Thursday, March 14, 2013

BHAGWAN SHRI KRASHN भगवान् श्री कृष्ण (ALMIGHTY 2)

भगवान् श्री कृष्ण
(ALMIGHTY 2)
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
पृथ्वी पर अत्याचार, अनाचार अत्यधिक बढ़ जाने पर परब्रह्म परमेश्वर श्री कृष्ण ने पृथ्वी पर अवतार ग्रहण किया। वे पूर्णावतार-अवतारी थे। 
भगवान् श्री कृष्ण का जन्म कृष्ण का जन्म भाद्रपद मास में कृष्ण पक्ष में अष्टमी तिथि, रोहिणी नक्षत्र के दिन रात्रि के 12 बजे मथुरा के कारागार में वसुदेव की पत्नी देवकी के गर्भ से हुआ था। 

भगवान् श्री कृष्ण का जन्म 5,252 वर्ष पूर्व 18 जुलाई 3,228 ई.पू. को हुआ। वर्तमान वर्ष 2,020 है। उनका जीवन काल  125 वर्ष  08 मास और 07 दिन का था। उनकी मृत्यु 18 फ़रवरी 3,102 को हुई। महाभारत युद्ध के समय उनकी आयु 89 वर्ष थी। महाभारत के 36 वर्ष बाद उनका देहावसान हुआ। महाभारत मार्गशीष शुक्ल एकादशी ई.पू. 3,139 अर्थात 8 दिसम्बर और अन्त 25 दिसम्बर 3,139 को हुआ था। 21 दिसम्बर 3,139 को साँय 3 से 5 बजे तक सूर्य  ग्रहण था।

भगवान् श्री कृष्ण को मथुरा में कन्हैया, उड़ीसा में जगन्नाथ, महाराष्ट्र में विठोवा, राजस्थान में श्री नाथ जी, गुजरात में द्वारकाधीश और रणछोड़ जी, उडुपी कर्नाटक में श्री कृष्ण के रूप में पूजा जाता है।

उन्होंने शिशुपाल, दन्त वक्र, कंस, तोसलक, चाणूर जैसे मल्ल का वध किया। मथुरा में दुष्ट रजक के सिर को हथेली के प्रहार से काट दिया। महाभारत युद्ध से बर्बरीक का सर सुदर्शन चक्र से काटा।
उनकी मृत्यु जरा नाम के भील का वाण पैर के अँगूठे में, वन में लगने से हुई। वह पूर्व जन्म में सूर्य पुत्र बाली था।
भीष्म पितामह की मृत्यु 2 फ़रवरी 3,138 ई.पू., उत्तरायण की पहली एकादशी को हुई।
परब्रह्म परमेश्वर का जन्म श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के रूप में मनाया जाता है।
जन्माष्टमी को स्मार्त और वैष्णव संप्रदाय के लोग अपने अनुसार अलग-अलग ढंग से मनाते हैं। श्रीमद्भागवत को प्रमाण मानकर स्मार्त संप्रदाय के मानने वाले चंद्रोदय व्यापनी अष्टमी अर्थात रोहिणी नक्षत्र में जन्माष्टमी मनाते हैं तथा वैष्णव मानने वाले उदयकाल व्यापनी अष्टमी एवं उदयकाल रोहिणी नक्षत्र को जन्माष्टमी का त्यौहार मनाते हैं।
अष्टमी के दो प्रकार :: पहली जन्माष्टमी और दूसरी जयन्ती। इसमें केवल पहली अष्टमी है।
जो भी व्यक्ति जानकर भी कृष्ण जन्माष्टमी व्रत को नहीं करता, वह मनुष्य जंगल में सर्प और व्याघ्र होता है।[स्कन्द पुराण]
यदि दिन या रात में कलामात्र भी रोहिणी न हो तो विशेषकर चन्द्रमा से मिली हुई रात्रि में इस व्रत को करें।[ब्रह्मपुराण]
श्रावण मास के शुक्ल पक्ष में कृष्ण जन्माष्टमी व्रत को जो मनुष्य नहीं करता, वह क्रूर राक्षस होता है। केवल अष्टमी तिथि में ही उपवास करना कहा गया है। यदि वही तिथि रोहिणी नक्षत्र से युक्त हो तो जयन्ती नाम से सम्बोधित की जाएगी।[भविष्य पुराण] 
कृष्णपक्ष की जन्माष्टमी में यदि एक कला भी रोहिणी नक्षत्र हो तो उसको जयन्ती नाम से ही सम्बोधित किया जाएगा। अतः उसमें प्रयत्न से उपवास करना चाहिए।[वह्निपुराण]
कृष्णपक्ष की अष्टमी रोहिणी नक्षत्र से युक्त भाद्रपद मास में हो तो वह जयन्ती नामवाली ही कही जाएगी।[विष्णुरहस्य] 
यदि अष्टमी तथा रोहिणी इन दोनों का योग अहोरात्र में असम्पूर्ण भी हो तो मुहूर्त मात्र में भी अहोरात्र के योग में उपवास करना चाहिए।[वसिष्ठ संहिता] 
जो उत्तम पुरुष है। वे निश्चित रूप से जन्माष्टमी व्रत को इस लोक में करते हैं। उनके पास सदैव स्थिर लक्ष्मी होती है। इस व्रत के करने के प्रभाव से उनके समस्त कार्य सिद्ध होते हैं।[ मदन रत्न-स्कन्द पुराण]
आधी रात के समय रोहिणी में जब कृष्णाष्टमी हो तो उसमें भगवान् श्री कृष्ण का अर्चन और पूजन करने से तीन जन्मों के पापों का नाश होता है।[विष्णु धर्म]
जन्माष्टमी, रोहिणी और शिवरात्रि ये पूर्वविद्धा ही करनी चाहिए तथा तिथि एवं नक्षत्र के अन्त में पारणा करें। इसमें केवल रोहिणी उपवास भी सिद्ध है। अन्त्य की दोनों में परा ही लें।[भृगु] 
श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी की रात्रि को मोहरात्रि कहा गया है। इस रात में योगेश्वर श्री कृष्ण का ध्यान, नाम अथवा मंत्र जपते हुए जगने से संसार की मोह-माया से आसक्ति हटती है। जन्माष्टमी का व्रत व्रतराज है। इसके सविधि पालन से अनेक व्रतों से प्राप्त होने वाली महान पुण्य राशि प्राप्त होती है।
ब्रज मण्डल में श्री कृष्णाष्टमी के दूसरे दिन भाद्रपद कृष्ण नवमी में नन्द महोत्सव अर्थात् दधिकांदौ श्री कृष्ण के जन्म लेने के उपलक्ष में बडे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। भगवान्  के श्री विग्रह पर हल्दी, दही, घी, तेल, गुलाब जल, मक्खन, केसर, कपूर आदि चढाकर ब्रजवासी उसका परस्पर लेपन और छिड़काव करते हैं। वाद्य यंत्रों से मंगल ध्वनि बजाई जाती है। भक्त जन मिठाई बाँटते हैं। जगद्गुरु भगवान् श्री कृष्ण का जन्मोत्सव निसन्देह सम्पूर्ण विश्व के लिए आनन्द मंगल का सन्देश देता है।
जन्माष्टमी :: अष्टमी पहले ही दिन आधी रात को विद्यमान हो तो जन्माष्टमी व्रत पहले दिन किया जाता है। अष्टमी केवल दूसरे ही दिन आधी रात को व्याप्त हो तो जन्माष्टमी व्रत दूसरे दिन किया जाता है। अष्टमी दोनों दिन आधी रात को व्याप्त हो और अर्धरात्रि (आधी रात) में रोहिणी नक्षत्र का योग एक ही दिन हो तो जन्माष्टमी व्रत रोहिणी नक्षत्र से युक्त दिन में किया जाता है। अष्टमी दोनों दिन आधी रात को विद्यमान हो और दोनों ही दिन अर्धरात्रि (आधी रात) में रोहिणी नक्षत्र व्याप्त रहे तो जन्माष्टमी व्रत दूसरे दिन किया जाता है। अष्टमी दोनों दिन आधी रात को व्याप्त हो और अर्धरात्रि (आधी रात) में दोनों दिन रोहिणी नक्षत्र का योग न हो तो जन्माष्टमी व्रत दूसरे दिन किया जाता है। अगर दोनों दिन अष्टमी आधी रात को व्याप्त न करे तो प्रत्येक स्थिति में जन्माष्टमी व्रत दूसरे ही दिन होगा।
व्रत विधि :: उपवास की पूर्व रात्रि को हल्का भोजन करें और ब्रह्मचर्य का पालन करें। उपवास के दिन प्रातःकाल स्नानादि नित्यकर्मों से निवृत्त हो जायें। तत्पश्चात सूर्य, सोम, यम, काल, सन्धि, भूत, पवन, दिक्‌पति, भूमि, आकाश, खेचर और ब्रह्मादि को नमस्कार कर पूर्व या उत्तर मुख बैठें। इसके बाद जल, फल, कुश और गन्ध लेकर संकल्प करें :-
ममखिलपापप्रशमनपूर्वक सर्वाभीष्ट 
सिद्धये श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रतमहं करिष्ये।
मध्याह्न के समय काले तिलों के जल से स्नान कर, देवकी जी के लिए सूतिका गृह नियत करें। तत्पश्चात भगवान् श्री कृष्ण का विग्रह या चित्र स्थापित करें। विग्रह में बालक श्री कृष्ण माता देवकी या यशोदा की गोद में हो। बाल कृष्ण के जन्म की कथा को पढ़े-सुने। रात्रि 12 बजे विधि-विधान द्वारा पंचामृत से अभिषेक, पंचोपचार या षोडशोपचार से पूजन करें।
बालकृष्ण का घ्यान करें  :-
करारविन्देन पदारविन्दं मुखारविन्दे विनिवेशयन्तम्।
वटस्य पत्रस्य पुटे शयानं बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि॥
फिर निम्न मंत्र से पुष्पांजलि अर्पण करें :-
प्रणमे देव जननी त्वया जातस्तु वामनः।
वसुदेवात तथा कृष्णो नमस्तुभ्यं नमो नमः।
सुपुत्रार्घ्यं प्रदत्तं में गृहाणेमं नमोऽस्तुते।
प्रसाद वितरण कर भजन-कीर्तन करते हुए, सम्पूर्ण रात्रि व्यतीत करें।
जन्माष्टमी कथा :: द्वापर युग की बात है। तब मथुरा में उग्रसेन नाम के एक प्रतापी राजा हुए। स्‍वभाव से सीधे-साधे होने के कारण उनके पुत्र कंस ने ही उनका राज्‍य पर कब्ज़ा कर लिया और स्‍वयं मथुरा का राजा बन बैठा।
कंस की चचेरी बहन थी, जिनका नाम था देवकी। कंस उनसे बहुत प्रेम करता था। देवकी का विवाह वसुदेव से तय हुआ तो विवाह सम्पन्न होने के बाद कंस स्‍वयं ही रथ हाँकते हुए बहन को ससुराल छोड़ने के लिए रवाना हुआ। जब वह बहन को छोड़ने के लिए जा रहे था तभी एक आकाशवाणी हुई कि देवकी और वासुदेव की आठवीं संतान कंस की मृत्यु का कारण बनेगी।
यह सुनते ही कंस क्रोधित हो गया और देवकी और वसुदेव को मारने के लिए जैसे ही आगे बढ़ा। तभी वसुदेव ने कहा कि वह देवकी को कोई नुकसान न पहुँचाए। वह स्‍वयं ही देवकी की आठवीं सन्तान कंस को सौंप देंगें। इसके बाद कंस ने वसुदेव और देवकी को मारने के बजाए कारागार में डाल दिया।
कारागार में ही देवकी ने सात सन्तानों को जन्‍म दिया और कंस ने सभी को एक-एक करके मार दिया। इसके बाद जैसे ही देवकी फिर से गर्भवती हुईं तभी कंस ने कारागार का पहरा और भी कड़ा कर दिया। तब भाद्रपद माह के कृष्‍ण पक्ष की अष्‍टमी को रोहिणी नक्षत्र में कन्‍हैया का जन्‍म हुआ। तभी भगवान् श्री हरी विष्‍णु ने वसुदेव को दर्शन देकर कहा कि वह स्‍वयं ही उनके पुत्र के रूप में जन्‍में हैं।
उन्‍होंने यह भी कहा कि वसुदेव जी उन्‍हें गोकुल में अपने मित्र नन्द राय जी के घर पर छोड़ आयें और यशोदा जी के गर्भ से जिस कन्‍या का जन्‍म हुआ है, उसे कारागार में ले आयें।
यशोदा जी के गर्भ से जन्‍मी कन्‍या कोई और नहीं बल्कि स्‍वयं देवी माया थीं। यह सब कुछ सुनने के बाद वसुदेव जी ने वैसा ही किया।
जब कंस को देवकी की आठवीं सन्तान के बारे में पता चला तो वह कारागार पहुँचा। वहाँ उसने देखा कि आठवीं सन्तान तो कन्‍या है। फिर भी वह उसे जमीन पर पटकने ही लगा कि वह मायारूपी कन्‍या आसमान में पहुँचकर बोली कि रे मूर्ख कंस! मुझे मारने से कुछ नहीं होगा। तेरा काल तो पहले से ही ब्रज में प्रकट हो चुका है और वह जल्‍दी ही तेरा सर्वनाश करेगा।
इसके बाद कंस ने ब्रज में जन्‍में नवजातों का पता लगाया। जब यशोदा के लाला का पता चला तो उसे मारने के लिए कई प्रयास किए। कई राक्षसों को भी भेजा, लेकिन कोई भी उस बालक का बाल भी बाँका नहीं कर पाया तो कंस को यह अहसास हो गया कि नन्द बाबा का बालक ही वसुदेव-देवकी की आठवीं सन्तान है।
भगवान् श्री कृष्‍ण ने युवावस्‍था में कंस का अन्त किया और राज्य उग्रसेन को सौंप दिया। जो भी यह कथा पढ़ता या सुनता है उसके समस्‍त पापों का नाश होता है।
श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेवाय!
हे आकर्षक तत्व मेरे प्रभो! इन्द्रियों को वशीभूत करो, दुःखों का हरण करो, समस्त बुराईयों का बध करो, मैं सेवक हूँ आप स्वामी, मैं जीव हूँ। आप ब्रह्म, प्रभो! मेरे प्राणों के आप रक्षक हैं।
(1). भगवान् श्री कृष्ण के खड्ग का नाम नंदक, गदा का नाम कौमौदकी और शंख का नाम पांचजन्य था, जो कि गुलाबी रंग का था।
(2). भगवान् श्री कृष्ण के परमधामगमन के समय ना तो उनका एक भी केश श्वेत था और ना ही उनके शरीर पर कोई झुर्री थीं।
(3). भगवान् श्री कृष्ण के धनुष का नाम शारंग व मुख्य आयुध चक्र का नाम सुदर्शन था। वह लौकिक, दिव्यास्त्र व देवास्त्र तीनों रूपों में कार्य कर सकता था उसकी बराबरी के विध्वंसक केवल दो अस्त्र और थे पाशुपतास्त्र (शिव, कॄष्ण और अर्जुन के पास थे) और प्रस्वपास्त्र ( शिव, वसुगण, भीष्म और कृष्ण के पास थे)।
(4). भगवान् श्री कृष्ण की परदादी मारिषा व सौतेली माँ रोहिणी (बलराम की माँ) नाग जन जाति की थीं।
(5). भगवान् श्री कृष्ण से जेल में बदली गई यशोदा पुत्री का नाम एकानंशा था, जो आज विंध्य वासिनी देवी के नाम से पूजी जातीं हैं।
(6). भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेमिका राधा का वर्णन महाभारत, हरिवंशपुराण, विष्णु पुराण व भागवत पुराण में नहीं है। उनका उल्लेख ब्रह्म वैवर्त पुराण, गीत गोविंद व प्रचलित जन श्रुतियों में रहा है।
(7). जैन परंपरा के मुताबिक, भगवान् श्री कॄष्ण के चचेरे भाई तीर्थंकर नेमिनाथ थे जो हिंदू परंपरा में घोर अंगिरस के नाम से प्रसिद्ध हैं।
(8). भगवान् श्री कृष्ण अंतिम वर्षों को छोड़कर कभी भी द्वारिका में 6 महीने से अधिक नहीं रहे।
(9). भगवान् श्री कृष्ण ने अपनी औपचारिक शिक्षा उज्जैन के संदीपनी आश्रम में मात्र कुछ महीनों में पूरी कर ली थी।
(10). ऐसा माना जाता है कि घोर अंगिरस अर्थात नेमिनाथ के यहाँ रहकर भी उन्होंने साधना की थी।
(11). भगवान् श्री कृष्ण ने द्वंद युद्ध आदि का विकास ब्रज क्षेत्र के वनों में किया था। डांडिया रास का प्रारम्भ भी उन्होंने ही किया था।
(12). कलारीपट्टु का प्रथम आचार्य कृष्ण को माना जाता है। इसी कारण नारायणी सेना भारत की सबसे भयंकर प्रहारक सेना बन गई थी।
(13). भगवान्  श्री कृष्ण के रथ का नाम जैत्र था और उनके सारथी का नाम दारुक, बाहुक था। उनके घोड़ों (अश्वों) के नाम थे शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक।
(14). भगवान् श्री कृष्ण की त्वचा का रंग मेघ श्यामल था और उनके शरीर से एक मादक गंध निकलती थी।
(15). भगवान् श्री कृष्ण की माँस पेशियाँ मृदु परंतु युद्ध के समय विस्तॄत हो जातीं थीं, इसलिए सामान्यतः लड़कियों के समान दिखने वाला उनका लावण्यमय शरीर युद्ध के समय अत्यंत कठोर दिखाई देने लगता था ठीक ऐसे ही लक्ष्ण कर्ण व द्रौपदी के शरीर में देखने को मिलते थे।
(16). जनसामान्य में यह भ्रांति स्थापित है कि अर्जुन सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर थे, परन्तु वास्तव में कृष्ण इस विधा में भी सर्वश्रेष्ठ थे और ऐसा सिद्ध हुआ मद्र राजकुमारी लक्ष्मणा के स्वयंवर में जिसकी प्रतियोगिता द्रौपदी स्वयंवर के ही समान परंतु और कठिन थी।
(17). यहाँ कर्ण व अर्जुन दोंनों असफल हो गए और तब भगवान् श्री कॄष्ण ने लक्ष्यवेध कर लक्ष्मणा की इच्छा पूरी की, जो पहले से ही उन्हें अपना पति मान चुकीं थीं।
(18). भगवान् श्री युद्ध कृष्ण ने कई अभियान और युद्धों का संचालन किया था, परंतु इनमे तीन सर्वाधिक भयंकर थे। (18.1). महाभारत, (18.2) जरासंध और कालयवन के विरुद्ध (18.3). नरकासुर के विरुद्ध। 
(19). भगवान् श्री कृष्ण ने केवल 16 वर्ष की आयु में विश्वप्रसिद्ध चाणूर और मुष्टिक जैसे मल्लों का वध किया। मथुरा में दुष्ट रजक के सिर को हथेली के प्रहार से काट दिया।
(20). भगवान् श्री कृष्ण ने असम में बाणासुर से युद्ध के समय भगवान् शिव से युद्ध के समय माहेश्वर ज्वर के विरुद्ध वैष्णव ज्वर का प्रयोग कर विश्व का प्रथम जीवाणु युद्ध किया था।
(21). भगवान् श्री कृष्ण के जीवन का सबसे भयानक द्वंद्व युद्ध सुभुद्रा की प्रतिज्ञा के कारण अर्जुन के साथ हुआ था, जिसमें दोनों ने अपने अपने सबसे विनाशक शस्त्र क्रमशः सुदर्शन चक्र और पाशुपतास्त्र निकाल लिए थे। बाद में देवताओं के हस्तक्षेप से दोनों शांत हुए।
(22). भगवान् श्री कृष्ण ने 2 नगरों की स्थापना की थी द्वारिका (पूर्व में कुशावती) और पांडव पुत्रों के द्वारा इंद्रप्रस्थ (पूर्व में खांडवप्रस्थ)।
(23). भगवान् श्री कृष्ण ने कलारिपट्टू की नींव रखी जो बाद में बोधिधर्मन से होते हुए आधुनिक मार्शल आर्ट में विकसित हुई।
(24). भगवान् श्री कृष्ण ने श्रीमद्भगवतगीता के रूप में आध्यात्मिकता की वैज्ञानिक व्याख्या दी, जो मानवता के लिए आशा का सबसे बड़ा संदेश थी, है और सदैव रहेगी।
पाण्डवों के दूत भगवान् श्री कृष्ण :: पाण्डवों के वनवास के बारह वर्ष और अज्ञातवास का एक वर्ष व्यतीत हो गया। दुर्योधन ने कहा कि मैंने पाण्डवों का अज्ञातवास भंग के दिया है, अतः उन्हें फिर से 12 वर्ष के लिए वनवास के लिए जाना होगा। भीष्म पितामह, आचार्य द्रोण और आचार्य कृपाचार्य ने कहा कि इस समय 4 कलैंडर प्रचिलित हैं और उन चारों के अनुसार पाण्डवों का वनवास पूरा हो गया है अतः उनका राज्य उनको वापस लौटा देना चाहिए परन्तु दुर्योधन ने उनकी एक न सुनी और बगैर युद्ध के एक इंच भूमि भी देने से इंकार कर दिया। 
पुत्र मोह से ग्रसित दृष्टिविहीन धृतराष्ट्र ने संजय को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजा। संजय ने युधिष्ठर को बार-बार वैराग्य धर्म का उपदेश दिया कि तुम्हारी यदि जय भी हो जाए तो इससे क्या लाभ होगा, कुल का नाश हो जाएगा। भगवान् श्री कृष्ण ने कहा :- पांडव अपना अधिकार क्यों छोड़े? यह वैराग्य धर्म का उपदेश उस समय कहाँ गया था, जब छल से शकुनि ने युधिस्टर का राज्य छिना था ?! 
भगवान् श्री कृष्ण पांडवों की ओर से दूत बनकर कौरवों की राजधानी हस्तिनापुर पहुँचे। दुर्योधन ने वहाँ उनका शाही स्वागत करने का प्रयत्न किया। उन्हें उसने भोजन के लिए आमंत्रित किया, परन्तु भगवान् श्री कृष्ण ने वह निमंत्रण स्वीकार नहीं किया। दुर्योधन बोला :- जनार्दन, आपके लिए अन्न, फल, वस्त्र तथा शैय्या आदि जो वस्तुएँ प्राप्त की गई, आपने उन्हें ग्रहण क्यों नहीं किया? आपने हमारी प्रेमपूर्वक समर्पित पूजा ग्रहण क्यों नहीं की?” 
भगवान् श्री कृष्ण ने उस समय जवाब दिया :- भोजन खिलाने में दो भाव काम करते हैं। एक दया और दूसरी प्रीति-सम प्रीति। भोज्यानयन्नामि आपद्रभोज्यानि वा पुनः? दया दीन को दिखाई जाती है, सो हम दीन-दरिद्र नहीं हैं। जिस काम के लिए हम आए हैं, पहले वह सिद्ध हो जाए तो हम भोजन भी कर लेंगे। आप अपने ही भाइयों से द्वेश क्यों करते हैं? आप हमें क्या खिलाइएगा? उनका धार्मिक पक्ष है, आपका अधार्मिक, सो जो उनसे द्वेष करता है, वह हमसे भी द्वेष करता है। एक बात हमेशा याद रखो : जो द्वेष करता है, उसका अन्न कभी ना खाओ और द्वेष रखने वाले को खिलाना भी नहीं चाहिए :- 
द्विषन्नं नैव भौक्तव्यं द्विषन्तं नैव भोजयेत्। 
भगवान् श्री कृष्ण ने इसी कारण दुर्योधन का राजसी आतिथ्य भी स्वीकार नहीं किया, जबकि सरल विदुर जी का सादा रुखा-सूखा अन्न स्वीकार किया। 
दयाहीन लोगों का भोजन खाने से अच्छा है कि मनुष्य किसी निर्धन के यहाँ भोजन कर ले। 
स्यमन्तक मणि :: भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के दिन चंद्रमा का दर्शन मिथ्या कलंक देने वाला होता है। इसलिए इस दिन चंद्र दर्शन करना मना होता है। इस चतुर्थी को कलंक चौथ के नाम से भी जाना जाता है। कहा जाता है कि भगवान् श्री कृष्ण भी इस तिथि पर चंद्र दर्शन करने के पश्चात मिथ्या कलंक के भागी बने। यदि अज्ञानता वश इस दिन चन्द्र दर्शन हो जाय तो भगवान् श्री कृष्ण की इस कथा का श्रवण, पाठ या स्मरण करें।
सत्राजित भगवान् सूर्य का बहुत बड़ा भक्त था। भगवान् सूर्य ने ही प्रसन्न होकर बड़े प्रेम से उसे स्यमंतक मणि दी थी। सत्राजित उस मणि को गले में धारण कर ऐसा चमकने लगा, मानों स्वयं सूर्य ही हो।
जब सत्राजित द्वारका आया, तब अत्यन्त तेजस्विता के कारण लोग उसे पहचान न सके। दूर से ही उसे देखकर लोगों की आँखें उसके तेज से चौंधिया गईं। लोगों ने समझा कि कदाचित स्वयं भगवान् सूर्य आ रहे हैं। उन लोगों ने भगवान् श्री कृष्ण के पास आकर उन्हें इस बात की सूचना दी। उस समय भगवान् श्री कृष्ण चौसर खेल रहे थे। अपनी चमकीली किरणों से लोगों के नेत्रों को चौंधियाते हुए प्रचण्ड रश्मि भगवान् सूर्य आपका दर्शन करने आ रहे हैं। सभी श्रेष्ठ देवता त्रिलोकी में आपकी प्राप्ति का मार्ग ढूँढते रहते हैं, किन्तु उसे पाते नहीं। आज आपको यदुवंश में छिपा हुआ जानकर स्वयं सूर्य नारायण आपका दर्शन करने आ रहे हैं।
अनजान पुरूषों की यह बात सुनकर कमलनयन भगवान् श्री कृष्ण हँसने लगे। उन्होंने कहा, "अरे, ये सूर्यदेव नहीं हैं। यह तो सत्राजित है, जो मणि के कारण इतना चमक रहा है। इसके बाद सत्राजित अपने समृद्ध घर में चला आया। घर पर उसके शुभागमन के उपलक्ष्य में मंगल-उत्सव मनाया जा रहा था। उसने ब्राह्मणों द्वारा स्यमंतक मणि को देव मन्दिर में स्थापित कर दिया। वह मणि प्रतिदिन आठ भार सोना दिया करती थी और जहाँ वह पूजित होकर रहती थी, वहाँ दुर्भिक्ष, महामारी, ग्रहपीड़ा, सर्पभय, मानसिक और शारीरिक व्यथा तथा मायावियों का उपद्रव आदि कोई भी अशुभ नहीं होता था। 
एक बार भगवान् श्री कृष्ण ने सत्राजित से कहा तुम अपनी मणि राजा उग्रसेन को दे दो। परन्तु वह इतना अर्थ लोलुप-लोभी था कि भगवान्  की आज्ञा का उल्लंघन होगा, इसका कुछ भी विचार न करके उसे अस्वीकार कर दिया।
एक दिन सत्राजित के भाई प्रसेन ने उस परम प्रकाशमयी मणि को अपने गले में धारण कर लिया और फिर वह घोड़े पर सवार होकर शिकार खेलने वन में चला गया। वहाँ एक सिंह ने घोड़े सहित प्रसेन को मार डाला और उस मणि को छीन लिया। वह अभी पर्वत की गुफा में प्रवेश कर ही रहा था कि मणि के लिए ऋक्षराज जाम्बवान् ने उसे मार डाला। उन्होंने वह मणि अपनी गुफा में ले जाकर अपनी पुत्री जामवन्ती को खेलने के लिए दे दी। 
अपने भाई प्रसेन के न लौटने से उसके भाई सत्राजित को बड़ा दुःख हुआ। वह कहने लगा, "बहुत सम्भव है श्री कृष्ण ने ही मेरे भाई को मार डाला हो, क्योंकि वह मणि गले में डालकर वन में गया था"। सत्राजित की यह बात सुनकर लोग आपस में काना-फूँसी करने लगे। जब भगवान् श्री कृष्ण ने सुना कि यह कलंक का टीका मेरे सिर लगाया गया है, तब वे बहाने से नगर के कुछ सभ्य पुरूषों को साथ लेकर प्रसेन को ढूँढने के लिए वन में गये। वहाँ खोजते-खोजते लोगों ने देखा कि घोर जंगल में सिंह ने प्रसेन और उसके घोड़े को मार डाला है। जब वे लोग सिंह के पैरों का चिन्ह देखते हुए आगे बढ़े, तब उन लोगों ने यह भी देखा कि पर्वत पर रीछ ने सिंह को भी मार डाला है।
भगवान् श्री कृष्ण ने सब लोगों को बाहर ही बिठा दिया और अकेले ही घोर अन्धकार से भरी हुई ऋक्षराज की भयंकर गुफा में प्रवेश किया। भगवान् श्री कृष्ण ने वहाँ जाकर देखा कि श्रेष्ठ मणि स्यमन्तक को बच्चों का खिलौना बना दिया गया है। उस गुफा में एक अपरिचित मनुष्य को देखकर धाय भयभीत की भाँति चिल्ला उठी। उसकी चिल्लाहट सुनकर परम बली ऋक्षराज जाम्बवान क्रोधित होकर वहाँ दौड़ आये। 
जाम्बवान उस समय कुपित हो रहे थे। उन्हें भगवान् की महिमा, उनके प्रभाव का पता न चला। उन्होंने एक साधारण मनुष्य समझ लिया और वे अपने स्वामी भगवान्  श्री कृष्ण से युद्ध करने लगे। जिस प्रकार माँस के लिये दो बाज आपस में लड़ते हैं, वैसे ही विजयाभिलाषी भगवान् श्री कृष्ण और जाम्बवान आपस में घमासान युद्ध करने लगे। पहले तो उन्होंने अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार किया, फिर शिलाओं का तत्पश्चात वे वृक्ष उखाड़कर एक दूसरे पर फेंकने लगे। अन्त में उनमें बाहुयुद्ध होने लगा। 
वज्र-प्रहार के समान कठोर घूँसों की चोट से जाम्बवान के शरीर की एक एक गाँठ टूट गयी। उत्साह जाता रहा। शरीर पसीने से लथपथ हो गया। तब उन्होंने अत्यंत विस्मित-चकित होकर भगवान् श्री कृष्ण से कहा, "प्रभो! मैं जान गया। आप ही समस्त प्राणियों के स्वामी, रक्षक, पुराण पुरूष भगवान् श्री हरी  विष्णु हैं। आप ही सबके प्राण, इन्द्रियबल, मनोबल और शरीर बल हैं। आप विश्व के रचयिता ब्रह्मा आदि को भी बनाने वाले हैं। बनाये हुए पदार्थों में भी सत्तारूप से आप ही विराजमान हैं। काल के कितने भी अवयव है, उनके नियामक परम काल आप ही हैं और शरीर भेद से भिन्न-भिन्न प्रतीयमान अन्तरात्माओं के परम आत्मा भी आप ही हैं"। प्रभो ! मुझे स्मरण है, आपने अपने नेत्रों में तनिक सा क्रोध का भाव लेकर तिरछी दृष्टि से समुद्र की ओर देखा था। उस समय समुद्र के अन्दर रहने वाल बड़े-बड़े नाक (घड़ियाल) और मगरमच्छ क्षुब्ध हो गये थे और समुद्र ने आपको मार्ग दे दिया था। तब आपने उस पर सेतु बाँधकर सुन्दर यश की स्थापना की तथा लंका का विध्वंस किया। आपके बाणों से कट-कटकर राक्षसों के सिर पृथ्वी पर लोट रहे थे। अवश्य ही आप मेरे वे ही राम जी श्री कृष्ण के रूप में आये हैं। 
जब ऋक्षराज जाम्बवान ने भगवान् को पहचान लिया, तब कमलनयन भगवान् श्री कृष्ण ने अपने परम कल्याणकारी शीतल करकमल को उनके शरीर पर फेर दिया और फिर अहैतुकी कृपा से भरकर प्रेम गम्भीर वाणी से अपने भक्त जाम्बवान जी से कहा, "ऋक्षराज! हम मणि के लिए ही तुम्हारी इस गुफा में आये हैं। इस मणि के द्वारा मैं अपने पर लगे झूठे कलंक को मिटाना चाहता हूँ"। भगवान्  के ऐसा कहने पर जाम्बवान बड़े आनन्द से उनकी पूजा करने के लिए अपनी कन्या कुमारी जाम्बवती को मणि के साथ उनके चरणों में समर्पित कर दिया। 
भगवान्  श्री कृष्ण जिन लोगों को गुफा के बाहर छोड़ गये थे, उन्होंने बारह दिन तक उनकी प्रतीक्षा की। परन्तु जब उन्होंने देखा कि अब तक वे गुफा से नहीं निकले, तब वे अत्यंत दुःखी होकर द्वारका लौट गये। वहाँ जब माता देवकी, रूक्मणि, वसुदेव जी तथा अन्य सम्बन्धियों और कुटुम्बियों को यह मालूम हुआ कि भगवान् श्री कृष्ण गुफा से नहीं निकले, तब उन्हें बड़ा शोक हुआ। सभी द्वारकावासी अत्यंत दुःखित होकर सत्राजित को भला बुरा कहने लगे और भगवान् श्री कृष्ण की प्राप्ति के लिए महामाया दुगदिवी की शरण गये, उनकी उपासना करने लगे। उनकी उपासना से दुगदिवी प्रसन्न हुई और उन्होंने आशीर्वाद दिया।
उसी समय उनके बीच में मणि और अपनी नववधू जाम्बवती के साथ सफल मनोरथ होकर भगवान् श्री कृष्ण सबको प्रसन्न करते हुए प्रकट हो गये। सभी द्वारकावासी भगवान् श्री कृष्ण को पत्नी के साथ और गले में मणि धारण किये हुए देखकर परमानन्द में मग्न हो गये, मानो कोई मरकर लौट आया हो। 
तदनन्तर भगवान् ने सत्राजित को राजसभा में महाराज उग्रसेन के पास बुलवाया और जिस प्रकार मणि प्राप्त हुई थी, वह सब कथा सुनाकर उन्होंने वह मणि सत्राजित को सौंप दी। सत्राजित अत्यंत लज्जित हो गया। मणि तो उसने ले ली, परन्तु उसका मुँह नीचे की ओर लटक गया। अपने अपराध पर उसे बड़ा पश्चाताप हो रहा था, किसी प्रकार वह अपने घर पहुँचा। उसके मन की आँखों के सामने निरन्तर अपना अपराध नाचता रहता। बलवान के साथ विरोध करने के कारण वह भयभीत भी हो गया था। 
अब वह यही सोचता रहता कि 'मैं अपने अपराध का प्राश्चित कैसे करूँ? मुझ पर भगवान् श्री कृष्ण कैसे प्रसन्न हों? मैं ऐसा कौन सा काम करूँ, जिससे मेरा कल्याण हो और लोग मुझे कोसे नहीं। सचमुच मैं अदूरदर्शी, क्षुद्र हूँ। धन के लोभ से मैं बड़ी मूढ़ता का काम कर बैठा। अब मैं रमणियों में रत्न के समान अपनी कन्या सत्याभामा और वह स्यमंतक मणि दोनों ही श्री कृष्ण को दे दूँ। यह उपाय बहुत अच्छा है। इसी से मेरे अपराध का प्राश्चित हो सकता है और कोई उपाय नहीं है। 
सत्राजित ने अपनी विवेक बुद्धि से ऐसा निश्चय करके स्वयं ही इसके लिए उद्योग किया और अपनी कन्या तथा स्यमन्तक मणि दोनों ही ले जाकर भगवान् श्री कृष्ण को अर्पण कर दीं। सत्यभामा शील स्वभाव, सुन्दरता, उदारता आदि सदगुणों से सम्पन्न थी। बहुत से लोग चाहते थे कि सत्यभामा हमें मिले और उन लोगों ने उन्हें माँगा भी था। परन्तु अब भगवान् श्री कृष्ण ने विधिपूर्वक उनका पाणिग्रहण किया। भगवान् श्री कृष्ण ने सत्राजित से कहा, "हम स्यमन्तक मणि न लेंगे। आप सूर्य भगवान्  के भक्त हैं, इसलिए वह आपके ही पास रहे। हम तो केवल उसके फल के अर्थात उससे निकले हुए सोने के अधिकारी हैं। वही आप हमें दे दिया करें। 
