APPEASEMENT OF PITRE पितृ संतुष्टि
MANES-PITRE (2) पितृ
MANES-PITRE (2) पितृ
पितृसंकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः॥श्रीमद् भगवद्गीता1.42॥
नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः॥[ब्रह्म पुराण (220.143]
नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्यचक्षुषाम्॥
नमो नमो नमस्ते मे प्रसीदन्तु स्वधाभुजः॥
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः॥श्रीमद् भगवद्गीता1.42॥
वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने के लिए ही होता है। लुप्त हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले अर्थात श्राद्ध और तर्पण से वंचित, इनके पितर लोग भी अधोगति को प्राप्त होते हैं।
पितृ गण दो प्रकार के हैं :: आजान और मर्त्य। आजान पितृलोक में हैं, परन्तु मृत्युलोक से मर कर गए पितर-पितृ मर्त्य हैं; जिनका पतन होता है। कुटुंब-सन्तान से सम्बन्ध रहने के कारण, उनको श्राद्ध-तर्पण-पिण्ड दान-पानी की आशा होती है।
TWO CATEGORIES OF PITRE :: The PITRE-root-basic-original ancestors, from whom the clan-caste chain begun, are left without offerings-prayers for their clemency-relief-worship, leading to their downfall to difficult hells.
First category of Pitre is one which is present in the divine abodes and next one forms the deceased over the earth. The second category will be the victim of the absence of these proceedings by their off springs. Whether one is born normally or through illegitimate relations; must hold prayers for the liberation-peace of the deceased soul, of their departed parents-grand parents.
पितृ गण मनुष्यों के पूर्वज हैं, जिनका ऋण उनके ऊपर है, क्योंकि उन्होंने कोई ना कोई उपकार अपने वंशजों पर किया है। मनुष्य लोक से ऊपर पितृ लोक है, पितृ लोक के ऊपर सूर्य लोक है एवं इससे भी ऊपर स्वर्ग लोक है। आत्मा जब अपने शरीर को त्याग कर सबसे पहले ऊपर उठती है तो वह पितृ लोक में जाती है, वहाँ उसके पूर्वज मिलते हैं। अगर उस आत्मा के अच्छे पुण्य हैं तो ये पूर्वज भी उसको प्रणाम कर अपने को धन्य मानते हैं कि इस अमुक आत्मा ने उनके कुल में जन्म लेकर उन्हें धन्य किया। इसके आगे आत्मा अपने पुण्य के आधार पर सूर्य लोक की तरफ बढती है। वहाँ से आगे, यदि और अधिक पुण्य हैं, तो आत्मा सूर्य लोक को बेध कर स्वर्ग लोक की तरफ चली जाती है, लेकिन करोड़ों में एक आध आत्मा ही ऐसी होती है, जो परमात्मा में समाहित होती है। जिसे दोबारा जन्म नहीं लेना पड़ता। मनुष्य लोक एवं पितृ लोक में बहुत सारी आत्माएं पुनः अपनी इच्छा वश, मोह वश अपने कुल में जन्म लेती हैं।
पितृ दोष :: मनुष्यों के पूर्वज सूक्ष्म व्यापक शरीर से अपने परिवार को जब देखते हैं और महसूस करते हैं कि हमारे परिवार के लोग ना तो हमारे प्रति श्रद्धा रखते हैं और न ही इन्हें कोई प्यार या स्नेह है और ना ही किसी भी अवसर पर ये हमको याद करते हैं, ना ही अपने ऋण चुकाने का प्रयास ही करते हैं, तो ये आत्माएं दुखी होकर अपने वंशजों को श्राप दे देती हैं, जिसे पितृ- दोष कहा जाता है |
पितृ दोष एक अदृश्य बाधा है जो कि पितरों द्वारा रुष्ट होने के कारण होती है। पितरों के रुष्ट होने के बहुत से कारण हो सकते हैं। यदि मनुष्य के आचरण में किसी प्रकार की त्रुटि-गलती हो, श्राद्ध आदि कर्म ना किया गया हो, अंत्येष्टि कर्म आदि में हुई किसी त्रुटि रह गई हो तो पितृ दोष लग सकता है। इसके कारण व्यक्ति को मानसिक कष्ट-अवसाद, व्यापार में नुकसान, परिश्रम के अनुसार उचित फल का न मिलना, वैवाहिक जीवन में समस्याएँ-बाधाएँ, जीवका सम्बन्धी रुकावटें-समस्याएँ और जीवन के हर क्षेत्र में बाधाओं का सामना करना पड़ता है।
पितृ दोष होने पर अनुकूल ग्रहों की स्थिति, गोचर, दशाएं होने पर भी शुभ फल नहीं मिल पाता; चाहे कितना भी पूजा पाठ, देवी, देवताओं की अर्चना की जाए।
पितृ दोष का प्रभाव ::
(1). अधोगति वाले पितरों के दोषों का मुख्य कारण परिजनों द्वारा किया गया गलत आचरण, परिजनों की अतृप्त इच्छाएं, जायदाद के प्रति मोह और उसका गलत लोगों द्वारा उपभोग होने पर, विवाहादि में परिजनों द्वारा गलत निर्णय, परिवार के किसी प्रियजन को अकारण कष्ट आदि हैं जिससे पितर क्रुद्ध हो जाते हैं और परिवार जनों को श्राप दे देते हैं और अपनी शक्ति से नकारात्मक फल प्रदान करते हैं।
(2). उर्ध्व गति वाले पितर सामान्यतः पितृदोष उत्पन्न नहीं करते, परन्तु उनका किसी भी रूप में अपमान होने पर अथवा परिवार के पारंपरिक रीति-रिवाजों का निर्वहन नहीं होने पर वह पितृदोष उत्पन्न करते हैं। इनके द्वारा उत्पन्न पितृदोष से व्यक्ति की भौतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति बाधित हो जाती है, फिर चाहे कितने भी प्रयास क्यों ना किये जाएँ, कितने भी पूजा पाठ क्यों ना किये जाएँ, व्यक्ति और परिवार के सदस्यों का कोई भी कार्य यह पितृदोष सफल नहीं होने देता।
पितृ दोष निवारण :: यह जानना ज़रूरी है कि किस गृह के कारण और किस प्रकार का पितृ दोष उत्पन्न हो रहा है ?
