NAV DURGE नवदुर्गे
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥
शुम्भ-निशुम्भ नामक दैत्यों के आतंक का प्रकोप इस कदर बढ़ चुका था कि उन्होंने अपने बल, छल एवं महाबली असुरों द्वारा देवराज इन्द्र सहित अन्य समस्त देव गणों को निष्कासित कर स्वयं उनके स्थान पर आकर उन्हें प्राण रक्षा हेतु भटकने के लिए छोड़ दिया।
दैत्यों द्वारा आतंकित देवों को ध्यान आया कि महिषासुर के इन्द्रपुरी पर अधिकार कर लिया है, तब दुर्गा ने ही उनकी मदद की थी।तब वे सभी दुर्गा का आह्वान करने लगे।
उनके इस प्रकार आह्वान से देवी प्रकट हुईं एवं शुम्भ-निशुम्भ के अति शक्तिशाली असुर चंड तथा मुंड दोनों का एक घमासान युद्ध में नाश कर दिया। चंड-मुंड के इस प्रकार मारे जाने एवं अपनी बहुत सारी सेना का संहार हो जाने पर दैत्यराज शुम्भ ने अत्यधिक क्रोधित होकर अपनी संपूर्ण सेना को युद्ध में जाने की आज्ञा दी तथा कहा कि आज छियासी उदायुद्ध नामक दैत्य सेनापति एवं कम्बु दैत्य के चौरासी सेनानायक अपनी वाहिनी से घिरे युद्ध के लिए प्रस्थान करें।
कोटिवीर्य कुल के पचास, धौम्र कुल के सौ असुर सेनापति मेरे आदेश पर सेना एवं कालक, दौर्हृद, मौर्य व कालकेय असुरों सहित युद्ध के लिए कूच करें।
अत्यंत क्रूर दुष्टाचारी असुर राज शुंभ अपने साथ सहस्र असुरों वाली महासेना लेकर चल पड़ा।
उसकी भयानक दैत्य सेना को युद्धस्थल में आता देखकर देवी ने अपने धनुष से ऐसी टंकार की कि उसकी आवाज से आकाश व समस्त पृथ्वी गूँज उठी।पहाड़ों में दरारें पड़ गईं।
देवी के सिंह ने भी दहाड़ना प्रारंभ किया, फिर जगदम्बिका ने घंटे के स्वर से उस आवाज को दुगना बढ़ा दिया। धनुष, सिंह एवं घंटे की ध्वनि से समस्त दिशाएं गूँज उठीं। भयंकर नाद को सुनकर असुर सेना ने देवी के सिंह को और माँ काली को चारों ओर से घेर लिया।
तदनंतर असुरों के संहार एवं देवगणों के कष्ट निवारण हेतु परमपिता ब्रह्माजी, भगवान् श्री हरी विष्णु, महेश, कार्तिकेय, इन्द्रादि देवों की शक्तियों ने रूप धारण कर लिए एवं समस्त देवों के शरीर से अनंत शक्तियाँ निकलकर अपने पराक्रम एवं बल के साथ माँ दुर्गा के पास पहुँचीं।
तत्पश्चात समस्त शक्तियों से घिरे शिवजी ने देवी जगदम्बा से कहा, "मेरी प्रसन्नता हेतु तुम इस समस्त दानव दलों का सर्वनाश करो"।
तब देवी जगदम्बा के शरीर से भयानक उग्र रूप धारण किए चंडिका देवी शक्ति रूप में प्रकट हुईं। उनके स्वर में सैकड़ों गीदड़ों की भाँति आवाज आती थी।
असुरराज शुम्भ-निशुम्भ क्रोध से भर उठे। वे देवी कात्यायनी की ओर युद्ध हेतु बढ़े। अत्यंत क्रोध में चूर उन्होंने देवी पर बाण, शक्ति, शूल, फरसा, ऋषि आदि अस्त्रों-शस्त्रों द्वारा प्रहार प्रारंभ किया।
देवी ने अपने धनुष से टंकार की एवं अपने बाणों द्वारा उनके समस्त अस्त्रों-शस्त्रों को काट डाला, जो उनकी ओर बढ़ रहे थे।
माँ काली फिर उनके आगे-आगे शत्रुओं को अपने शूलादि के प्रहार द्वारा विदीर्ण करती हुई व खट्वांग से कुचलती हुईं समस्त युद्ध भूमि में विचरने लगीं।
सभी राक्षसों चंड मुंडादि को मारने के बाद उसने रक्तबीज को भी मार दिया। शक्ति का यह अवतार एक रक्तबीज नामक राक्षस को मारने के लिए हुआ था।
फिर शुम्भ-निशुंभ का वध करने के बाद बाद भी जब काली माँ का गुस्सा शाँत नहीं हुआ, तब उनके गुस्से को शांत करने के लिए भगवान् शिव उनके रास्ते में लेट गए और काली माँ का पैर उनके सीने पर पड़ गया।
शिव पर पैर रखते ही माता का क्रोध शांत होने लगा।
शवारुढा महाभीमां घोरद्रंष्टां हसन्मुखीम।
चतुर्भुजां खडगमुण्डवराभय करां शिवाम॥
मुण्डमालाधरां देवीं ललजिह्वां दिगम्बराम।
एवं संचिन्तयेत कालीं श्मशानालयवासिनीम॥
महाकाली शव पर बैठी है, शरीर की आकृति डरावनी है, देवी के दांत तीखे और महाभयावह है, ऎसे में महाभयानक रुप वाली, हंसती हुई मुद्रा में हैं। उनकी चार भुजाएं हैं।
एक हाथ में खडग, एक में वर, एक अभयमुद्रा में है, गले में मुण्डवाला है, जिह्वा बाहर निकली है, वह सर्वथा नग्न है, वह श्मशान वासिनी हैं। श्मशान ही उनकी आवास भूमि है।
उनकी उपासना में सम्प्रदायगत भेद हैं, श्मशान काली की उपासना दीक्षा गम्य है, जो किसी अनुभवी गुरु से दीक्षा लेकर करनी चाहिए। देवी की साधना दुर्लभ है।
नवरात्रि :: नवरात्रि का अर्थ होता है, नौ रातें। यह पर्व वर्ष में दो बार आता है। एक शरद माह की नवरात्रि और दूसरी बसन्त माह की इस पर्व के दौरान तीन प्रमुख देवियों :- माता पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती के नौ स्वरुपों श्री शैलपुत्री, श्री ब्रह्मचारिणी, श्री चंद्र घंटा, श्री कुष्मांडा, श्री स्कन्द माता, श्री कात्यायनी, श्री कालरात्रि, श्री महागौरी, श्री सिद्धिदात्री का पूजन विधि विधान से किया जाता है। जिन्हें नवदुर्गा कहते हैं।
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्माचारिणी। तृतीय चंद्रघण्टेति कुष्माण्डेति चतुर्थकम्।पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च। सप्तमं कालरात्रि महागौरीति चाऽष्टम्।नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा प्रकीर्तिताः।
नवरात्र शब्द से नव अहोरात्रों-विशेष रात्रियाँ, का बोध होता है। इस समय शक्ति के नव रूपों की उपासना की जाती है, क्योंकि रात्रि शब्द सिद्धि का प्रतीक माना जाता है। दीपावली, होलिका, शिवरात्रि और नवरात्र आदि उत्सवों को रात में ही मनाने की परम्परा है।
वर्ष में दो बार नवरात्रों का विधान है :- विक्रम संवत के पहले दिन अर्थात चैत्र मास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा (पहली तिथि) से नौ दिन अर्थात नवमी तक। इसी प्रकार इसके ठीक छह मास पश्चात् आश्विन मास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से महानवमी अर्थात विजयादशमी के एक दिन पूर्व तक नवरात्र मनाया जाता है।
सिद्धि और साधना की दृष्टि से शारदीय नवरात्रों को ज्यादा महत्वपूर्ण माना गया है। इन नवरात्रों में आध्यात्मिक और मानसिक शक्ति संचय करने के लिए अनेक प्रकार के व्रत, संयम, नियम, यज्ञ, भजन, पूजन, योग-साधना आदि किये जाते हैं। कुछ साधक इन रात्रियों में पूरी रात पद्मासन या सिद्धासन में बैठकर आन्तरिक त्राटक या बीज मंत्रों के जाप द्वारा विशेष सिद्धियाँ प्राप्त करने का प्रयास करते हैं।
पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा काल में एक साल की चार संधियाँ हैं, जिनमें से मार्च व सितम्बर माह में पड़ने वाली गोल संधियों में साल के दो मुख्य नवरात्र पड़ते हैं। इस समय रोगाणुओं और जीवाणुओं के आक्रमण की सर्वाधिक सम्भावना होती है।
ऋतु संधियों में अक्सर शारीरिक बीमारियाँ बढ़ती हैं। अत: उस समय स्वस्थ रहने के लिए तथा शरीर को शुद्ध रखने के लिए और तन-मन को निर्मल और पूर्णत: स्वस्थ रखने के लिए की जाने वाली प्रक्रिया का नाम नवरात्र है।