भगवान् श्री कृष्ण चरणारविन्द :: कृष्ण के चरण कमल का स्मरण मात्र करने से व्यक्ति को समस्त आध्यात्मिक एवं भौतिक सम्पत्ति, सौभाग्य, सौंदर्य और सगुण की प्राप्ति होती है। ये नलिन चरण सर्वलीला धाम हैं। भगवान् श्री कृष्ण के चरणारविन्द हमारा सर्वस्व हो जाये।[गोविन्द लीलामृत] 
भगवान् श्री कृष्ण का दायाँ चरण :: श्री श्याम सुन्दर के दाँये चरण में ग्यारह मंगल चिन्ह हैं। 
(1). जौ :: जौ-यव का दाना व्यक्त करता है कि भक्त जन राधा-कृष्ण के पदार विन्दो की सेवा कर समस्त भोग, ऐश्वर्य प्राप्त करते हैं। एक बार उनका पदाश्रय प्राप्त कर लेने पर भक्त की अनेकानेक जन्म-मरण की यात्रा घट कर जौ के दानों के समान बहुत छोटी हो जाती है।  
(2).चक्र :: यह चिन्ह सूचित करता है कि राधा-कृष्ण के चरण कमलों का ध्यान काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और मात्सर्य रूपी छ: शत्रुओं का नाश करता है। ये तेजस तत्व का प्रतीक हैं, जिसके द्वारा राधा-गोविंद भक्तों के अंतःकरण से पाप तिमिर को छिन्न-भिन्न कर देते हैं। 
(3). छत्र :: छत्र यह सिद्ध करता है कि भगवान् श्री कृष्ण चरणों की शरण ग्रहण करने वाले भक्त भौतिक कष्टों की अविराम वर्षा से बचे रहते हैं। 
(4). उर्ध्व रेखा :: जो भक्त इस प्रकार राधा-श्याम के पद कमलों से इस प्रकार लिपटे रहते हैं,  मानो वे उनकी जीवन रेखा हो, वे दिव्य धाम को जाएँगे। 
(5). कमल :: सरस सरसिज राधा-गोविंद के चरणविंदों का ध्यान करने वाले मधुकर सदृश भक्तों के मन में ईश्वरीय प्रेम हेतु लोभ उत्पन्न करता है। 
(6). ध्वज :: ध्वज भगवान् श्री कृष्ण के भक्तों को भय से बचाता और उन भक्तों की सुरक्षा करता है जो उनके चरणों में ध्यान लगाते हैं। यह विजय का प्रतीक है। 
(7). अंकुश :: अंकुश इस बात का घोतक है कि राधा-गोविन्द के चरणों का ध्यान भक्तों के मन रूपी गज को वश में करता है, उसे सही मार्ग दिखाता है। 
(8). वज्र :: वज्र यह बताता है कि भगवान् श्री कृष्ण के पाद-पंकज का ध्यान भक्तों के पूर्व पापों के कर्म फलों रूपी पर्वतों को चूर्ण-चूर्ण कर देता है। 
(9). अष्टकोण :: यह बताता है जो व्यक्ति भगवान् श्री कृष्ण के चरणों की आराधना करते हैं, वे अष्ट दशाओं से सुरक्षित रहते हैं। 
(10). स्वास्तिक :: जो व्यक्ति भगवान् श्री कृष्ण के चरणों को अपने मन में संजो के रखता है, उसका कभी अमंगल नहीं होता। 
(11). चार जंबू फल :: वैदिक स्रष्टि वर्णन के अनुसार जंबू द्वीप के निवासियों के लिए भगवान् श्री कृष्ण के राजीव चरण ही एक मात्र आराध्य विषय हैं।
श्री श्याम सुन्दर के बाँये चरण में आठ शुभ चिन्ह हैं :-  
(12). शंख :: शंख विजय का प्रतीक है। यह बताता है कि राधा-गोविंद के चरण कमलों की  शरण ग्रहण करने वाले व्यक्ति सदैव दुख से बचे रहते हैं और अभय दान प्राप्त करते हैं। 
(13). आकाश :: यह दर्शाता है भगवान् श्री कृष्ण के चरण सर्वत्र विघमान हैं। भगवान् श्री कृष्ण हर वस्तु के भीतर हैं। 
(14). धनुष :: यह चिन्ह सूचित करता है कि एक भक्त का मन जब भगवान् श्री कृष्ण के चरण रूपी लक्ष्य से टकराता है, तब उसके फलस्वरूप प्रेम अत्यधिक बढ़ जाता है। 
(15). गौखुर :: यह इस बात का सूचक है कि जो व्यक्ति भगवान् श्री कृष्ण के चरणारविंदों की पूर्ण शरण लेता है, उसके लिए भव सागर गो खुर के चिन्ह में विघमान पानी के समान छोटा एवं नगण्य हो जाता है। वह भवसागर को सहज ही पार कर लेता है। 
(16). चार कलश :: भगवान् श्री कृष्ण के चरण कमल, शुद्ध सुधारस का स्वर्ण कलश धारण किये हैं और शरणागत जीव अबाध रूप से उस सुधा रस का पान करता है। 
(17). त्रिभुज :: भगवान् श्री कृष्ण के चरणों की शरण ग्रहण करने वाले भक्त त्रिभुज  की तीन भुजाओं द्वारा त्रितापों और त्रिगुण रूपी जाल से बच जाते हैं।
(18). अर्धचंद्र :: यह बताता है कि जिस प्रकार भगवान् शिव आदि देवताओं ने राधा गोविन्द के चरणार विन्दों के तलवों से अपने शीश को शोभित किया है; इसी प्रकार जो भक्त इस प्रकार राधा और कृष्ण के पदाम्बुजों द्वारा अपने शीश को सुसज्जित करते हैं, वे भगवान् शिव के समान भगवान् श्री कृष्ण के महान भक्त बन जाते हैं। 
(19). मीन :: जिस प्रकार मछली जल के बिना नहीं रह सकती, उसी प्रकार भक्तगण क्षण भर भी राधा-श्याम सुन्दर के चरणाम्बुजों के बिना नहीं रह सकते। 
इस प्रकार भगवान् श्री कृष्ण के दोनों चरणों में उन्नीस शुभ चिन्ह हैं।
जरासंध का मथुरा पर आक्रमण :: कंस की मृत्यु के पश्चात उसका ससुर जरासन्ध बहुत ही क्रोधित था। उसने भगवान् श्री कृष्ण और  बलरामजी को मारने हेतु मथुरा पर 17 बार आक्रमण किया। 
प्रत्येक पराजय के बाद वह अपने विचारों का समर्थंन करने वाले तमाम राजाओं से सम्पर्क करता और उनसे गठजोड़ करता और मथुरा पर हमला करता, मगर भगवान् श्री कृष्ण पूरी सेना को मार देते, मात्र जरासन्ध को ही छोड़ देते।
यह सब देख बलराम जी बहुत क्रोधित हुये और श्री कृष्ण से कहा, "बार-बार जरासन्ध हारने के बाद पृथ्वी के कोनों-कोनों से दुष्टों के साथ महागठबंधन कर हम पर आक्रमण कर रहा है और तुम पूरी सेना को मार देते हो किन्तु असली खुराफात करने वाले को ही छोड़ दे रहे हो"!?
तब हँसते हुए भगवान् श्री कृष्ण ने बलराम जी को समझाया, "हे भ्राता श्री मैं जरासन्ध को बार बार जान बूझकर इसलिए छोड़ दे रहा हूँ ताकि ये जरासन्ध पूरी पृथ्वी से दुष्टों के साथ महागठबंधन करता है और मेरे पास लाता है और मैं बहुत ही आसानी से एक ही जगह रहकर धरती के सभी दुष्टों को मार दे रहा हूँ नहीं तो मुझे इन दुष्टों को मारने के लिए पूरी पृथ्वी का चक्कर लगाना पड़ता और बिल में से खोज-खोज कर निकाल निकाल कर मारना पड़ता और बहुत कष्ट झेलना पड़ता। दुष्ट दलन का मेरा यह कार्य जरासन्ध ने बहुत आसान कर दिया है"।
जब सभी दुष्टों को मार डालुंगा तो सबसे आखिरी में इसे भी खत्म कर ही दूँगा,  चिन्ता न करो भ्राता श्री"।
SHRI KRASHN LEELA
श्री कृष्ण लीला 
पुरुष और प्रकृति-परमात्मा श्री कृष्ण और राधा जी :: राधा-कृष्ण का शाश्वत लोक है गोलोक, जहाँ भगवान् श्री कृष्ण का आदि निवास है। सृष्टि रचना काल में परमेश्वर ने अपने बाँये भाग से माँ भगवती सरस्वती को प्रकट किया, जिनकी जिव्हा से माँ राधा जी प्रकट हुईं। रमण करने की इच्छा उत्पन्न होने पर राधा जी और भगवान् श्री कृष्ण रास मण्डल प्रकट करते हैं। राधा जी भगवान् श्री कृष्ण का सम्मान करने के लिए उनके मार्ग में फूल बिखेरने के लिए दौड़ती हैं, अतः उन्हें भगवान् श्री कृष्ण ने राधा नाम दिया है। भगवान् श्री कृष्ण की अर्धांगिनी के रूप में वह सारे संसार की जननी हैं। भगवान् श्री कृष्ण अपनी सुरक्षा के लिए उनकी सोलह उपचारों से पूजा कर उनके मन्त्र तथा कवच को अपने कंठ में धारण करते हैं।
राधाजी के संकल्प से उत्पन्न सभी गोपियाँ उनकी सेवा करती हैं। भगवान् श्री कृष्ण के आकर्षण से मोहित हो कर, ह्रदय के असहाय होने पर अनेक गोपियों ने उन्हें पति रूप में पाने के लिए तपस्या की। शोभा, प्रभा, शांति, सुशीला आदि कई गोपियों ने परमात्मा कृष्ण को पति रूप में प्राप्त किया। किन्तु राधाजी के क्रोध के कारण कोई भी गोपी शरीर धारण कर गोलोक में नहीं रह पायी और भगवान् कृष्ण ने उन्हें अशरीरी बना कर सृष्टि में अलग अलग व्यक्ति, गुण तथा स्थानों में बाँट दिया। एक बार विरजा नाम की एक गोपी ने परमात्मा कृष्ण को पति रूप में पाने के लिए कठोर तपस्या की। उसके तप से प्रसन्न होकर भगवान् कृष्ण ने उसे पत्नी रूप में स्वीकार किया। 
किन्तु राधा जी की गोपियों ने भगवान् श्री कृष्ण के इस गुप्त सम्बन्ध की सूचना राधा जी को दे दी। क्रोधित राधा जी अपनी गोपियों की सेना के साथ भगवान् श्री कृष्ण की खबर लेने विरजा के आश्रम में पहुँचीं। उनके आने की भनक लगते ही भगवान् श्री कृष्ण तुरन्त अदृश्य हो गए। राधा जी के भय से विरजा ने भी योग बल का सहारा ले कर शरीर त्याग दिया। भगवान् श्री कृष्ण के द्वारपाल श्री दामा ने राधा जी के क्रोध से भगवान् श्री कृष्ण को बचाने के लिए राधा जी को द्वार पर रोकने का प्रयास किया। अतः राधा जी भगवान् श्री कृष्ण के साथ श्री दामा पर भी भयानक क्रोध करने लगीं। विरजा ने तुरन्त नदी का रूप धारण कर लिया और वह गोलोक में एक नदी के रूप में बहने लगीं। 
जब राधा जी को भगवान् श्री कृष्ण और विरजा एक साथ नहीं दिखे तो वह वापस अपने महल में आ गईं, लेकिन क्रोध के कारण उनका अंग-अंग फड़क रहा था। राधाजी के जाते ही भगवान् श्री कृष्ण विरजा नदी के तट पर जाकर रोने लगे और बोले,"प्रेयसियों में अति श्रेष्ठ! शीघ्र मेरे पास आ जाओ। हे सुंदरी! तुम्हारे बिना मैं कैसे जीवित रहूँगा? मेरे आशीर्वाद से परम सुन्दरी स्त्री बन जाओ। अब उत्तम शरीर धारण कर जल से निकल आओ। मैंने तुम्हे आठों सिद्धियाँ प्रदान की हैं। यह सुनकर विरजा ने राधाजी के समान सुन्दर रूप धारण किया और भगवान् श्री कृष्ण के सामने प्रकट हो गयीं। प्रभु ने एकांत में उन के साथ विहार किया और समय आने पर विरजा ने सात पुत्रों को जन्म दिया। एक बार जब वह भगवान् के साथ विहार कर रही थी, उनका छोटा पुत्र अपने बड़े भाइयों से भयभीत होकर रोता हुआ आया और माता की गोद में बैठ गया। पुत्र को भयभीत देख कर भगवान् श्री कृष्ण ने विरजा का त्याग कर दिया और राधा जी के पास चले गए। विरजा ने पुत्र को गोद में बिठा कर शांत किया और जब भगवान् श्री कृष्ण को वहाँ नहीं पाया तो क्रोध में आकर पुत्र को श्राप दे दिया, "तुम खारे सागर हो जाओ! कोई भी तुम्हारा जल नहीं पीयेगा"। फिर उन्होंने दूसरे पुत्रों को भी श्राप दे दिया, "मूढ़! तुम लोग भूतल पर जाओ। जम्बुद्वीप में तुम्हारी स्थिति एक साथ नहीं रह जायेगी। अलग-अलग द्वीपों में रह कर तुम नदियों के साथ क्रीडा करोगे"। दुखी होकर सातों पुत्र माता के पास आये। भक्ति के साथ सर झुका कर उन्होंने माता के श्राप को स्वीकार किया और पृथ्वी पर चले गए। पति और पुत्रों के वियोग में विरजा जी दुखी होकर बेहोश हो गयीं। उन्हें दुखी जानकार भगवान् श्री कृष्ण उनके पास आये और बोले, "मैं नित्य तुम्हारे स्थान पर अवश्य आऊँगा। राधा जी के समान ही तुम मेरी प्रिया होगी और मेरे वरदान से नित्य अपने पुत्रों को देखोगी"। राधाजी की सखियों ने भगवान् श्री कृष्ण को ऐसा कहते हुए सुना और जाकर उन्हें सब कुछ बता दिया, जिससे नाराज़ होकर राधा जी तुरन्त कोप भवन में चली गयीं। 
जब भगवान् श्री कृष्ण राधा जी को मनाने के लिए आये तो उनका क्रोध और भी भड़क गया। श्री दामा के साथ भगवान् दरवाजे पर खड़े थे। उन्हें देखते ही राधाजी बरस पडीं, "हे हरि!गोलोक में हमारे समान तुम्हारी अनेकों पत्नियाँ हैं। उन्ही के पास जाओ। मुझसे तुम्हारा क्या प्रयोजन है? तुम्हारी प्रेयसी विरजा, जो मेरे भय के कारण नदी रूप हो गयी है, तुम्हें बहुत प्रिय है और अब भी तुम उसके पास जाते हो। अच्छा हो कि तुम उसी के किनारे अपना घर बनालो और हर वक्त वहीं रहो या वह नदी हो गयी है तो तुम (नद ) नाले बन जाओ, क्योंकि नदी-नद का समागम हितकर होगा। शयन-भोजन में सुख के होने से अपनी जाति में परम प्रीती होती है। अहो एक नदी के साथ देव शिरोमणि क्रीडा कर रहे हैं, इसे सुनते ही भले लोग मुस्कुराने लगेंगे, क्या जो तुम्हें सर्वाधीश्वर कहते हैं, ठीक से जानते हैं कि सब जीवों का आत्मा होकर भी भगवान् नदी के साथ विहार करना चाहते हैं"! इतना कहकर राधा जी भूमि पर पड़ी रहीं। उनकी अनेकों सेविकाएँ अनेक प्रकार से उनकी सेवा कर रही थीं। हाथ में बेंत लिए उनकी द्वार पालिकाओं ने भगवान् श्री कृष्ण को अन्दर जाने से रोक दिया। भगवान् श्री कृष्ण को वहीं खड़ा देख कर राधा जी ने फिर अपना क्रोध उन पर प्रकट किया, हे कृष्ण! हे विरजाकांत! मेरे सामने से चले जाओ। हे चंचल! हे रति चोर! मुझे क्यों दुःख देते हो? शीघ्र पद्मावती या मनोरमा के यहाँ जाओ या रूपवती वनमाला के पास चले जाओ। हे नदी के पति! हे देवों के गुरु के गुरु! मैंने तुम्हें भली भाँती जान लिया है। अतः तुम्हारा कल्याण इसी में है कि मेरे यहाँ से शीघ्र चले जाओ। क्योंकि हे लम्पट! मनुष्यों की भाँति ही तुम्हारा सदैव का व्यवहार रहा है। इसलिए तुम यहाँ गोलोक से जाकर भारत में मनुष्य योनी में जन्म लो। हे सुशीले! हे शशिकले! इस धूर्त को यहाँ से शीघ्र हटाओ। इसका यहाँ क्या प्रयोजन है? 
राधा जी के इसी श्राप के कारण समय आने पर भगवान् श्री कृष्ण को पृथ्वी पर मनुष्य के रूप में यशोदा का पुत्र बन कर जन्म लेना पड़ा। राधा ने क्रोध शांत होने पर अपने भविष्य का जब चिंतन किया जिसमें उन्हें भगवान् श्री कृष्ण से अलग रह कर पृथ्वी पर किसी अन्य पुरुष की पत्नी बनना था, तो उनके शोक की सीमा न रही। लेकिन भगवान् श्री कृष्ण ने उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान देकर शांत किया, "सारा ब्रहमांड आधार और आधेय के रूप में बनता है। आधार से अलग आधेय का होना संभव नहीं है। फल का आधार फूल है, फूल का पत्ता, पत्ते का तना, तने का वृक्ष, वृक्ष का अंकुर, अंकुर का बीज, बीज का भूमि, भूमि का शेषनाग, शेष का कश्यप, कश्यप का वायु और वायु का आधार मैं हूँ। मेरा आधार तुम हो क्योंकि मैं सदा तुम्हीं में स्थित रहता हूँ। तुम शक्ति समूह और मूल प्रकृति ईश्वरी हो। शरीर रूपिणी और तीन गुणों का आधार हो। मैं तुम्हारा आत्मा निरीह हूँ और तुम्हारे सम्पर्क से चेष्टा करने वाला हूँ। पुरुष से वीर्य उत्पन्न होता है, वीर्य से संतान उत्पन्न होती है। उन दोनों की आधार स्त्री प्रकृति का अंश है। बिना देह के आत्मा और बिना आत्मा के देह कहाँ हो सकता है? दोनों की ही प्रधानता है, क्योंकि बिना दो के संसार कैसे चल सकता है? राधे! संसार के बीज रूप हम दोनों में कोई भेद नहीं है। जहाँ आत्मा है, वहाँ देह है। वे दोनों एक दूसरे से अलग नहीं हैं। जिस तरह दूध में धवलता; अग्नि में दाहिका शक्ति; भूमि में गंध और जल में शीतलता है, उसी तरह हम में भेद नहीं है। मेरे बिना तुम निर्जीव हो जाती हो और तुम्हारे बिना मैं अदृश्य हो जाता हूँ। यह निश्चित हैं कि तुम्हारे बिना मैं सृष्टि करने में समर्थ नहीं होता हूँ। जैसे कुम्हार मिट्टी के बिना घड़ा और सुनार सोने के बिना गहने नहीं बना सकता उसी तरह मैं तुम्हारे बिना असमर्थ हूँ। जिस प्रकार आत्मा नित्य है उसी प्रकार तुम नित्य प्रकृति हो। तुम समस्त शक्ति संपन्न, सब की आधार और सनातनी हो। तुम मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हो। सभी देव और देवियाँ मेरे समीप रहते हैं, किन्तु तुम मुझे सब से प्रिय न होतीं तो मेरे वक्ष स्थल में कैसे विराजमान हो सकती थीं? महादेवी! जिस प्रकार तुम हो वैसा ही मैं भी हूँ"।इस प्रकार उन्हें आश्वासन देकर भगवान् श्री कृष्ण ने उन्हें पृथ्वी पर वृषभानु की पुत्री के रूप में जन्म लेने के लिए विदा किया।
भगवान् श्री कृष्ण की वेणु नाद सुन कर गोपियों द्वारा वन में आकर महारास के प्रसंग में कहा कि यह महारास काम की नहीं, अपितु भगवान् श्री कृष्ण की कथा है। यह जीव शिव के मिलन और काम के नष्ट होने की कथा है। भगवान् शिव शंकर द्वारा महारास के दर्शन करके भगवान् द्वारा गोपेश्वर नाम प्राप्त होने की कथा को और महारास के चलते गोपियों का भगवान् से दूर हो जाने एवं अक्रुर जी द्वारा कंस के भेजने पर भगवान् श्री कृष्ण-बलराम को मथुरा ले जाने के विरह प्रसंग को सुन कर सभी व्यक्ति भावुक हो जाते हैं और उनकी आँखों से अश्रु बहने लगते हैं।
जन्म कथा :: कंस अपनी सबसे चहेति चचेरी बहन देवकी, जो कि शूर-पुत्र वसुदेव को ब्याही गई थीं, को विदा करने के लिए स्वयं रथ हाँककर ले जा रहा था तो, उसने यह आकाशवाणी सुनी कि देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवें बच्चे के हाथ से उसकी मृत्यु होगी; तो वह बहुत शंकित हो गया। उसने वासुदेव-देवकी को कारागार में डाल दिया। कंस के चाचा और उग्रसेन के भाई देवक ने अपनी सात पुत्रियों का विवाह वासुदेव से कर दिया था, जिनमें देवकी भी एक थीं। 
जब कंस ने देवकी के छः बालकों मार डाला तब सातवें गर्भ में भगवान शेष जी देवकी के गर्भ में पधारे। भगवान् विष्णु ने अपनी योगमाया से कहा कि हे कल्याणी! तुम ब्रज में जाओ। वहाँ पर देवकी के गर्भ में मेरे अंशावतार शेष जी पहुँच चुके हैं। तुम उन्हें नन्द बाबा की पहली पत्नी रोहिणी के गर्भ में रख दो और स्वयं उनकी दूसरी पत्नी यशोदा के गर्भ में स्थित हो जाओ। तुम वहाँ दुर्गा, भद्रकाली, विजया, वैष्णवी, कुमुदा, चण्डिका, कृष्णा, माधवी, कन्या, माया, नारायणी, ईशायिनी, शारदा, अम्बिका आदि अनेक नामों से पूजी जाओगी। मैं भी अपने समस्त ज्ञान, बल तथा सम्पूर्ण कलाओं के साथ देवकी के गर्भ में आ रहा हूँ। 
हे परीक्षित! इस तरह शेष भगवान् के अवतार बलराम जी पहले देवकी के गर्भ में आये और फिर उनको योगमाया ने देवकी के गर्भ से निकाल कर रोहिणी के गर्भ में रख दिया। इसीलिये बलराम जी की दो माताएँ हुईं। तत्पश्चात अजन्मा भगवान् श्री कृष्ण  स्वयं देवकी के गर्भ में आ पहुँचे। सातवें बच्चे (संकर्षण जी, बलराम) का उसे कुछ पता ही नहीं चला। 
कृष्णावतार ::
 यथा समय देवकी की आठवीं सन्तान भगवान् कृष्ण का जन्म कारागार में भादों कृष्णा अष्टमी की आधी रात को हुआ। जिस समय वे प्रकट हुए प्रकृति सौम्य थी, दिशायें निर्मल हो गई थीं। नक्षत्रों में विशेष कान्ति आ गई। भादों माह की अष्टमी तिथि थी। रोहिणी नक्षत्र था। अर्द्ध रात्रि का समय था। बादल गरज रहे थे और घनघोर वर्षा हो रही थी। उसी काल में परब्रह्म परमेश्वर माता देवकी के गर्भ से प्रकट हुये। उन्होंने चतुर्भुज रूप में माता देवकी और वासुदेव जी को दर्शन दिये और बाद में सभी कुछ उनकी याददाश्त से मिटा भी दिया। उस रूप में उनकी चार भुजाएँ थीं; जिनमें वे शंख, चक्र, गदा एवं पद्म धारण किये हुये थे। वक्षस्थल पर श्री वत्स का चह्न था। कण्ठ में कौस्तुभ मणि जगमगा रही थी। उनका सुन्दर श्याम शरीर था, जिस पर वे पीताम्बर धारण किये हुये थे। कमर में कर्धनी, भुजाओं में बाजूबन्द तथा कलाइयों में कंकण शोभायमान थे। अंग प्रत्यंग से अपूर्व छटा छलक रही थी, जिसके प्रकाश से सम्पूर्ण बन्दी गृह जगमगा उठा। वसुदेव जी और माता देवकी विस्मय और हर्ष से ओत-प्रोत होने लगे। यह जान कर कि स्वयं भगवान् उनके पुत्र के रूप में पधारे हैं; उनके आनन्द की सीमा नहीं रही। बुद्धि को स्थिर कर दोनों ने भगवान् को प्रणाम किया और उनकी स्तुति करने लगे।
स्तुति करके देवकी बोलीं कि हे प्रभु! आपने अपने दर्शन देकर हमें कृतार्थ कर दिया। अब मैं आपसे प्रार्थना करती हूँ कि आप अपने अलौकिक रूप को त्याग कर सामान्य बालक का रूप धारण कर लीजिये। भगवान् ने देवकी से कहा, “हे देवि! अपने पूर्व जन्म में आप दोनों ने 12,000 वर्षों तक मेरी घोर तपस्या की थी और मुझे पुत्र रूप में माँगा था। अब मैंने आप लोगों के पुत्र के रूप में अवतार लिया है"। फिर वे वसुदेव से बोले, “हे तात! मैं अब बालक रूप हो जाता हूँ। आप मुझे गोकुल में नन्द बाबा के यहाँ पहुँचा दीजिये। वहाँ पर मेरी योगमाया ने कन्या के रूप में यशोदा के गर्भ से जन्म लिया है। आप उसे यहाँ ले आइये। इतना कहकर उन्होंने बालक रूप धारण कर लिया। 
भगवान् की माया से वसुदेव जी की हथकड़ी-बेड़ी खुल गईं, पहरेदारों को गहन निद्रा व्याप्त गई, और कपाट भी खुल गये। वसुदेव जी बालक को लेकर गोकुल की ओर चले। बादल धीरे-धीरे गरज रहे थे। जल की फुहारें पड़ रहीं थीं। भगवान् शेष नाग अपना फन फैला कर छतरी बने हुये बालक को ढँके हुये थे। वसुदेव जी यमुना पार करने के लिये निर्भय होकर जल में घुस पड़े। भगवान्  के चरण को स्पर्श करने के लिये यमुना जी का जल चढ़ने लग गया। ज्यों-ज्यों वसुदेव जी बालक को ऊपर उठाते, त्यों-त्यों जल और भी ऊपर चढ़ता जाता। इस पर वसुदेव जी के कष्ट को जान कर भगवान् ने अपने चरण बढ़ा कर यमुना जी को उसे छू लेने दिया और जल स्तर नीचे आ गया। भयभीत वसुदेव जी नवजात बच्चे को लेकर शीग्रता पूर्वक यमुना पार गोकुल गये और वहाँ अपने मित्र नंद के यहाँ शिशु को पहुँचा आये। लौटते वक्त वे उनकी पत्नी यशोदा की सद्योजात कन्या (योगमाया) को ले आये। 
योगमाया-अष्ट भुजा देवी  :: यशोदा जी अचेत होकर अपनी शैया पर सो रहीं थीं उन्हें नवजात कन्या के जन्म का कुछ भी पता नहीं था। वसुदेव जी ने अपने पुत्र को यशोदा की शैया पर सुला दिया और उनकी कन्या को अपने साथ बन्दीगृह ले आये। वसुदेव जी भगवान् श्री कृष्ण को गोकुल में छोड़ कर वहाँ से योग माया को लेकर आए। कन्या को देवकी की शैया पर सुलाते ही हथकड़ी-बेड़ी अपने आप लग गईं, कपाट बन्द हो गये और पहरेदारों को चेत आ गया। चराचर जगत में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जो माया को जान सके। सभी जीवों को माया ने ही जकड़ रखा है। और कंस के काल के जन्म की घोषणा कर दी गई, जिसे सुनकर कंस भयभीत रहने लगा। शिशु के रोने की आवाज सुन कर पहरेदारों ने कंस को देवकी के गर्भ से कन्या होने का समाचार दिया। कंस उसी क्षण अति व्याकुल होकर हाथ में नंगी तलवार लेकर बन्दीगृह की ओर दौड़ा। बन्दी गृह पहुँचते ही उसने तत्काल उस कन्या को देवकी के हाथ से छीन लिया। देवकी अति कातर होकर कंस के सामने गिड़गिड़ाने लगीं और कहा कि वो उनके छः पुत्रों का वध कर चुका था। आकाशवाणी तो उसे पुत्र के द्वारा होने मृत्यु की चेतावनी दी थी न की कन्या द्वारा। अतः उन्होंने बहुत गिड़गिड़ाकर उससे प्रार्थना की कि वो उस कन्या का वध न करे। देवकी के रोने गिड़गिड़ाने पर भी दुष्ट कंस का हृदय नहीं पिघला और उसने कन्या को शिला पर पटक कर मारने के लिए जैसे ही ऊपर उछाला, वैसे ही कन्या उसके हाथ से छूट कर आकाश में उड़ गई और आकाश में स्थित होकर अष्ट भुजा रूपाकृति धारण कर के आयुधों से युक्त हो गईं और बोलीं कि हे दुष्ट कंस! तुझे मारने वाला तेरा काल तो कहीं और उत्पन्न हो चुका है। तू व्यर्थ निर्दोष बालकों की हत्या न कर। इतना कह कर योग माया अन्तर्ध्यान हो गई। योग माया की बातों को सुन कर कंस को अति आश्चर्य हुआ और उसने देवकी तथा वसुदेव को कारागार से मुक्त कर दिया। तत्पश्चात् कंस ने अपने मन्त्रियों को बुला कर योग माया द्वारा कही गयी बातों पर मन्त्रणा करने लगा। कंस के मूर्ख मन्त्रियों ने सलाह दी कि पिछले दस दिनों के भीतर उत्पन्न हुये सभी बालकों को भी मार डालना चाहिये। 
माँ भगवती राधा जी का अवतार :: गोलोक में किसी बात पर राधा जी और श्री दामा नामक गोप में विवाद हो गया। इस पर राधा जी ने भी श्री दामा को पृथ्वी पर जन्म लेने का श्राप दे दिया। तब उस गोप ने भी राधा जी को यह श्राप दिया कि आपको भी मानव योनि में जन्म लेना पड़ेगा जहाँ गोकुल में श्री हरि के ही अंश महा योगी रायाण नामक एक वैश्य होंगे। आपका छाया रूप उनके साथ रहेगा। भूतल पर लोग आपको रायाण की पत्नी ही समझेंगे, श्रीहरि के साथ कुछ समय आपका विछोह रहेगा। जब भगवान् श्री कृष्ण के अवतार का समय आया तो उन्होंने राधा से कहा कि तुम शीघ्र ही वृष भानु के घर जन्म लो। श्री कृष्ण के कहने पर ही राधा जी व्रज में वृष भानु वैश्य की कन्या हुईं। राधा देवी अयोनिजा थीं, माता के गर्भ से उत्पन्न नहीं हुई थीं। उनकी माता ने गर्भ में वायु को धारण कर रखा था। उन्होंने योग माया की प्रेरणा से वायु को ही जन्म दिया परन्तु वहाँ स्वेच्छा से राधा जी प्रकट हो गईं। 
गोकुल में हर्ष और आनन्द :: गोकुल में नन्द बाबा-यशोदा के यहाँ पुत्र जन्म के समाचार मिलते ही समस्त ब्रज मंडल के हर्ष और आनन्द का माहौल हो गया। गोकुल में नन्द बाबा ने पुत्र का जन्मोत्सव बड़े धूम-धाम से मनाया। ब्राह्मणों और याचकों को यथोचित गौओं तथा स्वर्ण, रत्न, धनादि का दान किया। कर्मकाण्डी ब्राह्मणों को बुला कर बालक का जाति कर्म संस्कार करवाया। पितरों और देवताओं की अनेक भाँति से पूजा-अर्चना की। 
हे आनंद उमंग भयो; जय हो नन्द लाल की। 
नन्द के आनंद भयो, जय कन्हैया लाल की॥ 
हे ब्रज में आनंद भयो; जय यशोदा लाल की। 
नन्द के आनंद भयो, जय कन्हैया लाल की॥ 
हे आनंद उमंग भयो; जय हो नन्द लाल की। 
गोकुल के आनंद भयो; जय कन्हैया लाल की॥ 
जय यशोदा लाल की; जय हो नन्द लाल की। 
हाथी, घोड़ा, पालकी; जय कन्हैया लाल की॥ 
जय हो नन्द लाल की; जय यशोदा लाल की। 
हाथी, घोड़ा, पालकी; जय कन्हैया लाल की॥ 
हे आनंद उमंग भयो; जय कन्हैया लाल की। 
हे कोटि ब्रह्माण्ड के; अधिपति लाल की॥ 
हाथी, घोड़ा, पालकी; जय कन्हैया लाल की। 
हे गौने चराने आये; जय हो पशुपाल की॥ 
नन्द के आनंद भयो; जय कन्हैया लाल की। 
आनंद से बोलो सब; जय हो ब्रज लाल की॥ 
हाथी, घोड़ा, पालकी; जय कन्हैया लाल की। 
जय हो ब्रज लाल की; पावन प्रतिपाल की॥ 
हे नन्द के आनंद भयो; जय हो नन्द लाल की।
कृष्ण-बलराम का नामकरण संस्कार :: गोकुल में नंद ने पुत्र जन्म पर बड़ा उत्सव मनाया। यदुवंशियों के कुल पुरोहित श्री गर्गाचार्य थे। वे बड़े तपस्वी थे। वसुदेव जी की प्रेरणा से वे एक दिन नंद बाबा के गोकुल में आये। उन्हें देखकर नंद बाबा को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे हाथ जोड़कर उठ खड़े हुए, उनके चरणों में प्रणाम किया। विधि पूर्वक आतिथ्य हो जाने पर नंद बाबा ने बड़ी ही मधुर वाणी में कहा कि भगवन आप तो स्वयं पूर्णकाम हैं, आप ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं। इसलिए मेरे इन दोनों बालकों के नामकरण आदि संस्कार आप ही कर दीजिए। नंद बाबा की बात सुनकर गर्गाचार्य ने एकांत में दोनों बालकों का नामकरण संस्कार कर दिया। पुत्र प्राप्त होने के पश्चात नंद बाबा द्वारा मथुरा में कंस को वार्षिक कर देने एवं वहीं पर वसुदेव जी से भेंट की। वसुदेव जी ने नंद बाबा को पुत्र प्राप्ति की बधाई दी और गोकुल में जल्दी ही कोई उत्पात होने की शंका को जताया। उनसे भेंट होने पर वसुदेव ने नंद को बलदेव और कृष्ण के जन्म पर बधाई दी। पितृ-मोह के कारण उन्होंने नंद से कहा कि ब्रज में बड़े उपद्रवों की आंशका है। अतः वहाँ शीघ्र जाकर रोहिणी और बच्चों की रक्षा करो। 
तृणाव्रत वध ASSASSINATION OF TRANAVART :: 
कंस ढूंढ-ढूंढ कर नवजात शिशुओं का वध करवाने लगा। उसने दुष्ट राक्षस तृणावर्त को मथुरा भेजा जहाँ वो सकट का रुप धारण करके भगवान् श्री कृष्ण को मारने के लिए उनके ऊपर आ गया तो भगवान् श्री कृष्ण के चरण स्पर्श होते ही सकट के टूटने और वायु के गुबारे रूप में आए तृणाव्रत दैत्य का भगवान् के द्वारा अंत हो गया।  
After the killing of Pootna by Bhagwan Shri Krashn the fear of Kans grew many fold and he deputed Tranavart to kill Shri Krashn unaware of his real identity. Tranavart was a demon who could uproot mighty trees just by taking the shape of whirl wind-typhoon. He flew along with Bhagwan Shri Krashn in the sky. At this stage Shri Krashn started growing his weight which could not be balanced by Tranavart leading to calming down of the speed of the typhoon. Now the Almighty caught hold of the demon by his throat and released his soul. 