जन्म पत्रिका और पितृ दोष जन्म पत्रिका में लग्न, पंचम, अष्टम और द्वादश भाव से पितृदोष का विचार किया जाता है। पितृ दोष में ग्रहों में मुख्य रूप से सूर्य, चन्द्रमा, गुरु, शनि और राहू-केतु की स्थितियों से पितृ दोष का विचार किया जाता है। इनमें से भी गुरु, शनि और राहु की भूमिका प्रत्येक पितृ दोष में महत्वपूर्ण होती है।
इनमें सूर्य से पिता या पितामह, चन्द्रमा से माता या मातामह, मंगल से भ्राता या भगिनी और शुक्र से पत्नी का विचार किया जाता है। अधिकाँश लोगों की जन्म पत्रिका में मुख्य रूप से गुरु, शनि और राहु से पीड़ित होने पर ही पितृ दोष उत्पन्न होता है, इसलिए विभिन्न उपायों को करने के साथ-साथ व्यक्ति यदि पंचमुखी, सातमुखी और आठ मुखी रुद्राक्ष धारण कर ले, तो पितृ दोष का निवारण शीघ्र हो जाता है। पितृ दोष निवारण के लिए इन रुद्राक्षों को धारण करने के अतिरिक्त इन ग्रहों के अन्य उपाय जैसे मंत्र जप और स्तोत्रों का पाठ करना भी श्रेष्ठ होता है।
विभिन्न ऋण और पितृ दोष :: मनुष्य के ऊपर मुख्य रूप से 5 ऋण होते हैं जिनका कर्म न करने (ऋण न चुकाने पर) व्यक्ति को निश्चित रूप से श्राप मिलता है। ये ऋण हैं :- मातृ ऋण, पितृ ऋण, मनुष्य ऋण, देव ऋण और ऋषि ऋण।
मातृ ऋण :: माता एवं माता पक्ष के सभी लोग जिनमें माँ,मामी, नाना, नानी, मौसा, मौसी और इनके तीन पीढ़ी के पूर्वज होते हैं। माँ का स्थान परमात्मा से भी ऊँचा माना गया है। अतः यदि माता के प्रति कोई गलत शब्द बोलता है अथवा माता के पक्ष को कोई कष्ट देता रहता है, तो इसके फलस्वरूप उसको नाना प्रकार के कष्ट भोगने पड़ते हैं। इतना ही नहीं, इसके बाद भी कलह और कष्टों का दौर भी परिवार में पीढ़ी दर पीढ़ी चलता ही रहता है।
पितृ ऋण :: पिता पक्ष के लोगों जैसे ताऊ, चाचा, दादा-दादी और इसके पूर्व की तीन पीढ़ी का श्राप व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करता है। पिता आकाश की तरह छत्रछाया देता है। जिंदगी भर भरण-पोषण करता है और अंतिम समय तक सारे दुखों को खुद झेलता रहता है। इसका प्रभाव आर्थिक अभाव, दरिद्रता, संतान हीनता, संतान को विबिन्न प्रकार के कष्ट, संतान का अपंग होने से जीवन भर कष्ट की प्राप्ति आदि।
देव ऋण :: माता-पिता प्रथम देवता हैं, जिसके कारण गणेश जी महान बने। इसके बाद इष्ट भगवान् शंकर, माँ दुर्गा, भगवान विष्णु आदि आते हैं। कुलदेवी-कुलदेवता मनुष्य को नाना प्रकार के कष्ट-श्राप आदि कर्म जनित फलों से मुक्ति दिलाते हैं; यदि उनकी उचित और सामयिक आराधना की जाये।
ऋषि ऋण :: जिस ऋषि के गोत्र में पैदा हुए, वंश वृद्धि की, उन ऋषियों की आराधना-तर्पण मनुष्य के मांगलिक कार्य सफल बनाती है।
मनुष्य ऋण :: माता-पिता के अतिरिक्त जिन अन्य मनुष्यों ने प्यार-दुलार करते हैं, ख्याल रखते हैं, समय-समय पर मदद करते हैं उनकी आराधना भी उचित फल-सहायता प्रदान करती है। पशुओं, पक्षियों भी ज्ञात-अज्ञात रूप से मनुष्य की सहायता करते रहते हैं। उनका ऋण भी मनुष्य पर है।
पितृ-दोष शांति :: सामान्य उपायों में मनुष्य-व्यक्ति को षोडश पिंड दान, सर्प पूजा, ब्राह्मण को गौ-दान, कन्या-दान, कुआं, बावड़ी, तालाब आदि बनवाना, मंदिर प्रांगण में पीपल, बड़ (बरगद) आदि देव वृक्ष लगवाना एवं विष्णु मन्त्रों का जाप आदि करना तथा प्रेत श्राप को दूर करने के लिए श्रीमद्द्भागवत का पाठ करना चाहिए।
वेदों और पुराणों में पितरों की संतुष्टि के लिए मंत्र, स्तोत्र एवं सूक्तों का वर्णन है, जिसके नित्य पठन से किसी भी प्रकार की पितृ बाधा क्यों ना हो, शांत हो जाती है।
अगर नित्य पठन संभव ना हो, तो कम से कम प्रत्येक माह की अमावस्या और आश्विन कृष्ण पक्ष अमावस्या अर्थात पितृपक्ष में अवश्य करना चाहिए।
कुंडली में जिस प्रकार का पितृ दोष है उस पितृ दोष के प्रकार के हिसाब से पितृदोष शांति करवाना अच्छा होता है।
पितृदोष शांति के उपाय ::
(1). पितृ गायत्री मंत्र ::
देवताभ्यः पित्रभ्यश्च महा योगिभ्य एव च। नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः॥[ब्रह्म पुराण (220.143]