अमावस्या की रात से अष्टमी तक या पड़वा से नवमी की दोपहर तक व्रत नियम चलने से नौ रात यानी नवरात्र नाम सार्थक है।
मानव शरीर नौ मुख्य द्वारों वाला कहा गया है और इसके भीतर निवास करने वाली जीवनी शक्ति का नाम ही दुर्गा देवी है।
इन मुख्य इन्द्रियों में अनुशासन, स्वच्छ्ता, तारतम्य स्थापित करने के प्रतीक रूप में, शरीर तंत्र को पूरे साल के लिए सुचारू रूप से क्रियाशील रखने के लिए नौ द्वारों की शुद्धि का पर्व नौ दिन मनाया जाता है। इनको व्यक्तिगत रूप से महत्व देने के लिए नौ दिन, नौ दुर्गाओं के लिए कहे जाते हैं।
चैत्र और आश्विन नवरात्रि ही मुख्य माने जाते हैं। इनमें भी देवी भक्त आश्विन नवरात्रि का बहुत महत्व है। इनको यथाक्रम वासंती और शारदीय नवरात्र कहते हैं। इनका आरम्भ चैत्र और आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को होता है। ये प्रतिपदा सम्मुखी शुभ होती है।
दिन का महत्व :: नवरात्रि वर्ष में चार बार आती है। जिसमें चैत्र और आश्विन की नवरात्रियों का विशेष महत्व है। चैत्र नवरात्रि से ही विक्रम सम्वत की शुरुआत होती है। माँ की नौ शक्तियों की पूजा अलग-अलग दिन और अलग-अलग तरीके से की जाती है। पहले दिन माँ के शैलपुत्री स्वरुप की उपासना की जाती है। इस दिन से
पहले दिन की पूजा का विधान :: इस दिन से भक्तगण एक दिन से नौ दिनों तक का उपवास रखते हैं। जो लोग नौ दिनों का व्रत रखेंगे वो दशमी को पारायण करेंगे। जो पहली और अष्टमी को उपवास रखेंगे वो नवमी को पारायण करेंगे। इस दिन कलश की स्थापना करके अखण्ड ज्योति भी जला सकते हैं। प्रातः और सायंकाल दुर्गा सप्तशती का पाठ करें और आरती भी करें।
अगर सप्तशती का पाठ नहीं कर सकते तो नवार्ण मंत्र "ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडायै विच्चे" का जाप करें। पूरे दस दिन खान-पान आचरण में सात्विकता रखें। माँ को आक, मदार, दूब और तुलसी बिल्कुल न चढ़ाएँ। बेला, चमेली, कमल और दूसरे पुष्प मां को चढ़ाए जा सकते हैं।
अखंड ज्योति :: नवरात्र यानि नौ दिनों तक चलने वाली देवी दुर्गा के नौ स्वरूपों की आराधना के साथ ही इस पावन पर्व पर कई घरों में घटस्थापना होती है, तो कई जगह अखण्ड ज्योत का विधान है। शक्ति की आराधना करने वाले जातक अखण्ड ज्योति जलाकर माँ दुर्गा की साधना करते हैं। अखण्ड ज्योति अर्थात ऐसी ज्योति जो खंडित न हो। अखण्ड ज्योत पूरे नौ दिनों तक अखण्ड रहनी चाहिए यानी जलती रहनी चाहिए। अखण्ड दीप को विधिवत मत्रोच्चार से प्रज्जवलित करना चाहिए। नवरात्री में कई नियमों का पालन किया जाता है।
नवरात्री में अखण्ड ज्योत का बुझना अशुभ माना जाता है। जहाँ भी ये अखण्ड ज्योत जलाई जाती है वहाँ पर किसी न किसी की उपस्थिति जरुरी होती है। इसे सूना छोड़ कर नहीं जाते हैं। अखण्ड ज्योत में दीपक की लौ बाँये से दाँये की तरफ जलनी चाहिए। इस प्रकार का जलता हुआ दीपक आर्थिक प्राप्ति का सूचक होता है। दीपक का ताप दीपक से 4 अँगुल चारों ओर अनुभव होना चाहिए, इससे दीपक भाग्योदय का सूचक होता है। जिस दीपक की लौ सोने के समान रंग वाली हो वह दीपक आपके जीवन में धन-धान्य की वर्षा कराता है एवं व्यवसाय में तरक्की का सन्देश देता है।
आगमन वाहन ::
शशि सूर्य गजरुढा शनिभौमै तुरंगमे।
गुरौशुक्रेच दोलायां बुधे नौकाप्रकीर्तिता॥
देवीभाग्वत पुराण के इस श्लोक में बताया गया है कि माता का वाहन क्या होगा यह दिन के अनुसार तय होता है। अगर नवरात्र का आरंभ सोमवार या रविवार को हो रहा है तो माता का आगमन हाथी पर होगा। शनिवार और मंगलवार को माता का आगमन होने पर उनका वाहन घोड़ा होता है। गुरुवार और शुक्रवार को आगमन होने पर माता डोली में आती हैं जबकि बुधवार को नवरात्र का आरंभ होने पर माता का वहन नाव होता है।
प्रस्थान वाहन :: देवीभाग्वत पुराण में बताया गया है कि :-
शशि सूर्य दिने यदि सा विजया महिषागमने रुज शोककरा,
शनि भौमदिने यदि सा विजया चरणायुध यानि करी विकला।
बुधशुक्र दिने यदि सा विजया गजवाहन गा शुभ वृष्टिकरा,
सुरराजगुरौ यदि सा विजया नरवाहन गा शुभ सौख्य करा॥
इस श्लोक से स्पष्ट है कि इस वर्ष माता हाथी पर जा रही हैं। इसका तात्पर्य इस वर्ष वर्षा अधिक हो सकती है।
साधक भाई बहन जो ब्राह्मण द्वारा पूजन करवाने में असमर्थ है एवं जो सामर्थ्यवान होने पर भी समयाभाव के कारण पूजा नही कर पाते उनके लिये अत्यंत साधरण लौकिन मंत्रो से पंचोपचार विधि द्वारा सम्पूर्ण पूजन विधि बताई जा रही है आशा है आप सभी साधक इसका लाभ उठाकर माता के कृपा पात्र बनेंगे।
घट स्थापना :- नवरात्री की पहली तिथि पर सभी भक्त अपने घर के मन्दिर में कलश स्थापना करते हैं। शुभ मुहूर्त में कलश स्थापित किया जाता है। घट स्थापना प्रतिपदा तिथि में कर लेनी चाहिए।
कलश को सुख-समृद्धि, ऐश्वर्य देने वाला तथा मंगलकारी माना जाता है। कलश के मुख में भगवान् श्री हरी भगवान विष्णु, गले में रूद्र, मूल में ब्रह्मा जी तथा मध्य में देवी शक्ति का निवास माना जाता है। नवरात्री के समय ब्रह्माण्ड में उपस्थित शक्तियों का घट में आह्वान करके उसे कार्यरत किया जाता है। इससे घर की सभी विपदाएँ नष्ट हो जाती है तथा घर में सुख-शान्ति तथा समृद्धि बनी रहती है।
नवरात्री की पहली तिथि पर सभी भक्त अपने घर के मंदिर में कलश स्थापना करते हैं। इस कलश स्थापना की भी अपनी एक विधि, एक मुहूर्त होता है। परंतु चैत्र शुक्ल प्रतिपदा स्वयं सिद्ध साढ़े तीन मुहूर्त में से प्रथम है, इसलिये इस दिन किसी भी प्रकार के मुहूर्त देखने की आवश्यकता नही होती फिर भी संभव हो तो इस वर्ष घट स्थापना प्रातः 06 बजकर 25 मिनट से लेकर 07 बजकर 15 मिनट तक कर लें इसके पश्चात
केवल राहुकाल के समय 12:23 से 13:54 तक के समय को छोड़कर अपनी सुविधानुसार दिन में कभी भी घटस्थापना की जा सकती है।
घट स्थापना एवं दुर्गा पूजन की विधि :: सबसे पहले जौ बोने के लिए एक ऐसा पात्र लें जिसमे कलश रखने के बाद भी आस पास जगह रहे। यह पात्र मिट्टी की थाली जैसा कुछ हो तो श्रेष्ठ होता है। इस पात्र में जौ उगाने के लिए मिट्टी की एक परत बिछा दें। मिट्टी शुद्ध होनी चाहिए। पात्र के बीच में कलश रखने की जगह छोड़कर बीज डाल दें। फिर मिट्टी की एक परत बिछा दें। एक बार फिर जौ डालें। फिर से मिट्टी की परत बिछाएँ। अब इस पर जल का छिड़काव करें।
कलश तैयार करें। कलश पर स्वस्तिक बनायें। कलश के गले में मौली बाँधें। अब कलश को थोड़े गँगा जल और शुद्ध जल से पूरा भर दें। कलश में साबुत सुपारी, फूल और दूर्वा डालें। कलश में इत्र, पंचरत्न तथा सिक्का डालें। अब कलश में पांचों प्रकार के पत्ते डालें। कुछ पत्ते थोड़े बाहर दिखाई दें इस प्रकार लगाएँ। चारों तरफ पत्ते लगाकर ढ़क्कन लगा दें। इस ढ़क्कन में अक्षत यानि साबुत चावल भर दें।
