Monday, October 21, 2024

श्री कृष्ण शरणाष्टक स्तोत्र

श्री कृष्ण शरणाष्टक
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
श्री कृष्ण शरणाष्टक स्तोत्र भगवान् श्री कृष्ण को समर्पित है। इस स्तोत्र में भगवान् श्री कृष्ण से सुख और शांति प्रदान करने की प्रार्थना की जाती है। श्री कृष्ण शरणाष्टक स्तोत्र  में व्यक्ति अपनी बुरी आदतों का उल्लेख करता है और भगवान् श्री कृष्ण से सही मानसिकता और मार्ग दर्शन देने के लिए प्रार्थना करता है।
सर्वसाधनहीनस्य पराधीनस्य सर्वतः।
पापपीनस्य दीनस्य श्रीकृष्णः शरणं मम॥1॥
मैं सर्वोच्च भगवान् श्री कृष्ण के चरण कमलों की शरण लूंगा, मेरे पास आजीविका का कोई साधन नहीं है और मैं हमेशा दूसरों पर निर्भर रहता हूँ, मैंने कई पाप किए हैं और मैं दयनीय स्थिति में हूँ।
संसारसुखसम्प्राप्तिसन्मुखस्य विशेषतः।
वहिर्मुखस्य सततं श्रीकृष्णः शरणं मम॥2॥
हे श्री कृष्ण! मैं आपके चरण कमलों में शरण लूंगा, मैं सांसारिक इच्छाओं में डूबा हुआ हूँ और हमेशा उदासीन रहा हूँ।
सदा विषयकामस्य देहारामस्य सर्वथा।
दुष्टस्वभाववामस्य श्रीकृष्णः शरणं मम॥3॥
हे श्री कृष्ण! मैं आपके चरण कमलों में समर्पण कर दूंगा, मैं हमेशा सांसारिक मामलों में रहा हूँ और आकर्षक युवा महिलाओं की संगति में अत्यधिक आनंद लेता हूँ, मैं हमेशा धोखेबाज और दुष्ट रहा हूंँ।
संसारसर्वदुष्टस्य धर्मभ्रष्टस्य दुर्मतेः।
लौकिकप्राप्तिकामस्य श्रीकृष्णः शरणं मम॥4॥
हे श्री कृष्ण! मैं आपके चरण कमलों में शरण लूंगा, मैं सभी दुष्ट कर्मों में लगा हुआ हूँ, मैंने अपनी अशुद्ध बुद्धि के कारण कोई भी धर्म कर्म नहीं किया है, मैं भौतिक सुखों के संग्रह के पीछे भागता रहा हूँ।
विस्मृतस्वीयधर्मस्य कर्ममोहितचेतसः।
स्वरूपज्ञानशून्यस्य श्रीकृष्णः शरणं मम॥5॥
हे श्री कृष्ण! मैं आपके चरण कमलों में समर्पण कर दूंगा, मैं अपने स्वधर्म-कर्तव्यों, उत्तरदायित्वों और निभाए जाने वाले संस्कारों को पूरी तरह से भूल गया हूँ और मेरे मन में धार्मिक अनुष्ठान का पालन करने का कोई शुद्ध विचार नहीं है, मैं आत्म-बोध से अनभिज्ञ हूँ।
संसारसिन्धुमग्नस्य भग्नभावस्य दुष्कृतेः।
दुर्भावलग्नमनसः श्रीकृष्णः शरणं मम॥6॥
हे श्री कृष्ण! मैं आपके कमल चरणों में समर्पण करूंगा, मैं पूरी तरह से सांसारिक अस्तित्व के सागर में डूब गया हूँ, मैं अपने अनियंत्रित कृत्यों के कारण टूट गया हूँ, विचलित हो गया हूँ, परेशान हो गया हूँ, निराश हो गया हूँ।
विवेकधैर्यभक्त्यादिरहितस्य निरन्तरम्।
विरुद्धकरणासक्तेः श्रीकृष्णः शरणं मम॥7॥
हे श्री कृष्ण! मैं आपके चरण कमलों में शरण लूंगा, मैं शुद्ध बुद्धि, साहस, भक्ति के बिना और अनैतिक कार्यों में लिपटा हुआ भटक रहा हूँ।
विषयाक्रान्तदेहस्य वैमुख्यहृतसन्मतेः।
इन्द्रियाश्वगृहितस्य श्रीकृष्णः शरणं मम॥8॥
हे श्री कृष्ण! मैं आपके कमल चरणों में समर्पण करूंगा, मैं शारीरिक सुख की तलाश में डूबा हुआ हूं, और इसलिए मैंने नेक दिमाग वाले लोगों के साथ रहने से इनकार कर दिया है, मुझ पर कामुक सुखों का शासन है।
एतदष्टकपाठेन ह्येतदुक्तार्थभावनात्।
निजाचार्यपदाम्भोजसेवको दैन्यमाप्नुयात्॥9॥
हे श्री कृष्ण! मैं आपके कमल चरणों में आत्मसमर्पण करूंगा, उपरोक्त श्लोकों का पाठ, गुरु के चरण कमलों में भक्ति और निस्वार्थ सेवा से सभी प्रकार के संकट और पीड़ाएं दूर हो जाएंगी।
(इति हरिदासवर्यविरचितं श्रीकृष्णशरणाष्टकम् सम्पूर्णम्)
 
