Monday, October 21, 2024

श्री कृष्ण शरणाष्टक स्तोत्र

श्री कृष्ण शरणाष्टक
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
श्री कृष्ण शरणाष्टक स्तोत्र भगवान् श्री कृष्ण को समर्पित है। इस स्तोत्र में भगवान् श्री कृष्ण से सुख और शांति प्रदान करने की प्रार्थना की जाती है। श्री कृष्ण शरणाष्टक स्तोत्र  में व्यक्ति अपनी बुरी आदतों का उल्लेख करता है और भगवान् श्री कृष्ण से सही मानसिकता और मार्ग दर्शन देने के लिए प्रार्थना करता है।
सर्वसाधनहीनस्य पराधीनस्य सर्वतः।
पापपीनस्य दीनस्य श्रीकृष्णः शरणं मम॥1॥
मैं सर्वोच्च भगवान् श्री कृष्ण के चरण कमलों की शरण लूंगा, मेरे पास आजीविका का कोई साधन नहीं है और मैं हमेशा दूसरों पर निर्भर रहता हूँ, मैंने कई पाप किए हैं और मैं दयनीय स्थिति में हूँ।
संसारसुखसम्प्राप्तिसन्मुखस्य विशेषतः।
वहिर्मुखस्य सततं श्रीकृष्णः शरणं मम॥2॥
हे श्री कृष्ण! मैं आपके चरण कमलों में शरण लूंगा, मैं सांसारिक इच्छाओं में डूबा हुआ हूँ और हमेशा उदासीन रहा हूँ।
सदा विषयकामस्य देहारामस्य सर्वथा।
दुष्टस्वभाववामस्य श्रीकृष्णः शरणं मम॥3॥
हे श्री कृष्ण! मैं आपके चरण कमलों में समर्पण कर दूंगा, मैं हमेशा सांसारिक मामलों में रहा हूँ और आकर्षक युवा महिलाओं की संगति में अत्यधिक आनंद लेता हूँ, मैं हमेशा धोखेबाज और दुष्ट रहा हूंँ।
संसारसर्वदुष्टस्य धर्मभ्रष्टस्य दुर्मतेः।
लौकिकप्राप्तिकामस्य श्रीकृष्णः शरणं मम॥4॥
हे श्री कृष्ण! मैं आपके चरण कमलों में शरण लूंगा, मैं सभी दुष्ट कर्मों में लगा हुआ हूँ, मैंने अपनी अशुद्ध बुद्धि के कारण कोई भी धर्म कर्म नहीं किया है, मैं भौतिक सुखों के संग्रह के पीछे भागता रहा हूँ।
विस्मृतस्वीयधर्मस्य कर्ममोहितचेतसः।
स्वरूपज्ञानशून्यस्य श्रीकृष्णः शरणं मम॥5॥
हे श्री कृष्ण! मैं आपके चरण कमलों में समर्पण कर दूंगा, मैं अपने स्वधर्म-कर्तव्यों, उत्तरदायित्वों और निभाए जाने वाले संस्कारों को पूरी तरह से भूल गया हूँ और मेरे मन में धार्मिक अनुष्ठान का पालन करने का कोई शुद्ध विचार नहीं है, मैं आत्म-बोध से अनभिज्ञ हूँ।
संसारसिन्धुमग्नस्य भग्नभावस्य दुष्कृतेः।
दुर्भावलग्नमनसः श्रीकृष्णः शरणं मम॥6॥
हे श्री कृष्ण! मैं आपके कमल चरणों में समर्पण करूंगा, मैं पूरी तरह से सांसारिक अस्तित्व के सागर में डूब गया हूँ, मैं अपने अनियंत्रित कृत्यों के कारण टूट गया हूँ, विचलित हो गया हूँ, परेशान हो गया हूँ, निराश हो गया हूँ।
विवेकधैर्यभक्त्यादिरहितस्य निरन्तरम्।
विरुद्धकरणासक्तेः श्रीकृष्णः शरणं मम॥7॥
हे श्री कृष्ण! मैं आपके चरण कमलों में शरण लूंगा, मैं शुद्ध बुद्धि, साहस, भक्ति के बिना और अनैतिक कार्यों में लिपटा हुआ भटक रहा हूँ।
