Friday, March 6, 2015

VISHW KARMA देव शिल्पी विश्वकर्मा

VISHW KARMA 
देव शिल्पी विश्वकर्मा
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
dharmvidya.wordpress.com hindutv.wordpress.com santoshhastrekhashastr.wordpress.com bhagwatkathamrat.wordpress.com jagatgurusantosh.wordpress.com santoshkipathshala.blogspot.com santoshsuvichar.blogspot.com santoshkathasagar.blogspot.com bhartiyshiksha.blogspot.com santoshhindukosh.blogspot.com
ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
विश्वकर्मा भगवान् के अवतार हैं। वे और मय दानव वास्तु शास्त्र का प्रेणता और आचार्य हैं।
विश्वकर्मा जयंती दीपावली के दूसरे दिन मनायी जाती है। इस अवसर पर कुशल कारीगर अपने औजारों की पूजा करते हैं। औद्योगिक प्रतिष्ठान, कल-कारखानों, निर्माण
स्थलों पर कारीगरों द्वारा उनकी पूजा की जाती है। इस अवसर पर कारीगर अपने औजारों और सैनिक अपने हथियारों की पूजा करते हैं। 
रावण की लंका, द्वारका पुरी, इन्द्रप्रथ के महलों, सुदामा के महल, आदि का निर्माण उन्हीं के द्वारा किया गया। 
उनके अनेक रूप हैं :- दो बाहु वाले, चार बाहु एवं दस बाहु वाले तथा एक मुख, चार मुख एवं पंचमुख वाले। उनके मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी एवं दैवज्ञ नामक पाँच पुत्र हैं। ये पाँचों वास्तु शिल्प की अलग-अलग विधाओं में पारंगत हैं। 
VISHW KARMA
ELLORA
कथा :: वाराणसी में धार्मिक व्यवहार से चलने वाला एक रथ चालक-रथी, सूत अपनी पत्नी के साथ रहता था। वह अपने कार्य में निपुण था, परंतु विभिन्न जगहों पर घूम-घूम कर प्रयत्न करने पर भी भोजन से अधिक धन नहीं कमा पाता था। उसके कोई पुत्र नहीं था। पति की तरह पत्नी भी पुत्र न होने के कारण चिंतित रहती थी। पुत्र प्राप्ति के लिए वे साधु-संतों के यहाँ जाते थे, लेकिन उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हो सकी। तब उनके एक ब्राह्मण 
पड़ोसी ने उनको भगवान् विश्वकर्मा की शरण में जाने को कहा और बताया कि अमावस्या को व्रत कर भगवान् विश्वकर्मा का महात्म्य सुनो। सूत और उसकी पत्नी ने अमावस्या को भगवान्  विश्वकर्मा की पूजा की, जिससे उसे धन-धान्य और पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई और वे सुखी जीवन व्यतीत करने लगे। तभी से यह पूजा सभी श्रेणी के कारीगरों द्वारा की जाती है। 
VISHW KARMA
 STATUE
याचक पत्नी सहित पूजा स्थान में बैठे और भगवान् विष्णु का ध्यान करे। तत्पश्चात् हाथ में पुष्प, अक्षत लेकर मंत्र पढ़े और चारों ओर अक्षत छिड़के। अपने हाथ में रक्षासूत्र बाँधे एवं पत्नी को भी बाँधे। पुष्प जलपात्र में छोड़े। इसके बाद हृदय में भगवान् विश्वकर्मा का ध्यान करें। दीप जलायें, जल के साथ पुष्प एवं सुपारी लेकर संकल्प करें। शुद्ध भूमि पर अष्टदल कमल बनाए। उस पर जल डालें। इसके बाद पंचपल्लव, सप्त मृन्तिका, सुपारी, दक्षिणा कलश में डालकर कपड़े से कलश की तरफ अक्षत चढ़ाएं। चावल से भरा पात्र समर्पित कर भगवान् विश्वकर्मा की मूर्ति स्थापित करें और वरुण देव का आह्वान करें।  पुष्प चढ़ाकर याचना करे कि हे भगवान् विश्वकर्मा! इस मूर्ति में विराजिए और मेरी पूजा स्वीकार कीजिए। इस प्रकार पूजन के बाद विविध प्रकार के औजारों और यंत्रों आदि की पूजा कर हवन यज्ञ करें।
आदि काल से ही विश्वकर्मा  मानव, देवगणों, राक्षसों द्वारा भी पूजित और वंदित हैं।पुष्पक विमान का निर्माण तथा सभी देवों के भवन और उनके दैनिक उपयोग में होने वाली वस्तुएं भी उनके द्वारा ही बनाई  गईं हैं। कर्ण के कुण्डल, भगवान् विष्णु का सुदर्शन चक्र, भगवान् शंकर का त्रिशूल और यमराज का कालदण्ड इत्यादि वस्तुओं का निर्माण भी भगवान् विश्वकर्मा ने ही किया है। विश्वकर्मा के पाँच स्वरुपों और अवतारों हैं :- विराट विश्वकर्मा, धर्मवंशी विश्वकर्मा, अंगिरावंशी विश्वकर्मा, सुधन्वा विश्वकर्म और भृंगुवंशी विश्वकर्मा। 
