Sunday, August 2, 2020

होली HOLI :: FESTIVAL OF COLOURS

होली
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj

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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
होली पर्व :: इस पर्व का प्राचीनतम नाम वासन्ती नव सस्येष्टि है अर्थात् बसन्त ऋतु के नये अनाजों से किया हुआ यज्ञ, परन्तु होली होलक का अपभ्रंश है।
"तृणाग्निं भ्रष्टार्थ पक्वशमी धान्य होलक:" 
[शब्द कल्पद्रुम कोष] 
अर्धपक्वशमी धान्यैस्तृण भ्रष्टैश्च होलक: होलकोऽल्पानिलो मेद: कफ दोष श्रमापह।
[भाव प्रकाश]
तिनके की अग्नि में भुने हुए (अधपके) शमो-धान्य (फली वाले अन्न) को होलक कहते हैं। यह होलक वात-पित्त-कफ तथा श्रम के दोषों का शमन करता है।
होलिका :- किसी भी अनाज के ऊपरी पर्त को होलिका कहते हैं, जैसे :- चने का पट पर (पर्त) मटर का पट पर (पर्त), गेहूँ, जौ का गिद्दी से ऊपर वाला पर्त। इसी प्रकार चना, मटर, गेहूँ, जौ की गिदी को प्रह्लाद कहते हैं। होलिका को माता इसलिए कहते हैं कि वह चनादि का निर्माण करती (माता निर्माता भवति) यदि यह पर्त पर (होलिका) न हो तो चना, मटर रुपी प्रह्लाद का जन्म नहीं हो सकता। जब चना, मटर, गेहूँ व जौ भुनते हैं तो वह पट पर या गेहूँ, जौ की ऊपरी खोल पहले जलता है, इस प्रकार प्रह्लाद बच जाता है। उस समय प्रसन्नता से जय घोष करते हैं कि होलिका माता की जय अर्थात् होलिका रुपी पट पर (पर्त) ने अपने को देकर प्रह्लाद (चना-मटर) को बचा लिया।
स :- अधजले अन्न को होलक कहते हैं। इसी कारण इस पर्व का नाम होलिकोत्सव है और बसन्त ऋतुओं में नये अन्न से यज्ञ (येष्ट) करते हैं। इसलिए इस पर्व का नाम "वासन्ती नव सस्येष्टि" है। यथा :- वासन्तो-वसन्त ऋतु। नव-नये। येष्टि-यज्ञ। इसका दूसरा नाम "नव सम्वतसर" है। मानव सृष्टि के आदि से आर्यों की यह परम्परा रही है कि वह नवान्न को सर्वप्रथम अग्निदेव पितरों को समर्पित करते थे। तत्पश्चात् स्वयं भोग करते थे। हमारा कृषि वर्ग दो भागों में बँटा है :- (1). वैशाखी, (2). कार्तिकी। इसी को क्रमश: वासन्ती और शारदीय एवं रबी और खरीफ की फसल कहते हैं। फाल्गुन पूर्णमासी वासन्ती फसल का आरम्भ है। अब तक चना, मटर, अरहर व जौ आदि अनेक नवान्न पक चुके होते हैं। अत: परम्परानुसार पितरों देवों को समर्पित करें, कैसे सम्भव है। 
"अग्निवै देवानाम मुखं"
अग्नि देवों-पितरों का मुख है जो अन्नादि शाकल्यादि आग में डाला जायेगा। वह सूक्ष्म होकर पितरों देवों को प्राप्त होगा।
आर्यों में चातुर्य्यमास यज्ञ की परम्परा है। वेदज्ञों ने चातुर्य्यमास यज्ञ को वर्ष में तीन समय निश्चित किये हैं :- (1). आषाढ़ मास, (2). कार्तिक मास (दीपावली) (3). फाल्गुन मास (होली) यथा 
"फाल्गुन्या पौर्णामास्यां चातुर्मास्यानि प्रयुञ्जीत मुखं वा एतत सम्वत् सरस्य यत् फाल्गुनी पौर्णमासी आषाढ़ी पौर्णमासी"
फाल्गुनी पौर्णमासी, आषाढ़ी पौर्णमासी और कार्तिकी पौर्णमासी को जो यज्ञ किये जाते हैं वे चातुर्यमास कहे जाते हैं आग्रहाण या नव संस्येष्टि।
हम प्रतिवर्ष होली जलाते हैं। उसमें आखत डालते हैं, जो आखत हैं-वे अक्षत का अपभ्रंश रुप हैं, अक्षत चावलों को कहते हैं और अवधि भाषा में आखत को आहुति कहते हैं। कुछ भी हो चाहे आहुति हो, चाहे चावल हों, यह सब यज्ञ की प्रक्रिया है। हम जो परिक्रमा देते हैं यह भी यज्ञ की प्रक्रिया है। क्योंकि आहुति या परिक्रमा सब यज्ञ की प्रक्रिया है, सब यज्ञ में ही होती है। इस प्रक्रिया से सिद्ध हुआ कि यहाँ पर प्रतिवर्ष सामूहिक यज्ञ की परम्परा रही होगी इस प्रकार चारों वर्ण परस्पर मिलकर इस होली रुपी विशाल यज्ञ को सम्पन्न करते थे। हम जो गुलरियाँ बनाकर अपने-अपने घरों में होली से अग्नि लेकर उन्हें जलाते हो। यह प्रक्रिया छोटे-छोटे हवनों की है। सामूहिक बड़े यज्ञ से अग्नि ले जाकर अपने-अपने घरों में हवन करते थे। बाहरी वायु शुद्धि के लिए विशाल सामूहिक यज्ञ होते थे और घर की वायु शुद्धि के लिए छोटे-छोटे हवन करते थे दूसरा कारण यह भी था।
"ऋतु सन्धिषु रोगा जायन्ते" 
ऋतुओं के मिलने पर रोग उत्पन्न होते हैं, उनके निवारण के लिए यह यज्ञ किये जाते थे। यह होली शिशिर और बसन्त ऋतु का योग है। रोग निवारण के लिए यज्ञ ही सर्वोत्तम साधन है। अब होली प्राचीनतम वैदिक परम्परा के आधार पर समझ गये होंगे कि होली नवान्न वर्ष का प्रतीक है।
