Nondescript-uncharacteristic Brahm Shiv (Aling) is Ling (nature). Nature (ling) is a component of Shiv. Devoid of Sound-word, touch-figure, extract-elixir (juice), smell is Shiv. Non-descriptive, unmoved, undeteriorating, Aling, Nirgun-no specific characteristic-component is Shiv. The nature associated with word-sound, touch-feeling, figure-shape and size, extract-juices, smells is the excellence of Shiv. He is the producer-creator of universe, with 5 components which were, which are, which will be there are :- Earth, Water, Tej (energy, light), Space, Air. Micro-Macro, all components-sections of universe have been created from the nondescript Parmatma-Almighty Shiv. Its, Aling-nondescript due to the Maya-illusory Power of God and constitute of 7, 8 or 9 shapes-figures of Ling Tatv (Components-Elements). Bhagwan Shiv is capable of moving freely, in 14 universes as per his will.
चन्द्र देव, काम देव और भगवान् श्री कृष्ण और रुक्मणि जी के पुत्र प्रद्युम्न जी, ये तीनों ही ब्रह्मा जी के स्वरूप-अवतार हैं।
अंत में न रुकने वाली जलप्रलय का सिलसिला शुरू हुआ। चक्रवात उठने लगे और देखते ही देखते समस्त धरती जल में डूब गई। यह देख भगवान् ब्रह्मा जी को चिंता होने लगी, तब उन्होंने जल में निवास करने वाले भगवान् श्री हरी विष्णु का स्मरण किया और फिर भगवान् विष्णु ने नील वराह रूप में प्रकट होकर इस धरती के कुछ हिस्से को जल से मुक्त किया। नील वराह देव ने अपनी पत्नी नयनादेवी के साथ अपनी संपूर्ण वराही सेना को प्रकट किया और धरती को जल से बचाने के लिए तीक्ष्ण दरातों, पाद प्रहारों, फावड़ों और कुदालियों और गैतियों द्वारा धरती को समतल किया।इसके लिए उन्होंने पर्वतों का छेदन तथा गर्तों के पूरण हेतु मृत्तिका के टीलों को जल में डालकर भूमि को बड़े श्रम के साथ समतल करने का प्रयास किया। यह एक प्रकार का यज्ञ ही था, इसलिए भगवान् नील वराह को भगवान् यज्ञ वराह भी कहा गया। नील वराह के इस कार्य को आकाश के सभी देवदूत देख रहे थे। प्रलयकाल का जल उतर जाने के बाद भगवान् के प्रयत्नों से अनेक सुगंधित वन और पुष्कर-पुष्करिणी सरोवर निर्मित हुए, वृक्ष, लताएं उग आईं और धरती पर फिर से हरियाली छा गई। संभवत: इसी काल में मधु और कैटभ का वध किया गया था।
(2). आदि वराह कल्प :- नील वराह कल्प के बाद आदि वराह कल्प शुरू हुआ। इस कल्प में भगवान् विष्णु ने आदि वराह नाम से अवतार लिया। यह वह काल था जबकि दिति और कश्यप के दो भयानक असुर पुत्र हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष का आतंक था। दोनों को ही ब्रह्माजी से वरदान मिला हुआ था।