विश्वकर्मा के सबसे बडे पुत्र मनु का विवाह अंगिरा ऋषि की कन्या कंचना के साथ हुआ जिनसे अग्निगर्भ, सर्वतोमुख, ब्रम्ह आदि ऋषि उत्पन्न हुए। 
VISHW KARMA
HIMACHAL
PRADESH
विश्वकर्मा देवताओं के बढ़ई (विष्णुपुराण) तथा शिल्पाकार, सृष्टिकर्ता देवायतनों का सृष्टा (स्कंदपुराण) और जल पर चल सकने योग्य खड़ाऊ तैयार करने में समर्थ हैं। उनके पुत्र नल-नील ने ही रामेश्वरम से श्री लङ्का के पुल का निर्माण किया। 
विश्वकर्मीय ग्रंथ में वास्तुविद्या, रथादि वाहन, गणित के क्लिष्ट सूत्रों का वृहद वर्णन है।
वास्तु विचार :: घर के छ: भेद होते हैं। इनमें एक शाला, द्विशाला, त्रिशाला, चतुष्शाला, सप्तशाला और दसशाला है। इन दसों शालाओं में प्रत्येक के 16 भेद होते हैं। ध्रुव, धान्य, जय, नन्द, खर, कान्त, मनोरम, सुमुख, दिर्मुख, क्रूर, शत्रुद, स्वर्णद, क्षय, आक्रन्द, विपुल और विजय [नारद पुराण]
Vishw Karma is Ultimate reality [Rig Ved]. He is the divine smith Twasta emerging from Vishw Karma. [Yajur Ved Purush Sukt] He is unborn-Aj. He is Praja Pati. [Yajur Ved] He is Pashu Pati. [Atharv Ved] He is Rudr Shiv, who is dwelling in all living forms.[Shwetashwatropanishad
He revealed the Sath Paty Ved i.e., Vastu Shastr or fourth Up Ved and presides over the sixty-four mechanical crafts. 
Vishw Karma evolved five Praja Pati from his five faces called :- Sadyojat, Vam Dev Ji, Aghora, Tat Puruṣh & Ishan or Manu, May, Twasta, Shilpy & Vishw Jan.
Basically, he is initial architect, engineer, designer who evolve Vastu Shastr. He is the presiding deity of all craftsmen and architects. He is the person who created divine weaponry and vehicles used by the demigods. 
VISHW KARMA MACHHLI PATTAM
He is called Dev Shilpy-divine craftsman like May Danav (मय दानव)-father in law of Ravan and the mighty ruler of Meerut,  as well.
He is Swambhu and evolved out of the ocean as a result of the churning of the ocean by the demigods and the demons. He is an incarnation of the God. 
Vishw Karma Jayanti is celebrated by all classes craftsmen, skilled workers etc. on Kanya Sankranti (September 16 in 2016), two days after Deepawali. All instruments and tools belong to him. All equipment like plough were designed and passed on the humans by him. It was he who gave round shape to the Sun by putting him on his lath machine, when his daughter Sanjna who was married to Sun, could not bear the tremendous heat and energy evolved out of him. The fragments of it were used to make Sudarshan Chakr for Bhagwan Vishnu and Trishul for Bhagwan Shiv. lance for Bhagwan Kartikey-the commander of divine army.
The idols of deities Jagan Nath-Shri Krashn, Bal Bhadr and Subhdra were crafted by him for Jagan Nath Puri temple in Orissa. The golden palaces at Shri Lanka ware crafted by him for Bhagwan Shiv and Maa Parwati.  However, after performing Pooja for occupying house by Maa Parwati, Ravan asked it as offering-Dakshina to him which Bhagwan Shiv happily gave. Maya Sabha, a palace having varied forms of illusions was created by him at Indr Prasth-present Delhi. Dwarka was built overnight by Vishw Karma to carry out the desire of the Almighty as Shri Krashn, over the vast tract of land released by the ocean to oblige Bal Ram Ji-incarnation of Shesh Nag, as a dowry gift. When Bhagwan Shri Krashn left the earth, it submerged into sea again.
