Tuesday, June 3, 2014

YAGY-HAWAN यज्ञ, हवन, अग्निहोत्र

YAGY-HAWAN
यज्ञ, हवन, अग्निहोत्र
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
पंच कर्म :: मोक्ष प्राप्ति के लिए पंच कर्म (सत्कर्मों) की उपयोगिता प्रत्येक मनुष्य-साधक की लिए है। इसमें धर्म, जाती, बिरादरी, वर्ण बीच में नहीं आते। इनकी विशद विवेचना धर्मसूत्रों तथा स्मृतिग्रंथों में उपलब्ध है। 
(1). संध्योपासन :- यद्यपि संध्या वंदन-मुख्य संधि पांच वक्त की होती है जिनमें प्रात: और संध्या की संधि का महत्व ज्यादा है। संध्या वंदन प्रार्थना और ध्यान के माध्यम से किया जा सकता है। यह सकारात्मकता प्रदान करतीं हैं, जीवन में उमंग, ऊर्जा पैदा करतीं हैं। 
(2). उत्सव :- हर्ष, उल्लास, शादी-विवाह, जन्मोत्सव, तीज-त्यौहार, अनुष्ठान यह अवसर प्रदान करते हैं। ये परस्पर मधुर सम्बन्ध , सम्पर्क स्थापित करने में सहायक हैं। इनसे संस्कार, एकता और उत्साह का विकास होता है। पारिवारिक और सामाजिक एकता के लिए उत्सव जरूरी है। पवित्र दिन और उत्सवों में बच्चों के शामिल होने से उनमें संस्कार का निर्माण होता है वहीं उनके जीवन में उत्साह बढ़ता है। 
(3). तीर्थ यात्रा :- यह मनुष्य को पुण्य प्रदान करती है। पापों का नाश करती है। सामाजिकता का विकास करती है। 
(4). संस्कार :- संस्कार मनुष्य को सभ्य-सामाजिक बनाते हैं। इनसे जीवन में पवित्रता, सुख, शांति और समृद्धि का विकास होता है। सोलह संस्कार जीवन के कर्म से जुड़े हैं और आवश्यकता के अनुरूप हैं। ये हैं :- गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, मुंडन, कर्णवेधन, विद्यारंभ, उपनयन, वेदारंभ, केशांत, सम्वर्तन, विवाह और अंत्येष्टि। 
(5). धर्म :- धर्म का अर्थ है अपने वर्णाश्रम कर्तव्यों का पूरी निष्ठा-ईमानदारी से पालन। धर्म की गति बड़ी सूक्ष्म है। सेवा भावना, दया, दान आदि कर्तव्यों का पालन भी नियमित रूप से करते रहना चाहिए। (5.1). व्रत, (5.2). सेवा, (5.3). दान, (5.4). यज्ञ* और (5.5). कर्तव्य का पालन। 
यज्ञ के अंतर्गत वेदाध्ययन भी आता है जिसके अंतर्गत छह शिक्षा (वेदांग, सांख्य, योग, निरुक्त, व्याकरण और छंद) और छह दर्शन (न्याय, वैशेषिक, मीमांसा, सांख्य, वेदांत और योग) शामिल हैं। व्रत से मन और मस्तिष्क सुदृढ़ बनता है वहीं शरीर स्वस्थ और बनवान बना रहता है। दान से पुण्य मिलता है और व्यर्थ की आसक्ति हटती है जिससे मृत्युकाल में लाभ मिलता है। सेवा से मन को शांति मिलती है और धर्म की सेवा भी होती है। सेवा का कार्य ही धर्म है। 
इन सभी से ऋषि ऋण, ‍‍देव ऋण, पितृ ऋण, धर्म ऋण, प्रकृति ऋण और मातृ ऋण से उपरति होती है। 
*यज्ञ भी मात्र पाँच तरह के होते हैं :- (5.4.1). ब्रह्मयज्ञ, (5.4.2). देवयज्ञ, (5.4.3). पितृयज्ञ, (5.4.4). वैश्वदेव यज्ञ, (5.4.5). अतिथि यज्ञ।
यज्ञ का तात्पर्य है त्याग, बलिदान, शुभ कर्म। अपने प्रिय खाद्य पदार्थों एवं मूल्यवान् सुगंधित पौष्टिक द्रव्यों को अग्नि एवं वायु के माध्यम से समस्त संसार के कल्याण के लिए यज्ञ द्वारा वितरित किया जाता है। वायु शोधन से सबको आरोग्यवर्धक साँस लेने का अवसर मिलता है। हवन हुए पदार्थ् वायुभूत होकर प्राणिमात्र को प्राप्त होते हैं और उनके स्वास्थ्यवर्धन, रोग निवारण में सहायक होते हैं। यज्ञ काल में उच्चरित वेद मंत्रों की पुनीत शब्द ध्वनि आकाश में व्याप्त होकर लोगों के अंतःकरण को सात्विक एवं शुद्ध बनाती है।
यज्ञ के द्वारा जो शक्तिशाली तत्त्व वायुमण्डल में फैलाये जाते हैं, उनसे हवा में घूमते असंख्यों रोग कीटाणु सहज ही नष्ट होते हैं। डी.डी.टी., फिनायल आदि छिड़कने, बीमारियों से बचाव करने वाली दवाएँ या सुइयाँ लेने से भी कहीं अधिक कारगर उपाय यज्ञ करना है। साधारण रोगों एवं महामारियों से बचने का यज्ञ एक सामूहिक उपाय है। दवाओं में सीमित स्थान एवं सीमित व्यक्तियों को ही बीमारियों से बचाने की शक्ति है; पर यज्ञ की वायु तो सर्वत्र ही पहुँचती है और प्रयतन न करने वाले प्राणियों की भी सुरक्षा करती है। मनुष्य की ही नहीं, पशु-पक्षियों, कीटाणुओं एवं वृक्ष-वनस्पतियों के आरोग्य की भी यज्ञ से रक्षा होती है।
यज्ञ की ऊष्मा मनुष्य के अंतःकरण पर देवत्व की छाप डालती है। जहाँ यज्ञ होते हैं, वह भूमि एवं प्रदेश सुसंस्कारों की छाप अपने अन्दर धारण कर लेता है और वहाँ जाने वालों पर दीर्घकाल तक प्रभाव डालता रहता है। प्राचीनकाल में तीर्थ वहीं बने हैं, जहाँ बड़े-बड़े यज्ञ हुए थे। जिन घरों में, जिन स्थानों में यज्ञ होते हैं, वह भी एक प्रकार का तीर्थ बन जाता है और वहाँ जिनका आगमन रहता है, उनकी मनोभूमि उच्च, सुविकसित एवं सुसंस्कृत बनती हैं। महिलाएँ, छोटे बालक एवं गर्भस्थ बालक विशेष रूप से यज्ञ शक्ति से अनुप्राणित होते हैं। उन्हें सुसंस्कारी बनाने के लिए यज्ञीय वातावरण की समीपता बड़ी उपयोगी सिद्ध होती है।
कुबुद्धि, कुविचार, दुर्गुण एवं दुष्कर्मों से विकृत मनोभूमि में यज्ञ से भारी सुधार होता है। इसलिए यज्ञ को पापनाशक कहा गया है। यज्ञीय प्रभाव से सुसंस्कृत हुई विवेकपूर्ण मनोभूमि का प्रतिफल जीवन के प्रत्येक क्षण को स्वर्ग जैसे आनन्द से भर देता है, इसलिए यज्ञ को स्वर्ग देने वाला कहा गया है।
यज्ञ सामूहिकता का प्रतीक है। अन्य उपासनाएँ या धर्म-प्रक्रियाएँ ऐसी हैं, जिन्हें कोई अकेला कर या करा सकता है; पर यज्ञ ऐसा कार्य है, जिसमें अधिक लोगों के सहयोग की आवश्यकता है। होली आदि पर्वों पर किये जाने वाले यज्ञ तो सदा सामूहिक ही होते हैं। यज्ञ आयोजनों से सामूहिकता, सहकारिता और एकता की भावनाएँ विकसित होती हैं।
प्रत्येक शुभ कार्य, प्रत्येक पर्व-त्यौहार, संस्कार यज्ञ के साथ सम्पन्न होता है। यज्ञ भारतीय संस्कृति का पिता है। यज्ञ भारत की एक मान्य एवं प्राचीनतम वैदिक उपासना है। धार्मिक एकता एवं भावनात्मक एकता को लाने के लिए ऐसे आयोजनों की सर्वमान्य साधना का आश्रय लेना सब प्रकार दूरदर्शितापूर्ण है।
वेदों और ब्राह्मण ग्रंथों में हवन-यज्ञ की महिमा :: 
अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्; 
होतारं रत्नधातमम्।[ऋग्वेद 1.1.1] 
समिधाग्निं दुवस्यत घृतैः बोधयतातिथिं; 
आस्मिन् हव्या जुहोतन।[यजुर्वेद 3.1] 
अग्निं दूतं पुरो दधे हव्यवाहमुप ब्रुवे।[यजुर्वेद 22.17] 
सायंसायं गृहपतिर्नो अग्निः प्रातः प्रातः सौमनस्य दाता।[अथर्ववेद 19.7.3] 
प्रातः प्रातः गृहपतिर्नो अग्निः सायं सायं सौमनस्य दाता।[अथर्ववेद 19.7.4] 
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः।[यजुर्वेद 31.9] 
अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तोधि ब्रुवन्तु तेवन्त्वस्मान।[यजुर्वेद 19.58] 
ज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म।[शतपथ ब्राह्मण 1.7.1.5] 
यज्ञो हि श्रेष्ठतमं कर्म।[तैत्तिरीय 3.2.1.4] 
यज्ञो अपि तस्यै जनतायै कल्पते, 
यत्रैवं विद्वान होता भवति।[ऐतरेय ब्राह्मण 1.2.1] 
यद्देवतः स यज्ञो वा यज्ञाङ्गं वा तद्देवता भवन्ति, अथान्यत्र यज्ञात् प्राजापत्या इति याज्ञिकाः, नाराशंसा इति नैरुक्ताः[निरुक्त 7.4] 
भगवान् श्री राम को रामायण में स्थान स्थान पर ‘यज्ञ करने वाला’ कहा गया है। महाभारत में भगवान् श्री कृष्ण सब कुछ छोड़ सकते हैं, पर हवन नहीं छोड़ सकते। हस्तिनापुर जाने के लिए अपने रथ पर निकल पड़ते हैं, रास्ते में शाम होती है, तो रथ रोक कर हवन करते हैं। अगले दिन कौरवों की राजसभा में हुंकार भरने से पहले अपनी कुटी में हवन करते हैं। अभिमन्यु के बलिदान जैसी भीषण घटना होने पर भी सबको साथ लेकर पहले यज्ञ करते हैं। 
हवन में डाली जाने वाली सामग्री जो कि औषधि आदि गुणों से युक्त जड़ी बूटियों से बनी होती है, अग्नि में पड़कर सर्वत्र व्याप्त हो जाती है. घर के हर कोने में फ़ैल कर रोग के कीटाणुओं का विनाश करती है। हवन से निकलने वाला धुआँ हवा से फैलने वाली बीमारियों के कारक जीवाणु, विषाणुओं को नष्ट कर देता है। 
हर दिन इस पवित्र अग्नि का आधान मेरे संकल्प को बढाता है। मैं इस हवन कुंड की अग्नि में अपने पाप और दुःख फूंक डालता हूँ। इस अग्नि की ज्वाला के समान सदा ऊपर को उठता हूँ। इस अग्नि के समान स्वतन्त्र विचरता हूँ, कोई मुझे बाँध नहीं सकता। अग्नि के तेज से मेरा मुखमंडल चमक उठा है, यह दिव्य तेज है। हवन कुंड की यह अग्नि मेरी रक्षा करती है। यज्ञ की इस अग्नि ने मेरी नसों में जान डाल दी है। एक हाथ से यज्ञ करता हूँ, दूसरे से सफलता ग्रहण करता हूँ। हवन के ये दिव्य मन्त्र मेरी जीत की घोषणा हैं। मेरा जीवन हवन कुंड की अग्नि है, कर्मों की आहुति से इसे और प्रचंड करता हूँ। प्रज्ज्वलित हुई हे हवन की अग्नि! तू मोक्ष के मार्ग में पहला पग है। यह अग्नि मेरा संकल्प है. हार और दुर्भाग्य इस हवन कुंड में राख बने पड़े हैं। हे सर्वत्र फैलती हवन की अग्नि! मेरी प्रसिद्धि का समाचार जन जन तक पहुँचा दे! इस हवन की अग्नि को मैंने हृदय में धारण किया है, अब कोई अँधेरा नहीं। यज्ञ और अशुभ वैसे ही हैं जैसे प्रकाश और अँधेरा. दोनों एक साथ नहीं रह सकते। भाग्य कर्म से बनते हैं और कर्म यज्ञ से. यज्ञ कर और भाग्य चमका ले! इस यज्ञ की अग्नि की रगड़ से बुद्धियाँ प्रज्ज्वलित हो उठती हैं यह ऊपर को उठती अग्नि मुझे भी उठाती है हे अग्नि! तू मेरे प्रिय जनों की रक्षा कर! हे अग्नि! तू मुझे प्रेम करने वाला साथी दे. शुभ गुणों से युक्त संतान दे! हे अग्नि! तू समस्त रोगों को जड़ से काट दे! 
हवन चमत्कारी, रोगनाशक, बलवर्धक और जीत के मन्त्रों की प्रक्रिया है। जिंदगी की सब समस्याओं का नाश करने वाली और सुखों का अमृत पिलाने वाली यह हवन क्रिया संस्कृति का हिस्सा है, धर्म का हिस्सा है, आध्यात्म का हिस्सा है। हवन परमेश्वर का आदेश है, श्रीराम की मर्यादा की धरोहर है। श्री कृष्ण की बंसी की तान है, रण क्षेत्र में पाञ्चजन्य शंख की गुंजार है, अधर्म पर धर्म की जीत की घोषणा है। हवन जीत का संकल्प है।
संक्षिप्त हवन विधि :: इस तरह करें तैयारी घर में पहले किसी स्थान को धो-पोंछकर साफ कर लें। फिर पूर्व या उत्तर दिशा (भौतिक कार्य के लिए पूर्व और आध्यात्मिक लक्ष्य के लिए उत्तर श्रेष्ठ) की ओर मुँह कर बैठ जायें। सामने हवन कुंड रखें। आम की लकड़ी मिल सके तो बेहतर नहीं तो अन्य लकड़ी से भी काम चलाया जा सकता है। काला तिल, चावल, चीनी, जौ एवं घी को मिलाकर सामग्री तैयार कर किसी साफ पात्र में रख लें। इसके साथ ही एक साफ पात्र में घी, दूसरे साफ पात्र में जल एवं घी देने के लिए साफ बड़े चम्मच को लेकर बैठें। 
घृत की प्रत्येक आहुति न्यूनतम छः माशे है। वह धृत भी कस्तूरी, केसर, चन्दन, कपूर, जावित्री, इलायची आदि से सुगन्धित किया होना चाहिए। इसके अतिरिक्त सुगन्धि, मिष्ट, पुष्ट एवं रोगनाशक द्रव्यों की हवन-सामग्री होनी चाहिये। समिधाएं भी चन्दन, पलाश, आम आदि की होनी चाहिएं। श्रद्धा और सामर्थ्य के अनुसार जैसा भी बन पड़े होम करना उचित है। हव्य चारों प्रकार के होने चाहिएं, जिसमें वायु मण्डल सुगन्धित तथा रोगहर ओषधियों के अणुओं से युक्त हो तथा उसमें श्वास लेने से लाभ पहुंचे। जो एक काल के ही व्रत का निर्वाह करना चाहें, वे वैसा कर सकते हैं। अग्नि प्रज्जवलित रहे ओर धुआं न उठे, ऐसा प्रयास होना चाहिए। 
इसके बाद निम्न कार्य करें :-
(1). हवन कुंड में तीन छोटी लकड़ी से अपनी ओर नोंक वाला त्रिकोण बनाएँ। उसे "अस्त्राय फट" कहते हुए तर्जनी व मध्यमा से घेरें।
(2). फिर मुट्ठी बंद कर तर्जनी उंगली निकाल कर "हूं फट" मंत्र पढ़ें।
(3). इसके बाद लकड़ी डालकर कर्पूर व धूप देकर :-
"ह्रीं सांग सांग सायुध सवाहन सपरिवार" 
गायत्री मंत्र पढ़कर, नम: कहें।
(4). आग जलाकर :- 
"ह्रीं क्रव्यादेभ्यो: हूं फट" 
कहते हुए तीली या उससे लकड़ी का टुकड़ा जलाकर हवन कुंड से किनारे नैऋत्य (उत्तर-पूर्व, North-East) कोण में फेंकें।
(5). तदन्तर :-
"रं अग्नि अग्नेयै वह्नि चैतन्याय स्वाहा"
 मंत्र सेअग्नि में थोड़ा घी डालें।
(6). फिर हवन कुंड को स्पर्श करते हुए 
"ह्रीं अग्नेयै स्वेष्ट देवता नामापि" 
मंत्र पढ़ें।
(7). इसके बाद पढ़ें :- "ह्रीं सपरिवार स्वेष्ट रूपाग्नेयै नम:"
(8). तदन्तर घी से चार आहुतियां दें और जल में बचे घी को देते हुए निम्न चार मंत्र पढ़ें :-
अग्नि में :- ह्रीं भू स्वाहा; पानी में :- इदं भू, 
अग्नि में :- ह्रीं भुव: स्वाहा; पानी में :- इदं भुव:,
अग्नि में :- ह्रीं स्व: स्वाहा; पानी में :- इदं स्व:,
अग्नि में :- ह्रीं भूर्भुव:स्व: स्वाहा; पानी में :-इदं भूर्भुव: स्व:। 
(9). तदन्तर मूल मंत्र से हवन शुरू करने हुए 9 से 108 आहुतियाँ दें।
(10). मूल मंत्र से हवन के बाद पुन: निम्न मंत्रों से आहुतियां दें :-
अग्नि में :- ह्रीं भू स्वाहा; पानी में :- इदं भू ,
अग्नि में :- ह्रीं भुव: स्वाहा; पानी में :-इदं भुव:,
अग्नि में :- ह्रीं स्व: स्वाहा; पानी में :- इदं स्व:,
अग्नि में :- ह्रीं भूर्भुव:स्व: स्वाहा; पानी में :- इदं भूर्भुव: स्व:। 
(11). अंत में सुपारी या गोला से पूर्णाहुति के लिए मंत्र पढ़ें :-
ह्रीं यज्ञपतये पूर्णो भवतु यज्ञो मे ह्रीस्यन्तु यज्ञ देवता फलानि सम्यग्यच्छन्तु सिद्धिं दत्वा प्रसीद मे स्वाहा क्रौं वौषट।
यज्ञ करने वाले सरवा में यज्ञ की राख लगाकर रख दें।
(12). ह्रीं क्रीं सर्व स्वस्ति करो भव" मंत्र से तिलक करें।
(13). अंत में :-
ह्रीं यज्ञ यज्ञपतिम् गच्छ यज्ञं गच्छ हुताशन स्वांग योनिं गच्छ यज्ञेत पूरयास्मान मनोरथान अग्नेयै क्षमस्व। 
इसके बाद जल वाले पात्र को उलट कर रख दें।
हवन कुँड की अग्नि के पूरी तरह शांत होने के बाद बची सामग्री को समेट कर किसी नदीं, जलाशय या आज के परिप्रेक्ष्य में भूमि में गड्ढा खोदकर डालकर ढँक दें। यदि इसकी राख को खेतों में डाला जाए तो निश्चय ही उसकी उर्वरा शक्ति में भारी बढ़ोतरी होगी।
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः॥
मनुष्य-प्रयत्नशील साधक तीक्ष्ण व्रत और द्रव्य मय यज्ञ करने वाले हैं और कितने ही तपो मय यज्ञ करने वाले हैं और दूसरे कितने ही योग यज्ञ करने वाले हैं तथा कितने ही स्वाध्याय रूप ज्ञान यज्ञ करने वाले हैं।[श्रीमद् भगवद्गीता 4.28 
There are various practitioners who perform staunch sacrifices through wealth, asceticism-austerity and Yog. Then there are others who diligently undertake acquisition of the knowledge of epics, Ved, History, scriptures, think over them, understand them apply in their day-today life. 
अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी का अभाव), ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह (भोग बुद्धि से संग्रह का अभाव) पाँच यम हैं, जिन्हें महाव्रत कहा जाता है। उपरोक्त वर्णित चारों यज्ञों में व्रत अर्थात नियमों को दृढ़ता पूर्वक पालन करना चाहिये। कुआँ, तालाब, धर्मशाला, मंदिर, स्कूल आदि बनवाना-लोकहित के साधन करना, अभाव ग्रस्त लोगों में अन्न, जल, औषधि, वस्त्र, पुस्तक, धन, निस्वार्थ भाव से अपना सभी कुछ लोक हित में समर्पण कर देना, दान देना आदि द्रव्यमय यज्ञ है। व्रत, उपवास, मौन, तपोमय यज्ञ हैं। कठिन से कठिन परिस्थिति में भी अपना कर्म बिना विचलित हुए प्रसन्नता पूर्वक अपना कर्तव्य पालन करना तपस्या-यज्ञ है और अति शीघ्र सिद्धि देने वाले होते हैं। अन्तःकरण की समता अर्थात कार्य, अभीष्ट की सिद्धि-असिद्धि, फल की प्राप्ति-अप्राप्ति, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति, निंदा-स्तुति, आदर-निरादर, मान-अपमान, राग-द्वेष, हर्ष-शोक, सुख-दुःख, अन्तःकरण की हलचल व्यग्रता में एक समान रहना योग यज्ञ है। गीता, रामायण, महाभारत, पुराण, भागवत, इतिहास, वेद-उपनिषद् का वर्णाश्रम धर्म के अनुसार पठन-पाठन, श्रवण, अध्ययन, चिंतन, मनन, विचार ज्ञान रूपी यज्ञ हैं। इनके श्रवण, अध्ययन पर किसी प्रकार की रोक नहीं है। 
Non violence, truth, not to steal, chastity and avoidance of the storage-accumulation of goods for comforts, are 5 divine rules in life, which are considered to be extreme penances. 
Four Yagy have been described, which needs great determination, care, austerity for performing them according to Varnashram Dharm. Establishment of schools, opening of inns for the rest of travellers, digging of ponds, wells, roads, tree plantation by the side of roads, garden for public use are pious acts equivalent to sacrifice-Yagy. (These days all these things are operated with profit motive or to get name, fame & wealth, which leads to hell.) Distribution of free books, medicines, water, food grain, money, donations, charity and offering personal belongings for the service of poor-needy is a form of Yagy. Fasting, silence, keeping up vows to do some thing for the sake of public service-welfare too are Yagy. To fulfil commitment in adverse circumstances and to perform own duty without being disturbed is staunch meditation-asceticism. Maintaining equanimity between success-failure, favourable or adverse conditions, abuse-respect, respect-insult, attachment-enmity, happiness-sorrow and balancing the disturbances-distractions of mind and heart constitute Yagy. Performance of all kinds of Yog do involve-constitute Yagy-holy sacrifice. Reading, listening, understanding and utilising the gist of scriptures, history, Veds, Puran, Geeta, Bhagwat, Ramayan, Maha Bharat, Upnishads is also a form of asceticism (Yagy, Holy sacrifice).
कोई भी, कहीं भी, किसी भी मत-धर्म का अनुलम्बी इनका ज्ञान प्राप्त कर सकता है। इसके लिये हिन्दु बनना या सनातन धर्म में शामिल होना जरूरी नहीं है। 
Any one, any where, from any religion-faith can learn-study-practice this without hitch, without opting for conversion into Hinduism-Sanatan Dharm. Those who obstruct others from doing so, are fraud, ignorant, mischievous by nature.
There is no provision for conversion in Hinduism. No one can admit or expel one out of Hinduism. Everyone who is virtuous, righteous, religious, honest, pious, pure, truthful is a Hindu, whether he goes to a temple, pilgrim or not. Any one who follow Varnashram Dharm is a Hindu, whether he attends to religious lectures-sermons or not.
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः॥
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः॥
योगी अपान वायु में प्राण वायु का हवन (पूरक करके) करते हैं और अन्य कितने ही प्राण वायु में अपान वायु का हवन (रेचन-साँस बाहर निकालना) करते हैं। कुछ अन्य प्राणायाम परायण योगी प्राण और अपान की गति को रोककर (कुम्भक क्रिया के द्वारा) हवन करते हैं। योगी नियमित-सन्तुलित आहार द्वारा प्राणों का प्राणों में ही हवन करते हैं। ये सभी साधक यज्ञों द्वारा पापों का नाश करने वाले और यज्ञों को जानने वाले हैं।[श्रीमद् भगवद्गीता 4.29-30 
Yogis-ascetics mixes the fresh air, Pran, breath with the Apan (stale breath, rejected breath, impure air-stale air present in the lungs moving to the heart there after) offer Pran in Apan. This is Poorak (intake, inhaling). This is combustion-burning of the sins i.e., germs (virus, bacteria, microbes, dead cells) present in the body, called Hawan here. When the Apan (waste, rejected-stale air) is mixed with Pran, fresh breath, air, it is Rechak-exhaling. The third process involves stagnating both Pran and Apan Vayu-Holding, thereby stopping the flow of both fresh and stale air in the lungs-heart and the entire body. This process of exchange of gases is vital for good health leading to relief from diseases (tensions, defects). In fact pap-sins appear in the form of diseases.
प्राण का स्थान ऊपर-ह्रदय स्थल तथा अपान का स्थान गुदा (anus) नीचे है। श्र्वास को बाहर निकलते समय साँस-वायु की गति ऊपर की ओर और भीतर ले जाते वक्त नीचे की ओर होती है। 
योगी पहले श्र्वास को बाईं नासिका, नथुने, चन्द्र नाड़ी के द्वारा भीतर खींचते हैं। वह वायु ह्रदय में उपस्थित प्राण वायु को साथ लेकर नाभि से होती हुई स्वतः अपान में लीन हो जाती-मिल जाती है। यह पूरक क्रिया है।
तत्पश्चात योगी-अभ्यास कर्ता प्राण वायु और अपान वायु दोनों की गति रोक देते हैं, जिसे कुम्भक कहते हैं अर्थात न तो साँस बाहर आती न ही अन्दर जाती है। इसके बाद वे अन्दर की वायु को दाँये नथुने-सूर्य नाड़ी से निष्कासित करते हैं। इस प्रक्रिया में प्राण वायु अपान वायु को साथ लेकर बाहर निकलती है, जिसे प्राण वायु में अपान वायु का हवन कहा गया है। यही रेचक क्रिया है। 4 भगवन्नाम से पूरक, 16 भगवन्नाम से कुम्भक और 8 भगवन्नाम से रेचक क्रिया की जाती है। 
इस क्रिया को विपरीत अवस्था में पहले सूर्य नाड़ी से पूरक, फिर कुम्भक और तदोपरान्त चन्द्र नाड़ी से रेचक क्रिया की जाती है। इस प्रकार बार-बार पूरक-कुम्भक तथा रेचक प्राणायाम रूपी यज्ञ है और सभी पापों को नष्ट कर देते हैं (यही क्रिया बीमारियों को दूर करने के लिए की जाती है)। 
नियमित आहार-विहार, सन्तुलित-नियमित भोजन करने वाले साधक ही प्राणों का प्राणों में हवन-विलय कर सकते हैं। बहुत अधिक, बेहद कम या बिलकुल भोजन ने करने वाला यह प्राणायाम नहीं कर सकता। प्राण का प्राण में हवन का तात्पर्य है प्राण और अपान को अपने-अपने स्थान पर रोक देना। यही स्तम्भ वृत्ति प्राणायाम है। इन प्रक्रियाओं से मन शान्त, निर्मल-आवेगहीन हो जाता है और भगवत प्राप्ति में सहायक हो जाता है। 
इस प्रकार के यज्ञ करते रहने से सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते है और अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। सम्पूर्ण यज्ञ केवल कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद करने के लिए ही हैं। यह जानने-समझने वाला ही यज्ञवित् अर्थात यज्ञ के तत्व को जानने वाला-तत्वज्ञ है। कुछ लोग लोक-परलोक-स्वर्गादि के भोग प्राप्त करने के लिए यज्ञ करते हैं। वे तत्व ज्ञानी नहीं हैं। विनाशी वस्तुओं की कामना बन्धन कारी है, जिससे मुक्ति-भक्ति-मोक्ष की प्राप्ति कदापि नहीं होती। 
निष्काम भाव से किया गया छोटे से छोटा कर्म भी, परमात्मा की प्राप्ति कराने वाला हो जाता है। 
Pran acquires the upper segment of the body the heart, while the Apan is seated below at the anus. When the air is rejected into the atmosphere the breath is directed upwards and during the intake it is directed in the downward direction.
The Yogi-practitioner first sucks the air into the lungs through the left nostril-Chandr Nadi, by blocking the right one, with the thumb for 4 seconds. At this stage the puff of the air mixes up in the lungs through the bronchus-extremely fine air sacks. This is inhaling-intake.
Thereafter, the Yogi will hold the air in this state for 16 seconds.  Flow of air into the lungs will stop during this cycle. This is followed by exhaling through the right nostril-Sury Nadi for 8 seconds. One may silently keep on reciting the names of the Almighty for 4, 16 or 8 times respectively.
This process is reversed with exchange of gases from the right nostril to the left nostril i.e., from Sury Nadi to Chandr Nadi. 
Only those who intake balanced diet are capable of mixing the Pran Vayu with the Apan Vayu. Those who take very little or no food, do find it difficult to preform this practice. Assimilation of Pran with Apan is Yagy (Hawan, burning of sins-diseases). This leads to clarity of mind & thought. One becomes peaceful (quite, unagitated, restful, blissful), leading to assimilation in the Ultimate-the Almighty. 
Continuity of this practice is a form of Yagy-Yog leading to freedom from sins (diseases, evil ideas, thoughts, wretchedness, vices, impurity) helping in Liberation of the soul. One who understands that the motive-cause of holy practices-rituals is detachment from the deeds, is the real performer (Yogi, ascetic). Those who undertake big celebrations (rituals, Yagy, Agnihotr, Hawan) for attaining the heaven (empire, high posts, name, fame) etc. are not the ones, who understand the gist of the religion (Faith, Dharm). The detached (unbonded, free from ties), avails Liberation-Devotion and Salvation. Smallest deed for the welfare of others, without any motive-desire, too helps one, in attaining the Parmatma-Parmanand.
Those who correlate Yog-Pranayam with Hinduism are wrong-ignorant. 
12 FORMS OF YAGY 12 प्रकार के यज्ञ ::  निस्वार्थ भाव से दूसरों के हित-भले के लिए किये गए कर्तव्य-कर्म करने का नाम ही यज्ञ है। यज्ञ से सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं। मनुष्य बंधन मुक्त हो जाता है। कुल बारह प्रकार के यज्ञ कर्म हैं। 
(1). ब्रह्म यज्ञ :- प्रत्येक कर्म में कर्ता, करण, क्रिया, पदार्थ आदि सब को ब्रह्म रूप से अनुभव करना। 
(2). भगवदर्पण रूप यज्ञ :- सम्पूर्ण क्रियाओं और पदार्थों को केवल भगवान् का और भगवान् के लिए ही मानना।
(3). अभिन्नता रूप यज्ञ :- असत् से सर्वथा विमुख होकर परमात्मा में विलीन हो जाना। परमात्मा से अलग अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना। 
(4). संयम रूप यज्ञ :- एकान्तकाल में अपनी इन्द्रियों को विषयों से मुक्त रखना-प्रवृत न होने देना। 
(5). विषय हवन रूप यज्ञ :- व्यवहार काल में इन्द्रियों से संयोग होने पर भी उनमें राग द्वेष पैदा न होने देना। 
(6). समाधि रूप यज्ञ :- मन बुद्धि सहित सम्पूर्ण इन्द्रियों और प्राणों की क्रियाओं को रोककर ज्ञान से प्रकाशित समाधि में स्थित हो जाना। 
(7). द्रव्य यज्ञ :- सम्पूर्ण पदार्थों को निःस्वार्थ भाव से दूसरों की सेवा में लगा देना। 
(8). तपो यज्ञ :- अपने कर्तव्य के पालन में आने वाली कठिनाइयों को प्रसन्नता पूर्वक सह लेना।
(9). योग यज्ञ-कार्य की सिद्धि :- असिद्धि में तथा फल की प्राप्ति-अप्राप्ति में सम रहना। 
(10). स्वाध्याय रूप ज्ञान यज्ञ :- दूसरों के हित के लिए सत्-शास्त्रों का पठन-पाठन, नाम-जप आदि करना। 
(11). प्राणायाम रूप यज्ञ :- पूरक, कुम्भक और रेचक पूर्वक प्रणायाम करना। 
(12). स्तम्भ वृत्ति प्राणायाम रूप यज्ञ :- नियमित आहार करते हुए प्राण और अपान को अपने-अपने स्थानों पर रोक देना। 
मनुष्य की समस्त क्रियाएँ यज्ञ रूप ही होनी चाहिए; अर्थात स्वयं के लिए कुछ भी नहीं करना। जब मनुष्य केवल दूसरों के हित के लिए सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्म  करता है तो परिणति कर्तव्य कर्म रूप यज्ञ  में स्वतः हो जाती है।
अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते।
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः॥
यज्ञ करना ही कर्तव्य है, इस प्रकार मन में दृढ निश्चय के साथ किया गया, फलेच्छा रहित मनुष्यों द्वारा जो शास्त्र विधि से नियत यज्ञ किया जाता है, वह सात्विक है।[श्रीमद् भगवद्गीता 17.11]  
The Yagy performed without motive, desire, reward as a firm belief, conviction & duty-devotion to the Almighty associated with procedures-methods described in scriptures, is virtuous, pious, Satvik.
परमात्मा ने मानव देह प्रदान की है, इसका शुक्रिया करना चाहिए। इस शरीर के साथ कर्तव्य और अधिकार दोनों जुड़े हैं, जो हर मनुष्य को शास्त्रोक्त विधि-विधान, वर्णाश्रम धर्म के अनुरुप करने ही चाहिये। यज्ञ-अनुष्ठान बगैर किसी कामना, इच्छा, स्वार्थ के करने चाहिये। लोक-परलोक में इससे क्या मिलेगा, क्या लाभ होगा; यह विचारणीय नहीं है। सत्व गुण प्रभु की और ले जाने वाले दैवी सम्पत्ति हैं। दैवी सम्पत्ति-सत्व गुण सम्पन्न व्यक्ति परमात्मा को तभी प्राप्त होगा, जब वह सत्व गुण से भी ऊँचा उठ जायेगा अर्थात उसके मन में परमात्मा के लोक प्राप्त करने की भी इच्छा नहीं होगी अर्थात गुणों से संग सर्वथा समाप्त हो जायेगा। 
One is thankful to the God for providing human body so that he can perform virtuous, pious, righteous, jobs. One is bound with the duties connected with various functions, social obligations as a human being, from time to time; called Varnashram Dharm. God has provided various amenities, a perfect body to do various jobs, functions. Its a matter of firm faith-conviction to pray-worship HIM for what HE has given us. Whenever one goes to temples, pilgrimage, sacred places; he begs before the God to give this or that. But does not think of returning HIM a single bit of it. Thus Yagy, Hawans, Holy-Sacred sacrifices in Holy fire associated with rituals, sacred rhymes-verses are essential, as a duty without the desire to seek any return. This is Satvik Gun having virtues. Satvik Gun elevates one from humanity to the category of saints. Still one feels that he should not have any desires-motives, since this makes him tied with the rebirth. To cut these bonds he has to relinquish all bonds, desires. He should not nourish even the desire to obtain God's abode and he is free.
अभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्। 
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्॥
परन्तु हे भरत श्रेष्ठ अर्जुन! जो फल की इच्छा को लेकर ही किया जाता है अथवा दम्भ-दिखावे के लिए किया जाता है, उस यज्ञ को तुम राजस समझो।[श्रीमद् भगवद्गीता 17.12]  
The Almighty recognised Arjun as the best in Bharat clan and said that the Yagy-sacrifices in holy fire to show off or to satisfy one's ego and for the purpose of seeking some sort of favours-reward from the God, is Rajas.
स्वार्थ-सिद्धि, फलेच्छा की सिद्धि के लिए किया गया यज्ञ राजस और जन्म-मरण के चक्कर में डालने वाला है। धन, सम्पत्ति, राज-पाठ मिल जाये, शत्रु मिट जाये, संसार-चारों दिशाओं में डंका बजे, नाम हो, स्त्री-सन्तान सुख प्राप्त हो, अमर हो जाऊँ इन इच्छा-कामनाओं को लेकर किया यज्ञ राजसी है। जो यज्ञ दिखावे, अहंकार की सन्तुष्टि के लिए जाये, वो विपरीत फल भी दे-देता है। 
A sacrifice made for seeking vows, satisfaction of desires is purely for favours from the God. This type of tendency is bad & is harmful, since it puts the performer in infinite chain of birth & death. Wealth, kingdom, name-fame, lust for wife-son, immortality etc. are desired by everyone, instead of seeking Salvation, Almighty's love. The worship, prayer, sacrifice, pilgrimage, do provide relief desired; but occasionally it works in reverse gear as well. A worship devoid of demands from the God, with purity at heart, is always pious, virtuous, righteous and may lead to the release-relinquishment of the holy soul.
विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते॥
शास्त्र विधि से हीन, अन्न दान से रहित, बिना मन्त्रों के और बिना श्रद्धा के किये जाने वाले यज्ञ को तामस कहते हैं।[श्रीमद् भगवद्गीता 17.13]   
The sacrifices which are not accompanied by the guide lines of scriptures, without offering food grain, donations without faith-devotion and recitation of hymns-rhymes, Shloks, verses are Tamas (function of ignorant). 
शास्त्रों में यज्ञ विधि का विस्तृत वर्णन किया गया है। यज्ञ-हवन कुण्ड की स्थिति, स्त्रुवा आदि पात्र, बैठने का स्थान, आसन, दिशा आदि को ठीक तरह से समझना चाहिए और यज्ञ की विधि को जानकर ब्राह्मणों से ही यह शुभ कार्य सम्पन्न कराना चाहिये। भिन्न-भिन्न प्रकार की यज्ञ सामग्री, वस्त्र, देवताओं की स्थिति, आवाहन क्रम बद्ध तरीके से किया जाता है। ब्राह्मणों, गरीबों को अन्न, दान-दक्षिणा दी जाती है। शुद्धि का ख्याल रखा जाता है। ये सभी कार्य भक्ति भाव, श्रद्धा और मन से किये जाते हैं, दिखावा नहीं। मन्त्रों के उच्चारण की शुद्धि परमावश्यक है। जो भी आहुति दी जाती है, वो शुद्ध हो यह जरूरी है।
यज्ञ के अलावा सुपात्र गरीब, साधनहीन की मदद, सामाजिक कार्यों के हेतु धन प्रदान करना, गुप्त दान सात्विक है, यदि यह अँहकार, दिखावे-बनावट से रहित है। 
This is understood-clear that the place-land has to selected very carefully as per instructions given in Shastr-scriptures. It should be thoroughly clean and pious, free from insects, pollutants. The direction has to be in accordance of Yagy-Hawan methodology, which has to be accurate and precise. The area has to be cordoned off and protected. It should be covered thoroughly. The Brahmans who are assigned this task should be experienced-matured and well versed. The offerings should be stored in advance near the actual site. Seats of the Brahmans-Priests, the host (person-organiser) and his family desirous of performing the sacrifices, guests should be marked. Things required for donation-charity :- cloths, cows, gold, money, food grain etc., should be ready. Ghee, fruits, flowers, coconuts, red cloth, Ganga Jal, Milk, Curd, Honey, Hawan Samgri (offerings in holy fire, हवन सामग्री) should be sufficient. The performer should be thoroughly soft, polite and pious at the moment. No one should be angered or displeased. Guests should be welcomed and honoured for obliging the host. No one should eat or drink before the Yagy is completed. While reciting Mantr-rhymes pronunciation should be very-very accurate. No conversation should be there except pertaining to the Yagy. One should do all this happily-whole heartedly. The demigods-deities should be invited and place-seats for them should be allocated (marked, reserved) for them. Saints, sages, recluse and the like, should be welcomed, even though if they come uninvited to grace-bless the host. The beggars too, should be satisfied. Birds, cows should be fed liberally.
Please refer to :: (1).  HINDU PHILOSOPHY (4,4.1-4.16)) हिन्दु दर्शन :: RITES संस्कार santoshkipathshala.blogspot.com 
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्। 
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्॥
यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याग करने के योग्य नहीं है, बल्कि वह तो अत्यावश्यक-जरूरी कर्तव्य है, क्योंकि यज्ञ, दान और तप, ये तीनों ही कर्म बुद्धिमान पुरुषों-मनीषियों को पवित्र करने वाले हैं।[श्रीमद् भगवद्गीता 18.5]  
नित्य, नैमित्तिक, जीविका सम्बन्धी, शरीर सम्बन्धी आदि जितने भी कर्तव्य कर्म बताये गए हैं, वे सभी अनिवार्य हैं। इतना ही नहीं, वे तो मनीषियों को पवित्र करने वाले भी हैं। दुर्गुण, दुराचार, पाप, मल को दूर करना महान आनन्द दायक है। मनीषी-विचारशील वे हैं, जो सम बुद्धि से युक्त होकर कर्मजन्य फल का त्याग कर देते हैं। यज्ञादि कर्म ऐसे मनीषियों को पवित्र करते हैं, जिनकी इन्द्रियाँ वश में हैं। जो लोग केवल सुख भोग के लिये यज्ञ, दान आदि करते हैं; उनको ये कर्म पवित्र नहीं कर पाते। अगर कोई कर्म अपनी भलाई और दूसरे का बुरा करने के लिए किया जाये, तो वो भी अपवित्र करने वाला, लोक-परलोक में भी महान दुःख देने वाला बन जाता है। 
Yagy (worship sacrifices in holy fire-Hawan), Dan (gifting, charity, donations, social welfare, helping the needy in distress) and Asceticism-austerity should not be renounced. Besides these the thoughtful (Karm Yogi, Enlightened, Wise, Prudent, Intellectuals, the Learned, Scholars, the Pandits, Brahmans, Philosophers), should continue to do them, since these three purify them.
Here the stress is over the ability of the performer. The individual should be a person who is capable to perform these activities. Yagy, Dan requires money, desire and strong will power, while asceticism needs strong will power, desire, a bent of mind, dedication and deep faith in the Almighty. One should be blessed with the sense of submission, devotion and offer each and every possessions to HIM-the Almighty.
In addition to Yagy, Dan and Tap vital functions like teaching-learning, agriculture-business, eating-drinking, moving, sleeping-waking, interactions in the family and the society etc. and essential functions, actions, duties arising out of a difficult situation, must be performed by renouncing both attachment and reward.
एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च। 
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्॥
हे पार्थ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मों को आसक्ति और फलों की इच्छा का त्याग करके करना चाहिए, यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है।[श्रीमद् भगवद्गीता 18.6] 
यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों साथ-साथ मनुष्य को पठन-पाठन, खेती-बाड़ी, जीविका हेतु तथा नित्य कर्म खाना-पीना, उठना-बैठना, सोना-जागना आदि शारीरिक कर्म और परिश्थिति जन्य आवश्यक कर्तव्य-कर्मों को आसक्ति-फलेच्छा का त्याग करके जरूर करना चाहिये। 
अपनी कामना, ममता, और आसक्ति का त्याग करके कर्मों को केवल प्राणी मात्र के भले के लिए करने से कर्मों का प्रवाह संसार के लिए और योग का प्रवाह स्वयं के लिये हो जाता है। अपने हेतु किया गया कर्म बन्धन कारक हो जाता है और अपना व्यक्तित्व परमात्मा में विलय नहीं होने देता। 
O Parth! All these Karm (Yagy, Dan, Tap) and various other Karm (act, actions, functions, work, performances, duties, jobs) should be performed by renouncing the attachment and desire of the Karm Fal (reward, result, out come, out put); is the sole doctrine established by the Almighty HIMSELF.
The sole and absolute doctrine of the Almighty is in favour of performance of these three acts by renouncing the fruits of actions and attachment, with dedication. It’s not possible to renounce the Fal of all Karm, since one can’t survive by renouncing them. One must renounce both attachment and reward. What is renounced by one indeed-in reality, does not belong to him but is considered to be of his own by illusion.
Quantum of Karm depends upon the desire for industry. Karm Yog is detachment from the desires of reward of industry. Karm is meant for the satisfaction or fulfilment of Rag (deep attachment to desires and motives), as well as for the abolition of desires for the Rag-attachment itself. Performance for self, enhances the Rag, while working for the benefit, upliftment and progress of the entire mankind (society), by the Karm Yogi, paves the path for his Salvation. With the abolition of Rag, one attains Salvation automatically, which is the firm opinion of the Almighty.
One who reads, studies, learn-understand and utilises Geeta, in his day-today life, automatically qualifies for SALVATION. It should be revealed only to those who are eager, desirous, interested in listening, learning, understanding the text. The ignorant, indifferent, idiot should not be compelled to read or listen this sacred text.
The Almighty descended over the earth to vanish the evil, vices, cruelty, wretchedness, sins to relinquish the earth on her request; as an incarnation known as Bhagwan Shri Krashn (Complete incarnation). HE had all other  incarnations like  of Bhagwan Vishnu-Narayan as well composed in HIM. Bhagwan Shri Hari Vishnu himself is a component of the Almighty. HE entered into conversation with Arjun (incarnation of Nar) to set him free from the illusion to eliminate the evil. The conversation dictated by Bhagwan Ved Vyas was inked by Ganesh Ji Maharaj for the benefit of entire mankind. This is extremely beneficial-useful during Kali Yug the present cosmic era. Chapter-18 of this conversation has great significance, as it leads the devotee to Salvation. The Param Pita Per Brahm Parmeshwar emerged with all of his powers and incarnations (Bhagwati, Sada Shiv, Maha Vishnu, Maha Brahm, Nar-Narayan etc.) through Shri Krashn showing his Virat Roop-ULTIMATE EXPOSURE.
वैतानिकं च जुहुयादग्निहोत्रं यथाविधि। 
दर्शमस्कन्दयन्पर्व पौर्णमासं च योगतः॥
अमावस्या और पूर्णिमा, दोनों, पर्वों के यज्ञों को न छोड़ता हुआ समय पर यथोक्त विधि से वैतानिक अग्निहोत्र  करे।[मनु स्मृति 6.9] 
One should perform the Yagy on each Amavasaya-Moonless night & Purnima-full Moon night, as per procedure described in the scriptures.
वैतानिक :: वह हवन या यज्ञ आदि जो श्रौत विधानों के अनुसार हो, वह अग्नि जिससे अग्निहोत्र आदि कृत्य किए जायें; holy-sacred sacrifices in fire s per procedure described in the scriptures. 
ऋक्षेष्ट्याग्रयणं चैव चातुर्मास्यानि चाहरेत्। 
तुरायणं च क्रमशो दक्षस्यायनमेव च॥
नक्षत्रेष्टी, आग्रयण, चातुर्मास, तुरायण और दाक्षायण, इन वेदकर्मों को क्रमशः करे।[मनु स्मृति 6.10]
The inmates of the monastery, hermitage, Ashram in the deep woods should perform these 4 Yagy called Nakshatreshti, Agrayan, Chaturmas, Turayan and Dakshayan. These Yagy have been listed as Ved Karm i.e., the duties prescribed to be performed by the retired people and the household as well.
नक्षत्रेष्टी यज्ञ :: ग्रह नक्षत्र शांति हेतु किया जाने वाला यज्ञ, Sacrifice to calm down constellations and planets. 
तुरायण :: चैत्र शुक्ल पंचमी और वैशाख शुक्ल पंचमी को किया जाने वाला यज्ञ। आग्रयण :: नये अन्न से यज्ञ अथवा अग्निहोत्र, प्रतिवर्ष नया अन्न आने के बाद आग्रयण अवश्य होता है।
दाक्षायण :: दक्ष  प्रारंभ राजवंश। इस वंश के राजा संस्कार विशेष, के कारण, शतपथ ब्राह्मण के समय तक, समृद्ध जीवन व्यतित कर रहे थे [श. ब्रा.2.4.4.6]; अथर्ववेद एवं यजुर्वेद संहिताओं में, शतानीक सात्रजित ऋषि को दाक्षायणों ने स्वर्ण प्रदान करने का निर्देश प्राप्त है [अ.वे.1.35.1-2]; [ वा.सं. 34.51-52]; [खिल.4.7.7.8]। दाक्षायण  का प्रयोग स्वर्ण के लिये भी होता है [ऐ.ब्रा.3.40]। महाभाष्य में, पाणिनि को दाक्षायण कहा गया है; एक यज्ञ जो वैदिक काल में दक्ष प्रजापति ने किया था, a sacrifice. 