नारियल तैयार करें। नारियल को लाल कपड़े में लपेट कर मौली बांध दें। इस नारियल को कलश पर रखें। नारियल का मुँह आपकी तरफ होना चाहिए। यदि नारियल का मुँह ऊपर की तरफ हो तो उसे रोग बढ़ाने वाला माना जाता है। नीचे की तरफ हो तो शत्रु बढ़ाने वाला मानते है, पूर्व की और हो तो धन को नष्ट करने वाला मानते है। नारियल का मुंह वह होता है जहाँ से वह पेड़ से जुड़ा होता है। अब यह कलश जौ उगाने के लिए तैयार किये गये पात्र के बीच में रख दें। अब देवी देवताओं का आह्वान करते हुए प्रार्थना करें कि "हे समस्त देवी देवता आप सभी नौ दिन के लिए कृपया कलश में विराजमान हों"।
आह्वान करने के बाद ये मानते हुए कि सभी देवता गण कलश में विराजमान है। कलश की पूजा करें। कलश को टीका करें, अक्षत चढ़ाएँ, फूल माला अर्पित करें, इत्र अर्पित करें, नैवेद्य यानि फल मिठाई आदि अर्पित करें। घट स्थापना या कलश स्थापना के बाद दुर्गा पूजन शुरू करने से पूर्व चौकी को धोकर माता की चौकी सजायें।
पूजन सामग्री :- जौ बोने के लिए मिट्टी का पात्र। यह वेदी कहलाती है। जौ बोने के लिए शुद्ध साफ़ की हुई मिट्टी जिसमे कंकड़-पत्थर आदि ना हो। पात्र में बोने के लिए जौ ( गेहूँ भी ले सकते हैं)। घट स्थापना के लिए मिट्टी का कलश ( सोने, चाँदी या ताँबे का कलश भी ले सकते हैं। कलश में भरने के लिए शुद्ध जल यथा नर्मदा या गँगाजल या फिर अन्य साफ जल।
रोली, मौली, इत्र, पूजा में काम आने वाली साबुत सुपारी, दूर्वा, कलश में रखने के लिए सिक्का (सामान्य अथवा चाँदी या सोने का सिक्का)।
पंचरत्न-हीरा, नीलम, पन्ना, माणक और मोती।
पीपल, बरगद, जामुन, अशोक और आम के पत्ते,सभी ना मिल पायें तो कोई भी दो प्रकार के पत्ते ले सकते हैं।
कलश ढकने के लिए ढक्कन। ढक्कन में रखने के लिए साबुत चावल, नारियल, लाल कपडा, फूल माला,फल तथा मिठाई, दीपक, धूप, अगरबत्ती।
पंचमेवा पंचमिठाई रूई कलावा, रोली, सिन्दूर, अक्षत, लाल वस्त्र , फूल, 5 सुपारी, लौंग, पान के 5 पत्ते, घी, कलश, कलश हेतु आम का पल्लव, चौकी, समिधा, हवन कुण्ड, हवन सामग्री, कमल गट्टे, पंचामृत (दूध, दही, घी, शहद, शर्करा), फल, बताशे, मिठाईयांँ, पूजा में बैठने हेतु आसन, हल्दी की गाँठ, अगरबत्ती, कुमकुम, इत्र, दीपक, आरती की थाली, कुशा, रक्त चन्दन, श्रीखंड चन्दन, जौ, तिल, माँ की प्रतिमा, आभूषण व श्रृंगार का सामान, फूल माला।
घट स्थापना एवं दुर्गा पूजन की विधि :: सबसे पहले जौ बोने के लिए एक ऐसा पात्र लें, जिसमें कलश रखने के बाद भी आस-पास जगह बनी रहे। यह पात्र मिट्टी की थाली जैसा कुछ हो तो श्रेष्ठ होता है। इस पात्र में जौ उगाने के लिए मिट्टी की एक परत बिछा दें। मिट्टी शुद्ध होनी चाहिए। पात्र के बीच में कलश रखने की जगह छोड़कर बीज डाल दें। फिर एक परत मिटटी की बिछा दें। एक बार फिर जौ डालें। फिर से मिट्टी की परत बिछायें। अब इस पर जल का छिड़काव करें।
कलश तैयार करें :- कलश पर स्वस्तिक बनायें। कलश के गले में मौली बाँधें। अब कलश को थोड़े गँगा जल और शुद्ध जल से पूरा भर दें। कलश में साबुत सुपारी, फूल और दूर्वा डालें। कलश में इत्र, पंचरत्न तथा सिक्का डालें। अब कलश में पाँचों प्रकार के पत्ते डालें। कुछ पत्ते थोड़े बाहर दिखाई दें, इस प्रकार लगायें। चारों तरफ पत्ते लगाकर ढ़क्कन लगा दें। इस ढ़क्कन में अक्षत यानि साबुत चावल भर दें।
नारियल तैयार करें :- नारियल को लाल कपड़े में लपेट कर मौली बाँध दें। इस नारियल को कलश पर रखें। नारियल का मुँह आपकी तरफ होना चाहिए। यदि नारियल का मुँह ऊपर की तरफ हो तो उसे रोग बढ़ाने वाला माना जाता है। नीचे की तरफ हो तो शत्रु बढ़ाने वाला मानते हैं, पूर्व की और हो तो धन को नष्ट करने वाला मानते है। नारियल का मुँह वह होता है, जहाँ से वह पेड़ से जुड़ा होता है। अब यह कलश जौ उगाने के लिए तैयार किये गये पात्र के बीच में रख दें। अब देवी- देवताओं का आह्वान करते हुए प्रार्थना करें कि हे समस्त देवी देवता आप सभी नौ दिन के लिए कृपया कलश में विराजमान हों।
आह्वान करने के बाद ये मानते हुए कि सभी देवता गण कलश में विराजमान हैं, कलश की पूजा करें। कलश को टीका करें, अक्षत चढ़ायें, फूल माला अर्पित करें, इत्र अर्पित करें, नैवेद्य यानि फल मिठाई आदि अर्पित करें। घट स्थापना या कलश स्थापना के बाद दुर्गा पूजन शुरू करने से पूर्व चौकी को धोकर माता की चौकी सजायें।
भगवती मण्डल स्थापना विधि :: जिस जगह पूजन करना है, उसे एक दिन पहले ही साफ सुथरा कर लें। गौमूत्र गँगाजल का छिड़काव कर पवित्र कर लें।
सबसे पहले गौरी-गणेश जी का पूजन करें।
माता भगवती का चित्र बीच में, उनके दाहिने ओर हनुमान जी और बाईं ओर बटुक भैरव को स्थापित करें। भैरव जी के सामने शिवलिंग और हनुमान जी के बगल में राम दरबार या लक्ष्मी नारायण को रखें। गौरी गणेश चावल के पुँज पर माता भगवती के समक्ष स्थान दें।
आसन बिछाकर गणपति एवं दुर्गा माता की मूर्ति के सम्मुख बैठ जायें। इसके बाद अपने आपको तथा आसन को निम्न मंत्र से शुद्धि करें :-
ॐ अपवित्र: पवित्रोवा सर्वावस्थां गतोऽपिवा।
य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तर: शुचि:॥
इन मंत्रों से अपने ऊपर तथा आसन पर 3-3 बार कुशा या पुष्पादि से छींटें लगायें फिर आचमन करें :-
ॐ केशवाय नम: ॐ नारायणाय नम:,
ॐ माधवाय नम:, ॐ गोविन्दाय नम:।
हाथ धोएँ, पुन: आसन शुद्धि मंत्र बोलें :-
ॐ पृथ्वी त्वयाधृता लोका देवि त्यवं विष्णुनाधृता।
त्वं च धारयमां देवि पवित्रं कुरु चासनम्॥
शुद्धि और आचमन के बाद चन्दन लगाना चाहिए। अनामिका अँगुली से श्रीखंड चन्दन लगाते हुए निम्न मंत्र बोलें :-
चन्दनस्य महत्पुण्यम् पवित्रं पापनाशनम्,
आपदां हरते नित्यम् लक्ष्मी तिष्ठतु सर्वदा।
दुर्गा पूजन हेतु संकल्प :: पंचोपचार करने बाद किसी भी पूजन को आरम्भ करने से पहले पूजा की पूर्ण सफलता के लिये संकल्प करना चाहिए. संकल्प में पुष्प, फल, सुपारी, पान, चाँदी का सिक्का, नारियल (पानी वाला), मिठाई, मेवा, आदि सभी सामग्री थोड़ी-थोड़ी मात्रा में लेकर संकल्प मंत्र बोलें :-
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु:, ॐ अद्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय परार्धे श्री श्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे, अष्टाविंशतितमे कलियुगे, कलिप्रथम चरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे पुण्य (अपने नगर/गांव का नाम लें) क्षेत्रे बौद्धावतारे वीर विक्रमादित्यनृपते : 2076*, तमेऽब्दे प्रमादी नाम संवत्सरे दक्षिणायने शरद ऋतो महामंगल्यप्रदे मासानां मासोत्तमे चैत्र मासे शुक्ल पक्षे प्रतिपदायां तिथौ बुध वासरे (गोत्र का नाम लें) गोत्रोत्पन्नोऽहं अमुकनामा (अपना नाम लें) सकलपापक्षयपूर्वकं सर्वारिष्ट शांतिनिमित्तं सर्वमंगलकामनया- श्रुतिस्मृत्योक्तफलप्राप्त्यर्थं मनेप्सित कार्य सिद्धयर्थं श्री दुर्गा पूजनं च अहं करिष्ये। तत्पूर्वागंत्वेन निर्विघ्नतापूर्वक कार्य सिद्धयर्थं यथामिलितोपचारे गणपति पूजनं करिष्ये।
