Monday, June 5, 2023

वृहत्साम

वृहत्साम
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj

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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
वृहत्साम :- वृहत्-साम (संगीत) की विशिष्टता का बोध कराता है। वृहत् दिव्यता का वाचक है। वृहत् परमात्मा और विश्वात्मा दोनों है।
आरण्यक व ब्राह्मण-ग्रन्थों के अनुसार ऋचाओं के आधार पर स्वर प्रधान ऐसा गायन जो स्वर्गलोक, आदित्य, मन, श्रेष्ठत्व और तेजस को स्वर-आलाप में व्यंजित करता हो, समत्व भाव को प्रदर्शित करता हो बृहत्साम कहा जाता है।
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्।
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः॥
गायी जाने वाली श्रुतियों में बृहत्साम और सब छन्दों में गायत्री छन्द मैं हूँ। बारह महीनों में मार्गशीष और छः ऋतुओं में बसन्त में हूँ।
[श्रीमद्भागवत गीता 10.35] 
The Almighty asserted that HE is Brahat Sam among the lyrics-hymns which are heard, Gayatri Chhand (metre, poetic composition). HE is Marg Sheesh (period of November-December) among the 12 months and spring among the 6 seasons.
सामवेद में बृहत्साम नामक एक गीति है, जिसमें परमेश्वर की स्तुति इन्द्र रूप में की गई है और इसे  सर्वश्रेष्ठ-सर्वोत्कृष्ट माना गया। अतः यह परमात्मा की विभूति है। गायत्री को वेदों की जननी कहते हैं, क्योंकि वेद इसी से प्रकट हुए हैं। स्मृतियों और शास्त्रों में गायत्री की बड़ी भारी महिमा है। गायत्री में स्वरूप, प्रार्थना और ध्यान :- इन तीनों में परमात्मा के ही होने से, इससे परमात्म तत्व की प्राप्ति होती है; इसीलिए यह भगवान् की विभूति है। मार्गशीष को वर्षा से अन्न पैदा करने वाला महीना माना गया है। महाभारत-काल  में नव वर्ष मार्गशीष से ही प्रारम्भ होता था। इन विशेषताओं के कारण भगवान् ने इसे अपनी विभूति बताया है। बसन्त के महीने में वृक्ष, लता, पौधों पर नए फूल और पत्ते आते हैं। मौसम सुहावना रहता है। न ज्यादा सर्दी और न ही ज्यादा गर्मी। इन्हीं विशेषताओं से यह भगवान् की विभूति है। 
Sam Ved is considered to be Ultimate poetic-rhythmic composition, which contains Brahat Sam which is among the lyrics-hymns, which are Ultimate to be sung-heard for the purpose of worshiping God. The God has been prayed-worshipped in the form of Indr-the king of heaven, who in fact is an Ultimate form of the God himself. Gayatri is a Mantr which is considered to be the best and curing, among the prayers. Gayatri is the origin of the Veds-the source of all knowledge. It is the Ultimate form of the God, a prayer and tool for meditation. These three are the God's Ultimate form, prayer and meditation & provides-grants the gist of the Almighty. Marg Sheesh is the 10th month of Indian-Hindu calendar, combining the British, English, international calendar with the Hindu-Indian system being 10th month; meaning December. This is the period when normal food grains like wheat, grow without being irrigated specially, followed by rains & presence of sufficient moisture. This is followed by pleasant weather and cosy cold. These qualities make this month as one of Almighty's forms. Spring-Basant is the month, which comes after swear-biting cold, chill. The plants bear new leaves, flowers. Its neither cold nor hot. The weather is romantic-cupid, making it excellent among all the seasons. Therefore, November-December and Spring are the Ultimate forms of weather i.e., the God.
वृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्द्सामहम
मासानां मार्गशीर्षोsहमृतूनां कुसुमाकरः[श्रीमद्भागवत गीता 10.35]
साम अर्थात गायन करने योग्य सामवेद की श्रुतियों में, मैं वृहत्साम और वैदिक छंदों में गायत्री छंद मैं हूँ। बारह महीनों में मार्गशीर्ष (दिसंबर-जनवरी के भाग) और छः ऋतुओं में मैं वसंत हूँ।
साम एवं वृहत्साम  :- ऋग्वेद की जिन ऋचाओं को सामवेद में गाया जाता है, वे मनोहारी गीत हैं, उन्हें साम कहते हैं। इनका गायन एक विशिष्ट परम्परागत वैदिक पद्धति से किया जाता है जो अत्यंत मनोहारी होता है।
साम :: राग युक्त अभिव्यक्ति अर्थात् गीत और काव्य, उद्गीथ-गेयमन्त्र, सु समन्वित स्वर; harmony.