चातुर्मास :: श्रावण, भाद्रपद, आश्‍विन और कार्तिक। इसके प्रारंभ को देवशयनी एकादशी कहा जाता है और अंत को देवोत्थान एकादशी। यह काल व्रत, भक्ति और शुभ कर्मों के हेतु है। ध्यान और साधना के लिए भी यह उपयुक्त समय है। इस दौरान शारीरिक और मानसिक स्थिति तो सही होती ही है, साथ ही वातावरण भी स्वच्छ-अच्छा रहता है। इन चार महीनों में मनुष्य की पाचनशक्ति कमजोर पड़ती है तथा भोजन और जल में जीवाणुओं की तादाद भी बढ़ जाती है। इस काल में जमीन पर सोना और सूर्योदय से पहले उठना बहुत शुभ माना जाता है। उठने के बाद अच्छे से स्नान करना और अधिकतर समय मौन रहना चाहिए। ब्राह्मण और साधुओं के लिये ये नियम और अधिक कड़े होते हैं। दिन में केवल एक ही बार भोजन करना चाहिए। इस दौरान विवाह संस्कार, जातकर्म संस्कार, गृह प्रवेश आदि सभी मंगल कार्य निषेध माने गए हैं। इस व्रत में दूध, शकर, दही, तेल, बैंगन, पत्तेदार सब्जियां, नमकीन या मसालेदार भोजन, मिठाई, सुपारी, मांस और मदिरा का सेवन नहीं किया जाता। श्रावण में पत्तेदार सब्जियां यथा पालक, साग इत्यादि, भाद्रपद में दही, आश्विन में दूध, कार्तिक में प्याज, लहसुन और उड़द की दाल आदि का त्याग कर दिया जाता है।
पुण्यान्यन्यानि कुर्वीत श्रद्दधानो जितेन्द्रियः।
न त्वल्पदक्षिणैर्यज्ञैर्यजेतेह कथञ्चन
श्रद्धा से जितेन्द्रिय होकर अन्य पुण्य कार्यों को करें, किन्तु कभी भी अल्प दक्षिणा देकर यज्ञ न करायें।[मनु स्मृति 11.39]
One should perform all pious, sacred, holy sacrifices-deeds, jobs by controlling sense organs and ascertain that sufficient Dakshina-fees, fit for the job has been paid to the Purohit, performer.
During pilgrimage, holy sacrifices, prayers, Yagy, Hawan, Agnihotr, listening-narrating sacred text; exercise full control over sense organs, sensuality, sexuality, passions etc. etc. Try to conduct the performance till end, never leave it in between.
इन्द्रियाणि यशः स्वर्गमायुः कीर्तिं प्रजाः पशून्।
हन्त्यल्पदक्षिणो यज्ञस्तस्मान्नाल्पधनो यजेत्
यज्ञ में थोड़ी दक्षिणा देने से इन्द्रिय, यश, स्वर्ग, आयु, कीर्ति, प्रजा और पशुओं का नाश होता है, इसलिये अल्प दक्षिणा देकर यज्ञ न करे।[मनुस्मृति 11.40] 
Offering of low Dakshina may lead to the loss of organs-senses, fame-honour, elevation to heaven, age-longevity, subjects and the cattle.
Prior to holding Yagy one must ascertain that he is capable of liberal offerings. The money spent for this purpose should have been earned through pious-righteous means.
अग्निहीनो देहदृाष्टं मंत्रहीनस्तु ऋत्विज: 
दीक्षितं दक्षिणाहीनो नास्ति यज्ञसमो रिपु:
अन्न हीन अर्थात जिस यज्ञ में अन्न न दिया जाये, वह यज्ञ राष्ट्र का, मंत्रहीन ऋत्विज-ब्राह्मणों का और दक्षिणा से हीन यज्ञ यजमान का नाश करता है। यज्ञ के बराबर कोई शत्रु नहीं है। 
The Yagy conducted by the king which is not followed by offering of food grain-cooked food, destroys the nation-country, state; the priest performing Yagy if he is not well versed with procedure, suitable Mantr and the one who is conducting it for lack of sufficient Dakshina-fees. The Yagy turns into a dreaded enemy if its not conducted through proper procedures, methodology & enchanting of Mantrs.
अग्निहोत्र्यपविध्याग्नीन् ब्राह्मणः कामकारतः।
ब्राह्मण अपनी इच्छा से यदि प्रातः और सायंकालिक अग्निहोत्र के हवन को न करे तो एक मास तक चान्द्रायण व्रत करे, क्योंकि अग्निहोत्र न करना पुत्र हत्या का समान है।
If a Brahman do not perform Agnihotr in the morning and evening out of his own will he, should conduct Chandrayan Vrat-penances pertaining to appease Moon, for a month, since this failure for him is comparable to murder of son.
ये शूद्रादधिगम्यार्थमग्निहोत्रमुपासते।
ऋत्विजस्ते हि शूद्राणां ब्रह्मवादिषु गर्हिताः
जो शूद्रों से धन लेकर यज्ञ करते हैं, वे शूद्रों के ऋत्विज-ब्राह्मण और वेदों में निन्दित कहे गए हैं।[मनुस्मृति 11.42] 
The Brahman, who conduct Yagy by obtaining money from the Shudr, is titled the Priest of the Shudr and has been censured in Veds.
तेषां सततमज्ञानां वृषलाग्न्युपसेविनाम्।
पदा मस्तकमाक्रम्य दाता दुर्गाणि सन्तरेत्
उन मूर्ख ब्राह्मणों जो शूद्रों के धन से अग्निहोत्र करते हैं, के सर पर पैर रखकर वह शूद्र, संसार के सभी दुःखों को पार करता है।[मनुस्मृति 11.43] 
The Shudr crosses the wordily troubles by putting over his feet over the head of the Brahmans who conduct Agnihotr with his money.
न वै कन्या न युवतिर्नाल्पविद्यो न बालिशः।
होता स्यादग्निहोत्रस्य नार्तो नासंस्कृतस्तथा
कन्या, युवती, थोड़े पढ़े लिखे, मूर्ख, पीड़ित और जिनका यज्ञोपवीत नहीं हुआ है, वे अग्निहोत्र के (होता) हवनीय कार्य न करें।[मनुस्मृति 11.36]  
Girls, adolescent-young women, low educated & illiterates, idiots, sufferers and those who have not been initiated to Yagyopaveet-sacred thread, should not offer oblations in Agnihotr, sacred holy fire.
Each & every doctrine in Hinduism has a solid footing, foundation, reason, cause which has been given the shape of tradition, ethics since even a person of average intelligence is not capable of understanding them. This is just like one who knows driving car  is unable to repair it. One who knows driving may not navigate the ship or aeroplane or run a train. The women are running over to Sabri Mala Temple in spite of religious sanctions. The stupids are encouraging them. The court & the judges are just like illiterates in this regard. The communists, congressmen-who are basically Muslims, Christian are behind this all.
नरके हि पतन्त्येते जुह्वन्तः स च यस्य तत्।
तस्माद्वैतानकुशलो होता स्याद्वेदपारगः
यदि ये लोग हवन करें तो नर्क में जाते हैं और जिसके द्वारा कराये जाते हैं, वो भी नर्क में जाता है। इसलिये जो वैदिक कृत्यों में कुशल हो और वेद का पारङ्गत हो, उसी को होता होना चाहिये।[मनुस्मृति 11.37]  
If these categories of people perform Yagy, they become entitled for Hell along with one who does it for them. Therefore, only an expert in performing Yagy and learned in Veds should conduct Yagy.
Evidence is available to prove that only those who were expert in a certain branch of Yagy were requested-assigned with the pious but extremely intricate job. This is just like useing computer-mobile keys, where just by pressing one wrong key-button something else appears over the screen.
प्राजापत्यमदत्त्वाश्वमग्न्याधेयस्य दक्षिणाम्।
अनाहिताग्निर्भवति ब्राह्मणो विभवे सति
धनिक-अमीर होता भी ब्राह्मण अग्निहोत्र को दक्षिणा में, प्रजापति की दक्षिणा अश्व ने देकर यदि अग्न्याधान करे तो अग्न्याधान न होने के बराबर है।[मनुस्मृति 11.38]  
A Brahman who does not offer horse as Dakshina to the performer of Yagy for him, even though rich-wealthy, the Agnihotr becomes null & void for him, since the fee-Dakshina fixed for this performance is a horse to be offered to the Praja Pati.
Normally, people go the learned Brahmans, Palmists, Astrologers and the Vaedy and do not pay sufficient Dakshina and generally expect him to answer their queries free. It is against rules and may harm the inquisitor, in stead of benefiting him. The Vaedy-doctor must be paid for the medicines provided by him, so that he too can maintain his dignity and respectful life. 
पुण्यान्यन्यानि कुर्वीत श्रद्दधानो जितेन्द्रियः।
न त्वल्पदक्षिणैर्यज्ञैर्यजेतेह कथञ्चन
श्रद्धा से जितेन्द्रिय होकर अन्य पुण्य कार्यों को करें, किन्तु कभी भी अल्प दक्षिणा देकर यज्ञ न करायें।[मनुस्मृति 11.39]  
One should perform all pious, sacred, holy sacrifices-deeds, jobs by controlling sense organs and ascertain that sufficient Dakshina-fees, fit for the job has been paid to the Purohit, performer.
During pilgrimage, holy sacrifices, prayers, Yagy, Hawan, Agnihotr, listening-narrating sacred text; exercise full control over sense organs, sensuality, sexuality, passions etc. etc. Try to conduct the performance till end, never leave it in between.
इन्द्रियाणि यशः स्वर्गमायुः कीर्तिं प्रजाः पशून्।
हन्त्यल्पदक्षिणो यज्ञस्तस्मान्नाल्पधनो यजेत्
यज्ञ में थोड़ी दक्षिणा देने से इन्द्रिय, यश, स्वर्ग, आयु, कीर्ति, प्रजा और पशुओं का नाश होता है, इसलिये अल्प दक्षिणा देकर यज्ञ न करे।[मनुस्मृति 11.40] 
Offering of low Dakshina may lead to the loss of organs-senses, fame-honour, elevation to heaven, age-longevity, subjects and the cattle.
Prior to holding Yagy one must ascertain that he is capable of liberal offerings. The money spent for this purpose should have been earned through pious-righteous means.
चान्द्रायणं चरेन्मासं वीरहत्यासमं हि तत्[मनुस्मृति 11.41]
खण्ड 1 :: 
ओ३म् सहित चारों वेद :- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद, ईश्वरीय ज्ञान है, जिसे सर्वव्यापक, सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान सृष्टिकर्ता ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को दिया था। ईश्वर प्रदत्त यह ज्ञान सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद सभी मनुष्यों के लिए यज्ञ करने का विधान करते हैं। ऋग्वेद के मन्त्र 1.13.12 में ‘स्वाहा यज्ञं कृणोतन’ कहकर ईश्वर ने स्वाहापूर्वक यज्ञ करने की आज्ञा दी है।
ऋग्वेद के मन्त्र 2.2.1 में ‘यज्ञेन वर्धत जातवेदसम्’ कहकर यज्ञ से अग्नि को बढ़ाने की आज्ञा है। 
यजुर्वेद के मन्त्र 3.1 में ‘समिधाग्निं दुवस्यत धृतैर्बोधयतातिथिम्’ कहकर समिधा से अग्नि को पूजित करने व घृत से उस अग्निदेव अतिथि को जगाने की आज्ञा है।
यजुर्वेद 3.2 में ‘सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन’ के द्वारा आज्ञा है कि सुप्रदीप्त अग्निज्वाला में तप्त घृत की आहुति दो।
ॐ विश्वानि देव सवितुर्दुरितानि परासुव। यद्भद्रं तन्नासुव॥[यजुवेद]
हे ईश्वर! हमारे सारे दुर्गुणों को नष्ट कर दो और अच्छे गुण, कर्म और स्वभाव प्रदान करो।
यज्ञ सर्वश्रेष्ठ कार्य वा कर्म को कहते हैं। यज्ञ शब्द अग्निहोत्र, हवन वा देवयज्ञ के लिए प्रयुक्त होता है। यज्ञ देवों की पूजा, संगति करण और सबको पात्रतानुसार दान देना है। माता, पिता, आचार्यों व विद्वानों का सम्मान व सेवा-सत्कार भी यज्ञ है। इनके साथ संगति कर उनके ज्ञान व अनुभव को प्राप्त करना और उससे जन कल्याण व प्राणियों का हित करना भी यज्ञ है। अपनी सामर्थ के अनुसार सुपात्रों को अधिक से अधिक दान देकर देश व समाज को सम रस, एक रस व गुण, कर्म, स्वभाव के अनुसार यथाशक्ति सुख-सुविधायें प्रदान करना भी यज्ञ है। यज्ञ का आयोजन लौकिक और पारलौकिक दोनों ही प्रकार से सभी के लिए हितकारी है। यज्ञ से वर्षा होती है, वर्षा से अन्न पैदा होता है, जिससे संसार का जीवन चलता है। वायुमंडल में मंत्रों का प्रभाव पड़ता है, जिससे भूकंप, ओलावृष्टि, हिंसात्मक जैसी प्राकृतिक घटनाओं का शमन होता है, क्योंकि यज्ञ शब्द ब्रह्म है।
यज्ञ शुभ कर्म, श्रेष्ठ कर्म, सतकर्म, वेदसम्मत कर्म है। सकारात्मक भाव से ईश्वर-प्रकृति तत्वों से किए गए आह्‍वान से जीवन की प्रत्येक इच्छा पूरी होती है। यह वेदों में निर्धारित अनुष्ठानों पर आधारित उपासना पद्धति है। यज्ञ का लक्ष्य ब्रह्मांड की स्वाभाविक व्यवस्था क़ायम रखने जैसी व्यापक भी है। इसमें अनुष्ठानों का सही निष्पादन और मंत्रों का शुद्ध उच्चारण अनिवार्य माने जाते हैं तथा निष्पादक और प्रयुक्त सामग्री का अत्यधिक पवित्र होना आवश्यक है। पाँच दैनिक घरेलू आहुतियाँ और महायज्ञ भी इसमें शामिल हैं।
यज्ञ का अर्थ आग में घी, आहुति, भेंट, चढ़ावा डालकर मंत्र पढ़ना मात्र नहीं होता। यज्ञ में अग्नि और घी के प्रतीकात्मक प्रयोग में आयुर्वेद और औषधीय विज्ञान द्वारा वायु शोधन अग्नि से होने वाले धूम्र कणों द्वारा सम्पन्न होती है। यज्ञ सामूहिकता का प्रतीक है। अन्य उपासनाएँ या धर्म-प्रक्रियाएँ ऐसी हैं, जिन्हें कोई
अकेला कर या करा सकता है; पर यज्ञ ऐसा कार्य है, जिसमें अधिक लोगों के सहयोग की आवश्यकता है। होली आदि पर्वों पर किये जाने वाले यज्ञ तो सदा सामूहिक ही होते हैं। यज्ञ आयोजनों से सामूहिकता, सहकारिता और एकता की भावनाएँ विकसित होती हैं।
प्रत्येक शुभ कार्य, प्रत्येक पर्व-त्यौहार, संस्कार यज्ञ के साथ सम्पन्न होता है। यज्ञ भारतीय संस्कृति का पिता है। यज्ञ भारत की एक मान्य एवं प्राचीनतम वैदिक उपासना है। धार्मिक एकता एवं भावनात्मक एकता को लाने के लिए ऐसे आयोजनों की सर्वमान्य साधना का आश्रय लेना सब प्रकार दूरदर्शितापूर्ण है।
गायत्री सद्बुद्धि की देवी और यज्ञ सत्कर्मों का पिता है। सद्भावनाओं एवं सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन के लिए गायत्री माता और यज्ञ पिता का युग्म हर दृष्टि से सफल एवं समर्थ सिद्ध हो सकता है। गायत्री यज्ञों की विधि-व्यवस्था बहुत ही सरल, लोकप्रिय एवं आकर्षक भी है। जगत् के दुर्बुद्धिग्रस्त जनमानस का संशोधन करने के लिए सद्बुद्धि की देवी गायत्री महामन्त्र की शक्ति एवं सार्मथ्य अद्भुत भी है और अद्वितीय भी।
यज्ञं जनयन्त सूरयः। [ऋग्वेद 10.66.2] 
हे विद्वानों! संसार में यज्ञ का प्रचार करो। 
अयं यज्ञो विश्वस्य भुवनस्य नाभिः। [अथर्ववेद 9.15.14]
यह यज्ञ ही समस्त विश्व-ब्रह्मांड का मूल केंद्र है।
प्रांचं यज्ञं प्रणयता सखायः। [ऋग्वेद 10.101.2]
प्रत्येक शुभकार्य को यज्ञ के साथ आरंभ करो। 
सर्वा बाधा निवृत्यर्थं सर्वान्‌ देवान्‌ यजेद् बुधः। [शिवपुराण]
सभी बाधाओं की निवृत्ति के लिए बुद्धिमान पुरुषों को देवताओं की यज्ञ के द्वारा पूजा करनी चाहिए। 
यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म। [शतपथ ब्राह्मण 1.7.1.5]
यज्ञ ही संसार का सर्वश्रेष्ठ शुभ कार्य है।
तस्मात्‌ सर्वगतं ब्रह्मा नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्‌। [श्रीमद्भगवद्गीता 3.15]
यज्ञ में सर्वव्यापी सर्वांतर्यामी परमात्मा का सदैव वास होता है। 
अग्नि होत्रिणे प्रणुदे सपत्नश्र। [अथर्व वेद 9.2.6]
यज्ञ करने से शत्रु नष्ट हो जाते हैं। शत्रुता को मित्रता में बदल देने का सर्वोत्तम उपाय यज्ञ है।
सम्यंजोऽग्नि सपर्यत। [अथर्व वेद 3.30.6]
सबको मिलकर यज्ञानुष्ठान करना चाहिए। सामूहिक उपासना का महत्व असंख्य गुना अधिक है।
यज्ञं जनयुन्तु सूरयः। [ऋग्वेद 10.66.2]
हे विद्वानों, संसार में यज्ञ का प्रचार करो। विश्व-कल्याण करने वाले साधकों में यज्ञ सर्वश्रेष्ठ है।
ईजानाः स्वर्गं यान्ति लोकम्। [अथर्व वेद 18.4.2]
यज्ञ करने वाले को स्वर्ग का सुख प्राप्त होता है। जिन्हें स्वर्गीय सुख प्राप्त करना अभीष्ट हो, वे यज्ञ किया करें।
प्राचं यज्ञं प्रणतया स्वसाय। [ऋग्वेद 10.101.2]
प्रत्येक शुभ कार्य यज्ञ के साथ आरंभ करो। यज्ञ के साथ आरम्भ किये हुए कार्य सफल और सुखदायक होते हैं।
सर्वेषाँ देवानाँ आत्मा यद् यज्ञः। [शतपथ 12.3.2.1]
सब देवताओं की आत्मा यह यज्ञ है। यज्ञ करने वाले देवताओं की आत्मा तक पहुँचते हैं।
अयज्ञियो हत वर्चो भवति। [अथर्व वेद]
यज्ञ रहित मनुष्य का तेज नष्ट हो जाता है। यदि तेजस्वी रहना है तो यज्ञ करते रहना चाहिए।
भद्रो नो अग्नि राहुतः। [यजुर्वेद 15.32]
यज्ञ में दी हुई आहुतियाँ कल्याणकारक होती है। जो अपना कल्याण चाहते हैं, वे यज्ञ किया करें।
मा सुनोतेति सोमम्। [ऋग्वेद 2.30.7]
यज्ञानुष्ठान की महान उपासना बन्द न करो। जहाँ यज्ञ बन्द हो जाते हैं वहाँ से सुख-शाँति चली जाती है।
कस्मैत्व विमुँचति तस्मैत्वं विमुँचति।
जो यज्ञ को त्यागता है उसे परमात्मा त्याग देता है। जिन्हें परमात्मा का अनुग्रह अभीष्ट हो, वे यज्ञ करना त्यागें।[यजुर्वेद]
अस्य सूनृता विरप्शी गोमती मही।[ऋग्वेद 1.3.8.8]  
“यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म”
यज्ञ संसार के श्रेष्ठतम कार्यों में से एक है।[यजुर्वेद] 
अधियज्ञोअहमेवात्र देहे देहभृताम वर॥
शरीर या देह के दासत्व को छोड़ देने का वरण या निश्चय करने वालों में, यज्ञ अर्थात जीव और आत्मा के योग की क्रिया या जीव का आत्मा में विलय, मुझ परमात्मा का कार्य है।[श्रीमद्भगवद्गीता 4.8]
अनाश्रित: कर्म फलम कार्यम कर्म करोति य: स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रिय:॥[श्रीमद्भगवद्गीता 1.6] 
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समाः। 
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥ 
इस संसार में कर्म करते हुए ही सौ वर्ष-आयु पर्यन्त, जीने की इच्छा रखनी चाहिए। यहाँ कर्म करने के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है। कर्म निष्काम भाव से करने चाहिये, ताकि कर्म बन्धन के कारण न बनें।[यजुर्वेद 40.2]
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र...समाचार।                      
यज्ञ के अतिरिक्त यज्ञीय भाव से रहित किये गये कर्म बन्धन में, दुःख में, प्रपञ्च में फंसाने वाले होते हैं, अतः समर्पण भाव से कर्म करना चाहिये, आसक्ति के, लगाव के तृष्णा के त्याग से ही समर्पण भाव का जीवन में समावेश हो सकता है।[श्रीमद्भगवद्गीता 13.9]
  "अग्निर्वै मुखं देवानाम्"[शतपथ ब्राह्मण] 
जड़ देवों का मुख अग्नि है, क्योंकि अग्नि में डाले हुए पदार्थ, पदार्थ विज्ञान के अनुसार नष्ट नहीं होते हैं, अपितु रूपान्तरित होकर, सूक्ष्म होकर शक्तिशाली बनते हैं। सूक्ष्म होकर अन्तरिक्ष में वायु के माध्यम से फैलते हैं, व्यापक हो जाते हैं। सभी को जीवन-शक्ति से संयुक्त कर देते हैं। अन्तरिक्ष में, द्युलोक में, व्याप्त पर्यावरण को शुद्ध करने में सक्षम हो जाते हैं।
"अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः"[यजु 23.62]
इस यज्ञ को भुवन की नाभि कहा है, जो पदार्थ अग्नि में डालते हैं, वे सूक्ष्म होकर वायु के माध्यम से ऊर्जस्वित होकर, शक्ति सम्पन्न होकर द्युलोक तक पहुँचते हैं। 
        अग्नौ प्रास्ताहुतिः... प्रजाः। [मनुस्मृति 3.76]
अग्नि में अच्छी प्रकार डाली गयी पदार्थों (घृत आदि) की आहुति सूर्य को प्राप्त होती है-सूर्य की किरणों से वातावरण में मिलकर अपना प्रभाव डालती है, फिर सूर्य से वृष्टि होती है, वृष्टि से अन्न पैदा होता है, उससे प्रजाओं का पालन-पोषण होता है। 
        अन्नाद् भवन्ति...कर्मसमुद्भवः।
अन्न से प्राणी, वर्षा से अन्न, देवयज्ञ से वर्षा तथा देवयज्ञ तो हमारे कर्मों के करने से ही सम्पन्न होगा। निश्चय से देवयज्ञ ही वह साधन है, जिस के द्वारा हम यथोचित रुप में चेतन देवों का सम्मान करते हैं तथा जड़ देवों की भी पूजा अर्थात् यथोचित व्यवहार द्वारा इन्हें दूषित नहीं होने देते हैं। अग्नि में डाले गये पदार्थ सूक्ष्म होकर वृक्ष देवता, वायु देवता, पृथिवी देवता, सूर्य देवता, चन्द्र देवता आदि सभी लाभकारी देवों को शुद्ध, स्वस्थ, पवित्र रखते हैं और ये देव हमें स्वस्थ एवं सुखी बनाते हैं।[श्रीमद्भागवद गीता 3.14] 
        देवान्भावयतानेन ...परमवाप्स्यथ।
इस यज्ञ के द्वारा (अग्निहोत्र के द्वारा) तुम इन जड़ चेतन देवों को उत्तम बनाओ तब वे देव तुम्हारा कल्याण करेंगे। इस प्रकार परस्पर एक दूसरे को स्वस्थ रखने से ही परम कल्याण की प्राप्ति होगी। यज्ञ का जीवन में अत्यन्त महत्त्व है। यही सच्ची देवपूजा है। इसीलिए महाभारत काल पर्यन्त यज्ञ का ही विधान प्राप्त होता है। यज्ञ के अतिरिक्त सभी पूजा पद्धतियों में वायु, जल, अन्न, वृक्षादि पर्यावरण के दोषों को दूर करने का सामर्थ्य नहीं है। जल-वायु शुद्ध होगा यज्ञ से, यथोचित व्यवहार से। सच्चे अर्थों में यज्ञ ही देवपूजा है, सच्ची देवपूजा है। प्रतिदिन दैनिक यज्ञ करके इस देवपूजा को सम्पन्न करना हमारा नैतिक कर्तव्य है।[श्रीमद्भागवद गीता 3.11]
यज्ञ में चार आधार ::  (1). व्यक्ति, (2). अग्नि, (3). वाणी और (4). चरु। यदि ये चारों ही स्थूल रूप में प्रयुक्त किये जायें तो उनका यज्ञीय प्रयोजन पूरा न होगा और जो चमत्कारी परिणाम वर्णित किया गया है, वह हस्तगत न हो सकेगा।
(1). व्यक्ति :: इस प्रक्रिया में चार ऋत्विज् गण भाग लेते हैं :- होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा। यह चारों किसी भी व्यक्ति का नामकरण करके नियुक्त नहीं कर दिये जाते। वरन् उन्हें अमुक समय तक अमुक स्तर का त्याग, तप करना पड़ता है। यदि तप साधना का उपक्रम न अपनाया गया हो तो वह प्रभाव उत्पन्न न हो सकेगा जो यज्ञ की सूक्ष्म एवं कारण शक्ति उभारने हेतु अभीष्ट है। 
प्रथम होता ज्ञानकाण्डी ऋग्वेद अनुशासनों पर चलने वाला होता है। अध्वर्यु कर्म काण्डी यजुर्वेदी एवं उद्गाता गायक सामवेदी होता है, साधारण गाने वाला नहीं वरन् भक्ति भाव का धनी समर्पित साधक। ब्रह्मा चतुर्वेदों का जानकार अथर्व वेदी जो सारी प्रक्रिया का नियमन करने वाला, प्रबन्ध निदेशक, व्यवस्था संयोजक है। याजक गणों ऋत्विजों को यह ज्ञान हस्तगत करना पड़ता है।
यज्ञ जैसे श्रेष्ठतम कर्म के चारों ऋत्विज् गण साधक स्तर के होने पर ही उस प्रयोजन को पूरा कर पाते हैं। महाराज दशरथ द्वारा पुत्रेष्टि यज्ञ सम्पन्न होना था। उसके लिये जिस स्तर के अध्वर्यु की अपेक्षा थी, वह शृंगी ऋषि के माध्यम से पूरा हुआ। इसके पूर्व उसके सभी प्रयास असफल रहे थे। संयम-तपोबल के धनी ऋत्विज् के ऋषि द्वारा यह कार्य सम्पन्न होते ही अभीष्ट कार्य पूरा हो गया। यह व्यक्तित्व के सूक्ष्मीकृत कारण रूप की फलश्रुति है।
(2). अग्नि-यज्ञाग्नि :: यह पवित्र है, उसे अभिमन्त्रित किया जाता है। अग्नि मन्त्र शक्ति द्वारा अभिमन्त्रित कर मन्थन के माध्यम से प्रकट की जाती है। अखण्ड दीप में जो अग्नि सतत् ज्वलनशील रहती है, वह यज्ञाग्नि का ही एक रूप है।
आहुति दी गयी सामग्री को अग्नि ऊपर ले जाती है एवं वायु उसे अंतरिक्ष में ले जाती है। भूमि पर होम होता है लेकिन यज्ञाग्नि की ऊर्ध्वीकरण की शक्ति उसे अंतरिक्ष में तथा फिर अग्नि के द्वितीय किन्तु अद्वितीय रूप विद्युत ऊर्जा के माध्यम से और भी ऊपर ले जाता है। आहुति दी गयी हवि, अग्नि और विद्युत से ऊँची उठती हुई स्थूल से सूक्ष्मतम होती हुई अपने दिव्य रूप को प्राप्त होती है। अपने इस सूक्ष्मीकृत रूप में यज्ञाग्नि न केवल मनुष्य, प्राणी जगत, वनस्पति जगत को प्रभावित करती है, वरन् समग्र पर्यावरण एवं परोक्ष वातावरण का नियमन, संशोधन एवं अनुकूलन का प्रयोजन पूरा करती है। यज्ञ ऊर्जा मात्र अग्निहोत्र से उत्पन्न ताप नहीं, अपितु एक अति सूक्ष्म सामर्थ्य सम्पदा है जो व्यक्ति एवं समग्र वातावरण पर प्रभाव डालकर उन्हें शक्ति सम्पन्न बनाती है।
ऋग्वेद में यज्ञाग्नि को पुरोहित कहा गया है। उसकी शिक्षाओं पर चलकर लोक-परलोक दोनों सुधारे जा सकते हैं। वे शिक्षाएँ इस प्रकार हैं :-
अग्नि हवन किये जाने वाले बहुमूल्य पदार्थ सर्वसाधारण के उपयोग के लिए वायुमण्डल में बिखेर देती है। ईश्वर प्रदत्त विभूतियों का प्रयोग मनुष्य भी वैसा ही करें, जो यज्ञ पुरोहित अपने आचरण द्वारा सिखाता है। शिक्षा, समृद्धि, प्रतिभा आदि विभूतियों का न्यूनतम उपयोग मनुष्य के लिए और अधिकाधिक उपयोग जन-कल्याण के लिए होना चाहिए।
जो वस्तु अग्नि के सम्पर्क में आती है, उसे वह दुरदुराती नहीं, वरन् अपने में आत्मसात् करके अपने समान ही बना लेती है। 
अग्नि की लौ कितना ही दबाव पड़ने पर नीचे की ओर नहीं होती, वरन् ऊपर को ही रहती है। प्रलोभन, भय कितना ही सामने क्यों न हो, मनुष्य अपने विचारों और कार्यों की अधोगति न होने दें। विषम स्थितियों में अपना संकल्प और मनोबल अग्नि शिखा की तरह ऊँचा ही रखें।
अग्नि जब तक जीवित है, उष्णता एवं प्रकाश की अपनी विशेषताएँ नहीं छोड़ती। उसी प्रकार मनुष्य को भी अपनी गतिशीलता की गर्मी और धर्म-परायणता की रोशनी घटने नहीं देनी चाहिए। जीवन भर पुरुषार्थी और कर्त्तव्यनिष्ठ बने रहना चाहिए।
यज्ञाग्नि का अवशेष भस्म मस्तक पर लगाते हुए यह सीखना होता है कि मानव जीवन का अन्त मुट्ठी भर भस्म के रूप में शेष रह जाता है। इसलिए अपने अन्त को ध्यान में रखते हुए जीवन के हर पल के सदुपयोग का प्रयत्न करना चाहिए।
(3). वाणी :: ज्ञान एवं कर्म की अपनी सीमा है, किन्तु भाव व उदात्तीकरण जब वाणी के माध्यम से मन्त्रों द्वारा होता है। तो वह मानवी काया के अन्तराल को ही नहीं, सारे वातावरण को झकझोर डालता है यज्ञ में वाणी का प्रयोग सूक्ष्म रूप में सामगान के रूप में होता है। भावप्रधान संगीत लहरी में गायी गयी ऋचाएँ सारे शरीर को स्पन्दित कर डालती हैं, साथ ही सारा वायुमण्डल आन्दोलित हो उठता है। सामवेद की इस प्राणदायिनी मधुर रस वर्षा को छान्दोग्योपनिषद् ने इस प्रकार कहा है- “वाचः ऋक् रसः, ऋचः साम रसः।”
वाक् शक्ति के विस्तृतीकरण हेतु यज्ञाग्नि का विस्तारक के रूप में प्रयोग होता है। परिष्कृत वाणी जब विशिष्ट व्यक्ति के मुख से विशिष्ट प्रयोजन के लिये निकलती है चहुँमुखी असर दिखाती है। 
शुकदेव जी ने जो कथा परीक्षित को सुनाई, वह किसी अन्य ऋषि  के माध्यम से सम्भव नहीं हो पाती, यद्यपि उनके पिता मन्त्रों के दृष्टा माने जाते हैं। कोई भी व्यक्ति अक्षरों का स्मरण कर, नाम जप द्वारा ऋषि या दृष्टा नहीं कहा जा सकता। इसलिये कुछेक अपवादों के अतिरिक्त पुरातन काल में हर ऋषि कुछ चुने हुए मन्त्रों के प्रवीण पारंगत एवं दृष्टा कहे जाते थे। इस सम्बन्ध में गायत्री मंत्र के ऋषि-दृष्टा विश्वमित्र का उल्लेख किया जा सकता है, जिनका नाम विनियोग प्रसंग में लिया जाता है।
(4). हविष्य एवं चरु :: स्थूलतः यह पदार्थ परक होते हैं, किन्तु यज्ञ प्रक्रिया में इनकी कारण शक्ति को उभारा जाता है। उपयुक्त याजक द्वारा ही हविष्य का संग्रह, पवित्रीकरण एवं संस्कारीकरण किया जाता है। यज्ञाग्नि में पकाये गये चरु में ही उन अंश का समावेश होता है जो आनुवाँशिकी से लेकर कर्म प्रारब्ध के सूक्ष्म संस्कारों पर प्रभाव डालते हैं। होम किया जाने वाला पदार्थ कितना पवित्र है, शुद्ध है, उसी पर उसकी कारण शक्ति का प्रकटीकरण निर्भर है। पदार्थ तो अपने स्थूल रूप में मात्र एक वनस्पति, खाद्यान्न मेवा अथवा दुग्ध रूप में है। लेकिन यज्ञाग्नि का स्पर्श उसे परिवर्धित कर देता है। जिस प्रकार प्राणाग्नि का उद्दीपन कुण्डलिनी जागरण के रूप में तथा साधना द्वारा योगाग्नि का प्रकटीकरण ब्रह्मतेजस् के रूप में देखा जाता है। ठीक उसी प्रकार यज्ञ प्रयोजन में प्रयुक्त होने वाली हर सामग्री की परिष्कृति चमत्कारी होती है। शरीर रोग एवं मनोविकारों के निवारण तथा जीवनी शक्ति सम्वर्धन में इनकी भूमिका को भली-भांति देखा जा सकता है। चरु जो कि मेवे, खाद्यान्न, दुग्ध, शर्करा का सम्मिश्रण होता है एवं यज्ञाग्नि में पकाया, संस्कारित किया जाता है विशेष रूप से महत्व है, क्योंकि इनका प्रभाव जीवकोश जैसे सूक्ष्मतम घटक पर पड़ता है।
इस प्रकार ऋत्विज, यज्ञाग्नि, वाक् शक्ति एवं हविष्य चरु में चारों ही यजन प्रक्रिया के ऐसे प्रसंग हैं जिनमें सूक्ष्मीकरण का प्राधान्य है। वस्तुतः यज्ञ एक ज्वलन प्रक्रिया भाव नहीं है वरन् चारों तत्वों की कारण शक्ति को उभारने की एक विज्ञान सम्मत प्रक्रिया है। इतना न किया जाय तो यज्ञ प्रयोजन में अभीष्ट सफलता नहीं प्राप्त होती।
यज्ञ के चार अंग ::  'स्नान', 'दान', 'होम' तथा 'जप'। 
यज्ञ का तात्पर्य :: त्याग, बलिदान, शुभ कर्म। 
अपने प्रिय खाद्य पदार्थों एवं मूल्यवान सुगंधित पौष्टिक द्रव्यों को अग्नि एवं वायु के माध्यम से समस्त संसार के कल्याण के लिए यज्ञ द्वारा वितरित किया जाता है। वायु शोधन से सबको आरोग्यवर्धक साँस लेने का अवसर मिलता है। हवन हुए पदार्थ वायुभूत होकर प्राणिमात्र को प्राप्त होते हैं और उनके स्वास्थ्यवर्धन, रोग निवारण में सहायक होते हैं। यज्ञ काल में उच्चरित वेद मंत्रों की पुनीत शब्द ध्वनि आकाश में व्याप्त होकर मनुष्यों  के अंतःकरण को सात्विक एवं शुद्ध बनाती है। यज्ञकर्ताओं द्वारा संसार की बड़ी सेवा इससे बन पड़ती है। मनुष्य का जन्म यज्ञ भावना के द्वारा या उसके कारण ही संभव होता है। प्रजापति ने यज्ञ को मनुष्य के साथ जुड़वा भाई की तरह पैदा किया और यह व्यवस्था की है कि एक दूसरे का अभिवर्धन करते हुए दोनों फलें-फूलें।
अश्वमेध यज्ञ :: यह यज्ञ प्रधानतः पूरे संसार में बलशाली सम्राटों द्वारा अपनी सत्ता को स्वीकार करने और व्यवस्था लागु करने के लिए था। पराजित राजाओं को सम्राट का अधिपत्य मानना पड़ता था और नियमित रुप से कर का भुगतान करना होता था। 
वैदिक यज्ञों में अश्वमेध यज्ञ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह महाक्रतुओं में से एक है। ऋग्वेद, शतपथ ब्राह्मण, तैत्तिरीय ब्राह्मण, कात्यायनीय श्रोतसूत्र, आपस्तम्ब:, आश्वलायन, शंखायन तथा दूसरे समान ग्रन्थों में इनका विशद वर्णन प्राप्त होता है। महाराज युधिष्ठिर द्वारा कौरवौं पर विजय प्राप्त करने के पश्चात पाप मोचनार्थ, अश्वमेध यज्ञ का आयोजन भगवान् श्री कृष्ण के अद्शानुसार किया गया। ब्रह्म वैवर्त पुराण में सावित्री और यमराज संवाद में वर्णन आया है कि भारत-जैसे पुण्यक्षेत्र में जो अश्वमेध यज्ञ करता है, वह दीर्घकाल तक इन्द्र के आधे आसन पर विराजमान रहता है।
"राजा सार्वभौम: अश्वमेधेन यजेत्। नाप्यसार्वभौम:" [आपस्तम्ब:]
"सार्वभौम राजा अश्वमेध करे असार्वभौम कदापि नहीं।" यह यज्ञ उसकी विस्तृत विजयों, सम्पूर्ण अभिलाषाओं की पूर्ति एवं शक्ति तथा साम्राज्य की वृद्धि का द्योतक होता था।
राजसूय यज्ञ :: ऐतरेय ब्राह्मण इस यज्ञ के करने वाले महाराजाओं की सूची प्रस्तुत करता है, जिन्होंने अपने राज्यारोहण के पश्चात पृथ्वी को जीता एवं इस यज्ञ को किया। इस प्रकार यह यज्ञ सम्राट का प्रमुख कर्तव्य समझा जाता था। जनता इसमें भाग लेने लगी एवं इसका पक्ष धार्मिक की अपेक्षा अधिक सामाजिक होता गया। यह यज्ञ चक्रवर्ती राजा बनने के लिए किया जाता था। सम्राट युधिष्टर के द्वारा किये गए राजसूय यज्ञ में भगवान् श्री कृष्ण का चरण पूजन प्रथम पुरुष-अति विशिष्ठ व्यक्ति के रूप में किया गया। राजसूय यज्ञ करने से मनुष्य को इससे चौगुना फल मिलता है।
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे। 
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः॥
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः॥
योगी अपान वायु में प्राण वायु का हवन (पूरक करके) करते हैं और अन्य कितने ही प्राण वायु में अपान वायु का हवन (रेचन-साँस बाहर निकालना) करते हैं। कुछ अन्य प्राणायाम परायण योगी प्राण और अपान की गति को रोककर (कुम्भक क्रिया के द्वारा) हवन करते हैं। योगी नियमित-सन्तुलित आहार द्वारा प्राणों का प्राणों में ही हवन करते हैं। ये सभी साधक यज्ञों द्वारा पापों का नाश करने वाले और यज्ञों को जानने वाले हैं।[श्रीमद्भगवद गीता 4.29-30]
Yogis-ascetics mixes the fresh air, Pran, breath with the Apan (stale breath, rejected breath, impure air-stale air present in the lungs moving to the heart there after) offer Pran in Apan. This is Poorak (intake, inhaling). This is combustion-burning of the sins i.e., germs (virus, bacteria, microbes, dead cells) present in the body, called Hawan here. When the Apan (waste, rejected-stale air) is mixed with Pran, fresh breath, air, it is Rechak-exhaling. The third process involves stagnating both Pran and Apan Vayu-Holding, thereby stopping the flow of both fresh and stale air in the lungs-heart and the entire body. This process of exchange of gases is vital for good health leading to relief from diseases (tensions, defects). In fact pap-sins appear in the form of diseases.
प्राण का स्थान ऊपर-ह्रदय स्थल तथा अपान का स्थान गुदा (anus) नीचे है। श्र्वास को बाहर निकलते समय साँस-वायु की गति ऊपर की ओर और भीतर ले जाते वक्त नीचे की ओर होती है। 
योगी पहले श्र्वास को बाईं नासिका-नथुने-चन्द्र नाड़ी के द्वारा भीतर खींचते हैं। वह वायु ह्रदय में उपस्थित प्राण वायु को साथ लेकर नाभि से होती हुई स्वतः अपान में लीन हो जाती-मिल जाती है। यह पूरक क्रिया है।
तत्पश्चात योगी-अभ्यास कर्ता प्राण वायु और अपान वायु दोनों की गति रोक देते हैं, जिसे कुम्भक कहते हैं अर्थात न तो साँस बाहर आती न ही अन्दर जाती है। इसके बाद वे अन्दर की वायु को दाँये नथुने-सूर्य नाड़ी से निष्कासित करते हैं। इस प्रक्रिया में प्राणवायु अपान वायु को साथ लेकर बाहर निकलती है, जिसे प्राण वायु में अपान वायु का हवन कहा गया है। यही रेचक क्रिया है। 4 भगवन्नाम से पूरक, 16 भगवन्नाम से कुम्भक और 8 भगवन्नाम से रेचक क्रिया की जाती है। 
इस क्रिया को विपरीत अवस्था में पहले सूर्य नाड़ी से पूरक, फिर कुम्भक और तदोपरान्त चन्द्रनाड़ी से रेचक क्रिया की जाती है। इस प्रकार बार-बार पूरक-कुम्भक तथा रेचक प्राणायाम रूपी यज्ञ है और सभी पापों को नष्ट कर देते हैं ( यही क्रिया बीमारियों को दूर करने के लिए की जाती है)। 
नियमित आहार-विहार, सन्तुलित-नियमित भोजन करने वाले साधक ही प्राणों का प्राणों में हवन-विलय कर सकते हैं। बहुत अधिक, बेहद कम या बिलकुल भोजन ने करने वाला यह प्राणायाम नहीं कर सकता। प्राण का प्राण में हवन का तात्पर्य है प्राण और अपान को अपने-अपने स्थान पर रोक देना। यही स्तम्भवृत्ति प्राणायाम है। इन प्रक्रियाओं से मन शान्त-निर्मल-आवेगहीन हो जाता है और भगवत प्राप्ति में सहायक हो जाता है। 
इस प्रकार के यज्ञ करते रहने से सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते है और अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। सम्पूर्ण यज्ञ केवल कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद करने के लिए ही हैं। यह जानने-समझने वाला ही यज्ञवित् अर्थात यज्ञ के तत्व को जानने वाला-तत्वज्ञ है। कुछ लोग लोक-परलोक-स्वर्गादि के भोग प्राप्त करने के लिए यज्ञ करते हैं। वे तत्वज्ञानी नहीं हैं। विनाशी वस्तुओं की कामना बन्धनकारी है-जिसे मुक्ति-भक्ति-मोक्ष की प्राप्ति कदापि नहीं होती। 
निष्काम भाव से किया गया छोटे से छोटा कर्म भी, परमात्मा की प्राप्ति कराने वाला हो जाता है। 
Pran acquires the upper segment of the body the heart, while the Apan is seated below at the anus. When the air is rejected into the atmosphere the breath is directed upwards and during the intake it is directed in the downward direction.
The Yogi-practitioner first sucks the air into the lungs through the left nostril-Chandr Nadi, by blocking the right one, with the thumb for 4 seconds. At this stage the puff of the air mixes up in the lungs through the bronchus-extremely fine air sacks. This is inhaling-intake.
Thereafter, the Yogi will hold the air in this state for 16 seconds.  Flow of air into the lungs will stop during this cycle. This is followed by exhaling through the right nostril-Sury Nadi for 8 seconds. One may silently keep on reciting the names of the Almighty for 4, 16 or 8 times respectively.
This process is reversed with exchange of gases from the right nostril to the left nostril i.e., from Sury Nadi to Chandr Nadi. 
Only those who intake balanced diet are capable of mixing the Pran Vayu with the Apan Vayu. Those who very little or no food, do find it difficult to preform this practice. Assimilation of Pran with Apan is Yagy (Hawan, burning of sins-diseases). This leads to clarity of mind & thought. One becomes peaceful (quite, unagitated, restful, blissful), leading to assimilation in the Ultimate-the Almighty. 
Continuity of this practice is a form of Yagy leading to freedom from sins (diseases, evil ideas, thoughts, wretchedness, vices, impurity) helping in Liberation of the soul. One who understands that the motive-cause of holy practices-rituals is detachment from the deeds, is the real performer (Yogi, ascetic). Those who undertake big celebrations (rituals, Yagy, Agnihotr, Hawan) for attaining the heaven (empire, high posts, name, fame) etc. are not the ones, who understand the gist of the religion (Faith, Dharm). The detached (unbonded, free from ties), avails Liberation-Devotion and Salvation. Smallest deed for the welfare of others, without any motive-desire, too helps one, in attaining the Parmatma-Parmanand.
Those who correlate Yog-Pranayam with Hinduism are wrong-ignorant. 
12 FORMS OF YAGY 12 प्रकार के यज्ञ ::  निस्वार्थ भाव से दूसरों के हित-भले के लिए किये गए कर्तव्य-कर्म करने का नाम ही यज्ञ है। यज्ञ से सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं। मनुष्य बंधन मुक्त हो जाता है। कुल बारह प्रकार के यज्ञ कर्म हैं। 
(1). ब्रह्म यज्ञ-प्रत्येक कर्म में कर्ता, करण, क्रिया, पदार्थ आदि सब को ब्रह्म रूप से अनुभव करना। 
(2). भगवदर्पण रूप यज्ञ-सम्पूर्ण क्रियाओं और पदार्थों को केवल भगवान् का और भगवान् के लिए ही मानना।
(3). अभिन्नता रूप यज्ञ-असत् से सर्वथा विमुख होकर परमात्मा में विलीन हो जाना। परमात्मा से अलग अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना। 
(4). संयम रूप यज्ञ-एकान्तकाल में अपनी इन्द्रियों को विषयों से मुक्त रखना-प्रवृत न होने देना। 
(5). विषय हवन रूप यज्ञ-व्यवहार काल में इन्द्रियों से संयोग होने पर भी उनमें राग द्वेष पैदा न होने देना। 
(6). समाधिरूप यज्ञ-मन बुद्धि सहित सम्पूर्ण इन्द्रियों और प्राणों की क्रियाओं को रोककर ज्ञान से प्रकाशित समाधि में स्थित हो जाना।
(7). द्रव्य यज्ञ-सम्पूर्ण पदार्थों को निःस्वार्थ भाव से दूसरों की सेवा में लगा देना। 
(8). तपो यज्ञ-अपने कर्तव्य के पालन में आने वाली कठिनाइयों को प्रसन्नता पूर्वक सह लेना।
(9). योग यज्ञ-कार्य की सिद्धि-असिद्धि में तथा फल की प्राप्ति-अप्राप्ति में सम रहना। 
(10). स्वाध्याय रूप ज्ञान यज्ञ-दूसरों के हित के लिए सत्-शास्त्रों का पठन-पाठन, नाम-जप आदि करना। 
(11). प्राणायम रूप यज्ञ-पूरक, कुम्भक और रेचक पूर्वक प्रणायाम करना। 
(12). स्तम्भ वृत्ति प्राणायाम रूप यज्ञ-नियमित आहार करते हुए प्राण और अपान को अपने-अपने स्थानों पर रोक देना।
मनुष्य की समस्त क्रियाएँ यज्ञ रूप ही होनी चाहिए; अर्थात स्वयं के लिए कुछ भी नहीं करना। जब मनुष्य केवल दूसरों के हित के लिए सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्म करता है तो परिणति कर्तव्य कर्म रूप यज्ञ में स्वतः हो जाती है।
यज्ञ के पाँच प्रकार :: लोक क्रिया, सनातन, गृहस्थ, पंचभूत और मनुष्य। 
पञ्चयज्ञ ::
वैवाहिकेSग्नौ कुर्वीत गृह्यं कर्म यथाविधि। 
पञ्चयज्ञविधानं च चान्वाहिकीं पक्तिं  गृही॥
गृहस्थ विवाह के समय स्थापित अग्नि में यथाविधि ग्रह्योक्त कर्म-होम करें तथा नित्य पञ्चयज्ञ और पाक करे।[मनु स्मृति 3.67] 
The holy-sacred fire created at the solemnisation of marriage, should be preserved & used to perform daily Hawan-Agnihotr and the 5 recommended Yagy along with cooking food.