हिरण्यकशिपु और होलिका कथा :: होलिका हिरण्य कश्यपु नाम के राक्षस की बहिन थी। उसे यह वरदान था कि वह आग में नहीं जलेगी। हिरण्यकश्यपु का प्रह्लाद नाम का आस्तिक पुत्र विष्णु की पूजा करता था। वह उसको कहता था कि तू विष्णु को न पूजकर मेरी पूजा किया कर। जब वह नहीं माना तो हिरण्यकश्यपु ने होलिका को आदेश दिया कि वह प्रह्लाद को आग में लेकर बैठे। वह प्रह्लाद को आग में गोद में लेकर बैठ गई, होलिका जल गई और प्रह्लाद बच गया। होलिका की स्मृति में होली का त्यौहार मनाया जाता है जो नितान्त मिथ्या है।इसलिए आओ सब मिलकर अपने इस पवित्र पर्व को इसके वास्तविक स्वरूप मे मनाये।
दैत्यों के आदि पुरुष कश्यप और उनकी पत्नी दिति के दो पुत्र हुए। हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष। हिरण्यकशिपु ने कठिन तपस्या द्वारा ब्रह्मा जी को प्रसन्न करके यह वरदान प्राप्त कर लिया कि न वह किसी मनुष्य-पशु द्वारा, न दिन में-न रात में, न घर के अंदर -न बाहर, न किसी अस्त्र के प्रहार से और न किसी शस्त्र के प्रहार से, उसके प्राणों को कोई डर रहेगा। इस वरदान ने उसे अहंकारी-स्वेच्छाचारी बना दिया और वह अपने को अमर समझने लगा। उसने देव राज इंद्र से स्वर्ग छीन लिया और वह तीनों लोकों को प्रताड़ित करने लगा। वह चाहता था कि सब लोग उसे ही भगवान् मानें और उसकी पूजा करें। उसने अपने राज्य में भगवान् श्री हरी विष्णु की पूजा को वर्जित कर दिया। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद, भगवान् श्री हरी विष्णु का परम् भक्त था। यातनाओं एवं प्रताड़ना के बावजूद वह भगवान् श्री हरी विष्णु की पूजा करता रहा। क्रोधित होकर हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन होलिका से कहा कि वह अपनी गोद में प्रह्लाद को लेकर प्रज्ज्वलित अग्नि में प्रवेश करे, क्योंकि होलिका को वरदान था कि वह अग्नि में नहीं जलेगी। जब होलिका ने प्रह्लाद को लेकर अग्नि में प्रवेश किया तो प्रह्लाद का बाल भी बाँका न हुआ, मगर होलिका जलकर राख हो गई। अन्तिम प्रयास में हिरण्यकशिपु ने लोहे के एक खंभे को गर्म कर लाल कर दिया तथा प्रह्लाद को उसे गले लगाने को कहा। एक बार फिर भगवान् श्री हरी विष्णु प्रह्लाद को उबारने आए। वे खंभे से नरसिंह के रूप में प्रकट हुए तथा हिरण्यकशिपु को महल के प्रवेश द्वार की चौखट पर, जो न घर का बाहर था न भीतर, गोधूलि बेला में, जब न दिन था न रात, आधा मनुष्य, आधा पशु जो न नर था न पशु, ऐसे नरसिंह के रूप में अपने लंबे तेज़ नाखूनों से जो न अस्त्र थे न शस्त्र, मार डाला। इस प्रकार हिरण्यकश्यप अनेक वरदानों के बावजूद अपने दुष्कर्मों के कारण भयानक अंत को प्राप्त हुआ। [विष्णुपुराण]
प्राचीन काल में ढुंढा अथवा ढौंढा नामक राक्षसी एक गाँव में घुसकर बालकों को कष्ट देती थी। वह रोग एवं व्याधि निर्माण करती थी। उसे गांव से निकालने हेतु लोगों ने बहुत प्रयत्न किए। परन्तु वह जाती ही नहीं थी। अंत में लोगों ने सर्वत्र अग्नि जलाकर उसे डराकर भगा दिया। वह भयभीत होकर गाँव से भाग गई। [भविष्यपुराण]
होली भी संक्रान्ति के समान देवी हैं। षड्विकारों पर विजय प्राप्त करने की क्षमता होलिका देवी में है। विकारों पर विजय प्राप्त करने की क्षमता प्राप्त करने के लिये होलिका देवी से प्रार्थना की जाती है। इसलिए होली को उत्सव के रूप में मनाते हैं।
होली भी अग्निदेव की उपासना का ही एक अंग है। अग्निदेव की उपासना से व्यक्ति में तेजत्त्व बढ़ता है। होली के दिन अग्निदेव का तत्त्व 2% कार्य रत रहता है। इस दिन अग्निदेव की पूजा करने से जातक को तेजत्त्व का लाभ होता है। इससे व्यक्ति में से रज-तम की मात्रा घटती है। होली के दिन किए जाने वाले यज्ञों के कारण प्रकृति मानव के लिए अनुकूल हो जाती है। इससे समय पर एवं अच्छी वर्षा होने के कारण सृष्टि संपन्न बनती है। इसीलिए होली के दिन अग्निदेव की पूजा कर उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जाती है। घरों में सुबह पूजा की जाती है। सार्वजनिक रूप से मनाई जाने वाली होली रात में मनाई जाती है।
