CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By: Pt. Santosh Bhardwaj
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भगवान् ALMIGHTY :: सम्पूर्ण ऐश्वर्य, सम्पूर्ण धर्म, सम्पूर्ण यश, सम्पूर्ण श्री, सम्पूर्ण ज्ञान और सम्पूर्ण वैराग्य; इन छः का नाम भग है। जिन पूर्णतम परमेश्वर में ये छहों परिपूर्ण रूप से नित्य-निरंतर स्थित रहते है, वे भगवान् कहे जाते हैं।
The Almighty who possesses the entire grandeur, the Dharm-endeavour, glory, wealth, knowledge-enlightenment and relinquishment-detachment continuously at all times is Bhagwan-God.
The Almighty who possesses the entire grandeur, the Dharm-endeavour, glory, wealth, knowledge-enlightenment and relinquishment-detachment continuously at all times is Bhagwan-God.
परमात्मा साकार-निराकार दोनों ही स्वरुपों में है। वह ब्रह्म, मन और बुद्धि का विषय नहीं है और प्रकृति से परे है। परमात्मा को स्वयं करण-निरपेक्ष ज्ञान से ही जाना जाता है। सर्वव्यापी होने के कारण, वह सीमित मन, बुद्धि, इन्द्रियों से ग्रहण नहीं किया जा सकता। वह चिन्मय सर्वत्र परिपूर्ण है। उसका वर्णन संकेत, भाषा, वाणी से सम्भव नहीं है। वह एक रस, निर्विकार और निर्लिप्त है। उसमें किञ्चित मात्र भी परिवर्तन संभव नहीं है। अतः वह कूटस्थ (जिसे घड़ा न जा सके) है। वह ब्रह्म, अटल, अविचल है। उसकी सत्ता निश्चित और नित्य है, अतः ध्रुव है। उसका कभी विनाश नहीं होता, अतः अक्षर है। वह मन, बुद्धि, इन्द्रियों का विषय न होने से अव्यक्त है। निर्गुण और सगुण दोनों ही परमात्मा के स्वरूप हैं।
The Almighty is both with form and without form. The Brahm is not the subject of mind or intelligence. HE is away from nature. The God can be understood, recognised, identified through absolute enlightenment, independent from the sense organs. HE is pervaded-eternal all over the universe, therefore HE can not be grasped, understood, identified through mind and intelligence. HE constitutes of pure intelligence, Supreme consciousness and is pervaded or permeated by consciousness. Its not possible to describe HIM through words, language, symbols etc. HE is unilateral, stable, unattached, untainted. HE never undergoes a change. HE can not be cast or given a specific shape. HE is Brahm, absolute and unchangeable. HIS authority is absolute. HE never perishes-disintegrate. HE is Dhruv-fixed, helps in gaining direction. HE never degenerate-degrade. HE is not the subject of ideas, thoughts and therefore, remain unrevealed. The Almighty is even, same, equal for all. Form less and with form; both are the features of the God.
The Almighty is both with form and without form. The Brahm is not the subject of mind or intelligence. HE is away from nature. The God can be understood, recognised, identified through absolute enlightenment, independent from the sense organs. HE is pervaded-eternal all over the universe, therefore HE can not be grasped, understood, identified through mind and intelligence. HE constitutes of pure intelligence, Supreme consciousness and is pervaded or permeated by consciousness. Its not possible to describe HIM through words, language, symbols etc. HE is unilateral, stable, unattached, untainted. HE never undergoes a change. HE can not be cast or given a specific shape. HE is Brahm, absolute and unchangeable. HIS authority is absolute. HE never perishes-disintegrate. HE is Dhruv-fixed, helps in gaining direction. HE never degenerate-degrade. HE is not the subject of ideas, thoughts and therefore, remain unrevealed. The Almighty is even, same, equal for all. Form less and with form; both are the features of the God.
अच्युतम,केशवं,राम नारायणं, कृष्ण दामोदरं,वासुदेवं हरिम। श्रीधरं माधवं गोपिका वल्लभं, जानकी नायकं श्री राम चन्द्रम भजे॥ |
स्वयम्भू SWAYAMBHU (अव्यक्त, भगवान्-परमात्मा-परब्रह्म परमेश्वर) :: He who manifests HIMSELF of HIS own free will and is created by OWN accord. One who is self-born. One who exists by Himself, uncaused-unaided by any other. He is not dependent on anyone for anything. He creates independently. He is completely independent. He has got exclusive prerogative of taking birth-revealing, anywhere on His own accord. He exists of his own. He existed before the emergence of everything. He exists after destruction of everything. He is the lord of all others.
ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है।
ऐश्वर्य :: (1). ईश्वरता-ईश्वरीय गुण, (2). आधिपत्य, (3). ईश्वरीय संपदा, ईश्वरीय विभूति, वैभव, धन संपत्ति, अणिमा, महिमा आदि आठों सिद्धियों से प्राप्त अलौकिक शक्ति; grandeur, opulence, glory.
ऐश्वर्य :: (1). ईश्वरता-ईश्वरीय गुण, (2). आधिपत्य, (3). ईश्वरीय संपदा, ईश्वरीय विभूति, वैभव, धन संपत्ति, अणिमा, महिमा आदि आठों सिद्धियों से प्राप्त अलौकिक शक्ति; grandeur, opulence, glory.
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया॥
अजन्मा, अविनाशी और सभी प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी मैं, अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योग माया से प्रकट होता हूँ।[श्रीमद्भगवद्गीता 4.6]
Though, unborn, imperishable and the Master-God of all beings, yet I appear (take birth) by controlling My Nature through the power of (inexpressible) Maya-illusion.
साधारण मनुष्यों की तरह न तो भगवान् का जन्म होता है और न ही मरण। वे अपनी इच्छा शक्ति के द्वारा प्रकट होते हैं और अन्तर्धान हो जाते हैं। प्रकट होना और अंतर्धान होना दोनों ही परमात्मा की अलौकिक लीलाएँ हैं। मनुष्य पहले और पीछे-बाद में भी अव्यक्त है, मगर परमात्मा पहले, वर्तमान और बाद में भी व्यक्त है, वह सदा-सर्वदा रहता है। सूर्य उदय और अस्त होता हुआ दिखता है, मगर वह तो वैसे का वैसा ही रहता है। प्राणी कर्मों के अधीन होकर जन्म लेते हैं, मगर परमात्मा स्वाधीन हैं। प्राणी का सुख और दुःख जन्म और कर्मों के अधीन है। भगवान इन दोनों से मुक्त हैं। भगवान् केवल 15 वर्ष की आयु तक बढ़ने की लीला करते है, परन्तु उसके बाद उम्र कितनी ही क्यों न हो, वे दाढ़ी-मूंछों से रहित यथावत बने रहते हैं। उनकी लीलाएँ वयस-उम्र की मोहताज नहीं हैं। वे सत्त्व, रज और तम इन तीनों गुणों से रहित शुद्ध चित्त हैं। इन गुणों से अलग उनकी शुद्ध प्रकृति को पराशक्ति, संघिनी-शक्ति, आल्हादिनी शक्ति, संवित् शक्ति, चिन्मय शक्ति, कृपाशक्ति कहते है तथा राधा जी, माता पार्वती और माता सीता भी इसी शक्ति के नाम हैं। प्रकृति भगवान् की शक्ति है। भगवान् शक्ति के संयोग से समस्त लीलाएँ करते हैं। फिर भी मनुष्य-प्राणी की तरह वे उसके अधीन नहीं हैं।
The Almighty does not appear-take birth or die-parish like the creatures (organisms, humans). He evolve by virtue of his won will. To evolve and to disappear are his divine features (traits, characters, qualities). The human beings appear only in between-they were not present earlier and will not be present thereafter. The Sun rise and Sun set takes place every day, but Sun remains as such. The human beings take birth due to destiny, as a result of their deeds in earlier births but the Almighty is free from destiny, birth, death. HIS physiques grows-develops till the age of 15 years only and thereafter it remains the same. HIS activities are independent of age. Beard and moustaches do not grow over HIS face. HE is free from the three basis features of humans, Trigun Shakti :- Satv, Raj and Tam. Other than these HIS power (Maya, pure nature) is recognised as Para Shakti, Sanghini Shakti, Alhadini Shakti, Sanvit Shakti, Chinmay Shakti, Krapa Shakti. Radha Ji, Mata Lakshmi, Mata Parwati and Mata Sita are the other names imparted to it. The Almighty plays, rejoice, enjoys with the nature. HE is not dominated (controlled, suppressed, governed) by the nature like the human beings.
The Almighty acts of his own. Nature is his component dancing to HIS tunes. HE is independent but nature is dependent upon HIM. HE remembers each & every thing but the organism is bound to forget each and every thing sooner or later (except a few virtuous, pious, righteous).
साधारण मनुष्यों की तरह न तो भगवान् का जन्म होता है और न ही मरण। वे अपनी इच्छा शक्ति के द्वारा प्रकट होते हैं और अन्तर्धान हो जाते हैं। प्रकट होना और अंतर्धान होना दोनों ही परमात्मा की अलौकिक लीलाएँ हैं। मनुष्य पहले और पीछे-बाद में भी अव्यक्त है, मगर परमात्मा पहले, वर्तमान और बाद में भी व्यक्त है, वह सदा-सर्वदा रहता है। सूर्य उदय और अस्त होता हुआ दिखता है, मगर वह तो वैसे का वैसा ही रहता है। प्राणी कर्मों के अधीन होकर जन्म लेते हैं, मगर परमात्मा स्वाधीन हैं। प्राणी का सुख और दुःख जन्म और कर्मों के अधीन है। भगवान इन दोनों से मुक्त हैं। भगवान् केवल 15 वर्ष की आयु तक बढ़ने की लीला करते है, परन्तु उसके बाद उम्र कितनी ही क्यों न हो, वे दाढ़ी-मूंछों से रहित यथावत बने रहते हैं। उनकी लीलाएँ वयस-उम्र की मोहताज नहीं हैं। वे सत्त्व, रज और तम इन तीनों गुणों से रहित शुद्ध चित्त हैं। इन गुणों से अलग उनकी शुद्ध प्रकृति को पराशक्ति, संघिनी-शक्ति, आल्हादिनी शक्ति, संवित् शक्ति, चिन्मय शक्ति, कृपाशक्ति कहते है तथा राधा जी, माता पार्वती और माता सीता भी इसी शक्ति के नाम हैं। प्रकृति भगवान् की शक्ति है। भगवान् शक्ति के संयोग से समस्त लीलाएँ करते हैं। फिर भी मनुष्य-प्राणी की तरह वे उसके अधीन नहीं हैं।
The Almighty does not appear-take birth or die-parish like the creatures (organisms, humans). He evolve by virtue of his won will. To evolve and to disappear are his divine features (traits, characters, qualities). The human beings appear only in between-they were not present earlier and will not be present thereafter. The Sun rise and Sun set takes place every day, but Sun remains as such. The human beings take birth due to destiny, as a result of their deeds in earlier births but the Almighty is free from destiny, birth, death. HIS physiques grows-develops till the age of 15 years only and thereafter it remains the same. HIS activities are independent of age. Beard and moustaches do not grow over HIS face. HE is free from the three basis features of humans, Trigun Shakti :- Satv, Raj and Tam. Other than these HIS power (Maya, pure nature) is recognised as Para Shakti, Sanghini Shakti, Alhadini Shakti, Sanvit Shakti, Chinmay Shakti, Krapa Shakti. Radha Ji, Mata Lakshmi, Mata Parwati and Mata Sita are the other names imparted to it. The Almighty plays, rejoice, enjoys with the nature. HE is not dominated (controlled, suppressed, governed) by the nature like the human beings.
The Almighty acts of his own. Nature is his component dancing to HIS tunes. HE is independent but nature is dependent upon HIM. HE remembers each & every thing but the organism is bound to forget each and every thing sooner or later (except a few virtuous, pious, righteous).
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥
हे अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं। इस प्रकार जो मनुष्य मेरे जन्म और कर्म को तत्त्व-दृढ़ता से जान लेता है, वह शरीर त्याग कर फिर जन्म नहीं लेता, अपितु मुझे ही प्राप्त होता है।[श्रीमद्भगवद्गीता 4.9]The Almighty told Arjun that HIS birth and deeds were divine. One who recognise-learns this fact, with firmness (certainty) is devoid of rebirth, since he merges in HIM.
The Almighty never takes birth. HE just appear or disappear from invisible, formless to visible-with form.
परमात्मा अजन्मा और अविनाशी हैं। उनका अवतार-अवतरण और लीलाएँ दैविक घटनाक्रम हैं। वे मनुष्य के बीच में रहकर उनके समान व्यवहार (लौकिक आचार, विचार) का प्रदर्शन तभी तक करते हैं, जब तक कि उनके दैविक रूप को प्रदर्शित करने की आवश्यकता न हो। उनके विग्रह पाप-पुण्य से रहित, नित्य, अलौकिक, विकार रहित, परम दिव्य और प्रकट होने वाले होते हैं। प्राणियों के हित में परमात्मा प्रकृति को अपने अधीन रखकर अपने दिव्य रूप में दैविक शक्तियों सहित प्रकट होते हैं। यही वह तत्व है जो कि साधक को दृढ़तापूर्वक सुनिश्चित करना है। उनमें फलेच्छा, कर्तापन, अभिमान का अभाव है। यह सब जानने और समझने वाला इस संसार सागर से देह मुक्त होने के बाद पुनर्जन्म प्राप्त नहीं करता, यदि उसकी कामनाएँ, आसक्ति, राग-द्वेष, बंधन, टूट गए हैं।
Almighty is unborn, all pervading and imperishable. HIS incarnations and performances are divine. HE intermixes (interact, perform, functions) like ordinary people. HE reveals only when its essential. HIS incarnations are free from sins or impact-result of virtues. HE lands over the earth with the motive of removing sins, by controlling the nature. HE is free from the desire of result (outcome, reward, impact), ego-pride. One who has understood this gist and converts him self into a desire less, unattached, enmity free, unbonded, equanimous entity become free from the clutches-cycle of birth and death.
Any one who is able to understand, grasp the gist (Basics, root, central idea, nectar, elixir) of the Almighty would try to attain HIM, since there is nothing as fascinating as HE is. HE is Ultimate-Bliss.
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु॥
हे कुन्तीनन्दन अर्जुन! मैं जल में रस हूँ, चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, सम्पूर्ण वेदों में ओंकार हूँ, आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व हूँ।[श्रीमद्भगवद्गीता 7.8] Hey Arjun, the mighty son of Kunti! I am the flavour (relish, extract) of water, I am light (aura, radiance, brilliance) in the Moon and the Sun. I am the syllable Om (primordial sound) in all the Veds, sound in the sky-ether, manhood (might, tendency) to do-perform in humans.
भगवान् नारायण जल में ही प्रकट हुए। अगर जल में प्यास बुझाने की ताकत न हो तो वह व्यर्थ है। भौतिक शरीर का दो तिहाई जल ही है। जल में तुष्टि उसका रस है। बगैर प्रकाश के सब कुछ अज्ञात है। पृथ्वी पर सूर्य और चन्द्र प्रकाश प्रदान करते हैं। सारा चराचर उन पर ही निर्भर है। बगैर आकाश के (और उसमें माध्यम-हवा) शब्द-ध्वनि उत्पन्न नहीं हो सकती। पुरुष में पौरुष-पुरुषत्व, कुछ करने की ताकत-भावना न हो तो वो भी व्यर्थ है। तात्पर्य यह कि भौतिक इकाइयों का मूल तत्व जो प्राणी को प्राणवान बनाता है, वो परमात्म तत्व ही है। ओंकार-प्रणव वह ध्वनि है जो ब्रह्माण्ड में जीवन की उत्पत्ति के वक्त उत्पन्न हुई और यही ध्वनि वेदों का गूढ़ रहस्य और मूलाधार है।
The Almighty-Narayan appeared in water & was called Naar & Narayan is derived from it. The water is essential component of all life forms. The extract of water, the nectar, elixir is the Almighty, which appeared from the ocean which was churned by demons and the demigods. Two third of the body of the living beings constitutes of water. Unless-until one drink water, he remain dissatisfied. Light too is essential for various life forms. Light is obtained from the Sun and the Moon to support life. These two, too are other forms of the Almighty, as is described in the scriptures & epics. Nothing can be observed in the absence of light. The space between heavenly bodies is covered by space-ether. Air is essential for producing sound and vocal communication. Omkar (Om, Pranav) is the initial sound which was generated-evolved with the creation of the universe & life. It constitutes the central idea-gist of the Veds. These along with the strength (manhood, desire to do-perform) are due to the presence of the component of the Almighty in the humans. Basically, in short each and every particle, life forms are replica of the God.
भगवान् नारायण जल में ही प्रकट हुए। अगर जल में प्यास बुझाने की ताकत न हो तो वह व्यर्थ है। भौतिक शरीर का दो तिहाई जल ही है। जल में तुष्टि उसका रस है। बगैर प्रकाश के सब कुछ अज्ञात है। पृथ्वी पर सूर्य और चन्द्र प्रकाश प्रदान करते हैं। सारा चराचर उन पर ही निर्भर है। बगैर आकाश के (और उसमें माध्यम-हवा) शब्द-ध्वनि उत्पन्न नहीं हो सकती। पुरुष में पौरुष-पुरुषत्व, कुछ करने की ताकत-भावना न हो तो वो भी व्यर्थ है। तात्पर्य यह कि भौतिक इकाइयों का मूल तत्व जो प्राणी को प्राणवान बनाता है, वो परमात्म तत्व ही है। ओंकार-प्रणव वह ध्वनि है जो ब्रह्माण्ड में जीवन की उत्पत्ति के वक्त उत्पन्न हुई और यही ध्वनि वेदों का गूढ़ रहस्य और मूलाधार है।
The Almighty-Narayan appeared in water & was called Naar & Narayan is derived from it. The water is essential component of all life forms. The extract of water, the nectar, elixir is the Almighty, which appeared from the ocean which was churned by demons and the demigods. Two third of the body of the living beings constitutes of water. Unless-until one drink water, he remain dissatisfied. Light too is essential for various life forms. Light is obtained from the Sun and the Moon to support life. These two, too are other forms of the Almighty, as is described in the scriptures & epics. Nothing can be observed in the absence of light. The space between heavenly bodies is covered by space-ether. Air is essential for producing sound and vocal communication. Omkar (Om, Pranav) is the initial sound which was generated-evolved with the creation of the universe & life. It constitutes the central idea-gist of the Veds. These along with the strength (manhood, desire to do-perform) are due to the presence of the component of the Almighty in the humans. Basically, in short each and every particle, life forms are replica of the God.
पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु॥
मैं पृथ्वी में पवित्र गन्ध हूँ (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध 5 तन्मात्राऍ हैं) और अग्नि में तेज हूँ तथा सम्पूर्ण भूतों में उनका जीवन हूँ और तपस्वियों में तप मैं हूँ।[श्रीमद्भगवद्गीता 7.9] I am the agreeable odour (pleasant-decent smell, scent) in the earth and the brilliance-capability to burn in the fire, the vitality in all beings and I am the austerity in the ascetics.
5 तन्मात्राएँ जिनसे पृथ्वी उत्त्पन्न हुई है उनमें से एक गंध-खुशबू है। अतः गंध के बिना पृथ्वी कुछ भी नहीं है। पवित्र तन्मात्रा परमात्मा को प्रदर्शित करती है। अपवित्र गंध-दुर्गन्ध विकृति से उत्पन्न होती है। अग्नि में तेज है जो उसमें व्याप्त है, वही परमात्मा का रूप है। बगैर तेज के अग्नि अर्थहीन है। प्रत्येक प्राणी में जीवन दायिनी शक्ति प्राण स्वयं परमेश्वर ही हैं। बगैर प्राण के जीव निर्जीव है। द्वन्द सहिष्णुता को तप कहा जाता है। परमात्म की प्राप्ति के लिए कितनी ही बाधाएँ-कष्ट आयें, उन्हें सहना निर्विकार रहना ही तप है। तप होने से ही साधक तपस्वी है। इसी तप को भगवान् अपना रूप कह रहे हैं। अगर साधक में तप न हो तो वह तपस्वी नहीं है। सृष्टि की रचना में भगवान् ही कर्ता, कारण और कार्य हैं। परा और अपरा भी वही हैं। गंध, तन्मात्रा, कारण और पृथ्वी उसका कार्य है। गंध-तन्मात्रा पवित्र की तरह शब्द, स्पर्श, रूप और रस-तन्मात्रा भी पवित्र हैं।
5 basic ingredients from which the earth has evolved are smell, touch, figure, extract-fluid and sound. In the absence of any one of these the earth looses its relevance-significance. The property of having pious scent-smell is the God HIMSELF. Foul smell represents impurity-contamination. Fire has the brightness, aura, capacity to burn, which is the Almighty HIMSELF. Tej represents energy and capacity to reproduce as well. In the absence of ability to burn, fire is meaningless. The capability to survive, live, vitality is Pran which is the Almighty HIMSELF. The ascetic bears all troubles, tortures, difficulties over the strength of Tap-austerity which is the Almighty HIMSELF. In the absence of Tap-austerities, the ascetic is an ordinary man. In this universe the Almighty is the doer, reason and the function himself. He is both Para (pure) and Apara (mixed, contaminated, impure) Shakti.
तन्मात्रा :: शब्द, स्पर्श, रूप, रस, और गन्धो को पंच तन्मात्राएँ कहते हैं; 5 basic ingredients from which the earth has evolved are smell, touch, figure, extract-fluid and sound.
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्॥
हे अर्जुन! तुम सम्पूर्ण भूतों का सनातन बीज मुझ को ही जानो। मैं बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वियों का तेज हूँ।[श्रीमद्भगवद्गीता 7.10] O Parth! You should know (recognise, identify) ME as the eternal seed of all that which has happened in the past. I AM the intelligence of the intelligent and the brightest amongest the bright-having aura.
समस्त प्राणियों का सनातन बीज कोष मैं ही हूँ। सारी सृष्टि मुझ से ही उत्पन्न होती और मुझ में ही समा जाती है। मेरे बगैर प्राणी की स्वतंत्र सत्ता है ही नहीं। बीज और जीवात्मा दोनों ही शब्द परमात्मा द्योतक हैं। कार्य और कारण स्वयं परमेश्वर ही हैं। प्राणियों में जो सर्वश्रेष्ठ है, वही परमात्मा का द्योतक है। अगर कोई बुद्धिमान है तो उसमें बुद्धि परमात्मा की प्रतीक और बुद्धिमानों में सर्व श्रेष्ठ परब्रह्म परमेश्वर स्वयं हैं। तेज दैवी सम्पत्ति-सम्पदा का गुण है। तेज अनेकों अर्थों में आता है, परन्तु यहाँ यह अलौकिक आभा, प्रकाश, चमक के लिए आया है। तेजस्वी पुरुषों में अलौकिक तेज़ उनके मुख मण्डल पर दिखाई देने लगता है।
The Almighty is the eternal bank of each and every characteristics of those who were born and perished. A souls emerge from HIM and assimilate in HIM. No one is independent-capable of doing any thing without HIM. Seed and soul, both represent the source-the God. HE is responsible for every act. One who is beyond limits (is superb & excellent) amongest the physical and divine creations is the Almighty HIMSELF. Intelligence is a reflection of the presence of the God in the organism. One who has the Ultimate intelligence, prudence & memory is the God HIMSELF, none else, other than HIM. Aura is divine and one who has the Ultimate capabilities-tendencies has brightness over his face.
समस्त प्राणियों का सनातन बीज कोष मैं ही हूँ। सारी सृष्टि मुझ से ही उत्पन्न होती और मुझ में ही समा जाती है। मेरे बगैर प्राणी की स्वतंत्र सत्ता है ही नहीं। बीज और जीवात्मा दोनों ही शब्द परमात्मा द्योतक हैं। कार्य और कारण स्वयं परमेश्वर ही हैं। प्राणियों में जो सर्वश्रेष्ठ है, वही परमात्मा का द्योतक है। अगर कोई बुद्धिमान है तो उसमें बुद्धि परमात्मा की प्रतीक और बुद्धिमानों में सर्व श्रेष्ठ परब्रह्म परमेश्वर स्वयं हैं। तेज दैवी सम्पत्ति-सम्पदा का गुण है। तेज अनेकों अर्थों में आता है, परन्तु यहाँ यह अलौकिक आभा, प्रकाश, चमक के लिए आया है। तेजस्वी पुरुषों में अलौकिक तेज़ उनके मुख मण्डल पर दिखाई देने लगता है।
The Almighty is the eternal bank of each and every characteristics of those who were born and perished. A souls emerge from HIM and assimilate in HIM. No one is independent-capable of doing any thing without HIM. Seed and soul, both represent the source-the God. HE is responsible for every act. One who is beyond limits (is superb & excellent) amongest the physical and divine creations is the Almighty HIMSELF. Intelligence is a reflection of the presence of the God in the organism. One who has the Ultimate intelligence, prudence & memory is the God HIMSELF, none else, other than HIM. Aura is divine and one who has the Ultimate capabilities-tendencies has brightness over his face.
पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ।
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति॥
परन्तु उस अव्यक्त (ब्रह्मा जी के सूक्ष्म शरीर) से अन्य-अलग (विलक्षण) अनादि अत्यन्त श्रेष्ठ भाव रूप, जो अव्यक्त (ईश्वर) है; वह सम्पूर्ण प्राणियों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता।[श्रीमद्भगवद्गीता 8.20] Other than Brahma Ji, there exists the eternal transcendental (Supreme, the Ultimate, the Almighty, the Eternal), who remains even after the loss of all life forms, weather physical-material or divine.
ब्रह्मा जी के सूक्ष्म शरीर जिसके दो तत्व हैं :- प्रकृति जिसमें समष्टि, मन, बुद्धि और अहंकार व्याप्त हैं और उससे भी और दूसरा अंग परमात्मा, जो अत्यन्त विलक्षण-भावरूप से अव्यक्त सनातन परमात्मा-परमेश्वर विराजमान है। वो सभी काल में बना रहता है। वह अनादि, अनन्त, सर्वश्रेष्ठ स्थायी है।
The body of Brahma Ji constitutes of two components :- the nature and the God. Entire universe-macro form are embedded (implant, plant, set, fix, lodge, root, insert, placed) in it. The Almighty-Eternal is above Brahma Ji. HE is beyond the limits of time & death. HE is imperishable, since ever, for ever, Ultimate.
ब्रह्मा जी के सूक्ष्म शरीर जिसके दो तत्व हैं :- प्रकृति जिसमें समष्टि, मन, बुद्धि और अहंकार व्याप्त हैं और उससे भी और दूसरा अंग परमात्मा, जो अत्यन्त विलक्षण-भावरूप से अव्यक्त सनातन परमात्मा-परमेश्वर विराजमान है। वो सभी काल में बना रहता है। वह अनादि, अनन्त, सर्वश्रेष्ठ स्थायी है।
The body of Brahma Ji constitutes of two components :- the nature and the God. Entire universe-macro form are embedded (implant, plant, set, fix, lodge, root, insert, placed) in it. The Almighty-Eternal is above Brahma Ji. HE is beyond the limits of time & death. HE is imperishable, since ever, for ever, Ultimate.
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥
उसी को अव्यक्त और अक्षर कहा गया है तथा उसी को परम गति कहा गया है और जिसको प्राप्त होने पर जीव फिर लौटकर संसार में कभी नहीं आता, वह मेरा परम धाम है।[श्रीमद्भगवद्गीता 8.21] HE is called unrevealed, imperishable, Ultimate abode, from which the soul never return to earth, having achieved it.
परमात्मा अव्यक्त-व्यक्त, अक्षर-क्षर, गति-स्थिति से रहित निरपेक्ष तत्व है। उसे सगुण-साकार, निर्गुण-निराकार, सगुण-निराकर अथवा निर्गुण-साकार कैसे भी मानकर साधक प्रयत्न करे; वह अन्ततोगत्वा, उसी निरक्षर ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है, जिसको पाकर पुनरावर्ती नहीं होती अर्थात मनुष्य को मृत्यु लोक में नहीं आना पड़ता। परमात्मा यदि अवतार ग्रहण करते हैं तो उनके संगी-साथियों के रूप में ऐसे महात्मा लोग भी साथ चले आते हैं। कभी-कभार भगवान् की इच्छा से ऐसे व्यक्ति लोगों का उद्धार करने के लिए भी कारक पुरुषों के रूप में इस भूमंडल पर पधार सकते हैं।
The Almighty has various modules like :- with characteristics & form, without characteristics & without form. HE is absolute and neutral; free from the clutches of time. The practitioner, Yogi, ascetics, devotee will assimilate in HIM, irrespective of the route adopted by him. One does not return to earth, becomes free from the repeated cycles of birth & death, having reached that Ultimate abode of the God. At occasions the Almighty takes incarnations-Avtars to help the residents of earth. In such conditions the pure souls do accompany HIM. There are instances, when such souls do come to earth to bring out the people out of trouble.
परमात्मा अव्यक्त-व्यक्त, अक्षर-क्षर, गति-स्थिति से रहित निरपेक्ष तत्व है। उसे सगुण-साकार, निर्गुण-निराकार, सगुण-निराकर अथवा निर्गुण-साकार कैसे भी मानकर साधक प्रयत्न करे; वह अन्ततोगत्वा, उसी निरक्षर ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है, जिसको पाकर पुनरावर्ती नहीं होती अर्थात मनुष्य को मृत्यु लोक में नहीं आना पड़ता। परमात्मा यदि अवतार ग्रहण करते हैं तो उनके संगी-साथियों के रूप में ऐसे महात्मा लोग भी साथ चले आते हैं। कभी-कभार भगवान् की इच्छा से ऐसे व्यक्ति लोगों का उद्धार करने के लिए भी कारक पुरुषों के रूप में इस भूमंडल पर पधार सकते हैं।
The Almighty has various modules like :- with characteristics & form, without characteristics & without form. HE is absolute and neutral; free from the clutches of time. The practitioner, Yogi, ascetics, devotee will assimilate in HIM, irrespective of the route adopted by him. One does not return to earth, becomes free from the repeated cycles of birth & death, having reached that Ultimate abode of the God. At occasions the Almighty takes incarnations-Avtars to help the residents of earth. In such conditions the pure souls do accompany HIM. There are instances, when such souls do come to earth to bring out the people out of trouble.
अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्॥
क्रतु-कर्मकाण्ड मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषध मैं हूँ, मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया-आहुति भी मैं हूँ।[श्रीमद्भगवद्गीता 9.16]
The Almighty HIMSELF is the doer-performer, ritual, sacrifice, offering, Shlok-Mantr, poetic verse-hymns or normal text-prose, herb, Ghee-clarified butter, the fire, and the oblation (यज्ञ, बलि, आहुति, holocaust, immolation, नैवेद्य, हव्य, बलिदान, offering, यज्ञ, sacrifice, क़ुरबानी).
मनुष्य यह दृढ़ता से मान ले कि कार्य-कारण रूप से स्थूल-सूक्ष्म रूप से जो कुछ भी देखने, सुनने, समझने और मानने में आता है, वह सब केवल भगवान् ही है। वैदिक रीति से किया गया विधि-विधान कर्म, क्रतु कहलाता है और स्वयं परमेश्वर हैं। स्मार्त-पौराणिक रीति से किया गया कर्म यज्ञ भी वही हैं। पित्तरों के लिए अन्न अर्पण किया गया स्वधा भी वे ही हैं। जिन मन्त्रों से क्रतु, यज्ञ और स्वधा किये जाते हैं, वो मन्त्र भी स्वयं भगवान् नारायण ही हैं। जिस मन्त्र से ये तीनों कर्म सम्पन्न किये गए, वे भी भगवान् के स्वरूप हैं। इन तीनों कार्यों के हेतु शाकल्य-वनस्पतियाँ, जड़ी-बूटियाँ, तिल, जौ, छुहारा, आदि औषध भी स्वयं भगवान् नारायण हैं। अग्नि में होम किये गए घी, हवन करने की क्रिया और स्वयं अग्नि भी परमात्मा ही हैं।
One should decide-determine that the reason, benefactor, micro-macro, minutest to largest, every thing which is heard, understood, said, believed is all God (HIS form, incarnation). All the procedure, methods, systems described in Veds are the versions-forms of the God. The food grain-offerings, donations etc. made for the sake of the ancestors-Pitr are for the God & by the God. The hymns-rhyme (verse used, sung) to perform Yagy, the Yagy and the offering in the form of wood, various ingredients of the sacrificial fire are the various forms of God. The verse-Shlok itself is a form of the God, along with the prose. Various herbs, food articles, the Ghee-clarified butter, Til-oil sesame seed, too are the forms of the Almighty called Narayan.
कण-कण में भगवान्; The Almighty is present in each & every particle.
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन॥
सत् और असत् :: (Contamination-impurity, adulterated; Not existent, Unfounded, Illusory, Untruth, falsehood, Unreal, Untrue) भी वे स्वयं ही हैं।
हे अर्जुन! संसार के हित के लिए मैं ही सूर्य रूप से तपता हूँ, मैं ही जल को ग्रहण करता हूँ औ फिर उस जल को बरसा देता हूँ। और तो क्या कहूँ अमृत और मृत्यु तथा सत् और असत् भी मैं ही हूँ।[श्रीमद्भगवद्गीता 9.19]
शरीर सूर्य से ही निरोग होता है। पृथ्वी पर गंदगी-मल को सुखकर विषाणुओं-जीवाणुओं को नष्ट करने का कार्य भगवान् सूर्य करते हैं और इस प्रक्रिया में जो जल वाष्प बनकर उड़ता है उसी को वर्षा के रूपमे लौटा देते हैं। इस जल का कुछ भाग वे स्वयं ऊर्जा दायक विकिरण-पदार्थ के रूप में ग्रहण कर लेते हैं। इस प्रकार पृथ्वी पर मौजूद जहर को काफी मात्रा में वे कम कर देते हैं। इस प्रक्रिया में जल का शोधन और स्वभाविक मिठास लौट आती है। प्राणियों को लंबे समय तक जीवित रखने का कार्य अमृत करता है। भगवान् स्वयं ही अमृत का रूप ग्रहण करते हैं तथा समय पूरा होने पर धर्मराज-यमराज के रूप में मृत्यु भी बन जाते हैं।
पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च ॥
इस ब्रह्माण्ड का पिता, माता, आश्रय तथा पितामह में ही हूँ। जानने योग्य पवित्र ओंकार, ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ।
समूचे ब्रह्माण्ड के आश्रय दाता परमात्मा स्वयं हैं। वही पिता, माता, पितामह, ज्ञान के आधार, प्रणव (ॐ ओम), वेद :- ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद वे वही हैं।[श्रीमद्भगवद्गीता 9.17]
HE supports the universe, HE is the father, the mother and the grandfather; the object of knowledge, the sacred syllable OM-Pranav and the Veds, the goal, the Lord-master, the witness, the abode, the refuge-shelter, the friend, the origin, the dissolution, the foundation, the substratum (बुनियाद, foundation, underlay, basis, substructure, ground, basis, base, foundation, footing, backbone, नीचे का तल-आधार, आश्रय, shelter, resort, refuge, concealment, asylum, अध:स्तर, आधार, नींव, basis and the immutable seed).
वेदों की विधि को ठीक-ठीक जानना वेध कहलाता है। कामना पूर्ती अथवा निवृति के लिए किये गए वैदिक कर्म, शास्त्रीय क्रतु आदि अनुष्ठान, विधि विधान सांगोपांग होना अनिवार्य है। यह क्रिया वेध है और ईश्वर का स्वरूप ही है। यज्ञ, दान, तप जो निष्काम मनुष्य को पवित्र करते हैं, वह पवित्रता भगवत्स्वरूप है। क्रतु, यज्ञ आदि के अनुष्ठान के प्रारम्भ में जो ॐ का उच्चारण किया जाता है, उससे ही ऋचाएँ अभीष्ट फल देती हैं। वैदिकों के लिए प्रणव "ॐ", का उच्चारण प्रमुख है। अतः प्रणव भी भगवान् का एक रूप है। क्रतु, यज्ञ आदि विधि-विधान को बताने वाले ग्रन्थ ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद हैं। इनमें नियताक्षर वाले मन्त्रों की ऋचाएँ हैं, जिनको ऋग्वेद कहते हैं। जिसमें स्वर सहित गाने वाले मन्त्र हैं, वे सामवेद और अनियताक्षर वाले मन्त्र यजुर्वेद हैं। ये सभी वेद भगवत्स्वरूप हैं।
Vedh is a term to know-understand the Veds properly in their true form. To get the desired fruit-result of the ritualistic deeds, its essential to know-understand the proper procedure, methods, systems. The procedure-practice is Vedh and a form of the God. Yagy-sacrifices in holy fire, donations-charity thereafter and the ascetic practices, which are for the undesired results meant for the social benefit-welfare are meant to purify the doer and are the concepts-images of the God. Om "ॐ" is the root word used as a prefix before uttering-singing the verses described in the Veds, which leads to desired outcome of the verses (Shloks, Mantr, Richas-sacred verses). For the utterances-speaking singing, the Ved Mantr OM is the main initial syllable. Therefore, OM is a form of the God. Rig Ved, Sam Ved and the Yajur Ved are the holy books-scriptures describing the basis concept, texts, procedures and so they are the form of God. The Richas, Mantr, Shloks describing the text-prose, having fixed number of syllables form the Rig Ved. The Veds Sam Ved & Yajur Ved, which are sung with rhythm having syllables which are not fixed, too are the forms of God. Veds are the embodiment of the God.
गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्॥
इस सम्पूर्ण जगत का लक्ष्य, पालनकर्ता, स्वामी, साक्षी, धाम, शरणस्थली तथा अत्यन्त प्रिय मित्र-सुहृद् भी में ही हूँ। मैं सृष्टि तथा प्रलय, सबका आधार, आश्रय (निधान-भण्डार) तथा अविनाशी बीज भी हूँ।[श्रीमद्भगवद्गीता 9.18]
HE is the nurturer, master-lord, witness, shelter, close-bosom friend of the organism. HE is shelter, protector. asylum, refuge and the imperishable seed-root cause of this universe, along with infinite universes, which keep on evolving and perishing in HIM.
क्योंकि जड़-चेतन, स्थावर-जङ्गम आदि संसार, परमात्मा से ही उत्त्पन्न होते हैं और उनकी रक्षा-पालन पोषण भी वही करते हैं; अतः वे पिता हैं। समस्त विधानों (नियम, कानून) को बनाने वाले (मनु के रूप में) वो ही हैं; उसको धारण (पालन कराने वाले) करने वाले भी वो ही हैं। अतः धाता-विधाता भी वो स्वयं ही हैं। प्राणी को उसके कर्मों के अनुरूप विभिन्न योनियों में भेजने वाले और उन योनियों के अनुरूप शरीरों में पैदा करने वाले भी वे स्वयं हैं, अतः वो माता भी हैं। ब्रह्मा जी की उत्पत्ति भी उनसे हुई है, इसलिए वे ब्रह्मा जी के पिता और प्रजा के पितामह हैं। प्राणियों का गति स्वरूप, भर्ता मालिक प्रभु भी स्वयं परमात्मा ही है। सभी घटनाओं को जानने वाले होने से वे सबके साक्षी भी हैं। परमात्मा का अंश होने से समस्त सृष्टि के प्राणी नित्य-निरन्तर उसमें स्थित हैं, अतः वो निवास भी हैं और क्योंकि वे प्राणी उसकी शरण में हैं, अतः वो शरण या श्रणावत्सल-शरणावत्सल हैं। सम्पूर्ण प्राणी समुदाय और संसार, उन्हीें में विलीन होता है, इसलिए वो प्रभव और प्रलय भी हैं अर्थात निमित्त-कारण और उपादन-कारण भी हैं। महाप्रलय होने पर प्रकृति सहित सारा संसार उनमें ही निवास करता है, इसलिए वे ही संसार के स्थान हैं। संसार चाहे सर्ग-अवस्था में हो, चाहे प्रलय अवस्था में, प्रकृति, संसार, जीव तथा जो कुछ देखने-सुनने में आता है, वो सब कुछ उनसे ही होता है। अतः वे ही निधान (रखने या स्थापित करने की क्रिया या भाव, स्थापन, सुरक्षित रखना, वह पात्र या स्थान जिसमें कुछ स्थापित या स्थित हो, आधार, आश्रय, भंडार, निधि) परमात्मा में बीज की उत्पत्ति और व्यय-नष्ट होने का गुण न होने के कारण वो अव्यय बीज हैं। अतः भगवान् सनातन बीज भी हैं।
Since, everything static-inertial, immovable, movable-dynamic, living-non living, have originated from the Almighty, therefore, HE is the father. HE is the one who has settled, described, created all systems-procedure, methods, HE is the Creator. HE the one who send the souls to different-various species and make them take birth, so HE is the mother as well. The Creator Brahma too got birth from HIM, therefore HE is the grandfather too. HE is the one who has granted speed-dynamics to the living beings, nurturer and therefore, HE is the master-Lord. HE is the one who see everything-events, so HE is witness as well. Being a component of the Almighty the organism (living being, creature), HE-the Almighty is the abode of them all, since they are under HIS shelter (asylum, protection, patronage, refuge). Since, HE is the one who grant protection to all HE is called the protector. At the time of destruction, entire population-living world assimilate, dissolve, annihilate in HIM, so, HE is the destroyer. After Ultimate destruction the entire world rests in HIM, therefore HE is the abode of the universe along with their seeds-souls. Whatever is heard or said, whether its the beginning of the destruction is a form of HIM and therefore, HE is called NIDHAN.
The Almighty is for ever, since ever and therefore, is the Ultimate seed which is not destroyed and keeps all characters-qualities intact.
निधान :: रखने या स्थापित करने की क्रिया या भाव, स्थापन, सुरक्षित रखना, वह पात्र या स्थान जिसमें कुछ स्थापित या स्थित हो, आधार, आश्रय, भंडार, निधि; store house of properties, characters, qualities.
ANNIHILATE :: मिटा देना, लोप करना, भूनना, संहार करना, सर्वनाश करना; deprive, destruct, vanish, eliminate, quash, liquidate, rub out, sweep away, fry, roast, scorch, parch, broil.
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया॥
हे परन्तप अर्जुन! मेरी दिव्य विभूतियों का कोई अन्त नहीं है। मैंने अपनी विभूतियों का जो विस्तार कहा है, वह संक्षिप्त और नाम मात्र का है।[श्रीमद्भगवद्गीता 10.40] The Almighty addressed Arjun as an Ultimate ascetic and said that there was no end to his divine manifestations. HE had described them just to mention a few, in short.
परमात्मा की दिव्य विभूतियों का कोई अन्त नहीं है। दिव्य शब्द अलौकिकता-विलक्षणता का द्योतक-प्रतीक है। साधक के समक्ष दिव्यता केवल तभी प्रकट होती है, जब उसका उद्देश्य केवल भगवत्प्राप्ति होती है। भगवत तत्व राग-द्वेष रहित होकर, उन विभूतियों में केवल परमात्मा का चिंतन-स्मरण करना है। श्री भगवान् की विभूतियाँ अनन्त, असीम और अगाध हैं। उन्होंने विभूतियों का जो वर्णन किया है, वह संक्षिप्त और लौकिक दृष्टि से किया है। भगवान् ने कारण रूप से अध्याय 7 के 12 से 18 श्लोक तक 17 विभूति, कार्य कारण रूप से अध्याय 9 के श्लोक 16 से 19 तक 37 विभूति, भावरूप से अध्याय 10 के श्लोक 4 और 5 तक 20 विभूति, व्यक्तिगत रूप से अध्याय 10 के श्लोक 6 में 25 विभूति, मुख्य रूप और अधिपति रूप से अध्याय 10 के श्लोक 20 से 38 तक 81 विभूति, सार रूप से अध्याय 10 श्लोक 39 की एक और प्रभाव रूप से अध्याय 15 श्लोक 12 से 15 तक 13 विभूतियाँ वर्णित की गई हैं। इसका तात्पर्य यह है कि सिवाय भगवान् के कहीं भी कुछ भी नहीं है। अपरिवर्तनशील सत्-परा और परिवर्तनशील असत्-अपरा दोनों ही परमात्मा की विभूतियाँ हैं। भोग बुद्धि वाले मनुष्य परमात्मा के प्रति आकर्षित न होकर इच्छाओं और काम में आसक्त होते हैं, जो कि उन्हें बन्धन में बाँधने वाला है।
There is no end to the uniqueness-greatness of the Supreme qualities of the God. The term divine too, is symbolic to the God's Ultimate-Supreme characteristics. The divine character is visible to the practitioner-worshipper, when his goal is to attain the God. He prays to God without any desire, envy, attachment. His meditation, remembering, concentration, penetration in the divine characteristics, guides him further. The divine characteristics of the God are infinite, unending and too deep. The description of the Ultimate qualities-traits made by the Almighty is symbolic-in short, keeping in view the worldly humans, who have too short, memory, intelligence, limited vision & life span. The God described 17 characteristics on the basis of logic-reason in chapter 7 from verse 12 to 18 on the basis of action & reason, 37 characteristics in chapter 9 from verse 16 to 19 on the basis of feelings, 20 characteristics in chapter 10 from verse 4 to 5 on the basis of individuality, 25 characteristics in chapter 10 verse 6 mainly as the Supreme Lord, 81 characteristics in chapter 10 verse 20 to 38 as the extract-gist, one characteristic in chapter 10 verse 39 and as the effect-impact, 13 characteristics in chapter 15 verse 12 to 15. It means that there is nothing except the Almighty in this universe. Unchangeable Sat, Truth, Para and the changeable Asat-Apra too are his Ultimate-divine qualities, manifestations. One who indulges in sensuality-passions, sexuality, comforts; alienate himself from the God and moves to attachments, which are binding, putting him to the unending course-trail of birth & death.
परमात्मा की दिव्य विभूतियों का कोई अन्त नहीं है। दिव्य शब्द अलौकिकता-विलक्षणता का द्योतक-प्रतीक है। साधक के समक्ष दिव्यता केवल तभी प्रकट होती है, जब उसका उद्देश्य केवल भगवत्प्राप्ति होती है। भगवत तत्व राग-द्वेष रहित होकर, उन विभूतियों में केवल परमात्मा का चिंतन-स्मरण करना है। श्री भगवान् की विभूतियाँ अनन्त, असीम और अगाध हैं। उन्होंने विभूतियों का जो वर्णन किया है, वह संक्षिप्त और लौकिक दृष्टि से किया है। भगवान् ने कारण रूप से अध्याय 7 के 12 से 18 श्लोक तक 17 विभूति, कार्य कारण रूप से अध्याय 9 के श्लोक 16 से 19 तक 37 विभूति, भावरूप से अध्याय 10 के श्लोक 4 और 5 तक 20 विभूति, व्यक्तिगत रूप से अध्याय 10 के श्लोक 6 में 25 विभूति, मुख्य रूप और अधिपति रूप से अध्याय 10 के श्लोक 20 से 38 तक 81 विभूति, सार रूप से अध्याय 10 श्लोक 39 की एक और प्रभाव रूप से अध्याय 15 श्लोक 12 से 15 तक 13 विभूतियाँ वर्णित की गई हैं। इसका तात्पर्य यह है कि सिवाय भगवान् के कहीं भी कुछ भी नहीं है। अपरिवर्तनशील सत्-परा और परिवर्तनशील असत्-अपरा दोनों ही परमात्मा की विभूतियाँ हैं। भोग बुद्धि वाले मनुष्य परमात्मा के प्रति आकर्षित न होकर इच्छाओं और काम में आसक्त होते हैं, जो कि उन्हें बन्धन में बाँधने वाला है।
There is no end to the uniqueness-greatness of the Supreme qualities of the God. The term divine too, is symbolic to the God's Ultimate-Supreme characteristics. The divine character is visible to the practitioner-worshipper, when his goal is to attain the God. He prays to God without any desire, envy, attachment. His meditation, remembering, concentration, penetration in the divine characteristics, guides him further. The divine characteristics of the God are infinite, unending and too deep. The description of the Ultimate qualities-traits made by the Almighty is symbolic-in short, keeping in view the worldly humans, who have too short, memory, intelligence, limited vision & life span. The God described 17 characteristics on the basis of logic-reason in chapter 7 from verse 12 to 18 on the basis of action & reason, 37 characteristics in chapter 9 from verse 16 to 19 on the basis of feelings, 20 characteristics in chapter 10 from verse 4 to 5 on the basis of individuality, 25 characteristics in chapter 10 verse 6 mainly as the Supreme Lord, 81 characteristics in chapter 10 verse 20 to 38 as the extract-gist, one characteristic in chapter 10 verse 39 and as the effect-impact, 13 characteristics in chapter 15 verse 12 to 15. It means that there is nothing except the Almighty in this universe. Unchangeable Sat, Truth, Para and the changeable Asat-Apra too are his Ultimate-divine qualities, manifestations. One who indulges in sensuality-passions, sexuality, comforts; alienate himself from the God and moves to attachments, which are binding, putting him to the unending course-trail of birth & death.
कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे।
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत्॥
हे महात्मन्! गुरुओं के भी गुरु और ब्रह्मा जी के आदिकर्ता आपके लिये वे सिद्धगण नमस्कार क्यों न करें? हे अनन्त! हे देवेश! हे जगन्निवास! आप अक्षरस्वरूप हैं; आप सत् भी हैं, असत् भी हैं और उनसे भी पर जो कुछ हैं आप ही हैं।[श्रीमद्भगवद्गीता 11.37]
Arjun called Almighty the Ultimate Ascetic! He said that he was the teacher of the teachers and the source of the creator Brahma Ji. Why should not the great ascetics bow in front of you!? You are eternal-infinite! You are the lord of lords-demigods-deities! You are formless-imperishable Om-ॐ-the cosmic sound! You are the abode-seat of the entire universe! You are both Eternal & Temporal! What ever is over them it's only you!
ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते।
अनादि मत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते॥
जो ज्ञेय (पूर्वोक्त ज्ञान से जानने योग्य) है, उस (परमात्म-तत्व) को मैं अच्छी तरह कहूँगा, जिसको जानकर (मनुष्य) अमरता का अनुभव कर लेता है। वह (ज्ञेय-तत्व) अनादि वाला (और) परम ब्रह्म है। उसको न सत् कहा जा सकता है (और) न असत् (non existent, unfounded, illusory, untruth, falsehood, unreal) ही (कहा जा सकता है)।[श्रीमद्भगवद्गीता 13.21]
Bhagwan Shri Krashn asserted that he would fully describe the Parmatm-Ttv (the gist of the Ultimate knowledge, ought to be known) object of knowledge, by knowing which one experiences immortality. The immortal-imperishable is Par Brahm-Supreme Being, who can not be called either existent-eternal or nonexistent-temporal.
भगवान् श्री कृष्ण ने कहा कि वे उस ज्ञेय-जानने योग्य परमात्म-तत्व को स्पष्ट करेंगे जिसकी प्राप्ति के लिये मानव शरीर प्राप्त हुआ है। परमात्म-तत्व को जानने के बाद मनुष्य अमरता का अनुभव करता है। उस आदि अन्त रहित परमात्मा से ही संसार उत्पन्न होता है और उसी में विलीन हो जाता है। वह आदि, मध्य और अन्त में यथावत रहता है। उस परमात्मा को ही परम ब्रह्म कहा गया है। उसके सिवाय अन्य कोई दूसरा व्यापक (comprehensive, pervasive), निर्विकार (immutable, invariable, unchanged, without defect), सदा रहने वाला तत्व नहीं है। उसे न सत् और न ही असत् कहा जा सकता है, क्योंकि वह बुद्धि का विषय नहीं है। वह ज्ञेय तत्व मन, वाणी और बुद्धि से सर्वथा अतीत है। उसका शब्दों में वर्णन कर पाना सम्भव नहीं है।
Bhagwan Shri Krashn told Arjun that he would make clear the concept of the gist of the Ultimate knowledge to him, for achieving which human incarnation is obtained. Having recognised the Parmatm Ttv (the gist, nectar, elixir of the Almighty) the practitioner-devotee experiences immortality. The universe takes birth in that endless-perennial (चिरस्थायी)-forever Almighty and vanishes in Him. He remains as such in the beginning, middle and at the end. That God is called-termed as Par Brahm. Nothing other than Him is comprehensive, defect less and for ever. He is neither existent-eternal nor nonexistent-temporal, since He is beyond the limits of brain-intellect. He-the one who ought to be known, is beyond imagination, thought, intelligence and speech. Its not possible to describe Him in words.
परमात्मा सत् भी है और असत् भी है, वह सत् और असत् से परे भी है तथा वह न सत् भी है और न असत् ही है।
परमात्मा सत् भी है और असत् भी है, वह सत् और असत् से परे भी है तथा वह न सत् भी है और न असत् ही है।
OMKAR ॐ कार ::
जिस समय परमेष्ठी ब्रह्मा जी पूर्व सृष्टि का ज्ञान सम्पादन करने के लिये एकाग्रचित्त हुए, उस समय उनके हृदयाकाश से कण्ठ-तालु आदि स्थानों से, संघर्ष से रहित एक अत्यन्त विलक्षण अनाहत नाद प्रकट हुआ। जब जीव अपनी मनोवृत्तियों को रोक लेता है, तब उसे भी इस अनाहत नाद का अनुभव होता है। बड़े-बड़े योगी उसी अनाहत नाद की उपासना करते हैं और उसके प्रभाव से अन्तःकरण के द्रव्य-अधिभूत क्रिया-अध्यात्म और कारक-अधिदैव रूप मल को नष्ट करके वह परमगति रूप मोक्ष प्राप्त करते हैं, जिसमें जन्म-मृत्यु संसार चक्र नहीं है। उसी अनाहत नाद से "अ " कार, "उ" कार और "म" कार रूप तीन मात्राओं से युक्त "ॐ कार" प्रकट हुआ। इस ॐ कार की शक्ति से ही प्रकृति अव्यक्त से व्यक्त रूप में परिणित हो जाती है। ॐ कार स्वयं व्यक्त एवं अनादि है और परमात्म स्वरूप होने से स्वयं प्रकाश भी है। जिस परम वस्तु को भगवान् ब्रह्म अथवा परमात्मा के नाम से कहा जाता है, उसके स्वरूप का बोध भी ॐ कार के द्वारा ही होता है।
जब श्रवणेन्द्रियों की शक्ति लुप्त हो जाती है, तब भी इस ॐ कार को समस्त अर्थों को प्रकाशित करनेवाले स्फोट तत्व को जो सुनता है और सुषुप्ति एवं समाधि-अवस्थाओं में सबके आभाव को जानता है, वही परमात्मा का विशुद्ध स्वरूप है। वही ॐ कार परमात्मा से हृदयाकाश में प्रकट होकर वेदरूपा वाणी को अभिव्यक्त करता है। ॐ कार अपने आश्रय परमात्मा परब्रह्म का साक्षात् वाचक है। ॐ कार ही सम्पूर्ण मंत्र, उपनिषद और वेदों का सनातन बीज है।
अ, उ और म ॐ कार के तीन वर्ण हैं। ये तीनों ही सत्त्व, रज, तम-इन तीन गुणों; ऋक्, यजुः, साम-इन तीन नाम; भूः, भुवः, स्वः-इन अर्थों और जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति-इन तीन वृत्तियों के रूप में तीन-तीन की संख्या वाले भावों को धारण करते हैं।
ॐ कार से ही ब्रह्मा जी ने अन्तःस्थ (य, र, ल, व), ऊष्म (श, ष, स, ह), स्वर (अ से औ तक), स्पर्श (क से म तक) तथा ह्रस्व और दीर्घ आदि लक्षणों से युक्त अक्षर-समान्माय अर्थात वर्णमाला की रचना की।
इसी वर्णमाला द्वारा उन्होंने अपने चार मुखों से होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा-इन कगार ऋत्विजों के कर्म बतलाने के लिये ॐ कार और व्याहृतियों के सहित चार वेद प्रकट किये और अपने पुत्र मरीचि आदि को वेदाध्ययन में कुशल देखकर वेदों की शिक्षा दी। [श्रीमद्भागवत 12.6.3-45]
अ, उ और म ॐ कार के तीन वर्ण हैं। ये तीनों ही सत्त्व, रज, तम-इन तीन गुणों; ऋक्, यजुः, साम-इन तीन नाम; भूः, भुवः, स्वः-इन अर्थों और जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति-इन तीन वृत्तियों के रूप में तीन-तीन की संख्या वाले भावों को धारण करते हैं।
ॐ कार से ही ब्रह्मा जी ने अन्तःस्थ (य, र, ल, व), ऊष्म (श, ष, स, ह), स्वर (अ से औ तक), स्पर्श (क से म तक) तथा ह्रस्व और दीर्घ आदि लक्षणों से युक्त अक्षर-समान्माय अर्थात वर्णमाला की रचना की।
इसी वर्णमाला द्वारा उन्होंने अपने चार मुखों से होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा-इन कगार ऋत्विजों के कर्म बतलाने के लिये ॐ कार और व्याहृतियों के सहित चार वेद प्रकट किये और अपने पुत्र मरीचि आदि को वेदाध्ययन में कुशल देखकर वेदों की शिक्षा दी। [श्रीमद्भागवत 12.6.3-45]
Om-Aum ओ३म् ॐ :: Om-Aum stirs the whole body, which results in soothing nerves and regulation of proper blood flow-pressure in the arteries and the veins. ओ३म् बोलने से शरीर के अलग अलग भागों मे कंपन होते हैं जैसे कि अ :- शरीर के निचले हिस्से (-पेट के करीब) कंपन उत्पन्न करता है। Aa creates vibrations in lower abdomen. उ :- शरीर के मध्य भाग (-छाती के करीब) कंपन उत्पन्न करता है। Uu; OO-oo generates waves in the middle segment of the body around the chest and Mmम :- शरीर के ऊपरी हिस्से (मस्तिक में) कंपन उत्पन्न करता है। It reverberate the brain, creating rhythm. One observes that the word Om-Aum produce vibrations in the body. Aaअ, Uuउ, Mmम Combination of these syllable brings one close to the Almighty automatically.
Om-Aum has extra ordinary healing powers and curative effects. It relieves one from pain-tensions-sorrow-difficulties, if he concentrate in God and pronounce it repeatedly with ease. It allows one to meditate-concentrate in the God-Almighty to resolve all problems-difficulties.
There are some words which are very close to om ॐ ओम. In English one finds (1). Omen: Good or Bad-evil (-portent, sign, signal, token, forewarning, warning, fore shadowing, prediction, forecast, prophecy, harbinger, augury) (2). Omni: All; of all things, omniscient-in all ways or places. omnipresent, omnipotent. In Gurumukhi Omkar, in Urdu Ameen.
There are some words which are very close to om ॐ ओम. In English one finds (1). Omen: Good or Bad-evil (-portent, sign, signal, token, forewarning, warning, fore shadowing, prediction, forecast, prophecy, harbinger, augury) (2). Omni: All; of all things, omniscient-in all ways or places. omnipresent, omnipotent. In Gurumukhi Omkar, in Urdu Ameen.
Om is the sound produced by the newly born child. The frequency of the earth rotating around its axis is same as the one produced by OM.
ॐ Om-Aum is a sacred sound and spiritual icon, connected as Dharmic-religious symbol, though it is universal governing the entire universe-cosmos. It is also a Mantr-the sound-hymn. Om is a spiritual symbol-Pratima (प्रतिमा-मूर्ति-statue) referring to Atma (-soul, self within) and the Brahm (ultimate reality, entirety of the universe, truth, divine, supreme spirit, cosmic principles, knowledge).
This is used a prefix and suffix as well, adding meaning to the verse-rhyme-Mantr-Shlok, in the Veds, the Upanishads and scriptures-epics. It is a sacred spiritual incantation made before and during the recitation of spiritual texts, during puja and private prayers, in ceremonies of rites of passages (sanskar-virtues-good qualities) such as weddings and sometimes during meditative and spiritual activities such as Yog.
Om is part of the iconography found in ancient and medieval era temples, monasteries and spiritual retreats.
The syllable is also referred to as Omkar (-ओंकार), Aumkar (-औंकार), Pranav (-प्रणव), Akshar-alphabet, Ekakshar-single alphabet .
It is the cosmic-mystical-divine sound, which was produced with the beginning of evolution. It symbolizes the abstract and spiritual in the Upanishads. It is core-theme-central idea-axis of the Vedic texts such as the Rig Ved.
ॐ अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्; होतारं रत्नधातमम्।
[Rig Ved 1.1.1]
Om is divine acknowledgement, melodic confirmation, something that gives momentum and energy to a hymn. [Aitarey Aranyak 23.6]
The three phonetic components of Om (pronounced AUM) correspond to the three stages of cosmic creation and when it is read or said, it celebrates the creative powers of the universe. It is equated Om with Bhur-Bhuvah-Swah, the latter symbolising the whole Ved.[Aitarey Brahmn 5.32]
It represents-describes the universe beyond the Sun, which is mysterious and inexhaustible, infinite language, the infinite knowledge, essence of breath, life, everything that exists or that with which one is Liberated.
Sam Ved-the poetical Ved, orthographically maps Om to the audible, the musical truths in its numerous variations (Om, Aum, Ova, Um, etc.) and then attempts to extract musical meters from it.
Om as a tool for meditation. It helps one in meditation, ranging from artificial and senseless to highest concepts such as the cause of the Universe, essence of life, Brahm, Atma and Self-realization.
The syllable is also referred to as Pranav. Chhandogy Upnishad and the Shraut Sutr describes it as Akshar-alphabet, imperishable, immutable or Ekakshar-single alphabet and Onkar-beginning, female divine energy.
ॐ भूर्भुवस्व:, तत्सवितुर्वरेण्यम्; भर्गो देवस्य धीमहि; धियो यो न: प्रचोदयात्।
Gaytri Mantr describes the origin of the three abodes in Om. It is the desirable splendor of Savitr-Aura of the Sun, the Inspirer which stimulate one to insightful thoughts.[Rig Ved 3.62.10]One should meditate-concentrate, on Om. Om is Udgeeth (उद्गीथ, song, chant) and asserts that it's significance is: The essence of all beings is earth, the essence of earth is water, the essence of water are the plants, the essence of plants is man, the essence of man is speech, the essence of speech is the Rig Ved, the essence of the Rig Ved is the Sam Ved and the essence of Sam Ved is the Udgeeth (song, Om).[Chhandogy Upnishad]
Rik (ऋच्, Rach) is speech and Sam (साम) is breath. They co-exist in pairs. They have love and desire for each other, so speech and breath find themselves together and mate to produce song. Thus the highest song is Om. It is the symbol of awe, of reverence, of threefold knowledge because Adhvaryu invokes it, the Hotr recites it and Udgatr sings it.[Chhandogy Upnishad 1.1]
Om was used to gain victory-energy by the Devs-demigods to overcome the Asurs-demons. The struggle between demigods and demons is allegorical (symbolic, metaphorical, figurative, representative, emblematic, imagistic, mystical, parabolic, symbolizing) since good and evil inclinations within man, coexists. The legend in section states that Demigods took the Udgeeth (-song of Om) unto themselves, thinking, with this song they would overcome the demons. So, the syllable Om is implied to inspires the good inclinations-intentions within each person.[Chhandogy Upnishad 1.2]
It combines etymological speculations, symbolism, metric structure and philosophical themes.The meaning and significance of Om evolves into a philosophical discourse. Om is linked to the Highest Self.[Chhandogy Upnishad 2.10]
Om is the essence of three forms of knowledge. Om is Brahm and Om is all this observed world.[Chhandogy Upnishad 2.23]
Nachiketa, son of sage Vajasravas, discussed the nature of man, knowledge, Atma (Soul, Self) and Moksh (Liberation, Salvation, assimilation in the Almighty-God), with Yam-Dharm Raj. It characterizes Knowledge-Wisdom, as the pursuit of good and Ignorance-Delusion-Illusion, as the pursuit of pleasant, that the essence of Ved is to make the man liberated and free, look past what has happened and what has not happened, free from the past and the future, beyond good and evil and one word for this essence is Om. [Katha Upanishad 1.2]
This is the word which is proclaimed by the Veds. It is expressed in every holy-pious deeds i.e., Yagy, Hawan, Agnihotr, rituals, prayers, Katha Shrawan (listening, hearing), Tap-penance-austerity-meditation, offerings. One practices chastity-Brahmchary, while understanding-acquiring the essence of it. It is identified with Brahm-the Supreme. [Katha Upnishad, 1.2.15-1.2.16]
Om represents Brahm-Atma-The Ultimate. The sound constitutes the body of Soul. It manifests in three forms:
Om represents Brahm-Atma-The Ultimate. The sound constitutes the body of Soul. It manifests in three forms:
As gender endowed body :- Feminine, masculine, neuter.
As light endowed body :- Agni, Vayu and Adity.
As deity endowed body :- Brahma, Rudr and Vishnu.
As mouth endowed body:- Grahpaty (गृहपत्य), Dakshinagni (दक्षिणाग्नि) and Avahniy (आवाहनीय).
As knowledge endowed body :- Rig, Sam and Yajur Ved.
As world endowed body :- Bhur, Bhuvaḥ and Swaḥ.
As time endowed body :- Past, Present and Future.
As heat endowed body :- Breath, Fire and Sun.
As growth endowed body :- Food, Water and Moon.
As thought endowed body :- Intellect, mind and psyche.
Brahm exists in two forms :- The material form and the immaterial-formless. The material form is changing, unreal. The immaterial-formless, has no specific shape or size, isn't changing, real. The immortal formless is truth, the truth is the Brahm, the Brahm is the light, the light is the Sun, which is the syllable Om as the Self. [Maetri Upnishad]
The world in itself, its light and the Sun are the manifestation of Om and the light of the syllable Om, asserts the Upnishad. Meditating on Om, is acknowledging and meditating on the Brahm-Atma (Soul, Self).[Mundak Upnishad]
The means to knowing the Self and the Brahm to be meditation, self-reflection and introspection, are aided by the symbol Om.[Mundak Upnishad Part-2]
That which is flaming, which is subtler than the subtle, on which the three worlds are set along with their inhabitants. That is the indestructible Brahm. It is life, it is speech, it is mind. It is the real. It is immortal. It is a mark to be penetrated. One has to penetrate it.[Mundak Upnishad, 2.2.2]
One has to take the great weapon of the Upnishad as a bow, put upon it the arrow, sharpened by meditation, stretching it with a thought directed to the essence of that, penetrate that Imperishable as the mark.[Mundak Upnishad, 2.2.3]
Om is the bow, soul is the arrow, Brahm the mark and it has to be penetrated by the man. One should come to be in it, as the arrow becomes one with the mark. [Mundak Upnishad, 2.2.4]
Adi Shankrachary, in his review of the Mundak Upnishad, states that Om is a symbolic for Atma-soul-self.
The whole world is contained in this syllable Om! It constitutes of a fourfold derived from A + U + M + silence, without an element.[Mundak Upnishad]
Aum constitutes the three dimensions of time ::
Time is threefold :- The past, the present and the future, that these three are Aum. The fourth of time is that which transcends time and that too is Aum.[Mundak Upnishad 1]
Aum as all states of Atma.
Everything is Brahm, but Brahm is Atma (the Soul, Self) and that the Atma is fourfold. These four states of Self, respectively are seeking the physical, seeking inner thought, seeking the causes and spiritual consciousness and the fourth state is realizing oneness with the Self, the Eternal.[Mundak Upnishad 2]
Aum constituents all the states of consciousness::
It enumerates the four states of consciousness: Wakeful, dream, deep sleep and the state of Ekatm (एकात्म, being one with Self, the oneness of Self). These four are A + U + M + without an element respectively.[Mundak Upnishad 3-6]
Aum as all of knowledge :-
It enumerates four fold etymological roots of the syllable Aum. The first element of Aum is A, which is from Apti (आप्ति, obtaining, reaching) or from Aditv (आदित्व, original, being first). The second element is U, which is from Utkarsh (उत्कर्ष, exaltation) or from Ubhayatv (उभयत्व, intermediates). The third element is M, from Miti (मिति, erecting,constructing) or from Mi Minati (मिनाति) or Apiti (आपिति, annihilation). The fourth is without an element, without development, beyond the expanse of universe. Om is in deed the Atma (-soul, the self).[Mundak Upnishad 9-12]
Meditation by concentrating over the syllable Om, where one's perishable body is like one fuel-stick and the syllable Om is the second fuel-stick, which with discipline and diligent rubbing of the sticks unleashes the concealed fire of thought and awareness within. Such knowledge, asserts the Upnishad and is the goal of the Upanishads. The text asserts that Om is a tool of meditation empowering one to know the God within oneself, to realize one's Atma (Soul, Self).[Shwetashwtar Upnishad 1.14-16]
Om is the symbol for the indescribable, impersonal Brahm.
Bhagwan Shri Krashn to Arjun :: I am the Father of this Universe, Mother, Ordainer, Grandfather, the Thing to be known, the Purifier, the syllable Om, Rik, Saman and also Yajus.[Shri Mad Bhagwad Geeta 9.17]
Bhagwan Shri Krashn to Arjun :: I am the Father of this Universe, Mother, Ordainer, Grandfather, the Thing to be known, the Purifier, the syllable Om, Rik, Saman and also Yajus.[Shri Mad Bhagwad Geeta 9.17]
The importance of Om during prayers, charity and meditative practices ::
Uttering Om, the acts of Yagy (sacrificial fire ritual), Dan (charity, donation) and Tapas (austerity) as enjoined in the scriptures, are always begun by those who study the Brahm.[Bhagwad Geeta 17.24]
तस्य वाचकः प्रणवः ॥1.27॥
HIS word is Om. This aphoristic verse highlights the importance of Om in the meditative practice of Yog, where it symbolizes three worlds in the Soul. The three divisions of time: Past, Present and the Future. Eternity, the three divine powers: Creation, Preservation and Transformation in one being. Three essences in one Spirit: Immortality, Omniscience and Joy. It is, a symbol for the perfected Spiritual Man (his emphasis).[Patanjali's Yog Sutr 1.27]
Om is the representation of the Trimurti and represents the union of the three Gods, viz. A for Brahma, U for Vishnu and M for Mahesh-Shiv. The three sounds also symbolize the three Veds, namely (Rig Ved, Sam Ved, Yajur Ved).[Vayu Puran]
Shiv is Om-Pranav and that Om is Shiv.[Shiv Puran]
It is the primordial sound associated with the creation of universe from nothing. [Maheshwaranand]
Om is Ekam Akshram (एकम् अक्षरम्, one syllable). Udgeeth, a word found in Sam Ved and Bhashy (commentaries) based on it, is synonymous therein, with the syllable Om.
मनुष्य को सदा उस परमेश्वर का, जिसके चरण-कमल निरन्तर भजने योग्य हैं, के गुणों का आश्रय लेने वाली भक्ति के द्वारा, सब प्रकार से: मन, वाणीं और शरीर से; भजन करना चाहिये। उनको समर्पित भक्ति योग तुरंत ही संसार से वैराग्य और ब्रह्म साक्षात्कार रूप ज्ञान की प्राप्ति करा देता है। सभी विषय भगवद् रूप होने के कारण समान हैं। अतः जब इन्द्रियों की वृत्तियों के द्वारा भी भगवद्भक्त का चित्त उनमें प्रिय-अप्रिय रूप विषमता का अनुभव नहीं करता-सर्वत्र भगवान् का ही दर्शन करता है-उसी समय वह सङ्ग रहित, सबमें समान रूप से स्थित, त्याग और ग्रहण करने योग्य, दोष और गुणों से रहित, अपनी महिमा में आरूढ़ अपने आत्मा का ब्रह्म रूप से साक्षात्कार करता है। वही ज्ञान स्वरूप है, वही परब्रह्म है, वही परमात्मा है, वही ईश्वर है, वही पुरुष है; वही एक भगवान् स्वयं जीव, शरीर, विषय, इन्द्रियों आदि अनेक रूपों में प्रतीत होता है।
सम्पूर्ण संसार में आसक्ति का अभाव हो जाना-बस यही योगियों के सब योग साधन का एक मात्र अभीष्ट फल है। ब्रह्म एक है, ज्ञान स्वरूप और निर्गुण है, तो भी वह बाह्य वृतियों वाली इन्द्रियों के द्वारा भ्रान्ति वश शब्दादि, धर्मों वाले विभिन्न-पदार्थों के रूप में भास रहा है। जिस प्रकार एक ही परब्रह्म महत्त्व, वैकारिक, राजस और तामस-तीन प्रकार का अहंकार, पञ्च महाभूत एवं ग्यारह इन्द्रिय रूप बन गया और फिर वही स्वयं प्रकाश इनके संयोग से जीव कहलाया, उसी प्रकार उस जीव का शरीर रूप यह ब्रह्माण्ड भी वस्तुतः ब्रह्म ही है, क्योंकि ब्रह्म से ही इसकी उत्पत्ति हुई है। किन्तु इसे ब्रह्म रूप में वही देख सकता है, जो श्रद्धा, भक्ति और वैराग्य तथा निरन्तर योगाभ्यास के द्वारा एकाग्र चित्त और असंगबुद्धि हो गया है।
इस ज्ञान के माध्यम से प्रकृति और पुरुष के यथार्थ स्वरूप का बोध हो जाता है। निर्गुण ब्रह्म विषयक ज्ञान योग और परमेश्वर के प्रति भक्ति योग का फल एक ही है। उसे ही भगवान कहते हैं।
जिस प्रकार रूप, रस एवं गंध आदि अनेक गुणों का आश्रय भूत एक ही पदार्थ भिन्न-भिन्न इन्द्रियों द्वारा विभिन्न रूप से अनुभूत होता है, वैसे ही शास्त्र के विभिन्न मार्गों द्वारा एक ही भगवान् की अनेक प्रकार से अनुभूति होती है। नाना प्रकार के कर्म कलाप यज्ञ, दान, तप, वेदाध्ययन-मीमांसा, मन और इन्द्रियों के संयम, कर्मों के त्याग, विविध अङ्गों वाले योग, भक्ति योग, निवृति और प्रकृति रूप सकाम और निष्काम दोनों प्रकार के धर्म, आत्मतत्व के ज्ञान और दृढ़ वैराग्य-इन सभी साधनों से सगुण-निर्गुणरूप स्वयं प्रकाश भगवान् को ही प्राप्त किया जाता है।
जो सात्विक, राजसिक, तामस और निर्गुण भेद से चार प्रकार के भक्ति योग का और जो प्राणियों के जन्मादि विकारों का हेतु है तथा जिसकी गति जानी नहीं जाती, उस काल के स्वरूप को परमात्मा ने उपरोक्त पदों में स्वयं स्पष्ट किया है।
अविद्या जनित कर्म के कारण जीव की अनेकों गतियाँ होती हैं; उनमें जाने पर वह अपने स्वरूप को नहीं पहचान सकता।
उपरोक्त ज्ञान दुष्ट, दुर्विनीत, घमण्डी, दुराचारी और धर्मध्वजी-दम्भी पुरुषों को नहीं सुनाना-समझाना-पढ़ाना चाहिए। विषय लोलुप, गृहासक्त, अभक्त, श्रद्धाहीन, परमात्मा के भक्तों से द्वेष रखने वाला भी इस उपदेश से दूर रखना चाहिये।
जो श्रद्धालु भक्त, विनयी, दूसरों के प्रति दोषदृष्टि न रखने वाला, सब प्राणियों से मित्रता रखने वाला, गुरु सेवा में तत्पर, बाह्य विषयों अनासक्त, शांत चित्त, मत्सर शून्य और पवित्र चित्त हो तथा परमात्मा को अपना प्रियतम मानने वाला हो, उसे इसका उपदेश अवश्य किया जाये। परमात्मा में मन-ध्यान-चित्त लगाकर श्रद्धापूर्वक जो भी व्यक्ति, इसका एक बार भी श्रवण या कथन करेगा, वह परमात्मा के परम पद को प्राप्त होगा।[श्रीमद्भागवत 3.32.22-42]
तत्ववेत्ता ज्ञाता और ज्ञेय के भेद से रहित अखण्ड अद्वितीय सच्चिदानन्द स्वरूप ज्ञान को ही तत्व कहते हैं। उसी को कोई ब्रह्म, कोई परमात्मा और कोई भगवान् के नाम से पुकारते हैं।[श्रीमद्भागवत 2.1 .11]
ब्रह्म रहस्य-प्रज्ञानं :: कृष्ण यजुर्वेदीय उपनिषद (शुकरहस्योपनिषद) में भगवान् वेद व्यास जी के आग्रह पर भगवान् शिव उनके पुत्र शुकदेव को चार महावाक्यों का उपदेश "ब्रह्म रहस्य" के रूप में दिया :-(1). ॐ प्रज्ञानं ब्रह्म :: प्रकट ज्ञान ब्रह्म है। वह ज्ञान-स्वरूप ब्रह्म जानने योग्य है और ज्ञान गम्यता से परे भी है। वह विशुद्ध-रूप, बुद्धि-रूप, मुक्त-रूप और अविनाशी रूप है। वही सत्य, ज्ञान और सच्चिदानन्द-स्वरूप ध्यान करने योग्य है। उस महातेजस्वी देव का ध्यान करके ही हम ‘मोक्ष’ को प्राप्त कर सकते हैं।
वह परमात्मा सभी प्राणियों में जीव-रूप में विद्यमान है। वह सर्वत्र अखण्ड विग्रह-रूप है। वह हमारे चित और अहंकार पर सदैव नियन्त्रण करने वाला है। जिसके द्वारा प्राणी देखता, सुनता, सूंघता, बोलता और स्वाद-अस्वाद का अनुभव करता है, वह प्रज्ञान है। वह सभी में समाया हुआ है; वही ‘ब्रह्म’ है।
(2). ॐ अहं ब्रह्माऽस्मि :: मैं ब्रह्म हूं।’ यहाँ ‘अस्मि’ शब्द से ब्रह्म और जीव की एकता का बोध होता है। जब जीव परमात्मा का अनुभव कर लेता है, तब वह उसी का रूप हो जाता है। दोनों के मध्य का द्वैत भाव नष्ट हो जाता है। उसी समय वह ‘अहं ब्रह्मास्मि’ कह उठता है।
(3). ॐ तत्त्वमसि :: वह ब्रह्म तुम्हीं हो। सृष्टि के जन्म से पूर्व, द्वैत के अस्तित्त्व से रहित, नाम और रूप से रहित, एक मात्र सत्य-स्वरूप, अद्वितीय ‘ब्रह्म’ ही था। वही ब्रह्म आज भी विद्यमान है। उसी ब्रह्म को ‘तत्त्वमसि’ कहा गया है।
वह शरीर और इन्द्रियों में रहते हुए भी, उनसे परे है। आत्मा में उसका अंश मात्र है। उसी से उसका अनुभव होता है, किन्तु वह अंश परमात्मा नहीं है। वह उससे दूर है। वह सम्पूर्ण जगत में प्रतिभासित होते हुए भी उससे दूर है।
(4). ॐ अयमात्मा ब्रह्म :: यह आत्मा ब्रह्म है। उस स्वप्रकाशित परोक्ष (प्रत्यक्ष शरीर से परे) तत्त्व को ‘अयं’ पद के द्वारा प्रतिपादित किया गया है। अहंकार से लेकर शरीर तक को जीवित रखने वाली अप्रत्यक्ष शक्ति ही ‘आत्मा’ है। वह आत्मा ही परब्रह्म के रूप में समस्त प्राणियों में विद्यमान है। सम्पूर्ण चर-अचर जगत में तत्त्व-रूप में वह संव्याप्त है। वही ब्रह्म है। वही आत्मतत्त्व के रूप में स्वयं प्रकाशित ‘आत्मतत्त्व’ है।
अन्त में भगवान् शिव शुकदेव से कहते हैं :-"हे शुकदेव! इस सच्चिदानन्द-स्वरूप ‘ब्रह्म’ को, जो तप और ध्यान द्वारा प्राप्त करता है, वह जीवन-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाता है।" भगवान शिव के उपदेश को सुनकर मुनि शुकदेव सम्पूर्ण जगत के स्वरूप परमेश्वर में तन्मय होकर विरक्त हो गये। उन्होंने भगवान् को प्रणाम किया और सम्पूर्ण प्ररिग्रह का त्याग करके तपोवन की ओर चले गये।
THE ULTIMATE ब्रह्म ज्ञान :: सच्चिदानन्द स्वरूप श्री कृष्णसनातन हैं। वे सारे जगत के कारणरूप प्रधान और पुरुष के भी नियामक परमेश्वर हैं। इस जगत के आधार, निर्माता और निर्माण सामग्री तथा स्वामी वे ही हैं। उनकी क्रीड़ा के हेतु ही जगत का निर्माण हुआ है। यह जिस समय, जिस रूप में जो कुछ रहता है-होता है, वह ये परमेश्वर ही हैं। इस जगत में प्रकृति-रूप से भोग्य और पुरुष रूप से भोक्ता तथा दोनों से परे दोनों के नियामक साक्षात भगवान् भी ये ही हैं। इन्द्रियातीत! जन्म, अस्तित्व आदि भाव विकारों से रहित परमात्मा ने ही इस चित्र-विचित्र जगत का निर्माण किया है। और इसमें इन्होने ही आत्मा रूप से प्रवेश भी किया है। वे ही प्राण-क्रिया शक्ति और जीव-ज्ञान शक्ति के रूप में इसका पालन पोषण कर रहे हैं। क्रिया शक्ति प्रधान प्राण आदि में जो जगत की वस्तुओं की सृष्टि करने की सामर्थ्य है वह उन वस्तुओं की नहीं; अपितु इनकी की सामर्थ्य ही है। क्योकि वे परमात्मा के समान चेतन नहीं अपितु अचेतन हैं; स्वतंत्र नहीं परतंत्र हैं। उन चेष्टाशील प्राण आदि में केवल चेष्टा मात्र होती है, शक्ति नहीं। शक्ति तो प्रभु की ही है। चन्द्रमा की कांति, अग्नि का तेज, सूर्य की प्रभा, नक्षत्र और विद्युत आदि की स्फुरण रूप से सत्ता, पर्वतों की स्थिरता, पृथ्वी की साधारण शक्ति रूप वृत्ति और गंध रूप गुण-ये सब प्रभु ही हैं। जल में तृप्त करने, जीवन देने और शुद्ध करने की जो शक्तियाँ हैं, वे परमात्मा के स्वरूप ही हैं। जल और उसका रस भी वही हैं। इन्द्रिय शक्ति, अन्तःकरण की शक्ति, शरीर की शक्ति, उसका हिलना-डुलना, चलना-फिरना-ये सब वायु की शक्तियां उन्हीं की हैं। दिशाएं और उनके आकाश भी वही हैं। आकाश और उसका आश्रय भूत स्फोट-शब्द तन्मात्रा या परा वाणी, नाद-पश्यन्ति, ओंकार-मध्यमा तथा वर्ण (अक्षर) एवं पदार्थों का अलग-अलग निर्देश करने वाले पद, रूप, वैखरी वाणी भी वे ही हैं। इन्द्रियां और उनकी विषय प्रकाशिनी शक्ति और अधिष्ठातृ-देवता वे ही हैं। बुद्धि की निश्चयात्मिका शक्ति और जीव की विशुद्ध स्मृति भी वे ही हैं। भूतों में उनका कारण तामस अहँकार, इन्द्रियों में उनका कारण तैजस अहँकार और इन्द्रियों के अधिष्ठातृ-देवताओं में उनका कारण सात्विक अहँकार तथा जीवों के आवागमन का कारण माया भी वे ही हैं। जैसे मिट्टी आदि वस्तुओं के विकार घड़ा, वृक्ष आदि में मिट्टी निरन्तर वर्तमान है और वास्तव में वे कारण-मृतिका रूप ही हैं-उसी प्रकार जितने भी विनाशवान पदार्थ हैं, उनमे कारण रूप से अविनाशी तत्व परमात्मा ही हैं। वास्तव में वे उनके ही रूप हैं। सत्व, रज और तम-ये तीनों गुण और उनकी वृत्तियाँ-परिमाण-महत्तत्त्वादि परब्रह्म परमात्मा में वे ही माया द्वारा कल्पित हैं। जितने भी जन्म, अस्ति, वृद्धि, परिणाम आदि भाव-विकार हैं, वे प्रभु से सर्वथा अलग नहीं हैं। जब इनमें प्रभु की कल्पना कर ली जाती है तब वे ही इन विकारों के अनुगत जान पड़ते हैं। कल्पना की निवृति हो जाने पर निर्विकल्प परमार्थ स्वरूप वे ही रह जाते हैं। यह जगत सत्व, रज और तम-इन तीनो गुणों का प्रवाह हैं; देह, इन्द्रियां, अन्तःकरण, सुख, दुःख और राग-लोभादि उन्हीं के कार्य हैं। इनमें जो अज्ञानी परमात्मा का सर्वात्मा सूक्ष्म स्वरूप नहीं जानते, वे अपने देहाभिमानरूप ज्ञान के कारण ही कर्मों के फंदे में फंसकर बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्कर में भटकते हैं। मनुष्य को प्रारब्ध के अनुसार इन्द्रियादि के सामर्थ्य से युक्त अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य-शरीर प्राप्त हुआ है। किन्तु माया वश वह असावधान हो जाता है और स्वार्थ-परमार्थ से ही असावधान होकर सारी उम्र बिता देता है। मनुष्य को शरीर के सम्बन्धी, अहंता एवं ममता रूप स्नेह के फंदे से प्रभु ने ही बांध रखा है। वे अजन्मा हैं, फिर भी अपने बनाई हुई मर्यादा की रक्षा करने के लिए वे अवतार ग्रहण करते हैं। वे अनन्त और एकरस सत्ता हैं।[श्रीमद्भागवत 85.3.20]
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥18-46॥
जिस परमेश्वर से संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत् व्याप्त है, उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके, मनुष्य परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है। जिस परमात्मा से संसार पैदा हुआ है और संचालित है, जो सबका उत्पादक आधार और प्रकाशक है जो सबमें परपूर्ण है अर्थात जो अनन्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति से पहले भी था, उनके रहते हुए भी जो रहता है और जो उनके लीन होने के बाद भी रहेगा, तथा जो अनन्त ब्रह्माण्डों में व्याप्त है, उसी परमात्मा का अपने-अपने स्वभावज-वर्णोचित स्वभाविक कर्मों के द्वारा पूजन करना चाहिए।
लौकिक और पारलौकिक कर्मो के द्वारा परमात्मा का पूजन तो करना चाहिए, परन्तु उनके करणों-उपकरणों में ममता नहीं रखनी चाहिए। क्योंकि उनमें ममता होते ही वे वस्तुएँ अपवित्र हो जाती हैं। सिद्धि को प्राप्त करने का अर्थ है कि मनुष्य अपने कर्मों से परमात्मा की पूजा करने से प्रकृति से असंबद्ध होकर स्वतः अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। उसका प्रभु में स्वतः अनन्य प्रेम जाग्रत हो जाता है। अब उसको पाने-हासिल करने के लिए कुछ भी शेष नहीं है। किसी भी जाति, सम्प्रदाय (हिन्दु, बौद्ध, ईसाई, पारसी, यहूदी, मुसलमान), वर्ग से व्यक्ति क्यों न हो वह परमात्मा के पूजन का अधिकारी है। भगवान् श्री कृष्ण और अर्जुन के इस संवाद-श्री मद् भागवत गीता का जो अध्ययन करेगा उसके द्वारा परमात्मा ज्ञान से पूजित होंगे। कर्मयोगी और ज्ञान योगी अन्त में एक हो जाते हैं क्योंकि दोनों में जड़ता का त्याग किया गया है। इसी प्रकार भक्ति मार्ग भी जड़ता को मिटाता है।
Accomplishment is attained by an individual by worshiping the Almighty, from whom all the universes, organisms have evolved and by whom all the universes are pervaded, through his natural-instinctive-prescribed-Varnashram related deeds.
One should pray to the Almighty from whom the entire Universe has evolved, who operates the world, who is the creator, producer, founder and illuminator, administrator-organiser-who alone is complete amongest all–who was present before creation of infinite universes and who will remain after assimilation of infinite universes in him and who is pervaded in infinite universes, is worshipped automatically if the individual performs his natural-prescribed-Varnashram duties. Performance of the prescribed-Varnashram duties assigned to the individual, itself is worship of the God.
Both Karm Yog and Gyan Yog merge into one single stream by eliminating immovability-inertness through service and worship enabling detachment, resulting in immersion in Supreme Power.
साधन पंचकम् ::
वेदो नित्यमधीयताम्, तदुदितं कर्म स्वनुष्ठीयतां,
तेनेशस्य विधीयतामपचितिकाम्ये मतिस्त्यज्यताम्।
पापौघः परिधूयतां भवसुखे दोषोsनुसंधीयतां,
आत्मेच्छा व्यवसीयतां निज गृहात्तूर्णं विनिर्गम्यताम्॥1॥
वेदों का नियमित अध्ययन करें, उनमें कहे गए कर्मों का पालन करें, उस परम प्रभु के नियमों का पालन करें, व्यर्थ के कर्मों में बुद्धि को न लगायें। समग्र पापों को जला दें, इस संसार के सुखों में छिपे हुए दुखों को देखें, आत्म-ज्ञान के लिए प्रयत्नशील रहें, अपने घर की आसक्ति को शीघ्र त्याग दें।
संगः सत्सु विधीयतां भगवतो भक्ति: दृढाऽऽधीयतां,
शान्त्यादिः परिचीयतां दृढतरं कर्माशु संत्यज्यताम्।
सद्विद्वानुपसृप्यतां प्रतिदिनं तत्पादुका सेव्यतां,
ब्रह्मैकाक्षरमर्थ्यतां श्रुतिशिरोवाक्यं समाकर्ण्यताम्॥2॥
सज्जनों का साथ करें, प्रभु में भक्ति को दृढ़ करें, शांति आदि गुणों का सेवन करें, कठोर कर्मों का परित्याग करें, सत्य को जानने वाले विद्वानों की शरण लें, प्रतिदिन उनकी चरण पादुकाओं की पूजा करें, ब्रह्म के एक अक्षर वाले नाम ॐ के अर्थ पर विचार करें, उपनिषदों के महावाक्यों को सुनें।
वाक्यार्थश्च विचार्यतां श्रुतिशिरःपक्षः समाश्रीयतां,
दुस्तर्कात् सुविरम्यतां श्रुतिमतस्तर्कोऽनुसंधीयताम्।
ब्रम्हास्मीति विभाव्यतामहरहर्गर्वः परित्यज्यताम्,
देहेऽहंमति रुझ्यतां बुधजनैर्वादः परित्यज्यताम्॥3॥
वाक्यों के अर्थ पर विचार करें, श्रुति के प्रधान पक्ष का अनुसरण करें, कुतर्कों से दूर रहें, श्रुति पक्ष के तर्कों का विश्लेषण करें, मैं ब्रह्म हूँ ऐसा विचार करते हुए "मैं रुपी अभिमान" का त्याग करें, "मैं शरीर हूँ", इस भाव का त्याग करें, बुद्धिमानों से वाद-विवाद न करें।
क्षुद्व्याधिश्च चिकित्स्यतां प्रतिदिनं भिक्षौषधं भुज्यतां,
स्वाद्वन्नं न तु याच्यतां विधिवशात् प्राप्तेन संतुष्यताम्।
शीतोष्णादि विषह्यतां न तु वृथा वाक्यं समुच्चार्यतां, औदासीन्यमभीप्स्यतां जनकृपानैष्ठुर्यमुत्सृज्यताम्॥4॥
भूख को रोग समझते हुए प्रतिदिन भिक्षा रूपी औषधि का सेवन करें, स्वाद के लिए अन्न की याचना न करें, भाग्यवश जो भी प्राप्त हो उसमें ही संतुष्ट रहें। सर्दी-गर्मी आदि विषमताओं को सहन करें, व्यर्थ वाक्य न बोलें, निरपेक्षता की इच्छा करें, लोगों की कृपा और निष्ठुरता से दूर रहें।
एकान्ते सुखमास्यतां परतरे चेतः समाधीयतां,
पूर्णात्मा सुसमीक्ष्यतां जगदिदं तद्वाधितं दृश्यताम्।
प्राक्कर्म प्रविलाप्यतां चितिबलान्नाप्युत्तरैः श्लिश्यतां,
प्रारब्धं त्विह भुज्यतामथ परब्रह्मात्मना स्थीयताम्॥5॥
एकांत के सुख का सेवन करें, परब्रह्म में चित्त को लगायें, परब्रह्म की खोज करें, इस विश्व को उससे व्याप्त देखें, पूर्व कर्मों का नाश करें, मानसिक बल से भविष्य में आने वाले कर्मों का आलिंगन करें, प्रारब्ध का यहाँ ही भोग करके परब्रह्म में स्थित हो जाएँ।
ब्रह्म ज्ञान :: सच्चिदानन्द स्वरूप श्री कृष्ण सनातन हैं। वे सारे जगत के कारण रूप प्रधान और पुरुष के भी नियामक परमेश्वर हैं। इस जगत के आधार, निर्माता और निर्माण सामग्री तथा स्वामी वे ही हैं। उनकी क्रीड़ा के हेतु ही जगत का निर्माण हुआ है। यह जिस समय, जिस रूप में जो कुछ रहता है अथवा होता है, वह ये परमेश्वर ही हैं। इस जगत में प्रकृति-रूप से भोग्य और पुरुष रूप से भोक्ता तथा दोनों से परे दोनों के नियामक साक्षात भगवान् भी ये ही हैं। इन्द्रियातीत! जन्म, अस्तित्व आदि भाव विकारों से रहित परमात्मा ने ही इस चित्र-विचित्र जगत का निर्माण किया है। और इसमें इन्होने ही आत्मा रूप से प्रवेश भी किया है। वे ही प्राण-क्रिया शक्ति और जीव-ज्ञान शक्ति के रूप में इसका पालन पोषण कर रहे हैं। क्रिया शक्ति प्रधान प्राण आदि में जो जगत की वस्तुओं की सृष्टि करने की सामर्थ्य है वह उन वस्तुओं की नहीं; अपितु इनकी की सामर्थ्य ही है। क्योकि वे परमात्मा के समान चेतन नहीं अपितु अचेतन हैं; स्वतंत्र नहीं परतंत्र हैं। उन चेष्टाशील प्राण आदि में केवल चेष्टा मात्र होती है, शक्ति नहीं। शक्ति तो प्रभु की ही है। चन्द्रमा की कांति, अग्नि का तेज, सूर्य की प्रभा, नक्षत्र और विद्युत आदि की स्फुरण रूप से सत्ता, पर्वतों की स्थिरता, पृथ्वी की साधारण शक्ति रूप वृत्ति और गंध रूप गुण-ये सब प्रभु ही हैं। जल में तृप्त करने, जीवन देने और शुद्ध करने की जो शक्तियाँ हैं, वे परमात्मा के स्वरूप ही हैं। जल और उसका रस भी वही हैं। इन्द्रिय शक्ति, अन्तःकरण की शक्ति, शरीर की शक्ति, उसका हिलना-डुलना, चलना-फिरना-ये सब वायु की शक्तियां उन्हीं की हैं। दिशाएं और उनके आकाश भी वही हैं। आकाश और उसका आश्रय भूत स्फोट-शब्द तन्मात्रा या परा वाणी, नाद-पश्यन्ति, ओंकार-मध्यमा तथा वर्ण (अक्षर) एवं पदार्थों का अलग-अलग निर्देश करने वाले पद, रूप, वैखरी वाणी भी वे ही हैं। इन्द्रियां और उनकी विषय प्रकाशिनी शक्ति और अधिष्ठातृ-देवता वे ही हैं। बुद्धि की निश्चयात्मिका शक्ति और जीव की विशुद्ध स्मृति भी वे ही हैं। भूतों में उनका कारण तामस अहँकार, इन्द्रियों में उनका कारण तैजस अहँकार और इन्द्रियों के अधिष्ठातृ-देवताओं में उनका कारण सात्विक अहँकार तथा जीवों के आवागमन का कारण माया भी वे ही हैं। जैसे मिट्टी आदि वस्तुओं के विकार घड़ा, वृक्ष आदि में मिट्टी निरन्तर वर्तमान है और वास्तव में वे कारण-मृतिका रूप ही हैं, उसी प्रकार जितने भी विनाशवान पदार्थ हैं, उनमे कारण रूप से अविनाशी तत्व परमात्मा ही हैं। वास्तव में वे उनके ही रूप हैं। सत्व, रज और तम-ये तीनों गुण और उनकी वृत्तियाँ-परिमाण-महत्तत्त्वादि परब्रह्म परमात्मा में वे ही माया द्वारा कल्पित हैं। जितने भी जन्म, अस्ति, वृद्धि, परिणाम आदि भाव-विकार हैं, वे प्रभु से सर्वथा अलग नहीं हैं। जब इनमें प्रभु की कल्पना कर ली जाती है तब वे ही इन विकारों के अनुगत जान पड़ते हैं। कल्पना की निवृति हो जाने पर निर्विकल्प परमार्थ स्वरूप वे ही रह जाते हैं। यह जगत सत्व, रज और तम-इन तीनों गुणों का प्रवाह हैं; देह, इन्द्रियां, अन्तःकरण, सुख, दुःख और राग-लोभादि उन्हीं के कार्य हैं। इनमें जो अज्ञानी परमात्मा का सर्वात्मा सूक्ष्म स्वरूप नहीं जानते, वे अपने देहाभिमान, रूप, ज्ञान के कारण ही कर्मों के फंदे में फँसकर बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्कर में भटकते हैं। मनुष्य को प्रारब्ध के अनुसार इन्द्रियादि के सामर्थ्य से युक्त अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य-शरीर प्राप्त हुआ है। किन्तु माया वश वह असावधान हो जाता है और स्वार्थ-परमार्थ से ही असावधान होकर सारी उम्र बिता देता है। मनुष्य को शरीर के सम्बन्धी, अहंता एवं ममता रूप स्नेह के फंदे से प्रभु ने ही बांध रखा है। वे अजन्मा हैं, फिर भी अपने बनाई हुई मर्यादा की रक्षा करने के लिए वे अवतार ग्रहण करते हैं। वे अनन्त और एकरस सत्ता हैं।[श्रीमद्भागवत 85.3.20]
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः॥श्रीमद्भागवत गीता 18.46॥
जिस परमेश्वर से संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत् व्याप्त है, उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके, मनुष्य परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है।
जिस परमात्मा से संसार पैदा हुआ है और संचालित है, जो सबका उत्पादक आधार और प्रकाशक है जो सबमें परपूर्ण है अर्थात जो अनन्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति से पहले भी था, उनके रहते हुए भी जो रहता है और जो उनके लीन होने के बाद भी रहेगा, तथा जो अनन्त ब्रह्माण्डों में व्याप्त है, उसी परमात्मा का अपने-अपने स्वभावज-वर्णोचित स्वभाविक कर्मों के द्वारा पूजन करना चाहिए।
लौकिक और पारलौकिक कर्मो के द्वारा परमात्मा का पूजन तो करना चाहिए, परन्तु उनके करणों-उपकरणों में ममता नहीं रखनी चाहिए। क्योंकि उनमें ममता होते ही वे वस्तुएँ अपवित्र हो जाती हैं। सिद्धि को प्राप्त करने का अर्थ है कि मनुष्य अपने कर्मों से परमात्मा की पूजा करने से प्रकृति से असंबद्ध होकर स्वतः अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। उसका प्रभु में स्वतः अनन्य प्रेम जाग्रत हो जाता है। अब उसको पाने-हासिल करने के लिए कुछ भी शेष नहीं है। किसी भी जाति, सम्प्रदाय (हिन्दु, बौद्ध, ईसाई, पारसी, यहूदी, मुसलमान), वर्ग से व्यक्ति क्यों न हो वह परमात्मा के पूजन का अधिकारी है। भगवान् श्री कृष्ण और अर्जुन के इस संवाद-श्री मद् भागवत गीता का जो अध्ययन करेगा उसके द्वारा परमात्मा ज्ञान से पूजित होंगे। कर्मयोगी और ज्ञान योगी अन्त में एक हो जाते हैं क्योंकि दोनों में जड़ता का त्याग किया गया है। इसी प्रकार भक्ति मार्ग भी जड़ता को मिटाता है।
Accomplishment is attained by an individual by worshiping the Almighty, from whom all the universes, organisms have evolved and by whom all the universes are pervaded, through his natural, instinctive, prescribed, Varnashram related deeds.