कुबेर पुत्रों की मुक्ति 
RELEASE OF YAMLARJUN :: यदुवंशियों के कुल पुरोहित गर्गाचार्य जी द्वारा भगवान् श्री कृष्ण और बलराम जी के नाम करण, माता यसोदा द्वारा भगवान् श्री कृष्ण को रस्सी द्वारा उलूख में बाँधने से भगवान् का नाम दामोदर पड़ने और उसे उलूख से कुबेर के पुत्र जो नन्द भवन में यमल पेड़ बन कर खड़े हुए थे, उनका स्पर्श पाकर अपने निज स्वरूप में आ गए। 
Bhagwan Shri Krashn was very playful and naughty by nature. Mother Yashoda tied him with a giant a wooden pot for clearing husk. Bhagwan Shri Krashn dragged it to the the two trees in such a way that it got struck between them. Now he pulled the Ookhal leading to the breaking of the trees. These trees were the children of Kuber a Yaksh-demigods. and treasurer of demigods, who became a friend of Bhagwan Shiv as well. The two brothers Nal Kuber and Manigreev were released to join there family. 
KILLING VATSASUR वृतासुर का वध ::
 Vrata Sur was a dreaded killer demon who used to live in the form of a bull. In his previous birth he was a disciple of Dev guru Vrahaspati, who cursed him for sitting before him by spreading his legs. Vrahaspati pardoned him later and blessed him to be released from the species by none other than the Almighty him self. Now the time of his release was ripe. he came to kill Bal Krashn. Shri Krashn caught hold of him through his horns and struck him on the ground, releasing his soul instantaneously. 
SLAYING OF VAKA SUR बकासुर का वध :: 
Tranavart was killed. Kans became even more insecure and called Vakasur another demon in the form of a giant egret to eliminate Bal Krashn. Bhagwan Shri Krashn was playing with other children when he approached them. Vakasur engulfed Bal Krashn but Shri Krashn tore his beak and killed him at once. 
वृतासुर के बाद कंस ने बकासुर को भेजा। बकासुर एक बगुले का रूप धारण करके भगवान् श्री कृष्ण को मारने के लिए पहुँचा था। उस समय कान्हा और सभी बालक खेल रहे थे। तब बगुले ने कृष्ण को निगल लिया और कुछ ही देर बाद कान्हा ने उस बगुले को चीरकर उसका वध कर दिया।
RELINQUISHING AGHASUR अघासुर वध :: 
Aghasur was the younger brother of Pootna and Vakasur. He was a dreaded killer demon. Even the demigods were afraid of him. He took the form of a giant python and opened his mouth in the form of a cave. Bhagwan Shri Krashn and his play mates entered that cave. As soon as they entered the mouth of the demon, he closed it. Bhagwan Shri Krashn increased his body size to such and extent that the demon found it difficult to breath. The demon died of suffocation and they came out of him safely. 
बकासुर के वध के बाद कंस ने कान्हा को मारने के लिए अघासुर को भेजा। अघासुर पूतना और बकासुर का छोटा भाई था। अघासुर बहुत ही भयंकर राक्षस था। देवता भी उससे डरते थे। अघासुर ने कृष्ण को मारने के लिए विशाल अजगर का रूप धारण किया। इसी रूप में अघासुर अपना मुँह खोलकर रास्ते में ऐसे पड़ गया जैसे कोई गुफा हो। उस समय श्रीकृष्ण और सभी बालक वहाँ खेल रहे थे। एक बड़ी गुफा देखकर सभी बालकों ने उसमें प्रवेश करने का मन बनाया। सभी ग्वाले और कृष्ण आदि उस गुफा में घुस गए। मौका पाकर अघासुर ने अपना मुँह बन्द कर लिया। जब सभी को अपने प्राणों पर संकट नजर आया तो भगवान् श्री कृष्ण से सबको बचाने की प्रार्थना करने लगे। तभी भगवान् श्री कृष्ण ने अपना शरीर तेजी से बढ़ाना शुरू कर दिया। अब कान्हा ने भी विशाल शरीर बना लिया था, इस कारण अघासुर साँस भी नहीं ले पा रहा था। इसी प्रकार अघासुर का भी वध हो गया।
PUTNA VADH पूतना वध :: त्रिगुणात्मक प्रकृति के रूप में भगवान् श्री कृष्ण की तीन माताएँ :: (1). रजोगुणी प्रकृति रूप देवकी जन्मदात्री माँ हैं, जो सांसारिक माया गृह में कैद हैं, (2). सतगुणी प्रकृति रूपा माँ यशोदा हैं, जिनके वात्सल्य प्रेम रस को पीकर श्री कृष्ण बड़े होते हैंऔर (3). घोर तमस रूपा पूतना माँ (पूर्व जन्म में राजा बलि की पुत्री) है, जिसे आत्म तत्व का प्रस्फुटित अंकुरण नहीं सुहाता और वह वात्सल्य का अमृत पिलाने के स्थान पर विषपान कराती है। यहाँ यह संदेश प्रेषित किया गया है कि प्रकृति का तमस-तत्व चेतन-तत्व के विकास को रोकने में असमर्थ है। 
कंस ने पूतना नाम की एक क्रूर राक्षसी को ब्रज में भेजा। पूतना ने राक्षसी वेश तज कर अति मनोहर नारी का रूप धारण किया और आकाश मार्ग से गोकुल पहुँच गई। गोकुल में पहुँच कर वह सीधे नन्द बाबा के महल में गई और शिशु के रूप में सोते हुये भगवान् श्री कृष्ण को गोद में उठा कर अपना दूध पिलाने लगी। उसकी मनोहरता और सुन्दरता ने यशोदा और रोहिणी को भी मोहित कर लिया इसलिये उन्होंने बालक को उठाने और दूध पिलाने से नहीं रोका। पूतना के स्तनों में हलाहल विष लगा हुआ था। अन्तर्यामी भगवान् श्री कृष्ण सब जान गये और वे क्रोध करके अपने दोनों हाथों से उसका कुच थाम कर उसके प्राण सहित दुग्धपान करने लगे। उनके दुग्धपान से पूतना के मर्म स्थलों में अति पीड़ा होने लगी और उसके प्राण निकलने लगे। वह चीख-चीख कर मुक्त करने का आग्रह करने लगी। वह बार-बार अपने हाथ पैर पटकने लगी और उसकी आँखें फट गईं। उसका सारा शरीर पसीने में लथपथ होकर व्याकुल हो गया। वह बड़े भयंकर स्वर में चिल्लाने लगी। उसकी भयंकर गर्जना से पृथ्वी, आकाश तथा अन्तरिक्ष गूँज उठे। बहुत से लोग बज्रपात समझ कर पृथ्वी पर गिर पड़े। पूतना अपने राक्षसी स्वरूप को प्रकट कर धड़ाम से भूमि पर बज्र के समान गिरी, उसका सिर फट गया और उसके प्राण निकल गये। ईश्वर के आगे पाप एवं अविद्या नहीं टिक सकती। अतः पाप एवं अविद्या की मूर्ति पूतना का भगवान् ने खेल ही खेल में वध कर दिया। 
पूतना पूर्व जन्म में दैत्यराज बाहुबली की पुत्री थी। जब भगवान् श्री हरी विष्णु ने दैत्यराज बाहुबली से वामन बनकर सब कुछ ले लिया तो उसके मस्तिष्क में विचार आया कि अगर वो भगवान् वामन की माँ होती तो उन्हें अपने स्तनों से जहर पिलाकर मार डालती। परमात्मा ने उसकी इच्छा की पूर्ति उसके स्तन से कालकूट विष के साथ उसके प्राण खीचकर कर दी।
Shri krishna
जब यशोदा, रोहिणी और गोपियों ने उसके गिरने की भयंकर आवाज को सुना तब वे दौड़ी-दौड़ी उसके पास गईं। उन्होंने देखा कि बालक कृष्ण भयंकर राक्षसी पूतना की छाती पर लेटे हुए उसके स्तनपान कर रहे हैं। उन्होंने बालक को तत्काल उठा लिया और पुचकार कर छाती से लगा लिया। वे कहने लगीं कि भगवान् चक्रधर ने तेरी रक्षा की और आगे भी भगवान् गदाधर रक्षा करें। इसके पश्चात् गोप ग्वालों ने पूतना के अंगों को काट-काट कर गोकुल से बाहर ला कर लकड़ियों में रख कर जला दिया। 
कंस-वध :: भगवान् श्री कृष्ण-बलराम का नाम मथुरा में पहले से ही प्रसिद्ध हो चुका था। उनके द्वारा नगर में प्रवेश करते ही एक विचित्र कोलाहल पैदा हो गया। जिन लोगों ने उनका विरोध किया वे इन बालकों द्वारा दण्डित किये गये। ऐसे मथुरा वासियों की सँख्या कम न थी जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भगवान् श्री कृष्ण के प्रति सहानुभूति रखते थे। इनमें कंस के अनेक भृत्य भी थे, जैसे सुदाभ या गुणक नामक माली, कुब्जा दासी आदि। भगवान् श्री कृष्ण के मथुरा आने पर भगवान् श्री कृष्ण द्वारा उस धोबी के अभिमान को चूर किया जो कि भगवान् राम के अवतार के समय माता सीता पर मिथ्या दोषरोपण का गुनहगार था। दर्जी एवं सुदामा माली से स्वागत प्राप्त कर उन्हें धन्य किया। कुब्जा द्वारा चन्दन प्राप्त कर उसे सर्वांग सुन्दरी बनाया। भगवान् श्री कृष्ण को जो भाव से थोड़ा भी देता है, उसे वे सम्पूर्ण एश्वर्य प्रदान करते हैं। 
कंस के शस्त्रागार में भी भगवान् श्री कृष्ण पहुँच गये और वहाँ के रक्षक को समाप्त कर दिया। इतना करने के बाद भगवान् श्री कृष्ण-बलराम ने रात में संभवत: अक्रूर जी के घर विश्राम किया। कंस ने ये उपद्रव पूर्ण बातें सुनी। उसने चाणूर और मुष्टिक नामक अपने पहलवानों को भगवान् श्री कृष्ण-बलराम के वध के लिए सिखा-पढ़ा दिया। शायद कंस ने यह भी सोचा कि उन्हें रंग भवन में घुसने से पूर्व ही क्यों न हाथी द्वारा कुचलवा दिया जाय, क्योंकि भीतर घुसने पर वे न जाने कैसा वातावरण उपस्थित कर दें। प्रात: होते ही दोनों भाई धनुर्याग का दृश्य देखने राजभवन में घुसे। ठीक उसी समय पूर्व योजनानुसार कुवलय नामक राज्य के एक भयंकर हाथी ने उन पर प्रहार किया। कंस द्वारा भगवान् श्री कृष्ण एवं बलराम को मारने की योजना को विफल करते हुए भगवान् श्री कृष्ण ने कुवलिया पीड़ हाथी को भी खेल ही खेल में ही मार गिराया। दोनों भाइयों ने इस संकट को दूर किया। भीतर जाकर भगवान् श्री कृष्ण चाणूर से और बलराम मुष्टिक से भिड़ गये। इन दोनों पहलवानों को समाप्त कर भगवान् श्री कृष्ण ने तोसलक नामक एक अन्य योद्धा को भी मारा। कंस के शेष योद्धाओं में आतंक छा जाने और भगदड़ मचने के लिए इतना कृत्य यथेष्ट था। इसी कोलाहल में भगवान् श्री कृष्ण ऊपर बैठे हुए कंस पर झपटे और उसको भी कुछ समय बाद परलोक पहुँचा दिया। इस भीषण कांड के समय कंस के सुनाम नामक भृत्य ने कंस को बचाने की चेष्टा की। किन्तु बलराम जी ने उसे बीच में ही रोक उसका वध कर डाला। 
अपना कार्य पूरा करने के उपरांत दोनों भाई सर्वप्रथम अपने माता-पिता से मिले। वसुदेव और देवकी इतने समय बाद अपने प्यारे बच्चों से मिल कर हर्ष-गदगद हो गये। इस प्रकार माता-पिता का कष्ट दूर करने के बाद भगवान् श्री कृष्ण ने कंस के पिता उग्रसेन को, जो अंधकों के नेता थे, पुन: अपने पद पर प्रतिष्ठित किया। समस्त संघ चाहता था कि भगवान् श्री कृष्ण नेता हों, किन्तु भगवान् श्री कृष्ण ने महाराज उग्रसेन से कहा कि उन्होंने कंस को सिंहासन के लिए नहीं मारा था। वे ही यादवों के नेता थे; अत: सिंहासन पर वही बैठें। उन्होंने नीति पूर्वक ययाति के शाप का स्मरण दिलाकर सिंहासन-त्याग की बात कही। 
विद्याध्ययन :: कंस-वध तक भगवान् श्री कृष्ण का जीवन एक प्रकार से अज्ञातवास में व्यतीत हुआ। एक ओर कंस का आतंक था तो दूसरी ओर आकस्मिक आपत्तियों का कष्ट। अब इनसे छुटकारा मिलने पर उनके विद्याध्ययन की बात चली। वैसे तो वे दोनों भाई प्रतिभावान्, नीतिज्ञ तथा साहसी थे, परन्तु राजत्य-पंरपरा के अनुसार शास्त्रानुकूल संस्कार एवं शिक्षा-प्राप्ति आवश्यक थी। इसके लिए उन्हें गुरु संदीपन के आश्रम में भेजा गया। वहाँ पहुँच कर भगवान् श्री कृष्ण और बलराम जी ने विधिवत् दीक्षा ग्रहण की और अन्य शास्त्रों के साथ धनुर्विद्या में विशेष दक्षता प्राप्त की। वहीं उनकी सुदामा से भेंट हुई, जो उनके गुरु भाई थे। उन्होंने महज 32 दिनों में 64 विद्याएँ ग्रहण कर लीं। 
जरासंध की मथुरा पर चढ़ाई :: कंस की मृत्यु का समाचार पाकर मगध-नरेश जरासंध बहुत-कुद्ध हो गया। वह कंस का श्वसुर था। जरासंध अपने समय का महान् साम्राज्यवादी और क्रूर शासक था। उसने कितने ही छोटे-मोटे राजाओं का राज्य हड़प कर उन राजाओं को बन्दी बना लिया था। जरासंध ने कंस को अपनी लड़कियाँ संभवत: इसीलिए ब्याही थीं, जिससे कि पश्चिमी प्रदेशों में भी उसकी धाक बनी रहे और उधर गणराज्य की शक्ति कमज़ोर पड़-जाय। कंस की प्रकृति भी जरासंध से बहुत मिलती-जुलती थी। वह जरासंध के बल पर ही राजा बनकर बैठा था। अपने जामाता और सहायक का इस प्रकार वध होते देख जरासंध का कुद्ध होना स्वाभाविक ही था। अब उसने शूरसेन जनपद पर चढ़ाई करने का पक्का विचार कर लिया। शूरसेन और मगध के बीच युद्ध का विशेष महत्त्व है।[हरिवंश आदि पुराण] 
जरासंध की पहली चढ़ाई :: जरासंध ने पूरे दल-बल के साथ शूरसेन जनपद पर चढ़ाई की। उसके सहायक में कारूप का राजा दंतवक्र (पूर्व जन्म का विजय, हिरणकशिपु, कुम्भकर्ण), चेदिराज, शिशुपाल (पूर्वजन्म में जय, हिरण्याक्ष और रावण), कलिंगपति पौंड्र, भीष्मक पुत्र रुक्मी, काय अंशुमान तथा अंग, बंग, कोषल, दषार्ण, भद्र, त्रिगर्त आदि के राजा थे। 
इनके अतिरिक्त शाल्वराज, पवनदेश का राजा भगदत्त, सौवीरराज गान्धार का राजा सुबल नग्नजित् का मीर का राजा गोभर्द, दरद का राजा आदि उसके सहायक थे। मगध की विशाल सेना ने मथुरा पहुँच कर नगर के चारों फाटकों को घेर लिया। सत्ताईस दिनों तक जरासंध मथुरा नगर को घेरे पड़ा रहा, पर वह मथुरा का अभेद्य दुर्ग न जीत सका। संभवत: समय से पहले ही खाद्य-सामग्री के समाप्त हो जाने के कारण उसे निराश होकर मगध लौटना पड़ा। दूसरी बार जरासंध पूरी तैयारी से शूरसेन पहुँचा। यादवों ने अपनी सेना इधर-उधर फैला दी। बलराम जी ने जरासंध का अच्छा मुक़ाबला किया। लुका-छिपी (Gorilla war) के युद्ध द्वारा यादवों ने मगध-सैन्य को बहुत छकाया। भगवान् श्री कृष्ण जानते थे कि यादव सेना की सँख्या तथा शक्ति सीमित है और वह मगध की विशाल सेना का खुलकर सामना नहीं कर सकती। इसीलिए उन्होंने लुका-छिपी वाला आक्रमण ही उचित समझा। उसका फल यह हुआ कि जरासंध परेशान हो गया और हताश होकर ससैन्य लौट पड़ा। 
जरासंध ने अठारह बार मथुरा पर चढ़ाई की। सत्रह बार यह असफल रहा। अन्तिम चढ़ाई में उसने एक विदेशी शक्तिशाली शासक कालयवन को भी मथुरा पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया। भगवान् श्री कृष्ण-बलदेव को जब यह ज्ञात हुआ कि जरासंध और कालयवन विशाल फ़ौज लेकर आ रहे हैं तब उन्होंने मथुरा छोड़कर कहीं अन्यत्र चले जाना ही बेहतर समझा। 
JARA SANDH & KAL YAWAN'S ATTACKS OVER MATHURA :: Bhagwan Shri Krashn and Balram Ji returned form the Ashram of Guru Sandeepan where they learnt all the 64 faculties in education in just 32 days. Jara Sandh, Kans's father in law was furious at his son in law's death. He decided to avenge him. He attacked Mathura 17 times but failed at the hands of Bhagwan Shri Krashn and Balram Ji. Bhagwan Shri Krashn always stopped-prevented Bal Ram Ji from killing Jara Sandh, so that he could bring more and sinners to be sent to hell. These two alone, together with Akroor Ji and a few friends defeated Jara Sandh's mighty army and repeatedly killed the sinners. 
Kal Yawan was frustrated for not finding a match to have a war with him. Originally a Brahmn, adopted by the Yawan King (European), he was advised by Narad Ji to conquer Bhagwan Shri Krashn. Due to this lust he too joined Jara Sandh. 
रण छोड़ जी ESCAPIST OF WAR :: Kal Yawan attacked Mathura. Bhagwan Shri Krashn left the battlefield and started running to mountain caves. Kal Yawan too followed him into the cave where Maha Raj Much Kund was sleeping under the impact of the boon granted by Dev Raj Indr, that whosoever would wake him up, will be turned into ashes. Kal Yawan saw Muchu Kund sleeping and struck him with his leg, thinking him to be Shri Krashn, seeing the Pitambar over his body. Having disturbed Muchu Kund woke up and turned Kal Yawan into ashes, immediately. Bhagwan Shri Krashn had covered him with his Pitambar-cloth, HE used to keep over his shoulders. Unaware of the fact Muchu Kund tried to find out who woke him up. The cave was filled with bright cool-soothing light, blue in colour and Bhagwan Krashn revealed HIMSELF to Muchu Kund. Muchu Kund recognised HIM at once and bowed over HIS feet. He was advised to start meditation-asceticism till he survived. Since, none of his relatives was left, over the earth, to which he agreed. Millions of years had passed since, he had participated in the demigods verse demons-giants war.
RELEASE OF JARA SANDH :: Jara Sandh had a close friend called Vana Sur (वाणासुर). Upon his suggestion Jara Sandh decided to get his two daughters, Asti and Prapti married to the Crown-Prince of Mathura, Kans. 
When Kans was killed by Bhagwan Shri Krashn, Jara Sandh developed extreme revulsion for him and was strong-minded to defeat and kill him. Jara Sandh was very discontented, when he saw his widowed daughters. He promised to attack Mathura and take over the Kingdom from Bhagwan Shri Krashn. But he repeatedly suffered defeat at the hands of the Bhagwan Shri Krashn & Bal Ram Ji-Bhagwan Shesh nag in present incarnation. Bhagwan Shri Krashn did not approve the suggestion by Bal Ram Ji to kill him, since he wanted him to bring more and more evil minded people to be killed to relinquish the earth from suffering. 
At the occasion of his 18th  attack Bhagwan Shri Krashn ditched Jara Sandh and moved to Dwarka a divine city built in the ocean over the land recovered and gifted by ocean to Balram Ji, his son in law. Its an ancient city which had submerged in sea waters. During this attack Bhagwan Shri Krashn created illusion and Jara Sandh presumed both the brothers to have been killed. 
Bhim, Arjun and Shri Krashn disguised themselves as Brahmns and went to the palace of Jara Sandh, who was very devoted to the Brahmns. They introduced themselves as Brahmns to him, flattering him by praising his reputation for hospitality and requested him to grant their desire. Seeing the marks of bowstrings on their limbs, Jara Sandh concluded that they were warriors and not ordinary Brahmns. He also thought that he had seen them somewhere before. But although these three persons were Kshatriy, they had come to his door in disguise begging alms like Brahmns. Still he recognised them and agreed for the duel-wrestling. He did not think of arresting or imprisoning them aware of the fact that in that disguise Bhagwan Shri Krashn would cut his head instantaneously with the Sudarshan Chakr-disc. 
Jara Sandh was himself eager to have wrestling match with some one of his match (status, level) and desperate for not finding one. Now, he found a God gifted opportunity at his door step. He was aware of the strength of Bheem close to 10,000 elephants, his ability as a wrestlers and his speciality in mace duel. He knew that Arjun was an archer and Bhagwan Shri Krashn used his disc for eliminating opponents. 
Therefore, he decided that he would fulfil their desires in spite of their being Kshatriy, because they had already diminished their position by appearing before him as beggars. At that point Bhagwan Shri Krashn discarded disguise and asked Jara Sandh to fight HIM in one to one combat. But Jara Sandh refused, claiming that Krashn was a coward because HE had once fled the battlefield. Jara Sandh also declined to fight Arjun on the plea that he was inferior in age and size. Arjun did not have reputation as a wrestler as well. But in Bheem, he found a worthy opponent. Thus Jara Sandh handed Bheem Sen a club and took up another himself and they all went outside the city to begin the fight. 
After the fight had gone on for some time, it became clear that the two opponents were equally matched for either of them to gain victory. Bhagwan Shri Krashn then split a straw in half by tearing it from the middle, thus showing Bheem, how to kill Jara Sandh. Bheem threw Jara Sandh to the ground, stepped on one of his legs, seized the other with his arms and proceeded to tear him apart from his genitals to his head. He then threw the body segments in opposite directions so that they did not rejoin. Seeing Jara Sandh dead, his relatives and subjects lamented. Bhagwan Shri Krashn then appointed Jara Sandh’s son as ruler of Magadh later Patli Putr in the days of Maha Nand (and now Patna-Bihar) and released the kings, Jara Sandh had imprisoned for sacrificing. 
जरासंघ वध :: धर्मराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया तथा अपने चारों भाइयों को दिग्विजय करने की आज्ञा दी। चारों भाइयों ने चारों दिशा में जाकर समस्त नरपतियों पर विजय प्राप्त की किन्तु जरासंघ को न जीत सके। इस पर भगवान् श्री कृष्ण, अर्जुन तथा भीमसेन ब्राह्मण का रूप धर कर मगध देश की राजधानी में जरासंघ के पास पहुँचे। जरासंघ ने इन ब्राह्मणों का यथोचित आदर सत्कार करके पूछा की वो उनकी क्या सेवा कर सकता था ?