The way the food is essential for the body Yagy is essential for him to modify-improve his deeds-actions & the future births.
पञ्च सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युस्करः। 
कण्डनी चोदकुम्भश्र्च वध्यते यास्तु वाहयन्॥
गृहस्थ के चूल्हा, चक्की (सील, लुढ़िया), झाड़ु, ऊखल-मूसल, पानी का घड़ा आदि पाँचों हिंसा के स्थान हैं। इनसे काम लेने से गृहस्थ पाप का भागी होता है।[मनु स्मृति 3.68] 
Five possessions of a house hold may indulge him in sin viz. hearth, grinding-stone, broom, pestle & mortar and the piture-the water container made of backed clay-vessel.
Whether one kill insects knowingly or unknowingly it amounts to violence leading to sin. To get rid of this sin, one can observe fast on every Amavashya-moonless night. Its rather impossible to avoid such sins. One is bound to kill rats, cockroaches, spiders, mosquitoes, flies every day to live peacefully-comfortably and even snakes, if they enter the house. Lice, leech, bed bugs must be killed-eradicated at once, right at the sight and then observe penances or pray to the God. 
तासां क्रमेण सर्वासां निष्कृत्यर्थं महर्षिभिः। 
पञ्च क्लर्प्ता महायज्ञा: प्रत्यहं गृहमेधिनाम्॥
महर्षियों ने उन पापों के नाश के लिये  प्रतिदिन क्रम से पञ्चमहायज्ञ करने का आदेश दिया है।[मनु स्मृति 3.69]
The sages have directed to perform 5 types of sacrifices to remain untouched by the sin of killing insects etc.
अध्यापनं ब्रह्मयज्ञ:पितृ यज्ञस्तु तर्पणम्। 
होमो दैवो बलिभौर्तो नृयज्ञोSतिथिपूजनम्॥
पितरों का तर्पण करना, वेद का पठन-पाठन, ब्रह्मयज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ, होम करना, जीवों को अन्न की बलि देना और नृयज्ञ अतिथि का आदर-सत्कार करना ये ही पञ्चमहायज्ञ हैं।[मनु स्मृति 3.70] 
Teaching & learning of Veds, sacrifice to the manes, Brahman Yagy, Pitr Yagy, Dev Yagy, offering grains-meals to organism (insects like ants, animals like cows, dogs etc.) welcoming-hospitality to the guest and offering food and drinks and the offerings to the deceased are 5 types of oblations.
वैतानिकं च जुहुयादग्निहोत्रं यथाविधि। 
दर्शमस्कन्दयन्पर्व पौर्णमासं च योगतः॥
अमावस्या और पूर्णिमा, दोनों, पर्वों के यज्ञों को न छोड़ता हुआ समय पर यथोक्त विधि से वैतानिक अग्निहोत्र  करे।[मनु स्मृति 6.9] 
One should perform the Yagy on each Amavasaya-Moonless night & Purnima-full Moon night, as per procedure described in the scriptures.
वैतानिक :: वह हवन या यज्ञ आदि जो श्रौत विधानों के अनुसार हो, वह अग्नि जिससे अग्निहोत्र आदि कृत्य किए जायें; holy-sacred sacrifices in fire as per procedure described in the scriptures.
ऋक्षेष्ट्याग्रयणं चैव चातुर्मास्यानि चाहरेत्। 
तुरायणं च क्रमशो दक्षस्यायनमेव च॥
नक्षत्रेष्टी, आग्रयण, चातुर्मास, तुरायण और दाक्षायण, इन वेदकर्मों को क्रमशः करे।[मनु स्मृति 6.10]
The inmates of the monastery, hermitage, Ashram in the deep woods should perform these 4 Yagy called Nakshatreshti, Agrayan, Chaturmas, Turayan and Dakshayan. These Yagy have been listed as Ved Karm i.e., the duties prescribed to be performed by the retired people and the household as well.
नक्षत्रेष्टी यज्ञ :: ग्रह नक्षत्र शांति हेतु किया जाने वाला यज्ञ, Sacrifice to calm down constellations and planets.
तुरायण :: चैत्र शुक्ल पंचमी और वैशाख शुक्ल पंचमी को किया जाने वाला यज्ञ। आग्रयण :: नये अन्न से यज्ञ अथवा अग्निहोत्र, प्रतिवर्ष नया अन्न आने के बाद आग्रयण अवश्य होता है।
दाक्षायण :: दक्ष  प्रारंभ राजवंश। इस वंश के राजा संस्कार विशेष, के कारण, शतपथ ब्राह्मण के समय तक, समृद्ध जीवन व्यतित कर रहे थे [श. ब्रा.2.4.4.6]; अथर्ववेद एवं यजुर्वेद संहिताओं में, शतानीक सात्रजित ऋषि को दाक्षायणों ने स्वर्ण प्रदान करने का निर्देश प्राप्त है [अ.वे.1.35.1-2];[ वा.सं. 34.51-52]; [खिल.4.7.7.8]। दाक्षायण  का प्रयोग स्वर्ण के लिये भी होता है [ऐ.ब्रा.3.40]। महाभाष्य में, पाणिनि को दाक्षायण कहा गया है; एक यज्ञ जो वैदिक काल में दक्ष प्रजापति ने किया था, a sacrifice. 
चातुर्मास :: श्रावण, भाद्रपद, आश्‍विन और कार्तिक। इसके प्रारंभ को देवशयनी एकादशी कहा जाता है और अंत को देवोत्थान एकादशी। यह काल व्रत, भक्ति और शुभ कर्मों के हेतु है। ध्यान और साधना के लिए भी यह उपयुक्त समय है। इस दौरान शारीरिक और मानसिक स्थिति तो सही होती ही है, साथ ही वातावरण भी स्वच्छ-अच्छा रहता है। इन चार महीनों में मनुष्य की पाचनशक्ति कमजोर पड़ती है तथा भोजन और जल में जीवाणुओं की तादाद भी बढ़ जाती है। इस काल में जमीन पर सोना और सूर्योदय से पहले उठना बहुत शुभ माना जाता है। उठने के बाद अच्छे से स्नान करना और अधिकतर समय मौन रहना चाहिए। ब्राह्मण और साधुओं के लिये ये नियम और अधिक कड़े होते हैं। दिन में केवल एक ही बार भोजन करना चाहिए। इस दौरान विवाह संस्कार, जातकर्म संस्कार, गृह प्रवेश आदि सभी मंगल कार्य निषेध माने गए हैं। इस व्रत में दूध, शकर, दही, तेल, बैंगन, पत्तेदार सब्जियां, नमकीन या मसालेदार भोजन, मिठाई, सुपारी, मांस और मदिरा का सेवन नहीं किया जाता। श्रावण में पत्तेदार सब्जियां यथा पालक, साग इत्यादि, भाद्रपद में दही, आश्विन में दूध, कार्तिक में प्याज, लहसुन और उड़द की दाल आदि का त्याग कर दिया जाता है।
पुरोहितं च कुर्वीत वृणुयादेव चर्त्विजः। 
तेऽस्य गृह्याणि कर्माणि कुर्युर्वैतानिकानि च॥
पुरोहित को नियुक्त करके और ऋत्विजों (यज्ञ करानेवालों) को कर्म करने के लिये वरण करे, वे गृह्यसूत्र के अनुसार राजा के शान्ति-कर्मादि करें।[मनु स्मृति 7.78]
The king should appoint a family priest and the Brahmns for performing Yagy-sacrifices in holy fire for auspicious-sacred purposes.
यजेत राजा क्रतुभिविविधैराप्तदक्षिणैः। 
धर्मार्थं चैव विप्रेभ्यो दद्याद्भोगान्धनानि च॥
राजा धर्म के निमित्त बहु दक्षिणा युक्त, विविध प्रकार के यज्ञ करे और ब्राह्मणों को भोग्य पदार्थ और धन दे।[मनु स्मृति 7.79]
The king should organise various types of sacred sacrifices in holy fire strengthened with multiple offerings and donate various consumable goods to the Brahmn with sufficient money to survive, while they pray to God for the benefit of the kingdom as a whole.
गृहस्थ धर्म के यज्ञ :: इन पाँचों यज्ञों को नित्य करने का निर्देश है।
(1). ब्रह्मयज्ञ :: जड़ और प्राणी जगत से बढ़कर है, मनुष्‍य। मनुष्‍य से बढ़कर है पितर (दिवंगत पूर्वज) अर्थात माता-पिता और आचार्य। पितरों से बढ़कर हैं देव, अर्थात प्रकृति की पांच शक्तियां, देवी-देवता और देव से बढ़कर है।
ईश्वर और हमारे ऋषिगण। ईश्‍वर अर्थात ब्रह्म। यह ब्रह्म यज्ञ संपन्न होता है। नित्य संध्यावंदन, स्वाध्याय तथा वेदपाठ करने से। इसके करने से ऋषियों का ऋण अर्थात 'ऋषि ऋण' चुकता होता है। इससे ब्रह्मचर्य आश्रम का जीवन भी पुष्‍ट होता है। इसमें गायत्री विनियोग होता है। प्रतिदिन अध्ययन और अध्यापन करना ही ब्रह्म-यज्ञ है। मरणोत्तर संस्कार के संदर्भ में एकत्रित सभी कुटुम्बी-हितैषी परिजन एक साथ बैठें। मृतात्मा के स्नेह-उपकारों का स्मरण करें।उसकी शान्ति-सद्गति की कामना व्यक्त करते हुए सभी लोग भावनापूवर्क पाँच मिनट गायत्री मन्त्र का मानसिक जप करें, अन्त में अपने जप का पुण्य मृतात्मा के कल्याणार्थ अपिर्त करने का भाव करें-यह न्यूनतम है। यदि सम्भव हो, तो शुद्धि दिवस के बाद त्रयोदशी तक भावनाशील परिजन मिल-जुलकर गायत्री जप का एक लघु अनुष्ठान पूरा कर लें। ब्रह्ययज्ञ को उसकी पूणार्हुति मानें।
निम्न संकल्प बोलें :-
नामाहं...नाम्नः प्रेतत्वनिवृत्तिद्वारा, ब्रह्मलोकावाप्तये...
परिमाणं गायत्री महामन्त्रानुष्ठानपुण्यं श्रद्धापूवर्कम् अहं समपर्यिष्ये।
(2). देवयज्ञ :: यह सत्संग तथा अग्निहोत्र कर्म से सम्पन्न होता है। इसके लिए वेदी में अग्नि जलाकर होम किया जाता है यही अग्निहोत्र यज्ञ है। यह भी संधिकाल में गायत्री छंद के साथ किया जाता है। इसे करने के नियम हैं। इससे 'देव ऋण' चुकता होता है।
हवन करने को 'देवयज्ञ' कहा जाता है। हवन में सात पेड़ों की समिधाएं (लकड़ियां) सबसे उपयुक्त होतीं हैं :- आम, बड़, पीपल, ढाक, जांटी, जामुन और शमी। हवन से शुद्धता और सकारात्मकता बढ़ती है। रोग और शोक मिटते हैं। इससे गृहस्थ जीवन पुष्ट होता है। 
इसमें देव प्रवृत्तियों का पोषण, देवताओं की प्रसन्नता हेतु पूजन-हवन आदि करना आता है। दुष्प्रवृत्तियों के त्याग और सत्प्रवृत्तियों के अभ्यास का उपक्रम अपनाने से देवशक्तियाँ तुष्ट होती हैं, देववृत्तियाँ पुष्ट होती हैं। श्राद्ध के समय संस्कार करने वाले प्रमुख परिजन सहित उपस्थित सभी परिजनों को इस यज्ञ में यथाशक्ति भाग लेना चाहिए। अपने स्वभाव के साथ जुड़ी दुष्प्रवृत्तियों को सदैव के लिए या किसी अवधि तक के लिए छोड़ने, परमार्थ गतिविधियों को अपनाने का संकल्प कर लिया जाए, उसका पुण्य मृतात्मा के हितार्थ अपिर्त किया जाए। 
निम्न संकल्प बोलें:-
नामाहं... नामकमृतात्मनः देवगतिप्रदानाथर्...दिनानि यावत् मासपयर्न्तं-वषर्पयर्न्तं...दुष्प्रवृत्त्युन्मूलनैः ...सत्प्रवृत्तिसंधारणैः जायमानं पुण्यं मृतात्मनः समुत्कषर्णाय श्रद्धापूवर्कं अहं समपर्यिष्ये।
(3). पितृयज्ञ :: सत्य और श्रद्धा से किए गए कर्म श्राद्ध और जिस कर्म से माता, पिता और आचार्य तृप्त हो वह तर्पण है। वेदानुसार यह श्राद्ध-तर्पण हमारे पूर्वजों, माता-पिता और आचार्य के प्रति सम्मान का भाव है।यह यज्ञ सम्पन्न होता है सन्तानोत्पत्ति से। इसी से 'पितृ ऋण' भी चुकता होता है।
यह कृत्य पितृयज्ञ के अंतगर्त किया जाता है। 'श्राद्ध' और 'तर्पण' करना ही पितृ-यज्ञ है। जिस प्रकार तर्पण में जल के माध्यम से अपनी श्रद्धा व्यक्त की जाती है, उसी प्रकार हविष्यान्न के माध्यम से अपनी श्रद्धाभिव्यक्ति की जानी चाहिए। मरणोत्तर संस्कार में 12 पिण्डदान किये जाते हैं :- जौ या गेहूँ के आटे में तिल, शहद, घृत, दूध मिलाकर लगभग एक-एक छटाँक आटे के पिण्ड बनाकर एक पत्तल पर रख लेने चाहिए। संकल्प के बाद एक-एक करके यह पिण्ड जिस पर रखे जा सकें, ऐसी एक पत्तल समीप ही रख लेनी चाहिए। छः तर्पण जिनके लिए किये गये थे, उनमें से प्रत्येक वर्ग के लिए एक-एक पिण्ड है। सातवाँ पिण्ड मृतात्मा के लिए है। अन्य पाँच पिण्ड उन मृतात्माओं के लिए हैं, जो पुत्रादि रहित हैं, अग्निदग्ध हैं, इस या किसी जन्म के बन्धु हैं, उच्छिन्न कुल, वंश वाले हैं, उन सबके निमित्त ये पाँच पिण्ड समपिर्त हैं। ये बारहों पिण्ड पक्षियों के लिए अथवा गाय के लिए किसी उपयुक्त स्थान पर रख दिये जाते हैं। मछलियों को चुगाये जा सकते हैं। पिण्ड रखने के निमित्त कुश बिछाते हुए निम्न मन्त्र बोलें :-
ॐ कुशोऽसि कुश पुत्रोऽसि, ब्रह्मणा निमिर्तः पुरा।  
त्वय्यचिर्तेऽ चिर्तः सोऽ स्तु, यस्याहं नाम कीतर्ये।
मरणोत्तर (श्राद्ध संस्कार) जीवन का एक अबाध प्रवाह है। काया की समाप्ति के बाद भी जीव यात्रा रुकती नहीं है। आगे का क्रम भी भलीप्रकार सही दिशा में चलता रहे, इस हेतु मरणोत्तर संस्कार किया जाता है। सूक्ष्म विद्युत तरंगों के माध्यम से वैज्ञानिक दूरस्थ उपकरण का संचालन कर लेते हैं। श्रद्धा उससे भी अधिक सशक्त तरंगें प्रेषित कर सकती है। उसके माध्यम से पितरों-को स्नेही परिजनों की जीव चेतना को दिशा और शक्ति तुष्टि प्रदान की जा सकती है। मरणोत्तर संस्कार द्वारा अपनी इसी क्षमता के प्रयोग से पितरों की सद्गति देने और उनके आशीर्वाद पाने का क्रम चलाया जाता है। पितृ-यज्ञ हेतु मनीषियों ने हमारे यहाँ आश्विन या कुआर के कृष्ण-पक्ष के पूरे पन्द्रह दिन (मतान्तर से 16 दिन) विशेष रूप से सुरक्षित किए हैं।
पितृ-यज्ञ वार्षिक श्राद्ध क्रमांक विधि :: 
(3.1). पितृ-पक्ष के दिनों में अपने स्वर्गीय पिता, पितामह, प्रपितामह तथा वृद्ध प्रपितामह और स्वर्गीय माता, मातामह, प्रमातामह एवं वृद्ध-प्रमातामह के नाम-गोत्र का उच्चारण करते हुए अपने हाथों की अञ्जुली से जल प्रदान करना चाहिए (यदि किसी कारण-वश किसी पीढ़ी के पितर का नाम ज्ञात न हो सके, तो भावना से स्मरण कर जल देना चाहिए)।
(3.2). पितरों को जल देने के लिए विशेष वस्तुओं के प्रबन्ध की आवश्यकता नहीं है। केवल (3.2.1). कुश, (3.2.2). काले तिल, (3.2.3). अक्षत (चावल), (3.2.4). गंगा-जल और (3.2.5). श्वेत-पुष्प पर्याप्त हैं। इन्हीं से श्रद्धा-पूर्वक जल प्रदान से पितर अल्प समय में सन्तुष्ट हो जाते हैं और कल्याण हेतु आशीर्वाद देते हैं।
(3.3). स्कन्द महापुराण में भगवान् शिव पार्वती जी से कहते हैं कि "हे महादेवि ! जो ‘श्राद्ध नहीं करता, उसकी पूजा को मैं ग्रहण नहीं करता। भगवान हरि भी नहीं ग्रहण करते हैं"।
(3.4). यदि किसी को किसी कारण-वश माता-पिता की मृत्यु-तिथि का ज्ञान न हो, तो उसे ‘अमावस्या’ को ही वार्षिक-श्राद्ध करना चाहिए।
(3.5) श्राद्ध-कर्त्ता को केवल एक समय भोजन करना चाहिए अर्थात रात्रि को भोजन नहीं करना चाहिए। श्राद्ध के दिन ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। 
(4). वैश्वदेवयज्ञ-भूतयज्ञ-पञ्चबलि :: पंच महाभूत से ही मानव शरीर है। सभी प्राणियों तथा वृक्षों के प्रति करुणा और कर्त्तव्य समझना उन्हें अन्न-जल देना ही भूत यज्ञ या वैश्वदेव यज्ञ कहलाता है। अर्थात जो कुछ भी भोजन कक्ष में भोजनार्थ सिद्ध हो उसका कुछ अंश उसी अग्नि में होम करें जिससे भोजन पकाया गया है। फिर कुछ अंश गाय, कुत्ते और कौवे को दें। ऐसा वेद-पुराण कहते हैं। इसके निमित्त पञ्चबलि प्रक्रिया की जाती है।'बलि' और 'वैश्व देव' की प्रसन्नता हेतु जो पूजा की जाती है, उसे 'भूत-यज्ञ' कहते हैं। विभिन्न योनियों में संव्याप्त जीव चेतना की तुष्टि हेतु भूतयज्ञ किया जाता है। अलग-अलग पत्तों या एक ही बड़ी पत्तल पर, पाँच स्थानों पर भोज्य पदार्थ रखे जाते हैं। उरद-दाल की टिकिया तथा दही इसके लिए रखा जाता है। पाँचों भाग रखें। क्रमशः मन्त्र बोलते हुए एक-एक भाग पर अक्षत छोड़कर बलि समपिर्त करें।
(4.1). गोबलि :- पवित्रता की प्रतीक गऊ के निमित्त :-  
ॐ सौरभेय्यः सवर्हिताः, पवित्राः पुण्यराशयः। 
प्रतिगृह्णन्तु में ग्रासं, गावस्त्रैलोक्यमातरः॥ इदं गोभ्यः इदं न मम।
(4.2). कुक्कुरबलि :- कत्तर्व्यनिष्ठा के प्रतीक श्वान के निमित्त :-
ॐ द्वौ श्वानौ श्यामशबलौ, वैवस्वतकुलोद्भवौ। 
ताभ्यामन्नं प्रदास्यामि, स्यातामेतावहिंसकौ॥ इदं श्वभ्यां इदं न मम॥
(4.3). काकबलि :- मलीनता निवारक काक के निमित्त :-
ॐ ऐन्द्रवारुणवायव्या, याम्या वै नैऋर्तास्तथा।
वायसाः प्रतिगृह्णन्तु, भमौ पिण्डं मयोज्झतिम्।
इदं वायसेभ्यः इदं न मम॥
(4.4). देवबलि :- देवत्व संवधर्क शक्तियों के निमित्त :-
ॐ देवाः मनुष्याः पशवो वयांसि, सिद्धाः सयक्षोरगदैत्यसंघाः।
प्रेताः पिशाचास्तरवः समस्ता, ये चान्नमिच्छन्ति मया प्रदत्तम्॥
इदं अन्नं देवादिभ्यः इदं न मम।
पिपीलिकादिबलि :- श्रमनिष्ठा एवं सामूहिकता की प्रतीक चींटियों के निमित्त :-
ॐ पिपीलिकाः कीटपतंगकाद्याः, बुभुक्षिताः कमर्निबन्धबद्धाः।
तेषां हि तृप्त्यथर्मिदं मयान्नं, तेभ्यो विसृष्टं सुखिनो भवन्तु॥
इदं अन्नं पिपीलिकादिभ्यः इदं न मम।
बाद में गोबलि गऊ को, कुक्कुरबलि श्वान को, काकबलि पक्षियों को, देवबलि कन्या को तथा पिपीलिकादिबलि चींटी आदि को खिला दिया जाए।
(5). अतिथि यज्ञ-मनुष्य यज्ञ-श्राद्ध संकल्प :: अतिथि से अर्थ मेहमानों की सेवा करना उन्हें अन्न-जल देना। अपंग, महिला, विद्यार्थी, संन्यासी, चिकित्सक और धर्म के रक्षकों की सेवा-सहायता करना ही अतिथि यज्ञ है। इससे संन्यास आश्रम पुष्ट पुष्ट होता है। यही पुण्य है। यही सामाजिक कर्त्तव्य है। इसके अन्तगर्त दान का विधान है। इसके अन्तर्गत 'अतिथि-सत्कार' आता है। दिवंगत आत्मा ने उत्तराधिकार में जो छोड़ा है, उसमें से उतना अंश ही स्वीकार करना चाहिए, जो पीछे वाले बिना कमाऊ बालकों या स्त्रियों के निवार्ह के लिए अनिवार्य हो-कमाऊ सन्तान को उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। दिवंगत आत्मा के अन्य अहसान ही इतने हैं कि उन्हें अनेक जन्मों तक चुकाना पड़ेगा, फिर नया ऋण भारी ब्याज सहित चुकाने के लिए क्यों सिर पर लादा जाए। असमर्थ स्थिति में अभिभावकों की सेवा स्वीकार करना उचित था, पर जब वयस्क और कमाऊ हो गये, तो फिर उसे लेकर ऋण से मुक्ति का प्रयास किया जाना अनिवार्य है। 
पूवर्जों के छोड़े हुए धन में कुछ अपनी ओर से श्रद्धाञ्जलि मिलाकर उनकी आत्मा के कल्याण के लिए दान कर देना चाहिए, यही सच्चा श्राद्ध है। पानी का तर्पण और आटे की गोली का पिण्डदान पयार्प्त नहीं, वह क्रिया कृत्य तो मात्र प्रतीक हैं। श्रद्धा की वास्तविक परीक्षा उस श्राद्ध में है कि पूवर्जों की कमाई को उन्हीं की सद्गति के लिए, सत्कर्मो के लिए दान रूप में समाज को वापस कर दिया जाए। अपनी कमाई का जो सदुपयोग, मोह या लोभवश स्वर्गीय आत्मा नहीं कर सकी थी, उस कमी की पूर्ति उसके उत्तराधिकारियों को कर देनी चाहिए।
प्राचीनकाल में ब्राह्मण का व्यक्तित्व एक समग्र संस्था का प्रतिरूप था। उन्हें जो दिया जाता था, उसमें से न्यूनतम निवार्ह लेकर शेष को समाज की सत्प्रवृत्तियों में खर्च करते थे। अपना निवार्ह भी इसलिए लेते थे कि उन्हें निरन्तर परमार्थ प्रयोजनों में ही लगा रहना पड़ता था। 
मृतकभोज का निर्वाह कर श्राद्धधन परमार्थ प्रयोजन के लिए लगा देना चाहिए, जिससे जनमानस में सद्ज्ञान का प्रकाश उत्पन्न हो और वे कल्याणकारी सत्पथ पर चलने की प्रेरणा प्राप्त करें, यही सच्चा श्राद्ध है। कन्या भोजन, दीन-अपाहिज, अनाथों को ज़रूरत की चीज़ें देना, इस प्रक्रिया के प्रतीकात्मक उपचार हैं। इसके लिए तथा लोक हितकारी पारमाथिर्क कार्यो (वृक्षारोपण, विद्यालय निर्माण) के लिए दिये जाने वाले दान की घोषणा श्राद्ध संकल्प के साथ की जानी चाहिए। 
संकल्प :: 
नामाहं...नामकमृतात्मनः शान्ति-सद्गति-निमित्तं लोकोपयोगिकायार्थर्...
परिमाणे धनदानस्य कन्याभोजनस्य वा श्रद्धापूवर्कं संकल्पम् अहं करिष्ये॥ 
संकल्प के बाद निम्न मन्त्र बोलते हुए अक्षत-पुष्प देव वेदी पर चढ़ाएँ। 
ॐ उशन्तस्त्वा निधीमहि, उशन्तः समिधीमहि। उशन्नुशतऽ आ वह, पितृन्हविषेऽअत्तवे॥ ॐ दक्षिणामारोह त्रिष्टुप् त्वाऽवतु बृहत्साम, पञ्चदशस्तोमो ग्रीष्मऽऋतुः क्षत्रं द्रविणम्॥
पञ्चयज्ञ पूरे करने के बाद अग्नि स्थापना करके गायत्री-यज्ञ सम्पन्न करें, फिर लिखे मन्त्र से 3 विशेष आहुतियाँ दें।
ॐ सूयर्पुत्राय विद्महे, महाकालाय धीमहि। 
तन्नो यमः प्रचोदयात् स्वाहा। इदं यमाय इदं न मम॥
इसके बाद स्विष्टकृत-पूणार्हुति आदि करते हुए समापन करें। विसजर्न के पूर्व पितरों तथा देवशक्तियों के लिए भोज्य पदार्थ थाली में सजाकर नैवेद्य अपिर्त करें, फिर क्रमशः क्षमा-प्राथर्ना, पिण्ड विसजर्न, पितृ विसजर्न तथा देव विसजर्न करें।
भगवान् विष्णु का यज्ञ :: सम्पूर्ण यज्ञों से इस यज्ञ को श्रेष्ठ कहा गया है। ब्रह्मा जी ने पूर्वकाल में बड़े समारोह के साथ इस यज्ञ का अनुष्ठान किया था। उसी यज्ञ में दक्ष प्रजापति और शंकर में कलह मच गया था। ब्राह्मणों ने क्रोध में आकर नन्दी को शाप दिया था और नन्दी ने ब्राह्मणों को। यही कारण है कि भगवान शंकर ने दक्ष के यज्ञ को नष्ट कर डाला।
पूर्वकाल में दक्ष, धर्म, कश्यप, शेषनाग, कर्दममुनि, स्वायम्भुवमनु, उनके पुत्र प्रियव्रत, शिव, सनत्कुमार, कपिल तथा ध्रुव ने विष्णुयज्ञ किया था। उसके अनुष्ठान से हज़ारों राजसूय यज्ञों का फल निश्चित रूप से मिल जाता है। वह पुरुष अवश्य ही अनेक कल्पों तक जीवन धारण करने वाला तथा जीवन्मुक्त होता है।
जिस प्रकार देवताओं में विष्णु, वैष्णव पुरुषों में शिव, शास्त्रों में वेद, वर्णों में ब्राह्मण, तीर्थों में गंगा, पुण्यात्मा पुरुषों में वैष्णव, व्रतों में एकादशी, पुष्पों में तुलसी, नक्षत्रों में चन्द्रमा, पक्षियों में गरुड़, स्त्रियों में भगवती मूल प्रकृति राधा, आधारों में वसुन्धरा, चंचल स्वभाववाली इन्दियों में मन, प्रजापतियों में ब्रह्मा, प्रजेश्वरों में प्रजापति, वनों में वृन्दावन, वर्षों में भारतवर्ष, श्रीमानों में लक्ष्मी, विद्वानों में सरस्वती देवी, पतिव्रताओं में भगवती दुर्गा और सौभाग्यवती श्रीकृष्ण पत्नियों में श्रीराधा सर्वोपरि मानी जाती हैं; उसी प्रकार सम्पूर्ण यज्ञों में 'विष्णु यज्ञ' श्रेष्ठ माना जाता है।
अग्निहोत्र :: इस प्रक्रिया में अग्नि में आहुत किये जाने वाले चार प्रकार के द्रव्यों की आहुतियाँ दी जाती हैं। यह चार प्रकार के द्रव्य हैं :- (1). गोधृत व केसर, कस्तूरी आदि सुगन्धित पदार्थ, (2). मिष्ट पदार्थ शक्कर आदि, (3). शुष्क अन्न, फल व मेवे आदि तथा (4). ओषधियाँ व वनस्पतियाँ जो स्वास्थ्य वर्धक होती हैं। अग्निहोत्र का मुख्य प्रयोजन इन सभी पदार्थों को अग्नि की सहायता से सूक्ष्माति-सूक्ष्म बनाकर उसे वायुमण्डल व सुदूर आकाश में फैलाया जाता है।जब कोई वस्तु जलती है तो वह सूक्ष्म हल्के कणों में परिवर्तित हो जाती है और वायु मण्डल में सर्वत्र वा दूर-दूर तक फैल जाती है। वायु मण्डल में फैलने से उनका वायु पर लाभप्रद प्रभाव होता है। जिस प्रकार दुर्गन्ध युक्त वायु स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद व मन के लिए अप्रिय होती है उसी प्रकार से गोघृत व केसर, कस्तूरी आदि नाना प्रकार के सुगन्धित द्रव्यों के जलने से वायु का दुर्गन्ध दूर होकर वह सुगन्धित, स्वास्थ्यप्रद व रोगनाशक हो जाती है। इस यज्ञ के परिणाम स्वरूप यज्ञ से पूर्व की वायु के गुणों में वृद्धि होकर वह स्वास्थ्यवर्धक, रोगनिवारक, वर्षाजल को शुद्ध करने वाली, प्रदुषण निवारक, वर्षा जल पर आश्रित अन्न व वनस्पतियों को स्वास्थ्यप्रद करने, यहां तक की अच्छी सन्तानों को जन्म देने में भी सहायक होती है।   
अग्निहोत्र यज्ञ करने के लिए यज्ञकुण्ड वा हवनकुण्ड का प्रयोग करते है जो तली में छोटा व ऊपर की ओर बड़ा व खुले मुख वाला होता है। यह पूरा यज्ञ कुण्ड टीन, लोहे व ताम्बे का बना होता है। भूमि खोद कर भी यज्ञ कुण्ड बनाया जा सकता है। आम, पीपल, गुग्गल, कपूर व पलाश आदि अनेक प्रकार के स्वास्थ्य व पर्यावरण के हितकर काष्ठों की समिधाओं को यज्ञ कुण्ड के आकार में काट कर उन्हें यज्ञकुण्ड में रखा जाता है। कपूर को यज्ञ में प्रयुक्त घृताहुति वाली चम्मच में रखकर उसे दीपक के द्वारा प्रदीप्त किया जाता है। इस प्रक्रिया को करते हुए वेद मन्त्र को बोलकर अग्नि का आधान यज्ञकुण्ड के बीच समिधाओं में किया जाता है। जब अग्नि प्रज्जवलित हो जाती है तो यज्ञ के विधान के अनुसार परिवार का एक व अधिक सदस्य घृत की और कुछ हवन सामग्री वा साकल्य जिसका वर्णन ऊपर किया गया है, को लगभग पांच-पांच ग्राम या कुछ अधिक मात्रा में लेकर उसकी आहुतियां वेद मन्त्रों को बोलकर यज्ञ की अग्नि में डाली जाती हैं, जिससे अग्नि में पड़ कर वह आहुतियां पूर्णतया जलकर व सूक्ष्म होकर वायुमण्डल में फैल जायें। जिन मन्त्रों को शुद्ध उच्चारित कर आहुतियां दी जाती हैं, उनके अन्त में स्वाहा: बोला जाता है। मन्त्र बोलने का प्रयोजन यह है कि इससे यज्ञ करने के लाभ यजमान वा यज्ञकर्ता को विदित हो जाये और साथ ही उन मन्त्रों के कण्ठस्थ हो जाने से उनकी रक्षा व सुरक्षा हो सके। इस प्रकार न्यून से न्यून प्रतिदिन प्रातः व सायं सोलह-सोलह व अधिक आहुतियां देने का विधान पूर्वजों व ऋषियों ने किया है। इस प्रकार से यज्ञ-अग्निहोत्र करने में मात्र 10 से 15 या अधिकतम 20 मिनट का समय लगता है। इस प्रक्रिया से वायु मण्डल शुद्ध हो जाता है। यज्ञ की गर्मी से घर का वायु हल्का होकर ऊपर व खिड़कियों-रोशन दानों से बाहर चला जाता है और बाहर का शुद्ध व हितकर वायु घर के अन्दर प्रवेश करता है। इससे घर में रहने वाले सभी सदस्यों का स्वास्थ्य अच्छा वा निरोग रहता है। परिवार के किसी भी सदस्य को रोग नहीं होते और यदि किसी कारण से हों भी जायें तो अल्प मात्रा में उपचार करने से वह शीघ्र ठीक हो जाते हैं। घृत एवं यज्ञ सामग्री के अनेक पदार्थ कीटाणु नाशक भी हैं। यज्ञ करने से जल, वायु आदि में व घर में यत्र-तत्र जो सूक्ष्म हानिकारक कीटाणु छिपे होते हैं, वह भी नष्ट हो जाते हैं। शुद्ध वायु मिलने से मनुष्यों का स्वास्थ्य अच्छा होता है व उनके शरीर बलवान, रोगमुक्त व स्वस्थ होते हैं। यज्ञ करने के अनेक अदृश्य लाभ भी होते हैं जो यज्ञ में वेद मन्त्रों के द्वारा की जाने वाली प्रार्थनाओं के अनुरूप प्राप्त होते हैं। ऋषियों ने अपनी गवेषणा व अनुसंधान से यहां तक कहा कि यज्ञ करने वाले के अगले पुनर्जन्म में यह आहुतियां उसको अनेकविध लाभ पहुंचाती हैं। यह लाभ ईश्वर जीवात्मा को प्रदान करता है। 
वेद मन्त्र ईश्वर के द्वारा प्रदत्त व निर्मित है। वेदों की कोई भी बात अज्ञान व असत्य नहीं है। वेद मन्त्रों में असम्भव प्रार्थनायें भी नहीं है जो उसके अनुरूप व्यवहार करने से पूर्ण वा सिद्ध न हों। वेद की प्रार्थनायें सत्य व ज्ञान से परिपूर्ण हैं। अतः वेदों में जो कहा गया है वह जीवन में अवश्य प्राप्त होता है अथवा वह सभी लाभ उसको प्राप्त होते हैं जो व्यक्ति यज्ञ को करता है। यज्ञ को करते समय जब यज्ञकुण्ड की अग्नि मन्द होने लगे तो उसमें आवश्यकतानुसार समिधायें रखते रहना चाहिये जिससे हमारी आहुतियां तेज वा प्रचण्ड अग्नि से सूक्ष्म होकर वायुमण्डल व आकाश में दूर दूर तक पहुंचती रहे।  
योग यज्ञ :: योगी अपान वायु में प्राण वायु का हवन करते हैं जैसे अनुलोम विलोम से सम्बंधित श्वास क्रिया तथा प्राण वायु में अपान वायु का हवन करते हैं, जैसे गुदा संकुचन अथवा सिद्धासन। कई दोनों प्रकार की वायु, प्राण और अपान को रोककर प्राणों को प्राण में हवन करते हैं, जैसे रेचक और कुम्भक प्राणायाम। कई सब प्रकार के आहार को जीतकर अर्थात नियमित आहार करने वाले प्राण वायु में प्राण वायु का हवन करते हैं अर्थात प्राण को पुष्ट करते हैं।
ज्ञान यज्ञ :: यज्ञों द्वारा काम, क्रोध एवं अज्ञान रूपी पाप का नाश करने वाले सभी, यज्ञ को जानने वाले हैं अर्थात ज्ञान से परमात्मा को जान लेते हैं। यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले पर ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं अर्थात यज्ञ क्रिया के परिणाम स्वरूप जो बचता है, वह ज्ञान ब्रह्म स्वरूप है। इस ज्ञान रूपी अमृत को पीकर योगी तृप्त और आत्म स्थित हो जाते हैं, परन्तु जो मनुष्य यज्ञाचरण नहीं करते उनको न इस लोक में कुछ हाथ लगता है न परलोक में। इस प्रकार बहुत प्रकार की यज्ञ विधियां वेद में बताई गयी हैं। यह यज्ञ विधियाँ  कर्म से ही उत्पन्न होती हैं। इस बात को जानकर कर्म की बाधा से जीव मुक्त हो जाता है। 
द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ है। द्रव्यमय यज्ञ सकाम यज्ञ हैं और अधिक से अधिक स्वर्ग को देने वाले हैं, परन्तु ज्ञान यज्ञ द्वारा योगी कर्म बन्धन से छुटकारा पा जाता है और परम गति को प्राप्त होता है। सभी कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं। ज्ञान से ही आत्म तृप्ति होती है और कोई कर्म अवशेष नहीं रहता। प्रज्ज्वलित अग्नि जिस प्रकार काष्ठ को भस्म कर देती है, उसी प्रकार ज्ञानाग्नि सभी कर्म फलों को; उनके प्रति आसक्ति को भस्म कर देती है। इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला वास्तव में कुछ भी नहीं है, क्योंकि जल, अग्नि आदि से यदि किसी मनुष्य अथवा वस्तु को पवित्र किया जाय तो वह शुद्धता और पवित्रता थोड़े समय के लिए ही होती है, जबकि ज्ञान से जो मनुष्य पवित्र हो जाय वह पवित्रता सदैव के लिए हो जाती है। ज्ञान ही अमृत है और इस ज्ञान को लम्बे समय तक योगाभ्यासी पुरुष अपने आप अपनी आत्मा में प्राप्त करता है, क्योंकि आत्मा ही अक्षय ज्ञान का श्रोत है। जिसने अपनी इन्द्रियों का वश में कर लिया है तथा निरन्तर उन्हें वश में रखता है, जो निरन्तर आत्म ज्ञान में तथा उसके उपायों में श्रद्धा रखता है, जैसे गुरू, शास्त्र, संत आदि में। ऐसा मनुष्य उस अक्षय ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होते ही परम शान्ति को प्राप्त होता है। ज्ञान प्राप्त होने के बाद उसका मन नहीं भटकता, इन्द्रियों के विषय उसे आकर्षित नहीं करते, लोभ मोह से वह दूर हो जाता है तथा निरन्तर ज्ञान की पूर्णता में रमता हुआ आनन्द को प्राप्त होता है। ज्ञान से आसक्ति को नष्ट करें। ज्ञान का संयोग संयम और भक्ति से होने पर प्राणी मुक्ति-मोक्ष माह प्रयाण की ओर बढ़ जाता है। 
यज्ञ, अग्निहोत्र या होम के लाभ :: यज्ञ में बोले जाने वाले मन्त्र अन्तरिक्ष में दूषित ध्वनि तरंगों में परिवर्तन का सामर्थ्य रखते हैं, चित्त पर पड़े जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों को, अशुद्ध संस्कारों को शुद्ध करते हैं, मन्त्रों में निहित भावों के द्वारा आचरण में पवित्रता का संचार होता है, यज्ञ में की जाने वाली विधि जीवन निर्माण की दिशा को प्रबुद्ध बनाती है। प्रतिदिन किये जाने वाले-दैनिक यज्ञ के द्वारा भौतिक मानसिक एवं सामाजिक पर्यावरण का शुद्धिकरण होता है। भौतिक, मानसिक एवं सामाजिक रोगों के विनाश का साधन, सर्वोतम साधन दैनिक यज्ञ है।
अग्निहोत्र एक नैत्यिक कर्तव्य है, जो शास्त्र-मर्यादा के अनुसार सभी को करना होता है। अन्य यज्ञों को करने के सभी अधिकारी हों, ऐसा नहीं है। लाभों का ज्ञान न होने पर भी वैदिक विधान होने से ही अग्निहोत्र सबको करणीय है। लाभ जानकर किया जाए तो उसमें अधिक श्रद्धा होती है। उन लाभों को प्राप्त करने की प्रेरणा भी मिलती है और उसके लिए मनुष्य प्रयत्न भी करता है।
यज्ञ एवं अग्निहोत्र के अनेकानेक लाभ बताए हैं। इन लाभों में अनागत रोगों से बचाव, प्राप्त रोगों का दूर होना, वायु-जल की शुद्धि, ओषधि-पत्र-पुष्प-फल-कन्दमूल आदि की पुष्टि, स्वास्थ्य, दीर्घायुष्य, बल, इन्द्रिय-सामर्थ्य, पाप-मेाचन, शत्रु-पराजय, तेज, यश, सदविचार, सत्कर्मों में प्रेरणा, गृह-रक्षा, भद्र-भाव, कल्याण, सच्चारित्र्य, सर्वविध सुख आदि दर्शाए गए हैं। वन्ध्यात्व-निवारण, पुत्र-प्राप्ति, वृष्टि, बुद्धिवृद्धि, मोक्ष आदि फलों का भी प्रतिपादन किया गया है।
यज्ञ, अग्निहोत्र या होम के लाभों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है।
प्रथम प्रकार के वे लाभ हैं, जो होम से स्वतः प्राप्त हो सकते हैं, यथा वायु शुद्धि, जल शुद्धि, स्वास्थ्य-प्राप्ति, इन्द्रिय-सामर्थ्य, दीर्घायुष्य आदि। यदि अग्नि में यथोचित मात्रा में सुगन्धित, मिष्ट, पुष्टिप्रद एवं रोगहर द्रव्यों का होम किया गया है, तो यजमान चाहे या न चाहे, इन लाभों के प्राप्त होने का अवसर रहता ही हैं। शीत ऋतु में गुड़, मेथी, सोंठ, अजवाइन, गूगल जैसी साधारण वस्तुओं के होम से ही गृह-सदस्यों को सर्दी के अनेक रोगों से बचाव और छुटकारा मिलता देखा गया है।
दूसरे प्रकार के लाभ वे हैं, जो अग्निहोत्री यजमान के इच्छा, प्रेरणाग्रहण एवं प्रयत्न पर निर्भर हैं। यदि यजमान मन्त्रों के अर्थ का अनुसरण करता हुआ परमेश्वर के एवं परमेश्वररचित यज्ञाग्नि के परमेश्वरकृत गुण-कर्म-स्वभाव का चिन्तन करता हुआ उन्हें अपने अन्दर धारण करने का व्रत लेता है और तदर्थ प्रयत्न करता है, तो वह सन्मार्ग पर चलने की सद्बुद्धि प्राप्त करेगा, पापकर्मों से बचेगा, सदाचारी बनेगा, तेजस्वी एवं यशस्वी होगा और मोक्षप्राप्ति के अनुरूप कर्म करने की प्रेरणा लेगा, तो मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है।
यदि कोई व्यक्ति इन लाभों को पाने का प्रयत्न ही नहीं करता, सूखे मन से आहुतिमात्र देता है, फलतः उसे यह लाभ प्राप्त नहीं होते, तो उसमें यज्ञ का दोष नही है। जहाँ तक बड़े-बड़े रोगों को दूर करने, महामारियाँ रोकने आदि का प्रश्न है, प्राचीन काल में इस प्रकार के यज्ञ होते रहे हैं। पुत्र-प्राप्ति के लिए पुत्रेष्टियां भी की जाती रही हैं। इनकी सफलता कुछ तो मनोबल, श्रद्धा एवं आशावादिता पर निर्भर है, दूसरे अधिक योगदान इस बात का है कि कौन-सी ओषधियों से होम किया जाता है। जैसे अन्य चिकित्सा-पद्धतियों आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा, जल-चिकित्सा, ऐलोपैथी, होम्योपैथी आदि हैं, वैसे ही अग्निहोत्र-चिकित्सा भी एक वैज्ञानिक पद्धति है। अग्निहोत्र-चिकित्सा द्वारा वेदोक्त रोगकृमि-विनाश, ज्वर-चिकित्सा, उन्माद-चिकित्सा, गण्डमाला-चिकित्सा एवं गर्भदोष-चिकित्सा की जाती है जो सफल परिणामदायक होती है।
