Friday, March 19, 2021

ANGER क्रोध

ANGER क्रोध
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
क्रोधः प्राणहरः शत्रु: 
क्रोधो मित्रमुखो रिपुः। 
क्रोधो हि असि महातीक्षण:सर्वे क्रोधो अपकर्षति॥
क्रोध एक ऐसा शत्रु है जो मनुष्य स्वयं ही उत्पन्न करता है, इससे मित्र भी शत्रु बन जाते हैं, क्रोध में मनुष्य दूसरे के ही नहीं अपने भी प्राण संकट में डाल देता है, क्योंकि क्रोधी व्यक्ति की वाणी एक अदृश्य तेज धार वाली तलवार की तरह है जो सारे संबंध क्षण मात्र में ही समाप्त कर देता है जो कि फिर सही तरीके से जुड़ भी नहीं पाते। अतः थोडी सी सहनशीलता से आप सभी से अपने संबंधों को मधुर बना सकते हैं। अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखें, सुखी, स्वस्थ एवम् प्रसन्न रहेंगे। 
Anger is the worst enemy of a person, since it can  make the friend into a sworn enemy. It leads the life of a person into trouble-danger. 
One must control anger, not to repent later. Any act done in a fit of anger, may put one  in trouble for the whole life. Life is spoiled. Always avoid such situations. Its better if one avoids anger. Anger is not bad if it is meant for the improvement-betterment of the depraved, corrupt, sinner, our children, society, self-others.
क्रोध एक ऐसी प्रवृती है, जो लगभग हर मनुष्य में किसी न किसी रूप और सीमा में अवश्य होती है। गुस्सा क्यों आता है ? सभी जानते हैं और दूसरों को उपदेश देते हैं कि भाई गुस्सा मत करो और खुद गुस्सा करते हैं। पर उपदेश कुशल बहुतेरे। बिना विचारे जो करे सो पीछे पछताए काज बिगारे आपनों जग में होत हँसाय।गुस्सा आये तो उस जगह से हट जाओ। मुँह बंद कर लो। इसे पी जाओ। तकरार-विवाद-झगड़ा-बबाल मत करो।  उस बात-परिस्थिति-व्यक्ति-घटना का विचार करो, जिसने गुस्सा-रोष दिलाया। विवेचना करो और देखो कि इससे कैसे बचा जा सकता है। क्रोध में मनुष्य हत्या जैसे जघन्य अपराध कर बैठता है और फिर पछताता है। निरपराध को क्रोध में आकर कभी दंड मत दो। जब हमारे अहम को ठेस लगती है, अकारण अपमान होता है, हमारी बात नहीं मानी जाती, डाँटा-फटकारा-धमकाया जाता है, हमारी सम्पत्ति-अधिकार से वंचित किया जाता है, धोखा दिया जाता है, तो स्वाभाविक प्रतिक्रिया होती ही है। वो समझदार है जो मौंके की नजाकत को समझकर खून का घूंठ पी जाता है और बदले की भावना को मन में पनपने ही नहीं देता। डर, चिंता, दुःख, ईर्षा, असफलता, आक्रोश, अफसोस, विफलता, शर्म, अपराध बोध-भावना, शक्तिहीनता, घृणा, परिस्थिति, अनुकूलता का अभाव आदि गुस्से के कारण है। संतोष, धर्म, भाईचारा, समझदारी, संतुष्टि, लगाव, गुस्से को कम-काबु करते हैं। अक्सर होता ये है कि गुस्सा करनेवाला अपना ही खून जलाता है-नुकसान करता है। सर्प, ब्राह्मण में गुस्सा नाक तक भरा होता है। सोते शेर, साँप और ब्राह्मण को कभी मत जगाओ-छेड़ो।