जरासंघ के इस प्रकार कहने पर भगवान् श्री कृष्ण ने कहा कि वे उससे कुछ याचना करने आये थे। उन्होंने कहा कि जरासंध याचकों को कभी विमुख नहीं होने देता। राजा हरिश्चन्द्र ने विश्वामित्र जी की याचना करने पर, उन्हें सर्वस्व दे डाला था। राजा बलि से याचना करने पर उन्होंने त्रिलोक का राज्य दे दिया था। फिर उससे यह अपेक्षा नहीं थी कि वो उन्हें निराश करेगा! उन्होंने कहा कि गौ, धन, रत्नादि की याचना नहीं करते, अपितु द्वन्द्व युद्ध की इच्छा रखते थे। 
श्री कृष्ण के इस प्रकार याचना करने पर जरासंघ समझ गया कि छद्मवेष में ये कृष्ण, अर्जुन तथा भीमसेन हैं। उसने कहा कि उसे उनकी याचना स्वीकार है। उसने भगवान् श्री कृष्ण से कहा कि वो पराजित होकर रण छोड़ कर भाग चुके, भगोड़े तथा पीठ दिखाने वाले के साथ युद्ध करना पसन्द नहीं करता था। अर्जुन के लिए कहा कि भी दुबले-पतले और कमजोर थे तथा वृहन्नला के रूप में नपुंसक भी रह चुके थे। इसलिये वो भीम जो कि उसे अपने समान बलवान और बलिष्ठ लगते थे, के साथ वो अवश्य  युद्ध करेगा। 
इसके पश्चात् दोनों ही अपना-अपना गदा सँभाल कर युद्ध के मैदान में डट पड़े। दोनों ही महाबली तथा गदायुद्ध के विशेषज्ञ थे। पैंतरे बदल-बदल कर युद्ध करने लगे। कभी भीमसेन का प्रहार जरासंघ को व्याकुल कर देती तो कभी जरासंघ चोट कर जाता। सूर्योदय से सूर्यास्त तक दोनों युद्ध करते और सूर्यास्त के पश्चात् युद्ध विराम होने पर मित्र भाव हो जाते। इस प्रकार सत्ताइस दिन व्यतीत हो गये और दोनों में से कोई भी पराजित न हो सका। अट्ठाइसवें दिन प्रातः भीमसेन भगवान् श्री कृष्ण से बोले कि जनार्दन! जरासंघ तो पराजित ही नहीं हो रहा। अब वो ही उस दुष्ट को पराजित करने का कोई उपाय बतायें! भीम की बात सुनकर भगवान् श्री कृष्ण ने कहा कि जरासंघ अपने जन्म के समय दो टुकड़ों में उत्पन्न हुआ था और जरा नाम की राक्षसी ने उन दोनों टुकड़ों को जोड़ दिया था। इसलिये युद्ध करते समय जैसे ही वे संकेत करें, भीम उसके शरीर को दो टुकड़ों में चीर कर विपरीत दिशाओं में फैंक दें। 
जनार्दन की बातों को ध्यान में रख कर भीमसेन जरासंघ से युद्ध करने लगे। युद्ध करते-करते दोनों की गदाओं के टुकड़े-टुकड़े हो गये, तब वे मल्ल युद्ध करने लगे। मल्ल युद्ध में जैसे ही भीम ने जरासंघ को भूमि पर पटका, भगवान् श्री कृष्ण ने एक तिनके को बीच से चीरकर भीमसेन को संकेत किया। उनका संकेत समझ कर भीम ने अपने एक पैर से जरासंघ के एक टाँग को दबा दिया और उसकी दूसरी टाँग को दोनों हाथों से पकड़ कर कंधे से ऊपर तक उठा दिया, जिससे जरासंघ के दो टुकड़े हो गये। भीम ने उसके दोनों टुकड़ों को अपने दोनों हाथों में लेकर पूरी शक्ति के साथ विपरीत दिशाओं में फेंक दिया और इस प्रकार महाबली जरासंघ का वध हो गया।
भगवान् श्री कृष्ण की नीति सफल हुई और उन्होंने भीम के द्वारा मल्लयुद्ध में जरासंध को मरवा डाला। जरासंध की मृत्यु के बाद भगवान् श्री कृष्ण ने उसके पुत्र सहदेव को मगध का राजा बनाया। फिर उन्होंने गिरिब्रज के कारागार में बन्द बहुत से राजाओं को मुक्त किया। इस प्रकार भगवान् श्री कृष्ण ने जरासंध जैसे महा पराक्रमी और क्रूर शासक का अन्त कर बड़ा यश पाया। जरासंध के पश्चात पाण्डवों ने भारत के अन्य कितने ही राजाओं को जीता। 
महाभिनिष्क्रमण :: अब समस्या थी कि कहाँ जाया जाय? यादवों ने इस पर विचार कर निश्चय किया कि सौराष्ट्र की द्वारका पुरी में जाना चाहिए। यह स्थान पहले से ही यादवों का प्राचीन केन्द्र था और इसके आस-पास के भूभाग में यादव बड़ी सँख्या में निवास करते थे। ब्रजवासी अपने प्यारे कृष्ण को नहीं जाने देना चाहते थे और भगवान् श्री कृष्ण स्वयं भी ब्रज को क्यों छोड़ते? पर आपत्तिकाल में क्या नहीं किया जाता? भगवान् श्री कृष्ण ने मातृभूमि के वियोग में सहानुभूति प्रकट करते हुए ब्रजवासियों को कर्त्तव्य का ध्यान दिलाया और कहा कि जरासंध के साथ उनका विग्रह हो गया था जो कि दु:ख की बात थी। उसके साधन प्रभूत थे। उसके पास वाहन, पदाति और मित्र भी थे। मथुरा एक छोटी जगह थी और प्रबल शत्रु उनके दुर्ग को नष्ट करना चाहता था। मथुरा निवासियों की सँख्या में भी बहुत बढ़ गई थी। इस कारण भी प्रजा का इधर-उधर फैलाना नितान्त आवश्यक था। 
इस प्रकार पूर्व निश्चय के अनुसार उग्रसेन, भगवान् श्री कृष्ण, बलराम आदि के नेतृत्व में यादवों ने बहुत बड़ी सँख्या में मथुरा से प्रयाण किया और सौराष्ट्र की नगरी द्वारावती में जाकर बस गये। द्वारावती का जीर्णोद्वार किया गया और उससे बड़ी सँख्या में नये मकानों का निर्माण हुआ। मथुरा के इतिहास में महाभिनिष्क्रमण की यह घटना बड़े महत्त्व की है। यद्यपि इसके पूर्व भी यह नगरी कम से कम दो बार ख़ाली की गई थी, पहली बार शत्रुध्न विजय के उपरान्त लवण के अनुयायिओं द्वारा और दूसरी बार कंस के अत्याचारों से ऊबे हुए यादवों द्वारा, पर जिस बड़े रूप में मथुरा इस तीसरे अवसर पर ख़ाली हुई वैसे वह पहले कभी नहीं हुई थी। इस निष्क्रमण के उपरान्त मथुरा की आबादी बहुत कम रह गई।
द्वारका का नवनिर्माण देवशिल्पी विश्वकर्मा जी के द्वारा की गया और स्वर्ग से देवसभा को भी लेकर वहाँ स्थापित कर दिया गया जो कि भगवान् श्री कृष्ण के पृथ्वी से अलविदा होने पर पुनः स्वर्ग चली गई। भगवान् श्री कृष्ण सत्यभामा के साथ स्वर्ग से हरश्रृंगार-पारिजात नामक वृक्ष भी लेकर आये।  
रुक्मणी श्री कृष्ण विवाह :: भगवान् श्री कृष्ण की बाल लीलाओं का श्रवण करके रुक्मणी जी बहुत प्रभावित थीं। माता लक्ष्मी स्वयं रुक्मणी जी के रूप में प्रकट हुईं थीं। रामावतार में हुए कष्ट का निराकरण जो करना था। भगवान् श्री कृष्ण ने अपनी बाल लीला करते हुये तृणावर्ण, अघासुर, अरिष्टासुर, केशी, व्योमासुर, चाणूर, मुष्टिक तथा कंस जैसे दुष्ट दैत्यों और राक्षसों का वध किया था। गौलोक से पृथ्वी पर पधारीं राधा जी तथा गोपियों के साथ रासलीला की। यमुना जी के भीतर घुसकर विषधर नागराज कालिया-पूर्व जन्म के तपस्वी ब्राह्मण, जो काक भुशुण्डी जी के श्रापवश नाग योनि को प्राप्त हुए थे, को नाथकर उनकी पूर्वजन्म की तपस्या का फल प्रदान किया। गोवर्धन पर्वत को उठा कर देवराज इन्द्र के अभिमान को चूर-चूर किया। अपने बड़े भाई बलराम जी, जो पूर्वजन्म में छोटे भाई लक्ष्मण जी थे, के द्वारा धेनुकासुर तथा प्रलंबसुर का वध करवा दिया। विश्वकर्मा के द्वारा द्वारिका नगरी का निर्माण करवाया। कालयवन को भस्म कर दिया। जरासंघ को सत्रह बार युद्ध में हराया। चूँकि जरासंघ के पाप का घड़ा अभी भरा नहीं था और उसे अभी जीवित रहना था, इसलिये अठारहवीं बार कालयवन से युद्ध करते हुये रण को छोड़ कर गुफ़ा में जहाँ वह भस्म हो गया। इसीलिये भगवान् श्री कृष्ण का नाम रणछोड़ पड़ा। 
विदर्भराज के रुक्म, रुक्मरथ, रुक्मबाहु, रुक्मकेस तथा रुक्ममाली नामक पाँच पुत्र और एक पुत्री रुक्मणी जी थीं। रुक्मणी जी सर्वगुण सम्पन्न तथा अति सुन्दरी थी। उनके माता-पिता उसका विवाह भगवान् श्री कृष्ण के साथ करना चाहते थे, किन्तु रुक्म चाहता था कि उसकी बहन का विवाह चेदिराज शिशुपाल जो कि पूर्वजन्म में रावण तथा हिरण्यकशिपु था, के साथ हो। अतः उसने रुक्मणी जी का टीका शिशुपाल के यहाँ भिजवा दिया। रुक्मणी जी ने भगवान् श्री कृष्ण को एक ब्राह्मण के हाथों सन्देश भेजा। भगवान् श्री कृष्ण ने सन्देश लाने वाले ब्राह्मण से कहा कि जैसा प्रेम रुक्मणी जी उनसे करती थीं, वैसा ही प्रेम वे भी उनसे करते थे। उन्होंने कहा कि वे अवश्य ही राजकुमारी रुक्मणी को ब्याह कर लायेंगे। 
दो दिनों बाद ही रुक्मणी जी का शिशुपाल से विवाह होने वाला था। अतः भगवान् श्री कृष्ण ने अपने सारथी दारुक को तत्काल रथ लेकर आने की आज्ञा दी। आज्ञा पाकर दारुक रथ ले कर आ गया। उस रथ में शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प तथा बलाहर्षक नाम के द्रुतगामी घोड़े जुते हुये थे। रथ में बैठकर श्री कृष्ण विदर्भ देश के लिये प्रस्थान कर गये। सन्ध्या तक वे विदर्भ देश की राजधानी कुण्डिलपुर पहुँच गये। वहाँ पर शिशुपाल की बारात पहुँच चुकी थी। बारात में शाल्व, जरासंघ, दन्तवक्र, विदूरथ, पौन्ड्रक आदि सहस्त्रों नरपति सम्मिलित थे और ये सभी भगवान् श्री कृष्ण तथा बलराम जी के विरोधी थे। उनको रुक्मणी जी को हर ले जाने लिये भगवान् श्री कृष्ण के आने की सूचना भी मिल चुकी थी इसलिये वे भगवान् श्री कृष्ण को एक साधारण मानव मानते हुए उनको रोकने के लिये अपनी पूरी सेना के साथ तैयार थे। इधर जब भगवान् श्री कृष्ण के अग्रज दाऊ बलराम जी को जब सूचना मिली कि रुक्मणी जी को लाने के लिये भगवान् श्री कृष्ण अकेले ही प्रस्थान कर चुके हैं और वहाँ विरोधी पक्ष के सारे लोग वहाँ उपस्थित हैं, तो वे भी अपनी चतुरंगिणी सेना को लेकर द्रुतगति से चल पड़े और कुण्डिलपुर में पहुँच कर भगवान् श्री कृष्ण के साथ हो लिये। 
रुक्मणी जी अपनी सहेलियों के साथ गौरी पूजन के लिये मन्दिर जा रही थीं। उनके साथ उनकी रक्षा के लिये शिशुपाल और जरासंघ के नियुक्त किये गये, अनेक महाबली दैत्य भी थे। रुक्मणी जी की उस टोली को देखते ही सारथी दारुक ने रथ को उनकी ओर तीव्र गति से दौड़ा दिया और पलक झपकते ही रथ पहरे के लिये घेरा बना कर चलते हुये दैत्यों को रौंदते हुये रक्मणी जी के समीप पहुँच गया। भगवान् श्री कृष्ण ने रुक्मणी जी को उनका हाथ पकड़ कर रथ के भीतर खींच लिया। रुक्मणी जी के रथ के भीतर पहुँचते ही दारुक ने रथ को उस ओर दौड़ा दिया, जिधर अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ बलराम जी उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। पहरेदार देखते ही रह गये। 
रुक्मणी जी के हरण का समाचार सुनते ही जरासंघ और शिशुपाल अपने समस्त सहायक नरपतियों और उनकी सेनाओं के साथ भगवान् श्री कृष्ण के पास पहुँच गये। बलराम जी और उनकी चतुरंगिणी सेना पहले से ही तैयार खड़ी थी। दोनों ओर से बाणों की वर्षा होने लगी और घोर संग्राम छिड़ गया। बलराम जी ने अपने हल और मूसल से हाथियों की सेना को इस प्रकार छिन्न-भिन्न कर दिया, जैसे घनघोर बादलों को वायु छिन्न-भिन्न कर देती है। भगवान् श्री कृष्ण के सुदर्शन चक्र ने विरोधियों की सेना में तहलका मचा दिया। किसी के हाथ किसी के पैर तो किसी के सिर कट कट कर गिरने लगे। शिशुपाल की पराजय हो गई। 
शिशुपाल की पराजय होने पर रुक्मणी जी का बड़ा भाई रुक्म अत्यन्त क्रोधित होकर भगवान् श्री कृष्ण के सामने आ डटा। उसने प्रतिज्ञा की थी कि यदि मैं भगवान् श्री कृष्ण को मार कर अपनी बहन को न लौटा सका तो लौट कर नगर में नहीँ आऊँगा। उसने भगवान् श्री कृष्ण पर तीन बाण छोड़े, जिन्हें भगवान् श्री कृष्ण के बाणों ने वायु में ही काट दिया। फिर भगवान् श्री कृष्ण ने अपनी बाणों से रुक्म के सारथी, रथ, घोड़े, धनुष और ध्वजा को काट डाला। रुक्म एक दूसरे रथ में फिर आया तो भगवान् श्री कृष्ण ने पुनः दूसरे रथ का भी वैसा ही हाल कर दिया। रुक्म ने गुलू, पट्टिस, परिध, ढाल, तलवार, तोमर तथा शक्ति आदि अनेक अस्त्र शस्त्रों का प्रहार किया पर भगवान् श्री कृष्ण ने उन समस्त शस्त्रास्त्रों को तत्काल काट डाला। रुक्म क्रोध से उन्मत्त होकर रथ से कूद पड़ा और तलवार लेकर भगवान् श्री कृष्ण की ओर दौड़ा। भगवान् श्री कृष्ण ने एक बाण मार कर उसके तलवार को काट डाला और एक लात मार कर उसे नीचे गिरा दिया। फिर उसकी उसकी छाती अपना पैर पर रख दिया और उसे मारने के लिये अपनी तीक्ष्ण तलवार उठा ली। रुक्मणी जी व्याकुल होकर भगवान् श्री कृष्ण के चरणों पर गिर गई और अपने भाई के प्राण दान हेतु प्रार्थना करने लगी। रुक्मणी जी की प्रार्थना पर भगवान् श्री कृष्ण ने अपनी तलवार नीचे कर ली और रुक्म को मारने का विचार त्याग दिया। इतना होने पर भी रुक्म भगवान् श्री कृष्ण का अनिष्ट करने का प्रयत्न कर रहा था। उसके इस कृत्य पर भगवान् श्री कृष्ण ने उसको उसी के दुपट्टे से बाँध दिया तथा उसके दाढ़ी-मूछ तथा केश तलवार से मूँड़ कर उसको रथ के पीछे बाँध दिया। बलराम जी ने रुक्म पर तरस खाकर उसे भगवान् श्री कृष्ण से छुड़वाया। अपनी पराजय पर दुःखी होता हुआ वह अपमानित तथा कान्तिहीन होकर वहाँ से चला गया। उसने अपनी प्रतिज्ञानुसार कुण्डलपुर में प्रवेश न करके भोजपुर नामक नगर बसाया। 
इस भाँति भगवान् श्री कृष्ण रुक्मणी जी को लेकर द्वारिकापुरी आये जहाँ पर वसुदेव तथा उग्रसेन ने कुल पुरोहित बुला कर बड़ी धूमधाम के साथ दोनों का पाणिग्रहण संस्कार करवाया। 
भगवान् श्री कृष्ण विवाह :: भगवान् श्री कृष्ण जब महज 8 साल के थे तब उनका राधा जी से विवाह भगवान् ब्रह्मा जी ने वन में कराया। वन में प्रवेश करते ही भगवान् श्री कृष्ण ने स्वयं को वयस्क बना लिया। कंस के बुलावे पर जब वे मथुरा कुबड़ी मलिन जो कंस का अंगरास तैयार करती थी, ने भक्ति भाव से भगवान् श्री कृष्ण को तिलक लगाया और माला पहनाई। भगवान् ने प्रसन्न होकर उसकी ठोड़ी को अँगुली से सहारा दिया तो वो ऊपर उठती चली गयी और उसका कूबड़ खत्म हो गया। बाद में उसका भगवान् श्री कृष्ण चन्द्र से विवाह संपन्न हुआ। 
पाण्डवों के लाक्षागृह से कुशलतापूर्वक बच निकलने पर सात्यिकी आदि यदुवंशियों को साथ लेकर भगवान् श्री कृष्ण उनसे मिलने के लिये इन्द्रप्रस्थ गये। युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, द्रौपदी और कुन्ती ने उनका यथेष्ठ आदर-सत्कार कर के उन्हें अपना अतिथि बना लिया। एक दिन अर्जुन को साथ लेकर भगवान् श्री कृष्ण आखेट के लिये गये। जिस वन में वे शिकार के लिये गये थे, वहाँ पर भगवान सूर्य की पुत्री कालिन्दी (यमुना जी), भगवान् श्री कृष्ण को पति रूप में पाने की कामना से तप कर रही थी। कालिन्दी की मनोरथ पूर्ण करने के लिये भगवान् श्री कृष्ण ने उनके साथ विवाह कर लिया। फिर वे उज्जयिनी की राजकुमारी मित्र बिन्दा को स्वयंवर से वर लाये। उसके बाद कौशल के राजा नग्नजित के सात बैलों को एक साथ नाथ उनकी कन्या सत्या से पाणिग्रहण किया। तत्पश्चात् कैकेय की राजकुमारी भद्रा से भगवान् श्री कृष्ण का विवाह हुआ। भद्र देश की राजकुमारी लक्ष्मणा का मनोरथ भी भगवान् श्री कृष्ण को पति रूप में प्राप्त करने की थी; अतः लक्ष्मणा को भी भगवान् श्री कृष्ण अकेले ही हर कर ले आये। सम्यन्तक मणि को प्राप्त करने के हेतु भगवान् श्री कृष्ण भगवान् ब्रह्मा जी के पुत्र रक्षराज जाम्बन्त जी की गुभा में प्रवेश कर गए। जामबंत जी युद्ध में हराया तो उन्होंने उन्हें भगवान् राम के रूप में पहचानकर अपने कन्या जाम्बवन्ति का विवाह उनसे कर दिया। 
भगवान् श्री कृष्ण अपनी आठों रानियों रुक्मणी, जाम्बवन्ती, सत्यभामा, कालिन्दी, मित्रबिन्दा, सत्या, भद्रा और लक्ष्मणा के साथ द्वारिका में सुखपूर्वक रहे थे कि एक दिन उनके पास देवराज इन्द्र ने आकर प्रार्थना की कि प्राग ज्योतिष पुर के दैत्यराज भौमासुर के अत्याचार से देवतागण त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। भौमासुर भयंकर क्रूर तथा महा अहंकारी था और वरुण का छत्र, अदिति के कुण्डल और देवताओं की मणि छीनकर वह त्रिलोक विजयी हो गया था। उसने पृथ्वी के समस्त राजाओं की अति सुन्दरी कन्यायें हरकर बलि देने के लिए अपने यहाँ बन्दीगृह में डाल रखी थीं। उसका वध भगवान् श्री कृष्ण के सिवाय और कोई नहीं कर सकता था। अतः देवराज इन्द्र ने भगवान् श्री कृष्ण से उसके वध की प्रार्थना की। देवराज इन्द्र की प्रार्थना स्वीकार कर के भगवान् श्री कृष्ण अपनी प्रिय पत्नी सत्यभामा को साथ ले कर गरुड़ पर सवार हो प्राग ज्योतिष पुर पहुँचे। वहाँ पहुँच कर भगवान् श्री कृष्ण ने अपने पाञ्चजन्य शंख को बजाया। उसकी भयंकर ध्वनि सुन मुर दैत्य भगवान् श्री कृष्ण से युद्ध करने आ पहुँचा। उसने अपना त्रिशूल गरुड़ जी पर चलाया। भगवान् श्री कृष्ण ने तत्काल दो बाण चला कर उस त्रिशूल के हवा में ही तीन टुकड़े दिया। इस पर उस दैत्य ने क्रोधित होकर अपनी गदा चलाई किन्तु भगवान् श्री कृष्ण ने अपनी गदा से उसकी गदा तो भी तोड़ दिया। घोर युद्ध करते करते भगवान् श्री कृष्ण ने मुर दैत्य सहित उसके छः पुत्र-ताम्र, अन्तरिक्ष, श्रवण, विभावसु, नभश्वान और अरुण का वध कर डाला। मुर दैत्य के वध हो जाने पर भौमासुर अपने अनेक सेनापतियों और दैत्यों की सेना को साथ लेकर युद्ध के लिये निकला। गरुड़ जी अपने पंजों और चोंच से दैत्यों का संहार करने लगे। भगवान् श्री कृष्ण ने बाणों की वर्षा कर दी और अन्ततः अपने सुदर्शन चक्र से भौमासुर के सिर को काट डाला। 
इस प्रकार भौमासुर को मारकर भगवान् श्री कृष्ण ने उसके पुत्र भगदत्त को अभयदान देकर प्राग ज्योतिष पुर का राजा बनाया। भौमासुर के द्वारा हर कर लाई गईं सोलह हजार एक सौ राज कन्यायों को भगवान् श्री कृष्ण ने मुक्त कर दिया। पूर्वजन्म में अष्टावक्र जी से श्रापित ने अप्सराओं ने, उन राज कन्याओं के रूप में पृथ्वी पर जन्म लिया था। उन सभी राज कन्याओं ने भगवान् श्री कृष्ण को पति रूप में स्वीकार किया। उन सभी को भगवान् श्री कृष्ण अपने साथ द्वारिका पुरी ले आये।उसी श्राप के फलस्वरूप भगवान् श्री कृष्ण के गौलोक पधारने पर अर्जुन भगवान् की उन पत्नियों की रक्षा नहीं कर पाये और भील और दस्यु उन्हें लूटकर ले गए। 
भगवान् श्री कृष्ण का जाम्बवन्ति और सत्यभामा से विवाह :: एक बार सत्राजित ने भगवान सूर्य की उपासना करके उनसे स्यमन्तक नाम की मणि प्राप्त की। उस मणि का प्रकाश भगवान सूर्य के समान ही था। एक दिन भगवान् श्री कृष्ण जब चौसर खेल रहे थे तभी सत्राजित उस मणि को पहन कर उनके पास आया। दूर से उसे आते देख कर यादवों ने भगवान् श्री कृष्ण से कहा कि उन के दर्शनों के लिये साक्षात् सूर्य भगवान या अग्निदेव चले आ रहे थे। इस पर भगवान् श्री कृष्ण ने हँस कर कहा कि आगन्तुक सत्राजित था और उसने सूर्य भगवान से प्राप्त स्यमन्तक मणि को पहन रखा थी जिसके कारण वह तेजोमय हो रहा था। तभी सत्राजित वहाँ आ पहुँचा। सत्राजित को देखकर उन यादवों ने उससे कहा कि वो उस अलौकिक दिव्य मणि मणि महाराज उग्रसेन को दे दे। किन्तु सत्राजित यह बात सुन कर बिना कुछ उत्तर दिये ही वहाँ से उठ कर चला गया। सत्राजित ने स्यमन्तक मणि को अपने घर के एक देव मन्दिर में स्थापित कर दिया। वह मणि नित्य उसे आठ भार सोना देती थी। जिस स्थान में वह मणि होती थी वहाँ के सारे कष्ट स्वयं ही दूर हो जाते थे। 
सत्राजित का भाई प्रसेनजित उस मणि को पहन कर घोड़े पर सवार हो आखेट के लिये गया। वन में प्रसेनजित तथा उसके घोड़े को एक सिंह ने मार डाला और वह मणि छीन ली। उस सिंह को ऋक्षराज जाम्बवन्त ने मारकर वह मणि प्राप्त कर ली और अपनी गुफा में चले गए। जाम्बवन्त जी ने उस मणि को अपने बालक का खिलौना बना दिया। 
जब प्रसेनजित लौट कर नहीं आया तो सत्राजित ने समझा कि मेरे भाई को भगवान् श्री कृष्ण ने मारकर मणि छीन ली है। भगवान् श्री कृष्ण जी पर चोरी के सन्देह की बात पूरे द्वारिकापुरी में फैल गई। जब भगवान् श्री कृष्ण चन्द्र ने सुना कि मुझ पर व्यर्थ में चोरी का कलंक लगा है तो वे इस कलंक को धोने के उद्देश्य से नगर के प्रमुख यादवों का साथ ले कर रथ पर सवार हो स्यमन्तक मणि की खोज में निकले। वन में उन्होंने घोड़ा सहित प्रसेनजित को मरा हुआ देखा पर मणि का कहीं अता-पता नहीं था। वहाँ निकट ही सिंह के पंजों के चिन्ह थे। वे सिंह के पदचिन्हों के सहारे आगे बढ़े तो उन्हें सिंह भी मरा हुआ मिला और वहाँ पर रीछ के पैरों के चिन्ह मिले जो कि एक गुफा तक गये थे। जब वे उस भयंकर गुफा के निकट पहुँचे तब भगवान् श्री कृष्ण ने यादवों से कहा कि वे वहीं रुकें। उन्होंने ने गुफा में प्रवेश कर मणि का पता निश्चय किया। उन्होंने देखा कि उस प्रकाश वान मणि को रीछ का एक बालक लिये हुये खेल रहा है। भगवान् श्री कृष्ण ने उस मणि को वहाँ से उठा लिया। यह देख कर जाम्बवन्त जी अत्यन्त क्रोधित होकर श्री कृष्ण को मारने के लिये झपटे। जाम्बवन्त और भगवान् श्री कृष्ण में भयंकर युद्ध हुआ। 
जब भगवान् श्री कृष्ण जी गुफा से वापस नहीं लौटे तो सारे यादव उन्हें मरा हुआ समझ कर बारह दिन के उपरान्त वहाँ से द्वारिका पुरी वापस आ गये तथा समस्त वत्तान्त वसुदेव और देवकी से कहा। वसुदेव और देवकी व्याकुल होकर महामाया दुर्गा की उपासना करने लगे। उनकी उपासना से प्रसन्न होकर दुर्गा देवी ने प्रकट होकर उन्हें आशीर्वाद दिया कि तुम्हारा पुत्र तुम्हें अवश्य मिलेगा। 
भगवान् श्री कृष्ण और जाम्बवन्त जी दोनों ही पराक्रमी थे। युद्ध करते हुये गुफा में अट्ठाइस दिन व्यतीत हो गये। भगवान श्री कृष्ण की मार से महाबली जाम्बवन्त जी की नस टूट गई। वे अत्यन्त व्याकुल हो उठे और अपने स्वामी भगवान् श्री रामचन्द्र जी का स्मरण करने लगे। जाम्बवन्त के द्वारा भगवान् श्री राम के स्मरण करते ही भगवान् श्री कृष्ण ने भगवान् श्री रामचन्द्र के रूप में उन्हें दर्शन दिये। जाम्बवन्त जी उनके चरणों में गिर पड़े और कहा कि वे समझ गए है कि परमात्मा ने यदुवंश में अवतार लिया है। भगवान् श्री कृष्ण ने याद दिलाया कि जाम्बवन्त जी ने रामावतार में  रावण के वध हो जाने के पश्चात्, उनसे युद्ध करने की इच्छा व्यक्त की थी और उन्होंने उनसे कहा था कि वे जाम्बवन्त जी की इच्छा अवश्य पूरी करेंगे। जाम्बवन्त जी ने भगवान् श्री कृष्ण की अनेक प्रकार से स्तुति की और अपनी कन्या जाम्बवन्ती का विवाह उनसे कर दिया। 
भगवान् श्री कृष्ण जाम्बवन्ती को साथ लेकर द्वारिका पुरी पहुँचे। उनके वापस आने से द्वारिका पुरी में चहुँ ओर प्रसन्नता व्याप्त हो गई। भगवान् श्री कृष्ण ने सत्राजित को बुलवाकर उसकी मणि उसे वापस कर दी। सत्राजित अपने द्वारा भगवान् श्री कृष्ण पर लगाये गये झूठे कलंक के कारण अति लज्जित हुआ और पश्चाताप करने लगा। प्रायश्चित के रूप में उसने अपनी कन्या सत्यभामा का विवाह भगवान् श्री कृष्ण के साथ कर दिया और वह मणि भी उन्हें दहेज में दे दी। किन्तु शरणागत वत्सल भगवान् श्री कृष्ण ने उस मणि को स्वीकार न करके पुनः सत्राजित को वापस कर दिया। 
द्वारका में जीवन की जटिल समस्याओं में फंस कर भी भगवान् श्री कृष्ण ब्रजभूमि, नंद-यशोदा तथा साथ में खेले गोप-गोपियों को भूले नही। उन्हें ब्रज की सुधि प्राय: आया करती थी। अत: उद्धव जी को उन्होंने भेजा कि वे वहाँ जाकर लोगों को सांत्वना दें। बलराम ब्रज में दो मास तक रहे। इस समय का उपयोग भी उन्होंने अच्छे ढंग से किया। वे कृषि-विद्या में निपुण थे। उन्होंने अपने कौशल से वृन्दावन से दूर बहने वाली यमुना में इस प्रकार से बाँधा कि वह वृन्दावन के पास से होकर बहने लगी। 
द्वारका पहुँच कर भगवान् श्री कृष्ण ने वहाँ स्थायी रूप से निवास करने का विचार दृढ़ किया और आवश्यक व्यवस्था में लग गये। जब पंचाल के राजा द्रुपद द्वारा द्रौपदी-स्वयंवर तथा मध्य-भेद की बात चारों तरफ फैली तो भगवान् श्री कृष्ण भी उस स्वयंवर में गये। वहाँ उनकी बुआ के लड़के पाण्डव  भी मौजूद थे। पाण्डव अर्जुन ने मत्स्य को भेद कर द्रौपदी को प्राप्त कर लिया और इस प्रकार अपनी धनुर्विद्या का कौशल अनेक देश के राजाओं के समक्ष प्रकट किया। इससे भगवान् श्री कृष्ण बहुत प्रसन्न हुए। उनका अर्जुन के प्रति वे विशेष लगाव था, क्योंकि वे उनके सखा नर थे। वे पाण्डवों के साथ हस्तिनापुर लौटे। कुरुराज धृतराष्ट्र ने पाण्डवों को इन्द्रप्रस्थ के आस-पास का प्रदेश दिया था। पाण्डवों ने भगवान् श्री कृष्ण के द्वारका-सम्बन्धी अनुभव का लाभ उठाया। 
उनकी सहायता से उन्होंने जंगल के एक भाग को साफ़ करा कर इन्द्रप्रस्थ नगर को अच्छे ढंग से बसाया। इसके बाद भगवान् श्री कृष्ण द्वारका लौट गये। भगवान् श्री कृष्ण के द्वारका लौटने के कुछ समय बाद अर्जुन तीर्थ यात्रा के लिए निकले। अनेक स्थानों में होते हुए वे प्रभास क्षेत्र पहुँचें। भगवान् श्री कृष्ण ने जब यह सुना तब वे प्रभास जाकर अपने प्रिय सखा अर्जुन को अपने साथ द्वारिका ले आये। यहाँ अर्जुन का बड़ा स्वागत सत्कार हुआ। उन दिनों रैवतक पर्वत पर यादवों का मेला लगता था। इस मेले में अर्जुन भी भगवान् श्री कृष्ण के साथ गये। उन्होंने यहाँ सुभद्रा को देखा और उस पर मोहित हो गये। भगवान् श्री कृष्ण ने कहा कि सुभद्रा उनकी बहिन है, पर यदि अर्जुन उससे विवाह करना चाहते हों तो उसे वहाँ से हर कर लेजा सकते थे, क्योंकि वीर क्षत्रियों के द्वारा विवाह हेतु स्त्री का हरण निंद्य नहीं, बल्कि श्रेष्ठ माना जाता है। 
अर्जुन सुभद्रा को भगा ले चले। जब इसकी ख़बर यादवों को लगी तो उनमें बड़ी हलचल मच गई। सभापाल ने सूचना देकर सब गण-मुख्यों को सुधर्मा-भवन में बुलाया, जहाँ इस विषय पर बड़ा वाद-विवाद हुआ। बलराम जी अर्जुन के इस व्यवहार से अत्यन्त क्रुद्ध हो गये थे और उन्होंने प्रण किया कि वे इस अपमान का बदला अवश्य लेंगें। भगवान् श्री कृष्ण ने बड़ी कुशलता के साथ अर्जुन के कार्य का समर्थन किया। भगवान् श्री कृष्ण ने कहा कि अर्जुन ने क्षत्रियोचित कार्य ही किया है। भगवान् श्री कृष्ण के अकाट्य तर्कों के आगे किसी की न चली। उन्होंने सबको समझा-बुझाकर शान्त किया। फिर वे बलराम जी तथा कुछ अन्य अंधक-वृष्णियों के साथ बड़ी धूमधाम से दहेज का सामान लेकर पाण्डवों के पास इंन्द्रप्रस्थ पहुँचे। अन्य लोग तो शीघ्र इन्द्रप्रस्थ से द्वारका लौट आये, किंतु भगवान् श्री कृष्ण कुछ समय वहाँ ठहर गये। इस बार पाण्डवों के राज्य के अंतर्गत खांडव वन नामक स्थान में भयंकर अग्निकांड हो गया, किंतु भगवान् श्री कृष्ण और अर्जुन के प्रयत्नों से अग्नि बुझा दी गई और वहाँ के निवासी मय तथा अन्य दानवों की रक्षा की जा सकी।
कुछ समय बाद युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ की तैयारियाँ आरम्भ कर दीं और आवश्यक परामर्श के लिए भगवान् श्री कृष्ण को बुलाया। भगवान् श्री कृष्ण इन्द्रप्रस्थ आये और उन्होंने राजसूय यज्ञ के विचार की पुष्टि की। उन्होंने यह सुझाव दिया कि पहले अत्याचारी शासकों को नष्ट कर दिया जाय और उसके बाद यज्ञ का आयोजन किया जाय। भगवान् श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर को सबसे पहले जरासंध पर चढ़ाई करने की मन्त्रणा दी। तद्नुसार भीम और अर्जुन के साथ कृष्ण रवाना हुए और कुछ समय बाद मगध की राजधानी गिरिब्रज पहुँच गये। 
शिशुपाल वध :: जरासंघ का वध करके भगवान् श्री कृष्ण, अर्जुन और भीम इन्द्रप्रस्थ लौट आए एवं धर्मराज युधिष्ठिर से सारा वृत्तांत कहा, जिसे सुनकर वे अत्यन्त प्रसन्न हुये। तत्पश्चात् धर्मराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ की तैयारी शुरू करवा दी। उस यज्ञ के ऋतिज आचार्य होता थे। यज्ञ को सफल बनाने के लिये भगवान् वेद व्यास, भरद्वाज, सुनत्तु, गौतम, असित, वशिष्ठ, च्यवन, कण्डव, मैत्रेय, कवष, जित, विश्वामित्र, वामदेव, सुमति, जैमिन, क्रतु, पैल, पाराशर, गर्ग, वैशम्पायन, अथर्वा, कश्यप, धौम्य, परशुराम, शुक्राचार्य, आसुरि, वीतहोत्र, मधुद्वन्दा, वीरसेन, अकृतब्रण आदि, ऋषि, मह्रिषी, मुनि उपस्थित थे। सभी देशों के राजाधिराज भी वहाँ पधारे।
ऋतिजों ने शास्त्र विधि से यज्ञ-भूमि को सोने के हल से जुतवा कर धर्मराज युधिष्ठिर को दीक्षा दी। धर्मराज युधिष्ठिर ने सोमलता का रस निकालने के समय यज्ञ की भूल-चूक देखने वाले सद्पतियों की विधिवत पूजा की। अब समस्त सभासदों में इस विषय पर विचार होने लगा कि सब से पहले किस देवता की पूजा की जाये। तब सहदेव जी उठ कर बोले :-  
श्री कृष्ण देवन के देव, उन्हीं को सब से आगे लेव; 
ब्रह्मा शंकर पूजत जिनको, पहिली पूजा दीजै उनको।
अक्षर ब्रह्म कृष्ण यदुराई, वेदन में महिमा तिन गाई; 
अग्र तिलक यदुपति को दीजै, सब मिलि पूजन उनको कीजै॥ 
परमज्ञानी सहदेव जी के वचन सुनकर सभी सत्पुरुषों ने साधु-साधु! कह उठे। भीष्म पितामह ने स्वयं अनुमोदन करते हुये सहदेव के कथन की प्रशंसा की। तब धर्मराज युधिष्ठिर ने शास्त्रोक्त विधि से भगवान श्री कृष्ण का पूजन आरम्भ किया। चेदिराज शिशुपाल जो कि पूर्वजन्म रावण, हिरण्यकशिपु तथा वैकुण्ठलोक में भगवान् विष्णु का द्वारपाल जय था, अपने आसन पर बैठा हुआ यह सब दृश्य देख रहा था। सहदेव के द्वारा प्रस्तावित तथा भीष्म के द्वारा समर्थित भगवान् श्री कृष्ण की अग्र पूजा को वह सहन न कर सका और उसका हृदय क्रोध से भर उठा। वह उठ कर खड़ा हो गया और सभी आगन्तुक मेहमानों से बोला कि क्या कालवश सभी की मति मारी गई थी। क्या बालक सहदेव से अधिक बुद्धिमान व्यक्ति उस सभा में उपस्थित नहीं था? उसने पूछा कि एक बालक की हाँ में हाँ मिला कर अयोग्य व्यक्ति की पूजा स्वीकार क्यों और कैसे कर ली गई? क्या कृष्ण से आयु, बल तथा बुद्धि में कोई भी बड़ा नहीं वहाँ उपस्थित नहीं था? बड़े-बड़े त्रिकालदर्शी ऋषि-महर्षि यहाँ पधारे थे। बड़े-बड़े राजा-महाराजा यहाँ पर उपस्थित थे। क्या एक गाय चराने वाल ग्वाले के समान कोई और यहाँ नहीं था? क्या कौआ हविश्यान्न ले सकता था? क्या गीदड़ सिंह का भाग प्राप्त कर सकता था? न तो कृष्ण का कोई कुल था और न ही जाति, न ही इसका कोई वर्ण था। राजा ययाति के शाप के कारण राजवंशियों ने यदुवंश को वैसे ही बहिष्कृत कर रखा था। कृष्ण जरासंघ के डर से मथुरा त्याग कर समुद्र में जा छिपा था। फिर भला वो किस प्रकार अग्रपूजा पाने का अधिकारी बन सकता था? 