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)
skbhardwaj1951@gmail.com

Sunday, October 20, 2024

देवी छिन्नमस्ता स्तोत्र

 
देवी छिन्नमस्ता स्तोत्र
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
आनन्दयित्रि परमेश्वरि वेदगर्भे मातः पुरन्दरपुरान्तरलब्धनेत्रे।
लक्ष्मीमशेषजगतां परिभावयन्तः सन्तो भजन्ति भवतीं धनदेशलब्ध्यै॥1॥
लज्जानुगां विमलविद्रुमकान्तिकान्तां कान्तानुरागरसिकाः परमेश्वरि त्वाम्।
ये भावयन्ति मनसा मनुजास्त एते सीमन्तिनीभिरनिशं परिभाव्यमानाः॥2॥ 
मायामयीं निखिलपातककोटिकूटविद्राविणीं भृशमसंशयिनो भजन्ति।
त्वां पद्मसुन्दरतनुं तरुणारुणास्यां पाशाङ्कुशाभयवराद्यकरां वरास्त्रैः॥3॥
ते तर्ककर्कशधियः श्रुतिशास्त्रशिल्पैश्छन्दो ऽ भिशोभितमुखाः सकलागमज्ञाः।सर्वज्ञलब्धविभवाः कुमुदेन्दुवर्णां ये वाग्भवे च भवतीं परिभावयन्ति॥4॥
वज्रपणुन्नहृदया समयद्रुहस्ते वैरोचने मदनमन्दिरगास्यमातः।
मायाद्वयानुगतविग्रहभूषिताऽसि दिव्यास्त्रवह्निवनितानुगताऽसि धन्ये॥5॥
वृत्तत्रयाष्टदलवह्निपुरःसरस्य मार्तण्डमण्डलगतां परिभावयन्ति।
ये वह्निकूटसदृशीं मणिपूरकान्तस्ते कालकण्टकविडम्बनचञ्चवः स्युः॥6॥
कालागरुभ्रमरचन्दनकुण्डगोल- खण्डैरनङ्गमदनोद्भवमादनीभिः। 
सिन्दूरकुङ्कुमपटीरहिमैर्विधाय सन्मण्डलं तदुपरीह यजेन्मृडानीम्॥7॥
चञ्चत्तडिन्मिहिरकोटिकरां विचेला मुद्यत्कबन्धरुधिरां द्विभुजां त्रिनेत्राम्।
वामे विकीर्णकचशीर्षकरे परे तामीडे परं परमकर्त्रिकया समेताम्॥8॥
कामेश्वराङ्गनिलयां कलया सुधांशोर्विभ्राजमानहृदयामपरे स्मरन्ति।
सुप्ताहिराजसदृशीं परमेश्वरस्थां त्वामाद्रिराजतनये च समानमानाः॥9॥
लिङ्गत्रयोपरिगतामपि वह्निचक्र पीठानुगां सरसिजासनसन्निविष्टाम्।
सुप्तां प्रबोध्य भवतीं मनुजा गुरूक्तहूँकारवायुवशिभिर्मनसा भजन्ति॥10॥ 
शुभ्रासि शान्तिककथासु तथैव पीता स्तम्भे रिपोरथ च शुभ्रतरासि मातः।
उच्चाटनेऽप्यसितकर्मसुकर्मणि त्वं संसेव्यसे स्फटिककान्तिरनन्तचारे॥11॥
त्वामुत्पलैर्मधुयुतैर्मधुनोपनीतैर्गव्यैः पयोविलुलितैः शतमेव कुण्डे।
साज्यैश्च तोषयति यः पुरुषस्त्रिसन्ध्यं षण्मासतो भवति शक्रसमो हि भूमौ॥12॥
जाग्रत्स्वपन्नपि शिवे तव मन्त्रराजमेवं विचिन्तयति यो मनसा विधिज्ञः।
संसारसागरसमृद्धरणे वहित्रं चित्रं न भूतजननेऽपि जगत्सु पुंसः॥13॥
इयं विद्या वन्द्या हरिहरविरिञ्चिप्रभृतिभिः पुरारातेरन्तः पुरमिदमगम्यं पशुजनैः।
सुधामन्दानन्दैः पशुपतिसमानव्यसनिभिः सुधासेव्यैः सद्भिर्गुरुचरणसंसारचतुरैः॥14॥
कुण्डे वा मण्डले वा शुचिरथ मनुना भावयत्येव मन्त्री संस्थाप्योच्चैर्जुहोति प्रसवसुफलदैः पद्मपालाशकानाम्।
हैमं क्षीरैस्तिलैर्वां समधुककुसुमैर्मालतीबन्धुजातीश्वेतैरब्धं सकानामपि वरसमिधा सम्पदे सर्वसिद्ध्यै॥15॥
अन्धः साज्यं समांसं दधियुतमथवा योऽन्वहं यामिनीनां मध्ये देव्यै ददाति प्रभवति गृहगा श्रीरमुष्यावखण्डा। आज्यं मांसं सरक्तं तिलयुतमथवा तण्डुलं पायसं वा हुत्वा मांसं त्रिसन्ध्यं स भवति मनुजो भूतिभिर्भूतनाथः॥16॥
इदं देव्याः स्तोत्रं पठति मनुजो यस्त्रिसमयं शुचिर्भूत्वा विश्वे भवति धनदो वासवसमः।
वशा भूपाः कान्ता निखिलरिपुहन्तुः सुरगणा भवन्त्युच्चैर्वाचो यदिह ननु मासैस्त्रिभिरपि ॥17॥
(इति श्रीशङ्कराचार्यविरचितः प्रचण्डचण्डिकास्तवराजः समाप्त।)
 
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)
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राधा कृपा कटाक्ष स्तोत्र

राधा कृपा कटाक्ष स्तोत्र
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]