इस मंत्र कि प्रतिदिन एक माला या अधिक जाप करने से पितृ दोष में अवश्य लाभ होता है।
(2). पितृ स्तोत्र :- मार्कण्डेयपुराण में महात्मा रूचि द्वारा की गयी पितरों की यह स्तुति ‘पितृस्तोत्र’ कहलाता है। पितरों की प्रसन्नता की प्राप्ति के लिये इस स्तोत्र का पाठ किया जाता है। इस स्तोत्र की बड़ी महिमा है। श्राद्ध आदि के अवसरों पर ब्राह्मणों के भोजन के समय भी इसका पाठ करने-कराने का विधान है।
अर्चितानाममूर्तानां पितृणां दीप्ततेजसाम्। नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्यचक्षुषाम्॥
रूचि बोले :- जो सबके द्वारा पूजित, अमूर्त, अत्यन्त तेजस्वी, ध्यानी तथा दिव्यदृष्टि सम्पन्न हैं, उन पितरों को मैं सदा नमस्कार करता हूँ।
इन्द्रादीनां च नेतारो दक्षमारीचयोस्तथा। तान् नमस्याम्यहं सर्वान् पितृनप्सूदधावपि॥
जो इन्द्र आदि देवताओं, दक्ष, मारीच, सप्तर्षियों तथा दूसरों के भी नेता हैं, कामना की पूर्ति करने वाले उन पितरो को मैं प्रणाम करता हूँ।
नक्षत्राणां ग्रहाणां च वाय्वग्न्योर्नभसस्तथा। द्यावापृथिव्योश्च तथा नमस्यामि कृतांजलिः॥
नक्षत्रों, ग्रहों, वायु, अग्नि, आकाश और द्युलोक तथा पृथ्वी के भी जो नेता हैं, उन पितरों को मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।
मन्वादीनां च नेतार: सूर्याचन्दमसोस्तथा। तान् नमस्यामहं सर्वान् पितृनप्युदधावपि॥
जो मनु आदि राजर्षियों, मुनिश्वरों तथा सूर्य और चन्द्रमा के भी नायक हैं, उन समस्त पितरों को मैं जल और समुद्र में भी नमस्कार करता हूँ।
देवर्षीणां जनितृंश्च सर्वलोकनमस्कृतान्। अक्षय्यस्य सदा दातृन् नमस्येऽहं कृतांजलिः॥
जो देवर्षियों के जन्मदाता, समस्त लोकों द्वारा वन्दित तथा सदा अक्षय फल के दाता हैं, उन पितरों को मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।
प्रजापतं कश्यपाय सोमाय वरूणाय च। योगेश्वरेभ्यश्च सदा नमस्यामि कृतांजलिः॥
प्रजापति, कश्यप, सोम, वरूण तथा योगेश्वरों के रूप में स्थित पितरों को सदा हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।
नमो गणेभ्यः सप्तभ्यस्तथा लोकेषु सप्तसु। स्वयम्भुवे नमस्यामि ब्रह्मणे योगचक्षुषे॥
सातों लोकों में स्थित सात पितृगणों को नमस्कार है। मैं योगदृष्टिसम्पन्न स्वयम्भू ब्रह्माजी को प्रणाम करता हूँ।
सोमाधारान् पितृगणान् योगमूर्तिधरांस्तथा। नमस्यामि तथा सोमं पितरं जगतामहम्॥
चन्द्रमा के आधार पर प्रतिष्ठित तथा योगमूर्तिधारी पितृगणों को मैं प्रणाम करता हूँ। साथ ही सम्पूर्ण जगत् के पिता सोम को नमस्कार करता हूँ।
अग्निरूपांस्तथैवान्यान् नमस्यामि पितृनहम्। अग्निषोममयं विश्वं यत एतदशेषतः॥
अग्निस्वरूप अन्य पितरों को मैं प्रणाम करता हूँ, क्योंकि यह सम्पूर्ण जगत् अग्नि और सोममय है।
ये तु तेजसि ये चैते सोमसूर्याग्निमूर्तयः। जगत्स्वरूपिणश्चैव तथा ब्रह्मस्वरूपिणः॥
जो पितर तेज में स्थित हैं, जो ये चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं।
तेभ्योऽखिलेभ्यो योगिभ्यः पितृभ्यो यतमानसः। नमो नमो नमस्ते मे प्रसीदन्तु स्वधाभुजः॥
जो जगत्स्वरूप एवं ब्रह्मस्वरूप हैं, उन सम्पूर्ण योगी पितरो को मैं एकाग्रचित्त होकर प्रणाम करता हूँ। उन्हें बारम्बार नमस्कार है। वे स्वधाभोजी पितर मुझपर प्रसन्न हों।
पितृ स्तोत्र का नियमित पाठ करने से भी पितृ प्रसन्न होकर स्तुतिकर्ता की मनोकामना पूर्ती करते हैं। [मार्कंडेय पुराण 94.3.13]
(3). भगवान भोलेनाथ की तस्वीर या प्रतिमा के समक्ष बैठ कर या घर में ही भगवान भोलेनाथ का ध्यान कर निम्न मंत्र की एक माला (नित्य 108) जाप करने से समस्त प्रकार के पितृ-दोष संकट बाधा आदि शांत होकर शुभत्व की प्राप्ति होती है। मंत्र जाप प्रातः या सायंकाल कभी भी कर सकते हैं।
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय च धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात।
(4). अमावस्या को पितरों के निमित्त पवित्रता पूर्वक बनाया गया भोजन तथा चावल बूरा, घी एवं एक रोटी गाय को खिलाने से पितृ दोष शांत होता है।