इस प्रकार शिशुपाल जगत के स्वामी भगवान् श्री कृष्ण को गाली देने लगा। उसके इन कटु वचनों की निन्दा करते हुये अर्जुन और भीमसेन अनेक राजाओं के साथ उसे मारने के लिये उद्यत हो गये, किन्तु भगवान् श्री कृष्ण चन्द्र ने उन सभी को रोक दिया। भगवान् श्री कृष्ण के अनेक भक्त अनिष्ट की आशंका से सभा छोड़ कर चले गये। वे भगवान् श्री कृष्ण की निन्दा नहीं सुन सकते थे।
जब शिशुपाल श्री कृष्ण को एक सौ गाली दे चुका, तब भगवान् श्री कृष्ण ने उसे चेतावनी दी कि यदि उसके मुँख से एक भी अपशब्द निकला तो उसके प्राण नहीं बचेंगे। उन्होंने उसके एक सौ अपशब्दों को क्षमा करने की प्रतिज्ञा की थी, इसी लिये वो तब तक तक  सुरक्षित था। भगवान् श्री कृष्ण के इन वचनों को सुन कर सभा में उपस्थित शिशुपाल के सारे समर्थक भय से थर्रा गये, किन्तु शिशुपाल का विनाश समीप था। अतः उसने काल के वश होकर अपनी तलवार निकालते हुये भगवान् श्री कृष्ण को फिर से गाली दी। शिशुपाल के मुख से अपशब्द के निकलते ही भगवान् श्री कृष्ण ने सुदर्शन चक्र चला दिया और पलक झपकते ही शिशुपाल का सिर कट कर गिर गया। उसके शरीर से एक ज्योति निकल कर भगवान् श्री कृष्ण चन्द्र के भीतर समा गया और वह पापी शिशुपाल, जो तीन जन्मों से भगवान से बैर भाव रखते आ रहा था, परमगति को प्राप्त हो गया। यह भगवान विष्णु का वही द्वारपाल था, जिसे कि सनकादि मुनियों ने शाप दिया था। वे जय और विजय अपने पहले जन्म में हिरण्यकश्यपु और हिरण्याक्ष, दूसरे जन्म में रावण और कुम्भकर्ण तथा अन्तिम तीसरे जन्म में शिशुपाल और दन्तवक्र बने एवं भगवान् श्री कृष्ण के हाथों अपने परमगति को प्राप्त होकर पुनः बैकुण्ठ लोक-विष्णुलोक लौट गये।
पाण्डवों का राजसूर्य यज्ञ पूरा हुआ। पर इस यज्ञ तथा पाण्डवों  की बढ़ती को देख उनके प्रतिद्वंद्वी कौरवों के मन में विद्वेश की अग्नि प्रज्वलित हो उठी और वे पाण्डवों  को नीचा दिखाने का उपाय सोचने लगे।
Shri krishna
इसके उपरांत विराट नगर में सभा हुई और उसमें विचार किया गया कि कौरवों से पाण्डवों का समझौता किस प्रकार कराया जाय। बलराम जी ने कहा कि शकुनि का इस झगड़े में कोई दोष नहीं था; युधिष्ठिर उसके साथ जुआ खेलने ही क्यों गये? हाँ, यदि किसी प्रकार संधि हो जाय तो अच्छा है। सात्यकि और द्रुपद को बलराम की ये बाते अच्छी नहीं लगी। भगवान् श्री कृष्ण ने द्रुपद के कथन की पुष्टि करते हुए कहा कि कौरव अवश्य दोषी है। अतं में सर्व-सम्मति से यह तय हुआ कि संधि के लिए किसी योग्य व्यक्ति को दुर्योधन के पास भेजा जाय। द्रुपद ने अपने पुरोहित को इस काम के लिए भेजा। भगवान् श्री कृष्ण इस सभा में सम्मिलित होने के बाद द्वारका चले गये। संधि की बात तय न हो सकी। दुर्धोधन पाण्डवों  को पाँच गाँव तक देने के लिये भी राजी नहीं हुआ। अब युद्ध अनिवार्य जानकर दुर्योधन और अर्जुन दोनों ही भगवान् श्री कृष्ण से सहायता प्राप्त करने के लिए द्वारका पहुँचे। परम् नीतिज्ञ भगवान् श्री कृष्ण ने पहले दुर्योधन ने पूछा कि तुम मुझे लोगे या मेरी सेना को? दुर्योधन ने तत्त्काल सेना माँगी। भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन को वचन दिया कि वह उसके सारथी बनेगें परन्तु स्वयं शस्त्र ग्रहण नहीं करेगें। 
भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन के साथ इन्द्रप्रस्थ आ गये। भगवान् श्री कृष्ण के आने पर पाण्डवों  ने फिर एक सभा की और निश्चय किया कि एक बार संधि का और प्रयत्न किया जाय। युधिष्ठिर ने अपना मत प्रकट करते हुए कहा, हम पाँच भाइयों को अविस्थल, वृकस्थल, माकन्दी, वारणाबत और एक कोई अन्य गाँव निर्वाह मात्र के लिए चाहिए। इतने पर ही हम मान जायेगें, अन्यथा युद्ध के लिए प्रस्तुत होना पड़ेगा। उनके इस कथन का समर्थन अन्य लोगों ने लिए प्रस्तुत होना पड़ेगा। उनके इस कथन का समर्थन अन्य लोगों ने भी किया। वह तय हुआ कि इस बार संधि का प्रस्ताव लेकर भगवान् श्री कृष्ण कौरवों के पास जाये। भगवान् श्री कृष्ण संधि कराने को बहुत इच्छुक थे। उन्होंने दुर्योधन की सभा में जाकर उसे समझाया और कहा कि केवल पाँच गाँव पाण्डवों को देकर झगड़ा समाप्त कर दिया जाय। परन्तु अभिमानी दुर्योधन स्पष्ट कह दिया कि बिना युद्ध के वह पाण्डवों को सुई की नोंक के बराबर भी ज़मीन न देगा।
भगवान् श्री कृष्ण का द्वारका का जीवन :: द्वारका नगर बिलकुल नवीन नहीं था। वैवस्वत मनु के एक पुत्र शर्याति को शासन में पश्चिमी भारत का भाग मिला था। शर्याति के पुत्र आनर्त के नाम पर कठियावाड़ और समीप के कुछ प्रदेश का नाम आनंत प्रसिद्ध हुआ। उसकी राजधानी कुशस्थली के ध्वंसावशेषों पर कृष्ण कालीन द्वारका की स्थापना हुई। बलराम जी ने अपने श्वसुर से यह स्थान दहेज के रूप में माँग लिया जिसे समुद्र ने भगवान् श्री कृष्ण के कहने पर खाली कर दिया। यहाँ आकर भगवान् श्री कृष्ण ने उग्रसेन को वृष्णिगण का प्रमुख बनाया। 
बलराम जी का विवाह भी द्वारका जाकर हुआ। बलराम जी का विवाह रेवती से हुआ जो कि कद में उनसे बहुत बड़ी थीं। दाऊ जी ने उन्हें अपने हल से दबाकर त्रेता युग के अनुरूप कर लिया। रेवती का जन्म भौतिक दृष्टि से कई युग पहले हो चुका था।  रुक्मिणी जी से भगवान् श्री कृष्ण के दस पुत्र और एक कन्या थी। इनमें सबसे बड़े प्रद्युम्न जी (भगवान् श्री कृष्ण की तीसरी मूर्ति, कामदेव, चन्द्र देव और ब्रह्मा जी के अंश) थे। भागवतादि पुराणों में भगवान् श्री कृष्ण के गृहस्थ-जीवन तथा उनकी दैनिक चर्या का हाल विस्तार से मिलता है। प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध का विवाह शोणितपुर के राजा वाणासुर की पुत्री ऊषा के साथ हुआ।
भगवान् श्री कृष्ण की तीसरी मूर्ति प्रद्युम्न जी का जन्म :: श्री शुकदेव जी बोले कि हे परीक्षित, भगवान् शंकर के श्राप से जब कामदेव भस्म हो गए तो उनकी पत्नी रति अति व्याकुल होकर पति वियोग में उन्मत्त सी हो गईं। उन्होंने अपने पति की पुनः प्राप्ति के लिये देवी माँ पार्वती और भगवान् शिव की आराधना की। माँ पार्वती जी ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि उनका पति यदुकुल में भगवान् श्री कृष्ण के पुत्र के रूप में जन्म लेगा और उन्हें वह शम्बासुर के यहाँ मिलेगा। इसीलिये रति शम्बासुर के घर मायावती के नाम से दासी का कार्य करने लगीं।
कामदेव रुक्मणी के गर्भ में स्थित हो गये। समय आने पर रुक्मणी ने एक अति सुन्दर बालक को जन्म दिया। उस बालक के सौन्दर्य, शील, सद्गुण आदि सभी भगवान् श्री कृष्ण के ही समान थे। जब शम्बासुर को पता चला कि मेरा शत्रु यदुकुल में जन्म ले चुका है, तो वह वेश बदल कर प्रसूतिका गृह से उस दस दिन के शिशु को हर लाया और समुद्र में डाल दिया। समुद्र में उस शिशु को एक मछली निगल गई और उस मछली को एक मगर मच्छ ने निगल लिया। वह मगर मच्छ एक मछुआरे के जाल में आ फँसा जिसे कि मछुआरे ने शम्बासुर की रसोई में भेज दिया। जब उस मगरमच्छ का पेट फाड़ा गया तो उसमें से अति सुन्दर बालक निकला। उसको देख कर शम्बासुर की दासी मायावती के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वह उस बालक को पालने लगी। उसी समय देवर्षि नारद मायावती के पास पहुँचे और बोले कि हे मायावती! यह तेरा ही पति कामदेव है। इसने यदुकुल में जन्म लिया है और इसे शम्बासुर समुद्र में डाल आया था। तू इसका यत्न से लालन-पालन कर। इतना कह कर नारद जी वहाँ से चले गये। उस बालक का नाम प्रद्युम्न रखा गया। थोड़े ही काल में प्रद्युम्न जी युवा हो गए। प्रद्युम्न जी का रूप लावण्य इतना अद्भुत था कि वे साक्षात् भगवान् श्री कृष्ण चन्द्र ही प्रतीत होते थे। रति उन्हें बड़े भाव और लजीली दृष्टि से देखती थी। तब प्रद्युम्न जी बोले कि तुमने माता जैसा मेरा लालन-पालन किया है फिर तुममें ऐसा परिवर्तन क्यों देख रहा हूँ? तब रति ने कहा :-
पुत्र नहीं तुम पति हो मेरे, मिले कन्त शम्बासुर प्रेरे; 
मारौ नाथ शत्रु यह तुम्हरौ, मेटौ दुःख देवन कौ सिगरौ। 
यह कह कर मायावती रति ने उन्हें महा विद्या प्रदान किया तथा धनुष बाण, अस्त्र-शस्त्र आदि सभी विद्याओं में निपुण कर दिया। युद्ध विद्या में प्रवीण हो जाने पर प्रद्युम्न अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित होकर शम्बासुर की सभा में गये। शम्बासुर उन्हें देखकर प्रसन्न हुआ और सभासदों से कहा कि इस बालक को मैंने पाल पोष कर बड़ा किया है। इस पर प्रद्युम्न बोले कि अरे दुष्ट! मैं तेरा बालक नहीं वरन् तेरा वही शत्रु हूँ जिसको तूने समुद्र में डाल दिया था। अब तू मुझसे युद्ध कर।
प्रद्युम्न जी के इन वचनों को सुनकर शम्बासुर ने अति क्रोधित होकर उन पर अपने बज्र के समान भारी गदा का प्रहार किया। प्रद्युम्न ने उस गदा को अपनी गदा से नष्ट कर दिया। तब वह असुर अनेक प्रकार की माया रच कर युद्ध करने लगा। किन्तु प्रद्युम्न जी ने महा विद्या के प्रयोग से उसकी माया को नष्ट कर दिया और अपने तीक्ष्ण तलवार से शम्बासुर का सिर काट कर पृथ्वी पर डाल दिया। उनके इस पराक्रम को देख कर देवतागणों ने उनकी स्तुति कर आकाश से पुष्प वर्षा की। फिर मायावती रति प्रद्युम्न को आकाश मार्ग से द्वारिकापुरी ले आई। गौरवर्ण पत्नी के साथ साँवले प्रद्यम्न जी की शोभा अवर्णनीय थी।
वे नव-दम्पति भगवान् श्री कृष्ण के अन्तःपुर में पहुँचे। रुक्मणी सहित वहाँ की समस्त स्त्रियाँ साक्षात् भगवान् श्री कृष्ण के प्रतिरूप प्रद्युम्न जी को देखकर आश्चर्यचकित रह गये। वे सोचने लगीं कि यह नर श्रेष्ठ किसका पुत्र है? न जाने क्यों इसे देख कर मेरा वात्सल्य उमड़ रहा है। मेरा बालक भी बड़ा होकर इसी के समान होता किन्तु उसे तो न जाने कौन प्रसूतिका गृह से ही उठा कर ले गया था। उसी समय भगवान् श्री कृष्ण भी अपने माता-पिता देवकी और वसुदेव तथा भाई बलराम के साथ वहाँ आ पहुँचे। भगवान् श्री कृष्ण तो अन्तर्यामी थे। उन्हें नर लीला करनी थी; इसलिये वे बालक के विषय में अनजान बने रहे। तब देवर्षि नारद ने वहाँ आकर सभी को प्रद्युम्न जी की आद्योपान्त कथा सुनाई और वहाँ उपस्थित समस्त जनों के हृदय में हर्ष व्याप्त गया।
भगवान् श्री कृष्ण और आदिदेव महादेव का युद्ध :: प्रह्लाद जी के पौत्र दानवीर दैत्यराज बलि के सौ प्रतापी पुत्र थे, जिनमें सबसे बड़ा वाणासुर था। वाणासुर ने भगवान् शिव की बड़ी कठोर तपस्या की। भोलेनाथ उसकी तपस्या से प्रसन्न हो गए और उसे सहस्त्र बाहु होने का तथा अपार बल का वरदान दिया। सहस्त्र बाहु के अपार बल के कारण कोई भी उससे युद्ध नहीं करता था। इससे वाणासुर अहंकारी हो गया। बहुत काल व्यतीत हो जाने के पश्चात् भी जब उससे किसी ने युद्ध नहीं किया, तो वह भगवान् शिव के पास आकर बोला कि उसकी युद्ध करने की प्रबल इच्छा थी, जबकि कोई भी उससे युद्ध करना नहीं चाहता था। उसने भोलेनाथ से प्रार्थना की कि वो ही उससे युद्ध कर लें। वाणासुर उनका परम भक्त था। इसलिये उन्होंने कहा कि उसके हाथों को काटने वाला और युद्ध में पराजित करने वाला उसे अवश्य ही मिलेगा और वो ही उसका अहंकार भी तोड़ेगा। उन्होंने उसे चेताया कि उसके महल की पताका के गिरने के साथ ही उसका मान-मर्दन तय था। 
वाणासुर की उषा नाम की एक कन्या थी। उषा ने स्वप्न में भगवान् श्री कृष्ण के पौत्र तथा प्रद्युम्न जी (कामदेव के अवतार) के पुत्र अनिरुद्ध को देखा और उन पर मोहित हो गई। उसने अपने स्वप्न की बात अपनी सखी चित्रलेखा को बताया। चित्रलेखा ने अपने योगबल से अनिरुद्ध का चित्र बनाया और उषा को दिखाकर पूछा कि क्या उसने अनिरुद्ध जी को ही स्वप्न में देखा था? उषा ने स्वीकार किया कि अनिरुद्ध जी ने ही उसका चित्त हर लिया था। उसने कहा कि वो उनके बिना नहीं रह सकती थी। चित्रलेखा ने योगमाया से द्वारिका जाकर, सोते हुये अनिरुद्ध जी को पलंग सहित उठाकर उषा के महल में पहुँचा दिया। नींद खुलने पर अनिरुद्ध जी ने स्वयं को एक नये स्थान पर पाया और देखा कि उसके पास एक अनिंद्य सुन्दरी बैठी थी। अनिरुद्ध जी के पूछने पर उषा ने बताया कि वह वाणासुर की पुत्री थी और अनिरुद्ध जी को पति रूप में पाने की कामना रखती थी। अनिरुद्ध जी भी उषा पर मोहित हो गये और वहीं उसके साथ महल में ही रहने लगे।
पहरेदारों को सन्देह हो गया कि उषा के महल में अवश्य कोई बाहरी मनुष्य आ पहुँचा था। उन्होंने वाणासुर के समक्ष अपना संदेह प्रकट किया। उसी समय वाणासुर ने अपने महल की ध्वजा गिरी हुई देखी। उसे निश्चय हो गया कि उसका शत्रु उषा के महल में प्रवेश कर गया था। वह अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित होकर उषा के महल में पहुँचा। उसने देखा कि उसकी पुत्री उषा के समीप पीताम्बर वस्त्र पहने बड़े बड़े नेत्रों वाला एक साँवला सलौना पुरुष बैठा हुआ है। वाणासुर ने क्रोधित हो कर अनिरुद्ध जी को युद्ध के लिये ललकारा। उसकी ललकार सुनकर अनिरुद्ध जी भी युद्ध के लिये प्रस्तुत हो गये और उन्होंने लोहे के एक भयंकर मुद्गर को उठा कर उसी के द्वारा वाणासुर के समस्त अंगरक्षकों को मार डाला। वाणासुर और अनिरुद्ध जी में घोर युद्ध होने लगा। जब वाणासुर ने देखा कि अनिरुद्ध जी किसी भी प्रकार से उसके काबू में नहीं आ रहे हैं, तो उसने नागपाश से उन्हें बाँधकर बन्दी बना लिया।
इधर द्वारिका पुरी में अनिरुद्ध जी की खोज होने लगी और उनके न मिलने पर वहाँ पर शोक और रंज छा गया। तब देवर्षि नारद ने वहाँ पहुँच कर अनिरुद्ध जी का सारा वृत्तांत कहा। इस पर भगवान् श्री कृष्ण, बलराम जी, प्रद्युम्न जी, सात्यिकी, गद, साम्ब आदि सभी वीर चतुरंगिणी सेना के साथ लेकर वाणासुर के नगर शोणितपुर पहुँचे और आक्रमण करके वहाँ के उद्यान, परकोटे, बुर्ज आदि को नष्ट कर दिया। आक्रमण का समाचार सुन वाणासुर भी अपनी सेना को साथ लेकर आ गया। वाणासुर की सहायता के लिये भगवान् शिव भी भगवान् कार्तिकेय तथा भूत, प्रेत, पिशाच, यक्ष, राक्षस, कुष्माण्ड आदि की सेना को लेकर रणभूमि में आ गये। श्री बलराम जी कुम्भाण्ड तथा कूपकर्ण राक्षसों से जा भिड़े; अनिरुद्ध जी भगवान् कार्तिकेय के साथ युद्ध करने लगे और भगवान् श्री कृष्ण वाणासुर और भगवान् शिव के सामने आ डटे। घनघोर संग्राम होने लगा। चहुँ ओर बाणों की बौछार हो रही थी। भगवान् श्री कृष्ण के तीक्ष्ण बाणों से आहत हो भगवान् शिव की सेना भाग निकली। 
भगवान् शिव  के समस्त अस्त्रों को भगवान् श्री कृष्ण ने ब्रह्मास्त्र से काट डाला। इस पर भगवान् शिव ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। भगवान् श्री कृष्ण ने ब्रह्मा्त्र को वायव्यास्त्र से, पर्वतास्त्र को आग्नेयास्त्र से, परिजन्यास्त्र तथा पशुपत्यास्त्र को नारायणास्त्र से नष्ट कर दिया। अब भगवान् श्री कृष्ण ने भोलेनाथ को स्तब्ध कर दिया। वाणासुर भगवान् श्री कृष्ण को देखता तो उनमें भगवान् शिव और भगवान् शिव को देखता तो उनमें भगवान् नजर आते। भगवान् श्री कृष्ण ने वाणासुर के सहस्त्र हाथों में से केवल चार हाथों को छोड़कर शेष सभी को काट दिया। अन्ततः भगवान् शिव  सचेत हुए तो उन्होंने वाणासुर से कहा कि "भगवान् कृष्ण ईश्वरों के भी ईश्वर हैं। ये मेरे भी ईश्वर हैं। तू इनकी शरण में चला जा"। भगवान् शिव की बात सुनकर वाणासुर भगवान् श्री कृष्ण के चरणों में गिर पड़ा और उनकी स्तुति कर क्षमा प्रार्थना करने लगा। वाणासुर को अपनी शरण में आया जानकर शरणागत वत्सल भगवान् श्री कृष्ण ने उसे अभयदान दे दिया। उन्होंने वाणासुर से कहा कि "मुझ में और भगवान् शिव में किसी प्रकार का कोई भेद नहीं है। वे मुझ में हैं और मैं उनमें हूँ"। वाणासुर ने अपनी कन्या उषा का अनिरुद्ध जी के साथ पाणिग्रहण संस्कार कर दिया।
भगवान् अपने अवतार में एक साथ 4 मूर्तियों में प्रकट होते हैं। यथा श्री कृष्ण, बलराम जी, प्रद्युम्न जी और अनिरुद्ध जी। श्री राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न। 
युद्ध की पृष्ठ भूमि :: यज्ञ के समाप्त हो जाने पर भगवान् श्री कृष्ण युधिष्ठिर से आज्ञा ले द्वारका लौट गये। इसके कुछ समय उपरान्त दुर्योधन ने अपने मामा शकुनि की सहायता से छल द्वारा जुए में पाण्डवों को हरा दिया और उन्हें इस शर्त पर तेरह वर्ष के लिए निर्वासित कर दिया कि अन्तिम वर्ष उन्हें अज्ञातवास करना पड़ेगा। पाण्डव द्रौपदी के साथ काम्यकवन की ओर चले गये। उनके साथ सहानुभूति रखने वाले बहुत से लोग काम्यक वन में पहुँचे, जहाँ पाण्डव ठहरे थे। भोज, वृष्णि और अंधक-वंशी यादव तथा पंचाल-नरेश द्रुपद भी उनसे मिले। भगवान् श्री कृष्ण को जब यह सब ज्ञात हुआ तो वह शीघ्र पाण्डवों से मिलने आये। उनकी दशा देख तथा द्रौपदी की आक्रोशपूर्ण प्रार्थना सुन कृष्ण द्रवित हो उठे। उन्होंने द्रौपदी को वचन दिया कि वे पाण्डवों की सब प्रकार से सहायता करेगें और उनका राज्य वापस दिलायेंगे।महाभारत युद्ध :: भगवान् श्री कृष्ण भी संधि कराने में असफल हुए। अब युद्ध अनिवार्य हो गया। दोनों पक्ष अपनी-अपनी सेनाएँ तैयार करने लगे। इस भंयकर युद्धग्नि में इच्छा या अनिच्छा से आहुति देने को प्राय: सारे भारत के शासक शामिल हुए। पांडवों की ओर मध्स्य, पंचाल, चेदि, कारूश, पश्चिमी मगध, काशी और कंशल के राजा हुए। सौराष्ट्र-गुजरात के वृष्णि यादव भी पाण्डवों के पक्ष में रहे। भगवान् श्री कृष्ण, युयंधान और सात्यकि इन यादवों के प्रमुख नेता थे। बलराम जी यद्यपि कौरवों के पक्षपाती थे, तो भी उन्होंने कौरव-पाण्डव युद्ध में भाग लेना उचित न समझा और वे तीर्थ-पर्यटन के लिए चले गये। कौरवों की और शूरसेन प्रदेश के यादव तथा महिष्मती, अवंति, विदर्भ और निषद देश के यादव हुए। इनके अतिरिक्त पूर्व में बंगाल, असाम, उड़ीसा तथा उत्तर-पश्चिम एवं पश्चिम भारत के बारे राजा और वत्स देश के शासक कौरवों की ओर रहे। इस प्रकार मध्यदेश का अधिकांश, गुजरात और सौराष्ट्र का बड़ा भाग पाण्डवों की ओर था और प्राय: सारा पूर्व, उत्तर-पश्चिम और पश्चिमी विंध्य कौरवों की तरफ। पाण्डवों की कुल सेना सात अक्षौहिणी तथा कौरवों की ग्यारह अक्षौहिणी थी। 
दोनों ओर की सेनाएं युद्ध के लिए तैयार हुई। भगवान् श्री कृष्ण, धृष्टद्युम्न तथा सात्वकि ने पाण्डव-सैन्य की ब्यूह-रचना की। कुरुक्षेत्र के प्रसिद्ध मैदान में दोनों सेनाएं एक-दूसरे के सामने आ डटीं। अर्जुन के सारथी भगवान् श्री कृष्ण थे। युद्धस्थल में अपने परिजनों आदि को देखकर अर्जुन के चित्त में विषाद उत्पन्न हुआ और उसने युद्ध करने से इंकार कर दिया। तब भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता के निष्काम कर्मयोग का उपदेश दिया और उसकी भ्रांति दूर की। अब अर्जुन के युद्ध के लिए पूर्णतया प्रस्तुत हो गया। महाभारत युद्ध में शंख का भी अत्यधिक महत्त्व था। शंखनाद के साथ युद्ध प्रारम्भ होता था। जिस प्रकार प्रत्येक रथी सेनानायक का अपना ध्वज होता था, उसी प्रकार प्रमुख योद्धाओं के पास अलग-अलग शंख भी होते थे। भीष्मपर्वांतर्गत गीता उपपर्व के प्रारम्भ में विविध योद्धाओं के नाम दिए गए हैं। भगवान् श्री कृष्ण के शंख का नाम पांचजन्य था, अर्जुन का देवदत्त, युधिष्ठिर का अनंतविजय, भीम का पौण्ड, नकुल का सुघोष और सहदेव का मणिपुष्पक। अठारह दिन तक यह महाभीषण संग्राम होता रहा। देश का अपार जन-धन इसमें स्वाहा हो गया। कौरवों के शक्तिशाली सेनापति भीष्म, द्रोण, कर्ण, शल्य आदि धराशायी हो गये। अठारहवें दिन दुर्योधन मारा गया और महाभारत युद्ध की समाप्ति हुई। यद्यपि पाण्डव इस युद्ध में विजयी हुए, पर उन्हें शान्ति न मिल सकी। चारों और उन्हें क्षोभ और निराशा दिखाई पड़ने लगी। भगवान् श्री कृष्ण ने शरशय्या पर लेटे हुए भीष्म पितामह से युधिष्ठर को उपदेश दिलवाया। फिर हस्तिनापुर में राज्याभिषेक-उत्सव सम्पन्न करा कर वे द्वारका लौट गये। पाण्डवों ने कुछ समय बाद एक अश्वमेध यज्ञ किया और इस प्रकार वे भारत के चक्रवर्ती सम्राट् घोषित हुए। भगवान् श्री कृष्ण भी इस यज्ञ में सम्मिलित हुए और फिर द्वारका वापस चले गये। यह भगवान् श्री कृष्ण की अंतिम हस्तिनापुर यात्रा थी।
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यदुवंश का नाश :: यादव बहुत अधिक उदण्ड हो गए थे। उनका मद सम्भाले नहीं संभलता था। अतः यह परमावश्यक हो गया कि वो भी नष्ट हो जायें। गान्धारी को भगवान् श्री कृष्ण पर आक्रोश था। वो जानती थी कि यदि भगवान् श्री कृष्ण चाहते तो उसका वंशनाश नहीं होता। उसने महाभारत युद्ध के लिए भगवान् श्री कृष्ण को दोषी ठहराते हुए श्राप दिया कि जिस प्रकार कौरवों के वंश का नाश हुआ, ठीक उसी प्रकार यदुवंश का भी नाश हो जाये। गान्धारी के श्राप से विनाशकाल आने के कारण भगवान् श्री कृष्ण द्वारिका लौटकर यदुवंशियों को लेकर प्रयास क्षेत्र में आ गये थे। यदुवंशी अपने साथ अन्न-भंडार भी ले आये थे। भगवान् श्री कृष्ण ने ब्राह्मणों को अन्नदान देकर यदुवंशियों को मृत्यु का इंतजार करने का आदेश दिया था। अंधक-वृष्णि यादव बड़ी सँख्या में महाभारत युद्ध में काम आये। जो शेष बचे वे आपस में मिल-जुल कर अधिक समय तक न रह सके। यादवों में विकास की वृद्धि हो चली थी और ये मदिरा-पान अधिक करने लगे थे। भगवान् श्री कृष्ण-बलराम के समझाने पर भी ऐश्वर्य से मत्त यादव न माने और वे कई दलों में विभक्त हो गये। एक दिन प्रभास के मेले में, जब यादव लोग वारुणी के नशें में चूर थे, तो महाभारत-युद्ध की चर्चा करते हुए सात्यकि और कृतवर्मा में विवाद हो गया। सात्यकि ने गुस्से में आकर कृतवर्मा का सिर काट दिया। इससे उनमें आपसी युद्ध भड़क उठा और वे समूहों में विभाजित होकर एक-दूसरे का संहार करने लगे। वह झगड़ा इतना बढ़ गया कि अंत में वे सामूहिक रूप से कट मरे। इस प्रकार यादवों ने गृह-युद्ध अपना अन्त कर लिया। भगवान् श्री कृष्ण के गौलोक गमन के बाद द्वापर का अन्त और कलियुग का आरम्भ हुआ। भगवान् श्री कृष्ण के बाद उनके प्रपौत्र बज्र यदुवंश के उत्तराधिकारी हुए। वे मथुरा आये और इस नगर को उन्होंने अपना केन्द्र बनाया। यदुवंश के नाश के बाद कृष्ण के ज्येष्ठ भाई बलराम समुद्र तट पर बैठ गए और एकाग्रचित्त होकर परमात्मा में लीन हो गए। इस प्रकार शेषनाग के अवतार बलरामजी ने देह त्यागी और स्वधाम लौट गए। 
भगवान् श्री कृष्ण का गौलोक गमन :: भगवान् शेष के अवतार बलराम जी के देह त्यागने के बाद जब एक दिन भगवान् श्री कृष्ण पीपल के नीचे ध्यान की मुद्रा में बैठे हुए थे, तब उस क्षेत्र में एक जरा नाम का बहेलिया आया हुआ था। जरा एक शिकारी था और वह हिरण का शिकार करना चाहता था। जरा को दूर से हिरण के मुख के समान भगवान् श्री कृष्ण का तलवा दिखाई दिया। बहेलिए ने बिना कोई विचार किए वहीं से एक तीर छोड़ दिया जो कि भगवान् श्री कृष्ण के तलवे में जाकर लगा। जब वह पास गया तो उसने देखा कि भगवान् श्री कृष्ण के पैरों में उसने तीर मार दिया है। इसके बाद उसे बहुत पश्चाताप हुआ और वह क्षमा याचना करने लगा। तब भगवान् श्री कृष्ण ने बहेलिए से कहा कि जरा तू डर मत, तूने मेरे मन का काम किया है। अब तू मेरी आज्ञा से स्वर्गलोक प्राप्त करेगा। त्रेता युग में भगवान् श्री राम के रूप में अवतार लेकर भगवान् विष्णु ने देवराज इन्द्र के पुत्र बाली को पेड़ की आड़ लेकर तीर मारा था। कृष्णावतार के समय भगवान् ने उसी बाली को जरा नामक बहेलिया बनाया और अपने लिए वैसी ही मृत्यु चुनी, जैसी बाली को दी थी। 