One should pray to the Almighty from whom the entire Universe has evolved, who operates the world, who is the creator, producer, founder and illuminator, administrator, organiser who alone is complete amongest all; who was present before creation of infinite universes and who will remain after assimilation of infinite universes in HIM and WHO is pervaded in infinite universes, is worshipped automatically if the individual performs HIS natural-prescribed-Varnashram duties. Performance of the prescribed-Varnashram duties assigned to the individual, itself is worship of the God.
Both Karm Yog and Gyan Yog merge into one single stream by eliminating immovability-inertness through service and worship enabling detachment, resulting in immersion in Supreme Power.
अविनाशी भगवान विष्णु सतो गुण, रजो गुण और तमो गुण से युक्त, निर्गुण व सगुण, सर्वगामी और सर्वव्यापी हैं। वे श्वेत द्वीप-क्षीर सागर में अनन्त नाग शय्या पर आसीन, चक्र-गदा, धारण करने वाले हैं।
अविनाशी भगवान विष्णु सर्वगत-अव्यक्त-सर्वव्यापी जगन्नाथ चतुर्मूर्ति कहे जाते हैं। (1). वासुदेव नामक श्रेष्ठ पद (तर्क या अनुमान द्वारा अज्ञेय) एवं निर्देश किया जाने में अशक्य, (2). शुक्ल (शुद्ध), (3). शांति युक्त, (4). अव्यक्त (अप्रकट) एवं द्वादश पत्रक (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) द्वादश मन्त्र वाला कहा गया है।
द्वादश पत्रक
प्रथम पत्रक: ॐ उनकी शिखा में स्थित है और मेष राशि और वैशाख मास का प्रतीक है,
द्वितीय पत्रक: न अक्षर उनके मुख में विद्यमान है और वहीं पर वृष राशि और ज्येष्ठ मास को दर्शाता है,
तृतीय पत्रक: मो उनकी दोनों भुजाओं में स्थित और मिथुन राशि तथा आषाढ़ मास का द्योतक है,
चतुर्थ पत्रक: भ अक्षर उनके नेत्रों में स्थिततथा कर्क राशि व श्रावण मास को दिखता है,
पञ्चम पत्रक: ग अक्षर उनके ह्रदय में स्थित सिंह राशि और भाद्रपद मास का प्रतीक है,
षष्ठ पत्रक: व अक्षर उनके कवच के रूप में कन्या राशि और आश्विन मास को दिखता है,
सप्तम पत्रक: ते उनके अस्त्र समूह के रूप में तुला राशि और कर्तिक मास को प्रकट करता है,
अष्टम पत्रक: वा उनके नाभि रूप में है और वृश्चिक राशि और मार्ग शीर्ष मास का प्रतीक है,
नवम पत्रक: सु जघन रूप में स्थित और धनु राशि और पौष मास को प्रकट करता है,
दशम पत्रक: दे अक्षर उनके उरु युगल रूप में मकर राशि और माघ मास का द्योतक है,
एकादश पत्रक: वा अक्षर उनके घुटने में विराजमान और कुम्भ राशि के साथ फाल्गुन मास के प्रतीक है,
द्वादश पत्रक: य अक्षर उनके चरण द्व्यरूप में विद्यमान मं राशि और चैत्र मास को दर्शाता है।
परमेश्वर की प्रथम मूर्ति: उनका चक्र 12 अरों 12 नाभियों और 3 व्यूहों से युक्त है।
द्वितीय रूप: सत्वमय, श्रीवत्स धारी, अविनाशी स्वरूप, चतुर्वर्ण, चतुर्वाहु, और उदार अंगों से युक्त है।
तृतीय मूर्ति: हजारों पैरों एवं मुखों से सम्पन्न श्री संयुक्त तमोगुण मयी शेष मूर्ति प्रजाओं का प्रलय करती है।
चतुर्थ रूप: राजस रूप रक्तवर्ण, चार मुख, एवं दो भुजाओं एवं माला धारण किये है। यही श्रष्टि करने वाल आदि रूप है।
THE ALMIGHTY :: He is NIRAKAR-has no specific shape, size or alignment. He is invisible, like air or energy. He is AVAYAKT-undefined-without illustration, unrevealed It's only he, who is immortal-beyond life and death. He had infinite incarnations -AVTARS (-incarnations), in the past and will have infinite incarnations in the future as well.
परमात्मा निराकार है। उसका कोई विशिष्ट आकार नहीं है। वह अद्रश्य है। वह अव्यक्त है। जन्म मृत्यु से परे है, उसके अनंत अवतार हो चुके हैं और आगे भी होंगे। He is SAKAR-Vyakt (defined), has various-infinite shapes and sizes. He is capable of acquiring any shape, size, figure, form. He is beyond the limits of time, place, cast, creed, belief or religion.
वह साकार है। अवतार ग्रहण करते समय वह आकार ग्रहण करता है। वह सभी-कोई भी आकार धारण करने में समर्थ है।
He is both material and immaterial, finite and infinite. He has unending powers, capacities, and capabilities. He is SUPREME-He is Param Pita-Per Brahm Permashwer.
वह भौतिक व अभौतिक, सीमा सहित व सीमा रहित-अनंत है। उसकी शक्तियां असीम हैं। वह परम पिता परम ब्रह्म परमेश्वर है। He is neither male nor female or impotent (-kinner, third sex) either.
वह स्त्री, पुरुष या किन्नर नहीं है।
He is present in each and every particle, living and nonliving. All life forms have evolved out of him and will merge in him, ultimately.
वह हम सब में विराजमान है। जीवन के सभी रूप उसी से उत्पन्न हुए हैं व उसी में विलीन हो जायेंगे।
A Hindu can worship Him in any way, as per his liking. He is free to choose a deity and worship accordingly. He may visit temple, holy places as per his will.He is free to pray in front of an idol, in a temple or in solitude.He may offer gifts, flowers, money. God welcomes him even if he offers prayers empty handed. He can recite prayers while travelling, sitting, bathing, resting or in any posture. Members of a family may be worshiping different deities at the same occasion. There is no restriction on the method of performing prayers. How ever rites, rituals, Hawan, Yagy, verses needs high degree of essence, purity, notes and specific procedures. Rhythm, pronunciation, clarity in recitation is-essential, stressed. Bathing in the morning before prayers is advised. Wearing of clean clothes is advised during the prayers. Morning prayers are performed facing east and evening prayers are performed facing north. However, again, there is no restriction on direction,time, mode.
This is a religion which provides unlimited freedom. Any one can adopt it, without conversion.
This is the source of all faiths and practice, including Mallechs & Yavans-Romans.
ब्रह्म संहिता में ब्रह्मा जी स्पष्ट करते हैं कि गौ लोक वासी श्री कृष्ण स्वयं भगवान हैं न तो कोई उनके तुल्य है और न बढ़कर है। वे आदि पुरुष गोविन्द समस्त कारणों के कारण हैं।
ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानंद विग्रहः।
अनादिरादि गोविन्दः सर्वकारण कारणम्॥
भागवत के अनुसार उसके अनेकानेक अवतार-विस्तार हैं।
एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयंम्।
इन्द्रारी व्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे॥
कृष्ण आदि पुरुष, परम सत्य, परमात्मा तथा निर्विशेष ब्रह्म के उद्गम हैं।
उन सनातन आदि देव को देवता आदि कोई भी वास्तविक रूप में नहीं जानते यद्यपि वे समस्त देवों-ब्रह्मादि को श्रुति-वेद एवं समस्त विश्व को जानते हैं।
चितिः स्वतन्त्रा विश्वसिद्धिहेतुः :: Chitt, which is absolute consciousness (and latent with power to do), by its own free will (free, independent), is the cause of manifestation, preservation and again re absorption or withdrawal of the Universe into itself also called dissolution.
स्वेच्छया स्वभित्तौ विश्वमुन्मीलयति :- The nature Maa Bhagwati by Her own power, unfolds the Universe on her own screen.
God is both the efficient, as well as material cause of the Universe, that is to say, HE creates out of his own will, on his own self, there is no extraneous material and even the analogy of the potter and the pot of clay, fails here, since the potter emanates or projects out of himself, not out of clay.
Bhagwan Shiv is constantly creating HIS own world, in which we find ourselves in a cosmic dance.
आध्यात्मिक ज्ञान और परमात्मा: पूर्ण परमात्मा, पूर्ण ब्रह्म, निरंजन, काल और भगवान महाविष्णु भी कहते हैं।
अव्यक्त अर्थात् एक ओंकार परमात्मा की पूजा का ज्ञान पवित्र शास्त्रों (पुराणों, उपनिषदों, वेद, गीता) के अध्ययन और गुरु कृपा से होता है।शास्त्रों में ज्योति स्वरूपी अर्थात् काल ब्रह्म की पूजा विधि का वर्णन मिलता है। वह फोर्मलैस गौड अर्थात निराकार प्रभु है। प्रभु-बेचून-निराकार-अल्लाह एक ही है जो कि पूजा के योग्य है।
God is both the efficient, as well as material cause of the Universe, that is to say, HE creates out of his own will, on his own self, there is no extraneous material and even the analogy of the potter and the pot of clay, fails here, since the potter emanates or projects out of himself, not out of clay.
Bhagwan Shiv is constantly creating HIS own world, in which we find ourselves in a cosmic dance.
आध्यात्मिक ज्ञान और परमात्मा: पूर्ण परमात्मा, पूर्ण ब्रह्म, निरंजन, काल और भगवान महाविष्णु भी कहते हैं।
अव्यक्त अर्थात् एक ओंकार परमात्मा की पूजा का ज्ञान पवित्र शास्त्रों (पुराणों, उपनिषदों, वेद, गीता) के अध्ययन और गुरु कृपा से होता है।शास्त्रों में ज्योति स्वरूपी अर्थात् काल ब्रह्म की पूजा विधि का वर्णन मिलता है। वह फोर्मलैस गौड अर्थात निराकार प्रभु है। प्रभु-बेचून-निराकार-अल्लाह एक ही है जो कि पूजा के योग्य है।
अग्नेः तनूर् असि, विष्णवे त्वा सोमस्य तनुर् असि।
कविरंघारिः असि, बम्भारिः असि स्वज्र्योति ऋतधामा असि॥
परमेश्वर पाप-बन्धनों का शत्रु है। वह सर्व पालन कर्ता, अमर, अविनाशी है। वह स्वप्रकाशित प्रभु सत धाम अर्थात् सतलोक में रहता है।[यजुर्वेद 1.15, 5.1 व 5.32] आत्मा के 12 लक्षण :- आत्मा नित्य, अविनाशी, शुद्ध, एक,क्षेत्रज्ञ, आश्रय, निर्विकार, स्वयं प्रकाश, सबका कारण, व्यापक, असङ्ग तथा आवरणरहित रहित है। [श्रीमद्भागवत 7-7-19]
मनुष्य के भूत, इन्द्रिय और अन्तःकरण से उनका साक्षी आत्मा अलग है। जीव कहलाने वाले उस आत्मा से भी ब्रह्म भिन्न है और प्रकृति से उसके संचालक पुरुषोत्तम भिन्न हैं। [श्रीमद्भागवत 3-28-41]
मनुष्य के भूत, इन्द्रिय और अन्तःकरण से उनका साक्षी आत्मा अलग है। जीव कहलाने वाले उस आत्मा से भी ब्रह्म भिन्न है और प्रकृति से उसके संचालक पुरुषोत्तम भिन्न हैं। [श्रीमद्भागवत 3-28-41]
देव मनुष्यादि शरीरों में रहनेवाल एक ही आत्मा अपने आश्रयों के गुण-भेद के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार का भासता-प्रतीत होता है।[श्रीमद्भागवत 3-28-43]
मनुष्य योनिज्ञान-विज्ञान का मूल स्त्रोत है। जो इसे पाकर भी अपने आत्मरूप परमात्मा को नहीं जान लेता, उसे कहीं भी, किसी भी योनि में शांति नहीं मिल सकती॥[श्रीमद्भागवत 6-16-58]
आत्मा का स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म है, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति-इन तीनों अवस्थाओं तथा इनके अभिमानों से विलक्षण है॥[श्रीमद्भागवत 6-16-61]
आत्मा तो एक ही है परन्तु वह अपने ही गुणों की सृष्टि कर लेता है। और गुणों के द्वारा बनाये गए पञ्च भूतों में एक होने पर भी अनेक, स्वयं प्रकाश होने पर भी दृश्य, अपना स्वरूप होने पर भी अपने से भिन्न, नित्य होने पर भी अनित्य और निर्गुण होने पर भी सगुण के रूप में प्रतीत होता है। [श्रीमद्भागवत 10-85-24]
आत्मा परमात्मा का ही अंग है। आत्मा पूर्वजन्म की स्मृति और संस्कारों से संयुक्त रहती है जब तक कि पुण्य-पाप शेष हैं। मन आत्मा का अभिन्न अंग है। मन में जब तक इच्छाएँ शेष हैं आत्मा जीव रूप में जन्म लेती रहेगी। माता के गर्भ में आते ही उसे पूर्वजन्मों की स्मृति हो जाती है और प्राणी अत्यन्त कष्ट के साथ उनको स्मरण करता रहता है। जन्म के तुरन्त पश्चात् अधिकांश प्राणियों की स्मृति विलुप्त हो जाती है। नारद, जड़ भरत जैसे महापुरुष पूर्व जन्म की स्मृति से संयुक्त होकर प्रकट हुए।
आत्मा परमात्मा का ही अंग है। आत्मा पूर्वजन्म की स्मृति और संस्कारों से संयुक्त रहती है जब तक कि पुण्य-पाप शेष हैं। मन आत्मा का अभिन्न अंग है। मन में जब तक इच्छाएँ शेष हैं आत्मा जीव रूप में जन्म लेती रहेगी। माता के गर्भ में आते ही उसे पूर्वजन्मों की स्मृति हो जाती है और प्राणी अत्यन्त कष्ट के साथ उनको स्मरण करता रहता है। जन्म के तुरन्त पश्चात् अधिकांश प्राणियों की स्मृति विलुप्त हो जाती है। नारद, जड़ भरत जैसे महापुरुष पूर्व जन्म की स्मृति से संयुक्त होकर प्रकट हुए।
HUMAN मानव-मनुष्य योनि :- Humans are the best creations of the Almighty far-far better than the demigods-deities-demons-giants since its only when the soul gets the incarnation as a human being, it can perform-do some activity to get rid of the sins or perform virtuous jobs. One becomes a human being only after traversing through 84,00,000 species. Its the only species-race, which willingly perform Tapsya-asceticism-welfare of others-chastity. However some exceptions are always there. Purity-piousness leads to higher abodes and vices-wretchedness-evils throw the sinner in hells. On completion of the reward of virtuous activities one will return back to earth to take birth in some good -respectable family. On release from the hell the sinner will acquire the lower species of insects, gradually moving from one to another higher forms of living beings like fish-reptiles-birds-animals etc. Thereafter, he goes to the families of the Mallechh-Muslims, Yawan-Christians, Shudr, Vaishy, Kshatriy and the Brahmn, ultimately. However he may keep wriggling from one race to another, one species to another, depending upon the outcome of deeds. One is elevated from a lower caste-Varn to higher directly without going to the middle ranks depending upon his meritorious virtuous activities. He slides to lower forms as and when he perform evils. Its like the game of snake and ladder. The last abodes from where the soul is not expected to return is Gau Lok-the abode of Bhagwan Shri Krashn-the Almighty Par Brahm Parmeshwar. It happens only after Salvation.
At least 26 subatomic particles are known to us, there may be even more, to be identified sooner or later. We may soon, come across such elements which have never been heard of, on our earth. The periodic table which is based on physical and chemical properties, might soon be switched redrafted on the basis of nuclear properties, sooner or later. Electron and Positron are two such sub-atomic particles, which combine to produce Gamma-rays pure energy form. Neutrons break down to produce one proton and one electron. Photons, the light particles and electrons, identified as fastest moving particles, have dual nature: particle and wave. It has been reported that particles-rays have been found which have speeds much higher than photons-light.
न वस्तुनो वस्तुसिद्धिः ॥1.43॥ [कपिल मुनि -साँख्य शास्त्र]
Nothing can be created from space-zero state, unless until the basic components are already present-available. Law of conservation of matter states that “matter can neither be created nor be destroyed, as a result of any physical or chemical change, but it can be transformed from one state to another”. The law is incomplete without considering nuclear reactions, which change the basic configuration of atom or the molecule. Einstein Principle states that “Energy can be converted to mass and mass can be converted to energy".
Energy leads to the formation of protons-Hydrogen, particles. Hydrogen fuses to produce Helium isotopes. The chain once began leads to the formation of oxygen, Carbon, Nitrogen, Sulphur, Uranium of course intermediaries like Lead. In nascent state (newly born), both hydrogen and oxygen are extremely reactive.They produce water most essential for living organisms. The process of formation of new atoms and molecules does not stop here. More and more complex molecules are formed, the process is never ending. Meteors, Asteroids, Planets, Sun, Solar-System, Galaxies, Super Galaxies, Constellations, tail star were all formed in this manner.The make and break process is still on and is likely to continue infinitely. Gau Lok and Vaikunth Lok are the only exceptions, since they will last longer than the others.
Vast oceans are reservoirs of water, on earth, moon, Venus, Mars or the Saturn. Mountain cliffs-caps, laden with ice, rivers, lakes, ponds, streams, wells, underground currents of water, tap water: are all different sources of water.
Each and every molecule of water irrespective of its source has absolutely same properties. Solid-ice, Liquid-water, Gaseous: steam or vapours, Ionic or Plasmic do represent one and the same thing i.e. water. It’s capable of taking the shape and size of the container. The soul present in different creatures is absolutely the same as the God himself.
Water keeps evaporating from reservoirs, gets mixed with air in the form of moisture and takes the shape of clouds, forms monsoon, which moves over to the land and converts into rain. At places, it takes the shape of hails-hail storms or start falling as snow. On the top of the mountain, the snow hardens and it takes the shape of mountain cliff. During summers, the ice melts and takes the shape of streams, rivers, lakes etc. Monsoon showers, on the land, houses, water bodies, produce different channels or pools of water. Water from these sources is either evaporated or consumed in different manners. This water is contaminated in various ways. Water is recycled and put to use again and again. Often the treated water is used for agriculture purposes and harvesting. Water is distilled to 100% purity, for chemical-nuclear purposes. It exhibits various physical states in addition to Heavy water which is used in nuclear reactors, for nuclear research and energy purposes.
Similarly, The soul keep revolving from one species to another, one abode to another, from one universe to another, from one deity to another, unless until it becomes free from all sins or virtues, to merge into the Almighty for ever.
In its purest form-molecular state, water constitutes of two atoms of Hydrogen and one atom of Oxygen. Hydrogen has three isotopes i.e., Hydrogen, Deuterium, Tritium. Similarly, Oxygen does exhibit isotopes. In molecular state, Hydrogen has two atoms and Oxygen too has two in normal state and three as Ozone. In addition to this, both Hydrogen and Oxygen have nascent states in which, they are very reactive and can’t exist freely in nature. Plasma states of Hydrogen and Oxygen are one of the biggest reservoirs of energy. Release of tremendous amount of energy by Hydrogen, through nuclear fusion is well known. Source of energy on the Sun is also a case of nuclear fusion. Two atoms of hydrogen combine to form Hydrogen molecule and two atoms of oxygen combine to form, Oxygen molecule. Two molecules of hydrogen and one molecule of oxygen combine to form a water molecule.
Each and every molecule has the properties of its parent substance-the molecule. An atom has all the properties of the parent element. We are the molecules, God is the parent substance-compound, if we are atoms and God is the parent element.
Hydrogen is the basic element, which through various permutations and combinations, produces larger-heavier elements. Larger molecules of the same element, having four or more atoms, are found in nature, like Tetra-Nano Carbon. The process of hydrogen formation and release of energy are cyclic and reversible in nature.
Photon, a component of light from the Sun, which breaks water into hydrogen, which further breaks down into plasmic state. The energy released, travels back to the Sun, with the help of some particle, providing a never ending source of power. Piousity, virtues, welfare of living beings, charity, donations, high moral character, good deeds offered to the God, strengthen the Demigods to take care of the humans.
A soul is the single-smallest unit of life form, which can exist in either material-divine bodies or even freely without a body. Two or more souls having same orientation can fuse together into one. The living being may be both: Material as well as Divine.
It may constitute of a soul or a quantum of souls. Soul is like the driver of the body of the creature-the organism. Body is dead without it, a lump of clay, mound, dust particle. All souls have their origin in Brahma Ji and they merge into him at the time of destruction.
The way a molecule of water moves from the oceans to air and reaches back, after passing through various cycles of nature. The soul having born out of the God meets him again and again, after attaining Salvation ultimately, to depart again since nothing is permanent, constant, stationary i.e., for ever. Still, there are the souls, which never depart after assimilation in The Almighty.
No one is Ajar or Amar (Indestructibility, permanent, for ever), how so ever, high or mighty he be, he has to go, one day or the other. A dust particle becomes earth after falling over it. A drop of water, becomes ocean after falling in it. The soul becomes Permatma-the Almighty, after assimilation in it.
ONLY THOSE SOULS WHICH MERGE WITH THE ALMIGHTY NEVER TAKES BIRTH AGAIN.
भगवान् विष्णु ने भगवती माँ लक्ष्मी से कहा :: मैं योगनिद्रा में तत्व का अनुसरण करने वाली अंतर्दृष्टि से अपने ही माहेश्वर तेज का साक्षात्कार करता हूँ। यह वही तेज है, जिसका योगी पुरुष कुशाग्र बुद्धि द्वारा अपने अन्तःकरण में दर्शन करते हैं। जिससे मीमांसक विद्वान वेदों का सार तत्व निश्चित करते हैं। वह माहेश्वर तेज एक अजर, प्रकाश स्वरूप, आत्मरूप, रोग-शोक रहित, अखण्ड, आनन्द का पुंज, निष्पन्द (निरीह) तथा द्वैत रहित है। इस जगत का जीवन उसी के अधीन है। मैं उसी का अनुभव करता हूँ और तुम्हें नींद लेता हुआ प्रतीत हो रहा हूँ।
आत्मा का स्वरूप द्वैत औए अद्वैत से पृथक, भाव और मुक्त तथा आदि और अन्त से रहित है। शुद्ध ज्ञान के प्रकाश से उपलब्ध होने वाला तथा परमानन्द स्वरुप होने के कारण एक मात्र सुन्दर है। यही मेरा ईश्वरीय रूप है। गीता उसका बोध-उनके स्वरूप, जो स्वयं परमानन्दमय और मन और वाणी से बाहर है, कराती है। [पद्म पुराण]
ALMIGHTY-THE DIVINE WISDOM OF THE UPANISHADS :: The Almighty is one. All life forms are his incarnations, manifestations, fragments. HE is swifter than thoughts and the senses. Though motionless, yet HE outruns all pursuit. Without HIM nothing can exist or happen.
The Supreme Soul constituting of the Creator, Nurturer and the Destroyer seems to move, but is HE ever still. HE seems far away, but is ever near. HE is within all and HE transcends all.
One who identifies him selves with all creatures-living beings in him self and him self in all creatures, does not encounter fear, faces no grief. Multiplicity of life forms can not delude one, who has attained equanimity.
HE is everywhere. HE is indivisible, untouched by sin, wise, immanent and transcendent. HE is the one, who created the cosmos and keeps-hold it together.
Senses are separate-detached from HIM-the unsimmered-untainted. The sense experience are fleeting and the wise never grieve-repent for them.
Above the senses is the mind, above the mind is the intellect and the prudence, above that is the ego and above the ego is the unmanifested cause. And beyond this is Brahmn, omnipresent, attribute less. Realising HIM, one is released from the cycle of birth and death.
HE is formless and can never be seen with these-human two eyes. But, HE reveals HIMSELF in the heart made pure through meditation and sense-restraint. Realising HIM, one is released from the cycle of birth and death.
When the five senses are stilled, when the mind is stilled, when the intellect is stilled, that is called the highest state by the wise. They say Yog is this complete stillness in which one unitise-immerse him self with the Supreme, never to separate again. One who does not establish him self in this state, the sense of unity will come and go.
As long as there is separateness, differentiation, distinction, one sees another entity as separate from oneself, hears another as separate from oneself, smells another as separate from oneself, speaks to another as separate from oneself, thinks of another as separate from oneself, knows another as separate from oneself. But when the Self-Almighty is realised as the indivisible unity of life, who can be seen by whom, who can be heard by whom, who can be smelled by whom, who can be spoken to by whom, who can be thought of by whom, who can be known by whom?
HE is fire and the Sun and the Moon and the stars. HE is the air and the sea and the Creator-the Prajapati.
HE is this boy, HE is that girl, HE is this man, He is that woman and HE is this old man, too, tottering on HIS staff. HIS face is everywhere. HE is present in each and every one and looks in each and direction simultaneously.
HE is the blue bird; HE is the green bird with red eyes; HE is the thundercloud and HE is the seasons and the seas. HE has no beginning; HE has no end. HE is the source from whom, the worlds evolve.
HIS divine power casts a spell-illusion-mirage on each and every one, which appears in the form of pain and pleasure. Only when, one pierce through this magic veil, do he see the Ultimate, who appears in multiple forms.
One becomes so as he acts-performs-functions. He who do good become good; one who do harm others, become bad. Good deeds make one pure; bad deeds make him impure, tainted, slurred, devil, sinner, wicked. One will become, what he desires-thinks. The will, deeds, desires shape the destiny.
One live in accordance with his deep, driving desires-ambitions. It is this desire at the time of death that determines what one's next life will be (next birth-incarnation or the abode-hell or heaven or the abode of the Almighty). One will return to earth, to satisfy his unfulfilled desires, targets, goals.
One, who has attained emancipation, liberation, assimilation in the eternal, will never return. Detachment-relinquishment, shelter (asylum, refuse, patronising) under the Almighty, devotion-Bhakti, equanimity, will keep him in association with the Ultimate, Supreme, The Almighty. One who breaks, severs all bonds, ties-connections, will never return. One who has offered all his deeds, virtues, goodness to the Ultimate will never come down.
Ceasing, fulfilment, renouncing make a mortal, immortal. The Self (a unit of the Almighty-soul), freed from the body, merges with the Brahmn-the infinite-eternal.
The Ultimate Bliss, Love, WHO projects HIMSELF into this universe of myriad forms, from WHOM all beings come and in WHOM all return; may HE grant the grace of wisdom to the devotee.
ALMIGHTY-THE DIVINE WISDOM OF THE UPANISHADS :: The Almighty is one. All life forms are his incarnations, manifestations, fragments. HE is swifter than thoughts and the senses. Though motionless, yet HE outruns all pursuit. Without HIM nothing can exist or happen.
The Supreme Soul constituting of the Creator, Nurturer and the Destroyer seems to move, but is HE ever still. HE seems far away, but is ever near. HE is within all and HE transcends all.
One who identifies him selves with all creatures-living beings in him self and him self in all creatures, does not encounter fear, faces no grief. Multiplicity of life forms can not delude one, who has attained equanimity.
HE is everywhere. HE is indivisible, untouched by sin, wise, immanent and transcendent. HE is the one, who created the cosmos and keeps-hold it together.
Senses are separate-detached from HIM-the unsimmered-untainted. The sense experience are fleeting and the wise never grieve-repent for them.
Above the senses is the mind, above the mind is the intellect and the prudence, above that is the ego and above the ego is the unmanifested cause. And beyond this is Brahmn, omnipresent, attribute less. Realising HIM, one is released from the cycle of birth and death.
HE is formless and can never be seen with these-human two eyes. But, HE reveals HIMSELF in the heart made pure through meditation and sense-restraint. Realising HIM, one is released from the cycle of birth and death.
When the five senses are stilled, when the mind is stilled, when the intellect is stilled, that is called the highest state by the wise. They say Yog is this complete stillness in which one unitise-immerse him self with the Supreme, never to separate again. One who does not establish him self in this state, the sense of unity will come and go.
As long as there is separateness, differentiation, distinction, one sees another entity as separate from oneself, hears another as separate from oneself, smells another as separate from oneself, speaks to another as separate from oneself, thinks of another as separate from oneself, knows another as separate from oneself. But when the Self-Almighty is realised as the indivisible unity of life, who can be seen by whom, who can be heard by whom, who can be smelled by whom, who can be spoken to by whom, who can be thought of by whom, who can be known by whom?
HE is fire and the Sun and the Moon and the stars. HE is the air and the sea and the Creator-the Prajapati.
HE is this boy, HE is that girl, HE is this man, He is that woman and HE is this old man, too, tottering on HIS staff. HIS face is everywhere. HE is present in each and every one and looks in each and direction simultaneously.
HE is the blue bird; HE is the green bird with red eyes; HE is the thundercloud and HE is the seasons and the seas. HE has no beginning; HE has no end. HE is the source from whom, the worlds evolve.
HIS divine power casts a spell-illusion-mirage on each and every one, which appears in the form of pain and pleasure. Only when, one pierce through this magic veil, do he see the Ultimate, who appears in multiple forms.
One becomes so as he acts-performs-functions. He who do good become good; one who do harm others, become bad. Good deeds make one pure; bad deeds make him impure, tainted, slurred, devil, sinner, wicked. One will become, what he desires-thinks. The will, deeds, desires shape the destiny.
One live in accordance with his deep, driving desires-ambitions. It is this desire at the time of death that determines what one's next life will be (next birth-incarnation or the abode-hell or heaven or the abode of the Almighty). One will return to earth, to satisfy his unfulfilled desires, targets, goals.
One, who has attained emancipation, liberation, assimilation in the eternal, will never return. Detachment-relinquishment, shelter (asylum, refuse, patronising) under the Almighty, devotion-Bhakti, equanimity, will keep him in association with the Ultimate, Supreme, The Almighty. One who breaks, severs all bonds, ties-connections, will never return. One who has offered all his deeds, virtues, goodness to the Ultimate will never come down.
Ceasing, fulfilment, renouncing make a mortal, immortal. The Self (a unit of the Almighty-soul), freed from the body, merges with the Brahmn-the infinite-eternal.
The Ultimate Bliss, Love, WHO projects HIMSELF into this universe of myriad forms, from WHOM all beings come and in WHOM all return; may HE grant the grace of wisdom to the devotee.
॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥
अनादि सत्य सिद्ध ग्रंथों-वेद, उपनिषद, पुराण अादि में जहाँ कहीं भी आत्मा के स्वरूप या फिर परमतत्व परमब्रह्म परमेश्वर परमात्मा का निरूपण किया गया है, उसके स्वरूप की तुलना अँगूठे से की गई है।
The eternal scriptures Veds, Upnishads and the Purans have configured the Almighty like the Thumb.
The soul present in the body of an organism acquires the shape and size of the human thumb once its released from the body.
The soul present in the body of an organism acquires the shape and size of the human thumb once its released from the body.
वराहतोको निरगादंगुष्ठ परिमाणक:।
दृष्टोSंगुष्ठ शिरोमात्र: क्षणाद्गण्डशिलासम:॥
[श्रीमद्भागवत महापुराण 3.13.18]
ब्रह्मा जी के नासिका छिद्र से अकस्मात अँगूठे के बराबर आकार का वराह शिशु निकला और अँगूठे के पेरूए के बराबर दिखने वाला वह प्राणी-वराह, क्षण भर में पर्वत के समान विस्तृत हो गया।
A small boar-hog equal to the size of the thumb came out of the nasal cavity of Brahma Ji -the creator, spontaneously and took the shape of a mountain at once.
अंगुष्ठमात्रो रवितुल्यरूप, संकल्पाहंकार समन्वितो यः।
बुद्धेर्गुणेनात्मगुणेन चैव,आराग्रमात्रो ह्यपरोSपि दृष्टः॥[श्वेताश्वतरोपनिषद् 5.8]
जो अँगुष्ठ मात्र परिमाण वाला, रवितुल्य-सूर्य के समान प्रकाश वाला तथा संकल्प और अहंकार से युक्त है, बुद्धि के गुण के कारण और अपने गुण के कारण ही सूजे की नोक के जैसे सूक्ष्म आकार वाला है; ऐसा अपर-अर्थात परमात्मा से भिन्न जीवात्मा भी निःसन्देह ज्ञानियों के द्वारा देखा गया है।
The Almighty-God similar in shape & size to the thumb, brilliant like the Sun, associated with firmness-determination & possessiveness, due to his own characterises and the intelligence, small & sharp just like the tip of a needle was in deed seen-visualised-observed-conceived by the learned-enlightened-scholars.
अंगुष्ठमात्र: पुरुषो, मध्ये आत्मनि तिष्ठति।
ईशानो भूतभव्यस्य न तेता विजुगुप्सते॥
[कठोपनिषद् 2.1.13]
अंगुष्ठमात्र परिमाण वाला, परम पुरुष-परमात्मा, शरीर के मध्य भाग अर्थात हृदयाकाश में स्थित है, जो कि भूत, भविष्य और वर्तमान का शासन करने वाला है। उसे जान लेने के बाद वह जिज्ञासु-मनुष्य किसी की निन्दा नहीं करता। यही वह परमतत्व है।
The Almighty comparable to thumb in shape and size is present in the middle segment of the body and visualises the past, present and the future. Once a man knows Him, never censure others.
निन्दा :: तिरस्कार, आक्षेप, प्रत्याख्यान, भंडाफोड़, पर्दाफ़ाश, मलामत, झिड़की, गुण-दोष की व्याख्या, प्रतिवाद, विरोध, नापसंदगी, बदनामी, कलंक, अपवाद, ग्लानि की भावना, अपमान, दोष, भंडाफोड़, धमकी, परछाई, परावर्तन, भावना, प्रतिबिंब, सोच, फटकार, मुंहतोड़ जवाब, सामना, फटकार, परावर्तन, विचार, ध्यान, फटकार, डांट-डपट, शाप, आलोचना, टीका-टिप्पणी, दोष-विवेचन, चुगली, अनुचितता, घृणोत्पादकता, वीभत्सता, रोमांचकारिता, कठोर समालोचना, विवाद, अप्रतिष्ठा, बुराई, निर्घोष, विस्फोट, दोषारोपण, अभियोग में फॉंसना या लपेटना, बदनामी, आक्रोश, अभिशाप, अपयश, अपकीर्ति; opprobrium, condemnation, censure, denunciation, twit, stricture, deprecation, scandal, blame, denouncement, re-flexion, reproof, letdown, objurgation, talking to, decrial, tarnation, reflection, dispraise, dressing down, telling-off, animadversion, backbiting, shocking, diatribe, disparagement, fulmination, malediction.
The Almighty comparable to thumb in shape and size is present in the middle segment of the body and visualises the past, present and the future. Once a man knows Him, never censure others.
निन्दा :: तिरस्कार, आक्षेप, प्रत्याख्यान, भंडाफोड़, पर्दाफ़ाश, मलामत, झिड़की, गुण-दोष की व्याख्या, प्रतिवाद, विरोध, नापसंदगी, बदनामी, कलंक, अपवाद, ग्लानि की भावना, अपमान, दोष, भंडाफोड़, धमकी, परछाई, परावर्तन, भावना, प्रतिबिंब, सोच, फटकार, मुंहतोड़ जवाब, सामना, फटकार, परावर्तन, विचार, ध्यान, फटकार, डांट-डपट, शाप, आलोचना, टीका-टिप्पणी, दोष-विवेचन, चुगली, अनुचितता, घृणोत्पादकता, वीभत्सता, रोमांचकारिता, कठोर समालोचना, विवाद, अप्रतिष्ठा, बुराई, निर्घोष, विस्फोट, दोषारोपण, अभियोग में फॉंसना या लपेटना, बदनामी, आक्रोश, अभिशाप, अपयश, अपकीर्ति; opprobrium, condemnation, censure, denunciation, twit, stricture, deprecation, scandal, blame, denouncement, re-flexion, reproof, letdown, objurgation, talking to, decrial, tarnation, reflection, dispraise, dressing down, telling-off, animadversion, backbiting, shocking, diatribe, disparagement, fulmination, malediction.
ईशानो भूत भव्यस्य स एवाद्य स उ श्वः।
भूत, भविष्य तथा वर्तमान पर शासन करने वाला वह परमात्म परमतत्त्व जैसा आज है, वैसा ही कल भी रहेगा। The Almighty who rules the present, past and the future will remain as such always & for ever.BHAGWAT EXTRACT चतुः श्लोकी भागवत
श्रीभगवानुवाच :-
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद्य त् सदसत् परम्।
पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम्॥1॥
श्री भगवान कहते हैं :- सृष्टि से पूर्व केवल मैं ही था। सत्, असत् या उससे परे, मुझ से भिन्न कुछ भी नहीं था। सृष्टि न रहने पर (प्रलय काल में) भी मैं ही रहता हूँ। यह सब सृष्टि रूप भी मैं ही हूँ और जो कुछ इस सृष्टि, स्थिति तथा प्रलय से बचा रहता है, वह भी मै ही हूँ।
The Almighty said that he existed prior to the creation of life. There was nothing existent-manifest or non existent-unmanifest or any thing else other than-except me. After dissolution-destruction-annihilation of life, I remain. I am embodiment of life. I am all that is visible. Whatever remains after annihilation is also me.
The Almighty said that he existed prior to the creation of life. There was nothing existent-manifest or non existent-unmanifest or any thing else other than-except me. After dissolution-destruction-annihilation of life, I remain. I am embodiment of life. I am all that is visible. Whatever remains after annihilation is also me.
MANIFEST :: clear or obvious to the eye or mind, obvious, clear, plain, apparent, evident, patent, palpable, distinct, definite, blatant, overt, glaring, barefaced, explicit, transparent, conspicuous, undisguised, unmistakable, unquestionable, undeniable, noticeable, perceptible, visible, recognisable, observable.
UN-MANIFEST :: असत्; non existent, unfounded, illusory, falsehood, contamination-impurity, adulterated, unreal, untrue.
UN-MANIFEST :: असत्; non existent, unfounded, illusory, falsehood, contamination-impurity, adulterated, unreal, untrue.
ऋतेऽर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि।
तद्विद्यादात्मनो मायां यथाऽऽभासो यथा तमः॥2॥
जो मुझ मूल तत्त्व के अतिरिक्त (सत्य सा) प्रतीत होता (दिखाई देता) है; परन्तु आत्मा में प्रतीत नहीं होता (दिखाई नहीं देता), उस अज्ञान को आत्मा की माया समझो जो प्रतिबिम्ब या अंधकार की भांति मिथ्या है।
Whatever is visible-appears to be truth, but does not appear to exist in the soul, is illusion-ignorance-mirage. Consider it to be unreal-darkness.
Whatever is visible-appears to be truth, but does not appear to exist in the soul, is illusion-ignorance-mirage. Consider it to be unreal-darkness.
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम्॥3॥
जैसे पंच महाभूत :- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश, संसार के छोटे-बड़े सभी पदार्थों में प्रविष्ट होते हुए भी उनमें प्रविष्ट नहीं हैं, वैसे ही मैं भी सबमें व्याप्त होने पर भी सबसे पृथक् हूँ।
The manner in which the basic ingredients of life-the five elements viz. earth, water, fire, air and space pervade everything in the universe; but in reality do not exist in them i.e., maintain their identity, I am also present in each and every organism but does not appear separate-different from them.
The manner in which the basic ingredients of life-the five elements viz. earth, water, fire, air and space pervade everything in the universe; but in reality do not exist in them i.e., maintain their identity, I am also present in each and every organism but does not appear separate-different from them.
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा॥4॥
आत्म-तत्त्व को जानने की इच्छा रखने वाले के लिए इतना ही जानने योग्य है कि अन्वय-सृष्टि अथवा व्यतिरेक-प्रलय क्रम में जो तत्त्व सर्वत्र एवं सर्वदा-स्थान और समय से परे, रहता है, वही आत्म तत्त्व है।
Its sufficient for the desirous to know that He-The Ultimate, i.e., whatever existed eternally, who remains distinguished from creation or annihilation is the Ultimate Truth, beyond the limits of time and space.
Its sufficient for the desirous to know that He-The Ultimate, i.e., whatever existed eternally, who remains distinguished from creation or annihilation is the Ultimate Truth, beyond the limits of time and space.
अनादि सत्य सिद्ध ग्रंथों-वेद, उपनिषद, पुराण आदि में जहाँ कहीं भी आत्मा के स्वरूप या फिर परमतत्व परमब्रह्म परमेश्वर परमात्मा का निरूपण किया गया है, उसके स्वरूप की तुलना अँगूठे से की गई है।
The eternal scriptures Veds, Upnishads and the Purans have configured the Almighty like the Thumb.
The soul present in the body of an organism acquires the shape and size of the human thumb, once its released from the body.
A small boar-hog equal to the size of the thumb came out of the nasal cavity of Brahma Ji-the creator, spontaneously and took the shape of a mountain at once.
The Almighty-God similar in shape & size to the thumb, brilliant like the Sun, associated with firmness-determination & possessiveness, due to his own characterises and the intelligence, small & sharp just like the tip of a needle was indeed seen, visualised, observed, conceived by the learned, enlightened, scholars.
The Almighty comparable to thumb in shape and size is present in the middle segment of the body and visualises the past, present and the future. Once a man knows Him, never censure others.
साकार परमात्मा को यज्ञ और निराकर परमात्मा को ब्रह्म कहा गया है।
परब्रह्म परमेश्वर-परमात्मा के तीन प्रकार के नाम :: ॐ, तत् और सत्।
सम्पूर्ण ऐश्वर्य*, सम्पूर्ण धर्म, सम्पूर्ण यश, सम्पूर्ण श्री, सम्पूर्ण ज्ञान और सम्पूर्ण वैराग्य; इन छः का नाम भग है। जिन पूर्णतम परमेश्वर में ये छहों परिपूर्ण रूप से नित्य-निरंतर स्थित रहते है, वे भगवान् कहे जाते हैं।
The Almighty who possesses the entire grandeur, the Dharm-endeavour, glory, wealth, knowledge-enlightenment and relinquishment-detachment continuously at all times is Bhagwan-God.
निर्गुण :: परमात्मा हाथ और पैर से रहित है, तो भी वह सब कुछ ग्रहण करता है और सर्वत्र आते-जाते हैं और सभी जगह उपस्थित-विराजमान हैं। मुख के बिना ही भोजन करते हैं और नाक के बिना ही सूँघते हैं। उनके कान नहीं हैं तथापि वह सब कुछ सुनते हैं। वह सबके साक्षी और इस जगत के स्वामी हैं। रूप हीन होकर भी रूप से संबद्ध हो पाँचों इंद्रियों के वशीभूत से प्रतीत होते हैं। वह सब लोकों के प्राण हैं, सम्पूर्ण चराचर जगत के प्राणी उनकी पूजा करते हैं। बिना जीभ के ही वह सब कुछ वेद-शास्त्रों के अनुकूल बोलते हैं। उनके त्वचा नहीं है, तथापि वह शीत-उष्ण आदि, सब प्रकार के स्पर्श अनुभव करते हैं। सत्ता और आनन्द उनके स्वरूप हैं। वह जितेन्द्रिय, एकरूप, आश्रय विहीन, निर्गुण, ममता रहित, व्यापक, सगुण, निर्मल, ओजस्वी, सबको वश में करने वाले, सब ओर देखने वाले और सर्वज्ञों में श्रेष्ठ है। वह व्यापक और सर्वमय हैं। इस प्रकार जो अनन्य बुद्धि से उस सर्वमय ब्रह्म का ध्यान करता है, वह निराकार एवं अमृत तुल्य परम पद को प्राप्त होता है।
The eternal scriptures Veds, Upnishads and the Purans have configured the Almighty like the Thumb.
The soul present in the body of an organism acquires the shape and size of the human thumb, once its released from the body.
वराहतोको निरगादंगुष्ठ परिमाणक:।
दृष्टोSगुंष्ठ शिरोमात्र: क्षणाद्गण्डशिलासम:॥[श्रीमद्भागवत महापुराण 3.13.18]
ब्रह्मा जी के नासिका छिद्र से अकस्मात अँगूठे के बराबर आकार का वराह शिशु निकला और अँगूठे के पेरूए के बराबर दिखने वाला वह प्राणी-वराह, क्षण भर में पर्वत के समान विस्तृत हो गया।A small boar-hog equal to the size of the thumb came out of the nasal cavity of Brahma Ji-the creator, spontaneously and took the shape of a mountain at once.
अंगुष्ठमात्रो रवितुल्यरूप, संकल्पाहंकार समन्वितो यः।
बुद्धेर्गुणेनात्मगुणेन चैव,आराग्रमात्रो ह्यपरोSपि दृष्टः॥[श्वेताश्वतरोपनिषद् 5.8]
जो अँगुष्ठ मात्र परिमाण वाला, रवितुल्य-सूर्य के समान प्रकाश वाला तथा संकल्प और अहंकार से युक्त है, बुद्धि के गुण के कारण और अपने गुण के कारण ही सूजे की नोक के जैसे सूक्ष्म आकार वाला है; ऐसा अपर-अर्थात परमात्मा से भिन्न जीवात्मा भी निःसन्देह ज्ञानियों के द्वारा देखा गया है।The Almighty-God similar in shape & size to the thumb, brilliant like the Sun, associated with firmness-determination & possessiveness, due to his own characterises and the intelligence, small & sharp just like the tip of a needle was indeed seen, visualised, observed, conceived by the learned, enlightened, scholars.
अंगुष्ठमात्र: पुरुषो, मध्ये आत्मनि तिष्ठति।
ईशानो भूतभव्यस्य न तेता विजुगुप्सते॥[कठोपनिषद् 2.1.13]
अंगुष्ठमात्र परिमाण वाला, परम पुरुष-परमात्मा, शरीर के मध्य भाग अर्थात हृदयाकाश में स्थित है, जो कि भूत, भविष्य और वर्तमान का शासन करने वाला है। उसे जान लेने के बाद वह जिज्ञासु-मनुष्य किसी की निन्दा नहीं करता। यही वह परमतत्व है।The Almighty comparable to thumb in shape and size is present in the middle segment of the body and visualises the past, present and the future. Once a man knows Him, never censure others.
ईशानो भूत भव्यस्य स एवाद्य स उ श्वः।
भूत, भविष्य तथा वर्तमान पर शासन करने वाला वह परमात्म परमतत्त्व जैसा आज है, वैसा ही कल भी रहेगा। The Almighty who rules the present, past and the future will remain as such always & forever.साकार परमात्मा को यज्ञ और निराकर परमात्मा को ब्रह्म कहा गया है।
परब्रह्म परमेश्वर-परमात्मा के तीन प्रकार के नाम :: ॐ, तत् और सत्।
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा॥[श्रीमद्भागवत गीता 17.23]
ॐ, तत्, सत्, इन तीन प्रकार के नामों से जिस परमात्मा का निर्देश (संकेत) किया गया है, उसी परमात्मा से सृष्टि के आदि में वेदों तथा ब्राह्मणों और यज्ञों की रचना हुई है।
The manner in which the three names of the Almighty :- ॐ, Tat, Sat; emerged, is the same as the creation of Veds, Brahmns and Holy sacrifices in fire in the beginning of Eternity.
ॐ, तत्, सत् :- ये परमात्मा के तीन नाम हैं, निर्देश हैं। परमात्मा ने पहले वेद, ब्राह्मण और यज्ञों को बनाया। विधि वेद बताते हैं, अनुष्ठान ब्राह्मण करते हैं और क्रिया के लिये यज्ञ है। यज्ञ, तप और दान में किसी प्रकार की कमी रह जाये तो, परमात्मा का नाम स्मरण करें, उससे कमी पूरी हो जायेगी। "ॐ तत् सत्": इस मन्त्र से गृहस्थ अथवा उदासीन (साधु) जो भी कर्म आरम्भ करता है, उसको अभीष्ट की प्राप्ति होती है। जप, होम, प्रतिष्ठा, संस्कार आदि सम्पूर्ण क्रियाएँ, इस मन्त्र से सफल हो जाती हैं, इसमें सन्देह नहीं है।
ॐ, Tat & Sat are the 3 names-directives of the God, which fulfils all the desires of the worshipper, if he spell them in the beginning of the Holy sacrifices, endeavours, rituals, prayers. The Almighty created the Veds & Brahmns followed by Holy sacrifices in fire for the benefit of the humans. The Veds describe the methods for the sacrifices, rituals, prayers, worships, asceticism etc. Prayers, Yagy, Hawan are carried out by the Brahmns by following the procedures laid down in the Veds & scriptures. The Yagy, Hawan, Holy sacrifices in fire are there to make successful all the endeavours, projects, desires, ambitions of the individuals. In case there is any draw back in the Yagy, Tap or Dan remember the God through these three names and the weakness-deficiency is overcome.