मनुष्य को कभी खुद पर, तो कभी नियति पर, तो कभी दूसरों पर गुस्सा आता है।
क्रोध में कभी आँखों से अंगारे तो कभी अश्रु ढलने लगते हैं।
भगवान्  शिव को क्रोध आता है तो उनकी तीसरी आँख खुलती है और कामदेव भस्म हो जाते हैं और समस्त श्रष्टि डगमगाने लगती है।
दुर्वासा शिव के अवतार हैं और वो क्रोधित होने पर श्राप देने में कतई देर नहीं करते।
आदमी औलाद पर गुस्सा करता है, तो उसमें प्यार-सुधार-उन्नति की भावना ही होती है।
अत्याचारी, पापी, अपराधी, नीच पर गुस्से में घृणा, घिन, नफ़रत ज्यादा होती है।
रोष में साम्य की स्थिति नष्ट हो जाती है।
भगवान श्री कृष्ण (नारायण) ने अपने प्रतिरूप अर्जुन (नर) पर क्रोध व दया वश, भीष्म पितामह पर प्रहार हेतु रथ का पहिया उठा लिया था, यद्पि युद्ध से पहले उन्होंने हथियार न उठाने की बात कही थी। इससे उन्होंने संदेश दिया कि अवसर-आवश्यकता के अनुरूप मनुष्य को अपने निर्णय-प्रण-प्रतिज्ञा-निश्चय में फेर-बदल कर लेना चाहिये। प्रतिज्ञा मनुष्य के लिये है न कि मनुष्य प्रतिज्ञा के लिये। ये शिक्षा भीष्म के लिए थी। अर्जुन को चेताया  कि शत्रु पक्ष में खड़ा होने पर कोई भी बध्य हो जाता है। उस पर दया-ममता-इज्जत-प्यार कैसा !? अर्जुन को शिक्षा थी कि हथियार उठाओ और अचूक वार करो।
नरसिंह भगवान ने प्रह्लाद पर दया दृष्टि रखते हुए हिरण्य कश्यप को अपनी जाँघों पर लिटा लिया और क्रोध करते हुए उसके पेट को चीर दिया। समस्त ब्रह्माण्ड निस्तब्ध हो गया और भगवान शिव ने बड़ी मुश्किल से उनके क्रोध को शांत किया।
नन्द के द्वारा किये गये अपमान से चाणक्य क्रोधित हो गये और नन्द वंश का सर्व नाश कर दिया।
हिरण्य कश्यप प्रह्लाद से क्रोधित हो गया और उसने अपने पुत्र को मरवाने का हर सम्भव प्रयास किया।
भगवान राम समुद्र से रुष्ट हो गये और उन्होंने अपने धनुष पर ब्रह्मास्त्र का संसाधन किया। समुद्र के माफी मांगने पर, उन्होंने वो वाण उस क्षेत्र पर छोड़ा जहाँ दस्यु, दुराचारी, पापी लोगों का निवास था (-वर्त्तमान थार-सहारा मरुस्थल)।
लक्ष्मण ने क्रुद्ध होकर सूर्पनखा के नाक-कान काट लिये, तो उसने क्रोध में आकर रावण से दुहाई दी। रावण सीता जी को उठा कर ले गया और नतीजतन वो मारा गया।
कपिल मुनि बाल्य काल में ही सन्यास लेकर तपस्या करने लगे। उनपर कपिला नामक चिड़िया ने बीट कर दी तो, उन्होंने क्रुद्ध होकर उसे देखा और वो तुरन्त भस्म हो गई।ज्ञान प्राप्त होने पर उन्होंने विवाह किया और संतान उत्पत्ति के बाद पुनः तपस्या आरम्भ की। 10,000 सगर पुत्र यज्ञ का घोड़ा ढूँढ़ते हुए उनके आश्रम में आये और उनका अपमान किया। कपिल मुनि ने क्रोधित होकर उन सब को भस्म कर दिया।
अश्वथामा ने क्रोध में पाण्डवों के वंशनाश का प्रयास किया और उनके सभी पुत्रों का वधकर दिया, उसने अभिमन्यु पुत्र के ऊपर गर्भ में ब्रह्मास्त्र चलाया नतीजतन उसके मांथे से मणि निकाल ली गई, और वो शापित हो गया।3,000 साल तक रक्त-पीप के स्त्राव के साथ पृथ्वी पर भटकने के लिए।
क्रोध :: Anger, fury, rage, resentment, wrath. 