"यो विश्वं जगतं करोत्येसे स विश्वकर्मा" 
जो समस्त संसार की रचना अर्थात निर्माण करता है ऐसे परमेश्वर या कहे कि इससे जुड़े निर्माण के कर्म को करने वाले परब्रह्म एवम् उस कर्म को आगे बढ़ाने वाले पुरुष को विश्वकर्मा कहते है। 
विश्वकर्मा परब्रह्म जगधारमूलक:।
  तन्मुखानी तुवै पंच पंच ब्रह्मेत्युदाह्तम॥
परब्रह्म श्री विश्वकर्मा सम्पूर्ण जगत के मूल आधार है। उनके पाँचों मुखों से पंचब्रह्माओ की उत्पत्ति हुई हैै जो मनु ब्रह्मा (शिवशंकर) मयबह्मा (विष्णु) त्वष्टा  ब्रह्मा (ब्रह्मा),  शिल्पी ब्रह्मा (इन्द्र), दैवज्ञ ब्रह्मा (सूर्य)। इन्हीं पंच ब्रह्माओं से ही पंचऋषि गोत्र का भी उदय होता है जो इस प्रकार है :-  सानग ऋषि, सनातन ऋषि, अहभून ऋषि, प्रयत्न ऋषि और दैवज्ञ ऋषि। ये पंचऋषि वेद शास्त्रों के साथ साथ ज्ञान, विज्ञान, तंत्र, मंत्र और यंत्र के ज्ञाता थे। इसके माध्यम से सृष्टि के निर्माण को अपने सर्वोच्च आयाम पर स्थापित किया।[वशिष्ठ पुराण 3.6.11]
ऊँ त्वामिन्दिराग्नि भूरसि, त्वं गूं सूर्यो मरीचय:।
विश्वकर्मा , विश्वदेवो, महादेव  महान् असि॥ 
हे ब्रह्म! तू इंद्र है जो अपने सभी शत्रुओं को हरा देता है, तू सर्वोच्च प्रकाश है जो सूर्य को चमकाता है। तू विश्वकर्मा है जो सभी कर्मों का स्वामी है और तू महान परमात्मा है, जो सभी देवताओं से श्रेष्ठ है अर्थात विश्वदेव और महादेव है।[सामवेद 33.22] 
विश्वतक्षोरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरत विश्वतस्पात।
संवाहुभ्यां धमति सं पतत्रैर्द्यावा भूमि जनयन देव एक:
जगतकर्ता विश्वकर्मा प्रभु की सम्पूर्ण विश्व ही उनकी आँखें हैं अर्थात सब जगह उनकी आँखें हैं, सम्पूर्ण विश्व ही उनके मुख हैं अर्थात सब जगह उनका मुख है, सम्पूर्ण विश्व ही उनकी भुजायें हैं अर्थात सब जगह उनकी भुजाएँ हैं और सम्पूर्ण विश्व ही उनके पग हैं अर्थात सब जगह उनके पैर हैं। सूर्यलोक तथा पृथ्वी लोक को उत्पन्न करता हुआ वह एक देव अर्थात विश्वकर्मा परमेश्वर अपनी भुजाओं और पैरों से हमें सम्यक प्रकार से युक्त कर देता है।[ऋग्वेद मंडल 10.81.3] 
अद्भ्यः सम्भूतः पृथिव्यै रसाच्च। विश्वकर्मणः समवर्तताधि।
तस्य त्वष्टा विदधद्रू॒पमे॑ति। तत्पुरुषस्य विश्वमाजानमग्रे॓॥
सृष्टि के प्रारम्भ में जल और पृथ्वी का निर्माण करके विराट पुरुष परब्रह्म विराट विश्वकर्मा ने स्वयं से त्वस्टा अर्थात ब्रह्मा को उत्पन्न किया। ये समस्त सृष्टि अर्थात सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के अस्तित्व के पूर्व सब कुछ उन्ही विराट पुरुष विश्वकर्मा में समाहित था और समस्त सृष्टि उन्ही का रुप थी।[यजुर्वेद 31.17]
इसलिये उपर्युक्त मंत्र में विश्वकर्मा एक कर्म होने के कारण त्वस्टा अर्थात ब्रह्मा को भी विश्वकर्मा कहा गया। 
न भूमि न जलं चैव न तेजो न च वायव:।
न चाकाश न चितं च न बुध्दया घ्राण गोचरा॥ 
न ब्रह्मा नैव विष्णुश्च न रूद्रो न च देवता।
एक एक भवे द्विश्वकर्मा विश्वाभि देवता॥