*जो भी सम्वत हो उसे ही बोलें।
गणपति पूजन विधि :: किसी भी पूजा में सर्वप्रथम गणेश जी की पूजा की जाती है. हाथ में पुष्प लेकर गणपति का ध्यान करें।
गजाननम्भूतगणादिसेवितं कपित्थ जम्बू फलचारुभक्षणम्।
उमासुतं शोक विनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपंकजम्।
आवाहन :- हाथ में अक्षत लेकर निम्न मंत्रोपचार करें :-
आगच्छ देव देवेश, गौरीपुत्र विनायक।
तवपूजा करोमद्य, अत्रतिष्ठ परमेश्वर॥
"ॐ श्री सिद्धि विनायकाय नमः इहागच्छ इह तिष्ठ"
कहकर अक्षत गणेश जी पर चढा़ दें।
हाथ में फूल लेकर :-
"ॐ श्री सिद्धि विनायकाय नमः आसनं समर्पयामि"
अर्घा में जल लेकर बोलें :-
"ॐ श्री सिद्धि विनायकाय नमः अर्घ्यं समर्पयामि"
आचमनीय-स्नानीयं (आचमन और स्नान) :-
"ॐ श्री सिद्धि विनायकाय नमः आचमनीयं समर्पयामि"
वस्त्र लेकर कहें :-
"ॐ श्री सिद्धि विनायकाय नमः वस्त्रं समर्पयामि"
जनेऊ-यज्ञोपवीत चढ़ायें :-
"ॐ श्री सिद्धि विनायकाय नमः यज्ञोपवीतं समर्पयामि"
आचमन-पुनराचमनीय कहें :-
"ॐ श्री सिद्धि विनायकाय नमः"
चंदन-रक्त चंदन लगायें :-
इदम रक्त चंदनम् लेपनम्। ॐ श्री सिद्धि विनायकाय नमः।
इसी प्रकार श्रीखंड चन्दन बोलकर श्रीखंड चन्दन लगायें।
इसके पश्चात सिन्दूर चढ़ायें :-
इदं सिन्दूराभरणं लेपनम्। ॐ श्री सिद्धि विनायकाय नमः।
दूर्वा और विल्बपत्र भी गणेश जी को चढ़ायें।
पूजन के बाद गणेश जी को प्रसाद अर्पित करें। मिष्टान अर्पित करने के लिए निम्न मंत्र बोलें :-
शर्करा खण्ड खाद्यानि दधि क्षीर घृतानि च,
आहारो भक्ष्य भोज्यं गृह्यतां गणनायक।
ॐ श्री सिद्धि विनायकाय नमः इदं नानाविधि नैवेद्यानि समर्पयामि।
प्रसाद अर्पित करने के बाद आचमन करायें :-
इदं आचमनीयं ॐ श्री सिद्धि विनायकाय नमः।
इसके बाद पान सुपारी चढ़ायें :-
ॐ श्री सिद्धि विनायकाय नमः ताम्बूलं समर्पयामि।
अब फल लेकर गणपति पर चढ़ायें :-
ॐ श्री सिद्धि विनायकाय नमः फलं समर्पयामि।
अब दक्षिणा चढ़ायें :-
ॐ श्री सिद्धि विनायकाय नमः द्रव्य दक्षिणां समर्पयामि।
अब विषम सँख्या में दीपक जलाकर निराजन करें और श्री भगवान् की आरती गायें। हाथ में फूल लेकर गणेश जी को अर्पित करें, फिर तीन प्रदक्षिणा करें। इसी प्रकार से अन्य सभी देवताओं की पूजा करें। जिस देवता की पूजा करनी हो गणेश जी महाराज के स्थान पर उस देवता का नाम लें।
दुर्गा पूजन विधि :: सबसे पहले माता दुर्गा का ध्यान करें :-
सर्व मंगल मागंल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके ।
शरण्येत्रयम्बिके गौरी नारायणी नमोस्तुते॥
आवाहन :: श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। दुर्गादेवीमावाहयामि॥
आसन :: श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। आसानार्थे पुष्पाणि समर्पयामि॥
अर्घ्य :: श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। हस्तयो: अर्घ्यं समर्पयामि॥
आचमन :: श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। आचमनं समर्पयामि॥
स्नान :: श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। स्नानार्थं जलं समर्पयामि॥
स्नानांग आचमन :: स्नानान्ते पुनराचमनीयं जलं समर्पयामि।
स्नान कराने के बाद पात्र में आचमन के लिये जल छोड़े।
पंचामृत स्नान :: श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। पंचामृतस्नानं समर्पयामि॥
पंचामृत स्नान कराने के बाद पात्र में आचमन के लिये जल छोड़े।
गन्धोदक-स्नान :: श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। गन्धोदकस्नानं समर्पयामि॥
गंधोदक स्नान (रोली चंदन मिश्रित जल) से कराने के बाद पात्र में आचमन के लिये जल छोड़े।
शुद्धोदक स्नान :: श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। शुद्धोदकस्नानं समर्पयामि॥
आचमन :: शुद्धोदकस्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।
शुद्धोदक स्नान कराने के बाद पात्र में आचमन के लिये जल छोड़े।
वस्त्र :: श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। वस्त्रं समर्पयामि॥
वस्त्रान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।
वस्त्र पहनने के बाद पात्र में आचमन के लिये जल छोड़े।
सौभाग्य सू़त्र :: श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। सौभाग्य सूत्रं समर्पयामि॥
मंगलसूत्र या हार पहनाए।
चन्दन :: श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। चन्दनं समर्पयामि॥
चंदन लगाए
हरिद्राचूर्ण :: श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। हरिद्रां समर्पयामि॥
हल्दी अर्पण करें।
कुंकुम :: श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। कुंकुम समर्पयामि॥
कुमकुम अर्पण करें।
सिन्दूर :: श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। सिन्दूरं समर्पयामि॥
सिंदूर अर्पण करें।
कज्जल :: श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। कज्जलं समर्पयामि॥
काजल अर्पण करें।
दूर्वाकुंर :: श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। दूर्वाकुंरानि समर्पयामि॥
दूर्वा चढ़ाए।
आभूषण :: श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। आभूषणानि समर्पयामि॥
यथासामर्थ्य आभूषण पहनाए।
पुष्पमाला :: श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। पुष्पमाला समर्पयामि॥
फूल माला पहनाए।
धूप :: श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। धूपमाघ्रापयामि॥
धूप दिखाए।
दीप :: श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। दीपं दर्शयामि॥
दीप दिखाए।
नैवेद्य :: श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। नैवेद्यं निवेदयामि॥
नैवेद्यान्ते त्रिबारं आचमनीय जलं समर्पयामि।
मिष्ठान भोग लगाएं इसके बाद पात्र में ३ बार आचमन के लिये जल छोड़े।
फल :: श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। फलानि समर्पयामि॥
फल अर्पण करें। इसके बाद एक बार आचमन हेतु जल छोड़े।
ताम्बूल :: श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। ताम्बूलं समर्पयामि॥
लवंग सुपारी इलाइची सहित पान अर्पण करें।
दक्षिणा :: श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। दक्षिणां समर्पयामि॥
यथा सामर्थ्य मनोकामना पूर्ति हेतु माँ को दक्षिणा अर्पण करें कामना करें मा ये सब आपका ही है आप ही हमें देती है हम इस योग्य नहीं आपको कुछबड़े सकें।
आरती :: माँ की आरती करें :-