राधा कृपा कटाक्ष स्तोत्र भगवान शिव द्वारा रचित और देवी पार्वती से बोली जाने वाली राधा कृपा कथा की एक बहुत शक्तिशाली प्रार्थना है। राधा कृपा कटाक्ष स्तोत्र श्री वृंदावन में सबसे प्रसिद्ध स्तोत्र है। राधा चालीसा में कहा गया है कि जब तक राधा का नाम न लिया जाए, तब तक श्रीकृष्ण का प्रेम नहीं मिलता। जगत जननी राधा को भगवान श्रीकृष्ण की अर्धांगिनी शक्ति माना गया है। इसका मतलब है राधा के कारण श्रीकृष्ण प्रसन्न होते हैं। पद्म पुराण में कहा गया है कि राधा श्रीकृष्ण की आत्मा हैं। 
राधा कृपा कटाक्ष स्तोत्र राधा रानी की दयालु पार्श्व दृष्टि के लिए एक विनम्र प्रार्थना है। जो लोग इस प्रार्थना को नियमित रूप से करते हैं, उन्हें श्री राधा-कृष्ण के चरण कमलों की प्राप्ति निश्चित है। निम्न श्लोकों में राधा जी की स्तुति में, उनके श्रृंगार,रूप और करूणा का वर्णन है। इसमें उनसे प्रश्न कर्ता बार-बार पूछता है कि राधा रानी जी अपने भक्त पर कब कृपा करेंगी?
मुनीन्द्रवृन्द वन्दिते त्रिलोकशोक हारिणि;
प्रसन्न वक्त्र पण्कजे निकुञ्ज भू विलासिनि।
व्रजेन्द्रभानु नन्दिनि व्रजेन्द्र सूनु संगते;
कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्॥1॥
समस्त मुनिगण आपके चरणों की वंदना करते हैं, आप तीनों लोकों का शोक दूर करने वाली हैं, आप प्रसन्नचित्त प्रफुल्लित मुख कमल वाली हैं, आप धरा पर निकुंज में विलास करने वाली हैं। आप राजा वृषभानु की पुत्री हैं, आप ब्रजराज नन्द किशोर श्री कृष्ण की चिरसंगिनी है, हे जगज्जननी श्री राधे माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी?
अशोक वृक्ष वल्लरी वितानमण्डप स्थिते;
प्रवालबाल पल्लव प्रभारुणांघ्रि कोमले।
वराभयस्फुरत्करे प्रभूतसम्पदालये;
कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्॥2॥
आप अशोक की वृक्ष-लताओं से बने हुए मंदिर में विराजमान हैं, आप सूर्य की प्रचंडअग्नि की लाल ज्वालाओं के समान कोमल चरणों वाली हैं, आप भक्तों को अभीष्ट वरदान, अभय दान देने के लिए सदैव उत्सुक रहने वाली हैं। आप के हाथ सुन्दर कमल के समान हैं, आप अपार ऐश्वर्य की भंङार स्वामिनी हैं, हे सर्वेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी?
अनङ्ग-रण्ग मङ्गल प्रसङ्ग भङ्गुर-भ्रुवां;
सविभ्रमं ससम्भ्रमं दृगन्त बाणपातनैः।
निरन्तरं वशीकृतप्रतीतनन्दनन्दने;
कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्॥3॥
रास क्रीड़ा के रंगमंच पर मंगलमय प्रसंग में आप अपनी बाँकी भृकुटी से आश्चर्य उत्पन्न करते हुए सहज कटाक्ष रूपी वाणों की वर्षा करती रहती हैं। आप श्री नन्द किशोर को निरंतर अपने बस में किये रहती हैं, हे जगज्जननी वृन्दावनेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी?
तडित् सुवर्ण चम्पक  प्रदीप्त गौर विग्रहे;
मुख प्रभा परास्त कोटि शारदेन्दुमण्डले।
विचित्र-चित्र सञ्चरच्चकोर शाव लोचने;
कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्॥4॥
आप बिजली के सदृश, स्वर्ण तथा चम्पा के पुष्प के समान सुनहरी आभा वाली हैं, आप दीपक के समान गोरे अंगों वाली हैं, आप अपने मुखारविंद की चाँदनी से शरद पूर्णिमा के करोड़ों चन्द्रमा को लजाने वाली हैं। आपके नेत्र पल-पल में विचित्र चित्रों की छटा दिखाने वाले चंचल चकोर शिशु के समान हैं, हे वृन्दावनेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी?
मदोन्मदाति यौवने प्रमोद मान मण्डिते;
प्रियानुराग रञ्जिते कला विलास पण्डिते।
अनन्यधन्य कुञ्जराज्य कामकेलि कोविदे;
कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्॥5॥
आप अपने चिर-यौवन के आनन्द के मग्न रहने वाली है, आनंद से पूरित मन ही आपका सर्वोत्तम आभूषण है, आप अपने प्रियतम के अनुराग में रंगी हुई विलासपूर्ण कला पारंगत हैं।आप अपने अनन्य भक्त गोपिकाओं से धन्य हुए निकुंज-राज के प्रेम क्रीड़ा की विधा में भी प्रवीण हैं, हे निकुँजेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी?
अशेष हाव-भाव धीरहीरहार भूषिते;
प्रभूतशातकुम्भ कुम्भ-कुम्भि कुम्भसुस्तनि।
प्रशस्तमन्द हास्यचूर्ण पूर्णसौख्य सागरे;
कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्॥6॥
आप संपूर्ण हाव-भाव रूपी श्रृंगारों से परिपूर्ण हैं, आप धीरज रूपी हीरों के हारों से विभूषित हैं, आप शुद्ध स्वर्ण के कलशों के समान अंगो वाली हैं, आपके पयोंधर स्वर्ण कलशों के समान मनोहर हैं। आपकी मंद-मंद मधुर मुस्कान सागर के समान आनन्द प्रदान करने वाली है, हे कृष्ण प्रिया माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी?
मृणाल वाल-वल्लरी तरङ्ग-रङ्ग दोर्लते;
लताग्र लास्य लोल-नील लोचनावलोकने।
ललल्लुलन्मिलन्मनोज्ञ मुग्ध मोहिनाश्रिते;
कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्॥7॥
जल की लहरों से कम्पित हुए नूतन कमल-नाल के समान आपकी सुकोमल भुजाएँ हैं, आपके नीले चंचल नेत्र पवन के झोंकों से नाचते हुए लता के अग्र-भाग के समान अवलोकन करने वाले हैं। सभी के मन को ललचाने वाले, लुभाने वाले मोहन भी आप पर मुग्ध होकर आपके मिलन के लिये आतुर रहते हैं ऎसे मनमोहन को आप आश्रय देने वाली हैं, हे वृषभानुनन्दनी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी?
सुवर्णमलिकाञ्चित त्रिरेख कम्बु कण्ठगे; 
त्रिसूत्र मङ्गली गुण त्रिरत्न दीप्ति दीधिते।