पृथ्वी, आप, तेज, वायु एवं आकाश इन पञ्च तत्त्वों की सहायता से देवत्त्व को पृथ्वी पर प्रकट करनेके लिए यज्ञ ही एक माध्यम है। जब पृथ्वी पर एक भी स्पंदन नहीं था, उस मन्वान्तर के प्रथम त्रेता युग में पञ्च  तत्त्वों में विष्णु तत्त्व प्रकट होने का समय आया। तब परमेश्वर द्वारा एक साथ सात ऋषि-मुनियों को स्वपन् दृष्टांत में यज्ञ के बारे में ज्ञान हुआ। उन्होंने यज्ञ की तैयारियाँ प्रारम्भ कीं। देव ऋषि नारद के मार्ग दर्शनानुसार यज्ञ का शुभारम्भ हुआ। मंत्र घोष के साथ सबने विष्णु तत्त्व का आवाहन किया। यज्ञ की ज्वालाओं के साथ यज्ञ कुण्ड में विष्णु तत्त्व प्रकट होने लगा। इससे पृथ्वी पर विद्यमान अनिष्टकारी शक्तियों को कष्ट होने लगा। उनमें भगदड़ मच गई। उन्हें अपने कष्ट का कारण समझ में नहीं आ रहा था। धीरे-धीरे भगवान् श्री हरी विष्णु पूर्ण रूप से प्रकट हुए। ऋषि-मुनियोंके साथ वहाँ उपस्थित सभी भक्तों को भगवान् श्री हरी विष्णु के दर्शन हुए। उस दिन फाल्गुन पूर्णिमा थी। इस प्रकार त्रेता युग के प्रथम यज्ञ के स्मरण में होली मनाई जाती है।
होली का महत्व मनुष्य के व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन के साथ ही साथ नैसर्गिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक कारणों से भी है। यह बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है। यह दुष्प्रवृत्ति एवं अमंगल विचारों का नाश कर, सद्प्रवृत्ति का मार्ग दिखाने वाला यह उत्सव है। यह अनिष्टकारी शक्तियों को नष्ट कर ईश्वरीय चैतन्य प्राप्त करने का अवसर है। आध्यात्मिक साधना में अग्रसर होने हेतु बल प्राप्त करने का यह अवसर है। यह उत्सव वसंत ऋतु के शुभागमन हेतु मनाया जाता है। इस त्यौहार के माध्यम से अग्निदेव के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जाती है।
होली प्रदीपन पद्धति :: होली का उत्सव मनाने की तैयारी महीने भर पहले से ही आरम्भ हो जाती है। इसमें बच्चे घर-घर जाकर लकडियाँ इकट्ठी करते हैं। पूर्ण मासी को होली की पूजा से पूर्व उन लकडियों की विशिष्ट पद्धति से रचना की जाती है। तत्पश्चात उसकी पूजा की जाती है। पूजा करनेके उपरान्त उसमें अग्नि प्रदीप्त-प्रज्वलित की जाती है। 
होली रखना :: 
आवश्यक सामग्री :: अरण्ड का पेड़, नारियल का वृक्ष-तना अथवा सुपारी के वृक्ष का तना अथवा तैयार गन्ना। गन्ने के टुकड़े न करें। गाय के गोबर के उपले और लकड़ियाँ।
सामान्यत: ग्राम देवता के देवालय के सामने होली रखी और जलाई जाती है। अन्य सुविधा जनक स्थान का निषेध नहीं है। जिस स्थान पर होली जलानी हो, उस स्थान पर सूर्यास्त के पूर्व झाड़ू लगाकर स्वच्छ करें। गाय के गोबर से चौका लगायें। अरण्डी का पेड, नारियल अथवा सुपारी के पेड़ के तने को बीचों बीच गाढ़ें। उसके चारों ओर उपलों एवं लकड़ियों की शंकुआकार रचना करें। उस स्थान पर रंगोली बनायें। होली की ऊँचाई 6 फुट के लगभग रखें। 
होली का शंकुआकार इच्छा शक्ति का प्रतीक है। इस रचना में घनी भूत होने वाला अग्नि स्वरूपी तेजत्त्व भूमण्डल पर आच्छादित होता है। इससे भूमि को लाभ होता है। इसके साथ ही पाताल से भूगर्भ की दिशा में प्रक्षेपित कष्ट दायक स्पंदनों से भूमि की रक्षा होती है।
होली की इस रचना में घनी भूत तेज के अधिष्ठान के कारण भूमंडल में विद्यमान स्थान देवता, वास्तु देवता एवं ग्राम देवता जैसे क्षुद्र देवताओं के तत्त्व जागृत होते हैं। इससे भूमण्डल में विद्यमान अनिष्ट शक्तियों के उच्चाटन का कार्य सहजता से साध्य होता है।
शंकु के आकार में घनीभूत अग्नि रूपी तेज के सम्पर्क में आने वाले व्यक्ति की मन शक्ति जागृत होने में सहायता होती है। इससे उनकी कनिष्ठ स्वरूप की मनोकामना पूर्ण होती है एवं व्यक्ति को इच्छित फलप्राप्ति होती है।
होली के कारण साधारणतः मध्य वायु मण्डल एवं भूमि के पृष्ठ भाग के निकट का वायु मण्डल शुद्ध होने की सम्भावना ज्यादा रहती है। होली में यज्ञ सामग्री, घी, तिल जौ, कपूर, सुपारी आदि पदार्थ वायु मण्डल में विषाणुओं का नाश करते हैं और वायु में उपस्थित हानि कारक पदार्थों को अपने साथ लेकर भूमि पर गिरते हैं। 
होली की ऊँचाई पुरुष जितनी होने से होली द्वारा प्रक्षेपित तेज की तरंगों के कारण उर्ध्व दिशा का वायु मण्डल शुद्ध बनता है। तत्पश्चात् यह ऊर्जा जड़त्व धारण करती है एवं मध्य वायु मण्डल तथा भूमि के पृष्ठ भाग के निकट के वायु मण्डल में घनी भूत होने लगती है। इसी कारण से होलीकी ऊँचाई साधारणतः छः फुट होनी चाहिए। इससे शंकु स्वरूप रिक्ति में तेज की तरंगें घनी भूत होती हैं एवं मध्य मण्डल में उससे आवश्यक ऊर्जा निर्मित होती है।
गन्ना प्रवाही रजो गुणी तरंगों का प्रक्षेपण करने में अग्रसर होता है। इसके सामीप्य के कारण होली में विद्यमान शक्ति रूपी तेज तरंगें प्रक्षेपित होने में सहायता मिलती है। गन्ने का तना होली में घनी भूत हुए अग्नि रूपी तेजत्त्व को प्रवाही बनाता है एवं वायु मण्डल में इस तत्त्व का फव्वारे के समान प्रक्षेपण करता है। यह रजो गुण युक्त तरंगों का फव्वारा परिसर में विद्यमान रज-तमात्मक तरंगों को नष्ट करता है। इस कारण वायु मण्डल की शुद्धि होने में सहायता मिलती है। गन्ने में मौजूद मिठास अग्नि प्रज्वलित करने में सहायक है।  