आरती के नियम :: प्रत्येक व्यक्ति जानकारी के अभाव में अपनी मन मर्जी आरती उतारता रहता है। विशेष ध्यान देने योग्य बात है कि देवताओं के सम्मुख चौदह बार आरती उतारना चाहिए। चार बार चरणो पर से, दो बार नाभि पर से, एकबार मुख पर से तथा सात बार पूरे शरीर पर से। आरती की बत्तियाँ 1, 5, 7 अर्थात विषम संख्या में ही बत्तियाँ बनाकर आरती की जानी चाहिए।
माँ दुर्गा जी की आरती ::
जय अंबे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी।
तुमको निशदिन ध्यावत, हरि ब्रह्मा शिवरी॥ ॐ जय…
मांग सिंदूर विराजत, टीको मृगमद को ।
उज्ज्वल से दोउ नैना, चंद्रवदन नीको ॥ ॐ जय…
कनक समान कलेवर, रक्तांबर राजै ।
रक्तपुष्प गल माला, कंठन पर साजै॥ ॐ जय…
केहरि वाहन राजत, खड्ग खप्पर धारी।
सुर-नर-मुनिजन सेवत, तिनके दुखहारी॥ ॐ जय…
कानन कुण्डल शोभित, नासाग्रे मोती।
कोटिक चंद्र दिवाकर, राजत सम ज्योती॥ ॐ जय…
शुंभ-निशुंभ बिदारे, महिषासुर घाती।
धूम्र विलोचन नैना, निशदिन मदमाती॥ॐ जय…
चण्ड-मुण्ड संहारे, शोणित बीज हरे।
मधु-कैटभ दोउ मारे, सुर भय दूर करे॥ॐ जय…
ब्रह्माणी, रूद्राणी, तुम कमला रानी।
आगम निगम बखानी, तुम शिव पटरानी॥ॐ जय…
चौंसठ योगिनी गावत, नृत्य करत भैंरू।
बाजत ताल मृदंगा, अरू बाजत डमरू॥ॐ जय…
तुम ही जग की माता, तुम ही हो भरता।
भक्तन की दुख हरता, सुख संपति करता॥ॐ जय…
भुजा चार अति शोभित, वरमुद्रा धारी।
मनवांछित फल पावत, सेवत नर नारी॥ॐ जय…
कंचन थाल विराजत, अगर कपूर बाती।
श्रीमालकेतु में राजत, कोटि रतन ज्योती॥ॐ जय…
श्री अंबेजी की आरति, जो कोइ नर गावे।
कहत शिवानंद स्वामी, सुख-संपति पावे॥ॐ जय…
श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। आरार्तिकं समर्पयामि॥
आरती के बाद आरती पर चारो तरफ जल फिराये और इसके बाद हाथ जोड़कर प्रदक्षिणा (परिक्रमा) करें।
प्रदक्षिणा मंत्र ::
यानि कानि च पापानि जन्मांतर कृतानि च।
तानि सवार्णि नश्यन्तु प्रदक्षिणे पदे-पदे॥
हमारे द्वारा जाने-अनजाने में किए गए और पूर्वजन्मों के भी सारे पाप प्रदक्षिणा में बढ़ते कदमो के साथ साथ नष्ट हो जाए।
इसके बाद भूल चुक के लिए क्षमा प्रार्थना करें।
क्षमा प्रार्थना मंत्र ::
न मंत्रं नोयंत्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो
न चाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथाः।
न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं
परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम्॥
विधेरज्ञानेन द्रविणविरहेणालसतया
विधेयाशक्यत्वात्तव चरणयोर्या च्युतिरभूत् ।
तदेतत्क्षतव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति॥
पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः सन्ति सरलाः
परं तेषां मध्ये विरलतरलोऽहं तव सुतः।
मदीयोऽयंत्यागः समुचितमिदं नो तव शिवे
कुपुत्रो जायेत् क्वचिदपि कुमाता न भवति॥
जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता
न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया।
तथापित्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदप कुमाता न भवति॥
परित्यक्तादेवा विविधविधिसेवाकुलतया
मया पंचाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि।
इदानीं चेन्मातस्तव कृपा नापि भविता
निरालम्बो लम्बोदर जननि कं यामि शरण्॥
श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा
निरातंको रंको विहरति चिरं कोटिकनकैः।
तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं
जनः को जानीते जननि जपनीयं जपविधौ॥
चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पटधरो
जटाधारी कण्ठे भुजगपतहारी पशुपतिः।
कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं
भवानि त्वत्पाणिग्रहणपरिपाटीफलमिदम्॥
न मोक्षस्याकांक्षा भवविभव वांछापिचनमे
न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुनः।
अतस्त्वां संयाचे जननि जननं यातु मम वै
मृडाणी रुद्राणी शिवशिव भवानीति जपतः॥
नाराधितासि विधिना विविधोपचारैः किं रूक्षचिंतन परैर्नकृतं वचोभिः।
श्यामे त्वमेव यदि किंचन मय्यनाथे धत्से कृपामुचितमम्ब परं तवैव॥
आपत्सु मग्नः स्मरणं त्वदीयं करोमि दुर्गे करुणार्णवेशि।
नैतच्छठत्वं मम भावयेथाः क्षुधातृषार्ता जननीं स्मरन्ति॥
जगदंब विचित्रमत्र किं परिपूर्ण करुणास्ति चिन्मयि।
अपराधपरंपरावृतं नहि मातासमुपेक्षते सुतम्॥
मत्समः पातकी नास्तिपापघ्नी त्वत्समा नहि।
एवं ज्ञात्वा महादेवियथायोग्यं तथा कुरु॥
इसके बाद सभी लोग माँ को शाष्टांग प्रणाम कर घर मे सुख समृद्धि की कामना करें प्रसाद बाँटे।
नव दुर्गा :: शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री माता सभी एक ही हैं?
नवरात्रों में माँ भगवती के नौ रूपों की एक वर्ष में दो बार आराधना की जाती है :- शारदीय और चैत्रीय नवरात्रि। नवरात्रि के नौ रातों में तीन देवियों :- माता पार्वती, माता लक्ष्मी और माता सरस्वती की नौ रूपों में स्वरूपों पूजा होती है, जिन्हें नवदुर्गा कहते हैं।
(1). शैलपुत्री :: यह नव दुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं। माँ दुर्गा का पहला स्वरूप शैलपुत्री का है। पर्वतराज हिमालय के यहाँ पुत्री के रूप में उत्पन्न होने के कारण इनको शैलपुत्री कहा गया। यह वृषभ पर आरूढ़ दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएँ हाथ में पुष्प कमल धारण किए हुए हैं। नवरात्रि पूजन में पहले दिन इन्हीं का पूजन होता है। प्रथम दिन की पूजा में योगीजन अपने मन को मूलाधार चक्र में स्थित करते हैं। यहीं से उनकी योग साधना शुरू होती है।
माँ शैलपुत्री गिरिराज हिमवान की पुत्री हैं। अपने पूर्वजन्म में ये दक्ष प्रजापति की पुत्री सती थीं। इनका विवाह भगवान् शिव से हुआ। दक्ष ने एक यज्ञ के आयोजन में भगवान् शिव को आमंत्रित नहीं किया। इस अपमान से क्षुब्ध होकर माता सती ने योगाग्नि द्वारा उस रूप को भस्म कर दिया। माता भगवती सती अगले जन्म में हिमालय की पुत्री शैलपुत्री के रूप में जन्मीं। माँ शैलपुत्री गिरिराज हिमवान, माता पार्वती भगवान् शिव की अर्धांगिनी हैं।
वन्दे वांछितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम।
वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशंस्विनिम॥
(2). ब्रह्मचारिणी :: माँ दुर्गा की नौ शक्तियों में से दूसरा स्वरूप ब्रह्मचारिणी का है। ब्रह्मचारिणी देवी का स्वरूप पूर्ण ज्योतिर्मय एवं अत्यंत भव्य है। इसके बाएँ हाथ में कमण्डल और दाएँ हाथ में जप की माला रहती है। माँ दुर्गा का यह स्वरूप भक्तों और सिद्धों को अनन्त फल प्रदान करने वाला है। इनकी उपासना से मनुष्य में तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार और संयम की वृद्धि होती है। दुर्गा पूजा के दूसरे दिन इन्हीं की उपासना की जाती है। इस दिन साधक का मन स्वाधिष्ठान चक्र में स्थित होता है। इस चक्र में अवस्थित मन वाला योगी उनकी कृपा और भक्ति प्राप्त करता है।