यज्ञ करने की विधि ::  प्रातःकाल यज्ञ से पूर्व तथा सायंकाल यज्ञ के पश्चात “सन्ध्योपासना” करने का विधान है। सन्ध्या का अर्थ है कि ईश्वर का भलीभांति ध्यान कर उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना करना। सन्ध्या के बाद तथा जब सूर्योदय हो गया हो, तब अग्निहोत्र किया जाता है। सबसे पहले गायत्री का मन्त्र का पाठ कर लेना चाहिये जिससे मन यज्ञ करते समय इधर-उधर न भागे और यज्ञ में ही एकाग्र रहे। इसके बाद तीन आचमन अर्थात् अल्प मात्रा में जल पीने का विधान है जो आचमन के मन्त्रों को बोलकर किये जाते हैं। इससे कफ आदि की निवृत्ति होकर वाणी का उच्चारण शुद्ध होता है। इसके पश्चात बायें हाथ की अंजलि में जल लेकर दायें हाथ की अंगुलियों से शरीरस्थ इन्द्रियों के स्पर्श करने का विधान है। इस प्रक्रिया द्वारा ईश्वर से इन्द्रियों व शरीर के स्वस्थ, निरोग व बलवान होने की प्रार्थना है। तत्पश्चात 8 स्तुति-प्रार्थना व उपासना के मन्त्रों का उनके अर्थ को विचार करते हुए या पृथक से बोल कर गायन वा उच्चारण करने का विधान है। इसके बाद दीपक जला कर उससे कपूर को प्रज्जवलित कर यज्ञ कुण्ड में उस कपूर की अग्नि का आधान मन्त्रों को बोलकर किया जाता है जो मात्र 25 से 30 सेकंड में हो जाता है। अग्न्याधान के बाद चार मन्त्रों को बोलकर काष्ठ की 3 समिधायें प्रदीप्त अग्नि पर रखने का विधान है। समिदाधान के बाद एक ही मन्त्र को पांच बार बोल कर घृत की आहुतियां दी जाती हैं। तत्पश्चात चारों दिशाओं में जल सिंचन का विधान है। यह सभी कार्य पृथक पृथक मन्त्रों को बोल कर किये जातें हैं। जल सिंचन के बाद घृत की दो आघाराज्य व दो आज्यभाग आहुतियां दी जाती हैं। इसके बाद दैनिक यज्ञ की आहुतियां दी जाती हैं। प्रातः काल की 12 आहुतियां एवं सायं काल की भी 12 आहुतियां हैं। इनके बाद यज्ञकर्त्ता यजमान यदि अधिक आहुति देना चाहें तो गायत्री मन्त्र को बोलकर देने का विधान है। इसके बाद पूर्णाहुति तीन बार ‘ओं सर्वं वै पूर्णं स्वाहा।’ बोलकर की जाती है। इससे पूर्व यदि यजमान स्विष्टकृदाहुति व प्राजापत्याहुति देना चाहे तो सम्बन्धित मन्त्रों को बोल कर दे सकता है। इस प्रकार से दैनिक यज्ञ सम्पन्न होता है। बहुत से लोग प्रातः व सायं यज्ञ न कर सायंकाल के 4 मन्त्रों को भी प्रातःकाल के यज्ञ में सम्मिलित कर आहुतियां दे देते हैं। इस प्रकार से यज्ञ पूर्ण हो जाता है। यज्ञ के बाद, "यज्ञरूप प्रभो हमारे भाव उज्जवल कीजिए, छल कपट को छोड़ देवें, मानसिक बल दीजिए’ यह यज्ञ प्रार्थना भी की जा सकती है और उसके बाद शान्तिपाठ का मन्त्र बोलकर यज्ञ समाप्त हो जाता है। यह अग्निहोत्र वा देवयज्ञ करने की विधि व विधान है। यज्ञ पूर्णतः अंहिसात्मक कर्म है, इसमें किंचित किसी प्राणी की हिंसा निषिद्ध है। ऐसा होने यज्ञ यज्ञ न होकर पापकर्म बन जाता है।  
रोग व दुःखों से बचने व अन्यों को बचाने के लिए वायु, जल व प्रकृति को शुद्ध रखें व यज्ञ आदि क्रिया कर सबको शुद्ध करें। जो मनुष्य, स्त्री व पुरूष, ऐसा नहीं करता वह पाप का भागी होता है। यज्ञ न करना पाप करना है क्योंकि इससे किये गये भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रदूषणों से अन्य प्राणियों को दुःख होता है। यदि मनुष्य इस जन्म व परजन्मों में सुखी होना चाहता है तो उसे यज्ञ अवश्य करना चाहिये। यज्ञ का अन्य कोई विकल्प नहीं है। यदि नहीं करेगा तो कालान्तर में परिणाम ईश्वर की व्यवस्था से इसके सम्मुख अवश्य आता है। इसके साथ ही यह धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष से भी अनेक प्रकार से भी वंचित हो जाता है।   
धर्म की एक शब्द की एक परिभाषा है ‘‘सत्याचरण”। सत्याचरण में माता-पिता की सेवा सुश्रुषा सहित प्राणिमात्र पर दया व उनके भोजन का प्रबन्ध करने के साथ, विद्वान अतिथियों की सेवा, उनसे सद्व्यवहार, उनका अन्न, धन, वस्त्र दान द्वारा सम्मान एवं यथासमय ईश्वरोपासना-सन्ध्या व अग्निहोत्र कल्याण के हितैषी सब मनुष्यों को अनिवार्य रूप से करना चाहिये। जो करेगा वह ईश्वर से इन कर्मों का लाभ व फल पायेगा और जो नहीं करेगा वह ईश्वरीय दण्ड का भागी होगा। 
यज्ञ-हवन कुंड का प्रकार ::
सभी प्रकार की मनोकामना पूर्ति के लिए प्रधान चतुरस्त्र कुंड का महत्व होता है। 
पुत्र प्राप्ति के लिए योनि कुंड का पूजन जरूरी है।
ज्ञान प्राप्ति के लिए आचार्य कुंड यज्ञ का आयोजन जरूरी होता है।
शत्रु नाश के लिए त्रिकोण कुंड यज्ञ फलदाई होता है। 
व्यापार में वृद्धि के लिए वृत्त कुंड करना लाभ दाई होता है। 
मन की शांति केमन की शांति के लिए अर्द्धचंद्र कुंड किया जाता है। 
लक्ष्मी प्राप्ति के लिए समअष्टास्त्र कुंड, विषम अष्टास्त्र कुंड, विषम षडास्त्र कुंड का विशेष महत्व होता है। 
दैनिक यज्ञ-हवन  विधि ::
॥ अथ अग्निहोत्रमंत्र:॥
जल से आचमन करने के मंत्र ::
(1). ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा।
हे सर्व रक्षक अमर परमेश्वर! यह सुख प्रद जल प्राणियों का आश्रयभूत है, यह हमारा कथन शुभ हो। यह मैं सत्य निष्ठा पूर्वक मानकर कहता हूँ और सुष्ठूक्रिया आचमन के सदृश आपको अपने अंत:करण में ग्रहण करता हूँ।
  (2). ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा।
हे सर्व रक्षक अविनाशि स्वरूप, अजर परमेश्वर! आप हमारे आच्छादक वस्त्र के समान अर्थात सदा-सर्वदा सब और से रक्षक हों, यह सत्य वचन मैं सत्य निष्ठा पूर्वक मान कर कहता हूँ और सुष्ठू क्रिया आचमन के सदृश आपको अपने अंत:करण में ग्रहण करता हूँ।
(3). ॐ सत्यं यश: श्रीर्मयि श्री: श्रयतां स्वाहा।
हे सर्वरक्षक ईश्वर सत्याचरण, यश एवं प्रतिष्ठा. विजय लक्ष्मी, शोभा धन-ऐश्वर्य मुझ में स्थित हों, यह मैं सत्य निष्ठा पूर्वक प्रार्थना करता हूँ और सुष्ठू क्रिया आचमन के सदृश आपको अपने अंत:करण में ग्रहण करता हूँ।
जल से अंग स्पर्श करने के मंत्र का उद्देश्य शरीर के सभी महत्त्वपूर्ण अंगों में पवित्रता का समावेश करना तथा अंतः करण की चेतना को जगाना है ताकि यज्ञ जैसा श्रेष्ठ कृत्य किया जा सके। बाएँ हाथ की हथेली में जल लेकर दाहिने हाथ की उँगलियों को उनमें भिगोकर बताए गए स्थान को मंत्रोच्चार के साथ स्पर्श करें।
इस मंत्र से मुख का स्पर्श करें :: ॐ वाङ्म आस्येऽस्तु।
इस मंत्र से नासिका के दोनों भाग :: ॐ नसोर्मे प्राणोऽस्तु।
हे रक्षक परमेश्वर! मेरे दोनों नासिका भागों में प्राणशक्ति पूर्ण आयुपर्यन्त स्वास्थ्य एवं सामर्थ्यसहित विद्यमान रहे।
इस मंत्र से दोनों आँखें :: ॐ अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु।
हे रक्षक परमेश्वर! मेरे दोनों आखों में दृष्टिशक्ति पूर्ण आयुपर्यन्त स्वास्थ्य एवं सामर्थ्यसहित विद्यमान रहे।
इस मंत्र से दोनों कान :: ॐ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु।
हे रक्षक परमेश्वर! मेरे दोनों कानों में सुनने की शक्ति पूर्ण आयुपर्यन्त स्वास्थ्य एवं सामर्थ्यसहित विद्यमान रहे।
इस मंत्र से दोनों भुजाऐं :: ॐ बाह्वोर्मे बलमस्तु।
हे रक्षक परमेश्वर! मेरी भुजाओं में पूर्ण आयुपर्यन्त बल विद्यमान रहे।
इस मंत्र से दोनों जंघाएं :: ॐ ऊर्वोर्म ओजोऽस्तु।
हे रक्षक परमेश्वर! मेरी जंघाओं में बल-पराक्रम सहित सामर्थ्य पूर्ण आयुपर्यन्त विद्यमान रहे।
इस मंत्र से सारे शरीर पर जल का मार्जन करें :: 
ॐ अरिष्टानि मेऽङ्गानि तनूस्तन्वा में सह सन्तु
हे रक्षक परमेश्वर! मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि मेरे मुख में वाक् इन्द्रिय पूर्ण आयुपर्यन्त स्वास्थ्य एवं सामर्थ्य सहित विद्यमान रहे। हे रक्षक परमेश्वर! मेरा शरीर और अंग-प्रत्यंग रोग एवं दोष रहित बने रहें, ये अंग-प्रत्यंग मेरे शरीर के साथ सम्यक् प्रकार संयुक्त हुए सामर्थ्य सहित विद्यमान रहें।
ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना–उपासना के मंत्र ::
ॐ विश्वानी देव सवितर्दुरितानि परासुव। यद भद्रं तन्न आ सुव॥1॥
हे सब सुखों के दाता ज्ञान के प्रकाशक सकल जगत के उत्पत्तिकर्ता एवं समग्र ऐश्वर्ययुक्त परमेश्वर! आप हमारे सम्पूर्ण दुर्गुणों, दुर्व्यसनों और दुखों को दूर कर दीजिए और जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव, सुख और पदार्थ हैं, उसको हमें भलीभांति प्राप्त कराइये।
हिरण्यगर्भ: समवर्त्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत्।
स दाघार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥2॥
सृष्टि के उत्पन्न होने से पूर्व और सृष्टि रचना के आरम्भ में स्वप्रकाशस्वरूप और जिसने प्रकाशयुक्त सूर्य, चन्द्र, तारे, ग्रह-उपग्रह आदि पदार्थों को उत्पन्न करके अपने अन्दर धारण कर रखा है, वह परमात्मा सम्यक् रूप से वर्तमान था। वही उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत का प्रसिद्ध स्वामी केवल अकेला एक ही था। उसी परमात्मा ने इस पृथ्वीलोक और द्युलोक आदि को धारण किया हुआ है, हम लोग उस सुखस्वरूप, सृष्टिपालक, शुद्ध एवं प्रकाश-दिव्य-सामर्थ्य युक्त परमात्मा की प्राप्ति के लिये ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास व हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं।
य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवा:।
यस्य छायाऽमृतं यस्य मृत्यु: कस्मै देवाय हविषा विधेम॥3॥
जो परमात्मा आत्मज्ञान का दाता शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक बल का देने वाला है, जिसकी सब विद्वान लोग उपासना करते हैं, जिसकी शासन, व्यवस्था, शिक्षा को सभी मानते हैं, जिसका आश्रय ही मोक्ष सुख दायक है, और जिसको न मानना अर्थात भक्ति न करना मृत्यु आदि कष्ट का हेतु है, हम लोग उस सुखस्वरूप एवं प्रजा पालक शुद्ध एवं प्रकाश स्वरूप, दिव्य सामर्थ्य युक्त परमात्मा की प्राप्ति के लिये ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास व हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं।
य: प्राणतो निमिषतो महित्वैक इन्द्राजा जगतो बभूव।
य ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पद: कस्मै देवाय हविषा विधेम॥4॥
जो प्राणधारी चेतन और अप्राणधारी जड जगत का अपनी अनंत महिमा के कारण एक अकेला ही सर्वोपरी विराजमान राजा हुआ है, जो इस दो पैरों वाले मनुष्य आदि और चार पैरों वाले पशु आदि प्राणियों की रचना करता है और उनका सर्वोपरी स्वामी है, हम लोग उस सुखस्वरूप एवं प्रजापालक शुद्ध एवं प्रकाशस्वरूप, दिव्यसामर्थ्ययुक्त परमात्मा की प्रप्ति के लिये योगाभ्यास एवं हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं।
येन द्यौरुग्रा पृथिवी च द्रढा येन स्व: स्तभितं येन नाक:।
यो अन्तरिक्षे रजसो विमान: कस्मै देवाय हविषा विधेम॥5॥
जिस परमात्मा ने तेजो मय द्युलोक में स्थित सूर्य आदि को और पृथिवी को धारण कर रखा है, जिसने समस्त सुखों को धारण कर रखा है, जिसने मोक्ष को धारण कर रखा है, जो अंतरिक्ष में स्थित समस्त लोक-लोकान्तरों आदि का विशेष नियम से निर्माता धारणकर्ता, व्यवस्थापक एवं व्याप्तकर्ता है, हम लोग उस शुद्ध एवं प्रकाश स्वरूप, दिव्य सामर्थ्य युक्त परमात्मा की प्रप्ति के लिये ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास एवं हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं।
प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परिता बभूव।
यत्कामास्ते जुहुमस्तनो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥6॥
हे सब प्रजाओं के पालक स्वामी परमत्मन! आपसे भिन्न दूसरा कोई उन और इन अर्थात दूर और पास स्थित समस्त उत्पन्न हुए जड-चेतन पदार्थों को वशीभूत नहीं कर सकता, केवल आप ही इस जगत को वशीभूत रखने में समर्थ हैं। जिस-जिस पदार्थ की कामना वाले हम लोग अपकी योगाभ्यास, भक्ति और हव्यपदार्थों से स्तुति-प्रार्थना-उपासना करें उस-उस पदार्थ की हमारी कामना सिद्ध होवे, जिससे की हम उपासक लोग धन-ऐश्वर्यों के स्वामी होवें।
स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।
यत्र देवा अमृतमानशाना स्तृतीये घामन्नध्यैरयन्त॥7॥
वह परमात्मा हमारा भाई और सम्बन्धी के समान सहायक है, सकल जगत का उत्पादक है, वही सब कामों को पूर्ण करने वाला है। वह समस्त लोक-लोकान्तरों को, स्थान-स्थान को जानता है। यह वही परमात्मा है जिसके आश्रय में योगीजन मोक्ष को प्राप्त करते हुए, मोक्षानन्द का सेवन करते हुए तीसरे धाम अर्थात परब्रह्म परमात्मा के आश्रय से प्राप्त मोक्षानन्द में स्वेच्छापूर्वक विचरण करते हैं। उसी परमात्मा की हम भक्ति करते हैं।
अग्ने नय सुपथा राय अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेँम॥8॥
हे ज्ञान प्रकाश स्वरूप, सन्मार्ग प्रदर्शक, दिव्य सामर्थ युक्त परमात्मन! हमें ज्ञान-विज्ञान, ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति कराने के लिये धर्मयुक्त, कल्याण कारी मार्ग से ले चलें। आप समस्त ज्ञानों और कर्मों को जानने वाले हैं। हमसे कुटिलता युक्त पाप रूप कर्म को दूर कीजिये। इस हेतु से हम आपकी विविध प्रकार की और अधिकाधिक स्तुति-प्रार्थना-उपासना सत्कार व नम्रतापूर्वक करते हैं।
 दीपक जलाने का मंत्र :: ॐ भूर्भुव: स्व:। 
हे सर्वरक्षक परमेश्वर! आप सब के उत्पादक, प्राणाधार सब दु:खों को दूर करने वाले सुखस्वरूप एवं सुखदाता हैं। आपकी कृपा से मेरा यह अनुष्ठान सफल होवे। अथवा हे ईश्वर आप सत,चित्त, आनन्दस्वरूप हैं। आपकी कृपा से यह यज्ञीय अग्नि पृथिवीलोक में, अन्तरिक्ष में, द्युलोक में विस्तीर्ण होकर लोकोपकारक सिद्ध होवे।
 यज्ञ कुण्ड में अग्नि स्थापित करने का मंत्र :: 
ॐ भूर्भुव: स्वर्द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा।
तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठेऽग्निमन्नादमन्नाद्यायादधे॥
हे सर्वरक्षक सबके उत्पादक और प्राणाधार दुखविनाशक सुखस्वरूप एवं सुखप्रदाता परमेश्वर! आपकी कृपा से मैं महत्ता या गरिमा में द्युलोक के समान, श्रेष्ठता या विस्तार में पृथिवी लोक के समान हो जाऊं । देवयज्ञ की आधारभूमि पृथिवी! के तल पर हव्य द्रव्यों का भक्षण करने वाली यज्ञीय अग्नि को, भक्षणीय अन्न एवं धर्मानुकूल भोगों की प्राप्ति के लिए तथा भक्षण सामर्थ्य और भोग सामर्थ्य प्राप्ति के लिए यज्ञकुण्ड में स्थापित करता हूँ ।
अग्नि प्रदीप्त करने का मंत्र :: 
ॐ उद् बुध्यस्वाग्ने प्रतिजागृहित्व्मिष्टापूर्ते सं सृजेथामयं च।
अस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्च सीदत॥
मैं सर्वरक्षक परमेश्वर का स्मरण करता हुअ यहाँ कामना करता हूँ कि हे यज्ञाग्ने ! तू भलीभांति उद्दीप्त हो, और प्रत्येक समिधा को प्रज्वलित करती हुई पर्याप्त ज्वालामयी हो जा। तू और यह यजमान इष्ट और पूर्त्त कर्मों को मिल्कर सम्पादित करें। इस अति उत्कृष्ट, भव्य और अत्युच्च यज्ञशाला में सब विद्वान और यज्ञकर्त्ता जन मिलकर बैठें।
घृत की तीन समिधायें रखने के मंत्र :: 
इस मंत्र से प्रथम समिधा रखें :-
ॐ अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्द्धस्व चेद्ध वर्धयचास्मान् प्रजयापशुभिर्ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा। 
इदमग्नेय जातवेदसे इदं न मम॥1॥
मैं सर्वरक्षक परमेश्वर का स्मरण करता हुआ कामना करता हूँ कि हे सब उत्पन्न पदार्थों के प्रकाशक अग्नि! यह समिधा तेरे जीवन का हेतु है ज्वलित रहने का आधार है।उस समिधा से तू प्रदीप्त हो, सबको प्रकाशित कर और सब को यज्ञीय लाभों से लाभान्वित कर, और हमें संतान से, पशु सम्पित्त से बढ़ा। ब्रह्मतेज (विद्या, ब्रह्मचर्य एवं अध्यात्मिक तेज से, और अन्नादि धन-ऐश्वयर् तथा भक्षण एवं भोग-सामथ्यर् से समृद्ध कर। मैं त्यागभाव से यह समिधा- हवि प्रदान करना चाहता हूँ।  यह आहुति जातवेदस संज्ञक अग्नि के लिए है, यह मेरी नही है। 
इन दो मन्त्रों से दूसरी समिधा रखें :-
ओं समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथम्। 
आस्मिन हव्या जुहोतन स्वाहा। इदमग्नये इदन्न मम॥2॥ 
मैं सर्वरक्षक परमेश्वर का स्मरण करते हुए वेद के आदेश का कथन करता हूँ कि हे मनुष्यो! समिधा के द्वारा यज्ञाग्नि की सेवा करो-भक्ति से यज्ञ करो। घृताहुतियों से गतिशील एवं अतिथ के समान प्रथम सत्करणीय यज्ञाग्नि को प्रबुद्ध करो, इसमें हव्यों को भलीभांति अपिर्त करो।मैं त्यागभाव से यह समिधा- हवि प्रदान करना चाहता हूँ। यह आहुति यज्ञाग्नि के लिए है, यह मेरी नहीं है। 
सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन अग्नये जातवेदसे स्वाहा। 
इदमग्नये जातवेदसे इदन्न मम॥3॥  
मैं सर्वरक्षक परमेश्वर के स्मरणपूर्वक वेद के आदेश का कथन करता हूँ कि हे मनुष्यों! अच्छी प्रकार प्रदीप्त ज्वालायुक्त जातवेदस् संज्ञक अग्नि के लिए वस्तुमात्र में व्याप्त एवं उनकी प्रकाशक अग्नि के लिए उत्कृष्ट घृत की आहुतियाँ दो . मैं त्याग भाव से समिधा की आहुति प्रदान करता हूँ यह आहुति जातवेदस् संज्ञक माध्यमिक अग्नि के लिए है, यह मेरी नहीं।
 इस मन्त्र से तीसरी समिधा रखें :-
तन्त्वा समिदि्भरङि्गरो घृतेन वर्द्धयामसि। 
बृहच्छोचा यविष्ठय स्वाहा।इदमग्नेऽङिगरसे इदं न मम॥4॥  
मैं सर्वरक्षक परमेश्वर का स्मरण करते हुए यह कथन करता हूँ कि हे तीव्र प्रज्वलित यज्ञाग्नि! तुझे हम समिधायों से और धृताहुतियों से बढ़ाते हैं।हे पदार्थों को मिलाने और पृथक करने की महान शक्ति से सम्पन्न अग्नि ! तू बहुत अधिक प्रदीप्त हो, मैं त्यागभाव से समिधा की आहुति प्रदान करता हूँ। यह अंगिरस संज्ञक पृथिवीस्थ अग्नि के लिए है, यह मेरी नहीं है।
नीचे लिखे मन्त्र से घृत की पांच आहुति देवें ::
ओम् अयं त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वद्धर्स्व चेद्ध वधर्य चास्मान् प्रजयापशुभिब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन
समेधय स्वाहा। इदमग्नये जातवेदसे इदं न मम॥5॥
मैं सर्वरक्षक परमेश्वर का स्मरण करता हुआ कामना करता हूँ कि हे सब उत्पन्न पदार्थों के प्रकाशक अग्नि! यह धृत जो जीवन का हेतु है ज्वलित रहने का आधार है।उस धृत से तू प्रदीप्त हो और ज्वालाओं से बढ़ तथा सबको प्रकाशित कर सब को यज्ञीय लाभों से लाभान्वित कर और हमें संतान से, पशु सम्पित्त से बढ़ा। विद्या, ब्रह्मचर्य एवं आध्यात्मिक तेज से, और अन्नादि धन ऐश्वर्य तथा भक्षण एवं भोग सामर्थ्य से समृद्ध कर। मैं त्यागभाव से यह धृत प्रदान करता हूँ ।यह आहुति जातवेदस संज्ञक अग्नि के लिए है, यह मेरी नहीं है।
जल प्रसेचन के मन्त्र ::
इस मन्त्र से पूर्व दिशा में :-
ओम् अदितेऽनुमन्यस्व।  
हे सर्व रक्षक अखण्ड परमेश्वर! मेरे इस यज्ञ कर्म का अनुमोदन कर अर्थात मेरा यह यज्ञानुष्ठान अखिण्डत रूप से सम्पन्न होता रहे।अथवा, पूर्व दिशा में, जलसिञ्चन के सदृश, मैं यज्ञीय पवित्र भावनाओं का प्रचार प्रसार निबार्ध रूप से कर सकूँ, इस कार्य में मेरी सहायता कीजिये।
इस मंत्र से पश्चिम दिशा में :-
ओम् अनुमतेऽनुमन्यस्व। 
हे सर्व रक्षक यज्ञीय एवं ईश्वरीय संस्कारों के अनुकूल बुद्धि बनाने में समर्थ परमात्मन! मेरे इस यज्ञकर्म का अनुकूलता से अनुमोदन कर अर्थात यह यज्ञनुष्ठान आप की कृपा से सम्पन्न होता रहे अथवा पश्चिम दिशा में जल सिञ्चन के सदृश मैं यज्ञीय पवित्र भावनाओं का प्रचार-प्रसार आपकी कृपा से कर सकूँ, इस कार्य में मेरी सहायता कीजिये।
इस मंत्र से उत्तर दिशा में :-
ओम् सरस्वत्यनुमन्यस्व। 
हे सर्वरक्षक प्रशस्त ज्ञानस्वरूप एवं ज्ञानदाता परमेश्वर! मेरे इस यज्ञकर्म का अनुमोदन कर अर्थात आप द्वारा प्रदत्त उत्तम बुद्वि से मेरा यह यज्ञनुष्ठान सम्यक विधि से सम्पन्न होता रहे।अथवा, उत्तर दिशा में जलसिञ्चन के सदृश मैं यज्ञीय ज्ञान का प्रचार-प्रसार आपकी कृपा से करता रहूँ, इस कार्य में मेरी सहायता कीजिये।
इस मन्त्र से वेदी के चारों और जल छिड़कावें :- 
ओं देव सवितः प्रसुव यज्ञं प्रसुव यज्ञपतिं भगाय।दिव्यो
गन्धर्वः केतपूः केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु॥ 
हे सर्वरक्षक दिव्यगुण शक्ति सम्पन्न सब जगत के उत्पादक परमेश्वर! मेरे इस यज्ञ कर्म को बढाओ । आनन्द, ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति के लिए याग्यकर्त्ता को यज्ञकर्म की अभिवृद्धि के लिए और अधिक प्रेरित करो।आप विलक्षण ज्ञान के प्रकाशक हैं पवित्र वेदवाणी अथवा पवित्र ज्ञान के आश्रय हैं, ज्ञान-विज्ञान से बुद्धि मन को पवित्र करने वाले हैं, अतः हमारे बुद्धि-मन को पवित्र कीजिये।आप वाणी के स्वामी हैं, अतः हमारी वाणी को मधुर बनाइये। अथवा, चारों दिशायों में जल सिञ्चन के सदृश मैं यज्ञीय पवित्र भावनाओं का प्रचार-प्रसार कर सकूँ, इस कार्य के लिए मुझे उत्तम ज्ञान, पवित्र आचरण और मधुर-प्रशस्त वाणी में समर्थ बनाइये।
चार घी की आहुतियाँ ::
इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग में जलती हुई समिधा पर आहुति देवें।
ओम् अग्नये स्वाहा। इदमग्नये इदं न मम॥ 
सर्व रक्षक प्रकाश स्वरूप दोष नाशक परमात्मा के लिए मैं त्याग भावना से धृत की हवि देता हूँ।यह आहुति अग्नि स्वरूप परमात्मा के लिए है, यह मेरी नहीं है अथवा, यज्ञाग्नि के लिए यह आहुति प्रदान करता हूँ।
इस मन्त्र से वेदी के दक्षिण भाग में जलती हुई समिधा पर आहुति देवें :-
ओम् सोमाय स्वाहा। इदं सोमाय इदं न मम॥ 
सर्व रक्षक, शांति-सुख-स्वरूप और इनके दाता परमात्मा के लिए त्याग भावना से धृत की आहुति देता हूँ अथवा आनन्द प्रद चन्द्रमा के लिए यह आहुति प्रदान करता हूँ।
इन दो मन्त्रों से यज्ञ कुण्ड के मध्य में दो आहुति देवें :- 
ओम् प्रजापतये स्वाहा। इदं प्रजापतये इदं न मम॥ 
सर्व रक्षक प्रजा अर्थात सब जगत के पालक, स्वामी, परमात्मा के लिए मैं त्याग भाव से यह आहुति देता हूँ अथवा प्रजापति सूर्य के लिए यह आहुति प्रदान करता हूँ। 
ओम् इन्द्राय स्वाहा। इदं इन्द्राय इदं न मम॥ 
सर्वरक्षक परमऐश्वर्य-सम्पन्न तथा उसके दाता परमेश्वर के लिए मैं यह आहुति प्रदान करता हूँ अथवा ऐश्वयर्शाली, शक्ति शाली वायु व विद्युत के लिए यह आहुति प्रदान करता हूँ।
दैनिक अग्निहोत्र की प्रधान आहुतियां-प्रातः कालीन आहुति के मन्त्र :-
इन मन्त्रों से घृत के साथ साथ सामग्री आदि अन्य होम द्रव्यों की भी आहुतियां दें।
ओम् ज्योतिर्ज्योति: सूर्य: स्वाहा॥1॥ 
सर्व रक्षक, सर्व गति शील सबका प्रेरक परमात्मा प्रकाश स्वरूप है और प्रत्येक प्रकाश स्वरूप वस्तु या ज्योति परमात्ममय  परमेश्वर से व्याप्त है।उस परमेश्वर अथवा ज्योतिष्मान उदय कालीन सूर्य के लिए मैं यह आहुति देता हूँ
ओम् सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वर्च: स्वाहा॥2॥
 सर्व रक्षक, सर्व गति शील और सबका प्रेरक परमात्मा तेज स्वरूप है, जैसे प्रकाश तेज स्वरूप होता है, उस परमात्मा अथवा तेजःस्वरूप प्रातःकालीन सूर्य के लिए मैं यह आहुति देता हूँ।
ओम् ज्योतिः सूर्य: सुर्योज्योति स्वाहा॥3॥ 
सर्व रक्षक, ब्रह्म ज्योति ब्रह्म ज्ञान परमात्म मय है परमात्मा की द्योतक है परमात्मा ही ज्ञान का प्रकाशक है। मैं ऐसे परमात्मा अथवा सबके प्रकाशक सूर्य के लिए यह आहुति प्रदान करता हूं।
ओम् सजूर्देवेन सवित्रा सजूरूषसेन्द्रव्यता जुषाणः सूर्यो वेतु स्वाहा॥4॥ 
सर्व रक्षक, सर्व व्यापक, सर्वत्र गति शील परमात्मा सर्वोत्पादक, प्रकाश एवं प्रकाशक सूर्य से प्रीति रखने वाला, तथा ऐश्वयर्शाली प्रसन्न्ता, शक्ति तथा धनैश्वर्य देने वाली प्राणमयी उषा से प्रीति रखने वाला है अर्थात प्रीति पूर्वक उनको उत्पन्न कर प्रकाशित करने वाला है, हमारे द्वारा स्तुति किया हुआ वह परमात्मा हमें प्राप्त हो  हमारी आत्मा में प्रकाशित हो।उस परमात्मा की प्राप्ति के लिए मैं यज्ञाग्नि में आहुति प्रदान करता हूं।अथवा सबके प्रेरक और उत्पादक परमात्मा से संयुक्त और प्रसन्नता, शक्ति, ऐश्वयर्युक्त उषा से संयुक्त प्रातः कालीन सूर्य हमारे द्वारा आहुतिदान का सम्यक् प्रकार भक्षण करे और उनको वातावरण में व्याप्त कर दे, जिससे यज्ञ का अधिकाधिक लाभ हो।
प्रातः कालीन आहुति के समान मन्त्र :: 
ओम् भूरग्नये प्राणाय स्वाहा। इदमग्नये प्राणाय-इदं न मम॥1॥
सर्व रक्षक, सबके उत्पादक एवं सत स्वरूप, सर्वत्र व्यापक, प्राण स्वरूप परमात्मा की प्राप्ति के लिए मैं यह आहुति देता हूं।यह आहुति अग्नि और प्राणसंज्ञक परमात्मा के लिए है। यह मेरी नही हैअथवा परमेश्वर के स्मरण पूर्वक, पृथिवी स्थानीय अग्नि के लिए और प्राणवायु की शुद्धि के लिए मैं यह आहुति प्रदान करता हूँ।
ओम् भुवर्वायवेऽपानाय स्वाहा।
इदं वायवेऽपानाय-इदं न मम॥2॥ 
सर्व रक्षक, सब दुखों से छुड़ाने वाले और चित्तस्वरूप सर्वत्र गतिशील दोषों को दूर करने वाले परमात्मा की प्राप्ति के लिए मैं आहुति प्रदान करता हूँ। यह आहुति वायु और अपान संज्ञक परमात्मा के लिए है।यह मेरी नहीं है।अथवा परमेश्वर के स्मरणपूर्वक अन्तिरक्ष स्थानीय वायु के लिए और अपान वायु की शुद्धि के लिए मैं यह आहुति प्रदान करता हूँ।
ओम् स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।
इदमादित्याय व्यानाय-इदं न मम॥3॥
सर्वरक्षक, सुखस्वरूप एवं आनन्दस्वरूप अखण्ड और प्रकाशस्वरूप सर्वत्र व्याप्त परमात्मा की प्राप्ति के लिए मैं यह आहुति प्रदान करता हूँ।यह आहुति आदित्य और व्यान संज्ञक परमात्मा के लिए है।यह मेरी नहीं है।अथवा सर्वरक्षक परमात्मा के स्मरणपूवर्क, द्युलोकस्थानीय सूर्य के लिए और व्यान वायु की शुद्धि के लिए यह आहुति प्रदान करता हूँ।यह आहुति आदित्य और व्यान वायु के लिए है, यह मेरी नही है।
ओम् भूभुर्वः स्वरिग्नवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा।
इदमग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः-इदं न मम॥4॥ 
सर्वरक्षक, सबके उत्पादक एवं सतस्वरूप दुखों को दूर करने वाले एवं चित्तस्वरूप सुख-आनन्द स्वरूप सर्वत्र व्याप्त गतिशील प्रकाशक, सबके प्राणाधार, दोषनिवारक व्यापक स्वरूपों वाले परमात्मा के लिए मैं यह आहुति पुनः प्रदान करता हूं। यह आहुति उक्तसंज्ञक परमात्मा के लिए है, मेरी नहीं है अथवा परमेश्वर के स्मरणपूवर्क, पृथिवीअन्तिरक्षद्युलोकस्थानीय अग्नि वायु और आदित्य के लिए तथा प्राण, अपान और व्यान संज्ञक प्राणवायुओं की शुद्धि के लिए मैं यह आहुति पुनः प्रदान करता हूँ।
ओम् आपो ज्योतीरसोऽमृतं ब्रह्म भूभुर्वः स्वरों स्वाहा॥5॥
हे सर्वरक्षक परमेश्वर! आप सर्वव्यापक, सर्वप्रकाशस्वरूप एवं प्रकाशक, उपासकों द्वारा रसनीय, आस्वादनीय, आनन्द हेतु उपासनीय, नाशरिहत, अखण्ड, अजरअमर, सबसे महान, प्राणाधार और सतस्वरूप, दुखों को दूर करने वाले और चितस्वरूप, सुखस्वरूप एवं सुखप्रदाता और आनन्दस्वरूप, सबके रक्षा करनेवाले हैं।ये सब आपके नाम हैं, इन नामों वाले आप परमेश्वर की प्राप्ति के लिए मैं आहुति प्रदान करता हूँ।
ओम् यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते।
तया मामद्य मेधयाऽग्ने मेधाविनं कुरू स्वाहा॥6॥ 
हे सर्वरक्षक ज्ञानस्वरूप परमेश्वर! जिस धारणावती ज्ञान, गुण, उत्तम विचार आदि को धारण करने वाली बुद्धि की दिव्य गुणों वाले विद्वान और पालक जन माता-पिता आदि ज्ञानवृद्ध और वयोवृद्ध जन उपासना करते हैं अर्थात चाहते हैं और उसकी प्राप्ति के लिये यत्नशील रहते हैं उस मेधा बुद्धि से मुझे आज मेधा बुद्धि वाला बनाओ।इस प्रार्थना के साथ मैं यह आहुति प्रदान करता हूँ।
ओम् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव।
यद भद्रं तन्न आ सुव स्वाहा॥7॥
हे सर्व रक्षक दिव्य गुण शक्ति सम्पन्न, सबके उत्पादक और प्रेरक परमात्मन्! आप कृपा करके हमारे सब दुगुर्ण, दुव्यर्सन और दुखों को दूर कीजिए और जो कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव हैं उनको हमें भली-भाँति प्राप्त कराइये।
अग्ने नय सुपथा राय अस्मान विश्वानि देव वयुनानि विद्वान।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्ति विधेम स्वाहा॥8॥ 
हे ज्ञान प्रकाश स्वरूप, सन्मार्ग प्रदर्शक दिव्य सामर्थ्य युक्त परमात्मन्! हमको ज्ञानविज्ञान, ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति के लिए धमर्युक्त कल्याण कारी मार्ग से ले चल। आप समस्त ज्ञानविज्ञानों और कर्मों को जानने वाले हैं हमसे कुटिलता युक्त पाप रूप कर्म को दूर कीजिये। इस हेतु से हम आपकी विविध प्रकार की और अधिकाधिक स्तुति-प्रार्थना-उपासना-सत्कार नम्रता पूर्वक करते हैं।
सायं कालीन आहुति के मन्त्र ::
ओम् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्नि: स्वाहा॥1॥
सर्व रक्षक, सर्वत्र व्यापक, दोष निवारक परमात्मा ज्योति स्वरूप व प्रकाश स्वरूप है, और प्रत्येक ज्योति या ज्योतियुक्त पदार्थ अग्निसंज्ञक परमात्मा से व्याप्त है। मैं उस परमात्मा की प्राप्ति के लिए अथवा ज्योतिःस्वरूप अग्नि के लिए आहुति प्रदान करता हूँ।
ओम् अग्निवर्चो ज्योतिर्वर्च: स्वाहा॥2॥ 
सर्व रक्षक, सर्वत्र व्यापक, दोष निवारक परमात्मा तेज स्वरूप है, जैसे प्रत्येक प्रकाशयुक्त वस्तु या प्रकाश तेज स्वरूप होता है, मैं उस परमात्मा की प्राप्ति के लिए अथवा तेजः स्वरूप अग्नि के लिए आहुति प्रदान करता हूँ।
इस तीसरे मन्त्र को मन में उच्चारण करके आहुति देवें :-
ओम् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्नि: स्वाहा॥3॥ 
ज्ञान-विज्ञान अग्निसंज्ञक परमात्मा से उत्पन्न अथवा उसका द्योतक है। मैं उस परमात्मा की प्राप्ति हेतु और सबको प्रकाशित करने वाले अग्नि के लिए आहुति प्रदान करता हूँ।
ओम् सजूर्देवेन सवित्रा सजुरात्र्येन्द्रवत्या जुषाणो अग्निर्वेतु स्वाहा॥4॥ 
सर्व रक्षक, सर्वत्र व्यापक, दोष निवारक, प्रकाश स्वरूप परमात्मा प्रकाश स्वरूप एवं प्रकाशक सूर्य से प्रीति रखने वाला तथा प्राणमयी एवं चंद्रतारक प्रकाशमयी रात्रि से प्रीति रखने वाला है अर्थांत प्रीतिपूवर्क उनको उत्पन्न कर, प्रकाशित करने वाला है, हमारे द्वारा स्तुति किया जाता हुआ वह परमात्मा हमें प्राप्त हो। हमारी आत्मा में प्रकाशित हो। उस परमात्मा की प्राप्ति के लिए मैं यज्ञाग्नि में आहुति प्रदान करता हूँ।
अधिदैवत पक्ष में सबके प्रकाशक सूर्य से और सबके प्रेरक और उत्पादक परमात्मा से संयुक्त और प्राण एवं चंद्रतारक प्रकाशमयी रात्रि से संयुक्त भौतिक अग्नि हमारे द्वारा आहुतिदान से प्रशंसित किया जाता हुआ हमारी आहुतियों का सम्यक प्रकार भक्षण करे और उन्हे वातावरण में व्याप्त कर दे जिससे यज्ञ का अधिकाधिक लाभ पहुँचे।
सायं कालीन आहुति के शेष समान मन्त्र ::
ओम् भूरग्नये प्राणाय स्वाहा। इदमग्नये प्राणाय-इदं न मम॥1॥
ओम् भुवर्वायवेऽपानाय स्वाहा। इदं वायवेऽपानाय-इदं न मम॥2॥
ओम् स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।
इदमादित्याय व्यानाय-इदं न मम॥3॥
ओम् भूर्भुवः स्वरिग्नवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा।
इदमग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः-इदं न मम॥4॥
ओम् आपो ज्योतीरसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा॥5॥
ओम् यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते।
तया मामद्य मेधयाऽग्ने मेधाविनं कुरू स्वाहा॥6॥
ओम् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव।
यद भद्रं तन्न आ सुव स्वाहा॥7॥
अग्ने नय सुपथा राय अस्मान विश्वानि देव वयुनानि विद्वान।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम स्वाहा॥8॥
अब तीन बार गायत्री मन्त्र से आहुति देवें :-
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य
धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् स्वाहा। 
उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करेँ।
पूर्णाहुति :-
इस मन्त्र से तीन बार घी से पूर्णाहुति करें :-
ओम् सर्वं वै पूर्णं स्वाहा। 
हे सर्वरक्षक, परमेश्वर! आप की कृपा से निश्चयपूर्वक मेरा आज का यह समग्र यज्ञानुष्ठान पूरा हो गया है मैं यह पूर्णाहुति प्रदान करता हूँ।
पूर्णाहुति मन्त्र को तीन बार उच्चारण करना इन भावनाओं का द्योतक है कि शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक तथा पृथिवी, अन्तिरक्ष और द्युलोक के उपकार की भावना से, एवं आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक सुखों की प्राप्ति हेतु किया गया यह यज्ञानुष्ठान पूर्ण होने के बाद सफल सिद्ध हो।इसका उद्देश्य पूर्ण हो।
इति अग्निहोत्रमन्त्राः। 
मंत्र, जप और हवन-यज्ञ करते समय सावधानियाँ :: यदि जप के समय काम-क्रोधादि सताए तो काम सताएँ तो भगवान नृसिंह का चिन्तन करें। लोभ के समय दान-पुण्य करें। मोह के समय कौरवों को याद करें। सोचें कि कौरवो का कितना लम्बा-चैड़ा परिवार था, किन्तु अंत क्या हुआ। अहं सताए तो जो अपने से धन, सत्ता एवं रूप में बड़े हों, उनका चिन्तन करें। इस प्रकार इन विकारों का निवारण करके, अपना विवेक जाग्रत रखकर जो अपनी साधना करता है, उसका इष्ट मन्त्र जल्दी फलीभूत होता है। विधिपूर्वक किया गया गुरूमन्त्र का अनुष्ठान साधक के तन को स्वस्थ, मन को प्रसन्न एवं बुद्धि को सूक्ष्म लीन करके मोक्ष प्राप्ति में सहायक होता है।
अपनी रूचि के अनुसार जप करते समय भगवान् के सगुण अथवा निर्गुण स्वरूप में मन को एकाग्र किया जा सकता है। सगुण का विचार करेंगे तब भी अन्तिम प्राप्ति तो निर्गुण की ही होगी।
जप में साधन और साध्य एक ही हैं जबकि अन्य साधना में अलग हैं। योग में अष्टांग योग का अभ्यास साधना है और निर्विकल्प समाधि साध्य है। वेदांत में आत्मविचार साधन है और तुरीयावस्था साध्य है। किन्तु जप-साधना में जप के द्वारा ही अजपा स्थित को सिद्ध करना है अर्थात् सतर्कतापूर्वक किए गए जप के द्वारा सहज जप को पाना है। मन्त्र के अर्थ में तदाकार होना ही सच्ची साधना है। एक समय में एक ही मन्त्र और वह भी सद्गुरू प्रदत्त मन्त्र का ही जप करना श्रेष्ठ है। यदि भगवान् श्री कृष्ण के भक्त हैं तो भगवान् श्री राम, भगवान् शिव, दुर्गा माता, गायत्री इत्यादि में भी भगवान् श्री कृष्ण के ही दर्षन होंगे। सब एक ही ईश्वर के रूप हैं। भगवान् श्री कृष्ण की उपासना ही भगवान् श्री राम की या देवी की उपासना है। सभी को अपने इष्टदेव के लिए इसी प्रकार समझना चाहिए।भगवान् शिव की उपासना करते हैं तो सब में भगवान् शिव का ही स्वरूप देखें। 
सामान्यतया गृहस्थ के लिए केवल प्रणव यानि “ऊँ“ का जप करना उचित नहीं है। किन्तु यदि वह साधन-चतुष्ट्य से सम्पन्न है, मन विक्षेप से मुक्त है और उसमें ज्ञानयोग साधना के लिए प्रबल मुमुक्षुत्व है तो वह “ऊँ“ का जप कर सकता है। नमः शिवाय पंचाक्षरी मन्त्र है एवं "ऊँ नमः शिवाय"पडाक्षरी मऩ्त्र। अतः इसका अनुष्ठान तद्नुसार ही करें।  जब जप करते-करते मन एकदम शान्त हो जाता है एवं जप छूट जाता है तो समझें कि जप का फल ही है शान्ति और ध्यान। यदि जप करते-करते जप छूट जाए एवं मन शान्त हो जाए तो जप की चिन्ता न करें। 
ध्यान में से उठने के पश्चात पुनः अपनी नियत संख्या पूरी कर लें।
