Tuesday, May 14, 2013

INCARNATIONS OF BHAGWAN SHIV भगवान् शिव के अंशावतार

INCARNATIONS OF BHAGWAN SHIV 
भगवान् शिव के अंशावतार
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
There is no difference between various incarnations of the Almighty-Shri Krashn :- Brahma, Vishnu and Mahesh. The trio reproduce themselves as fragment-piece-fraction of themselves, as and when required by the circumstances, for protecting their devotees. Various incarnations of Bhagwan Shiv are hideously important as well as considered-assumed to be the most significant-important and effective for the safety of his devotees. Pouranic scriptures contain occasional references to "ansh-fraction-piece-fragment" The Ling Puran speaks of twenty-eight forms of Shiv. Shiv Maha Puran describes these incarnation at length.
अंशावतार :: 
दुर्वासा, हनुमान, महेश, वृषभ, पिप्पलाद, वैश्यानाथ, द्विजेश्वर, हंसरूप, अवधूतेश्वर, भिक्षुवर्य, सुरेश्वर, ब्रह्मचारी, सुनटनतर्क, द्विज, अश्वत्थामा, किरात और नतेश्वर। 
तंत्र से सम्बन्धित अवतार :: (1). 
महाकाल, (2). तारा, (3). भुवनेश, (4). षोडश, (5). (भैरव, (6). छिन्न मस्तक, (7). धूम्रवान, (8. बगलामुखी, (9. मातंग और (10. कमल।
अन्य ग्यारह अवतार :: (1). कपाली, (2). पिंगल, (3). भीम, (4). विरुपाक्ष, (5). विलोहित, (6). शास्ता, (7). अजपाद, (8). आपिर्बुध्य, (9). शम्भु, (10). चण्ड तथा (11). भव। 
ब्रह्मा जी के आग्रह करने पर भगवान शिव ने जो श्रष्टि की उससे 10 रूद्र (रोने वाले) उत्पन्न हुए जिन्हें भगवान ब्रह्माजी ने दसों दिशाओं का दिक्पाल नियुक्त कर दिया। 
VEER BHADR वीरभद्र :: This incarnation took place, when Bhagwan Shiv grew furious, pulled a lock of his matted lock-hair and dashed it over Kaelash Parwat, as soon as he came to know of the incident, in which Mata Sati sacrificed her self during Daksh Yagy. Vir Bhadr destroyed Daksh's Yagy (fire sacrifice) and severed Daksh's head as per Shiv's instructions-directives.
दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में माता सती नेअपनी देह का योगाग्नि में त्याग किया था। भगवान शिव ने ज्ञात होने पर क्रोध में अपने सिर से एक जटा उखाड़ी और उसे रोष पूर्वक कैलाश पर्वत के पर पटक दिया। उस जटा के पूर्वभाग से महा भंयकर वीरभद्र प्रकट हुए। शिव के इस अवतार ने दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर दिया और दक्ष का सिर काटकर उसे मृत्यु दंड दिया।
दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में माता सती ने अपनी देह का योगाग्नि में त्याग किया था। भगवान शिव ने ज्ञात होने पर   क्रोध में अपने सिर से एक जटा उखाड़ी और उसे रोष पूर्वक कैलाश पर्वत के पर पटक दिया। उस जटा के पूर्वभाग से महा भंयकर वीरभद्र प्रकट हुए। शिव के इस अवतार ने दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर दिया और दक्ष का सिर काटकर उसे मृत्युदंड दिया।
BHAERAV :: This incarnation was to protect the fragmented body (पिंड) of Mata Sati which was divided by Bhagwan Shri Hari Vishnu in 52 segments-pieces with Sudarshan Chakr. Mata Sati evolved Yogic-Sacrificial fire which engulfed her, in protest against her father Daksh's abnormal behaviour, when he insulted Bhagwan Shiv ignorantly. Bhagwan Shiv wandered all over the earth. Ultimately, these pieces fell over various places on earth resulting in the establishment of 52 Shakti Peeth. Bhaerav (भैरव-the terrible or frightful) is often called Bhaeroun, Bhaeron, Bhaerdy, is the fierce manifestation of Bhagwan Shiv associated with annihilation. 
KAL BHAERAV काल भैरव : Bhagwan Shiv decapitated the 5th head of Brahma Ji and thus was named Kal Bhaerav. 