ब्रह्म का अर्थ तपस्या भी है। ब्रह्मचारिणी का अर्थ हुआ तप की चारिणी यानि तप का आचरण करने वाली। ब्रह्म में लीन होकर तप करने के कारण इन महाशक्ति को ब्रह्मचारिणी की संज्ञा मिली है। इसीलिए माँ के इस स्वरूप का ध्यान शक्तियों को जाग्रत करके स्वयं पर नियंत्रण करने की सामर्थ्य प्रदान करता है।
दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥
(3). चंद्रघण्टा :: नवरात्र उपासना में तीसरे दिन इन्हीं के विग्रह का पूजन व आराधना की जाती है। इनका स्वरूप परम शान्ति दायक और कल्याणकारी है। इनके मस्तक में घण्टे के आकार का अर्धचन्द्र है। इसी कारण इस देवी का नाम चन्द्र घण्टा पड़ा। इनके शरीर का रंग स्वर्ण के समान चमकीला है। इनका वाहन सिंह है। साधक मन, वचन, कर्म एवं शरीर से शुद्ध होकर विधि-विधान के अनुसार, माँ चन्द्र घण्टा की शरण लेकर उनकी उपासना व आराधना में तत्पर हों। इनकी उपासना से हम समस्त सांसारिक कष्टों से छूटकर सहज ही परमपद के अधिकारी बन सकते हैं। उनके इस स्वरूप का ध्यान मानवी दुर्बलताओं से साहसपूर्वक लड़ते हुए उन पर विजय प्राप्त करने की शिक्षा देता है। माँ का यह स्वरूप दस भुजाओं वाला है, जिनसे वे असुरों से युद्ध करने जाने के लिए उद्यत हैं। वे मनुष्य को दसों इन्द्रियों को नियंत्रण में रखते हुए ध्येय की प्राप्ति में लगे रहने की शिक्षा प्रदान करती हैं।
पिण्डज प्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्रकैर्युता।
प्रसादं तनुते महयं चंद्रघण्टेति विश्रुता॥
(4). कूष्माण्डा :: अपनी मन्द मुस्कान, हल्की हँसी द्वारा ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारण इनका नाम कूष्माण्डा पड़ा। नवरात्रों में चौथे दिन कूष्माण्डा देवी के स्वरूप की उपासना की जाती है। इस दिन साधक का मन अनाहज चक्र में स्थित होता है। अतः पवित्र मन से पूजा-उपासना के कार्य में लगना चाहिए। माँ की उपासना मनुष्य को स्वाभाविक रूप से भवसागर से पार उतारने के लिए सुगम और श्रेयस्कर मार्ग है। माता कूष्माण्डा की उपासना मनुष्य को आधिव्याधियों से विमुक्त करके उसे सुख, समृद्धि और उन्नति की ओर ले जाती है। अतः अपनी लौकिक, परलौकिक उन्नति चाहने वालों को कूष्माण्डा की उपासना में हमेशा तत्पर रहना चाहिए।
उनका सूर्य के समान तेजस्वित स्वरूप व उनकी आठ भुजाएँ मनुष्यों को कर्मयोगी जीवन अपनाकर तेज अर्जित करने की प्रेरणा देती हैं। उनकी मधुर मुस्कान हमारी जीवनी शक्ति का संवर्धन करते हुए हँसते हुए कठिन से कठिन मार्ग पर चलकर सफलता पाने को प्रेरित करती है।
सुरासम्पूर्णकलशं रूधिराप्लुतमेव च।
दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तुमे॥
(5). स्कन्द माता :: भगवान् कार्तिकेय-स्कन्द की माता होने के कारण ही उन्हें स्कन्द माता कहा जाता है। भगवान् स्कन्द कुमार कार्तिकेय के नाम से भी जाने जाते हैं। इनकी उपासना नवरात्रि पूजा के पाँचवें दिन की जाती है। इस दिन साधक का मन विशुद्ध चक्र में स्थित रहता है। इनका वर्ण शुभ्र है। ये कमल के आसन पर विराजमान हैं। इसलिए इन्हें पद्मासन देवी भी कहा जाता है। इनका वाहन भी सिंह है। नवरात्रि पूजन के पाँचवें दिन का शास्त्रों में पुष्कल महत्व बताया गया है। इस चक्र में अवस्थित रहने वाले साधक की समस्त बाह्य क्रियायें एवं चित्र वृत्तियों का लोप हो जाता है। सूर्य मण्डल की अधिष्ठात्री देवी होने के कारण उनकी मनोहर छवि पूरे ब्रह्माण्ड में प्रकाशमान होती है।
सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी॥
(6). कात्यायनी :: कात्यायनी का नाम इसलिए कात्यायनी पड़ा, क्योंकि कात्य गोत्र में जन्में प्रसिद्ध महर्षि कात्यायन ने माता भगवती पराम्बा की कठिन तपस्या की थीं। उनकी इच्छा थी कि उन्हें पुत्री प्राप्त हो। तब माँ भगवती ने उनके घर पुत्री के रूप में जन्म लिया। इसलिए यह देवी कात्यायनी कहलाईं। कात्यायनी देवी रावण के राज्य की रक्षा करती थीं।
माँ कात्यायनी अमोद्य फलदायिनी हैं। दुर्गा पूजा के छठे दिन इनके स्वरूप की पूजा की जाती है। इस दिन साधक का मन आज्ञा चक्र में स्थित रहता है। योग साधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यंत ही महत्वपूर्ण स्थान है। इस चक्र में स्थित मन वाला साधक माँ कात्यायनी के चरणों में अपना सब कुछ न्यौछावर कर देता है। भक्त को सहजभाव से माँ कात्यायनी के दर्शन प्राप्त होते हैं। इनका साधक इस लोक में रहते हुए भी अलौकिक तेज से युक्त होता है।
चन्द्रहासोज्ज्वलकरा शाईलवरवाहना।
कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी॥
(7). कालरात्रि :: इनके शरीर का रंग काला है। सिर के बाल बिखरे हुए हैं। गले में नरमुण्ड की माला है। इनका वाहन गर्दभ (गधा) है। माँ कालरात्रि दैहिक, दैविक और भौतिक तापों को दूर करती हैं। मंगल ही मंगल करती हैं। यंत्र, मंत्र और तंत्र की देवी हैं। गले में विद्युत की तरह चमकने वाली माला है। तीन नेत्र ब्रह्माण्ड की तरह गोल हैं, जिनसे ज्योति निकलती है।
एक वेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकणी तैलाभ्यक्तशरीरणी॥
वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टक भूषणा।
वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयड्करी॥
माँ कालरात्रि का स्वरूप देखने में अत्यंत भयानक है लेकिन ये सदैव शुभ फल देने वाली मानी जाती हैं। इसलिए इन्हें शुभड्करी भी कहा जाता है। दुर्गा पूजा के सप्तम दिन माँ कालरात्रि की पूजा का विधान है। इस दिन साधक का मन सहस्त्रार चक्र में स्थित रहता है। उसके लिए ब्रह्माण्ड की समस्त सिद्धियों के द्वार खुलने लगते हैं। इस चक्र में स्थित साधक का मन पूर्णतः माँ कालरात्रि के स्वरूप में अवस्थित रहता है। माँ कालरात्रि दुष्टों का विनाश और ग्रह बाधाओं को दूर करने वाली हैं। जिससे साधक भयमुक्त हो जाता है।
भगवान् शिव ने माता को मज़ाक में को काली कह दिया, कहा जाता है, तभी से इनका एक नाम काली भी पड़ गया। दानव, भूत, प्रेत, पिशाच आदि इनके नाम लेने मात्र से भाग जाते हैं। माँ कालरात्रि का स्वरूप काला है, लेकिन यह सदैव शुभ फल देने वाली हैं। इसी कारण इनका एक नाम शुभकारी भी है। इनकी उपासना से प्राणी सर्वथा भय मुक्त हो जाता है।
मंत्र ::
(1). ॐ जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तु ते॥
जय त्वं देवि चामुण्डे जय भूतार्तिहारिणि।
जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमोस्तु ते॥
(हारिणि की जगह कारिणि कहते ही अर्थ उल्टा हो जाता है। रावण के द्वारा माँ कालरात्रि की साधना हेतु ब्राह्मणों द्वारा किये जाने वाले यज्ञ का फल, उसके विरुद्ध हो गया और उसका नाश हो गया।)