न पृथ्वी थी, ना जल था, न अग्नि थी, न वायु था न आकाश था, न मन था, न बुद्धि थी और न घ्राण आदि इन्द्रियाँ भी नहीँ थी। न ब्रह्मा थे, ना विष्णु थे, नाहि शिव थे तथा अन्य कोई देवता नहीँ था, उस सर्व शून्य प्रलय में समस्त ब्रह्माण्ड को अपने में ही आवृत अर्थात समाये हुये सबका पूज्य केवल एक ही विश्वकर्मा परमेश्वर परब्रह्म विद्यमान थे।[विश्वब्रह्म पुराण अध्याय  2] 
"विश्वानि कर्माणि येन यस्य वा स विश्वकर्मा" अथवा 
"विश्वेशु कर्म  यस्य वा स विश्वकर्मा, विश्वकर्मा सर्वस्य कर्ता"॥
विश्व अर्थात सृष्टि जगत के सम्पूर्ण कर्म जिसके द्वारा सम्पन्न होते है अथवा सम्पूर्ण विश्व अर्थात सम्पूर्ण सृष्टि जगत में जिसका कर्म है वह सब जगत का कर्ता विश्वकर्मा है।[यास्क] 
सतयुग योगी सब विज्ञानी। कर हरि ध्यान तरहि भव प्राणी
सतयुग में सभी मनुष्य योगी अर्थात परमात्मा का ध्यान करने वाले और ज्ञान-विज्ञान अर्थात वैदिक कर्मकाण्ड एवम शिल्पकर्म के माध्यम से आविष्कार करनेवाले विज्ञानी अर्थात वैज्ञानिक होते थे क्योंकि सतयुग में केवल एक ही ज्ञानियों का वर्ण था जिसको ब्राह्मण (ज्ञानी) कहा जाता है बाकी के तीनों वर्ण धीरे धीरे अस्तित्व में आये। आगे कह रहे है कि यही योगी और विज्ञानी लोग हरी अर्थात परमात्मा का ध्यान करके भवसागर पार अर्थात मोक्ष को प्राप्त हो जाते थे।[गोस्वामी तुलसीदास राम चरित मानस]
यज्ञ करने से पहले हर ऋषि को यज्ञ वेदी एवम यज्ञशाला का स्वयं निर्माण करना पड़ता था जो कि शिल्पकर्म के द्वारा ही संभव था और आज भी इसके द्वारा ही होता है। शिल्पकर्म की उत्पत्ति वेद का अंग माने जाने वाले वेदांग कल्प के अंतर्गत शुल्व-सूत्र से हुई है। कल्प के अंतर्गत ही धर्म-सूत्र, श्रौत-सूत्र और गृह्य-सूत्र के समस्त ग्रन्थ भी हैं जिनके द्वारा सारे यज्ञादि कर्मकाण्ड एवं समस्त धार्मिक कृत्य होते हैं। शुल्व-सूत्र के द्वारा वैदिक यज्ञ-वेदी एवम यज्ञशाला एवम अन्य यज्ञ में प्रयोग होने वाली सामाग्रियों का निर्माण आदि होता है। इसलिये बिना यज्ञ वेदी बनाये कोई यज्ञ कर ही नहीँ सकता। मत्स्य पुराण में शिल्प के 18 उपदेष्टा ऋषियों का वर्णन है जिन्होंने वैदिक कर्मकाण्ड के साथ शिल्पकर्म का भी ज्ञान दिया। 
भृगुर त्रिवं शिष्ठश्च विश्वकर्मा मयस्तथा।            
नारदो नग्न जिच्चैव विशालाक्षः पुरन्दरः
ब्रह्म कुमारो मंदीशः शैन को गर्ग एवं च। 
वासुदेवोऽनिरुश्च तथा शुक्र बृहस्पति॥
अष्टादशै से विख्याता शिल्प शास्त्रो पदेशकाः॥
मत्स्य रुपी श्री विष्णु भगवान् ने मनु को शिल्प पढाया है और अठारह शिल्प संहिता के रचने वाले मुनि श्रेष्ठ देव हैं :- (1). भृगु, (2). अत्रि, (3). वशिष्ठ, (4). विश्वकर्मा, (5). मय, (6). नारद, (7). वग्नजित, (8). विशालाक्ष, (9). इन्द्र, (10). ब्रह्मदेव, (11). कार्तिक स्वामी, (12). वन्दी, (13). शौनक, (14). गर्ग मुनि, (15). वासुदेव, (16). अनिरुद्ध, (17). शुक्राचार्य, (18). बृहस्पति ।[मत्स्य पुराण 25-27]
यथा ऋक, साम अभिमाजी देवतयोः सम्बन्धिनी शिल्पे चातुर्ये लद् रुपे भवतः॥