साम वह है जिसमें इन्द्र देव की सर्वेश्वर के रूप में स्तुति की गई है और यह बृहत्साम कहलाता है।
वृहत्साम व मुनि भरद्वाज :- यों तो समस्त ऋषियों ने ही यज्ञ का परम गुह्य ज्ञान जो बुद्धि की गुफ़ा में गुप्त था, उसे जाना, परंतु भरद्वाज ऋषि ने द्युस्थान (स्वर्गलोक) के धाता, सविता, विष्णु और अग्नि देवता से ही बृहत्साम का ज्ञान प्राप्त किया। यह बात भरद्वाज ऋषि की श्रेष्ठता और विशेषता दोनों दर्शाती है। उन्होंने आत्मसात किया था बृहत्साम।[ऋग्वेद दसवाँ मण्डल]
सामवेद के रथन्तर आदि विभिन्न सामों में वृहत्साम (बृहत् नामक साम) प्रधान होने के कारण सबमें श्रेष्ठ है जिसमें परमेश्वर की इंद्र रूप में स्तुति की गयी है। अतिरात्र याग में यही पृष्ठ-स्त्रोत (मुख्य) है। इसी कारण भगवान् श्री कृष्ण ने यहाँ वृहत्साम को अपना स्वरुप बताया है।
भरद्वाज ने सम्पूर्ण वेदों के अध्ययन का यत्न किया। दृढ़ इच्छा-शक्ति और कठोर तपस्या से देव राज इन्द्र को प्रसन्न किया। भरद्वाज ने प्रसन्न हुए इन्द्र से अध्ययन हेतु सौ वर्ष की आयु माँगी। भरद्वाज अध्ययन करते रहे। सौ वर्ष पूरे हो गये। अध्ययन की लगन से प्रसन्न होकर दुबारा इन्द्र ने फिर वर माँगने को कहा, तो भरद्वाज ने पुन: सौ वर्ष अध्ययन के लिये और माँगा। देव राज इन्द्र ने सौ वर्ष प्रदान किये। इस प्रकार अध्ययन और वरदान का क्रम चलता रहा। भरद्वाज ने तीन सौ वर्षों दिव्य वर्षों तक अध्ययन किया।[तैत्तिरीय व ब्राह्मण-ग्रन्थ]
इसके बाद पुन: देव राज इन्द्र ने उपस्थित होकर कहा, "हे भरद्वाज! यदि मैं तुम्हें सौ वर्ष और दे दूँ तो तुम उनसे क्या करोगे"? भारद्वाज ने सरलता से उत्तर दिया, "मैं वेदों का अध्ययन करूँगा"। देव राज इन्द्र ने तत्काल बालू के तीन पहाड़ खड़े कर दिये, फिर उनमें से एक मुट्ठी रेत हाथों में लेकर कहा :- 
भरद्वाज, समझो ये तीन वेद हैं और तुम्हारा तीन सौ वर्षों का अध्ययन यह मुट्ठी भर रेत है। वेद अनन्त हैं। तुमने आयु के तीन सौ वर्षों में जितना जाना है, उससे न जाना हुआ अत्यधिक है।
अत: मेरी बात पर ध्यान दो, "अग्नि है सब विद्याओं का स्वरूप। अत: अग्नि को ही जानो। उसे जान लेने पर सब विद्याओं का ज्ञान स्वत: हो जायगा"।
इसके बाद देव राज इन्द्र ने भरद्वाज को सावित्र्य अग्नि-विद्या का विधिवत ज्ञान कराया। भरद्वाज ने उस अग्नि को जानकर उससे अमृत-तत्त्व प्राप्त किया और स्वर्ग लोक में जाकर आदित्य से सायुज्य प्राप्त किया। इन्द्र द्वारा अग्नि-तत्त्व का साक्षात्कार किया, ज्ञान से तादात्म्य किया और तन्मय होकर रचनाएँ कीं। यही रचनाएँ वृहत्साम कहलाईं।
ऋषि भरद्वाज बृहत्साम-गायक थे। वे चार प्रमुख साम-गायकों, गौतम, वामदेव, भरद्वाज और कश्यप में गिने जाते हैं।
संहिताओं में ऋषि भरद्वाज के इस बृहत्साम की बड़ी महिमा बतायी गयी है। काठक-संहिता में तथा ऐतरेय-ब्राह्मण में कहा गया है कि इस बृहत्साम के गायन से शासक सम्पन्न होता है तथा ओज, तेज़ और वीर्य बढ़ता है। राजसूय यज्ञ समृद्ध होता है। राष्ट्र और दृढ़ होता है।