सलोल नीलकुन्तल प्रसून गुच्छ गुम्फिते;
कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्॥8॥
आप स्वर्ण की मालाओं से विभूषित है, आप तीन रेखाओं युक्त शंख के समान सुन्दर कण्ठ वाली हैं, आपने अपने कण्ठ में प्रकृति के तीनों गुणों का मंगलसूत्र धारण किया हुआ है, इन तीनों रत्नों से युक्त मंगलसूत्र समस्त संसार को प्रकाशमान कर रहा है। आपके काले घुंघराले केश दिव्य पुष्पों के गुच्छों से अलंकृत हैं, हे कीरति नन्दनी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी?
नितम्ब बिम्ब लम्बमान पुष्पमेखलागुणे;
प्रशस्तरत्न किङ्किणी कलाप मध्य मञ्जुले।
करीन्द्र शुण्डदण्डिका वरोहसौभगोरुके;
कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्॥9॥
हे देवी, तुम अपने घुमावदार कूल्हों पर फूलों से सजी कमरबंद पहनती हो, तुम झिलमिलाती हुई घंटियों वाली कमरबंद के साथ मोहक लगती हो, तुम्हारी सुंदर जांघें राजसी हाथी की सूंड को भी लज्जित करती हैं, हे देवी! कब तुम मुझ पर अपनी कृपा कटाक्ष (दृष्टि) डालोगी?
अनेक मन्त्रनाद मञ्जु नूपुरारव स्खलत्;
समाज राजहंस वंश निक्वणाति गौरवे।
विलोलहेम वल्लरी विडम्बिचारु चङ्क्रमे; 
कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्॥10॥
आपके चरणों में स्वर्ण मण्डित नूपुर की सुमधुर ध्वनि अनेकों वेद मंत्रो के समान गुंजायमान करने वाले हैं, जैसे मनोहर राजहसों की ध्वनि गूँजायमान हो रही है। आपके अंगों की छवि चलते हुए ऐसी प्रतीत हो रही है जैसे स्वर्णलता लहरा रही है, हे जगदीश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी?
अनन्त कोटि विष्णुलोक नम्र पद्मजार्चिते;
हिमाद्रिजा पुलोमजा विरिञ्चजा वरप्रदे।
अपार सिद्धि-ऋद्धि दिग्ध सत्पदाङ्गुली नखे;
कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्॥11॥
अनंत कोटि बैकुंठों की स्वामिनी श्री लक्ष्मी जी आपकी पूजा करती हैं, श्री पार्वती जी, इन्द्राणी जी और सरस्वती जी ने भी आपकी चरण वन्दना कर वरदान पाया है। आपके चरण-कमलों की एक उंगली के नख का ध्यान करने मात्र से अपार सिद्धि की प्राप्ति होती है, हे करूणामयी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी?
मखेश्वरि क्रियेश्वरि स्वधेश्वरि सुरेश्वरि;
त्रिवेद भारतीश्वरि प्रमाण शासनेश्वरि।
रमेश्वरि क्षमेश्वरि प्रमोद काननेश्वरि
व्रजेश्वरि व्रजाधिपे श्रीराधिके नमोस्तुते॥12॥
आप सभी प्रकार के यज्ञों की स्वामिनी हैं, आप संपूर्ण क्रियाओं की स्वामिनी हैं, आप स्वधा देवी की स्वामिनी हैं, आप सब देवताओं की स्वामिनी हैं, आप तीनों वेदों की स्वामिनी हैं, आप संपूर्ण जगत पर शासन करने वाली हैं। आप रमा देवी की स्वामिनी हैं, आप क्षमा देवी की स्वामिनी हैं, आप आमोद-प्रमोद की स्वामिनी हैं, हे ब्रजेश्वरी! हे ब्रज की अधीष्ठात्री देवी श्री राधिके! आपको मेरा बारंबार नमन है।
इती ममद्भुतं स्तवं निशम्य भानुनन्दिनी;
करोतु सन्ततं जनं कृपाकटाक्ष भाजनम्।
भवेत्तदैव सञ्चित त्रिरूप कर्म नाशनं;
लभेत्तदा व्रजेन्द्र सूनु मण्डल प्रवेशनम्॥13॥
हे वृषभानु नंदिनी! मेरी इस निर्मल स्तुति को सुनकर सदैव के लिए मुझ दास को अपनी दया दृष्टि से कृतार्थ करने की कृपा करो। केवल आपकी दया से ही मेरे प्रारब्ध कर्मों, संचित कर्मों और क्रियामाण कर्मों का नाश हो सकेगा, आपकी कृपा से ही भगवान् श्री कृष्ण के नित्य दिव्यधाम की लीलाओं में सदा के लिए प्रवेश हो जाएगा।
राकायां च सिताष्टम्यां दशम्यां च विशुद्धधीः।
एकादश्यां त्रयोदश्यां यः पठेत्साधकः सुधीः ॥14॥
यदि कोई साधक पूर्णिमा, शुक्ल पक्ष की अष्टमी, दशमी, एकादशी और त्रयोदशी के रूप में जाने जाने वाले चंद्र दिवसों पर स्थिर मन से इस स्तवन का पाठ करे तो...।
यं यं कामयते कामं तं तमाप्नोति साधकः।
राधाकृपाकटाक्षेण भक्तिःस्यात् प्रेमलक्षणा॥15॥
जो-जो साधक की मनोकामना हो वह पूर्ण हो और श्री राधा की दयालु पार्श्व दृष्टि से वे भक्ति सेवा प्राप्त करें जिसमें भगवान् के शुद्ध, परमानंद प्रेम (प्रेम) के विशेष गुण हैं।
ऊरुदघ्ने नाभिदघ्ने हृद्दघ्ने कण्ठदघ्नके।
राधाकुण्डजले स्थिता यः पठेत् साधकः शतम्॥16॥
जो साधक श्री राधा-कुंड के जल में खड़े होकर (अपनी जाँघों, नाभि, छाती या गर्दन तक) इस स्तम्भ (स्तोत्र) का 100 बार पाठ करे…।
तस्य सर्वार्थ सिद्धिः स्याद् वाक्सामर्थ्यं तथा लभेत्।
ऐश्वर्यं च लभेत् साक्षाद्दृशा पश्यति राधिकाम्॥17॥
वह जीवन के पाँच लक्ष्यों धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष और प्रेम में पूर्णता प्राप्त करे, उसे सिद्धि प्राप्त हो। उसकी वाणी सामर्थ्यवान हो (उसके मुख से कही बातें व्यर्थ न जाए) उसे श्री राधिका को अपने सम्मुख देखने का ऐश्वर्य प्राप्त हो और…।
तेन स तत्क्षणादेव तुष्टा दत्ते महावरम्।
येन पश्यति नेत्राभ्यां तत् प्रियं श्यामसुन्दरम्॥18॥
श्री राधिका उस पर प्रसन्न होकर उसे महान वर प्रदान करें कि वह स्वयं अपने नेत्रों से उनके प्रिय श्यामसुंदर को देखने का सौभाग्य प्राप्त करे।
नित्यलीला–प्रवेशं च ददाति श्री-व्रजाधिपः।
अतः परतरं प्रार्थ्यं वैष्णवस्य न विद्यते॥19॥
वृंदावन के अधिपति (स्वामी), उस भक्त को अपनी शाश्वत लीलाओं में प्रवेश दें। वैष्णव जन इससे आगे किसी चीज की लालसा नहीं रखते।
(इति श्रीराधिकाया कृपा कटाक्ष स्तोत्र सम्पूर्णम)
 