अरण्ड से निकलने वाले धूँए के कारण अनिष्ट शक्तियों द्वारा वातावरण में प्रक्षेपित की गई दुर्गन्ध युक्त वायु नष्ट होती है।
मूलतः रजो गुण धारण करना यह सुपारी की विशेषता है। इस रजो गुण की सहायता से होली में विद्यमान तेजत्त्व की कार्य करने की क्षमता में वृद्धि होती है।
गाय के शरीर में 33 करोड देवताओं का वास होता है। ब्रह्माण्ड में विद्यमान सभी देवताओं के तत्त्व तरंगों को आकृष्ट करने की अत्यधिक क्षमता गाय में होती है। इसीलिए उसे गौ माता कहते हैं। यही कारण है कि गौ मातासे प्राप्त सभी वस्तुएं भी उतनी ही सात्त्विक एवं पवित्र होती हैं। गोबर से बनाए उपलों में से 5% सात्त्विकता का प्रक्षेपण होता है, तो अन्य उपलों से प्रक्षेपित होने वाली सात्त्विकता का प्रमाण केवल 2% प्रतिशत ही रहता है। अन्य उपलों में अनिष्ट शक्तियों की शक्ति आकृष्ट होनेकी संभावना भी होती है। इससे व्यक्ति की ओर कष्ट दायक शक्ति प्रक्षेपित हो सकती है। कई स्थानों पर लोग होलिका पूजन षोडशोपचारों के साथ करते हैं। यदि यह सम्भव न हो, तो न्यूनतम पंचोपचार पूजन तो अवश्य करना चाहिए।
होलिका-पूजन एवं प्रदीपन हेतु आवश्यक सामग्री :: पूजा की थाली, हल्दी-कुमकुम, चन्दन, फूल, तुलसी दल, अक्षत, अगरबत्ती, फूलबाती, निरांजन, कर्पूर, , दिया सलाई, कलश, आचमनी, पंच पात्र, ताम्र पात्र, घंटा, समई, तेल एवं बाती, मीठी रोटी का नैवेद्य परोसी थाली, गुड़ डालकर बनाइ बिच्छू के आकार की पूरी अग्नि को समर्पित करने के लिए। 
सूर्यास्त के समय पूजन कर्ता शूचिर्भूत होकर होलिका पूजनके लिए सिद्ध हों। पूजक पूजा स्थानपर रखे पीढ़े पर बैठें। उसके पश्चात आचमन करें। अब होलिका पूजन का निम्न संकल्प करें :-
काश्यप गोत्रे उत्पन्नः विनायक शर्मा अहं। मम सपरिवारस्य श्रीढुंढाराक्षसी प्रीतिद्वारा तत्कर्तृक सकल पीडा परिहारार्थं तथाच कुलाभिवृद्ध्यर्थंम्। श्रीहोलिका पूजनम् करिष्ये।
काश्यप के स्थान पर अपना गौत्र नाम उच्चारित करें।  
अब चन्दन  एवं पुष्प चढ़ाकर कलश, घंटी तथा दीपपूजन करें। तुलसी के पत्ते से संभार प्रोक्षण अर्थात पूजा साहित्य पर प्रोक्षण करें। अब कर्पूर की सहायता से होलिका प्रज्वलित करें। होलिका पर चन्दन चढायें। होलिका पर हल्दी चढायें। कुमकुम चढाकर पूजन आरम्भ करें।
पुष्प चढाएं। अगरबत्ती दिखाएं। दीप दिखाएं।
होलिका को मीठी रोटी का नैवेद्य प्रदीप्त होली में अर्पित करें। दूध एवं घी एकत्रित कर उसका प्रोक्षण करे। होलिका की तीन परिक्रमा करें। परिक्रमा पूर्ण होने पर मुँह पर उलटे हाथ रखकर ऊँचे स्वर में चिल्लाएं। गुड़ एवं आटे से बने बिच्छू आदि कीटक मंत्र पूर्वक अग्नि में समर्पित करें। सब मिलकर अग्नि के भय से रक्षा होने हेतु प्रार्थना करें।
कई स्थानों पर होली के शान्त होने से पूर्व इकट्ठे हुए लोगों में नारियल, चकोतरा जैसे फल बाँटे जाते हैं। सामान्यतया होली पूजन करने वाले श्रद्धालु मूँगफली और रेवड़ी बाँटते हैं। मिठाईयाँ भी वितरित की जाती हैं। कई स्थानों पर सारी रात नृत्य-गायन में व्यतीत की जाती है।
होली पूजन के समय पुजारी और जातक दोनों की ओर ईश्वरीय चैतन्य शक्ति-ऊर्जा का प्रवाह होता है। पूजा भली-भाँति ग्रहण करने से इसका लाभ प्राप्त होता है।
मंत्र पठन करते समय पुजारी और जातक दोनों का ईश्वर से सायुज्य होता है। इससे मंत्र पठन भाव पूर्ण रीति से होने के लिए ईश्वरीय शक्ति का प्रवाह उनकी ओर होता है। इसके कारण पूजा विधि के लिए भी शक्ति प्राप्त होती है।
होली की पूजा करते समय पूजक एवं पुरोहित दोनों के आज्ञा चक्र के स्थान पर एकाग्रता एवं सेवा भाव का प्रकाश पुँज-गोला निर्माण होता है।
पुरोहित द्वारा बताए अनुसार पूजक मंत्रोच्चार करता है। इस मंत्रोच्चारके कारण दोनों के आज्ञा चक्र के स्थान पर मंत्र शक्ति का कार्यरत वलय निर्माण होता है।
पूजा करते समय दोनों में सात्विक भाव का वलय निर्माण होता है।
सात्त्विक पुरोहित में प्रार्थना एवं गुरु कृपा का गोला निर्माण होता है। इस कारण वे सेवा कर पाते हैं एवं उन्हें सात्त्विकता का अधिक लाभ प्राप्त होता है।
मंत्र पठन एवं होली में प्रयुक्त उचित प्रकार के वृक्षों की लकड़ियों के कारण सात्त्विक पुरोहित में शक्ति का वलय कार्यरत होता है एवं उससे वातावरण में शक्ति का प्रक्षेपण होता है।