बहेलिए के जाने के बाद वहां भगवान् श्री कृष्ण का सारथी दारुक पहुँच गया। दारुक को देखकर भगवान् श्री कृष्ण ने कहा कि वह द्वारिका जाकर सभी को यह बताए कि पूरा यदुवंश नष्ट हो चुका है और बलराम जी के साथ भगवान् श्री कृष्ण भी स्वधाम लौट चुके हैं। अत: सभी लोग द्वारिका छोड़ दें, क्योंकि यह नगरी अब जल मग्न होने वाली है। मेरी माता, पिता और सभी प्रियजन इंद्रप्रस्थ को चले जाएँ। यह सन्देश लेकर दारुक वहाँ से चला गया। इसके बाद उस क्षेत्र में सभी देवता और स्वर्ग की अप्सराएं, यक्ष, किन्नर, गन्दर्भ आदि आए और उन्होंने भगवान् श्री कृष्ण की आराधना की। आराधना के बाद भगवान् श्री कृष्ण ने अपने नेत्र बंद कर लिए और वे गौलोक धाम को लौट गए। भगवान् श्री कृष्ण और बलराम के स्वधाम गमन की सूचना इनके प्रियजनों तक पहुँची तो उन्होंने भी इस दुख से प्राण त्याग दिए। देवकी, रोहिणी, वसुदेव, बलराम जी की पत्नियाँ, भगवान् श्री कृष्ण की पटरानियाँ आदि सभी ने शरीर त्याग दिए। इसके बाद अर्जुन ने यदुवंश के निमित्त पिण्डदान और श्राद्ध आदि संस्कार किए।
प्रभास के यादव युद्ध में चार प्रमुख व्यक्ति भगवान् श्री कृष्ण, बलराम जी (भगवान् शेषनाग), दारुक सारथी और बभ्रु इस रक्तपात से दूर रहे। भगवान् श्री कृष्ण बड़े मर्माहत हुए। वे द्वारका गये और दारुक को अर्जुन के पास भेजा कि वह आकर स्त्री-बच्चों को हस्तिनापुर लिवा ले जायें। संस्कारों के बाद यदुवंश के बचे हुए लोगों को लेकर अर्जुन इंद्रप्रस्थ लौट आए। कुछ स्त्रियों ने जल कर प्राण दे दिये। अर्जुन आये और शेष स्त्री-बच्चों को लिवा कर चले। मार्ग में पश्चिमी राजपूताना के जंगली आभीरों से अर्जुन को मुक़ाबला करना पड़ा। कुछ स्त्रियों को आभीरों ने लूट लिया। शेष को अर्जुन ने शाल्ब देश और कुरु देश में बसा दिया। भगवान् श्री कृष्ण के निवास स्थान को छोड़कर शेष द्वारिका समुद्र में समा गई। भगवान् श्री कृष्ण के स्वधाम लौटने की सूचना पाकर सभी पाण्डवों ने भी हिमालय की ओर यात्रा प्रारम्भ कर दी थी। इसी यात्रा में ही एक-एक करके पाण्डव  भी शरीर का त्याग करते गए। अन्त में धर्मराज युधिष्ठिर सशरीर स्वर्ग पहुँचे।
भगवान् श्री कृष्ण नारद संवाद :: 
वासुदेव उवाच :- देवर्षि! जो व्यक्ति सुहृद न हो, जो सुहृद तो हो किन्तु पण्डित न हो तथा जो सुहृद और पण्डित तो हो किन्तु अपने मन को वश में न कर सका हो-ये तीनों ही परम गोपनीय मन्त्रणा को सुनने या जानने के अधिकारी नहीं हैं। स्वर्ग विचरने वाले नारद जी! मैं आपके सौहार्द पर भरोसा रखकर आपसे कुछ निवेदन करूँगा। मनुष्य किसी व्यक्ति बुद्धि-बल की पूर्णता देखकर ही उससे कुछ पूछता या जिज्ञासा प्रकट करता है। मैं अपनी प्रभुता प्रकाशित करके जाति-भाइयों, कुटुम्बी-जनों को अपना दास बनाना नहीं चाहता। मुझे जो भोग प्राप्त होते हैं, उनका आधा भाग ही अपने उपभोग में लाता हूँ, शेष आधा भाग कुटुम्बीजनों के लिये ही छोड़ देता हूँ और उनकी कड़वी बातों को सुनकर भी क्षमा कर देता हूँ। देवर्षि! जैसे अग्नि को प्रकट करने की इच्छा वाला पुरुष अरणी काष्ठ का मन्थन करता है, उसी प्रकार इन कुटुम्बी-जनों का कटु वचन मेरे हृदय को सदा मथता और जलाता रहता है।नारद जी! बड़े भाई बलराम जी में सदा ही असीम बल है; वे उसी में मस्त रहते हैं। छोटे भाई गद में अत्यन्त सुकुमारता है (अत: वह परिश्रम से दूर भागता है); रह गया बेटा प्रद्युम्न, सो वह अपने रूप-सौन्दर्य के अभिमान से ही मतवाला बना रहता है। इस प्रकार इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हूँ। नारद जी! अन्धक तथा वृष्णि वंश में और भी बहुत से वीर पुरुष हैं, जो महान सौभाग्यशाली, बलवान एवं दु:सह पराक्रमी हैं, वे सब के सब सदा उद्योगशील बने रहते हैं। ये वीर जिसके पक्ष में न हों, उसका जीवित रहना असम्भव है और जिसके पक्ष में ये चले जाएँ, वह सारा का सारा समुदाय ही विजयी हो जाए। परन्तु आहुक और अक्रूर ने आपस में वैमनस्य रखकर मुझे इस तरह अवरुद्ध कर दिया है कि मैं इनमें किसी एक का पक्ष नहीं ले सकता।आपस में लड़ने वाले आहुक और अक्रूर दोनों ही जिसके स्वजन हों, उसके लिये इससे बढ़कर दु:ख की बात और क्या होगी और वे दोनों ही जिसके सुहृद् न हों, उसके लिये भी इससे बढ़कर और दु:ख क्या हो सकता है? (क्योंकि ऐसे मित्रों का न रहना भी महान दु:खदायी होता है) महामते! जैसे दो जुआरियों की एक ही माता एक की जीत चाहती है तो दूसरे की भी पराजय नहीं चाहती, उसी प्रकार मैं भी इन दोनों सुहृदों में से एक की विजय कामना करता हूँ तो दूसरे की पराजय नहीं चाहता।नारद जी! इस प्रकार मैं सदा उभय पक्ष का हित चाहने के कारण दोनों ओर से कष्ट पाता रहता हूँ। ऐसी दशा में मेरा अपना तथा इन जाति-भाइयों का भी जिस प्रकार भला हो, वह उपाय आप बताने की कृपा करें।
नारद उवाच :- वृष्णि नन्दन श्री कृष्ण! आपत्तियाँ दो प्रकार की होती हैं :- एक ब्रह्म और दूसरी आभ्यन्तर। वे दोनों ही स्वकृत और परकृत भेद से दो-दो प्रकार की होती हैं। अक्रूर और आहुक से उत्पन्न हुई यह कष्ट दायिनी आपत्ति जो आप को प्राप्त हुई है, आभ्यन्तर है और अपनी ही करतूतों से प्रकट हुई है। ये सभी जिनके नाम आपने गिनाये हैं, आपके ही वंश हैं। आपने स्वयं जिस ऐश्वर्य को प्राप्त किया था, उसे किसी प्रयोजन वश या स्वेच्छा से अथवा कटुवचन से डरकर दूसरे को दे दिया। सहायशाली श्री कृष्ण! इस समय उग्रसेन को दिया हुआ वह ऐश्वर्य दृढ़मूल हो चुका है। उग्रसेन के साथ जाति के लोग भी सहायक हैं; अत: उगले हुए अन्न की भाँति आप उस दिये हुए ऐश्वर्य को वापस नहीं ले सकते। श्री कृष्ण! अक्रूर और उग्रसेन के अधिकार में गए हुए राज्य को भाई-बन्धुओं में फूट पड़ने के भय से अन्य की तो कौन कहे इतने शक्तिशाली होकर स्वयं भी आप किसी तरह वापस नहीं ले सकते। बड़े प्रयत्न से अत्यन्त दुष्कर कर्म महान संहार रूप युद्ध करने पर राज्य को वापस लेने का कार्य सिद्ध हो सकता है, परन्तु इसमें धन का बहुत व्यय और असंख्य मनुष्यों का पुन: विनाश होगा। अत: श्री कृष्ण! आप एक ऐसे कोमल शस्त्र से, जो लोह का बना हुआ न होने पर भी हृदय को छेद डालने में समर्थ है, परिमार्जन और अनुमार्जन करके उन सबकी जीभ उखाड़ लें-उन्हें मूक बना दें (जिससे फिर कलह का आरम्भ न हो)। 
वासुदेव उवाच :- मुने! बिना लोहे के बने हुए उस कोमल शस्त्र को मैं कैसे जानूँ, जिसके द्वारा परिमार्जन और अनुमार्जन करके इन सबकी जिह्वा को उखाड़ लूँ।
नारद उवाच :- श्री कृष्ण! अपनी शक्ति के अनुसार सदा अन्नदान करना, सहनशीलता, सरलता, कोमलता तथा यथायोग्य पूजन (आदर-सत्कार) करना यही बिना लोहे का बना हुआ शस्त्र है। जब सजातीय बन्धु आप के प्रति कड़वी तथा ओछी बातें कहना चाहें, उस समय आप मधुर वचन बोलकर उनके हृदय, वाणी तथा मन को शान्त कर दें। जो महापुरुष नहीं है, जिसने अपने मन को वश में नहीं किया है तथा जो सहायकों से सत्पन्न नहीं है, वह कोई भारी भार नहीं उठा सकता। अत: आप ही इस गुरुतर भार को हृदय से उठाकर वहन करें। समतल भूमि पर सभी बैल भारी भार वहन कर लेते हैं; परन्तु दुर्गम भूमि पर कठिनाई से वहन करने योग्य गुरुतर भार को अच्छे बैल ही ढोते हैं। केशव! आप इस यादव संघ के मुखिया हैं। यदि इसमें फूट हो गयी तो इस समूचे संघ का विनाश हो जाएगा; अत: आप ऐसा करें जिससे आप को पाकर इस यादव राज्य का मूलोच्छेद न हो जाए। बुद्धि, क्षमा और इन्द्रिय-निग्रह के बिना तथा धन-वैभव का त्याग किये बिना कोई गण अथवा संघ किसी बुद्धिमान पुरुष की आज्ञा के अधीन नहीं रहता है। श्री कृष्ण! सदा अपने पक्ष की ऐसी उन्नति होनी चाहिए जो धन, यश तथा आयु की वृद्धि करने वाली हो और कुटुम्बीजनों में से किसी का विनाश न हो। यह सब जैसे भी सम्भव हो, वैसा ही कीजिये। प्रभु! संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय; इन छहों गुणों के यथा समय प्रयोग से तथा शत्रु पर चढ़ाई करने के लिए यात्रा करने पर वर्तमान या भविष्य में क्या परिणाम निकलेगा? यह सब आप से छिपा नहीं है। महाबाहु माधव! कुकुर, भोज, अन्धक और वृष्णि वंश के सभी यादव आप में प्रेम रखते हैं। दूसरे लोग और लोकेश्वर भी आप में अनुराग रखते हैं। औरों की तो बात ही क्या है? बड़े-बड़े ॠषि-मुनि भी आपकी बुद्धि का आश्रय लेते हैं। आप समस्त प्राणियों के गुरु हैं। भूत, वर्तमान और भविष्य को जानते हैं। आप जैसे यदुकुल तिलक महापुरुष का आश्रय लेकर ही समस्त यादव सुखपूर्वक अपनी उन्नति करते हैं।
अंधक-वृष्णि संघ में शास्त्र के अनुसार व्यवहार (न्याय) संपादित होता था। अन्तर और बाह्य विभाग, अर्थ विभाग-ये सब नियमित रूप से शासित होते थे। गण-मुख्य का काम कार्यवाहक प्रण-प्रधान (राजन्य) देखता था। गण मुख्यों, अक्रुर अंधक, आहुक आदि-की समाज में प्रतिष्ठा थी। अंधक-वृष्णियों का मन्त्रगण सुधर्मा नाम से विख्यात था। समय-समय पर परिषद् की बैठकें महत्त्वपूर्ण विषयों पर विचार करने के लिए हुआ करती थी। सभापाल परिषद् बुलाता था। प्रत्येक सदस्य को अपना मत निर्भीकता से सामने रखने का अधिकार था। जो अपने मत का सर्वोत्तम ढंग से समर्थन करता वह परिषद् को प्रभावित कर सकता था। गण-मुख्य अलग-अलग शाखाओं के नेता होते थे। राज्य के विभिन्न विभाग उनके निरीक्षण में कार्य करते थे। इन शाखाओं या जातीय संघों को अपनी-अपनी नीति के अनुसार कार्य करने की स्वतन्त्रता थी, महाभारत में यादवों की कुछ शाखाएं इसी कारण पाण्डवों की ओर से लड़ी और कुछ कौरवों की ओर से। इससे स्पष्ट है कि महाभारत युद्ध के समझ जातीय-संघों का काफ़ी ज़ोर हो गया था।
वचन COMMITMENT-PROMISE :: दुर्योधन के व्यंग्य से आहत होकर भीष्म पितामह ने कहा कि अगले दिन के युद्ध में वे पाण्डवों  का वध कर देंगे। इस विषय में जानकारी मिलते ही भगवान् श्री कृष्ण ने द्रौपदी को लेकर भीष्म पितामह के शिविर में पहुँचे। उन्होंने द्रोपदी से पितामह से आशीर्वाद लेने को कहा। द्रौपदी ने पितामह भीष्म को प्रणाम किया तो उन्होंने अखण्ड सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद दे दिया। उन्होंने द्रोपदी से पूछा कि इतनी रात में अकेली वो उनके पास तक कैसे आईं; क्या श्री कृष्ण उनको लेकर वहाँ आये थे? द्रोपदी के हाँ कहने पर भीष्म पितामह  कक्ष के बाहर आये और भगवान् श्री कृष्ण स्वागत किया। उन्होंने सविनय अनुरोध किया कि उनके एक वचन को दूसरे वचन से काटने का काम तो केवल भगवान् श्री कृष्ण ही कर सकते थे। शिविर से वापस लौटते समय भगवान्  श्री कृष्ण ने द्रौपदी से कहा कि पितामह को प्रणाम करने से उनके पतियों को जीवन दान प्राप्त हो गया था।
आशय :: बुजुर्गों को सम्मान देकर उनसे आशीर्वाद लेने से बड़ी-से बड़ी विपत्ति भी टल सकती है। ये वही भीष्म पितामह थे, जिनको उनकी प्रतिज्ञा के कारण संसार "भीष्म प्रतिज्ञा" का स्मरण करता है। भगवान् श्री कृष्ण ने उनकी प्रतिज्ञा और भक्ति का मान रखने के लिये ही, रथ का पहिया उठाया था।
It carries no moral values-ethics attached with it, if made under pressure-threat, duress. One is not a sinner if he discards it. 
केवल वही वचन निभाओ जिससे किसी का भला हो। जिस वचन से किसी बेकसूर का अहित हो, उसे कभी मत निबाहो। कोई पाप नहीं लगेगा। 
कुम्हार की मुक्ति :: यशोदा मैया भगवान् श्री कृष्ण के उलाहनों से तंग आ गई और छड़ी लेकर उनकी ओर दौड़ी। प्रभु ने मैया को क्रोध में देखा तो वे अपना बचाव करने के लिए भागने लगे। भागते-भागते भगवान् श्री कृष्ण एक कुम्हार के पास पहुँचे। कुम्हार ने भगवान् श्री कृष्ण को देखा तो वह बहुत प्रसन्न हुआ। कुम्हार भान हुआ कि साक्षात् भगवान् श्री कृष्ण पधारे हैं। भगवान् ने कुम्हार से छुपने के लिये जगह माँगी उस ने भगवान् श्री कृष्ण को एक बडे से मटके के नीचे छिपा दिया। मैया यशोदा भी वहाँ आ गई और कुम्हार से पूछने लगीं कि क्या उसने कन्हैया को कहीं देखा है! कुम्हार ने मना कर दिया। मैया चली गईं तो प्रभु ने कुम्हार से बाहर निकालने को कहा। कुम्हार बोला कि प्रभु जी! पहले मुझे चौरासी लाख योनियों के बन्धन से मुक्त करने का वचन दो तो निकालूँ। भगवान् मुस्कुराये और बोले कि ठीक है, मैं तुम्हें चौरासी लाख योनियों से मुक्त करने का वचन देता हूँ। अब तो मुझे बाहर निकाल दो! कुम्हार कहने लगा कि मुझे अकेले नहीं, प्रभु जी! मेरे परिवार के सभी लोगों को भी चौरासी लाख योनियों के बन्धन से मुक्त करने का वचन दोगे तो मैं आपको इस घड़े से बाहर निकालूँगा! प्रभु जी ने वायदा किया कि उनको भी चौरासी लाख योनियों के बन्धन से मुक्त कर दूँगा! अब तो घड़े से बाहर निकाल दो! कुम्हार बोले कि हे प्रभु जी! एक विनती और है यदि उसे भी पूरा करने का वचन दे दो तो मैं आपको घड़े से बाहर निकाल दूँगा! भगवान् ने कहा कि ठीक है बताओ! कुम्हार ने कहा कि हे प्रभु जी! जिस घड़े के नीचे आप छुपे हो, उसकी मिट्टी मेरे बैलों के ऊपर लाद के लायी गयी है। मेरे इन बैलों को भी चौरासी के बन्धन से मुक्त करने का वचन दो! भगवान् ने कुम्हार के प्रेम पर प्रसन्न होकर उन बैलों को भी चौरासी के बन्धन से मुक्त होने का वचन दिया! प्रभु बोले कि अब तो तुम्हारी सब इच्छाएँ पूरी हो गयी हैं अब तो मुझे घड़े से बाहर निकाल दो! तब कुम्हार बोला कि भगवन अभी नहीं! बस, एक अन्तिम इच्छा और है। उसे भी पूरा कर दीजिये और वो ये है कि जो भी प्राणी हम दोनों के बीच के इस संवाद को सुनेगा, उसे भी आप चौरासी लाख योनियों के बन्धन से मुक्त कर देंगे! कुम्हार की प्रेम भरी बातों को सुन कर प्रभु श्री कृष्ण बहुत खुश हुए और कुम्हार की इस इच्छा को भी पूरा करने का वचन दिया!  फिर कुम्हार ने भगवान् श्री कृष्ण को घड़े से बाहर निकाल दिया। उनके चरणों में साष्टांग प्रणाम किया! प्रभु जी के चरण धोये और चरणामृत पीया। अपनी पूरी झोंपड़ी में चरणामृत का छिड़काव किया और प्रभु जी के गले लगकर इतना रोया क़ि प्रभु में ही विलीन हो गया। 
कर्मफल पूरा होने पर ही ऐसी गति प्राप्त होती है। 
राधा-कृष्ण :: मथुरा में प्रचलित है कि राधा जी वह बरसाने की थीं। वे बरसाने से 50 किलोमीटर दूर रावल गाँव में कमल के फूल पर हुईं थीं। रावल गाँव में राधा जी का मन्दिर भी है। राधा जी की माँ कृति यमुना में स्‍नान करते हुए अराधना करती थीं और पुत्री की लालसा रखती थी। पूजा करते समय एक दिन यमुना से कमल का फूल प्रकट हुआ। कमल के फूल से सोने की चमक सी रोशनी निकल रही थी। इसमें छोटी बच्ची का नेत्र बन्द था। अब वह स्‍थान इस मन्दिर का गर्भगृह है।
इसके 11 महीने बाद 3 किलोमीटर दूर मथुरा में कंस के कारागार में भगवान् श्री कृष्‍ण का जन्‍म हुआ था। वासुदेव जी उन्हें रात में गोकुल में नंदबाबा के घर पर पहुँचाए आये। नंद बाबा ने सभी जगह संदेश भेजा और भगवान् श्री कृष्‍ण का जन्‍मोत्‍सव मनाया गया।
जब बधाई लेकर वृषभान अपने गोद में राधा रानी को लेकर गए तो राधा रानी घुटने के बल चलते हुए बाल कृष्‍ण के पास पहुँची। वहाँ बैठते ही राधा रानी के नेत्र खुले और उन्‍होंने बाल कृष्‍ण का पहला दर्शन किया।
भगवान् श्री कृष्‍ण के जन्‍म के बाद से ही कंस का प्रकोप गोकुल में बढ़ गया था। वहाँ  के लोग परेशान हो गए थे।
नंदबाबा ने स्‍थानीय राजाओं को इकट्ठा किया। उस वक्‍त बृज के सबसे बड़े राजा वृषभान थे। इनके पास 11 लाख गाय थीं। जबकि, नंद जी के पास नौ लाख गाय थीं। जिसके पास सबसे ज्‍यादा गाय होतीं थी, वह वृषभान कहलाते थे। उससे कम गाय जिनके पास रहती थीं, वह नंद कहलाए जाते थे। बैठक के बाद फैसला हुआ कि गोकुल व रावल छोड़ दिया जाए। गोकुल से नंद बाबा और जनता पलायन करके पहाड़ी पर गए, उसका नाम नंद गाँव पड़ा। वृषभान, कृति और राधारानी को लेकर पहाड़ी पर गए, उसका नाम बरसाना पड़ा।
रावल में मंदिर के सामने बगीचा, इसमें पेड़ स्‍वरूप में हैं राधा व श्‍याम रावल गाँव में राधारानी के मन्दिर के ठीक सामने प्राचीन बगीचा है। यहाँ पर एक साथ दो पेड़ हैं। एक श्‍वेत है तो दूसरा श्‍याम रंग का। इसकी पूजा होती है। राधा और कृष्‍ण स्‍वरूप पेड़ आज भी यहाँ से यमुना जी को निहारते हैं। 
दीप दान :: एक बार यशोदा माँ यमुना में दीप दान कर रही थीं। वो पत्ते में दीप रखकर प्रवाह कर रही थीं। उन्होंने देखा कि कोई दीप आगे नही जा रहा। ध्यान से देखा तो कान्हा जी एक लकड़ी लेकर जल से सारे दीप बाहर निकाल रहे थे। माँ ने कहा :- हे लल्ला! तू ये का कर रहो है? कान्हा जी ने कहा :- मैया! ये सब डूब रहे थे, तो मैं इन्हें बचा रहा हूँ। माँ ये सब सुनकर हँसने लगी और बोली :- लल्ला! तू केको केको बचायेगा? कान्हा जी बोले :- माँ! मैंने  सबको ठेको थोड़ोई न ले रखो है। जो मेरी ओर आएँगे उनको बचाऊँगा। 
भगवान् श्री कृष्ण :: भगवान् श्री कृष्ण पूर्णावतार हैं। वे आठवें मनु के काल में अष्टमी के दिन वसुदेव जी के आठवें पुत्र के रूप में  प्रकट हुए। 
भगवान् श्री कृष्ण के नाम :: नंदलाल, गोपाल, बांके बिहारी, कन्हैया, केशव, श्याम, रणछोड़दास, द्वारिकाधीश और वासुदेव। मुरलीधर, माधव, गिरधारी, घनश्याम, माखनचोर, मुरारी, मनोहर, हरि, रासबिहारी आदि।
कृष्ण के माता-पिता :: भगवान् श्री कृष्ण की माता का नाम देवकी और पिता का नाम वसुदेव था। माता यशोदा और धर्म पिता का नंद बाबा  लालन-पालन किया था। बलराम की माता रोहिणी वसुदेव जी दूसरी की प‍त्नी थीं।
कृष्ण के गुरु :: गुरु संदीपनि ने भगवान् श्री कृष्ण को वेद शास्त्रों सहित 14 विद्या और 64 कलाओं का ज्ञान दिया था। गुरु घोरंगिरस ने सांगोपांग ब्रह्म ‍ज्ञान की शिक्षा दी थी। 
जैन धर्म के 22 वें तीर्थंकर नेमिनाथ भगवान् श्री कृष्ण के चचेरे भाई थे। 
कृष्ण के भाई :: भगवान् श्री कृष्ण के भाइयों में नेमिनाथ, बलराम और गद थे। शौरपुरी (मथुरा) के यादव वंशी राजा अंधक वृष्णी के ज्येष्ठ पुत्र समुद्र विजय के पुत्र थे नेमिनाथ।अंधक वृष्णी के सबसे छोटे पुत्र वसुदेव से उत्पन्न हुए भगवान् श्री कृष्ण। इस प्रकार नेमिनाथ और भगवान् श्री कृष्ण दोनों चचेरे भाई थे। इसके बाद बलराम और गद भी भगवान् श्री कृष्ण के भाई थे।
कृष्ण की बहनें :: 
(1). एकानंगा यशोदा की पुत्री थीं।
(2). वसुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी से बलराम और सुभद्र का जन्म हुआ। वसुदेव देवकी के साथ जिस समय कारागृह में बंदी थे, उस समय ये नंद के यहाँ रहती थीं।सुभद्रा का विवाह कृष्ण ने अपनी बुआ कुन्ती के पुत्र अर्जुन से किया था। जबकि बलराम दुर्योधन से करना चाहते थे।
(3). पाण्डवों की पत्नी दिव्य जन्म द्रौपदी हालांकि भगवान् श्री कृष्ण की बहन नहीं थी, लेकिन भगवान् श्री कृष्‍ण उन्हें भी अपनी मानस ‍भगिनी मानते थे।
(4). देवकी के गर्भ से सती ने महामाया के रूप में इनके घर जन्म लिया, जो कंस के पटकने पर हाथ से छूट गई थीं। कहते हैं, विन्ध्याचल में इसी देवी का निवास है। यह भी कृष्ण की बहन थीं।
कृष्ण की पटरानियाँ :: रुक्मिणी, जाम्बवंती, सत्यभामा, मित्रवंदा, सत्या, लक्ष्मणा, भद्रा और कालिंदी।
कृष्ण के पुत्र :: रुक्मणी से प्रद्युम्न और चारुदेष्ण, जाम्बवंती से साम्ब, मित्रवंदा से वृक, सत्या से वीर, सत्यभामा से भानु, आदि। अन्य 16,000 रानियों से भगवान् श्री कृष्ण के प्रत्येक से 10-10 पुत्र थे। 
कृष्ण की पुत्रियाँ :: रुक्मणी जी से भगवान् श्री कृष्ण की एक पुत्री थीं जिसका नाम चारू था।
भगवान् श्री कृष्ण के पौत्र :: प्रद्युम्न से अनिरुद्ध। अनिरुद्ध का विवाह वाणासुर की पुत्री उषा के साथ हुआ था।
भगवान् श्री कृष्ण की 8 सखियाँ :: चन्द्रावली, श्यामा, शैव्या, पद्या, राधा, ललिता, विशाखा तथा भद्रा। राधा जी उनकी पहली पत्नी और सखी थीं। 
भगवान् श्री कृष्ण के प्रमुख मित्र :: श्रीदामा, सुदामा, सुबल, स्तोक कृष्ण, अर्जुन, वृषबन्धु, मन:सौख्य, सुभग, बली, प्राणभानु आदि। 
भगवान् श्री कृष्ण के शत्रु :: कंस, जरासंध, शिशुपाल, कालयवन, पौंड्रक आदि। कंस तो मामा था। कंस का श्वसुर जरासंध था। शिशुपाल भगवान् श्री कृष्ण की बुआ का लड़का था। कालयवन यवन जाति का मलेच्छ जाती था, जो जरासंध का मित्र था। पौंड्रक काशी नरेश था जो खुद को विष्णु का अवतार मानता था।
भगवान् श्री कृष्ण ने जिनका वध किया :: कंस, शिशुपाल, ताड़का, पूतना, चाणूड़, शकटासुर, धेनुक, प्रलंब, अरिष्टासुर, बकासुर, तृणावर्त, अघासुर, मुष्टिक, यमलार्जुन, द्विविद, केशी, व्योमासुर, प्रौंड्रक और नरकासुर आदि।
भगवान् श्री कृष्ण के चिन्ह :: सुदर्शन चक्र, मोर मुकुट, बंसी, पितांभर वस्त्र, पांचजन्य शंख, गाय, कमल का फूल और माखन मिश्री।
यदुकुल की 18 शाखाएं थीं। अंधक वृष्णियों का कुल था। वृष्णि होने के कारण ये वैष्णव कहलाए। अन्धक, वृष्णि, कुकर, दाशार्ह भोजक आदि यादवों की समस्त शाखाएं मथुरा में कुकरपुरी (घाटी ककोरन) नामक स्थान में यमुना के तट पर मथुरा के उग्रसेन महाराज के संरक्षण में निवास करती थीं।
शाप के चलते सिर्फ यदु‍ओं का नाश होने के बाद अर्जुन द्वारा भगवान् श्री कृष्ण के पौत्र वज्रनाभ को द्वारिका से मथुरा लाकर उन्हें मथुरा जनपद का शासक बनाया गया। इसी समय परीक्षित भी हस्तिनापुर की गद्दी पर बैठाए गए। वज्र के नाम पर बाद में यह संपूर्ण क्षेत्र ब्रज कहलाने लगा। जरासंध के वंशज सृतजय ने वज्रनाभ वंशज शतसेन से 2,781 ई.पू. में मथुरा का राज्य छीन लिया था। बाद में मागधों के राजाओं की गद्दी प्रद्योत, शिशुनाग वंशधरों पर होती हुई नंद ओर मौर्यवंश पर आई। मथुरा के अन्य क्षेत्र मथुर, नंदगाव, वृंदावन, गोवर्धन, बरसाना, मधुवन हैं।
श्री कृष्ण पर्व :: भगवान् श्री कृष्ण ने ही होली-फाग और अन्नकूट महोत्सव की शुरुआत की थी। जन्माष्टमी के दिन उनका जन्म दिन मनाया जाता है।
मथुरा मंडल के निम्न 41 स्थान भगवान् श्री कृष्ण से जुड़े हैं :: मधुवन, तालवन, कुमुदवन, शांतनु कुण्ड, सतोहा, बहुलावन, राधा-कृष्ण कुण्ड, गोवर्धन, काम्यक वन, संच्दर सरोवर, जतीपुरा, डीग का लक्ष्मण मंदिर, साक्षी गोपाल मंदिर, जल महल, कमोद वन, चरन पहाड़ी कुण्ड, काम्यवन, बरसाना, नंदगांव, जावट, कोकिलावन, कोसी, शेरगढ, चीर घाट, नौहझील, श्री भद्रवन, भांडीरवन, बेलवन, राया वन, गोपाल कुण्ड, कबीर कुण्ड, भोयी कुण्ड, ग्राम पडरारी के वनखंडी में शिव मंदिर, दाऊजी, महावन, ब्रह्मांड घाट, चिंताहरण महादेव, गोकुल, संकेत तीर्थ, लोहवन और वृन्दावन। इसके बाद द्वारिका, तिरुपति बालाजी, श्रीनाथद्वारा और खाटू श्याम प्रमुख कृष्ण स्थान है।
भक्तिकाल में भगवान् श्री कृष्ण के प्रमुख भक्त :: सूरदास, ध्रुवदास, रसखान, व्यासजी, स्वामी हरिदास, मीराबाई, गदाधर भट्ट, हितहरिवंश, गोविन्दस्वामी, छीतस्वामी, चतुर्भुजदास, कुंभनदास, परमानंद, कृष्णदास, श्रीभट्ट, सूरदास मदनमोहन, नंददास, चैतन्य महाप्रभु आदि।
महारास :: भगवान् श्री कृष्ण की वेणु नाद सुन कर गोपियों द्वारा वन में आकर महारास के प्रसंग में कहा कि यह महारास काम की नहीं, अपितु भगवान् श्री कृष्ण की कथा है। यह जीव शिव के मिलन और काम के नष्ट होने की कथा है। भगवान् शिव शंकर द्वारा महारास के दर्शन करके भगवान् द्वारा गोपेश्वर नाम प्राप्त होने की कथा को और महारास के चलते गोपियों का भगवान् से दूर हो जाने एवं अक्रुर जी द्वारा कंस के भेजने पर भगवान् श्री कृष्ण-बलराम को मथुरा ले जाने के विरह प्रसंग को सुन कर सभी व्यक्ति भावुक हो जाते हैं और उनकी आँखों से अश्रु बहने लगते हैं।
 अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्। 
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर॥
हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन! क्षर भाव-परिवर्तन रूप क्रिया से जो परिणाम उत्पन्न होते हैं, वे सब नाशवान् पदार्थ, अधिभूत हैं, प्रकृतिस्थ जीव-पुरुष, हिरण्यगर्भ ब्रह्मा अधिदैव हैं और इस देह में कर्म और यज्ञ का प्रभु अन्तर्यामी रूप से मैं ही अधियज्ञ हूँ।[श्रीमद्भगवद्गीता 8.4] 
Hey Arjun! You are superb-best amongest the creatures-Humans who have obtained a physical form. The distortions  generated by various processes constitute the Adhi Bhoot (Nature, perishable, destructible materials-goods), Brahma Ji is the creator of material & divine organisms-The Adhi Daev and I am the Ultimate (Almighty, Adhi Yagy), in the form of a human being, to accept all the deeds and sacrifices by the humans.
