Monday, November 16, 2015

RISHIS-SAGES ऋषि

RISHIS ऋषि
 CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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 ॐ गं गणपतये नमः।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
सप्त ऋषि :: ऋषि संस्कृत भाषा का शब्द है। ऋषि का स्थान तपस्वी और योगी की तुलना में उच्चतम होता है। ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि, परमर्षि, काण्डर्षि, श्रुतर्षि और राजर्षि ऋषियों की 7 श्रेणियाँ हैं। साधु-संत, संन्यासी, परिव्राजक, तपस्वी, मुनि, ब्रह्मचारी, यती समाज से अलग हुए अन्य व्यक्ति हैं।
Rishi is an ancient term used for enlightened sages-saints, who preferred to live in either in isolation or with the family. Some of them used to teach the students in their Ashram, while some lived with their families in groups-colony. They were prudent, visionary, far sighted with the capability to peep into future. Some of them lived alone while most of them had families and students as well. Their only common goals was welfare of society, renunciation-emancipation i.e., Moksh-Salvation.
They often resorted to Tapasya-asceticism. 
(1). केतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ठ तथा भृगु, (2). अत्रि, भृगु, कौत्सा, वशिष्ठ, गौतम, कश्यप और अंगिरस, (3). कश्यप, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नी, भारद्वाज सप्त ऋषि हैं। विभिन्न कालों, मन्वन्तरों, चतुर्युगियों में सप्तऋषि अलग-अलग होंगें। 
सामान्यतया मौन रखने वाले व्यक्ति मुनि कहे जाते हैं। देवऋषि नारद को अक्सर मुनि की संज्ञा दी जाती है। भगवान् वेद व्यास को भी अक्सर मुनि कह दिया जाता है। वो महर्षि थे जिन्होंने वेद को चार भागों में विभाजित किया। वे महाभारत और अठारह पुराणों के रचनाकार भी हैं। बाल्मीकि को महर्षि कहा गया है। 
जीवन का चौथा चरण सन्यास कहा गया है। संसार का त्याग करके एक समय भिक्षा से या कन्द-मूल खाकर आबादी से दूर रहकर भगवत भजन, तपस्या करने वाले व्यक्ति सन्यासी कहे जाते हैं। 
परिव्राजक, परमहंस, यती संसार सागर घर-गृहस्थी को त्याग चुके व्यक्ति हैं।
तपस्वी वह व्यक्ति है जो कि शारीरिक और मानसिक प्रलोभनों से मुक्त, अनुशासन और कष्ट सहिष्णुता, धैर्य और संयम से युक्त है। 
भगीरथ, हिरण्यकश्यप, रावण, विश्वामित्र भी तपस्वी की श्रेणी में आते हैं। इन लोगों ने ध्येय-आकांक्षाओं की पूर्ति के लिये तपस्या की।  
योगी अपनी शारीरिक, आध्यत्मिक शक्तियों को ईश्वर में केन्द्रित करता है। 
आकाश में 7 तारों का एक समूह नजर आता है, जिसे सप्त ऋषि मण्डल कहा गया है। ये 7 तारे ध्रुव तारे  की परिक्रमा करते हैं।
7 प्रकार के ऋषि :: 
सप्त ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि, परमर्षय:, 
कण्डर्षिश्च, श्रुतर्षिश्च, राजर्षिश्च क्रमावश।
(1). ब्रह्मर्षि, (2). देवर्षि, (3). महर्षि, (4). परमर्षि, (5). काण्डर्षि, (6). श्रुतर्षि और (7). राजर्षि। 
प्रत्येक मन्वंतर में प्रमुख रूप से 7 प्रमुख ऋषि हुए हैं। 
विष्णु पुराण के अनुसार नामावली ::
(1). प्रथम स्वायंभुव मन्वंतर :- मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वशिष्ठ।
(2). द्वितीय स्वारोचिष मन्वंतर :- ऊर्ज्ज, स्तम्भ, वात, प्राण, पृषभ, निरय और परीवान।
(3). तृतीय उत्तम मन्वंतर :- महर्षि वशिष्ठ के सातों पुत्र।
(4). चतुर्थ तामस मन्वंतर :- ज्योतिर्धामा, पृथु, काव्य, चैत्र, अग्नि, वनक और पीवर।
(5). पंचम रैवत मन्वंतर :- हिरण्यरोमा, वेदश्री, ऊर्ध्वबाहु, वेदबाहु, सुधामा, पर्जन्य और महामुनि।
(6). षष्ठ चाक्षुष मन्वंतर :- सुमेधा, विरजा, हविष्मान, उतम, मधु, अतिनामा और सहिष्णु।