कई बार साधक को ऐसा अनुभव होता है कि पहले इतना काम-क्रोध नहीं सताता था जितना मन्त्रदीक्षा के बाद सताने लगा है। इसका कारण है पूर्वजन्म के संस्कार। जैसे घर की सफाई करने से कचरा निकलता है, ऐसे ही मन्त्र का जाप करने से कुसंस्कार निकलते हैं। न घबराना है और न ही  मन्त्र जाप छोड़ना है। ऐसी स्थिति में दो-तीन घूँट पानी पीकर थोड़ा चल-फिर लें, प्रणव का दीर्घ उच्चारण करें एवं प्रभु से प्रार्थना करें। तुरन्त इन विकारों पर विजय पाने में सहायता मिलेगी। जप तो किसी भी अवस्था में त्याज्य नहीं है। 
जब स्वप्न में मन्त्रदीक्षा मिली हो किसी साधक को पुनः प्रत्यक्ष रूप् से मन्त्रदीक्षा लेना भी अनिवार्य है। जब आप पहले किसी मन्त्र का जप करते थे तो वही मन्त्र यदि मन्त्रदीक्षा के समय मिले, तो आदर से उसका जप करना चाहिए। इससे उसकी महानता और बढ़ जाती है। जप का अर्थ होता है, मन्त्राक्षरों की मानसिक आवृत्ति के साथ मन्त्र अक्षरों के अर्थ की भावना और स्वयं का उसके प्रति समर्पण। तथ्यातः जप, मन पर अधिकार करने का अभ्यास है जिसका मुख्य उद्देश्य है मन को केन्द्रित करना क्योंकि मन व्यक्तित्व के विकास को संयम के द्वारा केन्द्रित करता है। जप के लक्ष्य में मनोनिग्रह की ही महत्ता है। जप के द्वारा मनोनिग्रह करके मानवता के मंगल में अभूत पूर्व सफलता प्राप्त की जा सकती है।
जप करने की विधियाँ वैदिक मन्त्र का जप करने की चार विधियाँ :: (1). वैखरी, (2). मध्यमा, (3). पष्चरी और (4). परा शुरु।  
शुरु में उच्च स्वर से जो जप किया जाता है, उसे वैखरी मन्त्र जप कहते हैं। दूसरी है, मध्यमा। इसमें होंठ भी नहीं हिलते एवं दूसरा कोई व्यक्ति मन्त्र को सुन भी नहीं सकता। तीसरी, पश्यन्ति। जिस जप में जिव्हा भी नहीं हिलती, हृदयपूर्वक जप होता एवं जप के अर्थ में हमारा चित्त तल्लीन होता जाता है उसे पश्यन्ति मन्त्र जप कहते हैं। चौथी है परा। मन्त्र के अर्थ में  वृत्ति स्थिर होने की तैयारी हो, मन्त्र जप करते-करते आनन्द आने लगे एवं बुद्धि परमात्मा में स्थिर होने लगे, उसे परा मन्त्र जप कहते हैं। वैखरी जप है तो अच्छा लेकिन वैखरी से भी दस गुना ज्यादा प्रभाव मध्यमा में होता है।
मध्यमा से दस गुना प्रभाव पश्यन्ति में एवं पश्यन्ति से भी दस गुना ज्यादा प्रभाव परा में होता है। इस प्रकार परा में स्थिर होकर जप करें तो वैखरी का हजार गुना प्रभाव ज्यादा हो जाएगा। जप-पूजन-साधना-उपासना में सफलता के लिये ध्यान रखें। 
मन्त्र-जप, देव-पूजन तथा उपासना के संबंध में प्रयुक्त होने वाले कतिपय विषिष्ट शब्दों का अर्थ नीचे लिखे अनुसार समझना चाहिए।
(1). पंचोपचार :- गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, तथा नैवेद्य द्वारा पूजन करने को “पंचोपचार“ कहते हैं।
(2). पंचामृत :- दूध, दही, घृत, मधु (शहद) तथा शक्कर इनके मिश्रण को “पंचामृत“ कहते हैं।
(3). पंचगव्य :- गाय के दूध, घृत, मूत्र तथा गोबर इन्हें सम्मिलित रूप में “पंचगव्य“ कहते है।
(4). षोडषोपचार :- आव्हान, आसन, पाद्य, अध्र्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, अलंकार, सुगन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, अक्षत, ताम्बुल, तथा दक्षिणा इन सबके द्वारा पूजन करने की विधि को “षोडषोपचार“ कहते है। 
(5). दषोपचार :- पाद्य, अर्ध्य, आचमनीय, मधुपक्र, आचमन, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप तथा नैवेद्य द्वारा पूजन करने की विधि को “दषोपचार“ कहते है। 
(6). त्रिधातु :- सोना, चाँदी, लोहा। कुछ आचार्य सोना, चांदी और तांबे के मिश्रण को भी त्रिधातु कहते हैं। 
(7). पंचधातु :- सोना, चाँदी, लोहा, तांबा और जस्ता। 
(8). अष्टधातु :- सोना, चांदी, लोहा, तांबा, जस्ता, रांगा, कांसा और पारा। 
(9). नैवेद्य :- खीर, मिष्ठान आदि मीठी वस्तुएँ। 
(10). नवग्रह :- सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरू, शुक्र, शनि, राहु और केतु। 
(11). नवरत्न :- माणिक्य, मोती, मूंगा, पन्ना, पुखराज, हीरा, नीलम, गोमेद, और वैदूर्य। 
(12). अष्टगन्ध :- (12.1). अगर, तगर, गोरोचन, केसर, कस्तूरी, ष्वेत चन्दन लाल चन्दन और सिन्दूर (देव पूजन हेतु)। (12.2). अगर लालचन्दन, हल्दी, कुंकुम, गोरोचन, जटामांसी, षिलाजीत और कपूर (देवी पूजन हेतु)। 
(13). गन्धत्रय :- सिन्दूर, हल्दी, कुंकुम। 
(14). पड्चांग :- किसी वनस्पति के पुष्प, पत्र, फल, छाल और जड़। 
(15). दशांश :- दसवाँ भाग। 
(16). सम्पुट :- मिट्टी के दो षकोरों को एक-दूसरे के मुँह से मिला कर बन्द करना। 
(17). भोजपत्र :- एक वृक्ष की छाल (यह पंसारियो के यहाँ मिलती है) मन्त्र प्रयोग के लिए भोजपत्र का ऐसा टुकड़ा लेना चाहिए, जो कटा-फटा न हो (इसके बड़े-बड़े टुकड़े भी आते हैं) 
(18). मन्त्र धारण :- किसी भी मन्त्र को स्त्री पुरूष दोनों ही कण्ठ में धारण कर सकते हैं, परन्तु यदि भुजा में धारण करना चाहे तो पुरूष को अपनी दायीं भुजा में और स्त्री को बायीं भुजा में धारण करना चाहिए। 
(19). ताबीज :- यह तांबे के बने हुए बाजार में बहुतायत से मिलते हैं। ये गोल तथा चपटे दो आकारों में मिलते हैं। सोना, चांदी, त्रिधातु तथा अष्टधातु आदि के ताबीज सुनारों से कहकर बनवाये जा सकते हैं। 
(20). मुद्राएँ :- हाथों की अंगुलियों को किसी विषेष स्थिति में लाने की क्रिया को “मुद्रा“ कहा जाता है। मुद्राएं अनेक प्रकार की होती हैं। 
(21). स्नान :- यह दो प्रकार का होता है। बाह्य तथा आन्तरिक, बाह्य स्नान जल से तथा आन्तरिक स्नान मन्त्र जप द्वारा किया जाता है। 
(22). तर्पण :- नदी, सरोवर आदि के जल में घुटनों तक पानी में खड़े होकर, हाथ की अड्जलि द्वारा जल गिराने की क्रिया को "तर्पण" कहा जाता है। जहाँ नदी, सरोवर आदि न हो, वहाँ किसी पात्र में पानी भरकर भी “तर्पण“ की क्रिया सम्पन्न कर ली जाती है। 
(23). आचमन :- हाथ में जल लेकर उसे अपने मुँह में डालने की क्रिया को “आचमन“ कहते है। 
(24). करन्यास :- अंगूठा, अंगुली, करतल तथा करपृष्ठ पर मन्त्र जपने को “करन्यास“ कहा जाता है। 
(25). हृदययविन्यास :- हृदय आदि अंगों को स्पर्ष करते हुए मन्त्रोच्चारण को “हृदयाविन्यास“ कहते हैं। 
(26). अंगन्यास :- हृंदय, षिर, षिखा, कवच, नेत्र, एवं करतल- इन छः अंगो से मन्त्र का न्यास करने की क्रिया को “अंगन्यास“ कहते है। 
(27). अर्ध्य  :- षंख, अंजलि आदि द्वारा जल छोड़ने को अर्ध्य देना कहा जाता है। घड़ा या कलश में पानी भरकर रखने को अर्ध्य-स्थापन कहते है। अध्र्यपात्र में दूध, तिल, कुषा के टुकड़े, सरसौं, जौ, पुष्प, चावल एवं कुंकुम इन सबको डाला जाता है।
(28). पंचायतन पूजा :- पंचायतन पूजा में पाँच देवताओं "विष्णु, गणेश, सूर्य, शक्ति तथा शिव" का पूजन किया जाता है। 
(29). काण्डानुसमय :- एक देवता के पूजाकाण्ड को समाप्त कर, अन्य देवता की पूजा करने का "कण्डानुसमय" कहते हैं। 
(30). उद्वर्तन :- उबटन। 
(31). अभिषेक :- मन्त्रोच्चारण करते हुए षंख से सुगन्धित जल छोड़ने को अभिषेक कहते हैं। 
(32). उत्तरीय :- वस्त्र। 
(33). उपवीत :- यज्ञोपवीत (जनेऊ)। 
34. समिधा :- जिन लकडि़यों में अग्नि प्रज्ज्वलित कर होम किया जाता है, उन्हें समिधा कहते हैं। समिधा के लिए आक, पलाष, खदिर, अपामार्ग, पीपल, उदुम्बर, षमी, कुषा तथा आम की लकडि़यों को ग्राह्य माना गया है। 
(35). प्रणव :- ऊँ।
(36). मन्त्र ऋषि :- जिस व्यक्ति ने सर्वप्रथम षिवजी के मुख से मन्त्र सुनकर उसे विधिवत् सिद्ध किया था, वह उस मन्त्र का ऋषि कहलाता है। उस ऋषि को मन्त्र का आदि गुरू मानकर श्रद्धपूर्वक उसका मस्तक में न्यास किया जाता है। 
(37). छन्द :- मन्त्र को सर्वतोभावेन आच्छादित करने की विधि को “छन्द“ कहते है। यह अक्षरों अथवा पदों से बनता है। मन्त्र का उच्चारण चूंकि मुख से होता है अतः छनद का मुख से न्यास किया जाता है। 
(38). देवता :- जीवमात्र के समस्त क्रिया-कलापों को प्रेरित, संचालित एवं नियंत्रित करने वाली प्राणषक्ति को देवता कहते हैं। यह षक्ति व्यक्ति के हृदय में स्थित होती है, अतः देवता का न्यास हृदय में किया जाता है। 
(39. बीज :- मन्त्र षक्ति को उद्भावित करने वाले तत्व को बीज कहते हैं। इसका न्यास गुह्यागं में किया जाता है।
(40). षक्ति :- जिसकी सहायता से बीज मन्त्र बन जाता है, वह तत्व षक्ति कहलाता है। उसका न्यास पाद स्थान में करते है।
(41). विनियोग :- मन्त्र को फल की दिषा का निर्देष देना विनियोग कहलाता है। 
(42). उपांषु जप :- जिह्ना एवं होठ को हिलाते हुए केवल स्वयं को सुनायी पड़ने योग्य मन्त्रोच्चारण को उपांषु जप कहते हैं। 
(43). मानस जप :- मन्त्र, मन्त्रार्थ एवं देवता में मन लगाकर मन्त्र का उच्चारण करने को मानस जप कहते हैं।
(44). अग्नि की 7  जिह्नाएँ :- (44.1.1) हिरण्या, (44.1.2). गगना, (44.1.3). रक्ता, (44.1.4). कृष्णा, (44.1.5). सुप्रभा, (44.1.6). बहुरूपा एवं (44.1.7). अतिरिक्ता। 
कतिपय आचार्याें ने अग्नि की सप्त जिह्नाओं के नाम इस प्रकार बताये हैं :- (44.2.1). काली, (44.2.2). कराली, (44.2.3). मनोभवा, (44.2.4). सुलोहिता, (44.2.5). धूम्रवर्णा, (44.2.6). स्फुलिंगिनी तथा (44.2.7). विष्वरूचि। 
(45). प्रदिक्षणा :- देवता को साष्टांग दण्डवत् करने के पष्चात इष्टदेव की परिक्रमा करने को प्रदक्षिणा कहते हैं। विष्णु, षिव, षक्ति, गणेष और सूर्य आदि देवताओं की 4, 1, 2, 1, 3 अथवा 7 परिक्रमाएँ करनी चाहिए। 
(46). 5 प्रकार की साधना :-
(46.1). अभाविनी :- पूजा के साधना तथा उपकरणों के अभाव से, मन से अथवा जलमात्र से जो पूजा साधना की जाती है, उसे अभाविनी कहते हैं। 
(46.2). त्रासी :- जो त्रस्त व्यक्ति तत्काल अथवा उपलब्ध उपचारों से या मानसापचारों से पूजन करता है, उसे त्रासी कहते हैं। यह साधना समस्त सिद्धियाँ देती है। 
(46.3). दोर्वोधी :- बालक, वृद्ध, स्त्री, मूर्ख अथवा ज्ञानी व्यक्ति द्वारा बिना जानकारी के की जानी वाली पूजा दाबांधी कही जाती है। 
(46.4). सौतकी :- सूत की व्यक्ति मानसिक सन्ध्या करा कामना होने पर मानसिक पूजन तथा निष्काम होने पर सब कार्य करें। ऐसी साधना को भौतिकी कहा जाता है।
(46.5). आतुरो :- रोगी व्यक्ति स्नान एवं पूजन न करें। देव मूर्ति अथवा सूर्यमण्डल की ओर देखकर, एक बार मूल मन्त्र का जप कर उस पर पुष्प चढ़ायें। फिर रोग की समाप्ति पर स्नान करके गुरू तथा ब्राम्हणों की पूजा करके पूजा विच्छेद का दोष मुझे न लगें-ऐसी प्रार्थना करके विधि पूर्वक इष्ट देव का पूजन करे तो इस साधना को आतुर कहा जाएगा। अपने श्रम का महत्व- पूजा की वस्तुएं स्वयं लाकर तन्मय भाव से पूजन करने से पूर्ण फल प्राप्त होता है तथा अन्य व्यक्ति द्वारा दिए गए साधनों से पूजा करने पर आधा फल मिलता है। 
खण्ड 2  :: यज्ञ, दान और तप धर्म के तीन स्तम्भ हैं। पहला आधार स्तम्भ यज्ञ है। देवताओं के हेतु द्रव्य का त्याग ही यज्ञ है। देवता से तात्पर्य अग्नि-इन्द्रादि देवता, द्रव्य से तात्पर्य धन-धान्य, दही, चावल, जौं तथा सोम इत्यादि तथा त्याग से तात्पर्य है, उन देवताओं के उद्देश्य से किया जाने वाला ऐसा कृत्य जिसमें अपने स्वत्व की निवृत्ति हो।
यज्ञों के मुख्यतया दो विभाग :- (1). श्रौत तथा (2). स्मार्त्त। 
श्रुति प्रति पादित यज्ञों को श्रौत यज्ञ तथा स्मृति प्रति पादित यज्ञों को स्मार्त्त यज्ञ कहते हैं। श्रौत यज्ञों में केवल श्रुति प्रति पादित मन्त्रों का प्रयोग होता है तथा स्मार्त्त यज्ञों में वैदिक, पौराणिक तथा तान्त्रिक मन्त्रों का प्रयोग होता है।
स्मृतियों में तथा गृह्य सूत्रों में औपासन होम, वैश्व देव, पार्णव, अष्टका, मासिक श्राद्ध, श्रवणा तथा शूलगव इन सात यज्ञों का वर्णन किया गया है। अतः ये स्मार्त्त यज्ञ हैं। इन्हीं को पाक यज्ञ भी कहते हैं। वैवाहिक चतुर्थी होम के अनन्तर विधि पूर्वक सम्पादित अग्नि को ही स्मार्त्ताग्नि कहते हैं। इसी अग्नि में औपासन होम, वैश्वदेव आदि स्मार्त्त यज्ञों का अनुष्ठान किया जाता है।
श्रौत यज्ञों में सात यज्ञ हविर्यज्ञ हैं तथा सात यज्ञ सोमयज्ञ हैं।
हविर्यज्ञ :- अग्नि होत्र, दर्श पूर्ण मास, आग्रयण, चातुर्मास्य, निरूढ पशुबन्ध, सौत्रामणी तथा पिण्ड पितृ यज्ञ।
सोम याग :- अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र तथा आप्तोर्याम।
कुल 21 यज्ञों में औपासन होम आदि सात यज्ञ स्मार्त्त यज्ञ तथा शेष चौदह यज्ञ श्रौत यज्ञ। इन चौदहों यज्ञों में सात यज्ञ हविर्यज्ञ जो अग्नि होत्रादि हैं तथा शेष अग्निष्टोमादि सात श्रौत यज्ञ सोम यज्ञ हैं।
जिन यज्ञों में चावल, जौ आदि की आहुति दी जाती हैं, वे हवि र्यज्ञ हैं तथा जिन यज्ञों में सोम की आहुति दी जाती है, उन्हें सोम यज्ञ कहते हैं।
जिस प्रकार स्मार्त्त यज्ञों के लिए स्मार्त्ताग्नि की स्थापना की जाती है, उसी प्रकार श्रौत यज्ञों के लिए श्रौताग्नि की स्थापना की जाती है। ये श्रौताग्नि मुख रूपसे तीन हैं :- गार्हपत्य, आहवनीय तथा दक्षिणाग्नि। इन्हीं तीन अग्नियों में समस्त श्रौत यज्ञों का अनुष्ठान किया जाता है अर्थात् अग्निहोत्र आदि सात हविर्यज्ञों का भी अनुष्ठान तथा अग्निष्टोमादि सात सोमयागों का भी अनुष्ठान।
श्रौत यज्ञों में सबसे पहले अग्निहोत्र है। अग्नि को उद्देश्य करके सायं तथा प्रातः जो होम किया जाता है, उसे अग्निहोत्र कहते हैं। दूध ही इस यज्ञ का द्रव्य है। यदि काम्य अग्नि होत्र किया जाता है, तब कामनानुसार तैल, दही, दूध, सोम, चावल, घी, फल, जल आदि अग्निहोत्र के द्रव्य होते हैं। इस सायं काल अग्निहोत्र के मुख्य देवता अग्नि तथा अङ्गदेवता प्रजापति तथा प्रातः अग्निहोत्र के मुख्य देवता सूर्य तथा प्रजापति अङ्ग देवता होते हैं।
यह अग्निहोत्र यजमान के द्वारा ही किया जाता है। यदि यजमान न कर सके तो एक ऋत्विज अर्थात् अध्वर्यु के द्वारा भी यजमान के अग्निहोत्र को किया जा सकता है।[तैत्तिरीय संहिता]
अग्नि होत्र सायं एवं प्रातः प्रति दिन किया जाता है। इसके पश्चात् दर्शपौर्णमासेष्टिका उल्लेख किया गया है जो प्रत्येक 15 दिन के बाद की जाती है। दर्श आमावास्या को कहते हैं अतः दर्शेष्टि आमावास्या को तथा पौर्णमासेष्टि पूर्णिमा को की जाती है।
दर्शेष्टि में तीन याग :: आग्नेय पुरोडाश, इन्द्रदेवताक, दधिद्रव्यक याग तथा इन्द्रदेवताक पयोद्रव्यक याग।
इसी प्रकार पौर्णमासेष्टि में आग्नेय अष्टाकपाल पुरोडाशयाग, आज्यद्रव्यक अग्निषोमीय उपांशु याग तथा अग्नीषोमीय एकादश कपाल पुरोडाशयाग। इस प्रकार कुल 6 याग किए जाते हैं।
यह दर्शपौर्णमासेष्टि समस्त काम्य इष्टियोंकी प्रकृति है। इस दर्शपौर्णमासेष्टि का अनुष्ठान यजमान अपनी पत्नी के साथ करता है तथा सहायक के रूप में अध्वर्यु, ब्रह्मा, होता तथा आग्नीध्र ये चार ऋत्विज होते हैं।
खेतों से नया-नया अन्न आने के समय आग्रयणेष्टि की जाती है। शरद ऋतु में तथा वसन्त ऋतु में यह इष्टि की जाती है। नया चावल अथवा जौ इस इष्टि का प्रधान द्रव्य है, जो इन्द्राग्नी तथा द्यावा पृथिवी इन दोनों देवताओं के लिए होता है। टूटे हुए जिस रथ की मरम्मत की गई है, वह रथ इस इष्टि की दक्षिणा होती है। इसके अतिरिक्त रेशमी वस्त्र, मधुपर्क तथा वर्षा में पहनने योग्य वस्त्र दक्षिणा के रूप में दिया जाता है।
इसको किए जाने के बाद ही याज्ञिकों द्वारा नये अन्न का प्रयोग किया जाता है।
प्रत्येक चौथे महीने जो याग किया जाता है, उसका नाम चातुर्मास्य है। इसमें चार पर्व हैं :- वैश्व देव पर्व, वरुण प्रघास पर्व, साकमेध पर्व तथा शुनासारीय। पहला पर्व वैश्वदेव फाल्गुन मास की पूर्णिमा को किया जाता है। अग्नि, सोम, सविता, सरस्वती, पूषा, मरुत्, स्वतवान् तथा द्यावापृथिवी ये वैश्वदेव पर्व के देवता हैं। पुरोडाश, चरु, पयस्या, सोम ये द्रव्य हैं, जिनकी आहुति दी जाती है। इसका फल भी है। सन्तति के उद्देश्य से वैश्व देव पर्व का अनुष्ठान किया जाता है।
आषाढ मास की पूर्णिमा को वरुण प्रघास पर्व का अनुष्ठान किया जाता है। इसमें दो वेदी बनाई जाती हैं, एक उत्तर वेदी तथा दूसरी दक्षिण वेदी। अध्वर्यु उत्तर वेदी पर अनुष्ठान करता है तथा प्रति प्रस्थाता दक्षिण वेदी पर कार्य करता है।
वरुण प्रघास पर्व के लिए करम्भ पात्र का निर्माण किया जाता है तथा उसके लिए एक होम भी होता है। यह करम्भ पात्र गोल, दीपक की आकृति का तथा जौ से बनाया जाता है।  चतुर्दशी के दिन अध्वर्यु के द्वारा चार करम्भ पात्र बनाए जाते हैं।
पूर्णिमा के दिन अध्वर्यु मेष तथा प्रति प्रस्थाता मेषी बनाता है। धेनु, अश्व तथा छह अथवा बारह गौवें दक्षिणा में दी जाती है।
वरुण पाश, जलोदर रोग तथा वात रोग से मुक्ति के लिए वरुण प्रघास पर्व का अनुष्ठान किया जाता है।
अग्नि, सोम, इन्द्राग्नी तथा वरुण इसके देवता हैं, जिनके लिए पुरोडाश, चरु तथा पयस्या की आहुति दी जाती है।
कार्त्तिक माह की पूर्णिमा को साकमेध पर्व का अनुष्ठान किया जाता है। यह दो दिन में पूरा होता। चतुर्दशी से इसका अनुष्ठान प्रारम्भ होता है। इसमें अनीकवतीष्टि, सान्तपनीयेष्टि, गृहमेधीयेष्टि, दर्वी होम, क्रीडनीयेष्टि, अदितीष्टि, महाहवि, पित्रयेष्टि तथा त्रयम्बकेष्टि आदि अनुष्ठान किए जाते हैं।
अग्नि, मरुत्, अदिति, ऐन्द्राग्न, विश्वकर्मा, त्रयम्बक तथा पितर आदि देवता इस पर्व में होते हैं जिनके लिए चरु, सान्नाय्य, आज्य, धना आदिकी आहुति दी जाती है।
घर में जो कन्याएँ  विवाह के योग्य होती हैं, उनके विवाह के लिए साकमेध पर्व का अनुष्ठान किया जाता है।
साकमेध के तुरन्त बाद शुनासीरीय पर्व का अनुष्ठान किया जाता है। वायु और आदित्य ये दो देवता इस पर्व में होते हैं। अतः इस पर्व का नाम शुनासीरीय है।
वैश्वदेव पर्व के समान यहाँ भी पाँच हवि दी जाती हैं। इसके अतिरिक्त शुनासीर के लिए द्वादशक पाल, वायु के लिए दूध तथा सूर्य के लिए एक कपाल पुरोडाश। इसकी दक्षिणा 6 बैलों से युक्त हल अथवा दो बैल। इसके अतिरिक्त सूर्य के लिए सफेद घोड़ा अथवा गाय दक्षिणा के रूप में दी जाती है।
चातुर्मास्य यज्ञ के बाद निरूढ पशुबन्ध्याग किया जाता है, जिसके ऐन्द्राग्न सूर्य मुख्य देवता हैं तथा एकादश कपाल पुरोडाश की आहुति दी जाती है। इसका अनुष्ठान वर्ष में एक या दो बार श्रावण अथवा भाद्रपद माह में किया जाता है। इस यज्ञ के अनुष्ठान के लिए अध्वर्यु, होता, मैत्रावरुण तथा प्रति प्रस्थाता का वरण किया जाता है। दक्षिणा के रूप में यजमान ऋत्विजों को हिरण्य तथा पूर्णपात्र देता है।
इन्द्र देवता के लिए सौत्रामणी याग किया जाता है। इस यज्ञ के लिए अध्वर्यु, ब्रह्मा, होता, आग्नीध्र, प्रति प्रस्थाता तथा मैत्रावरुण ये छह ऋत्विज होते हैं।
ऋद्धि की कामना से ब्राह्मणों के द्वारा सौत्रामणी यज्ञ विशेष रूप से किया जाता है। स्वराज्य की प्राप्ति के लिए क्षत्रियों के द्वारा भी सौत्रामणी यज्ञ करने का विधान है। यह यज्ञ चार दिन तक चलता है तथा विशेष प्रकार का आसव बनाया जाता है, जिसकी आहुति दी जाती है। बछड़े के सहित गाय इस यज्ञ की दक्षिणा होती है।
ऋद्धि की कामना से ब्राह्मणों के द्वारा सौत्रामणी यज्ञ विशेष रूप से किया जाता है। स्वराज्य की प्राप्ति के लिए क्षत्रियों के द्वारा भी सौत्रामणी यज्ञ करने का विधान है। यह यज्ञ चार दिन तक चलता है तथा विशेष प्रकार का आसव बनाया जाता है, जिसकी आहुति दी जाती है। बछड़े के सहित गाय इस यज्ञ की दक्षिणा होती है।
इस यज्ञ में वाजपेय तथा राजसूय के समान यजमान का तीर्थों, नदियों तथा समुद्रों के जल से अभिषेक किया जाता है।
पितरों के लिए पिण्ड पितृ यज्ञ किया जाता है। दर्शेष्टिका अङ्ग होनेसे यह अमावास्याको दर्शेष्टिसे पहले ही किया जाता है। दक्षिणाग्नि में चरु पकाया जाता है। पितरों के लिए पिण्ड दान होता है तथा छह बार हाथ जोड़कर पितरों को प्रणाम किया जाता है।
पाक यज्ञ के अतिरिक्त श्रौतयागों में जिन अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमास, आग्रयण, चातुर्मास्य, निरूढ पशु बन्ध, सौत्रामणी तथा पिण्ड पितृ यज्ञ का उल्लेख गौतम धर्म सूत्र में किया गया है।
शेष 7 यज्ञ सोमयाग की श्रेणी में आते हैं। इन सात सोमयागों के नाम इस प्रकार हैं :- अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र तथा अप्तोर्याम। इन सातों सोमयागों में अग्निष्टोम सबसे प्रथम आता है।
प्रजापति ब्रह्मा जी ने प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा से बहुत होने की कामना की और ऐसी कामना करते हुए ही उन्होंने प्रजनन साधन रूप अग्निष्टोम का दर्शन किया। इसके पश्चात् उन्होंने यह सारी सृष्टि उत्पन्न की।
यज्ञ-वराह के उठे हुए कपोल से लेकर कर्ण मूल तक के भाग से अग्निष्टोम की उत्पत्ति हुई।[कालिका पुराण]
देवताओं ने तपस्या करके अग्निष्टोम का विधान प्राप्त किया, जिसके द्वारा उन्होंने असुरों का विरोध् किया।[शतपथ ब्राह्मण]
अग्निष्टोम साक्षात् अग्नि ही है। उस क्रतुरूप अग्नि की देवों ने स्रोतों के द्वारा स्तुति की, इसलिए उसका नाम अग्निस्तोम हुआ।[ऐतरेय ब्राह्मण]
अग्निस्तोम होते हुए उस नाम से युक्त क्रतु को परोक्ष रूप में व्यवहार करने के लिए सकार को षकार में, तकार को टकार में बदलकर उसको अग्निष्टोम कहना प्रारम्भ किया। अतः अग्निस्तोम अग्निष्टोम कहलाने लगा।
अग्निष्टोम नामक यज्ञायज्ञीय साम का गायन सबसे अन्त में किया जाता है, इसीलिए इसका नाम अग्निष्टोम हुआ।
अग्निष्टोम का अनुष्ठान सत्रह ऋत्विजों के द्वारा सम्पन्न होता है। सत्रहवाँ ऋत्विज स्वयं यजमान होता है, जो कि स्वयं यज्ञका स्वामी है। यजमानातिरिक्त इन सोलहों ऋत्विजों को चार वर्गों में विभक्त किए गया है। 
ताण्ड्य ब्राह्मण ने दक्षिणा में दी जाने वाली 10 वस्तुओं का उल्लेख किया है। इनमें गौओं की संख्या 112 ही निश्चित की गई है।
कात्यायन ने निर्धरित 100 गौओं का वितरण यज्ञ के सोलहों ऋत्विजों में इस प्रकार किया है :-ब्रह्मा, उद्गाता, होता एवं अध्वर्यु को 12-12 गौवें; अर्ध्दिनः संज्ञक ऋत्विज ब्राह्मणाच्छंसि, प्रस्तोता, मैत्रावरुण एवं प्रतिप्रस्थाता को 6-6 गौवें, तृतीयिनः संज्ञक ऋत्विक् पोता, प्रतिहर्त्ता, अच्छावाक् तथा नेष्टा को 4-4 तथा पादिनः संज्ञक ऋत्विज् आग्नीध्र, सुब्रह्मण्य, ग्रावस्तुत तथा उन्नेता को 3-3 गौवें।
अग्निष्टोम के अन्तर्गत सवन कर्म में गाए जाने वाले स्तोत्रोंकी संख्या 12 एवं शंसन किए जाने वाले शस्त्रों की भी संख्या 12 ही है।
प्रातः श्रवण में त्रिवृत्स्तोमात्मकबहिष्पवमानस्तोत्रतथा पञ्चदशस्तोमात्मकचार आज्य स्तोत्रों का गायन किया जाता है। शस्त्रों में आज्य शस्त्र, प्रउग शस्त्र, मैत्रा वरुण शस्त्र, ब्रह्मणाच्छंसि शस्त्र तथा अच्छावाक शस्त्र का शंसन किया जाता है।
माध्यन्दिन श्रवण में पञ्चदशस्तोमात्मक माध्यन्दिन पवमान स्तोत्र तथा सप्तदशस्तोमात्मक चार पृष्ठ स्तोत्रों का गायन किया जाता है। शस्त्रों में मरुत्वतीय शस्त्र, निष्वेफवल्य, मैत्रा वरुण, ब्राह्मणाच्छंसि तथा अच्छावाक शस्त्र का शंसन किया जाता है।
तृतीय श्रवण में आर्भव पवमान तथा अग्निष्टोम स्तोत्र का गायन तथा वैश्वदेव एवं अग्निमारुत शस्त्रका शंसन किया जाता है।
जिस प्रकार हविर्यागों की प्रकृति दर्श पौर्णमासेष्टि है, उसी प्रकार समस्त सोम यागों की प्रकृति अग्निष्टोम यज्ञ है। उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र तथा अप्तोर्याम ये छहों सोम याग, अग्निष्टोम की विकृति हैं।
उक्थ्य नामक सोम याग में अग्निष्टोम के स्तोत्रों एवं शस्त्रों के अतिरिक्त अन्य तीन स्तोत्र (उक्थ्य स्तोत्र) एवं शस्त्र (उक्थ्य शस्त्र) पाये जाते हैं। इस प्रकार सायंकालीन सोमर स निकालते समय गाये जाने वाले (स्तोत्र) एवं कहे जाने वाले शस्त्र कुल मिलाकर 15 होते हैं। पशु, शक्ति, सन्तति की कामना से उक्थ्य नामक सोम योग का अनुष्ठान किया जाता है।
षोडशी यज्ञ में 15 स्तोत्रों एवं शस्त्रों के अतिरिक्त एक अन्य स्तोत्र एवं शस्त्र का गायन एवं पाठ होता है, जिसे तृतीय श्रवण में षोडशी के नाम से पुकारा जाता है। इसकी दक्षिणा लोहित-पिंगल घोड़ा या मादा खच्चर होती है।
अतिरात्र का नाम ऋग्वेद (7.103.7) में भी आया है। यह एक दिन और रात्रि में होता है। अतिरात्र में 29 स्तोत्र और 29 शस्त्र होते हैं। इसमें आश्विन नामक शस्त्र गाये जाते हैं किन्तु इसके पूर्व रात्रि में 6 आहुतियाँ दी जाती हैं। ऐब्रा।(14.3, 16.5-7), आश्वश्रौसू. (6.4-5), सत्याषाढ (9.7) तथा आपस्तम्ब (15.3.8-14.4.11) में अतिरात्र के कर्म काण्ड का विस्तार पूर्वक निरूपण किया गया है।
अप्तोर्याम अतिरात्रके ही सदृश है केवल अतिरात्रकी अपेक्षा विस्तृत है। इसमें चार अतिरिक्त स्तोत्र (कुल मिलाकर 33 स्तोत्र) और चार अतिरिक्त शस्त्र होता एवं उसके सहायकों द्वारा पढ़े जाते हैं। अग्नि, इन्द्र, विश्वेदेव और विष्णुके लिए क्रमसे एक एक अर्थात् कुल मिलाकर चार चमस होते हैं। आश्वश्रौसू. (9.11.1) के मतसे यह यज्ञ उन लोगों द्वारा सम्पादित होता है, जिनके पशु जीवित नहीं रहते या जो अच्छी जातिके पशुके आकांक्षी होते हैं। अप्तोर्याम की दक्षिणा सहस्त्रों गौवें होती है। होता को रजत जटित तथा गदहियों से खींचा जाने वाला रथ मिलता है। तांब्रा. 20.3.4-5) का कहना है कि इसका नाम अप्तोर्याम इसलिए पड़ा है क्योंकि इसके द्वारा अभिकांक्षित वस्तु प्राप्त होती हैं।
सोम यज्ञ :: इसका वर्णन यजुर्वेद के चौथे अध्याय से दसवें अध्याय तक सोमयाग के मन्त्रों में निहित है। इसमें वसन्त ऋतु में सोमलता-सोमवल्ली का प्रयोग करके 16 ऋत्विक ब्राह्मणों द्वारा एक ही  सम्पन्न किया जाता है।
सोमयज्ञ के मुख्य सात प्रकार हैं जिन्हें सप्तसोम संस्था कहा जाता है। अग्निष्टोम, अत्याग्निष्टोम्, अतिरात्र (उलथ्य, षोडषीनम्अ, तिरात्र), आप्तोर्याम और वाजपेय। हर अग्निहोत्री का सर्वोच्च सोपान होता है, वाजपेय सोमयाग।
सोमयज्ञ के दरम्यान सोमरस का हवन जो मुय वेदि (कुंड का एक प्रकार) के उपर होता है जिसे उत्तरवेदी कहा जाता है। सामान्यतः उत्तरवेदी कि आकार चोरस होता है, परंतु अग्निचयन के सहित हुए सोमयज्ञ में उत्तरवेदी का आकार गरुड़ जैसा होता है। इसलिए अग्निचयन को गरुड़ चयन भी कहते हैं। अग्निचयन या गरुड़चयन तीन प्रकार से होता है। प्रथम प्रकार में एक हज़ार ईंटों के द्वारा वेदि बनाई जाती है, दूसरे प्रकार में दो हज़ार ईंटों द्वारा वेदी बनाई जाती है और तीसरे प्रकार में तीन हज़ार ईंटों के द्वारा वेदी बनाई जाती है। यह ईंटें भी यज्ञकर्ता की उंगली के नाप के अनुसार ही बनाई जाती हैं। इन एक हज़ार ईंटों को संस्कृत में इष्टिका कहा जाता है, जिन्हें पाँच स्तर में रखा जाता है। हर एक स्तर में 200 ईंटें रखी जाती हैं। हर एक ईंट के लिए एक मंत्र होता है। एक हज़ार ईंटों के लिए एक हज़ार मंत्र होते हैं। इस गरुड़ वेदी के अंदर शेषशायी भगवान् श्री हरी विष्णु की स्वर्ण की मूर्ति की स्थापित की जाती है।
सोमयज्ञ स्थल समग्र ब्रह्मांड के केन्द्र का स्वरूप धारण कर लेता है। समग्र तीर्थ मंडप में वास करते हैं। सोमयज्ञ की परिक्रमा समग्र ब्रह्मांड की परिक्रमा का फल देती है। साधक जातक 108  से लेकर 1,008 तक सोमयज्ञ की परिक्रमा करते हैं। सोमयज्ञ का माहात्म्य निःसंतान दंपतियों में विशेष है। निःसंतान दंपतियों का सोमयज्ञ संलग्न महाविष्णुयाग भाग लेकर दीक्षित और दीक्षित पत्नी से आशीर्वाद लेना चाहिये। सोमयज्ञ में किया हुआ दान अनेक गुना फल देता है। सोमयज्ञ में स्वर्णदान का विशिष्ट महत्व है। 
श्रौत और स्मार्त यज्ञ :: श्रुति पति पादित यज्ञो को श्रौत यज्ञ और स्मृति प्रतिपादित यज्ञो को स्मार्त यज्ञ कहते है। श्रौत यज्ञ में केवल श्रुति प्रतिपादित मंत्रो का प्रयोग होता है और स्मार्त यज्ञ में वैदिक पौराणिक और तांत्रिक मंन्त्रों का प्रयोग होता है। वेदों में अनेक प्रकार के यज्ञों का वर्णन मिलता है। किन्तु उनमें पांच यज्ञ ही प्रधान माने गये हैं  :-
ये पाॅंच प्रकार के यज्ञ कहे गये है, यह श्रुति प्रतिपादित है।
(1). अग्नि होत्रम, (2). दर्शपूर्ण मासौ, (3). चातुर्म स्यानि, (4). पशुयांग, और  (5). सोमयज्ञ। 
वेदों में श्रौत यज्ञों की अत्यन्त महिमा वर्णित है। श्रौत यज्ञों को श्रेष्ठतम कर्म कहा है। कुल श्रौत यज्ञो को 19 प्रकार से विभक्त कर उनका संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है।
स्मार्त यज्ञ :- विवाह के अनन्तर विधिपूर्वक अग्नि का स्थापन करके जिस अग्नि में प्रातः सायं नित्य हनादि कृत्य किये जाते है। उसे स्मार्ताग्नि कहते है। गृहस्थ को स्मार्ताग्नि में पका भोजन प्रतिदिन करना चाहिये।
श्रोताधान यज्ञ :- दक्षिणाग्नि विधिपूर्वक स्थापना को श्रौताधान कहते है। पितृ संबंधी कार्य होते है।
दर्शभूर्णमास यज्ञ :- अमावस्या और पूर्णिमा को होने वाले यज्ञ को दर्श और पौर्णमास कहते है। इस यज्ञ का अधिकार सपत्नीक होता है। इस यज्ञ का अनुष्ठान आजीवन करना चाहिए यदि कोई जीवन भर करने में असमर्थ है तो 30 वर्ष तक तो करना चाहिए।
चातुर्मास्य यज्ञ :- चार-चार महीने पर किये जाने वाले यज्ञ को चातुर्मास्य यज्ञ कहते है इन चारों महीनों को मिलाकर चतुर्मास यज्ञ होता है।
पशु यज्ञ :: प्रति वर्ष वर्षा ऋतु में या दक्षिणायन या उतरायण में संक्रान्ति के दिन एक बार जो पशु याग किया जाता है। उसे निरूढ पशु याग कहते है।
मधुपर्के च यज्ञे च पितृदैवतकर्मणि। 
अत्रैव पशवो हिंस्या नान्यत्रैत्यब्रवीन्मनुः॥
मधुपर्क, ज्योतिष्टोमादि यज्ञ, पितृकर्म और देवकर्म में ही पशु हिंसा करनी चाहिये, अन्य कहीं नहीं, ऐसा मनु जी ने कहा है।[मनु स्मृति 5.41] 
Manu Ji has permitted ritualistic sacrifices of animals for Madhu Park, Jyotishtomadi Yagy, Pitr Karm and Dev Karm only. Else where its restricted-banned.
एष्वर्थेषु पशून्हिंसन्वेदतत्त्वार्थविद् द्विजः। 
आत्मानं च पशुं चैव गमयत्युत्तमां  गतिम्॥
पूर्वोक्त कर्मों में पशु की हिंसा करने वाला वेदज्ञ ब्राह्मण अपनी और उस पशु की उत्तम गति सुनिचित करता है।[मनु स्मृति 5.42] 
The priest who is indebted with this job ensures that he along with the sacrificial living beings gets birth in excellent species i.e., humans and that is too in honourable families. 
The animals and birds along with the vegetation have to face this situation due to their deeds-Karm in previous births.
गृहे गुरावरण्ये वा निवसन्नात्मवान्द्विजः। 
नावेदविहितां हिंसामापद्यपि समाचरेत्॥
कर्मनिष्ठ द्विज गृह में या वन में (अर्थात ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम या वानप्रस्थ आश्रम में भी) वेद विरुद्ध हिंसा न करे।[मनु स्मृति 5.43] 
A Brahmn who is devoted to Veds, should not involve himself in violence against the norms set-established by the Veds.
या वेदविहिता हिंसा नियताऽस्मिंश्चराचरे। 
अहिंसामेव तां विद्याद्वेदाद्धर्मो हि निर्बभौ॥
जो हिंसा वेद विहित है और इस चराचर जगत में नियम है, उसे अहिंसा ही समझना चाहिये, क्योंकि धर्म वेद से ही निकला है।[मनु स्मृति 5.44] 
The violence which is essential and permitted by the Veds is non violence. Dharm -religious practices are embodiment of Veds.
If a venomous snake is there to bite one, he should kill him at once. If an intruder, terrorist is set to kill one, its essential to protect himself even if the enemy is killed. Killing the enemy in war is perfectly as per norms laid by Veds.  If carnivorous-beasts attack humans, its better to eliminate them.
योऽहिंसकानि भूतानि हिनस्त्यात्मसुखैच्छया। 
स जीवांश्च मृतश्चैव न क्वचित् सुखमेधते॥
जो अपने सुख की इच्छा से अहिंसक जीवों को मारता है, वह इस जीवन में या जन्मान्तर में कहीं भी सुख नहीं पाता।[मनु स्मृति 5.45] 
One who kills in noxious-herbivores, the animals which do not harm humans, will not be comfortable in the present or next several births.
One may find hunters killing innocent animals, birds in the name of hunting game. There are others who kill the animals for meat. The sweepers burn the pig alive and then eat him. The butchers slaughter millions of animals everyday. The fish industry is surviving by catching and selling fish. All these people are bound to face hells and then move to inferior species in one after another births. All these people will take birth as animals several times and their slaughter is sure then.
अग्निहोत्र्यपविध्याग्नीन् ब्राह्मणः कामकारतः।
चान्द्रायणं चरेन्मासं वीरहत्यासमं हि तत्11.41॥
ब्राह्मण अपनी इच्छा से यदि प्रातः और सायंकालिक अग्निहोत्र के हवन को न करे तो एक मास तक चान्द्रायण व्रत करे, क्योंकि अग्निहोत्र न करना पुत्र हत्या का समान है।[मनु स्मृति 11.41] 
If a Brahman do not perform Agnihotr in the morning and evening out of his own will he, should conduct Chandrayan Vrat-penances pertaining to appease Moon, for a month, since this failure for him is comparable to murder of son.
ये शूद्रादधिगम्यार्थमग्निहोत्रमुपासते।
ऋत्विजस्ते हि शूद्राणां ब्रह्मवादिषु गर्हिताः11.42॥
जो शूद्रों से धन लेकर यज्ञ करते हैं, वे शूद्रों के ऋत्विज-ब्राह्मण और वेदों में निन्दित कहे गए हैं।[मनु स्मृति 11.42]  
The Brahman, who conduct Yagy by obtaining money from the Shudr, is titled the Priest of the Shudr and has been censured in Veds.
तेषां सततमज्ञानां वृषलाग्न्युपसेविनाम्।
पदा मस्तकमाक्रम्य दाता दुर्गाणि सन्तरेत्
उन मूर्ख ब्राह्मणों जो शूद्रों के धन से अग्निहोत्र करते हैं, के सर पर पैर रखकर वह शूद्र, संसार के सभी दुःखों को पार करता है।[मनु स्मृति 11.43]  
The Shudr crosses the wordily troubles by putting over his feet over the head of the Brahmans who conduct Agnihotr with his money.