ऋग्वेद तथा सामवेद के ज्ञाता देवताओं (शिल्पी ब्राह्मण) के चातुर्य को सीखो। महीधर ने अपने वेद भाष्य में (चातुरर्य) हुनर का नाम शिल्प कहा है।[यजुर्वेद 4.9, महीधर  भाष्य]   
विश्वकर्मादि पूर्वाचार्यों का कथन है :-
स्त्रीपुत्रादिकभोगसौख्यजननं धर्मार्थकामप्रदं,जन्तूनामयनं सुखास्पदमिदं शीताम्बुधर्मापहम्। वापीदेवगृहादिपुण्यमखिलंगेहात्समुत्पद्यते, गेहं पूर्वमुशन्ति तेन विबुधाः श्रीविश्वकर्मादयः॥
गृह निर्माण का औचित्य :-
गृहस्थस्य क्रियाः सर्वा न सिद्ध्यन्ति गृहं विना।
यतस्तस्माद् गृहारम्भप्रवेशसमयौ व्रुवे॥
परगेहे कृताः सर्वाः श्रौतस्मार्तक्रियाः शुभाः।
निष्फलाः स्युर्यतस्तासां भूमीशः फलमश्नुते॥[मत्स्य पुराण]
वापीकूपतड़ागेषु देवतायतनेषु च। जीर्णान्युद्धरते यस्तु पुण्यमष्टगुणं भवेत्॥
नूतन गृह-निर्माण तो महत्त्वपूर्ण है ही, पुरातन के जीर्णोद्धार को तो नवीन से भी आठगुणा फलदायी है। 
     ॐ वास्तोष्पते प्रतिजानीह्यस्मान्त्स्वावेशोऽअनमीवो भवानः।
      यत्वे महे प्रतितन्नो जुषस्व शन्नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे॥
हे वास्तुदेव ! हम आपके सच्चे उपासक हैं, इस पर आप पूर्ण विश्वास करें और हमारी स्तुति को सुन कर हम सभी उपासकों को आधि-व्याधि मुक्त कर दें और जो हम अपने धन-ऐश्वर्य की कामना करते हैं, आप उसे भी परिपूर्ण करें। साथ ही इस वास्तु क्षेत्र या गृह में वास करने वाले हमारे स्त्री-पुत्रादि परिजनों के लिए कल्याणकारी हों तथा हमारे अधीनस्थ गौ, अश्वादि सभी चतुष्पद प्राणियों का भी कल्याण करें।[ऋग्वेद 7.54.1]
वस् वासे नाम धातु से बने शब्द वास्तु का अर्थ है :- "वसति अस्मिन् इति वास्तु" अर्थात् गृह, भवन, प्रासाद, ग्राम, मन्दिर, नगर आदि, जहाँ भी मनुष्य रहता है, अपना क्रिया-कलाप करता है, वह सब वास्तु कहलाता है। 
सामान्य अर्थ में वास्तु शब्द आवास हेतु ही प्रयुक्त है।
पाणिनी ने भूमि और गृह दोनों अर्थों में इसका प्रयोग किया है। 
अमरकोश में वास्तु शब्द का प्रयोग वासयोग्य भूमि के अर्थ में सिर्फ किया गया है।
वास्तु शब्द का पुलिंग प्रयोग वासयोग्य भूमि और नपुंसक लिंग में प्रयोग वासयोग्य गृह को इंगित करता है।
वात्स्यायन के कामसूत्र में वास्तुविद्या को चौंसठ कलाओं में एक कला माना गया है।
वाराहमिहिर के वृहत्संहिता में वास्तुविद्या को सिर्फ आवासीय गृह-निर्माण तक ही रखा गया है।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में वास्तु की परिधि में वासयोग्य भूमि, गृह, वापी, सेतु, तड़ाग, उद्यान आदि सभी समाहित हो गये हैं और तदर्थ भूमि चयन से लेकर निर्माण और प्रवेश तक के सम्पूर्ण विधि-निषेध को प्रतिपादित करने वाले शास्त्र को वास्तुशास्त्र कहते हैं।
वेदों में वास्तु के अधिष्ठाता (वास्तु देवता) को वास्तोष्पति कहा गया है। 