दोनों के देह की शुद्धि होती है एवं उनके चारों ओर ईश्वरीय शक्ति का सुरक्षा कवच निर्माण होता है।
पूजा में प्रकट हुई शक्ति के कारण होली के सभी ओर भूमि के समानान्तर शक्ति का एवं चैतन्य का वलय निर्माण होता है।
होली प्रज्वलित करने के लिए पूजक-जातक द्वारा हाथ में लिए प्रदिप्त अर्थात जलाते हुए कर्पूर में तेजत्व का वलय निर्माण होता है। उससे चमकीले कणोंका वातावरण में प्रक्षेपण होता है।
अग्नि द्वारा शक्ति का वलाय निर्माण होता है तथा उससे शक्ति की तरंगे होली की रचना की ओर प्रक्षेपित होती हैं।
प्रदिप्त कर्पूरमें मंत्र शक्ति का वलय भी निर्माण होता है तथा उसके द्वारा मंत्र शक्ति की तरंगें होली की ओर प्रक्षेपित होती हैं।
मंत्र शक्ति की बाहरी ओर चैतन्य का वलय निर्माण होता है। उससे होली की रचना की ओर चैतन्यता की तरंगों का प्रक्षेपण होता है।
होली प्रदीपन करते समय अग्नि में विद्यमान शक्ति प्रवाह के रूप में पूजक को प्राप्त होती है।
पूजक के चारों ओर तेजत्त्व का, शक्ति का एवं चैतन्य का सुरक्षा कवच निर्माण होता है।
होली की रचना में सगुण शक्ति एवं सगुण चैतन्य के वलय निर्माण होते है। इन वलयों द्वारा शक्ति के तथा चैतन्य के प्रवाहों का वातावरण में प्रक्षेपण होता है। कुछ मात्रा में शक्ति के वलयों का भी वातावरण में प्रक्षेपण होता है। यह प्रक्षेपण आवश्यकता के अनुसार कभी तीव्र गति से, तो कभी धीमी गति से होता है।
होली में अग्नि प्रदीप्त करते समय बीच में रखे गन्ने की ऊपरी नोंक में ईश्वरीय शक्ति एवं चैतन्यके प्रवाह आकृष्ट होते हैं। इन प्रवाहों द्वारा शक्ति एवं चैतन्य के कार्य रत वलयों का निर्माण होता है। इन वलयों द्वारा वातावरण में शक्ति एवं चैतन्य के प्रवाह प्रक्षेपित होते हैं।
इन कार्यरत वलयों द्वारा चैतन्य का सर्पिलाकार प्रवाह होली की रचना की ओर आकृष्ट होता है। वातावरण में शक्ति के समानान्तर वलय उर्ध्व दिशा में प्रसारित होते हैं।
शक्ति एवं चैतन्य के भूमि से समानान्तर वलय अधो दिशा में प्रसारित होते हैं। शक्ति एवं चैतन्य का प्रक्षेपण उर्ध्व तथा अधो दिशा में होने से सभी दिशाओं की अनिष्ट कारी शक्तियाँ नष्ट होती हैं। होली से तेजत्वात्मक मारक शक्ति के कणों-तरंगों का वातावरण में प्रक्षेपण होता है। इससे वातावरण में विद्यमान अनिष्ट कारी शक्तियांँ नष्ट होती हैं। इस शक्ति के कारण वहाँ उपस्थित व्यक्तियों पर आध्यत्मिक प्रभाव उत्पन्न होता है।  
होलिका देवी को निवेदित करने के लिए एवं होली में अर्पण करनेके लिए उबाली हुई चने की दाल एवं गुड़ का मिश्रण भरकर मीठी रोटी बनाते हैं। इस मीठी रोटी का नैवेद्य होली प्रज्वलित करने के उपरान्त उसमें समर्पित किया जाता है। होली में अर्पण करने के लिए नैवेद्य बनाने में प्रयुक्त घटकों में तेजोमय तरंगों को अति शीघ्रता से आकृष्ट, ग्रहण एवं प्रक्षेपित करनेकी क्षमता होती है। इन घटकों द्वारा प्रक्षेपित सूक्ष्म वायु से नैवेद्य निवेदित करने वाले व्यक्ति की देह में पंच प्राण जागृत होते हैं। उस नैवेद्य को प्रसाद के रूप में ग्रहण करने से व्यक्ति में तेजोमय तरंगों का संक्रमण होता है तथा उसकी सूर्य नाड़ी कार्यरत होने में सहायता मिलती है। सूर्य नाड़ी कार्यरत होने से व्यक्ति को कार्य करने के लिए बल प्राप्त होता है।
HOLI होली :: आनन्द और उल्लास यह पर्व पूरे देश में किसी न किसी रूप में मनाया जाता है। बँगाल को छोड़ कर पूरे देश में होली जलाई जाती है। बँगाल में इस दिन भगवान् श्री कृष्ण की प्रतिमा को झूला झूलाने का प्रचलन है, यद्यपि वहाँ भी तीन दिन के लिये पूजा मण्डप में अग्नि जलाई जाती है। होली के मौजूदा स्वरुप का विस्तृत वर्णन जैमिनी गृह सूत्र [1.3.15-16], काठक गृह सूत्र [73.1] लिंग पुराण, बाराह पुराण, हेमाद्रि और भविष्योत्तर पुराण के अलावा वात्स्यायन के काम सूत्र में भी है। 
निर्णय सिन्धु पृष्ठ 227, स्मृति कौस्तुभ पृष्ठ (516 से 519) और पुरश्चरण चिन्तामणि के पृष्ठ (308-319) पर होली का वर्णन अत्यन्त विस्तार  से प्राप्त होता है। भविष्योत्तर पुराण और कामसूत्र ने इसका सन्बन्ध वसन्त ऋतु के आगमन से किया है। होलिका हेमन्त यानि पतझड़ के आगमन की सूचना देती है और बसन्त की प्रेममय काम लीलाओं की घोतक है। मस्ती से भरे गाने, रंगों की फुहार और संगीत बसन्त के आने के उल्लास पूर्ण समय का परिचय देते हैं जो कि रंगों से भरी पिचकारियों और अबीर गुलाल के आपसी आदान प्रदान को प्रकट होती है। कहीं-कहीं तो लोग दो तीन दिन तक मिट्टी का कीचड़ और गानों से मतवाले होकर होली का हुडदंग मचाते हैं। कहीं-कहीं लोग भद्दे मजाकों और अश्लील गानों का मज़ा भी लेते हैं।