आयुर्वेद के अनुसार क्रोध विभिन्न प्रकार के रोगों का जन्मदाता है। अतः कल्याण कामी मनुष्य को क्रोध से बचना चाहिये।
प्रजामिमामात्मयोनेर्ब्रह्मणः सूजतः किल।
अकरोदसुरो विनं कैटभो नाम दर्पितः॥
तस्य क्रुद्धस्य वै वक्त्राद्ब्रह्मणस्तेजसो निधेः।
क्रोधो विग्रहवान् भूत्वा निपपातातिदारुणः
स तं ददाह गर्जन्तमन्तकाभं महाबलम्। 
ततोऽसुरं घातयित्वा तत्तेजोऽवर्धताद्भुतम्॥ 
ततो विषादो देवानामभवत्तं निरीक्ष्य वै। 
विषादजननत्वाच्य विषमित्यभिधीयते॥ 
ततः सृष्ट्वा प्रजाः शेर्ष तदा तं क्रोधमीश्वरः 
विन्यस्तवान् स भूतेषु स्थावरेषु चरेषु च।
जब ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना करनी प्रारम्भ की तो कैटभ नामक दैत्य ने अभिमानवश विघ्न पैदा करना शुरू कर दिया। तब तेज पुंज ब्रह्मा जी के क्रुद्ध होने से उनके मुख से क्रोध शरीर धारण करके अतिदारुण रूप होकर गिरा। इस क्रोध रूपी पुरुष ने यम के समान बलवान् और विकराल गर्जन करते हुए उस दैत्य का वध कर दिया। उसके उपरान्त वह क्रोध विचित्र रूप से बढ़ने लगा। उसको देखकर देवताओं में विषाद उत्पन्न हुआ। विषाद उत्पन्न करनेके कारण क्रोध को विष कहते हैं। सृष्टि रचना के उपरान्त ब्रह्मा जी ने क्रोध को स्थावर एवं जंगम प्राणियों में स्थित कर दिया।[सुश्रुतसंहिता, कल्पस्थान 3.18.22]
 "क्रोधः पराभिद्रोहलक्षणः" [सुश्रुत संहिता, सूत्र स्थान 1.25]
ईष्यांशोकभयक्रोधमानद्वेषादयश्च ये। 
मनोविकारास्तेऽप्युक्ताः सर्वे प्रज्ञापराधजाः॥
ईर्ष्या, शोक, भय, क्रोध, मान, द्वेष वातादि दोष जनित नहीं है, अपितु ये मन के विकार हैं। ये सभी बुद्धि के दोष से उत्पन्न होते हैं।[चरक संहिता, 7.52]
भयशोकक्रोधलोभमोहमानेामिथ्यादर्शनादि मानसोमिध्यायोगः।  
क्रोध के अतिरिक्त भय, शोक, क्रोध, लोभ, मोह, मान, ईर्ष्या, मिथ्या दर्शन आदि भी मन के मिथ्या योग के लक्षण हैं।[चरक संहिता 11.39]
मानसास्तु क्रोधशोकभयहर्षविषादेयाभ्यसूया 
दैन्यमात्सर्यकामलोभप्रभृतय इच्छाद्वेषभेदैर्भवनि। 
मानस रोग क्रोध, शोक, भय, हर्ष, विषाद, ईष्या आदि से उत्पन्न होते हैं।[सुश्रुत संहिता 1.25]  
आयुर्वेद में क्रोध को विभिन्न रोगों का कारक माना गया है, यथा :-
(1). रक्त पित्त :- इसकी उत्पत्ति में क्रोध, शोक, भय, आयास कारण हैं।
क्रोधशोकभयायासविरुद्धानातपानलान् । 
कट्वम्ललवणक्षारतीक्ष्णोष्णातिविदाहिनः॥
नित्यमभ्यसतो दुष्टो रसः पित्तं प्रकोपयेत्।
विदग्धं स्वगुणैः पित्तं विदहत्याशु शोणितम्॥
ततः प्रवर्तते रक्तमूर्ध्वं चाधो द्विधापि वा।
क्रोध, शोक, भय, परिश्रम, विरुद्ध भोजन, धूप, अग्नि, कटु, अम्ल, लवण, क्षार, तीक्ष्ण, उष्ण, अतिविदाहि द्रव्यों को नित्य प्रति सेवन करने से दूषित हुआ रस पित्त को प्रकुपित करता है। फिर विदग्ध हुआ पित्त अपने तीक्ष्ण, उष्ण आदि गुणों से रक्त को शीघ्र ही विदग्ध बना देता है। इससे रक्त ऊपर (मुख, नासा आदि) तथा नीचे के मार्ग (गुदा, मूत्र मार्ग) से अथवा दोनों मार्ग ने प्रवृत्त होता है।[सुश्रुत संहिता, उत्तर तन्त्र 45. 3-5]
(2). शिरोरोग :- अति क्रोध शिरोरोग की उत्पचिवा कारण है।
प्रजायरालिस्वप्नाम्भुशीत संक्यानदोचे शिरसि प्रवृद्धी प्रतिश्यायमुदीरयेत्तु। 