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Thursday, April 11, 2024

अर्यमा ARYMA

संतोषॐमहादेव
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj

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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
अर्यमा :: पितरों को मुख्यतः दो श्रेणियों में रखा जा सकता है- दिव्य पितर और मनुष्य पितर। दिव्य पितर उस जमात का नाम है, जो जीवधारियों के कर्मों को देखकर मृत्यु के बाद उसे क्या गति दी जाए, इसका निर्णय करता है। इस जमात का प्रधान यमराज है। यमराज की गणना भी पितरों में होती है। काव्यवाडनल, सोम, अर्यमा और यम- ये चार इस जमात के मुख्य गण प्रधान हैं। अर्यमा को पितरों का प्रधान माना गया है और यमराज को न्यायाधीश। भगवान चित्रगुप्त सभी के कर्मों का लेखा जोखा रखने वाले हैं।
इन पांचों के अलावा प्रत्येक वर्ग की ओर से सुनवाई करने वाले हैं, यथा अग्निष्व, देवताओं के प्रतिनिधि, सोमसद या सोमपा-साध्यों के प्रतिनिधि तथा बहिर्पद-गंधर्व, राक्षस, किन्नर सुपर्ण, सर्प तथा यक्षों के प्रतिनिधि हैं। अग्रिष्वात्त, बहिर्पद आज्यप, सोमेप, रश्मिप, उपदूत, आयन्तुन, श्राद्धभुक व नान्दीमुख ये नौ दिव्य पितर बताए गए हैं। आदित्य, वसु, रुद्र तथा दोनों अश्विनी कुमार भी केवल नांदीमुख पितरों को छोड़कर शेष सभी को तृप्त करते हैं। इन सबसे गठित जो जमात है, वही पितर हैं। यही मृत्यु के बाद न्याय करती है। आओ जानते हैं पितरों के देर्व अर्यमा का परिचय।
ॐ अर्यमा न त्रिप्य्ताम इदं तिलोदकं तस्मै स्वधा नमः। ॐ मृत्योर्मा अमृतं गमय॥
पितरों में अर्यमा श्रेष्ठ है। अर्यमा पितरों के देव हैं। अर्यमा को प्रणाम। हे! पिता, पितामह, . और प्रपितामह। हे! माता, मातामह और प्रमातामह आपको भी बारम्बार प्रणाम। आप हमें मृत्यु से 5 अमृत की ओर ले चलें।
पितरों के लिए श्रद्धा से किए गए मुक्ति कर्म को श्राद्ध कहते हैं तथा तृप्त करने की क्रिया और देवताओं, ऋषियों या पितरों को तंडुल या तिल मिश्रित जल अर्पित करने की क्रिया को तर्पण कहते हैं। श्राद्ध पक्ष का माहात्म्य उत्तर व उत्तर-पूर्व भारत में ज्यादा है। तमिलनाडु में आदि अमावसाई, केरल में करिकडा वावुबली और महाराष्ट्र में इसे पितृ पंधरवड़ा नाम से जानते हैं। हे अग्नि! हमारे श्रेष्ठ सनातन यज्ञ को संपन्न करने वाले पितरों ने जैसे देहांत होने पर श्रेष्ठ ऐश्वर्य वाले स्वर्ग को प्राप्त किया है, वैसे ही यज्ञों में इन ऋचाओं का पाठ करते हुए और समस्त साधनों से यज्ञ करते हुए हम भी उसी ऐश्वर्यवान स्वर्ग को प्राप्त करें।[यजुर्वेद]
(1). ऋषि कश्यप की पत्नीं अदिति के 12 पुत्रों में से एक अर्यमन हैं। ये बारह हैं:- अंशुमान, इंद्र, अर्यमन, त्वष्टा, धातु, पर्जन्य, पूषा, भग, मित्र, वरुण, विवस्वान और त्रिविक्रम (वामन)।
(2). अदिति के तीसरे पुत्र और आदित्य नामक सौर-देवताओं में से एक अर्यमन या अर्यमा को पितरों का देवता भी कहा जाता है।
(3). आकाश में आकाशगंगा उन्हीं के मार्ग का सूचक है। सूर्य से संबंधित इन देवता का अधिकार प्रातः और रात्रि के चक्र पर है।
(4). चंद्रमंडल में स्थित पितृलोक में अर्यमा सभी पितरों के अधिपति नियुक्त हैं। वे जानते हैं कि कौन-सा पितृत किस कुल और परिवार से है। पुराण अनुसार उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र इनका निवास लोक है। द्रमंडल में स्थित पितृलोक में अर्यमा सभी पितरों के अधिपति नियुक्त हैं।
(5). आदित्य का छठा रूप अर्यमा नाम से जाना जाता है। यह वायु रूप में प्राणशक्ति का संचार करते हैं। चराचर जगत की जीवन शक्ति हैं। प्रकृति की आत्मा रूप में निवास करते हैं।
(6). आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ऊपर की किरण (अर्यमा) और किरण के साथ पितृ प्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। 
(7). इनकी गणना नित्य पितरों में की जाती है जड़-चेतन मयी सृष्टि में, शरीर का निर्माण नित्य ही करते हैं। इनके प्रसन्न होने पर पितरों की तृप्ति होती है। श्राद्ध के समय इनके नाम से जल दिया जाता है। यज्ञ में मित्र (सूर्य) तथा वरुण (जल) देवता के साथ स्वाहा का 'हव्य' और श्रा स्वधा का 'कव्य' दोनों स्वीकार करते हैं।
श्राद्ध के समय इनके नाम से जलदान दिया जाता है। यज्ञ में मित्र (सूर्य) तथा वरुण (जल) देवता के साथ स्वाहा का 'हव्य' और श्राद्ध में स्वधा का 'कव्य' दोनों स्वीकार करते हैं। अग्नि को किए गए अन्न से सूक्ष्म शरीर और मन तृप्त होता है। इसी अग्निहोत्र से आकाश मंडल के स पक्षी भी तृप्त होते हैं। पक्षियों के लोक को भी पितृलोक कहा जाता है।
ऋषि और पितृ तर्पण विधि
तर्पण के प्रकार :- पितृ तर्पण, मनुष्य तर्पण, देव तर्पण, भीष्म तर्पण, मनुष्य पितृतर्पण,  यम तर्पण। 
तर्पण विधि :- सर्वप्रथम पूर्व दिशा की और मुंह कर दाहिना घुटना जमीन पर लगाकर, सव्य होकर (जनेऊ व अंगोछे को बाएं कंधे पर रखें) गायत्री मंत्र से शिखा बांधकर, तिलक लगाकर, दोनों हाथों की अनामिका अंगुली में कुशों का पवित्री (पैंती) धारण करें, फिर हाथ में त्रिकुशा, जौ,  अक्षत aऔर जल लेकर संकल्प पढ़ें :-
ॐ विष्णवे नम: ३। हरि: ॐ तत्सदद्यैतस्य श्रीब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे अमुकसंवत्सरे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरे अमुकगोत्रोत्पन्न: अमुकशर्मा (वर्मा, गुप्त:) अहं श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं देवर्पिमनुष्यपितृतर्पणं करिष्ये।
तीन कुश ग्रहण कर निम्न मंत्र का तीन बार उच्चारण करें :- 
ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च। नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमोनमः। 
तदनन्तर एक तांबे यां चांदी के पात्र में श्वेत चंदन, जौ, तिल, चावल, सुगंधित पुष्प और तुलसी दल रखें, फिर उस पात्र में तर्पण के लिए जल भर दें, फिर उसमें रखे हुए त्रिकुशा को तुलसी सहित सम्पुटाकार दाएं हाथ में लेकर बाएं हाथ से उसे ढंक लें और  देवताओं का आवाहन करें।
आवाहन मंत्र :- 
ॐ विश्वेदेवास ऽआगत श्रृणुता म ऽइम, हवम्। एदं वर्हिनिषीदत॥
हे विश्वे देव गण! आप लोग यहां पदार्पण करें, हमारे प्रेमपूर्वक किए हुए इस आवाहन को सुनें और इस कुश के आसन पर विराजें।
इस प्रकार आवाहन कर कुश का आसन दें और त्रिकुशा द्वारा दाएं हाथ की समस्त अंगुलियों के अग्रभाग अर्थात् देवतीर्थ से ब्रह्मादि देवताओं के लिए पूर्वोक्त पात्र में से एक-एक अंजलि तिल चावल-मिश्रित जल लेकर दूसरे पात्र में गिराएं और निम्नांकित रूप से उन-उन देवताओं के नाम मंत्र पढ़ते रहें।
