Sunday, January 29, 2017

XXX MANES-PITRE (3) पितृ

MANES-PITRE पितृ
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
dharmvidya.wordpress.com hindutv.wordpress.com santoshhastrekhashastr.wordpress.com  bhagwatkathamrat.wordpress.com jagatgurusantosh.wordpress.com  
santoshkipathshala.blogspot.com santoshsuvichar.blogspot.com  santoshkathasagar.blogspot.com bhartiyshiksha.blogspot.com  santoshhindukosh.blogspot.com
पितृ का अर्थ है पिता, किन्तु पितर शब्द जो दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है :-
शरीर के दाह के उपरान्त मृतात्मा को वायव्य शरीर प्राप्त होता है और वह मनुष्यों को एकत्र करने वाले यम एवं पितरों के साथ हो लेता है। मृतात्मा पितृ लोक में चला जाता है।
यम को मध्यम लोक में रहने वाला देव कहा गया है। [निरुक्त]
पिता के पिता एवं पितामह पृथ्वी एवं स्वर्ग के बृहत् मध्यम लोक में रहते हैं। [अथर्ववेद]
तीन लोक हैं; उनमें से दो स्वर्ग एवं पृथ्वी सविता की गोद में हैं, तीसरा यमलोक-मध्यम लोक है, जहाँ मृतात्मा एकत्र होते हैं। [ऋग्वेद]
पितर भुलोक एवं अंतरिक्ष से आगे तीसरे लोक-पितृलोक में निवास करते हैं।[तैत्तिरीय ब्राह्मण]
मनुष्यों, पितरों एवं देवों के तीन लोक पृथक-पृथक वर्णित हैं। [बृहदारण्यकोपनिषद्]
ऋग्वेद में यम कुछ भिन्न भाषा में उल्लिखित है, वह स्वयं एक देव कहा गया है, न कि प्रथम मनुष्य जिसने मार्ग बनाया या वह मनुष्यों को एकत्र करने वाला है या पितरों की संगति में रहता है। कुछ स्थलों पर वह निसन्देह राजा कहा जाता है और वरुण के साथ ही प्रशंसित है। किन्तु ऐसी स्थिति बहुत ही कम वर्णित है।
पितरों की श्रेणियाँ :: पितर: सोमवन्त:, पितर: बर्हिषद: एवं पितर: अग्निष्वात्ता:। जिन्होंने एक सोमयज्ञ किया, वे पितर सोमवन्त: कहे गये हैं; जिन्होंने पक्व आहुतियाँ (चरु एवं पुरोडास के समान) दीं और एक लोक प्राप्त किया, वे पितर बर्हिषद: कहे गये हैं; जिन्होंने इन दोनों में कोई कृत्य नहीं सम्पादित किया और जिन्हें जलाते समय अग्नि ने समाप्त कर दिया, उन्हें अग्निष्वात्ता: कहा गया है।[शतपथ ब्राह्मण] 
4 वर्णों के पितृ :: ब्राह्मणों के पितर अग्निष्वात्त, क्षत्रियों के पितर बर्हिषद्, वैश्यों के पितर काव्य, शूद्रों के पितर सुकालिन: तथा म्लेच्छों एवं अस्पृश्यों के पितर व्याम हैं।[[नान्दीपुराण (हेमाद्रि)]
पितरों की चारों वर्णों के लिए क्रम से कोटियाँ :: सोमपा:, हविर्भुज:, आज्यपा: एवं सुकालिन:। [मनु]
ब्राह्मणों के पितर :: अनग्निदग्ध, अग्निदग्ध, काव्य बर्हिषद्, अग्निष्वात्त एवं सौम्य नामों से पुकारे जाते हैं। [मनु]
पितरों की 12 कोटियों या विभाग :: पिण्डभाज: (3), लेपभाज: (3), नान्दीमुख: (3) एवं अश्रुमुख: (3)। यह पितृ विभाजन दो दृष्टियों से हुआ है।[शातातपस्मृति]
वायु पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण, पद्म पुराण, विष्णुधर्मोत्तर एवं अन्य पुराणों में पितरों के सात प्रकार आये हैं, जिनमें तीन अमूर्तिमान् हैं और चार मूर्तिमान्। 
पितरों की नौ कोटियाँ :: अग्निष्वात्ता:, बर्हिषद:, आज्यपात्, सोमपा:, रश्मिपा:, उपहूता:, आयन्तुन:, श्राद्धभुज: एवं नान्दीमुखा:। [स्कन्द पुराण]
ऋषियों से पितरों की उदभूति हुई, पितरों से देवों एवं मानवों की तथा देवों से स्थावर एवं जंगम के सम्पूर्ण लोक की उदभूति हुई।[मनु]
देवगण पितरों से उदभूत माने गये हैं। यह केवल पितरों की प्रशस्ति है।
पितर लोग देवों से भिन्न थे। ऋग्वेद के "पंचजना मम होत्रं जुषध्वम्" में प्रयुक्त शब्द पंचजना: एवं अन्य वचनों के अर्थ के आधार पर ऐतरेय ब्राह्मण ने व्याख्या की है, वे पाँच कोटियाँ हैं। अप्सराओं के साथ गन्धर्व, पितृ, देव, सर्प एवं राक्षस। निरुक्त ने इसका कुछ अंशों में अनुसरण किया है और अपनी ओर से भी व्याख्या की है। अथर्व वेद में देव, पितृ एवं मनुष्य उसी क्रम में उल्लिखित हैं।
प्राचीन वैदिक उक्तियाँ एवं व्यवहार देवों तथा पितरों में स्पष्ट भिन्नता प्रकट करते हैं।
देवों एवं मनुष्यों ने दिशाओं को बाँट लिया, देवों ने पूर्व लिया, पितरों ने दक्षिण, मनुष्यों ने पश्चिम एवं रुद्रों ने उत्तर। वों के यज्ञ मध्याह्न के पूर्व में आरम्भ किये जाते हैं और पितृयज्ञ अपरान्ह्न में। [तैत्तिरीय संहिता]