(7). वर्तमान सप्तम वैवस्वत मन्वंतर :- कश्यप, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और भारद्वाज।
भविष्य में ::
(1). अष्टम सावर्णिक मन्वंतर :- गालव, दीप्तिमान, परशुराम, अश्वत्थामा, कृप, ऋष्यश्रृंग और व्यास।
(2). नवम दक्षसावर्णि मन्वंतर :- मेधातिथि, वसु, सत्य, ज्योतिष्मान, द्युतिमान, सबन और भव्य।
(3). दशम ब्रह्मसावर्णि मन्वंतर :- तपोमूर्ति, हविष्मान, सुकृत, सत्य, नाभाग, अप्रतिमौजा और सत्यकेतु।
(4).  एकादश धर्मसावर्णि मन्वंतर :- वपुष्मान्, घृणि, आरुणि, नि:स्वर, हविष्मान्, अनघ और अग्नितेजा।
(5). द्वादश रुद्रसावर्णि मन्वंतर :- तपोद्युति, तपस्वी, सुतपा, तपोमूर्ति, तपोनिधि, तपोरति और तपोधृति।
(6).  त्रयोदश देवसावर्णि मन्वंतर :- धृतिमान, अव्यय, तत्वदर्शी, निरुत्सुक, निर्मोह, सुतपा और निष्प्रकम्प।
(7). चतुर्दश इन्द्रसावर्णि मन्वंतर :- अग्नीध्र, अग्नि, बाहु, शुचि, युक्त, मागध, शुक्र और अजित।
इन ऋषियों में से कुछ कल्पान्त-चिरंजीवी, मुक्तात्मा और दिव्य देह धारी हैं।
(1). गौतम, (2). भरद्वाज, (3). विश्वामित्र, (4). जमदग्नि, (5). वसिष्ठ, (6). कश्यप और (7). अत्रि।[शतपथ ब्राह्मण]
(1). मरीचि, (2).  अत्रि, (3). अंगिरा, (4). पुलह, (5). क्रतु, (6). पुलस्त्य और (7). वसिष्ठ सप्तर्षि माने गए हैं।[महाभारत] 
महाभारत में राजधर्म और धर्म के प्राचीन आचार्यों के नाम इस प्रकार हैं :– बृहस्पति, विशालाक्ष (शिव), शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज और गौरशिरस मुनि।
मनु, बृहस्पति, उशनस (शुक्र), भरद्वाज, विशालाक्ष (शिव), पराशर, पिशुन, कौणपदंत, वातव्याधि और बहुदंती पुत्र।[कौटिल्य अर्थशास्त्र]
वैवस्वत मन्वंतर में वशिष्ठ ऋषि हुए। उस मन्वंतर में उन्हें ब्रह्मर्षि की उपाधि मिली। वशिष्ठजी ने गृहस्थाश्रम की पालना करते हुए ब्रह्माजी के मार्ग दर्शन में उन्होंने सृष्टि वर्धन, रक्षा, यज्ञ आदि से संसार को दिशा बोध दिया।
कश्यप :: मारीच ऋषि के पुत्र और आर्य नरेश दक्ष की 13 कन्याओं के पुत्र थे। स्कंद पुराण के केदारखंड के अनुसार, इनसे देव, असुर और नागों की उत्पत्ति हुई।
जमदग्नि ::  भृगुपुत्र यमदग्नि ने गोवंश की रक्षा पर ऋग्वेद के 16 मंत्रों की रचना की है। केदारखंड के अनुसार, वे आयुर्वेद और चिकित्साशास्त्र के भी विद्वान थे।
सप्तऋषि मण्डल :: आकाश में सात तारों का एक मंडल नजर आता है उन्हें सप्तर्षियों का मंडल कहा जाता है। उक्त मंडल के तारों के नाम भारत के महान सात संतों के आधार पर ही रखे गए हैं। वेदों में उक्त मंडल की स्थिति, गति, दूरी और विस्तार की विस्तृत चर्चा मिलती है। प्रत्येक मनवंतर में सात सात ऋषि हुए हैं। यहां प्रस्तुत है वैवस्तवत मनु के काल में जन्में सात महान ‍ऋषियों का संक्षिप्त परिचय।
वेदों के  ज्ञाता :: ऋग्वेद में लगभग एक हजार सूक्त हैं, लगभग दस हजार मन्त्र हैं। चारों वेदों में करीब बीस हजार हैं और इन मन्त्रों के रचयिता कवियों को हम ऋषि कहते हैं। बाकी तीन वेदों के मन्त्रों की तरह ऋग्वेद के मन्त्रों की रचना में भी अनेकानेक ऋषियों का योगदान रहा है। पर इनमें भी सात ऋषि ऐसे हैं जिनके कुलों में मन्त्र रचयिता ऋषियों की एक लम्बी परम्परा रही। ये कुल परंपरा ऋग्वेद के सूक्त दस मंडलों में संग्रहित हैं और इनमें दो से सात यानी छह मंडल ऐसे हैं जिन्हें हम परम्परा से वंशमंडल कहते हैं क्योंकि इनमें छह ऋषिकुलों के ऋषियों के मन्त्र इकट्ठा कर दिए गए हैं। 
सात ऋषि कुल ::  (1). वशिष्ठ, (2). विश्वामित्र, (3). कण्व, (4). भरद्वाज, (5). अत्रि, (6). वामदेव और (7). शौनक। 
विष्णु पुराण अनुसार इस मन्वन्तर के सप्तऋषि इस प्रकार है :- 
वशिष्ठकाश्यपो यात्रिर्जमदग्निस्सगौत।
विश्वामित्रभारद्वजौ सप्त सप्तर्षयोभवन्