वेगों को रोकने से, अजीर्ण से, रज (धूलि) के सेवन से, अधिक बोलने से, अधिक क्रोध करने से, ऋतुओं के विषम होने से, शिर में वेदना होने से, रात्रि में अधिक जगने से, दिन में अधिक सोने से, शीतल जल पीने से, ओस लगने से, अधिक मैथुन करने से अधिक रोने से, अधिक धुआँ लगने से, जब सिर में कफ आदि दोष अधिक एकत्र हो जाते हैं, तो इन उपर्युक्त कारणों से शिर प्रदेश में वायु बढ़ जाती है और शिरो वेदना कारक प्रतिश्याय रोग उत्पन्न होता है।[चरक संहिता, चिकित्सा स्थान 2.104-105]
(3). अपस्मार :- इसके विभिन्न कारणों में से एक कारण क्रोध भी है।
चिन्ताकामभयक्रोधशोकोद्वेगादिभिस्तथा। 
मनस्यभिहते नृणामपस्मारः प्रवर्तते॥
चिन्ता, काम, भय, क्रोध, शोक और उद्वेग आदिके कारण मन दोषोंसे विशेषरूपसे दूषित हो जाता है, तो अपस्मार रोग की उत्पत्ति होती है।[चरक संहिता, चिकित्सा 10.5]
तथा कामभयोद्वेगक्रोधशोकादिभिर्भृशम्।
चेतस्यभिहते पुंसामपस्मारोऽभिजायते॥
काम, शोक, भय, उद्वेग, क्रोध आदि से मन पर बहुत आघात होने पर पुरुषों में अपस्मार उत्पन्न होता है। इनकी उत्पत्ति में भी क्रोध एक कारण होता है।[सुश्रुत संहिता, उत्तरतन्त्र 61.6]
(4).  पैत्तिक मदात्ययकी :- 
तीक्ष्णोष्णं मद्यमम्लं च योऽतिमात्रं निषेवत। 
अम्लोष्णतीक्ष्णभोजी च क्रोधनोऽग्न्यातप्रियः॥ 
तस्योपजायते पित्ताद्विशेषेण मदात्ययः।
जो व्यक्ति अम्ल रस, उष्ण एवं तीक्ष्ण आहार-दूयोका सेवन करता है, क्रोधी है, अग्नि और धूप का अधिक सेवन करता है तो उसे विशेषकर पित्तदोष जन्य मदात्यय रोग उत्पन्न होता है। ऐसे व्यक्तियों में प्यास, दाह, ज्वर, पसीना अधिक आना, मूर्छा, अतिसार, सिर में चक्कर आना आदि लक्षण होते हैं।[चरक संहिता, चिकित्सा प्रकरण 24.92]
(5). वात रक्त के कारणों में क्रोध :-
विरुद्धाध्यशनक्रोधदिवास्वप्नप्रजागरैः। 
प्रायशः सुकुमाराणां मिष्टानसुखभोजिनाम्॥ 
अचङ्क्रमणशीलानां कुष्यते वातशोणितम्।
विरुद्ध भोजन (जैसे मूली और दूध का सेवन, सम मात्रा में घी और मधु का सेवन इत्यादि), अधिक भोजन, क्रोध, दिन में शयन, रात्रि जागरण; इन सब कारणों से प्रायः जो सुकुमार व्यक्ति है तथा जो मधुर आहार के सुख का अनुभव करने वाले हैं और वे व्यायाम या घूमने-फिरने से दूर रहते हैं तो ऐसे व्यक्तियों में प्रायः वात और रक्त एक साथ कुपित हो जाते हैं।[चरक संहिता, चिकित्सा प्रकरण 2917]
(6). अरोचक या भोजन के प्रति अरुचि ::
वातादिभिः शोकभयातिलोभ-क्रोधैर्मनोष्नाशनगन्धरूपैः
स्युः परिहृष्टदन्तः कयायवक्रश्च मतोऽनिलेन।
प्रकुपित वात, पित्त, कफ; इन दोषों से तथा शोक, भय, अधिक लोभ, क्रोध तथा मन का विनाश करने वाले भोजन, गन्ध और रूप को देखने से अरोचक रोग की उत्पत्ति होती है।अरोचक या भोजन के प्रति अरुचि के कारणों में क्रोध भी एक कारण है।[चरक संहिता, चिकित्सा 26.124]
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते। 
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥2.62॥ 
क्रोधाद्‍भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः। 
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥2.63॥ 
विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से अत्यन्त मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञान शक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है।[श्रीमद् भगवद्गीता 2.62-63]
One who thinks of the worldly comforts, passions, sensualities, develop a taste attachment for them creating desires. Hindrances-distraction in their attainment causes anger-fury, resulting in loss of prudence, understanding, thinking, rationality & developing stupidity-illusion, generating confusion-mix up in the memory-bewilderment, leading to loss of intelligence, knowledge-enlightenment, learning. Loss of intelligence, wisdom, prudence degrades a person leading to his down fall. 
परमात्म चिंतन के अभाव मनुष्य विषयों का चिंतन करने लगता है। विषयों का चिंतन उसे राग, आसक्ति, प्रियता, वासना, सुख-आराम, घर-संसार में उलझा देता है। यह स्वभाविक है कि सांसारिक वस्तुओं का चिंत्तन लालसा-कामना पैदा करेगा। अब अगर कामना पूर्ति होती रहे तो लोभ-लालच पैदा हो जायेगा, भूख बढ़ती ही जायेगी। इन सब में अगर कोई कमी रह गई तो क्रोध होगा ही होगा। मनुष्य में वर्ण, गुण, अच्छाई, योग्यता, आश्रम, धन-सम्पत्ति, सत्ता, आदर, सम्मान की इच्छा की लोभ-लालच की उत्पत्ति करती है और अभिमान-अहं भी पैदा करते है। इनकी पूर्ति न होने पर भी क्रोध उत्पन्न होता है। 
क्रोध से सम्मोहन और मूढ़ता-पशुवृति उत्पन्न होती है। काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह-ममता सम्मोहन के कारण हैं। विवेक के अभाव में काम के वशीभूत व्यक्ति जघन्य पाप कर बैठता है। क्रोधावस्था में वह किसी का भी अपमान-तिरस्कार कर देता है। लोभ-लालच, सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म, सही-गलत को नहीं देखता। ममता समभाव को नष्ट कर पक्षपात उत्पन्न कर देती है। क्रोध से उत्पन्न हुई मूढ़ावस्था में सोचने-समझने की शक्ति, याददाश्त-विवेक नष्ट हो जाता है। यही वह अवस्था है जब व्यक्ति अपने पतन को प्राप्त होता है। जो प्रभु-भक्ति परायण है, उसको यह सब कुछ सहना-देखना नहीं पड़ता।
कामना रजोगुणी व सम्मोह तमोगुणी वृति है। क्रोध इन दोनों के बीच की वृति है। बात कोई भी हो, यदि क्रोध आया तो उसके पीछे राग अवश्य होना चाहिये। 
In the absence of devotion to God, one start thinking of worldly comforts, passions, sensualities, sexuality, attainments, goal targets, ambitions. It indulges him into the desires for a variety of achievements-attainments, over expectations. Till one continues getting success, his greed will continue growing, leading to loss of contentment-satisfaction. Any obstacle-hindrance, will result in anger, fury, distraction. Man expect praise for his higher caste, position-status, achievements, respect-honour, which too grows greed for such things-titles. It results in ego as well. Failure to get appreciation, praise, flattery annoys him. The pessimism, disappointment, lack of hope-opportunities results in anger. 
