Tuesday, February 26, 2013

ॐ ओ३म् AUM-OM

ॐ ओ३म् AUM-OM
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
ॐ कार ::
(1). ‘श्रीमद्भागवत्’ में बताया है, ‘‘समाहित ब्रह्म के ह्रदय कोश से नाद (अव्यक्त शब्द) प्रगट होता है। दोनों कान बंद कर अंदर वह ध्वनि सुनाई देता है। उस अनाहत नाद की उपासना कर योगी मोक्ष के अधिकारी होते हैं"।
(2). ॐ कार उसी परमात्म्य का वाचक है।
(3). उस ॐ कार से सारे वाक्य प्रयोग आविर्भूत हुए। वह ॐ कार ही सर्व मंत्र तथा सर्व वेदोंका बीज हैं। उस ॐ कार के ‘अ, उ, म’ वर्ण से सत्त्व, रज, तम; ऋक्, यजु, साम; भू:, भूव:, स्व:, स्वप्न, जागृत और सुषुप्ती ऐसी अवस्थाएं निर्माण होती हैं। ब्रह्मदेव ने इस ॐ बीज से वर्णमाला उत्पन्न की। उसने इस अक्षर से ही यज्ञ के लिए भू:, भूव:, स्व:, महा, जन, तप, सत्यम ऐसी सात व्याह्रती तथा प्रणव इनके साथ वेद प्रकाशित किए।
ॐ ब्रह्माण्ड की अनाहत ध्वनि है। इसे अनहद नाद भी कहते हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में यह अनवरत जारी है। इसे प्रणवाक्षर (प्रणव+अक्षर) भी कहते है प्रणव का अर्थ होता है, "प्रकर्षेण नूयते स्तूयते अनेन इति, नौति स्तौति इति वा प्रणवः"
जिस समय परमेष्ठी ब्रह्मा जी पूर्व सृष्टि का ज्ञान सम्पादन करने के लिये एकाग्र चित्त हुए, उस समय उनके हृदयाकाश से कण्ठ-तालु आदि स्थानों से, संघर्ष से रहित एक अत्यन्त विलक्षण अनाहत नाद प्रकट हुआ। जब जीव अपनी मनोवृत्तियों को रोक लेता है, तब उसे भी इस अनाहत नाद का अनुभव होता है। बड़े-बड़े योगी उसी अनाहत नाद की उपासना करते हैं और उसके प्रभाव से अन्तःकरण के द्रव्य, अधिभूत क्रिया-अध्यात्म और कारक-अधिदैव रूप मल को नष्ट करके वह परमगति रूप मोक्ष प्राप्त करते हैं, जिसमें जन्म-मृत्यु संसार चक्र नहीं है। उसी अनाहत नाद से "अ " कार, "उ" कार और "म" कार रूप तीन मात्राओं से युक्त "ॐ कार" प्रकट हुआ। इस ॐ कार की शक्ति से ही प्रकृति अव्यक्त से व्यक्त रूप में परिणित हो जाती है। ॐ कार स्वयं व्यक्त एवं अनादि है और परमात्म स्वरूप होने से स्वयं प्रकाश भी है।  

जिस परम वस्तु को भगवान् ब्रह्म अथवा परमात्मा के नाम से कहा जाता है, उसके स्वरूप का बोध भी ॐ कार के द्वारा ही होता है। 
परब्रह्म परमेश्वर-परमात्मा के तीन प्रकार के नाम :: ॐ, तत् और सत्।

ॐ ओ३म् AUM-OM
जिस समय परमेष्ठी ब्रह्मा जी पूर्व सृष्टि का ज्ञान सम्पादन करने के लिये एकाग्र चित्त हुए, उस समय उनके हृदयाकाश से कण्ठ-तालु आदि स्थानों से, संघर्ष से रहित एक अत्यन्त विलक्षण अनाहत नाद प्रकट हुआ।
उस अनाहत नाद की उपासना कर योगी मोक्ष के अधिकारी होते हैं।
ॐ ब्रह्माण्ड की अनाहत ध्वनि है। इसे अनहद नाद भी कहते हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में यह अनवरत जारी है। इसे प्रणवाक्षर (प्रणव+अक्षर) भी कहते है प्रणव का अर्थ है, "प्रकर्षेण नूयते स्तूयते अनेन इति, नौति स्तौति इति वा प्रणवः"
प्रणव वह शब्द, अनाहत नाद है जो सृष्टि की उत्पत्ति के समय सुना गया।
जब जीव अपनी मनोवृत्तियों को रोक लेता है, तब उसे भी इस अनाहत नाद का अनुभव होता है। बड़े-बड़े योगी उसी अनाहत नाद की उपासना करते हैं और उसके प्रभाव से अन्तःकरण के द्रव्य, अधिभूत क्रिया-अध्यात्म और कारक-अधिदैव रूप मल को नष्ट करके वह परम गति रूप मोक्ष प्राप्त करते हैं, जिसमें जन्म-मृत्यु संसार चक्र नहीं है। उसी अनाहत नाद से "अ " कार, "उ" कार और "म" कार रूप तीन मात्राओं से युक्त "ॐ कार" प्रकट हुआ। इस ॐ कार की शक्ति से ही प्रकृति अव्यक्त से व्यक्त रूप में परिणित हो जाती है। ॐ कार स्वयं व्यक्त एवं अनादि है और परमात्म स्वरूप होने से स्वयं प्रकाश भी है।  
परब्रह्म परमेश्वर-परमात्मा के तीन प्रकार के नाम :: ॐ, तत् और सत्।
ॐ ओम-ओ३म् ज्ञान का आधार और प्रणव है।
‘‘समाहित ब्रह्म के ह्रदय कोश से नाद (अव्यक्त शब्द) प्रगट होता है। दोनों कान बंद कर अंदर वह ध्वनि सुनाई देता है"।[श्रीमद्भागवत्]
जिस परम ध्येय को भगवान्, परब्रह्म परमेश्वर अथवा परमात्मा के नाम से कहा जाता है, उसके स्वरूप का बोध भी ॐ कार के द्वारा ही होता है। 
क्रतु, यज्ञ आदि के अनुष्ठान के प्रारम्भ में जो ॐ का उच्चारण किया जाता है, उससे ही ऋचाएँ अभीष्ट फल देती हैं। वैदिकों के लिए प्रणव "ॐ" का उच्चारण प्रमुख है। 
ईश्वर के नाम, स्मरण और मंत्र के पहले इसका उच्चारण करने से जातक की कामना पूर्ति होती है।
इसीलिये शास्त्र विधि से नियत यज्ञ, दान और तप रुप क्रियाएँ सदा "ॐ" इस परमात्मा के नाम का उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं।[श्रीमद्भागवत गीता 17.24]

 


ॐ is the primordial sound heard-evolved with the evolution of life over the earth. Its a single syllable constituting of three syllables अ, ऊ & म 
The Almighty is addressed in three ways :: ॐ, Tat, Sat.
Its the sound that was created-heard at the time of evolution. Its recitation at the beginning grant the desired result.
Om "ॐ" is the root word used as a prefix before uttering-singing the verses-sacred hymns described in the Veds, which leads to desired outcome of the verses (Shloks, Mantr, Richas-sacred verses).

 

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः। 
वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च ॥
इस ब्रह्माण्ड का पिता, माता, आश्रय तथा पितामह में ही हूँ। जानने योग्य पवित्र ओंकार, ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ। 
समूचे ब्रह्माण्ड के आश्रय दाता परमात्मा स्वयं हैं। वही पिता, माता, पितामह, ज्ञान के आधार, प्रणव (ॐ ओम), वेद :- ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद वे वही हैं।[श्रीमद्भगवद्गीता 9.17]  
HE supports the universe, HE is the father, the mother and the grandfather; the object of knowledge, the sacred syllable OM-Pranav and the Veds, the goal, the Lord-master, the witness, the abode, the refuge-shelter, the friend, the origin, the dissolution, the foundation, the substratum (बुनियाद, foundation, underlay, basis, substructure, ground, basis, base, foundation, footing, backbone, नीचे का तल-आधार, आश्रय, shelter, resort, refuge, concealment, asylum, अध:स्तर, आधार, नींव, basis and the immutable seed).