पितर लोग अपने दाहिने कंधे पर (और बायें बाहु के नीचे) यज्ञोपवीत धारण करके प्रजापति के यहाँ पहुँचे, तब प्रजापति ने उनसे कहा :- "तुम लोगों को भोजन प्रत्येक मास के अन्त में अमावस्या को मिलेगा, तुम्हारी स्वधा विचार की ते­ज़ी होगी एवं चन्द्र तुम्हारा प्रकाश होगा"। देवों से उन्होंने कहा :- "यज्ञ तुम्हारा भोजन होगा एवं सूर्य तुम्हारा प्रकाश"। [शतपथ ब्राह्मण]
पितरों में जो देवों के स्वभाव एवं स्थिति के हैं एवं उनमें, जो अधिक या कम मानव के समान हैं, अन्तर बताया है।[तैत्तिरीय ब्राह्मण]
TWO CATEGORIES OF PITRE पितृ गण दो प्रकार के हैं :: आजान और मर्त्य। 
आजान पितृलोक में हैं, परन्तु मृत्युलोक से मर कर गए पितर-पितृ मर्त्य हैं; जिनका पतन होता है। कुटुंब-सन्तान से सम्बन्ध रहने के कारण, उनको श्राद्ध-तर्पण-पिण्ड दान-पानी की आशा होती है।
The PITRE-root-basic-original ancestors, from whom the clan-caste chain begun, are left without offerings-prayers for their clemency-relief-worship, leading to their downfall to difficult hells.
First category of Pitre is one which is present in the divine abodes and next one forms the deceased over the earth. The second category will be the victim of the absence of these proceedings by their off springs. Whether one is born normally or through illegitimate relations; must hold prayers for the liberation-peace of the deceased soul, of their departed parents-grand parents.
पितृ गण मनुष्यों के पूर्वज  हैं, जिनका ऋण उनके ऊपर है, क्योंकि उन्होंने कोई ना कोई उपकार अपने वंशजों पर किया है। मनुष्य लोक से ऊपर पितृ लोक है, पितृ लोक के ऊपर सूर्य लोक है एवं इससे भी ऊपर स्वर्ग लोक है। आत्मा जब अपने शरीर को त्याग कर सबसे पहले ऊपर उठती है तो वह पितृ लोक में जाती है, वहाँ उसके पूर्वज  मिलते हैं। अगर उस आत्मा के अच्छे पुण्य हैं तो ये पूर्वज भी उसको प्रणाम कर अपने को धन्य मानते हैं कि  इस अमुक आत्मा ने उनके कुल में जन्म लेकर उन्हें धन्य किया। इसके आगे आत्मा अपने पुण्य के आधार पर सूर्य लोक की तरफ बढती है। वहाँ से आगे, यदि और अधिक पुण्य हैं, तो आत्मा सूर्य लोक को बेध कर स्वर्ग लोक की तरफ चली जाती है, लेकिन करोड़ों में एक आध आत्मा ही ऐसी होती है, जो परमात्मा में समाहित  होती है। जिसे दोबारा जन्म नहीं लेना पड़ता। मनुष्य लोक एवं पितृ लोक में बहुत सारी आत्माएं पुनः अपनी इच्छा वश, मोह वश अपने कुल में जन्म लेती हैं। 
अक्रोधना: शौचपरा: सततं ब्रह्मचारिण:। 
न्यस्तशस्त्रा महाभागाः पितर: पूर्वदेवताः॥मनुस्मृति 3.192॥
क्रोध रहित, अन्तर्वहि शुद्धि से युक्त, सर्वदा ब्रह्मचारी, न्यस्त शस्त्र इत्यादि गुणों से युक्त अनादि देवतारूप पितर होते हैं। 
The Manes are eternal-primeval deities, free form anger, internal purity, chastity-celibacy, averse from strife and endowed with great virtues.
यस्मादुत्पत्तिरेतेषां स्तेषामप्यशेषत:। 
ये च यैरुपचर्याः स्युर्नि मैस्तान्निबोधत॥मनुस्मृति 3.193॥
जिसके द्वारा सब पितरों की उतपत्ति हुई है, जो पितर हैं, निज नियमों से उनकी उपचर्या करनी चाहिये, यह सब विषय अब सुनिये। 
Now, listen to how these Manes evolved, those who are Manes-Pitre, how they ought to be worshipped.
मनोर्हैरण्यगर्भस्य ये मरीच्यादय: सुताः। 
तेषामृषीणां सर्वेषां पुत्राः पितृगणा: स्मृता:॥मनुस्मृति 3.194॥
हिरण्यगर्भ के पुत्र मनुजी के जो मरीचि आदि पुत्र हैं, उन सब ऋषिओं के पुत्र ही पितर कहे गए हैं। 
The sons of Marichi etc. sages-Rishis are called Pitre-Manes. Sages like Marichi evolved from Manu who in turn evolved from Hirany Garbh.
विराटसुताः सोमसद: सध्यानां पितरः स्मृता। 
अग्निष्वात्ताश्च देवानां मारीचा लोकविश्रुताः॥मनुस्मृति 3.195॥
विराट के पुत्र सोमसद साध्यगण के पितर हैं। मरीचि के प्रसिद्ध पुत्र अग्निष्वाता देवताओं के पितर हैं। 
Somsad-the sons of Virat, are the Manes of Sadhygan. Agnishvata the famous sons of Marichi are the Manes of demigods.