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम्॥[श्रीमद्भागवत गीता 17.24]
इसलिये वैदिक सिद्धान्तों को मानने वाले पुरुषों की शास्त्र विधि से नियत यज्ञ, दान और तपरुप क्रियाएँ सदा "ॐ" इस परमात्मा के नाम का उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं।
Those who have faith in Vaedic principles begin the Yagy associated with the procedures mentioned in the scriptures, donations-charity and ascetic practices by uttering-spelling OM (Ameen or Allah are merely translation of Om); the name of God.
Please refer to :: bhartiyshiksha.blogspot.com
समस्त वैदिक क्रियाएँ, यज्ञ, हवन, आहुति, मंत्र प्रार्थनाएँ सर्वप्रथम ॐ का उच्चारण करके ही प्रारम्भ की जाती हैं। दान, तप भी इसके बगैर अधूरे-फल हीन हैं। सृष्टि की रचना-उत्पत्ति में सबसे पहले प्रणव शब्द "ॐ" ही प्रकट हुआ। प्रणव की तीन मात्राएँ हैं, जिनसे त्रिपदा गायत्री प्रकट हुई और त्रिपदा गायत्री से ऋक, साम और यजु :- यह वेदत्रयी प्रकट हुई।
All Vaedic rituals, Mantr, Yagy-Holy sacrifices in fire, offerings in fire, prayers begin with the pronunciation of OM. This is prefix. All Vaedic procedures remain incomplete in the absence of OM. Donations, ascetic practices remain fruitless in the absence of OM. OM appeared at the auspicious occasion of the formation of the universe-life. Three syllables of OM (ओ३म्) form the Gayatri Mantr and the three Veds :- Rig Ved, Sam Ved & Yajur Ved appeared from Gayatri.
The Almighty who possesses the entire grandeur, the Dharm-endeavour, glory, wealth, knowledge-enlightenment and relinquishment-detachment continuously at all times is Bhagwan-God.
तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः।
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः॥[श्रीमद्भागवत गीता 17.25]
तत् नाम से कहे जाने वाले परमात्मा के लिये-निमित्त ही सब कुछ है; ऐसा मानकर मुक्ति चाहने वाले मनुष्यों द्वारा फल की इच्छा से रहित होकर, अनेक प्रकार के यज्ञ और तप रुप क्रियाएँ तथा दानरूप क्रियाएँ की जाती हैं।
Those who want freedom from reincarnation-salvation, perform various Yagy-sacrifices, ascetic practices and donations, charity, austerity for the sake of the God, who is addressed as Tat, without the desire of any reward.
जो भी शास्त्र सम्मत योग, यज्ञ, हवन, तप, दान, तीर्थ, व्रत, स्वाध्याय, ध्यान, समाधि, शुभ कर्म आदि क्रियाएँ परमात्मा की प्रसन्नता लिये की जायें, उनमें फल की इच्छा किञ्चित मात्र भी नहीं होनी चाहिये, क्योंकि वे अपने लिये नहीं हैं। जिन साधनों से ये क्रियाएँ की जाती हैं; वे शरीर, इन्द्रियाँ अन्तःकरण परमात्मा के ही हैं। कुटुम्ब, घर, मकान, सम्पत्ति भी परमात्मा का ही दिया हुआ है। समझ-ज्ञान, बुद्धि, सामर्थ्य स्वयं मनुष्य भी परमात्मा का ही है। इस भाव को लेकर समस्त क्रियाएँ करनी चाहिये। प्रत्येक कर्म-क्रिया शुभ-अशुभ, निहित-विहित, निषिद्ध तथा कर्म फल का प्रारम्भ और समाप्ति भी होती है। अतः उसकी इच्छा कतई नहीं होनी चाहिये। परमात्मा की सत्ता नित्य-निरन्तर है, अतः मनुष्य को उसकी स्मृति रहनी ही चाहिये। जो संसार प्रत्यक्ष प्रतीत हो रहा है, उसका तो निराकरण करना ही है तथा जो अप्रत्यक्ष है, उस तत् नाम से कहे जाने वाले परमात्मा का अनुभव भी करना है, जो नित्य-निरन्तर है। परमात्मा के भक्त राम, कृष्ण, गोविन्द, नारायण, वासुदेव, शिव आदि का सम्बोधन उस तत् स्वरूप भगवान् के लिये करके, समस्त क्रियाएँ शुरू करते हैं। तत्त शब्द (वह, उस) अलौकिक परमात्मा के लिये ही आया है, जो कि श्रद्धा-विश्वास का विषय है, विचार का नहीं।
Tat (HE, THAT) has been used for the Almighty. Existence of God is a matter of faith not of argument, logic or discussion. HE is eternal-divine, beyond the limits of the human intelligence, vision or thought. All prayers start by remembering HIM as Ram, Krashn, Hari, Govind, Shiv, Vasudev, Narayan etc. by the devotees or simply God, Allah, Khuda, Rab, Bhagwan etc. Whatever pious, virtuous, righteous deed-endeavour is there, should be undertaken, for HIS happiness, pleasing HIM. Sacrifices in Holy fire, Yagy, Hawan, ascetic practices, Pilgrimage, bathing in Holy river-reservoirs are meant for HIS happiness, since HE has created the man. The tools of offerings, donations, wealth, body, organs, belongs to HIM. The man his intelligence, body, thoughts, family, property, strength, capability, power are created by HIM and thus belongs to HIM, only. All deeds, habitual or compulsory, pious or evil, begins and terminates but the Almighty remains as such without any change-modification, before, after and now. One should feel HIS presence everywhere, in each & every particle, action-activity.
*ऐश्वर्य :: (1). ईश्वरता-ईश्वरीय गुण, (2). आधिपत्य, (3). ईश्वरीय संपदा, ईश्वरीय विभूति, वैभव, धन संपत्ति, अणिमा, महिमा आदि आठों सिद्धियों से प्राप्त अलौकिक शक्ति; grandeur, opulence, glory.निर्गुण :: परमात्मा हाथ और पैर से रहित है, तो भी वह सब कुछ ग्रहण करता है और सर्वत्र आते-जाते हैं और सभी जगह उपस्थित-विराजमान हैं। मुख के बिना ही भोजन करते हैं और नाक के बिना ही सूँघते हैं। उनके कान नहीं हैं तथापि वह सब कुछ सुनते हैं। वह सबके साक्षी और इस जगत के स्वामी हैं। रूप हीन होकर भी रूप से संबद्ध हो पाँचों इंद्रियों के वशीभूत से प्रतीत होते हैं। वह सब लोकों के प्राण हैं, सम्पूर्ण चराचर जगत के प्राणी उनकी पूजा करते हैं। बिना जीभ के ही वह सब कुछ वेद-शास्त्रों के अनुकूल बोलते हैं। उनके त्वचा नहीं है, तथापि वह शीत-उष्ण आदि, सब प्रकार के स्पर्श अनुभव करते हैं। सत्ता और आनन्द उनके स्वरूप हैं। वह जितेन्द्रिय, एकरूप, आश्रय विहीन, निर्गुण, ममता रहित, व्यापक, सगुण, निर्मल, ओजस्वी, सबको वश में करने वाले, सब ओर देखने वाले और सर्वज्ञों में श्रेष्ठ है। वह व्यापक और सर्वमय हैं। इस प्रकार जो अनन्य बुद्धि से उस सर्वमय ब्रह्म का ध्यान करता है, वह निराकार एवं अमृत तुल्य परम पद को प्राप्त होता है।
The Almighty, is both formless & with form. HE is undefined yet unique. HE is present each and every where, including the minutest organism. HE has no sense organs, still HE is performing all functions. HE is without hands or legs, still HE is able to act-perform whatever is essential. HE is free from desires or activities, still HE acts. HE does not eat, still HE accepts the offerings of the devotees. HE is without tongue and yet HE recites the Shloks, enchants, rhymes of Ved, Puran, Upnishad-scriptures. HE is without skin, still HE experiences cold or warmth. HE has full control over all sensualities-passions. HE is one and only one-unique. There is no one-nothing to support HIM, yet HE supports everyone. HE has no sentiments. HE is pure, orator, source of all energy, mesmerise every one-controls everyone-looks in all directions and above all the enlightened. HE is present in each & every organism and all directions, material, immaterial objects. HIS qualities-characters are unlimited-infinite. HE has no boundaries.
One who utilise his mind, brain, intelligence, to attain HIM, is able to liberate himself and assimilate in HIM.
अचिन्त्य :: परमात्मा, जिसको समझना,जानना मनुष्य की बुद्धि की सीमा से पर है। Unthinkable. अप्रमेय :: परमात्मा, जिस सीमा-थाह लेना-नापना, मनुष्य की बुद्धि-क्षमता से बाहर है; Immeasurable.
अज्ञेय :: परमात्मा, जिसको समझना,जानना मनुष्य की बुद्धि की सीमा से पर है; Beyond comprehension.
सम्पूर्ण प्राणियों को और उनके सम्पूर्ण शुभाशुभ कर्मों को जानने वाले परमात्मा को कवि अर्थात सर्वज्ञ कहते हैं। सबका आदि होने के कारण उन्हें पुराण कहा गया है। नेत्रों के ऊपर मन, मन के ऊपर बुद्धि, बुद्धि के ऊपर अहम् और जो अहम् के भी ऊपर शासन करते है, उन्हें अनुशासित करते है, वह परमात्मा हैं। परमात्मा सूक्ष्म से भी सूक्ष्म मन-बुद्धि की सीमा से परे-ऊपर है। वह समस्त-अनंतकोटि ब्रह्माण्डों को धारण करने वाला है। वह अज्ञान से दूर अर्थात उसका नाश करने वाला है। वह सूर्य के समान प्रकाश करने वाला अर्थात मन-बुद्धि को प्रकाशित-अनुशासित करने वाला है। वह सगुण-निर्गुण परमात्मा सब कुछ याद रखने वाला है। उस परमात्मा को मनुष्य निरंतर-याद करे उसका चिंतन करे।
The Almighty is aware of each and every activity of the organism. HE is ancient beyond the limits of time, since ever-forever. The mind lies over the eye brows, (mind controls-perceives what is seen by the eyes), intelligence rules the head, mind, brain, intelligence is ruled by the ego and the Almighty regulates even this ego. HE disciplines everyone-everything. HE is minutest-much smaller than the atom and holds the infinite number of universes. HE abolishes ignorance and provides enlightenment-prudence. HE is shining-bright like the Sun and destroys darkness-lack of knowledge-ignorance. The formless-characteristics less Almighty remembers everything, event, person, soul.
जो निर्गुण, निराकार, एकरूप, एकरस, परमब्रह्म है, वह अक्षर है अर्थात उसका कभी नाश नहीं होता।
The Almighty is free from characteristics. HE is formless, uniform-identical, unilateral, monotonous-unchanging and imperishable.
सगुण :: वह निराकार, रोग-व्याधि से रहित हैं। उनका कोई आलम्ब-आधार नहीं है, वही सबके आलम्ब हैं। जिनके संकल्प से यह संसार वासित है वे श्री हरी इस संसार को वासित करने के कारण वासुदेव कहलाते हैं।
उनका श्री विग्रह वर्षा ऋतु के सजल मेघ के समान श्याम है। उनकी प्रभा सूर्य के तेज को भी लज्ज्ति करती है। उनके दाहिने भाग के एक हाथ में बहुमूल्य मणियों से चित्रित शंख शोभा पा रहा है और दूसरे हाथ में बड़े-बड़े असुरों का संहार करने वाली कौमुद गदा विराजमान है। उन जगदीश्वर के बायें हाथों में पद्म और शंख सुशोभित हैं। वे चतुर्भज हैं। वे सम्पूर्ण देवताओं के स्वामी हैं। श्राङ्ग धनुष धारण करने के कारण श्राङ्गी उन्हें भी कहते हैं। वे लक्ष्मी के स्वामी हैं।
शंख के समान मनोहर ग्रीवा, सुन्दर गोलाकार मुखमण्डल तथा पद्म-पत्र के समान बड़ी-बड़ी ऑंखें हैं। कुन्द जैसे चमकते दाँतों से ह्रषिकेश की बड़ी शोभा हो रही है। वे निद्रा के ऊपर शासन करते हैं। उनका नीचे का होंठ मूंगे के सामान लाल है। नाभि कमल से प्रकट होने के कारन उन्हें पद्मनाभ कहते हैं। वे अत्यन्त तेजस्वी किरीट के कारण बड़ी शोभा पा रहे हैं। श्री वत्स के चिन्ह ने उनकी छवि को और बढ़ा दिया है। श्री केशव का वक्ष स्थल कौस्तुभ मणि से अलंकृत है। वे जनार्दन सूर्य के समान तेजस्वी कुण्डलों से अत्यंत देदीप्यमान हो रहे हैं। केयूर, हार, कड़े, कटिसूत्र करघनी तथा अँगूठियों से उनके श्री अंग विभूषित हैं, जिससे उनकी शोभा और बढ़ गयी है। भगवान तपाये हुए सुवर्ण के रंग का पीताम्बर धारण किये हुए हैं तथा गरुड़ जी की पीठ पर विराजमान हैं। वे भक्तों की पाप राशि को दूर करने वाले हैं। इस प्रकार सगुण चिन्तन करना चाहिये।
इसका अभ्यास करने से मनुष्य मन, वाणी तथा शरीर द्वारा होने वाले सभी पापों से मुक्त हो जाता है और अंत में वह विष्णु लोक को प्राप्त करता है।
अज्ञेय :: परमात्मा, जिसको समझना,जानना मनुष्य की बुद्धि की सीमा से पर है; Beyond comprehension.
सम्पूर्ण प्राणियों को और उनके सम्पूर्ण शुभाशुभ कर्मों को जानने वाले परमात्मा को कवि अर्थात सर्वज्ञ कहते हैं। सबका आदि होने के कारण उन्हें पुराण कहा गया है। नेत्रों के ऊपर मन, मन के ऊपर बुद्धि, बुद्धि के ऊपर अहम् और जो अहम् के भी ऊपर शासन करते है, उन्हें अनुशासित करते है, वह परमात्मा हैं। परमात्मा सूक्ष्म से भी सूक्ष्म मन-बुद्धि की सीमा से परे-ऊपर है। वह समस्त-अनंतकोटि ब्रह्माण्डों को धारण करने वाला है। वह अज्ञान से दूर अर्थात उसका नाश करने वाला है। वह सूर्य के समान प्रकाश करने वाला अर्थात मन-बुद्धि को प्रकाशित-अनुशासित करने वाला है। वह सगुण-निर्गुण परमात्मा सब कुछ याद रखने वाला है। उस परमात्मा को मनुष्य निरंतर-याद करे उसका चिंतन करे।
The Almighty is aware of each and every activity of the organism. HE is ancient beyond the limits of time, since ever-forever. The mind lies over the eye brows, (mind controls-perceives what is seen by the eyes), intelligence rules the head, mind, brain, intelligence is ruled by the ego and the Almighty regulates even this ego. HE disciplines everyone-everything. HE is minutest-much smaller than the atom and holds the infinite number of universes. HE abolishes ignorance and provides enlightenment-prudence. HE is shining-bright like the Sun and destroys darkness-lack of knowledge-ignorance. The formless-characteristics less Almighty remembers everything, event, person, soul.
जो निर्गुण, निराकार, एकरूप, एकरस, परमब्रह्म है, वह अक्षर है अर्थात उसका कभी नाश नहीं होता।
The Almighty is free from characteristics. HE is formless, uniform-identical, unilateral, monotonous-unchanging and imperishable.
सगुण :: वह निराकार, रोग-व्याधि से रहित हैं। उनका कोई आलम्ब-आधार नहीं है, वही सबके आलम्ब हैं। जिनके संकल्प से यह संसार वासित है वे श्री हरी इस संसार को वासित करने के कारण वासुदेव कहलाते हैं।
उनका श्री विग्रह वर्षा ऋतु के सजल मेघ के समान श्याम है। उनकी प्रभा सूर्य के तेज को भी लज्ज्ति करती है। उनके दाहिने भाग के एक हाथ में बहुमूल्य मणियों से चित्रित शंख शोभा पा रहा है और दूसरे हाथ में बड़े-बड़े असुरों का संहार करने वाली कौमुद गदा विराजमान है। उन जगदीश्वर के बायें हाथों में पद्म और शंख सुशोभित हैं। वे चतुर्भज हैं। वे सम्पूर्ण देवताओं के स्वामी हैं। श्राङ्ग धनुष धारण करने के कारण श्राङ्गी उन्हें भी कहते हैं। वे लक्ष्मी के स्वामी हैं।
शंख के समान मनोहर ग्रीवा, सुन्दर गोलाकार मुखमण्डल तथा पद्म-पत्र के समान बड़ी-बड़ी ऑंखें हैं। कुन्द जैसे चमकते दाँतों से ह्रषिकेश की बड़ी शोभा हो रही है। वे निद्रा के ऊपर शासन करते हैं। उनका नीचे का होंठ मूंगे के सामान लाल है। नाभि कमल से प्रकट होने के कारन उन्हें पद्मनाभ कहते हैं। वे अत्यन्त तेजस्वी किरीट के कारण बड़ी शोभा पा रहे हैं। श्री वत्स के चिन्ह ने उनकी छवि को और बढ़ा दिया है। श्री केशव का वक्ष स्थल कौस्तुभ मणि से अलंकृत है। वे जनार्दन सूर्य के समान तेजस्वी कुण्डलों से अत्यंत देदीप्यमान हो रहे हैं। केयूर, हार, कड़े, कटिसूत्र करघनी तथा अँगूठियों से उनके श्री अंग विभूषित हैं, जिससे उनकी शोभा और बढ़ गयी है। भगवान तपाये हुए सुवर्ण के रंग का पीताम्बर धारण किये हुए हैं तथा गरुड़ जी की पीठ पर विराजमान हैं। वे भक्तों की पाप राशि को दूर करने वाले हैं। इस प्रकार सगुण चिन्तन करना चाहिये।
इसका अभ्यास करने से मनुष्य मन, वाणी तथा शरीर द्वारा होने वाले सभी पापों से मुक्त हो जाता है और अंत में वह विष्णु लोक को प्राप्त करता है।
CHATUH SHLOKI BHAGWAT चतुः श्लोकी भागवत ::
श्रीभगवानुवाच ::
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम्।
पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम्॥1॥
श्री भगवान् कहते हैं :-
सृष्टि से पूर्व केवल मैं ही था। सत्, असत् या उससे परे मुझसे भिन्न कुछ भी नहीं था। सृष्टि न रहने पर (प्रलय काल में) भी मैं ही रहता हूँ। यह सब सृष्टि रूप भी मैं ही हूँ और जो कुछ इस सृष्टि, स्थिति तथा प्रलय से बचा रहता है, वह भी मै ही हूँ।
The Almighty Shri Krashn said, "I only existed in the beginning(before any creation). There was neither manifest nor unmanifest or anything beyond both which is other than me. I am all which is visible. Whatever remains after annihilation is also me".
ऋतेऽर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि।
तद्विद्यादात्मनो मायां यथाऽऽभासो यथा तमः॥2॥
जो मुझ मूल तत्त्व के अतिरिक्त (सत्य सा) प्रतीत होता (दिखाई देता) है परन्तु आत्मा में प्रतीत नहीं होता (दिखाई नहीं देता), उस अज्ञान को आत्मा की माया समझो जो प्रतिबिम्ब या अंधकार की भांति मिथ्या है।
Whatever appears to be substantial besides me, has no reality in itself. Know this ignorance as my illusory power Maya. It is unreal like a reflection or darkness.
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम्॥3॥
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम्॥3॥
जैसे पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) संसार के छोटे-बड़े सभी पदार्थों में प्रविष्ट होते हुए भी उनमें प्रविष्ट नहीं हैं, वैसे ही मैं भी सबमें व्याप्त होने पर भी सबसे पृथक् हूँ।
As five universal elements(earth, water, fire, air and space) pervade everything in the universe and at the same time they exist without them; similarly, I also pervade everything I create and at the same time I exist without them.
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा॥4॥
आत्म-तत्त्व को जानने की इच्छा रखने वाले के लिए इतना ही जानने योग्य है कि अन्वय (सृष्टि) अथवा व्यतिरेक (प्रलय) क्रम में जो तत्त्व सर्वत्र एवं सर्वदा (स्थान और समय से परे) रहता है, वही आत्मतत्त्व है।
A person willing to know the supreme truth, should only know that whatever exist eternally (beyond time) and everywhere(beyond space), during the process of creation and annihilation is the ultimate truth.
सत् और असत् ::
Almighty told Arjun that HE shines in the form of Sun for the welfare of the universe and accepts the water, which evaporates and then return it, in the form of rain. HE added further that it was HE, who acted as ambusia (elixir, nectar, Amrat, Ambrosia-Greek & Roman Mythology, the food of the demigods, thought to confer immortality.) granting immortality and death along with virtues, eternity, Absolute and wickedness-temporal. The Supreme Being acquires the desired form as and when required for the nurture-nourishment of the universe-various abodes & infinite universes.
शरीर सूर्य से ही निरोग होता है। पृथ्वी पर गंदगी-मल को सुखाकर विषाणुओं-जीवाणुओं को नष्ट करने का कार्य भगवान् सूर्य करते हैं और इस प्रक्रिया में जो जल वाष्प बनकर उड़ता है, उसी को वर्षा के रूप में लौटा देते हैं। इस जल का कुछ भाग वे स्वयं ऊर्जा दायक विकिरण-पदार्थ के रूप में ग्रहण कर लेते हैं। इस प्रकार पृथ्वी पर मौजूद जहर को काफी मात्रा में वे कम कर देते हैं। इस प्रक्रिया में जल का शोधन और स्वभाविक मिठास लौट आती है। प्राणियों को लंबे समय तक जीवित रखने का कार्य अमृत करता है। भगवान् स्वयं ही अमृत का रूप ग्रहण करते हैं तथा समय पूरा होने पर धर्मराज-यमराज के रूप में मृत्यु भी बन जाते हैं। सत् और असत् (Contamination-impurity, adulterated; Not existent, Unfounded, Illusory, Untruth, falsehood, Unreal, Untrue) भी वे स्वयं ही हैं।
Sun as a deity, is a form of the Almighty. He is often called Sury Narayan. He evaporates the water present in various impurities, poisons and checks the growth of germs, bacteria and viruses for human welfare. Poisonous materials have water in them. Sun sucks water in the form of vapours to regulate temperature and nourish-nurture the living beings. Weather formation, seasons are created by the Sun. The speed of planets too is governed by the Sun. Variation in the speed of Venus brings rains over earth and variation in the speed of Mercury brings tornadoes, typhoons, high speed winds associated with water. In fact Sun is at the heart of life in the universe. Most of the water is returned to the earth in the form of rain and a bit of it reaches back the Sun, in the form of ingredients to keep him alive. This process cleanse the water and provide it natural sweetness. The Almighty HIMSELF acts as elixir to provide long life and good health. He becomes death to relieve one of his sins and put him another species. HE HIMSELF is virtue (piousity, righteousness) and contamination-wickedness, simultaneously. Whatever activity happens over the earth or else where, is due to HIM only.
सत् और असत् ::
तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन॥[श्रीमद् भगवद्गीता 9.19]
हे अर्जुन! संसार के हित के लिए मैं ही सूर्य रूप से तपता हूँ, मैं ही जल को ग्रहण करता हूँ और फिर उस जल को बरसा देता हूँ और तो क्या कहूँ, अमृत और मृत्यु तथा सत् और असत् भी मैं ही हूँ।Almighty told Arjun that HE shines in the form of Sun for the welfare of the universe and accepts the water, which evaporates and then return it, in the form of rain. HE added further that it was HE, who acted as ambusia (elixir, nectar, Amrat, Ambrosia-Greek & Roman Mythology, the food of the demigods, thought to confer immortality.) granting immortality and death along with virtues, eternity, Absolute and wickedness-temporal. The Supreme Being acquires the desired form as and when required for the nurture-nourishment of the universe-various abodes & infinite universes.
शरीर सूर्य से ही निरोग होता है। पृथ्वी पर गंदगी-मल को सुखाकर विषाणुओं-जीवाणुओं को नष्ट करने का कार्य भगवान् सूर्य करते हैं और इस प्रक्रिया में जो जल वाष्प बनकर उड़ता है, उसी को वर्षा के रूप में लौटा देते हैं। इस जल का कुछ भाग वे स्वयं ऊर्जा दायक विकिरण-पदार्थ के रूप में ग्रहण कर लेते हैं। इस प्रकार पृथ्वी पर मौजूद जहर को काफी मात्रा में वे कम कर देते हैं। इस प्रक्रिया में जल का शोधन और स्वभाविक मिठास लौट आती है। प्राणियों को लंबे समय तक जीवित रखने का कार्य अमृत करता है। भगवान् स्वयं ही अमृत का रूप ग्रहण करते हैं तथा समय पूरा होने पर धर्मराज-यमराज के रूप में मृत्यु भी बन जाते हैं। सत् और असत् (Contamination-impurity, adulterated; Not existent, Unfounded, Illusory, Untruth, falsehood, Unreal, Untrue) भी वे स्वयं ही हैं।
Sun as a deity, is a form of the Almighty. He is often called Sury Narayan. He evaporates the water present in various impurities, poisons and checks the growth of germs, bacteria and viruses for human welfare. Poisonous materials have water in them. Sun sucks water in the form of vapours to regulate temperature and nourish-nurture the living beings. Weather formation, seasons are created by the Sun. The speed of planets too is governed by the Sun. Variation in the speed of Venus brings rains over earth and variation in the speed of Mercury brings tornadoes, typhoons, high speed winds associated with water. In fact Sun is at the heart of life in the universe. Most of the water is returned to the earth in the form of rain and a bit of it reaches back the Sun, in the form of ingredients to keep him alive. This process cleanse the water and provide it natural sweetness. The Almighty HIMSELF acts as elixir to provide long life and good health. He becomes death to relieve one of his sins and put him another species. HE HIMSELF is virtue (piousity, righteousness) and contamination-wickedness, simultaneously. Whatever activity happens over the earth or else where, is due to HIM only.
सत् और असत् :: Contamination-impurity, adulterated; Not existent, Unfounded, Illusory, Untruth, falsehood, Unreal, Untrue.
HE is called unrevealed, imperishable, Ultimate abode, from which the soul never return to earth, having achieved it.
परमात्मा अव्यक्त-व्यक्त, अक्षर-क्षर, गति-स्थिति से रहित निरपेक्ष तत्व है। उसे सगुण-साकार, निर्गुण-निराकार, सगुण-निराकर अथवा निर्गुण-साकार कैसे भी मानकर साधक प्रयत्न करे; वह अन्ततोगत्वा, उसी निरक्षर ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है, जिसको पाकर पुनरावर्ती नहीं होती अर्थात मनुष्य को मृत्यु लोक में नहीं आना पड़ता। परमात्मा यदि अवतार ग्रहण करते हैं तो उनके संगी-साथियों के रूप में ऐसे महात्मा लोग भी साथ चले आते हैं। कभी-कभार भगवान् की इच्छा से ऐसे व्यक्ति लोगों का उद्धार करने के लिए भी कारक पुरुषों के रूप में इस भूमंडल पर पधार सकते हैं।
The Almighty has various modules like :- with characteristics & form, without characteristics & without form. HE is absolute and neutral; free from the clutches of time. The practitioner, Yogi, ascetics, devotee will assimilate in HIM, irrespective of the route adopted by him. One does not return to earth, becomes free from the repeated cycles of birth & death, having reached that Ultimate abode of the God. At occasions the Almighty takes incarnations-Avtars to help the residents of earth. In such conditions the pure souls do accompany HIM. There are instances, when such souls do come to earth to bring out the people out of trouble.
Bhagwan Shri Krashn asked Arjun-the son of Pratha-Kunti, that the Almighty is pervaded throughout the universe-eternity, all living beings are controlled by HIM and HE can be attained through unique-unalienable devotion. Entire universes is confined in HIM.
सम्पूर्ण सृष्टि परमात्मा के अन्तर्गत-अधीन है और वह स्वयं सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त है। उसके सिवाय किसी अन्य की स्वतंत्र सत्ता नहीं है। वह अव्यक्त, अक्षर, परमगति केवल अनन्य भक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है। कोई भी अन्य साधन बगैर भक्ति के अपूर्ण है।
Whole world-life is controlled by the Almighty and HE HIMSELF pervades through it. None-nothing is independent, except HIM. HE the undisclosed, undescribed, Ultimate WHO can be achieved through unique, undivided, unshared devotion. Whatever path one adopts for Salvation should have devotion associated with it. How can one attain HIM without dedication-devotion?!
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥[श्रीमद् भगवद्गीता 8.21]
उसी को अव्यक्त और अक्षर कहा गया है तथा उसी को परम गति कहा गया है और जिसको प्राप्त होने पर जीव फिर लौटकर संसार में कभी नहीं आता, वह मेरा परम धाम है। HE is called unrevealed, imperishable, Ultimate abode, from which the soul never return to earth, having achieved it.
परमात्मा अव्यक्त-व्यक्त, अक्षर-क्षर, गति-स्थिति से रहित निरपेक्ष तत्व है। उसे सगुण-साकार, निर्गुण-निराकार, सगुण-निराकर अथवा निर्गुण-साकार कैसे भी मानकर साधक प्रयत्न करे; वह अन्ततोगत्वा, उसी निरक्षर ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है, जिसको पाकर पुनरावर्ती नहीं होती अर्थात मनुष्य को मृत्यु लोक में नहीं आना पड़ता। परमात्मा यदि अवतार ग्रहण करते हैं तो उनके संगी-साथियों के रूप में ऐसे महात्मा लोग भी साथ चले आते हैं। कभी-कभार भगवान् की इच्छा से ऐसे व्यक्ति लोगों का उद्धार करने के लिए भी कारक पुरुषों के रूप में इस भूमंडल पर पधार सकते हैं।
The Almighty has various modules like :- with characteristics & form, without characteristics & without form. HE is absolute and neutral; free from the clutches of time. The practitioner, Yogi, ascetics, devotee will assimilate in HIM, irrespective of the route adopted by him. One does not return to earth, becomes free from the repeated cycles of birth & death, having reached that Ultimate abode of the God. At occasions the Almighty takes incarnations-Avtars to help the residents of earth. In such conditions the pure souls do accompany HIM. There are instances, when such souls do come to earth to bring out the people out of trouble.
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्॥
हे प्रथानन्दन अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जिसके अन्तर्गत हैं और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, वह परम पुरुष परमात्मा तो अनन्य भक्ति से प्राप्त किया जा सकता है।[श्रीमद् भगवद्गीता 8.22] Bhagwan Shri Krashn asked Arjun-the son of Pratha-Kunti, that the Almighty is pervaded throughout the universe-eternity, all living beings are controlled by HIM and HE can be attained through unique-unalienable devotion. Entire universes is confined in HIM.
सम्पूर्ण सृष्टि परमात्मा के अन्तर्गत-अधीन है और वह स्वयं सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त है। उसके सिवाय किसी अन्य की स्वतंत्र सत्ता नहीं है। वह अव्यक्त, अक्षर, परमगति केवल अनन्य भक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है। कोई भी अन्य साधन बगैर भक्ति के अपूर्ण है।
Whole world-life is controlled by the Almighty and HE HIMSELF pervades through it. None-nothing is independent, except HIM. HE the undisclosed, undescribed, Ultimate WHO can be achieved through unique, undivided, unshared devotion. Whatever path one adopts for Salvation should have devotion associated with it. How can one attain HIM without dedication-devotion?!
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः॥
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः॥
यह पूरा-समग्र संसार मेरे निराकर रूप से व्याप्त है। सम्पूर्ण प्राणी मुझ में स्थित हैं, परन्तु मैं उनमें स्थित नहीं हूँ तथा वे प्राणी भी मुझमें स्थित नहीं हैं। मेरे इस ईश्वर सम्बन्धी योग-सामर्थ्य को देख। सम्पूर्ण प्राणियों को उत्पन्न करने वाला और प्राणियों का धारण, भरण-पोषण करने वाला मेरा स्वरूप उन प्राणियों में स्थित नहीं है।[श्रीमद् भगवद्गीता 9.4-5]
Entire universe is pervaded by the Almighty and is just an expansion-extension of HIM. All beings are present in HIM but reciprocal-vice a versa (opposite, inverse) does not exist. (One is not capable of holding HIM). Again the living beings (creatures, organisms) also do not exist in HIM (in their physical-material forms). View (see, watch, perception, observation) HIS capability of holding the entire universe. HIS figure-configuration which created, nurtured them, supported them, does not exist in them. Its purely a one way traffic.
मन, बुद्धि, इन्द्रियों से जिसका भान-आभास होता है, वो परमात्मा का व्यक्त रूप है और अव्यक्त रूप इनके परे मनुष्य की क्षमता से बाहर है। साकार-निराकर,सगुण-निर्गुण का भेद मनुष्य के मन का वहम मात्र है और मानवी संवेदनाओं-बुद्धि द्वारा जनित है, अन्यथा वह अविनाशी परमात्मा तो एक और केवल एक ही है। ये भेद मानवी सम्प्रदायों के बनाये-घड़े हुए हैं और अवास्तविक है। जीव परमात्मा का अंश होने से उसके समान अभेद (जिसमें भेद-अन्तर का अभाव है) है। यहाँ समझने की बात यह है कि पानी की बूँद समुद्र में समा जाती है, समुद्र बूँद में नहीं समा सकता। समस्त प्राणी परमात्मा से ही प्रकट-उत्पन्न हुए हैं अर्थात उसमें स्थित हैं। मगर परमात्मा प्राणी में नहीं समा सकता। प्राणी नाशवान है। अगर परमात्मा उसमें स्थित है तो प्राणी के नाश होने से परमात्मा भी नष्ट होगा, यानि परमात्मा प्राणी में नहीं है, क्योंकि वो कभी नष्ट नहीं होता। परमात्मा का अंश शरीरी (आत्मा) मनुष्य-प्राणी में है जरूर, मगर पानी की एक बूँद के समान। परमात्मा की सत्ता से ही प्राणी की सत्ता है। पहले कहा गया कि सम्पूर्ण प्राणी मेरे में स्थित हैं और अब कहा कि वे मेरे में स्थित नहीं हैं। प्राणी निर्विकार-अविनाशी नहीं है, जबकि प्रभु हैं। परमात्मा-प्रभु की उत्पत्ति विनाश नहीं होता, जबकि प्राणी-प्रकृति का होता है। परमात्मा है तो संसार है अर्थात परमात्मा के रहने से संसार है, संसार से परमात्मा नहीं। संसार की स्वतंत्र सत्ता नहीं है। परमात्मा इस जगत से निर्लिप्त हैं अर्थात उनमें संसार होते हुए भी नहीं है। परमात्मा एक होते हुए भी अनेक रूपों में दृष्टिगोचर होता है। यह मनुष्य को जान लेना चाहिए। परमात्मा से सभी उत्पन्न हुए हैं, वही कर्ता, पालनहार और वह प्राणियों में स्थित, आश्रित भी नहीं है। वह अहंता, ममता से रहित है। उत्पत्ति, संहार, स्थिति परमात्मा की लीला मात्र हैं।
One might know only that exposure-configuration of the God through the brain, intelligence and his organs, which is revealed, exposed, adopted by HIM, from time to time, is again not the same. Its different in different incarnations, depending upon the need of situation, time. The unrevealed configuration is beyond the capability of demigods-deities & the humans. The assumption (variation, difference) of formless or with form, with characteristics or without characteristics is man made, depending upon the faith he follows. These distinction are man made and unreal, virtual, false, fake. The organism is like the Almighty in the sense that he is a component of HIM, as a soul. A drop of water will be held by the ocean but the drop of water is incapable of holding the ocean. A dust particle become earth on falling over it, but it can not hold the earth. Similarly, the soul can rest in the Almighty but its incompetent to hold the God. The organism, nature is perishable. If the God becomes a component of it, HE too becomes perishable, which is not so. The God remains but nature: earth, solar systems, galaxies keep on perishing. The component of the God :- soul is present in the creature but just like the drop of water in ocean. The organism exists due to the Almighty, who is for ever. Two things are said simultaneously :- the organism is present in the God and now it is said that organism is not present in HIM. HE being the creator, the organism belongs to HIM, but he is so large, mighty, capable that the organism can not hold HIM. The organism is sure to perish but the Almighty will remain for ever. The God is neither created nor destroyed while the organism is created and destroyed as well, simultaneously. The world-universe are due to the God and the God is not due to the worlds or the universes-galaxies. The Galaxies, universe, solar systems, earth, planets are not independent. If the God is there, they might be there. They do-can not exist without the God. The God is fully detached with the world. The existence of the matter is due to HIM. HE do not exist due to the presence of matter. The God is one yet, HE is capable of appearing in various shapes, formations, incarnations at the same moment-time, occasion at different places. The humans should realise this. Every one is born-evolved out of HIM. HE does the job of creation, nurture-maintenance without distinction, favour, affection & HE destroys them as well. HE is neutral-impartial. HE does not discriminate between HIS creations. HE is free from affections-allurements. Evolution, destruction-devastation or presence-showing off as incarnations are HIS acts only.
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्॥[श्रीमद् भगवद्गीता 9.11]
मूर्ख लोग, मेरे सम्पूर्ण प्रणियों के महान ईश्वर रूप श्रेष्ठ भाव को न जानते हुए, मुझे मनुष्य शरीर के आश्रित मानकर अर्थात साधारण मनुष्य मानकर, मेरी अवज्ञा (तिरस्कार) करते हैं। The ignorant (along with duffers, idiots, morons, atheist) are unable to recognise-identify the Almighty and do not care (reject, discard, despise) HIM, when HE takes incarnation as a human being, without knowing-understanding HIS transcendental nature.
जिसने सबको पैदा किया है, पालन करता है, सबका मालिक है, उसे पहचानना सामान्य व्यक्ति के लिये बेहद कठिन है। मूर्खों से तो यह अपेक्षा कतई भी नहीं करनी चाहिए। परमात्मा को स्वरूप से जानना कठिन ही नहीं, अपितु असंभव है। भगवान् शिव, जिनसे समस्त ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है, वे भी कहते हैं कि मैं उन्हें कुछ-कुछ ही जान पाता हूँ। मनुष्य साधारणतया उसी व्यक्ति को भगवान् मान लेता है, जो विलक्षण और परम शक्तिशाली है। भगवान् के अवतारों के विषय में भी मनुष्य तभी जान सकता है, जब उसे बताया जाये, उसे निश्चय हो जाये कि हाँ ये स्वयं गौलोक वासी भगवान् ही हैं, अन्यथा वो उनकी अवज्ञा करेगा ही। वैसे तो परमात्मा की माया से सारा विश्व आच्छादित-ढँका हुआ है। अवसर आया तो उन्होंने अर्जुन को माध्यम बनाकर स्वयं को व्यक्त ही नहीं किया, अपितु लोक कल्याण के लिए मार्ग दर्शन भी किया। ऐसा नहीं है कि लोग उन्हें पहचान ही नहीं पायें। भीष्म, व्यास जी, लोमेश, गर्गाचार्य आदि अनेक ऐसे व्यक्ति थे, जो उन्हें पहचान कर और अर्द्ध अर्पित करके क्रत-क्रत, धन्य हो गए। भगवान् श्री कृष्ण पूर्णावतार थे और मनुष्य शरीर में भी अपनी समस्त शक्तियों से युक्त, सम्पन्न थे।
Its really impossible for a common man to recognise-identify the Almighty in the form of a common man. HE has created all living and non living. Bhagwan Shiv, from whom all knowledge evolve says he too can not identify recognise, understand) the Almighty beyond a certain limit. The masses accept anyone as God who possesses majestic-super natural powers. As one with form, HE is Krashn with HIS abode in Gau Lok. The masses discard even the God if HE does not reveal HIMSELF. The Almighty keeps his enchantment & control the entire living world. People like Ved Vyas, Bhishm Pitamah, Lomesh Ji, Markandeys Ji, Gargachary were aware of HIS presence over the earth. Many more aware of HIS identity came to pay obeisances to HIM. The Almighty reveal to bless the living beings and guide them the virtuous path. As a human being too HE was a complete incarnation with all HIS might.
तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन॥[श्रीमद् भगवद्गीता 9.19]
हे अर्जुन! संसार के हित के लिए मैं ही सूर्य रूप से तपता हूँ, मैं ही जल को ग्रहण करता हूँ और फिर उस जल को बरसा देता हूँ और तो क्या कहूँ, अमृत और मृत्यु तथा सत् और असत् भी मैं ही हूँ।Almighty told Arjun that HE shines in the form of Sun for the welfare of the universe and accepts the water, which evaporates and then return it, in the form of rain. HE added further that it was HE, who acted as ambusia (elixir, nectar, Amrat, Ambrosia-Greek & Roman Mythology, the food of the demigods, thought to confer immortality.) granting immortality and death along with virtues, eternity, Absolute and wickedness-temporal. The Supreme Being acquires the desired form as and when required for the nurture-nourishment of the universe-various abodes & infinite universes.
शरीर सूर्य से ही निरोग होता है। पृथ्वी पर गंदगी-मल को सुखाकर विषाणुओं-जीवाणुओं को नष्ट करने का कार्य भगवान् सूर्य करते हैं और इस प्रक्रिया में जो जल वाष्प बनकर उड़ता है, उसी को वर्षा के रूप में लौटा देते हैं। इस जल का कुछ भाग वे स्वयं ऊर्जा दायक विकिरण-पदार्थ के रूप में ग्रहण कर लेते हैं। इस प्रकार पृथ्वी पर मौजूद जहर को काफी मात्रा में वे कम कर देते हैं। इस प्रक्रिया में जल का शोधन और स्वभाविक मिठास लौट आती है। प्राणियों को लंबे समय तक जीवित रखने का कार्य अमृत करता है। भगवान् स्वयं ही अमृत का रूप ग्रहण करते हैं तथा समय पूरा होने पर धर्मराज-यमराज के रूप में मृत्यु भी बन जाते हैं। सत् और असत् (Contamination-impurity, adulterated; Not existent, Unfounded, Illusory, Untruth, falsehood, Unreal, Untrue) भी वे स्वयं ही हैं।
Sun as a deity, is a form of the Almighty. He is often called Sury Narayan. He evaporates the water present in various impurities, poisons and checks the growth of germs, bacteria and viruses for human welfare. Poisonous materials have water in them. Sun sucks water in the form of vapours to regulate temperature and nourish-nurture the living beings. Weather formation, seasons are created by the Sun. The speed of planets too is governed by the Sun. Variation in the speed of Venus brings rains over earth and variation in the speed of Mercury brings tornadoes, typhoons, high speed winds associated with water. In fact Sun is at the heart of life in the universe. Most of the water is returned to the earth in the form of rain and a bit of it reaches back the Sun, in the form of ingredients to keep him alive. This process cleanse the water and provide it natural sweetness. The Almighty HIMSELF acts as elixir to provide long life and good health. He becomes death to relieve one of his sins and put him another species. HE HIMSELF is virtue (piousity, righteousness) and contamination-wickedness, simultaneously. Whatever activity happens over the earth or else where, is due to HIM only.
अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते॥
क्योंकि सम्पूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूँ; परन्तु ये मुझे तत्व से नहीं जानते, इसी से उनका पतन होता है।[श्रीमद् भगवद्गीता 9.24]
One who do not know that the Almighty is both giver & taker and those who do not know-understand this-the true transcendental nature of the God, are sure to fall into the trap of birth & death.
जब मनुष्य स्वयं को भोगों का भोक्ता और संग्रहों का स्वामी मानने लगता है तो वह परमात्मा से सर्वथा विमुख हो जाता है। इस प्रकार वह उस पर आश्रित हो जाता है जो अंततोगत्वा उसके पतन का कारण बनता है। जब जीवात्मा को यह ज्ञान हो जाता है कि समस्त भोगों और ऐश्वर्यों के दाता स्वयं भगवान् हैं, तो वह अपना ध्यान उनमें लगाकर पतन से बच जाता है। व्रत, यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, आदि शुभकर्म और वर्णाश्रम धर्म का पालन आदि जितने भी कर्म हैं, उनका फल परमात्मा ही हैं। समस्त शुभ कर्मों का विधान भी उनका ही बनाया हुआ है, ताकि मनुष्य कर्म और फल से निर्लिप्त रहें। वो ही सम्पूर्ण जगत, पदार्थ, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, क्रिया और प्राणियों के मन, शरीर, बुद्धि, इन्द्रियों के स्वामी भी हैं। सत्, असत्, जड़, चेतन भी वही हैं। इनसे ही भोग, ऐश्वर्य बने हैं। अतः मनुष्य को स्वयं को उनका अधिपति (भोग, ऐश्वर्य ) मानना और उन पर निर्भर होना भी गलत है। जो उन पर निर्भर हो गया, वो उनका दास-गुलाम हो गया और फिर उसका पतन निश्चित है।
When a person considers himself to be the owner and user-master of the God's creations, he becomes detached from the Almighty. His dependence over them (commodities, user goods-items), keeps on increasing, which ultimately results in his fall. One who is aware of the fact that all that around him is God's creation, by HIM, for HIM, he devotes himself to the God and is saved from downfall. Every activity like fasting, pilgrimage, asceticism, donations-charity, Varnashram Dharm are HIS creations, meant to guide the humans, to Salvation. It's HE who framed-devised the pious activities and their output, so that the humans remain aloof-content with them. The Almighty is behind the creation of universe, matter, person, activity, event, human mind-intelligence, organs, body, piousness and other nocturnal-nefarious activities, living as well non living. The matter and the living being forms the comforts-luxuries. The man considers himself to be master of them and is doomed. Dependence over them results in his downfall i.e., repeated birth & death.
मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः॥
मेरे प्रकट होने को, न देवता जानते हैं और न महर्षि; क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं का और महर्षियों का आदि हूँ।[श्रीमद्भगवद्गीता 10.2] Neither the demigods-deities (celestial controller), nor the Mahrishis-great saints-sages, are aware of my appearance, since I am the root cause, basis, origin of their creation-birth.
देवी-देवता गण, ऋषि-महर्षि परमात्मा से ही उदित-प्रकट हुए हैं। ज्ञान की दृष्टि से वे अन्य प्राणियों से ऊपर हैं। उनको भी परमात्मा के प्रकट-होने, अवतार ग्रहण करने के कार्य-कारण, समय, रहस्य का ज्ञान नहीं है। केवल भगवान् शंकर ही हैं, थोड़ा बहुत समझ पाते हैं, अन्य नहीं। इन सबमें जो सामर्थ्य, बल, प्रभाव, महत्ता है, वो सभी कुछ परमात्मा द्वारा दिया गया है। वे परमात्मा में लीन तो हो सकते हैं, परन्तु उन्हें समग्र रूप से जान नहीं सकते। उनसे पहले भी परमात्मा थे और बाद में भी रहेंगे। जिनका जन्म-मरण, लय होता रहता है, वे सीमित, बुद्धि, योग्यता, सामर्थ्य से असीमित-अनन्त प्रभु को जान नहीं सकते। देवता हो या दानव कोई भी उन्हें जानने की सामर्थ्य नहीं रखता।
Demigods, deities, sages, demons-giants or anyone else, is not granted-gifted with the capability to understand, know, identify the Almighty, HIS acts, incarnations, reason behind incarnations, the secrets, since they all are born out of HIM with limited capability-powers. HE is infinite with infinite powers-might. Those who are born out of HIM (demigods, deities) have micro-minute powers as compared to the God. They can assimilate in HIM, but cannot understand, identify, recognise HIM, unless, until HE HIMSELF desires so, for their welfare.
देवी-देवता गण, ऋषि-महर्षि परमात्मा से ही उदित-प्रकट हुए हैं। ज्ञान की दृष्टि से वे अन्य प्राणियों से ऊपर हैं। उनको भी परमात्मा के प्रकट-होने, अवतार ग्रहण करने के कार्य-कारण, समय, रहस्य का ज्ञान नहीं है। केवल भगवान् शंकर ही हैं, थोड़ा बहुत समझ पाते हैं, अन्य नहीं। इन सबमें जो सामर्थ्य, बल, प्रभाव, महत्ता है, वो सभी कुछ परमात्मा द्वारा दिया गया है। वे परमात्मा में लीन तो हो सकते हैं, परन्तु उन्हें समग्र रूप से जान नहीं सकते। उनसे पहले भी परमात्मा थे और बाद में भी रहेंगे। जिनका जन्म-मरण, लय होता रहता है, वे सीमित, बुद्धि, योग्यता, सामर्थ्य से असीमित-अनन्त प्रभु को जान नहीं सकते। देवता हो या दानव कोई भी उन्हें जानने की सामर्थ्य नहीं रखता।
Demigods, deities, sages, demons-giants or anyone else, is not granted-gifted with the capability to understand, know, identify the Almighty, HIS acts, incarnations, reason behind incarnations, the secrets, since they all are born out of HIM with limited capability-powers. HE is infinite with infinite powers-might. Those who are born out of HIM (demigods, deities) have micro-minute powers as compared to the God. They can assimilate in HIM, but cannot understand, identify, recognise HIM, unless, until HE HIMSELF desires so, for their welfare.
यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।
असंमूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते॥10.3॥
जो मनुष्य मुझे अजन्मा, अनादि (चिरस्थायी, नित्य, सार्वकालिक) और सम्पूर्ण लोकों का स्वामी, महान, ईश्वर के रूप में मानता-जानता है और दृढ़ता से सन्देह रहित होकर इस तथ्य को स्वीकार कर लेता है, वह मनुष्यों में ज्ञानवान है और वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है।।[श्रीमद्भगवद्गीता 10.3] One who has a firm faith-resolve, belief, determination that I am unborn, perennial (everlasting, endurable, tenable, deathless, eternal, regular, constant, frequent, perpetual), the master of all abodes and the master of all the lesser Gods, deities, demigods; is enlightened-learned amongest the humans and becomes free from all sins (by making efforts in the direction of Salvation).