भैरव को भगवान् शिव का पूर्ण रूप बताया गया है। माया से प्रभावित होकर भगवान् ब्रह्मा व भगवान् श्री हरी विष्णु स्वयं को श्रेष्ठ मानने लगे। तभी वहाँ एक तेज-पुँज प्रकट हुआ, जिसके मध्य एक पुरुषाकृति दिखाई पड़ी, जिसे  देखकर ब्रह्मा जी ने कहा :- चंद्र शेखर! तुम मेरे पुत्र हो। अत: मेरी शरण में आओ। ब्रह्मा जी की ऐसी बात सुनकर भगवान् शिव को क्रोध आ गया। उन्होंने उस पुरुषाकृति से कहा-काल की भाँति शोभित होने के कारण आप साक्षात काल राज हैं। भीषण होने से भैरव हैं। भगवान् शिव से इन वरों को प्राप्त कर कालभैरव ने अपनी अँगुली के नाखून से ब्रह्मा जी  के पाँचवें सिर उस सिर को काट दिया, जिसने यह कहा था। ब्रह्मा जी का पाँचवाँ सिर काटने के कारण भैरव ब्रह्म हत्या के पाप से ग्रस्त हो गए। ब्रह्मा जी का कटा हुआ सिर भगवान् शिव की जाँघ पर चुपक गया और वे कापालिक कहलाये। काशी में भैरव को ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्ति मिल गई। काशी वासियों के लिए भैरव की भक्ति अनिवार्य बताई गई है।
भैरवाष्टक :: देवताओं के युद्ध में अन्धक (भगवान् शिव का पुत्र, जिसे हिरण्याक्ष ने पाला था), पैदल ही गदा लेकर भगवान् शिव की ओर दौड़ा, तो उन्होनें इन्द्र और ब्रह्मा जी सहित समस्त देवताओं को अपने शरीर में छुपा लिया और नन्दीश्वर को छोड़कर, पर्वत पर पैरों के बल खड़े होकर, (1). अति भयंकर भैरव रूप धारण कर लिया और उसका ह्रदय विदीर्ण कर दिया। उस समय वे भयानक दाढ़ों वाले करोड़ों सुरों के समान प्रकाशमान, बाघम्बर, पहने, जटा से युक्त, सर्प के हार से अलंकृत ग्रीवा वाले और दस भुजा और तीन नेत्रों से युक्त थे। अन्धक की गदा से उनके सर से खून की धाराएँ बहने लगीं।
(2). पूर्व दिशा की धारा से अग्नि की प्रभा वाले, कमल की माला से शोभित विद्याराज, (3). दक्षिण दिशा से प्रेत से मण्डित, काले अञ्जन की प्रभा वाले कालराज, (4). पश्चिम से अलसी के फूल के समान पत्र, से शोभित कामराज, (5). उत्तर से चक्र माला से शोभित शूल लिए हुए, सोमराज, (6). घाव के रक्त से इन्द्रधनुष के समान चमक वाले शूल लिए हुए, स्वछंदराज, (7). पृथ्वी पर गिरे हुए रक्त से सौभाञ्जन-सहिजनके समान शूल लिये हुए शोभायुक्त ललितराज और (8). आठवें विघ्नराज  नामक भैरव उत्पन्न हुए।
HANUMAN JI राम भक्त हनुमान महाराज :: This is the incarnation of Bhagwan Shiv which took place to help the Almighty, when he took the incarnation along with his three more forms as Ram, Bharat, Laxman and Shatrughan to eliminate Ravan. He is called Ram Bhakt Hanuman. He under took to serve Shri Ram in all adversities. He is a role model of devotion. His devotion is ideal. He always help the worshippers as and when they are in distress and call-remember him. He was born out of Man Anjali, called Pawan Putr and the son of Vanar king Kesri, from the sperms of Bhagwan Shiv ejected out during Mohini Avtar.