होली के मौके पर एक दिन पहले होली विधि-विधान से रखी जाती है और उसका पूजन किया जाता है। चौराहे पर जली हुई होली की आग से तांत्रिक मन्त्रों का अनुष्ठान करके प्यार, पैसा और शोहरत पाई जा सकती है। किसी को अपने वश में किया जा सकता है और बुरे ग्रहों के उपचार किये जा सकते हैं।साल की चार महत्वपूर्ण तान्त्रिक रातों में एक होली की भी रात होती है। इस दिन कोशिश करके अपनी उन्नति का रास्ता खोला जा सकता है। दूसरों के जादू-टोने से बचा जा सकता है। माता सरस्वती और माता महालक्ष्मी की कृपा पाई जा सकती है।
राशि के अनुरूप होली के रंग :- 
(1). मेष :- लाल, (2). वृष :- नीला, (3). मिथुन :- हरा, (4). कर्क :- गुलाबी, (5). सिंह :- संतरी-नारँगी, (6). कन्या :- हरा,  (7). तुला :- नीला, (8). वृश्चिक :- मेहरून, (9). धनु :- पीला, (10). मकर :- नीला, (11). कुम्भ :- बैंगनी और (12). मीन :- पीला। रंगों, अबीर-गुलाल में खुशबू मिला सकते हैं। 
राशि के अनुरूप-अनुकूल खुशबू-महक :: 
(1). मेष :- गुलाब, (2). वृष :- चमेली, (3). मिथुन :- चम्पा, (4). कर्क :- लवैन्डर, (5). सिंह :- कस्तूरी, (6). कन्या :- नाग चम्पा, (7). तुला :- बेला, (8). वृश्चिक :- रोज मैरी,(9). धनु :- केसर, (10). मकर :- कस्तूरी, मृगमद, मृगनाभि, मुश्कम्बर, (11). कुम्भ :- चन्दन और (12). मीन :- लैमन ग्रास। 
होली खेलने के लिये वस्त्रों के राशि के अनुरूप-अनुकूल  रंग ::
(1). मेष :- लाल या मेहरून, (2). वृष :- सफेद या आसमानी नीला, (3). मिथुन :- हरा, (4). कर्क :- गुलाबी, (5). सिंह :- सफेद, (6). कन्या :- हरा, (7). तुला :- आसमानी  नीला और सफेद, (8). वृश्चिक :- मेहरून अथवा मटियाला-गेहुँआ,
(9). धनु :- हल्का पीला, (10). मकर :- नीला , (11). कुम्भ :- ब्लू या काला और  (12). मीन :- सुनहरा। 
होली खेलना :: 
(1). सुबह सुबह पहले भगवान् को रंग लगा कर ही होली खेलना शुरू करना चाहिये। 
(2). एक दिन पहले जब होली जलाई जाये तो उसमें भाग जरुर लें अन्यथा अगले दिन सुबह सूरज निकलने से पहले जलती हुई होली के निकट जाकर तीन परिक्रमा करें। होली में अलसी, मटर, चना गेहूँ की बालियाँ और गन्ना इनमें से जो कुछ भी मिल जाये, उसे होली की आग में जरुर डालें। 
(3). परिवार के सभी सदस्यों के पैर के अँगूठे से लेकर हाथ को सिर से ऊपर पूरा ऊँचा करके कच्चा सूत नाप कर होली में डालें। 
(4). होली की विभूति यानि भस्म (राख) घर जरुर लायें, पुरुष इस भस्म को मस्तक पर और महिला अपने गले में धारण करें, इससे एश्वर्य बढ़ता है। 
(5). घर के बीच में एक चौकोर टुकड़ा साफ कर के उसमें कामदेव का पूजन करें।
(6). होली के दिन दाम्पत्य भाव से अवश्य रहें।
(7). होली के दिन मन में किसी के प्रति शत्रुता का भाव न रखें, इससे साल भर शत्रुओं पर भारी पड़ेंगे।
(8). घर आने वाले मेहमानों को सौंफ और मिश्री जरुर खिलायें, इससे प्रेम भाव बढ़ता है। 
होली पूजन पूजन के लाभ ::
(1). छ: बाली अलसी और तीन बाली गेंहू को होली की आग में भूनकर आधी जली हुई बालियों को लाल कपड़े में लपेट कर दुकान, कारखाने में रखने से व्यापारबढ़ता है। 
(2). पत्तियों सहित गन्ना ले जा कर होली की आग में इस तरह डाल दें कि गन्ने की पत्तियाँ आग में जल जायें। बचे हुये गन्ने को लाकर घर के दक्षिण-पश्चिम कोने में खड़ा करने  से  धन लाभ की सम्भावना बनती है। 
होली दहन :: होली के जलने के बाद वहाँ से आग अपने घर लानी चाहिये। घर में गोबर के उपले से आग जला कर उसमे नारियल की गरी और गेहूँ की बाली भून कर खानी चाहिये। ऐसा करने से दीर्घायु और समाज में सम्मान प्राप्त होता है। यह क्रिया रात में होली जलने के बाद और सूर्योदय के पहले करनी चाहिये। 
रात में होली जलाने के बाद भोर के समय घर के बीच एक चौकोर टुकड़ा साफ़ करके उसमें "क्लीं" लिख कर उसमें कामदेव का पूजन करना चाहिये। कामदेव को पाँच अलग-अलग रंग के फूल अबीर, गुलाल, सुगंध और पक्वान अर्पित करने चाहियें। पूजा के उपरान्त पति देह में रति का वास हो जाता है। ये होली का अत्यावश्यक कृत्य है। 
होली  का प्रयोजन :: (1). जाड़े के बाद शरीर की सफाई, (2).  तन के साथ मन की भी सफाई, (3). पूरी तरह साफ़ हो जाना (रेचन, अतिसार, दस्त)। यहीं  मौसम बदलना शुरू हो जाता है। (4). शत्रुता के भाव और शत्रु का अन्त तथा (5). मैत्री और मुदिता का उदय। 