वेदों की विधि को ठीक-ठीक जानना वेध कहलाता है। कामना पूर्ती अथवा निवृति के लिए किये गए वैदिक कर्म, शास्त्रीय क्रतु आदि अनुष्ठान, विधि विधान सांगोपांग होना अनिवार्य है। यह क्रिया वेध है और ईश्वर का स्वरूप ही है। यज्ञ, दान, तप जो निष्काम मनुष्य को पवित्र करते हैं, वह पवित्रता भगवत्स्वरूप है। क्रतु, यज्ञ आदि के अनुष्ठान के प्रारम्भ में जो ॐ का उच्चारण किया जाता है, उससे ही ऋचाएँ अभीष्ट फल देती हैं। वैदिकों के लिए प्रणव "ॐ", का उच्चारण प्रमुख है। अतः प्रणव भी भगवान् का एक रूप है। क्रतु, यज्ञ आदि विधि-विधान को बताने वाले ग्रन्थ ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद हैं। इनमें नियताक्षर वाले मन्त्रों की ऋचाएँ हैं, जिनको ऋग्वेद कहते हैं। जिसमें स्वर सहित गाने वाले मन्त्र हैं, वे सामवेद और अनियताक्षर वाले मन्त्र यजुर्वेद हैं। ये सभी वेद भगवत्स्वरूप हैं। 
Vedh is a term to know-understand the Veds properly in their true form. To get the desired fruit-result of the ritualistic deeds, its essential to know-understand the proper procedure, methods, systems. The procedure-practice is Vedh and a form of the God. Yagy-sacrifices in holy fire, donations-charity thereafter and the ascetic practices, which are for the undesired results meant for the social benefit-welfare are meant to purify the doer and are the concepts-images of the God. Om "ॐ"  is the root word used as a prefix before uttering-singing the verses described in the Veds, which leads to desired outcome of the verses (Shloks, Mantr, Richas-sacred verses). For the utterances-speaking singing, the Ved Mantr OM is the main initial syllable. Therefore, OM is a form of the God. Rig Ved, Sam Ved and the Yajur Ved are the holy books-scriptures describing the basis concept, texts, procedures and so they are the form of God. The Richas, Mantr, Shloks describing the text-prose, having fixed number of syllables form the Rig Ved. The Veds Sam Ved & Yajur Ved, which are sung with rhythm having syllables which are not fixed, too are the forms of God. Veds are the embodiment of the God.
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः। 
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा॥
ॐ, तत्, सत्, इन तीन प्रकार के नामों से जिस परमात्मा का निर्देश (संकेत) किया गया है, उसी परमात्मा से सृष्टि के आदि में वेदों तथा ब्राह्मणों और यज्ञों की रचना हुई है।[श्रीमद्भागवत गीता 17.23  
The manner in which the three names of the Almighty :- ॐ, Tat, Sat; emerged, is the same as the creation of Veds, Brahmans and Holy sacrifices in fire in the beginning of Eternity. 
ॐ, तत्, सत् :- ये परमात्मा के तीन नाम हैं, निर्देश हैं। परमात्मा ने पहले वेद, ब्राह्मण और यज्ञों को बनाया। विधि वेद बताते हैं, अनुष्ठान ब्राह्मण करते हैं और क्रिया के लिये यज्ञ है। यज्ञ, तप और दान में किसी प्रकार की कमी रह जाये तो, परमात्मा का नाम स्मरण करें, उससे कमी पूरी हो जायेगी। "ॐ तत् सत्," इस मन्त्र से गृहस्थ अथवा उदासीन (साधु) जो भी कर्म आरम्भ करता है, उसको अभीष्ट की प्राप्ति होती है। जप, होम, प्रतिष्ठा, संस्कार आदि सम्पूर्ण क्रियाएँ, इस मन्त्र से सफल हो जाती हैं, इसमें सन्देह नहीं है। 
ॐ, Tat & Sat are the 3 names-directives of the God, which fulfils all the desires of the worshipper, if he spell them in the beginning of the Holy sacrifices, endeavours, rituals, prayers. The Almighty created the Veds & Brahmans, followed by Holy sacrifices in fire for the benefit of the humanity. The Veds describe the methods for the sacrifices, rituals, prayers, worships, asceticism etc. Prayers, Yagy, Hawan are carried out by the Brahmans by following the procedures laid down in the Veds & scriptures. The Yagy, Hawan, Holy sacrifices in fire are there to make successful all the endeavours, projects, desires, ambitions of the individuals. In case there is any draw back-lacuna in the Yagy, Tap or Dan remember the God through these three names and the weakness-deficiency is overcome. 
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः। 
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम्॥
इसलिये वैदिक सिद्धान्तों को मानने वाले पुरुषों की शास्त्र विधि से नियत यज्ञ, दान और तपरुप क्रियाएँ सदा "ॐ" इस परमात्मा के नाम का उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं।[श्रीमद्भागवत गीता 17.24]
Those who have faith in Vaedic principles begin the Yagy associated with the procedures mentioned in the scriptures, donations-charity and ascetic practices by uttering-spelling OM the name of God.
समस्त वैदिक क्रियाएँ, यज्ञ, हवन, आहुति, मंत्र प्रार्थनाएँ सर्वप्रथम "ॐ" का उच्चारण करके ही प्रारम्भ की जाती हैं। दान, तप भी इसके बगैर अधूरे-फल हीन हैं। सृष्टि की रचना-उत्पत्ति में सबसे पहले प्रणव शब्द "ॐ" ही प्रकट हुआ। प्रणव की तीन मात्राएँ हैं, जिनसे त्रिपदा गायत्री प्रकट हुई और त्रिपदा गायत्री से ऋक, साम और यजु :- यह वेदत्रयी प्रकट हुई। 
All Vaedic rituals, Mantr, Yagy-Holy sacrifices in fire, offerings in fire, prayers begin with the pronunciation of OM. This is prefix. All Vaedic procedures remain incomplete in the absence of OM. Donations, ascetic practices remain fruitless in the absence of OM. OM appeared at the auspicious occasion of the formation of the universe-life. Three syllables of OM (ओ३म्) form the Gayatri Mantr and the three Veds :- Rig Ved, Sam Ved & Yajur Ved appeared from Gayatri.