सातवें मन्वन्तर में सप्तऋषि इस प्रकार हैं :- वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भरद्वाज।
इसके अलावा पुराणों की अन्य नामावली इस प्रकार है:- ये क्रमशः केतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ट तथा मारीचि है।
महाभारत में सप्तर्षियों की दो नामावलियां मिलती हैं। एक नामावली में कश्यप, अत्रि, भरद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वशिष्ठ के नाम आते हैं तो दूसरी नामावली में पांच नाम बदल जाते हैं। कश्यप और वशिष्ठ वहीं रहते हैं पर बाकी के बदले मरीचि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह और क्रतु नाम आ जाते हैं। कुछ पुराणों में कश्यप और मरीचि को एक माना गया है तो कहीं कश्यप और कण्व को पर्यायवाची माना गया है। यहां प्रस्तुत है वैदिक नामावली अनुसार सप्तऋषियों का परिचय।
कण्व :: माना जाता है इस देश के सबसे महत्वपूर्ण यज्ञ सोमयज्ञ को कण्वों ने व्यवस्थित किया। कण्व वैदिक काल के ऋषि थे। इन्हीं के आश्रम में हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत की पत्नी शकुंतला एवं उनके पुत्र भरत का पालन-पोषण हुआ था।
वामदेव :: वामदेव ने इस देश को सामगान (अर्थात् संगीत) दिया। वामदेव ऋग्वेद के चतुर्थ मंडल के सूत्तद्रष्टा, गौतम ऋषि के पुत्र तथा जन्मत्रयी के तत्ववेत्ता माने जाते हैं।
शौनक :: शौनक ने 84 हजार विद्यार्थियों के गुरुकुल को चलाकर कुलपति का विलक्षण सम्मान हासिल किया और किसी भी ऋषि ने ऐसा सम्मान पहली बार हासिल किया। वैदिक आचार्य और ऋषि जो शुनक ऋषि के पुत्र थे।
ऋषि RISHI :: ऋग्वेद के मन्त्रद्रष्टा ऋषियों की सँख्या 403 है।
ऋषियों की श्रेणियाँ :: 
(1). एकाकी :: वेद मन्त्रों को प्रकट करने में जिन ऋषियों के परिवारके किसी सदस्य ने कोई सहयोग नहीं किया वे एकाकी कहे गए हैं। इनकी सँख्या 88 है। 
(2). पारिवारिक :: ये ऋषि वे हैं, जिन्हें इस कार्य में उनके परिवार के सदस्यों का सहयो मिला। इनकी अगली पीढ़ियों में भी वेदाविर्भाव-कार्य की क्रम बद्ध परम्परा चलती रही। इनकी गणना है।
सप्तर्षी ऋग्वेद के नवम मण्डल के 107वें तथा दशम मण्डल के 137वें सूक्तों के द्रष्टा हैं। ये हैं :- (1). गोतम, (2) भरद्वाज, (3) विश्वामित्र, (4) जमदग्नि, (5) कश्यप, (6) वसिष्ठ तथा (7) अत्रि। इनमें गोतम परिवार के 4, भरद्वाज के 11, विश्वामित्र के 11, जमदग्नि के 2, कश्यप के 10, वसिष्ठ के 13 तथा अत्रि परिवार के 38 ऋषि हैं। अन्य परिवार प्रकारान्तर में उन्हीं के कुटुम्बी या सम्बन्धी हैं।
इन सात परिवारों का समावेश मुख्य तया चार ही परिवारों में है :- आङ्गिरस, भार्गव, काश्यप और आत्रेय। 
इनमें भी अधिक परिवार वाले आङ्गिरस ही हैं। इनकी सँख्या 56 है। गौतम तथा भारद्वाजों का अन्तर्भाव इन्हीं में है। वैश्वामित्र और जामदग्न्य परिवार का समावेश भार्गवों में है। वसिष्ठ परिवार काश्यप के अन्तर्भूत है। आत्रेय परिवार बिलकुल स्वतंत्र है। 
प्रजापति ने यज्ञ द्वारा तीन पुत्र उत्पत्र किये :- भृगु, अङ्गिरा तथा अत्रि। भृगु के पुत्र हुए कषि, च्यवन आदि। भृगु के ही एक पुत्र थे ऋचीक, जिनके बनाये हुए चरओं के भक्षण से गाधिपुत्र विश्वामित्र तथा स्वयं ऋचीक जमदग्नि का जन्म हुआ। जमदग्नि के पुत्र परशुराम गया विश्वामित्र के पुत्र मधुच्छन्दा थे। अपने सौ भाइयों मधुच्छन्दा का प्रमुख स्थान था। मनुछन्दा के दो पुत्र थे :- जेता और अघमर्षण। अतः वैश्वामित्र परिवार भार्गव परिवार से अलग नहीं है। 
भरद्वाज :: Rishi Bhardwaj was the grand son of sage Vrahaspati. His father's name was Shanyu (शंयु), who was the son of Dev Guru Vrahspati. Dev Guru Vrahaspati was the son of Rishi Angira. Angira, Vrahaspati and Bhardwaj are recognised as Trey Rishi. Mahrishi Angira, was the elder son of the creator Bhagwan Brahma. 