आग्रजणष्टि (नवान्न यज्ञ) :- प्रति वर्ष वसन्त और शरद ऋतुओं नवीन अन्न से यज्ञ गेहूॅं, चावल से जो यज्ञ किया जाता है उसे नवान्न कहते है।
सौतामणी यज्ञ (पशुयज्ञ) :- इन्द्र के निमित्त जो यज्ञ किया जाता है सौतामणी यज्ञ इन्द्र संबन्धी पशुयज्ञ है यह यज्ञ दो प्रकार का है। एक वह पांच दिन में पुरा होता है। सौतामणी यज्ञ में गोदुग्ध के साथ सुरा (मद्य) का भी प्रयोग है। किन्तु कलियुग में वज्र्य है। दूसरा पशुयाग कहा जाता है। क्योकि इसमें पांच अथवा तीन पशुओं की बली दी जाती है।
सोम यज्ञ :- सोमलता द्वारा जो यज्ञ किया जाता है उसे सोम यज्ञ कहते है। यह वसन्त में होता है यह यज्ञ एक ही दिन में पूर्ण होता है। इस यज्ञ में 16 ऋत्विक ब्राह्मण होते है।
वाजपेय यज्ञ :- इस यज्ञ के आदि और अन्त में वृहस्पति नामक सोम यग अथवा अग्निष्टोम यज्ञ होता है यह यज्ञ शरद ऋतु  में होता है।
राजसूय यज्ञ :- राजसूय या करने के बाद क्षत्रिय राजा समाज चक्रवर्ती उपाधि को धारण करता है।
अश्वमेघ यज्ञ :- इस यज्ञ में दिग्विजय के लिए (घोडा) छोडा जाता है। यह यज्ञ दो वर्ष से भी अधिक समय में समाप्त होता है। इस यज्ञ का अधिकार सार्वभौम चक्रवर्ती राजा को ही होता है।
पुरूष मेघयज्ञ :- इस यज्ञ समाप्ति चालीस दिनों में होती है। इस यज्ञ को करने के बाद यज्ञकर्ता गृह त्यागपूर्वक वान प्रस्थाश्रम में प्रवेश कर सकता है।
सर्वमेघ यज्ञ :- इस यज्ञ में सभी प्रकार के अन्नों और वनस्पतियों का हवन होता है। यह यज्ञ चैंतीस दिनों में समाप्त होता है।
एकाह यज्ञ :- एक दिन में होने वाले यज्ञ को एकाह यज्ञ कहते है। इस यज्ञ में एक यज्ञवान और सौलह विद्वान होते है।
रूद्र यज्ञ :- यह तीन प्रकार का होता हैं रूद्र महारूद्र और अतिरूद्र रूद्र यज्ञ 5-7-9 दिन में होता हैं महारूद्र 9-11 दिन में होता हैं। अतिरूद्र 9-11 दिन में होता है। रूद्रयाग में 16 अथवा 21 विद्वान होते है। महारूद्र में 31 अथवा 41 विद्वान होते है। अतिरूद्र याग में 61 अथवा 71 विद्वान होते है। रूद्रयाग में हवन सामग्री 11 मन, महारूद्र में 21 मन अतिरूद्र में 70 मन हवन सामग्र्री लगती है।
विष्णु यज्ञ :- यह यज्ञ तीन प्रकार का होता है। विष्णु यज्ञ, महाविष्णु यज्ञ, अति विष्णु योग- विष्णु योग में 5-7-8 अथवा 9 दिन में होता है। विष्णु याग 9 दिन में अतिविष्णु 9 दिन में अथवा 11 दिन में होता हैं विष्णु याग में 16 अथवा 41 विद्वान होते है। अति विष्णु याग में 61 अथवा 71 विद्वान होते है। विष्णु याग में हवन सामग्री 11 मन महाविष्णु याग में 21 मन अतिविष्णु याग में 55 मन लगती है।
हरिहर यज्ञ :- हरिहर महायज्ञ में हरि (विष्णु) और हर (शिव) इन दोनों का यज्ञ होता है। हरिहर यज्ञ में 16 अथवा 21 विद्वान होते है। हरिहर याग में हवन सामग्री 25 मन लगती हैं। यह महायज्ञ 9 दिन अथवा 11 दिन में होता है।
शिव शक्ति महायज्ञ :- शिवशक्ति महायज्ञ में शिव और शक्ति (दुर्गा) इन दोनों का यज्ञ होता है। शिव यज्ञ प्रातः काल और श शक्ति (दुर्गा) इन दोनों का यज्ञ होता है। शिव यज्ञ प्रातः काल और मध्याहन में होता है। इस यज्ञ में हवन सामग्री 15 मन लगती है। 21 विद्वान होते है। यह महायज्ञ 9 दिन अथवा 11 दिन में सुसम्पन्न होता है।
राम यज्ञ :- राम यज्ञ विष्णु यज्ञ की तरह होता है। रामजी की आहुति होती है। रामयज्ञ में 16 अथवा 21 विद्वान हवन सामग्री 15 मन लगती है। यह यज्ञ 8 दिन में होता है।
गणेश यज्ञ :- गणेश यज्ञ में एक लाख (1,00,000) आहुति होती है। 16 अथवा 21 विद्वान होते है। गणेशयज्ञ में हवन सामग्री 21 मन लगती है। यह यज्ञ 8 दिन में होता है।
ब्रह्म यज्ञ (प्रजापति यज्ञ):- प्रजापत्ति याग में एक लाख (1,00,000) आहुति होती हैं इसमें 16 अथवा 21 विद्वान होते है। प्रजापति यज्ञ में 12 मन सामग्री लगती है। 8 दिन में होता है।
सूर्य यज्ञ :- सूर्य यज्ञ में एक करोड़ 1,00,00,000 आहुति होती है। 16 अथवा 21 विद्वान होते है। सूर्य यज्ञ 8 अथवा 21 दिन में किया जाता है। इस यज्ञ में 12 मन हवन सामग्री लगती है।
दुर्गा यज्ञ :- दुर्गा यज्ञ में दूर्गासप्त शती से हवन होता है। दुर्गा यज्ञ में हवन करने वाले 4 विद्वान होते है अथवा 16 या 21 विद्वान होते है। यह यज्ञ 9 दिन का होता है। हवन सामग्री 10 मन अथवा 15 मन लगती है।
लक्ष्मी यज्ञ :- लक्ष्मी यज्ञ में श्री सुक्त से हवन होता है। लक्ष्मी यज्ञ (1,00,000) एक लाख आहुति होती है। इस यज्ञ में 11 अथवा 16 विद्वान होते है। या 21 विद्वान 8 दिन में किया जाता है। 15 मन हवन सामग्री लगती है।
लक्ष्मी नारायण महायज्ञ :- लक्ष्मी नारायण महायज्ञ में लक्ष्मी और नारायण का ज्ञन होता हैं प्रात लक्ष्मी दोपहर नारायण का यज्ञ होता है। एक लाख 8 हजार अथ्वा 1 लाख 25 हजार आहुतियां होती है। 30 मन हवन सामग्री लगती है। 31 विद्वान होते है। यह यज्ञ 8 दिन 9 दिन अथवा 11 दिन में पूरा होता है।
नवग्रह महायज्ञ :- नवग्रह महायज्ञ में नव ग्रह और नव ग्रह के अधिदेवता तथा प्रत्याधि देवता के निर्मित आहुति होती हैं नव ग्रह महायज्ञ में एक करोड़ आहुति अथवा एक लाख अथवा दस हजार आहुति होती है। 31, 41 विद्वान होते है। हवन सामग्री 11 मन लगती है। कोटिमात्मक नव ग्रह महायज्ञ में हवन सामग्री अधिक लगती हैं यह यज्ञ ९ दिन में होता हैं इसमें 1, 5, 9 और 100 कुण्ड होते है। नवग्रह महायज्ञ में नवग्रह के आकार के 9 कुण्डों के बनाने का अधिकार है।
विश्वशांति महायज्ञ :- विश्वशांति महायज्ञ में शुक्लयजुर्वेद के 36 वे अध्याय के सम्पूर्ण मंत्रों से आहुति होती है। विश्वशांति महायज्ञ में सवा लाख (1,25,000) आहुति होती हैं इस में 21 अथवा 31 विद्वान होते है। इसमें हवन सामग्री 15 मन लगती है। यह यज्ञ 9 दिन अथवा 4 दिन में होता है।
पर्जन्य यज्ञ (इन्द्र यज्ञ) :- पर्जन्य यज्ञ (इन्द्र यज्ञ) वर्षा के लिए किया जाता है। इन्द्र यज्ञ में तीन लाख बीस हजार (3,20,000) आहुति होती हैं अथवा एक लाख 60 हजार (1,60,000) आहुति होती है। 31 मन हवन सामग्री लगती है। इस में 31 विद्वान हवन करने वाले होते है। इन्द्रयाग 11 दिन में सुसम्पन्न होता है।
अतिवृष्टि रोकने के लिए यज्ञ :- अनेक गुप्त मंत्रों से जल में 108 वार आहुति देने से घोर वर्षा बन्द हो जाती है।
गोयज्ञ :- वेदादि शास्त्रों में गोयज्ञ लिखे है। वैदिक काल में बडे-बडे़ गोयज्ञ हुआ करते थे। भगवान श्री कृष्ण ने भी गोवर्धन पूजन के समय गौयज्ञ कराया था। गोयज्ञ में वे वेदोक्त दोष गौ सूक्तों से गोरक्षार्थ हवन गौ पूजन वृषभ पूजन आदि कार्य किये जाते है। जिस से गौसंरक्षण गौ संवर्धन, गौवंशरक्षण, गौवंशवर्धन गौमहत्व प्रख्यापन और गौसड्गतिकरण आदि में लाभ मिलता हैं गौयज्ञ में ऋग्वेद के मंत्रों द्वारा हवन होता है। इस में सवा लाख 2,50,000 आहुति होती हैं गौयाग में हवन करने वाले 21 विद्वान होते है। यह यज्ञ 8 अथवा 9 दिन में सुसम्पन्न होता है।
आध्पित्य यज्ञ :: समृद्धि या स्वराज्य-निर्विरोध राज्य अथवा इन्द्र की स्थिति, का अभिलाषी ही वाजपेय का अनुष्ठान करता है। इसमें षोडशी की विधि पायी जाती है और यह ज्योतिष्टोम का ही रूप है। किन्तु इसकी अपनी पृथक् विशेषताएँ हैं। अधिकांश पदार्थों की संख्या 17 है, उदाहरण के लिए स्तोत्रों एवं शस्त्रोंकी संख्या 17 है। दक्षिणा में 17 वस्तुएँ दी जाती हैं। यूप 17 अरत्नियों वाला होता है। यूप में जो परिधान बाँधा जाता है, वह भी 17 टुकड़ों वाला होता है। 17 दिनों तक ही यह वाजपेय यज्ञ चलता है। प्रजापति के लिए सुरा 17 पात्रों में भरी जाती है। सोमरस भी 17 पात्रों से ही भरा जाता है। 17 रथ होते हैं, जिनमें घोडे़ जोते जाते हैं तथा जिनकी दौड़ की जाती है। वेदी की उत्तरी श्रोणी पर 17 ढोलकें रखी जाती हैं, जिन्हें बजाया जाता है। [आश्वश्रौसू. 9.9.1; आपश्रौसू. 18.1.1] 
वाजपेय यज्ञ::  इस यज्ञ का सम्पादन शरद् ऋतु में किया जाता है। इसका सम्पादन केवल ब्राह्मण या क्षत्रिय ही कर सकता है, वैश्य नहीं।  [तैब्रा. 1.3.2, लाट्यायनश्रौसू. 8.11.1, काश्रौसू. 14.1.1 एवं आपश्रौसू. 18.1.1]
दक्षिणा के रूपमें 1700 गौएँ, 17 रथ (घोड़ों सहित), 17 घोडे़, पुरुषों के चढ़ने योग्य 17 पशु, 17 बैल, 17 गाडि़याँ, सुनहरे परिधनों-झालरोंसे सजे हुए 17 हाथी दिए जाने चाहिए। ये वस्तुएँ पुरोहितों में बाँट दी जाती हैं। वाजपेय के पश्चात् राजा राजसूय यज्ञ करने का अधिकारी होता है और ब्राह्मण बृहस्पति सव करने का अधिकारी होता है [आश्वलायन-आश्वश्रौसू॰ 9.9.29]
राजसूय यज्ञ :: यह एक लम्बी अवधि तक चलने वाला यज्ञ है। यह यज्ञ केवल क्षत्रिय द्वारा ही किया जाता है। राजसूय करनेसे व्यक्ति राजा होता है तथा वाजपेय करने से सम्राट् होता है। [शब्रा.9.3.4.8]
राजसूय के ही पश्चात् वाजपेय किया जाता है, क्योंकि सम्राट् की स्थिति राजा के ऊपर  है। राजसूय की समाप्ति के एक मास उपरान्त सौत्रामणि नामक इष्टि की जाती है। निम्न ग्रंथों में राजसूय का निरूपण विस्तार पूर्वक किया गया है।[तैत्तिरीय संहिता 1.8.1-17, तैत्तिब्रा. (1.4.9-10, शब्रा. 5.2.3-5, ऐब्रा. 7.13,  8.0, तांब्रा. 18.8-11, आपश्रौसू. 18.8.22, काश्रौसू. 15.1-9, आश्वश्रौसू. 9.3-4, लाट्याश्रौसू. 9.1-3, शांखाश्रौसू. 15.12, बौधश्रौसू. 12] 
सृष्टिके आदि काल से स्मार्त्त एवं श्रौतयज्ञों के अनुष्ठान की परम्परा अखण्ड रूप से चली आ रही है। 
श्रीमद्भागवत पुराण चतुर्थ स्कन्धके तीसरे अध्याय में दक्ष प्रजापति के द्वारा किए गए वाजपेय यज्ञ तथा बृहस्पति सव नाम के महायज्ञ का वर्णन आता है। भागवत में वर्णन है कि दक्ष प्रजापति ने ऐसा यज्ञोत्सव किया, जिसकी चर्चा आकाश मार्ग से जाते हुए देवताओं ने की। चतुर्थ स्कन्ध के 19वें अध्याय में महाराज पृथु के द्वारा किए जाने वाले 100 अश्वमेध् की दीक्षा लिए जानेका उल्लेख है। जब महाराज पृथु 99 अश्वमेध् कर चुके तो यज्ञेश्वर भगवान्, इन्द्र के सहित वहाँ उपस्थित हो गए।
महाराज नाभि के विषय में जो लोकोक्ति प्रसिद्ध थी, उसका उल्लेख शुकदेव ने परीक्षित के सम्मुख इस प्रकार किया, यथा -
ब्रह्मण्योऽन्यः कुतो नाभेर्विप्रा मङ्गलपूजिताः। यस्य बर्हिषि यज्ञेशं दर्शयामासुरोजसा।। [भागपु. (5.4.7द्ध]
अर्थात् महाराज नाभि के समान ब्राह्मण भक्त कौन हो सकता है, जिनकी दक्षिणादि से सन्तुष्ट होकर ब्राह्मणों ने अपने मन्त्र बल से उन्हें यज्ञशाला में साक्षात् भगवान्  विष्णु  के दर्शन करा दिए।
अष्टम स्कन्ध के 18वें अध्याय में भगवान् वामन के उपनयन संस्कार का वर्णन हुआ है। इस अवसर पर कहा गया है कि जब भगवान् वामन ने सुना कि बलि बहुत से अश्वमेध यज्ञ कर रहे हैं तो उन्होंने वहाँ की यात्रा की और नर्मदा नदी के उत्तर तट पर ‘‘भृगुकच्छ’’ नामक सुन्दर स्थान पर पहुँच गए।
श्रौतयागों का अनुष्ठान वैदिक श्रौती सोमयाजी विद्वानों आज भी भारतवर्ष में  अनेक वैदिक कुल-परिवारों में नित्य अनुष्ठान के रूप में भगवान् अग्निदेव की आराधना हेतु निरन्तर किया  जाता है।
यज्ञ की प्रमुख शैलियाँ :: प्राणियों के ज्ञान, शक्ति, विद्या, बुद्धि, बल आदि की न्यूनाधिकता के कारण अधिकारानुरूप प्राणि-कल्याण के जो साधन हैं, उनमें यज्ञ भी एक प्राणि-कल्याण का उत्कृष्ट साधन है।
भगवान् श्री कृष्ण ने सभी कर्मों को बन्धन स्वरूप बतलाया है, परन्तु यज्ञ को बन्धन कारक नहीं बताया है। अतएव इसे बुद्धिमानों को भी पवित्र करने वाले पावनानि मनीषिणाम् कार्यों में परिगणित किया है। 
कर्म-कार्य की 4 श्रेणियों :- प्रशस्त, अप्रशस्त, श्रेष्ठ, श्रेष्ठतम में यज्ञ को श्रेष्ठतम कर्म है। [आचार्य महीधर और श्रुति]
यज्ञ की श्रौत (वैदिक), स्मार्त (तान्त्रिक) और पौराणिक (मिश्र) ये तीन मुख्य शैलियाँ हैं।
श्रौतयज्ञ :: श्रुति अर्थात् वेद के मंत्र और ब्राह्मण नाम के दो अंश हैं। इन दोनों में या दोनों में से किसी एक में सांगोपांग रीति से वर्णित यज्ञों को श्रौतयज्ञ कहते हैं। श्रौत कल्प में यज्ञ और होम दो शब्द हैं। जिसमें खड़े होकर वषट् शब्द के द्वारा आहुति दी जाती है और याज्या पुरोनुवाक्या नाम के मंत्र पढ़े जाते हैं, वह कार्य यज्ञ माना जाता है। जिसमें बैठकर स्वाहा शब्द के द्वारा आहुति दी जाती है यह होम कहा जाता है। श्रौतयज्ञ :- इष्टियाग, पशुयाग और सोमयाग, नामक तीन भागों में विभक्त है।
श्रौतयज्ञों के विधान का जिस कार्य में पूर्ण तया उल्लेख हो, उसे प्रकृतियाग कहते हैं और जिस कार्य में विशेष बातों का उल्लेख और शेष बातें प्रकृति योग से जानी जाएँ उसे विकृतियाग कहते हैं। अतएव श्रौतयज्ञों के तीन मुख्य भेदों में क्रमशः दर्शपूर्णमासेष्टि, अग्नीपोमीय पशुयाग और ज्योतिष्टोम सोमयाग ये प्रकृतियाग हैं; अर्थात् इन कर्मों में किसी दूसरे कर्म से विधि का ग्रहण नहीं होता। इन प्रकृतियागों के जो धर्म ग्राही विकृतियाग हैं, वे अनेक हैं। उनकी इयत्ता का संकलन भिन्न-भिन्न शाखाओं के श्रौतसूत्रों में किया गया है। 
श्रौतयज्ञ आह्वनीय, गार्ह्यपतय और दक्षिणाग्रि, इन तीन अग्नियों में होते हैं; इसलिए इन्हें त्रेताग्नियज्ञ भी कहते हैं। प्रायः सभी श्रौत-यज्ञों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष ढंग से, कम या अधिक रूप से तीनों ही वेदों के मंत्रों का उच्चारण होता है। अतः श्रौतयज्ञ त्रयी साध्य हैं। इनमें यजमान स्वयं शरीर क्रिया में उतना व्यस्त नहीं रहता, जितने अन्य ब्राह्मण जिन्हें 'ऋत्विज्' कहते हैं, संलग्न रहते हैं। श्रौतयज्ञ का इष्टियाग प्रायः 4 वैदिक विधान कुशल ब्राह्मण विद्वानों के सहयोग से हो सकता है। पशुयाग में 6 ऋत्विज् होने आवश्यक हैं। सोमयाग में 16 ऋत्विज् होते हैं ।
इष्टियाग में अन्नयम प्रधान रूप से हवि अर्थात् देवताओं के लिए देय द्रव्य हैं। पशुयाग में प्रधान रूप से पशु हवि है। सोमयाग में प्रधान हवि सोम होती है। सोमयाग के महान् यज्ञ सत्र और अहीन कहलाते हैं। सत्रयाग होते हैं, और इन्हीं में से 16 व्यक्तियों को ऋत्विज् का कार्य करना पड़ता है, इसमें दक्षिणा नहीं दी जाती और यज्ञ का फल सब यजमानों को बराबर पूरा मिलता है। अहीनयाग में एक या अनेक अग्निहोत्री यजमान हो सकते हैं, परन्तु इसमें ऋत्विज् अलग होते हैं, जिन्जें दक्षिणा दी जाती है। इस अहीनयाग का फल केवल यजमानों को ही मिलता है।
श्रौतयाग करने का वही अधिकारी है, जिसने विधिपूर्वक श्रौत अग्नियों का आधार लिया है और प्रतिदिन साँय प्रातः अग्निहोत्र में श्रद्धापूर्वक विधानुकूल समय लगाता है। श्रौताग्रिहोत्री को अग्नि की निरन्तर रक्षा करनी पड़ती है। अग्नियों के रखने के लिये एक सुन्दर अग्निहोत्रशाला चाहिए। यज्ञ में प्रयुक्त दूध, दही, घी अग्निहोत्री द्वारा स्वयं घर पर गौ रखकर पूरी शुद्धि के साथ तैयार किया जाना चाहिये।
प्रत्येक पन्द्रहवें दिन प्रतिपद् तिथि को इष्टियाग करना आवश्यक है जिसमें हवनीय द्रव्य तथा ऋत्विजों की दक्षिणा आदि भी आवश्यक है। वेद की याज्ञिक परम्परा का समुचोट और प्रायोगिक ज्ञान अत्यावश्यक है। 
स्मार्त यज्ञ :: इनका श्रौत सूत्र कारों ने पाक यज्ञ तथा एकाग्नि शब्द से व्यवहार किया है। इनके मुख्यतया-हुत, अहुत, प्रहुत और प्राशित ये चार भेद हैं। जिन कार्यों में अग्नि में किसी विहित द्रव्य का हवन होता हो, वह हुत यज्ञ हैं। जिससे हवन न होता हो, केवल क्रिया मात्र हो, वह अहुत यज्ञ है। जिसमें हवन और देवताओं के उद्देश्य से द्रव्य का बलि संज्ञा से त्याग हो, वह प्रहुत यज्ञ है और जिसमें भोजन मात्र ही हो वह प्राशित यज्ञ है। [प्रा.गृ. 1.4.1]
स्मार्त यज्ञ का आधार भूत अग्नि शास्त्रीय और लौकिक दोनों प्रकार का होता है। शास्त्रीय अर्थात् आधान विधि के द्वारा स्वीकृत अग्नि औपासन, आवसथ्य, गृह्य, स्मार्त आदि शब्दों से कहा जाता है। इस अग्नि में जिसने उसको स्वीकार किया है, उसके सम्बंध का ही हवन हो सकता है। साधारण अग्नि लौकिक अग्नि है। इसे संस्कारों द्वारा परिशाधित भूमि में स्थापित करके भी स्मार्त यज्ञ होते हैं। स्मार्त यज्ञों की सँख्या श्रौत यज्ञों की भाँति अत्यधिक नहीं हैं। इन यज्ञों की विधि और इयत्ता बताने वाले ग्रन्थ को गृह्यसूत्र या स्मार्त सूत्र कहते हैं। पंचमहायज्ञ, षोडशसंस्कार और और्ध्वदैहिक (प्रचलित मृत्यु के बाद की क्रिया) प्रधानतया स्मार्त हैं। स्मृति ग्रन्थों में उपदिष्ट कार्य जिनका (विनायक शान्ति आदि का) पूर्ण विधान उपलब्ध गृह्यसूत्रों में नहीं मिलता, वे भी याज्ञिकों की परम्परा में स्मार्त ही कहलाते हैं। स्मार्त यज्ञ में प्रायः अकेला व्यक्ति सभी कार्य कर सकता है। हवन वाले कार्यों में एक ब्राह्मण की तथा भोजनादि में अनेक ब्राह्मणों की आवश्यकता होती है। गृह्यसंग्रहकार ने स्मार्त यज्ञों में यजमान, ब्राह्मण और आचार्य; इन तीन की आवश्यकता बताई है। 
पौराणिक यज्ञ :: श्रुति स्मृति कथित कार्यों के अधिकारी अनाधिकारी सभी व्यक्तियों के लिए पौराणिक कार्य उपयोगी है। पौराणिक यज्ञों को हवन, दान, पुरश्चरण, शान्तिकर्म, पौष्टिक, इष्ट, पूर्त्त व्रत, सेवा, आदि के रूप से अनके श्रेणियों में विभक्त किया गया है। जिन जातियों को वेद के अध्ययन का अधिकार है, वे पौराणिक यज्ञों को वेदमंत्रों सहित करते हैं और जिन्हें वेद का अधिकार नहीं है, वे उनको पौराणिक मंत्रों से ही करते हैं। 
पौराणिक यज्ञों में गणपति पूजन, पुण्याहवाचन, षोडशमातृका पूजन, वसोर्धारा पूजन, नान्दी श्राद्ध इन पाँच स्मार्त अंगों के साथ ग्रहयाग प्रधानपूजन आदि विशेष रूप से होता है। इनमें एक से लेकर हजारों तक कार्यक्षम व्यक्ति कार्य के अनुसार ऋत्विज् बनाए जा सकते हैं। जैसे भगवान् अनन्त, अपार हैं, वैसे ही उनके स्वरूप भूत वेद तथा तत्प्रतिपाद्य यज्ञ की महिमा भी अनन्त अपार है।
विवाहाग्नि परिग्रह संस्कार :: विवाह संस्कार में लाजाहोम आदि की क्रियाएँ जिस अग्नि में सम्पन्न की जाती हैं, वह अग्नि आवसथ्याग्नि, ग्रह्याग्नि, स्मार्ताग्नि, वैवाहिकाग्नि तथा औपासनाग्नि नाम से जानी जाती है। विवाह के अनन्तर जब वर-वधू अपने घर आते हैं, तब उस स्थापित अग्नि को घर लाकर यथाविधि स्थापित करके, उसमें प्रतिदिन अपनी कुल परम्परा के अनुसार साँय-प्रातः हवन करने का विधान है। गृहस्थ के लिये प्रतिदिन दो प्रकार के शास्त्रीय कर्मों को करने की विधि हैं :- श्रौत कर्म और स्मार्त कर्म।
पंच महायज्ञ आदि पाकयज्ञ*1 सम्बन्धी जो कर्म हैं, वे स्मार्त कर्म हैं। 
इनके लिये जो पाक-भोजन आदि बनता है, वह इसी स्थापित अग्नि में सम्पादित होता है। गृहस्थ के लिये जो नित्य होम विधि है, वह भी इसी अग्नि द्वारा सम्पन्न होती है। यह अग्नि कभी बुझनी नहीं चाहिये। अतः प्रयत्नपूर्वक इसकी रक्षा की जाती है। 
*1अष्टका श्राद्ध, पार्णवश्राद्ध, श्रावणी-उपाकर्म, आग्रहायणी, चैत्री, आश्वयुजी  एवं औपासन :- ये सात कर्म सात पाकयज्ञ संस्थाएँ कहलाती हैं। [पारस्कर गृह सूत्र] 
वैवाहिकेSग्नौ कुर्वीत गृह्यं कर्म यथाविधि। 
पञ्चयज्ञविधानं च चान्वाहिकीं पक्तिं  गृही॥[मनु स्मृति 3.67] 
गृहस्थ विवाह के समय स्थापित अग्नि में यथाविधि ग्रह्योक्त कर्म-होम करें तथा नित्य पञ्चयज्ञ और पाक करे। 
The holi-sacred fire created at the solemnisation of marriage, should be preserved & used to perform daily Hawan-Agnihotr and the 5 recommended Yagy along with cooking food.
The way the food is essential for the body Yagy is essential for him to modify-improve his deeds-actions & the future births.
वैश्यदेवस्य सिद्धस्य गृह्येSग्नौ विधिपूर्वकम्। 
आभ्यः कुर्याद्देवताभ्यो ब्राह्मणो होममन्वहम्॥[मनु स्मृति 3.84]
वैश्य देव के लिये पकाए अन्न से, ब्राह्मण गार्हपत्य अग्नि में, आगे कहे हुए देवताओं के लिये प्रति दिन हवन करे। 
The Brahmn should perform Hawan as per description that follows, into the Garhpaty Agni, for Vaeshy Dev with the cooked food grains, for the sake-satisfaction, appeasement of deities, demigods.
गार्हपत्य अग्नि का एक प्रकार है। अग्नि तीन प्रकार की है :- (1). पिता गार्हपत्य अग्नि हैं, (2). माता दक्षिणाग्नि मानी गयी हैं और (3). गुरु आहवनीय अग्नि का स्वरूप हैं॥ वेद॥ 
Garhpaty Agni is a type of fire. Veds describe fire by the name of father, mother and the Guru-teacher.
कर्म स्मार्त विवाहाग्नौ कुर्वीत प्रत्यहं गृही। 
[याज्ञ वल्कय स्मृति आचा० 97; त्रेताग्नि संग्रह संस्कार] 
गृहस्थ को श्रौत्र तथा स्मार्त दो कर्मों का सम्पादन करना पड़ता है। स्मार्त कर्मों का सम्पादन विवाहग्नि में सम्पादित होता है और श्रौत्र कर्मों का सम्पादन त्रेताग्नि में होता है :-
स्मार्तं वैवाहिके वह्नौ श्रौत्रं वैतानिकाग्निषु।[व्यास स्मृति 2.16]
विवाहाग्नि-गृह्याग्नि के अतिरिक्त तीन अग्नियाँ और होती हैं जिन्हें दक्षिणाग्नि, गार्हपत्य तथा आहवनीय नाम से जाना जाता है। इन तीनों अग्नियों का सामूहिक नाम त्रेताग्नि, श्रौताग्नि अथवा वैताग्नि है। 
गृहस्थ सभी श्रौत कर्मों को त्रेताग्नि में सम्पादित करें, विवाहाग्नि  में नहीं। इन तीन अग्नियों की स्थापना, उनकी प्रतिष्ठा, रक्षा तथा उनका हवन कर्म त्रेताग्नि संग्रह संस्कार कहलाता है। सनातन परम्परा के अनुरूप यज्ञों का सम्पादन किया जाता है। 
मुख्य रूप से यज्ञ संस्थान तीन प्रकार के हैं और प्रत्येक संस्था में सात-सात यज्ञ सम्मिलित हैं।
(1). पाकयज्ञ संस्था :- (1.1). अष्टका श्राद्ध, (1.2). पार्वण श्राद्ध, (1.3). श्रावणी-उपाकर्म, (1.4). आग्रहायणी, (1.5). चैत्री, (1.6). आश्वयुजी और (1.7).औपासन होम।इनका अनुष्ठान विवाहाग्नि में होता है और हविर्यज्ञ तथा सोमयज्ञ संस्था के कर्म त्रेताग्नि में सम्पन्न होते हैं।
(2). हविर्यज्ञ संस्था :- (2.1). अग्न्याधेय (अग्निहोत्र), (2.2). दर्श पौर्णमास, (2.3). अग्रहायण, (2.4). चातुर्मास्य, (2.5). निरूढपशुबन्ध, (2.6). सौत्रामणियाग तथा (2.7). पिण्ड पितृ यज्ञ। 
(3). सोमयज्ञ संस्था :- (3.1). अग्निष्टोम, (3.2). अत्यग्निष्टोम, (3.3). उक्थ्य, (3.4). षोडशी, (3.5). वाजपेय, (3.6). अतिरात्र और (3.7). आप्तोर्याम।  
इन प्रधान यज्ञों के भी अनेक भेद और उपभेद हैं, जिनका विस्तृत विवरण गृह्यसूत्र और ब्राह्मण ग्रन्थों में उपलब्ध है। ये सभी यज्ञादिक जातक को अपनी पत्नी के साथ सम्पन्न करने चाहियें। 
(4). कौषीतकिब्राह्मणम् ::
(4.1). अनुनिर्वाप्येष्टिः ::
अनुनिर्वाप्यया वै देवा असुरान् अपाघ्रत।
तथो एव एतद् यजमानो अनुनिर्वाप्यया एव द्विषतो भ्रातृव्यान् अपहते।
[विकृति इष्टयः] 
स वा इन्द्राय विमृध एकादश कपालम् पुलोडाशम् निर्वपति।
इन्द्रो वै मृधाम् विहन्ता।[विकृति इष्टयः]
स एव अस्य मृधो विहन्ति। 
अथो आमावास्यम् एव एतत् प्रत्याहरति यत् पौर्णमास्याम् इन्द्रम् यजति।
[विकृति इष्टयः]
अत्र संस्थित दर्श पूर्ण मासौ यजमानो यद्य् अपर पक्षे भङ्गम् नीयात्।
[विकृति इष्टयः]
न अस्य यज्ञ विकर्षः स्यात्। अथ यद् अमावास्यायाम् अदितिम् यजति। यज्ञस्य एव सभारतायै। सा सम्याज्यातो विमृद्वती भवति।[विकृति इष्टयः]
 (4.2).  अभ्युदितेष्टिः ::
अथातो अभ्युदितायाः। एहि ह वा एष यज पथात्।
यस्य उपवसथे पुरस्ताच् चन्द्रो दृश्यते। [विकृति इष्टयः]
सो अग्नये दात्रे अष्टा कपालम् पुरोडाशम् निर्वपति।
अग्निर् वै दाता।[विकृति इष्टयः]
स एव अस्मै यज्ञम् ददाति।इन्द्राय प्रदात्रे सायम् दोहितम् दधि। इन्द्रो वै प्रदाता। [विकृति इष्टयः]
स एव अस्मै यज्ञम् प्रयच्छति।
विष्णवे शिपि विष्टाय प्रातर् दोहिते पयसि चरुम्।[विकृति इष्टयः]
यज्ञो वै विष्णुः। स एव अस्मै यज्ञम् ददाति। तद् यद् एता देवता याति।
[विकृति इष्टयः]
न इद् यज्ञ पथाद् अयानि इति। तिसृधन्वम् दक्षिणा। तत् स्वस्त्ययनस्य रूपम्।[विकृति इष्टयः]
(4.3). अभ्युद्दृष्टेष्टिः ::
अथातो अभ्युद्रष्टायाः। एहि ह वा एष यज्ञ पथात्।
यस्य उपसवथे पश्चाच् चन्द्रो दृश्यते।[विकृति इष्टयः]
सो अग्नये पथि कृते अष्टा कपालम् पुरोडाशम् निर्वपति।
अग्निर् वै पक्षिकृत्।[विकृति इष्टयः]
स एव एनम् यज्ञ पथम् अपिपातयति।
इन्द्राय वृत्रघ्न एकादश कपालम्। इन्द्रो वै वृत्रहा।[विकृति इष्टयः]
स एव एनम् पुनर् यज्ञ पथम् अपिपातयति।
वैश्वानरीयम् द्वादश कपालम्।[विकृति इष्टयः]
असौ वै वैश्वानरो यो असौ तपति। एष एव एनम् पुनर् यज्ञ पथम् अपिपातयति।तद् यद् एता देवता यजति।[विकृति इष्टयः]
न इद् यज्ञ पथाद् अयानि इति।
दण्ड उपानहम् दक्षिणा। तद् अभयस्य रूपम्।[विकृति इष्टयः]
(4.4). दाक्षायणयज्ञः ::
अथातो दाक्षायण यज्ञस्य। दाक्षायण यज्ञेन इष्यन् फाल्गुन्याम् पौर्णमास्याम् प्रयुङ्क्ते।[विकृति इष्टयः]
मुखम् वा एतत् संवत्सरस्य यत् फाल्गुनी पौर्णमासी। तस्मात् तस्याम् अदीक्षित अयनानि प्रयुज्यन्ते।[विकृति इष्टयः]
अथो दक्षो ह वै पार्वतिर् एतेन यज्ञेन इष्ट्वा सर्वान् कामान् आप।
तद् यद् दाक्षायण यज्ञेन यजते।[विकृति इष्टयः]
सर्वेषाम् एव कामानाम् आप्त्यै। नाशने कामम् आपयीत। सोमम् राजानम् चन्द्रमसम् भक्षयानि इति मनसा ध्यायन्न् अश्नीयात्।[विकृति इष्टयः]
तद् असौ वै सोमो राजा विचक्षणश् चन्द्रमाः। तम् एतम् अपर पर्क्षम् देवा अभिषुण्वन्ति।[विकृति इष्टयः]
तद् यद् अपर पक्षम् दाक्षायण यज्ञस्य व्रतानि चरन्ति।
देवानाम् अपि सोम पीथो असानि इति।[विकृति इष्टयः]
अथ यद् उपवसथे अग्नीषोमीयम् एकादश कपालम् पुरोडाशम् निर्वपति।
य एव असौ सोमस्य उपवसथे अग्नीषोमीयः।[विकृति इष्टयः]
तम् एव अस्य तेन आप्नोति।अथ यत् प्रातर् आमावास्येन यजते। ऐन्द्रम् वै सुत्यम् अहः।[विकृति इष्टयः]
तत् सुत्यम् अहर् आप्नोति। अथ यद् अमावास्याया उपवसथ ऐन्द्राग्नम् द्वादश कपालम् पुरोडाशम् निर्वपति।[विकृति इष्टयः)
ऐन्द्राग्नम् वै सामतस् तृतीय सवनम्। तत् तृतीय सवनम् आप्नोति।
[विकृति इष्टयः]
अथ यन् मैत्रावरुणी पयस्या। मैत्रावरुणी वा अनूबन्ध्या। तद् अनूबन्ध्याम् आप्नोति।[विकृति इष्टयः]
स एष सोमो हविर् यज्ञान् अनुप्रविष्टः।
तस्माद् अदीक्षितो दीष्कित व्रतो भवति।[विकृति इष्टयः]
(4.5). इळादधेष्टिः ::
अथातः इडादधस्य। इडादधेन इष्यन्न् एतस्याम् एव पौर्णमास्याम् प्रयुङ्क्ते तस्या उक्तम् ब्राह्मणम्। [विकृति इष्टयः]
स एष पशु कामस्य अन्न अद्य कामस्य यज्ञः। तेन पशु कामो अन्न अद्य कामो यजेत।[विकृति इष्टयः]
तत्र तथा एव व्रतानि चरति। दाक्षायण यज्ञस्य हि समासः।
(4.6). शौनकयज्ञः ::
अथ अतः सार्वसेनि यज्ञस्य।[विकृति इष्टयः]
सार्वसेनि यज्ञेन इष्यन्न् एतस्याम् एव पौर्णमास्याम् प्रयुङ्क्ते तस्या उक्तम् ब्राह्मणम्। (विकृति इष्टयः]
स एष तु स्तूर्षमाणस्य यज्ञः। स य इच्छेद् द्विषन्तम् भ्रातृव्यम् स्तृण्वीय इति।[विकृति इष्टयः]
स एतेन यजने स्तृणुते ह।
(4.7). सार्वसेनियज्ञः ::
अथातः शौनक यज्ञस्य। शौनक यज्ञेन इष्यन्न् एतस्याम् एव पौर्णमास्याम् प्रयुङ्क्ते तस्या उक्तम् ब्राह्मणम्। [विकृति इष्टयः]
स एष प्रजाति कामस्य यज्ञः। तेन प्रजाति कामो यजेत। तद् यद् अध्वर्युर् हवींषि प्रजनयति तत् प्रजात्यै रूपम्।[विकृति इष्टयः]
(4.8). वसिष्ठयज्ञः ::
अथातो वसिष्ठ यज्ञस्य। वसिष्ठ यज्ञेन इष्यन् फाल्गुन्याम् अमावास्यायाम् प्रयुङ्क्ते। [विकृति इष्टयः]
ब्रह्म वै पौर्णमासी। क्षत्रम् अमावास्या। क्षत्रम् इव एष यज्ञः।[विकृति इष्टयः]
क्षत्रेण शत्रून्त् सहा इति। वसिष्ठो अकामयत हत पुत्रः प्रजायेन प्रजया पशुभिर् अभि सौदासान् भवेयम् इति। [विकृति इष्टयः]
स एतम् यज्ञ क्रतुम् अपश्यद् वसिष्ठ यज्ञम्। तेन इष्ट्वा प्राजायत प्रजया पशुभिर् अभि सौदासान् अभवत्।[विकृति इष्टयः]
तथो एव एतद् यजमानो यद् वसिष्ठ यज्ञेन यजने।
प्रजायते प्रजया पशुभिर् अभि द्विषतो भ्रातृव्यान् भवति।[विकृति इष्टयः]
(4.9). साकंप्रस्थाय्ययज्ञः ::
अथातः साकम् प्रस्थाय्यस्य। साकम् प्रस्थाय्येन इष्यन्न् एतस्याम् एव अमावास्यायाम् प्रयुङ्क्ते तस्या उक्तम् ब्राह्मणम्।[विकृति इष्टयः]
स एष श्रैष्ठ्य कामस्य पौरुष कामस्य यज्ञः।तेन श्रैष्ठ्य कामः पौरुष कामो यजते।[विकृति इष्टयः]
तद् यत् साकम् सम्प्रतिष्ठन्ते। साकम् सम्प्रयजन्ते। साकम् सम्भक्षयन्ते। तस्मात् साकम् प्रस्थाय्यः।[विकृति इष्टयः]
(4.10). मुन्ययनेष्टिः
अथातो मुन्ययनस्य। मुन्ययनेन इष्यन्न् एतस्याम् एव पौर्णमास्याम् प्रयुङ्क्ते तस्या उक्तम् ब्राह्मणम्।[विकृति इष्टयः]
स एष सर्व कामस्य यज्ञः। तेन सर्व कामो यजेत।
(4.11). तुरायणयज्ञः
अथातस् तुरायणस्य।[विकृति इष्टयः]
तुरायणेन इष्यन्न् एतस्याम् एव पौर्णमास्याम् प्रयुङ्क्ते तस्या उक्तम् ब्राह्मणम्। [विकृति इष्टयः]
स एष स्वर्ग कामस्य यज्ञः। ब्रह्मणा एव तद् आत्मानम् समर्धयति।
[विकृति इष्टयः]
तानि वै त्रीणि हवींषि भवन्ति। त्रयो वा इमे लोकाः। इमान् एव तल् लोकान् आप्नोति।[विकृति इष्टयः]
(4.12). श्यामाकेष्टिः
अथात आग्रयणस्य। आग्रयणेन अन्न अद्य कामो यजेत वर्षास् आगते श्यामाक सस्ये।[विकृति इष्टयः]
श्यामाकान् उद्धर्तव आह। सा या तस्मिन् काले अमावास्या उपसम्पद्येत।[विकृति इष्टयः]
तया इष्ट्वा अथ एतया इष्ट्या यजेत। यदि पौरुणमासी। एतया इष्ट्वा अथ पौर्णमासेन यजेत।[विकृति इष्टयः]
यद्य् उ नक्षत्रम् उपेप्सेत्। पूर्व पक्षे नक्षत्रम् उदीक्ष्य यस्मिन् कल्याणे नक्षत्रे कामयेत तस्मिन् यजेत।[विकृति इष्टयः]
तस्यै सप्तदश सामिधेन्यः सद्वान्ताव् आज्य भागौ विराजौ सम्याज्ये तस्य उक्तम् ब्राह्मणम्।[विकृति इष्टयः]
सौम्यश् चरुः। सोमो वै राजा ओषधीनाम्। तद् एनम् स्वया दिशा प्रीणाति।[विकृति इष्टयः]
अथ यन् मधु पर्कम् ददाति। एष ह्य् आरण्यानाम् रसः।[विकृति इष्टयः]
(4.13).  वेणुयवेष्टिः
अथ वसन्त आगते पक्वेषु वेणु यवेषु। वेणु यवान् उद्धर्तव आह। तस्या एतद् एव पर्व एतत् तन्त्रम् एषा देवता एषा दक्षिणा एतद् ब्राह्मणम्।[विकृति इष्टयः]
ताम् ह एक आग्नेयीम् वा वारुणीम् वा प्राजापत्याम् वा कुर्वन्त्य् एतत् तन्त्राम् एव एतद् ब्राह्मणाम्।[विकृति इष्टयः]
(4.14).  आग्रयणेष्टिः
अथ व्रीहि सस्ये वा यवसस्ये वा आगते। आग्रयणीयान् उद्धर्तव आह। (विकृति इष्टयः)
तस्या एतद् एव पर्व एतत् तन्त्रम्। अथ यद् ऐन्द्राग्नो द्वादश कपालः।
[विकृति इष्टयः]
इन्द्राग्नी वै देवानाम् मुखम्। मुखत एव तद् देवान् प्रीणाति।[विकृति इष्टयः]
अथ यद् वैश्वदेवश् चरुः। एते वै सर्वे देवा यद् विश्वे देवाः। सर्वेषाम् एव देवानाम् प्रीत्यै।[विकृति इष्टयः]
अथ यद् द्यावा पृथिवीय एक कपालः। द्यावा पृथिवी वै सस्यस्य साधयित्र्यै।
[विकृति इष्टयः]
प्रतिष्ठा पृथिवी ओद्म्ना असाव् अनुवेद। तद् यद् एता देवता यजति। एताभिर् देवताभिः शान्तम् अन्नम् अत्स्यामि इति।[विकृति इष्टयः]
अथ य प्रथजम् गाम् ददाति। पथम कर्म ह्य् एतत्। यद्य् एतस्यै ग्लायात्।
[विकृति इष्टयः)
पौर्णमासम् वा अमावास्यम् वा हविष् कुर्वीत नवानाम् उभयस्य आप्त्यै।
[विकृति इष्टयः]
अपि वा पौर्णमासे वा अमावास्ये वा हवींष्य् अनुवर्तयेद् देवतानाम् अपरिहाणाय। [विकृति इष्टयः]
अपि वा यवाग् वा एव सायम् प्रातर् अग्निहोत्रम् जुहुयान् नवानाम् उभयस्य आप्त्यै। [विकृति इष्टयः]
अपि वा स्थाली पाकम् एव गार्हपत्ये श्रपयित्वा नवानाम् एताभ्य आग्रयण देवताभ्य आहवनीये जुहुयात् स्विष्टकृच् चतुर्थीभ्यो अमुष्यै स्वाहा अमुष्यै स्वाहा इति देवतानाम् अपरिहाणाय।[विकृति इष्टयः]
अपि वा अग्निहोत्रीम् एव नवान् आदयित्वा तस्यै दुग्धेन सायम् प्रातर् अग्निहोत्रम् जुहुयाद् उभयस्य आप्त्यै।[विकृति इष्टयः]
एत एतावन्तः पाताः। तेषाम् येन कामयेत तेन यजेत।[विकृति इष्टयः]
त्रिहविस् तु स्थिता। त्रयो वा इमे लोकाः। इमान् एव तल् लोकान् आप्नोति इमान् एव तल् लोकान् आप्नोति।[विकृति इष्टयः]
NAKSHATR SUKT-NAKSHATRESHTI :: 
अग्निर्नः॑ पातु कृत्तिकाः। नक्षत्रं देवमिन्द्रियम्। इदमासां विचक्षणम्। हविरासं जुहोतन। यस्य भान्ति रश्मयो यस्य केतवः। यस्येमा विश्वा भुवनानि सर्वास कृत्तिकाभिरभिसंवसानः। 
अग्निर्नोदेवस्सुविते दधातु॥1॥
प्रजापते रोहिणीवेतु पत्नी। विश्वरूपा बृहती चित्रभानुः। सा नो यज्ञस्य सुविते दधातु। यथा जीवेम शरदस्सवीराः। रोहिणी देव्युदगात्पुरस्तात्। विश्वा रूपाणि प्रतिमोदमाना। प्रजापतिग्ं हविषा वर्धयन्ती। प्रिया देवानामुपयातु यज्ञम्॥2॥
सोमो राजा मृगशीर्षेण आगन्न्। शिवं नक्षत्रं प्रियमस्य धाम। आप्यायमानो बहुधा जने॑षु। रेतः प्रजां यजमाने दधातु। यत्ते नक्षत्रं मृगशीर्षमस्ति। प्रियग्ं राजन् प्रियतमं प्रियाणाम्। तस्मै ते सोम हविषा विधेम। शन्न एधि द्विपदे शं चतु॑ष्पदे॥3॥
आर्द्रया रुद्रः प्रथमा न एति। श्रेष्ठो दे॒वानां पतिरघ्नियानाम्। नक्षत्रमस्य हविषा विधेम। मा नः प्रजाग्ं रीरिषन्मोत वीरान्। हेति रुद्रस्य परिणो वृणक्तु। आर्द्रा नक्षत्रं जुषताग्ं हविर्नः॑। प्रमुञ्चमानौ दुरितानि विश्वा। अपाघशग्ं सन्नुदतामरातिम्॥4॥
पुनर्नो देव्यदितिस्पृणोतु। पुनर्वसूनः पुनरेतां यज्ञम्। पुनर्नो देवा अभियन्तु सर्वे॓। पुनः पुनर्वो हविषा यजामः। एवा न देव्यदितिरनर्वा। विश्वस्य भर्त्री जगतः प्रतिष्ठा। पुनर्वसू हविषा वर्धयन्ती। प्रियं देवाना मप्येतु पाथः॥5॥
बृहस्पतिः प्रथमं जायमानः। तिष्यं नक्षत्रमभि सम्बभूव। श्रेष्ठो देवानां पृतनासुजिष्णुः। दिशो‌नु सर्वा अभयन्नो अस्तु। 
तिष्यः पुरस्तादुत मध्यतो नः। बहस्पतिर्नः परिपातु पश्चात्। 
बाधेतान्द्वेषो अभयं कृणुताम्। सुवीर्यस्य पतयस्याम॥6॥
इदग्ं सर्पेभ्यो हविरस्तु जुष्टम्। आश्रेषा येषामनुयन्ति चेतः। ये अन्तरिक्षं पृथिवीं क्षियन्ति। ते नस्सर्पासो हवमागमिष्ठाः। ये रोचने सूर्यस्यापि सर्पाः। ये दिवं देवीमनुसञ्चरन्ति। येषामश्रेषा अनुयन्ति कामम्। 
तेभ्यस्सर्पेभ्यो मधुमज्जुहोमि॥7॥
उपहूताः पितरो ये मघासु। मनोजवसस्सुकृतस्सुकृ॒त्याः। ते नो नक्षत्रे हवमागमिष्ठाः। स्वधाभिर्यज्ञं प्रयतं जुषन्ताम्। ये अग्निदग्धा ये‌नग्निदग्धाः। ये॑मुल्लोकं पितरः क्षियन्ति। याग्‍श्च विद्मयाग्म् उ च न प्रविद्म। 
मघासु यज्ञग्ं सुकृतं जुषन्ताम्॥8॥
गवां पतिः फल्गुनीनामसि त्वम्। तदर्यमन् वरुणमित्र चारु। तं त्वा वयग्ं सनितारग्ं सनीनाम्। जीवा जीवन्तमुप संविशेम। येनेमा विश्वा भुवनानि सञ्जिता। यस्य देवा अनुसंयन्ति चेतः। अर्यमा राजा‌जरस्तु विष्मान्। फल्गुनीनामृषभो रोरवीति॥9॥
श्रेष्ठो देवानां भगवो भगासि। तत्त्वा विदुः फल्गुनीस्तस्य वित्तात्। अस्मभ्यं क्षत्रमजरग्ं सुवीर्यम्। गोमदश्ववदुपसन्नुदेह। भगोह दाता भग इत्प्रदाता। भगो देवीः फल्गुनीराविवेश। भगस्येत्तं प्रसवं गमेम। यत्र देवैस्सधमादं मदेम॥10॥
आयातु देवस्सवितोपयातु। हिरण्ययेन सुवृता रथेन। वहन्, हस्तग्ं सुभग्ं विद्मनापसम्। प्रयच्छन्तं पपुरिं पुण्यमच्छ। हस्तः प्रयच्छ त्वमृतं वसीयः। दक्षिणेन प्रति॑गृभ्णीम एनत्। दातारमद्य सविता विदेय। 
यो नो हस्ताय प्रसुवाति॑ यज्ञम्॥11॥
त्वष्टा नक्षत्रमभ्येति चित्राम। सुभग्ं ससंयुवतिग्ं राचमानाम्। निवेशयन्नमृतान्मर्त्याग्श्च। रूपाणि पगं शन् भुवनानि विश्वा। तन्नस्त्वष्टा तदु चित्रा विचष्टाम्। तन्नक्षत्रं भूरिदा अस्तु मह्यम्। तन्नः प्रजां वीरवतीग्ं सनोतु। 
गोभिर्नो अश्वैस्समनक्तु यज्ञम्॥12॥
वायुर्नक्षत्रमभ्येति निष्ट्याम्। तिग्मशृंगो वृषभो रोरुवाणः। समीरयन् भुवना मातरिश्वा। अप द्वेषाग्ंसि नुदतामरातीः। तन्नो वायस्तदु निष्ट्या शृणोतु। तन्नक्षत्रं भूरिदा अस्तु मह्यम्। तन्नो देवासो अनुजानन्तु कामम्। 
यथा तरेम दुरितानि विश्वा॥13॥
दू॒रमस्मच्छत्रवो यन्तु भीताः। तदिन्द्राग्नी कृणुतां तद्विशाखे। तन्नो देवा अनुमदन्तु यज्ञम्। पश्चात् पुरस्तादभयन्नो अस्तु। नक्षत्राणामधिपत्नी विशाखे। श्रेष्ठाविन्द्राग्नी भुवनस्य गोपौ। विषूचश्शत्रूनपबाधमानौ। अपक्षुधन्नुदतामरातिम्॥14॥
पूर्णा पश्चादुत पूर्णा पुरस्तात्। उन्मध्यतः पौर्णमासी जिगाय। तस्यां देवा अधिसं वसन्तः। उत्तमे नाक इह मादयन्ताम्। पृथ्वी सुवर्चा युवतिः सजोषा:। पौर्णमास्युदगाच्छोभमाना। आप्याययन्ती दुरितानि विश्वा। 
उरुं दुहां यजमानाय यज्ञम्॥15॥
ऋद्ध्यास्म हव्यैर्नमसोपसद्य। मित्रं देवं मित्रधेयंनो अस्तु। अनूराधान्, हविषा वर्धयन्तः। शतं जीवेम शरदः सवीराः। चित्रं नक्षत्रमुदगात्पुरस्तात्। अनूराधा स इति यद्वदन्ति; तन्मित्र एति पथिभिर्देवयानै॓ः। हिरण्ययैर्विततैरन्तरि॑क्ष॥16॥
इन्द्रो ज्येष्ठामनु नक्षत्रमेति। यस्मिन वृत्रं वृत्र तूर्ये॑ ततार। तस्मिन्वय ममृतं दुहानाः। क्षुधन्तरेम दुरितिं दुरिष्टिम्। पुरन्दराय वृषभाय धृष्णवे॓। अषाढाय सहमानाय मीढुषे। इन्द्राय ज्येष्ठा मधुमद्दुहाना। 
उरुं कृणोतु यजमानाय लोकम्॥17॥
मूलं प्रजां वीरवतीं विदेय। पराच्येतु निरृतिः पराचा। गोभिर्नक्षत्र पशुभिस्समक्तम्। अहर्भूयाद्यजमानाय मह्यम्। अहर्नो अद्य सुविते ददातु। मूलं नक्षत्रमिति यद्वदन्ति। पराचीं वाचा निरृति नुदामि। 
शिवं प्रजायै॑ शिवमस्तु मह्यम्॥18॥
या दिव्या आपः पयसा सम्बभूवुः। या अन्तरिक्ष उत पार्थिवीर्याः। यासामषाढा अनु॒यन्ति कामम्। ता न आपः शग्ग् स्योना भवन्तु। याश्च कूप्या याश्च नाद्यास्मुद्रिया:। याश्च वैशन्तीरुत प्रासचीर्याः। यासामषाढा मधु भक्षयन्ति। 
ता न आपः शग्ग् स्योना भवन्तु॥19॥
तन्नो विश्वे उप शृण्वन्तु देवाः। तदषाढा अभिसंयन्तु यज्ञम्। तन्नक्षत्रं प्रथतां पशुभ्यः। कृषिर्वृष्टिर्यजमानाय कल्पताम्। शुभ्राः कन्या युवतयस्सुपेशसः। कर्मकृतस्सुकृतो वीर्यावतीः। विश्वान् देवान्, हविषा वर्धयन्तीः। अषाढाः काममुपायन्तु यज्ञम्॥20॥
यस्मिन् ब्रह्माभ्यजयत्सर्वमेतत्। अमुञ्च लोकमिदमूच सर्वम्। तन्नो नक्षत्रमभिजिद्विजित्य। श्रियं दधात्वहृणीयमानम्। उभौ लोकौ ब्रह्मणा सञ्जितेमौ। तन्नो नक्षत्रमभिजिद्विचष्टाम्। तस्मिन्वयं पृतनास्सञ्जयेम। 
तन्नो देवासो अनुजानन्तु कामम्॥21॥
शृण्वन्ति श्रोणाममृतस्य गोपाम्। पुण्यामस्या उपशृणोमि वाचम्। महीं देवीं विष्णुपत्नीमजूर्याम्। प्रतीची मेनाग्ं हविषा यजामः। त्रेधा विष्णुरुरुगायो विचक्रमे। मही दिवं पृथिवीमन्तरिक्षम्। तच्छ्रोणैतिश्रव इच्छमाना। 
पुण्यग्ग् श्लोकं यजमानाय कृण्वती॥22॥
अष्टौ देवा वसवस्सोम्यासः। चतस्रो देवीरजराः श्रविष्ठाः। ते यज्ञं पान्तु रजसः पुरस्तात्। संवत्सरीणममृतग्ग् स्वस्ति। यज्ञं नः पान्तु वसवः पुरस्तात्। दक्षिणतो‌भियन्तु श्रविष्ठाः। पुण्यन्नक्षत्रमभि संविशाम। 
मा नो अरातिरघशग्ंसा‌गन्न्॥23॥
क्षत्रस्य राजा वरुणो‌धिराजः। नक्षत्राणाग्ं शतभिषग्वसिष्ठः। तौ देवेभ्यः कृणुतो दीर्घमायुः। शतग्ं सहस्रा भेषजानि धत्तः। यज्ञन्नो राजा वरुण उपयातु। तन्नो विश्वे अभि संयन्तु देवाः। तन्नो नक्षत्रग्ं शतभिषग्जुषाणम्। 
दीर्घमायुः॒ प्रतिरद्भेषजानि॥24॥
अज एकपादुदगात्पुरस्तात्। विश्वा भू॒तानि प्रति मोदमानः। तस्य देवाः प्रसवं यन्ति सर्वे॓। प्रोष्ठपदासो अमृतस्य गोपाः। विभ्राजमानस्समिधा न उग्रः। आ‌न्तरिक्षमरुहदगन्द्याम्। तग्ं सूर्यं देवमजमेकपादम्। 
प्रोष्ठपदासो अनुयन्ति सर्वे॓॥25॥
अहिर्बुध्नियः प्रथमा न एति। श्रेष्ठो देवानामुत मानुषाणाम्। तं ब्राह्मणास्सोमपास्सोम्यासः। प्रोष्ठपदासो अभिरक्षन्ति सर्वे॓। चत्वार एकमभि कर्म॑ देवाः। प्रोष्ठपदा स इति यान्, वदन्ति। ते बु॒ध्नियं परिषद्यग्ग् स्तुवन्तः। 
अहिग् रक्षन्ति नमसोपसद्य॑॥26॥
पूषा रेवत्यन्वेति पन्थाम्। पुष्टिपती॑ पशुपा वाजबस्त्यौ। इमानि हव्या प्रयता जुषाणा। सुगैर्नो यानैरुपयातां यज्ञम्। क्षद्रान् पशून् रक्षतु रेवती नः। गावो नो अश्वाग्म अन्वेतु पूषा। अन्नग्ं रक्षन्तौ बहुधा विरूपम्। 
वाजग्ं सनुतां यजमानाय यज्ञम्॥27॥
तदश्विनावश्वयुजोपयाताम्। शुभङ्गमिष्ठौ सुयमेभिरश्वै॓ः। स्वं नक्षत्रग्ं हविषा यजन्तौ। मध्वासम्पृक्तौ यजुषा समक्तौ। यौ देवानां भिषजौ हव्यवाहौ। विश्वस्य दूतावमृतस्य गोपौ। तौ नक्षत्रं जुजुषाणोपयाताम्। 
नमो‌श्विभ्यां कृणुमो‌श्वयुग्भ्याम्॥28॥
अप पाप्मानं भरणीर्भरन्तु। तद्यमो राजा भगवान्, विचष्टाम्। लोकस्य राजा महतो महान्, हि। सुगं नः पन्थामभयं कृणोतु। यस्मिन्नक्षत्रे यम एति राजा। यस्मिन्नेनमभ्यषिंचन्त देवाः। तदस्य चित्रग् हविषा यजाम। 
अप पाप्मानं भरणीर्भरन्तु॥29॥
निवेशनी सङ्गमनी वसूनां विश्वा रूपाणि वसून्यावेशयन्ती। 
सहस्रपोषग्ं सुभगा रराणा सा न आगन्वर्चसा संविदाना। 
यत्ते देवा अदधुर्भागधेयममावास्ये संवसन्तो महित्वा। 
सा नो यज्ञं पिपृहि विश्ववारे रयिन्नो धेहि सुभगे सुवीरम्॥30॥
[तैत्तिरीय ब्रह्मणम् अष्टकम् 3 प्रश्नः 1; तैत्तिरीय संहिताः  काण्ड 3 प्रपाठकः 5 अनुवाकम् 1]
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः। 
गृहस्थ के हेतु यज्ञ हवन कर्म :: 
एकमप्याशयेद्विप्रं पित्रर्थे पञ्चयज्ञिके। 
न चैवात्रशयेत्किंञ्चिद्वैश्र्वदेवं प्रति द्विजम्॥मनु स्मृति 3.83॥
पंचयज्ञ के अन्तर्गत पितृ के निमित्त एक ब्राह्मण को अवश्य भोजन करावे, पर वैश्य देव के निमित्त ब्राह्मण को भोजन कराने की आवश्यकता नहीं है। 
Under the procedure of Pitr Yagy, the household must offer food to one Brahmn for the satisfaction of the Manes. For the sake of Vaeshy Dev there is no such compulsion.
