः। Om Vishvdevay Namah.
(991). ॐ हरिणाय नमः। Om Harinay Namah.
(992). ॐ ब्रह्मवर्चसे नमः। Om Brahmavarchase Namah.
(993). ॐ स्थावराणां पतये नमः। Om Sthavaranam Pataye Namah.
(994). ॐ नियमेन्द्रियवर्धनाय नमः। Om Niyamendriyvardhanay Namah.
(995). ॐ सिद्धार्थाय नमः। Om Siddharthay Namah.
(996) ॐ सिद्धभूतार्थाय नमः। Om Siddhbhutarthay Namah.
(997). ॐ अचिन्त्याय नमः। Om Achintyay Namah.
(998). ॐ सत्यव्रताय नमः। Om Satyvratay Namah.
(999). ॐ शुचये नमः। Om Shuchye Namah.
(1,000). ॐ व्रताधिपाय नमः। Om Vratadhipay Namah.
(1,001). ॐ परस्मै नमः। Om Parasmae Namah.
(1,002). ॐ ब्रह्मणे नमः। Om Brahmane Namah.
(1,003). ॐ भक्तानां परमायै गतये नमः। Om Bhaktanam Paramayae Gatye Namah.
(1,004). ॐ विमुक्ताय नमः। Om Vimuktay Namah.
(1,005). ॐ मुक्ततेजसे नमः। Om Mukttejse Namah.
(1,006). ॐ श्रीमते नमः। Om Shrimate Namah.
(1,007). ॐ श्रीवर्धनाय नमः। Om Shrivardhanay Namah.
(1,008). ॐ जगते नमः। Om Jagate Namah.

ऊँ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।।
ऊँ शांतिः शांतिः शांतिः

शिव सहस्त्र नाम जपने के लाभ – Benefits of Shiv Sahastranam
जो भक्त भगवान शंकर के समीप एक वर्ष तक सदा प्रयत्नपूर्वक इस स्तोत्र का पाठ करता है वह मनोवांछित फल प्राप्त कर लेता है। इसलिए श्रीकृष्ण कहते है – कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर! जो मनुष्य पवित्र भाव से ब्रहाचर्य के पालनपूर्वक इन्द्रियों को संयम में रखकर एक वर्ष तक योगयुक्त रहते हुए शिव सहस्त्र स्तोत्र का पाठ करता है, उसे अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है, क्योंकि महादेव जी की शरण लेने के सिवा ऐसी दूसरी कोई शक्ति या तप का बल नहीं है जिससे मनुष्यों का संसार बन्धन से छुटकारा हो सके।
इसके अलावा ज्योतिष अनुसार नित्य रूप से भगवान शिव जी की पूजा आराधना में शिव सहस्त्र नाम का पाठ करना चाहिए है :-
सोमवार के व्रत उपवास, सावन महीने में, महाशिवरात्रि, मासिक शिवरात्रि व प्रदोष व्रत आदि में शिव सहस्त्र नाम का पाठ करते हैं।
शिव सहस्रनाम के नियमित जाप से करने से जातक को अकाल मृत्‍यु का भय समाप्‍त हो जाता है उनकी रोजगार संबधित, धन सम्‍बंधी और भूत-प्रेत बाधा और तंत्र, मंत्र और टोने टोटके आदि से होने वाली परेशानियां हमेशा के लिए दूर हो जाती हैं।
शनि दोष और शनि की साढ़े साती तथा ढैय्या के समय करने से इन दोषों से होने वाले प्रभाव को समाप्त कर देता हैं और नित्य जाप से साधक को मन और मस्तिष्क की शान्ति प्राप्त होती है।
जिस भी जातक तीव्र रूप से आवेश की अधिकता या बिना कारण से गुस्सा आता हो तो शिव सहस्त्र नाम नियमित रूप से पाठ करना लाभकारी रहता हैं।