अङ्गिरा के दो पुत्र थे उतथ्य (उचथ्य) तथा बृहस्पति। बृहस्पति के चार पुत्र हुए :- भरद्वाज, अग्नि, तपुया और शंयु। भरद्वाज के ही पुत्र थे पायु जिनकी कृपा से राजा अभ्यावर्ती तथा प्रस्तोक युद्ध में विजयी हुए थे। बृहस्पति के ज्येष्ठ भ्राता उतथ्य के पुत्र दीर्घतमा थे और दीर्घतमा के कक्षीवान्। 
कक्षीवान के घोषा कक्षीवती नाम की कन्या तथा शबर और सुकीर्ति नामक दो पुत्र थे। घौषेय, सुहस्त्य कक्षीवान के दौहित थे। इस प्रकार भरद्वाज परिवार आङ्गिरस परिवार की शाखा ही है। 33 सदस्यों वाले जिस काण्व परिवार का ऋग्वेद के अष्टम मण्डल में विशेष प्रभाव है, वह आङ्गिरसों का ही अङ्ग है, क्योंकि उस परिवार के मूल पुरुष कण्वके पिता घोर आङ्गिरस ही थे।
बृहस्पति के पुत्र भरद्वाज ने यंत्र सर्वस्व नामक ग्रंथ की रचना की थी, जिसमें विमानों के निर्माण, प्रयोग एवं संचालन के संबंध में विस्तारपूर्वक वर्णन है। ये आयुर्वेद के ऋषि थे तथा धन्वंतरि इनके शिष्य थे।
वैदिक ऋषियों में भरद्वाज-ऋषि का उच्च स्थान है। भरद्वाज के पिता शंयु देव गुरु बृहस्पति के पुत्र थे। भरद्वाज ऋषि राम के पूर्व हुए थे, लेकिन एक उल्लेख अनुसार उनकी लंबी आयु का पता चलता है कि वनवास के समय श्री राम इनके आश्रम में गए थे, जो ऐतिहासिक दृष्टि से त्रेता-द्वापर का सन्धिकाल था। माना जाता है कि भरद्वाजों में से एक भारद्वाज विदथ ने दुष्यन्त पुत्र भरत का उत्तराधिकारी बन राजकाज करते हुए मन्त्र रचना जारी रखी।
ऋषि भरद्वाज के पुत्रों में 10 ऋषि ऋग्वेद के मन्त्रदृष्टा हैं और एक पुत्री जिसका नाम रात्रि था, वह भी रात्रि सूक्त की मन्त्रदृष्टा मानी गई हैं। ॠग्वेद के छठे मण्डल के द्रष्टा भरद्वाज ऋषि हैं। इस मण्डल में भरद्वाज के 765 मन्त्र हैं। अथर्ववेद में भी भरद्वाज के 23 मन्त्र मिलते हैं। 'भरद्वाज-स्मृति' एवं 'भरद्वाज-संहिता' के रचनाकार भी ऋषि भरद्वाज ही थे। ऋषि भरद्वाज ने 'यन्त्र-सर्वस्व' नामक बृहद् ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ का कुछ भाग स्वामी ब्रह्ममुनि ने 'विमान-शास्त्र' के नाम से प्रकाशित कराया है। इस ग्रन्थ में उच्च और निम्न स्तर पर विचरने वाले विमानों के लिए विविध धातुओं के निर्माण का वर्णन मिलता है।
गौतम परिवार भी आङ्गिरस परिवार से ही सम्बद्ध है। यह श्रृंखला इस प्रकार है :- अङ्गिरा, रहूगण, गौतम, वामदेव, वामदेव के भाई नोधा तथा नोधा के पुत्र एकद्यु।
वसिष्ठ परिवार का समावेश कश्यप परिवार में है। इस सम्बन्ध की द्योतक वंश परम्परा इस प्रकार है :- मरीचि, कश्यप, मैत्रावरुण, वसिष्ठ, शक्ति तथा पराशर।
अत्रि-परिवार स्वतन्त्र है। इनकी वंश बेल यह है :- अधि, भौम, अर्चनाना, श्यावाश्च तथा अन्धीगुश्पावाश्वि।
ये सभी प्रमुख पारिवारिक ऋषि 42 परिवारों  विभक्त हुए। 
I am trying to establish the link, since some vital links are missing. Some contradictions too are appearing but I am sure, I will be able to rectify all errors. Some errors are due to the Kalp & Manvantar in which a specific Rishi appeared and so there may be variations in the clan as well.
अंगिरा ऋषि :: ऋग्वेद के प्रसिद्ध ऋषि अंगिरा ब्रह्मा के पुत्र थे। उनके पुत्र बृहस्पति देवताओं के गुरु थे। ऋग्वेद के अनुसार, ऋषि अंगिरा ने सर्वप्रथम अग्नि उत्पन्न की थी।
विश्वामित्र ऋषि :: गायत्री मंत्र का ज्ञान देने वाले विश्वामित्र वेदमंत्रों के सर्वप्रथम द्रष्टा माने जाते हैं। आयुर्वेदाचार्य सुश्रुत इनके पुत्र थे। विश्वामित्र की परंपरा पर चलने वाले ऋषियों ने उनके नाम को धारण किया। यह परंपरा अन्य ऋषियों के साथ भी चलती रही।
ऋषि होने के पूर्व विश्वामित्र राजा थे और ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को हड़पने के लिए उन्होंने युद्ध किया था, लेकिन वे हार गए। इस हार ने ही उन्हें घोर तपस्या के लिए प्रेरित किया। विश्वामित्र की तपस्या और मेनका द्वारा उनकी तपस्या भंग करने की कथा जगत प्रसिद्ध है। विश्वामित्र ने अपनी तपस्या के बल पर त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया था। इस तरह ऋषि विश्वामित्र के असंख्य किस्से हैं।
माना जाता है कि हरिद्वार में आज जहां शांतिकुंज हैं उसी स्थान पर विश्वामित्र ने घोर तपस्या करके इंद्र से रुष्ठ होकर एक अलग ही स्वर्ग लोक की रचना कर दी थी। विश्वामित्र ने इस देश को ऋचा बनाने की विद्या दी और गायत्री मन्त्र की रचना की जो भारत के हृदय में और जिह्ना पर हजारों सालों से आज तक अनवरत निवास कर रहा है। 
ऋषि होने के पूर्व विश्वामित्र राजा थे और ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को हड़पने के लिए उन्होंने युद्ध किया था, लेकिन वे हार गए। इस हार ने ही उन्हें घोर तपस्या के लिए प्रेरित किया। विश्वामित्र की तपस्या और मेनका द्वारा उनकी तपस्या भंग करने की कथा जगत प्रसिद्ध है। विश्वामित्र ने अपनी तपस्या के बल पर त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया था। इस तरह ऋषि विश्वामित्र के असंख्य किस्से हैं।