देवताओं और दानवों को अमृत बाँटते हुए भगवान् श्री हरी विष्णु के मोहिनी रूप को देखकर लीलावश कामातुर भगवान् शिव का वीर्यपात हो गया। सप्त ऋषियों ने उस वीर्य को कुछ पत्तों में संग्रहीत कर लिया। समय आने पर सप्तऋषियों ने भगवान् शिव के वीर्य को पवन देव के माध्यम से, वानरराज केसरी की पत्नी अंजनी गर्भ में स्थापित कर दिया, जिससे अत्यंत तेजस्वी एवं प्रबल पराक्रमी हनुमान जी उत्पन्न हुए। 
KIRAT  किरात (भील) ::  Arjun started praying to Bhagwan Shiv on the advice of Bhagwan Shri Krashn for obtaining various Ashtr-Shatr including Pashupashtr, when Bhagwan Shiv appeared before him as a Bheel (tribal, native) and killed a demon in the form of pig-sent by Duryodhan. Both of them claimed that it was killed by him. Arguments resulted in a war. Ultimately, Arjun offered a garland over the Shiv Ling he was praying to, to be blessed to win the Kirat. The garland immediately switched over to the neck of Bhagwan Shiv. Now, Arjun recognised him and fell over his feet. Bhagwan Shiv blessed him, since he had proved to be worthy of the different weapons, he was looking for, from Bhagwan Shiv. 
भगवान् श्री कृष्ण के कहने पर अर्जुन ने पाशु पात्र  सहित अन्य दिव्यास्त्र  प्राप्त करने के लिये  वनवास के दौरान अर्जुन ने भगवान् शिव को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की, दुर्योधन द्वारा भेजा हुआ मूड़ नामक दैत्य अर्जुन को मारने के लिए शूकर (सूअर) का रूप धारण कर वहाँ आया। अर्जुन और भगवान् शिव ने किरात वेष धारी शूकर पर अपने-अपने बाणों से प्रहार किया। अर्जुन उन्हें पहचान न पाये और शूकर का वध किसके  बाण से हुआ है, इस बात  पर दोनों में विवाद होने  लगा।  भगवान् शिव ने  अर्जुन की पात्रता  की परीक्षा ली और उनकी  योग्यता देखकर अर्जुन को समस्त वांछित अश्त्र-शस्त्र प्रदान किये। 
PIPPLAD पिप्पलाद :: Dadhichi swallowed the weapons (Ashtr-Shashtr) given to him for safe custody. Demigods requested him to return them in an hour of need. Dadhichi showed his inability and offered to leave his body through Yog Vidya-Kriya. His body was utilised by Dev Shilpi Vishw Karma to produce Vajr-Thunder Volt. His death was a set back to his pregnant wife Suvrcha. Her son questioned the demigods in this regard, who told that it all happened due to the Saturn. He grew angry and punished Saturn, by striking his leg with a stick, making him lame. This act led to Brahma Ji name him as Pipplad. One suffering from the trouble caused by Saturn may pray to Pipplad. Its advised that one should pray to Saturn in stead of punishing him, who is duty bound due to ones own deeds in previous births-incarnations.