जब श्रवणेन्द्रियों की शक्ति लुप्त हो जाती है, तब भी इस "ॐ" कार को समस्त अर्थों को प्रकाशित करनेवाले स्फोट तत्व को जो सुनता है और सुषुप्ति एवं समाधि-अवस्थाओं में सबके आभाव को जानता है, वही परमात्मा का विशुद्ध स्वरूप है।  वही ॐ कार परमात्मा से हृदयाकाश में प्रकट होकर वेदरूपा वाणी को अभिव्यक्त करता है। ॐ कार अपने आश्रय परमात्मा परब्रह्म का साक्षात् वाचक है।  "ॐ" कार ही सम्पूर्ण मंत्र, उपनिषद और वेदों का सनातन बीज है। 
अ, उ और म  ॐ कार के तीन वर्ण हैं। ये तीनों ही सत्त्व, रज, तम :- इन तीन गुणों; ऋक्, यजुः, साम :- इन तीन नाम; भूः, भुवः, स्वः :- इन  अर्थों और जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति :- इन तीन वृत्तियों के रूप में तीन-तीन की सँख्या वाले भावों को धारण करते हैं। 
ॐ कार से ही ब्रह्मा जी ने अन्तःस्थ (य, र, ल, व), ऊष्म (श, ष, स, ह), स्वर (अ से औ तक), स्पर्श (क से म तक) तथा ह्रस्व और दीर्घ आदि लक्षणों से युक्त अक्षर-समान्माय अर्थात वर्णमाला की रचना की। 
इसी  वर्णमाला द्वारा उन्होंने अपने चार मुखों से होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा-इन कगार ऋत्विजों के कर्म बतलाने के लिये ॐ कार और व्याहृतियों के सहित चार वेद प्रकट किये और अपने पुत्र मरीचि आदि को वेदाध्ययन में कुशल देखकर वेदों की शिक्षा दी।[श्रीमद्भागवत 12.6.3-45]
कालरूपी भगवान् सदाशिव कहते हैं कि मैंने पूर्वकाल में अपने स्वरूपभूत मंत्र का उपदेश किया है, जो ओंकार के रूप में प्रसिद्ध है, क्योंकि सबसे पहले मेरे मुख से ओंकार अर्थात ‘ॐ’ प्रकट हुआ। ओंकार वाचक है, मैं वाच्य हूँ और यह मंत्र मेरा स्वरूप ही है और यह मैं ही हूँ। प्रतिदिन ओंकार का स्मरण करने से मेरा ही सदा स्मरण होता है। मेरे पश्चिमी मुख से अकार का, उत्तरवर्ती मुख से उकार का, दक्षिणवर्ती मुख से मकार का, पूर्ववर्ती मुख से बिन्दु का तथा मध्यवर्ती मुख से नाद का प्राकट्य हुआ। यह 5 अवयवों से युक्त (पंचभूत) ओंकार का विस्तार हुआ।
प्रणव शब्द का अर्थ है, वह शब्द जिससे ईश्वर की भली भाँति स्तुति की जाये या ऐसा अक्षर जिसका कभी क्षरण ना हो। सरल अर्थो में कहा जाये तो प्रणवाक्षर परमेश्वर का प्रतीक है।
ॐ (ओ३म् ) तीन अक्षरों से बना है :- अ, उ और म्। प्रत्येक अक्षर ईश्वर के अलग अलग नामों को अपने में समेटे हुए है
"अ"  द्योतक है अर्थात उत्पन्न होना; व्यापक, सर्वदेशीय, और उपासना करने योग्य है। 
"उ" भगवान् विष्णु द्योतक है अर्थात लालन-पालन, विकास; बुद्धिमान, सूक्ष्म, सब अच्छाइयों का मूल, और नियम करने वाला है तथा    
"म" भगवान् विष्णु द्योतक है अर्थात नष्ट होना, मौन होना, ब्रह्मलीन होना; अनन्त, अमर, ज्ञानवान और पालन करने वाला है
ओ३म-यह ओंकार शब्द परमेश्वर का सर्वोत्तम नाम है। क्योंकि इसमें जो अ, उ और म तीन अक्षर मिलकर एक ओ३म समुदाय हुआ है, इस एक नाम से परमेश्वर के बहुत नाम आते हैं, जैसे-अकार से विराट,अग्नि और विश्वादि; उकार से हिरणगर्भ और तैजसादि; मकार से ईश्वर,आदित्य और प्राज्ञादि नामों का वाचक और ग्राहक है। उसका ऐसा ही वेदादिक सत्य शास्त्रों में स्पष्ट व्याख्यान किया गया है कि प्रकरणानुकूल ये सब नाम परमेश्वर ही के है।
जागरितस्थानो वैश्वानरोऽकार: प्रथमा मात्रा। 
ओम् की प्रथमा मात्रा अकार अ है। उसका सम्बन्ध जाग्रत स्थान से है और वह वैश्वानर-विश्वानर, विश्व सम्बन्धी है।[माण्डूक्य 9]
स्वप्नस्थानस्तैजस उकारो द्वितीय मात्रा।
ओम् की द्वितीय मात्रा उकार उ है। उसका सम्बन्ध स्वप्न स्थान से है, वह तैजस है।[माण्डूक्य 10]
सुषुप्तस्थान:प्राज्ञो मकारस्तृतीया मात्रा।
ओम् की तृतीय मात्रा मकार म है, उसका सम्बन्ध सुषुप्त स्थान से है, वह प्राज्ञ है।[माण्डूक्य 12]
यह ओ३म् की तीनों मात्राओं की व्याख्या है।
यह ब्रह्मा, विष्णु और महेश का प्रतिक भी है।[माण्डुक्य उपनिषद] 
आत्मा को अधर अरणि और ओंकार को उत्तर अरणि बनाकर मन्थन रूप अभ्यास करने से दिव्य ज्ञानरूप ज्योति का आविर्भाव होता है। उसके आलोक से निगूढ़ आत्मतत्व का साक्षात्कार होता है।[कठोपनिषद]
ओंकार को एकाक्षर ब्रह्म कहा है। [श्रीमद्भागवत गीता] 
भूत, भवत् या वर्तमान और भविष्य (त्रिकाल, ओंकारात्मक) ही कहा गया है।[माण्डूक्योपनिषद] 
इसे अनहद नाद भी कहा गया है। यह एक ऐसी ध्वनि होती है जो उत्पन्न नहीं की जाती, स्वतः गूँजती रहती है। इसे स्थूल कानों से नहीं सुना जा सकता। ये ध्वनि ब्रह्माण्ड  में हर समय हर जगह हर वक्त गूँजती रहती है।
तपस्वी और योगीजन जब ध्यान की गहरी अवस्था में उतरने लगते हैं तो यह नाद (ध्वनी) मनुष्य के भीतर-बाहर कम्पित होती स्पष्ट प्रतीत होने लगती है। साधारण मनुष्य उस ध्वनि को सुन नहीं सकता, लेकिन जो भी ओम का उच्चारण करता रहता है, उसके आसपास सकारात्मक ऊर्जा का विकास होने लगता है। फिर भी उस ध्वनि को सुनने के लिए तो पूर्णत: मौन और ध्यान में होना जरूरी है।
"तस्य वाचकः प्रणवः" अर्थात् उस परमेश्वर का वाचक प्रणव 'ॐ' है। इस तरह प्रणव अथवा ॐ एवं ब्रह्म में कोई भेद नहीं है। ॐ अक्षर है इसका क्षरण अथवा विनाश नहीं होता।[योगशास्त्र]
"ॐ इत्येतत् अक्षरः" अर्थात् ॐ अविनाशी, अव्यय एवं क्षरण रहित है। ॐ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों का प्रदायक है। मात्र ॐ का जप कर साधकों ने अपने उद्देश्य की प्राप्ति कर ली।[छान्दोग्योपनिषद्] 
"सिद्धयन्ति अस्य अर्था: सर्वकर्माणि च" अर्थात जो कुश के आसन पर पूर्व की ओर मुख कर एक हज़ार बार ॐ रूपी मंत्र का जाप करता है, उसके सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं।[ब्राह्मण ग्रन्थ]
जो व्यक्ति ॐ अक्षर रूपी ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ शरीर त्याग करता है, वह परम गति प्राप्त करता है।[श्रीमद्भागवत गीता अध्याय 18]
ॐ अर्थात् ओउम् तीन अक्षरों अ उ म् से बना है, जो सर्व विदित है। 
"अ" का अर्थ है आर्विभाव या उत्पन्न होना,
 "उ" का तात्पर्य है उठना, उड़ना अर्थात् विकास और 
"म" का मतलब है मौन हो जाना अर्थात् ब्रह्मलीन हो जाना। 
ॐ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और पूरी सृष्टि का द्योतक है। ॐ में प्रयुक्त "अ" तो सृष्टि के जन्म की ओर इंगित करता है, वहीं "उ" उड़ने का अर्थ देता है, जिसका मतलब है "ऊर्जा" सम्पन्न होना। किसी ऊर्जा वान मन्दिर या तीर्थ स्थल जाने पर वहाँ की अगाध ऊर्जा ग्रहण करने के बाद व्यक्ति स्वप्न में स्वयं को आकाश में उड़ता हुआ देखता है। 
ॐ मन्त्र की विशेषता यह है कि पवित्र या अपवित्र सभी स्थितियों में जो इसका जप करता है, उसे लक्ष्य की प्राप्ति अवश्य होती है। जिस तरह कमल-पत्र पर जल नहीं ठहरता है, ठीक उसी तरह जप-कर्ता पर कोई कलुष नहीं लगता।[ध्यान बिन्दुपनिषद्]
"मणिपद्मेहुम" का प्रयोग जप एवं उपासना के लिए प्रचुरता से होता है। इस मंत्र के अनुसार ॐ को "मणिपुर" चक्र में अवस्थित माना जाता है। यह चक्र दस दल वाले कमल के समान है।
PRABHA MANDAL-AURA :: A ring of flames and light issues from it and encompasses the Almighty. This is said to signify the vital processes of the universe and its creatures, nature’s dance as moved by the dancing of God within. Simultaneously, it is said to signify the energy of wisdom, the transcendental light of the knowledge of truth-enlightenment, dancing forth, from the personification of the all. 
Allegorical meaning assigned to the halo of flames is that of the holy syllable of अ A, उ U, म् M pronounced OM. This mystical utterance stemming from the sacred language of Vedic praise and incantation, is understood as an expression and affirmation of the totality of creation.
अ A :: It represents Brahma Ji-the creator and indicates the state of waking consciousness, together with its world of gross experience.
उ U :: It represents the nurturer Bhagwan Shri Hari Vishnu and represents the state of consciousness, together with its experience of subtle shapes.