वशिष्ठ ऋषि :: ऋग्वेद के मंत्रद्रष्टा और गायत्री मंत्र के महान साधक वशिष्ठ सप्त ऋषियों में से एक थे। उनकी पत्नी अरुंधती वैदिक कर्मो में उनकी सहभागी थीं।
राजा दशरथ के कुलगुरु ऋषि वशिष्ठ को कौन नहीं जानता!? ये दशरथ के चारों पुत्रों के गुरु थे। वशिष्ठ के कहने पर दशरथ ने अपने चारों पुत्रों को ऋषि विश्वामित्र के साथ आश्रम में राक्षसों का वध करने के लिए भेज दिया था। कामधेनु गाय के लिए वशिष्ठ और विश्वामित्र में युद्ध भी हुआ था। वशिष्ठ ने राजसत्ता पर अंकुश का विचार दिया तो उन्हीं के कुल के मैत्रावरूण वशिष्ठ ने सरस्वती नदी के किनारे सौ सूक्त एक साथ रचकर नया इतिहास बनाया।
कश्यप ऋषि :: मारीच ऋषि के पुत्र और आर्य नरेश दक्ष की 13  कन्याओं के पुत्र थे। स्कंद पुराण के केदारखंड के अनुसार, इनसे देव, असुर और नागों की उत्पत्ति हुई।
जमदग्नि ऋषि :: भृगुपुत्र यमदग्नि ने गोवंश की रक्षा पर ऋग्वेद के 16  मंत्रों की रचना की है। केदारखंड के अनुसार, वे आयुर्वेद और चिकित्साशास्त्र के भी विद्वान थे।
अत्रि ऋषि :: सप्तर्षियों में एक ऋषि अत्रि ऋग्वेद के पांचवें मंडल के अधिकांश सूत्रों के ऋषि थे। वे चंद्रवंश के प्रवर्तक थे। महर्षि अत्रि आयुर्वेद के आचार्य भी थे।
ऋग्वेद के पंचम मण्डल के द्रष्टा महर्षि अत्रि ब्रह्मा के पुत्र, सोम के पिता और कर्दम प्रजापति व देवहूति की पुत्री अनुसूया के पति थे। अत्रि जब बाहर गए थे तब त्रिदेव अनसूया के घर ब्राह्मण के भेष में भिक्षा मांगने लगे और अनुसूया से कहा कि जब आप अपने संपूर्ण वस्त्र उतार देंगी तभी हम भिक्षा स्वीकार करेंगे, तब अनुसूया ने अपने सतित्व के बल पर उक्त तीनों देवों को अबोध बालक बनाकर उन्हें भिक्षा दी। माता अनुसूया ने देवी सीता को पतिव्रत का उपदेश दिया था।
अत्रि ऋषि ने इस देश में कृषि के विकास में पृथु और ऋषभ की तरह योगदान दिया था। अत्रि लोग ही सिन्धु पार करके पारस (आज का ईरान) चले गए थे, जहां उन्होंने यज्ञ का प्रचार किया। अत्रियों के कारण ही अग्निपूजकों के धर्म पारसी धर्म का सूत्रपात हुआ। अत्रि ऋषि का आश्रम चित्रकूट में था। मान्यता है कि अत्रि-दम्पति की तपस्या और त्रिदेवों की प्रसन्नता के फलस्वरूप विष्णु के अंश से महायोगी दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा तथा शंकर के अंश से महामुनि दुर्वासा महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया के पुत्र रूप में जन्मे। ऋषि अत्रि पर अश्विनीकुमारों की भी कृपा थी।
अपाला ऋषि :: अत्रि एवं अनुसुइया के द्वारा अपाला एवं पुनर्वसु का जन्म हुआ। अपाला द्वारा ऋग्वेद के सूक्त की रचना की गई। पुनर्वसु भी आयुर्वेद के प्रसिद्ध आचार्य हुए।
नर और नारायण ऋषि :: ऋग्वेद के मंत्र द्रष्टा ये ऋषि धर्म और मातामूर्ति देवी के पुत्र थे। नर और नारायण दोनों भागवत धर्म तथा नारायण धर्म के मूल प्रवर्तक थे।
ऋषि महर्षि पराशर MAHARISHI PARASHAR :: Maharishi  Parashar was an authority over Rig Ved. He authored of many ancient Indian texts on spirituality & Astrology. His treatise Jyotish Shastr Brahat Parashari Hora Shastr is admired by the enlightened astrologers.
He was the grandson of Vashishth-Mans Putr of Brahma Ji. 
There was always a clash of ego between Vashishth Ji and Vishwamitr. Vishwamitr acquired ascetic powers through ascetic practices but no match to Vashishth Ji as was declared by Bhagwan Shesh Nag when they both went to him to settle the issue of ascetic practices and decent company (auspicious, righteous, virtuous company).
Vishwamitr had killed 10 sons of Vashishth Ji but Vashishth Ji did not try to to take revenge from him.
Parashar was the son of Shakti-Vashishth's son.
Vashishth Ji granted him Brahm Gyan, gist of Ultimate knowledge-enlightenment. 
He fathered by Bhagwan Ved Vyas when Saty Wati-born from a fish, was carrying him in a boat across the Maa Ganga.
It all happened due to the destiny. Bhagwan Ved Vyas is an incarnation of Bhagwa Shri Hari Vishnu. 
Parashar gave her the boon of continued virginity, continued protection and affection of her father and created a thick fog that reduced the visibility to zero. It so happened that they were near a riverine island and through their union, Ved Vyas was born instantly (not after 9 months as usual), grew up to be an adult immediately and took leave of his parents and left for Tapasya with an assurance to his mother that whenever she needs his help, she should just remember him and he would manifest himself before her.