Anger-fury generate stupidity, foolishness, idiocy, irrationality, loss of wisdom, animal instincts. There is a loss of prudence-capability to judge, analyse-think, meditate and one becomes victim of his desires, ventures, ambitions. He is prone to commit any crime-sin. He fail to realise his folly. He is prone to insult-quarrel, disdain (disrespect, censure, reproach, scolding) any one. Greed make him blind to the truth-reality & falsehood, right-wrong, virtues-sin. This is the state, when he is sure to face down fall. How ever, one who is devoted to God, remain free from all such troubles-tensions.
Desires lead one to repeated cycles of birth and rebirth as a human being. Illusion-allurements will make him obtain punishment as a resident of hells and on being released from them, he will take birth in low species like insects-animals. Anger will make him vibrate-swing between the two. He will have to take birth as a human being as well, to make further efforts for renunciation.
The Almighty provides numerous opportunities to one to improve-correct him self.
One must grow materially & spiritually following virtuous, honest, pious means-track. Progress is not bad, but greed-hunger brings turmoil. Over expectations, undue desires, demands lead to dissatisfaction, anger, guilt, crime, sin and then hell leading to rebirth as insects.
अभ्यासाद्धार्यते विद्या कुलं शीलेन धार्यते।
गुणेन ज्ञायते त्वार्य: कोपो नेत्रेण गम्यते॥5.8॥
अर्जित विद्या अभ्यास से और घर की इज्जत अच्छे व्यवहार से सुरक्षित रहती है। अच्छे गुणों से इज्जतदार आदमी को मान मिलता है। किसी भी व्यक्ति का गुस्सा उसकी आँखों में दिखता है।[चाणक्य नीति 5.8] 
Learning is retained through regular practice; family prestige is maintained by good behaviour; a respectable person is recognised by his excellent qualities and anger is seen in the eyes.
Repeated practice help in retention-sustaining knowledge. Virtues, high character, moral and values embedded-protected, leads to good name to the family-ancestors, possession of characters-ability leads to excellence and the eyes reveals the anger. 
One has to continuously stress-insist upon the need for goodness, wisdom, learning; since only this can keep the progeny disciplined, under control preventing him from acquiring evils.
विद्या ददाति विनयम्।
Education makes one polite, well behaved, disciplined, respected in the society and helps in improving social status.

One is honoured on the basis of his ability, learning, wisdom, politeness, not the wealth. In fact one is passing through the phase, period when one is recognized by the possessions he has, not the qualification, knowledge, enlightenment. One may argue that highly qualified and learned people are bowing in front of the rich and mighty. This is Kali Yug, but what has been stated here and before is equally true. Learning, enlightenment, wisdom is to keep the anger under control, since it is reflected from the eyes helping the other person to see, find out what  is going inside the brain. This too needs a lot of practice.
The ministers, billionaires, industrialists, celebrities are respected, appreciated (मुँह पर गुण गान किया जाता है, अन्यथा सब जानते हैं कि वो कितने पानी में हैं) just to win their favour, otherwise no one will ever regard them. They have accumulated most of their possessions through corruption.
 
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)