विषयाक्रान्तदेहस्य वैमुख्यहृतसन्मतेः।
इन्द्रियाश्वगृहितस्य श्रीकृष्णः शरणं मम॥8॥
हे श्री कृष्ण! मैं आपके कमल चरणों में समर्पण करूंगा, मैं शारीरिक सुख की तलाश में डूबा हुआ हूं, और इसलिए मैंने नेक दिमाग वाले लोगों के साथ रहने से इनकार कर दिया है, मुझ पर कामुक सुखों का शासन है।
एतदष्टकपाठेन ह्येतदुक्तार्थभावनात्।
निजाचार्यपदाम्भोजसेवको दैन्यमाप्नुयात्॥9॥
हे श्री कृष्ण! मैं आपके कमल चरणों में आत्मसमर्पण करूंगा, उपरोक्त श्लोकों का पाठ, गुरु के चरण कमलों में भक्ति और निस्वार्थ सेवा से सभी प्रकार के संकट और पीड़ाएं दूर हो जाएंगी।
(इति हरिदासवर्यविरचितं श्रीकृष्णशरणाष्टकम् सम्पूर्णम्)
 
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)
skbhardwaj1951@gmail.com

Sunday, October 20, 2024

देवी छिन्नमस्ता स्तोत्र

 
देवी छिन्नमस्ता स्तोत्र
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
आनन्दयित्रि परमेश्वरि वेदगर्भे मातः पुरन्दरपुरान्तरलब्धनेत्रे।
लक्ष्मीमशेषजगतां परिभावयन्तः सन्तो भजन्ति भवतीं धनदेशलब्ध्यै॥1॥
लज्जानुगां विमलविद्रुमकान्तिकान्तां कान्तानुरागरसिकाः परमेश्वरि त्वाम्।
ये भावयन्ति मनसा मनुजास्त एते सीमन्तिनीभिरनिशं परिभाव्यमानाः॥2॥ 
मायामयीं निखिलपातककोटिकूटविद्राविणीं भृशमसंशयिनो भजन्ति।
त्वां पद्मसुन्दरतनुं तरुणारुणास्यां पाशाङ्कुशाभयवराद्यकरां वरास्त्रैः॥3॥
ते तर्ककर्कशधियः श्रुतिशास्त्रशिल्पैश्छन्दो ऽ भिशोभितमुखाः सकलागमज्ञाः।सर्वज्ञलब्धविभवाः कुमुदेन्दुवर्णां ये वाग्भवे च भवतीं परिभावयन्ति॥4॥
वज्रपणुन्नहृदया समयद्रुहस्ते वैरोचने मदनमन्दिरगास्यमातः।
मायाद्वयानुगतविग्रहभूषिताऽसि दिव्यास्त्रवह्निवनितानुगताऽसि धन्ये॥5॥
वृत्तत्रयाष्टदलवह्निपुरःसरस्य मार्तण्डमण्डलगतां परिभावयन्ति।
ये वह्निकूटसदृशीं मणिपूरकान्तस्ते कालकण्टकविडम्बनचञ्चवः स्युः॥6॥
कालागरुभ्रमरचन्दनकुण्डगोल- खण्डैरनङ्गमदनोद्भवमादनीभिः। 
सिन्दूरकुङ्कुमपटीरहिमैर्विधाय सन्मण्डलं तदुपरीह यजेन्मृडानीम्॥7॥
चञ्चत्तडिन्मिहिरकोटिकरां विचेला मुद्यत्कबन्धरुधिरां द्विभुजां त्रिनेत्राम्।
वामे विकीर्णकचशीर्षकरे परे तामीडे परं परमकर्त्रिकया समेताम्॥8॥
कामेश्वराङ्गनिलयां कलया सुधांशोर्विभ्राजमानहृदयामपरे स्मरन्ति।
सुप्ताहिराजसदृशीं परमेश्वरस्थां त्वामाद्रिराजतनये च समानमानाः॥9॥
लिङ्गत्रयोपरिगतामपि वह्निचक्र पीठानुगां सरसिजासनसन्निविष्टाम्।
सुप्तां प्रबोध्य भवतीं मनुजा गुरूक्तहूँकारवायुवशिभिर्मनसा भजन्ति॥10॥ 
शुभ्रासि शान्तिककथासु तथैव पीता स्तम्भे रिपोरथ च शुभ्रतरासि मातः।
उच्चाटनेऽप्यसितकर्मसुकर्मणि त्वं संसेव्यसे स्फटिककान्तिरनन्तचारे॥11॥