Because he was born on an island, he came to be known as Krashn Dwaepayan (Dweep-island), Krashn because he was dark complexioned (being an incarnation of Bhagwan Shri Hari Vishnu, who is also Megh Shyam), Parashar (son of Parashar) and Ved Vyas because he took birth to divide the Ved and make them accessible to the humans in the coming ages. ऋषि वशिष्ठ के पुत्र पराशर कहलाए, जो पिता के साथ हिमालय में वेदमंत्रों के द्रष्टा बने। ये महर्षि व्यास के पिता थे।
आकाश में सात तारों का एक मंडल नजर आता है उन्हें सप्तर्षियों का मंडल कहा जाता है। 
उक्त मंडल के तारों के नाम भारत के महान सात संतों के आधार पर ही रखे गए हैं। वेदों में उक्त मंडल की स्थिति, गति, दूरी और विस्तार की विस्तृत चर्चा मिलती है। 
प्रत्येक मनवंतर में सात सात ऋषि हुए हैं।
वेदों के अनुवादक ऋषि :: ऋग्वेद में लगभग एक हजार सूक्त हैं, लगभग दस हजार मन्त्र हैं। चारों वेदों में करीब बीस हजार हैं और इन मन्त्रों के रचयिता कवियों को हम ऋषि कहते हैं। बाकी तीन वेदों के मन्त्रों की तरह ऋग्वेद के मन्त्रों की रचना में भी अनेकानेक ऋषियों का योगदान रहा है। 
पर इनमें भी सात ऋषि ऐसे हैं जिनके कुलों में मन्त्र रचयिता ऋषियों की एक लम्बी परम्परा रही। ये कुल परंपरा ऋग्वेद के सूक्त दस मंडलों में संग्रहित हैं और इनमें दो से सात यानी छह मंडल ऐसे हैं जिन्हें हम परम्परा से वंशमंडल कहते हैं क्योंकि इनमें छह ऋषिकुलों के ऋषियों के मन्त्र इकट्ठा कर दिए गए हैं। 
वेदों का अध्ययन करने पर जिन सात ऋषियों या ऋषि कुल के नामों का पता चलता है वे नाम क्रमश: इस प्रकार है:- (1). वशिष्ठ, (2). विश्वामित्र, (3). कण्व, (4). भरद्वाज, (5). अत्रि, (6). वामदेव और (7). शौनक। 
पुराणों में सप्त ऋषि के नाम पर भिन्न-भिन्न नामावली मिलती है। विष्णु पुराण अनुसार इस मन्वन्तर के सप्तऋषि इस प्रकार है :- 
वशिष्ठकाश्यपो यात्रिर्जमदग्निस्सगौत।
विश्वामित्रभारद्वजौ सप्त सप्तर्षयोभवन्
सातवें मन्वन्तर में सप्तऋषि इस प्रकार हैं:- वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भरद्वाज।
इसके अलावा पुराणों की अन्य नामावली इस प्रकार है :- ये क्रमशः केतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ट तथा मारीचि है।
महाभारत में सप्तर्षियों की दो नामावलियां मिलती हैं। एक नामावली में कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वशिष्ठ के नाम आते हैं तो दूसरी नामावली में पांच नाम बदल जाते हैं। कश्यप और वशिष्ठ वहीं रहते हैं पर बाकी के बदले मरीचि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह और क्रतु नाम आ जाते हैं। 
कुछ पुराणों में कश्यप और मरीचि को एक माना गया है तो कहीं कश्यप और कण्व को पर्यायवाची माना गया है।
वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भरद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक, ये हैं वे सात ऋषि जिन्होंने इस देश को इतना कुछ दे डाला कि कृतज्ञ देश ने इन्हें आकाश के तारामंडल में बिठाकर एक ऐसा अमरत्व दे दिया कि सप्तर्षि शब्द सुनते ही हमारी कल्पना आकाश के तारामंडलों पर टिक जाती है।
इसके अलावा मान्यता हैं कि अगस्त्य, कष्यप, अष्टावक्र, याज्ञवल्क्य, कात्यायन, ऐतरेय, कपिल, जेमिनी, गौतम आदि सभी ऋषि उक्त सात ऋषियों के कुल के होने के कारण इन्हें भी वही दर्जा प्राप्त है। 