महाशिव रात्रि :: इसी दिन शिवलिंग की उत्पत्ति हुई थी, इसीलिए इस दिन किया गया शिव पूजन, व्रत और उपवास अनंत फल दायी होता है।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार श्रध्दालु भक्त अपनी राशि के अनुसार भी भगवान शिव की आराधना और पूजन कर मनोवांछित फल प्राप्त कर सकते हैं । महाशिव रात्रि के दिन किसी भी राशि का जातक पंचामृत से शिवलिंग का अभिषेक कर सफेद अर्क के फूल चढ़ाकर चंदन से प्रणव (ॐ) बनाकर भी उपासना कर सकते हैं।
तिल स्नान कर करें शिव पूजा-फागुन कृष्ण पक्ष चतुर्दशी को महाशिव रात्रि महोत्सव मनाया जाता है। त्रयोदशी को एक बार भोजन करके चतुर्दशी को दिन भर अन्‍न नहीं ग्रहण करना चाहिए। काले तिलों से स्नान करके रात्रि में विधिवत शिव पूजन करना चाहिए। भगवान् शिव के सबसे प्रिय पुष्पों में कनेर, बेल पत्र तथा मौलसिरी हैं। लेकिन पूजन विधान में बेलपत्र सबसे प्रमुख है। भगवान् शिव लिंग पर पका आम चढ़ाने से विशेष फल प्राप्त होता है ।
शिव-शिवलिंग पर चढ़ाए गए पुष्प, फल तथा जल को नहीं ग्रहण करना चाहिए ।
राशि  के अनुरूप नैवेद्य :-
मेष :- गुड़ के जल से अभिषेक करें। मीठी रोटी का भोग चढ़ाएं लाल चंदन व कनेर की फूल से पूजा करें।
वृष :- दही से अभिषेत करे। शक्कर, चांवल, सफेद चंदन सफेद फूल से पूजा करें।
मिथुन :- गन्ने के रस से भगवान् का अभिषेक करें। मूँग, दूब और कुशा से पूजा करें।
कर्क :- घी से अभिषेत कर चावल, कच्चा दूध, सफेद आक व शंख पुष्पी से शिवलिंग की पूजा करें।
सिंह :- गुड़ के जल से अभिषेक कर गुड़ व चावल से बनी खीर का भोग लाकर गेहूं के चूरे और मंदार के फूल से पूजा करें।
कन्या :- गन्ने के रस से शिवलिंग का अभिषेत करें। भगवान् शिव को भाँग, दूब व पान अर्पित करें।
तुला :- सुगंधित तेल या इत्र से भगवान् शिव का अभिषेक कर दही, मधुरस व श्रीखंड का भोग लगाएं  सफेद फूलों से भगवान् शिव की पूजा करें।
वृश्चिक :- पंचामृत से अभिषेत करें। लाल गोझिया फूल से भगवान् शिव की पूजा करें।
धनु :- हल्दी युक्त दूध से अभिषेत कर के श्री और बेसन से बनी मिठाई से भगवान् शिव  को भोग लगाएं। गेंदे के फूल से उनकी पूजा करें।
मकर :- नारियल पानी से अभिषेक कर उड़द से बनी मिठाई का भोग भगवान् शिव को भोग लगाएं। नीलकमल के फूल उनकी पूजा करें।
कुंभ :- तिल के तेल से अभिषेक कर उड़द से बनी मिठाई का भोग लगाएं। शमी के फूल से भगवान की पूजा करे ।
मीन :- केसर युक्त दूध से भगवान् शिव  का अभिषेक कर दही भात का भोग लगाएं। पीली सरसों और नागकेसर से उनकी पूजा करें।
शिव पंचाक्षर स्तोत्र :: भगवान् शिव देवों के देव हैं।
(1). शिव पंचाक्षर स्तोत्र की विधि :-
प्रात: काल स्नान आदि करके शिवलिंग का दूध और जल से अभिषेक करें। इसके बाद  भगवान्  शिव की विधि पूर्वक पूजा करें और अंत में शिव पंचाक्षर स्तोत्र के पठन की शुरुआत करना चाहिए।
(2). शिव पंचाक्षर स्तोत्र पाठ का लाभ :-
भगवान्  शिव के पंचाक्षर स्तोत्र के जाप से जीवन के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं, जातक की सभी मनोकामना पूरी होती हैं और सभी प्रकार की सिद्धियों को प्राप्त किया जा सकता है।