वैश्यदेवस्य सिद्धस्य गृह्येSग्नौ विधिपूर्वकम्। 
आभ्यः कुर्याद्देवताभ्यो ब्राह्मणो होममन्वहम्॥मनु स्मृति 3.84॥
वैश्य देव के लिये पकाए अन्न से, ब्राह्मण गार्हपत्य अग्नि में, आगे कहे हुए देवताओं के लिये प्रति दिन हवन करे। 
The Brahmn should perform Hawan as per description that follows, into the Garhpaty Agni, for Vaeshy Dev with the cooked food grains, for the sake-satisfaction, appeasement of deities, demigods.
गार्हपत्य अग्नि का एक प्रकार है। अग्नि तीन प्रकार की है :- (1). पिता गार्हपत्य अग्नि हैं, (2). माता दक्षिणाग्नि मानी गयी हैं और (3). गुरु आहवनीय अग्नि का स्वरूप हैं॥ वेद॥ 
Garhpaty Agni is a type of fire. Veds describe fire by the name of father, mother and the Guru-teacher.
अग्ने: सोमस्य चैवादौ तयोच्श्रैव समस्तयो:। 
विश्रेव्भ्यच्श्रैव  देवोभ्यो धन्वन्तरय एव च॥मनु स्मृति 3.85॥
पहले अग्नि और सोम को फिर दोनों को एक साथ "अग्निसोमाभ्यां स्वाहा:" कहकर आहुति दे, तदनन्तर विश्वदेव और धन्वंतरीको आहुति दे। 
First offering should be made to fire and the next to Som (Moon-Luna) followed by a joint offering to both by spelling "Agnisomabhyaan Svaha:", thereafter offering should be made to Vishw Dev and then to Dhanvantri.
Dhanvantri is demigods physician.
कुह्वै चैवानुमत्यै  च प्रजापतय एव च। 
सहद्यावापृथिव्योश्र्च तथा स्विष्टकृतेSन्तपः॥मनु स्मृति 3.86॥
फिर कुहू को, अनुमति को, प्रजापति को आहुति दे, द्यो: पृथिवी को एक साथ आहुति दे। अन्त में स्विष्टकृत् अग्नि को आहुति दे। 
The household should sacrifice offerings in holy fire for the sake of Kuhu, Anumati, Prajapati, the earth and the fire form Swishtkrat it self.
कुहू :: कोयल की कूक या बोली, मोर की केका-ध्वनि, अमावस्या की अधिष्ठात्री देवी या शक्ति, अमावस्या की रात, छलना, प्रवञ्चना;  The goddess-deity of the no moon night.
स्विष्टकृत् अग्नि :: The fire which performs the sacrifice well.
अनुमति :: आज्ञा, हुकुम, कोई काम करने से पहले उसके संबंध में अधिकारी से मिलने या ली जानेवाली स्वीकृति, अनुज्ञा, पूर्णिमाकीअधिष्ठात्री देवी या शक्ति; Sanction, assent, counsel, decree, advice, permission, The goddess-deity of the full-moon night.
एवं सम्यग्धविर्हुत्वा सर्वदिशु प्रदक्षिणम्। 
इन्द्रान्तकाप्पतीन्दुभ्यः सानुगेभ्यो बलिं हरेत्॥मनु स्मृति 3.87॥
इस प्रकार होम करके सारी दिशाओं में दक्षिण क्रम से इन्द्र, यम, वरुण और सोम को तथा साथ ही साथ उनके अनुयायियों को बलि देनी चाहिये। 
यथा पूर्व दिशा में इन्द्राय नमः इंद्रपुरुषेभ्यो नमः, दक्षिण में यमाय नमः यमपुरुषेभ्यो नमः, पश्चिम में वरुणाय नमः वरुणपुरुषेभ्यो नमः, उत्तर दिशा में सोमाय नमः सोमपुरुषेभ्यो नमः। 
Having performed the holy sacrifices in fire the household should recite the holy Mantr-verses directed to Indr-the King of heaven, facing east  as :- Om Indray Namh Om Indr Purushebhyo Namh, to Yum-the deity of death, religion and deeds facing south as :- Om Yamay Namh Om Yum Purushebhyo Namh, to Varun-the deity of water facing west as :: Om Varunay Namh Varun Purushebhyo Namh and then to Moon-the king of Brahmns as :- Om Somay Namh Om Som Purushebhyo Namh.
मरुद्भ्य इति तु द्वारि क्षिपेदप्स्वद्भ्य इत्यपि।
वनस्पतिभ्य इत्येवं मुसलोलूखले हरेत्॥मनु स्मृति 3.88॥
मरुत को द्वार पर, आप-जल को जल में, वनस्पति को मूसल और उलूखल में बलि दे। 
Offerings to Marut-air be made at the entrance-door, to Varun in water, to plantation-vegetation in Musal or Ulukhal made of wood.
मूसल :: Muller, (pestle, plunger, ponder, flail, pestle and the mortar) is made of wood nad used to separate chaff from grain.
उलूखल :: A mortar for crushing or cleaning rice, grinding ingredients.
उच्छीर्षके श्रियै कुर्याद्भद्रकल्यै च पादत:। 
ब्रह्म वास्तोष्पतिभ्यां तु वास्तुमध्ये बलिं हरेत्॥मनु स्मृति 3.89॥
वास्तु पुरुष के शीर्ष भाग (उत्तर-पूर्व दिशा) में लक्ष्मी को, पद प्रदेश (दक्षिण-पश्चिम) में भद्र काली को, ब्रह्मा और वास्तुपति को वास्तु के मध्य भाग में बलि दे। 
Offerings to Maa Lakshmi should be made at the top segment of Vastu Purush (North East direction), to Maa Bhadr Kali offering should be made at the lowest segment-foot of the Vastu Purush while offering to Brahma Ji and the Vastu Pati himself be made at the centre of the Vastu Purush.
विश्वेदेवश्र्चैव देवेभ्यो बलिमाकाश उत्क्षिपेत्। 
दिवाचरेभ्यो भूतेभ्यो नक्तञ्चारिभ्य एव च॥मनु स्मृति 3.90॥
वैश्यदेव को आकाश में और दिन चर प्राणी को दिन में रात्रि चर प्राणी को रात में बलि दे। 
Offerings for sake of the micro or divine creatures, including ghosts or the diseased be made in the sky, for the sake of the living beings it should be made during the day and offerings for the sake of the goblins that walk at night be made during the night only.
वैश्यदेव :: पंच महायज्ञों मे से भूतयज्ञ नाम का चौथा महायज्ञ। सूक्ष्म, दिव्य जितने भी प्राणी या देव, सबों को तृप्त करने की भावना से भोज्य सामग्री की हवि प्रदान करना ही भूत या वैश्यदेव यज्ञ है। इससे व्यक्ति का हृदय और आत्मा विशाल होकर अखिल विश्व के प्राणियों के साथ एकता सम्मिलित का अनुभव करने में होता है।
पञ्च दक्षिण यज्ञ ::
पाद्यमासनमेवाथ दीपमन्नं प्रतिश्रयम्।
दद्यादतिथिपूजार्थ स यज्ञ: पञ्चदक्षिण:
अतिथि को पैर धोने के लिए जल, बैठने के लिए आसन, प्रकाश के लिए दीपक, खाने के लिए अन्न और ठहरने के लिए स्थान देता है, इस प्रकार अतिथि सत्कार के लिए इन पाँच वस्तुओं का दान पञ्च दक्षिण यज्ञ कहलाता है।[महा.अनुशासनपर्व 4.8]
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। 
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥
जिससे अर्पण किया जाये (स्त्रुक्, स्त्रुवा) वे पात्र ब्रह्म है, यज्ञ में अर्पित हव्य पदार्थ (तिल, जौ, घी, आदि) द्रव्य भी ब्रह्म है तथा ब्रह्म रूपी कर्ता द्वारा ब्रह्म रूपी अग्नि में आहुति रूपी क्रिया भी ब्रह्म है, ऐसे यज्ञ को करने वाले जिस मनुष्य की ब्रह्म में ही कर्म-समाधि हो गई है, उसके द्वारा प्राप्त करने योग्य फल भी ब्रह्म ही है। 
Offerings-sacrifices, pots (instruments, implements) in a Yagy (Hawan, Agnihotr, sacred scarifies in holi fire) are Brahm, materials sacrificed in Agnihotr-sacrificial fire constitute Brahm, one who is making sacrifice-oblation in the fire, sacrifice and the sacrificial fire too, is Brahm and one who has attained Karm Samadhi in the Brahm, output, result-rewards obtained out of this Hawan-sacrifice by the performer too constitute Brahm-the Ultimate.
यज्ञ में अग्नि रूप हुई आहुति मुख्य है। सभी साधन साध्य रूप होने पर यज्ञ बनते हैं। यज्ञ में परमात्म तत्व वास्तविकता है। यज्ञ कर्ता के सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं। अर्पण की क्रिया, पदार्थ, आहुति देने वाला, अग्नि और आहुति देने की क्रिया ब्रह्म ही हैं। कर्ता को ब्रह्म में ही कर्म समाधि अनुभव होती है अर्थात उसकी सभी कर्मों में ब्रह्म बुद्धि होती है। उसके सम्पूर्ण कर्म ब्रह्म रूप हो जाते हैं। उसे फल के रूप में भी ब्रह्म की ही उपलब्धि होती है। उसकी दृष्टि में सिवाय ब्रह्म के अन्य किसी की भी स्वतंत्र सत्ता नहीं है।[श्रीमद्भगवद्गीता 4.24]  
Sacrificial fire is the main component of the Yagy (Hawan, Agnihotr). Sacrifices offered, turn into eternal fire. All means pertaining to Yagy Karm turn into (Assimilate into the Ultimate, Eternal). All actions of the devotee-performer turn into non actions, leading him to freedom from birth and death. 
All functions (offerings, oblations, materials, performer, sacrificial fire) and the processes too turn into Brahm. The doer finds Brahm Samadhi in his actions-process. He receives the out put of the Yagy in the form of Brahm, it self. He do not find any thing independent, other than the Brahm.
दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते। 
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति॥
अन्य योगी, मनुष्य, साधक दैव (भगवदर्पण रूप) यज्ञ का ही अनुष्ठान करते हैं और दूसरे योगी लोग ब्रह्म रूपी अग्नि में विचार रूप (अभेद दर्शन के द्वारा आत्म रूपी) यज्ञ द्वारा ही जीवात्मा रूप यज्ञ का हवन करते हैं।[श्रीमद्भगवद्गीता 4.25] 
Other Yogis-practitioners worship the Almighty in the form of Yagy (Hawan, Agnihotr, holy-sacred sacrifices in fire) and yet another Yogi find the Almighty in the form of Brahm shaped sacred fire, through their thoughts-meditation as the portrait of Jeevatma-soul shaped Yagy.
ब्रह्म स्वरूप दर्शन करने वाले साधक से भिन्न; अन्य यज्ञार्थ कर्म करने वाले निष्काम साधक भी हैं। भगवान् देवों के भी देव अर्थात दैव हैं। सम्पूर्ण क्रियाओं तथा पदार्थों को भगवान् का और उनके लिये ही मानना तथा उनको ही अर्पण कर देना दैव यज्ञ है। किसी भी क्रिया और पदार्थ में किञ्चित मात्र भी आसक्ति, ममता और कामना न रखकर उन्हें सर्वथा भगवान् का ही मानना दैव यज्ञ का भली भाँति अनुष्ठान करना है। चेतन का जड़ से तादात्म्य होने के कारण ही उसे जीवात्मा कहते हैं। विवेक-विचार रूप से जड़ से सर्वथा विमुख होकर परमात्मा में लीन हो जाने को यज्ञ कहा गया है। 
There are practitioners other than the one, who visualise the Almighty in the form of sacred fire (Yagy, Agnihotr, Hawan), they perform-carry out deeds pertaining to Yagy with out having any motive (desire, wish). Bhagwan-Almighty is the God of demigods-deities, also. Offering-sacrificing of all actions, material objects to HIM and consideration of every thing & action belonging to HIM, is the Ultimate Yagy (worship, prayer, sacrifice). Consideration of all actions & material objects without slightest possible attachment, desire, affection and surrendering them to the Almighty is the real performance of Yagy. 
Connection of the awake with the inertial-static is called the JEEVATMA (creature, organism, here human beings). Separation of the practitioner from the inertial-static form of life-creations, through prudence and thinking-meditation and assimilation in the Almighty is Yagy.
श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति। 
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति॥
अन्य योगी श्रोत्र आदि सभी इन्द्रियों का संयम रूपी अग्नियों में हवन करते हैं और दूसरे योगी शब्दादि सभी विषयों का इन्द्रिय रूपी अग्नियों में हवन करते हैं।[श्रीमद्भगवद्गीता 4.26] 
Other Yogis offer senses like speech into the sacrificial fire in the form of sense organs, while the sense organs like ears are offered into the sacrificial fire in the form of control-firm determination to carry out Yagy (Hawan, Agni Hotr).  
अग्नि वह कारक है जो कुछ भी जलाकर भस्म-नष्ट करता है। शब्दादि सभी विषयों की इन्द्रिय रूपी अग्नि में और इन्द्रियों की संयम रूपी अग्नि में आहुति से यज्ञ किया गया है। एकान्त काल में इन्द्रियाँ और उनके विषयों का संयम किया जाता है। संयम की अवस्था तभी उत्पन्न होती है जब साधक इन्द्रियों, मन, बुद्धि तथा अहम् में राग-आसक्ति से सर्वथा विरक्त हो जाये। विवेक-विचार, दृढ़ निश्चय, जप-तप, ध्यान, चिन्तन-मनन, से इन्द्रिय संयम, राग-द्वेष से मुक्ति व्यवहार काल और एकान्तकाल दोनों ही अवस्थाओं में एक समान स्थिति बनाई जा सकती है। 
Fire is the means to eliminate any thing. 
Senses like talking (speaking, pronunciation, speech) are sacrificed in the fire in the form of sense organs, through control (restraint, command). The sense organs are sacrificed into the fire constituting of control-restraint. The senses and their sensualities are managed-controlled while one is alone-during solitude. Equilibrium-equanimity is evolved when prudence-thinking, prayers (recitation, meditation, analysing, firm determination) generate (occur, evolve) into practitioner, to control sense organs, relinquishing attachment (allurements, enmity etc.) in solitude as well in society.
सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते॥
अन्य योगी लोग सम्पूर्ण इन्द्रियों और प्राणों की सभी क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्म संयम, योग समाधि, योग रूप अग्नि में हवन किया करते हैं।[श्रीमद्भगवद्गीता 4.27] 
There are the other Yogis, who sacrifice all the actions of their senses and the Pran (vital airs) in the fire kindled by the knowledge of the Yog of self-restraint.
समाधि भी यज्ञ स्वरूप है। योगी समस्त इन्द्रियों को मन-बुद्धि सहित समाधि अवस्था में ले जाकर उन्हें शाँत और निश्छल-निश्चेष्ट कर लेता है। इस अवस्था में प्राणों की क्रियाओं का हवन भी हो जाता है अर्थात वे रुक जाती हैं। हठयोग में, समाधी की अवस्था में, कुम्भक क्रिया का अभ्यास प्राणों को घंटों, दिनों (वर्षों) तक रोक कर, आयु बढ़ाता है। समाधि काल में मन को एकाग्र करने पर प्राणों की गति स्वतः रुक जाती है। समाधि और निद्रा दोनों ही अवस्थाओं में कारण शरीर से सम्बन्ध बना रहता है और सच्चिदानंद परमात्मा ही सर्वत्र परिपूर्ण है, ऐसा ज्ञान जाग्रत रहता है। निद्रा काल समाधि से भिन्न है, क्योंकि इसमें प्राणों की गति कायम रहती है। चित्तवृति निरोध रूप अर्थात समाधि रूप यज्ञ करने वाले योगी जन इन्द्रियों और प्राणों की क्रियाओं का समाधि रूप अग्नि में हवन  किया करते हैं। मन-बुद्धि की चञ्चलता को त्याग कर सम्पूर्ण इन्द्रियों और प्राणों की क्रियाओं को रोककर समाधि में स्थित होकर सच्चिदानन्द परमात्मा में स्थित हो जाते हैं।   
Staunch meditation is also a form of Yagy (holy sacrifice, burning). Yogi directs (channelise) his sensualities along with mind and intelligence, into staunch meditation and silences (over power, control, ride) them. In this process the life sustaining forces are also sacrificed. They come to a halt. During Hath Yog and staunch meditation, the practitioner controls his breath initially from minutes to hours and years, which boost his longevity. There are Yogis who's chronological age is in thousands of years. During the period of Samadhi, the brain is thoroughly immersed (concentrated, directed, channelized) into the Almighty. Though the heart beat stops, yet brain remain conscious, keeping him alive. The practitioner is absorbed completely into the sensation of the presence of the Almighty, all around him. He experiences bliss-Parmanand. This state is different to that of sleep, in which the flow of air (breathing, respiration) vital continues. Controlling the activities of the brain, which roams around in all directions i.e., the state of Samadhi, the Yogi diverts the actions-activities of the mind & intelligence into sacrificial fire, in the form of Samadhi. This is state, when the devotee is stabilised-established in the Almighty.
Please refer to :: (1). YOG (6) योग santoshkipathshala.blogspot.com (2). Yog chapters 1-12 jagatgurusantosh.wordpress.com
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे। 
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः॥
मनुष्य-प्रयत्नशील साधक तीक्ष्ण व्रत और द्रव्यमय यज्ञ करने वाले हैं और कितने ही तपोमय यज्ञ करने वाले हैं और दूसरे कितने ही योग यज्ञ करने वाले हैं तथा कितने ही स्वाध्याय रूप ज्ञान यज्ञ करने वाले हैं।[श्रीमद्भगवद्गीता 4.28] 
There are various practitioners who perform staunch sacrifices through wealth, asceticism-austerity and Yog. Then there are others who diligently undertake acquisition of the knowledge of epics, Ved, History, scriptures, think over them, understand them apply in their day today life. 
अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी का अभाव), ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह (भोग बुद्धि से संग्रह का अभाव) पाँच यम हैं जिन्हें महाव्रत कहा जाता है। उपरोक्त वर्णित चारों यज्ञों में व्रत अर्थात नियमों को दृढ़ता पूर्वक पालन करना चाहिये। कुआँ, तालाब, धर्मशाला, मंदिर, स्कूल आदि बनवाना-लोकहित के साधन करना, अभावग्रस्त लोगों में अन्न, जल, औषधि, वस्त्र, पुस्तक, धन, निस्वार्थ भाव से अपना सभी कुछ लोक हित में समर्पण कर देना, दान देना आदि द्रव्यमय यज्ञ है। व्रत, उपवास, मौन, तपोमय यज्ञ हैं। कठिन से कठिन परिस्थिति में भी अपना कर्म बिना विचलित हुए प्रसन्नता पूर्वक अपना कर्तव्य पालन करना तपस्या-यज्ञ है और अति शीघ्र सिद्धि देने वाली होती है। अन्तःकरण की समता अर्थात कार्य, अभीष्ट की सिद्धि-असिद्धि, फल की प्राप्ति-अप्राप्ति, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति, निंदा-स्तुति, आदर-निरादर, मान अपमान, राग-द्वेष, हर्ष-शोक, सुख-दुःख, अन्तःकरण की हलचल व्यग्रता में एक समान रहना योगयज्ञ है। गीता, रामायण, महाभारत, पुराण, भागवत, इतिहास, वेद-उपनिषद् का वर्णाश्रम धर्म के अनुसार पठन-पाठन, श्रवण, अध्ययन, चिंतन, मनन, विचार ज्ञान रूपी यज्ञ हैं। इनके श्रवण, अध्ययन पर किसी प्रकार की रोक नहीं है। 
Non violence, truth, not to steal, chastity and avoidance of the storage-accumulation of goods for comforts, are 5 divine rules in life, which are considered to be extreme penances. Four Yagy have been described, which needs great determination, care, austerity for performing them according to Varnashram Dharm. Establishment of schools, opening of inns for the rest of travellers, digging of ponds, wells, roads, tree plantation by the side of roads, garden for public use are pious acts equivalent to sacrifice-Yagy. (These days all these things are operated with profit motive or to get name, fame & wealth, which leads to hell.) Distribution of free books, medicines, water, food grain, money, donations, charity and offering personal belongings for the service of poor-needy is a form of Yagy. Fasting, silence, keeping up vows to do some thing for the sake of public service-welfare too are Yagy. To fulfil commitment in adverse circumstances and to perform own duty without being disturbed is staunch meditation-asceticism. Maintaining equanimity between success-failure, favourable or adverse conditions, abuse-respect, respect-insult, attachment-enmity, happiness-sorrow and balancing the disturbances-distractions of mind and heart constitute Yagy. Performance of all kinds of Yog do involve-constitute Yagy-holy sacrifice. Reading, listening, understanding and utilising the gist of scriptures, history, Veds, Puran, Geeta, Bhagwat, Ramayan, Maha Bharat, Upnishads is also a form of asceticism (Yagy, Holy sacrifice).
कोई भी, कहीं भी, किसी भी मत-धर्म का अनुलम्बी इनका ज्ञान प्राप्त कर सकता है। इसके लिये हिन्दु बनना या सनातन धर्म में शामिल होना जरूरी नहीं है।    
Any one, any where, from any religion-faith can learn-study-practice this without hitch, without opting for conversion into Hinduism-Sanatan Dharm. Those who obstruct others from doing so, are fraud, ignorant, mischievous by nature.
There is no provision for conversion in Hinduism. No one can admit or expel one out of Hinduism. Everyone who is virtuous, righteous, religious, honest, pious, pure, truthful is a Hindu, whether he goes to a temple, pilgrim or not. Any one who follow Varnashram Dharm is a Hindu whether he attends to religious lectures-sermons or not.
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे। 
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः॥
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः॥
योगी अपान वायु में प्राण वायु का हवन (पूरक करके) करते हैं और अन्य कितने ही प्राण वायु में अपान वायु का हवन (रेचन-साँस बाहर निकालना) करते हैं। कुछ अन्य प्राणायाम परायण योगी प्राण और अपान की गति को रोककर (कुम्भक क्रिया के द्वारा) हवन करते हैं। योगी नियमित-सन्तुलित आहार द्वारा प्राणों का प्राणों में ही हवन करते हैं। ये सभी साधक यज्ञों द्वारा पापों का नाश करने वाले और यज्ञों को जानने वाले हैं।[श्रीमद्भगवद्गीता 4.29-30] 
Yogis-ascetics mixes the fresh air, Pran, breath with the Apan (stale breath, rejected breath, impure air-stale air present in the lungs moving to the heart there after) offer Pran in Apan. This is Poorak (intake, inhaling). This is combustion-burning of the sins i.e., germs (virus, bacteria, microbes, dead cells) present in the body, called Hawan here. When the Apan (waste, rejected-stale air) is mixed with Pran, fresh breath, air, it is Rechak-exhaling. The third process involves stagnating both Pran and Apan Vayu-Holding, thereby stopping the flow of both fresh and stale air in the lungs-heart and the entire body. This process of exchange of gases is vital for good health leading to relief from diseases (tensions, defects). In fact pap-sins appear in the form of diseases.
प्राण का स्थान ऊपर-ह्रदय स्थल तथा अपान का स्थान गुदा (anus) नीचे है। श्र्वास को बाहर निकलते समय साँस-वायु की गति ऊपर की ओर और भीतर ले जाते वक्त नीचे की ओर होती है। 
योगी पहले श्र्वास को बाईं नासिका-नथुने-चन्द्र नाड़ी के द्वारा भीतर खींचते हैं। वह वायु ह्रदय में उपस्थित प्राण वायु को साथ लेकर नाभि से होती हुई स्वतः अपान में लीन हो जाती-मिल जाती है। यह पूरक क्रिया है।
तत्पश्चात योगी-अभ्यास कर्ता प्राण वायु और अपान वायु दोनों की गति रोक देते हैं, जिसे कुम्भक कहते हैं अर्थात न तो साँस बाहर आती न ही अन्दर जाती है। इसके बाद वे अन्दर की वायु को दाँये नथुने-सूर्य नाड़ी से निष्कासित करते हैं। इस प्रक्रिया में प्राणवायु अपान वायु को साथ लेकर बाहर निकलती है, जिसे प्राण वायु में अपान वायु का हवन कहा गया है। यही रेचक क्रिया है। 4 भगवन्नाम से पूरक, 16 भगवन्नाम से कुम्भक और 8 भगवन्नाम से रेचक क्रिया की जाती है। 
इस क्रिया को विपरीत अवस्था में पहले सूर्य नाड़ी से पूरक, फिर कुम्भक और तदोपरान्त चन्द्र नाड़ी से रेचक क्रिया की जाती है। इस प्रकार बार-बार पूरक-कुम्भक तथा रेचक प्राणायाम रूपी यज्ञ है और सभी पापों को नष्ट कर देते हैं (यही क्रिया बीमारियों को दूर करने के लिए की जाती है)। 
नियमित आहार-विहार, सन्तुलित-नियमित भोजन करने वाले साधक ही प्राणों का प्राणों में हवन-विलय कर सकते हैं। बहुत अधिक, बेहद कम या बिलकुल भोजन ने करने वाला यह प्राणायाम नहीं कर सकता। प्राण का प्राण में हवन का तात्पर्य है प्राण और अपान को अपने-अपने स्थान पर रोक देना। यही स्तम्भवृत्ति प्राणायाम है। इन प्रक्रियाओं से मन शान्त, निर्मल-आवेगहीन हो जाता है और भगवत प्राप्ति में सहायक हो जाता है। 
इस प्रकार के यज्ञ करते रहने से सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते है और अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। सम्पूर्ण यज्ञ केवल कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद करने के लिए ही हैं। यह जानने-समझने वाला ही यज्ञवित् अर्थात यज्ञ के तत्व को जानने वाला-तत्वज्ञ है। कुछ लोग लोक-परलोक-स्वर्गादि के भोग प्राप्त करने के लिए यज्ञ करते हैं। वे तत्वज्ञानी नहीं हैं। विनाशी वस्तुओं की कामना बन्धनकारी है-जिसे मुक्ति-भक्ति-मोक्ष की प्राप्ति कदापि नहीं होती। 
निष्काम भाव से किया गया छोटे से छोटा कर्म भी, परमात्मा की प्राप्ति कराने वाला हो जाता है। 
Pran acquires the upper segment of the body the heart, while the Apan is seated below at the anus. When the air is rejected into the atmosphere the breath is directed upwards and during the intake it is directed in the downward direction.
The Yogi-practitioner first sucks the air into the lungs through the left nostril-Chandr Nadi, by blocking the right one, with the thumb for 4 seconds. At this stage the puff of the air mixes up in the lungs through the bronchus-extremely fine air sacks. This is inhaling-intake.
Thereafter, the Yogi will hold the air in this state for 16 seconds.  Flow of air into the lungs will stop during this cycle. This is followed by exhaling through the right nostril-Sury Nadi for 8 seconds. One may silently keep on reciting the names of the Almighty for 4, 16 or 8 times respectively.
This process is reversed with exchange of gases from the right nostril to the left nostril i.e., from Sury Nadi to Chandr Nadi. 
Only those who intake balanced diet are capable of mixing the Pran Vayu with the Apan Vayu. Those who very little or no food, do find it difficult to preform this practice. Assimilation of Pran with Apan is Yagy (Hawan, burning of sins-diseases). This leads to clarity of mind & thought. One becomes peaceful (quite, unagitated, restful, blissful), leading to assimilation in the Ultimate-the Almighty. 
Continuity of this practice is a form of Yagy leading to freedom from sins (diseases, evil ideas, thoughts, wretchedness, vices, impurity) helping in Liberation of the soul. One who understands that the motive-cause of holy practices-rituals is detachment from the deeds, is the real performer (Yogi, ascetic). Those who undertake big celebrations (rituals, Yagy, Agnihotr, Hawan) for attaining the heaven (empire, high posts, name, fame) etc. are not the ones, who understand the gist of the religion (Faith, Dharm). The detached (unbonded, free from ties), avails Liberation-Devotion and Salvation. Smallest deed for the welfare of others, without any motive-desire, too helps one, in attaining the Parmatma-Parmanand.
Those who correlate Yog-Pranayam with Hinduism are wrong-ignorant. 
12 FORMS OF YAGY 12 प्रकार के यज्ञ ::  निस्वार्थ भाव से दूसरों के हित-भले के लिए किये गए कर्तव्य-कर्म करने का नाम ही यज्ञ है। यज्ञ से सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं। मनुष्य बंधन मुक्त हो जाता है। कुल बारह प्रकार के यज्ञ कर्म हैं। 
(1). ब्रह्म यज्ञ-प्रत्येक कर्म में कर्ता, करण, क्रिया, पदार्थ आदि सब को ब्रह्म रूप से अनुभव करना। 
(2). भगवदर्पण रूप यज्ञ-सम्पूर्ण क्रियाओं और पदार्थों को केवल भगवान् का और भगवान् के लिए ही मानना।
(3). अभिन्नता रूप यज्ञ-असत् से सर्वथा विमुख होकर परमात्मा में विलीन हो जाना। परमात्मा से अलग अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना। 
(4). संयम रूप यज्ञ-एकान्तकाल में अपनी इन्द्रियों को विषयों से मुक्त रखना-प्रवृत न होने देना। 
(5). विषय हवन रूप यज्ञ-व्यवहार काल में इन्द्रियों से संयोग होने पर भी उनमें राग द्वेष पैदा न होने देना। 
(6). समाधिरूप यज्ञ-मन बुद्धि सहित सम्पूर्ण इन्द्रियों और प्राणों की क्रियाओं को रोककर ज्ञान से प्रकाशित समाधि में स्थित हो जाना। 
(7). द्रव्य यज्ञ-सम्पूर्ण पदार्थों को निःस्वार्थ भाव से दूसरों की सेवा में लगा देना। 
(8). तपो यज्ञ-अपने कर्तव्य के पालन में आने वाली कठिनाइयों को प्रसन्नता पूर्वक सह लेना।
(9). योग यज्ञ-कार्य की सिद्धि-असिद्धि में तथा फल की प्राप्ति-अप्राप्ति में सम रहना। 
(10). स्वाध्याय रूप ज्ञान यज्ञ-दूसरों के हित के लिए सत्-शास्त्रों का पठन-पाठन, नाम-जप आदि करना। 
(11). प्राणायम रूप यज्ञ-पूरक, कुम्भक और रेचक पूर्वक प्रणायाम करना। 
(12). स्तम्भ वृत्ति प्राणायाम रूप यज्ञ-नियमित आहार करते हुए प्राण और अपान को अपने-अपने स्थानों पर रोक देना। 
मनुष्य की समस्त क्रियाएँ यज्ञ रूप ही होनी चाहिए अर्थात स्वयं के लिए कुछ भी नहीं करना। जब मनुष्य केवल दूसरों के हित के लिए सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्म  करता है तो परिणति कर्तव्य कर्म रूप यज्ञ  में स्वतः हो जाती है।
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम॥
हे कुरु वाशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले योगी सनातन पर ब्रह्म परमेश्वर को प्राप्त होते हैं। यज्ञ न करने वाले मनुष्य के लिए तो यह पृथ्वी भी सुखदायक नहीं है, फिर परलोक कैसे सुखदायक हो सकता है?[श्रीमद्भगवद्गीता 4.31] 
O best among Kurus! Those who enjoy-utilise, the left over-remnant of the Yagy's sacrifice's attain the Eternal (Brahmn, Ultimate, the Almighty). For those who do not perform-conduct Yagy, even this world is not pleasant, what to talk of the next abode-reincarnation, birth.
यज्ञ करना-निष्काम भाव से दूसरों की सेवा करना मनुष्य को समता प्रदान करता है, जो कि यज्ञशिष्ट अमृत के समान सुख देने वाला है। अमृत ग्रहण करना अर्थात अमरत्व (immortality) या परब्रह्म में लीन होना, जिससे बड़ा सुख कोई नहीं है। अपने स्वरूप आत्मा से मनुष्य अमर है ही, परन्तु मरणशील वस्तुओं के संग के कारण उसे मृत्यु का अनुभव होता है। उन वस्तुओं को संसार के हित  में लगाने-उपयोग करने से उनसे असंग हो जाता है। कर्म को कर्तव्य की भावना से करने पर वही कर्म यज्ञ में परिवर्तित हो जाता है। यज्ञ का अर्थ है देना, लेना नहीं; अर्थात बन्धनों :- मान-अपमान, लोभ-मोह, लाभ-हानि, जीवन-मरण से मुक्ति। 
Performing a Yagy, serving others, without motive (return, expectations), gives equanimity to the doer, which is equitable to the pleasure (satisfaction, enjoyment) received by drinking elixir (nectar, Amrat, ambrosia-the food of the demigods & the deities). One who taste Amrat attains freedom from reincarnation-life & death and attains immortality, which is Ultimate pleasure-bliss. 
One is immortal by his own stature-soul, which is a component of the Almighty. His association with the perishable, makes him undergo-experience death. The moment he utilise these goods for the sake-welfare of others, he is detached-freed from bonds (ties, clutches) of life & death-reincarnations. He becomes neutral to fame, losses, gains, insult, pleasure-pain, sorrow, desires, motives.
एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे॥
इस प्रकार और भी अनेक प्रकार के यज्ञ, वेद की वाणीं में विस्तार से कहे गए हैं। उन सब यज्ञों को तुम (मन, इन्द्रिय और शरीर की) क्रिया द्वारा सम्पन्न होने वाले जान कर अनुष्ठान द्वारा यज्ञ करने से कर्म-बंधन से मुक्त हो जाओगे।[श्रीमद्भगवद्गीता 4.32] 
There are many more forms of Yagy-sacrifices, described in the Veds. One should acquaint himself with them and attain Salvation, Liberation, Assimilation, Moksh, in the Ultimate-the Almighty. 
वेदों में अनेक प्रकार के यज्ञों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है जो कि मनुष्यों द्वारा अपनी प्रकृति, निष्ठा, प्रवृत्ति के अनुसार किये जाते हैं और उनकी क्रियाएँ और साधन भी अलग-अलग होते हैं। सकाम यज्ञ-अनुष्ठान मनुष्य को बंधनों में बाँधने वाले होते हैं। यहाँ तो केवल निष्काम कर्म-यज्ञ परमात्म प्राप्ति हेतु श्रवण, मनन, निदिध्यासन, प्राणायाम, समाधि आदि अनुष्ठानों का वर्णन है। यज्ञ वेद से उत्पन्न हुए हैं। सर्वव्यापी परमात्मा-परमेश्वर यज्ञों में प्रतिष्ठित हैं। सभी यज्ञ कर्म के द्वारा सम्पन्न होते हैं अर्थात वाणी, शरीर, मन के संकल्प द्वारा। अपना कल्याण चाहने वाला मनुष्य युद्ध रूपी कर्म से उसे पाप जन्य मानकर जब त्याग करता है तो वह भी एक कर्म ही है। कल्याण कर्म से नहीं, अपितु कर्म और उसके फल की आसक्ति से सम्बन्ध-विच्छेद करने से होता है। 
युद्ध तो स्वधर्म है। मनुष्य को समाज में हर वक्त हर घड़ी कुछ न कुछ संधर्ष करना ही पड़ता है; जिससे मुँह मोड़ना उचित नहीं है। अपनी और अपने परिवार की रक्षा भी एक यज्ञ ही है। लगाव न होने का अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य अपने कर्तव्य-दायित्व से मुक्त हो गया। कर्म फल में स्पृहा-लगाव अनुचित है। कर्म करते हुए भी उनसे निर्लिप्त रहना चाहिए। फल की इच्छा का त्याग करके केवल लोकार्थ कर्म करके मनुष्य बन्धन मुक्त हो जाता है।  
Veds have described many types-forms of Yagy-Sacrifices in detail. One perform these practices according to his interest (taste, way) of living (nature, manner, occasions). The methods and procedures are also different. The Yagy which are performed with desire-motive leads to formation of ties with the living world, which continues thereafter in many-many incarnations, deluding the soul of Salvation. All Yagy are performed through means-deeds and involve the body-action, mind, speech and determination-decision. Rejection of war-struggle, by considering it to be a sin, too is a deed. Welfare is done by rejecting the award (fruit, result, outcome of the deeds). One should not be attached to the gains of the deeds. 
If one has to survive, he has to struggle all the time from which he can not escape. He should do-perform for the welfare of the family, society-others, without the desire-motive to get some credit-honours for it. Keep on performing virtuous (righteous, pious, honest) deeds without the desire of some personal gain with neutrality, impartiality, honestly and the ties-bonds are cut automatically, leading to relinquishment.
Be cautious, there are people who are always there to take credit for your hard work, honesty, service to the society, down trodden. Repel them side by side. 
श्रेयान्द्रव्यमयाद्य-ज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते॥
हे परंतप अर्जुन! द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ श्रेष्ठ है (क्योंकि) सम्पूर्ण कर्म और पदार्थ ज्ञान (तत्व ज्ञान) में समाप्त-लीन  हो जाते हैं।[श्रीमद्भगवद्गीता 4.33]  
O Arjun-the Tormentor (One who inflict physical pain or mental anguish, harassment, annoyance, torture), of the foes! Yagy-sacrifices performed with the enlightenment (learning, understanding, skills), are superior to those made with the money (valuables, physical objects), since the Karm-deeds and the valuables dissolve in eternal Knowledge.
ज्ञानार्जन में द्रव्य-धन, वस्तु और कर्म की आवश्यकता हो भी सकती है और नहीं भी। यध्यपि सभी यज्ञ द्रव्यमय हैं तथापि ज्ञान यज्ञ बगैर द्रव्य के भी हो जाता है, यदि श्रवणकर्ता (मुमक्षु, जिज्ञासु, साधक) बुद्धि, विवेक, विचार, ध्यान समाधि भक्ति का आश्रय लेता है। वो कर्म करता तो है, मगर अन्य व्यक्तियों की सेवा-श्रुयूआ हेतु और उसका अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है। 
अन्तःकरण के तीन दोष हैं :- मल-मन के संचित पाप, विक्षेप-चित्त की चंचलता और आवरण-अज्ञान। संसार की सेवा मल और विक्षेप जनित दोष नष्ट हो जाते हैं। ज्ञान प्राप्ति आवरण जनित दोषों को मिटाने हेतु गुरु की सेवा में प्रस्तुत होता है। इस अवस्था में वह कर्म और पदार्थ से ऊँचा उठ जाता है। एक चिन्मय तत्व ही उसका लक्ष्य होता है। यही सम्पूर्ण कर्मों और पदार्थों का तत्वज्ञान में विलीन होना है। 
One may or may not require money and action in order to acquire knowledge. Though all Yagy involve money, yet acquisition of knowledge may not essentially need money-material goods. The learner (inquisitive, devotee, practitioner) can perform Gyan Yagy by utilising intelligence (memory, prudence, thinking, analysis, meditation, Samadhi-concentrating all energy and the thoughts in the Almighty and penetrating-peeping into the unknown), secret, undiscovered-masked, Bhakti (devotion, shelter (asylum, protection) under the God, without money-material goods. All his maneuvers-efforts should be diverted to the service of the mankind-others. When he channelise his energies-efforts for serving others, his inner self is purified-cleansed. The inner self is contaminated by vices, evil, sins, bad thought-ideas etc., imprudence fickleness, instability, flirtatious tendency and the cover of darkness, lack of knowledge. Adoption to the services of mankind (downtrodden, weak, poor, needy) removes all these defects, when he bows to the Guru and seek direction-the path of enlightenment. The blessing, guidance of the Guru elevate him from the physical-material world and the deeds. He is left with only one motive-choice-the gist of knowledge. This is the state which helps him in the elimination of deeds and the money.
अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च। 
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते॥
क्योंकि सम्पूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूँ; परन्तु ये मुझे तत्व से नहीं जानते, इसी से उनका पतन होता है।[श्रीमद् भगवद्गीता 9.24]  
One who do not know that the Almighty is both giver & taker and those who do not know-understand this-the true transcendental nature of the God, are sure to fall into the trap of birth & death.
जब मनुष्य स्वयं को भोगों का भोक्ता और संग्रहों का स्वामी मानने लगता है तो वह परमात्मा से सर्वथा विमुख हो जाता है। इस प्रकार वह उस पर आश्रित हो जाता है जो अंततोगत्वा उसके पतन का कारण बनता है। जब जीवात्मा को यह ज्ञान हो जाता है कि समस्त भोगों और ऐश्वर्यों के दाता स्वयं भगवान् हैं, तो वह अपना ध्यान उनमें लगाकर पतन से बच जाता है। व्रत, यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, आदि शुभकर्म और वर्णाश्रम धर्म का पालन आदि जितने भी कर्म हैं, उनका फल परमात्मा ही हैं। समस्त शुभ कर्मों का विधान भी उनका ही बनाया हुआ है, ताकि मनुष्य कर्म और फल से निर्लिप्त रहें। वो ही सम्पूर्ण जगत, पदार्थ, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, क्रिया और प्राणियों के मन, शरीर, बुद्धि, इन्द्रियों के स्वामी भी हैं। सत्, असत्, जड़, चेतन भी वही हैं। इनसे ही भोग, ऐश्वर्य बने हैं। अतः मनुष्य को स्वयं को उनका अधिपति (भोग, ऐश्वर्य ) मानना और उन पर निर्भर होना भी गलत है। जो उन पर निर्भर हो गया, वो उनका दास-गुलाम हो गया और फिर उसका पतन निश्चित है।
When a person considers himself to be the owner and user-master of the God's creations, he becomes detached from the Almighty. His dependence over them (commodities, user goods-items), keeps on increasing, which ultimately results in his fall. One who is aware of the fact that all that around him is God's creation, by HIM, for HIM, he devotes himself to the God and is saved from downfall. Every activity like fasting, pilgrimage, asceticism, donations-charity, Varnashram Dharm are HIS creations, meant to guide the humans, to Salvation. It's HE who framed-devised the pious activities and their output, so that the humans remain aloof-content with them. The Almighty is behind the creation of universe, matter, person, activity, event, human mind-intelligence, organs, body, piousness and other nocturnal-nefarious activities, living as well non living. The matter and the living being forms the comforts-luxuries. The man considers himself to be master of them and is doomed. Dependence over them results in his downfall i.e., repeated birth & death.