पितृलोक :: पितरों का निवास चंद्रमा के उर्ध्वभाग में है। यहाँ आत्माएं मृत्यु के बाद एक से लेकर 100 वर्ष तक मृत्यु और पुनर्जन्म की मध्य की स्थिति में रहती हैं। पितृलोक के श्रेष्ठ पितरों को न्यायदात्री समिति का सदस्य माना जाता है। 
अन्न से शरीर तृप्त होता है। अग्नि को दान किए गए अन्न से सूक्ष्म शरीर और मन तृप्त होता है। इसी अग्निहोत्र से आकाश मंडल के समस्त पक्षी भी तृप्त होते हैं। पक्षियों के लोक को भी पितृलोक कहा जाता है।
सूर्य की सहस्र किरणों में जो सबसे प्रमुख है उसका नाम अमा है। उस अमा नामक प्रधान किरण के तेज से सूर्य त्रैलोक्य को प्रकाशमान करते हैं। उसी अमा में तिथि विशेष को चन्द्र (वस्य) का भ्रमण होता है तब उक्त किरण के माध्यम से चंद्रमा के उर्ध्वभाग से पितर धरती पर उतर आते हैं।  इसीलिए श्राद्धपक्ष की अवावस्या तिथि का महत्व भी है।
अमावस्या के साथ मन्वादि तिथि, संक्रांतिकाल व्यतीपात, गजच्दाया, चंद्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण इन समस्त तिथि-वारों में भी पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध किया जा सकता है।
Halloween, a contraction of Hallows' Evening, also known as All Hallows' Eve or All Saints' Eve, is a celebration observed in a number of countries on 31 October, the eve of the Western Christian feast of All Hallows' Day. It begins the three-day observance, the time in the liturgical year dedicated to remembering the dead, including saints (hallows), martyrs and all the faithful departed.
This exactly westernised form of Pitre Paksh-Manes homages period. 
पित्रों की श्रेणियाँ ::  दिव्य पितर और मनुष्य पितर। दिव्य पितर उस जमात का नाम है, जो जीवधारियों के कर्मों को देखकर मृत्यु के बाद उसे क्या गति दी जाए, इसका निर्णय करता है। इस जमात  के अधिपति धर्मराज हैं। यमराज भी पितर हैं। काव्यवाडनल, सोम, अर्यमा और यम,  ये चार इस जमात के मुख्य गण प्रधान हैं। अर्यमा को पितरों का प्रधान  हैं और यमराज न्यायाधीश।
इन चारों के अलावा प्रत्येक वर्ग की ओर से सुनवाई करने वाले हैं, यथा अग्निष्व, देवताओं के प्रतिनिधि, सोमसद या सोमपा-साध्यों के प्रतिनिधि तथा बहिर्पद गंधर्व, राक्षस, किन्नर सुपर्ण, सर्प तथा यक्षों के प्रतिनिधि हैं। इन सबसे गठित जो जमात है, वही पितर हैं। यही मृत्यु के बाद न्याय करती है।
दिव्य पितर सदस्यगण :: अग्रिष्वात्त, बहिर्पद आज्यप, सोमेप, रश्मिप, उपदूत, आयन्तुन, श्राद्धभुक व नान्दीमुख ये नौ दिव्य पितर हैं। आदित्य, वसु, रुद्र तथा दोनों अश्विनी कुमार भी केवल नांदीमुख पितरों को छोड़कर शेष सभी को तृप्त करते हैं।
आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ऊपर की किरण (अर्यमा) और किरण के साथ पितृ प्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। पितरों में श्रेष्ठ है अर्यमा। अर्यमा पितरों के देव हैं। ये महर्षि कश्यप की पत्नी देवमाता अदिति के पुत्र हैं और इंद्रादि देवताओं के भाई। उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र इनका निवास लोक है।
इनकी गणना नित्य पितरों में की जाती है जड़-चेतन मयी सृष्टि में, शरीर का निर्माण नित्य पितृ ही करते हैं। इनके प्रसन्न होने पर पितरों की तृप्ति होती है। श्राद्ध के समय इनके नाम से जलदान दिया जाता है। यज्ञ में मित्र (सूर्य) तथा वरुण (जल) देवता के साथ स्वाहा का हव्य और श्राद्ध में स्वधा का कव्य दोनों स्वीकार करते हैं।
देव-कृत्य एवं पितृ कृत्य :: देव-कृत्य करने वाला यज्ञोपवीत को बायें कंधे एवं दाहिने हाथ के नीचे रखता है एवं पितृ-कृत्य करने वाला दायें कंधे एवं बायें हाथ के नीचे रखता है। देव-कृत्य पूर्व की ओर या उत्तर की ओर मुख करके आरम्भ किया जाता है किन्तु पितृ-यज्ञ दक्षिणाभिमुख होकर आरम्भ किया जाता है। देव-कृत्य का उत्तर-पूर्व (या उत्तर या पूर्व) में अन्त किया जाता है और पितृ-कृत्य दक्षिण-पश्चिम में समाप्त किया जाता है। पितरों के लिए एक कृत्य एक ही बार किया जाता है, किन्तु देवों के लिए कम से कम तीन बार या शास्त्रानुकुल कई बार किया जाता है। प्रदक्षिणा करने में दक्षिण भाग देवों की ओर किया जाता है और बायाँ भाग पितरों के विषय में किया जाता है। देवों को हवि या आहुतियाँ देते समय 'स्वाहा' एवं 'वषट्' शब्द उच्चारित होते हैं, किन्तु पितरों के लिए इस विषय में 'स्वधा' या 'नमस्कार' शब्द उच्चारित किया जाता है। पितरों के लिए दर्भ जड़ से उखाड़कर प्रयुक्त होते हैं किन्तु देवों के लिए जड़ के ऊपर काटकर। [कौशिक सूत्र]