(3). शिव पंचाक्षर स्तोत्र :- 
नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय, भस्माङ्गरागाय महेश्वराय।
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय, तस्मै नकाराय नमः शिवाय॥
जिनके गले का हार नागराज हैं और जिनकी तीन आँखें हैं। जिनका शरीर पवित्र भस्म से अलंकृत है । वे जो शाश्वत हैं, जो पूर्ण पवित्र हैं और चारों दिशाओं को जो अपने वस्त्रों के रूप में धारण करते हैं। उस शिव को नमस्कार है, जिन्हें “न” अक्षर द्वारा दर्शाया गया है।
मन्दाकिनीसलिलचन्दनचर्चिताय, नन्दीश्वरप्रमथनाथमहेश्वराय।
मन्दारपुष्पबहुपुष्पसुपूजिताय, तस्मै मकाराय नमः शिवाय॥
वे जिनकी पूजा मंदाकिनी नदी के जल से होती है और चंदन का लेप लगाया जाता है। वे जो नंदी के और भूतों-पिशाचों के स्वामी हैं। महान भगवान, वे जो मंदार और कई अन्य फूलों के साथ पूजे जाते हैं, उस शिव को प्रणाम। जिन्हें शब्दांश “म” द्वारा दर्शाया गया है।
शिवाय गौरीवदनाब्जबृंदा, सूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय।
श्रीनीलकण्ठाय वृषध्वजाय, तस्मै शि काराय नमः शिवाय॥
वे जो शुभ हैं और जो नए उगते सूरज की तरह हैं। जिनसे गौरी का चेहरा खिल उठता है। वे जो दक्ष के यज्ञ के संहारक हैं। वे जिनका कंठ नीला है और जिनके प्रतीक के रूप में बैल है, उस शिव को नमस्कार, जिन्हें शब्दांश “शि” द्वारा दर्शाया गया है।
वशिष्ठकुम्भोद्भवगौतमार्यमूनीन्द्र, देवार्चिता शेखराय।
चन्द्रार्कवैश्वानरलोचनाय, तस्मै वकाराय नमः शिवाय॥
वे जो श्रेष्ठ और सबसे सम्मानित संतों, वशिष्ट, अगस्त्य, गौतम और देवताओं द्वारा भी पूजित हैं और जो ब्रह्मांड का मुकुट हैं। वे जिनकी चंद्रमा, सूर्य और अग्नि तीन आंखें हैं। उस शिव को नमस्कार, जिन्हें शब्दांश “वा” द्वारा दर्शाया गया है।
यज्ञस्वरूपाय जटाधराय, पिनाकहस्ताय सनातनाय।
दिव्याय देवाय दिगम्बराय, तस्मै यकाराय नमः शिवाय॥
वे जो यज्ञ का अवतार हैं और जिनकी जटाएं हैं। जिनके हाथ में त्रिशूल है और जो शाश्वत हैं। वे जो दिव्य हैं, जो चमकीला हैं और चारों दिशाएँ जिनके वस्त्र हैं। उस शिव को नमस्कार, जिन्हें शब्दांश “य” द्वारा दर्शाया गया है।
पञ्चाक्षरमिदं पुण्यं यः पठेच्छिवसंनिधौ।
शिवलोकमावाप्नोति शिवेन सह मोदते॥
जो शिव के समीप इस पंचाक्षर का पाठ करते हैं, वे शिव के निवास को प्राप्त करेंगे और आनंद लेंगे।
शिव पंचाक्षर स्तोत्र के रचयिता आदि गुरु शंकराचार्य हैं, जो परम शिवभक्त थे। शिव पंचाक्षर स्तोत्र पंचाक्षरी मंत्र नमः शिवाय पर आधारित है।
न :- पृथ्वी तत्त्व का,
म :- जल तत्त्व का,
शि :- अग्नि तत्त्व का,
वा :- वायु तत्त्व का और
य :- आकाश तत्व का प्रतिनिधित्व करता है।
मंत्रों और स्तोत्रों में वह ऊर्जा होती है, जिसका विधि पूर्वक उच्चारण करने से जातक को मनचाहा फल मिलता है। शिव पंचाक्षर स्तोत्र को सबसे शक्तिशाली शिव मंत्र कहा गया है।
इसके जाप से जातक के ऊपर शिव की कृपा बरसती है। भगवान् शिव की पूजा करते वक्त साधक को शिव पंचाक्षर स्तोत्र का जाप अवश्य करना चाहिए।