(5). अपने माता-पिता, बुजुर्गों का सम्मान, सभी स्त्री कुल का आदर-सम्मान करने और उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करते रहने से पितर हमेशा प्रसन्न रहते हैं।
(6). पितृ दोष जनित संतान कष्ट को दूर करने के लिए हरिवंश पुराण का श्रवण करें या स्वयं नियमित रूप से पाठ करें।
(7). प्रतिदिन दुर्गा सप्तशती या सुन्दर काण्ड का पाठ करने से भी इस दोष में कमी आती है।
(8). सूर्य पिता हैं अतः ताम्बे के लोटे में जल भर कर, उसमें लाल फूल, लाल चन्दन का चूरा, रोली आदि डाल कर सूर्य देव को अर्घ्य देकर 11 बार ॐ घृणि सूर्याय नमः मंत्र का जाप करने से पितरों की प्रसन्नता एवं उनकी ऊर्ध्व गति होती है।
(9). अमावस्या वाले दिन अवश्य अपने पूर्वजों के नाम दुग्ध, चीनी, सफ़ेद कपडा, दक्षिणा आदि किसी मंदिर में अथवा किसी योग्य ब्राह्मण को दान करना चाहिए।
(10). पितृ पक्ष में पीपल की परिक्रमा अवश्य करें। अगर 108 परिक्रमा लगाई जाएँ, तो पितृ दोष अवश्य दूर होगा।
विशिष्ट उपाय ::
(1). किसी मंदिर के परिसर में पीपल अथवा बड़ का वृक्ष लगाएं और रोज़ उसमें जल डालें, उसकी देख-भाल करें, जैसे-जैसे वृक्ष फलता-फूलता जाएगा, पितृ-दोष दूर होता जाएगा, क्योकि इन वृक्षों पर ही सारे देवी-देवता, इतर-योनियाँ ,पितर आदि निवास करते हैं।
(2). यदि किसी का हक छीना है या किसी मजबूर व्यक्ति की धन संपत्ति का हरण किया है, तो उसका हक या संपत्ति उसको अवश्य लौटा दें।
(3). पितृ दोष से पीड़ित व्यक्ति को किसी भी एक अमावस्या से लेकर दूसरी अमावस्या तक अर्थात एक माह तक किसी पीपल के वृक्ष के नीचे सूर्योदय काल में एक शुद्ध घी का दीपक लगाना चाहिए, ये क्रम टूटना नहीं चाहिए।
एक माह बीतने पर जो अमावस्या आये उस दिन एक प्रयोग और करें :--
इसके लिए किसी देसी गाय या दूध देने वाली गाय का थोडा सा गौ-मूत्र प्राप्त करें। उसे थोड़े जल में मिलकर इस जल को पीपल वृक्ष की जड़ों में डाल दें। इसके बाद पीपल वृक्ष के नीचे 5 अगरबत्ती, एक नारियल और शुद्ध घी का दीपक लगाकर अपने पूर्वजों से श्रद्धा पूर्वक अपने कल्याण की कामना करें और घर आकर उसी दिन दोपहर में कुछ गरीबों को भोजन करा दें। ऐसा करने पर पितृ दोष शांत हो जायेगा।
(4). घर में कुआं हो या पीने का पानी रखने की जगह हो, उस जगह की शुद्धता का विशेष ध्यान रखें, क्योंकि ये पितृ स्थान माना जाता है। इसके अलावा पशुओं के लिए पीने का पानी भरवाने तथा प्याऊ लगवाने अथवा आवारा कुत्तों को जलेबी खिलाने से भी पितृ दोष शांत होता है।
(5). अगर पितृ दोष के कारण अत्यधिक परेशानी हो, संतान हानि हो या संतान को कष्ट हो तो किसी शुभ समय अपने पितरों को प्रणाम कर उनसे प्रण होने की प्रार्थना करें और अपने द्वारा जाने-अनजाने में किये गए अपराध-उपेक्षा के लिए क्षमा याचना करें, फिर घर में श्रीमद्दभागवत का यथा विधि पाठ कराएं। यह संकल्प लें कि इसका पूर्ण फल पितरों को प्राप्त हो। ऐसा करने से पितर अत्यंत प्रसन्न होते हैं, क्योंकि उनकी मुक्ति का मार्ग आपने प्रशस्त किया होता है।
(6). किसी गरीब की कन्या के विवाह में गुप्त रूप से अथवा प्रत्यक्ष रूप से आर्थिक सहयोग करना। यह सहयोग पूरे दिल से होना चाहिए, केवल दिखावे या अपनी बढ़ाई कराने के लिए नहीं। इस से पितर अत्यंत प्रसन्न होते हैं, क्योंकि इसके परिणाम स्वरुप मिलने वाले पुण्य फल से पितरों को बल और तेज़ मिलता है, जिससे वह ऊर्ध्व लोकों की ओर गति करते हुए पुण्य लोकों को प्राप्त होते हैं।
(7). अगर किसी विशेष कामना को लेकर किसी परिजन की आत्मा पितृ दोष उत्पन्न करती है तो तो ऐसी स्थिति में मोह को त्याग कर उसकी सदगति के लिए गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्र का पाठ करना चाहिए।
(8). सम्बंधित व्यक्ति को अपने घर के वायव्य कोण उत्तर-पश्चिम में नित्य सरसों का तेल में बराबर मात्रा में अगर का तेल मिलाकर दीपक पूरे पितृ पक्ष में नित्य लगाना चाहिए। दिया पीतल का हो तो ज्यादा अच्छा है। लाभ प्राप्ति के लिए दीपक कम से कम 10 मिनट नित्य जलना आवश्यक है।