(2). धां धीं धूं धूर्जटे: पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी
क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि शां शीं शूं मे शुभं कुरु।
बीज मंत्र::
ऊं ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।
इस मंत्र की तीन, सात या ग्यारह माला करें।
चढावा :- माँ कालरात्रि को गाय का घी, शक्कर, मीठा पान, केले, शहद, गुड़, छुआरा।
पूजा :- परेशानी में हों तो सात या सौ नींबू की माला देवी को चढ़ायें। सप्तमी की रात्रि तिल या सरसों के तेल की अखण्ड ज्योत जलायें। सिद्धकुंजिका स्तोत्र, अर्गला स्तोत्रम, काली चालीसा, काली पुराण का पाठ करें। यथा सम्भव इस रात्रि में सम्पूर्ण दुर्गा सप्तशती का पाठ करें।
मनोकामना :- देवी का यह रूप ऋद्धि-सिद्धि प्रदान करने वाला है। भूत प्रेत और कोई भी ऊपरी बाधा उनके नाम जाप से दूर हो जाते है। कोर्ट-कचहरी में फंसे हो, नौकरी ना मिल रही हो, विवाह में देरी हो रही हो तो समस्याओं का निदान हो जाता है। देवी भगवती के प्रताप से सब मंगल ही मंगल होता है।
(8). महागौरी :: माँ के इस स्वरूप का ध्यान आस्था, श्रद्धा व विश्वास रूपी श्वेत प्रकाश को अपने जीवन में धारण करते हुए अलौकिक कान्ति व तेज से सम्पन्न होने का सन्देश प्रदान करता है। माँ महागौरी की अवस्था आठ वर्ष की मानी गई है :-"अष्टवर्षा मवेद गौरी"। इनका वर्ण शंख, चंद्र व कुंद के फूल के समान उज्ज्वल है। इनकी चार भुजाएं हैं। माँ वृषभवाहिनी व शान्ति स्वरूपा हैं।
श्वेते वृषे समरूढ़ा श्वेताम्बरधरा शुचिः।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा॥
दुर्गा पूजा के आठवें दिन महागौरी की उपासना का विधान है। इनकी शक्ति अमोघ और फलदायिनी है। इनकी उपासना से भक्तों के सभी कलुष धुल जाते हैं।
(9). सिद्धिदात्री :: वे सिद्धिदात्री, सिंह वाहिनी, चतुर्भुजा तथा प्रसन्न वदना हैं। अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व एवं वशित्व, ये आठ सिद्धियाँ हैं।[मार्कंडेय पुराण]
इन सभी सिद्धियों को देने वाली सिद्धिदात्री माँ हैं।
सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि।
सेव्यामाना सदा भूयात सिद्धिदा सिद्धिदायिनी॥
माँ सिद्धिदात्री सभी प्रकार की सिद्धियों को प्रदान करने वाली हैं। नव दुर्गाओं में माँ सिद्धिदात्री अन्तिम हैं। इनकी उपासना के बाद भक्तों की सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। देवी के लिए बनाए नैवेद्य की थाली में भोग का सामान रखकर प्रार्थना करनी चाहिए।
या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
सर्व मंगलम मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके।
शरण्ये त्रयम्ब्के गौरी नारायणी नमो स्तुते॥
नवदुर्गा और औषधियाँ :: माँ दुर्गा का आँशिक रूप में नौ औषधियों में वास है। ये औषधियाँ साधक-उपासक के लिये कवच एक काम करती हैं और वह सौ वर्ष तक पूरी तरह स्वस्थ रह सकता है। ये औषधियाँ दिव्य गुण सम्पन्न हैं।
(1). शैलपुत्री यानि हरड़ :: कई प्रकार की समस्याओं में काम आने वाली औषधि हरड़-हिमावती है, जो देवी शैलपुत्री का ही एक रूप हैं। यह आयुर्वेद की प्रधान औषधि है, जो सात प्रकार की होती है। इसमें (1.1). हरीतिका (हरी) भय को हरने वाली है। (1.2). पथया हित करने वाली है। (1.3). कायस्थ शरीर को बनाए रखने वाली है। (1.4). अमृता अमृत के समान है। (1.5). हेमवती हिमालय पर होने वाली है। (1.6). चेतकी चित्त को प्रसन्न करने वाली है। (1.7). श्रेयसी (यशदाता) शिवा यानी कल्याण करने वाली है।
(2). ब्रह्मचारिणी यानि ब्राह्मी :: ब्राह्मी, नवदुर्गा का दूसरा रूप ब्रह्मचारिणी है। यह आयु और स्मरण शक्ति को बढ़ाने वाली, रूधिर विकारों का नाश करने वाली और स्वर को मधुर करने वाली है।
इसलिए ब्राह्मी को सरस्वती भी कहा जाता है। यह मन एवं मस्तिष्क में शक्ति प्रदान करती है और गैस व मूत्र सम्बन्धी रोगों की प्रमुख दवा है। यह मूत्र द्वारा रक्त विकारों को बाहर निकालने में समर्थ औषधि है। अत: इन रोगों से पीड़ित व्यक्ति को ब्रह्मचारिणी कीआराधना करना चाहिए।
(3). तृतीय चन्द्र घण्टा अर्थात चन्दुसूर :: नवदुर्गा का तीसरा रूप है चन्द्र घण्टा, इसे चन्दुसूर या चमसूर कहा गया है। यह एक ऐसा पौधा है, जो धनिये के समान है।
यह मोटापा दूर करने में लाभप्रद है, इसलिए इसे चर्महन्ती भी कहते हैं। शक्ति को बढ़ाने वाली, हृदय रोग को ठीक करने वाली चन्द्रिका औषधि है।
(4). कुष्माण्डा यानि पेठा :: इसे कुम्हड़ा भी कहते हैं जो पुष्टिकारक, वीर्यवर्धक व रक्त के विकार को ठीक कर पेट को साफ करने में सहायक है। मानसिकरूप से कमजोर व्यक्ति के लिए यह अमृत समान है। यह शरीर के समस्त दोषों को दूर कर हृदय रोग को ठीक करता है। कुम्हड़ा रक्त पित्त एवं गैस को दूर करता है। इन बीमारी से पीड़ितव्यक्ति को पेठा का उपयोग के साथ कुष्माण्डादेवी की आराधना करना चाहिए।
(5). स्कन्द माता यानि अलसी :: नवदुर्गा का पाँचवा रूप स्कन्द माता है, जिन्हें पार्वती एवं उमा भी कहते हैं। यह औषधि के रूप में अलसी में विद्यमान हैं। यह वात, पित्त, कफ, रोगों की नाशक औषधि है।
अलसी नीलपुष्पी पावर्तती स्यादुमा क्षुमा।
अलसी मधुरा तिक्ता स्त्रिग्धापाके कदुर्गरु:॥
उष्णा दृष शुकवातन्धी कफ पित्त विनाशिनी।
पीड़ित व्यक्ति को स्कन्द माता की आराधना करना चाहिए।
(6). कात्यायनी यानि मोइया :: इसे आयुर्वेद में कई नामों से जाना जाता है, जैसे अम्बा, अम्बालिका, अम्बिका। इसके अलावा इसे मोइया अर्थात माचिका भी कहते हैं। यह कफ, पित्त, अधिक विकार एवं कंठ के रोग का नाश करती है। पीड़ित रोगी को इसका सेवन व कात्यायनी की आराधना करनी चाहिए।
(7). कालरात्रि यानि नागदौन :: यह नागदौन औषधि के रूप में जानी जाती है। सभी प्रकार के रोगों की नाशक सर्वत्र विजय दिलाने वाली मन एवं मस्तिष्क के समस्त विकारों को दूर करने वाली औषधि है। इस पौधे को व्यक्ति अपने घर में लगाने पर घर के सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। यह सुख देने वाली एवं सभी विषों का नाश करने वाली औषधि है। इस कालरात्रि की आराधना प्रत्येक पीड़ित व्यक्ति को करना चाहिए।
(8).अष्टम महागौरी यानि तुलसी :: तुलसी सात प्रकार की होती है :- सफेद तुलसी, काली तुलसी, मरुता, दवना, कुढेरक, अर्जक और षटपत्र। ये सभी प्रकार की तुलसी रक्त को साफ करती है एवं हृदय रोग का नाश करती है।
तुलसी सुरसा ग्राम्या सुलभा बहुमंजरी;
अपेतराक्षसी महागौरी शूलघ्नी देवदुन्दुभि:।
तुलसी कटुका तिक्ता हुध उष्णाहाहपित्तकृत्;
मरुदनिप्रदो हध तीक्षणाष्ण: पित्तलो लघु:॥
इस देवी की आराधना हर सामान्य एवं रोगी व्यक्ति को करना चाहिए।