ॠग्वेद ने देवों एवं पितरों के लिए ऐसे शब्दान्तर को व्यक्त किया है। शतपथ ब्राह्मण ने देवों को अमर एवं पितरों को मर कहा है।
देव एवं पितर की पृथक कोटियाँ :: देव एवं पितर पृथक कोटियों में हैं। पितर देवों की कुछ विशेषताओं को अपने में रखते हैं।
पितर सोम पीते हैं। [ऋग्वेद]
पितरों ने आकाश को नक्षत्रों से सुशोभित किया (नक्षत्रेभि: पितरो द्यामपिंशन्) और अंधकार रात्रि में एवं प्रकाश दिन में रखा। पितरों को गुप्त प्रकाश प्राप्त करने वाले कहा गया है और उन्हें 'उषा' को उत्पन्न करने वाले द्योतित किया गया है।यहाँ पितरों को उच्चतम देवों की शक्तियों से समन्वित माना गया है। भाँति-भाँति के वरदानों की प्राप्ति के लिए पितरों को श्रद्धापूर्वक बुलाया गया है और उनका अनुग्रह कई प्रकार से प्राप्य कहा गया है।
पितरों से सुमति एवं सौमनस (अनुग्रह) प्राप्त करने की बात कही गयी है। उनसे कष्टरहित आनन्द देने  एवं
यजमान-यज्ञकर्ता को एवं उसके पुत्र को सम्पत्ति देने के लिए प्रार्थना की गयी है।[ऋग्वेद]
ऋग्वेद एवं अथर्व वेद ने सम्पत्ति एवं शूर पुत्र देने को कहा है।
'वे पितर जो वधु को देखने के लिए एकत्र होते हैं, उसे सन्ततियुक्त आनन्द दें।' [अथर्व वेद]
"हे पितरो, इस पत्नी के गर्भ में आगे चलकर कमलों की माला पहनने वाला बच्चा रखो, जिससे वह कुमार पूर्ण विकसित हो जाए"।[वाजसनेयी संहिता]
पितरों की तीन कोटियाँ  :: काव्य, बर्हिषद एवं अग्निष्वात्त्।[वायुपुराण]
वायु पुराण ने तथा वराह पुराण, पद्म पुराण एवं ब्रह्मण्ड पुराण ने सात प्रकार के पितरों के मूल पर प्रकाश डाला है, जो कि स्वर्ग में रहते हैं, जिनमें चार तो मूर्तिमान् हैं और तीन अमूर्तिमान्। 
शतातपस्मृति ने 12 पितरों के नाम दिये हैं; पिण्डभाज:, लेपभाज:, नान्दीमुखा: एवं अश्रुमुखा:।
स्तुति :: त्रुटि करने वाले मनुष्य होने के नाते यदि हम आप के प्रति कोई अपराध करें तो हमें उसके लिए दण्डित न करें। वे देव एवं प्राचीन पितर, जो इस स्थल (गौओं या मार्ग) को जानते हैं, हमें यहाँ हानि न पहुँचायें। [ॠग्वेद]
मनोर्हैरण्यगर्भस्य ये मरीच्यादय: सुताः। तेषामृषीणां सर्वेषां पुत्राः पितृगणा: स्मृता:॥मनुस्मृति 3.194॥
हिरण्यगर्भ के पुत्र मनुजी के जो मरीचि आदि पुत्र हैं, उन सब ऋषिओं के पुत्र ही पितर कहे गए हैं। 
The sons of Marichi etc. sages-Rishis are called Pitre-Manes. Sages like Marichi evolved from Manu who in turn evolved from Hirany Garbh.
विराटसुताः सोमसद: सध्यानां पितरः स्मृता। अग्निष्वात्ताश्च देवानां मारीचा लोकविश्रुताः॥मनुस्मृति 3.195
विराट के पुत्र सोमसद साध्यगण के पितर हैं। मरीचि के प्रसिद्ध पुत्र अग्निष्वाता देवताओं के पितर हैं। Somsad -the sons of Virat, are the Manes of Sadhygan. Agnishvata the famous sons of Marichi are the Manes of demigods.
दैत्यदानवयक्षाणां गन्धर्वोरगरक्षसाम्। सुपर्ण किन्नराणां च स्मृता बर्हिषदोSत्रिजा:॥मनुस्मृति 3.196
अत्रि के पुत्र बर्हिषद दैत्य, दानव, यक्ष, गंदर्भ, नाग, राक्षस, सुपर्ण और किन्नरों के पितर हैं। 
Barhishad-the sons of Atri, are the Manes of Giants, Demons, Yaksh, Gandarbh, Rakshas, Suparn and Kinnars.
सोमपा नाम विप्राणां क्षत्रियाणां हविर्भुजः। वैश्यानामाज्यपा: पुत्रा वशिष्ठस्य तु सुकालिनः॥मनुस्मृति 3.197
ब्राह्मणों के पितर सोमप, क्षत्रियों के हविष्मन्त, वैश्यों के आज्यप और शूद्रों के सुकलिन हैं। 
Somap are the Manes of Brahmns, Havishmant are the Manes of Kshatriy, Ajyap are the Manes of Vaeshy and Suklin are the Manes of Shudr.

सोमपास्तु कवेः पुत्रा हविष्मन्तोSङ्गिर: सुता:। पुलस्त्यस्याज्यपा: पुत्रा वशिष्ठस्य सुकालिनः॥मनुस्मृति 3.198
सोमप भृगु के, हविष्मन्त अङ्गिरा के, आज्यप पुलस्त्य के और सुकालिन वशिष्ठ के पुत्र हैं। 
Somap are the sons of Bhragu, Havishymant are the sons of Angira, Ajyap are the sons of Pulasty and Sukalin are the sons of Vashishth.