प्रत्येक अमावस्या को दोपहर के समय गूगल की धूनी पूरे घर में सब जगह घुमाएं, शाम को आंध्र होने के बाद पितरों के निमित्त शुद्ध भोजन बनाकर एक दोने में सारी सामग्री रख कर किसी बबूल के वृक्ष अथवा पीपल या बड़ की जद में रख कर आ जाएँ और पीछे मुड़कर न देखें। नित्य प्रति घर में देसी कपूर जलाया करें।
"ॐ पितृ दैवतायै नम:"पितरों के प्रसन्नता के उपाय :: पितृ गण हमारे पूर्वज हैं, जिनका हमारे ऊपर ऋण है,क्योंकि उन्होंने कोई ना कोई उपकार हमारे जीवन के लिए किया है। पितृ लोक मनुष्य लोक-पृथ्वी से ऊपर है। इसके ऊपर सूर्य लोक है एवं इस से भी ऊपर स्वर्ग लोक है।
आत्मा जब अपने शरीर को त्याग कर सबसे पहले ऊपर उठती है तो वह पितृ लोक में जाती है, वहाँ हमारे पूर्वज मिलते हैं अगर उस आत्मा के अच्छे पुण्य हैं तो ये हमारे पूर्वज भी उसको प्रणाम कर अपने को धन्य मानते हैं कि इस अमुक आत्मा ने हमारे कुल में जन्म लेकर हमें धन्य किया इसके आगे आत्मा अपने पुण्य के आधार पर सूर्य लोक की तरफ बढती है।
वहाँ से आगे, यदि और अधिक पुण्य हैं, तो आत्मा सूर्य लोक को भेज कर स्वर्ग लोक की तरफ चली जाती है, लेकिन करोड़ों में एक आध आत्मा ही ऐसी होती है, जो किपरमात्मा में समाहित होती है, जिसे दोबारा जन्म नहीं लेना पड़ता। मनुष्य लोक एवं पितृ लोक में बहुत सारी आत्माएं पुनः अपनी इच्छा वश, मोह वश अपने कुल में जन्म लेती हैं।
पितृ दोष :: हमारे ये ही पूर्वज सूक्ष्म व्यापक शरीर से अपने परिवार को जब देखते हैं और महसूस करते हैं कि हमारे परिवार के लोग ना तो हमारे प्रति श्रद्धा रखते हैं और न ही इन्हें कोई प्यार या स्नेह है और ना ही किसी भी अवसर पर ये हमको याद करते हैं, ना ही अपने ऋण चुकाने का प्रयास ही करते हैं तो ये आत्माएं दुखी होकर अपने वंशजों को श्राप दे देती हैं, जिसे पितृ दोष कहा जाता है।
पितृ दोष एक अदृश्य बाधा है। ये बाधा पितरों द्वारा रुष्ट होने के कारण होती है। पितरों के रुष्ट होने के बहुत से कारण हो सकते हैं। जातक के आचरण से किसी परिजन द्वारा की गयी गलती से, श्राद्ध आदि कर्म ना करने से, अंत्येष्टि कर्म आदि में हुई किसी त्रुटि के कारण भी हो सकता है।
इसके अलावा मानसिक अवसाद, व्यापार में नुक्सान, परिश्रम के अनुसार फल न मिलना, विवाह या वैवाहिक जीवन में समस्याएं, काम-धंधे में समस्याएं या संक्षिप्त में कहें तो जीवन के हर क्षेत्र में व्यक्ति और उसके परिवार को बाधाओं का सामना करना पड़ता है। पितृ दोष होने पर अनुकूल ग्रहों की स्थिति, गोचर दशाएं होने पर भी शुभ फल नहीं मिल पाते। कितना भी पूजा पाठ, देवी देवताओं की अर्चना की जाए उसका शुभ फल नहीं मिल पाता।
पितृ दोष दो प्रकार से प्रभावित करता है :- (1). अधोगति वाले पितरों के कारण और (2). उर्ध्वगति वाले पितरों के कारण।
अधोगति वाले पितरों के दोषों का मुख्य कारण परिजनों द्वारा किया गया गलत आचरण, अतृप्त इच्छाएं, जायदाद के प्रति मोह और उसका गलत लोगों द्वारा उपभोग होने पर, विवाहादि में परिजनों द्वारा गलत निर्णय। परिवार के किसी प्रियजन को अकारण कष्ट देने पर पितर क्रुद्ध हो जाते हैं और परिवार जनों को श्राप दे देते हैं और अपनी शक्ति से नकारात्मक फल प्रदान करते हैं।
उर्ध्व गति वाले पितर सामान्यतः पितृदोष उत्पन्न नहीं करते ,परन्तु उनका किसी भी रूप में अपमान होने पर अथवा परिवार के पारंपरिक रीति-रिवाजों का निर्वहन नहीं करने पर वह पितृदोष उत्पन्न करते हैं।
वर्तमान काल में नालायक औलाद जो अपने माता-पिता का अपमान-त्याग करती है, कष्ट देती है, परेशान करती है, धन-सम्पत्ति का अपहरण करती है वह स्वतः पितृदोष का शिकार हो जाती है। पैतृक सम्पत्ति का दुरूपयोग, ऐश परस्ती भी यही परिणाम देती है।
इनके द्वारा उत्पन्न पितृदोष से व्यक्ति की भौतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति बिलकुल बाधित हो जाती है फिर चाहे कितने भी प्रयास क्यों ना किये जाएँ, कितने भी पूजा पाठ क्यों ना किये जाएँ, उनका कोई भी कार्य ये पितृदोष सफल नहीं होने देता। पितृ दोष निवारण के लिए सबसे पहले ये जानना ज़रूरी होता है कि किस गृह के कारण और किस प्रकार का पितृ दोष उत्पन्न हो रहा है ?