विध्न बाधाओं  दूर करना :: 
(1). अफ़सर का वशीकरण :: अफ़सर का चित्र लेकर उस पर घी और शहद लगाकर मिट्टी के कुल्हड़ में रखें। इसके ऊपर दही भर दें और उस पर थोड़ी सी होली की भस्म दाल दें। उस कुल्हड़ का मुँह लाल कपड़े से बाँध कर किसी ऊँची जगह पर रख दें।  ऐसा करने से अफ़सर आपके वश में हो जायेंगे। अफ़सर को अपने वश में करना तो ठीक है, लेकिन अगर स्थिति का दुरूपयोग किया तो इसके भयंकर परिणाम हो सकते हैं। 
(2). मुकदमा जीतने के लिये :: होली की आग लाकर उसके कोयले से स्याही बनाकर लोहे की सलाई से मुकदमा नम्बर और शत्रु पक्ष का नाम सात कागजों पर लिख कर पुन: होली की अग्नि के पास जायें और सात परिक्रमा करें, हर परिक्रमा पर एक कागज़ होली की आग में दाल दें तो शत्रु स्वयं समझौता कर लेता है और मुक़दमे में सफलता मिलती है। 
(3). तंत्र मंत्र, जादू-टोना, काली नजर से रक्षा :- होली की आग से अंगारे लाकर उसे पीस कर उससे स्याही बनायें। एक सफ़ेद कपड़े पर एक मनुष्य की आकृति बना कर उसमें काले तिल भर कर पुन: होली में डाल दें तो दूसरे का किया-धरा नष्ट हो जाता है। 
(4). बुरी नजर से बचाव :: एक मुट्ठी काले तिल, छः काली मिर्च, छः लौंग, एक टुकड़ा कपूर बच्चे या बड़े के ऊपर से उतार कर होली में डाल दें, पुरानी बुरी नजर उतर जायेगी और आगे भी बुरी नज़र बचाव होगा। 
(5). व्यापार-व्यवसाय की बुरी नज़र-हाय से सुरक्षा :: एक दिन पहले फिटकरी के छ: टुकड़े अपनी दुकान, दफ़्तर आदि में रात में छोड़ दें। होली की शाम उन्हें ले जाकर कपूर, अलसी, गन्ने के टुकड़े और गेहूँ के साथ मिला कर होली में डाल दें।  
(6). बच्चे का मन पढाई में मन लगाने के लिये :: एक 4 मुखी और एक 6 मुखी रुद्राक्ष के बीच में गणेश रुद्राक्ष लगवा कर बच्चे को पहनायें। फिर उसे होली की अग्नि के करीब ले जाकर सात चक्कर लगवायें। हर बार बच्चा एक मुट्ठी गुलाल होली की ओर उछालता जाये। इससे विद्या प्राप्ति की बाधा दूर होगी और पढ़ाई में ध्यान- मन लगेगा। 
(7). कामयाबी हासिल करने के लिये :: होली की आग से कोयला लाकर चूर्ण करके, उसके आगे नृसिंह के तीन नामों :- उग्रं, वीरं, महाविष्णुं का जप 10,000 बार करें। इस चूर्ण को गाय के घी के साथ तिलक लगाकर काम पर जायें तो हर काम में कामयाबी मिलेगी।
रिश्ते-नाते  के अनुरूप  विशेष अंग पर होली के रंग :: माता :- पैर, पिता :- छाती, पत्नी-पति :- सर्वांग, पति-पत्नी को आपस में जी भर कर होली खेलना अत्यन्त शुभ शकुन माना जाता है।, बड़ा भाई :- मस्तक, छोटा भाई :- भुजायें, बड़ी बहन :- हाथ और पीठ, छोटी बहन :- गाल, बड़ी भाभी-देवर :- हाथ और पैर, ननद और देवरानी :- सर्वांग, छोटी भाभी :- सर और कन्धे, ननद :- सर्वांग, चाची-चाचा :- सर से रंग उड़ेलें, साले-सरहज :- मर्यादा  के दायरे में पूरा शरीर।  
ताई-ताऊ :- पैर और माथे पर, मामा-मामी :- मर्यादा  के दायरे में पूरा शरीर, बुआ-फूफा :- जी भर कर रंग लगायें, मौसी-मौसा :- मर्यादा  के दायरे में रंग लगायें, पड़ोसी :- इत्र सहित सिर्फ सूखा रंग ही लगायें, मित्र :- खुलकर रंग लगायें, अफ़सर :- माथे पर टिका लगायें, अफ़सर की पत्नी :- हाथ में रंग देकर नमस्कार कर लें-शिष्टाचार की सीमा के अन्दर रंग लगायें, अनजाने व्यक्तियों को :- सामाजिक मर्यादा और शिष्टाचार का पूरा ध्यान रखें। 
राशि के अनुकूल खाना :: मेष :- मसूर की दाल की बनी कोई चीज, वृष :- कोई सुगन्धित मिठाई, मिथुन :- मूग की दाल से बनी कोई चीज, कर्क :- दूध से बनी कोई चीज, सिंह :- गरम-गरम कोई चीज, कन्या :- पिस्ते से बनी कोई मिठाई, तुला :- दही या मलाई से बनी कोई चीज, वृश्चिक :- कोई ऐसी चीज जिसमें लाल मिर्च पड़ी हो, धनु :- केसर से बनी कोई मिठाई या गुझिया, मकर :- चाकलेट या काली मिर्च से बनी कोई चीज, कुम्भ :- दही बड़े या कोई चीज जिसमे काला नमक, मीन :- बेसन से बनी कोई मिठाई। 
होली खेलने के बाद की राशि  के अनुकूल प्रक्रियाएँ :: 
मेष :- नये कपड़े पहन कर सीधे घर के मन्दिर में जायें और भगवान् का आशीर्वाद लें। 
वृष :- नये कपड़े पहनने के तुरन्त बाद सीढ़ियाँ चढ़ें या गणेश जी के दर्शन करें। 
मिथुन :- खजूर खायें या मोज़े जरुर पहनें। 
कर्क :- केसर की पत्ती मुँह में डालें।
सिंह :- लाल सिन्दूर का टीका मस्तक पर लगायें।
कन्या :- कपूर को हाथ में मसल कर सूँघना चाहिये। 
तुला :- शहतूत खाना चाहिये। 
वृश्चिक :- सर पर टोपी लगाना या पगड़ी बाँधना विशेष शुभ होता है। 