अन्धक (भगवान् शिव और माता पार्वती का पुत्र, राक्षस) नामक एक असुर हुआ था, जिसके वध के लिए भगवान् शिव ने विराट रुप धारण किया था। युद्ध काल में शिव के ललाट से स्रवित स्वेद विन्दु जब पृथ्वी पर गिरा तो एक विकराल दैत्य का रुप ले लिया। वह दैत्य क्षुधा-तृषातुर होकर त्रिलोकी को ही आत्मसात करने की चेष्टा करने लगा, तब संग्राम भूमि में उपस्थित सभी देवगण अति प्रयास पूर्वक धक्के देकर, उसे पृथ्वी पर औंधे मुँह गिरा दिये और पुनः वह आतंक न मचावे, इस विचार से उसपर आरुढ़ हो गये। उसके विभिन्न अंगों पर विभिन्न दैवी शक्तियों का आरोहण पूर्वक वास होने के कारण उसका नाम वास्तु पड़ा। इस प्रकार देवादि से दबे हुए भयानक दैत्य ने जब निवेदन किया कि ऐसी अवस्था में मैं कब तक, कैसे,और क्यों पड़ा रहूँगा? तब, उसके इस निवेदन पर देवताओं ने वचन लिया, "तुम किसी को कष्ट नहीं दोगे, ऐसी प्रतिज्ञा करो, पृथ्वी पर वास करने वाले सभी मनुष्यों की तुम निरंतर रक्षा करो और जो कोई भी गृह, प्रासाद, वापी, कूप, तड़ागादि निर्माण करेगा, उस समय सबसे पहले तुम्हें ही पूजा-बली आदि देकर संतुष्ट करेगा। जो व्यक्ति ऐसा नहीं करे उसे दण्डित करना भी तुम्हारा काम होगा। देवताओं की इस बात से वह वास्तु पुरुषअति प्रसन्न हुआ और उसके मुख से तथास्तु शब्द का उद्घोष होने लगा"। स्थिर अवस्था में वास्तु पुरुष का सिर ईशान कोण में और मुड़े हुए दोनों पैर नैऋत्य कोण में विराजमान हैं।
ऋग्वेद तो सभी वेदों का मूल है। इसमें विशद रुप से वास्तु-वर्णन है। विभिन्न अभियन्त्रणाओं का सारगर्भित वर्णन अथर्ववेद में है, जिसमें वास्तुविज्ञान भी समाहित है। स्थापत्यवेद तो इसका अंग ही है। लौह और पाषाण निर्मित दुर्गों का वर्णन भी मिलता  है। 
राजा और मंत्री को सहस्र स्तम्भी भवन में वास करना चाहिए, इत्यादि।[ऋग्वेद 2.41.5] 
पर्णकुटी, यज्ञशाला, गोष्ठीशाला, अतिथिशाला, भण्डारगृह, कुण्ड, मण्डप, वेदिका, इष्टिका दैर्घ्य का विस्तार पूर्वक वर्णन।[अथर्ववेद 1.3]
मय दानव ने युधिष्ठिर की राजसभा का निर्माण किया था, जहाँ दुर्योधन भ्रमित, चकित, अपमानित हुआ और द्रौपदी की कुटिल परिहास ने महानाश का बीज बोया। उधर विश्वकर्मा निर्मित द्वारकापुरी अपने समय के वास्तु कौशल का अद्भुत प्रमाण है।
भवन निर्माण का प्रारम्भ स्तम्भ-निर्माण से होना चाहिए, जो कि मुख्यतः पाँच प्रकार के होते हैं :- रुचक, वज्र, द्विपद, वृत और प्रलीनक। प्रसंगवश इनका विस्तृत निर्माण विधि भी बतलाया गया है। इनमें सौन्दर्य और स्थायित्व दोनों बातों पर ध्यानाकर्षित किया गया है।[मत्स्य पुराण 225]
नवताल लक्षण, पीठिका लक्षण, लिंग लक्षण, इन तीन अध्यायों में पाषाण कला और मूर्ति-निर्माण का विशद वर्णन है। मत्स्य पुराण के 298वें अध्याय में प्रासाद वर्णन तथा 299वें अध्याय में मण्डल-लक्षण का वर्णन है।
मत्स्य पुराण में ही गृहारम्भ के समयानुसार शुभाशुभ फल के साथ-साथ भूमि का चयन और परीक्षण तथा चतुःषष्टिपद, एकाशीतिपद वास्तु मण्डल विन्यास का भी वर्णन है। भवन निर्माण के समय बलि आदि देकर देवताओं कैसे प्रसन्न करें, यह विधान भी बतलाया गया है।वास्तु पुरुष के मर्म स्थान और उसके विभिन्न अंगों में देवताओं की अवस्थिति का वर्णन है। भवन के विभिन्न शालभेदों, एकशाल, द्विशाल, चतुश्शाल का भी उल्लेख है। गृह के क्षेत्रफल, ऊँचाई आदि का मान, स्तम्भों का मान, द्वारवेध और उसके परिणाम, गृहाधिकरणक आदि सभी आवश्यक बातें उल्लिखित हैं।