हिरण्याक्ष का वध :- ब्रह्मा से युद्ध में अजेय और अमरता का वर मिलने के कारण उसका धरती पर आतंक हो चला था। हिरण्याक्ष भगवान् वराह रूपी विष्णु के पीछे लग गया था और वह उनके धरती निर्माण के कार्य की खिल्ली उड़ाकर उनको युद्ध के लिए ललकारता था। वराह भगवान् ने जब रसातल से बाहर निकलकर धरती को समुद्र के ऊपर स्थापित कर दिया, तब उनका ध्यान हिरण्याक्ष पर गया।
आदि वराह के साथ भी महाप्रबल वराह सेना थी। अंतत: हिरण्याक्ष का अंत हुआ।
हिरण्यकश्यप का वध :- इस काल में भगवान् वराह ने नृसिंह का अवतार लेकर हिरण्यकश्यप का वध कर दिया था। हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रहलाद भगवान् विष्णु का परम भक्त था, जो हिरण्यकश्यप को पसंद नहीं था तो उसने प्रहलाद को मारने के लिए कई उपाय किए। लेकिन भगवान् विष्णु ने अपने भक्त को बचाने के लिए अंत में नृसिंह का अवतार लिया।
हिरण्यकश्यप को ब्रह्मा जी से अमरता का वर मिला था। उसने ब्रह्मा जी से वर मांगा था कि मुझे कोई मनुष्य, दानव, असुर, किन्नर, पशु, पक्षी और जलचर जंतु नहीं मार सके और न में दिन में मरूं, न रात में, न पाताल में, न धरती पर और न आकाश में। भगवान् ब्रह्मा ने कहा :- तथास्थु।
(3). श्वेत वराह कल्प :- वैवस्वत मनु के 10 पुत्र थे। इल, इक्ष्वाकु, कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यंत, करुष, महाबली, शर्याति और पृषध पुत्र थे। वैवस्वत मनु के 10 पुत्र और इला नाम की कन्या थी। वैवस्वत मनु को ही पृथ्वी का प्रथम राजा कहा जाता है। इला का विवाह बुध के साथ हुआ जिससे उसे पुरूरवा नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। यही पुरूरवा प्रख्यात ऐल या चंद्र वंश का संस्थापक था।
वैवस्वत मनु के काल के प्रमुख ऋषि :- वशिष्ठ, विश्वामित्र, अत्रि, कण्व, भारद्वाज, मार्कंडेय, अगस्त्य आदि।
वैवस्वत मनु की शासन व्यवस्था में देवों में 5 तरह के विभाजन थे :- देव, दानव, यक्ष, किन्नर और गंधर्व।
प्रमुख प्रजातियाँ :: देव, दैत्य, दानव, राक्षस, यक्ष, गंधर्व, भल्ल, वसु, अप्सराएं, रुद्र, मरुदगण, किन्नर, नाग आदि। देवताओं को सुर तो दैत्यों को असुर कहा जाता था। देवताओं की अदिति, तो दैत्यों की दिति से उत्पत्ति हुई। दानवों की दनु से तो राक्षसों की सुरसा से, गंधर्वों की उत्पत्ति अरिष्टा से हुई। इसी तरह यक्ष, किन्नर, नाग आदि की उत्पत्ति मानी गई है।
पृथ्वी की भौगोलिक स्थिति :: प्रारंभ में सभी महाद्वीप आपस में एक-दूसरे से जुड़े हुए थे। इस जुड़ी हुई धरती को प्राचीनकाल में 7 द्वीपों में बांटा गया था : जम्बू द्वीप, प्लक्ष द्वीप, शाल्मली द्वीप, कुश द्वीप, क्रौंच द्वीप, शाक द्वीप एवं पुष्कर द्वीप। इसमें से जम्बू द्वीप सभी के बीचोबीच स्थित है।