(9). नवम सिद्धिदात्री यानि शतावरी :: शतावरी बुद्धि बल एवं वीर्य के लिए उत्तम औषधि है। यह रक्त विकार एवं वात पित्त शोध नाशक और हृदय को बल देने वाली महाऔषधि है।
सिद्धिदात्री का जो मनुष्य नियमपूर्वक सेवन करता है। उसके सभी कष्ट स्वयं ही दूर हो जाते हैं। इससे पीड़ित व्यक्ति को सिद्धिदात्री देवी की आराधना करना चाहिए। इस प्रकार प्रत्येक देवी आयुर्वेद की भाषा में मार्कण्डेय पुराण के अनुसार नौ औषधि के रूप में मनुष्य की प्रत्येक बीमारी को ठीक कर रक्त का संचालन उचित एवं साफ कर मनुष्य को स्वस्थ करती है। अत: मनुष्य को इनकी आराधना एवं सेवन करना चाहिए।
नवरात्रि का वैदिक स्वरुप :: यत्र नारयस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता।
(1). जन्म ग्रहण करती हुई कन्या "शैलपुत्री" कहाती है।
(2). कौमार्य अवस्था तक उसे "ब्रह्मचारिणी" माना जाता है।
(3). विवाह से पूर्व तक चंद्रमा के समान निर्मल होने से वह "चंद्रघंटा" समान है।
(4). नए जीव को जन्म देने के लिए गर्भ धारण करने पर वही स्त्री "कूष्मांडा" कहलाती है।
(5). संतान को जन्म देने के बाद वही स्त्री "स्कन्दमाता" हो जाती है।
(6). संयम व साधना को धारण करने वाली स्त्री को "कात्यायनी" कहते हैं।
(7). अपने संकल्प से पति की अकाल मृत्यु को भी जीत लेने से वह "कालरात्रि" जैसी है।
(8). संसार (कुटुंब ही उसके लिए संसार है) का उपकार करने से "महागौरी" हो जाती है।
(9). मृत्यु से पहले संसार मे अपनी संतान को सिद्धि (समस्त सुख-संपदा) का आशीर्वाद देने वाली "सिद्धिदात्री" हो जाती है।
अर्थ सहित माँ दुर्गा के 108 नाम ::
(1). सती :- अग्नि में जल कर भी जीवित होने वाली,
(2). साध्वी :- आशावादी,
(3). भवप्रीता :- भगवान शिव पर प्रीति रखने वाली,
(4). भवानी :- ब्रह्मांड में निवास करने वाली,
(5). भवमोचनी :- संसारिक बंधनों से मुक्त करने वाली,
(6). आर्या :- देवी,
(7). दुर्गा :- अपराजेय,
(8). जया :- विजयी,
(9). आद्य :- शुरुआत की वास्तविकता,
(10). त्रिनेत्र :- तीन आँखों वाली,
(11). शूलधारिणी :- शूल धारण करने वाली,
(12). पिनाकधारिणी :- शिव का त्रिशूल धारण करने वाली,
(13). चित्रा :- सुरम्य, सुंदर,
(14). चण्डघण्टा :- प्रचण्ड स्वर से घण्टा नाद करने वाली, घंटे की आवाज निकालने वाली,
(15). सुधा :- अमृत की देवी,
(16). मन :- मनन शक्ति,
(17). बुद्धि :- सर्वज्ञाता,
(18). अहंकारा :- अभिमान करने वाली,
(19). चित्तरूपा :- वह जो सोच की अवस्था में है,
(20). चिता :- मृत्युशय्या,
(21). चिति :- चेतना,
(22). सर्वमन्त्रमयी :- सभी मंत्रों का ज्ञान रखने वाली,
(23). सत्ता :- सत-स्वरूपा, जो सब से ऊपर है,
(24). सत्यानंद स्वरूपिणी :- अनन्त आनंद का रूप,
(25). अनन्ता :- जिनके स्वरूप का कहीं अंत नहीं,
(26). भाविनी :- सबको उत्पन्न करने वाली, खूबसूरत औरत,
27). भाव्या :- भावना एवं ध्यान करने योग्य,
(28). भव्या :- कल्याणरूपा, भव्यता के साथ,
(29). अभव्या :- जिससे बढ़कर भव्य कुछ नहीं ,
(30). सदागति :- हमेशा गति मय, मोक्ष दा,
(31). शाम्भवी :- शिवप्रिया, शंभू की पत्नी,
(32). देवमाता :- देवगण की माता,
(33). चिन्ता :- चिन्ता,
(34). रत्नप्रिया :- गहने से प्यार करने वाली,
(35). सर्वविद्या :- ज्ञान का निवास,
(36). दक्षकन्या :- दक्ष की बेटी,
(37). दक्षयज्ञविनाशिनी :- दक्ष के यज्ञ को रोकने वाली,
(38). अपर्णा :- तपस्या के समय पत्ते को भी न खाने वाली,
(39). अनेकवर्णा :- अनेक रंगों वाली,
(40). पाटला :- लाल रंग वाली,
(41). पाटलावती :- गुलाब के फूल,
(42). पट्टाम्बरपरीधाना :- रेशमी वस्त्र पहनने वाली,
(43). कलामंजीरारंजिनी :- पायल को धारण करके प्रसन्न रहने वाली,
(44). अमेय :- जिसकी कोई सीमा नहीं,
(45). विक्रमा :- असीम पराक्रमी,
(46). क्रूरा :- दैत्यों के प्रति कठोर,
(47). सुन्दरी :- सुंदर रूप वाली
(48). सुरसुन्दरी :- अत्यंत सुंदर,
(49). वनदुर्गा :- जंगलों की देवी,
(50). मातंगी :- मतंगा की देवी,
(51). मातंगमुनिपूजिता :- बाबा मतंगा द्वारा पूजनीय,
(52). ब्राह्मी :- भगवान ब्रह्मा की शक्ति,
(53). माहेश्वरी :- प्रभु शिव की शक्ति,
(54). इंद्री :- इंद्र की शक्ति,
(55). कौमारी :- किशोरी,
(56). वैष्णवी :- अजेय,
(57). चामुण्डा :- चंड और मुँड का नाश करने वाली,
(58). वाराही :- वराह पर सवार होने वाली
(59). लक्ष्मी :- सौभाग्य की देवी,
(60). पुरुषाकृति :- वह जो पुरुष धारण कर ले,
(61). विमिलौत्त्कार्शिनी :- आनन्द प्रदान करने वाली,
(62). ज्ञाना :- ज्ञान से भरी हुई,
(63). क्रिया :- हर कार्य में होने वाली,
(64). नित्या :- अनन्त,
(65). बुद्धिदा :- ज्ञान देने वाली,
(66). बहुला :- विभिन्न रूपों वाली,
(67). बहुलप्रेमा :- सर्व प्रिय,
(68. सर्ववाहनवाहना :- सभी वाहन पर विराजमान होने वाली,
(69). निशुम्भशुम्भहननी :- शुम्भ, निशुम्भ का वध करने वाली,
(70). महिषासुरमर्दिनि :- महिषा सुर का वध करने वाली,
(71). मसुकैटभहंत्री :- मधु व कैटभ का नाश करने वाली,
(72). चण्डमुण्ड विनाशिनि :- चंड और मुंड का नाश करने वाली,
(73). सर्वासुरविनाशा :- सभी राक्षसों का नाश करने वाली,
(74). सर्वदानवघातिनी :- संहार के लिए शक्ति रखने वाली,
(75). सर्वशास्त्रमयी :- सभी सिद्धांतों में निपुण,
(76). सत्या :- सच्चाई,
(77). सर्वास्त्रधारिणी :- सभी हथियारों धारण करने वाली,
(78). अनेकशस्त्रहस्ता :- कई हथियार धारण करने वाली,
(79). अनेकास्त्रधारिणी :- अनेक हथियारों को धारण करने वाली,
(80). कुमारी :- सुंदर किशोरी,
(81). एककन्या :- कन्या,
(82). किशोरी :- जवान लड़की,
(83). युवती :- नारी,
(84). यति :- तपस्वी,
(85). अप्रौढा :- जो कभी पुराना ना हो,
(86). प्रौढा :- जो पुराना है,
(87). वृद्धमाता :- शिथिल,
(88). बलप्रदा :- शक्ति देने वाली,
(89). महोदरी :- ब्रह्मांड को संभालने वाली,
(90). मुक्तकेशी :- खुले बाल वाली,
(91). घोररूपा :- एक भयंकर दृष्टिकोण वाली,
(92). महाबला :- अपार शक्ति वाली,
(93). अग्निज्वाला :- मार्मिक आग की तरह,
(94). रौद्रमुखी :- विध्वंसक रुद्र की तरह भयंकर चेहरा,
(95). कालरात्रि :- काले रंग वाली,
(96). तपस्विनी :- तपस्या में लगे हुए,
(97). नारायणी :- भगवान नारायण की विनाशकारी रूप,
(98). भद्रकाली :- काली का भयंकर रूप,
(99). विष्णु माया :- भगवान विष्णु का जादू,
(100). जलोदरी :- ब्रह्मांड में निवास करने वाली,
(101. शिवदूती :- भगवान शिव की राजदूत,
(102. करली :- हिंसक,
(103. अनन्ता :- विनाश रहित,
(104. परमेश्वरी :- प्रथम देवी,
(105). कात्यायनी :- ऋषि कात्यायन द्वारा पूजनीय,
(106). सावित्री :- सूर्य की बेटी,
(107). प्रत्यक्षा :- वास्तविक,
(108). ब्रह्मवादिनी :- वर्तमान में हर जगह वास करने वाली।
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