शनि पीड़ा का निवारण पिप्पलाद की कृपा से ही सम्भव हो सकता है। पिप्पलाद ने देवताओं से अपने पिता दधीचि द्वारा जन्म से पूर्व मृत्यु का कारण पूछा तो उन्हें बताया गया कि  शनिग्रह की वक्र दृष्टि के चलते ही ऐसा कुयोग बना। पिप्पलाद यह सुनकर बड़े क्रोधित हुए। उन्होंने शनि को नक्षत्र मंडल से गिरने का श्राप दे दिया। शाप के प्रभाव से शनि उसी समय आकाश से गिरने लगे। देवताओं की प्रार्थना पर पिप्पलाद ने शनि को इस बात पर क्षमा किया कि शनि जन्म से लेकर 16 साल तक की आयु तक किसी को कष्ट नहीं देंगे। तभी से पिप्पलाद का स्मरण करने मात्र से शनि की पीड़ा दूर हो जाती है। ब्रह्मा जी  ने ही प्रसन्न होकर  शिव के इस अवतार सुवर्चा के पुत्र का नामकरण पिप्पलाद किया।
नंदीश्वर :: पशु पति नाथ भगवान् शिव सभी जीवों के पूज्य हैं। नंदी (बैल) धर्म-कर्म के प्रतीक हैं। वंश नाश होते देख पितरों ने ब्रह्मचारी शिलाद मुनि से संतानोतपत्ति  के लिये  कहा। तब शिलाद ने अयोनिज और मृत्युहीन संतान की कामना से भगवान् शिव की तपस्या की। भगवान् शिव ने स्वयं शिलाद के यहाँ पुत्र के रूप में जन्म लेने का वरदान दिया। कुछ समय बाद भूमि जोतते समय शिलाद को खेत में  एक बालक मिला। जिसका नाम नंदी रखा गया। भगवान् शिव ने नंदी को अपना गणाध्यक्ष बनाया और वे नंदीश्वर हो गए। मारुतों की पुत्री सुयशा के साथ नंदीश्वर का विवाह हुआ। 
अश्वत्थामा :: द्रोण पुत्र अश्वत्थामा काल, क्रोध, यम व भगवान् शिव के अंशावतार हैं। आचार्य द्रोण ने भगवान् शिव को पुत्र रूप में पाने की लिए घोर तपस्या की थी और भगवान् शिव ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। सवन्तिक रुद्र-भगवान् शिव ने अपने अंश से द्रोण के बलशाली पुत्र अश्वत्थामा के रूप में जन्म लिया। ऐसी मान्यता है कि अश्वत्थामा अमर (स्वेच्छा से कल्पान्त में देह त्याग) हैं तथा वह आज भी धरती पर विचरण कर रहे हैं। 
शरभावतार :: 
शरभावतार में 
भगवान् शिव का स्वरूप आधा मृग (हिरण) तथा शेष शरभ पक्षी (आख्यानिकाओं में वर्णित आठ पैरों वाला जंतु, जो शेर से भी अधिक शक्तिशाली था)  के रूप में, नृसिंह 
भगवान् की क्रोधाग्नि को शान्त करने के लिए प्रकट हुए। हिरण्य कश्यपू के वध के पश्चात भी जब भगवान् नृसिंह का क्रोध शान्त नहीं हुआ तो देवता भगवान् शिव की शरण में गये। पहले तो शरभ रूपी भगवान् शिव ने भगवान् नर सिंह की स्तुति की, जब उनकी क्रोधाग्नि शान्त नहीं हुई तो शरभ रूपी भगवान् शिव, अपनी पूूछ में नृसिंह को लपेटकर ले उड़े और भगवान् नृसिंह की क्रोधाग्नि को शान्त किया। भगवान् श्री हरी विष्णु ने शरभ से क्षमा याचना कि और  अत्यंत विनम्र भाव से उनकी स्तुति की। 
गृहपति :: नर्मदा तट पर धर्मपुर में मुनि विश्वानर तथा उनकी पत्नी शुचिष्मती निवास करते थे। मुनि विश्वनार ने काशी  में घोर तप द्वारा भगवान् शिव के वीरेश लिंग की आराधना की। एक दिन मुनि को वीरेश लिंग के मध्य एक बालक दिखाई दिया तो मुनि ने बाल रूपधारी भगवान् शिव की पूजा की। उनकी पूजा से प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने शुचिष्मति के गर्भ से जन्म लेने का वरदान दिया। कालांतर में भगवान् शिव शुचिष्मती के गर्भ से पुत्र रूप में प्रकट हुए। पितामह ब्रह्मा जी  ने  उस बालक का नाम गृहपति रखा। 