अग्नि को देखो, यह मरण धर्मा मानवों में मौजूद अमर ज्योति है। यह अग्नि विश्व कृष्टि है अर्थात् सर्वमनुष्य रूप है। यह अग्नि सब कर्मों में प्रवीणतम ऋषि है, जो मानव में रहती है, उसे प्रेरित करती है ऊपर उठने के लिये, अत: पहचानो।
स्वयं को आत्म को जानें स्वयं के अन्दर जो आत्मशक्ति, इच्छा शक्ति, दृड़ता, कर्मठता रूपी अग्नि है वही विश्वकृष्टि है वही प्रथम अग्नि है, उसे जानना चाहिए।[भरद्वाज]
मानवी अग्नि जागेगी। विश्वकृष्टि को जब प्रज्ज्वलित करेंगे तो उसे धारण करने के लिये साहस और बल की आवश्यकता होगी। इसके लिये आवश्यक है कि आप सच्चाई पर दृढ़ रहें।
सत्य व दृढ़ता पर स्थिर रहने से अंतर की आत्मशक्ति प्रज्वलित होती है। 
हम झुकें नहीं। हम सामर्थ्यवान के आगे भी न झुकें। दृढ़ व्यक्ति के सामने भी नहीं झुकें। क्रूर, दुष्ट, हिंसक, दस्यु के आगे भी हमारा सिर झुके नहीं।[भरद्वाज]
सत्य पर दृढ रहने से इतनी आत्मशक्ति प्राप्त होती है एवं आप किसी भी स्थिति में अन्याय के आगे न झुकने की शक्ति प्राप्त कर पाते हैं।
जीभ से ऐसी वाणी बोलनी चाहिये कि सुनने वाले बुद्धिमान बनें।[भरद्वाज]
सदैव ज्ञान के प्रसार के लिए समर्पित रहना चाहिएम। इसके लिए उत्तम वाणी, सत्य वचन एवं सदेच्छा युत व्यवहार रहना चाहिए।
हमारी विद्या ऐसी हो, जो कपटी दुष्टों का सफाया करे, युद्धों में संरक्षण दे, इच्छित धनों का प्राप्त कराये और हमारी बुद्धियों को निन्दित मार्ग से रोके।
विद्या व ज्ञान का उपयोग सदा समाज के सदुपयोग में होना चाहिए, आवश्यक श्री, वैभव, बल की प्राप्ति, दुष्टजनों के विरोध, अज्ञानता के निरोध हित होना चाहिए।[भरद्वाज]
यह सामवेद के उत्तरार्चिक में अध्याय 3 (ऋग्वेद :- मण्डल 1, अनुवाक 10, सूक्त 52) के अंतर्गत है। इसके देवता इंद्र, दृष्टा ऋषि शयु बार्हस्पत्य हैं, अतिरात्र याग में यह एक पृष्ठ स्त्रोत (मूल) है।

बृहत्साम ::
त्वमिदधि हवामहे सातौ वाजस्य कारव:
त्वां वृत्रेष्विन्द्र सत्पतिं नरस्त्त्वां काष्ठास्वर्वतः॥
हे इंद्र रुप परमेश्वर! हम स्तोता अन्न वृद्धि के लिए आपका ही आह्वान करते हैं। विवेकशील मनुष्य भी शत्रुओं की शत्रुता से आक्रान्त होने पर, जब सब प्रयत्न करके भी हारने लगते हैं तो आपको ही पुकारते हैं।
Hey Almighty, in the form of Indr Dev! We invoke you for the growth of food grains. When the prudent people start loosing at the hands of the enemies bent upon enmity, they call you.
स त्वं नश्चित्र वज्रहस्त धृष्णुया महस्तवानो अद्रिव:
गामश्वं रथ्यमिन्द्र् सं किर सत्रा वाजं न जिग्युषे॥
हे अतुल पराक्रमी! हाथ में विचित्र वज्र धारण करने वाले, स्वयं के तेज से प्रकाशित इंद्र रूप परमेश्वर! आप हमें गोधन, रथ योग्य कुशल अश्व, अन्न तथा ऐश्वर्य प्रदान करें।
Hey mighty possessing infinite power! You wield Vajr in your hand and shine with your own aura as Indr Dev. Grant us cows, skilled horses to drive the charoite, food grains and grandeur.