म् M :: It represents Bhagwan Shiv-MAHESH and the state of dreamless sleep, the natural condition of quiescent, undifferentiated consciousness, wherein every experience is dissolved into a blissful non experience, a mass of potential consciousness.
The silence following the pronunciation of the three, अ A, उ U and म्  M, is the ultimate unmanifest, wherein perfected supra consciousness totally reflects and merges with the pure, transcendental essence of Divine Reality the Brahm, is experienced as Atm (आत्म), the Self. AUM (ओम), therefore, together with its surrounding silence, is a sound-symbol of the whole of consciousness-existence and at the same time its willing affirmation.
The Trinity of Brahma, Vishnu & Mahesh, has two expressive profiles, representing the polarity of the creative force, counterpoised to a single, silent, central head, signifying the quiescence of the Absolute. This symbolic relationship is eloquent of the paradox of Eternity and Time-the reposeful ocean and the racing stream are not finally distinct; the indestructible Self and the mortal being are in essence the same. Bhagwan Shiv-Nat Raj's, the incessant, triumphant motion of the swaying limbs is in significant contrast to the balance of the head and immobility of the mask-like countenance. Bhagwan Shiv is Kal, the Time, the deity of death & destruction and is Maha Kal as well the Ultimate-Eternity. 
It has been reported that the scientist at NASA have heard-recorded the vibrations over and above the frequency of 20,000 Hertz which is beyond the limits of normal human beings. These vibrations are continuously generated by the Sun-an incarnation-manifestation of the Almighty. Bhagwan Shri Krashn told Arjun that the knowledge of Geeta imparted to him was granted to Sun as well much before evolution when it was dark all over. These vibrations constituting of OM, ॐ, ओ३म् are those, which were created at the time of evolution.
Om-Aum stirs the whole body, which results in soothing nerves and regulation of proper blood flow-pressure in the arteries and the veins. 
ओ३म् बोलने से शरीर के अलग अलग भागों में कम्पन  होते हैं जैसे कि :- 
अ Aa :शरीर के निचले हिस्से (पेट के करीब) कम्पन उत्पन्न करता है। 
It creates vibrations in lower abdomen. 
उ Uu; OO-oo :: शरीर के मध्य भाग (छाती के करीब) कम्पन उत्पन्न करता है। 
It generates waves in the middle segment of the body around the chest and 
Mm म् :: शरीर के ऊपरी हिस्से (मस्तिक में) कम्पन  उत्पन्न करता है। 
It reverberate the brain, creating rhythm. One observes that the word Om-Aum produce vibrations in the body. A aअ, U u उ, M m म् Combination of these syllable brings one close to the Almighty automatically.
Om-Aum has extra ordinary healing powers and curative effects. It releaves one from pain, tensions, sorrow, difficulties, if he concentrate in the God and pronounce it repeatedly with ease. It allows one to meditate-concentrate in the God-Almighty to resolve all problems-difficulties.
There are some words which are very close to om ॐ ओम. In English one finds (1). OMEN :: Good or Bad-evil (portent, sign, signal, token, forewarning, warning, fore shadowing, prediction, forecast, prophecy, harbinger, augury) (2). OMANI :: All of all things, omniscient-in all ways or places. omnipresent, omnipotent. In Gurumukhi Omkar, in Urdu Ameen.
Om is the sound produced by the newly born child. The frequency of the earth rotating around its axis is same as the one produced by OM. 
ॐ Om-Aum is a sacred sound and spiritual icon, connected as Dharmic-religious symbol, though it is universal governing the entire universe-cosmos. It is also a Mantr-the sound-hymn. Om is a spiritual symbol-Pratima (प्रतिमा, मूर्ति; idol, statue) referring to Atma (soul, self within) and the Brahm (Ultimate reality, entirety of the universe, truth, divine, supreme spirit, cosmic principles, knowledge).
This is used a prefix and suffix as well, adding meaning to the verse, rhyme, Mantr, Shlok, in the Veds, the Upnishads and scriptures-epics. It is a sacred spiritual incantation made before and during the recitation of spiritual texts, during Puja and private prayers, in ceremonies of rites of passages (Sanskar, virtues, good qualities) such as weddings and sometimes during meditative and spiritual activities such as Yog.
Om is part of the iconography found in ancient and medieval era temples, monasteries and spiritual retreats.
The syllable is also referred to as Omkar (ओंकार), Aumkar (औंकार), Pranav (प्रणव), Akshar-alphabet, Ekakshar-single alphabet .
It is the cosmic-mystical-divine sound, which was produced with the beginning of evolution. It symbolises the abstract and spiritual in the Upanishads. It is core, theme, central idea, axis of the Vedic texts such as the Rig Ved.
अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। 
होतारं रत्नधातमम्॥ 
हे अग्नि स्वरूप परमात्मा! इस यज्ञ के द्वारा मैं आपकी आराधना करता हूँ। सृष्टि के पूर्व भी आप थे और आपके अग्निरूप से ही सृष्टि की रचना हुई। हे अग्निरूप परमात्मा! आप सब कुछ देने वाले हैं। आप प्रत्येक समय एवं ऋतु में पूज्य हैं। आप ही अपने अग्निरूप से जगत् के सब जीवों को सब पदार्थ देने वाले हैं एवं वर्तमान और प्रलय में सबको समाहित करने वाले हैं। हे अग्निरूप परमात्मा! आप ही सब उत्तम पदार्थों को धारण करने एवं कराने वाले हैं।[ऋग्वेद 1.1.1]
(यज्ञस्य) हम लोग विद्वानों के सत्कार संगम महिमा और कर्म के (होतारम्) देने तथा ग्रहण करनेवाले (पुरोहितम्) उत्पत्ति के समय से पहले परमाणु आदि सृष्टि के धारण करने और (ऋत्विज्ञम्) बारंबार उत्पत्ति के समय में स्थूल सृष्टि के रचने वाले तथा ऋतु-ऋतु में उपासना करने योग्य (रत्नधातमम्) और निश्चय करके मनोहर पृथ्वी और स्वर्ण सहित रत्नों के धारण करने वा (देवम्) देने तथा सब पदार्थों के प्रकाश करनेवाले परमेश्वर की (ईळे) स्तुति करते हैं।
I pray to Agni Dev! the prime Tattv of Parmatma by performing this Yagy. You were there before there was anything. With you the creation started. You are the giver of everything. I pray to you every day in all seasons. You sustain all creation and will consume it when the end comes. It is because of you that we get all the beautiful things of life. You are the source of everything beautiful.
I glorify Agni, the high priest of sacrifice, the divine, the ministrant, who is the offerer and possessor of greatest wealth.
हम अग्निदेव की स्तुती करते है (कैसे अग्निदेव?) जो यज्ञ (श्रेष्ठतम पारमार्थिक कर्म) के पुरोहित (आगे बढाने वाले), देवता (अनुदान देनेवाले), ऋत्विज (समयानुकूल यज्ञ का सम्पादन करनेवाले), होता (देवों का आवाहन करनेवाले) और याचकों को रत्नों से (यज्ञ के लाभों से) विभूषित करने वाले हैं।
Om is divine acknowledgement, melodic confirmation, something that gives momentum and energy to a hymn. [Aitarey Aranyak 23.6]
The three phonetic components of Om (pronounced AUM) correspond to the three stages of cosmic creation and when it is read or said, it celebrates the creative powers of the universe. It is equated Om with Bhur Bhuvah Svah:, the latter symbolising the whole Ved.[Aetarey Brahmn 5.32]
It represents-describes the universe beyond the Sun, which is mysterious and inexhaustible, infinite language, the infinite knowledge, essence of breath, life, everything that exists or that with which one is liberated.
Sam Ved-the poetical Ved, orthographically maps Om to the audible, the musical truths in its numerous variations (Oum, Aum, Ova, Um, etc.) and then attempts to extract musical meters from it.
Om as a tool for meditation. It helps one in meditation, ranging from artificial and senseless to highest concepts such as the cause of the Universe, essence of life, Brahm, Atma and Self-realisation.
The syllable is also referred to as Pranav. Chhandogy Upnishad and the Shraut Sutr describes it as Akshar-alphabet, imperishable, immutable or Ekakshar-single alphabet and Omkar-beginning, female divine energy.