ज्ञान प्राप्ति के 8 अन्तरङ्ग साधन ::  
(1). विवेक :: सत्-असत्, उचित-अनुचित, हानि-लाभ, हित-अहित को सोच-समझकर निर्णय लेना। 
(2). वैराग्य :: सत्-असत् को अलग-अलग जानकर उसका त्याग करके संसार से विमुख होना। 
(3). शमादि षट्सम्पत्ति :: (3.1). मन को इन्द्रियों से हटाना शम है। (3.2). इन्द्रियों को विषयों से हटाना दम है। (3.3). ईश्वर, शास्त्र पर पूज्य भाव से पूर्वक प्रत्यक्ष से भी अधिक विश्वास करना श्रद्धा है। (3.4). वृतियों को संसार से हटाना उपरति है। (3.5). सर्दी-गर्मी आदि द्वंदों को सहना उनकी उपेक्षा करना तितिक्षा है। (3.6). अन्तःकरण में शंकाओं को न रखना समाधान है।  
(4). मुमुक्षता :: संसार से छूटने की इच्छा मुमुक्षता है। मुमुक्षता जाग्रत होने के बाद साधक पदार्थों और कर्मों का स्वरूप से त्यागकर श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास जाकर उसके निवास पर शास्त्रों को सुनकर तात्पर्य का निर्णय करना और उसे धारण करना श्रवण है। 
(5). श्रवण :: श्रवण से संशय दूर होता है। 
(6). मनन :: इससे प्रमेयगत संशय दूर होता है। 
(7). निदिध्यासन :: संसार की सत्ता को मानना और परमात्मा-तत्व को न मानना विपरीत भावना कहलाती है। विपरीत भावना को हटाना निदिध्यासन है। 
(8). तत्व पदार्थ संशोधन :: प्राकृत पदार्थ-मात्र से सम्बन्ध-विच्छेद होना, केवल  चिन्मय-तत्व का शेष रहना, तत्व पदार्थ संशोधन है और यही तत्व साक्षात्कार है। 
इन सब साधनों का तात्पर्य है असाधन अर्थात असत् से सम्बन्ध का त्याग। त्याज्य वस्तु अपने लिए नहीं होती, परन्तु त्याग का परिणाम अपने लिए होता है।
सनातन धर्म में यज्ञ, दान और तप का विशिष्ट महत्त्व है। 
धर्म के तीन आधार स्तम्भों में भी यज्ञ का महवत्पूर्ण स्थान है।[छान्दोग्योपनिषद्]
देवताओं हेतु द्रव्यों की आहुति ही यज्ञ है। द्रव्यों में दही, चावल, जौ तथा सोम शामिल हैं।[कात्यायन श्रौतसूत्र]
यज्ञों के दो विभाग :- (1). श्रौत तथा (2). स्मार्त्त। 
श्रुति प्रति पादित यज्ञों को श्रौत यज्ञ तथा स्मृति प्रतिपादित यज्ञों को स्मार्त्त यज्ञ कहते हैं। श्रौत यज्ञों में केवल श्रुति प्रतिपादित मन्त्रों का प्रयोग होता है तथा स्मार्त्त यज्ञों में वैदिक, पौराणिक तथा तान्त्रिक मन्त्रों का प्रयोग होता है।
औपासन होम, वैश्वदेव, पार्णव, अष्टका, मासिश्राद्ध, श्रवणा तथा शूलगव; ये  सात प्रकार के यज्ञ हैं। ये स्मार्त्त यज्ञ हैं। इनको पाकयज्ञ भी कहते हैं। वैवाहिक चतुर्थी होम के अनन्तर विधि पूर्वक सम्पादित अग्नि को ही स्मार्त्ताग्नि कहते हैं। इसी अग्नि में औपासन होम, वैश्वदेव आदि स्मार्त्त यज्ञों का अनुष्ठान किया जाता है।[स्मृति तथा गृह्यसूत्र] 
श्रौत यज्ञों में सात यज्ञ हविर्यज्ञ हैं तथा सात यज्ञ सोम यज्ञ हैं। 
हविर्यज्ञ :- अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमास, आग्रयण, चातुर्मास्य, निरूढ पशुबन्ध, सौत्रामणी तथा पिण्डपितृ यज्ञ। 
सोम याग :- अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र तथा आप्तोर्याम।
कुल 21 यज्ञों में औपासन होम आदि सात यज्ञ स्मार्त्तयज्ञ तथा शेष चौदह यज्ञ श्रौतयज्ञ। इन चौदहों यज्ञों में सात यज्ञ हविर्यज्ञ जो अग्निहोत्रादि हैं तथा शेष अग्निष्टोमादि सात श्रौतयज्ञ सोम यज्ञ हैं।
जिन यज्ञों में चावल, जौ आदिकी आहुति दी जाती हैं, वे हविर्यज्ञ हैं तथा जिन यज्ञों में सोम की आहुति दी जाती है, उन्हें सोमयज्ञ कहते हैं।
जिस प्रकार स्मार्त्तयज्ञों के लिए स्मार्त्ताग्नि की स्थापना की जाती है, उसी प्रकार श्रौत यज्ञों के लिए श्रौताग्नि की स्थापना की जाती है।
श्रौताग्नि :- गार्हपत्य, आहवनीय तथा दक्षिणाग्नि। इन्हीं तीन अग्नियों में समस्त श्रौत यज्ञों का अनुष्ठान किया जाता है। अग्निहोत्र आदि सात हविर्यज्ञों का भी अनुष्ठान तथा अग्निष्टोमादि सात सोमयागों का भी अनुष्ठान।
अग्निहोत्र :- अग्नि हेतु सायं तथा प्रातः जो होम किया जाता है, उसे अग्निहोत्र कहते हैं। दूध ही इस यज्ञ का द्रव्य है। यदि काम्य अग्निहोत्र किया जाता है, तब कामनानुसार तैल, दही, दूध, सोम, चावल, घी, फल, जल आदि अग्निहोत्र के द्रव्य होते हैं।
सायंकाल अग्निहोत्र के मुख्य देवता अग्नि तथा अङ्गदेवता प्रजापति तथा प्रातः अग्निहोत्र के मुख्य देवता सूर्य तथा प्रजापति अङ्गदेवता होते हैं।
अग्निहोत्र यजमान के द्वारा ही किया जाता है। यदि यजमान न कर सके तो एक ऋत्विज अर्थात् अध्वर्यु के द्वारा भी यजमान के हेतु अग्निहोत्र को किया जा सकता है।[तैत्तिरीय संहिता]
अग्निहोत्र सायं एवं प्रातः प्रतिदिन किया जाता है। इसके पश्चात् दर्शपौर्णमासेष्टि, प्रत्येक 15 दिन के बाद की जाती है। दर्श आमावास्या को कहते हैं अतः दर्शेष्टि आमावास्या को तथा पौर्णमासेष्टि पूर्णिमा को की जाती है।
दर्शेष्टि में तीन याग :- आग्नेय पुरोडाश, इन्द्रदेवताक दधि द्रव्यक याग तथा इन्द्र देवताक पयोद्रव्यक याग। 
पौर्णमासेष्टि में तीन याग :- आग्नेय अष्टाकपाल पुरोडाशयाग, आज्यद्रव्यक अग्निषोमीय उपांशु याग तथा अग्नीषोमीय एकादश कपाल पुरोडाश याग। इस प्रकार कुल 6 याग किए जाते हैं।
दर्शपौर्णमा सेष्टि :: यह समस्त काम्य इष्टियों की प्रकृति है। दर्शपौर्णमा सेष्टि का अनुष्ठान यजमान अपनी पत्नी के साथ करता है तथा सहायक के रूप में अध्वर्यु, ब्रह्मा, होता तथा आग्नीध्र ये चार ऋत्विज होते हैं।
आग्रयणेष्टि :: खेतों से नया-नया अन्न आने के समय आग्रयणेष्टि की जाती है। शरद ऋतु में तथा वसन्त ऋतु में यह इष्टि की जाती है। नया चावल अथवा जौ इस इष्टि का प्रधान द्रव्य है, जो इन्द्राग्नी तथा द्यावा व पृथ्वी, इन दोनों देवताओं के लिए होता है। टूटे हुए जिस रथ की मरम्मत की गई है, वह रथ इस इष्टि की दक्षिणा होती है। इसके अतिरिक्त रेशमी वस्त्र, मधुपर्क तथा वर्षा में पहना हुआ वस्त्र दक्षिणा के रूप में दिया जाता है। इसको किए जाने के बाद ही याज्ञिकों द्वारा नये अन्न का प्रयोग किया जाता है।
चातुर्मास्य :: प्रत्येक चौथे महीने जो याग किया जाता है, उसका नाम चातुर्मास्य है। इसमें चार पर्व यथा वैश्वदेव पर्व, वरुण प्रघास पर्व, साकमेध पर्व तथा शुनासारीय हैं
निरूढ पशु बन्ध्याग :: चातुर्मास्य यज्ञ के बाद  अनुष्ठान किया जाता है, जिसके ऐन्द्राग्न सूर्य मुख्य देवता हैं तथा एकादश कपाल पुरोडाश की आहुति दी जाती है। इसका अनुष्ठान वर्ष में एक या दो बार श्रावण अथवा भाद्रपद माह में किया जाता है। इस यज्ञ के अनुष्ठानके लिए अध्वर्यु, होता, मैत्रावरुण तथा प्रति प्रस्थाता का वरण किया जाता है। दक्षिणा के रूप में यजमान ऋत्विजों को हिरण्य तथा पूर्णपात्र देता है।
वैश्वदेव पर्व :: यह पर्व वैश्वदेव फाल्गुन मास की पूर्णिमा को सम्पन्न किया जाता है। अग्नि, सोम, सविता, सरस्वती, पूषा, मरुत्, स्वतवान् तथा द्यावा पृथ्वी ये वैश्वदेव पर्व के देवता हैं। पुरोडाश, चरु, पयस्या, सोम; ये द्रव्य हैं, जिनकी आहुति दी जाती है। इसका फल भी है। सन्तति के उद्देश्य से वैश्वदेव पर्व का अनुष्ठान किया जाता है
वरुण प्रघास पर्व :: आषाढ मास की पूर्णिमा को वरुण प्रघास पर्व का अनुष्ठान किया जाता है। इसमें दो वेदी बनाई जाती है, एक उत्तरवेदी तथा दूसरी दक्षिणवेदी। अध्वर्यु उत्तर वेदी पर अनुष्ठान करता है तथा प्रति प्रस्थाता दक्षिण वेदी पर कार्य करता है। इसके लिए करम्भ पात्र का निर्माण किया जाता है तथा उसके लिए एक होम भी होता है। यह करम्भ पात्र गोल, दीपक की आकृति का तथा जौ से बनाया जाता है। चतुर्दशी के दिन अध्वर्यु के द्वारा चार करम्भ पात्र बनाए जाते हैं।
अध्वर्यु मेष तथा प्रति प्रस्थाता मेषी :: यह पूर्णिमा के दिन होता है। धेनु, अश्व तथा छह अथवा बारह गौवें दक्षिणा में दी जाती है।
वरुण प्रघास पर्व :: वरुणपाश, जलोदर रोग तथा वात रोग से मुक्ति के लिए  इसका अनुष्ठान किया जाता है। अग्नि, सोम, इन्द्राग्नी तथा वरुण इसके देवता हैं, जिनके लिए पुरोडाश, चरु तथा पयस्या की आहुति दी जाती है।
साकमेध पर्व :: कार्त्तिक माह की पूर्णिमा को इसका अनुष्ठान किया जाता है। यह दो दिन में पूरा होता। चतुर्दशी से इसका अनुष्ठान प्रारम्भ होता है। इसमें अनीकवतीष्टि, सान्तपनीयेष्टि, गृहमेधीयेष्टि, दर्वी होम, क्रीडनीयेष्टि, अदितीष्टि, महाहवि, पित्रयेष्टि तथा त्रयम्बकेष्टि आदि अनुष्ठान किए जाते हैं।अग्नि, मरुत्, अदिति, ऐन्द्राग्न, विश्वकर्मा, त्रयम्बक तथा पितर आदि देवता इस पर्व में होते हैं, जिनके लिए चरु, सान्नाय्य, आज्य, धनादि की आहुति दी जाती है। घर में जो कन्याएँ विवाह के योग्य होती हैं, उनके विवाह के लिए इस पर्व का अनुष्ठान किया जाता है।
शुनासीरीय पर्व :: साकमेध के तुरन्त बाद इस का अनुष्ठान किया जाता है। वायु और आदित्य ये दो देवता इस पर्व में होते हैं, अतः इस पर्व का नाम शुनासीरीय है। वैश्वदेव पर्व के समान यहाँ भी पाँच हवि दी जाती हैं। इसके अतिरिक्त शुनासीर के लिए द्वादश कपाल, वायु के लिए दूध तथा सूर्य के लिए एक कपाल पुरोडाश निश्चित हैं। इसकी दक्षिणा 6 बैलों से युक्त हल अथवा दो बैल हैं। इसके अतिरिक्त सूर्य के लिए सफेद घोड़ा अथवा गाय दक्षिणा के रूप में दी जाती है।
सौत्रामणी याग :: यह इन्द्र देवता के लिए किया जाता है। इस यज्ञ के लिए अध्वर्यु, ब्रह्मा, होता, आग्नीध्र, प्रतिप्रस्थाता तथा मैत्रावरुण ये छह ऋत्विज होते हैं।
ऋद्धि की कामना से ब्राह्मणों के द्वारा सौत्रामणी यज्ञ विशेष रूप से किया जाता है। स्वराज्य की प्राप्ति के लिए क्षत्रियों के द्वारा भी सौत्रामणी यज्ञ करने का विधान है। यह यज्ञ चार दिन तक चलता है तथा विशेष प्रकार का आसव बनाया जाता है, जिसकी आहुति दी जाती है। बछड़े के सहित गाय इस यज्ञ की दक्षिणा होती है।
इस यज्ञ में वाजपेय तथा राजसूय के समान यजमान का तीर्थों, नदियों तथा समुद्रों के जल से अभिषेक किया जाता है।
पिण्ड पितृ यज्ञ :: यह पितरों के लिए किया जाता है। दर्शेष्टिका अङ्ग होने से यह अमावास्या को दर्शेष्टि से पहले ही किया जाता है। दक्षिणाग्नि में चरु पकाया जाता है। पितरों के लिए पिण्डदान होता है तथा छह बार हाथ जोड़कर पितरों को प्रणाम किया जाता है।
उपरोक्त 21 यज्ञों में 14 यज्ञों यथा पाक यज्ञ के अतिरिक्त श्रौतयाग  अग्निहोत्र, दर्शपूर्ण मास, आग्रयण, चातुर्मास्य, निरूढ पशु बन्ध, सौत्रामणी तथा पिण्ड पितृ यज्ञ आदि निहित हैं।[गौतम धर्मसूत्र] 
7 यज्ञ जो सोमयाग की श्रेणी में आते हैं, वे इस प्रकार हैं :- अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र तथा अप्तोर्याम। 
अग्निष्टोम :: प्रजापति ने प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा से बहुत होने की कामना की और ऐसी कामना करते हुए ही उसने प्रजनन साधन रूप अग्निष्टोम का दर्शन किया। इसके पश्चात् उसने दृश्यमान यह सारी सृष्टि उत्पन्न की।
यज्ञ-वराह के उठे हुए कपोल से लेकर कर्णमूल तक के भाग से अग्निष्टोम की उत्पत्ति हुई।[कालिका पुराण]
देवताओं ने तपस्या करके अग्निष्टोम का विधान प्राप्त किया, जिसके द्वारा उन्होंने असुरों का विरोध किया।[शतपथ ब्राह्मण]
अग्निष्टोम साक्षात् अग्नि ही है। उस क्रतुरूप अग्नि की देवों ने स्तोमों के द्वारा स्तुति की, इसलिए उसका नाम अग्निस्तोम हुआ।[ऐतरेय ब्राह्मण]
अग्निष्टोम होते हुए उस नाम से युक्त क्रतु को परोक्ष रूप में व्यवहार करने के लिए वैदिक लोगों ने सकार को षकार में, तकार को टकार में बदलकर उसको अग्निष्टोम कहना प्रारम्भ किया। अतः अग्निस्तोम अग्निष्टोम कहलाने लगा।
अग्निष्टोम नामक यज्ञायज्ञीय साम का गायन सबसे अन्त में किया जाता है, इसीलिए इसका नाम अग्निष्टोम हुआ।
अग्निष्टोम का अनुष्ठान सत्रह ऋत्विजों के द्वारा सम्पन्न होता है। सत्रहवाँ ऋत्विज स्वयं यजमान होता है, जो कि स्वयं यज्ञ का स्वामी है। यजमानातिरिक्त ये सोलहों ऋत्विज चार वर्गों में विभक्त किए गए हैं।
ताण्ड्य ब्राह्मण ने दक्षिणा में दी जाने वाली 10 वस्तुओं का उल्लेख किया है। इनमें गौओं की संख्या 112 ही निश्चित की गई है।
कात्यायन ने निर्धरित 100 गौओं का वितरण यज्ञ के सोलहों ऋत्विजों में इस प्रकार किया है :- ब्रह्मा, उद्गाता, होता एवं अध्वर्यु को 12-12 गौवें, अर्ध्दिनः संज्ञक ऋत्विज ब्राह्मणाच्छंसि, प्रस्तोता, मैत्रावरुण एवं प्रतिप्रस्थाता के 6-6 गौवें, तृतीयिनः संज्ञक ऋत्विक् पोता, प्रतिहर्त्ता, अच्छावाक् तथा नेष्टा को 4-4 तथा पादिनः संज्ञक ऋत्विज् आग्नीध्र, सुब्रह्मण्य, ग्रावस्तुत तथा उन्नेता को 3-3 गौवें।
अग्निष्टोम के अन्तर्गत सवन कर्म में गाए जाने वाले स्तोत्रों की संख्या 12 एवं शंसन किए जाने वाले शस्त्रों की भी संख्या 12 ही है।
प्रातः सवन में त्रिवृत्स्तोमात्मक, बहिष्पवमान स्तोत्र तथा पञ्चदशस्तोमात्मक चार आज्य स्तोत्रों का गायन किया जाता है। शस्त्रों में आज्य शस्त्र, प्रउग शस्त्र, मैत्रा-वरुण शस्त्र, ब्रह्मणाच्छंसि शस्त्र तथा अच्छावाक शस्त्र का शंसन किया जाता है।
माध्यन्दिन सवन में पञ्चदश स्तोमात्मक माध्यन्दिन पवमान स्तोत्र तथा सप्तदशस्तोमात्मक, चार पृष्ठ स्तोत्रों का गायन किया जाता है। शस्त्रों में मरुत्वतीय शस्त्र, निष्वेफवल्य, मैत्रावरुण, ब्राह्मणाच्छंसि तथा अच्छावाक शस्त्रका शंसन किया जाता है।
तृतीय सवन में आर्भव पवमान तथा अग्निष्टोम स्तोत्र का गायन तथा वैश्वदेव एवं अग्निमारुत शस्त्रका शंसन किया जाता है।
जिस प्रकार हविर्यागों की प्रकृति दर्शपौर्णमा सेष्टि है, उसी प्रकार समस्त सोमयागों की प्रकृति अग्निष्टोम यज्ञ है। उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र तथा अप्तोर्याम ये छहों सोमयाग, अग्निष्टोम की विकृति हैं।
उक्थ्य नामक सोमयाग में अग्निष्टोम के स्तोत्रों एवं शस्त्रों के अतिरिक्त अन्य तीन स्तोत्र (उक्थ्य स्तोत्र) एवं शस्त्र (उक्थ्य शस्त्र) पाये जाते हैं। इस प्रकार सायं कालीन सोमरस निकालते समय गाये जाने वाले (स्तोत्र) एवं कहे जाने वाले शस्त्र कुल मिलाकर 15 होते हैं। पशु, शक्ति, सन्तति की कामना से उक्थ्य नामक सोमयोग का अनुष्ठान किया जाता है।
षोडशी यज्ञ में 15 स्तोत्रों एवं शस्त्रों के अतिरिक्त एक अन्य स्तोत्र एवं शस्त्र का गायन एवं पाठ होता है, जिसे तृतीय सवन में षोडशी के नाम से पुकारा जाता है। इसकी दक्षिणा लोहित-पिंगल घोड़ा या मादा खच्चर होती है।
अतिरात्र का नाम ऋग्वेद [7.103.7] में भी आया है। यह एक दिन और रात्रि में होता है। अतिरात्र में 29 स्तोत्र और 29 शस्त्र होते हैं। इसमें आश्विन नामक शस्त्र गाये जाते हैं, किन्तु इसके पूर्व रात्रि में 6 आहुतियाँ दी जाती हैं। ऐब्रा. [14.3, 16.5-7], आश्वश्रौसू. [6.4-5], सत्याषाढ [9.7) तथा आपस्तम्ब [15.3.8-14.4.11] में अतिरात्र के कर्मकाण्ड का विस्तार पूर्वक निरूपण किया गया है।
***अप्तोर्याम अतिरात्र के ही सदृश है केवल अतिरात्र की अपेक्षा विस्तृत है। इसमें चार अतिरिक्त स्तोत्र (कुल मिलाकर 33 स्तोत्र) और चार अतिरिक्त शस्त्र होता एवं उसके सहायकों द्वारा पढ़े जाते हैं। अग्नि, इन्द्र, विश्वेदेव और विष्णुके लिए क्रमसे एक एक अर्थात् कुल मिलाकर चार चमस होते हैं। आश्वश्रौसू॰ (9.11.1) के मत से यह यज्ञ उन लोगों द्वारा सम्पादित होता है, जिनके पशु जीवित नहीं रहते या जो अच्छी जातिके पशु के आकांक्षी होते हैं। अप्तोर्याम की दक्षिणा सहस्त्रों गौवें होती है। होताको रजतजटित तथा गदहियोंसे खींचा जाने वाला रथ मिलता है। तांब्रा. 20.3.4-5) का कहना है कि इसका नाम अप्तोर्याम इसलिए पड़ा है क्योंकि इसके द्वारा अभिकांक्षित वस्तु प्राप्त होती हैं।
आध्पित्य (आश्वश्रौसू. 9.9.1) या समृद्धि (आपश्रौसू. 18.1.1) या स्वराज्य (निर्विरोध राज्य अथवा इन्द्र की स्थिति) का अभिलाषी ही वाजपेय का अनुष्ठान करता है। इसमें षोडशी की विधि पायी जाती है और यह ज्योतिष्टोम का ही रूप है किन्तु इसकी अपनी पृथक् विशेषताएँ हैं। अधिकांश पदार्थों की संख्या 17 है, उदाहरण के लिए स्तोत्रों एवं शस्त्रों की संख्या 17 है। दक्षिणा में 17 वस्तुएँ दी जाती हैं। यूप 17 अरत्नियों वाला होता है। यूप में जो परिधान बाँध जाता है, वह भी 17 टुकड़ों वाला होता है। 17 दिनों तक ही यह वाजपेय यज्ञ चलता है। प्रजापति के लिए सुरा 17 पात्रों में भरी जाती है। सोमरस भी 17 पात्रों से ही भरा जाता है। 17 रथ होते हैं, जिनमें घोडे़ जोते जाते हैं तथा जिनकी दौड़ की जाती है। वेदी की उत्तरी श्रोणीपर 17 ढोलकें रक्खी जाती हैं, जिन्हें बजाया जाता है। वाजपेय का सम्पादन शरद् ऋतु में किया जाता है। इसका सम्पादन केवल ब्राह्मण या क्षत्रिय ही कर सकता है, वैश्य नहीं (तैब्रा. 1.3.2, लाट्यायनश्रौसू. 8.11.1, काश्रौसू. 14.1.1 एवं आपश्रौसू. 18.1.1)। आश्वलायन का कहना है कि दक्षिणा के रूपमें 1700 गौएँ, 17 रथ (घोड़ों सहित), 17 घोडे़, पुरुषों के चढ़ने योग्य 17 पशु, 17 बैल, 17 गाडि़याँ, सुनहरे परिधनों-झालरों से सजे हुए 17 हाथी दिए जाने चाहिए। ये वस्तुएँ पुरोहितों में बाँट दी जाती हैं। वाजपेय के पश्चात् राजा राजसूय यज्ञ करने का अधिकारी होता है और ब्राह्मण बृहस्पतिसव करने का अधिकारी होता है।[आश्वश्रौसू. 9.9.29]।
राजसूय यज्ञ :: यह एक लम्बी अवधि तक चलने वाला यज्ञ है। यह यज्ञ केवल क्षत्रिय द्वारा ही किया जाता है। शब्रा. (9.3.4.8) में आया है कि राजसूय करनेसे व्यक्ति राजा होता है तथा वाजपेय करनेसे सम्राट् होता है। यहाँ एक ध्वनि अवश्य निकलती है कि राजसूय के ही पश्चात् वाजपेय किया जाता है, क्योंकि सम्राट् की स्थिति राजा के पश्चात् है। राजसूय की समाप्ति के एक मास उपरान्त सौत्रामणि नामक इष्टि की जाती है। तैत्तिरीय संहिता (1.8.1-17), तैत्तिब्रा॰ (1.4.9-10), शब्रा॰ (5.2.3-5), ऐब्रा॰ (7.13 एवं 8), तांब्रा॰ (18.8-11), आपश्रौसू॰ (18.8.22), काश्रौसू॰ (15.1-9), आश्वश्रौसू॰ (9.3-4), लाट्याश्रौसू॰ (9.1-3), शांखाश्रौसू॰ (15.12), बौधश्रौसू॰ (12) में राजसूय का निरूपण विस्तार पूर्वक किया गया है।
सृष्टि के आदि काल से स्मार्त्त एवं श्रौतयज्ञों के अनुष्ठान की परम्परा अखण्ड रूप से चली आ रही है। अत्यन्त प्राचीन काल में विशिष्ट जनों ने जिन श्रौत यज्ञों का अनुष्ठान किया, उनका विस्तृत उल्लेख पुराणों के माध्यम से प्राप्त होता है।
श्रीमद्भागवत पुराण को ही लें तो चतुर्थ स्कन्ध के तीसरे अध्याय में दक्ष के द्वारा किए गए वाजपेय यज्ञ तथा बृहस्पति सव नाम के महायज्ञ का वर्णन आता है। भागवत में आता है कि दक्ष ने ऐसा यज्ञोत्सव किया, जिसकी चर्चा आकाश मार्ग से जाते हुए देवताओं ने की। चतुर्थ स्कन्ध के 19वें अध्याय में पृथु के द्वारा किए जाने वाले 100 अश्वमेध् की दीक्षा लिए जाने का उल्लेख है। जब पृथु 99 अश्वमेध् कर चुके तो यज्ञेश्वर भगवान् इन्द्र के सहित वहाँ उपस्थित हो गए।
महाराज नाभि के विषय में जो लोकोक्ति प्रसिद्ध थी, उसका उल्लेख शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित के सम्मुख इस प्रकार किया, यथा :-
ब्रह्मण्योऽन्यः कुतो नाभेर्विप्रा मङ्गलपूजिताः।
यस्य बर्हिषि यज्ञेशं दर्शयामासुरोजसा 
महाराज नाभि के समान ब्राह्मण भक्त कौन हो सकता है, जिनकी दक्षिणादि से सन्तुष्ट होकर ब्राह्मणों ने अपने मन्त्र बल से उन्हें यज्ञशाला में साक्षात् भगवान् श्री हरी विष्णु के दर्शन करा दिए।[भागपु॰ (5.4.7 द्ध]
अष्टम स्कन्ध के 18वें अध्याय में भगवान् वामन के उपनयन संस्कार का वर्णन हुआ है। इस अवसर पर कहा गया है कि जब भगवान् वामन ने सुना कि बलि बहुत से अश्वमेध यज्ञ कर रहे हैं तो उन्होंने वहाँ की यात्रा की और नर्मदा नदी के उत्तर तट पर ‘‘भृगुकच्छ’’ नामक सुन्दर स्थान पर पहुँच गए।
वैदिक श्रौती सोमयाजी विद्वान् तथा अनेक वैदिक कुल-परिवारों में नित्य अनुष्ठान के रूप में अग्नि देव की आराधना निरन्तर की जाती है।
(1). तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसा नाशकेन।
(2). त्रयो धर्मस्कन्धा यज्ञोऽध्ययनं दानमिति प्रथमः (छांउ॰ 2.23)।
(3). द्रव्यं देवता त्यागः (काश्रौसू॰ 1.2.2)।
(4). द्रव्यं दध्सिोमव्रीहियवादि, देवता अग्नीन्द्रादिः, त्यागः तदुद्देशेन क्रियमाणः स्वत्वनिवृत्यनुकूलो व्यापारः। इदमेव यागस्वरूपम् (काश्रौसू॰ सरलावृत्तिः 1.2.2)।
(5). गौतमधर्मसूत्र (8.18)।
(6). तैलं दधि पयः सोमो यवागूरोदनं घृतम्। 
तण्डुलाः फलमापश्च दश द्रव्याण्यकामतः(स्मार्त्तोल्लास)।
(7). तस्यैतस्याग्निहोत्रस्य यज्ञक्रतोरेक ऋत्विक् (तैसं॰ 2.3.6)।
(8). सर्वाङ्गोपदेशात् दर्शपूर्णमासयागौ प्रकृतिरित्युच्यते, इतरास्त्विष्टयो विकृतय इति। (सरलावृत्तिभूमिका पृष्ठसं॰ 34)। दर्शपूर्णमासाविष्टीनां प्रकृतिः (आपश्रौसू॰ 24.3.32)।
(9). तस्माद्दर्शपौर्णमासयोर्यज्ञक्रतोश्चत्वार ऋत्विजः (तैसं॰ 2.3.6)।
(10). अग्रे नवान्नोत्पत्यनन्तरमयनमाचरणं यस्य तदाग्रयणनम्। (सरलावृत्ति भूमिका, पृष्ठसं॰ 40)।
(11). विश्वे देवा अपश्यन् यत् पूर्वं तद्वैश्वदेवं पर्व।
(12). प्रजाकामस्यापि वैश्वदेवम् (काश्रौसू॰ 5.2.20)।
(13). प्रकृष्टो घासो भक्ष्यविशेषो येषु हविर्विशेषु ते प्रघासाः। 
वरुणमुद्दिश्य प्रघासाः वरुणप्रघासाः।
(14). दीपपात्रसदृशानि भवपिष्टनिर्मितानि पात्राणि करम्भपात्राणि।
(15). साकमेधन्ते बर्ध्दन्ते देवता एभिर्हविर्विशेषैः इति साकमेधाः।
(16). शुनो वायुः सीर आदित्यः, तौ देवते अस्येति शुनासीरं पर्व। (सरलावृत्ति भूमिका, पृष्ठसं॰ 36)।
(17). ‘‘प्रजापतिरकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति स एतमग्निष्टोममपश्यत्तमाहरत्तेनेमाः प्रजा असृजत (तांब्रा॰ 6.1.1)।
(18). गायत्रं च ऋचश्चैव त्रिवृत्स्तोमं रथन्तरम्। अग्निष्टोमं च यज्ञानां निर्ममे प्रथमान्मुखात्।। (विष्णु पु॰ 1.5.52, द्र॰ मार्कण्डेय पु॰ 45.31, ब्रह्माण्ड पु॰ 1.8.50)।
(19). कालिका पुराण – अध्याय 30
(20). ‘‘ततो देवाः अर्चन्तः श्राम्यन्तश्चेरुस्तऽएतदग्निष्टोमसद्यं ददृशुस्तऽएतेनाग्निष्टोमसद्येन सर्वं यज्ञ … समवृञ्जन्तान्तरायन्नसुरान्यज्ञात्तथो’’ (शतपथ ब्राह्मण 4.2.4.12)।
(21). “स वा एषोऽग्निरेव यदग्निष्टोमस्तं यदस्तुवंस्तस्मादग्निस्तोमस्तमग्निस्तोमं सन्तमग्निष्टोम इत्याचक्षते परोक्षेण परोक्षप्रिया इव हि देवा” (ऐब्रा॰ 3.14.5)।
(22). “ज्ञायज्ञीय इत्यस्यामाग्नेय्यामुत्पन्नेनाग्निष्टोमसाम्ना समाप्तेरस्याग्निष्टोम इति नाम सम्पन्नम्” (ताण्ड्य ब्राह्मण 6.1.1 पर सायण भाष्य)। 
“अग्निष्टोमः सः, यो हि अग्निष्टोमस्तोत्रो; (यज्ञायज्ञीये) समाप्यते” (जैमिनीय न्यायमाला विस्तर 1.6.16.42)।
(23). “स्वामिसप्तदशाः कर्मसामान्यात्” (जैमिनि 3.7.18.38)।
(24). अध्वयुवर्ग, ब्रह्मवर्ग, होतृवर्ग एवं उद्गातृवर्ग।
(25). “गौश्च अश्वश्च अश्वतरश्च गर्दभाश्च अजाश्च अवयश्च व्रीहयश्च तिलाश्च माषाश्च” (तांब्रा॰ 16.1.10)।
(26). “दक्षिणायाः द्वादशशतगोरूपायाः विभज्य दानं ज्योतिष्टोमे” (विस्तर, 10.3047)।
(27). “यथारम्भं द्वादश द्वादशाद्येभ्यः षड् षड् द्वितीयेभ्यश्चतस्त्रश्चतस्त्रस्तृतीयेभ्यस्तिस्त्रस्तिस्त्र इतरेभ्यः” (काश्रौ॰ 10. 2.24)।
(28). “स्तोत्रं च उद्गातृपुरुषैस्त्रिाभिः क्रियमाणः सामगान विशेषः” (काश्रौ॰ 9.13.29 पर सरलावृत्ति)।
(29). “होत्रा ट्टग्वेदमन्त्रेः क्रियमाणं देवतानिष्ठागुणाभिधानं शस्त्रं शंसनं चोच्यते” (काश्रौ॰ 10.308 पर सरलावृत्तिकी टिप्पणी)।
(30). “त्रिवृतं त्रिवारमावृत्तित्रयसाध्यमेतन्नामकं स्तोमम्” (तांब्रासा॰ 6.1.6)। “यस्तु त्रिवृत्स्तोमोऽस्ति त्रयावृत्या नवर्च्चः सम्पद्यन्ते” (तांब्रासा॰ 6.2.2)। “त्रिवृद् बहिष्पवमानम्” (जैब्रा॰ 2.135)।
(31). “सूक्तत्रयगानसाध्यं स्तोत्रं बहिष्प्वमानमित्युच्यते तत्रावस्थितानामृचां पवमानार्थत्वात् बहिः संबन्धाच्च” (विस्तर 1.4.3.6-7)।
(32). “पञ्चदशस्तोमं तृचगतानां तिसृणामृचां त्रिष्वपि पर्यायेषु पञ्चवारावृत्तिसाध्यं पञ्चदशस्तोमम्” (तांब्रासा॰ 6.1.8)।
(33). “तानि [“अग्न आ याहि वीतये”, “आ नो मित्रावरुण”, “आ याहि सुषमा हि ते”, “इन्द्राग्नी आ गतं सुतम्”] एतानि प्रातः सवने गायत्रसाम्ना गीयमानानि चत्वार्याज्यस्तोत्राणीत्युच्यन्ते” (विस्तर 1.4.3.6-7)।
(34). “प्रथमावृत्तौ प्रथमायामृचि त्रिरभ्यासः, द्वितीयावृत्तौ मध्यमायाम्, तृतीयावृत्तौ मध्यमोत्तमयोः सोऽयं सप्तदशस्तोम इति” (ऐब्रा॰ 3.14.4)।
(35). “एतानि (“अभि त्वा शूर नोनुम्”, “कयानश्चित्र आभुवत्”, “तं वो दस्ममृतीषहम्”, “तरोभिर्वो विदद्वसुम्”) एतानि क्रमेण रथन्तरवामदेव्यनौधसकालेयसामभिर्माध्यन्दिनसवने गीयमानानि पृष्ठस्तोत्राणि इत्युच्यन्ते” (विस्तर 1.4.3.6-7)।
(36). “आर्भव संज्ञकः पवमानः ज्योतिष्टोमे तृतीयसवनेऽस्ति। तस्मिन् पञ्चसूक्तानि ततः गायत्री-अनुष्टुप्-उष्णिक-ककुब्-जगतीभिः पञ्चच्छन्दाः सप्तसामा च भवति”(विस्तर 9.2.6)।
(37). “यज्ञायज्ञा वो अग्नय इत्यस्यामृचि गीयमानमग्निष्टोमसंज्ञकं स्तोत्रम्” (काश्रौ॰ 10.7.1 पर सरलावृत्ति)। “अग्निष्टोमसंस्थाप्रयुक्तं मुख्यं स्तोत्रमिदम्” (सत्याषाढ 9.4 पर गोपीनाथकी व्याख्या)।
(38). ऐब्रा॰ (14.3, आश्वश्रौसू॰ 6.1.1-3)।
(39). ऐब्रा॰ (14.1-4, आश्रौसू॰ 14.2.3, आश्वश्रौसू॰ 6.2.3, सत्याश्रौसू॰ 9.7)।
(40). आपश्रौसू॰ (14.4.12-16, सत्याश्रौसू॰ 9.7, शांखायन 15.5.14-18)।
(41). आपश्रौसू॰ (18.1.5, तांब्रा॰ 18.7.5, आपश्रौसू॰ 18.1.12, आश्वश्रौसू॰ 9.9.2-3)।
(42). जैमिनी (4.3.29-39) के मतसे बृहस्पतिसव वाजपेयका ही अंग है। तैत्तिरीय ब्राह्मण (2.7.1) आपश्रौसू॰ (22.7.5) तथा आश्वश्रौसू॰ (9.5.3) के अनुसार बृहस्पतिसव एक प्रकारका एकाह सोमयाग है, जो आध्पित्यके अभिलाषी द्वारा किया जाता है। आश्वश्रौसू॰ (9.5.3) ने ब्रह्मवर्चसके अभिलाषीके लिए इसे करनेको कहा है। तैत्तिब्रा॰ (2.7.1) ने राज पुरोहित पद की प्राप्ति के लिए इसे करने को कहा है।
(43). तदुपश्रुत्य नभसि खेचराणां प्रजल्पताम्।[भागपु. 4.3.5]
(44). अथादीक्षत राजा तु हयमेध्शतेन सः। 
ब्रह्मावर्ते मनोः क्षेत्रां यत्र प्राची सरस्वती॥[भागपु. 4.19.1]
(45). भगवानपि वैवुफण्ठः सावंफ मघवता विभुः। 
यज्ञैर्यज्ञपतिस्तुष्टो यज्ञभुव्फ तमभाषत॥[भागपु. 4.20.1]
(46). श्रुत्वाश्वमेधैर्यजमानमूर्जितं बलिं भृगूणामुपकल्पितैस्ततः।
जगाम तत्राखिलसारसंभृतो भारेण गां सन्नमयन् पदे पदे॥[भागपु. 8.18.20]।
यज्ञ :: यह धर्म का अंग है। यज्ञ शब्द ब्रह्म है। यज्ञ का तात्पर्य है त्याग, बलिदान, शुभ कर्म।
यज्ञ शुभ कर्म, श्रेष्ठ कर्म, सतकर्म, वेदसम्मत कर्म है।
यज्ञ के अंतर्गत वेदाध्ययन भी आता है। 
जो यज्ञ दिखावे, अहंकार की सन्तुष्टि के लिए जाये, वो विपरीत फल भी दे-देता है। 
यज्ञ के पाँच प्रकार :- (1.1). ब्रह्मयज्ञ, (1.2). देवयज्ञ, (1.3). पितृयज्ञ, (1.4). वैश्वदेव यज्ञ और (1.5). अतिथि यज्ञ।
(2.1). लोक क्रिया, (2.2). सनातन, (2.3). गृहस्थ, (2.4). पंचभूत और (2.5). मनुष्य।
12 FORMS OF YAGY 12 प्रकार के यज्ञ ::  निस्वार्थ भाव से दूसरों के हित-भले के लिए किये गए कर्तव्य-कर्म करने का नाम ही यज्ञ है। यज्ञ से सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं। मनुष्य बंधन मुक्त हो जाता है। कुल बारह प्रकार के यज्ञ कर्म हैं। 
(3.1). ब्रह्म यज्ञ-प्रत्येक कर्म में कर्ता, करण, क्रिया, पदार्थ आदि सब को ब्रह्म रूप से अनुभव करना। 
(3.2). भगवदर्पण रूप यज्ञ-सम्पूर्ण क्रियाओं और पदार्थों को केवल भगवान् का और भगवान् के लिए ही मानना।
(3.3). अभिन्नता रूप यज्ञ-असत् से सर्वथा विमुख होकर परमात्मा में विलीन हो जाना। परमात्मा से अलग अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना। 
(3.4). संयम रूप यज्ञ-एकान्तकाल में अपनी इन्द्रियों को विषयों से मुक्त रखना-प्रवृत न होने देना। 
(3.5). विषय हवन रूप यज्ञ-व्यवहार काल में इन्द्रियों से संयोग होने पर भी उनमें राग द्वेष पैदा न होने देना। 
(3.6). समाधिरूप यज्ञ-मन बुद्धि सहित सम्पूर्ण इन्द्रियों और प्राणों की क्रियाओं को रोककर ज्ञान से प्रकाशित समाधि में स्थित हो जाना।
(3.7). द्रव्य यज्ञ-सम्पूर्ण पदार्थों को निःस्वार्थ भाव से दूसरों की सेवा में लगा देना। 
(3.8). तपो यज्ञ-अपने कर्तव्य के पालन में आने वाली कठिनाइयों को प्रसन्नता पूर्वक सह लेना।
(3.9). योग यज्ञ-कार्य की सिद्धि-असिद्धि में तथा फल की प्राप्ति-अप्राप्ति में सम रहना। 
(3.10). स्वाध्याय रूप ज्ञान यज्ञ-दूसरों के हित के लिए सत्-शास्त्रों का पठन-पाठन, नाम-जप आदि करना। 
(3.11). प्राणायम रूप यज्ञ-पूरक, कुम्भक और रेचक पूर्वक प्रणायाम करना।
(3.12). स्तम्भ वृत्ति प्राणायाम रूप यज्ञ-नियमित आहार करते हुए प्राण और अपान को अपने-अपने स्थानों पर रोक देना।
अश्वमेध यज्ञ :: यह यज्ञ प्रधानतः पूरे संसार में बलशाली सम्राटों द्वारा अपनी सत्ता को स्वीकार करने और व्यवस्था लागु करने के लिए था। पराजित राजाओं को सम्राट का अधिपत्य मानना पड़ता था और नियमित रुप से कर का भुगतान करना होता था।
राजसूय यज्ञ :: ऐतरेय ब्राह्मण इस यज्ञ के करने वाले महाराजाओं की सूची प्रस्तुत करता है, जिन्होंने अपने राज्यारोहण के पश्चात पृथ्वी को जीता एवं इस यज्ञ को किया। इस प्रकार यह यज्ञ सम्राट का प्रमुख कर्तव्य समझा जाता था। जनता इसमें भाग लेने लगी एवं इसका पक्ष धार्मिक की अपेक्षा अधिक सामाजिक होता गया। यह यज्ञ चक्रवर्ती राजा बनने के लिए किया जाता था। सम्राट युधिष्टर के द्वारा किये गए राजसूय यज्ञ में भगवान् श्री कृष्ण का चरण पूजन प्रथम पुरुष-अति विशिष्ठ व्यक्ति के रूप में किया गया। राजसूय यज्ञ करने से मनुष्य को इससे चौगुना फल मिलता है।
भगवान् विष्णु का यज्ञ :: सम्पूर्ण यज्ञों से इस यज्ञ को श्रेष्ठ कहा गया है।ब्रह्मा जी ने पूर्वकाल में बड़े समारोह के साथ इस यज्ञ का अनुष्ठान किया था। उसी यज्ञ में दक्ष प्रजापति और शंकर में कलह मच गया था। ब्राह्मणों ने क्रोध में आकर नन्दी को शाप दिया था और नन्दी ने ब्राह्मणों को। यही कारण है कि भगवान् शिव ने दक्ष के यज्ञ को नष्ट कर डाला।
सोम यज्ञ :: इसका वर्णन यजुर्वेद के चौथे अध्याय से दसवें अध्याय तक सोमयाग के मन्त्रों में निहित है। इसमें वसन्त ऋतु में सोमलता-सोमवल्ली का प्रयोग करके 16 ऋत्विक ब्राह्मणों द्वारा एक ही  सम्पन्न किया जाता है।
पुत्र्येष्टि यज्ञ :: महाराज दशरथ  यज्ञ शृंगी ऋषि की द्वारा सम्पन्न कराया गया। 
गृहस्थ धर्म के यज्ञ :: इन पाँचों यज्ञों को नित्य करने का निर्देश है।
(1). ब्रह्मयज्ञ, (2). देवयज्ञ, (3). पितृयज्ञ, (4). वैश्वदेवयज्ञ, भूतयज्ञ, पञ्चबलि :- (4.1). गोबलि, (4.2). कुक्कुर बलि, (4.3). काक बलि, (4.4). देव बलि, पिपीलिकादि बलि और (5). अतिथि यज्ञ-मनुष्य यज्ञ-श्राद्ध संकल्प। 
बलि  तात्पर्य है उनके निमित्त भोजन आदि प्रदान करना।   
यज्ञ में चार आधार ::  (1). व्यक्ति, (2). अग्नि, (3). वाणी और (4). चरु।
यज्ञ के चार अंग ::  स्नान, दान, होम तथा जप।
यज्ञों के मुख्यतया दो विभाग :- (1). श्रौत तथा (2). स्मार्त्त।
श्रौत यज्ञों में सात यज्ञ हविर्यज्ञ हैं तथा सात यज्ञ सोमयज्ञ हैं।
हविर्यज्ञ :- अग्नि होत्र, दर्श पूर्ण मास, आग्रयण, चातुर्मास्य, निरूढ पशुबन्ध, सौत्रामणी तथा पिण्ड पितृ यज्ञ।
सोम याग :- अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र तथा आप्तोर्याम।
कुल 21 यज्ञों में औपासन होम आदि सात यज्ञ स्मार्त्त यज्ञ तथा शेष चौदह यज्ञ श्रौत यज्ञ। इन चौदहों यज्ञों में सात यज्ञ हविर्यज्ञ जो अग्नि होत्रादि हैं तथा शेष अग्निष्टोमादि सात श्रौत यज्ञ सोम यज्ञ हैं।
अग्निहोत्र :: इस प्रक्रिया में अग्नि में आहुत किये जाने वाले चार प्रकार के द्रव्यों की आहुतियाँ दी जाती हैं। यह चार प्रकार के द्रव्य हैं :- (1). गोधृत व केसर, कस्तूरी आदि सुगन्धित पदार्थ, (2). मिष्ट पदार्थ शक्कर आदि, (3). शुष्क अन्न, फल व मेवे आदि तथा (4). ओषधियाँ व वनस्पतियाँ जो स्वास्थ्य वर्धक होती हैं। 
यज्ञ, अग्निहोत्र या होम के लाभ :: यज्ञ में बोले जाने वाले मन्त्र अन्तरिक्ष में दूषित ध्वनि तरंगों में परिवर्तन का सामर्थ्य रखते हैं, चित्त पर पड़े जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों को, अशुद्ध संस्कारों को शुद्ध करते हैं, मन्त्रों में निहित भावों के द्वारा आचरण में पवित्रता का संचार होता है, यज्ञ में की जाने वाली विधि जीवन निर्माण की दिशा को प्रबुद्ध बनाती है। प्रतिदिन किये जाने वाले-दैनिक यज्ञ के द्वारा भौतिक मानसिक एवं सामाजिक पर्यावरण का शुद्धिकरण होता है। भौतिक, मानसिक एवं सामाजिक रोगों के विनाश का साधन, सर्वोतम साधन दैनिक यज्ञ है।
हवन यज्ञ का वह रूप है जो कि संस्कारों यथा नामकरण, उपनयन आदि में गृहस्थों द्वारा किया जाता है। इसमें ब्राह्मणों को समुचित भोजन, वस्त्र, फल-फूल, मिठाई आदि -साथ दक्षिणा भी प्रदान जाती है। 
YAGY-HAWAN यज्ञ, हवन, अग्निहोत्र santoshsuvichar.blogspot.com

 
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