मनुष्य को अपने कल्याण के लिए इतना ही जानना पर्याप्त है कि परमात्मा अजन्मा, आदि-अन्त रहित अर्थात अविनाशी, कालों का भी काल, ईश्वरों का भी ईश्वर, सम्पूर्ण लोकों का स्वामी है। केवल जानना-मानना ही पर्याप्त नहीं है, इसे वह दृढ़ता पूर्वक स्वीकार करे और जन्म-मृत्यु की श्रृंखला से स्वयं को मुक्त करने का सतत्-निरन्तर प्रयास करे। इससे उसे यह अहसास हो जायेगा कि संसार क्षण-भंगुर है, अस्थायी है और केवल मात्र परमात्मा ही उसका संगी-साथी है। परमात्मा के सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार, रूप को तत्व से जानना, उसकी लीला, रहस्य, प्रभाव, ऐश्वर्य के विषय में संदेह रहित होना ही उसकी मुक्ति का साधन है।
Its sufficient for a human being to understand that the Almighty is eternal, for ever and the God of Gods, demigods, deities. HE is supreme and controls the time and death. One who has firm faith in HIM & HIS existence is sure to become free from the cycle of death and birth. He realises that the world-universe is not a permanent fixture and subject to perish. He believes that its only the God who is always on his side. The knowledge-understanding that the God has a form and is formless as well, helps him in his resolve to attain Salvation. HE has characteristics and is free from characteristics as well. One who grasps the gist of this basic text is entitled for Liberation-emancipation provided, he simultaneously acts in this direction. Realisation of the powers, might, secrets, acts of God and to be free from confusion-doubts in this regard helps him in assimilation in the Ultimate.
मनुष्य को अपने कल्याण के लिए इतना ही जानना पर्याप्त है कि परमात्मा अजन्मा, आदि-अन्त रहित अर्थात अविनाशी, कालों का भी काल, ईश्वरों का भी ईश्वर, सम्पूर्ण लोकों का स्वामी है। केवल जानना-मानना ही पर्याप्त नहीं है, इसे वह दृढ़ता पूर्वक स्वीकार करे और जन्म-मृत्यु की श्रृंखला से स्वयं को मुक्त करने का सतत्-निरन्तर प्रयास करे। इससे उसे यह अहसास हो जायेगा कि संसार क्षण-भंगुर है, अस्थायी है और केवल मात्र परमात्मा ही उसका संगी-साथी है। परमात्मा के सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार, रूप को तत्व से जानना, उसकी लीला, रहस्य, प्रभाव, ऐश्वर्य के विषय में संदेह रहित होना ही उसकी मुक्ति का साधन है।
Its sufficient for a human being to understand that the Almighty is eternal, for ever and the God of Gods, demigods, deities. HE is supreme and controls the time and death. One who has firm faith in HIM & HIS existence is sure to become free from the cycle of death and birth. He realises that the world-universe is not a permanent fixture and subject to perish. He believes that its only the God who is always on his side. The knowledge-understanding that the God has a form and is formless as well, helps him in his resolve to attain Salvation. HE has characteristics and is free from characteristics as well. One who grasps the gist of this basic text is entitled for Liberation-emancipation provided, he simultaneously acts in this direction. Realisation of the powers, might, secrets, acts of God and to be free from confusion-doubts in this regard helps him in assimilation in the Ultimate.
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्॥[श्रीमद् भगवद्गीता 10.12]
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा।
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे॥[श्रीमद् भगवद्गीता 10.13]
परम ब्रह्म, परम धाम और महान पवित्र आप ही हैं। आप शाश्र्वत, दिव्य पुरुष, आदि देव, अजन्मा और सर्व व्यापक हैं, ऐसा आपको सब के सब ऋषि, देवर्षि नारद, असित, देवल तथा व्यास कहते हैं और स्वयं आप भी मेरे से यही कह रहे हैं। You are the Supreme Being, Ultimate, Par Brahm Parmeshwar, the Supreme-Ultimate Abode. You are eternal, Supreme Purifier-purest, divine, the primal God, the unborn and the omnipresent. All saints and sages like Devrishi Narad, Asit, Dewal & Vyas assert this and YOU too is confirming-testifying this, now.
अर्जुन ने अपने सामने प्रत्यक्ष रूप से विराजमान भगवान् की स्तुति करते हुए कहा कि आप स्वयं परब्रह्म परमेश्वर हैं। सारा संसार आप में ही व्याप्त है और आप इसके परम धाम हैं। आप ही पवित्रतम (जो स्वयं शुद्धतम और अन्य को भी शुद्ध करनेवाला है) शुद्ध हैं। ग्रन्थों-वेद, पुराण, इतिहास आदि में देवऋषि नारद, असित और उनके पुत्र देवल ने, व्यास जी ने आपको शाश्वत, दिव्य पुरुष, आदिदेव, अजन्मा और विभु कहा है। आत्मा के रूप में शाश्वत, सगुण-निराकार के रूप में दिव्य पुरुष, देवताओं और महृषियों आदि के रूप में आदि देव आप ही हैं। मूढ़ लोग आपको अज के रूप में नहीं जानते तथा असम्मूढ लोग आपको अज और अव्यक्त विभु, (जिसका संबंध वर्तमान से है, सर्व व्यापक, जो सब जगह जा या पहुँच सकता है, अपने स्थान से न हटनेवाला), के रूप में जानते हैं।
Arjun accepted all that said by Bhagwan Shri Krashn. He confirmed that Bhagwan Shri Krashn is the Supreme Lord-the Almighty. Whole universe is pervaded in HIM & HE is the Ultimate abode. He is purest and cleanse, the all. The great saints with divine origin like Devrishi Narad, Asit & his son Dewal, including Mahrishi Ved Vyas too, confirmed that. The scriptures, Veds, Purans, history etc. supported this. Arjun said that he too supported this. The God is forever-existing everywhere, creator of all, unborn, leader, eternal, self existent-deity Brahm, mighty, powerful, eminent, supreme, able to, capable of, self-subdued, firm or self-controlled, all-pervading, pervading all material things.
सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः॥[श्रीमद्भागवद्गीता 10.14]
हे केशव! मुझ से आप जो कुछ कह रहे हैं, यह सब मैं सत्य मानता हूँ। हे भगवन्! आपके प्रकट होने को न तो देवता और न ही दानव ही जानते हैं। Hey Keshav! I believe all that what ever YOU have told me is true. Hey Almighty! Neither the demigods, deities, celestial controllers nor the demons understand YOUR appearance-incarnation-real nature.
"केशव" क+अ+ईश से मिलकर बना है। "क" भगवान् ब्रह्मा, "अ" भगवान् विष्णु और "ईश" भगवान् शिव का द्योतक है। जब अर्जुन भगवान् श्री कृष्ण को केशव कहते हैं तो उनका तात्पर्य यह है कि आप ही संसार की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करने वाले हैं। अर्जुन ने स्पष्ट किया कि भगवान् ने अपने प्रभाव व विभूतियों के विषय में जो कुछ कहा वो उसे मानते हैं। उन्होंने कहा कि आप ही सर्वोपरि हैं और जो कुछ हो रहा है, उसके मूल में भी आप ही हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है। यह विश्वास-आस्था-भक्ति मोक्ष मार्ग है। देवता गण दैवी शक्तियों और दानव, मायावी शक्तियों से परिपूर्ण होने के बावज़ूद प्रभु की लीला, प्रभाव, शक्तियों को नहीं जान सकते, तो फिर मनुष्य तो किसी श्रेणी में नहीं आता। देवता और दानवों की शक्तियाँ भी सीमित और नष्टप्राय हैं। हाँ, अगर प्रभु की कृपा हो तो उन्हें किसी हद तक जाना जा सकता है। बुद्धि, चमत्कार, सिद्धियाँ या अविष्कार भी प्रभु तक नहीं पहुँच सकते।
स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते॥[श्रीमद् भगवद्गीता 10.15]
हे भूतभावन! हे भूतेश! हे देवदेव! हे जगत्पते! हे पुरुषोत्तम! आप स्वयं ही अपने-आपसे अपने-आपको जानते हैं।
Hey Bhut (past) Bhawan, you are the Creator of all beings just by means of YOUR thought-desire. Being the Lord of all beings and demigods-celestial rulers, you are Bhutesh-Dev-Dev. Being the Nurturer of inertial-static living beings, who do not move and micro, macro organisms, YOU are the Supreme person, Lord, leader of the universe and is described as the Ultimate-best in all the abodes and the Veds. YOU alone know YOURSELF by YOURSELF.
सम्पूर्ण प्राणियों को संकल्प मात्र से उत्पन्न करने वाले आप भूत भावन हैं। समस्त प्राणियों और देवताओं के मालिक होने के कारण, आप भूतेश और देव-देव हैं। जड़-चेतन, स्थावर-जङ्गम मात्र जगत् का पालन-पोषण करने वाले होने से, आप जगत पति हैं और समस्त पुरुषों में उत्तम होने से आप लोक और वेद में पुरुषोत्तम कहे गए हैं। अर्जुन ने भाव-विभोर होकर भगवान् को ये 5 सम्बोधन किये, जो उनके स्वरूप को प्रकट करते हैं। परमात्मा को सिवाय स्वयं उनके अन्य कोई नहीं जान सकता। उनका यह ज्ञान करण (वह माध्यम या साधन जिससे कोई वस्तु उत्पन्न या निर्मित की जाय अथवा कोई काम पूरा किया जाय) निरपेक्ष है, करण सापेक्ष नहीं। जिस प्रकार भगवान् स्वयं जो जानते हैं, उसी प्रकार मनुष्य को भी स्वयं को स्वतः पहचानना चाहिए। अपने आपको अपने स्वरूप का ज्ञान सर्वथा करण-निरपेक्ष होता है। इसलिए इन्द्रियों, मन, बुद्धि, आदि से स्वरूप को नहीं जाना जा सकता। भगवान् का स्वरूप होने से मनुष्य भी करण निरपेक्ष है।
The Almighty created the universe and the living beings, just by his determination. HE HIMSELF is a deity and the leader of all demigods-deities. HE nourishes all the species of the living beings whether micro-macro, movable or static. HE is the theme, master, Lord of all universes-abodes. HE is described as the Ultimate being in the Veds-the time less scriptures. HE is absolute and neutral to all efforts, mediums, objects utilized to perform, do some work, deed or even desire. The manner-way in which the God identifies HIMSELF; one should also identify himself. One can not identify himself by means of sense organs, mind or the intelligence. Self realisation comes through meditation, analysis and devotion to the God. However the enlightened or the Almighty may himself help one in his endeavour.
अज :: अव्यक्त विभु-परमात्मा, जिसका संबंध वर्तमान से है, जो सर्व व्यापक है, जो सब जगह जा या पहुँच सकता है, अपने स्थान से न हटनेवाला है; the Almighty-God who is forever-existing everywhere, creator of all, unborn, leader, eternal, self existent-deity Brahm, mighty, powerful, eminent, supreme, able to, capable of, self-subdued, firm or self-controlled, all-pervading, pervading all material things.
Hey Gudakesh-Arjun, (one who has won over sleep-fatigue)! I am the Supreme-Ultimate Spirit (or Super soul) present in the innerself (heart, inner psyche, gestures) of all beings and I am present in the beginning, the middle and the end of all beings, events, happenings.
परमात्मा ने अर्जुन को गुडाकेश इसलिए कहा क्योंकि उन्होंने नींद-थकान पर विजय प्राप्त कर ली थी जो किसी सामान्य प्राणी की लिए असंभव है। अर्जुन-नर प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ परमात्मा का रूप ही है। अतः अर्जुन स्वयं भगवान् के रूप नर हैं। भगवान् श्री कृष्ण ने अपनी विभूतियों के सन्दर्भ में स्पष्ट किया कि प्राणी-संसार के आदि, मध्य और अन्त में वे स्वयं ही उपस्थित रहते हैं। यहाँ यह भी स्पष्ट किया गया है कि समस्त चराचर, तत्व, स्थावर-जङ्गम, जड़-चेतन सभी के बीज वो ही हैं। परा और अपरा दोनों ही परमात्मा की अभिन्न विभूतियाँ हैं। आत्मा परमात्मा की पराप्रकृति हैं।
The Almighty Bhagwan Shri Krashn addressed Arjun as Gudakesh, one who has won the sleep-fatigue. The innerself (mind & heart) of the organism is pervaded by HIM. The Almighty is at the root-base, cause of every activity, event, creation as the seed. HE constitutes the gist of the universe. All creations :- micro-macro, stationary-inertial & the stationary-movable including the whole universe are HIS manifestations-forms. The strength-power of the God called Para Shakti too is the Almighty HIMSELF.
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च॥[श्रीमद् भगवद्गीता 10.20]
हे नींद को जीतने वाले अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणियों के आदि, मध्य तथा अन्त में मैं ही हूँ और सम्पूर्ण प्राणियों के अन्तःकरण-हृदय में स्थित आत्मा भी मैं ही हूँ। Hey Gudakesh-Arjun, (one who has won over sleep-fatigue)! I am the Supreme-Ultimate Spirit (or Super soul) present in the innerself (heart, inner psyche, gestures) of all beings and I am present in the beginning, the middle and the end of all beings, events, happenings.
परमात्मा ने अर्जुन को गुडाकेश इसलिए कहा क्योंकि उन्होंने नींद-थकान पर विजय प्राप्त कर ली थी जो किसी सामान्य प्राणी की लिए असंभव है। अर्जुन-नर प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ परमात्मा का रूप ही है। अतः अर्जुन स्वयं भगवान् के रूप नर हैं। भगवान् श्री कृष्ण ने अपनी विभूतियों के सन्दर्भ में स्पष्ट किया कि प्राणी-संसार के आदि, मध्य और अन्त में वे स्वयं ही उपस्थित रहते हैं। यहाँ यह भी स्पष्ट किया गया है कि समस्त चराचर, तत्व, स्थावर-जङ्गम, जड़-चेतन सभी के बीज वो ही हैं। परा और अपरा दोनों ही परमात्मा की अभिन्न विभूतियाँ हैं। आत्मा परमात्मा की पराप्रकृति हैं।
The Almighty Bhagwan Shri Krashn addressed Arjun as Gudakesh, one who has won the sleep-fatigue. The innerself (mind & heart) of the organism is pervaded by HIM. The Almighty is at the root-base, cause of every activity, event, creation as the seed. HE constitutes the gist of the universe. All creations :- micro-macro, stationary-inertial & the stationary-movable including the whole universe are HIS manifestations-forms. The strength-power of the God called Para Shakti too is the Almighty HIMSELF.
रुद्राणां शंकरश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम्॥[श्रीमद् भगवद्गीता 10.23]
रुद्रों में शंकर और यक्ष-राक्षसों में कुबेर मैं हूँ। वसुओं में पवित्र अग्नि और शिखर वाले पर्वतों में, सुमेरु मैं हूँ।
The Almighty having appeared as Krashn over the earth to get rid of the sinners, tells Arjun that HE is Shankar-Bhagwan Shiv amongest the Rudr, Kuber (treasurer of the demigods & friend of Bhagwan Shiv) amongest the Yaksh & Rakshas-demons, Agni-fire amongest the Vasus (demigods) and Sumeru amongest the mountains bearing cliffs.
भगवान् ग्यारह रुद्रों यथा हर, बहुरुप, त्रयम्बक आदि प्रमुख और उनके अधिपति कल्याण स्वरूप भगवान् शंकर हैं। अतः वे परमात्मा की विभूति हैं। कुबेर यक्षों और राक्षसों के अधिपति और धनाध्यक्ष होने से प्रभु की विभूति हैं। धर, ध्रुव, सोम आदि आठ कसुओं में अनल-पावक अर्थात अग्नि देव यज्ञ की हवि को देवताओं को पहुँचाने काम करते हैं तथा ईश्वर के मुख हैं; अतः ईश्वर की विभूति हैं। सोने, ताँबे, चाँदी आदि के शिखरों वाले जितने पर्वत हैं; उनमें सुमेरु सोने और रत्नों के भण्डार होने के कारण भगवान् की विभूति है। जिन चीजों-वस्तुओं में विशेषता-महत्ता दिखती है, वे मूल रूप से परमात्मा की विभूतियाँ ही हैं। अतः इन विभूतियों में परमात्मा का चिन्तन होना चाहिए।
There are 11 Rudr like Har, Bahu Rup, Trayambak and Bhagwan Shiv himself is a Rudr & being the welfare orientated, HE is an Ultimate-significant form of the Almighty. Kuber is the treasurer of the demigods and a close friend of Bhagwan Shiv, king of Yaksh and powerful amongest the demons is important-significant and Ultimate form of the God. The fire-Agni is one of the the Vasu's. HE accepts all offerings for the demigods and works as the mouth of the Almighty & hence Ultimate. Sumeru mountain possesses the gold and deposits of jewels which other mountains do not possess. Therefore, its too Ultimate. Anything which possesses one or the other excellence is an Ultimate form-quality-characteristic of the God. One who meditate in any of these; meditate in the Almighty invariably.
पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्।
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः॥[श्रीमद् भगवद्गीता 10.24]
हे पार्थ! पुरोहितों में मुख्य वृहस्पति को मेरा स्वरूप समझो। सेनापतियों में कार्तिकेय और जलाशयों में समुद्र मैं हूँ।
The Almighty told Arjun that HE was the priest of the demigods-deities in the heaven in the form of Vrahaspati. He was the Supreme commander of the army of the demigods-celestial controllers, in the form of Kartikey and amongest the water reservoirs HE was the ocean.
धार्मिक क्रिया कर्म, रीति-रिवाज़, विधि-विधान के श्रेष्ठतम जानकर और देवताओं के मार्ग दर्शक देवगुरु वृहस्पति हैं। वे देवराज के कुल पुरोहित भी हैं। वे हर तरह से राक्षसों के गुरु शुक्राचार्य से श्रेष्ठ हैं, अतः वे परमात्मा की विभूति हैं। स्कन्द-भगवान् कार्तिकेय भगवान् शिव के पुत्र और देव सेनापति हैं। उनके 6 मुँख और 12 हाथ हैं। वे अद्वितीय और संसार के श्रेष्ठतम सेनापति हैं, अतः प्रभु की विभूति हैं। संसार में जितने भी जलाशय हैं, उन सबमें समुद्र ही श्रेष्ठतम है। अतः वह परमात्मा की विभूति है। पृथ्वी पर बारिश, बर्फ, बादल, नदी, झील आदि का अस्तित्व उसी से है।
Dev Guru Vrahspati (Priest of demigods) is the Ultimate and enlightened philosopher & guide of the demigods. He is the family priest of Dev Raj Indr, as well. His advise is sought as and when there appear any difficulty-trouble in the heaven. He is much more versatile as compared to Shukrachary, the priest of the demons. He is authority on the traditions, trends, rituals, prayers etc., all over the universe. And hence, he is Ultimate and is a form of the Almighty. Bhagwan Kartikey is the Supreme commander of the army of the deities-demigods. He is blessed with 6 mouths and 12 hands. He is the elder son of Bhagwan Shiv and Maa Parwati-the divine Lords. He is an Ultimate expert of the warfare and hence a form of the Almighty. Ocean is the largest water body-reservoir over the earth and nurture the earth in the form of rains, rivers, lacks, clouds, ice etc. Due to this property, it is the Ultimate form of the God.
महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः॥[श्रीमद् भगवद्गीता 10.25]
महर्षियों में भृगु और वाणियों-शब्दों में एक अक्षर प्रणव मैं हूँ। सम्पूर्ण यज्ञों में जप यज्ञ, स्थिर रहने वालों में हिमालय मैं हूँ।
Bhagwan Shri Krashn said that HE is Bhragu amongest the great sages and ॐ-om (monosyllable cosmic sound) amongest the words-speeches. Amongest the Yagy-ritualistic performances with sacrifices in Agni-fire, HE is Jap Yagy-spiritual recitation of Mantr-lyrics, rhythms and HE is Himalay mountain amongest the stationery-fixed objects.
परमात्मा ने भृगु, अत्रि और मरीचि आदि महृषियों में भृगु को अपनी विभूति इसलिये कहा है, क्योंकि उन्होंने ही परीक्षा करके बताया कि त्रिदेवों :- ब्रह्मा, विष्णु और महेश में, भगवान् विष्णु ही श्रेष्ठतम हैं। भगवान् विष्णु भृगु के चरण-चिन्हों को अपने वक्ष पर भृगुलता नाम से धारण किये हुए हैं। सबसे पहले तीन मात्रा वाला प्रणव प्रकट हुआ। तत्पश्चात त्रिपदा गायत्री और उससे वेद, वेदों से शास्त्र, पुराण आदि सम्पूर्ण वाङ्गमय जगत प्रकट हुआ। इसी प्रकार यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाओं को प्रणव के उच्चारण से ही प्रारम्भ किये जाने से परमात्मा शब्दों में प्रणव हैं। भगवन्नाम जप एक ऐसा यज्ञ है, जिसमें किसी पदार्थ या विधि-विधान की आवश्यकता नहीं है। अतः यह यज्ञों में, गलती-त्रुटि की गुंजाइश-संभावना न होनेसे श्रेष्ठतमऔर प्रभु की विभूति है। हिमालय पर्वत ऋषि-मुनियों की तप स्थली, पवित्र नदियों गँगा, यमुना का उद्गम, नर-नरायण की आदि स्थान बद्रीनाथ, केदारनाथ, कैलाश आदि का प्रमुख पवित्र स्थल होने से स्थिरों में प्रभु की विभूति है।
Out of the Mahrishis born as the sons of Bhawan Brahma, Bhragu is entitled to be the supreme, since it was he who testified that Bhagwan Vishnu was superior amongest the Tri Dev: Brahma, Vishnu & Mahesh. In this process he struck the chest of Bhagwan Vishnu with his feet, which was held by Bhagwan Shri Hari Vishnu and HE jokingly closed numerous eyes present in his feet granting him enlightenment & attracted curse of Maa Laxmi that his decedents would never have sufficient money to survive. The Almighty recognise him as his Ultimate form as a sage. HE is wearing the marks of Bhragu's foot over his chest as Bhragu Lata. Om (primordial sound) is the syllable which appeared before evolution followed by Gayatri-divine prayer, which resulted into the appearance of Veds, Purans, scriptures, history etc. Therefore, the God is calling it to be HIS excellent character-quality, form. The recitation of the names of the God is free from procedure, methodology, sacrifices etc. Hence, it is considered to be the best form of prayer-worship, as there is rare-minimum chance of mistakes connected with sequence, offerings etc. Himalay-Everest is the place which is liked by the sages-ascetics to perform Yog, worship, prayers being isolates. Pious rivers like Ganga, Yamuna, Sahatr Dhara, appear here. Bhagwan Nar-Narayan are still practicing asceticism there, at Badri Nath. Bhagwan Shankar occupies Kaelash with Maa Parwati as his abode. Maa Bhagwati Parwati took incarnation as the daughter of Himalay. Gangotri & Yamunotri (Char Dhams) too are located here. It continues to supply water throughout the year into rivers like Saraswati, Brahm Putr etc. It results into rains in the entire northern region of India and controls the climate throughout the world. It is the highest mountain in the world. This is the reason the God is calling it his Supreme-Ultimate form.
अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः॥[श्रीमद् भगवद्गीता 10.26]
सम्पूर्ण वृक्षों में पीपल, देवऋषियों में नारद, गन्धर्वों में चित्ररथ और सिद्धों में कपिल मुनि मैं हूँ।
I am the holy fig tree among the trees, Narad among the divine sages, Chitr Rath among the Gandharvs and Kapil Muni among the Siddh (An ascetic who has achieved enlightenment).
पीपल एक रोग नाशक-हर वक्त ऑक्सीजन देने वाला वृक्ष है और इसकी पूजा की जाती है। यह किसी भी स्थान पर उगने में समर्थ है। इसे भगवान् ने अपनी विभूति बताया है। देवऋषि नारद को परमात्मा का मन कहा गया है। वे पहले से पहले उनके अन्तःकरण में क्या है, यह जानकर उसकी भूमिका रच देते हैं। उन्होंने ही बाल्मीकि और वेदव्यास को रामायण और भागवत-महाभारत की रचना करने की प्रेरणा दी थी। नारद जी बात पर देव, गन्धर्भ, नाग, किन्नर, राक्षस-असुर आदि सभी विश्वास करते हैं, उनकी हर बात मानते है और उनसे सलाह भी लेते हैं। अतः वे भगवान् की विभूति हैं। सभी गन्धर्भों में चित्ररथ प्रमुख हैं और उन्हीं ने अर्जुन को गायन विद्या प्रदान की और वे भी परमात्मा की एक विभूति हैं। कपिल मुनि जन्मजात सिद्ध और भगवान् के अवतार माने जाते हैं। वे साँख्य शास्त्र के आचार्य और सिद्धों के गणाधीश हैं। उन्हें भी प्रभु ने अपनी विभूति कहा है। इस सब विभूतियों में जो विलक्षणता प्रतीत होती है वह मूलतः - तत्वतः परमात्मा की ही है।
Peepal-fig tree is a unique tree which releases oxygen throughout the day.
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Its capable of curing various diseases. Its capable of growing in adverse conditions as well, to say :- over the mountains, walls etc. Therefore, its one of the Ultimate traits-form of the Almighty. Narad Muni is a Dev Rishi & is said to be the innerself-psyche of the God who prepare grounds for the future action in advance by knowing his desire. He inspired Maharishi Balmiki to write Ramayan in advance and asked Bhagwan Ved Vyas to write Bhagwat & Maha Bharat. Shri Mad Bhagwat Geeta is a part of Maha Bharat. He is the only one who is respected & believed by all species in this universe; including demigods, demons-giants, Nags-serpents, Gandarbh etc. They all consult him as well. It makes him a form of the God. Chitr Rath is best amongest the inferior demigods called Gandarbhs, who are specialists in dancing, music (instrumental & vocal) & singing. It was Chitr Rath who taught dancing & singing to Arjun, when he went to heaven in human incarnation during the period of his exile, which is otherwise prohibited for other living beings. Kapil Muni is an incarnation of the Almighty and amongest the 24 prominent forms-incarnations of the Almighty. He is an enlightened sage-Siddh. He taught Sankhy-enlightenment Yog for the welfare of humans. He is the head of Siddh Gan. This is the reason that he is an embodiment of the Almighty.
Please refer to :: santoshkipathshala.blogspot.com The quality-trait of being excellent (unique, distinguishing character, prodigy, novelty, singularity, sagacity) makes one a form of the Ultimate-the Almighty.
उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्भवम्।
ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम्॥[श्रीमद् भगवद्गीता 10.27]
घोड़ों में अमृत के साथ समुद्र से प्रकट होने वाले उच्चै:श्रवा नामक घोड़े को, श्रेष्ठ हाथियों में ऐरावत नामक हाथी और मनुष्यों में राजा को मेरी विभूति मानो।
During the churning of the ocean 14 jewels-Ultimate goods & personalities appeared. Amongest them the horse, which became the king of horses and named Uchcheshrava along with Aerawat-the elephant, which appeared and became the king of elephants and both of them became the vehicles of Indr-the king of heaven, are the Ultimate forms of the God as per his own admission. The Almighty says that HE is present over the earth in the form of the kings.
समुद्र मन्थन के परिणाम स्वरूप प्राप्त हुए 14 रत्नों में उच्चैः श्रवा नामक अश्व और ऐरावत नामक हाथी भी थे, जो कि देवराज इन्द्र के वाहन बने। उन्हें परमात्मा ने अपनी विभूति माना है, क्योंकि वे क्रमश: घोड़ों और हाथियों में श्रेष्ठतम और उनके राजा हैं। प्रजा का पालन, रक्षा-संरक्षण राजा का धर्म है। वह प्रजा पालक अर्थात प्रजा की सेवा, लालन-पालन, देखभाल के लिए है, न कि अधिकार जताने-प्रताड़ित करने के लिए। राजा को सामर्थ्य-शक्तियाँ परमात्मा से सदुपयोग के लिए प्राप्त हैं, न कि दुरूपयोग की लिए। अतः राजा परमात्मा की विभूति है।
Mythological churning of the ocean resulted into the appearance of the 14 jewels-Ultimate goods & divine personalities. Amongest them Uchcheshrava was the divine horse accompanied by the divine elephant Aerawat. They both became the kings of the horses & the elephants, respectively. They are Ultimate in their category and hence are the forms of the God.
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अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्।
पितॄणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम्॥[श्रीमद् भगवद्गीता 10.29]
नागों में अनन्त-भगवान् शेषनाग और जल-जन्तुओं का अधिपति वरुण मैं हूँ। पितरों में अर्यमा और शासन करने वालों में यमराज मैं हूँ।
The Almighty as Shri Krashn revealed the secret to Arjun that HE was Anant-Bhagwan Shesh Nag among the hooded snakes, Varun the administrator of the reptiles-animals residing in water, Aryma among the Pitr and Yam-Dharm Raj among the rulers-administrators.
भगवान् अनन्त-शेष नाग, पृथ्वी को अपने मस्तिष्क पर धारण किये हुए हैं। वही भगवान् विष्णु की शेष शय्या हैं। परमात्मा जब भी अवतार ग्रहण करते हैं, वे भी उनके साथ-साथ जन्म लेते हैं। वो ही लक्ष्मण और वो ही बलराम जी हैं। समस्त जलचरों के स्वामी और अर्जुन को गाण्डीव धनुष प्रदान करने वाले जल के देवता वरुण भी वही हैं। 7 पितरों में प्रमुख अर्यमा हैं। प्राणियों को उनके कर्मों के अनुरूप गति प्रदान करनेवाले और सारे संसार के नियंत्रण कर्ता यमराज हैं। ये सभी भगवान् की विभूतियाँ हैं।
Bhagwan Anant-Shesh Nag has 1,000 hoods. He is bearing the earth over one of his hoods. He forms the bed of Bhagwan Vishnu in the Ksheer Sagar. He takes birth along with incarnation of the Almighty. He was Lakshman when Bhagvan Shri Ram appeared over the earth. This time he accompanied Bhagwan Shri Krashn as Bal Ram Ji. Varun is the nurturer of reptiles and water born animals. He landed his bow named Gandeev, to Arjun. Celestial ancestors-Manes are 7 in number and Aryma is Ultimate-topmost in them. Yam Raj controls the entire living world through their deeds awarding them specific abodes and birth in a particular-specific species, according to the accumulated deeds in infinite births. These four are the Ultimate forms of the deities-demigods in their categories and hence are the forms of the Almighty.
The king-ruler, emperor has been declared to be his own form-representative, by the God till he is protecting, nurturing, serving the citizens-masses. As a matter of fact there had been kings who proclaimed to be God and reached hell. Its one way traffic. A king may have a microscopic fraction of the characteristics, qualities, traits of the Almighty, but the reciprocal-inverse or the opposite is never true.
प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम्।
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम्॥[श्रीमद् भगवद्गीता 10.30]
दैत्यों में प्रह्लाद और गणना करने वालों में (ज्योतिषियों) में काल मैं हूँ तथा पशुओं में सिंह और पक्षियों में गरुड़ मैं हूँ।
The Almighty elaborated that HE was Bhakt Prahlad among the demons-giants and Kal among those who calculated the time period i.e., astrologers, lion among the animals-beasts and Garud among the birds.
मह्रिषी कश्यप के दिति से उत्पन्न पुत्र दैत्य कहलाते हैं। उनमें प्रह्लाद जी भगवान् के परम भक्त और सर्वश्रेष्ठ हैं। वे भगवान् के परम प्रेमी और निष्काम होने की वजह से परमात्मा की विभूति हैं। आयु के परिमाण से प्रह्लाद जी अभी भी सुतल लोक में निवास करते हैं। व्यवस्था बनाये रखने के लिए काल विभाजन अत्यावश्यक है। ज्योतिषि गण भविष्य और भूत की गणना करते हैं। यमराज को काल और भगवान शिव को महाकाल माना जाता है। अतः काल भगवान् की विभूति है। सिंह पशुओं में सबसे बलवान और जंगल का राजा माना जाता है, अतः वो प्रभु की विभूति है। मह्रिषी कश्यप की पत्नी विनता के पुत्र गरुड़ जी भगवान् विष्णु के वाहन हैं और पक्षियों में सर्वश्रेष्ठ होने के कारण पक्षियों के राजा भी हैं। उड़ते समय उनके पंखों से सामवेद की ऋचाएँ स्वतः ध्वनित होती हैं। अतः वे परमात्मा की विभूति हैं।
Mahrishi Kashyap's sons from his wife Diti are called giants-demons. Prahlad Ji is a great devotee of the Almighty. He was the emperor of the demons but volunteerly deserted the throne for Andhak, Bhagwan Shiv & Maa Parwati's son, born as a blind. He asked for Bhakti devotion as a boon to the Almighty. He nurture Ultimate devotion to the God and hence is an exceptional entity and Ultimate form of the God. He still resides in the Sutal Lok gifted by Bhagwan Vishnu to his grand son Raja Bahu Bali. Division of the cosmic era-time period into fragments is essential. Astrologers maintain records of the hierarchy in India. They are able to predict exact events of the future as well. Yam-Dharm Raj the deity of death & birth, virtues & sins is called Kal (Death). Bhagwan Shiv is called Maha Kal. It makes Kal as a distinctive quality of the Almighty. The God recognises HIMSELF as the Kal. Lions constitute the top of the pyramid among the animals-beasts and he is the king of the jungle. Garud Ji is the vehicle of Bhagwan Vishnu & the king of birds. When he flies verses of Sam Dev evolves out of his feathers.
राम पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम्।
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी॥[श्रीमद् भगवद्गीता 10.31]
पवित्र करनेवालों में वायु और शस्त्र धारियों में राम मैं हूँ। जल-जन्तुओं में मगर मैं हूँ और नदियों में गङ्गा जी मैं हूँ।
The Almighty said that HE is air amongest the purifiers, Ram among those who bear arms, crocodile among the animals who live in water and Ganga Ji among the river.
पवन-वायु को सर्वश्रेष्ठ शुद्धि कर्ता कहा गया है, क्योंकि वातावरण में अशुद्धि और जल की अशुद्धि को वायु ही दूर करती है। ऑक्सीजन समस्त प्रकार के जीवाणु, फफूँदी, बीजाणुओं, वायरस आदि को नष्ट करने में सक्षम है। नदी के जल में घुलने वाली ऑक्सीजन सभी प्रकार की अशुद्धिओं को समाप्त कर देती है। अतः पवन देव परमात्मा की विभूति हैं। भगवान् राम अवतार तो हैं ही, शस्त्र धारियों में सर्वश्रेष्ठ भी हैं और इसीलिए परमात्मा की विभूति हैं। मगर-घड़ियाल माँ गङ्गा का वाहन है और जल-जंतुओं में सबसे अधिक बलवान और जल में जाने की बाद और अधिक बलवान हो जाता है, अतः भगवान् की विभूति है। माँ गङ्गा जनकल्याण के लिए स्वर्ग से पृथ्वी पर पधारीं हैं। गङ्गा-यमुना के क्षेत्र में पैदा होने वाला व्यक्ति अन्य स्थानों पर उत्पन्न लोगों से श्रेष्ठ है। गङ्गा जी पूरे वर्ष खेती-बाड़ी के लिए जल प्रदान करती हैं और इनका जल कभी खराब नहीं होता।
Please refer to :: DESCENT OF MAA GANGA OVER THE EARTH गँगावतरण santoshkipathshala.blogspot.com
इसी श्रेष्ठता के कारण वे परमात्मा की विभूति हैं।
Air is the universal cleanser. It cleans the sky and the water side by side, due to the presence of oxygen in it. This is one of the life sustaining materials over the earth. It is one of the major component of the human body and essential for survival. Hence, this uniqueness make it an exemplary-exceptional quality of the Almighty. Oxygen is capable of killing germs, microbes, viruses, bacteria, fungus, protozoans etc., which are harmful to life. Bhagwan Ram, an incarnation of the God is greatest amongest those who bear weapons. HE relinquished Ravan & vanished the demons-giants, who tortured the humans-sages etc. HE is Ultimate amongest the warriors and hence an Ultimate form-incarnations of the God. Crocodile is considered to be the strongest amongest those animals, who reside in water and is the carrier of Maa Ganga. Maa Ganga is the purest amongest the rivers. One who is born over the earth in the periphery Ganga & Yamuna is fortunate, since he has been granted an opportunity to perform pious acts-deeds, social service, welfare of the downtrodden to get rid of his accumulated sins. She brings water to planes throughout the year to cultivate and survive. It's water is composed of so many life sustaining minerals and elements which have a cleansing action over the human body. Hence both Maa Ganga and her carrier Crocodile are considered to be the Ultimate forms of the God.
सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम्॥[श्रीमद् भगवद्गीता 10.32]
हे अर्जुन! सम्पूर्ण सृष्टियों के आदि, मध्य तथा अंत में मैं ही हूँ। विद्याओं में अध्यात्म विद्या-ब्रह्म विद्या और परस्पर शास्त्रार्थ करने वालों का (तत्व निर्णय के लिए जाने वाला) वाद मैं हूँ।
The Almighty took the opportunity to establish that HE was the force behind all creations-evolution, at their beginning, middle and the end. HE was present at all points of time. HE constituted the Ultimate knowledge & the gist (nectar, theme, central idea, elixir) of it. HE was behind all opinions-sects and those who debated the gist of the Ultimate, their knowledge and arguments-logic pertaining to supreme self.
जितने भी सर्ग, उपसर्ग, सृष्टि के आदि मध्य और अन्त हैं, उन सभी में परमात्मा मौजूद रहते हैं। इस सम्बन्ध को जानने पर, मनुष्यों को हर वक्त, हर घड़ी भगवान् का स्मरण करना चाहिए। संसार का अभाव करके, निर्गुण परमात्मा का जानना, अध्यात्म विद्या है। इसमें निर्गुण स्वरूप की प्रभु सत्ता है। यह मनुष्य के लिए कल्याणकारी है। इसकी प्राप्ति के बाद मनुष्य को कुछ भी जानने-पढ़ने के लिए शेष नहीं रहता। परमात्मा से सम्बन्धित वाद-विवाद, शास्त्रार्थ, विचार-विमर्श परमात्मा के सच्चे स्वरूप को जानने के लिए है। इसमें व्यर्थ की तकरार के लिए कोई स्थान नहीं है। किसी भी राय को वाद का नाम दिया गया है। इसमें निष्कर्ष की सम्भावना नगण्य है। अतः यह भी भगवान् की विभूति है। आत्मज्ञान, अध्यात्म विद्या अथवा ब्रह्म विद्या परमात्मा की विभूति इसीलिए हैं। यह सबसे सरल, सुगम और प्रत्यक्ष अनुभव का विषय है। यह समझने की बात है कि "संसार में नित्य, अनवरत परिवर्तन हो रहा रहा है, फिर भी शरीरी-आत्मा वही है और केवल शरीर बदल रहा है"।
Various phases of cosmic era, their beginning, middle and the termination-dooms day see the God. One who knows, understands this, always keep remembering the Almighty. Elimination of the Universe and efforts to know the Almighty constitutes the "Atm Vidya", self realisation. The God is present at all points of time & HE is behind all creations, destruction, nurture with HIS might. This is Almighty's characteristics-traits, quality, factor less image. One who has identifies this, is willing to do his own welfare through righteous, virtuous, honest, pious means. Nothing is left to be acquired after this possession. That makes it, God's Ultimate form of spiritual knowledge. One might come to some conclusion about the God's real identity by debating with others in an efforts to seek their opinion. This opinion too becomes God's supreme form through the process of elimination-analysis & synthesis. However, no one can come to last & final opinion-conclusion, since the Almighty has infinite variants. One realises that HE is still the same in spite of the changing world, HIS physical-chronological age. The soul remains same but the body which bears it, has undergone tremendous change. This makes it supreme knowledge-realisation; a form of the Ultimate-Almighty.
अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च।
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः॥[श्रीमद् भगवद्गीता 10.33]
अक्षरों में अकार और समासों में द्वन्द समास (संस्कृत व्याकरण में वह अवस्था जब अनेक पदों का एक पद, अनेक विभक्तियों की एक विभक्ति या अनेक स्वरों का एक स्वर होता है) मैं हूँ। अक्षरकाल अर्थात काल का भी महाकाल तथा सब ओर मुख वाला धाता सबका पालन पोषण करनेवाला, भी मैं ही हूँ।
The Almighty asserts that HE is the first letter of the alphabets-syllables "अ" and HE is the "I AM-ME, MY" the dual compound among the compound words. HE is the endless time and the Ultimate time (Maha Kal Bhagwan Shiv) side by side. HE is sustainer-nurturer and omniscient, having mouth in all directions.
वर्णमाला में सबसे पहले अकार "अ" आता है। स्वर और व्यंजन दोनों में ही अकार मुख्य है। इसके बिना व्यञ्जनों का उच्चारण भी नहीं होता। अतः यह परमात्मा की विभूति है। द्वन्द समास वह शब्द है, जो दो शब्दों से मिलकर बनता और दोनों शब्दों में प्रधानता है। अतः यह भी परमात्मा की विभूति हुआ। आदि देव परमात्मा अनन्त अनादि, कालातीत हैं। उनका कभी क्षय नहीं होता। सर्ग और प्रलय काल में समय की गणना को भगवान् सूर्य के अनुरूप-सन्दर्भ में किया जाता है। महाप्रलय में जब सूर्य भी लीन हो जाता, तब समय की गणना परमात्मा के सापेक्ष होती है। इसी वजह से प्रभु अक्षय काल हैं। सूर्य द्वारा निर्धारित काल ज्योतिष सम्बन्धित गणनाओं का आधार है, जो अक्षय काल है; वह परिवर्तनशील नहीं है। अतः अक्षर काल परमात्मा की विभूति है। परमात्मा हर वक्त हर घड़ी सभी प्राणियों को निहारते रहते हैं और सभी-सब के सब प्रकार के कार्य कलापों पर, उनकी पैनी नजर रहती है। इस लिहाज से प्रभु स्वयं अपनी विभूति स्वयं हैं।
The vowel "अ" (English has no equivalent for this sound. Its very near to A-a. A-a is close to "ए" of Hindi and Sanskrat. Almost all consonants have this sound attached with them. There are compound words which have two or more words, signifying each one of them. This leads to the Ultimate nature of this letter-alphabet, making it a form of the God. The Almighty is beyond the limits of time & is since ever, for ever. At the time of evolution & the doom's day the Sun losses its significance, since it too assimilate in the Almighty. At that occasion the Almighty is the absolute time scale, which makes HIM, HIS own excellence-Ultimate quality. The Almighty watches all living beings with HIS face in all directions, so that each and every one gets his due. This is again an Ultimate trait which makes HIM superior to all.
मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्।
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा॥[श्रीमद् भगवद्गीता 10.34]
सबका हरण करने वाली मृत्यु और भविष्य में उत्पन्न होने वाला मैं हूँ तथा स्त्री जाति, कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, घृति और क्षमा मैं हूँ।
The Almighty stressed that HE is the all devouring death and also the origin of future beings and the seven qualities fame, prosperity, speech, memory, intellect, resolve and forgiveness amongest the women fore.
मृत्यु में हरण करने-छीनने की ऐसी क्षमता हैं कि प्राणान्त के पश्चात स्मृति तक नहीं रहती। यह परमात्मा की सामर्थ है। पूर्व जन्म की यादें कष्ट, यंत्रणा, चिन्ता, मोह आदि को बढ़ाने वाली ही होती है। सबको पैदा करने वाले भी वही हैं और उत्पत्ति के हेतु भी वो ही हैं, संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय परमात्मा से ही है। स्त्री जाति में कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, घृति और क्षमा सर्वश्रेष्ठ हैं। कीर्ति, स्मृति, मेधा, घृति और क्षमा दक्ष प्रजापति की, श्री मह्रिषी भृगु तथा वाक् ब्रह्मा जी की कन्याएँ हैं। संसार में प्रतिष्ठा को कीर्ति कहते हैं। धन, सम्पत्ति, ऐश्वर्य, श्री कहलाते हैं। जिस वाणी को धारण करने से मनुष्य विद्वान, पण्डित, ज्ञानी कहलाता है, वह वाक् है। जो शक्ति पुरानी सीखी, समझी सुनी गईं बातों को फिर से याद दिलाती है, वो स्मृति है। जो शक्ति विद्या को ठीक तरीके से याद रखने में तथा बुद्धि की धारणा में सहायक है, वो मेधा है। मनुष्य के अपने निश्चय, सिद्धान्त, मान्यता पर बगैर विचलित हुए डटे रहना घृति है। अकारण अपराध करने पर शक्ति, सामर्थ होते हुए भी दण्ड न देना, क्षमा है। कीर्ति, श्री और वाक् प्राणियों की वाह्य मुखी विशेषताएँ हैं तथा स्मृति, मेधा, घृति और क्षमा अन्तःमुखी प्रतिभाएँ-विशेषताएँ हैं। इन सातों को परमात्मा ने अपनी विभूति बताया है। यदि किसी व्यक्ति में ये गुण प्रकट हों, तो उसे परमात्मा की विशेषता मानना चाहिए, उसकी स्वयं की नहीं। अपना गुण मानने से मनुष्य में अभिमान उत्पन्न होता है।
Death has the unique quality of eliminating-wiping out, the previous memory. Memory of the previous births may cause pain agony, distress, attachment, undue botheration in the minds of the human beings. The death is a form, quality, excellent ability-uniqueness of the God. Death is followed by the birth. Evolution-creations, stabilisation and destruction are caused by the Almighty, in a cyclic manner-order. The women-fore have 7 names (titles, qualities, traits, characterises) which are known for their Ultimate qualities. These 7 are Keerti Fame, recognition), Shri (wealth, property, money), Vak (speech, language), Smrati (memory), Medha (brilliance), Ghrati and Kshma. Keerti, Smrati, Medha & Kshma are the daughters of Daksh Praja Pati, Shri is the daughter of Mahrishi Bhragu, while Vak is the daughter of Brahma Ji. Prestige (fame, respect, honour, good, will) in the world is due to Keerti. Wealth, money, property, prosperity, vehicles, comforts, luxuries comes due to Shri. Smrati (remembrance, memory) helps in recollecting the old-previous deeds, events, learnt things. Medha provides help in properly assembling the knowledge, ability, learning and up keep of intelligence, prudence, cleverness, diplomacy. Ghrati-will power, determination is that ability of one, which helps him in maintaining his stand over principles, facts, belief, resolutions. Kshma-pardon is that ability which forbids one from punishing the guilty in spite of strength, power, capability. Vak-speech is the ability to communicate, express, describe, teach and granting of enlightenment, status as philosopher, scholar Pandit to the individual. Keerti, Shri & Vak are the external features, qualities, traits of an individual. Smrati, Medha, Ghrati & Kshma are the internal characteristics of the bearer. As and when these qualities appear in one, he should consider them to be the gift of the Almighty not his own qualities, since it will lead to ego-pride in him.
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्।
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः॥[श्रीमद् भगवद्गीता 10.35]
गायी जाने वाली श्रुतियों में बृहत्साम और सब छन्दों में गायत्री छन्द मैं हूँ। बारह महीनों में मार्गशीष और छः ऋतुओं में बसन्त में हूँ।
The Almighty asserted that HE is Brahat Sam among the lyrics-hymns which are heard, Gayatri Chhand (metre, poetic composition). HE is Marg Sheesh (period of November-December) among the 12 months and spring among the 6 seasons.
सामवेद में बृहत्साम नामक एक गीति है, जिसमें परमेश्वर की स्तुति इन्द्र रूप में की गई है और इसे सर्वश्रेष्ठ-सर्वोत्कृष्ट माना गया। अतः यह परमात्मा की विभूति है। गायत्री को वेदों की जननी कहते हैं, क्योंकि वेद इसी से प्रकट हुए हैं। स्मृतियों और शास्त्रों में गायत्री की बड़ी भारी महिमा है। गायत्री में स्वरूप, प्रार्थना और ध्यान :- इन तीनों में परमात्मा के ही होने से, इससे परमात्म तत्व की प्राप्ति होती है; इसीलिए यह भगवान् की विभूति है। मार्गशीष को वर्षा से अन्न पैदा करने वाला महीना माना गया है। महा भारत-काल में नव वर्ष मार्गशीष से ही प्रारम्भ होता था। इन विशेषताओं के कारण भगवान् ने इसे अपनी विभूति बताया है। बसन्त के महीने में वृक्ष, लता, पौधों पर नए फूल और पत्ते आते हैं। मौसम सुहावना रहता है। न ज्यादा सर्दी और न ही ज्यादा गर्मी। इन्हीं विशेषताओं से यह भगवान् की विभूति है।
Sam Ved is considered to be Ultimate poetic-rhythmic composition, which contains Brahat Sam which is among the lyrics-hymns, which are Ultimate to be sung-heard for the purpose of worshiping God. The God has been prayed-worshipped in the form of Indr-the king of heaven, who in fact is an Ultimate form of the God himself. Gayatri is a Mantr which is considered to be the best and curing, among the prayers. Gayatri is the origin of the Veds-the source of all knowledge. It is the Ultimate form of the God, a prayer and tool for meditation. These three are the God's Ultimate form, prayer and meditation & provides-grants the gist of the Almighty. Marg Sheesh is the 10th month of Indian-Hindu calendar, combining the British, English, international calendar with the Hindu-Indian system being 10th month; meaning December. This is the period when normal food grains like wheat, grow without being irrigated specially, followed by rains & presence of sufficient moisture. This is followed by pleasant weather and cosy-cold. These qualities make this month as one of Almighty's forms. Spring-Basant is the month, which comes after swear-biting cold-chill. The plants bear new leaves, flowers. Its neither cold nor hot. The weather is romantic-cupid, making it excellent among all the seasons. Therefore, November-December and Spring are the Ultimate forms of weather i.e., the God.