चाहे कोई भी नाशवान्-परिवर्तन शील वस्तु-पदार्थ हो, वह अधिभूत-प्रकृति का अंग है। पृथ्वी, जल, वायु, आकाश और तेज़ उसके अंग हैं। यह क्षर भाव अर्थात अपरा प्रकृति है। समस्त कर्म अधिभूत के वाचक हैं। ब्रह्मा जी से समस्त प्रकृति-श्रष्टि उत्पन्न हुई है, अतः वे आदिदैव हैं। ज्ञान से ब्रह्म में एकता होती है। अतः वे अध्यात्म के पर्याय अधिदैव हैं। अधियज्ञ पूर्ण ब्रह्म-पर ब्रह्म परमेश्वर के पर्याय हैं। प्रेम-भक्ति समर्पण से उनमें अभिन्नता होती है। 
All perishable goods, services, Karm constitute the Adhi Bhut. Nature, earth, sky, air, water and the energy-Tej are destructible-decaying in nature. Deterioration is a character of the perishable goods-nature. Entire nature-evolution took place from Brahma Ji, who himself is a form of the Almighty. Unification is obtained with the Brahm through enlightenment-learning. He is Adhi Daev-the Creator. The Almighty who HIMSELF appeared over the earth to remove the burden of the earth is Adhi Yagy. All prayers, worship, sacrifices are meant for HIM. One can achieve HIM through love-affection, devotion & surrender (asylum, shelter, patronage, protection)  under HIM.
  
श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेवाय!
हे आकर्षक तत्व मेरे प्रभो! इन्द्रियों को वशीभूत करो, दुःखों का हरण करो, समस्त बुराईयों का बध करो, मैं सेवक हूँ आप स्वामी, मैं जीव हूँ। आप ब्रह्म, प्रभो! मेरे प्राणों के आप रक्षक हैं।
There is not even a single day in India, which is not connected with some festivity, religious ceremony or fasting for the devout Hindu. Shri Krashn Janmashtami  is one of the 5 major festival in India i.e, Holi, Raksha Bandhan, Deepawali, Dashhara and Shri Krashn Janm Ashtami. Kumbh and Shiv Ratri too are most auspicious and important events.

Vigils are held until midnight all over the country by the devotees to break the fast after mid-night, after viewing the Moon. This festival is associated with eating of fruits, so that people of all ages can observe it, easily. However, a number of sweets are also prepared at home to offer to the Almighty. The temples are tastefully decorated and visuals are used to demonstrate the life of the Almighty.
Some people decorate their kids in Bal Krashn attire, having people feather in the crown (मुकुट).  
R
AS LEELA-SHRI KRASHN LEELA :: The tradition of Ras Leela is very popular in western Uttar Pradesh, north-eastern states such as Manipur and Assam and in parts of Rajasthan and Gujarat. It is acted out by numerous teams of amateur artists, cheered on by their local communities and these drama-dance plays begin a few days before each Janmashtami.

Various acts of Bhagwan Shri Krashn's life are enacted over a make shift stage in front of the local audience, specifically in the villages of Northern region of India.
पूरे भारत वर्ष में धूम-धाम से मनाया जाने वाला श्री कृष्ण जन्माष्टमी' हिन्दुओं का एक विशिष्ट त्यौहार है, जो कि भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मनाया जाता है। भगवान् श्री कृष्ण परब्रह्म परमेश्वर के पूर्णावतार हैं। इसे भगवान् श्री कृष्ण के जन्म दिन के रूप में मनाते हैं। जन्माष्टमी को गोकुलाष्टमी, कृष्णाष्टमी, श्री जयंती के नाम से भी जाना जाता है। महाराष्ट्र में जन्माष्टमी दही हाँडी के लिए विख्यात है। इस पवित्र-पावन अवसर पर मंदिरों में भव्य समारोह किये जाते हैं। जगह-जगह भगवान् श्री कृष्ण की झाँकियां सजाई जाती हैं तथा रास लीला का आयोजन किया जाता है। मथुरा और वृन्दावन जहाँ भगवान् श्री कृष्ण ने अपना बचपन बिताया था, वहाँ की जन्माष्टमी विश्व प्रसिद्द है। जन्माष्टमी के दिन लोग दिन भर व्रत रहते हैं तथा आधी रात में भगवान् श्री कृष्ण के जन्मोत्सव को मनाकर व्रत तोड़ते हैं। सभी जगह कीर्तन एवं भजन का आयोजन किया जाता है।
भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी  तिथि को मध्यरात्रि को रोहिणी नक्षत्र में भगवान् कृष्ण का जन्म हुआ था।[भविष्य पुराण]
भगवान् कृष्ण ने देवकी और वसुदेव को तीसरी बार उनके पुत्र के रूप में जन्म लेकर अपना वचन पूरा किया। उनका पालन-पोषण माता यशोदा और नंद बाबा ने किया किया था। मथुरा सहित पूरे भारत वर्ष में यह महापर्व हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। मथुरा और द्वारका में तो इस पर्व की विशेष महत्ता है।
भगवान् श्री कृष्ण बचपन से ही बेहद नटखट और शरारती थे। माखन उन्हें बेहद प्रिय था, जिसे वह मटकी से चुरा कर खाते थे। भगवान् श्री कृष्ण की इसी लीला को उनके जन्मोत्सव पर पुन: ताजा किया जाता है। देश के कई भागों में इस दिन मटकी फोड़ने का कार्यक्रम भी आयोजित किया जाता है।
भारत अधिकाँश प्रतिष्ठित दूरदर्शन चैनल इसका मथुरा और द्वारका से सीधा प्रसारण करते हैं। 
जन्माष्टमी पर भक्तों को दिन भर उपवास रखना चाहिए और रात्रि के 11 बजे स्नान आदि से पवित्र हो कर घर के एकांत पवित्र कमरे में, पूर्व दिशा की ओर आम लकड़ी के सिंहासन पर, लाल वस्त्र बिछाकर, उस पर राधा-कृष्ण की तस्वीर स्थापित करना चाहिए। इसके उपरान्त नंदलाल की पूजा करना चाहिए। इस दिन जो श्रद्धा भक्त पूर्वक जन्माष्टमी के महात्म्य को पढ़ता, सुनता और सुनाता है, इस लोक में सारे सुखों को भोगकर वैकुण्ठ धाम को जाता है।
भगवान् श्री कृष्ण का जीवन परिचय :: 3,228 ई.पू., श्री कृष्ण संवत् में श्रीमुख संवत्सर, भाद्रपद कृष्ण अष्टमी, 21 जुलाई, बुधवार के दिन मथुरा में कंस के कारागार में माता देवकी के गर्भ से जन्म लिया, पिता श्री वसुदेव जी थे। उसी दिन वासुदेव ने नन्द-यशोदा जी के घर गोकुल में छोड़ा।
(1). मात्र 6 दिन की उम्र में भाद्रपद कृष्ण की चतुर्दशी, 27 जुलाई, मंगलवार, षष्ठी-स्नान के दिन कंस की राक्षसी पूतना का वध कर दिया।
(2). 1 साल, 5 माह, 20 दिन की उम्र में माघ शुक्ल चतुर्दशी के दिन अन्नप्राशन संस्कार हुआ ।
(3). 1 साल की आयु त्रिणिवर्त का वध किया।
(4). 2 वर्ष की आयु में महर्षि गर्गाचार्य ने नामकरण संस्कार किया।
(5). 2 वर्ष 6 माह की उम्र में यमलार्जुन (नलकूबर और मणिग्रीव) का उद्धार किया।
(6). 2 वर्ष, 10 माह की उम्र में गोकुल से वृन्दावन चले गये।
(7). 4 वर्ष की आयु में वत्सासुर और बकासुर नामक राक्षसों का वध किया।
(8). 5 वर्ष की आयु में अघासुर का वध किया।
(9). 5 साल की उम्र में ब्रह्माजी का गर्व भंग किया।
(10). 5 वर्ष की आयु में कालिया नाग का मर्दन और दावाग्नि का पान किया। 
(11). 5 वर्ष, 3 माह की आयु में यमुना में गोपियों का चीर-हरण किया।
(12). 5 साल 8 माह की आयु में यज्ञ पत्नियों पर कृपा की।
(13). 7 वर्ष, 2 माह, 7 दिन की आयु में गोवर्धन को अपनी उंगली पर धारण कर इन्द्र का घमंड भंग किया। 
1(4). 7 वर्ष, 2 माह, 14 दिन का उम्र में में श्री कृष्ण का एक नाम ‘गोविन्द’ पड़ा।
(15) 7 वर्ष, 2 माह, 18 दिन की आयु में नन्दजी को वरुणलोक से छुड़ाकर लाये।
(16). 8 वर्ष, 1 माह, 21 दिन की आयु में गोपियों के साथ  नृत्य किया।
(17). 8 वर्ष, 6 माह, 5 दिन की आयु में सुदर्शन गन्धर्व का उद्धार किया।
(18). 8 वर्ष, 6 माह, 21 दिन की उम्र में शंखचूड़ दैत्य का वध किया।
(19). 9 वर्ष की आयु में अरिष्टासुर (वृषभासुर) और केशी दैत्य का वध करने से ‘केशव’ पड़ा।
(20). 10 वर्ष, 2 माह, 20 दिन की आयु में मथुरा नगरी में कंस का वध किया एवं कंस के पिता उग्रसेन को मथुरा के सिंहासन दोबारा बैठाया।
(21). 11 वर्ष की उम्र में अवन्तिका में सांदीपनी मुनि के गुरुकुल में 126 दिनों में छः अंगों सहित संपूर्ण वेदों, गजशिक्षा, अश्वशिक्षा और धनुर्वेद (कुल 64 कलाओं) का ज्ञान प्राप्त किया, पञ्चजन दैत्य का वध एवं पाञ्चजन्य शंख को धारण किया। 
(22). 12 वर्ष की आयु में उपनयन (यज्ञोपवीत) संस्कार हुआ।
(23). 12 से 28 वर्ष की आयु तक मथुरा में जरासन्ध को 17 बार पराजित किया।
(24). 28 वर्ष की आयु में रत्नाकर (सिंधुसागर) पर द्वारका नगरी की स्थापना की एवं इसी उम्र में मथुरा में कालयवन की सेना का संहार किया।
(25). 29 से 37 वर्ष की आयु में रुक्मिणी हरण, द्वारका में रुक्मिणी से विवाह, स्यमन्तक मणि प्रकरण, जाम्बवती, सत्यभामा एवं कालिन्दी से विवाह, केकय देश की कन्या भद्रा से विवाह, मद्र देश की कन्या लक्ष्मणा से विवाह । इसी आयु में प्राग्ज्योतिषपुर में नरकासुर का वध, नरकासुर की कैद से 16 हजार 100 कन्याओं को मुक्तकर द्वारका भेजा, अमरावती में इन्द्र से अदिति के कुण्डल प्राप्त किए, इन्द्रादि देवताओं को जीतकर पारिजात वृक्ष (कल्पवृक्ष) द्वारका लाए, नरकासुर से छुड़ायी गयी 16, 100 कन्याओं से द्वारका में विवाह, शोणितपुर में बाणासुर से युद्ध, उषा और अनिरुद्ध के साथ द्वारका लौटे एवं पौण्ड्रक, काशीराज, उसके पुत्र सुदक्षिण और कृत्या का वध कर काशी दहन किया।
(26). 38 वर्ष 4 माह 17 दिन की आयु में द्रौपदी स्वयंवर में पांचाल राज्य में उपस्थित हुए। 
(27). 39 व 45 वर्ष की आयु में विश्वकर्मा के द्वारा पाण्डवों के लिए इन्द्रप्रस्थ का निर्माण करवाया।
(28). 71 वर्ष की आयु में सुभद्रा हरण में अर्जुन की सहायता की।
(29). 73 वर्ष की उम्र में इन्द्रप्रस्थ में खाण्डव वन दाह में अग्नि और अर्जुन की सहायता, मय दानव को सभा-भवन निर्माण के लिए आदेश भी दिया।
(30). 75 साल की उम्र में धर्मराज युधिष्ठिर के राजसूय-यज्ञ के निमित्त इन्द्रप्रस्थ में आगमन हुआ।
(31). 75 वर्ष 2 माह 20 दिन की आयु में जरासन्ध के वध में भीम की सहायता की।
(32). 75 वर्ष 3 माह की आयु में जरासन्ध के कारागार से 20,800 राजाओं को मुक्त किया, मगध के सिंहासन पर जरासन्ध-पुत्र सहदेव का राज्याभिषेक किया।
(33). 75 वर्ष 6 माह 9 दिन की आयु में शिशुपाल का वध किया।
(35). 75 वर्ष 7 माह की आयु में द्वारका में शिशुपाल के भाई शाल्व का वध किया।
(36). 75 वर्ष 10 माह 24 दिन की उम्र में प्रथम द्यूत क्रीड़ा में द्रौपदी (चीर हरण) की लाज बचाई। 
(37). 75 वर्ष 11 माह की आयु में वन में पाण्डवों से भेंट, सुभद्रा और अभिमन्यु को साथ लेकर द्वारका प्रस्थान किया।
(38). 89 वर्ष 1 माह 17 दिन की आयु में अभिमन्यु और उत्तरा के विवाह में बारात लेकर विराटनगर पहुँचे।
(39). 89 वर्ष 2 माह की उम्र में विराट की राजसभा में कौरवों के अत्याचारों और पाण्डवों के धर्म-व्यवहार का वर्णन करते हुए किसी सुयोग्य दूत को हस्तिनापुर भेजने का प्रस्ताव, द्रुपद को सौंपकर द्वारका-प्रस्थान, द्वारका में दुर्योधन और अर्जुन, दोनों की सहायता की स्वीकृति, अर्जुन का सारथी-कर्म स्वीकार करना किया। 
(40). 89 वर्ष 2 माह 8 दिन की उम्र में पाण्डवों का सन्धि-प्रस्ताव लेकर हस्तिनापुर गयें।
(41). 89 वर्ष 3 माह 17 दिन की आयु में कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन को ‘भगवद्गीता’ का उपदेश देने के बाद महाभारत युद्ध में अर्जुन के सारथी बन युद्ध में पाण्डवों की अनेक प्रकार से सहायता की। 
(42). 89 वर्ष 4 माह 8 दिन की उम्र में अश्वत्थामा को 3,000 वर्षों तक जंगल में भटकने का श्राप दिया, एवं इसी उम्र में गान्धारी का श्राप स्वीकार किया।
(43). 89 वर्ष 7 माह 7 दिन की आयु में धर्मराज युधिष्ठिर का राज्याभिषेक करवाया।
(44). 91-92 वर्ष की आयु में धर्मराज युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ में सम्मिलित हुए।
(45). 125 वर्ष 4 माह की उम्र में द्वारका में यदुवंश कुल का विनाश हुआ, एवं 125 वर्ष 5 माह की उम्र में उद्धव जी को उपदेश दिया।
(46). 125 वर्ष, 5 माह 21 दिन की आयु में दोपहर 2 बजकर 27 मिनट 30 सेकंड पर प्रभास क्षेत्र में स्वर्गारोहण और उसी के बाद कलियुग का प्रारम्भ हुआ।
यह घटनाक्रम द्वापर युग का है जब मनुष्यों की सामान्य आयु 200 वर्ष होती थी। 
जन्माष्टमी व्रत :: जो जातक जन्माष्टमी व्रत रखता है, उस करोड़ों एकादशी करने का पुण्य प्राप्त होता है और उसके रोग-शोक दूर हो जाते हैं।
जन्माष्टमी को रात्रि जागरण करके, ध्यान-जप आदि का विशेष महत्त्व है। 
ब्रह्मा जी माता सारस्वती को कहते हैं और भगवान् श्री कृष्ण अपने भक्त  उद्धव को बताते हैं कि जो जन्माष्टमी का व्रत रखता है, उसे करोड़ों एकादशी करने का पुण्य प्राप्त होता है और उसके रोग शोक दूर हो जाते हैं। 
धर्मराज सावित्री देवी को कहते हैं कि जन्माष्टमी का व्रत 100 जन्मों के पापों से मुक्ति दिलाने वाला है।
उपवास से भूख प्यास आदि कष्ट सहने की आदत पड़ जाती है, जिससे जातक का संकल्प बल बढ़ जाता है। इंद्रियों के संयम से संकल्प की सिध्दि होती है, आत्म विश्वास बढ़ता है, जिससे व्यक्ति लौकिक फायदे अच्छी तरह से प्राप्त कर सकता है। 
बालक, अति कमजोर  तथा बूढ़े लोग अनुकूलता के अनुसार थोड़ा फल आदि खाएं। 
में लिखा है कि जन्माष्टमी का व्रत अकाल मृत्यु नहीं होने देता है।[भविष्य पुराण] 
जो जातक जन्माष्टमी का व्रत करते हैं, उनके घर में गर्भपात नहीं होता। बच्चा ठीक से पेट में रहता है और ठीक समय बालक का जन्म होता है। 
जन्माष्टमी के दिनों में मिलने वाला पंजरी का प्रसाद वायु नाशक होता है। उसमें अजवाइन जीरा व गुड़ पड़ता है। 
ये मौसम मंदागिनी का भी है। उपवास रखने से मंदगिनी दूर होगी और शरीर मे जो अनावश्यक द्रव पड़े है, उपवास करने से वे खींच कर जठर में आकर स्वाहा हो जाएंगे। 
जन्माष्टमी के दिन किया हुआ जप अनन्त गुना फल देता है।
भगवान् श्री कृष्ण के 108 नाम ::
(1). अचला :- भगवान।
(2). अच्युत :- अचूक प्रभु, या जिसने कभी भूल ना की हो।
(3 अद्भुतह :- अद्भुत प्रभु।
(4). आदिदेव :- देवताओं के स्वामी।
(5). अदित्या :- देवी अदिति के पुत्र।
(6). अजंमा :- जिनकी शक्ति असीम और अनंत हो।
(7). अजया :- जीवन और मृत्यु के विजेता।
(8). अक्षरा :- अविनाशी प्रभु।
(9). अम्रुत :- अमृत जैसा स्वरूप वाले।
(10). अनादिह :- सर्वप्रथम हैं जो।
(11). आनंद सागर :- कृपा करने वाले
(12). अनंता :- अंतहीन देव
(13). अनंतजित :- हमेशा विजयी होने वाले।
(14). अनया :- जिनका कोई स्वामी न हो।
(15). अनिरुद्ध :- जिनका अवरोध न किया जा सके।
(16). अपराजीत :- जिन्हें हराया न जा सके।
(17). अव्युक्ता :- मणिभ की तरह स्पष्ट।
(18). बालगोपाल :-  भगवान कृष्ण का बाल रूप।
(19). बलि :- सर्व शक्तिमान।
(20). चतुर्भुज :- चार भुजाओं वाले प्रभु।
(21). दानवेंद्रो :- वरदान देने वाले।
(22). दयालु :- करुणा के भंडार।
(23). दयानिधि :- सब पर दया करने वाले।
(24). देवाधिदेव :- देवों के देव
(25). देवकीनंदन :- देवकी के लाल (पुत्र)।
(26). देवेश :-  ईश्वरों के भी ईश्वर
(27). धर्माध्यक्ष :- धर्म के स्वामी
(28). द्वारकाधीश :- द्वारका के अधिपति।
(29). गोपाल  :- ग्वालों के साथ खेलने वाले।
(30). गोपालप्रिया :- ग्वालों के प्रिय
(31). गोविंदा :- गाय, प्रकृति, भूमि को चाहने वाले।
(32). ज्ञानेश्वर :- ज्ञान के भगवान
(33). हरि :- प्रकृति के देवता।
(34). हिरंयगर्भा :- सबसे शक्तिशाली प्रजापति।
(35). ऋषिकेश :- सभी इंद्रियों के दाता।
(36). जगद्गुरु :- ब्रह्मांड के गुरु
(37). जगदिशा :- सभी के रक्षक
(38). जगन्नाथ :- ब्रह्मांड के ईश्वर।
(39). जनार्धना :- सभी को वरदान देने वाले।
(40). जयंतह :- सभी दुश्मनों को पराजित करने वाले।
(41). ज्योतिरादित्या :- जिनमें सूर्य की चमक है।
(42). कमलनाथ :- देवी लक्ष्मी की प्रभु
(43). कमलनयन :- जिनके कमल के समान नेत्र हैं।
(44). कामसांतक :- कंस का वध करने वाले।
(45). कंजलोचन :- जिनके कमल के समान नेत्र हैं।
(46). केशव :- बहुत लंबे और सुंदर बाल-घने केशों वाले।
(47). कृष्ण :- सांवले रंग वाले।
(48). लक्ष्मीकांत :- देवी लक्ष्मी की प्रभु।
(49). लोकाध्यक्ष :- तीनों लोक के स्वामी।
(50). मदन :- प्रेम के प्रतीक।
(51). माधव :- ज्ञान के भंडार।
(52). मधुसूदन :- मधु-कैटव दानवों का वध करने वाले।
(53). महेंद्र :- इन्द्र के स्वामी।
(54). मनमोहन : सबका मन मोह लेने वाले।
(55). मनोहर :- बहुत ही सुंदर रूप रंग वाले प्रभु।
(56). मयूर :- मुकुट पर मोर- पंख धारण करने वाले भगवान।
(57). मोहन :- सभी को आकर्षित करने वाले।
(58). मुरली :- बांसुरी बजाने वाले प्रभु।
(59). मुरलीधर :- मुरली धारण करने वाले।
(60). मुरलीमनोहर :- मुरली बजाकर मोहने वाले।
(61). नंद्गोपाल :- नंद बाबा के पुत्र।
(62). नारायन :- सबको शरण में लेने वाले।
(63). निरंजन :- सर्वोत्तम।
(64). निर्गुण :- जिनमें कोई अवगुण नहीं।
(65). पद्महस्ता :- जिनके कमल की तरह हाथ हैं।
(66). पद्मनाभ :- जिनकी कमल के आकार की नाभि हो।
(67). परब्रह्मन :- परम सत्य।
(68). परमात्मा :- सभी प्राणियों के प्रभु।
(69). परमपुरुष :- श्रेष्ठ व्यक्तित्व वाले।
(70). पार्थसार्थी :- अर्जुन के सारथी।
(71). प्रजापती :- सभी प्राणियों के नाथ।
(72). पुंण्य :- निर्मल व्यक्तित्व।
(73). पुर्शोत्तम :- उत्तम पुरुष।
(74). रविलोचन :- सूर्य जिनका नेत्र है।
(75). सहस्राकाश : हजार आंख वाले प्रभु।
(76). सहस्रजित :- हजारों को जीतने वाले।
(77). सहस्रपात :- जिनके हजारों पैर हों।
(78). साक्षी :- समस्त देवों के गवाह।
(79). सनातन :- जिनका कभी अंत न हो।
(80). सर्वजन :- सब कुछ जानने वाले।
(81). सर्वपालक :- सभी का पालन करने वाले।
(82). सर्वेश्वर :- समस्त देवों से ऊंचे।
(83). सत्यवचन :- सत्य कहने वाले।
(84). सत्यव्त :- श्रेष्ठ व्यक्तित्व वाले देव।
(85). शंतह  : शांत भाव वाले।
(86). श्रेष्ट : महान।
(87). श्रीकांत :- अद्भुत सौंदर्य के स्वामी।
(88). श्याम :- जिनका रंग सांवला हो।
(89). श्याम सुंदर :- सांवले रंग में भी सुंदर दिखने वाले।
(90). सुदर्शन :- रूपवान।
(91). सुमेध :- सर्वज्ञानी।
(92). सुरेशम :- सभी जीव- जंतुओं के देव।
(93). स्वर्ग पति :- स्वर्ग के राजा।
(94). त्रिविक्रम :- तीनों लोकों के विजेता। 
(95). उपेंद्र :- इन्द्र के भाई।
(96). वैकुंठनाथ :- स्वर्ग के रहने वाले।
(97). वर्धमानह :- जिनका कोई आकार न हो।
(98). वासुदेव :- सभी जगह विद्यमान रहने वाले।
(99). विष्णु :- भगवान विष्णु के स्वरूप।
(100). विश्वदक्शिनह :- निपुण और कुशल।
(101). विश्वकर्मा :- ब्रह्मांड के निर्माता
(102). विश्वमूर्ति :- पूरे ब्रह्मांड का रूप।
(103). विश्वरुपा :- ब्रह्मांड- हित के लिए रूप धारण करने वाले।
(104). विश्वात्मा :- ब्रह्मांड की आत्मा।
(105). वृषपर्व :- धर्म के भगवान।
(106). यदवेंद्रा :- यादव वंश के मुखिया।
(107). योगि :- प्रमुख गुरु।
(108). योगिनाम्पति :- योगियों के स्वामी।
(1). भगवान् श्री कृष्ण के खड्ग का नाम नंदक, गदा का नाम कौमौदकी और शंख का नाम पांचजन्य था, जो कि गुलाबी रंग का था।
(2). भगवान् श्री कृष्ण के परमधामगमन के समय ना तो उनका एक भी केश श्वेत था और ना ही उनके शरीर पर कोई झुर्री थीं।
(3). भगवान् श्री कृष्ण के धनुष का नाम शारंग व मुख्य आयुध चक्र का नाम सुदर्शन था। वह लौकिक, दिव्यास्त्र व देवास्त्र तीनों रूपों में कार्य कर सकता था उसकी बराबरी के विध्वंसक केवल दो अस्त्र और थे पाशुपतास्त्र (शिव, कॄष्ण और अर्जुन के पास थे) और प्रस्वपास्त्र ( शिव, वसुगण, भीष्म और कृष्ण के पास थे)।
(4). भगवान् श्री कृष्ण की परदादी मारिषा व सौतेली माँ रोहिणी (बलराम की माँ) नाग जन जाति की थीं।
(5). भगवान् श्री कृष्ण से जेल में बदली गई यशोदा पुत्री का नाम एकानंशा था, जो आज विंध्य वासिनी देवी के नाम से पूजी जातीं हैं।
(6). भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेमिका राधा का वर्णन महाभारत, हरिवंशपुराण, विष्णु पुराण व भागवत पुराण में नहीं है। उनका उल्लेख ब्रह्म वैवर्त पुराण, गीत गोविंद व प्रचलित जन श्रुतियों में रहा है।
(7). जैन परंपरा के मुताबिक, भगवान् श्री कॄष्ण के चचेरे भाई तीर्थंकर नेमिनाथ थे जो हिंदू परंपरा में घोर अंगिरस के नाम से प्रसिद्ध हैं।
(8). भगवान् श्री कृष्ण अंतिम वर्षों को छोड़कर कभी भी द्वारिका में 6 महीने से अधिक नहीं रहे।
(9). भगवान् श्री कृष्ण ने अपनी औपचारिक शिक्षा उज्जैन के संदीपनी आश्रम में मात्र कुछ महीनों में पूरी कर ली थी।
(10). ऐसा माना जाता है कि घोर अंगिरस अर्थात नेमिनाथ के यहाँ रहकर भी उन्होंने साधना की थी।
(11). भगवान् श्री कृष्ण ने द्वंद युद्ध आदि का विकास ब्रज क्षेत्र के वनों में किया था। डांडिया रास का प्रारम्भ भी उन्होंने ही किया था।
(12). कलारीपट्टु का प्रथम आचार्य कृष्ण को माना जाता है। इसी कारण नारायणी सेना भारत की सबसे भयंकर प्रहारक सेना बन गई थी।
(13). भगवान्  श्री कृष्ण के रथ का नाम जैत्र था और उनके सारथी का नाम दारुक, बाहुक था। उनके घोड़ों (अश्वों) के नाम थे शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक।
(14). भगवान् श्री कृष्ण की त्वचा का रंग मेघ श्यामल था और उनके शरीर से एक मादक गंध निकलती थी।
(15). भगवान् श्री कृष्ण की माँस पेशियाँ मृदु परंतु युद्ध के समय विस्तॄत हो जातीं थीं, इसलिए सामान्यतः लड़कियों के समान दिखने वाला उनका लावण्यमय शरीर युद्ध के समय अत्यंत कठोर दिखाई देने लगता था ठीक ऐसे ही लक्ष्ण कर्ण व द्रौपदी के शरीर में देखने को मिलते थे।
(16). जनसामान्य में यह भ्रांति स्थापित है कि अर्जुन सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर थे, परन्तु वास्तव में कृष्ण इस विधा में भी सर्वश्रेष्ठ थे और ऐसा सिद्ध हुआ मद्र राजकुमारी लक्ष्मणा के स्वयंवर में जिसकी प्रतियोगिता द्रौपदी स्वयंवर के ही समान परंतु और कठिन थी।
(17). यहाँ कर्ण व अर्जुन दोंनों असफल हो गए और तब भगवान् श्री कॄष्ण ने लक्ष्यवेध कर लक्ष्मणा की इच्छा पूरी की, जो पहले से ही उन्हें अपना पति मान चुकीं थीं।
(18). भगवान् श्री युद्ध कृष्ण ने कई अभियान और युद्धों का संचालन किया था, परंतु इनमे तीन सर्वाधिक भयंकर थे। (17.1). महाभारत, (17.2) जरासंध और कालयवन के विरुद्ध (17.3). नरकासुर के विरुद्ध। 
(19). भगवान् श्री कृष्ण ने केवल 16 वर्ष की आयु में विश्वप्रसिद्ध चाणूर और मुष्टिक जैसे मल्लों का वध किया। मथुरा में दुष्ट रजक के सिर को हथेली के प्रहार से काट दिया।
(20). भगवान् श्री कृष्ण ने असम में बाणासुर से युद्ध के समय भगवान् शिव से युद्ध के समय माहेश्वर ज्वर के विरुद्ध वैष्णव ज्वर का प्रयोग कर विश्व का प्रथम जीवाणु युद्ध किया था।
(21). भगवान् श्री कृष्ण के जीवन का सबसे भयानक द्वंद्व युद्ध सुभुद्रा की प्रतिज्ञा के कारण अर्जुन के साथ हुआ था, जिसमें दोनों ने अपने अपने सबसे विनाशक शस्त्र क्रमशः सुदर्शन चक्र और पाशुपतास्त्र निकाल लिए थे। बाद में देवताओं के हस्तक्षेप से दोनों शांत हुए।
(22). भगवान् श्री कृष्ण ने 2 नगरों की स्थापना की थी द्वारिका (पूर्व में कुशावती) और पांडव पुत्रों के द्वारा इंद्रप्रस्थ (पूर्व में खांडवप्रस्थ)।
(23). भगवान् श्री कृष्ण ने कलारिपट्टू की नींव रखी जो बाद में बोधिधर्मन से होते हुए आधुनिक मार्शल आर्ट में विकसित हुई।
(24). भगवान् श्री कृष्ण ने श्रीमद्भगवतगीता के रूप में आध्यात्मिकता की वैज्ञानिक व्याख्या दी, जो मानवता के लिए आशा का सबसे बड़ा संदेश थी, है और सदैव रहेगी।
पाण्डवों के दूत भगवान् श्री कृष्ण :: पाण्डवों के वनवास के बारह वर्ष और अज्ञातवास का एक वर्ष व्यतीत हो गया। दुर्योधन ने कहा कि मैंने पाण्डवों का अज्ञातवास भंग के दिया है, अतः उन्हें फिर से 12 वर्ष के लिए वनवास के लिए जाना होगा। भीष्म पितामह, आचार्य द्रोण और आचार्य कृपाचार्य ने कहा कि इस समय 4 कलैंडर प्रचिलित हैं और उन चारों के अनुसार पाण्डवों का वनवास पूरा हो गया है अतः उनका राज्य उनको वापस लौटा देना चाहिए परन्तु दुर्योधन ने उनकी एक न सुनी और बगैर युद्ध के एक इंच भूमि भी देने से इंकार कर दिया। 
पुत्र मोह से ग्रसित दृष्टिविहीन धृतराष्ट्र ने संजय को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजा। संजय ने युधिष्ठर को बार-बार वैराग्य धर्म का उपदेश दिया कि तुम्हारी यदि जय भी हो जाए तो इससे क्या लाभ होगा, कुल का नाश हो जाएगा। भगवान् श्री कृष्ण ने कहा :- पांडव अपना अधिकार क्यों छोड़े? यह वैराग्य धर्म का उपदेश उस समय कहाँ गया था, जब छल से शकुनि ने युधिस्टर का राज्य छिना था ?! 