अग्निदग्धानग्निदग्धान् काव्यान् बर्हिषदस्तथा। अग्निष्वात्तांश्च  सौम्यांश्च विप्राणामेव निर्दिशेत्मनुस्मृति 3.199
अग्निदध, अनग्निग्ध, काव्य, बर्हिषद, अग्निष्वात्ता और सौम्य ये ब्राह्मणों के पितर हैं। 
Agnidadh, Anagnidadh, Kavy, Barhishad, Agnishvatta and Somy are the Pitre-Manes of the Brahmns.
य एते तु गणा मुख्याः पितृणां परिकीर्तितता:। तेषामपीह विज्ञेयं पुत्रपौत्रमनन्तकम्॥मनुस्मृति 3.200
पितरों के जो इतने मुख्य गण हैं उनके भी असंख्य पुत्र पौत्रादि हैं। 
These major tranches of the Manes have numerous sons and grandsons.
पितृ पक्ष :: आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या पंद्रह दिन पितृपक्ष (पितृ पिता) के नाम से जाते हैं। इन पंद्रह दिनों में लोग अपने पितरों (पूर्वजों) को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर पार्वण श्राद्ध करते हैं। पिता-माता आदि पारिवारिक मनुष्यों की मृत्यु के पश्चात्‌ उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले कर्म को पितृ श्राद्ध कहते हैं।
श्रद्धया इदं श्राद्धम्‌ 
जो श्र्द्धा से किया जाय, वह श्राद्ध है अर्थात  प्रेत और पित्त्तर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए वह श्राद्ध है।
माता-पिता की सेवा को सबसे बड़ी पूजा है। इसलिए पितरों का उद्धार करने के लिए पुत्र की अनिवार्यता मानी गई हैं। जन्मदाता माता-पिता को मृत्यु-उपरांत लोग विस्मृत न कर दें, इसलिए उनका श्राद्ध करने का विशेष विधान बताया गया है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं जिनमें हिन्दु अपने पूर्वजों की सेवा करते हैं।
आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तथा उस उर्जा के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। वह सूक्ष्म शरीर जो आत्मा भौतिक शरीर छोड़ने पर धारण करती है तथा प्रेत कहलाती है। प्रिय के अतिरेक की अवस्था "प्रेत" है क्योंकिआत्मा जो सूक्ष्म शरीर धारण करती है तब भी उसके अन्दर मोह, माया भूख और प्यास का अतिरेक होता है।  सपिण्डन के बाद वह प्रेत, पित्तरों में सम्मिलित हो जाता है।
पितृपक्ष भर में जो तर्पण किया जाता है उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है। पुत्र या उसके नाम से उसका परिवार जो यव (जौ) तथा चावल का पिण्ड देता है, उसमें से अंश लेकर वह अम्भप्राण का ऋण चुका देता है। ठीक आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से वह चक्र उर्ध्वमुख होने लगता है। 15 दिन अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितर उसी ब्रह्मांडीय उर्जा के साथ वापस चले जाते हैं। इसलिए इसको पितृपक्ष कहते हैं और इसी पक्ष में श्राद्ध करने से पित्तरों को प्राप्त होता है।
मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण प्रमुख माने गए हैं :- पितृ ऋण, देव ऋण तथा ऋषि ऋण। इनमें पितृ ऋण सर्वोपरि है। पितृ ऋण में पिता के अतिरिक्त माता तथा वे सब बुजुर्ग भी सम्मिलित हैं, जिन्होंने मनुष्य कोअपना जीवन धारण करने तथा उसका विकास करने में सहयोग दिया।
पितृपक्ष में हिन्दु मन कर्म एवं वाणी से संयम का जीवन जीते हैं; पितरों को स्मरण करके जल चढाते हैं; निर्धनों एवं ब्राह्मणों को दान देते हैं। पितृपक्ष में प्रत्येक परिवार में मृत माता-पिता का श्राद्ध किया जाता है। गया श्राद्ध का विशेष महत्व है।  ‘गया सर्वकालेषु पिण्डं दधाद्विपक्षणं’ कहकर सदैव पिंडदान करने की अनुमति दे दी गई है।
 एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन् दद्याज्जलाज्जलीन्। यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।
अर्थात् जो अपने पितरों को तिल-मिश्रित जल की तीन-तीन अंजलियाँ प्रदान करते हैं, उनके जन्म से तर्पण के दिन तक के पापों का नाश हो जाता है। जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु भी निश्चित है; उसी प्रकार जिसकी मृत्यु हुई है, उसका जन्म भी निश्चित है। ऐसे कुछ विरले ही होते हैं जिन्हें मोक्ष प्राप्ति हो जाती है। पितृपक्ष में तीन पीढ़ियों तक के पिता पक्ष के तथा तीन पीढ़ियों तक के माता पक्ष के पूर्वजों के लिए तर्पण किया जाता हैं। इन्हीं को पितर कहते हैं। दिव्य पितृ तर्पण, देव तर्पण, ऋषि तर्पण और दिव्य मनुष्य तर्पण के पश्चात् ही स्व-पितृ तर्पण किया जाता है। 
भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं। जिस तिथि को माता-पिता का देहांत होता है, उसी तिथी को पितृपक्ष में उनका श्राद्ध किया जाता है। पितृपक्ष में अपने पितरों के निमित्त जो अपनी शक्ति सामर्थ्य के अनुरूप शास्त्र विधि से श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है, उसके सकल मनोरथ सिद्ध होते हैं और घर-परिवार, व्यवसाय तथा आजीविका में हमेशा उन्नति होती है। 