द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम्॥[श्रीमद् भगवद्गीता 10.36]
छल करनेवालों में जुआ और तेजस्वियों में तेज़ में हूँ। जीतने वालों की विजय मैं हूँ। निश्चय करने वालों का निश्चय और सात्विक मनुष्यों का सात्विक भाव मैं हूँ।
The Almighty states that HE is gamble amongest the cheaters and brilliance of those who possess aura. HE is victory of the winners, determination of those who decide-who takes firm decision, i.e., resolution of the resolute; purity, piousness, righteousness, virtuousness, morality of the virtuous-honest or simply goodness of the good.
छल, कपट, धोखा निकृष्ट-निंदनीय व्यवहार में आते हैं। इनमें निकृष्टतम जुए को माना गया। प्रभु मानव कल्याण के लिए दुष्टों से छल-प्रपञ्च भी करते हैं। बाहुबली का सर्वस्व, वृन्दा का सतीत्व छीनने की लिए उन्होंने छल का सहारा लिया। कूटनीति में दुश्मन को मात देने के लिए यह एक मान्य सिद्धान्त है। जरासंध को सीधे, आमने-सामने के युद्ध में हराने की बजाय उन्होंने छद्यम युद्ध-छापे मारी का सहारा लिया। बाली वध में ओट में आकर तीर चलाया।दुर्योधन की जाँघ पर भीम से वार करवाया। भीष्म पितामह के आगे शिखण्डी को किया। कर्ण के रथ का पहिया फँसने पर उसे घेरा। काँटे से काँटा निकाला जाता है। उनकी माया का अंग होने के कारण जुआ परमात्मा की विभूति है। जूआ निंदनीय है; फिर भी विकट परिस्थिति में मनुष्य कोई अन्य उपाय नहीं मिलने से अपनी जिंदगी भी दाव पर लगा देता है। देवी आभा बहुत ही श्रेष्ठ, पवित्र, सात्विक व्यक्तियों में होती है। यह परमात्मा की विभूति तेज़ है। जैसे-जैसे कोई व्यक्ति ब्रह्मत्व की ओर बढ़ता है, उसमें तेज प्रकट होने लगता है। युद्ध, प्रतियोगिता, मुकाबला, विवाद-शास्त्रार्थ में विजय भगवान् की असीम कृपा का परिणाम और उनकी विभूति है। मनुष्य सन्मार्ग पर चलने का निश्चय बड़ी मुश्किल से कर पाता है। भक्ति भाव बनाए रखना और भी कठिन है; जिसके लिए दृढ़ निश्चय और आत्मबल की आवश्यकता पड़ती है। अतः निश्चय भी प्रभु की विभूति हुआ। रजोगुण और तमोगुण को दबाकर, सात्विक आचरण बेहद कठिन और मुश्किल होने से परमात्मा की विभूति है।
Deception, cheating, forgery are among the worst behavior of human beings. Gambling is one of them. The Almighty & Dev Raj Indr adopted cheating as a technique-tool to rescue the demigods-deities from the ill effects of the wretchedness of the demons, Rakshas, giants. God took the shape of a dwarf to deceive mighty king Bahu Bali, son of Virochan and grandson of Prahlad Ji, his virtuous devotees. Jalandhar the son of Samudr-the ocean and brother of Maa Laxmi became a curse for the demigods due to the support of his wife Vranda's chastity. There was no way out and the God turned himself into Jalandhar, leading to Jalandhar's death. Diplomacy too need deception for over powering the enemy. Bhagwan Ram had to hide behind a tree to eliminate Bali. Bhagwan Shri Krashn defeated Jara Sandh by utilising gorilla warfare techniques. HE eliminated Kal Nemi as well without touching him. One is led to take risk-gamble as a last resort. This is practically a gamble and thus gamble is God's one of the ultimate qualities. When someone moves to virtuousness, sainthood; an aura appears around his face. This aura is a gift & greatness of the God. Victory in the war is a God's gift. Those who entangle in debate, competition, religious confrontations-arguments, wars get victory as a result of the mercy of the God. This victory is a sign of Almighty's kindness-greatness. Its really extremely difficult to move on divine path away from wretchedness. Saintly behavior, virtuousness, piousity, honesty, righteousness are very difficult to practice in a corrupt atmosphere. Thus, Piousness is Godly and to decide to follow the path of truth needs firm determination making firmness a property of the Almighty.
The gamble-risk of life is Supreme sacrifice to protect, self, others, family, country etc. If one dies in a virtuous war-in fight, he gets heaven and if he survives, he enjoys rest of his life over the earth.
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनंजयः।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः॥[श्रीमद् भगवद्गीता 10.37]
वृष्णिवंशियों में वासुदेव पुत्र श्री कृष्ण और पाण्डवों में अर्जुन में हूँ। मुनियों में वेद व्यास और कवियों में कवि शुक्राचार्य भी में ही हूँ।
I am Shri Krashn the son of Vasu Dev among the Vrashni clan, Arjun among the Pandavs, Ved Vyas among the saints and Shukrachary among the poets.
भगवान् श्री कृष्ण ने स्वयं को वृष्णि वंश में उत्पन्न विभूति कहा है, न कि अवतार जो कि वे हैं। पाण्डवों में अर्जुन उनकी एक श्रेष्ठ मूर्ति हैं। वेद का चार भागों में विभाजन, पुराण, उपपुराण और महाभारत रचना उनकी श्रेष्ठतम विभूतियाँ हैं, जो कि जन कल्याण की लिए प्रकाशित की गई हैं। धर्म से जुड़ी हुई कोई भी रचना व्यास जी की देन ही मानी जानी चाहिए। शुक्राचार्य को कवि के रूप में उनकी विभूति समझना चाहिए।
The Almighty revealed that HE as the son of Vasu Dev Ji, in the Vrashni Vanshi-clan was HIS excellent creation, along with Arjun who took incarnation in the Pandu clan. It might make the purpose of HIS incarnation to Arjun and all those who were listening to HIM delivering the sermon in the battle field of Kurukshetr, clear. Still there are people who do not realise the excellence of the composition of Gita as the Supreme guide for the Kali Yug by Muni Ved Vyas Ji Maha Raj, who was one of HIS incarnations and excellent among the composers. To compare the poets, HE makes it clear that Shukrachary is HIS supreme form as a poet. Therefore, Veds, Puran, Up Puran and Maha Bharat should not be considered poetic creations, since they reveal history, science, purpose of life, movement of soul in various incarnations, birth-death etc. Gita has been translated into all languages of the world.
It has been discovered that the translation is inappropriate & not up to the mark in most all cases, sending wrong messages among the masses. Some times the interpretations too are wrong and misleading.
Its clear that the Bhagwan Shri Krashn & Arjun, both are two forms of the Almighty just like water in two pots.
दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्॥[श्रीमद् भगवद्गीता 10.38]
दमन करने वालों में दण्ड नीति और विजय चाहने वालों में नीति में हूँ। गोपनीय भावों में मौन में हूँ और ज्ञान वानों में ज्ञान मैं ही हूँ।
The Almighty said that HE was the force, power, might of the law (policy to punish, oppress, penalty, penalise, quash, repression, control, subduing, suppression, subjugation, penal code, oppression) to punish the guilty (criminal, offender, breaker of the code of conduct) and policy for the lover of victory-success. Among the confidential gestures HE is silence and enlightenment among the learned (philosophers, scholars, educated).
समाज-संसार को दुष्ट लोगों-अपराधियों से मुक्त रखने, सन्मार्ग पर लाने के लिए नियम, कानून, दण्डनीति, दण्ड संहिता की आवश्यकता होती है। परमात्मा ने कहा कि वे दण्ड नीति में नीति हैं। अतः यह उनकी विभूति है। नीति (धर्म, कूटनीति, राजनीति) का आश्रय लेकर ही विजय प्राप्त होती है। इसलिए नीति भी उनकी विभूति है। मौन की बहुत महिमा है। राजनीति में मौन-गोपनीयता बनाए रखना नितान्त-अत्यावश्यक है। मौन तपस्या का एक रूप भी है और भगवान् की विभूति भी। सामान्य ज्ञान से लेकर तत्व ज्ञान-ब्रह्म ज्ञान तक, भगवान् की विभूति हैं।
Penal code, rule of law is essential to keep the criminals, notorious people at bay (under control). Punishment is essential to enforce discipline in the society. The Almighty HIMSELF is the policy-mighty to enforce law. The policy is essential to attain victory-success. Silence is ascetic and essential to run the government pertaining to confidentiality-secrecy. Silence is therefore, an ultimate quality representing the God. The enlightenment of the scholar-philosopher is the God HIMSELF.
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्॥[श्रीमद् भगवद्गीता 10.39]
और हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणियों का जो बीज-मूल कारण है, वह बीज भी मैं ही हूँ; क्योंकि वह चर-अचर कोई प्राणी नहीं है, जो मेरे बिना हो अर्थात चर-अचर सब कुछ मैं ही हूँ।
The Almighty stressed that HE was the root of evolution of every entity whether living or non living. Nothing animate or inanimate happen or exist without HIM.
भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन को बताया कि संसार का निमित्त वही हैं। जड़-चेतन, चर-अचर, स्थावर-जङ्गम सभी कुछ वही हैं। उनके बगैर संसार में पत्ता भी नहीं हिलता। सत्व, रज और तम तीनों गुण भी प्रभु ही हैं। अतः मनुष्य को हर वस्तु-भाव-प्राणी में परमात्मा को ही देखना, सोचना, समझना चाहिए।
The Almighty is the root cause, seed of every activity, happening, animate or inanimate. HE is behind every activity virtuous, divine, demonic or otherwise. One should remember that the God is present in each and every one of the organisms or the material objects. Nothing is possible without HIM. However, HE appears as excellent character in some of his creations.
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया॥[श्रीमद् भगवद्गीता 10.40]
हे परन्तप अर्जुन! मेरी दिव्य विभूतियों का कोई अन्त नहीं है। मैंने अपनी विभूतियों का जो विस्तार कहा है, वह संक्षिप्त और नाम मात्र का है।
The Almighty addressed Arjun as an ultimate ascetic and said that there was no end to his divine manifestations. He had described them just to mention a few, in short.
परमात्मा की दिव्य विभूतियों का कोई अन्त नहीं है। दिव्य शब्द अलौकिकता-विलक्षणता का द्योतक-प्रतीक है। साधक के समक्ष दिव्यता केवल तभी प्रकट होती है, जब उसका उद्देश्य केवल भगवत्प्राप्ति होती है। भगवत तत्व राग-द्वेष रहित होकर, उन विभूतियों में केवल परमात्मा का चिंतन-स्मरण करना है। श्री भगवान् की विभूतियाँ अनन्त, असीम और अगाध हैं। उन्होंने विभूतियों का जो वर्णन किया है, वह संक्षिप्त और लौकिक दृष्टि से किया है। भगवान् ने कारण रूप से अध्याय 7 के 12 से 18 श्लोक तक 17, कार्य कारण रूप से अध्याय 9 के श्लोक 16 से 19 तक 37, भावरूप से अध्याय 10 के श्लोक 4 और 5 तक 20, व्यक्तिगत रूप से अध्याय 10 के श्लोक 6 में 25, मुख्य रूप और अधिपति रूप से अध्याय 10 के श्लोक 20 से 38 तक 81, सार रूप से अध्याय 10 श्लोक 39 की एक और प्रभाव रूप से अध्याय 15 श्लोक 12 से 15 तक 13 विभूतियाँ वर्णित की गई हैं। इसका तात्पर्य यह है कि सिवाय भगवान् के कहीं भी कुछ भी नहीं है। अपरिवर्तनशील सत्-परा और परिवर्तनशील असत्-अपरा दोनों ही परमात्मा की विभूतियाँ हैं। भोग बुद्धि वाले मनुष्य परमात्मा के प्रति आकर्षित न होकर इच्छाओं और काम में आसक्त होते हैं, जो कि उन्हें बन्धन में बाँधने वाला है।
There is no end to the uniqueness-greatness of the Supreme qualities of the God. The term divine too, is symbolic to the God's Ultimate-Supreme characteristics. The divine character is visible to the practitioner-worshipper, when his goal is to attain the God. He prays to God without any desire-envy-attachment. His meditation, remembering, concentration, penetration in the divine characteristics, guides him further. The divine characteristics of the God are infinite, unending and too deep. The description of the Ultimate qualities-traits made by the Almighty is symbolic-in short, keeping in view the worldly humans, who have too short, limited vision & life span. The God described 17 characteristics on the basis of logic-reason in chapter 7 from verse 12 to 18 on the basis of action & reason, 37 characteristics in chapter 9 from verse 16 to 19 on the basis of feelings, 20 characteristics in chapter 10 from verse 4 to 5 on the basis of individuality, 25 characteristics in chapter 10 verse 6 mainly as the Supreme Lord, 81 characteristics in chapter 10 verse 20 to 38 as the extract-gist, one characteristic in chapter 10 verse 39 and as the effect-impact, 13 characteristics in chapter 15 verse 12 to 15. It means that there is nothing except the Almighty in this universe. Unchangeable Sat, Truth, Para and the changeable Asat-Apra too are his Ultimate-divine qualities, manifestations. One who indulges in sensuality-passions, sexuality, comforts; alienate himself from the God and moves to attachments, which are binding, putting him to the unending course-trail of birth & death.
पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसंघान्।
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थ-मृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान्॥[श्रीमद् भगवद्गीता 11.15]
हे देव! आपके शरीर में मैं सम्पूर्ण देवताओं को तथा प्राणियों के विशेष-विशेष समुदायों को और कमलासन पर बैठे हुए ब्रह्मा जी को, शंकर जी को, सम्पूर्ण ऋषियों को और दिव्य सर्पों को देख रहा हूँ। Arjun said :- Hey Dev, O Almighty! I am visualising-seeing, all the demigods-deities, specific groups of different-different species of creatures-living beings, Brahma Ji sitting over his lotus seat, Shankar Ji, Rishis, sags, saints, ascetics and the divine serpents in your body.
अर्जुन को भगवान् श्री कृष्ण द्वारा प्रदत्त दिव्य दृष्टि से समस्त देवलोक, देवतागण, भगवान् ब्रह्मा और भगवान् शंकर भी दिखाई दे रहे थे। देवताओं के दर्शन हुए तो पूरा देवलोक ही दिखने लगा। उन्हें प्राणियों के समस्त समुदाय दृष्टिगोचर हो रहे थे। ब्रह्मा जी कमलासन पर स्थित दिखे जो कि भगवान् विष्णु की नाभि से निकला है। भगवान् विष्णु शेष शय्या पर विराजमान हैं। भगवान् शंकर दिखे, तो उनके साथ कैलाश पर्वत पर वो दिव्य वटवृक्ष भी दिखा जो कि उनका निवास स्थान है। पृथ्वीवासी समस्त ऋषिगण दिखे तो साथ में पाताल के निवासी दिव्य सर्प भी दिखाई दिए। अर्थात पूरी त्रिलोकी-पृथ्वी, 7 स्वर्ग और 7 पाताल लोक भी दिखाई देने लगे। अर्जुन ने पृथ्वी, स्वर्ग और पाताल को एक साथ एक क्रम में देखा। अर्जुन ने परमात्मा के एक-एक रोम में ब्रह्माण्डों को देखा।
Arjun witnessed the demigods-deities with the divine vision granted by the Almighty Shri Krashn. It means that Bhagwan Shri Krashn became a medium for the God to appear before Arjun, for the welfare of the humans over the earth, the demigods and the demons equally. He saw the sages simultaneously, which means that he could visualise the heavens, the abodes of the pious, virtuous, righteous. He saw Brahma Ji who's Lotus seat emerged from the navel of Bhagwan Shri Hari Vishnu laying over Bhagwan Shesh Nag. He saw Bhagwan Shiv at Mount Kaelash over Everest and the Vat Vraksh, the gigantic Banyan tree & his abode. With the visualisation of serpents, it becomes clear that he could see all the Neanderthal-nether worlds. The abode of mighty serpents is there inside the earth. Thus the 14 abodes and the earth were seen in unison-continuation, by Arjun. Here, it's clear that all the bristles of the Almighty had different-different universes over grown over them.
अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम्।
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप॥[श्रीमद् भगवद्गीता 11.16]
हे विश्व रुप! हे विश्वेश्वर! मैं आपको अनेक हाथों, पेटों, मुखों और नेत्रों वाला तथा सब ओर अनन्त रुपों वाला देख रहा हूँ। मैं आपके न आदि को, न मध्य को और न अन्त को ही देख पा रहा हूँ। Arjun prayed to the Almighty in his infinite, universal, Ultimate form-exposure submitting that he could visualise-see him with many arms, stomachs, faces and eyes. He was finding it difficult to locate his beginning, the middle or the end.
अर्जुन जब विश्व रुप सम्बोधन करते हैं तो उनका तात्पर्य है कि परमात्मा शरीर भी हैं और शरीरी-आत्मा भी। विराट रुप में उनका विभाजन-भेद नहीं है। विश्वेश्वर कहने के पीछे भाव है कि आप ही शरीरी अर्थात शरीर के स्वामी हैं। अर्जुन को प्रभु के अनन्त हाथ, पैर, मुँख, पेट, आँखें सभी तरफ दिखाई देते हैं। वे देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ आदि के रुप में सभी ओर अनन्त हैं। अर्जुन को उनका आदि, मध्य और अन्त दृष्टिगोचर नहीं हो रहा। भगवान् में स्वाभाविक रुप से सब कुछ है।
When Arjun address the Almighty as vast-universal, he means that HE is body as well as soul of the unending-infinite universes. In HIS ultimate form HE is undifferentiated-undistinguished, continuous and uniformly spreaded in all directions. HE is the sole owner of the body and the soul. Arjun locates infinite hands, eyes, stomachs, mouths in the unending spread of the God. In the form of location, time, matter-object, individual HE is unending. Arjun failed to identify HIS beginning, middle or the termination. Everything is contained in HIM naturally.
The Almighty is free from beginning, middle or the termination. HE is infinite-never ending, continuous and at all times, every where.
किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम्।
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ता-द्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम्॥[श्रीमद् भगवद्गीता 11.17]
मैं आपको किरीट-मुकुट, गदा, चक्र तथा शंख और पद्म धारण किये हुए देख रहा हूँ। आपको तेज की राशि, सब ओर प्रकाश वाले, देदीप्यमान, अग्नि तथा सूर्य के समान कान्ति वाले, नेत्रों के द्वारा कठिनता से देखे जाने योग्य और सब तरफ से अप्रमेय स्वरुप में देख रहा हूँ। I am seeing YOU in YOUR absolute form with YOUR crown, club, discus and Lotus. YOUR aura-mass of radiance is spreading all over, in all directions with YOUR eyes having immeasurable brilliance-glow like Sun and fire, which is very difficult to behold-watch.
किरीट-मुकुट, गदा, चक्र तथा शंख और पद्म धारण किये हुए परमात्मा का स्वरूप भगवान् विष्णु से मेल खाता है। उनका तेज पुञ्ज हजारों सूर्यों के समान है। यह अनन्त है। परमात्मा का तेज-व्योम सभी दिशाओं में प्रकाश उत्पन्न कर रहा है। उनकी कान्ति अग्नि और सूर्य के समान थी। इस तेज से अर्जुन की ऑंखें चौंधिया रही थीं। दिव्यदृष्टि भी अर्जुन की पूरी तरह सहायता नहीं कर पा रही थी। अर्जुन ने कहा कि प्रभु का स्वरूप अपरिमेय-अपरिमित था, जिसे किसी भी प्रकार पूरी तरह से व्यक्त करना असम्भव था।
भगवान् विष्णु स्वयं भी परमात्मा के एक अंश-इकाई ही हैं।
Though Arjun was blessed with divine vision, insight power to see the absolute; yet he was finding it difficult to see-visualise the Almighty in HIS Ultimate form. The reality is that none other than the God HIMSELF can describe HIM. HE is beyond description, imagination. What Arjun could identify was that the visible form of the Almighty resembled with that of Bhagwan Vishnu bearing crown, club, discus and Lotus. HIS eyes were blazing like fire and Sun. HIS aura, brilliance-glow was radiating all directions. Arjun found it extremely difficult to stare at HIM. Arjun tried to see but failed to do that continuously.
Bhagwan Shri Hari Vishnu himself is a unit-component of the Almighty.
त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे॥[श्रीमद् भगवद्गीता 11.18]
आप ही जानने योग्य परम अक्षर ब्रह्म है, आप ही इस सम्पूर्ण विश्व के परम आश्रय हैं, आप ही सनातन धर्म के रक्षक हैं और आप ही अविनाशी सनातन पुरुष हैं, ऐसा मैं मानता हूँ। Arjun said that he believed that the Almighty was the Ultimate-Supreme, imperishable being called Akshar Brahm, HE was the support-ultimate resort of the whole universe and the eternal protector and eternal order Sanatan Dharm, which is there, which was there and which will be there.
समस्त सृष्टि जिसे परब्रह्म के नाम से जानती है, वे परमात्मा-ईश्वर ही अर्जुन के समक्ष उपस्थित थे। उन्हें वेदों, पुराणों, स्मृतियों, शास्त्रों, महाकाव्यों, श्रुतियों, इतिहास में सन्तों-जीवन्मुक्त महापुरुषों द्वारा परमानन्द स्वरूप निर्गुण-निराकार कहा गया है। समस्त संसार के आश्रय, आधार वही हैं और महाप्रलय में कारण सहित संसार उन्हीं में विलय हो जाता है तथा महासर्ग में प्रभु से ही प्रकट होता है। धर्म की हानि होने पर और अधर्म की वृद्धि होने पर वे ही अवतार लेकर सनातन-शाश्वत धर्म की रक्षा करते हैं। वो ही अविनाशी, अव्यय, सनातन उत्तम पुरुष हैं।
The real name of Hinduism is Sanatan Dharm. The present name Hinduism comes from those who lived across Sindhu river and were the component of it, simultaneously and converted to other inferior streams with the passage of time. Hindus were often called Ary as well. This is the only Dharm & rest are just sects.
The universe calls HIM the Par Brahm Parmeshwar, WHO WAS present-face to face with Arjun. HE is named formless-characteristics less in the epics, scriptures, Veds, Purans, History, Smraties-memorised text, by the sages-relinquished. HE supports the entire universe, HE nurtures it and it-the universe ultimately assimilates in HIM, at the time of ultimate devastation. Its the Almighty WHO reproduces it at the time of evolution in the new cosmic era. The Almighty appears-takes Avtars, to vanish those who spoils the Dharm and rejuvenate it. It was the same indestructible-imperishable, eternal God in front of Arjun.
कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे।
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत्॥[श्रीमद् भगवद्गीता 11.37]
हे महात्मन्! गुरुओं के भी गुरु और ब्रह्मा जी के आदिकर्ता आपके लिये वे सिद्धगण नमस्कार क्यों न करें? हे अनन्त! हे देवेश! हे जगन्निवास! आप अक्षरस्वरूप हैं; आप सत् भी हैं, असत् भी हैं और उनसे भी पर जो कुछ हैं, आप ही हैं। Arjun called Almighty the Ultimate Ascetic! He said that HE was the teacher of the teachers and the source of the creator Brahma Ji. Why should not the great ascetics bow in front of YOU!? YOU are eternal-infinite! YOU are the lord of lords, demigods, deities! YOU are formless-imperishable Om, ॐ-the cosmic-primordial sound! YOU are the abode-seat of the entire universe! YOU are both Eternal & Temporal! What ever is over them it's only YOU!
परमात्मा गुरुओं के भी गुरु, ब्रह्मा जी के जनक, समस्त ज्ञान के स्त्रोत्र होने के कारण; समस्त सिद्धगण उनको नमस्कार करते हैं। परमात्मा अनन्त, आदि अंत और मध्य से रहित हैं। कालस्वरूप उनका कोई आदि अंत नहीं है। उनके रूपों का कोई अंत नहीं है अर्थात वे सीमा रहित, अगाध, अपार हैं। वे ही सब के नियन्ता, शासक, स्वामी हैं। अनन्त सृष्टियाँ उनमें निवास करती हैं। वे अक्षरस्वरूप, सत् और असत् भी हैं तथा समस्त कल्पनाओं से परे-अतीत उनके सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है।
The Almighty is the source of all knowledge. HE is the Ultimate teacher & guide. HE is the creator of the creator Brahma Ji. All devotees-ascetics pray, worship-bow before HIM. HE is endless, perpetuating, forever. Nothing is there beyond HIM. HE is a continuous form-flow of time and reincarnations. HE is limitless. HIS forms, shapes, variations are endless, beyond the understanding of both mortals and immortals, humans and the demigods-deities. HE controls all the universes, living and non living. HE is the basic primordial sound om-ॐ which was heard at the time of evolution. HE is the origin of virtue and the evils. HE is beyond imaginations. There is nothing above HIM. HE is Ultimate-Eternal.
त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण-स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥[श्रीमद् भगवद्गीता 11.38]
आप ही आदि देव और पुराण पुरुष हैं तथा आप ही इस संसार के परम आश्रय-हितैषी हैं। आप ही सबको जानने वाले, जानने योग्य और परम धाम हैं। हे अनन्त रुप! आपसे ही सम्पूर्ण संसार व्याप्त है। YOU are the primal God, the first to appear as described in the scriptures. YOU are the Ultimate resort-well wisher of the universe. YOU are the one who knows all, to be known and the Supreme-Ultimate Abode. Hey, the infinite form! The whole world is pervaded by YOU.
परमात्मा पुराणों में वर्णित आदि पुरुष हैं, जिनका अभ्युदय सबसे प्रथम होता है। केवल परमात्मा ही आदि से अन्त तक विराजमान रहते हैं। संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय या अन्य जो कुछ भी जो होता है, देखने, सुनने, समझने में आता है, उस सभी के आधार आप ही हैं। आप सर्वज्ञ हैं अर्थात भूत, भविष्य और वर्तमान; देश, काल, वस्तु, व्यक्ति और घटनाक्रम को जानने वाले हैं। वे केवल आप ही हैं, जो कि वेद, पुराण, शास्त्र, संत-महात्माओं के जानने योग्य हैं। आप ही परम मुक्तिपद, परमपद हैं, जिसकी प्राप्ति के बाद प्राप्त करने को कुछ भी शेष नहीं रहता। विराटरूप से प्रकट अनन्तरूप आप ही हैं। आपसे ही सम्पूर्ण संसार व्याप्त है। अर्जुन ने भगवान् की कही गईं और विराटरूप में देखी गईं बातों को ही स्तुति के रूप में दोहरा दिया है।
Arjun started praying to the God and said what he had heard and seen in the Ultimate form of the Almighty. The God appeared first of all and will remain till devastation and thereafter, as well. The creation, stability and devastation or else whatever is heard, known or is happening is by virtue of the God only. HE is the source and support of all that. HE is aware of the past, present & future; the universe, organisms, events or the humans. HE is the only one who deserve to be known through the scriptures, Veds, Purans, by the saints, great souls etc. HE is the Ultimate abode-support and the well wisher. After attaining HIM nothing is left to be achieved. The whole world is pervaded by HIM.
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥[श्रीमद् भगवद्गीता 11.39]
आप ही वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा, दक्ष आदि प्रजापति और प्रपितामह-ब्रह्मा जी के भी पिता हैं। आपको हजारों नमस्कार हों। नमस्कार हों और फिर भी आपको बार-बार नमस्कार हों। नमस्कार हों। Arjun recognized the Almighty as the deity of death-Dharm Raj or Yam Raj, the deity-demigod Agni Dev controlling fire, the deity-demigod Varun Dev controlling water, The deity-demigod Pawan Dev-Vayu Dev, controlling wind, air, the demigod nourishing medicinal herbs-plants and shining in the sky at night as Moon, Daksh Prajapati and the great grand father of the creator Brahma Ji. He bowed-prostrated before HIM repeatedly offering obeisances thousands times, again and again repeatedly.
अर्जुन ने परमात्मा को प्रकृति के संचालकों के रुप :- वायु देव के रुप में पहचाना, जिनसे समस्त प्राणी स्वाँस-प्राण वायु लेकर जीवन पाते हैं। प्रभु को यम राज और धर्म राज मृत्यु के शासक-नियामक के रुप में पाया। भगवान् का अग्नि रुप प्रकाश और अन्न-भोजन को पचाने वाले के रुप में भी देखा। जीवन के लिए परमावश्यक जल के देवता-अधिपति वरुण देव स्वयं ईश्वर ही हैं। समस्त औषधियों-वनस्पतियों के पोषक चन्द्रमा भी भगवान् ही हैं। प्रजाओं को मैथुनी सृष्टि से उत्पन्न करने वाले दक्ष प्रजापति भी ईश्वर हैं। पितामह ब्रह्मा जी को प्रकट करने वाले प्रपितामह भी परमात्मा ही हैं। उन्हें इन समस्त रुपों में पहचान कर अर्जुन ने परमात्मा को हजारों बार, बार-बार प्रणाम किया और उन्होंने स्वयं को परमात्मा को समर्पित कर दिया।
Arjun recognized the Almighty in the form of Dharm Raj who controls virtues-ethics and deity of death who grants specific species to the Humans as per their deeds in new incarnations. The God is found in the form of fire-the Agni Dev, who lightens the universe and helps in digesting the food. As the deity of air (Pawan, Vayu Dev), he controls the breaths-life sustaining force of all the organisms. The God is present in the form of Varun Dev the deity of water, who governs-regulate water, which is a major-essential component of the human body-two third and covers the earth's surface in the form of water bodies as well. All medicinal plants herbs are nourished by the demigod Moon who lights the earth at night and a form of the God. The Almighty was seen as Daksh Prajapati from whom the sexual breeding of the species begun. Ultimately Arjun could recognize the Almighty as the great grand father of the creator Brahma Ji. Having found the Almighty HIM SELF as different deities-demigods Arjun prostrated-bowed before HIM again and again repeatedly thousands & thousands of times paying HIS obeisances. He surrendered-subjected himself to the desire of the God.
प्रभु की उपासना साकार-निराकार दोनों ही स्वरुपों में उपासकों के द्वारा की जाती है। इन्द्रिय संयम निर्गुण-तत्व की उपासना में ज़रूरी-सहयोगी है। निर्गुण उपासना और कर्मयोग में चिंतन का कोई आधार-सम्बल-सहारा नहीं होता, जिससे मन विषयों की ओर झुक-मुड़ सकता है। इन्द्रियों को वश में करके, अन्तर्मन-अन्तःकरण से राग को खत्म करना जरूरी है। सगुण उपासना में इन्द्रियाँ भगवान् में लग जाती हैं। क्योंकि सगुण स्वरूप में इन्द्रियों को विषय प्राप्त हो जाते हैं। ब्रह्म, मन और बुद्धि का विषय नहीं है और प्रकृति से परे है। परमात्मा को स्वयं करण-निरपेक्ष ज्ञान से ही जाना जाता है। सर्वव्यापी होने के कारण, वह सीमित मन-बुद्धि-इन्द्रियों से ग्रहण नहीं किया जा सकता। वह चिन्मय सर्वत्र परिपूर्ण है। उसका वर्णन संकेत, भाषा, वाणी से सम्भव नहीं है। वह एक रस, निर्विकार और निर्लिप्त है। उसमें किञ्चित मात्र भी परिवर्तन संभव नहीं है। अतः वह कूटस्थ (जिसे घड़ा न जा सके) है। वह ब्रह्म, अटल, अविचल है। उसकी सत्ता निश्चित और नित्य है, अतः ध्रुव है। उसका कभी विनाश नहीं होता, अतः अक्षर है। वह मन, बुद्धि, इन्द्रियों का विषय न होने से अव्यक्त है। शरीर सहित सम्पूर्ण पदार्थों और कर्मों में वासना तथा अहंकार का अभाव तथा भावरूप सच्चिदानन्द घन परमात्मा में अभिन्न भाव से नित्य-निरन्तर दृढ़ स्थित रहना ही उपासना करना है। मनष्य जब शरीर, धन, सम्पत्ति आदि पदार्थों को अपना न मानकर दूसरों की सेवा में लगा देता है, तो उसकी आसक्ति, ममता, कामना, स्वार्थभाव का स्वतः त्याग हो जाता है। क्योंकि निर्गुण-निराकार परमात्मा सम है, अतः उसके उपासकों की बुद्धि सम्पूर्ण प्राणी-पदार्थों में भी विषम नहीं होती। निर्गुण और सगुण दोंनो ही परमात्मा के स्वरूप हैं। सगुण उपासना सरल और निर्गुण उपासना थोड़ी कठिन है।
The Almighty is worshipped both with form and without form. When one opts for characteristics less worship, he has to resort to control of senses, mind, intelligence. Characteristics less worship and Karm Yog do not have means to support meditation, which allows the thoughts to deviate towards the consumption-worldly affairs. When one adopts worship supported by one or the other form of the God, he has a means to help, restrain his mind and energies towards the Ultimate. This makes the utilisation of his thoughts, mind, intelligence and the senses. The Brahm is not the subject of mind or intelligence. He is away from nature. The God can be understood, recognized, identified through absolute enlightenment, independent from the sense organs. HE is pervaded-eternal all over the universe, therefore HE can not be grasped, understood, identified through mind and intelligence. HE constitutes of pure intelligence, Supreme consciousness and is pervaded or permeated by consciousness. Its not possible to describe HIM through words, language, symbols etc. HE is unilateral, stable, unattached, untainted. HE never undergoes a change. HE can not not be cast or given a specific shape. HE is Brahm, absolute and unchangeable. HIS authority is absolute. HE never perishes-disintegrate. HE is Dhruv-fixed, helps in gaining direction. HE never degenerate-degrade. HE is not the subject of ideas, thoughts and therefore, remain unrevealed. Absence of lust, sensuality, sexuality, passion in the body, material world and the ego; undifferentiated-undivided devotion to HIM, continuously-regularity in HIS worship, is essential. When one discards money, belongings for the service of the society-others-man kind by considering them to be meant for the service of the man kind, he is detached, his selfishness, attachments, desires are lost. The Almighty is even, same, equal for all. HIS devotees can not have distinguishable thoughts about others. They attain equanimity. Form less and with form; both are the features of the God. Its a bit difficult to worship HIM in formless state as compared to with form.
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥[श्रीमद् भगवद्गीता 12.3]
संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥[श्रीमद् भगवद्गीता 12.4]
और जो अपने इन्द्रिय समूह को भली भाँति वश में करके चिन्तन में न आने वाले, सब जगह परिपूर्ण, देखने में न आने वाले, निर्विकार, अचल, ध्रुव, अक्षर और अव्यक्त की तत्परता से उपासना करते हैं, वे प्राणिमात्र के हित में प्रीति रखने वाले और सब जगह सम बुद्धि वाले मनुष्य मुझे ही प्राप्त होते हैं।The Almighty asserted that those who control their senses completely-thoroughly and worship with promptness (quickness, readiness, swiftness, zeal) the invisible-formless, inconceivable, omnipresent-immovable, Dhruv (aligned at one particular position), non consumable, unrevealed and have love & affection for the benefit of the creatures-organism with equanimity, attain HIM.
प्रभु की उपासना साकार-निराकार दोनों ही स्वरुपों में उपासकों के द्वारा की जाती है। इन्द्रिय संयम निर्गुण-तत्व की उपासना में ज़रूरी-सहयोगी है। निर्गुण उपासना और कर्मयोग में चिंतन का कोई आधार-सम्बल-सहारा नहीं होता, जिससे मन विषयों की ओर झुक-मुड़ सकता है। इन्द्रियों को वश में करके, अन्तर्मन-अन्तःकरण से राग को खत्म करना जरूरी है। सगुण उपासना में इन्द्रियाँ भगवान् में लग जाती हैं। क्योंकि सगुण स्वरूप में इन्द्रियों को विषय प्राप्त हो जाते हैं। ब्रह्म, मन और बुद्धि का विषय नहीं है और प्रकृति से परे है। परमात्मा को स्वयं करण-निरपेक्ष ज्ञान से ही जाना जाता है। सर्वव्यापी होने के कारण, वह सीमित मन, बुद्धि, इन्द्रियों से ग्रहण नहीं किया जा सकता। वह चिन्मय सर्वत्र परिपूर्ण है। उसका वर्णन संकेत, भाषा, वाणी से सम्भव नहीं है। वह एक रस, निर्विकार और निर्लिप्त है। उसमें किञ्चित मात्र भी परिवर्तन संभव नहीं है। अतः वह कूटस्थ (जिसे घड़ा न जा सके) है। वह ब्रह्म, अटल, अविचल है। उसकी सत्ता निश्चित और नित्य है, अतः ध्रुव है। उसका कभी विनाश नहीं होता, अतः अक्षर है। वह मन, बुद्धि, इन्द्रियों का विषय न होने से अव्यक्त है। शरीर सहित सम्पूर्ण पदार्थों और कर्मों में वासना तथा अहंकार का अभाव तथा भावरूप सच्चिदानन्द घन परमात्मा में अभिन्न भाव से नित्य-निरन्तर दृढ़ स्थित रहना ही उपासना करना है। मनष्य जब शरीर, धन, सम्पत्ति आदि पदार्थों को अपना न मानकर दूसरों की सेवा में लगा देता है, तो उसकी आसक्ति, ममता, कामना, स्वार्थभाव का स्वतः त्याग हो जाता है। क्योंकि निर्गुण-निराकार परमात्मा सम है, अतः उसके उपासकों की बुद्धि सम्पूर्ण प्राणी-पदार्थों में भी विषम नहीं होती। निर्गुण और सगुण दोंनो ही परमात्मा के स्वरूप हैं। सगुण उपासना सरल और निर्गुण उपासना थोड़ी कठिन है।
The Almighty is worshipped through both means :: with form and without form. When one opts for characteristics less worship, he has to resort to control of senses, mind, intelligence. Characteristics less worship and Karm Yog do not have means to support meditation, which allows the thoughts to deviate towards the consumption-worldly affairs. When one adopts worship supported by one or the other form of the God, he has a means to help, restrain his mind and energies towards the Ultimate. This makes the utilisation of his thoughts, mind, intelligence and the senses. The Brahm is not the subject of mind or intelligence. HE is away from nature. The God can be understood, recognised, identified through absolute enlightenment, independent from the sense organs. HE is pervaded-eternal all over the universe, therefore HE can not be grasped, understood, identified through mind and intelligence. HE constitutes of pure intelligence, Supreme consciousness and is pervaded or permeated by consciousness. Its not possible to describe HIM through words, language, symbols etc. HE is unilateral, stable, unattached, untainted. HE never undergoes a change. HE can not be cast or given a specific shape. HE is Brahm, absolute and unchangeable. HIS authority is absolute. HE never perishes-disintegrate. HE is Dhruv-fixed, helps in gaining direction. HE never degenerate-degrade. HE is not the subject of ideas, thoughts and therefore, remain unrevealed. Absence of lust, sensuality, sexuality, passion in the body, material world and the ego; undifferentiated-undivided devotion to HIM, continuously-regularity in HIS worship, is essential. When one discards money, belongings for the service of the society, others, mankind by considering them to be meant for the service of the mankind, he is detached, his selfishness, attachments, desires are lost. The Almighty is even, same, equal for all. HIS devotees cannot have distinguishable thoughts about others. They attain equanimity. Form less and with form; both are the features of the God. Its a bit difficult to worship HIM in formless state as compared to with form.
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम॥[श्रीमद् भगवद्गीता 13.2]
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम॥[श्रीमद् भगवद्गीता 13.2]
हे भरत वंशोद्भव अर्जुन! तू सम्पूर्ण क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मुझे ही समझ और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, वही मेरे मत में ज्ञान है।
Bhagwan Shri Krashn addressed Arjun as Bharat and asked him to consider HIM as soul-Kshetragy in all the bodies-Kshetr & stressed that the knowledge of both the soul-Kshetragy and Kshetr-bodies; is transcendental knowledge-enlightenment in HIS opinion.
सम्पूर्ण क्षेत्रों (शरीरों) में मैं (अहंभाव) क्षेत्र है और हूँ मैंपन का ज्ञाता क्षेत्रज्ञ है अर्थात सम्पूर्ण क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ वही हैं। किसी विषय का ज्ञान ज्ञेय है। उसे बाह्य करण कान और नाक आदि तथा अन्तःकरण मन, बुद्धि आदि से जाना जाता है। मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार में अहंकार सबसे सूक्ष्म है, जिसे जानने वाला प्रकाश रुप क्षेत्रज्ञ परमात्मा स्वरुप है। परमात्मा का कहना है कि जिस प्रकार मनुष्य अपने को शरीर में मानता है और शरीर को अपना मानता है, उसी प्रकार वह स्वयं को परमात्मा में जाने और माने, क्योंकि उसने शरीर के साथ जो एकता मान रखी है, उसे छोड़ने को परमात्मा के साथ एकता माननी जरूरी है। शरीर की एकता संसार से है और क्षेत्रज्ञ-जीव की स्वाभाविक एकता परमात्मा से होते हुए भी जीव अपनी एकता शरीर से कर लेता है। प्रभु का यही आदेश है कि क्षेत्रज्ञ की एकता उनके साथ ही माननी चाहिये। हकीकत में क्षेत्रज्ञ के रुप में स्वयं ब्रह्म-परमात्मा ही मनुष्य-प्राणी में विद्यमान हैं। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का यही ज्ञान यथार्थ ज्ञान है। अनेक विद्याओं, भाषाओँ, लिपियों, कलाओं, तीनों लोकों और चौदह भुवनों का ज्ञान संसार से सम्बन्ध जोड़ने-भटकाने वाला होने के कारण, अज्ञान की श्रेणी में आता है।
The ego (I, my, me, mine, pride, arrogance) is present in all the bodies-Kshetr and the one who is aware of this defect is the Kshetragy, (Atma, Soul-a component of Brahm-The Almighty). In fact the Brahm is present in all the bodies as Kshetragy-the soul, a component of the God. The desired-deemed knowledge of any subject is obtained through external means like eyes and ears etc., while it is obtained through the internal faculties like mind (brain & heart) & intelligence, simultaneously. Ego is a component of the mind and intelligence & is deeply seated-rooted at micro level in the human beings. The God says that the manner in which the human being identifies himself with the body, due to ego, in the same manner, he should recognise-attach himself with the God. He should identify himself with the God & not with the body-universe. He has to desert oneness with the body to assimilate in the Almighty-Brahm. He should attach-align himself with the God-the Kshetragy. In fact the God HIMSELF is present in the creature-organism-humans etc. This understanding is enlightenment. Learning of various languages, arts, three abodes, 14 heavenly abodes is useless, since it repels the organism away from the God.
ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते।
अनादि मत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते॥[श्रीमद् भगवद्गीता 13.12]
जो ज्ञेय (पूर्वोक्त ज्ञान से जानने योग्य) है, उस (परमात्म-तत्व) को मैं अच्छी तरह कहूँगा, जिसको जानकर (मनुष्य) अमरता का अनुभव कर लेता है। वह (ज्ञेय-तत्व) अनादि वाला (और) परम ब्रह्म है। उसको न सत् कहा जा सकता है (और) न असत् (non existent, unfounded, illusory, untruth, falsehood, unreal) ही (कहा जा सकता है)। Bhagwan Shri Krashn asserted that he would fully describe the Parmatm-Ttv (the gist of the Ultimate knowledge, ought to be known) object of knowledge, by knowing which one experiences immortality. The immortal-imperishable is Par Brahm-Supreme Being, who can not be called either existent-eternal or nonexistent-temporal.
भगवान् श्री कृष्ण ने कहा कि वे उस ज्ञेय-जानने योग्य परमात्म-तत्व को स्पष्ट करेंगे, जिसकी प्राप्ति के लिये मानव शरीर प्राप्त हुआ है। परमात्म-तत्व को जानने के बाद मनुष्य अमरता का अनुभव करता है। उस आदि अन्त रहित परमात्मा से ही संसार उत्पन्न होता है और उसी में विलीन हो जाता है। वह आदि, मध्य और अन्त में यथावत रहता है। उस परमात्मा को ही परम ब्रह्म कहा गया है। उसके सिवाय अन्य कोई दूसरा व्यापक (comprehensive, pervasive), निर्विकार (immutable, invariable, unchanged, without defect), सदा रहने वाला तत्व नहीं है। उसे न सत् और न ही असत् कहा जा सकता है, क्योंकि वह बुद्धि का विषय नहीं है। वह ज्ञेय तत्व मन, वाणी और बुद्धि से सर्वथा अतीत है। उसका शब्दों में वर्णन कर पाना सम्भव नहीं है।
Bhagwan Shri Krashn told Arjun that HE would make clear the concept of the gist of the Ultimate knowledge to him, for achieving which human incarnation is obtained. Having recognised the Parmatm Ttv (the gist, nectar, elixir of the Almighty) the practitioner-devotee experiences immortality. The universe takes birth in that endless-perennial (चिरस्थायी, forever) Almighty and vanishes in HIM. HE remains as such in the beginning, middle and at the end. That God is called-termed as Par Brahm. Nothing other than HIM is comprehensive, defect less and for ever. HE is neither existent-eternal nor nonexistent-temporal, since HE is beyond the limits of brain-intellect. HE is the only one who ought to be known; is beyond imagination, thought, intelligence and speech. Its not possible to describe HIM in words.
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च॥[श्रीमद् भगवद्गीता 13.14]
वे (परमात्मा) सम्पूर्ण इन्द्रियों से रहित हैं और सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को प्रकाशित करने वाले हैं; आसक्ति रहित हैं और सम्पूर्ण संसार का भरण-पोषण करने वाले हैं तथा गुणों से रहित हैं और सम्पूर्ण गुणों के भोक्ता हैं।
The Almighty who creates the objects of sensuality & senses is free from sensual organs, is detached-free from bonds-ties, allurements, affections, sustains the entire world, free from characteristics, traits, qualities, distinctions, along with the receptor-consumer of all of them.
परमात्मा प्रकृति को अपने अधीन करके अवतार ग्रहण करते हैं। वे गुणातीत हैं। परमात्मा की किसी के प्रति आसक्ति नहीं हैं। सभी प्रकार की इन्द्रियों से रहित होकर भी समस्त प्राणियों का पालन-पोषण करते हैं। सम्पूर्ण गुणों से रहित होकर भी, वे समस्त गुणों के भोक्ता हैं। समग्र परमात्मा ही ज्ञेय तत्व है। सबसे रहित और सबके सहित वही है।
The Almighty takes incarnations by controlling the nature. HE is free from all types-sorts of characteristics, traits, qualities, distinction. HE do not possess sense or functional organs and yet HE performs all deeds. In spite being free from all characters HE possesses all the characteristics. The God is the only one who should be known to the ONE WHO has given birth to all living & no living. HE is away from all and still stands by all.
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्॥[श्रीमद् भगवद्गीता 13.15]
वे (परमात्मा) सम्पूर्ण प्रणियों के बाहर-भीतर (परिपूर्ण हैं) और चर-अचर (प्राणियों के रुप में) भी (वे ही हैं) एवं दूर से दूर तथा नजदीक से नजदीक भी (वे ही हैं) और वे अत्यन्त सूक्ष्म होने से जानने में नहीं आते।
HE is present-pervaded both inside as well as outside of all creatures, organisms, living beings, animate and inanimate. HE is incomprehensible because of HIS subtlety and because of HIS omnipresence, HE is very near, residing in one's innerself, psyche; as well as far away in the Supreme Abode. HE remain unrecognised being extremely small.
सम्पूर्ण चर-अचर प्राणियों के समुदायों और उनके बाहर-भीतर परमेश्वर विराजमान है अर्थात संसार में परमात्मा के अलावा, अन्य कुछ भी नहीं है। सभी कुछ तो परमात्मा के द्वारा, परमात्मा से ही बना हुआ है। वो ईश्वर दूर से दूर और पास से भी पास है। पहले से भी पहले, वे ईश्वर थे और पीछे से भी पीछे वे परमेश्वर ही रहेंगे और अब वर्तमान में भी वे परमेश्वर हैं। सम्पूर्ण वस्तुओं के पहले भी वे ही परमात्मा हैं, वस्तुओं के अन्त में भी वे ही परमात्मा हैं और वस्तुओं के रुप में भी वे ही परमात्मा हैं। उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थों के संग्रह और सुख-भोग की इच्छा रखने वालों के लिये, तत्वतः समीप होते हुए भी, परमेश्वर उनसे दूर हैं। जो भगवान् का भक्त है, उनकी छत्र-छाया में है, परमात्मा हर दम, हर वक्त उसके करीब-साथ हैं। अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण परमात्मा इन्द्रियों, मन और बुद्धि से अनुभव नहीं जा सकते, क्योंकि वे इनकी पहुँच से परे हैं। जीवों के अज्ञान के कारण ही परमात्मा उनके द्वारा नहीं जाने जाते अर्थात अज्ञेय हैं। इन्द्रियों, मन, बुद्धि से न जाने से वे अविज्ञेय हैं। सर्वत्र परिपूर्ण-आच्छादित परमात्मा को जानने की लिये साधक-भक्त दृढ़ता पूर्वक यह स्वीकार कर ले कि वे सर्वव्यापी हैं।
The God is present-pervade both inside and out side the organism.There is nothing except the Almighty. Everything is made-composed of the God. The God is far, as well as near the organism. HE was present initially, will be present at the termination and is present now. HE was present before all material objects, will be present at their devastation and is present in the form of material objects-commodities. The Almighty is away-far from those who possess wants-desires of consumption, comforts, accumulation, passions. Though in gist, HE is close to all, but away from those who are not free from desires. HE is too small to be perceived through the senses, intelligence or will-desire. HE is out of the influence of will, brain and the senses. HE can not be identified through the senses, mind or imagination. The Almighty pervades all yet remains out of reach from those who do not recognise HIS existence. Lack of knowledge, enlightenment, learning (awakening, wisdom), makes it difficult for the individual to know, identify, recognise HIM. To know HIM the devotee-individual should have firm conviction that HE is omnipresent and always with him.