अवन्तिकायां विहितावतारं मुक्तिप्रदानाय च सज्जनानाम्।
अकालमृत्यो: परिरक्षणार्थं वन्दे महाकालमहासुरेशम्
जो भगवान् शिव संतजनों को मोक्ष प्रदान करने के लिए अवन्तिका पुरी-उज्जैन में अवतार धारण किए हैं, अकाल मृत्यु से बचने के लिए उन देवों के भी देव महाकाल नाम से विख्यात महादेव जी को मैं नमस्कार करता हूँ । नमस्कार करता हूँ ।
भगवान् शिव की 3 पुत्रियाँ :: भगवान् शिव की 3 बेटियां थीं। भगवान् शिव की उनकी कुल 6 संतानें हैं। इनमें तीन पुत्र हैं और इन्‍हीं के साथ उनकी 3 पुत्रियाँ भी हैं।[शिव पुराण]
भगवान् शिव के तीसरे पुत्र का नाम अयप्पा है और दक्षिणी भारत में इनको पूरी श्रद्धा के साथ पूजा जाता है। भगवान्  शिव की तीनों पुत्रियाँ के नाम हैं :- अशोक सुंदरी, ज्योति या मां ज्वालामुखी और देवी वासुकी या मनसा। इनमें से शिव जी की तीसरी पुत्री यानी वासुकी को देवी पार्वती की सौतेली बेटी माना जाता है। 
(1). अशोक सुंदरी :- भगवान् शिव  की बड़ी बेटी अशोक सुंदरी को देवी पार्वती ने अपना अकेलापन दूर करने के लिए जन्‍म दिया था। वह एक पुत्री का साथ चाहती थीं। देवी पार्वती के समान ही अशोक सुंदरी बेहद रूपवती थीं। इसलिए उनके नाम में सुंदरी आया। वहीं उनको अशोक नाम इसलिए दिया गया क्‍योंकि वह पार्वती के अकेलेपन का शोक दूर करने आई थीं। अशोक सुंदरी की पूजा विशेषरूप से गुजरात में होती है।
अशोक सुंदरी के लिए ये भी कहा जाता है कि जब भगवान्  शिव ने बालक गणेश का सिर काटा था तो वह डर कर नमक के बोरे में छिप गई थीं। इस कारण से उनको नमक के महत्‍व के साथ भी जोड़ा जाता है।
(2). ज्योति :- भगवान् शिव की दूसरी पुत्री का नाम ज्योति है। ज्योति का जन्‍म भगवान् शिव जी के तेज से हुआ था और वह उनके प्रभा मंडल का स्‍वरूप हैं। दूसरी मान्‍यता के अनुसार ज्योति का जन्‍म पार्वती के माथे से निकले तेज से हुआ था। देवी ज्योति का दूसरा नाम ज्वालामुखी भी है और तमिलनाडु कई मंदिरों में उनकी पूजा होती है।
(3). मनसा :- भगवान् शिव की ये पुत्री बहुत क्रोधी हैं। सर्पदंश का इलाज मनसा देवी के पास होता है। उनका जन्‍म तब हुआ था, जब भगवान्  शिव जी  वीर्य कद्रु, जिन्हें सांपों की मां कहा जाता है, की प्रतिमा को छू गया था। इसलिए उनको शिव की पुत्री कहा जाता है लेकिन पार्वती की नहीं। यानी मनसा का जन्‍म भी कार्तिकेय की तरह पार्वती के गर्भ से नहीं हुआ था।
मनसा का एक नाम वासुकी भी है और पिता, सौतेली मां और पति द्वारा उपेक्षित होने के कारण उनका स्‍वभाव काफी गुस्‍से वाला माना जाता है। उनकी पूजा बिना किसी प्रतिमा या तस्‍वीर के होती है। इसकी जगह पर पेड़ की कोई डाल, मिट्टी का घड़ा या फिर मिट्टी का सांप बनाकर पूजा जाता है। चेचक या सांप काटने से बचाने के लिए उनकी पूजा होती है। बंगाल के कई मंदिरों में उनका विधिवत पूजन किया जाता है।


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