अग्नि पुराण में कुल अठारह अध्याओं में वास्तु के विभिन्न विषयों पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। अध्याय 40-43 के हयग्रीव ब्रह्मा संवाद में वास्तु मण्डल देवों की स्थापना, शिलान्यास, प्रासाद लक्षणादि की चर्चा है। अध्याय 64, 65 एवं 70 में उक्त संवादियों द्वारा कूप, वावली, पोखर, सभा, वृक्ष आदि के स्थापन विधान बतलाये गये हैं। 77वें अध्याय में गो, चूल्हा-चक्की, ओखल-मूसल, झाड़ू-स्तम्भ आदि की व्यवस्था का वर्णन है, जो माहेश्वर और स्कंध के संवादों में हैं। यहीं इन्हीं संवादों में 92-95 अध्यायों में क्रमशः प्रतिष्टांगभूत शिलान्यास, शिलान्यास-काल, वास्तु पूजा विधान आदि का वर्णन है। अध्याय 100-102 में द्वार-स्थापन, प्रासाद-प्रतिष्ठा एवं ध्वजारोपण का वर्णन है तथा 104वें अध्याय में उत्तम प्रासाद के लक्षण बतलाये गये हैं। अध्याय 105 में माहेश्वर-कार्तिकेय संवाद में नगर, गृहादि वास्तु प्रतिष्ठा के साथ-साथ 81 पद वास्तु मण्डल चक्र की चर्चा है तथा अध्याय 106 में पुनः नगर-वास्तु का वर्णन है।
स्कन्ध पुराण के माहेश्वर खण्ड एवं वैष्णव खण्ड में वास्तु विद्या का विशद वर्णन है। नगर स्थापना, स्वर्णशाला, स्थपति-गृह, विवाह-मण्डप के साथ-साथ रथादि निर्माण तथा चित्रकर्म की चर्चा है। मूर्तिकला भी इसी में समाहित है। 
गरुड़ पुराण के चार अध्यायों में वास्तुविद्या का निरुपण है। वहीं 46-47वें अध्यायों में सभी प्रकार के भवन, दुर्ग, पुर, पत्तनादि के न्यास पर प्रकाश डाला गया है। इसमें पुरनिवेश के साथ ही उद्यान-निवेश की भी चर्चा है। एकाशीति पद वास्तु-चक्र, उनके देवता तथा चतुष्षष्टि पद वास्तु-चक्र और उनके देवता का स्थापन विधान भी दिया गया है। 35वें और 48वें अध्यायों में प्रासाद के साथ-साथ प्रतिमा-निर्माण पर भी प्रकाश डाला गया है।
भविष्य पुराण में भी तीन अध्यायों में वास्तुशास्त्रीय विषयों का विशद वर्णन है।
आगम ग्रन्थों में शैवागम की सँख्या 92 है। ये चार पादों में विभक्त हैं :- ज्ञान, योग, चर्या और क्रिया। क्रिया पाद में ही अन्यान्य विषयों के अलावा वास्तुशास्त्र और मूर्तिकला का प्रतिपादन है। 
कामिकागम वास्तु विद्या का प्रतिनिधि ग्रन्थ है। इसके पचहत्तर अध्यायों में बासठ अध्याय सीधे वास्तु विषयक ही हैं। इस अध्याय में भूमि परीक्षण से लेकर गृह प्रवेश तक की विस्तृत चर्चा है। 
करणागम में छः अध्यायों में वास्तु प्रकरण की चर्चा है, तो सुप्रभेदागम में पन्द्रह अध्याय वास्तु विषयक हैं। 
महर्षि कश्यप विरचित वैखानस आगम मुख्य रुप से वास्तु विषय पर ही आधारित है। इसमें गृह निर्माण से नगर निर्माण तक का विशद वर्णन है।मन्दिर निर्माण की भी पर्याप्त चर्चा है।