पितृ दोष के अनेक कारण होते हैं। परिवार में किसी की अकाल मृत्यु होने से, अपने माता-पिता आदि सम्मानीय जनों का अपमान करने से, मरने के बाद माता-पिता का उचित ढंग से क्रियाकर्म और श्राद्ध नहीं करने से, उनके निमित्त वार्षिक श्राद्ध आदि न करने से पितरों को दोष लगता है। इसके फलस्वरूप परिवार में अशांति, वंश-वृद्धि में रूकावट, आकस्मिक बीमारी, संकट, धन में बरकत न होना, सारी सुख सुविधाएँ होते भी मन असन्तुष्ट रहना आदि पितृ दोष हो सकते हैं। 
यदि परिवार के किसी सदस्य की अकाल मृत्यु हुई हो तो पितृ दोष के निवारण के लिए शास्त्रीय विधि के अनुसार उसकी आत्म शांति के लिए किसी पवित्र तीर्थ स्थान पर श्राद्ध करना चाहिये। माता-पिता तथा अन्य ज्येष्ठ जनों का अपमान न करें। प्रतिवर्ष पितृपक्ष में अपने पूर्वजों का श्राद्ध, तर्पण अवश्य करें। यदि इन सभी क्रियाओं को करने के पश्चात् पितृ दोष से मुक्ति न होती हो तो ऐसी स्थिति में किसी सुयोग्य कर्मनिष्ठ विद्वान ब्राह्मण से श्रीमद् भागवत् पुराण की कथा करवायें। वैसे श्रीमद् भागवत् पुराण की कथा कोई भी श्रद्धालु पुरुष अपने पितरों की आम शांति के लिए करवा सकता है। इससे विशेष पुण्य फल की प्राप्ति होती है।
पितृ-सूक्त :: ऋषि :- शङ्क यामायन, देवता :- 1-10, पितर :- 12-14, छन्द त्रिट्टप  और जगती :- 11   
पहली आठ ऋचाओं विभिन्न स्थानों में निवास करने वाले पितरों को हविर्भाग स्वीकार करने के लिये आमन्त्रित किया गया है। अन्तिम छ: ऋचाओं में अग्रि से प्रार्थना की गयी है कि वे सभी पितरों को साथ लेकर हवि-ग्रहण करने के लिये पधारने की कृपा करें।
The manes have been requested to accept the offerings in first eight hymns and last six hymns requests Agni Dev to come along with all Manes and accept offerings-Havi.
उदीरतामवर उत् परास उन्मध्यमाः पितर; सोम्यासः। 
असुं य ईयुरवृका ऋतज्ञास्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु
नीचे, ऊपर और मध्य स्थानों में रहने वाले, सोम पान करने के योग्य हमारे सभी पितर उठकर तैयार हों। यज्ञ के ज्ञाता सौम्य स्वभाव के हमारे जिन पितरों ने नूतन प्राण धारण कर लिये हैं, वे सभी हमारे बुलाने पर आकर हमारी सुरक्षा करें।[ऋग्वेद 10.15.1]
सौम्य :: प्रिय, उदार, क्षमाशील, प्रशम्य; mild, benign, kindly, placable.
All of our deceased ancestors-Manes who have been placed in upper, middle and lower segments-abodes, should get up be ready to sip Somras. Those Pitr-Manes who knows-understand Veds, are benign-placable and got new lease of life  (rebirth) should come on being called-requested by us and protect us. 
इदं पितृभ्यो नमो अस्त्वद्य ये पूर्वासो य उपरास ईयुः। 
ये पार्थिवे रजस्या निषत्ता ये वा नूनं सुवजनासु विषु
जो भी नये अथवा पुराने पितर यहाँ से चले गये हैं, जो पितर अन्य स्थानों में हैं और जो उत्तम स्वजनों के साथ निवास कर रहे हैं अर्थात् यमलोक, मर्त्यलोक और विष्णु लोक में स्थित सभी पितरों को आज हमारा यह प्रणाम निवेदित हो।[ऋग्वेद 10.15.2]
We offer homages to our Manes-Pitr who are either old or new & have moved to other places, residing with thier own folk in Yam Lok, Marty Lok earth, Vishnu Lok-abode of Bhagwan Shri Hari Vishnu.   
आहं पितृन् त्सुवित्राँ   अवित्सि नपातं विक्रमणं च विष्णोः। 
बर्हियदो ये स्वधया सुतस्य भजन्त पित्वस्त इहागमिष्ठाः॥
उत्तम ज्ञान से युक्त पितरों को तथा अपानपात् और विष्णु के विक्रमण को, मैंने अपने अनुकूल बना लिया है। कुशासन पर बैठने  के अधिकारी पितर प्रसन्नतापूर्वक आकर अपनी इच्छा के अनुसार हमारे द्वारा अर्पित हवि और सोम रस ग्रहण करें।[ऋग्वेद 10.15.3]
अपांनपात् :: एक देवता, यह निथुद्रुप अग्नि जो पानी में प्रकाशित होता हैं; person or entity.[ऋग्वेद 2.35]
विक्रमण :: चलना, कदम रखना, भगवान् श्री हरी विष्णु का एक डग, शूरता-वीरता, पाशुपत-अलौकिक शक्ति; movement, one foot of Bhagwan Shri Hari Vishnu, bravery.
I have made the enlightened Manes-Pitr and the raising of Bhagwan Shri Hari Vishnu's foot, favourable. The Manes entitled of occupying Kushasan-cushion, made of Kush grass (very auspicious in nature), are welcome to make offerings and accept Somras.