ॐ भूर्भुवस्व:, तत्सवितुर्वरेण्यम्; भर्गो देवस्य धीमहि; धियो यो न: प्रचोदयात्।उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अपनी अन्तरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।[ऋग्वेद  3.62.10]
Let us adopt the Almighty who is like our soul, kills-relieves pains-sorrow, grants bliss-pleasure, is excellent-unparrlalled, enegetic, relieves from sins-wickednes, evils, in our innerself-soul. Let HIM direct our mind to holy (virtuous, righteous, pious) path. 
Gayatri Mantr describes the origin of the three abodes in Om. It is the desirable splendour of Savitr-Aura of the Sun, the Inspirer which stimulate one to insightful thoughts.
One should meditate-concentrate, on Om. Om is Udgeeth (उद्गीथ, song, chant) and asserts that it's significance is :- The essence of all beings is earth, the essence of earth is water, the essence of water are the plants, the essence of plants is man, the essence of man is speech, the essence of speech is the Rig Ved, the essence of the Rig Ved is the Sam Ved and the essence of Sam Ved is the Udgeeth (song, Om).[Chhandogy Upnishad]
Rik (ऋच्, Ric) is speech and Sam (साम) is breath. They co-exist in pairs. They have love and desire for each other, so speech and breath find themselves together and mate to produce song. Thus the highest song is Om. It is the symbol of awe, of reverence, of threefold knowledge because Adhvaryu invokes it, the Hotr recites it and Udgatr sings it.[Chhandogy Upnishad 1.1] 
Om was used to gain victory-energy by the Devs-demigods to overcome the Asurs-demons. The struggle between demigods and demons is allegorical (symbolic, metaphorical, figurative, representative, emblematic, imagistic, mystical, parabolic, symbolising) since good and evil inclinations within man, coexists. The legend in section  states that Demigods took the Udgeeth (song of Om) unto themselves, thinking, with this song they would overcome the demons. So, the syllable Om is implied  to inspires the good inclinations-intentions within each person.[Chhandogy Upnishad 1.2]
It combines etymological speculations, symbolism, metric structure and philosophical themes. The meaning and significance of Om evolves into a philosophical discourse. Om is linked to the Highest Self. [Chhandogy Upnishad 2.10] 
Om is the essence of three forms of knowledge. Om is Brahm and Om is all that which is observed world.[Chhandogy Upnishad 2.23]
Nachiketa, son of sage Vajasravas, discussed the nature of man, knowledge, Atma (Soul, Self) and Moksh (Liberation), with Yam-Dharm Raj. It characterise Knowledge-Wisdom, as the pursuit of good and Ignorance-Delusion-Illusion, as the pursuit of pleasant, that the essence of Ved is to make the man liberated and free, look past what has happened and what has not happened, free from the past and the future, beyond good and evil and one word for this essence is Om.[Katha Upnishad 1.2]
This is the word which is proclaimed by the Veds. It is expressed in every holy-pious deeds i.e., Yagy, Hawan, Agnihotr, rituals, prayers, Katha Shrawan (listening, hearing), Tap, penance, austerity, meditation, offerings. One practices chastity-Brahmchary, while understanding-acquiring the essence of it.  It is identified with Brahm-the Supreme.[Katha Upnishad, 1.2.15-16]
Om represents Brahm, Atma-The Ultimate. The sound constitutes the body of Soul. It manifests in three forms: 
As gender endowed body :- Feminine, masculine, neuter.
As light endowed body :- Agni, Vayu and Adity.
As deity endowed body :- Brahma, Rudr and Vishnu. 
As mouth endowed body :- Grahpaty (गृहपत्य), Dakshinagni (दक्षिणाग्नि)  and Avahniy (आवाहनीय).
As knowledge endowed body :- Rig, Sam and Yajur Ved.
As world endowed body :- Bhur, Bhuvaḥ and Svah.
As time endowed body :- Past, Present and Future.
As heat endowed body :- Breath, Fire and Sun.
As growth endowed body :- Food, Water and Moon.
As thought endowed body :- Intellect, mind and psyche.
Brahm exists in two forms :- The material form and the immaterial-formless. The material form is changing, unreal. The immaterial-formless, has no specific shape or size, isn't changing, real. The immortal formless is truth, the truth is the Brahm, the Brahm is the light, the light is the Sun, which is the syllable Om as the Self.[Maetri Upnishad]
The world in itself, its light and the Sun are the manifestation of Om and the light of the syllable Om, asserts the Upnishad. Meditating on Om, is acknowledging and meditating on the Brahm-Atma (Soul, Self).[Mundak Upnishad]
The means to knowing the Self and the Brahm to be meditation, self-reflection and introspection, are aided by the symbol Om.[Mundak Upnishad 2]
That which is flaming, which is subtler than the subtle, on which the three worlds are set along with their inhabitants. That is the indestructible Brahm. It is life, it is speech, it is mind. It is the real. It is immortal. It is a mark to be penetrated. One has to penetrate it.[Mundak Upnishad, 2.2.2]
One has to take the great weapon of the Upnishad as a bow, put upon it the arrow, sharpened by meditation, stretching it with a thought directed to the essence of that, penetrate that Imperishable as the mark.[Mundak Upnishad, 2.2.3]
Om is the bow, soul is the arrow, Brahm the mark and it has to be penetrated by the man. One should come to be in it, as the arrow becomes one with the mark. [Mundak Upnishad, 2.2.4]
Adi Shankrachary, in his review of the Mundak Upnishad, states that Om is a symbolic for Atma-soul-self.
The whole world is contained in this syllable Om! It constitutes of a fourfold derived from A + U + M + silence, without an element.[Mundak Upnishad]
Aum constitutes the three dimensions of time. Time is threefold :- The past, the present and the future, that these three are Aum. The fourth dimension of time is that which transcends time and that too is Aum.[Mundak Upnishad 1]
Aum as all states of Atma.
Everything is Brahm, but Brahm is Atma (the Soul, Self) and that the Atma is fourfold. These four states of Self, respectively are seeking the physical, seeking inner thought, seeking the causes and spiritual consciousness and the fourth state is realizing oneness with the Self, the Eternal.[Mundak Upnishad 2]
Aum constituents  all the states of consciousness. It enumerates the four states of consciousness :- Wakeful, dream, deep sleep and the state of Ekatm (एकात्म, being one with Self, the oneness of Self). These four are A + U + M + without an element respectively.[Mundak Upnishad 3-6]
Aum as all of knowledge. It enumerates four fold etymological roots of the syllable Aum. The first element of Aum is A, which is from Apti (आप्ति, obtaining, reaching) or from Aditv (आदित्व, original, being first). The second element is U, which is from Utkarsh (उत्कर्ष, exaltation) or from Ubhayatv (उभयत्व, intermediateness). The third element is M, from Miti (मिति, erecting,constructing) or from Mi Minati (मिनाति) or Apiti (आपिति, annihilation). The fourth is without an element, without development, beyond the expanse of universe. Om is in deed the Atma (soul, the self). [Mundak Upnishad 9-12]
Meditation by concentrating over the syllable Om, where one's perishable body is like one fuel-stick and the syllable Om is the second fuel-stick, which with discipline and diligent rubbing of the sticks unleashes the concealed fire of thought and awareness within. Such knowledge, asserts the Upnishad and is the goal of the Upanishads. The text asserts that Om is a tool of meditation empowering one to know the God within oneself, to realise one's Atma (Soul, Self).[Shwetashvtar Upnishad 1.14-16]
Om is the symbol for the indescribable, impersonal Brahm. Krashn to Arjun :- I am the Father of this Universe, Mother, Ordainer, Grandfather, the Thing to be known, the Purifier, the syllable Om, Rik, Saman and also Yajus.[Shri Mad Bhagwad Geeta 9.17]
पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः। 
वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च॥[श्रीमद्भगवद्गीता 9.17]
इस ब्रह्माण्ड का पिता, माता, आश्रय तथा पितामह में ही हूँ। जानने योग्य पवित्र ओंकार, ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ।
समूचे ब्रह्माण्ड के आश्रय दाता परमात्मा स्वयं हैं। वही पिता, माता, पितामह, ज्ञान के आधार, प्रणव (ॐ ओम), वेद :- ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद वे वही हैं। 
HE supports the universe, HE is the father, the mother and the grandfather; the object of knowledge, the sacred syllable OM-Pranav and the Veds, the goal, the Lord-master, the witness, the abode, the refuge-shelter, the friend, the origin, the dissolution, the foundation, the substratum (बुनियाद, foundation, underlay, basis, substructure, ground, basis, base, foundation, footing, backbone, नीचे का तल-आधार, आश्रय, shelter, resort, refuge, concealment, asylum, अध:स्तर, आधार, नींव, basis and the immutable seed).