त्वामुत्पलैर्मधुयुतैर्मधुनोपनीतैर्गव्यैः पयोविलुलितैः शतमेव कुण्डे।
साज्यैश्च तोषयति यः पुरुषस्त्रिसन्ध्यं षण्मासतो भवति शक्रसमो हि भूमौ॥12॥
जाग्रत्स्वपन्नपि शिवे तव मन्त्रराजमेवं विचिन्तयति यो मनसा विधिज्ञः।
संसारसागरसमृद्धरणे वहित्रं चित्रं न भूतजननेऽपि जगत्सु पुंसः॥13॥
इयं विद्या वन्द्या हरिहरविरिञ्चिप्रभृतिभिः पुरारातेरन्तः पुरमिदमगम्यं पशुजनैः।
सुधामन्दानन्दैः पशुपतिसमानव्यसनिभिः सुधासेव्यैः सद्भिर्गुरुचरणसंसारचतुरैः॥14॥
कुण्डे वा मण्डले वा शुचिरथ मनुना भावयत्येव मन्त्री संस्थाप्योच्चैर्जुहोति प्रसवसुफलदैः पद्मपालाशकानाम्।
हैमं क्षीरैस्तिलैर्वां समधुककुसुमैर्मालतीबन्धुजातीश्वेतैरब्धं सकानामपि वरसमिधा सम्पदे सर्वसिद्ध्यै॥15॥
अन्धः साज्यं समांसं दधियुतमथवा योऽन्वहं यामिनीनां मध्ये देव्यै ददाति प्रभवति गृहगा श्रीरमुष्यावखण्डा। आज्यं मांसं सरक्तं तिलयुतमथवा तण्डुलं पायसं वा हुत्वा मांसं त्रिसन्ध्यं स भवति मनुजो भूतिभिर्भूतनाथः॥16॥
इदं देव्याः स्तोत्रं पठति मनुजो यस्त्रिसमयं शुचिर्भूत्वा विश्वे भवति धनदो वासवसमः।
वशा भूपाः कान्ता निखिलरिपुहन्तुः सुरगणा भवन्त्युच्चैर्वाचो यदिह ननु मासैस्त्रिभिरपि ॥17॥
(इति श्रीशङ्कराचार्यविरचितः प्रचण्डचण्डिकास्तवराजः समाप्त।)
 
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)
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राधा कृपा कटाक्ष स्तोत्र

राधा कृपा कटाक्ष स्तोत्र
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
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मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]

राधा कृपा कटाक्ष स्तोत्र भगवान शिव द्वारा रचित और देवी पार्वती से बोली जाने वाली राधा कृपा कथा की एक बहुत शक्तिशाली प्रार्थना है। राधा कृपा कटाक्ष स्तोत्र श्री वृंदावन में सबसे प्रसिद्ध स्तोत्र है। राधा चालीसा में कहा गया है कि जब तक राधा का नाम न लिया जाए, तब तक श्रीकृष्ण का प्रेम नहीं मिलता। जगत जननी राधा को भगवान श्रीकृष्ण की अर्धांगिनी शक्ति माना गया है। इसका मतलब है राधा के कारण श्रीकृष्ण प्रसन्न होते हैं। पद्म पुराण में कहा गया है कि राधा श्रीकृष्ण की आत्मा हैं। 
राधा कृपा कटाक्ष स्तोत्र राधा रानी की दयालु पार्श्व दृष्टि के लिए एक विनम्र प्रार्थना है। जो लोग इस प्रार्थना को नियमित रूप से करते हैं, उन्हें श्री राधा-कृष्ण के चरण कमलों की प्राप्ति निश्चित है। निम्न श्लोकों में राधा जी की स्तुति में, उनके श्रृंगार,रूप और करूणा का वर्णन है। इसमें उनसे प्रश्न कर्ता बार-बार पूछता है कि राधा रानी जी अपने भक्त पर कब कृपा करेंगी?