बर्हिषदः पितर ऊत्यवार्गिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम्। 
त आ गतावसा शंतमेनाऽथा नः शं योररपो दधात॥
कुशासन पर अधिष्ठित होने वाले हे पितर! आप कृपा करके हमारी ओर आइये। यह हवि आपके लिये ही तैयार की गयी है, इसे प्रेम से स्वीकार कीजिये। अपने अत्यधिक सुख प्रद प्रसाद के साथ आयें और हमें क्लेश रहित सुख तथा कल्याण प्राप्त करायें।[ऋग्वेद 10.15.4]
Hey Kushasan occupying Manes! Please come towards us. The offering has been prepared for you, accept it with love. Please bring with you auspicious Prasad-blessings and make us free from troubles and grant comforts along with our welfare. 
उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु।
त आ गमन्तु त इह श्रुवन्त्वधि ब्रुवन्तु तेऽवन्त्वस्मान्॥
पितरों को प्रिय लगने वाली सोम रूपी निधियों की स्थापना के बाद कुशासन पर हमने पितरों का आवाहन किया है। वे यहाँ आयें और हमारी प्रार्थना सुनें। वे हमारी  करने साथ देवों के पास हमारी ओर से संस्तुति करें।[ऋग्वेद 10.15.5]
Having collected the goods liked by the Manes like Somras, we have prayed them to come and occupy the Kushasan. They should accept our prayers  and recommend to demigods-deities,  measures for our welfare.
आच्या जानु दक्षिणतो निषद्येमं यज्ञमभि गृणीत विश्वे।
मा हिंसिष्ट पितरः केन चिन्नो यद्व आगः पुरुषता कराम॥
हे पितरो! बायाँ घुटना मोड़कर और वेदी के दक्षिण में नीचे बैठकर आप सभी हमारे इस यज्ञ की प्रशंसा करें। मानव स्वभाव के अनुसार हमने आपके विरुद्ध कोई भी अपराध किया हो तो उसके कारण हे पितरो! आप हमें दण्ड न दें (पितर बायाँ घुटना मोड़कर बैठते हैं और देवता दाहिना घुटना मोड़कर बैठना पसन्द करते हैं)।[ऋग्वेद 10.15.6]
Hey Pitr Gan-Manes! Please bend the left leg and sit in the South of the Vedi (Hawan Kund, Pot meant for Agni Hotr-offerings in holy fire) and appreciate-participate in our Yagy-endeavours. Hey Pitr Gan! If we have committed any mistake due to human nature against you, please do not punish us. 
The Pitr mould their left leg during prayers or Yagy and the demigods-deities fold their right leg. 
आसीनासो अरुणीनामुपस्थे रयिं धत्त दाशुषे मर्त्याय। 
पुत्रेभ्य: पितरस्तस्य वस्यः प्र यच्छत त इहोर्जं   दधात॥
अरुण वर्ण की उषा देवी के अङ्क में विराजित हे पितर! अपने इस मर्त्य लोक के याजक को धन दें, सामर्थ्य दें तथा अपनी प्रसिद्ध सम्पत्ति में से कुछ अंश हम पुत्रों को देवें।[ऋग्वेद 10.15.7]
Occupying the lap of Usha Devi, having the aura like Sun-golden hue, Hey Pitr Gan! grant a fraction of your famous assets to us (your sons-descendents) along with capability to make proper use of it. 
ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासो ऽनूहिरे सोमपीथं वसिष्ठाः। 
तेभिर्यमः संरराणो हवींष्युशन्नुशद्धिः प्रतिकाममत्तु॥
(यम के सोमपान के बाद) सोमपान के योग्य हमारे वसिष्ठ कुल के सोमपायी पितर यहाँ उपस्थित हो गये हैं। वे हमें उपकृत करने के लिये सहमत होकर और स्वयं उत्कण्ठित होकर यह राजा यम हमारे द्वारा समर्पित हवि को अपने इच्छानुसार ग्रहण करें।[ऋग्वेद 10.15.8] 
Having consumed Somras, our Pitres from the Vashishth clan have gathered here. Willing to oblige us, Dharm-Yam Raj should accept the offerings made us as per their will.  
ये तातूषुर्देवत्रा जेहमाना होत्राविदः स्तोमतष्टासो अर्कै:। 
आग्नेयाहि सुविदत्रेभिर्वाङ् सत्यैः कव्यैः पितृभिर्घर्मसद्धिः॥
अनेक प्रकार  के हवि द्रव्यों के ज्ञानी अर्को से, स्तोमों की सहायता से जिन्हें निर्माण किया है, ऐसे उत्तम ज्ञानी, विश्वासपात्र घर्म नामक हवि के पास बैठने वाले कव्य नामक हमारे पितर देव लोक में साँस लगने की अवस्था तक प्यास से व्याकुल हो गये हैं। उनको साथ लेकर हे अग्निदेव! आप यहाँ उपस्थित होवें।[ऋग्वेद 10.15.9]
घर्म GHARM:: घास,  धूप, सूर्य ताप, एक प्रकार का यज्ञ पात्र, ग्रीष्म काल, स्वेद-पसीना; sweat, grass, sun light, heat of Sun, a kind of pot for Yagy, summers.
कव्य :: वह अन्न जो पितरों को दिया जाय, वह द्रव्य जिससे पिंड, पितृ यज्ञादि किए जायें; the food meant for offerings to the Manes, a ball of dough meant for performing Pitr Yagy.
स्तोम :: स्तुति, स्तव, यज्ञ, समूह-झुंड, राशि, ढेर, यज्ञ करने वाला व्यक्ति; prayers, one performing Yagy, Yagy, group-compilation.
Hey Agni Dev! Please bring our enlightened Manes known as Kavy, who are feeling thirsty, at the Yagy site, who are leaned in various kinds of Havi-offerings and the Yagy designs who sit with the Havi known as Kavy.