  
भारतवर्ष आर्यों का मूल निवास है। भगवान् श्री हरी विष्णु के वाहन गरुड़ जी जब उन्हें आरूढ़ कर चलते हैं तो उनके पंखों से बृहत्साम की ऋचायें उत्पन्न होती हैं। भगवान् श्री हरी विष्णु का वाहन सुपर्ण साम का भी वाहन है और उसके दोनों पक्षों से क्रमशः रथन्तर साम और बृहत्साम की ध्वनि निकलती चलती है। 
वृहत् विष्णु या सूर्य के साम को एक पृथक सत्ता देता है। यह वृहत्साम सूर्य का साम है और यह सबसे बड़ा साम है। सूर्य का मूल रूप है द्यु-मण्डल का सविता। यह सविता ही द्वितीय मण्डल अन्तरिक्ष में द्वादश आदित्य और सोम बनकर अवतीर्ण है तथा पार्थिव मण्डल में अग्नि बनकर। अतः सविता का क्रियात्मक साम द्यु (स्वर) अन्तरिक्ष (भुवः) पृथ्वी (भू:) तक व्याप्त है। इसी से इसके साम को वृहत्साम कहते हैं।
सविता ही सगुण ब्रह्म का प्रथम व्यक्त रूप है। उसी का एक विकास है ‘विष्णु’ संज्ञा वाला आदित्य। बाद में विष्णु का रूप विकसित होते- होते इतना व्यापक हो गया कि सोम, अग्नि, शक्ति का प्रतिनिधि आदि देवता बन गया। इस प्रकार सविता या आदित्य से जुड़ा वृहत्साम विष्णु का भी वृहत्साम बन गया।
वृहत्साम एक प्रकार का मन्त्र गान है, जिसको विशेष ढंग से गाया जाता है। यह वैदिक साहित्य का कोई अंश नहीं परन्तु (वैदिक) गायन का ही प्रकार भेद।
अतः ‘बृहत्’ का साम वह साम है जो सारे सामों का मूल साम है, जो प्रथम सगुण ब्रह्म सहस्रशीर्षा (पुरुष सूक्त ऋग्वेद जो बाद में अनन्तशाही नारायण के रूप में कल्पित किये गये) का साम है और यही एक अन्य वैदिक परम्परा के अनुसार द्यु-मण्डल में उद्भूत प्रथम सगुण परमात्मा विग्रह सविता का साम है।
यही अन्तरिक्ष और धरती में आदित्य, साम और अग्नि के रूप में विभाजित होकर क्रिया विस्तार कर रहा है अर्थात् सृष्टि-प्रसव और सृष्टि-विकास में अभिव्यक्त होती हुई भगवद्विभूति और लीला का साम ही वृहत्साम है।
भगवान की सारी अवतार कथाएँ एवं विभूतियोग को व्यक्त करनेवाला काव्य साहित्य और शिल्प उस वृहत्साम की अभिव्यक्ति है।
वृहद् शब्द सारी सृष्टि लीला और अवतार लीला के मध्य स्थित दिव्य तत्त्व (देवत्व, divinity) का वाचक है। जिस प्रकार अन्तरिक्ष (भुव:) और पृथ्वी (भू:) के सारे देव मण्डल का मूल है द्यु (स्वः) के सविता में, उसी तरह सारे देवताओं के सामों के मूल में है यह सविता का या लोकप्रचलित शब्दावली में सूर्य का वृहत्साम।
वृहत्साम का लोक व्यवहार रूप में अर्थ :- वृहद् शब्द समूह का भी वाचक है। बृहत्पति (बृहस्पति), प्रजापति; गणपति आदि परमात्मा वाचक शब्दों में वृहद्, प्रजा, गण आदि समानधर्मी शब्द हैं और इनका सरलार्थ ठहरता है जन समूह या लोक। अतः वृहत्साम का एक अर्थ लोक साम भी हुआ। वैसे भी विश्व शब्द का अर्थ विष्णु भी होता है। ॐ प्रथम नाम है तो विश्व द्वितीय नाम। विश्व अर्थात् लोक। इस प्रकार वृहत्साम की परिधि में लोक (समूह गण प्रजा वृहद) में प्रचलित तथा लोक द्वारा अभिव्यक्त समस्त दिव्य गीत परम्पराएँ तथा दिव्य कथा परम्पराएँ आ जाती हैं।
सनातन काव्य और आदिम संगीत ही व्यक्तिकृत नहीं, समूह कृत अर्थात् अपौरुषेय माना जाता है। परन्तु यह दिव्य भी हो सकता है और अदिव्य भी। अदिव्य भाग वृहत्साम नहीं हो सकता। अतः दिव्य सविता का साम ही वृहत्साम है।
 
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)
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