वेदों की विधि को  ठीक-ठीक जानना वेध कहलाता है। कामना पूर्ती अथवा निवृति के लिए किये गए वैदिक कर्म, शास्त्रीय क्रतु आदि अनुष्ठान, विधि विधान सांगोपांग होंना अनिवार्य है। यह क्रिया वेध है और ईश्वर का स्वरूप ही है। यज्ञ, दान, तप जो निष्काम मनुष्य को पवित्र करते हैं, वह पवित्रता भगवत्स्वरूप है। क्रतु, यज्ञ आदि के अनुष्ठान के प्रारम्भ में जो ॐ का उच्चारण किया जाता है, उससे ही ऋचाएँ अभीष्ट फल देती हैं। वैदिकों के लिए प्रणव-ॐ, का उच्चारण प्रमुख है। अतः प्रणव भी भगवान् का एक रूप है। क्रतु, यज्ञ आदि विधि-विधान को बताने वाले ग्रन्थ ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद हैं। इनमें नियताक्षर वाले मन्त्रों की ऋचाएँ हैं, जिनको ऋग्वेद कहते हैं। जिसमें स्वर सहित गाने वाले मन्त्र हैं, वे सामवेद और अनियताक्षर वाले मन्त्र यजुर्वेद हैं। ये सभी वेद भगवत्स्वरूप हैं।
Vedh is a term to know-understand the Veds properly in their true form. To get the desired fruit-result of the ritualistic deeds, its essential to know-understand the proper procedure, methods, systems. The procedure-practice is Vedh and a form of the God. Yagy-sacrifices in holy fire, donations-charity thereafter and the ascetic practices, which are for the undesired results meant for the social benefit-welfare are meant to purify the doer and are the concepts-images of the God. Om is the root word used as a prefix before uttering-singing the verses described in the Veds, which leads to desired outcome of the verses (Shloks, Mantr, Richas-sacred verse). For the utterances-speaking singing, the Ved Mantr OM is the main initial syllable. Therefore, OM is a form of the God. Rig Ved, Sam Ved and the Yajur Ved are the holy books-scriptures describing the basis concept, texts, procedures and so they are the form of God. The Richas, Mantr, Shloks describing the text-prose, having fixed number of syllables form the Rig Ved. The Veds Sam Ved & Yajur Ved, which are sung with rhythm having syllables which are not fixed, too are the forms of God. Veds are the embodiment of the God. 
The importance of Om during prayers, charity and meditative practices :- Uttering Om, the acts of Yagy (sacrificial fire ritual), Dan (charity, donation) and Tapas (austerity) as enjoined in the scriptures, are always begun by those who study the Brahm.[Bhagwad Geeta 17.24]
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः। 
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम्॥[श्रीमद्भगवद्गीता 17.24] 
इसलिये वैदिक सिद्धान्तों को मानने वाले पुरुषों की शास्त्र विधि से नियत यज्ञ, दान और तपरुप क्रियाएँ सदा "ॐ" इस परमात्मा के नाम का उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं। 
Those who have faith in Vaedic principles begin the Yagy associated with the procedures mentioned in the scriptures, donations-charity and ascetic practices by uttering-spelling OM (Ameen or Allah are merely translation of Om); the name of God.
समस्त वैदिक क्रियाएँ, यज्ञ, हवन, आहुति, मंत्र प्रार्थनाएँ सर्वप्रथम ॐ का उच्चारण करके ही प्रारम्भ की जाती हैं। दान, तप भी इसके बगैर अधूरे-फल हीन हैं। सृष्टि की रचना-उत्पत्ति में सबसे पहले प्रणव शब्द "ॐ" ही प्रकट हुआ। प्रणव की तीन मात्राएँ हैं, जिनसे त्रिपदा गायत्री प्रकट हुई और त्रिपदा गायत्री से ऋक, साम और यजु :- यह वेदत्रयी प्रकट हुई। 
All Vaedic rituals, Mantr, Yagy-Holy sacrifices in fire, offerings in fire, prayers begin with the pronunciation of OM. This is prefix. All Vaedic procedures remain incomplete in the absence of OM. Donations, ascetic practices remain fruitless in the absence of OM. OM appeared at the auspicious occasion of the formation of the universe-life. Three syllables of OM (ओ३म्) form the Gayatri Mantr and the three Veds :- Rig Ved, Sam Ved & Yajur Ved appeared from Gayatri.
तस्य वाचकः प्रणवः॥1.27॥ 
His word is Om. This  aphoristic verse highlights the importance of Om in the meditative practice of Yog, where it symbolises three worlds in the Soul. The three divisions of time: Past, Present and the Future. Eternity, the three divine powers: Creation, Preservation and Transformation in one being. Three essences in one Spirit :- Immortality, Omniscience and Joy. It is, a symbol for the perfected Spiritual Man (his emphasis).[Patanjali's Yog Sutr 1.27]
Om is the representation of the Trimurti and represents the union of the three Gods, viz. A for Brahma, U for Vishnu and M for Mahesh-Shiv. The three sounds also symbolise the three Veds, namely Rig Ved, Sam Ved, Yajur Ved.[Vayu Puran]
Shiv is Om-Pranav and that Om is Shiv.[Shiv Puran]
It is the primordial sound associated with the creation of universe from nothing. [Maheshwaranand] 
Om is Ekam Akshram (एकम् अक्षरम्, one syllable). Udgeeth, a word found in Sam Ved and Bhasy (commentaries) based on it, is synonymous therein, with the syllable Om. [Ritualistic sacrifices associated with the chanting of sacred verses, Mantr,Shlok is Agnihotr-Hawan.]
योSधीतेSहन्यहन्येतांस्त्रीणि वर्षाण्यतन्द्रित:। 
स ब्रह्म परमभ्येति वायुभूत: खमूर्तिमान्॥[मनु स्मृति 2.82]
जो आलस्य को छोड़कर तीन वर्ष लगातार इनका प्रतिदिन (ओङ्कार व्याह्रती पूर्वक सावित्री का) जप करता है, वह वायु की तरह शीघ्रगामी होकर आकाश के स्वरूप को धारण कर परब्रह्म में लीन हो जाता है। 
One who regularly recite the Vyahratis with Om as prefix, for three years without laziness, becomes light like air and gets the form of sky and then assimilate in the Almighty.
एकाक्षरं परं ब्रह्म प्राणायामा: परं तपः। 
सावित्र्यास्तु परं नास्ति मौनात्सत्यं विशिष्यते॥[मनु स्मृति 2.83]
एकाक्षर ॐ परब्रह्म है और प्राणायाम परम् तप है तथा सावित्री से बढ़कर कोई मंत्र नहीं है और मौन से सत्य बोलना श्रेष्ठ है। 
The monosyllable (Om) is the Ultimate-Almighty, Pranayam-Yog is the Ultimate ascetic practice-austerity, Savitri is the Ultimate Mantr and Truthfulness is better than silence.
क्षरन्ति सर्वा वैदिक्यो जुहोतियजतिक्रिया:।
अक्षरं दुष्करं ज्ञेयं ब्रह्म चैव प्रजापतिः॥[मनु स्मृति 2.84]
वेद विहित सभी हवन यज्ञादि कर्मों के फल नष्ट हो जाते हैं, किन्तु प्रजापति ब्रह्मस्वरूप ओङ्कार का कभी नाश नहीं होता है। 
The result-reward of the ordained deeds including holy sacrifices in fire, Hawan, Yagy, asceticism etc. vanishes; but the impact of Omkar (ॐ) in the form of Praja Pati Brahm never vanishes. 
It is the greatest purifier which helps the individual in one after another birth, throughout his birth cycles, till he achieves salvation. 