देव तर्पण :-
ॐ ब्रह्मास्तृप्यताम्।
ॐ विष्णुस्तृप्यताम्।
ॐ रुद्रस्तृप्यताम्।
ॐ प्रजापतिस्तृप्यताम्।
ॐ देवास्तृप्यन्ताम्।
ॐ छन्दांसि तृप्यन्ताम्।
ॐ वेदास्तृप्यन्ताम्।
ॐ ऋषयस्तृप्यन्ताम्।
ॐ पुराणाचार्यास्तृप्यन्ताम्।
ॐ गन्धर्वास्तृप्यन्ताम्।
ॐ इतराचार्यास्तृप्यन्ताम्।
ॐ संवत्सररू सावयवस्तृप्यताम्।
ॐ देव्यस्तृप्यन्ताम्।
ॐ अप्सरसस्तृप्यन्ताम्।
ॐ देवानुगास्तृप्यन्ताम्।
ॐ नागास्तृप्यन्ताम्।
ॐ सागरास्तृप्यन्ताम्।
ॐ पर्वतास्तृप्यन्ताम्।
ॐ सरितस्तृप्यन्ताम्।
ॐ मनुष्यास्तृप्यन्ताम्।
ॐ यक्षास्तृप्यन्ताम्।
ॐ रक्षांसि तृप्यन्ताम्।
ॐ पिशाचास्तृप्यन्ताम्।
ॐ सुपर्णास्तृप्यन्ताम्।
ॐ भूतानि तृप्यन्ताम्।
ॐ पशवस्तृप्यन्ताम्।
ॐ वनस्पतयस्तृप्यन्ताम्।
ॐ ओषधयस्तृप्यन्ताम्।
ॐ भूतग्रामश्चतुर्विधस्तृप्यताम्।
ऋषि तर्पण :- इसी प्रकार निम्न मंत्र वाक्यों से मरीचि आदि ऋषियों को भी एक-एक अंजलि जल दें :-
ॐ मरीचिस्तृप्यताम्।
ॐ अत्रिस्तृप्यताम्।
ॐ अङ्गिरास्तृप्यताम्।
ॐ पुलस्त्यस्तृप्यताम्।
ॐ पुलहस्तृप्यताम्।
ॐ क्रतुस्तृप्यताम्।
ॐ वशिष्ठस्तृप्यताम्।
ॐ प्रचेतास्तृप्यताम्।
ॐ भृगुस्तृप्यताम्।
ॐ नारदस्तृप्यताम्॥
मनुष्य तर्पण :- उत्तर दिशा की ओर मुँह कर, जनेऊ व गमछे को माला की भाँति गले में धारण कर, सीधा बैठ कर  निम्नांकित मंत्रों को दो-दो बार पढ़ते हुए दिव्य मनुष्यों के लिए प्रत्येक को दो-दो अंजलि जौ सहित जल प्राजापत्यतीर्थ (कनिष्ठिका के मूल-भाग) से अर्पण करें :-
ॐ सनकस्तृप्यताम् -2
ॐ सनन्दनस्तृप्यताम् – 2
ॐ सनातनस्तृप्यताम् -2
ॐ कपिलस्तृप्यताम् -2
ॐ आसुरिस्तृप्यताम् -2
ॐ वोढुस्तृप्यताम् -2
ॐ पञ्चशिखस्तृप्यताम् -2
पितृ तर्पण :- दोनों हाथ के अनामिका में धारण किए पवित्री व त्रिकुशा को निकालकर रख दें। अब दोनों हाथ की तर्जनी अंगुली में नया पवित्री धारण कर मोटक नाम के कुशा के मूल और अग्रभाग को दक्षिण की ओर करके  अंगूठे और तर्जनी के बीच में रखें। स्वयं दक्षिण की ओर मुंह करें, बाएं घुटने को जमीन पर लगाकर अपसव्यभाव से (जनेऊ को दाएं कंधे पर रखकर बाएं हाथ जे नीचे ले जाएं ) पात्रस्थ जल में काली तिल मिलाकर पितृतीर्थ से (अंगूठा और तर्जनी के मध्यभाग से ) दिव्य पितरों के लिए निम्नांकित मन्त्र-वाक्यों को पढ़ते हुए तीन-तीन अंजलि जल दें।
ॐ कव्यवाडनलस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गंगाजलं वा तस्मै स्वधा नम: – 3
ॐ सोमस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गंगाजलं वा तस्मै स्वधा नम: – 3
ॐ यमस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गंगाजलं वा तस्मै स्वधा नम: – 3
ॐ अर्यमा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गंगाजलं वा तस्मै स्वधा नम: – 3
ॐ अग्निष्वात्ता: पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं गंगाजलं वा तेभ्य: स्वधा नम: – 3
ॐ सोमपा: पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं गंगाजलं वा तेभ्य: स्वधा नम: – 3
ॐ बर्हिषद: पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं गंगाजलं वा तेभ्य: स्वधा नम: – 3
मनुष्य पितृ तर्पण :-
इसके पश्चात् निम्न मंत्र से पितरों का आवाहन करें :-
ॐ आगच्छन्तु मे पितर एवं ग्रहन्तु जलान्जलिम।  
ॐ हे पितरों! पधारिये तथा जलांजलि ग्रहण कीजिए। 
‘हे अग्ने ! तुम्हारे यजन की कामना करते हुए हम तुम्हें स्थापित करते हैं । यजन की ही इच्छा रखते हुए तुम्हें प्रज्ज्वलित करते हैं। हविष्य की इच्छा रखते हुए तुम भी तृप्ति की कामना वाले हमारे पितरों को हविष्य भोजन करने के लिए बुलाओ। तदनन्तर अपने पितृगणों का नाम-गौत्र आदि उच्चारण करते हुए प्रत्येक के लिए पूर्वोक्त विधि से ही तीन-तीन अंजलि तिल-सहित जल इस प्रकार दें :-
अस्मत्पिता अमुकशर्मा  वसुरूपस्तृप्यतांम् इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3
अस्मत्पितामह: (दादा) अमुकशर्मा रुद्ररूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3
अस्मत्प्रपितामह: (परदादा) अमुकशर्मा आदित्यरूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3
अस्मन्माता अमुकी देवी वसुरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम: – 3
अस्मत्पितामही (दादी) अमुकी देवी  रुद्ररूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम: – 3
अस्मत्प्रपितामही परदादी अमुकी देवी आदित्यरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जल तस्यै स्वधा नम: – 3
इसके बाद नौ बार पितृतीर्थ से जल छोड़ें। इसके बाद सव्य होकर पूर्वाभिमुख हो नीचे लिखे श्लोकों को पढ़ते हुए जल गिराएं। 
देवासुरास्तथा यक्षा नागा गन्धर्वराक्षसा:। 
पिशाचा गुह्यका: सिद्धा: कुष्माण्डास्तरव: खगा:॥ 
जलेचरा भूमिचराः वाय्वाधाराश्च जन्तव:।
प्रीतिमेते प्रयान्त्वाशु मद्दत्तेनाम्बुनाखिला:॥
यम तर्पण :- 
इसी प्रकार निम्नलिखित मंत्रों को पढ़ते हुए चौदह यमों के लिए भी पितृतीर्थ से ही तीन-तीन अंजलि तिल सहित जल दें
ॐ यमाय नम: – 3
ॐ धर्मराजाय नम: – 3
ॐ मृत्यवे नम: – 3
ॐ अन्तकाय नम: – 3
ॐ वैवस्वताय नमः – 3
ॐ कालाय नम: – 3
ॐ सर्वभूतक्षयाय नम: – 3
ॐ औदुम्बराय नम: – 3
ॐ दध्नाय नम: – 3
ॐ नीलाय नम: – 3
ॐ परमेष्ठिने नम: – 3
ॐ वृकोदराय नम: – 3
ॐ चित्राय नम: – 3
ॐ चित्रगुप्ताय नम: – 3
बृहद्वरूथं मरुतां देवं त्रातरमश्विना। मित्रमीमहे वरुणं स्वस्तये
हे मरुतों के पालक इन्द्र देव! दोनों अश्विनी कुमारों, मित्र और वरुण देव के निकट प्रौढ़ और शीत, आतप आदि के निवारक गृह को मङ्गल के लिए, हम आपसे माँगते हैं।[ऋग्वेद 8.18.20]
प्रौढ़ :: पूर्णतः बढ़ा हुआ, मध्य अवस्था को प्राप्त; adult, matured.
Hey nurturer of Marud Gan Indr Dev! We wish to have that house which is fully built up, protective from cold-winters and free from troubles-tensions, close to both Ashwani Kumars, Mitr and Varun Dev.
अनेहो मित्रार्यमन्नृवद्वरुण शंस्यम्। त्रिवरूथं मरुतो यन्त नश्छर्दिः
हे मित्र, अर्यमा, वरुण और मरुद्गणों आप लोग हिंसा रहित, पुत्रादि युक्त और स्तुत्य हैं। शीत, आतप और वर्षा से निवारण करने वाला गृह हमें प्रदान करें।[ऋग्वेद 8.18.21]
Hey Mitr, Aryma, Varun and Marud Gan, you are free from violence, have sons and are worshipable. Grant us a house which is free from cold, heat and rains. 