धनु :- नये कपड़े पहनने के बाद बाँई आँख से चाँदी को स्पर्श करना शुभ होगा। 
मकर :- नये कपड़े में एक पेन लगाकर घर से निकले। 
कुम्भ :- नये कपड़े पहनने से पहले चेहरे को दही से धोना चाहिये और कपड़ो पर सुगन्ध जरुर लगानी चाहिये।
मीन :- नये कपड़े पहनने के बाद थोड़ा गुड़ खाना शुभ रहेगा। 
होलाष्टक ::  होला + अष्टक अर्थात होली से पूर्व के आठ दिन, जो दिन होता है, वह होलाष्टक कहलाता है। सामान्य रुप से देखा जाये तो होली एक  दिन का पर्व न होकर पूरे नौ दिनों का त्यौहार है। 
होलाष्टक के समय शुभ कार्य वर्जित होते है, यह फाल्गुन शुक्ल पक्ष की अष्टमी को लगता है होलाष्टक फिर आठ दिनों तक रहता है और सभी शुभ मांगलिक कार्य रोक दिए जाते हैं, यह दुलहंडी पर रंग खेलकर खत्म होता है।
फाल्गुन शुक्ल अष्टमी पर 2 डंडे स्थापित किए जाते हैं। जिनमें एक को होलिका तथा दूसरे को प्रह्लाद माना जाता है। इससे पूर्व इस स्थान को गंगा जल से शुद्ध किया जाता है; फिर हर दिन इसमे गोबर के उपल, लकड़ी घास और जलने में सहायक चीजें डालकर इसे बड़ा किया जाता है।
होलाष्टक के दिन ही कामदेव ने शिव तपस्या को भंग किया था, इस कारण  भगवान् शिव अत्यंत क्रोधित हो गये थे, उन्होंने अपने तीसरे नेत्र की अग्नि से कामदेव को भस्म कर दिया था, हालाँकि कामदेव ने देवताओ की इच्छा और उनके अच्छे के लिए भगवान् शिव को तपस्या से उठाया था।
कामदेव के भस्म होने से समस्त संसार शोक में डूब गया, उनकी पत्नी रति ने  भगवान् शिव से विनती की वे उन्हें फिर से पुनर्जीवित कर दे तब भगवान् भोलेनाथ से द्वापर में उन्हें फिर से जीवन देने की बात कही।
एक दूसरी कथा के अनुसार राजा हरिण्य कशिपु ने अपने पुत्र भक्त प्रह्लाद को भगवद् भक्ति से हटाने और हरिण्य कशिपु को ही भगवान की तरह पूजने के लिये अनेक यातनाएं दी लेकिन जब किसी भी तरकीब से बात नहीं बनी तो होली से ठीक आठ दिन पहले उसने प्रह्लाद को मारने के प्रयास आरंभ कर दिये थे। लगातार आठ दिनों तक जब भगवान् अपने भक्त की रक्षा करते रहे तो होलिका के अंत से यह सिलसिला थमा। इसलिये आज भी भक्त इन आठ दिनों को अशुभ मानते हैं। उनका यकीन है कि इन दिनों में शुभ कार्य करने से उनमें विघ्न बाधाएं आने की संभावनाएं अधिक रहती हैं।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार होलाष्टक मे सभी शुभ कार्य करना वर्जित रहते हैं, क्योकी इन आठ दिवस 8 ग्रह उग्र रहते है। इन आठ दिवसो मे अष्टमी को चन्द्रमा, नवमी को सूर्य, दशमी को शनि, एकादशी को शुक्र, द्वादशी को गुरु, त्रयोदशी को बुध, चतुर्दशी को मगल और पूर्णिमा को राहू उग्र रहते हैं। इसलिये इस अवधि में शुभ कार्य करने वर्जित है।
होलाष्टक में वर्जित कार्य :- 
विवाह :- होली से पूर्व के 8 दिनों में भूलकर भी विवाह न करें। यह समय शुभ नहीं माना जाता है, जब तक कि कोई विशेष योग आदि न हो।
नामकरण एवं मुंडन संस्कार :- होलाष्टक के समय में अपने बच्चे का नामकरण या मुंडन संस्कार कराने से बचें।
भवन निर्माण :- होलाष्टक के समय में किसी भी भवन का निर्माण कार्य प्रारंभ न कराएं। होली के बाद नए भवन के निर्माण का शुभारंभ कराएं।
हवन-यज्ञ :- होलाष्टक में कोई यज्ञ या हवन अनुष्ठान करने की सोच रहे हैं, तो उसे होली बाद कराएं। इस समय काल में कराने से आपको उसका पूर्ण फल प्राप्त नहीं होगा।
नौकरी :- होलाष्टक के समय में नई नौकरी ज्वॉइन करने से बचें। अगर होली के बाद का समय मिल जाए तो अच्छा होगा। अन्यथा किसी ज्योतिषाचार्य से मुहूर्त दिखा लें।
भवन, वाहन आदि की खरीदारी :- संभवत हो तो होलाष्टक के समय में भवन, वाहन आदि की खरीदारी से बचें। शगुन के तौर पर भी रुपए आदी न दें।
होलाष्टक में पूजा-अर्चना की के लिए किसी भी प्रकार की मनाही नही होती। होलाष्टक के समय में अपशकुन के कारण मांगलिक कार्यों पर रोक होती है। हालांकि होलाष्टक में ईश्वर की पूजा-अर्चना की जाती है। इस समय में आप अपने ईष्ट देव की पूजा-अर्चना, भजन, आरती आदि करें, इससे आपको शुभ फल की प्राप्ति होगी।परंतु सकाम (किसी कामना से किये जाने वाले यज्ञादि कर्म) किसी भी प्रकार का हवन, यज्ञ कर्म भी इन दिनों में नहीं किये जाते।
सनातन हिंदू धर्म में 16 प्रकार के संस्कार बताये जाते हैं, इनमें से किसी भी संस्कार को संपन्न नहीं करना चाहिये। हालांकि दुर्भाग्यवश इन दिनों किसी की मौत होती है तो उसके अंत्येष्टि संस्कार के लिये भी शांति पूजन करवाया जाता है।
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)