USES OF RECITATION OF ॐ (OM)  उच्चारण के लाभ ::
यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और पूरी सृष्टि का द्योतक है। इसका उच्चारण शारीरिक तथा मानसिक लाभ प्रदान करता है। यह स्वास्थ्य वर्द्धक-आरोग्य वर्धक है। 
प्रातः उठकर, पवित्र होकर ओंकार ध्वनि का उच्चारण करन चाहिये। 
ॐ का उच्चारण पद्मासन, अर्धपद्मासन, सुखासन, वज्रासन में बैठकर कर सकते हैं। इसका उच्चारण 5, 7, 10, 21 बार अपने समयानुसार कर सकते हैं। ॐ जोर से बोलकर कर भी सकते हैं और धीरे-धीरे बोलकर भी। ॐ जप माला से भी कर सकते हैं।
(1). ॐ का सस्वर उच्चारण करने से गले में कम्पन पैदा होते हैं जो थायरायड ग्रंथि पर सकारात्मक प्रभाव डालते हैं।
(2). ॐ का सस्वर उच्चारण घबराहट या अधीरता को रोकता है। 
(3). यह शरीर के विषैले तत्त्वों को दूर करके तनाव के कारण पैदा होने वाले द्रव्यों पर नियंत्रण करता है। ॐ का उच्चारण करने से पूरा शरीर तनाव-रहित हो जाता है।
(4). यह हृदय और ख़ून के प्रवाह को संतुलित रखता है।
(5). ॐ के उच्चारण से पाचन शक्ति बढ़ती है।
(6). इससे शरीर में फिर से युवावस्था वाली स्फूर्ति का संचार होता है।
(7). थकान से बचाने के लिए इससे उत्तम उपाय कुछ और नहीं।
(8). नींद न आने की समस्या इससे कुछ ही समय में दूर हो जाती है। रात को सोते समय नींद आने तक मन में इसके उच्चारण करने से अच्छी नींद आती है।
(9). प्राणायाम के साथ इसे करने से फेफड़ों में मज़बूती आती है।
(10). ॐ के पहले शब्द का उच्चारण करने से कम्पन जो पैदा होते हैं उनसे रीढ़ की हड्डी प्रभावित होती है और यह मजबूत होती है।
(11). इसके निरन्तर-नियमित उच्चारण से मन-मस्तिष्क-चित्त और प्रवृत्ति शाँत होते हैं और आध्यात्मिकता का बोध और विकास होता है। 
इसका हिन्दु-हिन्दुत्व से कोई सम्बन्ध नहीं है। अतः कोई भी व्यक्ति कभी भी कर सकता है। 
महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्। 
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः॥
महर्षियों में भृगु और वाणियों-शब्दों में एक अक्षर प्रणव मैं हूँ। सम्पूर्ण यज्ञों में जप यज्ञ, स्थिर रहने वालों में हिमालय मैं हूँ।[श्रीमद्भगवद्गीता 10.25]  
Bhagwan Shri Krashn said that HE is Bhragu amongest the great sages and ॐ-OM (monosyllable cosmic sound) amongest the words-speeches. Amongest the Yagy-ritualistic performances with sacrifices in Agni-fire, HE is Jap Yagy-spiritual recitation of Mantr-lyrics, rhythms and HE is Himalay mountain amongest the stationery-fixed objects.
परमात्मा ने भृगु, अत्रि और मरीचि आदि महृषियों में भृगु को अपनी विभूति इसलिये कहा है, क्योंकि उन्होंने ही परीक्षा करके बताया कि त्रिदेवों :- ब्रह्मा, विष्णु और महेश में, भगवान् विष्णु ही श्रेष्ठतम हैं। भगवान् विष्णु भृगु के चरण-चिन्हों को अपने वक्ष पर भृगुलता नाम से धारण किये हुए हैं। सबसे पहले तीन मात्रा वाला प्रणव प्रकट हुआ। तत्पश्चात त्रिपदा गायत्री और उससे वेद, वेदों से शास्त्र, पुराण आदि सम्पूर्ण वाङ्गमय जगत प्रकट हुआ। इसी प्रकार यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाओं को प्रणव के उच्चारण से ही प्रारम्भ किये जाने से परमात्मा शब्दों में प्रणव हैं। भगवन्नाम जप एक ऐसा यज्ञ है, जिसमें किसी पदार्थ या विधि-विधान की आवश्यकता नहीं है। अतः यह यज्ञों में, गलती-त्रुटि की गुंजाइश-संभावना न होने से श्रेष्ठतम और प्रभु की विभूति है। हिमालय पर्वत ऋषि-मुनियों की तप स्थली, पवित्र नदियों गँगा, यमुना का उद्गम, नर-नरायण की आदि स्थान बद्रीनाथ, केदारनाथ, कैलाश आदि का प्रमुख पवित्र स्थल होने से स्थिरों में प्रभु की विभूति है। 
Out of the Mahrishis born as the sons of Bhawan Brahma, Bhragu is entitled to be the supreme, since it was he who testified that Bhagwan Vishnu was superior amongest the Tri Dev :- Brahma, Vishnu & Mahesh. In this process he struck the chest of Bhagwan Vishnu with his foot, which was held by Bhagwan Shri Hari Vishnu and HE jokingly closed numerous eyes present in his foot granting him enlightenment & attracted curse of Maa Laxmi that his decedents would never have sufficient money to survive-subsistence. The Almighty recognise him as his Ultimate form as a sage. HE is wearing the marks of Bhragu's foot over his chest as Bhragu Lata. ॐ OM (primordial sound) is the syllable which appeared before evolution followed by Gayatri-divine prayer, which resulted into the appearance of Veds, Purans, scriptures, history etc. Therefore, the God is calling it to be HIS excellent character-quality, form. The recitation of the names of the God is free from procedure, methodology, sacrifices etc. Hence, it is considered to be the best form of prayer-worship, as there is rare-minimum chance of mistakes connected with sequence, offerings etc. Himalay-Everest is the place which is liked by the sages-ascetics to perform Yog, worship, prayers being isolates. Pious rivers like Ganga, Yamuna, Sahastr Dhara, appear here. Bhagwan Nar-Narayan are still practicing asceticism there, at Badri Nath. Bhagwan Shankar occupies Kaelash with Maa Parwati as his abode. Maa Bhagwati Parwati took incarnation as the daughter of Himalay. Gangotri & Yamunotri (Char Dhams) too are located here. It continues to supply water throughout the year into rivers like Saraswati, Brahm Putr etc. It results into rains in the entire northern region of India and controls the climate throughout the world. It is the highest mountain in the world. This is the reason the God is calling it his Supreme-Ultimate form.
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥
इन्द्रियों के समस्त द्वारों को रोककर मन का ह्रदय में निरोध करके और अपने प्राणों को मस्तक में स्थापित करके योग धारणा में स्थित हुआ जो साधक "ॐ" इस "एक अक्षर का ब्रह्म" का मानसिक उच्चारण और मेरा स्मरण करता हुआ शरीर को छोड़कर जाता है, वह परम गति को प्राप्त होता है।[श्रीमद्भगवद्गीता 8.12-23]
One attains the Ultimate-the Supreme Abode, when he closes all doors of the body (mouth, nostrils, eyes, ears, pennies & anus) checks the thoughts by subliming them in the heart, pulls the soul-Pran Vayu (bio impulses), in the skull, brain, cerebrum, practicing Yog, reciting-uttering the Ultimate syllable "ॐ"OM-the sacred monosyllable sound power of Spirit, mentally-silently and remembering the Almighty, while deserting the human incarnation-body.
मनुष्य-साधक शरीर त्याग करते वक्त अपना ध्यान कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों से हटा ले, ताकि वे अपने स्थान पर स्थिर रहें। मन का निरोध करके उसे ह्रदय में स्थानान्तरित कर दे अर्थात ध्यान को विषयों से मुक्त करके, अपने ह्रदय में परमात्मा की मूर्ति-आकृति का अनुभव करे। प्राणों को दसवें द्वार-ब्रह्मरंध्र में रोक ले अर्थात उन पर काबू कर ले। इस प्रकार वो योग धारणा में स्थित हो जाये। इन्द्रियों और मन से कुछ भी चेष्टा न करे। इस स्थित को प्राप्त करके वो "ॐ" अर्थात "प्रणव" का मानसिक उच्चारण करे अर्थात वो निर्गुण-निराकार परम अक्षर ब्रह्म का स्मरण करे। यही वह अवस्था है, जिसमें प्रभु को स्मरण करते हुए दसवें द्वार :- ब्रह्म रंध्र से प्राणों का विसर्जन करते हुए परमगति अर्थात निर्गुण-निराकर परमात्मा को प्राप्त करे। 
The practitioner of Yog has to divert his attention from the body and the brain, thought, ideas, organs of work and experience, so that they are comfortably placed in their position & he become motionless. The mind has to be controlled completely and forget every thing else, except the God and form a mental image of the Almighty in the heart. The bio impulses have to be concentrated in the tenth opening: the place between the eye brows called Brahm Randhr-the Ultimate opening through he scull. Having attained this state, he should start uttering-reciting "ॐ" silently-mentally. Now, he is ready-prepared to immerse in the Almighty, who is free from characteristics and form. The time is mature for him to depart the human incarnation for which he was awarded this, to assimilate in the God.