जन्म पत्रिका और पितृ दोष जन्म पत्रिका में लग्न, पंचम, अष्टम और द्वादश भाव से पितृदोष का विचार किया जाता है। पितृ दोष में ग्रहों में मुख्य रूप से सूर्य, चन्द्रमा, गुरु, शनि और राहू -केतु की स्थितियों से पितृ दोष का विचार किया जाता है।
इनमें से भी गुरु, शनि और राहु की भूमिका प्रत्येक पितृ दोष में महत्वपूर्ण होती है इनमें सूर्य से पिता या पितामह, चन्द्रमा से माता या मातामह, मंगल से भ्राता या भगिनी और शुक्र से पत्नी का विचार किया जाता है।
अधिकाँश लोगों की जन्म पत्रिका में मुख्य रूप से क्योंकि गुरु, शनि और राहु से पीड़ित होने पर ही पितृ दोष उत्पन्न होता है, इसलिए विभिन्न उपायों को करने के साथ साथ व्यक्ति यदि पंचमुखी, सातमुखी और आठ मुखी रुद्राक्ष भी धारण कर ले, तो पितृ दोष का निवारण शीघ्र हो जाता है।
पितृ दोष निवारण के लिए इन रुद्राक्षों को धारण करने के अतिरिक्त इन ग्रहों के अन्य उपाय जैसे मंत्र जप और स्तोत्रों का पाठ करना भी श्रेष्ठ होता है।
विभिन्न ऋण और पितृ दोष :: मनुष्य के ऊपर मुख्य रूप से 5 ऋण होते हैं जिनका कर्म न करने (ऋण न चुकाने पर) हमें निश्चित रूप से श्राप मिलता है। ये ऋण हैं :- मातृ ऋण, पितृ ऋण, मनुष्य ऋण, देव ऋण और ऋषि ऋण।
मातृ ऋण :: माता एवं माता पक्ष के सभी लोग जिनमें मामा-मामी, नाना-नानी, मौसा-मौसी और इनके तीन पीढ़ी के पूर्वज होते हैं क्योंकि माँ का स्थान परमात्मा से भी ऊँचा माना गया है, अतः यदि माता के प्रति कोई गलत शब्द बोलता है अथवा माता के पक्ष को कोई कष्ट देता रहता है, तो इसके फलस्वरूप उसको नाना प्रकार के कष्ट भोगने पड़ते हैं। इतना ही नहीं, इसके बाद भी कलह और कष्टों का दौर भी परिवार में पीढ़ी दर पीढ़ी चलता ही रहता है।
पितृ ऋण :: पिता पक्ष के लोगों जैसे पर बाबा, ताऊ, चाचा, दादा-दादी और इसके पूर्व की तीन पीढ़ी का श्राप मानव जीवन को प्रभावित करता है। पिता जातक को आकाश की तरह छत्र-छाया देता है, जिंदगी भर पालन-पोषण करता है और अंतिम समय तक सारे दुखों को खुद झेलता रहता है।
वर्तमान काल, भौतिक युग में पिता का सम्मान नयी पीढ़ी नहीं कर प् रही और अपने कर्तव्य से दूर भाग रही है। पितृ भक्ति करना मनुष्य का धर्म है। इस धर्म का पालन न करने पर उनका श्राप नयी पीढ़ी को झेलना ही पड़ता है। इसमें घर में आर्थिक अभाव, दरिद्रता, संतानहीनता, संतान को विभिन्न प्रकार के कष्ट आना या संतान अपंग रह जाने से जीवन भर कष्ट की प्राप्ति आदि। इसमें महज औलाद ही दोषी नहीं है। इसमें माता-पिता का स्वयं अपनी जिम्मेवारियों से भागना और कर्तव्य का पालन न करना भी है।
देव ऋण :: माता-पिता प्रथम देवता हैं, जिसके कारण गणपति गणेश महान बने। इसके बाद भगवान् शिव, दुर्गा माँ, भगवान् श्री हरी विष्णु आदि आते हैं, जिनको जातक का कुल मानता आ रहा है। पूर्वज भी भी अपने-अपने कुल देवताओं को मानते थे, लेकिन नयी पीढ़ी ने ऐसा करना बिलकुल छोड़ दिया है। इसी कारण ईश्वर, कुल देवी-देवता उन्हें नाना प्रकार के कष्ट, श्राप देकर उन्हें अपनी उपस्थिति का आभास कराते हैं।
ऋषि ऋण :: जिस ऋषि के गोत्र में पैदा हुए, वंश वृद्धि की, उन ऋषियों का नाम अपने नाम के साथ जोड़ने में नयी पीढ़ी कतराती है, उनके ऋषि तर्पण आदि नहीं करती और इसी कारण उनके घरों में कोई मांगलिक कार्य नहीं होते हैं। इसलिए उनका श्राप पीढ़ी दर पीढ़ी प्राप्त होता रहता है।
मनुष्य ऋण :: माता-पिता के अतिरिक्त जिन अन्य मनुष्यों ने जातक को प्यार दिया, दुलार दिया, ख्याल रखा, समय-समय पर मदद की; गाय आदि पशुओं का दूध पिया, जिन अनेक मनुष्यों, पशुओं, पक्षियों ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मदद की उनका ऋण भी जातक के ऊपर चढ़ जाता है।
लेकिन लोग आजकल गरीब, बेबस, लाचार लोगों की धन-संपत्ति हरण करके अपने को ज्यादा गौरवान्वित महसूस करते हैं। इसी कारण देखने में आया है कि ऐसे लोगों का पूरा परिवार जीवन भर नहीं बस पाता है। वंश हीनता, संतानों का गलत संगति में पड़ जाना, परिवार के सदस्यों का आपस में सामंजस्य न बन पाना, परिवार कि सदस्यों का किसी असाध्य रोग से ग्रस्त रहना; इत्यादि दोष उस परिवार में उत्पन्न हो जाते हैं।
ऐसे परिवार को पितृ दोष युक्त या शापित परिवार कहा जाता है रामायण में श्रवण कुमार के माता-पिता के श्राप के कारण दशरथ के परिवार को हमेशा कष्ट झेलना पड़ा, ये जग ज़ाहिर है। इसलिए परिवार की सर्वोन्नती के पितृ दोषों का निवारण करना बहुत आवश्यक है।
पितृों के रूष्ट होने के लक्षण :: पितरों के रुष्ट होने के कुछ असामान्य लक्षण क्रमशः इस प्रकार हो सकते हैं :- खाने में से बाल निकलना, घर में बदबू या दुर्गंध का होना, पूर्वजों का स्वप्न में बार बार आना, शुभ कार्य में अड़चन, घर के किसी एक सदस्य का कुंवारा रह जाना, मकान-दुकान सम्पत्ति की खरीद-फरोख्त में दिक्कत आना, संतान ना होना।