अवशिष्ट-एकाकी ऋषि नामावली :: अकृष्टा माषा:, अक्षो मौजवान्, आग्नेयो धिष्ण्या ऐश्वरा, अग्नि, अग्नि पावक:, अग्नि सौचीक:, अग्निहपतिः सहसः सुतः, अग्निर्यविष्टः सहस: सूत:, अग्निर्वैश्वानर:,  अग्निश्चाक्षुष:, अङ्ग औरव:, अत्रि साँख्य:, अदितिर्दाक्षायणी, अरुणो वैतहव्य:, आत्मा, आसङ्ग:, प्लायोगि:, उपस्तुतो, वार्ष्टिहव्य:, उरुक्षय, आमहीयव:, उर्वशी, ऋणंचयः, ऋषभो वैराजः शाक्वरो वा, ऋषयो दृष्टलिङ्गा:, कपोतो, नैर्ऋतः, कवष कवम ऐलूष:, कुल्मल बर्हिष शैलूषिः, गयः प्लातः, गोधा ऋषिका, जुहूर्ब्रह्मजाया, तान्व, पार्थ्य, त्रसदस्युः पौरुकुत्स्य:, त्रिशिरास्त्वाष्ट्र:, त्र्यरुणस्त्रैवृष्ण:, त्वष्टा गर्भकर्ता, दुवस्युर्वान्दनः, देवमुनिरिरैरंमद:, देवा: देवापिरार्ष्टिषेणः, द्युतानो मारुतिः, नद्यः, नारायण:, पणयोऽसुरा:, पृथुर्वैन्यः, पृश्नयोऽजाः, प्रजापतिः, प्रजापति: परमेष्टी:,  प्रजापतिर्वाच्यः, बृहस्पतिलौक्यः, भावयव्यः, भृगुर्वारुणिः, मत्स्य: सांमदः, मत्स्याः, मनुः सांवरणः, मनुराप्सवः, मरुत:, मान्धाता यौवनाश्चः, मुद्गलो भार्म्यश्वः, रोमशा:, लुशो धानाकः, वत्सप्रिर्भालन्दनः, वभ्रो वैखानसः, वरुण:, वशोऽश्व्यः, वसुमना रौहिदश्वः, वागाम्भृणी, विवस्वानादित्य:, विश्वमना वैयश्चः, विश्वावसुर्देवगन्धर्वः, वृशो जानः, वैखानसाः शतम्, शिबिरौशीनरः, श्रद्धा कामायनी, सप्त ऋषयः, सप्तिर्वाजम्भर:, सरमा देवशुनी, सिकता निवावरी, सुदा: पैजवनः, सुमित्रा वाध्य्रश्वः, सुवेदाः शैरीषिः, सूनुरार्भव:, सूर्या सावित्री तथा हविर्धान आङ्गिः।
ऋषि परिवारों की सदस्य सँख्या :: (1). आग्नेयः (4) :- कुमारः, केतु:, वत्स: तथा श्येन:। 
(2). आङ्गिरसः (56) :- अभिवर्त:, अहमीयू:, अयास्यः, उचथ्यः, उरुः, उर्धसद्मा, कुत्सः, कृतयशा:, कृष्ण:, घोर:, तिरश्चि:, दिव्यः, धरुणः, ध्रुव:,  भूषः, नृमेध:, पवित्रः, पुरुमीळहः, पुरुमेधः, पुरुहन्मा, पुरुदक्ष:, प्रभूवसुः, प्रियमेधः, बरुः, बिन्दुः, बृहस्पति:, भिक्षु:, मूर्धन्यान्, रहूगणः, वसुरोचिषः, विरूपः, विहव्यः, वीतहव्य:, व्यश्व:, शिशु:, श्रुतकक्षः, संवननः, संवर्तः, सप्तगु:, सव्य:,  सुकक्षः, सुदीतिः, हरिमन्तः, हिरण्यस्तूपः, अर्चन हैरण्यस्तूपः, शश्र्वत्याङ्गिरसः, विश्वाकः,  कार्ण्णि:, शकपूतो:, नार्मेधः, सिन्धुक्षित् प्रैयमेधः, दीर्घतमा ओचथ्यः, कक्षीवान् दैर्घतमसः, काक्षीवती घोषा, सुहस्तो घौषेषः शबर: काक्षीवतः तथा सुकीर्तिः काक्षीवतः।
(3). अत्रेयः (38) :- अत्रिभौमः, अर्चनानाः, अवस्यु:, ईष:, उरुचक्रि:, एव्यामरुत्, कुमारः, गयः, गविष्ठिर:, गातुः, गोपवन:, घुम्नः, द्वितः, पूरु:, पौरः, प्रतिक्षत्र, प्रतिक्षत्र:, प्रतिप्रभ:, प्रतिभानुः, बभ्रुः, बाहुवृक्त:, बुधः, यजत:, रातहव्यः, व्व्रि:, विश्वसामा, श्यावाश्वः, श्रुतवित्, सत्यश्रवाः, सदापृण:, सप्तध्रि:, ससः, सुतम्भरः, स्वस्ति:, वसूयव आग्रेयाः, अन्धीगुः श्यावाश्र्वि:, अपाला तथा विश्ववारा।
(4). आथर्वणः (2) :- बृहद्दिवः तथा भिषग्। 
(5). आपत्य: (3) :- त्रितः, द्वितः तथा भुवनः। 
(6). ऐन्द्रः (14) :- अप्रतिरथः, जयः, लव:, वसुक्रः, विमदः, वृषाकपिः, सर्वहरिः, इन्द्रः, इन्द्रो मुष्कवान्, इन्द्रो वैकुण्ठः, इन्द्राणी, इन्द्रस्य स्नुषा (वसुक्रपत्नी), इन्द्रमातरो देवजामयः तथा शची पौलोमी।
(7). काण्वः (33) :- आयुः, इरिम्बिठिः, कुरुसुतिः, कुसीदी, कृशः, त्रिशाोकः, देवातिथिः, नाभाकः, नारदः, गीपातथिः, पर्वत:, पुनर्वत्सः, पुष्टिगुः, पृषध्रः, प्रगाथ:, प्रस्कण्वः, ब्रह्मातिथिः, मातरिश्वाः, मेधातिथि:, मेध्यः, मेध्यातिथिः, वत्सः, शशकर्णः, श्रुष्टिगुः, सध्वंस, सुपर्णः, सोभरिः, कुशिकः सौभरः, अश्वसूकती काण्वायनः, गोषूक्ती  काण्वायन:, कलिः प्रागाथः, धर्मः प्रागाथः तथा हर्यतः प्रागाथः।
(8). काश्यपः (10) :- अधत्सारः, असितः, कश्यपो गरीचः, देवलः, निध्रुविः, भूतांशः, रेभः, रेभसून,  मेला तथा शिखण्डिन्याप्सरसी काश्यप्यौ।
(9). कौत्सः (2) :- दुर्मित्रः तथा सुमित्रः। 
(10). गौतम: (4) :- गोतमः, नोधाः, वामदेवः तथा एक द्युर्नोधस:।  
(11). गौपायनः (4) :- बन्धुः, विप्रबन्धुः, श्रुतबन्धु:, तथा सुबन्धु:।