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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)
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Thursday, January 18, 2024

वास्तोष्पति VASTOSHPATE

वास्तोष्पति VASTOSHPATE
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj

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ॐ गं गणपतये नम:।   
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
ऋग्वेद संहिता, षष्ठम मण्डल सूक्त (52) :: ऋषि :- वसिष्ठ मैत्रा-वरुण; देवता :- इन्द्र; छन्द :- त्रिष्टुप।
आदित्यासो अदितयः स्याम पूर्देवत्रा वसवो मर्त्यत्रा।
सनेम मित्रावरुणा सनन्तो भवेम द्यावापृथिवी भवन्तः
हम आदित्यों के आत्मीय हैं; हम अखण्डनीय होवें। देवताओं में हे वसुओं! मनुष्यों की आप रक्षा करें। हे मित्र और वरुण देव! आपका भजन करते हुए हम धन का उपभोग करें। हे द्यावा-पृथ्वी! हम शक्ति युक्त होवें।[ऋग्वेद 7.52.1]
आत्मीय :: अपना, अपने लोग, भाई-बंधु, सजाति, संबंधी; cognate, kindred, intimate, proper. 
We are intimate of the Adity Gan. Our relation should persist. Hey Vasus! Protect the humans. Hey Mitr & Varun Dev! We should use the money while remembering you. Hey earth & heavens! We should possess strength.
मित्रस्तन्नो वरुणो मामहन्त शर्म तोकाय तनयाय गोपाः।
मा वो भुजेमान्यजातमेनो मा तत्कर्म वसवो यच्चयध्वे
मित्र और वरुणदेव आदि आदित्यगण हमारे पुत्र और पौत्र को सुख प्रदान करें। दूसरों का किया हुआ पाप हम न भोगें। जिस कर्म को करने पर आप नाश करते हैं, हे वसुओं! हम वह कर्म न करें।[ऋग्वेद 7.52.2]
Mitr & Varun Dev should grant pleasure-comforts to our sons and grand sons. We should not suffer due to the sins of others. Hey Vasus! We should not do such things due to which you destroy.
तुरण्यवोऽङ्गिरसो नक्षन्त रत्नं देवस्य सवितुरियानाः।
पिता च तन्नो महान्यजत्रो यो विश्वे देवाः समनसो जुषन्त
क्षिप्रकारी अंगिरा लोगों ने सविता देव के पास याचना करके उनके जिस रमणीय धन को प्राप्त किया, उसी धन को यज्ञशील महान पिता (प्रजापति) और समस्त देवगण समान मन से हमें प्रदान करें।[ऋग्वेद 7.52.3]
The wealth attained by Angiras by approaching and praying Savita Dev should be given to us by great father Prajapati busy with the Yagy to us and all demigods-deities should always be happy-pleased with us.(18.01.2024)
ऋग्वेद संहिता, षष्ठम मण्डल सूक्त (53) :: ऋषि :- वसिष्ठ मैत्रा-वरुण; देवता :- इन्द्र; छन्द :- त्रिष्टुप।
प्र द्यावा यज्ञैः पृथिवी नमोभिः सबाध ईळे बृहती यजत्रे।
ते चिद्धि पूर्व कवयो गृणन्तः पुरो मही दधिरे देवपुत्रे
जिन विशाल और देवताओं की जननी द्यावा-पृथ्वी को स्तोताओं ने स्तुति करते हुए आगे स्थापित किया, उनसे हम यज्ञ और अन्न के द्वारा कष्ट दूर करने के लिए नमस्कार पूर्वक प्रार्थना करते हैं।[ऋग्वेद 7.53.1]
We worship & pray saluting with Yagy and food grains, the heaven-earth, the producer of great demigods-deities, installed by the Stotas.
प्र पूर्वजे पितरा नव्यसीभिर्गीर्भिः कृणुध्वं सदने ऋतस्य।
आ नो द्यावापृथिवी दैव्येन जनेन यातं महि वां वरूथम्
हे स्तोताओं! आप लोग नई स्तुतियों द्वारा पूर्वज्ञाता और मातृ-पितृभूता, द्यावा-पृथ्वी को यज्ञस्थान के अग्रभाग में स्थापित करें। द्यावा-पृथ्वी अपना महान और वरणीय धन देने के लिए देवताओं के साथ हमारे समक्ष पधारें।[ऋग्वेद 7.53.2]
Hey Stotas! Establish the heaven & earth aware of the past, who are like parents with new Stutis-prayers in front segment of the Yagy site. Let heaven & earth invoke with demigods-deities for granting us suitable wealth in front of us.
उतो हि वां रत्नधेयानि सन्ति पुरूणि द्यावापृथिवी सुदासे।
अस्मे धत्तं यदसदस्कृधोयु यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः
हे द्यावा-पृथ्वी! आपके पास शोभन हवि देने वाले यजमान के लिए देने योग्य बहुत रमणीय धन है। धन में जो धन अक्षय हो, उसे ही हमें प्रदान करें। आप हमारा सदैव कल्याण (स्वस्ति) के साथ पालन करें।[ऋग्वेद 7.53.3]
Hey heaven & earth! You have pleasant wealth for the Ritviz who make beautiful offerings. Grant us the imperishable wealth. You should always nurse-nurture us with Swasti-welfare means.(18.01.2024)
ऋग्वेद संहिता, षष्ठम मण्डल सूक्त (54) :: ऋषि :- वसिष्ठ मैत्रा-वरुण; देवता :- इन्द्र; छन्द :- त्रिष्टुप।
वास्तोष्पते प्रति जानीह्यस्मान्स्वावेशो अनमीवो भवा नः।
यत्त्वेमहे प्रति तन्नो जुषस्व शं नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे
हे वास्तोष्पति! आप हमें जगावें। हमारे गृह को नीरोगी करें। हम जो धन माँगें, वह हमें प्रदान करें। हमारे पुत्र-पौत्रादि द्विपदों और गौ, अश्व आदि चतुष्पदों को सुखी करें।[ऋग्वेद 7.54.1]
Hey Vastoshpate! Wake us. Make our home free from illness, diseases, ailments. Grant us the wealth desired by us. Make our sons, grand sons, two hoofed and cows, horses and four hoofed comfortable.
वास्तोष्पते प्रतरणो न एधि गयस्फानो गोभिरश्वेभिरिन्दो।
अजरासस्ते सख्ये स्याम पितेव पुत्रान्प्रति नो जुषस्व
हे वास्तोष्पति! आप हमारे और हमारे धन के वर्द्धयिता होवें। हे सोम की तरह आह्लादक देव! आपके मित्र होने पर हम गौओं और अश्वों वाले और जरा रहित होंगे। जिस प्रकार पिता पुत्र का पालन करता है, उसी प्रकार आप हमारा पालन करें।[ऋग्वेद 7.54.2]
Hey Vastoshpate! You should boost our wealth. Hey pleasure-exhilarating granting like Som! Friendly with you, we should possess cows, horses and become free from aging-old age. The way a father cares for his sons you should nurse us like that.
वास्तोष्पते शग्मया संसदा ते सक्षीमहि रण्वया गातुमत्या।
पाहि क्षेम उत योगे वरं नो यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः
हे वास्तोष्पति! हम आपका सुखकर, रमणीय और धनवान स्थान प्राप्त करें। आप हमारे प्राप्त और अप्राप्त वरणीय धन की रक्षा करें और हमारा स्वस्ति के साथ सदैव पालन करें।[ऋग्वेद 7.54.3]
Hey Vastoshpate! We should attain your comfortable, beautiful and rich abode-place. Protect our available and yet to be availed, wealth. Nurse us with Swati.(18.01.2024)
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)
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Monday, November 13, 2023