पितृ-दोष शांति के उपाय ::
(1). सामान्य उपायों में षोडश पिंड दान, सर्प पूजा, ब्राह्मण को गौ दान, कन्या-दान, कँआ, बावड़ी, तालाब आदि बनवाना, मंदिर के प्रांगण में पीपल, बड़ (बरगद) आदि देव वृक्ष लगवाना एवं विष्णु मन्त्रों का जाप आदि करना, प्रेत श्राप को दूर करने के लिए श्रीमद्द्भागवत का पाठ करना चाहिए।
(2). वेदों और पुराणों में पितरों की संतुष्टि के लिए मंत्र, स्तोत्र एवं सूक्तों का वर्णन है, जिसके नित्य पठन से किसी भी प्रकार की पितृ बाधा क्यों ना हो, शांत हो जाती है। अगर नित्य पठन संभव ना हो, तो कम से कम प्रत्येक माह की अमावस्या और आश्विन कृष्ण पक्ष अमावस्या अर्थात पितृपक्ष में अवश्य करना चाहिए।
वैसे तो कुंडली में किस प्रकार का पितृ दोष है उस पितृ दोष के प्रकार के हिसाब से पितृदोष शांति करवाना अच्छा होता है।
(3). भगवान् भोलेनाथ की तस्वीर या प्रतिमा के समक्ष बैठ कर या घर में ही भगवान् शिव का ध्यान कर निम्न मंत्र की एक माला नित्य जाप करने से समस्त प्रकार के पितृ-दोष संकट बाधा आदि शांत होकर शुभत्व की प्राप्ति होती है। मंत्र जाप प्रातः या सायंकाल कभी भी कर सकते हैं :-
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय च धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात।
(4). अमावस्या को पितरों के निमित्त पवित्रता पूर्वक बनाया गया भोजन तथा चावल बूरा, घी एवं एक रोटी गाय को खिलाने से पितृ दोष शांत होता है।
(5). अपने माता-पिता, बुजुर्गों का सम्मान, सभी स्त्री कुल का आदर-सम्मान करने और उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करते रहने से पितर हमेशा प्रसन्न रहते हैं।
(6). पितृ दोष जनित संतान कष्ट को दूर करने के लिए हरिवंश पुराण का श्रवण करें या स्वयं नियमित रूप से पाठ करें।
(7). प्रतिदिन दुर्गा सप्तशती या सुन्दर काण्ड का पाठ करने से भी इस दोष में कमी आती है।
(8). सूर्य पिता हैं, अतः ताम्बे के लोटे में जल भर कर, उसमें लाल फूल, लाल चन्दन का चूरा, रोली आदि डाल कर सूर्य देव को अर्घ्य देकर 11 बार ॐ घृणि सूर्याय नमः मंत्र का जाप करने से पितरों की प्रसन्नता एवं उनकी ऊर्ध्व गति होती है।
(9). अमावस्या वाले दिन अवश्य अपने पूर्वजों के नाम दुग्ध, चीनी, सफ़ेद कपड़ा, दक्षिणा आदि किसी मंदिर में अथवा किसी योग्य ब्राह्मण को दान करना चाहिए।
(10). पितृ पक्ष में पीपल की परिक्रमा अवश्य करें अगर 108 परिक्रमा लगाई जाएँ, तो पितृ दोष अवश्य दूर होगा।
विशिष्ट उपाय ::
(1). किसी मंदिर के परिसर में पीपल अथवा बड़ का वृक्ष लगाएं और रोज़ उसमें जल डालें,उसकी देख-भाल करें, जैसे-जैसे वृक्ष फलता-फूलता जाएगा, पितृ-दोष दूर होता जाएगा, क्योंकि इन वृक्षों पर ही सारे देवी-देवता, इतर-योनियाँ, पितर आदि निवास करते हैं।
(2). यदि जातक ने किसी का हक छीना है या किसी मजबूर व्यक्ति की धन-संपत्ति का हरण किया है, तो उसका हक या संपत्ति उसको अवश्य लौटा दें।
(3). पितृ दोष से पीड़ित व्यक्ति को किसी भी एक अमावस्या से लेकर दूसरी अमावस्या तक अर्थात एक माह तक किसी पीपल के वृक्ष के नीचे सूर्योदय काल में एक शुद्ध घी का दीपक लगाना चाहिए,ये क्रम टूटना नहीं चाहिए।
एक माह बीतने पर जो अमावस्या आये उस दिन एक प्रयोग और करें।
इसके लिए किसी देसी गाय या दूध देने वाली गाय का थोडा सा गौ मूत्र प्राप्त करें उसे थोड़े जल में मिलाकर इस जल को पीपल वृक्ष की जड़ों में डाल दें इसके बाद पीपल वृक्ष के नीचे अगरबत्ती, एक नारियल और शुद्ध घी का दीपक लगाकर अपने पूर्वजों से श्रद्धा पूर्वक अपने कल्याण की कामना करें और घर आकर उसी दिन दोपहर में कुछ गरीबों को भोजन करा दें ऐसा करने पर पितृ दोष शांत हो जायेगा।
(4). घर में कँआ हो या पीने का पानी रखने की जगह हो, उस जगह की शुद्धता का विशेष ध्यान रखें, क्योंकि ये पितृ स्थान माना जाता है। इसके अलावा पशुओं के लिए पीने का पानी भरवाने तथा प्याऊ लगवाने अथवा आवारा कुत्तों को जलेबी खिलाने से भी पितृ दोष शांत होता है।
(5 ). अगर पितृ दोष के कारण अत्यधिक परेशानी हो, संतान हानि हो या संतान को कष्ट हो तो किसी शुभ समय अपने पितरों को प्रणाम कर उनसे प्रण होने की प्रार्थना करें और अपने द्वारा जाने-अनजाने में किये गए अपराध-उपेक्षा के लिए क्षमा याचना करें, फिर घर अथवा शिवालय में पितृ गायत्री मंत्र का सवा लाख विधि से जाप कराएं जाप के उपरांत दशांश हवन के बाद संकल्प ले की इसका पूर्ण फल पितरों को प्राप्त हो ऐसा करने से पितर अत्यंत प्रसन्न होते हैं, क्योंकि उनकी मुक्ति का मार्ग जातक ने प्रशस्त किया होता है।