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च॥[श्रीमद् भगवद्गीता 13.16]
वे परमात्मा स्वयं विभाग रहित होते हुए भी सम्पूर्ण प्राणियों में विभक्त की तरह स्थित है और वे जानने योग्य परमात्मा ही सम्पूर्ण प्राणियों को उत्पन्न करने वाले तथा उनका भरण-पोषण करने वाले और संहार करने वाले हैं।
The Almighty though free from division is yet present in all the living beings as a fraction. The Almighty who should be known is the creator (Bhagwan Brahma), nurturer (Bhagwan Vishnu) and destroyer (Bhagwan Shiv-Mahesh).
The Almighty though free from division is yet present in all the living beings as a fraction. The Almighty who should be known is the creator (Bhagwan Brahma), nurturer (Bhagwan Vishnu) and destroyer (Bhagwan Shiv-Mahesh).
परमात्मा स्वयं विभाग रहित होते हुए भी समस्त प्राणियों में मौजूद है अर्थात समस्त प्राणियों में वह स्वयं उपस्थित है। वो ही प्राणियों को उत्पन्न करने, पालन पोषण करने और संहार करने वाला है। रजोगुण की प्रधानता से वे भगवान् ब्रह्मा, सतोगुण की प्रधानता से भगवान् विष्णु और तमो गुण की प्रधानता से वे भगवान् शिव-महेश हैं। सृष्टि रचनादि कार्यों के लिये भिन्न-भिन्न गुणों को स्वीकार करने पर भी वे उन गुणों के वशीभूत नहीं होते और गुणों पर उनका पूर्ण आधिपत्य बना रहता है। उत्पन्न करने वाले भी और उत्पन्न होने वाले भी; वे स्वयं परमात्मा ही हैं। वे एक होते हुए भी अनेक और अनेक होते हुए भी एक हैं।
The Almighty is not divisible in fragments (parts, units, components). HIS presence in the living being illustrates-shows HIM as an absolute-single entity. (Water irrespective of source, container, form, shape, size, state is water.) HE creates, nurtures and then destroys the organism according to their deeds. HE is present in the form of the trinity of Bhagwan Brahma, Bhagwan Vishnu and Bhagwan Mahesh-Shiv, with Rajsik, Satvik and Tamsik tendencies respectively. For creating, maintaining and destroying the living beings HE accepts various characteristics (qualities, traits) without being controlled-over powered by them. HE is in the drivers seat, with full control over them. HE evolves and get evolved. HE presents HIMSELF in multiple forms in spite of multiplicity, HE is one.
Dev Rishi Narad compelled by his habit of poking his nose in other's affairs, visited the palaces of one after another queen (16,009) of Bhagwan Shri Krashn including the court. He found Bhagwan Shri Krashn present every where.
During Maha Ras too HE illustrated his multiple forms.
Bhagwan Brahma Ji took away all Gwal Bal to Brahmn Lok and found that all of them present over the earth as well in Mathura. He realised that the Almighty had appeared in numerous incarnations as Gwal Bal.
Both of them-Narad Ji & Brahma Ji, immediately realised that the Almighty had appeared over the earth HIM SELF.
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्॥[श्रीमद् भगवद्गीता 13.17]
वे परमात्मा सम्पूर्ण ज्योतियों के भी ज्योति और अज्ञान से अत्यन्त परे कहे गए हैं। वे ज्ञान स्वरूप, जानने योग्य, ज्ञान से प्राप्त करने योग्य और सबके हृदय में विराजमान हैं।
Almighty-the main source of all lights (all sorts of learning, knowledge), is said to be beyond ignorance. HE is the embodiment of all sorts of enlightenment-knowable, who can be achieved through enlightenment-learning and is seated in the hearts (soul, mind, senses) of all living beings.
परमात्मा से ही सम्पूर्ण ज्ञान उदय-प्रकट हुआ है। वे ही समस्त ज्ञान की ज्योति हैं अर्थात चराचर में सम्पूर्ण ज्ञान के स्त्रोत और आधार वही हैं। जहाँ वे उपस्थित हैं, वहाँ अज्ञान-अन्धकार नहीं है। वे ज्ञान स्वरूप ही जानने योग्य, ज्ञान से प्राप्त करने योग्य-ज्ञेय और सबके हृदय में विराजमान हैं। वे ही सात्विक, राजसिक और तामसिक ज्ञान हैं। यद्यपि वे विभाजित नहीं हैं, तथापि विभाजित नज़र आते हैं।
All learning has emerged from the God. HE is the source of all knowledge. Entire knowledge is sourced from HIM. Enlightened, scholars, philosophers acquire a fraction of enlightenment pertaining to HIM, who is the only one to be known. HE is present in the psyche-mind & heart of all living beings. All forms of learning :- Satvik, Rajsik and Tamsik are HIS forms. They appear to be different but have the same origin. The God appears divided-distinguished but in reality HE is one and only one. Bhagwan Vishnu, Brahma Ji and Bhagwan Shiv in addition to Bhagwan Ved Vyas, Ganpati, Maa Saraswati different-different scholars, who wrote various treatises on various subjects, arts are all HIS replica.
Any thing excellent, beyond compare-parallel is HIS form.
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च॥[श्रीमद्भगवद्गीता 14.27]
क्योकिं ब्रह्म का और अविनाशी अमृत का तथा शाश्वत धर्म का और ऐकान्तिक सुख आश्रय मैं ही हूँ।
The Almighty declared that HE is the basis-support of Brahm, Ambrosia-Amrat, everlasting cosmic order (Dharm) and absolute bliss.
परमात्मा ने स्पष्ट किया कि ब्रह्म के आधार वही हैं अर्थात निराकार परमात्मा और साकार ब्रह्म वही हैं। भगवान् श्री कृष्ण ही परमात्मा और ब्रह्म हैं। अविनाशी अमृत भी वही हैं, क्योंकि जो अनंत है, वह परमात्मा का रुप ही है। सनातन धर्म-हिन्दु धर्म स्वयं प्रभु हैं। ऐकान्तिक सुख भी परमात्मा ही हैं। जिस प्रकार एक ही जल बर्फ, तरल, द्रव्य, ठोस, वाष्प, बादल, नदी, समुद्र, कुँए के रुप में दिखता है, वैसे ही परमात्मा भी ब्रह्म, अमृत, ऐकान्तिक सुख स्वरुप हैं।
The Almighty made it absolutely clear to Arjun that HE is the Brahm-God, Ambrosia-Amrat, the eternal religion-Sanatan Dharm, i.e., Hindu Dharm and the Ultimate Bliss. The manner in which water is seen as ocean, river, glacier, well, cloud, vapours, mist, ice, fog; the God too is seen in various other forms time and again to perpetuate the humanity.
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥[श्रीमद् भगवद्गीता 15.6]
उस परम पद को न सूर्य, न चन्द्र और न अग्नि ही प्रकाशित कर सकती है और जिसको प्राप्त होकर जीव लौटकर संसार में नहीं आते, वही मेरा परम धाम है।
One does not return to earth (or any other abode) after attaining the Ultimate abode of the Almighty, which can not be illuminated by Sun, Moon or fire.
परमात्मा का धाम अविनाशी है। इसे प्राप्त करने के पश्चात जीव लौटकर नहीं आते। सूर्य, चन्द्र और अग्नि परमात्मा से ही प्रकाशित हैं। अतः उस अविनाशी धाम को प्रकाशित करने में असमर्थ हैं, क्योंकि वे भी परमात्मा से ही तेज ग्रहण करते हैं। परमात्म तत्व चेतन और सूर्य, चन्द्र तथा अग्नि, जड़-प्रकृति के अंग हैं। सूर्य, चन्द्र और अग्नि क्रमशः नेत्र, मन और वाणी को प्रकाशित करते हैं और ये तीनों भी जड़ प्रकति के अंग ही हैं। जड़ तत्व से चेतन तत्व की अनुभूति नहीं हो सकती। यहाँ सूर्य को देवता के रुप में नहीं, अपितु जड़ प्रकृति के प्रकाशक के रुप में देखा गया है, जिस प्रकार वासुदेव भगवान् नहीं अपितु वृष्णि वंश के श्रेष्ठ पुरुष के रुप में वर्णित हैं। जीव परमात्मा का अंश है और चेतन है। परम धाम स्वयं परमात्मा और उनके धाम को बताता है।
The Almighty represents HIS abode as well. When one talks of Bhagwan Vasu Dev he describes HIM as the head of Vrashni Vansh-clan. Similarly, when Sun, Moon and fire are discussed they are discussed as inertial objects (components of nature, material objects) not as deities-demigods. As physical objects they represents nature capable of illuminating the universe. The eyes represents Sun, the Moon represents inner self-psyche and the fire represents speech in a human being as material objects. The Sun, Moon, fire and the nature gain their strength, power, energy from the Almighty and hence they are not capable of illuminating the Ultimate abode i.e., the abode of the God. Human body represents nature and the soul is undifferentiated component of the God. This soul matures and get assimilated in the God forever, not to return back to this world. One does not return to earth after attaining the Ultimate abode of the Almighty, which can not be illuminated by Sun, Moon or fire.
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः॥[श्रीमद् भगवद्गीता 15.11]
यत्न करने वाले योगी अपने आप में स्थित परमात्म तत्व का अनुभव करते हैं। परन्तु जिन्होंने अपना अन्तःकरण शुद्ध नहीं किया है, ऐसे अविवेकी मनुष्य यत्न करने पर भी इस तत्व का अनुभव नहीं करते।
The Yogis successfully make efforts to experience the gist of the God present in themselves. The imprudent who's psyche, innerself, consciousness is impure-contaminated can not experience the presence of the Almighty in himself, in spite of making efforts.
योगी का एकमात्र उदेश्य परमात्मा की प्राप्ति है। वह अपने अन्तःकरण को शुद्ध करने का सतत-निरन्तर प्रयास करता रहता है। उसका विवेक जाग्रत रहता है। उसे मालूम है कि परमात्मा तो उसके अन्दर ही विराजमान है, जो कि उसे निरन्तर निरख-परख रहा है। उसका संसार के प्रति मोह-लगाव नहीं है। उसे इस बात का अहसास है कि एक ना एक दिन यह शरीर नष्ट हो ही जायेगा। उसका मैं-पन खत्म हो चुका है। धीरे-धीरे उसमें और परमात्मा में द्वैत भाव खत्म हो जाता है। परमात्मा को इन्द्रियों, मन, बुद्धि से नहीं जाना जा सकता है। निरपेक्षता आने पर स्वतः ही परमात्म तत्व प्रकट होने लगता है। अन्तःकरण के शुद्ध होने पर योगी को परमात्म तत्व का अनुभव होने लगता है।
The Yogi has only one aim, i.e., the God. He is anxious, curious, willing to see (find, discover) HIM. However, its essential to become pure, pious, righteous, honest, virtuous, equanimous. He always make determined efforts in this direction. He knows that the God is present in himself, who is continuously watching-weighing him. He has no love-affection for the world. He is sure that one day or the other, this body will be lost (fall). His ego which stresses over ownership (I, my, me, mine, pride, arrogance) goes away with the realisation that this body will have no existence after a certain period. He has achieved oneness with the God. The Almighty can not be identified with the help of senses, psyche or the intelligence. Its the prudence which makes him close to the God. As soon as one approaches equanimity his innerself becomes pure-uncontaminated and he starts visualising the Almighty present in himself. His duality with the Almighty goes away with it.
यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्॥[श्रीमद् भगवद्गीता 15.12]
सूर्य को प्राप्त हुआ जो तेज सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करता है और जो तेज चन्द्रमा में है तथा अग्नि में है, उस तेज को मेरा ही जान।
The energy (aura, brilliance, brightness, light) present in the Sun, which illuminates the universe, the energy in the Moon and the fire are by virtue of the Almighty. They shine due to the power of the God.
जो सूर्य पूरे ब्रह्माण्ड को प्रकशित करता है, उसमें जो तेज है वह परमात्मा से प्राप्त है। सूर्य नेत्रों के अधिष्ठात्र देवता हैं। सूर्य में प्रकाश और ज्वलनशक्ति, चंद्र में शीतलता, मधुरता, प्रकाश और पोषण शक्ति, अग्नि में प्रकाश और दहन शक्ति परमात्म से प्राप्त हैं। चन्द्रमा मन के अधिष्ठात्र देवता हैं। अग्नि वाणी के अधिष्ठात्र देवता हैं। कहने का अर्थ यह है कि परमात्मा, सूर्य, चन्द्र और अग्नि सहित प्राणी सभी एक श्रंखला में जुड़े हैं। सभी परमात्मा के अंश हैं। सभी में तेज, प्राण और संवेदन परमात्मा से हैं। किसी में अपना स्वयं का कुछ नहीं है।
The Sun illuminates the whole universe with the energy-aura granted by the God. He is the deity of the eyes as well. One can not see anything in the absence of eyes (light). The Moon gets its energy, calmness-cool, brightness and capacity to nourish from the God. He is the deity of the mind, brain, thoughts, memory etc. Fire is the deity of speech. Its empowered to burn everything and digest the food. The fact remains that each one of them gets its energy from the Almighty. They have no existence without the God. Their brightness-aura fades in front of the God. The energy, soul and sensation in them is by virtue of the God, including the organism-living being. None has anything of its own. Therefore, its the pious duty of one to worship the Almighty, in order to assimilate in HIM. It means that one has to perform his duties religiously, with dedication, concentration, without laziness, carefully honestly, piously, righteously, virtuously.
गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः॥[श्रीमद् भगवद्गीता 15.13]
मैं ही पृथ्वी में प्रविष्ट होकर अपनी शक्ति से समस्त प्राणियों को धारण करता हूँ और मैं ही रस स्वरुप चन्द्रमा होकर समस्त औषधियों को पुष्ट हूँ।
The Almighty said that HE supported life with HIS strength, power, energy, by entering-occupying the earth and by becoming the sap, elixir, nectar, ambusia of the moon & nourishes all the medicinal plants.
जिस प्रकार समस्त देवगण परमात्मा से शक्ति प्राप्त कर संसार का पालन-पोषण करते हैं, उसी प्रकार प्रभु ने पृथ्वी को अपनी शक्ति से सम्पन्न करके, इसे प्राणियों को धारण करने योग्य बना रखा है। सभी जगहों पर धारण शक्ति परमात्मा से ही है। पृथ्वी में अन्न उत्पन्न करने की शक्ति, गुरुत्वाकर्षण भी प्रभु से ही है। जो आँखों से दिखाई देता है, वह चन्द्र मण्डल है, उससे भी दूर आँखों की परिधि से बाहर चन्द्र लोक है, जो सूर्य से भी ऊपर है। चन्द्रमा पृथ्वी को प्रकाश के साथ-साथ पोषण करने की शक्ति भी प्रदान करता है। शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा की किरणों के साथ अमृत वर्षा होती है, जो कि वनस्पतियों और गर्भ स्थित शिशुओं का पोषण करती हैं।
All demigods and deities function by the strength provided by the God. Without HIS power the demigods & deities are like ordinary beings. The earth is supported by the God to stay in its orbit round the Sun and bear the living beings. The gravitational pull is due to the God's strength. Capacity-capability of the earth to feed and support life is due to the Almighty. Quantum of water is far more as compared to body mass, yet it remains free to support life. The Moon nourishes the medicinal plants and nurture the child in the womb. The Moon visible to us is a material object and the Chandr Lok-abode is situated much above the Sun. The Moon reflects the light over the earth which carries a sap, nectar, elixir, ambrosia essential for nourishment of plants both for food and medicines.
चन्द्रमा की किरणें शुक्ल पक्ष में पृथ्वी पर अपनी किरणों से वनस्पतियों को सींचतीं हैं और फिर कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा स्वयं पृथ्वी से पोषण ग्रहण करता है। सूर्य अपने प्रकाश से पृथ्वी पर उजाला करता है और पोषण करता है साथ-साथ अपना पोषण भी करता है। इस प्रकार आदान-प्रदान की क्रिया साथ-साथ चलती है।
The Moon nourishes the vegetation over the earth during the bright phase and sucks essentials for it during dark phase. The Sun illuminates the earth and side by side sucks the essentials for it. In this manner a two way process continues. This is an intricate process which shows interdependence between the Sun and the earth & the Moon and the earth.
The scientists are unable to decode this process so far. They just know that the hydrogen burns form to helium and release energy through fusion of protons. However, the process of recycle continues every where in the universe. The water present over the earth breaks into hydrogen and oxygen then further subdivision takes place into another set of micro particles & energy forms which move to Sun.Recently scientists claim to have discovered God particle.
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः॥[श्रीमद् भगवद्गीता 15.17]
उत्तम पुरुष तो अन्य (विलक्षण,अलौकिक, असाधारण, अद्भुत, अनोखा, विशिष्ट) ही है, जो परमात्मा नाम से कहा गया है। वही अविनाशी ईश्वर तीनों लोकों में प्रविष्ट होकर सबका भरण-पोषण करता है।
Over and above the perishable and imperishable beings stands the Almighty, who is with distinguishing (strange, unique, fantastic, astonishing, remarkable, extra-ordinary) features-characteristics. He enters the three abodes and sustains-nurtures their living beings.
क्षर और अक्षर प्राणियों से भी ऊपर परमात्मा है जो पुरुषोत्तम-सर्वोत्तम है। वही तीनों लोकों में व्याप्त होक प्राणियों का भरण-पोषण करता है और उनको बगैर भेद-भाव के कर्मों के अनुरुप फल प्रदान करता है। प्राणी व्यर्थ ही यह मान बैठता है कि वह किसी का पालन-पोषण है।
The Ultimate, imperishable Almighty enters the three abodes and support, sustain, nurture the living beings without distinctions as per their deeds in previous births. HE is impartial-neutral, equanimous. In performing these functions HE neither lose nor gain thing. The Human being unreasonable nurture the ego that HE is sustaining-supporting any one.
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः॥[श्रीमद् भगवद्गीता 15.18]
कारण कि मैं क्षर से अतीत हूँ और अक्षर से भी उत्तम हूँ, इसलिये लोक में और वेद में पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूँ।
The Almighty asserted that HE is famous as Purushottam, since HE is far beyond, above perishable (Kshar), temporal & excelled (उत्कृष्ट, अग्रगण्य, सर्वश्रेष्ठ, अति विशिष्ट; surpass, dominate) the Akshar-imperishable-eternal in this abode-world and the Veds.
प्रकृति जड़, प्रतिक्षण परिवर्तन शील और क्षर-नाशवान है; जबकि परमात्मा नित्य-निरन्तर निर्विकार, अविनाशी हैं, अतः क्षर से अतीत हैं। आत्मा अक्षर है, परन्तु वह परमात्मा का एक अति लघुतम अंश-इकाई है। प्रकृति से सम्बन्ध मान लेने से उस पर जड़ता का प्रभाव आ जाता है, जबकि प्रभु चेतन हैं और मोह-ममता से परे-ऊपर हैं। वे प्रकृति को अपने अधीन करके अवतार ग्रहण करते हैं और सदैव निर्लिप्त हैं। अतः वे अक्षर पुरुष से भी श्रेष्ठ हैं। क्षर और अक्षर की स्वतंत्र सत्ता नहीं है, यद्यपि परमात्मा की स्वतंत्र सत्ता है। इन्हीं कारणों से परमात्मा को इस लोक और वेदों में पुरुषोत्तम कहा गया है।
The nature is inertial, continuously variable-changeable and lifeless entity. The soul acquires its characteristics after coming in its contact with nature having acquired the physical-material body. The God is superior to it, being forever, uncontaminated-pure. The soul is the minutest unit of the Almighty-God. The nature is without consciousness, while the God is conscious. The God is beyond bonds & affections. He takes incarnations after bringing the nature under HIS control. HE is never attached. HE is over and above both types of living beings. HE is independent. This is why, HE is called Purushottam-Ultimate, in the world and the Veds.
ॐतत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा॥[श्रीमद् भगवद्गीता 17.23]
ॐ, तत्, सत्, इन तीन प्रकार के नामों से जिस परमात्मा का निर्देश (संकेत) किया गया है, उसी परमात्मा से सृष्टि के आदि में वेदों तथा ब्राह्मणों और यज्ञों की रचना हुई है। The manner in which the three names of the Almighty :- ॐ, Tat, Sat; emerged, is the same as the creation of Veds, Brahmns and Holy sacrifices in fire in the beginning of Eternity.
ॐ, तत्, सत् :- ये परमात्मा के तीन नाम हैं, निर्देश हैं। परमात्मा ने पहले वेद, ब्राह्मण और यज्ञों को बनाया। विधि वेद बताते हैं, अनुष्ठान ब्राह्मण करते हैं और क्रिया के लिये यज्ञ है। यज्ञ, तप और दान में किसी प्रकार की कमी रह जाये तो, परमात्मा का नाम स्मरण करें, उससे कमी पूरी हो जायेगी। "ॐ तत् सत्": इस मन्त्र से गृहस्थ अथवा उदासीन (साधु) जो भी कर्म आरम्भ करता है, उसको अभीष्ट की प्राप्ति होती है। जप, होम, प्रतिष्ठा, संस्कार आदि सम्पूर्ण क्रियाएँ, इस मन्त्र से सफल हो जाती हैं, इसमें सन्देह नहीं है।
ॐ, Tat & Sat are the 3 names-directives of the God, which fulfils all the desires of the worshipper, if he spell them in the beginning of the Holy sacrifices, endeavours, rituals, prayers. The Almighty created the Veds & Brahmns followed by Holy sacrifices in fire for the benefit of the humans. The Veds describe the methods for the sacrifices, rituals, prayers, worships, asceticism etc. Prayers, Yagy, Hawan are carried out by the Brahmns by following the procedures laid down the Veds & scriptures. The Yagy, Hawan, Holy sacrifices in fire are there to make successful all the endeavours, projects, desires, ambitions of the individuals. In case there is any draw back in the Yagy, Tap or Dan remember the God through these three names and the weakness-deficiency is overcome.
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम्॥[श्रीमद् भगवद्गीता 17.24]
इसलिये वैदिक सिद्धान्तों को मानने वाले पुरुषों की शास्त्र विधि से नियत यज्ञ, दान और तपरुप क्रियाएँ सदा "ॐ" इस परमात्मा के नाम का उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं।
Those who have faith in Vaedic principles begin the Yagy associated with the procedures mentioned in the scriptures, donations-charity and ascetic practices by uttering-spelling OM (Ameen or Allah are merely translation of Om); the name of God.
Please refer to :: VED VANI वेद वाणी santoshkipathshala.blogspot.com
समस्त वैदिक क्रियाएँ, यज्ञ, हवन, आहुति, मंत्र प्रार्थनाएँ सर्वप्रथम ॐ का उच्चारण करके ही प्रारम्भ की जाती हैं। दान, तप भी इसके बगैर अधूरे-फल हीन हैं। सृष्टि की रचना-उत्पत्ति में सबसे पहले प्रणव शब्द "ॐ" ही प्रकट हुआ। प्रणव की तीन मात्राएँ हैं, जिनसे त्रिपदा गायत्री प्रकट हुई और त्रिपदा गायत्री से ऋक, साम और यजु :- यह वेदत्रयी प्रकट हुई।
All Vaedic rituals, Mantr, Yagy-Holy sacrifices in fire, offerings in fire, prayers begin with the pronunciation of OM. This is prefix. All Vaedic procedures remain incomplete in the absence of OM. Donations, ascetic practices remain fruitless in the absence of OM. OM appeared at the auspicious occasion of the formation of the universe-life. Three syllables of OM form the Gayatri Mantr and the three Veds :- Rig Ved, Sam Ved & Yajur Ved appeared from Gayatri.
तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः।
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः॥[श्रीमद् भगवद्गीता 17.25]
तत् नाम से कहे जाने वाले परमात्मा के लिये-निमित्त ही सब कुछ है; ऐसा मानकर मुक्ति चाहने वाले मनुष्यों द्वारा फल की इच्छा से रहित होकर, अनेक प्रकार के यज्ञ और तप रुप क्रियाएँ तथा दानरूप क्रियाएँ की जाती हैं।
Those who want freedom from reincarnation-salvation, perform various Yagy-sacrifices, ascetic practices and donations, charity, austerity for the sake the God, who is addressed as Tat, without the desire of any reward.
जो भी शास्त्र सम्मत योग, यज्ञ, हवन, तप, दान, तीर्थ, व्रत, स्वाध्याय, ध्यान, समाधि, शुभ कर्म आदि क्रियाएँ परमात्मा की प्रसन्नता लिये की जायें, उनमें फल की इच्छा किञ्चित मात्र भी नहीं होनी चाहिये, क्योंकि वे अपने लिये नहीं हैं। जिन साधनों से ये क्रियाएँ की जाती हैं; वे शरीर, इन्द्रियाँ अन्तःकरण परमात्मा के ही हैं। कुटुम्ब, घर, मकान, सम्पत्ति भी परमात्मा का ही दिया हुआ है। समझ-ज्ञान, बुद्धि, सामर्थ्य स्वयं मनुष्य भी परमात्मा का ही है।इस भाव को लेकर समस्त क्रियाएँ करनी चाहिये। प्रत्येक कर्म-क्रिया शुभ-अशुभ, निहित, विहित, निषिद्ध तथा कर्म फल का प्रारम्भ और समाप्ति भी होती है। अतः उसकी इच्छा कतई नहीं होनी चाहिये। परमात्मा की सत्ता नित्य-निरन्तर है, अतः मनुष्य को उसकी स्मृति रहनी ही चाहिये। जो संसार प्रत्यक्ष प्रतीत हो रहा है, उसका तो निराकरण करना ही है तथा जो अप्रत्यक्ष है, उस तत् नाम से कहे जाने वाले परमात्मा का अनुभव भी करना है, जो नित्य-निरन्तर है। परमात्मा के भक्त राम, कृष्ण, गोविन्द, नारायण, वासुदेव, शिव आदि का सम्बोधन उस तत् स्वरूप भगवान् के लिये करके, समस्त क्रियाएँ शुरू करते हैं। तत्त शब्द (वह, उस) अलौकिक परमात्मा के लिये ही आया है, जो कि श्रद्धा-विश्वास का विषय है, विचार का नहीं।
Tat (HE, THAT) has been used for the Almighty. Existence of God is a matter of faith not of argument, logic or discussion. HE is eternal-divine, beyond the limits of the human intelligence, vision or thought. All prayers start by remembering HIM as Ram, Krashn, Hari, Govind, Shiv, Vasudev, Narayan etc. by the devotees or simply God, Allah, Khuda, Rab, Bhagwan etc. What ever pious, virtuous, righteous deed-endeavour is there, should be under taken, for HIS happiness, pleasing HIM. Sacrifices in Holy fire, Yagy, Hawan, ascetic practices, Pilgrimage, bathing in Holy river-reservoirs are meant for HIS happiness, since HE has created the man. The tools of offerings, donations, wealth, body, organs, belongs to HIM. The man his intelligence, body, thoughts, family, property, strength, capability, power are created by HIM and thus belongs to HIM, only. All deeds, habitual or compulsory, pious or evil, begins and terminates but the Almighty remains as such without any change-modification, before, after and now. One should feel HIS presence every where, in each & every particle, action-activity.
सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते॥[श्रीमद् भगवद्गीता 17.26]
हे पार्थ! सत् :- ऐसा यह परमात्मा का नाम सत्तामात्र में और श्रेष्ठ भाव में प्रयोग किया जाता है तथा प्रशंसनीय कर्म के साथ सत् शब्द जोड़ा जाता है।
The Almighty addressed Arjun as Parth! HE said that HIS name Sat represents HIS authority and is used as a prefix with those works-events which are superb, excellent, appreciable. Sat represents :- Truth, Reality, Goodness, An auspicious act, Purity, Virtuousness, Righteousness.
किसी के प्रति अच्छा भाव व्यवहार रखना, सद्भाव, दया, क्षमा, साधु भाव, परमात्मा का प्रतीक है अर्थात जो व्यक्ति इन गुणों से युक्त है, उसमें भगवान् का अंश प्रकट हो रहा है। इसी प्रकार दैवी गुण, सत्य, त्याग, सत्-तत्व, सद् गुण भी अच्छाई का प्रतीक हैं। जो भी अच्छा कार्य, आचरण है यथा शास्त्र विधि के अनुरूप यज्ञ, यग्योपवीत, विवाह, संस्कार, अन्नदान, भूमिदान, गोदान, मन्दिर बनवाना, बगीचा लगवाना, कुँआ-बाबड़ी खुदवाना, धर्मशाला बनवाना श्रेष्ठ कार्य हैं। सत्कर्म, सत्सेवा, सद् व्यवहार, आदि परमात्मा के ही रूप हैं।
Any virtuous act-quality, event, action shows Almighty's presence in the doer. Divine characteristics, donations-charity, visiting holy shrines, pilgrimages, fasting relinquishment, asceticism is Godly. Building temples, wells, reservoirs, gardens-parks, inns for the welfare of others-masses is Godly behaviour-act. Social welfare, helping poor-one in destitute, ill-diseased is Godly act. Marriage according to scriptures and its maintenance by both spouses, helping the aged-elders, weak, donation of food grain or food, land for hospital, school, Brahmans is Godly. Donation of milk yielding cows with the calf is Godly act. Speaking the truth is Godly act.
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते॥[श्रीमद् भगवद्गीता 17.27]
यज्ञ तथा तप और दान रूप क्रिया में जो स्थित (निष्ठा रखता है) है वह भी सत् कहा जाता है और उस परमात्मा के निमित्त किया जाने वाला कर्म भी सत् कहा जाता है।
The performer of Yagy-Holy sacrifices in fire, Tap-ascetic practices and Dan (donations, charity) and the one who has faith in these practices do represent Sat :- Purity, Austerity, Truth and the deeds (performances, practices) selfless service for the sake-cause of the Almighty do represent Sat.
यज्ञ तथा तप और दान करना और उनमें निष्ठा-विश्वास-आस्था रखना भी सत् है। लौकिक, पारमार्थिक और दैवी सम्पदा सत् स्वरूप और मोक्ष प्रदायक हैं। मानव मात्र के कल्याण के लिये निष्काम भाव से किया गया कोई भी कर्म व्यर्थ नहीं जाता। जो परमात्मा को चाहता है, वो अपना कल्याण और मुक्ति चाहता है। भक्ति चाहने वाला भी भगवान् के हेतु ही कर्म करता है। ये सभी कर्म-क्रियाएँ सत् स्वरूप हैं।
Faith in Yagy, Tap and Dan is Sat. Anything done for the sake of the God is also Sat. Pure deeds, service of the mankind without any motive-desire for return, divine activities like devotion to God, prayers of deities-demigods as a form-representative of the God-Ultimate, do grant Salvation-Assimilation in the God-Liberation. Selfless service of the man kind, never goes waste. One who loves God, loves Salvation. One who loves devotion, do perform for the sake of the God. These pure, uncontaminated, pious, righteous, virtuous performances-deeds meant for the God's cause, do grant Salvation.
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह॥[श्रीमद् भगवद्गीता 17.28]
हे पार्थ! अश्रद्धा से किया हुआ हवन, दिया हुआ दान और तपा हुआ तप तथा और भी जो कुछ किया जाय वह सब असत्, ऐसा कहा जाता है। उसका फल न तो यहाँ होता है और न मरने के बाद ही होता है अर्थात उसका कहीं भी सत् फल नहीं होता।
The Almighty addressed Arjun as Parth and told him that any auspicious activity like Holy sacrifices in fire, donations or ascetic practices done without faith-reverence, yield negative results. It do not grant the desired reward either in this world or the other world after the death.
कोई भी धर्मिक-पुण्य कार्य बगैर श्रद्धा, दिखावे, ढोंग-पाखण्ड के लिये किया जाता है, तो वह लौकिक अथवा अलौकिक संसार में चाहा गया फल नहीं देता। अक्सर इसका परिणाम उल्टा ही होता है। प्रकृति में कार्य और कारण जुड़े हुए हैं। अगर कुछ किया गया है तो, उसका परिणाम उसके अनुरूप अवश्य ही होगा। यज्ञ, तप तथा दान पूरी श्रद्धा, भक्ति और विश्वास के साथ किया जाना चाहिये।
One should perform austerities with faith, devotion and reverence to the God without demonstrative modes. While performing ascetic practices, holy sacrifices in fire, prayers, worship, donations; one must be pure at heart. What ever act has been done, it is always going to yield results according to the tendency of the doer, in the present birth or the next births.
सच्चिदानन्द स्वरूप श्री कृष्ण सनातन हैं। वे सारे जगत के कारण रूप प्रधान और पुरुष के भी नियामक परमेश्वर हैं। इस जगत के आधार, निर्माता और निर्माण सामग्री तथा स्वामी वे ही हैं। उनकी क्रीड़ा के हेतु ही जगत का निर्माण हुआ है। यह जिस समय, जिस रूप में जो कुछ रहता है-होता है, वह ये परमेश्वर ही हैं। इस जगत में प्रकृति-रूप से भोग्य और पुरुष रूप से भोक्ता तथा दोनों से परे दोनों के नियामक साक्षात भगवान् भी ये ही हैं। इन्द्रियातीत! जन्म, अस्तित्व आदि भाव विकारों से रहित परमात्मा ने ही इस चित्र-विचित्र जगत का निर्माण किया है। और इसमें इन्होने ही आत्मा रूप से प्रवेश भी किया है। वे ही प्राण-क्रिया शक्ति और जीव-ज्ञान शक्ति के रूप में इसका पालन पोषण कर रहे हैं। क्रिया शक्ति प्रधान प्राण आदि में जो जगत की वस्तुओं की सृष्टि करने की सामर्थ्य है वह उन वस्तुओं की नहीं; अपितु इनकी की सामर्थ्य ही है। क्योकि वे परमात्मा के समान चेतन नहीं अपितु अचेतन हैं; स्वतंत्र नहीं परतंत्र हैं। उन चेष्टाशील प्राण आदि में केवल चेष्टा मात्र होती है, शक्ति नहीं। शक्ति तो प्रभु की ही है। चन्द्रमा की कांति, अग्नि का तेज, सूर्य की प्रभा, नक्षत्र और विद्युत आदि की स्फुरण रूप से सत्ता, पर्वतों की स्थिरता, पृथ्वी की साधारण शक्ति रूप वृत्ति और गंध रूप गुण-ये सब प्रभु ही हैं। जल में तृप्त करने, जीवन देने और शुद्ध करने की जो शक्तियाँ हैं, वे परमात्मा के स्वरूप ही हैं। जल और उसका रस भी वही हैं। इन्द्रिय शक्ति, अन्तःकरण की शक्ति, शरीर की शक्ति, उसका हिलना-डुलना, चलना-फिरना-ये सब वायु की शक्तियां उन्हीं की हैं। दिशाएं और उनके आकाश भी वही हैं। आकाश और उसका आश्रय भूत स्फोट-शब्द तन्मात्रा या परा वाणी, नाद-पश्यन्ति, ओंकार-मध्यमा तथा वर्ण (अक्षर) एवं पदार्थों का अलग-अलग निर्देश करने वाले पद, रूप, वैखरी वाणी भी वे ही हैं। इन्द्रियां और उनकी विषय प्रकाशिनी शक्ति और अधिष्ठातृ-देवता वे ही हैं। बुद्धि की निश्चयात्मिका शक्ति और जीव की विशुद्ध स्मृति भी वे ही हैं। भूतों में उनका कारण तामस अहँकार, इन्द्रियों में उनका कारण तैजस अहँकार और इन्द्रियों के अधिष्ठातृ-देवताओं में उनका कारण सात्विक अहँकार तथा जीवों के आवागमन का कारण माया भी वे ही हैं। जैसे मिट्टी आदि वस्तुओं के विकार घड़ा, वृक्ष आदि में मिट्टी निरन्तर वर्तमान है और वास्तव में वे कारण-मृतिका रूप ही हैं-उसी प्रकार जितने भी विनाशवान पदार्थ हैं, उनमे कारण रूप से अविनाशी तत्व परमात्मा ही हैं। वास्तव में वे उनके ही रूप हैं। सत्व, रज और तम-ये तीनों गुण और उनकी वृत्तियाँ-परिमाण-महत्तत्त्वादि परब्रह्म परमात्मा में वे ही माया द्वारा कल्पित हैं। जितने भी जन्म, अस्ति, वृद्धि, परिणाम आदि भाव-विकार हैं, वे प्रभु से सर्वथा अलग नहीं हैं। जब इनमें प्रभु की कल्पना कर ली जाती है तब वे ही इन विकारों के अनुगत जान पड़ते हैं। कल्पना की निवृति हो जाने पर निर्विकल्प परमार्थ स्वरूप वे ही रह जाते हैं। यह जगत सत्व, रज और तम-इन तीनो गुणों का प्रवाह हैं; देह, इन्द्रियां, अन्तःकरण, सुख, दुःख और राग-लोभादि उन्हीं के कार्य हैं। इनमें जो अज्ञानी परमात्मा का सर्वात्मा सूक्ष्म स्वरूप नहीं जानते, वे अपने देहाभिमानरूप ज्ञान के कारण ही कर्मों के फंदे में फंसकर बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्कर में भटकते हैं। मनुष्य को प्रारब्ध के अनुसार इन्द्रियादि के सामर्थ्य से युक्त अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य-शरीर प्राप्त हुआ है। किन्तु माया वश वह असावधान हो जाता है और स्वार्थ-परमार्थ से ही असावधान होकर सारी उम्र बिता देता है। मनुष्य को शरीर के सम्बन्धी, अहंता एवं ममता रूप स्नेह के फंदे से प्रभु ने ही बांध रखा है। वे अजन्मा हैं, फिर भी अपने बनाई हुई मर्यादा की रक्षा करने के लिए वे अवतार ग्रहण करते हैं। वे अनन्त और एकरस सत्ता हैं। [श्रीमद्भागवत 85.3.20]
जिस परमात्मा से संसार पैदा हुआ है और संचालित है, जो सबका उत्पादक आधार और प्रकाशक है जो सबमें परपूर्ण है अर्थात जो अनन्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति से पहले भी था, उनके रहते हुए भी जो रहता है और जो उनके लीन होने के बाद भी रहेगा, तथा जो अनन्त ब्रह्माण्डों में व्याप्त है, उसी परमात्मा का अपने-अपने स्वभावज-वर्णोचित स्वभाविक कर्मों के द्वारा पूजन करना चाहिए।
लौकिक और पारलौकिक कर्मो के द्वारा परमात्मा का पूजन तो करना चाहिए, परन्तु उनके करणों-उपकरणों में ममता नहीं रखनी चाहिए। क्योंकि उनमें ममता होते ही वे वस्तुएँ अपवित्र हो जाती हैं। सिद्धि को प्राप्त करने का अर्थ है कि मनुष्य अपने कर्मों से परमात्मा की पूजा करने से प्रकृति से असंबद्ध होकर स्वतः अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। उसका प्रभु में स्वतः अनन्य प्रेम जाग्रत हो जाता है। अब उसको पाने-हासिल करने के लिए कुछ भी शेष नहीं है। किसी भी जाति, सम्प्रदाय (हिन्दु, बौद्ध, ईसाई , पारसी, यहूदी, मुसलमान), वर्ग से व्यक्ति क्यों न हो वह परमात्मा के पूजन का अधिकारी है। भगवान् श्री कृष्ण और अर्जुन के इस संवाद-श्री मद्भागवत गीता का जो अध्ययन करेगा उसके द्वारा परमात्मा ज्ञान से पूजित होंगे। कर्मयोगी और ज्ञान योगी अन्त में एक हो जाते हैं क्योंकि दोनों में जड़ता का त्याग किया गया है। इसी प्रकार भक्ति मार्ग भी जड़ता को मिटाता है।
Accomplishment is attained by an individual by worshipping the Almighty, from whom all the universes, organisms have evolved and by whom all the universes are pervaded, through his natural-instinctive-prescribed-Varnashram related deeds.
One should pray to the Almighty from whom the entire Universe has evolved, who operates the world, who is the creator, producer, founder and illuminator, administrator-organiser-who alone is complete amongest all-who was present before creation of infinite universes and who will remain after assimilation of infinite universes in him and who is pervaded in infinite universes, is worshipped automatically if the individual performs his natural-prescribed-Varnashram duties. Performance of the prescribed-Varnashram duties assigned to the individual, itself is worship of the God.
Both Karm Yog and Gyan Yog merge into one single stream by eliminating immovability-inertness through service and worship enabling detachment, resulting in immersion in Supreme Power.
Hey Arjun! The supreme Soul-Almighty is present in the hearts (innerself-soul) of the all human, animate, creature and moves them through various incarnations-abodes (worlds, universes), according to their deeds-nature, with enchantment-illusion, his illusory power.
ईश्वर सबका शासक, नियामक, भरण-पोषण करने वाला और निरपेक्ष रूप से संचालक है। वह अपनी शक्ति-माया से उन सब प्राणियों को घूमाता है, जिन्होंने शरीर को अपना मान रखा है और मैं और मेरा करते रहते हैं। मैं और मेरा पन राग-द्वेष उत्पन्न करता है। जैसा शरीर प्राणी को मिलता है, वह वैसा-उसके अनुरूप व्यवहार करने लगता है। सज्जन मनुष्य श्रेष्ठ और दुर्जन निकृष्ट क्रियाएँ करते हैं, जो कि उन पर ही निर्भर हैं। मनुष्य को अपना आचार-व्यवहार सुधारने की पूरी आजादी है। अहंकार, मैंपन, अहंता परमात्मा से दूर करता है और प्रेम जोड़ता है। इसके परिणाम स्वरूप मनुष्य को परमात्मा का आभास ह्रदय में होता है, यद्यपि वह सारे शरीर-सब जगह व्याप्त है। परमात्मा की शरण में गया हुआ प्राणी, उससे विशेष प्रेम करने लगता है और अपनी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है।
Nothing can move without the permission-desire of the Almighty. He is the Creator-Protector and Destroyer (Brahma, Vishnu & Mahesh). Those in whom, ego is Supreme, associated with imprudence, are the ones, forced by the might of the Almighty, to undergo unending cycles of life-death, regression, rebirth, reincarnations. Human body is a mechanical device occupied by the soul to experience the reward-suffering, as per its own doings-Karm, in previous incarnations, till they vanish completely. Having escaped earlier does not mean pardon-freedom from the reward or punishment. One is freed only when, he detaches from, nature, ego, arrogance, attachments, bonds, prejudices, contaminated deeds.
Soul is driver driving the chariot-vehicle.Without a driver no program functions in a computer.
Different species occur, exist, develop, grow or take birth, due to the differences in their nature. The creature-human being, acts as per his deeds, having impetus, urge, incitement from God.
Good or bad performances depend over the nature of the person not the God. He is free to act according to his own nature, mind (psyche, gestures, tendencies, innerself), heart, soul. It’s only the human being, who is capable of moulding-improving his future and nature. None of the creatures, animals, birds, Demi-Gods, demons, giants etc., is free-empowered to improve their nature, behavior, tendencies, temperament, destiny. The fact remains that human incarnation is superior to demigods, demons etc. who are mightier than humans.
Soul is just like the air which acquires different smells foul-pleasant, impurities, pollutants at different places but reject them at the very first opportunity.
Human body is gifted to the Soul to improve its deeds & destiny. No one should waste this opportunity. The God provide chance and freedom to work. He does not compel the individual to toe, follow, dictate, his line of action. Those, who take refuge, protection, shelter, asylum in HIM, are sympathetically, shown the divine path by the Almighty, HIMSELF.
The realm-soul-Ultimate of one's own self is not different from one. It can not be achieved by the addition of limitations to its nature. It is unimaginable, effortless, unchanging and spotless. The Almighty; has no substitute, does every thing without efforts, defectless-pure, without collyrium-untainted; is not away-separable, from one offering-surrendering, seeking asylum in HIM, without hesitation.
The Almighty is not different from the organism. HE is inseparable-undistinguished from the organism. HE is defectless, pure, available without pain-efforts. One should not hesitate or maintain distance from HIM. HE is present every where and in each & every. The ignorant considers HIM to be unattainable, away from approach, out of illusion. HE is with all the organism, each and every moment. HE is available through surrender-offering oneself to HIM by the various faculties-body, mind, speech, deeds.
सच्चिदानन्द स्वरूप श्री कृष्ण सनातन हैं। वे सारे जगत के कारण रूप प्रधान और पुरुष के भी नियामक परमेश्वर हैं। इस जगत के आधार, निर्माता और निर्माण सामग्री तथा स्वामी वे ही हैं। उनकी क्रीड़ा के हेतु ही जगत का निर्माण हुआ है। यह जिस समय, जिस रूप में जो कुछ रहता है-होता है, वह ये परमेश्वर ही हैं। इस जगत में प्रकृति-रूप से भोग्य और पुरुष रूप से भोक्ता तथा दोनों से परे दोनों के नियामक साक्षात भगवान् भी ये ही हैं। इन्द्रियातीत! जन्म, अस्तित्व आदि भाव विकारों से रहित परमात्मा ने ही इस चित्र-विचित्र जगत का निर्माण किया है। और इसमें इन्होने ही आत्मा रूप से प्रवेश भी किया है। वे ही प्राण-क्रिया शक्ति और जीव-ज्ञान शक्ति के रूप में इसका पालन पोषण कर रहे हैं। क्रिया शक्ति प्रधान प्राण आदि में जो जगत की वस्तुओं की सृष्टि करने की सामर्थ्य है वह उन वस्तुओं की नहीं; अपितु इनकी की सामर्थ्य ही है। क्योकि वे परमात्मा के समान चेतन नहीं अपितु अचेतन हैं; स्वतंत्र नहीं परतंत्र हैं। उन चेष्टाशील प्राण आदि में केवल चेष्टा मात्र होती है, शक्ति नहीं। शक्ति तो प्रभु की ही है। चन्द्रमा की कांति, अग्नि का तेज, सूर्य की प्रभा, नक्षत्र और विद्युत आदि की स्फुरण रूप से सत्ता, पर्वतों की स्थिरता, पृथ्वी की साधारण शक्ति रूप वृत्ति और गंध रूप गुण-ये सब प्रभु ही हैं। जल में तृप्त करने, जीवन देने और शुद्ध करने की जो शक्तियाँ हैं, वे परमात्मा के स्वरूप ही हैं। जल और उसका रस भी वही हैं। इन्द्रिय शक्ति, अन्तःकरण की शक्ति, शरीर की शक्ति, उसका हिलना-डुलना, चलना-फिरना-ये सब वायु की शक्तियां उन्हीं की हैं। दिशाएं और उनके आकाश भी वही हैं। आकाश और उसका आश्रय भूत स्फोट-शब्द तन्मात्रा या परा वाणी, नाद-पश्यन्ति, ओंकार-मध्यमा तथा वर्ण (अक्षर) एवं पदार्थों का अलग-अलग निर्देश करने वाले पद, रूप, वैखरी वाणी भी वे ही हैं। इन्द्रियां और उनकी विषय प्रकाशिनी शक्ति और अधिष्ठातृ-देवता वे ही हैं। बुद्धि की निश्चयात्मिका शक्ति और जीव की विशुद्ध स्मृति भी वे ही हैं। भूतों में उनका कारण तामस अहँकार, इन्द्रियों में उनका कारण तैजस अहँकार और इन्द्रियों के अधिष्ठातृ-देवताओं में उनका कारण सात्विक अहँकार तथा जीवों के आवागमन का कारण माया भी वे ही हैं। जैसे मिट्टी आदि वस्तुओं के विकार घड़ा, वृक्ष आदि में मिट्टी निरन्तर वर्तमान है और वास्तव में वे कारण-मृतिका रूप ही हैं-उसी प्रकार जितने भी विनाशवान पदार्थ हैं, उनमे कारण रूप से अविनाशी तत्व परमात्मा ही हैं। वास्तव में वे उनके ही रूप हैं। सत्व, रज और तम-ये तीनों गुण और उनकी वृत्तियाँ-परिमाण-महत्तत्त्वादि परब्रह्म परमात्मा में वे ही माया द्वारा कल्पित हैं। जितने भी जन्म, अस्ति, वृद्धि, परिणाम आदि भाव-विकार हैं, वे प्रभु से सर्वथा अलग नहीं हैं। जब इनमें प्रभु की कल्पना कर ली जाती है तब वे ही इन विकारों के अनुगत जान पड़ते हैं। कल्पना की निवृति हो जाने पर निर्विकल्प परमार्थ स्वरूप वे ही रह जाते हैं। यह जगत सत्व, रज और तम-इन तीनो गुणों का प्रवाह हैं; देह, इन्द्रियां, अन्तःकरण, सुख, दुःख और राग-लोभादि उन्हीं के कार्य हैं। इनमें जो अज्ञानी परमात्मा का सर्वात्मा सूक्ष्म स्वरूप नहीं जानते, वे अपने देहाभिमानरूप ज्ञान के कारण ही कर्मों के फंदे में फंसकर बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्कर में भटकते हैं। मनुष्य को प्रारब्ध के अनुसार इन्द्रियादि के सामर्थ्य से युक्त अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य-शरीर प्राप्त हुआ है। किन्तु माया वश वह असावधान हो जाता है और स्वार्थ-परमार्थ से ही असावधान होकर सारी उम्र बिता देता है। मनुष्य को शरीर के सम्बन्धी, अहंता एवं ममता रूप स्नेह के फंदे से प्रभु ने ही बांध रखा है। वे अजन्मा हैं, फिर भी अपने बनाई हुई मर्यादा की रक्षा करने के लिए वे अवतार ग्रहण करते हैं। वे अनन्त और एकरस सत्ता हैं। [श्रीमद्भागवत 85.3.20]
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः॥[श्रीमद् भगवद्गीता 18.46]
जिस परमेश्वर से संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत् व्याप्त है, उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके, मनुष्य परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है। जिस परमात्मा से संसार पैदा हुआ है और संचालित है, जो सबका उत्पादक आधार और प्रकाशक है जो सबमें परपूर्ण है अर्थात जो अनन्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति से पहले भी था, उनके रहते हुए भी जो रहता है और जो उनके लीन होने के बाद भी रहेगा, तथा जो अनन्त ब्रह्माण्डों में व्याप्त है, उसी परमात्मा का अपने-अपने स्वभावज-वर्णोचित स्वभाविक कर्मों के द्वारा पूजन करना चाहिए।
लौकिक और पारलौकिक कर्मो के द्वारा परमात्मा का पूजन तो करना चाहिए, परन्तु उनके करणों-उपकरणों में ममता नहीं रखनी चाहिए। क्योंकि उनमें ममता होते ही वे वस्तुएँ अपवित्र हो जाती हैं। सिद्धि को प्राप्त करने का अर्थ है कि मनुष्य अपने कर्मों से परमात्मा की पूजा करने से प्रकृति से असंबद्ध होकर स्वतः अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। उसका प्रभु में स्वतः अनन्य प्रेम जाग्रत हो जाता है। अब उसको पाने-हासिल करने के लिए कुछ भी शेष नहीं है। किसी भी जाति, सम्प्रदाय (हिन्दु, बौद्ध, ईसाई , पारसी, यहूदी, मुसलमान), वर्ग से व्यक्ति क्यों न हो वह परमात्मा के पूजन का अधिकारी है। भगवान् श्री कृष्ण और अर्जुन के इस संवाद-श्री मद्भागवत गीता का जो अध्ययन करेगा उसके द्वारा परमात्मा ज्ञान से पूजित होंगे। कर्मयोगी और ज्ञान योगी अन्त में एक हो जाते हैं क्योंकि दोनों में जड़ता का त्याग किया गया है। इसी प्रकार भक्ति मार्ग भी जड़ता को मिटाता है।
Accomplishment is attained by an individual by worshipping the Almighty, from whom all the universes, organisms have evolved and by whom all the universes are pervaded, through his natural-instinctive-prescribed-Varnashram related deeds.