मुनीन्द्रवृन्द वन्दिते त्रिलोकशोक हारिणि;
प्रसन्न वक्त्र पण्कजे निकुञ्ज भू विलासिनि।
व्रजेन्द्रभानु नन्दिनि व्रजेन्द्र सूनु संगते;
कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्॥1॥
समस्त मुनिगण आपके चरणों की वंदना करते हैं, आप तीनों लोकों का शोक दूर करने वाली हैं, आप प्रसन्नचित्त प्रफुल्लित मुख कमल वाली हैं, आप धरा पर निकुंज में विलास करने वाली हैं। आप राजा वृषभानु की पुत्री हैं, आप ब्रजराज नन्द किशोर श्री कृष्ण की चिरसंगिनी है, हे जगज्जननी श्री राधे माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी?
अशोक वृक्ष वल्लरी वितानमण्डप स्थिते;
प्रवालबाल पल्लव प्रभारुणांघ्रि कोमले।
वराभयस्फुरत्करे प्रभूतसम्पदालये;
कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्॥2॥
आप अशोक की वृक्ष-लताओं से बने हुए मंदिर में विराजमान हैं, आप सूर्य की प्रचंडअग्नि की लाल ज्वालाओं के समान कोमल चरणों वाली हैं, आप भक्तों को अभीष्ट वरदान, अभय दान देने के लिए सदैव उत्सुक रहने वाली हैं। आप के हाथ सुन्दर कमल के समान हैं, आप अपार ऐश्वर्य की भंङार स्वामिनी हैं, हे सर्वेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी?
अनङ्ग-रण्ग मङ्गल प्रसङ्ग भङ्गुर-भ्रुवां;
सविभ्रमं ससम्भ्रमं दृगन्त बाणपातनैः।
निरन्तरं वशीकृतप्रतीतनन्दनन्दने;
कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्॥3॥
रास क्रीड़ा के रंगमंच पर मंगलमय प्रसंग में आप अपनी बाँकी भृकुटी से आश्चर्य उत्पन्न करते हुए सहज कटाक्ष रूपी वाणों की वर्षा करती रहती हैं। आप श्री नन्द किशोर को निरंतर अपने बस में किये रहती हैं, हे जगज्जननी वृन्दावनेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी?
तडित् सुवर्ण चम्पक  प्रदीप्त गौर विग्रहे;
मुख प्रभा परास्त कोटि शारदेन्दुमण्डले।
विचित्र-चित्र सञ्चरच्चकोर शाव लोचने;
कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्॥4॥
आप बिजली के सदृश, स्वर्ण तथा चम्पा के पुष्प के समान सुनहरी आभा वाली हैं, आप दीपक के समान गोरे अंगों वाली हैं, आप अपने मुखारविंद की चाँदनी से शरद पूर्णिमा के करोड़ों चन्द्रमा को लजाने वाली हैं। आपके नेत्र पल-पल में विचित्र चित्रों की छटा दिखाने वाले चंचल चकोर शिशु के समान हैं, हे वृन्दावनेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी?
मदोन्मदाति यौवने प्रमोद मान मण्डिते;
प्रियानुराग रञ्जिते कला विलास पण्डिते।
अनन्यधन्य कुञ्जराज्य कामकेलि कोविदे;
कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्॥5॥
आप अपने चिर-यौवन के आनन्द के मग्न रहने वाली है, आनंद से पूरित मन ही आपका सर्वोत्तम आभूषण है, आप अपने प्रियतम के अनुराग में रंगी हुई विलासपूर्ण कला पारंगत हैं।आप अपने अनन्य भक्त गोपिकाओं से धन्य हुए निकुंज-राज के प्रेम क्रीड़ा की विधा में भी प्रवीण हैं, हे निकुँजेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी?
अशेष हाव-भाव धीरहीरहार भूषिते;
प्रभूतशातकुम्भ कुम्भ-कुम्भि कुम्भसुस्तनि।
प्रशस्तमन्द हास्यचूर्ण पूर्णसौख्य सागरे;
कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्॥6॥
आप संपूर्ण हाव-भाव रूपी श्रृंगारों से परिपूर्ण हैं, आप धीरज रूपी हीरों के हारों से विभूषित हैं, आप शुद्ध स्वर्ण के कलशों के समान अंगो वाली हैं, आपके पयोंधर स्वर्ण कलशों के समान मनोहर हैं। आपकी मंद-मंद मधुर मुस्कान सागर के समान आनन्द प्रदान करने वाली है, हे कृष्ण प्रिया माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी?