देव-शिल्पी विश्वकर्मा के तीन उपलब्ध ग्रन्थ, वास्तुशास्त्र, विश्वकर्म प्रकाश एवं विश्वकर्मीय शिल्प तथा दैत्य-शिल्पी मयदानव के सात ग्रन्थों के अलावा समरांगण सूत्रधार, मानसार आदि में वास्तु विषयक प्रचुर सामग्री उपलब्ध है।
ऋग्वेद में विश्वकर्मा सुक्त के नाम से 11 ऋचाऐं उपलब्ध हैं। जिनके प्रत्येक मन्त्र में विश्वकर्मा भौवन देवता उल्लिखित हैं। यही सुक्त यजुर्वेद अध्याय 17, सूक्त मन्त्र 16-31 तक 16 मन्त्रों में आया है। ऋग्वेद में विश्वकर्मा शब्द का एक बार इन्द्र व सूर्य का विशेषण बनकर भी प्रयुक्त हुआ है। परवर्ती वेदों में भी विशेषण रूप में इसके प्रयोग अज्ञत नहीं है। यह प्रजापति का भी विशेषण बन कर आया है।
पुराण प्रभात खण्ड के निम्न श्लोक की भाँति किंचित पाठ भेद से सभी पुराणों में यह श्लोक मिलता है :-
बृहस्पते भगिनी भुवना ब्रह्मवादिनी।
प्रभासस्य तस्य भार्या बसूनामष्टमस्य च।
विश्वकर्मा सुतस्तस्यशिल्पकर्ता प्रजापतिः॥16॥
महर्षि अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र बृहस्पति की बहन भुवना जो ब्रह्मविद्या जानने वाली थी वह अष्टम् वसु महर्षि प्रभास की पत्नी बनी और उससे सम्पुर्ण शिल्प विद्या के ज्ञाता प्रजापति विश्वकर्मा का जन्म हुआ। पुराणों में कहीं योगसिद्धा, वरस्त्री नाम भी बृहस्पति की बहन का लिखा है।
शिल्प शास्त्र का कर्ता वह ईश विश्वकर्मा देवताओं का आचार्य है, सम्पूर्ण सिद्धियों का जनक है, वह प्रभास ऋषि का पुत्र है और महर्षि अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र का भानजा है अर्थात अंगिरा का दौहितृ (दोहिता) है। अंगिरा कुल से विश्वकर्मा का सम्बन्ध तो सभी विद्वान स्वीकार करते हैं। 
जहाँ ब्रहा, विष्णु और महेश की वन्दना-अर्चना हुई है, वहीं  विश्वकर्मा को भी स्मरण-परिष्टवन किया गया है। विश्वकर्मा शब्द से ही यह अर्थ-व्यंजित होता है। 
"विशवं कृत्स्नं कर्म व्यापारो वा यस्य सः"
जिसकी सम्यक् सृष्टि और कर्म व्यपार है वह विश्वकर्मा है। यही विश्वकर्मा प्रभु है, प्रभूत पराक्रम-प्रतिपत्र, विश्वरूप, विश्वात्मा है। 
वेदों में "विशवतः चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वस्पात" कहकर इनकी सर्वव्यापकता, सर्वज्ञता, शक्ति-सम्पन्ता और अनन्तता दर्शायी गयी है।
विवाहदिषु यज्ञषु गृहारामविधायके।
सर्वकर्मसु संपूज्यो विशवकर्मा इति श्रुतम॥
विश्वकर्मा पूजा जन कल्याणकारी है। अतएव प्रत्येक प्राणी सृष्टिकर्ता, शिल्प कलाधिपति, तकनीकी ओर विज्ञान के जनक विश्वकर्मा की पूजा-अर्चना आवश्यक है।
जगदचक विश्वकर्मन्नीश्वराय नम:॥
चार युगों में विश्वकर्मा ने कई नगर और भवनों का निर्माण किया। सबसे पहले सत्ययुग में उन्होंने स्वर्गलोक का निर्माण किया, त्रेता युग में लंका का, द्वापर में द्वारका का और कलियुग के आरम्भ के 50 वर्ष पूर्व हस्तिनापुर और इन्द्रप्रस्थ का निर्माण किया। विश्वकर्मा ने ही जगन्नाथ पुरी के जगन्नाथ मन्दिर में स्थित विशाल मूर्तियों (कृष्ण, सुभद्रा और बलराम) का निर्माण किया।
 
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