दुर्वासा :: सती अनुसूइया के पति महर्षि अत्रि ने ब्रह्मा जी  के निर्देशानुसार पत्नी सहित ऋक्षकुल पर्वत पर पुत्र कामना से घोर तप किया।  ब्रह्मा, विष्णु और महेश उनके आश्रम पर परीक्षा लेने पहुँचे तो अनुसूइया ने उन्हें बालक बना दिया। अनुसूइया ने ब्रह्माणी, माता पार्वती और लक्ष्मी जी के अनुरोध पर उन्हें मुक्त किया और तीनों को अपने पुत्र रूप में प्राप्त करना चाहा।  ब्रह्माजी के अंश से चंद्रमा हुए, जो देवताओं द्वारा समुद्र में फेंके जाने पर, उससे प्रकट हुए। भगवान् श्री हरी विष्णु के अंश से श्रेष्ठ संन्यास-साँख्य पद्धति को प्रचलित करने वाले  दत्तात्रेय उत्पन्न हुए और रुद्र के अंश से मुनिवर दुर्वासा ने जन्म लिया।
वृषभ :: भगवान् श्री हरी विष्णु दैत्यों को मारने पाताल गए तो उन्हें वहाँ बहुत सी सुन्दर स्त्रियाँ मिलीं, जिनसे भगवान् श्री हरी विष्णु ने अनेक पुत्र उत्पन्न किए, जिन्होंने पाताल से पृथ्वी पर्यन्त बड़ा उत्पात मचाया। ब्रह्माजी ऋषि-मुनियों को लेकर भगवान् शिव के पास गए और रक्षा के लिए प्रार्थना की। भगवान् शिव ने वृषभ रूप धारण कर भगवान् श्री हरी विष्णु के पुत्रों का संहार किया। 
यतिनाथ ::  अर्बुदाचल पर्वत के समीप भगवान् शिव भक्त आहुक-आहुका भील दम्पत्ति निवास करते थे। भगवान् शंकर यतिनाथ-अतिथि बनकर उनके घर आए। उन्होंने भील दम्पत्ति के घर रात व्यतीत करने की इच्छा प्रकट की। आहुका ने अपने पति से  गृहस्थ की मर्यादा अनुसार यति को घर में विश्राम करने कि लिए प्रार्थना की। आहुक धनुष-बाण लेकर रक्षा हेतु बाहर ठहरा। दिन निकलने पर आहुका और यति ने देखा कि वन्य प्राणियों ने आहुक को मार डाला है। यतिनाथ बहुत दु:खी हुए तो आहुका ने कहा कि वे शोक न करें। अतिथि सेवा में प्राण विसर्जन धर्म है और उसका पालन कर आहुक धन्य हो गये हैं। आहुका ने  अपने पति का शवदाह किया, तो भगवान् शिव ने उसे दर्शन देकर अगले जन्म में पुन: अपने पति से मिलने का वरदान दिया। 
कृष्णदर्शन :: इक्ष्वाकुवंशीय श्राद्धदेव की नवमी पीढ़ी में राजा नभग का जन्म हुआ। नभग विद्या-अध्ययन के लिये गुरुकुल गए। उनके भाइयों ने परस्पर राज्य का विभाजन कर लिया। नभग ने अपने पिता से इस सम्बन्ध में बात की तो उन्होंने  कहा कि वह यज्ञ परायण ब्राह्मणों के मोह को दूर करते हुए उनके यज्ञ को सम्पन्न करके, उनके धन को प्राप्त करे।  नभग ने यज्ञभूमि में पहुँचकर वैश्य देव सूक्त के स्पष्ट उच्चारण द्वारा यज्ञ संपन्न कराया। अंगारिक ब्राह्मण, यज्ञ अवशिष्ट धन नभग को देकर स्वर्ग को चले गए। भगवान् शिव ने कृष्णदर्शन रूप में प्रकट होकर कहा कि यज्ञ के अवशिष्ट धन पर केवल उनका अधिकार है। विवाद होने पर कृष्णदर्शन रूपधारी भगवान् शिव ने उसे अपने पिता से ही निर्णय कराने को कहा। नभग के पूछने पर श्राद्धदेव ने कहा-वह पुरुष भगवान् शिव हैं और यज्ञ में अवशिष्ट वस्तु उन्हीं की है। पिता की बातों को मानकर नभग ने भगवान् शिव की स्तुति की।
अवधूत :: बृहस्पति और अन्य देवताओं को साथ लेकर देवराज इन्द्र भगवान् शिव के दर्शन के लिए कैलाश पर्वत पर गए। देवराज इन्द्र की परीक्षा लेने के लिए भगवान् शिव  ने अवधूत रूप धारण कर, उनका मार्ग अवरुद्ध कर दिया। इन्द्र ने अवज्ञा पूर्वक बार-बार अवधूत से उनका परिचय पूछा, तो भी वे  मौन रहे। क्रोधित  इन्द्र ने ज्योंहि  अवधूत पर प्रहार करने के लिए वज्र छोडऩा चाहा त्योंहि उनका हाथ स्तंभित हो गया। यह देखकर गुरु बृहस्पति ने भगवान् शिव को पहचान कर अवधूत की बहुविधि स्तुति की। इन्द्र का अंहकार मिट गया और भगवान् शिव ने उसे क्षमा कर दिया। 