One should pray to the Almighty from whom the entire Universe has evolved, who operates the world, who is the creator, producer, founder and illuminator, administrator-organiser-who alone is complete amongest all-who was present before creation of infinite universes and who will remain after assimilation of infinite universes in him and who is pervaded in infinite universes, is worshipped automatically if the individual performs his natural-prescribed-Varnashram duties. Performance of the prescribed-Varnashram duties assigned to the individual, itself is worship of the God.
Both Karm Yog and Gyan Yog merge into one single stream by eliminating immovability-inertness through service and worship enabling detachment, resulting in immersion in Supreme Power.
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया॥[श्रीमद् भगवद्गीता 18.61]
हे अर्जुन! ईश्वर सभी प्रणियों के हृदय में रहता है और अपनी माया से शरीर रूप यंत्र में आरूढ़ हुए संपूर्ण प्राणियों को उनके कर्मों-स्वभाव के अनुसार भ्रमण कराता है। Hey Arjun! The supreme Soul-Almighty is present in the hearts (innerself-soul) of the all human, animate, creature and moves them through various incarnations-abodes (worlds, universes), according to their deeds-nature, with enchantment-illusion, his illusory power.
ईश्वर सबका शासक, नियामक, भरण-पोषण करने वाला और निरपेक्ष रूप से संचालक है। वह अपनी शक्ति-माया से उन सब प्राणियों को घूमाता है, जिन्होंने शरीर को अपना मान रखा है और मैं और मेरा करते रहते हैं। मैं और मेरा पन राग-द्वेष उत्पन्न करता है। जैसा शरीर प्राणी को मिलता है, वह वैसा-उसके अनुरूप व्यवहार करने लगता है। सज्जन मनुष्य श्रेष्ठ और दुर्जन निकृष्ट क्रियाएँ करते हैं, जो कि उन पर ही निर्भर हैं। मनुष्य को अपना आचार-व्यवहार सुधारने की पूरी आजादी है। अहंकार, मैंपन, अहंता परमात्मा से दूर करता है और प्रेम जोड़ता है। इसके परिणाम स्वरूप मनुष्य को परमात्मा का आभास ह्रदय में होता है, यद्यपि वह सारे शरीर-सब जगह व्याप्त है। परमात्मा की शरण में गया हुआ प्राणी, उससे विशेष प्रेम करने लगता है और अपनी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है।
Nothing can move without the permission-desire of the Almighty. He is the Creator-Protector and Destroyer (Brahma, Vishnu & Mahesh). Those in whom, ego is Supreme, associated with imprudence, are the ones, forced by the might of the Almighty, to undergo unending cycles of life-death, regression, rebirth, reincarnations. Human body is a mechanical device occupied by the soul to experience the reward-suffering, as per its own doings-Karm, in previous incarnations, till they vanish completely. Having escaped earlier does not mean pardon-freedom from the reward or punishment. One is freed only when, he detaches from, nature, ego, arrogance, attachments, bonds, prejudices, contaminated deeds.
Soul is driver driving the chariot-vehicle.Without a driver no program functions in a computer.
Different species occur, exist, develop, grow or take birth, due to the differences in their nature. The creature-human being, acts as per his deeds, having impetus, urge, incitement from God.
Good or bad performances depend over the nature of the person not the God. He is free to act according to his own nature, mind (psyche, gestures, tendencies, innerself), heart, soul. It’s only the human being, who is capable of moulding-improving his future and nature. None of the creatures, animals, birds, Demi-Gods, demons, giants etc., is free-empowered to improve their nature, behavior, tendencies, temperament, destiny. The fact remains that human incarnation is superior to demigods, demons etc. who are mightier than humans.
Soul is just like the air which acquires different smells foul-pleasant, impurities, pollutants at different places but reject them at the very first opportunity.
Human body is gifted to the Soul to improve its deeds & destiny. No one should waste this opportunity. The God provide chance and freedom to work. He does not compel the individual to toe, follow, dictate, his line of action. Those, who take refuge, protection, shelter, asylum in HIM, are sympathetically, shown the divine path by the Almighty, HIMSELF.
न दूरं न च संकोचाल्-लब्धमेवात्मनः पदं।
निर्विकल्पं निरायासंनिर्विकारं निरंजनम्॥[अष्टावक्र गीता 18.5]
परमात्मा न तो दूर है और न पास, वह तो प्राप्त ही है, तुम स्वयं ही हो। उसमें न विकल्प है, न प्रयत्न, न विकार और न मल ही। The realm-soul-Ultimate of one's own self is not different from one. It can not be achieved by the addition of limitations to its nature. It is unimaginable, effortless, unchanging and spotless. The Almighty; has no substitute, does every thing without efforts, defectless-pure, without collyrium-untainted; is not away-separable, from one offering-surrendering, seeking asylum in HIM, without hesitation.
The Almighty is not different from the organism. HE is inseparable-undistinguished from the organism. HE is defectless, pure, available without pain-efforts. One should not hesitate or maintain distance from HIM. HE is present every where and in each & every. The ignorant considers HIM to be unattainable, away from approach, out of illusion. HE is with all the organism, each and every moment. HE is available through surrender-offering oneself to HIM by the various faculties-body, mind, speech, deeds.
प्रशासितारं सर्वेषामणीयांसमणोरपि।
रुक्माभं स्वप्नधीगम्यं विद्यात्तं पुरुषं परम्॥मनु स्मृति 12.122॥
शासन करने वाला, सभी के अणुओं से अतिसूक्ष्म, सुवर्ण के समान कान्ति वाला, स्वप्नावस्था के बुद्धि से जानने योग्य है। उस परम पुरुष को जाने।
One who governs all, the Almighty; is smaller than the smallest molecule, has an aura like gold and has to be identified in a state of trans-sleep, through the intelligence.
One who governs all, the Almighty; is smaller than the smallest molecule, has an aura like gold and has to be identified in a state of trans-sleep, through the intelligence.
एतमेके वदन्त्यग्निं मनुमन्ये प्रजापतिम्।
इन्द्रमेके परे प्राणमपरे ब्रह्म शाश्वतम्॥मनु स्मृति 12.123॥
इसी परम पुरुष को अग्नि, कोई प्रजापति, मनु, कोई इन्द्र, कोई प्राण और कोई शाश्वत (सनातन) ब्रह्म कहता है।
People call HIM by different names like Agni-fire, Prajapati-Brahma, Manu, Indr, Pran-life force (air vital), Eternal-imperishable, ever since & for ever, i.e., the Brahm.
People call HIM by different names like Agni-fire, Prajapati-Brahma, Manu, Indr, Pran-life force (air vital), Eternal-imperishable, ever since & for ever, i.e., the Brahm.
एष सर्वाणि भूतानि पञ्चभिर्व्याप्य मूर्तिभिः।
जन्मवृद्धिक्षयैर्नित्यं संसारयति चक्रवत्॥मनु स्मृति 12.124॥
वह परमात्मा सभी प्राणियों के भूतात्मक शरीर में व्याप्त होकर जन्म वृद्धि और विनाश के द्वारा नित्य चन्द्र की तरह घूमता है।
The Almighty pervades the perishable bodies of all organism-living beings and moves like the Moon (increasing and decreasing in phases) through birth, growth and death.
The Almighty pervades the perishable bodies of all organism-living beings and moves like the Moon (increasing and decreasing in phases) through birth, growth and death.
एवं यः सर्वभूतेषु पश्यत्यात्मानमात्मना।
स सर्वसमतामेत्य ब्रह्माभ्येति परं पदम्॥मनु स्मृति 12.125॥
जो मनुष्य सभी प्राणियों में आत्मरूप से अपने आपको देखता है, वह सबमें समता को प्राप्त कर, परम पद ब्रह्मत्व को पाता है।
One who identifies himself in all living beings-creatures, attains equanimity and attains the Ultimate-highest, title-designation a person can achieve called Brahmatv.
सच्चिदानन्द स्वरूप श्री कृष्ण सनातन हैं। वे सारे जगत के कारण रूप प्रधान One who identifies himself in all living beings-creatures, attains equanimity and attains the Ultimate-highest, title-designation a person can achieve called Brahmatv.
और अविनाशी भगवान विष्णु सतो गुण, रजो गुण और तमो गुण से युक्त, निर्गुण व सगुण, सर्वगामी और सर्वव्यापी हैं। वे श्वेत द्वीप-क्षीर सागर में अनन्त नाग शय्या पर आसीन, चक्र-गदा, धारण करने वाले हैं।
अविनाशी भगवान विष्णु सर्वगत-अव्यक्त-सर्वव्यापी जगन्नाथ चतुर्मूर्ति कहे जाते हैं। (1). वासुदेव नामक श्रेष्ठ पद (तर्क या अनुमान द्वारा अज्ञेय) एवं निर्देश किया जाने में अशक्य, (2). शुक्ल (शुद्ध), (3). शांति युक्त, (4). अव्यक्त (अप्रकट) एवं द्वादश पत्रक (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) द्वादश मन्त्र वाला कहा गया है।
द्वादश पत्रक
प्रथम पत्रक: ॐ उनकी शिखा में स्थित है और मेष राशि और वैशाख मास का प्रतीक है,
द्वितीय पत्रक: न अक्षर उनके मुख में विद्यमान है और वहीं पर वृष राशि और ज्येष्ठ मास को दर्शाता है,
तृतीय पत्रक: मो उनकी दोनों भुजाओं में स्थित और मिथुन राशि तथा आषाढ़ मास का द्योतक है,
चतुर्थ पत्रक: भ अक्षर उनके नेत्रों में स्थिततथा कर्क राशि व श्रावण मास को दिखता है,
पञ्चम पत्रक: ग अक्षर उनके ह्रदय में स्थित सिंह राशि और भाद्रपद मास का प्रतीक है,
षष्ठ पत्रक: व अक्षर उनके कवच के रूप में कन्या राशि और आश्विन मास को दिखता है,
सप्तम पत्रक: ते उनके अस्त्र समूह के रूप में तुला राशि और कर्तिक मास को प्रकट करता है,
अष्टम पत्रक: वा उनके नाभि रूप में है और वृश्चिक राशि और मार्ग शीर्ष मास का प्रतीक है,
नवम पत्रक: सु जघन रूप में स्थित और धनु राशि और पौष मास को प्रकट करता है,
दशम पत्रक: दे अक्षर उनके उरु युगल रूप में मकर राशि और माघ मास का द्योतक है,
एकादश पत्रक: वा अक्षर उनके घुटने में विराजमान और कुम्भ राशि के साथ फाल्गुन मास के प्रतीक है,
द्वादश पत्रक: य अक्षर उनके चरण द्व्यरूप में विद्यमान मं राशि और चैत्र मास को दर्शाता है।
परमेश्वर की प्रथम मूर्ति: उनका चक्र 12 अरों 12 नाभियों और 3 व्यूहों से युक्त है।
द्वितीय रूप: सत्वमय, श्रीवत्स धारी, अविनाशी स्वरूप, चतुर्वर्ण, चतुर्वाहु, और उदार अंगों से युक्त है।
तृतीय मूर्ति: हजारों पैरों एवं मुखों से सम्पन्न श्री संयुक्त तमोगुण मयी शेष मूर्ति प्रजाओं का प्रलय करती है।
चतुर्थ रूप: राजस रूप रक्तवर्ण, चार मुख, एवं दो भुजाओं एवं माला धारण किये है। यही श्रष्टि करने वाल आदि रूप है।
HE is NIRAKAR-has no specific shape, size or alignment. He is invisible, like air or energy. HE is AVAYAKT-undefined-without illustration, unrevealed It's only he, who is immortal-beyond life and death. HE had infinite incarnations-AVTARS (incarnations), in the past and will have infinite incarnations in the future as well.
परमात्मा निराकार है। उसका कोई विशिष्ट आकार नहीं है। वह अद्रश्य है। वह अव्यक्त है। जन्म मृत्यु से परे है, उसके अनंत अवतार हो चुके हैं और आगे भी होंगे।
HE is SAKAR-VYAKT (defined, embodied, revealed), has various-infinite shapes and sizes. HE is capable of acquiring any shape, size, figure, form. HE is beyond the limits of time, place, cast, creed, belief or religion.
वह साकार है। अवतार ग्रहण करते समय वह आकार ग्रहण करता है। वह सभी-कोई भी आकार धारण करने में समर्थ है।
HE is both material and immaterial, finite and infinite. HE has unending powers, capacities, and capabilities. HE is SUPREME-HE is Param Pita-Par Brahm Permashwer.
वह भौतिक व अभौतिक, सीमा सहित व सीमा रहित-अनंत है। उसकी शक्तियां असीम हैं। वह परम पिता परम ब्रह्म परमेश्वर है।
HE is neither male nor female or impotent (kinnar, third sex) either.
वह स्त्री, पुरुष या किन्नर नहीं है।
HE is present in each and every particle, living and nonliving. All life forms have evolved out of him and will merge in him, ultimately.
वह सभी प्राणियों में विराजमान है। जीवन के सभी रूप उसी से उत्पन्न हुए हैं व उसी में विलीन हो जायेंगे।
समस्त धन, शक्ति, सौन्दर्य, ज्ञान,तथा त्याग से युक्त परम पुरुष भगवान कहलाता है। ब्रह्मा, विष्णु और शिव सहित कोई जीव कृष्ण के समान ऐश्वर्यवान नहीं है।
ब्रह्म संहिता में ब्रह्मा जी स्पष्ट करते हैं कि गौ लोक वासी श्री कृष्ण स्वयं भगवान हैं न तो कोई उनके तुल्य है और न बढ़कर है। वे आदि पुरुष गोविन्द समस्त कारणों के कारण हैं।
ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानंद विग्रहः।
अनादिरादि गोविन्दः सर्वकारण कारणम्॥
उसके अनेकानेक अवतार-विस्तार हैं। [भागवत]
एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयंम्।
इन्द्रारी व्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे॥
कृष्ण आदि पुरुष, परम सत्य, परमात्मा तथा निर्विशेष ब्रह्म के उद्गम हैं।
उन सनातन आदि देव को देवता आदि कोई भी वास्तविक रूप में नहीं जानते यद्यपि वे समस्त देवों-ब्रह्मादि को श्रुति-वेद एवं समस्त विश्व को जानते हैं।
चितिः स्वतन्त्रा विश्वसिद्धिहेतुः :: Chitt, which is absolute consciousness, (and latent with power to do), by its own free will (Swatantray-freedom-Independence), is the cause of manifestation, preservation and again re absorption or withdrawal of the Universe into itself also called dissolution.
स्वेच्छया स्वभित्तौ विश्वमुन्मीलयति :: The nature Maa Bhagwati by Her own power, unfolds the Universe on her own screen.
God is both efficient, as well as material cause of the Universe. HE creates out of his own will, on his own self. There is no extraneous material and even the analogy of the potter and the pot of clay, fails here, since the potter emanates or projects out of himself, not out of clay.
Bhagwan Shiv is constantly creating His own world, in which we find ourselves in a cosmic dance.
आध्यात्मिक ज्ञान और परमात्मा :: पूर्ण परमात्मा, पूर्ण ब्रह्म, निरंजन, काल और भगवान महाविष्णु भी कहते हैं।
अव्यक्त अर्थात् एक ओंकार परमात्मा की पूजा का ज्ञान पवित्र शास्त्रों (पुराणों, उपनिषदों, वेद, गीता) के अध्ययन और गुरु कृपा से होता है।शास्त्रों में ज्योति स्वरूपी अर्थात् काल ब्रह्म की पूजा विधि का वर्णन मिलता है। प्रभु निराकार एक ही है, जो कि पूजा के योग्य है।
अग्नेः तनूर् असि, विष्णवे त्वा सोमस्य तनुर् असि।
कविरंघारिः असि, बम्भारिः असि स्वज्र्योति ऋतधामा असि॥
परमेश्वर पाप-बन्धनों का शत्रु है। वह सर्व पालन कर्ता, अमर, अविनाशी है। वह स्वप्रकाशित प्रभु सत धाम अर्थात् सतलोक में रहता है।[यजुर्वेद 1.15, 5.1 व 5.32]
अनादि सत्य सिद्ध ग्रंथों-वेद, उपनिषद, पुराण आदि में जहाँ कहीं भी आत्मा के स्वरूप या फिर परमतत्व परमब्रह्म परमेश्वर परमात्मा का निरूपण किया गया है, उसके स्वरूप की तुलना अँगूठे से की गई है।
The eternal scriptures Veds, Upnishads and the Purans have configured the Almighty like the Thumb.
The soul present in the body of an organism acquires the shape and size of the human thumb once its released from the body.
वराहतोको निरगादंगुष्ठ परिमाणक:।
दृष्टोअंगुष्ठ शिरोमात्र: क्षणाद्गण्डशिलासम:॥
ब्रह्मा जी के नासिका छिद्र से अकस्मात अँगूठे के बराबर आकार का वराह शिशु निकला और अँगूठे के पेरूए के बराबर दिखने वाला वह प्राणी-वराह, क्षण भर में पर्वत के समान विस्तृत हो गया।[श्रीमद्भागवत महापुराण 3.13.18]
A small boar-hog equal to the size of the thumb came out of the nasal cavity of Brahma Ji-the creator, spontaneously and took the shape of a mountain at once.
अंगुष्ठमात्रो रवितुल्यरूप, संकल्पाहंकार समन्वितो यः।
बुद्धेर्गुणेनात्मगुणेन चैव,आराग्रमात्रो ह्यपरोSपि दृष्टः॥
जो अँगुष्ठ मात्र परिमाण वाला, रवितुल्य-सूर्य के समान प्रकाश वाला तथा संकल्प और अहंकार से युक्त है, बुद्धि के गुण के कारण और अपने गुण के कारण ही सूजे की नोक के जैसे सूक्ष्म आकार वाला है; ऐसा अपर-अर्थात परमात्मा से भिन्न जीवात्मा भी निःसन्देह ज्ञानियों के द्वारा देखा गया है।[श्वेताश्वतरोपनिषद् 5.8]
The Almighty-God similar in shape & size to the thumb, brilliant like the Sun, associated with firmness-determination & possessiveness, due to his own characterises and the intelligence, small & sharp just like the tip of a needle was in deed seen, visualised, observed, conceived by the learned, enlightened, scholars.
अंगुष्ठमात्र: पुरुषो, मध्ये आत्मनि तिष्ठति।
ईशानो भूतभव्यस्य न तेता विजुगुप्सते॥
अंगुष्ठमात्र परिमाण वाला, परम पुरुष-परमात्मा, शरीर के मध्य भाग अर्थात हृदयाकाश में स्थित है, जो कि भूत, भविष्य और वर्तमान का शासन करने वाला है। उसे जान लेने के बाद वह जिज्ञासु-मनुष्य किसी की निन्दा नहीं करता। यही वह परमतत्व है।[कठोपनिषद् 2.1.13]
The Almighty comparable to thumb in shape and size is present in the middle segment of the body and visualises the past, present and the future. Once a man knows HIM, never censure others.
ईशानो भूत भव्यस्य स एवाद्य स उ श्वः।
भूत, भविष्य तथा वर्तमान पर शासन करने वाला वह परमात्म परमतत्त्व जैसा आज है, वैसा ही कल भी रहेगा। The Almighty who rules the present, past and the future will remain as such always & for ever.
The Supreme Soul constituting of the Creator, Nurturer and the Destroyer seems to move, but is HE ever still. HE seems far away, but is ever near. HE is within all and HE transcends all.
One who identifies him selves with all creatures-living beings in him self and him self in all creatures, does not encounter fear, faces no grief. Multiplicity of life forms can not delude one, who has attained equanimity.
HE is everywhere. HE is indivisible, untouched by sin, wise, immanent and transcendent. HE is the one, who created the cosmos and keeps-hold it together.
Senses are separate-detached from HIM, the unsimmered, untainted. The sense experience are fleeting and the wise never grieve-repent for them.
Above the senses is the mind, above the mind is the intellect and the prudence, above that is the ego and above the ego is the unmanifested cause. And beyond this is Brahmn, omnipresent, attribute less. Realising HIM, one is released from the cycle of birth and death.
HE is formless and can never be seen with these-human two eyes. But, HE reveals HIMSELF in the heart made pure through meditation and sense-restraint. Realising HIM, one is released from the cycle of birth and death.
When the five senses are stilled, when the mind is stilled, when the intellect is stilled, that is called the highest state by the wise. They say Yog is this complete stillness in which one unitise-immerse himself with the Supreme, never to separate again. One who does not establish himself in this state, the sense of unity will come and go.
As long as there is separateness, differentiation, distinction, one sees another entity as separate from oneself, hears another as separate from oneself, smells another as separate from oneself, speaks to another as separate from oneself, thinks of another as separate from oneself, knows another as separate from oneself. But when the Self-Almighty is realised as the indivisible unity of life, who can be seen by whom, who can be heard by whom, who can be smelled by whom, who can be spoken to by whom, who can be thought of by whom, who can be known by whom?
HE is fire and the Sun and the Moon and the stars. HE is the air and the sea and the Creator-the Prajapati.
HE is this boy, HE is that girl, HE is this man, He is that woman and HE is this old man, too, tottering on HIS staff. HIS face is everywhere. HE is present in each and every one and looks in each and direction simultaneously.
HE is the blue bird; HE is the green bird with red eyes; HE is the thundercloud and HE is the seasons and the seas. HE has no beginning; HE has no end. HE is the source from whom, the worlds evolve.
HIS divine power casts a spell-illusion-mirage on each and every one, which appears in the form of pain and pleasure. Only when, one pierce through this magic veil, do he see the Ultimate, who appears in multiple forms.
One becomes so as he acts-performs-functions. He who do good become good; one who do harm others, become bad. Good deeds make one pure; bad deeds make him impure, tainted, slurred, devil, sinner, wicked. One will become, what he desires-thinks. The will, deeds, desires shape the destiny.
One live in accordance with his deep, driving desires-ambitions. It is this desire at the time of death that determines what one's next life will be (next birth-incarnation or the abode-hell or heaven or the abode of the Almighty). One will return to earth, to satisfy his unfulfilled desires, targets, goals.
One, who has attained emancipation, liberation, assimilation in the eternal, will never return. Detachment-relinquishment, shelter (asylum, refuse, patronising) under the Almighty, devotion-Bhakti, equanimity, will keep him in association with the Ultimate, Supreme, The Almighty. One who breaks, severs all bonds, ties-connections, will never return. One who has offered all his deeds, virtues, goodness to the Ultimate will never come down.
Ceasing, fulfilment, renouncing make a mortal, immortal. The Self (a unit of the Almighty-soul), freed from the body, merges with the Brahmn-the infinite-eternal.
The Ultimate Bliss, Love, WHO projects HIMSELF into this universe of myriad forms, from WHOM all beings come and in WHOM all return; may HE grant the grace of wisdom to the devotee.
PAR BRAHM परब्रह्म :: The basic element-component exists since the very beginning and is known as Brahm. One attains HIM-merges with HIM, the Almighty-Ultimate Par Brahm Parmeshwar. HE is neither Sat or Asat (HE is different-distinguished from these two). HE has mouth, head, eyes, ears, hand, legs pervading all over, in all directions. Everything is contained in HIM. HE is stable with all these. HE does not possess sense organs, still HE recognises them all. HE is unattached even though, HE HIMSELF takes care of each and every organism, creature, living being. HE is the creator of all characteristics, traits, qualities, factors, properties and still is free from specific characters. HE is present in the creature both internally as well as externally.Variables or fixed are all HIS incarnations-Avtars. Being microscopic HE undistinguished. HE is close to us, yet maintains distance as well. HE is complete like the sky everywhere. HE appears to be different, due to different incarnations, during the past. In the form of Vishnu HE cares, maintains, nurtures all, in the form of Rudr-Shiv HE is the destroyer and as Brahma HE is the one who created all. HE lights the stars like the Sun. HE exists away from the darkness of imprudence-ignorance. HE is achieved through enlightenment, philosophy, learning.
ज्ञेय तत्व अनादी है और परब्रह्म के नाम से जाना जाता है। इसे प्राप्त कर मनुष्य अमृत स्वरुप परमात्मा को प्राप्त होता है। उसे न सत् कहा जाता न असत्, (वह इन दोनों से विलक्षण, अलग-परे है)। उसके सब ओर हाथ-पैर, सब ओर नेत्र, सिर और मुँख हैं तथा सब ओर कान हैं। वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है। सब इन्द्रियों से रहित होकर भी वह सब इन्द्रियों को जानने वाला है। सबका धारण, भरण-पोषण करके भी आसक्ति रहित है। गुणों का भोक्ता होकर भी निर्गुण है। वह परमात्मा सब प्राणियों के बाहर और भीतर विद्यमान है। चर-अचर सब उसी के स्वरूप हैं। सूक्ष्म होने के कारण वह अविज्ञेय है। वही निकट है-वही दूर। यद्यपि वह विभाग रहित है (आकाश की भांति अखंड रूप से सर्वत्र परिपूर्ण है), तथापि भूतों में विभक्त प्रथक्-प्रथक् स्थित हुआ सा प्रतीत होता है। उसे विष्णु रूप से सब प्राणियों का पोषक, रूद्र रूप से सबका संहारक और ब्रह्मा रूप से सबको उत्पन्न करने वाला जानना चाहिये। वह सूर्य आदि ज्योतियों की भी ज्योति (प्रकाशक) है। उसकी स्थिति अज्ञानमय अंधकार से भी परे है। वह परमात्मा ज्ञान स्वरुप जानने के योग्य व तत्व ज्ञान से प्राप्त होने वाला और सबके ह्रदय में स्थित है।
The Ultimate can be seen, observed, identified through intelligence, prudence, concentration, meditation, penetration in one's innerself. Almighty is visualised through Sankhy-Gyan Yog and Karm Yog, as well. Simple, ordinary, normal person prays by learning with the help of the learned, enlightened, philosophers, Pandits-Gyani, even though they themselves are unaware of any of these concepts-practices. Those people who participate in congregations-gatherings, do swim-tide over this vast ocean through pious-virtuous righteous company-Sat sang.
The tree of enlightenment whose roots are in an upward direction-The Almighty and the branches are in the downward direction, towards the Brahm, in imperishable. Ved constitute its leaves-spread. One who knows-identifies this tree in its real form, is the one who has understood the gist, nectar, elixir of Ved & the Almighty.
जिसकी जड़ उपर की ओर (परमात्मा) हैं व शाखा नीचे की ओर (ब्रह्मा जी) है, उस संसार रूपी अश्र्वत्थ-पीपल वृक्ष को अनादी प्रवाह रूप से अविनाशी कहते हैं। वेद उसके पत्ते हैं, जो उस वृक्ष को मूल सहित यतार्थ रूप से जानता है, वही वेद के तात्पर्य को जानने वाला है।
This universe has two kinds of creations-two types of people, the first ones are blessed with divine nature and the other one possesses wicked-demonic characters. Presence of non violence, virtues, forgiveness are divine. Those who are possessed, (over powered, under the influence of, contaminated with) anger, greed, sex-lust, ignorance-imprudence devoid of purity and goodness are bound to fall in hells. Therefore, anger, greed and sex (beyond prescribed limit) deserve to be rejected.
ALMIGHTY-THE DIVINE WISDOM OF THE UPANISHADS :: The Almighty is one. All life forms are his incarnations, manifestations, fragments. HE is swifter than thoughts and the senses. Though motionless, yet HE outruns all pursuit. Without HIM nothing can exist or happen.The Supreme Soul constituting of the Creator, Nurturer and the Destroyer seems to move, but is HE ever still. HE seems far away, but is ever near. HE is within all and HE transcends all.
One who identifies him selves with all creatures-living beings in him self and him self in all creatures, does not encounter fear, faces no grief. Multiplicity of life forms can not delude one, who has attained equanimity.
HE is everywhere. HE is indivisible, untouched by sin, wise, immanent and transcendent. HE is the one, who created the cosmos and keeps-hold it together.
Senses are separate-detached from HIM, the unsimmered, untainted. The sense experience are fleeting and the wise never grieve-repent for them.
Above the senses is the mind, above the mind is the intellect and the prudence, above that is the ego and above the ego is the unmanifested cause. And beyond this is Brahmn, omnipresent, attribute less. Realising HIM, one is released from the cycle of birth and death.
HE is formless and can never be seen with these-human two eyes. But, HE reveals HIMSELF in the heart made pure through meditation and sense-restraint. Realising HIM, one is released from the cycle of birth and death.
When the five senses are stilled, when the mind is stilled, when the intellect is stilled, that is called the highest state by the wise. They say Yog is this complete stillness in which one unitise-immerse himself with the Supreme, never to separate again. One who does not establish himself in this state, the sense of unity will come and go.
As long as there is separateness, differentiation, distinction, one sees another entity as separate from oneself, hears another as separate from oneself, smells another as separate from oneself, speaks to another as separate from oneself, thinks of another as separate from oneself, knows another as separate from oneself. But when the Self-Almighty is realised as the indivisible unity of life, who can be seen by whom, who can be heard by whom, who can be smelled by whom, who can be spoken to by whom, who can be thought of by whom, who can be known by whom?
HE is fire and the Sun and the Moon and the stars. HE is the air and the sea and the Creator-the Prajapati.
HE is this boy, HE is that girl, HE is this man, He is that woman and HE is this old man, too, tottering on HIS staff. HIS face is everywhere. HE is present in each and every one and looks in each and direction simultaneously.
HE is the blue bird; HE is the green bird with red eyes; HE is the thundercloud and HE is the seasons and the seas. HE has no beginning; HE has no end. HE is the source from whom, the worlds evolve.
HIS divine power casts a spell-illusion-mirage on each and every one, which appears in the form of pain and pleasure. Only when, one pierce through this magic veil, do he see the Ultimate, who appears in multiple forms.
One becomes so as he acts-performs-functions. He who do good become good; one who do harm others, become bad. Good deeds make one pure; bad deeds make him impure, tainted, slurred, devil, sinner, wicked. One will become, what he desires-thinks. The will, deeds, desires shape the destiny.
One live in accordance with his deep, driving desires-ambitions. It is this desire at the time of death that determines what one's next life will be (next birth-incarnation or the abode-hell or heaven or the abode of the Almighty). One will return to earth, to satisfy his unfulfilled desires, targets, goals.
One, who has attained emancipation, liberation, assimilation in the eternal, will never return. Detachment-relinquishment, shelter (asylum, refuse, patronising) under the Almighty, devotion-Bhakti, equanimity, will keep him in association with the Ultimate, Supreme, The Almighty. One who breaks, severs all bonds, ties-connections, will never return. One who has offered all his deeds, virtues, goodness to the Ultimate will never come down.
Ceasing, fulfilment, renouncing make a mortal, immortal. The Self (a unit of the Almighty-soul), freed from the body, merges with the Brahmn-the infinite-eternal.
The Ultimate Bliss, Love, WHO projects HIMSELF into this universe of myriad forms, from WHOM all beings come and in WHOM all return; may HE grant the grace of wisdom to the devotee.
"यो विश्वं जगतं करोत्येसे स विश्वकर्मा"
जो समस्त संसार की रचना अर्थात निर्माण करता है ऐसे परमेश्वर या कहे कि इससे जुड़े निर्माण के कर्म को करने वाले परब्रह्म एवम् उस कर्म को आगे बढ़ाने वाले पुरुष को विश्वकर्मा कहते है।
विश्वकर्मा परब्रह्म जगधारमूलक:।
तन्मुखानी तुवै पंच पंच ब्रह्मेत्युदाह्तम॥[वशिष्ठ पुराण 3.6.11]
परब्रह्म श्री विश्वकर्मा सम्पूर्ण जगत के मूल आधार है। उनके पाँचों मुखों से पंचब्रह्माओ की उत्पत्ति हुई हैै जो मनु ब्रह्मा (शिवशंकर) मयबह्मा (विष्णु) त्वस्टा ब्रह्मा (ब्रह्मा), शिल्पी ब्रह्मा (इन्द्र), दैवज्ञ ब्रह्मा (सूर्य)। इन्हीं पंच ब्रह्माओं से ही पंचऋषि गोत्र का भी उदय होता है जो इस प्रकार है :- सानग ऋषि, सनातन ऋषि, अहभून ऋषि, प्रयत्न ऋषि और दैवज्ञ ऋषि। ये पंचऋषि वेद शास्त्रों के साथ साथ ज्ञान, विज्ञान, तंत्र, मंत्र और यंत्र के ज्ञाता थे। इसके माध्यम से सृष्टि के निर्माण को अपने सर्वोच्च आयाम पर स्थापित किया।
ऊँ त्वामिन्दिराग्नि भूरसि, त्वं गूं सूर्यो मरीचय:।
विश्वकर्मा , विश्वदेवो, महादेव महान् असि॥[सामवेद 33.22]
हे ब्रह्म! तू इंद्र है जो अपने सभी शत्रुओं को हरा देता है, तू सर्वोच्च प्रकाश है जो सूर्य को चमकाता है। तू विश्वकर्मा है जो सभी कर्मों का स्वामी है और तू महान परमात्मा है, जो सभी देवताओं से श्रेष्ठ है अर्थात विश्वदेव और महादेव है ।
विश्वतक्षोरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरत विश्वतस्पात।
संवाहुभ्यां धमति सं पतत्रैर्द्यावा भूमि जनयन देव एक:॥[ऋग्वेद मंडल 10.81.3]
जगतकर्ता विश्वकर्मा प्रभु की सम्पूर्ण विश्व ही उनकी आँखें हैं अर्थात सब जगह उनकी आँखें हैं, सम्पूर्ण विश्व ही उनके मुख हैं अर्थात सब जगह उनका मुख है, सम्पूर्ण विश्व ही उनकी भुजायें हैं अर्थात सब जगह उनकी भुजाएँ हैं और सम्पूर्ण विश्व ही उनके पग हैं अर्थात सब जगह उनके पैर हैं। सूर्यलोक तथा पृथ्वी लोक को उत्पन्न करता हुआ वह एक देव अर्थात विश्वकर्मा परमेश्वर अपनी भुजाओं और पैरों से हमें सम्यक प्रकार से युक्त कर देता है।
अद्भ्यः सम्भूतः पृथिव्यै रसाच्च। विश्वकर्मणः समवर्तताधि।
तस्य त्वष्टा विदधद्रू॒पमे॑ति। तत्पुरुषस्य विश्वमाजानमग्रे॓॥[यजुर्वेद 31.17]
सृष्टि के प्रारम्भ में जल और पृथ्वी का निर्माण करके विराट पुरुष परब्रह्म विराट विश्वकर्मा ने स्वयं से त्वस्टा अर्थात ब्रह्मा को उत्पन्न किया। ये समस्त सृष्टि अर्थात सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के अस्तित्व के पूर्व सब कुछ उन्ही विराट पुरुष विश्वकर्मा में समाहित था और समस्त सृष्टि उन्ही का रुप थी।
इसलिये उपर्युक्त मंत्र में विश्वकर्मा एक कर्म होने के कारण त्वस्टा अर्थात ब्रह्मा को भी विश्वकर्मा कहा गया।
न भूमि न जलं चैव न तेजो न च वायव:।
न चाकाश न चितं च न बुध्दया घ्राण गोचरा॥
न ब्रह्मा नैव विष्णुश्च न रूद्रो न च देवता।
एक एक भवे द्विश्वकर्मा विश्वाभि देवता॥[विश्वब्रह्म पुराण अध्याय 2]
न पृथ्वी थी, ना जल था, न अग्नि थी, न वायु था न आकाश था, न मन था, न बुद्धि थी और न घ्राण आदि इन्द्रियाँ भी नहीँ थी। न ब्रह्मा थे, ना विष्णु थे, नाहि शिव थे तथा अन्य कोई देवता नहीँ था, उस सर्व शून्य प्रलय में समस्त ब्रह्माण्ड को अपने में ही आवृत अर्थात समाये हुये सबका पूज्य केवल एक ही विश्वकर्मा परमेश्वर परब्रह्म विद्यमान थे।
विश्वानि कर्माणि येन यस्य वा स विश्वकर्मा अथवा विश्वेशु कर्म यस्य वा स विश्वकर्मा, विश्वकर्मा सर्वस्य कर्ता॥[यास्क]
विश्व अर्थात सृष्टि जगत के सम्पूर्ण कर्म जिसके द्वारा सम्पन्न होते है अथवा सम्पूर्ण विश्व अर्थात सम्पूर्ण सृष्टि जगत में जिसका कर्म है वह सब जगत का कर्ता विश्वकर्मा है।
यम गीता :: नचिकेता यम संवाद
न देने योग्य गौ के दान से दाता का उलटे अमङ्गल होता है। इस विचार से सात्त्विक बुद्धि-सम्पन्न ऋषि कुमार नचिकेता अधीर हो उठे। उनके पिता वाज श्रवस वाज त्रवा के पुत्र उद्दालक ने विश्वजित् नामक महान् यज्ञ के अनुष्ठान में अपनी सारी सम्पत्ति दान कर दी, किंतु ऋषि-ऋत्विज् और सदस्यो की दक्षिणा में अच्छी-बुरी सभी गौएँ दी जा रही थीं। पिता के मङ्गल की रक्षा के लिये अपने अनिष्ट की आशंका होते हुए भी उन्होंने विनय पूर्वक कहा, "पिताजी! मैं भी आपका धन हूँ, मुझे किसे दे रहे हैं"- "तत कस्मै मां दास्यसीति"।
उद्दालक ने कोई उत्तर नहीं दिया। नचिकेता ने पुनः वही प्रश्न किया, पर उद्दालक टाल गये।
"पिताजी! मुझे किसे दे रहे हैं"? नचिकेता द्वारा तीसरी बार पूछने पर उद्दालक को क्रोध आ गया। चिढ़कर उन्होंने कहा, "तुम्हें देता हूँ मृत्यु को देता हूँ" - "मृत्यवे त्वा ददामीति"।
नचिकेता विचलित नहीं हुए। परिणाम के लिये वे पहले से ही प्रस्तुत थे। उन्होंने हाथ जोड़कर पिता से कहा, "पिताजी! शरीर नश्वर है, पर सदाचरण सर्वोपरि हैं। आप अपने वचन की रक्षा के लिये मुझे यम सदन जाने कीआज्ञा दें"।
ऋषि सहम गये, पर पुत्र की सत्य परायणता देखकर उसे यम पुरी जाने की आज्ञा उन्होंने दे दी। नचिकेता ने पिता के चरणों में सभक्ति प्रणाम किया और वे यमराज की पुरी के लिये प्रस्थान कर गए। यमराज काँप उठे। अतिथि ब्राह्मण का सत्कार न करने के कुपरिणाम से वे पूर्णतया परिचित थे और ये तो अग्नि तुल्य तेजस्वी ऋषि कुमार थे, जो उनकी अनुपस्थिति उनके द्वार पर बिना अन्न-जल ग्रहण किये तीन रात विता चुके थे। यम जलपूरित स्वर्ण कलश अपने ही हाथों में लिये दौड़े। उन्होंने नचिकेता को सम्मान पूर्वक पाद्यार्यं देकर अत्यन्त विनयपूर्वक कहा, "आदरणीय ब्राह्मण कुमार, पूज्य अतिथि होकर भी आपने मेरे द्वार पर तीन रात्रियाँ उपवास में बिता दीं। यह मेरा अपराध है। आप प्रत्येक रात्रि के लिये एक-एक वर मुझ से माँग लें"।
"मृत्यो! मेरे पिता मेरे प्रति शान्त-संकल्प, प्रसन्न चित्त और क्रोध रहित हो जायँ तथा जब मैं आपके यहाँ से लौटकर घर जाऊँ, तब वे मुझे पहचान कर प्रेम पूर्वक बातचीत करें"। पितृ भक्त बालक ने प्रथम वर माँगा। "तथास्तु" यम-धर्म राज ने कहा।
"मृत्यो! स्वर्ग के साधन भूत अग्नि को आप भली-भाँति जानते हैं। उसे ही जानकर लोग स्वर्ग में अमृतत्व देवत्व को प्राप्त होते हैं, मैं उसे जानना चाहता हूँ। यह मेरी द्वितीय वर-याचना है"।
"अग्नि अनन्त स्वर्ग लोक की प्राप्ति का साधन है", यमराज अल्पायु तीक्ष्ण बुद्धि, वास्तविक जिज्ञासु के रूप नचिकेता को पाकर प्रसन्न थे। उन्होंने कहा, "यही अग्नि विराट् रूप से जगत् की प्रतिष्ठा का मूल कारण है। इसे आप विद्वानों की बुद्धि रूप गुहा में स्थित समझिये"। उस अग्नि के लिये जैसी और जितनी ईंटें चाहिये, जिस प्रकार रखी जानी चाहिये तथा यज्ञस्थ ली निर्माण के लिये आवश्यक सामग्रियाँ और अग्नि चयन करने की विधि बतलाते हुए, अत्यन्त संतुष्ट होकर यम ने द्वितीय वर के रूप में कहा, "मैंने जिस अग्नि की बात आप से कहो, वह आपके ही नाम से प्रसिद्ध होगी और आप इस विचित्र रत्नों वाली माला को भी ग्रहण कीजिये"।
"तृतीयं वरं नचिकेतो वृणीष्व"।[कठोपनिषद् 1.1.19]
हे नचिकेता! अब तीसरा वर मांगिये।
अग्नि को स्वर्ग का साधन अच्छी प्रकार बतलाकर यम ने कहा।
"आप मृत्यु के देवता हैं" श्रद्धा-समन्वित नचिकेता ने कहा, "आत्मा का प्रत्यक्ष या अनुमान से निर्णय नहीं हो पाता। अतः मैं आपसे वही आत्म तत्व जानना चाहता हूँ कृपा पूर्वक बतला दीजिये"।
यम झिझ के। आत्मविद्या साधारण विद्या नहीं। उन्होंने नचिकेता को उस ज्ञान की दुरूहता बतलायी, पर उनको वे अपने निक्षय से नहीं डिगा सके। यम ने भुवन मोहन अस्त्र का उपयोग किया, सुर-दुर्लभ सुन्दरियों और दीर्घ काल स्थायिनी भोग-सामग्रियोंका प्रलोभन दिया, परन्तु ऋषि कुमार अपने तत्त्व-सम्बन्धी गूढ वर से विचलित नहीं हो सके।
आप बड़े भाग्यवान् हैं। यम ने नचिकेता के वैराग्य की प्रशंसा की और वित्त मयी संसार गति की निन्दा करते हुए बतलाया कि विवेक-वैराग्य, सम्पन्न पुरुष ही ब्रह्म ज्ञान प्राप्ति के अधिकारी हैं। श्रेय-प्रेय और विद्या-अविद्या के विपरीत स्वरूप का यम ने पूरा वर्णन करते हुए कहा "आप श्रेय चाहते हैं तथा विद्या के अधिकारी हैं"।
भगवन्! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो सब प्रकार के व्यावहारिक विषयों से अतीत जिस परब्रह्म को आप द्वार पर आप देखते हैं, मुझे अवश्य बतलाने की कृपा कीजिये।
"परब्रह्म परमेश्वर परमात्मा चेतन है। वह न जन्मता है, न मरता है। न यह किसी से उत्पन्न हुआ है और न ही कोई दूसरा ही इससे उत्पन्न हुआ है"। नचिकेता की जिज्ञासा देखकर यम अत्यन्त प्रसन्न हो गये थे। उन्होंने आत्मा के स्वरूप को विस्तार पूर्वक समझाया, "वह अजन्मी है, नित्य है, शाश्वत है, सनातन है, शरीर के नाश होने पर भी बना रहता है। वह सूक्ष्म से सूक्ष्म और महान् से भी महान् है। वह समस्त अनित्य शरीरों में रहते हुए भी शरीर रहित है, समस्त अस्थिर पदार्थों में व्याप्त होते हुए भी सदा स्थिर है। वह कण-कण में व्याप्त है। सारा सृष्टि क्रम उसी के आदेश पर चलता है। अग्नि उसी के भय से जलता है, सूर्य उसी के भयसे तपता है तथा इन्द्र, वायु और पाँचवाँ मृत्यु उसी के भयसे दौड़ते हैं। जो पुरुष काल के गाल में जाने से पूर्व उसे जान लेते हैं, वे मुक्त हो जाते हैं तथा शोकादि क्लेशोंको पार करके परमानन्द को प्राप्त कर लेते हैं"।
यम ने आगे कहा, "वह न तो वेद के प्रवचन से प्राप्त होता है, न विशाल बुद्धि से मिलता है और न केवल जन्म भर शास्त्रों के श्रवण से ही मिलता है"।
"नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन"।[कठोपनिषद् 12.23]
"वह उन्हीं को प्राप्त होता है, जिनकी वासनाएँ शान्त हो चुकी हैं, कामनाएँ मिट गयी हैं और जिनके पवित्र अन्तःकरण को मलिनता की छाया भी स्पर्श नहीं कर पाती तथा जो उसे पाने के लिये अत्यन्त व्याकुल हो जाते हैं"।
आत्म ज्ञान प्राप्त कर लेनेके बाद उद्दालक-पुत्र कुमार नचिकेता लौटे तो उन्होंने देखा कि वृद्ध तपस्वियों का समुदाय भी उनके स्वागतार्थ खड़ा है।
ईश्वर :: जिसके गुण, कर्म, स्वभाव और स्वरुप सत्य ही हैं, जो केवल चेतन मात्र वस्तु तथा जो एक अद्वितीय, सर्वशक्तिमान, निराकार, सर्वत्र व्यापक, अनादि और अनन्त सत्य गुणवाला है और जिसका स्वभाव अविनाशी, ज्ञानी, आनन्दी, शुद्ध, न्यायकारी, दयालु और अजन्मादि है, जिसका कर्म जगत की उत्पत्ति, पालन और विनाश करना तथा सब जीवों को पाप-पुण्य के फल ठीक-ठीक पहुँचाना है, उसको ईश्वर कहते हैं।[आर्योद्देश्यरत्नमाला, दयानंद सरस्वती]
GOD-ALMIGHTY :: The power, whose qualities, deeds, nature and form are the truth, who is the only conscious thing and who is a unique, omnipotent, formless, omnipresent, eternal and infinite truth quality, and whose nature is imperishable, knowledgeable. Blissful, pure, just, merciful and unborn, whose Karm is to create, maintain and destroy the world and to deliver the fruits of sin and virtue to all living beings precisely, he is called Ishwar.[Aryodshyratnamala, Dayanand Saraswati]
भगवान् शब्द के पाँच अक्षरों में पंच तत्व :: व :- वायु, भ :- भूमि, ग :- गगन, व :- वायु आ :- आग, न :- नीर।
अहं स शुक्तिसङ्काशो रूप्यवद् विश्वकल्पना।
इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः॥
यह विश्व मुझ में वैसे ही कल्पित है जैसे कि सीप में चाँदी। यह ज्ञान है, इसका न त्याग करना है और न ग्रहण बस इसके साथ एकरूप होना है।[अष्टावक्र गीता 6.3] “Identify the world in the Supreme soul-God, as the silver in conch-shell (due to ignorance, illusion, mistake), is the theme-central idea”, with which the individual has to identify himself without accepting or rejecting it.
The Almighty is real and the universe is fake-illusion.
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संतोष महादेव-सिद्ध व्यास पीठ, बी ब्लाक, सैक्टर-19 नौयडा