(6). पितृ दोष की शांति हेतु ये उपाय बहुत ही अनुभूत और अचूक फल देने वाला देखा गया है। किसी गरीब की कन्या के विवाह में गुप्त रूप से अथवा प्रत्यक्ष रूप से आर्थिक सहयोग करना। लेकिन ये सहयोग पूरे दिल से होना चाहिए, केवल दिखावे या अपनी बड़ाई कराने के लिए नहीं। इस से पितर अत्यंत प्रसन्न होते हैं, क्योंकि इसके परिणाम स्वरुप मिलने वाले पुण्य फल से पितरों को बल और तेज़ मिलता है, जिस से वह ऊर्ध्व लोकों की ओरगति करते हुए पुण्य लोकों को प्राप्त होते हैं।
(7). अगर किसी विशेष कामना को लेकर किसी परिजन की आत्मा पितृ दोष उत्पन्न करती है तो तो ऐसी स्थिति में मोह को त्याग कर उसकी सदगति के लिए गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्र का पाठ करना चाहिए।
(8). पितृ दोष दूर करने का अत्यंत सरल उपाय :- इसके लिए सम्बंधित व्यक्ति को अपने घर के वायव्य कोण (उत्तर-पश्चिम) में नित्य सरसों का तेल में बराबर मात्रा में अगर का तेल मिलाकर दीपक पूरे पितृ पक्ष में नित्य लगाना चाहिए। दिया पीतल का हो तो ज्यादा अच्छा है। दीपक कम से कम 10 मिनट नित्य जलना आवश्यक है।
इन उपायों के अतिरिक्त वर्ष की प्रत्येक अमावस्या को दोपहर के समय गूगल की धूनी पूरे घर में सब जगह घुमाएं, शाम को अँधेरा होने के बाद पितरों के निमित्त शुद्ध भोजन बनाकर एक दोने में सभी सामग्री रख कर किसी बबूल के वृक्ष अथवा पीपल या बड़ की जड़ में रख कर आ जाएँ। पीछे मुड़कर न देखें। नित्य प्रति घर में देसी कपूर जाया करें। ये कुछ ऐसे उपाय हैं, जो सरल भी हैं और प्रभावी भी और हर कोई सरलता से इन्हें कर पितृ दोषों से मुक्ति पा सकता है। लेकिन किसी भी प्रयोग की सफलता आपकी पितरों के प्रति श्रद्धा के ऊपर निर्भर करती है।
पितृदोष निवारण के लिए नारायणबलि-नागबलि :: श्राद्ध पक्ष यही अवसर है जब पितृदोष से मुक्ति पाई जा सकती है। इस दोष के निवारण के लिए शास्त्रों में नारायण बलि का विधान बताया गया है। इसी तरह नागबलि भी होती है।
नारायणबलि और नागबलि दोनों विधि मनुष्य की अपूर्ण इच्छाओं और अपूर्ण कामनाओं की पूर्ति के लिए की जाती है। इसलिए दोनों को काम्य कहा जाता है। नारायणबलि और नागबलि दो अलग-अलग विधियां हैं। नारायणबलि का मुख्य उद्देश्य पितृदोष निवारण करना है और नागबलि का उद्देश्य सर्प या नाग की हत्या के दोष का निवारण करना है। इनमें से कोई भी एक विधि करने से उद्देश्य पूरा नहीं होता इसलिए दोनों को एक साथ ही संपन्न करना पड़ता है।
जिस परिवार के किसी सदस्य या पूर्वज का ठीक प्रकार से अंतिम संस्कार, पिंडदान और तर्पण नहीं हुआ हो उनकी आगामी पीढि़यों में पितृदोष उत्पन्न होता है। ऐसे व्यक्तियों का संपूर्ण जीवन कष्टमय रहता है, जब तक कि पितरों के निमित्त नारायणबलि विधान न किया जाए। प्रेतयोनी से होने वाली पीड़ा दूर करने के लिए नारायणबलि की जाती है। परिवार के किसी सदस्य की आकस्मिक मृत्यु हुई हो। आत्महत्या, पानी में डूबने से, आग में जलने से, दुर्घटना में मृत्यु होने से ऐसा दोष उत्पन्न होता है।
यह कर्म प्रत्येक वह व्यक्ति कर सकता है जो अपने पितरों का आशीर्वाद प्राप्त करना चाहता है। जिन जातकों के माता-पिता जीवित हैं वे भी यह विधान कर सकते हैं। संतान प्राप्ति, वंश वृद्धि, कर्ज मुक्ति, कार्यों में आ रही बाधाओं के निवारण के लिए यह कर्म पत्नी सहित करना चाहिए। यदि पत्नी जीवित न हो तो कुल के उद्धार के लिए पत्नी के बिना भी यह कर्म किया जा सकता है। यदि पत्नी गर्भवती हो तो गर्भ धारण से पांचवें महीने तक यह कर्म किया जा सकता है। घर में कोई भी मांगलिक कार्य हो तो ये कर्म एक साल तक नहीं किए जा सकते हैं। माता-पिता की मृत्यु होने पर भी एक साल तक यह कर्म करना निषिद्ध माना गया है।
नारायणबलि गुरु, शुक्र के अस्त होने पर नहीं किए जाने चाहिए। निर्णण सिंधु के मतानुसार इस कर्म के लिए केवल नक्षत्रों के गुण व दोष देखना ही उचित है। नारायणबलि कर्म के लिए धनिष्ठा पंचक और त्रिपाद नक्षत्र को निषिद्ध माना गया है। धनिष्ठा नक्षत्र के अंतिम दो चरण, शततारका, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद एवं रेवती, इन साढ़े चार नक्षत्रों को धनिष्ठा पंचक कहा जाता है। कृतिका, पुनर्वसु, विशाखा, उत्तराषाढ़ा और उत्तराभाद्रपद ये छह नक्षत्र त्रिपाद नक्षत्र माने गए हैं। इनके अलावा सभी समय यह कर्म किया जा सकता है।
नारायणबलि-नागबलि के लिए पितृपक्ष सर्वाधिक श्रेष्ठ समय बताया गया है। इसमें किसी योग्य पुरोहित से समय निकलवाकर यह कर्म करवाना चाहिए। यह कर्म गंगा तट अथवा अन्य किसी नदी सरोवर के किनारे में भी संपन्न कराया जाता है। संपूर्ण पूजा तीन दिनों की होती है।
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