(12). तापसः (3) :- अग्निः, धर्मः तथा मन्युः।
(13). दैवोदासि: (1) :- परुच्छेप:, प्रतर्दन: तथा अनानत: पारुच्छेपि:।   
(14). प्राजापत्य: (9) :- पतङ्ग:, प्रजावान्, यक्ष्मनाशनः, यज्ञ:, विमद:, विष्णुः, संवरण:, हिरण्यगर्भ: तथा दक्षिणा।   
(15). बार्हस्पत्य (4) :- अग्नि:, तपुर्मूर्धा, भरद्वाज: तथा शंयु:। 
(16). ब्राह्म: (2) :- ऊर्ध्वनाभा तथा रक्षोहा। 
(17). भारत: (1) :- अश्वमेधः, देववात: तथा देवश्रवा:। 
(18). भारद्वाजः (11) :- ऋजिश्वा, गर्ग:, नर:, पायु:, वसुः, शास:, शिरिम्बिठ:, शुनहोत्र:, सप्रथ:, सुहोत्र: तथा रात्रि:।
(19). भार्गव (14) :- इट:, कपि:, कृन्तु:, गृत्समदः, च्यवनः, जमदग्नि:, नेम:, प्रयोग:, वेन:,  सोमाहुति:,  स्यूमरश्मि:, उशना काव्य:,  कुर्मो गार्त्स्मद:  तथा रामो जामदग्न्य:।
(20). भौवन: (2) :- विश्वकर्मा तथा साधनः।
(21). माधुच्छन्दस: (2) :- अधमर्षण:, तथा जेता। 
(22). मानवः (4) :- चक्षुः, नहुष:,  नमः, गाभारदिशः 
(23). मैत्रावरुणिः (2) :- वशिष्ठ: तथा अगस्त्य: (मान्य)। 
(24). आगस्त्यः (5) :- अगस्त्यशिष्या, अगस्त्यपत्नी (लोपामुदा), अगस्त्यस्वसा (लोपायनमाता), दृळ्हच्युत:, इध्मवाहो दार्ढ़च्युत:। 
(25). यामायनः (7) :- ऊर्ध्वकृशन:,  कुमारः, दमनः, देवश्रवा:, मथितः, शङ्ख:, तथा  संकुसुत:।  
(26). वातरशन: (7) :-  ऋष्यशृङ्ग:, एतशः, करिक्रतः, जूति:, वातजूति:, विप्र जूतिः, तथा वृषाणकः। 
(27). वातायन: (2) :- अनिल तथा  उलः।
(28). वामदेव्यः (3) :- अंहोमुक्, बृहदुक्थ:  तथा मूर्धन्वान्।
(29). वारुणिः (2) :- भृगु: तथा सत्यघृति:।
(30). वर्षागिरः (6) :- अम्बरीषः, ऋजाश्व:, भयमानः, सहदेवः, सुराधा तथा सिन्धुद्वीप: (आम्बरीष:)।
(31). वासिष्ठः (13) :- इन्द्रप्रमतिः, उपमन्यु, कर्णश्रुत्, चित्रमहा, द्युम्नीकः, प्रथ:, मन्युः, मृळीकः, वसुक्र:, वृषगणः, व्याघ्रपात्, शक्ति: समा वसिष्ठपुत्रा:।
(32). वासुकः (2) :- वसुकर्णः तथा वसुकृत्।
(33). वैरूपः (4) :- अष्ट्रादंष्ट्र, नभ:प्रभेदनः, शतप्रभेदन: तथा सध्रिः
(34). वैवस्वत: (3) :- मनु:, यमः तथा यमी।
(35). वैश्वामित्रः (12) :- कुशिक ऐषीरथिः (विश्वामित्र पूर्वज:), विश्वामित्रो गाधिन:, अष्टकः, ऋषभः, कतः, देवरातः, पूरणः, प्रजापतिः, मधुच्छन्दाः, रेणुः, गाथी कौशिक: तथा उत्कीलः कात्यः।
(36). शाक्त्यः (2) :- गौरवीतिः तथा पाराशर:। 
(37). शार्ङ्गः (4) :- जरिता, द्रोण:, सारिसृक्वः तथा स्तम्बमित्रः।
(38). सर्पः (4) :- अर्बुद: काद्रवेय:, जरत्कर्ण ऐरावत:, ऊर्ध्वग्रावा आर्बुदि: तथा सार्पराज्ञी।
(39). सौर्य: (4) :- अभितपाः, धर्मः, चक्षुः तथा विभ्राट्। 
(40). सौहोत्रः (2) :- अजमीळह: तथा पुरुमीळहः।
(41). स्थौरः (2) :- अग्रियूतः तथा अग्नियूपः। 
(42).सोमपरिवार: (4) :- सोमः, बुधः, सौम्यः तथा पुरूरवा ऐकः (आयुः, नहुषः) ययातिर्नाहुषः। 
(43). ताक्ष्र्य: (2) :- अरिष्टनेमिः तथा सुपर्णस्ताक्ष्र्यपुत्र:।
अकृष्ट फलमूलानि वनवासरतः सदा।
कुरुतेऽहरहः श्राद्धमृषिर्विप्रः स उच्यते
बिना जोते हुए स्थान के फल, मूल खाने वाला (अर्थात ईश्वर की कृपा से प्राप्त हर भोजन से संतुष्ट होने वाला), निरन्तर वन से प्रेम रखने वाला और प्रतिदिन श्राद्ध करने वाला ब्राह्मण ऋषि कहलाता है।[चाणक्य नीति 11.14] 
The Brahman who solely depend over the fruits and roots of uncultivated lands having love-affection for the forests performing Shraddh (prayers, rites) pertaining to the Manes-Pitre is termed a Rishi-sage.
The sage, hermit, wanderer survives over the food he receives by the grace of God through alms, begging only once a day or the fruits, rhizomes & bulbs recovered-digged from the ground.

 
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