SHIELD, ARROW, CHARIOTEER, CHAROITE वर्म, धनु, सारथि, रथादि (RIG VED ऋग्वेद 6)

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CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj

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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]

ऋग्वेद संहिता, षष्ठम मण्डल सूक्त (75) :: ऋषि :- पायु भरद्वाज; देवता :- वर्म, धनु, सारथि, रथादि; छन्द :- त्रिष्टुप् जगती, अनुष्टुप् पंक्ति।
जीमूतस्येव भवति प्रतीकं यद्वर्मी याति समदामुपस्थे।
अनाविद्धया तन्वा जय त्वं स त्वा वर्मणो महिमा पिपर्तु
युद्ध प्रारम्भ हो जाने पर जब राजा जिस समय लौहमय कवच पहन कर जाता है, समय मालूम पड़ता है कि यह साक्षात् मेघ हैं। राजन् अविद्ध शरीर रहकर विजय प्राप्त करें। उस कवच की महान शक्ति आपकी रक्षा करे।[ऋग्वेद 6.75.1]
When the king wear the iron shield over his chest and come to the battle field, he appears like clouds. Let the king attain victory without being pierced by the arrows. Let the power of great shield protect him.
धन्वना गा धन्वनाजिं जयेम धन्वना तीव्राः समदो जयेम।
धनुः शत्रोरपकामं कृणोति धन्वना सर्वाः प्रदिशो जयेम
हम धनुष के द्वारा शत्रुओं की गौवों को जीतेंगे, युद्ध जीतेंगे और मदोन्मत्त शत्रुओं के सेना का वध करेंगे। शत्रुओं की अभिलाषा धनुष से नष्ट करेंगे। हम इस धनुष से समस्त दिशाओं में स्थित शत्रुओं का विनाश करेंगे।[ऋग्वेद 6.75.2]
We will win the cows of the enemy with the power of the bow and kill their intoxicated armies. We will destroy the ambitions of the enemy with the bow. We will destroy the enemies with the bow in all directions. 
वक्ष्यन्तीवेदा गनीगन्ति कर्णं प्रियं सखायं परिषस्वजाना।
योषेव शिङ्क्ते वितताधि धन्वञ्ज्या इयं समने पारयन्ती
धनुष की यह ज्या युद्ध बेला में युद्ध से पार ले जाने की इच्छा करके मानो प्रिय वचन बोलने के लिए ही धनुर्धारी के कान के पास आती है। जिस प्रकार से स्त्री प्रिय पति का आलिङ्गन करके बात करती है, उसी प्रकार यह ज्या भी बाण का आलिङ्गन करके ही शब्द करती है।[ऋग्वेद 6.75.3]
The cord of the bow reach the ears of the archer during the war, as if it wants to speak lovely words to him. The way a wife embrace her husband; this cord too embrace the arrow and make sound.
ते आचरन्ती समनेव योषा मातेव पुत्रं बिभृतामुपस्थे।
अप शत्रून्विध्यतां संविदाने र्त्नी इमे विष्फुरन्ती अमित्रान्
वे दोनों कोटियाँ अन्य मनस्का स्त्री की तरह आचरण करके शत्रुओं के ऊपर आक्रमण करते समय माता की तरह पुत्र तुल्य राजा की रक्षा करती हैं और अपने कार्य को भली-भाँति जानकर जाते हुए इस राजा के द्वेषी शत्रुओं का वेधन करती हैं।[ऋग्वेद 6.75.4]
Both these items (bow & arrow) behave like a woman inclined to some one else, behaves like a mother and protect the king like a son, understanding fully well its job and pierce the envious enemies.
बह्वीनां पिता बहुरस्य पुत्रश्चिश्चा कृणोति समनावगत्य।
इषुधिः सङ्काः पृतनाश्च सर्वाः पृष्ठे निनद्धो जयति प्रसूतः
यह तूणीर अनेक बाणों का पिता है। कितने ही बाण इसके पुत्र हैं। बाण निकालने के समय यह तूणीर “त्रिश्वा" शब्द करता है। यह योद्धा के पृष्ठ देश में निबद्ध रहकर युद्धकाल में बाणों का प्रसव करता हुआ समस्त सेना को जीत लेता है।[ऋग्वेद 6.75.5]
This quiver is the father of several arrows. Many arrows are its son. Quiver makes the sound trishrava while taking the arrow out of it. It stays over the back of the warrior and during the war it evolves the arrows and wins the whole army.
रथे तिष्ठन्नयति वाजिनः पुरो यत्रयत्र कामयते सुषारथिः।
अभीशूनां महिमानं पनायत मनः पश्चादनु यच्छन्ति रश्मयः
सुन्दर सारथि रथ में अवस्थान करके आगे के घोड़ों को जहाँ इच्छा होती है, वहाँ ले जाता है। रस्सियाँ अश्वों के तक फैल कर और अश्वों के पीछे फैलकर सारथि के मन के अनुकूल नियुक्त होती हैं।[ऋग्वेद 6.75.6]
The charioteer deploy the horses and takes the charoite as per his wish. Reins extend till the gorge of the mouth of the horse and fixed as per need of the charioteer.
तीव्रान् घोषान् कृण्वते वृषपाणयोऽश्वा रथेभिः सह वाजयन्तः।
अवक्रामन्तः प्रपदैरमित्रान् क्षिणन्ति शत्रूंरनपव्ययन्तः
अश्व टापों से धूल उड़ाते हुए और रथ के साथ संवेग जाते हुए हिनहिनाते हैं तथा पलायन न करके हिंसक शत्रुओं को टापों-खुरों से पीटते हैं।[ऋग्वेद 6.75.7]
The horses raise dust and neigh running with speed and attack the enemies with their hoofs.
रथवाहनं हविरस्य नाम यत्रायुधं निहितमस्य वर्म।
तत्रा रथमुप शग्मं सदेम विश्वाहा वयं सुमनस्यमानाः
जिस प्रकार से हव्य अग्नि को बढ़ाता है, उसी प्रकार इस राजा के रथ द्वारा वहन किया जाने वाला धन इसे वर्द्धित करे। रथ पर इस राजा के अस्त्र, कवच आदि रहते हैं। हम सदा प्रसन्नचित्त से उस सुखावह रथ के पास जाते हैं।[ऋग्वेद 6.75.8]
The manner in which offerings raise the fire, the wealth carried in the charoite make the king prosper. The charoite carries the shield and weapons of the king. We approach the comfortable-blissful charoite happily.
स्वादुषंसदः पितरो वयोधाः कृच्छ्रश्रितः शक्तीवन्तो गभीराः।
चित्रसेना इषुबला अमृध्राः सतोवीरा उरवो व्रातसाहाः
रथ के रक्षक शत्रुओं के सुस्वादु अन्न को नष्ट करके अपने पक्ष के लोगों को अन्न प्रदान करते हैं। विपत्ति के समय इनका आश्रय लिया जाता है। ये शक्तिमान, गंभीर, विचित्र सेना से युक्त, बाण बल सम्पन्न अहिंसक, वीर, महान और अनेक शत्रुओं को जीतने में समर्थ हैं।[ऋग्वेद 6.75.9]
Protectors of the charoite destroy the tasty food of the enemy and grant food grains to the people on their side. Asylum is sought under them during calamity-disaster. They are mighty, serious, possess amazing armies, have the power of arrows, brave, great and capable of winning the enemy.
ब्राह्मणासः पितरः सोम्यासः शिवे नो द्यावापृथिवी अनेहसा।
पूषा नः पातु दुरिताद् ऋतावृधो रक्षा माकिर्नो अघशंस ईशत
हे ब्राह्मणो, पितरों और यज्ञ वर्द्धक सोम सम्पादक! आप हमारी रक्षा करें। पाप शून्या द्यावा-पृथ्वी हमारे लिए सुखकारी हों। पूषा हमें पाप से बचावें। हमारा पापी शत्रु अपना प्रभुत्व स्थापित न करने पावे।[ऋग्वेद 6.75.10]
Hey Brahmans, Manes and promotor of the Yagy, Som! Protect us. Let the sinless earth & heavens comfortable to us. Let Pusha save us from sins. The sinful enemy should not be able to impose his dominion.
सुपर्णं वस्ते मृगो अस्या दन्तो गोभिः संनद्धा पतति प्रसूता।
यत्रा नरः सं च वि च द्रवन्ति तत्रास्मभ्यमिषवः शर्म यंसन्
बाण शोभन पंख धारित करता है। इसका दाँत मृगश्रृंग है। यह ज्या अथवा गोचर्म से अच्छी तरह बद्ध है। यह प्रेरित होकर पतित होता है। जहाँ मनुष्य एकत्र या पृथकरूप से विचरण करते हैं, वहाँ यह बाण हमें शरण प्रदान करें।[ऋग्वेद 6.75.11]
The arrows have feathers. Its teeth are made of deer's horns. Its covered with cow skin. It strikes on being aimed. Let the arrows grant us shelter, where the people gather or roam separately.
ऋजीते परि वृङ्धि नोऽश्मा भवतु नस्तनूः।
सोमो अधि ब्रवीतु नोऽदितिः शर्म यच्छतु
बाण हमें परिवर्द्धित करें। हमारा शरीर पाषाण के समान है। सोमदेव हमें उत्साहित करें और देवमाता अदिति हमें सुख प्रदान करें।[ऋग्वेद 6.75.12]
Let arrows enhance-boost us. Our bodies are like the rocks. Let Som Dev encourage us and Dev Mata Aditi grant us pleasure.
आ जङ्घन्ति सान्वेषां जघनाँ उप जिघ्नते।
अश्वाजनि प्रचेतसोऽश्वान्त्समत्सु चोदय
कशा (चाबुक), प्रकृष्ट ज्ञानी सारथि लोग आपके द्वारा अश्वों के उरु और जघन में मारते हैं। संग्राम में आप अश्वों को प्रेरित करें।[ऋग्वेद 6.75.13]
The trained charioteer strike the femur and thigh with whip. Encourage the horses in the battle-war.
अहिरिव भोगैः पर्येति बाहुं ज्याया हेतिं परिबाधमानः।
हस्तघ्नो विश्वा वयुनानि विद्वान्पुमान्पुमांसं परि पातु विश्वतः
हस्तघ्न ज्या के आघात का निवारण करता हुआ सर्प के सदृश शरीर के द्वारा प्रकोष्ठ को परिवेष्टित करता है, समस्त ज्ञातव्य विषयों को जानता है और पौरुषशाली होकर चारों ओर से रक्षण करता है।[ऋग्वेद 6.75.14]
The ward of the fore-arm protect it from the abrasion of the bow-string, surrounds the arm like a snake with its convolutions. Let the brave man, expert in warfare, defend a combatant all from four directions.
आलाक्ता या ररुशीष्र्ण्यथो यस्या अयो मुखम्।
इदं पर्जन्यरेतस इष्वै देव्यै बृहन्नमः
जो विषाक्त है, जिसका अग्रभाग हिंसक और और जिसका मुख लौहमय है, उसी पर्जन्य से उत्पन्न विशाल बाण देवता को हमारा नमस्कार है।[ऋग्वेद 6.75.15]
We salute Parjany out of whom the large deity Van-arrow appear, which is poisonous, with harmful tips & iron mouthed.
अवसृष्टा परा पत शरव्ये ब्रह्मसंशिते।
गच्छामित्रान्प्र पद्यस्व मामीषां कं चनोच्छिषः
मंत्र प्रयोग से तीक्ष्ण किए गए हे बाण रूप अस्त्र! हमारे द्वारा छोड़े जाने पर आप शत्रुओं की सेना पर एक साथ प्रहार करें। उनके शरीर में प्रविष्ट होकर आप सभी का सर्वनाश करें और शत्रुओं को जीवित न छोड़े।[ऋग्वेद 6.75.16]
Sharpened with Mantr Shakti, hey weapon in the form of arrow! Strike the enemy on being shot by us. Pierce their bodies and destroy them all.
यत्र बाणाः संपतन्ति कुमारा विशिखाइव।
तत्रा नो ब्रह्मणस्पतिरदितिः शर्म यच्छतु विश्वाहा शर्म यच्छतु
मुण्डित कुमारों की तरह जिस युद्ध में बाण गिरते हैं, उसमें हमें ब्रह्मण स्पति और माता अदिति सुख प्रदान कर हमारा कल्याण करें।[ऋग्वेद 6.75.17]
Let Brahman Spati and Mata Aditi grant us comforts-pleasure and benefit us the manner in which the arrows fall in the war like the shaved heads.
मर्माणि ते वर्मणा छादयामि सोमस्त्वा राजामृतेनानु वस्ताम्।
उरोर्वरीयो वरुणस्ते कृणोतु जयन्तं त्वानु देवा मदन्तु
हे राजन्! आपके शरीर के मर्मस्थानों को कवच से आच्छादित कर रहा हूँ। सोम राजा आपको अमृत द्वारा आच्छादित करें, वरुण देव आपको श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठतम सुख प्रदान करें। आपके विजयी होने पर देवगण हर्षित होवें।[ऋग्वेद 6.75.18]
Hey king! I am covering your sensitive organs with the shield. Let Som Dev cover you with elixir-nectar & Varun Dev grant you excellent pleasures. Let the demigods-deities become happy with your victory.
यो नः स्वो अरणो यश्च निष्ट्यो जिघांसति।
देवास्तं सर्वे धूर्वन्तु ब्रह्म वर्म ममान्तरम्
जो कुटुम्बी हमारे प्रति प्रसन्न न होकर जो हमसे अलग रहकर हमारे वध की इच्छा रखते हैं, उन्हें सभी देवता गण नष्ट कर दें। हमारे लिए तो वेदमन्त्र ही बाण निवारक कवच है।[ऋग्वेद 6.75.19]
Let the demigods-deities destroy the people of our clan, who separate from us and wish to kill us.  Let the Ved Mantr be protective to us from arrows like a shield.(13.11.2023)
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)