मृणाल वाल-वल्लरी तरङ्ग-रङ्ग दोर्लते;
लताग्र लास्य लोल-नील लोचनावलोकने।
ललल्लुलन्मिलन्मनोज्ञ मुग्ध मोहिनाश्रिते;
कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्॥7॥
जल की लहरों से कम्पित हुए नूतन कमल-नाल के समान आपकी सुकोमल भुजाएँ हैं, आपके नीले चंचल नेत्र पवन के झोंकों से नाचते हुए लता के अग्र-भाग के समान अवलोकन करने वाले हैं। सभी के मन को ललचाने वाले, लुभाने वाले मोहन भी आप पर मुग्ध होकर आपके मिलन के लिये आतुर रहते हैं ऎसे मनमोहन को आप आश्रय देने वाली हैं, हे वृषभानुनन्दनी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी?
सुवर्णमलिकाञ्चित त्रिरेख कम्बु कण्ठगे; 
त्रिसूत्र मङ्गली गुण त्रिरत्न दीप्ति दीधिते।
सलोल नीलकुन्तल प्रसून गुच्छ गुम्फिते;
कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्॥8॥
आप स्वर्ण की मालाओं से विभूषित है, आप तीन रेखाओं युक्त शंख के समान सुन्दर कण्ठ वाली हैं, आपने अपने कण्ठ में प्रकृति के तीनों गुणों का मंगलसूत्र धारण किया हुआ है, इन तीनों रत्नों से युक्त मंगलसूत्र समस्त संसार को प्रकाशमान कर रहा है। आपके काले घुंघराले केश दिव्य पुष्पों के गुच्छों से अलंकृत हैं, हे कीरति नन्दनी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी?
नितम्ब बिम्ब लम्बमान पुष्पमेखलागुणे;
प्रशस्तरत्न किङ्किणी कलाप मध्य मञ्जुले।
करीन्द्र शुण्डदण्डिका वरोहसौभगोरुके;
कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्॥9॥
हे देवी, तुम अपने घुमावदार कूल्हों पर फूलों से सजी कमरबंद पहनती हो, तुम झिलमिलाती हुई घंटियों वाली कमरबंद के साथ मोहक लगती हो, तुम्हारी सुंदर जांघें राजसी हाथी की सूंड को भी लज्जित करती हैं, हे देवी! कब तुम मुझ पर अपनी कृपा कटाक्ष (दृष्टि) डालोगी?
अनेक मन्त्रनाद मञ्जु नूपुरारव स्खलत्;
समाज राजहंस वंश निक्वणाति गौरवे।
विलोलहेम वल्लरी विडम्बिचारु चङ्क्रमे; 
कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्॥10॥
आपके चरणों में स्वर्ण मण्डित नूपुर की सुमधुर ध्वनि अनेकों वेद मंत्रो के समान गुंजायमान करने वाले हैं, जैसे मनोहर राजहसों की ध्वनि गूँजायमान हो रही है। आपके अंगों की छवि चलते हुए ऐसी प्रतीत हो रही है जैसे स्वर्णलता लहरा रही है, हे जगदीश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी?
अनन्त कोटि विष्णुलोक नम्र पद्मजार्चिते;
हिमाद्रिजा पुलोमजा विरिञ्चजा वरप्रदे।
अपार सिद्धि-ऋद्धि दिग्ध सत्पदाङ्गुली नखे;
कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्॥11॥
अनंत कोटि बैकुंठों की स्वामिनी श्री लक्ष्मी जी आपकी पूजा करती हैं, श्री पार्वती जी, इन्द्राणी जी और सरस्वती जी ने भी आपकी चरण वन्दना कर वरदान पाया है। आपके चरण-कमलों की एक उंगली के नख का ध्यान करने मात्र से अपार सिद्धि की प्राप्ति होती है, हे करूणामयी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी?