जम्बू द्वीप के 9 खंड थे :- इलावृत, भद्राश्व, किंपुरुष, भारत, हरिवर्ष, केतुमाल, रम्यक, कुरु और हिरण्यमय।
देवताओं के गुरु बृहस्पति और दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य थे।
तब ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि, परमर्षि, काण्डर्षि, श्रुतर्षि और राजर्षि ये ऋषियों की 7 श्रेणियां होती थीं।
यह वैवस्वत मनु का काल था जबकि वशिष्ठ, विश्वामित्र, अत्रि, कण्व, भारद्वाज, मार्कंडेय, अगस्त्य आदि ऋषिगण हुआ करते थे।
वराह काल में नील वराह अवतार से लेकर आदि वराह, श्वेत वराह, नृसिंह अवतार, वामन अवतार और कच्छप अवतार हुए ।
इस काल में सनकादि, इंद्रादि, नर-नारायण हुए, वासुकि-तक्षक, हाहा-हूहू, मेनका-रम्भा, मरुदगण, हिरण्याक्ष-हिरण्यकश्यप हुए, दिति-अदिति पुत्र, रथकृत-ओज, हेति-प्रहेति हुए, मधु-कैटभ हुए, भस्मासुर, त्रिपुरासुर हुए, ब्रह्मा के 10 पुत्रों का कुल चला, राजा बाली हुए।
बाली के बाद कच्छप अवतार हुआ और अंत में स्वायंभुव मनु हुए। स्वायंभुव मनु के बाद स्वरोचिष, औत्तमी, तामस मनु, रैवत और चाक्षुष मनु हुए और अंत में जल प्रलय के बाद नए युग की शुरुआत हुई। जल प्रलय के दौरान सातवें मनु वैवस्वत मनु हुए।
इन्द्र-बलि (समुद्र मंथन) :- वामन अवतार के बाद कच्छप अवतार हुआ जिसे कूर्म अवतार भी कहा गया। कूर्म अवतार में भगवान विष्णु ने क्षीरसागर के समुद्र मंथन के समय मंदार पर्वत को अपने कवच पर संभाला था। इस प्रकार भगवान विष्णु, मंदार पर्वत और वासुकि नामक सर्प की सहायता से देवों एवं असुरों ने समुद्र मंथन करके 14 रत्नों की प्राप्ति की। इस समय भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप भी धारण किया था। इसके बाद जल प्रलय की घटना घटी।
मत्स्य अवतार-सातवें मनु वैवस्वत मनु :: स्वायंभुव मनु के कुल में मत्स्य पुराण में उल्लेख है कि द्रविड़ देश के राजर्षि सत्यव्रत एक दिन कृतमाला नदी में जल से तर्पण कर रहे थे। उस समय उनकी अंजुलि में एक छोटी-सी मछली आ गई। सत्यव्रत ने मछली को नदी में डाल दिया तो मछली बोल पड़ी। उसने कहा कि इस जल में बड़े जीव-जंतु मुझे खा जाएंगे। यह सुनकर राजा ने मछली को फिर जल से निकाल लिया और अपने कमंडल में रख लिया और महल ले आए।
रात भर में वह मछली बढ़ गई, तब राजा ने उसे बड़े मटके में डाल दिया। मटके में भी वह बढ़ गई तो उसे तालाब में डाल दिया। अंत में सत्यव्रत ने जान लिया कि यह कोई मामूली मछली नहीं, जरूर इसमें कुछ बात है, तब उन्होंने उसे ले जाकर समुद्र में डाल दिया। समुद्र में डालते समय मछली ने कहा कि समुद्र में मगर रहते हैं आप वहां मत छोड़िए, लेकिन राजा ने हाथ जोड़कर कहा कि आप मुझे कोई मामूली मछली नहीं जान पड़ती है, आपका आकार तो अप्रत्याशित तेजी से बढ़ रहा है बताएं कि आप कौन हैं?