भगवान् श्री कृष्ण पांडवों की ओर से दूत बनकर कौरवों की राजधानी हस्तिनापुर पहुँचे। दुर्योधन ने वहाँ उनका शाही स्वागत करने का प्रयत्न किया। उन्हें उसने भोजन के लिए आमंत्रित किया, परन्तु भगवान् श्री कृष्ण ने वह निमंत्रण स्वीकार नहीं किया। दुर्योधन बोला :- जनार्दन, आपके लिए अन्न, फल, वस्त्र तथा शैय्या आदि जो वस्तुएँ प्राप्त की गई, आपने उन्हें ग्रहण क्यों नहीं किया? आपने हमारी प्रेमपूर्वक समर्पित पूजा ग्रहण क्यों नहीं की?” 
भगवान् श्री कृष्ण ने उस समय जवाब दिया :- भोजन खिलाने में दो भाव काम करते हैं। एक दया और दूसरी प्रीति-सम प्रीति। भोज्यानयन्नामि आपद्रभोज्यानि वा पुनः? दया दीन को दिखाई जाती है, सो हम दीन-दरिद्र नहीं हैं। जिस काम के लिए हम आए हैं, पहले वह सिद्ध हो जाए तो हम भोजन भी कर लेंगे। आप अपने ही भाइयों से द्वेश क्यों करते हैं? आप हमें क्या खिलाइएगा? उनका धार्मिक पक्ष है, आपका अधार्मिक, सो जो उनसे द्वेष करता है, वह हमसे भी द्वेष करता है। एक बात हमेशा याद रखो : जो द्वेष करता है, उसका अन्न कभी ना खाओ और द्वेष रखने वाले को खिलाना भी नहीं चाहिए :- 
द्विषन्नं नैव भौक्तव्यं द्विषन्तं नैव भोजयेत्। 
भगवान् श्री कृष्ण ने इसी कारण दुर्योधन का राजसी आतिथ्य भी स्वीकार नहीं किया, जबकि सरल विदुर जी का सादा रुखा-सूखा अन्न स्वीकार किया। 
दयाहीन लोगों का भोजन खाने से अच्छा है कि मनुष्य किसी निर्धन के यहाँ भोजन कर ले। 
स्यमन्तक मणि :: भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के दिन चंद्रमा का दर्शन मिथ्या कलंक देने वाला होता है। इसलिए इस दिन चंद्र दर्शन करना मना होता है। इस चतुर्थी को कलंक चौथ के नाम से भी जाना जाता है। कहा जाता है कि भगवान् श्री कृष्ण भी इस तिथि पर चंद्र दर्शन करने के पश्चात मिथ्या कलंक के भागी बने। यदि अज्ञानता वश इस दिन चन्द्र दर्शन हो जाय तो भगवान् श्री कृष्ण की इस कथा का श्रवण, पाठ या स्मरण करें।
सत्राजित भगवान् सूर्य का बहुत बड़ा भक्त था। भगवान् सूर्य ने ही प्रसन्न होकर बड़े प्रेम से उसे स्यमंतक मणि दी थी। सत्राजित उस मणि को गले में धारण कर ऐसा चमकने लगा, मानों स्वयं सूर्य ही हो।
जब सत्राजित द्वारका आया, तब अत्यन्त तेजस्विता के कारण लोग उसे पहचान न सके। दूर से ही उसे देखकर लोगों की आँखें उसके तेज से चौंधिया गईं। लोगों ने समझा कि कदाचित स्वयं भगवान् सूर्य आ रहे हैं। उन लोगों ने भगवान् श्री कृष्ण के पास आकर उन्हें इस बात की सूचना दी। उस समय भगवान् श्री कृष्ण चौसर खेल रहे थे। अपनी चमकीली किरणों से लोगों के नेत्रों को चौंधियाते हुए प्रचण्ड रश्मि भगवान् सूर्य आपका दर्शन करने आ रहे हैं। सभी श्रेष्ठ देवता त्रिलोकी में आपकी प्राप्ति का मार्ग ढूँढते रहते हैं, किन्तु उसे पाते नहीं। आज आपको यदुवंश में छिपा हुआ जानकर स्वयं सूर्य नारायण आपका दर्शन करने आ रहे हैं।
अनजान पुरूषों की यह बात सुनकर कमलनयन भगवान् श्री कृष्ण हँसने लगे। उन्होंने कहा, "अरे, ये सूर्यदेव नहीं हैं। यह तो सत्राजित है, जो मणि के कारण इतना चमक रहा है। इसके बाद सत्राजित अपने समृद्ध घर में चला आया। घर पर उसके शुभागमन के उपलक्ष्य में मंगल-उत्सव मनाया जा रहा था। उसने ब्राह्मणों द्वारा स्यमंतक मणि को देव मन्दिर में स्थापित कर दिया। वह मणि प्रतिदिन आठ भार सोना दिया करती थी और जहाँ वह पूजित होकर रहती थी, वहाँ दुर्भिक्ष, महामारी, ग्रहपीड़ा, सर्पभय, मानसिक और शारीरिक व्यथा तथा मायावियों का उपद्रव आदि कोई भी अशुभ नहीं होता था। 
एक बार भगवान् श्री कृष्ण ने सत्राजित से कहा तुम अपनी मणि राजा उग्रसेन को दे दो। परन्तु वह इतना अर्थ लोलुप-लोभी था कि भगवान्  की आज्ञा का उल्लंघन होगा, इसका कुछ भी विचार न करके उसे अस्वीकार कर दिया।
एक दिन सत्राजित के भाई प्रसेन ने उस परम प्रकाशमयी मणि को अपने गले में धारण कर लिया और फिर वह घोड़े पर सवार होकर शिकार खेलने वन में चला गया। वहाँ एक सिंह ने घोड़े सहित प्रसेन को मार डाला और उस मणि को छीन लिया। वह अभी पर्वत की गुफा में प्रवेश कर ही रहा था कि मणि के लिए ऋक्षराज जाम्बवान् ने उसे मार डाला। उन्होंने वह मणि अपनी गुफा में ले जाकर अपनी पुत्री जामवन्ती को खेलने के लिए दे दी। 
अपने भाई प्रसेन के न लौटने से उसके भाई सत्राजित को बड़ा दुःख हुआ। वह कहने लगा, "बहुत सम्भव है श्री कृष्ण ने ही मेरे भाई को मार डाला हो, क्योंकि वह मणि गले में डालकर वन में गया था"। सत्राजित की यह बात सुनकर लोग आपस में काना-फूँसी करने लगे। जब भगवान् श्री कृष्ण ने सुना कि यह कलंक का टीका मेरे सिर लगाया गया है, तब वे बहाने से नगर के कुछ सभ्य पुरूषों को साथ लेकर प्रसेन को ढूँढने के लिए वन में गये। वहाँ खोजते-खोजते लोगों ने देखा कि घोर जंगल में सिंह ने प्रसेन और उसके घोड़े को मार डाला है। जब वे लोग सिंह के पैरों का चिन्ह देखते हुए आगे बढ़े, तब उन लोगों ने यह भी देखा कि पर्वत पर रीछ ने सिंह को भी मार डाला है।
भगवान् श्री कृष्ण ने सब लोगों को बाहर ही बिठा दिया और अकेले ही घोर अन्धकार से भरी हुई ऋक्षराज की भयंकर गुफा में प्रवेश किया। भगवान् श्री कृष्ण ने वहाँ जाकर देखा कि श्रेष्ठ मणि स्यमन्तक को बच्चों का खिलौना बना दिया गया है। उस गुफा में एक अपरिचित मनुष्य को देखकर धाय भयभीत की भाँति चिल्ला उठी। उसकी चिल्लाहट सुनकर परम बली ऋक्षराज जाम्बवान क्रोधित होकर वहाँ दौड़ आये। 
जाम्बवान उस समय कुपित हो रहे थे। उन्हें भगवान् की महिमा, उनके प्रभाव का पता न चला। उन्होंने एक साधारण मनुष्य समझ लिया और वे अपने स्वामी भगवान्  श्री कृष्ण से युद्ध करने लगे। जिस प्रकार माँस के लिये दो बाज आपस में लड़ते हैं, वैसे ही विजयाभिलाषी भगवान् श्री कृष्ण और जाम्बवान आपस में घमासान युद्ध करने लगे। पहले तो उन्होंने अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार किया, फिर शिलाओं का तत्पश्चात वे वृक्ष उखाड़कर एक दूसरे पर फेंकने लगे। अन्त में उनमें बाहुयुद्ध होने लगा। 
वज्र-प्रहार के समान कठोर घूँसों की चोट से जाम्बवान के शरीर की एक एक गाँठ टूट गयी। उत्साह जाता रहा। शरीर पसीने से लथपथ हो गया। तब उन्होंने अत्यंत विस्मित-चकित होकर भगवान् श्री कृष्ण से कहा, "प्रभो! मैं जान गया। आप ही समस्त प्राणियों के स्वामी, रक्षक, पुराण पुरूष भगवान् श्री हरी  विष्णु हैं। आप ही सबके प्राण, इन्द्रियबल, मनोबल और शरीर बल हैं। आप विश्व के रचयिता ब्रह्मा आदि को भी बनाने वाले हैं। बनाये हुए पदार्थों में भी सत्तारूप से आप ही विराजमान हैं। काल के कितने भी अवयव है, उनके नियामक परम काल आप ही हैं और शरीर भेद से भिन्न-भिन्न प्रतीयमान अन्तरात्माओं के परम आत्मा भी आप ही हैं"। प्रभो ! मुझे स्मरण है, आपने अपने नेत्रों में तनिक सा क्रोध का भाव लेकर तिरछी दृष्टि से समुद्र की ओर देखा था। उस समय समुद्र के अन्दर रहने वाल बड़े-बड़े नाक (घड़ियाल) और मगरमच्छ क्षुब्ध हो गये थे और समुद्र ने आपको मार्ग दे दिया था। तब आपने उस पर सेतु बाँधकर सुन्दर यश की स्थापना की तथा लंका का विध्वंस किया। आपके बाणों से कट-कटकर राक्षसों के सिर पृथ्वी पर लोट रहे थे। अवश्य ही आप मेरे वे ही राम जी श्री कृष्ण के रूप में आये हैं। 
जब ऋक्षराज जाम्बवान ने भगवान् को पहचान लिया, तब कमलनयन भगवान् श्री कृष्ण ने अपने परम कल्याणकारी शीतल करकमल को उनके शरीर पर फेर दिया और फिर अहैतुकी कृपा से भरकर प्रेम गम्भीर वाणी से अपने भक्त जाम्बवान जी से कहा, "ऋक्षराज! हम मणि के लिए ही तुम्हारी इस गुफा में आये हैं। इस मणि के द्वारा मैं अपने पर लगे झूठे कलंक को मिटाना चाहता हूँ"। भगवान्  के ऐसा कहने पर जाम्बवान बड़े आनन्द से उनकी पूजा करने के लिए अपनी कन्या कुमारी जाम्बवती को मणि के साथ उनके चरणों में समर्पित कर दिया। 
भगवान्  श्री कृष्ण जिन लोगों को गुफा के बाहर छोड़ गये थे, उन्होंने बारह दिन तक उनकी प्रतीक्षा की। परन्तु जब उन्होंने देखा कि अब तक वे गुफा से नहीं निकले, तब वे अत्यंत दुःखी होकर द्वारका लौट गये। वहाँ जब माता देवकी, रूक्मणि, वसुदेव जी तथा अन्य सम्बन्धियों और कुटुम्बियों को यह मालूम हुआ कि भगवान् श्री कृष्ण गुफा से नहीं निकले, तब उन्हें बड़ा शोक हुआ। सभी द्वारकावासी अत्यंत दुःखित होकर सत्राजित को भला बुरा कहने लगे और भगवान् श्री कृष्ण की प्राप्ति के लिए महामाया दुगदिवी की शरण गये, उनकी उपासना करने लगे। उनकी उपासना से दुगदिवी प्रसन्न हुई और उन्होंने आशीर्वाद दिया।
उसी समय उनके बीच में मणि और अपनी नववधू जाम्बवती के साथ सफल मनोरथ होकर भगवान् श्री कृष्ण सबको प्रसन्न करते हुए प्रकट हो गये। सभी द्वारकावासी भगवान् श्री कृष्ण को पत्नी के साथ और गले में मणि धारण किये हुए देखकर परमानन्द में मग्न हो गये, मानो कोई मरकर लौट आया हो। 
तदनन्तर भगवान् ने सत्राजित को राजसभा में महाराज उग्रसेन के पास बुलवाया और जिस प्रकार मणि प्राप्त हुई थी, वह सब कथा सुनाकर उन्होंने वह मणि सत्राजित को सौंप दी। सत्राजित अत्यंत लज्जित हो गया। मणि तो उसने ले ली, परन्तु उसका मुँह नीचे की ओर लटक गया। अपने अपराध पर उसे बड़ा पश्चाताप हो रहा था, किसी प्रकार वह अपने घर पहुँचा। उसके मन की आँखों के सामने निरन्तर अपना अपराध नाचता रहता। बलवान के साथ विरोध करने के कारण वह भयभीत भी हो गया था। 
अब वह यही सोचता रहता कि 'मैं अपने अपराध का प्राश्चित कैसे करूँ? मुझ पर भगवान् श्री कृष्ण कैसे प्रसन्न हों? मैं ऐसा कौन सा काम करूँ, जिससे मेरा कल्याण हो और लोग मुझे कोसे नहीं। सचमुच मैं अदूरदर्शी, क्षुद्र हूँ। धन के लोभ से मैं बड़ी मूढ़ता का काम कर बैठा। अब मैं रमणियों में रत्न के समान अपनी कन्या सत्याभामा और वह स्यमंतक मणि दोनों ही श्री कृष्ण को दे दूँ। यह उपाय बहुत अच्छा है। इसी से मेरे अपराध का प्राश्चित हो सकता है और कोई उपाय नहीं है। 
सत्राजित ने अपनी विवेक बुद्धि से ऐसा निश्चय करके स्वयं ही इसके लिए उद्योग किया और अपनी कन्या तथा स्यमन्तक मणि दोनों ही ले जाकर भगवान् श्री कृष्ण को अर्पण कर दीं। सत्यभामा शील स्वभाव, सुन्दरता, उदारता आदि सदगुणों से सम्पन्न थी। बहुत से लोग चाहते थे कि सत्यभामा हमें मिले और उन लोगों ने उन्हें माँगा भी था। परन्तु अब भगवान् श्री कृष्ण ने विधिपूर्वक उनका पाणिग्रहण किया। भगवान् श्री कृष्ण ने सत्राजित से कहा, "हम स्यमन्तक मणि न लेंगे। आप सूर्य भगवान्  के भक्त हैं, इसलिए वह आपके ही पास रहे। हम तो केवल उसके फल के अर्थात उससे निकले हुए सोने के अधिकारी हैं। वही आप हमें दे दिया करें। 
भगवान् श्री कृष्ण चरणारविन्द :: कृष्ण के चरण कमल का स्मरण मात्र करने से व्यक्ति को समस्त आध्यात्मिक एवं भौतिक सम्पत्ति, सौभाग्य, सौंदर्य और सगुण की प्राप्ति होती है। ये नलिन चरण सर्वलीला धाम हैं। भगवान् श्री कृष्ण के चरणारविन्द हमारा सर्वस्व हो जाये।[गोविन्द लीलामृत] 
भगवान् श्री कृष्ण का दायाँ चरण :: श्री श्याम सुन्दर के दाँये चरण में ग्यारह मंगल चिन्ह हैं। 
(1). जौ :: जौ-यव का दाना व्यक्त करता है कि भक्त जन राधा-कृष्ण के पदार विन्दो की सेवा कर समस्त भोग, ऐश्वर्य प्राप्त करते हैं। एक बार उनका पदाश्रय प्राप्त कर लेने पर भक्त की अनेकानेक जन्म-मरण की यात्रा घट कर जौ के दानों के समान बहुत छोटी हो जाती है।  
(2).चक्र :: यह चिन्ह सूचित करता है कि राधा-कृष्ण के चरण कमलों का ध्यान काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और मात्सर्य रूपी छ: शत्रुओं का नाश करता है। ये तेजस तत्व का प्रतीक हैं, जिसके द्वारा राधा-गोविंद भक्तों के अंतःकरण से पाप तिमिर को छिन्न-भिन्न कर देते हैं। 
(3). छत्र :: छत्र यह सिद्ध करता है कि भगवान् श्री कृष्ण चरणों की शरण ग्रहण करने वाले भक्त भौतिक कष्टों की अविराम वर्षा से बचे रहते हैं। 
(4). उर्ध्व रेखा :: जो भक्त इस प्रकार राधा-श्याम के पद कमलों से इस प्रकार लिपटे रहते हैं,  मानो वे उनकी जीवन रेखा हो, वे दिव्य धाम को जाएँगे। 
(5). कमल :: सरस सरसिज राधा-गोविंद के चरणविंदों का ध्यान करने वाले मधुकर सदृश भक्तों के मन में ईश्वरीय प्रेम हेतु लोभ उत्पन्न करता है। 
(6). ध्वज :: ध्वज भगवान् श्री कृष्ण के भक्तों को भय से बचाता और उन भक्तों की सुरक्षा करता है जो उनके चरणों में ध्यान लगाते हैं। यह विजय का प्रतीक है। 
(7). अंकुश :: अंकुश इस बात का घोतक है कि राधा-गोविन्द के चरणों का ध्यान भक्तों के मन रूपी गज को वश में करता है, उसे सही मार्ग दिखाता है।
(8). वज्र :: वज्र यह बताता है कि भगवान् श्री कृष्ण के पाद-पंकज का ध्यान भक्तों के पूर्व पापों के कर्म फलों रूपी पर्वतों को चूर्ण-चूर्ण कर देता है। 
(9). अष्टकोण :: यह बताता है जो व्यक्ति भगवान् श्री कृष्ण के चरणों की आराधना करते हैं, वे अष्ट दशाओं से सुरक्षित रहते हैं। 
(10). स्वास्तिक :: जो व्यक्ति भगवान् श्री कृष्ण के चरणों को अपने मन में संजो के रखता है, उसका कभी अमंगल नहीं होता। 
(11). चार जंबू फल :: वैदिक स्रष्टि वर्णन के अनुसार जंबू द्वीप के निवासियों के लिए भगवान् श्री कृष्ण के राजीव चरण ही एक मात्र आराध्य विषय हैं।
श्री श्याम सुन्दर के बाँये चरण में आठ शुभ चिन्ह हैं :-  
(12). शंख :: शंख विजय का प्रतीक है। यह बताता है कि राधा-गोविंद के चरण कमलों की  शरण ग्रहण करने वाले व्यक्ति सदैव दुख से बचे रहते हैं और अभय दान प्राप्त करते हैं। 
(13). आकाश :: यह दर्शाता है भगवान् श्री कृष्ण के चरण सर्वत्र विघमान हैं। भगवान् श्री कृष्ण हर वस्तु के भीतर हैं। 
(14). धनुष :: यह चिन्ह सूचित करता है कि एक भक्त का मन जब भगवान् श्री कृष्ण के चरण रूपी लक्ष्य से टकराता है, तब उसके फलस्वरूप प्रेम अत्यधिक बढ़ जाता है। 
(15). गौखुर :: यह इस बात का सूचक है कि जो व्यक्ति भगवान् श्री कृष्ण के चरणारविंदों की पूर्ण शरण लेता है, उसके लिए भव सागर गो खुर के चिन्ह में विघमान पानी के समान छोटा एवं नगण्य हो जाता है। वह भवसागर को सहज ही पार कर लेता है। 
(16). चार कलश :: भगवान् श्री कृष्ण के चरण कमल, शुद्ध सुधारस का स्वर्ण कलश धारण किये हैं और शरणागत जीव अबाध रूप से उस सुधा रस का पान करता है। 
(17). त्रिभुज :: भगवान् श्री कृष्ण के चरणों की शरण ग्रहण करने वाले भक्त त्रिभुज  की तीन भुजाओं द्वारा त्रितापों और त्रिगुण रूपी जाल से बच जाते हैं।
(18). अर्धचंद्र :: यह बताता है कि जिस प्रकार भगवान् शिव आदि देवताओं ने राधा गोविन्द के चरणार विन्दों के तलवों से अपने शीश को शोभित किया है; इसी प्रकार जो भक्त इस प्रकार राधा और कृष्ण के पदाम्बुजों द्वारा अपने शीश को सुसज्जित करते हैं, वे भगवान् शिव के समान भगवान् श्री कृष्ण के महान भक्त बन जाते हैं। 
(19). मीन :: जिस प्रकार मछली जल के बिना नहीं रह सकती, उसी प्रकार भक्तगण क्षण भर भी राधा-श्याम सुन्दर के चरणाम्बुजों के बिना नहीं रह सकते। 
इस प्रकार भगवान् श्री कृष्ण के दोनों चरणों में उन्नीस शुभ चिन्ह हैं।
जरासंध का मथुरा पर आक्रमण :: कंस की मृत्यु के पश्चात उसका ससुर जरासन्ध बहुत ही क्रोधित था। उसने भगवान् श्री कृष्ण और  बलरामजी को मारने हेतु मथुरा पर 17 बार आक्रमण किया। 
प्रत्येक पराजय के बाद वह अपने विचारों का समर्थंन करने वाले तमाम राजाओं से सम्पर्क करता और उनसे गठजोड़ करता और मथुरा पर हमला करता, मगर भगवान् श्री कृष्ण पूरी सेना को मार देते, मात्र जरासन्ध को ही छोड़ देते।
यह सब देख बलराम जी बहुत क्रोधित हुये और श्री कृष्ण से कहा, "बार-बार जरासन्ध हारने के बाद पृथ्वी के कोनों-कोनों से दुष्टों के साथ महागठबंधन कर हम पर आक्रमण कर रहा है और तुम पूरी सेना को मार देते हो किन्तु असली खुराफात करने वाले को ही छोड़ दे रहे हो"!?
तब हँसते हुए भगवान् श्री कृष्ण ने बलराम जी को समझाया, "हे भ्राता श्री मैं जरासन्ध को बार बार जान बूझकर इसलिए छोड़ दे रहा हूँ ताकि ये जरासन्ध पूरी पृथ्वी से दुष्टों के साथ महागठबंधन करता है और मेरे पास लाता है और मैं बहुत ही आसानी से एक ही जगह रहकर धरती के सभी दुष्टों को मार दे रहा हूँ नहीं तो मुझे इन दुष्टों को मारने के लिए पूरी पृथ्वी का चक्कर लगाना पड़ता और बिल में से खोज-खोज कर निकाल निकाल कर मारना पड़ता और बहुत कष्ट झेलना पड़ता। दुष्ट दलन का मेरा यह कार्य जरासन्ध ने बहुत आसान कर दिया है"।
जब सभी दुष्टों को मार डालुंगा तो सबसे आखिरी में इसे भी खत्म कर ही दूँगा,  चिन्ता न करो भ्राता श्री"।
कोकिलावन में शनि देव को भगवान् श्री कृष्ण के दर्शन :: जब श्री कृष्ण ने अवतार ग्रहण किया तो सभी देवी-देवता उनके दर्शन करने नन्द गाँव पधारे। कृष्ण भक्त शनिदेव भी देवताओं संग श्री कृष्ण के दर्शन करने नन्द गाँव पहुँचे। परन्तु माता यशोदा ने उन्हें नंदलाल के दर्शन करने से मना कर दिया, क्योंकि माता यशोदा को डर था कि शनि देव कि वक्र दृष्टि कहीं कान्हा पर न पड़ जाए। 
शनिदेव को यह अच्छा नहीं लगा और वो निराश होकर नन्द गाँव के पास जंगल में आकर तपस्या करने लगे। शनिदेव का मानना था कि परब्रह्म परमेश्वर श्री कृष्ण ने ही तो उन्हें न्यायाधीश बनाकर पापियों को दण्डित करने का कार्य सोंपा है तथा सज्जनों, सत-पुरुषों, भगवत भक्तों का शनिदेव सदैव कल्याण करते है।
भगवान् श्री कृष्ण शनि देव कि तपस्या से द्रवित हो गए और शनि देव के सामने कोयल के रूप में प्रकट हो कर कहा, "हे शनि देव! आप निःसंदेह अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित हो और आप के ही कारण पापियों, अत्याचारियों, कुकर्मिओं का दमन होता है और परोक्ष रूप से कर्म-परायण, सज्जनों, सत-पुरुषों, भगवत भक्तों का कल्याण होता है।  
आप धर्म-परायण प्राणियों के लिए ही तो कुकर्मिओं का दमन करके उन्हें भी कर्तव्य परायण बनाते हो, आप का ह्रदय तो पिता कि तरह सभी कर्तव्य निष्ठ प्राणियों के लिए द्रवित रहता है और उन्हीं की रक्षा के लिए आप एक सजग और बलवान पिता कि तरह सदैव उनके अनिष्ट स्वरूप दुष्टों को दण्ड देते रहते हैं। 
हे शनि देव! मैं आप से एक भेद खोलना चाहता हूँ कि यह बृज-क्षेत्र मुझे परम प्रिय है और मैं इस पवित्र भूमि को सदैव आप जैसे सशक्त-रक्षक और पापिओं को दण्ड देने में सक्षम कर्तव्य-परायण शनि देव की क्षत्र-छाया में रखना चाहता हूँ। इसलिए, हे शनि देव! आप मेरी इस इच्छा को सम्मान देते हुए इसी स्थान पर सदैव निवास करो, क्योंकि मैं यहाँ कोयल के रूप में आप से मिला हूँ, इसी लिए आज से यह पवित्र स्थान “कोकिलावन” के नाम से विख्यात होगा। यहाँ कोयल के मधुर स्वर सदैव गूँजते रहेंगे। आप मेरे इस बृज प्रदेश में आने वाले हर प्राणी पर नम्र रहें साथ ही कोकिलावन में आने वाला आप के साथ-साथ मेरी भी कृपा का पात्र होगा।
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