मखेश्वरि क्रियेश्वरि स्वधेश्वरि सुरेश्वरि;
त्रिवेद भारतीश्वरि प्रमाण शासनेश्वरि।
रमेश्वरि क्षमेश्वरि प्रमोद काननेश्वरि
व्रजेश्वरि व्रजाधिपे श्रीराधिके नमोस्तुते॥12॥
आप सभी प्रकार के यज्ञों की स्वामिनी हैं, आप संपूर्ण क्रियाओं की स्वामिनी हैं, आप स्वधा देवी की स्वामिनी हैं, आप सब देवताओं की स्वामिनी हैं, आप तीनों वेदों की स्वामिनी हैं, आप संपूर्ण जगत पर शासन करने वाली हैं। आप रमा देवी की स्वामिनी हैं, आप क्षमा देवी की स्वामिनी हैं, आप आमोद-प्रमोद की स्वामिनी हैं, हे ब्रजेश्वरी! हे ब्रज की अधीष्ठात्री देवी श्री राधिके! आपको मेरा बारंबार नमन है।
इती ममद्भुतं स्तवं निशम्य भानुनन्दिनी;
करोतु सन्ततं जनं कृपाकटाक्ष भाजनम्।
भवेत्तदैव सञ्चित त्रिरूप कर्म नाशनं;
लभेत्तदा व्रजेन्द्र सूनु मण्डल प्रवेशनम्॥13॥
हे वृषभानु नंदिनी! मेरी इस निर्मल स्तुति को सुनकर सदैव के लिए मुझ दास को अपनी दया दृष्टि से कृतार्थ करने की कृपा करो। केवल आपकी दया से ही मेरे प्रारब्ध कर्मों, संचित कर्मों और क्रियामाण कर्मों का नाश हो सकेगा, आपकी कृपा से ही भगवान् श्री कृष्ण के नित्य दिव्यधाम की लीलाओं में सदा के लिए प्रवेश हो जाएगा।
राकायां च सिताष्टम्यां दशम्यां च विशुद्धधीः।
एकादश्यां त्रयोदश्यां यः पठेत्साधकः सुधीः ॥14॥
यदि कोई साधक पूर्णिमा, शुक्ल पक्ष की अष्टमी, दशमी, एकादशी और त्रयोदशी के रूप में जाने जाने वाले चंद्र दिवसों पर स्थिर मन से इस स्तवन का पाठ करे तो...।
यं यं कामयते कामं तं तमाप्नोति साधकः।
राधाकृपाकटाक्षेण भक्तिःस्यात् प्रेमलक्षणा॥15॥
जो-जो साधक की मनोकामना हो वह पूर्ण हो और श्री राधा की दयालु पार्श्व दृष्टि से वे भक्ति सेवा प्राप्त करें जिसमें भगवान् के शुद्ध, परमानंद प्रेम (प्रेम) के विशेष गुण हैं।
ऊरुदघ्ने नाभिदघ्ने हृद्दघ्ने कण्ठदघ्नके।
राधाकुण्डजले स्थिता यः पठेत् साधकः शतम्॥16॥
जो साधक श्री राधा-कुंड के जल में खड़े होकर (अपनी जाँघों, नाभि, छाती या गर्दन तक) इस स्तम्भ (स्तोत्र) का 100 बार पाठ करे…।
तस्य सर्वार्थ सिद्धिः स्याद् वाक्सामर्थ्यं तथा लभेत्।
ऐश्वर्यं च लभेत् साक्षाद्दृशा पश्यति राधिकाम्॥17॥
वह जीवन के पाँच लक्ष्यों धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष और प्रेम में पूर्णता प्राप्त करे, उसे सिद्धि प्राप्त हो। उसकी वाणी सामर्थ्यवान हो (उसके मुख से कही बातें व्यर्थ न जाए) उसे श्री राधिका को अपने सम्मुख देखने का ऐश्वर्य प्राप्त हो और…।
तेन स तत्क्षणादेव तुष्टा दत्ते महावरम्।
येन पश्यति नेत्राभ्यां तत् प्रियं श्यामसुन्दरम्॥18॥
श्री राधिका उस पर प्रसन्न होकर उसे महान वर प्रदान करें कि वह स्वयं अपने नेत्रों से उनके प्रिय श्यामसुंदर को देखने का सौभाग्य प्राप्त करे।
नित्यलीला–प्रवेशं च ददाति श्री-व्रजाधिपः।
अतः परतरं प्रार्थ्यं वैष्णवस्य न विद्यते॥19॥
वृंदावन के अधिपति (स्वामी), उस भक्त को अपनी शाश्वत लीलाओं में प्रवेश दें। वैष्णव जन इससे आगे किसी चीज की लालसा नहीं रखते।
(इति श्रीराधिकाया कृपा कटाक्ष स्तोत्र सम्पूर्णम)
 
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