तब मछली रूप में भगवान् विष्णु ने प्रकट होकर कहा कि आज से 7वें दिन प्रलय (अधिक वर्षा से) के कारण पृथ्वी समुद्र में डूब जाएगी, तब मेरी प्रेरणा से तुम एक बहुत बड़ी नौका बनाओ और जब प्रलय शुरू हो तो तुम सप्त ऋषियों और कुछ मनुष्यों सहित सभी एक जोड़े प्राणियों को लेकर उस नौका में बैठ जाना तथा सभी अनाज उसी में रख लेना। अन्य छोटे-बड़े बीज भी रख लेना। नाव पर बैठकर लहराते महासागर में विचरण करना।
प्रचंड आंधी के कारण नौका डगमगा जाएगी। तब मैं इसी रूप में आ जाऊंगा, तब वासुकि नाग द्वारा उस नाव को मेरे सींग में बांध लेना। जब तक ब्रह्मा की रात रहेगी, मैं नाव समुद्र में खींचता रहूंगा। उस समय जो तुम प्रश्न करोगे, मैं उत्तर दूंगा। इतना कह मछली गायब हो गई।
राजा तपस्या करने लगे। मछली का बताया हुआ समय आ गया। वर्षा होने लगी। समुद्र उमड़ने लगा। तभी राजा ऋषियों, अन्न, बीजों को लेकर नौका में बैठ गए और फिर भगवानरूपी वही मछली दिखाई दी। उसके सींग में नाव बांध दी गई और मछली से पृथ्वी और जीवों को बचाने की स्तुति करने लगे। मछलीरूपी विष्णु ने उसे आत्मतत्व का उपदेश दिया। मछलीरूपी विष्णु ने अंत में नौका को हिमालय की चोटी से बांध दिया। उस चोटी को आज नौकाबंध कहते हैं। 6 माह तक वर्षा हुई और नाव में ही बैठे-बैठे जल प्रलय का अंत हो गया।
यही सत्यव्रत वर्तमान में महाकल्प में विवस्वान (सूर्य) के पुत्र श्राद्धदेव के नाम से विख्यात हुए, वही वैवस्वत मनु के नाम से भी जाने गए।
पूर्व में यह धरती जल प्रलय के कारण जल से ढंक गई थी। कैलाश, गोरी-शंकर की चोटी तक पानी चढ़ गया था। संपूर्ण धरती ही जलमग्न हो गई थी, लेकिन ओंकारेश्वर स्थित मार्कंडेय ऋषि का आश्रम जल से अछूता रहा। इसके अलावा तिब्बत, मंगोलिया के कई ऊंचे पठार भी जल से अछूते रहे।
कई माह तक वैवस्वत मनु (इन्हें श्राद्धदेव भी कहा जाता है) द्वारा नाव में ही गुजारने के बाद उनकी नाव गौरी-शंकर शिखर से होते हुए नीचे उतरी। गौरी-शंकर जिसे एवरेस्ट की चोटी कहा जाता है, दुनिया में इससे ऊंचा, बर्फ से ढंका हुआ और ठोस पहाड़ दूसरा नहीं है।
वैवस्वत मनु के दस पुत्र थे :- (1). इल, (2). इक्ष्वाकु, (3). कुशनाम, (4). अरिष्ट, (5). धृष्ट, (6). नरिष्यन्त, (7). करुष, (8). महाबली, (9). शर्याति और (10). पृषध। राजा इक्ष्वाकु के कुल में जैन और हिन्दू धर्म के महान तीर्थंकर, भगवान, राजा, साधु महात्मा और सृजनकारों का जन्म हुआ है।
स्वायम्भुव मनु ही आदि मनु और प्रजापति कहे गए हैं। उनके दो पुत्र हुए, प्रियव्रत और उत्तानपाद। राजा उत्तानपाद के पुत्र परम धर्मात्मा ध्रुव हुए, जिन्होंने भक्ति भाव से भगवान् विष्णु की आराधना करके अविनाशी पद को प्राप्त किया।
राजर्षि प्रियव्रत के दस पुत्र हुए, जिनमें से तीन तो संन्यास ग्रहण करके घर से निकल गए और परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त हो गए। शेष सात द्वीपों में उन्होंने अपने सात पुत्रों को प्रतिष्ठित किया। राजा प्रियव्रत के ज्येष्ठ पुत्र आग्नीघ्र जम्बू द्वीप के अधिपति हुए।
उनके नौ पुत्र जम्बू द्वीप के नौ खण्डों के स्वामी माने गए हैं, जिनके नाम उन्हीं के नामों के अनुसार इलावृतवर्ष, भद्राश्ववर्ष, केतुमालवर्ष, कुरुवर्ष, हिरण्यमयवर्ष, रम्यकवर्ष, हरीवर्ष, किंपुरुष वर्ष और हिमालय से लेकर समुद्र के भू-भाग को नाभि खंड (भारतवर्ष) कहते हैं।