भिक्षुवर्य ::  विदर्भ नरेश सत्यरथ को शत्रुओं ने मार डाला। उसकी गर्भवती पत्नी ने शत्रुओं से छिपकर अपने प्राण बचाए। समय आने पर उसने एक पुत्र को जन्म दिया। रानी जब जल पीने के लिए सरोवर गई तो एक उसे घडिय़ाल ने उन्हें अपना आहार बना लिया। बालक भूख-प्यास से तड़पने लगा। भगवान् शिव की प्रेरणा से एक भिखारिन वहाँ आई। भगवान्  शिव ने भिक्षुक का रूप धारण कर बालक का परिचय दिया और उसके पालन-पोषण का निर्देश दिया और स्वयं को प्रकट किया। बालक ने बड़ा होकर भगवान् शिव कृपा से दुश्मनों को हराकर राज्य प्राप्त किया। 
सुरेश्वर :: 
व्याघ्रपाद का पुत्र उपमन्यु अपने मामा के घर पलता था। वह सदा दूध की इच्छा से व्याकुल रहता था। उसकी माँ ने उसे अपनी अभिलाषा पूर्ण करने के लिए 
भगवान् शिव की शरण में जाने को कहा। इस पर उपमन्यु वन में जाकर "ऊँ नम: शिवाय" का जाप करने लगा। भगवान् शिव ने सुरेश्वर (देवराज इन्द्र) का रूप धारण कर उसे दर्शन दिया और भगवान् शिव की अनेक प्रकार से निंदा की। इस पर उपमन्यु क्रोधित होकर इन्द्र को मारने के लिए खड़ा हुआ। उपमन्यु को अपने में दृढ़ भक्ति और अटल विश्वास देखकर भगवान् शिव ने उसे दर्शन दिया और क्षीरसागर के समान एक अनश्वर सागर उसे प्रदान किया। उसकी प्रार्थना पर भगवान् शिव ने उसे परम भक्ति और अमर पद प्रदान किया। 
ब्रह्मचारी :: दक्ष यज्ञ में प्राण त्यागने के बाद माता सती ने हिमालय के घर जन्म लिया और भगवान् शिव को पुनः पति रूप में पाने के लिए घोर तप किया। माँ पार्वती की परीक्षा लेने के लिए भगवान् शिव ब्रह्मचारी का रूप धारण कर उनके पास पहुँचे। माता पार्वती ने ब्रह्मचारी को देख उनकी विधिवत पूजा की। जब ब्रह्मचारी ने पार्वती से उसके तप का उद्देश्य पूछा तो बृह्मचारी ने शिव निंदा की। उन्हें श्मशान वासी व कापालिक बताया तो माँ पार्वती बहुत क्रोधित हुईं। माँ पार्वती की भक्ति व प्रेम को देखकर भगवान् शिव ने स्वयं को प्रकट किया। 
सुनट नर्तक :: पार्वती के पिता हिमाचल से उनकी पुत्री का हाथ माँगने के लिए शिवजी ने सु नट नर्तक वेष धारण किया। हाथ में डमरू लेकर जब भगवान् शिव हिमालय के घर पहुँचे और नृत्य करने लगे। नटराज शिव ने सुंदर और मनोहर नृत्य किया। उन्होंने नैना के कहने पर अपना ब्रह्मा व विष्णु रूप प्रकट किया तो भी कोई उन्हें पहचान नहीं पाया। हिमाचल ने नटराज से इनाम मांगने को कहा तो नटराज शिव ने पार्वती जी  को मांग लिया। नटराज माँ पार्वती को दर्शन देकर चले गए। मैना और हिमाचल को दिव्य ज्ञान हुआ और उन्होंने पार्वती माता का कन्यादान भगवान  शिव को करने का निश्चय किया।
यक्ष :: देवताओं व असुरों द्वारा किए गए समुद्र मन्थन से प्राप्त हलाहल को भगवान् शिव ने ग्रहण कर अपने कण्ठ में धारण किया। अमृत पान करने से सभी देवता अमर और अभिमानी हो गये और स्वयं को सबसे अधिक बलशाली मानने लगे। भगवान् शिव ने यक्ष का रूप धारण कर देवताओं से एक तिनका उठाने को कहा। पूरी शक्ति लगाने पर भी देवता उस तिनके को उठा नहीं पाए। उसी समय एक आकाशवाणी हुई, जिसने यक्ष को सब गर्वों के विनाशक भगवान् शिव बताया।
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