ये सत्यासो हविरदो हविष्या इन्द्रेण देवै: सरथं दधाना:। 
आग्ने याहि सहस्त्रं देववन्दैः परै: पूर्वैः पितृभिर्घर्मसद्धिः॥
कभी न बिछुड़ने वाले, ठोस हवि का भक्षण करने वाले, इन्द्र और अन्य देवों  के साथ एक ही रथ में प्रयाण करने वाले, देवों की वन्दना करने वाले घर्म नामक हवि के पास बैठने वाले जो हमारे पूर्वज पितर हैं, उन्हें सहस्त्रों की संख्या में लेकर हे अग्निदेव! यहाँ पधारें।[ऋग्वेद 10.15.10]
Hey Agni Dev! Please come with our Manes in thousands, who never separate from us, eats solid Havi-offerings, moves-travels along with the demigods-deities and Indr Dev in the same charoite, who pray to the demigods-deities and sit with the Havi called Gharm. 
अग्निष्वात्ता: पितर एह गच्छत सदः सदः सदत सुप्रणीतयः॥ 
अत्ता हवींषि प्रयतानि बहिर्ष्यथा रयिं सर्ववीरं दधातन॥
अग्नि के द्वारा पवित्र किये गये हे उत्तम पथ प्रदर्शक पितर! यहाँ आइये और अपने-अपने आसनों पर अधिष्ठित हो जाइये। कुशासन पर समर्पित हवि द्रव्यों का भक्षण करें और (अनुग्रह स्वरूप) पुत्रों से युक्त सम्पदा हमें समर्पित करा दें।[ऋग्वेद 10.15.11]
Hey excellent guides, purified by Agni Dev! Please come here and occupy your seats. Enjoy-eat the Havi offered to you, while sitting over the Kushasan and grant wealth-riches along with sons.   
त्वमग्न ईळितो जातवेदो ऽवाड्ड व्यानि सुरभीणि कृत्वी। 
प्रादाः पितृभ्यः स्वधया ते अक्षन्नद्धि त्वं देव प्रयता हवींषि॥
हे ज्ञानी अग्निदेव! हमारी प्रार्थना पर आप इस हवि को मधुर बनाकर पितरों के पास ले गये, उन्हें पितरों को समर्पित किया और पितरों ने भी अपनी इच्छा के अनुसार उस हवि का भक्षण किया। हे अग्निदेव! (अब हमारे द्वारा) समर्पित हवि  आप ग्रहण करें।[ऋग्वेद 10.15.12]
Hey enlightened Agni Dev! you took this Havi, making it sweet, offered it to our Manes and they consumed to it, as per their wish. Hey Agni Dev! Now, please you accept the Havi-offerings.    
ये चेह पितरो ये च नेह याँश्च विद्म याँ उ च न प्रविद्य।  
त्वं वेत्थ यति ते जातवेदः स्वधाभिर्यज्ञं सुकृतं जुषस्व॥
जो हमारे पितर यहाँ (आ गये) हैं और जो यहाँ नहीं आये हैं, जिन्हें हम जानते हैं और जिन्हें हम अच्छी प्रकार जानते भी नहीं; उन सभी को, जितने (और जैसे) हैं, उन सभी को हे अग्निदेव! आप भली-भाँति पहचानते हैं। उन सभी की इच्छा के अनुसार अच्छी प्रकार तैयार किये गये इस हवि को (उन सभी के लिये) प्रसन्नता के साथ स्वीकार करें।[ऋग्वेद 10.15.13] 
Hey Agni Dev! You recognise our all those Manes who have gathered here and those who are not present here, we either know them or may not know them, but Hey Agni Dev! you know-recognise all of them. Please accept this Havi for their happiness-pleasure prepared as per their taste.  
ये अग्निदग्धा मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते।
तेभिः स्वराळसुनीतिमेतां यथावशं तन्वं कल्पयस्व॥
हमारे जिन पितरों को अग्नि ने पावन किया है और जो अग्नि द्वारा भस्मसात् किये बिना ही स्वयं पितृ भूत हैं तथा जो अपनी इच्छा के अनुसार स्वर्ग के मध्य में आनन्द से निवास करते हैं। उन सभी की अनुमति से, हे स्वराट् अग्रे! (पितृलोक में इस नूतन मृत जीव के) प्राण धारण करने योग्य (उसके) इस शरीर को उसकी इच्छा के अनुसार ही बना दो और उसे दे दो।[ऋग्वेद 10.15.14]
स्वराट् :: ब्रह्मा, ईश्वर, एक प्रकार का वैदिक छंद, वह वैदिक छंद जिसके सब पादों में मिलकर नियमित वर्णों में दो वर्ण कम हों, सूर्य की सात किरणों में से एक का नाम (को कहते हैं), विष्णु का एक नाम, शुक्र नीति के अनुसार वह राजा जिसका वार्षिक राजस्व 5० लाख से 1 करोड़ कर्ष तक हो, वह राजा जो किसी ऐसे राज्य का स्वामी हो, जिसमें स्वराज्य शासन प्रणाली प्रचलित हो, जो स्वयं प्रकाशमान हो और दूसरों को प्रकाशित करता हो, जो सर्वत्र व्याप्त, अविनाशी (स्वराट्), स्वयं-प्रकाश रूप और (कालाग्नि) प्रलय में सब का काल और काल का भी काल है, परमेश्वर-कालाग्नि है; Brahma Ji, Almighty, self lighting, possessing aura.
Our Pitr Gan-Manes, who have been purified by the Agni, those who themselves are like Agni-fire even without being burnt by fire, who lives in heavens with our their own will, Hey shinning Agni Dev! please make their bodies in new incarnation-rebirth as per their desire-wish, with their permission.