नाभि और कुरु ये दोनों वर्ष धनुष की आकृति वाले बताए गए हैं। नाभि के पुत्र ऋषभ हुए और ऋषभ से ‘भरत’ का जन्म हुआ; जिनके आधार पर इस देश को भारतवर्ष भी कहते हैं।
ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र, शिव आदि पदों पर अलग-अलग कल्पों में अलग देवता विराजमान होते हैं।
मत्स्य पुराण में 30 कल्पों की चर्चा है :- श्वेत, नीललोहित, वामदेव, रथनतारा, रौरव, देवा, वृत, कंद्रप, साध्य, ईशान, तमाह, सारस्वत, उडान, गरूढ़, कुर्म, नरसिंह, समान, आग्नेय, सोम, मानव, तत्पुमन, वैकुंठ, लक्ष्मी, अघोर, वराह, वैराज, गौरी, महेश्वर, पितृ।
महत कल्प :- इस काल के बाद प्रलय हुई थी तो सभी कुछ नष्ट हो गया। इस कल्प में विचित्र-विचित्र और महत् (-अंधकार से उत्पन्न) वाले प्राणी और मनुष्य होते थे। जो अंधकार में भी देखने में सक्षम थे।
हिरण्य गर्भ कल्प :- इस काल में धरती का रंग पीला था इसीलिए इसे हिरण्य कहते हैं। हिरण्य के 2 अर्थ होते हैं- एक जल और दूसरा स्वर्ण। हालांकि धतूरे को भी हिरण्य कहा जाता है। माना जाता है कि तब स्वर्ण के भंडार बिखरे पड़े थे। इस काल में हिरण्यगर्भ ब्रह्मा, हिरण्यगर्भ, हिरण्यवर्णा लक्ष्मी, देवता, हिरप्यानी रैडी (अरंडी), वृक्ष वनस्पति एवं हिरण ही सर्वोपयोगी पशु थे। सभी एकरंगी पशु और पक्षी थे।
ब्रह्मकल्प :- इस कल्प में मनुष्य जाति सिर्फ ब्रह्म (ईश्वर) की ही उपासक थी। क्रम विकास के तहत प्राणियों में विचित्रताओं और सुंदरताओं का जन्म हो चुका था। जम्बूद्वीप में इस काल में ब्रह्मर्षि देश, ब्रह्मावर्त, ब्रह्मलोक, ब्रह्मपुर, रामपुर, रामगंगा केंद्र आदि नाम से स्थल हुआ करते थे। यहां की प्रजाएं परब्रह्म और ब्रह्मवाद की ही उपासना करती थी। इस काल का ऐतिहासिक विवरण हमें ब्रह्मपुराण, ब्रह्माण्डपुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण में मिलता है।
पद्मकल्प :- पुराणों के अनुसार इस कल्प में 16 समुद्र थे। यह कल्प नागवंशियों का था। धरती पर जल की अधिकता थी और नाग प्रजातियों की संख्या भी अधिक थी। कोल, कमठ, बानर (बंजारे) व किरात जातियां थीं और कमल पत्र पुष्पों का बहुविध प्रयोग होता था। सिंहल द्वीप (श्रीलंका) की नारियां पद्मिनी प्रजाएं थीं। तब के श्रीलंका की भौगोलिक स्थिति आज के श्रीलंका जैसी नहीं थी। इस कल्प का विवरण हमें पद्म पुराण में विस्तार से मिल सकता है।
वराहकल्प :- वर्तमान में वराह कल्प चल रहा है। इस कल्प में भगवान् विष्णु ने वराह रूप में 3 अवतार लिए :- पहला नील वराह, दूसरा आदि वराह और तीसरा श्वेत वराह। इसी कल्प में विष्णु के 24 अवतार हुए और इसी कल्प में वैवस्वत मनु का वंश चल रहा है। इसी कल्प में भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने नई सृष्टि की थी। वर्तमान में हम इसी कल्प के इतिहास की बात कर रहे हैं। वराह पुराण में इसका विवरण मिलता है।
अब तक वराह कल्प के स्वायम्भु मनु, स्वरोचिष मनु, उत्तम मनु, तमास मनु, रेवत मनु, चाक्षुष मनु तथा वैवस्वत मनु के मन्वंतर बीत चुके हैं और अब वैवस्वत तथा सावर्णि मनु की अंतरदशा चल रही है।
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