ओंकार की 19 शक्तियाँ :: सारे शास्त्र-स्मृतियों का मूल है, वेद। वेदों का मूल गायत्री है और गायत्री का मूल है, ओंकार। ओंकार से गायत्री, गायत्री से वैदिक ज्ञान और उससे शास्त्र और सामाजिक प्रवृत्तियों उत्पन्न हुईं।
तस्य वाचकः प्रणवः अर्थात ओंकार परमात्मा का वाचक है।[पतंजलि]
ॐ मन्त्र राज, अनहद नाद है। अकार, उकार, मकार और अर्धतन्मात्रा युक्त ओम अदभुत भगवन्नाम है।यह सहज में स्फुरित हो जाता है।
ॐ नमो जी आद्या वेदप्रतिपाद्या जय जय स्वसंवेद्या आत्मरूपा।परमात्मा का ओंकारस्वरूप से अभिवादन करके ज्ञानेश्वर महाराज ने ज्ञानेश्वरी गीता का प्रारम्भ किया।
ॐ सबसे उत्कृष्ट मंत्र है।[धन्वंतरी]
प्रणवः मंत्राणां सेतुः।अर्थात यह प्रणव मंत्र सारे मंत्रों का सेतु है।[भगवान् वेदव्यास]
ओंकार मंत्र का छंद गायत्री है, इसके देवता परमात्मा स्वयं है और मंत्र के ऋषि भी ईश्वर ही हैं।मंत्र के ऋषि, देवता, छंद, बीज और कीलक होते हैं। इस विधि को जानकर गुरुमंत्र देने वाले सदगुरु मिल जायें और उसका पालन करने वाला सतशिष्य मिल जाये तो साधना से सिद्धि सुगम और सहज है।
भगवान की रक्षण शक्ति, गति शक्ति, कांति शक्ति, प्रीति शक्ति, अवगम शक्ति, प्रवेश अवति शक्ति आदि 19 शक्तियाँ ओंकार में हैं। इसका आदर से श्रवण करने से मंत्रजापक को बहुत लाभ होता है ऐसा संस्कृत के जानकार पाणिनी मुनि ने बताया है।
आचार्य पाणिनी के सभी संगी साथी ज्ञान प्राप्त करके गुरु के आश्रम से चले गए परन्तु वे स्नातक नहीं बन पाये। गुरु के निर्देशानुसार उन्होंने भगवान् शिवजी की आराधना-उपासना-ध्यान करके शिवमंत्र जप किया।परिणाम स्वरूप उन्हें सिद्धि की प्राप्ति हुई और संस्कृत के विद्वान हो गए और उन्होंने संस्कृत व्याकरण की रचना की।
(1). रक्षण शक्ति :- प्रणव (ॐ) सहित मंत्र का जप करने से पुण्य की रक्षा और पापों का नाश होता है। आपदा-दुर्घटना-संकट में रक्षा होती है। मंत्रोपचार में मन्त्र का प्रारम्भ ओम से करें और समापन नमः, फट, स्वाहा आदि से।
(2). गति शक्ति :- जो विद्यार्थी-साधक योग, ज्ञान, ध्यान में मन नहीं लगा पाते, उदासीनता का अनुभव करते हैं, किंकर्तव्यविमूढ़ महसूस करते हैं वो ओम ऐम नमः का जाप करे।
(3). कांति शक्ति :- मंत्र जाप से जापक के कुकर्म, अनिष्टकारी संस्कार नष्ट होने लगते हैं, चित्त, आभा, मति, व्यवहार उज्जवल होने लगते हैं।
(4). प्रीति शक्ति :- मंत्र के नियमित जप, अभ्यास, साधना से मंत्र के देवता, ऋषि प्रसन्न होकर मंत्र की सामर्थ्य और प्रीति बढ़येंगे।
(5). तृप्ति शक्ति :- अंतरात्मा में तृप्ति-संतोष-आत्मविश्वास बढ़ेगा। गुरुमंत्र सिद्धि से वाणी में सामर्थ्य बढ़ेगी। भगवत् प्रेम उत्पन्न होगा और बढ़ेगा। श्रवण कर्ता तृप्त हो जायेगा।
(6). अवगम शक्ति :- मंत्र जाप से सम्मुख व्यक्ति के मनोभावों को जानने की शक्ति विकसित हो जाती है। मनुष्य अंतर्यामी बन सकता है। योग वाशिष्ठ महापुराण में एक कथा आती है, जिसमें दीर्घतपा के पुत्र पावन को माता-पिता की मृत्यु पर उनके लिए शोक करते देखकर, उसके बड़े भाई पुण्यक ने उसे उसके पूर्वजन्मों के बारे में बताया था।
(7). श्रवण शक्ति :- मंत्र जाप के प्रभाव से साधक सूक्ष्मतम, गुप्ततम शब्दों का श्रोता बन जाता है। शुकदेव जी महाराज ने महाराज परीक्षित के लिए सत्संग शुरु किया तो देवता आये। शुकदेवजी ने उन देवताओं से बात की।
(8). स्वाम्यर्थ शक्ति :- नियामक और शासन का सामर्थ शक्ति को विकसित करता है, प्रणव का जाप।
(9). याचन शक्ति :- याचना की लक्ष्यपूर्ति का सामर्थ देनेवाला मंत्र।
(10). क्रिया शक्ति :- निरन्तर क्रियारत रहने की क्षमता, क्रियारत रखने वाली चेतना का विकास।
(11). इच्छित अवति शक्ति :- ॐ स्वरूप परब्रह्म परमात्मा स्वयं तो निष्काम है, किंतु उसका जप करने वाले में सामने वाले व्यक्ति का मनोरथ पूरा करने का सामर्थ आ जाती है। इसीलिए वजह से याचक साधु-संतों के चरणों में लोग मत्था टेकते हैं, कतार लगाते हैं, प्रसाद धरते हैं, आशीर्वाद माँगते हैं।
इच्छित अवन्ति शक्ति अर्थात् निष्काम परमात्मा स्वयं शुभेच्छा का प्रकाशक बन जाता है।
(12). दीप्ति शक्ति :- ओंकार जपने वाले के हृदय में ज्ञान का प्रकाश बढ़ने से उसकी दीप्ति शक्ति विकसित हो जायेगी।
(13). वाप्ति शक्ति:- साधक-जापक की सूक्ष्म से सूक्ष्म अणु में व्याप्त चेतना का अहसास हो जायेगा और चैतन्यस्वरूप ब्रह्म के साथ एकत्व की प्राप्ति हो जायेगी।
(14). आलिंगन शक्ति :- अपने पन का विकास होगा। आत्मीयता बढ़ेगी। पराये भी अपने हो जायेंगे।
(15). आत्मरक्षा और दुष्ट दलन शक्ति :- ओंकार का जप करने वाला अपनी रक्षा करने और दुष्टों का नाश करने में समर्थ हो जायेगा।अन्दर का अज्ञान दूर होगा तामसिक प्रवृति से मुक्ति प्राप्त होगी। सात्विक प्रवृतियों का विकास होगा।
(16). दान शक्ति :- साधक-जापक पुष्टि और वृद्धि का दाता बन जायेगा। याचना-माँगने करने की बजाये वो खुद डेटा बन जायेगा।
(17). भोग शक्ति :- इन्द्रियाँ-अंग पुष्ट होंगे। गृहस्थ जीवन मधुर-प्रणय से भरपूर रहेगा सामर्थ बढ़ेगी।
(18). वृद्धि शक्ति :- साधक प्रकृति वर्धक बनेगा उसमें संरक्षक शक्ति का विकास होगा।
(19). सहन शक्ति :- जिस प्रकार प्रलय स्थूल जगत को अपने में लीन करता है, उसी प्रकार साधक अपनी सहन शक्ति के विकसित होने पर दुःखों, चिंताओं, भयों को अपने में लीन करने की सामर्थ प्राप्त कर लेता अर्थात उन पर विजय प्राप्त कर लेता है।

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